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________________ पट जम्बूद्वीपप्रति तीर्थङ्करमातुश्च दाक्षिणात्येन जिनजनन्योर्दक्षिणदिग्गतच्चाद् दक्षिणदिग्भागे इत्यर्थः, भृङ्गारहस्तगताः - जिनजननीस्नपनोपयोगि हस्तगतजलपूर्णभृङ्गाराः सत्यः इत्यर्थः आगायन्त्यः परिगायन्त्यः पूर्वम् अल्पस्वरेण पश्चाद्दीर्घस्वरेण गायन्त्य इत्यर्थः तिष्ठन्ति ता अष्टौ दिवकुमारी महत्तरिकाः इति । सम्प्रति पश्चिमस्चकस्थानां वक्तव्यतामाह - ' तेणं कालेणं' इत्यादि । ' तेणं कालेणं तेणं समए णं पच्चत्थिमरुयगवत्थव्वाओ अट्ठदिसाकुमारीमहत्तरियाओ सएहिं जाव विहरंति' आदि सब वक्तव्यता जैसा प्रथम सूत्र में प्रकट कर दिया गया है वैसा ही है तहेव जाव तुग्भाहिं न भाइअव्यं इति कट्टु, यावत् आप भय न करें इस प्रकार कहकर वे सबकी सब दिक्कुमारीयां 'जाब भगव ओतित्थयरस्स' जहाँ पर तीर्थकर और 'तित्थयरमाउएअ' तीर्थकर की माता थी वहां पर आकर 'दाहिनेणं भिंगार हत्थगआओ' उनकी दक्षिणदिशा तरफ भृंगार हाथ में लेकर समुचित स्थान पर 'चिट्ठति' खडी हो गई खडी २ वहां वे 'आगायमाणीओ परिमायमाणीओ' पहिले तो धीमे स्वर से और बाद में जोर २ से जन्मोत्सव के मांगलिक गीत गाने लगी । दक्षिणदिशा की ओर रुचक पर्वत की शिखर पर बीच में सिद्धायतन कूट है उसकी दोनों तरफ चार २ कूट हैं वहां पर ये ४-४ की संख्या में रहती है जिनेन्द्र और जिनेन्द्र की माता के स्नान के निमित्त उपयोगी जान कर ये भृङ्गार साथ में लाई थीं । पश्चिमरुचकस्थ दिक्कुमारीकाओं की वक्तव्यता 'तेणं कालेणं ते णं समएणं पच्चस्थिमरुयगवत्थञ्चाओ अट्ठ दिसाकुमारी महत्तरियाओ सएहिं २ जाव विहरंति' उस काल में और उस समय में पश्चिम પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે, તે પ્રમાણે જ છે. 'तद्देव जाव तुभाहिं न भाइअव्वं इति कट्टु ' યાવત્ આપશ્રી ભયભીંત થાઓ નહિ, આ પ્રમાણે કહીને તે બધી દિકુમારિએ નાવ भगवओ तित्थयरस्स' ल्यां तीर्थ ४२ भने 'तित्थयरमा उएअ' तीर्थ पुरना भाताश्री तां त्यां भावीने 'दाहिणेण भिंगारहत्थगआओ' तेमनी दक्षिण दिशा तर समुचित स्थान (५२ 'चिट्ठति' अली रही तेभना साथीभां आरीयो हुती अली अली त्यां तेथे 'आगायमाणी ओ परिगायमाणीओ' पडेसां तो धीमा स्वरथी भने पछी भेर-लेरथी न्मोत्सवना भांगालिक ગીતા ગાવા લાગી. દક્ષિણ દિશા તરફ્ રુચક પતના શિખર ઉપર મધ્યમાં સિદ્ધાયતન ફૂટ આવેલા છે. તે ફૂટની બન્ને તરફ ચાર-ચાર ફૂટ આવેલા છે. ત્યાં એ બધી ૪-૪ની સખ્યામાં રહે છે. જિનેન્દ્ર અને જિનેન્દ્રની માતાના સ્નાન માટે ઉપયેગી થઈ પડશે એવુ' સમજીને એ ભંગારા સાથે લાવી હતી. પશ્ચિમ રુચક્રન્થ દિક્કુમારિકાઓની વક્તવ્યતા 'तेणं कालेणं तेणं समरणं पच्चत्थिमरुयगवत्थन्याओ अट्ठ दिसा कुमारी महत्तरियाओ सएहिं २ जाव विहरंति' ते अजभां अने ते समयमा पश्चिम हिग्लागूवती रुख४ ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003155
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages798
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size24 MB
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