Book Title: Aagam 02 SOOTRAKUT Moolam evam Vrutti
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूत्रकृताङ्गसूत्रम् नमो नमो निम्मलदसणस्स 'पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः । । “सूत्रकृत्" मूलं एवं वृत्ति : । [मूलं + भद्रबाहुस्वामी कृत् नियुक्ति; + शिलांकाचार्य रचित वृत्तिः] [आदय संपादकः - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. 1। (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) ' पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (w.com., M.Ed., Ph.D.) | 04/07/2014, शुक्रवार, २०७० अषाढ़ शुक्ल ७ jain e library's Net Publications मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः । Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [ ], अध्ययन [ ], उद्देशक [ ], मूलं [ ], नियुक्ति: [] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सुत्रांक दीप अनुक्रम अहम भीमच्छीलाङ्काचार्यविहितविवरणयुतं श्रीमत्सुधर्मस्वामिगणभृट्टन्छ । श्रीमत्सूत्रकृताङ्गम्। १००१ शेउ नगीनदास जीवणजी नवसारी ५०० बाइ पारवती ते शा दलछाराम बखतचंदनों विधवा ६०१ शेठ लल्लुभाइ केवलदास कपडवंज अमदावाद ५०१ शेठ मगनलाल दीपचंद माणसा ५०० बाइ भोंधीवाह शेठ लल्लुभाइ चुनीलालनी धणीयाणी ५०१ शा नथुभाह लालचंदनी दीकरी बाइ परसन कपडवंज सुरत ५०० झवेरी कस्तुरचंद सवेरचंद सुरत ५०० शेठ सोभाग्यचंद माणेकचंद सुरतवंदर प्रकाशयित्री-पूर्वोक्तमहाशयानां संपूर्णद्रव्यसहायनागमोदयसमितिः श्रेष्टिवेणिचन्द्रसूरचन्द्रद्वारा । वीरसंवत् २४४३. विक्रमसंवत् १९७३. क्राइष्टस्य सन् १९१७. प्रतयः ।...] वेतनं २-१२-० [Rs.2-12-01 सूत्रकृताङ्गसूत्रस्य मूल “टाइटल पेज" Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलांक: **** ००१ ०२८ ०६० ०७६ **** ०८९ १११ १४३ मूलाङ्का: ८०६ विषय: श्रुतस्कंध १ अध्ययनं १ समयं उद्देशक:- १ पञ्च महाभूतः, - आत्माद्वैत, देहात्म, - आत्माषष्ठ एवं अफालवाद: उद्देशक:-२- नियति, अज्ञान, -ज्ञान एवं क्रिया वाद: उद्देशक:- ३- जगत्कर्तृत्व, - त्रैराशिक एवं अनुष्ठानवादः उद्देशक:-४- लोकवादः -असर्वज्ञवाद:, अहिंसा, चर्यादि अध्ययनं २ वैतालियं - उद्देशक :- १- मनुष्य भवस्य | दुर्लभत्वं, मोहादि-निर्वृतिः.. -प्रथमं महाव्रतं आदि: उद्देशक :- २ परिसह कषाय-जय -परिग्रह-परिचयादी निषेध: -समितिवर्णनम् उद्देशक:- ३- मुक्तिहेतु:, महाव्रतमाहात्म्यं, कर्म फल-संवर एवं निर्जरादि: पृष्ठांक ००५ ०२२ ०२८ ०६२ ०८४ ०९८ १०९ १११ १२४ १४४ सूत्रकृताङ्ग सूत्रस्य विषयानुक्रम विषय: अध्ययनं ३ उपसर्ग: उद्देश :- १- प्रतिकुल उपसर्गः | उद्देशक:-२- अनुकूल उपसर्ग: उद्देशक:- ३- परवादी वचनात् आत्मिकदुखं उद्देशक:- ४- यथावस्थित अर्थप्ररूपणं मूलांक: ** १६५ १८२ २०४ २२५ *** २४७ ** ३०० ३२७ ** ३५२ ** ३८१ ** ४११ अध्ययनं ४ स्त्रीपरिज्ञा उद्देशक:- १.२ स्त्री परिषहः अध्ययनं ५ नरकविभक्तिः उद्देशक :- १- नरकवेदना उद्देश:-२ वर्गतिभ्रमण अध्ययनं ६ वीरस्तुतिः - महावीरप्रभोः गुणवर्णनं अध्ययनं ७ कुशल परिभाषा -हिंसा एवं तत् कर्मफलं, -बोधि दुर्लभत्वं, - स्वसमय परसमय वर्णनं, - आहार विधि-निषेध: अध्ययनं ८ वीर्य - वीर्यस्य भेदवर्णनं, बाल एवं पृष्ठांक १५८ १६१ १७० १८० ~2~ १९१ २०७ २१३ २४६ २५६ २७३ २८७ २८९ ३१० ३३४ निर्युक्ति गाथा: २०५ विषय: मूलांक: ** ४३७ ** ४७३ ********* अध्ययनं ९ धर्म -धर्म स्वरूपं, हिंसादिपंचकस्यत्यागस्य उपदेशः, अनाचारत्याग:, प्रव्रज्याविधानं अध्ययनं १० समाधिः -प्राणातिपात आदि विरमणम्, -आधाकर्माहार-स्त्री संगतिः एवं निदानादे: निषेध:, - एकत्व आदि भावनास्वरूपं अध्ययनं १९ मार्ग: -मोक्षमार्ग, विरतिउपदेश:, -भावसमाधिः अध्ययनं १२ समवसरणं -अज्ञानादि-वादं भवभ्रमण हेतुः - अनासक्ति उपदेश: अध्ययनं १३ यथातथ्यं -मोक्ष एवं बंधस्वरूपं, -मद त्याग उपदेश: अध्ययनं १४ ग्रन्थः - अपरिग्रह-ब्रह्मचर्य उपदेश:, -प्रश्नोत्तरविधि:, भाषाविवेक:, - सूत्रोच्चारणं व अर्थप्रतिपादनं पंडित वीर्यम् मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः पृष्ठांक ३५५ ३७६ ३९५ ४१८ ४६३ ४८५ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठांक: पृष्ठांक: ६११ ७४५ ५२६ मूलाका: ८०६ || मूलांक: | विषय: ** | अध्ययनं १५ आदानं ६०७ |-मोक्षस्य उपाया:, -भवभ्रमणनिषेध हेतु: ** | अध्ययनं १६ गाथा । ६३२ |-अनगार स्वरूपं ____ श्रुतस्कंध-२ ** | अध्ययनं १ पुण्डरिक ६३३ | -पुण्डरिक-उद्धरणं दृष्टांत एवं तद् भावस्य कथनं, देहात्मपञ्चमहाभूत-कारणिक आदि वाद कथनं सूत्रकृताङ्ग सूत्रस्य विषयानुक्रम मूलांक विषय: पृष्ठांक: | ** | अध्ययनं २ क्रियास्थानं । ६४८ -त्रयोदश क्रियास्थानानि ** | अध्ययनं ३ आहारपरिज्ञा ६८८ ६७५ -विविध वनस्पतिकायस्य उत्पति, तस्य आहारविधि: -जीवोत्पत्ति: तस्य आहार एवं शरीर वर्णनं ** | अध्ययनं ४ प्रत्याख्यानं ७०० ।-अप्रत्याख्यान स्वरूप, -प्रत्याख्यान हेत:, षड् जीवनिकाय हिंसा विरमणं नियुक्ति गाथा: २०५ मूलांक: विषय: ** | अध्ययनं ५ आचारश्रुतं ७०५ -अनेकान्त वचनप्रयोगकरणं -जीव अजीव आदि तत्त्वस्य अस्तित्व-स्वीकार: | अध्ययनं ६ आर्द्रकीयं ७३८ -गोशालक एवं आर्द्रकुमारस्य परस्पर वार्ता, शाक्य भिक्षुसार्धं आर्द्रकुमारस्य संवादः | अध्ययनं ७ नालंदीयं ७९३ | -पेढालपुत्र एवं गौतमस्य । परस्पर वार्ता ७७४ ५३७ ५३८ ७२४ -८५९ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~3~ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सुत्रकृत् - मूलं एवं वृत्ति:] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले “सूत्रकृताङ्गसूत्र” के नामसे सन १९१७ (विक्रम संवत १९७३) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | इसी प्रत को फिर अपने नामसे 'जिनशासन आराधना ट्रस्ट' की तरफ से आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिजीने छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के, ऊपर अपना नाम एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. यह स्पष्ट रूपसे एक प्रकारसे अदत्तादान ही है, ऐसी अनेक प्रतो के अगले दो पेज पलटकर या नए डालकर उन्होंने अपने नामसे छपवाइ है, इस तरह वो अपने आपको बड़ा आगम संरक्षक साबित करनेकी अनुचित चेष्टा कर चुके है । इसी सूत्रकृतांगसूत्र की प्रत को ऑफसेट की मदद से आचार्य श्री नयचंद्रसागरसूरिजीने भी छपवाया है, समुदाय की वफादारी निभाते हुए इस पूज्यश्रीने पूज्य सागरानंदसूरीश्वरजी महाराजश्री का नाम बड़ी इज्जत के साथ अपनी जगह पे ही रखा है, और खुदका नाम पुन: संपादक रूप से पेश किया है। अपनी प्रस्तावनामें नयचंद्रसागरसूरिजी ने भी मेरी तरह उक्त बात का उल्लेख किया है। इसी सूत्रकृतांगसूत्र की प्रत को ऑफसेट की मदद से पूज्य जम्बूविजयजी महाराजजीने श्री मोतीलाल बनारसीदास की तरफसे प्रकाशित करवाई है, जो की पुस्तक रूपसे बाईंडेड है, और परिशिष्टमें पूज्य श्री पन्यविजयजी संकलित शुद्धि-वृद्धि पत्रक दिया है। * हमारा ये प्रयास क्यों? - आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर श्रुतस्कंध-अध्ययन-उद्देशक-मूलसूत्र-नियुक्ति आदि के नंबर लिख दिए, ताकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा अध्ययन, उद्देशक आदि चल रहे है उसका सरलतासे ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-|| ऐसी दो लाइन खींची है। अनेक पृष्ठो के नीचे विशिष्ठ फूटनोट लिखी है | अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसिको मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। ......मुनि दीपरत्नसागर. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [], उद्देशक [], मूलं [], नियुक्ति: [] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सुत्राक ॥ अहम् ॥ श्रीमद्गणधरवरसुधर्मखामिनिर्मितम् । श्रीमच्छीलाङ्काचार्यविहितविवरणयुतम् । श्रीसूत्रकृताङ्गम् । दीप toescesekseseseaeoeseroeneeeee अनुक्रम खपरसमयार्थसूचकमनन्तगर्मपर्ययार्थगुणकलितम् । सूत्रकृतमङ्गमतुलं विवृणोमि जिनाबमस्कृत्य ॥१॥ व्याख्यातमङ्गमिह | यद्यपि मूरिमुख्यमक्या तथापि विवरीतुमहं यतिष्ये । किं पक्षिराजगतमित्येवगम्य सम्यक् , तेनैव वाञ्छति पथा शलभो न | गंतुम् ॥२॥ ये मय्यवज्ञा व्यधुरिद्धबोधा, जानन्ति ते किश्चन तानपास्य। मत्तोऽपि यो मन्दमतिस्तथार्थी, तस्योपकाराय ममैष १ सदशपाठाः २ शब्दपर्यायाः । अभिधेयगुणाः ४ पक्षिराजगतमप्यवगम्येति प्र. ५ भी जो गौ वसन्ततिलका (छन्दोऽनुशासने अ० १ ० १३१) सूत्रक.१ | उपोद्घात् नियुक्तिः Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [-], उद्देशक -], मूलं [-], नियुक्ति: [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः सूत्रकृताङ्गं शीलाकाचायायत्तियुतं Scene प्रत सुत्राक -] ॥१॥ दीप अनुक्रम 08092008sasa यत्नः ॥३॥ इहापसदसंसारान्तर्गतेनासुमताज्वाप्यातिदुर्लभं मनुजत्वं सुकुलोत्पत्तिसमग्रेन्द्रियसामय्याद्युपेतेनाईदर्शनम् अशे- १ समयापकमोच्छित्तये यतितव्यम् , कर्मोच्छेदश्च सम्यग्विवेकसव्यपेक्षः, असावप्याप्तोपदेशमन्तरेण न भवति, आप्तश्रात्यन्तिकाद्दोषक्ष-18 ध्ययने यात् , स चाहन्नेव, अतस्तत्प्रणीतागमपरिज्ञाने यत्रो विधेयः, आगमश्च द्वादशाङ्गादिरूपः, सोऽप्यार्यरक्षितमित्रैरैर्दयुगीनपुरुषानुग्रहबुया चरणकरणद्रव्यधर्मकथागणितानुयोगभेदाचतुर्धा व्यवस्थापितः, तत्राचाराङ्गं चरणकरणप्राधान्येन व्याख्यातम् , अधुनाऽवसरायात द्रव्यप्राधान्येन सूत्रकृताख्यं द्वितीयमङ्गं व्याख्यातुमारभ्यत इति । ननु चार्थस्य शासनाच्छास्त्रमिदं, शास्त्रस्य । |चाशेषप्रत्यूहोपशान्त्यर्थमादिमङ्गल तथा स्थिरपरिचयार्थ मध्यमङ्गलं शिष्यप्रशिष्याविच्छेदार्थ चान्त्यमङ्गलमुपादेयं तचेह | नोपलभ्यते, सत्यमेतत् , मङ्गलं हीष्टदेवतानमस्कारादिरूपम् , अस्य च प्रणेता सर्वज्ञः, तस चापरनमस्कार्याभावान्मङ्गलकरणे प्रयोजनामावाच्च न मङ्गलाभिधानं, गणधराणामपि तीर्थकदुक्तानुवादिखान्मङ्गलाकरणं, असदायपेक्षया तु सर्वमेव शास्त्रं मङ्गलम् । अथवा नियुक्तिकार एवात्र भावमङ्गलमभिधातुकाम आहतिस्थयरे य जिणवरे सुत्सकरे गणहरे यणमिऊणं । सूयगडस्स भगवओ णिति कित्तइस्सामि ॥१॥ गाथापूर्वार्द्धनेह भावमङ्गलमभिहितं, पश्चार्डेन तु प्रेक्षापूर्वकारिप्रवृत्त्यर्थ प्रयोजनादित्रयमिति, तदुक्तम्- "उक्तार्थ ज्ञातसंवन्धं ॥१॥ श्रोतुं श्रोता प्रवचते । शाखादौ तेन वक्तव्यः, सम्बन्धः सप्रयोजनः॥शा तत्र सूत्रकृतयेत्यभिधेयपदं, नियुक्ति कीयिध्ये इति १ तौ जौ गाविन्दवना ( छन्दो० २-१५४ ) २ इहापारससारेति प्र० ३ श्रोतारः । ४ टक्कप्रयोजनं ५ चान्द्रमतेन गिजन्ताकर्तर्यात्मनेपदभावान्न परस्मैपदि-18 | बादसाधुः प्रयोगोऽयमिति शश्यम् । सपरसमयसूचनार्थत्वात्सूत्रकृतशब्दख नाभिषेयत्वेऽस्य क्षतिः, वकृत्यपेक्षया नियुक्ति कीर्तयिष्य इति प्रयोजनोकिः । उपोद्घात् नियुक्तिः, नियुक्ति रचना प्रतिज्ञा Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [-], उद्देशक -], मूलं [-], नियुक्ति: [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः ed प्रत सुत्राक दीप अनुक्रम प्रयोजनपदं, प्रयोजनप्रयोजनं तु मोक्षावाप्तिः, सम्बन्धस्तु प्रयोजनपदानुमेय इति पृथक नोक्तः, तदुक्तम् --"शास्त्र प्रयोजन चेति, सम्बन्धस्याश्रयावुभौ । तदुक्त्यन्तर्गतस्तस्माद्भिवो नोक्तः प्रयोजनात् ॥१॥” इति समुदायार्थः । अधुनाऽवयवार्थः कथ्यते-तत्र तीर्थ द्रव्यभावभेदाविधा, तत्रापि द्रव्यतीर्थ नद्यादेः समुत्तरणमार्गः, भावतीर्थं तु सम्यग्दर्शनशानचारित्राणि, संसाराणेवादुत्तारकत्वात् , तदाधारो वा सङ्घः प्रथमगणधरो वा, तत्करणशीलास्तीर्थरास्तानत्वेति क्रिया । तत्रान्येपा-T8 मपि तीर्थकरखसंभवे तद्वयवच्छेदार्थमाह----'जिनवरानि ति रागद्वेषमोहजितो जिनाः, एवंभूताच सामान्यकेवलिनोऽपि भवन्ति, तद्वचवच्छेदार्थमाह-वरा:-प्रधानाः चतुर्विंशदतिशयसमन्वितत्वेन, तान्नखेति, एतेषां च नमस्कारकरणमागमार्थोपदेष्टुखेनोपकारिखात् , विशिष्टविशेषणोपादानं च शास्त्रस्य गौरवाधानार्थ, शास्तुःप्राधान्येन हि शास्त्रस्यापि प्राधान्यं भवतीति भावः । अर्थस्य । सूचनात्सूत्रं, सत्करणशीला: सूत्रकराः, ते च खयंबुद्धादयोऽपि भवन्तीत्यत आह-गणघरास्तांश्च नखे ति, सामान्याचार्याणां गणधरखेऽपि तीर्थकरनमस्कारानन्तरोपादानाद्गीतमादय एवेह विवक्षिताः। प्रथमश्चकारः सिद्धाधुपलक्षणार्थो द्वितीयः समुचिती। क्खाप्रत्ययस्य क्रियान्तरसत्यपेक्षखातामाह-खपरसमयभूचनं कृतमनेनेति सूत्रकृतस्तस्य,महार्थवचाद्भगवांस्तस्य,अनेन च सर्वज्ञप्रणी-8| | तखमावेदितं भवति । 'नियुक्ति कीर्तयिष्ये' इति योजनं युक्ति:-अर्थघटना, निधयेनाधिक्येन वा युक्तिनियुक्ति-सम्पगथेप्र-21 कटन मितियावत् ,निर्युक्तानां वा-सूत्रेष्वेव परस्परसम्बद्धवानामर्थानामाविर्भावनं,युक्तशब्दलोपानियुक्तिरिति, तां 'कीर्तयिष्यामि' अभिधास्य इति ।। इह सूत्रकृतस्य नियुक्ति कीर्तयिष्ये इत्यनेनोपक्रमद्वारमुपक्षित,तच 'इहापसदेत्यादिनेषदभिहितमिति, तदनन्तरं १ रामः समुत्तरणमार्गः प्र. १ जिनेखनुकत्या जिनवरानिति वरत्वयुक्तजिनेयुपादानं Recedeseseseceveaeseneleveness उपोद्घात् नियुक्तिः, नियुक्ति रचना प्रतिज्ञा ~7~ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: समया प्रत ध्ययन सूत्रकृताङ्गं चार्षीय त्तियुत शीलाका सुत्राक मूत्रकृत्य यायाः ॥२॥ दीप अनुक्रम 98929092029283 | निक्षेपः, स च त्रिविधः, तद्यथा-ओघनिष्पन्नो नामनिष्पन्नः सूत्रालापकनिष्पन्नवेति । तत्रौषनिष्पने निक्षेपेश, नामनिष्पन्ने तु निक्षेपे सूत्रकृतमिति ॥१॥ तत्र तत्वभेदपर्यायाख्ये'त्यतः पर्यायप्रदर्शनार्थ नियुक्तिकृदाह सूयगडं अंगाणं वितियं तस्स य इमाणि नामाणि । सूतगडं सुत्तकर्ड सूर्यगडं चेव गोण्णाई ॥२॥ सूत्रकृतमित्येतदङ्गानां द्वितीयं, तस्य चामन्येकाथिकानि, तद्यथा--मूतम् उत्पन्नमर्थरूपतया तीर्थकृयः ततः कृतं ग्रन्धरचनया | गणधरैरिति, तथा 'सूत्रकृत'मिति सूत्रानुसारेण तत्वावरोधः क्रियतेऽस्मिमिति, तथा 'मुनाकृत'मिति खपरसमयार्थसूचनं सूचा साऽस्मिकतेति, एतानि चास्य गुणनिष्पनानि नामानीति ॥ २॥ साम्प्रतं सूत्रकतपदयोनिक्षेपार्थमाह-- व्यं तु पोण्डयादी भावे सुत्तमिह सूयगं नाणं । सपणासंगहवित्ते जातिणिबजे य कत्थादी ॥३॥ नामस्थापने अनादृत्य द्रव्यसूत्रं दर्शयति-'पोण्डयाइ'त्ति पोण्डगं च वनीफलादुत्पन्न कार्यासिकं, आदिग्रहणादण्डजवाल| जादेग्रहणं, भावमूत्रं तु 'इह' अस्मिन्नधिकारे सूचकं ज्ञानं-श्रुतज्ञानमित्यर्थः, तस्यैव स्वपरार्थसूचकलादिति । तच श्रुतज्ञानसूत्र | चतुर्की भवति, तयथा-संज्ञासूत्र संग्रहसूत्रं वृत्तनिवळू जातिनिबद्धं च, तत्र संज्ञासूत्रं यत् खसंकेतपूर्वकं निबद्ध, तपथा| "जे छए सागारियं न सेवे, सम्बामगंधं परिण्णाय णिरामगंधो परिचए" इत्यादि, तथा लोकेऽपि-पुद्गलाः संस्कारः क्षेत्रज्ञा|%8 इत्यादि । संग्रहसूत्रं तु यत्प्रभूतार्थसंग्राहक, तद्यथा-द्रव्यमित्याकारिते समस्तधर्माधर्मादिद्रव्यसंग्रह इति, यदिवा 'उत्पादव्य- सूबागडमिति पाये दीर्घहसामिति अन्धानुलोम्येन हसता, तथा चन पर्यायक्य । २भावस्त्रेण महानुसारेण निर्माणपयो गम्यते चू० । ३ यच्छेका स S सागारिकं (मैथुनं) न सेवेत, सर्वमामगन्धं परिहाय निरामगन्धः परिजजेत. (भामं विशोधि गन्धमविशोधि)४ उभए जससमए परसमए य चू० । Pagesraesoseseasee292906 २॥ | उपोद्घात् नियुक्तिः , 'सूयगड़' शब्दस्य पर्याया: Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ - ], उद्देशक [-], मूलं [-], निर्युक्तिः [३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः यधौव्ययुक्तं सदिति, वृत्तनिबद्धसूत्रं पुनर्यदनेकप्रकारया वृत्तजात्या निबद्धं तद्यथा— द्विजत्ति विउट्टिजेत्यांदि, जातिनिबद्धं तु चतुर्द्धा तद्यथा-कथनीयं कथ्यमुत्तराध्ययनज्ञाताधर्मकथादि, पूर्वर्षिचरितकथानकप्रायत्वात्तस्य, तथा गद्यं ब्रह्मचर्याध्ययनादि, तथा पद्यं– छन्दोनिबद्धं तथा गेयं यत् खरसंचारेण गीतिकाप्रायनिबद्धं तद्यथा कापिलीयमध्ययनं 'अधुवे असासयंमि संसारंमि दुक्खपउराए' इत्यादि ॥ ३ ॥ इदानीं कृतपदनिक्षेपार्थं नियुक्तिकगाथामाहकरणं च कारओ य कडं च तिपि छक्कनिक्वेवो । दृष्ये खित्ते काले भावेण उ कारओ जीवो ॥ ४ ॥ इह कृतमित्यनेन कर्मोपात्तं न चाकर्तृकं कर्म भवतीत्यर्थात्कर्तुराक्षेपो धात्वर्थस्य च करणस्य, अमीषां त्रयाणामपि प्रत्येकं नामादिः षोढा निक्षेपः, तत्र गाथापश्चार्द्धेनाल्पवक्तव्यात्तावत्करणमतिक्रम्य कारकस्य निक्षेपमाह, तत्र नामस्थापने प्रसिद्धखादनादृत्य द्रव्यादिकं दर्शयति- 'दच्चे' इति द्रव्यविषये कारकचिन्त्यः, स च द्रव्यस्य द्रव्येण द्रव्यभूतो वा कारको द्रव्यकारकः, | तथा क्षेत्रे भरतादौ यः कारको यस्मिन् वा क्षेत्रे कारको व्याख्यायते स क्षेत्रकारकः, एवं कालेऽपि योज्यम्, 'भावेन तु' भावद्वारेण चिन्त्यमानो जीवोऽत्र कारको, यसात्सूत्रस्य गणधरः कारकः, एतच्च निर्युक्तिकदेवोत्तरत्र वक्ष्यति 'टिइ अणुभावे' त्यादौ ॥ ४ ॥ साम्प्रतं करणव्याचिख्यासया नामस्थापने मुक्ला द्रव्यादिकरण निक्षेपार्थ निर्युक्तिकदाह- दव्यं पओगवीसस पओगसा मूल उत्तरे चैव । उत्तरकरणं वंजण अत्थो उ उवक्खरो सब्बो ॥ ५ ॥ १२ वित्तबद्धं सिगादिवद्धं वा चू० ३ अनुशाश्वते संसारै दुःखप्रचुरतायाम् ( दुःखप्रकुरे ) ४ खन्नाकर गोपकरणं च कटकरणं अद्धाकरणं पैतुकरणादि चू० Education Intematon सूत्र-कृत् पदयोः निक्षेपा:, 'करण' शब्दस्य निक्षेपाः For Penal Use On ~9~ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: सूत्रकृताङ्गं प्रत सुत्राक शीलाकाचायिवृचियुतं दीप अनुक्रम 'द्रव्ये' द्रव्यविषये करणं चिन्त्यते, तद्यथा-द्रव्यस्य द्रव्येण द्रव्यनिमित्तं वा करणम्-अनुष्ठानं द्रव्यकरणं, तत्पुनधिा -8 १समयाप्रयोगकरणं विस्रसाकरणं च, तत्र प्रयोगकरणं पुरुषादिव्यापारनिष्पार्य, तदपि द्विविधं-मूलकरणमुत्तरकरणं च, तत्रोत्तरकरणं ध्ययने कगाथापचार्द्धन दर्शयति-उत्तरत्र करणमुत्तरकरण-कर्णवेधादि, यदिवा तन्मूलकरणं घटादिकं येनोपस्करण-दण्डचक्रादिना रणनिक्षेपः अभिव्यज्यते-खरूपतः प्रकाश्यते तदुत्तरकरणं, कर्तरुपकारक: सर्वोऽप्युपस्कारार्थ इत्यर्थः ॥५॥ पुनरपि प्रपश्चतो मूलोचरकरणे प्रतिपादयितुमाहमूलकरणं सरीराणि पंच तिसु करणखंधमादीयं । दबिदियाणि परिणामियाणि विसओसहादीहिं॥६॥4॥ मूलकरणमौदारिकादीनि शरीराणि पश्च, तत्र चौदारिकवैक्रियाहारकेषु विपत्तरकरणं कर्णस्कन्धादिकं विधते, तथाहि-11 'सीसमरोयर पिही दो बाहू ऊरुया य अडंग'त्ति त्रयाणामप्येतन्निष्पत्तिमूलकरणं, कर्णस्कन्धाद्यङ्गोपाङ्गनिष्पत्तिस्तूतरकरणं, | कार्मणतैजसयोस्तु खरूपनिष्पत्तिरेव मूलकरणम् , अङ्गोपाङ्गाभावानोचरकरणं, यदिवा औदारिकस्य कर्णवेधादिकमुत्तरकरणं, वैकियस्स तूत्तरकरणम् – उत्तरवैक्रिय, दन्तकेशादिनिष्पादनरूपं वा, आहारकस्य तु गमनाथुत्तरकरणं, यदिवा औदारिकस्य मूलोत्तरकरणे गाथापबार्द्धन प्रकारान्तरेण दर्शयति–'द्रव्येन्द्रियाणि कलम्बुकापुष्पाधाकृतीनि मूलकरणं, तेषामेव परिणामिना विषोंपधादिभिः पाटवाघापादनमुत्तरकरणमिति ॥ ६॥ साम्प्रतमजीवाश्रितं करणमभिधातुकाम आह १ उपकारसमर्थ भवति संस्करणादित्यर्थः चू । २ कण्णवेहमाईयमिति टीकाकदहार्दम् । १ कालेन संपातनादि चिन्ता विस्तरेण चूणी न.यू. बत् ४ शीर्षमुर उदरं पृष्ठिः द्वौ बाडू उरू चाश्यै अगानि । eesesesecestroesesetsercenenes AREauratonintimational 'करण' शब्दस्य निक्षेपा: एवं भेदा: ~104 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ - ], उद्देशक [-], मूलं [-], निर्युक्तिः [७] दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०२] अंग सूत्र - ०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः संघाय य परिसाडणा य मीसे तहेब पडिसेहो। पडसंखसगढधूणा उडुतिरिच्छादिकरणं च ॥ ७ ॥ संघातकरणम् - आतानवितानीभूततन्तुसंघातेन पटस्य, परिसाटकरणं- करपत्रादिना शङ्खस्य निष्पादनं, संघातपरिसाटकरणं शकटादेः, तदुभयनिषेधकरणं-स्थूणादेरूर्ध्वतिरश्चीनाद्यापादनमिति ॥ ७ ॥ प्रयोगकरणमभिधाय चित्रीकरणा|भिधित्सयाऽऽह- खंधे दुप्परसादिए अन्भेसु विजुमाईसु । णिष्कण्णगाणि दव्वाणि जाण तं बीससाकरणं ॥ ८ ॥ विस्रसाकरणं साद्यनादिभेदाद्विधा, तत्रानादिकं धर्माधर्माऽऽकाशानामन्योऽन्यानुवेधेनावस्थानम्, अन्योऽन्य समाधानाश्रयणाच सत्यप्यनादित्वे करणखाविरोधः, रूषिद्रव्याणां च द्वयणुकादिप्रक्रमेण भेदसंघाताभ्यां स्कन्धवापत्तिः सादिकं करणं, पुद्गलद्रव्याणां च दशविधः परिणामः, तद्यथा— बंधनगति संस्थान भेदवर्णगन्धरसस्पर्श अगुरुलघुशब्दरूप इति, तत्र बन्धः स्त्रिग्वरूक्षस्वात, गतिपरिणामो—देशान्तरप्राप्तिलक्षणः, संस्थानपरिणामः परिमण्डलादिकः पञ्चधा, भेदपरिणामः खण्डप्रतरचूर्णकानुतटिकोत्करिकाभेदेन पञ्चधैव, खंडादिखरूपप्रतिपादकं चेदं गाथाद्वयम्, तद्यथा - ' खंडेहि खंडभेयं पयरभेयं जहम्मपडलस्स । चुष्णं चुण्णियभेयं अणुतडियं वंसवकलियं ॥ १ ॥ दुंदुमि समारोहे भेए उक्केरिया य उकेरं । वीससपओगमी सगसंघाय विओग मूर्णि १] विधिविपर्ययेऽन्यथाभावः विविधा गतिर्वा भू० २ अचिता काचिद्विद्युदिति लक्ष्यतेऽनेन ३ खण्डानां खण्डभेदः प्रतरभेदो यथा तभेदोऽनुठिका वंशवस्कलिका ॥ १ ॥ शुष्कतडागे समारोहे भेदे उत्करिका चोत्कीर्णः । विधसाप्रयोगमिधसंघात वियोगो विविध गमः ॥ २४देसीति काष्ठघटनो वुन्द इति वि०प०। 'करण' शब्दस्य निक्षेपाः एवं भेदा: For Park Use Only ~ 11~ yor Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः १ समयाध्ययने करणनिक्षेपः प्रत सूत्राक दीप अनुक्रम सूत्रकृताङ्गं विविहगमो ॥२॥ वर्णपरिणामः पञ्चानां श्वेतादीनां वर्णानां परिणतिस्तद्वयादिसंयोगपरिणतिय, एतत्स्वरूपं च गाथाभ्योऽवसेयं, शीलाक्षा-8 ताश्चेमाः-'जई कालगमेगगुणं सुकिलयंपिय हविज बहुयगुणं । परिणामिजद कालं सुकेण गुणाहियगुणेणं ॥१॥ जइ सुफिलमे- चायीय- गगुणं कालगदव्वं तु बहुगुणं जइ य । परिणामिजइ मुक्कं कालेण गुणाहियगुणेणं ।।२।। जइ सुकं एकगुणं कालगदपि एकगुण- त्तियुतं |मेव । काबोयं परिणाम तुलगुणचेण संभवइ ॥३॥ एवं पंचवि वण्णा संजोएणं तु वण्णपरिणामो । एकत्तीस भंगा सब्वेविय ते मुणे॥४॥ यया ॥४॥ एमेव य परिणामो गंधाण रसाण तहय फासाणं । संठाणाण य भणिो संजोगेणं बहुविगप्पो ॥५॥ एकत्रिंशद्भङ्गा एवं पूर्यन्ते-दश द्विकसंयोगा दश त्रिकसंयोगाः पञ्च चतुष्कसंयोगा एकः पञ्चकसंयोगः प्रत्येक वर्णाश्च पञ्चेति । अगुरुलघुपरिणामस्तु परमाणोरारभ्य यावदनन्तानन्तप्रदेशिकाः स्कन्धाः सूक्ष्माः, शब्दपरिणामस्ततविततधनशुपिरभेदाचतुर्दा, तथा ताल्चोष्टपुटव्यापाराघभिनिवर्यब, अन्येऽपि च पुद्गलपरिणामाश्छायादयो भवन्ति, ते चामी-'छाया य आयवो वा उजोओ तहय अंधकारो य । एसो उ घुग्गलाणं परिणामो फंदणा चेव ।।१।।सीयाणाइपगासा छाया णाइचिया बहुबिगप्पा । उण्हो पुणपगासो णायव्यो आयवो नाम ||२|| यदि कालकमेकगुगं शुकमपि च भवेत् बकाणम् । परिणम्यते कालकं धनेन गुणाधिकगुणेन ॥१॥ यदि धममेकगुण कालकद्रव्यं तु बाहुगुणं यदि च । परिणम्यवे श कालकेन गुणाधिकगुणेन ॥३॥ यदि छामेकगुणं कालकद्रव्यमप्येकगुणमेव । कापोतः परिणामः तुल्यगुणत्वेन संभवति ॥३॥ एवं पश्चापि वर्षाः संयोगेन तु वर्णपरिणामः । एकत्रिंशद्वजाः सर्वेऽपि च ते मुणितम्याः ॥ ४॥ एवमेव च परिणामो गन्धयो रसानां तथैव स्पर्शानाम् । संस्थानानां च भणितः संयोगेन बहुविकल्पः ॥ ५॥२ या चातपो वोद्योतस्तथैवान्ध कारव च। एष एव पुगलानां परिणामः स्पन्दनं चैव ॥१॥ शीता चातिप्रकाशा छाया | अनादिमिका बहुविकल्पा । उष्णः पुनः प्रकाशो ज्ञातम्म आतपो नाम ॥२॥ ॥४ ॥ 'करण' शब्दस्य निक्षेपा: एवं भेदा: ~12~ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सुत्रांक नवि सीओ नवि उण्हो समो पगासोय होइ उजओओ । कालं महलं तमपि य वियाण तं अंधयारंति ॥३॥ दब्बस्स चलण पफंदणा उ सा पुण गई उ निदिहा । वीससपओगमीसा अत्तपरेणं तु उभओवि ॥४॥ तथाऽनेन्द्रधनुर्विद्युदादिषु कार्येषु ल यानि पुगलद्रव्याणि परिणतानि तद्विरसाकरणमिति ॥८॥ मतं द्रव्यकरणम् , इदानी क्षेत्रकरणानिधित्सयाऽऽह ण विणा आगासेणं कीरइ जं किंचि खेत्तमागासं । वंजणपरियावणं उच्छुकरणमादियं बहुहा ॥९॥ 'क्षि निवासगत्योः' असादधिकरणे ट्रना क्षेत्रमिति, तच्चावगाहदानलक्षणमाकाशं, तेन चावगाहदानयोग्येन विना न किञ्चिदपि कर्तुं शक्यत इत्यतः क्षेत्रे करणं क्षेत्रकरणं, नित्यलेऽपि चोपचारतः क्षेत्रस्यैव करणं क्षेत्रकरणं, यथा गृहादावपनीते कुत| माकाशमुत्पादिते विनष्टमिति, यदिवा 'व्यञ्जनपर्यायापन' शब्दद्वाराऽध्यातम् 'क्षुकरणादिक मिति इक्षुक्षेत्रस करणम् लाङ्ग-1 लादिना संस्कार क्षेत्रकरणं, तच्च बहुधा-शालिक्षेत्रादिभेदादिति ॥ ९॥ साम्प्रतं कालकरणाभिधिस्सयाऽऽह -- | कालो जो जावइओ जंकीरद जमि जंमि कालंमि। ओहेण णामओ पुण करणा एकारस हवंति ॥१०॥ कालस्यापि मुख्यं करणं न संभवतीत्यौपचारिक दर्शयति-'कालो यो यावानिति' यः कश्चिद् घटिकादिको नलिकादिना व्यवच्छिद्य व्यवस्थाप्यते, तद्यथा--पष्टयुदकपलमाना घटिका द्विघटिको मुहर्तखिशन्ममुहूर्तमहोरात्रमित्यादि, तत्कालकरणमिति, १ नापि शीतो नाप्युष्णः समः सकाशो भवति बोयोतः। कालं मलिनं तमोऽपि च विजानीहि तदन्पकार इति॥३॥ द्रव्यस्य चलनं प्रश्पन्दना तु सा पुनर्गतिस्तु 18 निविष्ठा । विधसाप्रयोगमिधाचात्मपराभ्यां तूभयतोऽपि ॥ ४॥ २ साहहिं भरकमाणहि गामो सेतीको भू.। दीप अनुक्रम ceaestroescenesenterventserrestroes 'करण' शब्दस्य निक्षेपा: एवं भेदा: ~13~ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [-], उद्देशक -1, मूलं [-], नियुक्ति: [१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रकृताङ्गं शीलाका चार्षीयत्तियुतं ध्ययने क. रणनिक्षेपः सूत्रांक - ॥५॥ दीप अनुक्रम यदा-यत् यस्मिन् काले क्रियते यत्र वा काले करणं व्याख्यायते तत्कालकरणम् , एतदोघतः, नामतस्त्वेकादश करणानि ॥१०॥ तानि चामूनि बंद च बालवं चेच, कोलवं तेत्तिलं तहा । गरादि वणियं चेच, विही हवइ सत्तमा ।।११।। सउणि चउप्पयं नागं किंसुग्धं च करणं भवे एपं । एते चत्तारि धुवा अन्ने करणा चला सत्त ॥ १२॥ चाउद्दसि रत्तीए सउणी पडिवजए सदा करणं । तत्तो अहक्कम खलु चउप्पयं णाग किंसुग्धं ॥१३॥ ऐतगाथात्रयं सुखोभेयमिति ॥ ११ ॥ १२॥ १३ ॥ इदानीं भावकरणप्रतिपादनायाऽऽह- भावे पओगवीसस पओगसा मूल उत्तरे चेव । उत्तर कमसुयजोवण वण्णादी भोअणादीसु॥१४॥ भावकरणमपि द्विधा--प्रयोगविस्रसाभेदात् , तत्र जीवाश्रितं प्रायोगिक मूलकरणं पञ्चानां शरीराणां पर्याप्तिः, तानि हि पर्याप्तिनामकर्मोदयादौदयिके भावे वर्तमानो जीवः खवीर्यजनितेन प्रयोगेण निष्पादयति । उत्तरकरणं तु गाथापश्चार्द्धनाह-उत्तरकरणं क्रमश्रुतयौवनवर्णादिचतूरूपं, तत्र क्रमकरणं शरीरनिष्पत्युत्तरकाल बालवस्थविरादिक्रमेणोत्तरोत्तरोऽवस्थाविशेषः, श्रुतकरणं तु व्याकरणादिपरिज्ञानरूपोऽवस्थाविशेषोऽपरकलापरिज्ञानरूपश्चेति,यौवनकरणं कालकृतो वयोऽवस्थाविशेषो रसायनायापादितो वेति, १ श्रीविलोयण प्र० । २ पक्रतिहिलो दुगुणिआ दुरूनहीणा व सुरूपक्खंभि । सत्तहिए देव तिथं तं चैव रूवा हियं रति ॥ १॥ इति गावानुसारेण करणयोजना | xx२-८-२०६३ (विधि) + (वणिक)-१०-२, २०४६+१७ (प. वि.)। ॥५॥ SantauranANJana T amtaram.orm 'करण' शब्दस्य निक्षेपा: एवं भेदाः, तद् अंतर्गत् एकादशा: करणा: ~144 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम [-] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [-], निर्युक्ति: [१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः तथा वर्णगन्धरसस्पर्शकरणं विशिष्टेषु भोजनादिषु सत्सु यद्विशिष्टवर्णाद्यायादनमिति एतच पुद्गलविपाकित्वाद्वर्णादीनामजीवा| श्रितमपि द्रष्टव्यमिति ॥ १४ ॥ इदानीं विस्रसाकरणाभिधित्सयाऽऽह घण्णादिया य वण्णादिएस जे केइ बीससामेला । ते हुंति थिरा अथिरा छायातवदुद्धमादीसु || १५ || 'वर्णादिका' इति रूपरसगन्धस्पर्शाः ते यदाऽपरेष्वपरेषां वा स्वरूपादीनां मिलन्ति ते वर्णादिमेलका बिस्रसाकरणं, ते च मेलकाः स्थिरा -- असंख्येयकालावस्थायिनः, अस्थिराव-क्षणावस्थायिनः, सन्ध्यारागान्द्रधनुरादयो भवन्ति, तथा छाया। वेनातपखेन च पुद्गलानां विस्रसापरिणामत एव परिणामो भावकरणं दुग्धादेव स्तनप्रच्यवनानन्तरं प्रतिक्षणं कठिणाम्लादिभावेन गमनमिति ॥ १५ ॥ साम्प्रतं श्रुतज्ञानमधिकृत्य मूलकरणाभिधित्सयाऽऽह मूलकरणं पुण सुते तिविहे जोगे सुभासुभे झाणे । ससमयसुरण पगयं अज्झवसाणेण य सुहेणं ॥ १६ ॥ 'पुनः ग्रन्थे मूलकरणमिदं 'त्रिविधे योगे ' मनोवाकायलक्षणे व्यापारे शुभाशुभे च ध्याने वर्तमानैर्ग्रन्थरचना क्रियते, तत्र लोकोचरे शुभध्यानावस्थितैर्ब्रन्थरचना विधीयते लोके सशुभध्यानाश्रितैर्ग्रन्थग्रथनं क्रियत इति, लौकिकग्रन्थस्य | कर्मबन्धहेतुलात् कर्तुरशुभध्यायित्वमवसेयम्, इह तु सूत्रकृतस्य तावत्स्वसमेयलेन शुभाध्यवसायेन च प्रकृतं यस्माद्गणधरैः शुभध्यानावस्थितैरिदमङ्गीकृतमिति ।। १६ ।। तेषां च ग्रन्थरचनां प्रति शुभध्यायिनां कर्मद्वारेण योऽवस्थाविशेषस्तं दर्शयितु| कामो निर्मुक्तिकृदाह १ समयेन प्र० । २ समयत्वेनेति पाठे योगसमुचयाय अन्यथा ससमयसमुचयः, शुभध्यानसमुचयोऽप्युभयत्र ३ रिदमङ्गीकृत इति प्र० । 'करण' शब्दस्य भेदाः, श्रुतज्ञाने मूलकरणं For Paren ~15~ andrary org Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्काचार्ययव चियुतं ॥६॥ enesects “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ - ], उद्देशक [ - ], मूलं [-], निर्युक्ति: [१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः forgery धनिकायणनिहत्तदीहहस्सेसु । संकमउदीरणाए उदए वेदे उसमे च ॥ १७ ॥ तत्र कर्मस्थिति प्रति अजघन्योत्कृष्टकर्मस्थितिभिर्गणधरैः सूत्रमिदं कृतमिति, तथाऽनुभावो - विपाकस्तदपेक्षया मन्दानुभावैः, तथा बन्धमङ्गीकृत्य ज्ञानावरणीयादिप्रकृतीर्मन्दानुभावा बद्भिः तथाऽनिकाचयद्भिरेवं निघत्तावस्थामकुर्वद्भिः तथा दीर्घस्थितिकाः कर्मप्रकृतीईसीयसीर्जनयद्भिः, तथोत्तरप्रकृतीर्वध्यमानासु संक्रामयद्भिः, तथोदयवतां कर्मणामुदीरणां विदधानैरप्रमत्तगुणस्यैस्तु सातासाताऽऽयूंष्यनुदीरयद्भिः, तथा मनुष्यगतिपश्चेन्द्रियजात्यौदारिकशरीरतदङ्गोपाङ्गादिकर्मणामुदये वर्तमानैः, तथा वेदमङ्गीकृत्य पुंवेदे सति, तथा 'उवसमेति सूचनात्सूत्रमिति क्षायोपशमिके भावे वर्तमानैर्गणधारिभिरिदं सूत्रकृता इन्धमिति | ॥ १७ ॥ साम्प्रतं स्वमनीषिकापरिद्वारद्वारेण करणप्रकारमभिधातुकाम आहे --- सोऊण जिणवरमतं गणहारी काउ तकखओषसमं । अज्झबसाणेण कथं सूत्तमिणं तेण सूयगडं ॥ १८ ॥ 'श्रुखा ' निशम्य जिनवराणां तीर्थकराणां मतम् - अभिप्रायं मातृकादिपदं 'गणघरैः' गौतमादिभिः कृता 'तत्र' ग्रन्थरचने क्षयोपशमं तत्प्रतिबन्धककर्मक्षयोपशमाद्दत्तावधानैरितिभावः, शुभाध्यवसायेन च सता कृतमिदं सूत्रं तेन सूत्रकृतमिति ॥ १८ ॥ इदानीं कस्मिन् योगे वर्तमानैस्तीर्थकुद्भिर्भाषितं ? कुत्र वा गणधरैर्हन्धमित्येतदाह--- वइजोगेण पभासियमणेगजोगंधराण साहूणं । तो वयजोगेण कयं जीवस्स सभावियगुणेण ॥ १९ ॥ तत्र 'तीर्थकृद्भिः' क्षायिकज्ञानवर्तिभिर्वाग्योगेनार्थः प्रकर्षेण भाषितः प्रभाषितो गणधराणां, ते च न प्राकृतपुरुष कल्पाः १ मातृकापदादिकं प्र० । Education International - कर्मस्थिति आदि, 'करण' शब्दस्य भेदा:, For Park Use Only ~16~ १ समया ध्ययने श्रुते मूलकरणं ॥६॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम [-] सूत्र. २ “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ - ], उद्देशक [ - ], मूलं [ - ], निर्युक्तिः [१९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - किं खनेकयोगधराः, तत्र योगः-क्षीराश्रवादिलब्धिकलापसंबन्धस्तं धारयन्तीत्यनेक योगधरास्तेषां प्रभाषितमिति सूत्रकृताङ्गा|पेक्षया नपुंसकता, साधवचात्र गणधरा एव गृह्यन्ते, तदुदेशेनैव भगवतामर्थप्रभाषणादिति, ततोऽर्थ निशम्य गणधरैरपि वाग्योगेनैव कृतं तच्च जीवस्य 'खाभाविकेन गुणेनेति' स्वस्मिन् भावे भवः स्वाभाविकः प्राकृत इत्यर्थः, प्राकृतभाषयेत्युक्तं भवति, न पुनः संस्कृतया ललिश प्रकृतिप्रत्ययादि विकारविकल्पनानिष्पन्नयेति ॥ १९ ॥ पुनरन्यथा सूत्रकृतनिरुक्तमाहअक्खरगुणमतिसंघायणाऍ कम्मपरिसाडणाए य । तदुभयजोगेण कथं सुत्तमिणं तेण सूतगडं ॥ २० ॥ अक्षराणि - अकारादीनि तेषां गुणः - अनन्तगमपर्यायवत्त्वमुच्चारणं वा, अन्यथाऽर्थस्य प्रतिपादयितुमशक्यत्वात् मतेः-मति| ज्ञानस्य संघटना मतिसंघटना, अक्षरगुणेन मतिसंघटना अक्षरगुणमतिसंघटना, भावश्रुतस्य द्रव्यश्रुतेन प्रकाशनमित्यर्थः, अक्षरगुणस्य वा मत्या बुद्ध्या संघटना रचनेतियावत् तयाऽक्षरगुणमतिसंघटनया, तथा कर्मणां ज्ञानावरणादीनां परिशाटना-जी| वप्रदेशेभ्यः पृथकरणरूपा तथा च हेतुभूतया, सूत्रकृताङ्गं कृतमिति संबन्धः, तथाहि यथा यथा गणधराः सूत्रकरणायोद्यमं कुर्वन्ति तथा तथा कर्मपरिशाटना भवति, यथा यथा च कर्मपरिशाटना तथा तथा ग्रन्थरचनायोद्यमः संपद्यत इति एतदेव गाथापश्चाधेन दर्शयति- 'तदुभययोगेनेति' अक्षरगुणमतिसंघटनायोगेन कर्मपरिशाटनायोगेन च, यदिवा वाम्योगेन मनोयोगेन च कृतमिदं सूत्रं तेन सूत्रकृतमिति ॥ २० ॥ इहानन्तरं सुत्रकृतस्य निरुक्तमुक्तम्, अधुना सूत्रपदस्य निरुक्ताभिधित्सयाऽऽहसुतेण सुत्तिया चिप अत्था तह सहयां य जुत्तां य। तो बहुविहप्पैउत्ता एय पसिद्धा अणादीया ॥२१॥ १ प्रोताः २ युज्यमानाः ३ चढण जाण पंचावयवविशेषेण वाचू अन्यरूपेण 'सूत्रकृत' शब्दस्य निर्युक्तिः For Park at Use Only ~17~ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [-], उद्देशक -1, मूलं [-], नियुक्ति: [२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्' मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्राक ॥७॥ सत्रकृता अर्थस्य सूचनात्सूत्रं तेन सूत्रेण केचिदर्थाः साक्षात्सूत्रिता-मुख्यतयोपात्ताः, तथाऽपरे सूचिता-अर्थापच्याक्षिप्ताः साक्षादनुपा-18 १ समयाशीलाङ्का-18दानेऽपि दध्यानयनचोदनया तदाधारानयनचोदनावदिति, एवं च कृखा चतुर्दशपूर्वविदः परस्परं पदस्थानपतिता मन्ति॥2 ध्ययने सूचायि-1 तथा चोक्तम्-"अक्खरलभेण समा ऊणहिया हुंति मतिविसेसेहिं । तेऽविय मईविसेसा सुपणाणमंतरे जाण ॥१॥"तत्र ये अनिरुक्तम् चियुतं साक्षादपासास्तान् प्रति सर्वेऽपि तुल्याः, ये पुनः सूचितास्तदपेक्षया कश्चिदनम्तभागाधिकमर्थ वेश्यपरोऽसंख्येयभागाधिकमम्पः। संख्येयभागाधिक तथाऽन्यः संख्येयासंख्येयानन्तगुणमिति, ते च सर्वेऽपि 'युक्ता' युक्त्युपपनाः सूत्रोपाता एव वेदितव्याः, तथा चाभिहितम्-"तेविय मईविसेसे" इत्यादि, ननु किं सूत्रोपात्तेभ्योऽन्येऽपि केचनार्थाः सन्ति ! येन तदपेक्षया चतुर्दशपू-18 विदा पदस्थानपतितसमुपुष्यते, पाद विद्यन्ते, यतोऽभिहितम्-"पण्णवेणिजा भावा अणंतभागो उ अणमिलप्पाणं । पण्णवणिआणं पुण अर्णतभागो सुयनिबद्धो ॥१॥" यतश्चैवं ततस्ते अर्थो आगमे बहुविध प्रयुक्ता:-मरुपात्ताः केचन साक्षात्केचिद र्थापच्या समुपलभ्यन्ते, यदिवा कचिद्देशग्रहणं कचित्सर्वार्थोपादानमित्यादि, यैश्च पदैस्ते अर्थाः प्रतिपाद्यन्ते तानि पदानि प्रक-18 शण सिद्धानि प्रसिद्धानि न साधनीयानि, तथाऽनादीनि च तानि नेदानीमुत्पाद्यानि, तथा चेयं द्वादशाङ्गी शब्दार्थरचनाद्वारेण विदेहेषु नित्या भरतैरावतेष्वपि शब्दरचनाद्वारेणैव प्रति तीर्थकरं क्रियते अन्यथा तु नित्यैव । एतेन च 'उच्चरितप्रध्वंसिनो वर्णो ॥७॥ | इत्येतन्निराकृतं घेदितव्यमिति ॥ २१ ॥ साम्प्रतं सूत्रकृतस्य श्रुतस्कन्धाध्ययनादिनिरूपणार्थमाह अक्षरलाभेन समा ऊनाधिका भवन्ति मतिविशेषैः । तानपि च मतिविशेषान् श्रुतझानाभ्यन्तरे जानीहि ॥१॥ २ प्रज्ञापनीया भावा अनन्तभाग एवानमिलाप्यानाम् । प्रज्ञापनीयानां पुनरनन्तंभागः श्रुतनिबद्धः ॥१॥ दीप अनुक्रम Receae emestee 'सूत्र'शब्दस्य नियुक्ति: ~18~ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [-], उद्देशक -1, मूलं [-], नियुक्ति: [२२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सुत्रांक दो चेव सुयक्खंधा अज्झयणाईच हुंति तेवीसं । तेत्तिसुदेसणकाला आयाराओ दुगुणमंग ॥२२॥ द्वावत्र श्रुतस्कन्धौ, प्रयोविंशतिरध्ययनानि, त्रयस्त्रिंशदुद्देशनकालाः, ते चैवं भवन्ति-प्रथमाध्ययने चलारो द्वितीये त्रयस्तृतीये चखारः एवं चतुर्थपञ्चमयोह्रौं द्वौ तथैकादशस्खेकसरकेष्वेकादशैवेति प्रथमश्रुतस्कन्धे, तथा द्वितीयश्रुतस्कन्धे सप्ताध्ययनानि तेषां सप्तैवोद्देशनकालाः, एवमेते सर्वेऽपि त्रयस्त्रिंशदिति, एतच्चाचाराङ्गाद्विगुणमऊं, पत्रिंशत्पदसहस्रपरिमाणमित्यर्थः ॥ २२ ॥ साम्प्रतं, सूत्रकृताङ्गनिक्षेपानन्तरं प्रथमश्रुतस्कन्धस्य नामनिष्पन्ननिक्षेपाभिधित्सयाऽऽहनिक्खेवो गाहाए चउब्धिहो छविहो य सोलससु । निक्खेवो य सुयंमि य खंधे य चउब्धिहो हो ॥२३॥ इहायश्रुतस्कन्धस्य गाथाषोडशक इति नाम, गाथाख्यं पोडशमध्ययनं यस्मिन् श्रुतस्कन्धे स तथेति, तत्र गाथाया नामस्थापनाद्रच्यभावरूपश्चतुर्विधो निक्षेपः, नामस्थापने प्रसिद्धे, द्रव्यगाथा द्विधा-आगमतो नोआगमतच, तत्र आगमतो ज्ञाता तत्र चानुपयुक्तः 'अनुपयोगो द्रव्य'मितिकृखा, नोआगमतस्तु त्रिधा-शशरीरद्रव्यगाथा भव्यशरीरद्रव्यगाथा ताभ्यां विनिर्मुक्ता च"सत्तरतरू विसमे ण से हया ताण छह णह जलया । गाहाए पच्छद्धे भेओ छहोति इककलो ॥१॥” इत्यादिलक्षणलक्षिता पत्रपुस्तकादिन्यस्तेति, भावगाथापि द्विविधा-आगमनोआगमभेदात् , तत्राऽऽगमतो गाथापदार्थज्ञस्तत्र चोपयुक्तः, नोआगमतस्विदमेव गाथाख्यमध्ययनम् , आगमैकदेशवादस । पोडशकस्यापि नामस्थापनाद्रग्यक्षेत्रकालभावभेदात् पोढा निक्षेपः, तत्र नाम १ सप्त तरवः (.चतुर्मात्रा गणाः ) अध्मः (गुरुः ) विषमे न (जगणः,) तस्याघातकास्तासां षष्ठे नहौ ( चतुर्लषवः) जो वा । गाथायाः पश्चार्थे भेदः षष्ठ Oil एकल इति ॥१॥ दीप Feeeeeees eeeeeeeeeeeeeeeesea ecene अनुक्रम A asurary.com श्रुतस्कन्ध एवं अध्ययनस्य निरुपणं ~19~ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [-], उद्देशक -1, मूलं [-], नियुक्ति: [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्राक दीप अनुक्रम सूत्रकृताङ्ग स्थापना स्थापने क्षुण्णे, द्रव्यषोडशकं ज्ञशरीरभव्यशरीरविनिर्मुक्तं सचित्तादीनि षोडश द्रव्याणि, क्षेत्रषोडशकं षोडशाकाशप्रदेशाः, काल-18|१समयाशीलाङ्का पोटशर्क पोडशं समयाः एतत्कालावस्थाथि वा द्रव्यमिति, भावपोडशकमिदमेवाध्ययनपोडशक, क्षायोपशमिकभावहात्तखा- ध्ययने अ. |दिति । श्रुतस्कन्धयोः प्रत्येकं चतुर्विधो निक्षेपः, स चान्यत्र न्यक्षेण प्रतिपादित इति नेह प्रतन्यते ॥ २३ ॥ साम्प्रतमध्ययनानां ध्ययनार्थात्तियुत प्रत्येकमाधिकार दिदर्शयिषयाऽऽह |धिकारा ससमयपरसमयपरूवणा य णाऊण बुज्झणां चेव । संबुद्धस्सुवसग्गां थीदोसविवजणों चेव ॥२४॥ ॥८॥ उवसग्गभीरुणो धीवसस्स णरएसु होज उववाओ। एव महप्पा वीरो जयमाह तहा जएजाई ॥२५॥ परिचत्तनिसीलकुसीलसुसीलसविग्गसीलवं चेव । णाऊण वीरियदुर्ग पंडियवीरिए पयट्टेड (पयहिजो) ॥२६॥ धम्मो समाहि मैग्गो समोसदा उसु सववादीसु । सीसगुणदोसकहणा "गंधमि सदा गुरु निवासो ॥२७॥ आदाणिय संकलिया आदाणीयंमि आदयचरितं । अप्पग्गंधे पिंडियवयणेणं होई SP अहिगारो ॥२८॥ का तत्र प्रथमाध्ययने खसमयपरसमयप्ररूपणा, द्वितीये स्वसमयगुणान् परसमयदोषांश शाखा खसमय एव बोधो विधेय इति, | तृतीयाध्ययने तु संबुद्धः सन् यथोपसर्गसहिष्णुर्भवति तदभिधीयते, चतुर्थे स्त्रीदोषविवर्जना, पञ्चमे खयमाधिकारः, तूयथा| उपसर्गासहिष्णोः स्त्रीवंशवर्तिनोऽवश्यं नरकेपूपपात इति, षष्ठे पुनः 'एवमिति अनुकूलप्रतिकूलोपसर्गसहनेन खीदोषवजेनेन च ॥८॥ | भगवान् महावीरो जेतन्यस्य कर्मणः संसारख वा पराभवेन जयमाह ततस्तथैव यतं विधत्त यूयमिति शिष्याणामुपदेशो दीयते। १स्त्रीवशास्स प्र. 10 SARELatunintamatkarma अध्ययनस्य अर्थाधिकारः ~ 20~ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [-], उद्देशक -1, मूलं [-], नियुक्ति: [२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत cenesesesesese सुत्रांक 18 सप्तमे खिदमभिहितं, तद्यथा-निःशीला-गृहस्थाः कुशीलास्तु-अन्यतीर्थिकाः पार्थस्थादयो वा ते परित्यक्ता येन साधुना स परित्यक्तनिःशीलकुशील इति, तथा सुशीला-उद्युक्तविहारिणः संविना:-संवेगमनास्तत्सेवाशीलः शीलवान् भवतीति, अष्टमे खेतत्प्रतिपाद्यते, तद्यथा-ज्ञाखा वीर्यद्वयं पण्डितवीर्ये प्रयत्नों विधीयत इति, नवमे अर्थाधिकारस्त्वयं, तबधा-यथाऽवस्थितो धर्मः कथ्यते, दशमे तु समाधिः प्रतिपाद्यते, एकादशे तु सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मको मोक्षमार्गः कथ्यते, द्वादशे खयमाधिकारः,19 तद्यथा-'समवस्ता' अवतीर्णा ग्यवसिताचतुर्प मतेषु क्रियाक्रियाऽज्ञानवैनयिकाख्येष्वभिप्रायेषु त्रिपश्युत्तरशतत्रयसंख्याः। | पापण्डिनः स्वीयं खीयमर्थ प्रसाधयन्तः समुत्थितास्तदुपन्यस्तसाधनदोषोद्भावनतो निराक्रियन्ते, त्रयोदशे खिदमभिहितं, तद्यथा-18 सर्ववादिषु कपिलकणादाक्षपादशौद्धोदनिजैमिनिप्रभृतिमतानुसारिषु कुमार्गप्रणेतृतं साध्यते, चतुर्दशे तु ग्रन्थाख्येऽध्ययनेऽयमर्था[धिकारः, तद्यथा-शिष्याणां गुणदोपकथना, तथा शिष्यगुणसम्पदुपेतेन च विनेयेन नित्यं गुरुकुलवासो विधेय इति, पञ्चदशे | त्वादानीयाख्येऽध्ययनेऽर्थाधिकारोऽयं, तद्यथा-आदीयन्ते-गृह्यन्ते उपादीयन्ते इत्यादानीयानि-पदान्यर्था वा ते च प्रागुपन्यस्तपदैरथैव प्रायशोत्र संकलिताः, तथा आयतं चरित्रं-सम्यक्चरित्रं मोक्षमार्गप्रसाधकं तच्चात्र व्यावर्ण्यत इति, पोडशे तु गाथा ख्येऽल्पग्रन्थेऽध्ययनेऽयमों व्यावयेते, तद्यथा-पञ्चदशभिरध्ययनर्योज्योऽभिहितः सोत्र 'पिण्डितवचनेन' संक्षिप्ताभिधानेन ४ प्रतिपाद्यत इति ॥ २८ ॥ 'गाहासोलसगाणं पिंडत्थो वणिओ समासेणं । इत्तो इकिकं पुण अज्झयणं कित्तयिस्सामि' ॥१॥ १ गुणानुरूपगु० प्र०२ गावापोडशकानां पिण्डाों वर्णितः ( समुदायार्थः) समासेन । हत एकैकं पुनरध्ययन कीसेविच्यामि ॥ १॥ ३ चूर्णिगाथा दीप अनुक्रम SAREairatna अध्ययनस्य अर्थाधिकारः ~21~ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम [-] सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्का चार्ययतियुर्त ॥ ९ ॥ “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [-] मूलं [-], निर्युक्तिः [२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - तु तत्राद्यमध्ययनं समयारूयं तस्य चोपक्रमादीनि चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्रोपक्रमणमुपक्रम्यते वाऽनेन शास्त्रं न्यासदेशं - निक्षेपावसरमानीयत इत्युपक्रमः, स च लौकिको नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकाल भावभेदेन पडूप आवश्यकादिष्वेव प्रपश्चितः, शास्त्रीयोऽप्यानुपूर्वीनामप्रमाणवक्तव्यताऽर्थाधिकारसमवताररूपः षोढैव, तत्रानुपूर्व्यादीन्यनुयोगद्वारानुसारेण ज्ञेयानि तावद्यावत्समवतारः तत्रैतदध्ययनमानुपूर्व्यादिषु यत्र यत्र समवतरति तत्र तत्र समवतारयितव्यं, तत्र दशविधायामानुपूर्व्या गणनानुपूर्व्यं समवतरति, | सापि त्रिधा - पूर्वानुपूर्वी पञ्चानुपूर्वी अनानुपूर्वी चेति, तत्रेदमध्ययनं पूर्वानुपूर्व्या प्रथमं पचानुपूर्व्या पोडशम् अनानुपूर्व्यां तु चिन्त्यमानमस्यामेवैकादिकायामेको तरिकायां षोडशगच्छगतायां श्रेण्यामन्योऽन्याभ्यासद्विरूपोनसंख्या भेदं भवति । अनानुपूर्व्या भेदसंख्यापरिज्ञानोपायोऽयं तद्यथा- 'एकाद्या गच्छपर्यन्ताः परस्परसमाहताः । राशयस्तद्धि विज्ञेयं, विकल्पगणिते फलम् ॥ १ ॥' प्रस्तारानयनोपायस्त्रयम् - "पुचाणुपुवि हेडा समयाभेएण कुण जहाजेहं । उवरिमतुद्धं पुरज नसेज पुत्रकमो सेसे ||१|| ” तत्र - 'गणिते ऽन्त्यविभक्ते तु लब्धं शेषैर्विभाजयेत् । आदावन्ते च तत् स्थाप्यं, विकल्पगणिते क्रमात् ||१||' अयं लोकः शिष्यहितार्थं वित्रियते तत्र सुखावगमार्थं षट् पदानि समाश्रित्य तावद श्लोकार्थी योज्यते, तत्रैवं १२३४५६ षट् पदानि स्याप्यानि एतेषां | परस्परताडनेन सप्त शतानि विंशत्युत्तराणि गणितमुच्यते, तस्मिन् गणितेऽन्त्योऽत्र पट्कः तेन भागे हते विंशत्युत्तरं शतं लभ्यते तच | षण्णां पङ्कीनामन्त्यपङ्कौ षट्कानां न्यस्यते, तदधः पञ्चकानां विंशत्युत्तरमेव शतम्, एवमधोऽभवतुष्कत्रिकाद्विकैककानां प्रत्येकं विंशत्युत्तरशतं न्यस्यम्, एवमन्त्यपक्कौ सप्त शतानि विंशत्युत्तराणि भवन्ति, एषा च गणितप्रक्रियाया आदिरुच्यते, तथा यसि शत्युतरं शतं लब्धं तस्य च पुनः शेषेण पञ्चकेन भागेऽपहृते लब्धा चतुर्विंशतिः, सावन्तस्तावन्तश्च पञ्चकचतुष्कत्रिकद्विकैककाः अध्ययनस्य अर्थाधिकारः, प्रथम अध्ययन- 'समय' स्य आरम्भः For Pernal Use On ~ 22~ stat statio १ समयाध्ययने अनुयोगद्वाराणि ॥९॥ wancarary.org Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [२८] (०२) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सुत्रांक eseesercecemeseseseserverceesesect प्रत्येक पश्चमपलौ न्यस्याः यावद्विशत्युत्तरं शतमिति, सदधोयतो न्यस्तमई मुक्खा येऽन्ये तेषां यो यो महत्संख्यः स सोऽधस्ताच्चतु-1 |विंशतिसंख्य एव तावत् न्यखो यावत्सप्त शतानि विंशत्युत्तराणि पश्चमपकावपि पूर्णानि भवन्ति, एषा च गणितप्रक्रिययैवान्त्यो-18 ऽभिधीयते, एवमनया प्रक्रियया चतुर्विशतेः शेषचतुष्ककेन भागे हृते षट् लभ्यन्ते, तावन्तश्चतुर्थपको चतुष्ककाः स्थाप्याः, तदधः षट् त्रिकाः, पुनर्दिका भूय एककाः, पुनः पूर्वन्यायेन पतिः पूरणीया, पुनः षट्कस्य शेषत्रिकेण भागे हते दो लभ्येते, तावन्मात्री त्रिको तृतीयपको, शेषं पूर्ववत्, शेषपविद्धये शेषमङ्कद्वयं क्रमोत्क्रमाभ्यां व्यवस्थाप्यमिति १२३४, २१३४,१३२४, ३१२४ २३१४, ३२१४, १२४३, २१४३, १४२३, ४१२३, २४१३, ४२१३, १३४२, ३१४२, १४३२, ४१३२, ३४१२, ४३१२, | २३४१,३२४१, २४३१, ४२३१, ३४२१,४३२१ । तथा नाम्नि षड्विधनाम्यवतरति, यतस्तत्र पडू भावाः प्ररूप्यन्ते, श्रुतस्य च |क्षायोपशमिकभाववर्तिखात् । प्रमाणमधुना-प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणं, तत् द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदाच्चतुर्दा, तत्रास्थाध्ययनस्य क्षायोपश-18 | मिकभावव्यवस्थितलाद्भावप्रमाणेऽवतारः, भावप्रमाणं च गुणनयसंख्याभेदात्रिधा, तत्रापि गुणप्रमाणे समवतारः, तदपि जीवाजीवमेदाद् द्विधा, समयाध्ययनस्य च क्षायोपशमिकभावरूपत्वात् तस्य च जीवानन्यखाजीवगुणप्रमाणे समवतारः, जीवगुणप्रमाणमपि ज्ञानदर्शनचारित्रभेदात्रिविधं, तत्रास बोधरूपलात् ज्ञानगुणप्रमाणे समवतारः, तदपि प्रत्यक्षानुमानोषमानागमभेदाच्चतुद्धो, तत्रास्थागमप्रमाणे समवतारः, सोऽपि लौकिकलोकोत्तरभेदाद् द्विधा, तदस लोकोत्तरे समवतारः, तस्य च सूत्राथेतदुभयरूपत्वात्रैविध्यं, 18|| (अस त्रिपरूत्वात् ) त्रिष्यपि समवतारः, यदिवा-आत्मानन्तरपरम्परभेदादागमखिविधः, तत्र तीर्थकृतामर्थापेक्षयाऽऽस्मागमो गणधराणामनन्तरागमस्तच्छिष्याणां परम्परागमः, सूत्रापेक्षया तु गणधराणामात्मागमस्तच्छिष्याणामनन्तरागमतदन्येषां परम्परागमः, दीप अनुक्रम Munauranorm अध्ययनस्य अर्थाधिकारः, प्रथम अध्ययनस्य आरम्भ: ~23~ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत समयाध्ययने अराणि सूत्राक सूत्रकृताङ्गं NI गुणप्रमाणानन्तरं नयप्रमाणावसरः, तस्य चेदानी पृथक्वानुयोगे नास्ति समवतारो, भवेद्वा पुरुषापेक्षया, तथा चोक्तम् “मूढनइयं सुयं शीलाङ्का- कालियं तु ण णया समोरयंति इहं । अषुहुत्ते समोयारो णत्थि पुहुत्ते समोयारो ॥१॥" तथा "आसञ्ज उ सोयारं नए नयविसा- चाय-य रउ चूया," संख्याप्रमाणे खष्टधा-नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालपरिमाणपर्यवभावभेदात् , तत्रापि परिमाणसंख्यायां समवतारः, सापि त्तियुत | कालिकदृष्टिवादभेदात् द्विधा, तत्रास कालिकपरिमाणसंख्यायां समवतारः, तत्राप्यङ्गानङ्गयोरङ्गप्रविष्टे समवतारः, पर्यवस-1 ॥१०॥ ख्यायां त्वनन्ताः पर्यवाः, तथा संख्येयान्यक्षराणि संख्येयाः संघाताः संख्येयानि पदानि संख्येयाः पादाः संख्येयाः श्लोकाः संख्येया गाधाः संख्येया वेढाः संख्येयान्यनुयोगद्वाराणि । साम्प्रतं वक्तव्यतायाः समवतारश्चिन्त्यते-सा च स्वपरसमयतदुभयभेदात्रिधा, तत्रेदमध्ययनं त्रिविधायामपि समवतरति । अर्थाधिकारो द्वेधा-अध्ययनार्थाधिकार उद्देशार्थाधिकारश्च, तत्राध्ययनार्थाधिकारोभिहितः, उद्देशार्थाधिकारं तु गाथान्तरितं नियुक्तिकूद्वक्ष्यति । साम्प्रतं निक्षेपावसरः, स च त्रिधा --ओपनिष्पन्नो नामनिष्पना सूत्रालापकनिष्पमध, तत्रौघनिष्पन्नेऽध्ययनं, तस्य च निक्षेप आवश्यकादी प्रबन्धेनाभिहित एव, नामनिष्पने 18 तु समय इति नाम, तनिक्षेपार्थ नियुक्तिकार आहनाम ठवणों दविएं खेत्ते काले कुतित्थसंगारे । कुलंगणसंकरगंडी" योद्धब्बो भावसमए य ॥ २९॥ नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालकुतीर्थसंगारकुलगणसंकरगण्डीभावभेदात् द्वादशधा समयनिक्षेपः, तत्र नामस्थापने क्षुष्णे, द्रव्यस१ बस्तुनः पर्यायानां संभवतां निगमनं । २ मूढनयिकं (नयशून्य) श्रुतं कालिकं तु न नयाः समवतरम्तीह । अपृथक्त्वे समवतारो नालि पृथक्त्वे समवतारः ॥१॥३आसाद्य तु श्रोतारं नयान् नयविशारदो ब्रूयात् ॥ दीप अनुक्रम 10॥१० SAREauratonintenational अध्ययनस्य अर्थाधिकारः, 'समय' शब्दस्य निक्षेपा: ~24~ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम [-] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र -२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [-] मूलं [-], निर्युक्ति: [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०२ ], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः मयो द्रव्यस्य सम्यगयनं - परिणतिविशेषः स्वभाव इत्यर्थः, तद्यथा-- जीवद्रव्यस्योपयोगः पुद्गलद्रव्यस्य मूर्तलं धर्माधर्माकाशानां गतिस्थित्यवगाहदानलक्षणः, अथवा यो यस्य द्रव्यस्यावसरो द्रव्यस्योपयोगकाल इति, तद्यथा- 'वर्षासु लवणममृतं शरदि जलं | गोपयच हेमन्ते । शिशिरे चामलकरसो घृतं वसन्ते गुडवान्ते ॥ १ ॥ क्षेत्रसमयः - क्षेत्रम् - आकाशं तस्य समय:- स्वभावः, यथा 'ऐंगेणवि से पुण्णे दोहिवि पुष्णे सर्वपि माएजा । लक्खसएणचि पुष्णे कोटिसहस्संपि माएजा ||१|| यदिवा देवकुरुप्रभृतीनां क्षेत्राणामीदृशोऽनुभावो यदुत तत्र प्राणिनः सुरूपा नित्यसुखिनो निर्वैरा भवन्तीति, क्षेत्रस्य वा परिकर्मणावसरः क्षेत्रसमय इति, कालसमयस्तु सुषमादेरनुभावविशेषः, उत्पलपत्रशतभेदाभिव्यज्यो वा कालविशेषः कालसमय इति, अत्र च द्रव्यक्षेत्रकालप्राधान्यविवक्षया द्रव्यक्षेत्र कालसमयता द्रष्टव्येति, कुतीर्थसमयः पाखण्डिकानामात्मीयात्मीय आगमविशेषः तदुक्तं वाऽनुष्ठानमिति, संगार:- संकेतस्तद्रूपः समयः संगारसमयः, यथा सिद्धार्थसारथिदेवेन पूर्वकृतगारानुसारेण गृहीतहरिशवो वलदेवः प्रतिबोधित इति, कुलसमयः कुलाचारो यथा शकानां पितृशुद्धिः आभीरकाणां मन्थनिकाशुद्धिः, गणसमयो यथा मल्लानामयमाचारो - यथा यो धनाथो मल्लो म्रियते स तैः संस्क्रियते पतितचोद्रियत इति, संकरसमयस्तु संकरो - भिन्नजातीयानां | मीलकस्तत्र च समय:- एकवाक्यता, यथा वाममार्गादावना चारप्रवृत्तावपि गुप्तिकरणमिति, गण्डीसमयो यथा शाक्यानां भोज१ कालओ भमरो सुगंध बंदणादि तितो निंबो कक्खडी पाहाणी ०२ एकेनापि स पूर्णो द्वाभ्यामपि पूर्णः शतमपि मायाद। सक्षशतेनापि पूर्णः कोटीसहस्रमपि मायात् ॥ १ समय' शब्दस्य निक्षेपा: For Park Use Only ~ 25~ stoteese দए তses Janurary org Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम सूत्रकृताङ्ग18|नावसरे गण्डीताडनमिति, भावसमयस्तु नोआगमत इदमेवाध्ययनम् , अनेनैवात्राधिकारः, शेषाणां तु शिष्यमतिविकासार्थमु-18| १ समयाशीलाका पन्यास इति ॥ २९ ॥ साम्प्रतं प्रागुपन्यस्तोदेशार्थाधिकाराभिधित्सयाऽह--- ध्ययने उचायवृमहपंचभूय एकप्पए य तज्जीवतस्सरीरे य । तहय अगारगवाती अत्तच्छहो अफलवादी ॥ ३०॥बीए देशार्थाषित्तियुत निर्यवाओ अण्णाणिय तय नाणवाईओ। कम्मं चयं न गच्छइ चउब्विहं भिक्खुसमयंमि ॥ ३१॥ काराः तइए आहाकम्मं कडवाईजह य ते य वाईओ। किनुवमा य चउत्थे परप्पवाई अविरएसु ॥ ३२॥ । अस्याध्ययनस्य चखार उद्देशकाः, तत्रायस्य षडाधिकारा आधगाथयाभिहिताः, तद्यथा पञ्च भूतानि-पृथिव्यप्तेजोवाय्वा-13॥ | काशाख्यानि महान्ति च तानि सर्वलोकव्यापिखात् भूतानि च महाभूतानि इत्ययमेकोऽर्थाधिकारः । तथा चेतनाचेतनं सर्वमे-1|| | वात्मविवते इत्यात्माऽद्वैतवादः प्रतिपाद्यत इत्यर्थाधिकारो द्वितीयः । स चासौ जीवध तजीवा-कायाकारो भूतपरिणामः, तदेव || च शरीरं जीवशरीरयोरैक्य मितियावदिति तृतीयोऽर्थाधिकारः। तथाऽकारको जीवः सर्वस्याः पुण्यपापक्रियाया इत्येवंवादीति | | चतुर्थोऽधिकारः। तथाऽऽत्मा पष्ठ इति पञ्चाना भूतानामात्मा षष्ठः प्रतिपाद्यत इत्ययं पञ्चमोऽर्थाधिकारः । तथाऽफलवादीति-10 न विद्यते कस्याचित् क्रियायाः फलमित्येवंवादी च प्रतिपाद्यत इति षष्ठोाधिकार इति । द्वितीयोदेशके चतारोऽथोधिकाराः, 18॥११ तद्यथा-नियतिवादस्तथाज्ञानिकमतं ज्ञानवादी च प्रतिपाद्यते, कर्म चयम्-उपचयं चतुर्विधमपि न गच्छति 'भिक्षुसमये शाक्या-8 गमे इति चतुर्थोऽाधिकारः। चातुर्विध्यं तु कर्मणोऽविज्ञोपचितम्-अविज्ञानमविज्ञा तयोपचितम् , अनाभोगकृतमित्यर्थः, यथा | मातुः स्तनाचाक्रमणेन पुत्रव्यापत्तायप्पनाभोगान कर्मोपचीयते, तथा परिज्ञानं परिक्षा केवलेन मनसा पर्यालोचनं, तेनापि उद्देश-अर्थाधिकार: ~26~ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [३२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सुत्रांक meatpecesesesesesed | कस्यचित्प्राणिनो व्यापादनाभावात् कर्मोपचयाभाव इति, तथा ईरणमीर्या-गमनं तेन जनितमीर्याप्रत्ययं तदपि कर्मोपचयं न । गच्छति, प्राणिन्यापादनाभिसन्धेरभावादिति, तथा खप्नान्तिक-खमप्रत्ययं कर्म नोपचीयते, यथा स्वप्नभोजने तृप्त्यभाव इति । | तृतीयोदेशके खयमर्थाधिकारः, तद्यथा-आधाकर्मगतविचारस्तद्भोजिनां च दोषोपदर्शन मिति, तथा कृतवादी च मण्यते, तद्य| था-ईश्वरेण कृतोऽयं लोका, प्रधानादिकृतो वा, यथा च ते प्रवादिन आत्मीयमात्मीयं कृतवादं गृहीलोत्थितास्तथा भण्यन्त इति । | द्वितीयोऽधिकारः, चतुर्थोद्देशकाधिकारस्त्वयं, तद्यथा-अविरतेपु-गृहस्थेषु यानि कृत्यानि-अनुष्ठानानि स्थितानि तैरसंयमप्रधानैः | कर्तव्यैः 'परप्रवादी' परतीर्थिक उपमीयत इति । इदानीमनुगमः, स च द्वेधा-सूत्रानुगमो नियुक्त्यनुगमञ्च, तत्र नियुक्त्यनुगमत्रिविधः, तद्यथा-निक्षेपनियुक्त्यनुगम उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगमः सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यनुगमय । तत्र निक्षेपनियुक्त्यनुगमोऽनुगतः, ओपनामनिष्पन्न निक्षेपयोरन्तर्गतसात्, तथा च वक्ष्यमाणस्य सूत्रस्य निक्षेप्यमानलात् । उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगमस्तु पविशतिद्वारप्रतिपादकागाथाद्वयादवसेयः, तच्चेदम्-'उद्देसे निदेसे य' इत्यादि । सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यनुगमस्तु सूत्रे सति संभवति, सूत्रं च सूत्रानुगमे, स चावसरप्राप्त एव, तत्रास्खलितादिगुणोपेतं मूत्रमुचारणीय, तच्चेदम् १-पस्थिताः प्र. २ उसे निसे य निग्गमे सित्त काल पुरिसे य । कारण पश्चय लक्षण नए समोयारणाशुमए १॥ किं कइविई कस्स फर्हि केम कह किचिर हवा काल कइसंतरमविरलिभ भवायरिस फासण निरुत्ती ॥२॥ उदेशो निर्देशक निर्गम क्षेत्र काला पुरुषश्च । कारण प्रत्ययो लक्षण नयः समवतारोऽनुमतम् ॥१॥ किं कतिविध कस्ख फ केषु कथं कियाचिरं भवति कालम् । कति सान्तरमविरहितं भवा आकर्षाः स्पर्शना निक्तिः ॥२॥ ३ प्रसूनिर्निर्गमनमिल्ली, मेघने यथा चन्द्रो, न राजति नभत । उपोधातं विना शालं, तथा गाजते विधी ॥१॥४ संहिता लक्षिता 'संहिया य पर्व चेच पयत्यो पयविग्यहो । चालणा य पसिद्धी य easeekersescence दीप अनुक्रम eceiotee SAREairatam a nd उद्देश-अर्थाधिकार: ~27~ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-१], नियुक्ति: [३२] (०२) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: eceio प्रत सूत्रांक ||१|| दीप अनुक्रम सूत्रकृताङ्ग बुज्झिजत्ति तिउद्विजा, बंधणं परिजाणिया। किमाह बंधणं वीरो, किंवा जाणं तिउद्दई ? ॥१॥ शीलाका- अस्य संहितादिक्रमेण व्याख्या-बुध्येतेत्यादि, मूत्रमिदं सूत्रकृताङ्गादौ वर्तते, अस्स चाचाराङ्गेन सहाय संबन्धः, तद्यथा ध्ययनेबचार्याय | आचाराङ्गेऽभिहितम्-'जीवो छकायपरूवणा व तेसिं वहेण बंधोति' इत्यादि तत्सर्वं बुध्येतेत्यादि, यदिवेह केषाश्चिद्वादिनां न्धप्रश्नोत्तरे चियुतं शबानादेव मुक्यवाप्तिरन्येषां क्रियामात्रात् , जैनाना तूभाभ्यां निःश्रेयसाधिगम इत्येतदनेन श्लोकेन प्रतिपाद्यते । तत्रापि ज्ञानपूर्विका ॥१२॥ | क्रिया फलवती भवतीत्यादी युध्यतेत्यनेन ज्ञानमुक्तं त्रोटयेदित्येनेन च क्रियोक्ता, तत्रायमों-'बुध्येत' अवगच्छेत् बोध विद-13 ध्यादित्युपदेशः, किं पुनस्तद्रुध्येतात आह-'बन्धन' बध्यते जीवप्रदेशैरन्योज्यानुवेधरूपतया व्यवस्थाप्यत इति बन्धन-शानावर-5 Aणाधष्टप्रकारं कर्म तद्धेतवो वा मिथ्यात्वाविरत्यादयः परिग्रहारम्भादयो वा, न च बोधमात्रादभिलषितार्थावाप्तिर्भवतीत्यतः क्रियां दर्शयति-तच बंधनं परिज्ञाय विशिष्टया क्रियया-संयमानुष्ठानरूपया त्रोटयेद्' अपनयेदात्मनः पृथकुर्यात्परित्यजेद्वा, एवं चाभिहिते जम्बूखाम्यादिको विनेयो बन्धादिखरूपं विशिष्टं जिज्ञासुः पप्रच्छ-'किमाह' किमुक्तवान् बन्धनं 'वीर' तीर्थक ?, किंवा 'जानन्' अवगच्छस्तद्वन्धनं त्रोटयति ततो वा त्रुबति', इति श्लोकार्थः ॥१॥ बन्धनप्रश्नखरूपप्रश्ननिर्वचनायाह चित्तमंतमचित्तं वा, परिगिज्झ किसामवि । अन्नं वा अणुजाणाइ, एवं दुक्खा ण मुचह ॥२॥ ___ इह बन्धनं कर्म तद्धेतवो वाऽभिधीयन्ते, तत्र न निदानमन्तरेण निदानिनो जन्मेति निदानमेव दर्शयति, तत्रापि सर्वारम्भाः छवि विद्धि लपवणे ॥ १॥" इति व्याख्यालक्षणे तस्या एनादी प्रविपादनात् ॥ १ एकान्तपरोक्ष पू. १ फर्मको बन्धनत्वपले ।। 55AS Immatina FarParenaswamucom | प्रथम अध्ययने प्रथम उद्देशस्य प्रथम सूत्रस्य (गाथायाः) आरम्भ: ~28~ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-२], नियुक्ति: [३२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सुत्रांक ||२|| दर्शयति, तत्रापि सर्वारम्भाः कर्मोपादानरूपाः प्रायश आत्मात्मीयग्रहोत्थाना इतिकृतादौ परिग्रहमेव दर्शितवान् , चित्तम्उपयोगो शानं तद्विधते यस तश्चित्तवन-द्विपदचतुष्पदादि, ततोऽन्यदचित्तवत्-कनकरजतादि, तदुभयरूपमपि परिग्रहं परिगृह्य 'कृशमपि'स्तोकमपि तुणतुषादिकमपीत्यर्थः, यदिवा कसनं कसः-परिग्रहग्रहणबुझ्या जीवस्य गमनपरिणाम इतियापत् , तदेवं 1 खतः परिग्रहं परिगृह्यान्यान्वा ग्राहयिखा गृण्हतो वाऽन्याननुज्ञाय दुःखयतीति दुःखम्-अष्टप्रकारं कर्म तत्फलं या असातोदयादिरूपं तसाच मुच्यत इति, परिग्रहाग्रह एव परमार्थतोऽनर्थमूलं भवति, तथा चोक्तम्-"ममाहमिति चैप यावदभिमा-16 नदाहज्वरः, कृतान्तमुखमेव तावदिति न प्रशान्त्युन्नयः । यशःसुखपिपासितैरयमसावनोंत्तरैः, परैरपसदः कुतोऽपि कथमप्य-18 पाकृष्यते ॥१॥" तथा च "द्वेषस्यायतनं धृतेरपचयः क्षान्तेः प्रतीपो विधियाक्षेपस मुहन्मदस्य भवनं ध्यानस्य कष्टो रिपुः। दुःखस प्रभवः सुखख निधनं पापस्य वासो निजः, प्राज्ञस्यापि परिग्रहो ग्रह इव क्लेशाय नाशाय च ॥२॥" तथा च परिग्रहे|चत्रातनष्टेषु कालाशोको प्राप्तेषु च रक्षणमुपभोगे चातृप्तिरित्येवं परिग्रहे सति दुःखात्मकावन्धनान्न मुच्यत इति ॥ २॥ परिग्रहवतधावश्यंभाव्यारम्भस्तसिंध प्राणातिपात इति दर्शयितुमाह सयं तिवायए पाणे, अदुवाऽन्नेहिं घायए । हणंतं वाऽणुजाणाइ, वर वडाइ अप्पणी ॥३॥ जस्सि कुले समुप्पन्ने, जेहिं वा संवसे नरे । ममाइ लुप्पई बाले, अण्णे अण्णेहि मुच्छिए ॥४॥यदिषा-प्रकारान्तरेण बन्धनमेवाह-सतीत्यादि', स परिग्रहवानसंतुष्टो भूयस्तदर्जनपरः समर्जितोपद्रवकारिणि च दीप अनुक्रम सूचक. ३ ~29~ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-४], नियुक्ति: [३२] (०२) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्राक ||४|| सूत्रकृता %ा द्वेषमुपगतस्तत: 'स्वयम्' आरमना त्रिभ्यो' मनोवाकायेभ्य आयुर्वलशरीरेभ्यो वा 'पातयेत्' च्यावयेत् 'प्राणान' प्राणिनः,181 |१समयाशीलाङ्का अकारलोपाद्वा अतिपातयेत् प्राणानिति, प्राणावामी-'पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, उच्छासनिश्वासमथान्यदायुः । प्राणा दौते 8 ध्ययने खचाय भगवद्भिरुक्तास्तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा ॥११तथा स परिग्रहाग्रहीन केवलं खतो व्यापादयति अपरैरपि घातयति प्रतश्चान्यान् ? समय: त्तियुतं समनुजानीते, तदेवं कृतकारितानुमतिभिः प्राण्युपमर्दनेन जन्मान्तरशतानुवन्ध्यात्मनो बैरे' वर्धयति, ततश्च दुःखपरम्परारूपाद । ॥१३॥ | बन्धनान्न मुच्यत इति । प्राणातिपातस्य चोपलक्षणार्थत्वात् मृपावादादयोऽपि बन्धहेतवो द्रष्टव्या इति॥३॥ पुनर्बन्धनमेवाश्रित्याह 'जस्सि' मित्यादि, यस्मिन' राष्ट्रकूटादौ कुले जातो 'या' सहपांसुक्रीडितैयस्वैर्भार्यादिभिर्वा सह संवसेन्नरः, तेषु मातृपितृ| श्रातभगिनी भार्यावयस्यादिषु ममायमिति ममखवान् निधन 'लुप्यते विलुप्यते, ममखजनितेन कर्मणा नारकतिर्यअनुष्यामरल-॥ क्षणे संसारे प्रम्यमाणो बाध्यते-पीड्यते । कोऽसौ ?-'वाल' अज्ञः, सदसद्विवेकरहितसाद, अन्येष्वन्येषु च 'मूर्छितो Pal गृद्धोऽध्युपपनो, ममसबहुल इत्यर्थः, पूर्व तावन्मातापित्रोस्तदनु भार्यायां पुनः पुत्रादौ स्नेहवानिति ॥४॥ साम्प्रतं यदुक्तं प्राक्"किं वा जानन बन्धनं त्रोटयतीति,' अस्य निर्वचनमाहवित्तं सोयरिया चेव, सबमेयं न ताणइ । संखाए जीविअंचेवं, कम्मुणा उ तिउदृइ ॥५॥ O ॥१३॥ 'वित्तं' द्रव्यं, तब सचित्तमचित्तं वा, तथा 'सोदर्या' भ्रातभगिन्यादयः, सर्वमपि च 'एतद्' वित्तादिक संसारान्तर्ग-101 | तस्यासुमतोऽतिकटुकाः शारीरमानसीवेदनास्समनुभवतो न 'त्राणाय रक्षणाय भवतीत्येतत् 'संख्याय' ज्ञाखा तथा 'जीवि-18 १ अप्रकार कर्म चू० । २ द्वाभ्यामाकलितः चू० । ३ नसवेदनाः प्र०। दीप अनुक्रम [४] ~30~ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||५|| दीप अनुक्रम [५] Eatin “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [१], मूलं [ गाथा- ५ ], निर्युक्तिः [३२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र- [ ०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - तं च प्राणिनां खल्पमिति संख्याय— ज्ञपरिज्ञया, प्रत्याख्यानपरिज्ञया तु सचित्ताचित्तपरिग्रहप्राण्युपघातस्वजन स्नेहादीनि बन्धनस्थानानि प्रत्याख्याय 'कर्मणः सकाशात् 'व्यति' अपगच्छत्यसौ, तुरवधारणे, त्रुय्येदेवेति यदिवा - 'कर्मणा' क्रियया संयमानुष्ठानरूपया बन्धनानुव्यति, कर्मणः पृथग्भवतीत्यर्थः ॥ ५ ॥ अध्ययनार्थाधिकाराभिहितत्वात्स्वसमयप्रतिपादनानन्तरं परसमयप्रतिपादनाभिधित्सयाऽऽह्- एए गंथे विउक्कम्म, एगे समणमाहणा । अयाणंता विउस्सित्ता, सत्ता कामेहि माणवा ॥ ६ ॥ 'एतान् ' अनन्तरोक्तान् ग्रन्थान् 'व्युत्क्रम्य ' परित्यज्य स्वरुचिविरचितार्थेषु ग्रन्थेषु सक्ताः 'सिताः ' बद्धाः, एके, न सर्वे इति संबन्धः । ग्रन्थातिक्रमचैतेषां तदुक्तार्थानभ्युपगमात् अनन्तरग्रन्थेषु चायमर्थोऽभिहितः तद्यथा— जीवास्तिखे सति ज्ञानावरणीयादिकर्मबन्धनं, तस्य हेतवो मिध्यात्ताविरतिप्रमादादूयः परिग्रहारम्भादयथ, तत्रोटनं च सम्यग्दृर्शनाद्युपायेन, मोक्षसद्भावयेत्येवमादिकः, तदेवमेके 'श्रमणाः' शाक्यादयो बार्हस्पत्यमतानुसारिणश्च ब्राह्मणाः 'एतान्' अर्ह दुक्तान् ग्रन्थानतिक्रम्य परमार्थमजानाना विविधम्- अनेकप्रकारम् उत्-प्राबल्येन सिता- बद्धाः स्वसमयेष्वभिनिविष्टाः । तथा च शाक्या एवं प्रतिपादयन्ति यथा— सुखदुःखेच्छाद्वेषज्ञानाधारभूतो नास्त्यात्मा कश्चित्, किंतु विज्ञानमेवैकं विवर्तत इति, क्षणिकाः सर्वसंस्कारा इत्यादि, तथा सांख्या एवं व्यवस्थिताः - सस्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः, प्रकृतेर्महान्, महतोऽह १ परिमाणकादयः अथवा समणलिंगत्या माइणा समणोपासना समया एव माहणा For Park Use Only ~31~ rary or Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-६], नियुक्ति: [३२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सुत्राक सूत्रकृताङ्गं शीलाकाचाीयवृ. नियुतं ॥१४॥ ||६|| झारः तस्माद्गव पोडशका, तस्मात्योडशकादपि पच भूतानि, चैतन्यं पुरुषस्य खरूपमित्यादि, वैशेषिकाः पुनराहुर-द्रम्पगु- समया|णकर्मसामान्यविशेषसमवायाः पद पदार्था इति, तथा नैयायिका:-प्रमाणप्रमेयादीनां पदार्थानामन्वयव्यतिरेकपरिज्ञानान्नि:-श्री ध्ययने प|श्रेयसाधिगम इति व्यवस्थिताः, तथा मीमांसकाः--चोदनालक्षणो धर्मो, न च सर्वज्ञः कश्चिद्विद्यते, मुक्त्यभाववेत्येवमाश्रिताः, रसमयेषु | चार्वाकारसेवमभिहितवन्तो, यथा--नास्ति कश्चित्परलोकयायी भूतपञ्चकाव्यतिरिक्तो जीवाख्यः पदार्थो, नापि पुण्यपापे त || चावोका इत्यादि । एवं चाङ्गीकृत्यैते लोकायतिकाः 'मानवा' पुरुषाः 'सक्ता' गृद्धा अध्युपपन्नाः 'कामेषु' इच्छामदनरूपेषु, तथा ||SM | चोचु:--'एतावानेव पुरुषो, यावानिन्द्रियगोचरः । भद्रे ! वृकपदं पश्य, यद्वदन्त्यबहुश्रुताः ॥ १॥ पिर खाद च साधु शो-31 | भने , यदतीतं वरगात्रि ! तन्न ते । नहि भीरु ! गत निवर्तते, समुदयमात्रमिदं कलेवरम् ॥ २॥" एवं ते तत्रान्तरीयाः खस मयार्थवासितान्तःकरणाः सन्तो भगवदईदुक्तं ग्रन्थार्थमज्ञातपरमार्थाः समतिक्रम्य स्खकीयेषु ग्रन्थेषु सिताः-संबद्धाः कामेषु च | | सक्का इति ॥ ६॥ साम्प्रतं विशेषेण सूत्रकार एव चार्वाकमतमाश्रित्याऽऽह संति पंच महब्भूया, इहमेगेसिमाहिया । पुढवी आउ तेऊ वा, वाउ आगासपंचमा ॥७॥ एए पंच महब्भूया, तेब्भो एगोत्ति आहिया । अह तेसिं विणासेणं, विणासो होइ देहिणो ॥८॥ 'सन्ति' विद्यन्ते महान्ति च तानि भूतानि च महाभूतानि, सर्वलोकव्यापित्वान्महत्त्वविशेषणम् , अनेन च भूता ॥१४॥ दीप अनुक्रम १लोकोऽ। ~32~ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||८|| दीप अनुक्रम [८] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [१], मूलं [गाथा - ८ ], निर्युक्तिः [३२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र- [ ०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - | भाववादिनिराकरणं द्रष्टव्यम्, 'इह' अस्मिन् लोके 'एकेषां' भूतवादिनाम् 'आख्यातानि ' प्रतिपादितानि तत्तीर्थकृता तैर्वा भूतवादिभिर्वार्हस्पत्यमतानुसारिभिराख्यातानि – खयमङ्गीकृतान्यन्येषां च प्रतिपादितानि । तानि चामूनि तद्यथा-| पृथिवी कठिनरूपा, आपो द्रवलक्षणाः, तेज उष्णरूपं, वायुश्चलनलक्षणः, आकाशं शुषिरलक्षणमिति, तच्च पञ्चमं येषां तानि तथा, एतानि साङ्गोपाङ्गानि प्रसिद्धलात् प्रत्यक्षप्रमाणावसेयत्वाच न कैश्चिदपोतुं शक्यानि । ननु च साङ्ख्यादिभिरपि भूतान्यभ्युपगातान्येव तथाहि सांख्यास्तावदेवमूचुः – सन्वरजस्तमोरूपात्प्रधानान्महान्, बुद्धिरित्यर्थः, महतोअहङ्कारः - अहमितिप्रत्ययः, तसादप्यहङ्कारात्पोशको गण उत्पद्यते स चायम् - पश्च स्पर्शनादीनि बुद्धीन्द्रियाणि, वापाणिपादपायूपस्थरूपाणि पञ्च कर्मेन्द्रियाणि, एकादशं मनः, पञ्च तन्मात्राणि, तद्यथा - गन्धरसरूपस्पर्शशब्द तन्मात्राख्यानि तत्र मन्धतन्मात्रात्पृथिवी गन्धरसरूपस्पर्शवती रसतन्मात्रादापो रसरूपस्पर्शवत्यः, रूपतन्मात्राचेजो रूपस्पर्शवत्, स्पर्शतन्मात्राद्वायुः स्पर्शवान्, शब्दतन्मात्रादाकाशं गन्धरसरूपस्पर्श वर्जितमुत्पद्यत इति । तथा वैशेषिका अपि भूतान्यमिहितवन्तः, तद्यथा- पृथिवीत्वयोगात्पृथिवी, सा च परमाणुलक्षणा नित्या, व्यणुकादिप्रक्रमनिष्पन कार्यरूपतया खनित्या, | चतुर्दशभिर्गुणै रूपरसगन्धस्पर्शसंख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागपरत्वापरख गुरुखद्रवत्ववेगाख्यैरुपेता, तथाऽप्ययोगादापः, ताच रूपरसस्पर्शसंख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागपरत्वापरत्वगुरुत्वस्वाभाविकद्रवत्र स्नेह वेगवत्यः, तासु च रूपं शुक्रमेव रसो मधुर | एव स्पर्शः शीत एवेति, तेजस्वाभिसंबन्धात्तेजः तच्च रूपस्पर्शसंख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागपरत्वापरत्तनैमिचिकद्रवत्ववे १ आगोपालाशना प्र० Ja Eucation Inmation For Parts Only ~33~ yor Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-८], नियुक्ति: [३२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्' मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक In सूत्रकृताङ्गंगाख्यैरेकादशभिर्गुणैर्गुणवत् , तत्र रूपं शुक्लं भास्वरं च, स्पर्श उष्ण एवेति, वायुत्वयोगाद्वायुः, स चानुष्णशीतस्पर्शसंख्या-18/१ समयाशीलाका परिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागपरत्वापरत्ववेगाख्यैर्नवभिर्गुणैर्गुणवान् हुकम्पशब्दानुष्णशीतस्पर्शलिङ्गः, आकाशमिति पारिभा- ध्ययने पचाीय विकी संज्ञा एकत्वात्तस्य, तच्च संख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागशब्दाख्यैः धइभिर्गुणैर्गुणवत् शब्दलिङ्गं चेति, एवमन्यैरपि । रसमयेषु त्तियुत चावांका वादिभिर्भूतसद्भावाश्रयणे किमिति लोकायतिकमतापेक्षया भूतपश्चकोपन्यास इति ?, उच्यते, सांख्यादिभिर्हि प्रधानात्साहङ्कारिक IS तथा कालदिगात्मादिक चान्यदपि वस्तुजातमभ्युपेयते, लोकायतिकैस्तु भूतपञ्चकन्यतिरिक्तं नात्मादिकं किश्चिदभ्युपग म्यते इत्यतस्तन्मताश्रयणेनैव सूत्रार्थो व्याख्यायत इति ॥७॥ यथा चैतत् तथा दर्शयितुमाह-'एए पंच महन्भूया' इत्यादि, 'एतानि' अनन्तरोक्तानि पृथिव्यादीनि पञ्च महाभूतानि यानि 'तेभ्यः' कायाकारपरिणतेभ्यः 'एक' कविचिद्रूपो भूताव्य|तिरिक्त आत्मा भवति, न भूतेभ्यो व्यतिरिक्तोऽपरः कश्चित्परपरिकल्पितः परलोकानुयायी सुखदुःखभोक्ता जीवाख्यः पदार्थो|ऽस्तीत्येवमाख्यातवन्तस्ते, तथा(ते)हि एवं प्रमाणयन्ति-न पृथिव्यादिव्यतिरिक्त आत्माऽस्ति, तद्ग्राहकप्रमाणाभावात् , प्रमाणं चात्र प्रत्यक्षमेव,नानुमानादिक,तनेन्द्रियेण साक्षादर्थस्य संबन्धाभावायभिचारसंभवः, सति च व्यभिचारसंभवे सदृशे च चाधासं-18 PI भवे तल्लक्षणमेव दृषितं स्यादिति सर्वत्रानाश्वासः, तथा चोक्तम् - "हस्तस्पर्शादिवान्धेन, विषमे पथि धावता । अनुमानप्रधानेन, ॥१५॥ | विनिपातो न दुलेभः ॥१॥" अनुमान चात्रोपलक्षणमागमादीनामपि, साक्षादर्थसंवन्धाभावाद्धस्तस्पर्शनेनेव प्रवृत्तिरिति ।। तस्मात्प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाण, तेन च भूतव्यतिरिक्तस्वात्मनो न ग्रहणं, यत्तु चैतन्यं तेषूपलभ्यते, तेव कायाकारपरिणतेप्वभि। इति प्र. हरणमित्यर्थः । दीप अनुक्रम eceaeesesesesesesese ~34~ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-८...], नियुक्ति: [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत అనిపించింది सूत्राक ॥ व्यज्यते, मद्याङ्गेषु समुदितेषु मदशक्तिवदिति, तथा-न भूतव्यतिरिक्तं चैतन्यं, तत्कार्यत्वात् , घटादिवदिति । तदेवं भूतव्यति-19 | रिक्तस्याऽऽत्मनोऽभावाभूतानामेव चैतन्याभिव्यक्तिः, जलस बुदबुदाभिव्यक्तिवदिति । केषाश्चिल्लोकायतिकानामाकाशस्थापि भूतत्वेनाभ्युपगमाद्भूतपञ्चकोपन्यासो न दोषायेति । ननु च यदि भूतव्यतिरिक्तोऽपरः कश्चिदात्माख्या पदार्थों न विद्यते, कथं तहिं मृत इति व्यपदेश इत्याशजवाह-अथैषां कायाकारपरिणतौ चैतन्याभिव्यक्ती सत्यां तदूर्ध्व तेषामन्यतमस्य 'विनाशे' | अपगमे वायोस्तेजसथोभयो 'देहिनो' देवदत्ताख्यस्य 'विनाश' अपगमो भवति, ततश्च मृत इति व्यपदेशः प्रवर्तते, न पुनर्जीवापगम इति भूताव्यतिरिक्तचैतन्यवादिपूर्वपक्ष इति ।। अत्र प्रतिसमाधानार्थ नियुक्तिकदाह पंचण्हं संजोए अण्ण गुणाणं च चेयणाइगुणो । पंचिंदियठाणाणं ण अण्णमुणियं मुणइ अण्णो ॥ ३३॥ ॥ 'पश्चानां पृथिव्यादीनां भूतानां 'संयोगे' कायाकारपरिणामे चैतन्यादिक: आदिशब्दात् भाषाचमणादिका गुणो न | भवतीति प्रतिज्ञा, अन्यादयस्त्वत्र हेतुस्वेनोपाचार, दृष्टान्तस्वभ्यूह्यः, सुलभखात्तस्य नोपादानं । तत्रेदं चाबोंकः प्रष्टव्यः---यदे-18 तद्भतानां संयोगे चैतन्यमभिन्यज्यते तक तेषां संयोगेपि खातथ्य एवाऽऽहोवित्परस्परापेक्षया पारतध्ये इति , किंचातः १,1% न तावत्स्वातव्ये, यत आह--'अण्णगुणाणं चेति चैतन्यादन्ये गुणा येषां तान्यन्यगुणानि, तथाहि-आधारकाठिन्यगुणा | पृथिवी द्रवगुणा आपः पक्तृगुणं तेजः चलनगुणो वायुः अवगाहदानगुणमाकाशमिति, यदिवा प्रागभिहिता गन्धादयः पृथि|| न्यादीनामेकैकपरिहान्याऽन्ये गुणाश्चैतन्यादिति, तदेवं पृथिव्यादीन्यन्यगुणानि, चशब्दो द्वितीयविकल्पवक्तव्यतासूचनार्थः, चैतन्यगुणे साध्ये पृथिव्यादीनामन्यगुणानां सतां चैतन्यगुणस्य पृथिव्यादीनामेकैकस्याप्यभावान्न तत्समुदायाचैतन्याख्यो गुणः ||८|| दीप अनुक्रम yacasraerasacassaceae89939292eradi Eaar ~35~ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-८...],नियुक्ति: [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सुत्राक ||८|| दीप अनुक्रम सूत्रकृताल | सियतीति, प्रयोगस्त्वत्र-भूतसमुदायः खातम्ये सति धर्मिलेनोपादीयते, न तस्य चैतन्याख्यो गुणोऽस्तीति साध्यो धर्मः, १समयाशीलाङ्का- | पृथिव्यादीनामन्यगुणखात्, यो योऽन्यगुणानां समुदायस्तत्र तत्रापूर्वगुणोत्पचिन भवतीति, यथा सिकतासमुदाये स्निग्धगुणस्य | ध्ययने पचार्याय-12 तैलस्य नोत्पत्तिरिति, घटपटसमुदाये वा न स्तम्भाधाविर्भाच इति, दृश्यते च काये चैतन्यं, तदात्मगुणो भविष्यति न भूताना- रसमय चियुतं मिति । असिन्नेव साध्ये हेखन्तरमाह-'पश्चिन्दियठाणाणं'ति पश्च च तानि स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्राख्यानीन्द्रियाणि तेषां चाबोकः ॥१६॥ स्थानानि अबकाशास्तेषां चैतन्यगुणाभावान्न भूतसमुदाये चैतन्यम् , इदमत्र हृदयं लोकायतिकानां हि अपरस्य द्रएरनभ्युपगमादिन्द्रियाण्येव द्रष्टणि, तेषां च यानि स्थानानि:- उपादानकारणानि तेषामचिद्रूपसाच भूतसमुदाये चैतन्यमिति, इन्द्रियाणां | चामूनि स्थानानि, तपथा-श्रोत्रेन्द्रियस्थाकाशं सुपिरात्मकलात, घ्राणेन्द्रियस्य पृथिची तदात्मकखात्, चक्षुरिन्द्रियस तेजस्त-18 दूपखात् , एवं रसनेन्द्रियस्थापः स्पर्शनेन्द्रियस्य वायुरिति । प्रयोगवात्र-नेन्द्रियाण्युपलब्धिमन्ति, तेपामचेतनगुणारब्धवान यद्यदचेतनगुणारब्धं तत्चदचेतनं, यथा घटपटादीनि, एवमपि च भूतसमुदाये चैतन्याभाव एव साधितो भवति । पुनखन्तरमाह-18 'ण अण्णमुणियं मुणइ अण्णो'त्ति इहेन्द्रियाणि प्रत्येकभूतात्मकानि, तान्येवापरस्य द्रष्टुरभावाद् द्रष्टुणि, तेषां च प्रत्येकं खविषय-18 ग्रहणादन्यविषये चाप्रवृत्तेर्नान्यदिन्द्रियज्ञातमन्यदिन्द्रियं जानातीति, अतो मया पश्चापि विषयां ज्ञाता इत्येवमात्मक: संकलना-MIRE प्रत्ययो न प्रामोति, अनुभूयते चायं, तसादेकेनैव द्रष्ट्रा भवितव्यम् , तस्मैच च चैतन्यं न भूतसमुदायस्येति, प्रयोगः पुनरेवं-न भूतसमुदाये चैतन्यं, तदारुधेन्द्रियाणां प्रत्येकविषयग्राहिले सति संकलनाप्रत्ययाभावात् , यदि पुनरन्यगृहीतमप्यन्यो गृहीयाद् || देवदत्तगृहीतं यज्ञदत्तेनापि गृह्येत, न चैतद् दृष्टमिष्टं वेति । ननु च खातथ्यपक्षेऽयं दोषः, यदा पुनः परस्परसापेक्षाणां संयो-19॥ ~36~ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-८...], नियुक्ति: [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||८|| दीप अनुक्रम [८] गपारतच्याभ्युपगमेन भूतानामेव समुदितानां चैतन्याख्यो धर्मः संयोगवशादाविर्भवति, यथा किण्वोदकादिषु मद्याङ्गेषु समुदितेषु प्रत्येकमविद्यमानापि मदशक्तिरिति, तदा कुतोऽस्य दोषस्थावकाश इति?, अत्रोत्तरं गाथोपात्तचशब्दाक्षिप्तमभिधीयते--यत्तावदुक्तं यथा 'भूतेभ्यः परस्परसव्यपेक्षसंयोगभाग्भ्यश्चैतन्यमुत्पद्यते, तत्र विकल्पयामः-किमसौ संयोगः संयोगिभ्यो.भिन्नोऽभिन्नो वा, भिन्नश्चेषष्ठभूतप्रसंगो, न चान्यत् पञ्चभूतव्यतिरिक्तसंयोगाख्यभूतग्राहकं भवतां प्रमाणमस्ति, प्रत्यक्षस्यैवैकस्याभ्युपगमात्, | तेन च तस्याग्रहणात् , प्रमाणान्तराभ्युपगमे च तेनैव जीवस्यापि ग्रहणमस्तु, अथ अभिनो भूतेभ्यो संयोगः, तत्राप्येतश्चिन्तनीयं-किं भूतानि प्रत्येकं चेतनावन्त्यचेतनावन्ति चा?, यदि चेतनावन्ति तदा एकेन्द्रियसिद्धिः, तथा (च) समुदायस्य पञ्चप्रकारचैतन्यापत्तिः, अथाचेतनानि, तत्र चोक्तो दोषो, न हि यद्यत्र प्रत्येकमविद्यमानं तत्तत्समुदाये भवदुपलभ्यते, सिकतासु तैलवदित्यादिना । यदप्पत्रोक्तं यथा मद्यानेष्वविद्यमानाऽपि प्रत्येकं मदशक्तिः समुदाये प्रादुर्भवतीति, तदप्पयुक्तं, यतस्तत्र किण्वादिषु या च यावती च शक्तिरुपलभ्यते, तथाहि-किण्वे बुभुक्षापनयनसामर्थ्य अमिजननसामर्थ्य च उदकस्स तृडपनयनसामर्थ्यमित्यादिनेति, भूतानां च प्रत्येकं चैतन्यानभ्युपगमे दृष्टान्तदाष्टान्तिकयोरसाम्यं । किंच-भूतचैतन्याभ्युपगमे || | मरणाभावो, मृतकायेऽपि पृथ्व्यादीनां भूतानां सद्भावात् , नैतदस्ति, तत्र मृतकाये वायोस्तेजसो वाऽभावान्मरणसद्भावः इत्यशिक्षितस्योल्लापः, तथाहि-मृतकाये शोफोपलब्धेने वायोरभावः, कोषस्य च पक्तिखभावस्य दर्शनानानेरिति, अथ सूक्ष्मः कश्चिद्वायुविशेषोऽग्निर्वा ततोऽपगत इति मतिरिति, एवं च जीव एव नामान्तरेणाभ्युपगतो भवति, यत्किञ्चिदेतत् । तथा न भूतसमुदायमात्रेण चैतन्याविर्भावः, पृथिव्यादिष्येकत्र व्यवस्थापितेष्वपि चैतन्यानुपलब्धेः, अथ कायाकारपरिणती सत्यां तदभिव्यक्तिरि 1 REsamana P unmurary.org ~37~ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [<] सूत्रकृताङ्ग श्रीलङ्का चाय नियुतं ॥ १७ ॥ “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [१], मूलं [गाथा - ८...], निर्युक्तिः [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - ष्यते, तदपि न, यतो लेप्यमयप्रतिमायां समस्तभूतसद्भावेऽपि जडत्वमेवोपलभ्यते । तदेवमन्वयव्यतिरेकाभ्यामालोच्यमानो नायं चैतन्याख्यो गुणो भूतानां भवितुमर्हति समुपलभ्यते चायं शरीरेषु, तस्मात् पारिशेष्याद जीवस्यैवायमिति खदर्शनपक्षपात चिहायाङ्गीक्रियतामिति । यथोक्तं प्रशक- 'न पृथिव्यादिव्यतिरिक्त आत्माऽस्ति तद्ग्राहकप्रमाणाभावात्, प्रमाणं चात्र प्रत्यक्षमेवैक' मित्यादि, तत्र प्रतिविधीयते यत्तावदुक्तं 'प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणं नानुमानादिकमित्येतदनुपासितगुरोर्वचः, तथाहि अर्थाविसंवादकं प्रमाणमित्युच्यते, प्रत्यक्षस्य च प्रामाण्यमेवं व्यवस्थाप्यते – काथित्प्रत्यक्षव्यक्तीर्धर्मियेनोपादाय प्रमाणयति -प्रमा णमेताः, अर्थाविसंवादकवाद्, अनुभूतप्रत्यक्षव्यक्तिवत्, न च ताभिरेव प्रत्यक्षव्यक्तिभिः स्वसंविदिताभिः परं व्यवहारयितुमयमीशः, तासां स्वसंविभिष्ठत्वात् मुक्ताच्च प्रत्यक्षस्य, तथा नानुमानं प्रमाणमित्यनुमानेनैवानुमाननिरासं कुर्वश्चार्वाकः कथं नोन्मत्तः स्याद् ?, एवं हासौ तदप्रामाण्यं प्रतिपादयेत् यथा - नानुमानं प्रमाणं, विसंवादकत्वाद्, अनुभूतानुमानव्यक्तिवदिति, एवचानुमानम्, अथ परप्रसिद्ध्यैतदुच्यते, तदप्ययुक्तं यतस्तत्पर प्रसिद्धमनुमानं भवतः प्रमाणमप्रमाणं वा १, प्रमाणं चेत्कथमनुमान| मप्रमाणमित्युच्यते, अथाप्रमार्ण कथमप्रमाणेन सता तेन परः प्रत्याय्यते ?, परेण तस्य प्रामाण्येनाभ्युपगतत्वादिति चेद्, तदप्य साम्प्रतं, यदि नाम परो मौढ्यादप्रमाणमेव प्रमाणमित्यध्यवस्यति, किं भवताऽतिनिपुणेनापि तेनैवासौ प्रतिपाद्यते १ यो झज्ञो | गुडमेव विषमिति मन्यते किं तस्य मारयितुकामेनापि बुद्धिमता गुड एव दीयते ?, तदेवं प्रत्यक्षानुमानयोः प्रामाण्याप्रामाण्ये व्यवस्थापयतो भवतोऽनिच्छतोऽपि बलादायातमनुमानस्य प्रामाण्यं । तथा स्वर्गापवर्गदेवतादेः प्रतिषेधं कुर्वन् भवान् केन प्रमा १ प्येत प्र० । For Parts Only ~38~ १ समया ध्ययने परसमयेषुचार्वाकः ॥ १७ ॥ Tianary or Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-८...], नियुक्ति: [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः 2000 प्रत सूत्राक ||८|| न करोति ?, न तावत्प्रत्यक्षेण प्रतिषेधः कर्तुं पार्यते, यतस्तत्प्रत्यक्षं प्रवर्तमानं वा तनिषेधं विदध्यान्निवर्तमानं वा!, न ताव-12 प्रवर्तमानं, तस्याभावविषयखविरोधात् , नापि निवर्तमान, यतस्तच्च नास्ति तेन च प्रतिपत्तिरित्यसंगतं, तथाहि-व्यापकविनि| वृत्तौ व्याप्यस्यापि (वि)निवृत्तिरिष्यते, न चार्वान्दर्शिप्रत्यक्षेण समस्तवस्तुव्याप्तिः संभाव्यते, तत्कथं प्रत्यक्षविनिवृत्तौ पदार्थव्याव-18 तिरिति ?, तदेवं वर्गादेः प्रतिषेधं कुर्वता चार्वाकेणावश्यं प्रमाणान्तरमभ्युपगतं । तथाऽन्याभिप्रायविज्ञानाभ्युपगमादत्र स्पष्टमेव प्रमाणान्तरमभ्युपगतम्, अन्यथा कथं परावधोधाय शास्त्रप्रणयनमकारि चार्वाकेणेत्यलमतिप्रसङ्गेन । तदेवं प्रत्यक्षादन्यदपि प्रमा-I णमस्ति, तेनात्मा सेत्स्यति, किं पुनस्तदिति चेद् , उच्यते, अस्त्यात्मा, असाधारणतद्गुणोपलब्धेः, चक्षुरिन्द्रियवत , चक्षुरिन्द्रियं | | हिन साक्षादुपलभ्यते, स्पर्शनादीन्द्रियासाधारणरूपविज्ञानोत्पादनशक्त्या खनुभीयते, तथाऽऽत्माऽपि पृथिव्यायसाधारणचैतन्य || गुणोपलब्धेरतीत्यनुमीयते, चैतन्यं च तस्यासाधारणगुण इत्येतत्पृथिव्यादिभूतसमुदाये चैतन्यस निराकृतसादवसेयं । तथा अस्त्यात्मा, समस्तेन्द्रियोपलब्धार्थसंकलनाप्रत्ययसद्भावात् , पञ्चगवाक्षान्यान्योपलब्धार्थसंकलनाविधाय्येकदेवदत्तवत् , तथाऽऽत्मा ४ अर्थद्रष्टा नेन्द्रियाणि, तद्विगमेऽपि तदुपलब्धार्थस्मरणात्, गवाक्षोपरमेऽपि तद्वारोपलब्धार्थसतदेवदत्तवत् , तथा अर्थापच्याऽ प्यात्माऽस्तीत्यवसीयते, तथाहि-सत्यपि पृथिव्यादिभूतसमुदाये लेप्यकर्मादौ न सुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नादिक्रियाणां सद्भाव इति, शअतः सामर्थ्यादवसीयते-अस्ति भूतातिरिक्तः कश्चित्सुखदुःखेच्छादीनां क्रियाणां समवायिकारणं पदार्थः, स चात्मेति, तदेवं |प्रत्यक्षानुमानादिपूर्विकाऽन्याऽप्यर्थापचिरभ्यूह्या, तस्सास्विदं लक्षणम्-प्रमाणषकविज्ञातो, यत्रार्थों नान्यथाभवन् । अदृष्ट कल्प-II १ चार्वाक्दर्शित । २ संसाध्यते । दीप अनुक्रम మంది Santaratanimals ~39~ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-८...], नियुक्ति: [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत aksee सुत्राक ||८|| 18| येदन्य. सार्थापत्तिरुदाहता ॥१॥" तथाऽगमादप्यस्तिसमवसेयं, स चायमागमः .....अस्थि मे आया उववाइए"इत्यादि ।। शीला यदिवा किमत्रापरप्रमाणचिन्तया ?, सकलप्रमाणज्येष्टेन प्रत्यक्षेणैवात्माऽस्तीत्यवसीयते, तद्गुणंस्य ज्ञानस्य प्रत्यक्षखात् , ज्ञान- ध्ययने पचाीयवृ-18 गुणख च गुणिनोऽनन्यखात् प्रत्यक्ष एवात्मा, रूपादिगुणप्रत्यक्षलेन पटादिप्रत्यक्षवत् , तथाहि-अहं सुख्यहं दुःख्येवमाद्य- रसमयेषु चियुतं | हंप्रत्ययग्राबधात्मा प्रत्यक्षः, अहंप्रत्ययस्य स्वसंविद्रूपत्वादिति, ममेदं शरीरं पुराणं कर्मेति च शरीरानेदेन निर्दिश्यमानखाद्, इत्या- चावोंक: ॥१८॥ | दीन्यन्यान्यपि प्रमाणानि जीवसिद्धावभ्यूह्यानीति । तथा यदुक्तं-'न भूतव्यतिरिक्तं चैतन्यं तत्कार्यवात् घटादिवदिति, एतदप्यसमीचीनं, हेतोरसिद्धवात् , तथाहि-न भूतानां कार्य चैतन्यं, तेषामतद्गुणवात् भूतकार्यचैतन्ये संकलनाप्रत्ययासंभवाच्च, इत्यादिनोक्तप्रायम्, अतोऽस्त्यात्मा भूतथ्यतिरिक्तो ज्ञानाधार इति स्थितम् ।। ननु च किं ज्ञानाधारभूतेनात्मना ज्ञानाद्भिन्नाभि| तेन ।, यावता ज्ञानादेव सर्वसंकलनाप्रत्ययादिक सेत्स्यति, किमात्मनाऽन्तर्गदुकल्पेनेति, तथाहि-ज्ञानस्यैव चिद्रूपत्वाद् भूतैरचेतनैः कायाकारपरिणतः सह संबन्धे सति सुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नक्रियाः प्रादुष्प्यन्ति तथा संकलनाप्रत्ययो भवान्तरगमनं चेति, तदेवं व्यवस्थिते किमात्मना कल्पितेनेति , अत्रोच्यते, न ह्यात्मानमेकमाधारभूतमन्तरेण संकलनाप्रत्ययो घटते, तथाहि-प्रत्ये| कमिन्द्रियैः खविषयग्रहणे सति परविषये चाप्रवृत्तेः एकस्य च परिच्छेत्तुरभावात् मया पञ्चापि विषयाः परिच्छिन्ना इत्यात्मकस्य 10॥१८॥ | संकलनाप्रत्ययसाभाव इति, आलयविज्ञानमेकमस्तीति चेद् , एवं सत्यात्मन एव नामान्तरं भवता कृतं स्यात्, न च ज्ञानाख्यो 2 गुणो गुणिनमन्तरेण भवतीत्यवश्यमात्मना गुणिना भाव्यमिति ॥ स च न सर्वव्यापी, तद्गुणस्य सर्वत्रानुपलभ्यमानखात्, घट १ अस्ति में आत्मौपपातिकः । eeseperseroeseseaeseseperseces दीप अनुक्रम Rececerseaesese SAREatinOloma ~404 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||$|| दीप अनुक्रम [s] सूत्रक. ४ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र- २ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [१], मूलं [गाथा - ८...], निर्युक्तिः [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः वत् । नापि श्यामाकतन्दुलमात्रोऽङ्गुष्ठपर्वमात्रो वा, तावन्मात्रस्योपात्तशरीराव्यापित्वात्, सम्पर्यन्तशरीरव्यापिखेन चोपलभ्यमानगुणलात्, तसात्स्थितमिदम्-उपात्तशरीर सवपर्यन्तव्याप्यात्मेति । तस्य चानादिकर्मसंबद्धस्य कदाचिदपि सांसारिकस्यात्मनः स्वरूपेऽनवस्थानात् सत्यभ्य मूर्तले मूर्तेन कर्मणा संबन्धो न विरुध्यते कर्मसंबन्धाच्च सूक्ष्मवादरैकेन्द्रियद्वित्रिचतुष्पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तापर्याप्तायवस्था बहुविधाः प्रादुर्भवन्ति । तस्य चैकान्तेन क्षणिकत्वे ध्यानाध्ययन श्रमप्रत्यभिज्ञानाद्यभावः एकान्तनित्यसे च नारकतिर्यमनुष्यामरगति परिणामाभावः स्यात् तस्मात्स्यादनित्यः स्यानित्य आत्मेत्यलमतिप्रसङ्गेन ॥ ८ ॥ साम्प्रतमेकात्माद्वैतवादमुद्देशार्थाधिकारप्रदर्शितं पूर्वपक्षयितुमाह जहा य पुढवीधूभे, एगे नाणाहि दीसइ । एवं भो ! कसिणे लोए, विन्नू नाणाहि दीसइ ॥ ९ ॥ बनवार्थस्वरूपावगतेः पूर्वं दृष्टान्तोपन्यासः यथेत्युपदर्शने, चशब्दोऽपिशब्दार्थे, स च भिन्नक्रम एके इत्यस्यानन्तरं द्रष्टव्यः, पृथिव्येव स्तूपः पृथिव्या वा स्तूपः पृथिवीसंघाताख्योऽवयवी, स चैकोऽपि यथा नानारूपः - सरित्समुद्रपर्वतनगरसन्निवेशाद्याधारतया विचित्रो दृश्यते निनोन्नतमृदुकठिनरक्तपीतादिभेदेन वा दृश्यते, न च तस्य पृथिवीतत्त्वस्यैतावता भेदेन भेदो भवति, 'एवम्' उक्तरीत्या 'भो' इति परामन्त्रणे, कृत्स्त्रोऽपि लोक:- चेतनाचेतनरूप एको विद्वान् वर्तते, इदमत्र हृदयं एक एव झात्मा विद्वान् ज्ञानपिण्डः पृथिव्यादिभूताद्याकारतया नाना दृश्यते, न च तस्यात्मन एतावताऽऽत्मतत्त्वभेदो भवति, तथा चोकम्- "एक एव हि भूतात्मा, भूते भूते व्यवस्थितः । एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥ १ ॥" तथा 'पुरुष एवेदं प्रिं For Parts Only ~41~ yor Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-९], नियुक्ति: [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ध्ययने प्रत सूत्रांक त्तियुतं ||१०|| दीप सूत्रकृताङ्ग सर्व यद्भूतं यच्च भाव्यं उतामृतसस्पेशानो यदन्नेनातिरोहति, यदेजति यन्नेजति यह्रे यदु अन्तिके यदन्तरस्य सर्वस यत्सर्वस्वास ९१ समयाशीलाङ्का- बाह्यतः' इत्यात्माद्वैतवादः ॥९॥ अस्योत्तरदानायाहचायि अद्वैतनिएवमेगेत्ति जप्पंति, मंदा आरंभणिस्सिआ। एगे किच्चा सयं पावं, तित्वं दुक्खं नियच्छइ ॥१०॥ राकरण ॥१९॥ 'एवमिति अनन्तरोक्तात्माद्वैतवादोपप्रदर्शनम् 'एके' केचन पुरुषकारणवादिनी 'जल्पन्ति' प्रतिपादयन्ति, किंभूतास्ते । इत्याह-'मन्दा' जडाः सम्यक्परिज्ञानविकलाः, मन्दलं च तेषां युक्तिविकलात्माऽद्वैतपक्षसमाश्रयणात् , तथाहि-ययेक एवात्मा स्थानात्मबहुसं ततो ये सच्चा:-प्राणिनः कृषीवलादयः 'एके' केचन आरम्भे-प्राण्युपमर्दनकारिणि व्यापारे नि:-॥ 18 बिता-आसक्ताः संबद्धा अध्युपपन्नाः ते च संरम्भसमारम्भारम्भैः कृत्वा' उपादाय 'वयम्' आत्मना 'पापम्' अशुभप्रकृतिरू-13। 8 पमसातोदयफलं तीव्रदुःखं तदनुभवस्थानं वानरकादिकं नियच्छतीति, आर्षखाबहुवचनार्थे एकवचनमकारि, ततश्रायमर्थो-नि श्रयेन यच्छन्त्यवश्यंतया गच्छन्ति-प्राप्नुवन्ति त एवारम्भासक्ता नान्य इति, एतन्न स्वाद्, अपि सेकेनापि अशुभे कमेणि कृते सर्वेषां शुभानुष्ठायिनामपि तीव्रदुःखाभिसंबन्धः स्याद् , एकखादात्मन इति, न चैतदेवं दृश्यते, तथाहि-य एव कश्चिदसमञ्जस ॥ १९॥ कारी स एव लोके तदनुरूपा विडम्बनाः समनुभव पलभ्यते नान्य इति, तथा सर्वगतले आत्मनो बन्धमोक्षाघभावः तथा प्रतिपाद्यप्रतिपादकविवेकाभावाच्छाखप्रणयनाभावश्च स्वादिति । एतदर्थसंवादिखात्प्राक्तन्येव नियुक्तिकगाथा व्याख्यायते, तद्यथा-पश्चानां पृथिव्यादीनां भूतानामेकत्र कायाकारपरिणतानां चैतन्यमुपलभ्यते, यदि पुनरेक एवात्मा ब्यापी साचदा अनुक्रम [१०] REaratinा I nsuranmaru ~424 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||??|| दीप अनुक्रम [११] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-१०], निर्युक्तिः [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०२ ], अंग सूत्र - [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः घटादिष्वपि चैतन्योपलब्धिः स्यात् न चैवं, तसान्नैक आत्मा, भूतानां चान्याऽन्यगुणलं न स्याद् एकस्मादात्मनोऽभिभवात्, तथा पञ्चेन्द्रियस्थानानां पञ्चेन्द्रियाश्रितानां ज्ञानानां प्रवृत्तौ सत्यामन्येन ज्ञाला विदितमन्यो न जानातीत्येतदपि न खाद्यद्येक एवात्मा स्यादिति ॥ १० ॥ साम्प्रतं तञ्जीवतच्छरीरवादिमतं पूर्वपक्षयितुमाह पत्ते कसि आया, जे बाला जे अ पंडिआ । संति पिच्चा न ते संति, नत्थि सत्तोववाइया ॥११॥ तजीवतच्छरीरवादिनामयमभ्युपगमः — यथा पञ्चभ्यो भूतेभ्यः कायाकारपरिणतेभ्यचैतन्यमुत्पद्यते अभिव्यज्यते वा तेनैकैकं शरीरं प्रति प्रत्येकमात्मानः 'कृत्स्नाः सर्वेऽप्यात्मान एवमवस्थिताः, ये 'बाला' अज्ञा ये च 'पण्डिताः सदसद्विवेकज्ञास्ते सर्वे पृथग् व्यवस्थिताः, नझेक एवात्मा सर्वव्यापिलेनाभ्युपगन्तव्यो बालपण्डिताद्यविभागप्रसङ्गात्, ननु प्रत्येकशरीराश्रयत्वेनात्मबहु| खमार्हतानामपीष्टमेवेत्याशङ्कयाह- 'सन्ति' विद्यन्ते यावच्छरीरं विद्यन्ते तदभावे तु न विद्यन्ते, तथाहि — कायाकारपरिणतेषु भूतेषु चैतन्याविर्भावो भवति, भूतसमुदाय विघटने च चैतन्यापगमो, न पुनरन्यत्र गच्छ चैतन्यमुपलभ्यते, इत्येतदेव दर्शयति'पिच्चा न ते संती'ति 'प्रेत्य' परलोके न 'ते' आत्मानः 'सन्ति' विद्यन्ते, परलोकानुयायी शरीराद्भिन्नः स्वकर्मफलभोक्ता न कविदारमाख्यः पदार्थोऽस्तीति भावः । किमित्येवमत आह-- 'नत्थि सत्तोववाइया' अस्तिशब्दस्तिङन्तप्रतिरूपको निपातो बहुवचने द्रष्टव्यः, तदयमर्थः - 'न सन्ति' न विद्यन्ते 'सत्त्वाः' प्राणिन उपपातेन निर्वृचा औपपातिका-भवाद्भवान्तरगामिनो न १ बिचटने प्र० । २० पलक्ष्यते प्र० । For Parts Only ~43~ Janurary org Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१२|| दीप अनुक्रम [१२] सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्का चाय तियुतं ॥ २० ॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [१], मूलं [गाथा - ११], निर्युक्तिः [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र- [ ०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः | भवन्तीति तात्पर्यार्थः तथाहि तदागम:- "विज्ञानधन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यति न प्रेत्य संज्ञाऽस्तीति, | ननु प्रागुपन्यस्तभूतवादिनोऽस्य च तञ्जीवतच्छरीरवादिनः को विशेष इति ?, अत्रोच्यते, भूतवादिनो भूतान्येव कायाकारपरिणतानि धावनवल्गनादिकां क्रियां कुर्वन्ति, अस्य तु कायाकारपरिणतेभ्यो भूतेभ्यचैतन्यारूय आत्मोत्पद्यतेऽभिव्यज्यते वा, तेभ्यश्चाभिन | इत्ययं विशेषः ॥ ११ ॥ एवं च धर्मिणोऽभावाद्धर्भस्याप्यभाव इति दर्शयितुमाह नत्थि पुण्णे व पावे वा नत्थि लोए इतो वरे । सरीरस्स विणासेणं, विणासो होइ देहिणो ॥ १२ ॥ 'पुण्यम्' अभ्युदयप्राप्तिलक्षणं तद्विपरीतं पापमेतदुभयमपि न विद्यते, आत्मनो धर्मिणोऽभावात्, तदभावाच्च नास्ति 'अतः ' अस्माल्लोकात् 'पर' अन्यो लोको यत्र पुण्यपापानुभव इति, अत्र चार्थे सूत्रकारः कारणमाह-'शरीरस्य' कायस्थ 'बिनाशेन' भूतविघटनेन 'विनाश:' अभावो 'देहिन' आत्मनोऽप्यभावो भवति यतः, न पुनः शरीरे विनष्टे तस्मादात्मा परलोकं गला पुण्यं | पापं वाऽनुभवतीति, अतो धर्मिण आत्मनोऽभावात्तद्धर्मयोः पुण्यपापयोरप्यभाव इति, असिचार्थे बहवो दृष्टान्ताः सन्ति, तद्यथा-यथा जलबुदुदो जलातिरेकेण नापरः कश्विद्विद्यते तथा भूतव्यतिरेकेण नापरः कश्चिदात्मेति तथा यथा कदलीस्तम्भस्य बहिस्वगपनयने क्रियमाणे लयात्रमेव सर्वं नान्तः कश्वित्सारोऽस्ति एवं भूतसमुदाये विघटति सति तावन्मात्रं विहाय नान्तः सारभूतः कचिदात्माख्यः पदार्थ उपलभ्यते, यथा वाग्लानं भ्राम्यमाणमतद्रूपमपि चक्रबुद्धिमुत्पादयति एवं भूतसमुदायोऽपि १ भिन्न प्र० । Education intention For Park Use Only ~ 44~ మనసా వచసా లభించక పద్ధతి १ समयाध्ययने त जीवतच्छ रीवा. ॥ २० ॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-१२], नियुक्ति: [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१२|| eeperseisesesesesesercenecerses दीप अनुक्रम विशिष्टक्रियोपेतो जीवभ्रान्तिमुत्पादयतीति, यथा च स्वप्ने बहिर्मुखाकारतया विज्ञानमनुभूयते अन्तरेणैव बाह्यमर्थम् , एवमा-1 त्मानमन्तरेण तद्विज्ञानं भूतसमुदाये प्रादुर्भवतीति, तथा यथाऽऽदर्शे स्वच्छत्वात्प्रतिबिम्बितो बहिःस्थितोऽप्यर्थोऽन्तर्गतो लक्ष्यते, नई चासौ तथा, यथा च ग्रीष्मे भौमेनोष्मणा परिस्पन्दमाना मरीचयो जलाकारं विज्ञानमुत्पादयन्ति, एवमन्येऽपि गन्धर्वनगरादयः खस्वरूपेणातथाभूता अपि तथा प्रतिभासन्ते, तथाऽऽत्मापि भूतसमुदायस्य कायाकारपरिणतौ सत्यां पृथगसन्नेव तथा भ्रान्ति ४ समुत्पादयतीति । अमीषां च दृष्टान्तानां प्रतिपादकानि केचित्सूत्राणि व्याचक्षते, असाभिस्तु सूत्राऽऽदर्थेषु चिरन्तनटी कायां चादृष्टयानोल्लिङ्गितानीति । ननु च यदि भूतव्यतिरिक्तः कश्चिदात्मा न विद्यते, तत्कृते च पुण्यापुण्ये न स्तः, तत्कथमेत| अगचियं घटते, तद्यथा-कविदीश्वरोऽपरो दरिद्रोऽन्यः सुभगोऽपरो दुर्भगः सुखी दुस्खी सुरूपो मन्दरूपो व्याधितो नीरो-1%81 गीति, एवंप्रकारा च विचित्रता किंनिबन्धनेति, अत्रोच्यते, स्वभावात् , तथाहि-कुत्रचिपिछलाशकले प्रतिमारूपं निप्पाधते, तच कुडमागरुचन्दनादिविलेपनानुभोगमनुभवति धूपायामोदं च, अन्यसिंस्तु पाषाणखण्डे पादक्षालनादि क्रियते, न च तयोः | पाषाणखण्डयोः शुभाशुभे स्तः, यदुदयात्स ताविधावस्थाविशेष इत्येवं स्वभावाअगद्वैचित्र्यं, तथा चोक्तम्-'कण्टकस्य च तीक्ष्णलं, मयूरस्थ विचित्रता । वणोंश्च ताम्रचूडाना, खभावेन भवन्ति हि ॥१॥" इति तजीवतपछरीवादिमतं गतम् ॥१२॥ इदानीमकारकवादिमताभिधित्सयाऽऽह कुवं च कारयं चेव, सवं कुवं न विजई । एवं अकारओ अप्पा, एवं ते उ पगम्भिआ ॥१३॥ [१२] Santauraton A nd Almondimranorm ~45~ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१३|| दीप अनुक्रम [१३] सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्का चाय चियुत ॥ २१ ॥ Educati “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [१], मूलं [गाथा - १३], निर्युक्तिः [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र- [ ०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - कुर्वन्निति स्वतन्त्रः कर्ताऽभिधीयते, आत्मनश्रामूर्तखान्नित्यत्वात् सर्वव्यापित्वाच्च कर्तृलानुपपत्तिः, अत एव हेतोः कारयितृलमप्यात्मनोऽनुपपन्नमिति, पूर्वथशब्दोऽतीतानागतकर्तृत्वनिषेधको द्वितीयः समुच्चयार्थः, ततश्रात्मा न स्वयं क्रियायां प्रवर्तते, नाप्यन्यं प्रवर्तयति, यद्यपि च स्थितिक्रियां मुद्राप्रतिविम्वोदयन्यायेन [ जपास्फटिकन्यायेनच ] अजिक्रियां करोति तथाऽपि समस्त क्रिया| कर्तृत्वं तस्य नास्तीत्येतदर्शयति-- 'सवं कृच्वं न विजइति 'सर्वो' परिस्पन्दादिकां देशादेशान्तरप्राप्तिलक्षणां क्रियां कुर्वन्नात्मा न विद्यते, सर्वव्यापित्वेनामूर्तत्वेन चाकाशस्यैवात्मनो निष्क्रियत्वमिति, तथा चोक्तम्- "अकर्ता निर्गुणो भोक्ता, आत्मा साङ्ख्यनिदर्शने" इति । 'एवम्' अनेन प्रकारेणात्माऽकारक इति, 'ते' सांख्याः, तुशब्दः पूर्वेभ्यो व्यतिरेकमाह, ते पुनः साङ्ख्या एवं 'प्रगल्भताः' प्रगल्भवन्तो धार्श्ववन्तः सन्तो भूयो भूयस्तत्र तत्र प्रतिपादयन्ति यथा – “प्रकृतिः करोति, पुरुष उपचक्रे, तथा बुद्ध्यध्यवसितमर्थं पुरुषश्वेतयते" इत्याद्यकारकवादिमतमिति ||१३|| साम्प्रतं तञ्जीवतच्छरीराकारकवादिनोर्मतं निराचिकीर्षुराह जे ते उ वाइणो एवं लोए तेसिं कओ सिया ? । तमाओ ते तमं जंति, मंदा आरंभनिस्सिया ॥ १४॥ तत्र ये तावच्छरीराव्यतिरिक्तात्मवादिनः 'एव' मिति पूर्वोक्तया नीत्या भूताव्यतिरिक्तमात्मानमभ्युपगतवन्तस्ते निराक्रियन्तेतत्र यतैस्तावदुक्तम्- 'यथा न शरीराद्धिनोऽस्त्यात्मेति, तदसङ्गतं यतस्तत्प्रसाधकं प्रमाणमस्ति तच्चेदम्-- विद्यमानकर्तृकमिदं शरीरम्, आदिमत्प्रतिनियताकारत्वात्, इह यद्यदादिमत्प्रतिनियताकारं तत्तद्विद्यमानकर्तृकं दृष्टं यथा घटः यथाविद्यमान कर्तृकं For Parts Only ~46~ १ समयाध्ययने अकारक वादिख. ॥ २१ ॥ narr Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक |१४|| दीप अनुक्रम [१४] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [१], मूलं [गाथा - १४], निर्युक्तिः [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र- [ ०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - तदादिमंत्प्रतिनियताकारमपि न भवति, यथाऽऽकाशम्, आदिमत्प्रतिनियताकारस्य च सकर्तुत्वेन व्याप्तेः, व्यापकनिष्वृत्तौ व्याप्यस्य विनिवृत्तिरिति सर्वत्र योजनीयम् । तथा विद्यमानाधिष्ठातृकानीन्द्रियाणि, करणत्वात्, यद्यदिह करणं तत्तद्विद्यमानाधिष्ठाटकं दृष्टं, यथा दण्डादिकमिति, अधिष्ठातारमन्तरेण करणत्वानुपपत्तिः यथाऽऽकाशस्य, हृषीकाणां चाधिष्ठाताऽऽत्मा, स च तेभ्योऽन्य इति, तथा विद्यमानाऽऽदात्कमिदमिन्द्रियविषयकदम्बकम्, आदानादेयसद्भावात्, इह यत्र यत्राऽऽदानादेयसद्भावस्तत्र तत्र विद्य मान आदाता - ग्राहको दृष्टः, यथा संदंशकायस्पिण्डयोस्तद्भिन्नोऽयस्कार इति यश्चात्रेन्द्रियैः करणैर्विषयाणामादाता ग्राहकः स तद्भिन्न आत्मेति, तथा विद्यमानभोक्तृकमिदं शरीरं, भोग्यत्वादोदनादिवत्, अत्र च कुलालादीनां मूर्तत्वानित्यत्व संहतत्वदर्शनादात्मापि तथैव स्यादिति धर्मिविशेषविपरीतसाधनत्वेन विरुद्धाशङ्का न विधेया, संसारिण आत्मनः कर्मणा सहान्योऽन्यानुबन्धतः कथञ्चिन्मूर्तत्वाद्यभ्युपगमादिति, तथा यदुक्तम् 'नास्ति सच्चा औपपातिका' इति, तदप्ययुक्तं, यतस्तदहर्जातबालकस्य यः स्तनाभिलाषः सोऽन्याभिलाषपूर्वकः, अभिलापत्यात्, कुमाराभिलाषवत्, तथा बालविज्ञानमन्यविज्ञानपूर्वकं विज्ञानत्वात्, कुमारविज्ञानवत्, तथाहि तदहर्जातबालकोऽपि यावत्स एवायं स्तन इत्येवं नावधारयति तावत्रोपरतरुदितो मुखमर्पयति स्तने इति, अतोऽस्ति | बालके विज्ञानलेशः, स चान्यविज्ञानपूर्वकः, तचान्यद्विज्ञानं भवान्तरविज्ञानं, तस्मादस्ति सच्च औपपातिक इति । तथा यदभिहितं, 'विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यती' ति, तत्राप्ययमर्थो - 'विज्ञानघनो 'विज्ञानपिण्ड आत्मा 'भूतेभ्य उत्था ये 'ति माक्तनकर्मवशात्तथाविधकायाकारपरिणते भूतसमुदाये तद्वारेण स्वकर्मफलमनुभूय पुनस्तद्विनाशे आत्मापि तदनु तेनाकारेण १ नाभ्राणां प्रतिनियत आकार, जम्बूद्वीपादिलोकस्थिति निषेधार्थमादिमत्त्वम् । Ja Eucation International For Park Use Only ~47~ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-१४], नियुक्ति: [३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्काचाीय सूत्रांक त्तियुत ||१४|| ॥२२॥ दीप विनश्यापरपर्यायान्तरेणोत्पद्यते, न पुनस्तरेव सह विनश्यतीति । तथा यदुक्तं-धर्मिणोऽभावात्तद्धर्मयोः पुण्यपापयोरभाव इति, 18|१समयातदप्यसमीचीनं, यतो धर्मी तावदनन्तरोक्तिकदम्बकेन साधितः, तत्सिद्धौ च तद्धर्मयोः पुण्यपापयोरपि सिद्धिवसेया जगद्वैचित्र्य- ध्ययने तदर्शनाच्च । यत्तु खभावमाश्रित्योपलशकलं दृष्टान्तसेनोपन्यस्तं तदपि तदोक्तृकर्मवशादेव तथा तथा संवृत्तमिति दुर्निवारः पुण्या जीवतपुण्यसद्भाव इति । येऽपि वहवः कदलीस्तम्भादयो दृष्टान्ता आत्मनोभावसाधनायोपन्यस्ताः तेऽप्यभिहितनीत्याऽऽत्मनो भूतन्यति च्छरीर० रिक्तस्य परलोकयायिनः सारभूतस्य साधितखात्केवलं भवतो चाचालतांप्रख्यापयन्ति इत्यलमतिप्रसङ्गेन । शेष सूत्रं वित्रियतेऽधुनेति । तदेवं 'तेषां भूतव्यतिरिक्तात्मनिववादिनां योऽयं 'लोक' चतुर्गतिकसंसारो भवाद्भवान्तरगतिलक्षणः प्राक् प्रसाधितः सुभग| दुभंगमुरूपमन्दरूपेश्वरदारियादिगत्या जगढचित्र्यलक्षणश्च स एवंभूतो लोकस्तेषां 'कुतो भवेत् । कयोपपत्या घटेत । आत्मनीजनभ्युपगमात्, न कथञ्चिदित्यर्थः, 'ते च नास्तिकाः परलोकयायिजीवाऽनभ्युपगमेन पुण्यपापयोश्वाभावमाश्रित्य यत्किञ्चनका-1 रिणोऽज्ञानरूपाचमसः सकाशादन्यत्तमो यान्ति, भूयोऽपि ज्ञानावरणादिरूपं महत्तरं तमः संचिन्वन्तीत्युक्तं भवति, यदिवा-तम 81 इव तमो- दुःखसमुद्घातेन सदसद्विवेकप्रध्वंसिखाद्यातनास्थानं तस्माद् एवंभूतात्तमसः परतरं तमो यान्ति, सप्तमनरकपृथिव्यां | रोरवमहारोरवकालमहाकालाप्रतिष्ठानाख्यं नरकाबास यान्तीत्यर्थः। किमिति !, यतस्ते 'मन्दा' जडा मूखोंः, सत्यपि युत्युपपने ॥२२॥ आत्मन्यसदभिनिवेशाचदभावमाश्रित्य प्राण्युपमर्दकारिणि विवेकिजननिन्दिते आरम्भे-व्यापारे निश्चयेन नितरां वा श्रिताःसंबद्धाः, पुण्यपापयोरभाव इत्याश्रित्य परलोकनिरपेक्षतयाऽऽरम्भनिश्रिता इति । तथा तजीवतच्छरीरबादिमतं नियुक्तिकारोपि| | निराचिकीर्षुराह--'पंचण्ह'मित्यादिगाथा प्राग्वदत्रापि ३३ ।। साम्प्रतमकारकवादिमतमाश्रित्यायमनन्तर(रोक्त)श्लोको भूयोऽपि अनुक्रम [१४] ~48~ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-१४], नियुक्ति: [३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१४|| Sapa90920000 व्याख्यायते-ये एते अकारकवादिन आत्मनोऽमूर्तबनित्यखसर्वव्यापिलेभ्यो हेतुभ्यो निष्क्रियखमेवाभ्युपपन्नाः तेषां य एष 'लोको' जरामरणशोकाक्रन्दनहर्षादिलक्षणो नरकतिर्यश्मनुष्यामरगतिरूपः सोऽयमेवंभूतो निष्क्रिये सत्यात्मन्यप्रच्युतानुत्पन्नस्थि| रैकखभाचे 'कुत:' कसाढेतोः सात् !, न कथश्चित्कुत्तश्चित्स्यादित्यर्थः, ततश्च दृष्टेष्टवाधारूपात्तमसोज्ञानरूपाते तमोऽन्तरं-निकृष्टं यातनास्थानं यान्ति, किमिति ?, यतो 'मन्दा' जडाः प्राण्यपकारकाऽऽरम्भनिश्रिताश्च ते इति । अधुना नियुक्तिकारोऽकारकवादिमतनिराकरणार्थमाह को वेएई अकयं ? कयनासो पंचहा गई मस्थि । देवमणुस्सगयागइ जाईसरणाइयाणं च ॥ ३४ ॥ आत्मनोऽकर्तृवात्कृतं नास्ति, ततश्चाकृतं को चेदयते ?, तथा निष्क्रियते वेदनक्रियाऽपि न घटा प्राश्चति, अथाकृतमप्यनुभू| येत तथा सत्यकृतागमकृतनाशापत्तिः स्यात् , ततश्च एककृतपातकेन सर्वेः प्राणिगणो दुःखितः स्यात् पुण्येन च सुखी स्यादिति,81 | न चैतद् दृष्टमिष्टं वा, तथा च्यापिखानित्यखाश्चात्मनः 'पञ्चधा' पञ्चप्रकारा नारकतियें अनुष्यामरमोक्षलक्षणा गतिने भवेत् ॥ ततश्च भवतां सांख्यानां कापायचीवरधारणशिरस्तुण्डमुण्डनदण्डधारणभिक्षाभोजिसपञ्चरात्रोपदेशानुसारयमनियमाद्यनुष्टान, तथा ||६ "पञ्चविंशतितत्वज्ञो, यत्र तत्राश्रमे रतः । जटी मुण्डी शिखी वापि, मुच्यते नात्र संशयः॥१॥" इत्यादि सर्वमपार्थकमाप्नोति तथा । | देवमनुष्यादिषु गत्यागती न स्याता, सर्वव्यापिखादात्मनः, तथा नित्यखाच विस्मरणाभावाजातिसरणादिका च क्रिया नोपप-18॥ द्यते, तथा आदिग्रहणात् 'प्रकृतिः करोति पुरुष उपमुझे इति अजिक्रिया या समाश्रिता साऽपि न प्राप्नोति, तस्सा अपि क्रिया-1 खादिति, अथ 'मुद्राप्रतिबिम्बोदयन्यायेन भोग'इति चेत्, एतत्तु निरन्तराः सुहृदः प्रत्येष्यन्ति, वाचावलात् , प्रतिबिम्बोदयस्या दीप अनुक्रम [१४] eseseneestol SaintaintunM unal marary.org ~49~ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-१४], नियुक्ति: [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ध्ययने अ प्रत सूत्रांक ||१४|| दीप सूत्रकृताङ्गं पिच क्रियाविशेषत्वादेव, तथा नित्ये चाविकारिण्यात्मनि प्रतिविम्बोदयस्थाभावाद्यत्किश्चिदेतदिति ॥ ३४ ॥ ननु च भूजिकि-18 १ समया शीलाकरयामात्रेण प्रतिविम्बोदयमात्रेण च यद्यप्यात्मा सक्रियः तथापि न तावन्मात्रेणासाभिः सक्रियत्वमिष्यते, किं तर्हि , समस्तक्रि-18 चाय- यावखे सतीत्येतदाशव नियुक्तिकृदाह कारकवाचियुतं दिनिरा. | णहु अफलधोवणिच्छितकालफलत्तणमिहं अदुमहेऊ । णादुद्धथोचबुद्धसणे णगावित्तणे हेऊ ॥ ३५॥ . 18 ॥२३॥ 181 महु' नैवाफलत्वं द्रुमाभावे साध्ये हेतुर्भवति, नहि यदैव फलवांस्तदैव द्रुमः अन्यदा त्वद्रुम इति भावः, एवमात्मनोऽपि ४|| सुप्ताद्यवस्थायां यद्यपि कथश्चिनिष्क्रियत्वं तथापि नैतावता त्वसौ निष्क्रिय इति व्यपदेशमहेति, तथा स्तोकफलत्वमपि न वृक्षा-1 8 भावसाधनायालं, स्वल्पफलोऽपि हि पनसादिवृक्षव्यपदेशभाग्भवति, एवमात्माऽपि खल्पक्रियोऽपि क्रियावानेव, कदाचिदेषा मतिर्भवतो भवेत्-स्तोकक्रियो निष्क्रिय एव, यथैककार्षापणधनो न धनित्व(व्यपदेश)मास्कन्दति, एवमात्माऽपि खल्पक्रियत्वाद-16 क्रिय इति, एतदप्यचारु, यतोऽयं दृष्टान्तः प्रतिनियतपुरुषापेक्षया चो(त्रो पगम्यते समस्तपुरुषापेक्षया वा?, तत्र यद्यायः पक्षः तदा | सिद्धसाध्यता, यतः--सहस्रादिधनवदपेक्षया निर्धन एवासौ, अथ समस्तपुरुषापेक्षया तदसाधु, यतोऽन्यान् जरचीवरधारिणोऽपेक्ष्य || 18| कापोपणधनोऽपि धनवानेव, तथाऽऽस्मापि यदि विशिष्टसामयोपेतपुरुषक्रियापेक्षया निष्क्रियोऽभ्युपगम्यते न काचित्क्षतिः सामा-18 न्यापेक्षया तु क्रियावानेव, इत्यलमतिप्रसङ्गेन, एवमनिश्चिताकालफलत्वाख्यहेतुद्वयमपि न पक्षाभावसाधकम् इत्यादि योज्य, 1 | चोच्यते प्र. अनुक्रम [१४] २३॥ RERucatunnilme Taurasurary.com ~50~ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-१४], नियुक्ति: [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्' मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||१५|| Reseaeeeeeeeeeeeee एवमदुग्धत्वस्तोकदुग्धत्वरूपावपि हेतू न गोत्वाभावं साधयतः, उक्तन्यायेनैव दार्शन्तिकयोजना कार्येति ३५ ॥ १४ ॥ साम्प्रतमात्मषष्ठवादिमतं पूर्वपक्षयितुमाह संति पंच महब्भूया, इहमेगेसि आहिया । आयछटो पुणो आहु, आया लोगे य सासए ॥ १५॥ 'सन्ति' विद्यन्ते 'पञ्च महाभूतानि पृथिव्यादीनि 'इह' अस्मिन्संसारे 'एकेषां वेदवादिना सांख्यानां शैवांधिकारिणां च, ॥ एतद् आख्यातम् आख्यातानि वा भूतानि, ते च वादिन एवमाहुः–एवमाख्यातबन्तः, यथा 'आत्मषष्ठानि' आत्मा षष्ठो येषां तानि आत्मषष्ठानि भूतानि विद्यन्त इति, एतानि चात्मषष्ठानि भूतानि यथाऽन्येषां वादिनामनित्यानि तथा नामीषामिति दर्शयतिआत्मा 'लोकश्च पृथिव्यादिरूपः 'शाश्वत: अविनाशी, तत्रात्मनः सर्वव्यापित्वादमूर्तत्वाचाकाशस्येव शाश्वतत्वं, पृथिच्यादीनां | च तद्रूपाप्रच्युतेरविनश्वरत्वमिति ॥ १५ ॥ शाश्वतत्वमेव भूयः प्रतिपादयितुमाह-- दुहओ ण विणस्संति, नो य उप्पजए असं । सोऽवि सबहा भावा, नियत्तीभावमागया ॥१६॥ 'ते' आत्मषष्ठाः पृथिव्यादयः पदार्था 'उभयत इति नितुकसहेतुकविनाशद्वयेन न विनश्यन्ति, यथा बौद्धानां स्वत एव IS| निर्हेतुको विनाशः, तथा च ते ऊचुः 'जातिरेच हि भावानां, विनाशे हेतुरिष्यते । यो जातश्च न च ध्वस्ती, नश्येत्पवात्स | केन च ॥१॥" यथा च वैशेषिकाणां लकुटादिकारणसानिध्ये विनाशः सहेतुका, तेनोभयरूपेणापि विनाशेन लोकात्मनोने -१ वैशेषिकाणां प्र. 18390920a8a92059200000 दीप अनुक्रम [१५] SAREairaniKUnd ONanduranorm ~51~ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-१६], नियुक्ति: [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१६|| दिनि. सूत्रकृता विनाश इति तात्पर्यार्थः, यदिवा-'दुहओ'त्ति द्विरूपादात्मनः स्वभावाचेतनाचेतनरूपान्न विनश्यन्तीति, तथाहि-पृथिव्य- समया जोबायवाकाशानि खरूपापरित्यागतया नित्यानि, 'न कदाचिदनीदर्श जगदि तिकृत्वा, आत्माऽपि नित्य एव, अकृतकत्वादिभ्योध्ययने आचाय- हेतुभ्यः, तथा चोक्तम्- "नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारुतः ॥१॥ त्मषष्ठवात्तियुतं अच्छेद्योऽयमभेद्योऽयमविकार्योज्यमुच्यते । नित्यः सततगः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः॥२॥" एवं च कृत्वा नासदुत्पद्यते, सर्वस्व ॥२४॥ सर्वत्र सद्भावाद् असति च कारकव्यापाराभावात् सत्कार्यवादः, यदि च असदुत्पद्येत खरविषाणादेरप्युत्पत्तिः स्यादिति, तथा चोक्तम्- "असदकरणादुपादानग्रहणात्सर्वसंभवाभावात् । शक्तस शक्यकरणात्कारणभावाच्च सत्कार्यम् ॥१॥" एवं च कृत्वा मृत्पिण्डेऽपि घटोऽस्ति, तदर्थिनां मृत्पिण्डोपादानात् , यदि चासदुत्पद्येत ततो यतः कुतश्चिदेव स्वात्, नावश्यमेतदर्थिना मृत्पि&ण्डोपादानमेव क्रियेत इति, अतः सदेव कारणे कार्यमुत्पद्यत इति । एवं च कृत्वा सर्वेऽपि भावा:-पृथिव्यादय आत्मषष्ठाः 'निय-181 तिभावं' नित्यत्वमागता नाभावरूपतामभूत्वा च भावरूपता प्रतिपद्यन्ते, आविर्भावतिरोभावमात्रत्वादुत्पतिविनाशयोरिति, तथा 8 चाभिहितम् -"नासतो जायते भावो, नाभावो जायते सतः" इत्यादि, अस्योत्तरं नियुक्तिकृदाह-'को वेएईत्यादिप्राक्तन्येव । | गाथा, सर्वपदार्थनित्यत्वाभ्युपगमे कर्तृत्वपरिणामो न स्यात् , ततश्चात्मनोऽकर्तृत्वे कर्मबन्धाभावस्तदभावाच्च को वेदयति, न कश्चित्सुखदुःखादिकमनुभवतीत्यर्थः, एवं च सति कृतनाशः स्यात् , तथा असतलोत्पादाभावे येयमात्मनः पूर्वभवपरित्यागेनाप-1॥ | रभवोत्पत्तिलक्षणा पञ्चधा गतिरुच्यते सा न स्यात् , ततश्च मोक्षगतेरभावाद्दीक्षादिक्रियाऽनुष्ठानमनथेकमापयेत, तथाअच्युतानु-13 १. मदायोऽय०प्र० । २ सर्वगतः प्रा। दीप अनुक्रम [१६] ~52~ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-१६], नियुक्ति: [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक त्पनस्थिरैकखभावसे चात्मनो देवमनुष्यगत्यागती तथा विस्मृतेरभावात् जातिमरणादिकं च न प्राप्नोति, यथोक्तं सदेवोत्पद्यते । । तदप्यसत् , यतो यदि सर्वथा सदेव कथमुत्पादः ?, उत्पादशेत् न तहिं सर्वदा सदिति, तथा चोक्तम्- "कर्मगुणव्यपदेशाः 16ग्रागुत्पत्तेर्न सन्ति यत्तस्मात् । कार्यमसद्विजेयं क्रियाप्रवृत्तेश्च कर्तृणाम् ॥१॥" तसात्सर्वपदार्थानां कश्चिनित्यवं कथञ्चिदनित्यवं 18 सदसत्कार्यवादशेत्यवधार्य, तथा चाभिहितम्-"सर्वव्यक्तिषु नियतं क्षणे क्षणेऽन्यसमथ च न विशेषः । सत्योरित्यपचित्योराक18|तिजातिव्यवस्थानात् ॥१॥" इति, नथा “नान्वयः स हि भेदखान भेदोऽवयवृत्तितः । मुनेदद्वयसंसर्गवृत्तिजात्यन्तरं घटः || Mou१॥" ॥१६॥ साम्प्रतं बौद्धमतं पूर्वपक्षयनियुक्तिकारोपन्यस्तमफलवादाधिकारमाविर्भावयन्नाह पंच खंधे वयंतेगे, बाला उ खणजोइणो । अपणो अणण्णो णेवाहु, हेउयं च अहेउयं ॥ १७ ॥ & 'एके' केचन वादिनो बौद्धाः 'पञ्च स्कन्धान बदन्ति' रूपवेदनाविज्ञानसंज्ञासंस्काराख्याः पञ्चैव स्कन्धा विद्यन्ते नापरः कश्चिदात्माख्या स्कंधोऽस्तीत्येवं प्रतिपादयन्ति, तत्र रूपस्कन्धः पृथिवीधाखादयो रूपादयश्च १ सुखा दुःखा अदुःखसुखा चेति | |वेदना वेदनास्कन्धः २ रूपविज्ञान रसविज्ञानमित्यादि विज्ञानं विज्ञानस्कन्धः ३ संज्ञास्कन्धः संज्ञानिमित्तोद्भाहणात्मकः प्रत्ययः ।। ४ संस्कारस्कन्धः पुण्यापुण्यादिधर्मसमुदाय इति ५।न तेभ्यो व्यतिरिक्तः कश्चिदात्माख्या पदार्थोऽध्यक्षेणाध्यवसीयते, तदन्यभिचारिलिङ्गग्रहणाभावात् , नाप्यनुमानेन, न च प्रत्यक्षानुमानव्यतिरिक्तमाविसंवादि प्रमाणान्तरमस्तीत्येवं बाला इव बाला-% यथाऽवस्थितार्थापरिज्ञानात् बौद्धाः प्रतिपादयन्ति, तथा ते स्कन्धाः क्षणयोगिनः परमनिरुद्धः कालः क्षणः क्षणेन योगः-सं ||१७|| eesesecseeeeee అలా నలుమూలల ను दीप अनुक्रम [१७] सूत्रकृ.५HI ~53~ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-१७], नियुक्ति: [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः ध्ययने प्रत सूत्रांक ||१७|| चियुतं सूत्रकृताङ्गं बन्धः क्षणयोगः स विद्यते येषां ते क्षणयोगिनः, क्षणमात्रावस्थायिन इत्यर्थः, तथा च तेऽभिदधति-खकारणेभ्यः पदार्थ उत्पद्य- समयाशीलाकामानः किं विनश्वरखभाव उत्पद्यतेऽविनश्वरखभावो वा, यद्यविनश्वरस्ततस्तद्वयापिन्याः क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियाया अभावात || अफवालचायायपदार्थस्थापि व्याप्यस्थामावः प्रसजति, तथाहि-यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थतः सदिति, स च नित्योऽयक्रियायां प्रवर्तमानः | दिवौद्धाः क्रिमेण वा प्रवतेत योगपयेन वा?, न तावत्क्रमेण, यतो किस्सा अर्थक्रियायाः काले तस्यापरार्थक्रियाकरणखभावो विद्यते वा । ॥२५॥ नवा?, यदि विद्यते किमिति क्रमकरणं ?, सहकार्यपेक्षयेति चेत् तेन सहकारिणा तस्स कविदतिशयः क्रियते न वा?, यदि क्रियते कि पर्वखभावपरित्यागेनापरित्यागेन वा, यदि परित्यागेन ततोऽतादवस्थ्यापतेरनित्यखम् , अथ पूर्वखभावापरित्यागेन ततोऽ-181 | तिशयाभावारिक सहकार्यपेक्षया?, अथ अकिश्चित्करोपि विशिष्ट कार्यार्थमपेक्षते, तदयुक्तं, यतः-'अपेक्षेत परं कश्चिद्यदि कुर्वीत किश्चन । यदकिश्चित्करं वस्तु, किं केनचिदपेक्ष्यते ॥१॥" अथ तस्सैकार्थक्रियाकरणकालेऽपरार्थक्रियाकरणखभावो न8 विद्यते, तथा च सति स्पष्टैच नित्यताहानिः, अथासौ नित्यो यौगपद्येनार्थक्रियां कुर्यात् तथा सति प्रथमक्षण एवाशेषार्थक्रियाणां करणात् द्वितीयक्षणेऽकर्तृखमायातं, तथा च सैवानित्यता, अथ तस्य तत्स्वभावसाता एवार्थक्रिया भूयो भूयो द्वितीयादिक्षणेष्वपि IS कुयोत् , तदसाम्प्रतं, कृतस करणाभावादिति, किंच-द्वितीयादिक्षणसाध्या अप्यर्थाः प्रथमक्षण एवं प्राप्नुवन्ति, तस्य तत्खभा | ॥२५॥ वखात् , अतत्वभावले च तस्यानित्यखापत्तिरिति । तदेवं नित्यस क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरहान स्वकारणेभ्यो नित्यसोत्पाद इति.। अथानित्यखभावः समुत्पद्यते, तथा च सति विघाभावादायातमस्सदुक्तमशेषपदार्थजातख क्षणिकसं, तथा चोक्तम्---"जा|| तिरेव हि भावाना, विनाशे हेतुरिष्यते । यो जातश्च न च ध्वस्तो, नश्येत्पश्चात्स केन च, ॥१॥" ननु च सत्यप्यनित्यने यस्य | दीप अनुक्रम [१७] Receness ~54~ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-१७], नियुक्ति: [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१७|| यदा विनाशहेतुसद्भावस्तख तदा विनाशः, तथा च खविनाशकारणापेक्षाणामनित्यानामपि पदार्थानां न क्षणिकखमिति, एतच्चा| नुपासितगुरोर्वचा, तथाहि-तेन मुद्गरादिकेन विनाशहेतुना घटादेः किं क्रियते ?, किमत्र प्रष्टव्यम् । अभावः क्रियते, अत्र च प्रष्टन्यो देवानांप्रियः, अभाव इति किं पर्युदासप्रतिषेधोऽयमुत प्रसज्यप्रतिषेध इति , तत्र यदि पर्युदासस्ततोऽयमों-भावादन्योऽभावो भावान्तरं-घटात्पटादिः सोऽभाव इति, तत्र भावान्तरे यदि मुद्गरादिव्यापारो न तर्हि तेन किश्चिद् घटस कृतमि|ति, अथ प्रसज्यप्रतिषेधस्तदाऽयमों-विनाशहेतुरभावं करोति, किमुक्तं भवति ?-भावं न करोतीति, ततथ क्रियाप्रतिषेध एच कृतः स्यात्, न च घटादेः पदार्थस्य मुद्रादिना करणं, तस्स खकारणरेव कृतलाव, अथ भावाभावोऽभावस्तं करोतीति, तस्य तुच्छस्य नीरूपखात् कुतस्तत्र कारकाणां व्यापारः, अथ तत्रापि कारकव्यापारो भवेत् खरशङ्गादावपि व्याप्रियेरन् कारकाणीति । तदेवं विनाशहेतोरकिश्चित्करखात् खहेतुत एवानित्यताक्रोडीकृतानां पदार्थानामुत्पत्तेर्विघ्नहेतोश्चाभावात् क्षणिकलमवस्थितमिति । तुशब्दः पूर्ववादिभ्योऽस्य व्यतिरेकप्रदर्शकः, तमेव श्लोकपश्चार्धेन दर्शयति-'अण्णो अणण्णो' इति ते हि बौद्धा यथा| ऽऽत्मपष्टवादिनः सांख्यादयो भूतव्यतिरिक्तमात्मानमभ्युपगतवन्तो यथा च चार्वाका भूताव्यतिरिक्तं चैतन्याख्यमात्मानमिष्टवन्त-18 स्तथा 'मैवाहु' नैवोक्तवन्तः, तथा हेतुभ्यो जातो हेतुकः कायाकारपरिणतभूतनिष्पादित इतियावत् तथाऽऽतुकोज्नावपर्यवसितखाचित्य इत्येवं तमात्मानं ते चौद्धा नाभ्युपगतवन्त इति ॥१७|| तथाऽपरे चौद्धाचातुर्धातुकमिदं जगदाहुरित्येतदर्शयितुमाह पुढवी आउ तेऊ य, तहा वाऊ य एगओ। चत्तारि धाउणो रूवं, एवमाहंसु आवरे ॥ १८॥ दीप अनुक्रम [१७] SARERainintenarana aurasurary.com ~55~ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-१८], नियुक्ति: [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१८|| &ce दीप अनुक्रम सूत्रकृताई पृथिवी घातुरापश्च धातुस्तथा तेजो वायुधेति, धारकखात्पोषकलाच घातुखमेपाम्, 'एगओत्ति' यदैते चखारोऽप्येकाकारपरि-18१ समयाशीलाङ्का-णिति विभ्रति कायाकारतया तदा जीवव्यपदेशमचवते, तथा चोचुः-"चतुर्धातुकमिदं शरीरं, न तव्यतिरिक्त आत्माऽस्ती"ति,IST ध्ययन अफलवा. चायीय- 'एवमाहंसु यावरेत्ति' अपरे बौद्धविशेषा एवम् 'आहुः अभिहितवन्त इति, कचिद् 'जाणगा' इति पाठः, तत्राप्ययमोंचियुतं 'जानका' ज्ञानिनो वयं किलेत्यभिमानामिदग्धाः सन्त एवमाहुरिति संबन्धनीयम् । अफलवादिलं चैतेषां क्रियाक्षण एवं कर्तुः सर्वात्मना नष्टलात् क्रियाफलेन सबन्धाभावादवसेयं, सर्व एव वा पूर्ववादिनोऽफलवादिनो द्रष्टव्याः, कैश्चिदात्मनो नित्यस्याविका॥२६॥ परिणोऽभ्युपगतखात् कैबिचारमन एवानभ्युपगमादिति । अत्रोत्तरदानार्थ प्राक्तन्येव नियुक्तिगाथा 'को वेए' ईत्यादि व्याख्यायते | | यदि पश्चस्कन्धव्यतिरिक्तः कश्चिदात्माख्यः पदार्थो न विद्यते ततस्तदभावात्सुखदुःखादिकं कोऽनुभावीत्यादिगाथा प्राग्वद्या| ख्येयेति, तदेवमात्मनोऽभावायोज्यं वसंविदितः सुखदुःखानुभवः स कस्य भवखिति चिन्त्यता, ज्ञानस्कन्धस्सायमनुभव इति चेत्, न, का तस्यापि क्षणिकखात्, शानक्षणस्य चातिसूक्ष्मसात् सुखदुःखानुभवाभावः, क्रियाफलवतोष क्षणयोरत्यन्तासंगतेः कृतनाशाकता भ्यागमापत्तिरिति, ज्ञानसंतान एकोऽस्तीति चेत् तस्यापि संतानिच्यतिरिक्तस्याभावाद्यत्किश्चिदेतत् , पूर्वेक्षण एवं उत्तरक्षणे वासना माधाय पिनाचतीति चेत्, तथा चोक्तम्-"यसिन्नेव हि संताने, आहिता कर्मवासना । फलं तत्रैव संधत्ते, कापोंसे रक्तता यथा| IN||||" अत्रापीदं विकल्प्यते--सा वासना किंक्षणेभ्यो व्यतिरिक्ताऽव्यतिरिक्तावा?, यदि व्यतिरिक्ता वासकखानुपपत्तिः, अथान्य-18।२६ ॥ ||तिरिक्ता क्षणवत् क्षणक्षयिखं तस्याः, तदेवमात्माभावे सुखदुःखानुभवाभावः स्वाद, अस्ति च सुखदुःखानुभवो, अतोऽस्त्यात्मेति, अन्यथा पञ्चविषयानुभवोत्तरकालमिन्द्रियज्ञानानां खविषयादन्यत्राप्रवृत्तेः संकलनाप्रत्ययो न स्यात् , आलयविज्ञानाद्भविष्यतीति [१८] ~56~ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-१८], नियुक्ति: [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्' मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||१८|| चेदात्मैव तर्हि संशान्तरेणाभ्युपगत इति । तथा बौद्धागमोऽप्यात्मप्रतिपादकोस्ति, स चायम् - "इत एकनवते कल्पे, शच्या मे पुरुषो हतः । तेन कर्मविपाकेन, पादे विद्धोऽसि भिक्षवः॥१॥" तथा "कृतानि कर्माण्यतिदारुणानि, तनूभवन्त्यात्म-10 नि महणेन । प्रकाशनात्संवरणाच तेषामत्यन्तमूलोद्धरणं वदामि ॥१॥" इत्येवमादि, तथा यदुक्तं क्षणिकसं साधयता यथा 'पदार्थः कारणेभ्य उत्पद्यमानो नित्यः समुत्पद्यतेऽनित्यो 'त्यादि, तत्र नित्येप्रच्युतानुत्पत्रास्थिरैकखभावे कारकाणां व्यापाराभा-18 18 वादतिरिक्ता बाचोयुक्तिरिति नित्यसपक्षानुत्पत्तिरेव, यच्च नित्यपक्षे भवताभिहितं 'नित्यस्य न क्रमेणार्थक्रियाकारिख नापि यी-18| गपयेनेति' तत्क्षणिकखेऽपि समान, यतः क्षणिकोऽप्यर्थक्रियायां प्रवर्तमानः क्रमेण योगपयेन वावश्यं सहकारिकारणसव्यपेक्ष ||2|| I एव प्रवर्तते, यतः 'सामग्री जनिका, न होकं किञ्चिदिति तेन च सहकारिणा न तस्य कश्चिदतिशयः कर्तुं पायेंते, धणस्यावि वेकखेनानाधेयातिशयखान, क्षणानां च परस्परोपकारकोपकार्यखानुपपत्तेः सहकारिताभावः, सहकार्यनपेक्षायां च प्रतिविशिकार्यानुपपत्तिरिति । तदेवमनित्य एव कारणेभ्यः पदार्थः समुत्पद्यत इति द्वितीयपक्षसमाश्रयणमेव, तत्रापि चैतदालोचनीयं-किं क्षणक्षयिखेनानित्यसमाहोखित्परिणामानित्यतयेति ?, तत्र क्षणक्षयिले कारणकार्याभावात् कारकाणां व्यापार एवानुपपन्नः कुतः131 क्षणिकानित्यस कारणेभ्य उत्पाद इति ?, अथ पूर्वक्षणाचरक्षणोत्पादे सति कार्यकारणभावो भवतीत्युच्यते, तदयुक्तं, यतोऽसौ | पूर्वक्षणो विनष्टो बोत्तरक्षणं जनयेदविनष्टो वा, न तावद्विनष्टः, तस्यासचाजनकखानुपपचे, नाप्यविनष्टः, उत्तरक्षणकाले पूर्वक्षणव्यापारसमावेशारक्षणभङ्गभङ्गापत्तेः, पूर्वक्षणो विनश्यस्तूत्तरक्षणमुत्पादयिष्यति तुलान्तयो मोनामवदिति चेत्, एवं तर्हि क्षणयोः स्पष्टवैककालताऽश्रिता, तथाहि-याऽसौ विनश्यवस्था साऽवस्थातुरभिन्ना उत्पादावस्थाऽप्युत्पित्सोः, ततश्च तयोविनाशोत्पादयो दीप अनुक्रम [१८] ~57~ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-१८], नियुक्ति: [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: esesesesesee प्रत सूत्रांक ||१८|| तियुतं | अफलवादिवोदा सूत्रकताझं | यौंगपयाभ्युपगमे तद्धर्मिणोरपि पूर्वोत्तरक्षणयोरेककालावस्थायिखमिति, तद्धर्मताजभ्युपगमे च विनाशोत्पादयोरवस्तुखापचिरिति । १समयाशीलाका- यचोक्तम् –'जातिरेव हि भावानामि त्यादि, तत्रेदमभिधीयते-यदि जातिरेव-उत्पत्तिरेव भावाना-पदार्थानामभावे हेतुः, ध्ययने चायीयवृ ततोऽभावकारणस्य सनिहितत्वेन विरोधेनाघातसादुत्पत्यभावः, अथोत्पत्युत्तरकालं विनाशो भविष्यतीत्यभ्युपगम्यते, तथा सति IS उत्पत्तिक्रियाकाले तस्याभूतखात्पश्चाच्च भवबनन्तर एव भवति न भूयसा कालेनेति किमत्र नियामकं?, विनाशहेखभाव इति चेत्, | यत उक्त-'निर्हेतुलाद्विनाशस्य स्वभावादनुबन्धिते'ति, एतदप्ययुक्तं, यतो घटादीनां मुद्गरादिव्यापारानन्तरमेव विनाशो भवन् | लक्ष्यते, ननु चोक्तमेवात्र तेन मुद्गरादिना घटादेः किं क्रियते ? इत्यादि, सत्यमुक्तं इदमयुक्तं तूतं, तथाहि-अभाव इति प्रसज्यप| युदास विकल्पद्वयेन योऽयं विकल्पितः पक्षद्वयेऽपि च दोषः प्रदर्शितः सोऽदोष एव, यतः पर्युदासपक्षे कपालाख्यभावान्तरकरणे, |घटख च परिणामानित्यतया तद्रूपतापत्तेः कथं मुद्गरादेर्घटादीन् प्रत्यकिश्चित्करखं ?, प्रसज्यप्रतिषेधस्तु भावं न करोतीति क्रियाप्रतिषेधात्मकोऽत्र नाश्रीयते, किं तर्हि ?, प्रागभावप्रध्वंसाभावतरेतरात्यन्ताभावानां चतुर्णा मध्ये प्रध्वंसाभाव एवेहाश्रीयते, तत्र च कारकाणां व्यापारो भवत्येव, यतोऽसी वस्तुतः पर्यायोऽवस्थाविशेषो नाभावमात्र, तस्य चावस्थाविशेषस्य भावरूपत्वात्पूर्वोपमशार्देन च प्रवृत्तत्वाध एव कपालादेरुत्पादः स एव घटादेविनाश इति विनाशस्य सहेतुकत्वमवखितम् , अपिच-कादाचित्कत्वेन ॥२७॥ विनाशस्य सहेतुकत्वमवसेयमिति, पदार्थव्यवस्थार्थ चावश्यमभावचातुर्विध्यमाश्रयणीयं, तदुक्तम्-"कायेंद्रव्यमनादिः स्यात्याग-18 भावस्वं निहवे । प्रध्वंसस चामावस्य, प्रच्यवेऽनन्ततां ब्रजेत् ॥ १॥ सर्वात्मकं तदेकं स्यादन्यापोहव्यतिक्रमे" इत्यादि । तदेवं | १ च भावस्य प्र. అంటారి दीप अनुक्रम [१८] SURESHDANIdana A unmurary.org ~58~ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-१८], नियुक्ति: [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||१९|| क्षणिकस्य विचाराक्षमत्वात्परिणामानित्यपक्ष एव ज्यायानिति । एवञ्च सत्यात्मा परिणामी ज्ञानाधारो भवान्तायी भूतेभ्यः18 | कथञ्चिदन्य एव शरीरेण सहान्योऽन्यानुवेधादनन्योऽपि, तथा सहेतुकोऽपि नारकतिर्यकमनुष्यामरभवोपादानकर्मणा तथा तथा विक्रियमाणसात् पर्यायरूपतयेति, तथाऽऽत्मस्वरूपाप्रच्युतेनित्यत्वादहेतुकोऽपीति । आत्मनश्च शरीरव्यतिरिक्तस्स साधितत्वात 'चतुर्दातुकमा शरीरमेवेदमित्येतदुन्मत्तप्रलपितमपकर्णयितव्यमित्यलं प्रसङ्गेनेति ॥ १८॥ साम्प्रतं पञ्चभूतात्माऽद्वैततजीवतच्छ|रीराकारकात्मषष्ठक्षणिकपश्चस्कन्धवादिनामफलवादित्वं वक्तुकामः सूत्रकारस्तेषां खदर्शनफलाभ्युपगमं दर्शयितुमाह अगारमावसंतावि, अरण्णा वावि पव्वया । इमं दरिसणमावण्णा, सबदुक्खा विमुच्चई ॥१९॥ 'अगार' गृहं तद् 'आवसन्तः' तसिस्तिष्ठन्तो गृहस्था इत्यर्थः, 'आरण्या वा' तापसादयः, 'प्रत्रजिताश्च' शाक्यादयः,18 ॥ अपिः संभावने, इदं ते संभावयन्ति यथा-'इदम्' असदीयं दर्शनम् 'आपना आश्रिताः सर्वदुःखेभ्यो चिमुच्यन्ते, आषैत्वा- 19 देकवचनं सूत्रे कृतं, तथाहि-पचभूतत जीवतच्छरीरबादिनामयमाशयः-यथेदमसदीय दर्शनं ये समाश्रितास्ते गृहस्थाः सन्तः सर्वेभ्यः शिरस्तुण्डमुण्डनदण्डाजिनजटाकाषायचीवरधारणकेशोल्लुश्चननाम्यतपश्चरणकायक्लेशरूपेभ्यो दुःखेभ्यो मुच्यन्ते, तथा चोचुः-"तपांसि यातनाचित्राः, संयमो भोगवश्चनम् । अग्निहोत्रादिकं कर्म, बालकीडेव लक्ष्यत ।। १॥" इति, सांख्यादयस्तु । मोक्षवादिन एवं संभावयन्ति-यथा येऽसदीय दर्शनमकर्तृवात्माऽद्वैतपश्चस्कन्धादिप्रतिपादकमापनाः प्रबजितास्ते सर्वेभ्यो १ दगसोयरिआदओ चू. तणाणं उवासगाविवशंति आरोप्पगावि अगागमणम्मिणोय देवा तओ चेव गिधंति । 19200229200000000008092adrasi दीप अनुक्रम [१९]] Shinmaranorm ~59~ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२०|| दीप अनुक्रम [२०] सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्काचार्ययचियुतं ॥ २८ ॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [१], मूलं [गाथा - १९], निर्युक्तिः [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०२ ], अंग सूत्र - [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः जन्मजरामरणगर्भपरम्पराऽनेकशारीरमानसातितीव्रतरासातोदयरूपेभ्यो दुःखेभ्यो विमुच्यन्ते, सकलद्वन्द्वविनिर्मोक्षं मोक्षमास्कन्दन्वीत्युक्तं भवति ।। १९ ।। इदानीं तेषामेवाफलवा दिखाविष्करणायाह- ते णावि संधि णच्चा णं, न ते धम्मविओ जणा । जे ते उ वाइणो एवं, न ते ओहंतराऽऽहिया ॥२०॥ विसंधिंचाणं, न ते धम्मविओ जणा । जे ते उ वाइणो एवं, न ते संसारपारगा ॥२१॥ न ते धम्मविओ जणा । जे ते उ वाइणो एवं, न ते गब्र्भस्स पारगा ||२२|| ते णावि संधिंणञ्चाणं, न ते धम्मविओ जणा । जे ते उ वाइणो एवं, न ते जम्मस्स पारगा ॥२३॥ संधिचाणं, न ते धम्मविओ जणा । जे ते उ वाइणो एवं, न ते दुक्खस्स पारगा ॥२४॥ सिंधिंचाणं, न ते धम्मविओ जणा । जे ते उ वाइणो एवं; न ते मारस्स पारगा ॥२५॥ ते - पञ्चभूतवाद्याद्याः 'नापि' नैव 'सन्धि' छिद्रं विवरं स च द्रव्यभावभेदाद्वेधा, तत्र द्रव्यसन्धिः कुब्यादेः भावसन्धिव ज्ञानावरणादिकर्मविवररूपः तमज्ञाला ते प्रवृत्ताः णमिति वाक्यालङ्कारे, यथा आत्मकर्मणोः सन्धिर्द्विधाभावलक्षणो भवति तथा अनु| द्वैव ते बराका दुःखमोक्षार्थमभ्युद्यता इत्यर्थः, यथा त एवंभूतास्तथा प्रतिपादितं लेशतः प्रतिपादयिष्यते च यदिवा-सन्धानं सन्धिः - उत्तरोत्तरपदार्थपरिज्ञानं तदज्ञाखा प्रवृत्ता इति, यतञ्चैवमतस्ते न सम्यग्धर्मपरिच्छेदे कर्तव्ये विद्वांसो— निपुणा 'जनाः ' Eaton International For Parts Only ~60~ १ समयाध्ययने मिध्यात्वफलं ॥ २८ ॥ waryru Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-२५], नियुक्ति: [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२५|| | पञ्चभूतास्तिखादिवादिनो लोका इति, तथाहि-क्षान्त्यादिको दशविधो धर्मस्तमज्ञावैवान्यथाऽन्यथा च धर्म प्रतिपादयन्ति, यत्क- 18 लाभावाच्च तेषामफलवादिलं तदुत्तरग्रन्थेनोदेशकपरिसमाप्त्यवसानेन दर्शयति--'ये ते त्विति' तुशब्दश्वशब्दार्थे य इत्यस्यानन्तरं प्रयुज्यते, ये च ते एवमनन्तरोक्तप्रकारवादिनो नास्तिकादयः, 'ओघो' भवौषः संसारस्तत्तरणशीलास्ते न भवन्तीति श्लोकार्थः ॥ ॥ २०॥ तथा च न ते वादिनः संसारगर्भजन्मदुःखमारादिपारगा भवन्तीति ।। २१ ॥ २२ ॥ २३ ॥ २४ ॥ २५ ॥ यत्पुनस्ते || प्राप्नुवन्ति तद्दर्शयितुमाह नाणाविहाई दुक्खाई, अणुहति पुणो पुणो । संसारचक्कवालंमि, मनुवाहिजराकुले ॥ २६ ॥ उच्चावयाणि गच्छंता, गब्भमेस्संति णंतसो । नायपुत्ते महावीरे, एवमाह जिणोत्तमे ॥ २७॥ इति बेमि पढममज्झयणे पढमो उद्देसो समत्तो ॥ 'नानाविधानि' बहुप्रकारागि 'दुःखानि' असातोदयलक्षणान्यनुभवन्ति पुनः पुनः, तथाहि-नरकेषु करपत्रदारणकुम्भीपाकतप्ताय शाल्मलीसमालिङ्गनादीनि तिर्यक्षु च शीतोष्णदमनाङ्कनताडनाऽतिभारारोपणक्षुत्तृडादीनि मनुष्येषु इष्टवियोगानिष्टसंप्रयोगशोकाक्रन्दनादीनि देवेषु चाभियोग्येया॑किल्विषिकलच्यवनादीन्यनेकप्रकाराणि दुःखानि ये एवंभूता वादिनस्वे पौनः अप्रकार कर्म चू दीप अनुक्रम estseesectikseersesesececemeseccce [२५] aantaram.org ~61~ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [गाथा-२७], नियुक्ति: [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रकृतानं शीलाका चायीयवृचियुतं ॥२९॥ पुन्येन समनुभवन्ति, एतच्च श्लोकाई सर्वेत्तर श्लोकार्थेष्वायोज्यम् , शेपं सुगम यावदुद्देशकसमाप्तिरिति ॥ २६ ॥ नवरम् 'उच्चा- १ समया. बचानी'ति अधमोत्तमानि नानाप्रकाराणि वासस्थानानि गच्छन्तीति, गच्छन्तो भ्रमन्तो गर्भादर्भमेष्यन्ति याखन्त्यनन्तशो॥8॥ उद्देशः२ निर्विच्छेदमिति ब्रवीमीति सुधर्मस्वामी जम्बूस्खामिनं प्रत्याह-वीम्यहं तीर्थकराज्ञया, न खमनीषिकया, स चाहं प्रवीमि येन 8 | मया तीर्थकरसकाशाच्छ्रुतम् , एतेन च क्षणिकवादिनिरासो द्रष्टव्यः ॥२७॥ इति समयाख्यप्रथमाध्ययने प्रथमोद्देशकः समाप्तः ॥ वाद: सूत्रांक ||२७|| दीप अनुक्रम [२७] अथ प्रथमाध्ययने द्वितीय उद्देशकः प्रारभ्यते ॥ उक्तः प्रथमोद्देशकस्तदनु द्वितीयोऽभिधीयते, तस्य चायमभिसंबन्धः- इहानन्तरोद्देशके खसमयपरसमयग्ररूपणा कृता, इहाप्यध्ययनार्थाधिकारत्वात्सैवाभिधीयते, यदिवा-11 ऽनन्तरोदेशके भूतवादादिमतं प्रदर्श्य तन्निराकरणं कृतं, तदिहापि तदवशिष्टनियतिवाद्यादिमिथ्याष्टिमतान्युपदर्य निराक्रियन्ते, अथवा प्रागुद्देशकेऽभ्यधायि यथा 'बंधनं बुध्येत तच त्रोटयेदिति तदेव च चन्धनं नियतिवाद्यभिप्रायेण न विद्यत इति प्रदश्यतेतदेवमनेकसंवन्धनायातस्यास्योद्देशकस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि व्यावर्ण्य सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं मूत्रमुचारणीयं, तोदम् -1|| आघायं पुण एगेसिं, उववण्णा पुढो जिया । वेदयंति सुहं दुक्खं, अदुवा लुप्पंति ठाणउ ॥१॥ अस्स चानन्तरपरम्परसूत्रः संबन्धो वक्तव्यः, तत्रानन्तरसूत्रसंबन्धोऽयम्-इहानन्तरसूत्र इदमभिहितं, यथा 'पञ्चभूतस्क-1 JMEarathi Bouncurammaru अस्य पृष्ठे प्रथम अध्ययनस्य द्वितीय उद्देशकस्य आरम्भ: ~62~ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [२८] Jacation “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [गाथा - १], निर्युक्तिः [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र- [ ०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - न्धादिवादिनो मिथ्यात्वोपहतान्तरात्मानोऽसग्रहाभिनिविष्टाः परमार्थावबोधविकलाः सन्तः संसारचक्रवाले व्याधिमृत्युजराकुले उच्चावचानि स्थानानि गछन्तो गर्भमेष्यन्त्यन्वेपयन्ति वाऽनन्तश' इति, तदिहापि नियत्यज्ञानिज्ञान चतुर्विधकर्मापचयवादिनां तदेव संसारचक्रवालभ्रमणगर्भान्वेषणं प्रतिपाद्यते । परम्परसूत्रं तु 'बुज्झेझे' त्यादि, तेन च सहायं संबन्धः- तत्र बुध्येतेत्येतत् प्रतिपादितम्, इहापि यदाख्यातं नियतिवादिभिस्तदुध्येत, इत्येवं मध्यसूत्रैरपि यथासंभवं संबन्धो लगनीय इति | तदेवं पूर्वोत्तरसंबन्धसंबद्धस्यास्य सूत्रस्याधुनाऽर्थः प्रतन्यते पुनः शब्दः पूर्ववादिभ्यो विशेषं दर्शयति, नियतिवादिनां पुनरेकेषामेतदाख्यातं, अत्र च 'अविवक्षितकर्मका अपि अकर्मका भवन्तीति ख्यातेर्धातोर्भावे निष्टाप्रत्ययः तद्योगे कर्तरि षष्ठी तथायमर्थ:- तैर्नियतिवादिभिः पुनरिदमाख्यातं तेषामयमाशय इत्यर्थः, तद्यथा - ' उपपन्ना' युक्तया घटमानका इति, अनेन च पञ्चभूततजी बसच्छरीरवादिमतमपाकृतं भवति, युक्तिस्तु लेशतः प्राग्दर्शितैव प्रदर्शयिष्यते च पृथक् पृथक् नारकादिभवेषु शरीरेषु वेति, अनेनाप्यात्माद्वैतवादिनिरासोऽवसेयः, के पुनस्ते पृथगुपपन्नाः ?, तदाह- 'जीवाः' प्राणिनः सुखदुःखभोगिनः, अनेन च पञ्चस्कन्धातिरिक्त जीवाभावप्रतिपादक बौद्धमतापक्षेपः कृतो द्रष्टव्यः तथा ते जीवाः 'पृथक पृथक प्रत्येक देहे व्यवस्थिताः सुखं दुःखं च 'वेदयन्ति' अनुभवन्ति, न वयं प्रतिप्राणि प्रतीतं सुखदुःखानुभव निहुमहे, अनेन चाकर्तृवादिनो निरस्ता भवन्ति, अकर्तर्यविकारिण्यात्मनि सुखदुःखानुभवानुपपत्तेरिति भावः । तथैतदसाभिर्नापलप्यते 'अदुवे' ति अथवा ते प्राणिनः सुखं दुःखं चानुभवन्ति, 'विलुप्यन्ते' उच्छिद्यन्ते स्वायुषः प्रच्याव्यन्ते स्थानात्स्थानान्तरं संक्राम्यन्त इत्यर्थः, ततश्चौपपातिकत्वमप्यसाभिस्तेषां १ न कर्मापचय प्र० For Park Use Only ~63~ jansaray org Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||2|| दीप अनुक्रम [२९] सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्का चाययचियुर्त ॥ ३० ॥ Eticatur “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र -२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [गाथा - २ ], निर्युक्तिः [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .....आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र -[ ०२ ] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः न निषिध्यते इति श्लोकार्थः ॥ १ ॥ तदेवं पञ्चभूतास्तित्वादिवादिनिरासं कृत्वा यचैर्नियतिवादिभिराश्रीयते तच्छ्रोकद्वयेन दर्शयितुमाह न तं सयं कर्ड दुक्खं, कओ अन्नकडं च णं ? । सुहं वा जई वा दुक्खं, सेहियं वा असेहियं ॥ २ ॥ सयं कडं न अण्णेहिं, वेदयंति पुढो जिया । संगइअं तं तहा तेसिं, इहमेगेसि आहिअं ॥ ३ ॥ यत् तैः प्राणिभिरनुभूयते सुखं दुःखं स्थानविलोपनं वा न तत् 'स्वयम्' आत्मना पुरुषकारेण 'कृतं' निष्पादितं दुःखमिति कारणे कार्योपचारात् दुःखकारणमेवोक्तम्, अस्य चोपलक्षणत्वात् सुखाद्यपि ग्राां, ततश्चेदमुक्तं भवति योऽयं सुखदुःखानुभवः स पुरुषकारकृतकारणजन्यो न भवतीति तथा कुतः 'अन्येन' कालेश्वरखभावकर्मादिना च कृतं भवेत् 'ण' मित्यलङ्कारे तथाहियदि पुरुषकारकृतं सुखाद्यनुभूयेत ततः सेवकवणिकर्षकादीनां समाने पुरुषाकारे सत्ति फलप्राप्तिवैसदृश्यं फलाप्राप्तिव न भवेत्, कस्यचित्तु सेवादिव्यापाराभावेऽपि विशिष्टफलावाप्तिर्दृश्यत इति, अतो न पुरुषकारात्किञ्चिदासाद्यते, किं तर्हि ?, नियतेरेवेति, एतच द्वित्तीय श्लोकान्तेऽभिधास्यते नापि कालः कर्ता, तस्यैकरूपत्वाज्जगति फलवैचित्र्यानुपपत्तेः, कारणभेदे हि कार्यभेदो भवति नाभेदे, तथाहि -अयमेव हि भेदो भेदहेतुर्वा घटते यदुत विरुद्धधर्माध्यासः कारणमेदव, तथेश्वर कर्तृकेऽपि सुखदुःखे न भवतः, यतोऽसावीश्वरो मूर्तीमूर्ती वा ?, यदि मूर्तस्ततः प्राकृतपुरुषस्येव सर्वकर्तृत्वाभावः, अथामूर्तस्तथा सत्याकाशस्येव सुतरां निष्क्रियत्वम् अपिच -- यद्यसौ रागादिमांस्ततोऽसदाद्यव्यतिरेकाद्विश्वस्याकतव, अथासौ विगतरागस्ततस्तत्कृतं सुभगादुर्भगेश्वरदरिद्रादि जगद्वैचित्र्यं न घटां प्राञ्चति, ततो नेश्वरः कर्तेति, तथा स्वभावस्यापि सुखदुःखादिकर्तुत्वानुपपत्तिः, यतोऽसौ स्वभावः For Park Lise Only ~64~ १ समया० उद्देशः २ नियतिवादः ॥ ३० ॥ caror Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [गाथा-३], नियुक्ति: [३५] (०२) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३|| दीप अनुक्रम [३०] पुरुषानिनोऽभिन्नो वा, यदि भिन्नो न पुरुषाश्रिते सुखदुःखे कर्तुमल, तसानिन्नत्वादिति, नाप्पभिन्नः अभेदे पुरुष एव सात , तस्य चाकर्तृलमुक्तमेव । नापि कर्मणः सुखदुःखं प्रति कर्तृवं घटते, यतस्तत्कर्म पुरुषानिन्नमभित्र वा भवेत् १, अभिनं चेत्पुरुषमात्रतापत्तिः कर्मणः, तत्र चोक्तो दोषः, अथ भिन्न तरिक सचेतनमचेतनं वा?, यदि सचेतनमेकस्मिन् काये चैतन्यद्ध यापत्तिः, अथाचेतनं तथा सति कुतस्तस्य पाषाणखण्डस्येवास्वतन्त्रस्य सुखदुःखोत्पादन प्रति कर्तृखमिति, एतच्चोत्तरत्र व्यासेन-19 प्रतिपादयिष्यत इत्यलं प्रसङ्गेन । तदेवं सुखं 'सैद्धिक' सिद्धौ-अपवर्गलक्षणायां भवं यदिवा दुःखम्-असातोदयलक्षणमसैद्धिकं | सांसारिकं, यदिवा उभयमप्येतत्सुखं दुःखं वा, सचन्दनाङ्गनायुपभोगक्रियासिद्धौ भवं तथा कशाताडनानादिसिद्धौ भवं. | सैद्धिकं, तथा 'असैद्धिक' सुखमान्तरमानन्दरूपमाकसिकमनवधारितबानिमित्तम् एवं दुःखमपि ज्वरशिरोऽतिशूलादिरूपम-10 ॥जोत्थमसैद्धिक, तदेतदुभयमपि न खयं पुरुषकारेण कृतं नाप्यन्येन केनचित् कालादिना कृतं 'वेदयन्ति' अनुभवन्ति 'पृथक्जीवा' प्राणिन इति । कथं तर्हि तत्तेषामभूत् । इति नियतिवादी स्वाभिप्रायमाविष्करोति-"संगइयंति" सम्यक्स्वपरिणामेन गतिःयस्य यदा यत्र यत्सुखदुःखानुभवनं सा संगतिः नियतिस्तस्यां भवं सांगतिकं, यतश्चैवं न पुरुषकारादिकृतं सुखदुःखादि अतस्तत्तेषां प्राणिनां नियतिकृतं सांगतिकमित्युच्यते, 'हह' अस्मिन् सुखदुःखानुभववादे एकेषा वादिनाम् 'आख्यातं तेषामयमभ्युप-1 गमः, तथा चोक्तम्-"प्राप्तव्यो नियतिबलाश्रयेण योऽर्थः, सोऽवश्यं भवति नृणां शुभोऽशुभो वा । भूतानां महति कृतेऽपि हि || 8| प्रयत्ने, नाभान्यं भवति न भाविनोऽस्ति नाशः ॥१॥"॥३॥ एवं श्लोकद्वयेन नियतिवादिमतमपन्यस्थास्योत्तरदानायाह ~65~ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [गाथा-४], नियुक्ति: [३५] (०२) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्राक ||४|| सूत्रकृताङ्गं एवमेयाणि जंपंता, बाला पंडिअमाणिणो। निययानिययं संतं, अयाणता अबुद्धिया ॥४॥ १समया शीलाङ्का उद्देश:२ चार्षीयवृ-IN एवमेगे उ पासत्था, ते भुजो विप्पगभिआ। एवं उवट्टिआ संता, ण ते दुक्खविमोक्खया ॥५॥ नियतिवात्तियुतं दिमतं ॥३१॥ 'एवम' इति अनन्तरोक्तस्योपप्रदर्शने 'एतानि' पूर्वोक्तानि नियतिवादाश्रितानि वचनानि 'जरूपन्त' अभिदधतो बाला इव 'बाला' अज्ञाः सदसद्विवेकविकला अपि सन्तः 'पण्डितमानिन' आत्मानं पण्डितं मन्तुं शीलं येषां ते तथा, किमिति त एवमुच्यत इति तदाह-यतो निययानिययं संतमिति'सुखादिकं किश्चिनियतिकृतम्-अवश्यंभाव्युदयप्रापितं तथा अनियतम्-आत्मपुरुषकारेश्वरादिप्रापितं सत् नियतिकृतमेवैकान्तेनाश्रयन्ति,अतोजानानाः सुखदुःखादिकारणं अबुद्धिका-बुद्धिरहिता भवन्तीति,तथाहिआईतानां किश्चित्सुखदुःखादि नियतित एव भवति–तत्कारणस्य कर्मणः कस्मिंश्चिदवसरेऽवश्यंभाव्युदयसद्भावानियतिकृतमित्युच्यते, तथा किश्चिदनियतिकृतं च-पुरुषकारकालेश्वरस्वभावकर्मादिकृतं, तत्र कथञ्चित्सुखदुःखादेः पुरुषकारसाध्यत्वमप्याथीयते, 10 यतः क्रियातः फलं भवति, क्रिया च पुरुषकाराऽऽयचा प्रवर्तते, तथा चोक्तम्,-"न देवमिति संचिन्त्य, त्यजेदुयममात्मनः। ॥३ ॥ अनुद्यमेन कस्तैलं, तिलेभ्यः प्राप्तुमर्हति ॥१॥" यत्तु समाने पुरुषव्यापारे फलवैचित्र्यं दुपणखेनोपन्यस्तं तददुषणमेव, यतस्त-18 त्रापि पुरुषकारवैचित्र्यमपि फलवैचित्र्ये कारणं भवति, समाने वा पुरुषकारे यः फलाभावः कस्यचिद्भवति सोऽदृष्टकृतः, तदपि % चासाभिः कारणवेनाश्रितमेव । तथा कालोऽपि कर्ता, यतो बकुलचम्पकाशोकपुन्नागनागसहकारादीनां विशिष्ट एव काले पुष्प दीप अनुक्रम [३१] Tiandiarary.org ~66~ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [गाथा-५], नियुक्ति: [३५] (०२) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्राक ||५|| फलाद्युद्भवो न सर्वदेति, यच्चोक्तं 'कालस्सैकरूपताजगद्वैचित्र्यं न घटत' इति, तदसान् प्रति न दूपणं, यतोऽस्माभिर्न काल एवैकः कर्तृतेनाभ्युपगम्यते अपि तु कर्मापि, ततो जगद्वैचित्र्यमित्यदोषः । तथेश्वरोऽपि कर्ता, आत्मैव हि तत्र तत्रोत्पत्तिद्वारेण सकलज-18 गद्वथापनादीश्वरः, तस्य सुखदुःखोत्पत्तिकर्तृवं सर्ववादिनामविगानेन सिद्धमेव, यच्चान मूर्तामूर्तादिकं दूषणमुपन्यस्तं तदेवंभूते-19 श्वरसमाश्रयणे दूरोत्सादितमेवेति । स्वभावस्थापि कथश्चित्कर्टखमेव, तथाहि-आत्मन उपयोगलक्षणसमसंख्येयप्रदेशखं पुद्गलानां |च मतलं धर्माधर्मास्तिकाययोर्गतिस्थित्युषष्टम्भकारिखममूर्तलं चेत्येवमादि स्वभावापादितं, यदपि चात्रात्मव्यतिरेकाच्यतिरेकरूपं । दुषणमुपन्यस्तं तददूषणमेव, यतः स्वभाव आत्मनोऽव्यतिरिक्ता, आत्मनोऽपि च कर्तृखमभ्युपगतमेतदपि खभावापादितमेवेति । ॥ तथा कर्मापि का भवत्येव, तद्धिजीवप्रदेशैः सहान्योन्यानुवेधरूपतया व्यवस्थितं कथञ्चिच्चात्मनोऽभिन्न, तशाचात्मा नारक| तिर्यश्मनुष्यामरभवेषु पर्यटन् सुखदुःखादिकमनुभवतीति । तदेवं नियत्यनियत्योः कर्तृले युक्त्युपपन्ने सति नियतेरेव कर्तृखमभ्युप गच्छन्तो निर्वृद्धिका भवन्तीत्यवसेयम् ॥ ४॥ तदेवं युक्त्या नियतिवादं दूषयित्वा तद्वादिनामपायदर्शनायाह-'एव'मिति | पूर्वाभ्युपगमसंसूचकः, सर्वस्मिन्नपि वस्तुनि नियतानियते सत्येके नियतिमेवावश्यंभाव्येव कालेश्वरादेनिराकरणेन निर्हेतुकतया । | नियतिवादमाश्रिताः, तुरवधारणे, त एव नान्ये, किंविशिष्टाः पुनस्ते इति दर्शयति-युक्तिकदम्बकादहि स्तिष्ठन्तीति पार्श्वस्थाः परलोकक्रियापार्थस्था वा, नियतिपक्षसमाश्रयणात्परलोकक्रियावैयर्थ्य, यदिवा-पाश इव पाशा-कर्मबन्धनं, तच्चेह युक्तिविकल| नियतिवादग्ररूपणं तत्र स्थिताः पाशस्थाः, अन्येऽप्येकान्तवादिनः कालेश्वरादिकारणिकाः पार्श्वस्थाः पाशस्था वा द्रष्टव्या दीप अनुक्रम [३२] Cheeseaeeesereoes IANumtaram.org ~67~ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [गाथा-६], नियुक्ति: [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्राक दीप अनुक्रम [३३] सूत्रकृताङ्गं इत्यादि, 'ते' पुननियतिवादमाश्रित्यापि, भूयो विविधं विशेषेण वा 'प्रगल्भिता धाष्टोपगताः परलोकसाधकासु क्रियासु 18 सा शीलाङ्का- प्रवन्तते, पाष्टर्घाश्रयणं तु तेषां नियतिवादाश्रयणे सत्येव पुनरपि तत्प्रतिपन्थिनीषु क्रियासु प्रवर्तनादिति, ते पुनः 'एवमप्युप-1 उमेशः २ चार्यांय- | स्थिताः' परलोकसाधकासु क्रियासु प्रवृत्ता अपि सन्तो 'नात्मदुःखविमोक्षकाः' असम्यकप्रवृत्तवान्नात्मानं दुःखाद्विमोचय-नियतिवाचियुतं न्ति । गता नियतिवादिनः ॥ ५॥ साम्प्रतमज्ञानिमतं दूषयितुं दृष्टान्तमाह दिमतं ॥३२॥ जविणो मिगा जहा संता, परिताणेण वजिआ। असंकियाई संकंति, संकिआइं असंकिणो॥६॥ यथा-'जविनो'वेगवन्तः सन्तो 'मृगा' आरण्याः पशवः परि समन्तात् वायते-रक्षतीति परित्राण तेन वर्जिता-रहिताः,8 | परित्राणविकला इत्यर्थः । यदिवा-परितानं-वागुरादिबन्धनं तेन तर्जिता-भयं ग्राहिताः सन्तो भयोभ्रान्तलोचनाः समा-181 | कुलीभूतान्तःकरणाः सम्यविवेकविकला 'अशङ्कनीयानि कूटपाशादिरहितानि स्थानान्यशाहोणि तान्येच 'शङ्कन्ते' अन-181 ISोत्पादकखेन गृह्णन्ति । यानि पुनः 'शङ्काहाणि' शंका संजाता येषु योग्यतात्तानि शकितानि-शङ्कायोग्यानि-वागुरादीनि तान्यशशिनः तेषु शङ्कामकुर्वाणाः, 'तत्र तत्र' पाशादिके संपर्ययन्त इत्युत्तरेण संबन्धमाशापुनरप्येतदेवातिमोहाविष्करणायाहपरियाणिआणि संकंता, पासिताणि असंकिणो। अण्णाणभयसंविग्गा, संपलिंति तर्हि तहिं ॥७॥ IN॥३२॥ परित्रायते इति परित्राण तजातं येषु तानि तथा, परित्राणयुक्तान्येव शङ्कमाना अतिमूढत्वाद्विपर्यस्तबुद्धयः, वातपि भयमुत्प्रेक्षमाणाः, तथा 'पाशितानि' पाशोपेतानि-अनर्थापादकानि 'अशतिनः तेषु शङ्कामकुर्वाणाः सन्तः अज्ञानेन भयेन च। ~68~ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [गाथा-७], नियुक्ति: [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||७|| | 'संविग्गति सम्यग्रव्याप्ता-वशीकृताः, शनीयमशक्कनीयं वा तथा परित्राणोपेतं पाशायनर्थोपेतं वा सम्यगविवेकेना-18 | जानानाः 'तत्र तत्र' अनर्थबहुले पाशवागुरादिके बन्धने 'संपर्ययन्ते' सम्-एकीभावेन परि-समन्तादयन्ते यान्ति वा, | | गच्छन्तीत्युक्तं भवति, तदेवं दृष्टान्तं प्रसाध्य नियतिवादायेकान्ताज्ञानवादिनो दार्शन्तिकलेनाऽऽयोज्याः, यतस्तेऽप्येकान्तवादिनो-19 |ज्ञानिकाः वाणभूतानेकान्तवादवर्जिताः सर्वदोषविनिर्मुक्तं कालेश्वरादिकारणवादाभ्युपगमेनानाशङ्कनीयमनेकान्तवादमाशङ्कन्ते || शङ्कनीयं च नियत्यज्ञानवादमेकान्तं न शकन्ते, 'ते' एवंभूताः परित्राणार्हेऽप्यनेकान्तबादे शङ्कां कुर्वाणा युक्त्याऽघटमानकमन-18 र्थबहुलमेकान्तवादमशनीयत्वेन गृह्णन्तोजानावृतास्तेषु तेषु कर्मबन्धस्थानेषु संपर्ययन्त इति ॥७॥ पूर्वदोषैरतुष्यन्नाचार्यों || | दोषान्तरदित्सया पुनरपि प्राक्तनदृष्टान्तमधिकृत्याऽऽह अह तं पवेज बज्झं, अहे बज्झस्स वा वए । मुच्चेज पयपासाओ, तं तु मंदे ण देहए ॥८॥ 'अथ अनन्तरमसौ मृगस्तत् 'वज्झमिति' बद्धं-बन्धनाकारेण व्यवस्थितं वागुरादिकं वा बन्धनं बन्धकखाइन्धमित्युच्यते, तदे|| भूत कूटपाशादिकं पन्धनं यद्यसाबुपरि प्लवेत् तदधस्तादतिक्रम्योपरि गच्छेत् , तस बयादेवन्धनस्थाधो (वा) गच्छेत् , तत एवं || क्रियमाणेसी मृगः पदे पाशः पदपाशो-पागुरादिवन्धनं तस्मान्मुच्येत, यदिवा पद-फूट पाशा-प्रतीतस्ताभ्यां मुच्येत, कचि त्पदपाशादीति पयते, आदिग्रहणाद्वधताडनमारणादिकाः क्रिया गृह्यन्ते, एवं सन्तमपि तमनर्थपरिहरणोपायं 'मन्दो बडो-1॥ जानावतो न 'देहतीति न पश्यतीति ॥ ८॥ कूटपाशादिकं चापश्यन् यामवस्थामवामोति तो दर्शयितुमाह eseseseaesesentatoesereeserveo दीप अनुक्रम [३४] JAMEmirature ~69~ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [गाथा-९], नियुक्ति: [३५] (०२) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत अहिअप्पाऽहियपण्णाणे, विसमंतेणुवागते । स बद्धे पयपासेणं, तत्थ घायं नियच्छइ ॥९॥ ॥१समयाTRI स मृगोऽहितात्मा तथाऽहितं प्रज्ञानं-बोधो यस्य सोऽहितप्रज्ञानः, स चाहितप्रज्ञानः सन् 'विषमान्तेन' कूटपाशादियुक्तेन 8 चायीयत्तियुतं प्रदेशेनोपागतः, यदिवा-विषमान्ते-कूटपाशादिके आत्मानर्मनुपातयेत् , तत्र चासौ पतितो बद्धन तेन कूटादिना पदपा दिमतं शादीननर्थबहुलानवखाविशेषान् प्राप्तः 'तत्र' बन्धने घातं' विनाशं 'नियछति' प्राप्नोतीति ॥९॥ एवं दृष्टान्तं प्रदश्य 16 सूत्रकार एव दार्शन्तिकमज्ञानविपाकं दर्शयितुमाह एवं तु समणा एगे, मिच्छदिट्टी अणारिआ । असंकिआई संकंति, संकिआइं असंकिणो ॥१०॥ एवमिति यथा मृगा अज्ञानामृता अनर्थमनेकशः प्राप्नुवन्ति, तुरवधारणे, एवमेव 'श्रमणाः केचित् पाखण्डविशेषाश्रिताः एके न सर्वे, किंभूतास्ते इति दर्शयति-मिथ्या-विपरीता दृष्टियेषामज्ञानवादिनां नियतिवादिनां वा ते मिथ्यादृष्टयः, तथा 'अनायो' आराघाताः सवेहेयधर्मभ्य इति आयों न आयों अनायों अज्ञानावृतखादसदनुष्ठापिन इतियावत् । अज्ञानावृतसं च दर्शयति-11 RI 'अशक्षितानि' अशङ्कनीयानि सुधर्मानुष्ठानादीनि शङ्कमानाः, तथा 'शङ्कनीयानि' अपायबहुलानि एकान्तपक्षसमाश्रय-11 शाणानि, अशङ्किनो मृगा इव मूढचेतसस्तत्तदाऽऽरभन्ते यद्यदनाय संपद्यन्त इति ॥ १०॥ शङ्कनीयाशङ्कनीयविपर्यासमाह-- १० तेणुवायए इति पाठमाश्रित्य । दीप 930a033929899racraceaerasasa अनुक्रम [३६] Lunaturanorm ~70~ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [गाथा-११], नियुक्ति: [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||११|| धम्मपण्णवणा जा सा, तं तु संकति मूढगा। आरंभाई न संकंति, अविअत्ता अकोविआ ॥११॥ धर्मस्य-क्षान्त्यादिदशलक्षणोपेतस्स या प्रज्ञापना--प्ररूपणा, 'तां तु' इति तामेव 'शङ्कन्ते' असद्धर्मग्ररूपणेयमित्येवमध्यवसन्ति, ये पुनः पापोपादानभूताः समारम्भास्तानाशङ्कन्ते, किमिति, यतः 'अव्यक्ता' मुग्धाः-सहजसद्विवेकविकलाः, तथा | 'अकोविदा' अपण्डिताः-सच्छाखावबोधरहिता इति ॥ ११॥ ते च अज्ञानावृता यन्त्राप्नुवन्ति तद्दर्शनायाह सवप्पगं विउक्कस्स, सवं णूमं विहूणिआ। अप्पत्तिअं अकम्मसे, एयमह मिगे चुए ॥ १२ ॥ सर्वत्राप्यात्मा यथासौ सर्वात्मको-लोभस्तं विधूयेति संबन्धः, तथा विविध उत्कर्षो गर्यो व्युत्कों—मान इत्यर्थः, तथा 'म ति माया तां विधूय, तथा 'अप्पत्तिय'ति क्रोधं विधूय, कषायविधूननेन च मोहनीयविधूननमावेदितं भवति, तदपगमा-12 चाशेषकर्माभावः प्रतिपादितो भवतीत्याह-'अकमीश' इति न विद्यते कर्माशोऽस्पेत्यकर्माश:, स चाकर्माशो विशिष्टज्ञानाद्भ-18 वति नाज्ञानादित्येव दर्शयति-'एनमर्थ' कर्माभावलक्षणं मृग इव मृगः-अज्ञानी 'चुए'ति त्यजेत् , विभक्तिपरिणामेन का 18 असादेवभूतादर्थात् च्यवेत्-भ्रश्येदिति ॥ १२ ।। भूयोऽप्यज्ञानवादिना दोषाभिधित्सयाऽऽह जे एयं नाभिजाणंति, मिच्छदिट्ठी अणारिया । मिगा वा पासबद्धा ते, धायमेसंतिणंतसो॥ १३॥ 'ये' अज्ञानपक्षं समाश्रिता 'एन' कर्मक्षपणोपाय न जानन्ति' आत्मीयासहग्रहप्रस्ता मिध्यादृष्टयोऽनास्तेि मृगा इव पाश-1|| दीप अनुक्रम [३८] Imandana ~71~ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [गाथा-१३], नियुक्ति: [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||१३|| दीप सूत्रहत्ताबद्धा 'घातं विनाशम् 'एष्यन्ति' यास्वन्त्यन्वेषयन्ति वा, तद्योग्यक्रियानुष्ठानात् , 'अनंतश:' अविच्छेदेनेत्यज्ञानवादिनो गताः समया. शीलाङ्का- ॥१३ ।। इदानीमज्ञानवादिना पणोद्विभावविषया स्ववाग्यरिता बादिनो न चलिष्यन्तीति तन्मताविष्करणायाहचायीयवृचियुतं माहणा समणा एगे, सत्वे नाणं सयं वए । सबलोगेऽवि जे पाणा, न ते जाणंति किंचण ॥१४॥ नियतिवा एके केचन ब्राह्मणविशेषाः तथा 'श्रमणा' परिव्राजकविशेषाः सर्वेऽप्येते ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानं-हेयोपादेयार्थाऽविर्भावक । ॥३४॥ परस्परविरोधेन व्यवस्थितं 'स्वकम् ' आत्मीयं बदन्ति, न च तानि बानानि परस्परविरोधेन प्रवृत्तखात्सत्यानि, तस्मादज्ञानमेव श्रेयः, किं ज्ञानपरिकल्पनयेति, एतदेव दर्शयति-सर्वमिबपि लोके ये 'प्राणाः पाणिनो न ते किश्चनापि सम्पगपेतवाचं(च) 'जानन्तीति विदन्तीति ।। १४ ।। यदपि तेषां गुरुपारम्पर्येण ज्ञानमायातं तदपि छिनमूलत्वादवितथं न भवतीति दृष्टान्त-18 द्वारेण दर्शयितुमाह-- मिलक्खू अमिलक्खुस्स, जहा वुत्ताणुभासए । ण हेउं से विजाणाइ, भासिअंतऽणुभासए ॥१५॥ यथा 'म्लेच्छ' आर्यभाषानभिज्ञः 'अम्लेच्छस्य' आर्यस्य म्लेच्छभाषानभिज्ञस यद्भाषितं तद् 'अनुभाषते' अनुवदति केवलं, न सम्यक तदभिप्रायं वेत्ति, यथाऽनया विवक्षयाऽनेन भाषितमिति, न च 'हेतुं' निमित्त निश्चयेनासौ म्लेच्छस्तद्भाषितस्य जाना-13 ॥३४॥ |ति, केवलं परमार्थशून्यं तद्भाषितमेवानुभाषत इति ॥ १५ ॥ एवं दृष्टान्तं प्रदर्य दान्तिकं योजयितुमाह एवमन्नाणिया नाणं, वयंतावि सयं सयं । निच्छयत्थं न याणंति, मिलक्खुब अबोहिया ॥ १६ ॥ अनुक्रम [४०] ~72~ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [गाथा-१६], नियुक्ति: [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[२] "सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१६|| R यथा म्लेच्छ: अम्लेच्छस्थ परमार्थमजानानः केवलं तद्भाषितमनुभाषते, तथा 'अज्ञानिकाः सम्यग्ज्ञानरहिताः श्रमणा || 1 ब्राह्मणा बदन्तोऽपि खीयं खीयं ज्ञानं प्रमाणत्वेन परस्परविरुद्धार्थभाषणात निश्चयार्थ न जानन्ति, तथाहि ते स्वकीयं तीर्थकर 18॥ सर्वज्ञत्वेन निर्यि तदुपदेशेन क्रियासु प्रबर्तेरन्, न च सर्वज्ञविवक्षा अर्वाग्रदर्शिना ग्रहीतुं शक्यते, 'नासर्वज्ञः सर्वे जानातीति || न्यायात् , तथा चोक्तम्-"सर्वज्ञोऽसाविति ह्येतत्तत्कालेऽपि बुभुत्सुभिः । तज्ज्ञानक्षेयविज्ञानरहितैर्गम्यते कथम् । ॥१॥" | एवं परचेतोवृत्तीना दुरन्वयत्वादुपदेष्टुरपि यथावस्थितविवक्षया ग्रहणासंभवानिश्चयार्थमजानाना म्लेच्छवदपरोक्तमनुभाषन्त एव, ॥४॥ I'अयोधिका' बोधरहिताः केवलमिति, अतोऽज्ञानमेव श्रेय इति । एवं यावद्यावज्ज्ञानाभ्युपगमस्तावत्ताबद्गुरुतरदोषसंभवः, 18 तथाहि--योऽवगच्छन् पादेन कस्यचित् शिरः स्पृशति तस्य महानपराधो भवति, यस्त्वनाभोगेन स्पृशति तसै न कश्चिदपराध्यतीति, एवं चाज्ञानमेव प्रधानभावमनुभवति, न तु ज्ञानमिति ॥ १६ ॥ एवमज्ञानवादिमतमन्चेदानीं तदूषणायाहअन्नाणियाणं वीमंसा, अण्णाणे ण विनियच्छइ । अप्पणो य परं नालं, कुतो अन्नाणुसासि ? ॥१७॥ न ज्ञानमज्ञानं तद्विद्यते येषां तेऽज्ञानिनः, अज्ञानशब्दस्य संज्ञाशब्दबाबा मत्वर्थीयः,गौरखरखदरण्यमिति यथा, तेषामज्ञानिनाम् । -अज्ञानमेव श्रेय इत्येवंवादिना, योऽयं 'विमर्शः पर्यालोचनात्मको मीमांसा वा-मातुं परिच्छेत्तुमिच्छा सा 'अज्ञाने' अज्ञानविषये 'न णियच्छति' न निधयेन यच्छति-नावतरति, न युज्यत इतियावत् , तथाहि-यैवंभूता मीमांसा विमर्शो चा किमेतज्ज्ञानं सत्यमुतासत्यमिति', यथा अज्ञानमेव श्रेयो यथा यथा च ज्ञानातिशयस्तथा तथा च दोषातिरेक इति सोऽयमेवभूतो विमर्श दीप अनुक्रम [४३] Deaoceaeiseaseeeeeeeeeeeeeea Brainrary.org ~73~ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [गाथा-१७], नियुक्ति: [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१७|| सूत्रकृताङ्गं तेषां न बुध्यते, एवंभूतस्य पर्यालोचनस्य ज्ञानरूपलादिति । अपिच तेज्ञानवादिन आत्मनोऽपि 'परं' प्रधानमज्ञानवादमिति | समया० शीलाझा 'शासितुम' उपदेष्टुं 'नालं' न समर्थाः, तेपामज्ञानपक्षसमाश्रयणेनाज्ञत्वादिति, कुतः पुनस्ते स्वयमज्ञाः सन्तोऽन्येषां शिष्यलेनो- उद्देशः२ चायीय-18 8 पगतानामज्ञानवादमुपदेष्टुमलं समर्था भवेयुरिति । यदप्युक्तं-'छिन्नमूलसात् म्लेच्छानुभाषणवत्सर्वमुपदेशादिक, तदप्ययुक्तं, ॥8॥ नियतिवात्तियुतं | यतोऽनुभाषणमपि न ज्ञानमृते कर्तुं शक्यते, तथा यदप्युक्तं 'परचेतोवृत्तीनां दुरन्वयवादज्ञानमेव श्रेय इति, तदप्यसत, यतो दिमत ॥३५॥ भवतैवाज्ञानमेव श्रेय इत्येवं परोपदेशदानाभ्युद्यतेन परचेतोवृत्तिज्ञानस्याभ्युपगमः कृत इति, तथाऽन्पैरप्यभ्यधायि-"आकारैरि|| शितैर्गल्या, चेष्टया भापितेन च । नेत्रवऋविकारैश्च, गृह्यतेऽन्तर्गतं मनः॥१॥ ॥ १७ ॥ तदेवं ते तपखिनोज्ञानिन आत्मनः ॥ परेषां च शासने कर्तव्ये यथा न समर्थास्तथा दृष्टान्तद्वारेण दर्शयितुमाह वणे मूढे जहा जंतू, मूढे णेयाणुगामिए । दोवि एए अकोविया, तिवं सोयं नियच्छइ ॥ १८ ॥ 'वने' अटव्यां यथा कश्चिन्मूढो 'जन्तुः प्राणी दिक्परिच्छेदं कर्तुमसमर्थः स एवंभूतो यदा परं मूढमेव नेतारमनुगच्छति तदा द्वावपि 'अकोविदौ सम्पग्रज्ञानानिपुणौ सन्तौ 'तीवम्' असा 'स्रोतो' गहनं शोकं वा 'नियच्छतो निश्येन गच्छतः-प्रामुतः, | अज्ञानावृतखात् । एवं तेऽप्यज्ञानवादिन आत्मीयं मार्ग शोभनखेन निर्धारयन्तः परकीयं चाशोभनखेन जानानाः वयं मूढाः ॥३५॥ IM सन्तः परानपि मोहयन्तीति ॥ १८ ॥ असिन्नेवार्थे दृष्टान्तान्तरमाह १ तेषां मते सम्यकया न ज्ञायते न युज्यते इति भावः। enerceracseverseatsersersesercercense दीप अनुक्रम [४४] AREautatinimantharana ~74~ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [गाथा-१८], नियुक्ति: [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: A प्रत सूत्रांक ||१९|| अंधो अंधं पहं णितो, दूरमद्धाणु गच्छइ । आवजे उप्पहं जंतू, अदुवा पंथाणुगामिए ॥ १९ ॥ यथा अन्धः स्वयमपरमन्धं पन्धानं नयन् 'दूरमध्वानं' विवक्षितादध्वनः परतरं गच्छति, तथोत्पथमापद्यते जन्तुरन्धा, अथवा परं पन्थानमनुगच्छेत् , न विवक्षितमेवाध्यानमनुयायादिति ॥ १९ ॥ एवं दृष्टान्तं प्रसाध्य दाटोन्तिकमर्थं दर्शयितुमाह--- एवमेगे णियायट्ठी, धम्ममाराहगा वयं । अदुवा अहम्ममावजे, ण ते सव्वजुयं वए ॥२०॥ 'एवमिति पूर्वोक्तार्थोपप्रदर्शने, एवं भावमूढा भावान्धाश्चैके आजीविकादयः 'नियायहीति नियागो-मोक्षः सद्धर्मो वा तद-1 र्थिनः, ते किल वयं सद्धर्माराधका इत्येवं संधाय प्रव्रज्यायामुद्यताः सन्तः पृथिव्यम्बुवनस्पत्यादिकायोपमर्दैन पचनपाचनादि18| क्रियासु प्रवृत्ताः सन्तस्तत्वपमनुतिष्ठन्ति अन्येषां चोपदिशन्ति येनाभिप्रेताया मोक्षावाप्तेभ्रष्यन्ति, अथवाऽऽस्तां तावन्मोक्षाभा-1 18| वः, त एवं प्रवर्तमाना 'अधर्म' पापमापोरन , संभावनायामुत्पन्नेन लिङ्प्रत्ययेनेतदर्शयति–एतदपरं तेषामनर्थान्तरं संभाव्यते । | यदुत विवक्षितार्थाभावतया विपरीतार्थावाप्तेः पापोपादानमिति । अपिच-त एवमसदनुष्ठायिन आजीविकादयो गोशालकमतानु-% सारिणोऽज्ञानवादप्रवृत्ताः सबै प्रकारकजुः---प्रगुणो विवक्षितमोक्षगमनं प्रत्यकुटिलः सर्वर्जु:-संयमः सद्धर्मों वा तं सर्वर्जुकं ते 'न ब्रजेयुःन प्राप्नुयुरित्युक्तं भवति, यदिवा-सर्वर्जुकं-सत्यं तत्तेऽज्ञानान्धा ज्ञानापलापिनो न वदेयुरिति । एते चाज्ञानिकाः IS सप्तपष्टिभेदा भवन्ति, ते च भेदा अमुनोपायेन प्रदर्शनीयाः, तद्यथा-जीवादयो नव पदार्थाः, सत् असत् सदसत् अवक्तव्यः सदवक्तव्यः असदवक्तव्यः सदसवक्तव्य इत्येतैः सप्तभिः प्रकारैर्विज्ञातुं न शक्यन्ते, न च विज्ञातैः प्रयोजनमस्ति, भावना दीप अनुक्रम [४६] eceiverseseseseseceaesesesese ~75~ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [गाथा-२०], नियुक्ति: [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत समया० उद्देशः२ अज्ञानवादा सूत्रांक ||२०|| मुत्रकृता चेयम्-सन् जीव इति को वेत्ति ? किंवा तेन ज्ञानेन, एन् जीव इति को वेत्ति ? किंवा तेन झातेनेत्यादि, एवमजीवादिष्वपि शीलाका- प्रत्येकं सप्त विकल्पाः, नव सप्तकाविषष्टिः, अमी चान्ये चखारत्रिषष्टिमध्ये प्रक्षिप्यन्ते, तद्यथा-सती भावोत्पचिरिति को चायीयवृ- जानाति ? किंवाऽनया ज्ञातया?, एवमसती सदसत्यवक्तच्या भावोत्पत्तिरिति को जानाति ? किंवाऽनया ज्ञातयेति, शेषविकल्पचियुतं त्रयं तूत्पत्युत्तरकालं पदार्थावयवापेक्षमतोऽत्र न संभवतीति नोक्तम् , एतच्चतुष्टयप्रक्षेपात्सप्तपष्टिभवति, तत्र सन् जीव इति को वेत्तीत्यस्यायमों-न कस्यचिद्विशिष्टं ज्ञानमस्ति योऽतीन्द्रियान् जीवादीनवभोत्स्यते, न च तैतिः किश्चित्कलमस्ति, तथाहियदि नित्यः सर्वगतोऽमूर्ती ज्ञानादिगुणोपेत एतद्गुणव्यतिरिक्तो वा ततः कतमस्य पुरुषार्थस्य सिद्धिरिति , तसादज्ञानमेव श्रेय इति ॥ २०॥ पुनरपि तदूषणाभिधित्सयाऽद्द एवमेगे वियकाहिं, नो अन्नं पजुवासिया । अप्पणो य वियकाहिं, अयमंजूहिं दुम्मई ॥ २१॥ 'एवम् अनन्तरोक्तया नीत्या एकेकेचनाज्ञानिका 'वितर्काभि:' मीमांसाभिः खोत्प्रेक्षिताभिरसत्कल्पनाभिः 'परम्' अ-12 न्यमार्हतादिकं ज्ञानवादिनं 'न पर्युपासते'न सेवन्ते खावलेपग्रहग्रस्ताः वयमेव तत्वज्ञानाभिज्ञानापरः कचिदित्येवं नान्यं पर्युपासत | | इति । तथा आत्मीयैक्तिकैरेवमभ्युपगतवन्तो-यथा 'अयमेव' असदीयोज्ञानमेव श्रेय इत्येवमात्मको मार्गः 'अंजू रिति निर्दोष-18 खाद्यक्तः-स्पष्टः, परस्तिरस्कर्तुमशक्यः, ऋजुर्वा-प्रगुणोकुटिलः, यथावस्थितार्थाभिधायिलाव , किमिति (ते) एवमभिदधति:1 'हि'यस्मादर्थे यसाने 'दुर्मतयो' विपर्यस्तयुद्धय इत्यर्थः ॥२१॥ साम्प्रतमज्ञानवादिनां ज्ञानवादी स्पष्टमेवानाभिधित्सयाऽऽह-18 दीप अनुक्रम [४७] meroeceneseroelesecevecetrsesera ३६॥ ~76~ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [गाथा-२२], नियुक्ति: [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||२२|| एवं तक्काइ साहिंता, धम्माधम्मे अकोविया । दुक्खं ते नाइतुझंति, सउणी पंजरं जहा ॥ २२ ॥ 'एवं पूर्वोक्तन्यायेन 'तर्कया' स्वकीयविकल्पनया 'साधयन्तः प्रतिपादयन्तो धर्म-क्षान्त्यादिके अधर्म च-जीयोपमर्दापादिते पापे 'अकोविदा' अनिपुणा 'दुःखम्' असातोदयलक्षणं तद्धेतुं वा मिथ्याखायुपचितकर्मवन्धनं 'नातिनोटयन्ति' अतिशयेनैतव्यवस्थित तथा ते न त्रोटयन्ति-अपनयन्तीति, अत्र दृष्टान्तमाह-यथा पञ्जरस्थः शकुनिः पञ्जरं त्रोटयितुंपञ्जरबन्धनादात्मानं मोचयितुं नालम् , एवमसावपि संसारपञ्जरादात्मानं मोचयितुं नालमिति ।। २२ ।। अधुना सामान्येनैकान्तवादिमतदूषणार्थमाह सयं सयं पसंसंता, गरहंता परं वयं । जे उ तत्थ विउस्संति, संसारं ते विउस्सिया ॥ २३ ॥ 'खक खकम्' आत्मीयमात्मीयं दर्शनमभ्युपगत 'प्रशंसन्तों वर्णयन्तः समर्थयन्तो वा, तथा 'गर्हमाणा' निन्दन्तः परकीयां 81 वार्च, तथाहि साङ्ख्याः सर्वस्याविर्भावतिरोभाववादिनः सर्व वस्तु क्षणिकं निरन्वयविनश्वरं चेत्येवंवादिनो बौद्धान् दूषयन्ति, तेऽपि नित्यस्य क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरहान् सात्यान् , एवमन्येऽपि द्रष्टव्या इति । तदेवं 'ये' एकान्तवादिनः, तुरवधारणे भित्रक्रमच, 'तत्रैव' तेष्वेवाऽऽत्मीयात्मीयेषु दर्शनेषु प्रशंसां कुर्वाणाः परवाचं च विगर्हमाणा 'विवस्यंते' विद्वांस इवाऽऽचरन्ति, तेषु वा विशेषेणोशन्ति---खशास्त्रविषये विशिष्ट युक्तिवातं वदन्ति, ते चैववादिनः 'संसार' चतुर्गतिभेदेन संसतिरूपं विवि-181 दीप अनुक्रम [४९] सूत्रक, Sitem and ~77~ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [गाथा-२४], नियुक्ति: [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२४|| दीप अनुक्रम [५१] सूत्रकृताङ्ग धम्-अनेकप्रकारम् उत्-प्राबल्येन श्रिताः-संबद्धाः, तत्र वा संसारे उषिताः संसारान्तर्वतिनः सर्वदा भवन्तीत्यर्थः ॥२३॥साम्प्रतं | समया० शीलाका-18 यदुक्तं नियुक्तिकारेणोद्देशकार्थाधिकारे 'कर्म चयं न गच्छति चतुर्विधं भिक्षुसमय' इति, तदधिकृत्याह उद्देशः २ चा-य-IN चतुर्विधअहावरं पुरक्खायं, किरियावाइदरिसणं । कम्मचिंतापणहाणं, संसारस्स पवडणं ॥२४॥ त्तियुतं कमेचया॥३७॥ 'अर्थ'त्यानन्तर्ये, अज्ञानवादिमतानन्तरमिदमन्यत् 'पुरा' पूर्वम् 'आख्यात' कथितं, किं पुनस्तदित्याह-क्रियाचादि-18 भाव: दर्शन' क्रियैव-चैत्यकर्मादिका प्रधान मोक्षाङ्गमित्येवं वदितुं शीलं येषां ते क्रियावादिनस्तेषां दर्शनम्-आगमः क्रियावादिदर्शनं, किंभूतास्ते क्रियावादिन इत्याह-कर्मणि-ज्ञानावरणादिके चिन्ता-पर्यालोचनं कर्मचिन्ता तस्याः प्रणष्टा-अपगताः कर्मचिन्ताप्रणष्टाः, | यतस्ते अविज्ञानाघुपचितं चतुर्विध कर्मबन्धं नेच्छन्ति अतः कर्मचिन्ताप्रणष्टाः, तेषां चेदं दर्शनं 'तुःखस्कन्धस्य' असातोदयप-113 | रम्पराया विवर्धनं भवति, कचित्संसारवर्धनमिति पाठः, ते ह्येवं प्रतिपद्यमानाः संसारस्य वृद्धिमेव कुर्वन्ति नोच्छेदमिति ॥२४॥ यथा च ते कर्मचिन्तातो नष्टास्तथा दर्शयितुमाह जाणं कारणऽणाउट्टी, अबुहो जं च हिंसति । पुट्ठो संवेदइ परं, अवियत्तं खु सावजं ॥ २५ ॥ ॥३७॥ यो हि 'जानन्' अवगच्छन् प्राणिनो हिनस्ति, कायेन चानाकुट्टी, 'कुट्ट छेदने आकुट्टनमाकुट्टः स विद्यते यस्थासावाकुट्टी नाकुदृषनाकुट्टी, इदमुक्तं भवति-यो हि कोपादेनिमित्चात् केवलं मनोव्यापारेण प्राणिनो व्यापादयति, न च कायेन प्राण्यवयवाना | eesercedesesercedeceseseverse ~78~ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [गाथा-२५], नियुक्ति: [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||२५|| छेदनभेदनादिके व्यापारे वर्तते न तस्यावा, तस्य कर्मोपचयो न भवतीत्यर्थः, तथा 'अबुधः' अजानानः कायव्यापारमात्रेण यं च । हिनस्ति प्राणिनं तत्रापि मनोव्यापाराभावान्न कर्मोपचय इति, अनेन च श्लोकार्पेन यदुक्तं नियुक्तिकृता यथा--'चतुर्विध कर्म नोपचीयते भिक्षुसमय' इति, तत्र परिज्ञोपचितमविज्ञोपचिताख्यं भेदद्वयं साक्षादुपातं, शेष खीर्यापथस्वप्नान्तिकभेदद्वयं चशब्देनोपार्स, | तोरणमीर्या-गमनं तत्संबद्धः पन्था ईपिथस्तत्प्रत्ययं कर्मेर्यापथम् , एतदुक्तं भवति-पथि गच्छतो यथाकथश्चिदनभिसंधैर्यत्या-15 |णिव्यापादनं भवति तेन कर्मणवयो न भवति, तथा स्वभान्तिकमिति-स्वप्न एव लोकोक्त्या स्वप्नान्तः स विद्यते यस्य तत्व मान्तिक, तदपि न कर्मबन्धाय, यथा खमे भुजिक्रियायां तृप्त्यभावस्तथा कर्मणोऽपीति, कथं तर्हि तेषां कर्मोपचयो भवतीति, | उच्यते, यद्यसौ हन्यमानः प्राणी भवति हन्तुध यदि प्राणीत्येवं ज्ञानमुत्पद्यते तथैनं हन्मीत्येवं च यदि बुद्धिः प्रादुष्ष्याद् || एतेषु च सत्सु यदि कायचेष्टा प्रवर्तते तस्यामपि यद्यसौ प्राणी व्यापाद्यते ततो हिंसा ततश्च कर्मोपचयो भवतीति, एषामन्यतसाराभावेऽपि न हिंसा, न च कर्मचयः । अत्र च पश्चानां पदानां द्वात्रिंशद्भङ्गा भवन्ति, तत्र प्रथमभने हिंसकोऽपरेवेकत्रिंशत्व | हिंसकः, तथा चोक्तम्-"प्राणी प्राणिज्ञानं घातकचित्तं च तद्गता चेष्टा । प्राणैश्च विप्रयोगः पञ्चभिरापद्यते हिंसा ॥१॥"181 &|किमेकान्तेनैव परिज्ञोपचितादिना कोपचयो न भवत्येव , भवति काचिदव्यक्तमात्रेति दर्शयितुं श्लोकपश्चामाह--'पुट्ठो'त्ति तेन केवलमनोव्यापाररूपपरिज्ञोपचितेन केवलकायक्रियोत्थेन वाविज्ञोपचितेनेर्यापथेन खनान्तिकेन च चतुर्षिधेनापि कर्मणा 'स्पृष्ट' ईषच्छुप्तः संस्तत्कर्माऽसौ स्पर्शमात्रेणैव परमनुभवति, न तस्याधिको विपाकोऽस्ति, कुड्यापतितसिकतामुष्टिवत्स्पर्शानन्तरमेव । [परिशटतीत्यर्थः, अत एव तस्य चयाभावोऽभिधीयते, न पुनरत्यन्ताभाव इति । एवं च कुखा तद् 'अव्यक्तम्' अपरिस्फुट, दीप अनुक्रम 39999999999656 [५] SantaratinEN uniorammaru ~79~ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [गाथा-२६], नियुक्ति: [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक त्तियुतं ||२६|| सूत्रकृताङ्गं खुरवधारणे, अव्यक्तमेव, स्पष्टविपाकानुभवाभावाद , तदेवमव्यक्तं सहावयेन-गषेण वर्तते तत्परिझोपचितादिकर्मेति ॥ २५॥ समया० ननु च यद्यनन्तरोक्तं चतुर्विध कर्म नोपचयं याति कथं तर्हि कर्मोपचयो भवतीत्येतदाशकचाह-- Sil उद्देशः २ शीलाङ्का चतुर्विधचायिय- ___ संतिमे तर आयाणा, जेहिं कीरइ पावगं । अभिकम्मा य पेसा य, मणसा अणुजाणिया ॥२६॥ कर्मचया'सन्ति' विद्यन्ते अमूनि त्रीणि आदीयते-खीक्रियते अमीभिः कर्मेन्यादानानि, एतदेव दर्शयति-यैरादानः क्रियते' विधी- भाव: ॥३८॥ | यते निष्पाद्यते 'पापक' कल्मषं, तानि चामूनि, तद्यथा-'अभिक्रम्येति आभिमुख्येन वध्यं प्राणिनं कान्ता-तद्घाताभिमुखं । चित्तं विधाय यत्र खत एव प्राणिनं व्यापादयति तदेकं कर्मादान, तथापरं च प्राणिघाताय प्रेष्यं समादिश्य यत्प्राणिच्यापादन तद्वितीयं कर्मादानमिति, तथाऽपरं व्यापादयन्तं मनसाऽनुजानीत इत्येतत्तृतीयं कर्मादान, परिझोपचितादसायं भेदः-तत्र | केवलं मनसा चिन्तनमिह खपरेण व्यापाद्यमाने प्राणिन्यनुमोदनमिति ॥ २६ ॥ तदेवं यत्र स्वयं कृतकारितानुमतयः प्राणिधाते | क्रियमाणे विद्यन्ते क्लिष्टाध्यवसायस्व प्राणातिपातश्च तत्रैव कर्मोपचयो नान्यत्रेति दर्शयितुमाह एते उ तउ आयाणा, जेहिं कीरइ पावगं । एवं भावविसोहीए, निवाणमभिगच्छद ॥ २७॥ | तुरवधारणे, 'एतान्येव' पूर्वोक्तानि त्रीणि व्यस्तानि समस्तानि वा आदानानि यैर्दुष्टाध्यवसायसव्यपेक्षैः पापकं कर्मोपचीयत ॥ ॥३८॥ इति, एवं च स्थिते यत्र कृतकारितानुमतयः पाणिव्यपरोपणं प्रति न विद्यन्ते तथा 'भावविशुद्ध्या' अरक्तद्विष्टयुध्ध्या प्रवतेमानस्य || 8| सत्यपि प्राणातिपाते केवलेन मनसा कायेन वा मनोऽभिसंधिरहितेनोभयेन वा विशुद्धबुद्धेने कर्मोपचयः, तदभावाच 'निवोर्ण' | दीप अनुक्रम [१३] 3929 acaceaeeeeeeeeeeseces ~80~ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२८|| दीप अनुक्रम [५५] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [गाथा-२७], निर्युक्तिः [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०२ ], अंग सूत्र - [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः सर्वद्वन्द्वोपरतिस्वभावम् 'अभिगच्छति' आभिमुख्येन प्राप्नोतीति ॥ २७॥ भावशुद्धधा प्रवर्तमानस्य कर्मबन्धो न भवतीत्यत्रार्थे दृष्टान्तमाह- पुतं पिया समारम्भ, आहारेज असंजए । भुंजमाणो य मेहावी, कम्मणा नोवलिप्पइ ॥ २८ ॥ 'पुत्रम्' अपत्यं 'पिता' जनक: 'समारभ्य' व्यापाय आहारार्थं कस्याश्चित्तथाविधायामापदि तदुद्धरणार्थमरक्तद्विष्टः 'असंयतो गृहस्थस्तत्पिशितं भुञ्जानोऽपि चशब्दस्यापिशब्दार्थ लादिति, तथा 'मेधाव्यपि' संयतोऽपीत्यर्थः, तदेवं गृहस्थो भिक्षुर्वा | शुद्धाशयः पिशिताश्यपि 'कर्मणा' पापेन 'नोपलिप्यते' नाश्लिष्यत इति यथा चात्र पितुः पुत्रं व्यापादयतस्तत्रारक्तद्विष्टमनसः कर्मबन्धो न भवति तथाऽन्यस्याप्यरक्तद्विष्टान्तःकरणस्य प्राणिबधे सत्यपि न कर्मबन्धो भवतीति ॥ २८ ॥ साम्प्रमेतदूषणायाह--- मणसा जे पउस्संति, चित्तं तेसिं ण विज्जइ । अणवज्ज मतहं तेसिं, ण ते संवुडचारिणो ॥ २९ ॥ इच्याहि यदिट्ठीहिं, सातागारवणिस्सिया । सरणंति मन्नमाणा, सेवंती पावगं जणा ॥ ३० ॥ जहा अस्साविणिं णावं, जाइअंधो दुरूहिया । इच्छई पारमागंतुं, अंतरा य विसीयई ॥ ३१ ॥ For Parata Lise Only ~81~ anary org Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [गाथा-३२], नियुक्ति: [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: कर्मचया प्रत सूत्रांक ||३२|| ॥३९॥ दीप सूत्रकृताङ्ग एवं तु समणा एगे, मिच्छदिही अणारिया । संसारपारकंखी ते, संसारं अणुपरियति ॥ ३२ ॥ १ समयाशीलाझा- (गाथा॥५९॥) तिबेमि । इति प्रथमाध्ययने द्वितीयोद्देशकः॥ | उद्देशः२ चायचियुतं ये हि कुतश्चिनिमित्तात् 'मनसा' अन्तःकरणेन 'प्रादुष्यन्ति' प्रद्वेषमुपयान्ति तेषां वधपरिणतानां शुद्ध चित्तं न विद्यते, भाववादि तदेवं यत्रभिहितं यथा केवलमनाप्रद्वेषेपि 'अनवद्य' कर्मोपचयाभाव इति, तत् तेषाम् 'अतथ्यम्' असदाभिधायिलं, यतो न ते संघृतचारिणो, मनसोऽशुद्धखात् , तथाहि-कर्मोपचये कर्तव्ये मन एव प्रधान कारण, यतस्तैरपि मनोरहितकेवलकायव्यापारे कर्मोपचयाभावोऽभिहितः, ततश्च यत् यसिन् सति भवत्यसति तु न भवति तत्तस्य प्रधान कारणमिति, ननु तखापि || कायचेष्टारहितस्याकारणवमुक्त, सत्यमुक्तम् , अयुक्तं तूक्तं, यतो भवतैव 'एवं भावशुद्धधा निर्वाणमभिगच्छती ति भणता मनस|| एवैकस्य प्राधान्यमभ्यधायि, तथाऽन्यदप्यभिहितं-"चित्तमेव हि संसारो, रागादिलेशवासितम् । तदेव तैर्विनिमुक्त, भवान्त इति || कथ्यते ॥१॥" तथाऽन्यैरप्यभिहितं-"मतिविभव ! नमस्ते यत्समवेऽपि पुंसां, परिणमसि शुभाशैः कल्मपशिस्वमेव । नरकनग-18 रवस्में प्रस्थिताः कष्टमेके, उपचित शुभशक्त्या सूर्यसंभेदिनोऽन्ये ॥१॥" तदेवं भवदभ्युपगमेनैव क्लिष्टमनोव्यापारः कर्मबन्धायेत्युक्त भवति, तथैर्यापथेपि यवनुपयुक्तो याति ततोऽनुपयुक्ततैब क्लिष्टचित्ततेति कर्मबन्धो भवत्येव, अथोपयुक्तो याति ततोअमत्तखाहदवन्धक एव, तथा चोक्तम्-"उच्चालियंमि पाए इरियासमियस्स संकमहाए । वावजेज कुलिंगी मरेज तं जोगमासज ॥१ ॥ उचालिते पाये इयांसमितेन संक्रमार्थाय । व्यापयेत कुतिकी प्रियेत तं योगमासाय ॥ १॥ अनुक्रम [५९] Boerceceseroesese ~82 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [गाथा-३२], नियुक्ति: [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३२|| ISणे य तस्स तनिमित्तो बन्धो सुहुमोऽवि देसिओ समए । अणवो उ पयोगेण सबभावण सो जम्हा ॥२॥" खमान्तिकऽप्यशु चित्तसद्धावादीषद्धन्धो भवत्येव, स च भवताऽप्यभ्युपगत एव 'अव्यक्तं तत्सावद्य'मित्यनेनेति । तदेवं मनसोऽपि लिष्टस्सैकस्यैव र व्यापारे बन्धसद्भावात् यदुक्तं भवता 'प्राणी प्राणिज्ञान'मित्यादि तत्सर्वं प्लवत इति, यदप्युक्तं-'पुत्रं पिता समारभ्ये'-18 त्यादि तदप्यनालोचिताभिधानं, यतो मारयामीत्येवं यावन्न चित्तपरिणामोऽभूत्तावन्न कविद्वयापादयति, एवंभूतचिचपरिणतेय | कथमसंक्लिष्टता, चित्तसंक्लेशे चावश्यंभावी कर्मबन्ध इत्युभयोस्संवादोऽवेति । यदपि च तैः कचिदुच्यते-यथा 'परव्यापादितपिशितभक्षणे परहस्ताऽऽकृष्टाङ्गारदाहाभाववन्न दोष' इति, तदपि उन्मत्तप्रलपितबदनाकर्णनीयं, यतः परव्यापादिते पिशितभ-18 क्षणेऽनुमतिरप्रतिहता, तस्याश्च कर्मबन्ध इति, तथा चान्यैरप्यभिहितम्--"अनुमन्ता विशसिता, संहर्ता क्रयविक्रयी। संस्कर्ता चोपभोक्ता च, घातकवाष्ट घातकाः ॥१॥" यच्च कृतकारितानुमतिरूपमादानत्रयं तैरभिहितं तजैनेन्द्रमतलवाखादनमेव तैर-13 कारीति । तदेवं कर्मचतुष्टयं नोपचयं यातीत्येवं तदभिदधानाः कर्मचिन्तातो नष्टा इति सुप्रतिष्ठितमिदमिति ॥ २९ ॥ अधुनै-18 तेषां क्रियावादिनामनर्थपरम्परा दर्शयितुमाह-'इत्येताभिः' पूर्वोक्ताभिश्चतुर्विध कर्म नोपचयं यातीति 'दृष्टिभिः' अभ्घु-18 वगमैस्ते वादिनः 'सातगौरवनि श्रिताः सुखशीलतायामासक्ता यत्किञ्चनकारिणो यथालब्धभोजिनच संसारोद्धरणसमर्थ 'शरणम्' इदमस्मदीयं दर्शनम् 'इति' एवं मन्यमाना विपरीतानुष्ठानतया 'सेवन्ते' कुर्वते 'पापम् अवद्यम्, एवं वतिनोऽपि | सन्तो जना इव जनाः प्राकृतपुरुषसटशा इत्यर्थः ॥३०|| अस्यैवार्थस्योपदर्शकं दृष्टान्तमाह-आ-समन्तात्स्रवति तच्छीला चा| न च तस्य तनिभिसो बन्धः सूक्ष्मोऽपि दिष्टः समये । अनवयस्तु प्रयोगेण सर्वभामेन स बस्मात् ॥ २॥ sesesecerserseseeeeeeeece दीप अनुक्रम [५९] RELIEatinIII Itehunmurary.om ~83~ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [गाथा-३२], नियुक्ति: [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३२|| सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्काचाीयवृत्तियुत ॥४ ॥ आस्राविणी सच्छिद्रेत्यर्थः, तां तथाभूतां नावं यथा जात्यन्धः समारुह्य 'पारं' तटम् 'आगन्तुं' प्राप्नुमिच्छत्यसौ, तस्याशास्त्राविणीत्वेनोदकप्लुतखात् 'अन्तराले' जलमध्य एव 'विषीदति' पारिणि निमजति तत्रैव च पञ्चसमुपयातीति ॥३१॥ साम्प्रतं 8 दाटोन्तिकयोजनार्थमाह-'एच'मिति यथाऽन्धः सच्छिद्रां नावं समारूढः पारगमनाय नाल तथा श्रमणा एके शाक्यादयो| | मिथ्या-विपरीता दृष्टियेषां ते मिथ्यारष्टयः तथा पिशिताशनानुमतेरनार्याः स्वदर्शनानुरागेण 'संसारपारकाक्षिणो' मोक्षा-13 मिलापुका अपि सन्तस्ते चतुर्विधकर्मचयानभ्युपगमेनानिपुणखाच्छासनस्य 'संसारमेव चतुर्गतिसंसरणरूपम् 'अनुपर्यटन्ति' भूयोभूयस्तत्रैव जन्मजरामरणदीर्गत्यादिलेशमनुभवन्तोऽनन्तमपि कालमासते, न विवक्षितमोक्षमुखमानुवन्ति, इति ब्रवीमीति | पूर्ववदिति ॥ ३२ ॥ इति सूत्रकृताङ्गे समयाख्याध्ययनस्य द्वितीयोदेशकः समाप्तः ॥ १समया. उद्देशः ३ चतुर्विधकर्मचयाभाववादफलं दीप Seleseseckpeace अनुक्रम [१९] ॥ अथ प्रथमाध्ययने तृतीयोद्देशकः प्रारभ्यते॥ द्वितीयोदेशकानन्तरं तृतीयः समारभ्यते, अस्य चायमभिसंबन्धः-अध्ययनार्थाधिकारः खसमयपरसमयप्ररूपणेति, तत्रोद्दे| शकद्वयेन स्वपरसमयप्ररूपणा कृता अत्रापि सैव क्रियते, अथवाऽऽद्ययोरुद्देशकयोः कुदृष्टयः प्रतिपादितास्तदोषाश्च तदिहापि|8| || तेषामाचारदोपः प्रदश्यत इत्यनेन संवन्धेनायातस्थास्योद्देशकस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि व्यावस्खिलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीय, बच्चेदम् A asurary.com अस्य पृष्ठे प्रथम अध्ययनस्य तृतीय उद्देशकस्य आरम्भ: ~84~ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [गाथा-१], नियुक्ति: [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१|| जं किंचि उ पूइकडं, सड्डीमागंतुमीहियं । सहस्संतरिय भुंजे, दुपक्खं चेव सेवइ ॥१॥ तमेव अवियाणंता, विसमंसि अकोविया । मच्छा वेसालिया चेव, उदगस्सऽभियागमे ॥२॥ उदगस्स पभावेणं, सुकं सिग्धं तमिति उ । ढंकेहि य कंकेहि य, आमिसत्थेहिं ते दुही ॥३॥ एवं तु समणा एगे, वहमाणसुहेसिणो । मच्छा वेसालिया चेव, घातमेस्संति णंतसो ॥४॥ अस्य चानन्तरसूत्रेण सहायं संबन्ध-इहानन्तरोद्देशकपर्यन्तसूत्रेऽभिहितम् , एवं तु श्रमणा एके' इत्यादि, तदिहापि संबध्यते, | एके श्रमणा यत्किश्चित्पूतिकृतं भुञ्जानाः संसारं पर्यटन्तीति, परम्परसूत्रे बभिहितं 'बुजिज' इत्यादि, यत्किश्चित्पूतिकतं तदुध्ये-12 तेति, एवमन्यैरपि सूत्रैरुत्प्रेक्ष्य संबन्धो योज्यः । अधुना सूत्रार्थः प्रतीयते--'यत्किचिदिति आहारजातं स्तोकमपि, आस्तां तावत्प्रभूतं, तदपि 'पूतिकृतम्' आधाकर्मादिसिक्थेनाप्युपसृष्टम् , आस्तां तावदाधाकर्म, तदपि न खयंकृतम्, अपि तु 'श्रद्धा-131 वता' अन्येन भक्तिमताऽपरान् आगन्तुकानुद्दिश्य 'ईहितं' चेष्टितं निष्पादितं, तच्च सहसान्तरितमपि यो 'भुञ्जीत' अभ्य--2 वहरेदसौ 'द्विपक्षं' गृहस्थपक्षं प्रत्रजितपक्षं चाऽऽसेवते, एतदुक्तं भवति–एवंभूतमपि परकृतमपरागन्तुकयत्यर्थ निष्पादितं यदाधाकर्मादि तस्य सहस्रान्तरितस्यापि योऽवयवस्तेनाप्युपसृष्टमाहारजातं भुञ्जानस द्विपक्षसेवनमापद्यते, किं पुनः य एते शाक्यादयः स्वयमेव सकलमाहारजातं निष्पाच वयमेव चोपभुञ्जते ,ते च सुतरां द्विपक्षसेविनो भवन्तीत्यर्थः, यदिवा-'विपक्ष'मिति resedeseseseaceaesert statestaeseseseseseakfaeperse दीप अनुक्रम [६०] a JMEauratball mram.org ~85~ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [गाथा-४], नियुक्ति: [३५] (०२) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्राक गफलं ||४|| दीप सूत्रकृताङ्ग ईपिथः सांपरायिकं च, अथवा-पूर्वबद्धा निकाचिताद्यवस्थाः कर्मप्रकृतीर्नयत्यपूर्वाश्चादने, तथा चागमः-"आहाकम्म|||१ समया० शीलाका- भुञ्जमाणे समणे कइ कम्मपयडीओ बंधई, गोयमा! अहकम्मपयडीओ बंधइ, सिढिलबंधणवद्धाओ धणियवंधणबद्धाओ । उद्देश:३ चार्याय करेइ, चियाओ करेइ, उवचियाओ करेइ, हस्सठिइयाओ दीहठिइयाओ करेइ' इत्यादि । ततश्चैवं शाक्यादयः परतीथिकाः खयूत्तियुत थ्या वा आधाकर्म भुञ्जाना द्विपक्षमेवाऽऽसेवन्त इति भूत्रार्थः॥१॥ इदानीमेतेषां सुखैषिणामाधाकर्मभोजिनां कटुकविपाकावि॥४१॥ | भोवनाय श्लोकद्वयेन दृष्टान्तमाह-'तमेव आधाकोपभोगदोषम् 'अजानाना' विषमः अष्टप्रकारकर्मबन्धो भवकोटिभिरपि । 1|| दुर्मोक्षः चतुर्गेतिसंसारो वा तसिन्नकोविदाः, कथमेष कर्मबन्धो भवति ? कथं वा न भवति ? केन बोपायेनायं संसारार्णवस्तीर्यत । | इत्यत्राकुशलाः, तसिनेव संसारोदरे कर्मपाशावपाशिता दुखिनो भवन्तीति । अत्र दृष्टान्तमाह-यथा 'मत्स्याः पृथुरो-MS माणो विशाल:--समुद्रस्तत्र भवा वैशालिकाः विशालाख्यविशिष्टजात्युद्भवा वा पैशालिकाः विशाला एव (बा) वैशालिका:-॥ 18| बृहक्छरीरास्ते एवंभूता महामत्स्था 'उदकस्याभ्यागमे समुद्रवेला(यामागता)यां सत्या प्रयलमरुद्वेगोद्भूतोत्तुङ्गकल्लोलमालाऽपनुन्नाः || | सन्त उदकस प्रभावेन नदीमुखमागताः पुनर्वेलाऽपगमे तसिन्नुदके शुष्के वेगेनैवापगते सति बृहत्त्वाच्छरीरस्य तमिन्नेव धुनीमुखे ॥४॥ | विलमा अवसीदन्त आमिषानुभिः कवैश्व पक्षिविशेषैरन्यैश्च मांसवसार्थिभिर्मत्स्यबन्धादिभिर्जीवन्त एव विलुप्यमाना महान्तं ॥8॥ ॥४१॥ | दुःखसमुद्घातमनुभवन्तः अशरणा 'धातं' विनाशं 'यान्ति' प्राप्नुवन्ति, तुरवधारणे, प्राणाभावाद्विनाशमेव यान्तीति श्लोकद्व-1880 II आधाकर्म भुभानः श्रमणः कति कर्मप्रकृतीबध्नाति ! गौतम | अष्टकर्म प्रकृतीनाति. शिथिलबन्धनबदा भाबन्धनबद्धाः करोति चिताः करोति उपचिताः | करोति हखकालस्थितिका दीर्घकालस्थितिकाः करोति । अनुक्रम [६३] ~86 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [गाथा-४], नियुक्ति: [३५] (०२) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्राक ||५|| यार्थः ॥२-३॥ एवं दृष्टान्तमुपदर्य दान्तिके योजयितुमाह-यथैतेऽनन्तरोक्ता मत्स्यास्तथा 'श्रमणाः' श्राम्यन्तीति श्रमणा 'एके' शाक्यपाशुपतादयः खयूथ्या वा, किंभूतास्ते इति दर्शयति-वर्तमानमेव सुखम्-आधाकर्मोपभोगजनितमेषितुं शीलं येषां ते वर्तमानमुखैषिणः, समुद्रवायसवत् तत्कालावाप्तसुखलवासक्तचेतसोऽनालोचिताधाकर्मोपभोगजनितातिकटुकदुःखौघानुभवा वैशालिकमत्स्या इव 'घातं' विनाशम् 'एष्यन्ति' अनुभविष्यन्ति 'अनन्तशः' अरहट्टघटीन्यायेन भूयो भूयः संसारोदन्वति निमजनोन्मजनं कुर्वाणा न ते संसाराम्भोधेः पारगामिनो भविष्यन्तीत्यर्थः ॥ ४ ॥ साम्प्रतमपराज्ञाभिमतोपप्रदर्शनायाह इणमन्नं तु अन्नाणं, इहमेगेसि आहियं । देवउत्ते अयं लोए, बंभउत्तेति आवरे ॥ ५॥ ईसरेण कडे लोए, पहाणाइ तहावरे । जीवाजीवसमाउत्ते, सुहदुक्खसमन्निए ॥६॥ सयंभुणा कडे लोए, इति वुत्तं महेसिणा । मारेण संथुया माया, तेण लोए असासए ॥७॥ 'इद'मिति वक्ष्यमाणं, तुशब्दः पूर्वेभ्यो विशेषणार्थः, 'अज्ञान'मिति मोहविजृम्भणम् –'इह' अस्मिन् लोके एकेषां न सर्वेषाम् |'आख्यातम्'अभिप्रायः,किं पुनस्तदाख्यातमिति तदाह-देवेनोप्तो देवोप्तः,कर्षकेणेव बीजवपनं कसा निष्पादितोऽयं लोक इत्यर्थः ।। || देवैवों गुप्तो-रक्षितो देवगुप्तो देवपुत्रो वेत्येवमादिकमज्ञानमिति, तथा ब्रमणा उप्लो वक्षोप्तोऽयं लोक इत्यपरे एवं व्यवस्थिताः तथाहि तेषामयमभ्युपगमः-प्रमा जगत्पितामहः, स चैक एच जगदादावासीत्तेन च प्रजापतयः सृष्टाः तैश्च क्रमेणैतत्सकलं जगदिति Caeseseseseaersesentaeaeeraesercers दीप desesedestroeseeeeeeeeeeea अनुक्रम [६४] ~87~ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||७|| दीप अनुक्रम [ ६६ ] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [३], मूलं [ गाथा- ७], निर्युक्तिः [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र- [ ०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्का चार्यय ॥ ४२ ॥ ।। ५ ।। तथेश्वरेण कृतोऽयं लोकः, एवमेके ईश्वरकारणिका अभिदधति, प्रमाणयन्ति च ते सर्वमिदं विमत्यधिकरणभावापर्यं तनुभ्रुवनकरणादिकं धर्मिलेनोपादीयते, बुद्धिमत्कारणपूर्वकमिति साध्यो धर्मः, संस्थान विशेषवच्वादिति हेतुः, यथा घटादिरिति दृष्टान्तोऽयं, यद्यत्संस्थानविशेषवत्तत्तद्बुद्धिमत्कारणपूर्वकं दृष्टं यथा देवकुलकूपादीनि, संस्थानविशेषवच्च मकराकरनदीधराधरधरातियुतं शरीरकरणादिकं विवादगोचरापन्नमिति तसादुद्धिमत्कारणपूर्वकं, यश्च समस्तस्यास्य जगतः कर्ता स सामान्यपुरुषो न भवतीत्यसाबीश्वर इति तथा सर्वमिदं तनुभुवनकरणादिकं धर्मिलेनोपादीयते, बुद्धिमत्कारणपूर्वकमिति साध्यो धर्मः, कार्यत्वाद् ४ घटादिवत्, तथा स्थिता प्रवृत्तेर्वा, वास्यादिवदिति । तथाऽपरे प्रतिपन्ना यथा— प्रधानादिकृतो लोकः, सत्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः, सा च पुरुषार्थं प्रति प्रवर्तते, आदिग्रहणाच 'प्रकृतेर्महान् ततोऽहङ्कारः तसाच गणः षोडशकः तसादपि षोडशकात्पश्ञ्चभ्यः पञ्च भूतानी' त्यादिकया प्रक्रियया सृष्टिर्भवतीति, यदिवा-- आदिग्रहणात्स्वभावादिकं गृह्यते, ततश्रायमर्थ:स्वभावेन कृतो लोकः, कण्टकादितैक्ष्ण्यवत्, तथाऽन्ये नियतिकृतो लोको मयूराङ्गरुहवदित्यादिभिः कारणैः कृतोऽयं लोको 'जीवाजीवसमायुक्तो' जीवैः उपयोगलक्षणैः तथा अजीवैः – धर्माधर्माकाशपुद्गलादिकैः समन्वितः समुद्रधराधरादिक इति, | पुनरपि लोकं विशेषयितुमाह- 'सुखम् ' आनन्दरूपं 'दुःखम्' असातोदयरूपमिति, ताभ्यां समन्वितो -युक्त इति ॥ ६ ॥ किंच- 'सयंभुणा' इत्यादि, स्वयं भवतीति स्वयम्भूः- विष्णुरन्यो वा स चैक एवादावभूत्, तत्रैकाकी रमते, द्वितीयमिष्टवान्, तच्चिन्तानन्तरमेव द्वितीया शक्तिः समुत्पन्ना, तदनन्तरमेव जगत्सृष्टिरभूद् 'इति' एवं महर्षिणा 'उक्तम्' अभिहितम्, एवंवादिनो लोकस्य कर्तारमभ्युपगतवन्तः । अपि च 'तेन' स्वयंभुवा लोकं निष्पाद्यातिभारभयाद्यमाख्यो मारयतीति मारो व्यधायि तेन - can Internationa For Parts Only ~88~ १. समया० उद्देशः ३ लोककर्त्तृतानिरास: ॥ ४२ ॥ wor Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||८|| दीप अनुक्रम [६७] सूत्र. ८ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र -२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [३], मूलं [गाथा - ८ ], निर्युक्तिः [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र- [ ०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः मारेण 'संस्तुता' कृता प्रसाधिता माया, तया च मायया लोका त्रियन्ते, न च परमार्थतो जीवस्योपयोगलक्षणस्य व्यापत्तिरस्ति, अतो मायैषा यथाऽयं मृतः, तथा चार्य लोकः 'अशाश्वतः' अनित्यो विनाशीति गम्यते ॥ ७ ॥ अपि च माहा समणा एगे, आह अंडकडे जगे । असो तत्तमकासी य, अयाणंता मुखं वदे ॥ ८ ॥ 'ब्राह्मणा' धिग्जातयः 'श्रमणाः' त्रिदण्डिप्रभृतयः 'एके' केचन पौराणिका न सर्वे, एवम् 'आहुः उक्तवन्तो, वदन्ति |च यथा— जगदेतच्चराचरमण्डेन कृतमण्डकृतं अण्डाजातमित्यर्थः तथाहि ते वदन्ति यदा न किञ्चिदपि वस्वासीत्--पदार्थ| शून्योऽयं संसारः तदा ब्रह्माऽप्खण्डमसृजत् तसाच क्रमेण वृद्धात्पचाद्विधाभावमुपगतादूर्ध्वाधोविभागोऽभूत्, तन्मध्ये च सर्वाः प्रकृतयोऽभूवन् एवं पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशसमुद्रसरित्पर्वतमकराकर निवेशादिसंस्थितिरभूदिति, तथा चोक्तम् " आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम् । अप्रतर्क्यमविज्ञेयं, प्रसुप्तमिव सर्वतः ॥ १ ॥ एवंभूते चासिन् जगति 'असो' ब्रह्मा, तस्य भावस्तम्वं---पदार्थजातं तदण्डादिप्रक्रमेण 'अकार्षीत्' कृतवानिति । ते च ब्राह्मणादयः परमार्थमज्जानानाः सन्तो मृषा वदन्त एवं वदन्ति - अन्यथा च स्थितं तत्रमन्यथा प्रतिपादयन्तीत्यर्थः ॥ ८ ॥ अधुनैतेषां देवोप्तादिजगद्वादिनामुत्तरदानायाह- सएहिं परियारहिं, लोयं बूया कडेति य । ततं ते ण विजाणंति, ण विणासी कयाइवि ॥ ९ ॥ ‘स्वकैः’ स्वकीयैः ‘पर्यायैः' अभिप्रायैर्युक्तिविशेषैः अयं लोकः कृत इत्येवम् 'अब्रुवन्' अभिहितवन्तः, तद्यथा — देवोप्तो For Park Use Only ~89~ రూపధరి janesbrary org Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [गाथा-९], नियुक्ति: [३५] (०२) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: शीलाङ्का प्रत जगत्कत्ते सूत्रांक ॥९॥ सूत्रकृताङ्गब्रह्मोप्त ईश्वरकृतः प्रधानादिनिष्पादितः खयम्भुवा व्यधायि तनिष्पादितमायया म्रियते तथाऽण्डजशायं लोक इत्यादि, खकीयाभि- समया. रुपपत्तिभिः प्रतिपादयन्ति-यथाऽस्मदुक्तमेव सत्यं नान्यदिति, ते चैवंचादिनो वादिनः सर्वेऽपि 'तत्त्वं' परमार्थ यथावस्थितलोक- | उद्देशः३ चार्थीय खभावं 'नाभि (न वि)जानन्ति' न सम्यक विवेचयन्ति, यथाऽयं लोको द्रव्यार्थतया न विनाशीति-निर्मूलतः कदाचन, न || त्तियुतं चायमादित आरभ्य केनचित् क्रियते, अपि खयं लोकोऽभूद्भवति भविष्यति च, तथाहि-यत्ताबदुक्तं यथा 'देवोप्तोऽयं लोक' स्ववाद: ॥४३॥ इति, तदसंगतम् , यतो देवोप्तले लोकस्य न किञ्चित्तथाविधं प्रमाणमस्ति, न चाप्रमाणकमुच्यमानं विद्वजनमनांसि प्रीणयति, अपि च--किमसी देव उत्पनोज्नुत्पन्नो वा लोकं मजेत्, न तावदनुत्पन्नस्तस्य खरविषाणस्वासत्त्वात्करणाभावः, अथोत्पत्रः सजे-15 |त्तरिक खतोऽम्पती या', यदि खत एवोत्पन्नस्तथा सति तल्लोकस्यापि खत एवोत्पत्तिः किं नेष्यते', अथान्यत उत्पन्नः सन् | लोककरणाय, सोऽप्यन्योभ्यतः सोऽप्यन्योऽन्यत इत्येवमनवस्थालता नभोमण्डलव्यापिन्यनिवारितप्रसरा प्रसर्पतीति, अथासौ || | देवोऽनादिवानोत्पन्न इत्युच्यते, इत्येवं सति लोकोऽप्यनादिरेवास्तु, कोदोषः, किंच-असावनादिः समित्योऽनित्यो वा स्यात् । | यदि नित्यस्तदा तस्स क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधान कर्तृतम्, अथानित्यस्तथा सति स्वत एवोत्पच्यनन्तरं विनाशिखादा-|| त्मनोऽपि न प्राणाय, कुतोऽन्यत्करणं प्रति तस्य व्यापारचिन्तेति, तथा किममूर्तो मूर्तिमान् वा?, यद्यमूर्तेस्तदाऽऽकाशवदकर्तेब, I... अथ मूर्तिमान् तथा सति प्राकृतपुरुषस्येवोपकरणसव्यपेक्षस्य स्पष्टमेव सर्वजगदकईखमिति । देवगुप्तदेवपुत्रपक्षौ खतिफल्गुखादप-hell ||॥४३॥ कणेवितव्याविति, एतदेव दूषणं ब्रह्मोतपक्षेऽपि द्रष्टव्यं, तुल्ययोगक्षेमतादिति । तथा यदुक्तम्-'तनुभुवनकरणादिकं विमत्यधि-| करणभावापन्नं विशिष्टबुद्धिमत्कारणपूर्वक, कार्यखाद्, घटादिवदिति तदयुक्त, तथाविधविशिष्टकारणपूर्वकत्वेन व्यायसिद्धेः, दीप अनुक्रम [६८] peeeeeeeeees ~90~ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [गाथा-९], नियुक्ति: [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्राक कारणपूर्वकत्वमात्रेण तु कार्य व्याप्तं, कार्यविशेपोपलब्धौ कारणविशेषप्रतिपत्तिर्गृहीतप्रतिबन्धस्यैव भवति, न चात्यन्तादृष्टे तथा प्रतीतिर्भवति, घटे तत्पूर्वकवं प्रतिपन्नमिति चेत् युक्तं तत्र घटस्य कार्यविशेषलप्रतिपत्तेः, न खेवं सरित्समुद्रपर्वतादौ बुद्धिमत्कारणपूर्वकलेन संबन्धो गृहीत इति, नन्वत एव घटादिसंस्थानविशेषदर्शनवत्पर्वतादावपि विशिष्टसंस्थानदर्शनानुद्धिमत्कारणपूर्वकखस्य साधनं क्रियते, नैतदेवं युक्तं, यतो न हि संस्थानशब्दप्रवृत्तिमात्रेण सर्वस्व बुद्धिमत्कारणपूर्वकलावगतिर्भवति, यदि तु स्यात् मृद्धि-18 कारखाईल्मीकस्यापि घटवत्कुम्भकारकृतिः स्वात् , तथा चोक्तम्- "अन्यथा कुम्भकारेण, मृद्विकारस्य कस्यचित् । घटादेः कर-18 18 णात्सियेद्वल्मीकस्यापि तत्कृतिः॥१॥" इति, तदेवं यस्यैव संस्थान विशेषस्य बुद्धिमत्कारणपूर्वकवेन संबन्धो गृहीतस्तद्दर्शनमेव तथाविधकारणानुमापकं भवति न संस्थानमात्रमिति, अपिच-घटादिसंस्थानानां कुम्भकार एवं विशिष्टः कोपलक्ष्यते नेश्वरः, यदि पुनरीश्वरः सात् किं कुम्भकारेणेति !, नैतदस्ति, तत्रापीश्वर एव सर्वव्यापितया निमित्तकारणखेन व्याप्रियते, नन्वेवं दृगृहानिरदृष्टकल्पना स्यात् , तथा चोक्तम्- "शखौषधादिसंबन्धाच्चैत्रस्य व्रणरोहणे । असंवद्धख किं स्थायोः, कारणलं न कल्प्यते ॥१॥" तदेवं दृष्टकारणपरित्यागेनादृष्टपरिकल्पना न न्याय्येति, "अपिच-देवकुलावटादीनां यः कतों स साव-18 यवोऽव्याप्यनित्यो दृष्टः, तदृष्टान्तसाधितश्वेश्वर एवंभूत एव प्राप्नोति, अन्यथाभूतस्य च दृष्टान्ताभावाद्व्याप्यसिद्धेनानुमान-181 मिति, अनयैव दिशा स्थिसाप्रवृत्यादिकमपि साधनमसाधनमायोज्यं, तुल्ययोगक्षेमलादिति । यदपि चोक्तं 'प्रधानादिकृतोऽयं व | लोक' इति, तदप्यसंगतं, यतस्तत्प्रधानं कि मूर्तममूर्त वा, यद्यमृत न ततो मकराकरादेमूतसोद्भवो घटते, न ह्याकाशाकिश्चि-12 दुत्पद्यमानमालक्ष्यते, मूर्तामूर्तयोः कार्यकारणविरोधादिति, अथ मूर्त तत्कुतः समुत्पन्न, न तावत्खतो लोकस्यापि तथोत्पत्ति दीप अनुक्रम [६८] ~914 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [गाथा-९], नियुक्ति: [३५] (०२) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत जगत्कने सूत्रांक ९|| दीप अनुक्रम सूत्रकृताङ्गं | प्रसङ्गात् , नाप्यन्यतोऽनवस्थापत्तेरिति, यथाऽनुत्पन्नमेव प्रधानाधनादिभावेनाऽऽस्ते तल्लोकोऽपि कि नेष्यते , अपिच-सच्चर-४१समया. शीलालजस्तमसां साम्यावस्था प्रधानमित्युच्यते, न चाविकृतात्प्रधानान्महदादेरुत्पतिरिष्यते भवद्धिा, न च विकृतं प्रधानन्यपदेशमास्क- उद्देशः३ चार्यांय- न्दतीत्यतो न प्रधानान्महदादेरुत्पत्तिरिति, अपिच-अचेतनायाः प्रकृतेः कथं पुरुषार्थ प्रति प्रवृत्तिः ? येनाऽऽस्मनो भोगोपपत्त्या चियुतं मष्टिः स्यादिति, प्रकृतेरयं खभाव इति चेदेवं तर्हि खभाव एव बलीयान् यस्तामपि प्रकृति नियमयति, तत एव च लोकोऽ- स्ववादा प्यस्तु, किमदृष्टप्रधानादिकल्पनयेति ?, अथादिग्रहणात्स्वभावस्थापि कारणलं कैत्रिदिष्यत इति चेदस्तु, न हि खभावोऽभ्युपग-1 ॥४४॥ म्यमानो नः क्षतिमातनोति, तथाहि -खो भावः स्वभावः-स्वकीयोत्पत्तिः, सा च पदार्थानामिष्यत एवेति । तथा यदुक्तं 'निय18| तिकृतोऽयं लोक' इति, तत्रापि नियमनं नियतिर्यद्यथाभवनं नियतिरित्युच्यते, सा चाऽऽलोच्यमाना न स्वभावादतिरिच्यते, यशा भ्यधायि-'स्वयम्भुवोत्पादितो लोक' इति, तदप्यसुन्दरमेव, यतः स्वयम्भूरिति किमुक्तं भवति !, किं यदाऽसौ भवति तदा खतन्त्रोऽन्यनिरपेक्ष एव भवति अथानादिभवनात्खयम्भूरिति व्यपदिश्यते, तद्यदि स्वतत्रभवनाभ्युपगमस्तल्लोकस्यापि भवनं किं नाभ्युपेयते ।, किं स्वयम्भुवा ?, अथानादिस्ततस्तस्थानादिखे नित्यख, नित्यस्य चैकरूपलात्कलानुपपचिः, तथा वीतरागखात्तस्य संसारवैचित्र्यानुपपत्तिः, अथ सरागोऽसौ ततोऽस्मदाद्यव्यतिरेकात्सुतरां विश्वस्थाकर्ता, मूतोमूर्तादिविकल्पाश्च प्राग्वदायोज्या इति । यदपि चात्राभिहितं-'तेन मार समुत्पादितः, स च लोकं व्यापादयति', तदप्यकर्तृतस्याभिहितखात्प्रलापमात्र I ||४४॥ |मिति । तथा यदुक्तम् 'अण्डादिक्रमजोऽयं लोक' इति, तदप्यसमीचीनं, यतो यास्वप्सु तदण्डं निसृष्टं ता यथाऽण्डमन्तरेणाभूवन् । I तथा लोकोऽपि भूत इत्यभ्युपगमे न काचिद्धाधा दृश्यते, तथाऽसौ ब्रह्मा यावदण्डं सृजति तावल्लोकमेव कसानोत्पादयति ?, किम-151 Receae [६८] SAREnatinintimational ~92~ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [गाथा-९], नियुक्ति: [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||९|| नया कष्टया युक्त्यसंगतया चाण्डपरिकल्पनया ?, एवमस्तिति चेत् तथा केचिदभिहितवन्तो यथा ब्रह्मणो मुखाहामणाः सम-11 | जायन्त बाहुभ्यां क्षत्रिया ऊरुभ्यां वैश्याः पयां शुद्रा इति, एतदप्ययुक्तिसंगतमेव, यतो न मुखादेः कस्यचिदुत्पत्तिर्भवन्स्युः। पलक्ष्यते, अथापि स्यात्तका सति वर्णानामभेद: साद् , एकस्मादुत्पत्तेः, तथा ब्राह्मणानां कठतैचिरीयककलापादिकश्च भेदो न स्याद् , एकमान्मुखादुत्पत्तेः, एवं चोपनयनादिसद्भावो न भवेद्, भावे वा स्वस्रादिग्रहणापत्तिः खाद्, एवमायनेकदोपदुष्टत्वा-18 देवं लोकोत्पत्ति भ्युपगन्तव्या । ततश खितमेतत्-त एवंवादिनो लोकस्यानावपर्यवसितस्योर्ध्वाधश्चतुर्दशरजुप्रमाणस्य वैशाखस्थानखकटिन्यस्तकरयुग्मपुरुषाकृतेरधोमुखमलकाकारसप्तपृथिव्यात्मकाधोलोकस्य स्थालाकारासंख्येयद्वीपसमुद्राधारमध्यलोकस मलकसमुद्गकाकारोव॑लोकस धर्माधर्माकाशपुदलजीवात्मकस्य द्रव्यार्थतया नित्यस्य पर्यायापेक्षया क्षणक्षयिण उत्पादन्ययधीच्यापादितद्रव्यसतत्त्वस्थानादिजीवकर्मसंबन्धापादितानेकभवप्रपञ्चस्याष्टविधकर्मविप्रमुक्ताऽऽत्मलोकान्तोपलक्षितस्य तचमजानानाः सन्तो मृपा वदन्तीति ।। ९ ॥ इदानीमेतेपामेव देवोप्तादिवादिनामज्ञानिलं प्रसाध्य तत्फलदिदर्शविषयाऽऽह---- अमणुन्नसमुप्पायं, दुक्खमेव विजाणिया। समुप्पायमजाणंता, कहं नायंति संवरं? ॥१०॥ मनोऽनुकूलं मनोझं शोभनमनुष्ठानं न मनोज्ञममनोज्ञम्-असदनुष्ठानं तसादुत्पादः-प्रादुर्भावो यस्य दुःखस्य तदमनोज्ञ- समुत्पादम् , एवकारोवधारणे, स चैवं संबन्धनीयः---अमनोज्ञसमुत्पादमेव दुःखमित्येवं 'विजानीयात्' अवगच्छेत्प्राज्ञः, एतदुक्तं भवति-खकृतासदनुष्ठानादेव दुःखस्योद्भवो भवति नान्यसादिति, एवं व्यवस्थितेऽपि सति अनन्तरोक्तवादिनोऽसदनुष्ठानो eceroenerateecemeseseseseses Tercedesemeseseaeseseacheers दीप अनुक्रम [६८) ~93~ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||20|| दीप अनुक्रम [६९] सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्काचार्ययव चियुतं ॥ ४५ ॥ Education f “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [३], मूलं [गाथा - १० ], निर्युक्तिः [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र- [ ०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - द्भवस्य दुःखस्य समुत्पादमजानानाः सन्तोऽभ्यत ईश्वरादेर्दुः खस्योत्पादमिच्छन्ति, ते चैवमिच्छन्तः 'कथं' केन प्रकारेण दुःखस्य संवरं - दुःखप्रतिघातहेतुं ज्ञास्यन्ति, निदानोच्छेदेन हि निदानिन उच्छेदो भवति, ते च निदानमेव न जानन्ति तच्चाजानानाः कथं दुःखोच्छेदाय यतिष्यन्ते ?, यलवन्तोऽपि च नैव दुःखोच्छेदनमवाप्स्यन्ति, अपि तु संसार एव जन्मजरामरणेष्टवियोगाद्यनेकदुःखत्राताघ्राता भूयो भूयो हट्टघटीन्या येनानन्तमपि कालं संस्थास्यन्ति ॥ १०॥ साम्प्रतं प्रकारान्तरेण कृतवादिमतमेवोपन्यस्यन्नाह सुद्धे अपावए आया, इहमेगेसिमाहियं । पुणो किड्डापदोसेणं, सो तत्थ अवरझई ॥ ११ ॥ इह संबुडे मुणी जाए, पच्छा होइ अपावए । वियडंबु जहा भुज्जो, नीरयं सरयं तहा ॥ १२ ॥ ‘इह' अस्मिन् कृतवादिप्रस्तावे त्रैराशिका मोशालकमतानुसारिणो येषामेकविंशतिसूत्राणि पूर्वगतत्रैराशिकसूत्रपरिपाठ्या व्यवस्थितानि ते एवं वदन्ति यथाज्यमात्मा 'शुद्धी' मनुष्यभव एव शुद्वाचारो भूखा अपगताशेषमलकलङ्को मोक्षे अपापको भवति — अपगताशेषकर्मा भवतीत्यर्थः, इदम् 'एकेषा' गोशालक मतानुसारिणामाख्यातं पुनरसावात्मा शुद्धवाकर्मकत्वराशि| द्वयावस्थो भूला क्रीडया प्रद्वेषेण वा स तत्र मोक्षस्थ एव 'अपराध्यति' रजसा लिप्यते इदमुक्तं भवति तस्य हि स्वशासनपूजामुपलभ्यान्यशासनपराभवं चोपलभ्य कीडोत्पद्यते प्रमोदः संजायते, स्वशासनन्यकारदर्शनाच्च द्वेषः, ततोऽसौ क्रीडाद्वेपाभ्यामनुगतान्तरात्मा शनैः शनैर्निर्मल पटवदुपभुज्यमानो रजसा मलिनीक्रियते, मलीमसथ कर्मगौरवाद्भूयः संसारेऽवतरति, For Parts Only ~94~ १ समया० उद्देश: ३ कर्तृत्ववा दः ॥ ४५ ॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१२|| दीप अनुक्रम [७१] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [गाथा- १२], निर्युक्तिः [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र- [ ०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - अस्यां चावस्थायां सकर्मकत्वा तृतीय राज्यवस्थो भवति ॥ ११ ॥ किं च- 'इह' अस्मिन् मनुष्यभवे प्राप्तः सन् प्रवज्यामभ्युपेत्य संवृतात्मा - यमनियमरतो जातः सन् पश्चादपापो भवति - अपगताशेषकर्म कलङ्को भवतीति भावः ततः स्वशासनं प्रज्वाल्य मुक्त्यवस्थो भवति, पुनरपि खशासनपूजादर्शनान्निकारोपलब्धेश्व रागद्वेषोदयात्कलुषितान्तरात्मा विकटाम्बुवद् – उदकवनीरजस्कं सद्वातोद्धतरेणुनिवहसंपृक्तं सरजस्कं— मलिनं भूयो यथा भवति तथाऽयमध्यात्माऽनन्तेन कालेन संसारोद्वेगाच्छुद्धाचारावस्थो भूत्वा ततो मोक्षावाप्तौ सत्यामकर्मावस्थो भवति पुनः शासनपूजानिकारदर्शनाद्रागद्वेषोदयात्सकर्मा भवतीति, एवं त्रैराशिकानां राशित्रयावस्थों भवत्यात्मेत्याख्यातम् उक्तं च- “ दग्धेन्धनः पुनरुपैति भवं प्रमथ्य, निर्वाणमप्यनवधारित भीरुनिष्ठम् । मुक्तः | स्वयं कृतभवश्च परार्थशूरस्त्वच्छासनप्रतिहतेष्विह मोहराज्यम् || १ ||" इति ॥ १२ ॥ अधुनैतदूषयितुमाह एताणुवीति मेधावी, वंभचेरेण ते वसे । पुढो पावाउया सवे अक्खायारो सयं सयं ॥ १३ ॥ सएसए उट्टाणे, सिद्धिमेव न अन्नहा । अहो इहेव वसवन्ती, सवकामसमप्पिए ॥ १४ ॥ 'एतान् पूर्वोक्तान् वादिनोऽनुचिन्त्य 'मेधावी' प्रज्ञावान् मर्यादाव्यवस्थितो वा एतदवधारयेत् यथा-नैते राशित्रयवादिनो देवोसादि लोकवादिनश्व 'ब्रह्मचर्ये' तदुपलक्षिते वा संयमानुष्ठाने 'वसेयुः' अवतिष्ठेरन्निति, तथाहि - तेषामयमभ्युपगमो यथा | स्वदर्शन पूजा नि कारदर्शनात्कर्मबन्धो भवति, एवं चावश्यं तदर्शनस्य प्रजया तिरस्कारेण वोभयेन वा भाव्यं तत्संभवाच्च कर्मोप For Parts Only ~95~ nary.org Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [गाथा-१४], नियुक्ति: [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१४|| ॥४६॥ सूत्रकृताई |चयस्तदुपचयाच शुभयभावः शुद्ध्यभावाच मोधाभावः, न च मुक्तानामपगताशेषकर्मकलकानां कृतकृत्यानामपगताशेषयथाव- १समया० शीलाङ्का- स्थितवस्तुतवानां समस्तुति निन्दानामपगतात्मात्मीयपरिग्रहाणां रागद्वेषानुषङ्गा, तदभावाच कुतः पुनः कर्मवन्धः , तद्वशाच उद्देशः ३ चाय-यय- संसारावतरणमित्यर्थः, अतस्ते यद्यपि कथश्चिद् द्रव्यब्रह्मचर्ये व्यवस्थितास्तथापि सम्यग्ज्ञानाभावान्न ते सम्यगनुष्ठानमाज इति त्रिशशित्तियुत स्थितम् । अपिच-सर्वेऽप्येते प्रावादुकाः 'खकं खकम्' आत्मीयमात्मीयं दर्शनं खदर्शनानुरागादाख्यातार:-शोभनखेन कर्तृवादप्रख्यापयितार इति, न च तत्र विदितवेद्येनास्था विधेयेति ।।१३।। पुनरन्यथा कृतवादिमतमुपदर्शयितुमाहते कृतवादिनः शैवै निरास: कदण्डिप्रभृतयः स्वकीये खकीये उपविष्ठन्त्यसिन्नित्युपस्थान-स्वीयमनुष्ठानं दीक्षागुरुचरणशुश्रूषादिकं तसिन्नेव 'सिद्धिम्' अशेपसांसारिकापश्चरहितस्वभावामभिहितवन्तो 'नान्यथा' नान्येन प्रकारेण सिद्धिरवाप्यत इति, तथाहि-शैवा दीक्षात एव मोक्ष | इत्येवं व्यवस्थिताः, एकदण्डिकास्तु पञ्चविंशतितवपरिज्ञानान्मुक्तिरित्यभिहितवन्तः,तथाऽन्येऽपि वेदान्तिका ध्यानाध्ययनसमाधि| मार्गानुष्ठानासिद्धिमुक्तवन्त इत्येवमन्येऽपि यथावं दर्शनान्मोक्षमार्ग प्रतिपादयन्तीति, अशेषद्वन्द्वोपरमलक्षणायाः सिद्धिप्राप्तेरधस्ता-16 त्-प्रागपि यावदद्यापि सिद्धिप्राप्तिन भवति तावदिहैव जन्मन्यसदीयदर्शनोक्तानुष्ठानानुभावादष्टगुणैश्वर्यसद्भावो भवतीति दर्शयति || |-आत्मवशे वर्तितुं शीलमखेति वशवर्ती-वशेन्द्रिय इत्युक्तं भवति, न बसौ सांसारिकैः स्वभावैरभिभूयते, सर्वे कामा-अभिलाषा अर्पिताः-संपन्ना यस्य स सर्वकामसमर्पितो, यान् यान् कामान् कामयते ते तेऽस्य सर्वे सिध्यन्तीतियावत् , तथाहि-सिद्धेरारादष्ट-18 ||॥४६॥ II गुणैश्वर्यलक्षणा 'सिद्धिर्भवति तद्यथा-अणिमा लधिमा महिमा प्राकाम्पमीशिवं वशित्वं प्रतिघातित्वं यत्र कामावसायिखमिति ॥ १४ ॥ तदेवमिहेवामदुक्तानुष्ठायिनोऽष्टगुणैश्वर्यलक्षणा सिद्धिर्भवत्यमुत्र चाशेषद्वन्द्वोपरमलक्षणा सिद्धिर्भवतीति दर्शयितुमाह ya3930093012039290sasaram दीप अनुक्रम [७३] SAREnatinimitrintina M astaram.org ~96~ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक |१५|| दीप अनुक्रम [७४] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [गाथा- १५], निर्युक्तिः [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०२ ], अंग सूत्र - [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - Eaton Intentiona सिद्धा य ते अरोगा य, इहमेगेसिमाहियं । सिद्धिमेव पुरो काउं, सासए गढिआ नरा ॥ १५ ॥ असंबुडा अणादीयं, भमिहिंति पुणो पुणो । कप्पकालमुवजंति, ठाणा आसुरकिब्बिसिया ॥ १६ ॥ इति बेमि इति प्रथमाध्ययने तृतीयोदेशकः ॥ गाथा नं. ७५ ॥ ये मदुक्तमनुष्ठानं सम्यगनुतिष्ठन्ति तेऽस्मिन् जन्मन्यष्टगुणैश्वर्यरूपां सिद्धिमासाद्य पुनर्विशिष्टसमाधियोगेन शरीरत्यागं कृला 'सिद्धाश्च' अशेषद्वन्द्वरहिता अरोगा भवन्ति, अरोगग्रहणं चोपलक्षणम्, अनेकशारीरमानसद्वन्द्वैर्न स्पृश्यन्ते, शरीरमनसोरभावादिति, एवम् 'इह' अस्मिन् लोके सिद्धिविचारे वा 'एकेषा' शैवादीनामिदम् 'आख्यातं' भाषितं, ते च शैवादयः 'सिद्धिमेव | पुरस्कृत्य' मुक्तिमेवाङ्गीकृत्य 'स्वकीये आशये खदर्शनाभ्युपगमे 'ग्रथिताः' संबद्धा अध्युपपन्नास्तदनुकूला युक्तीः प्रतिपादयन्ति, नरा इव नरा: प्राकृतपुरुषाः शास्त्रावबोधविकलाः स्वाभिप्रेतार्थसाधनाय युक्तीः प्रतिपादयन्ति एवं तेऽपि पण्डितंमन्याः पर| मार्थमजानानाः स्वाग्रहप्रसाधिका युक्तीरुद्योपयन्तीति, तथा चोक्तम्- 'आग्रही बत निनीपति युक्ति, तत्र यंत्र मतिरस्य निविष्टा । पक्षपातरहितस्य तु युक्तिर्यत्र तत्र मतिरेति निवेशम् ।। १ ।। " ॥ १५ ॥ साम्प्रतमेतेषामनर्थप्रदर्शन पुरःसरं दूषणाभिधित्सयाऽऽह| ते हि पाखण्डिका मोक्षाभिसन्धिना समुत्थिता अपि 'असंवृता' इन्द्रियनोइन्द्रियैर संयताः, इहाप्यस्माकं लाभ इन्द्रियानुरोधेन सर्वविषयोपभोगादू, अमुत्र मुक्त्यवाप्तेः, तदेवं मुग्धजनं प्रतारयन्तोऽनादिसंसारकान्तारं 'भ्रमिष्यन्ति' पर्यटिष्यन्ति स्वदुचरितो For Parta Use Only ~97~ ayor Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [गाथा-१६], नियुक्ति: [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१६|| सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्का- चियुत ॥४७॥ पत्तिकर्मपाशावशापि(पाशि)ताः पौनःपुन्येन नरकादियातनास्थानेषूत्पद्यन्ते, तथाहि नेन्द्रियरनियमितैरशेपद्वन्द्वप्रच्युतिलक्षणा |१समया० सिद्धिरवाप्पते, याऽप्यणिमाघष्टगुणलक्षणैहिकी सिद्धिरभिधीयते साऽपि मुग्धजनप्रतारणाय दम्भकल्पैवेति, याऽपि च तेषां चालत-18 उद्देशः४ | पोऽनुष्ठानादिना स्वर्गावाप्तिः साऽप्येवंप्राया भवतीति दर्शयति-'कल्पकालं' प्रभूतकालम् 'उत्पद्यन्ते' संभवन्ति आसुराः- कृत्योपदे| असुरस्थानोत्पत्रा नागकुमारादयः, तत्रापि न प्रधानाः, कि तर्हि ?-'किल्बिषिका: अधमाः प्रेष्यभूता अल्पर्धयोऽल्पभोगाः शवि० खल्पायुःसामयाद्युपेताश्च भवन्तीति । इति उद्देशकपरिसमाप्त्यर्थे, ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ १६ ॥ ७५ ॥ इति समयाख्याध्ययनस्य तृतीयोद्देशकः समाप्तः॥ अथ प्रथमाध्ययने चतुर्थ उद्देशकः प्रारभ्यते ॥ उक्तस्तृतीयोदेशकः, अधुना चतुर्थः समारभ्यते, अस्स चायमभिसंबन्धः-अनन्तरोद्देशकेऽध्ययनार्थखात्खपरसमयवक्तव्यतोतहापि सैवाभिधीयते, अथवाऽनन्तरोद्देशके तीथिकानां कुत्सिताचारवमुक्तमिहापि तदेवाभिधीयते, तदनेन संवन्धेनाऽऽयातस्था|सोद्देशकखोपक्रमादीनि चखार्यनुयोगद्वाराण्यभिधाय मूत्रानुगमे सूत्रमुचारणीय, तच्चेदम् ॥४७॥ एते जिया भो! न सरणं, बोला पंडियमाणिणो। हिच्चा णं पुत्वसंजोगं, सिया किच्चोवएसगा ॥१॥ १ तावात प्र.२ जत्थ बालेऽजसीय प्र०। दीप अनुक्रम [७५] AREauratonintamational अस्य पृष्ठे प्रथम अध्ययनस्य चतुर्थ उद्देशकस्य आरम्भ: ~98~ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [गाथा-२], नियुक्ति: [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सुत्रांक ||२|| तं च भिक्खू परिन्नाय, वियं तेसु ण मुच्छए । अणुक्कस्से अप्पलीणे, मज्झेण मुणि जावए ॥२॥ अस्य चानन्तरसूत्रेण सहायं संबन्धस्तद्यथा, अनन्तरसूत्रेऽभिहितं-'तीथिका असुरस्थानेषु किल्विषा जायन्त' इति, किमिति ? यत एते जिताः परीषहोपसर्गः, परम्परसूत्रसंबन्धस्वयम्-आदाचिदमभिहितं 'बुध्येत त्रोटयेच्च' ततश्चैतदपि बुध्येत-यथैते | पञ्चभूतादिवादिनो गोशालकमतानुसारिणश्च जिताः परीषहोपसर्गः कामक्रोधलोभमानमोहमदाख्येनारिषड्वर्गेण चेति, एवमन्यैरपि सूत्रः संबन्ध उत्प्रेक्ष्यः । तदेवं कृतसंबन्धस्यास्य सूत्रस्पेदानीं व्याख्या प्रतन्यते-'एत' इति पञ्चभूतकात्मतञ्जीवतच्छरीरादिवादिनः कृतवादिनध गोशालकमतानुसारिणराशिकावं 'जिता' अभिभूता रागद्वेपादिभिः शब्दादिविषयैश्च तथा प्रबलम-13 हामोहोत्थाज्ञानेन च 'भो' इति विनेयामन्त्रणम् एवं खं गृहाण यथैते तीथिका असम्यगुपदेशप्रवृत्तखान कस्यचिच्छरणं भवितुमर्हन्ति न कश्चित्रातुं समर्था इत्यर्थः, किमित्येवं ?, यतस्ते बाला इव बालाः, यथा शिशवः सदसद्विवेकवैकल्याचत्किञ्चनका-| रिणो भाषिणव, तथैतेऽपि खयमज्ञाः सन्तः परानपि मोहयन्ति, एवम्भूता अपि च सन्तः पण्डितमानिन इति, कचित्पाठो 'जस्थ बालेऽवसीय'ति 'यत्र' अज्ञाने 'बाल:' अज्ञो लग्नः सववसीदति, तत्र ते व्यवस्थिताः यतस्ते न कस्यचित्राणायेति । यच्च ४ तैर्विरूपमाचरितं तदुत्तरार्द्धन दर्शयति–'हित्वा'त्यक्खा, णमिति वाक्यालङ्कारे, पूर्वसंयोगो-धनधान्यस्वजनादिभिः संयोगस्तं त्यक्त्वा किल वयं निःसङ्गाः प्रबजिता इत्युत्थाय पुनः सिता-बद्धाः परिग्रहारम्भेष्यासक्तास्ते गृहस्थाः तेषां कृत्य-करणीयं पचनपाचनकण्डनपेषणादिको भूतोपमर्दकारी व्यापारस्तस्योपदेशस्तं गच्छन्तीति कृत्योपदेशगाः कृत्योपदेशका वा, यदिवा-'सिया इति आर्षखाबहुवचनेन व्याख्यायते 'स्युः भवेयुः कृत्यं-कर्तव्यं सावद्यानुष्ठानं तत्प्रधानाः कृत्या-गृहस्थास्तेपामुपदेशः eseccseverecedesercere दीप अनुक्रम [७७] Ec ~99~ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [गाथा-२], नियुक्ति: [३५] (०२) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: सूत्रकृताङ्गं प्रत शीलाङ्काचाीयवृ सूत्रांक त्तियुत ||२|| ॥४८॥ दीप eesesesesesesesercedeceae | संरम्भसमारम्भारम्भरूपः स विद्यते येषां ते कृत्योपदेशिकाः, प्रजिता अपि सन्तः कर्तव्यैर्गृहस्खेभ्यो न भियन्ते, गृहस्था इस समया० तेऽपि सर्वावस्थाः पञ्चमूनाग्यापारोपेता इत्यर्थः ॥ १॥ एवम्भूतेषु च तीर्थिकेषु सत्सु भिक्षुणा यत्कर्तव्यं तदर्शयितुमाह--'' उद्देशः४ पाखण्डिकलोकमसदुपदेशदानाभिरतं 'परिज्ञाय' सम्यगवगम्य यथैते मिथ्याखोपहतान्तरात्मानः सद्विवेकशन्या नात्मने हिता-1 कृत्योपदे शवि० यालं नान्यसै इत्येवं पर्यालोच्य भावभिक्षुः संयतो 'विद्वान् विदितवेद्यः तेषु 'न मूर्छयेत्' न मायं विदध्यात , न तैः।। सह संपर्कमपि कुर्यादित्यर्थः । किं पुनः कर्तव्यमिति पश्चार्द्धन दर्शयति-'अनुत्कर्षवानिति' अष्टमदस्थानानामन्यतमेनाप्युत्से-18 | कमकुर्वन् तथा 'अप्रलीनः' असंबद्धस्तीथिंकेषु गृहस्थेषु पार्श्वस्वादिषु वा संश्लेषमकुर्वन् 'मध्येन' रागद्वेषयोरन्तरालेन संचरन् | 'मुनिः' जगत्रयवेदी 'यापयेद् आत्मानं वर्तयेत् , इदमुक्तं भवति-तीथिकादिभिः सह सत्यपि कथञ्चित्संबन्धे त्यक्ताहङ्कारेण | | तथा भावतस्तेष्यप्रलीयमानेनारक्तद्विष्टेन तेषु निन्दामात्मनश्र प्रशंसा परिहरता मुनिनाऽऽत्मा यापयितव्य इति ।।२।। किमिति ते || तीर्थिकास्त्राणाय न भवन्तीति दर्शयितुमाहसपरिग्गहा य सारंभा, इहमेगेसिमाहियं । अपरिग्गहा अणारंभा, भिखू ताणं परिवए ॥३॥ | 13 ॥४८॥ कडेसु घासमेसेजा, विऊ दत्तेसणं चरे । अगिद्धो विप्पमुक्को अ, ओमाणं परिवजए ॥४॥ सह परिग्रहेण धनधान्यद्विपदचतुष्पदादिना वर्तन्ते तदभावेऽपि शरीरोपकरणादौ मूछीवन्तः सपरिग्रहाः, तथा सहारम्भेण-17 जीवोपमर्दादिकारिणा व्यापारेण वर्तन्त इति तदभावेऽप्यौदेशिकादिभोजिखात्सारम्भाः-तीर्थिकादयः, सपरिग्रहारम्भकलेनैव अनुक्रम [७७] धन ~ 100~ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [गाथा-४], नियुक्ति: [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: Seease प्रत सूत्रांक ||४|| च मोक्षमार्ग प्रसाधयन्तीति दर्शयति-'हह' परलोकचिन्तायाम् एकेषां केषाश्चिद् 'आख्यातं' भाषितं, यथा किमनया शिर-18 स्तुण्डमुण्डनादिकया क्रियया ?, परं गुरोरनुग्रहात्परमाक्षरावाप्तिस्तद्दीक्षावाप्तिर्वा यदि भवति ततो मोक्षो भवतीत्येवं भाषमाणास्ते न त्राणाय भवन्तीति । ये तु बातुं समर्थास्तान्पश्चार्द्धन दर्शयति-'अपरिग्रहाः' न विद्यते धर्मोपकरणारते शरीरोपभोगाय खल्पोऽपि परिग्रहो येषां ते अपरिग्रहाः, तथा न विद्यते सावध आरम्भो येषां तेनारम्भाः , ते चैवंभूताः कर्मलघवः खयं यान-18 पात्रकल्पाः संसारमहोदधेर्जन्तूतारणसमर्थास्तान् 'भिक्षुः'भिक्षणशील उद्देशिकाद्यपरिभोजी 'प्राण' शरणं परिः-समन्ताद-18 जेद्-गच्छेदिति ॥३॥ कथं पुनस्तेनापरिग्रहेणानारम्भेण च वर्तनीयमित्येतद्दर्शयितुमाह-गृहस्पैः परिग्रहारम्भद्वारेणाऽऽ-18 त्मार्थ ये निष्पादिता ओदनादयस्ते कृता उच्यन्ते तेषु कृतेषु-परकृतेषु परनिष्ठितेष्वित्यर्थः, अनेन च षोडशोद्गमदोषपरिहारः ।। सूचितः, तदेवमुगमदोपरहितं प्रखत इति प्रासः-आहारस्तमेवंभूतम् 'अन्वेषयेत्' मृगयेत् याचेयेदित्यर्थः, तथा 'विद्वान् संयमकरणैकनिपुणः परैराशंसादोषरहितैर्यनिःश्रेयसवुद्ध्या दत्तमिति, अनेन पोडशोत्पादनदोषाः परिगृहीता द्रष्टव्याः, तदेवम्भूते दौत्यधात्रीनिमित्तादिदोपरहिते आहारे स भिक्षुः 'एषणां' ग्रहणैषणां 'चरेद' अनुतिष्ठेदिति, अनेनापि दशैषणादोषाः परि-18 गृहीता इति मन्तव्यं, तथा 'अगृहः' अनध्युपपनो मूञ्छितस्तसिन्नाहारे रामद्वेषविप्रमुक्तः, अनेनापि च प्रासैषणादोषाः पश्च|| निरस्ता अवसेयाः, स एवम्भूतो मिक्षुः परेषामपमानं परावमदर्शिवं 'परिवर्जयेत्' परित्यजेत् , न तपोमदं ज्ञानमदं च कुर्या-18 दिति भावः ॥४॥ एवं नियुक्तिकारेणोद्देशकार्थाधिकाराभिहितं 'किचुवमा य चउत्थे' इत्येतत्प्रदर्थेदानीं परवादिमतमेवोदेशायोधिकाराभिहितं दर्शयितुमाह दीप अनुक्रम [७९] doessecevedeoeseoes सूत्रक. lilainauranorm ~ 101 ~ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [गाथा-५], नियुक्ति: [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रकृता शीलाङ्का-1 चाीयसियुतं ॥४९॥ सुत्राक ||१|| दीप लोगवायं णिसामिज्जा, इहमेगेसिमाहियं । विपरीयपन्नसंभूयं, अन्नउत्तं तयाणुयं ॥५॥ १समया० अणंते निइए लोए, सासए ण विणस्सती । अंतवं णिइए लोए, इति धीरोऽतिपासइ ॥६॥ उद्देशः ४ 18 लोकवादाः लोकानां-पाखण्डिनां पौराणिकानां वा वादो लोकवादः यथास्वमभिप्रायेणान्यथा वाऽभ्युपगमस्तं 'निशामयेत्' शृणु-1॥ यात् जानीयादित्यर्थः, तदेव दर्शयति–'इह' असिन्संसारे 'एकेषां' केषाञ्चिदिदम् 'आख्यातम् अभ्युपगमः । तदेव विशिनष्टि विपरीता-परमार्थादन्यथाभूता या प्रज्ञा तया संभूतं-समुत्पन्न, तत्वविपर्यस्तबुद्धिग्रथितमितियाक्त , पुनरपि विशेष-10 यति-अन्यैः-अविवेकिमियदुक्तं तदनुगं, यथावस्थितार्थविपरीतानुसारिभिर्यदुक्तं विपरीतार्थाभिधायितया तदनुगच्छवीत्यर्थः॥४॥ ॥५॥ तमेव विपर्यस्तबुद्धिरचितं लोकवादं दर्शयितुमाह-नास्थान्तोऽस्तीत्यनन्तः, न निरन्वयनाशेन नश्यतीत्युक्तं भवतीति, तथाहि-यो यादृगिह भवे स ताहगेच परभवेऽप्युत्पद्यते, पुरुषः पुरुष एवाङ्गना अजनैवेत्यादि, यदिवा 'अनन्तः' अपरिमितो निर-18 वधिक इतियावत् , तथा 'नित्य' इति अप्रच्युतानुत्पन्न स्थिरैकखभावो लोक इति, तथा शश्वद्भवतीति शाश्वतो अणुकादिकार्यद्रव्यापेक्षयाशश्वनवन्नपि न कारणद्रव्यं परमाणुलं परित्यजतीति तथा न विनश्यतीति दिगात्माकाशाद्यपेक्षया । तथाऽन्तो-18 खास्तीत्यन्तवान् लोका, 'सप्तद्वीपा वसुन्धरति परिमाणोक्तेः, स च तादृपरिमाणो नित्य इत्येवं 'धीर' कश्चित्साहसिकोऽन्य-S४९॥ थाभूतार्थप्रतिपादनात व्यासादिरिवाति पश्यतीत्यतिपश्यति । तदेवंभूतमनेकभेदभित्रलोकवादं निशामयेदिति प्रकृतेन सम्बन्धः। तथा 'अपुत्रस्य न सन्ति लोका, ब्राह्मणा देवाः, श्वानो यक्षा, गोभिर्हतस्य गोषस्य वा न सन्ति लोका'इत्येवमादिकं नियुक्तिकं लोकवादं निशामयेदिति ॥ ६॥ किंच अनुक्रम [८०] ~102 ~ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [७], नियुक्ति: [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: అene प्रत सूत्रांक ||७|| 1 अपरिमाणं वियाणाई, इहमेगेसिमाहियं । सवत्थ सपरिमाणं, इति धीरोऽतिपासई ॥७॥ जे केइ तसा पाणा, चिटुंति अदु थावरा । परियाए अस्थि से अंजू , जेण ते तसथावरा ॥८॥ न विद्यते 'परिमाणम्' इयत्ता क्षेत्रतः कालतो वा यस्य तदपरिमाणं, तदेवंभूतं विजानाति कश्चित्तीर्थिकतीर्थक , एतदुक्तं | भवति-अपरिमितज्ञोऽसावतीन्द्रियद्रष्टा, न पुनः सर्वज्ञ इति, यदिवा-अपरिमितज्ञ इत्यभिप्रेतार्थातीन्द्रियदर्शीति, तथा चोक्तम्"सर्व पश्यतु वा मा वो, इष्टमर्थ तु पश्यतु । कीटसंख्यापरिज्ञानं, तस्स नः कोपयुज्यते ॥१॥” इति, 'इह' असिँल्लोके 'एकेषां' सर्वज्ञापसववादिनाम् इदमाख्यातम् ' अयमभ्युपगमः, तथा सर्वक्षेत्रमाश्रित्य कालं वा परिच्छेद्य कर्मतापनमाश्रित्य सह परि-| माणेन सपरिमाणं सपरिच्छेदं धी:-बुद्धिस्तया राजत इति धीर इत्येवमसौ अतीव पश्यतीत्यतिपश्यति, तथाहि ते मुक्तेदिव्यं वर्षसहस्रमसौ ब्रह्मा खपिति, तस्थामवस्थायां न पश्यत्यसौ, तावन्मानं च कालं जागर्ति, तत्र च पश्यत्यसाविति, तदेवम्भूतो हैं। बहुधा लोकवादः प्रवृत्तः ॥ ७ ॥ अव चोत्तरदानायाह-ये केचन अखन्तीति त्रसा-द्वीन्द्रियादयः 'प्राणा' प्राणिनः सञ्चाः 181 'तिष्ठन्ति' त्रससमनुभवन्ति, अथवा 'स्थावरा' स्थावरनामकर्मोदयात् (याः) पृथिव्यादयस्ते, यद्ययं लोकवादः सत्यो भवेत् 8 यथा यो यागसिन् जन्मनि मनुष्यादिः सोऽन्यस्मिन्नपि जन्मनि ताडगेव भवतीति, ततः स्थावराणां त्रसानां च तादृशले सति दानाध्ययनजपनियमतपोऽनुष्ठानादिकाः क्रियाः सर्वा अप्यनार्थिका आपयेरन् । लोकेनापि चान्यथालमुक्तं, तद्यथा-"सबै एष १ कवितु पक्षे प्रकृतिभावमपीच्छतीति श्रीहेमचन्द्रसूर्युकेरव प्रकृतिभावसद्भावानापप्रयोगता। दीप अनुक्रम [८२] r arao, ~103~ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||८|| दीप अनुक्रम [८३] सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्का चार्यय चियुतं ॥ ५० ॥ “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [४], मूलं [८], निर्युक्तिः [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः Ja Eucation Internation - | शृगालो जायते यः सपुरीषो दद्यते" तस्मात् स्थावरजङ्गमानां स्वकृतकर्मवशात् परस्परसंक्रमणाद्यनिवारितमिति । तथा 'अनन्तो नित्यश्च लोकः' इति यदभिहितं तत्रेदमभिधीयते यदि खजात्यनुच्छेदेनास्य नित्यताऽभिधीयते ततः परिणामानित्यतमसदभीष्टमेवाभ्युपगतं न काचित्क्षतिः, अथाप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावत्वेन नित्यसमभ्युपगम्यते तन्न घटते, तस्याध्यक्षवाधितत्वात्, न हि क्षणभाविपर्यायानालिङ्गितं किञ्चिद्वस्तु प्रत्यक्षेणावसीयते, निष्पर्यायस्य च खपुष्पस्येवासद्रूपतैव स्यादिति । तथा शश्वद्भवनं कार्यद्रव्यस्याऽऽकाशात्मादेवाविनाशितं यदुच्यते द्रव्यविशेषापेक्षया तदप्यसदेव यतः सर्वमेव वस्तूत्पादव्ययधौच्ययुक्तवेन निर्विभागमेव प्रवर्तते, अन्यथा वियदरविन्दस्येव वस्तुलमेव हीयेतेति । तथा यदुक्तम्- 'अन्तवाँल्लोकः सप्तद्वीपावच्छिन्नत्वादि- ४ त्येतन्निरन्तराः सुहृदः प्रत्येष्यन्ति, न प्रेक्षापूर्वकारिणः, तद्ग्राहकप्रमाणाभावादिति । तथा यदप्युक्तम्- 'अपुत्रस्य न सन्ति लोका' इत्यादीत्येतदपि बालभाषितं तथाहि किं पुत्रसत्तामात्रेणैव विशिष्टलोकावाप्तिस्त तत्कृतविशिष्टानुष्ठानात् १, तद्यदि सत्तामात्रेण तत इन्द्रमहैकामुकगतवराहादिभिर्व्याप्ता लोका भवेयुः तेषां पुत्रबहुलसंभवात्, अथानुष्ठानमाश्रीयते, तत्र पुत्रद्वये सत्येकेन शोभनमनुष्ठितमपरेणाशोभनमिति तत्र का वार्त्ता १, स्वकृतानुष्ठानं च निष्फलमापद्येतेत्येवं यत्किञ्चिदेतदिति । तथा 'श्वानो यक्षा' इत्यादि युक्तिविरोधित्वादना कर्णनीयमिति । यदपि चोक्तम्- 'अपरिमाणं विजानातीति, तदपि न घटामियर्ति, यतः सत्यप्यपरिमितज्ञले यद्यसौ सर्वज्ञो न भवेद दतो हेयोपादेयोपदेशदान विकलला चैवासी प्रेक्षापूर्वकारिभिराद्रियेत, तथाहि तस्य कीटसंख्यापरिज्ञानमप्युपयोग्येव, यतो यथैतद्विषयेऽस्यापरिज्ञानमेवमन्यत्राप्या (पीत्या शङ्कया हेयोपादेये प्रेक्षापूर्वकारिणः प्रवृत्तिर्न १ अन्तरं हृदयं, विचारशून्या इति तात्पर्यम्। २ कुकुर इति निकाण्डशेषः। For Parts Only ~ 104~ १ समया० उद्देशः ४ लोकवाद - निरासः ॥ ५० ॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१] उद्देशक [४], मूलं [८], नियुक्ति: [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||८|| स्वात् , तसात्सर्वज्ञत्वमेष्टव्यं । तथा यदुक्तं-'स्वापपोधविभागेन परिमितं जानाती'त्येतदपि सर्वजनसमानले यत्किश्चिदिति । यदपि च कश्चिदुच्यते-यथा 'ब्रह्मणः खनावबोधयोलोकस्य प्रलयोदयौ भवत' इति, तदप्ययुक्तिसंगतमेव, प्रतिपादितं चैतत प्रागेवेति न प्रतन्यते । न चात्यन्तं सर्वजगत उत्पादविनाशी विद्यते 'न कदाचिदनीदृशं जगदिति वचनात् । तदेवमनन्तादिकं ! लोकवादं परिहत्य यथावस्थितवस्तुस्वभावाविर्भावनं पश्चार्द्धन दर्शयति-ये केचन त्रसाः स्थावरा वा तिष्ठन्त्यसिन् संसारे तेषां खकर्मपरिणत्याऽस्त्यसौ पर्यायः 'अंजू' इति प्रगुणोऽव्यभिचारी तेन पर्यायेण खकर्मपरिणतिजनितेन ते त्रसाः सन्तः स्थावराः संपद्यन्ते स्थावरा अपि च त्रससमभुवते तथा त्रसाखसखमेव स्थावराः स्थावरलमेवानुवन्ति, न पुनर्यो यादृगिह स ताडगेवामुत्रापि 8 भवतीत्ययं नियम इति ॥ ८॥ अस्मिन्नेवार्थे दृष्टान्ताभिधित्सयाह उरालं जगतो जोंग, विवज्जासं पलिंति य । सवे अकंतदुक्खा य, अओ सवे अहिंसिता ॥९॥ एयं खु नाणिणो सारं, जन्न हिंसइ किंचण । अहिंसासमयं चेव, एतावन्तं वियाणिया ॥ १०॥ 'उराल'मिति स्थूलमुदारं 'जगत' औदारिकजन्तुग्रामस्य 'योग' व्यापार चेष्टामवस्थाविशेषमित्यर्थः, औदारिकशरीरिणो , हि जन्तवः प्राक्तनादवस्थाविशेषाद्गर्भकललार्युदरूपाद् "विपर्यासभूतं बालकौमारयौवनादिकमुदारं योगं परि-समन्तादयन्तेगच्छन्ति पर्ययन्ते, एतदुक्तं भवति-औदारिकशरीरिणो हि मनुष्यादेर्वालकौमारादिकः कालादिकृतोऽवस्थाविशेषोऽन्यथा चान्यथा , च भवन् प्रत्यक्षेणैव लक्ष्यते, न पुनर्यादृक् प्राक् ताडगेव सर्वदेति, एवं सर्वेषां स्थावरजङ्गमानामन्यथाऽन्यथा च भवनं द्रष्टव्य मिति । cexcesteemedeococcestoes दीप अनुक्रम [८४] ~105~ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥१०॥ दीप अनुक्रम [८५] सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्काचाय चियुतं ॥ ५१ ॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [४] मूलं [१०], निर्युक्ति: [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः अपि च- 'सर्वे' जन्तव आक्रान्ता अभिभूता दुःखेन - शारीरमान सेना सातोदयेन दुःखाक्रान्ताः सन्तोऽन्यथावस्थाभाजो लभ्यन्ते, अतः सर्वेऽपि ते यथाहिंसिता भवन्ति तथा विधेयं । यदिवा- सर्वेऽपि जन्तवः 'अकान्तम्' अनभिमतं दुःखं येषां तेऽकान्त| दुःखाः चशब्दात् प्रियसुखाश्र, अतस्तान् सर्वान् न हिंस्यादित्यनेन चान्यथातदृष्टान्तो दर्शितो भवत्युपदेशञ्च दत्त इति ॥ ९ ॥ किमर्थं सच्चान् न हिंस्यादित्याह – खुरवधारणे, एतदेव 'ज्ञानिनो' विशिष्टविवेकवतः 'सारं' न्याय्यं यत् कञ्चन प्राणिजातं स्थावरं जङ्गमं वा 'न हिनस्ति' न परितापयति, उपलक्षणं चैतत् तेन न मृषा ब्रूयान्नादत्तं गृह्णीयान्नात्रह्माऽऽसेवेत न परिग्रहं परिगृह्णीयात्र नक्तं भुञ्जीतेत्येतज्ज्ञानिनः सारं यन्न कर्माश्रवेषु वर्तत इति । अपि च-अहिंसया समता अहिंसासमता तां चैतावद्विजानीयात् यथा मम मरणं दुःखं चात्रियमेवमन्यस्यापि प्राणिलोकस्येति, एवकारोऽवधारणे, इत्येवं साधुना ज्ञानवता प्राणिनां परितापनाऽपद्रावणादि न विधेयमेवेति ॥ १० ॥ एवं मूलगुणानभिधायेदानीमुत्तरगुणानभिधातुकाम आह सिए य विगयेगेही, आयाणं सं ( सम्म) रक्खएँ । चरिआसणसेज्जासु, भत्तपाणे अ अंतसों ॥ ११ ॥ एतेहिं तिहिं ठाणेहिं, संजए सततं मुणी । उक्कसं जलणं णूमं, मज्झत्थं च विचिए ॥ १२ ॥ समिए उ सया साहु, पंचसंवरसंवुडे । सिएहि असिए भिक्खू, आमोक्खाय परिवएजासि ॥१३॥त्तिबेमि॥ १ विनयगीय प्र० २ आयाणीयं सरक्लए चू० Ecatur International For Parts Only ~ 106~ १ समया० उद्देशः ४ लोकवाद - निरासः ॥ ५१ ॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [१३], नियुक्ति: [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१३|| दीप विविधम्-अनेकप्रकारमुषितः-स्थितो दशविधचक्रवालसामाचार्या व्युषितः, तथा विगता-अपगता आहारादौ गृद्धिर्यस्थासौ विगतगृद्धिः साधुः, एवंभूतवादीयते खीक्रियते प्राप्यते वा मोक्षो येन तदादानीयं-ज्ञानदर्शनचारित्रत्रयं तत्सम्यग रक्षयेद-अनुपालयेत्, यथा यथा तस्य वृद्धिर्भवति तथा तथा कुयोंदित्यर्थः । कथं पुनश्चारित्रादि पालितं भवतीति दर्शयति-'चर्यासन-॥ शय्यासु' चरणं चर्या-गमन, साधुना हि सति प्रयोजने युगमात्रदृष्टिना गन्तव्यं, तथा सुप्रत्युपेक्षिते सुप्रमार्जिते चासने उप| वेष्टर्य, तथा शय्यायां-वसतौ संस्तारके वा सुप्रत्युपेक्षितप्रमार्जिते स्थानादि विधेयं, तथा भक्ते पाने चान्तशः सम्यगुपयोग-15 |वता भाव्यम् , इदमुक्तं भवति-ईयाँभाषेषणादाननिक्षेपप्रतिष्ठापनासमितिघृपयुक्तेनान्तशो भक्तपानं यावदुगमादिदोषरहित-18 मन्वेषणीयमिति ।। ११ ॥ पुनरपि चारित्रशुद्धयर्थ गुणानधिकृत्याह-एतानि-अनन्तरोक्तानि त्रीणि स्थानानि, तद्यथा-र्या| समितिरित्येकं स्थानम् , आसन शय्येत्यनेनादानभाण्डमात्रनिक्षेपणासमितिरित्येतच द्वितीय स्थानं, भक्तपानमित्यनेनैषणासमितिरुपाता, भक्तपानार्थं च प्रविष्टस्य भाषणसंभवाद्भाषासमितिराक्षिप्ता, सति चाहारे उच्चारप्रश्रवणादीनां सद्भावात्प्रतिष्ठापनासमि-18 तिरप्यायातेत्येतच तृतीय स्थानमिति, अत एतेषु त्रिषु स्थानेषु सम्यग्यतः संयत आमोक्षाय परिव्रजेदित्युत्तरश्लोकान्ते क्रियेति ।। तथा 'सततम्' अनवरतम् 'मुनिः सम्यक यथावस्थितजगत्रयचेचा उत्कृष्यते आत्मा दर्पाध्मातो विधीयतेऽनेनेत्युस्कर्पो-मान, तथाऽऽत्मानं चारित्रं वा ज्यलयति-दहतीति ज्वलन:-क्रोधः, तथा 'णूम मिति गहनं मायेत्यर्थः, तस्सा अलब्धमध्यखादेवमभिधीयते, तथा आसंसारमसुमतां मध्ये-अन्तर्भवतीति मध्यस्थो-लोभः, चशब्दः समुच्चये, एतान् मानादींचतुरोऽपि कषायाँस्तद्विपाका eceaeeeeeeeseseseseseroesear अनुक्रम [८८] ~107~ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१३|| दीप अनुक्रम [८] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [४] मूलं [१३], निर्युक्ति: [३५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्का भिज्ञो मुनिः सदा 'विचिए 'ति विवेचयेद् - आत्मनः पृथकुर्यादित्यर्थः । ननु चान्यत्रागमे क्रोध आदानुपन्यस्यते, तथा क्षपकश्रेप्यामांरूढो भगवान् क्रोधादीनेव संज्वलनान् क्षपयति, तत् किमर्थमागमप्रसिद्धं क्रममुपादौ मानस्योपन्यास इति ?, अत्रोच्यते, चार्ययह माने सत्यवश्यंभावी क्रोधः क्रोधे तु मानः स्वाद्वा न बेत्यस्यार्थस्य प्रदर्शनायान्यथाक्रमकरणमिति ||१२|| तदेवं मूलगुणानुत्तरतियुतं ४ गुणाँवोपदर्थ्याधुना सर्वोपसंहारार्थमाह-तुरवधारणे, पञ्चभिः समितिभिः समित एव साधुः, तथा प्राणातिपातादिपञ्चमहात्र४] तोपेतखात्पञ्चप्रकार संवरसंवृतः, तथा मनोवाक्कायगुप्तिगुप्तः, तथा गृहपाशादिषु सिता - बद्धाः अवसक्ता गृहस्थास्तेष्वसितः -- अनवबद्धस्तेषु मूच्छमकुर्वाणः पङ्काधारपङ्कजवत्चत्कर्मणाऽदिद्यमानो भिक्षुः- भिक्षणशीलो भावभिक्षुः 'आमोक्षाय' अशेषकर्मापगमलक्षणमोक्षार्थं परि-समन्तात् बजेः- संयमानुष्ठानरतो भवेस्त्वमिति विनेयस्योपदेशः । इति अध्ययनसमाप्तौ ब्रवीमीति गणघर एवमाह, यथा तीर्थकृतोक्तं तथैवाहं ब्रवीमि न स्वमनीषिकयेति । गतोऽनुगमः, साम्प्रतं नयास्तेषामयमुपसंहार : “संवेसिंपि नयाणं बहुविघव सवयं निसामित्ता । तं सवणयविशुद्धं जं चरणगुणडिओ साहू ॥ १ ।। ।। १३ ।। ८८ ।। इति सूत्रकृताशे समयाख्यं प्रथमाध्ययनं समाप्तम् ॥ ॥ ५२ ॥ Internationa १ प्रकर्षः २ सर्वेषामपि नयानां बहुविधवन्यतां निशम्य तत्सर्वनय विशुद्धं वचरणगुण (किवाज्ञान ) स्थितः साधुः ॥ १ ॥ For Penal Praise Only अत्र प्रथम-श्रुतस्कंधस्य 'समय' आख्यम् प्रथम अध्ययन समाप्तम् ~108~ १ समया ० उद्देशः ४ मूलोत्तरगुणपालन ॥ ५२ ॥ www.andrary or Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [१३...], नियुक्ति: [३६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः । ॥ अथ द्वितीयाध्ययनस्य प्रथमोद्देशकः प्रारभ्यते ॥ प्रत सूत्रांक ||१३|| दीप उक्तं समयाख्यं प्रथममध्ययन, साम्प्रतं वैतालीयाख्यं द्वितीयमारभ्यते, अस्स चायमभिसंबन्धः-इहानन्तराध्ययने स्वसमय-18 गुणाः परसमयदोपाथ प्रतिपादिताः, तांध ज्ञात्वा यथा कर्म विदार्यते तथा बोधो विधेय इत्यनेन संबन्धेनाऽऽयातस्यास्वाध्ययन18 स्वोपक्रमादीनि चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भणनीयानि, तत्राप्युपक्रमान्तर्गतोऽधिकारो द्वेधा-अध्ययनार्थाधिकार उद्देशार्थाधिका कारच, तबाध्ययनार्थाधिकारः प्रागेव नियुक्तिकारेणाभाणि-'णाऊण बुज्झणा चेवे'त्यनेन गाथाद्वितीयपादेनेति, उद्देशार्थाधि-IN कारं तु स्वत एव नियुक्तिकार उत्तरत्र वक्ष्यति, नामनिष्पन्नं तु निक्षेपमधिकृत्य नियुक्तिकदाह यालियंमि वेयालगो य वेयालणं वियालणियं । तिनिवि चउक्तगाई बियालओ एस्थ पुण जीवो ॥३६॥ IRI तत्र प्राकृतशैल्या यालियमिति ‘ह विदारणे इत्यस्य धातोत्रिपूर्वस्य छान्दसखात् भावे पवुलप्रत्ययान्तरण विदारकमिति क्रिया-18|| वाचकमिदमध्ययनाभिधानमिति, सर्वत्र च क्रियायामेतत्रयं सन्निहितं, तद्यथा-कर्ता करणं कर्म चेति, अतस्तदर्शयति-विदारको विदारणं विदारणीयं च, तेषां त्रयाणामपि नामसापनाद्रव्यभावभेदाचतुर्दा निक्षेपेण त्रीणि चतुष्ककानि द्रष्टव्यानि, अत्र च नामस्थापने क्षुष्णे, द्रव्यविदारको यो हि द्रव्यं काष्ठादि विदारयति, भावविदारकस्तु कर्मणो विदार्यत्वात् नोआगमतो जीव-19 विशेषः, साधुरिति ॥ ३६ ।। करणमधिकृत्याऽऽह अनुक्रम [८८] अत्र दवितीयं 'वैतालीय' नामक अध्ययनं आरब्धं प्रथम एवं द्वितीय-अध्ययनस्य अभिसंबंधम्, वेयालीय शब्दस्य व्याख्या, ~109~ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [१३...], नियुक्ति: [३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१३|| दीप सूत्रकृताङ्गं दवं च परसुमादी दंसणणाणतवसंजमा भावे । दवं च दारुगादी भावे कम्मं वियालणियं ॥ ३७॥ रवैतालीशीलाङ्का 8 नामस्थापने क्षुण्णे द्रव्यविदारणं परवादि, भावविदारणं तु दर्शनज्ञानतपःसंयमाः, तेषामेव कर्मविदारणे सामर्थ्यमित्युक्तं या उद्देशा चाीय वैता० चियुतं भवति, विदारणीयं तु नामस्थापने अनादृत्य द्रव्यं दादि, भावे पुनरष्टप्रकार कर्मेति ॥ ३७॥ साम्प्रतं 'वेतालिय'मित्येतस्य निरुक्तं दर्शयितुमाह | निक्षपः ॥५३॥ | वेयालियं इह देसियंति वेयालियं तओ होइ । वेयालियं तहा वित्तमत्थि तेणेव य णिबद्धं ॥ ३८॥ इहाध्ययनेज्नेकधा कर्मणां विदारणमभिहितमितिकृदंतध्ययनं निरुक्तिवशाद्विदारकं ततो भवति, यदिवा-वैतालीयमित्य-18 ध्ययननाम, अत्रापि प्रवृत्ती निमित्तं-वैतालीयं छन्दोविशेषरूपं वृत्तमस्ति, तेनैव च वृत्चेन निषद्धमित्यध्ययनमपि वैतालीयं, तस्य चेदं लक्षणम् -चैतालीय लगनैधनाः षडयुक्पादेऽष्टौ समे च लः । न समोन परेण युज्यते नेतः पद च निरन्तरा युजोः । ॥१॥" ॥ ३८ ॥ साम्प्रतमध्ययनस्योपोद्घात दर्शयितुमाह| कामं तु सासयमिणं कहियं अट्ठावयंमि उसभेणं । अट्ठाणउतिसुयाणं सोऊण तेवि पब्वया ॥ ३९॥ ॥५३॥ RI कामशब्दोऽयमभ्युपगमे, तत्र यद्यपि सर्वोऽप्यागमः शाश्वतः तदन्तर्गतमध्ययनमपि तथापि भगवताऽऽदितीर्थाधिपेनोत्पन्न| १ ओजे षण्मात्रा गन्ता युज्यष्टी न युजि पर संततं ला न समः परेण गो वैतालीयम् (छन्दोऽनुशासने अ०३-५३) तद्वतालीय छन्दः यत्र रगणलधुगुरुप्रान्ताः प्रथमतृतीययोः पद द्विवीयचतुर्थबोरी मात्राः, अत्र समसंख्यको लघुर्न परेण गुरुः कार्यः, इतवाविषमपादयोः षट् ला निरन्तरा नेति बैतालीयाथः । eseroerceratiserseseselcerserseene अनुक्रम [८८] वेयालीय शब्दस्य व्याख्या, अध्ययनस्य उपोद्घात: ~110~ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [१], नियुक्ति: [४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१|| दिव्यज्ञानेनाष्टापदोपरिव्यवस्थितेन भरताधिपभरतेन चक्रवर्तिनोपहतैरष्टनवतिभिः पुत्रैः पृष्टेन यथा भरतोऽसानाज्ञां कारयत्यतः किमस्माभिर्विधेयमित्यतस्तेषामगारदाहकदृष्टान्तं प्रदर्य न कथश्चिजन्तोभोंगेच्छा निवर्तत इत्यर्थगर्भमिदमध्ययनं 'कथितं' प्रतिपा|दितं, तेऽप्येतच्छुला संसारासारतामवगम्य विषयाणां च कटुविपाकतां निःसारतां च ज्ञात्वा मत्तकरिकर्णवच्चपलमायुर्गिरिनदीवेगसमं यौवनमित्यतो भगवदाजैव श्रेयस्करीति तदन्तिके सर्वे प्रवज्यां गृहीतवन्त इति । अत्र 'उद्देसे निद्देसे य' इत्यादिः सर्वोऽप्युपोद्घातो भणनीयः ।। ३९ ।। साम्प्रतं उद्देशार्थाधिकार प्रागुल्लिखितं दर्शयितुमाह-- पढमे संबोहो अनिचया य बीमि माणवजणया । अहिगारो पुण भणिओतहा तहा बहविहो तत्थ ॥४॥ उद्देसंमि य तइए अन्नाणचियस्स अवचओ भणिओ। वजेयचो य सया सुहप्पमाओ जइजणेणं ॥ ४१ ।। | तत्र प्रथमोद्देशके हिताहितप्राप्तिपरिहारलक्षणो बोधो विधेयोऽनित्यता चेत्ययमर्थाधिकारः, द्वितीयोद्देशके मानो वर्जनीय इत्ययमर्थाधिकारः, पुनश्च तथा तथाऽनेकप्रकारो बहुविधं शब्दादावर्थेऽनित्यतादिप्रतिपादकोऽर्थाधिकारो भणित इति, तृतीयोदेशके अज्ञानोपचितस्य कर्मणोऽपचयरूपोर्धाधिकारो भणित इति यतिजनेन च सुखप्रमादो वर्जनीयः सदेति ॥४॥ साम्प्रतं सूत्रानुगमे अस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम् - संबुज्झह किं न बुज्झह?, संवोही खलु पेञ्च दुल्लहा।णो हूवणमंति राइओ,नों सुलभं पुणरावि जीवियं ॥१॥ १ यद्यपि शिक्षायति बचनात्पादन बीत्वमेकचनान्वितं तथापि प्रतिपुत्रं प्रश्नोत्तरपार्थक्यविवक्षयान बहुत्वं । क्षेत्रमैत्राभ्यामेकविक्षसी दत्तमितिवत् । दीप seeeeeeeeeeees अनुक्रम [८९] उद्देशानाम अर्थाधिकारः, द्वितीय-अध्ययनस्य प्रथम सूत्रस्य आरम्भ: ~111~ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥२॥ दीप अनुक्रम [९०] सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्का चार्ययवृ चियुतं ॥ ५४ ॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [१], मूलं [२], निर्युक्तिः [४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र - [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः | डहरा बुडा य पासह गब्भत्था वि चयंति माणवा सेणे जह वहयं हरे एवं आउखयंमि तुहई ॥२॥ तत्र भगवानादितीर्थकरो भरततिरस्कारा गतसंवेगान् स्वपुत्रानुद्दिश्येदमाह, यदिवा – सुरासुरनरोरगतिरथः समुदिश्य प्रोवाच यथा-'संबुध्यत्वं' यूयं ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणे धर्मे बोधं कुरुत यतः पुनरेवंभूतोऽवसरो दुरापः तथाहि मानुषं जन्म 8 तत्रापि कर्मभूमिः पुनरार्यदेशः सुकुलोत्पत्तिः सर्वेन्द्रियपाटवं श्रवणश्रद्धादिप्राप्तौ सत्यां स्वसंवित्यवष्टम्भेनाह' किं न बुध्यध्व' मिति, अवश्यमेवंविधसामग्र्यवाप्तौ सत्यां सकर्णेन तुच्छान् भोगान् परित्यज्य सद्धमें बोधो विधेय इति भावः, तथाहि "नि र्वाणादिसुखप्रदे नरभवे जैनेन्द्रधर्मान्विते, लब्धे खल्पमचारु कामजसुखं नो सेवितुं युज्यते । वैर्यादिमहोपलौघनिचिते प्राप्तेऽपि रत्नाकरे, लातुं स्वल्पमदीप्तिकाचशकलं किं साम्प्रतं साम्प्रतम् १ || १ ||" अकृतधर्मचरणानां तु प्राणिनां 'संबोधि:' सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रावाप्तिलक्षणा 'प्रेत्य' परलोकगतानां खलुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् सुदुर्लभव, तथाहि - विषयप्रमादवशात् सकृत् धर्मा-चरणाद् अष्टस्यानन्तमपि कालं संसारे पर्यटनमभिहितमिति । किंच-हुरित्यवधारणे, नैवातिक्रान्ता रात्रयः 'उपनमन्ति' पुनढौंकन्ते, न ह्यतिक्रान्तो यौवनादिकालः पुनरावर्त्तत इतिभावः, तथाहि "भवकोटीभिरसुलभं मानुष्यं प्राप्य कः प्रमादो मे ? । न च गतंमायुर्भूयः प्रत्येत्यपि देवराजस्य ॥ १ ॥" 'नो' नैव संसारे 'सुलभ' सुप्रापं संयमप्रधानं जीवितं यदिवा — जीवितम् - आयुखुटितं सत् तदेव संधातुं न शक्यत इति वृत्तार्थः । संबोधश्व प्रसुप्तस्य सतो भवति, स्वापश्च निद्रोदये, निद्रासंबोधयोश्च नामा| दिशतुर्द्धा निक्षेपः, तत्र नामस्थापने अनादृत्य द्रव्यभावनिक्षेपं प्रतिपादयितुं निर्युक्तिकृदाह Eucation International For Parts Only ~ 112 ~ २ बैतालीया० उद्देशः १ आयुषो नित्यता ॥ ५४ ॥ waryra Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [२], नियुक्ति: [४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः । प्रत सूत्रांक ||२|| दव्वं निदावेओ दसणनाणतवसंजमा भावे । अहिगारो पुण भणिओ नाणे तवदंसणचरित्ते ॥४२॥ इह च गाथायां द्रव्यनिद्राभावसंबोधव दर्शितः, तत्राधन्तग्रहणेन भावनिद्राद्रव्यबोधयोस्तदन्तर्वर्तिनोग्रहणं द्रष्टव्यं, तत्र द्वन्य-13 || निद्रा निद्रावेदो, वेदनमनुभवः दर्शनावरणीयविशेषोदय इतियावत् , भावनिद्रा तु ज्ञानदर्शनचारित्रशून्यता । तत्र द्रव्यबोधो| न्यनिद्रया सुप्तस्य बोधनं, भावे-भावविषये पुनर्बोधो दर्शनज्ञानचारित्रतपःसंयमा द्रष्टव्याः । इह च भावप्रबोधेनाधिकारः, II 10स च गाथापचार्द्धन सुगमेन प्रदर्शित इति । अत्र च निद्राचोधयोद्रव्यभावभेदाचत्वारो भक्का योजनीया इति ॥ ४२ ॥ १॥॥ | भगवानेव सर्वसंसारिणां सोपक्रमखादनियतमायुरुपदर्शयन्नाह---'डहराः' बाला एव केचन जीवितं त्यजन्ति, तथा प्रदाच|6 | गर्भसा अपि, एतत्पश्यत यूयं, के ते–'मानवा' मनुष्याः, तेषामेवोपदेशदानाईत्वात् मानवग्रहणं, बहपायत्वादायुषः सा खप्यवस्थासु प्राणी प्राणांस्त्यजतीत्युक्तं भवति, तथाहि-त्रिपल्योपमायुष्कस्यापि पर्याप्यनन्तरमन्तहर्तेनैव कस्यचिन्मृत्युरुपतिष्ठ-1181 | तीति, अपि च--"गर्भसं जायमान" मित्यादि । अत्रैव दृष्टान्तमाह-यथा 'इयेना' पक्षिविशेषो 'वर्सकं' तित्तिरजातीयं 'हरेत् || व्यापादयेद्, एवं प्राणिनः प्राणान् मृत्युरपहरेद, उपक्रमकारणमायुष्कमुपक्रामेत् , तदभावे वा आयुष्यक्षये 'व्यति' व्यवछियते जीवानां जीवितमिति शेषः ॥२॥ तथा|| मायाहिं पियाहि लुप्पइ, नो सुलहा सुगई य पेच्चओ। एयाई भयाई पेहिया, आरम्भा विरमेज सुबए ॥३॥ जमिणं जगती पुढो जगा, कम्मेहिं लुप्पंति पाणिणो।सयमेव कडेहिं गाहइ,णोत्तस्स मुच्चेजऽपुट्टयं ॥४॥ ఎలాంట दीप अनुक्रम [९०] ere ~113~ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [४], नियुक्ति: [४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||४|| चियत दीप अनुक्रम [९२] सूत्रकृताङ्ग कविन्मातापितृभ्यां मोहेन खजनस्नेहेन च न धर्म प्रत्युद्यम विधत्ते स च तैरेव मातापित्रादिभिः 'लुप्यते' संसारे भ्राम्यते ॥४॥ शीलाका- 18| तथाहि-"विहितमलोहमहो महन्मातापितपुत्रदारबन्धुसंज्ञम् । स्नेहमयमसुमतामदः किं बन्धनं शृङ्गल खलेन धात्रा ॥१॥18॥ याध्य चायित्- तस्य च स्नेहाकुलितमानसख सदसद्विवेकविकलय खजनपोषणार्थ यत्किञ्चनकारिण इहैव सद्भिर्निन्दितस सुगतिरपि 'प्रेत्या उद्देश: 18 जन्मान्तरे नो सुलभा, अपि तु मातापितॄच्यामोहितमनसस्तदर्थे क्लिश्यतो विषयसुखेप्सोब दुर्गतिरेव भवतीत्युक्तं भवति, तदेवमे-| तानि 'भयानि' भयकारणानि दुर्गतिगमनादीनि 'पेहिय'त्ति प्रेक्ष्य 'आरम्भात्' सावधानुष्ठानरूपाद्विरमेत् 'सुव्रत' शोभनवतः सन् , सुस्थितो वेति पाठान्तरम् ॥३॥ अनिवृत्तस्य दोषमाह-'यद्'. यसादनिवृत्तानामिदं भवति, किं तत् -'जगति' । पृथिव्यां 'पुढोति पृथग्भूता-व्यवस्थिताः सावधानुष्ठानोपचितैः 'कर्मभिः' 'विलुप्यन्ते नरकादिषु यातनास्थानेषु भ्रा-1 म्यन्ते, स्वयमेव च कृतैः कर्मभिः, न ईश्वराधापादितः, गाहते नरकादिस्थानानि यानि तानि वा कर्माणि दुःखहेतूनि गाह-18 ते-उपचिनोति, अनेन च हेतुहेतुमद्भावः कर्मणामुपदर्शितो भवति, न च तस्य' अशुभाचरितस्य कर्मणो विपाकेन 'अस्पृष्ट' | अच्छुसो 'मुच्यते' जन्तु, कर्मणामुदयमननुभूय तपोविशेषमन्तरेण दीक्षाप्रवे शादिना न तदपगर्म विधत्त इति भावः ॥४॥ अधुना सर्वस्थानानित्यतां दर्शयितुमाह देवा गंधवरक्खसा,असुरा भूमिचरा सरिसिवा। राया नरसेछिमाहणा, ठाणा तेऽवि चयंति दुक्खिया ॥५॥ 18 कामेहिण संथवेहि गिम्दा, कम्मसहा कालेण जंतवो। ताले जह बंधणचुए, एवं आउखयंमि तुती ॥६॥ ART 1 कामे हि व संभले हि य इति पु०, छन्दोऽनुलोमता चात्र, नवर टीकानिः गळा इत्येतद् व्याख्यातं, पर यन्तिा औपच्छन्यसकम्' इति लक्षणं संगच्छते इति cesedesesesesee ॥५५॥ ~114~ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६], नियुक्ति: [४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||६|| देवा-ज्योतिष्कसौधर्माद्याः, गन्धर्वराक्षसयोरुपलक्षणखादष्टप्रकारा व्यन्तरा गृह्यन्ते, तथा 'असुरा' दशप्रकारा भवनपतयः, ये चान्ये भूमिचराः सरीमपाद्याः तियेचा, तथा 'राजानः' चक्रवर्तिनो बलदेवबासुदेवप्रभृतयः, तथा 'नरा: सामान्यमनुष्याः 'श्रेष्ठिनः' पुरमहत्तराः ब्राह्मणाचते सर्वेऽपि खकीयानि स्थानानि दुःखिताः सन्तस्त्यजन्ति, यतः--सर्वेषामपि प्राणिनां प्राणपरित्यागे महहःखं समुत्पद्यत इति ॥ ५॥ किन-'कामहि' इत्यादि, 'कामैः' इच्छामदनरूपैस्तथा 'संस्तवैः' पूर्वापरभूतैः । |'गृद्धा' अध्युपपन्नाः सन्तः 'कम्मसह'त्ति कर्मविपाकसहिष्णव: 'कालेन' कर्मविपाककालेन 'जन्तवः' प्राणिनो भवन्ति, इदमुक्तं भवति-भोगेप्सोर्विषयाऽऽसेवनेन तदुपशममिच्छत इहामुत्र च क्लेश एव केवलं, न पुनरुपशमावाप्तिः, तथाहि"उपभोगोपायपरो वाञ्छति यः शमयितुं विषयतृष्णाम् । धावत्याक्रमितुमसौ पुरोऽपराहे निजच्छायाम् ॥१॥" नच तस्य मुमूर्षोः कामैः संस्तवैव त्राणमस्तीति दर्शयति-यथा तालफलं 'बन्धनात्' पृन्तात् च्युतम् अत्राणमवश्यं पतति, एवमसावपि 18 खायुषः क्षये 'त्रुव्यति' जीवितात् च्यवत इति ॥६॥ अपिचजे यावि बहुस्सुए सिया,धम्मिय माहणभिक्खुए सियाअभिणूमकडे हिं मुच्छिए,तिवं ते कम्मेहिं किच्चती अह पास विवेगमुट्ठिए,अवितिन्ने इह भासई धुवं । णाहिसि आरं कओ परं, वेहासे कम्मेहिं किञ्चती ॥८॥ eaestaesesesesesesesesesesecen दीप अनुक्रम [९४) न क्षतिः, तथापि वैतालीयप्रकरणगतत्वान प्राक्पतिज्ञा विरोषः, एवमन्यत्रापि विकल्पसमाहतेः सर्वजातियांकाभ्युपगमे च नाचपावमात्रस्य तथाले वतिः ~115~ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [८], नियुक्ति: [४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत शीलाङ्काचाय त्तियुत ॥५६॥ | उद्देशः१ सूत्रांक ||८|| दीप ये चापि 'बहुश्रुताः शाखार्थपारगाः तथा 'धार्मिका धर्माचरणशीलाः, तथा ब्रामणाः तथा 'भिक्षुका भिक्षाटनशीला:18ोली 'स्युः' भवेयुः, तेऽप्याभिमुख्येन. ''मन्ति कर्म माया वा तस्कृतैः असदनुष्ठानैः 'मूञ्छिता गृद्धाः 'तीनम्' अत्यर्थ, अत्र 8 याध्य च छान्दसखाबहुवचनं द्रष्टव्यं, 'ते' एवंभूताः 'कर्मभिः सवेद्यादिभिः 'कृत्यन्ते' छिद्यन्ते पीडबन्त इतियावत् ।। ७॥ साम्प्रतं ज्ञानदर्शनचारित्रमन्तरेण नापरो मोक्षमागोऽस्तीतित्रिकालविषयखात् सूत्रस्थाऽऽगामितीर्थिकधर्मप्रतिषेधार्थमाह-'अथे'त्यधिकारा-1 न्तरे बडादेशे एकादेश इति, 'अथे'त्यनन्तरं एतच्च 'पश्य' कश्चित्तीथिको 'विवेक' परित्यागं परिग्रहस्य परिक्षानं वा संसार-18 स्थाऽश्रित्य उत्थितः प्रव्रज्योत्थानेन, स च सम्पपरिज्ञानाभावादवितीर्णः संसारसमुद्रं तितीर्घः, केवलम् 'इह' संसारे | | प्रस्तावे वा शाश्वतत्वात् 'धुवो' मोक्षस्तं तदुपायं वा संयम भाषत एच न पुनर्विधत्ते तत्परिज्ञानाभावादिति भावः, तन्मार्गे || | प्रपन्नस्त्वमपि कथं ज्ञास्यसि 'आरम्' इहभवं कुतो वा 'परं' परलोकं यदिवा-आरमिति गृहस्थलं, परमिति प्रव्रज्यापर्यायं, | अथवा-आरमिति संसारं परमिति मोक्षं, एवम्भूतश्चान्योऽप्युभयभ्रष्टः, 'वहासित्ति अन्तराले उभयाभावतः खकृतैः कर्मभिः 'कृत्यते' पीब्यत इति ॥ ८॥ ननु च तीथिका अपि केचन निष्परिग्रहास्तथा तपसा निष्टप्तदेहाच, तत्कथं तेषां नो मोक्षावा-18 प्तिरित्येतदाशझ्याह ॥५६॥ जइ वि य णिगणे किसे चरे,जइविय भुंजिय मासमंतसो।जे इह मायाइ मिजई,आगंता गब्भाय गंतसो हा पुरिसोरम पावकम्मुणा,पलियंत मणुयाण जीवियं सन्ना इह काममुच्छिया,मोहं जंति नरा असंवुडा १० अनुक्रम [९६] ~116~ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [१०], नियुक्ति: [४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१०|| दीप अनुक्रम [९८] यद्यपि तीर्थिकः कवितापसादिस्त्यक्तबाह्यगृहवासादिपरिग्रहत्वात् निष्किञ्चनतया नग्नः बक्त्राणाभावाश्च कृशः 'चरेत्' स्व-11 कीयप्रव्रज्यानष्ठानं कुर्यात् , यद्यपि च पठाष्टमदशमद्वादशादितपो विशेष विधत्ते यावद् अन्तशो मासं स्थिखा 'भु. तथापि आन्तरकषायापरित्यागान मुच्यते इति दर्शयति-'या' तीर्थिक इह मायादिना मीयते, उपलक्षणार्थत्वात् कषायैर्युक्त इत्येवं परिच्छिद्यते, असौ 'गर्भाय' गर्भार्थमा-समन्तात् 'गन्ता' यास्यति 'अनन्तशो निरवधिक कालमिति, एतदुक्तं भवति–अकिश्वनोऽपि तपोनिष्टतदेहोऽपि कषायापरित्यागान्नरकादिस्थानात् तिर्यगादिस्थानं गर्भादर्भमनन्तमपि कालमग्निशर्मवत् संसारे| पर्यटनीति ॥ ९॥ यतो मिथ्यादृष्ट्युपदिष्टतपसाऽपि न दुर्गतिमार्गनिरोधो अतो मदुक्त एव मार्गे स्थेयमेतद्गर्भमुपदेशं दातुमाह'पुरिसो' इत्यादि, हे पुरुष ! येन 'पापेन कर्मणा' असदनुष्ठानरूपेण समुपलक्षितस्तत्रासकृत् प्रवृत्तवात् तस्मात् 'उपरम' निवर्त्तख, यतः पुरुषाणां जीवितं सुबहपि त्रिपल्योपमान्तं संयमजीवितं वा पल्योपमस्यान्तः-मध्ये वर्तते तदप्यूनां पूर्वकोटिमितियावत् , अथवा परि-समन्तात् अन्तोऽखेति पर्यन्तं-सान्तमित्यर्थः, यश्चैवं तद्गतमेवावगन्तव्यं, तदेवं मनुष्याणां स्तोकं जीवि| तमवगम्य यावचन्न पर्येति तावद्धर्मानुष्ठानेन सफलं कर्त्तव्यं, ये पुनर्भोगस्वेहपके अवसन्ना-मना 'इह' मनुष्यभवे संसारे वा| कामेषु-इच्छामदनरूपेषु 'मूञ्छिता' अध्युपपन्नाः ते नरा मोहं यान्ति-हिताहितप्राप्तिपरिहारे मुह्यन्ति, मोहनीय वा कर्म || चिन्वन्तीति संभाव्यते, एतदसंवृताना--हिंसादिस्थानेभ्योऽनिवृत्चानामसंयतेन्द्रियाणां चेति ॥ १० ॥ एवं च स्थिते यद्विधेयं । 19 वद्दर्शयितुमाह eeeeeeeeeeeeeee coercedeserseases Secterseksec AREauratonintimational ~117~ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [११], नियुक्ति: [४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||११|| दीप स्त्रकृतानंजययं विहराहि जोगवं, अणुपाणा पंथा दुरुत्तरा। अणुसासणमेव पक्कमे, वीरोहिं संमं पवेइयं ॥११॥ २ वैतालीशीलाविरया वीरा समुट्टिया, कोहकायरियाइपीसणा।पाणे ण हणंति सबसो, पावाओ विरयाऽभिनिव्वुडा १२६ याध्य चायव उद्देशः१ त्तियुत 18|| स्वल्पं जीवितमवगम्य विषयांध क्लेशपायानवबुख्य छिच्चा गृहपाशवन्धनं 'यतमानः' यनं कुर्वन् प्राणिनामनुपरोधेन 'विहर। ॥५७॥ 18|| उयुक्तविहारी भव, एतदेव दर्शयति–'योगवानिति संयमयोगवान् गुप्तिसमितिगुप्त इत्यर्थः, किमित्येवं ?, यतः 'अणवः मक्ष्माः प्राणा:-प्राणिनो येषु पथिषु ते तथा ते चैवम्भूताः पन्थानोऽनुपयुक्तैर्जीवानुपमर्दैन 'दुस्तरा' दुर्गमा इति, अनेन ईयर्यासमितिरुपक्षिप्ता, अस्थाश्चोपलक्षणार्थवाद अन्याखपि समितिषु सततोपयुक्तेन भवितव्यम् , अपिच 'अनुशासनमेव' यथा- गममेव सूत्रानुसारेण संयमं प्रति कामेत् , एतच्च सर्वेरेव 'वीरैः' अर्हद्भिः सम्यक् 'प्रवेदितं' प्रकर्षणाख्यातमिति ॥ ११॥ अथ | क एते वीरा इत्याह–'विरया' इत्यादि, हिंसाऽनृतादिपापेभ्यो ये विरताः, विशेषेण कर्म प्रेरयन्तीति वीराः, सम्पगारम्भपरित्यागेनोस्थिताः समुत्थिताः, ते एवम्भूताच 'क्रोधकातरिकादिपीषणाः तत्र क्रोधग्रहणान्मानो गृहीतः, कातरिका-माया | तद्ग्रहणालोभो गृहीतः, आदिग्रहणात् शेषमोहनीयपरिग्रहः, तत्पीपणा:-तदपनेतारः, तथा 'प्राणिनों' जीवान् सूक्ष्मेतरभेदभिबान् 'सर्वशो' मनोवाकायकर्मभिः 'न अन्ति' न व्यापादयन्ति, 'पापाच' सर्वतः साक्यानुष्ठानरूपाद्विरताः-नित्तास्ततश्च ॥५७॥ | 'अभिनिवृत्ताः' क्रोधाद्युपशमेन शान्तीभूताः, यदिवाभिनिर्वृत्ता इव अभिनिर्वृत्ताः-मुक्ता इव द्रष्टव्या इति ॥ १२॥ पुनरप्युपदेशान्तरमाह skseseseatsectstosaecse अनुक्रम [९९] Receaerse ~118~ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [१३], नियुक्ति: [४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१३|| णविता अहमेव लुप्पए, लुप्पती लोअंसि पाणिणो। एवं सहिएहिं पासए, अणिहे से पुटे अहियासए १३|| धुणिया कुलियंव लेववं,किसए देहमणासणा इह ।अविहिंसामेव पवए, अणुधम्मो मुणिणा पवेदितो १४ 18 18| परीषहोपसर्गा एतद्भावनापरेण सोढव्याः, नाहमेवैकस्तावदिह शीतोष्णादिदुःखविशेषैः 'लुप्ये' पीव्ये अपि खन्येऽपि प्राणि18न' तथाविधास्तिर्यङ्मनुष्याः अखिल्लोके 'लुप्यन्ते' अतिदुःसहैदुःखैः परिताप्यन्ते, तेषां च सम्यग्विवेकाभावान्न निर्जराख्यफ लमस्ति, यतः-'क्षान्तं न क्षमया गृहोचितसुखं त्यक्तं न संतोषता, सोडा दुःसहतापशीतपवनक्लेशा न तप्तं तपः । ध्यातं विचम-16 हर्निशं नियमित द्वन्द्व तच परं, तत्तत्कर्म कृतं सुखार्थिभिरहो तेस्तैः फलैर्वञ्चिताः ॥१॥ तदेवं लेशादिसहन सद्विवेकिनां 18 | संयमाभ्युपगमे सति गुणायैवेति, तथाहि-कार्य क्षुत्प्रभवं कदनमशनं शीतोष्णयोः पात्रता, पारुष्यं च शिरोरुहेषु शयन मशास्तले केवले । एतान्येव गृहे वहन्त्यवनति तान्युन्नति संयमे, दोषाशापि गुणा भवन्ति हि नृणां योग्ये पदे योजिताः ॥शा एवं सहितो ज्ञानादिभिः स्वहितो वा आत्महितः सन् 'पश्येत्' कुशाग्रीयया बुद्ध्या पर्यालोचयेदनन्तरोदित, तथा निहन्यत इति है निहः न निहोउनिहा-क्रोधादिभिरपीडितः सन् स महासत्वः परीषहै। स्पृष्टोऽपि तान् 'अधिसहेत' मनःपीडां न विदध्यादिति, यदिवा 'अनिह' इति तपःसंयमे परीषहसहने वानिहितबलबीर्यः, शेषं पूर्ववदिति ॥ १३ ॥ अपिच 'धुणिया' १ अधिक पृथग्जनान् पश्यतीति चू. दीप अनुक्रम [१०१] ~119~ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [१४], नियुक्ति: [४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: सूत्रकृताङ्ग शीलाका- पापीय- चियुत प्रत सूत्रांक ||१४|| 4.A उदयः दीप इत्यादि, 'धूत्वा' विधूय 'कुलिय' कडणकृतं कुष्यं 'लेपवत्' सलेप, अयमत्रार्थः-यथा कुड्यं गोमयादिलेपेन सलेप जाध-81२ वैतालीयमानं लेपापगमात् कृशं भवति, एवम् अनशनादिभिर्देहं 'कर्शयेत्' अपचितांसशोणितं विदध्यात्, तदपचयाच कर्मणोऽपचयो भवतीति भावः, तथा विविधा हिंसा विहिंसा न विहिंसा अविहिंसा तामेव प्रकर्षण बजेत्, अहिंसाप्रधानो भवेदित्यर्थः | अनुगतो-मोक्षं प्रत्यनुकूलो धर्मोऽनुधर्मः असावहिंसालक्षणः, परीपहोपसर्गसहनलक्षणश्च धर्मों 'मुनिना' सर्वशेन 'प्रवेदितः। कथित इति ॥ १४ ॥ किञ्चसउणी जह पंसुगुंडिया,विहुणिय धंसयई सियं रय। एवं दविओवहाणवं,कम्मं खवह तवस्सिमाहणे॥१५॥ | उट्ठियमणगारमेसणं, समणं ठाणठिअंतवस्सिणं । डहरा वुड्डा य पत्थए,अवि सुस्सेण यतं लभेज णो१६ | 'शकुनिका' पक्षिणी यथा 'पांसुना' रजसा 'अवगुण्ठिता' खचिता सती अङ्ग 'विधूय' कम्पयित्वा तद्रजः 'सितम्' 8 8 अक्बद्धं सत् 'ध्वंसयति' अपनयति, एवं 'द्रव्यो' भथ्यो मुक्तिगमनयोग्यो मोक्षं प्रत्युप-सामीप्येन दधातीति उपधानम् अनशनादिकं तपः तदस्खास्तीत्युपधानवान् , स चैवम्भूतः 'कर्म ज्ञानावरणादिकं 'क्षपयति' अपनयति, 'तपस्वी' साधुः 'माहणति मा वधीरिति प्रवृत्तिर्यस्य स प्राकृतशैल्या माहणेत्युच्यत इति ॥१५॥ अनुकूलोपसर्गमाह-'उहिये'त्यादि, अगार ॥५॥ गृहं तदस नास्तीत्यनगारा तमेवम्भूतं संयमोत्थानेनैषणां प्रत्पुत्थित-प्रवृत्त, श्राम्यतीति श्रमणरतं, तथा 'स्थानस्थितम्' उत्त-। रोत्तरविशिष्टसंयमस्थानाध्यासिनं 'तपखिनं विशिष्टतपोनिष्टसदेहं तमेवम्भूतमपि कदाचित् 'डहरा' पुत्रनप्त्रादयः 'वृद्धाः पि अनुक्रम [१०२] ~120 ~ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [१६], नियुक्ति: [४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: Recen प्रत सूत्रांक ||१६|| तमातुलादयः उनिष्कामयितुं 'प्रार्थयेयुः' याचेरन् , त एवमूचुः-भवता वयं प्रतिपाल्या न खामन्तरेणास्माकं कश्चिदस्ति वं|ST वाऽस्माकम् एक एव प्रतिपाल्पः, (इति) भणन्तस्ते जना अपि 'शुष्येयुः श्रमं गच्छेयुः, न च तं साधू विदितपरमार्थे 'लभेरन् । नैवाऽऽत्मसात्कुर्युः-नैवाऽऽत्मवशर्म विदध्युरिति ॥ १६ ॥ किश्चIS जइ कालुणियाणि कासिया,जइ रोयंति य पुत्तकारणा।दवियं भिक्खू समुट्रियं,णो लब्भंति ण संठवित्तए १७ जइविय कामेहि लाविया,जइणेज्जाहिण बंधिउंघराजइ जीविय नावकंखए,णोलभंति ण संठवित्तए१८|| यद्यपि ते मातापितपुत्रकलत्रादयस्तदन्तिके समेत्य करुणाप्रधानानि-विलापप्रायाणि चांस्यनुष्ठानानि वा कुर्युः, तथाहि-8 "णाहपियकंतसामिय अबल्लह दुल्लहोऽसि भुवर्णमि । तुह विरहम्मि य निकिव ! सुण्णं सर्वपि पडिहाइ ॥१॥ सेणी गामो गोही गणो व तं जत्थ होसि संणिहितो । दिप्पइ सिरिए सुपुरिस! किं पुण निययं घरदारं? " तथा यदि 'रोयंति यति रुदन्ति 'पुत्रकारणं' सुतनिमित्तं, कुलवर्धनमेकं सुतमुत्पाद्य पुनरेवं कर्तुमर्हसीति । एवं रुदन्तो यदि भणन्ति तं भिक्षु रागद्वेषरहितत्वान्मुक्तियोग्यत्वाद्वा द्रव्यभूतं सम्यक्संयमोत्थानेनोत्थितं तथापि साधु 'न लप्स्यन्ते' न शक्नुवन्ति प्रवज्यातो भ्रंशयितुं 18 भावाच्यावयितुं नापि संस्थापयितु-गृहस्थभावेन द्रव्यलिङ्गाक्यावयितुमिति ॥ १७॥ अपिच-'जइवि' इत्यादि, यद्यपि ते नाथ कान्त प्रिय खागिन् अतिवनम दुर्लभोऽसि भवने । तब विरहे च निष्कप |, शून्यं सर्वमपि प्रतिभाति ॥ १॥ श्रेणियामो गोष्टी मणो का त्वं यत्र भवसि सविहितः । दीप्यते त्रिया सुपुरुष 1 किं पुनर्निगं राहद्वारम् ॥२॥ cिeedeseeeeeesesesesen दीप अनुक्रम [१०४] ~121~ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [१८], नियुक्ति: [४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१८|| दीप अनुक्रम [१०६] सूत्रकृताङ्ग निजास्तं साधु संयमोत्थानेनोत्थितं 'कामः' इच्छामदनरूपैः 'लावयन्ति' उपनिमन्त्रयेयुरुपलोभयेयुरित्यर्थः, अनेनानुकूलोपस- वैतालीशीलाकाचायीय ग्रहणं, तथा यदि नयेयुर्बध्ध्वा गृहं, णमिति वाक्यालङ्कारे । एवमनुकूलप्रतिकूलोपसगैरभिद्रुतोऽपि साधुः–'यदि जीवितं । याध्य चियुतं ॥ लनाभिका त्' यदि जीविताभिलाषी न भवेत् असंयमजीवितं वा नाभिनन्देव ततस्ते निजास्तं साधु 'णो लम्भंति'ति न| उद्देशः १ भन्ते-न प्राप्नुवन्ति आत्मसात्कर्तुं 'ण संठवित्तएति नापि गृहस्थभावेन संस्थापयितुमलमिति ।। १८ ।। किञ्च॥५९॥ | सेहति यणं ममाइणो,माय पिया य सुया य भारियापोसाहिण पासओ तुम,लोग परंपि जहासि पोसणो अन्ने अन्नेहिं मुच्छिया,मोह जति णरा असंवुडा।विसमं विसमेहिं गाहिया, ते पावेहिं पुणो पगब्भिया २०॥ ते कदाचिन्मातापित्रादयस्तमभिनवप्रवजित 'सेहंति'त्ति शिक्षयन्ति 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे 'ममाइणोति ममायमित्येवं स्नेहालवः, कथं शिक्षयन्तीत्यत आह-पश्य 'नः' असानत्यन्तदुःखितास्तदर्थ पोषकाभावाद्वा, सं च यथावस्थितार्थपश्यक:सूक्ष्मदर्शी, सश्रुतिक इत्यर्थः, अतः 'न: असान् 'पोषय प्रतिजागरणं कुरु अन्यथा प्रवज्याऽभ्युपगमेनेहलोकस्त्यक्तो भवता अस्मत्प्रतिपालनपरित्यागेन च परलोकमपि सं त्यजसि इति दुःखितनिजप्रतिपालनेन च पुण्यावाप्तिरेवेति, तथाहि-'या गतिः क्लेशदग्धानां, गृहेषु गृहमेधिनाम् । विभ्रतां पुत्रदारांस्तु, तां गतिं ब्रज पुत्रक! || १॥" ॥ १९ ॥ एवं तैरुपसर्गिताः केचन १ लाविया उवनिमंतणा चू ~122~ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [२०], नियुक्ति: [४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२०|| | कातराः कदाचिदेतत्कुयुरित्याह-'अन्ने' इत्यादि, 'अन्ये' केचनाल्पसत्त्वाः 'अन्य' मातापित्रादिभिः 'मूञ्छिता अध्युपपन्नाः | सम्यग्दर्शनादिव्यतिरेकेण सकलमपि शरीरादिकमन्यदित्यन्यग्रहणं, ते एवम्भूताः असंवृता नराः 'मोहं यान्ति' सदनुष्ठाने मुख|न्ति, तथा संसारगमनैकहेतुभूतखात् 'विषमः' असंयमस्तं 'चिवमैः' असंयतैरुन्मार्गप्रवृत्तखेनापायाभीरुभिः रागद्वेषैर्वा अनादिभवाभ्यस्ततया दुइच्छेद्यलेन विषमैः ग्राहिता-असंयम प्रति वर्तिताः, ते चैवम्भूताः 'पापैः कर्मभिः पुनरपि प्रवृचाः 'प्रगल्भिताः' धृष्टतां गताः पापर्क कर्म कुर्वन्तोऽपि न लज्जन्त इति ॥ २०॥ यत एवं ततः किं कर्तध्यमित्याहतिम्हा दवि इक्ख पंडिए, पावाओ विरतेऽभिणिबुडे। पणए वीरं महाविहि, सिद्धिपहं णेआउयं धुर्व ॥ २१॥ वेयालियमग्गमागओ, मणवयसाकायेण संवुडो। चिच्चा वित्तं च णायओ, आरंभं च सुसंवुडे चरे ॥२२॥ त्तिबेमि इति वैतालीयाध्ययनस्य प्रथमोद्देशकः (गाथाप्रम् १२०) यतो मातापित्रादिमूछिताः पापेषु कर्मसु प्रगल्भा भवन्ति तस्माद् द्रव्यभूतो भन्यः मुक्तिगमनयोग्यः रागद्वेषरहितो वा सन् 'ईक्षख' तद्विपाकं पर्यालोचय 'पण्डितः' सद्विवेकयुक्तः 'पापात्' कर्मणोऽसदनुष्ठानरूपात् 'बिरतः' निवृत्तः क्रोधादिपरि-18 | त्यागाच्छान्तीभूत इत्यर्थः तथा 'प्रणता' प्रहीभूताः 'वीरा' कर्मविदारणसमर्थाः 'महावीर्थि' महामार्ग, तमेव विशिनष्टि'सिद्धिपर्थ ज्ञानादिमोक्षमार्ग तथा मोक्षं प्रति 'नेता' प्रापकं 'ध्रुवम्' अव्यभिचारिणमित्येतदवगम्य स एव मार्गोऽनुष्ठेयः, नासदनुष्ठानप्रगल्भर्भाव्यमिति ॥ २१ ॥ पुनरप्युपदेशदानपूर्वकमुपसंहरनाह-'वेयालियमग्ग' इत्यादि, कर्मणां विदारणमार्ग दीप अनुक्रम [१०८] ~123~ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम [११०] सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्का चायतियुतं ॥६०॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [१], मूलं [२२], निर्युक्तिः [४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः मागतो भूखा तं तथाभूतं मनोवाक्कायसंवृतः पुनः 'त्यक्त्वा' परित्यज्य 'वित्तं' द्रव्यं तथा 'ज्ञातींश्व' खजनांथ तथा साव| द्यारम्भं च सुष्ठु संवृत इन्द्रियैः संयमानुष्ठानं चरेदिति ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ २२ ॥ इति वैतालीयद्वितीयाध्ययनस्य प्रथमोदेशकः समाप्तः ॥ अथ द्वितीयाध्ययने द्वितीय उद्देशकः प्रारभ्यते ॥ प्रथमानन्तरं द्वितीयः समारभ्यते-अस्सं चायमभिसंबन्धः, इहानन्तरोदेशके भगवता स्वपुत्राणां धर्मदेशनाऽभिहिता, तदिहापि सैवाध्ययनार्थाधिकारत्वात् अभिधीयते, सूत्रस्य सूत्रेण सह संबन्धोऽयम् - अनन्तरोक्तसूत्रे वाह्यद्रव्यखजनारम्भपरित्यागोऽभिहितः, तदिहाप्यान्तरमानपरित्याग उद्देशार्थाधिकारसूचितोऽभिधीयते, तदनेन संबन्धेनायातस्यास्योदेशकस्यादिसूत्र-तयसं व जहाइ से रयं इति संखाय मुणी ण मज्जई। गोयन्नतरेण माहणे, अहसेयकरी अनेसी इंखिणी १ जो परिभवइ परं जणं, संसारे परिवत्तई मेहं । अदु इंखिणिया उपाविया, इति संखाय मुणी ण भज्जई ॥२॥ १] सि. २ चिरं पा Education Internation अत्र द्वितीय अध्ययनस्य द्वितीय उद्देशकस्य आरम्भः For Parka Lise Only ~ 124~ २ चैतालीयाध्य० उद्देशः २ ॥ ६० ॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [२], नियुक्ति: [४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२|| 2998 दीप यथा उरगः खां सर्च अवश्य परित्यामाहवात् 'जहाति' परित्यजति, एवमसावपि साधुः रज इव रजा-अष्टप्रकार कर्म तदकषायिलेन परित्यजतीति, एवं कपायाभावो हि कर्माभावस कारणमिति 'संख्याय' ज्ञाला 'मुनि:' कालत्रयवेदी 'न मायति' मदं न याति, मदकारणं दर्शयति-'गोत्रेण' काश्यपादिना, अन्यतरग्रहणात् शेषाणि मदखानानि गृह्यन्त इति, 'माहण'त्ति साधुः, पाठान्तरं वा 'जे विउत्ति यो विद्वान्-विवेकी स जातिकुललामादिमिः न मायतीति, न केवलं स्वतो मदो न विधेयः, जुगुप्साऽप्यन्येषां न विधेयेति दर्शयति-'अर्थ' अनन्तरं असौ 'अश्रेयस्करी' पापकारिणी 'इंखिणि'त्ति &| निन्दा अन्येपामतो न कार्येति, 'मुणी न मजई' इत्यादिकस्य सूत्रावयवस्य सूत्रस्पर्श गाथाद्वयेन नियुक्तिकदाह तवसंजमणाणेसुषि जद माणो वजिओ महेसीहिं । अत्तसमुक्करिसत्धं किं पुण हीला उ अन्नेसि ॥४॥ जह ताव मिजरमओ, पडिसिद्धो अट्ठमाणमहणेहिं । अविसेसमयहाणा परिहरिपब्वा पयसेणं ॥ ४४ ॥ 'वयालियस्स णिजुत्ती सम्मत्ता' तपःसंयमज्ञानेष्वपि आत्मसमुत्कर्षणार्थम्-उत्सेकार्थ यः प्रवृत्तो मानः यद्यसावपि तापद। | 'वर्जितः' त्यक्तो 'महर्षिभिः' महामुनिभिः, किंपुननिन्दाऽन्येषां न त्याज्येति । यदि तावनिर्जरामदोऽपि मोक्षकगमनहेतुः | प्रतिषिद्धः 'अष्टमामथनैः अर्हद्भिरवशेषाणि तु 'मदस्थानानि जात्यादीनि 'प्रयत्नेन' सुतरां परिहर्तव्यानीति गाथाद्वयार्थः ॥ ४३-४४ ॥१॥ साम्प्रतं परनिन्दादोषमधिकृत्याह-'जो परिभवई' इत्यादि, यः कचिदविवेकी 'परिभवति अवज्ञयति, 'परं जनं' अन्य लोकम् आत्मव्यतिरिक्तं स तत्कृतेन कर्मणा 'संसारे चतुर्गतिलक्षणे भवोदधावरघट्टघटीन्यायेन 'परिवर्तते' निर्जराविशेषणम् । अनुक्रम [११२] Gee ~125~ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [२], नियुक्ति: [४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२|| दीप सूत्रकृताङ्ग भ्रमति 'महद' अत्यर्थ महान्तं वा कालं, कचित् 'चिरम्' इति पाठ', 'अदु'त्ति अथशब्दो निपातः निपातानामनेकार्थसात अत २ चैतालीशीलाङ्का- ॥ इत्यस्याथै वर्तते, यतः परपरिभवादात्यन्तिकः संसार: अतः 'इंखिणिया' परनिन्दा तुशब्दस्यैवकारार्थखात 'पापिकैय' दोप- याध्य ०. चायीय वत्येव, अथवा स्वस्थानादधमस्थाने पातिका, तोह जन्मनि सुघरो दृष्टान्तः, परलोकेऽपि पुरोहितस्यापि श्वादिषत्पत्तिरिति. त्तियुतं इत्येवं 'संख्याय' परनिन्दा दोषवती ज्ञात्वा मुनिजात्यादिभिः यथाऽहं विशिष्टकुलोद्भवः श्रुतवान् तपस्वी भवांस्तु मत्तो हीन ॥६१॥ | इति न मावति ॥२॥ मदाभावे च यद्विधेयं तदर्शयितुमाह जे यावि अणायगे सिया, जेविय पेसगपेसए सिया।जे मोणपयं उवट्रिए, णो लज्जे समयं सया यरे ॥३॥ Iसम अन्नयरम्मि संजमे, संसुद्धे समणे परिवए। जे आवकहा समाहिए, दविए कालमकासि पंडिए uns यथापि कश्चिदास्तां तावत् अन्यो न विद्यते नायकोऽस्येत्यनायकः-स्वयंप्रभुचक्रवादिः 'स्यात्' भवेत् , यथापि प्रेष्यस्यापि । प्रेष्य:-तस्यैव राज्ञः कर्मकरस्यापि कमेंकरः, य एवम्भूतो मौनीन्द्रं पद्यते-गम्यते मोक्षो येन तत्पदं-संयमस्तम् उप-सामीप्येन || स्थितः उपस्थितः-समाश्रितः सोऽप्यलज्जमान उत्कर्षमकुर्वन् वा सर्वाः क्रिया:-परस्परतो बन्दनप्रतिवन्दनादिका विधत्ते, इद-12 मुक्तं भवति चक्रवर्तिनाऽपि मौनीन्द्रपदमुपस्थितेन पूर्वमात्मप्रेष्यप्रेष्यमपि बन्दमानेन लज्जा न विधेया इतरेण चोत्कर्ष इत्येवं 'समतां' समभावं सदा भिक्षुश्वरेत्-संयमोयुक्तो भवेदिति ॥३॥क पुनर्व्यवस्थितेन लज्जामदौ न विधेयाविति दर्शयितुमाह सिअ वृत्तिः। . अनुक्रम [११२] ~ 126~ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [४], नियुक्ति: [४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||४|| 'समें वि समभावोपेतः सामायिकादौ संयमे संयमखाने वा षट्स्थानपतितवात् संयमस्थानानामन्यतरसिन् संयमस्थाने छेदोपस्थापनीयादौ बा, तदेव विशिनष्टि-सम्यकशुद्धे सम्यकशुद्धो वा 'श्रमणः' तपस्वी लजामदपरित्यागेन समानमना वा 'परिब्रजेत्' संयमोयुक्तो भवेत् , स्यात्-कियन्तं कालम् ?, यावत् कथा-देवदत्तो यज्ञदत्त इति कथां यावत् , सम्यगाहित आत्मा ज्ञानादी येन स समाहितः समाधिना वा-शोभनाध्यवसायेन युक्तः, द्रव्यभूतो-रागद्वेषादिरहितः मुक्तिगमनयोग्यतया वा भव्यः, स एवम्भूतः कालमकार्षीत् 'पण्डितः' सदसद्विवेककलितः, एतदुक्तं भवति देवदत्त इति कथा मृतस्यापि भवति अतो यावन्मृत्युकालं तावल्लज्जामदपरित्यागोपेतेन संयमानुष्ठाने प्रवर्तितव्यमिति स्यात् ॥ ४॥ किमालम्ब्यैतद्विधेयमिति, उच्यतेदूरं अणुपस्सिया मुणी, तीतं धम्ममणागयं तहा। पुटे परुसेहिँ माहणे, अवि हण्णू समयंमि रीयइ॥५॥ पण्णसमत्ते सया जए, समताधम्ममुदाहरे मुणी।सुहुमे उसयाअलूसए,णो कुज्झे णो माणि माहणे॥६॥ दूरवर्तिवाव दूरो-मोक्षस्तमनु-पश्चात् तं दृष्ट्वा यदिवा-दूरमिति-दीर्घकालम् 'अनुदृश्य' पर्यालोच्य 'मुनिः' कालत्रयवेत्ता दूरमेव दर्शयति–अतीतं 'धर्म' स्वभावं-जीवानामुच्चावचस्थानगतिलक्षणं तथा अनागतं च धर्म-स्वभावं पर्यालोच्य लज्जामदौ न विधेयौ, तथा 'स्पृष्टः' छुप्तः 'परुषैः दण्डकशादिभिर्वाग्भिर्वा 'माहणेचि मुनिः 'अवि हण्णू'त्ति अपि मार्यमाणः KOIL १ समगाहियासए पा । २ पन्हसमत्थे पा० दीप ceneroectroecececeioesesearceleea अनुक्रम [११४] ~ 127~ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [६], नियुक्ति: [४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: सूत्रकृताङ्गं प्रत सूत्रांक ||६|| स्कन्दकशिष्यगणवत् 'समये संयमे 'रीयते तदुक्तमार्गेण गच्छतीत्यर्थः, पाठान्तरं वा 'समयाऽहियासए'चि समतया सहत इति ॥ ५॥ पुनरप्युपदेशान्तरमाह-प्रज्ञायां समाप्तः प्रज्ञासमाप्त:-पटुप्रज्ञः, पाठान्तरं वा 'पण्हसमधे प्रश्नविषये | याध्य. प्रत्युत्तरदानसमर्थः 'सदा सर्वकालं जयेत् , जेयं कषायादिकमिति शेषः । तथा समया-समता तया धर्मम्-अहिंसादिलक्षणम् | उद्देशः २ "उदाहरेत्' कथयेत् 'मुनि यतिः सूक्ष्मे तु-संयमे यत्कर्तब्ध तस्य 'अलूषकः' अविराधकः, तथा न हन्यमानो वा पूज्यमानो वा क्रुध्येनापि 'मानी' गर्वितः स्वाद 'माहणो' यतिरिति ।। ६॥ अपिचबहुजणणमणमि संबुडो, सबट्रेहिंणरे अणिस्सिए। हरए व सया अणाविले, धम्म पादुरकासि कासवं ७॥ बहवे पाणा पुढोसिया, पत्तेयं समयं समीहिया ।जो मोणपदं उवट्टिते, विरतिं तत्थ अकासि पंडिए॥us बहून् जनान् आत्मानं प्रति नामयति-प्रढीकरोति तैर्वा नम्यते-स्तूयते बहुजननमनो-धर्मः, स एव बहुभिर्जनैरात्मीयात्मी-18 याशयेन यथाऽभ्युपगमप्रशंसया स्तूयते-प्रशस्यते, कथम् ?, अत्र कथानकं राजगृहे नगरे श्रेणिको महाराजः,कदाचिदसी चतु-| |विधचुध्ध्युपेतेन पुत्रेण अभयकुमारेण सार्धमास्थानस्थितस्ताभिस्ताभिः कथाभिरासाश्चक्रे, तत्र कदाचिदेवम्भूता कथाऽभूत् , तयथाइह लोके धार्मिकाः बहवः उताधार्मिका इति !, तत्र समस्तपर्षदाभिहितम्-यथानाधार्मिका बहवो लोका धर्मे तु शतानामपि मध्ये कधिदेवैको विधत्ते, तदाकाभयकुमारेणोक्तं-यथा प्रायशो लोकाः सर्व एव धार्मिकाः, यदि न निश्चयो भवतां परीक्षा दीप अनुक्रम [११६] INIT॥६२॥ १ उबेहिया प्र. ~128~ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [८], नियुक्ति: [४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||८|| क्रियता, पर्षदाऽप्यभिहितम्-एवमस्तु, ततोऽभयकुमारेण धवलेतरप्रासादद्वयं कारितं, घोषितं च डिण्डिमेन नगरे, यथा-यः कश्चिदिह धार्मिकः स सर्वोऽपि धवलप्रासादं गृहीतबलिः प्रविशतु, इतरस्त्वितरमिति, ततोऽसौ लोकः सर्वोऽपि धवलप्रासादमेव प्रविष्टो निर्गच्छंश्च कथं त्वं धार्मिकः ? इत्येवं पृष्टः कचिदाचष्टे-यथाऽहं कर्षकः अनेकशकुनिगणः मद्धान्यकणैरात्मानं प्रीणयति खलकसमागतधान्यकणभिक्षादानेन च मम धर्म इति, अपरस्त्वाह-यथाऽहं ब्राह्मणः षट्कर्माभिरतः तथा बहुशौचस्नानादिभि र्वेदविहितानुष्ठानेन पितृदेवांस्तर्पयामि, अन्यः कथयति यथाऽहं वणिकुलोपजीवी भिक्षादानादिप्रवृत्तः, अपरस्सिदमाह-यथाऽहं | 181 कुलपुत्रका न्यायागते निर्गतिक कुटुम्बकं पालयाम्येव, तावत् श्वपाकोऽपीदमाह-यथाऽहं कुलक्रमागत धर्ममनुपालयामीति मनि-11 श्रया च बहवः पिशितभुजः प्राणान् संधारयन्ति,इत्येवं सर्वोऽप्यात्मीयमात्मीयं व्यापारमुद्दिश्य धर्मे नियोजयति, तत्रापरमसितप्रासादं श्रावकद्वयं प्रविष्ट, तच किमधर्माचरणं भवयामकारीत्येवं पृष्टं सत् सकृन्मद्यनिवृत्तिभङ्गच्यलीकमकथयत् , तथा साधव ॥ एवात्र परमार्थतो धार्मिका यथागृहीतप्रतिज्ञानिर्वाहणसमर्थाः, अस्माभिस्तु–'अवाप्य मानुषं जन्म, लब्ध्वा जैनं च शासनम् । कृखा निवृत्ति मद्यस्य, सम्यक् साऽपि न पालिता ॥१॥ अनेन व्रतभङ्गेन, मन्यमाना अधार्मिकम् । अधमाधममात्मानं, कृष्णप्रासादमाश्रिताः ॥२तथाहि-'लज्जां गुणौषजननी जननीमिवार्यामत्यन्तशुद्धहृदयामनुवर्तमानाः । तेजखिनः सुखममूनपि संत्यजन्ति, सत्यस्थितिव्यसनिनो न पुनः प्रतिज्ञाम् ॥ ३॥ वरं प्रवेष्टुं ज्वलितं हुताशन, नचापि भग्नं चिरसंचितव्रतम् । वरं हि मृत्युः सुविशुद्धचेतसो, नचापि शीलस्खलितस्य जीवितम् ॥४॥” इति, तदेवं प्रायशः सर्वोऽप्यात्मानं धार्मिकं मन्यत इतिहखा १ आधारस्यापि कर्मत्वचिचक्षया, गत्यर्थरवन मिशः कर्तरि क इति न प्रथमाशङ्का । २ जातिपक्षीया मविपुलेवम् । ३ कर्मगो। । दीप अनुक्रम se aaeese [११८] ~129~ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [८], नियुक्ति: [४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||८|| नियुत दीप सूत्रकृता बहुजननमनो धर्म इति स्थितं, तस्मिंश्च 'संवृतः समाहितः सन् 'नर' पुमान् 'सर्वाः बाह्याभ्यन्तरैर्धनधान्यकलत्रममसा-18|२ वैतालीशीलाका- दिभिः 'अनिश्रित:' अप्रतिबद्धः सन् धर्म प्रकाशितवानित्युत्तरेण सह सम्बन्धः, निदर्शनमाह--हद इव स्वच्छाम्भसा भृतः याध्य. चायित्र-|| सदा 'अनाविल.' अनेकमत्स्यादिजलचरसंक्रमेणाप्यनाकुलोऽकलुषो वा क्षान्त्यादिलक्षणं धर्म 'प्रादुरकार्षीत्' प्रकटं कृतवान् , यदिवा एवंविशिष्ट एवं काश्यपं-तीर्थकरसंबन्धिनं धर्म प्रकाशयेत्, छान्दसखात् वर्चमाने भूतनिर्देश इति ॥ ७॥ स पहुजननमने धर्मे व्यवस्थितो याक धर्म प्रकाशयति तदर्शयितुमाह-यदिवोपदेशान्तरमेवाधिकत्याह-'बहवे'इत्यादि, 'बहवः' अन-18| न्ताः'प्राणादशविधप्राणभाक्लात्तदभेदोपचारात् प्राणिनः 'पृथर' इति पृथिव्यादिभेदेन सूक्ष्मवादरपर्याप्तकापर्याप्सनरकगत्या-18| दिभेदेन वा संसारमाथिताः तेषां च पृथगाश्रितानामपि प्रत्येकं समता-दुःखद्वेषिसं सुखप्रियवं च 'समीक्ष्य' दृष्ट्वा, यदि|वा-'समतां" माध्यस्थ्यमुपेक्ष्य(त्य) यो 'मीनीन्द्रपदमुपस्थितः' संयममाश्रितः स साधुः 'तत्र' अनेकभेदभिमप्राणिगणे दुःख|द्विपि मुखाभिलाषिणि सति तदुपघाते कर्तव्ये विरतिम् अकार्षीत कुर्याद्वेति, पापाडीनः-पापानुष्ठानात् दवीयान् पण्डित इति || ॥८॥ अपिचधम्मस्स य पारए मुणी, आरंभस्स य अंतए ठिए।सोयंतिय णं ममाइणो, णो लब्भंति णियं परिग्गहं ९/81 इहलोगदुहावह विऊ, परलोगे य दुहं दुहावह। विद्धसणधम्ममेव तं, इति विजं कोऽगारमावसे ? ॥१०॥18॥ धर्मस्य-श्रुतचारित्रभेदभिन्नस्य पारं गच्छतीति पारगः-सिद्धान्तपारगामी सम्यक्चारित्रानुष्ठायी वेति, चारित्रमधिकृत्याह अनुक्रम [११८] ~130~ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [१०], नियुक्ति: [४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१०|| दीप अनुक्रम [१२०] heroenerasaceaee0a0a000000 'आरम्भस्य' सावधानुष्ठानरूपस्य 'अन्ते' पर्यन्ते तदभावरूपे स्थितो मुनिर्भवति, ये पुननैवें भवन्ति ते अकृतधर्माः मरणे दुःखे वा समुत्थिते आत्मानं शोचन्ति, णमिति वाक्यालङ्कारे, यदिवेष्टमरणादौ अर्थनाशे वा 'ममाइणोति ममेदमहमस्य खामी-|| त्येवमध्यवसायिनः शोचन्ति, शोचमाना अप्येते 'निजम्' आत्मीयं परि-समन्तात् गृह्यते-आत्मसाफियत इति परिग्रहः-हिर| ण्यादिरिष्टस्वजनादिर्वा तं नष्टं मृतं वा 'न लभन्ते' न प्रामुवन्तीति, यदिवा धर्मख पारगं मुनिमारम्भस्यान्ते व्यवस्थितमेनमा| गत्य 'खजनाः' मातापित्रादयः शोचन्ति 'ममत्वयुक्ताः स्नेहालवः, न च ते लभन्ते निजमध्यात्मीयपरिग्रहबुद्ध्या गृहीतमिति, ॥९॥ अत्रान्तरे 'नागार्जुनीयास्तु' पठन्ति "सोऊण तयं उवडियं, केइ गिही बिग्घेण उहिया। धम्ममि अणुत्तरे मुणी, तंपि जिणिज्ज इमेण पंडिए ॥१॥" एतदेवाह-इह' अस्मिन्नेव लोके हिरण्यस्खजनादिकं दुःखमावहति 'विउत्ति विद्याः|जानीहि, तथाहि-'अर्थानामर्जने दुःखमर्जितानां च रक्षणे आये दुःखं व्यये दुःखं, धिगर्थं दुःखभाजनम् ॥१॥ तथाहि'रेवापयः किसलयानि च सल्लकीना, विन्ध्योपकण्ठविपिनं स्वकुलं च हिला । किं ताम्यसि द्विप! गतोऽसि वशं करिण्याः, स्नेहो 8 निबन्धनमनर्थेपरम्परायाः॥१॥ परलोके च हिरण्यस्वजनादिममवापादितकर्मजं दुःखं भवति, तदप्यपरं दुःखमावहति, तदु-18॥ पादानकर्मोपादानादिति भावः, तथैतदुपार्जितमपि 'विध्वंसनधर्म विशरारुखभावं, गबरमित्यर्थः, इत्येवं 'विद्वान्' जानन् का सकर्णः 'अगारवास' गृहवासमावसेत् १, गृहपाशं वाऽनुबनीयादिति, उक्तं च-"दाराः परिभवकारा बन्धुजनो बन्धनं ५ विष विषयाः। कोऽयं जनस मोहो? ये रिपरस्तेषु सुहृदाशा ॥१॥"१०॥ पुनरप्युपदेशमधिकृत्याह १ त्रिपदबहुव्रीहिरत्र, अनसमासान्तथ द्विपदादेन । २ श्रुला तमुपस्थित केचिद्गृहिणो विनायोतिप्लेयुः । धर्मेऽनुसरे मुनिस्तानपि जयेदनेन पश्यितः ॥ ~131~ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [११], नियुक्ति: [४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सुत्रांक सूत्रकृताङ्ग शीलाका- चायित्त्तियुतं ||११| महयं पलिगोव जाणिया, जावि य वंदणपूयणा इह। सुहमे सल्ले दुरुद्धरे, विउमंता पयहिज संथवं ॥ ११॥18|२ वैतालीएगे चरे(र) ठाणमासणे, सयणे एगे(ग)समाहिए सिया। भिक्खू उवहाणवीरिए,वइगुत्ते अज्झत्तसंवुडो१२|| याध्य उद्देशः २ ___ 'महान्तं' संसारिणां दुस्त्यजलान्महता वा संरम्भेण परिगोपणं परिगोपः द्रव्यतः पङ्कादि: भावतोऽभिष्वङ्गः तं 'ज्ञात्वा खरूपतः तद्विपाकतो वा परिच्छिद्य याऽपि च प्रव्रजितस्य सतो राजादिभिः कायादिभिर्वन्दना वखपात्रादिभिश्व पूजना तां 8 च 'इह' अस्मिन् लोके मौनीन्द्रे वा शासने व्यवस्थितेन कर्मोपशमजं फलमित्येवं परिज्ञायोत्सेको न विधेयः, किमिति', यतो|8| गर्वात्मकमेतत्सूक्ष्मं शल्यं वर्तते, मूक्ष्मताच 'दुरुद्धर' दुःखेनोद्धर्तुं शक्यते, अतः 'विद्वान् सदसद्विवेकज्ञस्तंचावत् 'संस्तव परिचयमभिष्वङ्गं परिजह्यात्' परित्यजेदिति । नागार्जुनीयास्तु पठन्ति-"पलिमंथ महं वियाणिया, जाविय बंदणपूयणा | इहं । सुहुमं सल्लं दुरुद्धर, तंपि जिणे एएण पंडिए ॥१॥" अस्य चायमर्थः साधोः खाध्यायध्यानपरस्सैकान्तनिःस्पृहस्स। | योऽपि चार्य परैः वन्दनापूजनादिकः सत्कारः क्रियते असावपि सदनुष्ठानस्य सद्तेर्वा महान् पलिमन्धो-विमः, आस्तां ताव| च्छन्दादिबभिष्वङ्गः, तमित्येवं परिज्ञाय तथा सूक्ष्मशल्यं दुरुद्धरं च अतस्तमपि 'जयेद्' अपनयेत् पण्डितः 'एतेन' वक्ष्यमाणे| नेति ॥ ११ ॥ 'एकः' असहायो ग्यत एकैल्लविहारी भावतो रागद्वेषरहितवरेत् , तथा 'स्थान' कायोत्सगोंदिकम् एक एव | दीप अनुक्रम [१२१] ॥६४॥ i १ आतां तावत् प्रतं तावत् प्र० । २ पलिमन्य (वि) महान्तं विज्ञाय याऽपिच बन्दनापूजनेह । सूक्ष्म पाल्यं दुरुधरं, वदपि गयेदेतेन पंडितः ॥1॥ प्राकृते खार्थे लालबागमे एकात इति जाने प्रसिद्धत्वादनुकरणमेतत् । ~132~ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [१२], नियुक्ति: [४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१२|| कुर्यात् , तथा आसनेऽपि व्यवस्थितोऽपि रागद्वेषरहित एव तिष्ठेत् , एवं शयनेऽप्येकाक्येव 'समाहितः धर्मादिध्यानयुक्त | 'स्यात्' भवेत् , एतदुक्तं भवति-सर्वास्वप्यवस्थासु चरणस्थानासनशयनरूपासु रागद्वेषविरहात समाहित एव स्वादिति, तथा ॥ भिक्षणशीलो भिक्षु: उपधान-तपस्तत्र वीर्य यस्य स उपधानवीर्यः-तपखनिगृहितबलवीर्य इत्यर्थः, तथा 'वाग्गुप्तः || सुपर्यालोचिताभिधायी 'अध्यात्म' मनः तेन संवृतो भिक्षुर्भवेदिति ॥१२॥ किश्चणो पीहेण यावपंगुणे, दारं सुन्नघरस्स संजए। पुटे ण उदाहरे वयं, ण समुच्छे णो संथरे तणं ॥१३॥ जत्थऽत्थमिए अणाउले, समविसमाई मुणीऽहियासए । चरगा अदुवावि भेरवा, अदुवा तत्थ सरीसिवा सिया ॥ १४ ॥ | केनचिच्छयनादिनिमित्तेन शून्यगृहमाश्रितो भिक्षुः तस्य गृहख द्वारं कपाटादिनान स्थगयेनापि तथालयेत् , यावत् 'न याव-18 पंगुणे'त्ति नोद्घाटयेत् , तत्रस्थोऽन्यत्र वा केनचिद्धर्मादिक मार्ग वा पृष्टः सन् सावद्यां वाचं 'नोदाहरेत्' न घूयात, आभि| ग्रहिको जिनकल्पिकादिनिरवद्यामपि न घूयात , तथा 'न समुच्छिन्द्यात्' तृणानि कनवरं च प्रमार्जनेन नापनयेत, नापि शय|नार्थी कश्चिदाभिग्राहिक: 'तृणादिकं संस्तरेत्' तृणैरपि संस्तारकं न कुर्यात् , किं पुनः कम्बलादिना?, अन्यो वा शुपिरतणं न | संस्तरेदिति ॥ १३ ॥ तथा भिक्षुर्यत्रैवास्तमुपैति सविता तत्रैव कायोत्सर्गादिना तिष्ठतीति यत्रास्तमितः, तथाऽनाकुलः समुद्रव प्राशनोऽपिः शयनादिसमुच्चयाय अयं तूस्थानादिसमुच्चयाय । 700003039292900003009 दीप अनुक्रम [१२२] ye ~133~ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१४|| दीप अनुक्रम [१२४] सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्का चाय चियुतं 1184 11 “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [२] मूलं [१४], निर्युक्तिः [४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः - अक्रादिभिः परीषहोपसर्वैरक्षुभ्यन् 'समविषमाणि' शयनासनादीन्यनुकूल प्रतिकूलानि 'मुनिः' यथावस्थितसंसारस्वभाववेत्ता सम्यग् - अरक्तद्विष्टतयाऽधिसहेत, तत्र च शून्यगृहादौ व्यवस्थितस्य तस्य चरन्तीति चरका दंशमशकादयः अथवापि 'भैरवा' भयानका रक्षः शिवादयः अथवा तत्र सरीसृपाः स्युः भवेयुः, तत्कृतांथ परीपहान् सम्यक् अधिषहेतेति ॥ १४ ॥ साम्प्रतं त्रिविधोपसर्गाधि सहनमधिकृत्याह - तिरिया मणुया य दिवगा, उवसग्गा तिविहाऽहियासिया। लोमादीयं ण हारिसे, सुन्नागारगओ महामुणी णो अभिकखेज जीवियं, नोऽविय पूयणपत्थए सिया। अब्भत्थमुविंति भेरवा, सुन्नागारगयस्स भिक्खुणो 'तैरयाः ' सिंहव्याघ्रादिकृताः तथा 'मानुषा' अनुकूल प्रतिकूलाः सत्कारपुरस्कारदण्डकशाताडनादिजनिताः, तथा 'दिव्वगा इति व्यन्तरादिना हास्यप्रद्वेषादिजनिताः, एवं त्रिविधानप्युपसर्गान् 'अधिसहेत' नोपसगैर्विकारं गच्छेत्, तदेव दर्शयति - 'लोमादिकमपि न हवेंत्' भयेन रोमोद्गममपि न कुर्यात्, यदिवा-एवमुपसर्गास्त्रिविधा अपि 'अहियासिय'ति अधिसोढा भवन्ति यदि रोमोद्गमादिकमपि न कुर्यात्, आदिग्रहणात् दृष्टिमुखविकारादिपरिग्रहः, शून्यागारगतः, शून्यगृहव्यवस्थितस्य चोपलक्षणार्थत्वात् पितृवनादिस्थितो वा 'महामुनिः' जिनकल्पिकादिरिति ॥ १५ ॥ किञ्च स तैभैरवैरुपसर्गेरुदीर्णेस्तोतुद्यमानोऽपि जीवितं न अभिकाङ्क्षत, जीवितनिरपेक्षेणोपसर्गः सोढव्य इति भावः, न चोपसर्गसहनद्वारेण 'पूजाप्रार्थकः' प्रकर्षाभिलाषी 'स्यात्' भवेत्, एवं च जीवितपूजानिरपेक्षेणासकृत् सम्यक सहयमाणा भैरवा-भयानकाः शिवापिशाचादयोऽभ्यस्तभावं For Parts Only ~134~ testeesesesese २ बैताली याध्य० उद्देशः २ ॥ ६५ ॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [१६], नियुक्ति: [४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: celeroesese प्रत सूत्रांक ||१६|| खात्मतां उप-सामीप्येन यान्ति–गच्छन्ति, तत्सहनाच भिक्षोः शून्यागारगतस्य नीराजितवारणस्येव शीतोष्णादिजनिता उप-10 IS सर्गाः सुसहा एव भवन्तीति भावः ॥ १६॥ पुनरप्युपदेशान्तरमाहNउवणीयतरस्स ताइणो, भयमाणस्स विविक्कमासणं। सामाइयमाहु तस्स जं, जो अप्पाण भएण दसए॥ उसिणोदगतत्तभोइणो,धम्मट्ठियस्स मुणिस्सहीमतो। संसग्गि असाहुराइहिं,असमाहीउ तहागयस्सवि उप-सामीप्येन नीतः-प्रापितो ज्ञानादावात्मा येन स तथा अतिशयेनोपनीत उपनीततरस्तस्य, तथा 'तापिन:' परात्मो-|| पकारिणः त्रायिणो वा- सम्यक्पालकस्य, तथा 'भजमानस्य' सेवमानस्य 'विविक्तं' खीपशुपण्डकविवर्जितम् आस्यते-स्थी। यते यस्मिमिति तदासन-वसत्यादि, तस्वम्भूतस्य मुनेः 'सामायिक' समभावरूपं सामायिकादिचारित्रमाहुः सर्वज्ञाः, 'यदू'। यस्मात् ततवारित्रिणा प्राग्व्यवस्थितखभावेन भाव्य, यश्चात्मानं 'भये' परिषहोपसर्गजनिते'न दर्शयेत्' तदीने भवेत् तस्य 8 सामायिकमाहुरिति सम्बन्धनीयं ।। १७ ॥ किञ्च-मुनेः 'उष्णोदकतप्तभोजिनः' त्रिदण्डोत्तोष्णोदकभोजिनः, यदिवा-- उष्णं सन्न शीतीकुर्यादिति तप्तग्रहणं,तथा श्रुतचारित्राख्ये धर्मे स्थितस्य 'हीमतोति ही:-असंयम प्रति लज्जा तद्वतोऽसंयमजुगुप्सावत इत्यर्थः, तस्यैवम्भूतस्य मुने राजादिभिः सार्द्ध यः 'संसर्गः' सम्बन्धोऽसावसाधुः अनर्थोदयहेतुखात् 'तथागतस्यापि' यथोक्तानुष्ठायिनोऽपि राजादिसंसर्गवशाद् 'असमाधिरेव' अपध्यानमेव स्यात् , न कदाचित् खाध्यायादिकं भवेदिति ॥१८॥ परिहार्यदोषप्रदर्शनेन अधुनोपदेशाभिधित्सयाऽऽह दीप अनुक्रम esesereeseseseaeseseedeeoceaeser [१२६] a urary.com ~135~ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [१८], नियुक्ति: [४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१८|| ॥६६॥ दीप सूत्रकृताङ्ग अहिगरणकडस्स भिक्खुणो, वयमाणस्स पसज्झ दारुणं अट्टे परिहायती बहु, अहिगरणं न करेज पंडिएरवैतालीशीलासा याध्य० सीओदर्ग पडि दुगुछिणो, अपडिण्णस्स लवावसैप्पिणो। चार्षीय उद्देशः २ चियुतं सामाइयमाहु तस्स जं, जो गिहिमत्तेऽसणं न भुंजती ॥ २०॥ 18 अधिकरणं-कलहस्तत्करोति तच्छीलश्चेत्यधिकरणकरः तस्यैवम्भूतस्य भिक्षोः तथाधिकरणकरी दारुणां वा भयानका वा 'प्रसव प्रकटमेव वाचं मुक्तः सतः 'अर्थो मोक्षः तत्कारणभूतो वा संयमः स बहु 'परिहीयते' ध्वंसमुपयाति, इदमुक्त भवति-बहुना कालेन यदर्जितं विप्रकृष्टेन तपसा महत्पुण्यं तत्कलहं कुर्वतः परोपघातिनी च वाचं अवतः तत्क्षणमेव ध्वंसमुपयाति, तथाहि-जं अजियं समीखल्लयहिं तवनियमबभमइएहिं । मा हु तयं कलहंता छडेअह सागपत्तेहिं ॥१॥ इत्येवं मला मनागप्यधिकरणं न कुर्यात् 'पण्डितः' सदसद्विवेकीति ।।१९।। तथा शीतोदकम् -अप्रासुकोदकं तत्प्रति जुगुप्सकस्यापासुको-18 | दकपरिहारिणः साधोः न विद्यते प्रतिज्ञा-निदानरूपा यस्य सोअतिज्ञोऽनिदान इत्यर्थः,लवं-कर्म तसात् अवसप्पिणोत्ति|अवसर्पिणः यदनुष्ठानं कर्मपन्धोपादानभूतं तत्परिहारिण इत्यर्थः, तस्यैवम्भूतस्य साधोर्यसाद यत् 'सामायिक' समभावलक्षण ॥६६॥ |माहुः सर्वज्ञाः, यश्च साधुः 'गृहमात्रे' गृहखभाजने कांस्यपात्रादौ न भुते तस्य च सामायिकमाहुरिति संबन्धनीयमिति ॥२०॥8॥ किश्च नीओदपहि० । २ सुकि । ३ यदर्जित कष्टैः (समीपप्रैः) तपोनियमनावर्यमयैः । मा तत् कल दयन्तः स्याट शाकपौः ॥१॥ अनुक्रम [१२८] eeeeserte.. ~136~ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [२१], नियुक्ति: [४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२१|| शणय संखयमाहु जीवियं,तहविय बालजणो पगब्भाबाले पापेहिं मिजती, इति संखाय मुणी ण मज्जती ॥ छंदेण पले इमा पया, बहुमाया मोहेण पाउडा। वियडेण पलिंति माहणे, सीउपहं वयसाऽहियासए ॥२२॥ 'न च' नैव 'जीवितम्' आयुष्कं कालपर्यायेण त्रुटितं सत् पुनः 'संखय'मिति संस्कर्तुं तन्तुवत्संधातुं शक्यते इत्ये-181 |वमाहुस्तद्विदः, तथाऽपि एवमपि ग्यवस्थिते 'बाल' अज्ञो जनः 'प्रगल्भते' पापं कुर्वन् शृष्टो भवति, असदनुष्ठानरतोऽपि न लजत इति, स चैवम्भूतो बालस्तैरसदनुष्ठानापादितः पापैः कर्मभिः 'मीपते' तयुक्त इत्येवं परिच्छिद्यते, भ्रियते वा मेयेन धान्यादिना प्रस्थकवदिति, एवं 'संख्याय' ज्ञाखा 'मुनिः' यथावस्थितपदार्थानां वेत्ता 'न माद्यतीति' तेवसदनुष्ठानेष्वहं । | शोभनः कर्तेत्येवं प्रगल्भमानो मदं न करोति ॥२१॥ उपदेशान्तरमाह-'छन्दः' अभिप्रायस्तेन तेन खकीयाभिप्रायेण कुगतिग| मनैकहेतुना 'इमाः प्रजाः' अयं लोकस्तासु गतिषु प्रलीयते, तथाहि-छागादिवधमपि स्वाभिप्रायग्रहग्रस्ता धर्मसाधनमित्येवं || प्रगल्भमाना विद्धति, अन्ये तु संघादिकमुद्दिश्य दासीदासधनधान्यादिपरिग्रहं कुर्वन्ति, तथाऽन्ये मायाप्रधानः कुफुटैरसकृदु| स्प्रोक्षणश्रोत्रसर्शनादिभिर्मुग्धजनं प्रतारयन्ति, तथाहि-'कुकुटसाध्यो लोको नाकुफुटतः प्रवर्तते किश्चित् । तस्माल्लोकस्यार्थे | पितरमपि सकुकुटं कुर्यात् ।।१।। तथेयं प्रजा 'बहुमाया' कपटप्रधाना, किमिति ?-यतो मोहः-अज्ञानं तेन 'प्रावृता' आच्छा-1|| 8| दिता सदसद्विवेकविकलेत्यर्थः, तदेतदवगम्य 'माहणे'चि साधुः 'विकटेन' प्रकटेनामायेन कर्मणा मोक्षे संयमे या प्रकर्षेण 181 १ वस्तादीनि प्रा । ३ कुरकः इति प्रा दीप अनुक्रम [१३१] सूक्षक. १२ ~137~ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [२२], नियुक्ति: [४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक त्तियुतं ||२२|| दीप सूत्रकृताङ्गलीयते-प्रलीयते, शोभनभावयुक्तो भवतीति भावः, तथा शीतं च उष्णं च शीतोष्णं शीतोष्णा वा-अनुकूलप्रतिकूलपरीषहा- २ बैतालीशीलाका- || स्तान् वाचा कायेन मनसा च करणत्रयेणापि सम्यगधिसहेत इति ॥ २२ ॥ अपिच याध्य चायीय कुजए अपराजिए जहा, अक्खेहि कुसलेहिं दीवयं। कडमेव गहाय णो कलिं,नो तीयं नो चेव दावरं ॥२३॥ उद्देशः २ ॥६॥ एवं लोगंमि ताइणा, बुइए जे धम्मे अणुत्तरे। तं गिह हियंति उत्तम, कडमिव सेसऽवहाय पंडिए ॥२४॥ कुत्सितो जयोऽस्येति कुजयो-घूतकार!, महतोऽपि द्यूतजयस्य सद्भिनिन्दितवादनर्थहेतुखाञ्च कुत्सितखमिति, तमेव विशिनष्टि-18 अपराजितो दीव्यन् कुशलखादन्येन न जीयते अक्षैः वा-पाशकैः दीव्यन्-क्रीडंस्तत्पातज्ञः कुशलो-निपुणः, यथा असो यूतकारोऽक्षैः-पाशकैः कपर्दकैर्वा रममाणः 'कडमेच'त्ति चतुष्कमेव गृहीखा तल्लब्धजयखात् तेनैव दीव्यति, ततोऽसौ तल्लन्धजयः | सन्न 'कलिं' एक नापि 'त' त्रिकं च नापि 'दापरं द्विकं गृहातीति ।। २३ ।। दार्शन्तिकमाह-यथा यूतकार प्राप्तजय-18 खात सर्वोत्तम दीव्यश्चतुष्कमेव गृह्णाति एवमसिन् 'लोके मनुष्यलोके तायिना प्रायिणा वा-सर्वशनोक्तो योऽयं 'धर्म' क्षान्त्यादिलक्षणः श्रुतचारित्राख्यो वा नास्योत्तर:-अधिकोऽस्तीत्यनुत्तरः तमेकान्तहितमितिकसा सर्वोत्तमं च 'गृहाण विस्रोतसिकारहितः खीकुरु, पुनरपि निगमनार्थ तमेव दृष्टान्तं दर्शयति-यथा कश्चित् द्यूतकारः 'कृतं' कृतयुगं चतुष्कमित्यर्थः ॥६७।। 'शेषम् एककादि 'अपहाय'त्यक्ता दीव्यन् गृह्णाति, एवं पण्डितोऽपि–साधुरपि शेष-गृहस्थकृप्रावचनिकपार्श्वस्थादिभाव18 मपहाय सम्पूर्ण महान्तं सर्वोत्तम धर्म गृह्णीयादिति भावः ॥ २४ ॥ पुनरप्युपदेशान्तरमाह-- अनुक्रम [१३२] ~138~ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [२५], नियुक्ति: [४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२५|| उत्तर मणुयाण आहिया, गामधम्मा(म्म)इइ मे अणुस्सुयं ।। जंसी विरता समुट्ठिया, कासवस्स अणुधम्मचारिणो ॥ २५ ॥ जे एय चरंति आहियं, नाएणमहया महेसिणा। ते उद्रिय ते समुट्टिया, अन्नोन्नं सारंति धम्मओ ॥ २६ ॥ उत्तरा:-प्रधानाः दुर्जयसात् , केषाम् ?-उपदेशाहबान्मनुष्याणाम् अन्यथा सर्वेषामेवेति, के ते?-'ग्रामधर्माः' शब्दादिविषया 28 मैथुनरूपा वेति, एवं ग्रामधर्मा उत्तरलेन सर्वज्ञैराख्याताः, मयैतदनु- पश्चाछुतं, एतच्च सर्वमेव प्रागुक्तं यच्च वक्ष्यमाणं तन्नाका मेयेनाऽदिवीकृता पुत्रानुदिश्याभिहितं सत् पाश्चात्यगणधराः सुधर्मस्वामिप्रभृतयः वशिष्येभ्यः प्रतिपादयन्ति अती मयैतद-18 SIनुश्रुतमित्यनवचं, यस्मिन्निति-कर्मणि स्यब्लोपे पञ्चमी सप्तमी वेति यान् प्रामधर्मानाश्रित्य ये घिरता, पंचम्यर्थे वा सप्तमी, येभ्यो वा विरताः सम्यक्संयमरूपेणोस्थिताः समुत्थितास्ते 'काश्यपस्य' ऋषभस्वामिनो वर्धमानस्वामिनो वा सम्बन्धी यो धर्मस्तदनुचारिणः, तीर्थकरप्रणीतधर्मानुष्ठायिनो भवन्तीत्यर्थः ।। २५॥ किच-ये मनुष्या 'एन' प्रागुक्तं धर्म ग्रामधर्मविरतिलक्षणं 'चरन्ति' कुर्वन्ति आख्यातं 'ज्ञातेन' शातपुत्रेण 'महये ति महाविषयस्य ज्ञानवानन्यभूतखात् महान् तेन, तथाऽनुकुलप्रतिकूलोपसर्गसहिष्णुतात् 'महर्षिणा' श्रीमद्भर्धमानस्वामिना आख्यातं धर्म ये चरन्ति ते एव संयमोत्थानेन-कुतीर्थिकपरिहारेणोत्थिताः तथा निङवादिपरिहारेण त एव सम्यक-कुमार्गदेशनापरित्यागेन उत्थिताः समुत्थिता इति, नान्ये कुप्राव१ सम्यक्त्वमावेशनापरि प्रा दीप अनुक्रम Sesserseasoeeso 6000000000000 [१३५] ~139~ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [२६], नियुक्ति: [४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक चियुतं ||२६|| सूत्रकृता चनिका जमालिप्रभृतयश्चेति भावः, त एव च यथोक्तधर्मानुष्ठायिनः 'अन्योऽन्य' परस्परं 'धर्मतो धर्ममाश्रित्य धर्मतो वा २ तालीशीलाङ्का- || भ्रश्यन्तं 'सारयन्ति' चोदयन्ति–पुनरपि सद्धर्मे प्रवर्तयन्तीति ॥ २६ ॥ किश्च-- याध्य चाीयवृमा पेह पुरा पणामए,अभिकंखे उवहिं धुणित्तए।जे दूमण तेहिं णो णया, ते जाणंति समाहिमाहिय॥२७॥ उद्देशा २ णो काहिएँ होज संजए, पासणिए ण य संपसारए। नचा धम्म अणुत्तरं, कयकिरिए णयावि मामए ॥२८॥ ॥६॥ दुर्गतिं संसारं वा प्रणामयन्ति-प्रडीकुर्वन्ति प्राणिनां प्रणामकाः-शब्दादयो विषयास्तान 'पुरा' पूर्व भुक्तान 'भा प्रेक्षखा | मा सर, तेषां सरणमपि यसान्महतेऽनर्थाय, अनागाश्र नोदीक्षेत-नाकाङ्केदिति, तथा 'अभिका त्' अभिलषेद् अनारत। चिन्तयेदनुरूपमनुष्ठानं कुर्यात् , किमर्थमिति दर्शयति-उपधीयते-दौक्यते दुर्गतिं प्रत्यात्मा येनासावुपधिः-माया अष्टप्रकार || |वा कर्म तद् 'हननाय' अपनयनायाभिकादिति सम्बन्धः, दुष्टधर्म प्रत्युपनताः कुमार्गानुष्ठापिनस्तीर्थिकाः, यदिवा-'दूमण'चि || | दुष्टमनःकारिण उपतापकारिणो या शब्दादयो विषयास्तेषु ये महासच्चाः 'न नता' न प्रदीभूताः तदाचारानुष्ठापिनो न भवन्ति || 'ते' सन्मार्गानुष्ठायिनो 'जानन्ति' विदन्ति 'समाधि' रागद्वेषपरित्यागरूपं धर्मध्यानं च 'आहितम् आत्मनि व्यवस्थितम् ॥६८॥ आ-समन्ताद्धितं वा त एच जानन्ति नान्य इति भावः ॥ २७ ॥ तथा 'संयत: प्रवजितः कथया चरति काधिका गोचरादौ । न भवेत् , यदिवा-विरुद्धां पैशून्यापादनी ख्यादिकथा वा न कुर्यात् , तथा 'प्रश्नेन' राजादिकिंवृतरूपेण दर्पणादिप्रश्ननिमि-18! 000004907 दीप अनुक्रम [१३६] ~140~ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [२८], नियुक्ति: [४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: streeeese प्रत सूत्रांक ||२८|| तरूपेण वा चरतीति प्राश्निको न भवेत् , नापिच 'संप्रसारक' देववृष्ट्यर्थकाण्डादिसूचककथाविस्तारको भवेदिति, किं कृति दर्शयति-'ज्ञात्वा' अवबुद्ध्य नास्योत्तरो विद्यत इत्यनुत्तरस्तं श्रुतचारित्राख्यं धर्म सम्यग् अवगम्य, तस्य हि धर्मस्यैतदेव फलं | यदुत-विकथानिमित्तपरिहारेण सम्यक्रियावान खादिति, तदर्शयति-कृता-खभ्यस्ता क्रिया-संयमानुष्ठानरूपा येन स | कतक्रियस्तथाभूतच नचापि 'मामको' ममेदमहमस्य खामीत्येवं परिग्रहाग्रही भवेदिति ॥ २८ ॥ किश्शछन्नं च पसंसणो करे,नय उकोस पगास माहणे।तेसिं सुविवेगमाहिए, पणया जेहिं सुजोसिअंधुयं॥२९॥ ॥४॥ अणिहे सहिए सुसंवुडे, धम्मट्टी उवहाणवीरिए।विहरेज समाहिइंदिए,अत्तहिअं खुदुहेण लगभइ॥३०॥ 'छन्नति माया तखाः खाभिप्रायाच्छादनरूपसात तां न कुर्यात्, चशब्द उत्तरापेक्षया समुच्चयार्थः, तथा प्रशस्यते सर्वैर-18 प्पविगानेनाद्रियत इति प्रशसो-लोभस्तं च न कुर्यात् , तथा जात्यादिभिर्मदस्थानले घुप्रकृति पुरुषमुत्कर्षयतीत्युकर्षको-मानस्तमपि न कुर्यादिति सम्बन्धः, तथाऽन्तर्व्यवखितोऽपि मुख दृष्टिभूभाविकारैः प्रकाशीभवतीति प्रकाश:-क्रोधस्तं च 'माहणे |ति साधुन कुर्यात् , 'तेषां' कषायाणां यैर्महात्मभिः 'विवेक' परित्यागः 'आहितो' जनितस्त एव धर्म प्रति प्रणता इति, यदिवा-तेषामेव सत्पुरुषाणां सुष्टु विवेकः परिज्ञानरूप आहितः-प्रथितः प्रसिद्धिं गतः त एव च धर्म प्रति प्रणताः 'यैः' महासवैः सुष्टु 'जुष्टं' सेवितं धूयतेऽष्टप्रकारं कर्म तद्भूतं-संयमानुष्ठान, यदिवा-यैः सदनुष्ठायिभिः 'सुजोसिति सुष्टु क्षिप्त 00000000000 दीप अनुक्रम [१३८] M anmuraryorg ~141~ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [३०], नियुक्ति: [४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३०|| दीप अनुक्रम [१४०] सूत्रकृताङ्गंधूननाईखात् 'धूत' कर्मेति ॥ २९ ॥ अपि च-नियत इति स्त्रिहः न सिहः अस्निहः-सर्वत्र ममखरहित इत्यर्थः, यदिवा:--18 वैतालीशीलाका-18 परीषहोपसर्गनिहन्यते इति निहः न निहोऽनिहः-उपसगैरपराजित इत्यर्थः, पाठान्तरं वा 'अणहे ति नास्साघमस्तीत्यनघो, याध्य. चार्यांय- निरवद्यानुष्ठायीत्यर्थः, सह हितेन वर्तत इति सहितः सहितो-युक्तो वा ज्ञानादिभिः, स्वहितः आत्महितो वा सदनुष्ठानप्रवृत्तेः, उद्देशः २ त्तियुत तामेव दर्शयति-मुष्ठ 'संवृत' इन्द्रियनोइन्द्रियैर्विस्रोतसिकारहित इत्यर्थः, तथा धर्म:-श्रुतचारित्राख्यः तेनार्थः-प्रयोजन स ॥ ६९॥ 18 एच वाऽर्थः तस्यैव सन्निर्यमाणसात् धर्मार्थः स यस्खास्तीति स धर्मार्थी तथा उपधान-तपस्तत्र वीर्यवान् स एवम्भूतो 'विहरेत् । संयमानुष्ठानं कुर्यात् 'समाहितेन्द्रियः' संयतेन्द्रियः, कुत एवं ?-यत आत्महितं दुःखेनामुमता संसारे पर्यटता अकृतधर्मानु-18 टानेन 'लभ्यते' अवाप्यत इति, तथाहि "न पुनरिदमतिदुर्लभमगाधसंसारजलधिविभ्रष्टम् । मानुष्यं खद्योतकतडिल्लताविलसि-1 तप्रतिमम् ॥ १॥" तथाहि-युगसमिलादिदृष्टान्तनीत्या मनुष्यभव एव तावत् दुर्लभः, तत्राप्यायेक्षेत्रादिकं दुरापमिति, अत आत्महित दुःखेनावाप्यत इति मन्तव्यम् , अपिच-भूतेषु जङ्गमलं तमिन् पश्चेन्द्रियखमुत्कृष्टम् । तस्मादपि मानुष्यं मानुष्ये:प्यार्यदेशव ॥१॥ देशे कुलं प्रधान कुले प्रधाने च जातिरुत्कृष्टा । जातौ रूपसमृद्धी रूपे च बलं विशिष्टतमम् ॥ २॥ भवति ||81 बले चायुष्कं प्रकृष्टमायुष्कतोऽपि विज्ञानम् । विज्ञाने सम्यक्त्रं सम्यक्खे शीलसंप्राप्तिः, ॥३॥ एतत्पूर्वश्रायं समासतो मोक्षसाध-18|| | नोपायः । तत्र च बहु सम्प्राप्तं भवनिरपंच संप्राप्यम् ॥ ४॥ तत्कुरुतोचममधुना मदुक्तमार्गे समाधिमाधाय । त्यक्सा सङ्गम-18 नार्य कार्य सद्धिः सदा श्रेयः ॥ ५॥ इति ॥ ३०॥ एतच्च प्राणिमिन कदाचिदवाप्तपूर्वमित्येतदर्शयितुमाह-- RI स तदर्थः प्रा। ~142~ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [३१], नियुक्ति: [४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३१|| ण हि णूण पुरा अणुस्सुतं, अदुवा तं तह णो समुट्ठियं । मुणिणा सामाइआहितं, नाएणं जगसबदसिणा ॥३१॥ एवं मत्ता महंतरं, धम्ममिणं सहिया बहू जणा। गुरुणो छंदाणुवत्तगा, विरया तिन्न महोघमाहितं ॥३२॥ तिबेमि ॥ (गाथासम् १५२) दीप अनुक्रम [१४१] deseseseseicesticewesticeseserverseas यदेतत् 'मुनिना' जगतः सर्वभावदर्शिना ज्ञातपुत्रीयेण सामायिकादि 'आहितम्' आख्यातं, तत् 'नून' निश्चितं 'न हि'! नैव 'पुरा' पूर्व जन्तुभिः 'अनुश्रुतं' श्रवणपथमायातं अथवा श्रुतमपि तत्सामायिकादि यथा अवस्थित तथा नानुष्ठित, पाठान्तरं | वा 'अवितहन्ति अवितथं यथावमानुष्ठितमतः कारणादसुमतामात्महितं सुदुर्लभमिति ॥३१॥ पुनरप्युपदेशान्तरमधिकृत्याह-1 S'एवम्' उक्तरीत्याऽऽत्महितं सुदुर्लभं 'मत्वा' शाखा धर्माणां च महदन्तरं धर्मविशेष कर्मणो वा विवरं ज्ञाखा, यदिवा 'महं तरंति मनुष्यार्यक्षेत्रादिकमवसरं सदनुष्ठानस्य शाखा 'एन' जैनं 'धर्म' श्रुतचारित्रात्मक, सह हितेन तेन्त इति सहिताज्ञानादियुक्ता बहवो जना लघुकर्माणः समाश्रिताः सन्तो 'गुरोः' आचार्यादेतीर्थकरस वा 'छन्दानुवर्तका' तदुक्तमार्गानु पा. अडुवाऽवितह को अशुद्धिों । Munnaturanorm ~143~ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [३२], नियुक्ति: [४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: छायिनो 'विरता' पापेभ्यः कर्मभ्यः सन्तस्तीर्णा महौधम्' अपारं संसारसागरमैवमाख्यातं मया भवतामपरैश्च वीर्थकृद्भिरन्ये-11२ वैतालीपाम् , इतिशब्दः परिसमाप्त्यर्थे, ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ ३२ ॥ वैतालीयस्य द्वितीयोद्देशकः समाप्तः॥२॥ याध्य उद्देशः३ प्रत सूत्रांक ||३२|| शीलाका- चार्थीयचियुतं ॥७ ॥ ॥ अथ वैतालीयाध्ययनस्य तृतीयोद्देशकस्य प्रारम्भः ॥ दीप अनुक्रम [१४२] रseeces उक्तो द्वितीयोदेशकः, साम्प्रतं तृतीयः समारभ्यते अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोदेशकान्ते विरता इत्युक्तं, तेषां च कदाचित्परीपहाः समुदीरचतस्तत्सहन विधेयमिति, उद्देशार्थाधिकारोऽपि नियुक्तिकारेणाभिहितः यथाऽज्ञानोपचितख कर्म-18 णोऽपचयो भवतीति, स च परीषहसहनादेवेत्यतः परीषहाः सोढच्या इत्यनेन संवन्धेनाऽऽयातस्यास्योद्देशकस्याऽऽदि सूत्रसंवुडकम्मस्स भिक्खुणो, जं दुक्खं पुटुं अबोहिए।तं संजमओऽवचिजई, मरणं हेच्च वयंति पंडिया ॥१॥ जे विन्नवणाहिऽजोसिया, संतिन्नेहिं समं वियाहिया।तम्हा उद्दति पासहो, अदक्खु कामाइ रोगवं ॥२॥ १ज तिरिय अहे तहा इति पा. ॥७० SAREarathimithiMond अत्र द्वितीय-अध्ययनस्य तृतीय उद्देशकस्य आरम्भ: ~144~ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [२], नियुक्ति: [४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२|| संवृतानि-निरुद्धानि कर्माणि-अनुष्ठानानि सम्यगुपयोगरूपाणि वा मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगरूपाणि वा | यस्य 'भिक्षोः साधोः स तथा तस्स यत् 'दुःखम्' असद्वेचं तदुपादानभूतं वाऽष्टप्रकारं कर्म 'स्पृष्ट'मिति बद्धस्पृष्टनिकाचित-12 मित्यर्थः, तच्चात्र 'अबोधिना' अज्ञानेनोपचितं सत् 'संयमतों मौनीन्द्रोक्तात् सप्तदशरूपादनुष्ठानादू 'अपचीयते' प्रतिक्षणं क्षयमुपयाति, एतदुक्तं भवति-यथा तटाकोदरसंस्थितमुदकं निरुद्धापरप्रवेशद्वारं सदादित्यकरसम्पर्कात् प्रत्यहमपचीयते, एवं संवृताश्रवद्वारस्य भिक्षोरिन्द्रिययोगकषायं प्रति संलीनतया संवृतात्मनः सतः संयमानुष्ठानेन चानेकभवाज्ञानोपचितं कर्म क्षीयते, ये च संवृतात्मानः सदनुष्ठायिनश्च ते 'हित्वा' त्यक्ता 'मरणं' मरणस्वभावमुपलक्षणखात् जातिजरामरणशोकादिकं त्यक्ता मोक्षं ब्रजन्ति 'पण्डिताः' सदसद्विवेकिनः, यदिवा-'पण्डिताः सर्वज्ञा एवं वदन्ति यत् प्रागुक्तमिति ॥१॥ येऽपिच तेनैव | भवेन न मोक्षमाग्नुवन्ति तानधिकृत्याह-'ये' महासत्त्वाः कामार्थिभिर्विज्ञाप्यन्ते यास्तदर्थिन्यो वा कामिनं विज्ञापयन्ति ता विज्ञापनाः-खियस्ताभिः 'अजुष्टा' असेविताः क्षयं वा-अवसायलक्षणमतीतास्ते 'सन्तीण: मुक्तैः समं व्याख्याताः,18 अतीर्णा अपि सन्तो यतस्ते निष्किञ्चनतया शब्दादिषु विषयेष्वप्रतिबद्धाः संसारोदन्वतस्तटोपान्तवर्तिनो भवन्ति, तसा 'ऊ-18 | ध्वमिति' मोक्षं योपितपरित्यागाद्वोय यद्भवति तत्पश्यत यूयं । ये च कामान् 'रोगवदू' व्याधिकल्पान् 'अद्राक्षुः दृष्टवन्तस्ते || संतीर्णसमा व्याख्याताः, तथा चोक्तम्-"पुष्कॅफलाणं च रसं सुराइ मंसस्स महिलियाणं च । जाणता जे विरया ते दुक्करकारए १ झोषोऽवसानम् । २ खटान्त० प्र०।३ पुषफलानां च रसं मुराया मांसस्य महेलानां च । जानन्तो ये विरतासान् दुष्करकारकान् बन्दै ॥१॥ दीप ccestseedeseeeeeeeesercedese अनुक्रम [१४४] ७esercentercedese ~145 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||R|| दीप अनुक्रम [१४४] सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्का चायतियुतं ॥ ७१ ॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [३], मूलं [२], निर्युक्तिः [ ४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र- [ ०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः वंदे ॥ १ ॥ तृतीयपादस्य पाठान्तरं वा 'उहुं तिरियं अहे तहा' ऊर्ध्वमिति - सौधर्मादिषु, तिरियमिति – तिर्यक्लोके, अध | इति-भवनपत्यादौ, ये कामास्तान् रोगवदद्राक्षुर्ये ते तीर्णकल्पा व्याख्याता इति ॥ २ ॥ पुनरप्युपदेशान्तरमधिकृत्याहअग्गं वणिएहिं आहियं, धारंती राईणिया इहं । एवं परमा महवया, अक्खाया उ सराइभोयणा ॥३॥ जे इह सायाणुगा नरा, अज्झोववन्नाकामेहिं मुच्छिया । praणेण समं पगभिया, न वि जाणंति समाहिमाहितं ॥ ४ ॥ 'अर्थ' वर्ष प्रधानं रत्नवस्त्राभरणादिकं तद्यथा वणिग्भिर्देशान्तराद् 'आहितं' ढौकितं राजानस्तत्कल्पा ईश्वरादयः 'इह' अस्मिन्मनुष्यलोके 'धारयन्ति' विनति, एवमेतान्यपि महाव्रतानि रत्नकल्पानि आचार्यैः 'आख्यातानि' प्रतिपादितानि नियोजितानि 'सरात्रिभोजनानि' रात्रिभोजन विरमणषष्ठानि साधवो विभ्रति, तुशब्दः पूर्वरत्वेभ्यो महाव्रतरत्नानां विशेषापादक | इति, इदमुक्तं भवति यथा प्रधानरत्नानां राजान एव भाजनमेवं महाव्रतरलानामपि महासत्त्वा एव साधवो भाजनं नान्ये | इति ॥ ३ ॥ किञ्च ये नरा लघुप्रकृतयः 'इह' अस्मिन् मनुष्यलोके सातं- सुखमनुगच्छन्तीति सातानुगाः – सुखशीला ऐहिकामुष्मिकापाय भीरवः समृद्धिरससाता गौरवेषु 'अध्युपपन्ना' गृद्धाः तथा 'कामेषु' इच्छामदनरूपेषु 'मूच्छिता' कामोत्कटतृष्णाः कृपणो- दीनो वराकक इन्द्रियैः पराजितस्तेन समाः तद्वत्कामासेवने 'प्रगल्भिता' धृष्टतां गताः, यदिवा - किमनेन Ecation International For Park Use Only ~146~ २ बैतालीयाध्य० उद्देशः ३ ॥ ७१ ॥ or Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [४], नियुक्ति: [४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||४|| स्तोकेन दोषेणासम्यकप्रत्युपेक्षणादिरूपेणासत्संयमस्य विराधनं भविष्यत्येवं प्रमादवन्तः कर्तव्येष्ववसीदन्तः समस्तमपि संयम IS पटवन्मणिकुहिमवद्वा मलिनीकुर्वन्ति, एवम्भूताच ते 'समाधि' धर्मध्यानादिकम् 'आख्यात कथितमपि न जानन्तीति ॥४॥ | पुनरप्युपदेशान्तरमधिकृत्याहवाहणजहा व विच्छए, अबले होइ गवं पचोइए। से अंतसो अप्पथामए, नाइवहइ अबले विसीयति ५/ एवं कामेसणं विऊ, अज सुए पयहेज संथवं । कामी कामे ण कामए, लद्धे वावि अलद्ध कण्हुई ॥६॥ 81 व्याधेन' लुब्धकेन 'जहा वत्ति यथा 'गवन्ति मृगादिपशुर्विविधम्-अनेकप्रकारेण कूटपाशादिना क्षत:-परवशी- 1101 & कृतः श्रमं वा ग्राहितः प्रणोदितोऽप्यबलो भवति, जातश्रमसात् गन्तुमसमर्थः, यदिवा--वाहयतीति वाहः-शाकटिकस्तेन यथा-18| | वदवहन् गौर्विविधं प्रतोदादिना क्षतः-प्रचोदितोऽप्यवलो-विषमपथादौ गन्तुमसमथों भवति, 'स चान्तशः' मरणान्तमपि । यावदल्पसामर्थ्यो नातीव बोहुं शक्रोति, एवम्भूतश्च 'अबलो भार वोहुमसमर्थः तत्रैव पवादी विषीदतीति ॥५॥ दार्शन्तिकमाह-'एवम् अनन्तरोक्तया नीत्या कामानां-शब्दादीनां विषयाणां या गवेषणा-प्रार्थना तस्यां कर्तव्यायां 'विद्वान्' निपुणः। कामप्रार्थनासक्तः शब्दादिपके मनः स चैवम्भूतोऽद्य श्वो वा 'संस्तवं परिचयं कामसम्बन्धं प्रजयात् किलेति, एवमध्यवसाय्येव | सर्वदाऽवतिष्ठते, नच तान् कामान् अपलो बलीवर्दवत् विषम मार्ग त्यक्तुमल, किश्वन चैहिकामुष्मिकापायदर्शितया कामी १बचालो प्र० । २ याऽन्वेषणा प्र०1३ बाटो । नवल. प्र.। ४ नैवे०प्र० । ersesekseecateeesearcentaera Hamavasa030203930200303013 दीप अनुक्रम [१४६] SUREatindemonel Jaurasurary.org ~147 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [६], नियुक्ति: [४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: याध्य प्रत सूत्रांक ||६|| सूत्रकृताङ्गंभूखोपनतानपि 'कामान्' शब्दादिविषयान् वैरखामिजम्चूनामादिवद्वा 'कामयेत' अभिलपेदिति, तथा क्षुल्लककुमारवत् २वैतालीशीलादा-18 कुतश्चिन्निमित्तात् 'सुटुगाइय'मित्यादिना प्रतिबुद्धो 'लब्धानपि' प्राप्तानपि कामान् अलब्धसमान् मन्यमानो महासत्वतयाई चायिय-18 तनिस्पृहो भवेदिति ॥ ६॥ किमिति कामपरित्यागो विधेय इत्याशवाह उद्देशः ३ चियुत मा पच्छ असाधुता भवे, अचेही अणुसास अप्पगं। अहियं च असाहु सोयती, से थणती परिदेवती बहुं७ ॥७२॥ इह जीवियमेव पासहा,तरुण एवा(णे वा)ससयस्स तुट्टती।इत्तरवासे य बुज्झह,गिद्धनरा कामेसु मुच्छिया मा पश्चात्-मरणकाले भवान्तरे वा कामानुषङ्गाद् 'असाधुता' कुगतिगमनादिकरूपा 'भवेत् प्राप्नुयादिति, अतो विषयासनादात्मानम् 'अत्येहि त्याजय, तथा आत्मानं च 'अनुशाधि' आत्मनोऽनुशास्तिं कुरु, यथा हे जीव! यो हि 'असाधुः असाधुकर्मकारी हिंसानृतस्तेयादी प्रवृत्तः सन् दुर्गतौ पतितः अधिकम्-अत्यर्थमेवं शोचति, स च परमाधार्मिकैः कदर्शमानस्तिर्वक्षु वा क्षुधादिवेदनाग्रस्तोऽत्यर्थ 'स्तनति' सशब्द निःश्वसिति, तथा 'परिदेवते' विलपत्याकन्दति सुबहिति-हा मातर्मियत इति प्राता नैवास्ति साम्प्रतं कवित् । किं शरणं मे स्थादिह दुष्कृतचरितस्य पापस्य ॥१।। इत्येवमादीनि दुःखान्यसाधुकारिणः प्राप्नु-181 IR ॥७२॥ वन्तीत्यतो विषयानुपको न विधेय इत्येवमात्मनोऽनुशासनं कुर्विति सम्बन्धनीयं ॥ ७॥ किश्च-'इह' अमिन संसारे आस्तां तावदन्यज्जीवितमेव सकलसुखास्पदमनित्यताऽऽघातं आवीचिमरणेन प्रतिक्षणं विशरारुखभावं, तथा-सायुक्षय एव वा १ दुबल वा. चू। eceneraepersectaerses दीप अनुक्रम [१४८] mainalisa ~148~ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [८], नियुक्ति: [४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||८|| | तरुण एवं' युवैव वर्षशतायुरप्युपक्रमतोऽध्यवसाननिमित्चादिरूपादायुषः 'त्रुव्यति' प्रच्यवते, यदिवा-साम्प्रतं सुबहप्यायुर्वर्षशतं तच्च तस तदन्ते त्रुटयति, सब सागरोपमापेक्षया कतिपयनिमेषप्रायखात् इखरवासकल्प वर्तते-स्तोकनिवासकल्पमित्येवं बुध्यध्वं पूर्य, तथैवम्भूतेऽप्यायुपि 'मरा.' पुरुषा लघुप्रकृतयः 'कामेषु' शब्दादिषु विषयेषु 'गृहा' अध्युपपन्ना मूछिताः18 तत्रैवाऽऽसक्तचेतसो नरकादियातनास्थानमामुवन्तीति शेषः ।।८॥ अपिच जे इह आरंभनिस्सिया, आतदंडा(ड)एगंतलूसगा। गंता ते पावलोगय, चिररायं आसुरियं दिसं॥९॥ णय संखयमाहु जीवितं, तहवि य बालजणो पगब्भई। पञ्चुप्पन्नेण कारियं,को दटुं परलोयमागते ?॥१०॥ ये केचन महामोहाकुलितचेतसः 'इह' अस्मिन्मनुष्यलोके 'आरम्भे' हिंसादिके सावद्यानुष्ठानरूपे निश्चयेन श्रिताः-संवद्धा | अध्युपपन्नास्ते आत्मानं दण्डयन्तीत्यात्मदण्डकाः, तथैकान्तेनेव जन्तूनां लूपका-हिंसकाः सदनुष्ठानस्य वा ध्वंसकाः, ते एवम्भूता | 'गन्तारों यास्यन्ति 'पापं लोक' पापकर्मकारिणां यो लोको नरकादिः 'चिररात्रम्' इति प्रभूतं कालं तन्निवासिनो भवन्ति, तथा बालतपश्चरणादिना यद्यपि तथाविधदेवखापतिस्तथाऽप्यसुराणामियमासुरी तां दिशं यान्ति, अपरप्रेष्याः किल्विपिका देवाधमा भवन्तीत्यर्थः ॥९॥ किश्च-'म च' नैव त्रुटितं जीवितमायुः 'संस्कर्तुं संधातुं शक्यते, एवमाहुः सर्वज्ञाः, तथाहि-दंडेकलियं करिन्ता वचंति हु राइओ य दिवसा य । आउं संवेल्लंता गया यण पुणो नियति ॥१॥" 'तथापि' एवमपि दमकलित पूर्वयो ममन्ति रात्रयच दिवसाय । आयुः संवेलयम्त्यः गताय पुनर्ग निवर्तन्ते ॥१॥ दीप अनुक्रम [१५०] पत्रक. lina Summaryam ~149~ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [१०], नियुक्ति: [४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१०|| दीप अनुक्रम सूत्रकृताङ्गं व्यवस्थिते जीवानामायुषि 'बालजन' अज्ञो लोको निर्विवेकतया असदनुष्ठाने प्रवृत्तिं कुर्वन् 'प्रगल्भते' धृष्टतां याति, असद- २ वैतालीशीलाका || नुष्ठानेनापि न लज्जत इत्यर्थः, स चाज्ञो जनः पापानि कमाणि कुर्वन् परेण चोदितो धृष्टतया अलीकपाण्डित्याभिमानेनेदमुत्तर-18|| याध्य 1 माह-'प्रत्युत्पन्नेन' वर्तमानकालभाविना परमार्थसता अतीतानागतयोविनष्टानुत्पन्नखेनाविद्यमानखात् 'कार्य' प्रयोजन, उद्देशः ३ तियुत प्रेक्षापूर्वकारिभिस्तदेव प्रयोजनसाधकबादादीयते, एवं च सतीहलोक एव विद्यते न परलोक इति दर्शयति-का परलोकं दृष्ट्र-1 ॥ ७३॥ हायातः, तथा चोचुः-“पिप खाद च साधु शोभने!, यदतीतं वरगात्रि! तब ते । नहि भीरु! गतं निवर्तते, समुदयमात्रमिदं । कलेवरम् ॥१॥" तथा "एतावानेव पुरुषो, यावानिन्द्रियगोचरः । भद्रे ! वृकपदं पश्य, यद्वदन्त्यबहुश्रुताः ॥२॥” इति ।। ॥ १०॥ एवमैहिकसुखाभिलापिणा परलोकं निढुवानेन नास्तिकेन अभिहिते सत्युत्तरप्रदानायाह अदक्खुव दक्खुवाहियं,(त)सदहसु अदक्खुदंसणा!। हंदि हु सुनिरुद्धदसणे,मोहणिजेण कडेण कम्मुणा | दुक्खी मोहे पुणो पुणो, निविंदेज सिलोगपूयणं। एवं सहितेऽहिपासए, आयतुलं पाणेहिं संजए ॥१२॥ पश्यतीति पश्यो न पश्योऽपश्यः-अन्धस्तेन तुल्यः कार्याकार्याविवेचिवादन्धवत्तस्याऽऽमन्त्रणं हेऽपश्यबद्-अन्धसदृश ! प्रत्यक्षस्यैवैकस्याभ्युपगमेन कार्याकार्यानभिज्ञ पश्येन- सर्वजेन व्याहृतम्-उक्तं सर्वज्ञागर्म 'श्रद्धख' प्रमाणीकुरु, प्रत्यक्षस्यै-10॥७३॥ | वैकस्याभ्युपगमेन समस्तव्यवहारविलोपेन हन्त हतोऽसि, पितृनिबन्धनस्थापि व्यवहारस्सासिद्धेरिति, तथा अपश्यकस्य-असवेश| १ः परलोकं दर्शयति, कः पर.प्र. २ वदन्ति पा० [१५२] ~150 ~ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [१२], नियुक्ति: [४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१२|| साभ्युपगतं दर्शनं येनासावपश्यकदर्शनस्तस्वाऽऽमन्त्रणं हेपश्यकदर्शन ! स्वतोर्चाग्दी मवांस्तथाविधदर्शनप्रमाणश्च सन् कार्या-AM | कार्याविवेचितयाऽग्धवदभविष्यत् यदि सर्वज्ञाभ्युपगमं नाकरिष्यत् , यदिवा अदक्षोचा अनिपुणो वा दक्षो वा-निपुणो वा यात्रास्ता-18| शो वाऽचक्षुदर्शनमस्यासावचक्षुर्दर्शन:---केवलदर्शन:--सर्वज्ञस्तस्माद्यदवाप्यते हितं तत् श्रद्धख, इदमुक्तं भवति-अनिपुणेन 1881 | निपुणेन वा सर्वज्ञदर्शनोक्तं हितं श्रद्धातव्यं, यदिवा-हे 'अदृष्ट' हे अर्वागदर्शन! द्रष्ट्रा-अतीतानागतव्यवहितसूक्ष्मपदार्थद-18 पशिना ययाहृतम्-अभिहितमागमे तत् श्रद्धख, हे अदृष्टदर्शन अदक्षदर्शन | इति वा असर्वज्ञोक्तशासनानुयायिन् ! तमात्मीयमाग्रहं परित्यज्य सर्वज्ञोक्त मार्गे श्रद्धानं कुर्विति तात्पर्याथैः, किमिति सर्वज्ञोक्ते मागें श्रद्धानमसुमान करोति ! येनैवमुपदिश्यते, तभिमित्तमाह-'हंदीत्येवं गृहाण, हुशब्दो वाक्यालङ्कारे सुष्टु-अतिशयेन निरुद्धम्-आवृतं दर्शन-सम्यग अवयोधरूपं यस्य स तथा, केनेत्याह-मोहयतीति मोहनीयं-मिथ्यादर्शनादि ज्ञानावरणीयादिकं वा तेन वकृतेन कर्मणा निरुद्धदर्शनः प्राणी सर्वज्ञोक्त मार्ग न श्रद्धत्ते अतस्तन्मार्गश्रद्धानं प्रति चोद्यते इति ॥ ११ ॥ पुनरप्युपदेशान्तरमाह-दुःखम् –असातवेदनी-131 यमुदयप्राप्तं तत्कारणं वा दुःखयतीति दुःखं तदस्खास्तीति दुःखी सन् प्राणी पौनःपुन्येन मोहं याति-सदसद्विवेकविकलो भवति, । इदमुक्तं भवति-असातोदयात् दुःखमनुभवन्ना? मूढस्तत्तत्करोति येन पुनः पुनः दुःखी संसारसागरमनन्तमभ्येति, तदेवम्भूतं । मोह परित्यज्य सम्यगुत्थानेनोत्थाय 'निर्विद्येत' जुगुप्सयेत् परिहरेदात्मश्लाघां स्तुतिरूपां तथा 'पूजन' वस्त्रादिला भरूपं परिहरेत् , 'एवम् अनन्तरीक्तया नीत्या प्रवर्त्तमानः सह हितेन वर्तत इति सहितो ज्ञानादियुक्तो वा संपतः प्रबजितोऽपरप्राणिभिः दीप अनुक्रम [१५४] ~151~ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [१२], नियुक्ति: [४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: सूत्रकृताङ्गं शीलाका- चाीय प्रत सूत्रांक ||१२|| चियुतं ॥७४॥ Operamanadraprasaerasaradagratras दीप सुखार्थिभिः 'आत्मतुला' आत्मतुल्यता दुःखात्रियखसुखत्रियखरूपामाघेकं पश्येत् , आत्मतुल्यान् सर्वानपि प्राणिनः पाल-15 तालीयेदिति ।। १२ ।। किश्चयादात ।। याध्यक गारंपिअ आवसे नरे,अणुपुत्वं पाणेहिं संजए । समता सवत्थ सुबते, देवाणं गच्छे सलोगयं ॥ १३ ॥ उद्देशः ३ सोचा भगवाणुसासणं,सच्चे तत्थ करेजुवक्कम। सवत्थ विणीयमच्छरे, उञ्छं भिक्खु विसुद्धमाहरे ॥१४॥ 'अगारमपि' गृहमप्यावसन्-गृहवासमपि कुर्वन् 'नरों' मनुष्यः 'आनुपूर्वमिति आनुपूर्व्या-श्रवणधर्मप्रतिपत्त्यादि| लक्षणया प्राणिषु यथाशक्या सम्यक यतः संयतः तदुपमद्दोनिवृत्तः, किमिति ? यतः 'समता' समभावः आत्मपरतुल्यता | 'सर्वत्र' यती गृहस्खे च यदिवैकेन्द्रियादी 'भूयते' अभिधीयते आहेते प्रवचने, तां च कुर्वन् स गृहस्थोऽपि सुव्रतः सन् ! 'देवानां पुरन्दरादीनां 'लोक' स्थानं गच्छेत् , किं पुनर्यो महासचतया पश्चमहाव्रतधारी यतिरिति ॥ १३ ॥ अपिच-बानश्वर्यादिगुणसमन्वितस्य भगवतः-सर्वज्ञस्य शासनम्-आज्ञामागर्म वा 'श्रुत्वा' अधिगम्य 'तत्र' तमिबागमे तदुक्ते वा। संयमे सयो हिते सत्ये लघुकर्मा तदुपक्रम-तत्याप्युपायं कुर्यात्, किम्भूतः सर्वत्रापनीतो मत्सरो येन स तथा सोऽरक्तविष्टः क्षेत्रव(वा)स्तूपधिशरीरनिष्पिपासः, तथा 'उछति भैक्ष्यं विशुद्धं-द्विचखारिंशद्दोपरहितमाहारं गृहीयादभ्यवहरेद्वेति ॥७४॥ ॥ १४ ॥ किश्च१श्रमग प्र०२० वखोप.प्र. अनुक्रम [१५४] ~152~ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [१५], नियुक्ति: [४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१५|| 8 सवं नच्चा अहिट्ठए, धम्मट्ठी उवहाणवीरिए । गुत्ते जुत्ते सदाजए, आयपरे परमायतट्टिते ॥१५॥ वित्तं पसवो यनाइओ, तंबाले सरणं ति मन्नइ।एते मम तेसुवी अहं, नो ताणं सरणं न विजई ॥ १६ ॥ | 'सर्वम् एतद्धेयमुपादेयं च शाखा सर्वज्ञोक्त मार्ग सर्वसंवररूपम् 'अधितिष्ठेत् आश्रयेत् , धर्मेणार्थो धर्म एव वार्थः पर-18 | मार्थेनान्यस्थानर्थरूपखात् धर्मार्थः स विद्यते यस्थासौ धमार्थी-धर्मप्रयोजनवान , उपधानंतपस्तत्र वीर्य यस्य स तथा अनि-18 गहितबलवीर्य इत्यर्थः, तथा मनोवाकायगुप्तः, सुप्रणिहितयोग इत्यर्थः, तथा युक्तो ज्ञानादिभिः 'सदा सर्वकालं यतेतास्मनि परसिंथ । किविशिष्टः सन् १ अत आह-परम-उत्कृष्ट आयतो दीर्घः सर्वकालभवनात मोक्षस्तेनार्थिकः तदभि-12 लाषी पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टो भवेदिति ॥ १५ ॥ पुनरप्युपदेशान्तरमाह-'वित्तं' धनधान्यहिरण्यादि 'पशवः' करितुरगगोम| हिच्यादयो 'ज्ञातयः स्वजना मातापितृपुत्रकलत्रादयः तदेवद्वित्तादिकं 'बाल' अज्ञः शरणं मन्यते, तदेव दशयति-ममैते | वित्तपशुज्ञातयः परिभोगे उपयोक्ष्यन्ते, तेषु चार्जनपालनसंरक्षणादिना शेषोपद्रवनिराकरणद्वारणाहं भवामीत्येवं बालो मन्यते, न पुनर्जानीते यदर्थ धनमिच्छन्ति तच्छरीरमशाश्वतमिति, अपिच-"रिद्धी सहावतरला रोगजराभंगुरं हयसरीरं । दोहंपि गमणसीलाण किचिरं दोज संबंधो॥१॥" तथा "मातापित्सहस्राणि, पुत्रदारशतानि च। प्रतिजन्मनि वतेन्ते, कस माता पि दीप अनुक्रम [१५७] 20 వంటి अधिः खभावतरला रोगजराभवरं इतकं शरीरम् । इयोरपि गमनशीलयोः कियधिरं भवेसंबन्धः ॥१॥ ~153~ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [१६], नियुक्ति: [४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: TOIयाध्यक चार्यांय प्रत सूत्रांक ||१६|| दीप अनुक्रम सूत्रकृताङ्गताऽपि वा ॥१॥" एतदेवाह-'नो' नैव वित्तादिकं संसारे कथमपि त्राणं भवति नरकादौ पततो, नापि रागादिनोपद्रु-18/२ वैवालीशीलाक-18 तस्य कचिच्छरणं विद्यत इति ।। १६ ॥ एतदेवाहचियुत अब्भागमितंमि वा दुहे,अहवा उक्कमिते भवंतिए । एगस्स गती य आगती,विदुमंता सरणं ण मन्नई॥१७॥ उद्देशः ३ सल्वे सयकम्मकप्पिया,अवियत्तेण दुहेण पाणिणो। हिंडंति भयाउला सढा, जाइजरामरणेहिऽभिदुता १८18 ॥७५॥ 18. पूर्वोपाचासातवेदनीयोदयेनाभ्यागते दुःखे सत्येकाक्येव दुःखमनुभवति, न ज्ञातिवर्गेण वित्तेन वा किचित्क्रियते, तथाच "सयणस्सवि मज्झगओ रोगाभिहतो किलिस्सइ इहेगो । सयणोविय से रोग, न विरंचइ नेव नासेइ ॥१॥" अथवा उपक्रम-18 | कारणैरुपकान्ते वायुषि स्थितिक्षयेण वा भवान्तरे भवान्तिके वा-मरणे समुपस्थिते सति एकस्यैवासुमतो गतिरागतिश्च भवति, 'विद्वान' विवेकी यथावस्थितसंसारखभावस्य वेत्ता ईषदपि तावत् शरणं न मन्यते, कुतः सर्वात्मना त्राणमिति, तथाहिRI"एकस्य जन्ममरणे गतयश्च शुभाशुभा भवावर्ते । तस्मादाकालिकहितमेकेनैवात्मनः कार्यम् ॥१॥ एको करेइ कम्म फलमपि || तस्सिकओ समशुहवइ । एको जायइ मरद य परलोयं एकओ जाइ ॥ २॥ ॥१७॥ अन्यच-सर्वेऽपि संसारोदरविवरव-18 तिनः प्राणिनः संसारे पर्यटन्तः खकृतेन ज्ञानावरणीयादिना कर्मणा कल्पिता:-मूक्ष्मवादरपर्याप्तकापयोप्लकेकेन्द्रियादिभेदेन|8|॥७५॥ सजनस्यापि मभ्यगतो रोगामिहत्तः लिश्यति बहकः । खजनोऽपि च तस्य रोग न बिरेचयति (हसथति) नैव नाशयति ।। १॥२ एकः करोति कर्म फलमपि सबैककः समभवति । एको जायते म्रियते च परलोकमेकको याति ॥१॥ [१५८] ~154~ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [१८], नियुक्ति: [४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१८|| दीप व्यवस्थिताः, तथा तेनैव कर्मणैकेन्द्रियाद्यवस्थायाम् 'अव्यक्तेन' अपरिस्फुटेन शिरःशूलाद्यलक्षितस्वभावेनोपलक्षणार्थखात् प्रव्य तेन च 'दुःखेन' असातावेदनीयस्वभावेन समन्विताः प्राणिनः पर्यटन्ति-अरघट्टघटीयत्रन्यायेन तारखेव योनिषु भयाकुलाः शठI|कर्मकारित्वात् शठा भ्रमन्ति जातिजरामरणैरभिद्रुता-गर्भाधानादिभिदुःखैः पीडिता इति ॥ १८ ॥ किश्च इणमेव खणं वियाणिया,णो सुलभं बोहिं च आहितं। एवं सहिएऽहिपासए,आह जिणे इणमेव सेसगा१९ अभविंसु पुरावि भिक्खुवो,आएसावि भवंति सुब्बता।एयाइं गुणाई आहु ते,कासवस्स अणुधम्मचारिणो।। इदमः प्रत्यक्षासन्नवाचिसात इमंद्रच्यक्षेत्रकालभावलक्षणं 'क्षणम्' अवसरं ज्ञाता तदुचितं विधेय, तथाहि-द्रव्यं जङ्ग-18 मत्वपञ्चेन्द्रियत्नसुकुलोत्पत्तिमानुष्यलक्षणं क्षेत्रमप्यार्य देशापविंशतिजनपदलक्षणं कालोऽप्यवसर्पिणीचतुर्थारकादिः धर्मप्रतिप-% चियोग्यलक्षणः भावश्च धर्मश्रवणतच्छ्रद्धानचारित्रावरणकर्मक्षयोपशमाहितविरतिप्रतिपयुत्साहलक्षयाः, तदेवंविधं क्षणम्| अवसर परिज्ञाय तथा 'बोधिं च सम्यग्दर्शनावाप्तिलक्षणां नो सुलभामिति, एक्माख्यांतमवगम्य तदवातौ तदनुरूपमेव कुयों| दिति शेषः, अकृतधर्माणां च पुनदुर्लभा बोधिः, तथाहि-लद्धेल्लियं च बोहिं अकरतो अणागयं च पत्थेतो । अन्नं दाई बोहिं लम्भिसि कयरेण मोल्लेणं ॥१॥" तदेवमुत्कृष्टतोऽपार्द्धपुद्गलपरावर्तप्रमाणकालेन पुनः सुदुर्लभा बोधिरित्येवं सहितो ज्ञानादिमिरधिपश्येत-बोधिसुदुर्लभत्वं पर्यालोचयेत् , पाठान्तरं वा 'अहियासए'त्ति परीपहानुदीर्णान् सम्यगधिसहेत । एतचाऽऽह १ स्याता. प्र.१ सम्धां च मौधिमकुर्वन् अनागतां च प्रार्थयमानः । भन्या (तदा) बोधि लस्वसे कल रेग मूल्येन ? ॥ १॥ अनुक्रम [१६०] A asurary.com ~155~ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [२०], नियुक्ति: [४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२०|| दीप अनुक्रम सूत्रकृतानं 'जिनो रागद्वेषजेता नाभेयोऽष्टापदे खान् सुतानुद्दिश्य, तथाऽन्येऽपि इदमेव शेषका जिना अभिहितवन्त इति ॥१९॥ एतदाह- २ वैतालीशीलाङ्का- हे भिक्षवः-साधवः, सर्वज्ञः खशिष्यानेवमामत्रयति, येऽभूवन्-अतिक्रान्ता जिना' सर्वज्ञाः 'आएसावित्ति आगमिष्याश्च || याध्य चार्टीय. ये भविष्यन्ति, तान् विशिनष्टि--'सुव्रता' शोभनव्रताः, अनेनेदमुक्तं भवति-तेपामपि जिनत्वं सुव्रतत्वादेवायातमिति, ते 8 उद्देशः ३ त्तियुत सर्वेऽप्येतान् अनन्तरोदितान् गुणान् 'आहुः' अभिहितवन्तः, नात्र सर्वज्ञानां कचिन्मतभेद इत्युक्तं भवति, ते च 'काश्यपस्य। ॥७६ ॥ ऋषभखामिनो बर्द्धमानखामिनो वा सर्वेऽप्यनुचीर्णधर्मचारिण इति, अनेन च सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मक एक एवं मोक्षमागे, | इत्यावदितं भवतीति ॥ २० ॥ अभिहितांश गुणानुदेशत आहतिविहेणवि पाणमा हणे,आयहिते अणियाण संवुडे । एवं सिद्धा अणंतसो,संपइ जे अ अणागयावरे॥२१॥ एवं से उदाहु अणुत्तरनाणी अणुत्तरदंसी अणुत्तरनाणदसणधरे । अरहा नायपुत्ते भगवं वेसालिए |वियाहिए ॥२२॥ तिबेमि ॥ इति श्रीवेयालियं बितीयमज्झयणं समत्तं ॥ (गाथायं. १७४)। 'त्रिविधेन' मनसा बाचा कायेन यदिवा-कृतकारितानुमतिभिर्वा 'प्राणिनो' दशविधप्राणभाजो मा हन्यादिति, प्रथममिदं । महाव्रतम् , अस्य चोपलक्षणार्थत्वात् एवं शेपाण्यपि द्रष्टव्यानि, तथाऽऽत्मने हित आत्महितः, तथा नास्थ स्वगोवात्यादिलक्षणं नि18 दानमस्तीत्यनिदानः, तथेन्द्रियनोइन्द्रियैर्मनोवाकायैर्वा संवृतस्विगुप्तिगुप्त इत्यर्थः, एवम्भूतश्रावश्यं सिद्धिमयामोतीत्येतदर्शयति [१६२] easesehoeae ~156~ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [२२], नियुक्ति: [४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: eseae aoist प्रत सूत्रांक ||२२|| एवम् अनन्तरोक्तमार्गानुष्ठानेनानन्ताः 'सिद्धा' अशेषकर्मक्षयमाजः संवृत्ता विशिष्ट स्थानभाजो वा, तथा 'सम्पति' वर्तमाने काले सिद्धिगमनयोग्ये सिध्यन्ति, अपरे वा अनागते काले एतन्मार्गानुष्ठायिन एव सेत्स्यन्ति, नापर: सिद्धिमार्गोऽस्तीति भा-11 वार्थः ॥२१॥ एतच सुधर्मखामी जम्बूस्वामिप्रभृतिभ्यः स्खशिष्येभ्यः प्रतिपादयतीत्याह-'एवं से'इत्यादि 'एवम् उद्देशकत्रयाभिहितनीत्या 'स' ऋषभखामी स्वपुत्रानुद्दिश्य 'उदाहुतवान्' प्रतिपादितवान् , नासोत्तरं-प्रधानमस्तीत्यनुत्तरं तच त-18 ज्ञानं च अनुत्तरज्ञानं तदस्यास्तीत्यनुत्तरज्ञानी तथाऽनुत्तरदर्शी, सामान्य विशेषपरिच्छेदकावयोधस्वभाव इति, बौद्धमतनिरासद्वारेण ज्ञानाधारं जीवं दर्शयितुमाह-'अनुत्तरज्ञानदर्शनधर' इति कथञ्चिद्भिन्नज्ञानदर्शनाऽऽधार इत्यर्थः, 'अईन् सुरेन्द्रा| दिपूजा) ज्ञातपुत्रो वर्द्धमानखामी ऋषभखामी चा 'भगवान्' ऐश्वर्यादिगुणयुक्तो विशाल्यां नगर्या वर्द्धमानोऽस्माकमाख्या| तवान् , ऋषभखामी या विशालकुलोद्भवखाद्वैशालिकः, तथा चोक्तम्-"विशाला जननी यस्य, विशालं कुलमेव वा । विशालं|| प्रवचनं चास्स, तेन वैशालिको जिनः ॥१॥" एवमसौ जिन आख्यातेति । इतिशब्दः परिसमाप्त्यर्थो, अवीमीति उक्ताओं, नयाः पूर्ववदिति ।। २२ ॥ तृतीय उदेशका समाप्त, तत्समाप्तौ च समान द्वितीयं बैतालीयमध्ययनं ॥ दीप Sastawwwsasabasa अनुक्रम [१६४] sectsestaesesese १(वचन) यस्य प्र. maharana अत्र दवितीय-अध्ययनं परिसमाप्तम ~ 157~ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [3], उद्देशक [-], मूलं [२२...], नियुक्ति: [४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप सूत्रकताएं अथ तृतीयस्योपसर्गाध्ययनस्य प्रथमोद्देशकः प्रारभ्यते ॥ ३ उपसशीलाक्षा गोध्य चापीयत्तियुत उद्देशः१ उक्तं द्वितीयमध्ययनम् , अधुना तृतीयमारभ्यते-अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरं खसमयपरसमयप्ररूपणाऽभिहिता, तथा ॥७ ॥ परसमयदोषान् खसमयगुणांश्च परिज्ञाय स्खसमये नोधो विधेय इत्येतच्चाभिहितं, तस्य च प्रतिबुद्धस्य सम्यगुत्थानेनोस्थितस्य। सतः कदाचिदनुकूलप्रतिकूलोपसर्गाः प्रादुर्भवेयुः, ते चोदीर्णाः सम्यक् सोढव्या इत्येतदनेनाध्ययनेन प्रतिपाद्यते, ततोऽनेन ? सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चखार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्रोपक्रमान्तर्गतोाधिकारी द्वेषा अध्ययनार्थाधिकार उद्देशार्था-10 धिकारश्न, तत्राध्ययनार्थाधिकारः 'संबुद्धस्सुवसग्मा' इत्यादिना प्रथमाध्ययने प्रतिपादितः, उद्देशार्थाधिकारं तूतरत्र खयमेव | नियुक्तिकारः प्रतिपादयिष्यतीति, नामनिष्पन्नं तु निक्षेपमधिकृत्य नियुक्तिकृदाह उधसग्गंमि य छकं दब्वे चेयणमचेयणं दुविहं । आगंतुगो य पीलाकरो य जो सो उबस्सग्गो ॥४५॥ नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात् उपसर्गाः षोढा, तत्र नामस्थापने क्षुण्णवादनादृत्य द्रव्योपसर्ग दर्शयति 'द्रव्ये द्रव्य-18 विषये उपसगों द्वेधा, यतस्तथ्यमुपसर्गकर्तृ चेतनाचेतनभेदात् द्विविधं, तत्र तिर्यमनुष्यादयः खावयवाभिघातेन यदुपसर्ग-18 14 यन्ति स सचिनद्रव्योपसर्गः, स एव काष्ठादिनेतरः । 'तत्त्वभेदपर्यायाख्ये ति, तत्रोपसर्ग उपतापः शरीरपीडोत्पादनमित्यादि-12 अनुक्रम elesesesevedeseserve [१६४] ॥७७॥ अत्र तृतीय-अध्ययनं 'उपसर्ग'स्य आरम्भः, द्वितीय एवं तृतीय-अध्ययनस्य अभिसंबंध:, उपसर्ग-शब्दस्य निक्षेपाः ~158~ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक -], मूलं [२२...], नियुक्ति: [४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२२|| पर्यायाः, भेदाश्च तिर्यङ्मनुष्योपसर्गादयः नामादयश्च, तत्त्वव्याख्यां तु नियुक्तिकदेव गाथापश्चार्द्धन दर्शयति-अपरमादिव्यादेः 18| आगलतीत्यागन्तुको योऽसावुपसर्गों भवति, स च देहस्य संयमस्य वा पीडाकारीति ॥ क्षेत्रोपसर्गानाह खेत्तं बहुओघपयं कालो एगंतदूसमादीओ। भावे कम्मभुदओ, सो दुविहो ओघुवक्कमिओ ॥ ४६॥ यस्मिन् क्षेत्रे यहून्योधतः सामान्येन पदानि-क्रूरचौराद्युपसर्गस्थानानि भवन्ति तत्क्षेत्रं बहोघपदं, पाठान्तरं वा 'बहोघभयं' बहून्योधतो भयस्थानानि यत्र तत्तथा, तच लाढादि विषयादिकं क्षेत्रमिति, कालस्खेकान्तदुष्पमादिः, आदिग्रहणात् यो यसिन् क्षेत्रे दाखोत्पादको ग्रीष्मादिः स गृह्यत इति, कर्मणां ज्ञानावरणीयादीनामभ्युदयो भावोपसर्ग इति, स च उपसर्गः सर्वोऽपि सामान्येन औधिकौपक्रमिकभेदात् देधा, तत्रौधिकोऽशुभकर्मप्रकृतिजनितो भावोषसों भवति, औपक्रमिकस्तु दण्डकशाशस्त्रा| दिनाऽसातवेदनीयोदयापादक इति ॥ तत्राधिकौपक्रमिकयोरुपसर्गयोरोपक्रमिकमधिकृत्याह उपकमिओ संयमविग्धकरे तस्थुवक्कमे पगयं । वे चउब्चिहो देवमणुयतिरियायसंवेत्तो ॥४७॥ उपक्रमणमुपक्रमः, कर्मणामनुदयप्राप्तानामुदयप्रापणमित्यर्थः, एतच्च यद्रव्योपयोगात येन वा द्रव्येणासातावेदनीयाद्यशुभं । कर्मोदीर्यते यदुदयाचाल्पसच्चस्य संयमविघातो भवति अत औपक्रमिक उपसर्गः संयमविघातकारीति, इह च यतीनां मोक्ष प्रति प्रवृत्तानां संयमो मोक्षानं वर्वते तस्य यो विघ्नहेतुः स एवात्राधिक्रियत इति दर्शयति-तत्र-औषिकोपक्रमिकयोरौपक्रमिके treatrenecesecccevecenesesease दीप अनुक्रम [१६४] AREauratoninternational SHERanataram.org | उपसर्ग-शब्दस्य निक्षेपा:, ~159~ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम [१६४ ] सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्का चाययत्र चियुतं 1197 11 Jan Eucator “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र- २ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [-] मूलं [२२...], निर्युक्तिः [४८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः न 'प्रकृतं ' प्रस्तावः तेनात्राधिकार इतियावत् स च 'द्रव्ये' द्रव्यविषयचिन्त्यमानश्चतुर्विधो भवति, तद्यथा — दैविको मानुष|स्तैरव आत्मसंवेदनश्रेति ॥ साम्प्रतमेतेषामेव भेदमाह एक्केको य चडविहो अट्ठविहो बाबि सोलसविहो वा घडण जयणा व तेसिं एतो वोच्छं अहि (ही) पारं ( रा ) ४८ एकैको दिव्यादिः 'चतुर्विधः चतुर्भेदः, तत्र दिव्यस्तावत् हास्यात् प्रद्वेषात् विमर्शात् पृथग्विमात्रातवेति मानुषा अपि हास्यतः प्रद्वेषाद्विमर्शात् कुशीलप्रतिसेवनातथ, तैरथा अपि चतुर्विधाः, तद्यथा-भयात् प्रद्वेषाद् आहारादपत्यसंरक्षणात्, आत्मसंवेदना: चतुर्विधाः, तद्यथा - पट्टनातो लेशनातः - अङ्गुल्याद्यवयव संक्षेपरूपायाः स्तम्भनातः प्रपाताच्चेति, यदिवा - वातपित्तलेष्मसंनिपातजनितचतुर्थेति स एव दिव्यादिचतुर्विधोऽनुकूलप्रतिकूलभेदात् अष्टधा भवति स एव दिव्यादिः प्रत्येकं यचतुर्धा प्राग्दर्शितः स चतुर्णां चतुष्ककानां मेलापकात् षोडशभेदो भवति तेषां चोपसर्गाणां यथा घटना सम्बन्धः प्राप्तिः प्राप्तानां चाधिसहनं प्रति यतना भवति तथाप्त ऊर्द्धमध्ययनेन वक्ष्यते इत्ययमत्रार्थाधिकार इति भावः ॥ ४ ॥ उद्देशार्था|धिकारमधिकृत्याह पढमंमि य पढिलोमा हुंती अणुलोमगा य बितियंमि ( विएणाईकया य अणुलोमा ) । लइए अज्झतथि सोहणं च परवादिवयणं च ॥ ४९ ॥ हे उसरिसेहिं अहेउएहिं समयपडिएहिं णिउणेहिं । सीलखलितपण्णवणा कथा चउत्थंमि उसे ।। ५० ।। land उपसर्ग - शब्दस्य निक्षेपाः, उद्देशानाम् अर्थाधिकार: For Parts Only ~160~ ३ उपसगोध्य० उद्देशः १ ।। 26 ।। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [१], नियुक्ति: [५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक Taerasacreens ||१|| दीप प्रथमे उद्देशके 'प्रतिलोमाः' प्रतिकूला उपसर्गाः प्रतिपाद्यन्त इति, तथा द्वितीये 'ज्ञातिकृताः' वजनापादिता अनुलोमा-अनुकू-18 R ला इति, तथा तृतीये अध्यात्मविषीदनं परवादिवचनं चेत्ययमर्थाधिकार इति, चतुर्थोद्देशके अयमर्थाधिकारः, तद्यथा-तिस-18 दृशैः' हेखामासैर्येऽन्यतैर्थिकैव्युद्राहिताः-प्रतारितास्तेषां शीलस्खलितानांच्यामोहितानां प्रज्ञापना-यथावस्थितार्थप्ररूपणा स्व|समयप्रतीतैनिपुणभणितेहेतुभिः कृतेति ॥ साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुगार णीयं, तवेदम् सूरं मण्णइ अप्पाणं, जाव जेयं न पस्सती। जुज्झतं दढधम्माणं, सिसुपालो व महारहं ॥१॥ पयाता सूरा रणसीसे, संगामंमि उवट्टिते । माया पुत्तं न याणाइ, जेएण परिविच्छए ॥२॥ कचिल्लघुप्रकृतिः सङ्ग्रामे समुपस्थिते शूरमात्मानं मन्यते-निस्तोयाम्बुद इवात्मश्लाघाप्रवणो वाग्भिविस्फूर्जन् गर्जति, तद्यथान मत्कल्पः परानीके कश्चित् सुभटोऽस्तीति, एवं तावद्गति यावत् पुरोऽवस्थितं प्रोद्यतासिं जेतारं न पश्यति, तथा चोक्तम्-8 | "तावदजः प्रसुतदानगण्डः, करोत्यकालाम्बुदगर्जितानि । यावन सिंहस्य गुहास्थलीपु, लाङ्गलविस्फोटरवं शृणोति ॥१॥ दृष्टान्तमन्तरेण प्रायो लोकस्यार्थावगमो भवतीत्यतस्तदवगतये दृष्टान्तमाह-यथा मादीसुतः शिशुपालो वासुदेवदर्शनारपाक आत्मश्लाघाप्रधानं गर्जितवान् , पश्चाच्च युध्यमानं-शस्त्राणि व्यापारयन्तं दृढः-समर्थो धर्म:-स्वभावः सामाभङ्गरूपो यस स तथा तं, महान् रथोऽस्येति महारथः, स च प्रक्रमादत्र नारायणस्तं युध्यमानं दृष्ट्वा प्राग्गर्जनाप्रधानोऽपि क्षोभं गतः, एकाचवी esesesesesereerceoe अनुक्रम [१६५] secretaaksepeasakaees अत्र तृतीय-अध्ययने प्रथम-उद्देशकस्य आरम्भ: ~161~ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [२], नियुक्ति: [५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२|| सूत्रकृताङ्ग दार्टान्तिकेपि योजनीयमिति । भावार्थस्तु कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-वसुदेवसुसाएँ सुओ दमघोसणराहिवेण मद्दीए । जाओ KR३. उपसशीलाङ्का-18 उन्भुओऽभुयबलकलिओ कलहपत्तहो ॥ १॥ दद्दूण तओ जणणी चउम्भुयं पुत्तमम्भुयमणग्धं । भयहरिसविम्हयमुही पुच्छइ | गांध्य चापीय उद्देशः१ चियुतं मित्तियं सहसा ॥२॥णेमिचिएण मुणिऊण साहियं तीइ हहहिययाए । जह एस तुब्भ पुत्तो महाबलो इज्जओ समरे ||३|| एयस्स यजं दहण होइ साभावियं भुयाजुयलं । होही तओ चिय भयं सुतस्स ते णत्थि संदेहो ॥ ४ ॥ सावि भयवेविरंगी ॥७९॥ पुत्तं दंसेइ जाव कण्हस्स । तावश्चिय तस्स ठियं पयइत्थं वरभुयाजुयलं ॥५॥ तो कण्हस्स पिउच्छा पुत्तं पाडेइ पायपीदमि । अवराहखामणस्थं सोवि सयं से खमिस्सामि ॥६॥ सिसुवालो वि हु जुन्वणमएण नारायणं असम्भेहिं । वयणेहिं भणह सोविहु18| खमइ खमाए समत्थोवि ॥ ७॥ अवराहसए पुण्णे वारिजंतो ण चिट्टई जाहे । कण्हेण तओ छिन्नं चकेणं उत्तमंग से ॥८॥ साम्प्रतं सर्वजनप्रतीतं वार्तमानिक दृष्टान्तमाह-'पयाया' इत्यादि, यथा वाग्मिविस्फर्जन्तः प्रकर्षण विकटपादपातं 'रणशि-18 दीप अनुक्रम [१६६] ॥७९॥ १ बसुदेवसमः सुतो दमघोषनराधिपेन मायाः । जातश्चतुर्भुजोऽमृतवलकलितः प्राप्तकसहार्थः॥१॥ष्ट्वा ततो जननी चतुर्भु पुत्रमतमनर्घम् । भयह पैने-16 पिराशी पृच्छति मैमित्तिकं सहसा ॥ २ ॥ नैमित्तिकेन मुणित्या साहितं तस्यै इष्टदबाये । यथैव तव पुत्रो महाबलो दुर्जयः समरे ।।३॥ एतस्य च ये दृष्ट्वा भवेत् || TO | साभाविक अजयुगलम् । भविष्यति तत एप भयं सुतर ते नास्ति संदेहः ॥४॥साऽपि भयवेपिरासी पुत्र परभुजयुगलम् ।। ५॥ तराः कृष्णस्य पितृवसा पुत्रं पातयति पादपीठे। अपराधक्षामणार्थ सोऽपि शतं तस्य क्षमिष्ये ॥ ६॥ शिशुपालोऽपि यौवनमदेन नारायण-181 मसभ्यः । बचनैर्भणति सोऽपि च क्षमते क्षमया समर्थोऽपि ॥ ७॥ अपराधशते पूर्ण वार्यमाणोऽपि न तिष्ठति गदा । कृष्णेन ततश्छिन्न बनेगोत्तमा तस्स . ~162~ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [२], नियुक्ति: [५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२|| रसि' संग्राममूर्धन्यग्रानीके याता-गताः, के ते?-'शूराः' शूरंमन्या:-मुभटाः, ततः सत्रामे समुपस्थिते पतत्परानीकसुभट-18 मुक्तहेतिसङ्काते सति तत्र च सर्वस्वाकुलीभूतखात् 'माता पुत्रं न जानाति' कटीतो प्रश्यन्तं स्तनन्धयमपि न सम्यक् प्रति-18 जागतीत्येवं मातापुत्रीये सकामे परानीकसुभटेन जेत्रा चक्रकुन्तनाराचशक्त्यादिभिः परिः-समन्तात् विविधम्-अनेकप्रकार क्षतोहतश्छिन्नो वा यथा कविदल्पसचो भामुपयाति दीनो भवतीतियावदिति ॥ २॥ दाष्टोन्तिकमाह--- एवं सेहेवि अप्पुटे, भिक्खायरियाअकोविए। सूरं मण्णति अप्पाणं, जाव लूहं न सेवए ॥३॥ जया हेमंतमासंमि, सीतं फुसइ सवगं। तत्थ मंदा विसीयंति, रज्जहीणा व खत्तिया ॥ ४ ॥ 'एच'मिति प्रक्रान्तपरामर्शार्थः, यथाऽसौ शूरंमन्य उत्कृष्टसिंहनादपूर्वक सङ्ग्रामशिरस्युपस्थितः पश्चाज्जेतारं वासुदेवमन्यं वा | युध्यमानं दृष्ट्वा देन्यमुपयाति, एवं 'शक्षकः' अभिनवप्रवजितः परीपहै। 'अस्पृष्टः' अच्छतः किं प्रवज्यायां दुष्करमित्येवं गर्जेन | 'भिक्षाचर्यायां' भिक्षाटने 'अकोविदः' अनिपुणः, उपलक्षणार्थखादन्यत्रापि साध्वाचारेऽभिनवप्रव्रजितलादप्रषीणः, स एव-18 म्भूत आत्मानं तावच्छिशुपालवत् शूरं मन्यते यावज्जेतारमिव 'रूक्षं संयम कर्मसंश्लेषकारणाभावात् 'न सेवते' न भजत इति, वित्प्राप्तौ तु बहवो गुरुकर्माणोऽल्पसत्त्वा भामुपयान्ति ॥ ३॥ संयमस्स रूक्षखप्रतिपादनायाह-'जया हेमंते' इत्यादि, 'यदा' कदाचित् 'हेमन्तमासे' पौषादौ 'शीत' सहिमकणवातं 'स्पृशति' लगति 'तत्र' तस्मिन्नसझे शीतस्पशें लगति सति एके Receneseseserelesesesese दीप अनुक्रम [१६६] ~163~ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||8|| दीप अनुक्रम [१६८] सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्काचार्ययचित ॥ ८० ॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [१], मूलं [४], निर्युक्तिः [५० ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र- [ ०२] "सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः 'मन्दा' जडा गुरुकर्माणो 'विषीदन्ति' दैन्यभावमुपयान्ति 'राज्यहीना' राज्यच्युताः यथा क्षत्रिया राजान इवेति ||४|| उष्णपरीषहमधिकृत्याह पुट्टे गिम्हाहितावेणं, विमणे सुपिवासिए । तत्थ मंदा विसीयंति, मच्छा अप्पोदए जहा ॥ ५ ॥ सदा दत्तेसणा दुक्खा, जायणा दुप्पणोल्लिया । कम्मत्ता दुब्भगा चेव, इश्च्चाहंसु पुढोजणा ॥ ६ ॥ 'ग्रीष्मे' ज्येष्ठापाढारूये अभितापस्तेन 'स्पृष्ट:' छुप्तो व्याप्तः सन् 'विमनाः' विमनस्कः, सुष्ठु पातुमिच्छा पिपासा तां प्राप्तो| नितरां वुडभिभूतो बाहुल्येन दैन्यमुपयातीति दर्शयति- 'तन्त्र' तस्मिनुष्णपरीषहोदये 'मन्दा' जडा अशक्ता 'विषीदन्ति' यथा | पराभङ्गमुपयान्ति दृष्टान्तमाह-मत्स्या अल्पोदके विषीदन्ति, गमनाभावान्मरणमुपयान्ति एवं सच्चाभावात्संयमात् अश्यन्त इति इदमुक्तं भवति यथा मत्स्या अल्पवादुदकस्य ग्रीष्माभितापेन तप्ता अवसीदन्ति एवमल्पसच्चाश्चारित्रप्रतिपत्तावपि जल्लमलक्लेदक्लिन्नगात्रा वहिरुष्णाभितप्ताः शीतलान् जलाश्रयान् जलधारागृहचन्दनादीनुष्णप्रतिकारहेतूननुसरन्ते — व्याकुलितचेतसः | संयमानुष्ठानं प्रति विषीदन्ति ॥ ५ साम्प्रतं याच्यापरीषहमधिकृत्याह - 'सदा दत्ते' इत्यादि यतीनां 'सदा' सर्वदा दन्तशोधनाद्यपि परेण दशम् एषणीयम् - उत्पादायेषणादोपरहितमुपभोक्तव्यमित्यतः क्षुधादिवेदनार्त्तानां यावज्जीवं परदत्तैषणा दुःखं भवति, अपिचेयं 'याच्या' याच्यापरीषहोऽल्पसचैर्दुःखेन 'प्रणोद्यते' त्यज्यते, तथा चोकम् - "खिज्जर मुहलावणं १ श्रीमते मुखावण्यं वाचा गिलति (घूर्णति) कण्ठमध्ये कहकहकहित हृदयं देहीति परं भगदः ॥ १ ॥ Eucation Intematon For Park Use Only ~164~ statstatsesen ३ उपस गोध्य० उद्देशः १ ॥ ८० ॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [६], नियुक्ति: [५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||६|| ४ वाया घोलेइ कंठमझमि । कहकहकहेइ हिययं देहित्ति परं भणंतस्स ॥१॥ गतिभ्रंशी मुखे दैन्य, गावखेदो विवर्णता । मरणे 18 यानि चिह्नानि, तानि चिहानि याचके ॥१॥" इत्यादि, एवं दुस्त्यज याच्यापरीपहं परित्यज्य गताभिमाना महासत्त्वा ब्रानाद्य भिवृद्धये महापुरुषसेवितं पन्धानमनुव्रजन्तीति । श्लोकपश्चानाऽऽक्रोशपरीषहं दर्शयति -पृधगजना' प्राकृतपुरुषा अनार्यकल्पा 6 18'इत्येवमाहुः इत्येवमुक्तवन्ता, वयथा-ये एते यतयः जल्लाविलदेहा लुश्चितशिरसः क्षुधादिवेदनाग्रस्तास्ते एते पूर्याचरितः कर्म-18 भिरातः पूर्वखकृतकर्मणः फलमनुभवन्ति, यदिवा-कर्मभिः-कृष्यादिभिराचा:-तत्कर्तुमसमर्थी उद्विग्राः सन्तो यतयः संवृत्ता इति, तथैते 'दुर्भगाः' सर्वेणैव पुत्रदारादिना परित्यक्ता निगेतिकाः सन्तः प्रवज्यामभ्युपगता इति ॥ ६॥ एते सद्दे अचायंता, गामेसु णगरेसु वा । तत्थ मंदा विसीयंति, संगामंमिव भीरुया ॥७॥ अप्पेगे खुधियं भिक्खू, सुणी डंसति लूसए । तत्थ मंदा विसीयंति, तेउपुट्ठा व पाणिणो ॥८॥ 'एतान् पूर्वोक्तानाक्रोशरूपान तथा चौरचारिकादिरूपान् शब्दान् सोडुमशक्नुवन्तो ग्रामनगरादौ तदन्तराले वा व्यवस्थिताः |'तत्र' तसिन् आक्रोशे सति 'मन्दा' अज्ञा लघुप्रकृतयो 'विषीदन्ति' विमनस्का भवन्ति संयमाद्वा भ्रश्यन्ति, यथा भीरवः |'संग्रामे रणशिरसि चमकुन्तासिशक्तिनाराचाकुले रटत्पटहशहझल्लरीनादगम्भीरे समाकुलाः सन्तः पौरुषं परित्यज्यायशःपट-18 | हमङ्गीकृत्य भज्यन्ते, एवमाक्रोशादिशब्दाकर्णनादल्पसचाः संयमे विषीदन्ति ॥ ७॥ वधपरीपहमधिकृत्याह-'अप्पेगे' इत्या-11 అందించింది दीप अनुक्रम [१७०] ~165~ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [८], नियुक्ति: [५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: २.उपस प्रत सूत्रांक ||८|| सूत्रकृताङ्गदि , अपिः संभावने, एका कविष्वादिः लूपयतीति लूपकः प्रकृत्यैव क्रूरो भक्षकः, 'खुधिय'ति क्षुधितं-पुभुक्षितं भिक्षामटन्तं शालाङ्का- भिक्षु 'दशति' भक्षयति दशनैरङ्गावयवं विलुम्पति, 'तत्र' तस्मिन् श्वादिभक्षणे सति 'मन्दा' अज्ञा अल्पसत्त्वतया 'विषी- गोध्य. चार्गीयदन्ति' दैन्यं भजन्ते, यथा 'तेजसा' अमिना 'स्पृष्टा' दह्यमानाः 'पाणिनो' जन्तवो बेदनार्ताः सन्तो विषीदन्ति-गात्रं उद्देशः १ त्तियुतं |संकोचयन्त्यार्तध्यानोपहता भवन्ति, एवं साधुरपि क्रूरसवैरभिद्रुतः संयमाद् भ्रश्यत इति, दुःसहत्याद्वामकण्टकानाम् ॥ ८॥ पुनरपि तानधिकृत्याह अप्पेगे पडिभासंति, पडिपंथियमागता । पडियारगता एते, जे एते एव जीविणो॥९॥ अप्पेगे वइ जुजंति, नगिणा पिंडोलगाहमा । मुंडा कंडूविणटुंगा, उजल्ला असमाहिता ॥१०॥ अपिः संभावने, 'एके' केचनापुष्टधर्माण:-अपुण्यकर्माणः 'प्रतिभाषन्ते' युवते, प्रतिपथ:-प्रतिकूलसं तेन चरन्ति | प्रातिपन्थिकाः-साधुविद्वेषिणस्तद्भावमागताः कथश्चित्प्रतिपथे वा दृष्टा अनार्या एतद् बुवते, सम्भाव्यत ऐतदेवंविधाना, तद्यथा-प्रतीकार:-पूर्वोचरितस्य कर्मणोऽनुभवस्त मेके गताः-प्राप्ताः खकृतकर्मफलभोगिनो 'य एते' यतयः 'एवंजीविन' इति परगृहाण्यटन्ति अतोऽन्तप्रान्तभोजिनोऽदत्तदाना लुश्चितशिरसः सर्वभोगवश्चिता दाखितं जीवन्तीति ॥ ९ ॥ किश-अप्येके 8॥८१॥ | केचन कुमृतिप्रसता अनार्या वाचं युञ्जन्ति-भाषन्ते, तद्यथा-एते जिनकल्पिकादयो नग्नास्तथा 'पिंडोलगपत्ति परपिण्डप्रा शुसित प्र. शाक्षिय ०२ तारयणिने ते चू०३ पिडेसु दीयमानेसु उल्लेति अभमा अधमजातयः पू. ४ उजाताः भष्टाः चु. Serstaeesereemenecene दीप अनुक्रम [१७२] ~166~ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [१०], नियुक्ति: [५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१०|| दीप र्थका अधमा:--मलापिलखात् जुगुप्सिता 'मुण्डा' लुश्चितशिरसः, तथा-कचित्कण्डकृतक्षतै रेखाभिर्या विनष्टाहा| विकृतशरीराः, अप्रतिकर्मशरीरतया वा कचिद्रोगसम्भवे सनत्कुमारबद्विनष्टाङ्गः, तथोद्गतो जल:-शुष्कप्रस्खेदो येषां ते उजल्ला:, तथा 'असमाहिता' अशोभना बीभत्सा दुष्टा वा प्राणिनामसमाधिमुत्पादयन्तीति ॥ १० ॥ साम्प्रतमेतद्धापकाणां विपाकदर्शनायाह___ एवं विप्पडिबन्नेगे, अप्पणा उ अजाणया। तमाओ ते तमं जंति, मंदा मोहेण पाउडा ॥११॥ पुट्ठो य दंसमसएहिं, तणफासमचाइया । न मे दिट्टे परे लोए, जइ परं मरणं सिया ॥ १२ ॥ 'एवम्' अनन्तरीक्तनीत्या 'एके' अपुण्यकर्माणो 'विप्रतिपन्नाः' साधुसन्मार्गद्वेषिणः 'आत्मना' स्वयमज्ञाः, तुशब्दाद-18 न्येषां च चिवे किनां वचनमकुर्वाणाः सन्तस्ते 'तमसः' अज्ञानरूपादुत्कृष्टं तमो 'यान्ति' गान्ति, यदिवा-अधस्तादप्यधस्तनी गतिं गच्छन्ति, यतो 'मन्दा' ज्ञानावरणीये नावटब्धाः तथा 'मोहेन' मिध्यादर्शनरूपेण 'प्रावृता' आच्छादिताः सन्तः॥॥ खिड्गप्रायाः साधुविद्वेषितया कुमार्गगा भवन्ति, तथा चोक्तम्-“एक हि चक्षुरमलं सहजो विवेकस्तद्वद्भिरेव सह संवसतिदि-18 तीयम् । एतद् द्वयं भुवि न यस्य स तच्चतोजधरूस्यापमार्गचलने खलु कोऽपराधः॥१॥"॥ ११ ॥ दंशमशकपरीपहमधिकृत्याह-कचिस्सिन्धुताम्रलिप्स कोकणादिके देशे अधिका दंशमशका भवन्ति तत्र च कदाचित्साधुः पर्यटेस्तैः स्पृष्टश्च' भक्षितः तथा निष्किश्चनखात् तृणेषु शयानस्तत्स्पर्श सोहुमशनुवन् आतैः सन् एवं कदाचिचिन्तयेत् , तद्यथा-परलोकार्थमेतहुष्करमनुष्ठान अनुक्रम [१७४] ~167~ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥१२॥ दीप अनुक्रम [१७६ ] सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्का चार्यीयचियुतं ॥ ८२ ॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [१], मूलं [१२], निर्युक्तिः [५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः क्रियमाणं घटते, न चासौ मया परलोकः प्रत्यक्षेणोपलब्धः, अप्रत्यक्षत्वात्, नाप्यनुमानादिनोपलभ्यत इति, अतो यदि परं | ममानेन क्लेशाभितापेन मरणं स्यात्, नान्यत्फलं किञ्चनेति ॥ १५ ॥ अपिच Education Internation संतत्ता केसलोएणं, बंभचेरपराइया । तत्थ मंदा विसीयंति, मच्छा विट्टा व केणे ॥ १३ ॥ आयदंडसमायारे, मिच्छासंठियभावणा । हरिसप्पओसमावन्ना, केई संतिऽनारिया ॥ १४ ॥ समन्तात् तप्ताः सन्तप्ताः केशानां 'लोच' उत्पाटनं तेन, तथाहि -सरुधिरकेशोत्पाटने हि महती पीडोपपद्यते, तया चाल्पसच्चाः विस्रोतसिकां भजन्ते, तथा 'ब्रह्मचर्य' बस्तिनिरोधस्तेन च 'पराजिताः' पराभन्नाः सन्तः 'तत्र' तस्मिन् केशोत्पाटनेऽतिदुर्जयकामोद्रेके वा सति 'मन्दा' जडा- लघुप्रकृतयो विषीदन्ति संयमानुष्ठानं प्रति शीतलीभवन्ति, सर्वथा संयमाद् वा भ्रश्यन्ति यथा मत्स्याः 'केतने' मत्स्यबन्धने प्रविष्टा निर्गतिकाः सन्तो जीविताद् भ्रश्यन्ति एवं तेऽपि वराकाः सर्वकष कामपराजिताः संयमजीवितात् भ्रश्यन्ति ॥ १३ ॥ किश्व आत्मा दण्ड्यते-खण्ड्यते हितात् अश्यते येन स आत्मदण्डः 'समाचारः' अनुष्ठानं येषामनार्याणां ते तथा, तथा मिथ्या विपरीता संस्थिता-वाग्रहारूढा भावना- अन्तःकरण वृत्तिर्येषां ते मिथ्या| संस्थितभावना - मिथ्या खोपहतदृष्टय इत्यर्थः, हर्षश्च प्रद्वेषच हर्षप्रद्वेषं तदापन्ना रागद्वेषसमाकुला इतियावत् व एवम्भूता अ १ कडवसंठिया मच्छा पाणीए पडिनियत्ते ओयारिति खुणी एमादी For Parts Only ~ 168~ ३ उपस गोध्य० उद्देशः १ ॥ ८२ ॥ waryru Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [१४], नियुक्ति: [५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१४|| dasegassesGas नार्याः सदाचारं साधु क्रीडया प्रद्वेषेण वा क्रूरकर्मकारितात् 'लूषयन्ति' कदर्थयन्ति दण्डादिभिर्वाग्भिवेति ॥ १४ ॥ एतदेव दर्शयितुमाह अप्पेगे पलियंते सिं, चारो चोरोत्ति सुव्वयं । बंधति भिक्खुयं बाला, कसायवयणेहि य ॥१५॥ तत्थ दंडेणे संवीते, मुट्रिणा अदु फैलेण वा । नातीणं सरती बाले, इत्थी वा कुद्धगामिणी ॥१६॥ एते भो ! कसिणा फासा, फरुसा दुरहियासया। हत्थी वा सरसंवित्ता, कीवा वस गया गिहं ॥१७॥ तिबेमि ॥ इति तृतीयाध्ययनस्य प्रथमोद्देशकः समाप्तः॥ (गाथाग्रं० १९१) अपि संभावने, एके अनार्या आत्मदण्डसमाचारा मिथ्यासोपहतबुद्धयो रागद्वेषपरिगताः साधु 'पलियंते सिंति अनार्यदेशपर्यन्ते वर्तमान 'चारोनि चरोऽयं 'चौर' अयं स्तेन इत्येवं मसा सुव्रतं कदर्थयन्ति, तथाहि-'वनन्ति' रज्ज्वादिना संयमयन्ति 'भिक्षुक' भिक्षणशीलं 'वाला' अज्ञाः सदसद्विवेकचिकलाः तथा 'कषायवचनैश्च क्रोधप्रधानकटुकवचनैर्निभलैयन्तीति ॥ १५ ॥ अपिच-तत्र' तस्मिन्ननार्यदेशपर्यन्ते वर्तमानः साधुरनायः 'दण्डेन' यष्टिना मुष्टिना वा 'संवीत.' प्रह-18 तोऽधवा 'फलेन वा' मातुलिङ्गादिना खड्गादिना वा स साधुरेवं तैः कदय॑मानः कश्चिदपरिणतः 'बाल' अज्ञो 'ज्ञातीनां येषां परस्परविरोधः पू०२ खीलो उपहारो वारदा Seeehackersesesesersekes@sers दीप अनुक्रम [१७८] ~169~ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१७|| दीप अनुक्रम [१८१] सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्काचार्यीयचियुर्त ॥ ८३ ॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [१], मूलं [१७], निर्युक्ति: [५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः स्वजनानां स्मरति, तद्यथा - यद्यत्र मम कचित् सम्बन्धी स्यात् नाहमेवम्भूतां कदर्थनामवानुयामिति, दृष्टान्तमाह-यथा श्री | क्रुद्धा सती खगृहात् गमनशीला निराश्रया मांसपेशीव सर्वस्पृहणीया तस्करादिभिरभिद्रुता सती जातपश्चात्तापा ज्ञातीनां सरति है एवमसावपीति ॥ १६ ॥ उपसंहारार्थमाह-भो इति शिष्यामन्त्रणं, य एत आदितः प्रभृति दंशमशकादयः पीडोत्पादकलेन परीपहा एवोपसर्गा अभिहिताः 'कृत्ला:' संपूर्णा बाहुल्येन स्पृश्यन्ते स्पर्शेन्द्रियेणानुभूयन्त इति स्पर्शाः, कथम्भूताः १'परुषाः' परुषैरनार्यैः कृतत्वात् पीडाकारिणः ते चाल्पसच्चैर्दुः खेनाधिसद्यन्ते सांबासहमाना लघुप्रकृतयः केचना श्लाघामङ्गीकृत्य हस्तिन इव रणशिरसि 'शरजालसंवीताः शरशताकुलां भङ्गमुपयान्ति एवं 'क्लीषा' असमर्था 'अवशाः परवशाः कर्मायत्ता गुरुकर्माणः पुनरपि गृहमेव गताः, पाठान्तरं वा 'तिध्वसहे'ति तीचैरुपसगैरभिद्रुताः 'शठाः' शठानुष्ठानाः संयमं परित्यज्य गृहं गताः, इति ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ १७ ॥ उपसर्गपरिज्ञायाः प्रथमोदेशक इति---- ॥ अथ तृतीयाध्ययनस्य द्वितीयोदेशकः प्रारभ्यते ॥ Euratom a उक्तः प्रथमोदेशकः, साम्प्रतं द्वितीयः समारभ्यते - अस्य चायमभिसम्बन्धा, इहोपसर्गपरिज्ञाध्ययने उपसर्गाः प्रतिपिषाद 938TET: अत्र तृतीय अध्ययनस्य द्वितीय उद्देशकस्य आरम्भः For Parka Lise Only ~ 170~ ३ उपसर्गाध्य उद्देशः २ ॥ ८३ ॥ wwwnayora Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [२], मूलं [१], नियुक्ति: [५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१|| ersectseceiceseseatserselectroes दीप विपिताः, ते चानुकूलाः प्रतिकूलाच, तत्र प्रथमोद्देशके प्रतिकूलाः प्रतिपादिताः, इह खनुकूलाः प्रतिपाद्यन्त इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्थास्योद्देशकस्यादिमूत्रम् अहिमे सुहमा संगा, भिक्खुणं जे दुरुत्तरा । जत्थ एगे विसीयंति, ण चयंति जवित्तए ॥१॥ अप्पेगे नायओ दिस्स, रोयंति परिवारिया। पोसणे ताय ! पुट्ठोऽसि, कस्स ताय! जहासिणे? ॥२॥ 'अथ' इति आनन्तये, प्रतिकूलोपसर्गानन्तरमनुकूलाः प्रतिपाद्यन्त इत्यानन्तर्यार्थः, ते 'इमें अनन्तरमेवाभिधीयमानाः प्रत्यशासनबाचिखादिदमाऽभिधीयन्ते, ते च 'सूक्ष्मा: प्रायश्चेतोविकारकारिखेनान्तराः, न प्रतिकूलोपसर्गा इव वाहुल्येन शरीरविका-16 | रकारिखेन प्रकटतया यादरा इति, 'सङ्गा' मातापित्रादिसम्बन्धाः य एते 'भिक्षूणां' साधूनामपि 'दुरुत्तरा' दुर्लक्क्या-दुर|तिक्रमणीया इति, प्रायो जीवितविशकरैरपि प्रतिकूलोपसगैरुदीनुमाध्यस्थ्यमवलम्पयितुं महापुरुषः शक्यम्, एते खनुकूलोपस-1% र्गास्तानप्युपायेन धर्माच्यावयन्ति, ततो मी दुरुत्तरा इति, 'यत्र' येचूपसर्गेषु सत्सु 'एके' अल्पसवाः सदनुष्ठानं प्रति 'विषीदन्ति' शीतलविहारिवं भजन्ते सर्वथा चा संयमं त्यजन्ति, नैवात्मानं संयमानुष्ठानेन 'यापयितुं'-वर्तयितुं तस्मिन् वा | व्यवस्थापयितुं 'शकुवन्ति' समर्था भवन्तीति ॥१॥ तानेच सूक्ष्मसङ्गान् दर्शयितुमाह-'अपि: संभावने 'एके' तथाविधा 'ज्ञातयः' खजना मातापित्रादयः प्रव्रजन्तं प्रत्रजितं वा 'दृष्ट्वा' उपलभ्य 'परिवार्य' चेष्टयिखा रुदन्ति रुदन्तो वदन्ति च १ यतः प्र. eeeeeeeeeeeeeeeeeeeees अनुक्रम [१८२] ~171~ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [२], मूलं [२], नियुक्ति: [५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ३उपस प्रत सूत्रांक ||२|| भोध्यक सूत्रकृताङ्गं शीलाका- चाीयत्तियुत ॥८॥ दीनं यथा-बाल्यात् प्रभृति खमसामिः पोषितो वृद्धानां पालको भविष्यतीतिकृत्वा, ततोऽधुना 'न.' असानपि त्वं 'तात' पुत्र 'पोषय' पालय, कस कृते-केन कारणेन कख वा बलेन तातासान् त्यजसि, नासाकं भवन्तमन्तरेण कश्चित्राता विद्यत इति ॥ २॥ किश्च उद्देशः २ eseseserceptsecccersenserserceaee दीप Keepercersesekeepersectserseroesere पिया तेथेरओ तात!, ससा ते खुड्डिया इमा।भायरोते सगा तात!, सोयरा किं जहासिणे?॥३॥ मायरं पियरं- पोस, एवं लोगो भविस्सति। एवं खुलोइयं ताय ,जे पालंति य मायरं ॥४॥ हे 'तात । पुत्र ! पिता 'ते' तव 'स्थविरो' वृद्धः शेतातीकः 'खसा' च भगिनी तव 'क्षुल्लिका' लघ्वी अप्राप्तयौवना 'इमा' पुरोवर्तिनी प्रत्यक्षेति, तथा भ्रातरः 'ते' तव 'खका' निजास्तात ! 'सोदरा' एकोदराः किमित्यमान् परित्यजसीति ॥३॥ तथा 'मायरमित्यादि, 'मातरं जननीं तथा 'पितरं जनयितारं 'पुषाण' विभूहि, एवं च कृते तवेहलोकः परलो| कथ भविष्यति, तावेदमेव 'लौकिक' लोकाचीर्णम् , अयमेव लौकिकः पन्था यदुत-वृद्धयोर्मातापित्रोः प्रतिपालनमिति, 18॥८४॥ तथा चोक्तम्-"गुरखो यत्र पूज्यन्ते, यत्र धान्यं सुसंस्कृतम् । अदन्तकलहो यत्र, तत्र शक्र! वसाम्यहम् ॥१॥" इति ॥४॥"अपिच| १ सचा--वयपनिइसे चिति चू० २ वर्षशतमानः अनुक्रम [१८३] ~172~ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (02) प्रत सूत्रांक ||५|| दीप अनुक्रम [१८६ ] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [२] मूलं [५], निर्युक्ति: [ ५० ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः उत्तेरा महुरुलावा, पुत्ता ते तात ! खुइया । भारिया ते णवा तात !, मा सा अन्नं जणं गमे ॥ ५ ॥ एहि ताय! घरं जामो मा य कम्मे सहा वयं । वितियंपि ताय! पासामो, जामु ताव सयं गिहं ॥ ६ ॥ 'उतरा:' प्रधानाः उत्तरोत्तरजाता वा मधुरो-मनोझ उल्लाप:-आलापो येषां ते तथाविधाः पुत्राः 'ते' तब 'तात' पुत्र! 'क्षुल्लका' लघवः तथा 'भार्या' पत्नी ते 'नवा' प्रत्यग्रयोचना अभिनवोढा वा मा असौ लया परित्यक्ता सती अन्यं जनं गच्छेत्-उन्मार्गयायिनी स्वाद्, अयं च महान् जनापवाद इति ॥ ५ ॥ अपिच - जानीमो वयं यथा तं कर्मभीरुस्तथापि 'एहि ' आगच्छ गृहं 'यामो' गच्छामः । मा तं किमपि साम्प्रतं कर्म कृथाः, अपितु तव कर्मण्युपस्थिते वयं सहायका भविष्यामःसाहाय्यं करिष्यामः । एकवारं तावद्गृहकर्मभिर्भग्रस्त्वं तात ! पुनरपि द्वितीयं वारं 'पश्यामो' द्रक्ष्यामो यदसाभिः सहायैर्भवतो भविष्यतीत्यतो 'यामो' गच्छामः तावत् स्वकं गृहं कुर्वेतदस्मद्वचनमिति ॥ ६ ॥ किञ्च - Education Internation गंतु ताय ! पुणो गच्छे, ण तेणासमणो सिया । अकामगं परिक्कम्मं, को ते वारेउमरिहति ? ॥ ७ ॥ जं किंचि अणगं तात !, तंपि सवं समीकतं । हिरण्णं ववहाराइ, तंपि दाहामु ते वयं ॥ ८ ॥ 'तत' पुत्र ! गला गृहं खजनवर्ग दृष्ट्वा पुनरागन्ताऽसि, नच 'तेन' एतावता गृहगमनमात्रेण समश्रमणो भविष्यसि, 'अ १ उत्तमा चू० ३ उत्सारितं घू For Parts Only ~ 173 ~ evestocessesente Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [२], मूलं [८], नियुक्ति: [५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक सूत्रकृताङ्गं शीलाका- चार्थीयतियुतं |८|| ॥८५॥ दीप कामगं'ति अनिच्छन्तं गृहव्यापारेच्छारहितं 'पराक्रमन्तं' स्वाभिप्रेतानुष्ठानं कुर्वाणं कः 'त्वां' भवन्तं 'वारयितुं निषेध- ३ उपसयितुम् 'अर्हति योग्यो भवति, यदिवा-'अकामगंति वार्द्धकावस्थायां मदनेच्छाकामरहितं पराक्रमन्तं संयमानुष्ठानं प्रति गांभ्यः | कस्वामवसरप्राप्ते कर्मणि प्रवृत्तं धारयितुमर्हतीति ॥ ७॥ अन्यच्च-'तात' पुत्र! यत्किमपि भवदीयमृणजातमासीत्तत्सर्वमसामिः उद्देशः २ | सम्पग्विभज्य 'समीकृतं' समभागेन व्यवस्थापितं, यदिवोत्कटं सत् समीकृतं सुदेयखेन व्यवस्थापितं, यच 'हिरण्यं द्रव्यजातं । व्यवहारादावुपयुज्यते, आदिशब्दात् अन्येन वा प्रकारेण तवोपयोगं यास्यति तदपि वयं दास्यामः, निर्धनोऽयमिति मा कृथा भयमिति ॥ ८॥ उपसंहारार्थमाह इच्चेव णं सुसेहंति, कालुणीयसमुट्टिया । विबद्धो नाइसंगेहि, ततोऽगारं पहावइ ॥९॥ जहा रुक्खं वणे जायं, मालुया पडिबंधई । एव णं पडिबंधति, णातओ असमाहिणा ॥ १०॥ णमिति वाक्यालङ्कारे 'इत्येव' पूर्वोक्तया नीत्या मातापित्रादयः कारुणिकैचोभिः करुणामुत्पादयन्तः स्वयं वा दैन्यमुपस्थि-18 ॥ ताः 'तं' प्रबजितं प्रवजन्तं वा 'सुसेहंति'त्ति सुष्ठ शिक्षयन्ति व्युद्धाहयन्ति, स चापरिणतधर्माऽल्पसच्चो गुरुकमों ज्ञातिसौं- ५॥ ॥किंबहो-मातापितृपुत्रकलत्रादिमोहितः ततः 'अगारं गृहं प्रति धावति-प्रबज्या परित्यज्य गृहपाशमनुवनातीति ॥९॥ | किश्चान्यत्-यथा वृक्षं 'वने अटव्यां 'जातम्' उत्पनं 'मालुया' वल्ली 'प्रतियनाति' वेष्टयत्येवं 'ण' इति वाक्यालकारे । अनुक्रम [१८९] ~174~ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१०|| दीप अनुक्रम [१९१] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [२] मूलं [१०], निर्युक्ति: [५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः 'ज्ञातयः' खजनाः 'तं' यति असमाधिना प्रतिबध्नन्ति, ते तत्कुर्वन्ते येनास्यासमाधिरुत्पद्यत इति, तथा चोक्तम् - "अंमित्तो मितवेसेणं, कंठे घेतूण रोयह । मा मित्ता ! सोग्गइं जाहि, दोवि गच्छामु दुग्गई ॥ १ ॥ # ॥ १० ॥ अपिच विबद्धो नातिसंगेहिं, हत्थीवावी नवग्गहे। पिट्टतो परिसप्पंति, सुयगोव अदूरए ॥ ११ ॥ एते संगा मणूसाणं, पाताला व अतारिमा । कीवा जत्थ य किस्संति, नाइसंगेहिं मुच्छिया ॥ १२ ॥ विविधं बद्धः-परवशीकृतः विबद्धो ज्ञातिसङ्गैः मातापित्रादिसम्बन्धैः, ते च तस्य तस्मिन्नवसरे सर्व मनुकुलमनुतिष्ठन्तो धृतिमुत्पादयन्ति, हस्तीवापि 'नवग्रहे' अभिनव ग्रहणे, (यथा स ) घृत्युत्पादनार्थमिक्षुशकला दिभिरुपचर्यते, एवमसावपि सर्वानुकूलैरुपायैरुपचर्यते, दृष्टान्तान्तरमाह-यथाऽभिनवप्रसूता गौर्निजस्तनन्धयस्य 'अदूरगा' समीपवर्तिनी सती पृष्ठतः परिसर्पति, एवं | तेऽपि निजा उत्प्रव्रजितं पुनर्जातमिव मन्यमानाः पृष्ठतोऽनुसर्पन्ति तन्मार्गानुयायिनो भवन्तीत्यर्थः ॥ ११ ॥ सङ्गदोषदर्शनायाह| 'पते' पूर्वोक्ताः सज्यन्त इति सङ्गाः - मातृपित्रादिसम्बन्धाः कर्मोपादानहेतवः, मनुष्याणां 'पाताला इव' समुद्रा इवाप्रतिष्ठितभूमितलात् ते 'अतारिम'ति दुस्तराः, एवमेतेऽपि सङ्गा अल्पसच्चैर्दुः खेनातिलङ्कयन्ते, 'यत्र च' येषु सङ्गेषु 'क्लीया' असमर्थाः 'क्लिश्यन्ति' लेशमनुभवन्ति, संसारान्तर्वर्तिनो भवन्तीत्यर्थः किंभूताः १- 'ज्ञातिसङ्गैः' पुत्रादिसम्बन्धैः 'मूच्छिता' गृद्धा अध्युपपन्नाः सन्तो, न पर्यालोचयन्त्यात्मानं संसारान्तर्वर्तिनमेवं क्लिश्यन्तमिति ॥ १२ ॥ अपिच अणि कण्ठे गृहीत्वा रोदिति मा मित्र सुगतीर्याः द्वावपि गच्छावो दुर्गतिम् ॥ १ ॥ Ja Eucation Internation For Pasta Use Only ~175~ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१३|| दीप अनुक्रम [१९४] सूत्रकृताङ्ग शीळाङ्का चार्ययष्ट तियुतं ॥ ८६ ॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [२] मूलं [१३], निर्युक्ति: [५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः तं च भिक्खू परिन्नाय सधे संगा महासवा । जीवियं नावकंखिजा, सोचा धम्ममणुत्तरं ॥ १३ ॥ अहिमे संति आवट्टा, कासवेणं पवेइया । बुद्धा जत्थावसप्पति, सीयंति अबुहा जहिं ॥ १४ ॥ 'लं च' ज्ञातिसङ्गं संसारैकहेतुं भिक्षुर्शपरिज्ञया (झाला ) प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेत् । किमिति १, यतः 'सर्वेऽपि' ये केचन सङ्गास्ते 'महाश्रवा' महान्ति कर्मण आश्रवद्वाराणि वर्तन्ते । ततोऽनुकूलैरुपसर्गेरुपस्थितैरसंयम जीवितं गृहावासपाशं 'नाभिकाङ्गेस' नाभिलषेत्, प्रतिकूलैवोपसर्गः सन्निर्जीविताभिलाषी न भवेद्, असमञ्जसकारित्वेन भवजीवितं नाभिकाङ्गेत् । किं कृला :-'श्रुत्वा' निशम्यावगम्य, कम् ? 'धर्म' श्रुतचारित्राख्यं, नास्योत्तरोऽस्तीत्यनुत्तरं - प्रधानं मौनीन्द्रमित्यर्थः ॥ १३ ॥ | अन्यच्च - 'अथे' त्यधिकारान्तरदर्शनार्थः, पाठान्तरं वा 'अहो' इति, तच्च विसये, 'इमे' इति एते प्रत्यक्षासनाः सर्वजनविदितत्वात् 'सन्ति' विद्यन्ते वक्ष्यमाणा आवर्तयन्ति प्राणिनं भ्रामयन्तीत्यावर्ताः, तत्र द्रव्यावर्ता नयादेः भावावर्तास्तूत्कटमोहोदयापादितविषयाभिलाषसंपादकसंपत्प्रार्थनाविशेषाः, एते चावर्ताः 'काश्यपेन' श्रीमन्महावीरवर्द्धमानखामिना उत्पन्नदिव्यज्ञा नेन 'आ (प्र) वेदिताः' कथिताः प्रतिपादिताः 'पत्र' येषु सत्सु 'बुद्धा' अवगततच्या आवर्तविपाकयेदिनस्तेभ्यः 'अपसर्पन्ति' अप्रमत्ततया तदूरगामिनो भवन्ति, अबुद्धास्तु निर्विवेकतया येष्ववसीदन्ति आसक्तिं कुर्वन्तीति ॥ १४ ॥ तानेचावर्तान् | दर्शयितुमाह Ecation Internationa For Par Lise Only ~176~ ३. उपसगोध्य० उद्देशः २ ॥ ८६ ॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१५|| दीप अनुक्रम [१९६ ] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [२] मूलं [१५], निर्युक्तिः [५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः रायाणो राय मच्चा य, माहणा अदुव खत्तिया । निमंतयंति भोगेहिं, भिक्खूयं साहुजीविणं ॥१५॥ हत्थऽस्सरहजाणेहिं, विहारगमणेहि य । भुंज भोगे इमे सग्धे, महरिसी ! पूजयामु तं ॥ १६ ॥ 'राजानः' चक्रवर्त्यायो 'राजामात्याश्च' मन्त्री पुरोहितप्रभृतयः तथा ब्राह्मणा अथवा 'क्षत्रिया' इक्ष्वाकुवंशजप्रभृतयः, एते सर्वेऽपि 'भोगे:' शब्दादिभिर्विषयेः 'निमन्त्रयन्ति' भोगोपभोगं प्रत्यभ्युपगमं कारयन्ति, कम् ? - भिक्षुकं 'साधुजीविणमिति साध्वाचारेण जीवितुं शीलमस्येति ( साधुजीवी तं साधुजीविनमिति यथा ब्रह्मदत्तचक्रवर्तिना नानाविधैभोगैश्वित्रसाधुरुपनिमंत्रित इति । एवमन्येऽपि केनचित्सम्बन्धेन व्यवस्थिता यौवनरूपादिगुणोपेतं साधुं विषयोदेशेनोपनिमन्त्रये| युरिति ||१५|| एतदेव दर्शयितुमाह- हस्त्यश्वरथयानैः तथा 'विहारगमनैः' विहरणं क्रीडनं विहारस्तेन गमनानि विहारग| मनानि-उद्यानादौ क्रीडया गमनानीत्यर्थः चशब्दादन्यैवेन्द्रियानुकूलैर्विषयैरुपनि मन्त्रयेयुः, तद्यथा - शुद्ध 'भोगान' शब्दादि|विषयान् 'इमान्' अस्माभिढौंकितान् प्रत्यक्षासनान् 'लाध्यान' प्रशस्तान् अनिन्द्यान् 'महर्षे' साधो ! वयं विषयोपकरणढौ| कनेन 'स्व' भवन्तं 'पूजयामः सत्कारयाम इति ॥ १६ ॥ किश्वान्यत् Education Internation वत्थगंधमलंकारं, इत्थीओ सयणाणि य । भुंजाहिमाई भोगाई, आउसो ! पूजयामु तं ॥ १७ ॥ जो तुमे नियमो चिण्णो, भिक्खुभावंमि सुइया!। अगारमावसंतस्स, सो संविजए तहा ॥ १८॥ For Parts Only ~ 177 ~ tisesentnessesses९६९६९ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१८|| दीप अनुक्रम [१९९ ] सूत्रकृताङ्ग शीलाशचाययत्र तियुर्त ॥ ८७ ॥ “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [२] मूलं [१८], निर्युक्ति: [५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः - 'वस्त्रं' चीनांशुकादि 'गन्धाः' कोष्ठपुटपाकादयः, वस्त्राणि च गन्धाश्च वखगन्धमिति समाहारद्वन्द्वः तथा 'अलङ्कारम्' कटक केयूरादिकं तथा 'स्त्रियः' प्रत्यग्रयौवनाः 'शयनानि च पर्यङ्कतूलीप्रच्छदपटोपधानयुक्तानि इमान् भोगानिन्द्रियमनोऽनुकुलानमामिढौंकितान् 'भुङ्ग' तदुपभोगेन सफलीकुरु, हे आयुष्मन् ! भवन्तं 'पूजयामः' सत्कारयाम इति ॥ १७ ॥ अपिच-यस्वया पूर्व 'भिक्षुभावे' प्रव्रज्यावसरे 'नियमो' महाव्रतादिरूपः 'चीर्णः' अनुष्ठितः इन्द्रियनोइन्द्रियोपशमगतेन हे सुव्रत ! स साम्प्रतमपि 'अगारं' गृहम् 'आवसतः' गृहस्यभावं सम्यगनुपालयतो भवतस्तथैव विद्यत इति, न हि सुकृतदुष्कृतस्यानुचीर्णस्य नाशोऽस्तीति भावः ॥ १८ ॥ किश्व चिरं दूइज्माणस्स, दोसो दाणिं कुतो तव ? । इश्चेव णं निमंतेंति, नीवारेण व सूयरं ॥ १९ ॥ चोइया भिक्खचरियाए, अचयंता जवित्तए । तत्थ मंदा विसीयंति, उज्जाणंसि व दुब्बला ॥२०॥ 'चिरं' प्रभूतं कालं संयमानुष्ठानेन 'दूइज्माणरस 'त्ति विहरतः सतः 'इदानीं ' साम्प्रतं दोषः कुतस्तव १, नैवास्तीति भावः, इत्येवं हस्त्यश्वरथादिभिर्वगन्धालङ्कारादिभिश्व नानाविधैरुपभोगोपकरणैः करणभूतैः 'ण' मिति वाक्यालङ्कारे 'तं' भिक्षु साधुजीविनं 'निमन्त्रयन्ति' भोगबुद्धिं कारयन्ति, दृष्टान्तं दर्शयति-यथा 'नीवारेण' व्रीहिविशेषकणदानेन 'सूकरं' वराहं कृ टके प्रवेशयन्ति एवं तमपि साधुमिति ॥ १९ ॥ अनन्तरोपन्यस्तवार्तोपसंहारार्थमाह- भिक्षूणां - साधूनामुयुक्तविहारिणां Education International For Parts Only ~178~ ३. उपसगांध्य० उद्देशः २ 1120 11 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२०|| दीप अनुक्रम [२०१] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [२] मूलं [२०], निर्युक्ति: [५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः चर्या-दशविधचक्रवालसामाचारी इच्छा मिच्छेत्यादिका तथा चोदितां:- प्रेरिता यदिवा भिक्षुचर्यया करणभूतया सीदन्तश्रोदिताः -- तत्करणं प्रत्याचार्यादिकैः पौनःपुन्येन प्रेरितास्तच्चोदनामशकुवन्तः संयमानुष्ठानेनात्मानं 'यापयितुं' वर्तयितुमसमर्थाः सन्तः 'तत्र' तस्मिन् संयमे मोक्षेकगमनहेती भवकोटिशतावासे 'मन्दा' जडा 'विषीदन्ति' शीतलविहारिणो भवन्ति, तमेवाचिन्त्यचिन्तामणिकल्पं महापुरुषानुचीर्णं संयमं परित्यजन्ति, दृष्टान्तमाह- ऊर्ध्वं यानमुद्यानं मार्गस्योन्नतो भाग उङ्कमित्यर्थः तस्मिन् उद्यानशिरसि उत्क्षिप्तमहामरा उक्षाणोऽतिदुर्बला यथाऽवसीदन्ति-ग्रीवां पातयित्वा तिष्ठन्ति नोत्क्षिप्तभरनिर्वाहका भवन्तीत्येवं तेऽपि भावमन्दा उत्क्षिप्रपञ्च महाव्रतमारं वोदुमसमर्थाः पूर्वोक्तभावावर्तैः पराभना विषीदन्ति ॥२०॥ किश्वअचयंता व लूहेणं, उवहाणेण तज्जिया । तत्थ मंदा विसीयंति, उज्जाणंसि जरग्गवा ॥ २१ ॥ एवं निमंतणं लडं, मुच्छिया गिद्ध इत्थीसु । अज्झोववन्ना कामेहिं, चोइजंता गया गिहं ॥ २२ ॥ तिबेमि ॥ इति उवसग्गपरिण्णाए बितिओ उद्देसो सम्मत्तो ॥ ३-२ ॥ ( गाथाग्रं० २१३ ) 'क्षण' संयमेनात्मानं यापयितुमशक्नुवन्तः तथा 'उपधानेन' अनशनादिना सबाह्याभ्यन्तरेण तपसा 'तर्जिता' बाधिताः सन्तः तत्र संयमे मन्दा विषीदन्ति 'उद्यानशिरसि' उट्टङ्कमस्तके 'जीणों' दुर्बलो गौरिव, यूनोऽपि हि तत्रावसीदनं सम्भाव्यते १ बाधिता इति प्र० २ तु प्र० Education Internationa For Park Use Only ~ 179~ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम [२०३] सूत्रकृतानं शीलाङ्काचार्यय चिपुर्त ॥ ८८ ॥ “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [२] मूलं [२२], निर्युक्तिः [५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः किं पुनर्जरद्भवस्येति जीर्णग्रहणम्, एवमावर्तमन्तरेणापि धृतिसंहननोपेतस्य विवेकिनोऽध्यवसीदनं सम्भाव्यते, किं पुनरावर्तेरुपसर्गितानां मन्दानामिति ॥ २१ ॥ सर्वोपसंहारमाह-' एवं ' पूर्वोक्तया नीत्या विषयोपभोगोपकरणदानपूर्वकं 'निमन्त्रण' विषयोपभोगं प्रति प्रार्थनं 'लब्ध्वा' प्राप्य 'तेषु' विषयोपकरणेषु हस्त्यश्वरथादिषु 'मूच्छिता' अत्यन्तासक्ताः तथा स्त्रीषु 'गृद्धा' दत्तावधाना रमणीरागमोहिताः तथा 'कामेषु' इच्छामदनरूपेषु 'अभ्युपपन्ना:' कामगतचित्ताः संयमेऽवसीदन्तोऽपरेणोद्युक्तविहारिणा नोद्यमानाः- संयमं प्रति प्रोत्साद्यमाना नोदनां सोढुमशक्नुवन्तः सन्तो गुरुकर्माणः प्रव्रज्यां परित्यज्यात्प| सच्चा गृहं गता-गृहस्थीभूताः । इतिः परिसमाप्तौ त्रवीमीति पूर्ववत् ॥ २२ ॥ इति उपसर्गपरिज्ञाऽध्ययनस्य द्वितीय उद्देशः ॥ अथ तृतीयस्योपसर्गाध्ययनस्य तृतीयोद्देशकः प्रारभ्यते ॥ - उपसर्गपरिज्ञायां उक्तो द्वितीयोदेशकः, साम्प्रतं तृतीयः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः इहानन्तरोद्देशकाभ्यामुपसर्गा | अनुकूलप्रतिकूल भेदेनाभिहिताः, तैश्वाध्यात्मविषीदनं भवतीति वदनेन प्रतिपाद्यत इत्यनेन संबन्धेनायातस्यास्योद्देश कस्यादि सूत्रम् - Education Internation अत्र तृतीय-अध्ययनस्य तृतीय- उद्देशकस्य आरम्भः For Praise Only ~ 180~ ३ उपस गोध्य० उद्देशः ३ ॥ ८८ ॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (02) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [२०४] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [३], मूलं [१], निर्युक्ति: [ ५० ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः जहा संगामकालंमि, पिटुतो भीरु वेहइ । वलयं गहणं णूमं, को जाणइ पराजयं १ ॥ १ ॥ मुहुत्ताणं मुहुत्तस्स, मुहुत्तो होइ तारिसो। पराजियाऽवसप्पामो, इति भीरू उवेहई ॥ २ ॥ दृष्टान्तेन हि मन्दमतीनां सुखेनैवार्थावगतिर्भवतीत्यत आदावेव दृष्टान्तमाह-यथा कश्विद् 'भीरुः' अकृतकरण: 'संग्राम| काले' परानीकयुद्धावसरे समुपस्थिते 'पृष्ठतः प्रेक्षते' आदावेवापत्प्रतीकारहेतुभूतं दुर्गादिकं स्थानमवलोकयति । तदेव दर्शयति - 'वलय' मिति यत्रोदकं वलयाकारेण व्यवस्थितम् उदकरहिता वा गर्ता दुःखनिर्गमप्रवेशा, तथा 'गहनं' घवादिवृक्षैः केटिसंस्थानीय 'शूमं 'ति प्रच्छन्नं गिरिगुहादिकं किमित्यस वेवमवलोकयति ?, यत एवं मन्यते तत्रैवम्भूते तुमुले सङ्ग्रामे सुभटसङ्कुले को जानाति कस्यात्र पराजयो भविष्यतीति ?, यतो दैवायत्ताः कार्यसिद्धयः, स्तोकैरपि बहवो जीयन्त इति ॥१॥ किचमुहूर्त्तानामेकस्य वा मुहूर्तस्यापरो 'मुहूर्त:' कालविशेषलक्षणोऽवसरस्तादय् भवति यत्र जयः पराजयो वा सम्भाव्यते, तत्रैवं व्यवस्थिते पराजिता वयम् 'अव सर्पामो' नश्याम इत्येतदपि सम्भाव्यते असद्विधानामिति भीरुः पृष्ठत आपत्प्रतीकारार्थ शरणमुपेक्षते ॥ २ ॥ इति लोकद्वयेन दृष्टान्तं प्रदर्श्य दान्तिकमाह १ टिस्पद मायोपेक्षेन्द्रजाखानि पाया हमे इति श्रीगचन्द्रवचनादत्र पायपर उपेक्षि Eucation intention For Paren ~ 181 ~ ১৫৯৩ ৯৩ ১৩১৬৬১৬390 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [३], मूलं [३], नियुक्ति: [५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रकृताङ्ग शीलाकाचार्षीयत्तियुत सूत्रांक ||३|| ॥८९॥ दीप Receneseseenecene एवं तु समणा एगे, अबलं नचाण अप्पगं । अणागयं भयं दिस्स, अविकप्पंतिमं सुयं ॥३॥ ३उपस गोध्य० को जाणइ विऊवातं, इत्थीओ उदगाउ वा । चोइजंता पवक्खामो, ण णो अत्थि पकप्पियं ॥४॥ उद्देश:३ 'एवम्' इति यथा सामं प्रवेष्टुमिच्छुः पृष्ठतोऽवलोकयति-किमत्र मम पराभग्नस्य बलयादिकं शरणं त्राणाय स्यादिति ?, एव-191 | मेव 'श्रमणाः' प्रजिता 'एके' केचनादृढमतयोऽल्पसचा आत्मानम् 'अवलं' यावज्जीवं संयमभारवहनाक्षम ज्ञाखा अनागत-॥१॥ मेव भयं 'दृष्ट्वा' उत्प्रेक्ष्य तद्यथा-निष्किञ्चनोऽहं किं मम वृद्धावस्थायां ग्लानाद्यवस्थायां दुर्भिक्षे वा त्राणाय स्थादित्येवमाजीविकाभयमुत्प्रेक्ष्य 'अवकल्पयन्ति' परिकल्पयन्ति मन्यन्ते-इदं व्याकरणं गणितं जोतिष्कं वैद्यकं होराशाख मत्रादिकं वा श्रुत-181 मधीतं ममावमादौ त्राणाय स्वादिति ॥३॥ एतचैतेऽवकल्पयन्तीत्याह-अल्पसत्त्वाः प्राणिनो विचित्रा च कर्मणां गतिः181 बहूनि प्रमादस्थानानि विद्यन्ते अतः 'को जानाति?' का परिच्छिनत्ति 'व्यापात' संयमजीवितात् अंश, केन पराजितस्य मम 18 संयमाद् भ्रंशः स्यादिति, किम् 'स्त्रीतः स्त्रीपरिषद्दात् उत 'उदकात्' स्नानाद्यर्थमुद कासेवनाभिलाषादू, इत्येचं ते वराकाः प्रक-18 ल्पयन्ति, न 'न' असाकं किञ्चन 'प्रकल्पित' पूर्वोपार्जितद्रव्यजातमस्ति यत्तस्यामवस्थायामुपयोग याखति, अतः 'चोद्य-|| माना:' परेण पृच्छचमाना हस्तिशिक्षाधनुर्वेदादिक कुटिलविण्टलादिकं वा 'प्रवक्ष्यामः कथयिष्यामः प्रयोक्ष्याम इत्येवं ते ॥८९॥ हीनसत्त्वाः सम्प्रधार्य व्याकरणादौ श्रुते प्रयतन्त इति, न च तथापि मन्दभाग्यानामभिप्रेतार्थावाप्तिर्भवतीति, तथा चोक्तम्-18 १अवकप्पंतीति टीका । १ वियागात इति टीकादमिप्रायः। ३ कुष्टकमण्डलादि । मुण्टसविण्टलादि। अनुक्रम [२०६] ~182~ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (02) प्रत सूत्रांक ||8|| दीप अनुक्रम [२०७] Eatont “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [३], मूलं [४], निर्युक्ति: [ ५० ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः "उपशमफलाद्विद्याबीजात्फलं धनमिच्छतां भवति विफलो यद्यायासस्तदत्र किमद्भुतम् । न नियतफलाः कर्तुर्भावाः फलान्तरमीशते, जनयति खलु व्रीहेर्बीजं न जातु यवाङ्कुरम् ॥ १ ॥ इति " ॥ ४ ॥ उपसंहारार्थमाह इच्छेव पडिलेहंति, वलया पडिलेहिणो । वितिगिच्छसमावन्ना, पंथाणं च अकोविया ॥ ५ ॥ जे उ संगामकालंमि, नाया सूरपुरंगमा । णो ते पिट्ठमुवेहिंति, किं परं मरणं सिया ? ॥ ६ ॥ 'इत्येवमिति पूर्वप्रक्रान्तपरामर्शार्थः, यथा भीरवः सङ्ग्रामे प्रविविक्षवो वलयादिकं प्रति उपेक्षिणो भवन्तीति, एवं प्रव्रजिता मन्दभाग्यतया अल्पसच्चा आजीविका भयाव्याकरणादिकं जीवनोपायत्वेन 'प्रत्युपेक्षन्ते' परिकल्पयन्ति, किम्भूताः १- विचिकि|त्सा-चित्तविप्लुतिः- किमेनं संयमभारमुत्क्षिप्तमन्तं नेतुं वयं समर्थाः उत नेतीत्येवम्भूता, तथा चोक्तम्- "लुक्खमणुण्डमणिययं कालाइ कंत भोयणं विरसं । भूमीसयणं लोओ असिणाणं बंभचेरं च ॥ १ ॥ " तां समापन्नाः समागताः, यथा पन्थानं प्रति 'अकोविदा' अनिपुणाः, किमयं पन्था विवक्षितं भूभागं यास्यत्युत नेतीत्येवं कृतचित्तविद्रुतयो भवन्ति, तथा तेऽपि संयम| मारवहनं प्रति विचिकित्सां समापन्ना निमित्तगणितादिकं जीविकार्थं प्रत्युपेक्षन्त इति ॥ ५ ॥ साम्प्रतं महापुरुषचेष्टिते दृष्टान्तमाह-ये पुनर्महासच्चाः, तुशब्दो विशेषणार्थः 'सङ्ग्रामकाले' परानीकयुद्धावसरे 'ज्ञाताः' लोकविदिताः, कथम् ? - 'शूरपुर| ङ्गमाः शूराणामग्रगामिनो युद्धावसरे सैन्याग्रस्कन्धवर्तिन इति, त एवम्भूताः सङ्ग्रामं प्रविशन्तो 'न पृष्ठमुत्प्रेक्षन्ते' न दुर्गा१ कर्तुं भा० प्र० । २ रुक्षमनुष्णमनियतं कालातिक्रान्तं भोजनं विरसम् । भूमिशयनं कोचोऽस्नानं ब्रह्मचर्यं च ॥ १ ॥ For Park Use Only ~ 183~ yor Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥६॥ दीप अनुक्रम [२०९ ] सूत्रकृता शीलाङ्काचार्यीयचियुतं ॥९०॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [३], मूलं [६], निर्युक्ति: [ ५० ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः दिकमापत्राणाय पर्यालोचयन्ति, ते चाभङ्गकृतबुद्धयः, अपि खेवं मन्यन्ते - किमपरमत्रासाकं भविष्यति ?, यदि परं मरणं स्वात् तच्च शाश्वतं यशःप्रवाहमिच्छतामस्माकं स्तोकं वर्तत इति, तथा चोक्तम्- “विशरारुभिर विनश्वरमपि चपैलः स्थास्नु वाञ्छतां | विशदम् । प्राणैर्वदि शूराणां भवति यशः किं न पर्याप्तम् १ ॥ १ ॥ " ॥ ६ ॥ तदेवं सुभटदृशन्तं प्रदर्श्य दान्तिकमाहएवं समुट्टिए भिक्खू, वोसिज्जाऽगारबंधणं । आरंभं तिरियं कट्टु, अत्तत्ताए परिवए ॥ ७ ॥ तमेगे परिभासंति, भिक्खूयं साहुजीविणं । जे एवं परिभासंति, अंतर ते समाहिए ॥ ८ ॥ यथा सुभटा ज्ञाता नामतः कुलतः शीर्यतः शिक्षातश्च तथा सन्नद्धबद्धपरिकराः करगृहीतहेतयः प्रतिभटसमितिभेदिनो न पृष्ठतोऽवलोकयन्ति, एवं 'भिक्षुरपि' साधुरपि महासत्त्वः परलोकप्रतिस्पर्द्धिनमिन्द्रियकषायादिकमरिवर्ग जेतुं सम्यक् संयमोत्थानेनोत्थितः समुत्थितः, तथा चोक्तम् "कोई माणं च मायं च, लोहं पंचिंदियाणि य । दुज्जयं चैवमप्पाणं, सतमध्ये जिए जियं ॥ १ ॥ " किं कृता समुत्थित इति दर्शयति- 'व्युत्सृज्य' त्यक्ता 'अगारबन्धनं' गृहपाशं तथा 'आरम्भ' सावधानुष्ठानरूपं 'तिर्यकृत्वा' अपहत्य आत्मनो भाव आत्मत्खम्-अशेषकर्मकलङ्करहितत्वं तस्मै आत्मलाय, यदिवा - आत्मा-मोक्षः संयमो वा तद्भावस्तस्यैतदर्थं परि— समन्ताद्रजेत् संयमानुष्ठानक्रियायां दत्तावधानो भवेदित्यर्थः ॥ ७ ॥ निर्युक्तौ यदभिहितमध्यात्मविषीदनं तदुक्तम्, इदानीं पैरवादिवचनं द्वितीयमर्थाधिकारमधिकृत्याह- 'त' मिति साधुम् 'एके' ये १] क्रोधः मानव माया व लोभः पवेन्द्रियाणि च । दुर्जये चैवात्मनां सर्वमात्मनि जिते जितम् ॥ १ ॥ २ तयित्वा प्र०३ परिवादि० प्र० । Education International For Park Use Only ~ 184~ ३ उपसगोध्य० उद्देशः ३ ॥ ९० ॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [३], मूलं [८], नियुक्ति: [५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||८|| 19 परस्परोपकाररहितं दर्शनमापना. अयाशलाकाकल्पाः, ते च गोशालकमतानुसारिण आजीविका दिगम्बरा था, त एवं 18 वक्ष्यमाणं परि-समन्तानापन्ते । तं भिक्षुकं साध्वाचारं साधु-शोभनं परोपकारपूर्वकं जीवितुं शीलमस स साधुजीविनमिति, 'ये ते अपुष्टधर्माण एवं वक्ष्यमाणं 'परिभाषन्ते' साध्वाचारनिन्दा विदधति त एवंभूता 'अन्तके' पर्यन्ते दूरे 'समाधे' मोक्षाख्यात्सम्यग्ध्यानात्सदनुष्ठानात् वा वर्तन्त इति ॥८॥ यत्ते प्रभाषन्ते तदर्शयितुमाह संबद्धसमकप्पा उ, अन्नमन्नेसु मुच्छिया । पिंडवायं गिलाणस्स, जं सारेह दलाह य ॥९॥ | एवं तुब्भे सरागत्था, अन्नमन्नमणुवसा । नटुसप्पहसब्भावा, संसारस्स अपारगा ॥१०॥ सम्-एकीभावेन परस्परोपकार्योपकारितया च 'बद्धाः पुत्रकलबादिस्नेहपाशः सम्बद्धा---गृहस्थास्तैः समः-तुल्यः कल्पो-व्यवहारोऽनुष्ठानं येषान्ते सम्बद्धसमकल्पा-गृहस्थानुष्ठानतुल्यानुष्ठाना इत्यर्थः, तथाहि-यथा गृहस्था परस्परोपकारेण माता पुत्रे पुत्रोऽपि मात्रादावित्येवं 'मूच्छिता' अध्युपपन्नाः, एवं भवन्तोऽपि 'अन्योऽन्य' परस्परतः शिष्याचार्याद्युपकारक्रि| याकल्पनया मूर्षिछताः, तथाहि-गृहस्थानामयं न्यायो यदुत-परस्मै दानादिनोपकार इति, न तु यतीनां, कथमन्योऽन्यं मूच्छिता | इति दर्शयति-'पिण्डपातं' भैक्ष्यं 'ग्लानस्य' अपरस्य रोगिणः साधोः यद्-यस्मात् 'सारेह'त्ति अन्वेषयत, तथा 'दलाह8 यत्ति ग्लानयोग्यमाहारमन्विष्य तदुपकारार्थ ददध्वं, चशब्दादाचार्यादेः वैयावृत्यकरणाद्युपकारेण वर्तध्वं, ततो गृहस्थसमकल्पा १ अन्वेषयन्ते प्र. ceseceseseseroesecises दीप अनुक्रम [२११] ~185~ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [३], मूलं [१०], नियुक्ति: [५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्काचायाय त्तियुत॥९१॥ ||१०|| दीप इति ।। ९॥ साम्प्रतमुपसंहारव्याजेन दोषदर्शनायाह-एवं' परस्परोपकारादिना यूयं गृहस्था इव सरागस्थाः-सह रागेण | वर्तत इति सरागः-स्वभावस्तसिन् तिष्ठन्तीति ते तथा, 'अन्योऽन्य' परस्परतो वशमुपागताः-परस्परायत्ताः, यतयो हि नि: गोध्य० | सङ्गतया न कस्यचिदायत्ता भवन्ति, यतो गृहस्थानामयं न्याय इति, तथा नष्ट:-अपगतः सत्पथ:-सद्भावः-सन्मार्गः परमार्थों | उद्देश: ३ येभ्यस्ते तथा । एवम्भूताच यूयं 'संसारस्य' चतुर्गतिभ्रमणलक्षणस्य 'अपारगा' अतीरगामिन इति ॥ १०॥ अयं तावत्पूर्व| पक्षः, अस्य च दूषणायाह अह ते परिभासेज्जा, भिक्खु मोक्खविसारए । एवं तुब्भे पभासंता, दुपक्खं चेव सेवह ॥११॥ तुब्भे भुंजह पाएसु, गिलाणो अभिहडंमि या।तं च बीओदगं भोच्चा, तमुदिस्सादि जं कडं ॥१२॥ 'अथ' अनन्तरं 'तान्' एवं प्रतिकूलखेनोपस्थितान् भिक्षुः 'परिभाषेत' ब्रूयात् , किम्भूतः -'मोक्षविशारदो मोक्षमास सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्ररूपस्थ प्ररूपकः, 'एवम्' अनन्तरोक्तं यूयं प्रभाषमाणाः सन्तः दुष्टः पक्षो दुष्पक्षः-असत्प्रतिज्ञाभ्युपगमस्तमेव सेवध्वं यूयं, यदिवा-रागद्वेषात्मकं पक्षद्वयं सेवध्वं यूयं, तथाहि सदोषस्थाप्यात्मीयपक्षस्य समथेनाद्रागी, निष्क-10 IN||९१॥ लकस्याप्यसदभ्युपगमस दूषणाद्वेषः, अर्थ(थवे)वं पक्षद्वयं सेवध्वं यूयं, तद्यथा-वक्ष्यमाणनीत्या बीजोदकोदिष्टकृतभोजिला-1 हस्साः यतिलिङ्गाभ्युपगमात्किल प्रबजिताश्चेत्येवं पक्षद्वयासेवनं भवतामिति, यदिवा-खतोऽसदनुष्ठानमपरश्च सदनुष्ठायिनां नि-18I न्दनमितिभावः ॥ ११ ॥ आजीविकादीनां परतीक्षिकानां दिगम्बराणों चासदाचारनिरूपणायाह-किल वयमपरिग्रहतया नि अनुक्रम [२१३] ~186~ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [३], मूलं [१२], नियुक्ति: [५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१२|| 99999990saerce दीप किश्चना एवमभ्युपगम कसा यूयं भुङ्ग्वं 'पात्रेषु' कांस्यपाच्यादिषु गृहस्थभाजनेषु, तत्परिभोगाच तत्परिग्रहोऽवश्यंभावी, ॥ तथाऽऽहारादिषु मूर्छा कुरुध्यमित्यतः कथं निष्परिग्रहाभ्युपगमो भवतामकलङ्क इति, अन्यच 'ग्लानस्य' भिक्षाटनं कर्तुमसमर्थस्य यदपरैर्गृहस्थैरभ्याहृतं कार्यते भवद्भिः, यतेरानयनाधिकाराभावाद् गृहस्थानयने च यो दोषसद्भावः स भवतामवश्यंभावीति, तमेव दर्शयति—यच्च गृहस्थैर्बीजोदकाद्युपमर्दैनापादितमाहारं भुक्त्वा तं ग्लानमुद्दिश्योदेशकादि 'यस्कृतं' यन्निष्पादितं | तदवश्यं युष्मत्परिभोगायावतिष्ठते । तदेवं गृहस्थगृहे सद्भाजनादिषु भुञ्जानास्तथा ग्लानस्य च गृहस्पैरेव वैयावृत्त्यं कारयन्तो । यूयमवश्यं बीजोदकादिभोजिन उद्देशिकादिकृतभोजिनश्चेति ॥ १२॥ किश्चान्यत्--- लित्ता तिवाभितावेणं, उज्झिआ असमाहिया । नातिकंट्टइयं सेयं, अरुयस्सावरज्झती ॥ १३ ॥ तत्तेण अणुसिट्रा ते, अपडिन्नेण जाणया । ण एस णियए मग्गे, असमिक्खा वती किती ॥१४॥ योऽयं षड्जीवनिकायविराधनयोद्दिष्टभोजितेनाभिगृहीतमिथ्यारष्टितया च साधुपरिभाषणेन च वीवोऽमितापः-कर्मबन्धरूपस्तेनोपलिप्ताः-संवेष्टितास्तथा 'उजिमय'ति सद्विवेकशून्या भिक्षापात्रादित्यागात्परगृहभोजितयोदेशकादिभोजिखात तथा 'असमाहिता' शुभाध्यवसायरहिताः सत्साधुप्रद्वेपिखात्, साम्प्रतं दृष्टान्तद्वारेण पुनरपि तद्दोपाभिधित्सयाऽऽह-यथा 'अरुषः व्रणस्वातिकण्डूयित-नखैविलेखनं न श्रेयोन शोभनं भवति, अपि वपराध्यति-तत्कण्डूयनं व्रणस्य दोषमावहति, एवं १ प्रमझापादन, तसंबन्धमान परिग्रहत्वाभ्युपगमान, अन्वधा निर्मू धर्मापकरणपरणापतेः अनुक्रम [२१५] ~ 187~ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१४|| दीप अनुक्रम [२१७] सूत्रकृता शीलाका चाय चियुतं ॥ ९२ ॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [३], मूलं [१४], निर्युक्ति: [५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः भवन्तोऽपि सद्विवेकरहिताः वयं किल निष्किञ्चना इत्येवं निष्परिग्रहतथा षड्जीवनिकायरक्षणभूतं भिक्षापात्रादिकमपि संयमोपकरणं परिहृतवन्तः, तदभावाचावश्यंभावी अशुद्धाहारपरिभोग इत्येवं द्रव्यक्षेत्रकालभावानपेक्षणेन नातिकण्डूयितं श्रेयो भवतीति भावः ॥ १३ ॥ अपि च- 'तरवेन' परमार्थेन मौनीन्द्राभिप्रायेण यथावस्थितार्थप्ररूपणया ते गोशालकमतानुसारिण आजीवि कादयः बोटिका वा 'अनुशासिताः' तदभ्युपगमदोपदर्शनद्वारेण शिक्षां ग्राहिताः, केन ?- 'अप्रतिज्ञेन' नास्य मवेदमसदपि समर्थनीयमित्येवं प्रतिज्ञा विद्यते इत्यप्रतिशो-रागद्वेषरहितः साधुस्तेन 'जानता' हेयोपादेयपदार्थ परिच्छेद केनेत्यर्थः, कथमनुशासिता इत्याह--योऽयं भवद्भिरभ्युपगतो मार्गो यथा यतीनां निष्किञ्चनतयोपकरणाभावात् परस्परत उपकार्योपकारकभाव ४ इत्येष 'न नियतो' न निश्रितो न युक्तिसङ्गतः, अतो येयं वाग् यथा ये पिण्डपातं ग्लानस्थानीय ददति ते गृहस्थकल्पा इत्येषा 'असमीक्ष्याभिहिता' अपर्यालोच्योक्ता, तथा 'कृतिः' करणमपि भवदीयमसमीक्षितमेव, यथा चापर्यालोचितकरणता भवति भवदनुष्ठानस्य तथा नातिकण्डूयितं श्रेय इत्यनेन प्राग्लेशतः प्रतिपादितं पुनरपि सदृष्टान्तं तदेव प्रतिपादयति ॥ १४ ॥ यथाप्रतिज्ञातमाह- Education Internationa एरिसा जावई एसा, अग्गवेणु व करिसिता । गिहिणो अभिहडं सेयं, भुंजिउं ण उ भिक्खुणं ॥ १५ ॥ धम्मपन्ना जा सा, सारंभा ण विसोहिआ। ण उ एयाहिं विट्ठीहिं, पुवमासिं पग्गप्पिअं ॥ १६ ॥ येयमीक्षा वाक् यथा यतिना ग्लानस्थानीय न देयमित्येषा अग्रे वेणुवद-वंशवत् कर्षिता तन्वी युक्त्यक्षमखाद दुर्बलेत्यर्थः, For Parts Only ~ 188~ ३ उपस गांध्य० उद्देशः ३ ॥ ९२ ॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [३], मूलं [१६], नियुक्ति: [५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१६|| Serenesentoecenecesesekeseses | तामेव वाचम् दर्शयति–'गृहिणां' गृहस्थानां यदभ्याहृतं तद्यतर्भोक्तुं श्रेयः' श्रेयस्कर, न तु भिक्षूणां सम्बन्धीति, अग्रे| | तनुलं चाया पाच एवं द्रष्टव्यं यथा गृहस्थाभ्याहृतं जीवोपमर्दैन भवति, यतीनां तूगमादिदोषरहितमिति ॥१५॥ किश्च धर्मस्य प्रज्ञापना-देशना यथा-यतीनां दानादिनोपकर्तव्यमित्येवम्भूता या सा 'सारम्भाणां' गृहस्थानां विशोधिका, यत| यस्तु खानुष्ठानेनैव विशुध्यन्ति, न तु तेषां दानाधिकारोऽस्तीत्येतत् दूषयितुं प्रक्रमते-'न तु' नैवैताभिर्यथा गृहस्पेनैव पिण्डदा-1 नादिना यतेलानाद्यवस्थायामुपकर्तव्यं नतु यतिभिरेव परस्परमित्येवम्भूताभिः युष्मदीयाभिः 'दृष्टिभिः' धर्मप्रज्ञापनाभिः 'पूर्वम् | आदौ सर्वज्ञैः 'प्रकल्पितं' प्ररूपितं प्रख्यापितमासीदिति, यतो न हि सर्वज्ञा एवम्भूतं परिफल्गुणायमर्थ प्ररूपयन्ति यथा-असंय-18॥ तैरेषणायनुपयुक्तैर्लानादेवैयावृत्यं विधेयं न तूपयुक्तेन संयतेनेति, अपिच-भवद्भिरपि ग्लानोपकारोऽभ्युपगत एव, गृहस्थप्रेरणा| दनुमोदनाच, ततो भवन्तस्तत्कारिणस्तत्प्रवेषिणश्चेत्यापनमिति ।। १६ ।। अपिच सबाहिं अणुजुत्तीहिं, अचयंता जवित्तए । ततो वायं णिराकिच्चा, ते भुजोवि पगब्भिया ॥ १७ ॥ रागदोसाभिभूयप्पा, मिच्छत्तेण अभिदुता । आउस्से सरणं जंति, टंकणा इव पवयं ॥ १८ ॥ ते गोशालकमतानुसारिणो दिगम्बरा या सर्वाभिरर्थानुगताभियुक्तिभिः सवेरेव हेतुदृष्टान्तैः प्रमाणभूतैरशक्नुवन्तः स्वपक्षे आ-18 MRI मानं 'यापपितुम्' संस्थापयितुम् 'ततः तसायुक्तिभिः प्रतिपादयितुम् सामाभावाद् 'वाद निराकृत्य' सम्यम्हेतुदृष्टान्तै-13|| यो वादो-जल्पस्तं परित्यज्य ते तीथिका 'भूय पुनरपि वादपरित्यागे सत्यपि 'प्रगल्भिता धृष्टतां गता इदमूचुः, तद्यथा दीप अनुक्रम eatisercensesesesesecestatestiser [२१९] ~189~ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१८|| दीप अनुक्रम [२२१] सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्का चाय चियुर्व ॥ ९३ ॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [३], मूलं [१८], निर्युक्ति: [५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः "पुराणं मानवो धर्मः, साङ्गो वेदश्चिकित्सितम् । आज्ञासिद्धानि चत्वारि, न हन्तव्यानि हेतुभिः ॥ १ ॥ " अन्यच्च किमनया बहिरङ्गया युक्तयाऽनुमानादिकयाञ्च धर्मपरीक्षणे विधेये कर्तव्यमस्ति यतः प्रत्यक्ष एव बहुजनसंमतलेन राजाद्याश्रयणाचायमेवास्तदभिप्रेतो धर्मः श्रेयाचापर इत्येवं विवदन्ते तेषामिदमुत्तरम् - न ह्यत्र ज्ञानादिसाररहितेन बहुनाऽपि प्रयोजनमस्तीति, उक्तं च - "ऐरंडकडरासी जहा य गोसीस चंदनपलस्स । मोल्छे न होज सरिसो कित्तियमेत्तो गणितो ।। १ ।। " तैहवि गणणातिरेगो जह रासी सो न चंदनसरिच्छो । तह निविष्णाणमहाजणोवि सोज्झे विसंवयति ।। २ ।। ऐको सचक्खुगो जह अंघलयाणं सएहिं बहुएहिं होइ वरं दडवो गहु ते बहुगा अपेच्छंता ॥ ३ ॥ एवं बहुगावि मूढा ण पमाणं जे गई ण याणंति । संसा रंगमणगुविलं णिउणस्स य बंधमोकुखस्स ॥ ४ ॥ इत्यादि ।। १७ ।। अपिच रागथ- प्रीतिलक्षणो द्वेपथ - तद्विपरीतलक्षणस्वाभ्यामभिभूत आत्मा येषां परतीर्थिकानां ते तथा, 'मिध्यात्वेन' विपर्यस्ताव बोधेनात्तत्त्वाध्यवसायरूपेण 'अभिता' व्याप्ताः सद्युक्तिभिर्वादं कर्तुमसमर्थाः क्रोधानुगा 'आक्रोशान्' असभ्यवचनरूपांस्तथा दण्डमुष्टयादिभिन हननव्यापारं 'पान्ति' | आश्रयन्ते । अस्मिन्नेवार्थे प्रतिपाद्ये दृष्टान्तमाह-यथा 'टङ्कणा' म्लेच्छविशेषा दुर्जया यदा परेण बलिना खानीकादिनाऽभिहूयन्ते तदा ते नानाविधैरप्यायुधैर्योद्धुमसमर्थाः सन्तः पर्वतं शरणमाश्रयन्ति एवं तेऽपि कृतीर्थिका वादपराजिताः क्रोधाद्युपहत १ एरण्डकाराशियैा च गोशीर्षचन्दनपलस्य मूल्येन न भवेद सदृशः कियन्भात्रो गण्यमानः ॥ १ ॥ २ तथापि गणनाविरेको यथा राशिः स न चन्दनसदृशः तथा निर्विज्ञानमहाजनोऽपि मूल्ये विसंवदते ॥ २ ॥ ३ एकः सचक्षुष्को यथा अग्धानां शतैर्बहुनिर्भवति वरं प्रष्टव्यो नैव बहुका अप्रेक्षमाणाः ॥ ३ ॥ ४ एवं बहुका अपि मूढा न प्रमाणं ये गर्ति न जानन्ति संसारगमनको निपुणयोवैग्धमोक्षयोष ॥ ४ ॥ Eucation International For Parts Only ~ 190~ ३. उपस गोध्य० उद्देशः ३ ॥ ९३ ॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [३], मूलं [१८], नियुक्ति: [५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१८|| दीप अनुक्रम दृष्टय आक्रोशादिकं शरणमाश्रयन्ते, न च ते इदमाकलथ्य प्रत्याक्रोष्टच्याः, तद्यथा-"अकोसहणणमारणधम्मभंसाण बालसुलभाणं । लाभं मन्नइ धीरो जहुत्तराणं अभामि ॥१॥"॥१८॥ किश्चान्यत् बहुगुणप्पगप्पाई, कुज्जा अत्तसमाहिए । जेणऽन्ने णो विरुज्झेजा, तेण तं तं समायरे ॥ १९॥ इमं च धम्ममादाय, कासवेण पवेइयं । कुजा भिक्खू गिलाणस्स, अगिलाए समाहिए ॥ २० ॥18 संखाय पेसलं धम्म,, दिट्टिमं परिनिव्वुडे। उवसग्गे नियामित्ता, आमोक्खाए परिवएज्जाऽसि ॥२१॥ त्तिबेमि । इति ततीयअज्झयणस्स तईओ उद्देसो समत्तो ॥ (गाथाग्रं० २३४) 'वहवो गुणाः' स्वपक्षसिद्धिपरदोषोद्भावनादयो माध्यस्थ्यादयो वा प्रकल्पन्ते-प्रादुर्भवन्त्यात्मनि येष्वनुष्ठानेषु तानि बहु| गुणप्रकल्पानि–प्रतिज्ञाहेतुदृष्टान्तोपनयनिगमनादीनि माध्यस्थ्यवचनप्रकाराणि वा अनुष्ठानानि साधुर्वादकाले अन्यदा वा 'कु र्यात्' विदध्यात् , स एव विशिष्यते-आत्मनः 'समाधिः' चिचखास्थ्यं यस्य स भवत्यात्मसमाधिका, एतदुक्तं भवतियेन येनोपन्यस्तेन हेतुदृष्टान्तादिना आत्मसमाधिः-खपक्षसिद्धिलक्षणो माध्यस्थ्यवचनादिना वा परानुपघातलक्षणः समुत्पद्यते ।। तत् तत् कुर्यादिति, तथा येनानुष्ठितेन वा भाषितेन वा अन्यतीथिको धर्मश्रवणादौ वाऽन्यः प्रवृत्तो 'न विरुध्येत' न विरोध आमोशहननमारणधर्मशाना बालमुलभाना (मध्ये)। लाभ मन्यते धीरो बोत्तराणामभावे ॥१॥ [२२१] ~191 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२१|| दीप अनुक्रम [२२४] सूत्रकृता शीलाङ्काचायसियुर्त ॥ ९४ ॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [३], मूलं [२१], निर्युक्ति: [५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः गच्छेत् तेन पराविरोधकारणेन तत्तदविरुद्धमनुष्ठानं वचनं वा 'समाचरेत्' कुर्यादिति ॥ १९ ॥ तदेवं परमतं निराकृत्योपसं| हारद्वारेण स्वमतस्थापनायाह- 'इम' मिति वक्ष्यमाणं दुर्गतिधारणाद्धर्मम् 'आदाय' उपादाय गृहीता 'काश्यपेन' श्रीमन्म| हावीरवर्द्धमानस्वामिनोत्पन्नदिव्यज्ञानेन सदेवमनुजायां पर्षदि प्रकर्षेण — यथावस्थितार्थनिरूपणद्वारेण वेदितं प्रवेदितं चशब्दात्परमतं च निराकृत्य, भिक्षणशीलो भिक्षु: 'ग्लानस्य' अपटोरपरस्य भिक्षोर्वैयावृत्र्यादिकं कुर्यात् कथं कुर्याद् १, एतदेव विशि| नष्टि - स्वतोऽप्यग्लानतया यथाशक्ति 'समाहित' समाधिं प्राप्त इति इदमुक्तं भवति -- यथा यथाऽऽत्मनः समाधिरुत्पद्यते न तत्करणेन अपाटवसंभवात् योगा विषीदन्तीति, तथा यथा तस्य व ग्लानस्य समाधिरुत्पद्यते तथा पिण्डपातादिकं विधेयमिति ॥ २० ॥ किं कृत्वैतद्विधेयमिति दर्शयितुमाह--- 'संखाये' त्यादि, संख्याय - ज्ञात्वा कं ?- 'धर्म' सर्वज्ञप्रणीतं श्रुतचारित्रारूयभेदभिनं 'पेशलम्' इति सुलिष्टं प्राणिनामहिंसादिप्रवृत्या प्रीतिकारणं, किम्भूतमिति दर्शयति-दर्शनं दृष्टिः सद्भूतपदार्थगता | सम्यग्दर्शनमित्यर्थः सा विद्यते यस्यासौ दृष्टिमान् यथावस्थितपदार्थपरिच्छेदवानित्यर्थः, तथा 'परिनिर्वृतो' रागद्वेष विरहाच्छान्तीभूतस्तदेवं धर्म पेशलं परिसंख्याय दृष्टिमान् परिनिर्वृत उपसर्गाननुकूलप्रतिकूलान्नियम्य - संयम्य सोढा, नोपसर्गेरुपसर्गितोऽसमञ्जसं विदध्यादित्येवम् 'आमोक्षाय' अशेषकर्मक्षयप्राप्तिं यावत् परि - समन्तात् व्रजेत् - संयमानुष्ठानोद्युक्तो भवेत् परिव्रजेद्, इतिः परिसमाप्त्यर्थे, ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ २१ ॥ उपसर्गपरिज्ञायास्तृतीयोदेशकः समाप्तः ॥ ३ ॥ Education Internationa -099604 For Parts Only ~ 192~ tatatatataese ३ उपस गोध्य० उद्देशः ३ ॥ ९४ ॥ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [४], मूलं [१], नियुक्ति: [५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: अथ तृतीयोपसर्गाध्ययने चतुर्थोदेशकस्य प्रारम्भः॥ प्रत सूत्रांक ||१|| दीप उक्तस्तृतीयोद्देशकः, साम्प्रतं चतुर्थः समारभ्यते--अस्स चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरोद्देशके अनुकूलप्रतिकूलोपसर्गाः प्रतिपादिताः, तैश्च कदाचित्साधुः शीलात् प्रच्याच्येत-तख च स्खलितशीलस्य प्रज्ञापनाऽनेन प्रतिपाद्यते इति, अनेन सम्बन्धेना-1 यातस्यास्योद्देशकस्खादिमं सूत्रम् आहंसु महापुरिसा, पुविं तत्ततवोधणा । उदएण सिद्धिमावन्ना, तत्थ मंदो विसीयति ॥१॥ अभुजिया नमी विदेही, रामगुत्ते य भुजिआ । बाहुए उदगं भोच्चा, तहा नारायणे रिसी ॥२॥131 केचन अविदितपरमार्था 'आहुः उक्तवतः, किं तदित्याह-यथा 'महापुरुषाः' प्रधानपुरुषा वल्कलचीरितारागणर्षि-1 प्रभृतयः 'पूर्व' पूर्वमिन् काले तप्तम्-अनुष्ठितं तप एवं धनं येषां ते तप्ततपोधनाः-पश्चाम्यादितपोविशेषेण निष्टतदेहात एवम्भूताः शीतोदकपरिभोगेन, उपलक्षणार्थत्वात् कन्दमूलफलायुपभोगेन च 'सिद्धिमापन्नाः' सिद्धिं गताः, 'तन्त्र' एवम्भूतार्थ-18 | समाकर्णने तदर्थसद्भावावेशात् 'मन्दः' अझोऽस्नानादित्याजितः प्रासुकोदकपरिभोगभन्नः संयमानुष्ठाने विषीदति, यदिवा तत्रैव । शीतोदकपरिभोगे विषीदति लगति निमज्जतीतियावत्, न त्वसौ वराक एवमवधारयति, यथा-तेषां तापसादिवतानुष्ठायिनां | अनुक्रम [२२५] अत्र तृतीय-अध्ययनस्य चतुर्थ-उद्देशकस्य आरम्भ: ~193~ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥२॥ दीप अनुक्रम [२२६] सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्काचाय तियुतं ॥ ९५ ॥ Education T “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [४], मूलं [२], निर्युक्ति: [ ५० ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र- [ ०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः कुतश्रिजातिसरणादिप्रत्ययादाविर्भूतसम्यग्दर्शनानां मौनीन्द्र भावसंयमप्रतिपत्त्या अपगतज्ञानावरणीयादिकर्मणां भरतादीनामिव मोक्षावाप्तिः न तु शीतोदकपरिभोगादिति ॥ १ ॥ किञ्चान्यत् केचन कुतीर्थिकाः साधुप्रतारणार्थमेवमूचुः, यदिवा स्ववयः शीतलविहारिण एतद् वक्ष्यमाणमुक्तवन्तः, तद्यथा-नमीराजा विदेहो नाम जनपदस्तत्र भवा वैदेहाः - तन्निवासिनो लोकास्तेऽस्य सन्तीति वैदेही, स एवम्भूतो नमी राजा अशनादिकमभुक्त्वा सिद्धिमुपगतः तथा रामगुप्तञ्च राजर्षिराहारादिकं 'भुक्त्वैव' सुजान एवं सिद्धिं प्राप्त इति, तथा बाहुकः शीतोदकादिपरिभोगं कृत्वा तथा नारायणो नाम महर्षिः परिणतोदकादिपरिभोगात्सिद्ध इति ॥ २ ॥ अपिच आसिले देविले चेव, दीवायण महारिसी । पारासरे दगं भोच्चा, बीयाणि हरियाणि य ॥ ३ ॥ एवं महापुरिसा, आहिता इह संमता । भोच्चा बीओदगं सिद्धा, इति मेयमणुस्सु ॥ ४ ॥ आसिलो नाम महर्षिस्तथा देविलो द्वैपायनथ तथा पराशराख्य इत्येवमादयः शीतोदकवी जहरितादिपरिभोगादेव सिद्धा इति श्रूयते ॥ ३ ॥ एतदेव दर्शयितुमाह-एते पूर्वोक्ता नम्यादयो महर्षयः 'पूर्वमिति पूर्वस्मिन्काले त्रेताद्वापरादौ 'महापुरुषा' इति प्रधानपुरुषा आसमन्तात् ख्याताः आख्याताः - प्रख्याता राजर्षित्वेन प्रसिद्धिमुपगता इहापि आर्हते प्रवचने ऋषि'भाषितादौ केचन 'सम्मता' अभिनेता इत्येवं कुतीर्थिकाः स्वयूथ्या वा प्रोचुः, तद्यथा - एते सर्वेऽपि बीजोदकादिकं भुक्त्वा सिद्धा इत्येतन्मया भारतादौ पुराणे श्रुतम् ॥ ४ ॥ एतदुपसंहारद्वारेण परिहरन्नाह For Parts Only ~ 194~ ३ उपस गोध्य० उद्देश: ४ ॥ ९५ ॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [४], मूलं [५], नियुक्ति: [५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक |||| दीप तस्थ मंदा विसीअंति, वाहच्छिन्ना व गद्दभा। पिट्टतो परिसप्पंति, पिट्ठसप्पी य संभमे ॥५॥1॥ इहमेगे उभासंति, सात सातेण विजती । जे तत्थ आरियं मग्गं, परमं च समाहिए(यं)॥६॥ 'तत्र' तस्मिन् कुथुत्युपसर्गोदये 'मन्दा' अशा नानाविधोपायसाध्य सिद्धिगमनमवधार्य विषीदन्ति संयमानुष्ठाने, न पुनरेतद्विदन्त्यज्ञाः, तद्यथा--येषां सिद्धिगमनमभूत् तेषां कुतश्चिनिमित्तात् जातजातिस्मरणादिप्रत्ययानामबाप्तसम्यग्ज्ञानचारित्राणामेव वल्कलचीरिप्रभृतीनामिव सिद्धिगमनमभूत, न पुनः कदाचिदपि सर्वविरतिपरिणामभावलिङ्गमन्तरेण शीतोदकबीजाद्युपभोगेन जीवोपमर्दप्रायेण कर्मक्षयोऽवाप्यते, विषीदने दृष्टान्तमाह-वहनं वाहो-भारोद्वहनं तेन छिन्ना:-कर्षिताखुटिता रासभा | इव विपीदन्ति, यथा-रासभा गमनपथ एव प्रोज्झितभारा निपतन्ति, एवं तेऽपि प्रोश्य संयमभारं शीतलविहारिणो भवन्ति, | दृष्टान्तान्तरमाह-यथा 'पृष्ठसर्पिणो' भन्नगतयोज्यादिसम्भ्रमे सत्युभ्रान्तनयनाः समाकुलाः प्रनष्टजनस्य 'पृष्ठतः' पश्चात्प रिसर्पन्ति नाग्रगामिनो भवन्ति, अपि तु तवाम्यादिसम्भ्रमे विनश्यन्ति, एवं तेऽपि शीतलविहारिणो मोक्षं प्रति प्रवृत्ता अपि तु न मोक्षगतयो भवन्ति अपि तु तसिन्नेव संसारे अनन्तमपि कालं यावदासत इति ॥ ५॥ मतान्तरं निराकर्तु पूर्वपक्षयितुमाह'इहे'ति मोक्षगमन विचारप्रस्तावे 'एके' शाक्यादयः खयूथ्या वा लोचादिनोपतप्ता, तुशब्दः पूर्वमात् शीतोदकादिपरिभोगाद्विशेषमाह, 'भाषन्ते' बुवते मन्यन्ते वा कचित्पाठः, किं तदित्याह-'सातं' सुखं 'सातेन' सुखेनैव 'विद्यते' भवतीति, तथा च वक्तारो भवन्ति-"सर्वाणि सच्चानि सुखे रतानि, सर्वाणि दुःखाच समुद्विजन्ते । तसात्सुखार्थी सुखमेव दद्यात्, सु aeeeeeeeeeeeeeeeeeeeee अनुक्रम [२२९] ~195~ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [२३०] सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्का चाaagचियुतं ॥ ९६ ॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [४], मूलं [६], निर्युक्ति: [ ५० ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः | खप्रदाता लभते सुखानि ॥ १ ॥ " युक्तिरप्येवमेव स्थिता, यतः कारणानुरूपं कार्यमुत्पद्यते, तद्यथा-- शालिबीजाच्छालय कुरो जायते न यवाङ्कुर इत्येवमिहत्यात् सुखान्मुक्तिसुखमुपजायते, न तु लोचादिरूपात् दुःखादिति, तथा ह्यागमोऽप्येवमेव व्यवस्थितः -- " मणुष्णं भोयणं भोच्चा, मणुष्णं सयणासणं । मणुष्णंसि अगारंसि, मणुष्णं झायए मुणी ॥ १ ॥ " तथा "मृद्धी शय्या प्रातरुत्थाय पेया, भक्तं मध्ये पानकं चापराह्णे । द्राक्षाखण्डं शर्करा चार्द्धरात्रे, मोक्षवान्ते शाक्यपुत्रेण दृष्टः ॥ १ ॥ " इत्यतो मनोज्ञाहारविहारादेश्चित्तस्वास्थ्यं ततः समाधिरुत्पद्यते समाधेव मुक्त्यवाप्तिः, अतः स्थितमेतत् सुखेनैव सुखावाप्तिः न पुनः कदा चनापि लोचादिना कायक्लेशेन सुखावाप्तिरिति स्थितं, इत्येवं व्यामूढमतयो ये केचन शाक्यादयः 'तन्त्र' तस्मिन्मोक्षविचारप्रस्तावे समुपस्थिते आरायातः सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यायों मार्गों जैनेन्द्रशासनप्रतिपादितो मोक्षमार्गस्तं ये परिहरन्ति तथा च'परमं च समाधिं ज्ञानदर्शनचारित्रात्मकं ये त्यजन्ति तेऽज्ञाः संसारान्तर्वर्तिनः सदा भवन्ति, तथाहि — यत्तैरभिहितंकारणानुरूपं कार्यमिति, तन्नायमेकान्तो, यतः शृङ्गाच्छरो जायते गोमयाद्वृत्रिको गोलोमाविलोमादिभ्यो दूर्वेति यदपि मनोशाहारादिकमुपन्यस्तं सुखकारणत्वेन तदपि विशुचिकादिसंभवाव्यभिचारीति, अपिच - इदं वैषयिकं सुखं दुःखप्रतीकारहेतुत्वात् सुखाभासतया सुखमेव न भवति, तदुक्तम् – “दुःखात्मकेषु विषयेषु सुखाभिमानः, सौख्यात्मकेषु नियमादिषु दुःखबुद्धिः उत्कीर्णवर्णपदपतिरिवान्यरूपा, सारूप्यमेति विपरीतगतिप्रयोगात् ॥ १ ॥” इति कुतस्तत्परमानन्दरूपस्यात्यन्तिकैकान्तिकस्य मोक्षसुखस्य कारणं भवति, यदपि च लोचभूशयनभिक्षाटनपरपरिभवक्षुत्पिपासादंशमशकादिकं दुःखकारणत्वेन भवतो१ मनोरं भोजनं भुक्त्वा मनोहे शयनासने । मनोऽगारे मनोज्ञं ध्यायेन्मुनिः ।। १ ।। Education Internationa For Pasta Use Only ~ 196~ ३ उपस गांध्य० उद्देशः ४ ॥ ९६ ॥ yor Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [४], मूलं [६], नियुक्ति: [५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||६|| seoeseseseseseseesecenecesert पन्यस्तं तदत्यन्ताल्पसचानामपरमार्थदशा, महापुरुषाणां तु खार्थाभ्युपगमप्रवृत्तानां परमार्थचिन्तकतानानां महासयतया सर्वमे| वैतत्सुखायैवेति, तथा चोक्तम्-तणसंथारनिविष्णोवि मुनिवरो भट्टरागमयमोहो । जं पावइ मुनिसुई कत्तो तं चकवट्टीवि।। |॥१॥" तथा । "दुःखं दुष्कृतसंक्षयाय महतां क्षान्तेः पदं वैरिणः, कायस्याशुचिता विरागपदवी संवेगहेतुर्जरा । सर्वत्यागमहोत्सवाय मरणं जातिः सुहृत्प्रीतये, संपद्भिः परिपूरितं जगदिदं स्थानं विपत्तेः कुतः॥१॥" इति, अपिच-एकान्तेन सुखेनैव सुखेऽभ्युपगम्यमाने विचित्रसंसाराभावः स्यात् , तथा स्वर्गस्थानां नित्यसुखिना पुनरपि सुखानुभूतेस्तत्रैवोत्पत्तिः स्थान, तथा नारकाणां च पुनर्दुःखानुभवात्तत्रैवोत्पत्तेः, न नानागत्या विचित्रता संसारस्य सात् , नचैतत् दृष्टमिष्टं चेति ॥६॥ अतो व्यपदिश्यते| मा एवं अवमन्नंता, अप्पेणं लुपहा बहूं । एतस्स (उ)अमोक्खाए, अओहारिव जूरह ॥७॥ पाणाइवाते वता, मुसावादे असंजता । अदिन्नादाणे वता, मेहुणे य परिग्गहे ॥ ८॥ 'एनम्' आर्य मार्ग जैनेन्द्रप्रवचनं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रमोक्षमार्गप्रतिपादकं 'सुखं सुखेनैव विद्यते' इत्यादिमोहेन मोहिता | 'अवमन्यमाना:' परिहरन्तः 'अस्पेन' वैषयिकेण सुखेन मा 'बहु' परमार्थसुखं मोक्षारुप 'लुम्पध' विध्वंसथ, तथाहि| मनोज्ञाऽऽहारादिना कामोद्रेक, तदुद्रेकाच चित्तास्वास्थ्यं न पुनः समाधिरिति, अपि च एतस्य' असत्पक्षाभ्युपगमस 'अ १ तृणसंसारनिषण्णोऽपि मुनिबरो भ्रष्टरागमदमोहः । यरप्राप्नोति मुक्तिमुक कुतात् चक्रवर्त्यपि ॥१॥ GetBeeg दीप अनुक्रम [२३०] PCRA ~197~ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [४], मूलं [८], नियुक्ति: [५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्काचार्याय त्तियुत सुत्रांक ||८|| दीप desesecevercedesercenevercenese मोक्षे अपरित्यागे सति 'अयोहारिव्व जूरह'त्ति आत्मानं यूयं कदर्थयथ, केवलं, यथाऽसौ अयसो-लोहस्याहर्ता अपान्तराले रूप्यादिलाभे सत्यपि दमानीतमितिकृया नोज्झितवान् , पश्चात् खावस्थानावाप्तावल्पलाभे सति जूरितवान्-पश्चा- गाध्य तापं कृतवान् एवं भवन्तोऽपि जूरयिष्यन्तीति ॥ ७॥ पुनरपि 'सातेन सात'मित्येवंवादिना शाक्यानां दोपोद्विभावविषयाह--॥४॥ उद्देशः। प्राणातिपातमृपावादादत्तादानमैथुनपरिग्रहेषु वर्तमाना असंयता यूयं वर्तमानसुखैषिणोऽल्पेन वैषयिकमुखाभासेन पारमार्थि-18 कमेकान्तात्यन्तिकं बहु मोक्षसुखं विलुम्पथेति, किमिति, यतः पचनपाचनादिषु क्रियासु वर्तमानाः सावद्यानुष्ठानारम्भतया प्राजातिपातमाचरथ तथा येषां जीवानां शरीरोपभोगो भवद्भिः क्रियते तानि शरीराणि तत्स्वामिभिरदत्तानीत्यदत्तादानाचरणं | तथा गोमहिष्यजोष्ट्रादिपरिग्रहात्तन्मधुनानुमोदनादब्रह्मेति तथा प्रबजिता वयमित्येवमुत्थाय गृहस्थाचरणानुष्ठानान्मृपावाद तथा धनधान्यद्विपदचतुष्पदादिपरिग्रहात्परिग्रह इति ॥ ८ ॥ साम्प्रतं मतान्तरदूषणाय पूर्वपक्षयितुमाह एवमेगे उ पासत्था, पन्नवंति अणारिया । इत्थीवसं गया बाला, जिणसासणपरम्मुहा ॥९॥ जहा गंडं पिलागं वा, परिपीलेज मुहत्तगं। एवं विन्नवणित्थीसु, दोसो तत्थ कओ सिआ ? ॥१०॥ ॥९७॥ जहा मंधादए नाम, थिमिअं भुंजती दगं। एवं विन्नवणित्थीसु, दोसो तत्थ कओ सिआ?॥११॥19 जहा विहंगमा पिंगा, थिमि भुंजती दगं । एवं विन्नवणित्थीसु, दोसो तत्थ कओ सिआ! ॥१२॥ अनुक्रम [२३२] For P OW ~198~ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (02) प्रत सूत्रांक ||१३|| दीप अनुक्रम [२३७] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र - २ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [ ४ ], मूलं [१३], निर्युक्ति: [५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः एवमे उपासत्था, मिच्छदिट्टी अणारिया । अज्झोववन्ना कामेहिं, पूयणा इव तरुण ॥ १३ ॥ तुशब्दः पूर्वस्माद्विशेषणार्थः, 'एवमिति वक्ष्यमाणया नीत्या, यदिवा प्राक्तन एव श्लोकोऽत्रापि सम्बन्धनीयः, एवमिति प्राणातिपातादिषु वर्तमाना 'एके' इति बौद्धविशेषा नीलपटादयो नाथवादिकमण्डलप्रविष्टा वा शैवविशेषाः, सदनुष्ठानात् पार्श्वे | तिष्ठन्तीति पार्श्वस्थाः, स्वयूथ्या वा पार्श्वस्यावसन्नकुशीलादयः स्त्रीपरीषहपराजिताः, त एवं 'प्रज्ञापयन्ति' प्ररूपयन्ति अनार्याः, अनार्यकर्मकारित्वात्, तथाहि ते वदन्ति - “प्रियादर्शनमेवास्तु, किमन्यैर्दर्शनान्तरैः १ । प्राप्यते येन निर्वाणं, सरागेणापि | चेतसां ॥१॥ " किमित्येवं तेऽभिदधतीत्याह--'स्त्रीवशं गताः' यतो युवतीनामाज्ञायां वर्तन्ते 'बाला' अज्ञा रागद्वेषोपहतचेतस इति, रागद्वेषजितो जिनास्तेषां शासनम् - आज्ञा कषायमोहोपशमहेतुभूता तत्पराङ्मुखाः संसाराभिष्वङ्गिणो जैनमार्गविद्वेषिणः 'एतद्' वक्ष्यमाणमूचुरिति ||९|| यदूचुस्तदाह-यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः, 'यथा' येन प्रकारेण कश्चित् गण्डी पुरुषो गण्ड समुत्थितं पिटकं वा तज्जातीयकमेव तदाकृतोपशमनार्थं 'परिपीड्य' पूयरुधिरादिकं निर्माल्य मुहूर्तमात्रं सुखितो भवति, न च दोषेणानुषज्यते, एवमत्रापि 'स्त्रीविज्ञापनायां' युवतिप्रार्थनायां रमणीसम्बन्धे गण्डपरिपीडनकल्पे दोषस्तत्र कुतः स्वात् है, न होतावता क्लेदापगममात्रेण दोषो भवेदिति ॥१०॥ स्वाचत्र दोषो यदि काचित्पीडा भवेत्, न चासाविहास्तीति दृष्टान्तेन दर्शयति१ चक्षुषेति प्र० । २ आकोपः वि० प० तदाकृतो० प्र० । Eaton Internationa For Parts Only ~199~ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [४], मूलं [१३...], नियुक्ति : [५० ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१३|| त्तियुतं दीप सूत्रकृता | 'यथे' त्ययमुदाहरणोपन्यासार्थः, 'मन्धादन' इति मेषः नामशब्दः सम्भावनायां यथा मेषः तिमितम् अनालोडयचुदकं ३ उपसशीलाका- पिबत्यात्मानं प्रीणयति, न च तथान्येषां किश्चनोपघातं विधत्ते, एवमत्रापि खीसम्बन्धे न काचिदन्यस्य पीडा आत्मनश्च प्री- गोध्य० चायि- णनम् , अतः कुतस्तत्र दोषः स्यादिति ॥११॥ असिन्नेवानुपघातार्थे दृष्टान्तबहुसख्यापनार्थ दृष्टान्तान्तरमाह-'यथा' येन प्रका-|| उद्देशः४ रेण विहायसा गच्छतीति विहंगमा-पक्षिणी 'पिंगे'ति कपिजला साऽऽकाश एव वर्तमानाः 'तिमित' निभृतमुदकमापिबति, ॥९८॥18 एवमत्रापि दर्भप्रदानपूर्विकया क्रियया अरक्तद्विष्टस्य पुत्राद्यर्थ स्त्रीसम्बन्धं कुर्वतोऽपि कपिञ्जलाया इव न तस्य दोष इति, साम्प्रतमेतेषां गण्डपीडनतुल्यं स्त्रीपरिभोगं मन्यमानानां तथैडकोदकपानसदृशं परपीडाऽनुत्पादकलेन परात्मनोश्च सुखोत्पादकलेन किल मैथुनं जायत इत्यध्यवसायिनां तथा कपिञ्जलोदकपानं यथा तडागोदकासंस्पर्शन किल भवत्येवमरक्तद्विष्टतया दर्भाधुत्तारणात् | स्त्रीगात्रासंस्पर्शेन पुत्रार्थ न कामार्थ ऋतुकालाभिगामितया शास्त्रोक्तविधानेन मैथुनेऽपि न दोषानुषः, तथा चोचुस्ते–“धर्मार्थे | | पुत्रकामस, खदारेश्वधिकारिणः । ऋतुकाले विधानेन, दोषस्तत्र न विद्यते ॥१॥" इति, एवमुदासीनतेन व्यवस्थिताना दृष्टान्तेनव नियुक्तिकारो गाथात्रयेणोत्तरदानायाह-- जह णाम मंडलग्गेण सिरं छेत्तू ण कस्सद मणुस्सो । अच्छेज पराहुत्तो किं नाम ततोण धिप्पेजा ॥५३॥॥९८ जह वा विसगडूसं कोई घेत्तूण नाम तुहिको । अण्णेण अदीसंतो किं नाम ततो न व मरेज्जा!॥५४॥ जह नाम सिरिघराओ कोइ रयणाणि णाम घेत्तूर्ण । अच्छेज्न पराहुत्तो किंणाम ततो न घेप्पेज्जा ? ॥ ५५ ॥ अनुक्रम [२३७] 'अत्र नियुक्ति क्रम: ५३ दृश्यते, तत् मुद्रणदोष: सम्भाव्यते। (यहाँ नियुक्ति क्रम ५३ दिया है, ईसके पहले तीसरे अध्ययन के आरम्भमें आखरी नियुक्ति का क्रम ५० था| मेरी जानकारीमें इन दोनों के बिचमें कोई नियुक्ति नहीं आई है। ~200~ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [४], मूलं [१३...], नियुक्ति: [५५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||१३|| यथा [अन्धानम् ३००० ] नाम कश्चिन्मण्डलाण कस्यचिच्छिरश्छित्वा पराभुखस्तिष्ठेव , किमेतावतोदासीनभावावलम्बनेन 'न गृह्येत' नापराधी भवेत् । तथा-यथा कश्चिद्विषगण्डर्ष 'गृहीखा' पीला नाम तूष्णींभावं भजेदन्येन चादृश्यमानोऽसौ कि नाम 'ततः' असावन्यादर्शनात् न म्रियेत । तथा-यथा कश्चित् श्रीगृहाद्-भाण्डागारागलानि महा_णि गृहीखा पराभुखस्तिष्ठेव , किमेतावताऽसौ न गृह्यतेति । अत्र च यथा-कश्चित् शठतया अज्ञतया वा शिरश्छेदविषगण्डूपरनापहाराख्ये सत्यपि दोषत्रये माध्यस्थ्यमवलम्बेत, न च तस्य तदवलम्बनेऽपि निदोपतेति, एवमत्राप्यवश्यंभाविरागकार्ये मैथुने सर्वदोषास्पदे संसारवर्द्धके | कुतो निर्दोषतेति, तथा चोक्तम्-"प्राणिनां बाधकं चैतच्छास्त्रे गीतं महर्षिभिः । नलिकातप्तकणकप्रवेशज्ञाततस्तथा ॥१॥ मूल चैतदधर्मस्थ, भवभावप्रवर्धनम् । तस्माद्विपान्नवच्याज्यमिदं पापमनिच्छता ॥२॥" इति नियुक्तिगाथात्रयतात्पर्यार्थः ॥ ॥ साम्प्रतं | सूत्रकार उपसंहारव्याजेन गण्डपीडनादिदृष्टान्तवादिना दोषोद्विभावयिषयाह-'एवं' मिति गण्डपीडनादिदृष्टान्तबलेन निर्दोष है | मैथुनमिति मन्यमाना 'एके' स्वीपरीषहपराजिताः सदनुष्ठानात्पार्थे तिष्ठन्तीति पार्श्वस्था नाथवादिकमण्डलचारिणः, तुशब्दा वयूथ्या वा, तथा मिथ्या-विपरीता तवाग्राहिणी दृष्टि:-दर्शनं येषां ते तथा, आरात्-दूरे याता--गताः सर्वहेयधर्मेभ्य | इत्यार्याः न आर्या अनार्याः धर्मविरुद्धानुष्ठानात् , त एवंविधा 'अध्युपपन्ना' गृभव इच्छामदनरूपेषु कामेषु कामैर्वा करणभूतैः सावधानुष्ठानेविति, अत्र लौकिक दृष्टान्तमाह--यथा वा 'पूतना' डाकिनी 'तरुणके' स्तनन्धयेऽध्युपपन्ना, एवं तेऽप्यनार्याः || कामेष्विति, यदिवा 'पूयण त्ति गडरिका आत्मीयेऽपत्येऽध्युपपन्ना, एवं तेऽपीति, कथानकं चात्र-यथा किल सर्वपशूनामप दीप अनुक्रम [२३७] ~201~ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [४], मूलं [१४], नियुक्ति: [१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: २.उपस गोध्या प्रत सूत्रांक ||१४|| सूत्रकृताङ्गं शीलाकाचायीयवृचियुत ॥१९॥ दीप SaveDasasa9300800 त्यानि निरुदके कूपेऽपत्यस्नेहपरीक्षार्थ क्षिप्तानि, तत्र चापरा मातरः खकीयस्तनन्धयशब्दाकर्णनेऽपि कूपतटस्था रुदन्त्यस्तिष्ठन्ति, उरभ्री वपत्यातिस्नेहेनान्धा अपायमनपेक्ष्य तत्रैवात्मानं क्षिप्तवतीत्यतोऽयरपशुभ्यः खापत्येऽध्युपपन्नेति, एवं तेऽपि ॥