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________________ जम्बूद्वीपमप्तिसूत्रे देवेन्द्रो देवराजः किमित्याह-'गच्छइ णं' इत्यादि 'गच्छइ णं भो ! सके देविदे देवराया जंबुद्दीवे दीवे भगवओ तित्थयरस्स जम्मणमहिम करित्तए' गच्छति खलु भो देवाः शक्रो देवेन्द्रो देवराजः जम्बूद्वीपे द्वीपे भगवतस्तीर्थकरस्य जन्ममहिमानं जन्ममहोत्सवं कत्तुम् 'तं तुम्भे वि गं देवाणुप्पिया' खद् यूयमपि देवानुप्रियाः ! भवन्तो देता ! 'सन्निद्धीए सन्धजुइए' सद्धर्या सर्वसंपदा सर्वद्युत्या सर्व शान्त्या 'सन्चालेणं सव्वसमुदएणं' सर्ववलेन सर्वसमुदयेन 'सव्वायरेणं सव्वविभूईए' सर्वा रेण सर्वविभूत्या 'सबविभूसाए' सर्व विभूपया 'सब्बसंभमेणं सव्वणाडएहि' सर्वसंभ्रमेण सर्वनाटकैः सव्योवरोहे हिं' सर्वोपरोधैः उपरोधः बाधा सर्ववाधायुक्तैरपीत्यर्थः 'सम्यषुप्फगंधमल्लालंकारविभूसाए' सर्वपुष्पगन्धमाल्यालङ्कारविभूपया 'सव्यदिव्यतुडियसहसणिण एणं' सर्वदिव्यत्रुटितशब्दसनिनादेन 'महया इद्धीए देविदे देवरापा, गच्छहणं भो सक्के देविदे देवराया जंघुद्दीवे दीवे भगवओ तित्थयरस्स जम्मणमहिमं करेत्तए' हे देवो ! देवन्द्र देवराज शक्र आप लोगों को आज्ञा देता है कि मैं देवेन्द्र देवराज शाम जम्बूद्वीर मानके द्वीप में भगवान तीर्थकर के जन्म की महिमा करने के लिये जारहाई 'तं तुभे विणं देवाशपिया! सव्विद्धीए सव्वज्जुईए सब्धवलेणं सनसमुदएणं सन्कायरेण सविभूईए सव्यसंभमेण सधणाडएहिं सत्यशेवरोहेटिं' तो इसलिये हे देवानुप्रियो ! आप अपनी समस्त युति से अपनी अपनी सस्त सेना हे माने समस्त समुदय से, समस्त प्रकार के आदर भाव से समस्त प्रकार की विभूति से समस्त प्रकार के विभूषा से एवं समस्त प्रकार के नायकों से युक्त होकर इन्द्र के पास आ जावे चाहे किसी भी प्रकार की आपलोगों को बाधा भी हो तो भी उसका ध्यान न करें और शीघ्र आवें 'सत्रपुष्कगंध मलालंकार विभूसाए सव्वदिव्वतुडियसदसणिणाएणं महया इवीए जाव रवेणं' साथ में जो देव जिस प्रकार सुगं देवि दे देवराया जंबुद्दीवे दीवे भगवशो तित्थयरम्स जम्णमहिमं करेत्तए' वा ! हेवेन्द्र : દેવરાજ શક તમને આજ્ઞા કરે છે કે હું દેવેન્દ્ર દેવરાજ શક જમ્બુદ્વીપ નામક દ્વીપમાં मावान तीथ ४२ ना भने। भडिमा ४२१॥ भाटे ०४- Reो छु.. 'त तुभ वि णं देवा. ‘णुप्पिया ! सव्बिद्धीए सव्यज्जुईए, सव्वबले गं, सलमा रेणं, सब्यविभूईए, सयाविभूसाए, सव्व संभमेणं, सचणाडएहि सयोवरोहे हि' तोटा भाटे हानुयो तमे वा पात પિતાની સમસ્ત ઋદ્ધિથી, પિતપિતાની સમસ્ત ઇતિથી, પોતપોતાની સમસ્ત સેનાથી, પિત–પિતાના સમસ્ત સમુદાયથી, સમત પ્રકારના આ દર ભાવથી, સમસ્ત પ્રકારની વિતિઓથી, સમસ્ત પ્રકારની વિભૂષાથી તેમજ સમસ્ત પ્રકારના નાટકોથી યુક્ત થઈને ઈન્દ્રની પાસે આવી પહોંચે કોઈ પણ જાતની બાધા પણ હોય તો તે તરફ લક્ષ્ય રાખવું 18 अने तुरंत छन्द्र पासे पडया 'सब पुरगंधाल्लालंकारविभूसाए सवदिव्ध सुडिय सहसण्णिणाएणं महया इद्धोए जाव रवेणं' मरे । ४२i सुचित पुष्पेनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003155
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages798
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size24 MB
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