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________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थबक्षस्कारः सु. ३७ नन्दनवन स्वरूपवर्णनम् ક ङ्कराभिधाना अस्षा : देव्याः 'रायहाणी' राजधानी 'विदिसाएत्ति' विदिशि- ईशान कोणे पद्मोत्तर कूटवद्वर्णनीयत्वात् इति प्रथमकूटवर्णनम् १ अथावशिष्टकूटानां तदेवीनां तद्राजधानीनां च व्यवस्थां चिकीर्षुराह - 'एयाहिं' इत्यादि - एताभिः देवीभिः 'चेव' चकारात् राजधानीभिः - अनन्तरसूत्रे वक्ष्यमाणाभिरेव सह 'पुव्त्राभिलावेणं' पूर्वाभिलापेन-पूर्वेण नन्दनवनकूटोक्तेन अभिलापेन - सूत्रपाठेन 'णेयव्त्रा' नेतव्यानि, बोध्यानि 'इमेकूडा' इमानि वक्ष्यमाणानि कूटानि 'इमाहिं दिसाहि' इमाभिः वक्ष्यमाणाभिर्दिग्मिः भणितव्यानीति शेषः, एतदेव स्पष्टीकरोति 'पुरथिमिलस्स' पौरस्त्यस्य - पूर्वदिग्भवस्य 'भवणस्स' भवनस्य 'दाहिणेणं' दक्षिणेन - दक्षिण दिशि 'दाहिण पुरत्थिमिल्लस्स' दक्षिणपौरस्त्य आग्नेयकोणवर्तिनः 'पासायवडेंसगस्स' प्रासादावतंसकस्य 'उत्तरेणं' उत्तरेण - उत्तरदिशि 'मंदरे ' मन्दरे - मन्दरनाम्नि 'कूडे ' कूटे 'मेहवई' मेघवती नाम 'रायहाणी' राजधानी 'पुवेणं' पूर्वेण पूर्वस्यां राजधानी दिशा आदि द्वारों को लेकर कूटवर्णित किये गये हैं उसी प्रकार से यहाँ पर भी इन कूटों का वर्णन इन्हीं सब उच्चता आदि द्वारों को लेकर करलेना चाहिये क्योंकि उस पाठ में और यहां के पाठ में कोई अन्तर नहीं है । अतः इन द्वारों को लेकर जैसा प्रश्नोत्तर रूप से वहां पर कूटों का कथन किया गया है वैसा ही वह सब कथन यहां पर भी है उस वर्णन में और इस वर्णन में कोई अन्तर नहीं है ये सब कूट पांचसौ योजन के विस्तारवाले हैं। यहां पर देवी मेघङ्करा नामकी है इसकी राजधानी विदिशा में ईशानकोण में है इस तरह पद्मोत्तरकूट की तरह ही इस कूटका वर्णन है (एयाहिं चेव पुग्वाभिलावेण यत्रा इमे कूडा इमाहिं दिसाहिं पुरथिमिल्लस्स भवणस्स दाहिणे णं दाहिण पुरथिमिल्लस्स पासाघवडें सगस्स उत्तरेणं मंदरे कूडे मेहबईराय • हाणी) इसी मेघकुटोक्त अभिलाप के अनुसार इन २ दिशाओं में देवियों और राजधानियों से युक्त ये अवशिष्टकूट समझलेना चाहिये जैसे कि पूर्व વિગેરેના દ્વારાથી માંડીને કૂટ વિષે વર્ણન કરવામાં આવેલુ છે, તે પ્રમાણે જ અહીં પણ એ ફૂટેનું વર્ણન સમજી લેવુ' જોઈ એ કેમકે તે પાઠમાં અને અહીંના પાઠમાં કેાઈ પણુ તફાવત નથી. એથી એ દ્વારાના માટે પ્રશ્નોત્તરરૂપમાં ત્યાં ફૂટો વિષે કથન સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલું છે તેવું જ બધું કથન અહીં પણુ સમજવુ' જોઈ એ, તે વનમાં અને આ વધુ નમાં કોઈ પણ જાતના તફાવત નથી. એ બધા ફૂટ! પાંચસો યા ન જેટલા વિસ્તારવાળા છે. અહીં. મેકરા નામક દેવી છે, એની રાજધાની વિદેિશ માં ઈડાન`ણુમાં આવેલી છે. આ पद्मोत्तर छूटनी प्रेम आनु पशु वर्षान सभवातु छे. 'एआ है चैव पुव्त्राभिलावेणं या इमे कूडा इंमाहिं दिसाहिं पुरत्थिमिल्लस्स भवणत्स दाहिणेगं दाहिण पुरत्थिमिल्लस्स पासायवडेंसगह उत्तरेण मंदरे कूडे मेहत्रई रायहागी' या मेघ टोइन अभिसाप भुभ તત્ તત્ દિશાઓમાં દેવીએ અને રાજધાનીઓથી યુક્ત એ અવશિષ્ટ કૂટો સમજી લેવા For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003155
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages798
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size24 MB
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