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________________ ३८८ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे अथैषां वत्सादि विजयानां स्थानक्रमं प्रदर्शयितुमाह-विच्छाणंतरं' इत्यादि-वत्सानन्तरं वत्सस्य वत्सनामकविजयस्य अनन्तरं-परम् 'तिउडे' निकूट:-त्रिकूटनामको वक्षस्कारपर्वतोऽस्ति स च पश्चिमतो बोध्यः 'तो' ततः-त्रिकूटानन्तरं 'छुपच्छे' सुबत्स:-सुवत्सनामकः 'विजए' विजयः 'एएणं' एतेन अनन्तरोक्तेन 'कमेणं' क्रमेण रीत्या 'तराजला' तप्तजला 'णई' नदी शेषं स्पष्टम् ॥मू० २९॥ अथ क्रमप्राप्त सौमनसाख्यं गजदन्तपर्वतं लक्षयितुमाह--'कहि णं भंते !' इत्यादि । मूलम्-कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वाले सोमणसे णामं वक्खारपव्वए पक्षण ?, गोयमा गिलहस्त बासहरपव्वयस्स उत्तरेणं मंदरस्स पव्ययस्स दाहियापुरस्थिमेणं मंगलवई विजयस्स पच्च. स्थिमेणं देवकुराए पुत्थिमेणं एत्थ जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे सोमणसे णामं वक्रवारपवए पष्णते, उत्तरदाहिणायए पाईणपड़ीणविस्थिपणे जहा मालवंते वश्वारपवए तहा, वरं सवरयणामए अच्छे जाव पडिरूवे, णिसहवासहरपवयंतेणं चतारि जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं चत्तारि गाऊयसयाई उठवेहेणं सेसं तहेव सव्वं णवरं अट्ठो से दिशा में त्रिकूट वक्षात्कार पर्वत है सुसीमा यहां राजधानी है इसका प्रमाण अयोध्या के जैसा ही है (वच्छाणंतरं तिउडे तओ सुवच्छे विजए एएणं कमेणं तत्तजला णई महावच्छे विजए वेसमणकूडे वक्खारपव्वए वच्छावई विजए मत्तजला णई) वत्स विजय के अनन्तर ही त्रिकूट नामका वक्षस्कार पर्वत है और यह पश्चिम दिशा में है त्रिकूट वक्षस्कार पर्वत के अनन्तर सुवत्स नामका विजय है इस अनन्तरोक्त क्रम के अनुसार तप्तजला नाम को नदी है इसके बाद महावत्स नामका विजय है उसके बाद वैश्रमणकूट है फिर वत्सावती विजय है बाद में मत्तजला नामकी नदी है इत्यादि रूप से ही आगे का यह कथन स्पष्ट रूप से जान लेना चाहिए ॥२९॥ प्रभाष भयोध्या २४ छ. 'वच्छाणंतरं तिउडे तओ सुवच्छे विजए एएणं कमेणं तत्त जलाणई महावच्छे विजए वेसमणकूडे वक्खारपाए वच्छावई विजए मत्तजला गई' વત્સ વિજય પછી જ ત્રિકૂટ નામક વક્ષસ્કાર પર્વત છે અને આ પશ્ચિમ દિશામાં છે. ત્રિકૂટ વક્ષસ્કાર પર્વત પછી સુવત્સ નામક વિજય છે. આ અનંતરોત કમ મુજબ તપ્ત જલા નામે નદી છે. ત્યાર બાદ મહાવત્સ નામક વિજય છે. ત્યાર બાદ વિશ્રમણ ફૂટ છે. પછી વસાવતી વિજય છે. ત્યાર બાદ મત્તલા નામક નદી છે. ઈત્યાદિ રૂપમાં શેષ કથન સમજી લેવું જોઈએ. ૨૯ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003155
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages798
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size24 MB
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