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________________ . . .. . ........ . जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे पव्वए' वैताढयो नाम पर्वतः 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः 'तं जहा' तद्यथा-क्वचिदेतत्पाठो नास्ति, स च कीदृशः ? इति जिज्ञासायामाह-'पाईणपडीणायए' प्राचीनप्रतीचीनायत:-पूर्वपश्चिमदिशो दीर्घः 'उदीणदाहिणविस्थिण्णे' उदीचीनदक्षिणविस्तीर्णः-उत्तरदक्षिणदिशो विस्तारयुक्तः 'दुहा' द्विधा 'वक्खारपव्वए' वक्षस्कारपर्वतौ 'पुढे' स्पृष्टः स्पृष्टवान् अत्र स्पृश् धातोः कर्तरिक्त प्रत्ययस्तेन कर्मणि द्वितीया, एतदेव स्पष्टीकरोति 'पुरस्थिमिल्लाए' पौरस्त्यया पूर्वदिग्भवया 'कोडीए' कोटया-अग्रभागेन 'जाव' यावत् यावत्पदेन-'पुरथिमिल्लं वक्खारपव्वयं पच्चथिमिल्लाए कोडीए पच्चस्थिमिल्लं वक्खारपव्वयं' इति सङ्ग्राह्यम् एतच्छाया-'पौरस्त्यं वक्षस्कारपर्वत पाश्चात्यया कोटया पाश्चात्यं वक्षस्कारपर्वतम्' इति, एतद्वयाख्या सुगमा, एताभ्यां (दोहि वि) द्वाभ्यामपि कोटीभ्यां पूर्वोक्तौ पौरस्त्यपाश्चात्यौ चित्रकूटमाल्यवन्तो वक्षस्कारपर्वतौ (पुढे) स्पृष्टः स्पृष्टवान् एवं स: (भरहवेयद्धसरिसए) भरतवैताढयसदृशकः भरतवर्षवर्तिवैताढयवत् रजतमयत्वाद्रुचकसंस्थानसंस्थितत्वाच्च बोध्यः (णवरं) नवरं-केवलम् (दो बाहाओ) द्वे बाहे (जीवा) जीवा (धणुपुटं च) धनुप्पृष्ठं चैतद्वस्तुत्रयं (ण कायव्व) न 'पाईणपडीणायए' पूर्व एवं पश्चिमदिशा में वह लंबा है। 'उदीण दाहिणवित्थिण्णे' उत्तर एवं दक्षिण दिशा में विस्तार युक्त है । 'दुहा' दोनों तरफ 'वक्खारपव्वए' वक्षस्कार पर्वत 'पुट्ठो' स्पृष्टः स्पृष्ट हैं' 'पुरथिमिल्लाए' पूर्वदिशसिंबंधी 'कोडीए' कोटी से 'जाब' यावत् 'पुरथिमिल्लं वक्खारपव्वयं' पूर्वदिशा के वक्षस्कार पर्वत को 'पच्चस्थिमिल्लाए कोडीए' पश्चिमदिशा संबंधी कोटी से 'पच्चथिमिल्लं बक्खारपव्वयं' पश्चिमदिशा के वक्षस्कार पर्वत को इस प्रकार ये 'दोहि वि' दोनों कोटी से पूर्वपश्चिम के चित्रकूट एवं माल्यवन्त वक्षस्कार पर्वत 'पुढे' स्पृष्ट है। इस प्रकार वह 'भरह वेयद्धसरिसए' भरत वैताढय के समान अर्थात् भरत वर्षस्थित वैताढय के सदृश-अर्थात् रजतमय एवं रुचक संस्थान में संस्थित होने से समझलेवें । 'णवरं' केवल 'दो वाहाओ' दो बाहा 'जीवा' विश्यमा 'वेयद्धे णामं पव्वए' वैताय नाभन त पण्णत्ते' खस छ. 'तं जहा त ५वता छ १ मे मतावे छे. 'पाईणपडीणायए' पूर्व भने पश्चिम दिशाभi aaiमा छ. 'उदीणदाहिणवित्थिण्णे' उत्तर मनक्षिण दिशामा विस्तारवाणी छे. 'दुहा' भन्ने त२३ 'वक्खारपव्वए' पक्षा२ ५'त 'पुढे' २५२ छ 'पुरथिमिल्लाए' पूर्व ही संधी 'कोडीए' थी 'जाव' यावत् 'पुरथिमिल्लं वक्खारपव्वयं' पू शाना ११४॥२ ५५ तन 'पञ्चथिमिल्लाए कोडीए' पश्चिम दिशा समाधी टीथी 'पच्चथिमिल्लं वक्खारपव्वयं पश्चिम हिशान पक्षा२ ५तन से रीते थे 'दोहिवि' पूर्व पश्चिम भन्न टिथी अर्थात यित्रट म माझ्यवान् १९२४॥२ 'तने 'पुढे' २५0 छ. या शते 'भरहवेयद्ध सरिसए' मरत भने वैतादय तो सरमेटले रत्नमय भने ३३४ स्थानमा सस्थित पाथी म सम यु 'णवरं' ३१ दो वाहाओं' मे पास। 'जीवा' ७१ 'धणु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003155
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages798
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size24 MB
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