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________________ २०२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे साई' सार्द्धक्रोशानि-क्रोशार्द्धसहितानि 'जोयणाई विवखंभेणं' योजनानि विष्कम्भेण, तो पुनरत एव 'मूले वित्थिण्णा' मूले विस्तीणौं-मध्योपरितनभागापेक्षया विस्तारवन्ती, 'मज्झे' मध्ये-मूलापेक्षया 'संखित्ता' संक्षिप्तौ-अल्पविस्तारवन्तौ, 'उप्पि तणुया' उपरि तनुकौ-मूलमध्यभागापेक्षया स्वल्पतरविस्तारयुक्तौ, 'बाहिं वट्टा' बहिः-वृत्तौ-वर्तुलाकारौ, अंतो' अन्तः-मध्ये-'चउरंसा' चतुरस्रा-चतुष्कोणाकारो, 'सव्वरयणामया' सर्वरत्नमयौसर्वात्मना रत्नमयो, 'अच्छा' अच्छौ प्राग्वत्, तयोः कपिशीर्षकवर्णकमाह-'तेणं' इत्यादि, 'ते णं' तौ-अनन्तरोक्तौ खलु 'पागारा' प्राकारौ णाणा विह पंचवण्णमणीहि' नानाविधपञ्चवर्णमणिभिः-नानाविधा:- पद्मरागमरकतस्फटिकाञ्जनदादि भेदाः पञ्चवर्णा:-कृष्णादिवर्णविशिष्टाः मणयो येषु तानि नानाविधपश्चवर्णमणीनि तैः 'कविसीसएहिं' कपिशीर्षकैःकपिशीर्षाकारैः प्राकाराङ्गः, 'उवसोहिया' उपशोभितौ-अलङ्कृतौ, एतदेव विवृणोति 'तं ऊपरके भागमें इसका विष्कंभ तीन योजन एवं डेढ कोसका है। इस प्रकारका विष्कंभ होने से वे यमक पर्वत ' मूले वित्थिण्णा' मूल की ओर विस्तृत अर्थात् मध्यभाग एवं ऊपरके भागसे विस्तार वाला है 'मज्झे संखित्ता' मध्यभाग मूल भागसे संकुचित है अर्थात् अल्पविस्तार वाला है 'उपि तणुया' ऊपरको भाग मूलभाग एवं मध्यभागसे स्वल्प विस्तार वाला है । ये प्रासाद 'वाहिं वहो' बाहर की बाजु वर्तुल आकार वाले हैं 'अंतो चउरंसा' मध्यभागमें चौरस आकार वाले हैं 'सव्वरयणामया' सर्वप्रकारसे रत्नमय है 'अच्छौ' स्वच्छ स्फटिक सदृश है इत्यादि विशेषण पहले के समान समज लेवें। अब इनके कपिशीर्ष-अग्रभागका वर्णन करते हैं-'तेणं' इत्यादि 'तेणे' आगे कहे गए 'पागारा' प्राकार 'णाणाविह पंचवण्णमणिहिं' अनेक प्रकारके पद्मरागादि पांच प्रकार के मणियों से 'कपिसीसएहिं' कपिशीर्ष के साई जोयणाई विक्खंभेणे' ७५२ना लामा तन Arra त्रय यमन मन ही न . ॥ हारने ४ि पाथी ते यम ५'त 'मूले वित्थिण्णा' भूभागमा विस्तार वाणा अर्थात् मध्यमा भने ७५२ना माथी विस्तारवाणी छे. 'मज्झे संखित्ता' मध्य भाग भूमाथी सis3. छ. मेट , ५८५ विस्तार वा छे. 'उप्पिं तणुया' ५२ने। मगर भूसमा अने भय मा ४२i यो विस्तारवाणी छे. 24 प्रा२ 'बाहिं वट्टे' महारथी वतु ॥२ छ. 'अंतो चउरंसा' मध्य भागमा यारस मा४।२१।। छे. 'सबरयणा मया' स ४२थी २त्नभय छे. 'अच्छे' २१२७ २६४ना वा छे. त्या विशेषण। પહેલાં કહ્યા પ્રમાણેના સમજી લેવાં व तेन पिशीष- नागनु पर्षन ४२वामां भाव छ. 'तेणं' त्या 'तेणं' पडसा ४ाई गये। 'पोगारा' प्रा४।२। 'णाणाविह पंचवण्णमणिहिं' भने प्रा. २॥ ५५॥३॥ पांय ४२ना 'मणहि' मणियोथी 'कविसीसएहिं' पिशीष न। मारवा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003155
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages798
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size24 MB
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