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________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सृ. २१ यमका राजधान्योर्वर्णनम् वर्णकतो महेन्द्रध्वजवत् 'उपरि' उपरि 'छकोसे ओगाहित्ता' षट्क्रोशान् अवगाह्य-प्रविश्य उपरितनान् पट् क्रोशान वर्जित्वा विहाय 'हेडा' अधः-अधस्तादपि 'छकोसे वज्नित्ता' षट् क्रोशान् वर्जित्वा मध्येऽर्धपश्चमेषु योजनेषु इति गम्यम् , 'जिणसकहाआ' मिनसक्थीनिजिनकीकसानि 'पग्णत्तामोति प्रज्ञप्तानि इति, इह जिनसक्थिग्रहणे व्यन्तरजातीयानां देवानां नाधिकारो स्ति, किन्तु सौधर्मशानवमरवलीन्द्राणामेव तद्ग्रहणेऽधिकारोऽस्तीति जिनसक्थीनि-जिनदंष्ट्रारूप साथीनि तत्र निक्षिप्तानि प्रज्ञप्तानीति बोध्यम् , अशिष्टो वर्णकश्च जीवाभिगससूत्रोक्तो बोध्यः स चैवम् 'तस्स णं माणगचेयस खंभस्स उत्ररि छक्कोसे ओगाहित्ता हेवा वि नकोसे यजित्ता मज्झे अद्धपंचमेसु जोयणेसु एत्थ णं वहवे सुवण्णरुपमया फलगा पण्णता तेसु णं बहवे वइरामया णागदंतगा पण्णत्ता, तेसु णं यहवे रययामया सिकगा पण्णता, तेसु णं बहवे वइरामया गोवट्टसमुग्गया पण्णत्ता, तेसु णं बहवे जिणसकाहाओ सणि: विखत्ताओ चिटुंति, जाभी णं जमगाणं देवाणं अन्नेसिं च बहूणं वागमतराणं देशण य (उवरि छक्कोसे ओगाहित्ता) ऊपर के भाग में छ कोस जाने पर अर्थात् ऊपरका छ कोस के छोडकर एवं (हेहा छ कोसे वजित्ता) नीचेसेभी छह कोस वर्जित कर मध्य के साडे चार योजन में (जिण सकहाओ) जिन के साथी हड्डी (पण्णत्ताओ) कहें हैं यहां पर जिन सक्थी कहनेसे व्यन्तर जाती के देव का अधिकार नहीं है, किन्तु-सौधर्म, ईशान, चमर एवं बलीन्द्रका हो अधिकार आजाता है अतः 'जिन सक्थी' कहने से जिनकी दाढ रूपी हड्डी वहां रखी हुई है ऐसा समझ लेवे। शेष वर्णन जीवाभिम में कहे अनुसार समझ लेवें । वहां वह वर्णन इस प्रकार हैं-'तस्स णं माणवगचेश्यस्स वभस्म उवरि छक्कोसे ओगाहित्ता' हेहावि छ कोसे वज्जित्ता, मज्झे अद्ध पंचमेसु जोयणेसु एत्थ णं बहवे सुवाणरुपमया फलगा पणत्ता, तेसुबहवे वइरामयाणागदंतगा पण्णत्ता, तेलुणं बहवे वरामया गोलयवसमुग्गया पणत्ता, तेसुणं बहवे जिण सकहाओ सण्णिविग्नत्ताओ चिति, वाणे वगेरे महेन्द्र व प्रमाणे समन्यु 'उवरि छकोसे ओगाहित्ता' पनी त२३ छ उस पाथी अर्थात् ५२ना ७ ठोसने छोडीन एवं हेढा छक्कोसे वज्जित्ता' नीना छ उस छोडी क्या सा भार यापनमा 'जिणसकहाओ' सथ ( 881) 'पण्णत्ताओ' छ. गडीयान सथि ४ाथी ०५-१२ तिना वन अधि४२ नथी પરંતુ ઈશાન સૌધર્મ યમર અને બલીન્દ્રનેજ અધિકાર આવી જાય છે. તેથી જીનસકિથ કહેવાથી જીનની દાઢ રૂપ હાડકું ત્યાં રાખેલ છે તેમ સમજી લેવું. ત્યાં એ વર્ણન આ प्रभारी छ.-'तस्सणं माणवगचेइयरस खंभस्स उवरि छक्कोसे ओगाहित्ता हेट्टा वि, छक्कोसे. वज्जित्ता मज्झे अद्धपंचमेसु जोयणेसु एत्थणं बहवे सुवण्णरुपरमया प.लगा पण्णत्ता तेसु णं बहवे वइरामया णागदंतगा पण्णत्ता, तेसु णं बहवे रययामया सिक्कगा पण्णत्ता तेसु णं बहवे जिणसकहाओ सण्णिक्खित्ताओ चिटुंति जाओ णं जमगाणं देवोणं अन्नेसिच बहूणं बाणमतराणं देवाण य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003155
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages798
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size24 MB
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