१३ ।। का-18 माभिष्वङ्गिणां दोषमाविष्फुर्वन्नाह उद्देशः४ अणागयमपस्संता, पञ्चुप्पन्नगवेसगा। ते पच्छा परितप्पंति, खीणे आउंमि जोवणे ॥ १४ ॥ जेहिं काले परिकंतं, न पच्छा परितप्पए । ते धीरा बंधणुम्मुक्का, नावखंति जीविअं॥ १५॥ 18 'अनागतम् एष्यत्कामानिवृत्तानां नरकादियातनास्थानेषु महत् दुःखम् 'अपश्यन्तः अपर्यालोचयन्तः, तथा 'प्रत्युत्पन्न | वर्तमानमेव वैषयिकं सुखाभासम् 'अन्वेषयन्तो मृगयमाणा नानाविधैरुपायोगान्प्रार्थयन्तः ते पश्चात् क्षीणे वायुषि जातसं-16 वेगा यौवने वाऽपगते 'परितप्यन्ते' शोचन्ते पश्चात्तापं विदधति, उक्तं च-"हतं मुष्टिभिराकाशं, तुषाणां कण्डनं कृतम् । यन्म-16 या प्राप्य मानुष्यं, सदर्थे नादरः कृतः ॥१॥" तथा-"विहवावलेवनडिएहिं जाई कीरंति जोवणमएणं । वयपरिणामे स-1 रियाई ताई हिअए खुडुफंति ॥१॥" ॥ १४ ॥ ये तूत्तमसत्त्वतया अनागतमेव तपश्चरणादावुधमं विदधति न ते पश्चाच्छोच-181 न्तीति दर्शयितुमाह-'यैः' आत्महितकर्तृभिः 'काले' धर्मार्जनावसरे 'पराक्रान्तम्' इन्द्रियकषायपराजयायोधमो विहितो ॥९९॥ न ते 'पश्चात्' मरणकाले वृद्धावस्थायां वा 'परितप्यन्ते' न शोकाकुला भवन्ति, एकवचन निर्देशस्तु सौत्रश्च्छान्दसखादिति, विभवापलेपनटितयानि न कियन्ते चीवनमदेन । वयःपरिणामे स्मृतानि तानि हृदयं न्यथन्ने ॥१॥ अनुक्रम [२३८] ~ 202 ~ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१५|| दीप अनुक्रम [२३९] Earaton t “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [४], मूलं [१५], निर्युक्ति: [५५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः धर्मार्जनकालस्तु विवेकिनां प्रायशः सर्व एव यस्मात्स एव प्रधानपुरुषार्थः, प्रधान एव च प्रायशः क्रियमाणो घटां प्राञ्चति, तद ये वाल्यात्प्रभृत्यकृत विषयासङ्गतया कृततपभरणाः ते 'धीराः' कर्मविदारणसहिष्णवो बन्धनेन- स्नेहात्मकेन कर्मणा चोत् प्राबल्येन मुक्ता नावकाङ्क्षन्ति असंयमजीवितं यदिवा जीविते मरणे वा निःस्पृहाः संयमोद्यममतयो भवन्तीति ॥ १५ ॥ अन्यच - जहा नई वेयरणी, दुत्तरा इह संमता । एवं लोगंसि नारीओ, दुरुत्तरा अमईमया ॥ १६ ॥ जेहिं नारीण संजोगा, पूयणा पिटुतो कता । सबमेयं निराकिच्चा, ते ठिया सुसमाहिए ॥ १७ ॥ यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः, यथा वैतरणी नदीनां मध्येऽत्यन्तवेगवाहित्वात् विषमतटत्वाच्च 'दुस्तरा' दुर्लङ्घया 'एवम्' अस्मि नपि लोके नार्यः 'अमतिमता' निर्विवेकेन हीनसत्त्वेन दुःखेनोत्तीर्यन्ते, तथाहि---वा हावभावैः कृतविद्यानपि स्वीकुर्वन्ति, तथा चोक्तम् - "सन्मार्गे तावदास्ते प्रभवति पुरुषस्तावदेवेन्द्रियाणां लज्जां तावद्विधत्ते विनयमपि समालम्बते तावदेव । भ्रूचापाक्षेपमुक्ताः श्रवणपथजुषो नीलपक्ष्माण एते, यावल्लीलावतीनां न हृदि धृतिमुषो दृष्टिवाणाः पतन्ति ।। १ ।। " तदेवं वैतरणीनदीवत् दुस्तरा नार्यो भवन्तीति ।। १६ ।। अपिच 'यैः' उत्तमसन्चैः स्त्रीसङ्गविपाकवेदिभिः पर्यन्तकटवो नारीसंयोगाः परित्यक्ताः, तथा तत्सङ्गार्थमेव वस्त्रालङ्कारमाल्यादिभिरात्मनः 'पूजना' कामविभूषा 'पृष्ठतः कृता' परित्यक्तेत्यर्थः, 'सर्वमेतत्' For Parts Only ~203~ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [४], मूलं [१७], नियुक्ति: [१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: सूत्रकृताङ्गं प्रत सूत्रांक ||१७|| दीप अनुक्रम [२४१] स्त्रीप्रसङ्गादिकं क्षुत्पिपासादि प्रतिकूलोपसर्गकदम्बकं च निराकृत्य ये महापुरुषसेवितपन्थानं प्रति प्रवृत्तास्ते सुसमाधिना-18|३. उपसशीलाङ्का खस्थचित्तवृत्तिरूपेण व्यवस्थिताः, नोपसगैरनुकूलप्रतिकूलरूपैः प्रक्षोभ्यन्ते, अन्ये तु विषयाभिध्वङ्गिणः स्यादिपरीषहपराजिता माध्य. चार्यायवृ-18 | अङ्गारोपरिपतितमीनवद्रागामिना दह्यमाना असमाधिना तिष्ठन्तीति ।। १७ ।। ख्यादिपरीषहपराजयस्य फलं दर्शयितुमाह उद्देशः४ त्तियुत एते ओघं तरिस्संति, समुदं ववहारिणो । जत्थ पाणा विसन्नासि, किच्चंती सयकम्मुणा ॥१८॥ ॥१०॥ तं च भिक्खू परिणाय, सुव्बते समिते चरे। मुसावायं च वजिजा, अदिन्नादाणं च वोसिरे ॥१९॥ उड्महे तिरियं वा, जे केई तसथावरा । सवत्थ विरतिं कुजा, य एते अनन्तरोक्ता अनुकूलप्रतिकूलोपसर्गजेतार एते सर्वेऽपि 'ओघ संसारं दुस्तरमपि तरिष्यन्ति, द्रव्यौपदृष्टान्तमाह'समुद्रं लवणसागरमिव यथा 'व्यवहारिणः' सांयात्रिका यानपात्रेण तरन्ति, एवं भावौषमपि संसार संयमयानपात्रेण यत-18 यस्तरिष्यन्ति, तथा वीर्णास्तरन्ति चेति, भावौषमेव विशिनष्टि-'यन्त्र' यस्मिन् भावौघे संसारसागरे 'प्राणाः' प्राणिनः खीविष ॥१०॥ यसंगाद्विषण्णाः सन्तः 'कृत्यन्ते' पीयन्ते 'खकृतेन' आत्मनानुष्ठितेन पापेन 'कर्मणा' असवेदनीयोदयरूपेणेति ॥ १८॥ साम्प्रतमुपसंहारच्याजेनोपदेशान्तरदित्सयाह-तदेतद्यत्प्रागुक्तं यथा-वैतरणीनदीवत् दुस्तरा नार्यो यैः परित्यक्तास्ते समाधि-IN स्थाः संसारं तरन्ति, खीसङ्गिनश्च संसारान्तर्गताः खकृतकर्मणा कृत्यन्त इति, तदेतत्सर्व भिक्षणशीलो भिक्षुः 'परिज्ञाय' हेयो enewestseseseseveraeservemes ~204 ~ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२०|| दीप अनुक्रम [२४४] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [४], मूलं [२०], निर्युक्ति: [५५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - पादेयतया बुध्ध्वा शोभनानि प्रतान्यस्य सुव्रतः पश्चभिः समितिभिः समित इत्यनेनोत्तर गुणावेदनं कृतमित्येवंभूतः 'चरेत्' संय मानुष्ठानं विदध्यात्, तथा 'मृषावादम्' असद्भूतार्थभाषणं विशेषेण वर्जयेत्, तथा 'अदत्तादानं च व्युत्सृजेद्' दन्तशोधनमात्रमप्यदत्तं न गृह्णीयात्, आदिग्रहणान्मैथुनादेः परिग्रह इति, तच मैथुनादिकं यावज्जीवमात्महितं मन्यमानः परिहरेत् ॥ १९ ॥ अपरव्रतानामहिंसाया वृत्तिकल्पसात् तत्प्राधान्यख्यापनार्थमाह-ऊर्ध्वमधस्तिर्यक्ष्वित्यनेन क्षेत्रप्राणातिपातो गृहीतः, तत्र ये केचन सन्तीति त्रसा - द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियाः पर्याप्तापर्याप्तकभेदभिन्नाः, तथा तिष्ठन्तीति स्थावराः - पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः सूक्ष्मचादरपर्याप्तका पर्याप्तकभेदभिन्ना इति, अनेन च द्रव्यप्राणातिपातो गृहीतः सर्वत्र काले सर्वावस्थावित्यनेनापि कालभावभे| दभिन्नः प्रागात्तिपात उपात्तो द्रष्टव्यः, तदेवं चतुर्दशस्वपि जीवस्थानेषु कृतकारितानुमतिभिर्मनोवाक्कायैः प्राणातिपातविरतिं | कुर्यादित्यनेन पादोनेनापि श्लोकद्वयेन प्राणातिपातविरत्यादयो मूलगुणाः ख्यापिताः, साम्प्रतमेतेषां सर्वेषामेव मूलोत्तरगुणानां फलमुदेशेनाह- संति निव्वाणमाहियं ॥ २० ॥ इमं च धम्ममादाय, कासवेण पवेदितं । कुज्जा भिक्खू गिलाणस्स, अगिलाए समाहिए ॥ २१ ॥ संखाय पेसलं धम्मं, दिट्टिमं परिनिबुडे । उवसग्गे नियामित्ता, आमोक्खाए परिव्वज्जासि ॥२२॥ तिमि । इति उवसग्गपरित्राणामं तइयं अज्झयणं सम्मतं ॥ [ गाथा २५६ ] अत्र तृतीय अध्ययनं परिसमाप्तम् For Pana Prata Use Only ~205~ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [४], मूलं [२२], नियुक्ति: [१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||२२|| त्तियुतं सूत्रकृतानं 'शान्तिः ' इति कर्मदाहोपशमस्तदेव च 'निर्वाण' मोक्षपदं यद् 'आख्यात' प्रतिपादितं सर्वद्वन्द्वापगमरूपं तदस्यावश्यं || ३ उपसचरणकरणानुष्ठायिनः साधोभेवतीति ।।२०।। समस्ताध्ययनार्थोपसंहारार्थमाह-'इमं च धम्ममि'त्यादि, 'इम' मिति पूर्वोक्तं गोध्य० चार्यांय-1 18|मूलोत्तरगुणरूपं श्रुतचारित्राख्यं वा दुर्गतिधारणात् धर्मम् 'आदाय आचार्योपदेशेन गृहीखा किम्भूतमिति तदेव विशिनष्टि उद्देशः ४ 1STकाश्यपेन' श्रीमन्महावीरवर्धमानस्वामिना समुत्पनदिव्यज्ञानेन भव्यसत्वाभ्युद्धरणाभिलापिणा 'प्रवेदितम्' आख्यातं सम॥१०॥ |धिगम्य 'भिक्षुः साधुः परीपहोपसर्गरतर्जितो ग्लानस्थापरस्य साधोईयावृत्यं कुर्यात् , कथमिति, खतोऽग्लानतया यथाशक्ति |'समाहित' इति समाधि प्राप्तः, इदमुक्तं भवति- कृतकृत्योऽहमिति मन्यमानो वैयावृत्यादिकं कुर्यादिति ॥ २१ ॥ अन्यच्च| 'संख्यायेति सम्यक् झाला खसम्मत्या अन्यतो वा-श्रुखा 'पेशलं'ति मोक्षगमनं प्रत्यनुकूल, किं तद्-'धर्म' श्रुतचारित्राख्यं | 'दृष्टिमान्' सम्यग्दर्शनी 'परिनिवृत' इति कषायोपशमाच्छीवीभूतः परिनिर्वृतकल्पो वा 'उपसर्गान' अनुकूलप्रतिकूलान् 181 सम्यय 'नियम्य' अतिसा 'आमोक्षाय' मोक्षं यावत् परि-समन्तात् 'बजेत्' संयमानुष्ठानेन गच्छेदिति, इतिः परिसमाप्त्यर्थे, बधीमीति पूर्ववत् , नयचचोंऽपि तथैवेति ॥ २२ ॥ उपसर्गपरिज्ञायाः समाप्तचतुर्थीदेशकः, तत्परिसमाप्तौ च तृतीयमध्ययन-18 मिति । ग्रंथानं ७७५॥ ॥१०॥ दीप eesecesesesentaeacher अनुक्रम [२४६] HS १ सहसन्मवेति तात्पर्य प्राकृतानुकरण चेदम् । ~206~ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [-], मूलं [२२...], नियुक्ति : [१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ॥ अथ चतुर्थ स्त्रीपरिज्ञाध्ययनं प्रारभ्यते ॥ प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम [२४६] Deseseserveseocaenteerselesesesese | उक्तं तृतीयमध्ययनं, साम्प्रतं चतुर्थमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तराध्ययने उपसर्गाः प्रतिपादिताः, तेषां च प्रायोज्नुकूला दुःसहाः, ततोऽपि खीकृताः, अतस्तज्जयार्थमिदमध्ययनमुपदिश्यत इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्योपक्रमा-1 दीनि चखायनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्रोपक्रमान्तर्गतोाधिकारी द्वेधा-अध्ययनार्थाधिकार उद्देशार्थाधिकारच, तत्राध्ययना|धिकारः प्राग्वत् नियुक्तिकृता 'थीदोषविवज्जणा चेवे'त्यनेन स्वयमेव प्रतिपादितः, उद्देशार्थाधिकार तूतरत्र नियुक्तिकदेव मणिष्यति, साम्प्रतं निक्षेपः, स चौधनामसूत्रालापकभेदात्रिधा, तत्रौपनिष्पने निक्षेपेऽध्ययनं, नामनिष्पन्ने 'स्त्रीपरिज्ञेति | नाम, तत्र नामस्थापने क्षुण्णसादनादृत्य स्त्रीशब्दस द्रव्यादिनिक्षेपार्थमाह दव्वाभिलावचिंधे वेदे भावे य इत्थिणिक्खेवो । अहिलावे जह सिद्धी भावे वेयंमि उवउत्तो ॥५६॥ | तत्र द्रव्यस्त्री द्वेधा-आगमतो नोआगमतश्च, आगमतः स्त्रीपदार्थज्ञस्तत्र चानुपयुक्तः, अनुपयोगो द्रव्यमितिकृता, नोआगमतो शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्ता विधा, एकमविका बद्धायुष्काभिमुखनामगोत्रा चेति, चिदचते-ज्ञायतेऽनेनेति चिह-स्त१व्यतिरित्तभेदाः। sersersersersersemerstockewestersecti अत्र चतुर्थ अध्ययनं “स्त्रीपरिज्ञा" आरब्धं, 'स्त्री' शब्दस्य निक्षेपा: ~207~ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [-], मूलं [२२...], नियुक्ति: [१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रकृताङ्ग सूत्रांक ||२२|| त्तियुतं ॥१०॥ दीप अनुक्रम [२४६] Saasaras20300930 ननेपथ्यादिकं, चिह्नमात्रेण स्त्री चिह्नस्त्री अपगतस्त्रीवेदश्छद्मस्थः केवली वा अन्यो वा स्त्रीवेषधारी यः कश्चिदिति, वेदस्त्री तु स्त्रीप| पुरुषाभिलाषरूपः स्त्रीवेदोदयः, अभिलापभावौ तु नियुक्तिकृदेव गाथापश्चा?नाह-अभिलप्यते इत्यभिलापः स्त्रीलिङ्गाभिधानःपरिज्ञाध्य शब्दः, तयथा-शाला माला सिद्धिरिति, भावत्री तु द्वेधा-आगमतो नोआगमतच, आगमतः स्त्रीपदार्थज्ञस्तत्र चोपयुक्तः उद्देश १ 'उपयोगो भाव' इतिकृला, नोआगमतस्तु भावविषये निक्षेपे 'वदे' स्त्रीवेदरूपे वस्तुन्युपयुक्ता तदुपयोगानन्यखाद्भावस्त्री भवति, यथाऽमाबुपयुक्तो माणवकोऽग्निरेव भवति, एवमत्रापि, यदिवा-स्त्रीवेदनिर्वर्तकान्युदयप्राप्तानि यानि कर्माणि तेषु 'उपयुक्ते ति | | तान्यनुभवन्ती भावस्त्रीति, एतावानेव स्त्रियो निक्षेप इति, परिज्ञानिक्षेपस्तु शस्त्रपरिज्ञावद् द्रष्टव्यः ॥ साम्प्रतं स्त्रीविपक्षभूतं पुरुषनिक्षेपार्थमाह णाम ठवणादविए खेत्ते काले य पज्जणणकंमे । भोगे गुणे य भावे दस एए पुरिसणिक्खेवा ।। ५७ ॥ 'नाम' इति संज्ञा तन्मात्रेण पुरुषो नामपुरुष:न्यथा घटः पट इति, यस्य वा पुरुष इति नामेति, 'स्थापनापुरुष काष्ठादिनिवर्तितो जिनप्रतिमादिका, द्रव्यपुरुषो शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो नोआगमत एकभविको बदायुकोऽभिमुखनामगोत्रश्चेति, पा ॥१०२।। द्रव्यप्रधानो वा मम्मणवणिगादिरिति, यो यस्मिन् मुराष्ट्रादौ क्षेत्रे भवः स क्षेत्रपुरुषो यथा सौराष्ट्रिक इति, यस्य वा यत् क्षेत्रमाश्रित्य पुंस्वं भवतीति, यो यावन्तं कालं पुरुषवेदवेद्यानि कर्माणि वेदयते स कालपुरुष इति, यथा-'पुरिसे णं भंते ! पुरिसोचि | कालओ केवचिरं होई । मो०, जहनेणं एग समयं उक्कोसेणं जो जम्मि काले पुरिसो भवइ, जहा कोइ एगंमि पक्खे पुरिसो एगमि | Caeeeeeeeeeeeecticecen 'स्त्री' शब्दस्य निक्षेपा:, 'पुरुष' शब्दस्य निक्षेपा: ~208~ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम [२४६] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [-] मूलं [२२...], निर्युक्ति: [५८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः नपुंसगो 'ति । प्रजभ्यतेऽपत्यं येन तत्प्रजननं शिश्नम् - लिङ्गम् तत्प्रधानः पुरुषः अपरपुरुषकार्यरहितत्वात् प्रजननपुरुषः, कर्मअनुष्ठानं तत्प्रधानः पुरुषः कर्मपुरुषः कर्मकरादिकः, तथा भोगप्रधानः पुरुषो भोगपुरुषः - चक्रवर्त्यादिः - तथा गुणाः| व्यायामविक्रमधैर्यसत्त्वादिकास्तत्प्रधानः पुरुषो गुणपुरुषः, भावपुरुषस्तु पुंवेदोदये वर्तमानस्तद्वेद्यानि कर्माण्यनुभवन्निति, एते दश पुरुषनिक्षेपा भवन्ति । साम्प्रतं प्रागुल्लिङ्गितमुद्देशार्थाधिकारमधिकृत्याह -- - पढमे संधवसंलबमाइहि खलणा उ होति सीलस्स | बितिए इहेव खलियस्स अवस्था कम्मबंधो य ॥५८॥ प्रथमे उद्देशके अयमर्थाधिकारः, तद्यथा - स्त्रीभिः सार्धं 'संस्तवेन' परिचयेन तथा 'संलापेन' भिन्नकथाद्यालापेन, आदिग्रहणादङ्गप्रत्यङ्गनिरीक्षणादिना कामोत्कोचकारिणा भवेदल्पसत्वस्य 'शीलस्य' चारित्रस्य स्खलना तुशब्दात्तत्परित्यागो वेति, | द्वितीये वयमर्थाधिकारः, तद्यथा-- शीलस्खलितस्य साधोः 'दैव' अस्मिमेव जन्मनि स्वपक्षपरपक्षकृता तिरस्कारादिका विड|म्बना तत्प्रत्ययश्च कर्मबन्धः, ततश्च संसारसागरपर्यटनमिति, किं त्रीभिः कथित शीलात् प्रच्याव्यात्मवशः कृतो येनैवमुच्यते १, कृत इति दर्शयितुमाह- सूरा मोमता कवियाहिं उबहिष्पहाणाहि । गहिया हु अभयपजोयकूलवालादिणो घहवे ॥ ६९ ॥ बहवः पुरुषा अभयप्रद्योतकूलवालादयः शूरा वयमित्येवं मन्यमानाः, मो इति निपातो वाक्यालङ्कारार्थः, 'कृत्रिमाभिः ' सद्भावरहिताभिः स्त्रीभिस्तथा उपधिः माया तत्प्रधानाभिः कृतकपटशताभिः 'गृहीता' आत्मवशतां नीताः केचन राज्यादपरे Educatin internation उद्देशस्य अर्थाधिकारः, For Park Use Only ~209~ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [-], मूलं [२२...], नियुक्ति: [१९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक सूत्रकृताई शीलाङ्कावाययित्रत्तियुत ||२२|| ॥१०॥ दीप अनुक्रम [२४६] || शीलात प्रच्या यहैव विडम्बना प्रापिताः, अभयकुमारादिकथानकानि च मूलादावश्यकादवगन्तव्यानि, कथानकायोपन्यासस्तु हासीप. यथाक्रम अत्यन्तबुद्धिविक्रमतपखिवख्यापनार्थ इति ॥ यत एवं ततो यत्कर्तव्यं तदाह रिज्ञाध्य. तम्हा ण उ वीसंभो गंतव्वो णिच्चमेव इस्थीसुं । पढमुद्देसे भणिया जे दोसा ते गणंतेणं ।। ६०॥ | उद्देशः१ यस्मात् स्त्रियः सुगतिमागार्गला मायाप्रधाना वचनानिपुणास्तस्मादेतदवगम्य नैव 'विश्रम्भो' विश्वासस्तासां विवेकिना | 'नित्यं सदा 'गन्तव्यों' यातव्यः, कर्तव्य इत्यर्थः, ये दोषाः प्रथमोद्देशके अस्योपलक्षणार्थलात् द्वितीये च तान् 'गणयता' पर्यालोचयता, तासां मूर्तिमत्कपटराशिभूतानामात्महितमिच्छता न विश्वसनीयमिति ॥ अपिच सुसमस्थाऽवसमत्था कीरंती अप्पसत्तिया पुरिसा । दीसंती सूरवादी णारीवसगा ण ते सूरा ॥११॥ परानीकविजयादौ सुष्टु समर्था अपि सन्तः पुरुषाः स्त्रीभिरात्मवशीकृता 'असमर्था' धूत्क्षेपमात्रभीरवः क्रियन्ते-अल्पसाचिकाः स्त्रीणामपि पादपतनादिचाटुकरणेन निःसाराः क्रियन्ते, तथा 'दृश्यन्ते' प्रत्यक्षेणोपलभ्यन्ते शूरमात्मानं वदितुं शील | येषां ते शूरवादिनोऽपि नारीवशगाः सन्तो दीनतां गताः, एवम्भूताश्च न ते शूरा इति, तसात स्थितमेतद्-अविश्वास्याः खिय ||| || इति, उक्तं च---"को पीससेज तासि कतिवयभरियाण दुषियहाणं! । खणरत्तविरनाणं घिरत्थु इत्थीण दिययाणं ॥१॥ ॥१०३॥ || अणं भर्णति पुरओ अण्णं पासे णिवजमाणीओ । अन्नं च तासिं हियए जं च खमं तं करिति पुणो ॥२॥ को एयाणं णा| १ को विश्वस्त्रात्तामु कैतवमाम दुर्विदग्धासु । क्षणरफविरकासु धिगस्तु श्रीहृदयानां ॥१॥३मन्यद् भवंति पुरतोऽन्यत्पाबें निषादयन्त्यः । अन्यत्तासा हदये यच क्षमं तत्कुर्वन्ति पुनः ॥ १ ॥ ३ क एतासां ज्ञास्यति वेत्रलतागुल्मगुपिलहदयानां । भावं भग्नावानां तत्रोपों भणंतीनां ॥१॥ SAREaratunintamarana स्त्रिय: अविश्वास्यत्वं ~210~ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक |||२२|| दीप अनुक्रम [२४६] " सूत्रकृत्" अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ४ ] उद्देशक [-] मूलं [ २२...] निर्बुक्ति: [ ६१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः | हि वेचलयागुम्मगुविलहिययाणं । भावं भग्गासाणं तत्थुष्यन्नं भगंतीणं || ३ || महिला य रतमेता उच्छुखंड च सकरा चेव । सा पुण विरत्तमित्ता णिबंकूरे विसेसेइ ॥ ४ ॥ मेहिला दिन करेज व मारिज व संठेविज व मणुस्सं । तुट्ठा जीवाविजा अहव परं वंचयावेजा ॥ ५ ॥ जैवि रक्खंते सुकयं णचि णेहं गवि य दाणसम्माणं । ण कुलं ण पुवयं आयर्ति च सीलं महिलियाओ ॥ ६ ॥ मैौ वीसंमह ताणं महिलाहिययाण कवडभरियाणं || णिष्णेहनियाणं अलियवयणजंपणरयाणं ॥ ७ ॥ मारे जियंतंपि मयेपि अणुमरह काइ भत्तारं । विसहरगइव धरियं वंकविवंकं महेलाणं ॥ ८ ॥ गंगाए बालुया सागरे | जलं हिमवओ य परिमाणं जाणंति बुद्धिमंता महिलाहिययं ण जाणंति ॥ ९ ॥ रोवावंति रुवंति य अलियं जंपंति पत्तियावंति । कवडेण य खंति बिसं मरंति णय जंति सम्भावं ॥ १० ॥ चिर्तितिं कमण्णं अण्णं संठवह मासई अण्णं । आढवर कुणइ अण्णं माइवग्गो जियडिसारो ।। ११ ।। अंसयारंभाण तहा सबेसिं लोगगरहणिजाणं । परलोगचेरियाणं कारणयं चेव इत्थीओ ॥ १२ ॥ - १ महिला चरतमात्रेसंदेव शर्करेव च सा पुनर्विकमात्रा निवाङ्कुरं विशेषयति ।। १ ।। २ महिला दयात्कुर्याद्वा मारयेद्वा संस्थापयेद्वा मानुष्यं । तुष्टा जीवापयेत् अथ च नरं चयेत् ॥ १३ संघविन प्र० सेवा प्र० ४ नापि रक्षति सुकृतं नापि स्नेहं नापि दानसन्माने च न कुलं न पूर्वजं नायति च शीलं महिलाः ॥ १ ॥ ५ मा विश्वस तेषां महिलाहदयानां कपटतां । निःइलियाना अडीकवचनजल्पनरतानाम् ॥ १ ॥ ६ मारयति जीवन्तमप्येव तमप्यनुप्रिय | काचिद्भत्तारं विषभरगतिरिव चरितं वक्रविवकं महेलानां ॥ १ ॥ ७ गंगायां वालुकाः सागरे जलं हिमवतश्च परिमाणं जानंति बुद्धिमन्तो महिलाहृदयं न जानन्ति ।। १ ।। ८ रोदयन्ति रुन्ति च अठी जल्पन्ति प्रत्याययन्ति । कपटेन खादति विषं नियते न च यान्ति सद्भावं ॥ १॥ ९ चिन्तयति कार्यमन्यदन्यत् संस्थापयति भाषतेऽन्यत् आरभते करोन्यन्मानिव निकृतिसारः ॥ १ ॥। १० असदारंभाणां तथा सर्वेषां लोकगईणीयाणां परलोकवैरिकाणां कारणं चैव त्रियः ॥ १ ॥ Eaton Internationa स्त्रियः अविश्वास्यत्वं For Parts Only ~ 211~ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [-], मूलं [२२...], नियुक्ति: [६१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक सूत्रकृवाङ्गं शीलाङ्का | अहवा को जुबईणं जाणइ चरियं सहाबकुडिलाणं । दोसाण आगरो थिय जाण सरीरे वसइ कामो ॥ १३ ॥ भूल दुथरियाणं ॥ ४ स्त्रीपहवइ उ णरयस्स बत्तणी विउला । मोक्खस्स महाविघं व यथा सया नारी ॥ १४ ॥ धण्णा ते बरपुरिसा जे रिज्ञाध्य. चिय मोनूण णिययजुबईओ । पवइया कयनियमा सिवमयलमणुत्तरं पचा ॥१५॥" अधुना यादृक्षः शूरो भवति तारक्ष उद्देशा? चायीय. चियुतं ||२२|| दर्शयितुमाह दीप अनुक्रम [२४६] ॥१०४॥ धम्ममि जो दहा मई सो सूरो सत्तिओ य वीरो याणहु धम्मणिरुस्साहो पुरिसो सूरो सुवलिओऽवि ॥ १२॥ ___ 'धर्म' श्रुतचारित्राख्ये ढा-निश्चला मतिर्यस्य स तथा एवम्भूतः स इन्द्रियनोइन्द्रियारिजयारशूरः तथा 'सात्विको' महा-181 1 सचोपेतोऽसावेच 'वीर' स्वकर्मदारणसमर्थोऽसावेवेति, किमिति, यतो नैव 'धर्मनिरुत्साहः सदनुष्ठाननिरुद्यमः सत्पुरुषाची-181 णमार्गपरिभ्रष्टः पुरुषः सुष्टु चलवानपि शूरो भवतीति ॥ एतानेव दोषान् पुरुषसम्बन्धेन स्त्रीणामपि दर्शयितुमाह एते चेव य दोसा पुरिससमाएवि इत्थीयाणपि । तम्हा उ अप्पमाओ विरागमगंमि तासिं तु ॥ १३ ॥ ये प्राक् शीलप्रध्वंसादयः स्त्रीपरिचयादिभ्यः पुरुषाणां दोषा अभिहिता एत एवान्यूनाधिकाः पुरुषेण सह यः समायः| सम्बन्धस्तसिन् स्त्रीणामपि, यस्मादोपा भवन्ति तस्मात् तासामपि विरागमार्गे प्रवृत्तानो पुरुषपरिचयादिपरिहारलक्षणोऽप्रमाद | Har१०४॥ १अथवा को युवतीनां जानाति चरितं खभावकुटिलानां । दोषाणामाकरवैन यासां शरीरे वसति कामः ॥१॥२ मूलं दुश्चरितानो भवति तु नरकस्य वर्तनी विपुला । मोक्षस्त्र महाविनं वर्जयितथ्या सदा नारी ।।१।। ३ पन्यासो वरपुरुषा ये चैव मुक्त्वा निजयुवतीः । प्रबजिताः कृतनियमाः शिवमरहमगुत्तर प्राप्ताः॥१॥ esesed on SAREairahinioned | स्त्रिय: अविश्वास्यत्वं, “शूर"शब्दस्य स्वरुपम, ~212~ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [२४७] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ४ ], उद्देशक [१], मूलं [१], निर्युक्ति: [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः - एव श्रेयानिति । एवं यदुक्तं 'स्त्रीपरिज्ञे'ति तत्पुरुषोत्तमधर्मप्रतिपादनार्थम्, अन्यथा 'पुरुषपरिज्ञे' त्यपि वक्तव्येति, साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं तचेदम्— जे मायरं च पियरं च, विप्पजहाय पुवसंजोगं । एगे सहिते चरिस्तामि, आरतमेहुणो विवित्तेसु ॥१॥ | सुहुमेणं तं परिकम्म, छन्नपएण इस्थिओ मंदा। उवायंपि ताउ जाणंसु जहा लिस्संति भिक्खुणो एगे ॥२॥ अत्र सूत्रस्य आरम्भः अस्य चायमनन्तरसूत्रेण सह सम्बन्धः, तद्यथा--- अनन्तरसूत्रेऽभिहितम्, आमोक्षाय परिव्रजेदिति एतचाशेषाभिष्वङ्गवर्जितस्य भवतीत्यतोऽनेन तदभिष्वङ्गवर्जनमभिधीयते, 'यः' कविदुत्तमसन्चो 'मातरं पितरं' जननीं जनयितारम्, एतद्ग्रहणादन्यदपि | श्रावृपुत्रादिकं पूर्वसंयोगं तथा श्वश्रूश्वशुरादिकं पश्चात्संयोगं च 'विग्रहाय त्यक्ता, चकारौ समुचयार्थी, 'एको' मातापित्राद्यभिष्वङ्गवर्जितः कषायरहितो वा तथा सहितो ज्ञानदर्शनचारित्रैः खमै वा हितः खहितः परमार्थानुष्ठानविधायी 'चरिष्यामि' संयमं करिष्यामीत्येवं कृतप्रतिज्ञः, तामेव प्रतिज्ञां सर्वप्रधानभूतां लेशतो दर्शयति- 'आरतम्' उपरतं मैथुनं कामाभिलाषो | यस्यासावारतमैथुनः, तदेवम्भूतो 'विविक्तेषु' श्रीपशुपण्डकवर्जितेषु स्थानेषु चरिष्यामीत्येवं सम्यगुत्थानेनोत्थाय विहरतीति, कचित्पाठो 'विवित्तसित्ति' 'विविक्तं'- स्त्रीपण्डकादिरहितं स्थानं संयमानुपरोध्येषितुं शीलमस्य तथेति ॥ १ ॥ तस्यैवं कृतप्रतिज्ञस्य साधोर्यद्भवत्यविवेकिस्त्रीजनात्तद्दर्शयितुमाह-'सुहमेणं' इत्यादि, 'तं' महापुरुषं साधु 'सूक्ष्मेण' अपरकार्यव्यप| देशभूतेन 'छनपदेने' ति छझना-कपटजालेन 'पराक्रम्य' तत्समीपमागत्य, यदिवा - 'पराक्रम्येति शीलस्खलन योग्यतापच्या For Parts Only ~ 213~ wor Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [२], नियुक्ति: [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सुत्रांक ||२|| दीप अनुक्रम [२४८] सूत्रकृताङ्गं 18 अभिभूय, काः-'स्त्रिया' कूलवालुकादीनामिव मागधगणिकाद्या नानाविधकपटशतकरणदक्षा विविधविञ्चोकवत्यो भाष-॥४खीपशीलाका- मन्दा:-कामोद्रेकविधायितया सदसद्विवेकविकलाः समीपमागत्य शीलात् ध्वंसयन्ति, एतदुक्तम् भवति-भ्रातपुत्रव्यपदेशेन रिज्ञाध्य. चायियचियुत साधुसमीपमागत्य संयमाद् भ्रंशयन्ति, तथा चोक्तम्--"पियपुत्त भाइकिडगा णत्तूकिडगा य सयणकिडगा य । एते जोवणकि-18| उद्देशः १ डगा पच्छन्नपई महिलियाण ॥१॥" यदिवा-छन्नपदेनेति-गुप्ताभिधानेन, तद्यथा-"काले प्रसुप्तस्य जनार्दनस्थ, मेघान्धकारासु च शर्वरीषु । मिथ्या न भाषामि विशालनेत्रे, ते प्रत्यया ये प्रथमाक्षरेषु ॥१॥" इत्यादि, ताः स्त्रियो मायाप्रधानाः प्रतारणोपायमपि जानन्ति-उत्पन्नप्रतिभतया विदन्ति, पाठान्तरं वा ज्ञातवत्यः, यथा 'श्लिष्यन्ते' विवेकिनोऽपि साधव एके तथाविध-14 कर्मोदयात् तासु सङ्गमुपयान्ति ॥ २॥ तानेव सूक्ष्मप्रतारणोपायान् दर्शयितुमाहपासे भिसं णिसीयंति अभिक्खणं पोसवत्थं परिहिंति। कार्य अहेवि दंसंति, बाहू उडु कक्खमणुबजे ॥३॥ सयणासणेहिं जोगेहिं इथिओ एगता णिमंतंति । एयाणि चेव से जाणे, पासाणि विरूवरूवाणि ॥४॥ 'पार्थे समीपे 'भृशम् अत्यर्थमूरूपपीडमतिस्नेहमाविष्कुर्वन्त्यो 'निषीदन्ति' विश्रम्भमापादयितुमुपविशन्तीति, तथा कामं 8 पुष्णातीति पोष-कामोत्कोचकारि शोभनमित्यर्थः तच्च तहलं पोपवलं तद् 'अभीक्षणम्' अनवरतं तेन शिथिलादिव्यपदेशेन ॥१०५॥ परिदधति, स्वाभिलापमावेदयन्त्यः साधुप्रतारणार्थ परिधानं शिथिलीकृत्य पुनर्निवनन्तीति, तथा 'अध:कायम्' उवादिकमन प्रियपुत्रधातकीटका नतृषीधकाध लजमकीटकाच एते यौवनकोडकाः प्राप्ताः प्रच्छरपतयो महिलानां ॥१॥ ~214~ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [४], नियुक्ति: [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||४ दीप अनुक्रम [२५०] गोद्दीपनाय 'दर्शयन्ति' प्रकटयन्ति, तथा 'याहुमुद्धृत्य' कक्षामादय 'अनुकूलं साध्वभिमुखं 'ब्रजेत् गच्छेत् । सम्भावनायां 8 लिङ, सम्भाव्यते एतदङ्गप्रत्यङ्गसन्दर्शकवं स्त्रीणामिति ॥३॥ अपिच-'सयणासणे इत्यादि, शय्यतेऽसित्रिति शयनं-पर्यादि तथाऽऽस्यतेऽस्मिन्नित्यासनम्-आसंदकादीत्येवमादिना 'योग्येन' उपभोगार्हेण कालोचितेन 'स्त्रियों योषित 'एकदा' इति विविशक्तदेशकालादौ 'निमन्त्रयन्ति' अभ्युपगम ग्राहयन्ति, इदमुक्तं भवति-शयनासनाद्युपभोगं प्रति साधु प्रार्थयन्ति, 'एतानेव' शय नासननिमत्रणरूपान् स साधुर्विदितवेद्यः परमार्थदर्शी 'जानीयाद्' अवयुध्येत स्त्रीसम्बन्धकारिणः पाशयन्ति-वघ्नन्तीति पाशा|स्तान् 'विरूपरूपान' नानाप्रकारानिति । इदमुक्तं भवति-खियो बासनगामिन्यो भवन्ति, तथा चोक्तम्-"अंबं' वा निं । वा अन्भासगुणेण आरुहद वाली । एवं इत्थीतोवि यजं आसन्नं तमिच्छन्ति ॥१॥" तदेवम्भूताः खियो शाखा न ताभिः सार्धे || || साधुः सझं कुर्यात् , यतस्तदुपचारादिकः सङ्गो दुष्परिहार्यों भवति, तदुक्तम्-"ज इच्छसि घेतुं जे पुर्वि तं आमिसेण गिण्हाहि । आमिसपासनिबद्धो काहिइ कर्ज अकज्ज वा ॥१॥"॥ ४॥ किश्चनो तासु चक्खु संधेजा, नोविय साहसं समभिजाणे।णो सहियंपि विहरेजा, एवमप्पा सुरक्खिओ होइ ५ आमंतिय उस्सविया भिक्खं आयसा निमंतति । एताणि चेव से जाणे, सदाणि विरूवरूवाणि ॥६॥॥॥ II समादिनि० प्र० । २ आ पा निम्ब वाभ्यासगुणेनारोह वि नाही । एवं नियोऽपि य एवासनमामिच्छति ॥१॥ १ यान् ग्रहीतुमिच्छसि तानामिषेण पूर्व सहाण । पदाभिषपापानिबद्धः करिष्यति कार्यमकार्य वा ॥१॥ seseenetweectseenecess ~215~ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥६॥ दीप अनुक्रम [२५२] सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्का चाय चियुर्त ॥१०६॥ “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ४ ], उद्देशक [१], मूलं [६], निर्युक्ति: [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - 'नो' नैव 'तासु' शयनासनोपनिमन्त्रणपाशादपाशिकासु खीषु 'चक्षुः' नेत्रं सन्दध्यात् सन्धयेद्वा, न तद्दृष्टी स्वदृष्टिं निवेशयेत् सति च प्रयोजने ईषदबज्ञया निरीक्षेत, तथा चोक्तम्- "कार्येऽपीषन्मतिमानिरीक्षते योषिदङ्गमस्थिरया । अस्निग्धया दृशाश्वज्ञया प्रकुपितोऽपि कुपित इव ॥ १ ॥ " तथा नापि च साहसम् - अकार्यकरणं तत्प्रार्थनया 'समनुजानीयात् प्रतिपद्येत, तथा यतिसाहसमेतत्सङ्ग्रामावतरणवद्य नरकपातादिविपाकवेदिनोऽपि साधोयषिदासञ्जनमिति, तथा नैव स्त्रीभिः सार्धं ग्रामादौ 'विहरेत्' गच्छेत्, अपिशब्दात् न ताभिः सार्धं विविकासनो भवेत्, ततो महापापस्थानमेतत् यतीनां यत् स्त्रीभिः सह सात्यमिति, तथा चोक्तम्- “मात्रा खस्रा दुहित्रा वा, न विविक्तासनो भवेत् । बलवानिन्द्रियग्रामः, पण्डितोऽप्यत्र सुयति ॥ १ ॥ " एवमनेन खीसङ्गवर्जनेनात्मा समस्तापायस्थानेभ्यो रक्षितो भवति, यतः सर्वापायानां स्त्रीसम्बन्धः कारणम्, अतः स्वहितार्थी तत्सङ्गं दूरतः परिहरेदिति ॥ ५ ॥ कथं चैताः पाशा इव पाशिका इत्याह- 'आमंतिय' इत्यादि, स्त्रियो हि स्वभावेनैवाकर्तव्यप्रवणाः साधुमामन्य यथाऽहममुकस्यां वेलायां भवदन्तिकमागमिष्यामीत्येवं सङ्केतं ग्राहयिता तथा 'उस्सविपत्ति संस्याप्योच्चावचैर्विश्रम्भजनकैरालापैर्विश्रम्भे पातयित्वा पुनरकार्यकरणायात्मना निमन्त्रयन्ति, आत्मनोपभोगेन साधुमभ्युपगमं कारयन्ति । यदिवा साधर्भयापहरणार्थं ता एव योषितः प्रोचुः, तद्यथा भर्तारमामध्यापृच्छयाहमिहाऽऽयाता, तथा संस्वाप्य-भोजनपदधावनश्यनादिकया क्रिययोपचर्य ततस्तवान्तिकमागतेत्यतो भवता सर्वा मद्भर्व्रजनितामाशङ्कां परित्यज्य निर्भयेन भाव्यमित्येवमादिकैर्वचोभिर्विश्रम्भमुत्पाद्य भिक्षुमात्मना निमन्त्रयन्ते, युष्मदीयमिदं शरीरकं यारक्षस्य क्षोदीयसो गरीयसो वा कार्यस्य क्षमं तत्रैव नियोज्यतामित्येवमुपप्रलोभयन्ति, स च भिक्षुरवगतपरमार्थः एतानेव 'विरूपरूपान' नानाप्रकारान् Education International For Palata Use On ~ 216~ ४ स्त्रीपरिज्ञाध्य. उद्देशः १ ॥१०६॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [६], नियुक्ति: [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक HEN दीप अनुक्रम [२५२] 'शब्दादीन' विषयान तत्स्वरूपनिरूपणतो ज्ञपरिक्षया जानीयात् , यथैते स्त्रीसंसर्गापादिताः शब्दादयो विषया दुर्गतिगमनैकहे-18 | तवः सन्मार्गार्गलारूपा इत्येवमवबुध्येत, तथा प्रत्याख्यानपरिज्ञया च तद्विपाकावगमेन परिहरेदिति ॥ ६ ॥ अन्यच्चमणबंधणेहिं णेगेहिं, कलुण विणीयमुवगसित्ताणं । अदु मंजुलाई भासंति, आणवयंति भिन्नकहाहिं ॥७॥lk सीहं जहा व कुणिमेणं, निब्भयमेगचरंति पासेणं । एवित्थियाउ बंधति, संवुडं एगतियमणगारं ॥८॥ । मनो बध्यते यैस्तानि मनोबन्धनानि-मञ्जुलालापस्निग्धावलोकनाङ्गप्रत्यङ्गप्रकटनादीनि, तथा चोक्तम्- "णाई पिय कंत सा| मिय दइय जियाओ तुम मह पिओत्ति । जीए जीयामि अहं पहबसि तं मे सरीरस्स ॥१॥" इत्यादिभिरनेकैः प्रपञ्चैः कर-॥ णालापविनयपूर्वकं 'उवगसित्ताणं'ति उपसंश्लिष्य समीपमागत्य 'अथ तदनंतरं 'मजुलानि' पेशलानि विश्रम्मजनकानि कामोत्कोचकानि वा भाषन्ते, तदुक्तम्-"मितमहुररिभियजपुल्लएहि ईसीकढक्खहसिएहिं । सविगारेहि वरागं हिययं पिहियं । मयच्छीए ॥१॥" तथा 'भिन्नकथाभी' रहस्यालापमैथुनसम्बचोभिः साधोश्चित्तमादाय तमकायेंकरणं प्रति 'आज्ञापयन्ति' प्रवर्तयन्ति, खवशं वा शाखा कर्मकरवदाज्ञा कारयन्तीति ।।७।। अपिच-'सीहं जहे' त्यादि, यथेति दृष्टान्तोपदर्शनार्थे यथा बन्धनविधिज्ञाः सिंह पिशितादिनाऽऽमिषेणोपप्रलोभ्य 'निर्भय' गतभीक निर्भयखादेव एकचरं 'पाशेन' गलयत्रादिना वनन्ति । नाथ कान्त प्रिय स्वामिन्दयित ! जीवितादपि त्वं मम प्रिय इति गोवति जीवामि अहं प्रभुरसि त्वं ने शरीरस्य ॥१॥ २ इयच आच तं प्र० । ३ तुम प्रा। मितमधुररिभितजल्पाईरीषत्कटाक्षहसितैः । सविकारैराकं हृदय पिहितं मृगाक्ष्याः ॥१॥ 992000088856086 ~217~ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [८], नियुक्ति: [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः कर प्रत सूत्रांक ||८॥ दीप अनुक्रम [२५४] सूत्रकृतानं 18 बद्धा च बहुप्रकारं कदर्थयन्ति, एवं त्रियो नानाविधैरुपायैः पेशलभाषणादिमिः 'एगतियन्ति' कशन तथाविधम् 'अन- स्त्रीषशीलाङ्का- गारं' साधु 'संवृतमपि मनोवाकायगुप्तमपि 'वनन्ति' खवशं कुर्वन्तीति, संवृतग्रहणं च खीणां सामोपदर्शनार्थ, तथाहि-18 रिज्ञाध्य. चार्थीयसंघृतोऽपि ताभिर्वध्यते, किं पुनरपरोऽसंवृत इति ॥ ८॥ किश्च | उद्देशः १ चियुत अह तत्थ पुणो णमयंती, रहकारो व णेमि आणुपुवीए । बद्धे मिए व पासेणं, फंदते विण मुच्चए ताहे ॥९॥ ॥१०॥ अह सेऽणुतप्पई पच्छा, भोच्चा पायसं व विसमिस्सं। एवं विवेगमादाय, संवासो नवि कप्पए दविए॥१०॥ | 'अर्थ' इति स्ववशीकरणानन्तरं पुनस्तत्र-स्वाभिप्रेते वस्तुनि 'नमयन्ति' प्रई कुर्वन्ति, यथा-'रथकारों' वर्धकिः 'नेमि-18 काष्ठं' चक्रबाह्यभ्रमिरूपमानुपूग्यों नमयति, एवं ता अपि साधु खकार्यानुकूल्ये प्रवर्तयन्ति, स च साधुर्मगवत् पाशेन बद्धो मो-18 क्षार्थ स्पन्दमानोऽपि ततः पाशाम मुच्यत इति ॥ ९॥ किश्व–'अह से इत्यादि, अथासौ साधुःखीपाशावबद्धो मृगवत् कू-18 | टके पतितः सन् कुटुम्पकते अहनिशं क्लिक्ष्यमानः पवादनुतप्यते, तथाहि-गृहान्तर्गतानामेतदवश्यं सम्भाव्यते, तयथा-"को-18 वायओ को समचित्तु काहोवणार्हि काहो दिजउ वित्त को उग्घाडउ परिहियउ परिणीयउ को व कुमारउ पडियतो जीव खड-17 प्फडेहि पर बंधड़ पावह भारओ ॥१॥" तथा यत्-"मया परिजनस्वार्थे, कृतं कर्म सुदारुणम् । एकाकी तेन दोई, गतास्ते | ॥१०७|| फलभोगिनः ॥ १॥" इत्येवं बहुप्रकारं महामोहात्मके कुटुम्बकूटके पतिता अनुतप्यन्ते, अमुमेवार्थ दृष्टान्तेन स्पष्टयति-यथा १ क्रोधिकः कः समचित्तः कथं उपनय कथं ददातु पित्तं कः उद्घाटकः परिहतः परिणीतः को वा कुमारकः पतितो जीयः अण्डस्फेरैः प्रबनाति पापभारे १ ब ~218~ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [१०], नियुक्ति: [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||१०|| दीप अनुक्रम [२५६] कचिद्विषमिश्रं भोजनं भुक्ता पश्चात्तत्र कृतावेगाकुलितोऽनुतप्यते, तद्यथा-किमेतन्मया पापेन साम्प्रतेक्षिणा सुखरसिकतया वि: | पाककटुकमेवम्भूतं भोजनमास्खादितमिति, एवमसावपि पुत्रपौत्रदुहितजामातृस्वसभ्रातृव्यभागिनेयादीनां भोजनपरिधानपरिणय| नालङ्कारजातमृतकर्मतयाधिचिकित्साचिन्ताकुलोऽपगतखशरीरकर्तव्यः प्रनष्टैहिकामुष्मिकानुष्ठानोऽहनिशं तद्यापारव्याकुलितमतिः परितप्यते, तदेवं अनन्तरोक्तया नीत्या विषाकं खानुष्ठानस्य 'आदाय' प्राप्य, विवेकमिति वा कचित्पाठा, तद्विपाकं विवेक वा 'आदाय'-गृहीला स्त्रीभिश्चारित्रपरिपन्थिनीभिः सार्धे 'संवासो' वसतिरेकत्र 'न कल्पते' न युज्यते, कसिन् 'द्रव्यभूते मुक्तिगमनयोग्ये रागद्वेषरहित वा साधौ, यतस्ताभिः साध संवासोऽवश्यं विवेकिनामपि सदनुष्ठान विधातकारीति ॥१०॥ स्वीसम्बन्धदोषानुपदश्योपसंहरबाहतम्हा उ वजए इत्थी, विसलित्तं व कंटगं नच्चा ।ओए कुलाणि वसवत्ती, आघाते ण सेवि णिग्गंथे॥११॥ जे एयं उछं अणुगिद्धा, अन्नयरा टुंति कुसीलाणं । सुतवस्सिएवि से भिक्खू, नो विहरे सह णमित्थीसु।१।। यस्मात् विपाककदुः स्त्रीभिः सह सम्पर्कस्तस्मात्कारणात् खियो वर्जयेत् तुशब्दाचदालापमपि न कुर्यात् , किंवदित्याह-विषो-IN पलिप्त कण्टकमिव 'ज्ञात्वा' अवगम्य त्रियं वर्जयेदिति, अपिच-विषदिग्धकण्टकः शरीरावयवे भग्नः सन्ननर्थमापादयेत् त्रिS| यस्तु सरणादपि, सदुक्तम्-"विषस्य विषयाणां च, दूरमत्यन्तमन्तरम् । उपभुक्तं विषं हन्ति, विषयाः सरणादपि ॥१॥" deceaesesearsesececenecti ~219~ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [१२], नियुक्ति: [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१२|| दीप अनुक्रम सूत्रकलाग वथा--"परि विस खइयं न विसयसुहु इकसि विसिण मरंति । विसयामिस पुण पारिया पर णरएहि पडति ॥१॥" तथा- ४खीपशीलाङ्का- 'ओजः एकः असहायः सन् 'कुलानि' गृहस्थानां गृहाणि गखा खीणां वशवी तनिर्दिष्टवेलागमनेन तदानुकूल्यं भजमानो रिक्षाध्य. चार्गीयवृ- धर्ममाख्याति योऽसावपि 'न निर्ग्रन्थो न सम्यक् प्रबजितो, निषिद्धाचरणसेवनादवश्यं तत्रापायसम्भवादिति, यदा पुनः|| उद्देशः १ चियुत | काचित्कुतधिनिमित्तादागन्तुमसमर्थी वृद्धा वा भवेत्तदाऽपरसहायसाध्वभावे एकाक्यपि गला अपरस्त्रीवृन्दमध्यगतायाः पुरुषसम॥१०८॥ न्विताया वा खीनिन्दाविषयजुगुप्साप्रधानं वैराग्यजननं विधिना धर्म कथयेदपीति ॥ ११ ॥ अन्वयव्यतिरेकाभ्यामुक्तोऽर्थः | | सुगमो भवतीत्यभिप्रायवानाह-'जे एवं उछ' मित्यादि, 'ये' मन्दमतयः पश्चात्कृतसदनुष्ठानाः साम्प्रतक्षिण एतद्-अनन्तरोतम् उंछन्ति जुगुप्सनीयं गई तदत्र खीसम्बन्धादिकं एकाकिस्रीधर्मकथनादिकं वा द्रष्टव्यं, तदनु-तत्प्रति ये 'गृद्धा अध्युपपन्ना मूर्षिछताः, ते हि 'कुशीलानां पार्श्वस्थाबसन्नकुशीलसंसक्तयथाच्छन्दरूपाणामन्यतरा भवन्ति, यदिवा- काथिकपश्य|| कसम्प्रसारकमामकरूपाणां वा कुशीलानामन्यतरा भवन्ति, तन्मध्यवर्तिनस्तेऽपि कुशीला भवन्तीत्यर्थः, यत एवमतः 'सुतप-18 | स्ख्यपि विकृष्टतपोनिष्टतदेहोऽपि 'भिक्षः साधुः आत्महितमिच्छन् 'स्त्रीभिः' समाधिपरिपन्धिनीमिः सह 'न विहरेत् । कचिद्गछेनापि सन्तिष्ठेत् , तृतीयार्थे सप्तमी, णमिति वाक्यालङ्कारे, ज्वलिताङ्गारपुञ्जवहरतः खियो बजेयेदितिभावः ॥ १२॥8॥१०॥ 18 कतमाभिः पुनः स्त्रीभिः सार्धं न विहर्तव्यमित्येतदाशक्क्याह पर दि जम्न विषयसुर्व एकशो विषेण पियरो। विषयाभिषपातिताः पुननरा नरकेषु पतन्ति ॥१॥ [२५८] ~220~ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [१३], नियुक्ति: [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||१३|| दीप अनुक्रम [२५९] | अवि धूयराहि सुहाहि,धातीहिं अदुव दासीहि। महतीहि वा कुमारीहिं,संथवं से न कुजा अणगारे ॥१३॥ अदु णाइणं च सुहीणं वा, अप्पियं ददु एगता होति। गिद्धा सत्ता कामेहिं, रक्खणपोसणे मणुस्सोऽसि १४ || अपिशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, 'धूयराहिति दुहितभिरपि सार्ध न विहरेत् तथा 'स्नुषाः सुतभार्यास्ताभिरपि साधं न || | विविक्तासनादी स्थातव्यं, तथा 'धाभ्यः' पञ्चप्रकाराः स्तन्यदादयो जननीकल्पास्ताभिश्च साकं न स्थेयं, अथवाऽऽसतां तावद-18 | परा योषितो या अप्येता 'दास्यो' घटयोपितः सर्वापसदास्ताभिरपि सह सम्पर्क परिहरेत् , तथा महतीभिः कुमारीभिर्चाशब्दालध्वीभिश्च साध 'संस्तवं परिचयं प्रत्यासत्तिरूपं सोऽनगारो न कुर्यादिति, यद्यपि तस्थानगारस्य तस्यां दुहितरि सुपादौ वा न |चित्तान्यथाखमुत्पद्यते तथापि च तत्र विविक्तासनादावपरस्य शङ्कोत्पद्यते अतस्तच्छदानिरासार्थ खीसम्पर्कः परिहतव्य इति || ।। १३ ।। अपरस्य शश यथोत्पद्यते तथा दर्शयितुमाह-'अदु णाइणम्' इत्यादि, विविक्तयोपिता सार्धमनगारमथैकदा दृष्ट्वा । | योपिज्जातीनां सुहृदां वा 'अप्रियं' चित्तदुःखासिका भवति, एवं च ते समाशङ्करन्, यथा-सच्चाः प्राणिन इच्छामदनकामः18 'गृद्धा' अध्युपपन्नाः,तथाहि-एवम्भूतोऽप्ययं श्रमणः स्त्रीबदनावलोकनासक्तचेताः परित्यक्तनिजच्यापारोज्नया साध निहींकस्तिष्ठति, तदुक्तम्-"मुण्डं शिरो वदनमेतदनिष्टगन्धं, भिक्षाशनेन भरणं चे हतोदरस्य । गात्रं मलेन मलिनं गतसर्वशोभं, चित्रं तथापि | | मनसो.मदनेऽस्ति वान्छा ॥१॥" तथातिक्रोधाध्मातमानसाश्चैवमृचुर्यथा रक्षणं पोपणं चेति विगृह समाहारद्वन्द्वस्त स्मिन् | १ मिक्षाटनेन प्रकार विहितो. विहतो.। esesekse ~221~ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [१४], नियुक्ति: [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ४खीपरिज्ञाध्य उद्देश:१ चार्याय ||१४|| दीप अनुक्रम [२६०] सूत्रकृताङ्गं || रक्षणपोषणे सदाऽऽदरं कुरु यतस्वमस्याः 'मनुष्योऽसि' मनुष्यो वर्तसे, यदिवा यदि परं वयमस्या रक्षणपोषणव्यापृतास्तमेव शीलाङ्का- 18| मनुष्यो वर्तसे, यतस्वयैव साधमियमेकाकिन्पहर्निशं परित्यक्तनिजव्यापारा तिष्ठतीति ॥ १४ ॥ किश्चान्यत्त्तियुतं | समणंपि द दासीणं, तत्थवि ताव एगे कुप्पति।अदुवा भोयणेहिं णत्थेहि, इत्थीदोसं संकिणोहोति १५॥ कुवंति संथवं ताहि, पब्भट्टा समाहिजोगेहिं । तम्हा समणा ण समेति, आयहियाए सण्णिसेजाओ ॥१६॥ ॥१०९॥ श्राम्यतीति श्रमणः-साधुः अपिशब्दो भिन्नक्रमः तम् 'उदासीनमपि रागद्वेषविरहान्मध्यस्थमपि दृष्ट्वा, श्रमणग्रहणं तपःखिन्नदेहोपलक्षणार्थ, तत्रैवम्भूतेऽपि विषयद्वेषिष्यपि साधी तावदेके केचन रहस्सस्त्रीजल्पनकृतदोषखात्कुप्यन्ति, यदिवा पाठान्तरं | "समणं दहणुदासीण" 'श्रमणं' प्रबजितं 'उदासीनम्' परित्यक्तनिजव्यापार खिया सह जल्पन्तं 'दृष्ट्वा' उपलभ्य तत्राप्येके | केचन तावत् कुष्यन्ति, किं पुनः कृतविकारमितिभावः, अथवा स्त्रीदोषाशदिनच ते भवन्ति, ते चामी स्त्रीदोषाः 'भोजनैः' | नानाविधैराहारैः 'न्यस्तैः साध्वर्धमुपकल्पितरेतदर्थमेव संस्कृतैरियमेनमुपचरति तेनायमहर्निशमिहागच्छतीति, यदिवा भोजनैः श्वशुरादीनां न्यस्तैः अर्धदत्तः सद्भिः सा वधूः साध्यागमनेन समाकुलीभूता सत्यन्यस्मिन् दातव्येऽन्यदद्यात् , ततस्ते खीदोषाश-1 18||छिनो भवेयुयेथेयं दुःशीलाऽनेनैव सहास्त इति, निदर्शनमत्र यथा- कयाचिध्या ग्राममध्यप्रारब्धनटप्रेक्षणैकमतचित्तया पतिश्व शुरयोर्भोजनार्थमुपविष्टयोस्तण्डुला इतिकृता राइकाः संस्कृत्य दत्ताः, ततोऽसौ श्वशुरेणोपलक्षिता, निजपतिना कुद्धेन ताडिता, | अन्यपुरुषगतचित्तेत्याशङ्कच स्वगृहानिर्धाटितेति ॥ १५॥ किश्चान्यत्-'कुव्वती'त्यादि, 'ताभि: स्वीभिः-सन्मार्गार्गलाभिः ~222~ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१६|| दीप अनुक्रम [२६२] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ४ ], उद्देशक [१], मूलं [१६], निर्युक्ति: [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - सह 'संस्तर्व' तगृहगमनालापदान सम्प्रेक्षणादिरूपं परिचयं तथाविधमोहोदयात् 'कुर्वन्ति' विदधति, किम्भूताः १- प्रकर्षेण भ्रष्टा:-- स्खलिताः 'समाधियोगेभ्यः समाधिः- धर्मध्यानं तदर्थं तत्प्रधाना वा योगा- मनोवाक्कायव्यापारास्तेभ्यः प्रच्युताः शीतलविहारिण इति, यस्मात् स्त्रीसंस्तवात्समाधियोगपरिभ्रंशो भवति तस्मात्कारणात् 'श्रमणाः' सत्साधवो 'न समेन्ति' न गच्छन्ति, सत् शोभना सुखोत्पादकतयाऽनुकूलवाभिपद्या इव निपया स्त्रीभिः कृता माया, यदिवा स्त्रीवसतीरिति, 'आत्महिताय' स्वहितं मन्यमानाः, एतच खीसम्बधपरिहरणं तासामप्यैहिकामुष्मिकापायपरिहाराद्धितमिति, कचित्पश्चार्द्धमेवं पठ्यते " तम्हा समणा उ जहाहि अहिताओ सन्निसेज्जाओ" अयमस्यार्थः – यसात्स्त्रीसम्बन्धोऽनर्थाय भवति, तस्रात् हे श्रमण !-साधो !, तुशब्दो विशेषणार्थः, विशेषेण संनिषद्या - स्त्रीवसतीस्तत्कृतोपचाररूपा वा माया आत्महिताद्धेतोः 'जहाहि' परित्यजेति ।। १६ ।। किं केचनाभ्युपगम्यापि प्रव्रज्यां स्त्रीसम्बन्धं कुर्युः १, येनैवमुच्यते, ओमित्याह बहवे गिहाई अवहद्दु, मिस्सीभावं पत्थुया य एगे। धुवमग्गमेव पवयंति, वायावीरियं कुसीलाणं ॥ १७ ॥ सुद्धं रवति परिसाए, अह रहस्संमि दुक्कडं करेंति । जाणंति, य णं तहाविहा, माइल्ले महासढे ऽयंति ॥१८॥ १ सदिति शोभनः पा० । २ पण्णता पा० । Eucation Internation For Park Use Only ~ 223~ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [१८], नियुक्ति: [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक सूत्रकृता शीलाङ्का- चायीयतियुतं ||१८|| ॥११॥ दीप अनुक्रम [२६४] 'बहवः केचन गृहाणि 'अपहत्य' परित्यज्य पुनस्तथाविधमोहोदयात् मिश्रीभावं इति द्रव्यलिङ्गमात्रसद्भावाद्भावतस्तु ४ स्त्रीपगृहस्थसमकल्पा इत्येवम्भूता मिश्रीभावं 'प्रस्तुताः' समनुप्राप्ता न गृहस्था एकान्ततो नापि प्रव्रजिताः, तदेवम्भूता अपि सन्तोरिक्षाध्य. ध्रुवो-मोक्षः संयमो वा तन्मार्गमेव प्रवदन्ति, तथाहि-ते वक्तारो भवन्ति यथाऽयमेवारसदारब्धो मध्यमः पन्थाः श्रेयान् , तथा| उद्देशः १ हि-अनेन प्रवृत्तानां प्रव्रज्यानिर्वहणं भवतीति, तदेतत्कुशीलानां वाचा कृतं वीर्य नानुष्ठानकर्त, तथाहि-ते द्रव्यलिङ्गधारि-18|| | णो वायात्रेणव वयं प्रवजिता इति युवते नतु तेषां सातगौरवविषयसुखप्रतिबद्धानां शीतलविहारिणां सदनुष्ठानकृतं पीयेमस्ती-18 |ति ॥ १७ ॥ अपिच-स कुशीलो वामात्रेणाविष्कृतवीर्यः 'पर्षदि' व्यवस्थितो धर्मदेशनावसरे सत्यात्मानं 'शुद्धम् अपगत-1) दोषमात्मानमात्मीयानुष्ठान वा 'रोति' भाषते अथानन्तरं 'रहस्ये एकान्ते 'दुष्कृतं पापं तत्कारणं याऽसदनुष्ठानं 'करोति विदधाति, तच्च तस्यासदनुष्ठानं गोपायतोऽपि 'जानन्ति' विदन्ति, के ?-तथारूपमनुष्ठानं विदन्तीति तथाविदः इङ्गिताकार-18 कुशला निपुणास्तद्विद इत्यर्थः यदिवा सर्वज्ञाः, एतदुक्तं भवति यद्यप्यपरः कश्चिदकर्तव्यं तेषां न वेत्ति तथापि सर्वज्ञा विदन्ति, तत्परिज्ञानेनैव किं न पर्याप्तं ?, यदिवा-मायावी महाशठश्चायमित्येवं तथाविदस्तद्विदो जानन्ति, तथाहि-प्रच्छन्नाका-|| |येकारी न मां कश्चिज्जानात्येवं रागान्धो मन्यते, अथ च तं तद्विदो विदन्ति, तथा चोक्तम्-"न ये लोणं लोणिजइ ण य| ११०॥ हा तुप्पिजइ घर्य व तेल्लं वा । किह सको बंचेउं अत्ता अणुहयकल्लाणो ॥१॥" || १८।। किश्चान्यत् १.मैदा प्र.। न च लवर्ण लवणीयते न प्रक्ष्यते पूतं च तैलं च । किशापयो बंचयितुं आत्माऽभूताफल्याणः ॥ १ सका प्रा। ~224 ~ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१९|| दीप अनुक्रम [२६५] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [१९], निर्युक्ति: [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः | सयं दुक्कडं च न वदति, आइडोवि पकत्थति बाले । वेयाणुवीइ मा कासी, चोइज्जतो गिलाइ से भुज्जो ९९ ॥ ओसियावि इत्थिपोसेसु, पुरिसा इत्थिवेयखेदन्ना । पण्णासमन्निता वेगे, नारीणं वसं उवकसंति ॥२०॥ 'स्वयम्' आत्मना प्रच्छन्नं यद्दुष्कृतं कृतं तदपरेणाचार्यादिना पृष्टो 'न वदति' न कथयति, यथा अहमस्याकार्यस्य कारीति, स च प्रच्छन्नपापो मायावी स्वयमवदन् यदा परेण 'आदिष्टः' चोदितोऽपि सन् 'बालः' अज्ञो रागद्वेषकलितो वा 'प्रकत्थते' | आत्मानं श्लाघमानोऽकार्यमपलपति, वदति च - यथाऽहमेवम्भूतमकार्यं कथं करिष्ये इत्येवं धायात्कथते, तथा-वेद:पुंवेदोदयस्तस्य 'अनुवीधि' आनुकूल्यं मैथुनाभिलापं तन्मा कार्षीरित्येवं 'भूयः' पुनः चोद्यमानोऽसौ 'ग्लायति' ग्लानिमुपयाति-अकर्णश्रुतं विधत्ते, मर्मविद्धो वा सखेदमिव भापते, तथा चोक्तम्- “सम्भाव्यमानपापोऽहमपापेनापि किं मया । निविषस्यापि सर्पस्य, भृशमुद्विजते जनः ॥ १ ॥ " इति ।। १९ ।। अपिच - स्त्रियं पोपयन्तीति स्त्रीपोषका – अनुष्ठानविशेषास्तेषु 'उषिता अपि' व्यवस्थिता अपि 'पुरुषा' मनुष्या भुक्तभोगिनोऽपीत्यर्थः तथा— 'स्त्रीवेदखेदज्ञा:' स्त्रीवेदो मायाप्रधान इत्येवं निपुणा अपि तथा प्रज्ञया औत्पत्तिक्यादिबुध्ध्या समन्विता - युक्ता अपि 'एके' महामोहान्धचेतसो 'नारीणां' स्त्रीणां संसारावतरणवीथीनां 'व' तदायत्ततामुप - सामीप्येन 'कषन्ति' व्रजन्ति, यद्यद्यत्ताः स्वशायमाना अपि कार्यमकार्य वा श्रुचते तचत्कुर्वते, न पुनरेतज्जानन्ति यथैता एवम्भूता भवन्तीति, तद्यथा--"एता हसन्ति च रुदन्ति च कार्यहेतोर्विश्वासयन्ति च १ श्रियः प्र० । Education Internationa For Park Use Only ~ 225~ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [२०], नियुक्ति: [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||२०|| सूत्रकृताङ्गं शीलाकाचायचियुत ॥११॥ दीप Recece | नरं न च विश्वसन्ति । तस्मान्नरेण कुलशीलसमन्वितेन, नार्यः श्मशानघटिका इव वर्जनीयाः ॥१॥" तथा-'समुद्रचीचीव 81 चलखभावाः, सन्ध्याघ्ररेखेव मुहूर्तरागाः । खियः कृतार्थाः पुरुषं निरर्थक, निष्पीडितालक्तकवत्त्यजन्ति ॥ २॥" अत्र च स्त्री-18नय. स्वभावपरिज्ञाने कथानकमिदम् तद्यथा-एको युवा खगृहानिर्गत्य वैशिकं कामशास्त्रमध्येतुं पाटलिपुत्र प्रस्थितः, तदन्तराले 18| उद्देशः १ अन्यतरग्रामवर्तिन्यैकया योषिताभिहितः, तद्यथा-सुकुमारपाणिपादः शोभनाकृतिस्त्र का प्रस्थितोऽसि', तेनापि यथास्थितमेवी तस्याः कथितं, नया चोक्तम्-वैशिक पठिखा मम मध्येनागन्तव्यं, तेनापि तथैवाभ्युपगतम् , अधीत्य चासी मध्येनायातः, तया च मानभोजनादिना सम्यगुपचरितो विविधहावभावैश्चापहृतहृदयः संस्तां हस्तेन गृह्णाति, सतस्तया महताशब्देन पूत्कृत्य जनाग-1 मनावसरे मस्तके वारियर्धनिका प्रक्षिप्ता, ततो लोकस्य समाकुले एवमाचष्टे यथाऽयं गले लगेनोदकेन मनाक न मृतः, ततो18 मयोदकेन सिक्त इति । गते च लोके सा पृष्टवती-कि लया वैशिकशास्त्रोपदेशेन स्त्रीस्वभावानां परिज्ञातमिति', एवं खीचरित्रं || दुर्विज्ञेयमिति नात्रास्था कर्तव्येति, तथा चोक्तम्-"हृद्यन्यद्वाच्यन्यत्कर्मण्यन्यत्पुरोऽथ पृष्ठेऽन्यत् । अन्यत्तव मम चान्यत् स्त्रीणां || सर्व किमप्यन्यत् ॥ १॥" ॥२० ।। साम्प्रतमिहलोक एव स्त्रीसम्बन्धविपाकं दर्शयितुमाहअवि हत्थपादछेदाए, अवा वद्धमंसउक्तते । अवि तेयसाभितावणाणि, तच्छियखारसिंचणाई च ॥२१॥1॥ ॥११॥ अदु कण्णणासच्छेद, कंठच्छेदणं तितिक्खंती। इति इत्थ पावसंतत्ता, नय विंति पुणो न काहिति ॥ २२॥१६॥ स्त्रीसम्पकों हि रागिणां हस्तपादच्छेदाय भवति, 'अपि:' सम्भावने सम्भाव्यत एतन्मोहातुराणां स्त्रीसम्बन्धादस्तपादच्छे अनुक्रम [२६६]] cesese AREauratonintamanand FarPranaswamincom ~226~ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [२२], नियुक्ति: [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम दादिकम् , अथवा वर्धमांसोत्कर्तनमपि 'तेजसा' अग्निना 'अभितापनानि' स्त्रीसम्बन्धिभिरुत्तेजितै राजपुरुषैर्भटित्रकाण्यपि | क्रियन्ते पारदारिकाः, तथा वास्यादिना तक्षयिखा क्षारोदकसेचनानि च प्रापयन्तीति ।।२शा अपिच-अथ कर्णनासिकाच्छेदं तथा कण्ठच्छेदनं च 'तितिक्षन्ते' खकृतदोषात्सहन्ते इति, एवं बहुविधा विडम्बनाम् 'अस्मिन्नेव' मानुषे च जन्मनि पापेन-पापकर्मणा संतप्ता नरकातिरिक्त वेदनामनुभवन्तीति न च पुनरेतदेवम्भूतमनुष्ठानं न करिष्याम इति शुवत इत्यवधारयन्तीतिया-15 | वत्, तदेवमैहिकामुष्मिका दुःखविडम्बना अप्यङ्गीकुर्वन्ति न पुनस्तदकरणतया निवृचि प्रतिपद्यन्त इति भावः ॥ २२ ॥1 किञ्चान्यत् सुतमेतमेवमेगेसिं, इत्थीवेदेति हु सुयक्खायं । एवंपि ता वदित्ताणं, अदुवा कम्मुणा अवकरेंति ॥२३॥8 ॥ अन्नं मणेण चिंतेति, वाया अन्नं च कम्मुणा अन्नं। तम्हा ण सद्दह भिक्खू, बहुमायाओ इस्थिओ णच्चा२४/ 'श्रुतम्' उपलब्धं गुर्वादेः सकाशालोकतो वा 'एतदू' इति यत्पूर्वमाख्यातं, तद्यथा-दुर्विज्ञेयं स्त्रीणां चित्तं दारुणः स्त्रीस|म्बन्धविपाकः तथा चलखभावाः खियो दुष्परिचारा अदीक्षिण्यः प्रकृल्या लग्यो भवन्त्यात्मगर्विताय 'इति' एवमेकेषां 2 खाख्यातं भवति लोकश्रुतिपरम्परया चिरन्तनाख्यायिकासु वा परिज्ञातं भवति, तसखियं यथावस्थितखभावतस्तत्सम्बन्धवि-|| पाकतव घेदयति-धापयतीति स्त्रीवेदो-वैशिकादिकं स्त्रीखभावाविर्भावर्क शाखमिति, तदुक्तम्- "दुनोचं हृदयं यथैव वदनं । [२६८] ~227~ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [२४], नियुक्ति: [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२४|| दीप अनुक्रम [२७०] सूत्रकृताङ्गं यदर्पणान्तर्गत, भावः पर्वतमार्गदुर्गविषमः स्त्रीणां न विज्ञायते । चित्तं पुष्करपत्रतोयतरलं नैकत्र सन्तिष्ठते, नार्यों नाम विषाङ्क-1|| ४ स्त्रीपशीलाका- रैरिव लता दोषैः समं वर्धिताः ॥१॥" अपिच-"सुट्टबि जियासु सुदुवि पियासु सँछविय लद्धपसरासु । अडईसु महिलियासु रिक्षाध्य. य वीसंभो नेव कायवो ॥ १ ॥ उम्भेउ अंगुली सो पुरिसो सयलंमि जीवलोयम्मि । कामंतएण नारी जेण न पत्ताई दुक्खाई। उद्देशः १ नियुत ।। २ ।। अह एयाणं पगई सबस्स करेंति वेमणस्साई । तस्स ण करेंति णवरं जस्स अलं चेव कामेहिं ॥३॥" किश-अकार्य-1|| ॥११२॥महं न करिष्यामीत्येवमुक्खापि वाचा 'अदुय'ति तथापि कर्मणा-क्रियया 'अपकुर्वन्ति' इति विरूपमाचरन्ति, यदिवा अग्रतः ॥ प्रतिपद्यापि शास्तुरेवापकुर्वन्तीति ।। २३ ।। सूत्रकार एव तत्स्वभावाविष्करणायाह-पातालोदरगम्भीरेण मनसाऽन्यचिन्तयन्ति तथा श्रुतिमात्रपेशलया विपाकदारुणया वाचा अन्यद्भाषन्ते तथा 'कर्मणा' अनुष्ठानेनान्यन्निष्पादयन्ति, यत एवं बहुमायाः || ॥खिय इति, एवं शाला 'तस्मात् तासां 'भिक्षुः साधुः 'न श्रद्दधीत' तत्कृतया माययात्मानं न प्रतारयेत्, दत्तावेशिकवत्, ||अत्र चैतस्कथानकम्-दत्तावैशिक एकया गणिकया तैस्तैः प्रकारैः प्रतार्यमाणोऽपि ता नेष्टवान् , ततस्तयोक्तम्--कि मया 8 दौभाग्यकलङ्काङ्कितया जीवन्त्या प्रयोजनम् , अहं खत्परित्यक्ताऽग्निं प्रविशामि, ततोऽसाववोचत्-मायया इदमप्यस्ति वेशिके,18 | तदाऽसौ पूर्वसुरामुखे काष्ठसमुदयं कृखा तं प्रज्वाल्य तत्रानुप्रविश्य सुरङ्गया गृहमागता, दत्तकोऽपि च इदमपि अस्ति वेशिके,18 ॥११॥ १०सूक्ष्ममागे दि. २ मा विजितासु मुापि प्रीतास यापि च सधप्रसरामु अटवीपु महिलामु पवित्रम्भो नैव कार्यः ॥१॥ ३ कवयतु अंगुलि स पुरुषः सकले |जीवलो के कामयता नारीवैन न प्राप्तानि दुःखानि ॥1॥ असावेतासां प्रकृतिस्सर्वेषामपि कुर्वरित वैमनस्यानि तस्य न कुर्वन्ति नवरे यस्खाल व कामः ॥१॥ ~228~ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [२४], नियुक्ति: [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||२४|| दीप अनुक्रम [२७०] | इत्येवमसौ विलपनपि वातिकैश्चितायो प्रक्षिप्तः, तथापि नासौ तासु श्रद्धानं कृतवान् , एवमन्येनापि न श्रद्धातव्यमिति ॥२४॥ 13 किश्चान्यत् जुवती समणं बूया,विचित्तलंकारवत्थगाणि परिहित्ता । विरता चरिस्सहं रुक्खं,धम्ममाइक्खणे भयंतारो अदु साविया पवाएणं, अहमंसि साहम्मिणी य समणाणं। जतुकुंभे जहा उवजोई,संवासे विदू विसीएजा २६ 'युवतिः' अभिनवयौवना स्त्री विचित्रवस्त्रालङ्कारविभूषितशरीरा मायया श्रमणं घूयात् , तद्यथा-विरता अहं गृहपाशात् न ममानुकूलो भर्ता मह्यं वाऽसौ न रोचते परित्यक्ता बाऽहं तेनेत्येतत् 'चरिष्यामि करिष्याम्यहं 'रुक्ष मिति संयम, मौनमिति । वा कचित्पाठः तत्र मुनेरयं मौनः-संयमस्तमाचरिष्यामि, धर्ममाचक्ष्व 'णे ति अमार्क हे भयत्रातः!, यथाऽहमेवं दुःखाना |भाजनं न भवामि तथा धर्ममावेदयेति ॥ २५ ॥ किश्चान्यत्-अथवाऽनेन 'प्रवादेन' व्याजेन साध्वन्तिकं योपिदुपसत्-- | यथाऽहं श्राविकेतिकृता युष्माकं श्रमणानां साधर्मिणीत्येवं प्रपञ्चेन नेदीयसीभूत्वा कूलवालुकमिव साधू धर्माबंशयति, एतदुक्तं भवतियोपित्सानिध्य ब्रह्मचारिणां महतेऽनर्थाय, तथा चोक्तम्-"तज्ज्ञानं तच्च विज्ञानं, तत्तपः स च संयमः । सर्वमेकपदे || | भ्रष्ट, सर्वथा किमपि त्रियः ॥१॥" अनिवार्थे दृष्टान्तमाह-न्यथा जातुपः कुम्मो 'ज्योतिषः' अग्रेः समीपे व्यवस्थित | १धूतः वि०प०। cceserevedeseseseaseserceisents ~229~ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [२६], नियुक्ति: [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२६|| दीप अनुक्रम [२७२] सूत्रकता उपज्योतिर्वी 'बिलीयते' द्रवति, एवं योषितां 'संवासे' सानिध्ये विद्वानपि आस्ता तावदितरो योपि विदितवेद्योऽसावपि ध- ४खीपशीलाङ्का-18||र्मानुष्ठानं प्रति 'विषीदेत' शीतलबिहारी भवेदिति ॥२६॥ एवं तावत्स्त्रीसान्निध्ये दोषान् प्रदर्य तत्संस्पर्शजं दोष दर्शयितुमाह- रिज्ञाध्य. चा-य-18 | उद्देशः१ लियत जतुकुंभे जोइउवगूढे, आसुऽभितत्ते णासमुवयाइ। एवित्थियाहिं अणगारा, संवासेण णासमुवयंति॥२७॥ || 1 कुवंति पावगं कम्म, पुट्टा वेगेवमाहिंसु । नोऽहं करेमि पावंति, अंकेसाइणी ममेसत्ति ॥२८॥ ॥११३॥ यथा जातुपः कुम्भो 'ज्योतिषा' अमिनोपगूढः समालिङ्गितोऽभितप्तोऽग्निनाभिमुख्येन सन्तापितः क्षिप्रं 'नाशमुपयाति'। % द्रवीभूय विनश्यति, एवं खीभिः सार्ध 'संवसनेन' परिभोगेनानगारा नाशमुपयान्ति, सर्वथा जातुपकुम्भवत् व्रतकाठिन्यं परिसत्यज्य संयमशरीराद् भ्रश्यन्ति ॥ २७ ॥ अपिच-तासु संसाराभिष्वङ्गिणीप्यभिषक्ता अवधीरितैहिकामुष्मिकापायाः 'पापं कम मेधुनासेवनादिकं 'कुर्वन्ति' विदधति, परिभ्रष्टाः सदनुष्ठानाद 'एके केचनोत्कटमोहा आचार्यादिना चोधमाना 'एवमाहु'। का वक्ष्यमाणमुक्तवन्तः, तद्यथा-नाहमेवम्भूतकुलप्रसूतः एतदकार्य पापोपादानभूतं करिष्यामि, ममैषा दुहितकल्पा पूर्वम् अझंश18 | यिनी आसीत् , तदेपा पूर्वाभ्यासेनैव मय्येवमाचरति, न पुनरहं विदितसंसारस्वभावः प्राणात्ययेऽपि व्रतभङ्ग विधास इति || ११३॥ ॥ २८ ॥ किञ्च १मभषिका प्र। ~230~ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [२९], नियुक्ति: [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||२९|| दीप अनुक्रम [२७५] MeraseeratacaSaecasas0032002 बालस्स मंदयं बीयं, जं च कडं अवजाणई भुजो । दुगुणं करेइ से पावं, पूयणकामो विसन्नेसी ॥२९॥ संलोकणिज्जमणगारं, आयगयं निमंतणेणाहंसु। वत्थं च ताइ ! पायं वा, अन्नं पाणगं पडिग्गाहे ॥३०॥ णीवारमेवं बुज्झेज्जा, णो इच्छे अगारेमागंतुं । बद्धे विसयपासेहि, मोहमावज्जइ पुणो मंदे ॥३१॥ त्तिबेमि । इति इत्थीपरिन्नाए पढमो उद्देसो समत्तो॥४-१॥ (गाथाग्र. २८७) 'बालस्य' अज्ञस्य रागद्वेषाकुलितस्यापरमार्थदृश एतद्वितीयं 'मान्ध' अज्ञसम् , एक तावदकार्यकरणेन चतुर्थवतभङ्गो द्वितीयं तदपलपनेन मृपावादः, तदेव दर्शयति-यत्कृतमसदाचरणं 'भूयः पुनरपरेण चोद्यमानः 'अपजानीते' अपलपति-नैतन्मया || कृतमिति, स एवम्भूतः असदनुष्ठानेन तदपलपनेन च द्विगुणं पापं करोति, किमर्थमपलपतीत्याह-पूजनं-सत्कारपुरस्कारस्तत्-1 कामः-तदभिलाषी मा मे लोके अवर्णवादः खादित्यकार्य प्रच्छादयति विषण्ण:-असंयमस्तमेपितुं शीलमपति विषण्णषी ॥२९॥ किश्चान्यत्-सैलोकनीयं-संदर्शनीयमाकृतिमन्तं कश्चन 'अनगारं' साधुमात्मनि गतमात्मगतम् आत्मज्ञमित्यर्थः, तदेवम्भूतं | काधन स्वैरिण्यो 'निमन्त्रणेन' निमन्त्रणपुरम्सरम् 'आहुः उक्तवत्यः, तद्यथा-हे त्रायिन् ! साधो वखं पात्रमन्यद्वा पानादिकं | Ki येन केनचिद्भवतः प्रयोजनं तदई भवते सर्व ददामीति मगृहमागत्य प्रतिगृहाण समिति ॥ ३० ॥ उपसंहारार्थमाह-एतयोषितां १ मावति पाठान्तरसंभवः । Bes 200 Whaudiaram.org ~231 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [२९], नियुक्ति: [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३१|| सूत्रकृताङ्ग वस्त्रादिकमामन्त्रणं नीवारकल्पं 'बुध्येत' जानीयात् , यथाहि नीवारेण केनचिद्भक्ष्यविशेषेण सूकरादिवशमानीयते, एवमसावपि । ४ स्वीपशीलाङ्का- तेनामन्त्रणेन वशमानीयते, अतस्तन्नेच्छेद् 'अगारं गृहं गन्तुं, यदिवा गृहमेवावों गृहावों गृहभ्रमस्तं 'नेच्छेत्' नाभिलपेत् । रिज्ञाध्य. चायित्-8 किमिति, यतो 'बद्धों वशीकृतो विषया एव शब्दादयः 'पाशा' रजूबन्धनानि तैवेद्धा-परवशीकृतः स्नेहपाशानपबोटपितुम-1|| उद्देशः २ समर्थः सन् 'मोह' चित्तव्याकुलखमागच्छति-किंकर्तव्यतामूढो भवति पौनःपुन्येन 'मन्दः' अज्ञो जड इति । इतिः परिसमाप्तौ। ॥११॥ ब्रवीमीति पूर्ववत् ।। ३१ ।। इति स्त्रीपरिज्ञायां प्रथमोद्देशकः समाप्तः ॥४-१॥ चियुतं दीप अनुक्रम अथ चतुर्थोपसर्गाध्ययने द्वितीयोद्देशकस्य प्रारम्भः ॥ [२७७]] ॥११॥ उक्तः प्रथमोदशका, साम्प्रतं द्वितीयः समारभ्यते, अस चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोदेशके स्त्रीसंस्तवाचारित्रस्खलन J KRI मुक्त, स्खलितशीलस्य या अवस्था इहैव प्रादुर्भवति तत्कृतकर्मवन्धश्च तदिह प्रतिपाधते, इत्यनेन सम्बन्धनायातस्यास्योद्दश| कस्यादिसूत्रम् अत्र चतुर्थ-अध्ययने द्वितीय-उद्देशकस्य आरम्भ: ~232~ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [२७८] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१], निर्युक्तिः [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - ओए सया ण रज्जेज्जा, भोगकामी पुणो विरज्जेज्जा । भोगे समणाण सुणेह, जह भुंजंति भिक्खुणो एगे ॥१॥ अह तं तु भेद्भावन्नं, मुच्छितं भिक्खुं काममतिवद्धं । पलिभिंदिया णं तो पच्छा, पादुद्धहु मुद्धि पहणंति ॥२॥ अस्य चानन्तरपरम्परसूत्रसम्बन्धो वक्तव्यः, स चायं सम्बन्धो विषयपाशैर्मोहमागच्छति यतोऽत 'ओज' एको रागद्वेषवियुतः स्त्रीषु रागं न कुर्यात्, परम्परसूत्रसम्बन्धस्तु संलोकनीयमनगारं दृष्ट्वा च यदि काचिद्योषित् साधुमशानादिना नीवारकल्पेन प्रवारयेत् तत्रौजः सन रज्येतेति तत्रौजो द्रव्यतः परमाणुः भावतस्तु रागद्वेषविद्युतः स्त्रीषु रागादिहैव वक्ष्यमाणनीत्या नानाविधा विडम्बना भवन्ति तत्कृतश्च कर्मबन्धः तद्विपाका चामुत्र नरकादौ तीव्रा वेदना भवन्ति यतोऽत एतन्मत्रा भावौजः सन् 'सदा' सर्वकालं तास्वनर्थखनिषु स्त्रीषु न रज्येत, तथा यद्यपि मोहोदयात् भोगाभिलाषी भवेत् तथाप्यैहिकामुष्मिकापायान् परिगणय्य पुनस्ताभ्यो विरज्येत, एतदुक्तं भवति कर्मोदयात्प्रवृत्तमपि चित्तं हेयोपादेयपर्यालोचनया ज्ञानाङ्कुशेन निवर्तयेदिति, तथा श्राम्यन्ति तपसा खिद्यन्तीति श्रमणास्तेषामपि भोगा इत्येतच्छृणुत यूयं एतदुक्तं भवति- गृहस्थानामपि भोगा विडम्बनाप्राया यतीनां तु भोगा इत्येतदेव विडम्बनाप्रायं किं पुनस्तत्कृतावस्थाः, तथा चोक्तम्- "मुण्डं शिर" इत्यादि पूर्ववत्, तथा यथा च भोगान् 'एके' अपुष्टधर्माणो 'भिक्षवो' यतयो विडम्बनाप्रायान् भुञ्जते तथोदेशक सूत्रेणैव वक्ष्यमाणेनोचरत्र महता प्रबन्धेन दर्शयिष्यति, अन्यैरप्युक्तम् — “कृशः काणः खञ्जः श्रवणरहितः पुच्छविकलः, क्षुधाक्षामो जीर्णः पिठरककपालार्दित १ लागिः प्र० वि० प०। Ja Eucation International For Palata Use Only ~233~ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [२], नियुक्ति: [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सुत्रांक रिज्ञा ||२|| दीप अनुक्रम [२७९] सुत्रकृताङ्गं 8 गलः । बणैः पूयक्लिनैः कृमिकुलशतैराविलतनुः, शुनीमन्वेति वा हतमपि च हन्त्येव मदनः ॥१॥" इत्यादि, ॥१॥ भोगिनां 10४ शीलाका-18 विडम्बना दर्शयितुमाह-'अथे' त्यानन्तर्यार्थः तुशब्दो विशेषणार्थः, खीसंस्तवादनन्तरं 'भिक्षु' साधु 'भेदं शीलभेदं चारित्रचायीयवृ उद्देशः २ स्खलनम् 'आपन्नं' प्राप्त सन्तं स्त्रीषु 'मूछितं' गृद्धमध्युपपन्न, तमेव विशिनष्टि-कामेषु इच्छामदनरूपेषु मतेः-युद्धेर्मनसो त्तियुतं | वा वर्को वर्तनं प्रवृत्तिर्यस्यासी काममतिवर्तः-कामामिलापुक इत्यर्थः, तमेवम्भूतं 'परिभिद्य' मदभ्युपगतः श्वेतकृष्णप्रतिपत्ता ॥११५॥ मदशक इत्येवं परिज्ञाय यदिवा-परिभिद्य-परिसार्यात्मकृतं तत्कृतं चोचार्येति, तद्यथा-मया तव लुश्चितशिरसो जल्लमलावि-18 लतया दुर्गन्धस्य जुगुप्सनीयकक्षावक्षोबस्तिस्थानस्य कुलशीलमर्यादालज्जाधमोदीन् परित्यज्यात्मा दत्तः ख पुनरकिश्चित्कर इत्यादि भणिला, प्रकुपितायाः तस्या असी विषयमूछितस्तत्प्रत्यायनार्थ पादयोनिपतति, तदुक्तम्-"व्याभित्रकेसरवृहच्छिरसश्च सिंहा, || नागाश्च दानमदराजिकृशैः कपोलैः । मेधाविनय पुरुषाः समरे च शूराः, स्त्रीसनिधौ परमकापुरुषा भवन्ति ॥१॥" ततो | विषयेष्वेकान्तेन मृञ्छित इति परिज्ञानात् पश्चात् 'पाद' निजबामचरणम् 'उद्धृत्य' उत्क्षिप्य 'मूर्षि' शिरसि 'प्रघ्नन्ति' ताडयन्ति, 8 एवं विडम्बना प्रापयन्तीति ।। २ ॥ अन्यच्च ॥११५॥ जइ केसिआ णं मए भिक्खू, णो विहरे सह णमित्थीए। केसाणविह लंचिस्सं, नन्नत्थमए चरिज्जासि॥ अह णं से होई उवलद्धो, तो पेसति तहाभूएहिं । अलाउच्छेदं पेहेहि, वग्गुफलाई आहराहित्ति ॥४॥ १ शत प्र. । २ निपतितः प्रा। ~234~ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||8|| दीप अनुक्रम [ २८१] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र- २ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ४ ], उद्देशक [२], मूलं [४], निर्युक्ति: [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः har विद्यन्ते यस्याः सा केशिका णमिति वाक्यालङ्कारे, हे भिक्षो! यदि मया 'स्त्रिया' भार्यया केशवत्या सह नो विहरेस्त्वं, सकेशया स्त्रिया भोगान् भुञ्जानो ब्रीडां यदि वहसि ततः केशानप्यहं वत्सङ्गमाकाङ्क्षिणी 'लुञ्चिष्यामि' अपनेष्यामि, आस्तां तावदलङ्कारादिकमित्यपिशब्दार्थः अस्य चोपलक्षणार्थलादन्यदपि यद् दुष्करं विदेशगमनादिकं तत्सर्वमहं करिष्ये, वं पुनर्मया रहितो नान्यत्र चरेः, इदमुक्तं भवति मया रहितेन भवता क्षणमपि न स्थातव्यम् एतावदेवाहं भवन्तं प्रार्थयामि, | अहमपि यद्भवानादिशति तत्सर्वं विधास्य इति ॥ ३ ॥ इत्येवमतिपेशलैर्विश्रम्भजननैरापात भद्र कैरालापैर्विश्रम्भयित्वा यत्कुर्वन्ति | तद्दर्शयितुमाह- 'अधे' त्यानन्तर्यार्थः, णमिति वाक्यालङ्कारे, विश्रम्भालापानन्तरं यदाऽसौ साधुर्मदनुरक्त इत्येवम् 'उपलब्ध' | भवति-आकारैरिङ्गितैःश्रेष्टया वा मद्वशग इत्येवं परिज्ञातो भवति ताभिः कपटनाटकनायिकाभिः स्त्रीभिः, ततः तदभिप्रायपरि | ज्ञानादुत्तरकालं 'तथाभूतैः' कर्मकरव्यापारैरपशदै: 'प्रेषयन्ति' नियोजयन्ति यदिवा तथाभूतैरिति लिङ्गस्थयोग्यैर्व्यापारैः प्रेषयन्ति, तानेव दर्शयितुमाह- 'अलाउ'त्ति अलाबु-तुभ्यं छिद्यते येन तदलाबुच्छेदं – पिप्पलकादि शस्त्रं 'पेहाहि'त्ति प्रेक्षख निरूपय लभखेति, येन पिप्पलकादिना लब्धेन पात्रादेर्मुखादि क्रियत इति, तथा 'वल्गूनि' शोभनानि 'फलानि' नालिकेरादीनि अलाबुकानि वा खम् 'आहर' आनयेति, यदिवा - वाक्फलानि च धर्मकथारूपाया व्याकरणादिव्याख्यानरूपाया वा वाचो यानि फलानि - वस्त्रादिलाभरूपाणि तान्याहरेति ॥ ४ ॥ अपिच १० शब्दः प्र० खेडं पापमपशदमिति हेमः । Ja Eucation International For Parts Only ~ 235~ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [५], नियुक्ति: [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक सूत्रकता दीप अनुक्रम [२८२] दारूणि सागपागाए, पजोओ वा भविस्सती राओ। पाताणि य मे रयावेहि, एहि ता मे पिटुओमद्दे ॥५॥18| ४ स्त्रीपशोकाडा वत्थाणि य मे पडिलेहेहि, अन्नं पाणंच आहराहित्ति।गंधंच रओहरणं च, कासवगं च मे समणुजाणाहि ॥ रिशाध्य. चा-य-8 चियुतं | तथा 'दारूणि' काष्ठानि शाकं टकवस्तुलादिकं पत्रशाकं तत्पाकार्थ, कचिद् अन्नपाकायेति पाठः, तबानम्-ओदनादिक-18 उद्देश 18| मिति, 'रात्री' रजन्या प्रयोतो वा भविष्यतीतिकृता, अतो अटवीतस्तमाहरेति, तथा-[ग्रन्थानम् ३५०० ] 'पात्राणि' पत॥११॥ द्रहादीनि 'रञ्जय' लेपय, येन सुखेनैव भिक्षाटनमहं करोमि, यदिवा-पादावलक्तकादिना रञ्जयेति, तथा-परित्यज्यापरं कर्म | तावद् 'एहि आगच्छ 'मे' मम पृष्ठिम् उत्-प्राबल्येन मर्दय बाधते ममानमुपविष्टाया अतः संबाधय, पुनरपरं कायेंशेष करिष्यसीति ॥५॥ किश्च-'वस्त्राणि च' अम्बराणि 'मे' मम जीर्णानि वर्तन्तेऽतः 'प्रत्युपेक्षख अन्यानि निरूपय, यदिवामलिनानि रजकस्य समर्पय, मदुपधि वा मूषिकादिभवात्प्रत्युपेक्षखेति, तथा अन्नपानादिकम् 'आहर' आनयेति, तथा 'गन्ध' कोष्ठपुटादिक ग्रन्थं वा हिरण्यं तथा शोभनं रजोहरणं तथा लोचं कारयितुमहमशक्तेल्यतः 'काश्यपं' नापितं मच्छिरोमुण्डनाय || श्रमणानुजानीहि येनाई हत्केशानपनयामीति ॥ ६॥ किशान्यत्अदु अंजणि अलंकारं, कुक्कयेयं मे पयच्छाहि। लोद्धं चलोद्धकसमं च, वेणुपलासियं च गुलियं च ॥७॥ कुटुं तगरं च अगरुं, संपिटुं सम्म उसिरेणं । तेलं मुहभिजाए, वेणुफलाई सन्निधानाए ॥८॥ ॥११६॥ १ गंथं इति स्वारपाठान्तरम् । २ वर्षरमिति वि. ५०।। भिण्डलिजाए प्रा। Rececene ~236~ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [८], नियुक्ति: [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सुत्रांक ||८|| अथशब्दोऽधिकारान्तरप्रदर्शनार्थः पूर्व लिङ्गखोपकरणान्यधिकत्याभिहितम् , अधुना गृहस्थोपकरणान्यधिकल्याभिधीयते, तद्यथा-'अंजणिमिति अञ्जणिकां कजलाधारभूतां नलिकां मम प्रयच्छखेत्युत्तरत्र क्रिया, तथा कटककेयूरादिकमलङ्कारं वा, तथा 'कुक्कयर्य'ति मुखुणक 'मे' मम प्रयच्छ, येनाहं सर्वालङ्कारविभूषिता वीणाविनोदेन भवन्तं विनोदयामि, तथा लोभं च लोध्रकुसुमं च, तथा 'वेणुपलासिय'ति वंशात्मिका श्लक्ष्णखक काष्ठिका, सा दन्तर्वामहस्तेन प्रगृह्य दक्षिणहस्तेन वीणावद्वाधते, तथौषधगुटिकां तथाभूतामानय येनाहमविनष्टयौवना भवामीति ॥ ७॥ तथा कुष्ठम्-उत्पलकुष्ठं तथाऽगरं तगरं च, एते द्वे. अपि गन्धिकद्रव्ये, एतत्कुष्ठादिकम् 'उशीरण' वीरणीमूलेन सम्पिष्टं सुगन्धि भवति यतस्तत्तथा कुरु, तथा 'तैलं' लोध्रकुमा-1 दिना संस्कृतं मुखमाश्रित्य 'भिलिंजए'त्ति अभ्यङ्गाय ढोकयख, एतदुक्तं भवति-मुखाभ्यङ्गार्थ तथाविध संस्कृतं तैलमुपाहरेति.॥ येन कान्त्युपेतं मे मुखं जायते, 'वेणुफलाईति वेणुकार्याणि करण्डकपेटुकादीनि सन्निधिः सन्निधानं-वस्त्रादेर्व्यवस्थापनं तदर्थमानयेति ॥ ८॥ किश्च नंदीचुण्णगाईपाहराहि, छत्तोवाणहं च जाणाहि । सत्थं च सूवच्छेज्जाए, आणीलंच वत्थयं रयावेहि ॥९॥ 18सुफर्णि च सागपागाए,आमलगाई दगाहरणं च। तिलगकरणिमंजणसलागं,प्रिंसु मे विह्वणयं विजाणेहि॥ 'नन्दीचुण्णगाईति द्रव्यसंयोगनिष्पादितोष्ठम्रक्षणचूर्णोऽभिधीयते, तमेवम्भूतं चूर्ण प्रकर्षण-येन केनचित्प्रकारेण 'आहर' दयं प्र० । २ भिजाए । भिवसिंजाए. प्र విజయం दीप अनुक्रम [२८५] Reseisersectsetectatoeseses ~237~ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१०], नियुक्ति: [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||१०|| सूत्रकृताङ्गं शीलाका- चाीय त्तियुत ॥११७॥ दीप अनुक्रम आनयेति, तथाऽऽतपस्य वृष्टेर्वा संरक्षणाय छवं तथा उपानहौ च ममानुजानीहि, न मे शरीरमेभिर्विना वर्तते ततो ददखेति, स्त्रीपतथा 'शस्त्रं दात्रादिकं 'सूपच्छेदनाय' पत्रशाकच्छेदनार्थं ढोकयस्थ, तथा 'वस्त्रम् अम्बरं परिधानार्थ गुलिकादिना रञ्जय रिक्षाध्य. यथा आनीलम् ईपनीलं सामस्त्येन वा नीलं भवति, उपलक्षणार्थखाद्रक्तं वा यथा भवतीति ॥ ९॥ तथा-सुष्टु सुखेन वा 8] उद्देशः २ फण्यते-काथ्यते तकादिकं यत्र तत्सुफणि-स्थालीपिठरादिकं भाजनमभिधीयते तच्छाकपाकार्थमानय, तथा 'आमलकानि' धात्रीफलानि स्नानार्थ पित्तोपशमनायाभ्यवहारार्थ वा तथोदकमाहियते येन तदुदकाहरणं-कुटवर्धनिकादि, अस्य चोपलक्षणाथैखाद् घृततैलाधाहरणं सर्व वा गृहोपस्कर ढोकयखेति, तिलकः क्रियते यया सा तिलककरणी-दन्तमयी सुवर्णात्मिका वा शलाका यया गोरोचनादियुक्तया तिलकः क्रियत इति, यदिवा गोरोचनया तिलकः क्रियते (इति) सैव तिलककरणीत्युच्यते, तिलका वा क्रियन्ते-पिष्यन्ते वा यत्र सा तिलककरणीत्युच्यते, तथा अञ्जन-सौवीरकादि शलाका अक्ष्णोरञ्जनार्थ शलाका | अञ्जनशलाका तामाहरेति । तथा 'ग्रीष्मे' उष्णाभितापे सति 'मे' मम विधूनक' व्यजनक विजानीहि ॥१०॥ एवं-- संडासगं च फणिहं च,सीहलिपासगं च आणाहि।आदंसगं च पयच्छाहि, दंतपक्खालणं पवेसाहि ॥११॥ पूयफलं तंबोलयं, सूईसुत्तगं च जाणाहि। कोसं च मोयमेहाए, सुप्पुक्खलगं च खारगालणं च ॥१२॥ ॥११७॥ SIL 'संडासकं नासिकाकेशोत्पाटनं 'फणिहं' केशसंयमनार्थ कङ्कतकं, तथा 'सीहलिपासगंति वीणासंयमनार्थमूर्णामयं क णं च 'आनय' ढोकयेति, एवम् आ-समन्तादृश्यते आत्मा यसिन् स आदर्शः स एव आदर्शकस्तं 'प्रयच्छ' ददखेति, तथा [२८७] SAREarathJAN ~238~ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१२], नियुक्ति: [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||१२|| दीप अनुक्रम [२८९] दन्ताः प्रक्षास्यन्ते-अपगतमलाः क्रियन्ते येन तद्दन्तप्रक्षालनं-दन्तकाष्ठं तन्मदन्तिके प्रवेशयेति ॥ ११ ।। पूगफलं प्रतीत 'ताम्बूलं' नागवल्लीदलं तथा सूची च सूत्रं च मूच्यर्थ वा सूत्रं 'जानीहि ददखेति, तथा 'कोशम्' इति वारकादिभाजन तत् मोचमेहाय समाहर, तत्र मोच:-प्रस्रवणं कायिकेत्यर्थः तेन मेहः-सेचनं तदर्थ भाजन ढोकय, एतदुक्तं भवति-बहिर्गमनं । | कर्तुमहमसमर्था रात्रौ भयाद्, अतो मम यथा रात्री बहिर्गमनं न भवति तथा कुरु, एतचान्यस्याप्यधमतमकर्तव्यस्योपलक्षणं द्रष्टव्यं, तथा 'शूर्प' तन्दुलादिशोधन तथोदूखलं तथा किश्चन क्षारस्य-सर्जिकादेर्गालनकमित्येवमादिकमुपकरणं सर्वमप्यानयेति ॥ १२ ॥ किश्चान्यत्चंदालगं च करगंच, वच्चघरंच आउसो खणाहि । सरपाययं च जायाए, गोरहगं च सामणेराए ॥१३॥ घडिगं च सडिडिमयं च, चेलगोलं कुमारभूयाए। वासं समभिआवण्णं, आवसहं च जाण भत्तं च ॥१४॥ 'चन्दालकम्' इति देवतार्चनिकाद्यर्थ ताम्रमयं भांजनं, एतच मथुरायां चन्दालकवेन प्रतीतमिति, तथा 'करको' जलाधारो || मदिराभाजनं वा तदानयेति क्रिया, तथा 'वर्चीगृई' पुरीपोत्सर्गस्थानं तदायुष्मन् ! मदर्थ 'खन' संस्कुरु, तथा शरा-इपकः । पात्यन्ते-क्षिप्यन्ते येन तच्छरपातं-धनुः तत् 'जाताय' मत्पुत्राय कृते ढौकय, तथा 'गोरहगं'ति त्रिहायणं बलीवदं च ढौ-18 | कयेति, 'सामणेराए'चि श्रमणस्सापत्वं श्रामणिस्तसै श्रमणपुत्राय खत्पुत्रीय गठ्यादिकृते भविष्यतीति ॥ १३ ॥ तथा घटिका 8 १श्रामणिपुत्राय प्र.२ सपुत्राय प्र। Raeeeeeeeeeeceaesearcene ~239~ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१४], नियुक्ति: [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१४|| स्त्रकता शीलासाचार्षीय चियुत ॥११॥ दीप अनुक्रम [२९१] मृन्मयकुल्लडिका 'डिण्डिमेन' पटहकादिवादित्रविशेषेण सह, तथा 'चेलगोलं'ति वस्त्रात्मकं कन्दुकं 'कुमारभूताय क्षुल्लकरूपाय | ४ स्त्रीपराजकुमारभूताय वा मत्पुत्राय क्रीडनार्थमुपानयेति, तथा वर्षमिति प्राबृटकालोऽयम् अभ्यापन्न:-अभिमुखं समापनीत 'आ-|2|| रिज्ञाध्य. वसथं गृहं प्रावृटकालनिवासयोग्यं तथा 'भक्तं च तन्दुलादिकं तत्कालयोग्यं 'जानीहि निरूपय निष्पादय, येन सुखेनैवा-1|| उद्देशः २ नागतपरिकल्पितावसथादिना प्रावृट्कालोऽतिवाह्यते इति, तदुक्तम्-"मासैरष्टभिरवा च, पूर्वेण वयसाऽऽयुषा । तत्कर्तव्यं मनुष्येण, | यस्यान्ते सुखमेधते ॥ १॥” इति ॥ १॥ आसंदियं च नवसुत्तं, पाउल्लाई संकमाए । अदु पुत्तदोहलट्राए, आणप्पा हवंति दासा वा ॥१५॥ जाए फले समुप्पन्ने, गेण्हसु वा णं अहवा जहाहि । अहं पुत्तपोसिणो एगे, भारवहा हवंति उट्टा वा ॥१६॥ | तथा 'आसंदिय' मित्यादि, आसन्दिकामुपवेशनयोग्या मश्चिका, तामेव विशिनष्टि नव-प्रत्ययं सूत्रं वल्कवलितं यस्यां सा नवसूत्रा ताम् उपलक्षणार्थवाद्धचर्मावनद्धा वा निरूपयेति वा एवं च-मौजे काठपादके वा 'संक्रमणार्थ' पर्यटनार्थ निरूपय, | यतो नाहं निरावरणपादा भूमौ पदमपि दातुं समर्थेति, अथवा-पुत्रे गर्भस्खे दौहृदः पुत्रदौहदा-अन्तवती फलादावभिलापविशे-18|| पस्तसै-तत्सम्पादनार्थ स्त्रीणां पुरुषाः खवशीकृता 'दासा इव' क्रयक्रीता इव 'आज्ञाप्या' आज्ञापनीया भवन्ति, यथा दासा ॥ अलज्जितर्योग्यसादाज्ञाप्यन्ते एवं तेऽपि वराकाः स्नेहपाशावपाशिता विषयार्थिनः खीभिः संसारावतरणवीथीभिरादिश्यन्त इति || १ अनागते परिकल्पितं बदायसथादि तेन : २ अन्तर्बत्नी प्रारमुद्रिते, फलस्य पुत्रवाचिता उपरिक्षारस्पष्टा । wasawasa99G ~240~ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१६], नियुक्ति: [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||१६|| दीप अनुक्रम [२९३] H॥१५॥ अन्यच-जात:-पुत्रः स एव फलं गृहस्थानां, तथाहि-पुरुषाणां कामभोगा: फलं तेषामपि फलं-प्रधानकार्य पुत्रजन्मेति, तदुक्तम् - "इदं तस्नेहसर्वेखं, सममाढ्यदरिद्रयोः । अचन्दनमनौशीरं, हृदयस्थानुलेपनम् ॥१॥ यत्तच्छपनिकेत्युक्तं, चालेना व्यक्तभाषिणा। हिला सांख्यं च योगं च, तन्मे मनसि वर्तते ॥२॥" यथा 'लोके पुत्रसुमुखं नाम, द्वितीय मु(म)खमात्मनः' 1 इत्यादि, तदेवं पुत्रः पुरुषाणां परमाभ्युदयकारणं तसिन् 'समुत्पन्ने जाते तदुद्देशेन या विडम्बनाः पुरुषाणां भवन्ति ता दर्शयति-अमुं दारकं गृहाण खम् , अहं तु कर्माक्षणिका न मे ग्रहणावसरोस्ति, अथचैनं 'जहाहि' परित्यज नाहमस वार्तामपि पृच्छामि एवं कुपिता सती ब्रूते, मयाऽयं नव मासानुदरेणोढः सं पुनरुत्सङ्गेनाप्युद्वहन् स्तोकमपि कालमुद्विजस इति, दासहष्टान्तस्वादेशदानेनैव साम्यं भजते, नादेशनिष्पादनेन, तथाहि-दासो भयादुद्विजन्नादेशं विधत्ते, स तु स्त्रीवशगोऽनुग्रह | मन्यमानो मुदितश्च तदादेश विधचे, तथा चोक्तम्-"यदेव रोचते मां, तदेव कुरुते प्रिया । इति वेचि न जानाति, तत्प्रियं । | यत्करोत्यसौ ॥१॥ ददाति प्रार्थितः प्राणान् , मातरं हन्ति तत्कृते । किं न दद्यात् न किं कुर्यात्स्त्रीभिरभ्यर्थितो नरः ॥२॥1॥ ददाति शौचपानीयं, पादौ प्रक्षालयत्यपि । श्लेष्माणमपि गृह्णाति, स्त्रीणां वशगतो नरः ॥३।।" तदेवं पुत्रनिमित्तमन्यद्वा यत्कि-IN |श्चिन्निमित्तमुद्दिश्य दासमिवादिशन्ति, अथ तेऽपि पुत्रान् पोषितुं शीलं येषां ते पुत्रपोषिण उपलक्षणार्थखाच्चास्य सर्वादेशकारिणः । 'एके' केचन मोहोदये वर्तमानाः स्त्रीणां निर्देशवर्तिनोऽपहस्तितैहिकामुष्मिकापाया उष्ट्रा इव परवशा भारवाहा भवन्तीति ॥ १६ ।। किश्चान्यत् 1 एतच्छलोकद्वयमपि वतनष्ठेन धर्मकीर्तिना भाषितमिति वि.प.। 20992969200000000000 02012900403930202016302929 ~241~ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१७|| दीप अनुक्रम [२९४] सूत्रकृता शीलाङ्काचार्यगट चियुतं ॥११९॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१७], निर्युक्ति: [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०२ ], अंग सूत्र - [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः | राओवि उट्टिया संता, दारगं च संठवंति धाई वा । सुहिरामणा वि ते संता, वत्थधोवा हवंति हंसा वा १७ एवं बहुहिं कयपुत्रं भोगत्थाए जेऽभियावन्ना । दासे मिइव पेसे वा, पसुभूतेव से ण वा केई ॥ १८ ॥ रात्रावयुत्थिताः सन्तो रुदन्तं दारकं धात्रीवत् संस्थापयन्त्य ने कप्रकारैरुल्लापनैः, तद्यथा - "सामिओसि नगरस्स य णकउररस य हत्थकष्पगिरिपट्टणसीहपुरस्स व उष्णयस्स निन्नस्स य कुच्छपुरस्स य कष्णकुञ्ज आयामुहसोरिय पुरस्स य" इत्येवमादिभिरसम्बद्धैः क्रीडनकालापैः स्त्रीचित्तानुवर्तिनः पुरुषास्तत् कुर्वन्ति येनोपहास्यतां सर्वस्य व्रजन्ति, सुष्ठु हीः- लजा तस्यां मनःअन्तःकरणं येषां ते सुन्हीमनसो लज्जालबोऽपि ते सन्तो विहाय लज स्त्रीवचनात्सर्वजघन्यान्यपि कर्माणि कुर्वते, तान्येव सूत्रावयवेन दर्शयति 'वस्त्रधावका' वस्त्रप्रक्षालका हंसा इव रजका इव भवन्ति, अस्य चोपलक्षणार्थलादन्यदप्युदकवहनादिकं कुर्वन्ति ॥ १७ ॥ किमेतत्केचन कुर्वन्ति येनैवमभिधीयते ?, बाढं कुर्वन्तीत्याह 'एव' मिति पूर्वोक्तं स्त्रीणामादेशकरणं पुत्रपो पणवस्त्रधावनादिकं तद्बहुभिः संसाराभिष्वङ्गिभिः पूर्वं कृतं कृतपूर्व तथा परे कुर्वन्ति करिष्यन्ति च ये 'भोगकृते' कामभोगामैहिकामुष्मिकापाय भयमपर्यालोच्य आभिमुख्येन - भोगानुकूल्येन आपन्ना- व्यवस्थिताः सावधानुष्ठानेषु प्रतिपन्ना इतियावत्, तथा यो रागान्धः स्त्रीभिर्वशीकृतः स दासवदशङ्किताभिस्ताभिः प्रत्यपरेऽपि कर्मणि नियोज्यते, तथा वागुरापतितः पर वशी मृग इव धार्यते, नात्मवशी भोजनादिक्रिया अपि कर्तुं लभते, तथा 'प्रेष्य इव' कर्मकर व क्रयक्रीत इव वर्चःशोधना १ खाम्यसि नगरस्य च नमपुरस्य व हस्तिकल्पगिरिपत्तनसिंहपुरस्य उन्नतस्य निम्नस्य कुषिपुरस्य च कान्यकुब्जपितामहमुखशौर्य पुरस्य च ॥ For Park Use Only ~ 242~ ४ स्त्रीप रिज्ञाध्य. उद्देश: २ ॥ ११९ ॥ wor Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१८|| दीप अनुक्रम [२९५] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ४ ], उद्देशक [२], मूलं [१८], निर्युक्ति: [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - दावपि नियोज्यते, तथा कर्तव्याकर्तव्यविवेकरहिततया हिताहितप्राप्तिपरिहारशून्यवाद पशुभूत इव यथा हि पशुराहारभयमैथुनपरिग्रहाभिज्ञ एव केवलम् एवमसावपि सदनुष्ठानरहितखात्पशुकल्पः, यदिवा-स श्रीवशगो दास मृगप्रेष्यपशुभ्योऽप्यधमखान्न कथित् एतदुक्तं भवति - सर्वाधमत्वात्तस्य तत्तुल्यं नास्त्येव येनासाधुपमीयते, अथवा न स कश्चिदिति, उभय भ्रष्टत्वात्, तथाहि न तावत्प्रब्रजितोऽसौ सदनुष्ठानरहितखात् नापि गृहस्थः ताम्बूलादिपरिभोगरहितवाल्लो चिकामात्रधारिखाश्च यदिवा | ऐहिकामुष्मिकानुष्ठायिनां मध्ये न कश्चिदिति ॥ १८ ॥ साम्प्रतमुपसंहारद्वारेण खीसङ्गपरिहारमाह--- एवं खु तासु विन्नप्पं, संधवं संवासं च वज्जेजा। तज्जातिआ इमे कामा, वज्जकरा य एवमक्खाए ॥१९॥ एयं भयं ण सेयाय, इइ से अप्पगं निरंभित्ता । णो इत्थि णो पसुं भिक्खू, णो सयं पाणिणा णिलिज्जेज्जा २० 'एतत्' पूर्वोक्तं खुशब्दो वाक्यालङ्कारे तासु यत् स्थितं तासां वा स्त्रीणां सम्बन्धि यद् विज्ञप्तम् उक्तं, तद्यथा यदि सकेशया मया सह न रमसे ततोऽहं केशानप्यपनयामीत्येवमादिकं, तथा स्त्रीभिः सार्धं 'संस्तवं' परिचयं तत्संवासं च खीभिः संकत्र निवासं चात्महितमनुवर्तमानः सर्वापायभीरुः 'त्यजेत्' जद्यात्, यतस्ताभ्यो- रमणीभ्यो जातिः - उत्पत्तिर्येषां तेऽमी | कामास्तज्जातिका रमणीसम्पर्कात्थास्तथा 'अवधं' पापं वज्रं वा गुरुत्वादधःपातकलेन पापमेव तत्करणशीला अवधकरा वज्रकरा वेत्येवम् 'आख्याताः' तीर्थकरगणधरादिभिः प्रतिपादिता इति ।। १९ । सर्वोपसंहारार्थमाह- 'एवम्' अनन्तरनीत्या भयहे तुलाद स्त्रीभिर्विज्ञ तथा संस्तवस्तत्संवासश्च भयमित्यतः श्रीभिः सार्धं सम्पर्को न श्रेयसे असदनुष्ठानहेतुलात्तस्येत्येवं परिज्ञाय Eaton International For Parts Only ~ 243~ www.landbrary or Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२०|| दीप अनुक्रम [२९७] सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्काचार्यय तियुतं ॥१२०॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ४ ], उद्देशक [२], मूलं [२०], निर्युक्ति: [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .....आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र -[ ०२ ] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः | समिक्षुरवगतकामभोगविपाक आत्मानं स्त्रीसम्पर्कान्निरुध्य सन्मार्गे व्यवस्थाप्य यत्कुर्यात्तदर्शयति-न स्त्रियं नरकवीथीप्रायां नापि पशुं 'लीयेत' आश्रयेत श्रीपशुभ्यां सह संवासं परित्यजेत् 'स्त्रीपशुपण्डकविवर्जिता शय्येतिवचनात् तथा स्वकीयेन 'पाणिना' हस्तेनावाच्यस्य 'न णिलिजेज्जन्ति न सम्बाधनं कुर्यात् यतस्तदपि हस्तसम्बाधनं चारित्रं शबलीकरोति, यदिवास्त्रीपश्वादिकं खेन पाणिना न स्पृशेदिति ॥ २० ॥ अपि च सुविसुद्धलेसे मेहावी, पर किरिअं च वज्जए नाणी । मणसा वयसा कायेणं, सबफासस हे अणगारे ॥२१॥ | इचेवमाहु से वीरे, धुअरए धुअमोहे से भिक्खू । तम्हा अज्झत्थविसुद्धे, सुविमुक्के आमोक्खाए परिवएज्जा सि ॥ २२ ॥ तिमि ॥ इति श्रीइत्थीपरिन्ना चतुर्थाध्ययनं समन्तं ॥ ( गाथाग्र० ३०९ ) सुष्ठु विशेषेण शुद्धा - स्त्रीसम्पर्कपरिहाररूपतया निष्कलङ्का लेइया - अन्तःकरणवृत्तिर्यस्य स तथा स एवम्भूतो 'मेधावी' मर्यादावर्ती परस्मै ख्यादिपदार्थाय क्रिया परक्रिया-विषयोपभोगद्वारेण परोपकारकरणं परेण वाऽऽत्मनः संबाधनादिका क्रिया परक्रिया तां च 'ज्ञानी' विदितवेद्यो 'बर्जयेत्' परिहरेत्, एतदुक्तं भवति-विषयोपभोगोपाधिना नान्यस किमपि कुर्याचाप्यात्मनः स्त्रिया पादधावनादिकमपि कारयेत्, एतच परक्रियावर्जनं मनसा वचसा कायेन वर्जयेत्, तथाहि - औदारिककामभोगार्थं मनसा न गच्छति नान्यं गमयति गच्छन्तमपरं नानुजानीते एवं वाचा कायेन च सर्वेऽप्यौदारिके नव भेदाः एवं दिव्येऽपि १ पा० विहरे आमुक्साए । Ja Eucation Internation For Park Use Only ~244~ ४ स्त्रीपरिज्ञाध्य. उद्देशः २ ॥१२०॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [२२], नियुक्ति: [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||२२|| नव भेदाः, ततश्राष्टादशभेदभिन्नमपि ब्रम विभृयात् , यथा च स्त्रीस्पर्शपरीपहः सोढव्य एवं सोनपि शीतोष्णदंशमशकतृणादि8 स्पर्शानधिसहेत, एवं च सर्वस्पर्शसहोऽनगारः साधुर्भवतीति ।। २१ ॥ क एवमाहेति दर्शयति-'इति' एवं यत्पूर्वमुक्तं तत्सर्व १स वीरो भगवानुत्पन्नदिव्यज्ञानः परहितैकरतः 'आह' उक्तवान् , यत एचमतो धूतम्-अपनीतं रजा-खीसम्पको दिकृतं कर्म || येन स धृतरजाः तथा धूतो मोहो रागद्वेषरूपो येन स तथा । पाठान्तरं वा धूत:-अपनीतो रागमार्गो-रागपन्था यसिन् स्त्रीसंस्तवादिपरिहारे तत्तथा तत्सर्वे भगवान् वीर एवाह, यत एवं तस्मात् स भिक्षुः 'अध्यात्मविशुद्ध सुविशुद्धान्तःकरणः सुष्ठ 8 ४ रागद्वेषात्मकेन स्त्रीसम्पर्केण मुक्तः सन् 'आमोक्षाय' अशेषकर्मक्षयं यावत्परि-समन्तात्संयमानुष्ठानेन 'ब्रजेत् गच्छेत्संपमोघो|| गवान् भवेदिति, इतिः परिसमाप्त्यर्थे, अबीमीति पूर्ववत् ॥ २२ ॥ इति चतुर्थ श्रीपरिज्ञाध्ययनं परिसमाप्तम् ।। दीप 200000000000000000000000 --- - 20992929082290920000 अनुक्रम [२९९] अत्र चतुर्थ-अध्ययनं परिसमाप्तम् ~245~ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [२२...], नियुक्ति: [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ॥अथ पञ्चमं नरकविभक्त्यध्ययनं प्रारभ्यते ॥ प्रत सूत्रांक सूत्रकृता शीलाङ्काचायीयतियुत नरकविभत्यध्य. उद्देशः१ ||२२|| ॥१२॥ दीप presceceaeseaesedesesesecs अनुक्रम [२९९] उक्तं चतुर्थमध्ययनं, साम्प्रतं पञ्चममारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहाचे अध्ययने स्वसमयपरसमयारूपणाऽभिहिता, तदनन्तरं स्वसमये बोधो विधेय इत्येतद्वितीयेऽध्ययने भिहितं, सम्बुद्धेन चानुकूलप्रतिकूला उपसर्गाः सम्यक् सोढव्या इत्येतत्तृतीयेऽध्ययने प्रतिपादितं, तथा समुद्धेनैव स्त्रीपरीषहश्च सम्यगेव सोढव्य इत्येतचतुर्थेऽध्ययने प्रतिपादितं, साम्प्रतमुपसर्गभीरो। स्त्रीचशगस्खावश्यं नरकपातो भवति तत्र च याक्षा वेदनाः प्रादुर्भवन्ति ता अनेनाध्ययनेन प्रतिपाद्यन्ते, तदनेन सम्बन्धेनायातस्यास्वाध्ययनस चखार्यनुयोगद्वाराणि उपक्रमादीनि वक्तव्यानि, तत्रोपक्रमान्तर्गतीर्थाधिकारी द्वधा-अध्ययनार्थाधिकार || उद्देशार्थाधिकारच, तत्राध्ययनार्थाधिकारी नियुक्तिकारेण प्रागेवाभिहितः, तद्यथा-उवसग्गभीरुणो धीवसस्स नरएम होज उववाओं इत्यनेन, उद्देशार्थाधिकारस्तु नियुक्तिकृता नाभिहितः, अध्ययनार्थाधिकारान्तर्गतत्वादिति । साम्प्रतं निक्षेपः, सच त्रिषिधा, ओघनिष्पन्नो नामनिष्पन्नः सूत्रालापकनिष्पन्नति, तत्रौघनिष्पन्ने निक्षेपेऽध्ययनं, नामनिष्पन्ने तु नरकविभक्तिरिति द्विपदं नाम, तत्र नरकपदनिक्षेपार्थ नियुक्तिकृदाह|णिरए छ दव्यं णिरया उ इहेष जे भवे असुभा । खेत्तं णिरओगासो कालो णिरएसु चेव ठिती ॥६४॥ | भावे उणिरयजीवा कम्मुदओ चेव णिरयपाओगो। सोऊण णिरयदुक्खं तवचरणे होइ जड्यब्वं ॥ ६५ ॥ ॥१२१॥ | अत्र पंचम-अध्ययनं 'नरकविभक्ति' आरब्ध:, 'नरक' पदस्य निक्षेपा: ~246~ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [२२...], नियुक्ति: [६५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप तत्र नरकशब्दस्य नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात् पोढा निक्षेपः, तत्र नामस्थापने क्षुण्णे, द्रष्यनरक आगमतो नोआगमत-18 थ, आगमतो शाता तत्र चानुपयुक्तः, नोआगमतस्तु शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तः 'इदैव' मनुष्यभवे तिर्यग्भवे वा ये केचनाशुभक-| मकारिखादशुभाः सत्त्वाः कालकसौकरिकादय इति, यदिवा यानि कानिचिदशुभानि स्थानानि चारकादीनि याश्च नरका| तिरूपा वेदनास्ताः सर्वा द्रव्यनरका इत्यभिधीयन्ते, यदिवा कर्मेद्रव्यनोकर्मद्रव्यभेदाद् द्रव्यनरको द्वेधा, तत्र नरकवेद्यानि । यानि बद्धानि कर्माणि तानि चैकमविकस्य बद्धायुष्कस्याभिमुखनामगोत्रस चाश्रित्य द्रव्यनरको भवति, नोकर्मद्रव्यनरकस्सिदैव | येशुभा रूपरेसगन्धवर्णशब्दस्पर्शा इति, क्षेत्रनरकस्तु 'नरकावकाशः कालमहाकालरौरवमहारौरवाप्रतिष्ठानाभिधानादिनरकाणां चतुरशीतिलक्षसंख्यानां विशिष्टो भूभागः, कालनरकस्तु यत्र यावती स्थितिरिति, भावनरकस्तु ये जीवा नरकायुष्कमनुभवन्ति | तथा नरकप्रायोग्यः कर्मोदय इति, एतदुक्तं भवति-नरकान्तर्वतिनो जीवास्तथा नारकायुष्कोदयापादितासातादिनीयादिकर्मो| दयाश्चैतद् द्वितयमपि भावनरक इत्यभिधीयते इति, तदेवं 'श्रुखा' अवगम्य तीव्रमसा 'नरकदुःखं कचपाटनकुम्भीपाकादिक || परमाधार्मिकापादितं परस्परोदीरणाकृतं स्वाभाविकं च 'तपश्चरणे' संयमानुष्ठाने नरकपातपरिपन्थिनि स्वर्गापवर्गागमनैकहेतावा-18| त्महितमिच्छता 'प्रयतितव्यं परित्यक्तान्यकर्तव्येन यलो विधेय इति ॥ साम्प्रतं विभक्तिपदनिक्षेपार्थमाह णामंठवणादविए खेत्ते काले तहेब भावे य । एसो उ विभत्तीए णिक्खेवो छबिहो होइ॥६६॥ विभक्तेर्नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात् पोढा निक्षेपः, तत्र नामविभक्तिर्यस्य कस्यचित्सचित्तादेध्यस्य विभक्तिरिति नरकास्तु प्र०।२रूपं मूर्तिः (आकारः)। सावण्यं वा। अनुक्रम [२९९] नरक' पदस्य निक्षेपा:, "विभक्ति' पदस्य निक्षेपा: ~247~ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम [२९९ ] सूत्रकृताङ्कं शीलाङ्का चावट चियुतं ॥१२२॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [-], मूलं [२२...], निर्युक्ति: [ ६६ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः नाम क्रियते, तद्यथा - स्वादयोऽष्टौ विभक्तयस्तिवादयश्थ, स्थापनाविभक्तिस्तु यत्र ता एव प्रातिपदिकाद्धातोर्वा परेण स्थाप्यन्ते पुस्तक पत्रकादिन्यस्ता वा, द्रव्यविभक्तिर्जीवाजीवभेदाद् द्विधा, तत्रापि जीवविभक्तिः सांसारिकेतरभेदाद्विधा, तत्राप्यसांसारिकजीवविभक्तिद्रव्य कालभेदात् द्वेधा, तत्र द्रव्यतस्तीर्थातीर्थसिद्धा दिभेदात्पञ्चदशधा, कालतस्तु प्रथमसमयसिद्धादिभेदादनेकधा, | सांसारिक जीवविभक्तिरिन्द्रियजातिभव भेदात्रिधा, तत्रेन्द्रियविभक्तिः – एकेन्द्रिय विकलेन्द्रियपञ्चेन्द्रियभेदात्पश्चधा, जातिविभक्तिः पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसभेदात् षोढा, भवविभक्तिर्नारकतिर्यष्यनुष्यामर भेदाच्चतुर्धा, अजीवद्रव्यविभक्तिस्तु रूप्यरूपिद्रव्यभेदाद् द्विघा, तत्र रूपिद्रव्यविभक्तिचतुर्धा, तद्यथा— स्कन्धाः स्कन्धदेशाः स्कन्धप्रदेशाः परमाणुपुद्गलाश्च, अरूपिद्रव्यविभक्तिर्दशधा, तद्यथा - धर्मास्तिकायो धर्मास्तिकायस्स देशो धर्मास्तिकायस्य प्रदेशः, एवमधर्माकाशयोरपि प्रत्येकं त्रिमेदता द्रष्टव्या, अद्धासमयश्च दशम इति, क्षेत्रविभक्तिचतुर्धा, तद्यथा— स्थानं दिशं द्रव्यं खामितं चाश्रित्य तत्र स्थानाश्रयणादूर्ध्वाधस्तिर्यग्विभागव्यवस्थितो लोको वैशाखस्थानस्यपुरुष इव कटिस्थकरयुग्म देव द्रष्टव्यः, तत्राप्यधोलोकविभक्ती रसप्रभाद्याः सप्त नरकपृथिव्यः, तत्रापि सीमन्तकादिनरकेन्द्रकावलिकप्रविष्टपुष्पाव कीर्णक वृत्तत्र्य त्रचतुरस्रादिनरकस्वरूपनिरूपणं, तिर्यग्लोकविभक्तिस्तु जम्बूद्वीपलवणसमुद्रघातकीखण्डकालोद समुद्रेत्यादि द्विगुणद्विगुणवृद्ध्या द्वीपसागरस्वयम्भूरमणपर्यन्तखरूपनिरूपणं, ऊर्ध्वलोकविभक्तिः सौधर्माद्या उपर्युपरि व्यवस्थिता द्वादश देवलोकाः नव ग्रैवेयकानि पञ्च महाविमानानि, तत्रापि विमानेन्द्रकावलिकाप्रविष्टपुष्पावकीर्णकवृत्तव्यस्रचतुरस्रादिविमानखरूपनिरूपणमिति, दिगाश्रयणेन तु पूर्वस्यां दिशि व्यवस्थितं क्षेत्रमेवमपरा ca Internationa १ इति प्र० । 'विभक्ति' पदस्य निक्षेपा: For Penal Use On ~ 248~ ५ नरकवि भक्त्यध्य. उद्देशः १ ॥१२२॥ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम [२९९ ] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र - २ ( मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ५ ] उद्देशक [-] मूलं [ २२...] निर्बुक्ति: [ ६६ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः खपीति, द्रव्याश्रयणाच्छालिक्षेत्रादिकं गृह्यते, खाम्याश्रयणाच्च देवदत्तस्य क्षेत्रं यज्ञदत्तस्य वेति, यदिवा - क्षेत्रविभक्तिरार्यानार्यक्षेत्रभेदाद् द्विधा, तत्राप्यार्यक्षेत्रमर्धषविंशतिजन पदोपलक्षितं राजगृहमगधादिकं गृह्यते, "रायमिह मंगह चंपा अंगा तह तामलित्ति बंगा य कंचणपुरं कलिंगा वाणारसी चैव कौसी य ॥ १ ॥ साकेय कोर्सला गयपुरं च कुरु सोरियं कुसट्टा य । कंपिल्लं पंचाला अहिछत्ता जंगला चैव ॥ २ ॥ बारवई य सुरट्ठा मिहिल विदेहों य चैच्छ कोसंबी नंदिपुरं संदिग्मी महिलपु रमेब मैलया ॥ ३ ॥ वइराड मैच्छ वरणा अच्छा तह मित्तियावह दणा । सुत्तीमई य "वेदी वीयमयं सिंधुसोवीरा ॥ ४ ॥ महरा व सूरेसेणा पावा भंगी ये मासपुरिवैा । सावत्थी य कुणाला, कोडीवरिसं च लौटा य ॥ ५ ॥ सेयवियाविय णयरि केययअद्धं च आरियं भणियं । जत्थुष्पत्ति जिणाणं चकीणं रामकिण्हाणं ।। ।। ६ ।। " अनार्यक्षेत्रं धर्मसंज्ञारहितमनेकधा, तदुक्तम्- " सर्गे जवण सबर बम्बर कायमुरुंडो दुगोणपकणया । अक्खागहूणरोमस पारसखसखासिया चैव ॥ १ ॥ दुबिलयलबोस बोक्स भिल्लंदै पुलिंद कोंच भमर रूया कोंबोर्य चीण चंचुय मालय दमिला कुलक्खा य ॥ २ ॥ केकय किराय हय - १ राजगृहं मय चंपाने ताम्रलिसिर्व कानपुर कलिंगे वाणारी कादयां ॥ १ ॥ साकेतं कौशले गजपुरं च कुरुषु सीरिकं च कुशा कांपिल्यं चालाय अहिच्छत्रं जंगलायां चैव ॥ २ ॥ द्वारवती सुराष्ट्रायां मिथिला विदेहेषु वत्से कौशाम्बी नंदीपुरं साण्डिल्ये भद्रिसपुर मध्ये ॥ ३ ॥ वैराटं मच्छे वरने अच्छा मृत्तिकावती दशार्णे किमती वेदिके वीतभयं सिन्धी सौवीरे ॥ ४ ॥ मथुरा च शूरसेने पापायां गं मासा पुर्या आवस्तिथ कुणालायां फोटीवर्ष च छाटे च ॥ ५ ॥ चेताम्बिकापि च नगरी कैकेय चायें भाषितं यत्रोत्पत्तिर्जिनानां चकियां रामकृष्णानां ॥ ६ ॥ २ वाराणसी प्र०३ शकयवनश्वर रायगडपकणिकाः आख्या कडुगरोमा पारसखाधिकाचैव ।। १ । ४ द्विबलबलीयसा: मिलपुलिंदकीच भ्रमरक्षकाः कौंचाथ चीनचंबुकमा मलकुलाख्याथ ।। १ ।। ५धि प्र० ६ कोचा य प्र०७ कैकेय किरातयमुखखरमुखाः गजतुरगनेंडसुखाथ हयकर्णा गजकर्णाः अन्ये व अनाय बहुवः ॥ १ ॥ Education Internationa 'विभक्ति' पदस्य निक्षेपाः For Pale Only ~ 249~ www.landbrary org Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम [२९९] सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्काचार्यय चिपुर्त ॥१२३॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [-] मूलं [२२...], निर्युक्ति: [६६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र- [ ०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः मुह खरमुह गेयतुरगमेढगमुहा य । हयकष्णा गयकण्णा अण्णे य अणारिया बहवे ॥ ३ ॥ पैावा य चंडदंडों अणारिया णिग्विणा णिरणुकंपा । धम्मोति अक्खराई जेसु ण णर्जति सुविणेऽवि ॥ ४ ॥ " कालविभक्तिस्तु अतीतानागतवर्तमानकालभेदात्रिधा, यदिवैकान्तसुषमादिकक्रमेणावसर्पिण्युत्सर्पिण्युपलक्षितं द्वादशारं कालचक्रं, अथवा – “सैमयावलियमुडुत्ता दिवसमहोरच पक्ख मासा य । संवच्छरयुगपलिया सागर उस्सप्पि परियट्टे ।। १ ।।" त्येवमादिका कालविभक्तिरिति, भावविभक्तिस्तु जीवाजीवभावभेदाद्विधा, तत्र जीवभावविभक्तिः औदयिकौपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिकसान्निपातिकभेदात् षट्पकारा, तत्रौदयिको गतिकपाय लिङ्गमिथ्या दर्शनाज्ञानासंयतासिद्धलेश्याश्चतुश्रुतुरु ये कै कै कै कपभेदक्रमेणैकविंशतिभेदभिन्नः, तथौपशमिकः सम्यक्तचारित्रभेदाद् द्विविधः, क्षायिकः सम्यक्खचारित्रज्ञानदर्शनदान लाभभोगोपभोग वीर्यमेदानवधा, क्षायोपशमिकस्तु ज्ञानाज्ञानदर्शनदानादिलब्धयश्चतुस्त्रित्रिपश्चभेदाः तथा सम्यक्तचारित्र संयमासंयम भेदक्रमेण । ष्टादशधेति, पारिणामिको जीवभव्याभव्यतादिरूपः सान्निपातिकस्तु द्विकादिभेदात् पविंशतिभेदः, संभवी तु पद्विधोऽयमेव गतिभेदात्पञ्चदशधेति । अजीवभावविभक्तिस्तु मूर्तानां वर्णगन्धरसस्पर्शसंस्थानपरिणामः अमूर्तानां गतिस्थित्यवगाहवर्तनादिक इति, साम्प्रतं समस्तपदापेक्षया नरकविभक्तिरिति नरकाणां विभागो विभक्तिस्तामाह | पुढवीफासं अण्णाणुवक्कम णिरयवालवणं च । तिसु वेदेति अताणा अणुभागं चैव सेसासु ॥ ६७ ॥ १ स ० २ पापार्थदंडाः अनार्या निर्घुणा निरनुकंपा धर्म इति अक्षराणि येन ज्ञायते वनेऽपि ।। १ । ३. रुदा प्र० । ४ निरणुतानी प्र० ५ समय | आवलिका मुहूर्त्तः दिवसोऽहोरात्रं पक्षो मासव संवत्सरं युगं पल्यं सागर उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यो पुलपरावर्तः ॥ १ ॥ Education Internationa 'विभक्ति' पदस्य निक्षेपा:, नरकाणाम विभाग: For Parts Only ~ 250~ ५ नरकवि भक्यध्य. उद्देशः १ ॥ १२३॥ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [-], मूलं [२२...], नियुक्ति : [६७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप aeeeeescentratedesesenel पृथिव्याः-शीतोष्णरूपायास्तीवेदनोत्पादको यः स्पर्श:-सम्पर्कः पृथिवीसंस्पर्शस्तमनुभवन्ति, तमेव विशिनष्टि—अन्येनदेवादिना उपक्रमितुम्-उपशमयितुं यो न शक्यते सोन्यानुपक्रमस्तम् , अपराचिकित्स्यमित्यर्थः, तमेवम्भूतमपरासाध्यं पृथिवी-18 स्पर्श नारकाः समनुभवन्ति, उपलक्षणार्थवाचास्य रूपरसगन्धस्पर्शशब्दानप्येकान्तेनाशुभानिरुपमाननुभवन्ति, तथा नरकपालैःपञ्चदशप्रकारः परमाधार्मिकैः कृतं मुद्गरासिकुन्तक्रकचकुम्भीपाकादिकं वधमनुभवन्त्याचासु 'तिमपु' रलशर्करावालुकाख्यासु पृथिवीषु खकृतकर्मफलभुजो नारका 'अत्राणा' अशरणाः प्रभूतकालं याचदनुभवन्ति, 'शेषासु' चतमपु पृथिवीषु पधूमतमोमहा| तमःप्रभाख्यासु अनुभावमेव परमाधार्मिकनरकपालाभावेऽपि स्वत एव वत्कृतवेदनायाः सकाशाद्यस्लीव्रतरोऽनुभावो विपाको वेदनासमुद्घातस्तमनुभवन्ति परस्परोदीरितदुःखाच भवन्तीति । साम्प्रतं परमाधार्मिकानामाचासु तिसषु पृथिवीषु वेदनोत्पादकान् । खनामग्राहं दर्शयितुमाह अंधे अंबरिसी चेच, सामे य सबलेवि य । रोहोवरुद्द काले य, महाकालेत्तिआवरे ।। ६८॥ असिपत्ते धणुं कुंभे, वालु वेयरणीवि य । खरस्सरे महाघोसे, एवं पण्णरसाहिया ॥ १९॥ गाधाद्वयं प्रकटार्थम् , एवं ते चाम्बइत्यादयः परमाधार्मिका यादक्षा वेदनामुत्पादयन्ति प्रायोऽन्वर्थसंज्ञवाचादशाभिधाना एव द्रष्टच्या इति, साम्प्रतं खाभिधानापेक्षया यो यो वेदनां परस्परोदीरणदुःखं चोत्पादयति ता दर्शयितुमाह---- धाति य हाडेंति य हणंति विंधति तह णिसुंभंति । मुंचंति अंबरतले अंचा खलु तत्थ रइया ॥७॥ १गंध रस इति प्र.। अनुक्रम [२९९] नरकाणाम् विभाग:, परमाधार्मिकानाम नामानि, नारकाणाम् वेदना: ~251~ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [२२...], नियुक्ति: [७१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||२२|| सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्काचाय-यचियुतं नरकविभक्त्यध्य. | उद्देशः१ ॥१४॥ दीप अनुक्रम [२९९] ओहयो य तहियं णिस्सन्ने कप्पणीहि कप्पति । विदुलगचड्डुलगछिन्ने अंबरिसी तत्थ रइए ॥ ७१ ॥ साडणपाडणतोडण बंधणरञ्जल्लयप्पहारेहिं । सामा रयाणं पवत्तयंती अपुण्णाणं ॥७२॥ अंतगयफिफिसाणि य हिययं कालेज फुप्फुसे वक्के । सबला रतियाणं कट्ठति तहिं अपुन्नाणं ।। ७३ ।। असिसत्तिकोंततोमरसूलतिसूलेसु सइचियगासु । पोयंति रुद्दकम्मा उ णरगपाला तहिं रोहा ॥ ७४ ॥ भंजंति अंगमंगाणि ऊरूवाइसिराणि करचरणे । कप्पेंति कप्पणीहिं उवरुदा पावकम्मरया ॥७५॥ मीरासु सुंठएसु य कंडूसु य पयंडएसु य पयंति । कुंभीसु य लोहिएसु य पयंति काला उणेरतिए ॥७६॥ कप्पंति कागिणीमंसगाणि छिदंति सीहपुच्छाणि । खावंति य रइए महकाला पावकम्मरए ॥ ७७॥ हत्थे पाए ऊरू बाहुसिरापायअंगमंगाणि । छिंदंति पगामं तू असि रहए निरयपाला ॥ ७८ ॥ कण्णोदृणासकरचरणदसण?णफुग्गऊरुबाहणं । छेयणभेयणसाडण असिपत्तधणूहि पाडंति ॥ ७९ ॥ कुम्भीसु य पयणेसु य लोहियसु य कंदुलोहिकुंभीसु । कुंभी य णरयपाला हणंति पाड(य)ति णरएसु ॥८॥ तडतडतडस्स भजति भजणे कलंबुवालुगापढे । वालगा रहया लोलती अंबरतलंमि ॥ ८१॥ पूपरुहिरकेसट्टिवाहिणी कलकलेंतजलसोया। वेयरणिणिरयपाला णेरइए ऊ पवाहंति ॥ ८२॥ कप्पति करकएहिं तछिंति परोप्परं परमुएहिं । सिंयलितरुमारुहंती खरस्सरा तत्थ णेरइए ॥ ८३॥ १ बोहण टीका । २ कंछ प० । ३ पूओक. प्र. । ॥१२४॥ eace | नारकाणाम वेदना: ~252~ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [२२...], नियुक्ति: [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप भीए य पलायंते समततो तत्थ ते णिसंभंति । पसुणो जहा पसुबहे महघोसा तत्थ रहए ॥ ८४॥ तत्राम्बाभिधानाः परमाधार्मिकाः खभवनाभरकावासं गखा क्रीडया नारकान् अत्राणान् सारमेयानिव शूलादिप्रहारैस्तुदन्तो || 'धाडेति'त्ति प्रेरयन्ति-स्थानात् स्थानान्तरं प्रापयन्तीत्यर्थः, तथा 'पहाडेंति'ति खेच्छयेतधेतवानार्थ भ्रमयन्ति, तथा अम्बरतले प्रक्षिप्य पुनर्निपतन्तं मुद्रादिना मन्ति, तथा शूलादिना विध्यन्ति, तथा 'निसुंभंति'त्ति ककाटिकायां गृहीखा भूमौ पातयन्ति अधोमुखान् , तथोत्क्षिप्य अम्बरतले मुश्चन्तीत्येवमादिकया विडम्बनया 'तत्र' नरकपृथिवीषु नारकान् कदर्थयन्ति । किशान्यत्-8 उप-सामीप्येन मुद्गरादिना हता उपहताः पुनरप्युपहता एव खड्दादिना हता उपहतहतास्ताचारकान् 'तस्यां नरकपृथिव्यां 8 |'निःसंज्ञकान्' नष्टसंज्ञान मूञ्छितान्सतः कर्पणीभिः 'कल्पयन्ति' छिन्दन्तीतश्वेतश्च पाटयन्ति, तथा 'द्विदलचटुलकच्छिमानि तिर | मध्यपाटितान् खण्डशछिनांश्च नारकांस्तत्र-नरकपृथिव्यामम्बर्षिनामानोऽसुराः कुर्वन्तीति, तथा-'अपुण्यवता' तीवासातोदये वर्तमानानां नारकाणां श्यामाख्याः परमाधार्मिका एतचैतच प्रवर्तयन्ति, तद्यथा---'शातनम्' अङ्गोपाङ्गानां छेदनं, तथा 'पातनं निष्कुटादधो बजभूमौ प्रक्षेपः तथा 'प्रतोदनं' शूलादिना तोदनं व्यधनं, (ग्रन्थानम् ३७५०) सूच्यादिना नासिकादौ । वेधस्तथा रज्ज्वादिना क्रूरकर्मकारिणं बनन्ति, तथा ताग्विधलतापहारैस्ताडयन्त्येवं दुःखोत्पादनं दारुणं शातनपातनवेधनवन्ध--1 नादिकं बहुविध 'प्रवर्तयन्ति' च्यापारयन्तीति, अपिच-तथा-सवलाख्या नरकपालास्तथाविधकर्मोदयसमुत्पन्नक्रीडापरिणामा | अपुण्यभाजां नारकाणां यत्कुर्वन्ति तदर्शयति, तद्यथा-अन्नगतानि यानि फिफ्फिसानि-अत्रान्तर्वर्तीनि मांसविशेषरूपाणि तथा || कूष्माण्डवदायत हिरवा रतिर्यक् छियते वि.प्र. २ ज्यधनं तथा । व्यथनं दया । easeS900seaso909sene 2292020302005000sacassaer अनुक्रम [२९९] नारकाणाम् वेदना: ~253~ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम [२९९ ] सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्का चार्ययवृ चियुतं ॥१२५॥ “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [-], मूलं [२२...], निर्युक्तिः [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः नारकाणाम् वेदना: - हृदयं पाटयन्ति तथा तद्गतं 'कालेज्ज' ति हृदयान्तर्वर्ति मांसखण्डं तथा 'फुप्फुसे त्ति उदरान्तर्वर्तीन्यन्त्रविशेषरूपाणि तथा ४५ नरकवि'चल्कलान्' वर्धान् आकर्षयन्ति, नानाविधैरुपायैरशरणानां नारकाणां तीव्र वेदनामुत्पादयन्तीति । अपिच तथा अन्वर्थाभिधाना रौद्राख्या नरकपाला रौद्रकर्माणो नानाविधेष्वसिशक्त्यादिषु प्रहरणेषु नारकानशुभकर्मोदयवर्तिनः प्रोतयन्तीति । तथा| उपरुद्राख्याः परमधार्मिका नारकाणामङ्गप्रत्यङ्गानि शिरोबाहूरुकादीनि तथा करचरणांश्च 'भञ्जन्ति' मोटयन्ति पापकर्माणः कल्पनीभि: 'कल्पयन्ति' पाटयन्ति, तन्नास्त्येव दुःखोत्पादनं यते न कुर्वन्तीति । अपिच - तथा कालाख्या नरकपालासुरा 'मीरासु' दीर्घचुल्लीषु तथा शुण्ठकेषु तथा कन्दुकेषु प्रचण्डकेषु तीव्रतापेषु नारकान् पचन्ति, तथा 'कुम्भीषु' उष्ट्रिकाकृतिषु तथा 'लोहिषु' आयसकवल्लिषु नारकान् व्यवस्थाप्य जीवन्मत्स्यानिव पचन्ति । अपिच - महाकालाख्या नरकपालाः पापकर्मनिरता नारकान्नानाविधैरुपायैः कदर्थयन्ति तद्यथा- 'काकिणीमांसकानि' लक्ष्णमांसखण्डानि 'कल्पयन्ति' नारकान् कुर्वन्ति, तथा 'सीहपुच्छाणि'ति पृष्ठीवर्भास्तांश्छिन्दन्ति तथा ये प्राक् मांसाशिनो नारका आसन् तान् स्वमांसानि खादयन्तीति । अपिच| असिनामानो नरकपाला अशुभकर्मोदयवर्तिनो नारकानेवं कदर्थयन्ति तद्यथा हस्तपादोरुबा हुशिरः पार्श्वादीन्यङ्गप्रत्यङ्गानि छिन्दन्ति 'प्रकामम्' अत्यर्थं खण्डयन्ति, तुशब्दोऽपरदुःखोत्पादनविशेषणार्थ इति । तथा-असिप्रधानाः पत्रधनुर्नामानो नरकपाला असिपत्रवनं बीभत्सं कृत्वा तत्र छायार्थिनः समागतान् नारकान् वराकान् अस्यादिभिः पाटयन्ति तथा कर्णोष्ठनासिकाकरचरणदशनस्तनस्फिंगूरुबाहूनां छेदन भेदनशातनादीनि विकुर्वितवाताहतचलिततरूपातितासिपत्रादिना कुर्वन्तीति, तदु १ किंच प्र० । २ कण्ठोष्ठ० प्र०३ पूती स्फिजी कटिप्रथमः । For Penal Use On ~254~ भक्यध्य. उद्देशः १ ॥१२५॥ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [२२...], नियुक्ति: [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप तम्-"छित्रपाद जस्कन्धाश्छिन्नकर्णीष्ठनासिकाः । भिनतालशिरोमेण्ट्रा, भिन्नाक्षिहृदयोदराः ॥१॥" किश्चान्यत्कुम्भिनामानो नरकपाला नारकाबरकेषु व्यवस्थितान् निप्तन्ति, तथा पाचयन्ति, केति दर्शयति-'कुम्भीषु' उष्ट्रिकाकृतिषु | तथा 'पचनेषु' कडिल्लकाकृतिषु तथा 'लौहीषु' आयसभाजनविशेषेषु कन्दुलोहिकुम्भीषु कन्दुकानामिव अयोमयीषु कुम्भीषुकोष्ठिकाकतिषु एवमादिभाजनविशेषेषु पाचयन्ति । तथा-वालुकाख्याः परमाधार्मिका नारकानत्राणांस्तप्तवालुकाभृतभाजने चणकानिव तडतडित्ति स्फुटतः 'भअंति' भृजन्ति-पचन्ति, क ? इत्याह-कदम्बपुष्पाकृतिवालुका कदम्बवालुका तस्याः पृष्ठम्-18 उपरितलं तसिन् पातयिता अम्बरतले च लोलयन्तीति । किश्चान्यत्-वैतरणीनामानो नरकपाला वैतरणी नदी चिकुर्वन्ति, सा च पूयरुधिरकेशास्थिवाहिनी महाभयानका कलकलायमानजलश्रोता तस्यां च क्षारोष्णजलायामतीव बीभत्सदर्शनायां नारकान् प्रवाहयन्तीति ।। तथा खरखराख्यास्तु परमाधार्मिका नारकानेवं कदर्थयन्ति, तद्यथा-क्रकचपातैर्मध्यं मध्येन स्तम्भमिव ।। सूत्रपातानुसारेण कल्पयन्ति-पाटयन्ति, तथा परशुभिश्व तानेव नारकान् 'परस्परम् अन्योन्यं तक्षयन्ति सर्वशो देहावयवाप-18 नयनेन तनून कारयन्ति, तथा 'शामलीं वजमयमीषणकण्टकाकुलां खरखरै आरटतो नारकानारोहयन्ति पुनरारूढानाकर्ष-18 यन्तीति । अपिच-महाघोषामिधाना भवनपत्यसुराधमविशेषाः परमाधार्मिका व्याधा इव परपीडोत्पादनेनैवातुलं हर्ष वहन्तः । क्रीडया नानाविधैरुपायै रकान् कदर्थयन्ति, तांश्च भीतान् प्रपलायमानान् मृगानिव 'समन्ततः सामस्त्येन 'तत्रैव' पीडो त्पादनस्थाने 'निरुम्भन्ति' प्रतिवान्ति 'पशून्' बस्तादिकान् यथा पशुवधे समुपखिते नश्यतस्तद्वयकाः प्रतिवन्त्येवं तत्र 19 नरकावासे नारकानिति ।। गतो नामनिष्पमनिक्षेपः, अधुना सूत्रानुगमे अस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं, तश्चेदम् esentstrekesectrsercedeseseces 502030299999990 अनुक्रम [२९९] injurasurary.com नारकाणाम् वेदना: ~255~ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [१], मूलं [१], नियुक्ति: [८४] (०२) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||१|| सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्काचार्यांयवृत्तियुत caeecca ॥१२६॥ दीप अनुक्रम [३००] aso90920393029 पुच्छिस्सऽहं केवलियं महेसिं, कहं भितावा गरगा पुरत्था १ । ५नरकविअजाणओ मे मुणि ब्रूहि जाणं, कहिं नु बाला नरयं उविंति ? ॥१॥ भक्यध्य. उद्देशः १ एवं मए पुढे महाणुभावे, इणमोऽब्बवी कासवे आसुपन्ने । पवेदहस्सं दुहमट्ठदुग्गं, आदीणियं दुक्कड़ियं पुरत्था ॥२॥ जम्बूस्वामिना सुधर्मस्वामी पृष्टः, तयथा भगवन् ! किंभूता नरकाः ? कैर्वा कर्मभिरसुमतां तेषूत्पादः कीदृश्यो वा तत्रत्या वेदना । इत्येवं पृष्टः सुधर्मखाम्याह-यदेतद्भवताऽई पृष्टस्तदेवद् 'केवलिनम् अतीतानागतवर्तमानसूक्ष्मव्यवहितपदार्थवेदिनं ||8| 'महर्षिम्' उग्रतपश्चरणकारिणमनुकूलप्रतिकूलोपसर्गसहिष्णुं श्रीमन्महावीरवर्षमानवामिनं पुरस्तात्पूर्व पृष्टवानहमसि, यथा 81 'कथं किम्भूता अभितापान्विता 'नरका' नरकावासा भवन्तीत्येतदजानतो 'मे' मम हे मुने 'जानन्' सर्वमेव केवलज्ञानेनावग-18 छन् 'हि' कथय, 'कथं नु' केन प्रकारेण किमनुष्ठायिनो नुरिति वितकें 'बाला' अशा हिताहितप्राप्तिपरिहारविवेकरहि-12 |वास्तेषु नरकेधूप-सामीप्येन तयोग्यकर्मोपादानतया 'यान्ति' गच्छन्ति किम्भूताच तत्र गतानां वेदनाः प्रादुष्यन्तीत्येतचाई || |'पृष्टवानिति ॥१॥ तथा 'एवम् अनन्तरोक्तं मया विनयेनोपगम्य पृष्टो महाश्चतुस्त्रिंशदतिशयरूपोऽनुभावो माहात्म्यं यस्य | M ॥१२६॥ | स तथा, प्रश्नोत्तरकालं च 'इदं वक्ष्यमाण, मो इति वाक्यालङ्कारे, केवलालोकेन परिज्ञाय मत्प्रश्ननिर्वचनम् 'अब्रवीत् उक्त १.वभागो.प्र.। अत्र सूत्रस्य आरम्भ-कृत: ~256~ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [१], मूलं [], नियुक्ति: [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम [३०१] वान् कोऽसौ ?-'काश्यपो पीरो वर्धमानस्वामी आशुप्रज्ञः सर्वत्र सदोपयोगात् , स चैवं मया पृष्टो भगवानिदमाह-यथा यदेतद्भवतां पृष्टस्तदहं 'प्रवेदयिष्यामि' कथयिष्याम्यग्रतो दत्तावधानः विति, तदेवाह-'दुःखम्' इति नरकं दुःखहेतुखात् असदनुष्ठानं यदिवा-नरकावास एव दुःखयतीति दुःखं अथवा असातावेदनीयोदयात् तीव्रपीडात्मकं दुःखमिति, एतच्चार्थतः-18 परमार्थतो विचार्यमाणं 'दुर्ग' गहनं विषमं दुर्विज्ञेयं असर्वज्ञेन, तत्प्रतिपादकप्रमाणाभावादित्यभिप्रायः, यदिवा-'दुहमट्ठदु-18 ग्गं'ति दुःखमेवार्थो यसिन दुःखनिमित्तो वा दुःखप्रयोजनो वा स दुःखार्थो नरकः, स च दुर्गो-विषमो दुरुत्तरसात् तं प्रतिपाद-12 | यिष्ये, पुनरपि तमेव विशिनष्टि-आ-समन्ताद्दीनमादीनं तद्विद्यते यसिन्स आदीनिक:-अत्यन्तदीनसचाश्रयस्तथा दुष्टं कृतं |दुष्कृतम् असदनुष्ठानं पापं वा तत्फलं वा असातावेदनीयोदयरूपं तद्विद्यते यसिन्स दुष्कृतिकस्तं, 'पुरस्तादू' अग्रतः प्रतिपाद-IN | यिष्ये, पाठान्तरं या 'दुकडिणं'ति दुष्कृत विद्यते येषां ते दुष्कृतिनो-नारकास्तेषां सम्बन्धि चरितं 'पुरस्तात् पूर्वस्मिन् जन्मनि |ST नरकगतिगमनयोग्यं यत्कृतं तत्प्रतिपादयिष्य इति ॥ २॥ यथाप्रतिज्ञातमाह जे केइ बाला इह जीवियट्टी, पावाई कम्माइं करंति रुदा । ते घोररूवे तमिसंधयारे, तिवाभितावे नरए पडंति ॥३॥ तिवं तसे पाणिणो थोवरे य, जे हिंसती आयसुहं पडुच्चा। १ असर्वज्ञस्य नरकशानकारकतादृशानाभायात् । ~257~ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [१], मूलं [४], नियुक्ति: [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक चियुत ||४|| दीप अनुक्रम [३०३] सूत्रकृताङ्गं जे लूसए होइ अदत्तहारी, ण सिक्खती सेयवियस्स किंचि ॥४॥ |५नरकविशीलाड़ा भक्यध्य. चापीय ये केचन महारम्भपरिग्रहपश्चेन्द्रियवधपिशितभक्षणादिके सावद्यानुष्ठाने प्रवृत्ताः 'बाला' अज्ञा रागद्वेषोत्कटास्तिर्यम्मनुष्या 'इह'18 उद्देशः १ असिन्संसार असंयमजीवितार्थिनः पापोपादानभूतानि 'कमाणि' अनुष्ठानानि 'रौद्राः' प्राणिनां भयोत्पादकलेन भयानकाः ॥१२७॥ हिंसानृतादीनि कर्माणि कुर्वन्ति, त एवम्भूतास्तीव्रपापोदयवर्तिनो 'घोररूपे' अत्यन्तभयानके 'तमिसंधयारेति बहलतमोऽन्ध कारे यत्रात्मापि नोपलभ्यते चक्षुषा केवलमवधिनापि मन्दमन्दमुलूका इवादि पश्यन्ति, तथा चागमः-"किण्हॅलेसे णं भंते! णे | रइए किण्हलेस्सं रद्द पणिहाए ओहिणा सबओ समंता समभिलोएमाणे केवइयं खेले जाणई ? केवइयं खेनं पासइ, गोयमा! पणो बहुवयरं खेत्तं जाणइ णो बहुययरं खेतं पासइ, इत्तरियमेव खेचं जाणइ इत्तरियमेव खेतं पासई" इत्यादि तथा तीवो-दु: | सहः खदिराङ्गारमहाराशितापादनन्तगुणोभितापः-सन्तापो यसिन् स तीवामितापः तसिन् एवम्भूते नरके बहुवेदने अपरि-1 | त्यक्तविषयाभिष्वङ्गाः खकृतकर्मगुरवः पतन्ति, तत्र च नानारूपा वेदनाः समनुभवन्ति, तथा चोक्तम् -"अच्छड्डियविसयसुहो पडइ अविज्झायसिहिसिहाणिवहे । संसारोदहिवलयामुहंमि दुक्खागरे निरए ॥ १॥ पायकंतोरत्थलमुहकुहरुच्छलियरुहिरग 8 ॥१२७॥ कृष्णलेश्यो भवन्त ! नरविकः कृष्णालेदयं नैरयिक प्रणिधावावधिना सर्वतः समन्तात् समभिलोकयन् कियक्षेत्र जानाति फियत्क्षत्रं पश्यति !, गौतम! नो बहुतर क्षेत्र जानाति नो बहुतर क्षेत्रं पश्यति इत्यरमेन क्षेत्र जानाति इत्वरमेव क्षेत्रं पश्यति । २ अल्यक्तविषय मुखः पतति अनिध्यातशिखिशिखानिवहे । संसारो-10 दक्षिवल्यामुले दुःसाकरे निरये ॥१॥३महे प्र.। ४ पादाक्रान्तोरस्थलमुखकुहरोच्छलितरुधिरगंडूष करपत्रोरकतद्विधीभागनिदीणदिवा ॥१॥ ~258~ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम [३०३] " सूत्रकृत्" अंगसूत्र - २ ( मूलं निर्युक्तिः + वृत्तिः) + श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [१], मूलं [४], निर्युक्ति: [ ८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - इसे । करवत्तुकत्तदुहा विरिकविविईण्णदेहद्धे ॥ २ ॥ जंतंर्तरभिज्जंतुच्छलंत संसद्द भरियादसिविवरे । उज्यंतुम्फिडियसमुच्छलंतसीससंघाए || ३ || कदकडाहुकतदुकयकयंत कम्मते । मूलविभिनु क्खित्तुद्धदेहणि तप भारे ॥ ४ ॥ संबंधयारदुग्गंधबंधणायारदुद्धरकिलेसे । भिन्नकरचरणसंकररु हिरवसादुग्गमप्पवहे || ५ || गिद्धमुहणिउक्खितबंधणोमुद्धकंविरकबंधे । दढगहियतत्तसंडासयग्गविसम्रुक्खुडियजीहे || ६ || तिक्खेडसम्मकड्डियकंटयरुक्खग्गजज्जरसरीरे । निमिसंतरंषि दुल्लहसोक्खेऽवक्खेवदुक्खंमि ॥ ७ ॥ इयं भीसणंमि गिरए पति जे विविहसत्तवहुनिरया । सच्चन्भट्ठा य नरा जयंमि कयपावसधाया ॥ ८ ॥ " इत्या |दि ॥ ३ ॥ किञ्चान्यत्-तथा 'तीव्रम्' अतिनिरनुकम्पं रौद्रपरिणामतया हिंसायां प्रवृत्तः, त्रस्यन्तीति त्रसाः- द्वीन्द्रियादयस्तान्, तथा 'स्थावरांच' पृथिवीकायादीन् 'यः कचिन्महामोहोदयवर्ती 'हिनस्ति' व्यापादयति 'आत्मसुखं प्रतीत्य' स्वनरीरसुखकृते, नानाविधैरुपायैर्यः प्राणिनां 'लूषक' उपमर्दकारी भवति, तथा अदत्तमपहर्तुं शीलमस्यासावदत्तहारी- परद्रव्याप हारकः तथा 'न शिक्षते' नाभ्यस्यति नादत्ते 'सेयवियरस' चि सेवनीयस्यात्महितैषिणा सदनुष्ठेयस्य संयमस्य किञ्चिदिति, | एतदुक्तम् भवति -- पापोदयाद्विरतिपरिणामं काकमांसादेरपि मनागपि न विधते इति ॥ ४ ॥ तथा १ ० प्र० । २ यंत्रान्तमिच्छत्संशब्दभृतदिग्विवरे दयमानोल्स्फिाटितोच्छच्छीपस्थपाते ॥ १ ॥ ३ मुक्तादकटाहोरकव्यमानदुष्कृतकृतान्तकर्मान्ते शूल विभिन्नोत्क्षिप्तदेह निष्ठाभारे ॥ १ ॥ ४ शब्दान्धकारदुर्गन्ध बन्धनागारडुबेरशेशे मित्रकरचरणसंकर रुधिरादुर्गमप्रवाहे ॥ १ ॥ ५ प्रमुख नियोरिक्ष बन्धनोन्मूर्धन्त्वन्धे गृहीततदशकामोत्पाटितजि ॥ १ ॥ ६ बंधणे प्र० ७ ० मंदिर० प्र० ८ अधोमुखकन्दन् कबन्धो यत्र वि० प्र० । ९ तीक्ष्णशामकर्षितकंक्षा जर्जरशरीरे निमेषान्तरमपि दुर्लभ सौख्येऽव्याक्षेपःसे ॥। १० इति भीषणे निरये पतन्ति विविधसत्वयधनिरताः सत्यभ्रष्टाव नरा जगति कृतपापसंघाताः ॥ १ ॥ Education Internationa For Parts Only ~259~ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||५|| दीप अनुक्रम [ ३०४] सूत्रकृतार्ज शीलाङ्का चायय चितं ॥१२८॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र -२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [१], मूलं [५], निर्युक्ति: [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः पाभि पाणे बहु तिवाति, अतिवते घातमुवेति बाले । हो णिसं गच्छति अंतकाले, अहोसिरं कट्टु उवेइ दुग्गं ॥ ५ ॥ हण छिंदह भिंदह णं दहेति, सद्दे सुणिता परहम्मियाणं । ते नारगाओ भयभिन्नसन्ना, कंखंति कन्नाम दिसं वयामो ! ॥ ६ ॥ 'प्रागल्भ्यं' धाष्टर्थं तद्विद्यते यस्य स प्रागल्भी, बहूनां प्राणिनां प्राणानतीव पातयितुं शीलमस्य स भवत्यतिपाती, एतदुक्तं भवति — अतिपात्यपि प्राणिनः प्राणानतिधाष्टर्थ्याद्वदति यथा-वेदाभिहिता हिंसा हिंसेब न भवति, तथा राज्ञामयं धर्मो यदुत आखेटकेन विनोदक्रिया, यदिवा - "न मांसभक्षणे दोषो, न मधे न च मैथुने प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला ॥ १ ॥ " इत्यादि, तदेवं क्रूरसिंहकृष्णसर्पवत् प्रकृत्यैव प्राणातिपातानुष्ठायी 'अनिर्वृतः कदाचिदप्यनुपशान्तः क्रोधाविना दशमानो यदिवा लुब्धकमत्स्यादिवधकजीविकाप्रसक्तः सर्वदा वधपरिणामपरिणतोऽनुपशान्तो हन्यन्ते प्राणिनः स्वकृतकर्मविपाकेन यस्मिन् स घातो- नरकस्तमुप- सामीप्येनैति—याति, कः ? 'बालः' अज्ञो रागद्वेषोदयवर्ती सः 'अन्तकाले' मरणकाले 'निहो' चि न्यगधस्तात् 'णिसं' ति अन्धकारम्, अधोऽन्धकारं गच्छतीत्यर्थः, तथा खेन दुधरितेनाधः शिरः कृला 'दुर्ग' विषमं १ परिणामतो प्र० । Ja Eucation International For Park Use Only ~260~ ५ नरकविभक्यध्य. उद्देशः १ ॥१२८॥ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [१], मूलं [६], नियुक्ति: [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक HEN అందించిన दीप अनुक्रम [३०५] यातनास्थानमुपैति, अवार्कशिरा नरके पततीत्यर्थः ।। ५ । साम्प्रतं पुनरपि नरकान्तर्वतिनो नारका यदनुभवन्ति तदर्शयितुमाह-तिर्यश्मनुष्यभवात्सत्त्वा नरकेषूत्पन्ना अन्तर्मुहूर्तेन निल्नाण्डजसनिमानि शरीराण्युत्पादयन्ति, पर्याप्तिभावमागताश्चाति-18 भयानकान् शब्दान् परमाधार्मिकजनितान् शृण्वन्ति, तद्यथा-'हत' मुद्गरादिना 'छिन्त' खड्गादिना 'भिन्त' शूलादिना 'दहत' मुर्मुरादिना, णमितिवाक्यालङ्कारे, तदेवम्भूतान् कर्णासुखान् शब्दान् भैरवान् श्रुला ते तु नारका भयोद्धान्तलोचना भयेन-1 भीत्या भिन्ना-नष्टा संज्ञा-अन्तःकरणवृत्तिर्येषां ते तथा नष्टसंज्ञाश्च 'कां दिशं ब्रजामः कुत्र गतानामस्माकमेवम्भूतस्यास्य महाघोरावदारुणस्य दुःखस्स त्राणं खादित्येतत्कालन्तीति ॥ ६॥ ते च भयोद्धान्ता दिक्षु नष्टा यदनुभवन्ति तदर्शयितुमाह इंगालरासिं जलियं सजोति, तत्तोवमं भूमिमणुक्कमंता। ते डज्झमाणा कलुणं थणंति, अरहस्सरा तस्थ चिरद्वितीया ॥७॥ जइ ते सुया वेयरणी भिदुग्गा, णिसिओ जहा खुर इव तिक्खसोया। तरंति ते वेयरणी भिदुग्गां, उसुचोइया सत्तिसु हम्ममाणा ॥८॥ 'अङ्गारराशि' खदिराङ्गारपुञ्ज 'ज्वलितं' ज्वालाकुलं तथा सह ज्योतिषा- उद्योतेन वर्तत इति सज्योतिर्भूमिः, तेनोपमा यस्याः सा तदुपमा तामङ्गारसन्निभां भूमिमाक्रमन्तस्ते नारका दन्दधमानाः 'करुणं दीनं 'स्तनन्ति' आक्रन्दन्ति, तत्र वाद १ अवाङ् प्रकार निनरोमाणोऽण्डजा इव । eseacherredecesecseeserceiseseses ~261~ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [१], मूलं [८], नियुक्ति: [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सुत्रांक सूत्रकृतार्ड्स शीलाकाचार्याय ५ नरकविउद्देशः १ ||८॥ त्तियुत ॥१२९॥ दीप अनुक्रम [३०७] रानेरभावाचदुपमा भूमिमित्युक्तम् , एतदपि दिग्दर्शनार्थमुक्तम् , अन्यथा नारकतापस्पेहत्याग्निना नोपमा घटते, ते च नारका महानगरदाहाधिकेन तापेन दबमाना 'अरहखरा' प्रकटखरा महाशब्दाः सन्तः 'तत्र' तसिन्नरकावासे चिरं-प्रभूतं कालं | स्थितिः-अवस्थानं येषां ते तथा, तथाहि-उत्कृष्टतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि जघन्यतो दशवर्षसहस्राणि तिष्ठन्तीति ॥७॥ अपिचसुधर्मखामी जम्बूखामिनं प्रतीदमाह--यथा भगवतेदमाख्यातं यदि 'ते' खया श्रुता-श्रवणपथमुपागता 'बैतरणी' नाम क्षारोष्णरुधिराकारजलवाहिनी नदी आभिमुख्येन दुर्गा अभिदुर्गा-दुःखोत्पादिका, तथा-निशितो यथा क्षुरस्तीक्ष्णो भवत्येवं तीक्ष्णा|नि शरीरावयवानां कर्तकानि स्रोतांसि यस्याः सा तथा, ते च नारकास्तप्ताङ्गारसनिभा भूमि विहायोदकपिपासवोभितप्ताः सन्तस्तापापनोदायाभिषिषिक्षयो वा तां वैतरणीमभिदुर्गा तरन्ति, कथम्भूताः-इषुणा-शरेण प्रतोदेनेव चोदिताः-प्रेरिताः शक्तिभिश्च हन्यमानास्तामेव भीमा वैतरणी तरन्ति, तृतीयार्थे सप्तमी ॥ ८॥ किन कीलेहिं विझंति असाहुकम्मा, नावं उविते सइविप्पडणा। अन्ने तु सूलाहिं तिसूलियाहिं, दीहाहिं विभ्रूण अहेकरंति ॥९॥ केसिं च बंधित्तु गले सिलाओ, उदगंसि बोलंति महालयंसि । कलंबुयावालय मुम्मुरे य, लोलंति पञ्चंति अ तत्थ अन्ने ॥१०॥ ॥१२९॥ ~262~ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [9], उद्देशक [१], मूलं [१०], नियुक्ति: [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||१०|| అందించింది दीप तांश्च नारकानत्यन्तक्षारोष्णेन दुर्गन्धेन वैतरणीजलेनाभितप्तानायसकीलाकुला नावमुपगच्छतः पूर्वारूढा 'असाधुकर्माण परमाधार्मिकाः 'कीलेषु कण्ठेषु विध्यन्ति, ते च विध्यमानाः कलकलायमानेन सर्वस्रोतोऽनुयायिना वैतरणीजलेन नष्टसंज्ञा | अपि सुतरां 'स्मृत्या विहीणा' अपगतकर्तव्यविवेका भवन्ति, अन्ये पुनर्नरकपाला नारकैः क्रीडतस्तान्नष्टोस्त्रिशलिकाभिः शलाभिः 'दीर्घिकाभिः' आयताभिर्विध्वा अधोभूमौ कुर्वन्तीति ॥ ९॥ अपिच-पांचिनारकाणां परमाधार्मिका महतीं शिलां। | गले बद्धा महत्युदके 'योलति'ति निमजयन्ति, पुनस्ततः समाकृष्य वैतरणीनयाः कलम्बुकावालुकायो मुरानी च 'लोल| यन्ति' अतितप्तवालुकायां चणकानिव समन्ततो घोलयन्ति, तथा अन्ये 'तत्र' नरकाबासे खकर्मपाशावपाशिताबारकान् सुण्ठके प्रोतकमांसपेशीवत् 'पचन्ति' भर्जयन्तीति ।। १०॥ तथा आसूरियं नाम महाभितावं, अंधंतमं दुप्पतरं महंतं । उहुं अहेअं तिरियं दिसासु, समाहिओ जत्थागणी झियाई॥ ११ ॥ जंसी गुहाए जलणेऽतिउद्दे, अविजाणओ डज्झइ लत्तपण्णो।। सया य कलणं पुण धम्मठाणं, गाढोवणीयं अतिदुक्खधम्म ॥१२॥ न विद्यते सूर्यो यस्मिन् सः असूर्यो-नरको बहलान्धकारः कुम्भिकाकृतिः सर्व एव वा नरकावासोऽसूर्य इति ध्यपदिश्यते, कन्याकश्चि० प्र०। २ इयत..। ३ प्रोतमा०प्र०४ असूरियं प्रा। अनुक्रम [३०९] అంది ~263~ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१२|| दीप अनुक्रम [३११] सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्काचाय तियुतं ॥१३०॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [१], मूलं [१२], निर्युक्ति: [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०२ ], अंग सूत्र - [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः तमेवम्भूतं महाभितापम् अन्धतमसं 'दुष्मतरं' दुरुत्तरं 'महान्तं' विशालं नरकं महापापोदयाद्रजन्ति, तत्र च नरके ऊर्ध्वमघस्तिर्यक्र सर्वतः 'समाहितः' सम्यगाहितो व्यवस्थापितोऽग्निज्वलतीति, पठ्यते च 'समूसिओ जत्थऽगणी झियाई' यत्र नरके सम्यगूर्ध्व श्रितः समुच्छ्रितोऽभिः प्रज्वलति तं तथाभूतं नरकं वराका व्रजन्ति इति ॥ ११ ॥ किञ्चान्यत्- 'यस्मिन्' नरकेऽतिगतोऽसुमान् 'गुहाया' मित्युष्ट्रिकाकृतौ नरके प्रवेशितो 'ज्वलने' अग्री 'अतिवृत्तः' अतिगतो वेदनाभिभूतखात्स्वकृतं दुखरितमजानन् 'लुप्तप्रज्ञः' अपगतावधिविवेको दन्दश्यते, तथा 'सदा' सर्वकालं पुनः करुणप्रायं कृत्स्नं वा 'धर्मस्थानम्' उष्णस्थानं | तापस्थानमित्यर्थः, 'गाढं 'ति अत्यर्थम् 'उपनीत' ढौकितं दुष्कृतकर्मकारिणां यत् स्थानं तसे व्रजन्ति, पुनरपि तदेव विशिनष्टि- अतिदुःखरूपो धर्मः --स्वभावो यस्मिन्निति, इदमुक्तं भवति-अक्षिनिमेषमात्रमपि कालं न तत्र दुःखस्य विश्राम इति, तदुक्त|म्- "अच्छिणिमीलणमेचं णत्थि सुहं दुक्खमेव पडिबद्धं । गिरए रइयाणं अहोणिसं पञ्चमाणाणं ॥ १ ॥ # ॥ १२ ॥ अपिचचत्तारि अगणीओ समारभित्ता, जहिं कूरकम्माऽभितविंति बालं । Education Inn तत्थ चिभितप्पमाणा, मच्छा व जीवंतुवजोतिपत्ता ॥ १३ ॥ संतच्छणं नाम महाहितावं, ते नारया जत्थ असाहुकम्मा । हत्थेहि पाएहि य बंधिऊणं, फलगं व तच्छंति कुहाडहत्था ॥ १४ ॥ १ जा० प्र० । २ पदे प्र० ३ अक्षिनिमीलनमात्रं नास्ति मुखं दुःखमेव प्रतिबद्धं निरये नैरविकाणां अहनिंदां पच्यमानानाम् ॥ १ ॥ For Pale Only ~264~ ५ नरकविभक्त्यध्य. उद्देशः १ ॥१३०॥ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [9], उद्देशक [१], मूलं [१४], नियुक्ति: [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||१४|| दीप Caeseseverestatemeseseces चतमध्वपि दिक्षु चतुरोऽनीन् 'समारभ्य' प्रज्वाल्य 'यत्र' यस्मिन्नरकाबासे 'क्रूरकर्माणो नरकपाला आभिमुख्पेनात्यर्थं | प्रतापयन्ति-भटित्रवत्पचन्ति 'बालम्' अझं नारकं पूर्वकृतदुरितं ते तु नारकजीवा एवम् 'अभितप्यमानाः' कदर्यमानाः खकमनिगडितास्तत्रैव प्रभूतं कालं महादुःखाकुले नरके तिष्ठन्ति, दृष्टान्तमाह-यथा जीवन्तो 'मत्स्या' मीना 'उपज्योतिः' अग्रेः समीपे प्राप्ताः परवशखादन्यत्र गन्तुमसमर्थास्तत्रैव तिष्ठन्ति, एवं नारका अपि, मत्स्यानां तापासहिष्णुखादमावत्यन्तं दु:खमुत्पद्यत इत्यतस्तद्ब्रहणमिति ॥ १३ ॥ किश्चान्यत्-सम्-एकीभावेन तक्षणं सन्तक्षणं, नामशब्दः सम्भावनायो, यदेतत्संतक्षणं तत्सर्वेषां प्राणिनां 'महाभितापं महादुःखोत्पादकमित्येवं सम्भाव्यते, यद्येवं ततः किमित्याह-ते 'नारका' नरकपाला| | 'यत्र' नरकावासे खभवनादागताः 'असाधुकर्माणः' क्रूरकर्माणो निरनुकम्पाः 'कुठारहस्ताः' परशुपाणयस्ताबारकानत्राणान् हस्तैः पादैश्च 'बद्धा' संयम्य 'फलकमिव' काष्ठशकलमिव 'तक्ष्णुवन्ति' तनूकुर्वन्ति छिन्दन्तीत्यर्थः ।। १४ ।। अपिच रुहिरे पुणो बच्चसमुस्सिअंगे, भिन्नुत्तमंगे वरिवत्तयंता। . पयंति णं णेरइए फुरते, सजीवमच्छे व अयोकवल्ले ॥ १५ ॥ नो चेव ते तत्थ मसीभवंति, ण मिजती तिवभिवेयणाए । तमाणुभागं अणुवेदयंता, दुक्खंति दुक्खी इह दुक्कडेणं ॥ १६ ॥ thesesesencesececeneces अनुक्रम [३१३] ~265~ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१६|| दीप अनुक्रम [३१५] सूत्रकृताङ्गं शीलाडाचायय चियुतं ॥१३१॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [१], मूलं [१६], निर्युक्ति: [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ते परमाधार्मिकास्तान्नारकाम्स्वकीये रुधिरे तप्तकवल्यां प्रक्षिप्ते पुनः पचन्ति वर्चः प्रधानानि समुच्छ्रितान्यश्राण्यङ्गानि वा येषां ते तथा तान् भिन्नं चूर्णितम् उत्तमाङ्गं शिरो येषां ते तथा तानिति, कथं पचन्तीत्याह-'परिवर्तयन्तः' उत्तानानवाशुखान् वा कुर्वन्तः णमिति वाक्यालङ्कारे तान्-'स्फुरत' इतवेत्थ विहलमात्मानं निक्षिपतः सजीवमत्स्यानिवायसकवल्यामिति ॥ १५ ॥ तथा-ते च नारका एवं बहुशः पच्यमाना अपि 'नो' नैव 'तत्र' नरके पाके वा नरकानुभावे वा सति 'मषीभवन्ति' नैव भमसाद्भवन्ति, तथा तत्तीवाभिवेदनया नापरमत्रिप्रक्षिप्त मत्स्यादिकमप्यस्ति यन्मीयते- उपमीयते, अनन्यसदृशीं तीव्र वेदनां वाचामगोचरामनुभवन्तीत्यर्थः, यदिवा -- तीव्राभिवेदनयाऽप्यननु भूतस्वकृतकर्मलान म्रियन्त इति, प्रभूतमपि कालं यावत्तत्तादृशं शीतोष्णवेदनाजनितं तथा दहनच्छेदन भेदनतक्षणत्रिशूलारोपणकुम्भीपाकशाल्मल्यारोहणादिकं परमाधार्मिकजनितं परस्परो| दीरणनिष्पादितं च 'अनुभागं' कर्मणां विपाकम् 'अनुवेदयन्तः' समनुवेदयन्तः समनुभवन्तस्तिष्ठन्ति तथा स्वकृतेन 'दुष्कृ तेन' हिंसादिनाऽष्टादशपापस्थानरूपेण सततोदीर्णदुःखेन दुःखिनो 'दुःखयन्ति' पीडयन्ते, नाक्षिनिमेषमपि कालं दुःखेन मुच्यन्त इति ॥ १६ ॥ किञ्चान्यत् Jan Eaton International तहिं च ते लोलणसंपगाढे, गाढं सुतत्तं अगणिं वयंति । न तत्थ सायं लहती भिदुग्गे, अरहियाभितावा तहवी तविंति ॥ १७ ॥ १ अरब्भिया० प्र० । For Park Use Only ~266~ ५ नरकविभक्त्यध्य. उद्देशः १ ।।१३१॥ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१८|| दीप अनुक्रम [३१७] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [१], मूलं [१८], निर्युक्ति: [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः से सुच्चई नगरव व सद्दे, दुहोवणीयाणि पयाणि तत्थ । उदिष्णकम्माण उदिष्णकम्मा, पुणो पुणो ते सरहं दुर्हति ॥ १८ ॥ 'तस्मिंश्च' महायातास्थाने नरके तमेव विशिनष्टि - नारकाणां लोलनेन सम्यक् प्रगाढो - व्याप्तो भृतः स तथा तस्मिन्नरके | अतिशीतार्ता : सन्तो 'गाढम् अत्यर्थ सुष्ठु तप्तम् अग्निं व्रजन्ति, 'तत्रापि' अग्निस्थानेऽभिदुर्गे दह्यमानाः 'सात' सुखं मनागपि न लभन्ते, 'अरहितो' निरन्तरोऽभितापो महादा हो येषां ते अरहिताभितापाः तथापि तान्नारकांस्ते नरकपालास्तापयन्त्यत्यर्थ तसतैलाग्निना दहन्तीति ॥ १७ ॥ अपिच शब्दोऽथशब्दार्थे, 'अथ' अनन्तरं तेषां नारकाणां नरकपाले रौद्रः कदर्थ्यमानानां भयानको हाहारवप्रचुर आक्रन्दनशब्दो नगरवध इव 'श्रूयते' समाकर्ण्यते, दुःखेन पीडयोपनीतानि - उच्चारितानि करुणाप्रधानानि यानि पदानि हा मातस्तात ! कष्टमनाथोऽहं शरणागतस्तव त्रायस्व मामित्येवमादीनां पदानां 'तत्र' नरके शब्दः श्रूयते, | उदीर्णम् उदयप्राप्तं कटुविपाकं कर्म येषां ते तथा तेषां तथा 'उदीर्णकर्माणो' नरकपाला मिथ्यावहासरत्यादीनामुदये वर्तमानाः 'पुनः पुनः' बहुशस्ते 'सरहं (दुहें ) ति' सरभसं - सोत्साहं नारकान् 'दुःखयन्ति ' अत्यन्तमससं नानाविधैरुपायैर्दुःखमसात वेदनीयमुत्पादयन्तीति ।। १८ ।। तथा पाणेहि णं पात्र विओजयंति तं भे पवक्खामि जहातहेणं । दंडेहिं तत्था सरयंति बाला, सवेहिं दंडेहि पुराकएहिं ॥ १९ ॥ Education Internationa For Park Use Only ~267~ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [9], उद्देशक [१], मूलं [२०], नियुक्ति: [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्का प्रत सूत्रांक ||२०|| चार्याय ॥१३॥ दीप अनुक्रम ते हम्ममाणा गरगे पडंति, पुन्ने दुरुवस्स महाभितावे । नरकविते तत्थ चिटुंति दुरूवभक्खी, तुइंति कम्मोवगया किमीहिं ॥ २०॥ भक्यध्य. RI उद्देशः १ 'णमिति' वाक्यालद्वारे, 'प्राण' शरीरेन्द्रियादिभिस्ते 'पापा'पापकर्मणो नरकपाला 'वियोजयन्ति' शरीरावयवानां पाटनादिभिः प्रकारैविकर्तनादवयवान् विश्लेषयन्ति, किमर्थमेवं ते कुर्वन्तीत्याह-'तद्' दुःखकारणं 'भे' युष्माकं 'प्रवक्ष्यामि याथातथ्येन' अवितथं प्रतिपादयामीति, दण्डयन्ति-पीडामुत्पादयन्तीति दण्डा-दुःखविशेषास्तै रकाणामापादितः 'बाला' | निर्विवेका नरकपालाः पूर्वकृतं सारयन्ति, तद्यथा-तदा हृष्टस्वं खादसि समुत्कुत्योत्कृत्य प्राणिनां मांस तथा पित्रसि तसं | मयं च गच्छसि परदारान् , साम्प्रतं तद्विपाकापादितेन कर्मणाभितप्यमानः किमेवं रास्टीपीत्येवं सर्वैः पुराकृतैः 'दण्डैः दुःखविशेषैः सारयन्तस्तादृशभूतमेव दुःखविशेषमुत्पादयन्तो नरकपालाः पीडयन्तीति ॥ १९॥ किञ्च-'ते' वराका नारका || 'हन्यमानाः' ताज्यमाना नरकपालेभ्यो नष्टा अन्यस्मिन् घोरतरे 'नरके नरकैकदेशे 'पतन्ति' गच्छन्ति, किम्भूते नरके:-'पूर्णे भृते दुष्ट रूपं यस्य तरूप-विष्ठासूरमांसादिकल्मलं तस्य भृते तथा 'महाभिता' अतिसन्तापोपेते 'ते' नारकाः खकर्मा|वबद्धाः 'तत्र' एवम्भूते नरके 'दुरूपभक्षिणः' अशुच्यादिभक्षकाः प्रभूतं कालं यावत्तिष्ठन्ति, तथा 'कृमिभिः' नरकपालापा-| ॥१३२॥ ||दितैः परस्परकृतैश्च 'खकर्मोपगता' खकर्मढौकिताः 'तुद्यन्ते' व्यथ्यन्ते इति । तथा चागमः-"छट्ठीसत्तमासु णं पुढवीसु | १ सम्योः पृयोम रयिका अतिमहान्ति रककुन्धुरूपाणि विकुर्य अन्योन्यस्य कार्य अनुहन्यमानास्तिष्ठन्ति ।। [३१९] ~268~ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [9], उद्देशक [१], मूलं [२०], नियुक्ति: [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||२०|| दीप eceneeceneseseccenecestsee | नेरइया पहू महंताई लोहिकुंथुरूवाई विउबित्ता अन्नमन्नस्स कार्य समतुरंगेमाणा समतुरंगेमाणा अणुघायमाणा अणुधायमाणा || चिट्ठति" ॥ २०॥ किश्चान्यत् सया कसिणं पुण धम्मठाणं, गाढोवणीयं अतिदुक्खधम्म । अंदूसु पक्खिप्प विहन्तु देहं, वेहेण सीस सेऽभितावयंति ॥ २१॥ . छिंदेति बालस्स खुरेण नकं, उट्टेवि छिदंति दुवेवि कण्णे। जिन्भं विणिक्कस्स विहत्थिमित्तं, तिक्खाहिं सूलाहिऽभितावयंति ॥ २२ ॥ 'सदा' सर्वकालं 'कृत्स्नं संपूर्ण पुनः तत्र नरके 'धर्मप्रधान' उष्णप्रधानं स्थितिः-स्थानं नारकाणां भवति, तत्र हि प्रलया-18 तिरिक्ताग्निना बातादीनामत्यन्तोष्णरूपलात् , तच्च डैः-निधत्तनिकाचितावस्यैः कर्मभिर्नारकाणाम् 'उपनीतं' ढौकितं, पुनरपि । विशिनष्टि-अतीव दुःखम् असातावेदनीयं धर्म:-स्वभावो यस्य तत्तथा तसिंश्चैवं विधे स्थाने स्थितोऽमुमान् 'अन्दुषु' निगडेषु | देहं विहत्य प्रक्षिप्य च तथा शिरश्च 'से' तस नारकस्य 'वेधेन' रन्धोत्पादनेनाभितापयन्ति कीलकैश्च सर्वाण्यप्यङ्गानि वितत्य चर्मवत् कीलयन्ति इति ॥ २१ ॥ अपिच-ते परमाधार्मिकाः पूर्ववरितानि सारपिता 'बालस्य' अज्ञस्स-निर्विवेकस्य प्रा१ बहू प्र०। २ समचउरंगे० प्रा। sesecessseeeeee eeeeeee अनुक्रम [३१९] ~269~ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [9], उद्देशक [१], मूलं [२२], नियुक्ति: [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२२|| त्तियुतं ॥१३॥ दीप अनुक्रम [३२१] कताई यशः सर्वदा वेदनासमुद्घातोपगतस क्षुरप्रेण नासिकां छिन्दन्ति तथौष्ठावपि द्वावपि कौँ छिन्दन्ति, तथा मद्यमांसरसाभिलिप्सो-18| नरकविशीलाका- पाभापिणो जिहां वितस्तिमात्रामाक्षिप्य तीक्ष्णाभिः शूलाभिः 'अभितापयन्ति' अपनयन्ति इति ॥ २२ ॥ तथा भक्यध्य. चाीयवृ उद्देशः१ ते तिप्पमाणा तलसंपुडंव, राइंदियं तत्थ थणंति बाला। गलंति ते सोणिअपूयमंसं, पज्जोइया खारपइद्धियंगा॥ २३ ॥ जइ ते सुता लोहितपूअपाई, बालागणी तेअगुणा परेणं । कुंभी महंताहियपोरसीया, समूसिता लोहियपूयपुण्णा ॥ २४ ॥ | 'ते' छिन्ननासिकोष्ठजिढाः सन्तः शोणितं 'तिप्यमाना।' क्षरन्तो यत्र-यस्मिन् प्रदेशे रात्रिदिनं गमयन्ति, तत्र 'चाला' 18|| अज्ञाः 'तालसम्पुटा इव' पवनेरितशुष्कतालपत्रसंचया इव सदा 'स्तनन्ति' दीर्घविखरमाक्रन्दन्तस्तिष्ठन्ति तथा प्रयोतिता'18 बहिना ज्वलिताः तथा क्षारेण प्रदिग्धाङ्गाः शोणितं पूर्व मांसं चाहनिशं गलन्तीति ॥ २३ ॥ किश्च-पुनरपि सुधमेखामी जम्बू-॥8 खामिनमुद्दिश्य भगवद्वचनमाविष्करोति-यदि 'ते' बया 'श्रुता' आकर्णिता-लोहितं रुधिरं पूर्य-रुधिरमेव पकं ते द्वे अपि ॥१३॥ | पक्तुं शीलं यस्यां सा लोहितपूयपाचिनी-कुम्भी, तामेव विशिनष्टि-'बाल' अभिनवः प्रत्यग्रोऽनिस्तेन तेजा-अभितापः स एव । १ स्तनन्तो प्र.। SerseS990SSAGE ~270~ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [9], उद्देशक [१], मूलं [२४], नियुक्ति: [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||२४|| दीप अनुक्रम [३२३] गुणो यस्याः सा बालामितेजोगुणा 'परेण प्रकर्षण तप्तेत्यर्थः, पुनरपि तसा एवं विशेषणं 'महती' बृहत्तरा 'अहियपोरुसीयेति पुरुषप्रमाणाधिका 'समुच्छ्रिता' उष्ट्रिकाकृतिरूवं व्यवस्थिता लोहितेन पूरेन च पूर्णा, सैवम्भूता कुम्भी समन्ततोऽग्निना प्रज्वलिताऽतीव बीभत्सदर्शनेति ॥ २४ ॥ तासु च यक्रियते तदर्शयितुमाह-- पक्खिप्प तासु पययंति बाले, अदृस्सरे ते कलुणं रसंते । तण्हाइया ते तउतंबतत्तं, पजिजमाणाऽदृतरं रसंति ॥ २५॥ अप्पेण अप्पं इह वंचइत्ता, भवाहमे पुवसते सहस्से । चिटुंति तत्था बहुकूरकम्मा, जहा कडं कम्म तहासि भारे ॥ २६ ॥ समजिणित्ता कल्लुसं अणज्जा, इटेहि कंतेहि य विप्पडणा। ते दुब्भिगंधे कसिणे य फासे, कम्मोवगा कुणिमे आवसंति ॥ २७॥ त्तिबेमि ॥ इति निरयविभत्तिए पढ़मो उद्देसो समत्तो ॥ (गाथाग्रं०३३६) 'तासु' प्रत्ययाग्निप्रदीप्तासु लोहितपूयशरीरावयवकिल्विषपूर्णासु दुर्गन्धासु च 'वालान' नारकांस्त्राणरहितान् आखिरान् । 