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________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थ वनस्कारः सू. २८ द्वितीय सुकन्छविजयनिरूपणम् ३६३ अनेन प्रकारेण चित्रकूटयक्षस्कारपर्वतान्त कूटानुसारेण इमानि चत्वारि कूटानि वर्णनीयानि जाव' यावत्-यावत्पदेन 'समा उत्तरदाहिणेणं परुप्परंति, पढमं सीयाए उत्तरेणं' इत्यादि सङ्ग्राह्यम् एतत्समस्तमनन्तरोक्त सूत्राद्बोध्यम्, छायाऽयौँ तत एव ज्ञातव्यो 'अट्टः' अर्थ:ब्रह्मकूटेति नाम्नोऽर्थः प्राग्वत् तथाहि-'से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ-पउमकूडे पउमकूडे ? गोयमा ! पउमकूडे य इत्थ देने मदिद्धीए जाव पलिओक्मट्टिईए परिवसइ, से तेणटेणं गोयमा ! एवं बुच्चा पउमडे पउमकूडे' इति एतच्छायार्थों सुगमौ, अत्र देवविशेषणवाचकानां महद्धिकादि पल्योपमस्थितिकपयेन्तानां पदानां सङ्ग्रहः सव्याख्योऽष्टमसूत्रस्थाद्वि. जयद्वारदेवाधिकाराद्वोध्या, ____ अथ चतुर्थ कच्छकावतीनामकं विजयं वर्णमितुमुपक्रमते 'कहि णं भंते !' इत्यादिचार कूट कहे गये हैं । 'तं जहा' उनके नाम इस प्रकार से हैं-(सिद्धायणकूडे १, पउमकूडे २, महाकच्छकूडे ३, कच्छावाकूडे४) सिद्धायतनकूट, पद्मकूट, महाकच्छकूट और कच्छवतीकूट, (एवं जाव अट्ठो) यहां आगत इस यावत्पद से (समा उत्तर दाहिणेणं परुपरति, पढमं सीयाए उत्तरेणं) इत्यादि पदों का संग्रह हुआ है यह सब कथन अनन्तरोक्त सूत्र से जाना जा सकता है। पद्मकूट ऐसा इसका नाम क्यों हुआ-इस विषय में आलाप इस प्रकार से बनाना चाहिये 'से केणटेणं भंते. एवं वुच्चइ पउमकूडे' उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा' पउम कूडे य इत्थ देवे महिदीए जाव पलिओवमट्टिईए परिवसह, से तेण तुणं गोयमा! एवं वुच्चहप उमकूडे २,' इस आलापक की, जो प्रश्न और उत्तर रूपमें है अर्थ सुगम है। देवके विशेषणभूत महर्दिक आदि पदोंकी व्याख्या अष्टमसूत्रस्थ विजयद्वार के देवाधिकार से जानलेनी चाहिये। (कहिणं भंते ! महाविदेहे वासे कच्छगावती णामं विजए पण्णत्ते) हे भदन्त ! प्रमाणे छ. 'सिद्धाययणकूडे १, पउम डे-२, महाकच्छकूडे ३, कच्छावइकूडे-४' सिद्धा. यतन २, ५८, मडा४२७ . २मने ४२छाती फूट एवं जाव अट्ठो' मी मावस यावत् ५४थी 'समा उत्तरदाहिणेणं परूप्परेंति, पढमं सीयाए उत्तरेणं' पोरे यहोनु अडान થયું છે. આ બધું કથન અનન્તરોક્ત સૂત્રમાંથી જાણી શકાય તેમ છે. એનું નામ પદ્મ કૂટ એવું શા કારણથી સુપ્રસિદ્ધ થયું ? આના સંબંધમાં આલાપક એવી રીતે સમજ नये ‘से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ पउमकूडे' उत्तरमा प्रभु ४ छ- 'गोयमा ! पउमकूडे य इत्थदेवे महिद्धीए जाव पलिओवमदिईए परिवसइ, से तेजटेणं गोयमा ! एवं पुच्चइ पउमकूडे, २' से माता५। ३२ प्रश्न म उत्त२ ३५मा छ-मथ सुगम छे. हेवन। विशेષણભૂત મહદ્ધિક વગેરે પદની વ્યાખ્યા અષ્ટમ સૂરસ્થ વિજયદ્વારના દેવાધિકારમાંથી જાણી લેવી જોઈએ. 'कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे कच्छगावती णामं विजए पण्णत्ते' सन्त ! महा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003155
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages798
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size24 MB
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