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________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २५ हरिस्सहकूटनिरूपणम् ३०३ एतच्छाया-'मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरेण तिर्यगसंख्येयान् द्वीपसमुद्रान् व्यतिव्रज्य' इति एतस्य व्याख्या स्पष्टा नवरम् व्यतिव्रज्य-अतिक्रम्य 'अण्णंमि' अन्यस्मिन् 'जंबुद्दीवे' जम्बूद्वीपे 'दीवे' द्वीपे 'उत्तरेणं उत्तरेण-उतरस्यां दिशि 'बारस' द्वादश 'जोयणसहस्साई' योजनसहस्राणि द्वादशसहस्रयोजनानीति मुकुलितार्थः, 'ओगाहित्ता' अवगाह्य-प्रविश्य 'एत्थ' अत्र-अत्रान्तरे 'ण' खलु 'हरिस्सहस्स' हरिस्सहस्य-एतनामकस्य 'देवस्स' देवस्य-हरिस्सहकूटाधिपस्य 'हरिस्सहा' हरिस्सहा 'णाम' नाम 'रायहागी' राजधानी 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ता, तस्या मानमाह-'चउरासीइ चतराशीति 'जोयणसहस्साई' योजनसहस्राणि 'आयामविक्खंभेग' आयामविष्कम्भेण-दैर्ध्य विस्ताराभ्याम् 'वे' द्वे 'जोयणसयसहस्साई' योजनशतसहस्रेयोजनलक्षे 'पण्णार्टि' पञ्चषष्टि 'च' च 'सहस्साई' सहस्राणि-योजनसहस्राणि 'छच्च' षट् च 'छत्तीसे' पत्रिंशानि-पत्रिंशदधिकानि 'जोयणसए' योजनशतानि 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण-परिधिना प्रज्ञप्तेति पूर्वेण सम्बन्धः, 'सेस' शेषम्-अवशिष्टम् उच्चखोद्वेधादिकम् - 'जहा' यथा-येन प्रकारेण 'चमरचंचाए' चमरचश्चाया:-'रायहाणीए' राजधान्याः चमरेन्द्रतिरछे असंख्यात द्वीप समुद्रों को उल्लंघन करके 'अण्णंमि' दूसरे जवुद्दीवे' जंधु द्वीप नाम के 'दीवे' द्वीप में 'उत्तरेणं' उत्तर दिशा में 'वारस जोयणसहस्साई' बारह हजार योजन 'ओगाहित्ता' प्रवेश करके 'एत्व' यहां पर 'ण' निश्चय से 'हरिस्सहस्स देवस्स' हरिस्सह नाम के देवका 'हरिस्सहा णामं रायहाणी पण्णत्ता' हरिस्सहा नामकी राजधानी कही है। अब इसका प्रमाण कहते हैं-'चउरासीइं जोयणसहस्साई' चोरासी हजार योजन 'आयाम विक्खंभेणं' उसकी लंबाई चोडाई कही है। 'बे जोयणसयसहस्साई' दो लाख योजन'पण्णडिं च सहस्साई पैंसठ हजार 'छच्च छत्तीसे'छत्तीस अधिक 'जोयणसए' छसो योजन 'परिक्खेवेणं' ईसका परिक्षेप कहा है । 'सेस' बाकिका समग्र कथन अर्थात् उच्चत्व उद्वेधादिक 'जहा' जैसा 'चमरचंचाए' चमस्स उत्तरेणं तिरियमसंखेज्जाई दीवसमुदाई वीईवइत्ता' मा ५४ अ याय छे. भन्६२ पतनी उत्तर दिशामा तिमिस च्यात द्वीप समुद्रीन सागीर 'अण्णमि' गीत 'जंबूहोवे' दी५ नामना 'दीवेद्वीपमा उत्तरेण' उत्तर दिशामा 'बारस जोयणमहस्साई' मार १२ यान 'ओगाहित्तो' प्रवेश परीने 'एत्थ' शडीयो 'ण' निश्चयथा 'हरिस्सहस्स देवस्स' हरिस्सर नामनावनी 'हरिस्सहा णामं रायहाणी पण् गत्ता' रिडी नामनी ॥धानी ४हेस छे. व तेनु प्रभा मतावामां आवे छे.-'चउरासीई जोयणसरस्साइ' यार्याशी संपर यो- 'आयामविक्ख भेण' तेनी मा पा डेसी छे. 'बे जोयणसयसहस्साइ' २ en५ योन 'पण्णद्धिं च सहस्साई' पांसर 'छच्च छत्तीसे' छत्रीस पधारे 'जोयण सए' सो यौन परिक्खेवेण' तेना परिक्ष५ ४३ छ. 'सेस' मादीनु समय ४थन अर्थात् या पाहि 'जहा' र 'चमरचंचाए' यभ२ या नामानी रायहाणीए' २०४पानानु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003155
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages798
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size24 MB
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