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________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे छाया-केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-हैमनतं वर्ष वर्षम् ?, गौतम ! क्षुद्रहिमवन्महाहिमबद्भयां वर्षधरपर्वताभ्यां द्विधातः समवगाढम् नित्यं हेम ददाति नित्यं हेम दत्त्वा नित्यं हेम प्रकाशयति, हैमवतोऽत्र देवो महद्धिको यावत् पल्योपमस्थितिकः परिवसति, तत् केनार्थन गौतम ! एवम्मुच्यते हैमवतं वर्ष हैमवतं वर्षम् ॥ सू० १०॥ टीका-'से केणढेणं भंते' इत्यादि-अथ तदनन्तरम् केन अर्थन कारणेन एवमुच्यते हैमवत वर्ष वर्षमिति १, भगवानाह-हे गौतम ! क्षुद्रहिमवन्महाहिमवद्भयां वर्षधरपर्वताभ्यां द्विधातः द्वयो दक्षिणोत्तरपार्श्वयोः समवगाढं संश्लिष्टम् ततो हिमवतादिदं हैमवतं क्षुद्रहिमवमहाहिमवतोरन्तरालस्थितं क्षेत्रम् ततश्च द्वाभ्यां ताभ्यां यथाक्रमं द्वयो दक्षिणोत्तरपार्श्वयोः कृतसीमाकमिति तदुभयसम्बन्धि तद्वर्ष निष्पद्यते, यद्वा-हैमवतं वर्ष नित्यं सततम् कालत्रयेऽपि हेम सुवर्ण ददाति निवासिभ्य आसनार्थ समर्पयति तत्र युग्मि मनुष्याणामुपवेशनाद्युप. 'से केणटेणं भंते ! एवं चुच्चइ हेमवए वासे २'-इत्यादि टीकार्थ-'से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ हेमवए वासे २' हे भदन्त ! आपने यह हैमवतू क्षेत्र है ऐसा नाम इसका किसकारण से कहा है उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा ! चुल्लहिमवंत महाहिमवंतेहिं वासहरपुठ्वएहिं दुहओ समवगूढे णिच्चं हेमं दलइ णिच्चं हेमं दलइत्ता णिच्चं हेमं पगासई' हे गौतम ! यह क्षेत्र क्षुद्रहिमवत्पर्वत और महाहिमवत् पर्वत उन दोनों वर्षधर पर्वतों के बीच में है इसलिये महाहिमवत्पर्वत की दक्षिणदिशामें और क्षहिमवत्पर्वत की उत्तर दिशा में होने के कारण उनका सम्बन्धी है ऐसे विचार से हैमवत इस प्रकार के सार्थक नामवाला कहा है तथा वहां के जो युगल मनुष्य हैं वे बैठने आदि के निमित्त हेममय शिलापट्टकों का उपयोग करते हैं इस कारण यह क्षेत्र ही उन्हें इन्हें देता है इस अभिप्राय से 'णिच्चं हेमं दलइ' ऐसा यहां उप‘से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ हेमवए वासे-२ इत्यादि। -'से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ हेमवए वासे-२' महत ! मायश्रीये 'मा भरत क्षेत्र छ. ये नाम शा ४१२९ था यु-गोयमा ! चुल्ल हिमवंतमहाहिमवंतेहिं वासहरपब्बएहि दुहओ समवगूढे णिच्चं हेमं दलइ णिच्च हेमं दलइत्ता णिच्चं हेम पगासइ, હે ગૌતમ! આ ક્ષેત્ર ક્ષુદ્રહિમવત્ પર્વત અને મહાહિમવત્ પર્વત એ બન્ને વર્ષધર પર્વતોના મધ્યભાગમાં છે. એથી મહાહિમવત્ પર્વતની દક્ષિણ દિશામાં અને શુદ્રહિમવત પર્વતની ઉત્તર દિશામાં હોવા બદલ આ ક્ષેત્ર તેમના વડે સીમા નિર્ધારિત હોવાથી તેની સાથે સંબંધ ધરાવે છે. એવા વિચારથી હૈમવતુ આ પ્રકારના સાર્થક નામવાળે કહેવામાં આવેલ છે. તેમજ ત્યાંના જે યુગલ મનુષ્ય છે તેઓ બેસવા વગેરે માટે હેમમય શિલા પટ્ટોને ઉપયોગ કરે છે, એથી “આ ક્ષેત્ર જ તેમને એ આપે છે એ અભિપ્રાયથી 'णिच्चं बेमं दलइ' से ही पयारथी डेवामां आवे छे तेभ यु भनुध्यान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003155
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages798
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size24 MB
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