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________________ ३०२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे इत्याह-'एग' एक 'जोयणसहस्सं' योजनसहस्रम् 'उद्धं' ऊर्ध्वम् ‘उच्चत्तेणं' उच्चत्वेन अवशिष्टमायामविष्कम्भादिकम् 'जमगपमाणेणं' यमकप्रमाणेन-यमकनामकपर्वतप्रमाणेन ‘णेयव्वं' नेतव्यं-बोधपयं प्रापणीयं-बोध्यम् तथाहि-'अद्धाइज्जाइ जोयणसयाई उव्वेहेणं मूले एगं जोयणसहस्सं आयामविक्खंभेणं' एतच्छाया-अर्द्धवतीयानि योजनशतानि उद्वेधेन मूले एक योजनसहस्रम् आयामविष्कम्भेण, व्याख्या चास्य सुगमा, इत्यादि यमकपर्वतप्रमाणेनास्योद्वेधादि बोध्यम, अस्य हरिस्सहकूटस्याधिपतेरन्य राजधानीतो दिक्प्रमाणाधैर्विशेषो राजधान्यामिति तां राजधानीवक्तुकाम आह-'रायहाणी' राजधानी अग्रे वक्ष्यमाणा हरिस्तहाभिधाना 'उत्तरेणं' उत्तरेण-उत्तरस्यां दिशि, एतदेव विशदयति-'असंखेज्जे' असंख्येयान्संख्यातुमशक्यान् 'दीवे' द्वीपान् अस्याग्रेतनेन "अवमाह्य" इत्यनेन सम्बन्धः, इदमुपलक्षम्तेन "मंदरस्स पब्वयस्स उत्तरेणं तिरियमसंखेज्जाइ दीवसमुद्दाई वीईवइत्ता" इदं ग्राह्यम्, है । 'एगं जोयणसहस्सं' वह एक हजार योजन 'उद्धं' ऊपर की ओर 'उच्चत्तेणं' ऊंचा है। शेष आयाम विष्कंभादिक 'जमगपमाणेणं' जमक नाम के पर्वत के आयाम विष्कंभ के समान 'णेयव्य' जान लेवें । जो इस प्रकार से है-'अद्वाहज्जाई जोयणसयाई उव्वेहेणं मूले एगं जोयणसहस्सं आयामविक्खंभेणं ढाईसो योजन का उसका उद्वेध है, मूल में एक हजार योजन इसका आयाम विष्कंभ कहा है । इत्यादि समग्र कथन यमक पर्वत के कथनानुसार समझ लेवें। इस हरिस्सहकूट केअधिपति की राजधानी के कथन में अन्य राजधानी से दिकूप्रमाणादि से विशेषता है अतः उस राजधानी का कथन करते हैं-रायहाणी' इसकी राजधानी हरिस्सहा नामकी 'उत्तरेणं' इत्तर दिशा में 'असंखेज्जे' असंख्यात 'दीवो' द्वीपों को 'अवगाहन करके ऐसा आगे सम्बन्ध आता है यह द्वीप पद उपलक्षण है अतः 'मंदस्स पवयस्स उत्तरेणं तिरियमसंखेज्जाइं दीव. समुहाई वीईवइत्ता' यह पाठ ग्रहण होता है ? मन्दर पर्वत की उत्तर दिशा में दूट 'पण्णत्त' ४ छ. 'एगं जोयणसहस्सं' से छूट से 8M२ या 'उद्ध' उपनी सानु 'उच्चत्तेण' ये छे. मानु मायाम qिuia विगेरे 'जमगपमाणेण' यम नामना - तना पायाभ मिनी सरभु णेथव्व' सभ9 . २ मा प्रभा छे–'अद्धःइज्जाई जोयणसयाई उज्वेहेणं मूले एगं जोयणसहसं आयामविक्खंभेण' पढिसे। यान रे। તેને ઉધ છે. વિગેરે તમામ કથન યમક પર્વતના કથનાનુસાર સમજી લેવું. રાજધાનીના કથનમાં આ હરિસ્સહ કૂટના અધિપતિની અન્ય રાજધાનીથી દિક્ પ્રમાણાદિથી વિશેષપણું तथा से धानानु ४थन ४२वामा माछ.-'रायहाणी' सनी २४धानी रिस्स। नामनी 'उत्तरेण' उत्तर दिशामा 'असंखेज्जे' मसच्यात 'दीवे' दीवाने अति शन से प्रभारी माग स माव छ. २मा दी५ ५६ GAक्ष छे. तेथी 'मंदरस्स पव्यय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003155
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages798
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size24 MB
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