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________________ २४४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे महोत्सवस्थानभूतायां 'बहु अभिसेक्के' बहु आभिषेक्यम्-अभिषेकयोग्यं 'भंडे' भाण्ड-पात्रं वक्तव्यम्, 'अलंकारियसभाए' अलङ्कारिक सभायाम्-अभिषिक्तदेवानां भूपणधारणस्थानरूपायां 'बहु अलंकारिय भंडें' बहु अलङ्कारिकमाण्डम्-अलङ्कारयोग्यं भाण्डं 'चिटई' तिष्ठन्ति, 'ववसाय सभासु' व्यवसायसभयो:-अलङ्क्तानां देवानां शुभाध्यवसायानुचिन्तनस्थानरूपयोः 'पुत्थयरयणा' पुस्तकरत्ने- उत्तमपुस्तके ततो 'णंदा पुक्खरिणीओ' नन्दा पुष्करिण्यौ 'बलि पेढा' बलिपीठे 'दो जोयणाई आयाम विक्खंभेणं' द्वे योजने आयाम-विष्कम्भेण-दैर्घ्यविस्ताराभ्याम्, अर्चनिकोत्तरकालं नवोत्पन्नदेवयोवलिविसर्जनपीठे अपि तथैव, 'जोयणं बाहल्लेणं' योजनं बाहल्येन-पिण्डेन 'जावत्ति' यावत्-यावत्पदेन-'सर्वरत्नमये अच्छे प्रासादीये दर्शनीये अभिरूपे, तत्र नन्दाभिधाने पुष्करिण्यौ च बलिक्षेपोत्तरकालं सुधर्मा. सभायां जिगमिषतोरभिनवोत्पन्नयोर्देवयोहस्तपादप्रक्षालनार्थे बोध्ये, अथ यथा सुधर्मसभातअभिनवोत्पन्न देवाभिषेक स्थानरूप 'बहु अभिसेक्के' अनेक अभिषेक योग्य 'भंडे' पात्र कहे हैं 'अलंकारियसभाए' अभिषेक देव के भूषण धारण स्थान रूप 'बहु अलंकारिय भंडे' अनेक अलङ्कार योग्य पात्र 'चिट्ठह' रखे हैं 'ववसायसभासु' अलंकार धारण किये हुवे देवों के शुभ अध्यवसाय का चिन्तन करने का स्थान रूप स्थल 'पुत्थयरयणा' उत्तम पुस्तकरत्न 'नंदा पुक्खरिणीओ' दो नन्दापुष्करिणी वावडी 'बलिपेढा' दो पलिपीठ 'दो जोयणाई आयाम विश्वंभेणं' वह बलिपीठ दो योजन के लंबाई चोडाई वाले हैं अर्चनिका काल के अनन्तर नया उत्पन्न हुवे देवके बलिरखनेका पीठ भी तथा 'जोयणं बाहल्लेणं' वह एक योजन का मोटाई वाला है 'जावत्ति' यहां यावत्पदसे सर्व रत्नमय अच्छा, प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप वहां नन्दा पुष्करिणी नामकी दो वावडी बलिरखने के अनन्तर सुधर्मा VA1 भाट छ. 'अभिसेगसभाए' a पछी अभिषे समय न ५.न थयेवानिषेध स्थान ३५ 'बहुअभिसेक्के' भने मलिषे योग्य 'भंडे' पात्रो ४ा छ, “अलंकारिय सभाए' मनिष रायस हेवना माभूषा धार ४२१:ना स्थान ३५ 'बहु अलंकारियमंडे' मन मार योग्य पात्र 'चिदुइ' रामेसा छे. 'ववसायसभासु २ ४२ धारण ४२ हेवाना शुभ सयवसायनु चिन्तन ४२वाना स्थान ३५ 'पुत्थयरयणा' उत्तम पुस्त४२त्न 'नंदा पुक्खरिणीओं मे नही ४२५ वा 'बलिपेढा' मेसिपी6 'दो जोयणाई आयाम विक्खंभेणं' से पसीपी में योगनरसी aiमी पडणी छे. मानस पछी नपा Surन येस हेवना मलि पाना पी8 ५५] त 'जोयण वाहल्लेणं' से मे४ योन २८मा विस्तारवाणु छ. 'जावत्ति' मी यावत्पथी सवरत्नमय. २०२७, प्रासाहीय, शશનીય, અભિરૂપ એ વિશેષણે ગ્રહણ થયેલ છે. ત્યાં નંદા પુષ્કરિણી નામની બે વા બલિ રાખ્યા પછી સુધર્માસભામાં જવાની ઈચ્છાવાળા અને નવા ઉત્પન્ન થયેલ દેવના હાથ પગ ધેવા માટે છે તેમ સમજવું. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003155
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages798
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size24 MB
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