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________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे दिग्वति सिंहासनेऽभिषेक इति द्वयोः सिंहासनयोः प्रपोजनम् । अव द्वितीयाभिषेकशिलां वर्णयितुमुपक्रमते-'कहि णं भंते !' इत्यादि-प्रश्नसूत्रं स्पष्टम् उत्तरसूत्रे 'मोयमा' गौतम ! 'मंदरचूलियाए' मन्दरचूलिकायाः 'दक्खिणेणं' दक्षिणेन दक्षिण दिशि पंडगवणदाहिणपरंत' पण्डकवनदक्षिणपर्यन्ते-पण्डकवनस्य दक्षिणसीमापर्यन्तभागे 'एत्थ' अन अन्तरे 'ण' खलु 'पंडगवणे' पण्डावने 'पंडुकंबलसिला णामं सिला' पाण्डुकम्बलशिला नाम शिला 'एण्णत्ता' प्रज्ञप्ता, सा च 'पाईगपडीणायया' प्राचीनप्रतीची नाऽऽयता पूर्वपश्चिम दिशो दीर्घा 'उत्तरदाहिणविस्थिण्णा' उत्तरदक्षिणविस्तीर्णा-उत्तरदक्षिणदिशो विस्तारयुक्ता, एतद्विशेषणद्वयं विहायापरं पूर्वोक्तमतिदिशति 'एवं तं चेव' एवम्-पूर्वोक्ताभिलापानुसारेण तदेव प्रागुक्तमेव 'पमाणं' प्रमाणं--एञ्चयो जनशतायामादिमानं भणितव्यं तथा 'वत्तव्वया' वक्तव्यता 'य' च 'भाणियव्या' भणितव्या सा च वक्तव्यता निम्पर्यन्ता ? इत्यपेक्षायामाह-'जाव तस्स णं' का अभिषेक दक्षिण दिग्चती सिंहासन पर होता है इस तरह यह दो सिंहासनों के होनेका प्रयोजन है 'कहिणं भंते ! पंडकवने पंडुकंबलसिला जामं सिला पण्णत्ता' हे भदन्त ! पंडकवन में पाण्डुकम्बल शिला नामकी द्वितीय शिला कहां पर कही गई है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! मन्दर चूलिआए दक्खिणेणं पंडगवणदाहिण पेरंते, एत्थणं पंडगवणे पंडुकंपलसिला णामं सिला पण्णत्ता' हे गौतम ! मन्दर चुलिका की दक्षिण दिशा में और पाण्डवन की दक्षिण सीमा के अन्त भाग में पण्डकवन में पाण्डकंबल शिला नामकी शिला कही गई है पाईण पडीणायया उत्तर दाहिण विच्छिण्णा एवं तं चेव पमाणवत्तव्वया य भाणियव्वा' यह शिला पूर्व से पश्चिम तक लम्बी है और उत्तर से दक्षिण तक विस्तृन है। इसका पंच योजन शत प्रमाण आयामादिका पूर्वोक्त अभिलाप के अनुसार कहलेना चाहिये यावत् इसका जो बहुसमरमणीय भूमिभाग है उसके बहुमध्य देशमें एक सिंहासन है यही बात 'जाव तत्सणं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स કરનો અભિષેક દક્ષિણ દિગ્દર્તી સિંહાસન ઉપર થાય છે. આ પ્રમાણે એ બે સિંહાસને ॥ भाटछ तेनु प्रयोग न २५७८ ४२वामा मासु छे. 'कहिणं भंते ! पंडगवणे पंडुकंबल सिला णामं सिला पण्णत्ता' ! ५७ वनमा पर शिक्षा नाम भी शिक्षा ४॥ २थणे आवसी छे ? कोना पाणमा प्रभु ४ छ-'गोयमा ! मन्दरचूलिओए दक्खि. णेणं पंडगवणदाहिणपरंते' एत्थणं पंडगवणे पंडुकंबलसिला णामं सिला पण्णत्ता' हे गौतम! મન્દર ચૂલિકાની દક્ષિણ દિશામાં અને પંડકવનની દક્ષિણ સીમાના અનુભાગમાં પંડકવનમાં घडी शिक्षा नामे Paat Pासी छे. 'पाईणपडीणा यया उत्तरदाहिणविच्छिण्णा एवं तं चेव पमाणवत्तवया य भाणियव्या' शिक्षा पूर्वथी पश्चिम सुधी सinी छे. मन उत्तरथी દક્ષિણ સુધી વિસ્તૃત છે. એના પંચ યેજન શત પ્રમાણુ આયામાદિ પ્રમાણ વિશે પૂર્વોક્ત અભિલાપ મુજબ સમજી લેવું જોઈએ. યાવત્ એને જે બહુ સમરમણીય ભૂમિભાગ છે, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003155
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages798
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size24 MB
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