SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 298
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सु. २४ उत्तरकुरुनामादिनिरूपणम् २९६ धानी, एवं माल्यवतः कूटस्य उत्तरकुरुकूटस्य कच्छ कूटस्य, एतानि चत्वारि कूटानि दिग्भिः प्रमाणेः नेतव्यानि । क्व खलु भदन्त ! माल्यवति सागरकूटं नाम कूटं प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! कच्छकूटस्य उत्तरपौरस्त्येन रजतकूटस्य दक्षिणेन अत्र खलु सागरकूटं नाम कूटं प्रज्ञप्तम् पञ्च योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन अवशिष्टं तदेव सुभोगादेवी राजधानी उत्तरपौरस्त्येन रजत कूटं भोगमालिनी देवी राजधानी उत्तरपौरस्त्येन अवशिष्टानि कूटानि उत्तरदक्षिणेने नेतव्यानि एकेन प्रमाणेन सू०२४।। टीका-'से केणटेणं भंते !' इत्यादि-प्रश्न सूत्रं स्पष्टम् उत्तरसूत्रे-'गौयमा !' हे गौतम ! 'उत्तरकुराए' उत्तरकुरुषु मूले प्राकृतत्वादेकचनम् 'उत्तरकुरु णाम' 'उत्तरकुरुर्नाम 'देवे' देवः 'परिवसइ' परिवसति, स च कीदृशः ? इत्याह-'महद्धीए जाव पलिओवमहिइए' महर्द्धिको यावत् पल्योपमस्थितिक:-महद्धिक इत्यारभ्य पल्योपमस्थितिक इति-पर्यन्तपदानां तद्विशेषणतया संग्रहो यावत्पदेन बोध्यः-तथाहि-महर्द्धिकः, महाधुतिकः, महाबलः, महायशाः, महासौख्यः, महानुभावः, पल्योपमस्थितिकः, इति फलितम् एपां व्याख्याऽष्टमसूत्रादवगन्तन्या, 'से तेणटेण गोयमा! तत् तेनार्थेन गौतम ! ते-अनन्तरोक्ताः उत्तरकुरवः तेन-प्रागु ॥से केणटेणं भंते ! इत्यादि। टीका-'से केणटेणं भते! एवं वुच्चह' हे. भगवन् किस हेतु से ऐसा कहा गया है 'उत्तर कुरा उत्तरकुरा' अर्थात् उत्तरकुरा इस प्रकार से किस कारण से कहा जाता है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं-'गोयमा! हे गौतम ! 'उत्तर कुराए' उत्तर कुरु मे 'उत्तरकुरूणाम' उत्तर कुरु नाम वाला 'देवे परिवसई' देव निवास करता है। वह देव 'महड्डीए जाव पलिओवमट्टिईए' महर्द्धिक यावत् पल्योपम की स्थिति वाला है। यहां पर महद्धिक पद से लेकर पल्योपम स्थिति वाला इतने तक के पद का संग्रह यावत्पद से हुआ है, जो इस प्रकार है-महर्द्धिक महापुतिक, महाबल, महायश, महासौख्य, महानुभाव, पल्योपम की स्थिति वाला इन पदों की व्याख्या आठवें सूत्र से समझ लेवे 'से तेणट्टेणं गोयमा ! इस __'से केण?णं मंते !' त्यादि टी -से केणटुंणं भंते ! एवं वुच्चइ' 3 सावन् । ४।२४थी मे मामा मार छे. 'उत्तरकुरा उत्तरकुरा' अर्थात् उत्त२१२। ये प्रमाणे ॥ ॥२६४थी ४ वामां आवे छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु श्री ४३ छ-'गोयमा !' गौतम ! 'उत्तरकुराए' उत्तभ३मा 'उत्तर कुरुणामा' उत्त२४३ मे नामधारी 'देवे परिवसइ' हेव निवास ४२ छ. ते देव 'महड्डीए जाव पलिओवमदिईए' भद्धि यावत् से४ ५८यापभनी स्थितिवाणी छे. मडीया मद ५४था લઈને પપમની સ્થિતિવાળો એટલા સુધીના પદોને સંગ્રહ યાવત્ પદથી થયેલ છે. જે આ પ્રમાણે છે-મહદ્ધિક, મહાદ્યુતિક, મહાબલ, મહાયશ, મહાસીઓ, મહાનુભાવ, પપમની स्थितिवाणी, मा मा पहानी व्याभ्या मामा सुत्रयी सभ a से वेणद्वेणं गोयमा !' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003155
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages798
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy