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________________ ३३० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे अथैतदन्तर्वति सिन्धुकुण्डं विवर्णयि पुराह-'कहि णं भंते !' क्व खलु भदन्त ! 'जंबु. दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'महाविदेहे वासे' महाविदेहे वर्ष 'उत्तरद्ध कच्छे विजए' उत्तरार्द्धकच्छे विजये 'सिंधुकुंडे णामं कुंडे' सिन्धुकुण्डं नाम कुण्डं 'पण्णत्ते ?' प्रज्ञप्तः ?, इति प्रश्ने भगवानाह-'गोयमा !' गौतम ! 'मालवंतस्स' माल्यवतः 'वक्वारपव्ययस्स' वक्षस्कारपर्वतस्य पुरत्थिमेणं' पौरस्त्येन-पूर्वदिशि 'उसभकूडस्स' ऋषभकूटस्य 'पच्चत्थिमेणं' पश्चिमेन पश्चिमदिशि 'णीलवंतस्स' नीलवतः 'वासहरपव्ययस्स' वर्षधरपर्वतस्य 'दाहिणिल्ले' दाक्षिणात्ये-दक्षिणदिग्भवे 'णितंबे' नितम्बे-मध्यभागे मेखलारूपे 'एत्थ' अत्र अत्रान्तरे ‘णं' खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'महाविदेहे वासे' महाविदेहे वर्षे 'उत्तरकच्छविजए' समझलेवें, यह कहने के लिए सूत्रकार ने 'तहेव णेयव्वं सव्वं' उसी प्रकार अर्थात् दक्षिणार्द्धकच्छ के वर्णन के सदृश सब वर्णन समझलेवें यह पद दिया है। इसका आयाम विष्कंभ आदि सबवर्णन दक्षिणा कच्छ के कथनानुसार समझलेवे। ___अब उत्तराईकच्छविजय के अंतर्गत सिंधुकुंड का वर्णन करने की इच्छा से सूत्रकार कहते हैं-'कहि णं भंते !' हे भगवन् कहां पर 'जंबुद्दीवे दीवे जंबूद्वीप नाम के द्वीपमें 'महाविदेहे वासे' महाविदेह वर्षमें 'उत्तरद्धकच्छे विजए' उत्तरा कच्छ विजय में 'सिंधुकुंडे णामं कुडे' सिंधुकुड नामका कुंड 'पएणत्त' कहा है ? इस प्रश्न के उत्तर में महावीर प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा !' हे गौतम ! 'मालवंतस्स' माल्यवान् नाम के 'वक्खारपवयस्स' वक्षस्कार पर्वत की 'पुरस्थिमेणं' पूर्व दिशामें 'उसभडस्स' ऋषभकूट नाम के वक्षस्कार पर्वत के 'पच्चस्थिमेणं' पश्चिम दिशामें 'णीलवंतस्स' नीलवंत 'वासहरपवयस्स' वर्षधर पर्वत के 'दाहिणिल्ले दक्षिण दिशा के 'णितंबे मध्यभाग में-मेखलारूप में 'एत्थणं' यहां पर 'जंबुद्दीवे दीवे' जंबूद्वीप नाम के द्विपमें 'महाविदेहे वासे' महाविदेह તમામ વર્ણન સમજી લેવું. આ પદ આપેલ છે. આના આયામ વિખંભાદિ સઘળું વર્ણન દક્ષિણાર્ધ કચ્છના વર્ણન પ્રમાણે સમજી લેવું. હવે ઉત્તરાર્ધ કચ્છ વિજયની અંદર આવેલ સિંધુ કુંડનું વર્ણન કરવાની ભાવનાથી सूत्रार ४ छ-'कहि णं भंते !' भगवन् ४यां मा 'जंबुद्दीवे दोवे' दी५ नामना द्वीपमा 'महाविदेहे वासे' भविड वर्षमा 'उरद्धकच्छे विजए' उत्तराध ४२७ विन्यमा "सिंधुकुंडे णामं कुडे' सिंधु नामना हु 'पण्णत्ते' ४डस छ ? २॥ प्रशन उत्तरमा भवी२ प्रभुश्री ४ छे. 'गोयमा!' गौतम ! 'मालवंतस्स' मास्यवान् नमन। 'वक्खारपव्वयस्स' १क्ष२४१२ पतनी 'पुरथिमेणं' पूर्व दिशामा 'उसभकूडस्स' पम ट नामना पक्ष२४।२ पतनी ‘पच्चत्थिमेणं' पश्चिम दिशामा 'णीलवंतस्स' नासवत 'वासहरपव्वयस्स' व २ पतनी 'दाहिणिल्ले' क्षिा हिशाना 'णितंबे' मध्य भागमां-भेमा ३५मा 'एत्थ णं महीं मा 'जंबुद्दीवे दीवे' दी५ नामना दीपभा 'महाविदेहे वासे' महेिड Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003155
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages798
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size24 MB
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