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________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १२ महापद्महदस्वरूपनिरूपणम् १०५ इस जोयणाई उव्वे हेणं अच्छे रययामयकूले एवं आयामविक्खंभविहूणा जा चेव पउमद्दहस्स उत्तब्बया सा चेव णेयव्या' द्वे योजनसहरी आयामेन, एकं योजनसहस्रं विष्कम्भेन, दश पोजनानि उद्वेधेन अच्छः रजतमयक्लः, एवमायामविष्कम्भविधूता-विहीना यैव पद्मदस्य वक्तव्यता सैव नेतव्या। 'पउमप्पमाणं दो जोयणाई, अट्ठो जाव महापउमदहवण्णाभाई हिरी य इत्थ देवी जाव पलिओवमहिइया परिवसइ' पद्मप्रमाणं द्वे योजने, अर्थों यावदू महापद्महद वर्गाभानि ह्रीश्चात्र देवी यावत् पल्योपमस्थितिका परिवसति ‘से एएणटेणं गोयमा एवं वुच्चई' स एतेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते, 'अदुत्तरं च णं गोयमा ! महःपउमदहस्स सासए सहस्साई आयामेणं एगंजोयणसहस्सं विकावंभेणं दस जोयणाई उबेहेणं अच्छे रपयालय कूटे एवं आयाम विश्वंभ विहणा जा चेव पउमद्दहस्त वत्तव्यया सा चेव णेयव्वा' इसका आयाम दो हजार योजन का है और एक हजार योजन का इसका विष्कंभ है उद्वेध 'गहराई' इसका दस योजन का है यह आकाश और स्फटिक के जैसा निर्मल है रजतमय इसका कूल है इस तरह आयाम और विष्कंभ को छोडकर बाकी की सब वक्तव्यता यहां पद्मद्रह की वक्तव्यता जैसी ही है ऐसा जानना चाहिये 'पउमप्पमाण दो जोयणाइं अट्ठो जाव महापउमद्दह वण्णाभाई हिरी य इत्थ देवी जाव पलिओवमहिइया परिवसइ, से एएलट्टेणं गोयमा ! एवंचुच्चई' इसके बीचमे जो कमल है वह दो योजन का है महापद्महद्र के वर्ण जैसे अनेक पद्म आदि यहां पर है इस कारण हे गौतम ! मैने इसका नाम महापद्म हृद्र ऐसा कहा है इस सम्बन्ध में जो प्रश्न गौतमने किया है यह सब पीछे के प्रकरण में लिखा जा चुका है, अतः वहां से जानलेनाचाहिये -यह बात यहां आगत यावत् शब्द बतलाता है वहां पर ही नामकी देवी रहती जोयणसहस्सं विक्खंभेणं दस जोयणाई उज्वेहेणं अच्छे रययामयकूले एवं आयामविक्खंभ विहूणा जा चेव पउमदहस्स वत्तव्यया सा चेव णेयव्वा' मान। मायाम मे ११ योरन એટલે છે, અને એક હજાર એજન એટલે એને વિખંભ છે. ઊંડાઈ (ઉધ) એની દશ યોજન જેટલી છે. એ આકાશ અને સ્ફટિકવત્ નિર્મળ છે. એને કૂલ રજતમય છે. આ પ્રમાણે આયામ અને વિખંભને છોડીને શેષ બધી વક્તવ્યતા અહીં પાદ્રહની વક્તव्यता वा छे, मेवं सभा ने. 'पउमप्पमाणं दो जोयणाइं अट्ठो जाव महापउमद्दहवण्णाभाई हिरीय इत्थ देवी जाव पलिओवमद्विइया परिवसइ, से एएणट्रेणं गोयमा ! gવં એની મધ્ય ભાગમાં જે કમળ છે તે બે જન જેટલું છે. મહાપમહદના વર્ણ જેવા અનેક પ વગેરે અહીં છે. એથી હે ગૌતમ ! મેં એનું નામ મહાપદ્મ હદ એવું કહ્યું છે. આ સંબંધમાં જે પ્રશ્ન ગૌતમે કર્યો છે તે વિષે ગત પ્રકરણમાં ચર્ચા કરવામાં આવેલી છે. એથી જિજ્ઞાસુઓ ત્યાંથી જાણું લે એજ વાત અહીં પ્રયુક્ત થયેલ ચાવન શબ્દ પ્રકટ કરે છે. અહીં હી નામક દેવી રહે છે, યાવત્ એની એક પપસ ज० १४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003155
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages798
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size24 MB
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