1 करुणं-दीनं रसतः प्रक्षिप्य प्रपचन्ति, 'ते च' नारकास्तथा कदीमाना विरसमाक्रन्दन्तस्तुडार्ताः सलिलं प्रार्थयन्तो मयं ते serveersesearcasesepece sec 90900900900200aera ~271~ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [9], उद्देशक [१], मूलं [२७], नियुक्ति: [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: सूत्रकृताङ्गं प्रत सूत्रांक शीळाकाचा-यवतियुतं ||२७|| ॥१३४॥ दीप अनुक्रम [३२६] अतीव प्रियमासीदित्येवं स्मरयिखा तप्तं पाय्यन्ते, ते च तप्तं त्रषु पाय्यमाना आर्ततरं 'रसन्ति' रारटन्तीति ॥ २५ ॥ उद्देशका- ५नरकविथोपसंहाराथमाह-'अप्पण' इत्यादि, 'इह' अस्मिन्मनुष्यभवे 'आत्मना परवश्चनप्रवृत्तेन खत एव परमार्थत आत्मानं वश्चयिता भत्यध्य. | 'अल्पेन' स्तोकेन परोपधातसुखेनात्मानं वश्चयिखा बहुशो भवानां मध्ये अधमा भवाधमाः-मत्स्यवन्धलुब्धकादीनां भवा- उद्देशः१ | स्तान् पूर्वजन्मसु शतसहस्रशः समनुभूय तेषु भवेषु विषयोन्मुखतया सुकृतपराशुखखेन चावाप्प महाघोरातिदारुण नरकावासं 'तन्त्र' तसिन्मनुष्याः 'क्रूरकर्माणः परस्परतो दुःखमुदीरयन्तः प्रभूतं कालं यावत्तिष्ठन्ति, अत्र कारणमाह'यथा' पूर्वजन्मसु यादग्भूतेनाध्यवसायेन जघन्यजघन्यतरादिना कृतानि कर्माणि 'तधा' तेनैव प्रकारेण 'से' तख नारकजन्तोः 'भारा' वेदनाः प्रादुर्भवन्ति खतः परत उभयतो वेति, तथाहि-मांसादाः खमांसान्येवामिना प्रताप्य भक्ष्यन्ते, तथा मांसर|सपायिनो निजपूयरुधिराणि तत्रपूणि च पाय्यन्ते, तथा मत्स्यपातकलुब्धकादयस्तथैव छिद्यन्ते भियन्ते यावन्मायेन्त इति, तथाऽनृतभाषिणां तत्मारयिखा जिज्ञाश्चेरिछयन्ते, (ग्रन्थानम् ४०००) तथा पूर्वजन्मनि परकीयद्रव्यापहारिणामङ्गोपाङ्गान्यपहिय-131 न्ते तथा पारदारिकाणां वृषणच्छेदः शाल्मल्युपगृहनादि च ते कार्यन्ते एवं महापरिग्रहारम्भवतां क्रोधमानमायालोभिना च जन्मांतरखकृतक्रोधादिदुष्कृतसारणेन तादृग्विधमेव दुःखमुत्पाद्यते, इतिकृखा मुष्टच्यते यथा वृत्तं कमें ताडगभूत एव तेषां तस्कर | मेविपाकापादितो भार इति ॥ २६ ॥ किश्चान्यत-अनार्या अनार्यकर्मकारिताद्धिंसानृतस्तेयादिभिराश्रवद्वार! 'कलुष' पापं | | 'समय' अशुभकर्मोपचयं कृखाते क्रूरकर्माणो 'दरभिगन्धे नरके आवसन्तीति संटकः, किम्भूताः ?-'इष्टै' शब्दादिभि-18| गा विपयैः 'कमनीयैः कान्तैर्विविधं प्रकर्षेण हीना विनमुक्ता नरके वसन्ति, यदिवा-यदर्थ कलुष समजेयन्ति तैमोतापुत्रकल-18. ~272~ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति;:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [9], उद्देशक [१], मूलं [२७], नियुक्ति: [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक वादिभिः कान्तैश्च विषयैर्विप्रमुक्ता एकाकिनस्ते 'दुरभिगन्धे कुथितकलेवरातिशायिनि नरके 'कृत्स्ने संपूर्णेऽत्यन्ताशुभस्पर्श एकान्तोद्वेजनीयेऽशुभकर्मोपगताः 'कुणिमे त्ति मांसपेशीरुधिरपूयात्रफिप्फिसकश्मलाकुले सर्वामध्याधमे बीभत्सदर्शने हाहारवाक्रन्देन कष्टं मा तावदित्यादिशब्दवधिरितदिगन्तराले परमाधमे नरकावासे आ-समन्तादुत्कृष्टतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि यावयस्यां वा नरकपृथिव्यां यावदायुस्तावद् 'वसन्ति' तिष्ठन्ति, इतिः परिसमाप्त्यर्थे, ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ २७ ॥ इति नरकविभक्तेः प्रथमोद्देशका समाप्तः ॥ ||२७|| 0993 दीप अथ पञ्चमाध्ययनस्य द्वितीयोद्देशकः प्रारभ्यते ॥ अनुक्रम [३२६] उक्तः प्रथमोद्देशकः, साम्प्रतं द्वितीयः समारभ्यते-अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरोद्देशके यैः कर्मभिर्जन्तबो नरकेत्यधन्ते यादगवस्थाश्च भवन्त्येतत्प्रतिपादितम् , इहापि विशिष्टतरं तदेव प्रतिपाद्यते, इत्यनेन संबन्धेनायातस्यास्सोदेशकस्य सूत्रानु| गमे अस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीय, तचेदम् -- अहावरं सासयदुक्खधम्म, तं भे पवक्खामि जहातहेणं। बाला जहा दुकडकम्मकारी, वेदंति कम्माई पुरेकडाई ॥१॥ SAREastatinintennational अत्र पंचम-अध्ययनस्य प्रथम-उद्देशक: समाप्त:, दवितीय-उद्देशकस्य आरम्भ: ~273~ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||R|| दीप अनुक्रम [३२८] सूत्रकृता शीलाङ्का चाय तियुर्त ॥१३५॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र- २ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [२], मूलं [२], निर्युक्ति: [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः हत्थेहि पाएहि य बंधिऊणं, उदरं विकत्तंति खुरासिएहिं । गिरिहन्तु बालस्स वित्तु देहं वद्धं थिरं पिट्टतो उद्धरंति ॥ २ ॥ 'अर्थ' इत्यानन्तयें 'अपरम्' इत्युक्तादन्यद्वक्ष्यामीत्युत्तरेण सम्बन्धः, शश्वद्भवतीति शाश्वतं यावदायुस्तच तदुःखं च शाश्व तदुःखं तद्धर्मः - खभावो यस्मिन् यस्य वा नरकस्य स तम् एवम्भूतं नित्यदुःखस्वभावमक्षिनिमेषमपि कालमविद्यमानसुखलेशं 'याथातथ्येन' यथा व्यवस्थितं तथैव कथयामि नात्रोपचारोऽर्थवादो वा विद्यत इत्यर्थः, 'बालाः' परमार्थमजानाना विषयसुखलिप्सवः साम्प्रतेक्षिणः कर्मविपाकमनपेक्षमाणा 'यथा' येन प्रकारेण दुष्टं कृतं दुष्कृतं तदेव कर्म-अनुष्ठानं तेन वा दुष्कृतेन कर्म- ज्ञानावरणादिकं तदुष्कृतकर्म तत्कर्तुं शीलं येषां ते दुष्कृतकर्मकारिणः त एवम्भूताः 'पुराकृतानि' जन्मान्तराजिंतानि कर्माणि यथा वेदयन्ति तथा कथयिष्यामीति ॥ १ ॥ यथाप्रतिज्ञातमाह-परमाधार्मिकास्तथाविधकर्मोदयात् क्रीडाय|मानाः ताभारकान् हस्तेषु पादेषु बद्धोदरं 'क्षुरमासिभिः' नानाविधैरायुधविशेषैः 'विकर्तयन्ति' विदारयन्ति, तथा परस्य | बालस्येवाकिञ्चित्करत्वाद्वालस लकुटादिभिर्विविधं 'हतं' पीडितं देहं गृहीता 'वर्ध' धर्मशकलं 'स्थिर' बलवत् 'पृष्ठतः पृष्ठि| देशे 'उद्धरन्ति' विकर्तयन्त्येवमग्रतः पार्श्वतश्चेति ॥ २ ॥ अपि च बाहू पंकसंति य मूलतो से, थूलं वियासं मुहे आडहंति । Eucation International [१] पकति समू० प्र० For Park Use On ~274~ ५ नरकवि भक्त्यध्य. उद्देशः २ ॥१३५॥ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [२], मूलं [३], नियुक्ति: [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||३|| दीप अनुक्रम [३२९] रहंसि जुन्तं सरयंति बालं, आरुस्स विझति तुदेण पिट्रे॥३॥ . अयंव तत्तं जलियं सजोइ, तऊवमं भूमिमणुकमंता। ते डज्झमाणा कलुणं थणंति, उसुचोइया तत्तजुगेसु जुत्ता ॥४॥ 'से' तस नारकस्य तिसषु नरकपृथिवीपु परमाधार्मिका अपरनारकाध अधस्तनचतम चापरनारका एवं मूलत आरभ्य वाहून् 'प्रकर्तयन्ति' छिन्दन्ति तथा 'मुखे' विकाशं कृखा 'स्थूलं' बृहत्तप्तायोगोलादिकं प्रक्षिपन्त आ-समन्ताद्दहन्ति । तथा 'रहसि' एकाकिनं 'युक्तम् उपपन्नं युक्तियुक्तं स्वकृतवेदनानुरूपं तत्कृतजन्मान्तरानुष्ठानं तं 'बालम्' अन्नं नारकं सारयन्ति, तद्यथा-तप्तत्रपुपानावसरे मद्यपस्तमासीस्तथा स्खमांसभक्षणावसरे पिशिताशी खमासीरित्येवं दुःखानुरूपमनुष्ठानं सारयन्तः कदर्थयन्ति, तथा-निष्कारणमेव 'आरूष्य' कोपं कृला प्रतोदादिना पृष्ठदेशे तं नारकं परवशं विध्यन्तीति ॥३॥ तथातप्तायोगोलकसन्निभा ज्वलितज्योतिर्भूतां तदेवंरूपां तदुपमा वा भूमिम् 'अनुक्रामन्तः' तो ज्वलितां भूमि गच्छन्तस्ते दह्यमानाः 1981 'करुण' दीनं-विखरं 'स्तनंति' रारटन्ति तथा तप्तेषु युगेषु युक्ता गलिबलीवो इव इषुणा प्रतोदादिरूपेण विध्यमानाः स्तनन्तीति ॥ ४॥ अन्यच्च बाला बला भूमिमणुकमंता, पविजलं लोहपहं च तत्तं । sesee ~275~ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [२], मूलं [५], नियुक्ति: [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्काचार्यांयचियुतं ॥१३६॥ दीप अनुक्रम [३३१] 19093920000809290829283809200 जंसीऽभिदुग्गंसि पवजमाणा, पेसेव दंडेहिं पुराकरति ॥५॥ 18/५नरकवि भक्यध्य. ते संपगाढंसि पवजमाणा, सिलाहि हम्मति निपातिणीहि । उद्देशः २ संतावणी नाम चिरद्वितीया, संतप्पती जत्थ असाहुकम्मा ॥ ६॥ _ 'वाला' निर्विवेकिनः प्रज्वलितलोहपथमिव तप्तां भुवं 'पविजलं'ति रुधिरपूयादिना पिच्छिला बलादनिच्छन्तः 'अनुकम्प-15 माणाः प्रेर्यमाणा विरसमारसन्ति, तथा 'यस्मिन् अभिदुर्गे कुम्भीशाल्मल्यादौ प्रपद्यमाना नरकपालचोदिता न सम्यगच्छन्ति, ततस्ते कुपिताः परमाधार्मिकाः 'प्रेष्यानिव' कर्मकरानिव बलीचर्दवद्वा दण्डैहला प्रतोदनेन प्रतुव 'पुरतः' अग्रतः कुर्वन्ति, न ते खेच्छया गन्तुं स्थातुं वा लभन्त इति ॥५॥ किञ्च-'ते' नारकाः 'सम्प्रगाढ' मिति बहुवेदनमसा नरक मार्ग वा प्रप-13 द्यमाना गन्तुं सातुं वा तत्राशाकुवन्तोऽभिमुखपातिनीभिः शिलाभिरसुरैर्हन्यन्ते, तथा सन्तापयतीति सन्तापनी-कुम्भी सा च चिरस्थितिका तद्गतोऽसुमान् प्रभूतं कालं यावदतिवेदनाग्रस्त आस्ते यत्र च 'सन्तप्यते' पीब्यतेऽत्यर्थम् 'असाधुकमों' जन्मा|न्तरकृताशुभानुष्ठान इति ॥ ६ ॥ तथा ॥१३६॥ कंदूसु पक्खिप्प पयंति बालं, ततोवि दड्डा पुण उप्पयंति । ते उड्ढकाएहिं पखज्जमाणा, अवरेहिं खजति सणप्फपहिं ॥७॥ ~276~ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [२], मूलं [८], नियुक्ति: [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[२] "सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सुत्रांक ||८|| समूसियं नाम विधूमठाणं, जं सोयतत्ता कलुणं थणंति । अहोसिरं कट्ठ विगत्तिऊणं, अयंव सत्थेहिं समोसवेति ॥८॥ तं 'बालं' वरा नारक कन्दुपु प्रक्षिप्य नरकपालाः पचन्ति, ततः पाकस्थानात ते दह्यमानाषणका इव भृज्यमाना ऊर्ध्व | पतन्त्युत्पतन्ति, ते च ऊर्ध्वमुत्पतिताः 'उहकाएहिं ति द्रोणैः काकैर्वक्रियैः 'प्रखाद्यमाना' भक्ष्यमाणा अन्यतो नष्टाः सन्तो|परैः 'सणफएहिति सिंहव्याघ्रादिभिः 'खाद्यन्ते' भक्ष्यन्ते इति ॥७॥ किच-सम्पगुच्छित-चितिकारुति, नामशब्दः 18 सम्भावनायां, सम्भाव्यन्ते एवंविधानि नरकेषु यातनास्थानानि, विधूमस्य-अनेः स्थानं विधूमस्थानं यत्प्राप्य शोकवितप्ताः 'करुणं' दीनं 'स्तनन्ति' आक्रन्दन्तीति, तथा अधःशिरः कृता देई च विकायोवत् 'शस्त्रैः' तच्छेदनादिभिः 'समोसर्वति'ति खण्डशः खण्डयन्ति ॥ ८॥ अपि च समूसिया तत्थ विसूणियंगा, पक्खीहिं खजंति अओमुहेहिं । संजीवणी नाम चिरट्रितीया, जंसी पया हम्मइ पावचेया ॥९॥ तिक्खाहिं सूलाहि निवाययंति, वसोगयं सावययं व लद्धं । भितावयंति प्रा। అందాల दीप अनुक्रम [३३४] tesetteesesesesenversese ~277~ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [9], उद्देशक [२], मूलं [१०], नियुक्ति: [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१०|| त्तियुत दीप अनुक्रम [३३६] सूत्रकृताङ्गा ते सूलविद्धा कलुणं थणंति, एगंतदुक्खं दुहओ गिलाणा ॥१०॥ ५नरकविशीलाका-18 'तत्र' नरके स्तम्भादौ ऊर्ध्ववाहवोऽधःशिरसो वा श्वपाकैर्वस्तबल्लम्बिताः सन्तः 'विसूणियंगति उत्कृत्ताङ्गा अपगतखचः भक्त्यध्य. चा-य पक्षिभिः 'अयोमुखैः' बज्रचक्षुभिः काकगृध्रादिभिर्भक्ष्यन्ते, तदेवं ते नारका नरकपालापादितैः परस्परकृतैः खाभाविकै उद्देशः २ | छिन्ना भित्राः कथिता मूञ्छिताः सन्तो वेदनासमद्घातगता अपि सन्तो न म्रियन्ते अतो व्यपदिश्यते सञ्जीवनीवत् सञ्जीवनी॥१३७॥ जीवितदात्री नरकभूमिः, न तत्र गतः खण्डशश्छिन्नोऽपि म्रियते वायुपि. सतीति, सा च चिरस्थितिकोत्कृष्टतस्त्रयस्त्रिंशत् यावत्सागरोपमाणि, यस्यां च प्राप्ताः प्रजायन्त इति प्रजा:-प्राणिनः पापचेतसो हुन्यन्ते मुद्रादिभिः, नरकानुभावाच मुमूवोऽ-15 प्यत्यन्तपिष्टा अपि न नियन्ते, अपितु पारदवन्मिलन्तीति ।। ९॥ अपिच--पूर्वदुष्कतकारिणं तीक्ष्णाभिरयोमयीभिः शूलामिः नरकपाला नारकमतिपातयन्ति, किमिव -वशमुपगतं श्वापदमिव कालपृष्ठमूकरादिक खातम्येण लब्ध्या कदर्थयन्ति, ते नार-1 | काः शूलादिभिर्विद्धा अपि न नियन्ते, केवलं 'करुणं' दीनं स्तनन्ति, न च तेषां कश्चित्राणायालं तथैकान्तेन 'उभयतः' अन्त-18 हिश्व 'ग्लाना' अपगतप्रभोदाः सदा दुःखमनुभवन्तीति ॥ १०॥ तथा--- सया जलं नाम निहं महंतं, जंसी जलंतो अगणी अकट्टो। ॥१३७॥ चिटुंति बद्धा बहुकूरकम्मा, अरहस्सरा केइ चिरद्वितीया ॥ ११ ॥ १०मभितापयन्ति प्र० । २ कालपृष्टों मृगभेदे (हैमः)। ~278~ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [9], उद्देशक [२], मूलं [१२], नियुक्ति: [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक वाटरseseses ||१२|| दीप अनुक्रम [३३८] testreeseseesersesecticeseces चिया महंतीउ समारभित्ता, छन्भंति ते तं कलुणं रसंतं । आवदृती तत्थ असाहुकम्मा, सप्पी जहा पडियं जोइमज्झे ॥ १२ ॥ 'सदा' सर्वकालं 'ज्वलत्' देदीप्यमानमुष्णरूपलाल स्थानमस्ति, निहन्यन्ते प्राणिनः कर्मवशगा यसिन् तमिहम्-आघातस्थानं तच 'महदू' विस्तीर्ण यत्राकाष्ठोऽग्निर्बलन्नास्ते, तत्रैवम्भूते स्थाने भवान्तरे बहुक्रूरकृतकर्माणस्त द्विपाकापादितेन पापेन बद्धास्तिष्ठन्तीति, किम्भूता::-'अरहखरा' बृहदाक्रन्दशब्दाः 'चिरस्थितिकाः प्रभूतकालस्थितय इति ॥ ११ ॥ तथा-महतीश्चिताः समारभ्य नरकपालाः 'तं' नारकं विरसं 'करुणं' दीनमारसन्तं तत्र क्षिपन्ति, स चासाधुकर्मा 'तत्र' तस्यां चितायां | गतः सन् 'आवर्तते' विलीयते, यथा-'सर्पिः' घृतं ज्योतिर्मध्ये पतितं द्रवीभवत्येवमसावपि विलीयते, न च तथापि भवानु|| भावात्प्राणैर्विमुच्यते ॥ १२ ॥ अयमपरो नरकयातनाप्रकार इत्याह--- सदा कसिणं पुण धम्मठाणं, गाढोवणीयं अइदुक्खधम्म । हत्थेहिं पाएहि य बंधिऊणं, सत्तुब डंडेहिं समारभंति ॥ १३ ॥ भंजति बालस्स वहेण पुटी, सीसंपि भिंदति अओघणेहिं । ते भिन्नदेहा फलगंव तच्छा, तत्ताहिं आराहिं णियोजयंति ॥॥ ~279~ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [9], उद्देशक [२], मूलं [१४], नियुक्ति: [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||१४|| दीप अनुक्रम [३४० सूत्रकृताङ्गं 'सदा सर्वकालं 'कृत्स्नं सम्पूर्ण पुनरपरं 'धर्मस्थानं' उष्णस्थानं दृढनिधत्तनिकाचितावस्यैः कर्मभिः 'उपनीतं' ढौकि-18/५ नरकविशीलाक-18| तमतीव दुःखरूपो धर्मः-खभावो यस्मिस्तदतिदुःखधर्म तदेवम्भूते यातनास्थाने तमत्राणं नारकं हस्तेषु पादेषु च बट्टा तत्र प्रक्षि-1181 भक्यध्य. चायित्र- पन्ति, तथा तदवस्वमेव शत्रुमिव दण्डैः 'समारभन्ते' ताडयन्ति इति ॥ १३ ॥ किच-बालस्य' पराकस्य नारकस्य व्यथ | उद्देशः २ त्तियुत यतीति व्यथो-लकुटादिप्रहारस्तेन पृष्ठं 'भञ्जयन्ति' मोटयन्ति, तथा शिरोऽप्ययोमयेन धनेन 'भिन्दन्ति' चूर्णयन्ति, अपिश॥२३८|| ब्दादन्यान्यप्यङ्गोपाङ्गानि द्रुघणयांतचूर्णयन्ति 'ते' नारका 'भिन्नदेहाः' चूर्णिताङ्गोपाङ्गाः फलकमिवोभाभ्यां पार्थाभ्यां क्रकचादिना 'अवतष्टाः तनूकृताः सन्तस्तप्ताभिराराभिः प्रतुद्यमानास्तप्तत्रपुपानादिके कर्मणि 'विनियोज्यन्ते' व्यापार्यन्त इति । ॥ १४ ॥ किश्व अभिजुंजिया रुद्द असाहुकम्मा, उसुचोइया हस्थिवहं वहति । .एगं दुरूहित्तु दुवे ततो वा, आरुस्स विझति ककाणओ से ॥१५॥ बाला बला भूमिमणुकमंता, पविजलं कंटइलं महंतं । ॥१३८॥ विवद्धतप्पेहिं विवण्णचित्ते, समीरिया कोहबलिं करिति ॥ १६ ॥ १०पातै प्र.। ~280~ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [9], उद्देशक [२], मूलं [१६], नियुक्ति: [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||१६|| दीप अनुक्रम [३४२] toescenesepseeectselvesekese रौद्रकर्मण्यपरनारकहननादिके 'अभियुज्य' व्यापार्य यदिवा-जन्मान्तरकृतं 'रौद्र' सत्त्वोपघातकार्यम् 'अभियुज्य' सा-| रयिखा असाधूनि-अशोभनानि जन्मान्तरकृतानि कर्माणि-अनुष्ठानानि येषां ते तथा तान् 'इपुचोदितान्' शराभिषातप्रेरितान हस्तिवाहं वाहयन्ति नरकपालाः, यथा हस्ती बाह्यते समारुह्य एवं तमपि वाहयन्ति, यदिवा-यथा हस्ती महान्तं भारं वहत्येवं |तमपि नारकं वाहयन्ति, उपलक्षणार्थवादसोष्ट्रवाह बाहयन्तीत्याद्यप्यायोज्य, कथं वाहयन्तीति दर्शयति-तस्य नारकस्योपर्येक | द्वौ त्रीन् वा 'समारुप' समारोप्य ततस्तं वाहयन्ति, अतिभारारोपणेनाबहन्तम् 'आरुष्य' क्रोध कसा प्रतोदादिना 'विध्य|न्ति' तुदन्ति, 'से' तस्य नारकस्य 'ककाणओंति मर्माणि विध्यन्तीत्यर्थः ।। १५ ।। अपिच-बाला इब बालाः परतत्राः,8 | पिच्छिलां रुधिरादिना तथा कण्टकाकुलां भूमिमनुक्रामन्तो मन्दगतयो बलात्प्रेयन्ते, तथा अन्यान् 'विषण्णचित्तान्' मूछितांस्तर्पकाकारान् 'विविधम् अनेकधा बद्धा ते नरकपालाः 'समीरिताः' पापेन कर्मणा चोदितास्तानारकान् 'कुद्दयित्वा' खण्डशः कसा 'बलिं करिंति'ति नगरबलिवदितश्वेतश्व क्षिपन्तीत्यर्थः, यदिवा कोहपालि कुर्वन्तीति ॥ १६ ॥ किश्च वेतालिए नाम महाभितावे, एगायते पवयमंतलिक्खे । हम्मति तत्था बहुकूरकम्मा, परं सहस्साण मुहत्तगाणं ॥१७॥ संवाहिया दुकडिणो थणंति, अहो य राओ परितप्पमाणा। प्र० । २ चलि कुर्वति इतषेतश्च क्षिपतीत्यर्थः, यदिवा कोहलि कुर्वचीति, कुर्वति नगरबति-प्र.। ~281~ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [9], उद्देशक [२], मूलं [१८], नियुक्ति: [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक सूत्रकृता शीलातचायीयचियुतं ||१८|| ॥१३९॥ दीप अनुक्रम एगंतकूडे नरए महंते, कूडेण तत्था विसमे हता उ ॥ १८॥ ५ नरकविनामशब्दः सम्भावनायां, सम्भाव्यते एतन्नरकेषु यथाऽन्तरिक्षे 'महाभितापे' महादुःखैककार्ये एकशिलाघटितो दीर्घः 'बेया- भक्यध्य. लिए'चि वैक्रियः परमाधार्मिकनिष्पादितः पर्वतः तत्र तमोरूपखाबरकाणामतो हस्तस्पर्शिकया समारुहन्तो नारका 'हन्यन्ते' पी-18 उद्देशः २ ड्यन्ते, बहूनि क्रूराणि जन्मान्तरोपात्तानि कर्माणि येषां ते तथा, सहस्रसंख्यानां मुहूर्तानां पर-प्रकृष्टं कालं, सहस्रशब्दस्योपलक्षणार्थखात्प्रभूतं कालं हन्यन्त इतियावत् ।।१७।। तथा सम्-एकीभावेन बाधिताः पीडिता दुष्कृतं पापं विद्यते येषां ते दुष्कृतिनो महापापा: 'अहो' अहनि तथा रात्री च 'परितप्यमाना' अतिदुःखेन पीब्यमानाः सन्तः करुणं-दीनं 'स्तनन्ति' आक्रन्दन्ति, | तथैकान्तेन 'कूटानि' दुःखोत्पत्तिस्थानानि यसिन् स तथा तसिन् एवम्भूते नरके 'महति' विस्तीर्ण पतिताः प्राणिनः तेन च || कूटेन गलबत्रपाशादिना पापाणसमूहलक्षणेन वा 'तत्र' तस्मिन्विषमे हताः तुशब्दखावधारणार्थवाव स्तनन्त्येव केवलमिति ॥१८॥ अपिच भंजंति णं पुवमरी सरोसं, समुग्गरे ते मुसले गहेतुं । ते भिन्नदेहा रुहिरं वमंता, ओमुद्धगा धरणितले पडंति ॥ १९ ॥ ॥१३९॥ अणासिया नाम महासियाला, पागब्भिणो तत्थ सयायकोवा । खजंति तत्था बहुकूरकम्मा, अदूरगा संकलियाहि बद्धा ॥ २०॥ [३४४] weserpersececeneroesesese ~282~ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [9], उद्देशक [२], मूलं [२०], नियुक्ति: [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||२०|| दीप 9999agacassecessagasaso90sa 'णम्' इति वाक्यालकारे पूर्वमरय इवारयो जन्मान्तरवैरिण इच परमाधार्मिका यदिवा-जन्मान्तरापकारिणो नारका अपरेपामङ्गानि 'सरोष' सकोपं समुद्राणि मुसलानि गृहीखा 'भञ्जन्ति' गाढप्रहारैरामदयन्ति, ते च नारकास्त्राणरहिताः शखप्र-18 झरमिनदेहा रुधिरमुद्वमन्तोऽधोमुखा धरणितले पतन्तीति ॥ १९ ॥ किञ्च–महादेहप्रमाणा महान्तः शृगाला नरकपालविकु-18 र्विता 'अनशिता' बुभुक्षिताः, नामशब्दः सम्भावनायां, सम्भाव्यत एतन्नरकेषु, 'अतिप्रगल्भिता' अतिधृष्टा रौद्ररूपा निर्भयाः 'तत्र' तेषु नरकेषु सम्भवन्ति 'सदावकोपा' नित्यकुपिताः तैरेवम्भूतैः भृगालादिभिस्तत्र व्यवस्थिता जन्मान्तरकृतबहुतरकर्माणः शृङ्खलादिभिर्वद्धा अयोमयनिगडनिगडिता 'अदूरगाः' परस्परसमीपवर्तिनो 'भक्ष्यन्ते खण्डशः खाद्यन्त इति ॥ ॥२०॥ अपिच सयाजला नाम नदी भिदुग्गा, पविजलं लोहविलीणतत्ता। जंसी भिदुग्गंसि पवजमाणा, एगायऽताणुक्कमणं करेंति ॥ २१ ॥ एयाई फासाई फुसंति बालं, निरंतरं तत्थ चिरट्रितीयं ।। ण हम्ममाणस्स उ होइ ताणं, एगो सयं पञ्चणुहोइ दुक्खं ॥ २२ ॥ अनुक्रम [३४६] १त्रोटयन्ते प्र०। MInsurary.orm ~283~ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [9], उद्देशक [२], मूलं [२२], नियुक्ति: [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः सुत्रकृतार प्रत सूत्रांक ||२२|| शीकाङ्काचार्यांय- चियुत ॥१४॥ दीप अनुक्रम [३४८] सदा-सर्वकालं जलम् उदकं यस्यां सा तथा सदाजलाभिधाना वा 'नदी' सरिद् 'अभिदुर्गा' अतिविषमा प्रकर्षेण विवि- ५ नरकविधमत्पुष्णं क्षारपूयरुधिराविलं जलं यस्यां सा प्रविजला यदिवा 'पविज्जले ति रुधिराविलखात् पिच्छिला, विस्तीर्णगम्भीरजला भत्यध्य, वा अथवा प्रदीप्तजला वा, एतदेव दर्शयति-अग्निना तप्तं सत् 'विलीनं द्रवां गतं यल्लोहम् अयस्तद्वत्तप्ता, अतितापविली-18 उद्देशः २ नलोहसदृशजलेत्यर्थः, यस्यां च सदाजलायां अभिदुर्गायां नयां प्रपद्यमाना नारकाः 'एगाय'त्ति एकाकिनोवाणा 'अनुक्रमण | तस्यां गमनं प्लवनं कुर्वन्तीति ।। २१ ।। साम्प्रतमुदेशकार्थमुपसंहरन् पुनरपि नारकाणां दुःखविशेष दर्शयितुमाह--'एते' अन-1|| न्तरोद्देशकद्वयाभिहिताः 'स्पाः ' दुःखविशेषाः परमाधार्मिकजनिताः परस्परापादिताः स्वाभाविका वेति अतिकटबो रूपरस| गंधस्पर्शशब्दाः अत्यंतदुःसहा बालमिव 'बालम्' अशरणं 'स्पृशन्ति' दुःखयन्ति 'निरन्तरम् अविश्रामं 'अग्छिनिमीलय'मित्या-18 | दिपूर्ववत् 'तत्र' तेषु नरकेषु चिरं प्रभूतं कालं स्थितिर्यस बालस्थासौ चिरस्थितिकस्तं, तथाहि-रलप्रभायामुक्तष्टा स्थितिः181 सागरोपमं, तथा द्वितीयायां शर्करप्रभायां त्रीणि, तथा वालुकायां सप्त, पङ्कायां दश, धूमप्रभायां सप्तदश तमःप्रभायां द्वाविंशतिर्महातमःप्रभायां सप्तमपृथिव्यां त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि उत्कृष्टा स्थितिरिति, तत्र च गवस्य कर्मवशापादितोत्कृष्टस्थितिकस्य | परेहेन्यमानस वकतकर्मफलभुजो न किश्चित्राणं भवति, तथाहि-किल सीतेन्द्रेण लक्ष्मणस्य नरकदुःखमनुभवतस्तत्राणो || घतेनापि न त्राणं कृतमिति श्रुतिः, तदेवमेक:-असहायो यदर्थं तत्पापं समर्जितं ते रहितस्तत्कर्मविपाकजं दुःखमनुभवति, न ॥१०॥ कश्चिदुःखसंविभागं गृहातीत्यर्थः, तथा चोक्तम्- "मया परिजनस्वार्थे, कृतं कर्म सुदारुणम् । एकाकी तेन दोऽहं, गतास्ते फलभोगिनः॥१॥" इत्यादि ।। २२ ॥ किश्चान्यत ~284 ~ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [9], उद्देशक [२], मूलं [२३], नियुक्ति: [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||२३|| eeeeeeeee दीप जं जारिसं पुत्वमकासि कम्म, तमेव आगच्छति संपराए । एगंतदुक्खं भवमजणिता, वेदंति दुक्खी तमणंतदुक्ख ॥ २३ ॥ एताणि सोचा णरगाणि धीरे, न हिंसए किंचण सबलोए। एगंतदिट्री अपरिग्गहे उ, बुझिज लोयस्स वसं न गच्छे ॥ २४ ॥ एवं तिरिक्खे मणुयासु (म)रेसुं, चतुरन्तऽणतं तयणुविवागं । स सबमेयं इति वेदइत्ता, कंखेज कालं धुयमायरेज्ज ॥ २५॥ त्तिबेमि । इति श्रीनरयविभत्तीनामं पंचमाध्ययनं समत्तं ॥ (गाथा० ३६१) 'यत्' कर्म 'यादृशं' यदनुभावं यादृस्थित्तिकं वा कर्म 'पूर्व' जन्मान्तरे 'अकार्षीत्' कृतवांस्तत्ताडगेव जघन्यमध्यमोत्कृष्टस्थित्यनुभावभेदं 'सम्पराये' संसारे तथा तेनैव प्रकारेणानुगच्छति, एतदुक्तं भवति–तीवमन्दमध्यमैयन्धाध्यवसायस्थानर्याट|शेयेबद्धं तत्ताडगेव तीव्रमन्दमध्यमेव विपाकम्-उदयमागच्छतीति, एकान्तेन-अवश्यं सुखलेशरहितं दुःखमेव यसिचरकादिके भवे स तथा तमेकान्तदुःखं 'भवमर्जयित्वा' नरकभयोपादानभूतानि कर्माण्युपादायकान्तदुःखिनस्तत्-पूर्वनिर्दिष्ट दुःखम्-असातवेद-18 नीयरूपमनन्तम्- अनन्योपशमनीयमप्रतिकारं 'वेदयन्ति' अनुभवन्तीति ।। २३ ॥ पुनरप्युपसंहारव्याजेनोपदेशमाह-'एतान' अनुक्रम [३४९] एesesesea FarPurwanaBNamunoonm ~285 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२५|| दीप अनुक्रम [३५१] सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्काचायय चियुर्व ॥१४९॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र -२ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [२], मूलं [२५], निर्युक्ति: [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः पूर्वोक्तान्नरकान् तास्थ्यात्तव्यपदेश इतिकृता नरकदुःखविशेषान् 'श्रुत्वा' निशम्य धी:-बुद्धिस्तया राजत इति धीरो-बुद्धिमान् ७५ नरकविप्राज्ञः, एतत्कुर्यादिति दर्शयति सर्वस्मिन्नपि त्रसस्थावरभेदभिन्ने 'लोके' प्राणिगणे न कमपि प्राणिनं 'हिंस्यात्' न है भूतयध्य. व्यापादयेत्, तथैकान्तेन निथला जीवादितयेषु दृष्टि:- सम्यग्दर्शनं यस्य स एकान्तदृष्टिः निष्प्रकम्पसम्यक्स इत्यर्थः ४ उद्देशः २ तथा न विद्यते परि-समन्तात्सुखार्थं गृहात इति परिग्रहो यस्यासौ अपरिग्रहः, तुशब्दादाद्यन्तोपादानाद्वा मृषावादादत्तादा- १४ | नमैथुनवर्जनमपि द्रष्टव्यं तथा 'लोकम्' अशुभकर्मकारिणं तद्विपाकफलभुजं वा यदिवा- कपायलोकं तत्स्त्ररूपतो 'बुध्येत' जानीयात् न तु तस्य लोकस्य वशं गच्छेदिति ||२४|| एतदनन्तरोक्तं दुःख विशेषमन्यत्राप्यतिदिशन्नाह-'एवम्' इत्यादि, एवमशुभकर्मकारिणामसुमतां तिर्यमनुष्यामरेष्वपि 'चतुरन्तं' चतुर्गतिकम् 'अनन्तम्' अपर्यवसानं तदनुरूपं विपाकं 'स' बुद्धिमान् सर्वमेतदिति पूर्वोक्तया नीत्या 'विदित्वा' ज्ञाता 'ध्रुव' संयममाचरन् 'काल' मृत्युकालमाकांक्षेत्, एतदुक्तं भवति चतुर्गति| कसंसारान्तर्गतानामसुमतां दुःखमेव केवलं यतोऽतो ध्रुवो मोक्षः संयमो वा तदनुष्ठानरतो यावज्जीवं मृत्युकालं प्रतीक्षेवेति, इतिः परिसमाप्तौ ब्रवीमीति पूर्ववत् ।। २५ ।। नरकविभक्त्यध्ययनं पञ्चमं परिसमाप्तमिति ॥ Education International अत्र पंचम अध्ययनं परिसमाप्तम् For Park Use Only ~286~ ॥ १४१ ॥ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [२५...], नियुक्ति: [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: अथ श्रीवीरस्तुत्याख्यं षष्ठमध्ययनं प्रारभ्यते ॥ प्रत सूत्रांक ||२५|| दीप उक्तं पञ्चममध्ययनं, साम्प्रतं षष्ठमारभ्यते, अस्स चायमभिसम्बन्धः--अत्रानन्तराध्ययने नरकविभक्तिः प्रतिपादिता, सा च श्रीमन्महावीरवर्धमानखामिनाऽभिहितेत्यतस्तस्यैवानेन गुणकीर्तनद्वारेण चरितं प्रतिपायते शास्तुर्गुरुवेन शास्त्रस्य गरीयस्त्वमितिकता, इत्यनेन सम्बन्धेनाध्यातस्यास्वाध्ययनस्योपक्रमादीनि चबार्यनुयोगद्वाराणि, तत्राप्युपक्रमान्तर्गतोऽर्थाधिकारो महावीरगुणगणोत्कीर्तनरूपः । निक्षेपस्तु द्विधा ओघनिष्पन्नो नामनिष्पन्नथ, तत्रौघनिष्पन्ने निक्षेपेऽध्ययनं, नामनिष्पन्ने तु महावीर| स्तवः, तत्र महच्छब्दस वीर इत्येतस्य च स्तवस्य च प्रत्येकं निक्षेपो विधेयः, तत्रापि 'यथोद्देशस्तथा निर्देश' इतिकृता पूर्व मह |च्छब्दो निरूप्यते, तत्रास्त्ययं महच्छब्दो बहुते, यथा-महाजन इति, अस्ति बृहत्चे, यथा-महाघोषः, अस्त्यत्यर्थे, यथा-म19 हाभयमिति, अस्ति प्राधान्ये, यथा महापुरुष इति, तत्रेह प्राधान्ये वर्तमानो गृहीत इत्येतनियुक्तिकारो दर्शयितुमाह पाहन्ने महसदो दब्वे खेत्ते य कालभावे य । वीरस्स उणिक्खेवो चउकओ होइ णायब्यो ॥ ८॥ तत्र महावीरस्तव इत्यत्र यो महच्छब्दः स प्राधान्ये वर्तमानो गृहीतः, तंच नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात् पोढा प्राधान्यं, नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यप्राधान्य ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्त सचित्ताचित्तमिश्रभेदात् त्रिधा, सचित्तमपि द्विपदचतुष्पदा पर्यायवात्तत्वतस्तस्यैवाभिधानं यथा भाषाभिधानं वाक्यशुद्धी वाक्यनिक्षेपे । sectscoeaeseseseseseeeesese अनुक्रम [३५१] rajastaram.org अत्र षष्ठं अध्यननम् 'वीरस्तुति' आरब्धः, 'महावीर' शब्दस्य अर्थ एवं तत् निक्षेपा: *अब नियुक्ति-क्रमस्य मुद्रण-अशुद्धिः दृश्यते. (पांचवे अध्ययन के आरम्भमें अंतिम नियुक्ति का क्रम-८४ था, यहाँ फिर नियुक्ति-क्रम ८३ दिखाई देता है, जो की प्रूफ रीडिंग की अशुद्धि संभावित है ।) ~287~ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [२५...], नियुक्ति: [८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः कता शीलाका प्रत सूत्रांक ||२५|| चियुत ॥१४२॥ दीप पदभेदात् त्रिधैव, तत्र द्विपदेषु तीर्थकरचक्रवादिकं चतुष्पदेषु हस्त्यश्वादिकमपदेषु प्रधानं कल्पवृक्षादिकं, यदिवा इहैव ये श्रीमहाप्रत्यक्षा रूपरसगन्धस्पर्शरुत्कृष्टाः पौण्डरीकादयः पदार्थाः अचित्तेषु वैर्यादयो नानाप्रभावा मणयो मिश्रेषु तीर्थकरो विभूषित वीरस्तुत्य. इति, क्षेत्रतः प्रधाना सिद्विधर्मचरणाश्रयणान्महाविदेहं चोपभोगाङ्गीकरणेन तु देवकुवादिकं क्षेत्रं, कालतः प्रधानं खेकान्तसु-11 पमादि, यो वा कालविशेषो धर्मचरणप्रतिपत्तियोग्य इति, भावप्रधानं तु क्षायिको भावः तीर्थकरशरीरापेक्षयौदायिको वा, तत्रेह द्वयेनाप्यधिकार इति । वीरस्य द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदाच्चतुर्धा निक्षेपः, तत्र बशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यवीरो द्रव्याथै सत्रा-18 | मादावद्भुतकर्मकारितया शूरो यदिवा-यत्किञ्चित् वीर्यवद् द्रव्यं तत् द्रव्यवीरे अन्तर्भवति, तयथा तीर्थकदनन्तबलवीर्यों लो| कमलोके कन्दुकवत् प्रक्षेनुमलं तथा मन्दरं दण्डं कृखा रत्नप्रभा पृथिवीं छत्रवद्विभृयात् , तथा चक्रवर्तिनोऽपि बलं 'दोसोला ब| चीसा', इत्यादि, तथा विषादीनां मोहनादिसामर्थ्यमिति, क्षेत्रवीरस्तु यो यसिन् क्षेत्रेद्भुतकर्मकारी वीरो वा यत्र व्यावयेते, एवं कालेऽप्यायोज्यं, भाववीरो यस्य क्रोधमानमायालोभैः परीपहादिभिश्वात्मा न जितः, तथा चोक्तम्-"कोहं माणं च मार्य च, 18 | लोभं पंचेंदियाणि य । दुजयं चेव अपाणं, सबमप्पे जिए जियं ॥१॥ जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुजए जिणे । एक जि|णेज अप्पाणं, एस से परमो जओ॥ २॥ तथा-एको परिभमउ जए वियर्ड जिणकेसरी सलीलाए । कंदप्पदुहृदाढो मयणो | विद्वारिओ जेणं ॥३॥" तदेवं वर्धमानखाम्येव परीषहोपसगैरनुकूलप्रतिकूलरपराजितोद्भुतकर्मकारिसेन गुणनिष्पनखात् भा-1 ॥१४॥ | १ कोधो मानश्च माया च लोभश्च पोन्द्रियाणि च दुर्जेयं चैवात्मनः सर्वमात्मनि जिते जितं ॥१॥ यः सहसं सहस्राणां सङ्ग्रामे दुर्जय जयेत् । एक जयेदारमानं एष तस्थ परमो जयः ॥ २ ॥ एकः परिधाभ्यतु जगति विकटं जिनकेसरी खलीलया कन्दर्षदुष्टदंष्ट्रः मदनो विदारितो येन ॥३॥ अनुक्रम [३५१] 290920292920292909200000 ॥ | 'महत् शब्दस्य निक्षेपा:, 'वीर' शब्दस्य निक्षेपा:, ~288~ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [१], नियुक्ति: [८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः parate a प्रत सूत्रांक ||१|| AS|वतो महावीर इति भण्यते, यदिवा-द्रव्यवीरो व्यतिरिक्त एकभविकादिः, क्षेत्रवीरो यत्र तिष्ठत्यसौ व्यावयेते वा, कालतोऽ | प्येवमेव, भाववीरो नोआगमतो वीरनामगोत्राणि कर्माण्यनुभवन् , स च वीरवर्धमानखाम्येवेति ॥ स्तवनिक्षेपार्थमाह| थुइणिक्खेवो चउहा आगंतुअभूसणेहिं दब्बथुती। भावे संताण गुणाण कित्तणा जे जहिं भणिया ।। ८४॥ | 'स्तुते।' स्तवस्य नामादिश्चतुर्धा निक्षेपः, तत्र नामस्थापने पूर्ववत् , द्रव्यस्तवस्तु ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो यः कटककेयूरसक्चन्दनादिभिः सचित्ताचित्तद्रव्यैः क्रियत इति, मावस्तवस्तु 'सद्भूतानां विद्यमानानां गुणानां ये यत्र भवन्ति तत्कीर्तनमिति ।। साम्प्रतं आधसूत्रसंस्पर्शद्वारेण सकलाध्ययनसम्बन्धप्रतिपादिका गार्थी नियुक्तिकदाह पुच्छिम जंबुणामो अज सुहम्मा तओ कहेसी य । एव महप्पा वीरो जयमाह तहा जएजाहि ॥ ८५ ॥ | जम्बूस्खामी आर्यसुधर्मवामिनं श्रीमन्महावीरवर्धमानस्वामिगुणान् पृष्टवान् , अतोऽसावपि भगवान् सुधर्मस्खाम्येवंगुणविशिष्टो % महावीर इति कथितवान् , एवं चासौ भगवान् संसारस्य 'जयम्' अभिभवमाह, ततो यूयमपि यथा भगवान् संसारं जितवान् तथैव यनं विधतेति ॥ साम्प्रतं निक्षेपानन्तरं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुबारयितव्यं, तचेदम् पुच्छिस्सु णं समणा माहणा य, अगारिणो या परतिस्थिआ य । से केइ णेगंतहियं धम्ममाहु, अणेलिसं साहु समिक्खयाए ॥१॥ कहं च णाणं कह दंसणं से, सीलं कह नायसुतस्स आसी? । Totas893e29623 दीप अनुक्रम [३५२] re 'वीर' शब्दस्य निक्षेपा:, 'स्तव' शब्दस्य निक्षेपा:, मूलसूत्रस्य आरम्भ: ~289~ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [२], नियुक्ति: [८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्काचाय ||२|| ॥१४॥ दीप अनुक्रम [३५३] जाणासि णं भिक्खु जहातहेणं, अहासुतं बूहि जहा णिसंतं ॥२॥ श्रीमहा वीरस्तुल. अस्य चानन्तरसूत्रेण सहायं सम्बन्धः, तद्यथा-तीर्थकरोपदिष्टेन मार्गेण ध्रुवमाचरन् मृत्युकालमुपेक्षतेत्युक्तं, तत्र किम्भूतोऽसौ तीर्थकर येनोपदिष्टो मार्ग इत्येतत् पृष्टवन्तः 'श्रमणा' यतय इत्यादि, परम्परसूत्रसम्बन्धस्तु बुद्धयेत यदुक्तं प्रागिति, ISH एतच्च यदुत्तरत्र प्रश्नप्रतिवचनं वक्ष्यते तब चुघेतेति, अनेन सम्बन्धेनाध्यातस्थास्य सूत्रस्य संहितादिक्रमेण व्याख्या प्रतन्यते, 181 सा चेयम्-अनन्तरोक्का बहुविधा नरकविभक्तिं श्रुखा संसारादुद्विममनसः केनेयं प्रतिपादितेत्येतत् सुधर्मस्वामिनम् 'अप्राक्षुः' पृष्टवन्तः 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे यदिवा जम्बूखामी सुधर्मस्वामिनमेवाह-यथा केनैवंभूतो धर्मः संसारोत्तारणसमर्थः प्रतिपादित इत्येतद्बहवो मां पृष्टवन्तः, तद्यथा-'श्रमणा' निर्ग्रन्थादयः तथा 'ब्राह्मणा' ब्रह्मचर्याधनुष्ठाननिरताः, तथा 'अगारिण' क्षत्रियादयो ये च शाक्यादयः परतीथिकास्ते सर्वेऽपि पृष्टचन्तः, किं तदिति दर्शयति-स को योऽसावेनं धर्म दुर्गतिप्रस्तजन्तुषारकमेकान्तहितम् 'आह' उक्तवान् 'अनीदृशम् अनन्यसदृशम् अतुलमित्यर्थः, तथा साध्वी चासौ समीक्षा च साधुसमीक्षायथावस्थिततत्त्वपरिच्छित्तिस्तया, यदिवा साधुसमीक्षया-समतयोक्तवानिति ॥१॥ तथा तस्यैव ज्ञानादिगुणावगतये प्रश्नमा-18 ह-कथं' केन प्रकारेण भगवान ज्ञानमवाप्तवान् ?, किम्भूतं वा तस्य भगवतो ज्ञान-विशेषाववोधक, किम्भूतं च 'से ॥१४॥ | तस्य 'दर्शन' सामान्यार्थपरिच्छेदकं ? 'शीलं च यमनियमरूपं कीदृक् ? ज्ञाता:-क्षत्रियास्तेषां 'पुत्रों' भगवान् वीरवर्धमान- ॥६॥ १.मेवमाह प्रा३निन्थाः प्र ~290~ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [२], नियुक्ति: [८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||२|| दीप अनुक्रम [३५३] | स्वामी तस 'आसीद' अभूदिति, यदेतन्मया पृष्टं तत् 'भिक्षो!' सुधर्मस्वामिन् याथातथ्येन सं 'जानी सम्यगवगच्छसि 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे तदेतत्सर्व यथाश्रुतं खया श्रुत्वा च यथा 'निशान्त' मित्यवधारितं यथा दृष्टं तथा सर्व 'धूहि' आचक्ष्वेति ॥२॥ स एवं पृष्टः सुधर्मस्वामी श्रीमन्महावीरवर्धमानखामिगुणान् कथयितुमाह-- खेयन्नए से कुसलासुपन्ने (०ले महेसी), अणंतनाणी य अणंतदंसी । जसंसिणो चक्खुपहे ठियस्स, जाणाहि धम्मं च धिइं च पेहि ॥३॥ उई अहेयं तिरियं दिसासु, तसा य जे थावर जे य पाणा। से णिच्चणिच्चेहि समिक्ख पन्ने, दीवे व धम्म समियं उदाह ॥४॥ सः-भगवान् चतुस्त्रिंशदतिशयसमेतः खेदं-संसारान्तर्वतिनां प्राणिनां कर्मविषाकर्ज दुःख जानातीति खेदज्ञो दुःखापनोदनसमर्थोपदेशदानात् , यदिवा 'क्षेत्रज्ञो' यथावस्थितात्मस्वरूपपरिज्ञानादात्मज्ञ इति, अथवा-क्षेत्रम्-आकाशं तानातीति क्षेत्रज्ञो लोकालोकस्वरूपपरिक्षातेत्यर्थः, तथा भावकुशान्-अष्टविधकर्मरूपान् लुनाति-छिनत्तीति कुशलः प्राणिनां कर्मोच्छित्तये | S| निपुण इत्यर्थः, आशु--शीघ्र प्रज्ञा यस्खासावाशुप्रज्ञः, सर्वत्र सदोपयोगाद्, न छमस्थ इव विचिन्त्य जानातीति भावः, महर्षि रिति कचित्पाठः, महांधासायषिश्च महर्षिः अत्यन्तोग्रतपश्चरणानुष्ठायिखादतुलपरीषहोपसर्गसहनायेति, तथा अनन्तम्-अविना-| श्यनन्तपदार्थपरिच्छेदकं वा ज्ञान-विशेषग्राहक यस्यासावनन्तज्ञानी, एवं सामान्यार्थपरिच्छेदकलेनानन्तदर्शी, तदेवम्भूतस्य । VAJumstaram.org ~291 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [४], नियुक्ति: [८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक श्रीमहावीरस्तुत्य. ||४|| दीप अनुक्रम सूत्रकृताङ्गं भगवतो यशो नृसुरासुरातिशाय्यतुलं विद्यते यस स यशस्वी तस्व, लोकस्य 'चक्षुःपथे लोचनमार्गे भवस्थकेवल्यवस्थायां स्थि- - शीलाता-1 तस्व, लोकानां सूक्ष्मव्यवहितपदार्थाविर्भावनेन चक्षुर्भूतख वा 'जानीहि' अवगच्छ 'धर्म' संसारोद्धरणखभावं, तत्प्रणीतं वा|| चार्यांयत्र- श्रुतचारित्राख्यं, तथा तस्यैव भगवतस्तथोपसर्गितस्यापि निष्प्रकम्पां चारित्राचलनखभावां 'धृति संयमे रतिं तत्प्रणीता वा चियुतं | 'प्रेक्षख' सम्यकुशाग्रीयया बुद्ध्या पोलोचयेति, यदिवा-तैरेव श्रमणादिभिः सुधर्मखाम्पभिहितो यथा वं तस्य भगवतो यश-|| ॥१४४॥ खिनश्चक्षुष्पथे व्यवस्थितस्य धर्म धृतिं च जानीषे ततोऽस्माकं 'पहित्ति कथयेति ॥३॥ साम्प्रतं सुधर्मस्वामी तद्गुणान् कथयि| तुमाह--उर्वमधस्तियक्षु सर्वत्रैव चतुर्दशरज्ज्वात्मके लोके ये केचन त्रस्यन्तीति सास्ते जोवायुरूपविकलेन्द्रियपश्चेन्द्रियभेदात् | | त्रिधा, तथा ये च 'स्थावराः पृथिव्यम्युबनस्पतिभेदात् त्रिविधाः, एत उच्छवासादयः प्राणा विधन्ते येषां ते प्राणिन इति, अनेन च शाक्यादिमतनिरासेन पृथिव्यायेकेन्द्रियाणामपि जीवसमावेदितं भवति, स भगवांस्तान् प्राणिनः प्रकर्षण केवलज्ञानि| खात् जानातीति प्रज्ञा [ग्रन्थानम् ४२५०] स एव प्राज्ञो, नित्यानित्याभ्यां द्रव्यार्थपर्यायार्थाश्रयणात् 'समीक्ष्य' केवलज्ञाने|नार्थान् परिज्ञाय प्रज्ञापनायोग्यानाहेत्युत्तरेण सम्बन्धः, तथा स प्राणिनां पदार्थाविर्भावनेन दीपवत् दीपः यदिवा-संसाराणे|वपतितानां सदुपदेशप्रदानत आश्वासहेतुखान द्वीप इव द्वीपः, स एवम्भूतः संसारोत्तारणसमर्थ 'धर्म' श्रुतचारित्राख्यं सम्पक | इतं-गतं सदनुष्ठानतया रागद्वेषरहितखेन समतया चा, तथा चोक्तम्-"जहा पुण्णस्स कथइ तहा तुच्छस्स कत्थई" इत्यादि, समं वा-धर्मम् उत्-प्राबल्येन आह-उक्तवान् प्राणिनामनुग्रहार्थ न पूजासत्कारार्थमिति ।। ४ किश्चान्यत् -- १ यथा पूर्णस्य कथ्यते तथा तुझ्छस्य कथ्यते ॥ [३५५] ॥१४॥ ~292~ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||५|| दीप अनुक्रम [३५६] °°°°°°৬: “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र -२ ( मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [-] मूलं [ ५ ], निर्युक्ति: [ ८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः से सवदंसी अभिभूयनाणी, णिरामगंधे घिइमं ठितप्पा | अणुत्तरे सहजसि विजं, गंथा अतीते अभए अणाऊ ॥ ५ ॥ से भूपपणे अणिएअचारी, ओहंतरे धीरे अनंतचक्खू । अणुत्तरं तप्पति सूरिए वा, वइरोयणिंदे व तमं पगासे ॥ ६ ॥ 'स' भगवान् सर्व-जगत् चराचरं सामान्येन द्रष्टुं शीलमस्य स सर्वदर्शी, तथा 'अभिभूय' पराजित्य मत्यादीनि चत्वार्यपि ज्ञानानि यद्वर्तते ज्ञानं केवलाख्यं तेन ज्ञानेन ज्ञानी, अनेन चापरतीर्थाधिपाधिकलमावेदितं भवति, 'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्ष' इति कृत्वा तस्य भगवतो ज्ञानं प्रदर्श्य क्रियां दर्शयितुमाह-निर्गतः-अपगत आमः-अविशोधिकोट्याख्यः तथा गन्धो-विशोधिकोटिरूपो यस्मात् स भवति निरामगन्धः, मूलोत्तरगुणभेदभिन्नां चारित्रक्रियां कृतवानित्यर्थः, तथाऽसह्यपरीषहोपसर्गाभिद्रुतोऽपि निष्प्रकम्पतया चारित्रे धृतिमान् तथा स्थितो व्यवस्थितोऽशेषकर्म विगमादात्मस्वरूपे आत्मा यस्य स भवति स्थितात्मा, एतच्च ज्ञानक्रिययोः फलद्वारेण विशेषणं, तथा-नांस्योत्तरं प्रधानं सर्वस्मिन्नपि जगति विद्यते (यः) स तथा विद्वानिति सकलपदार्थानां करतलामलकन्यायेन वेत्ता, तथा बाह्यग्रन्थात् सचित्तादिभेदादान्तराश्च कर्मरूपाद् 'अतीतो' अतिक्रान्तो ग्रन्थातीतो -निर्ग्रन्थ १ तस्य परमामेतिमित्यादिवदवयववाचित्वेन पी । Education Internation For Park Use Only ~293~ wor Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [६], नियुक्ति: [८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्' मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्काचा-यवृ त्तियुतं ॥१४५॥ HEN दीप अनुक्रम [३५७] इत्यर्थः, तथा न विद्यते सप्तप्रकारमपि भयं यस्यासावभयः समस्तभयरहित इत्यर्थः, तथा न विद्यते चतुर्विधमघ्यायुर्यस स भव-18| भीमहात्यनायुः, दग्धकर्मबीजलेन पुनरुत्परसंभवादिति ॥ ५॥ अपिच-भूतिशब्दो वृद्धौ माले रक्षायां च वर्तते, तत्र 'भूतिप्रज्ञः' | वीरस्तुत्य. प्रवृद्धप्रज्ञः अनन्तज्ञानवानित्यर्थः, तथा-भूतिप्रज्ञो जगद्रेक्षाभूतप्रज्ञः एवं सर्वमङ्गलभूतप्रज्ञ इति, तथा अनियतम्' अप्रतिबद्धं परि-14 ग्रहायोगाचरितुं शीलमस्थासावनियतचारी तीर्घ-संसारसमुद्र तरितुं शीलमस्य स तथा, तथा धीः-पुद्धिस्तया राजत इति धीरः परीपहोपसर्गाक्षोभ्यो वा धीरः, तथा अनन्तं-ज्ञेयानन्ततया नित्यतया वा चक्षुरिव चक्षुः-केवलज्ञानं यस्थानन्तस्य वा लोकस्य पदार्थप्रकाशकतया चक्षुर्भूतो यः स भवत्यनन्तचक्षुः, तथा यथा-सूर्यः 'अनुत्तरं सर्वाधिक तपति न तसादधिकस्तापेन कश्चिदस्ति, एवमसावपि भगवान् ज्ञानेन सर्वोत्तम इति, तथा 'वैरोचनः' अग्निः स एव प्रज्वलितखात् इन्द्रो यथाऽसौ त| मोऽपनीय प्रकाशयति, एवमसावपि भगवानज्ञानतमोऽपनीय यथावस्थितपदार्थप्रकाशनं करोति ॥ ६॥ किश्च अणुत्तरं धम्ममिणं जिणाणं, णेया मुणी कासव आसुपन्ने । इंदेव देवाण महाणुभावे, सहस्सणेता दिवि णं विसिट्टे ॥७॥ से पन्नया अक्खयसागरे वा, महोदही वावि अणंतपारे । ॥१४५॥ अणाइले वो अकसाइ मुक्के, सक्केव देवाहिवई जुईमं ॥८॥ १०भूति- प्र. १२ या प्र.३ मिक्स् । ~294 ~ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [३५९ ] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र -२ ( मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [-] मूलं [८], निर्युक्ति: [ ८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः नास्योचरोऽस्तीत्यनुत्तरस्तमिममनुत्तरं धर्म 'जिनानाम्' ऋषभादितीर्थकृतां सम्बन्धिनमयं 'मुनिः' श्रीमान् वर्धमानाख्यः 'काश्यपः' गोत्रेण 'आशुप्रज्ञः केवलज्ञानी उत्पन्नदिव्यज्ञानो 'नेता' प्रणेतेति ताच्छीलिकस्तून्, तद्योगे 'न लोकाव्ययनिष्ठे' ( पा० २-३-६९ ) त्यादिना षष्ठीप्रतिषेधाद्धर्ममित्यत्र कर्मणि द्वितीयैव, यथा चेन्द्रो 'दिवि' स्वर्गे देवसहस्राणां 'महानुभावो' महाप्रभाववान् 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे तथा 'नेता' प्रणायको 'विशिष्टो' रूपचलवर्णादिभिः प्रधानः एवं भगवा| नपि सर्वेभ्यो विशिष्टः प्रणायको महानुभावत्रेति ।। ७ । अपिच - असौ भगवान् प्रज्ञायतेऽनयेति प्रज्ञा तया 'अक्षयः' न तस्य ज्ञातव्येऽर्थे बुद्धिः प्रतिक्षीयते प्रतिहन्यते वा तस्य हि बुद्धिः केवलज्ञानाख्या, सा च साद्यपर्यवसाना कालतो द्रव्यक्षेत्रभावैरप्यनन्ता, सर्वसाम्येन दृष्टान्ताभावाद्, एकदेशेन वाह-यथा 'सागर' इति, अस्य चाविशिष्टसाद विशेषणमाह- 'महोद| घिरिव' स्वयम्भूरमण इवानन्तपारः यथाऽसौ विस्तीर्णो गम्भीरजलोऽक्षोभ्यश्च, एवं तस्यापि भगवतो विस्तीर्णा प्रज्ञा स्वयम्भूरम| जानन्तगुणा गम्भीराऽक्षोभ्या च यथा च असौ सागरः 'अनाविल:' अकलुषजलः, एवं भगवानपि तथाविधकर्मलेशाभावादकलुषज्ञान इति, तथा — कषाया विद्यन्ते यस्यासौ कषायी न कषायी अकषायी, तथा ज्ञानावरणीयादिकर्मबन्धनाद्वियुक्तो मुक्तः, भिरिति कचित्पाठः, तस्यायमर्थः - सत्यपि निःशेषान्तरायक्षये सर्वलोक पूज्यले च तथापि भिक्षामात्रजीविलात् भिक्षुरेवासौ, नाक्षीणमहानसादिलब्धिमुपजीवतीति, तथा शक्र इव देवाधिपतिः 'द्युतिमान्' दीप्तिमानिति ॥ ८ ॥ किञ्च १ थियपेक्षया ज्ञेयापेक्षा तु द्रव्यादिवदनायनन्तकालमोचरै । Ja Education International For Parts Only ~ 295~ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [९], नियुक्ति: [८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||९|| चियुत ॥१४६॥ सूत्रकृता से वीरिएणं पडिपुन्नवीरिए, सुदंसणे वा णगसबसे । ६ श्रीमहाशीलाकासुरालए वासिमुदागरे से, विरायए णेगगुणोववेए ॥९॥ वीरस्तुत्य. चायित् सयं सहस्साण उ जोयणाणं, तिकंडगे पंडगवेजयते । से जोयणे णवणवते सहस्से, उडुस्सितो हेटु सहस्समेगं ॥१०॥ 'स' भगवान् 'वीर्येण' औरसेन चलेन धृतिसंहननादिभिश्च वीर्यान्तरायस्य निःशेषतः क्षयात् प्रतिपूर्णवीर्यः, तथा 'सुदर्श-18|| नो' मेरुर्जम्बूद्वीपनाभिभूतः स यथा नगाना-पर्वताना सर्वेषां श्रेष्ठः-प्रधान तथा भगवानपि वीर्येणान्यैश्च गुणैः सर्वश्रेष्ठ इति, 18 तथा यथा 'सुरालयः' वर्गस्तनिवासिना 'मुदाकरों हर्षजनकः प्रशस्तवर्णरसगन्धस्पर्शप्रभावादिमिर्गुणैरुपेतो 'विराजते शोभते, एवं भगवानप्यनेकैर्गुणैरुपेतो विराजत इति, यदिवा-यथा त्रिदशालयो मुदाकरोऽनेकैर्गुणैरुपेतो विराजत इति एव|| मसावपि मेरुरिति ॥९॥ पुनरपि दृष्टान्तभूतमेरुवर्णनायाह-स मेरुयोजनसहस्राणां शतमुस्खेन, तथा त्रीणि कण्डान्यस्येति त्रिकण्डा, तपथा--भौम जाम्बूनदं पैडूर्यमिति, पुनरप्यसावे विशेष्यते-'पण्डकवैजयन्त' इति, पण्डकवनं शिरसि | व्यवस्थितं वैजयन्तीकल्प-पताकाभूतं यस्य स तथा, तथाऽसावूर्ध्वमुच्छ्रितो नवनवतिर्योजनसहस्राण्यधोऽपि सहस्रमेकमवगाढ इति ॥१०॥ तथा वादि० प्र.। evecetectoesesesesesea दीप अनुक्रम [३६०] ॥१४६॥ ~296~ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१९|| दीप अनुक्रम [३६२] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [ - ], मूलं [११], निर्युक्तिः [८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०२ ], अंग सूत्र - [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः पुट्ठे भेचिइ भूमिवट्टिए, जं सूरिया अणुपरिवहयंति । से मन्ने बहुनंदणे य, जंसी रतिं वेदयती महिंदा ॥ ११ ॥ सदमासे, विरायती कंचणमवन्ने । से अणुत्तरे गिरिसु य पवदुग्गे, गिरीवरे से जलिएव भोमे ॥ १२ ॥ 'नमसि' 'स्पृष्टो' लग्नो नभो व्याप्य तिष्ठति तथा भूमिं चावगाह्य स्थित इति ऊर्ध्वाधस्तिर्यक्र्लोकसंस्पर्शी, यथा 'यं' मेरु 'सूर्या' आदित्या ज्योतिष्का 'अनुपरिवर्त्तयन्ति' यस्य पार्श्वतो भ्रमन्तीत्यर्थः तथाऽसौ 'हेमवर्णो' निष्टतजाम्बूनदाभ:, तथा बहूनि चखारि नन्दनवनानि यस्य स बहुनन्दनवनः, तथाहि भूमौ भद्रशालवनं ततः पञ्च योजनशतान्यारुह्य मेखलायां नन्दनं ततो द्विषष्टियोजनसहस्राणि पंचशताधिकान्यतिक्रम्य सौमनसं ततः पत्रिंशत्सहस्राण्यारा शिखरे पण्डकवनमिति, तदे | मसौ चतुर्नन्दनवनाद्युपेतो विचित्रक्रीडास्थानसमन्वितः, यस्मिन् महेन्द्रा अभ्यागत्य त्रिदशालयाद्रमणीयतरगुणेन 'रतिं' रमणक्रीडां 'वेदयन्ति' अनुभवन्तीति ।। ११ ।। अपिच सः - मेर्वाख्योऽयं पर्वतो मन्दरो मेरुः सुदर्शनः सुरगिरिरित्येवमादिभिः | दैर्महान् प्रकाशः --- प्रसिद्धिर्यस्य स शब्दमहाप्रकाशो 'विराजते' शोभते, काञ्चनस्येव 'सृष्टः' लक्ष्णः शुद्धो वा वर्णो यस्य स तथा, एवं न विद्यते उत्तरः- प्रधानो यस्यासावनुत्तरः, तथा गिरिषु च मध्ये पर्वभिः - मेखलादिभिर्दष्ट्रा पर्वतैव 'दुर्गे' विषमः Education International For Parts Only ~ 297 ~ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [१२], नियुक्ति: [८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक मुत्रकृताङ्गं शीलाकाचायित्तियुतं ||१२|| ॥१४७|| दीप अनुक्रम [३६३] सामान्यजन्तूनां दुरारोहो 'गिरिवर' पर्वतप्रधानः, तथाऽसौ मणिभिरौषधीभिश्च देदीप्यमानतया 'भौम इव' भूदेश इव ज्व-18 श्रीमहालित इति ।। १२ ॥ किञ्च वीरस्तुत्सा महीइ मझमि ठिते णगिंदे, पन्नायते सूरियसुद्धलेसे । एवं सिरीए उ स भूरिवन्ने, मणोरमे जोयइ अचिमाली ॥ १३ ॥ सुदंसणस्सेव जसो गिरिस्स, पवुच्चई महतो पवयस्स । पतोवमे समणे नायपुत्ते, जातीजसोदंसणनाणसीले ॥ १४ ॥ 'मयां' रवप्रभापृथिव्यां मध्यदेशे जम्बूद्वीपस्तस्यापि बहुमध्यदेशे सौमनसविद्युत्प्रभगन्धमादनमाल्यवन्तदंष्ट्रापर्वतचतुष्टयोप-18 2 शोभितः समभूभागे दशसहस्त्रविस्तीर्णः शिरसि सहस्रमेकमधस्तादपि दश सहस्राणि नवतियोजनानि योजनेकादशभागैर्देशभिर|धिकानि विस्तीर्णः चसारिशयोजनोच्छ्रितचूडोपशोभितो 'नगेन्द्र' पर्वतप्रधानो मेरुः प्रकर्षण लोके ज्ञायते सूर्येवत्शुद्धलेश्य:| आदित्यसमानतेजाः, 'एवम्' अनन्तरोक्तप्रकारया श्रिया तुशब्दाद्विशिष्टतरया सा-मेरुः 'भूरिवर्णः' अनेकवर्णो अनेकवर्णरत्नोप-18१४७॥ शोभितलात् मन:-अन्तःकरणं रमयतीति मनोरमा 'अर्चिमालीच' आदित्य इव खतेजसा द्योतयति दशापि दिशा प्रकाशयती|ति ॥ १३ ॥ साम्प्रतं मेरुदृष्टान्तोपक्षेपेण दार्शन्तिकं दर्शयति-एतदनन्तरोक्तं 'यश' कीर्तनं सुदर्शनस्य मेरुगिरेः महापर्वतस्स ~298~ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [१४], नियुक्ति: [८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||१४|| seeeeeeeeeeesecccess प्रोच्यते, साम्प्रतमेतदेव भगवति दान्तिके योज्यते-एषा---अनन्तरोक्तोपमा यस स एतदुपमः, कोऽसौ :-श्राम्यतीति श्रमणस्तपोनिष्टप्तदेहो जाता:-क्षत्रियास्तेषां पुत्रः श्रीमन्महावीरवर्द्धमानस्वामीत्यर्थः, स च जात्या सर्वजा तिमद्भ्यो यशसा अशेषयशखिभ्यो दर्शनज्ञानाभ्यां सकलदर्शनज्ञानिभ्यः शीलेन समस्तशीलवयः श्रेष्ठः-प्रधानः, अक्षरषटना तु जात्यादीनां कृतद्वन्द्वानामतिशायने अर्शआदित्वादच्प्रत्ययविधानेन विधेयेति ॥ १४ ॥ पुनरपि दृष्टान्तद्वारेणैव भगवतो न्यावर्णनमाह गिरीवरे वा निसहाऽऽययाणं, रुयए व सेटे वलयायताणं । तओवमे से जगभूइपन्ने, मुणीण मज्झे तमुदाहु पन्ने ॥१५॥ अणुत्तरं धम्ममुईरइत्ता, अणुत्तरं झाणवरं झियाई। सुसुक्कसुकं अपगंडसुकं, संखिंदुएगंतवदातसुकं ॥ १६ ॥ यथा 'निषधों गिरिचरो गिरीणामायतानां मध्ये जम्बुद्वीपे अन्येषु वा द्वीपेषु दैर्पण 'श्रेष्ठ प्रधानः तथा वलयायतानां मध्ये रुचकः पर्वतोऽन्येभ्यो बलयायतखेन यथा प्रधानः, स हि रुचकद्वीपान्तर्वर्ती मानुषोत्तरपर्वत इव वृत्तायतैः १मलायात, अच्य.प्र.। २ वृत्तायतोऽ.प्र. नतयुक्तं । Seseseetenese दीप अनुक्रम [३६५] ~299~ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [१६], नियुक्ति: [८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक सूत्रकृताज शीलाकाचायीय चियुत ||१६|| ॥१४८॥ दीप अनुक्रम [३६७] cotaeseseaeeeeeestaese सोययोजनानि परिक्षेपेणेति, तथा स भगवानपि तदुपमः यथा तावायतवृत्तताभ्यां श्रेष्ठौ एवं भगवानपि जगति-संसारे श्रीमहा|भूतिप्रज्ञा-प्रभूतशानः प्रज्ञया श्रेष्ठ इत्यर्थः, तथा अपरमुनीनां मध्ये प्रकर्षेण जानातीति प्रज्ञः एवं तत्स्वरूपविदः 'उदाहु' उदा चीरस्तुत्य. हृतवन्त उक्तवन्त इत्यर्थः ॥१५॥ किश्चान्यत्-नास्योत्तर:-प्रधानोऽन्यो धर्मो विद्यते इत्यनुत्तरः तमेवम्भूतं धर्म 'उत्' प्राबल्येन 'ईरयित्वा' कथयिता प्रकाश्य 'अनुत्तर' प्रधानं 'ध्यानवरं ध्यानश्रेष्ठ ध्यायति, तथाहि-उत्पन्नज्ञानो भगवान् योगनिरोधकाले सूक्ष्म काययोग निरुन्धन शुक्लध्यानस्य तृतीय भेदं सूक्ष्मक्रियमप्रतिपाताख्यं तथा निरुद्धयोगश्चतुर्थ शुक्रध्यानभेदं न्युपर-18 तक्रियमनिषत्तारुयं ध्यायति, एतदेव दर्शयति-सुष्टु शुलवत्शुक्लं ध्यानं तथा अपगतं गण्डम्-अपद्रव्यं यस्य तदपगण्डं नि-18 >षार्जुनसुवर्णवत् शुक्लं यदिवा-अपगण्डम् --उदकफेनं तत्तुल्यमिति भावः । तथा शलेन्दुवदेकान्तावदात-शुभ्र शुक्लं-शुक्लध्या-1 नोत्तरं भेदद्वयं ध्यायतीति ॥ १६ ॥ अपिच अणुत्तरग्गं परमं महेसी, असेसकम्मं स विसोहइत्ता। सिद्धिं गते साइमणंतपत्ते, नाणेण सीलेण य दंसणेण ॥ १७ ॥ रुक्खेसु णाते जह सामली वा, जस्सि रति वेययती सुवन्ना । वणेसु वा गंदणमाङ सेटुं, नाणेण सीलेण य भूतिपन्ने ॥१८॥ Sasass89-90090090sae ॥१४८॥ ~300~ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [१८], नियुक्ति: [८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक eesease ||१८|| तथाऽसौ भगवान् शैलेश्यवस्थापादितशुक्लध्यानचतुर्थभेदानन्तरं साधपर्यवसानां सिद्धिगति पञ्चमी प्राप्तः, सिद्धिगतिमेव विशिनष्टि-अनुत्तरा चासौ सर्वोत्तमत्वादग्या च लोकाग्रव्यवस्थितखादनुत्तराम्या तां 'परमा' प्रधाना 'महर्षि।' असावत्यन्तोग्रत| पोविशेषनिष्टप्सदेहवाद् अशेष कर्म-ज्ञानावरणादिकं 'विशोध्य' अपनीय च विशिष्टेन जानेन दर्शनेन शीलेन च क्षायिकेण सिद्धिगतिं प्राप्त इति मीलनीयम् ॥ १७ ॥ पुनरपि दृष्टान्तद्वारेण भगवतः स्तुतिमाह-वृक्षेषु मध्ये यथा 'ज्ञात' प्रसिद्धो देवकुरुव्यवस्थितः शाल्मलीवृक्षः, स च भवनपतिक्रीडास्थानं, 'यत्र' व्यवस्थिता अन्यतश्चागत्य 'सुपर्णा' भवनपतिविशेषा 'रति' रमणक्रीडा 'वेदयन्ति' अनुभवन्ति, वनेषु च मध्ये यथा नन्दनं वनं देवानां क्रीडास्थानं प्रधान एवं भगवानपि 'ज्ञानेन' केवलाख्येन समस्तपदार्थाविर्भावकेन 'शीलेन' च चारित्रेण-पथारुयातेन 'श्रेष्ठः प्रधानः 'भूतिप्रज्ञः' प्रवृद्धज्ञानो भगवानिति ॥8 ॥ १८ ॥ अपिच थणियं व सदाण अणुत्तरे उ, चंदो व ताराण महाणुभावे । गंधेसु वा चंदणमाहु सेहूं, एवं मुणीणं अपडिन्नमाहु ॥ १९ ॥ जहा सयंभू उदहीण सेटे, नागेसु वा धरणिंदमाहु सेटे। खोओदए वा रस वेजयंते, तवोवहाणे मुणिवेजयंते ॥२०॥ 7a9393030393030seaso दीप अनुक्रम [३६९] ose ~301 ~ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [२०], नियुक्ति: [८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः सूत्रकताएं प्रत सूत्रांक ||२०|| चार्यांयत्तियुतं ॥१४९॥ दीप यथा शब्दाना मध्ये 'स्तनितं' मेघगर्जितं तद् 'अनुत्तर' प्रधान, तुशब्दो विशेषणार्थः समुच्चयार्थो वा, 'तारकाणां च श्रीमहानक्षत्राणां मध्ये यथा चन्द्रो महानुभावः सकलजननिवृत्तिकारिण्या कान्त्या मनोरमः श्रेष्ठः, 'गन्धेषु' इति गुणगुणिनोरमेदान्म-18 | तुब्लोपाद्वा गन्धवत्सु मध्ये यथा 'चन्दन' गोशीर्षकाख्यं मलयजं वा तज्ज्ञाः श्रेष्ठमाहुः, एवं 'मुनीना' महर्षीणां मध्ये भगवन्तं || नाव प्रतिज्ञा इहलोकपरलोकाशंसिनी विद्यते इत्यप्रतिज्ञस्तमेवम्भूतं श्रेष्ठमाहुरिति ॥ १९ ॥ अपिच-वयं भवन्तीति स्वयम्भुवोदेवाः ते तत्रांगत्य रमन्तीति स्वयम्भूरमणः तदेवम् 'उदधीनां समुद्राणां मध्ये यथा स्वयम्भूरमणः समुद्रः समस्तद्वीपसागरप-12 येन्तवर्ती 'श्रेष्ठः' प्रधानः 'नागेषु च भवनपतिविशेषेषु मध्ये 'धरणेन्द्र' धरणं यथा श्रेष्ठमाहुः, तथा 'खोओदए' इति इक्षुरस इवोदकं यस्य स इक्षुरसोदकः स यथा रसमाश्रित्य 'वैजयन्तः' प्रधानः स्वगुणैरपरसमुद्राणां पताकेवोपरि व्यवस्थिता एवं 'तपउपधानेन' विशिष्टतपोविशेषेण मनुते जगतखिकालावस्थामिति 'मुनिः' भगवान् 'वैजयन्तः' प्रधानः, समस्तलोकस्य महातपसा वैजयन्तीवोपरि व्यवस्थित इति ॥ २०॥ हत्थीसु एरावणमाहु णाए, सीहो मिगाणं सलिलाण गंगा। | ॥१४॥ पक्खीसु वा गरुले वेणुदेवो, निवाणवादीणिह णायपुत्ते ॥ २१ ॥ जोहेसु णाए जह वीससेणे, पुप्फेसु वा जह अरविंदमाहु। Beatsersemeseseser अनुक्रम [३७१] ~302 ~ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [२२], नियुक्ति: [८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम [३७३] खत्तीण सेटे जह दंतवक्के, इसीण सेट्रे तह वद्धमाणे ॥ २२ ॥ 'हस्तिषु' करिवरेषु मध्ये यथा 'ऐरावणं शक्रवाहनं 'ज्ञात' प्रसिद्धं दृष्टान्तभूतं वा प्रधानमाहुस्तज्ज्ञाः, 'मृगाणां च श्वापदानां मध्ये यथा 'सिंह' केसरी प्रधान तथा भरतक्षेत्रापेक्षया 'सलिलानां मध्ये यथा गङ्गासलिलं प्रधानभावमनुभवति, 'पक्षिषु' मध्ये यथा गरुत्मान् वेणुदेवापरनामा प्राधान्येन व्यवस्थितः, एवं निर्वाणं-सिद्धिक्षेत्राख्यं कर्मच्युतिलक्षणं वा खरूपतस्तदुपायप्राप्तिहेतुतो वा बदितुं शीलं येषां ते तथा तेषां मध्ये ज्ञाता:-क्षत्रियास्तेषां पुत्रः-अपत्यं ज्ञातपुत्र:-श्रीमन्महावीरवर्धमानखामी स प्रधान इति, यथावस्थितनिर्वाणार्थवादिखादित्यर्थः।। २१॥ अपिच-योधेषु मध्ये 'ज्ञातो विदितो दृष्टान्तभूतो वा विश्वा-हस्त्यश्वरथपदातिचतुरङ्गबलसमेता सेना यस्य स विश्वसेनः-चक्रवर्ती यथाऽसौ प्रधानः, पुष्पेषु च मध्ये यथा अरविन्द प्रधानमाहुः, तथा क्षतात् त्रायन्त इति क्षत्रियाः तेषां मध्ये दान्ता-उपशान्ता यस्य वाक्येनैव शत्रवः स दान्तवाक्या-चक्रवर्ती | यथाऽसौ श्रेष्ठः । तदेवं बहून् दृष्टान्तान् प्रशस्तान् प्रदश्यांधुना भगवन्तं दाान्तिकं खनामग्राहमाह तथा ऋषीणां मध्ये श्रीमान् वर्धमानखामी श्रेष्ठ इति ॥ २२ ॥ तथा दाणाण सेट्रं अभयप्पयाणं, सच्चेसु वा अणवजं वयंति। तवेसु वा उत्तम बंभचेरं, लोगुत्तमे समणे नायपुत्ते ॥ २३ ॥ १ त्यभिप्रायः प्र.. esteemesesee Sinatandionary.org ~303~ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [२४], नियुक्ति: [८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्रांक शीलासाचायायतियुतं ||२४|| दीप अनुक्रम [३७५] ६ श्रीमहाठिईण सेटा लवसत्तमा वा, सभा सुहम्मा व सभाण सेट्ठा।' वीरस्तुत्य. निबाणसेटा जह सबधम्मा, ण णायपुत्ता परमत्थि नाणी ॥ २४॥ तथा खपरानुग्रहार्थमर्थिने दीयत इति दानमनेकधा, तेषां मध्ये जीवानां जीवितार्थिनां त्राणकारिनादमयप्रदान श्रेष्ठ, तदुक्तम्-"दीयते प्रियमाणस्य, कोटिं जीवितमेव वा । धनकोटि न गृह्णीयात् , सर्वो जीवितुमिच्छति ॥ १॥" इति, गोपाला-18 जनादीनां दृष्टान्तद्वारेणार्थों बुद्धी सुखेनारोहतीत्यतः अभयप्रदानप्राधान्यख्यापनार्थ कथानकमिदं वसन्तपुरे नगरे अरिदमनो नाम राजा, स च कदाचिचतुर्वधसमेतो वातायनस्थः क्रीडायमानस्तिष्ठति, तेन कदाचिचोरो रक्तकणवीरकतमुण्डमालो रक्तपरिधानो रक्तचन्दनोपलिसव प्रहतवध्यडिण्डिमो राजमार्गेण नीयमानः सपत्नीकेन दृष्टः, दृष्ट्वा च ताभिः पृष्ट-किमनेनाकारीति !, तासामेकेन राजपुरुषेणाऽऽवेदितं यथा-परद्रव्यापहारेण राजविरुद्धमिति, तत एकया राजा विज्ञप्तो यथा-यो भवता मम प्राय||8| वरः प्रतिपन्नः सोऽधुना दीयतां येनाहमस्योपकरोमि किश्चित् , राज्ञापि प्रतिपत्र, ततस्तया स्नानादिपुरःसरमलङ्कारेणालहतो दीनारसहस्रन्ययेन पञ्चविधान् शब्दादीन् विषयानेकमहः प्रापितः, पुनर्वितीययाऽपि तथैव द्वितीयमहो दीनारशतसहस्रव्ययेन लालितः, ततस्तुतीयया तृतीयमहो दीनारकोटिन्ययेन सत्कारितः, चतुर्थ्या तु राजानुमत्या भरणाद्रक्षितः अभयप्रदानेन, ततोऽ- ॥१५॥ सावन्याभिहसिता नास्स खया किश्चिद्दत्तमिति, तदेवं तासां परस्परवहूपकारविषये विवादे राज्ञाऽसावेव चौरः समाहूय पृष्टो यथा । | केन तव पहूपकृतमिति, तेनाप्यभाणि यथा-न मया मरणमहाभयभीतेन किञ्चित् स्वानादिकं सुखं व्यज्ञायीति, अभयप्रदानाकर्ण-13॥ Sama999090a0rmeramaste ~304 ~ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [२४], नियुक्ति: [८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२४|| दीप अनुक्रम [३७५] eacocreeneraceaeeserevedever नेन पुनर्जन्मानमिवात्मानमवैमीति, अतः सर्वदानानामभयप्रदानं श्रेष्ठमिति स्थितम् । तथा सत्येषु च वाक्येषु यदू 'अनवम्' अपापं परपीडानुत्पादकं तत् श्रेष्ठं वदन्ति, न पुनः परपीडोत्पादकं सत्यं, सद्भ्यो हितं सत्यमितिकृखा, तथा चोक्तम्-"लोकेऽपि श्रूयते वादो, यथा सत्येन कौशिकः । पतितो वधयुक्तेन, नरके तीनवेदने ॥१॥" अन्यच्च---"तहेब काणं काणत्ति, पंडगं पंडगति वा । वाहियं वापि रोगिति, तेणं चोरोति नो वदे ॥१॥" तपस्सु मध्ये यथैवोत्तमं नवविधप्रहगुप्युपेतं ब्रह्मचर्य। प्रधानं भवति तथा सर्वलोकोत्तमरूपसम्पदा-सर्वातिशायिन्या शक्त्या क्षायिकज्ञानदर्शनाभ्यां शीलेन च 'ज्ञातपुत्रो' भगवान् । श्रमणः प्रधान इति ॥ २३ ॥ किश्च-स्थितिमतां मध्ये यथा 'लवसत्तमाः पञ्चानुत्तरविमानवासिनो देवाः सर्वोत्कृष्टस्थितिवर्तिनः प्रधानाः, यदि किल तेषां सप्त लबा आयुष्कमभविष्यत्ततः सिद्धिगमनमभविष्यदित्यतो लवसत्तमास्तेऽभिधीयन्ते, 'सभानां च' पर्षदां च मध्ये यथा सौधर्माधिषपर्षच्छ्रेष्ठा बहुभिः क्रीडास्थानैरुपेतखातथा यथा सर्वेऽपि धर्मा 'निर्वाणश्रेष्ठाः' मोक्षप्रधाना भवन्ति, कुप्रावचनिका अपि निर्वाणफलमेव खदर्शनं बुवते यतः, एवं 'ज्ञातपुत्रात्' वीरवर्धमानखामिनः सर्वज्ञात् सका|शात् 'परं' प्रधानं अन्यविज्ञानं नास्ति, सर्वथैव भगवानपरज्ञानिम्योधिकज्ञानो भवतीति भावः ॥ २४ ॥ किश्चान्यत् पुढोवमे धुणइ विगयगेही, न सण्णिहिं कुवति आसुपन्ने । तरिउं समुदं व महाभवोघं, अभयंकरे वीर अणंतचक्खू ॥ २५ ॥ 702003930292900202012900rna ~305~ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [२६], नियुक्ति: [८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२६|| सूत्रकृताचं शीलाकाचार्गीय चियुतं ॥१५१॥ दीप अनुक्रम [३७७] कोहं च माणं च तहेव मायं, लोभं चउत्थं अज्झत्थदोसा । ६ भीमहा चीरस्तुत्य. पआणि वंता अरहा महेसी, ण कुबई पाव ण कारवेइ ॥ २६ ॥ स हि भगवान् यथा पृथिवी सकलाधारा वर्तते तथा सर्वसन्चानामभयप्रदानतः सदुपदेशदानाद्वा सत्त्वाधार इति, यदिवायथा पृथ्वी सर्वसहा एवं भगवान् परीषहोपसर्गान् सम्यक् सहत इति, तथा 'धुनाति' अपनयत्यष्टप्रकारं कमेंति शेषः, तथा'बिगता' प्रलीना सबाह्याभ्यन्तरेषु वस्तुपु 'गृद्धिः' गायमभिलायो यस्य स विगतगृद्धिः, तथा सबिधान सनिधिः, सच द्रव्यसनिधिः धनधान्यहिरण्यद्विपदचतुष्पदरूपः भावसनिधिस्तु माया क्रोधादयो वा सामान्येन कषायास्तमुभयरूपमपि संनिधि न करोति भगवान् , तथा 'आशुप्रज्ञः सर्वत्र सदोपयोगात् न छास्थवन्मनसा पर्यालोच्य पदार्थपरिच्छित्तिं विधत्ते, स एवम्भूतः तरिना समुद्रमिवापारं 'महाभवौघं चतुर्गतिक संसारसागरं बहुव्यसनाकुलं सर्वोत्तम निर्वाणमासादितवान्, पुनरपि तमेव विशिनष्टि-'अभयं प्राणिनां प्राणरक्षारूपं खतः परतश्च सदुपदेशदानात् करोतीत्यभयंकरा, तथाऽष्टप्रकार कमें विशेष-1|| जेरयति-प्रेरयतीति वीर, तथा 'अनन्तम्' अपर्यवसानं नित्यं ज्ञेयानन्तखाद्वाऽनन्तं चक्षरिव चक्षुः-केवलज्ञानं यस्य स तथेति ॥१५१॥ ॥ २५ ॥ किश्चान्यत्-'निदानोच्छेदेन हि निदानिन उच्छेदो भवतीति न्यायात् संसारस्थितेच क्रोधादयः कषायाः कारणमत एतान् अध्यात्मदोषांश्चतुरोऽपि क्रोधादीन् कषायान् 'वान्त्वा' परित्यज्य असौ भगवान् 'अर्हन् तीर्थकत जाता, तथा मह Caeeeeee ~306~ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [२६], नियुक्ति: [८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२६|| दीप अनुक्रम [३७७] शर्षिः , एवं परमार्थतो महर्षिलं भवति यद्यध्यात्मदोषा न भवन्ति, नान्यथेति, तथा न खतः 'पापं सावद्यमनुष्ठानं करोति नाप्यन्यैः कारयतीति ॥ २६ ॥ किश्चान्यत् किरियाकिरियं वेणइयाणुवायं, अण्णाणियाणं पडियच्च ठाणं । से सबवायं इति वेयइत्ता, उवट्टिए संजमदीहरायं ॥ २७ ॥ से वारिया इत्थी सराइभत्तं, उवहाणवं दुक्खखयट्टयाए । लोगं विदित्ता आरं परं च, सर्व पभू वारिय सबवारं ॥ २८॥ सोचा य धम्मं अरहंतभासियं, समाहितं अट्ठपदोवसुद्धं । तं सदहाणा य जणा अणाऊ, इंदा व देवाहिव आगमिस्सति ॥ २९ ॥ तिबेमि (गाथाग्रं० ३९०) इति श्री वीरत्थुतीनाम छ?मज्झयणं समत्तं ॥ तथा स भगवान् क्रियावादिनामक्रियावादिना वैनयिकानामज्ञानिकानां च 'स्थानं पक्षमभ्युपगतमित्यर्थः, यदिवा-खीयतेऽस्मिन्निति स्थानं-दुर्गतिगमनादिकं 'प्रतीय परिच्छिद्य सम्यगवबुध्येत्यर्थः, एतेषां च स्वरूपमुत्तरत्र न्यक्षेण व्याख्यास्या psettesesesesestaeeeees andiorary.om ~307~ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [२९], नियुक्ति: [८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: SON प्रत सूत्रांक ||२९|| दीप अनुक्रम [३८०] सूत्रकृतामा , लेशतस्त्विदं-क्रियैव परलोकसाधनायालमित्येवं वदितुं शीलं येषां ते क्रियावादिनः, तेषां हि दीक्षात एव क्रियारूपाया श्रीमहाशीलाका- मोक्ष इत्येवमभ्युपगमः, अक्रियावादिनस्तु ज्ञानवादिनः, तेषां हि यथावस्थितवस्तुपरिज्ञानादेव मोक्षः, तथा चोक्तम्-"पश्चर्वि- वीरस्तुत्य. चार्यांव- शतितचनो, यत्र तत्राश्रमे रतः । शिखी मुण्डी जटी वापि, सियते नात्र संशयः ॥१॥" तथा विनयादेव मोक्ष इत्येवं गोचियुतं शालकमतानुसारिणो विनयेन चरन्तीति वैनयिका व्यवस्थिताः, तथाऽज्ञानमेबहिकामुष्मिकायालमित्येवमज्ञानिका व्यवस्थिताः, इत्येवंरूपं तेषामभ्युपगमं परिछिय-खतः सम्यगवगम्य सम्यगवबोधेन, तथा स एव वीरवर्धमानखामी सर्वमन्यमपि बौद्धादिक ॥१५२॥ यं कशन बादमपरान् सचान् यथावस्थिततच्चोपदेशेन 'वेदयित्वा' परिज्ञाप्योपस्थितः सम्यगुत्थानेन संयमे व्यवखितो न तु181 यथा अन्ये, तदुक्तम्-"यथा परेषां कथका विदग्धाः, शाखाणि कृता लघुतामुपेताः । शिष्यैरनुज्ञामलिनोपचारिकृलदोषा-118 स्वयि ते न सन्ति ॥१॥" इति 'दीर्घरात्रम्' इति यावज्जीवं संयमोत्थानेनोत्थित इति ॥ २७ ॥ अपिच-स भगवान् || वारपित्वा-प्रतिषिध्य किं तदित्याह-'स्त्रियम्' इति त्रीपरिभोग मैथुनमित्यर्थः, सह रात्रिभक्तेन वर्तत इति सरात्रिभक्तं, उपल-1 क्षणार्थवादसान्पदपि प्राणातिपातनिषेधादिकं द्रष्टव्यं, तथा उपधान-तपस्तद्विद्यते यस्यासी उपधानवान-तपोनिष्टप्तदेहा, किम-13 थेमिति दर्शयति-दुःखयतीति दुःखम्-अष्टप्रकार कर्म तस्य क्षया-अपगमस्तदर्थ, किच-लोकं विदिला 'आरम्' इहलो-|| डा काख्यं 'परं' परलोकाख्यं यदिवा-आरं-मनुष्यलोकं पारमिति-नारकादिकं स्वरूपतस्तत्प्राप्तिहेतुतच विदिखा सर्वमेतत् | ॥१५२॥ ISI'प्रभु' भगवान् 'सर्ववार' बहशो निवारितवान , एतदुक्तं भवति-प्राणातिपातनिषेधादिकं खतोऽनुष्ठाय परांध स्थापितवान् , न प! हि खतोऽस्थितः परांच स्थापयितुमलमित्यर्थः, तदुक्तम्-"ब्रुवाणोऽपि न्याय्यं खवचनविरुद्धं व्यवहरन् , परान्नालं कथिदमयितु-1 అనంతరం ~308~ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२९|| दीप अनुक्रम [३८०] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [-], मूलं [२९], निर्युक्ति: [८५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ...... आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः मदान्तः स्वयमिति । भवान्निभित्यैवं मनसि जगदाधाय सकलं, स्वमात्मानं तावद्दमयितुमदान्तं व्यवसितः ॥ १॥” इति तथा“तित्थयरो चउनाणी सुरमहिओ सिज्झियवधूयंमि । अणिमूहियबलविरओ सवत्थामेसु उज्जमइ ॥ १ ॥ इत्यादि" ॥ २८ ॥ साम्प्रतं सुधर्मस्वामी तीर्थकरगुणानाख्याय स्वशिष्यानाह - 'सोचा य' इत्यादि, श्रुखा च दुर्गतिधारणाद्धर्म- श्रुतचारित्राख्यमईनिर्भाषितं सम्यगाख्यातमर्थपदानि -युक्तयो हेतवो वा तैरुपशुद्धम् अवदातं सयुक्तिकं सद्धेतुकं वा यदिवा अर्थः- अभिधेयैः | पदैव वाचकैः शब्दैः उप-सामीप्येन शुद्ध-निर्दोष, तमेवम्भूतमद्भिर्भाषितं धर्म श्रदधानाः, तथाऽनुतिष्ठन्तो 'जना' लोका 'अनायुषः' अपगतायुः कर्माणः सन्तः सिद्धाः सायुषवेन्द्राया देवाधिपा आगमिष्यन्तीति । इतिशब्दः परिसमाप्तौ त्रयीमीति पूर्ववत् ।। २९ ।। इति वीरस्तवाख्यं षष्ठमध्ययनं परिसमाप्तमिति ॥ Education intimation - १] तीर्थंकरधनी सुरमहितः सेवितम्ये धुने, अनिमूहित लवीर्थः सर्वस्थानोद्यच्छति ॥ १ ॥ अत्र षष्ठं अध्ययनं परिसमाप्तं For First Use Only ~309~ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [२९] दीप अनुक्रम [३८०] सूत्रकृता शीलाङ्काचाय चियुतं “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [७], उद्देशक [-] मूलं [२९...], निर्युक्ति: [८६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ...... आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः opp - 04010 उक्तं षष्ठमध्ययनं साम्प्रतं सप्तममारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः इहानन्तराध्ययने महावीरस्य गुणोत्कीर्त्तनतः सुशीलपरिभाषा कृता, तदनन्तरं तद्विपर्यस्ताः कुशीलाः परिभाष्यन्ते, तदनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चलार्यनुयोगद्वाराणि व्या॥१५३॥४। वर्णनीयानि, तत्राप्युपक्रमान्तर्गतोऽर्थाधिकारोऽयं, तद्यथा-कुशीलाः- परतीर्थिकाः पार्श्वस्यादयो वा स्वयुध्या अशीलाच गृहत्स्याः परि-समन्तात् भाष्यन्ते प्रतिपाद्यन्ते तदनुष्ठानतस्तद्विपाकदुर्गतिगमनतथ निरूप्यन्त इति तथा तद्विपर्ययेण कचित्सुशी लावेति, निक्षेपत्रिधा - ओघनामसूत्रालापकभेदात्, तत्रौधनिष्पन्ननिक्षेपेऽध्ययनं, नामनिष्पत्रे कुशीलपरिभाषेति, एतदधिकृत्य निर्मुक्तिकृदाह सीले चक्क दब्वे पाउरणाभरणभोयणादीसु । भावे उ ओहसीलं अभिक्खमासेवणा चैव ॥ ८६ ।। Education Intimatio अथ सप्तमं अध्ययनं प्रारभ्यते ॥ 'शीले' शीलविषये निक्षेपे क्रियमाणे 'चतुष्क' मिति नामादिश्चतुर्धा निक्षेपः, तत्रापि नामस्थापने क्षुण्णताद्नादृत्य 'द्रव्यम्' इति द्रव्यशीलं प्रावरणाभरणभोजनादिषु द्रष्टव्यं अस्थायमर्थः यो हि फलनिरपेक्षस्तत्स्वभावादेव क्रियासु प्रवर्तते स तच्छीलः, तत्रेह प्रावरणशील इति प्रावरणप्रयोजनाभावेऽपि ताच्छील्यान्नित्यं प्रावरणस्वभावः प्रावरणे वा दत्तावधानः, एवमाभरणमोजनादिग्वपि द्रष्टव्यमिति यो वा यस्य द्रव्यस्य चेतनाचेतनादेः खभावस्तद् द्रव्यशीलमित्युच्यते, भावशीलं तु द्विघा - ओघशीलमाभीक्ष्ण्यसेवनाशीलं चेति ॥ तत्रौघशीलं व्याचिख्यासुराह अत्र सप्तमं अध्ययनं 'कुशील परिभाषा' आरब्धं For Parts Only ~310~ ७ कुशीलपरिभाषा. ॥१५३॥ www.jancibrary.org Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [२९] दीप अनुक्रम [३८०] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [७], उद्देशक [-] मूलं [२९...], निर्युक्ति: [८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - ओहे सीलं विरती विरयाविरई य अविरती असीलं । धम्मे णाणतबादी अपसत्थ अहम्मकोबादी ॥ ८७ ॥ तत्रोधः - सामान्यं सामान्येन सावद्ययोगविरतो विरताविरतो वा शीलवान् भण्यते, तद्विपर्यस्तोऽशीलवानिति, आभीक्ष्ण्यसेवायां तु-अनवरतसेवनायां तु शीलमिदं तद्यथा - 'धर्मे' धर्मविषये प्रशस्तं शीलं यदुतानवरतापूर्वज्ञानार्जनं विशिष्टतपःकरणं वा आदिग्रहणादनवरताभिग्रहग्रहणादिकं परिगृह्यते, अप्रशस्त भावशीलं लधर्मप्रवृत्तिर्वाह्मा आन्तरा तु क्रोधादिषु प्रवृत्तिः, आदिग्रहणात् शेषकपायाश्रौर्याभ्याख्यान कलहादयः परिगृबन्त इति । साम्प्रतं कुशीलपरिभाषाख्यस्याध्ययनस्यान्वर्थता दर्शयितुमाहपरिभासिया कुसीला य एत्थ जावंति अविरता केई । सुति पसंसा सुद्धो कुत्ति दुर्गछा अपरिस्रुद्धो ॥ ८८ ॥ परि-समन्तात् भाषिताः - प्रतिपादिताः 'कुशीलाः कुत्सितशीलाः परतीर्थिकाः पार्श्वस्वादयश्च चशब्दात् यावन्तः केच नाविरता अस्मिनित्यत इदमध्ययनं कुशीलपरिभाषेत्युच्यते, किमिति कुशीला अशुद्धा गृझन्ते इत्याह-मुरित्ययं निपातः प्रशं सायां शुद्धविषये वर्तते, तद्यथा - सौराज्यमित्यादि, तथा कुरित्ययमपि निपातो जुगुप्सायामशुद्धविषये वर्तते, कुतीर्थं कुग्राम इत्यादि । यदि कुत्सितशीलाः कुशीलाः, कथं तर्हि ? परतीर्थिकाः पार्श्वस्थादयश्च तथाविधा भवन्तीत्याह- अफापडिसेवि णामं भुज्जो प सीलवादी य । फासुं वयंति सीलं अफासुया मो अर्भुजंता ॥। ८९ ।। अस्त्ययं शीलशब्दस्तत्स्वाभाव्ये, तथाहि यः फलनिरपेक्षः क्रियाखाभरणादिकासु प्रवर्तते स चेह द्रव्यशीलखेन प्रदर्शितः, अस्त्युपशमप्रधाने चारित्रे, तथाहि तत्प्रधानः शीलवानयं तपखीति, तद्विपर्ययेण दुःशील इति, स चेह भावशीलग्रहणेनोपात्त इति, इह च यतीनां ध्यानाध्ययनादिकं मुक्ला धर्माधारशरीरतत्पालनाहारव्यापारं च मुक्खा नापरः कथिव्यापारोऽस्तीत्यतस्त For Fans at Use Only 'ओघशीलं' शब्दस्य व्याख्या, 'कुशीलपरिभाषा' अध्ययनस्य अन्वर्थता ~311~ www.ncbrary.org Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [१], नियुक्ति: [८९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१|| सूत्रकृता शीलाका- चार्षीयत्तियुत ॥१५॥ दीप अनुक्रम [३८१] दाश्रयणेनैव सुशीलख दुःशीलखं च चिन्त्यते, तत्र कुतीर्थिक पार्श्वस्थादिर्वा अप्रासुकं-सचित्तं प्रतिसेवितुं शीलमस्य स भवत्य- कुशीलप्रासुकप्रतिसेवी नामशब्दः सम्भावनायां 'भूयः पुनर्धाच्छिीलवन्तमात्मानं वदितुं शीलं यस्य स शीलवादी, किमित्येवं ?-यतः परिभाषा. 'प्रासुकम्' अचेतनं शील बदन्ति, इदमुक्तं भवति-यः प्रासुकमुद्गमादिदोषरहितमाहारं भरे तं शीलवन्तं वदन्ति तज्ज्ञाः , तथा-IMS हि-यतयो प्रासुकमुद्रमादिदोषदृष्टमेवाहारमभुजानाः शीलबन्तो भण्यन्ते, नेतर इति खितं, मोशब्दस निपातसेनापधारणार्थ-18 खादिति ।। अप्रासुकभोजितेन कुशीलखं प्रतिपादयितुं दृष्टान्तमाह जह णाम गोयमा चंडीदेवगा वारिभद्दगा चेव । जे अग्निहोत्सवादी जलसोय जे य इच्छति ॥ ९॥ यथेति दृष्टान्तोपक्षेपार्थ, नामशब्दो वाक्यालङ्कारे, 'गौतमा' इति गोबतिका गृहीतशिक्षं लघुकायं वृषभमुपादाय धान्यापर्थे । प्रतिगृहमटन्ति, तथा 'चंडीदेवगा' इति चक्रधरप्रायाः एवं 'वारिभद्रका' अन्भवाः शैवलाशिनो नित्यं स्नानपादादिधावनाभि-10 रता वा तथा ये चान्ये 'अग्निहोत्रवादिनः' अग्निहोत्रादेव स्वर्गगमन मिच्छन्ति ये चान्ये जलशौचमिच्छन्ति भागवतादयस्ते सर्वेकप्यप्रासुकाहारमोजिखात् कुशीला इति, चशब्दात ये च खयथ्याः पार्श्वस्यादय उद्गमाघशुद्धमाहारं भुञ्जते तेऽपि कशीला इति । 181 |गतो नामनिष्पनो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रालापकनिष्पने निक्षेपे अस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं, सचेदं पुढवी य आऊ अगणी य वाऊ, तण रुक्स बीया य तसा य पाणा । जे अंडया जे य जराउ पाणा, संसेयया जे रसयाभिहाणा ॥१॥ ॥१५॥ कुशीलत्व प्रतिपादने दृष्टांत:, मूल सूत्रस्य आरम्भ: ~312~ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [२], नियुक्ति: [९०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सुत्रांक ||२|| दीप अनुक्रम [३८२] एयाई कायाई पवेदिताई, एतेसु जाणे पडिलेह सायं । एतेण काएण य आयदंडे, एतेसु या विप्परियासुर्विति ॥२॥ 'पृथिवीं पृथिवीकायिकाः सच्चाः चकारः खगतभेदसंसूचनार्थः, स चार्य भेदः-पृथिवी कायिकाः सूक्ष्मा बादराव, ते |च प्रत्येकं पर्याप्तकापर्याप्तकभेदेन द्विधा, एवमएकायिका अपि तथाऽग्निकायिका वायुकायिकाश्च द्रष्टव्याः, वनस्पतिकायिकान् भेदेन दर्शयति-तृणानि' कुशादीनि 'वृक्षाश्च' अश्वत्थादयो 'बीजानि' शाल्यादीनि एवं वल्लीगुल्मादयोऽपि वनस्पतिभेदा द्रष्टच्या, त्रस्यन्तीति 'सा' द्वीन्द्रियादयः 'प्राणा: प्राणिनः ये चाण्डाजाता अण्डजाः-शकुनिसरीमपादयः 'ये च जरायुजा' जम्बालवेष्टिताः समुत्पद्यन्ते, ते च गोमहिष्यजाविकमनुष्यादयः, तथा संखेदाजाता: संखेदजा यूकामत्कुणकुम्यादयः 'ये च रसजाभिधाना' दघिसौवीरकादिषु रूतपक्ष्मसनिभा इति ॥१॥ नानाभेदभिन्न जीवसंघातं प्रदाधुना तदुपधाते दोषं प्रदशयितुमाह-'एते' पृथिव्यादयः 'काया' जीवनिकाया भगवद्भिः 'प्रवेदिताः' कथिताः, छान्दसखानपुंसकलिङ्गता, 'एतेषु च पूर्व प्रतिपादितेषु पृथिवीकायादिषु प्राणिषु 'सातं सुखं जानीहि, एतदुक्तं भवति-सर्वेऽपि सवाः सातैषिणो दुःखद्विषश्चेति शाखा | 'प्रत्युपेक्षख' कुशाग्रीयया बुधा पर्यालोचयेति, यथैभिः कायैः समारभ्यमाणैः पीञ्चमानैरात्मा दण्ड्यते, एतत्समारम्भादात्मद-19 इण्डो भवतीत्यर्थः, अथवैभिरेव कायर्ये 'आयतदण्डा' दीर्घदण्डाः, एतदुक्तं भवति- एतान् कायान् ये दीर्घकालं दण्डयन्ति पीडयन्तीति, तेषां यद्भवति तदर्शयति--ते एतेष्वेव-पृथिव्यादिकायेषु विविधम् अनेकप्रकारं परि-समन्ताद् आशु-क्षिप्रमुप Stotressestaeesesesecraesese Swamirary om ~313~ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [२], नियुक्ति: [९०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्राक ||२|| sesesesedese दीप अनुक्रम [३८२] सूत्रकताङ्ग सामीप्येन यान्ति-व्रजन्ति, तेष्वेव पृथिव्यादिकायेषु विविधमनेकप्रकारं भूयो भूयः समुत्पद्यन्त इत्यर्थः, यदिवा-विपर्यासो-४७कुशीलशीलाका व्यत्ययः, मुखार्थिमिः कायसमारम्भः क्रियते तत्समारम्भेण च दुःखमेवावाप्यते न सुखमिति, यदिवा कुतीथिका मोक्षार्थमेतैः परिभाषा. चाय-1 कार्ययों क्रियां कुर्वन्ति तया संसार एव भवतीति ॥२॥ यथा चासावायतदण्डो मोक्षार्थी तान् कायान् समारभ्य तद्विपर्ययात् सियुतं संसारमानोति तथा दर्शयति॥१५५। जाईपहं अणुपरिवहमाणे, तसथावरेहिं विणिघायमेति । से जाति जाति बहुकूरकम्मे, जं कुबती मिजति तेण बाले ॥३॥ अस्सि च लोए अदुवा परत्था, सयग्गसो वा तह अन्नहा वा। संसारमावन्न परं परं ते, बंधति वेदंति य दुनियाणि ॥४॥ जातीनाम् एकेन्द्रियादीनां पन्था जातिपथः, यदिवा-जातिः-उत्पत्तिर्वधो मरण जातिश्च वधश्च जातिवधं तद् 'अनुपरिवर्तमान' एकेन्द्रियादिषु पर्यटन् जन्मजरामरणानि वा बहुशोऽनुभवन् 'बसे तेजोवायुद्वीन्द्रियादिषु 'स्थावरेषु च पृथिव्यम्बुवनस्पतिषु समुत्पन्नः सन् कायदण्डविपाकजेन कर्मणा बहुशो 'चिनिघात' विनाशमेति-अवाप्नोति 'स' आयतदण्डोऽसुमान र | 'जाति जातिम्' उत्पत्तिमुत्पत्तिमवाप्य बहूनि क्रूराणि-दारुणान्यनुष्ठानानि यस स भवति बहुकूरकर्मा, स एवम्भूतो निर्वि|| वेकः सदसद्विवेकशून्यखात् बाल इव बालो यस्थामेकेन्द्रियादिकायां जाती यत्प्राण्युपमर्दकारि कर्म कुरुते स तेनैव कर्मणा 'मी Receaesea ~314~ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥४॥ दीप अनुक्रम [३८४] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र -२ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [४], निर्युक्तिः [९०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः यते' त्रियते पूर्यते यदिवा 'मी हिंसायाँ' मीयते हिंस्यते अथवा चहुक्रूरकर्मेति चौरोऽयं पारदारिक इति वा इत्येवं तेनैव | कर्मणा मीयते - परिच्छिद्यत इति ॥ ३ ॥ ॥ क पुनरसी तैः कर्मभिर्मीयते इति दर्शयति-यान्याशुकारीणि कर्माणि तान्यस्मिन्नेव | जन्मनि विपाकं ददति, अथवा परस्मिन् जन्मनि नरकादौ तस्य कर्म विपाकं ददति, एकस्मिन्नेव जन्मनि विपाकं तीव्रं ददति 'शताग्रशो वे 'ति बहुषु जन्मसु येनैव प्रकारेण तदशुभमाचरन्ति तथैवोदीर्यते तथा - 'अन्यथा वेति, इदमुक्तं भवतिकिञ्चित्कर्म तद्भव एव विपाकं ददाति किञ्चिच जन्मान्तरे, यथा - मृगापुत्रस्य दुःखविपाकाख्ये विपाकश्रुताङ्गश्रुतस्कन्धे कथितमिति, दीर्घकालस्थितिकं खपरजन्मान्तरितं वेद्यते, येन प्रकारेण सकृत्तथैवानेकशो वा यदिवाऽन्येन प्रकारेण सकृत्सहस्रशो वा शिरश्छेदादिकं हस्तपादच्छेदादिकं चानुभूयत इति, तदेवं ते कुशीला आयतदण्डाश्चतुर्गतिकसंसारमापन्ना अरहट्टघटीयन्त्रन्यायेन संसारं पर्यटन्तः परं परं प्रकृष्टं प्रकृष्टं दुःखमनुभवन्ति, जन्मान्तरकृतं कर्मानुभवन्तचैकमार्तध्यानोपहता अपरं चनन्ति वेदयन्ति च दुष्टं नीतानि दुर्नीतानि दुष्कृतानि न हि स्वकृतस्य कर्मणो विनाशोऽस्तीतिभावः, तदुक्तम्- “मा होहि रे विसमो जीव ! तुमं विमणदुम्मणो दीणो । गहु चिंतिएण फिल्इ तं दुक्खं जं पुरा रइयं ॥ १ ॥ जैइ पविससि पायालं अडवि वदरिं गृहं समुई । पुत्रकयाउ न चुकसि अप्पाणं घायसे जइचि ॥ २ ॥ ॥ ४ ॥ एवं तावदोषतः कुशीलाः प्रतिपादिताः, तदधुना पापण्डिकानधिकृत्याह- ७१ मा भव ! खं विमना दुर्मना दीनः । नैव चिन्तितेन स्फेटते तदुःखं यत्पुरा रचितं ॥ १ ॥ २ यदि प्रविशति पातानं अटवी वा दरी गुहाँ समुद्रं वा पूर्वकृताचैव अश्यसि आत्मानं पातयसि यद्यपि ॥ १ ॥ Education intonal For First Use Only ~315~ www.laincibrary.org Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [५], नियुक्ति: [९०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सुत्राक ||५|| सूत्रकृताई शीलाङ्काचायायचियुतं ॥१५६॥ दीप अनुक्रम [३८५] जे मायरं वा पियरं च हिच्चा, समणवए अगणिं समारभिजा। ७ कुशील परिभाषा. अहाहु से लोए कुसीलधम्मे, भूताई जे हिंसति आयसाते ॥५॥ उज्जालओ पाण निवातएज्जा, निव्वावओ अगणि निवायवेज्जा । तम्हा उ मेहावि समिक्ख धम्म, ण पंडिए अगणि समारभिजा ॥६॥ 'ये' केचनाविदितपरमार्था धर्मार्थमुत्थिता मातरं पितरं च त्यक्ता, मातापित्रोर्दुस्त्यजत्रात् तदुपादानमन्यथा श्रातपुत्रादिकमपि त्यक्त्वेति द्रष्टव्यं, श्रमणव्रते किल वयं समुपस्थिता इत्येवमभ्युपगम्याग्निकार्य समारभन्ते, पचनपाचनादिप्रकारेण कृतकारि| तानुमत्यौदेशिकादिपरिभोगाच्चाग्निकायसमारम्भ कुयुरित्यर्थः, अथेति वाक्योपन्यासार्थः, 'आहु' रिति तीर्थकद्गणधरादय एव| मुक्तवन्तः यथा सोऽयं पापण्डिको लोको गृहस्थलोको वाग्निकायसमारम्भात् कुशीलः कुत्सितशीलो धर्मो यस्य स कुशीलधमों, | अयं किम्भूत इति दर्शयति--अभूवन् भवन्ति भविष्यन्तीति भूतानि-प्राणिनस्तान्यात्मसुखार्थ 'हिनस्ति व्यापादयति, तथा हि-पश्चाग्नितपसा निष्टप्तदेहास्तथाऽग्निहोत्रादिकया च क्रियया पापण्डिकाः स्वर्गावाप्तिमिच्छन्तीति, तथा लौकिकाः पचनपाचनादिप्रकारेणाग्निकार्य समारभमाणाः सुखमभिलपन्तीति ॥ ५॥ अनिकायसमारम्भे च यथा प्राणातिपातो भवति तथा दर्शयितु-IN||१५६॥ माह-तपनतापनप्रकाशादिहेतुं काष्ठादिसमारम्भेण योऽग्निकार्य समारभते सोऽग्निकायमपरांश्च पृथिव्याधाश्रितान् स्थावरांनसांश्च प्राणिनो निपातयेत्, त्रिभ्यो वा मनोवाकायेभ्य आयुषलेन्द्रियेभ्यो वा पातयेभिपातयेत् (त्रिपातयेत् ), तथानिकायमुदकादिना eserevercerseeneseseseservesea Hirwlanmiorary.org ~316~ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [६], नियुक्ति: [९०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||६|| cekcese दीप अनुक्रम [३८६] 'निर्वापयन्' विध्यापर्यस्तदाश्रितानन्यांच प्राणिनो निपातयेत्रिपातयेद्वा तत्रोञ्चालकनिर्वापकयोर्योऽग्निकायमुज्ज्वलयति स बहू-18 नामन्यकायानां समारम्भकः, तथा चागमः-"दो भंते ! पुरिसा अनमन्त्रेण सद्धि अगणिकार्य समारभंति, तत्थ णं एगे पु-18| | रिसे अगणिकार्य उजालेह एगेणं पुरिसे अगणिकार्य निववेइ, तेसि भंते! पुरिसाणं कयरे पुरिसे महाकम्मतराए कयरे वा पुरिसे |8| | अप्पकम्मतराए !, गोयमा ! तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं उज्जालेह से णं पुरिसे बहुतरागं पुढविकार्य समारभति, एवं 8 आउकार्य वाउकार्य वणस्सइकार्य तसकार्य अप्पतरागं अगणिकार्य समारभइ, तत्थ ण जे से पुरिसे अगणिकार्य निवावेइ से | पुरिसे अप्पतरागं पुढविकार्य समारभइ जाव अप्पतरागं तसकार्य समारभइ बहुतरार्ग अगणिकार्य समारभर, से एतेणं अटेणं गोयमा! एवं चुदइ" | अपि चोक्तम्-"भूयाणं एसमाघाओ, हबवाहो ण संसओ" इत्यादि । यस्मादेवं तस्मात् 'मेधावी' सद| सद्विवेकः सश्रुतिक समीक्ष्य धर्म पापाड्डीनः पण्डितो नाग्निकार्य समारभते, स एव च परमार्थतः पण्डितो योनिकायसमारम्भ|कृतात् पापानिवर्तत इति ।। ६॥ कथमग्निकायसमारम्भेणापरप्राणिवधो भवतीत्याशक्याह पुढवीवि जीवा आऊवि जीवा, पाणा य संपाइम संपयंति । संसेयया कटुसमस्सिया य, एते 18 दहे अगणि समारभंते ॥ ७॥ हरियाणि भूताणि विलंबगाणि, आहार देहा य पुढो सियाई। १ भूतानामेष माधातो हन्यवाही न संशयः ॥ Eseseversecenectioeceiverserseces ~317~ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [३८८] सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्का चाय नियुतं ॥१५७॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र -२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ७ ], उद्देशक [-], मूलं [८], निर्युक्ति: [ ९० ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः जे छिंदती आयसु पहुच, पागन्भि पाणे बहुणं तिवाती ॥ ८ ॥ जातिं च बुद्धिं च विणायंते, बीयाई अस्संजय आयदंडे । अहाहु से लोऍ अणजधम्मे, बीयाइ जे हिंसति आयसाते ॥ ९ ॥ गभाइ मिज्जति बुयाबुयाणा, णरा परे पंचसिहा कुमारा । जुवाणगा मज्झिम थेरगा य, ( पाठांतरे पोरुसा य) वयंति ते आउखए पलीणा ॥ १० ॥ न केवलं पृथिव्याश्रिता द्वीन्द्रियादयो जीवा यापि च पृथ्वी- मृलक्षणा असावपि जीवाः, तथा आपश्च- द्रवलक्षणा जीवास्त| दाश्रिताश्च प्राणाः 'सम्पातिमाः शलमादयस्तत्र सम्पतन्ति, तथा 'संखेदजाः' करीषादिष्विन्धनेषु घुणपिपीलिकाकम्यादयः काष्ठाद्याश्रिताश्च ये केचन 'एतान्' स्थावरजङ्गमान् प्राणिनः स दहेद् योऽग्रिकार्यं समारभेत, ततोऽनिकायसमारम्भो महादोषायेति ॥ ७ ॥ एवं तावदग्निकायसमारम्भकास्तापसाः तथा पाकादनिवृत्ताः शाक्यादयश्चापदिष्टाः, साम्प्रतं ते चान्ये वनस्पतिसमारम्भादनिवृत्ताः परामृश्यन्ते इत्याह- 'हरितानि' दूर्वाङ्कुरादीन्येतान्यप्याहारादेर्वृद्धिदर्शनात् 'भूतानि' जीवाः तथा 'विलस्वकानीति' जीवाकारं यान्ति विलम्बन्ति — धारयन्ति, तथाहि--कललार्बुदमांसपेशीगर्भप्रसवचालकुमारयुत्रमध्यमस्थाविराव| स्थातो मनुष्यो भवति, एवं हरितान्यपि शाल्यादीनि जातान्यभिनवानि संजातरसानि यौवनवन्ति परिपकानि जीर्णानि परिशुष्काणि मृतानि तथा वृक्षा अप्यङ्कुरावस्थायां जाता इत्युपदिश्यन्ते मूलस्कन्धशाखाप्रशाखादिभिर्विशेषैः परिवर्धमाना युवानः Jan Education national For Printe ~318~ ७ कुशीलपरिभाषा. ॥१५७॥ wor Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥१०॥ दीप अनुक्रम [३९०] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [१०], निर्युक्तिः [९०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः Education m - योता इत्युपदिश्यन्त इत्यादि शेषास्वप्यवस्थास्वायोज्यं, तदेवं हरितादीन्यपि जीवाकारं विलम्बयन्ति तत एतानि मूलस्कन्धशाखापत्रपुष्पादिषु स्थानेषु 'पृथक' प्रत्येकं 'श्रितानि' व्यवस्थितानि, न तु मूलादिषु सर्वेष्वपि समुदितेषु एक एव जीवः, एतानि | च भूतानि सश्येयास त्यानन्त भेदभिन्नानि वनस्पतिकायाश्रितान्याहारार्थ देहोपचयार्थ देहक्षत संरोहणार्थं वाऽऽत्मसुखं 'प्रतीत्य' | आश्रित्य यच्छिनत्ति स 'प्रागल्भ्यात्' घार्थ्यावष्टम्भाद्बहूनां प्राणिनामतिपाती भवति, तदतिपाताच्च निरनुक्रोशतया न धर्मो नाप्यात्मसुखमित्युक्तं भवति ॥ ८ ॥ किञ्च - 'जातिम्' उत्पत्तिं तथा अङ्कुरपत्रमूलस्कन्धशाखाप्रशाखाभेदेन वृद्धिं च विनाशयन् बीजानि च तत्फलानि विनाशयन् हरितानि छिनचीति, 'असंयतः' गृहस्थः प्रब्रजितो वा तत्कर्मकारी गृहस्थ एव, स च हरितच्छेदविधाय्यात्मानं दण्डयतीत्यात्मदण्डः, स हि परमार्थतः परोपघातेनात्मानमेवोपहन्ति, अथशब्दो वाक्यालङ्कारे 'आहुः' एवमुक्तवन्तः किमुक्तवन्त इति दर्शयति-यो हरितादिच्छेदको निरनुक्रोशः 'सः' असिन् लोके 'अनार्यधर्मा' क्रूरकर्मकारी भवतीत्यर्थः, स च क एवम्भूतो यो धर्मापदेशेनात्मसुखार्थ वा बीजानि अस्य चोपलक्षणार्थंलात् वनस्पतिकार्य हिनस्ति स पापण्डिकलोकोऽन्यो वाऽनार्यधर्मा भवतीति सम्बन्धः ||९|| साम्प्रतं हरितच्छेदकर्मविपाकमाह — इह वनस्पतिकायो| पमर्दकाः बहुषु जन्मसु गर्भादिकास्ववस्थासु कललार्बुदमांसपेशीरूपासु म्रियन्ते, तथा 'ब्रुवन्तोऽब्रुवन्तश्च' व्यक्तवाचोऽव्यक्तवाचच तथा परे नराः पञ्चशिखाः कुमाराः सन्तो म्रियन्ते, तथा युवानो मध्यमवयसः स्थविराथ कचित्पाठो 'मज्झिमपोरुसा य'ति तत्र 'मध्यमा' मध्यमवयसः 'पोरुसा य'त्ति पुरुषाणां चरमावस्थां प्राप्ता अत्यन्तवृद्धा एवेतियावत्, तदेवं सर्वा For First Use Only ~319~ www.ncbrary.org Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [१०], नियुक्ति: [९०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: परिभाषा. प्रत सूत्रांक ||१०|| सूत्रकृता शीकाकाचायिचियुतं ॥१५॥ दीप खप्यवस्थासु बीजादीनामुपमईकाः खायुषः क्षये प्रलीनाः सन्तो देहं त्यजन्तीति, एवमपरस्थावरजङ्गमोपमईकारिणामप्यनियतायु-18 कसमायोजनीयम् ॥ १०॥ किश्चान्यत्• संबुज्झहा जंतवो! माणुसत्तं, दहूं भयं बालिसेणं अलंभो । एगंतदुक्खे जरिए व लोए, सकम्मुणा विपरियासुवेइ ॥ ११ ॥ इहेग मूढा पवयंति मोक्खं, आहारसंपजणवजणेणं । एगे य सीओदगसेवणेणं, हुएण एगे पवयंति मोक्खं ॥१२॥ पाओसिणाणादिसु णस्थि मोक्खो, खारस्स लोणस्स अणासएणं । ते मजमंसं लसणं च भोच्चा, अन्नत्थ वासं परिकप्पयंति ॥१३॥ उदगेण जे सिद्धिमुदाहरंति, सायं च पायं उदगं फुसंता । उदगस्स फासेण सिया य सिद्धी, सिझिसु पाणा बहवे दगंसि ॥ १४ ॥ हे!'जन्तवः' पाणिनः! सम्बुध्यध्वं यूर्य, न हि कुशीलपाषण्डिकलोकखाणाय भवति, धर्म च सुदुर्लभलेन सम्बुध्यध्वं, तथा चोक्तम्-"माणुस्सखेचजाई कूलरूवारोग्गमाउयं बुद्धी । सवणोग्गहसद्धा संजमो य लोगंमि दुलहाई ॥१॥" तदेवमकृतधमोणां मनुष्यलमतिदुर्लभमित्यवगम्य तथा जातिजरामरणरोगशोकादीनि नरकतिर्यक्षु च तीनदुःखतया भयं दृष्ट्वा तथा मानुष्यं क्षेत्र जातिः कुल रूपं आरोग्य आयुः बुद्धिः श्रवणमवप्रहः श्रद्धा संयमब लोके दुर्लभानि ॥१॥ 992609009009009 अनुक्रम [३९० ~320~ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [१४], नियुक्ति: [९०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१४|| दीप ॥९॥ 'बालिशेन' अज्ञेन सदसद्विवेकस्यालम्भ इत्येतचावगम्य तथा निश्चयनयमवगम्य एकान्तदुःखोऽयं ज्वरित इव 'लोक' संसारिप्रा-19॥ ॥ णिगणः, तथा चोक्तम्-"जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि य । अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसंति पाणिणो |||| 1॥१॥" तथा-"तहाइयस्स पाणं कुरो छुहियस्स भुज्जए तिची | दुक्खसयसंपउत्तं जरियमिव जगं कलयलेइ ॥१॥" इति, ॥ अत्र चैवम्भूते लोके अनार्यकर्मकारी खकर्मणा 'विपर्यासमुपैति सुखार्थी प्राण्युपमई कुर्वन् दुःखं प्राप्नोति, यदिवा मोक्षार्थी | ॥४॥ संसारं पर्यटतीति ॥ ११ ।। उक्तः कुशीलविपाकोऽधुना तदर्शनान्यभिधीयन्ते-'इहे'ति मनुष्यलोके मोक्षगमनाधिकारे वा, एके | || केचन 'मूढा' अज्ञानाऽऽच्छादितमतयः परैव मोहिताः प्रकर्षण बदन्ति प्रवदन्ति-प्रतिपादयन्ति, किं तत् ?-'मोक्ष' मोक्षा- |४|| वाप्ति, केनेति दर्शयति-आहियत इत्याहार-ओदनादिस्तस्य सम्पद्र सपुष्टिस्ता जनयतीत्याहारसम्पज्जनन-लवर्ण, तेन या-1 हारस्य रसपुष्टिः क्रियते, तस्य वर्जनं तेनाऽऽहारसम्पज्जननवर्जनेन-लवणवर्जनेन मोक्ष वदन्ति, पाठान्तरं वा 'आहारसपंचय| वनणण' आहारेण सह लवणपश्चकमाहारसपञ्चक, लवणपञ्चकं चेदं, तद्यथा-सैंधवं सौवचेल विडं रोम सामुद्रं चेति, लवणेन || हि सर्वरसानामभिव्यक्तिर्भवति, तथा चोक्तम्-"लवणविहणा य रसा चक्खुविहूणा य ईदियग्गामा । धम्मो दयाय रहिओ | सोक्खं संतोसरहियं नो ॥१॥" तथा 'लवणं रसानां तैलं स्नेहानां घृतं मेध्याना'मिति, तदेवम्भूतलवणपरिवर्जनेन रसपरि-18 II १ कर्मोदयसपादितमुखाविपरिणामान तन्मते दुःखरूपलात् । २ जन्म दुःखं जरा दुःख रोगाच भरण व महो दुःखः एव संसारः यत्र लिश्यन्ति जन्तवः ॥ ए तृष्णादितख पानं कूरः क्षुधित भुची तृप्तिः दुत्वशतसम्प्रयुज्वस्तिमिव जगत्कसकलति॥१॥४उवाविहीनाथ रसाषाविहानाबान्वयमामा । धो दण्या रक्षितः सौख्य सन्तोषरहितं न॥१॥ अनुक्रम [३९४] wwjanNIDram.org ~321 Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [१४], नियुक्ति: [९०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: cees प्रत सूत्रांक ||१४|| दीप सुत्रकृता | त्याग एव कृतो भवति, तत्यागाच मोक्षावाप्तिरित्येवं केचन मूढाः प्रतिपादयन्ति, पाठान्तरं वा 'आहारओ पंचकचजणेणं || ७ कुशीलशीलाङ्का- आहारत इति ल्यब्लोपे कर्मणि पञ्चमी आहारमाश्रित्य पञ्चकं वर्जयन्ति, तद्यथा-लसुणं पलाण्डः करभीक्षीरं गोमांस मचं चेत्ये-18 परिभाषा. चार्यायवृ तत्पञ्चकवर्जनेन मोक्षं प्रवदन्ति, तथैके 'वारिभद्रकादयो' भागवतविशेषाः 'शीतोदकसेवनेन' सचित्ताप्कायपरिभोगेन मोक्षं 18| चियुत प्रवदन्ति, उपपत्तिं च ते अभिदधति-यथोदकं बाबमलमपनयति एवमान्तरमपि, वस्त्रादेव यथोदकाच्छुद्धिरुपजायते एवं बार॥१५९॥ शुद्धिसामर्थ्यदर्शनादान्तरापि शुद्धिरुदकादेवेति मन्यन्ते, तथैके तापसब्राह्मणादयो हुतेन मोक्ष प्रतिपादयन्ति, ये किल स्वर्गादि-॥ फलमनाशस्य समिधाघृतादिमिर्हव्यविशेषैर्युताशनं तर्पयन्ति ते मोक्षायाग्निहोत्रं जुइति शेषास्तभ्युदयायेति, युक्तिं चात्र ते आहुः| यथा शानिः सुवर्णादीनां मल दहत्येवं दहनसामर्थ्यदर्शनादात्मनोऽप्यान्तरं पापमिति ।। १२ ।। तेषामसम्बद्धप्रलापिनामुत्तरदाना-1॥ याह-'प्रातः स्नानादिषु नास्ति मोक्ष' इति प्रत्यूषजलावगाहनेन निःशीलानां मोक्षो न भवति, आदिग्रहणात् हस्तपादादिप्रक्षालनं गृह्यते, तथाहि-उदकपरिभोगेन तदाश्रितजीवानामुपमईः समुपजायते, न च जीवोपमर्दान्मोक्षावाप्तिरिति, न चैकान्ते- ॥1 |नोदकं बाबमलस्याप्यपनयने समर्थम् , अथापि स्यात्तथाप्यान्तरं मलं न शोधयति, भावशुद्ध्या तच्छुद्धे, अथ भावरहितस्यापि, 18| तच्छुद्धिः स्यात् ततो मत्स्यबन्धादीनामपि जलाभिषेकेण मुक्त्यवाप्तिः स्यात् । तथा-क्षारस्य' पश्चप्रकारस्थापि लवणस्य 'अनश-18 नेन' अपरिभोगेन मोक्षो नास्ति, तथाहि-लवणपरिभोगरहिताना मोक्षो भवतीत्ययुक्तिकमेतत् न चायमेकान्तो लवणमेव रसपुष्टिजनकमिति, क्षीरशर्करादिभिर्व्यभिचारात, अपिचासौ प्रष्टव्यः-कि द्रव्यतो लवणवर्जनेन मोक्षावाप्तिः उत भावतः, यदि १०कादेरेवेति प्र० । २ पारिभाषिकलवणमात्रप्रतिपत्तिनिरासाय क्षारेति, अत एव पश्चप्रकारस्थापीति वृत्तिः । ३ चणकादेरपि क्षारादिमस्वाकवणेति । अनुक्रम [३९४] Sass909250sasase ॥१५९॥ ~322~ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१४|| दीप अनुक्रम [ ३९४] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र- २ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [१४], निर्युक्तिः [९०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ...... आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः द्रव्यतस्ततो लवणरहितदेशे सर्वेषां मोक्षः स्यात् न चैवं दृष्टमिष्टं वा, अथ भावतस्ततो भाव एव प्रधानं किं लचणवर्जनेनेति, तथा 'ते' मूढा मद्यमांसं लघुनादिकं च भुक्सा 'अन्यत्र' मोक्षादन्यत्र संसारे वासम् अवस्थानं तथाविधानुष्ठानसद्भावात् सम्यग्दर्शन| ज्ञानचारित्ररूपमोक्षमार्गस्याननुष्ठानाच्च 'परिकल्पयन्ति' समन्तान्निष्पादयन्तीति ॥ १३ ॥ साम्प्रतं विशेषेण परिजिहीर्षुराहतथा ये केचन मृढा 'उदकेन' शीतवारिणा 'सिद्धिं' परलोकम् 'उदाहरन्ति' प्रतिपादयन्ति - 'सायम्' अपराह्ने विकाले वा 'प्रातश्च' प्रत्युषसि च आद्यन्तग्रहणात् मध्याह्ने च तदेवं सन्ध्यात्रयेऽप्युदकं स्पृशन्तः स्नानादिकां क्रियां जलेन कुर्वन्तः प्राणिनो | विशिष्टां गतिमाप्नुवन्तीति केचनोदाहरन्ति एतच्चासम्यक् यतो यद्युदकस्पर्शमात्रेण सिद्धिः स्यात् तत उदकसमाश्रिता मत्स्यथन्धादयः क्रूरकर्माणो निरनुक्रोशा बहवः प्राणिनः सिद्धयेयुरिति, यदपि तैरुच्यते - बाह्यमलापनयनसामर्थ्य मुदकस्य दृष्टमिति तदपि विचार्यमाणं न घटते, यतो यथोदकमनिष्टमलमपनयत्येवमभिमतमप्यङ्गरागं कुङ्कुमादिकमपनयति, ततच पुण्यस्थापनयनादिष्टविघातक द्विरुद्धः स्यात् किञ्च यतीनां ब्रह्मचारिणाम्मुदकस्नानं दोषायैव, तथा चोक्तम्- “स्नानं मददर्पकरं, कामाङ्गं प्रथमं स्मृतम् । तस्मात्कामं परित्यज्य, न ते स्नान्ति दमे रताः ॥ १ ॥ " अपिच - "नोदकक्लिन्नगात्रो हि, स्नात इत्यभिधीयते । स स्नातो यो व्रतस्नातः, स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः ॥ १ ॥ " ॥ १४ ॥ किञ्च - मच्छा य कुम्मा य सिरीसिवा य, मग्गू य उट्ठा (हा) दगरक्खसा य । अट्ठाणमेयं कुसला वयंति, १ अन्येषामपि भाषाशुद्धयापादकानां वर्जनीयखात, भयमांसादिभोजित्वं वक्ष्यत्वमे । Education Intimation Forest Use Only ~323~ www.jancibrary.org Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [१५], नियुक्ति: [९०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१५|| seeरब परिभाषा. दीप अनुक्रम [३९५] सूत्रकृताई उदगेण जे सिद्धिमुदाहरंति ॥ १५॥ उदयं जइ कम्ममलं हरेजा, एवं सुहं इच्छामित्तमेव । शीलाका अंधं व णेयारमणुस्सरित्ता, पाणाणि चेवं विणिहंति मंदा ॥ १६ ॥ पावाई कम्माई पकुवतो चायित्चियुत हि, सिओदगं तू जइ तं हरिजा । सिझिसु एगे दगसत्तघाती, मुसं वयंते जलसिद्धिमाहु ॥१६०॥ ॥ १७ ॥ हुतेण जे सिद्धिमुदाहरंति, सायं च पायं अगणि फुसंता । एवं सिया सिद्धि हवेज तम्हा, अगणिं फुसंताण कुकम्मिपि ॥ १८ ॥ यदि जलसम्पर्कात्सिद्धिः स्यात् ततो ये सततमुदकावगाहिनो मत्स्याश्च कर्माच सरीमपाश्च तथा मद्गवः तथोष्ट्रा-जलचरविशे-18 |पाः तथोदकराक्षसा-जलमानुषाकृतयो जलचरविशेषा एते प्रथम सिद्ध्येयुः, न चैतदृष्टमिष्टं वा, ततश्च ये उदकेन सिद्धिमदाहर-12 न्त्येतद् 'अस्थानम्' अयुक्तम्-असाम्प्रतं 'कुशला' निपुणा मोक्षमार्गाभिज्ञा वदन्ति ॥ १५॥ किश्चान्यत्-यादक कम| लमपहरेदेवं शुभमपि पुण्यमपहरेत् , अथ पुण्यं नापहरेदेवं कर्ममलमपि नापहरेत , अत इच्छामात्रमेवैतबदुच्यते-जलं कमोपहारीति, एवमपि व्यवस्थिते ये स्नानादिकाः क्रियाः मातमार्गमनुसरन्तः कुर्वन्ति ते यथा जात्यन्धा अपरं जात्यन्धमेव नेतारमनु सत्य गच्छन्तः कुपथथितयो भवन्ति नाभिप्रेतं स्थानमवाप्नुवन्ति एवं सार्तमार्गानुसारिणो जलशौचपरायणा 'मन्दा अज्ञाः LI कर्तव्याकर्तव्यविवेकविकलाः प्राणिन एव तन्मयान् तदाश्रितांश्च पूतरकादीन् 'विनिमन्ति' व्यापादयन्ति, अवश्यं जलक्रियया ॥१६॥ ~324 ~ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१८|| दीप अनुक्रम [३९८] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र- २ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ७ ], उद्देशक [-], मूलं [१८], निर्युक्ति: [९०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ...... आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः | प्राणव्यपरोपणस्य सम्भवादिति ।। १६ ।। अपिच 'पापानि' पापोपादानभूतानि 'कर्मणि' प्राण्युपमर्दकारीणि कुर्वतोऽसुमतो यत्कमपचीयते तत्कर्म यद्युदकमपहरेत् यद्येवं स्यात् तर्हि हिः यस्मादर्थे यस्मात्प्राण्युपमर्देन कर्मोपादीयते जलावगाहनाचापगच्छति तस्मादुदकसत्त्वघातिनः पापभूयिष्ठा अप्येवं सिद्धयेयुः, न चैतदृष्टमिष्टं वा, तसाद्ये जलावगाहनात्सिद्धिमाहुः ते मृषा वदन्ति ॥ १७ ॥ किञ्चान्यत् 'अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकाम' इत्यसाद्वाक्यात् 'ये' केचन मूढा 'हुतेन' अभी हन्यप्रक्षेपेण 'सिद्धिं' सुगतिगमनादिकां स्वर्गाबासिलक्षणाम् 'उदाहरन्ति' प्रतिपादयन्ति कथम्भूताः :- सायम्' अपराह्ने विकाले वा 'प्रातश्च' प्रत्युषसि अग्रि 'स्पृशन्तः' यथेष्टेर्हन्यैरग्निं तर्पयन्तस्तत एव यथेष्टगतिमभिलपन्ति, आहुश्चैवं ते यथा - अग्रिकार्यात्स्यादेव सिद्धिरिति, तत्र च यद्येवमनिस्पर्शेन सिद्धिर्भवेत् ततस्तसादर्शि संस्पृशतां 'कुकर्मिणाम्' अङ्गारदाहककुम्भकारायस्कारादीनां सिद्धिः स्यात् यदपि च मंत्रपूतादिकं तैरुदाह्रियते तदपि च निरन्तराः सुहृदः प्रत्येष्यन्ति यतः कुकर्मिणामध्यमिकायें भमापादनमग्नि| होत्रिकादीनामपि भस्मसात्करणमिति नातिरिच्यते कुकर्मिभ्योऽग्निहोत्रादिकं कर्मेति यदप्युच्यते-अनिमुखा वै देवाः, एतदपि युक्तिविकललात् बायात्रमेव विष्ठादिभक्षणेन चात्रेस्तेषां बहुतरदोषोत्पचेरिति ॥ १८ ॥ उक्तानि पृथक् कुशीलदर्शनानि, अयमपरस्तेषां सामान्योपालम्भ इत्याह Education intol अपरिक्ख दिट्टं णहु एव सिद्धी, एहिंति ते घायमबुज्झमाणा । भूपहिं जाणं पडिलेह सातं, विज्जं गहायं तस्थावरेहिं ॥ १९ ॥ थति लुप्पंति तसंति कम्मी, पुढो जगा परिसंखाय भि For Funny ~325~ www.landbryg Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [२०], नियुक्ति: [९०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२०|| दीप कृताङ्गं क्खू । तम्हा विऊ विरतो आयगुत्ते, दटुं तसे या पडिसंहरेजा ॥ २०॥ जे धम्मलई विणिशीला परिभाषा. चायीय हाय भुंजे, वियडेण साहटु य जे सिणाई । जे धोवती लूसयतीव वत्थं, अहाहु से णागणित्तियुतं यस्स दूरे ॥ २१॥ कम्मं परिन्नाय दगंसि धीरे, वियडेण जीविज य आदिमोक्खं । से बीयक॥१६॥ दाइ अभुजमाणे, विरते सिणाणाइसु इस्थियासु ॥ २२ ॥ यैर्मुमुक्षुभिरुदकसम्पर्केणाग्निहोत्रेण वा सिद्धिरभिहिता तैः 'अपरीक्ष्य दृष्टमेतत्' युक्तिविकलमभिहितमेतत् , किमिति ॥३॥ 18| यतो 'नछु' नैव 'एवम् अनेन प्रकारेण जलावगाहनेन अग्निहोत्रेण वा प्राण्युपमईकारिणा सिद्धिरिति, ते च परमार्थमबुदयमानाः प्राण्युपपातेन पापमेव धर्मबुद्ध्या कुर्वन्तो घात्यन्ते-व्यापाद्यन्ते नानाविधैः प्रकारैर्यस्मिन् प्राणिनः स घात:--संसारस्तमेष्यन्ति, अपकायतेजाकायसमारम्भेण हि त्रसस्थावराणां प्राणिनामवश्यं भावी विनाशस्तविनाशे च संसार एव न सिद्धिरित्यभिप्राय:,18 कायत एवं ततो 'विद्वान्' सदसद्विवेकी यथावस्थिततत्त्वं गृहीला बसस्थावरभूतैः-जन्तुभिः कथं साम्पत-सुखमवाप्यत इत्ये-18 ॥१६॥ । तत् प्रत्युपेक्ष्य जानीहि-अवबुझ्यस्ख, एतदुक्तं भवति-सर्वेऽप्यसुमन्तः सुखैषिणो दुःखद्विषो, न च तेषां सुखैषिणा दुःखोत्पादशकलेन सुखावाप्तिर्भवतीति, यदिवा-'विजं गहाय'ति विद्यां शानं गृहीला विवेकमुपादाय त्रसस्थावरैर्भूतैर्जन्तुभिः करणभूतैः SONGSeasoooooooo अनुक्रम [४०० ~326~ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [२२], नियुक्ति: [९०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम [४०२] papaeraereas easease सात' सुखं 'प्रत्युपेक्ष्य' पर्यालोच्य 'जानीहि अवगच्छेति, यत उक्तम्-“पढेम नाणं तयो दया, एवं चिट्ठइ सह संजए । अन्नाणी किं काही, किंवा णाही छेयपाचगं ॥१॥ इत्यादि" ॥१९॥ ये पुनः प्राण्युपमर्दैन सातमभिलपन्तीत्यशीलाः कुशीलाश्च ते संसारे एवंविधा अवस्था अनुभवन्तीत्याह-तेजःकायसमारम्भिणो भूतसमारम्भेण सुखमभिलषन्तो नरकादिगतिं गतास्तीबदुः। खैः पीड्यमाना असह्यवेदनाघ्रातमानसा अशरणाः 'स्तनन्ति' रुदनति केवलं करुणमाक्रन्दन्तीतियावत् तथा 'लुप्पंतीति छिद्यन्ते खड्गादिमिरेवं च कदर्यमानाः 'त्रस्यन्ति' प्रपलायन्ते, कर्माण्येषां सन्तीति कर्मिणः-सपापा इत्यर्थः, तथा पृथक् 'जगा' इति । | जन्तव इति, एवं 'परिसङ्ख्याय' ज्ञाला मिक्षणशीलो 'भिक्षुः साधुरित्यर्थः, यमात्प्राण्युपमर्दकारिणः संसारान्तर्गता विलुप्यन्ते । तसात् 'विद्वान्' पण्डितो विरतः पापानुष्ठानादात्मा गुप्तो यस्य सोऽयमात्मगुप्तो मनोवाकायगुप्त इत्यर्थः, दृष्ट्वा च त्रसान् चश-10 ब्दात्स्यावरांश्च 'दृष्ट्वा' परिज्ञाय तदुपपातकारिणी क्रिर्या 'प्रतिसंहरेत् निवर्तयेदिति ॥२०॥ साम्प्रतं खयूथ्याः कुशीला अ-18| भिधीयन्त इत्याह-ये केचन शीतलविहारिणो धर्मेण-मुधिकया लब्धं धर्मलम्धं उद्देशकक्रीतकृतादिदोषरहितमित्यर्थः, तदेव-13 म्भूतमप्याहारजातं. 'विनिधाय' व्यवस्थाप्य सन्निधिं कृता भुञ्जन्ते तथा ये 'विकटेन' प्रासुकोदकेनापि सङ्कोच्याङ्गानि प्रासुक एव प्रदेशे देशसर्वस्वानं कुर्वन्ति तथा यो वस्त्रं 'धावति' प्रक्षालयति तथा 'लूषयति' शोभायें दीर्घमुत्पाटयिता हवं करोति पहखं वा सन्धाय दीर्घ करोति एवं लूषयति, तदेवं खार्थ परार्थं वा यो वखं लूषयति, अथासौ 'णागणियस्स'ति निम्रन्थमा| वस संयमानुष्ठानस दूरे वर्तते, न तस्य संयमो भवतीत्येवं तीर्थकरगणधरादय आहुरिति ।। २१॥ उक्ताः कुशीला, तत्प्रतिपक्ष प्रथम झानं ततो दया एवं तिष्ठति सर्वसंयतेषु अज्ञानी किं करिष्यति कि पाशास्यत्ति छेकपापर्क । ~327~ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [२२], नियुक्ति: [९०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२२|| त्तियुतं ॥१६॥ दीप अनुक्रम [४०२] सूत्रकृताङ्गं भूताः शीलवन्तः प्रतिपाद्यन्त इत्येतदाह-धिया राजते इति धीरो-बुद्धिमान 'उदगंसित्ति उदकसमारम्भे सति कर्मवन्धो भव-1|| परिभाषा. |ति, एवं परिज्ञाय किं कुर्यादित्याह-'विकटेन' प्रासुकोदकेन सौवीरादिना 'जीव्यात्' प्राणसंधारणं कुर्यात् , चशब्दात् अन्येचायित्- नाप्याहारेण प्रासुकनैव प्राणवृत्ति कुर्यात् , आदि:-संसारस्तमान्मोक्ष आदिमोक्षः (d) संसारविमुक्ति यावदिति, धर्मकारणानां वादिभूतं शरीरं तद्विमुक्तिं यावत् यावज्जीवमित्यर्थः, किं चासौ साधु/जकन्दादीन् अभुञ्जाना, आदिग्रहणात् मूलपत्रफला-|| नि गृह्यन्ते, एतान्यप्यपरिणतानि परिहरन् विरतो भवति, कुत इति दर्शयति-सानाभ्यशोद्वर्तनादिषु क्रियासु निष्प्रतिकर्मशरीरतयाऽन्यासु च चिकित्सादिक्रियासु न वर्तते, तथा स्त्रीषु च विरतः, बस्तिनिरोधग्रहणात् अन्येऽप्याश्रवा गृधन्ते, यौवम्भूतः | सर्वेभ्योऽप्याश्रवद्वारेभ्यो विरतो नासी कुशीलदोषैर्युज्यते तदयोगाच न संसारे बम्भ्रमीति, ततश्च न दुःखितः स्तनति नापि, ॥ नानाविधैरुपायलुिप्यत इति ।। २२ ।। पुनरपि कुशीलानेवाधिकल्याह--- जे मायरं च पियरं च हिच्चा, गारं तहा पुत्तपसुंधणं च । कुलाई जे धावइ साउगाई, अहाहु से सामणियस्स दूरे ॥ २३ ॥ कुलाई जे धावइ साउगाई, आघाति धम्म उदराणुगिद्धे । अहा ॥१६॥ हु से आयरियाण सयंसे, जे लावएज्जा असणस्स हेऊ ॥२४॥णिक्खम्म दीणे परभोयणंमि, मुहमंगलीए उदराणुगिद्धे । नीवारगिद्धेव महावराहे, अदूरए एहिइ घातमेव ॥ २५ ॥ 29990sasa940393000 Cheae6eoes ~328~ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२६|| दीप अनुक्रम [ ४०६ ] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ७ ], उद्देशक [-], मूलं [२६], निर्युक्ति: [९०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - Education intemational अन्नरस पाणस्सिहलोइयस्स, अणुप्पियं भासति सेवमाणे । पासत्थयं चेत्र कुसीलयं च निस्सारए होइ जहा पुलाए ॥ २६ ॥ ये चापरिणम्यग्धर्माणस्त्यक्ता मातरं च पितरं च मातापित्रोर्दुस्त्यजखादुपादानं, अतो भ्रातृदुहित्रादिकमपि त्य क्लेत्येतदपि द्रष्टव्यं तथा 'अगारं' गृहं 'पुत्रम्' अपत्यं 'पशुं' हस्त्यश्वरथगो महिष्यादिकं धनं च त्यक्त्वा सम्यक् प्रब्रज्योस्थानेनोत्थाय - पञ्चमहाव्रतभारस्य स्कन्धं दत्वा पुनर्हीनसत्त्वतया रससातादिगौरवगृद्धो यः 'कुलानि' गृहाणि 'स्वादुकानि' स्वादुभोजनवन्ति 'धावति' गच्छति, अथासौ 'श्रामण्यस्य' श्रमणभावस्य दूरे वर्त्तते एवमाहुस्तीर्थकरगणधरादय इति ।। २३ ।। एतदेव विशेषेण दर्शयितुमाह - [ ग्रन्थाग्रम् ४७५० ] यः कुलानि खादुभोजनवन्ति 'धावति' इयर्ति तथा गला धर्ममाख्याति भिक्षार्थ वा प्रविष्टो यद्यसै रोचते कथानकसम्बन्धं तत्तथाख्याति किम्भूत इति दर्शयति- उदरेऽनुगृद्ध उदरानुगृद्ध:- उदरभरणव्यग्रस्तुन्दपरिमृज इत्यर्थः, इदमुक्तं भवति यो दरगृद्ध आहारादिनिमित्तं दानश्रद्धकाख्यानि कुलानि गलाख्यायिकाः कथयति स कुशील इति, अथासावाचार्यगुणानामार्यगुणानां वा शतांशे वर्तते शतग्रहणमुपलक्षणं सहस्रांशादेरप्यधो वर्त्तते इति यो | धन्नस्य हेतुं भोजननिमित्तमपरवस्त्रादिनिमित्तं वा आत्मगुणानपरेण 'आलापयेत्' भाणयेत्, असावप्यार्यगुणानां सहस्रांशे वर्तते किमङ्ग पुनर्यः स्वत एवात्मप्रशंसां विद्यातीति ॥ २४ ॥ किञ्च यो ह्यात्मीयं धनधान्यहिरण्यादिकं त्यक्ता निष्कान्तो निष्क्रम्य च 'परभोजने' पराहारविषये 'दीनो' दैन्यमुपगतो जिद्वेन्द्रियवशात बन्दिवत् 'मुखमाङ्गलिको' भवति For Fast Use Only ~329~ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [२६], नियुक्ति: [९०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२६|| चार्याय:। तियुतं दीप अनुक्रम [४०६] सूत्रकृताङ्गं 18 मुखेन मङ्गलानि-प्रशंसावाक्यानि ईदृशस्तादृशस्वमित्येवं दैन्यभावमुपगतो वक्ति, उक्तं च-"सो ऐसो जस्स गुणा वियरत-18|| ७ कुशीलशीलाक्षा-18 निवारिया दसदिसासु । इहरा कहासु सुचसि पचक्खं अज्ज दिट्ठोसि ॥१॥" इत्येवमौदर्य प्रति गृद्धः अध्युपपत्रः, किमिव !-18 परिभाषा. || नीवार' मूकरादिमृगभक्ष्यविशेषस्तस्मिन् गृद्ध-आसक्तमना गृहीला च स्वयूथं 'महावराहो' महाकायः सूकरः स चाहारमा गृद्धोऽतिसंकटे प्रविष्टः सन् 'अदूर एव' शीघ्रमेव 'घातं' विनाशम् 'एष्यति प्राप्स्पति, एवकारोऽवधारणे, अवश्यं तस्य विनाश एव ॥१६॥ नापरा गतिरस्तीति, एवमसावपि कुशील आहारमात्रगृद्धः संसारोदरे पौनःपुन्येन विनाशमेवैति ।।२५।। किंचान्यत् , स कुशीलोऽनस्य पानस्य वा कृतेज्यस्य वैहिकार्थस्य वखादेः कृते 'अनुप्रियं भाषते' यद्यस प्रियं तत्तस वदतोऽनु-पश्चाद्भाषते अनुभाषते, प्रति| शब्दकवत् सेवकवद्वा राजाद्युक्तमनुवदतीत्यर्थः, तमेव दातारमनुसेवमान आहारमात्रगृद्धः सर्वमेतत्करोतीत्यर्थः, स चैवम्भूतः स-1 दाचारभ्रष्टः पार्श्वस्थभावमेव ब्रजति कुशीलतां च गच्छति, तथा निर्गतः-अपगतःसार:-चारित्राख्यो यस्य स निःसार, यदिवा-18|| | निर्गतः सारो-निःसारः स विद्यते यस्यासौ निःसारवान् , पुलाक इब निष्कणो भवति यथा-एवमसौ संयमानुष्ठानं निःसारीक18 रोति, एवंभूतश्चासौ लिङ्गमात्रावशेषो बहूनां स्वयूथ्यानां तिरस्कारपदवीमवामोति, परलोके च निकृष्टानि यातनास्थानान्यवानो|ति ॥ २६ । उक्ताः कुशीलाः, तत्प्रतिपक्षभूतान् सुशीलान् प्रतिपादयितुमाह-- ॥१६॥ अण्णातपिंडेणऽहियासएज्जा, णो पूयणं तवसा आवहेजा । सदेहि रूवेहिं असजमाणं, सोहि १ स एष यस्य गुणाः विचरन्त्य निवारिता दशदिशाम इतरथा कथाम श्रूयते प्रत्यक्ष अवधेऽसि ॥१॥ ఇవిహరించింది www.janorary.org ~330 ~ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [२७], नियुक्ति: [९०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२७|| दीप अनुक्रम [४०७] 00000000aceceas90saeraord कामेहि विणीय गेहिं ॥ २७ ॥ सबाई संगाई अइच्च धीरे, सवाई दुक्खाई तितिक्खमाणे । अखिले अगिद्धे अणिएयचारी, अभयंकरे भिक्खु अणाविलप्पा ॥ २८ ॥ भारस्स जाता मुणि भुंजएजा, कंखेज पावस्स विवेग भिक्खू । दुक्खेण पुढे धुयमाइएजा, संगामसीसे व परं दमेजा ॥ २९ ॥ अवि हम्ममाणे फलगावतट्टी, समागर्म कंखति अंतकस्स । णिधूय कम्मं ण पवंचुवेइ, अक्खक्खए वा सगडं तिबेमि ॥३०॥ इति श्रीकुसीलपरिभासियं सत्तममज्झयणं समत्तं ॥ (गाथाग्र०४०२) अज्ञातश्चासौ पिण्डवाज्ञातपिण्डः अन्तप्रान्त इत्यर्थः, अज्ञातेभ्यो वा पूर्वापरासंस्तुतेभ्यो वा पिण्डोऽज्ञातपिण्डो ज्ञातोब्छ-18 वृत्या लब्धतेनात्मानम् 'अधिसहेत्' वर्तयेत्-पालयेत्, एतदुक्तं भवति-अन्तप्रान्तेन लब्धेनालब्धेन वा न देन्यं कुर्यात्, नाप्युत्कृष्टेन लब्धेन मदं विदध्यात्, नापि तपसा पूजनसत्कारमावहेत्, न पूजनसत्कारनिमित्तं तपः कुर्यादित्यथैः, यदिवा पूजासत्कारनिमित्तलेन तथाविधार्थिवेन वा महतापि केनचित्तपो मुक्तिहेतुक न निःसारं कुर्यात, तदुक्तम्-"परं लोकाधिकं धाम, तपाश्रुतमिति द्वयम् । तदेवार्थिवनिर्लप्तसारं तृणलवायते ॥१॥"॥ यथा च रसेषु गृद्धि न कुर्यात्, एवं शब्दादिष्वपीति || दर्शयति-'शब्दैः' वेणुवीणादिभिराक्षिप्तः संस्तेषु 'असजन्' आसक्तिमकुर्वन् कर्कशेषु च द्वेषमगच्छन् तथा रूपैरपि मनोज्ञेतरै Reseeeeeeeeeeeeeestseene ~331~ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||३०|| दीप अनुक्रम [४१०] सूत्रकृताङ्ग शीळाङ्का चायतियुत ॥१६४॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र- २ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [३०], निर्युक्ति: [९०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ...... आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः रागद्वेषमकुर्वन् एवं सर्वैरपि 'कामैः इच्छामदनरूपैः सर्वेभ्यो वा कामेभ्यो गृद्धि 'विनीय' अपनीय संयममनुपालयेदिति, सर्वथा मनोज्ञेतरेषु विषयेषु रागद्वेषं न कुर्यात्, तथा चोक्तम्- "संदेसु य मदयपावसु, सोयसियमुवगए। तुद्वेण व रुद्वेण व, समणेण सया ण होय ॥ १ ॥ रुवेसु य मदयपावसु, चक्खुविसयभुवगएसु । तुद्वेण व रुद्वेग व समणेण सया ण होय ॥ २ ॥ गंधे य मदयपावसु, घाणविषयमुवगएसु । तुद्वेग० || ३ || मक्खेसु य मदयपावरमु, रसण विसयमुवगएसु । तुद्वेण व रुद्रेण व, समषेण सया ण होयवं || ४ || फोसेसु य मदयपावएस, फास विसयमुवगएसु । तुट्टेण व रुद्वेग व समणेण सयाण होयवं ।। ५ ।। " ॥ २७ ॥ यथा चेन्द्रियनिरोधो विधेय एवमपरसङ्गनिरोधोऽपि कार्य इति दर्शयति- सर्वान् 'सङ्गान' संबन्धान् आन्तरान् स्नेहलक्षणान् वाद्यांच द्रव्यपरिग्रहलक्षणान् 'अतीत्य' त्यक्सा 'धीरो' विवेकी सर्वाणि 'दुःखानि' शारीरमानसा | त्यक्वा परीपहोपसर्गजनितानि 'तितिक्षमाणः' अधिसहन् 'अखिलो' ज्ञानदर्शनचारित्रैः सम्पूर्णः तथा कामेष्वगृद्धस्तथा 'अनियतचारी' अप्रतिबद्धविहारी तथा जीवानामभयंकरो भिक्षणशीलो भिक्षुः - साधुः एवम् 'अनाविलो' विषयकषायैरनाकुल आत्मा यस्यासावना विलात्मा संयममनुवर्त्तत इति ॥ २८ ॥ किञ्चान्यत्-संयमभारस्य यात्रार्थं - पञ्चमहाव्रतभारनिर्वाहणार्थं 'मुनिः' कालत्रयवेत्ता 'भुञ्जीत' आहार ग्रहणं कुर्वीत, तथा 'पापस्य' कर्मणः पूर्वाचरितस्य 'विवेक' पृथग्भावं विनाशमाकाङ्गेत् 'भिक्षुः' साधुरिति, तथा —दुःखयतीति दुःखं- परीषहोपसर्गजनिता पीडा तेन 'स्पृष्टो' व्याप्तः सन् 'धूतं' संयमं मोक्षं वा १] शब्देषु च भइकपापकेषु श्रोत्रविश्वमुश्यतेषु तुष्टेन वा स्टेन वा श्रमणेन सदा न भवितव्यं । २रूपेषु चक्षुः ३ मं प्राण० ४ भक्ष्येषु रसना । ५ स्पर्शेषु स्पर्शन । unnamation For Fasten ~332~ ७ कुशीलपरिभाषा. ॥१६४॥ www.incibrary.or Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [३०], नियुक्ति: [९०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३०|| | 'आवदीत' गृहीयात् , यथा सुभटः कश्चित् सत्रामशिरसि शत्रुभिरभिद्रुतः 'परं' शत्रु दमयति एवं परं-कर्मशत्रु परीषदोपKa सर्गाभिद्रुतोऽपि दमयेदिति ॥ अपि च-परीषहोपसगैर्हन्यमानोऽपि-पीड्यमानोऽपि सम्यक सहते, किमिव ?-फलकवदपकृष्टः यथा फलकमुभाभ्यामपि पार्वाभ्यां नष्ट-घटितं सत्तनु भवति अरक्तद्विष्टं वा संभवत्येवमसावपि साधुः सबाह्याभ्यन्तरेण तपसा | निष्टप्तदेहस्तनुः-दुलशरीरोरक्तद्विस्व, अन्तकस्य-मृत्योः 'समागम प्राप्तिम् 'आकावति' अभिलपति, एवं चाष्टप्रकार | कर्म 'निर्धूय' अपनीय न पुनः 'प्रपञ्च जातिजरामरणरोगशोकादिकं प्रपश्यते बहुधा नटवद्यस्मिन् स प्रपश्चः-संसारस्तं 'नोपैति' न याति, दृष्टान्तमाह-यथा अक्षय 'क्षये विनाशे सति 'शकटं' गच्यादिकं समविषमपथरूपं प्रपञ्चमुपष्टम्भकारणाभावानी|पयाति, एवमसावपि साधुरष्टप्रकारस कर्मणः क्षये संसारप्रपञ्च नोपयातीति, गतोऽनुगमो, नयाः पूर्ववद्, इतिशब्दः परिसमाप्त्यर्थं अवीमीति पूर्ववत् ॥ ३० ॥ समाप्तं च कुशीलपरिभाषाख्यं सप्तममध्ययनं ।। दीप अनुक्रम [४१० 990saeo2020383900000 | अत्र सप्तम अध्ययन परिसमाप्त ~333~ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [-], मूलं [३०...], नियुक्ति: [९१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ध्ययनं. ||३०|| मूत्रकृताई शीलाकाचाय-य- | त्तियुत ॥१६॥ दीप अनुक्रम [४१०] अथ अष्टमं श्रीवीर्याध्ययनं प्रारभ्यते ॥ ८वीर्याउक्तं सप्तममध्ययनं, साम्प्रतमष्टममारभ्यते-अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तराध्ययने कुशीलास्तत्प्रतिपक्षभूताच सुशीलाः प्रतिपादिताः, तेषां च कुशीलसं सुशीलसं च संयमवीर्यान्तरायोदयात्तत्क्षयोपशमाच भवतीत्यतो वीर्यप्रतिपादनायेदमध्ययनमुपदिश्यते, तदनेन संबंधेनायातस्यास्याध्ययनस्य चखायनुयोगद्वाराणि उपक्रमादीनि वक्तव्यानि, तत्राप्युपक्रमान्तर्गतोऽाधिका| रोऽयं, तद्यथा-बालबालपण्डितपण्डितवीर्यभेदात्रिविधमपि वीर्य परिज्ञाय पण्डितवीर्ये यतितव्यमिति, नामनिष्पनेतु निक्षेप १६॥ | वीर्याध्ययन, वीयनिक्षेपाय नियुक्तिकृदाह चिरिए छकं दब्बे सचित्ताचित्तमीसग चेव । दुपयचउप्पयअपयं एवं तिविहं तु सञ्चित्तं ॥ ९१॥ वीयें नामस्थापनाद्व्यक्षेत्रकालभावभेदात् पोढा निक्षेपः, तत्रापि नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यवीर्य द्विधा-आगमतो नोआगमतच, आगमतो ज्ञाता तत्र चानुपयुक्तः, नोआगमतस्तु ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं सचित्ताचित्तमिश्रभेदात्रिधा वीर्य, सचिवमपि द्विपदचतुष्पदापदभेदात् त्रिविधमेव, तत्र द्विपदानां अर्हचक्रवर्तिबलदेवादीनां यद्वीर्य खीरवस्य वा यस्य वा यदीय तदिह || द्रव्यवीयखेन ग्राह्य, तथा चतुष्पदानामश्वहस्तिरलादीनां सिंहव्याघ्रशरभादीनां वा परख वा यद्वोढव्ये धावने वा वीर्य तदिति, ॥१६५।। तथाऽपदानां गोशीपेचन्दनप्रभृतीनां शीतोष्णकालयोरुष्णशीतवीर्यपरिणाम इति ।। अचित्तवीर्यप्रतिपादनायाह-.. अचित्तं पुण विरियं आहारावरणपहरणादीसु । जह ओसहीण भणियं विरियं रसबीरियविवागो ॥ १२ ॥ విసారి నినిని अत्र प्रथम श्रुतस्कन्धे 'वीर्य' नामक अष्टमं अध्ययनस्य आरम्भः, सप्तमं अध्ययनेन सह अष्टमस्य सम्बन्ध:, वीर्य शब्दस्य निक्षेपा: ~334 ~ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||३०|| दीप अनुक्रम [ ४१०] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [-] मूलं [३०...], निर्युक्ति: [९३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः आवरणे कवयादी चक्कादीयं च पहरणे होंति । खित्तंमि जंमि खेते काले जं जंमि कालंमि ॥ ९३ ॥ अचित्तद्रव्यवीर्य खाहारावरणप्रहरणेषु यद्वीर्यं तदुच्यते, तत्राऽऽहारवीर्य 'सद्यः प्राणकरा हुद्या, घृतपूर्णाः कफापहाः' इत्यादि, ओषधीनां च शल्योद्धरण संरोहण विपापहार मेधाकरणादिकं रसवीर्य, विपाकवीर्यं च यदुक्तं चिकित्साशास्त्रादौ तदिह ग्राह्यमिति, | तथा योनिप्राभृतकान्नानाविधं द्रव्यवीर्यं द्रष्टव्यमिति, तथा आवरणे कवचादीनां प्रहरणे चक्रादीनां यद्भवति वीर्यं तदुच्यत इति । अधुना क्षेत्रकालवीर्य गाथापथार्धेन दर्शयति-क्षेत्रवीर्य तु देवकुर्वादिकं क्षेत्रमाश्रित्य सर्वाण्यपि द्रव्याणि तदन्तर्गतान्युत्कृष्टवीर्यवन्ति भवन्ति, यद्वा दुर्गादिकं क्षेत्रमाश्रित्य कस्यचिद्वीर्योल्लासो भवति यस्मिन्वा क्षेत्रे वीर्य व्याख्यायते तत्क्षेत्रवीर्यमिति, कालवीर्यमध्ये कान्तसुषमादावायोज्यमिति, तथा चोक्तम् - "वर्षासु लवणममृतं शरदि जलं गोपयश्च हेमन्ते । शिशिरे चामलकरसो, घृतं वसन्ते गुडश्वान्ते ॥ १ ॥ " तथा "ग्रीष्मे तुल्यगुडां सुसैन्धवयुतां मेघावनद्धेऽम्बरे, तुल्यां शर्करया शरद्यमलया शुष्ठ्या तुषारागमे । पिप्पल्या शिशिरे वसन्तसमये क्षौद्रेण संयोजितां पुंसां प्राप्य हरीतकी मित्र गदा नश्यन्तु ते शत्रवः || १॥" भाववीर्यप्रतिपादनायाह भावो जीवस्स सवीरियस्स विरियंमि लद्धिऽणेगविहा । ओरस्सिंदियअज्झप्पिएस बहुसो बहुविहीयं ॥ ९४ ॥ | मणवइकाया आणापाणू संभव तहा य संभवे । सोत्तादीणं सद्दादिए बिसएस गहणं च ॥ ९५ ॥ 'सवीर्यस्य' वीर्यशक्त्युपेतस्य जीवस्य 'वीयें' वीर्यविषये अनेकविधा लब्धिः, तामेव गाथापश्चार्द्धेन दर्शयति, तद्यथा- उरसि Education Intentatio वीर्य शब्दस्य निक्षेपा:, अचित वीर्य एवं भाव वीर्यस्य व्याख्या. For First Use Only ~ 335~ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [-], मूलं [३०...], नियुक्ति: [९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३०|| सूत्रकृताङ्गं शीलावाचायत्तियुतं ॥१६६॥ दीप | भवमौरस्यं शारीरबलमित्यर्थः, तथेन्द्रियबलमाध्यात्मिक बलं बहुशो बहुविधं द्रष्टव्यमिति । एतदेव दर्शयितुमाह -आन्तरेण व्या- ८ वीर्या| पारेण गृहीखा पुद्गलान् मनोयोग्यान् मनस्लेन परिणमयति भाषायोग्यान् भाषालेन परिणमयति काययोग्यान् कायखेन आनापा- ध्ययन. नयोग्यान् तद्भावनेति, तथा मनोवाकायादीनां तद्भाबपरिणतानां यद्वीय-सामर्थ्य तद्विविधं-सम्भवे सम्भाव्ये च, सम्भवे तारतीर्थकृतामनुत्तरोपयातिकानां च सुराणामतीव पटूनि मनोद्रव्याणि भवन्ति, तथाहि-तीर्थकृतामनुत्तरोपपातिकसुरमनःपर्याय|ज्ञानिप्रश्नव्याकरणस्य द्रव्यमनसैव करणात् अनुचरोपपातिकसुराणां च सर्वव्यापारस्मैव मनसा निष्पादनादिति, सम्भाव्ये तु यो हि यमर्थ पटुमतिना प्रोच्यमानं न शक्रोति साम्प्रतं परिणमयितुं सम्भाव्यते खेष परिकर्म्यमाणः शक्ष्यत्यमुमर्थ परिणमयितुमि-18 ति, वाग्वीर्यमपि द्विविध-सम्भबे सम्भाव्ये च, तत्र सम्भवे तीर्थकृतां योजननिहोरिणी वाक सर्वखखभाषानुगता च तथाज्ये-18 पामपि क्षीरमध्यावादिलब्धिमतां वाचः सौभाग्यमिति, तथा हंसकोकिलादीनां सम्भवति खरमाधुर्य, सम्भाव्ये तु सम्भाव्यते || श्यामायाः स्त्रिया गानमाधुर्य, तथा चोक्तम्-- "सामा गायति महुरं काली गायति खरं च रुपखं चे"त्यादि, तथा-सम्भाव-18 यामः-एनं श्रावकदारकम् अकृतमुखसंस्कारमप्यक्षरेषु यथावदभिलप्तव्येष्विति, तथा सम्भावयामः शुकसारिकादीनां वाचो मानुषभाषापरिणामः, कायवीर्यमप्यौरस्यं यद्यस्य बलं, तदपि द्विविधं-सम्भवे सम्भाव्ये च, संभवे यथा चक्रवर्तिबलदेववासुदेवादीनां यहाहुबलादि कायवलं, तपथा-कोटिशिला त्रिपृष्ठेन वामकरतलेनोद्धृता, यदिवा-'सोलस रायसहस्सा' इत्यादि यावदप-13||॥१६६॥ रिमितबला जिनवरेन्द्रा इति, सम्भाव्ये तु सम्भाव्यते तीर्थकरो लोकमलोके कण्दुकवत् प्रक्षेप्नु तथा मेरु दण्डवगृहीखा वसुधां छ-18 प्रकवद्धत्तेमिति, तथा सम्भाव्यते अन्यतरसुराधिपो जम्बूद्वीपं वामहस्तेन छत्रकबद्धर्तुमयलेनैव च मन्दरमिति, तथा सम्भाव्यते । अनुक्रम [४१०] Sececenteedeceaesesee भाव वीर्यस्य व्याख्या, ~336~ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||३०|| दीप अनुक्रम [४१०] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [-] मूलं [३०...], निर्युक्ति: [९६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ...... आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः अयं दारकः परिवर्धमानः शिलामेनामुद्धर्तुं हस्तिनं दमयितुमचं वाहयितुमित्यादि, इन्द्रियन लमपि श्रोत्रेन्द्रियादि स्वविषयग्रहणसमर्थ पञ्चधा एकैकं द्विविधं सम्भवे सम्भाव्ये च सम्भवे यथा श्रोत्रस्य द्वादश योजनानि विषयः, एवं शेषाणामपि यो यस्य विषय इति, सम्भाव्ये तु यस्य कस्यचिदनुपहतेन्द्रियस्य श्रान्तस्य क्रुद्धस्य पिपासितस्य परिग्लानस्य वा अर्थग्रहणासमर्थमपि इन्द्रयं सद्यथोक्तदोषोपशमे तु सति सम्भाव्यते विषयग्रहणायेति । साम्प्रतमाध्यात्मिकं वीर्यं दर्शयितुमाह- उज्जमधितिधीरतं सोंडीरतं खमा य गंभीरं । उवओगजोगतवसंजमादियं होइ अज्झप्पो ॥ ९६ ॥ आत्मन्यधीत्यध्यात्मं तत्र भवमाध्यात्मिकम् - आन्तरशक्तिजनितं साच्चिकमित्यर्थः तच्चानेकधा - तत्रोद्यमो ज्ञानतपोऽनुष्ठानादिपूत्साहः, एतदपि यथायोगं सम्भवे सम्भाव्ये च योजनीयमिति, धृतिः संयमे स्थैर्य चित्तसमाधानमिति (यावत्), धीरत्वं परीष। होपसर्गाक्षोभ्यता, शौण्डीर्य त्यागसम्पन्नता, षट्खण्डमपि भरतं त्यजतचक्रवर्तिनो न मनः कम्पते, यदिवाऽऽपद्य विषण्णता, यदिवाविषमेऽपि कर्तव्ये समुपस्थिते पराभियोगमकुर्वन् मयैवैतत्कर्तव्यमित्येवं हर्षायमाणोऽविषण्णो विधत्त इति, क्षमावीर्यं तु परैराकुश्यमानोऽपि मनागपि मनसा न क्षोभमुपयाति, भावयति (च तत्त्रं तच्चेदम्-"आक्रुष्टेन मतिमता तत्त्वार्थगवेषणे मतिः कार्या ।। यदि सत्यं कः कोपः १ स्यादनृतं किं नु कोपेन ? ||१||" तथा "अकोसहणणमारणधम्म भंसाण बालसुलभाणं । लाभं मन्नइ धीरो | जहुत्तराणं अभावं (लाभ) सि ॥ १ ॥” गाम्भीर्यवीर्य नाम परीषहोपसँगैरधृष्यत्वं यदिवा यत् मनचमत्कारकारिण्यपि स्वानुष्ठाने १] आकोशद्दनमारण धर्मशाला लाभं मन्यते धीरो मयोत्तराणामभावे ॥ १ ॥ Education intemational भाव - वीर्य एवं आध्यात्मिक वीर्यस्य व्याख्या For Fans Only ~337~ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [-], मूलं [३०...], नियुक्ति: [९६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्रांक सूत्रकृता8 शीलाका- चाीयत्तियुत ॥१६७॥ ||३०|| दीप अनुक्रम [४१०] Decececeaeeeees अनौद्धत्वं, उक्तम् च-"चुछुच्छलेई जं होइ ऊणयं रित्तयं कणकणेइ । भरियाई ण खुम्भंती सुपुरिसविनाणभंडाई ॥१॥" उपयोगवीर्य साकारानाकारभेदात् द्विविधं, तत्र साकारोपयोगोऽष्टधाऽनाकारश्चतुर्धा तेन चोपयुक्तः स्वविषयस्य द्रव्यक्षेत्रकालभावरूपस्स परिच्छेदं विधत्व इति, तथा योगवीर्य त्रिविध मनोवाकायभेदात् , तत्र मनोवीर्यमकुशलमनोनिरोधः कुशलमनसश्च प्रवर्तनं, मनसो वा एकतीभावकरण, मनोवीर्येण हि निर्ग्रन्थसंयताः प्रवृद्धप्परिणामा अवस्थितपरिणामाश्च भवन्तीति, वाग्बीर्येण तु भाषमाणोघु-14 | नरुक्तं निरवयं च भाषते, कायवीयं तु यस्तु समाहितपाणिपादः कूर्मवदवतिष्ठत इति, तपोवीर्य द्वादशप्रकारं तपो यदलादग्ला-19 | यन् विधत्त इति, एवं सप्तदशविधे संयमे एकखायध्यवसितस्य यदलात्प्रवृचिस्तत्संयमचीर्य, कथमहमतिचार संयमे न प्राप्नुयामि-18|| | त्यध्यवसायिनः प्रवृत्तिरित्येवमाद्यध्यात्मवीर्यमित्यादि च भाववीर्यमिति, वीर्यप्रवादपूर्वे चानन्तं वीर्य प्रतिपादित, किमिति, यतोऽनन्तार्थे पूर्व भवति, तत्र च वीर्यमेव प्रतिपावते, अनन्तार्थता चातोऽवगन्तव्या, तद्यथा-"सपणेईणं जा होज वालुया गणणमागया | सन्ती । ततो बहुपतरागो अत्थो एगस्स पुवस्स ।।१।। सबसमुद्दाण जलं जइपत्थमियं हविज संकलियं । एतो बहुपतरागो अस्थो || | एगस्स पुषस्स ॥२॥" तदेवं पूर्वार्थस्थानन्त्याद्वीर्यस्य च तदर्थवादनन्तता वीर्यस्खेति । सर्वमप्येतद्वीयं त्रिधेति प्रतिपादयितुमाह-॥४॥ |सब्वंपिय तं तिविहं पंडिय बालविरियं च मीसं च । अहवावि होति दुविहं अगारअणगारियं चेव ॥ ९७॥ 18 ॥१६७॥ सर्वमप्येतजावषीर्य पण्डितबालमिश्रभेदात त्रिविधं, तत्रानगाराणां पण्डितवीर्य बालपण्डितवीर्य खगाराणां गृहस्थानामिति, तत्र || १जुलच्छुलेइ प्र० । २ उद्भिरति यद्भवस्यून रिक्त कणकणति भूतानि न सुभ्यन्ते सुपुरुषविज्ञानभाण्डानि ॥ १॥ ३ सर्वासा नदीना यावग्यो भवेयुलिका गगनमागताः सत्यः ततो बहुतरोऽयं एकस्य पूर्वस्य ।। ॥ ४ सर्वसमुदाणां जले गतिप्रमितं तत् भवेत्संकलितं ततो.॥ wlanniorary.org आध्यात्मिक-वीर्यस्य व्याख्या, वीर्यस्य त्रिविधा: भेदा: ~338~ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [४११] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र -२ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [-], मूलं [१], निर्युक्तिः [९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः यतीनां पण्डितवीर्य सादिसपर्यवसितं सर्वविरतिप्रतिपत्तिकाले सादिता सिद्धावस्थायां तदभावात्सान्तं, बालपण्डितवीर्ये तु देशविरतिसद्भावकाले सादि सर्वविरतिसद्भावे तशे वा सपर्यवसानं बालवीर्य वविरतिलक्षणमेवा भव्यानामनाद्यपर्यवसितं भय्यानां | खनादिस पर्यवसितं, सादिसपर्यवसितं तु विरतिभ्रंशात् सादिता पुनर्जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तादुत्कृष्टतोऽपार्द्धपुद्गलपरावर्तात् विरतिसद्भावात् सान्ततेति, साद्यपर्यवसितस्य तृतीयभङ्गकस्य त्वसम्भव एव यदिवा पण्डितवीर्य सर्वविरतिलक्षणं, विरतिरपि चारित्रमोहनीयक्षयक्षयोपशमोपशमलक्षणात्रिविधैव, अतो वीर्यमपि त्रिधैव भवति । गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, तदनु सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुचारयितव्यं तवेदं द्वे विधे-प्रकारावस्येति द्विविधं द्विप्रकारं, प्रत्यक्षासन्नवाचिखात् इदमो यदनन्तरं प्रकर्षेणोच्यते प्रोच्यते वीर्यं तद्विभेदं सुङ्घाख्यातं स्वाख्यातं तीर्थकरादिभिः, वा वाक्यालङ्कारे, तत्र 'ईरं गतिप्रेरणयोः' विशेषेण ईरयति - प्रेरयति अहितं येन तद्वीर्यं जीवस्य शक्तिविशेष इत्यर्थः, तत्र, किं तु 'वीरस्य' सुभटस्य वीरलं १, केन वा कारणेनासौ वीर इत्यभिधीयते, नुशब्दो वितर्कवाची, एतद्वितर्कयति किं तद्वीर्य ?, वीरस्य वा किं तद्वीरखमिति ॥ १ ॥ तत्र भेदद्वारेण वीर्यस्वरूपमाचिख्यासुराह— कर्म्म – क्रियानुष्ठानमि| त्येतदेके वीर्यमिति प्रवेदयन्ति यदिवा - कर्माष्टप्रकारं कारणे कार्योपचारात् तदेव वीर्यमिति प्रवेदयन्ति, तथाहि औदयिक भावनिष्पन्नं aurat namation दुहा वेयं सुक्खायं, वीरियंति पवुच्चई । किं नु वीरस्स वीरतं, कहं चेयं पवुच्चई ? ॥ १ ॥ कम्ममेगे पवेदेंति, अकम्मं वावि सुवया । एतेहिं दोहि ठाणेहिं, जेहिं दीसंति मच्चिया ॥ २ ॥ मूल सूत्रस्य आरम्भः For First Use Only ~ 339~ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [-], मूलं [२], नियुक्ति: [९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत ८ ध्ययन सुत्रांक ||२|| सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्काचार्यायचियुतं ॥१६॥ दीप अनुक्रम [४१२] कर्मेत्युपदिश्यते, औदयिकोऽपि च भावः कर्मोदयनिष्पन्न एव बालवीर्य, द्वितीयभेदस्वयं न विद्यते कर्मासेत्यकर्मा-बीर्यान्तरायक्षयजनितं जीवस्य सहज वीर्यमित्यर्थः, चशब्दात् चारित्रमोहनीयोपशमक्षयोपशमजनितं च हे सुव्रता! एवम्भूतं पण्डितवीर्य जानीत यूयं । आभ्यामेव द्वाभ्यां स्थानाभ्यां सकर्मकाकर्मकापादिवबालपण्डितवीर्याभ्यां व्यवस्थितं वीर्यमित्युच्यते, यकाभ्यां च | | ययो; व्यवस्थिता मर्येषु भवा मा: 'दिस्संत' इति दृश्यन्तेऽपदिश्यन्ते वा, तथाहि-नानाविधासु क्रियासु प्रवर्तमानमुत्सा-| हयलसंपन महँ दृष्ट्वा वीर्यवानयं मर्त्य इत्येवमपदिश्यते, तथा तदावारककर्मणः क्षयादनन्तबलयुक्तोऽयं मलै इत्येवमपदिश्यते दृश्यते चेति ॥ २ ॥ इह बालवीर्य कारणे कार्योपचारात्कमैंव वीर्यसेनाभिहितं, साम्प्रतं कारणे कार्योपचारादेव प्रमादं | | कर्मलेनापदिशन्नाह पमायं कम्ममाहंसु, अप्पमायं तहाऽवरं । तब्भावादेसओ वावि, बालं पंडियमेव वा ॥३॥ सत्थमेगे तु सिक्खंता, अतिवायाय पाणिणं । एगे मंते अहिजंति, पाणभूयविहेडिणो ॥४॥ प्रमायन्ति-सदनुष्ठानरहिता भवन्ति प्राणिनो येन स प्रमादो-मद्यादिः, तथा चोक्तम्-"मजं विसयकसाया णिहा विगहा य पंचमी भणिया । एस पमायपमाओ णिदिवो वीयरागेहिं ॥१॥" तमेवम्भूतं प्रमादं कर्मोपादानभूतं कमें 'आहुः १ वीर्यनयेऽस्य योदयनिश्पनखात् , शेष सन्मथेत्युत्तर दे । २ मध विषयाः कषाया निदा विकथा व पंचमी भणिता (एते पंच प्रमादा निर्दिया) एष प्रमाद | प्रमादो निर्दियो वीतरागः ॥१॥ aeeserveeeeeeeeeeeeee ॥१६॥ ~340~ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥४॥ दीप अनुक्रम [४१४] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [-] मूलं [४], निर्युक्तिः [९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः - उक्तवन्तस्तीर्थकरादयः, अप्रमादं च तथाऽपरमकर्म कमाहुरिति एतदुक्तं भवति -प्रमादोपहतस्य कर्म बध्यते, सकर्मणश्च यत्क्रियानुष्ठानं तद्वालवीर्य, तथाऽप्रमत्तस्य कर्माभावो भवति, एवंविधस्य च पण्डितवीर्थं भवति एतच बालवीर्ये पण्डितवीर्यमिति वा प्रमादवतः सकर्मणो वालवीर्यमप्रमत्तस्थाकर्मणः पण्डितवीर्यमित्येवमायोज्यं, 'तभावादेसओ वादी'ति तस्य- बालवीर्यस्य कर्म| णश्च पण्डितवीर्यस्य वा भावः - सच्चा स तद्भावस्तेनाऽऽदेशो - व्यपदेशः ततः, तद्यथा - बालवीर्यममन्यानामनादिअपर्यवसितं भ व्यानामनादिसपर्यवसितं वा सादिसपर्यवसितं वेति, पण्डितवीर्यं तु सादिसपर्यवसितमेवेति ॥ ३ ॥ तत्र प्रमादोपहतस्य सकर्मणो यद्वालवीर्य तदर्शयितुमाह- शस्त्रं खङ्गादिप्रहरणं शास्त्रं वा धनुर्वेदायुर्वेदादिकं प्राण्युपमर्दकारि तत् सुष्ठु सातगौरवग्रद्धा 'एके' केचन 'शिक्षन्ते' उद्यमेन गृहन्ति, तब शिक्षितं सत् 'प्राणिनां जन्तूनां विनाशाय भवति, तथाहि तत्रोपदिश्यते | एवंविधमालीढप्रत्यालीढादिभिर्जीवे व्यापादयितव्ये स्थानं विधेयं, तदुक्तम्- “मुष्टिनाऽऽच्छादयेल्लक्ष्यं, पुष्टौ दृष्टि निवेशयेत् । हतं लक्ष्यं विजानीयाद्यदि मूर्धा न कम्पते || १||” तथा एवं लावकरसः क्षयिणे देयोऽभयारिष्टाख्यो मद्यविशेषश्रेति, तथा एवं चौरादेः शूलारोपणादिको दण्डो विधेयः तथा चाणक्याभिप्रायेण परो वञ्चयितव्योऽर्थोपादानार्थ तथा कामशास्त्रादिकं चोद्यमेनाशुभाध्यवसायिनोऽधीयते, तदेवं शस्त्रस्य धनुर्वेदादेः शास्त्रस्य वा यदभ्यसनं तत्सर्वं बालवीर्य, किञ्च एके केचन पापोदयात् मन्त्रानभिचारकाना (ते) थर्वणानश्वमेधपुरुषमेधसर्वमेधादियागार्थमधीयन्ते, किम्भूतानिति दर्शयति- 'प्राणा' द्वीन्द्रियादय: 'भूतानि' पृथिव्यादीनि तेषां 'विविधम्' अनेकप्रकारं 'कान' बाधकान् ऋसंस्थानीयान् मन्त्रान् पठन्तीति, तथा चोक्तम् - "पट् शतानि Education intol For Only ~341~ www.janyr Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [-], मूलं [४], नियुक्ति: [९८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्रकृता शीलालाचार्यांयत्र सूत्राक ||४|| चियुतं ॥१६९॥ दीप अनुक्रम [४१४] नियुज्यन्ते, पशूना मध्यमेऽहनि । अश्वमेधस्य वचनान्यूनानि पशुभित्रिमिः ॥१॥" इत्यादि ॥४॥ अधुना 'सत्य'मित्येतस्मूत्रपदं सूत्रस्पार्शिकया नियुक्तिकारः स्पष्टयितमाह सत्थं असिमादीयं विजामते य देवकम्मकयं । पत्थिववारुणअग्गेय वाऊ तह मीसर्ग चेव ।। ९८॥ शस्त्र प्रहरणं तच असि:-खड्गस्तदादिक, तथा विद्याधिष्ठितं, मन्त्राधिष्ठितं देवकर्मकृतं-दिव्यक्रियानिष्पादितं, तब पञ्चविध,81 तद्यथा-पार्थिवं वारुणमानेयं वायव्यं तथैव यादिमिथं चेति । किश्चान्यत् माइणो कटु माया य, कामभोगे समारभे । हंता छेत्ता पगम्भित्ता, आयसायाणुगामिणो॥५॥8 मणसा वयसा चेव, कायसा चेव अंतसो । आरओ परओ वावि, दुहावि य असंजया ॥६॥ 'माया' परवञ्चनादि(त्मि)का बुद्धिः सा विद्यते येषां ते मायाविनस्त एवम्भूता माया:-परवञ्चनानि कृत्वा एकग्रहणे ताती| यग्रहणादेव क्रोधिनो मानिनो लोभिनः सन्तः 'कामान् इच्छारूपान् तथा भोगांव शब्दादिविषयरूपान् 'समारभन्ते' सेवन्ते पाठान्तरं वा 'आरंभाय तिवई' त्रिभिः मनोवाकायरारम्भार्थं वर्तते, बहून् जीवान् व्यापादयन् वान् अपध्वंसयन् आज्ञाप S ॥१६९॥ यन् भोगार्थी विचोपार्जनार्थ प्रवर्तत इत्यर्थः, तदेवम् 'आत्मसातानुगामिनः स्वसुखलिप्सवो दुःखद्विषो विषयेषु गृद्धा कपा| यकलुषितान्तरात्मानः सन्त एवम्भूता भवन्ति, तद्यथा 'हन्तारः प्राणिच्यापादयितारस्तथा छेत्तारः कर्णनासिकादेस्तथा प्रकतेयितारः पृष्ठोदरादेरिति ॥ ५॥ तदेतत्कथमित्याह-तदेतत्प्राण्युपमर्दनं मनसा वाचा कायेन कृतकारितानुमतिभिश्च 'अन्तशा' 190999999900 ~342~ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [-], मूलं [६], नियुक्ति: [९८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||६|| दीप अनुक्रम 18 कायेनाशक्तोऽपि तन्दुलमत्स्यवन्मनसैव पापानुष्ठानानुमत्या कर्म बनातीति, तथा आरतः परतश्चेति लौकिकी वाचोपुक्तिरि-181 18 येवं पर्यालोच्यमाना ऐहिकामुष्मिकयोः 'द्विधापि' स्वयंकरणेन परकरणेन चासंयता-जीवोपधातकारिण इत्यर्थः ॥ ६॥ सा-| म्प्रतं जीवोपघातविपाकदर्शनार्थमाह--.. वेराई कुबई वेरी, तओ वेरेहिं रज्जती। पावोवगा य आरंभा, दुक्खफासा य अंतसो॥७॥ । संपरायं णियच्छंति, अत्तदुक्कडकारिणो । रागदोसस्सिया बाला, पावं कुवंति ते बहुं ॥ ८॥ वैरमस्थास्तीति वैरी, स जीवोपमईकारी जन्मशतानुबन्धीनि वैराणि करोति, ततोऽपि च वैरादपरैवैरैरनुरज्यते-संवध्यते, वैरपरम्परानुषङ्गी भवतीत्यर्थः, किमिति, यतः पापं उप-सामीप्येन गच्छन्तीति पापोपगाः, क एते ?-'आरम्भाः सावयानुष्ठानरूपाः 'अन्तशो' विषाककाले दुःखं स्पृशन्तीति दुःखस्पर्शा-असातोदयविपाकिनो भवन्तीति ॥ ७॥ किश्चान्यत्'सम्परायं णियच्छंती'त्यादि, द्विविधं कर्म-ईर्यापथं साम्पराविकं च, तत्र सम्पराया-बादरकपायास्तेभ्य आगतं साम्परायिक तत् जीवोपमईकलेन वैरानुपङ्गिन्तया 'आत्मदुष्कृतकारिणः' खपापविधायिनः सन्तो 'नियच्छन्ति' बनन्ति, तानेव विशिनष्टि|'रागद्वेषाश्रिताः कषायकलुषितान्तरात्मानः सदसद्विवेकविकलखात् बाला इव बालाः, ते चैवम्भूताः 'पापम्' असद्वेध 'बहु'। अनन्तं 'कुर्वन्ति' विदधति ॥ ८॥ एवं बालवीर्य प्रदोपसंजिघृक्षुराह एवं सकम्मवीरियं, बालाणं तु पवेदितं । इत्तो अकम्मविरिय, पंडियाणं सुणेह मे ॥९॥ [४१६] ~343~ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [-], मूलं [१०], नियुक्ति: [९८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१०|| सूत्रकृताई शीलाङ्काचार्यायत्तियुतं ॥१७॥ दीप दबिए बंधणुम्मुक्के, सबओ छिन्नबंधणे । पणोल्ल पावकं कम्म, सलं कंतति अंतसो ॥१०॥ ८वीयो ध्ययन 'एतत् यत् प्राक् प्रदर्शितं, तद्यथा-प्राणिनामतिपातार्थ शस्त्रं शास्त्र वा केचन शिक्षन्ते तथा परे विद्यामत्रान् प्राणियाधका-18 |नधीयन्ते तथाऽन्ये मायाविनो नानाप्रकारां मायां कृखा कामभोगार्थमारम्भान् कुर्वते केचन पुनरपरे वैरिणस्तत्कुर्वन्ति येन वैरैर नुवध्यन्ते (ते) तथाहि-जमदमिना स्वभार्याऽकार्यव्यतिकरे कृतवीर्यो विनाशितः, तत्पुत्रेण तु कार्तवीर्येण पुनर्जमदग्निः, जमदनिसुतेन परशुरामेण सप्त वारान् निःक्षत्रा पृथिवी कृता, पुनः कार्तवीर्यसुतेन तु सुभूमेन त्रिःसप्तकलो ब्राह्मणा व्यापादिताः, तथा चोक्तम्-"अपकारसमेन कर्मणान नरस्तुष्टिमुपैति शक्तिमान् । अधिकां कुरु वै(लेड)रियातनां द्विषतां जातमशेषमुद्धरेत् ॥१॥"IST तदेवं कषायवशगाः प्राणिनस्तत्कुर्वन्ति येन पुत्रपौत्रादिश्वपि वैरानुबन्धो भवति, तदेतत्सकर्मणां चालानां वीर्य तुशब्दात्प्रमादव-18 तां च प्रकर्पण वेदितं प्रवेदितं प्रतिपादितमितियावत् , अत ऊर्चमकर्मणां-पण्डितानां यद्वीर्य तन्म-मम कथयतः शृणुत यूयमिति ॥ ९॥ यथाप्रतिज्ञातमेवाह-'द्रव्यो' भव्यो मुक्तिगमनयोग्यः 'द्रव्यं च भव्य इति वचनात् रागद्वेषविरहाद्वा द्रव्पभूतोऽकपायीत्यर्थः, यदिवा वीतराग इव वीतरागोऽल्पकपाय इत्यर्थः, तथा चोक्तम-"किसका वो जे सरागधम्ममि कोइ अकसा॥ यी । संतेवि जो कसाए निमिण्हइ सोऽपि तत्तुल्लो ॥१॥" स च किम्भूतो भवतीति दर्शयति-धन्धनात् कषायात्मकान्मुक्तो बन्ध-18| ॥१७॥ अनुक्रम [४२०] 18| किवाक्या वक्तुं यत्सरागधर्मों कोऽप्वकषायः । सतोऽपि यः कषायाभिगण्वाति सोऽपि तत्तुस्यः ॥ १॥ Swlanmitrary.org ~344~ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥१०॥ दीप अनुक्रम [४२०] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र- २ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [-], मूलं [१०], निर्युक्ति: [९८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः नोन्मुक्तः, बन्धनखं तु कपायाणां कर्मस्थितिहेतुलात्, तथा चोक्तम्- "बंधेडिई कसायवसा" कषायवशात् इति, यदिवा-बन्धनोन्युक्त इव बन्धनोन्मुक्तः, तथाऽपरः 'सर्वतः' सर्वप्रकारेण सूक्ष्मवादररूपं 'छिन्नम्' अपनीतं 'बन्धन' कपायात्मकं येन स छिनबन्धनः, तथा 'प्रणुथ' प्रेर्य 'पाप' कर्म कारणभूतान्वाऽऽश्रवानपनीय शल्यवन्छ शेषकं कर्म तत् कृन्तति अपनयति अन्तशो-निरवशेषतो विघटयति, पाठान्तरं वा 'सल्लं कंतइ अप्पणी'ति शल्यभूतं यदष्टप्रकारं कर्म तदात्मनः सम्बन्धि | कृन्तति - छिनतीत्यर्थः ॥ १० ॥ यदुपादाय शल्यमपनयति तदर्शयितुमाह नेयाउयं सुक्खायं, उवादाय समीहए। भुजो भुज्जो दुहावासं, असुहत्तं ता ता ॥ ११ ॥ ठाणी विविठाणाणि, चइस्संति ण संसओ । अणियते अयं वासे, णायएहि सुहीहि य ॥ १२ ॥ नयनशीलो नेता, नयतेस्ताच्छीलिकस्तुन, स चात्र सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्रात्मको मोक्षमार्गः श्रुतचारित्ररूपो वा धर्मो मोक्षनयनशीलत्वात् गृह्यते तं मार्ग धर्म वा मोक्षं प्रति नेतारं सुष्ठु तीर्थकरादिभिराख्यातं वाख्यातं तम् 'उपादाय' गृहीला 'सम्यक' मोक्षाय ईहते चेष्टते ध्यानाध्ययनादावुद्यमं विधत्ते धर्मध्यानारोहणालम्बनायाह- 'भूयो भूयः' पौनःपुन्येन यद्बालवीर्य | तदतीतानागतानन्तभवग्रहणे - ( ग्र० ५०००) पु दुःखमावास्यतीति दुःखावासं वर्तते, यथा यथा च बालवीर्यवान् नरकादिषु दुःखावासेषु पर्यटति तथा तथा चास्याशुभाध्यवसायिलादशुभमेव प्रवर्धते इत्येवं संसारस्वरूपमनुप्रेक्षमाणस्य धर्मध्यानं प्रवर्तत इति १ स्थित पायवशात् ॥ २ अनिइए य सेवासे इति पाठो व्याख्यान्मतः एवं च चकाराविया देनी संगतिर्व्याख्यापाठस्य । Education Intational For Fast Use Only ~345~ www.incibrary.org Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [-], मूलं [१२], नियुक्ति: [९८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१३|| दीप अनुक्रम [४२२] सूत्रकृताङ्गं 18|॥११॥ साम्प्रतमनित्यभावनामधिकृत्याह -स्थानानि विद्यन्ते येषां ते स्थानिनः, तद्यथा-देवलोके इन्द्रस्तत्सामानिकत्रायस्त्रिंश-18/ ८वीर्याः शीलाचायित् | स्यार्पयादीनि मनुष्येष्वपि चक्रवर्तिबलदेववासुदेवमहामण्डलिकादीनि तिर्यक्ष्वपि यानि कानिचिदिष्टानि भोगभूम्यादी स्थानानि |8| ध्ययनं. त्तियुत तानि सर्वाण्यपि विविधानि-नानाप्रकाराण्युत्तमाधममध्यमानि ते स्थानिनस्त्यक्ष्यन्ति, नात्र संशयो विधेय इति, तथा चो-1921 कम्-"अशाश्वतानि स्थानानि, सर्वाणि दिवि चेह च । देवासुरमनुष्याणामृद्धयश्च सुखानि च ॥१॥" तथाऽयं 'ज्ञातिभिः ॥१७१॥ बन्धुभिः सार्ध सहायैश्च मित्रैः सुहृद्भियः संवासः सोऽनित्योऽशाश्वत इति, तथा चोक्तम्-"सुचिरतरमुपिता बान्धवैर्विप्रयोगः, सुचिरमपि हि रन्खा नास्ति भोगेषु तृप्तिः । सुचिरमपि सुपुष्टं याति नाशं शरीरं, सुचिरमपि विचिन्त्यो धर्म एक: सहायः ॥१॥" इति, चकारी धनधान्यद्विपदचतुष्पदशरीराधनित्यखभावनाएँ (थे) अशरणायशेषभावनार्थ चानुक्तसमुचयाथेमुपात्ता-18 |विति ॥ १२ ॥ अपिच एवमादाय मेहावी, अप्पणो गिद्धिमुद्धरे । आरियं उवसंपजे, सवधम्ममकोवि (५०० )यं ॥१३॥६॥ सह संमइए णच्चा, धम्मसारं सुणेत्तु वा । समुवट्ठिए उ अणगारे, पञ्चक्खायपावए ॥ १४ ॥ . अनित्यानि सर्वाण्यपि स्थानानीत्येवम् 'आदाय' अवधार्य 'मेधावी' मर्यादाव्यवस्थितः सदसद्विवेकी वो आत्मनः सम्ब-1 |॥१७१॥ धिनी 'गृर्द्धि' गाय ममखम् 'उद्धरेदू' अपनयेत् , ममेदमहमस्ख स्वामीत्येवं ममलं कचिदपि न कुर्यात् , तथा आरायातः सर्व १ सुगुप्तं । २ नेदं प्रा। ER ~346~ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [-], मूलं [१४], नियुक्ति: [९८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१४|| दीप अनुक्रम [४२४] हेयधर्मेभ्य इत्यार्यो-मोक्षमार्गः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकः, आर्याणां वा-तीर्थकदादीनामयमार्यो-मार्गस्तम् 'उपसम्पधेत' IN अधितिष्ठेत् समाश्रयेदिति, किम्भूतं मार्गमित्याह-सर्वैः कुतीर्थिकधर्मैः 'अकोपितो' अदूषितः स्वमहिम्नैव दूषयितुमशक्यतात् । प्रतिष्ठां गतः (त), यदिवा-सर्वैधमैः-खभावैरनुष्ठानरूपैरगोपितं कृत्सितकर्त्तव्याभावात प्रकटमित्यर्थः ॥ १३ ॥ सुधर्मपरि-18 ज्ञानं च यथा भवति तदर्शयितुमाह-धर्मस्य सारा-परमार्थो धर्मसारस्तं 'ज्ञात्वा' अवबुझ्य, कथमिति दर्शयति-सह सन्-8 मत्या स्वमत्या वा--विशिष्टाभिनिवोधिकज्ञानेन श्रुतज्ञानेनावधिज्ञानेन वा, स्वपरावबोधकलात् ज्ञानस्य, तेन सह, धर्मस्य सारं ज्ञालेत्यर्थः, अन्येभ्यो या तीर्थकरगणधराचार्यादिभ्यः इलापुत्रवत् श्रुखा चिलातपुत्रवद्वा धर्मसारमुपगच्छति, धर्मस्य वा सार-18 चारित्रं तत्प्रतिपद्यते, तत्प्रतिपत्तौ च पूर्वोपात्तकर्मक्षयार्थ पण्डितवीर्यसम्पन्नो रागादिबन्धनविमुक्तो बालवीर्यरहित उत्तरोत्तरगुणसम्पत्तये समुपस्थितोऽनगारः प्रवर्धमानपरिणामः प्रत्याख्यात-निराकृतं पापक-सावधानुष्ठानरूपं येनासौ प्रत्याख्यातपापको | भवतीति ॥ १४ ॥ किश्चान्यत्जं किंचुवकम जाणे, आउक्खेमस्स अप्पणो । तस्सेव अंतरा खिप्पं, सिक्खं सिक्खेज पंडिए ॥१५॥ जहा कुम्मे सअंगाई, सए देहे समाहरे । एवं पावाई मेधावी, अज्झप्पेण समाहरे ॥ १६ ॥ ___उपक्रम्यते-संवर्त्यते क्षयमुपनीयते आयुर्येन स उपक्रमस्तं य कञ्चन जानीयात् , कस्य ?-'आयुःक्षेमस्य' वायुप इति, इद १ सद्धर्म०प्र० । १ खमलपेक्षया । Reseseseepesesecedesecscece taeeeeeeeeeeeeeeeeeees wjanatarary.om ~347~ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [-], मूलं [१६], नियुक्ति: [९८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१६|| सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्काचार्याय चियुत ॥१७२॥ दीप अनुक्रम [४२६] मुक्तं भवति-स्वायुष्कस्य येन केनचित्प्रकारेणोपक्रमो भावी यस्मिन् वा काले तत्परिज्ञाय तस्योपक्रमस्य कालख वा अन्तराले । [क्षिप्रमेवानाकुलो जीवितानाशंसी 'पण्डितो' विवेकी संलेखनारूपां शिक्षा भक्तपरिक्षेशितमरणादिका वा शिक्षेत , तत्र ग्रहणशि-I|| ध्ययन. क्षया यथावन्मरण विधि विज्ञायाऽऽसेवनाशिक्षया खासेवेतेति ।। १५ ।। किञ्चान्यत्-'यथे त्युदाहरणप्रदर्शनार्थः यथा 'कूर्मः कच्छपः खाम्यङ्गानि-शिरोधरादीनि खके देहे 'समाहरेदु' गोपयेद्-अव्यापाराणि कुर्याद 'एवम् अनथैव प्रक्रियया 'मेधावी मयोंदावान् सदसद्विवेकी वा 'पापानि पापरूपाण्यनुष्ठानानि 'अध्यात्मना' सम्पन्धर्मध्यानादिभावनया 'समाहरेत्' उप-11 |संहरेत् , मरणकाले चोपस्थिते सम्यक् संलेखनया संलिखितकायः पण्डितमरणेनात्मानं समाहरेदिति ॥१६॥ संहरणप्रकारमाह-- साहरे हत्थपाए य, मणं पंचेंदियाणि य । पावकं च परीणामं, भासादोसं च तारिसं ॥१७॥ अणु माणं च मायं च, तं पडिन्नाय पंडिए । सातागारवणिहुए, उवसंते णिहे चरे ॥ १८ ॥ पादपोपगमने इङ्गिनीमरणे भक्तपरिज्ञायां शेषकाले वा कूर्मवद्धस्तौ पादौ च 'संहरेद' व्यापाराभिवर्तयेत् , तथा 'मन' अन्त:करणं तचाकुशलब्यापारेभ्यो निवर्तयेत् , तथा-शब्दादिविषयेभ्योऽनुकूलप्रतिकूलेभ्योऽरक्तद्विएतया श्रोत्रेन्द्रियादीनि पश्चापीन्द्रियाणि चशब्दः समुचये तथा पापकं परिणाममैहिकासुष्मिकाशंसारूपं संहरेदित्येवं भाषादोपं च 'तादृशं' पापरूपं संहरेत् ॥१७॥ | मनोवाकायगुप्तः सन् दुर्लभं सत्संयममवाप्य पण्डितमरणं वाऽशेषकर्मक्षयार्थ सम्यगनुपालयेदिति ॥ १७ ॥ तं च संयमे परा-1 १ उपसंहरेत् प्रा। enea ~348~ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१८|| दीप अनुक्रम [४२८] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र- २ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [-], मूलं [१८], निर्युक्ति: [९८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः क्रममाणं कश्चित् पूजासत्कारादिना निमन्त्रयेत्, तत्रात्मोत्कर्षो न कार्य इति दर्शयितुमाह – चक्रवर्त्यादिना सत्कारादिना पूज्यमानेन 'अणुरपि' स्तोकोऽपि 'मानः' अहङ्कारो न विधेयः किमुत महान् है, यदिवोत्तममरणोपस्थिते नोव्रतपो निष्टतदेहेन वा अहोऽहमित्येवंरूपः स्तोकोऽपि गर्यो न विधेयः, तथा पण्डुरार्ययेव स्तोकाऽपि माया न विधेया, किमुत महती ?, इत्येवं कोचलो| भावपि न विधेयाविति, एवं द्विविधयापि परिज्ञया कषायांस्तद्विपाकांश्च परिज्ञाय तेभ्यो निवृत्तिं कुर्यादिति पाठान्तरं वा 'अइमाणं च मायं च तं परिण्णाय पंडिए' अतीव मानोऽतिमानः सुभूमादीनामिव तं दुःखावहमित्येवं ज्ञाला परिहरेत्, इदमुक्तं भवति - यद्यपि सरागस्य कदाचिन्मानोदयः स्यात्तथाप्युदयप्राप्तस्य विफलीकरणं कुर्यादित्येवं मायायामप्यायोज्यं, पाठान्तरं वा 'सुयं मे इहमेगेसिं, एवं वीरस्स वीरियं' येन बलेन सङ्ग्रामशिरसि महति सुभटसंकटे परानीकं विजयते तत्परमार्थतो वीर्य न भवति, अपि तु येन कामक्रोधादीन् विजयते तद्वीरस्य महापुरुषस्य वीर्यम् 'इहैव' अस्मिन्नेव संसारे मनुष्यजन्मनि वैकेषां तीर्थकरादीनां सम्बन्धि वाक्यं मया श्रुतं, पाठान्तरं वा 'आयत सुआदाय एवं वीरस्स वीरियं' आयतो-मोक्षोऽपर्यवसितावस्थानलात् स चासावर्थव तदर्थो वा -- तत्प्रयोजनो वा सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रमार्गः स आयतार्थस्तं सुष्ट्रादाय गृहीता यो धृतिबलेन कामक्रोधादिजयाय च पराक्रमते एतद्वीरस्य वीर्यमिति, यदुक्तमासीत् 'किं तु वीरस्य वीरत्व' मिति तद्यथा भवति तथा व्याख्यातं किञ्चान्यत् - सातागौरवं नाम सुखशीलता तत्र निभृतः- तदर्थमनुयुक्त इत्यर्थः, तथा क्रोधाभिजयादुप| शान्तः - शीतीभूतः शब्दादि विषयेभ्यो ऽप्यनुकूल प्रतिकूलेभ्यो रक्तद्विष्टतयोपान्तो जितेन्द्रियता तेभ्यो निवृत्त इति, तथा निह| न्यन्ते प्राणिनः संसारे यया सा निहा - माया न विद्यते सा यस्यासावनिहो मायाप्रपञ्चरहित इत्यर्थः तथा मानरहितो लोभ Education intol For First Use Only ~349~ ww Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [-], मूलं [१८], नियुक्ति: [९८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१८|| दीप अनुक्रम [४२८] सूत्रकृताङ्ग वर्जित इत्यपि द्रष्टव्यं, स चैवम्भूतः संयमानुष्ठानं 'चरेत् कुर्यादिति, तदेवं भरणकालेऽन्यदा वा पण्डितवीर्यवान् महावतेद्यतः वीर्याशीलाङ्का 18 स्थात् । तत्रापि प्राणातिपातविरतिरेव गरीयसीतिकृता तत्प्रतिपादनार्थमाह-"उहुमहे तिरियं वा जे पाणा ससथावरा । सपथ ध्ययन चार्गीय विरतिं कुज्जा, संति निवाणमाहियं ॥१॥" अयं च श्लोको न सूत्रादशेषु दृष्टः, टीकायां तु इष्ट इतिकता लिखितः, उत्तात्तियुत नार्थथेति ।।१८॥ किञ्च॥१७॥ पाणे य णाइवाएज्जा, अदिन्नंपिय णादए । सादियं ण मुसं व्या, एस धम्मे खुसीमओ ॥ १९॥ ॥ अतिकम्मति वायाए, मणसा वि न पत्थए । सवओ संवुडे दंते, आयाणं सुसमाहरे ॥२०॥ ॥ प्राणप्रियाणां प्राणिनां प्राणान्नातिपातयेत् , तथा परेणादत्तं दन्तशोधनमात्रमपि 'नाददीत' न गृह्णीयात् , तथा-सहादिना-मायया वर्चत इति सादिकं समायं मृषावादं न ब्रूयात, तथाहि-परवश्वनाथ मृषावादोऽधिक्रियते, स च न मायामन्तरेण भवतीत्यतो मृपावादस्य माया आदिभूता वर्तते, इदमुक्तं भवति-यो हि परवश्चनार्थ समायो मृपावादः स परिदियते, 1॥ । यस्तु संयमगुप्त्यर्थ न मया मृगा उपलब्धा इत्यादिकः स न दोषायेति, एष यः प्राक् निर्दिष्टो धर्म:-श्रुतचारित्राख्यः स्वभावो |वा 'चुसीमति छान्दसखात् , निर्देशार्थस्वयं-वस्तूनि ज्ञानादीनि तद्वतो ज्ञानादिमत इत्यर्थः, यदिवा-चुसीमउत्ति वश्यस्य18|| आत्मवशगय–वश्येन्द्रियस्खेत्यर्थः ॥ १९ ॥ अपिच प्राणिनामतिक्रम-पीडात्मक महाप्रतातिक्रमं वा मनोजष्टब्धतया परति-18 ॥१७॥ रस्कारं वा इत्येवम्भूतमतिक्रमं वाचा मनसाऽपि च न प्रार्थयेत्, एतद्यनिषेधे च कायातिक्रमो दूरत एव निषिद्धो भवति, तदेवं १०३ उ०४ माथा० २० नवरं वे केइंति । 29999929082909200000 ~350~ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२०|| दीप अनुक्रम [४३०] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र- २ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [-], मूलं [२०], निर्युक्ति: [९८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ...... आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः | मनोवाक्कायैः कृतकारितानुमतिभिश्व नवकेन भेदेनातिक्रमं न कुर्यात्, तथा सर्वतः - सबाह्याभ्यन्तरतः संवृतो गुप्तः तथा इन्द्रियदमेन तपसा वा दान्तः सन् मोक्षस्य 'आदानम्' उपादानं सम्यग्दर्शनादिकं सुषूयुक्तः सम्यग्विस्रोतसिकारहितः 'आहरेत्' आददीत-गृहीयादित्यर्थः ॥ २० ॥ किञ्चान्यत् कडं च कज्जमाणं च, आगमिस्तं च पावगं । सवं तं णाणुजाणंति, आयगुत्ता जिइंदिया ॥ २१ ॥ जे याबुद्धा महाभागा, वीरा असमत्तदंसिणो । असुद्धं तेसि परकंतं, सफलं होइ सङ्घसो ॥ २२ ॥ साधूदेशेन यदपरैरनार्थकल्पैः कृतमनुष्ठितं पापकं कर्म तथा वर्त्तमाने च काले क्रियमाणं तथाऽऽगामिनि च काले यत्करिष्यते तत्सर्वं मनोवाक्कायकर्मभिः 'नानुजानन्ति' नानुमोदन्ते, तदुपभोग परिहारेणेति भावः, यदध्यात्मार्थ पापकं कर्म परैः कृतं क्रियते करिष्यते वा तद्यथा-शत्रोः शिरश्छिन्नं छिद्यते छेत्स्यते वा तथा चौरो हतो हन्यते हनिष्यते वा इत्यादिकं परानुष्ठानं 'नानुजानन्ति' न च बहु मन्यन्ते, तथा यदि परः कश्चिदशुद्धेनाहारेणोपनिमश्रयेत्तमपि नानुमन्यन्त इति, क एवम्भूता भवन्तीति दर्शयति - आत्माऽङ्कुशलमनोवाक्कायनिरोधेन गुप्तो येषां ते तथा, जितानि वशीकृतानि इन्द्रियाणि श्रोत्रादीनि यैस्ते तथा, एवम्भूताः पापकर्म नानुजानन्तीति स्थितम् ॥ २१ ॥ अन्यच्च ये केचन 'अबुद्धा' धर्म प्रत्यविज्ञातपरमार्था व्याकरणशुष्कतर्कादिपरिज्ञानेन जातावलेपाः पण्डितमानिनोऽपि परमार्थवस्तुतवानवबोधादबुद्धा इत्युक्तं न च व्याकरणपरिज्ञानमात्रेण सम्यक्त्तव्यतिरेकेण तत्त्वावबोधो भवतीति, तथा चोक्तम्- “शास्त्रावगाहपरिघट्टनतत्परोऽपि नैवाबुधः समभिगच्छति वस्तुतत्त्वम् । Education intol For First Use Only ~351~ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम [४३२] सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्का चाययवृतियुतं ॥१७४॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [-], मूलं [२२], निर्युक्ति: [९८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ...... आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः नानाप्रकाररसभावगताऽपि दर्जी, स्वादं रसस्य सुचिरादपि नैव वेत्ति ॥ १ ॥” यदिवाऽबुद्धा इव बालवीर्यवन्तः, तथा महान्तंय ते भागाव महाभागाः, भागशब्दः पूजावचनः, ततत्र महापूज्या इत्यर्थः, लोकविश्रुता इति, तथा 'वीराः' परानीकमेदिनः सुभटा इति इदमुक्तं भवति- पण्डिता अपि त्यागादिभिर्गुणै लोकपूज्या अपि तथा सुभटवादं वहन्तोऽपि सम्यक्तन्यपरिज्ञान वि कलाः केचन भवन्तीति दर्शयति न सम्यगसम्यक् तद्भावोऽसम्यक्सं तद्रष्टुं शीलं येषां ते तथा, मिथ्यादृष्टय इत्यर्थः तेषां च बालानां यत्किमपि तपोदानाध्ययनयमनियमादिषु पराक्रान्तमुद्यमकृतं तदशुद्धं अविशुद्धिकारि प्रत्युत कर्मबन्धाय, भावोपहतलात् सनिदानखाद्वेति कुवैद्यचिकित्सावद्विपरीतानुबन्धीति, तच तेषां पराक्रान्तं सह फलेन कर्मबन्धेन वर्तत इति सफलं 'सर्वश' इति सर्वाऽपि तत्क्रिया तपोऽनुष्ठानादिका कर्मबन्धौयेवति ॥ २२ ॥ साम्प्रतं पण्डितवीर्यणोऽधिकृत्याह जे बुद्धा महाभागा, वीरा सम्मत्तदंसिणो । सुद्धं तेसिं परकंतं, अफलं होइ सहसो ॥ २३ ॥ तेसिंपि तवो ण सुद्धो, निक्खंता जे महाकुला । जन्ने बन्ने वियाणंति, न सिलोगं पवेज्जए ॥ २४ ॥ अप्पपिंडास पाणासि, अप्पं भासेज्ज सुवए । खंतेऽभिनिजुड़े दंते, वीतगिद्धी सदा जए ॥ २५ ॥ | झाणजोगं समाहद्दु, कायं विउसेज सङ्घसो । तितिक्खं परमं णच्चा, आमोक्खाए परिवज्जासि ॥२६॥ ( गाथाग्रं० ४४६ ) त्तिबेमि इति श्रीवीरियनाममट्टममज्झयणं समत्तं ॥ १ महान्तवेति भागाथ महान्तंव ते नागाथ प्र० । २ मुयमः कृतस्त uttaration For Fans Only ~352~ ८ वीर्याध्ययनं. ॥१७४॥ www.incibrary.org Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [-], मूलं [२६], नियुक्ति: [९८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२६|| दीप अनुक्रम [४३६] seaesekeseeeeeeeeees ये केचन स्वयम्पुद्धास्तीर्थकराधास्तच्छिष्या वा बुद्धबोधिता गणधरादयो 'महाभागा' महापूजाभाजो 'वीराः' कर्मविदारण-181 सहिष्णवो ज्ञानादिभिर्वा गुणैर्विराजन्त इति वीराः, तथा 'सम्यक्त्वदर्शिनः' परमार्थतत्त्ववेदिनस्तेषां भगवतां यत्पराकान्त- | तपोऽध्ययनयमनियमादावनुष्ठितं तच्छुद्धम् अवदातं निरुपरोधं सातगौरवशल्यकषायादिदोषाकलङ्कितं कर्मवन्धं प्रति [2] | अफलं भवति-तभिरनुबन्धनिर्जरार्थमेव भवतीत्यर्थः, तथाहि-सम्यगदृष्टीनां सर्वमपि संयमतपःप्रधानमनुष्ठानं भवति, RI संयमस्स चानाश्रवरूपखात् तपसश्च निर्जराफलखादिति, तथा च पठ्यते-"संयमे अणण्हयफले तवे बोदाणफले" इति । ॥ २३ ॥ किश्चान्यत् --महत्कुलम् -इक्ष्वाकादिकं येषां ते महाकुला लोकविश्रुताः शौर्यादिभिर्गुणैर्विस्तीर्णयशसस्तेषामपि पूजासत्काराधमुत्कीर्तनेन वा यत्तपस्तदशुद्धं भवति, यच क्रियमाणमपि तपो नैवान्ये दानश्राद्धादयो जानन्ति तचथाभूतमात्मार्थिना विधेयम् , अतो नैवात्मश्लाघां 'प्रवेदयेत्' प्रकाशयेत् , तद्यथा- अहमुचमकुलीन इभ्यो वाऽऽसं साम्प्रतं | पुनस्तपोनिष्टतदेह इति, एवं खयमाविष्करणेनन स्वकीयमनुष्ठानं फल्गुतामापादयेदिति ॥ २४ ॥ अपिच----अल्प| स्तोकं पिण्डमशितुं शीलमस्यासावल्पपिण्डाशी यत्किञ्चनाशीति भावः, एवं पानेऽप्यायोज्यं, तथा चागमः-"हे' जं व तं व आसीय जत्थ व तत्थ व सुहोवगयनिहो । जेण व तेण (व) संतुट्ठ वीर! मुणिओसि ते अप्पा ॥ १॥ तथा "अहकुकुडिअंड १ महानागाः प्र. । २ संयमोऽनाधयफलः तपो ब्यवधानफलमिति । ३ यहा तदा अविला यत्र तत्र मा मुसोपगत निदः येन तेन पा सन्तुष्टः (असि) हे वीर। खयात्मा ज्ञातोऽसि ॥१॥ अष्टकवण्कप्रमाणान्कवतानाहारबाल्पाहारो द्वादशकपरिपार्धापमोवरिका घोच्यामिद्विभाषा प्राप्ता चनिशल्या अवमोदरिका त्रिंशता कयतः प्रमाणप्राप्तः द्वात्रिंशत्करलाः सम्पूणांहार इति । ~353~ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [-], मूलं [२६], नियुक्ति: [९८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: ध्ययन प्रत सूत्रांक ||२६|| शीलाङ्काचायीयवृत दीप अनुक्रम [४३६] सूत्रकृताऊं 18|| गमेतप्पमाणे कवले आहारेमाणे अप्पाहारे दुवालसकवलेहिं अबहोमोयरिया सोलसहिं दुभागे पत्ते चवीस ओमोदरिया वीस 81 पमाणपत्ते बत्तीस कवला संपुण्णाहारे" इति, अत एकैककवलहान्यादिनोनोदरता विधेया, एवं पाने उपकरणे चोनोदरता विद भ्यादिति, तथा चोक्तम्-"योवाहारो थोवमणिओ अ जो होइ थोपनिदो अ । थोबोवहिउपकरणो तस्स हु देवावि पणमंति तियुतं ॥१॥" तथा 'सुव्रतः' साधुः 'अल्पं परिमितं हितं च भाषेत, सर्वदा विकथारहितो भवेदित्यर्थः, भावावमौदर्यमधिक॥१५॥ त्याह-भावतः क्रोधायुपशमात् 'क्षान्तः क्षान्तिप्रधान तथा 'अभिनिवृतो लोभादिजयात्रिरातुरः, तथा इन्द्रियनोइन्द्रिय दमनात् 'दान्तों जितेन्द्रियः, तथा चोक्तम्-"कषाया यस्य नोच्छिन्ना, यस्य नात्मवशं मनः । इन्द्रियाणि न गुप्तानि, प्रवज्या | | तस्य जीवनम् ॥१॥" एवं विगता गृद्धिर्विषयेषु यस्य स विगतगृद्धिः-आशंसादोपरहितः 'सदा सर्वकालं संयमानुष्ठाने 'यतेत' यनं कुर्यादिति ॥ २५ ॥ अपिच--'झाणजोगम्' इत्यादि, ध्यानं-चित्तनिरोधलक्षणं धर्मध्यानादिकं तत्र योगो विशिएमनोवाकायच्यापारस्तं ध्यानयोग 'समाहृत्य' सम्यगुपादाय 'कार्य' देहमकुशलयोगप्रवृत्तं 'व्युत्सृजेत्' परित्यजेत् 'सर्वतः' | सर्वेणापि प्रकारेण, हस्तपादादिकमपि परपीडाकारि न व्यापारयेत् , तथा 'तितिक्षा' शान्ति परीषदोपसर्गसहनरूपां 'परमा' प्रधानां ज्ञाला 'आमोक्षाय' अशेषकर्मक्षयं यावत् 'परिब्रजेरिति संयमानुष्ठानं कुर्यास्वमिति । इतिः परिसमाप्त्यर्थे । ब्रवीमी-18॥१७५।। ति पूर्ववत् ॥ २६ ॥ समानं चाष्टमं वीर्याख्यमध्ययनमिति ।। सोकाहारा खोकणितः शोक निब गो भवति । स्तोकोपधिकोपकरणसामी व देवा अपि प्रणमन्ति ॥1॥ | अत्र अष्टम अध्ययनं परिसमाप्तं ~354 ~ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२६|| दीप अनुक्रम [४३६] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [-] मूलं [२६...], निर्युक्ति: [९९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः zatatatatatata - अथ नवमं अध्ययनं प्रारभ्यते ॥ अष्टमानन्तरं नवमं समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तराध्ययने बालपण्डितमेदेन द्विरूपं वीर्य प्रतिपादितं, अत्रापि तदेव पण्डितवीर्यं धर्म प्रति यदुद्यमं विधत्ते अतो धर्मः प्रतिपाद्यत इत्यनेन सम्बन्धेन धर्माध्ययनमायातं, अस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि उपक्रमादीनि प्राग्वत् व्यावर्णनीयानि, तत्राप्युपक्रमान्तर्गतोऽर्थाधिकारोऽयं तद्यथा-धर्मोऽत्र प्रतिपाद्यत इति तमधिकृत्य निर्मुक्तिकदाह Education intimation धम्मो yogesो भावम्मेण एत्थ अहिगारो । एसेब होइ धम्मे एसेव समाहिमग्गोन्ति ॥ ९९ ॥ दुर्गतिगमनधरणलक्षणो धर्मः प्राक् दशवैकालिक तस्कन्धषष्ठाध्ययने धर्मार्थकामाख्ये उद्दिष्टः - प्रतिपादितः, इह तु भावधर्मेणाधिकारः, एष एव च भावधर्मः परमार्थतो धर्मो भवति, अमुमेवार्थमुत्तरयोरप्यध्ययनयोरतिदिशन्नाह एष एव च भाव| समाधिर्भावमार्गश्च भवतीत्यवगन्तव्यमिति, यदिवैष एव च भावधर्मः एष एव च भावसमाधिरेष एव च तथा भावमार्गो भवति, न तेषां परमार्थतः कचिद्भेदः, तथाहि धर्मः श्रुतचारित्राख्यः क्षान्त्यादिलक्षणो वा दशप्रकारो भवेत्, भावसमाधिरप्येवंभूत एवं, | तथाहि सम्यगाधानम् - आरोपणं गुणानां क्षान्त्यादीनामिति समाधिः, तदेवं मुक्तिमार्गोऽपि ज्ञानदर्शनचारित्राख्यो भावधर्मतया व्याख्यानयितव्य इति । साम्प्रतमतिदिष्टस्यापि स्थानाशून्यार्थं धर्मस्य नामादिनिक्षेपं दर्शयितुमाह For y अत्र नवमं अध्ययनं "धर्म" आरब्धं, अनंतर अध्ययनस्य सम्बन्ध:, 'धर्म' शब्दस्य अर्थ एवं अधिकार:, ~ 355~ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [-], मूलं [२६...], नियुक्ति: [१००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२६|| चाीय चियुत दीप अनुक्रम [४३६] सूत्रकृताङ्गं णामंठवणाधम्मो दश्वधम्मो य भावधम्मो य । सचित्ताचित्तमीसगगिहत्वदाणे दवियधम्मे ॥१०॥ ९धोशीलाका- 18 नामस्थापनाद्रव्यभावभेदाचतुर्धा धर्मस्य निक्षेपः, तत्रापि नामस्थापने अनारत्य शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रुष्पधर्मः सचि-18 || ध्ययन. चाचित्तमिश्रभेदात् त्रिधा, तत्रापि सचित्तस्य जीवच्छरीरस्योपयोगलक्षणो 'धर्म:' स्वभावः, एवमचित्तानामपि धर्मास्तिकायादीनां यो यस्य स्वभावः स तस्य धर्म इति, तथाहि-"गइलक्खणओ धम्मो, अहम्मो ठाणलक्खणो । भायणं सबदवाणं, नई अवगाह-10 ॥१७६॥ लक्खणं ।। १॥" पुद्गलास्तिकायोऽपि ग्रहणलक्षण इति, मिश्रद्रयाणां च क्षीरोदकादीनां यो यस्य स्वभावः स तद्धर्मतयाऽयग-18 |न्तव्य इति, गृहखानां च यः कुलनगरप्रामादिधर्मो गृहखेभ्यो गृहस्थानां वा यो दानधर्मः स द्रव्यधर्मोऽवगन्तव्य इति, तथा | चोक्तम्-'अचं पानं च वखं च, आलयः शयनासनम् । शुश्रूषा बन्दनं तुष्टिः, पुण्यं नव विधं स्मृतम् ॥ १॥" भावधर्म स्वरूपनिरूपणायाह-- IS लोइयलोउत्तरिओ दुविहो पुण होति भावधम्मो छ। दुविहोवि दुविहतिविहो पंचविहो होति णायव्यो ॥१०१॥ भावधर्मो नोआगमतो द्विविधः, तद्यथा-लौकिको लोकोत्तरश्च, तत्र लौकिको द्विविधः-गृहस्थानों पाखण्डिकानां च, लोकोचरत्रिविधः-ज्ञानदर्शनचारित्रभेदात , तत्राप्याभिनियोधादिकं ज्ञानं पञ्चधा, दर्शनमप्यौपशमिकसावादनक्षायोपशमिकवेदकक्षा- || ॥१७६।। |यिकभेदात् पश्चविध, चारित्रमपि सामायिकादिभेदात् पञ्चधैव । गाथाऽक्षराणि खेवं नेयानि, तद्यथा-भावधर्मो लौकिकलो-| IS कोचरभेदाद्विधा, द्विविधोऽपि चार्य यथासङ्ग्वेन द्विविधतिविधः, तत्रैव लौकिको गृहस्थपाखण्डिकभेदात् द्विविधा, लोकोचरो e teesesesectsekese धर्मस्य निक्षेपा:, भाव-धर्मस्य निरुपणा ~356~ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [-], मूलं [१], नियुक्ति: [१०१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१|| दीप अनुक्रम [४३७] |ऽपि ज्ञानदर्शनचारित्रभेदात् त्रिविधः, ज्ञानादीनि प्रत्येकं त्रीण्यपि पंचधैवेति ॥ तत्र ज्ञानदर्शनचारित्रवतां साधूनां यो धर्मस्त दर्शयितुमाहपासत्थोसण्णकुसील संथवो ण किर वहती काउं। सूयगडे अज्झयणे धम्मंमि निकाइतं एयं ॥ १०२ ॥ साधुगुणानां पार्थे तिष्ठन्तीति पार्श्वस्थाः तथा संयमानुष्ठानेऽवसीदन्तीत्यवसन्नाः तथा कुत्सितं शीलं येषां ते कुशीलाः एतैः पार्श्वस्थादिभिः सह संस्तवः-परिचयः सहसंवासरूपो न किल यतीनां वर्तते कर्तुम् , अतः सूत्रकृतेऽङ्गे धर्माख्येऽध्ययने एतत् ४ 'निकाचितं' नियमितमिति । गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, अधुना सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुचारयितव्यं, तवेदम्--14 कयरे धम्मे अक्खाए, माहणेण मतीमता? । अंजु धम्मं जहातच्चं, जिणाणं तं सुणेह मे ॥१॥ माहणा खत्तिया वेस्सा, चंडाला अदु बोक्सा । एसिया वेसिया सुद्दा, जे य आरंभणिस्सिया ॥२॥8 परिग्गहनिविट्राणं, वेरं तेसिं पवथई । आरंभसंभिया कामा, न ते दुक्खविमोयगा ॥३॥ आघायकिच्चमाहेउं, नाइओ विसएसिणो । अन्ने हरंति तं वित्तं, कम्मी कम्मेहिं किच्चती ॥४॥ जम्यूस्वामी सुधर्मस्वामिनमुद्दिश्येदमाह-तद्यथा-'कतर किम्भूतो दुर्गतिगमनधरणलक्षणो धर्मः 'आख्यातः' प्रतिपादितो |'माहणेणं'ति मा जन्तून व्यापादयेत्येवं विनेयेषु वाक्प्रवृत्तिर्यस्यासौ 'माहनों' भगवान् वीरवर्धमानखामी तेन , तमेव विशिनष्टि-मनुते-अवगच्छति जगत्रयं कालत्रयोपेतं यया सा केवलज्ञानाख्या मतिः सा अस्यास्तीति मतिमान् तेन-उत्पत्रकेबल 209929202829292020009 JABERatinintamational Swanniorary.org साधुनाम् धर्मस्य दर्शनं, मूल सूत्रस्य आरम्भ:, ~357~ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [-], मूलं [४], नियुक्ति: [१०२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सुत्राक ||४|| मूत्रकृताङ्गं शीलाङ्काचाीयत्तियुत ॥१७७॥ दीप अनुक्रम [४४०] eceaeaaroesepecesercedeo ज्ञानेन भगवता, इति पृष्टे सुधर्मस्वाम्याह-रागद्वेष जितो जिनास्तेषां सम्बन्धिनं धर्म 'अंजुम्' इति 'ऋजु' मायाप्रपञ्चरहितसा- ९ धर्मादवकं तथा'जहातचं में इति यथावस्थितं मम कथयतः शृणुत यूयं, न तु यथाऽन्यैस्तीथिकैर्दम्भप्रधानो धर्मोऽभिहितस्तथा ध्ययनं. भगवताऽपीति, पाठान्तरं वा 'जणगा तं सुणेह में जायन्त इति जना-लोकास्त एव जनकास्तेषामामन्त्रणं हे जनकाः! तं धर्म । शृणुत यूयमिति ॥१।। अन्वयव्यतिरेकाभ्यामुक्तोऽर्थः मूक्तो भवतीत्यतो यथोद्दिष्टधर्मप्रतिपक्षभूतोऽधर्मस्तदाश्रितांस्तावद्दर्शयितुमाहब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्यास्तथा चाण्डालाः अथ बोकसा-अवान्तरजातीयाः, तद्यथा-ब्रामणेन शूद्या जातो निषादो ब्राह्मणेनैव | वैश्यायां जातोऽम्बष्ठः तथा निषादेनाम्बट्यां जातो बोकसः, तथा एषितुं शीलमेषामिति एषिका मृगलुब्धका हस्तितापसाच मांसहेतोर्मुगान् हस्तिनश्च एषन्ति, तथा कन्दमूलफलादिकं च, तथा ये चान्ये पाखण्डिका नानाविधैरुपार्भेक्ष्यमेषन्त्यन्यानि वा | विषयसाधनानि ते सर्वेऽप्येषिका इत्युच्यन्ते, तथा 'वैशिका' वणिजो मायाप्रधानाः कलोपजीविनः, तथा 'शगा' कृषीवलादयः आभीरजातीयाः, कियन्तो वा वक्ष्यन्त इति दर्शयति-ये चान्ये वापसदा नानारूपसावध 'आरम्भ(म्भे)निश्रिता' यत्र-18 पीडननिर्लान्छनकर्माङ्गारदाहादिभिः क्रियाविशेषैर्जीवोपमईकारिणः तेषां सर्वेषामेव जीवापकारिणां वैरमेव प्रवर्धत इत्युत्रश्लोके [क्रियेति ।। २ ।। किश्व-परि--समन्तात् गृह्यत इति परिग्रहो-द्विपदचतुष्पदधनधान्यहिरण्यसुवर्णादिषु ममीकारस्त 'नि-I ||१७७।। विष्टानाम्' अध्युपपन्नानां गाय गताना 'पापम्' असातवेदनीयादिकं 'तेषां प्रागुक्तानामारम्भनिश्रितानां परिग्रहे निवि-13 टानां प्रकर्षेण 'वर्द्धते' वृद्धिमुपयाति जन्मान्तरशतेष्वपि दुर्मो भवति, कचित्पाठः 'बेरं तेसिं पवहइति तत्र येन यस्य ॥१] Swlanmiorary.org ~358~ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [-], मूलं [४], नियुक्ति: [१०२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्राक ||४|| दीप अनुक्रम [४४०] I यथा प्राणिन उपमर्दः क्रियते स तथैव संसारान्तर्वर्ती शतशो दुःखभाक् भवतीति, जमदग्निकृतवीर्यादीनामिव पुत्रपौत्रानुगं 18| वैरै प्रवर्द्धत इति भावः, किमित्येवं ?, यतस्ते कामेषु प्रवृत्ताः, कामाश्चारम्भः सम्यग्र भृताः संभृता-आरम्भपुष्टा आरम्भाश्च जीवो पमर्दकारिणः अतो न ते कामसम्भृता आरम्भनिश्रिताः परिग्रहे निविष्टाः दुःखयतीति दुःखम् –अष्टप्रकारं कर्म तद्विमोचका । |भवन्ति तस्थापनेवारो न भवन्तीत्यर्थः ।। ३ ।। किश्चान्यत्-आहन्यन्ते-अपनीयन्ते विनाश्यन्ते प्राणिनां दश प्रकारा अपि प्राणा यसिन् स आघातो-मरणं तसै तत्र वा कृतम्-अग्निसंस्कारजलाञ्जलिप्रदानपितृपिण्डादिकमाघातकृत्यं तदाधातुम्-आधाय | कृता पचात् 'ज्ञातयः' खजनाः पुत्रकलत्रभ्रातृव्यादयः, किम्भूताः-विषयानन्वेष्टुं शीलं येषां तेज्येऽपि विपयैषिणः सन्तस्तस्य | दुःखार्जितं 'वित्तं' द्रव्यजातम् 'अपहरन्ति' स्वीकुर्वन्ति, तथा चोक्तम्-"ततस्तेनार्जितैर्द्रव्यैर्दारेश्च परिरक्षितैः । क्रीडन्त्यन्ये नरा राजन् , हष्टास्तुष्टा छलङ्कताः॥१॥" स तु द्रव्यार्जनपरायणः सावद्यानुष्ठानवान् कर्मषान् पापी खकृतैः कर्मभिः सं-II | सारे 'कृत्यते' छिपते पीट्यत इतियावत् ॥ ४॥ वजनाच तद्रव्योपजीविनस्तत्राणाय न भवन्तीति दर्शयितुमाह माया पिया पहुसा भाया, भजा पुत्ता य ओरसा । नालं ते तव ताणाय, लुप्पंतस्त सकम्मुणा॥५॥ ॥ एयमटुं सपेहाए, परमाणुगामियं । निस्ममो निरहंकारो, चरे भिक्खू जिणाहियं ॥६॥ चिच्चा वित्तं च पुत्ते य, णाइओ य परिग्गहं । चिच्चा ण अंतगं सोयं, निरवेक्खो परिवए ॥७॥ అదిరింది ~359~ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [-], मूलं [८], नियुक्ति: [१०२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत शीलाका ध्ययन सूत्राक ||८|| दीप अनुक्रम सूत्रकृताङ्ग 18| पुढवी उ अगणी वाऊ, तणरुक्ख सबीयगा । अंडया पोयजराऊ, रससंसेयउब्भिया ॥८॥ चार्थीय 'माता' जननी 'पिता' जनकः 'स्नुषा' पुत्रवधूः 'भ्राता' सहोदरः तथा 'भार्या कलत्रं पुत्राश्चौरसाः-स्वनिष्पादिता चियुत एते सर्वेऽपि मात्रादयो ये चान्ये श्वशुरादयस्ते तव संसारचक्रवाले खकर्मभिर्विलुप्यमानस त्राणाय 'नालं' न समर्थी भवन्तीति, | इहापि तावन्ते त्राणाय किमुतामुत्रेति, दृष्टान्तश्रात्र कालसौकरिकसुतः सुलसनामा अभयकुमारस्य सखा, सेन महासखेन , ॥१७८॥ खजनाभ्यर्थितेनापि न प्राणिष्वपकृतम् , अपि खात्मन्येवेति ।।५।। किश्चान्यत् धर्मरहिताना खकृतकर्मविलुप्यमानानौमहिकामु-18 | प्मिकयोनें कश्चित्राणायेति एनं पूर्वोक्तमर्थ स प्रेक्षापूर्वकारी 'प्रत्युपेक्ष्य' विचार्यावगम्य च परमः-प्रधानभूतो (ों ) मोक्षः 118 18| संयमो वा तमनुगच्छतीति तच्छीलब परमार्थानुगामुका-सम्यग्दर्शनादिस्तं च प्रत्युपेक्ष्य, क्साप्रत्ययान्तस पूर्वकालवाचितया | | क्रियान्तरसव्यपेक्षखात तदाह-निर्मतं ममखं बाह्याभ्यन्तरेषु वस्तुषु यस्मादसी निर्ममः तथा निर्गतोऽहकार---अभिमानः पूर्व-| श्वर्यजात्यादिमदजनितस्तथा तपःस्वाध्यायलाभादिजनितो वा यसादसौ निरहङ्कारो-रागद्वेपरहित इत्यर्थः, स एवम्भूतो मिक्षु-18|| | जिनैराहिता-प्रतिपादितोऽनुष्ठितो वा यो मार्गो जिनानां वा सम्बन्धी योऽभिहितो मार्गस्तं 'चरेदू' अनुतिष्ठेदिति ॥ ६॥ अ-18| || पिच-संसारस्वभावपरिवानपरिकर्मितमतिर्विदितवेद्यः सम्यक् 'त्यक्त्वा परित्यज्य किं तद्-'वित्तं द्रव्यजातं पुत्रांश्च त्यक्ता, ॥१७८॥ Sपुढेष्वधिकः स्नेहो भवतीति पुत्रग्रहणं, तथा 'ज्ञातीन खजनश्चि त्यक्ता तथा 'परिग्रह चान्तरममखरूपं णकारो वाक्याल-18 कारे अन्तं गच्छतीत्यन्तगो दुष्परित्यज इत्यर्थः अन्तको वा विनाशकारीत्यर्थः आत्मनि वा गच्छतीत्यात्मग आन्तर इत्यर्थः तं [४४४] ~360~ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [ ४४४] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र- २ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [-], मूलं [८], निर्युक्ति: [१०२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः तथाभूतं 'शोक' संतापं त्यक्त्वा' परित्यज्य श्रोतो वा मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकपायात्मकं कर्माश्रवद्वारभूतं परित्यज्य पाठान्तरं वा 'चिच्चा पणऽणंतगं सोयं' अन्तं गच्छतीत्यन्तगं न अन्तगमनन्तगं श्रोतः शोकं वा परित्यज्य 'निरपेक्ष:' पुत्रदारधनधान्यहिरण्यादिकमनपेक्षमाणः सन् आमोक्षाय परि-समन्तात् संयमानुष्ठाने 'व्रजेत्' परिव्रजेदिति तथा चोक्तम्- "छलिया अवयक्खता निरावयक्खा गया अविग्घेणं । तम्हा पत्रयणसारे निरावयक्खेण होयतं ॥ १ ॥ भोगे अवयक्खता पति संसारसागरे घोरे । भोगेहि निरवयक्खा तरंति संसारकंतारं ॥ २ ॥” इति ॥ ७ ॥ स एवं प्रत्रजितः सुत्रतावस्थितात्माऽहिंसादिषु व्रतेषु प्रयतेत, तत्राहिंसाप्रसिद्ध्यर्थमाह- 'पुढवी उ' इत्यादि लोकद्वयं तत्र पृथिवीकायिकाः सूक्ष्मबादरपर्याप्तका पर्याप्त कभेदभिनाः तथाऽकायिका अग्रिकायिका वायुकायिका चैवम्भूता एव, वनस्पतिकायिकान् लेशतः सभेदानाह-- 'तृणानि' कुशवैचकादीनि 'वृक्षाः' चूताशोकादिकाः सह बीजैर्वर्तन्त इति सबीजाः, बीजानि तु शालिगोधूमयवादीनि, एते एकेन्द्रियाः पञ्चापि कायाः पष्ठत्रसकायनिरूपणायाद - अण्डाजाता अण्डजाः शकुनिगृहको फिलकसरीसृपादयः तथा पोता एव जाताः पोतजा-ह| स्तिशरभादयः तथा जरायुजा ये जम्बालवेष्टिताः समुत्पद्यन्ते गोमनुष्यादयः तथा रसात् दधिसौवीरकादेर्जाता रसजास्तथा संखेदाञ्जाताः संखेदजा यूकामत्कुणादयः 'उद्भिज्जाः' खञ्जरीटकदर्दुरादय इति, अज्ञातभेदा हि दुःखेन रक्ष्यन्त इत्यतो भेदेनोपन्यास इति ॥ ८ ॥ १ छलिता अपेक्षमाणा निरपेक्षमाणा गता अविनेन तस्मात्प्रवचनसारे (झाते ) निरपेक्षेण भवितव्यम् ॥ १ ॥ २ भोगानपेक्षमाणाः पतन्ति संसारसागरे पोरे भोगेषु निरपेक्षास्तरन्ति संसारकान्तारं ॥ १ ॥ ३ बन्धका० प्र० । uttaration For Parts Only ~361~ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [-], मूलं [८], नियुक्ति: [१०२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: SCA प्रत सुत्रांक ||९|| दीप अनुक्रम [४४५] सूत्रकृताङ्गं । एतेहिं छहिं काएहि, तं विजं परिजाणिया । मणसा कायवक्केणं, णारंभी ण परिग्गही ॥९॥ चार्याय-1 मुसावायं बहिद्धं च, उग्गहं च अजाइया । सत्थादाणाई लोगंसि, तं विजं परिजाणिया ॥ १० ॥ ध्ययनं. त्तियुतं । पलिउंचणं च भयणं च, थंडिल्लुस्सयणाणि या । धूणादाणाई लोगंसि, तं विजं परिजाणिया ॥११॥|| ॥१७९॥ || धोयणं रयणं चेव, बत्थीकम्मं विरेयणं । वमणंजण पलीमथं, तं विजं परिजाणिया ॥ १२ ॥ 8 एभिः' पूर्वोक्तः पइभिरपि 'कायैः' बसस्थावररूपैः सूक्ष्मवादरपर्याप्तकापर्याप्तकभेदभिन्न रम्भी नापि परिग्रही स्वादिति । सम्बन्धः, तदेतद् 'विद्वान्' सश्रुतिको ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया मनोवाकायकर्मभिर्जीवोपमर्दकारिणमारम्भ परि-181 ग्रहं च परिहरेदिति ॥ ९॥ शेषत्रतान्यधिकृत्याह-मृषा-असतो वादो मृपावादस्तं विद्वान् प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेत् । तथा 'बहिर्बु'ति मैथुन 'अवग्रह' परिग्रहमयाचितम् अदत्तादानं, [ग्रं०५२५०] यदिवा पहिडमिति-मैथुनपरिग्रही अ-12 वग्रहमयाचितमित्यनेनादत्तादानं गृहीतं, एतानि च मृषावादादीनि प्राण्युपतापकारितात शस्त्राणीव शखाणि वर्तन्ते । तथाऽदीयते--गृशतेऽष्टप्रकार कमैभिरिति (आदानानि) कर्मोपादानकारणान्यसिन् लोके, तदेतत्सर्व विद्वान् ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्र- १७९।। || स्याख्यानपरिशया परिहरेदिति ॥ १०॥ किश्चान्यत-पञ्चमहाव्रतधारणमपि कपायिणो निष्फलं स्वादतस्तत्साफल्यापादनार्थ । कषायनिरोधी विधेय इति दर्शयति-परि-समन्तात् कुश्यन्ते--वक्रतामापाद्यन्ते क्रिया येन मायानुष्ठानेन तत्पलिकुश्चनं । NE ~362~ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१२|| दीप अनुक्रम [ ४४८] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र -२ ( मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ९ ], उद्देशक [-], मूलं [१२], निर्युक्तिः [१०२ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः मायेति भण्यते, तथा भज्यते सर्वत्रात्मा प्रहीक्रियते येन स भजनो-लोभस्तं, तथा यदुदयेन ह्यात्मा सदसद्विवेक विकलखात् स्थण्डिलवद्भवति स स्थण्डिलः - कोषः, यस्मिंश्च सत्यूर्ध्व श्रयति जात्यादिना दर्पाध्मातः पुरुष उत्तानीभवति स उच्छ्रायो-मानः, छान्दसत्वान्नपुंसकलिङ्गता, जात्यादिमदस्थानानां बहुलात् तत्कार्यस्यापि मानस्य बहुमतो बहुवचनं, चकाराः स्वगतभेदसंसूचनार्थाः समुच्चयार्थी वा धूनयेति प्रत्येकं क्रिया योजनीया, तथथा – पलिकञ्चनं मायां धूनय धूनीहि वा, तथा भजन - लोनं, तथा स्थण्डिलं क्रोधं, तथा उच्छ्रायं मानं, विचित्रत्वात् सूत्रस्य नमोल्लङ्घनेन निर्देशो न दोषायेति, यदिवा-रागस्य दुस्त्य - जत्वाद लोभस्य च मायापूर्वकत्वादित्यादावेव मायालो भयोरुपन्यास इति, कषायपरित्यागे विधेये पुनरपरं कारणमाह – एतानि पलिकञ्चनादीनि अस्मिन् लोके आदानानि वर्त्तन्ते, तदेतद्विद्वान् ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया प्रत्याचक्षीत ॥ ११ ॥ पुनरप्युत्तरगुणानधिकृत्याह - धावनं प्रक्षालनं हस्तपादवखादे रञ्जनमपि तस्यैव, चकारः समुचयार्थः, एवकारोऽवधारणे, तथा बस्तिकर्म- अनुवासनारूपं तथा 'विरेचनं' निरूहात्मकमधोविरेको वा वमनम् ऊर्ध्वविरेकस्तथाऽञ्जनं नयनयोः इत्येवमादिकमन्यदपि शरीरसंस्कारादिकं यत् 'संयमपलिमन्थकारि' संयमोपघातरूपं तदेतद्विद्वान् स्वरूपतस्तद्विपाकतच परिज्ञाय प्रत्याचक्षीत | ।। १२ ।। अपिच गंधमलसिणाणं च, दंतपक्खालणं तदा । परिग्गहित्थिकम्मं च तं विज्जं परिजाणिया ॥ १३ ॥ १ निरुद्धो निश्चिते तर्फे बस्तिभेचे इति हेमः । Education intol For FPs at Use Only ~ 363~ incibrary o Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [-], मूलं [१४], नियुक्ति: [१०२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ध्ययनं. ||१४|| चियुतं दीप अनुक्रम [४५०] उद्देसियं कीयगडं, पामिच्चं चेव आहडं । पूर्य अणेसणिज च, तं विजं परिजाणिया ॥ १४ ॥ ९घमा आसूणिमक्खिरागं च, गिडुवघायकम्मगं । उच्छोलणं च ककं च, तं विजं परिजाणिया ॥१५॥ चा-य संपसारी कयकिरिए, पसिणायतणाणि य । सागारियं च पिंडं च, तं विजं परिजाणिया ॥ १६॥ १८०11U __'गन्धाकोटपटादयः 'माल्यं जात्यादिक 'लानं च शरीरप्रक्षालनं देशता सर्वतश्च, तथा 'दन्तप्रक्षालन कदम्बका-18 Kष्ठादिना तथा 'परिग्रहः' सचित्तादेः खीकरणं तथा खियो-दिव्यमानुपतैरथ्यः तथा 'कर्म' हस्तकर्म सावद्यानुष्ठानं वा R| तदेतत्सर्व कर्मोपादानतया संसारकारणखेन परिज्ञाय विद्वान् परित्यजेदिति ॥ १३ ॥ किशान्यत्-साध्वाघुद्देशेन यदानाय व्यवस्थाप्यते तदुदेशिक, तथा 'क्रीतं' क्रयस्तेन क्रीतं गृहीतं कीतीतं 'पामिति साध्वर्थमन्यत उद्यतकं यद्यते तत्तदु-|| च्यते चकारः समुच्चयार्थः एवकारोवधारणार्थः, साध्वर्थ यगृहस्थेनानीयते तदाहृतं, तथा 'पूर्यमिति आधाकर्मावयवसम्पृक्तं | शुद्धमप्याहारजातं पूति भवति, किंबहुनोक्तेन , यत् केनचिद्दोषेणानेषणीयम्-अशुद्ध तत्सर्व विद्वान् परिज्ञाय संसारकारणतया | | निस्पृहः सन् प्रत्याचक्षीतेति ॥ १४॥ किच-येन घृतपानादिना आहारविशेषेण रसायनक्रियया वा अशूनः सन् आ-समन्तात् || शूनीभवति बलवानुपजायते तदाशूनीत्युच्यते, यदिवा आसूणित्ति-श्लाघा यतः श्लाघया क्रियमाणया आ-समन्तात् शूनवच्छ्नो ॥१८॥ | लघुप्रकृतिः कश्चिद्दपोध्मातखात् स्तब्धो भवति, तथा अक्ष्णां 'रागो' रजनं सौवीरादिकमञ्जनमितियावत् , एवं रसेषु शब्दादिषु विषयेषु वा 'गृद्धिं' गा तात्पर्यमासेवा, तथोपघातकर्म-अपरापकारक्रिया येन केनचित्कर्मणा परेषां जन्तूनामुपघातो भवति ~364 ~ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [-], मूलं [१६], नियुक्ति: [१०२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१६|| दीप अनुक्रम [४५२] तदपघातकर्मत्युच्यते, तदेव लेशतो दर्शयति–'उच्छोलनं'ति अयतनया शीतोदकादिना हत्तपादादिप्रक्षालनं तथा 'कल्क'लोधादिद्रव्यसमुदायेन शरीरोद्वर्तनकं तदेतत्सर्वे कर्मबन्धनायेत्येवं 'विद्वान् पण्डितो झपरिक्षया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिक्षया परिहरे-18 दिति ॥ १५ ॥ अपिच-असंयतैः सार्धं सम्प्रसारणं पोलोचनं परिहरेदिति वाक्यशेषः, एवमसंयमानुष्ठानं प्रत्युपदेशदानं,18 तथा 'कयकिरिओं' नाम कृता शोभना गृहकरणादिका क्रिया येन स कृतक्रिय इत्येवमसंयमानुष्ठानप्रशंसनं, तथा प्रश्नस्य-आद-1 शंप्रश्नादेः 'आयतनम् आविष्करणं कथनं यथाविवक्षितप्रश्ननिर्णयनानि, यदिवा-प्रश्नायतनानि लौकिकानां परस्परव्यवहारे मिथ्याशाखगतसंशये वा प्रश्ने सति यथावस्थितार्थकथनद्वारेणायतनानि निर्णयनानीति, तथा 'सागारिका' शय्यातरस्तस्य पिण्डम् आहार, यदिवा-सागारिकपिण्डमिति सूतकगृहपिण्डं जुगुप्सितं वर्णापसदपिण्डं वा, चशब्दः समुच्चये, तदेतत्सर्व विद्वान् | 18 परिक्षया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेदिति ॥ १६॥ किश्चान्पत् अट्रावयं न सिक्खिजा, वेहाईयं च णो वए। हत्थकम्मं विवायं च तं विजं परिजाणिया ॥१७॥ पाणहाओ य छत्तं च, णालीयं वालवीयणं । परकिरियं अन्नमन्नं च, तं विजं परिजाणिया ॥१८॥ उच्चारं पासवणं, हरिपसु ण करे मुणी । वियडेण वावि साहस, णावमजे(यमेजा) कयाइवि ॥१९॥ परमत्ते अन्नपाणं, ण मुंजेज कयाइवि। परवत्थं अचेलोऽवि, तं विजं परिजाणिया ॥२०॥ Eseseseseseseserverse marwlanmitrary.org ~365~ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक -], मूलं [२०], नियुक्ति: [१०२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्रांक सूत्रकृताई शीलासाचार्यायवृत्तियुतं ||२०|| ॥१८॥ दीप अर्यते इत्यर्थों-धनधान्यहिरण्यादिकः पयते-गम्यते येनार्थस्तत्पदं-शाख अर्थार्थ पदमर्थपदं चाणाक्यादिकमर्थशास्त्रं तम|8|९ धर्मा'शिक्षेत्' नाभ्यस्पेत् नाप्यपरं प्राण्युपमर्दकारि शास्त्रं शिक्षयेत् , यदिवा-'अष्टापदं द्यूतक्रीडाविशेषस्तं न शिक्षेत, नापि पूर्वनि- ध्ययनं. | क्षितमनुशीलयेदिति, तथा 'वेधो' धर्मानुवेधस्तस्मादतीतं सद्धर्मानुवेधातीतम्-अधर्मप्रधानं वचो नो वदेत् यदिवा-वेध इति वख| वेधो द्यूतविशेषस्तद्गतं वचनमपि नो वदेद् आस्तां तावत्क्रीडनमिति, हस्तकर्म प्रतीतं, यदिवा 'हस्तकम हस्तक्रिया परस्परं हस्तच्यापारप्रधानः कलहस्तं, तथा विरुद्धवाद विवाद शुष्कवादमित्यर्थः, चः समुच्चये, तदेतत्सर्व संसारभ्रमणकारणं झपरिक्षया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिक्षया प्रत्याचक्षीत ॥१७॥ किश्च उपानही-काष्ठपादुके च तथा आतपादिनिवारणाय छत्रं तथा 'नालिका द्यूतक्रीडाविशेषस्तथा वालैः मयूरपिच्छैर्वा न्यजनक, तथा परेषां सम्बन्धिनी क्रियामन्योन्य-परस्परतोऽन्यनिष्पाद्यामन्यः करोत्यपरनिष्पाधां चापर इति, चः समुच्चये, तदेतत्सर्व 'विद्वान् पण्डितः कर्मोपादानकारणलेन ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेदिति ॥ १८ ॥ तथा उच्चारप्रस्रवणादिका क्रिया हरितेषूपरि बीजेषु वा अखण्डिले वा 'मुनिः' साधुने कुर्यात् ॥ तथा 'विकटेन' विगतजीवेनाप्युदकेन 'संहत्य' अपनीय चीजानि हरितानि वा 'नाचमेत' न निलेपनं कुर्यात् , किमुताविकटे-18 नेतिभावः ॥ १९ ॥ किश्च परस्स-गृहस्थस्थामत्र-भाजनं परामत्रं तत्र पुरस्कर्मपक्षात्कर्मभयान इतनष्टादिदोषसम्भवाच अनं18 | पानं च मुनिने कदाचिदपि भुञ्जीत, यदिवा-पतगृहधारिणश्छिद्रपाणेः पाणिपात्रं परपात्रं, यदिवा पाणिपात्रस्याच्छिद्रपाणेजि-| नकल्पिकादेः पतद्गहः परपात्रं तत्र संयमविराधनाभयान भुञ्जीत तथा परस्य-गृहस्थस्य वखं परवस्त्रं तत्साधुरचेलोऽपि सन् पश्चात्कर्मादिदोपभयात् हतनष्टादिदोषसम्भवाच न विभृयात् , यदिवा-जिनकल्पिकादिकोचेलो भूला सर्वमपि पखं परवखमिति अनुक्रम [४५६] HI||१८१॥ ~366~ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [-], मूलं [२१], नियुक्ति: [१०२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२०|| दीप कला न विभृयाद् , तदेतत्सर्व परपात्रभोजनादिकं संयमविराधकलेन झपरिक्षया परिक्षाय प्रत्याख्यानपरिक्षया परिहरेदिति ॥ तथा-- आसंदी पलियंके य, णिसिजं च गिहतरे। संपुच्छणं सरणं वा, तं विजं परिजाणिया ॥ २१॥ 181 जसं कित्तिं सलोयं च, जा य वंदणपूयणा । सबलोयंसि जे कामा, तं विजं परिजाणिया ॥ २२॥ जेणेहं णिवहे भिक्खू , अन्नपाणं तहाविहं । अणुप्पयाणमन्नेसि, तं विजं परिजाणिया ॥ २३ ॥ एवं उदाहु निग्गंथे, महावीरे महामुणी । अणंतनाणदंसी से, धम्म देसितवं सुतं ॥ २४॥ 'आसन्दी'त्यासनविशेषः, अस्स चोपलक्षणार्थखात्सर्वोऽप्यासनविधिगृहीतः, तथा 'पर्यक' शयनविशेषः, तथा गृहस्थान्त|मध्ये गृहयोर्वा मध्ये निषद्या वाऽऽसनं वा संयमविराधनाभयात्परिहरेत् , तथा चोक्तम्-“गंभीर सिरा एते, पाणा दुप्पडिलेहगा । अगुती पंभचेरस्स, इत्थीओ वावि संकणा ॥१॥" इत्यादि, तथा तत्र गृहस्थगृहे कुशलादिप्रच्छनं आत्मीयशरीरावयव-150 प्रच्छ(पुञ्छ)नं वा तथा पूर्वक्रीडितसरणं चेत्येतत्सर्व 'विद्वान् विदितवेद्यः सन्ननायेति ज्ञपरिशया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिजया परिहरेत् ।।२१।। अपिच बहुसमरसहनिर्वहणशौर्यलक्षणं यशः दानसाध्या कीर्तिः जातितपोचाहुक्षुल्यादिजनिता श्लाघा, तथा या । गंभीरविजया इति द० ० ६ गा० ५६ अप्रकाशानया इति वृत्तिः । २ एतानि गम्भीरच्छिद्राणि प्राणा दुष्पतिलेख्याः । अगुप्तिब्रह्मचर्यस्य स्त्रियो वापि शंकन ॥१॥ Satestaeesesesesesesencescces अनुक्रम [४५६] ~367~ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [-], मूलं [२४], नियुक्ति: [१०२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२४|| चियुतं दीप अनुक्रम [४६०] सूत्रकृताङ्ग 18|च सुरासुराधिपतिचक्रवर्तिबलदेववासुदेवादिभिर्वन्दना तथा तैरेव सत्कारपूर्विका वस्त्रादिना पूजना, तथा सर्वसिपि लोके ||९ धर्माशीलाका | इच्छामदनरूपा ये केचन कामास्तदेतत्सर्वे यश-कीर्ति(श्लोकादिक)मपकारितया परिज्ञाय परिहरेदिति ॥२२॥ किश्वान्यत्-'येन । ध्ययन. चायीय अन्नेन पानेन वा तथाविधेनेति सुपरिशुद्धेन कारणापेक्षया खशुद्धेन वा 'इह' असिन् लोके इदं संयमपात्रादिकं दुर्भिक्षरोगात-18 कादिकं वा भिक्षुः निर्वहेत निर्वाहयेद्वा तदन्नं पानं वा 'तथाविधं' द्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षया 'शुद्ध' कल्पं गृहीयानतेपाम्--18 ॥१८२॥ | अन्नादीनामनुप्रदानमन्यसै साधवे संयमयात्रानिर्वहणसमर्थमनुतिष्ठेत् , यदिवा-येन केनचिदनुष्ठितेन 'इम' संयम 'निर्वहेत् । निर्वाहयेद् असारतामापादयेत्तथाविधमशनं पानं वाऽन्यद्वा तथाविधमनुष्ठानं न कुर्यात् , तथैतेपामशनादीनाम् 'अनुप्रदान गृहस्थानां परतीथिकानां स्वयूथ्यानां वा संवमोपघातक नानुशीलयेदिति, तदेतत्सर्व ज्ञपरिक्षया शाखा सम्यक परिहरेदिति॥२३॥ यदुपदेशेनैतत्सर्व कुर्यात् दर्शयितुमाह-'एवम् अनन्तरोक्तया नीत्या उद्देशकादेरारभ्य 'उदाहुत्ति उदाहृतवानुक्तवान् निर्गतः। सबाह्याभ्यन्तरो ग्रन्थो यस्मात्स निर्ग्रन्थो 'महावीर' इति श्रीमद्वर्धमानस्वामी महाश्वासौ मुनिश्च महामुनिः अनन्तं ज्ञानं दर्शन च यस्यासावनन्तज्ञानदर्शनी स भगवान् 'धर्म' चारित्रलक्षणं संसारोत्तारणसमर्थ तथा 'श्रुतं च' जीवादिपदार्थसंसूचकं 'देशितवान्' प्रकाशितवान् ॥ २४ ॥ किश्चान्यत भासमाणो न भासेजा, णेव वंफेज मम्मयं ।मातिट्राणं विवजेज्जा, अणुचिंतिय वियागरे ॥२५॥ तत्थिमा तइया भासा, जं वदित्ताऽणुतप्पती । जं छन्नं तं न वत्तत्वं, एसा आणा णियंठिया ॥२६॥ 22000202090809200229202 ~368~ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [-], मूलं [२७], नियुक्ति: [१०२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२७|| दीप अनुक्रम [४६३] होलावायं सहीवायं, गोयावायं च नो वदे । तुमं तुमंति अमणुन्नं, सबसो तं ण वत्तए ॥ २७॥ अकुसीले सया भिक्खू , णेव संसग्गियं भए । सुहरूवा तत्थुवस्सग्गा, पडिबुज्झेज ते विऊ ॥२८॥ यो हि भाषासमितः स भाषमाणोऽपि धर्मकथासम्बन्धमभाषक एव स्यात्, उक्तं च-"यणविहत्तीकुसलो वओगयं बहुविहं वियाणतो । दिवसपि भासमाणो साहू वयगुत्तय पत्तो ॥ १॥" यदिवा यत्रान्यः कश्चिद्रत्नाधिको भाषमाणस्तत्रान्तर एव8 | सथुतिकोऽहमित्येवमभिमानवान्न भाषेत, तथा मर्म गच्छतीति मर्मगं वचो न 'वंफेजत्ति नाभिलपेत् , यद्वचनमुच्यमानं तथ्यमतध्यं ॥8 वा सद्यस्य कस्यचिन्मनःपीडामाधत्ते तद्विवेकी न भाषेतेति भावः, यदिवा 'मामक' ममीकारः पक्षपातस्तं भाषमाणोऽन्यदा वा |'न वफेजति' नाभिलपेत् , तथा 'मातृस्थान' मायाप्रधानं वचो विवर्जयेत् , इदमुक्तं भवति-परवचनबुद्ध्या गूढाचारप्रधानो। | भाषमाणोऽभाषमाणो वायदा वा मातृस्थानं न कुर्यादिति, यदा तु वक्तुकामो भवति तदा नैतद्वचः परात्मनोरुभयोर्वा बाधकमि-181 त्येवं प्राग्विचिन्त्य वचनमुदाहरेत् , तदुक्तम्-"पुर्वि बुद्धीऍ पेहिता, पच्छा वकमुदाहरे" इत्यादि ।।२५।। अपिच-सत्या असत्या सत्यामृषा असत्यामृपेत्येवंरूपासु चतसषु भाषासु मध्ये तत्रेयं सत्यामृपेत्येतदभिधाना तृतीया भाषा, सा च किश्चिन्मृषा | किश्चित्सत्या इत्येवंरूपा, तद्यथा--दश दारका अस्मिन्नगरे जाता मृता वा, तदत्र न्यूनाधिकसम्भवे सति सङ्ख्याया व्यभि | वन विभक्तिशालो बचोचतं बहुविध विजानन् । दिवसमपि भाषमाणः साधुर्यचन गुप्तिसम्प्राप्तः ॥ १॥ २ तहावि द.न.नि. ३० न्यदा वा प्रा। IS पूर्व धुज्या प्रेक्षयिला पवाद वाक्यमुदाहरेत् । Caeseseroesesesesecestracroecesen wwjanatarary.om ~369~ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [-], मूलं [२८], नियुक्ति: [१०२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२८|| दीप अनुक्रम [४६४] |चारात्सत्याभूषात्वमिति, यां चैवरूपां भाषामुदिखा अनु-पश्चाद्भाषणाजन्मान्तरे चा तजनितेन दोपेण 'तप्यते' पीयते क्लेश-121 सूत्रकृताङ्गं भाग्भवति, यदिवा-अनुतप्यते कि ममैवम्भूतेन भाषितेनेत्येवं पश्चात्तापं विधत्ते, ततश्चेदमुक्तं भवति-मिश्रापि भाषा दोषाय किं शीलाङ्काचार्गीय पुनरसत्या द्वितीया भाषा समस्तार्थविसंवादिनी, तथा प्रथमापि भाषा सत्या या प्राण्युपतापेन दोपानुषङ्गिणी सा न वाच्या, तियुतं चतुध्येप्यसत्यामृषा भाषा या बुधैरनाचीर्णा सा न वक्तव्येति, सत्याया अपि दोषानुपङ्गिसमधिकत्याह-यद्वचः 'उन्नति 'क्षणु ॥ | हिंसायाँ' हिंसाप्रधान, तद्यथा-वध्यतां चौरोऽयं लूयन्तां केदाराः दम्यन्तां गोरधका इत्यादि, यदिवा-'छन्नन्ति प्रच्छन यल्लो॥१८॥ |8| कैरपि यत्नतः प्रच्छाद्यते तत्सत्यमपि न वक्तव्यमिति, 'एषाऽऽज्ञा' अयमुपदेशो निर्ग्रन्थो भगवास्तस्येति ॥२६॥ किश्च-होले-18| 8| त्येवं वादो होलाबादः, तथा सखेत्येवं वादः सखिवादः, तथा गोत्रोद्घाटनेन वादो गोत्रवादो यथा काश्यपसगोत्रे वशिष्ठसमोत्रे पवेति, इत्येवंरूपं वादं साधुनों वदेत् , तथा 'तुमं तुमति तिरस्कारप्रधानमेकवचनान्तं बहुवचनोचारणयोग्ये 'अमनोज्ञ' मन:-18 प्रतिकूलरूपमन्यदप्येवम्भूतमपमानापादक 'सर्वशः' सर्वधा तत्साधूनां वक्तुं न वर्तत इति ।। २७॥ यदाश्रित्योक्तं नियुक्तिका-18॥ रेण तद्यथा-"पासत्थोसण्णकुसील संथवो ण किल वट्टए काउं" तदिदमित्याह-कुत्सितं शीलमस्येति कुशीलः स च पाश्वेस्थादीनामन्यतमः न कुशीलोकुशील: 'सदा' सर्वकालं भिक्षणशीलो भिक्षुः कुशीलो न भवेत, न चापि कुशीलः सार्धं 'संसर्ग' साङ्गत्यं 'भजेत' सेवेत, तत्संसर्गदोषोद्विभावविषयाऽऽह-'सुखरूपाः' सातगौरवस्वभावाः 'तत्र' तस्मिन् कुशीलसंसर्गे संयमोप-10 18 ॥१८॥ घातकारिण उपसर्गाः प्रादुष्ष्यन्ति, तथाहि-ते कुशीला वक्तारो भवन्ति-कः किल प्रासुकोदकेन हस्तपाददन्तादिके प्रक्षाल्प-18 माने दोषः स्यात् , तथा नाशरीरो धर्मो भवति इत्यतो येन केनचित्प्रकारेणाधाकर्मसन्निध्यादिना तथा उपानच्छत्रादिना च शरीरं | ~370~ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [-], मूलं [२८], नियुक्ति: [१०२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२८|| दीप अनुक्रम [४६४] 90909a8092008092035 धर्माधारं वर्तयेत् , उक्तं च-"अप्पेण बहुमेसेज्जा, एवं पंडियलक्खण" इति, तथा-"शरीरं धर्मसंयुक्त, रक्षणीयं प्रयत्नतः । शरीरात स्रवते धर्मः, पर्वतासलिलं यथा ॥१॥" तथा साम्प्रतमल्पानि संहननानि अल्पधूतयश्च संयमे जन्तव इत्येवमादि कुशीलोतं श्रुता अल्पसवास्तत्रानुषजन्तीति 'विद्वान' विवेकी 'प्रतिवुध्येत' जानीयात् बुद्धा चापायरूपं कुशीलसंसर्ग परिहरेदिति ॥२८॥ किश्चान्यत् नन्नत्थ अंतराएणं, परगेहे ण णिसीयए। गामकुमारियं किड्, नातिवेलं हसे मुणी ॥ २९ ॥ अणुस्सुओ उरालेसु, जयमाणो परिवए । चरियाए अप्पमत्तो, पुट्टो तत्थाहियासए ॥३०॥ हम्ममाणो ण कुप्पेज, वुच्चमाणो न संजले । सुमणे अहियासिज्जा, ण य कोलाहल करे ॥३१॥ लद्धे कामे ण पत्थेजा, विवेगे एवमाहिए । आयरियाई सिक्खेज्जा, बुद्धाणं अंतिए सया ॥३२॥ तत्र साधुर्भिक्षादिनिमित्तं ग्रामादौ प्रविष्टः सन् परो-गृहस्थस्तस गृहं परगृहं तत्र 'म निषीदेत् 'नोपविशेत उत्सर्गतः, अस्यापवादं दर्शयति-नान्यत्र 'अन्तरायेणे ति अन्तरायः शक्यभावः, स च जरसा रोगातकाभ्यां स्थात् , तस्मिंश्चान्तराये सत्युपविशेत यदिवा-उपशमलब्धिमान् कश्चित्सुसहायो गुवनुज्ञातः कस्यचित्तथाविधस्य धर्मदेशनानिमित्तमुपविशेदपि, तथा ग्रामे कुमारका ग्रामकुमारकास्तेषामियं ग्रामकुमारिका काऽसौ ?-'क्रीडा' हास्यकन्दर्पहस्तसंस्पर्शनालिङ्गनादिका यदिवां बट्टकन्दुकादिका तां मुनिने १ अल्पेन बहु एषयेत् एतत् पण्डितलक्षणं । २ पापं प्र० । ३ एसमाहिए प्र.। JAMERatinintamational wajandiarary.om ~371 Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [-], मूलं [३२], नियुक्ति: [१०२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३२|| शीलाङ्काचार्यायचियुत दीप अनुक्रम सूत्रकृतानं कुर्यात् , तथा वेला मर्यादा तामतिकान्तमतिबेल न हसेत् , मर्यादामतिक्रम्प 'मुनिः साधुः ज्ञानावरणीयावष्टविधकर्मबन्धनभयान ९ धर्मा हसेत् , तथा चागमः-"जीवे णं भंते! हसमाणे(चा) उस्सूयमाणे वा कइ कम्मपगडीओ बंधह?, गोयमा !, सत्तविहबंधए वा अढविहबंधए वा" इत्यादि ॥२९|| किञ्च-'उराला' उदाराः शोभना मनोज्ञा ये चक्रवादीनां शब्दादिषु विषयेषु कामभोगा वस्त्राम-| | रणगीतगन्धर्वयानवाहनादयस्तथा आज्ञैश्वर्यादयश्च एतेषूदारेषु दृष्टेषु श्रुतेषु वा नोत्सुकः स्यात् , पाठान्तरं वा न निश्रितोऽनिश्रितः-18| ॥१८४॥ अप्रतिवद्धः सात् , यतमानव संयमानुष्ठाने परि-समन्तान्मृलोत्तरगुणेषु उद्यम कुर्वन् 'व्रजेत् संयम गच्छेत् तथा 'चर्यायां भिक्षा-18 दिकायाम् 'अप्रत्तमः स्यात्' नाहारादिषु रसगायं विदध्यादिति, तथा 'स्पृष्टश्च' अभिद्रुतश्च परीषहोपसगैस्तत्रादीनमनस्कः कर्म| निर्जरां मन्यमानो 'विषहेत्' सम्यक सह्यादिति ॥३०॥ परीपहोपसर्गाधिसहनमेवाधिकृत्याह-'हन्यमानो' यष्टिमुष्टिलकुटादिभि |रपि हतब 'न कुप्येत्' न कोपवशगो भवेत् , तथा दुर्वचनानि 'उच्यमानः आक्रुश्यमानी निर्भप॑मानो 'न संज्वलेत्' न प्रतीपं ॥४ ॥ वदेत् , न मनागपि मनोऽन्यथात्वं विदध्यात् , किंतु सुमनाः सर्व कोलाहलमकुर्वअधिसहेतेति ।।३१।। किश्चान्यन्-'लब्धान्' प्राप्तानपि ॥81'कामान इच्छामदनरूपान् गन्धालङ्कारवखादिरूपान्या वैरखामिवत् 'न प्रार्धयेत्' नानुमन्येत न गृह्णीयादित्यर्थः, यदिवा| यत्रकामावसायितया गमनादिलब्धिरूपान् कामांस्तपोविशेषलब्धानपि नोपजीन्यात , नाप्यनागतान् ब्रह्मदत्तवत्पाथेये, एवं 21 च कुर्वतो भावविवेकः 'आख्यात' आविर्भावितो भवति, तथा 'आर्याणि' आर्याणां कर्तव्यानि अनार्यकर्तव्यपरिहारेण यदिवा- ॥१८४॥ आचर्याणि-मुमुक्षुणा यान्याचरणीयानि ज्ञानदर्शनचारित्राणि तानि 'बुद्धानाम्' आचार्याणाम् 'अन्तिके' समीपे 'सदा' सर्व-18 १जीवो भदन्त ! हसन उरमुकायमानो वा कतीः कर्मप्रकृतीनाति, गौतम र सप्त विधमन्धको याविषयमको वा । [४६८] www.janorary.org ~372~ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक -], मूलं [३२], नियुक्ति: [१०२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३२|| दीप अनुक्रम [४६८] RSI काल 'शिक्षेत अभ्यस्पेदिति, अनेन हि शीलवता नित्यं गुरुकुलवास आसेवनीय इत्यावेदितं भवतीति ॥ ३२ ॥ यदुक्तं युद्धानामन्तिके शिक्षेत्तत्वरूपनिरूपणायाह सुस्सूसमाणो उवासेजा, सुप्पन्नं सुतवस्सियं। वीराजे अत्तपन्नेसी, घितिमन्ता जिइंदिया ॥३३॥ गिहे दीवमपासंता, पुरिसादाणिया नरा ते वीरा बंधणुम्मुक्का, नावकखंति जीवियं ॥ ३४॥ अगिद्धे सहफासेसु, आरंभेसु अणिस्सिए । सवं तं समयातीतं, जमेतं लवियं बहु ॥३५॥ अइमाणं च मायं च, तं परिपणाय पंडिए । गारवाणि य सवाणि, णिवाणं संधए मुणि ॥ ३६॥ (गाथा ४८२) तिबेमि ॥ इति श्रीधम्मनाम नवममज्झयणं समत्तं ॥ गुरोरादेशं प्रति श्रोतुमिच्छा शुश्रूषा गुर्वादेवैयादृश्यमित्यर्थः तां कुर्वाणो गुरुम् 'उपासीत' सेवेत, तस्यैव प्रधानगुणद्वयद्वारेण विशेषणमाह-सुठु शोभना वा प्रज्ञाऽखेति सुप्रज्ञा-खसमयपरसमयवेदी गीतार्थ इत्यर्थः, तथा सुष्टु शोभनं वा सबाह्याभ्यन्तरं तपोऽस्खास्तीति सुतपखी, तमेवम्भूतं शानिनं सम्परुचारित्रवन्तं गुरुं परलोकार्थी सेवेत, तथा चोक्तम्-नाणस्स होइ ॥३॥ [ भागी, थिरयरओ दंसणे चरित्ते य । धन्ना आवकहाए गुरुकुलवासं न मुंचंति ॥१॥" य एवं कुर्वन्ति तान् दर्शयति- यदिवा | १ज्ञानस्य भवती भागी स्थिरतरो दर्शने चारित्रे च । धन्या यावत्कथं गुरुकुलनासंभ मुमन्ति ॥ १॥ Swlanniorary.org ~373~ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [-], मूलं [३६], नियुक्ति: [१०२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३६|| दीप अनुक्रम [४७२] के ज्ञानिनस्तपस्विनो वेत्याह-'धीराः कर्मविदारणसहिष्णवो धीरा वा परीषहोपसर्गाक्षोभ्याः, धिया बुद्ध्या राजन्तीति वा धीरा ९ धर्माशीलासा- ये केचनासबसिद्धिगमनाः, आप्तो-रागादिविप्रमुक्तस्तस प्रज्ञा केवलज्ञानाख्या सामन्बेष्टुं शीलं येषां ते आप्तप्रज्ञान्वेषिणः सर्वशो- ध्ययनं. कान्वेपिण इतियावत् , यदिवा-आत्मप्रज्ञान्वेपिण आत्मनः प्रज्ञा-ज्ञानमात्मप्रज्ञा तदन्वेषिणः आत्मज्ञखा(प्रजा)न्वेपिण आत्महि-II त्तियुत तान्वेषिण इत्यर्थः, तथा धृतिः-संयमे रतिः सा विद्यते येषां ते धृतिमन्तः, संयमधृत्या हि पञ्चमहावतभारोद्वहनं सुसाध्यं भवतीति, तपःसाध्या च सुगतिर्हस्तप्राप्तेति, तदुक्तम् "जस्स घिई तस्स तवो जस्स तवो तस्स सुग्गई सुलहा । जे अधिहमंत पुरिसा तवोऽवि ॥१८५|| खलु दुलहो तेसि ॥ १॥" तथा जितानि-वशीकृतानि खविषयरागद्वेषविजयेनेन्द्रियाणि-स्पर्शनादीनि यैस्ते जितेन्द्रियाः, शुशू-101 8षमाणाः शिष्या गुरखो वा शुश्रूषमाणा यथोक्तविशेषणविशिष्टा भवन्तीत्यर्थः ॥ ३३ ।। यदभिसंधायिनः पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टा भवन्ति तदभिधित्सुराह---'गृहे' गृहवासे गृहपाशे वा गृहस्वभाव इतियावत् 'दीवति 'दीपी दीप्तौ' दीपयति-प्रकाशयतीति दीपः स च भावदीपः श्रुतज्ञानलाभः यदिवा-द्वीपः समुद्रादौ प्राणिनामाश्वासभूतः स च भावद्वीपः संसारसमुद्रे सर्वज्ञोक्तचारित्रलाभस्तदेवम्भूतं दीपं द्वीपं वा गृहस्थभावे 'अपश्यन्तः' अप्राप्नुवन्तः सन्तः सम्यक् प्रवज्योत्थानेनोत्थिता उत्तरोत्तरगुणलाभेनवम्भूता भवन्तीति दर्शयति-भराः पुरुषाः पुरुषोत्तमखाद्धर्मस्व नरोपादानम् , अन्यथा वीणामप्येतद्गुणमाक्वं भवति, अथवा | देवादिब्युदासार्थमिति, मुमुक्षूणां पुरुषाणामादानीया-आश्रयणीयाः पुरुषादानीया महतोऽपि महीयांसो भवन्ति, यदिवा १ यस्य कृतिस्तस्य तपो यस्य तपतप सुगतिस्मुलभा । वेशतिमन्तः पुरुषारापोऽपि सह दुर्लभ तेषां ॥१॥ 00000089SESee wwsaneiorary.org ~374~ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [-], मूलं [३६], नियुक्ति: [१०२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत राल सूत्रांक ||३६|| दीप अनुक्रम [४७२] आदानीयो हितैपिणां मोक्षस्तन्मार्गों वा सम्यग्दर्शनादिकः पुरुषाणां-मनुष्याणामादानीयः पुरुषादानीयः स विद्यते येषा-13 मिति विगृह्य मवर्थीयोऽर्शआदिभ्योऽजिति, तथा य एवंभूतास्ते विशेषेणेरयन्ति अष्टप्रकार कर्मेति वीराः, तथा बन्धनेन | सवाद्याभ्यन्तरेण पुत्रकलबादिस्नेहरूपेणोत्-पापल्येन मुक्ता बन्धनोन्मुक्ताः सन्तो 'जीचितम्' असंयमजीवितं प्राणधारण वा। नाभिकाईति' नाभिलपन्तीति ॥ ३४॥ किश्चान्यत् -'अगृद्धः' अनध्युपपनोऽमूछितःक?--शब्दस्पर्शेषु मनोज्ञेषु आयन्तग्रहणान्मध्यग्रहणमतो मनोज्ञेषु रूपेषु गन्धेषु रसेपु वा अगृद्ध इति द्रष्टव्यं, तथेतरेषु वाद्विष्ट इत्यपि वाच्यं, तथा 'आर-18 म्भेषु' सावधानुष्ठानरूपेषु 'अनिश्रितः असम्बद्धोऽप्रवृत्त इत्यर्थः, उपसंहर्तुकाम आह-'सर्वमेतद्' अध्ययनादेरारभ्य प्रति ध्यत्वेन यत् लपितम्-उक्तं मया बहु तत् 'समयाद' आहेतादागमादतीतमतिक्रान्तमितिकला प्रतिषिद्ध, यदपि च विधिद्वारेशाणोक्तं तदेतत्सर्व कुत्सितसमयातीतं लोकोत्तरं प्रधानं वर्तते, यदपि च तैः कुतीर्थिकैबहु लपितं तदेतत्सर्व समयातीतमितिकखा नानुष्ठेयमिति ॥ ३५ ॥ प्रतिषेध्यप्रधाननिषेधद्वारण मोक्षामिसन्धानेनाह-अतिमानो महामानस्तं, चशब्दात्तत्सहचरितं क्रोधं च, तथा मायां चशब्दाचस्कार्यभूतं लोभं च, तदेतत्सर्व 'पण्डितो' विवेकी ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिक्षया परिहरे, तथा सर्वाणि 'गारवाणि' ऋद्धिरससातरूपाणि सम्पय ज्ञाता संसारकारणत्वेन परिहरेत् , परिहत्य च 'मुनिः साधुः 'निर्वाण-18 म्' अशेषकर्मक्षयरूपं विशिष्टाकाशदेशं वा 'सन्धयेत्' अभिसन्दध्यात् प्रार्थयेदितियावत् । इतिः परिसमाप्त्यर्थे, अबीमीति पूर्ववत् ॥३६ ।। समाप्तं धर्माख्यं नवममध्ययनमिति ॥ testseeeee | अत्र नवमं अध्ययनस्य परिसमाप्ति: ~375~ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||३६|| दीप अनुक्रम [४७२] सूत्रकृता शीलाङ्का चाय चिपूर्त ॥१८६॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१०], उद्देशक [-] मूलं [ ३६...], निर्युक्ति: [ १०३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ...... आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः अथ दशमं श्रीसमाध्यध्ययनं प्रारभ्यते ॥ नवमानन्तरं दशममारभ्यते - अस्स चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तराध्ययने धर्मोऽभिहितः स चाविकलः समाधौ सति भवतीत्यतोऽधुना समाधिः प्रतिपाद्यते इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्युपक्रमादीन्यनुयोगद्वाराणि वाच्यानि, तत्रोपक्रमद्वारान्तर्गतोऽर्थाधिकारोऽयं, तद्यथा धर्मे समाधिः कर्तव्यः सम्यगाधीयते व्यवस्थाप्यते मोक्षं तन्मार्ग वा प्रति येनात्मा धर्मध्यानादिना स समाधिः- धर्मध्यानादिकः, स च सम्यग् ज्ञात्वा स्पर्शनीयः, नामनिष्पत्रं तु निक्षेपमधिकृत्य निर्मुक्तिकृदाह-आयाणपदेणाऽऽयं गोणं णामं पुणो समाहिति । णिक्लिविऊण समाहिं भावसमाहीह पमयं तु ॥ १०३ ॥ णामंठवणादविए खेत्ते काले तहेव भावे य । एसो उ समाहीए णिक्खेवो छव्विहो होइ ॥ १०४ ॥ पञ्चसु विसएस सुभेसु दव्वंमि त्ता भवे समाहिति । खेत्तं तु जम्मि खेत्ते काले कालो जहिं जो ऊ ।। १०५ ॥ भावसमाहि चहि दंसणणाणे तवे चरिते य । चसुचि समाहियप्पा समं चरणडिओ साह || १०६ ।। आदीयते गृह्यते प्रथममादौ यचदादानम् आदानं च तत्पदं च सुबन्तं तिङन्तं वा तदादानपदं तेन 'आ'ति नामाखाध्ययनस्य यस्मादध्ययनादाविदं सूत्रम् - 'आषं मईमं मणुवीह धम्म 'मित्यादि, यथोत्तराध्ययनेषु चतुर्थमध्ययनं प्रमादाप्रमादाभिधायकम| प्यादानपदेन 'असंख्य' मित्युच्यते, गुणनिष्पन्नं पुनरस्याध्ययनस्य नाम समाधिरिति यस्मात्स एवात्र प्रतिपाद्यते, तं च समाधि Education infamational For Past Only अत्र दशमं अध्ययनं 'समाधि' आरब्धं, पूर्व अध्ययनेन सह अभीसम्बन्ध:, समाधि शब्दस्य निक्षेपाः ~376~ १० समाध्यध्ययनं. ॥१८६॥ www.janbrary.org Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||३६|| दीप अनुक्रम [४७२] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१०], उद्देशक [-] मूलं [ ३६...], निर्युक्ति: [ १०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः नामादिना निक्षिप्य भावसमाधिनेह 'प्रकृतम्' अधिकार इति । समाधिनिक्षेपार्थमाह - नामस्थापनाद्रव्य क्षेत्र काल भाव मेदात् एष तु समाधिनिक्षेपः पत्रिधो भवति, तुशब्दो गुणनिष्पन्नस्यैव नानो निक्षेपो भवतीत्यस्यार्थस्याविर्भावनार्थ इति, नामस्थापने सुगम| खादनादृत्य द्रव्यादिकमधिकृत्याह – पञ्चस्त्रपि शब्दादिषु मनोज्ञेषु विषयेषु श्रोत्रादीन्द्रियाणां यथास्वं प्राप्तौ सत्यां यस्तुष्टिविशेषः स द्रव्यसमाधिः, तदन्यथा खसमाधिरिति यदिवा द्रव्ययोर्द्रव्याणां वा सम्मिश्राणामविरोधिनां सतां न रसोपघातो भवति अपितु रसपुष्टिः स द्रव्यसमाधिः, तद्यथा क्षीरशर्करयोर्दधिगुड चातुर्जातकादीनां चेति, येन वा द्रव्येणोपभुक्तेन समाधिपानकादिना समाधिर्भवति तद्रव्यं द्रव्यसमाधिः, तुलादावारोपितं वा यत् द्रव्यं समतामुपैतीत्यादिको द्रव्यसमाधिरिति, क्षेत्रसमाधिस्तु यस्य यसिन क्षेत्रे व्यवस्थितस्य समाधिरुत्पद्यते स क्षेत्रप्राधान्यात् क्षेत्रसमाधिः यस्मिन्वा क्षेत्रे समाधियवयत इति, कालस| माधिरपि यस्य यं कालमवाप्य समाधिरुत्पद्यते, तद्यथा शरदि गवां नक्तमुलूकानामहनि बलिभुजां यस्य वा यावन्तं कालं समाधिभवति यस्मिन्वा काले समाधिर्व्याख्यायते स कालप्राधान्यात् कालसमाधिरिति । भावसमाधिं लधिकृत्याह - भावसमाधिस्तु दर्शनज्ञानतपश्चारित्र भेदाचतुर्द्धा तत्र चतुर्विधमपि भावसमाधिं समासतो गाथापश्चार्धेनाह-मुमुक्षुणा चर्यत इति चरणं तत्र सम्यक्रूचरणे चारित्रे व्यवस्थितः समुयुक्तः 'साधुः' मुनिश्चतुर्ष्वपि भावसमाधिभेदेषु दर्शनज्ञानतपश्चारित्ररूपेषु सम्यगाहितो-व्यवस्थापित | आत्मा येन स समाहितात्मा भवति, इदमुक्तं भवति यः सम्यरुचरणे व्यवस्थितः स चतुर्विधभावसमाधिसमाहितात्मा भवति, यो वा भावसमाधिसमाहितात्मा भवति, स सम्यक्चरणे व्यवस्थितो द्रष्टव्य इति, तथाहि - दर्शनसमाधौ व्यवस्थितो जिनवचनभावितान्तःकरणो निवातशरणप्रदीपवन कुमतिवायुभिर्भ्राम्यते, ज्ञानसमाधिना तु यथा यथाऽपूर्व श्रुतमधीते तथा तथाऽतीव भाव Education Intimation - समाधि शब्दस्य निक्षेपाः For Fran ~377~ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [४७३] सूत्रकृता शीलाङ्काचार्यीय चियुतं १८७ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र -२ ( मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१०], उद्देशक [-], मूलं [१], निर्युक्तिः [ १०६ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः १० समा समाधावुद्युक्तो भवति, तथा चोक्तम्- "जह जह सुयमवगाहइ अइसयरसपसरसंजुयमउयं । तह तह पल्हाद मुणी णवणवसंवेगसद्धाए ॥ १ ॥ चारित्रसमाधावपि विषयसुखनिःस्पृहतया निष्किञ्चनोऽपि परं समाधिमाप्नोति, तथा चोक्तम् — “तैणसंथार- ४ध्यध्ययनं सिनोऽवि मुणिव भट्टरागमयमोहो । जं पावर मुत्तिसुहं कत्तो तं चकवट्टीवि १ ॥ १ ॥ नैवास्ति राजराजस्य तत्सुखं नैव देवराजस्य । यत्सुखमिहैव साधोर्लोकव्यापाररहितस्य ॥ २ ॥ इत्यादि, तपः समाधिनापि विकृष्टतपसोऽपि न ग्लानिर्भवति तथा क्षुत्तृष्णादिपरीवहेभ्यो नोद्विजते, तथा अभ्यस्ताभ्यन्तरतपोध्यानाश्रितमनाः स निर्वाणस्य इव न सुखदुःखाभ्यां वाध्यत इत्येवं चतुर्विधभावसमाधिस्थः सम्यक्रूचरणव्यवस्थितो भवति साधुरिति ॥ गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुचारणीयं तवेदं --- आi मई मणुवीय धम्मं, अंजू समाहिं तमिणं सुणेह । अपडिन्न भिक्खू उ समाहिपत्ते, अणिया भूतेसु परिवजा ॥ १ ॥ उङ्कं अहे यं तिरियं दिसासु, तसा य जे थावर जे य पाणा । हत्थे हि पाहिँ य संजमित्ता, अदिन्नमन्नेसु य णो गहेजा ॥ २ ॥ सुक्खायधम्मे वितिगिच्छतिपणे, लाढे चरे आयतुले पयासु । आयं न कुज्जा इह जीवियट्ठी, चयं न कुज्जा सुतवस्ति - १ यथा यथाश्रुतमवगाहतेऽतिशयरसप्रसरसंयुत्तमपूर्वं । तथा २ प्रहादते मुनिर्नयनवसंवेगश्रद्धया ॥ १ ॥ २ तृणसंस्तारनिविष्टोऽपि मुनिबरो भ्रष्टरागमदमोहः यत्प्राप्नोति मुक्तिमुखं कुतस्तत् चक्रवपि ॥ १ ॥ Education intemational For Fans Only ~378~ 1122011 www.ncbray.or Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१०], उद्देशक [-], मूलं [३], नियुक्ति: [१०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्राक ||३| दीप अनुक्रम [४७५] 3892030salcerseasaaeena भिक्खू ॥३॥ सर्विदियाभिनिव्वुडे पयासु, चरे मुणी सवतो विप्पमुक्के। पासाहि पाणे य पुढोवि सत्ते, दुक्खेण अहे परितष्पमाणे ॥४॥ अस्स चायमनन्तरसूत्रेण सह सम्बन्धः, तद्यथा-अशेषगारवपरिहारेण मु (ग्रं० ५५०० ) निर्निवाणमनुसन्धयेदित्येतद्भगवा-1 नुत्पन्नदिव्यज्ञानः समाख्यातवान् एतच वक्ष्यमाणमाख्यातवानिति, 'आघंति आख्यातवान् कोऽसौ ?-'मतिमान्' मननं मतिः-समस्तपदार्थपरिज्ञानं तद्विद्यते यस्खासौ मतिमान् केवलज्ञानीत्यर्थः, तत्रासाधारणविशेषणोपादानातीर्थकद् गृह्यते, असावपि प्रत्यासत्तेवींवर्धमानस्वामी गृह्यते, किमाख्यातवान् -'धर्म' श्रुतचारित्राख्य, कथम् ? -'अनुविचिन्त्य' केवलज्ञानेन ज्ञाला प्रज्ञापनायोग्यान पदार्थानाश्रित्य धर्म भाषते, यदिवा ग्राहकमनुविचिन्त्य कस्वार्थस्वायं ग्रहणसमर्थः? तथा कोऽयं पुरुषः? कश्च नतः? किंवा दर्शनमापन्न ? इत्येवं पर्यालोच्य, धर्मशुश्रूषवो वा मन्यन्ते-यथा प्रत्येकमसदभिप्रायमनुविचिन्त्य भगवान् धर्म | | भाषते, युगपत्सर्वेषां खभाषापरिणत्या संशयापगमादिति, किंभूतं धर्म भाषते ?--'ऋजुम्' अवकं यथावस्थितवस्तुस्वरूपनिरूप-18 णतो, न यथा शाक्याः सर्व क्षणिकमभ्युपगम्य कृतनाशाकृताभ्यागमदोषभयात्सन्तानाभ्युपगमं कृतवन्तः तथा वनस्पतिमचेतन-8 | लेनाभ्युपगम्प खयं न छिन्दन्ति तच्छेदनादावुपदेशं तु ददति तथा कार्षापणादिकं हिरण्यं खतो न स्पृशन्ति अपरेण तु तत्प-12 रिग्रहतः क्रयविक्रय कारयन्ति, तथा साझ्याः सर्वमप्रच्युतानुत्पन्नस्विरैकखभावं नित्यमभ्युपगम्य कर्मबन्धमोक्षाभावप्रसङ्गदोपभयादाविर्भावतिरोभावावाश्रितबन्त इत्यादिकौटिल्यभावपरिहारेणावकं तथ्य धर्ममाख्यातवान् , तथा सम्यगाधीयते-मोक्षं तन्मार्ग| Peteceaesesesestaesesesepeser wwsaneiorary.org ~379~ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१०], उद्देशक [-], मूलं [४], नियुक्ति: [१०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्राक ||४|| दीप अनुक्रम [४७६] वा प्रत्यात्मा योग्यः क्रियते व्यवस्थाप्यते येन धर्मेणासी धर्मः समाधिस्तं समाख्यातवान् , यदिवा-धर्ममाख्यातवांस्तत्समाधि च सूत्रकृवाझं १० समाशीलाका-2 धर्मध्यानादिकमिति । सुधर्मस्खाम्याह-समिमं-धर्म समाधि वा भगवदुपदिष्टं शृणुत यूयं, तद्यथा-न विद्यते ऐहिकामुष्मिकरूपाध्यध्ययनं. चायीयवृ प्रतिज्ञा-आकासा तयोऽनुष्ठानं कुर्वतो यस्यासावप्रतिज्ञो, भिक्षणशीलो भिक्षुः तुर्विशेषणे भावभिक्षुः, असावेव परमार्थतः साधुः | चियुर्व धर्म धर्मसमाधि च प्राप्तोऽसावेवेति, तथा न विद्यते निदानमारम्भरूपं 'भूतेषु जन्तुषु यस्खासावनिदानः स एवम्भूतः सावधानु-| छानरहितः परि-समन्तात्संयमानुष्ठाने 'बजेदू' गच्छेदिति, यदिवा-अनिदानभूता-अनाश्रवभूतः कर्मोपादानरहितः सुष्टु परिव्रजेत् । ॥१८८॥ सुपरिव्रजेत् , यदिवा-अनिदानभूतानि-अनिदानकल्पानि ज्ञानादीनि तेषु परिव्रजेत् , अथवा निदानं हेतुः कारणं दुःखस्यातोऽनि-18 | दानभूतः कस्यचिदुखमनुपपादयन् संयमे पराक्रमेतेति ।।१।। प्राणातिपातादीनि तु कर्मणो निदानानि वर्तन्ते, प्राणातिपातोऽपि द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदाचतुधों, तत्र क्षेत्रप्राणातिपातमधिकृत्याह-सर्वोऽपि प्राणातिपातः क्रियमाणः प्रज्ञापकापेक्षयोर्वमधस्ति-18 |येक क्रियते, यदिवा-ऊोधस्तिर्यरूपेषु त्रिषु लोकेषु तथा प्राच्यादिषु दिक्षु विदिक्षु चेति, द्रन्यप्राणातिपातस्वयं-स्सन्तीति | वसा-द्वीन्द्रियादयो ये च 'स्थावराः' पृथिव्यादयः, चकारः स्वगतभेदसंसूचनार्थः, कालप्राणातिपातसंसूचनार्थो वा दिवा रात्री वा, 'प्राणाः' प्राणिनः, भावप्राणातिपातं खाह-एतान् प्रागुक्तान प्राणिनो हस्तपादाभ्यां 'संयम्य' बद्धा उपलक्षणार्थखादखान्यथा वा कदर्थयिखा यत्वेषां दुःखोत्पादनं तन्न कुर्यात् , यदिचैतान् प्राणिनो हस्तौ पादौ च संयम्य संयतकायः सन्न Reen | हिंस्थात् , चशब्दादुच्छासनिश्वासकासितक्षुतवातनिसर्गादिषु सर्वत्र मनोवाकायकर्मसु संपतो भवन् भावसमाधिमनुपालयेत्, तथा का परैरदत्तं न गृहीयादिति तृतीयव्रतोपन्यासः, अदनादाननिषेधाचार्थतः परिग्रही निपिद्धो भवति, नापरिगृहीतमासेय्यत इति || ~ 380~ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१०], उद्देशक [-], मूलं [४], नियुक्ति: [१०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्राक ||४|| दीप अनुक्रम [४७६] ॥॥ मैथुननिषेधोऽप्युक्तः, समस्तव्रतसम्पपालनोपदेशाच मृषावादोऽप्यर्थतो निरस्त इति ॥२॥ ज्ञानदर्शनसमाधिमधिकृत्याहIS| सुष्टाख्यातः श्रुतचारित्राख्यो धर्मो येन साधुनाऽसौ खाख्यातधर्मा, अनेन ज्ञानसमाधिरको भवति, न हि विशिष्टपरिक्षानमन्तरेण खाख्यातधर्मसमुपपद्यत इति भावः, तथा विचिकित्सा-चित्तविप्लुतिर्विज्जुगुप्सा वा तां [वितीर्णः'-अतिक्रान्तः 'तदेव च निःशकं यज्जिनः प्रवेदित'मित्येवं निःशङ्कतया न कचिचित्तविप्लुतिं विधच इत्यनेन दर्शनसमाधिः प्रतिपादितो भवति, येन केन चित्तासुकाहारोपकरणादिगतेन विधिनाऽऽत्मानं यापयति-पालयतीति लाडा, स एवम्भूतः संयमानुष्ठान 'चरेद' अनुतिष्ठेत , तथा ४ प्रजायन्त इति प्रजा:-पृथिच्यादयो जन्तवस्तास्वात्मतुल्या, आत्मवत्सर्वप्राणिनः पश्यतीत्यर्थः, एवम्भूत एवं भावसाधुर्भवतीति, 18|| तथा चोक्तम्-"जह मम ण पिय दुक्खं, जाणिय एमेव सबजीवाणं । ण हणइ ण हणावेइ य, सममणई तेण सो समणी ॥ १॥" यथा च ममाऽऽक्रुश्यमानस्वाभ्याख्यायमानस्य वा दुःखमृत्पद्यते एवमन्येषामपीत्येवं मला प्रजास्वात्मसमो भवति, तथा इहासंयमजी-2 | वितार्थी प्रभूतं कालं सुखेन जीविष्यामीत्येतदध्यवसायी वा 'आय' कर्माश्रवलक्षणं न कुर्यात् , तथा 'चयम्' उपचयमाहारोप करणादेर्धनधान्यद्विपदचतुष्पदादेर्वा परिग्रहलक्षणं संचयमायत्यर्थ मुष्ठ तपस्वी सुतपखी-विकृष्टतपोनिष्टतदेहो भिक्षुर्न कुर्यादिति ||३|| किश्चान्यत्-सर्वाणि च तानि इन्द्रियाणि च स्पर्शनादीनि वैरभिनिवृतः संवृतेन्द्रियो जितेन्द्रिय इत्यर्थः, क?-'प्रजासु'। खीपु, तासु हि पश्चप्रकारा अपि शब्दादयो विषया विद्यन्ते, तथा चोक्तम्-"कलानि वाक्यानि विलासिनीनां, गतानि रम्याण्यवलोकितानि । रतानि चित्राणि च सुन्दरीणां, रसोऽपि गन्धोऽपि च चुम्बनानि ॥१॥" तदेवं स्त्रीषु पञ्चेन्द्रियविषयसम्भवाचद्विषये यथा मम न प्रिम दुःख ज्ञाखा एवमेव सर्वसस्थानां । न हन्ति न चातयति च सभमणति वेन स श्रमणः ॥ १॥ 2023293 ~381 ~ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१०], उद्देशक [-], मूलं [४], नियुक्ति: [१०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्राक ||४|| दीप अनुक्रम [४७६] सूत्रकृताचं 18 संवृतसर्वेन्द्रियेण भाव्यम् , एतदेव दर्शयति-'चरेत्' संयमानुष्ठानमनुतिष्ठेत् 'मुनिः साधुः 'सर्वतः सबाह्याभ्यन्तरात् सङ्गाद्विशे-18/१० समाशीलाङ्का- पेण प्रमुक्तो विप्रमुक्तो निःसङ्गो मुनिः निष्किञ्चनवेत्यर्थः, स एवम्भूतः सर्वबन्धनविप्रमुक्तः सन् 'पक्ष्य' अवलोकय पृथक पृथक् ध्यध्ययनं. चार्यायधु पृथिव्यादिषु कायेषु सूक्ष्मवादरपर्याप्तकापर्याप्तकभेदभिवान् 'सत्त्वान' प्राणिनः अपिशब्दावनस्पतिकाये साधारणशरीरिणोऽन-1 चियुत न्तानप्येकसमागतान पश्य, किंभूतान् ?-दुःखेन-असातवेदनीयोदयरूपेण दुःखयतीति वा दुःखम् अष्टप्रकारं कर्म तेना न॥१८९॥ पीडितान् परि-समन्तासंसारकटाहोदरे वकृतेनेन्धनेन 'परिपच्यमानान' काथ्यमानान् यदिवा-दुष्पणिहितेन्द्रियानार्तध्या-1 नोपगतान्मनोवाकायैः परितप्यमानान् पश्येति सम्बन्धो लगनीय इति ॥ ४ ॥ अपिच एतेसु बाले य पकुवमाणे, आवदृती कम्मसु पावएसु । अतिवायतो कीरति पावकम्म, निउंजमाणे उ करेइ कम्मं ॥ ५॥ आदीणवित्तीय करेति पावं, मंता उ एगंतसमाहिमाहु । बुद्धे समाहीय रते विवेगे, पाणातिवाता विरते ठियप्पा ॥६॥ सत्वं जगं तू समयाणुपेही, पियमप्पियं कस्सइ णो करेजा । उट्ठाय दीणो य पुणो विसन्नो, संपूयणं चेव सिलोयकामी ॥७॥ आहाकडं चेव निकाममीणे, नियामचारी य विसपणमेसी । इत्थीसु सत्ते य पुढो य वाले, परिग्गहं चेव पकुवमाणे ॥८॥ 390038080920283929082809 ॥१८९॥ ~382~ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१०], उद्देशक [-], मूलं [८], नियुक्ति: [१०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्राक ||८|| दीप अनुक्रम [४८०] 'एतेषु' प्राङ्गिनर्दष्टेषु प्रत्येकसाधारणप्रकारेषपतापक्रियया बालवत् 'वाल' अज्ञश्वशब्दादितरोऽपि सङ्कटनपरितापनापद्रावणादिकेनानुष्ठानेन 'पापानि' कर्माणि प्रकर्षेण कुर्वाणस्तेषु च पापेषु कर्मसु सत्सु एतेषु वा पृथिव्यादिजन्तुषु गतः संस्तेनैव संघटनादिना प्रकारेणानन्तशः 'आवत्येते' पीड्यते दुःखभाग्भवतीति, पाठान्तरं वा 'एवं तु पाले' एवमित्युपप्रदर्शने यथा चौरः पारदारिको वा असदनुष्ठानेन हस्तपादच्छेदान् बन्धवधादींश्चैहावाप्नोत्येवं सामान्यदृष्टेनानुमानेनान्योऽपि पापकर्मकारी इहामुत्र च दुःखभाग्भवति, 'आउद्दति 'त्ति कचित्पाठा, तत्राशुभान् कमविपाकान् दृष्ट्वा श्रुत्वा ज्ञात्वा वा तेभ्योऽसदनुष्ठानेभ्य 'आउट्टति 'ति निवर्तते, कानि पुनः पापस्थानानि येभ्यः पुनः प्रवर्तते निवर्तते वा इत्याशय तानि दर्शयति-'अतिपाततः' प्राणातिपाततः प्राणथ्यपरोपणाद्धेतोस्तच्चाशुभं ज्ञानावरणादिकं कर्म 'क्रियते' समादीयते, तथा परांच भृत्यादीन् प्राणातिपातादौर 'नियोजयन्' व्यापारयन् पापं कर्म करोति, तुशब्दान्मृपावादादिकं च कुर्वन् कारयश्च पापकं कर्म समुचिनोतीति ॥५॥ किश्चान्यत्-आ--समन्ताहीना-करुणास्पदा वृत्तिः-अनुष्ठानं यस्य कृपणवनीपकादेःस भवत्यादीनवृत्तिः, एवम्भूतोऽपि पापं कर्म करोति, पाठान्तरं वा आदीनभोज्यपि पापं करोतीति, उक्तं च-"पिंडोलगेच दुस्सीले, गरगाओ ण मुच्चइ" स कदाचिछोभनमाहारमलभमानोझलादातरौद्रध्यानोपगतोऽधः सप्तम्यामप्युत्पद्येत, तद्यथा-असावेच राजगृहनगरोत्सवनिर्गतजनसमूहभारगिरिशिलापातनोद्यतः स दैवात्स्वयं पतितः पिण्डोपजीवीति, तदेवमादीनभोज्यपि पिण्डोलकादिवज्जनः पापं कर्म करोतीत्येवं 'मत्वा' अवधार्य एकान्तेनात्यन्तेन च यो भावरूपो ज्ञानादिसमाधिस्तमाहुः संसारोत्तरणाय तीर्थकरगणधरादयः, द्रव्य पिण्डावलगकोऽपि दुःशीलो नरकान मुच्यते ।। aaeeeeeeeeeeeeeee Pawjandiarary.om ~383~ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१०], उद्देशक [-], मूलं [८], नियुक्ति: [१०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सुत्राक सूत्रकृतानं शीलाका- चा-यत्तियुत ||८|| ॥१९॥ समाधयो हि स्पर्शादिसुखोत्पादका अनेकान्तिका अनात्यन्तिकाच भवन्ति अन्ते चावश्यमसमाधिमुत्पादयन्ति, तथा चोक्तम् |१०समा"यद्यपि निषेव्यमाणा मनसः परितुष्टिकारका विषयाः । किम्पाकफलादनवद्भवन्ति पश्चादतिदुरन्ताः ॥ १॥” इत्यादि, तदेवं । ध्यध्ययन. 'बुद्ध' अवगततत्त्वः स चतुर्विधेऽपि ज्ञानादिके रतो-व्यवस्थितो 'विवेके वा' आहारोपकरणकषायपरित्यागरूपे द्रव्यभावात्मके || | रतः सन्नवंभूतश्च स्थादित्याह-प्राणानां दशनकाराणामप्यतिपातो-विनाशस्तस्माद्विरतः स्थितः सम्यगमार्गेषु आत्मा यस्य सः | पाठान्तरं वा 'ठियचित्ति स्थिता शुद्धखभावात्मना अधि:-लेश्या यस स भवति स्थिताचिः,-सुविशुद्धस्थिरलेश्य इत्यर्थः ॥६॥ | किञ्च–'सर्व' चराचरं 'जगत् प्राणिसमूह समतया प्रेक्षितुं शीलमस्य स समतानुप्रेक्षी समतापश्यको वा, न कश्चित्प्रियो नापि ॥ द्वेष्य इत्यर्थः, तथा चोक्तम्-"नस्थि य सि कोई विस्सो पिओ व सत्वेसु चेव जीवेसु" तथा-'जह मम ण पियं दुक्खमित्यादि, समतोपेतश्च न कस्पचित्प्रियमप्रियं वा कुर्यानिःसङ्गतया विहरेद्, एवं हि सम्पूर्णभावसमाधियुक्तो भवति, कवित्तु भावसमाधिना सम्यगुत्थानेनोत्थाय परीपहोपसर्गस्तर्जितो दीनभावमुपगम्य पुनर्विषण्णो भवति विषयार्थी वा कश्चिद्गार्हस्थ्यमप्पवल|म्बते रससातागौरवगृद्धो वा पूजासत्काराभिलाषी स्यात् तदभावे दीनः सन् पार्श्वखादिभावेन वा विषण्णो भवति, कवित्तथा | सम्पूजन वखपात्रादिना प्रार्थयेत् श्लोककामी च' श्लाघाभिलाषी च व्याकरणगणितज्योतिपनिमित्तशाखाण्यधीते कविदिति ॥ ७॥ किशान्यत्-साधूनाधाय-उद्दिश्य कृतं निष्पादितमाधाकर्मत्यर्थः, तदेवम्भूतमाहारोपकरणादिकं निकामम्-अत्यर्थं ॥१९॥ यः प्रार्थयते स निकाममीणेत्युच्यते । तथा 'निकामम्' अत्यर्थ आधाकर्मादीनि तनिमित्तं निमन्त्रणादीनि वा सरति-चरति १नास्ति तस्य कोऽपि द्वेष्यः प्रियष सर्वेषु चैर जीवेषु ।। दीप अनुक्रम [४८०] RSerse ~384~ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१०], उद्देशक [-], मूलं [८], नियुक्ति: [१०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्राक ||८|| दीप अनुक्रम [४८०] । तच्छीलब स तथा, एवम्भूतः पार्श्वस्थावसनकुशीलानां संयमोद्योगे विषण्णानां विषण्णभावमेषते, सदनुष्ठान विषण्णतया संसारप-18 कावसनो भवतीतियावत् , अपिच 'स्त्रीषु रमणीपु 'आसक्तः' अध्युपपत्रः पृथक पृथक् तद्भाषितहसित विवोकशरीरावयवेष्विति, बालबद् 'बाल' अशः सदसद्विवेकविकला, तदवसक्ततया च नान्यथा-द्रव्यमन्तरेण तत्सम्प्राप्तिर्भवतीत्यतो येन केनचिदुपायेन तदुपायभूतं परिग्रहमेव प्रकर्षेण कुर्वाणः पापं कर्म समुचिनोतीति ॥ ८॥ तथा वेराणुगिद्धे णिचयं करेति, इओ चुते स इहमदुग्गं । तम्हा उ मेधावि समिक्ख धम्म, चरे मुणी सबउ विप्पमुक्के ॥९॥ आयं ण कुजा इह जीवियट्टी, असज्जमाणो य परिवएजा। णिसम्मभासी य विणीय गिद्धिं, हिंसन्नियं वा ण कह करेजा ॥ १०॥ आहाकडं वा ण णिकामएज्जा, णिकामयंते य ण संथवेजा। धुणे उरालं अणुवेहमाणे, चिच्चा ण सोयं अणवेक्खमाणो ॥ ११ ॥ एगत्तमेयं अभिपत्थएज्जा, एवं पमोक्खो न मुसंति पासं । एसप्पमोक्खो अमुसे वरेवि, अकोहणे सच्चरते तवस्सी ॥ १२ ॥ येन केन कर्मणा–परोपतापरूपेण वैरमनुबध्यते जन्मान्तरशतानुयायि भवति तत्र गृद्धो वैरानुगृद्धः, पाठान्तरं वा 'आरंभ-19 सत्तो'त्ति आरम्भे सावद्यानुष्ठानरूपे सक्तोलनो निरनुकम्पो 'निचयं द्रव्योपचयं तबिमिचापादितकर्मनिचयं वा 'करोति' || Swlanniorary.org ~385~ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१२|| दीप अनुक्रम [४८४] सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्काचार्ययवृनियुत ॥१९१॥ “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१०], उद्देशक [ - ], मूलं [१२], निर्युक्ति: [ १०६ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ...... आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः उपादत्ते, 'स' एवम्भूत उपात्तवैरः कृतकर्मोपचय 'इतः' अस्मात्स्थानात् 'च्युतो' जन्मान्तरं गतः सन्, दुःखयतीति दुःखं नरकादियातनास्थानमर्थतः परमार्थतो दुर्ग-विषमं दुरुत्तरमुपैति, यत एवं तत्तस्मात् 'मेधावी' विवेकी मर्यादाषान् वा सम्पूर्णसमाधिगुणं जानानो 'धर्म' श्रुतचारित्राख्यं 'समीक्ष्य' आलोच्याङ्गीकृत्य 'मुनिः' साधुः 'सर्वतः सवाह्याभ्यन्तरात्सङ्गात् 'विप्रमुक्तः' अपगतः संयमानुष्ठानं मुक्तिगमनैकहेतुभूतं 'चरेद्' अनुतिष्ठेत्, ख्यारम्भादिसङ्गाद्विप्रमुक्तोऽनिश्रितभावेन विहरेदितियावत् ॥९॥ किञ्चान्यत्-आगच्छतीत्यायो- द्रव्यादेर्लाभस्तन्निमित्तापादितोऽष्टप्रकार कर्मलाभो वा तम् 'इ' अस्मिन् संसारे 'असंयमजीविताथीं' भोग प्रधानजीवितार्थीत्यर्थः, यदिवा-आजीविका भयात् द्रव्यसञ्चयं न कुर्यात्, पाठान्तरं वा छन्दणं कुजा इत्यादि, छन्दः - प्रार्थ| नाऽभिलाष इन्द्रियाणां स्वविषयाभिलाषो वा तत् न कुर्यात्, तथा 'असजमानः' सङ्गमकुर्वन् गृहपुत्रकलत्रादिषु 'परिव्रजेत्' उद्युक्तविहारी भवेत् तथा 'गृद्धिं गार्ध्यं विषयेषु शब्दादिषु 'विनीय' अपनीय 'निशम्य' अवगम्य पूर्वोत्तरेण पर्यालोच्य भाषको भवेत् : तदेव दर्शयति-हिंसया-प्राण्युपमर्दरूपया अन्वितां युक्तां कथां न कुर्यात्, न तत् श्रूयात् यत्परात्मनो उभयोगों बाधकं वच इति भावः, तद्यथा - अनीत पिवत खादत मोदत हत छिन्त प्रहरत पचतेत्यादिकथां पापोपादानभूतां न कुर्यादिति ||१०|| अपिचसाधूनाधाय कृतमाधाकृत मौदेशिकमाघाकर्मेत्यर्थः, तदेवम्भूतमाहारजातं निश्चयेनैव 'न कामयेत्' नाभिलषेत् तथाविधाहारादिकं च 'निकामयतः' निश्चयेनामिलपतः पार्श्वस्यादींस्तत्सम्पर्कदानप्रतिग्रहसंवाससम्भाषणादिभिः न संस्थापयेत् - नोपबृंहयेत् तैर्वा सार्धं संस्तवं न कुर्यादिति, किञ्च- 'उरालं'ति औदारिकं शरीरं विकृष्टतपसा कर्मनिर्जरामनुप्रेक्षमाणो 'धुनीयात् कृशं कुर्यात्, यदिवा 'उरालं'ति बहुजन्मान्तरसञ्चितं कर्म तदुदारं-मोक्षमनुप्रेक्षमाणो 'धुनीयाद्' अपनयेत् तसिंव तपसा धूयमाने कुशी Education into Forty ~386~ १० समा ॥१९१॥ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१२|| दीप अनुक्रम [४८४] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१०], उद्देशक [ - ], मूलं [१२], निर्युक्ति: [ १०६ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः भवति शरीर के कदाचित् शोकः स्यात् तं त्यक्त्वा याचितोपकरणवदनुप्रेक्षमाणः शरीरकं धुनीयादिति सम्बन्धः ॥ ११ ॥ किश्चापेक्षेतेत्याह-एकत्वम्-असहायत्वमभिप्रार्थयेद् एकत्वाध्यवसायी स्यात्, तथाहि जन्मजरामरणरोगशोकाकुले संसारे स्वकृतकर्मणा विलुप्यमानानामसुमतां न कश्चित्राणसमर्थः सहायः स्यात् तथा चोक्तम्- "एगो मे सासओ अप्पा णाणदंसणसंजुओ । सेसा मे बाहिरा भावा, सबै संयोगलक्खणा ॥ १ ॥" इत्यादिकामेकखभावनां भावयेद्, एवमनयैकत्वभावनया प्रकर्षेण मोक्षः प्रमोक्षोविप्रमुक्तसङ्गता, न 'मृषा' अलीकमेतद्भवतीत्येवं पश्य, एष एवैकत्व भावनाभिप्रायः प्रमोक्षो वर्तते, अमृषारूपः- सत्यश्रायमेव । तथा 'वरोऽपि' प्रधानोऽप्ययमेव भावसमाधिर्वा, यदिवा यः 'तपस्वी' तपोनिष्टप्त देहोऽक्रोधनः उपलक्षणार्थवादयामानो निर्मायो निर्लोभः सत्यरतश्च एष एव प्रमोक्ष 'अमृषा' सत्यो 'वरः' प्रधानश्च वर्तत इति ॥ १२ ॥ किञ्चान्यत् Education Inational इत्थी या आरय मेहुणाओ, परिग्गहं चेव अकुवमाणे । उच्चावएस विसएसु ताई, निस्संस भिक्खु समाहिपते ॥ १३ ॥ अरई रई व अभिभूय भिक्खू, तणाइफासं तह सीयफासं । उन्हं च दंसं चहियास एज्जा, सुभि व दुब्भि व तितिक्खएज्जा ॥ १४ ॥ गुत्तो वईए य समाहिपत्तो, लेसं समाहद्दु परिवएजा । गिहं न छाए णवि छायएजा, संमिस्सभावं पयहे १ एको में शाश्वत आत्मा ज्ञानदर्शनसंयुक्तः शेषा मे वाह्या भाषाः सर्वे संभोगलक्षणाः ॥ १ ॥ For First Use Only ~387~ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१०], उद्देशक [-], मूलं [१५], नियुक्ति: [१०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१५|| तिपुर्त सूत्रकृताङ्गं पयासु ॥ १५॥ जे केइ लोगंमि उ अकिरियआया, अन्नेण पुट्टा धुयमादिसति । आरंभसत्ता १० समाशीलाङ्का ध्यध्ययन. गढिता य लोए, धम्म ण जाणंति विमुक्खहेउं ॥ १६ ॥ चार्याय दिव्यमानुपतिर्यग्ररूपासु त्रिविधास्वपित्रीषु विषयभूतासु यत् 'मैथुनम्' अब्रह्म तस्माद् आ-समन्तान रत:-अरतो निवृत्त इत्यर्थः, ॥१९॥ तुशब्दात्प्राणातिपातादिनिवृत्तश्च, तथा परि-समन्तादबते इति परिग्रहो धनधान्यद्विपदचतुष्पदादिसंग्रहः तथा आत्माऽऽत्मीयाहस्तं चैवाकुर्वाणः सनुचावचेषु-नानारूपेषु विषयेषु यदिवोच्चा-उत्कृष्टा अवचा-जघन्यास्तेष्वरक्तद्विष्टः 'बायी' अपरेषां च त्राणभूतो विशिष्टोपदेशदानतो 'निःसंशयं निश्चयेन परमार्थतो 'भिक्षुः साधुरेवम्भूतो मूलोत्तरगुणसमन्वितो भावसमाधि प्राप्तो भवति । नापरः कश्चिदिति, उच्चावचेषु वा विषयेषु भावसमाधि प्राप्तो भिक्षुर्न संश्रयं याति नानारूपान् विषयान् न संश्रयतीत्यर्थः ॥१३॥ | विषयाननाश्रयन् कथं भावसमाधिमाप्नुयादित्याह-स भावभिक्षुः परमार्थदर्शी शरीरादौ निःस्पृहो मोक्षगमनैकग्रवणच या संयमेऽ रतिरसंयमे च रतिर्वा तामभिभूय एतदधिसहेत, तद्यथा-निष्किञ्चनतया तृणादिकान् स्पर्शानादिग्रहणानिनोचतभूप्रदेशस्पीश्वर M सम्पगधिसहेत, तथा शीतोष्णदंशमशकक्षुत्पिपासादिकान् परीषहानक्षोभ्यतया निर्जरार्थम् 'अध्यासयेदू' अधिसहेत तथा गन्धं सुरभिमितरं च सम्यक् 'तितिक्षयेत्' सघात , चशब्दादाक्रोशवधादिकांच परिषहान्ममक्षुस्तितिक्षयेदिति ॥१४॥ किशान्यत्-॥ ॥१९२॥ IS वाचि वाचा वा गुप्तो वाग्गुप्तो-मौनव्रती सुपोलोचितधर्मसम्बन्धमाषी वेत्येवं भावसमाधि प्राप्तो भवति, तथा शुद्धां 'लेश्यां' तेजस्वादिकां 'समाहृत्य' उपादाय अशुद्धां च कृष्णादिकामपहत्य परि-समन्तात्संयमानुष्ठाने 'वजेत्' गच्छेदिति, किश्चान्यत् दीप अनुक्रम [४८७] eseseceaeeeeeeese Receaees ~388~ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१०], उद्देशक [-], मूलं [१६], नियुक्ति: [१०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१६|| दीप अनुक्रम [४८८] @traescoledenesesecevementese | गृहम्-आवसथं स्वतोऽन्येन वा न छादयेदुपलक्षणार्थवादस्यापरमपि गृहादेरुरगवत्परकृतपिलनिवासिखात्संस्कारं न कुर्यात् , अन्यदपि गृहस्थकर्तव्यं परिजिहीपुराह-प्रजायन्त इति प्रजास्तासु तद्विषये येन कृतेन सम्मिश्रभावो भवति तत्प्रजयात् , एतदुक्तं भवति-प्रत्रजितोऽपि सन् पचनपाचनादिको क्रियां कुर्वन् कारयंश्च गृहस्थैः सम्मिश्रभावं भजते, यदिवा-प्रजा:-त्रियस्तासु ताभिर्वा यः सम्मिश्रीभावस्तमविकलसंयमार्थी 'प्रजयात्' परित्यजेदिति ॥ १५ ॥ अपिच-ये केचन अस्मिन् लोके अक्रिय आत्मा येषामभ्युपगमे तेऽक्रियात्मानः-साक्षाः, तेषां हि सर्वव्यापिखादात्मा निष्क्रियः पठ्यते, तथा चोक्तम्-"अकर्ता निगुणो भोक्ता, आत्मा कपिलदर्शने" इति, तुशब्दो विशेषणे, स चैतद्विशिनष्टि-अमूर्तखच्यापिसाभ्यामात्मनोऽक्रियखमेव बुध्यते, ते चाक्रियात्मवादिनोऽन्येनाक्रियखे सति बन्धमोक्षौ न घटेते इत्यभिप्रायवता मोक्षसद्भाव पृष्टाः सन्तोऽक्रियावाददर्शनेऽपि | 'धूतं' मोक्षं तदभावम् (च) 'आदिशन्ति' प्रतिपादयन्ति, ते तु पचनपाचनादिके स्नानाथें जलावगाहनरूपे वा 'आरम्भ || सावये 'सक्ता' अध्युपपना गृद्धास्तु लोके मोक्षकहेतुभूतं 'धर्म' श्रुतचारित्राख्यं 'न जानन्ति' कुमार्गग्राहिणो न सम्यगवग|च्छन्तीति ।। १६ ।। किश्चान्यत् पुढो य छंदा इह माणवा उ, किरियाकिरीयं च पुढो य वायं । जायस्स बालस्स पकुव देहं, पबढती वेरमसंजतस्स ॥ १७॥ आउक्खयं चेव अबुज्झमाणे, ममाति से साहसकारि मंदे। अहो य राओ परितप्पमाणे, अहेस मूढे अजरामरेव ॥ १८॥ जहाहि वित्तं पसवो य eaceaesekccceracotseese Mirmlaingionary.org ~389~ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१०], उद्देशक [-], मूलं [१९], नियुक्ति: [१०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: १० समा प्रत सूत्रांक ||१९|| दीप सूत्रकृताङ्ग सर्व.जे बंधवा जे य पिया य मित्ता । लालप्पती सेऽवि य एई मोहं, अन्ने जणा तसि हरति शीलाका-18 चायीयवृ-18 वित्तं ॥ १९॥ सीहं जहा खुड्डमिगा चरंता, दूरे चरंती परिसंकमाणा । एवं तु मेहावि समितियुतं क्ख धम्म, दूरेण पावं परिवजएज्जा ॥ २०॥ ॥१९॥ पृथक नाना छन्द:-अभिप्रायो येषां ते पृथक्छन्दा 'इह' असिन्मनुष्यलोके 'मानवा' मनुष्याः, तुरक्धारणे, तमेव नानामि-18 प्रायमाह क्रियाक्रिययोः पृथक्वेन क्रियावादमक्रियावादं च समाश्रिताः, तद्यथा-"क्रियेव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम् । यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात्सुखितो भवेत् ॥१॥" इत्येवं क्रियैव फलदायिखेनाभ्युपगता, क्रियावादमाश्रिताः, एवमेतद्विपर्ययेणाक्रियावादमाश्रिताः, एतयोवोत्तरत्र वरूप न्यक्षेण वक्ष्यते, ते च नानाभिप्राया मानवाः क्रियाक्रियादिकं पृथग्वादमाश्रिता मोक्षहेतु धर्ममजानाना आरम्भेषु सक्ता इन्द्रियवशमा रससातागौरवाभिलाषिण एतत्कुर्वन्ति, तद्यथा-'जातस्य उत्पन्नस्य 'बालस्य' अज्ञस्य सदसद्विवेकविकलस्स मुखैषिणो 'देहं शरीरं 'पकुब्व'त्ति खण्डशः खाऽऽत्मनः सुखमुत्पादयन्ति, तदेवं परोपघातक्रिया कुर्वतोऽसंयतस्य कुत्तोऽप्यनिवृत्तस्य जन्मान्तरशतानुबन्धि वैरं परस्परोपमर्दकारि प्रकर्षेण वर्धते, पाठान्तरं वा-जायाएँ बालस्स |पगम्भणाए-'बालस्य अबस्य हिंसादिषु कर्मसु प्रवृत्तस्य निरनुकम्पस या जाता 'प्रगल्भता' धाय तया वैरमेव प्रवर्धत इति सम्बन्धः ॥ १७ ॥ अपिच-आयुषो-जीवनलक्षणस क्षय आयुष्कक्षयस्तमारम्भप्रवृत्तः छिन्नदमत्स्यवदुदकक्षये सति अयुध्यमानोऽतीव अनुक्रम [४९२] ॥१९३॥ ~390~ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१०], उद्देशक [-], मूलं [२०], नियुक्ति: [१०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२०|| दीप 'ममाइति ममखवान् इदं मे अहमस्य स्वामीत्येवं स 'मन्द।' अज्ञः साहसं कर्तुं शीलमस्येति साहसकारीति, तपथा-कश्चिद्रणिन ॥ महता क्लेशेन महार्याणि रलानि समासाद्योजयिन्या बहिराचासितः, स च राजचौरदायादभयादात्री रवान्येवमेवं च प्रवेशयि1 यामीत्येवं पर्यालोचनाकुलो रजनीक्षयं न ज्ञातवान् , अहथेव रूलानि प्रवेशयन् राजपुरुष रत्नेभ्यश्यावित इति, एवमन्योऽपि किंक |तन्यताकुलः स्वायुषः क्षयमबुध्यमानः परिग्रहेष्वारम्भेषु च प्रवर्तमानः साहसकारी स्वादिति, तथा कामभोगतृषितोऽदि रात्री |च परि-समन्तात् न्यार्थी परितप्यमानो मम्मणवणिग्वदातेध्यायी कायेनापि क्लिश्यते, तथा चोक्तम्-"अजरामरवद्वालः ॥ क्लिश्यते धनकाम्यया । शाश्वतं जीवितं चैव, मन्यमानो धनानि च ॥१॥ तदेवमार्तध्यानोपहतः कहया वच्चइ सत्थो? किं भंडं कत्थ किचिया भूमी'त्यादि, तथा 'उक्खणइ खणइ णिहणइ रति न सुयइ दियावि य ससंको'इत्यादिचिचसक्केशात्सुष्टु मूढोड़जरामरखणिग्वदजरामरवदात्मानं मन्यमानोऽपगतशुभाध्यवसायोऽहर्निशमारम्भे प्रवर्तत इति ॥ १८॥ किश्चान्यत्-'वित्तं' द्रव्यजातं तथा 'पशचों' गोमहिण्यादयस्तान् सर्वान् 'जहाहि परित्यज-तेषु ममसं मा कृथाः, ये 'वान्धवा' मातापित्रादयः श्वशुरादयश्च पूर्वोपरसंस्तुता ये च प्रिया मित्राणि' सहपांसुक्रीडितादयस्ते एते मातापित्रादयोन किश्चित्तस्य परमार्थतः कुर्वन्ति, सोऽपि च वित्तपशुबान्धवमित्रार्थी अत्यर्थं पुनः पुनर्वा लपति लालप्यते, तद्यथा-हे मातः!हे पितरित्येवं तदर्थं शोकाकुलः॥8 प्रलपति, तदर्जनपरच मोहमुपैति, रूपवानपि कण्डरीकवत् धनवानपि मम्मणवणिग्वत् धान्यवानपि तिलकष्ठिबद् इत्येवम-18 सावप्यसमाधिमान् मुखते(ति), यच्च तेन महता क्लेशेनापरप्राण्युपमर्देनोपार्जितं वित्तं तदन्ये जनाः 'से' तस्थापहरन्ति जीवत एवं १कदा जति साथः किं भाई क च कियती भूमिः । २ उत्खनति खनति निहन्ति रात्रौ न खपिति दिवापि च सर्शकः ॥ १॥ ecenesesesesesesese अनुक्रम [४९२] cces Surajanmorary om ~391 Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२०|| दीप अनुक्रम [४९२] सूत्रकृता श्रीळाङ्का चायचियुतं ॥१९४॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १० ], उद्देशक [-], मूलं [२०], निर्युक्ति: [१०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ...... आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः मृतस्य वा, तस्य च क्लेश एव केवलं पापबन्धथेत्येवं मला पापानि कर्माणि परित्यजेचपभरेदिति ।। १९ ।। तपश्चरणोपायमधिकृत्याह-यथा 'क्षुद्रमृगा' क्षुद्राव्यपशवो हरिणजात्यायाः 'चरन्तः' अटव्यामटन्तः सर्वतो विभ्यतः परिशङ्कमानाः सिंहं व्याघ्रे वा आत्मोपद्रवकारिणं दूरेण परिहृत्य 'चरन्ति' विहरन्ति एवं 'मेधावी' मर्यादावान्, तुर्विशेषणे, सुतरां धर्मं 'समीक्ष्य' पर्यालोच्य 'पाप' कर्म असदनुष्ठानं दूरेण मनोवाक्कायकर्मभिः परिहत्य परि-समन्वाद्रजेत् संयमानुष्ठायी तपश्चारी च भवेदिति, दूरेण वा पापं पापहेतुखात्सावधानुष्ठानं सिंहमिव मृगः स्वहितमिच्छन् परिवर्जयेत् परित्यजेदिति ॥ २० ॥ अपिच Ja Education intimation संबुज्झमाणे. उ णरे मतीमं, पावाउ अप्पाण निवट्टएजा। हिंसप्पसूयाई दुहाई मत्ता, वेराणुबंधीणि मह भयाणि ॥ २१ ॥ मुखं न बूया मुणि अत्तगामी, णिवाणमेयं कसिणं समाहिं । सयं न कुज्जा न य कारवेजा, करंतमन्नपि य णाणुजाणे ॥ २२ ॥ सुद्धे सिया जाए न दूसएजा, अमुच्छिए ण य अज्झोववन्ने । घितिमं विमुक्के ण य पूयणट्टी, न सिलोयगामी य परिएजा ॥ २३ ॥ निक्खम्म गेहाउ निरावकंखी, कायं विउसेज नियाणछिन्ने । णो जीवियं णो मरणाभिकखी, चरेज्ज भिक्खू वलया विमुक्के ॥२६॥ तिबेमि ॥ (गाथानं ० ५८० ) । इति समाहिनाम दसममज्झयणं समत्तं ॥ Forsy १० समाध्यध्ययनं. ~392~ ॥१९४॥ www.crayo अत्र गाथा क्रमांके मुद्रण दोष: दृश्यते, अन्त्य गाथा-क्रम २६ न वर्तते, तत् २४ वर्तते | [अंत्य गाथा क्रम २६ नहीं २४ होना चाहिए] Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१०], उद्देशक [-], मूलं [२४], नियुक्ति: [१०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२४|| दीप अनुक्रम [४९६] मननं मतिः सा शोभना यस्यास्त्यसौ मतिमान् , प्रशंसायां मतुए, तदेवं शोभनमतियुक्तो मुमुक्षुर्नरः सम्पकुश्रुतचारित्राख्यं । धर्म भावसमाधि वा 'बुध्यमानस्तु' विहितानुष्ठाने प्रवृत्ति कुर्वाणस्तु पूर्व तावनिषिद्धाचरणानिवर्तेत अतस्तत् दर्शयति-'पापात् । हिंसानृतादिरूपात्कर्मण आत्मानं निवर्तयेत् , निदानोच्छेदेन हि निदानिन उच्छेदो भवतीत्यतोऽशेषकर्मक्षयमिच्छन्नादावेव आश्रव-18 द्वाराणि निरन्थ्यादित्यभिप्रायः, किं चान्यत्-हिंसा-प्राणिज्यपरोपणं तया ततो वा प्रसूतानि-जातानि यान्यशुभानि कर्माणि 8 तान्यत्यन्तं नरकादिषु यातनास्थानेषु दुःखानि दुःखोत्पादकानि वर्तन्ते, तथा वैरमनुवनन्ति तच्छीलानि च वैरानुबन्धीनिजन्मशतसहस्रदुर्मोचानि, अत एव महद्भयं येभ्यः सकाशात्तानि महाभयानीति, एवं च मला मतिमानात्मानं पापानिवर्तयेदिति, पाठान्तरं वा 'निवाणभूए व परिबरजा'अस्थायमर्थः यथा हि निवृतो निर्व्यापारखाकस्यचिदुपाते न वर्तते एवं साधुरपि सावद्या| नुष्ठानरहितः परि-समन्ताद् ब्रजेदिति ॥२१॥ तथा आप्तो मोक्षमार्गस्तद्गामी-तद्गमनशील आत्महितगामी वा आप्तो वा प्रक्षीणदोषः सर्वज्ञस्तदुपदिष्टमार्गगामी 'मुनिः साधुः 'मृषावादम्' अनृतमयथार्थ न ब्रूयात् सत्यमपि प्राण्युपघातकमिति, 'एतदेव' मृषाचादव18 जनं कृत्स्नं' संपूर्ण भावसमाधि निर्वाणं चाहुः, सांसारिका हि समाधयः स्नानभोजनादिजनिताः शब्दादिविषयसंपादिता वा 18| अनैकान्तिकानात्यन्तिकवेन दुःखप्रतीकाररूपलेन वा असंपूर्णा वर्तन्ते । तदेवं मृषावादमन्येषां वा व्रतानामतिचार खयमात्मना 18न कुर्यात्राप्यपरेण कारयेत्तथा कुर्वन्तमप्यपरं मनोवाकायकर्मभिर्नानुमन्येत इति ॥ २२ ॥ उचरगुणानधिकत्याह--उद्गमो18|त्पादनैपणाभिः 'शुद्ध' निर्दोषे 'स्यात्' कदाचित् 'जाते' प्राप्ते पिण्डे सति साधू रागद्वेषाभ्यां न दूषयेत् , उक्तं च ~393~ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१०], उद्देशक [-], मूलं [२४], नियुक्ति: [१०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत ।१०समा| ध्यध्ययनं. सूत्रांक सूत्रकृताङ्गं शीलाझाचार्यांयत्तियुत ॥१९५॥ [२४] "बायालीसेसणसंकडंमि गहणमि जीव ! नहु छलिओ । इहि जह न छलिञ्जसि मुंजतो रागदोसेहिं ॥१॥" तत्रापि रामस्य | प्राधान्यख्यापनायाह-न मूर्छितोऽमूर्छितः-सकृदपि शोभनाहारलामे सति गृद्धिमकुर्वन्नाहारयति, तथा अनध्युपपनस्तमेवाहार |पौन:पुन्येनानमिलषमाणः केवलं संग्रमयात्रापालनार्थमाहारमाहारयेत् , प्रायो विदितवेद्यस्यापि विशिष्टाहारसनिधावभिलापातिरेको जायत इत्यतोऽभूर्छितोज्नध्युपपन्न इति च प्रतिषेधद्वयमुक्तम् , उक्तं च--"भुत्तभोगो पुरा जोऽवि, गीयत्थोचि य भाविओ । संसाहारमाईसु, सोवि खिप्पं तु खुम्भइ ॥१॥" तथा संयमे धृतिर्यस्यासौ धृतिमान , तथा सबाह्याभ्यन्तरेण अन्धेन विमुक्ता, तथा पूजनं वसपात्रादिना तेवार्थः पूजनार्थः स विद्यते यस्यासौ पूजनार्थी तदेवंभूतो न भवेत् , तथा श्लोक:श्लाघा कीर्तिस्तद्गामी न तदभिलाषुकः परिव्रजेदिति, कीर्त्यर्थी न काञ्चन क्रियां कुर्यादित्यर्थः ।। २३ ।। अध्ययनार्थमुपसंजिघृक्षुराह-गेहानिःमत्य 'निष्क्रम्य च' प्रवजितोऽपि भूखा जीवितेऽपि निराकानी 'कार्य' शरीरं व्युत्सृज्य निष्पतिकर्मतया चिकित्सादिकमकुर्वन् छिन्ननिदानो मवेत , तथा न जीवितं नापि मरणममिकाझेच 'भिक्षुः साधुः 'वलयात्' संसारवलयाकर्मबन्धनाद्वा विप्रमुक्तः संयमानुष्ठानं चरेत , इतिः परिसमाप्त्यर्थे, वीमीति पूर्ववत् ॥ २४ ॥ इति समाध्याख्यं दशममध्ययनं समाप्तं ।। दीप अनुक्रम esee see Recedecestaesesese [४९६] ॥१९ ॥ १ द्विवलारिंशवेषणादोषसंकटे गहने जीव । नैव छलितः । इदानीं यदि न छबसे भुनन्, रागद्वेषाभ्या (तदा सफल तत्) ॥1॥ १ भुक्तभोगः पुरा योऽपि | गीतार्थोऽपि च भावितः । सत्खादारादिषु सोऽपि क्षिप्रमेव शुभ्यति ॥१॥ ~394 ~ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [११], उद्देशक [-], मूलं [२४...], नियुक्ति: [१०७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत अथ एकादशं श्रीमार्गाध्ययनं प्रारभ्यते । सूत्रांक ||२४|| दीप अनुक्रम [४९६] 8800a0rasadresasrasperseas उक्तं दशममध्ययनं, तदनन्तरमेकादशमारभ्यते, अस्ख चायमभिसंबन्धः, इहानन्तराध्ययने समाधिः प्रतिपादितः, स च ज्ञानदर्शनतपचारित्ररूपो वर्तते, भावमार्गोऽप्येवमात्मक एवेत्यतो मार्गोऽनेनाध्ययनेन प्रतिपायते इत्यनेन संवन्धेनायातस्थासाध्ययनस चखायुपक्रमादीन्यनुयोगद्वाराणि वाच्यानि, तत्राप्युपक्रमान्तर्गतोऽर्थाधिकारोऽयं, तद्यथा-प्रशस्तो ज्ञानादिको भावमार्गस्तदाचरणं | चात्राभिधेयमिति, नामनिष्पन्ने तु निक्षेपे मार्ग इत्यस्याध्ययनस्य नाम, तन्निक्षेपार्थं नियुक्तिकृदाह--- णामं ठवणा दविए खेत्ते काले तहेव भावे य । एसो खलु मग्गस्स य णिक्खेवो छविहो होइ ॥ १०७॥ फलगलयंदोलणवित्तरज्जुदवणबिलपासमग्गे य । खीलगअयपक्खिपहे छत्तजलाकासदच्वंमि ॥१०८॥ S| खेत्तंमि जंमि खेत्ते काले कालो जहिं हवइ जो उ । भावंमि होति दुविहो पसत्थ तह अप्पसत्थो य ।। १०९॥ दुविहमिवि तिगभेदो ओतस्स(उ) विणिच्छओ दुविहो।सुगतिफलदुग्गतिफलो पगयं सुगतीफलेणित्य।।११०॥ दुग्गइफलवादीणं तिनि तिसट्ठा सताइ वादीणं । खेमे य खेमरूवे चउकगं मग्गमादीसु ॥ ११ ॥ नामस्थापनाद्रम्पक्षेत्रकालभावभेदान्मार्गस्य पोढा निक्षेपः, तत्र नामस्थापने सुगमलादनादृत्य शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्यमार्गमधिकृत्याह-फलकैर्मार्गः फलकमार्गः यत्र कर्दमादिभयात् फलकैर्गम्यते, लतामार्गस्तु यत्र लतावलम्बन गम्यते, Samaa000000000000039392909a andiDrary.om अत्र एकादशमं अध्ययनं 'मार्ग' आरब्धं, पूर्व अध्ययनेन सह तत् अभीसम्बन्ध:, मार्ग शब्दस्य निक्षेपा: ~395~ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [११], उद्देशक [-], मूलं [२४...], नियुक्ति: [१११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत coteese सूत्रांक ||२४|| दीप अनुक्रम [४९६] कृताङ्ग अन्दोलनमागोंऽपि यत्रान्दोलनेन दुर्गमतिलङ्घयते, वेत्रमार्गों यत्र वेत्रलतोपष्टम्भेन जलादौ गम्यते इति, तद्यथा-चारुदत्तो ११ मामाशीलाबा-18 वेत्रलतोपष्टम्भेन वेत्रवती नदीमुत्तीर्य परकूलं गतः, रज्जुमार्गस्तु यत्र रज्या किश्चिदतिदुर्गमतिलङ्घयते, 'दवनं'ति यानंध्ययनं माचार्गीय तन्मागों दवनमार्गः, बिलमार्गो यत्र तु गुहाद्याकारेण विलेन गम्यते, पाशप्रधानो मार्गः पाशमार्गः पाशकूटवागुरान्वितो मार्ग निक्षेपा.. तियुत इत्यर्थः, कीलकमार्गो यत्र वालुकोत्कटे मरुकादिविषये कीलकाभिज्ञानेन गम्यते, अजमार्गो यत्र अजेन-वस्त्येन गम्यते, तत्-RI ॥१९६॥ | यथा सुवर्णभूम्यां चारुदत्तो गत इति, पक्षिमार्गो यत्र भारुण्डादिपक्षिभिर्देशान्तरमवाप्यते, छत्रमार्गो यत्र छत्रमन्तरेण गन्तुं न | शक्यते, जलमार्गों यत्र नावादिना गम्यते, आकाशमागों विद्याधरादीनाम् , अयं सर्वोऽपि फलकादिको 'द्रव्ये' द्रन्यविषयेऽवग-1 न्तव्य इति। क्षेत्रादिमार्गप्रतिपादनायाह-क्षेत्रमार्गे पर्यालोच्यमाने यसिन् 'क्षेत्रे ग्रामनगरादौ प्रदेशे वा शालिक्षेत्रादिके वा क्षेत्रे | यो याति मार्गो यसिन्वा क्षेत्रे व्याख्यायते स क्षेत्रमार्गः, एवं कालेऽप्यायोज्यं । भावे खालोच्यमाने द्विविधो भवति मार्गः, तद्यथा-16 |प्रशस्तोप्रशस्तश्चेति । प्रशस्ताप्रशस्तभेदप्रतिपादनायाह-'द्विविधेऽपि प्रशस्ताप्रशस्तरूपे भावमार्गे प्रत्येक त्रिविधो भेदो भवति, | तत्राप्रशस्तो मिथ्याखमविरतिरबानं चेति, प्रशस्तस्तु सम्बग्दर्शनशानचारित्ररूप इति, 'तस्य' प्रशस्ताप्रशस्तरूपस्य भावमार्गस्थ 'चि| निश्चयो' निर्णयः फलं कार्य निष्टा द्वेषा, तद्यथा-प्रशस्तः सुगतिफलोप्रशस्तव दुर्गतिफल इति । इह तु पुनः 'प्रस्तावः' अधिकारः ॥१९६॥ | 'सुगतिफलेन' प्रशस्तमार्गेणेति ॥ तत्राप्रशस्त दुर्गतिफलं मार्ग प्रतिपिपादयिषुस्तकर्तनिर्दिदिक्षुराह-दुर्गतिः फलं यस्य स दुर्ग-18 तिफलस्तद्वदनशीला दुर्गतिफलवादिनस्तेषां प्रावादुकानां त्रीणि त्रिपष्पधिकानि शतानि भवन्ति, दुर्गतिफलमार्गोपदेष्टुत्वं च तेषां eceaeserveesereenettes | मार्ग शब्दस्य निक्षेपा: ~396~ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [११], उद्देशक [-], मूलं [२४...], नियुक्ति: [१११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२४|| పూల మూల వరించింది दीप अनुक्रम [४९६] मिध्यासोपहतष्टितया विपरीतजीवादितखाभ्युपगमात् , तत्संख्या चैवमवगन्तव्या, तयथा-असियसय किरियाणं अकिरियवा| ईण होइ चुलसीई । अण्णाणिय सत्तट्ठी वेणइयाणं च बत्तीसं ॥१॥ तेषां च स्वरूपं समवसरणाध्ययने वक्ष्यत इति ।। साम्प्रतं मार्ग| | भङ्गद्वारेण निरूपयितुमाह, तद्यथा-एकः क्षेमो मार्गस्तस्करसिंहव्याघ्राद्युपद्रवरहितखात् तथा क्षेमरूपश्च समखानथा छायापुष्पफलव दृक्षोपेतजलाश्रयाकुलखाच १, तथा परः क्षेमो निश्चौरः किंलक्षेमरूप उपलशकलाकुलगिरिनदीकण्टकगांशताकुलतेन विषमसात् ।। | तथाऽपरोक्षेमस्तस्करादिभयोपेतखारक्षेमरूपचोपलशकलाद्यमावतया समसात् , तथाऽन्यो न क्षेमो नापि क्षेमरूपः सिंहय्याघ्रतस्करादिदोषदुष्टलात्तथा गर्तापाषाणनिम्नोन्नतादिदोषदुष्टलाचेति, एवं भावमार्गोऽप्यायोग्यः, तयथा--ज्ञानादिसमन्वितो द्रव्यलिङ्गोपेतब साधुः क्षेमः क्षेमरूपच, तथा क्षेमोऽक्षेमरूपस्तु स एव भावसाधुः कारणिकद्रव्यलिङ्गरहितः, तृतीयभङ्गकगता | | निहवाः, परतीथिका गृहस्थाश्वरमभङ्गकवर्तिनो द्रष्टव्याः । एवमनन्तरोक्तया प्रक्रियया 'चतुष्कक' भङ्गकचतुष्टयं मार्गादिष्वायोज्य, आदिग्रहणादन्यत्रापि समाध्यादावायोज्यमिति ।। सम्बगमिथ्यासमार्गयोः खरूपनिरूपणायाहसम्मप्पणिओ मग्गो णाणे तह दंसणे चरित्ते य । चरगपरिवायादीचिण्णो मिच्छत्तमग्गो उ ॥ ११२ ॥ इतिरससायगुरुया छज्जीवनिकायघायनिरया (य)। जे उवदिसंति मग्गं कुमग्गमग्गस्सिता ते उ ॥११३ ॥ तवसंजमपहाणा गुणधारी जे चयंति सम्भावं । सबजगज्जीवहियं तमाहु सम्मप्पणीयमिण ॥ ११४॥ |पंथो मग्गो णाओ विहीं धिती सुगती हियं (तह) सुहं च । पत्थं सेयं णिव्युह णिवाणं सिवकर चेव ॥११५॥ १ अशीतिशतं कियाचादिनामक्रियावादिनां भवति चतुरशीतिः भज्ञानिकानां सप्तपनि यिकानां च द्वात्रिंशत् ॥ १॥ निरcecklack मार्ग शब्दस्य निक्षेपा:, सम्यग व मिथ्या मार्गस्य स्वरुप-निरूपणा, ~397~ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [११], उद्देशक [-], मूलं [२४...], नियुक्ति: [११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२४|| दीप अनुक्रम [४९६] सूत्रकृताङ्ग सम्यग्ज्ञानं दर्शनं चारित्रं चेत्ययं त्रिविधोऽपि भावमार्गः 'सम्यग्दृष्टिभिः' तीर्थकरगणधरादिमिः सम्यग्वा-यथावस्थितवस्तु- ११ मार्गाशीलाङ्का तत्त्वनिरूपणया प्रणीतस्तैरेव(च) सम्यगाचीर्ण इति, चरकपरिव्राजकादिभिस्तु 'आचीर्णः आसेवितो मार्गो मिथ्यात्वमार्गोप्रशस्त- ध्ययनं भाचार्यांय- | मार्गों भवतीति । तुशब्दोऽस्य दुर्गतिफलनिबन्धनलेन विशेषणार्थ इति । स्वयूथ्यानामपि पार्श्वस्थादीनां षड्जीवनिकायोपमर्द- वमार्गाः त्तियुतं कारिणां कुमार्गाश्रितवं दर्शयितुमाह-ये केचन अपुष्टधर्माणः शीतलविहारिणः ऋद्धिरससावगौरवेण 'गुरुकाः' गुरुकर्माण । ॥१९॥ | आधाकर्माद्युपभोगाभ्युपगमेन पइजीवनिकायव्यापादनरताश्च अपरेभ्यो 'मार्ग मोक्षमार्गमात्मानुचीर्णमुपदिशन्ति, तथाहि| शरीरमिदमाचं धर्मसाधनमिति मला कालसंहननादिहानेश्वाधाकर्माद्युपभोगोऽपि न दोषायेत्येवं प्रतिपादयन्ति, ते चैवं प्रतिपा-18| दयन्तः कुत्सितमागोस्तीर्थिकास्तन्मार्गाश्रिता भवन्ति । तुशब्दादेतेऽपि खयुध्या एतदुपदिशन्तः कुमार्गाश्रिता भवन्तीति किंपुनस्ती-18M हार्थिका इति ।। प्रशस्तशास्त्रप्रणयनेन सन्मार्गाविष्करणायाह तपः-सवाद्याभ्यन्तरं द्वादशप्रकार तथा संयमः-सप्तदशभेदः पञ्जाथव-IN |विरमणादिलक्षणस्ताभ्यां प्रधानास्तपःसंयमप्रधानाः, तथाऽष्टादशशीलाङ्गसहस्राणि गुणास्तद्धारिणो गुणधारिणो ये सत्साघवस्त एवं| भूता यं 'सद्भावं' परमार्थ जीवाजीवादिलक्षणं 'वन्ति' प्रतिपादयन्ति, किंभूतं!-सर्वसिन् जगति ये जीवास्तेभ्यो हितं-पथ्यं तद्रक्षणतस्तेषां सदुपदेशदानतो वा तं सन्मार्ग सम्यमार्गज्ञाः 'सम्यग' अविपरीतखेन प्रणीतम् 'आहुः उक्तवन्त इति । साम्प्रतं का सन्मार्गबैंकार्थिकान् दर्शयितुमाह-देशाद्विवक्षितदेशान्तरप्राप्तिलक्षणः पन्थाः, स चेह भावमार्गाधिकारे सम्यक्सावाप्तिरूपोऽवगन्तव्यः १, तथा 'मार्ग' इति पूर्वमादिशुद्या विशिष्टतरो मार्गः, स चेह सम्यगज्ञानावाप्तिरूपोऽवगन्तव्यः २, तथा 'न्याय' इति १चारित्रामा ॥१९७॥ JAMERatinintamational सम्यग व मिथ्या मार्गस्य स्वरुप-निरूपणा, ~398~ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२४|| दीप अनुक्रम [ ४९६ ] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [११], उद्देशक [-] मूलं [ २४...], निर्युक्ति: [ ११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - निश्चयेनायनं विशिष्टस्थानप्राप्तिलक्षणं यस्मिन् सति स न्यायः, स चेह सम्यक् चारित्रावाप्तिरूपोऽवगन्तव्यः, सत्पुरुषाणामयं न्याय एव यदुत अवाप्तयोः सम्यग्दर्शनज्ञानयोस्तत्फलभूतेन सम्यकुचारित्रेण योगो भवतीत्यतो न्यायशब्देनात्र चारित्रयोगोऽभिधीयत इति ३, तथा 'विधि'रिति विधानं विधिः सम्यग्ज्ञानदर्शनयोर्योगपद्येनावाप्तिः ४, तथा 'धृतिरिति धरणं धृतिः सम्यग्दर्शने सति चारित्रावस्थानं माषतुषादाविव विशिष्टज्ञानाभावाद्विवक्षयैवमुच्यते ५, तथा 'सुगति रिति शोभना गतिरसात् ज्ञानाचारित्राचेति सुगतिः, 'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्ष' इति न्यायात्सुगतिशब्देन ज्ञानक्रिये अभिधीयेते, दर्शनस्य तु ज्ञानविशेषलादत्रैवान्तर्भावोऽवगन्तव्यः ६, तथा 'हित' मिति परमार्थतो मुक्त्यवाप्तिस्तत्कारणं वा हितं तच्च सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राख्यमवगन्तव्यमिति ७, अत्र च संपूर्णानां सम्यग्दर्शनादीनां मोक्षमार्गले सति यद्वयस्तसमस्तानां मोक्षमार्गत्वेनोपन्यासः स प्रधानोपसर्जनविवक्षया न दोपायेति, तथा 'सुख'मिति सुखहेतुलात्सुखम् - उपश्रमश्रेण्यामुपशामकं प्रत्यपूर्वकरणानिवृत्तिवादरसूक्ष्मसं परायरूपा गुणत्रयावस्था ८, तथा 'पथ्य' मिति पथि - मोक्षमार्गे हितं पथ्यं तच्च क्षपकश्रेण्यां पूर्वोक्तं गुणत्रयं ९, तथा 'श्रेय' इत्युपशमश्रेणिमस्तकावस्था, उपशान्तसर्वमोहावस्थेत्यर्थः १० तथा निर्वृतिहेतुत्वान्निर्वृतिः क्षीणमोहावस्थेत्यर्थः, मोहनीय विनाशेऽवश्यं निर्वृतिसद्भावादितिभावः ११, तथा 'निर्वाण' मिति घनघातिकर्मचतुष्टयक्षयेण केवलज्ञानावाप्तिः १२, तथा 'शिव' मोक्षपदं तत्करणशीलं शैलेश्यवस्थागमन मिति १३, एवमेतानि मोक्षमार्गसेन किञ्चिद्भेदाद भेदेन व्याख्यातान्यभिधानानि यदिवैते पर्यायशब्दा एका| थिंका मोक्षमार्गस्येति । गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, तदनन्तरं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुचारयितव्यं तच्चेदम्— कयरे मग्गे अक्खाए, माहणेणं मईमता ? । जं मग्गं उज्जु पावित्ता, ओहं तरति दुत्तरं ॥ १ ॥ Forest Use Only सम्यग् व मिथ्या मार्गस्य स्वरुप निरूपणा, मूल सूत्रस्य आरम्भः ~399~ 9300302৬১৬20 Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [११], उद्देशक [-], मूलं [३], नियुक्ति: [११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: అ प्रत सूत्राक ||३|| ॥१९८॥ सूत्रकृताङ्गं तं मग्गं णुत्तरं सुद्धं, सबदुक्खविमोक्खणं । जाणासि णं जहा भिक्खू !, तं णो ब्रूहि महामुणी॥ ११ मार्गाशीलाका जइ णो केइ पुच्छिज्जा, देवा अदुव माणुसा। तेसिं तु कयरं मग्गं, आइक्खेज ? कहाहि णो ॥३॥ ध्ययन. चायिचियुतं जइ वो केइ पुच्छिज्जा, देवा अदुव माणुसा । तेसिमं पडिसाहिज्जा, मग्गसारं सुणेह मे ॥४॥ विचित्रखात्रिकालविषयलाच सूत्रस्थागामुकं प्रच्छकमाश्रित्य मूत्रमिदं प्रवृत्तम्, अतो जम्बूस्खामी सुधमेखामिनमिदमाह, तद्यथा-'कतरः' किंभूतो 'मार्गः' अपवर्गावाप्तिसमर्थोऽस्यां त्रिलोक्याम् 'आख्यातः' प्रतिपादितो भगवता त्रैलोक्योद्धरणसम-13 नैकान्तहितैषिणा मा हनेत्येवमुपदेशप्रवृत्तिर्यस्यासौ माहन:-तीर्थकुत्तेन, तमेव विशिनष्टि-मतिः-लोकालोकान्तर्गतमूक्ष्मव्यव-18 हितविप्रकृष्टातीतानागतवर्वमानपदार्थाविर्भाविका केवलज्ञानाख्या यस्यास्त्यसौ मतिमांस्तेन, यं प्रशस्त भावमार्ग मोक्षगमनं प्रति । 181'ऋजु' प्रगुणं यथावस्थितपदार्थस्वरूपनिरूपणद्वारेणावळं सामान्यविशेषनित्यानित्यादिस्याद्वादसमाश्रयणात् , तदेवंभूतं मार्ग ज्ञान दर्शनतपश्चारित्रात्मकं 'प्राप्य' लब्ध्वा संसारोदरविवरखती प्राणी समग्रसामग्रीकः 'ओघ मिति भवौघं संसारसमुद्रं तरत्यत्यन्त । दुस्तरं, तदुत्तरणसामग्या एव दुष्पापसात् , तदुक्तम्-"माणुस्सखेचजाईकुलरुवारोगमाउयं पुद्धी। सवणोग्गहसद्धासजमो य लोयंमि दुलहाई ॥१॥" इत्यादि ।।स एवं प्रच्छकः पुनरप्याह-योऽसौ मार्गः सत्त्वहिताय सर्वज्ञेनोपदिष्टोऽशेपैकान्तकौटिल्यवक्र(ता)रहितस्तं | | मार्ग, नास्योत्तररा-प्रधानोऽस्तीत्यनुत्तरस्तं शुद्धः-अवदातो निर्दोषः पूर्वापरब्याहतिदोषापगमात्सावद्यानुष्ठानोपदेशाभावाद्वा समिति, ॥३॥१९८॥ तथा सवोणि-अशेषाणि बहुभिर्भवैरुपचितानि दुःखकारणबाहुःखानि कर्माणि तेभ्यो 'विमोक्षणं'-विमोचकं तमेवंभूतं मागेमनुत्तरं ।।। मानुष्य यो जातिः कुल रूपमारोग्यमायुः बुद्धिः श्रवणमपग्रहः श्रद्धा संयमच डोके दुर्लभानि ॥१॥ erroraeral दीप अनुक्रम [४९८] secreta ~400~ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [११], उद्देशक [-], मूलं [४], नियुक्ति: [११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत सूत्राक ||४|| दीप अनुक्रम [५००] निर्दोष सर्वदुःखक्षयकारणं हे मिक्षो ! यथा त्वं जानीपे 'ग'मिति वाक्याल कारे तथा तं मार्ग सर्वज्ञप्रणीतं 'न:' असाकं हे महा १ IS मुने ! 'हि' कथयेति ॥ २॥ ययप्यस्साकमसाधारणगुणोपलब्धेर्युष्मत्प्रत्ययेनैव प्रवृत्तिः स्वात् तथाप्यन्येषां मार्गः किंभूतो|४| मयाऽऽख्येय इत्यभिप्रायवानाह-यदा कदाचित् 'न: अस्मान् 'केचन' सुलभबोधयः संसारोद्विनाः सम्यगमार्ग पृच्छेयुः, के। ते -'देवा' चतुर्निकायाः तथा मनुष्याः-प्रतीताः, बाहुल्येन तयोरेव प्रश्नसद्भावातदुपादानं, तेषां पृच्छतां कतर मार्गमहम् 'आख्यास्ये' कथयिष्ये, तदेतदसाकं त्वं जानानः कथयेति ॥३॥ एवं पृष्टः सुधर्मखाम्याह-यदि कदाचित् 'व:' युष्मान् । केचन देवा मनुष्या वा संसारभ्रान्तिपराभवाः सम्यगमार्ग पृच्छेयुस्तेषां पृच्छताम् 'इममिति वक्ष्यमाणलक्षणं पड्जीवनिकाय प्रतिपादनगर्भ तद्रक्षाप्रवर्ण मार्ग 'पडिसाहिजे'ति प्रतिकथयेत् , 'मार्गसारम्' मार्गपरमार्थ यं भवन्तोऽन्येषां प्रतिपादयिष्यन्ति 1 तत् 'मे' मम कथयतः शृणुत यूयमिति, पाठान्तरं वा "तेसिं तु इमं मग्गं आइक्वेज सुणेह में'त्ति उत्तानार्थम् ॥ ४॥ पुनरपि मार्गाभिष्टवं कुर्वन्मुधर्मस्वाम्याह अणुपुत्वेण महाघोरं, कासवेण पवेइयं । जमादाय इओ पुवं, समुदं ववहारिणो ॥५॥ 18|अतरिंसु तरंतेगे, तरिस्संति अणागया। तं सोच्चा पडिवक्खामि, जंतवो तं सुह मे ॥६॥ पुढवीजीवा पुढो सत्ता, आउजीवा तहाऽगणी। वाउजीवा पुढो सत्ता, तणरुक्खा सबीयगा ॥७॥ Recenescenetweeeeeees Maniorary.om ~401~ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [११], उद्देशक [-], मूलं [८], नियुक्ति: [११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: प्रत ११ मार्गा सूत्राक ||८|| दीप अनुक्रम [५०४] मुत्रकृताङ्ग 18| अहावरा तसा पाणा, एवं छक्काय आहिया। एतावए जीवकाए, णावरे कोइ विजई ॥८॥ शीलाङ्का- यथाऽहम 'अनुपूर्वेण' अनुपरिपाट्या कथयामि तथा गृणुत, यदिवा यथा चानुपूर्ध्या सामय्या वा मार्गोज्याप्यते तच्छृणुत, ध्ययन चार्यांयत्तियुतं तद्यथा-'पंढमिल्लुगाण उदए' इत्यादि तावद्यावत् 'बारस विहे कसाए खविए उवसामिए व जोगेहिं । लम्भइ चरित्तलंभो" 18| इत्यादि, तथा 'चत्तारि परमंगाणी'त्यादि । किंभूतं मार्ग, तमेव विशिनष्टि-कापुरुषैः संग्रामप्रवेशवत् दुरध्यवसेयखात् । ॥१९९॥ 'महाघोरं महाभयानक 'काश्यपो' महावीरवर्धमानखामी तेन 'प्रवेदितं' प्रणीतं मार्ग कथयिष्यामीति, अनेन स्वमनी-18 पिकापरिहारमाह, यं शुद्धं मार्गम् 'उपादाय' गृहीला 'इत' इति सन्मार्गोपादानात 'पूर्वम् आदावेवानुष्ठितत्वाहुस्तरं संसार || महापुरुषास्तरन्ति, असिवार्थे दृष्टान्तमाह-व्यवहारः-पण्यक्रयविक्रयलक्षणो विद्यते येषां ते व्यवहारिणः-सांयात्रिकाः, यथा ते विशिष्टलाभार्थिनः किञ्चिनगरं यियासवो यानपात्रेण दुस्तरमपि समुद्रं तरन्ति एवं साधयोऽप्यात्यन्तिककान्तिकाबाधमुखैषिणः | सम्यग्दर्शनादिना मार्गेण मोक्षं जिगमिपयो दुस्तरं भवौघं तरन्तीति ॥ ५॥ मार्गविशेषणायाह- मार्ग पूर्व महापुरुषाचीर्ण| मव्यभिचारिणमाश्रित्य पूर्वमिन्ननादिके काले बहवोऽनन्ताः सचा अशेषकर्मकचवरविप्रमुक्ता भवौघ-संसारम् 'अताषुः तीर्ण| वन्तः, साम्प्रतमध्येके समग्रसामग्रीकाः संख्येयाः सच्चास्तरन्ति, महाविदेहादौ सर्वदा सिद्धिसद्भावाद्वर्तमानत्वं न विरुध्यते, तथा:-18||१९९।। इताव एव प्र० । २ दृश्यमानेषु बहुम्वादशेषु नावरे पिजती काए इत्येव पाठ उपलभ्यते, प्राङ् मुदिते त्वेष ईरशः, कचित् नावरे विनती कएति पाठ | छन्दोऽनुलोम्येन कायस्थ स्याद्भवता त्रासुन्दरः सः । ३ प्राथमि कानामुदये । ४ द्वादशाविधेषु कषायेषु क्षपितेषूपश मितेषु वा योगैः । लभते चारित्रलाभं ।। ५ चलारे परमानानि । भवत इति गम्यं । ५ समासान्तागमेत्यादिनेटोऽनित्यत्वं । mereceaeesekseeeeeeee అందాల తరువాల Sele ~402 ~ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [५०४ ] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [११], उद्देशक [-] मूलं [८], निर्युक्तिः [११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ०२], अंग सूत्र -[०२ ] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - तस्य नागते च काले अपर्यवसानात्मकेऽनन्ता एव जीवास्तरिष्यन्ति । तदेवं कालत्रयेऽपि संसारसमुद्रोत्तारकं मोक्षगमनैककारणं प्रशस्तं भावमार्गमुत्पन्नदिव्यज्ञानैस्तीर्थकृद्भिरुपदिष्टं तं चाहं सम्यक् श्रुखाऽवधार्य च युष्माकं शुश्रूषूणां 'प्रतिवक्ष्यामि' प्रतिपादयिप्यामि, सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनं निश्रीकृत्यान्येषामपि जन्तूनां कथयतीत्येतद्दर्शयितुमाह- हे जन्तवोऽभिमुखीभूय तं चारित्रमार्ग मम कथयतः शृणुत यूयं परमार्थकथने ऽत्यन्तमादरोत्पादनार्थमेवमुपन्यास इति ॥ ६ ॥ चारित्रमार्गस्य प्राणातिपातविरमणमूलखातत्परिज्ञानपूर्वकलादतो जीवस्वरूपनिरूपणार्थमाह - पृथिव्येव पृथिव्याश्रिता वा जीवाः पृथ्वीजीवाः, ते च प्रत्येकशरीरवात् 'पृथक' प्रत्येकं 'सत्त्वा' जन्तवोऽवगन्तव्याः, तथा आपच जीवाः, एवमशिकायाथ, तथाऽपरे बायुजीवाः, तदेवं चतुर्म| हाभूतसमाश्रिताः पृथक् सच्चाः प्रत्येकशरीरिणोऽवमन्तव्याः, एत एव पृथिव्यप्तेजोवायुसमाश्रिताः सत्त्वाः प्रत्येकशरीरिणः, वक्ष्य| माणवनस्पतेस्तु साधारणशरीरखेनापृथक्तमप्यस्तीत्यस्यार्थस्य दर्शनाय पुनः पृथक्सन्वग्रहणमिति । वनस्पतिकायस्तु यः सूक्ष्मः स सर्वोऽपि निगोदरूपः साधारणो चादरस्तु साधारणोऽसाधारणश्रेति, तत्र प्रत्येकशरीरिणोऽसाधारणस्य कतिचिद्भेदान्निर्दिदिक्षुराह-तत्र तृणानि दर्भवीरणादीनि वृक्षाः - चूताशोकादयः सह बीजैः - शालिगोधूमादिभिर्वर्तन्त इति सबीजकाः, एते सर्वेऽपि वनस्पतिकायाः सत्त्वा अवगन्तव्याः, अनेन च बौद्धादिमतनिरासः कृतोऽवगन्तव्य इति । एतेषां च पृथिव्यादीनां | जीवानां जीवत्वेन प्रसिद्धिखरूपनिरूपणमाचारे प्रथमाध्ययने शस्त्रपरिज्ञाख्ये न्यक्षेण प्रतिपादितमिति नेह प्रतन्यते ॥ ७ ॥ षष्ठजीवनिकायप्रतिपादनायाह-तत्र पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतय एकेन्द्रियाः सूक्ष्मवादरपर्याप्ता पर्याप्तकभेदेन प्रत्येकं चतुर्विधाः, 'अथ' अनन्तरम् 'अपरे ' अन्ये वसन्तीति त्रसाः -- द्वित्रिचतुष्पञ्चेन्द्रियाः कृमिपिपीलिका भ्रमरमनुष्यादयः, तत्र द्वित्रिचतुर For Parts Only ~403~ www.ansaray.org Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [५०४ ] सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्का चायचियुतं ॥२००॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [११], उद्देशक [-] मूलं [८], निर्युक्तिः [११५ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ०२], अंग सूत्र -[०२ ] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः न्द्रियाः प्रत्येकं पर्याप्तकापर्याप्तकभेदात्पद्विधाः, पञ्चेन्द्रियास्तु संशयसंज्ञिपर्याप्तकापर्याप्तक भेदाच्चतुर्विधाः । तदेवमनन्तरोक्तया नीत्या चतुर्दशभूतग्रामात्मकतया पड़ जीवनिकाया व्याख्यातास्तीर्थकरगणधरादिभिः, 'एतावान्' एतद्भेदात्मक एवं संक्षेपतो 'जीवनिकायो' जीवराशिर्भवति, अण्डजोद्भिज्जसंखेदजादेरत्रैवान्तर्भावानापरी जीवराशिर्विद्यते कश्विदिति ॥ ८ ॥ तदेवं षड्जीवनिकार्य प्रदर्श्य यत्तत्र विधेयं तदर्शयितुमाह सवाहिं अणुजुत्तीहिं, मतिमं पडिलेहिया । सवे अकंतदुक्खा य, अतो सबे न हिंसया ॥ ९ ॥ एयं खु णाणिणो सारं, जं न हिंसति कंचण । अहिंसा समयं चैत्र, एतावंतं विजाणिया ॥ १० ॥ उङ्कं अहे य तिरियं, जे केइ तसथावरा । सवत्थ विरतिं विज्जा, संति निवाणमाहियं ॥ ११ ॥ पभू दोसे निराकिच्चा, ण विरुज्झेज्ज केणई। मणसा वयसा चेव, कायसा चैव अंतसो ॥ १२ ॥ सर्वायाः काचनानुरूपाः पृथिव्यादिजीवनिकायसाधनत्वेनानुकूला युक्तयः-साधनानि, यदिवा असिद्धविरुद्धानैकान्तिकपरिहा| रेण पक्षधर्मत्त सपक्ष सत्त्वविपक्षव्यावृत्तिरूपतया युक्तिसंगता युक्तयः अनुयुक्तयस्ताभिरनुयुक्तिभिः 'मतिमान' सद्विवेकी पृथिव्यादि| जीवनिकायान् 'प्रत्युपेक्ष्य' पर्यालोच्य जीवसेन प्रसाध्य तथा सर्वेऽपि प्राणिनः 'अकान्तदुःखा' दुःखद्विपः मुखलिप्सवश्च मन्वानो मतिमान् सर्वानपि प्राणिनो न हिंस्यादिति । युक्तयश्च तत्प्रसाधिकाः संक्षेपेणेमा इति-सात्मिका पृथिवी, तदात्मनां विद्रुमलव Jan Eaton International For Parts Only ~ 404~ ११ मार्गा ध्ययनं. ॥ २००॥ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [११], उद्देशक [-], मूलं [१२], नियुक्ति: [११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१२|| दीप अनुक्रम [५०८] णोपलादीनां समानजातीयाकुरसद्भावाद्, अर्थोविकाराङ्कुरवत् । तथा सचेतनमम्भः, भूमिखननांदविकृतस्वभावसंभवाद्, द१र-18 वत् । तथा सात्मकं तेजः, तद्योग्याहारवृझ्या कृपलब्धेः, बालकवत् । तथा सात्मको वायुः, अपराप्रेरितनियततिरधीनगति-19 मत्वात् , गोवत् । तथा सचेतना वनस्पतयः, जन्मजरामरणरोगादीनां समुदितानां सद्भावात् , खीवन , तथा क्षतसंरोहणाहारोपादानदोहदसद्धावस्पर्शसंकोचसायाखापप्रबोधाश्रयोपसर्पणादिभ्यो हेतुभ्यो वनस्पते बैतन्यसिद्धिः। द्वीन्द्रियादीनां तु पुनः कृम्या-18 दीनां स्पष्टमेव चैतन्यं, तद्वेदनाधौपक्रमिकाः स्वाभाविकाच समुपलभ्य मनोवाकायैः कृतकारितानुमतिभिश्च नबकेन भेदेन तत्पीडाकारिण उपमर्दानिवर्तितव्यमिति ॥ ९॥ एतदेव समर्थयबाह-खुशब्दो वाक्यालकारेश्वधारणे वा, 'एतदेव' अनन्तरोक्तं? प्राणातिपातनिवर्तनं 'ज्ञानिनों' जीवस्वरूपतद्वधर्मबन्धवेदिनः 'सार' परमार्थतः प्रधान, पुनरप्यादरख्यापनार्थमेतदेवाहयत्कश्चन प्राणिनमनिष्टदुःखं सुखैपिणं न हिनस्ति, प्रभूतवेदिनोऽपि ज्ञानिन एतदेव सारतरं ज्ञानं यत्यागातिपातनिवर्तनमिति, ज्ञानमपि तदेव परमार्थतो यत्परपीडातो निवर्तन, तथा चोक्तम्-"किं ताए पढियाए ? पपकोडीए पलालभूयाए। जस्थित्तियं ण|| | णायं परस्स पीडान काया ॥१॥ तदेवमहिंसाप्रधानः समय-आगमः संकेतो वोपदेशरूपस्तमेवंभूतमहिंसासमयमेतावन्त-12 मेव विज्ञाय किमन्येन बहुना परिज्ञानेन?, एतावतैव परिज्ञानेन मुमुक्षोर्विवक्षितकार्यपरिसमातेरतो न हिंसात्कश्चनेति ॥ १०॥ 18 साम्प्रतं क्षेत्रप्राणातिपातमधिकृत्याह-ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् च ये केचन प्रसा:-तेजोवायुद्वीन्द्रियादयः तथा स्थावरा:-पृथिव्यादयः || किंबहुनोक्तेन , 'सर्वत्र' प्राणिनि त्रसस्थावरमूक्ष्मवादरभेदभिन्ने 'विरतिं' प्राणातिपातनिवृत्ति 'विजानीयात् कुर्यात् , पर मनाधिकृत । ननावित. प्र. । । किन्तया पठितया पदकोव्यापि पलालभूतथा रौतावन्न शातं परस्प पीडा न कर्तव्या ॥ १॥ Pradiporaeesa80920000000000 ~405~ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [११], उद्देशक [-], मूलं [१२], नियुक्ति: [११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्' मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ११ मार्गाध्ययन. प्रत सूत्रांक ||१२|| चाय- त्तियुत ॥२०१॥ Peaceaeeeeeer दीप अनुक्रम [५०८] मार्थत एवमेवासी ज्ञाता भवति यदि सम्यक क्रियत इति, एव च प्राणातिपातनिवृत्तिः परेषामात्मनश्व शान्तिहेतुलाच्छान्तिवतते, यतो विरतिमतो नान्ये केचन विभ्यति, नाप्यसौ भवान्तरेऽपि कुतश्चिद्विमेति, अपिच-निर्वाणप्रधानैककारणखानिर्वाणमपि प्राणातिपातनिवृत्तिरेव, यदिवा शान्तिः-उपशान्तता निवृतिः-निर्वाणं विरतिमांश्चातरौद्रध्यानाभावादुपशान्तिरूपो निर्वृतिभूतश्च भवति ।। ११ ॥ किश्चान्यत्-इन्द्रियाणां प्रभवतीति प्रभुश्येन्द्रिय इत्यर्थः, यदिवा संयमावारकाणि कर्माण्यभिभूय% | मोक्षमार्गे पालयितध्ये प्रभुः-समर्थः, स एवंभूतः प्रभुः दूषयन्तीति दोषा-मिथ्यासाविरतिप्रमादकपाययोगास्तान् 'निराकृत्य | अपनीय केनापि प्राणिना साधं 'न विरुध्येत' न केनचित्सह विरोधं कुर्यात् , त्रिविधेनापि योगेनेति मनसा वाचा कायेन | चैवान्तशो-यावज्जीवं, परापकारक्रियया न विरोधं कुर्यादिति ।। १२ ।। उत्तरगुणानधिकृत्याहसंवुडे से महापन्ने, धीरे दत्तेसणं चरे । एसणासमिए णिचं, वज्जयंते अणेसणं ॥ १३ ॥ भूयाइं च समारंभ, तमुहिस्सा य जं कडं । तारिसं तु ण गिण्हेज्जा, अन्नपाणं सुसंजए ॥१४॥ पूईकम्मं न सेविजा, एस. धम्मे दुसीमओ। जं किंचि अभिकंखेजा, सवसो तं न कप्पए ॥ १५ ॥ हणंतं णाणुजाणेज्जा, आयगुत्ते जिइंदिए । ठाणाइं संति सड्डीणं, गामेसु नगरेसु वा ॥ १६ ॥ भूयाई समारंभ समुहिस्सा य क समवादशेषु दृश्यमानेषु पाठः,टीकायां तु न तथा । ॥२०१॥ ~406~ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [११], उद्देशक [-], मूलं [१६], नियुक्ति: [११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१६|| आश्रवद्वाराणां रोधेनेन्द्रियनिरोधेन च संवृतः स भिक्षुर्महती प्रज्ञा यस्थासौ महाप्रज्ञो-विपुलपुद्धिरित्यर्थः, तदनेन जीवाजी-18 वादिपदार्थाभिज्ञतावेदिता भवति, 'धीरः' अक्षोभ्यः क्षुत्पिपासादिपरीपहने क्षोभ्यते, तदेव दर्शयति-आहारोपधिशय्यादिके | खस्वामिना तत्संदिष्टेन वा दत्ते सत्येपणां चरति एषणीयं गृह्णातीत्यर्थः, एषणाया एषणायां वा गवेषणग्रहणग्रासरूपायां त्रिविधायामपि सम्यगितः समितः, स साधुनित्यमेषणासमितः सन्मनेषणां 'वर्जयन' परित्यजन्संयममनुपालयेत , उपलक्षणार्थवादस्य शेषाभिरपीर्यासमित्यादिभिः समितो द्रष्टव्य इति ॥१३॥ अनेषणीयपरिहारमधिकृत्याह-अभूवन भवन्ति भविष्यन्ति च प्राणिनस्तानि भूतानि प्राणिनः 'समारभ्य' संरम्भसमारम्भारम्मैरुपतापयिता तं साधुम्'उद्दिश्य'साध्वर्थ यत्कृतं तदुपकल्पितमाहारोपकरणादिकं । 'तादृशम् आधाकर्मदोषदुष्टं 'सुसंयतः सुतपस्वी तदनं पानकं वा न भुञ्जीत, तुशब्दस्यैवकारार्थलावाभ्यवहरेद, एवं तेन | मार्गोऽनुपालितो भवति ॥ १४ ॥ किश्व-आधाकर्माद्यविशुद्धकोट्यवयवेनापि संपृक्तं पूतिकर्म, तदेवंभूतमाहारादिकं 'न सेवेत' नोपभुञ्जीत, एषः-अनन्तरोक्तो धर्मः कल्पः स्वभावः 'वुसीमओ'त्ति सम्यक्संयमवतोऽयमेवानुष्ठानकल्पो यदुताशुद्धमाहारादिकं 8 परिहरतीति, किच-यदप्यशुद्धखेनाभिकाङ्ग्रेत् शुद्धमप्यशुद्धखेनाभिशक्षेत किश्चिदप्याहारादिकं तत् 'सर्वशः' सर्वप्रकारम-18 प्याहारोपकरणपूतिकम भोक्तुं न कल्पत इति ॥ १५॥ किश्चान्यत्-धर्मश्रद्धावतां ग्रामेषु नगरेषु वा खेटकर्बटादिषु वा 'स्थानानि' आश्रयाः 'सन्ति' विद्यन्ते, तत्र तत्स्थानाश्रितः कश्चिद्धर्मोपदेशेन किल धर्मश्रद्धालुतया प्राण्युपमर्दकारिणी धर्मबुद्ध्या कूपतडागखननप्रपासत्रादिकां क्रियां कुर्यात् तेन च तथाभूतक्रियायाः कर्ता किमत्र धर्मोऽस्ति नास्तीत्येवं पृष्टोऽपृष्टो वा तदुप__१ कल्पखभावः प्र.बूमः । दीप अनुक्रम [५१२] ~407~ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [११], उद्देशक [-], मूलं [१६], नियुक्ति: [११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्काचार्याय esesects पतटागा चियुतं ||१६|| ॥२०॥ दीप अनुक्रम [५१२] रोधाद्भयाद्वा तं प्राणिनो मन्तं नानुजानीयात् , किंभूतः सन् ?-'आत्मना' मनोवाकायरूपेण गुप्त आत्मगुप्तः तथा 'जिते- ११मार्गा|न्द्रियों' वश्येन्द्रियः सावद्यानुष्ठानं नानुमन्येत ॥ १६ ॥ सावधानुष्ठानानुमतिं परिहतुकाम आह ध्ययने छ तहा गिरं समारब्भ, अस्थि पुण्णंति णो वए । अहवा णत्थि पुण्णंति, एवमेयं महब्भयं ॥ १७॥ दिप्रने दाणट्रया य जे पाणा, हम्मति तसथावरा। तेसिं सारक्खणट्राए, तम्हा अस्थित्ति णो वए ॥१८॥ मौनादि. जेसिं तं उवकप्पंति, अन्नपाणं तहाविहं । तेसिं लाभंतरायंति, तम्हा णस्थित्ति णो वए ॥ १९ ॥ जे य दाणं पसंसंति, वहमिच्छति पाणिणं । जे य णं पडिसेहंति, वित्तिच्छेयं करंति ते॥२०॥ केनचिद्राजादिना कूपखननसत्रदानादिप्रवृत्तेन पृष्टः साधु:-किमसदनुष्ठाने अस्ति पुण्यमाहोखिनास्तीति , एवंभूतां गिरा | 'समारभ्य' निशम्याश्रित्य अस्ति पुण्यं नास्ति चेत्येवमुभयथापि महाभयमिति मला दोपहेतुत्वेन नानुमन्येत ॥ १७ ॥ किमर्थे 81 नानुमन्येत इत्याह-अअपानदानार्थमाहारमुदकं च पचनपाचनादिकया क्रियया कूपखननादिकया चोपकल्पयेत्, तत्र यसाद् | |'हन्यन्ते' व्यापायन्ते त्रसाः स्थावराय जन्तवः तमाचेपां रक्षणार्थ' रक्षानिमित्तं साधुरात्मगुप्तो जितेन्द्रियोऽत्र भवदीयानुष्ठाने । पुण्यमित्येवं नो वदेदिति ।। १८॥ ययेवं नास्ति पुण्यमिति ब्रूयात् , तदेतदपि न यादित्याह--'येषां जन्तूनां कृते 'त' ॥२०॥ अन्नपानादिकं किल धर्मबुद्ध्या 'उपकल्पयन्ति' तथाविधं प्राण्युपमर्ददोषदुष्टुं निष्पादयन्ति, तनिषेधे च यसात् 'तेषाम् आहारपानार्थिनां तत् 'लाभान्तरायो' विनो भवेत् , तदभावेन तु ते पीयेरन् , तस्मात्कूपखननसत्रादिके कर्मणि नास्ति पुण्य-11 ~408~ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [११], उद्देशक [-], मूलं [२०], नियुक्ति: [११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||२०|| दीप अनुक्रम [५१६] HS | मित्येतदपि नो घदेदिति ॥ १९ ॥ एनमेवार्थ पुनरपि समासतः स्पष्टतरं विभणिषुराह-ये केचन प्रपासत्रादिकं दानं बहूनां । जन्तूनामुपकारीतिकृसा 'प्रशंसन्ति' श्लाघन्ते 'ते' परमार्थानभिज्ञाः प्रभूततरप्राणिनां तत्प्रशंसाद्वारेण 'व' प्राणातिपातमिमच्छन्ति, तदानस्य प्राणातिपातमन्तरेणानुपपत्तेः, येऽपि च किल मूक्ष्मधियो वयमित्येवं मन्यमाना आगमसद्भावानभिज्ञाः 'प्रति धन्ति' निषेधयन्ति तेऽप्यगीतार्थाः प्राणिनां 'वृत्तिच्छेदं वर्तनोपायविनं कुर्वन्तीति ।। २० ॥ तदेवं राजा अन्धन वेश्वरेण | कूपतडागयागसत्रदानायुद्यतेन पुण्यसद्भावं पृष्टमुमुक्षुभिर्यद्विधेयं तदर्शयितुमाहदुहओवि ते ण भासंति, अस्थि वा नत्थि वा पुणो । आयं रयस्स हेचा णं, निवाणं पाउणंति ते २१ निवाणं परमं बुद्धा, णक्खत्ताण व चंदिमा । तम्हा सदा जए दंते, निवाणं संधए मुणी ॥ २२ ॥ वुज्झमाणाण पाणाणं, किच्चताण सकम्मुणा । आघाति साहु तं दीवं, पतिढेसा पवुच्चई ॥ २३ ॥ आययुत्ते सया दंते, छिन्नसोए अणासवे । जे धम्म सुद्धमक्खाति, पडिपुन्नमणेलिसं ॥२४॥ | यद्यस्ति पुण्यमित्येवमूचुस्ततोऽनन्तानां सत्त्वानां सूक्ष्मवादराणां सर्वदा प्राणत्याग एव स्यात् प्रीणनमात्र तु पुनः खल्पानां | स्वल्पकालीयमतोऽस्तीति न वक्तव्यं नास्ति पुण्यमित्येवं प्रतिषेधेऽपि तदर्थनामन्तरायः सादित्यतो 'द्विधापि' अस्ति नास्ति वा पुण्यमित्येवं 'ते' मुमुक्षवः साधवः पुनर्न भाषन्ते, किंतु पृष्टैः सद्भिमौनं समाश्रयणीय, निर्वन्धे बस्मार्क द्विचखारिंशद्दोपवर्जित १ वप्रनाकाररोषसोः। eraeseseeeseaeeeeeeseas astrotractioticeaesesesesecticersece ~409~ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [११], उद्देशक [-], मूलं [२४], नियुक्ति: [११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२४|| दीप अनुक्रम [५२०] सूत्रकृताङ्ग आहारः कल्पते, एवंविधविषये मुमुक्षूणामधिकार एव नास्तीति, उक्तं च "सत्यं वप्रेषु शीतं शशिकरधवलं वारि पीसा प्रकाम, ११ मार्गाशीलाका- व्युच्छिन्नाशेषतृष्णाः प्रमुदितमनसः प्राणिसार्था भवन्ति । शोषं नीते जलौघे दिनकरकिरणैर्यान्त्यनन्ता विनाशं, तेनोदासीनभानं ध्ययने - चाीयवृ- ब्रजति मुनिगणः कृपवादिकायें ॥१॥" तदेवमुभयथापि भाषिते 'रजसः कर्मण 'आयो' लामो भवतीत्यतस्तमायं रजसो पतटागात्तियुतं | मौनेनानवधभाषणेन वा 'हित्या' त्यक्खा 'ते' अनवद्यभाषिणो 'निर्वाणं' मोक्षं प्राप्नुवन्तीति ।। २१ ॥ अपिच–निर्वतिनिर्वाणंग मौनादि. ॥२०॥ तत्परम-प्रधानं येषां परलोकार्थिनां बुद्धानां ते तथा तानेव बुद्धान् निर्वाणवादिखेन प्रधानानित्येतदृष्टान्तेन दर्शयति-यथा 'नक्षत्राणाम्' अश्विन्यादीनां सौम्यखप्रमाणप्रकाशकबैरधिकश्चन्द्रमाः, एवं परलोकार्थिनां बुद्धानां मध्ये ये वर्गचक्रवर्तिसंपनि-1, दानपरित्यागेनाशेषकर्मक्षयरूपं निर्वाणमेवाभिसंधाय प्रवृत्तास्त एवं प्रधाना नापर इति, यदिवा यथा नक्षत्राणां चन्द्रमाः प्रधान-18 भावमनुभवति एवं लोकस्य निर्वाणं परमं प्रधानमित्येवं 'बुद्धा' अवगततत्वाः प्रतिपादयन्तीति, यसाच निर्वाण प्रधानं तसा-| कारणात् 'सदा' सर्वकालं यतः' प्रयतः प्रयत्नवा(पं०६०००)न् इन्द्रियनोइन्द्रियदमनेन दान्तो 'मुनिः' साधुः "निवोणमभिसंधयेत्' निर्याणार्थ सर्वाः क्रियाः कुर्यादित्यर्थः ॥ २२॥ किञ्चान्वत्-संसारसागरस्रोतोभिर्मिध्यानकषायप्रमादादिकः। |'जामानानां तदभिमुखं नीयमानानां तथा खकर्मोदयेन निकृत्यमानानामशरणानाममुमतां परहितैकरतोऽकारणवत्सलस्तीथे-1181 |कृदन्यो वा गणधराचायोदिकस्तेषामाश्वासभूतं 'साधु शोभनं द्वीपमाख्याति, यथा समदान्तःपतितस्य जन्तोर्जलकल्लोलाकुलि-%॥२०॥ तस्य मुमूर्पोरतिश्रान्तस्य विश्रामहेतुं द्वीपं कश्चित्साधुर्वत्सलतया समाख्याति, एवं तं तथाभूतं 'दीप' सम्पग्दर्शनादिकं संसारभ्रIS मणविश्रामहेतुं परतीथिकैरनाख्यातपूर्वमाख्याति, एवं च कृत्वा प्रतिष्ठान प्रतिष्ठा-संसारभ्रमणविरतिलक्षणैषा सम्यग्दर्शना Intennational ~410~ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [११], उद्देशक [-], मूलं [२४], नियुक्ति: [११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२४|| दीप अनुक्रम [५२०] evececeneces धवाप्तिसाध्या मोक्षप्राप्तिः प्रकर्षेण तत्त्वज्ञैः 'उच्यते प्रोच्यत इति ।। २३ ।। किंभूतोऽसावाश्वासद्वीपो भवति ? कीदृग्विधेन वाऽसा| वाख्यायत इत्येतदाह-मनोवाकार्यरात्मा गुप्तो यस्य स आत्मगुप्तः, तथा 'सदा' सर्वकालमिन्द्रियनोइन्द्रियदमनेन दान्तोवश्येन्द्रियो धर्मध्यानध्यायी घेत्यर्थः, तथा छिनानि-त्रोटितानि संसारस्रोतांसि येन स तथा, एतदेव स्पष्टतरमाह-निर्गत आश्रवः-प्राणातिपातादिकः कर्मप्रवेशद्वाररूपो यस्मात्स निराश्रवो य एवंभूतः स 'शुद्ध' समस्तदोषापेतं धर्ममाख्याति, किंभूतं धर्म-प्रतिपूर्ण निरवयवतया सर्वरित्याख्यं मोक्षगमनैकहेतुम् 'अनीदृशम्' अनन्यसदृशमद्वितीयमितियावत् ॥ २४ ॥ एवंभूतधर्मव्यतिरेकिणां दोषाभिधित्सयाऽऽह-- तमेव अविजाणंता, अबुद्धा बुद्धमाणिणो । बुद्धा मोत्ति य मन्नता, अंत एते समाहिए ॥२५॥ ते य बीओदगं चेव, तमुहिस्सा य जं कडं। भोच्चा झाणं झियायंति, अखेयन्नाऽ[अ]समाहिया ॥२६॥18 जहा ढंका य कंका य, कुलला मग्गुका सिही । मच्छेसणं झियायंति, झाणं ते कल्लुसाधर्म ॥ २७॥ एवं तु समणा एगे, मिच्छद्दिट्टी अणारिया। विसएसणं झियायंति, कंका वा कलुसाहमा ॥ २८॥ | तमेवंभूतं शुद्धं परिपूर्णमनीदशं धर्ममजानाना 'अप्रबुद्धा' अविवेकिनः 'पण्डितमानिनो' वयमेव प्रतिबुद्धा धर्मतच्चमि-| | त्येवं मन्यमाना भावसमाधेः-सम्यग्दर्शनाख्यादन्ते-पर्यन्तेऽतिदूरे वर्तन्त इति, ते च सर्वेऽपि परतीर्थिका द्रष्टच्या इति ॥२५|| किमिति ते तीथिका भावमार्गरूपात्समाधेरे वर्तन्त इत्याशझ्याह-'ते च' शाक्यादयो जीवाजीवानभिज्ञतया 'बीजानि estcerceaesteroenesekseseae ~411 Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [११], उद्देशक [-], मूलं [२८], नियुक्ति: [११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्' मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक सूत्रकृताङ्ग शीलाका- चा-यवचियुत ॥२०४॥ ||२८|| दीप अनुक्रम [५२४] शालिगोधूमादीनि, तथा 'शीतोदकम्' अप्रासुकोदकं, ताश्वोद्दिश्य तद्भक्तर्यदाहारादिकं 'कृतं' निष्पादितं सत्सर्वमधिवेकितया । ११ मागोंते शाक्यादयो 'भुक्त्वा' अभ्यवहत्य पुनः सातर्द्धिरसगौरवासक्तमनसः संघभक्तादिक्रियया तदवाप्तिकृते आत ध्यानं ध्यायन्ति, ध्ययनं. न चैहिकसुखैषिणां दासीदासधनधान्यादिपरिग्रहवतां धर्मध्यानं भवतीति, तथा चोक्तम्-"ग्रामक्षेत्रगृहादीनां, गवां प्रेष्यज-18| नख च । यस्मिन्परिग्रहो दृष्टयो, ध्यानं तत्र कुतः शुभम् ? ॥१॥" इति, तथा-"मोहस्सायतनं धृतरपचयः शान्तेः प्रतीपो| विधियाक्षेपस्य सुहुन्मदस्य भवनं पापस्य वासो निजः । दुःखस्स प्रभवः सुखस्स निधनं ध्यानस्य कष्टो रिपुः, प्राज्ञस्यापि परिग्रहो ग्रह इव क्लेशाय नाशाय च ॥१॥" तदेवं पचनपाचनादिक्रियाप्रवृत्तानां तदेव चानुप्रेक्षमाणानां कुतः शुभध्यानस्य संभवः ।। इति । अपिच ते तीथिका धर्माधर्मविवेके कर्तव्ये 'अखेदज्ञा' अनिपुणाः, तथाहि-शाक्या मनोज्ञाहारवसतिशय्यासनादिकं | रागकारणमपि शुभध्याननिमित्तत्वेनाध्यवस्सन्ति, तथा चोक्तम्-'मणुणं भोयणं भुधे'त्यादि, तथा मांसं कल्किकमित्युपदिश्य | संज्ञान्तरसमाश्रयणानिर्दोष मन्यन्ते, बुद्धसङ्घादिनिमितं चारम्भ निर्दोपमिति, तदुक्तम्-'मसनिवर्ति काउं सेवह दंतिकगति धणिभेया । इस चइऊणारंभ परववएसा कुणइ बालो ।। १॥" न चैतावता तनिर्दोषता, न हि लूतादिकं शीतलिकाभिधानान्तरमात्रेणान्यथासं भजते, विष वा मधुरकाभिधानेनेति, एवमन्येषामपि कापिलादीनामाविर्भावतिरोभावाभिधानाभ्यां विनाशी-12 त्पादावभिदधतामनैपुण्यमाविष्करणीयं । तदेवं ते वराकाः शाक्यादयो मनोझोद्दिष्टभोजिनः सपरिग्रहतयाऽऽर्तध्यायिनोऽसमाहिता | ॥२०४॥ | मोक्षमागोख्याद्भावसमाधेरसंवृततया रेण वर्तन्त इत्यर्थः ।। २६ ॥ यथा चैते रससातागौरवतयाऽऽर्तध्यायिनो भवन्ति तथा मांसनिति कला सेवते इदं कल्किकमिति ध्यानभेदादेवं त्यक्लारम्भ परव्यपदेशारकरोति बालः ॥ १ ॥५मधुर विषे इत्युः esekese Tunaturary.org ~412~ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [११], उद्देशक [-], मूलं [२८], नियुक्ति: [११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्' मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: s ee प्रत सूत्रांक ||२८|| दृष्टान्तद्वारेण दर्शयितुमाह-यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः 'यथा' येन प्रकारेण 'ढकादयः' पक्षिविशेषा जलाशयाश्रया आमिपजीविनो KO मत्यप्राप्ति ध्यायन्ति, एवंभूतं च ध्यानमातेरौद्रध्यानरूपतयाऽत्यन्तकलुपमधमं च भवतीति ॥ २७॥ दार्शन्तिकं दर्शयितुमाह 'एव'मिति यथा ढकादयो मत्स्यान्वेषणपरं ध्यानं ध्यायन्ति तयायिनश्च कलुषाधमा भवन्ति एवमेव मिथ्यादृष्टयः श्रमणा 'एके शाक्यादयोऽनार्यकर्मकारितात्सारम्भपरिग्रहतया अनार्याः सन्तो विषयाणां-शब्दादीनां प्राप्तिं ध्यायन्ति तयाविनश्च कङ्का इस कलुषाधमा भवन्तीति ।। २८ ।। किञ्च सुद्धं मग्गं विराहित्ता, इहमेगे उ दुम्मती । उम्मग्गगता दुक्खं, घायमसंति तं तहा ॥ २९॥ जहा आसाविणिं नावं, जाइअंधो दुरुहिया । इच्छई पारमागंतुं, अंतरा य विसीयति ॥ ३०॥ एवं तु समणा एगे, मिच्छट्टिी अणारिया। सोयं कसिणमावन्ना, आगंतारो महब्भयं ॥३१॥ इमं च धम्ममादाय, कासवेण पवेदितं । तरे सोयं महाघोरं, अत्तत्ताए परिवए ॥३२॥ 'शुद्धम् अवदात निर्दोष 'मार्ग' सम्पग्दर्शनादिकं मोक्षमार्ग कुमार्गप्ररूपणया 'विराध्य दूषयिखा 'इह' असिन्संसारे मोक्षमार्गप्ररूपणप्रस्तावे वा 'एके' शाक्यादयः खदर्शनानुरागेण महामोहाकुलितान्तरात्मानो दुष्टा पापोपादानतया मतिर्येषां ते दु-18 ष्टमतयः सन्त उन्मार्गेण-संसारावतरणरूपेण गताः प्रवृत्ता उन्मार्गगता दुःखयतीति दुःखम्-अष्टप्रकारं कर्मासातोदयरूपं वा || 18| तारखं घातं चान्तशस्ते तथा-सन्मागेविराधनया उन्मार्गगमनं च 'एषन्ते' अन्वेषयन्ति, दुःखमरणे शतशः प्रार्थयन्तीत्यर्थः। दीप अनुक्रम [५२४] Decedesesek D Judurary.com ~413~ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||32|| दीप अनुक्रम [५२८] सूत्रकृता शीलाङ्का चार्ययवृ चियुतं ॥२०५॥ Education T “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ११ ], उद्देशक [-], मूलं [३२], निर्युक्ति: [ ११५ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ०२], अंग सूत्र -[०२ ] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - ।। २९ ।। शाक्यादीनां चापायं दिदर्शयिषुस्तावद्दृष्टान्तमाह-यथा जात्यन्ध 'आस्राविणीं शतच्छिद्रां नावमारुह्य पारमागन्तुमिच्छति, न चासौ सच्छिद्रतया पारगामी भवति, किं तर्हि ?, अन्तराल एव जलमध्य एव विषीदति-निमज्जतीत्यर्थः ॥ ३०॥ | दार्शन्तिकमाह--एवमेव श्रमणा 'एके' शाक्यादयो मिथ्यादृष्टयोनार्या भावस्रोतः- कर्माश्रवरूपं 'कृत्स्नं' संपूर्ण मापन्नाः सन्तस्ते 'महाभयं' पौनःपुन्येन संसार पर्यटनया नारकादिखभावं दुःखम् 'आगन्तारः' आगमनशीला भवन्ति, न तेषां संसारो| दवेरास्त्राचिणीं नावं व्यवस्थितानामिवोत्तरणं भवतीति भावः ॥ ३१ ॥ यतः शाक्यादयः श्रमणाः मिथ्यादृष्टयोsनार्याः कृत्स्नं स्रोतः समापन्नाः महाभयमागन्तारो भवन्ति तत इदमुपदिश्यते- 'हम' मिति प्रत्यक्षासन्नवाचित्वादिदमोऽनन्तरं वक्ष्यमाणलक्षणं | सर्वलोकप्रकटं च दुर्गतिनिषेधेन शोभनगतिधारणात् 'धर्म' श्रुतचारित्रारूयं चशब्दः पुनः शब्दार्थे, स च पूर्वस्माद्व्यतिरेकं दर्शयति, यस्माच्छौद्धोदनिप्रणीत धर्म स्वादातारो महाभयं गन्तारो भवन्ति, इमं पुनर्धर्मम् 'आदाय' गृहीला 'काश्यपेन' श्रीवर्धमानखामिना 'प्रवेदितं' प्रणीतं 'तरेत्' लङ्घयेद्भाव स्रोतः संसारपर्यटनस्वभावं तदेव विशिनष्टि-'महाघोरं दुरुत्तरखान्महाभयानकं, तथाहितदन्तर्वार्तनो जन्तवो गर्भाद्गर्भ जन्मतो जन्म मरणान्मरणं दुःखादुःखमित्येवमरघट्टघटीन्यायेनानुभवन्तोऽनन्तमपि कालमासते तदेवं काश्यपप्रणीतधर्मादानेन सता आत्मनस्त्राणं- नरकादिरक्षा तस्मै आत्मत्राणाय परिः समन्ता (द्वजे) त्परित्रजेत्संयमानुष्ठायी भवेदित्यर्थः कचित्पश्चार्थस्यान्यथा पाठ:- 'कुज्जा भिक्खू गिलाणस्स, अगिलाए समाहिए' 'भिक्षुः साधुः ग्लानस्य वैयावृत्यम् 'अग्लानः' अपरिश्रान्तः कुर्यात्सम्यक्समाधिना ग्लानस्य वा समाधिमुत्पादयन्निति ||३२|| कथं संयमानुष्ठाने परिव्रजेदित्याहविरए गामधम्मेहिं, जे केई जगई जगा । तेसिं अनुवमायाए, थामं कुवं परिवए ॥ ३३ ॥ For Park Lise Only ~414~ ११ मार्गाध्ययनं. ॥२०५॥ wor Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [११], उद्देशक [-], मूलं [३४], नियुक्ति: [११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||३४|| दीप अनुक्रम [५३०] अइमाणं च मायं च, तं परिन्नाय पंडिए । सबमेयं णिराकिच्चा, णिवाणं संधए मुणी ॥३४॥ संधए साहुधम्मं च, पावधम्मं णिराकरे । उवहाणवीरिए भिक्खू , कोहं माणं ण पत्थए ॥३५॥ जे य बुद्धा अतिकता, जे य बुद्धा अणागया। संति तेसिं पइटाणं, भूयाणं जगती जहा ॥३६॥ ग्रामधर्माः-शब्दादयो विषयास्तेभ्यो विरता मनोज्ञेतरेश्वरक्तद्विष्टाः सन्त्येके केचन 'जगति' पृथिव्यां संसारोदरे 'जगा' इति जन्तवो जीवितार्थिनस्तेषां दुःखद्विषामात्मोपमया दुःखमनुत्पादयन् तद्रक्षणे सामध्ये कुर्यात् तत् कुर्वत्र संयमानुष्ठाने परिव्रजेदि-| ति ॥ ३३ ॥ संयमविनकारिणामपनयनार्थमाह-अतीव मानोऽतिमानश्चारित्रमतिक्रम्य यो वर्तते चकारादेतद्देश्यः क्रोधोऽपि परिगृह्यते, एवमतिमायां, चशब्दादतिलोमं च, तमेवंभूतं कषायनातं संयमपरिपन्धिनं 'पण्डितो' विवेकी परिज्ञाय सर्वमेनं संसारकारणभूतं कषायसमूह निराकृत्य निर्वाणमनुसंधयेत् , सति च कषायकदम्बके न सम्यक संयमः सफलता प्रतिपद्यते, तदुक्तम्-"सामण्णमणुचरंतस्स, कसाया जस्स उकडा होति । मण्णामि उच्छुपुष्फ व, निष्फलं तस्स सामण्णं ॥१॥" तनिष्फलखे च न मोक्षसंभवः, तथा चोक्तम्-"संसारादपलायनप्रतिभुवो रागादयो मे स्थितास्तृष्णाबन्धनबध्यमानमखिलं किं वेत्सि नेदं जगत् ।।18 मृत्यो! मुश्च जराकरेण परुष केशेषु मा मा ग्रहीरहीत्यादरमन्तरेण भवतः किं नागमिष्याम्यहम् १ ॥१॥" इत्यादि । तदेवमेवंभूतकपायपरित्यागादच्छिन्नप्रशस्तभावानुसंधनया निर्वाणानुसंधानमेव श्रेय इति ।। ३४ ॥ किश्व-साधूनां धर्मः क्षान्त्यादिको द-10 १ श्रामण्यमनुचरतः कषाया यस्योत्कटा भवन्ति । मन्ये श्वपुष्षभिप निष्फल तस्य धामण्यं ॥१॥ 26testseeeee FarPranaamsan thoonm ~415~ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [११], उद्देशक [-], मूलं [३६], नियुक्ति: [११५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: सूत्रकृताङ्ग ध्ययन प्रत सूत्रांक ||३६|| दीप अनुक्रम [५३२]] शविधः सम्यग्दर्शनशानचारित्राख्यो वा तम् 'अनुसंधयेत्' वृद्धिमापादयेत् । तद्यथा-प्रतिक्षणमपूर्वज्ञानग्रहणेन ज्ञानं तथा । शीलाद्वा-शका शादिदोषपरिहारेण सम्यग्जीवादिपदार्थाधिगमेन च सम्यग्दर्शनम् अस्खलितमलोत्तरगुणसंपूर्णपालनेन प्रत्यहमपूर्वाभिग्रहग्रहणेन || चायित्र-IS(च)चारित्र(च) वृद्धिमापादयेदिति, पाठान्तरं वा 'सद्दहे साधुधम्म च' पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टं साधुधर्म मोक्षमार्गवेन श्रद्दधीतत्तियुतं निःशङ्कतया गृह्णीयात् , चशब्दात्सम्यगनुपालयेच, तथा पापं-पापोपादानकारणं धर्म प्राण्युपमर्दैन प्रवृत्तं निराकुर्यात् , तथो-18 | पधान-तपस्तत्र यथाशक्त्या वीर्य यस्य स भवत्युपधानवीर्यः, तदेवंभूतो भिक्षुः क्रोध मानं च न प्रार्थयेत् न वर्धयेद्वेति ॥३५॥18 ॥२०६॥ अथैवंभूतं भावमार्ग किं वर्धमानखाम्येवोपदिष्टवान् उतान्येऽपीत्येतदाशकचाह-ये चुद्धाः-तीर्थकृतोऽतीतेऽनादिके कालेऽनन्ताः समतिक्रान्ताः ते सर्वेऽप्येवंभूतं भावमार्गमुपन्यस्तवन्तः, तथा ये चानागता भविष्यदनन्तकालभाविनोऽनन्ता एव तेऽप्येवमेवोपन्यसिष्यन्ति, चशब्दाद्वर्तमानकालभाविनश्च संख्येया इति । न केवलमुपन्यस्तवन्तोनुष्ठितवंतवेत्येतदर्शयति-शमनं शान्तिः|भावमार्गस्तेषामतीतानागतवर्तमानकालभाविना बुद्धानां प्रतिष्ठानम् आधारो बुद्धलखान्यथानुपपत्तेः, यदिवा शान्ति:-मोक्षः स तेषां प्रतिष्ठानम्-आधारः, ततस्तदवाप्तिश्च भावमार्गमन्तरेण न भवतीत्यतस्ते सर्वेऽप्येनं भावमार्गमुक्तवन्तोऽनुष्ठितबन्तश्च (इति) 18 गम्यते । शान्तिप्रतिष्ठानले दृष्टान्तमाह-'भूतानां स्थावरजङ्गमानां यथा 'जगती त्रिलोकी प्रतिष्ठान एवं ते सर्वेऽपि युद्धाः शान्तिप्रतिष्ठाना इति ॥ ३६ ॥ प्रतिपन्नभावमार्गेण च यद्विधेयं तदर्शयितुमाह___ अह णं वयमावन्नं, फासा उच्चावया फुसे । ण तेसु विणिहण्णेजा, वारण व महागिरी ॥ ३७॥ e ॥२०६॥ ~416~ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||३८|| दीप अनुक्रम [५३४] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ११ ], उद्देशक [-], मूलं [३८], निर्युक्ति: [ ११५ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र- [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः संबुडे से महापन्ने, धीरे दत्तेसणं चरे । निव्वुडे कालमाकंखी, एवं (यं) केवलिणो मयं ॥ ३८ ॥ तिबेमि । इति मोक्षमार्गनामकं एकादशमध्ययनं समाप्तम् ॥ ( गाथा ५४६ ) 'अथ' भावमार्गप्रतिपच्यनन्तरं साधुं प्रतिपन्नत्रतं सन्तं स्पर्शाः - परीषहोपसर्गरूपाः 'उच्चावचा' गुरुलघवो नानारूपा वा 'स्पृशेयुः' अभिद्रवेयुः, स च साधुस्तैरभिद्रुतः संसारस्वभावमपेक्षमाणः कर्मनिर्जरां च न तैरनुकूलप्रतिकूलैर्विहन्यात् नैव संयमानुष्ठानान्मनागपि विचलेत् किमिव ?, महावातेनेव महागिरिः- मेरुरिति । परीपहोपसर्गजयथाभ्यासक्रमेण विधेयः, अभ्यासवशेन हि दुष्करमपि सुकरं भवति, अत्र च दृष्टान्तः, तद्यथा कबिगोपस्तदहर्जातं तर्णकमुत्क्षिप्य गवान्तिकं नयत्यानयति च त तोऽसावनेनैव च क्रमेण प्रत्यहं प्रवर्द्धमानमपि वत्समुत्क्षिपनभ्यासवशाद्विहायूनं त्रिहायणमप्युत्क्षिपति, एवं साधुरप्यभ्यासात् शनैः | शनैः परिषहोपसर्गजयं विधत्त इति ॥ ३७ ॥ साम्प्रतमध्ययनार्थमुपसंजिहीर्षुरुक्तशेषमधिकृत्याह स साधुः एवं संवृताश्रवद्वारतया | संवरसंवृतो महती प्रज्ञा यस्यासौ महाप्रज्ञः - सम्यग्दर्शन ज्ञानवान्, तथा धीः- बुद्धिस्तया राजत इति धीरः परीप होपसर्गाक्षोभ्यो वा स एवंभूतः सन् परेण दत्ते सत्याहारादिके एषणां चरेत्रिविधयाप्येषणया युक्तः सन् संयममनुपालयेत्, तथा निर्ऋत इव निर्वृतः कषायोपशमाच्छीतीभूतः 'काल' मृत्युकालं यावदभिकाङ्क्षत् 'एतत्' यत् मया प्राक् प्रतिपादितं तत् 'केवलिनः' सर्वज्ञस्य तीर्थकृतो मतं । एतच्च जम्बूखामिनमुद्दिश्य सुधर्मस्वाम्याह । तदेतयस्वया मार्गस्वरूपं प्रश्नितं तन्मया न खमनीपिकया कथितं, किं तर्हि १, केवलिनो मतमेतदित्येवं भवता ग्राह्यं । इतिः परिसमाप्यर्थे, त्रवीमीति पूर्ववत् ॥ ३८ ॥ इति मार्गाख्यमेकादशमध्ययनं समाप्तम् ॥ Education Intention अत्र एकादशं अध्ययनं समाप्तं For Park Use Only ~417~ 99999১৬১৬১ nayor Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||३८|| दीप अनुक्रम [५३४] सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्का चायतियुत ॥२०७॥ “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-] मूलं [ ३८...], निर्युक्ति: [ ११६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ०२], अंग सूत्र -[०२ ] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - अथ द्वादशं श्रीसमवसरणाध्ययनं प्रारभ्यते ॥ 908064 उक्तमेकादशमध्ययनं साम्प्रतं द्वादशमारभ्यते, अस्य चायमभिसंबन्धः -- इहानन्तराध्ययने मार्गोऽभिहितः, स च कुमार्गन्युदासेन सम्यग्मार्गतां प्रतिपद्यते, अतः कुमार्गव्युदासं चिकीर्षुणा तत्स्वरूपमवगन्तव्यमित्यतस्तत्स्वरूप निरूपणार्थमिदमध्ययनमायातम्, अस्य चोपक्रमादीनि चत्वार्यनुयोगद्वाराणि तत्रोपक्रमान्तर्गतोऽर्थाधिकारोऽयं, तद्यथा - कुमार्गाभिधायिनां क्रियाऽक्रि| याऽज्ञानिकवैनयिकानां चत्वारि समवसरणानीह प्रतिपाद्यन्ते, नामनिष्पत्रे तु निक्षेपे समवसरणमित्येतनाम तनिक्षेपार्थं निर्मुक्तिदाह | समवसरणेऽवि छक्कं सच्चित्ताचित्तमीसगं दवे । खेत्तंमि जंमि खेत्ते काले जं जंमि कालंमि ॥ ११६ ॥ भावसमोसरणं पुण णायव्वं छब्बिहंमि भावंमि । अहवा किरिय अकिरिया अन्नाणी चैव वेणइया ॥ ११७ ॥ अस्थिति किरियवादी वयंति णत्थि अकिरियवादी य । अण्णाणी अण्णाणं विणइत्ता घेणइयवादी ॥ ११८ ॥ समवसरणमिति 'सृ गता' वित्येतस्य धातोः समवोपसर्गपूर्वस्य ल्युडन्तस्य रूपं, सम्यग् - एकीभावेनावसरणम् - एकत्र गमनं मेलापकः समवसरणं तस्मिन्नपि न केवलं समाधी, पहिधो नामादिको निक्षेपः, तत्रापि नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यविषयं पुनः स For Para Lise Only अत्र द्वादशं अध्ययनं "समवसरण" आरब्धं, पूर्व अध्ययनेन सह अभिसंबंध, समवसरण शब्दस्य निक्षेपाः ~418~ stotests १२ समयसरणाध्य० समवसर निक्षेपाः ॥२०७॥ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [३८...], नियुक्ति: [११८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||३८|| दीप अनुक्रम [५३४] मवसरणं नोआगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्त सचित्ताचित्तमिश्रभेदात्रिविधं, सचित्तमपि द्विपदचतुष्पदापदभेदात्रिविधमेव, तत्र द्विपदानां साधुप्रभृतीनां तीर्थजन्मनिष्क्रमणप्रदेशादौ मेलापकः, चतुष्पदानां गवादीनां निपानप्रदेशादौ, अपदानां तु वृ-18 क्षादीनां खतो नास्ति समवसरणं, विवक्षया तु काननादी भवत्यपि, अचित्तानां तु व्यणुकाद्यभ्रादीनां तथा मिश्राणां सेनादीनां समवसरणसद्भावोजगन्तव्य इति । क्षेत्रसमवसरणं तु परमाथेतो नास्ति, विवक्षया तु यत्र द्विपदादयः समवसरन्ति व्याख्यायते । | वा समवसरणं यत्र तत्क्षेत्रप्राधान्यादेवमुच्यते । एवं कालसमवसरणमपि द्रष्टव्यमिति । इदानीं भावसमवसरणमधिकृत्याह| भावानाम्-औदयिकादीनां समवसरणम्-एकत्र मेलापको भावसमवसरणं, तत्रौदयिको भाव एकविंशतिभेदः, तद्यथा-गतिश्चतुर्धा, कषायाश्चतुर्विधाः एवं लिई त्रिविधं, मिध्याखाज्ञानासंयतलासिद्धलानि प्रत्येकमेकैकविधानि, लेश्याः कृष्णादिभेदेन पहिधा | भवन्ति । औपशमिको द्विविधः सम्यक्तचारित्रोपशमभेदात् । क्षायोपशमिकोऽप्यष्टादशभेदभिन्नः, तद्यथा-शानं मतिश्रुतावधिम| नापर्यायभेदाचतुर्धा अज्ञानं मल्यज्ञानश्रुताज्ञान विभङ्गभेदात्रिविधं, दर्शनं चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनभेदात्रिविधमेव, लब्धि नलाभमो-18 गोपभोगवीर्यभेदात्पञ्चधा, सम्यक्वचारित्रसंयमासंयमाः प्रत्येकमेकप्रकारा इति । क्षायिको नवप्रकारः, तद्यथा-केवलज्ञानं केवलद-18 शेनं दानादिलब्धयः पश सम्यक्स चारित्रं चेति । जीवखभव्यखाभव्यतादिभेदात्पारिणामिकत्रिविधः । सान्निपातिकस्तु द्वित्रिचतुष्पश्चकसंयोगैर्भवति, तत्र द्विकसंयोगः सिद्धस्य क्षायिकपारिणामिकभावद्वयसद्भावादवगन्तव्यः, त्रिकसंयोगस्तु मिथ्यादृष्टिसम्यग्दृष्ट्यविरतविरतानामौदयिकक्षायोपशमिकपारिणामिकभावसद्भावादवगन्तव्यः, तथा भवस्थकेवलिनोऽप्यौदायिकक्षायिकपारिणा|| मिकभावसजावाद्विज्ञेय इति, चतुष्कसंयोगोऽपि क्षायिकसम्यग्दृष्टीनामौदयिकक्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिकमावसद्भावात् । SARERatun international | समवसरण शब्दस्य निक्षेपा: ~419~ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||३८|| दीप अनुक्रम [५३४] सूत्रकृता शीलाङ्का चार्यय चियुर्त ॥२०८॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र- २ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-] मूलं [३८...], निर्युक्ति: [ ११८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ०२], अंग सूत्र -[०२ ] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः | तथौपशमिकसम्यग्दृष्टीनामौद विकोपशमिकक्षायोपशमिकपारिणामिकभावसद्भावाच्चेति पञ्चकसंयोगस्तु क्षायिकसम्यन्दष्टीनामुपशमश्रेण्यां समस्तोपशान्तचारित्रमोहानां भावपञ्चकसद्भावाद्विज्ञेय इति, तदेवं भावानां द्विकत्रिकचतुष्कपञ्चकसंयोगात्संभविनः सान्निपातिकभेदाः षड् भवन्ति, एत एवं त्रिकसंयोगचतुष्कसंयोगगतिभेदात्पश्ञ्चदशधा प्रदेशान्तरेऽभिहिता इति । तदेवं पविधे भावे भावसमवसरणं भावमीलनमभिहितम्, अथवा अन्यथा भावसमवसरणं निर्बुक्तिकदेव दर्शयति-क्रियां जीवादिपदार्थोऽस्तीत्या|दिकां वदितुं शीलं येषां ते क्रियावादिनः, एतद्विपर्यस्ता अक्रियावादिनः, तथा अज्ञानिनो - ज्ञाननिहववादिनः तथा 'वैनयिका' | विनयेन चरन्ति तत्प्रयोजना वा वैनयिकाः, एषां चतुर्णामपि सप्रभेदानामाक्षेपं कृत्वा यत्र विक्षेषः क्रियते तद्भावसमवसरणमिति, एतच्च स्वयमेव नियुक्तिकारोऽन्त्यगाथया कथयिष्यति । साम्प्रतमेतेषामेवाभिधानान्वर्थतादर्शनद्वारेण स्वरूपमा विष्कुर्वग्राह--जीवादिपदार्थसद्भावोऽस्त्येवेत्येवं सावधारणक्रियाभ्युपगमो येषां ते अस्तीति क्रियावादिनः, ते चैवंवादिखान्मिथ्यादृष्टयः तथाहि यदि ४ जीवोऽस्त्येवे[वेऽस्तितमेवे ]त्येवमभ्युपगम्यते, ततः सावधारणत्याच कथञ्चिन्नास्तीत्यतः खरूपस चावत्पररूपापचिरपि स्याद् एवं च नानेकं जगत् स्यात्, नचैतदृष्टमिष्टं वा । तथा नास्त्येव जीवादिकः पदार्थ इत्येवंवादिनोऽक्रियावादिनः, तेऽप्यसद्भूतार्थप्रतिपादनान्मिथ्यादृष्टय एव, तथाहि एकान्तेन जीवास्तित्वप्रतिषेधे कर्तुरभावानास्तीत्येतस्यापि प्रतिषेधस्याभावः, तदभावाच सर्वास्तित्वमनिवारितमिति । तथा न ज्ञानमज्ञानं तद्विद्यते येषां तेऽज्ञानिनः, ते ह्यज्ञानमेव श्रेय इत्येवं वदन्ति एतेऽपि मिथ्यादृष्टय एव, तथाहिअज्ञानमेव श्रेय इत्येतदपि न ज्ञानमृते भणितुं पायेंते, तदभिधानाचावश्यं ज्ञानमभ्युपगतं तैरिति । तथा वैनयिका विनयादेव केवलात्स्वर्गमोक्षावाप्तिमभिलषन्तो मिथ्यादृष्टयो, यतो न ज्ञानक्रियाभ्यामन्तरेण मोक्षावाप्तिरिति । एषां च क्रियावाद्यादीनां Education Internation समवसरण शब्दस्य निक्षेपाः For Pasta Use Only ~ 420~ १२ समव सरणाध्य● भावानां क्रियादि वादिनां वा समवसरणं ॥२०८॥ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [३८...], नियुक्ति: [११९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३८|| दीप अनुक्रम [५३४] ISखरूपं तन्निराकरण चाचारटीकायां विस्तरेण प्रतिपादितमिति नेह प्रतन्यते । साम्प्रतमेतेषां भेदसंख्यानिरूपणार्थमाह असियस किरियाणं अकिरियाणं च होइ चुलसीती । अन्नाणिय सत्तही वेणइयाणं च बत्तीसा ॥ ११९ ॥ तेसि मताणुमएणं पन्नवणा वणिया इहऽज्झयणे । सम्भावणिच्छयत्थं समोसरणमाहु तेणं तु ॥ १२०॥ सम्मदिट्टी किरियावादी मिच्छा य सेसगा वाई । जहिऊण मिच्छवायं सेवह वायं इमं सर्च ॥ १२१ ॥ क्रियावादिनामशीत्यधिकं शतं भवति, तच्चानया प्रक्रियया, तद्यथा-जीवादयो नव पदार्थाः परिपाच्या स्थाप्यन्ते, तदधः स्वतः परत इति भेदद्वयं, ततोऽप्यधो नित्यानित्यभेदद्वयं, ततोऽप्यधस्तात्परिपाट्या कालखभावनियतीश्वरात्मपदानि पश्च व्यवस्थाप्यन्ते, 'जीवः ततधचं चारणिकापक्रमः, तद्यथा-अस्ति जीवः खतो नित्यः कालतः, तथाऽस्ति जीवः खतोऽनित्यः कालत एव. खतः परतः । एवं परतोऽपि भङ्गकद्वयं, सर्वेऽपि च चत्वारः कालेन लब्धाः , एवं खभावनियतीश्वरात्मपदान्यपि प्रत्येकं चतुर नित्यः अनित्यः एव लभन्ते, ततश्च पश्चापि चतुष्कका विंशतिर्भवन्ति, साऽपि जीवपदार्थेन लब्धा, एवमजीवादयोऽप्यष्टौ8 | कालः खभावः नियतिः ईश्वर आत्मा प्रत्येक विंशतिं लभन्ते, ततश्च नव विशतयो मीलिताः क्रियावादिनामशीत्युत्तर शतं || भवतीति । इदानीमक्रियावादिनां न सन्त्येव जीवादयः पदार्था इत्येवमभ्युपगमवतामनेनोपायेन चतुरशीतिरवगन्तव्या, ४ तद्यथा-जीवादीन् पदार्थान् सप्ताभिलिख्य तदधः खपरभेदद्वयं व्यवस्थाप्यं, ततोऽप्यधः कालयहच्छानियतिखभावे श्वरा-18 मपदानि पद व्यवस्थाप्यानि, भङ्गकानयनोपायस्वयं-नास्ति जीवः खतः कालतः, तथा नास्ति जीवः परतः कालतः, 20Geen993 దానిని समवसरणस्य भेदा:, क्रियावादीन: स्वरुप:, अक्रियावादीन: स्वरुप: ~421~ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [३८...], नियुक्ति: [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[२] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३८|| त्तियुतं खरूष दीप अनुक्रम [५३४] सूत्रकृताङ्ग 18| एवं यच्छानियतिस्वभावेश्वरात्मभिः प्रत्येकं द्वौ द्वौ मङ्गको लभ्येते, सर्वेऽपि द्वादश, तेऽपि च जीवादिपदार्थसप्तकेन |९| १२ समवशीलाका- गुणिताश्चतुरशीतिरिति, तथाचोक्तम्--"कालयदृच्छानियतिखभावेश्वरात्मतश्चतुरशीतिः । नास्तिकवादिगणमते न सन्ति भावाः ४ रणाध्य चाीयवृ खपरसंस्थाः ॥१॥" साम्प्रतमज्ञानिकानामज्ञानादेव विवक्षितकार्यसिद्धिमिच्छतां ज्ञानं तु सदपि निष्फलं बहुदोषबच्चेत्ये-18 क्रियादिवमभ्युपगमवतां सप्तपटिरनेनोपायेनावगन्तव्या-जीवाजीवादीन् नव पदार्थान् परिपाट्या व्यवस्थाप्य तदधोऽमी सप्त भजकाः || वादिनां ॥२०९॥ संस्थायाः-सत् असत् सदसत् अवक्तव्यं सदवक्तव्यं असदवक्तव्यं सदसदवक्तव्यमिति, अभिलापस्वयं-सन् जीवः को वेति ।। किं वा तेन ज्ञातेन ! १, असन् जीवः को वेत्ति? किंवा तेन ज्ञातेन १२, सदसन् जीवः को वेत्ति? किंवा तेन ज्ञातेन! ३,॥ अबक्तव्यो जीवः को वेत्ति? किं वा तेन ज्ञातेन? ४, सदवक्तव्यो जीवः को वेत्ति किंवा तेन ज्ञातेन १५, असदवक्तव्यो। जीवः को वेत्ति ? किंवा तेन शातेन १६, सदसदवक्तव्यो जीवः को वेत्ति? किंवा तेन ज्ञातेन १७, एवमजीवादिष्वपि । सप्त भङ्गकाः, सर्वेऽपि मिलिताखिषष्टिः, तथाऽपरेऽमी चखारो भङ्गकाः, तद्यथा--सती भावोत्पत्तिः को वेत्ति ? किं वाज्नया ज्ञातया? १, असती भावोत्पत्तिः को वेत्ति किं वाज्नया ज्ञातया? २, सदसती भावोत्पत्तिः को वेत्ति किं वाऽनया ज्ञातया? ३, अबक्तव्या भावोत्पचिः को वेत्ति किंवाऽनया ज्ञातया? ४, सर्वेऽपि सप्तपधिरिति, उत्तरं भङ्गकत्रयमुत्पन्नभावावयवापेक्षमिह भा-18 बोत्पत्ती न संभवतीति नोपन्यस्तम् , उक्तं च-"अज्ञानिकवादिमतं नव जीवादीन् सदादिसप्तविधान् । भावोत्पत्तिः सदसट्टेधा-12॥२०९॥ ऽवाच्या च को चेति ॥१॥" इदानीं बैनयिकानां विनयादेव केवलात्परलोकमपीच्छता द्वात्रिंशदनेन प्रक्रमेण योज्याः, नद्य-18 प्रथा-सुरनृपतियतिज्ञातिस्थविराधममातृपितृषु मनसा वाचा कायेन दानेन (च) चतुर्विधो विनयो विधेयः, सर्वेऽप्यष्टौ चतुष्कका SAREauratonintahariana | समवसरणस्य भेदा:, अक्रियावादीन: स्वरुपः, अज्ञानिकानाम स्वरुप: ~422~ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [३८...], नियुक्ति: [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३८|| दीप अनुक्रम [५३४] ekseeseseseseseseseseseces मिलिता द्वात्रिंशदिति, उक्तं च-'वैनयिकमतं विनयश्वेतोबाकायदानतः कार्यः । सुरनृपतियतिज्ञातिस्थविराधममातृपितषु सदा ॥१॥" सर्वेऽप्येते क्रियाक्रियाज्ञानिनयिकवादिभेदा एकीकृतास्त्रीणि त्रिषष्यधिकानि प्रावादुकमतशतानि भवन्ति । तदेवं वादिनां मतभेदसंख्यां प्रदाधुना तेषामध्ययनोपयोगिख दर्शयितुमाह-'तेषां पूर्वोक्तवादिनां मतम्-अभिप्रायस्तेन यदनुमतंपक्षीकृतं तेन पक्षीकृतेन पक्षीकृताश्रयणेन 'प्रज्ञापना' प्ररूपणा 'वर्णिता प्रतिपादिता 'इह' अस्मिन्नध्ययने गणधरैः, किमर्थमिति दर्शयति-तेषां यः सद्भावः-परमार्थस्तस्य निश्चयो-निर्णयस्तदर्थ, तेनैव कारणेनेदमध्ययनं समवसरणाख्यमाहुर्गणधराः, तथाहि-वादिनां सम्यगवसरणं-मेलापकतन्मतनिश्चयार्थमस्मिन्नध्ययने क्रियत इत्यतः समवसरणाख्यमिदमध्ययनं कृतमिति ।। इदानीमेतेषां सम्यग्रमिथ्याखवादिख विभागेन यथा भवति तथा दर्शयितुमाह-सम्यग् अविपरीता दृष्टिः---दर्शनं पदार्थपरि|च्छित्तिर्यस्यासौ सम्यग्रदृष्टिः, कोऽसावित्याह-क्रियाम्-अस्तीत्येवंभूतां चदितुं शीलमस्येति क्रियावादी, अत्र च क्रियावादीत्येतद् | 'अस्थिति किरियवादी' त्यनेन प्राक् प्रसाधितं सदनूय निरवधारणतया सम्यग्दृष्टित्वं विधीयते, तस्सासिद्धत्वादिति, तथाहि-अस्ति लोकालोकविभागः अस्त्यात्मा अस्ति पुण्यपापविभागः अस्ति तत्फलं स्वर्गनरकावाप्तिलक्षणं अस्ति कालः कारणत्वेनाशेषस्य जगतः प्रभवद्धिस्थितिविनाशेषु साध्येषु तथा शीतोष्णवर्षवनस्पतिपुष्पफलादिषु चेति, तथा चोक्तम्---'काल: पचति भूतानी"त्यादि, तथाऽस्ति खभावोऽपि कारणत्वेनाशेषस्य जगतः, खो भावः स्वभाव इतिकृत्वा, तेन हि जीवाजीवभव्यत्वाभन्यत्वमूर्त-IN खामूर्तलानां खस्वरूपानुविधानात् तथा धर्माधर्माकाशकालादीनां च गतिस्थित्यवगाहपरखापरवादिस्वरूपापादनादिति, तथा चोक्तम्-"कः कण्टकाना" मित्यादि । तथा नियतिरपि कारणखेनाश्रीयते, तथा तथा पदार्थानां नियतेरेव नियतखात्, तथा eratesedeceseटर | समवसरणस्य भेदा:, वैनयिकस्य स्वरूपं, ~423~ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [३८...], नियुक्ति: [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३८|| सूत्रकृता शीलाकाचायत्तियुतं खरूपं ॥२१०111 दीप अनुक्रम [५३४] aeseseaeesesese Teeeeese चोक्तम्-"प्राप्तब्यो नियतिबलाश्रयेणे" त्यादि । तथा पुराकृतं, तब शुभाशुममिष्टानिष्टफलं कारणं, तथा चोक्तम्-"यथा यथा १२ समवपूर्वकृतस्य कर्मणः, फलं निधानस्थ मिहोपतिष्ठते । तथा तथा पूर्वेकृतानुसारिणी, प्रदीपहस्तेव मतिः प्रवर्तते ॥१॥" तथा "खकर्मणा शरणाध्य. युक्त एव, सर्वो छुत्पयते जनः । स तथाऽऽकृष्यते तेन, न यथा खयमिच्छति ॥१॥" इत्यादि । तथा पुरुषकारोऽपि कारण, क्रियादियसान पुरुषकारमन्तरेण किश्चिसिध्यति, तथा चोक्तम्-"न दैवमिति संचिन्त्य, त्यजेदुधममात्मनः । अनुद्यमेन कस्तैलं, तिलेभ्यः प्राप्तुमर्हति ! ॥१॥" तथा-"उद्यमाचारु चित्रालि, नरो भद्राणि पश्यति । उद्यमास्कृमिकीटोऽपि, भिनत्ति महतो द्रुमान् ॥ २॥ तदेवं सर्वानपि कालादीन कारणलेनाभ्युपगच्छन् तथाऽऽत्मपुण्यपापपरलोकादिकं चेछन् क्रियावादी सम्यग्दृष्टिले-18 नाभ्युपगन्तव्यः । शेषकास्तु वादा अक्रियावादाज्ञानवादवनयिकवादा मिथ्यावादा इत्येवं द्रष्टव्याः, तथाहि-अक्रियावायत्य-18 न्तनास्तिकोऽध्यक्षसिद्ध जीवाजीवादिपदार्थजातमपहुवन् मिथ्यादृष्टिरेव भवति, अज्ञानवादी तु सति मत्यादिके हेयोपादेयप्रदर्श-8 के ज्ञानपञ्चकेज्ञानमेव श्रेय इत्येवं वदन् कथं नोन्मत्तः स्यात् । तथा विनयवाद्यपि विनयादेव केवलात् ज्ञानकियासाध्या सि-10 द्विमिच्छन्नपकर्णयितव्यः, तदेवं विपरीतार्थाभिधायितयैते मिथ्यादृष्टयोवगन्तव्याः । ननु च क्रियावाद्यप्यशीत्युत्तरशतभेदोऽपि | तत्र तत्र प्रदेशे कालादीनभ्युपगच्छन्नेव मिथ्यावादिखेनोपन्यस्त: तत्कथमिह सम्यग्दृष्टिलेनोच्यत इति, उच्यते, स तत्रास्त्येव । जीव इत्येवं सावधारणतयाऽभ्युपगमं कुर्वन् काल एवैकः सर्वखास जगतः कारणं तथा खभाव एव नियतिरेव पूर्वकृतमेव पुरुष-1 ।।२१०॥ कार एवेत्येवमपरनिरपेक्षतर्यकान्तेन कालादीनां कारणलेनाश्रयणान्मिथ्यावं, तथाहि-अस्त्येव जीव इत्येवमस्तिना सह जीवस्य सामानाधिकरण्यात् यद्यदस्ति तसजीव इति प्राप्तम् , अतो निरवधारणपक्षसमाश्रयणादिह सम्यक्समभिहितं, तथा कालादीनामपि समवसरणस्य भेदा:, ~424~ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [३८...], नियुक्ति: [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३८|| दीप अनुक्रम [५३४] समुदितानां परस्परसम्पपेक्षाणां कारणखेनेहाश्रयणात्सम्यक्समिति । ननु च कथं कालादीनां प्रत्येक निरपेक्षाणां मिध्यावखमा-18 बखे सति समुदितानां सम्बक्खसद्भावः, न हि यत्प्रत्येक नास्ति तत्समुदायेऽपि भवितुमर्हति, सिकतातैलबत् , नैतदस्ति, प्रत्येक |पारागादिमणिध्व विद्यमानापि रत्नावली समुदाये भवन्ती दृष्टा, न च दृष्टेऽनुपपन्न नामेति यत्किश्चिदेतत् , तथा चोक्तम्-"कालो सहाव णियई पुत्वकयं पुरिस कारणेमंता । मिर छत्तं ते चेव उ समासओ होति संमत्तं ॥१॥ सोवि य कालाई इह समुदायेण । | साहगा भणिया । जुजंति य एमेव य सम्म सबस्स कजस्स ॥ २॥ न हि कालादीहिंतो केवलएहिं तु जायए किंचि । इह मुग्गरंधणादिवि ता सवे समुदिता हेऊ ॥३॥ जहणेगलक्खणगुणा बेरुलियादी मणी विसंजुत्ता । रयणावलियवएस ण लहति | महग्धमुल्लावि ॥ ४॥ तह णिययवादसुविणिच्छियावि अण्णोऽग्णपक्खनिरवक्खा । सम्मईसणसई सवेऽपि णया ण पाविति ॥ ॥५॥जह पुण ते चेव मणी जहा गुणविसेसभागपडिबद्धा । रवणावलिति भण्णा चयंति पाडिकसण्णाओ ॥६॥ | वह सो णयवाया जहाणुरूप विणि उत्तबत्तवा । सम्मइसणसई लभंति ण विसेससणाओ ॥७॥ तम्हा मिच्छदिट्टी सदेवि णया ___ कालः सभाको नियतिः पूर्वकृतं पुरुषकारः कारण एकान्तात् भिष्यात्वं समासतो भवति सम्यक्त्वं ॥२ सर्वेऽपि च कालादय इद समुदायेन साधका 181 10 भलिताः । युज्यते च एवमेव सम्यक सर्वस्य कार्यस्थ ॥१॥ कालादिभिः केवलस्तु जायते किंचित् । इह मुद्गरंधनायपि तत्सर्वेऽपि समुदिता सवः ॥ २॥ यथाने लक्षणगुणा पैदयोदयो मणयो विसंयताः । रलावलीयरदेश न कभन्ते महामूख्या अपि ॥३॥ तथा निजकवादमुविनिविक्षा अपि अम्पायपक्षनिरपेक्षाः IN सम्बग्न शब्द सर्वेऽपि नयान प्रामवन्ति ॥४॥ यथा पुनले र मणयो यथा गणविशेषमागप्रतिपदा । जावलीति भयते सन्ति प्रत्येकमज्ञाः ॥ ५॥ तथा सर्वेऽपि नयवादा यथानुरूप विनियुकवकन्याः । सम्पदर्शनश लभन्ते नविशेषसंज्ञाः तम्मानिध्यायः सर्वेऽपि नयाः खपक्षप्रतिबद्धाः। भन्योऽभ्यनित्रिताः पुनर्भवन्ति सम्यक्तं सद्भावात् ॥ ७ ॥ Dececececeipeectrceroecedeser समवसरणस्य भेदा:, ~425~ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [५३५] सूत्रकृतानं शीलाङ्काचार्यय चियुतं ॥२११॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [१], निर्युक्तिः [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ०२], अंग सूत्र -[०२ ] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः सपक्खपडिबद्धा । अण्णोष्णनिस्सिया पुण हवंति सम्मत सम्भावा ।। ८ ।। यत एवं तस्माच्यक्वा मिथ्यात्खवाद - कालादिप्रत्ये'कैकान्तकारणरूपं 'सेवध्वम्' अङ्गीकुरुध्वं 'सम्यग्वादं' परस्परसव्यपेक्षकालादिकारणरूपम् 'इम' मिति मयोक्तं प्रत्यक्षातनं 'सत्य|म्' अवितथमिति । गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुचारयितव्यं तचेदम् मूल सूत्रस्य आरम्भः Education Internation चत्तारि समोसरणाणिमाणि, पावाया जाई पुढो वयंति । किरियं अकिरियं विणियंति तइयं, अन्नाणमाहंसु चउत्थमेव ॥ १ ॥ अण्णाणिया ता कुसलावि संता, असंथुया णो वितिगिच्छतिन्ना । अकोविया आहु अकोवियेहिं, अणाणुवीइत्तु मुसं वयंति ॥ २ ॥ सचं असचं इति चिंतयंता, असाहु साहुत्ति उदाहरंता । जेमे जणा वेणइया अणेगे, पुट्ठावि भावं विणइंसु णाम ॥ ३ ॥ अणोवसंखा इति ते उदाहू, अट्ठे स ओभासइ अम्ह एवं । लवावसंकी य अणागएहिं णो किरियमाहंसु अकिरियवादी ॥ ४ ॥ अस्य च प्राक्तनाध्ययनेन सहायं संबन्धः, तद्यथा - साधुना प्रतिपन्नभावमार्गेण कुमार्गाश्रिताः परवादिनः सम्यक् परिज्ञाय परिहर्तव्याः, तत्स्वरूपाविष्करणं चानेनाध्ययनेनोपदिश्यते इति, अनन्तरमूत्रस्थानेन सूत्रेण सह संबन्धोऽयं, तद्यथा-संवृतो For Parts Only ~426~ १२ समयसरणाध्य० ॥२११॥ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [४], नियुक्ति: [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||४|| दीप अनुक्रम [५३८] esesesecenetweceneceseseseces महाप्रज्ञो 'चीरो दत्तैषणां चरनभिनिवृतः सन् मृत्युकालमभिकाद् एतत्केवलिनो भाषितं, तथा परतीर्थिकपरिहारं च कुर्यात एतञ्च केवलिनो मतम् , अतस्तत्परिहारार्थं तत्स्वरूपनिरूपणमनेन क्रियते । 'चत्वारी ति संख्यापदमपरसंख्यानिवृत्त्यर्थ 'समवसरणानि' परतीर्थिकाभ्युपगमसमूहरूपाणि यानि प्रावादुकाः पृथक पृथग्वदन्ति, तानि चामूनि अन्वथाभिधायिभिः |संज्ञापदैनिर्दिश्यन्ते, तद्यथा-क्रियाम्-अस्तीत्यादिकां वदितुं शीलं येषां ते क्रियावादिनः, तथाऽक्रियां नास्तीत्यादिकां वदितुं शीलं येषां तेऽक्रियावादिनः, तथा तृतीया बनयिकाचतुर्थास्त्वज्ञानिका इति ॥ १॥ तदेवं क्रियाक्रियावनयिकाजानवादिनः सामान्येन प्रदाधुना तपार्थं तन्मतोपन्यासं पचानुपूर्व्यप्यस्तीत्यतः पश्चानुपूर्ध्या कर्तुमाह, यदि| वैतेषामज्ञानिका एव सर्वापलापितयाऽत्यन्तमसंवद्धा अतस्तानेवादावाह--अज्ञानं विद्यते येषामज्ञानेन वा चरन्तीत्वज्ञा| निकाः आज्ञानिका चा तावत्पदय॑न्ते, ते चाज्ञानिकाः किल वयं कुशला इत्येवादिनोऽपि सन्तः 'असंस्तुता' अज्ञानमेच श्रेय इत्येवंवादितया असंबद्धाः, असंस्तुतखादेव विचिकित्सा-चित्तविप्लुतिश्चिचभ्रान्तिः संशीतिस्ता न तीणों-नातिक्रान्ताः, तथाहि ते ऊचुः--य एते ज्ञानिनस्ते परस्परविरुद्धवादितया न यथार्थवादिनो भवन्ति, तथाहि एके सर्वगतमात्मानं वदन्ति तथाऽन्ये असर्वगतं अपरे अंगुष्ठपर्वमानं केचन श्यामाकतन्दुलमात्रमन्ये मूर्तममूर्त हृदयमध्यवर्तिनं ललाटव्यवस्थितमित्याद्यात्मपदार्थ एव सर्वपदार्थपुरःसरे तेषां नैकवाक्यता, न चातिशयज्ञानी कश्चिदस्ति बद्वाक्यं प्रमाणीक्रियेत, न चासौ विद्यमानोऽप्युपलक्ष्यतेग्दिर्शिना, 'नासर्वतः सर्व जानातीति वचनात् , तथा चोक्तम्-"सर्वज्ञोऽसाविति बेतत्तत्कालेऽपि बुभुत्सुभिः ।। १ धीरो प्र० । २ दूषणार्थ प्र० । ३ व्याख्यासमिति शेषः । ४ असंबद्धभाषिणः ।। 2020209999900 ~427~ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [४], नियुक्ति: [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सरणाध्यक सूत्रांक चार्यांय-15 ||४|| दीप अनुक्रम [५३८] सूत्रकृता तज्ज्ञानज्ञेयविज्ञानशून्यैर्विज्ञायते कथम् ? ॥१॥" न च तव सम्यक् तदुपायपरिज्ञानाभावात्संभवः, संभवाभावश्चेतरेतराश्रयखात्, १२ समबशीलाङ्का-|तथाहि-न विशिष्टपरिज्ञानमृते तदवायुपायपरिज्ञानमुपायमन्तरेण च नोपेयस्य विशिष्टपरिज्ञानस्सावाप्तिरिति, न च ज्ञानं ज्ञेयस्य || खरूपं परिच्छेत्तुमलं, तथाहि-यत्किमप्युपलभ्यते तस्यार्वाग्मध्यपरभागैर्भार्य, तत्राग्भिागस्यैवोपलब्धिर्नेतरयोः, तेनैव व्यवहितचियुतं खातु, अवोग्भागस्यापि भागत्रयकल्पनाचत्सारातीयभागपरिकल्पनया परमाणुपर्यवसानता, परमाणोच खभाव विप्रकृष्टखाद-The ॥२१२॥ ग्दर्शनिना नोपलब्धिरिति, तदेवं सर्वज्ञस्याभावादसर्वज्ञस्य च यथावस्थितवस्तुस्वरूपापरिछेदात्सर्बवादिनां च परस्परविरोधेन प-31 हदार्थखरूपाभ्युपगमात् यथोचरपरिज्ञानिनां प्रमादवता बहुतरदोषसंभवादज्ञानमेव श्रेयः, तथाहि-ययज्ञानवान् कथश्चित्पादेन |% शिरसि हन्यात् तथापि चित्तशुद्धेर्न तथाविधदोषानुषङ्गी खादित्येवमज्ञानिन एवंवादिनः सन्तोऽसंबद्धाः, न चैवंविधा चित्तषि-21 प्लुतिं वितीर्णा इति । तत्रैववादिनस्ते अज्ञानिका 'अकोविदा' अनिपुणाः सम्यक्षरिज्ञानविकला इत्यवगन्तव्याः, तथाहि-यत्रभिहितं 'ज्ञानवादिनः परस्परविरुद्धार्थवादितया न यथार्थवादिन' इति, तद्भवखसर्वज्ञप्रणीतागमाभ्युपगमवादिनामयथार्थवादिलं, न चाभ्युपगमवादा एवं बाधायै प्रकल्प्यन्ते, सर्वज्ञप्रणीतागमाभ्युपगमवादिनां तु न कचित्परस्परतो विरोधः, सर्वज्ञखान्यथानुप-13 पत्तेरिति, तथाहि-प्रक्षीणाशेषावरणतया रागद्वेपमोहानामनृतकारणानामभावान्न तद्वाक्यमयधार्थमित्येवं तत्प्रणीतागमवता न विरोधवादिखमिति । ननु च स्यादेतद् यदि सर्वज्ञः कश्चित्स्यात्, न चासौ संभवतीत्युक्त प्रारू, सत्यमुक्तमयुक्तं तूतं, तथाहि ॥२१२॥ IR यत्तावदुक्तं न चासो विद्यमानोऽप्युपलक्ष्यते|ग्दर्शिनेति तदयुक्तं, यतो यद्यपि परचेतोवृत्तीनां दुरन्वयवात्सरामा वीतरागा| || इव चेष्टन्ते वीतरागाः सरागा इवेत्यतः प्रत्यक्षेणानुपलब्धिः, तथापि संभवानुमानस्य सद्भावात्तद्भाधकप्रमाणाभावाच तदस्तिसम-181 ~428~ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥४॥ दीप अनुक्रम [५३८] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१२], उद्देशक [-] मूलं [४], निर्युक्तिः [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ०२], अंग सूत्र -[०२ ] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - निवार्य संभवानुमानं सिदं व्याकरणादिनां शास्त्राभ्यासेन संस्क्रियमाणायाः प्रज्ञाया ज्ञानातिशयो ज्ञेयावगमं प्रत्युपलब्धः, तदत्र कश्चित्तथाभूताभ्यासवशात्सर्वज्ञोऽपि स्यादिति, न च तदभावसाधकं प्रमाणमस्ति, तथाहि न तावदवग्दर्शिप्रत्यक्षेण सर्वज्ञाभावः साधयितुं शक्यः, तस्य हि तज्ज्ञानज्ञेय विज्ञानशून्यवाद्, अशून्यत्वाभ्युपगमे च सर्वज्ञत्वापचिरिति । नाप्यनुमानेन, तदव्यभिचा| रिलिङ्गाभावादिति । नाप्युपमानेन सर्वज्ञाभावः साध्यते, तस्य सादृश्यबलेन प्रवृत्तेः न च सर्वज्ञाभावे साध्ये तारग्विधं साह | श्यमस्ति येनासौ सिध्यतीति । नाप्यर्थापच्या, तस्याः प्रत्यक्षादिप्रमाणपूर्वकत्वेन प्रवृत्तेः, प्रत्यक्षादीनां च तत्साधकत्वेनाप्रवर्तनात् तस्या अप्यप्रवृत्तिः । नाप्यागमेन, तस्य सर्वज्ञसाधकत्वेनापि दर्शनात् नापि प्रमाणपञ्चकाभावरूपेणाभावेन सर्वज्ञाभावः सिध्यति, तथाहि सर्वत्र सर्वदा न संभवति तद्ग्राहकं प्रमाणमित्येतदवग्दर्शिनो वक्तुं न युज्यते, तेन हि देशकालविप्रकृष्टानां पुरुषाणां यद्विज्ञानं तस्य ग्रहीतुमशक्यत्वात्, तद्ग्रहणे वा तस्यैव सर्वज्ञत्वापत्तेः न चार्चाग्दर्शिनां ज्ञानं निवर्तमानं सर्वज्ञाभावं सौधयति, तस्याव्यापकत्वात् न चाव्यापकव्यावृत्या पदार्थव्यावृत्तिर्युक्तेति, न च वस्त्वन्तरविज्ञानरूपोऽभावः सर्वज्ञाभावसाध नायालं, वस्त्वन्तर सर्वज्ञयोरेकज्ञानसंसर्गप्रतिबन्धाभावात् । तदेवं बाधकप्रमाणाभावात्संभवानुमानस्य च प्रतिपादितत्वादस्ति सर्वज्ञः, तत्प्रणीतागमाभ्युपगमाच्च मतभेददोषो दूरापास्त इति, तथाहि तत्प्रणीतागमाभ्युपगमवादिनामेकवाक्यतया शरीरमात्र - व्यापी संसार्यात्माऽस्ति तत्रैव तद्गुणोपलब्धेरिति, इतरेतराश्रयदोपश्चात्र नावतरत्येव, यतोऽभ्यस्यमानायाः प्रज्ञाया ज्ञानातिशयः १ शास्त्राभ्यासे करणला तृतीया यद्वाऽभ्यासाभ्यस्ययोरैक्यं । २ बुद्धितारतम्योपलब्धेर्विधन्तिसिद्धिः ३ भावयति प्र० । ४ पटज्ञाने हि पटाभावप्रतीतियथा । ५ वषवितानियमाभावात् । Eaton International For Parts Only ~429~ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [४], नियुक्ति: [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत १२ समवसरणाध्य सूत्रांक ||४|| सूत्रकृताङ्ग खात्मन्यपि दृष्टो, न च दृष्टेऽनुपपन नामेति । यदप्यभिहितं तद्यथा 'न च ज्ञानं ज्ञेयस्य स्वरूपं परिच्छेत्तुमलं, सर्वत्रार्वाग्भागेन । शीलाका- व्यवधानात् , सर्वारातीयभागस्य च परमाणुरूपतयाऽतीन्द्रियत्वा'दिति, एतदपि वायात्रमेव, यतः सर्वत्रज्ञानस देशकालस्वभाव-18 चाीयवृ- | व्यवहितानामपि ग्रहणानास्ति व्यवधानसंभवः, अर्वान्दर्शिज्ञानस्वाप्यवयवद्वारेणावयविनि प्रवृत्तेर्नास्ति व्यवधानं, न ावयवी 8 चियुत | खावयवैव्यवधीयत इति युक्तिसंगतम्, अपिच-अज्ञानमेव श्रेय इत्यत्राज्ञानमिति किमयं पर्युदास आहोखित्मसज्यप्रतिषेधः, ॥२१॥ तत्र यदि ज्ञानादन्यदज्ञानमिति ततः पर्युदासवृच्या ज्ञानान्तरमेव समाश्रितं स्यात् नाज्ञानवाद इति, अथ ज्ञानं न भवतीत्यज्ञानं | 18|| तुच्छो नीरूपो ज्ञानाभावः स च सर्वसामर्थ्यरहित इति कथं श्रेयानिति । अपिच-अज्ञानं श्रेय इति प्रसज्यप्रतिषेधेन ज्ञानं श्रेयो| न भवतीति क्रियाप्रतिषेध एव कृतः स्याद्, एतचाध्यक्षबाधितं, यतः सम्यगज्ञानादर्थ परिच्छिद्य प्रवर्तमानोऽयक्रियार्थी न विसं-18 वाद्यत इति । किंच-अज्ञानप्रमादवद्धिः पादेन शिरास्पर्शनेऽपि स्वल्पदोपतां परिज्ञार्यवाज्ञानं श्रेय इत्यभ्युपगम्यते, एवं च सति प्रत्यक्ष एवं स्वादभ्युपगमविरोधो, नानुमानं प्रमाणमिति । तथा तदेवं सर्वथा ते अज्ञानवादिनः 'अकोविदा' धर्मोपदेशं प्रत्यनिपुणाः खतोऽकोविदेभ्य एव खशिष्येभ्य 'आहुः कथितवन्तः, छान्दसत्वाचैकवचनं सूत्रे कृतमिति । शाक्या अपि प्रायशोऽज्ञानिकाः, अविज्ञोपचितं कर्म बन्धं न यातीत्येवं यतस्तेऽभ्युपगमयन्ति, तथा ये च बालमत्त सुप्तादयोऽस्पष्टविज्ञाना अबन्धका इत्येवमभ्युपगमं कुर्वन्ति, ते सर्वेऽप्पकोविदा द्रष्टच्या इति । तथाऽज्ञानपक्षसमाश्रयणाचाननुविचिन्त्य भाषणान्मृपा ते सदा बद-18 | १ विपक्षितं निध्य ज्ञानमत्र, तथा चान्यस्यापि ज्ञानले न बातिः । २ किरिय अकिरियमित्यादगाथायामेकवचनस्य समाधानमिदमाभाति । aaaaaas9999a0a0asa दीप अनुक्रम [५३८] २१॥ ~430~ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [४], नियुक्ति : [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक taeseseseenetrea ||४|| दीप अनुक्रम [५३८] न्ति | अनुविचिन्त्य भाषणं यतो ज्ञाने सति भवति, तत्पूर्वकत्वाच्च सत्यवादस्य, अतो ज्ञानानभ्युपगमादनुविचिन्त्य भाषणाभावः, तदभावाच तेषां मृषावादित्वमिति ॥ २॥ साम्प्रतं पैनयिकवाद निराचिकीर्षुः प्रक्रमते सयो हितं 'सत्यं परमार्थों यथावस्थि-15 तपदार्थनिरूपणं वा मोक्षो वा तदुपायभूतो वा संयमः सत्यं तदसत्यम् 'इति' एवं 'विचिन्तयन्तों मन्यमानाः, एवमसत्यमपि सत्यमिति मन्यमानाः, तथाहि-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राख्यो मोक्षमार्गः सत्यस्तमसत्यत्वेन चिन्तयन्तो विनयादेव मोक्ष इत्येतदसत्यमपि सत्यत्वेन मन्यमानाः, तथा असाधुमप्यविशिष्टकमकारिणं वन्दनादिकया विनयप्रतिपच्या साधुम् 'इति' एवम् 'उदाहरन्तः प्रतिपादयन्तो न सम्यग्यथावस्थितधर्मस्य परीक्षकाः, युक्तिविकलं विनयादेव धर्म इत्येवमभ्युपगमात् , क एते इत्येतदाह-ये 'इमें' बुद्ध्या प्रत्यक्षासन्नीकृता 'जना इव' प्राकृतपुरुषा इब जना विनयेन चरन्ति वैनयिका-विनयादेव केवलात्व मोक्षावाप्तिरित्येवादिनः 'अनेके' बहवो द्वात्रिंशद्भेदभिन्नत्वात्तेषां, ते च विनयंचारिणः केनचिद्धर्मार्थिना पृष्टाः सन्तोऽपिश-18 ब्दादपृष्टा वा 'भावं' परमार्थ यथार्थोपलब्धं खाभिप्राय वा विनयादेव स्वर्गमोक्षावाप्तिरित्येवं 'व्यनैषुः' विनीतवन्त:सर्वदा सर्वस्व सर्वसिद्धये विनयं ग्राहितवन्तः, नामशब्दः संभावनायां, संभाव्यत एव विनयात्स्वकार्यसिद्धिरिति, तदुक्तम्--- "तस्मात्कल्याणानां सर्वेषां भाजनं विनय" इति ॥३॥ किंचान्यत्-संख्यानं संख्या-परिच्छेदः उप-सामीप्येन संख्या उपसंख्या-सम्यग्यथावस्थितार्थपरिज्ञानं नोपसंख्याऽनुपसंख्या तयाऽनुपसंख्यया- अपरिज्ञानेन व्यामूढमतयस्ते वैनयिकाः स्वाग्रह ग्रस्ता इति एतद्-यथा विनयादेव केवलात्वर्गमोधावाप्तिरित्युदाहृतवन्तः, एतच ते महामोहाच्छा१ समुण्यार्थलात्तच्छब्देनानुविचिन्त्य भाषापरामर्शः । २ कारिणः । ३ सम्भं प्र० । ~431~ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [४], नियुक्ति: [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक त्तियुत ||४|| दीप अनुक्रम [५३८] सूत्रकृताङ्गं दिता 'उदाहु' उदाहृतवन्तः-यथैवं सर्वस्य विनयप्रतिपच्या खोर्थः खर्गमोक्षादिकः अस्माकम् 'अवभासते आविर्भवति १२ समवशीलाङ्का IS| प्राप्यते इतियावत् , अनुपसंख्योदाइतिश्च तेषामेवमवगन्तव्या, तद्यथा-ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षसद्भावे सति तदपास्य विनयादेवैक-18|सरणाध्य० चार्थीय- MS सात्तदवास्यभ्युपगमादिति, यदप्युक्तं सर्वकल्याणभाजन' तदपि सम्यग्दर्शनादिसंभवे सति विनयस्य कल्याणभाक्वं भवति नै । ककस्खेति, तद्रहितो हि विनयोपेतः सर्वस्य प्रहतया न्यत्कारमेवापादयति, ततध विवक्षितार्थावभासनाभावात्तेषामेवंवादि-11 ॥२१॥ नामज्ञानावृतत्वमेवावशिष्यते, नाभिप्रेतार्थावाप्तिरित्युक्ता वैनायिकाः। साम्प्रतमक्रियावादिदर्शनं निराचिकीः पवार्धमाह लव-18| कर्म तसादपशक्षितम्-अपसर्व शील येषां ते लवापशतिनो-लोकायतिकाः शाक्यादयच, तेपामात्मैप नास्ति कुतस्तरिकया तज-18 नितो वा कर्मबन्ध इति, उपचारमात्रेण स्वस्ति बन्धः, तद्यथा-'बद्धा मुक्ताश्च कथ्यन्ते, मुष्टिग्रन्थिकपोतकाः । न चान्ये द्रव्यतः181 सन्ति, मुष्टिग्रन्थिकपोतकाः ॥ १॥ तथाहि-बौद्धानामयमभ्युपगमो, यथा--'क्षणिकाः सर्वसंस्कारा' इति 'अस्थितानां चि] | | कुतः क्रिये' त्यक्रियावादित्वं, योऽपि स्कन्धपश्चकाभ्युपगमस्तेषां सोऽपि संवृतिमात्रेण न परमार्थेन, यतस्तेपामयमभ्युपगमः, त-|| यथा-विचार्यमाणाः पदार्था न कथञ्चिदप्यात्मानं विज्ञानेन समर्पयितुमल, तथाहि-अवयवी तखान्यस्वाभ्यां विचार्यमाणो || न घटा प्राश्चति, नाप्पवयवाः परमाणुपर्यवसानतयाऽतिमूक्ष्मत्वाज्ज्ञानगोचरतां प्रतिपद्यन्ते, विज्ञानमपि ज्ञेयाभावेनामूख निरा-15॥ कारतया न स्वरूपं विभर्ति, तथा चोक्तम्- "यथा यथार्थोचिन्त्यन्ते, विविच्यन्ते तथा तथा । यतत्वयमर्थेभ्यो, रोचते तत्र के ॥२१॥ वयम् ? ॥१॥” इति, प्रच्छन्नलोकायतिका हि बौद्धाः, तत्रानागतैः क्षणैः चशब्दादतीतैश्च वर्तमानक्षणस्यासंगतेने क्रिया, नापि च १ लयावशदिनः । अमेऽपि अत्र गाथायां । २ तत्त्वातचाभ्यां प्र० अवयवेभ्योऽभिवस्येतराभ्यो। Baba0201200000000 ~432~ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [४], नियुक्ति: [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक Ke ||४|| दीप अनुक्रम [५३८] राजनितः कर्मबन्ध इति । तदेवमक्रियावादिनो नास्तिकवादिनः सर्वापलापितया लवावशङ्किनः सन्तोन क्रियामाहुः, तथा अक्रिय आत्मा येषां सर्वव्यापितया तेऽप्यक्रियावादिनः सांख्याः, तदेवं ते लोकायतिकबौद्धसांख्या अनुपसंख्यया-अपरिज्ञानेनेति-एतत् पूर्वोक्तमुदाहृतवन्तः, तथैतचज्ञानेनैवोदाहृतवन्तः, तद्यथा-असाकमेवमभ्युपगमेऽर्थोऽवभासते-युज्यमानको भवतीति, तदेवं श्लोकपूर्वार्द्ध काकाक्षिगोलकन्यायेनाक्रियावादिमतेऽप्यायोज्यमिति ॥ ४ ॥ साम्प्रतमक्रियावादिनामज्ञानविजृम्भितं दर्शयितुमाह सम्मिस्सभावं च गिरा गहीए, से मुम्मुई होइ अणाणुवाई । इमं दुपक्खं इममेगपक्खं, आहंसु छलायतणं च कम्मं ॥५॥ ते एवमक्खंति अबुज्झमाणा, विरूवरूवाणि अकिरियवाई। जे मायइत्ता बहवे मणूसा, भमंति संसारमणोवदग्गं ॥६॥णाइच्चो उपइ ण अस्थमेति, ण चंदिमा वड्वति हायती वा । सलिला ण संदति ण वति वाया, वंझो णियतो कसिणे हु लोए ॥७॥ जहाहि अंधे सह जोतिणावि, रूवाइ णो पस्सति हीणणेत्ते । संतपि ते एवमकिरियवाई, किरियं ण पस्संति निरुद्धपन्ना ॥८॥ खकीयया गिरा-पाचा स्वाभ्युपगमेनैव 'गृहीते' तस्मिन्नर्थे नान्तरीयकतया वा समागते सति तस्वाध्यातस्यार्थस्य गिरा प्र१ लोकायकिता बौद्धाः सांख्याः प्र.। न ~433~ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [८], नियुक्ति : [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||८|| दीप अनुक्रम [५४२]] सूत्रकृताङ्ग तिषेधं कुर्वाणाः 'सम्मिश्रीभावम्' अस्तित्वनास्तित्वाभ्युपगम ते लोकायतिकादयः कुर्वन्ति, वाशब्दात्प्रतिषेधे प्रतिपाद्येऽस्ति-18|१२ समबशीलाका- त्वमेव प्रतिपादयन्ति, तथाहि-लोकायतिकास्तावत्स्वशिष्येभ्यो जीवाद्यभावप्रतिपादकं शास्त्रं प्रतिपादयन्तो नान्तरीयकतयाss-12 सरणाध्य. चार्याय त्मानं कतारं करणं च शास्त्रं कर्मतापनांध शिष्यानवश्यमभ्युपगच्छेयुः, सर्वशून्यत्वे त्वस्य त्रितयस्याभावान्मिश्रीभावो व्यत्ययो चियुत वा । बौद्धा अपि मिश्रीभावमेवमुपगताः, तयथा-"गन्ता च नास्ति कश्चिद्गतयः पद् चौद्धशासने प्रोक्ताः । गम्यत इति च गतिः।। ॥२१५॥ स्वाच्छ्रुतिः कथं शोभना बौद्धी ॥१॥" तथा-'कर्म [च] नास्ति फलं चास्ती' त्यसति चात्मनि कारके कथं पड़तयः, ज्ञानसन्तानस्यापि संतानिव्यतिरेकेण संवृतिमत्वात् क्षणस चास्थितत्वेन क्रियाऽभावान नानागतिसंभवः, सर्वाण्यपि कर्माण्यबन्ध नानि प्ररूपयन्ति खागमे, तथा पञ्च जातकशतानि च बुद्धस्योपदिशन्ति, तथा-'मातापितरौ हत्वा बुद्धशरीरे च रुधिरमुत्पाद्य । ४ अर्हद्वधं च कृत्वा स्तूपं मित्त्वा च पश्चैते ॥ १॥ आवीचिनरकं यान्ति । एवमादिकस्यागमस्य सर्वशून्यत्वे प्रणयनमयुक्तिसंगतं | सात , तथा जातिजरामरणरोगशोकोत्तममध्यमाधमत्वानि च न स्युः, एष एव च नानाविधकर्मविपाको जीवास्तित्वं कर्तृत्वं | 81 | कर्मवत्वं चावेदयति, तथा 'गान्धर्वनगरतुल्या मायाखमोपपातघनसदृशाः । मृगतृष्णानीहाराम्बुचन्द्रिकालातचक्रसमाः ॥१॥18| | इति भाषणाच स्पष्टमेव मिश्रीभावोपगमनं चौद्धानामिति । यदिवा-नानाविधकर्मविपाकाभ्युपगमात्तेषां व्यत्यय एवेति, तथा|8|| |चोक्तम्-"यदि शून्यस्तव पक्षो मत्पक्षनिवारकः कथं भवति । अथ मन्यसे न शून्यस्तथापि मत्पक्ष एवासौ ॥१॥" इत्यादि, ॥२१५॥ तदेवं बौद्धाः पूर्वोक्तया नीस्या मिश्रीभावमुपगता नास्तित्वं प्रतिपादयन्तोऽस्तितमेव प्रतिपादयन्ति ॥ तथा सांख्या अपि सर्व-18|| च्यापितया अक्रियमात्मानमभ्युपगम्य प्रकृतिवियोगान्मोक्षसद्भाव प्रतिपादयन्तस्तेऽप्यात्मनो बन्धं मोक्षं च स्ववाचा प्रतिपादय ~434 Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [८], नियुक्ति : [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||८|| दीप अनुक्रम [५४२]] ఆ020120000000000 |न्ति, ततश्च बन्धमोक्षसद्भावे सति स्वकीयया गिरा सक्रियखे गृहीते सत्यात्मनः सम्मिश्रीभावं व्रजन्ति, यतो न कियामन्तरेण बन्धमोक्षौ घटेते, वाशब्दादक्रियत्वे प्रतिपाये व्यत्यय एव-सक्रियत्वं तेषां खवाचा प्रतिपद्यते । तदेवं लोकायतिकाः सर्वाभावाभ्यु-18 पगमेन क्रियाऽभावं प्रतिपादयन्ति बौद्धाश्च क्षणिकत्वात्सर्वशून्यत्वाचाक्रियामेवाभ्युपगमयन्तः खकीयागमश्रणयनेन चोदिताः सन्तः सम्मिश्रीभाव खवाचैव प्रतिपद्यन्ते, तथा सांख्याधाक्रियमात्मानमभ्युपगच्छन्तो बन्धमोक्षसद्भावं च स्वाभ्युपगमेनैव सम्मिश्रीभावं व्रजन्ति व्यत्ययं च एतत्प्रतिपादितं । यदिवा बौद्धादिः कश्चित्स्याद्वादिना सम्बग्घेतु दृष्टान्ताकुलीक्रियमाणः सन् सम्यगुत्तरं दातुमसमर्थों यत्किश्चनभाषितया 'मुम्मुई होइ'ति गद्गदभाषित्वेनाव्यक्तभाषी भवति, यदिवा प्राकृतशैल्या छान्दसत्वाचा| यमों द्रष्टव्यः, तद्यथा-मुकादपि मूको मूकमको भवति, एतदेव दर्शयति-खाद्वादिनोक्तं साधनमनुवदितुं शीलमखेत्यनुवादी | तत्प्रतिषेधादननुवादी, सद्धेतुभियोकुलितमना मौनमेव प्रतिपद्यत इति भावः, अननुभाष्य च प्रतिपक्षसाधनं तथापयित्वा च खपक्षं प्रतिपादयन्ति, तथथा-'इदम्' असदभ्युपगतं दर्शनमेकः पक्षोऽस्खेति एकपक्षमप्रतिपक्षतयैकान्तिकमविरुद्धार्थाभिधायि| तया निष्प्रतिवाध पूर्वापराविरुद्धमित्यर्थः, इदं चैवंभूतमपि सदि(त्कमि)त्याह-द्वौ पक्षावखेति द्विपक्ष-सप्रतिपक्षमनैकान्तिक पूर्वापरविरुद्धार्थाभिधायितया विरोधिवचनमित्यर्थः, यथा च विरोधिवचनत्वं तेषां तथा पारदर्शितमेव, यदिवेदमस्मदीयं दर्शनं 8 द्वी पक्षावस्येति द्विपक्ष-कर्मबन्धनिर्जरणं प्रति पक्षद्वयसमाश्रयणात् , तत्समाश्रयणं चेहामुत्र च वेदनां चौरपारदारिकादीनामिव, ते हि करचरणनासिकादिच्छेदादिकामिहेव पुष्पकल्पां स्वकर्मणो विडम्बनामनुभवन्ति अमुत्र च नरकादौ तत्फलभूतां वेदना | समनुभवन्तीति, एंवमन्यदपि कर्मोभयवेद्यमभ्युपगम्यते, तच्चेदं 'प्राणी प्राणिज्ञान' मित्यादि पूर्ववत् , तथेदमेकः पक्षोऽस्येत्येक ~435~ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [८], नियुक्ति: [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक शीलाङ्का- चा-यवृ- चियुतं ॥२१६॥ eservestaesentmenes दीप अनुक्रम [५४२]] पक्षं इहैव जन्मनि तस्य वेद्यत्वात् , तच्छेदम्-अविज्ञोपचितं परिज्ञोपचितमीर्यापथं खमान्तिकं चेति । तदेवं खाद्वादिनाऽभियुक्ताः १२ समवस्वदर्शनमेवमनन्तरोक्तया नीत्या प्रतिपादयन्ति, तथा स्वादादिसाधनोक्तो छलायतनं-छल नवकम्बलो देवदत्त इत्यादिकं सरणाध्य. | 'आहुः उक्तवन्तः, चशब्दादन्यच दूषणाभासादिक, तथा कर्म च एकपक्षद्विपक्षादिकं प्रतिपादितवन्त इति, यदिवा पडाय| तनानि --उपादानकारणानि आश्रवद्वाराणि श्रोत्रेन्द्रियादीनि यस्य कर्मणस्तत्पडायतनं कर्मेत्येवमाहुरिति ।। ५ ।। साम्प्रतमेतदूप-1 |णायाह-'ते' चार्वाकयौद्धादयोऽक्रियावादिन एवमाचक्षते, सद्भावमबुध्यमाना मिथ्यामलपटलापूतात्मानः परमात्मानं च युद्-12 ग्राहयन्तो 'विरूपरूपाणि नानाप्रकाराणि शास्त्राणि प्ररूपयन्ति, तद्यथा-'दानेन महाभोगाश्च देहिनां सुरगतिश्च शीलेन । भा| बनया च विमुक्तिस्तपसा सर्वाणि सिध्यन्ति ॥१॥ तथा पृथिव्यापस्तेजो वायुरित्येतान्येव चत्वारि भूतानि विद्यन्ते, नापरः18 कश्चित्सुखदुःखभागारमा विद्यते, यदिवैतान्यप्यविचारितरमणीयानि न परमार्थतः सन्तीति, स्वमेन्द्रजालमरुमरीचिकानिचयद्वि-18 चन्द्रादिप्रतिभासरूपत्वात्सर्वस्येति । तथा 'सर्व क्षणिक निरात्मक' 'मुक्तिस्तु शून्यतादृष्टेस्तदाः शेषभावना' इत्यादीनि नाना| विधानि शाखाणि व्युग्राहयन्त्यक्रियात्मानो क्रियावादिन इति । ते च परमार्थमबुध्यमाना यदर्शनम् 'आदाप' गृहीत्वा बहवोर श्री मनुष्याः संसारम् 'अनवदग्रम्' अपर्यवसानमरहट्टघटीन्यायेन 'भ्रमन्ति' पर्यटन्ति, तथाहि-लोकायतिकानां सर्वशून्यत्वे प्रति २१६॥ पाये न प्रमाणमस्ति, तथा चोक्तम्- "तत्वान्युपप्लुतानीति, युक्त्यभावे न सिध्यति । साऽस्ति चेत्सैव नस्तचं, तत्सिद्धी सर्वेमस्तु | | सत् ॥१॥" न च प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणम् , अतीतानागतभावतया पितृनिवन्धनस्थापि व्यवहारवासिद्धेः, ततः सर्वेसंव्यवहारो १ नास्ति । Saeseseseseseseceneselseace ~436~ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [५४२] Education Inte “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [८], निर्युक्ति: [ १२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ०२], अंग सूत्र -[०२ ] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः |च्छेदः स्यादिति । बौद्धानामप्यत्यन्तक्षणिकलेन वस्तुखाभावः प्रसजति, तथाहि---यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थतः सद्, न च क्षणः क्रमेणार्थक्रियां करोति, क्षणिकलहानेः, नापि यौगपद्येन, [तत्कार्याणां] एकसिभेव क्षणे सर्वकार्यापत्तेः, न चैतदृष्टमिष्टं वा, नच ज्ञानाधारमात्मानं गुणिनमन्तरेण गुणभूतस्य संकलनाप्रत्ययस्य सद्भाव इत्येतच प्रागुक्तप्रायं यच्चोक्तं-- ' दानेन महाभोगा' इत्यादि तदातैरपि कथञ्चिदिष्यत एवेति न चाभ्युपगमा एव बाधायै प्रकल्प्यन्त इति ॥ ६ ॥ पुनरपि शून्यमताविर्भावनायाह-सर्वशून्यवादिनो सक्रियावादिनः सर्वाध्यक्षामादित्योद्गमनादिकामेव क्रियां तावभिरुन्धन्तीति दर्शयति-आदित्यो हि सर्वजनप्रतीतो जगत्प्रदीपकल्पो दिवसादिकालविभागकारी स एव तावन्न विद्यते, कुतस्तस्योद्गमनमस्तमयनं वा ?, यच जाज्वल्यमानं तेजोमण्डलं दृश्यते तद् भ्रन्तमतीनां द्विचन्द्रादिप्रतिभासमृगतृष्णिकाकल्पं वर्तते । तथा न चन्द्रमा वर्धते शुक्लपक्षे, नाप्यपरपक्षे प्रतिदिनमपहीयते, तथा 'न सलिलानि' उदकानि 'स्यन्दन्ते' पर्वतनिर्झरेभ्यो न स्रवन्ति । तथा वाताः सततगतयो न वान्ति । किं बहुनोक्तेन ?, कृत्स्नोऽप्ययं लोको 'वन्ध्यः' अर्थशून्यो 'नियतो' निश्चितः अभावरूप इतियावत्, सर्वमिदं यदुपलभ्यते तन्मायास्वमेन्द्रजालकल्पमिति ॥ ७ ॥ एतत्परिहर्तुकाम आह—यथा अन्धो जात्यन्धः पश्वाद्वा 'हीननेत्रः' अपगतचक्षुः 'रूपाणि' घटपटादीनि 'ज्योतिषापि' प्रदीपादिनापि सह वर्तमानो 'न पश्यति' नोपलभते, एवं तेऽप्यक्रियावादिनः सदपि घटपटादिकं वस्तु तत्क्रियां चास्तिलादिकां परिस्पन्दादिकां वा [क्रियां] न पश्यन्ति । किमिति ?, यतो निरुद्धा आच्छादिता ज्ञानावरणादिना कर्मणा प्रज्ञा-ज्ञानं येषां ते तथा, तथाहि —आगोपालाङ्गनादिप्रतीतः समस्तान्धकारक्षयकारी कमलाकरोद्धा| टनपटीयानादित्योद्गमः प्रत्यहं भवनुपलक्ष्यते, तत्क्रिया च देशादेशान्तरावाध्याऽन्यत्र देवदत्तादौ प्रतीताऽनुमीयते । चन्द्रमाथ For Parts Only ~437~ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [८], नियुक्ति : [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत 3000 सूत्रांक ||८|| दीप अनुक्रम [५४२]] सूत्रकृता 18| प्रत्यहं क्षीयमाणः समस्तक्षयं यावत्पुनः कलाभिवृक्ष्या प्रवर्धमानः संपूर्णावस्था(स्था)यां यावदध्यक्षेणैवोपलक्ष्यते । तथा सरितच १२ स शीलाका- प्रावृषि जलकल्लोलाविलाः स्यन्दमाना दृश्यन्ते । वायवश्च वान्तो वृक्षभङ्गकम्पादिभिरनुमीयन्ते । यञ्चोक्तं भवता-सर्वमिदं |सरणाध्य. मायाखमेन्द्रजालकल्पमिति, तदसत्, यतः सवोभावे कस्यचिदमायारूपस्य सत्यस्याभावान्मायाया एवाभावः स्यात् , यश्च मायां त्तियुत प्रतिपादयेत् यस्य च प्रतिपाद्यते सर्वशून्यले तयोरेवाभावात्कुतस्तव्यवस्थितिरिति ?, तथा खप्नोऽपि जाग्रदवस्थायां सत्यां व्यवस्था-| | प्यते तस्या अभावे तस्याप्यभावः स्वात्ततः स्वममभ्युपगच्छता भवता तत्रान्तरीयकतया जायदवस्थाऽवश्यमभ्युपगता भवति, ॥२१७|| तदभ्युपगमे च सर्वशून्यबहानिः, न च स्वमोऽप्यभावरूप एव, खमेऽप्यनुभूतादेः सद्भावात् , तथा चोक्तम्-"अणुहूयदिढचिंतिया सुयपयइवियारदेवयाऽपया । सुमिणस्स निमित्ताई पुण्णं पावं च णाभावो ॥१॥" इन्द्रजालव्यवस्थाऽप्यपरसत्यले सति भवति,18॥ तभावे तु केन कस्य चेन्द्रजालं व्यवस्थाप्येत !, द्विचन्द्रप्रतिभासोऽपि रात्रौ सत्यामेकसिंश्च चन्द्रमस्युपलंभकसद्भावे च घटते न | सर्वशून्यले, न चाभावः कस्खचिदप्यत्यन्ततुच्छरूपोऽस्ति, शशविषाणकूर्मरोमगगनारविन्दादीनामत्यन्ताभावप्रसिद्धानां समासप्रतिपाघस्यैवार्थस्वाभावो न प्रत्येकपदवाच्यार्थखेति, तथाहि-शशोऽप्यस्ति विषाणमप्यस्ति किं खत्र शशमस्तकसमवायि विषाणं नास्तीत्येतत्प्रतिपाद्यते, तदेवं संबन्धमात्रमत्र निषिध्यते नात्यन्तिको वस्वभाव इति, एवमन्यत्रापि द्रष्टव्यमिति । तदेवं विद्यमा-| नायामप्यस्तीत्यादिकायां क्रियायां निरुद्धप्रज्ञास्तीर्थिका अक्रियावादमाश्रिता इति ॥८॥ अनिरुद्धप्रज्ञास्तु यथावस्थितार्थवे-18॥२१७॥ | दिनो भवन्ति, तथाहि-अवधिमनःपर्यायकेवलज्ञानिनत्रैलोक्योदरविवरवर्तिनः पदार्थान् करतलामलकन्यायेन पश्यन्ति, समस्त-18 १अनुभूतचिन्तितश्रुतप्रकृतिविकारदेवतानूपाः । स्वप्नस्य निमित्तानि पुग्यं पापं च नाभावः ॥१॥२ वेदपालं प्र.। Saceaeeeeeeeeas ~438~ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [८], नियुक्ति : [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः P प्रत सूत्रांक MAP ||८|| दीप अनुक्रम [५४२]] श्रुतज्ञानिनोऽपि आगमबलेनातीतानागतानर्थान् विदन्ति, येऽप्यन्येऽष्टाङ्गनिमित्तपारगास्तेऽपि निमित्तबलेन जीवादिपदार्थपरिच्छेदं विदधति, तदाह संवच्छरं सुविणं लक्खणं च, निमित्तदेहं च उप्पाइयं च । अढंगमेयं बहवे अहित्ता, लोगंसि जाणंति अणागताई ॥९॥ केई निमित्ता तहिया भवंति, केसिंचि तं विपडिएति णाणं । ते विजभावं अणहिजमाणा, आहंसु विजापरिमोक्खमेव ॥ १०॥ ते एवमक्खंति समिञ्च लोग, तहा तहा (गया)समणा माहणा यासयं कडं णन्नकडं च दुक्खं, आइंसु विज्जाचरणं पमोक्खं ॥ ११॥ ते चक्खु लोगंसिह णायगा उ, मग्गाणुसासंति हितं पयाणं। तहा तहा सासयमाहु लोए, जंसी पया माणव! संपगाढा ॥ १२॥ 'सांवत्सर' मिति ज्योतिष स्वमप्रतिपादको ग्रन्थः खमस्तमधीत्य 'लक्षणं' श्रीवत्सादिकं, चशब्दादान्तरवायभेदमित्र, I'निमित्तं' वाकप्रशस्तशकुनादिकं देहे भवं देह-मयकतिलकादि, उत्पाते भवमौत्पातिकम्-उल्कापातदिग्दाहनिधोतभूमिकम्पादिकं, तथा अष्टागच निमित्तमधीत्य, तद्यथा-भौममुत्यात खप्नमान्तरिक्षमाझं खरं लक्षणं व्यञ्जनमित्येवंरूपं नवमपूर्वेततीयाचारवस्तुविनिर्गतं सुखदुःखजीवितमरणलाभालाभादिसंसूचकं निमित्तमधीत्य लोकेऽसिन्नतीतानि वस्तुनि अनागतानि च न taeseseesesentsteceneseene Taarasurare.org ~439~ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१२|| दीप अनुक्रम [५४६] सूत्रकृताङ्गं शीळाङ्का चाय चियुतं ॥२१८॥ “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [१२], निर्युक्ति: [ १२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ०२], अंग सूत्र -[०२ ] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - १२ सभव 'जानन्ति' परिच्छिन्दन्ति, न च शून्यादिवादेष्वेतद् घटते, तस्मादप्रमाणकमेव तैरभिधीयत इति ॥ ९ ॥ एवं व्याख्याते सति आह परः ननु व्यभिचार्यपि श्रुतमुपलभ्यते, तथाहि चतुर्दशपूर्वविदामपि पदस्थानपतिलमागम उद्घष्यते किं पुनरष्टाङ्ग निमित्त- सरणाध्य० शास्त्रविदाम् १, अत्र चाङ्गवर्जितानां निमित्तशास्त्राणामानुष्टुमेन छन्दसाऽर्धत्रयोदश शतानि सूत्रं तावन्त्येव सहस्राणि वृत्तिस्तावप्रमाणलक्षा परिभाषेति, अङ्गस्य त्वर्धत्रयोदशसहस्राणि सूत्रं, तत्परिमाणलक्षा वृत्तिरपरिमितं वार्तिकमिति, तदेवमष्टाङ्गनिमित्तवेदिनामपि परस्परतः षट्स्थानपतितत्वेन व्यभिचारित्वमत इदमाह– 'केई' त्यादि, छान्दसत्वात्प्राकृतशैल्या वा लिङ्गव्यत्ययः, कानिचिनिमित्तानि 'तथ्यानि' सत्यानि भवन्ति, केषाञ्चित्तु निमित्तानां निमित्तवेदिनां वा बुद्धिवैकल्यात्तथाविवक्षयोपशमाभावेन तत् निमित्तज्ञानं 'विपर्यासं' व्यत्ययमेति, आईतानामपि निमित्तव्यभिचारः समुपलभ्यते, किं पुनस्तीर्थिकानां ?, तदेवं निमित्तशास्त्रस्य व्यभिचारमुपलभ्य 'ते' अक्रियावादिनो 'विद्यासद्भावं विद्यामनधीयानाः सन्तो निमित्तं तथा चान्यथा च भवतीति मत्वा ते २ 'आहंसु विज्ञापलिमोक्खमेव' विद्यायाः - श्रुतस्य व्यभिचारेण तस्य परिमोक्षं-परित्यागमाहुः उक्तवन्तः, यदिवा - क्रियाया अभावाद्विद्यया- ज्ञानेनैव मोक्षं सर्वकर्मच्युतिलक्षणमाहुरिति । कचिचरमपादस्यैवं पाठः, 'जाणामु लोगंसि वयंति मंद'त्ति, विद्यामनधीत्यैव स्वयमेव लोकमस्मिन् वा लोके भावान् स्वयं जानीमः, एवं 'मंदा:' जडा वदन्ति न च निमित्तस्य तथ्यता, तथाहि कस्यचित्कचित्क्षुतेऽपि गच्छतः कार्यसिद्धिदर्शनात्, सच्छकुनसद्भावेऽपि कार्यविघातदर्शनाद्, अतो निमित्त बलेनादेशविधायिनां मृषावाद एव केवलमिति, नैतदस्ति, न हि सम्यगधीतस्य श्रुतस्यार्थे विसंवादोऽस्ति यदपि षट्स्थानपतितखमुद्द्घोष्यते १ बोधात् यद्वा निमित्तशब्देन निमित्तशास्त्राणि तेन तद्विषयक युद्धवैकल्यात् । Internationa For Park Use Only ~440~ ॥२१८॥ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [१२], नियुक्ति: [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम [५४६] तदपि पुरुषाश्रितक्षयोपशमवशेन, न च प्रमाणाभासव्यभिचारे सम्पप्रमाणव्यभिचाराशङ्का कर्तु युज्यते, तथाहि-मरुमरीचि-191 कानिचये जलग्राहि प्रत्यक्षं व्यभिचरतीतिकृता किं सत्यजलग्राहिणोऽपि प्रत्यक्षस व्यभिचारो युक्तिसंगतो भवति, न हि म-18 शकवर्तिरनिसिद्धावुपदिश्यमाना व्यभिचारिणीति सत्यधूमस्थापिव्यभिचारो, न हि सुविवेचितं कार्य कारणं व्यभिचरवीति, तत श्व प्रमातुरयमपराधो न प्रमाणस्य, एवं सुविवेचितं निमित्तश्रुतमपि न व्यभिचरतीति, यश्च क्षुतेऽपि कार्यसिद्धिदर्शनेन व्यभिचार: 18| शक्यते सोऽनुपपन्नः, तथाहि-कार्याकृतात् क्षुतेऽपि गच्छतो या कार्यसिद्धिःसाऽपान्तराले इतरशोभननिमित्तबलात्संजातेत्येवमव-18 || गन्तव्यं, शोभननिमित्त प्रस्थितस्यापीतरनिमित्तबलात्कार्यव्याघात इति, तथा च श्रुतिः-किल बुद्धः स्खशिष्यानाहूयोक्तवान् , यथा-1 18'द्वादशवार्षिकमत्र दुर्भिक्षं भविष्यतीत्यतो देशान्तराणि गच्छत यूयं' ते तद्वचनाद्गच्छन्तस्तेनैव प्रतिषिद्धाः, यथा 'मा गच्छत यूय-2 म, इहाचैव पुण्यवान् महासच्चः संजातस्तत्प्रभावात्सुमिदं भविष्यति' तदेवमन्तराऽपरनिमित्तसावातव्यभिचारशङ्केति स्थितम् । ॥१०॥ साम्प्रतं क्रियावादिमतं दुषयिषुस्तन्मतमाविष्कुर्वन्नाहू-ये क्रियात एव ज्ञाननिरपेक्षायाः दीक्षादिलक्षणाया मोक्षमिच्छ-18 मन्ति ते एवमाख्यान्ति, तद्यथा-'अस्ति माता पिता अस्ति सुचीर्णस्य कर्मणः फल मिति, किं कृला त एवं कथयन्ति ?-क्रियात एव 18 सर्व सिध्यतीति खाभिप्रायेण 'लोक' स्थावरजङ्गमात्मकं समेत्य ज्ञाखा, किल वयं यथावस्थितवस्तुनो ज्ञातार इत्येवमभ्युपगम्य सर्व 10 मस्त्येवेत्येवं सावधारणं प्रतिपादयन्ति, न कथश्चिन्नास्तीति, कथमाख्यान्ति ?-'तथा तथा' तेन (तेन) प्रकारेण, यथा यथा क्रिया तथा तथा स्वर्गनरकादिकं फलमिति, ते च श्रमणास्तीथिका ब्राह्मणा वा क्रियात एव सिद्धिमिच्छन्ति, किञ्च-यत् किमपि संसारे 18 दुःखं तथा सुखं च तत्सर्व खयमेवात्मना कृतं, नान्येन कालेश्वरादिना, न चैतदक्रियावादे घटते, तत्र प्रक्रियखादात्मनोऽकृतयो ceneseserseservedeoescreerseses ~441~ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [१२], नियुक्ति: [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१२|| दीप अनुक्रम [५४६] सूत्रकवाझं रेव सुखदुःखयोः संभवः स्वात् , एवं च कृतनाशाकृताभ्यागमौ स्याताम् , अत्रोच्यते, सत्यमस्त्यात्मसुखदुःखादिक, न खस्त्येव, १२ समवशीलाङ्का-8 तथाहि-यधस्त्येव इत्येवं सावधारणमुच्यते ततव न कथञ्चिन्नास्तील्यापत्रम् , एवं च सति सर्व सर्वात्मकमाषयेत, तथा च सर्व-18 सरणाध्य चाय- लोकस्य व्यवहारोच्छेदः स्यात्, न च ज्ञानरहितायाः क्रियायाः सिद्धिः, तदुपायपरिज्ञानाभावात् , न चोपायमन्तरेणोपेयमवाप्यत चियुत इति प्रतीतं, सर्वा हि क्रिया ज्ञानवत्येव फलवत्युपलक्ष्यते, उक्तश्व-"पढमं नाणं तओ दया, एवं चिट्ठति सबसंजए । अन्नाणी ॥२१९॥ किं काही, किंवा नाही हेयपावयं ॥१॥" इत्यतो ज्ञानस्थापि प्राधान्यं, नापि ज्ञानादेव सिद्धिः, क्रियारहितस्य ज्ञानख पनो|रिव कार्यसिद्धेरनुपपत्तेरित्यालोच्याह--'आहंसु विजाचरणं पमोक्वं'ति, न ज्ञाननिरपेक्षायाः क्रियायाः सिद्धि, अन्ध-12॥ | स्पेव, नापि क्रियाविकलस्य ज्ञानस्य पङ्गोरिव, इत्येवमवगम्य 'आहुः उक्तवन्तः, तीर्थकरगणधरादयः, कमाहुः१, मोक्ष, कथं, विद्या च-ज्ञानं चरणं च-क्रिया ते द्वे अपि वियेते कारणखेन यस्येति विगृह्यार्शआदिखान्मवर्थीयोऽच, असी विद्याचरणी-1 मोक्षः-शानक्रियासाध्य इत्यर्थः, तमेवंसाध्यं-मोक्षं प्रतिपादयन्ति । यदिवाऽन्यथा पातनिका, केनैतानि समवसरणानि प्रतिपा-18 | दितानि । यत्रोक्तं यच वक्ष्यते इत्येतदाशवाह-'ते एवमक्खंती' त्यादि, अनिरुद्धा-कचिदप्यस्खलिता प्रज्ञायतेऽनयेति प्रज्ञा-॥ झानं येषां तीर्थंकृतां तेऽनिरुद्धप्रज्ञात 'एवम् अनन्तरोक्तया प्रक्रियया सम्यगाख्यान्ति-प्रतिपादयन्ति 'लोकं' चतुर्देशर-16 || ज्वात्मकं स्थावरजङ्गमाख्यं वा 'समेत्य केवलज्ञानेन करतलामलकन्यायेन ज्ञाखा तथागताः-तीर्थकरवं केवलज्ञानं च गताः ॥ ॥२१९।। १ प्रथमं झार्न वनों दया एवं तिष्ठति सर्वसयतः । अज्ञानी किं करिष्यति किंवा शास्थति छेकपाप ॥१॥ ज्ञानस्य ज्ञानिना चैन, निन्दाप्रद्वेषमासरैः । उपघातैश्च [विश्व, ज्ञाननं कम बध्यते ॥२॥ केषुचिदादशेषु दृश्यते श्लोकोऽयमशुभक्रियाया ज्ञानपूर्विकायाः फलपत्ताशापनाय न तदा विरोधः, ३ 'प्रणीतानि' इत्यपि । ~442~ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [१२], नियुक्ति: [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||१२|| aeseseseseeneraceaeacoccesed दीप अनुक्रम [५४६] 'श्रमणा' साघवो 'ब्राह्मणा: संयतासंयताः, लौफिकी वा वाचोयुक्तिः, किम्भूतास्त एवमाख्यान्तीति सम्बन्धः, तथा तथेति वा कचित्पाठा, यथा यथा समाधिमागों व्यवस्थितस्तथा तथा कथयन्ति, एतच कथयन्ति-यथा यस्किश्चित्संसारान्तर्गतानामसुमता दुःखम् असातोदयखभावं, तत्प्रतिपक्षभूतं च सातोदयापादितं सुखं, तत्स्वयम्-आत्मना कृतं, नाम्येन कालेश्वरादिना कृतमिति, तथा चोक्तम्-'संघो पुवकयाणं कम्माणं पावए फलविवार्ग अवराहेसु गुणेसु य णिमित्तमित्तं परो होइ ॥१॥" एतच्चाहुस्तीर्थकरगणधरादयः, तद्यथा-विद्या-जान चरणं-चारित्रं क्रिया तत्प्रधानो मोक्षस्तमुक्तवन्तो, न ज्ञानक्रियाभ्यां परस्परनिरपेक्षाभ्यामिति, तथा चोक्तम्--"क्रियां च सज्ज्ञानवियोगनिष्फला, क्रियाविहीनां च विबोधसम्पदम् । निरस्यता लेशसमूहशान्तये, खया शिवायालिखितेव पद्धतिः ॥१॥" ॥११ ।। किश्च-'ते' तीर्थकरगणधरादयोऽतिशयज्ञानिनोऽस्मिन् लोके चक्षुरिव चक्षुर्वर्तन्ते, यथा हि चक्षुर्योग्यदेशावस्थितान् पदार्थान् परिच्छिनति एवं तेऽपि लोकस्य यथावस्थितपदार्थाविष्करणं कारयन्ति, तथाऽस्मिन् लोके ते नायका:-प्रधानाः, तुशब्दो विशेषणे, सदुपदेशदानतो नायका इति, एतदेवाह-'मार्ग' ज्ञानादिकं मोक्षमार्ग 'अनुशासति' कथयन्ति प्रजना-प्रजायन्त इति प्रजा:-प्राणिनस्तेषा, किम्भूतं ?, हितं, सद्गतिप्रापकमनर्थनिवारकं च, किश्व चतुर्दशरज्वात्मके लोके पश्चास्तिकायात्मके वा येन येन प्रकारेण द्रव्यास्तिकनयाभिप्रायेण यदस्तु शाश्वतं तसथा 'त आहुः उक्तवन्तः, यदिवा लोकोऽयं प्राणिगणः संसारान्तर्वी यथा यथा शाश्वतो भवति तथा तथैवाहु, तद्यथा-यथा यथा मिथ्यादर्शनाभिवृद्धिस्तथा तथा शाश्वतो लोकः, तथाहि-तत्र तीर्थकराहारकवाः सर्व एव कर्मवन्धाः सम्भाव्यन्त इति, १ नेदं प्रान्तरे । २ सर्वः पूर्वकतानां कर्मणां प्राप्नोति फलविपाकं । अपरामेण पुणेषु च निमित्तमा परो भवति ॥ १॥ ~443~ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||12|| दीप अनुक्रम [५४६] सूत्रकृताङ्ग श्रीलाङ्का चाय चियुर्त ॥१२०॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [१२], निर्युक्ति: [ १२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ०२], अंग सूत्र -[०२ ] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः तथा च महारम्भादिभिश्चतुर्भिः स्थानैजींवा नरकायुष्कं यावन्निर्वर्तयन्ति तावत्संसारानुच्छेद इति, अथवा यथा यथा रागद्वेषादिवृद्धिस्तथा तथा संसारोऽपि शाश्वत इत्याहुः, यथा यथा च कर्मोपचयमात्रा तथा तथैव संसाराभिवृद्धिरिति । दुष्टमनोवाक्कायाभिवृद्धी वा संसाराभिवृद्धिरवगन्तव्या, तदेवं संसारस्याभिवृद्धिर्भवति । 'यस्मिंश्व' संसारे, प्रजायन्त इति 'प्रजाः' जन्तवः, हे मानव !, मनुष्याणामेव प्रायश उपदेशार्हतान्मानव ग्रहणं, सम्यग्नारकतिर्यनरामरभेदेन 'प्रगाढा:' प्रकर्षेण व्यवस्थिता इति ॥ १२ ॥ लेशतो जन्तुभेदप्रदर्शनद्वारेण तत्पर्यटनमाह Internationa जे रक्खसा वा जमलोइया वा, जे वा सुरा गंधवा य काया । आगासगामी य पुढोसिया जे, पुणो पुणो विप्परियासुर्वेति ॥ १३ ॥ जमाडु ओहं सलिलं अपारगं, जाणाहि णं भवगहणं दुमोक्खं । जंसी विसन्ना विसयंगणाहिं, दुहओऽवि लोयं अणुसंचरंति ॥ १४ ॥ न कम्मुणा कम्म खवेंति बाला, अकम्मुणा कम्म खवेंति धीरा । मेधाविणो लोभमयावतीता, संतोसिणो नो पकरेंति पावं ॥ १५ ॥ ते तीयउप्पन्न मणागयाई, लोगस्स जाणंति तहागयाई । णेतारो अन्नेस अणन्नणेया, बुद्धा हु ते अंतकडा भवंति ॥ १६ ॥ For Parts Only ~444~ १२ समय सरणाध्य० ॥२२०॥ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [१६], नियुक्ति: [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्' मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१६|| दीप अनुक्रम [५५०] __ 'ये' केचन व्यन्तरभेदा राक्षसात्मानः, तद्ग्रहणाच सर्वेऽपि व्यन्तरा गृह्यन्ते तथा यमलौकिकात्मानः, अ(म्बाम्ब)म्बादयस्तदुपलक्षणात्सर्वे भवनपतयः तथा ये च 'सुराः' सौधर्मादिवैमानिकाः, चशब्दाज्ज्योतिष्काः सूर्यादयः, तथा ये 'गान्धवा' विद्याधरा व्यन्तरविशेषा वा, तद्ग्रहणं च प्राधान्यख्यापनार्थे, तथा 'कायाः पृथिवीकायादयः षडपि गृह्यन्त इति । पुनरन्येन प्रकारेण || | सत्त्वान्संजिघृक्षुराह—ये केचन 'आकाशगामिनः संप्राप्ताकाशगमनलब्धयश्चतुर्विधदेवनिकायविद्याधरपक्षिवायवः, तथा ये, च 'पृथिव्याश्रिताः पृथिव्यतेजोवनस्पतिद्वित्रिचतुष्पश्चेन्द्रियास्ते सर्वेऽपि खकृतकमेभिः पुनः पुनर्विविधम्-अनेकप्रकारं पयोसं-16 | परिक्षेपमरहट्टघटीन्यायेन परिभ्रमणमुप–सामीप्येन यान्ति-गच्छन्तीति ॥ १३ ॥ किश्चान्यत्-'यं' संसारसागरम् आहुः-उ-18 |क्तवन्तस्तीर्थकरगणधरादयस्तद्विदः, कथमाहुः १-स्वयम्भुरमणसलिलौघवदपारं, यथा स्वयम्भुरमणसलिलौषो न केनचिजलचरेण | स्थलचरेण वा लायितुं शक्यते एवमयमपि संसारसागरः सम्यग्दर्शनमन्तरेण लयितुं न शक्यत इति दर्शयति-'जानीहि' 18 || अवगच्छ णमिति वाक्यालङ्कारे, भवगहनमिदं-चतुरशीतियोनिलक्षप्रमाणं यथासम्भवं सङ्ख्येयासयेयानन्तस्थितिकं दुःखेन मु च्यत इति दुमोक्ष-दुरुत्तरमस्तिवादिनामपि, किं पुनर्नास्तिकानाम् !, पुनरपि भवगहनोपलक्षितं संसारमेव विशिनष्टि-'यत्र' ॥४॥ | यस्मिन् संसारे सावधकर्मानुष्ठायिनः कुमार्गपतिता असत्समवसरणग्राहिणो 'विषण्णा' अवसक्ता विषयप्रधाना अङ्गना विषयाङ्ग | नास्ताभिः, यदिवा विषयाश्चाङ्गनाश्च विषयाङ्गनास्ताभिर्वशीकृताः सर्वत्र सदनुष्ठानेऽवसीदन्ति, त एवं विषयाङ्गनादिके प३ || 18 विषण्णा 'द्विधाऽपि आकाशाश्रितं पृथिव्याश्रितं च लोकं, यदिवा स्थावरजङ्गमलोकं 'अनुसंचरन्ति' गच्छन्ति, यदिवा-'द्विधा ~445 Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [१६], नियुक्ति: [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक सूत्रकृताङ्गं शीलाका- चियुत ॥२२॥ ||१६|| दीप अनुक्रम [५५०] पि' इति लिङ्गमात्रप्रव्रज्ययाऽविरत्या (च) रागद्वेषाभ्यां वा लोक-चतुर्दशरज्ज्वात्मकं स्वकृतकर्मप्रेरिता 'अनुसञ्चरन्ति' बम्भ्र-1 १२ समवम्यन्त इति ॥ १४ ॥ किश्ान्यत् ते एवममत्समवसरणाश्रिता मिथ्यावादिभिर्दोषैरभिभूताः सावधेतरविशेषानभिज्ञाः सन्तः सरणाध्य. कर्मक्षपणार्थमभ्युद्यता निविवेकतया सावद्यमेव कर्म कुर्वते, न च 'कर्मणा' सावद्यारम्भेण 'कर्म' पार्य 'क्षपयन्ति व्यपनयन्ति, अज्ञानवादाला इव पालास्त इति, यथा च कर्म क्षिप्यते तथा दर्शयति-'अकर्मणा तु' आश्रयनिरोधेन तु अन्तशः शैलेश्यवस्थायां || कमें क्षपयन्ति 'पीराः' महासचाः सद्वैचा इव चिकित्सयाऽऽमयानिति । मेधा प्रज्ञा सा विद्यते येषां ते मेधाविनः-हिताहित-121 प्राप्तिपरिहाराभिज्ञा लोभमयं-परिग्रहमेवातीताः परिग्रहातिक्रमाल्लोभातीताः-वीतरागा इत्यर्थः, 'सन्तोषिणः' येन केनचित्ससन्तुष्टा अवीतरागा अपीति, यदिवा यत एवातीतलोभा अत एव सन्तोषिण इति, त एवंभूता भगवन्तः 'पापम्' असदनुष्ठानापादित कर्म 'न कुर्वन्ति' नाददति, कचित्पाठः, 'लोभभयादतीता' लोभश्च भयं च समाहारद्वन्दा, लोभावा भयं तस्मादतीताः सन्तोपिण इति, न पुनरुक्ताशङ्का विधेयेति, अतो (विधेयान यतो)लोभातीतखेन प्रतिषेधांशो दर्शितः, सन्तोषिण इत्यनेन च विध्यंश इति, यदिवा लोभातीतग्रहणेन समस्तलोभाभावः संतोषिण इत्यनेन तु सत्यप्यवीतरागले नोत्कटलोभा इति लोभाभावं दर्शयन्नपरकषायेभ्यो लोभस प्राधान्यमाह, ये च लोभातीतास्तेऽवश्यं पापं न कुर्वन्ति इति स्थितम् ॥ १५ ॥ ये च लोभातीतास्ते | ॥२२१॥ किम्भूता भवन्ति इत्याह-'ते' वीतरागा अल्पकषाया वा 'लोकस्य पञ्चास्तिकायात्मकस्य प्राणिलोकस्य वाऽतीतानि-अन्यजन्माचरितानि उत्पन्नानि वर्तमानावस्थायीनि अनागतानि च भवान्तरभावीनि सुखदुःखादीनि 'तथागतानि यथैव स्थिता-10 ~446~ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [१६], नियुक्ति: [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१६|| दीप अनुक्रम [५५०] M नि तथैव अवितथं जानन्ति, न विभङ्गाहानिन इव विपरीतं पश्यन्ति, तथाद्यागम:-"अणगारे णं भंते ! माई मिच्छादिही राय गिहे णयरे समोहए वाणारसीए नयरीए रूवाई जाणइ पासइ ?, जाव से से दंसणे विवजासे भवती" त्यादि, ते चातीतानागतवर्तमानज्ञानिनः प्रत्यक्षज्ञानिनश्चतुर्दशपूर्वविदो वा परोक्षज्ञानिनः 'अन्येषां संसारोचितीभ्रूणां भव्यानां मोक्षं प्रति नेतारः सदुपदेशं वा प्रत्युपदेष्टारो भवन्ति, न च ते स्वयम्बुद्धखादन्येन नीयन्ते-तत्वावयोधं कार्य(धवन्तः क्रिय)न्त इत्यनन्यनेयाः, हिताहितप्राप्तिपरिहारं प्रति नान्यस्तेषां नेता विद्यत इति भावः । ते च 'वुद्धा स्वयंबुद्धास्तीर्थकरगणधराद यः, हुशब्दवशब्दार्थे | विशेषणे वा, तथा च प्रदर्शित एव, ते च भवान्तकराः संसारोपादानभूतख वा कर्मणोऽन्तकरा भवन्तीति ॥१६॥ यावदद्यापि भवान्तं न कुर्वन्ति तावत्प्रतिषेध्यमशं दर्शयितुमाह-- तेणेव कुवंति ण कारवंति, भूताहिसंकाइ दुगुंछमाणा । सया जता विप्पणमंति धीरा, विपणत्ति (पणाय) धीरा य हवंति एगे ॥ १७ ॥ डहरे य पाणे बुड्ढे य पाणे, ते आत्तओ पासइ सवलोए । उबेहती लोगमिणं महंतं, बुद्धेऽपमत्तेसु परिवएज्जा ॥१८॥ जे आयओ पर १ अनगारो भदन्त | मायी मिभ्यारष्टिः राजगृहे नगरे समवहतः वाराणस्यां नगर्या रूपाणि जानाति पश्यति ।, यावत्स तस्य दर्शनविपर्यासो भवति । INI तदा सर्व पदार्थानां ज्ञातारले इति खयमित्यादि । । तत्त्वावबोधकार्य त इत्य.प्र.1४ प्र.। eeeeeeeeeeeeesesear ~447~ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१९|| दीप अनुक्रम [५५३] सूत्रकृतानं शीलाङ्का चाय चियुतं ॥२२२॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [१९], निर्युक्ति: [ १२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र- [ ०२ ] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः ओ वाणिच्चा, अलमप्पणो होति अलं परेसिं । तं जोइभूतं च सयावसेज्जा, जे पाउकुज्जा अणुवीति धम्मं ॥ १९ ॥ अत्ताण जो जाणति जो य लोगं, गई व जो जाणइ णागई च । जो सासयं जाण असासयं च, जातिं (च) मरणं च जणोववायं ॥ २० ॥ 'ते' प्रत्यक्षज्ञानिनः परोक्षज्ञानिनो वा विदितवेद्याः सावद्यमनुष्ठानं भूतोपमर्दाभिशङ्कया पापं कर्म जुगुप्समानाः सन्तो न स्वतः कुर्वन्ति, नाप्यन्येन कारयन्ति, कुर्वन्तमप्यपरं नानुमन्यन्ते । तथा स्वतो न मृषावादं जल्पन्ति नान्येन जल्पयन्ति नाप्यपरं जल्पन्तमनुजानन्ति, एवमन्यान्यपि महाव्रतान्यायोज्यानीति । तदेवं 'सदा' सर्वकालं 'यताः संयताः पापानुष्ठानान्निवृत्ता विविधं संयमानुष्ठानं प्रति 'प्रणमन्ति' प्रहीभवन्ति । के ते !-'धीराः' महापुरुषा इति । तथैके केचन हेयोपादेयं विज्ञाया| पिशब्दात्सम्यक्परिज्ञाय तदेव निःशङ्कं यजिनैः प्रवेदितमित्येवं कृतनिश्चयाः कर्मणि विदारयितव्ये वीरा भवन्ति, यदिवा परीषहोपसर्गानीकविजयाद्वीरा इति पाठान्तरं वा 'विष्णन्तिवीरा य भवंति एगे' 'एके' केचन गुरुकर्माणोऽल्पसत्त्वाः विज्ञप्ति:ज्ञानं, तन्मात्रेणैव वीरा नानुष्ठानेन, न च ज्ञानादेवाभिलषितार्थावाप्तिरुपजायते, तथाहि-- "अधीत्य शास्त्राणि भवन्ति मूर्खा, | यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान् । संचिन्त्यतामौषधमातुरं हि न ज्ञानमात्रेण करोत्यरोगम् ||१|| " ॥ १७ ॥ कानि पुनस्तानि १ जुगुप्सन्तः प्र० जुगुप्सां कुर्वन्त इति नामधातोः चैव शतरि २ चकारोऽपिशब्दार्थे यद्वा धीरावि इति भविष्यति । ३० वा त० प्र० । Eucation Intentiona For Parts Only ~ 448~ १२ समयसरणाध्य० ||||२२२|| Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२०|| दीप अनुक्रम [५५४] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [२०], निर्युक्ति: [ १२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ०२], अंग सूत्र -[०२ ] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः भूतानि ? यच्छङ्कयाऽऽरम्भं जुगुप्सन्ति सन्त इत्येतदाशङ्कयाह-ये केचन 'डहरे' त्ति लघवः कुन्थ्वादयः सूक्ष्मा वा ते सर्वेऽपि प्राणाः प्राणिनः ये च वृद्धाः प्रादरशरीरिणस्तान्सर्वानप्यात्मतुल्यान्- आत्मवत्पश्यति सर्वस्मिन्नपि लोके यावत्प्रमाणं मम तावदेव कुन्धोरपि, यथा वा मम दुःखमनभिमतमेवं सर्वलोकस्यपि, सर्वेषामपि प्राणिनां दुःखमुत्पद्यते, दुःखाद्वोद्विजन्ति, तथा चागमः- “बैढविकाए णं भंते! अकंते समाणे केरिसयं बेयणं वेएइ !" इत्याद्याः सूत्रालापकाः, इति मला तेऽपि नाक्रमितव्यान संघट्टनीयाः, इत्येवं यः पश्यति स पश्यति । तथा लोकमिमं महान्तमुत्प्रेक्षते, पड्जीवसूक्ष्मवादर भेदैराकुलान्महान्तं यदिवाऽनाद्यनिधनत्वान्महान् लोकः, तथाहि भव्या अपि केचन सर्वेणापि कालेन न सेत्स्यन्तीति यद्यपि द्रव्यतः पद्द्रव्यात्मकत्वात् क्षेत्रतश्चतुर्दशरज्जुप्रमाणतया सावधिको लोकस्तथापि कालतो भावतश्चानाद्यनिधन त्वात्पर्यायाणां चानन्तखान्महान् लोकस्तमुत्प्रेक्षत इति । एवं च लोकमुत्प्रेक्षमाणो बुद्धः - अवगततत्त्वः सर्वाणि मणिस्थानान्यशाश्वतानि, तथा नात्रापसदे संसारे सुखलेशोऽप्यस्तीत्येवं मन्यमानः 'अप्रमत्तेषु' संगमानुष्ठायिषु यतिषु मध्ये तथाभूत एव परिः समन्ताद्वजेत् परिव्रजेत् यदिवा बुद्धः सन् 'प्रमत्तेषु' गृहस्थेषु अप्रमत्तः सन् संयमानुष्ठाने परित्रजेदिति ।। १८ ।। किच- 'यः' स्वयं सर्वज्ञ आत्मनखैलोक्योदरविवरवर्तिपदार्थदर्शी यथावस्थितं लोकं ज्ञाला तथा यश्च गणधरादिकः 'परतः' तीर्थकरादेर्जीवादीन् पदार्थान् विदिता प| रेभ्य उपदिशति स एवंभूतो हेयोपादेयवेदी 'आत्मनखातुमलं' आत्मानं संसारावटात्पालयितुं समर्थो भवति, तथा परेषां च १ संबन्धे षष्ठी अपना देशादिव्यवच्छेदः २ उपचरितसर्वस्वव्यवच्छेदाय, भिनं वा वाक्यमेतत् ३ पृथ्वीकाविको भदन्त आकान्तः सन् कीदृशी वेदनां वेदयति । ४. नणि स्थाना० प्र० । Ja Eucation Internationa For Par Lise Only ~ 449~ Senesces wor Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२०|| दीप अनुक्रम [५५४] सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्काचायय तियुतं ॥२२३॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [२०], निर्युक्ति: [ १२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ०२], अंग सूत्र -[०२ ] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः | सदुपदेशदानतस्त्राता जायते, 'तं' सर्वज्ञं खत एव सर्ववेदिनं तीर्थकरादिकं परतोवेदिनं च गणधरादिकं 'ज्योतिर्भूतं' पदार्थप्रकाशकतया चन्द्रादित्यप्रदीपकल्पमात्महितमिच्छन् संसारदुःखोद्वियः कृतार्थमात्मानं भावयन् 'सततम्' अनवरतम् 'आवसेत्' सेवेत, गुर्वन्तिक एव यावज्जीवं वसेत्, तथा चोक्तम्- "नाणस्से होइ भागी थिरयरओ दंसणे चरिचे य । धन्ना आवकहाए गुरुकुलवासं ण मुंचति ॥ १ ॥" क एवं कुर्युः ? इति दर्शयति---ये कर्मपरिणतिमनुविचिन्त्य "माणुस्सखे सजाइ" इत्यादिना दुर्लभां च सद्धर्मावाप्तिं सद्धर्म वा श्रुतचारिवाख्यं क्षान्त्यादिदशविधसाधुधर्म श्रावकधर्म वा 'अनुविचिन्त्य' पर्यालोच्य झाला वा तमेव धर्म यथोक्तानुष्ठानतः 'प्रादुष्कुर्युः' प्रकटयेयुः ते गुरुकुलवासं यावज्जीवमासेवन्त इति, यदिवा ये ज्योतिर्भूतमाचार्य सततमासेवन्ति त एवागमज्ञा धर्ममनुविचिन्त्य 'लोकं' पश्चास्तिकायात्मकं चतुर्दशरज्ज्वात्मकं वा प्रादुष्कुर्युरिति क्रिया ।। १९ ।। किंचान्यत्- यो ह्यात्मानं परलोकयायिनं शरीराव्यतिरिक्तं सुखदुःखाधारं जानाति यश्वात्महितेषु प्रवर्तते स आत्मज्ञो भवति । येन चात्मा यथावस्थितस्वरूपोऽप्रत्ययग्राह्य निर्ज्ञातो भवति तेनैवायं सर्वोऽपि लोकः प्रवृत्तिनिवृत्तिरूपो विदितो भवति, स एव चात्मज्ञोऽस्तीत्यादि क्रियावादं भाषितुमर्हतीति द्वितीय वृत्तस्यान्ते क्रिया । यश्च 'लोक' चराचरं वैशाखस्थानस्थकटिस्थकरयुरमपुरुषाकारं चशब्दादलोकं चानन्ताकाशास्तिकायमात्रं जानाति, यथ जीवानाम् 'आगतिम' आगमनं कुतः समागता नारकास्तिर्यञ्चो मनुष्या देवाः ? कैर्वा कर्मभिर्नारकादिलेनोत्पद्यन्ते १ एवं यो जानाति, तथा 'अनागतिं च' अनागमनं च कुत्र गतानां नागमनं भवति ? चकारात्तद्गमनोपायं च सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकं यो जानाति, तत्रानागतिः -- सिद्धिरशेषकर्मच्यु १ शानस्य भवति भागी स्थिरतरो दर्शने चारित्रे च भन्या सावत्कथं गुरुकुलवासं न मुखन्ति ॥ १ ॥ २०भिज्ञातो प्र० । Education Internation For Parts Only ~450~ १२ समयसरणाध्य० ॥२२३॥ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [२०], नियुक्ति: [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||२०|| दीप अनुक्रम [५५४] sersesesereecenecesedesesed तिरूपा लोकायाकाशदेशस्थानरूपा वा ग्राह्या, सा च सादिरपर्यवसाना । यश्च 'शाश्वतं नित्यं सर्ववस्तुजातं द्रव्यास्तिकनयाश्रया 'अशाश्वतं' वाऽनित्यं प्रतिक्षणविनाशरूपं पयोयनयाश्रयणात, चकारानित्यानित्यं चोभयाकारं सर्वमपि वस्तुजातं यो जानाति, तथा बागमः-"णेरहया दबट्टयाए सासया भावढयाए असासया" एवमन्येऽपि तिर्यगादयो द्रष्टव्याः । अथवा निर्वाणशाश्वतं संसार:-अशाश्वतस्तद्गतानां संसारिणां स्वकृतकर्मवशगानामितश्चेतच गमनादिति । तथा 'जातिम्' उत्पत्रिं नारकतिर्यश्चनुष्यामरजन्मलक्षणां 'मरणं च' आयुष्कक्षयलक्षणं, तथा जायन्त इति जनाः-सत्चास्तेषामुपपातं यो जानाति, सच नारकदेवयोर्भवतीति, अत्र च जन्मचिन्तायामसुमतामुत्पचिस्थानं योनिर्मणनीया, सा च सचिनाचित्ता मिश्रा च तथा शीता उष्णा मिश्रा च तथा संवृता विवृता मिश्रा चेत्येवं सप्तविंशतिविधेति । मरण-पुनस्तिर्यअनुष्ययोः, च्यवनं-ज्योतिष्कवैमानिकानाम् उद्वर्तना-भवनपतिम्पन्तरनारकाणामिति ॥ २०॥ किश्व अहोऽवि सत्ताण विउद्दणं च, जो आसवं जाणति संवरं च । दुक्खं च जो जाणति निज्जरं च, सो भासिउमरिहइ किरियवादं ॥ २१ ॥ सद्देसु रूवेसु असजमाणो, गंधेसु रसेसु अदुस्समाणे । णो जीवितं णो मरणाहिकंखी, आयाणगुत्ते वलया विमुक्के ॥२२॥ तिमि । इति श्रीसमवसरणाध्ययनं द्वादशमं समत्तं ॥ (गाथाप०५६८) १ नैरविका द्रव्यार्थतया शावता भावार्थतया अशाश्रताः । SARERainintenanaana ~451~ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम [५५६] सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्का चाय चियुतं ॥२२४॥ “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [२२], निर्युक्ति: [ १२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ०२], अंग सूत्र -[०२ ] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - 'सत्त्वानां' स्वकृतकर्मफलभुजामधस्तान्नारकादौ दुष्कृतकर्मकारिणां विविधां विरूपां वा कुनां - जातिजरामरणरोगशोककु तां शरीरपीडां चशब्दाचद्भावोपायं यो जानाति, इदमुक्तं भवति - सर्वार्थसिद्धादारतोऽधः सप्तमीं नरकभुवं यावदसुमन्तः स कर्माणो विवर्तन्ते तत्रापि ये गुरुतरकर्माणस्तेऽप्रतिष्ठानन रकयायिनो भवन्तीत्येवं यो जानीते । तथा आश्रवत्यष्टप्रकारं कर्म येन स आश्रवः स च प्राणातिपातरूपो रागद्वेषरूपो वा मिथ्यादर्शनादिको वेति तं तथा 'संवरम्' आश्रवनिरोधरूपं यावदशेषयोगनिरोधखभावं चकारात्पुण्यपापे च यो जानीते तथा 'दुःखम्' असातोद्यरूपं तत्कारणं च च यो जानाति 'सुख' च तद्विपयेयभूतं यो जानाति, तपसा यो निर्जरां च इदमुक्त भवति यः कर्मबन्धहेतून् तद्विपर्यासहेतूंश्च तुल्यतया जानाति, तथाहि“यथाप्रकारा यावन्तः, संसारावेशहेतयः । तावन्तस्तद्विपर्यासा, निर्वाणावेश हेतवः ॥१॥" ' स एव परमार्थतो 'भाषितुं' वक्तुमर्हति, किं तद् ? इत्याह-क्रियावादम् अस्ति जीवोऽस्ति पुण्यमस्ति पापमस्ति च पूर्वाचरितस्य कर्मणः फलमित्येवंरूपं वादमिि तथाहि - जीवाजीवाश्रवसंवरबन्धपुण्यपापनिर्जरामोक्षरूपा नवापि पदार्थाः श्लोक येनोपात्ताः, तत्र य आत्मानं जानातीत्यनेन जीवपदार्थः, लोकमित्यनेना जीवपदार्थः, तथा गत्यनागतिः शाश्वतेत्यादिनाऽनयोरेव स्वभावोपदर्शनं कृतं तथाऽऽवसंवरी स्वरूपेणैवोपाचौ, दुःखमित्यनेन तु बन्धपुण्यपापानि गृहीतानि तदविनाभाविखाडुःखस्य, निर्जरायास्तु स्वाभिधानेनैवोपादानं, तत्फलभूतस्य च मोक्षस्योपादानं द्रष्टव्यमिति, तदेवमेतावन्त एवं पदार्थास्तदभ्युपगमेन चास्तीत्यादिकः क्रियावादोऽभ्युपगतो भवतीति, यश्चैतान् पदार्थान् 'जानाति' अभ्युपगच्छति स परमार्थतः क्रियावाद जानाति । ननु चापरदर्शनोक्तपदार्थपरिज्ञानेनं सम्प१ आदिनाऽशाश्वतं १ अजीवपक्षेऽनागतः स्थिति यद्वा जीवानां ते अजीरकृते इति । ३ वैषयिकमुखस्य दुःखरूपलान्न दुःखख पुण्याविनाभावानुपपत्तिः । ४ ज्ञानाच्छ्रद्वा ततः प्ररूपमेति सम्यग्वादिलशहा | Education International For Par Lise Only ~452~ १२ समवसरणाध्य० ॥२२४॥ war Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [२२], नियुक्ति: [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम [५५६] गवादित्वं कसानाभ्युपगम्यते , तदुक्तपदार्थानामेवापटमानसात् , तथाहि नैयायिकदर्शनेन तावत्प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनाहटान्तसिद्धान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितण्डाहेलाभासच्छलजातिनिग्रहस्थानानी येते पोडश पदार्था अभिहिताः, तत्र हेयोपादेय (निवृत्ति) प्रवृत्तिरूपतया येन पदार्थपरिच्छित्तिः क्रियते तत्प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणं, तच प्रत्यक्षानुमानोपमानशाब्दभेदाच्चतुर्की, तत्रेन्द्रियार्थसंनिकर्षोत्पन्न ज्ञानमव्यपदेश्यमयभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षं, तदन्द्रियार्थयोर्यः संबन्धस्तस्माद्यदुत्पन्न, नामिव्यत, ज्ञानं, न सुखादिकम् , अव्यपदेश्यमिति व्यपदेश्यले शाब्दप्राप्ते, अव्यभिचारि तद्धि द्विचन्द्रज्ञानवव्यभिचरतीति, व्यवसायात्मकमिति निश्चयात्मकं प्रत्यक्ष, तत्रास्य प्रत्यक्षतान बुध्य(युज्य)ते, तथाहि यत्रात्माऽर्थग्रहणं प्रति साक्षाव्याप्रियते तदेव प्रत्यक्षं, तच्चावधिमनःपर्यायकेवलात्मकम् , एतथापरोपाधिद्वारेण प्रवृत्तेरनुमानवत्परोक्षमिति, उपचारप्रत्यक्षं तु स्यात्, न चोपचारस्तत्त्वचिन्तायां व्याप्रियत इति । अनुमानमपि पूर्ववच्छेषवत्सामान्यतोदृष्यमिति विधा, तत्र कारणात्कार्यानुमानं पूर्ववत् कार्याकारणानुमानं | शेषवत् सामान्यतोदृष्टं तु चूतमेकं विकसितं दृष्ट्वा पुष्पिताछूता जगतीति यदिवा देवदचादौ गतिपूर्विका स्थानात स्थानान्तरात्राप्ति दृष्ट्वाऽऽदित्येऽपि मत्यनुमानमिति, तत्राप्यन्यथानुपपत्तिरेव गमिका, न कारणादिकं, तया विना कारणस्य कार्य प्रति व्यभिचारान्, यत्र तु सा विद्यते तत्र कार्यकारणादिन्यतिरेकेणापि गम्यगमकभावो दृष्टः, तद्यथा-भविष्यति शकटोदयः, कृत्तिकादर्शनादिति, तदुक्तम्-"अन्यथाऽनुपपन्नलं, यत्र तत्र त्रयेण किम् ? । नान्यथाऽनुपपनसं, यत्र तत्र त्रयेण किम् ? ॥१॥" अपिचप्रत्यक्षस्थाप्रामाण्ये तत्पूर्वकस्वानुमानस्खाग्रामाण्यमिति । प्रसिद्धसाधम्यात्साध्यसाधनमुपमानं, यथा गौर्मवयस्तथा, अत्र च सञ्चास अनाना खात्मा शानसरूप इतीन्द्रियाविनाऽभिव्यज्यते शान तेषां दापयते । २ सुखस्यापीन्द्रियास्पिनरवात् ।। प्रियार्थोत्यं । versectatoercedesesecesteroesese ~453~ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [२२], नियुक्ति: [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२२|| सूत्रकृताङ्ग18 शिसंवन्धप्रतिपत्तिरुपमानार्थः, अत्रापि सिद्धायामन्यथाऽनुपपत्तावनुमानलक्षणवेन तत्रैवान्तर्भावात्पृथकप्रमाणखमनुपपन्नमेव, अथ || १२ समवशीला18| नास्त्यनुपपत्तिस्ततो व्यचिचारादप्रमाणतोपमानस्य । शाब्दमपि न सर्व प्रमाण, किं तर्हि १, आप्तप्रणीतस्यैवागमस्य प्रामाण्यं, न || सरणाध्य० चाययित्र चाहत्यतिरेकेणापरस्याप्तता पुक्तियुक्तेति, एतच्चान्यत्र निर्लोठितमिति । किश्च-सर्वमप्येतत्प्रमाणमात्मनो ज्ञानं ज्ञानं चात्मनो गुणः नैयायिकचियुत (गुणव) पृथक्पदार्थतयाऽभ्युपगन्तुं न युक्तो, रूपरसादीनामपि पृथक्पदार्थताऽऽपत्तेः, अथ प्रमेयग्रहणेनेन्द्रियार्थतया तेऽप्याश्रिताः, ॥२२५॥ | सत्यमाश्रिताः, न तु युक्तियुक्ताः, तथाहि-द्रव्यव्यतिरेकेण तेपामभावात् तद्ग्रहणे च तेषामपि ग्रहणं सिद्धमेवेति न युक्तं पृथगुपा दानम् । प्रमेयं खात्मशरीरेन्द्रियार्थयुद्धिमनःप्रवृत्तिदोषप्रेत्यभावफलदुःखापवर्गाः, तत्रात्मा सर्वस्य द्रष्टोपभोक्ता चे(स चे)च्छाद्वेषप्रय सुखदुःखज्ञानानुमेया, सच जीवपदार्थतया गृहीत एवासाभिरिति, शरीरंतु तस्य भोगायतनं, भोगायतनानीन्द्रियाणि, भोक्तच्या इन्द्रियार्थाः, एतदपि शरीरादिकं जीवाजीवग्रहणेनोक्तमसामिरिति । उपयोगो बुद्धिरित्येतच्च ज्ञानविशेषः, स च जीवगुणतया जीवो पादानतयो(नेनो)पात एव । सर्व विषयमन्तःकरणं युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिलिङ्ग मनः, तदपि द्रव्यमनः पौगलिकमजीवग्रहणेन गृहीतं, मा18|| वमनस्वात्मगुणखाजीवग्रहणेनेति । आत्मनः सुखदुःखसंवेदनानां निवतेनकारणं प्रवृत्तिः, सापि पृथकपदार्थतया नाभ्युपगन्तुं युक्ता, 8| तथाहि-प्रवृत्तिरित्यात्मेच्छा, सा चात्मगुण एव, आत्माऽभिप्रायतया ज्ञानविशेषखाद्, आत्मानं दूपयतीति दोषः, तथा अस्था-18| |8| त्मनो नेदं शरीरमपूर्वम् , अनादिवादस्य, नाप्यनुत्तरम् , अनन्तखात्सन्तवेरिति, (शरीरेऽपूर्वतया सान्ततया वा)योऽयमात्मनोऽध्यव-1%|॥२२५।। सायः स दोषो, रागद्वेषमोहादिको वा दोषः, अयमपि दोषो जीवाभिप्रायतया तदन्तर्भावीति न पृथग्वाच्यः । प्रेत्यभावः-परलोकसद्भावोऽयमपि ससाधनो जीवाजीवग्रहणेनोपात्तः, फलमपि-सुखदुःखोपभोगात्मक, तदपि जीवगुण एवान्तर्भवतीति न पृथगुपदेष्ट estakestaesents दीप अनुक्रम [५५६] se ~454 Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||22|| दीप अनुक्रम [५५६] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [२२], निर्युक्ति: [ १२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ०२], अंग सूत्र -[०२ ] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - व्यमिति, दुःखमित्येतदपि विविधबाधनयोगरूपमिति न फलादतिरिच्यते, जन्ममरणप्रबन्धोच्छेदरूपतया सर्वदुःखप्रहाणलक्षणो मोक्षः, स चास्माभिरुपात एवेति । किमित्यनवधारणात्मकः प्रत्ययः संशयः, असावपि निर्णयज्ञानवदात्मगुण एवेति, येन प्रयुक्तः प्रवर्तते तत्प्रयोजनं, तदपीच्छाविशेषत्वादात्मगुण एव, अविप्रतिपत्तिविषयापनोऽथ दृष्टान्तः, असावपि जीवाजीवयोरन्यतरः, न चैतावताऽस्य पृथकपदार्थता युक्ता, अतिप्रसङ्गाद्, अवयवग्रहणेन च तस्योत्तरत्र ग्रहणादिति । सिद्धान्तश्चतुर्विधः, तद्यथा--- | सर्वतन्त्राविरुद्धस्तन्त्रेऽधिकृतोऽर्थः सर्वतन्त्रसिद्धान्तः १, यथा स्पर्शनादीनीन्द्रियाणि स्पर्शादय इन्द्रियार्थाः प्रमाणैः प्रमेयस्य ग्रहणमिति १, समानतन्त्रसिद्धः परतन्त्रासिद्धः प्रतितन्त्रसिद्धान्तो यथा साहयानां नासत आत्मलाभो न च सतः सर्वथा विनाश इति, तथा चोक्तम्- "नासतो जायते भावो नाभावो जायते सतः" इति २, यत्सिद्धावन्यस्वार्थस्यानुषङ्गेण सिद्धिः सोऽधिकरणसिद्धान्तः ३, यथेन्द्रियव्यतिरिक्तो ज्ञाताऽऽत्माऽस्ति दर्शनस्पर्शनाभ्यामेकार्थग्रहणादिति, तत्रानुषङ्गिणो १ इन्द्रियनानात्वं २ नियतविषयाणीन्द्रियाणि ३ स्वविषयग्रहणलिङ्गानि च ४ ज्ञातुर्ज्ञानसाधनानि ५ स्पर्शादिगुणव्यतिरिक्तं द्रव्यं ६ गुणाधिकरण ७ मनियतविषयाश्चेतनाः ८ इति, पूर्वार्थसिद्धावेतेऽर्थाः सिध्यन्ति, नैतैर्विना पूर्वार्थः संभवतीति ३, अपरीक्षितार्थाभ्युपगमात्तद्विशेषपरीक्षण| मभ्युपगमसिद्धान्तः ४, तद्यथा, किं शब्द इति विचारे कश्चिदाह-अस्तु द्रव्यं शब्दः, स तु किं नित्योऽयानित्यः ?, इत्येवं विचारः, स चायं चतुर्विधोऽपि सिद्धान्तो न ज्ञानविशेषादतिरिच्यते, ज्ञानविशेषस्यात्मगुणखाद्गुणस्य च गुणिग्रहणेन ग्रहणाद् न पृथगुपादानमिति४ । अथावयवाः प्रतिज्ञाहेतुदाहरणोपन यनिगमनानि, तत्र साध्यनिर्देशः प्रतिज्ञा, यथा नित्यः शब्दोऽनित्यो वेति, हिनोति - गमयति प्रतिज्ञातमर्थमिति हेतुः, तद्यथा - उत्पत्तिधर्मकत्वात् साध्यसाधर्म्यवैधर्म्यभावे दृष्टान्तः उदाहरणं, यथा Education International For Parts Only ~ 455~ Rotatoesesesese www.or Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [२२], नियुक्ति: [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२२|| चार्याय दीप अनुक्रम [५५६] मृत्रकता घट इति, वैधोदाहरणं यदनित्यं न भवति तदुत्पत्तिमदपि न भवति यथाऽऽकाशमिति, तथा न तथेति वा पक्षधर्मोपसंहार समनशीलाका- | उपनयः, तद्यथा-अनित्यः शब्दः कृतकखाद् घटवत्तथा चार्य, अनित्यलाभावे कृतकलमपि न भवत्याकाशवत् न तथाऽयमिति, सरणाध्य० प्रतिज्ञाहेलोः पुनवेचनं निगमन, तसादनित्य इति, ते चामी पश्चाप्यवयवा यदि शब्दमानं ततः शब्दस पौगिलकखात्पुद्गलानां ||| नयायिकतियुतं चाजीवग्रहणेन ग्रहणान पृथगुपादानं न्याय्यम् , अथ तजं ज्ञानं ततो जीवगुणखात् जीवग्रहणेनैवोपादानमिति, ज्ञानविशेषप- तत्वनिरासः ॥२२६॥ | दार्थताऽभ्युपगमे च पदार्थबहुखं खाद्, अनेकप्रकारखाज्ज्ञानविशेषाणामिति । संशयाल भवितव्यताप्रत्ययः सदर्थपोलोचना-1 |त्मकस्तः , यथा भवितव्यमत्र स्थाणुना पुरुषेण वेति, अयमपि ज्ञानविशेष एव, न च ज्ञानविशेषाणां ज्ञातुरभिन्नानां पृथक् पदार्थपरिकल्पनं समनुजानते विद्वांसः । संशयतर्काभ्यामुत्तरकालभावी निश्चयात्मका प्रत्ययो निर्णयः, अयमपि प्राग्वन ज्ञानाद|तिरिच्यते, किश्च-अस्य निचयात्मकतया प्रत्यक्षादिप्रमाणान्तर्भावान पृथर निर्देशो न्याय्य इति । तिस्रः कथाः-चादो जल्पो| | वितण्डा चेति, तत्र प्रमाणतकेसाधनोपालम्भः सिद्धान्ताविरुद्धः पश्चावयवोपपन्नः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहो बादः, स च तत्वज्ञाना थे शिष्याचार्ययोर्भवति, स एव विजिगीषुणा सार्धं छलजातिनिग्रहस्थानसाधनोपालम्भो जल्पः, स एव प्रतिपक्षस्थापनाहीनो |वितण्डेति, तत्रासां तिसृणामपि कथानां भेद एव नोपपद्यते, यतस्तत्त्वचिन्तायां तचनिर्णयार्थ वादो विधेयो, न छलजल्पादिना ॥ तत्वावगमः कर्तुं पार्यते, छलादिकं हि परवञ्चनार्थमुपन्यस्यते, न च तेन तचावगतिः इति सत्यपि भेदे नैवासां पदार्थता, यतो ॥२२६॥ | यदेव परमार्थतो वस्तुवृत्या वस्वस्ति तदेव परमार्थतयाऽभ्युपगन्तुं युक्तम् , वादास्तु पुरुषेच्छावशेन भवन्तोऽनियता वर्तन्ते(तत्) न | तेषां पदार्थतेति, किच-पुरुषेच्छानुविधायिनो वादाः कुकुटलावकादिष्वपि पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहेण भवन्त्यतस्तेषामपि तत्त्वप्राप्तिः ~456~ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||22|| दीप अनुक्रम [५५६] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [२२], निर्युक्ति: [ १२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ०२], अंग सूत्र -[०२ ] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - स्यान्न चैतदिष्यत इति । असिद्धानैकान्तिकविरुद्धा हेखाभासाः, हेतुवदाभासन्त इति हेत्वाभासाः, तत्र सम्यग्धेतूनामपि न तत्त्व- । व्यवस्थितिः किं पुनस्तदाभासानां १, तथाहि इह यन्नियतं वस्त्वस्ति तदेव तत्त्वं भवितुमर्हति हेतवस्तु कचिद्वस्तुनि साध्ये हेतवः कचिदहेतव इत्यनियतास्त इति । अथ 'छलम्' अर्थविघातोऽर्थ विकल्पोपपच्येति, तत्रार्थविशेषे विवक्षितेऽभिहिते वक्तुरभिप्रायादर्थान्तरकल्पना बाछलं, यथा नवकम्बलोऽयं देवदत्तः, अत्र च नवः कम्बलोऽस्येति वक्तुरभिप्रायो विग्रहे च विशेषो न समासे, तत्रायं छलवादी नव कम्बला अस्येत्येतद्भवताऽभिहितमिति कल्पयति, न चायं तथेत्येवं प्रतिषेधयति, तत्र छलमित्यस - दर्थाभिधानं तद्यदि छलं न तर्हि तच्चं तत्त्वं चेन्न तर्हि छलं, परमार्थरूपत्वात्तत्वस्येति, तदेवं छलं तच्चमित्यतिरिक्ता वाचोयुक्तिः । दूषणाभासास्तु जातयः, तत्र सम्यग्रदुषणस्यापि न तचव्यवस्थितिः, अनियतत्वात् अनियतत्त्वं च यदेवैकसिन् सम्यग्रदूषणं तदेवान्यत्र दूषणाभासं पुरुषशक्त्यपेक्षत्वाच्च दूषणदूषणाभासव्यवस्थितेरनियतलमिति कुतः पुनर्दूषणाभासरूपाणां जातीनाम् ?, अवास्तवच्चात्तासामिति । वादकाले वादी प्रतिवादी वा येन निगृह्यते तनिग्रहस्थानं, तच्च वादिनोऽसाधनाङ्गवचनं प्रतिवादिनस्तदो (श्र तत्तदोषोद्भावनं विहाय यदन्यदभिधीयते नैयायिकैस्तत्प्रलापमात्रमिति, तच प्रतिज्ञाहानिः प्रतिज्ञान्तरं प्रतिज्ञाविरोध इत्यादिकम् एतच्च विचार्यमाणं न निग्रहस्थानं भवितुमर्हति भवदपि च पुरुषस्यैवापराधं कर्तुमलं, न खेतत्तन्त्रं भवितुमर्हति वक्तृगुगदोपौ हि परार्थेऽनुमानेऽधिक्रियेते न तु तच्चमिति, तदेवं न नैयायिकोक्तं तत्त्वं तत्त्वेनाश्रयितुं युज्यते, तस्योक्तनीत्या सदोपखा| दिति ॥ नापि वैशेषिकोक्तं तत्त्वमिति, तथाहि द्रव्यगुणकर्मसामान्य विशेषसमवायास्तत्त्वमिति, तत्र पृथिव्यप्तेजोवायुराकाशं कालो दिगात्मा मन इति नव द्रव्याणि तदत्र पृथिव्यप्तेजोवायूनां पृथग्द्रव्यत्वमनुपपन्नं, तथाहि त एवं परमाणवः प्रयोगविसा Education Internationa For Pernal Use On ~457~ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम [५५६] सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्का चाय चियुतं ॥२२७॥ “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [२२], निर्युक्ति: [ १२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र- [ ०२ ] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः - भ्यां पृथिव्यादित्वेन परिणमन्तोऽपि न स्वकीयं द्रव्यत्वं त्यजन्ति न चावस्थाभेदेन द्रव्यभेदो युक्तः, अतिप्रसङ्गादिति । आकाशकालयोश्चास्माभिरपि द्रव्यत्वमभ्युपगतमेव, दिशस्त्वाकाशावयवभूताया अनुपपत्रं पृथग्द्रव्यत्वमतिप्रसङ्गदोषादेव, आत्मभच स्व| शरीरमात्रव्यापिन उपयोगलक्षणस्याभ्युपगतमेव द्रव्यत्वमिति, मनसश्च पुद्गलविशेषतया पुद्गलद्रव्येऽन्तर्भाव इति [ परमाणुवत् ], | भावमनसब जीवगुणत्वादात्मन्यन्तर्भाव इति । यदपि तैरभिधीयते, यथा पृथिवीत्वयोगात्पृथिवीति, तदपि स्वप्रक्रियामात्रमेव, यतो न हि पृथिव्याः पृथग्भूतं पृथिवीत्वमपि येन तद्योगात्पृथिवी भवेद् अपितु सर्वमपि यदस्ति तत्सामान्यविशेषात्मकं नरसिंहाकारमुभयस्वभावमिति, तथा चोक्तम्- "नान्वयः स हि भेदत्वान्न भेदोऽन्वयवृत्तितः । मृद्भेदद्वयसंसर्गवृत्तिजा (ज) त्यन्तरं घटः ॥ १ ॥" तथा "न नरः सिंहरूपत्वाम सिंहो नररूपतः । शब्दविज्ञानकार्याणां भेदाञ्जात्यन्तरं हि सः ॥ १ ॥ इत्यादि । अथ रूपरसगन्धस्पर्शा रूपिद्रव्यवृत्तेर्विशेषगुणाः, तथा सङ्ख्यापरिमाणानि पृथक्त्वं संयोगविभागौ परत्वापरले इत्येते सामान्यगुणाः सर्वद्रव्यवृत्तितात्, तथा बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्रधर्माधर्मसंस्कारा आत्मगुणाः, गुरुवं पृथिव्युदकयोर्द्रवखं पृथिव्युदकाभिषु स्नेहोऽम्भस्येव वेगाख्यः संस्कारो मूर्तद्रव्येष्वेव आकाशगुणः शब्द इति । तत्र सङ्ख्यादयः सामान्यगुणा रूपादिवद्रव्यस्वभा (वाभा)वत्वेन परोपाधिकत्वाद्गुणा एव न भवन्ति, अथापि स्युस्तथापि न गुणानां पृथक्त्वव्यवस्था, तत्पृथक्त्वभावे द्रव्यस्वरूपहाने: 'गुणपर्यायवद् द्रव्य (तस्वा०अ०५ सू० )मितिकृत्वा अतो नान्तरीयकतया द्रव्यग्रहणेनैव ग्रहणं न्याय्यमिति न पृथग्भावः । किञ्च तस्य भावस्तच्वमित्युच्यते, भावप्रत्ययश्च यस्य गुणस्य हि भावाद् द्रव्ये शब्दनिवेशस्तदभिधाने 'स्वतला' वित्यनेन भवति, तंत्र घटो रक्त उदकस्याहारको जलवान् सर्वैरेव घट उच्यते, अत्र च घटस्य भावो घटत्वं रक्तस्य भावो रक्तवं आहारकस्य भाव आहारकत्वं Eaton International For Praise Only ~458~ १२ समवसरणाध्य० वैशेषिकतत्वनिरासः ॥२२७॥ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||22|| दीप अनुक्रम [५५६ ] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [२२], निर्युक्ति: [ १२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ०२], अंग सूत्र -[०२ ] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः | जलवतो भावो जलवत्त्वमित्यत्र घटसामान्यरक्तगुणक्रियाद्रव्यसंबन्धरूपाणां गुणानां सद्भावात् द्रव्ये पृथुयुभाकार उदकाद्याहरणक्षमे कुटकाख्ये शब्दस्य घटादेरभिनिवेशस्तत्र त्वतलौं, इह च रक्ताख्यः को गुणो ? यत् सद्भावात्, कतरच्च तद् द्रव्यं यत्र शब्दनिवेशो | येन भावप्रत्ययः स्यादिति । किमिदानीं रक्तस्य भावो रक्तत्वमिति न भवितव्यं ?, भवितव्यमुपचारेण, तथाहि--रक्त इत्येतद्रव्यत्वेनोपचर्य तस्य सामान्यं भाव इति रक्तत्वमिति, न चोपचारस्तत्त्व चिन्तायामुपयुज्यते, शब्दसिद्धावेव तस्य कृतार्थत्वादिति शब्द श्राकाशस्य गुण एव न भवति, तस्य पौगलिकत्वाद्, आकाशस्य चामूर्तत्वादिति । शेषं तु प्रक्रियामात्रं न साघनदूषणयोरङ्गस् । क्रियाऽपि द्रव्यसमवायिनी गुणवत्पृथमाश्रयितुं न युक्तेति । अथ सामान्यं तद्विधा परमपरं च तत्र परं महासत्ताख्यं द्रव्यादिपदार्थव्यापि, तथाचोक्तम्- "सदिति यतो द्रव्यगुणकर्मसु सा सत्ता" अपरं च द्रव्यत्वगुणत्व कर्मत्वात्मक, तत्र न तावन्महासत्तायाः पृथक्पदार्थता युज्यते, यतस्तस्यां यः सदिति प्रत्ययः स किमपरसत्तानिबन्धन उत्त स्वत एव १, तत् यद्यपरसत्तानिबन्धनस्तत्राप्ययमेव विकल्पोऽतोऽनवस्था, अथ स्वत एव ततस्तद्वद् द्रव्यादिष्वपि खत एव सत्प्रत्ययो भविष्यतीति किमपैरसतयाऽजागलस्तन कल्पया विकल्पितया ?, किश्च द्रव्यादीनां किं सतां सत्तया सत्प्रत्यय उतासतां १, तत् यदि सतां स्वत एव सत्प्रत्ययो भविष्यति किं तया ?, असत्पक्षे तु शशविषाणादिष्वपि सत्तायोगात्सत्प्रत्ययः स्यादिति, तथा चोक्तम्"स्वतोऽर्थाः सन्तु सत्तावत्सत्तया किं सदात्मनाम् ? । असदात्मसु नैषा स्वात्सर्वथाऽतिप्रसङ्गतः ॥ १ ॥ इत्यादि । एतदेव दूषणमपरसामान्येऽप्यायोज्यं, तुल्ययोगक्षेमत्वात् । किञ्च- अस्माभिरपि सामान्यविशेषरूपत्वाद्वस्तुनः कथञ्चित्तदिष्यत एवेति, तस्य च १ समानखभावो भावः । २ गुणस पदार्थस्वरूपलान पृथकपदार्थता ३ द्रव्यादिभिन्नया । Ja Eucation Internation For Park Use Only ~459~ cocoes wor Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम [५५६] सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्का चाय तियुतं ॥२२८॥ “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [२२], निर्युक्ति: [ १२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र- [ ०२ ] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः - | कथञ्चित्तदव्यतिरेकाद् द्रव्यग्रहणेनैव ग्रहणमिति । अथ विशेषाः, ते चात्यन्तव्यावृत्तिबुद्धिहेतुत्वेन परैराश्रीयन्ते तत्रेदं चिन्त्यतेया तेषु विशेषबुद्धिः सा नापरविशेषहेतकाऽऽश्रयितव्या, अनवस्थाभयात् स्वतः समाश्रयणे च तद्वद् द्रव्यादिष्वपि विशेषबुद्धिः स्यात्किं द्रव्यादिव्यतिरिक्तैर्विशेषैरिति १, द्रव्याव्यतिरिक्तास्तु विशेषा अस्माभिरप्याश्रीयन्ते, सर्वस्य सामान्यविशेषात्मकत्वादिति । एतत्तुं प्रक्रियामात्रं, तद्यथा - नित्यद्रव्यवृत्तयोऽन्त्या विशेषाः, नित्यद्रव्याणि च चतुर्विधाः परमाणवो मुक्तात्मानो मुक्तमनांसि च, ईति नियुक्तिकत्वादुपकर्णयितव्यमिति । समवायस्तु-अयुतसिद्धानामाधाराधेयभूतानां य इह प्रत्ययहेतुः स समवाय इत्युच्यते, असावपि नित्यथैकथाश्रीयते, तस्य च नित्यत्वात्समवायिनोऽपि नित्या आपद्येरन्, तदनित्यत्वे च तस्याप्यनित्यत्वापत्तिः, तदाधाररूपत्वात्तस्य तदेकत्वाच्च सर्वेषां समवायिनामेकत्वापत्तिः, तस्य चानेकत्वमिति । किञ्च-अयं समवायः संबन्धः, तस्य च द्वित्वा युतसिद्धत्वमेव दण्डदण्डिनोरिव, वीरणानां च कटोत्पत्तौ तद्रूपतया विनाशः कटरूपतयोत्पचिरन्चयरूपतया व्यव| स्थानमिति दुग्धदभोरिवेत्येवं वैशेषिकमतेऽपि न सम्यक् पदार्थावस्थितिरिति ॥ साम्प्रतं सात्यदर्शने तत्त्वनिरूपणं प्रक्रम्यते तत्र प्रकृत्यात्मसंयोगात्सृष्टिरुपजायते, प्रकृतिश्र सच्चरजस्तमसां साम्यावस्था ततो महान् महतोऽहङ्कारः अहङ्कारादेकादशेन्द्रियाणि पञ्चतन्मात्राणि तन्मात्रेभ्यः पञ्च भूतानीति, चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपं स चाकर्ता निर्गुणो भोक्तेति । तत्र परस्परविरुद्वानां सत्वादीनां गुणानां प्रकृत्यात्मनां नियामकं गुणिनमन्तरेणैकत्रावस्थानं न युज्यते, कृष्णसितादिगुणानामिव न च महदादिवि - १ वक्ष्यमाणं । २ एतन्निरूपणं । ३ अपरविशेषभावयोदयात् । ४ युग्मयोर्मित्रत्वेन ५ पृथग्भूता वर्गो भाडा, वर्णमयानि द्रव्याणि तेषां गुणानां वा स्वयं द्रव्यान्तरेण यथा नामस्थानं विरुद्धानां । Education International For Parts Only ~460~ १२ समय सरणाध्य० वैशेषिकतत्वनिरास: ॥२२८॥ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||22|| दीप अनुक्रम [५५६ ] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [२२], निर्युक्ति: [ १२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ०२], अंग सूत्र -[०२ ] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - कारे जन्ये प्रकृतिवैपम्योत्पादने कविद्धेतुः, तद्व्यतिरिक्तवस्त्वन्तरानभ्युपगमाद्, आत्मनश्चाकर्तृलेनाकिञ्चित्करतात्, स्वभाववैषम्याभ्युपगमे तु निर्हेतुकलापचेर्नित्यं सत्त्वमसत्वं वा स्यादिति, उक्तं च--"नित्यं सत्यमसच्चं वाऽहेतोरन्यानपेक्षणात् । अपेक्षातो हि भावानां, कादाचित्कत्वसंभवः ॥ १ ॥” अपिच --- महदहङ्कारौ संवेदनादभित्रौ पश्यामः तथाहि बुद्धिरध्यवसायोऽहङ्कारश्चाहं मुख्यहं दुःखीत्येवमात्मकः प्रत्ययः, तयोविद्रूपतयाऽऽत्मगुणलं, न जडरूपायाः प्रकृतेर्विकारावेताविति । अपिच४ येयं तन्मात्रेभ्यो भूतोत्पत्तिरिष्यते, तद्यथा- गन्धतन्मात्रात्पृथिवी रसतन्मात्रादापः रूपतन्मात्रात्तेजः स्पर्शतन्मात्राद्वायुः शब्दतन्मात्रादाकाशमिति, साऽपि न युक्तिक्षमा, यतो यदि बाह्यभूताश्रयेणैतदभिधीयते, तदयुक्तं, तेषां सर्वदा भावात्, न कदाचि९ दनीदृशं जगदितिकृला, अथ प्रतिशरीराश्रयणादेतदुच्यते, तत्र किल लगस्थि कठिनलक्षणा पृथ्वी लेष्मास द्रवलक्षणा आपः पक्तिलक्षणं तेजः प्राणापानलक्षणो वायुः शुषिरलक्षणमाकाशमिति, तदपि न युज्यते, यतोऽत्रापि केषाञ्चिच्छरीराणां शुक्राटकप्रभावोत्पत्तिः, न तत्र तन्मात्राणां गन्धोऽपि समुपलक्ष्यते, अदृष्टस्यापि कारण कल्पनेऽतिप्रसङ्गः स्यात्, अण्डजोजिआङ्कुरादीनामप्यन्यत एवोत्पत्तिर्भवन्ती समुपलक्ष्यते, तदेवं व्यवस्थिते प्रधानमहदहङ्कारादिकोत्पत्तिर्या सांख्यैः स्वप्रक्रिययाऽऽभ्युपगम्यते तसैर्निर्युक्तिकमेव स्वदर्शनानुरागेणाभ्युपगम्यत इति । आत्मनश्वाकर्डलाभ्युपगमे कृतनाशोऽकृतागमश्च स्यात् बन्धमोक्षाभावश्च, | निर्गुणखे च ज्ञानशून्यतापत्तिरित्यतो बालप्रलापमात्रं, प्रकृतेश्वाचेतनाया आत्मार्थं प्रवृत्तिर्युत्तिविकलेति । अथ बौद्धमतं निरूप्यतेतत्र हि पदार्था द्वादशायतनानि, तद्यथा चक्षुरादीनि पञ्च रूपादयच विषयाः पञ्च शब्दायतनं धर्मायतनं च, धर्माः- सुखादयो 1 [वैधर्म्या० प्र० । २ गन्धः संबन्धलेशयोः । ३ तन्मात्रापचकस्य । ४ मानसमिति शब्दान्तरं तस्य शब्दमयविचारात्मकत्वात् । Education Internation For Pasta Use Only ~461~ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], मूलं [२२], नियुक्ति: [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२२|| चार्याय दीप अनुक्रम [५५६] सूत्रकृताई 18 द्वादशायतनपरिच्छेदके प्रत्यक्षानुमाने द्वे एव प्रमाणे, तत्र चक्षुरादी(दिद्रव्ये)न्द्रियाण्यजीवग्रहणेनैवोपाचानि, भाषेन्द्रियाणि तु॥ शीलाका- जीवग्रहणेनेति, रूपादयश्च विषया अजीबोपादानेनोपात्तान पृथगुपादातव्याः, शब्दायतनं तु पौगालिकखाच्छब्दस्खाजीवग्रहणेन गृही-18| चियुत तं, न च प्रतिव्यक्ति पृथकपदार्थता युक्तिसंगतेति, धर्मात्मक सुखं दुःखं च यद्यसा(तासा)तोदयरूपं ततो जीवगुणताजीवेऽन्तर्भावः, | अथ तत्कारणं कर्म ततः पौगलिकलादजीव इति । प्रत्यक्षं च तेनिर्विकल्पकमिष्यते, तच्चानिश्चयात्मकतया प्रवृत्तिनिवृत्योरनङ्ग॥२२९॥ मित्यप्रमाणमेव, तदप्रामाण्ये तत्पूर्वकलादनुमानमपीति, शेषस्वाक्षेपपरिहारोऽन्यत्र सुविचारित इति नेह प्रतन्यत इत्यनया दिशा मीमांसकलोकायतमताभिहिततचनिराकरणं खबुद्ध्या विधेयं, तयोरत्यन्तलोकविरुद्धपदार्थानां श्रयणान्न साक्षादुपन्यासः कृत इति । तस्मात्पारिशेष्यसिद्धा अर्हदुक्ता नव सप्त वा पदार्थाः सत्याः तत्परिज्ञानं च क्रियावादे हेतुः नापरपदार्थपरिक्षानमिति ।। २१ ॥ साम्प्रतमध्ययनार्थमुपसंजिहीर्षः सम्यग्यादपरिज्ञानफलमादर्शयबाह-'शब्देषु' वेणुवीणादिषु श्रुतिसुखदेषु 'रू-101 पषु च' नयनानन्दकारिषु 'आसङ्गमकुर्वन्' गायमकुर्वाणः, अनेन रागो गृहीतः, तथा 'गन्धेषु' कुथितकलेवरादिषु 'रसेषु |च' अन्तप्रान्ताशनादिषु अदुष्यमाणोऽमनोज्ञेषु द्वेषमकुर्वन् , इदमुक्तं भवति-शब्दादिष्विन्द्रियविषयेषु मनोज्ञेतरेषु रागद्वेषाभ्या-18 | मनपदिश्यमानो 'जीवितम्' असंयमजीवितं नाभिकाझेच, नापि परीषहोपसर्गरभिद्रुतो मरणममिका त् , यदिवा जीवितमर-12 णयोरनभिलाषी संयममनुपालयेदिति । तथा मोक्षार्थिनाऽऽदीयते गृह्यत इत्यादानं संयमस्तेन तस्मिन्या सति गुप्तो, यदिवा- मिथ्यावादिनाऽऽदीयते इत्यादानम्-अष्टप्रकारं कर्म तसिन्नादातव्ये मनोवाकायैर्गुप्तः समितच, तथा भाववलय-माया तया || विमुक्तो मायामुक्तः। इतिः परिसमाप्त्यर्थे । ब्रवीमीति पूर्ववत् । नयाः पूर्ववदेव ।।२शा समाप्तं समवसरणाख्यं द्वादशमध्ययनमिति ।। teacroeseekerecedenterse २२९|| अत्र द्वादशं अध्ययनं समाप्तं ~462~ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||22|| दीप अनुक्रम [५५६] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१३], उद्देशक [-] मूलं [२२...], निर्युक्ति: [ १२२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ०२], अंग सूत्र -[०२ ] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः अथ त्रयोदशं श्रीयाथातथ्याध्ययनं प्रारभ्यते ॥ 101 समाप्तं समवसरणाख्यं द्वादशमध्ययनं तदनन्तरं त्रयोदशमारभ्यते, अस्य चायमभिसंबन्धः - इहानन्तराध्ययने परवादिमतानि | निरूपितानि तन्निराकरणं चाकारि, तच याथातथ्येन भवति, तदिह प्रतिपाद्यते इत्यनेन संबन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चत्तार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्राप्युपक्रमद्वारान्तर्गतोऽर्थाधिकारोऽयं, तद्यथा— शिष्यगुणदीपना, अन्यच - अनन्तराध्ययनेषु धर्म| समाधिमार्गसमवसरणारूपेषु यदवितथं याथातथ्येन व्यवस्थितं यच्च विपरीतं वितथं तदपि लेशतोऽत्र प्रतिपादयिष्यत इति । नामनिष्पन्ने तु निक्षेपे याथातथ्यमिति नाम, तदधिकृत्य निर्मुक्तिकदाह णामतहं ठेवणतहं दव्वतहं चेव होइ भावतहं । दब्बत पुण जो जस्स सभावो होति दव्वस्स ॥ १२२ ॥ | भावतरं पुण नियमा णायव्वं छव्विहंमि भावंमि। अहवाऽवि नाणदंसणचरितविणएण अज्झप्पे ॥ १२३ ॥ जह सुतं तह अत्थो चरणं चारो तहन्ति णायव्वं । संतमि [य] पसंसाए असती पगयं दुर्गुछाए ॥ १२४ ॥ आयरियपरंपरएण आगयं जो उ छेयबुद्धीए । कोवेह छेयवाई जमालिनासं स णासिहिति ।। १२५ ।। 'करेति दुक्खमोक्खं उज्जममाणोऽवि संजमतवेसुं । तम्हा अत्तुकरिसो वज्जेअब्वो जतिजणेणं ॥ १२६ ॥ For Palata Use Only अत्र त्रयोदशं अध्ययनं "याथातथ्य" आरब्धं, पूर्व अध्ययनेन सह अस्य अभिसंबंध:, याथातथ्य शब्दस्य निक्षेपाः ~ 463~ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], मूलं [२२...], नियुक्ति: [१२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२२|| सूत्रकृता शीलाका- चायित्- चियुत ॥२३॥ दीप अनुक्रम [५५६] eroesekeeseseses अस्थाध्ययनस्य याथातथ्यमिति नाम, तच यथातथाशब्दस्य भावप्रत्ययान्तस्य भवति, तत्र यथाशब्दोल्लानेन तथाशब्दस्य १३ याथा निक्षेपं कर्तुनियुक्तिकारस्थायमभिप्रायः-इह यथाशब्दोऽयमनुवादे वर्तते, तथाशब्दश्च विधेयार्थे, तद्यथा-यथैवेदं व्यव तथ्याध्य. स्थितं तथैवेदं भवता विधेयमिति, अनुवादविधेययोश्च विधेयांश एवं प्रधानभावमनुभवतीति, यदिवा-याथातथ्यमिति तथ्य-| | मतस्तदेव निरूप्यत इति । तत्र तथाभावस्तध्यं यथावस्थितवस्तुता, तनामादि चतुर्धा, तत्र नामस्थापने सुगमे, द्रव्यतथ्यं । गाथापश्चार्धेन प्रतिपादयति, तत्र द्रव्यतथ्यं पुनर्यो 'यस्य सचित्तादेः स्वभावो द्रव्यमाधान्यायद्यस्य स्वरूपं, तद्यथा-उपयोगलक्षणो जीवः कठिनलक्षणा पृथिवी द्रवलक्षणा आप इत्यादि, मनुष्यादेर्वा यो यस्य मार्दवादिः खभावोऽचित्तद्रव्याणां च गोशीर्षचन्दनकम्बलरलादीनां द्रव्याणां खभावः, तद्यथा-उण्हे करेइ सीयं सीए उपहत्तणं पुण करेइ । कंबलरयणादीणं एस सहा-1 | वो मुणेयचो ॥ १॥ भावतथ्यमधिकृत्याह-भावतथ्यं पुनः 'नियमतः' अवश्यंभावतया पबिधे औदयिकादिके भावे ज्ञातव्यं, तत्र कर्मणामुदयेन निवृत्त औदयिकः--कर्मोदयापादितो गत्यायनुभावलक्षणा, तथा कर्मोपशमेन निवृत्त औपशमिका-कर्मा-IN नुदयलक्षण इत्यर्थः, तथा क्षयाज्जातः क्षायिक:--अप्रतिपातिज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणः, तथा क्षयादुपशमाच जातः क्षायोपशमिको-देशोदयोपशमलक्षणः, परिणामेन निवृत्तः पारिणामिको-जीवाजीवभव्यखादिलक्षणः, पश्चानामपि भावानां द्विकादिसंयोगानिष्पना सान्निपातिक इति । यदिवा-'अध्यात्मनि' आन्तरं चतुर्धा भावतध्यं द्रष्टव्यं, तद्यथा-ज्ञानदर्शनचारित्रविन- ॥२३॥ यतध्यमिति, तत्र शानतथ्य मत्यादिकेन ज्ञानपञ्चकेन यथाखमवितथो विषयोपलम्भः दर्शनतथ्यं शङ्कायतिचाररहितं जीवा वरुण कुर्वन्ति शीतं शीते उष्णत्वं पुनः कुर्वन्ति । कम्बलरवादीनो एष खभावो ज्ञातम्यः ॥ २ शानायनुगतवान बीयादेः पूषमुपादानं । | याथातथ्य शब्दस्य निक्षेपा:, ~464~ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], मूलं [२२...], नियुक्ति: [१२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम [५५६] दितत्त्वश्रद्धानं चारित्रवध्यं तु तपसि द्वादशविधे संयमे सप्तदश विधे सम्पगनुष्ठानं, विनयतथ्य द्विचतारिंशलेदभिषे विनये ज्ञानदर्शनचारित्रतपऔपचारिकरूपे यथायोगमनुष्ठान, ज्ञानादीनां तु वितथाऽऽसेवनेनातथ्यमिति । अत्र च भावतथ्येनाधिकारः, यदिवा भावतध्यं प्रशस्ताप्रशस्तमेदाद्विधा, तदिह प्रशस्तेनाधिकार दर्शयितुमाह-'यथा' येन प्रकारेण यथा पद्धच्या सूत्र व्यवस्थितं 'तथा' तेनैव प्रकारेण 'अर्थो व्याख्येयोऽनुष्ठेयश्च, एतदर्शयति-'चरणम्' आचरणमनुष्ठातव्यं, यदिवा सिद्धान्तसूत्रस्थ चारित्रमेवाचरणम् अतो यथा मूत्र तथा चारित्रमेतदेव चानुष्ठेयमेतच याथातथ्यमिति ज्ञातव्यं । पूर्वाधसैव भावार्थ माथापचा-18 कान दायितुमाह-यवस्तुजातं 'प्रकृतं' प्रस्तुतं यमर्थमधिकृत्य सूत्रमकारि तसिन्नर्थे 'सति' विद्यमाने यथावयाख्यायमाने|| संसारोत्तारणकारणखेन प्रशस्खमाने वा याथातथ्यमिति भवति, विवक्षिते खर्थे 'असति' अविद्यमाने संसारकारणसेन वा जुगुप्सायां | S| सत्यां सम्यगननुष्ठीयमाने वा याथातथ्यं न भवति, इदमुक्तं भवति-यदि [यथा] सूत्रं येन प्रकारेण व्यवस्थितं तथैवार्थों यदि 1 भवति व्याख्यायतेऽनुष्ठीयते च संसारनिस्तरणसमर्थव भवति ततो याथातथ्यमिति भवति, असति खर्थेऽक्रियमाणे च संसारका रणखेन जुगुप्सिते वा न भवति याथातथ्यमिति गाथातात्पर्यार्थः ।। एतदेव दृष्टान्तगर्भ दर्शयितुमाह-आचार्याः-सुधर्मखामिजम्बूनामप्रभवार्यरक्षितावास्तेषां प्रणालिका पारम्पर्य तेनागतं ययाख्यान-सूत्राभिप्रायः, तद्यथा-व्यवहारनयाभिप्रायेण क्रिय-12 |माणमपि कृतं भवति, यस्तु कुतर्कदध्मातमानसो मिथ्यालोपहतष्टितया 'छेकबुद्ध्या' निपुणबुझ्या कुशाग्रीयोमुपीकोऽहमि शानेशी दर्शने चारित्रे च तपसि विनयस्म विधेयलादेकादश औपचारिक सप्तभेदरूपे थदा कमेण पौकसप्तयशद्वादश सप्तमेदरूपे । 200028292029asa900000000 | याथातथ्य शब्दस्य निक्षेपा:, ~465~ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], मूलं [२२...], नियुक्ति: [१२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२२|| सूत्रकृतात शीलाङ्काचार्षीयत्तियुत ॥२३॥ 09999990093e दीप अनुक्रम [५५६] तिकसा 'कोपयति' दूषयति-अन्यथा तमर्थ सर्वज्ञप्रणीतमपि ज्याचष्टे-कृतं कृतमित्येवं घूयात् , वक्ति च-न हि मृत्पिण्डक्रियाका-18|| १३ याथा |ल एव घटो निष्पद्यते, कर्मगुणव्यपदेशानामनुपलब्धेः, स एवं 'छेकवादी निपुणोऽहमित्येवंबादी पण्डिताभिमानी 'जमालि-IN तथ्याध्य नाशं' जमालिनिवववत् सर्वज्ञमतविकोपको 'विनचति' अरहट्टघटीयन्त्रन्यायन संसारचक्रवाले श्रमिष्यतीति, न पासी जानाति |वराको यथा अयं लोको घटार्थाः क्रिया मृत्खननाद्या घट एवोपचरति, (तत्त्वतः) तासां च क्रियाणां क्रियाकालनिष्ठाकालयोरेककालखात् क्रियमाणमेव कृतं भवति, दृश्यते चायं व्यवहारो लोके, तद्यथा-अद्यैव देवदत्ते निर्गते कान्यकुब्जं देवदत्तो गत इति | व्यपदेशः, (लोकोक्त्या) तथा दारुणि छिद्यमाने प्रस्थकोऽयं (इति) व्यपदेश इत्यादि । साम्प्रतमन्यथावादिनोऽपायदर्शनद्वारेणोपदेशं दातुकाम आह-यो हि दुर्गृहीतविद्यालवदध्मातः सर्वज्ञवचनैकदेशमध्यन्यथा व्याचष्टे स एवंभूतः सन् संयमतपस्सयमं कुर्वाणोऽपि शारीरमानसाना दुःखानामसातोदयजनितानां मोक्ष-विनाशं न करोति आत्मगर्वाध्मातमानसो, यत एवं तसादात्मोत्कष:अहमेव सिद्धान्तार्थवेदी नापरः कश्चित् मत्तुल्योऽस्तीत्येवरूपोऽभिमानो वर्जनीयः त्याज्यो 'यतिजनेन' साधुलोकेन, अपरोपि शानिना जात्यादिको मदो न विधेयः किं पुनर्ज्ञानमदः, तथा चोक्तम्-"ज्ञानं मददर्पहरं माद्यति यस्तेन तस्स को वैद्यः । अगदो यस्य विपायति तख चिकित्सा कथं क्रियते ॥१॥" गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रालापकनिष्पत्रस्य IS ॥२३॥ निक्षेपस्थावसरः, स च सूत्रे सति भवति, मूत्रं च मूत्रानुगमे, स 'चावसरप्राप्तः अतः सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम् cata cek | याथातथ्य शब्दस्य निक्षेपा:, ~466~ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [५६०] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], मूलं [१], निर्युक्तिः [ १२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ०२], अंग सूत्र -[०२ ] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः अस्य चानन्तरसूत्रेण सहायं संबन्धः, तद्यथा-वलयाविमुक्तेत्यभिहितं भाववलयं रागद्वेषौ ताभ्यां विनिर्मुक्तस्यैव याथातथ्यं भवतीत्यनेन संबन्धेनायातस्यास्य सूत्रस्य व्याख्या प्रतन्यते - यथातथाभावो याथातथ्यं तत्त्वं परमार्थः तच परमार्थचि - न्तायां सम्यग्ज्ञानादिकं तदेव दर्शयति- 'ज्ञानप्रकार' मिति प्रकारशब्द आद्यर्थे, आदिग्रहणाच्च सम्यग्दर्शन चारित्रे गृहोते, तत्र सम्यग्दर्शनम् - औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकं गृह्यते, चारित्रं तु व्रतसमितिकषायाणां धारणरक्षणनिग्रहादिकं गृहाते, एतत्सम्यग्ज्ञानादिकं 'पुरुषस्य जन्तोर्यजातम् उत्पन्नं तदहं 'प्रवेदयिष्यामि' कथयिष्यामि, तुशब्दो विशेषणे, वितथाचारिणस्तद्दोषांचा विर्भावयिष्यामि, 'नानाप्रकारं' वा विचित्रं पुरुषस्य स्वभावम् उच्चावचं प्रशस्ताप्रशस्तरूपं प्रवेदयिष्यामि । नाना Education Internation मूल-सूत्रस्य आरम्भः आहत्तहीयं तु पवेयइस्सं, नाणप्पकारं पुरिसस्सं जातं । सओ अ धम्मं असओ असलं, सिं असंतिं करिस्सामि पाउं ॥ १ ॥ अहो य राओ अ समुट्टिएहिं, तहागएहिं पडिलब्भ धम्मं । समाहिमाघातमजोसयंता, सत्थारमेवं फरुसं वयंति ॥ २ ॥ विसोहियं ते अणुकाहयंते, जे आतभावेण वियागरेज्जा । अट्टाणिए होइ बहूगुणाणं, जे णाणसंकाइ मुसं वदेजा ॥ ३ ॥ जे यावि पुट्टा पलिउंचयंति, आयाणमटुं खलु वंचयित्ता (यन्ति) । असाहुणो ते इह साहुमाणी, मायणि एसंति अनंतघातं ॥ ४ ॥ For Park Use Only ~467~ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], मूलं [४], नियुक्ति: [१२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक त्तियुत ||४|| सूत्रकृता 18| प्रकारं स्वभावं फलं च पश्चार्धेन दर्शयति-'सतः सत्पुरुषस्य शोभनस्य सदनुष्ठायिनः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रवतो 'धर्म' श्रुत-18| १३ याचा शीलाङ्का-18|| चारित्रारूयं दुर्गतिगमनधरणलक्षणं वा तथा 'शीलम्' उद्युक्तविहारिखं तथा 'शान्ति' नितिमशेषकर्मक्षयलक्षणां 'करिस्सामि | तथ्याध्य० चार्यांय- पाउ'त्ति प्रादुष्करिष्ये प्रकटयिष्यामि यथावद् उद्भावयिष्यामि, [ग्रन्थाग्रं.७०००] तथा असत: अशोभनय परतीथिकस्य गृहस्थस्य वा पार्श्वस्थादेर्वा, चशब्दसमुश्चितमधर्म-पापं तथा 'अशीलं' कुत्सितशीलमशान्ति च-अनिर्वाणरूपां संमृति प्रादुर्भावयिष्यामीति ।। ॥२३२॥ अत्र च सतो धर्म शीलं शान्ति च प्रादुष्करिष्यामि, असतश्चाधर्ममशीलमशान्ति चेत्येवं पदघटना योजनीया, अनुपातस्य [च] |चशब्देनाक्षेपो द्रष्टव्य इति ॥१॥ जन्तोगुणदोषरूपं नानाप्रकारं खभावं प्रवेदयिष्यामीत्युक्तं तदर्शयितुकाम आह-'अहोरा-18 त्रम्' अहर्निश सम्यगुस्थिताः समुत्थिता सदनुष्ठानवन्तस्तेभ्यः श्रुतधरेभ्यः, तथा 'तथागतेभ्यो' वा तीर्थकृयो 'धर्म' श्रुत-९ चारित्राख्यं प्रतिलभ्य संसारनिःसरणोपायं धर्ममवाप्यापि कर्मोदयान्मन्दभाग्यतया जमालिप्रभृतय इहात्मोत्कर्षातीर्थकदाद्याख्यातं 'समाधि' सम्यग्दर्शनादिकं मोक्षपद्धतिम् 'अजोषयन्तः' असेवन्तः सम्यगकुर्वाणा निववा बोटिकाश खरुचिविरचित-18 | व्याख्याप्रकारेण निर्दोष सर्वज्ञप्रणीत मार्ग विध्वंसयन्ति-कुमार्ग प्ररूपयन्ति, ध्रुवते च-असौ सर्वज्ञ एव न भवति यः क्रियमाणं कृतमित्यध्यक्षविरुद्ध प्ररूपयति, तथा यः पात्रादिपरिग्रहान्मोक्षमार्गमाविर्भावयति, एवं सर्वज्ञोक्तमश्रद्दधानाः श्रद्धानं कुर्वन्तोऽप्यपरे धृतिसंहननदुर्वलतया यथाऽरोपितं संयमभार वोडमसमर्थाः कचिद्विषीदन्तोऽपरेणाचार्यादिना वत्सलतया चोदिताः सन्त-|" स्तं 'शास्तारम्' अनुशासितारं चोदकं पुरुष वदन्ति 'कर्कशं' निष्ठुरं प्रतीपं चोदयन्तीति ॥२॥ किन-विविधम् अनेकन१ मा प्र० । २ भात्मनेपदमनिलं तेन परस्मायपि तिवेः, ध्वनित पद धातुपारायणे जग दीप्ती इत्यादी। నిజం సాహిత दीप अनुक्रम [५६०] Reseenet ~468~ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], मूलं [४], नियुक्ति: [१२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||४|| दीप अनुक्रम [५६०] कारं शोधिता-कुमार्गप्ररूपणापनयनद्वारेण निर्दोषतां नीतो विशोधितः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राख्यो मोक्षमार्गस्तमेवंभूतं मोक्षमार्ग 'ते' स्वाग्रहग्रहास्ता गोष्ठामाहिलवदनु-पश्चादाचार्यप्ररूपणातः कथयन्ति-अनुकथयन्ति । ये चैर्वभूता आत्मोत्कर्षास्वरुचिविरचितव्याख्याप्रकारच्यामोहिता 'आत्मभावेन' खाभिप्रायेणाचार्यपारम्पर्येणायातमप्यर्थ व्युदस्यान्यथा 'ब्यागृणीयुगाई व्याख्यानयेयुः, ते हि गम्भीराभिप्राय सूत्रार्थ कर्मोदयात्पूर्वापरेण यथावत्परिणामयितुमसमर्थाः पण्डितमानिन उत्सूत्रं प्रतिपाद-18 यन्ति । आत्मभावव्याकरणं च महतेऽनायेति दर्शयति-'स' एवंभूतः स्वकीयाभिनिवेशाद् 'अस्थानिका' अनाधारो बहूनां | ज्ञानादिगुणानामभाजनं भवतीति, ते चामी गुणा:-"सुस्मुसइ पडिपुच्छह सुणेइ गेण्हह य ईहए आदि । ततो अपोहए था| |धारेइ करेइ वा सम्मं ॥१॥" यदिवा गुरुशुश्रूषादिना सम्यग्रज्ञानावगमस्ततः सम्यगनुष्ठानमतः सकलकर्मक्षयलक्षणो मोक्ष इत्येवं-18 ॥ भूतानां गुणानामनायतनमसौ भवति, कचित्पाठः-'अट्ठाणिए होंति बहूणिवेस'त्ति अस्थायमर्थः-अस्थानम् अभाजनमपात्र मसौ भवति सम्यग्रज्ञानादीनां गुणानां, किंभूतो ?-बहुः-अनर्थसंपादकवेनासदभिनिवेशो यस्य स बहुनिवेशः, यदिवा-गुणानामस्थानिकः-अनाधारो बहूनां दोषाणां च निवेशः-स्थानम् आश्रय इति, किंभूताः पुनरेवं भवन्तीति दर्शयति-ये केचन दुर्गुहीतज्ञानलवावलेपिनो ज्ञाने-श्रुतज्ञाने शङ्का ज्ञानशङ्का तया मृषावादं वदेयुः, एतदुक्तं भवति-सर्वज्ञप्रणीते आगमे शक कर्व-110 |न्ति, अयं तत्प्रणीत एव न भवेद् अन्यथा वाऽस्यार्थः स्यात् , यदिवा ज्ञानशङ्कया पाण्डित्याभिमानेन मृषावाद वदेयुर्यथाऽहं ISI भूषते प्रतिपूच्छति रणोति गृह्णाति बहते चापि । ततोऽपोहते वा पारयति करोति वा सम्मक् ॥ १ ॥ २ मानमसाविभीषशाया । Scotsenseseaeeeeeeseare ~469~ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥४॥ दीप अनुक्रम [५६०] सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्का चाय नियुतं ॥२३३॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], मूलं [४], निर्युक्तिः [ १२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ०२], अंग सूत्र -[०२ ] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः | त्रवीमि तथैव युज्यते नान्यथेति ॥ ३ ॥ किञ्चान्यत् – ये केचनाविदितपरमार्थाः खल्पतया समुत्सेकिनोऽपरेण पृष्टाः कस्मादा|चार्यात्सकाशादधीतं श्रुतं भवद्भिरिति, ते तु खकीयमाचार्य ज्ञानावलेपेन निडवाना अपरं प्रसिद्धं प्रतिपादयन्ति यदिवा मयैवैत| त्स्वत उत्प्रेक्षितमित्येवं ज्ञानावलेपात् 'पलितंचयंति'ति निवते, यदिवा-सदपि प्रमादस्खलितमाचार्यादिनाऽऽलोचनादिके अवसरे पृष्टाः सन्तो मातृस्थानेनावर्णवादभयाभिहुचते । त एवं पलिकुञ्चिका निहवं कुर्वाणा आदीयत इत्यादानं ज्ञानादिकं | मोक्षो वा तमर्थ वञ्चयन्ति-भ्रंशयन्त्यात्मनः, खलुरवधारणे वञ्श्चयन्त्येव । एवमनुष्ठायिनःश्वासाधवस्ते परमार्थतस्तच्च चिन्तायाम् 'इह' अस्मिन् जगति साधुविचारे वा 'साधुमानिन' आत्मोत्कर्षात् सदनुष्ठानमानिनो मायान्वितास्ते 'एष्यन्ति' यास्यन्ति 'अनन्तशो' बहुशो 'घात' विनाशं संसारं वा अनवदग्रं संसारकान्तारमनुपरिवर्तयिष्यन्तीति, दोषद्वयदुष्टत्वात्तेषाम् एकं तावस्वयमसाधवो द्वितीयं साधुमानिनः उक्तंच "पावं काऊन सयं अप्पाणं सुद्धमेव वाहरइ । दुगुणं करेह पावं बीयं बालस्स मंदत्तं ।। १ ।। " देवमात्मोत्कर्षदोषाद्बोधिलाभमप्युपहत्यानन्तसंसारभाजो भवन्त्यसुमन्त इति स्थितम् ॥ ४ ॥ मानविपाकमुप| दधुना क्रोधादिकषायदोषमुद्भावयितुमाह Internationa जे कोहणे होइ जगट्टभासी, विओसियं जे उ उदीरएज्जा । अंधे व से दंडपहं गहाय, अविओसिए घासति पावकम्मी ॥ ५ ॥ जे विग्गहीए अन्नायभासी, न से समे होइ अझंझपत्ते । १ तुच्छता । २ ज्ञावं पापं कृत्वा खयं आत्मानं शुद्धमेव व्याहरति द्विगुणं करोति पापं द्वितीयं बालस्य मंदलम् ॥ १ ॥ For PalPrsata Use Only ~470~ १३ बाधा तथ्याध्य० ॥२३३॥ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], मूलं [६], नियुक्ति: [१२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||६|| दीप अनुक्रम [५६२] उ(ओ)वायकारी य हरीमणे य, एगंतदिट्टी य अमाइरूवे ॥६॥ से पेसले सुहुमे पुरिसजाए, जचन्निए चेव सुउजुयारे । बटुंपि अणुसासिए जे तहच्चा, समे हु से होइ अझंझपत्ते ॥७॥ जे आवि अप्पं वसुमंति मत्ता, संखाय वायं अपरिक्ख कुज्जा । तवेण वाहं सहिउत्ति मत्ता, अण्णं जणं पस्सति बिंबभूयं ॥८॥ यो बविदितकषायविपाका प्रकृत्यैव क्रोधनो भवति तथा 'जगदईभाषी' यश्च भवति, जगत्यर्था जगदा ये यथा व्यवस्थिताः पदार्थास्तानाभापितुं शीलमय जगदर्थभाषी, तद्यथा-ब्राह्मणं डोडमिति याचथा वणिज किराटमिति । शूद्रमाभीरमिति श्वपार्क चाण्डालमित्यादि तथा काणं काणमिति तथा सञ्ज कुब्ज बडममित्यादि तथा कुष्टिनं क्षयिणमित्यादि। यो यस दोपस्तं तेन खरपरुष ब्रूयात् यः स जगदर्थभाषी, यदिवा जयार्थभाषी यथैवाऽऽत्मनो जयो भवति तथैवाविधमानमप्यर्थ भाषते तच्डीलब-येन केनचित्प्रकारेणासदर्थभाषणेनाप्यात्मनो जयमिच्छतीत्यर्थः । ' विओसियंति विविधमवसितं-181 पर्यवसितमुपशान्तं इन्टू कलहं यः पुनरप्युदीरयेत् , एतदुक्तं भवति-कलहकारिभिमिथ्यादुष्कृतादिना परस्परं क्षामितेऽपि ॥ तत्तद् श्रूयाबेन पुनरपि तेषां क्रोधोदयो भवति । साम्प्रतमेतद्विपार्क दर्शयति-यथा बन्ध:-चक्षुर्विकलो 'दण्डप गोदण्डमार्ग [ लघुमार्ग] प्रमुखोज्ज्वलं 'गृहीत्वा' आश्रित्य ब्रजन् सम्यगकोविदतया 'धृष्यते' कण्टकचापदादिभिः पीच्यते, एवमसावपि केवलं लिङ्गधार्यनुपशान्तक्रोधः कर्कशभाष्यधिकरणोद्दीपकः, तथा 'अविओसिए'ति अनुपशान्तद्वन्द्वः पापम्-18 ~471 Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], मूलं [८], नियुक्ति: [१२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||८|| दीप अनुक्रम [५६४] सूत्रकृता8 अनार्य कर्म-अनुष्ठानं यस्यासौ पापकर्मा धृष्यते चतुर्गतिक संसारे यातनास्थानगतः पौनःपुन्थेन पीब्यत इति ॥ ५॥ किया-18/१३ पाथा शीलाका-18 न्यत्-यः कश्चिदविदितपरमार्थो विग्रहो-युद्धं स विद्यते यस्थासौ विग्रहिको यद्यपि प्रत्युपेक्षणादिकाः क्रिया विधत्ते तथापि युद्ध- तथ्याध्य चार्यांय- प्रियः कचिद्भवति तथाऽज्याय्यं भाषितुं शीलमस्य सोऽन्याय्यभाषी यत्किञ्चनभाष्यस्थानभाषी गुर्वायधिशेषकरो वा यश्चैवंभूतो चियुत नासौ 'समो' रक्तद्विष्टतया मध्यस्थो भवति, तथा नाप्यझञ्झां प्राप्तः-अकलहप्राप्तो वा न भवत्यमायाप्राप्तो वा, यदिवा अझ॥२३४|| झाप्राप्तैः-अकलहप्राप्तैः सम्यग्रष्टिभिरसौ समो न भवति यतः अतो नैवंविधेन भाव्यम् , अपि खक्रोधनेनाकर्कशभाषिणा चोपशान्तयुद्धानुदीरकेण न्याय्यभाषिणाऽझञ्झाप्राप्तेन मध्यस्खेन च भाव्यमिति । एवमनन्तरोद्दिष्टदोषवर्जी सन्नुपपातकारी-आचार्य-13 निर्देशकारी-यथोपदेश क्रियासु प्रवृत्तः यदिवा 'उपायकारिति सूत्रोपदेशप्रवर्तकः, तथा हीः लज्जा संयमो मूलोचरगुण-18 | भेदभिन्नस्तत्र मनो यस्खासौ हीमनाः, यदिवा-अनाचारं कुर्वन्नाचार्यादिभ्यो लजते स एवमुच्यते, तथैकान्तेन तच्चेपु-जीना-10 कादिषु पदार्थेषु दृष्टियस्वासावेकान्तदृष्टिः, पाठान्तरं वा 'एगंतसाहित्ति एकान्तेन श्रद्धावान् मौनीन्द्रोक्तमार्गे एकान्तेन श्रद्धालु || रित्यर्थः, चकारः पूर्वोक्तदोषविपर्यस्तगुणसमुच्चयार्थः, तद्यथा-ज्ञानापलिकुञ्चकोक्रोधीत्यादि तावदझञ्झाप्राप्त इति, स्वत एवाह-| ॥8॥'अमाइरूवे'त्ति अमायिनो रूपं यस्यासावमायिरूपोऽशेषच्छवरहित इत्यर्थः, न गुर्वादीन छधनोपचरति नाप्यन्येन केनचि-18 S२३४॥ ||8|| साधं छबव्यवहारं विधत्त इति ॥६॥ पुनरपि सद्गुणोत्कीर्तनायाह-यो हि कटुसंसारोद्वियः कचित्प्रमादस्खलिते सत्याचायो-11% |दिना यदपि 'अनुशास्थमानः' चोबमानस्तथैव-सन्मार्गानुसारिण्यर्चा-लेश्या चित्तवृत्तिर्यस्य स भवति तथार्ची, यश्च शिक्षा ग्राह्यमाणोऽपि तथाचों भवति स 'पेशलो' मिष्टवाक्यो विनयादिगुणसमन्वितः 'सूक्ष्मः सूक्ष्मदर्शिखात्सूक्ष्मभाषि(वि)बाद्वा सूक्ष्मः ~472~ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], मूलं [८], नियुक्ति: [१२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||८|| दीप अनुक्रम [५६४] स एव पुरुषजातः स एव परमार्थतः पुरुषार्थकारी नापरो योऽनायुधतपखिजनपराजितेनापि क्रोधेन जीयते, तथाऽसावेव | 'जात्यन्वितः मुकुलोत्पन्ना, सच्छीलान्वितो हि कुलीन इत्युच्यते, न सुकुलोत्पत्तिमात्रेण, तथा स एव मुष्ठ-अतिशयेन अजु:संयमस्तकरणशीला-ऋजुकरः, यदिवा 'उजुचारे'त्ति यथोपदेशं यः प्रवर्तते न तु पुनर्वक्रतयाऽचार्यादिवचनं विलोमयतिप्रतिकूलयति, यत्र तथार्चः पेशलः सूक्ष्मभाषी जात्यादिगुणान्वितः कचिदबक्रः 'समो' मध्यस्थो निन्दायां पूजायां च न रुष्य-18 |ति नापि तुष्यति तथा अझंझा-अक्रोधोऽमाया वा तां प्राप्तोऽझंझाप्राप्तः यदिवाझंझाप्राप्तः-वीतरागैः 'सम' तुल्यो भवतीति % ॥ ७ ॥ प्रायस्तपस्विनां ज्ञानतपोऽवलेपो भवतीत्यतस्तमधिकृत्याह-यश्चापि कश्चिष्लघुप्रकृतिरल्पतयाऽऽस्मानं वसु-द्रव्यं तच्च | परमार्थचिन्तायां संयमस्तद्वन्तमात्मानं मलाऽहमेवात्र संयमवान् मूलोत्तरगुणानां सम्यगविधायी नापरः कश्चिन्मत्तुल्योऽस्तीति, तथा संख्यायन्ते-परिच्छिद्यन्ते जीवादयः पदार्था येन तज्ज्ञानं संख्येत्युच्यते तद्वन्तमात्मानं मला तथा सम्यक्-परमार्थमपरी-|| क्ष्यात्मोत्कर्षवादं कुर्यात् तथा तपसा-द्वादशभेदमिन्नेनाहमेवात्र सहितो-युक्तो न मत्तुल्यो विकृष्टतपोनिएतदेहोऽस्तीत्येवं मसास्मोत्कर्षाभिमानीति 'अन्यं जनं साधुलोकं गृहस्खलोकंवा 'विम्बभूतं' जलचन्द्रवत्तदर्थशून्यं कूटकार्षापणवद्वा लिङ्गमात्रधारिणं | पुरुषाकृतिमात्र वा 'पश्यति' अवमन्यते । तदेवं यन्मदस्थानं जात्यादिक तत्तदात्मन्येवारोप्यापरमवधूतं पश्यतीति ॥ ८॥ किश्चान्यत् एगंतकूडेण उ से पलेइ, ण विजती मोणपयंसि गोत्ते । जे माणणट्रेण विउकसेजा, वसुमन्न ~473~ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||९|| दीप अनुक्रम [५६५] सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्काचार्यय चियुतं ॥२३५॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१३], उद्देशक [-] मूलं [९], निर्युक्तिः [ १२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ०२], अंग सूत्र -[०२ ] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः तरेण अनुज्झमाणे ॥ ९ ॥ जे माहणो खत्तियजायए वा, तहुग्गपुते तह लेच्छई वा । जे पत्रईए परदत्तभोई, गोते ण जे थब्भति (थंभभि) माणबद्धे ॥१०॥ न तस्स जाई व कुलं व ताणं, rorत्थ विजाचरणं सुचिष्णं । णिक्खम्म से सेवइऽगारिकम्मं, ण से पारए होइ विमोयणाए ॥ ११ ॥ णिकिंचणे भिक्खु सुलूहजीवी, जे गारवं होइ सलोगगामी । आजीवमेयं तु अबुझ माणो, पुणो पुणो विप्परिया सुर्वेति ॥ १२ ॥ कूटवत्कूटं यथा कूटेन मृगादिर्बद्धः परवशः सन्नेकान्तदुःखभाग्भवति एवं भावकूटेन स्नेहमयेनैकान्ततोऽसौ संसारचक्रवालं पर्येति तत्र वा प्रकर्षेण लीयते प्रलीयते - अनेकप्रकारं संसारं बंभ्रमीति, तुशब्दात्कामादिना वा मोहेन मोहितो बहुवेदने संसारे प्रलीयते, यश्चैवंभूतोऽसौ 'न विद्यते' न कदाचन संभवति मुनीनामिदं मौनं तच्च तत्पदं च मौनपदं - संयमस्तत्र मौनीन्द्रे वा पदेसर्वज्ञप्रणीतमार्गे नासौ विद्यते, सर्वज्ञमतमेव विशिनष्टि-गां-वाचं त्रायते - अर्थाविसंवादनतः पालयतीति गोत्रं तस्मिन् समस्तागमाधारभूत इत्यर्थः, उच्चैर्गोत्रे वा वर्तमानस्तदभिमानग्रहग्रस्तो मौनीन्द्रपदे न वर्तते, यथ माननं-पूजनं सत्कारस्तेनार्थ:| प्रयोजनं तेन माननार्थेन विविधमुत्कर्षयेदात्मानं, यो हि माननार्थेन - लाभपूजासत्कारादिना मदं कुर्यान्नासो सर्वज्ञपदे विद्यत इति पूर्वेण संबन्ध:, तथा वसु-द्रव्यं तवोह संयमस्तमादाय तथाऽन्यतरेण ज्ञानादिना मदस्यानेन परमार्थमबुध्यमानो माद्यति Eucation Internation For Park Use Only ~474~ १३ याथा तथ्याध्य० ||२३५|| Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], मूलं [१२], नियुक्ति: [१२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१२|| दीप अनुक्रम [५६८] । पठन्नपि सर्वशास्त्राणि तदर्थ चावगच्छन्नपि नासौ सर्वज्ञमतं परमार्थतो जानातीति ॥ ९॥ सर्वेषां मदस्थानानामुत्पत्तेरारभ्य जा-1 तिमदो बाह्यनिमित्तनिरपेक्षो यतो भवत्यतस्तमधिकृत्याह-यो हि जात्या ब्राह्मणो भवति क्षत्रियो वा-इक्ष्वाकुवंशादिकः, तद्भेद| मेव दर्शयति-'उग्रपुत्रः क्षत्रियविशेषजातीयः तथा 'लेच्छइति क्षत्रियविशेष एव, तदेवमादिविशिष्टकुलोतो यथावस्थि| तसंसारस्वभाववेदितया यः 'प्रबजितः' त्यक्तराज्यादिगृहपाशबन्धनः परैर्दत्तं भोक्तुं शीलमस्स परदत्तभोजी-सम्यक्संयमानु-| छायी 'गोत्रे' उचैोंने हरिवंशस्थानीय समुत्पनोऽपि नैव 'स्तम्भ' गर्वमुपयायादिति, किंभूते गोत्रे ?-'अभिमानबद्धे' अभि-15 मानास्पदे इति, एतदुक्तं भवति-विशिष्टजातीयतया सर्वलोकाभिमान्योऽपि प्रबजितः सन् कृतशिरस्तुण्डमुण्डनो भिक्षा) परगृ-12 |हाण्यटन् कथं हास्यास्पदं गर्व कुर्यात् १, नैवासी मानं कुर्यादिति तात्पर्याधः ॥ १०॥ न चासौ मानः क्रियमाणो गुणायेति ॥ दर्शयितुमाह-न हि 'तस्य' लघुप्रकृतेरभिमानोडरस्य जातिमदः कुलमदो वा क्रियमाणः संसारे पर्यटतखाणं भवति, न घभि| मानो जात्यादिक ऐहिकामुष्मिकगुणयोरुपकारीति, इह च मातृसमुत्था जातिः पितृसमुत्थं कुलम् , एतच्चोपलक्षणम्, अन्यदपि ४ मदस्थानं न संसारत्राणायेति, यत्पुनः संसारोत्तारकलेन त्राणसमर्थ तदर्शयति-ज्ञानं च चरणं च शानचरणं तस्मादन्यत्र संसा-18 रोत्तारणत्राणाशा न विद्यते, एतच सम्यक्सोपहितं सत् सुष्ठु चीर्ण सुचीर्णं संसारादुचारयति, 'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्ष' इति वच-18 नात्, एवंभूते सत्यपि मोक्षमार्गे 'निष्कम्यापि' प्रवज्यां गृहीखापि कश्चिदपुष्टधर्मा संसारोन्मुखः 'सेवते' अनुतिष्ठत्यभ्यस्यति पौन:पुन्येन विधत्ते अगारिणां-गृहस्थानामङ्गं कारणं जात्यादिकं मदस्थान, पाठान्तरं वा 'अगारिकम्मति अगारिणां कर्म18 अनुष्ठानं सावधमारम्भं जातिमदादिकं वा सेवते, न चासावगारिकर्मणां सेवकोऽशेषकर्ममोचनाय पारगो भवति, निःशेषकर्मक्ष-1 Sasa20090020200098293929 ~475~ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], मूलं [१२], नियुक्ति: [१२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: शीकाका प्रत सूत्रांक ||१२|| ॥२३६॥ दीप अनुक्रम [५६८] मजकता18|यकारी न भवतीति भावः । देशमोचना तु प्रायशः सर्वेषामेवासुमतां प्रतिक्षणमुपजायत इति ॥११।। पुनरप्यभिमानदोषाविर्भाव-18|| 18 नायाह-बायेनार्थेन निष्किश्चनोऽपि भिक्षणशीलो भिक्षु:-परदत्तभोजी तथा सुष्टु रुक्षम्-अन्तप्रान्तं वल्लचणकादि तेन जीवि-1 तथ्याध्य० तु-प्राणधारणं कर्तुं शीलमस्य स सुरूक्षजीवी, एवंभूतोऽपि यः कश्चिद्गौरवप्रियो भवति तथा 'श्लोककामी आत्मश्लाघाभिलाषी | चियुत भवति, स चैवंभूतः परमार्थमयुध्यमान एतदेवाकिश्चनवं सुरूक्षजीवित्वं वाऽऽत्मश्लाघातत्परतया आजीवम्-आजीविकामा | स्मवर्तनोपायं कुर्वाणः पुनः पुनः संसारकान्तारे विषयांसं जातिजरामरणरोगशोकोपद्रवमुपैति-गच्छति, तदुत्तरणायाभ्युघतो वा तत्रैव निमन्जतीत्ययं विपर्यास इति ॥ १२ ॥ यसादमी दोषाः समाधिमाख्यातमसेवमानानामाचार्यपरिभाषिणां वा तस्मादमीभिः शिष्यगुणैर्भाव्यमित्याह जे भासवं भिक्खु सुसाहुवादी, पडिहाणवं होइ विसारए य । आगाढपण्णे सुविभावियप्पा, अन्नं जणं पन्नया परिहवेजा ॥ १३॥ एवं ण से होइ समाहिपत्ते, जे पन्नवं भिक्खु विउक्कसेजा। अहवाऽविजे लाभमयावलिते. अन्नं जणं खिसति बालपन्ने ॥१४॥ पन्नामयं चेव तवोमयं च, णिन्नामए गोयमयं च भिक्खू । आजीवगं चेव चउत्थमाहु, से पंडिए उत्तमपोग्गले से ॥ २३६॥ ॥१५॥ एयाइं मयाई विगिंच धीरा, ण ताणि सेवंति सुधीरधम्मा। ते सबगोत्तावगया महेसी, उच्च अगोत्तं च गतिं वयंति ॥ १६ ॥ eaedeseseseededeeserpenese serweceneseseseserseroese ~476~ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], मूलं [१६], नियुक्ति: [१२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१६|| भाषागुणदोषज्ञतया शोभनभाषायुक्तो भाषावान् 'भिक्षुः साधुः, तथा सुष्ठु साधु-शोभनं हितं मितं प्रियं वदितुं शीलमस्येत्य- | |सौ सुसाधुवादी, क्षीरमध्वाधववादीत्यर्थः तथा प्रतिभा प्रतिभानम् औत्पत्तिक्यादिबुद्धिगुणसमन्वितखेनोत्पन्नप्रतिभसं तत्प्रतिमान | | विद्यते यस्सासौ प्रतिभानवान्-अपरेणाक्षिप्तस्तदनन्तरमेवोत्तरदानसमर्थः यदिवा धर्मकथावसरे कोऽयं पुरुषः कं च देवताविशेष प्रणतः कतरद्वा दर्शनमाश्रित इत्येवमासनप्रतिभतया (बेत्य) यथायोगमाचष्टे, तथा 'विशारदः' अर्थग्रहणसमर्थों बहुप्रका|राथैकथनसमर्थो वा, चशब्दाच्च श्रोत्रभिप्रायजः, तथा आगाढा--अवगाढा परमार्थपर्यवसिता तत्वनिष्ठा प्रज्ञा-बुद्धियस्थासावागाढप्रज्ञा, तथा सुष्टु विविध भावितो-धर्मवासनया वासित आत्मा यस्थासौ सुविभावितात्मा, तदेवमेभिः सत्यभाषादिभिगुणः शोभनः साधुर्भवति, यधभिरेव निर्जराहेतुभूतैरपि मदं कुर्यात् , तद्यथा-अहमेव भाषाविधिजस्तथा साधुवायहमेव च न मत्तुल्यः प्रतिभानवानस्ति नापि च मत्समानोऽलौकिक: लोकोत्तरशास्त्रार्थविशारदोजगाढप्रज्ञः सुभावितात्मेति च, एवमात्मोस्कर्षवानन्यं जन स्वकीयया प्रज्ञया 'परिभवेत् अवमन्येत, तथाहि-किमनेन वाकुण्ठेन दुर्दुरुढेन कुण्डिकाकासकल्पेन खसूचिना कार्यमस्ति ? कचित्सभायां धर्मकथावसरे वेति, एवमात्मोत्कर्षवान् भवति, तथा चोक्तम्- "अन्यैः खेच्छारचितानर्थविशेपान् श्रमेण विज्ञाय | कृत्स्नं वानयमित इति खादत्यङ्गानि दर्पण ॥१॥" इत्यादि ॥१३ ।। साम्प्रतमेतद्दोषाभिधित्सयाऽऽह 'एवम् अनन्तरोक्तया प्रक्रियया परपरिभवपुरःसरमात्मोत्कर्ष कुर्वन्नशेषशास्त्रार्थविशारदोऽपि तत्वार्थावगाढप्रशोऽप्यसौ 'समा-18 ISIचिंमोक्षमार्ग ज्ञानदर्शनचारित्ररूपं धर्मध्यानाख्यं वा न प्राप्तो भवति, उपर्येवासी परमार्थोदन्वतः प्लयते, क एवंभूतो भवतीति || दर्शयति-यो ह्यविदितपरमार्थतयाऽऽत्मानं सच्छेमुषीकं मन्यमानः खप्रज्ञया भिक्षुः 'उत्कर्षेद' गर्व कुर्यात् , नासी समाधि Secenecesesesea दीप अनुक्रम [५७२] ~477~ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१६|| दीप अनुक्रम [५७२] सूत्रकृता शीलाङ्काचार्षीय तियुत ॥२३७|| “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], मूलं [१६], निर्युक्ति: [१२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ०२], अंग सूत्र -[०२ ] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - प्राप्तो भवतीति प्राक्तनेन संबन्धः, अन्यदपि मदस्थानमुद्घट्टयति- 'अथवे 'ति पक्षान्तरे, यो खल्पान्तरायो लब्धिमानात्मकृते परस्मै चोपकरणादिकमुत्पादयितुमलं स लघुप्रकृतितया लाभमदावलिप्तो भवति, तदवलिप्तश्च समाधिमप्राप्तो भवति स चैवंभूतोऽन्यं जनं कर्मोदयादलब्धिमन्तं 'खिंसइति निन्दति परिभवति, वक्ति च-न मत्तुल्यः सर्वसाधारणशय्यासंस्तारका छुपकरणो त्पादको विद्यते, किमन्यैः खोदरभरणव्यग्रतया काकप्रायैः कृत्यमस्तीत्येवं 'बालमज्ञो' मूर्खप्रायोऽपरजनापवादं विदध्यादिति, ||१४|| तदेवं प्रज्ञामदावलेपादन्यस्मिन् जने निन्द्यमाने बालसदृशैर्भूयते यतोऽतः प्रज्ञामदो न विधेयो, न केवलमयमेव न विधेयः | अन्यदपि मदस्थानं संसारजिहीर्षुणा न विधेयमिति तदर्शयितुमाह-प्रज्ञया तीक्ष्णया मदः प्रज्ञामदस्तं च तपोमदं च निश्येन | नामयेन्निर्नामयेद्-अपनयेद्, अहमेव यथाविधशास्त्रार्थस्य वेत्ता तथाऽहमेव विकृष्टतपोविधायी नापि च तपसो ग्लानिमुपगच्छामीत्येवंरूपं मदं न कुर्यात्, तथा उच्चैर्गांचे इक्ष्वाकुवंशहरिवंशादिके संभूतोऽहमित्येवमात्मकं गोत्रमदं च नामयेदिति । आ- समन्ताज्जीवन्त्यनेनेत्याजीवः - अर्थनिचयस्तं गच्छति आश्रयत्यसावा जीवगः - अर्थमदस्तं च चतुर्थ नामयेत् चशब्दाच्छेपानपि मदानामयेत्, तनामनाच्चासौ 'पण्डित' तत्ववेत्ता भवति, तथाऽसावेव समस्तमदापनोदक उत्तमः पुद्गल - आत्मा भवति, प्रधानवाची वा पुद्गलशब्दः, ततश्चायमर्थः -- उत्तमोत्तमो - महतोऽपि महीयान् भवतीत्यर्थः ।। १५ ।। साम्प्रतं मदस्थानानामकरणीयत्वमुपदश्यपसंजिहीर्षुराह - 'एतानि' प्रज्ञादीनि मदस्थानानि संसारकारणत्वेन सम्यक् परिज्ञाय 'विचित्ति पृथकुर्यादात्मनोऽपनयेदितियावत्, धीः- बुद्धिस्तया राजन्त इति धीरा-विदितवेद्या नैतानि जात्यादीनि मदस्थानानि सेवन्ति-अनु| तिष्ठन्ति, के एते ?-ये सुधीरः सुप्रतिष्ठितो धर्मः श्रुतचारित्राख्यो येषां ते सुधीरधर्माणः, ते चैवंभूताः परित्यक्तसर्वमदस्याना Ja Eucation International For Parts Only ~478~ १३ याथा तथ्याध्य० ॥२३७॥ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१६|| दीप अनुक्रम [५७२] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], मूलं [१६], निर्युक्ति: [१२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ०२], अंग सूत्र -[०२ ] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः महर्षयस्तपोविशेषशोषितकल्मषाः सर्वस्मादुश्चैर्गोत्रादेरपगता गोत्रापगताः सन्त उच्चां - मोक्षाख्यां सर्वोत्तमां वा गतिं व्रजन्तिगच्छन्ति, चशब्दात्पञ्चमहाविमानेषु कल्पातीतेषु वा व्रजन्ति, अगोत्रोपलक्षणाच्चान्यदपि नामकर्मायुष्कादिकं तत्र न विद्यत इति द्रष्टव्यम् ।। १६ ।। किश्च -- भिक्खू मुच्चे तह दिधमे, गामं च नगरं च अणुष्पविस्सा । से एसणं जाणमणेसणं च, अन्नरस पाणस्स अणाणुगिद्धे ॥ १७ ॥ अरतिं रतिं व अभिभूय भिक्खू, बहूजणे वा तह एगचारी । एगंतमोणेण वियागरेजा, एगस्स जंतो गतिरागती य ॥ १८ ॥ सयं समेच्चा अदुवाऽवि सोच्चा, भासेज धम्मं हिययं पयाणं । जे गरहिया सणियाणप्पओगा, ण ताणि सेवंति सुधीरधम्मा ॥ १९ ॥ केसिंचि तक्काइ अबुज्झ भावं, खुद्दपि गच्छेज असद्दहाणे । आउस्स कलाइयारं बघा, लवाणुमाणे य परेसु अट्ठे ॥ २० ॥ स एवं मदस्यानरहितो भिक्षणशीलो भिक्षुः तं विशिनष्टि - मृतेव स्नानविलेपनादिसंस्काराभावादर्चा - तनुः शरीरं यस्य स मृताचः यदिवा मोदनं मृत् तद्भूता शोभनाची- पद्मादिका लेश्या यस्य स भवति सुदर्च :- प्रशस्तलेश्यः, तथा दृष्टः - अवगतो Education Internation For Parts Only ~479~ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], मूलं [२०], नियुक्ति: [१२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: seA प्रत सूत्रांक ||२०|| चियुत दीप अनुक्रम [५७६] मत्रकुवाङ्ग ताङ्ग18| यथावस्थितो धर्मः श्रुतचारित्राख्यो येन स तथा, स चैवंभूतः कचिदवसरे ग्राम नगरमन्यद्वा मडम्बादिकमनुप्रविश्य भिक्षार्थ-81 १३ याचा शीलासा-18|मसावुत्तमधृतिसंहननोपपन्नः सनेषणां-गवेषणग्रहणैषणादिकां 'जानन्' सम्बगवगच्छन्ननेषणांच-उद्गमदोपादिकां तत्परिहारं तथ्याध्य चाीयवृ- विपाकं च सम्यगवगच्छन् अबस्य पानस्य वा 'अननुगृद्धः अनध्युपपन्नः सम्यन्विहरेत् , तथाहि-स्थविरकल्पिका द्विच बारिंशदोपरहिता भिक्षां गृह्णीयुः, जिनकल्पिकानां तु पञ्चवभिग्रहो द्वयोहा, ताश्येमाः–'संसट्टमसंसट्टा उद्घड तह होति अप्प॥२३॥ बालेवा य । उम्गहिया पग्गहिया उजियधम्मा य सत्तमिया ॥' अथवा यो यस्याभिग्रहः सा तस्वैषणा अपरा खनेपणेत्येवमेषणा-18 नेपणाभिज्ञः कचित्प्रविष्टः सन्नाहारादावमूर्छितः सम्यक् शुद्धां भिक्षां गृह्णीयादिति ॥१७॥ तदेवं भिक्षोरनुकूलविषयोपलब्धिमतोऽप्यरक्तद्विष्टतया तथा दृष्टमयदृष्टं श्रुतमप्यश्रुतमित्येवंभावयुक्ततया च मृतकल्पदेहस्य सुदृष्टधर्मण एपणानेषणाभिशस्थानपानादाव-18 मूर्छितस्य सतः कचिद् ग्रामनगरादौ प्रविष्टस्यासंयमे रतिररतिश्च संयमे कदाचित्प्रादुण्यात् सा चापनेतब्येत्येतदाह-महामुनेरहा प्यखानतया मलाविलस्यान्तप्रान्तवल्लचणकादिभोजिनः कदाचित्कर्मोदयादरतिः संयमे समुत्पद्येत तां चोत्पन्नामसौ भिक्षुः संसा-10 18रखभावं परिगणय्य तिर्यभारकादिदुःखं चोत्प्रेक्षमाणःखल्यं च संसारिणामायुरित्येवं विचिन्त्याभिभवेद् , अभिभूय चासावेकान्त-181 | मौनेन श्यागृणीयादित्युत्तरेण संबन्धः, तथा रतिं च 'असंयमें सावधानुष्ठाने अनादिभवाभ्यासादुत्पन्नामभिभवेदभिभूय च |% 8| संयमोयुक्तो भवेदिति । पुनः साधुमेव विशिनष्टि-बहवो जनाः-साधवो गच्छवासितया संयमसहाया यस्य स बहुजनः, तथैक | ॥२३८॥ है एव चरति तच्छीलचकचारी, स च प्रतिमाप्रतिपन्न एकल्लविहारी जिनकल्पादिर्वा स्यात् , स च बहुजन एकाकी वा केनचित्पृ १संखासखधा उद्दता तथा भवसरूपलेपा च । उद्गुहौता प्रगृहीता उशितधमी च सप्तमिका ॥१॥ 0000000 ~480 Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], मूलं [२०], नियुक्ति: [१२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२०|| दीप अनुक्रम [५७६] घोऽपृष्टो वैकान्तमौनेन-संयमेन करणभूतेन व्यागृणीयात् धर्मकथावसरे, अन्यदा संयमावाधया किश्चित्धर्मसंघद्धं घूयात् , कि IX परिगणय्यैतत्कुर्यादित्याह, यदिवा किमसौ ब्रूयादिति दर्शयति- एकस्य असहायस्य जन्तोः शुभाशुभसहायस्य 'गतिः' गमन परलोके भवति, तथा आगतिः-आगमनं भवान्तरादुपजायते कर्मसहायस्यैवेति, उक्तं च-"एकः प्रकुरुते कर्म, भुनत्येकच तत्फलम् ।। | जायते म्रियते चैक, एको याति भवान्तरम् ॥१॥" इत्यादि । तदेवं संसारे परमार्थतो न कश्चित्सहायो धर्ममेकं विहाय, एत-13 | द्विगणय्य मुनीनामयं मौनः-संयमस्तेन तत्प्रधानं वा ब्रूयादिति ॥ १८॥ किञ्चान्यत्-'खयम् आत्मना परोपदेशमन्तरेण | "समेत्य ज्ञाखा चतुर्गतिक संसारं तत्कारणानि च मिथ्याखाविरतिप्रमादकषाययोगरूपाणि तथाऽशेषकर्मक्षयलक्षणं मोक्षं तत्का-| |रणानि च सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राप्येतत्सर्व खत एवावबुध्यान्यसाद्वाऽऽचार्यादेः सकाशाच्छुलाऽन्यसै मुमुक्षवे 'धर्म' श्रुतचारित्राख्यं भाषेत, किंभूतं ?-प्रजायन्त इति प्रजाः-स्थावरजङ्गमा जन्तवस्तेभ्यो हितं सदुपदेशदानतः सदोपकारिणं धर्म ब्यादिति। 8 | उपादेयं प्रदये हेयं प्रदर्शयति-ये 'गर्हिता' जुगुप्सिता मिथ्याखाविरतिप्रमादकपाययोगाः कर्मबन्धहेतवः सह निदानेन वर्तन्त इति सनिदानाः प्रयुज्यन्त इति प्रयोगा-व्यापारा धर्मकथाप्रवन्धा वा ममासात्सकाशास्किश्चित् पूजालाभसंस्कारादिकं भविष्यतीसेवभूतनिदानासारूपास्ताचारित्रविमभूतान महर्षयः सुधीरधर्माणो 'न सेवन्ते' नानुतिष्ठन्ति । यदिवा ये गर्हिताः सनिदा-1|| ना वाक्प्रयोगाः, तद्यथा-कुतीथिकाः सावधानुष्ठानरता निःशीला निर्वताः कुण्टलवेण्टलकारिण इत्येवंभूतान् परदोषोद्घट्टनया | ममवेधिनः सुधीरधर्माणो वाकण्टकान् 'न सेवन्तेन भुवत इति ॥१९॥ किञ्चान्यत्-केषाश्चिन्मिथ्यादृष्टीना कुतीर्थिकभावितानां खदर्शनाऽऽअहिणां 'तर्कया' वितर्केण खमतिपर्यालोचनेन 'भावम् अभिप्राय दुष्टान्तःकरणचितमबुद्धा कवित्साधुः श्रावको वा అంది 200000000000 ~481~ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], मूलं [२०], नियुक्ति: [१२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: सूत्रकृता प्रत सूत्रांक ||२०|| त्तियुतं ॥२३॥ दीप अनुक्रम [५७६] खधर्मस्थापनेच्छया तीर्थिकतिरस्कारप्रायं वचो ब्रूयात् , स च तीथिकस्तद्वचः 'अश्रद्दधानः' अरोचयनप्रतिपद्यमानोऽतिकटुकं । |१३ याथा | भावयन् 'क्षुद्रत्वमपि गच्छेदू' तद्विरूपमपि कुर्यात् , पालकपुरोहितवत् स्कन्दकाचार्यस्येति । क्षुद्रगमनमेव दर्शयति-स तथ्याध्य. निन्दावचनकृषितो वक्तुर्यदायुस्तस्यायुपो 'व्याघातरूपं परिक्षेपस्वभाव कालातिचार-दीर्घस्थितिकमप्यायुः संवर्तयेत्, एतदुक्तं भवति-धर्मदेशना हि पुरुषविशेष ज्ञाखा विधेया, तद्यथा-कोऽयं पुरुषों राजादिः कं च देवताविशेषं नतः ? कतरद्वा | दर्शनमाश्रितोऽभिगृहीतोऽनभिगृहीतो वाध्यमित्येवं सम्यक परिज्ञाय यथार्ह धर्मदेशना विधेया, यौतदबुद्धा किनिर्मदेश-18 नाद्वारेण परविरोधकवचो धूयात् स परमादेहिकामुष्मिकयोमरणादिकमपकार प्राप्नुयादिति, यत एवं ततो लब्धमनुमानं येन पराभिप्रायपरिज्ञाने स लब्धानुमानः 'परेषु' प्रतिपायेषु यथायोग यथाप्रतिपल्या 'अर्थान्' सद्धर्मप्ररूपणादिकान् जीवादीन् वा स्वपरोपकाराय श्रूयादिति ।। २०॥ अपि च कम्मं च छंदं च विगिंच धीरे, विणइज उ सवओ(हा) आयभावं । रूबेहिं लुप्पंति भयावहेहिं, विजं गहाया तसथावरेहिं ॥२१॥ न पूयणं चेव सिलोयकामी, पियमप्पियं कस्सइ णो करेजा। सवे अणटे परिवजयंते, अणाउले या अकसाइ भिक्खू ॥२२॥ आहत्तहीयं समुपेहमाणेसवेहिं पाणेहिं णिहाय दंडं । णो जीवियं णो मरणाहिकंखी, परिवएज्जा वलयाविमुक्के [ मेहावी वलयविप्पमुक्के] ॥२३॥ तिबेमि ॥ इति श्रीआत्तहियंनाम त्रयोदशमध्ययनं समत्तं ॥ (गाथा० ५९१) Boeracaeseseseseseseseseser ॥२३९॥ ~482 Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२३|| दीप अनुक्रम [५७९] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], मूलं [२३], निर्युक्तिः [१२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ०२], अंग सूत्र -[०२ ] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - 'धीरः' अक्षोभ्यः समुद्ध्यलङ्कृतो वा देशनावसरे धर्मकथाश्रोतुः 'कर्म' अनुष्ठानं गुरुलघुकर्मभावं वा तथा 'छन्दम' अभि प्रायं सम्यक् 'विवेचयेत्' जानीयात्, झाला च पर्षदनुरूपामेव धर्मकथिको धर्मदेशनां कुर्यात् सर्वथा यथा तस्य श्रोतुर्जीवादिपदार्थावगमो भवति यथा च मनो न दृष्यते, अपि तु प्रसन्नतां व्रजति, एतदभिसंधिमानाह - विशेषेण नयेद् अपनयेत् पर्षदः 'पापभावम्' अशुद्धमन्तः करणं, तुशब्दाद्विशिष्टगुणारोपणं च कुर्यात्, 'आयभाव' ति कचित्पाठः, तस्यायमर्थ:- 'आत्मभावः' अनादिभवाभ्यस्तो मिध्याखादिकस्तमपनयेत् यदिवाऽऽत्मभावो विषय गृध्नुताऽतस्तमपनयेदिति । एतदर्शयति- 'रूपैः' नयनमनोहारिभिः स्त्रीणामङ्गप्रत्यङ्गार्द्ध कटाक्षनिरीक्षणादिभिरल्पसच्या 'विलुप्यन्ते' सद्धर्माद्बाध्यन्ते, किंभूतै रूपैः ? - 'भयावहैः ' भयमावहन्ति भयावहानि, इहैव तावद्रूपादिविषयासक्तस्य साधुजनजुगुप्सा नानाविधाश्च कर्णनासिका विकर्तनादिका विडम्बना: प्रादुर्भवन्ति जन्मान्तरे च तिर्यङ्नरकादिके यातनास्थाने प्राणिनो विषयासक्ता वेदनामनुभवन्तीत्येवं 'विद्वान' पण्डितो धर्मदेशनाभिज्ञो गृहीता पराभिप्रायं सम्यगवगम्य पर्षदं त्रसस्थावरेभ्यो हितं धर्ममाविर्भावयेत् ।। २१ ।। पूजासत्कारादिनिरपेक्षेण च सर्वमेव तपश्वरणादिकं विधेयं विशेषतो धर्मदेशनेत्येतदभिप्रायवानाह - साधुर्देशनां विदधानो न पूजनं वस्त्रपात्रादिलाभ रूपमभिकाङ्गेनापि लोकं श्लाघां कीर्तिम् आत्मप्रशंसां 'कामयेद्' अभिलषेत्, तथा श्रोतुर्यत्प्रियं राजकथाविकथादिकं छलितकथादिकं च तथाऽप्रियं च तत्समाश्रितदेवताविशेषनिन्दादिकं न कथयेद्, अरक्तद्विष्टतया श्रोतुरभिप्रायमभिसमीक्ष्य यथावस्थितं धर्म सम्यग्दर्शनादिकं कथयेत्, उपसंहारमाह- 'सर्वाननर्थान्' पूजासत्कारलाभाभिप्रायेण स्वकृतान् परदूषणतया च परकृतान् 'वर्जयन' परिहरन् कथयेद् 'अनाकुल:' सूत्रार्थादनुत्तरन् अकषायी भिक्षुर्भवेदिति ॥ २२ ॥ सर्वाध्ययनोपसंहारार्थमाह Etication Internation For Pale Only ~483~ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], मूलं [२३], नियुक्ति: [१२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२३|| सूत्रकृताङ्ग 18|'आहत्तहीय' मित्यादि, यथातथाभावो याथातथ्य-धर्ममार्गसमवसरणाख्याध्ययनत्रयोक्तार्थतत्वं सूत्रानुगत सम्यक्त्वं चारित्रं ||१३ याथा शीलावा- वा तत् 'प्रेक्षमाणः' पर्यालोचयन् सूत्रार्थ सदनुष्ठानतोऽभ्यस्यन् 'सर्वेषु स्थावरजङ्गमेषु सूक्ष्मवादरभेदभिन्नेषु पृथिवीकायादिषु तथ्याध्य. चायित्र- दण्ड्यन्ते प्राणिनो येन स दण्डः-प्राणव्यपरोपणविधिस्तं 'निधाय' परित्यज्य, प्राणात्ययेऽपि याथातथ्यं धर्म नोलयेदिति । त्तियुतं एतदेव दर्शयति-'जीवितम्' असंयमजीवितं दीर्घायुष्कं वा सावरजङ्गमजन्तुदण्डेन नाभिकाही स्था(क्षे)त् परीषहपराजितो ॥२४॥ वेदनासमुद्घात(समय)हतो या तवेदनाम(भि)सहमानो जलानलसंपातापादितजन्तूपमर्दैन नापि मरणाभिकाही सात् । तदेवं | याथातथ्यमुत्प्रेक्षमाणः सर्वेषु प्राणिपूपरतदण्डो जीवितमरणानपेक्षी संयमानुष्ठानं चरेद्-उद्युक्तविहारी भवेत् 'मेधावी' मर्यादाव्यवस्थितो विदितवेद्यो वा वलयेन-मायारूपेण मोहनीयकर्मणा वा विविध प्रकर्षेण मुक्तो विप्रमुक्त इति । इतिः परिसमाप्त्यर्थे । | ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ २३ ॥ समाप्तं च याथातथ्यं त्रयोदशमध्ययनमिति ।। दीप अनुक्रम [५७९] ॥२४॥ अत्र त्रयोदशं अध्ययनं समाप्त ~484~ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], मूलं [२३...], नियुक्ति: [१२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: अथ अन्धनामकं चतुर्दशमध्ययनं प्रारभ्यते । प्रत सूत्रांक ||२३|| दीप अनुक्रम [५७९] उक्तं त्रयोदशमध्ययनं, साम्प्रतं चतुर्दशमारभ्यते, अस्य चायमभिसंबन्धः-इहानन्तराध्ययने याथातथ्यमिति सम्यकचारित्रम| भिहितं, तब बाह्याभ्यन्तरग्रन्थपरित्यागादवदातं भवति, तच्यागानेनाध्ययनेन प्रतिपाद्यत इत्यनेन संबन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चखाउँनुयोगद्वाराण्युपक्रमादीनि भवन्ति, तत्रोपक्रमद्वारान्तर्गतोऽर्थाधिकारोऽयं, तद्यथा-सबाह्याभ्यन्तरग्रन्थपरित्यागी वि| धेय इति । नामनिष्पने तु निक्षेपे आदानपदाद्गुणनिष्पन्नखाच ग्रन्थ इति नाम, तं ग्रन्थमधिकृत्य नियुक्तिकदाह--- गंधो पुव्युट्टिो दुविहो सिस्सोय होति णायब्यो । पब्धावण सिक्खावण पगपं सिक्खावणाए उ ॥ १२७॥ IS सो सिक्खगो य दुविहो गहणे आसेवणाय णायब्बो । गहणंमि होति तिविहो सुत्ते अत्धे तदुभए य ॥१२८॥ आसेवणाय दुविहो मूलगुणे चेव उत्तरगुणे य । मूलगुणे पंचविहो उत्तरगुण बारसविहो उ ॥ १२९ ।।। आयरिओऽविय दुविहो पब्वावंतो व सिक्खचंतो य । सिक्खाचतो दुविहो गहणे आसेवणे चेव ।। १३०॥ गाहावितो तिविहो सुत्ते अत्थे य तदुभए चेव । मूलगुण उत्तरगुणे दुविहो आसेवणाए उ ॥ १३१॥ अन्थो द्रन्यभावभेदभिन्नः क्षुल्लकनैर्ग्रन्थ्यं नाम उत्तराध्ययनेष्वध्ययनं तत्र पूर्वमेव सप्रपश्चोऽभिहितः, इह तु ग्रन्थं द्रव्यभावभेदभिन्नं यः परित्यजति शिष्य आचारादिकं चा ग्रन्थं योऽधीतेऽसौ अभिधीयते, स शिष्यो 'द्विविधो' द्विप्रकारो ज्ञातव्यो भव-181 Scenesesesesentaeseaeseseserder अत्र चतुर्दशं अध्ययनं “ग्रन्थ" आरब्ध, पूर्व-अध्ययनेन सह अभिसंबंध:, ग्रन्थ शब्दस्य निक्षेपा: ~485~ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], मूलं [२३...], नियुक्ति: [१३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२३|| मृत्रकता ति, तद्यथा-प्रव्रज्यया शिक्षया च, यस्य प्रत्रज्या दीयते शिक्षा वा यो ग्राह्यते स द्विप्रकारोऽपि शिष्यः, इह [त] पुनः शिक्षाशि-/१४ ग्रन्थाशीलाङ्का- व्येण 'प्रकृतम्' अधिकारो यः शिक्षां गृह्णाति शैक्षकः तरिछक्षयेह प्रस्ताव इत्यर्थः ॥ यथाप्रतिज्ञातमधिकृत्याह-यः शिक्षा गृहाति। 18 शैक्षकः स द्विविधो-द्विप्रकारो भवति, तद्यथा-ग्रहणे प्रथममेवाचार्यादेः सकाशाच्छिक्षां-इच्छामिच्छातहकारादिरूषां गृह्णाति || चियुत शिक्षति, तथा शिक्षितां चाभ्यस्थति-अहर्निशमनुतिष्ठति स एवंविधो ग्रहणासेवनाभेदभिन्नः शिष्यो ज्ञातव्यो भवति, तत्रापि ग्रहणपूर्वकमासेवनमितिकृताऽऽदावेव ग्रहणशिधामाह-शिक्षाया 'ग्रहणे' उपादानेऽधिकृते त्रिविधो भवति शैक्षकः, तद्यथा-18 1॥२४॥ | सूत्रेऽर्थे तदुभये च, मूत्रादीन्यादावेव गृहन् सूत्रादिशिक्षको भवतीति भावः ।। साम्प्रतं ग्रहणोत्तरकालभाविनीमासेवनाम|धिकृत्याह-यथावस्थितमूत्रानुष्ठानमासेवना तया करणभूतया द्विविधो भवति शिक्षक, तद्यथा-'मूलगुणे' मूलगुणविषये आसेब| मानः-सम्यगमूलगुणानामनुष्ठानं कुर्वन् तथा 'उत्तरगुणे च' उत्तरगुणविषयं सम्यगनुष्ठानं कुर्वाणो द्विरूपोऽप्यासेवनाशिक्षको भवति, तत्रापि मूलगुणे पञ्चप्रकार:-प्राणातिपातादिविरतिमासेवमानः पञ्चमहाव्रतधारणात्पञ्चविधो भवति मूलगुणेष्वासेवना-|| शिक्षका, तथोत्तरगुणविषये सम्यकपिण्डविशुद्धयादिकान् गुणानासेवमान उत्तरगुणासेवनाशिक्षको भवति, ते चामी उत्तरगुणा:'पिंडस्स जा विसोही समिईओ भावणा तवो दुविहो । पडिमा अभिग्गहाविय उत्तरगुणमो वियाणाहि ॥१॥ यदिवा सेत्स्यप्यन्येघूत्तरगुणेषु प्रधाननिर्जराहेतुतया तप एव द्वादशविधमुत्तरगुणवेनाधिकृत्याह-'उत्तरगुणे उत्तरगुणविषये तपो द्वादशभेदमिन्नं | ॥२४॥ IS यः सम्यग् विद्यते स आसेवनाशिक्षको भवतीति ।। शिष्यो खाचार्यमन्तरेण न भवत्यत आचार्यनिरूपणमा(णाया)ह-शिष्यापेक्षया पिण्डस्य या विशोधिः समितयो भावनास्तपो द्विविधम् । प्रतिमा अभिग्रहा अपि चोत्तरगुणा (इति) विजानीहि ॥ १ ॥ २ समप्यते प्र..। croectstateccesesecsceases दीप अनुक्रम [५७९] | ग्रन्थ शब्दस्य निक्षेपाः, ग्रहण-आसेवन शिक्षा, ~486~ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], मूलं [१], नियुक्ति: [१३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१|| दीप अनुक्रम [५८०] sersersesesedeseseseseicestrseces हि आचार्यो 'द्विविधों द्विभेदः, एको यः प्रव्रज्यां ग्राहयत्यपरस्तु यः शिक्षामिति, शिक्षयबपि द्विविधा-एको यः शिक्षाशास्त्र ग्राहयति-पाठयत्यपरस्तु तदर्थ दशविधचक्रवालसामाचार्यनुष्ठानतः सेवयति-सम्यगनुष्ठानं कारयति । तत्र सूत्रार्थतदुभयभेदाद् ग्राहयन्नध्याचार्यविधा भवति । आसेवनाचार्योऽपि भूलोत्तरगुणभेदाद्विविधो भवति । गतो नामनिष्पनो निक्षेपः, तदनन्तरं कस्त सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुचारयितव्यं, तच्चेदम् गंथं विहाय इह सिक्खमाणो, उहाय सुबंभचेरं वसेजा। ओवायकारी विणयं सुसिक्खे, जे छेय विप्पमायं न कुज्जा ॥१॥जहा दियापोतमपत्तजातं, सावासगा पवित्रं मन्नमाणं । तमचाइयं तरुणमपत्तजातं, ढंकाइ अवत्तगम हरेजा ॥२॥ एवं तु सेहंपि अपुट्रधम्म, निस्सारियं बुसिमं मन्नमाणा । दियस्स छायं व अपत्तजार्य, हरिंसु णं पावधम्मा अणेगे ॥३॥ ओसाणमिच्छे मणुए समाहिं, अणोसिए गंतकरिति णच्चा। ओभासमाणे दवियस्स वित्तं, ण णिक्कसे बहिया आसुपन्नो ॥४॥ 'इव्ह' प्रवचने ज्ञातसंसारस्वभावः सन् सम्यगुत्थानेनोस्थितो अथ्यते आत्मा येन स ग्रन्थो-धनधान्यहिरण्यद्विपदचतुष्पदादि-19 'विहाय' त्यक्खा प्रबजितः सन् सदुत्थानेनोत्थाय च ग्रहणरूपामासेवनारूपां च शिक्षा [च] कुर्वाणः-सम्यगासेवमानः सुष्टु esed मूलसूत्रस्य आरम्भ: ~487~ Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [५८३] सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्का चायय तियुतं ॥२४२॥ “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१४] उद्देशक [-] मूलं [४], निर्युक्तिः [ १३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र- [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - शोभनं नवभिर्ब्रह्मचर्यगुप्तिभिर्गुप्तमाश्रित्य ब्रह्मचर्यं 'वसेत्' तिष्ठेत् यदिवा 'सुब्रह्मचर्य' मिति संयमस्तद् आवसेत् तं सम्यक् कुर्यात्, आचार्यान्तिके यावज्जीवं वसमानो यावद्भ्युद्यत विहारं न प्रतिपद्यते तावदाचार्यवचनस्यावपातो निर्देशस्तत्कार्यवपातकारी-वचननिर्देशकारी सदाऽऽज्ञाविधायी, विनीयते- अपनीयते कर्म येन स विनयस्तं सुष्ठु शिक्षेद्- विदध्यात् ग्रहणासेवनाभ्यां विनयं सम्यक् परिपालयेदिति । तथा यः 'छेको' निपुणः स संयमानुष्ठाने सदाचार्योपदेशे वा विविधं प्रमादं न कुर्यात्, यथा हि आतुरः सम्यग्वैद्योपदेशं कुर्वन् श्लाघां लभते रोगोपशमं च एवं साधुरपि सावद्यग्रन्थपरिहारी पापकर्मभेषजस्थानभूतान्याचा|र्यवचनानि विदधदपरसाधुभ्यः साधुकारमशेषकर्मक्षयं चावाप्नोतीति ॥ १ ॥ यः पुनराचार्योपदेशमन्तरेण स्वच्छन्दतया गच्छानिर्गत्य एकाकिविहारितां प्रतिपद्यते स च बहुदोषभाग् भवतीत्यस्यार्थस्य दृष्टान्तमाविर्भावयन्नाह - 'यथे 'ति दृष्टान्तोपप्रदर्शनार्थः 'यथा' येन प्रकारेण 'द्विजपोतः पक्षिशिशुरव्यक्तः, तमेव विशिनष्टि - पतन्ति गच्छन्ति तेनेति पत्र पक्षपुढं न विद्यते पत्रजातं पक्षोद्भवो यस्यासावपत्रजातस्तं तथा स्वकीयादावासकात् खनीडात् लवितुम् उत्पतितुं मन्यमानं तत्र तत्र पतन्तमुपलभ्य तं द्विजपोतं 'अचाइयं'ति पक्षाभावाद्गन्तुमसमर्थमपत्र जातमितिकृता मांसपेशी कल्पं 'दङ्कादयः' क्षुद्रसच्चाः पिशिताशिनः 'अव्यक्तगर्म' गमनाभावे नंष्टुमसमर्थं 'हरेयुः' चञ्चादिनोत्क्षिप्य नयेयुर्व्यापादयेयुरिति ॥ २ ॥ एवं दृष्टान्तं प्रदर्श्य दार्शन्तिकं | प्रदर्शयितुमाह- 'एव' मित्युक्तप्रकारेण, तुशब्दः पूर्वस्माद्विशेषं दर्शयति, पूर्व ह्यसंजातपक्षवादव्यक्तता प्रतिपादिता इह खपुष्टधमतयेत्ययं विशेषो यथा द्विजपोत्तमसंजातपक्षं खनीडान्निर्गतं क्षुद्रसच्या विनाशयन्ति एवं शिक्षकमभिनवप्रत्रजितं सूत्रार्थानिष्पन्नमगीतार्थम् 'अपुष्टधर्माणं' सम्यगपरिणत धर्मपरमार्थं सन्तमनेके पापधर्माणः पापण्डिकाः प्रतारयन्ति, प्रतार्य च गच्छसमुद्रान्निः Education International For Penal Use On ~488~ १४ ग्रन्थाध्ययनं. ॥२४२॥ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], मूलं [४], नियुक्ति: [१३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||४|| दीप अनुक्रम [५८३] । सारयन्ति, निःसारितं च सन्तं विषयोन्मुखतामापादितमपगतपरलोकभयमसाकं वैश्यमित्येवं मन्यमानाः यदिवा 'बुसिमन्ति चारित्रं तद् असदनुष्ठानतो निःसारं मन्यमाना अजातपक्षं 'द्विजशावमिव' पक्षिपोतमिव ढसादयः पापधर्माणो मिथ्याखाविरति1 प्रमादकपायकलुपितान्तरात्मानः कुतीर्थिकाः स्वजना राजादयो वाऽनेके बहवो हृतवन्तो हरन्ति हरिष्यन्ति चेति, कालत्रयोपल| क्षणार्थ भूतनिर्देश इति, तथाहि पापण्डिका एवमगीताथे प्रतारयन्ति, तद्यथा-युष्मदर्शने नामिप्रज्वालनविषापहारशिखाच्छेदा-1 दिकाः प्रत्यया दृश्यन्ते, तथाणिमाघरगुणमैश्वर्य च नास्ति, तथा न राजादिभिबहुभिराश्रितं, याऽप्यहिंसोच्यते भवदागमे साऽपि जीवाकुलखाल्लोकस्य दुःसाध्या, नापि भवतां स्नानादिकं शौचमस्तीत्यादिकाभिः शठोक्तिभिरिन्द्रजालकल्पाभिमुग्धजनं प्रतारयन्ति, खजनादयश्चैवं विप्रलम्भयन्ति, तयथा-आयुष्मन् ! न भवन्तमन्तरेणासाकं कश्चिदस्ति पोषक: पोष्यो वा, खमेवासा सर्वखं, त्वया विना सर्व शून्यमाभाति, तथा शब्दादिविषयोपभोगामन्त्रणेन सद्धर्माच्यावयन्ति, एवं राजादयोऽपि द्रष्टच्याः, तदेवमपुष्टधर्माणमेकाकिनं बहभिः प्रकारैः प्रतार्यापहरेयुरिति ॥ ३॥ तदेवमेकाकिनः साधोर्यतो बहयो दोषाः प्रादुर्भवन्ति अतः सदा गुरुपादमूले स्थातव्यमित्येतदर्शयितुमाह-'अवसानं' गुरोरन्तिके स्थानं तद्यायजीव 'समाधि' सन्मार्गानुष्ठानरूपम् 'इच्छेद्र |अभिलपेत् 'मनुजो मनुष्यः साधुरित्यर्थः, स एव च परमार्थतो मनुष्यो यो यथाप्रतिज्ञातं निर्वाहयति, तच सदा गुरोरन्तिके | व्यवस्थितेन सदनुष्ठानरूपं समाधिमनुपालयता निर्वाह्यते नान्यथेत्येतदर्शयति-गुरोरन्तिके 'अनुषितः' अव्यवस्थितः स्वच्छन्दविधायी समाधेः सदनुष्ठानरूपस्य कर्मणो यथाप्रतिज्ञातस्स वा नान्तकरो भवतीत्येवं ज्ञात्वा सदा गुरुकुलवासोज्नुसतव्यः, तद्र समाप्तामितितेन ग प्रथमा । ~489~ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], मूलं [४], नियुक्ति: [१३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सुत्रांक ||४|| दीप अनुक्रम ता हितस्य विज्ञानमुषहास्यप्रायं भवतीति, उक्तं च-"न हि भवति निर्विगोपकमनुपासितगुरुकुलस्य विज्ञानम् । प्रकटितपश्चाद्भाग १४ प्रथाशीलाक-1 पश्यत नृत्यं मयूरस्थ ।। १॥" तथाऽजां गलविलग्नवालुकां पाणिग्रहारेण प्रगुणां दृष्ट्वाऽपरोऽनुपासितगुरुरनो राहीं संजातगलचा-यव- गण्डो पाणिप्रहारेण व्यापादितवान् , इत्यादयः अनुपासितगुरोर्बहवो दोषाः संसारवर्धनाद्या भवन्तीत्यवगम्यानया मर्यादया चियुत ISI गुरोरन्तिके स्थातव्यमिति दर्शयति-'अवभासयन्' उद्भासयन् सम्यगनुतिष्ठन् 'द्रव्यस्य' मुक्तिगमनयोग्यस्य सत्साधो रागद्वेपर॥२४३॥ हितस्य सर्वज्ञस्य वा वृत्तम्-अनुष्ठानं तत्सदनुष्ठानतोऽवभासयेद्, धर्मकथिकः कथनतो बोद्भासयेदिति । तदेवं यतो गुरुकुलवासो बहूना गुणानामाधारो भवत्यतो 'न निष्कसेत् न निर्गच्छेत् गच्छाद्गुर्वन्तिकाद्वा बहिः, खेच्छाचारी न भवेद् , आशुमज्ञ' इति क्षिप्रप्रज्ञा, सदन्तिके निवसन् विषयकषायाभ्यामात्मानं हियमाणं नाला क्षिप्रमेवाचार्योपदेशात्स्वत एव वा 'निवर्तयति' सत्समाहाची व्यवस्थापयतीति ॥ ४॥ तदेवं प्रवज्यामभि उद्यतो नित्यं गुरुकुलवासमावसन सर्वत्र स्थानशयनासनादावुपयुक्तो भवति । १ तदुपयुक्तस्य च गुणमुद्भावयन्नाहजे ठाणओ य सयणासणे य, परक्कमे यावि सुसाइजुत्ते । समितीसु गुत्तीसु य आयपन्ने, वि ॥२४॥ यागरिते य पुढो वएज्जा ॥ ५॥ सदाणि सोच्चा अदु भेरवाणि, अणासवे तेसु परिवएज्जा । निदं च भिक्खू न पमाय कुजा, कहंकहं वा वितिगिच्छतिन्ने ॥ ६ ॥ डहरेण बुढेणऽणुसासि एeeseaeoeaeesecseseer [५८३] ~ 490~ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], मूलं [७], नियुक्ति: [१३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सुत्रांक ||७|| ए उ, रातिणिएणावि समवएणं । सम्मं तयं थिरतो णाभिगच्छे, णिजंतए वावि अपारए से ॥७॥ विउट्रितेणं समयाणुसिढे, डहरेण वुड्डेण उ चोइए य । अञ्चुट्टियाए घडदासिए वा, अगारिणं वा समयाणुसिट्टे ॥८॥ यो हि निर्विण्णसंसारतया प्रव्रज्यामभि उद्यतो नित्यं गुरुकुलवासतः 'स्थानतश्च स्थानमाश्रित्य तथा शयनत आसनता, | एकश्वकारः समुच्चये द्वितीयोऽनुक्तसमुथयार्थः चकाराद्गमनमाश्रित्यागमनं च तथा तपधरणादौ पराक्रमतच, (सु) साधो:-उद्यु तविहारिणो ये समाचारास्तैः समायुक्तः सुसाधुयुक्ता, सुसाधुर्हि यत्र स्थानकायोत्सर्गादिकं विधत्ते तत्र सम्यक् प्रत्युपेक्षणा|दिकां क्रियां करोति, कायोत्सर्ग च मेरुरिव निष्प्रकम्पः शरीरनिःस्पृहो विधत्ते, तथा शयनं च कुर्वन् प्रत्युपेक्ष्य संस्तारकं तद्भुवं । कार्य चोदितकाले गुरुभिरनुज्ञातः स्वपेत् , तत्रापि जाग्रदिव नात्यन्तं निःसह इति । एचमासनादिष्वपि तिष्ठता पूर्ववत्संकुचितगात्रेण खाध्यायध्यानपरायणेन सुसाधुना भवितव्यमिति, तदेवमादिसुसाधुक्रियायुक्तो गुरुकुलनिवासी सुसाधुर्भवतीति स्थितम् । अपिच-गुरुकुलवासे निवसन् पञ्चसु समितिवीर्यासमित्यादिषु प्रविचाररूपासु तथा तिसृषु च गुप्तिषु प्रविचाराप्रविचाररूपासु 18आगता-उत्पन्ना प्रज्ञा यस्यासावागतप्रज्ञा-संजातकतेंव्याकर्तव्यविवेकः खतो भवति, परस्यापि च 'व्याकुर्वन' कथयन् पृथक पृथग्गुरोः प्रसादात्परिज्ञातखरूपः समितिगुप्तीनां यथावस्थितस्वरूपप्रतिपालनं तत्फलं च 'वदेत्' प्रतिपादयेदिति ॥५॥ ईर्या Receceneseaeeeeeeser दीप अनुक्रम [५८६] ~ 491~ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], मूलं [८], नियुक्ति: [१३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सुत्रांक ||८|| दीप अनुक्रम [५८७]] मूत्रकृताझं 18| समित्याद्युपेतेन यद्विधेयं तद्दर्शयितुमाह-'शब्दान्' वेणुवीणादिकान् मधुरान् श्रुतिपेशलान् 'श्रुत्वा' समाकर्पोथवा 'भैर-181 १४मन्थाशीलाङ्का वान्' भयावहान् कर्णकटूनाकर्ण्य शब्दान् आश्रवति तान् शोभनखेनाशोभनखेन वा गृह्णातीत्याश्रवो नाश्रवोऽनाश्रवः, तेष्वनुकू-18 ध्ययनं. चायीय लेषु प्रतिकूलेषु श्रवणपथमुपगतेषु शब्देष्वनाश्रवो-मध्यस्थो रागद्वेपरहितो भूखा परि-समन्ताद् व्रजेत् परिव्रजेत्-संयमानुष्ठायी तियुतं ||भवेत, तथा 'निद्रांच' निद्राप्रमादं च 'भिक्षः सत्साधुः प्रमादाङ्गखान कुर्यात् , एतदुक्तं भवति-शब्दाश्रवनिरोधेन विषय॥२४४॥2 प्रमादो निषिद्धो निद्रानिरोधेन च निद्राप्रमादः, चशब्दादन्यमपि प्रमाद विकथाकपायादिकं न विदध्यात् । तदेवं गुरुकुलवासान। | स्थानशयनासनसमितिगुप्तिष्वागतप्रज्ञा प्रतिषिद्धसर्वप्रमादः सन् गुरोरुपदेशादेव कथंकथमपि विचिकित्सां चित्तविप्लुति रूपां [वितीण:-अतिक्रान्तो भवति, यदिवा मद्गृहीतोऽयं पश्चमहातभारोऽतिदुर्वहः कथं कथमप्यन्तं गच्छेद् ?, इत्येवंभूतां | विचिकित्सा गुरुप्रसादाद्वितीर्णो भवति, अथवा यां काञ्चिञ्चित्तविप्लुति देशसर्वगतां तां कृत्वां गुर्वन्तिके वसन् वितीर्णो भवति || 18| अन्येषामपि तदपनयनसमर्थः स्यादिति ॥६॥ किश्चान्यत्-स गुर्वन्तिके निवसन् कचित् प्रमादस्खलितः सन् वयःपयों याभ्यां क्षुल्लकेन-लघुना 'चोदितः' प्रमादाचरणं प्रति निषिद्धः, तथा 'वृद्धेन वा वयोऽधिकेन श्रुताधिकेन वा 'अनुशा|सितः' अभिहितः, तयथा--भवद्विधानामिदमीहा प्रमादाचरणमासेवितुमयुक्तं, तथा 'रवाधिकेन वा प्रवज्यापर्यायाधिकेन श्रुताधिकेन वा समवयसा चा 'अनुशासितः' प्रमादस्खलिताचरणं प्रति चोदितः कुप्यति यथा अहमध्यनेन द्रमकप्रायेणोत्त ॥२४४॥ || मकुलप्रमूतः सर्वजनसंमत इत्येवं चोदित इत्येवमनुशाखमानो न मिध्यादुष्कृतं ददाति न सम्पगुत्थानेनोत्तिष्ठति नापि तदनुशा सनं सम्यक स्थिरतः- पुनःकरणतयाऽभिगच्छेत्-प्रतिपद्येत, चोदितश्च प्रतिचोदयेद, असम्यक् प्रतिपद्यमानशासी संसारस्रोतसा ~492~ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [५८७] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], मूलं [८], निर्युक्ति: [१३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ०२], अंग सूत्र -[०२ ] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः 'नीयमान' उद्यमानोऽनुशास्यमानः कुपितोऽसौ न संसारार्णवस्य पारगो भवति । यदिवाऽऽचार्यादिना सदुपदेशदानतः प्रमादस्खलितनिवर्तनतो मोक्षं प्रति नीयमानोऽप्यसौ संसारसमुद्रस्य तदकरणतोऽपारग एव भवतीति ||७|| साम्प्रतं स्वपक्षचोदनानन्त| रतः (रं) खपरचोदनामधिकृत्याह विरुद्धोत्थानेनोत्थितो व्युत्थितः - परतीर्थिको गृहस्थो वा मिथ्यादृष्टिस्तेन प्रमादस्खलिते चोदितः स्वसमयेन, तद्यथा नैवंविधमनुष्ठानं भवतामागमे व्यवस्थितं येनाभिप्रवृत्तोऽसि यदिवा व्युत्थितः - संयमाद्धष्टस्तेनापुरः साधुः स्खलितः सन् स्वसमयेन- अर्हत्प्रणीतागमानुसारेणानुशासितो मूलोत्तरगुणाचरणे स्खलितः सन् 'चोदित' आगमं प्रदर्श्याभिहितः, तद्यथा-नैतच्चारितगमनादिकं भवतामनुज्ञातमिति, तथा अन्येन वा मिथ्यादृष्ट्यादिना 'क्षुल्लकेन' लघुतरेण वयसा वृद्धेन वा कु |त्सिताचारप्रवृत्तचोदितः, तुशब्दात्समानवयसा या तथा अतीवाकार्य करणं प्रति उस्थिता अत्युत्थिताः, यूदिवा-दासीखेन अत्यन्तम्| त्थिता दास्या अपि दासीति, तामेव विशिनष्टि - 'घटदास्या' जलवाहिन्यापि चोदितो न क्रोधं कुर्यात् एतदुक्तं भवति अत्युत्थितयाऽतिकुपितयाऽपि चोदितः स्वहितं मन्यमानः सुसाधुर्न कुप्येत् किं पुनरन्येनेति ?, तथा 'अगारिणा' गृहस्थानां यः 'समयः अनुष्ठानं तत्समयेनानुश। सितो, गृहस्थानामपि एतन्न युज्यते कर्तु यदारब्धं भवतेत्येवमात्मावमेनापि चोदितो ममैवैतच्छ्रेय इत्येवं मन्यमानो मनागपि न मनो दूषयेदिति ॥ ८ ॥ एतदेवाह ते कुझे ण य पहेजा, ण यावि किंची फरुसं वदेजा । तहा करिस्संति पडिस्सुणेज्जा, सेयं खुमेयं ण पमाय कुज्जा ॥ ९ ॥ वर्णसि मूढस्स जहा अमूढा, मग्गाणुसासंति हितं प याणं । तेणेव (तेणावि) मज्झं इणमेव सेयं, जं मे बुहा समणुसासयति ॥१०॥ अह तेण मूढेण Education International For Park Use Only ~493~ २४५/१ waryru Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], मूलं [११], नियुक्ति: [१३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: esese प्रत सूत्रांक १४ अन्धाध्ययन सूत्रकृताङ्ग शीलाकाचायीयचियुत ||११|| ||२४५॥ दीप अनुक्रम [५९०] अमूढगस्स, कायन पूया सविसेसजुत्ता । एओवमं तत्थ उदाह वीरे, अणुगम्म अत्थं उवणेति सम्म ॥ ११ ॥णेता जहा अंधकारंसि राओ, मग्गं ण जाणाति अपस्समाणे । से सूरिअस्स अब्भुग्गमेणं, मग्गं वियाणाइ पगासियंसि ॥ १२ ॥ 'तेषु' खपरपक्षेषु स्खलितचोदकेष्वात्महितं मन्यमानो न कुध्येद् अन्यस्मिन् वा दुर्वचनेऽभिहिते न कुप्येद् एवं च चिन्तयेत्'आकुष्टेन मतिमता तत्वार्थविचारणे मतिः कार्या । यदि सत्यं कः कोप: स्यादनृतं किं नु कोपेन ॥१॥' तथा नाप्यपरेण 3 खतोऽधमेनापि चोदितोहन्मार्गानुसारेण लोकाचारगत्या वाभिहितः परमार्थ पर्यालोच्य तं चोदकं प्रकर्षण 'व्ययेत्' दण्डादिप्रहारेण पीडयेत् न चापि किञ्चित्परुपं तत्पीडादिकारि 'वदेत्' ब्रूयात् , ममैवायमसदनुष्ठायिनो दोषो येनायमपि मामेवं चोदयति, चोदितवैवंविधं भवता असदाचरणं न विधेयमेवंविधं च पूर्वर्षिभिरनुष्ठितमनुष्ठेयमित्येवंविधं वाक्यं तथा करिष्यामीत्येवं 8 मध्यस्थवृत्त्या प्रतिशृणुयाद् अनुतिष्ठेच-मिथ्यादुष्कृतादिना निवर्तेत, यदेतचोदनं नामैतन्ममैव श्रेयो, यत एतद्भयात्कचित्पुनः 8 प्रमादं न कुर्यात्रैवासदाचरणमनुतिष्ठेदिति ॥ ९॥ अखार्थस्य दृष्टान्तं दर्शयितुमाह-'वने' गहने महाटव्यां दिग्भमेण कस्यचिव्याकुलितमतेर्नष्टसत्पथस्य यथा केचिदुपरे कृपाकृष्टमानसा 'अमूढाः सदसन्मार्गज्ञाः कुमार्गपरिहारेण प्रजानां 'हितम्' अशेपापायरहितमीप्सितस्थानप्रापकं 'मार्ग' पन्थानम् 'अनुशासन्ति प्रतिपादयन्ति, स च तैः सदसद्विवेकिभिः सन्मार्गावतरणमनुशासित आत्मनः यो मन्यते, एवं तेनाप्यसदनुष्ठायिना चोदितेन न कुपितव्यम् , अपितु ममायमनुग्रह इत्येवं मन्तव्यं, यदे ॥२४५|| ~494~ Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], मूलं [१२], नियुक्ति: [१३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१२|| eceeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeees तद् बुद्धाः सम्यगनुशासयन्ति–सन्मार्गेऽवतारयन्ति पुत्रमिव पितरः तन्ममैच श्रेय इति मन्तव्यम् ॥१०॥ पुनरप्यस्वार्थस पुष्पर्थमाह-'अथे' त्यानन्तर्यार्थे वाक्योपन्यासार्थे वा, यथा 'तेन' मूढेन सन्मार्गावतारितेन तदनन्तरं तख 'अमूहस्य' सत्पथोपदेष्टुः पुलिन्दादेरपि परमुपकारं मन्यमानेन पूजा विशेषयुक्ता कर्तव्या, एवमेतामुपमाम् 'उदाहृतवान् अभिहितवान् 'वीर' तीर्थकरोऽन्यो वा गणधरादिकः 'अनुगम्य' बुद्धा 'अर्थ' परमार्थ चोदनाकृतं परमोपकारं सम्यगात्मन्युपनयति, तद्यथा-अ-2 हमनेन मिथ्याखवनाजन्मजरामरणाचनेकोपद्रवबहुलात्सदुपदेशदानेनोत्तारिता, ततो मयाऽस्य परमोपकारिणोऽभ्युत्थान विनयादिभिः पूजा विधेयेति । असिन्नर्थे बहवो दृष्टान्ताः सन्ति, तद्यथा-'गेहंमि अग्गिजालाउलंमि जह णाम उज्झमाणमि । जो बोहेइ मुयंत सो तस्स जणो परमबंध ॥ १॥जह वा विससंजुलै भत्तं निद्धमिह भोत्तुकामस्स । जोवि सदोस साहइ सो तस्स जणो परमबंधू ।। २॥ ॥ ११ ॥ अयमपरः सूत्रेणैव दृष्टान्तोऽभिधीयते-यथा हि सजलजलधराच्छादितबहलान्धकारायां रात्री 'नेता' नायकोष्टव्यादी खभ्यस्तप्रदेशोपि 'मार्ग' पन्थानमन्धकारावृतखात्वहस्तादिकमपश्यन्न जानाति-न सम्यक् परिच्छिनत्ति । स एव प्रणेता 'सूर्यस्य' आदित्यस्याभ्युगमेनापनीते तमसि प्रकाशिते दिक्चक्ने सम्यगाविभूते पाषाणदरिनिनोन्नतादिके मार्ग जानाति–विवक्षितप्रदेशप्रापकं पन्थानमभिव्यक्तचक्षुः परिच्छिनत्ति-दोषगुणविचारणतः सम्पगवगपछतीति ॥१२॥ एवं दृष्टान्तं प्रदये दाष्टोन्तिकमधिकृत्याह गेहेमिस्वालाकुसे गया नाम दहामाने। यो बोधयति सुर्त स रासा जनः परमबान्धवः ॥१॥ यया या विषसंयुक्त मतं विम्य दमोक्कुकाममा योऽपि बदोष साधयति च तस्य परमवन्धुर्जगः ॥२॥ दीप अनुक्रम [५९१] ~495 Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||23|| दीप अनुक्रम [५९२ ] सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्काचायय चियुतं ॥२४६ ॥ “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १४ ], उद्देशक [-], मूलं [१३], निर्युक्ति: [ १३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ०२], अंग सूत्र -[०२ ] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - Education International एवं तु सेहेविअपुट्टधम्मे, धम्मं न जाणाइ अबुज्झमाणे । से कोविए जिणवयणेण पच्छा, सूरोदए पासति चक्खुणेव ॥ १३ ॥ उडुं अहेयं तिरियं दिसासु, तसा य जे थावरा जे पाणा । सया जए तेसु परिवएजा, मणप्पओसं अविकंपमाणे ॥ १४ ॥ कालेण पुच्छे समियं पयासु, आइक्खमाणो दवियस्स वित्तं । तं सोयकारी पुढो पवेसे, संखा इमं केवलियं समाहिं ॥१५॥ अस्सिं सुठिच्चा तिविहेण तायी, एएसु या संति निरोहमाहु । ते एवमक्वंति तिलोगदंसी, ण भुजमेयंति पमायसंगं ॥ १६ ॥ यथा यान्धकारानृतायां रजन्यामतिगहनायामटव्यां मार्ग न जानाति सूर्योगमेनापनीते तमसि पञ्चाजानाति एवं तु 'शिष्यकः' अभिनवप्रत्रजितोऽपि सूत्रार्थानिष्पन्नः अपुष्टः- अपुष्कलः सम्यगपरिज्ञातो धर्मः श्रुतचारित्राख्यो दुर्गतिप्रसृतजन्तुधरणस्वभावो येनासावपुष्टधर्मा, स चागीतार्थः- सूत्रार्थानभिज्ञखादबुध्यमानो धर्म न जानातीति न सम्यक् परिच्छिनत्ति, स एव तु पश्चागुरुकुलवासाज्जिनवचनेन 'कोविदः' अभ्यस्तसर्वज्ञप्रणीतागमखानिपुणः सूर्योदयेऽपगतावरणश्चक्षुषेव यथावस्थितान् जीवादीन् पदार्थान् पश्यति, इदमुक्तं भवति यथा हि इन्द्रियार्थसंपर्कात्साक्षात्कारितया परिस्फुटा घटपटादयः पदार्थाः प्रतीयन्ते एवं सर्वज्ञप्रणीतागमेनापि सूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्टखगापवर्गदेवतादयः परिस्फुटा निःशङ्कं प्रतीयन्त इति । अपिच कदाचिच For Parts Only ~496~ १४ ग्रन्थाध्ययनं. ॥२४६॥ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१६|| दीप अनुक्रम [५९५] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १४ ], उद्देशक [-], मूलं [१६], निर्युक्ति: [ १३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ०२], अंग सूत्र -[०२ ] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - क्षुषाऽन्यथाभूतोऽप्यर्थोऽन्यथा परिच्छिद्यते, तथथा मरुमरीचिकानिचयो जलभ्रान्त्या किंशुकनिच योजयाकारेणापीति । नच सर्व| ज्ञप्रणीतस्यागमस्य कचिदपि व्यभिचारः, तयभिचारे हि सर्वज्ञत्वहानिप्रसङ्गात्, तत्संभवस्य चासर्वशेन प्रतिपेदुमशक्यत्वादिति ॥ ॥ १३ ॥ शिक्षको हि गुरुकुलबासि तथा जिनवचनाभिज्ञो भवति, तत्कोविदश्व सम्बरू मूलोत्तरगुणान् जानाति, तत्र मूलगुणान|धिकृत्याह -- ऊर्ध्वमधस्तिर्यग दिक्षु विदिक्षु चेत्यनेन क्षेत्रमङ्गीकृत्य प्राणातिपात विरतिरभिहिता, द्रव्यतस्तु दर्शयति श्रस्यन्तीति | त्रसाः- तेजोवायू द्वीन्द्रियादयथ, तथा ये च खावराः - स्थावरनामकर्मोदयवर्तिनः पृथिव्यत्र्वनस्पतयः, तथा ये चैतद्भेदाः सूक्ष्म| बादरपर्याप्तकापर्याप्तकरूपा दशविधप्राणधारणात्प्राणिनस्तेषु, 'सदा' सर्वकालम्, अनेन तु कालमधिकृत्य विरतिरभिहिता, यतः परिव्रजेत् परिसमन्ताद्वजेत् संयमानुष्ठायी भवेत्, भावप्राणातिपातविरतिं दर्शयति-स्थावरजङ्गमेषु प्राणिषु तदपकारे उपकारे वा मनागपि मनसा प्रद्वेषं न गच्छेद् आस्तां तावदुर्वचनदण्डप्रहारादिकं तेष्वपकारिष्वपि मनसाऽपि न मङ्गुलं चिन्तयेद्, 'अविकम्पमानः संयमादचलन सदाचारमनुपालयेदिति, तदेवं योगत्रिक करणत्रिकेण द्रव्यक्षेत्रकालभावरूपां प्राणातिपातविरतिं सम्यगरक्तद्विष्टतयाऽनुपालयेद् एवं शेषाण्यपि महाव्रतान्युत्तरगुणांथ ग्रहणासेवनाशिक्षासमन्वितः सम्यगनुपालयेदिति ॥ १४ ॥ गुरोरन्तिके वसतो विनयमाह सूत्रमर्थं तदुभयं वा विशिष्टेन प्रष्टव्य कालेनाचार्यादेरवसरं ज्ञाखा प्रजायन्त इति प्रजा - जन्तवस्तासु प्रजास्तु-जन्तुविषये चतुर्दशभूतग्रामसंबद्धं कञ्चिदाचार्यादिकं सम्यगितं - सदाचारानुष्ठायिनं सम्यक् वा समन्ताद्वा जन्तुगतं पृच्छेदिति । स च तेन पृष्ट आचार्यादिराचक्षाणः शुश्रूषयितव्यो भवति, यदाचक्षाणस्तदर्शयति-मुक्तिगमनयोग्यो भन्यो द्रव्यं राग१ सर्वक्षमणीतागमो पदार्थसंभवस्य सर्वज्ञसंभवस्येति वा २ शत्रोपकारे बाधे या दुरायतिके खस्य, अन्ययोपकारे द्वेषासंभवात् । Education Internation For Park Use Only ~497~ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], मूलं [१६], नियुक्ति: [१३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: शीलाका प्रत सूत्रांक ||१६|| दीप अनुक्रम सूत्रकृताङ्ग18 देषविरहाद्वा द्रव्यं तस्य द्रव्यस-पीतरागस तीर्थकरस्य वा वृत्तम्-अनुष्ठानं संयम ज्ञानं वा तत्प्रणीतमागर्म वा सम्यगाचवा || १४ ग्रन्था णः सपर्ययाऽयं माननीयो भवति । कथमित्याह-'तद्' आचार्यादिना कथितं धोत्रे-कणे कर्तुं शीलमस श्रोत्रकारी-यथोपदे-18 |शकारी आशाविधायी सन् पृथक् पृथगुपन्यस्तमादरेण हृदये प्रवेशयेत्-चेतसि व्यवस्थापयेत् , व्यवस्थापनीयं दर्शयति-'सं-11 चियुत ख्याय' सम्यक ज्ञाता 'इम' मिति वक्ष्यमाणं केवलिन इदं कैवलिक-केवलिना कथितं समाधि-सन्मार्ग सम्यग्ज्ञानादिकं मो॥२४७॥ क्षमार्गमाचार्यादिना कथितं यथोपदेशं प्रवर्तकः पृथग्-विविक्तं हृदये पृथम्ब्यवस्थापयेदिति ॥१५।। किंचान्यत्-'अस्मिन् गुरुकुलवासे निवसता यच्छुतं श्रुखा च सम्यक हृदयव्यवस्थापनद्वारेणावधारित तसिन् समाधिभूते मोक्षमार्गे मुष्ठ स्थिता 'त्रिवि-18 घेनेति मनोवाकायकर्मभिः कृतकारितानुमतिभिर्वाऽऽत्मानं त्रातुं शीलमस्येति त्रायी जन्तूनां सदुपदेशदानतखाणकरणशीलो वा तस्य खपरत्रायिणः, एतेषु च समितिगुयादिषु समाधिमार्गेषु स्थितस्य शान्तिर्भवति-अशेपद्वन्द्वोपरमो भवति तथा निरोधम्अशेषकर्मक्षयरूपम् 'आहुः तद्विदः प्रतिपादितवन्तः, क एवमाहुरित्याह-त्रिलोकम् ऊोधस्तिर्यगलक्षणं द्रष्टुं शीलं येषां ते त्रिलोकदर्शिन:-तीर्थकृतः सर्वज्ञास्ते 'एवम्' अनन्तरोक्तया नीत्या सर्वभावान् केवलालोकेन दृष्ट्वा 'आचक्षते' प्रतिपादयन्तीति । एतदेव समितिगुप्त्यादिकं संसारोत्तारणसमर्थ ते त्रिलोकदर्शिनः कथितवन्तो न पुनर्भूय एतं (न) 'प्रमादसङ्ग' मयविषयादिकं संबन्धं विधेयलेन प्रतिपादितवन्तः ॥ १६ ॥ किश्चान्यत् निसम्म से भिक्खु समीहियटुं, पडिभाणवं होइ विसारए य । आयाणअट्ठी वोदाणमोणं, [५९५] ॥२४७|| ~498~ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], मूलं [१७], नियुक्ति: [१३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१७|| उवेच्च सुद्धेण उवेति मोक्खं ॥ १७ ॥ संखाइ धम्मं च वियागरंति, बुद्धा हु ते अंतकरा भवंति । ते पारगा दोण्हवि मोयणाए, संसोधितं पण्हमुदाहरंति ॥१८॥णो छायए णोऽविय लूसएजा, माणं ण सेवेज पगासणं च । ण यावि पन्ने परिहास कुज्जा, ण याऽऽसियावाय वियागरेजा ॥ १९ ॥ भूताभिसंकाइ दुगुंछमाणे, ण णिबहे मंतपदेण गोयं । ण किंचि मिच्छे मणुए पयासुं, असाहुधम्माणि ण संवएज्जा ॥ २० ॥ स गुरुकुलवासी भिक्षुः द्रव्यस्थ वृत्तं 'निशम्य' अवगम्य खतः समीहितं चार्थ-मोक्षार्थ बुद्धा हेयोपादेयं सम्यक् परिज्ञाय नित्यं गुरुकुलचासतः 'प्रतिभानवान्' उत्पन्नप्रतिभो भवति । तथा सम्यक् खसिद्धान्तपरिज्ञानाच्छ्रोतणां यथावस्थितार्थानां 'विशारदो भवति' प्रतिपादको भवति । मोक्षार्थिनाऽऽदीयत इत्यादान-सम्यग्ज्ञानादिकं तेनार्थः स एव वाऽर्थः आदानार्थः18 स विद्यते यस्खासावादानार्थी, स एवंभूतो ज्ञानादिप्रयोजनवान् व्यवदानं-द्वादशप्रकारं तपो मौनं संयम आश्रवनिरोधरूपस्तदेवमेतौ तपःसंयमावुपेत्य-प्राप्य ग्रहणासेवनरूपया द्विविधयापि शिक्षया समन्वितः सर्वत्रप्रमादरहितः प्रतिभानवान् विशारदव 'शुद्धेन' निरुपाधिना उद्गमादिदोषशुद्धेन चाहारेणात्मानं यापयनशेषकर्मक्षयलक्षणं मोक्षमुपैति 'न उबेर मा ति कचिस्पाठः, बहुशो नियन्ते वकर्मपरवशाः प्राणिनो यसिन् स मारः-संसारस्तं जातिजरामरणरोगशोकाकुलं शुद्धेन मार्गेणात्मानं eversectatoesercedeseseaeeseser दीप अनुक्रम [५९६] ecenecenecesesenticeseeeee ~499~ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२०|| दीप अनुक्रम [ ५९९ ] सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्का चाययवृ तियुतं ॥२४८|| “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १४ ], उद्देशक [-], मूलं [२०], निर्युक्ति: [ १३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ०२], अंग सूत्र -[०२ ] “सुत्र कृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः वर्तयन् न उपैति यदिवा मरणं प्राणत्यागलक्षणं मारस्तं बहुशो नोपैति, तथाहि अप्रतिपतितसम्यक्त्व उत्कृष्टतः सप्तष्टौ वा | भवान् म्रियते नोर्ध्वमिति ॥१७॥ तदेवं गुरुकुलनिवासितया धर्मे सुस्थिता बहुश्रुताः प्रतिभानवन्तोऽर्थविशारदाश्च सन्तो यत्कुर्वन्ति तदर्शयितुमाह- सम्यक् ख्यायते - परिज्ञायते यया सा संख्या - सद्बुद्धिस्तया स्वतो धर्म परिज्ञायापरेषां यथावस्थितं 'धर्म' श्रुतचारित्राख्यं 'व्यागृणन्ति' प्रतिपादयन्ति यदिवा खपरशक्ति परिज्ञाय पर्षदं वा प्रतिपाद्यं चार्थ सम्यगवबुध्य धर्मं प्रतिपाद| यन्ति । ते चैवंविधा बुद्धाः - कालत्रयवेदिनो जन्मान्तरसंचितानां कर्मणामन्तकरा भवन्ति अन्येषां च कर्मापनयनसमर्था भवन्ती| ति दर्शयति - ते यथावस्थितधर्मप्ररूपका 'द्वयोरपि' परात्मनोः कर्मपाशविमोचनया स्नेहादिनिगडविमोचनया वा करणभूतया | संसारसमुद्रस्य पारगा भवन्ति । ते चैवंभूताः ? 'सम्यक शोधितं' पूर्वोत्तराविरुद्धं 'प्रश्नं' शब्दमुदाहरन्ति तथाहि पूर्व बुद्ध्या पर्यालोच्य कोऽयं पुरुषः कस्य चार्थस्य ग्रहणसमर्थोऽहं वा किंभूतार्थप्रतिपादनशक्त इत्येवं सम्यक् परीक्ष्य व्याकुर्यादिति, अथवा | परेण कश्चिदर्थं पृष्टस्तं प्रश्नं सम्यग् परीक्ष्योदाहरेत् सम्यगुत्तरं दद्यादिति, तथा चोक्तम्- "आयरिया व धारिएण अत्थेण झरियमुणिएणं । तो संघमज्झयारे ववहरिडं जे सुहं होंति ॥ १ ॥" तदेवं ते गीतार्था यथावस्थितं धर्मं कथयन्तः स्वपस्तारका | भवन्तीति ॥ १८ ॥ स च प्रश्नमुदाहरन् कदाचिदन्यथापि ब्रूयादतस्तत्प्रतिषेधार्थमाह- 'स' प्रश्नस्योदाहर्ता सर्वार्थाश्रयत्वाद्रव १ अनुभवा चरिते इति वचनाचारित्रयुतं सम्यक्त्वं परं प्रतिपाति वदिति भप्रतिपतितसम्यक्त्व इति जघन्याचया वा जन्मभिरष्टयेकैः इति वचनात्, सप्ताहाविति मनुष्यकायस्थित्यपेक्षं सम्यक्लभ वास्तु पत्योपमासंख्य मागमिताः २ आचार्य सकाशाद् अवधारितेनार्थेन सारकेण शात्रा च तदः मध्ये व्यवह सुखं भवति ॥ १ ॥ Education International For Park Use Only ~500~ १४ ग्रन्थाध्ययनं. ॥२४८॥ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], मूलं [२०], नियुक्ति: [१३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्र कृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२०|| करण्डकल्पः कुत्रिकापणकल्पो वा चतुर्दशपूर्विणामन्यतरोवा कश्चिदाचार्यादिभिः प्रतिभानवान्-अर्थविशारदस्तदेवंभूतः कुत्तचिनिमित्तात् श्रोतुः कुपितोऽपि सूत्रार्थ 'न छादयेत्' नान्यथा व्याख्यानयेत् स्वाचार्य वा नापलपेत् धर्मकां वा कुर्वन्नार्थ छादये आत्मगुणोत्काभिप्रायेण वा परगुणान छादयेत् तथा परगुणान्न लूपयेत्-न विडम्बयेत् शाखार्थ वा नापसिद्धान्तेन व्याख्यानयेत तथा समस्तशाखवेत्ताऽहं सर्वलोकविदितः समस्तसंशयापनेता न मत्तुल्यो हेतुयुक्तिभिरथेप्रतिपादयितेत्येवमात्मकं मानम्अभिमानं गर्व न सेवेत, नाप्यात्मनो बहुश्रुतलेखेन तपखिलेन वा प्रकाशनं कुर्यात् , चशब्दादन्यदपि पूजासत्कारादिकं परिहरेत् , |तथा न चापि 'प्रज्ञावान्' सश्रुतिकः 'परिहासं' केलिप्रायं ब्रूयाद्, यदिवा कथश्चिदचुध्यमाने श्रोतरि तदुपहासप्रायं परिहास न विदध्यात् तथा नापि चाशीर्वादं बहुपुत्रो बहुधनो [बहुधों ] दीर्वायुस्तं भूया इत्यादि व्यागृणीयात्, भाषासमितियुक्तेन भाव्यमिति ।। १९ ॥ किंनिमित्तमाशीर्वादोन विधेय इत्याह-भूतेषु-जन्तुषूपमर्दशङ्का भूताभिशङ्का तयाऽशीर्वादं 'सावध | सपापं जुगुप्समानो न भूयात् तथा गास्वायत इति गोत्रं-मौनं वासयमस्त 'मनपदेन' विद्यापमार्जन विधिना 'न निर्वाहयेत्' न निःसारं कुर्यात् । यदिवा मोत्रं-जन्तूनां जीवितं 'मनपदेन राजादिगुप्तभाषणपदेन राजादीनामुपदेशदानतो 'न निर्वाहयेत्' नापनयेत्, एतदुक्तं भवति-ज राजादिना साध जन्तुजीवितोपमर्दक मत्रं कुर्याद, तथा प्रजायन्त इति प्रजा:-जन्तवस्तासु प्रजासु 'मनुजो मनुष्यो व्याख्यानं कुर्वन् धर्मकथां वा न 'किमपि' लाभपूजासत्कारादिकम् 'इच्छेद्' अभिलोत, तथा कुत्सि. तानाम-असाधूनां धर्मान्-वस्तुदानतर्पणादिकान् 'म संवदेत्' न याद् यदिवा नासाधुधर्मान् जुवन् संवादयेद् अथवा |धर्मकथा व्याख्यानं वा कुर्वन् प्रजात्रात्मश्लाघारूपां कीर्ति नेच्छेदिति ॥ २०॥ किश्चान्यत् दीप अनुक्रम [५९९] ~501~ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२१|| दीप अनुक्रम [५९९ ] सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्काचाय तियुतं ॥२४९॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १४ ], उद्देशक [-], मूलं [२१], निर्युक्ति: [ १३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र- [ ०२ ] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः हा पिणो संघति पावधम्मे, ओए तहीयं फरुसं वियाणे । जो तुच्छए णो य विकंथइज्जा, अणाले या अक्साइ भिक्खू ॥ २१ ॥ संकेज याऽसंकितभाव भिक्खु, विभजवायं च वियागरेजा । भासादुयं धम्मसमुट्ठितेहिं वियागरेजा समया सुपन्ने ॥ २२ ॥ अणुगच्छमाणे वितहं विजाणे, तहा तहा साहु अककसेणं । ण कत्थई भास विहिंसइज्जा, निरुद्धगं वावि न दीहइजा ॥ २३ ॥ समालवेज्जा पडिपुन्नभासी, निसामिया समियाअट्टदंसी । आणाइ सुद्धं वयपणं भिउंजे, अभिसंघ पात्रविवेग भिक्खू ॥ २४ ॥ या परात्मनोर्हास्यमुत्पद्यते तथा शब्दादिकं शरीरावयवमन्यान् वा पापधर्मान् सावद्यान्मनोवाक्कायव्यापारान् 'न संघयेत्' न विदध्यात्, तद्यथा - इदं छिन्द्वि भिन्द्वि, तथा कुप्रावचनिकान् हास्यप्रायं नोत्प्रासयेत्, तद्यथा-शोभनं भवदीयं व्रतं, तद्यथा - 'मृद्वी शय्या प्रातरुत्थाय पेया, मध्ये भक्तं पानकं चापरा । द्राक्षाखण्डं शर्करा चार्धरात्रे, मोक्षयान्ते शाक्यपुत्रेण दृष्टः ॥ १ ॥ इत्यादिकं परदोषोद्भावनप्रायं पापबन्धकमितिकला हास्येनापि न वक्तव्यं । तथा 'ओजो' रागद्वेषरहितः सवावाभ्यन्तरग्रन्थत्यागाद्वा निष्किञ्चनः सन् 'तथ्य' मिति परमार्थतः सत्यमपि परुषं वचोऽपरचेतोविकारि ज्ञपरिज्ञया विजानीयाप्रत्याख्यानपरिज्ञया च परिहरेत्, यदिवा रागद्वेषविरहादोजाः 'तथ्यं' परमार्थभूतमकृत्रिममप्रतारकं 'परुषं कर्मसंश्लेषाभावा Ja Eucatur International For Parts Only ~ 502~ १४ ग्रन्थाध्ययनं. ॥२४९॥ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२४|| दीप अनुक्रम [६०३] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], मूलं [२४], निर्युक्तिः [१३१] Education intemational - | निर्ममत्वादल्पसच्चैर्दुरनुष्ठेयखाद्वा कर्कशमन्तप्रान्ताहारोपभोगाद्वा परुषं - संयमं 'विजानीयात् तदनुष्ठानतः सम्यगवगच्छेत्, तथा स्वतः कञ्चिदर्थविशेषं परिज्ञाय पूजासत्कारादिकं वाऽवाप्य 'न तुच्छो भवेत्' नोन्मादं गच्छेत्, तथा 'न विकत्थयेत्' नात्मानं श्लाघयेत् परं वा सम्यगनवबुध्यमानः 'नो विकत्थयेत्' नात्यन्तं चमढयेत्, तथा 'अनाकुलो' व्याख्यानावसरे धर्म| कथावसरे वाग्नाविलो लाभादिनिरपेक्षो भवेत्, तथा सर्वदा 'अकषायः' कषायरहितो भवेद् 'भिक्षुः साधुरिति ॥ २१ ॥ साम्प्रतं व्याख्यानविधिमधिकृत्याह - 'भिक्षुः' साधुर्व्याख्यानं कुर्वन्नर्वाग्दर्शितादर्द्धनिर्णयं प्रति अशङ्कितभावोऽपि 'शङ्केत' औद्धत्यं परिहरनहमेवार्थस्य वेत्ता नापरः कविदित्येवं गर्व न कुर्वीत किंतु विषममर्थ अरूपयन् साशङ्कमेव कथयेद्, यदिवा परिस्फुटमप्यशङ्कितभावमप्यर्थं न तथा कथयेत् यथा परः शङ्केत, तथा विभज्यवादं पृथगर्थनिर्णयवादं व्यागृणीयात् यदिवा विभज्यवाद:- स्याद्वादस्तं सर्वत्रास्खलितं लोकव्यवहाराविसंवादितया सर्वव्यापिनं स्वानुभवसिद्धं वदेद्, अथवा सम्यगर्थान् विभज्यपृथककृत्वा तद्वादं वदेत् तद्यथा--- नित्यवादं द्रव्यार्थतया पर्यायार्थतया खनित्यवादं वदेत्, तथा स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावैः सर्वेऽपि पदार्थाः सन्ति, परद्रव्यादिभिस्तु न सन्ति, तथा चोक्तम् - "सदेव सर्वं को नेच्छेत्स्वरूपादिचतुष्टयात् ? । असदेव विपर्यासान्न चेन व्यवतिष्ठते || १||" इत्यादिकं विभज्यवादं वदेदिति । विभज्यवादमपि भाषाद्वितयेनैव ब्रूयादित्याह - भाषयोः - आद्यचरमयोः सत्यासत्यामृषयोकिं भाषाद्विकं तद्भापाद्वयं कचित्पृष्टोऽपृष्टो वा धर्मकथावसरेऽन्यदा वा सदा वा 'व्यागृणीयात् मायेत, किंभूतः सन् १- सम्यक् - सत्संयमानुष्ठानेनोत्थिताः समुत्थिताः- सत्साधव उद्युक्तविहारिणो न पुनरुदायिन्नृपमारकात्कृत्रिमास्तैः सम्यगुत्थितैः सह विहरन् चक्रवर्तिद्रमकयोः समतया रागद्वेषरहितो वा शोभनप्रज्ञो भाषाद्वयोपेतः सम्यग्धर्म व्यागृणी For Fans Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ~ 503~ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२४|| दीप अनुक्रम [६०३] सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्का चायचियुतं ॥२५० ॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र -२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], मूलं [२४], निर्युक्ति: [१३१] यादिति ॥ २२ ॥ किञ्चान्यत् — तस्यैवं भाषाद्वयेन कथयतः कश्चिन्मेधावितया तथैव तमर्थमाचार्यादिना कथितमनुगच्छन् सम्यगवबुध्यते, अपरस्तु मन्दमेधावितथा वितथम्-अन्यथैवाभिजानीयात् तं च सम्यगनवबुध्यमानं तथा तथा तेन तेन हेतूदाहरणसद्युक्तिप्रकटनप्रकारेण मूर्खस्त्वमसि तथा दुर्दुरूढः खमुचिरित्यादिना कर्कशवचनेना निर्भर्त्सयन् यथा यथाऽसौ बुध्यते तथा तथा 'साधुः' सुष्ठु बोधयेत् न कुत्रचित्कुद्धमुख हस्तौष्ठनेत्र विकारैरनादरेण कथयन् मनःपीडामुत्पादयेत् तथा प्रश्नयतस्तद्भाषामपशब्दादिदोषदुष्टामपि धिग मूर्खासंस्कृतमते ! किं तवानेन संस्कृतेन पूर्वोत्तरव्याहतेन वोचारितेनेत्येवं 'न विहिंस्यात्' न तिरस्कुर्याद् असंबद्धोधनतस्तं प्रश्नयितारं न विडम्बयेदिति । तथा निरुद्धम् - अर्थस्तोकं दीर्घवाक्यैमेहता शब्ददर्दुर्दरेण र्कविटपिकाष्टिका| न्यायेन न कथयेत् निरुद्धं वा स्तोककालीनं व्याख्यानं व्याकरणतर्कादिप्रवेशनद्वारेण प्रसक्त्यानुप्रसक्या 'न दीर्घयेत्' न दीर्घकालिकं कुर्यात्, तथा चोक्तम् — “सो' अत्थो वत्तवो जो भण्णइ अक्खरेहिं थोवेहिं जो पुण थोवो बहुअक्खरेहिं सो होइ निस्सारो ॥ १ ॥” तथा किंचित्सूत्रमल्पाक्षरमल्पार्थं वा इत्यादि चतुर्भङ्गिका, तत्र बदल्याक्षरं महार्थं तदिह प्रशस्यत इति ॥ २३ ॥ | अपिच -- यत्पुनरतिविषमखादल्पाक्षरैर्न सम्यगवबुध्यते तत्सम्यग्र - शोभनेन प्रकारेण समन्तात्पर्यायशब्दोचारणतो भावार्थकथनतचालपेदू भाषेत समालपेत्, नाल्परेवाक्षरैरुक्ता कृतार्थो भवेद्, अपितु ज्ञेयगहनार्थभाषणे सद्धेतुयुक्त्यादिभिः श्रोतारमपेक्ष्य प्रतिपूर्ण भाषी स्याद्-अस्खलितामिलिताही नाक्षरार्थवादी भवेदिति । तथाऽऽचार्यादेः सकाशाद्यथावदर्थं श्रुला निशम्य अवगम्य च सम्यग् यथावस्थितमर्थं यथा गुरुसकाशादवधारितमर्थं प्रतिपाद्यं द्रष्टुं शीलमस्य स भवति सम्यगर्थदर्शी, स एवंभूतः संस्तीर्थ १. सोऽर्थो यो यो भण्यतेऽक्षरैः लोकैः । यः पुनः खोको बहुभिरक्षरैः स भवति निस्सारः ॥१॥ Education infamational For Fans Only esesestaCALA मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ...... आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ~ 504~ १४ ग्रन्थाध्ययनं. ॥२५०॥ www.ncbryo Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], मूलं [२४], नियुक्ति: [१३१] (०२) प्रत सूत्रांक ||२४|| IS कराज्ञया सर्वज्ञप्रणीतागमानुसारेण 'शुद्धम् अवदातं पूर्वापराविरुद्धं निरवयं वचनमभियुञ्जीतोत्सर्गविषये सति उत्सर्गमपवादवि पये चापवाद तथा स्वपरसमययोर्यथावं वचनमभिवदेत् । एवं चाभियुञ्जन् भिक्षुः पापविवेक लाभसत्कारादिनिरपेक्षतया काङ्ग|माणो निर्दोष वचनमभिसन्धयेदिति ।। २४ ।। पुनरपि भाषाविधिमधिकृत्याह अहाबुइयाई सुसिक्खएजा, जइज्जया णातिवेलं वदेजा । से दिट्टिमं दिट्टिण लूसए जा, से जाणई भासिउं तं समाहिं ॥ २५॥ अलूसए णो पच्छन्नभासी, णो सुत्तमत्थं च करेज ताई। सत्थारभत्ती अणुवीइ वायं, सुयं च सम्म पडिवाययंति ॥ २६ ॥ से सुद्धसुत्ते उवहाणवं च, धम्मं च जे विंदति तत्थ तत्थ । आदेजवके कुसले वियत्ते, स अरिहइ भासिउं तं समाहिं ॥ ॥ २७॥ तिबेमि ॥ इति ग्रन्थनामयं चउदसमज्झयणं समत्तं ॥ (गाथाय ५१८) यथोक्तानि तीर्थकरगणधरादिभिस्तान्यहर्निश 'मुष्टु शिक्षेत' ग्रहणशिक्षया सर्वज्ञोक्तमागर्म सम्यग् गृह्णीयाद् आसेवनाशि-18 | क्षया खनवरतमुयुक्तविहारितयाऽऽसेवेत, अन्येषां च तथैव प्रतिपादयेद् , अतिप्रसक्तलक्षण निवृत्तये खपदिश्यते, सदा ग्रहणासेवनाशिक्षयोर्देशनायां यतेत, सदा यतमानोऽपि यो यस्य कर्तव्यस्य कालोऽध्ययनकालो वा तां वेलामतिलङ्घय नातिवेलं वदेदूअध्ययनकर्तव्यमर्यादा नातिलङ्घयेत्स(दस)दनुष्ठानं प्रति ब्रजेद्वा, यथावसरं परस्पराबाधया सर्वाः क्रियाः कुर्यादित्यर्थः । स एवंगुण Recentencetreaesesesecacakcerce दीप अनुक्रम [६०३] wwwsainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~505~ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], मूलं [२७], नियुक्ति: [१३१] (०२) नियुत प्रत सूत्रांक ||२७|| सूत्रकृताङ्ग जातीयो यथाकालबादी यथाकालचारी च 'सम्यग्दृष्टिमान् यथावस्थितान् पदार्थान् अदधानो देशनां व्याख्यान वा कुर्वन् | १४ग्रन्थाशीलाङ्का-18/दृष्टिं सम्यग्दर्शनं 'न लूषयेत् न दूषयेत् , इदमुक्तं भवति-पुरुषविशेष शाला तथा तथा कथनीयमपसिद्धान्तदेशनापरि-ध्ययन, | हारेण यथा यथा श्रोतुः सम्यक्वं स्थिरीभवति, न पुनः शलोत्पादनतो दृष्यते, यश्चैवंविधः स 'जानाति अवबुध्यते 'भाषित प्ररूपयितुं 'समाधि सम्पगदर्शनज्ञानचारित्राख्यं सम्यक्त्तिव्यवस्थानारूयं वा तं सर्वज्ञोक्तं समाधि सम्यगवगच्छतीति ।। R॥२५॥ किंचान्यत्-'अलूसए' इत्यादि, सर्वज्ञोक्तमागमं कथयन् 'नो लूषयेत्' नान्यथाऽपसिद्धान्तव्याख्यानेन दूषयेत् , ॥२५॥ तथा 'न प्रच्छन्नभाषी भवेत्' सिद्धान्तार्थमविरुद्धमवदातं सार्वजनीनं तत्प्रच्छन्नभाषणेन न मोपयेत् , यदिवा प्रच्छन्नं वाऽथे-15 मपरिणताय न भाषेत, तद्धि सिद्धान्तरहस्यमपरिणतशिष्यविध्वंसनेन दोषायैव संपद्यते, तथा चोक्तम्-"अप्रशान्तमती शास्त्रसद्भावप्रतिपादनम् । दोषायाभिनवोदीर्णे, शमनीयमिव ज्वरे ॥१॥" इत्यादि, न च सूत्रमन्यत् स्वमतिविकल्पनतः खपरवायी कुर्वीतान्यथा वा सूत्रं तदर्थे वा संसाराभायी-प्राणशीलो जन्तूनां न विदधीत, किमित्यन्यथा मूत्रं न कर्तव्यमित्याह-परहितकरतः || शास्ता तसिन् शास्तरि या व्यवस्थिता भक्ति-बहुमानस्तया तद्भक्या अनुविचिन्त्य-ममानेनोक्तेन न कदाचिदागमबाधा खादित्येवं पर्यालोच्य वादं वदेत् , तथा यच्छ्रुतमाचार्यादिभ्यः सकाशात्तत्तथैव सम्यक्खाराधनामनुवर्तमानोऽन्येभ्य ऋणमोक्ष प्रतिपद्यमानः 'प्रतिपादयेत्' प्ररूपयेन मुखशीलतां मन्यमानो यथाकथंचित्तिष्ठेदिति ॥ २६ ॥ अध्ययनोपसंहारार्थमाह-'स' सम्य-18| ॥२५॥ ग्दर्शनखालूषको यथावस्थितागमस्य प्रणेताऽनुविचिन्त्यभाषकः शुद्धम् अवदातं यथावस्थितवस्तुप्ररूपणतोऽध्ययनतश्च सूत्र-प्रवचनं यस्यासौ शुद्धसूत्रः, तथोषधानं तपश्चरणं यद्यस्य सूत्रसाभिहितमागमे तद्विद्यते यस्खासावुपधानवान् , तथा 'धर्म' श्रुतचारि-12 दीप अनुक्रम [६०६] wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~506~ Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२७|| दीप अनुक्रम [६०६] Education intimational “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], मूलं [२७], निर्युक्तिः [१३१] त्रारूयं यः सम्यक् वेत्ति विन्दते वा सम्यग् लभते 'तत्र तत्रे'ति य आज्ञाग्राद्योऽर्थः स आज्ञयैव प्रतिपत्तव्यो हेतुकस्तु सम्यग्धेतुना यदिवा स्वसमयसिद्धोऽर्थः स्वसमये व्यवस्थापनीयः पर (समय) सिद्धय परस्मिन् अथवोत्सर्गापवादयोर्व्यवस्थितोऽर्थस्ताभ्यामेव यथास्वं प्रतिपादयितव्यः, एतद्गुणसंपन्नश्च 'आदेयवाक्यो' ग्राह्मवाक्यो भवति, तथा 'कुशलों' निपुणः आगमप्रतिपादने सदनुष्ठाने च 'व्यक्तः' परिस्फुटो नासमीक्ष्यकारी, यचैतद्गुणसमन्वितः सोऽर्हति - योग्यो भवति 'तं' सर्वज्ञोक्तं ज्ञानादिकं वा भावसमाधिं 'भाषितुं' प्रतिपादयितुं नापरः कविदिति । इति: परिसमाप्त्यर्थे, त्रवीमीति पूर्ववत्, गतोऽनुगमो, नयाः प्राग्वव्याख्येयाः ॥ २७ ॥ समाप्तं चतुर्दशं ग्रन्थाख्यमध्ययनमिति ॥ - अत्र चतुर्दशं अध्ययनं समाप्तं इति श्रीसूत्रकृताङ्गे ग्रन्थनामकमध्ययनं समाप्तम् ॥ For Parts Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...... आगमसूत्र -[ ०२ ], अंग सूत्र- [ ०२] "सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ~ 507~ www.incibrary.org Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१५], उद्देशक [-], मूलं [२७...], नियुक्ति: [१३२] (०२) अथ आदाननामकं पञ्चदशमध्ययनं प्रारभ्यते ॥ Saverage १५आदानीयाध्या सूत्रकृताङ्गं शीलाकाचा-यव प्रत सूत्रांक ||२७|| नियुतं ॥२५२।। Feeeeeeeeeeeeeeeeeee दीप अनुक्रम [६०६] अथ चतुर्दशाध्ययनानन्तरं पञ्चदशमारभ्यते, अस्य चायमभिसंवन्धः-इहानन्तराध्ययने सवायाभ्यन्तरस्य ग्रन्थस्य परित्यागो | विधेय इत्यभिहितं, ग्रन्थपरित्यागाचायतचारित्रो भवति साधुः ततो याहगसौ यथा च संपूर्णामायतचारित्रता प्रतिपद्यते तदने-18 नाध्ययनेन प्रतिपाद्यते, तदनेन संबन्धेनायातस्यास्याध्ययनख चखार्यनुयोगद्वाराण्युपक्रमादीनि भवन्ति, तत्रोपक्रमान्तर्गतोऽर्धाधि-18 कारोऽयं, तद्यथा-आयतचारित्रेण साधुना भाव्यं । नामनिष्पने तु निक्षेपे आदानीयमिति नाम, मोक्षार्धिनाऽशेषकर्मक्षयाध यज्ज्ञानादिकमादीयते तदत्र प्रतिपाद्यत इतिहखा आदानीयमिति नाम संवृत्तं । पर्यायद्वारेण च प्रतिपादितं सुग्रहं भवतीत्यत | |आदानशब्दस तत्पयोयस्य च ग्रहणशब्दस निक्षेपं कर्तुकामो नियुक्तिकदाह--- आदाणे गहणमि य णिक्खेवो होति दोण्हवि चउक्को । एगहुँ नाणटुं च होज पगयं तु आदाणे ॥ १३२ ॥ जं पढमस्संतिमए बितियस्स उ तं हवेज आदिमि । एतेणादाणिजं एसो अन्नोऽवि पन्जाओ।। १३३ ॥ |णामादी ठवणादी दवादी चेव होति भावादी। दव्वादी पुण दब्वस्स जो सभावो सप ठाणे ॥ १३४ ॥ S आगमणोआगमओ भावादी तं बुहा उवदिसंती । णोआगमओ भावो पंचविहो होइ णायचो ॥ १३५॥ आगमओ पुण आदी गणिपिडगं होइ बारसंगं तु । गंधसिलोगो पदपादअक्खराइंच तत्वादी ॥१३६ ।। २५२॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: अत्र पञ्चदशम अध्ययनं “आदानीय/जमतीय आरब्धं, तस्य पूर्व-अध्ययनेन सह अभिसंबंध:, 'आदान' शब्दस्य निक्षेपा: ~508~ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२७|| दीप अनुक्रम [६०६] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१५], उद्देशक [-] मूलं [२७...], निर्युक्ति: [१३६] Education intimational - अथवा 'जमतीय'ति अस्याध्ययनस्य नाम, तथादानपदेन, आदावादीयते इत्यादानं, तब ग्रहणमित्युच्यते, तत आदानग्रहणयोनिक्षेपार्थं निर्मुक्तिकृदाह - 'आदाणे' इत्यादि, आदीयते कार्यार्थिना तदित्यादानं कर्मणि ल्युट् प्रत्ययः, करणे वा, आदीयते गृह्यते स्वीक्रियते विवक्षितमनेनेतिकृत्वा, आदानं च पर्यायतो ग्रहणमित्युच्यते, तत आदानग्रहणयोनिंक्षेपो ( पे) भवति द्वौ चतुष्कौ, तद्यथानामादानं स्थापनादानं द्रव्यादानं भावादानं च तत्र नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यादानं वित्तं यसालौकिकैः परित्यक्तान्यकर्तव्यैर्महता लेशेन तदादीयते, तेन वाऽपरं द्विपदचतुष्पदादिकमादीयत इतिकृत्वा, भावादानं तु द्विधा - प्रशस्तमप्रशस्तं च, तत्राप्रशस्तं क्रोधाद्युदयो मिथ्यावाचिरत्यादिकं वा प्रशस्तं तूत्तरोत्तरगुणश्रेण्या विशुद्धाध्यवसायकण्डकोपादानं सम्यग्ज्ञाना|दिकं वेत्येतदर्थप्रतिपादन परमेतदेव वाऽध्ययनं द्रष्टव्यमिति, एवं ग्रहणेऽपि नामादिकश्चतुर्धा निक्षेपो द्रष्टव्यः, भावार्थोऽप्यादानप| दस्येव द्रष्टव्यः, तत्पर्यायसादस्येति । एतच ग्रहणं नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुमुत्रार्थनयाभिप्रायेणादानपदेन सहालोच्यमानं शकेन्द्रादि| वदेकार्थम् - अभिन्नार्थ भवेत्, शब्दसमभिरुद्धेत्थंभूतशब्दनयाभिप्रायेण च नानार्थं भवेत् । इह तु 'प्रकृतं' प्रस्ताव 'आदाने' आदानविषये यत आदानपदमाश्रित्यास्याभिधानमकारि, आदानीयं वा ज्ञानादिकमाश्रित्य नाम कृतमिति ॥ आदानीयाभिधान| स्यान्यथा वा प्रवृत्तिनिमित्तमाह-यत् पदं प्रथम श्लोकस्य तदर्धस्य च अन्ते - पर्यन्ते तदेव पदं शब्दतोऽर्थत उभयतश्च द्वितीय श्लोक| स्यादौ तदर्थस्य वादी भवति एतेन प्रकारेण - आद्यन्तपदसदृशखेनादानीयं भवति, एष आदानीयाभिधानप्रवृत्तेः 'पर्यायः' | अभिप्रायः अन्यो वा विशिष्टज्ञानादि आदानीयोपादानादिति । केचित्तु पुनरस्याध्ययनस्थान्तादिपदयोः संकलनात्संकलिकेति नाम १] कर्मकरणयोदात् यद्वा धातुभेदेनार्थभेदात् सामान्यं ग्रहणं आदावादानादादानमिति वा भेदः । For Full Crestwest मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र- [ ०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः 'आदान' शब्दस्य अर्थः एवं भेदा:, ~509~ www.janbrary.org Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१५], उद्देशक [-], मूलं [२७...], नियुक्ति: [१३६] (०२) सूत्रकृताङ्गं शीलाका- प्रत सूत्रांक ||२७|| ॥२५३॥ అంతలా పెంచాం कुर्वते, तस्या अपि नामादिकश्चतुर्धा निक्षेपो विधेयः, तत्रापि द्रव्यसंकलिका निगडादौ भावसंकलना तूतरोत्तरविशिष्टाध्यवसाय- १५आदासंकलनम् , इदमेव वाऽध्ययनम् , आघन्तपदयोः संकलनादिति । येषामादानपदेनाभिधानं तन्मतेनादी यत्पदं तदादानपदमा नीयाध्य | अत आदेनिक्षेपं कर्तुकाम आह-आदेर्नामादिकश्चतुर्धा निक्षेपः, नामस्थापने सुगमतादनात्य न्यादि दर्शयति-द्रव्यादिः | पुनः 'द्रव्यस्य परमाण्वादेयः 'खभावः' परिणतिविशेषः 'खके थाने' खकीये पोये प्रथमम्-आदौ भवति स द्रव्यादिः, द्रव्यस्य दध्यादेयं आधः परिणतिविशेषः क्षीरस्य विनाशकालसमकालीनः, एवमन्यस्यापि परमाण्वादेव्यस्य यो यः परिणतिविशेषः प्रथ-12 ममुत्पद्यते स सर्वोऽपि द्रव्यादिर्भवति । ननु च कथं क्षीरविनाशसमय एव दध्युत्पादः, तथाहि-उत्पादविनाशौ भावाभावरूपौ वस्तुधर्मों वर्तेते, न च धर्मो धर्मिणमन्तरेण भवितुमर्हति, अत एकमिन्नेव क्षणे तद्धर्मिणोदधिक्षीरयोः सत्ताऽवाप्नोति, एतच्च । दृष्टेष्टबाधितमिति, नैष दोषः, यस्य हि वादिनः क्षणमात्र वस्तु तस्यायं दोषो, यस्य तु पूर्वोचरक्षणानुगतमन्वयि द्रव्यमस्ति । | तस्यायं दोष एव न भवति, तथाहि-तत्परिणामिद्रव्यमेकसिन्नेव क्षणे एकेन खभावनोत्पद्यते परेण विनश्यति, अनन्तधर्मात्म| कसाबस्तुन इति यत्किचिदेतत् । तदेवं द्रव्यय विवक्षितपरिणामेन परिणमतो य आधः समयः स द्रव्यादिरिति स्थित, द्रव्यस्य प्राधान्येन विवक्षितलादिति ॥ साम्प्रतं भावादिमधिकृत्याह-भावः अन्तःकरणस्य परिणतिविशेषस्तं 'बुद्धाः' तीर्थकरगणधरादयो 'व्यपदिशन्ति' प्रतिपादयन्ति, तद्यथा-आगमतो नोआगमतश्च, तत्र नोआगमतः प्रधानपुरुषार्थतया चिन्त्यमानखात् 'पञ्चवि-18 ॥२५॥ धः पञ्चप्रकारो भवति, तद्यथा-प्राणातिपातविरमणादीनां पञ्चानामपि महावतानामाघः प्रतिपनिसमय इति, तथा 'आगम-18 ओ इत्यादि, आगममाश्रित्य पुनरादिरेवं द्रष्टव्यः, तद्यथा-यदेतद्गणिन:-आचार्यस्य पिटक-सवेखमाधारो वा तहादशाङ्गं भव दीप अनुक्रम [६०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: 'संकलिका' शब्दस्य नामादि निक्षेपाः, आदि पदस्य निक्षेपा: ~510~ Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१५], उद्देशक [-], मूलं [१], नियुक्ति: [१३६] (०२) प्रत ceaesereeroeserved सूत्रांक ||१|| ति, तुशब्दादन्यदप्युपाङ्गादिकं द्रष्टव्यं, तस्य च प्रवचनस्यादिभूतो यो ग्रन्थस्तस्याप्याद्यः श्लोकस्तत्राप्याद्यं पदं तस्यापि प्रथमम क्षरम् , एवं विधो बहुप्रकारो भावादिद्रष्टव्य इति । तत्र सर्वस्यापि प्रवचनस्थ सामायिकमादिस्तस्थापि करोमीति पदं तस्यापि K ककारो, द्वादशानां खङ्गानामाचाराङ्गमादिस्तस्यापि शखपरिज्ञाध्ययनमस्खापि च जीवोद्देशकस्तस्यापि 'सुर्य'ति पदं तस्थापि सु कार इति, अस्य च प्रकृताङ्गस्य समयाध्ययनमादिस्तस्यापि आधुद्देशक श्लोकपादपदवर्णादिष्टव्य इति । गतो नामनिष्पनो निक्षेपः, तदनन्तरमस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुचारयितव्यं, तबेदम् जमतीतं पडुपन्नं, आगमिस्सं च णायओ । सवं मन्नति तं ताई, दसणावरणंतए ॥१॥ अंतए वितिगिच्छाए, से जाणति अणेलिसं । अणेलिसस्स अक्खाया, ण से होइ तहिं तहिं ॥२॥ तहिं तहिं सुयक्खायं, से य सच्चे सुआहिए । सया सञ्चेण संपन्ने, मित्तिं भूएहि कप्पए ॥३॥ भूएहिं न विरुज्झेजा, एस धम्मे बुसीमओ । बुसिमं जगं परिन्नाय, अस्सि जीवितभावणा ॥४॥ अस्स चानन्तरसूत्रेण संबन्धो वक्तव्यः, स चाय, तद्यथा-आदेयवाक्यः कुशलो व्यक्तोऽर्हति तथोक्तं समाधि भापितुं, यश्च 8 यदतीतं प्रत्युत्पन्नमागामि च सर्वमवगच्छति स एव भाषितुमर्हति नान्य इति । परम्परसूत्रसंबन्धस्तु य एवातीतानागतवर्तमानकालत्रयवेदी स एवाशेषवन्धनानां परिज्ञाता त्रोटथिता वेत्येतदुध्येतेत्यादिका संबन्धोऽपरसूत्रैरपि स्वबुवा लगनीय इति । तदेवं प्रतिपादितसंवन्धस्यास्य सूत्रस व्याख्या प्रस्तूयते—यक्किमपि द्रव्यजातमतीतं यच्च प्रत्युत्पनं यच्चानामतम्-एण्यत्कालभावि Secenectioescenesesesents दीप अनुक्रम [६०७] 978292 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: मूल-सूत्रस्य आरम्भ:, ~511~ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१५], उद्देशक [-], मूलं [४], नियुक्ति: [१३६] (०२) seR मूत्रकृताङ्गं प्रत सूत्रांक ||४|| 18| तस्यासौ सर्वस्यापि यथावस्थितस्वरूपनिरूपणतो 'नायकः' प्रणेता, यथावस्थितवस्तुखरूपप्रणेतसं च परिज्ञाने सति भवत्यतस्तदु १५आदाशीलाका पदिश्यते-'सर्वम् अतीतानागतवर्तमानकालत्रयभावतो द्रव्यादिचतुष्कस्वरूपतो द्रव्यपर्यायनिरूपणतश्च मनुते-असी जानाति नीयाध्य० चायि. सम्यक परिच्छिनत्ति तत्सर्वमवबुध्यते, जानाना विशिष्टोपदेशदानेन संसारोत्तारणतः सर्वप्राणिनां त्रायसी-त्राणकरणशीला, चियुतं यदिवा-'अयवयषयमयचयतयणय गता' वित्यस्य धातोर्घञ्प्रत्ययः, तयन तायः स वियते यस्यासी तायी, 'सर्वे गत्यर्था | ज्ञानाथों' इतिकखा सामान्यख परिच्छेदको, मनुते इत्यनेन विशेषस्य, तदनेन सर्वज्ञः सर्वदशी चेत्युक्तं भवति, न च कारणमन्त॥२५॥ रेण कार्य भवतीत्यत इदमपदिश्यते-दर्शनावरणीयस्य कर्मणोऽन्तकः, मध्यग्रहणे (न)तु घातिचतुष्टयस्थान्तकृद् द्रष्टव्य इति ।।१।। यत्र घातिचतुष्टयान्तकस ईडग्भवतीत्याह-विचिकित्सा-चित्तविप्नुतिः संशयज्ञानं तस्यासी तदावरणक्षयादन्तकृत् संशय विपर्ययमिथ्याज्ञानानामविपरीतार्थपरिच्छेदादन्ते वर्तते, इदमुक्तं भवति-वत्र दर्शनावरणक्षयप्रतिपादनात् ज्ञानाद् भिन्नं दर्शनमित्युक्तं 81 भवति, ततश्च येषामेकमेव सर्वज्ञस्य ज्ञान वस्तुगतयोः सामान्यविशेषयोरचिन्त्यशक्युपेतखापरिच्छेदकमित्येषोऽभ्युपगमः सोऽनेन पृथगावरणक्षयप्रतिपादनेन निरस्तो भवतीति, यश्च घातिकर्मान्तकृदतिकान्तसंशयादिज्ञानः सः 'अनीदृशम्' अनन्यसदृशं 8 जानीते न तत्तुल्यो वस्तुगतसामान्यविशेषांशपरिच्छेदक उभयरूपेणैव विज्ञानेन विद्यत इति, इदमुक्त भवति-न तज्ज्ञानमित-|| रजनज्ञानतुल्यम् , अतो यदुक्तं मीमांसकै:--सर्वज्ञस्य सर्वपदार्थपरिच्छेदकखेऽभ्युपगम्यमाने सर्वदा स्पर्शरूपरसगन्धवर्णशब्दपरिच्छे-IM॥२५४॥ दादनभिमतद्रव्यरसास्वादनमपि प्राप्नोति, तदनेन व्युदतं द्रष्टव्यं, यदप्युच्यते-सामान्येन सर्वत्रसद्भावेऽपि शेषहेतोरभावादहे-10 त्येव संप्रत्ययो नोपपद्यते, तथा चोक्तम्-"अह(रुह)न् यदि सर्वज्ञो, बुद्धो नेत्यत्र का प्रमा? । अथोभावपि सपेशी, मतभेदस्तयोः18 दीप अनुक्रम [६१०] JAMERatinintimational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~512~ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१५], उद्देशक [-], मूलं [४], नियुक्ति: [१३६] (०२) प्रत सूत्रांक २५५-१ ||४|| कथम् ॥१॥" इत्यादि, एतत्परिहारार्थमाह-'अनीदृशस्य अनन्यसशस्य यः परिच्छेदक आख्याता च नासौ 'तत्र तत्र' दर्शने चौद्धादिके भवति, तेषां द्रव्यपर्याययोरनभ्युपगमादिति, तथाहि-शाक्यमुनिः सर्व क्षणिकमिच्छन् पर्यायानेबेच्छति न द्रव्य, द्रव्यमन्तरेण च निर्षीजलात् पर्यायाणामप्यभावः प्रामोत्यतः पर्यायानिच्छताऽवश्यमकामेनापि तदाधारभूतं परिणामि द्रव्यमेष्टव्यं, तदनभ्युपगमाच नासी सर्वज्ञ इति, तथा अप्रत्युतानुत्पन्न स्थिरैकखभावस्य द्रव्यस्वकस्वाभ्युपगमादध्यक्षाध्यवसीय-18 मानानामर्थक्रियासमर्थानां पर्यायाणामनभ्युपगमाभिष्पर्यायस्य द्रव्यस्थाप्यभावात्कपिलोऽपि न सर्पज्ञ इति, तथा क्षीरोदकवदभि-18 त्रयोद्रव्यपर्याययोर्भदेनाभ्युपगमादुलूकस्यापि न सर्वज्ञखम् । असर्वज्ञवाञ्च तीर्थान्तरीयाणां मध्ये न कश्चिदप्यनीदशस्य अनन्यस| दृशस्वार्थस्य द्रव्यपर्यायोभयरूपस्याख्याता भवतीत्यहनेवातीतानागतवर्तमानत्रिकालवर्तिनोऽर्थस्य खाख्यातेति न तत्र तत्रेति स्थि-18 | तम् ॥ २॥ साम्प्रतमेतदेव कुतीथिकानामसर्वज्ञसमर्हतच सर्वज्ञवं यथा भवति तथा सोपपत्तिकै दर्शयितुमाह-तत्र तत्रेति बीप्सापदं यवत्तेनाहता जीवाजीवादिकं पदार्थजातं तथा मिथ्यालाविरतिप्रमादकवाययोगा बन्धहेतव इतिकला संसारकारणलेन | तथा सम्बग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग इति मोक्षाङ्गतयेत्येतत्सर्व पूर्वोत्तराविरोधितया युक्तिभिरुपपन्नतया च मुष्ठाख्यातंखाख्यातं, तीथिकवचनं तु 'न हिंस्याद्भूतानीति भणिसा तदुपमर्दकारम्भाभ्यनुज्ञानात्पूर्वोत्तरविरोधितया तत्र तत्र चिन्त्यमानं नियुक्तिकत्वान्न वाख्यातं भवति, स चाविरुद्धार्थवाख्याता रागद्वेषमोहानामनृतकारणानामसंभवात् सन्यो हितसाच सत्यः 'खाख्यातः' तत्स्वरूपविद्धिः प्रतिपादितः । रागादयो धनृतकारणं ते च तस्य न सन्ति अतः कारणाभावात्कार्याभाव इति| कसा तद्धचो भूतार्थप्रतिपादक, तथा चोक्तम्-'वीतरागा हि सर्वज्ञा, मिथ्या न बुवते बचः । यस्मात्तस्मादचस्तेषां, दीप अनुक्रम [६१०] 9020 wwwsaneiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~513~ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥४॥ दीप अनुक्रम [६१०] सूत्रकृता शीलाङ्काचायतियुतं ॥२५५॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१५], उद्देशक [-], मूलं [४], निर्युक्ति: [१३६] तथ्यं भूतार्थदर्शनम् ॥ १ ॥" ननु च सर्वज्ञलमन्तरेणापि हेयोपादेयमात्रपरिज्ञानादपि सत्यता भवत्येव तथा चोक्तम्- "सर्व पश्यतु वा मा वा तत्वमिष्टं तु पश्यतु । कीटसंख्यापरिज्ञानं तस्य नः कोपयुज्यते ? ॥ १ ॥ इत्याशङ्कयाह- 'सदा' सर्वकालं 'सत्येन' अवितथभाषणत्वेन संपन्नोऽसौ' अवितथभाषणतं च सर्वज्ञवे सति भवति, नान्यथा, तथाहि — कीटसंख्यापरिज्ञानासंभवे सर्वत्रापरिज्ञानमाशङ्कयंत, तथा चोक्तम्- “सदृशे बाधासंभवे तलक्षणमेव दूषितं स्याद्" इति सर्वत्रानाश्वासः, तस्मात्सर्वज्ञसं तस्य भगवत एष्टव्यम्, अन्यथा तद्वचसः सदा सत्यता न स्यात् सत्यो वा संयमः सन्तः प्राणिनस्तेभ्यो हितवाद अतस्तेन तपः प्रधानेन संयमेन भूतार्थहितकारिणा 'सदा' सर्वकालं 'संपन्नो' युक्तः, एतद्गुणसंपन्नवासो 'भूतेषु' जन्तुषु 'मैत्री' तद्रक्षणपरतया भूतदयां 'कल्पयेत् कुर्यात्, इदमुक्तं भवति - परमार्थतः स सर्वज्ञस्तस्वदर्शितया यो भूतेषु मैत्रीं कल्पयेत् तथा चोक्तम्- [ "मातृवत्परदाराणि परद्रव्याणि लोष्टवत् । ] आत्मवत्सर्वभूतानि यः पश्यति स पश्यति ॥ १ ॥ ॥ ३ ॥ यथा & भूतेषु मैत्री संपूर्णभावमनुभवति तथा दर्शयितुमाह- 'भूतैः' स्थावरजङ्गमैः सह 'विरोधं न कुर्यात् तदुपघातकारिणमारम्भं तद्विरोधकारणं दूरतः परिवर्जयेदित्यर्थः स 'एषः' अनन्तरोक्तो भूताविरोधकारी 'धर्मः' खभावः पुण्याख्यो वा 'बुसीमओ'ति तीर्थकृतोऽयं सत्संयमवतो वेति । तथा सत्संयमवान् साधुस्तीर्थकद्वा 'जगत्' चराचरभूतग्रामाख्यं केवलालोकेन सर्वज्ञप्रणीतागमपरिज्ञानेन वा 'परिज्ञाय' सम्यगवबुध्य 'अस्मिन्' जगति मौनीन्द्रे वा धर्मे भावनाः पञ्चविंशतिरूपा द्वादशप्रकारा वा या [१] तथा भूतार्थ० ० २ नास्ति कचिदपि आदर्श मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र -[ ०२ ], अंग सूत्र [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ~514~ १५ आदानीयाध्य० ॥२५५॥ Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१५], उद्देशक [-], मूलं [४], नियुक्ति: [१३६] (०२) प्रत सूत्रांक ||४|| ecedesesesesesesesese अभिमतास्ता 'जीवितभावना' जीवसमाधानकारिणीः सत्संयमानतया मोक्षकारिणी वयेदिति ॥ ४ ॥ सद्भावनाभावितस्य यद्भवति तद्दर्शयितुमाह भावणाजोगसुद्धप्पा, जले णावा व आहिया । नावा व तीरसंपन्ना, सबदुक्खा तिउद्दइ ॥५॥ तिउद्दई उ मेधावी, जाणं लोगंसि पावगं । तुटूंति पावकम्माणि, नवं कम्ममकुवओ॥६॥ अकुबओ ण णत्थि, कम्मं नाम विजाणइ । विन्नाय से महावीरे, जेण जाई ण मिजई ॥ ७॥ ‘ण मिजई महावीरे, जस्स नत्थि पुरेकडं । वाउच जालमचेति, पिया लोगंसि इथिओ ॥८॥ भावनाभिर्योगः-सम्यक्प्रणिधानलक्षणो भावनायोगस्तेन शुद्ध आत्मा-अन्तरात्मा यख स तथा, स च भावनायोगशुद्धात्मा | सन् परित्यक्तसंसारखभावो नौरिव जलोपर्यवतिष्ठते संसारोदन्वत इति, नौरिव-यथा जलेऽनिमज्जनखेन प्रख्याता एवमसावपि संसारोदन्वति न निमजतीति । यथा चासो नियोमकाधिष्ठिताऽनुकूलवातेरिता समस्तद्वन्द्वापगमात्तीरमास्कन्दत्येवमायतचारित्रवान् जीवपोतः सदागमकर्णधाराधिष्ठितस्तपोमारुतवशात्सर्वदुःखात्मकात्संसारात 'युट्यति' अपगच्छति मोक्षाख्यं तीरं सर्वद्वन्द्रो-18 परमरूपमवाप्नोतीति ॥ ५॥ अपिच-स हि भावनायोगशुद्धात्मा नौरिव जले संसारे परिवर्तमानखिभ्यो-मनोवाकायेभ्योऽशुभेभ्यमुटयति, यदिवा अतीच सर्ववन्धनेभ्यखुट्यति-मुच्यते अतित्रुट्यति-संसारादतिवर्तते 'मेधावी' मर्यादाव्यवस्थितः सदसद्विवेकी वाऽस्मिन् 'लोके' चतुर्दशरज्ज्वात्मके भूतग्रामलोके वा यत्किमपि 'पापक' कर्म सावद्यानुष्ठानरूपं तत्कार्य वा अष्टप्रकार 2ceneceseoesceneraemesesesedera २५६/१ दीप अनुक्रम [६१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~515~ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [६१४] सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्का चाययचियुतं ॥२५६॥ “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१५], उद्देशक [-], मूलं [८], निर्युक्ति: [१३६] - कर्म तत् ज्ञपरिज्ञया जानन् प्रत्याख्यानपरिज्ञया च तदुपादानं परिहरन् ततव्यति, तस्यैवं लोकं कर्म वा जानतो नवानि कर्माव्यकुर्वतो निरुद्धाश्रवद्वारस्य विकृष्टतपश्चरणवतः पूर्वसंचितानि कर्माणि त्रुय्यन्ति निवर्तन्ते वा नवं च कर्मकुर्वतोऽशेषकर्मक्षयो भवतीति ॥ ६ ॥ केषाञ्चित्सत्यामपि कर्मक्षयानन्तरं मोक्षावासी [तथापि] खतीर्थनिकारदर्शनतः पुनरपि संसाराभिगमनं भवती (ती) दमाशङ्कयाह-तस्याशेषक्रियारहितस्य योगप्रत्ययाभावात्किमप्यकुर्वतोऽपि 'नव' प्रत्ययं कर्म ज्ञानावरणीयादिकं 'नास्ति' न भवति, कारणाभावात्कार्याभाव इतिकृला, कर्माभावे च कुतः संसाराभिगमनं १, कर्मकार्यवात्संसारस्य तस्य चोपरताशेषद्वन्द्वस्य खपरकल्पनाऽभावाद्रागद्वेपरहिततया खदर्शन निकाराभिनिवेशोऽपि न भवत्येव स चैतगुणोपेतः कर्माष्टप्रकारमपि कारणतस्तद्विपाकतथ जानाति, नमनं नाम कर्मनिर्जरणं तच सम्यक् जानाति, यदिवा कर्म जानाति तन्नाम च, अस्य चोपलक्षणार्थताद्भेदांच प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशरूपान् सम्यगवबुध्यते, संभावनायां वा नामशब्दः, संभाव्यते चास्य भगवतः कर्मपरिज्ञानं विज्ञाय च कर्मबन्धं तत्संवरणनिर्जरणोपायं चासौ 'महावीरः' कर्मदारणसहिष्णुस्तत्करोति येन कृतेनासिन् संसारोदरे न पुनर्जायते तदभावाच्च नापि म्रियते, यदिवा जात्या नारकोऽयं तिर्यग्योनिकोऽयमित्येवं न मीयते न परिच्छियते, अनेन च कारणाभावात्संसाराभावाविर्भावनेन यत्कैश्विदुच्यते- 'ज्ञानमप्रतिघं यस्य, वैराग्यं च जगत्पतेः । ऐश्वर्यं चैव धर्मश्थ, सहसिद्धं चतुष्टयम् ॥ १ ॥" इत्येतदपि व्युदस्तं भवति, संसारस्वरूपं विज्ञाय तदभावः क्रियते, न पुनः सांसिद्धिकः कश्चिदनादिसिद्धोऽस्ति तत्प्रतिपादिकाया युक्तेरसंभवादिति ।। ७ ।। किं पुनः कारणमसौ न जात्यादिना मीयते इत्याशङ्कयाह-असौ महावीरः परित्यक्ताशेषकर्मा न जात्यादिना 'मीयते' परिच्छिद्यते, न म्रियते वा जातिजरामरणरोगशोकैर्वा संसारचक्रवाले पर्यटन् न म्रियते न पूर्वते, मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र -[०२ ], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः ~516~ १५ आदानीयाध्य० ।। २५६॥ Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१५], उद्देशक [-], मूलं [८], नियुक्ति: [१३६] (०२) प्रत सूत्रांक ||८|| किमिति?, यतस्तस्यैव जात्यादिकं भवति यस्य 'पुरस्कृ(राकृतं' जन्मशतोपानं कर्म विद्यते, यस्य तु भगवतो महावीरस्य निरुद्धाअवद्वारस्य 'नास्ति' न विद्यते पुरस्क(राकृतं, पुरस्कृ(राक)तकर्मोपादानाभावाच न तस्य जातिजरामरणभरणं संभाव्यते, तदाश्रवद्वारनिरोधाद्, आश्रवाणां च प्रधानः स्त्रीप्रसङ्गत्तमधिकृत्याह-वायुर्यथा सततगतिरप्रतिस्खलिततया 'अग्निज्वाला दहनात्मिकामप्यत्येति-अतिक्रामति पराभवति, न तया पराभूयते, एवं 'लोके' मनुष्यलोके हावभावप्रधानखात् 'प्रिया'दयितास्तप्रियलाच दुरतिक्रमणीयास्ता अत्येति-अतिक्रामति न ताभिर्जीयते, तत्स्वरूपावगमात् तज्जयविपाकुदर्शनाचेति, तथा चोक्तम्-"मितेन भावेन मदेन लज्जया, परामुखैरधकटाक्षवीक्षितः । वचोभिरीयाकलहेन लीलया, समस्तभोवैः खलु बन्धनं स्त्रियः ॥१॥ तथाखीणां कृते प्रात्युगख भेदः, संवन्धिभेदे खिय एव मूलम् । अप्राप्तकामा बहवो नरेन्द्रा, नारीभिरुत्सादितराजवंशाः ॥२॥" इत्येवं तरखरूपं परिज्ञाय तजयं विधत्ते, नेतामिर्जीयत इति स्थितम् । अथ किं पुनः कारण स्त्रीप्रसङ्गाश्रवद्वारेण शेपाश्रवद्वारोपलक्षणं | क्रियते न प्राणातिपातादिनेति ?, अत्रोच्यते, केषाञ्चिद्दर्शनिनामङ्गनोपभोग आश्रवद्वारमेव न भवति, तथा चोचुः-"न मांसभक्षणे दोपो, न मये न च मैथुने । प्रवृत्तिरेषा भूतानां, निवृत्तिस्तु महाफला ।। १ ॥” इत्यादि, तन्मतब्युदासार्थमेवमुपन्यस्त मिति, यदिवा मध्यमतीकृतां चतुयोम एव धमे, इह तु पञ्चयामो धर्म इत्यसाथसाविभावनायानेनोपलक्षणमकारि, अथवा पराणि व्रतानि सापवादानि इदं तु निरपवाद मिल्यस्थार्थस्य प्रकटनायैवमकारि, अथवा सर्वाण्यपि बतानि तुल्यानि, एकखण्डने सर्व विराघनमितिकखा येन केनचिनिर्देशो न दोपायेति ।। ८ ।। अधुना स्त्रीप्रसनाथवनिरोधफलमाविर्भावयत्राह १खीवशताफलस्प नरकादेः दर्शनात् यद्वा श्रीयां वयवर्ती न भवतीति प्रामुकतं, असंभमि चेन, तत्खरूपेत्यादि, अनर्थकारिसावगमाय विरतिः, तत्र प्रमाणे कागजपलभ्यफलदर्शनम् जयोपायस्थ भोगजन्यदारुणविपाकस्स बहानाहा । २समन्तपार्श प्रक। २५७/१ दीप अनुक्रम [६१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~517~ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||९|| दीप अनुक्रम [६१५] सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्काचार्ययतियुतं ॥२५७॥ seeeee “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१५], उद्देशक [-], मूलं [९], निर्युक्ति: [१३६] Education intimational - इथिओ जेण सेवंति, आइमोक्खा हु ते जणा । ते जणा वंधणुम्मुक्का, नावकखंति जीवियं ॥ ९ ॥ जीवितं पिओ किच्चा, अंतं पार्वति कम्मुणं । कम्मुणा संमुहीभृता, जे मग्गमणुसासई ॥ १० ॥ असासणं पुढो पाणी, वसुमं प्रयणासु ( स ) ते । अणासए जते दंते, दढे आरयमेहुणे ॥ ११ ॥ णीवारे व ण लीएजा, छिन्नसोए अणाविले । अणाइले सया दंते, संधिं पत्ते अणेलिसं ॥ १२ ॥ ये महासत्त्वाः कटुविपाकोऽयं स्त्रीप्रसङ्ग इत्येवमवधारण [त] या स्त्रियः सुगतिमार्गार्गलाः संसारवीथीभूताः सर्वाविनयराजधान्यः कपटजालशताकुला महामोहनशक्तयो 'न सेवन्ते' न तत्प्रसङ्गमभिलपन्ति त एवंभूता जना इतरजनातीताः साधव आदीप्रथमं मोक्ष :- अशेषद्वन्द्वोपरमरूपो येषां ते आदिमोक्षाः, हुरवधारणे, आदिमोक्षा एवं तेऽवगन्तव्याः, इदमुक्तं भवति -- सर्वाविनयास्पद भूतः स्त्रीप्रसङ्गो यैः परित्यक्तस्त एवादिमोक्षाः - प्रधानभूतमोक्षाख्यपुरुषार्थोद्यताः, आदिशब्दस्य प्रधानवाचिखात्, न केवलमुद्यतास्ते जनाः स्त्रीपाशबन्धनोन्मुक्ततयाऽशेषकर्मबन्धनोन्मुक्ताः सन्तो 'नावकान्ति' नाभिलपन्ति असंयमजीवितम् अपरमपि परिग्रहादिकं नाभिलषन्ते यदिवा परित्यक्तविषयेच्छाः सदनुष्ठानपरायणा मोक्षकताना 'जीवितं' दीर्घकालजीवितं | नाभिकाङ्क्षन्तीति ॥ ९ ॥ किंचान्यत्- 'जीवितम्' असंयमजीवितं 'पृष्ठतः कृत्वा' अनारत्य प्राणधारणलक्षणं वा जीवितमनादृत्य सदनुष्ठानपरायणाः 'कर्मणा' ज्ञानावरणादीनाम् 'अन्त' पर्यवसानं प्राप्नुवन्ति, अथवा 'कर्मणा' सदनुष्ठानेन जीवितनिरपेक्षाः संसारोदन्यतोऽन्तं - सर्वद्वन्द्वोपरमरूपं मोक्षाख्यमाप्नुवन्ति, सर्वदुःखविमोक्षलक्षणं मोक्षमप्राप्ता अपि कर्मणा विशि For Fans Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...... आगमसूत्र -[ ०२ ], अंग सूत्र- [ ०२] "सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ~518~ १५ आदानीयाध्य० ।। २५७ ।। www.ncbrary.org Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||12|| दीप अनुक्रम [६१८] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१५], उद्देशक [-], मूलं [१२], निर्युक्तिः [१३६] Education intentional - ष्टानुष्ठानेन मोक्षस्य संमुखीभूता घाति चतुष्टयक्षय क्रियया उत्पन्नदिव्यज्ञानाः शाश्वतपदस्याभिमुखीभूताः क एवंभूता इत्याहये विपच्यमानतीर्थकुन्नामकर्माणः समासादितदिव्यज्ञाना 'मार्ग' मोक्षमार्ग ज्ञानदर्शनचारित्ररूपम् 'अनुशासन्ति' सच्चहिताय प्राणिनां प्रतिपादयन्ति स्वतथानुतिष्ठन्तीति ॥ १० ॥ अनुशासनप्रकारमधिकृत्याह- अनुशास्यन्ते सन्मार्गेऽवतार्यन्ते सदसद्विवे कतः प्राणिनो येन तदनुशासनं - धर्मदेशनया सन्मार्गावतारणं तत्पृथक् पृथक् भव्याभव्यादिषु प्राणिषु क्षित्युदकवत् स्वाशयवशादनेकधा भवति, यद्यपि च अभव्येषु तदनुशासनं न सम्यक् परिणमति तथापि सर्वोपायज्ञस्यापि न सर्वज्ञस्य दोष:, तेषामेव स्वभावपरिणतिरियं यया तद्वाक्यममृतभूतमेकान्तपथ्यं समस्तद्वन्द्वोपघातकारि न यथावत् परिणमति, तथा चोक्तम्- "सद्धर्मवीजबपनानघ कौशलस्य, यलोकबान्धव । तवापि खिलान्यभूवन् । तन्नाद्भुतं खगकुलेष्विह तामसेषु, सूर्याशवो मधुकरीचरणावदाताः ।। १ ।।" किंभूतोऽसावनुशासक इत्याह--वसु-द्रव्यं स च मोक्षं प्रति प्रवृत्तस्य संयमः तद्विद्यते यस्यासौ वसुमान् पूजनं दे | वादिकृतमशोकादिकमास्वादयति-उपभुङ्ग इति पूजनास्वादकः, ननु चाधाकर्मणो देवादिकृतस्य समवसरणादेरुपभोगात्कथमसौ सत्संयमवानित्याशङ्कयाह-न विद्यते आशयः पूजाभिप्रायो यस्यासावनाशयः, यदिवा द्रव्यतो विद्यमानेऽपि समवसरणादिके भावतोऽनाखादकोऽसौ तद्गतगार्थ्याभावात्, सत्यप्युपभोगे 'यतः' प्रयतः सत्संयमवानेवासावेकान्तेन संयमपरायणलात् कुतो ? यत इन्द्रियनोइन्द्रियाभ्यां दान्तः, एतद्गुणोऽपि कथमित्याह-दृढः संयमे, आरतम् उपरतमपगतं मैथुनं यस्य स आरतमैथुनः- अपगतेच्छामदनकामः, इच्छामदन कामाभावाच्च संयमे ढोऽसौ भवति, आयतचारित्रत्वाच्च दान्तोऽसौ भवति, इन्द्रियनोइन्द्रियदमाच प्रयतः, प्रयत्नवच्चाञ्च देवादिपूजनानास्वादकः, तद्नाखादनाच सत्यपि द्रव्यतः परिभोगे सत्संयमवानेवासाविति ॥ ११ ॥ अथ For Parts Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ~519~ www.incibrary.org Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१५], उद्देशक [-], मूलं [१२], नियुक्ति: [१३६] (०२) नीयाध्य प्रत सूत्रांक ||१२|| सूत्रकृताङ्ग 181 किमित्यसाबुपरतमैथुन इत्याशङ्कयाह-नीचारः-मूकरादीनां पशूनां वध्यस्थानप्रवेशनभूतो भक्ष्यविशेषस्तत्कल्पमेतन्मैथुनं, यथा|8|१५आ शीलाङ्का-2| हि असौ पशु/बारेण प्रलोभ्य बध्यस्थानमभिनीय नानाप्रकारा वेदनाः प्राप्यते एवमसावप्यसुमान् नीवारकल्पेनानेन स्त्रीप्रसङ्गेन । चार्याय वशीकृतो बहुप्रकारा यातनाः प्रामोति, अतो नीवारप्रायमेतन्मैथुनमवगम्य स तस्मिन् ज्ञाततत्त्वो 'न लीयेत' न स्वीप्रसङ्गं कुर्यात् , सियुतं किंभूतः समित्याह-छिन्नानि-अपनीतानि स्रोतांसि-संसारावतरणद्वाराणि यथाविषयमिन्द्रियप्रवर्तनानि प्राणातिपातादीनि ॥२५८॥ वा आश्रवद्वाराणि येन स छिन्नस्रोताः, तथा 'अनाविलः' अकलुषो रागद्वेषासंपृक्ततया मलरहितोऽनाकुलो वा-विषयाप्रवृत्तेः वस्थचेता एवंभूतथानाविलोऽनाकुलो वा 'सदा सर्वकालमिन्द्रियनोइन्द्रियाभ्यां दान्तो भवति, ईग्विधश्च कर्मविवरलक्षणं भावसंधिम् 'अनीदृशम्' अनन्यतुल्यं प्राप्तो भवतीति ।। १२ ॥ किश्च अणेलिसस्स खेयन्ने, ण विरुज्झिज्ज केणइ । मणसा वयसा चेव, कायसा चेव चक्खुमं ॥ १३॥ 18 से हु चक्खू मणुस्साणं, जे कंखाए य अंतए । अंतेण खुरो वहती, चकं अंतेण लोटुती ॥१४॥ अंताणि धीरा सेवंति, तेण अंतकरा इह । इह माणुस्सए ठाणे, धम्ममाराहिउं णरा ॥ १५॥ | णिट्टियट्टा व देवा वा, उत्तरीए इयं सुयं । सुयं च मेयमेगेसि, अमणुस्सेसु णो तहा ॥ १६॥ ॥२५८॥ 'अनीदृशः' अनन्यसदृशः संयमो मौनीन्द्रधर्मो वा तस्य तस्मिन् वा 'खेदज्ञों निपुणः, अनीशखेदज्ञश्च केनचित्साधन बिरोधं कुर्वीत, सर्वेषु प्राणिषु मैत्री भावयेदित्यर्थः, योगत्रिककरणत्रिकेणेति दर्शयति–'मनसा' अन्तःकरणेन प्रशान्तमनाः, 0000020280920292929 दीप अनुक्रम [६१८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~520~ Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१६|| दीप अनुक्रम [६२२] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१५], उद्देशक [-], मूलं [१६], निर्युक्तिः [१३६] Education intimational - तथा 'वाचा' हितमितभाषी तथा कायेन निरुद्धदुष्प्रणिहितसर्वकायचेष्टो दृष्टिपूतपादचारी सन् परमार्थतश्चक्षुष्मान भवतीति ॥ १३ ॥ अपिच हुरवधारणे, स एव प्राप्तकर्मविवरोनीदृशस्य खेदज्ञो भव्यमनुष्याणां चक्षुः- सदसत्पदार्थाविर्भावनाक्षेत्रभूतो वर्तते, किंभूतोऽसी ?, यः 'काङ्क्षाया:' भोगेच्छाया अन्तको विषयतृष्णायाः पर्यन्तवर्ती । किमन्तवतीति विवक्षितमर्थं साधयति ?, साधयत्येवेत्यमुमर्थ दृष्टान्तेन साधयन्नाह – 'अन्तेन'' पर्यन्तेन 'क्षुरो' नापितोपकरणं तदन्तेन वहति, तथा चक्रमपि रथाङ्गमन्तेनैव मार्गे प्रवर्तते, इदमुक्तं भवति यथा क्षुरादीनां पर्यन्त एवार्थक्रियाकारी एवं विषयकपायात्मक मोहनीयान्त एवाप सदसंसारक्षयकारीति ॥ १४ ॥ अमुमेवार्थमाविर्भावयन्नाह - 'अन्तान' पर्यन्तान् विषयकपाय तृष्णायास्तत्परिकर्मणार्थमुद्यानादीनामाहारस्य वान्तप्रान्तादीनि 'धीराः' महासच्या विषयसुखनिःस्पृहाः 'सेवन्ते' अभ्यस्यन्ति, तेन चान्तप्रान्ताभ्यसनेन 'अन्तकरा:' संसारस्य तत्कारणस्य वा कर्मणः क्षयकारिणो भवन्ति, 'इहे' ति मनुष्यलोके आर्यक्षेत्रे वा, न केवलं तु एव तीर्थङ्करादयः अन्धेऽपीह मानुष्यलोके स्थाने प्राप्ताः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकं धर्ममाराध्य 'नराः' मनुष्याः कर्मभूमिगर्भव्युत्क्रान्तिजसंख्येयवर्षायुषः सन्तः सदनुष्ठानसामग्रीमवाप्य 'निष्ठितार्था' उपरतसर्वद्वन्द्वा भवन्ति ||१५|| इदमेवाह – 'निष्ठितार्थाः' कृतकृत्या भवन्ति केचन प्रचुरकर्मतया सत्यामपि सम्यक्त्वादिकायां सामय्यां न तद्भव एव मोक्षमास्कन्दन्ति अपितु सौधर्माद्याः पञ्चो(चानु) चरविमानावसाना देवा भवन्तीति एतल्लोकोत्तरीये प्रवचने श्रुतम्-आगमः एवंभूतः सुधर्मस्वामी वा जम्बूखामिनमुद्दि| श्यैवमाह-यथा मयैतलोकोत्तरीये भगवत्यर्हत्युपलब्धं तद्यथा अवाप्तसम्यक्त्वादिसामग्रीकः सिध्यति वैमानिको वा भवतीति । मनुष्यगतावेवैतन्नान्यत्रेति दर्शयितुमाह- 'सुयं मे' इत्यादि पश्चार्द्ध, तच मया तीर्थकरान्तिके 'श्रुतम्' अवगतं, गणधर : स्वशि For Fans Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ...... आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ~ 521 ~ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१५], उद्देशक [-], मूलं [१६], नियुक्ति: [१३६] (०२) १५आदानीयाध्य सूत्रकृताङ्गं शीलाङ्का- चायीयत्तियुतं enese प्रत सूत्रांक ||१६|| ॥२५९॥ व्याणामेकेपामिदमाह-यथा मनुष्य एवाशेषकर्मक्षयात्सिद्धिगतिभाग्भवति नामनुष्य इति, एतेन यच्छाक्यैरभिहितं, तद्यथादेव एवाशेषकर्मप्रहाणं कृता मोक्षभाग्भवति, तदपारतं भवति, न धमनुष्येषु गतित्रयवर्तिषु सचारित्रपरिणामाभावाद्यथा मनु-| प्याणां तथा मोक्षावाप्तिरिति ।। १६ ॥ इदमेव खनामग्राहमाह अंतं करंति दुक्खाणं, इहमेगेसि आहियं । आघायं पुण एगेसिं, दुल्लभेऽयं समुस्सएं ॥१७॥ इओ विद्धंसमाणस्स, पुणो संबोहि दुल्लभा । दुल्लहाओ तहच्चाओ, जे धम्मटुं वियागरे ॥ १८॥ जे धम्मं सुद्धमक्खंति, पडिपुन्नमणेलिसं। अणेलिसस्स जं ठाणं, तस्स जम्मकहा कओ? ॥१९॥ कओ कयाइ मेधावी, उप्पजंति तहागया। तहागया अप्पडिन्ना, चक्खू लोगस्सणुत्तरा ॥२०॥ न बमनुष्या अशेषदुःखानामन्तं कुर्वन्ति, तथाविधसामध्यभावात् , यथैकेषां वादिनामाख्यातं, तद्यथा-देवा एवोत्तरोत्तरं स्थानमास्कन्दन्तोऽशेषलेशाहाणं कुर्वन्ति, न तथेह-आहेते. प्रवचने इति । इदमन्यत पुनरेकेषां गणधरादीनां वशिष्याणां वा गणधरादिभिराख्यातं, तद्यथा-युगसमिलादिन्यायावाप्तकथश्चित्कर्म विवरात् योऽयं शरीरसमुच्छ्यः सोऽकृतधर्मोपायैरसमद्भिर्महासमुद्रप्रभ्रष्टरलवत्पुनदुलेभो भवति, तथा चोक्तम्-"ननु पुनरिदमतिदुर्लभमगाघसंसारजलधिविभ्रष्टम् । मानुष्यं खयोतकतडिल्लता १ इष्टितोऽबधारणविर्भवतीवयानतो योजनवकारस्य, तथा चासंभवव्यवच्छेदायैवकारोऽत्र, अस्पधा युद्धस्यापि मनुष्यखादनिर्मोक्षप्रशाः । २ शरीरमेन पुग| लसंधात वात्सनुच्छ्यः 'उस्सय समुस्सए या' इति वचनात, समुच्चय एव मा वेहवाचकः शरीरशब्दस्तु विशेषणे । दीप अनुक्रम [६२६] ॥२५९॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~522~ Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१५], उद्देशक [-], मूलं [२०], नियुक्ति: [१३६] (०२) प्रत सूत्रांक ||२०|| coedeseseroesesesesesepsese विलसितप्रतिमम् ॥१॥” इत्यादि ॥१७॥ अपिच-'इतः अमुष्मात् मनुष्यभवात्सद्धमतो वा विध्वंसमानस्साकृतपुण्यस्य पुनरसिन् संसारे पर्यटतो 'बोधि: सम्यगदर्शनावाप्तिः सुदुर्लभा उित्कृष्टतः अपार्धपुद्गलपरावर्तकालेने यतो भवति, तथा 'दर्लभा' दुरापा तथाभूता-सम्यग्दर्शनप्राप्तियोग्या 'अचों' लेश्याऽन्तःकरणपरिणतिरकृतधर्मणामिति, यदिवाऽचर्चा-मनुष्यशरीरं तदप्य-2 कृतधर्मवीजानामार्यक्षेत्रमुकुलोत्पत्तिसकलेन्द्रियसामय्यादिरूपं दुर्लभं भवति, जन्तूनां ये धर्मरूपमर्थ व्याकुर्वन्ति, ये धर्मप्रतिपत्ति-IN योग्या इत्यर्थः, तेषां तथाभूतार्चा सुदुर्लभा भवतीति ॥ १८॥ किञ्चान्यत्-ये महापुरुषा वीतरागाः करतलामलकवत्सकलजगद्रष्टारः त एवंभूताः परहितैकरताः 'शुद्धम् अवदातं सर्वोपाधिविशुद्ध धर्मम् 'आख्यान्ति' प्रतिपादयन्ति खतः समाचरन्ति च | 'प्रतिपूर्णम्' आयतचारित्रसवात्संपूर्ण यथाख्यातचारित्ररूपं वा 'अनीदृशम् अनन्यसदृशं धर्मम् आख्यान्ति अनुतिष्ठन्ति(च)। तदेवम् 'अनीदृशस्य' अनन्यसदृशस्य ज्ञानचारित्रोपेतस्य यत् स्थानं-सर्वद्वन्द्वोपरमरूपं तद्वाप्तस्य तस्य कुतो जन्मकथा?, जातो मृतो वेत्येवंरूपा कथा खग्नान्तरेऽपि तस्य कर्मवीजाभावात् कुतो विद्यत ? इति, तथोक्तम्-'दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं, प्रादुर्भवति नाङ्करः । कर्मवीजे तथा दग्धे, न रोहति भवाङ्करः ॥१॥" इत्यादि ।।१९।।किंचान्यत्-कर्मवीजाभावात् 'कुतः कसा-18 स्कदाचिदपि 'मेधाविनो' ज्ञानात्मकाः तथा-अपुनरावृत्त्या गतास्तथा गताः पुनरस्मिन् संसारेऽशुचिनिगर्भाधाने समुत्पद्यन्ते ?, न कथञ्चित्कदाचित्कर्मोपादानाभावादुत्पयन्त इत्यर्थः, तथा 'तथागताः' तीर्थकद्गणधरादयो न विद्यते प्रतिज्ञा-निदानबन्धनरूपा येषां तेऽप्रतिज्ञा-अनिदाना निराशंसाः सत्त्वहितकरणोयता अनुत्तरज्ञानसादनुत्तरा 'लोकस्य जन्तुगणस्य सदसदर्थ१ वान्तसम्यक्तधर्मस्यैतावताऽवश्यं सम्पक्लस्य पुनः प्राप्तेः । दीप अनुक्रम [६२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~523~ Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१५], उद्देशक [-], मूलं [२१], नियुक्ति: [१३६] (०२) १५आदानीयाध्य प्रत सूत्रांक सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्काचार्यायवृ. चियुतं ॥२६०॥ ||२१|| निरूपणकारणतश्चक्षुर्भूता हिताहितप्राप्तिपरिहारं कुर्वन्तः सकललोकलोचनभूतास्तथागताः सर्वज्ञा भवन्तीति ॥२०॥ किञ्चान्यत् अणुत्तरे य ठाणे से, कासवेण पवेदिते । जं किच्चा णिव्वुडा एगे, निद्रं पावंति पंडिया ॥ २१ ॥ पंडिए वीरियं लड़े, निग्घायाय पवत्तगं । धुणे पुवकडं कम्म, णवं वाऽवि ण कुवती ॥ २२॥ ण कुवती महावीरे, अणुपुबकडं रयं । रयसा संमुहीभूता, कम्मं हेच्चाण जं मयं ॥ २३ ॥ जं मयं सबसाहणं, तं मयं सल्लगत्तणं । साहइत्ताण तं तिन्ना, देवा वा अभविंसु ते ॥ २४ ॥ अभर्विसु पुरा धी(वी)रा, आगमिस्सावि सुव्वता । दुन्निबोहस्स मग्गस्स, अंतं पाउकरा तिन्ने ॥२५॥ त्तिवेमि । इति पनरसमं जंमइयं नामज्झयणं समत्तं ॥ (गाथा ६४३) न विद्यते उत्तरं-प्रधानं यस्मादनुत्तरं स्थानं तच्च तत्संयमाख्यं 'काश्यपेन' काश्यपगोत्रेण श्रीमन्महावीरवर्धमानखामिना 'प्रवेदितम्' आख्यातं, तस चानुत्तरसमाविर्भावयन्नाह-'यद्' अनुत्तरं संयमस्थानं 'एके' महासत्त्वाः सदनुष्ठायिनः 'कृत्वा अनुपाल्य 'निवृताः' निर्वाणमनुप्राप्ताः, निर्वृताश्च सन्तः संसारचक्रवालस्य 'निष्ठां' पर्यवसानं 'पण्डिताः' पापाडीनाः प्राप्नुवन्ति, तदेवंभूतं संयमस्थानं काश्यपेन प्रवेदितं यदनुष्ठायिनः सन्तः सिद्धिं प्राप्नुवन्तीति तात्पर्यार्थः ।। २१ ॥ अपिच-'पण्डि-| तः सदसद्विवेकज्ञो 'वीर्य' कोद्दलनसमर्थ सत्संयमवीयं तपोवीर्य वा 'लब्ध्वा' अवाप्य, तदेव वीर्य विशिनष्टि-निःशेषकर्मणो दीप अनुक्रम [६२७] SS २६०॥ JABERatin intimational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~524 ~ Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२५|| दीप अनुक्रम [६३०] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१५], उद्देशक [-], मूलं [२५], निर्युक्तिः [१३६] Education national - 'निर्घाताय ' निर्जरणाय प्रवर्तकं पण्डितवीर्थ, तच्च बहुभवशतदुर्लभं कथञ्चित्कर्म विवरादवाप्य 'धुनीयाद्' अपनयेत् पूर्वभवेष्वनेकेषु यत्कृतम् उपातं कर्माष्टप्रकारं तत्पण्डितवीर्येण धुनीयात् 'नवं च' अभिनवं चाश्रवनिरोधान करोत्यसाविति ।। २२ ।। किञ्च - 'महावीरः कर्मविदारणसहिष्णुः सन्नानुपूर्व्येण मिध्यात्ताविरतिप्रमादकषाययोगैर्यत्कृतं रजोऽपरजन्तुभिस्तदसौ 'न करोति' न विधत्ते, यतस्तत्प्राक्तनोपात्तरजसैवोपादीयते, स तत्प्राक्तनं कर्मावष्टभ्य सत्संयमात्संमुखीभूतः, तदभिमुखीभूतथ यन्मतम प्रकारं कर्म तत्सर्वं 'हित्वा' त्यक्त्वा मोक्षस्य सत्संयमस्य वा सम्मुखीभूतोऽसाविति ॥ २३ ॥ अन्यक्ष- 'जम्मय'मित्यादि, सर्वसाधूनां यत् 'मतम्' अभिप्रेतं तदेतत्सत्संयमस्थानं, तद्विशिनष्टि- शल्यं - पापानुष्ठानं तज्जनितं वा कर्म तत्कर्तयति-छिनत्ति यत्तच्छल्य कर्तनं तथ सदनुष्ठानं उयुक्तविहारिणः 'साधयित्वा' सम्यगाराध्य बहवः संसारकान्तारं तीर्णाः, अपरे तु सर्वकर्मक्षयाभावात् देवा अभूवन् ते चाप्तसम्यक्त्वाः सञ्चारित्रिणो वैमानिकत्वभवापुः प्राप्नुवन्ति प्राप्स्यन्ति चेति ॥ २४ ॥ सर्वोपसंहारार्थमाह- 'पुरा' पूर्वसन्ननादिके काले बहवो 'महावीराः' कर्मविदारणसहिष्णवः 'अभूवन्' भूताः, तथा वर्तमाने च काले कर्मभूमी तथाभूता भवन्ति तथाऽऽगामिनि चानन्ते काले तथाभूताः सत्संयमानुष्ठायिनो भविष्यन्ति, ये किं कृतवन्तः कुर्वन्ति करिष्यन्ति चेत्याह-यस्य दुर्निबोधस्य - अतीव दुष्प्रापस्य ( मार्गस्य ) ज्ञानदर्शन चारित्राख्यस्य 'अन्त' परमकाष्ठामवाप्य तस्यैच मार्गस्थ 'प्रादुः' प्राकाश्यं तत्करणशीलाः प्रादुष्कराः खतः सन्मार्गानुष्ठायिनोऽन्येषां च प्रादुर्भावकाः सन्तः संसारार्णवं तीर्णास्तरन्ति तरिष्यन्ति चेति । गतोऽनुगमः, साम्प्रतं नयाः, ते च प्राग्वत् द्रष्टव्याः । इतिरध्ययनपरिसमाप्तौ त्रवीमीति पूर्ववत् ।। २५ ।। इति आदानीयाख्यं पञ्चदशाध्ययनं समाप्तम् ॥ 1000000 For Fans Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र -[०२ ], अंग सूत्र [०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः अत्र पञ्चदशमं अध्ययनं परिसमाप्तं ~ 525~ Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२५|| दीप अनुक्रम [६३०] सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्काचार्थी चियुतं ॥२६१ ॥ “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १६ ], उद्देशक [-] मूलं [२५...], निर्युक्ति: [१३६] Education intimational - अथ षोडशं श्रीगाथाध्ययनं प्रारभ्यते ॥ उक्तं पञ्चदशमध्ययनं साम्प्रतं पोडशमारभ्यते, अस्य चायमभिसंबन्धः - दहानन्तरोक्तेषु पञ्चदशस्वप्यध्ययनेषु येऽर्था अभिहिता विधिप्रतिषेधद्वारेण तान् तथैवाचरन् साधुर्भवतीत्येतदनेनाध्ययनेनोपदिश्यते, ते चामी अर्थाः, तद्यथा प्रथमाध्ययने खसमयप | रसमयपरिज्ञानेन सम्यक्लगुणावस्थितो भवति द्वितीयाध्ययने ज्ञानादिभिः कर्मविदारणहेतुभिरष्टप्रकारं कर्म विदारयन् साधुर्भॐ वति तथा तृतीयाध्ययने यथाऽनुकूलप्रतिकूलोपसर्गान् सम्यक् सहमानः साधुर्भवति चतुर्थे तु स्त्रीपरपहस्य दुर्जयत्वाज्जयकारी पञ्चमे तु नरकवेदनाभ्यः समुद्विजमानस्तत्प्रायोग्यकर्मणो विरतः सन्साधुखमवाप्नुयात् पष्ठे तु यथा श्रीवीरवर्धमानखामिना कर्मक्षयोद्यतेन चतुर्ज्ञानिनाऽपि संयमं प्रति प्रयत्नः कृतस्तथाऽन्येनापि छद्मथेन विधेय इति सप्तमे तु कुशीलदोषान् ज्ञाला तत्परि हारोद्यतेन सुशीलावस्थितेन भाव्यम् अष्टमे तु बालवीर्यपरिहारेण पण्डितवीर्योद्यतेन सदा मोक्षाभिलाषिणा भाव्यं नवमे तु यथोक्तं क्षान्त्यादिकं धर्ममनुचरन् संसारान्मुच्यत इति दशमे तु संपूर्णसमाधियुक्तः सुगतिभाग्भवति एकादशे तु सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राख्यं सन्मार्ग प्रतिपन्नोऽशेषक्केशप्रहाणं विधत्ते द्वादशे तु तीर्थिकदर्शनानि सम्यग्गुणदोषविचारणतो विजानन्न तेषु श्रद्धानं विधत्ते त्रयोदशे तु शिष्यगुणदोषविज्ञः सद्गुणेषु वर्तमानः कल्याणभाग्भवति चतुर्दशे तु प्रशस्तभावग्रन्थभावितात्मा विस्रोतसिकारहितो भवति पञ्चदशे तु यथावदायतचारित्रो भवति भिक्षुस्तदुपदिश्यत इति । तदेवमनन्तरोक्तेषु पञ्चदशस्त्रध्ययनेषु For Fans Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [०२ ], अंग सूत्र [०२ ] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः अत्र षोडशं अध्ययनं "गाथा" आरब्धं, पूर्वोक्त सर्व अध्ययनैः सह अस्य अध्ययनस्य अभिसंबंध: ~526~ 129209,৯৩ ১৬১৬১ १६ गाथा ध्ययनं. ॥२६१॥ www.janbay.org Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१६], उद्देशक [-], मूलं [२५...], नियुक्ति: [१३७] (०२) प्रत सूत्रांक ||२५|| actseasestaesesececedesectices येाः प्रतिपादितास्तेऽत्र संक्षेपतः प्रतिपाद्यन्त इत्यनेन संबन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चखायुपक्रमादीन्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति । तत्रोपक्रमान्तर्गतोऽर्थाधिकारोऽनन्तरमेव संवन्धप्रतिपादनेनैवाभिहितः । नामनिष्पन्ने त निक्षेपे गार्थापोडशकमिति नाम । तत्र गाथानिक्षेपार्थ नियुक्तिकृदाह णामंठवणागाहा दब्बगाहा य भावगाहा य । पोत्थगपत्तगलिहिया सा होई दब्बगाहा उ ॥ १३७॥ होति पुण भावगाहा सागारुवओगभावणि'फन्ना । महुराभिहाणजुत्ता तेणं गाहत्ति णं चिंति ।।१३८॥ गाहीकया व अत्था अहव ण सामुद्दएण छंदेणं। एएण होति गाहा एसो अन्नोऽवि पज्जाओ ॥ १३९॥ पपणरससु अज्झयणेसु पिंडितत्थेसु जो अवितहत्ति । पिडियवयणेणऽत्धं गहेति तम्हा ततो गाहा ॥१४०॥ सोलसमे अज्झयणे अणगारगुणाण वण्णणा भणिया । गाहासोलसणामं अज्झयणमिणं ववदिसंति॥१४॥ तत्र गाथाया नामादिकश्चतुर्धा निक्षेपः, तत्रापि नामस्थापने क्षुण्णखादनादृत्य द्रव्यगाथामाह-तत्र शरीरभव्यशरीरव्यति[रिक्ता द्रव्यगाथा पत्रकपुस्तकादिन्यस्ता, तद्यथा-जयति णवणलिणकुवलयवियसियसयवत्तपत्तलदलच्छो । वीरो गइंदमयमलमुललियगयविकमो भगवं ॥१॥ अथवेयमेव गाथाषोडशाध्ययनरूपा पत्रकपुस्तकन्यस्ता द्रव्यगाथेति । भावगाथामधिकृत्याह| भावगाथा पुनरियं भवति, तद्यथा-योऽसौ साकारोपयोगः क्षायोपशमिकभावनिष्पनो गाथां प्रति व्यवस्थितः सा भावगाथेत्यु-1 १ गाथैव षोडशं गाथाषोडशे तदेव गाथाषोडशकं गावाश्यं षोडयामध्ययनं यत्र ततथा वा। २ जयति नवनलिनीकुवलयविकसितशतपत्रपत्रलदलाक्षः । | बीरो गल-न्मदगजेन्द्रसुललितगतिविकमो भगवान् ॥ १॥ एलeseeeeeeeeeeeee दीप अनुक्रम [६३०] Janatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: गाथाया: नामादि निक्षेपाः, ~527~ Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१६], उद्देशक [-], मूलं [२५...], नियुक्ति: [१४१] (०२) प्रत सूत्रांक ||२५|| सूत्रकताच्य ते, समस्तस्यापि च श्रुतस्य क्षायोपत्रमिकभावे व्यवस्थितत्वात् , तत्र चानाकारोपयोगस्थासंभवादेवमभिधीयते इति । पुनरपि १६ गाथाशीलाका- तामेव विशिनष्टि-मधुरं-श्रुतिपेशलमभिधानम् उच्चारणं यस्याः सा मधुराभिधानयुक्ता, गाथाछन्दसोपनिबद्धस्स प्राकृतस्य मधु- ध्ययनं. चार्यांय- रखादित्यभिप्रायः, गीयते-पठ्यते मधुराक्षरप्रवृत्त्या गायन्ति वा तामिति गाथा, यत एवमतस्तेन कारणेन गाथामिति तां त्रुवते। त्तियुतं पणमिति वाक्यालङ्कारे एनां वा गाथामिति । अन्यथा वा निरुक्तिमधिकृत्याह-'गाधीकृताः' पिण्डीकृता विक्षिप्ताः सन्त एकत्र मीलिता अर्था यस्यां सा गाथेति, अथवा सामुद्रेण छन्दसा वा निबद्धा सा गाथेत्युच्यते, तच्चेदं छन्द:-'अनिवद्धं च यल्लोके, ॥२६२२॥ गाथेति तत्पण्डितैः प्रोक्तम्" । 'एषः अनन्तरोक्तो गाथाशब्दस्य 'पर्योयो निरुक्तं तात्पर्याओं द्रष्टव्यः, तयथा-गीयतेऽसौ गायन्ति वा तामिति गाथीकता वार्थाः सामुद्रेण वा छन्दसेति गाथेत्युच्यते, अन्यो वा खयमभ्यूद्ध निरुक्तविधिना विधेय इति । पिण्डितार्थग्राहिसमधिकृत्याह–पञ्चदशखप्यध्ययनेषु अनन्तरोकेषु 'पिण्डितः' एकीकृतोऽर्थो येषां तानि पिण्डितार्थानि तेषु | सर्वेष्वपि य एवं व्यवस्थितोऽर्थस्तम् 'अवितथं यथावस्थितं पिण्डितार्थवचनेन यसाद ग्रनात्येतदध्ययनं पोडश 'ततः' पिण्डि-12 | तार्थंग्रथनाद्गाथेत्युच्यत इति । तत्चभेदपर्यायव्याख्य'तिकला तचार्थमधिकृत्याह-पोडशाध्ययने अनगारा:-साधवस्तेषां 8 | गुणाः-धान्त्यादयस्तेषामनगारगुणानां पश्चदशस्वप्यध्ययनेष्वभिहितानामिहाध्ययने पिण्डितार्थवचनेन यती वणेनाभिहिता उक्तातो गाथाषोडशाभिधानमध्ययनमिदं 'व्यपदिशन्ति' प्रतिपादयन्ति । उक्तो नामनिष्पन्न निक्षेपनियुक्त्यनुगमः, तदनन्तरं || |॥२६॥ सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यनुगमस्थावसरः, सच सूत्रे सति भवति, मूत्रं च सूत्रानुगमे, असावप्पवसरप्राप्त एवातोऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम् दीप अनुक्रम [६३०] reeceaesese मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: गाथाया: नामादि निक्षेपाः, ~528~ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१६], उद्देशक [-], मूलं [१], नियुक्ति: [१४१] (०२) प्रत सूत्रांक ||१|| अहाह भगवं-एवं से दंते दविए वोसट्टकाएत्ति वच्चे माहणेत्ति वा १ समणेत्ति वा २ भिवृत्ति वा ३ णिग्गंथेत्ति वा ४ पडिआह-भंते ! कहं नु दंते दविए वोसटकाएत्ति वच्चे माहणेत्ति वा समणेत्ति वा भिक्खूत्ति वा णिग्गंथेत्ति वा? तं नोबूहि महामुणी!॥इतिविरए सवपावकम्मेहिं पिज्जदोसकलह० अब्भक्खाण पेसुन्न० परपरिवाय० अरतिरति० मायामोस मिच्छादंसणसल्लविरए समिए सहिए सया जए णो कुझे णो माणी माहणेत्ति वच्चे १॥ 'अथे' त्ययं शब्दोवसानमङ्गलार्थः, आदिमङ्गलं तु बुध्येतेत्यनेनाभिहितं, अत आयन्तयोर्मङ्गलवात्सर्वोऽपि श्रुतस्कन्धो मङ्गलमित्येतदनेनावेदितं भवति । आनन्तये वाज्यशब्दः, पञ्चदशाध्ययनानन्तरं तदर्थसंग्राहीदं पोडशमध्ययनं प्रारभ्यते । अथानन्त-12 रमाह-'भगवान् उत्पनदिव्यज्ञानः सदेवमनुजायां पर्षदीदं वक्ष्यमाणमाह, तद्यथा-एवमसौ पश्चदशाध्ययनोक्तार्थयुक्तः स साधुदोन्त इन्द्रियनोइन्द्रियदमनेन द्रव्यभूतो मुक्तिगमनयोग्यखात् 'द्रन्यं च भव्य इति वचनात् रागद्वेषकालिकापद्रव्यरहितखाद्वाजात्यसुवर्णवत् शुद्धद्रव्यभूतस्तथा व्युत्सृष्टो निष्प्रतिकर्मशरीरतया काय:-शरीरं येन स भवति व्युत्सृष्टकायः, तदेवंभूतः सन् पूर्वोक्ताध्ययनार्थेषु वर्तमानः प्राणिनः स्थावरजङ्गमसूक्ष्मवादरपयोप्तकापर्याप्तकमेदाभिनान् मा हणत्ति प्रवृत्तिर्यस्यासी माहनो नवब्रह्मचर्य-|| गुप्तिगुप्तो ब्रह्मचर्यधारणाद्वा ब्राह्मण इत्यनन्तरोक्तगुणकदम्बकयुक्तः साधुाहनोब्राह्मण [अन्थानम् ८०००] इति वा वाच्यः, तथा serserversececeisentences दीप अनुक्रम [६३१-१] JAMERatinintamational S aloneiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: मूल-सूत्रस्य आरम्भ: ~529~ Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१६], उद्देशक [-], मूलं [१], नियुक्ति: [१४१] (०२) प्रत सूत्रांक ||१|| सूत्रकृताङ्गं श्राम्यति-तपसा खियत इतिकृत्वा श्रमणो वाच्योऽथवा सम-तुल्यं मित्रादिषु मन:-अन्तःकरणं यस्य स समनाः सर्वत्र वासीच-18|१६ गाथाशीलाङ्का न्दनकल्प इत्यर्थः, तथा चोक्तम्-'कत्थि य सि कोइ सो" इत्यादि । तदेवं पूर्वोक्तगुणकलितः श्रमणः सन् सममना वा इत्येवं 81 चार्यांयत्तियुतं वाच्यः साधुरिति । तथा भिक्षणशीलो भिक्षुभिनत्ति वाऽष्टप्रकारं कर्मेति भिक्षुः स साधुर्दान्तादिगुणोपेतो भिक्षुरिति वाच्यः ।। तथा सवाद्याभ्यन्तरग्रन्थाभावाभिग्रन्थः । तदेवमनन्तरोक्तपञ्चदशाध्ययनोक्तार्थानुष्ठायी दान्तो द्रव्यभूतो व्युत्सष्टकायच [स] ॥२६३॥ निर्ग्रन्थ इति वाच्य इति । एवं भगवतोक्ते सति प्रत्याह तच्छिष्यः-भगवन् !-भदन्त ! भयान्त ! भवान्त ! इति वा योऽसौ दान्तो द्रव्यभूतो व्युत्सृष्टकायः सन् ब्राह्मणः श्रमणो भिक्षुनिग्रन्थ इति वाच्यः तदेतस्कर्थ ? यहगवतोतं ब्राह्मणादिशब्दवा-18 |च्यख साधोरिति, एतन्न:-अस्माकं 'बेहि आवेदय 'महामुने!' यथावस्थितत्रिकालवेदिन् ॥ १॥ इत्येवं पृष्टो भगवान् ब्राह्म|णादीनां चतुर्णामप्यभिधानानां कथश्चि दागिनानां यथाक्रम प्रवृत्तिनिमित्तमाह-'इति' एवं पूर्वोक्ताध्ययनार्थवृत्तिः सन् | 'बिरतो' निवृत्तः सर्वेभ्यः पापकर्मभ्यः-सावद्यानुष्ठानरूपेभ्यः स तथा, तथा प्रेम-रागाभिष्वङ्गलक्षणं द्वेष:-अप्रीतिलक्षणः 18 कलहो द्वन्द्वाधिकरणमभ्याख्यानम् असदभियोगः पैशुन्यं (कर्णेजपख) परगुणासहनतया तदोषोद्घट्टनमितियावत् परस्य परिवादः काका परदोषापादन अरतिः-चित्तोद्वेगलक्षणा संयमे तथा रतिः विषयाभिष्वको माया-परवञ्चना तया कुटिलमतमेषावाद: असदाभिधानं गामश्च बुबतो भवति, मिथ्यादर्शनम्-अतच्चे तत्वाभिनिवेशस्तवे वाऽतन्त्रमिति, यथा-णस्थि ॥२६॥ ण णिचो ण कुणह कयं ण वेएइ पत्थि णिवाणं । णत्थि य मोक्खोवाओ छम्मिच्छत्तस्स ठाणाई ॥१॥ इत्यादि, एतदेव शल्यं १ नास्ति तसा कोऽपि द्वेषः । २ नास्ति न निल्लो न करोति न कृतं वेदयति नास्ति निर्माण । नास्ति च मोक्षोपायः षण्मिभ्यालमा स्थानानि ॥ १॥ Receneeeeeaeness दीप अनुक्रम [६३१-१] JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~530~ Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१६], उद्देशक [-], मूलं [१], नियुक्ति: [१४१] (०२) प्रत सूत्रांक ||१|| शतसिंस्ततो वा विरत इति, तथा सम्यगितः समितः ईर्यासमित्यादिभिः पञ्चभिः समितिभिः समित इत्यर्थः, तथा सह हितेन परमार्थभूतेन बर्तत इति सहितः, यदिवा सहितो-युक्तो ज्ञानादिभिः तथा 'सदा' सर्वकालं 'यतः' प्रयतः सत्संयमानुष्ठाने, तदनुष्ठानमपि न कषायैनिःसारीकुर्यादित्याह कस्यचिदप्यपकारिणोऽपि न क्रुध्यत--आक्रुष्टः सन्न क्रोधवशगो भूयात, नापि मानी भवेदुष्कृष्टतपोयुक्तोऽपि न गवं विदध्यात् , तथा चोक्तम्- "जह सोऽवि निजरमओ पडिसिद्धो अट्ठमाणमहणेहिं । अवसेस 3 मयवाणा परिहरियत्वा पयत्तेणं ॥१॥" अस चोपलक्षणार्थवाद्रागोऽपि मायालोभात्मको न विधेय इत्यादिगुणकलितः साधुर्मा-| पहन इति निःश वाच्य इति ॥ २ ॥ साम्प्रतं श्रमणशब्दस्ख प्रवृत्तिनिमित्तमुद्भावयन्माह---- एत्थवि समणे अणिस्सिए अणियाणे आदाणं च अतिवायं च मुसावायं च बहिद्धं च कोहं च माणं च मायं च लोहं च पिजं च दोसं च इच्चेव जओ जओ आदाणं अप्पणो पद्दोसहेऊ तओ तओ आदाणातो पुवं पडिविरते पाणाइवाया सिआदते दविए वोसट्टकाए समणेत्ति वच्चे २ ॥ एत्थवि भिक्खू अणुनए विणीए नामए दंते दविए वोसटुकाए संविधुणीय विरू १ यदि सोऽपि निर्णरामयः प्रतिषिद्धोऽष्टमानमयनैः । अवशेषाणि मदस्थानानि परिहत यानि प्रयलेन ॥ १॥ दीप अनुक्रम [६३१-१] 02890203029 wwwjanmiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~531~ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१६], उद्देशक [-], मूलं [३], नियुक्ति: [१४१] (०२) सूत्रकृताङ्गं शीलाकाचार्याय प्रत चियुत सूत्रांक ।।२६४॥ ||३|| meroeceaseeseseepercenese वरूवे परीसहोवसग्गे अज्झप्पजोगसुद्धादाणे उवट्टिए ठिअप्या संखाए परदत्तभोई भिक्खूत्ति १६ गाथाबच्चे ३॥ ४ाध्यवनं. अत्राप्यनन्तरोक्त विरत्यादिके गुणसमूहे वर्तमानः श्रमणोऽपि वाच्यः, एतद्गुणयुक्तेनापि भाव्यमित्याह-निधनाधिक्येन वा 'श्रितो' निश्रितः न निश्रितोऽनिश्रित:-कचिच्छरीरादावप्यप्रतिबद्धः, तथान विद्यते निदानमस्खेत्यनिदानो-निराकासोऽशेषकमक्षयार्थी संयमानुष्ठाने प्रवर्तेत, तथाऽऽदीयते-खीक्रियतेऽष्टप्रकार कर्म येन तदादानं-कषायाः परिग्रहः सावधानुष्ठान वा, तथा-SI | ऽतिपातनमतिपाता, प्राणातिपात इत्यर्थः, तं च प्राणातिपातं जपरिक्षया ज्ञाखा प्रत्याख्यानपरिक्षया परिहरे, एवमन्यत्रापि क्रिया योजनीया । तथा मृषा-अलीको वादो मृपावादस्तं च, तथा 'बहिद्धं ति मैथुनपरिग्रही नौ च सम्यक् परित्राय परिहरेत् । उक्ता मूलगुणाःउत्तरगुणानधिकृत्याह-क्रोधम्-अनीतिलक्षणं मान-स्तम्भात्मकं मायां च परवञ्चनात्मिका लोभ-मूच्छाखभावं | तथा प्रेम-अभिष्वङ्गलक्षणं तथा द्वेषं खपरात्मनो धारूपमित्यादिकं संसारावतरणमार्ग मोक्षाध्वनोऽपध्वंसक सम्पक परिज्ञाय परिहरेदिति । एवमन्यसादपि यतो यतः कर्मापादानाद्-इहामुत्र चानर्थहेतोरात्मनोपाय पश्पति प्रक्षेपहेच ततस्ततः प्राणा तिपातादिकादनथेदण्डादादानात् पूर्वमेव अनागतमेवात्महितमिच्छन् प्रतिविरतो भवेत् सर्वसादनथहेतुभूतादुभयलोकविरु- ॥२६॥ द्धाद्वा सावधानुष्ठानान्मुमुक्षुर्विरतिं कुर्यात् । यथैवंभूतोदान्तः शुद्धो द्रव्यभूतो निष्प्रतिकर्मतया व्युत्मष्टकायः स श्रमणो वाच्यः ।।३।। | साम्प्रतं भिक्षुशब्दस्य प्रचिनिमित्तमधिकृत्याह-'अनापीति, ये ते पूर्वमुक्काः पापकर्मविरत्यादयो माहनशब्दप्रवृचिहेतवोत्रापि दीप अनुक्रम [६३२-१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~532~ Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||3|| दीप अनुक्रम [६३२-१] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १६ ], उद्देशक [-], मूलं [३], निर्युक्तिः [१४१] Education intimation - भिक्षुशब्दस्य प्रवृतिनिमित्ते त एवावगन्तव्याः, अमी चान्ये, तद्यथा- न उन्नतोऽनुन्नतः, तत्र द्रव्योन्नतः शरीरेणोच्छ्रितः भावोनतस्वभिमानग्रहग्रस्तः, तत्प्रतिषेधात्तपोनिर्जरामदमपि न विधत्ते । विनीतात्मतया प्रश्रयवान् यतः, एतदेवाह - विनयालङ्कृतो गुर्वा दावादेशदानोद्यतेऽन्यदा वाऽऽत्मानं नामयतीति नामकः सदा गुर्वादौ प्रहो भवति, विनयेन वाऽष्टप्रकारं कर्म नामयति, वैयावृश्योद्यतोऽशेषं पापमपनयतीत्यर्थः । तथा 'दान्तः' इन्द्रियनोइन्द्रियाभ्यां तथा 'शुद्धात्मा' शुद्धद्रव्यभूतो निष्पतिकर्मतया 'व्यु|त्सृष्टकायच' परित्यक्तदेह यत्करोति तदर्शयति-सम्यक् 'विधूय' अपनीय 'विरूपरूपान' नानारूपाननुकूल प्रतिकूलान्-उचावचान् द्वाविंशतिपरीषहान् तथा दिव्यादिकानुपसर्गादेति, तद्विधूननं तु यत्तेषां सम्पक सहन तैरपराजितता, परीप होपसर्गाश्च विधूयाध्यात्म योगेन- सुप्रणिहितान्तःकरणतया धर्मध्यानेन शुद्धम् अवदातमादानं चारित्रं यस्य स शुद्धादानो भवति । तथा सम्यगुत्थानेन - सञ्चारित्रोद्यमेनोत्थितः तथा स्थितो - मोक्षाध्वनि व्यवस्थितः परीषहोपसँगैरप्यनृष्य आत्मा यस्य स स्थितात्मा, तथा 'संख्याय' परिज्ञायासारतां संसारस्य दुष्प्रापतां कर्मभूमेबांधेः सुदुर्लभलं चावाप्य च सकलां संसारोत्तरणसामग्रीं सत्संयमकरणोद्यतः परैः गृहस्थैरात्मार्थं निर्वर्तितमाहारजातं तैर्दत्तं भोक्तुं शीलमस्य परदत्तभोजी, स एवंगुणकलितो भिक्षुरिति वाच्यः ॥ ३ ॥ तथाऽत्रापि गुणगणे वर्तमानो निर्ग्रन्थ इति वाच्यः, अमी चान्ये अपदिश्यन्ते, तद्यथा एत्थवि णिग्गंथे एगे एगविऊ बुद्धे संछिन्नसोए सुसंजते सुसमिते सुसामाइए आयवायपत्ते विऊ दुहओवि सोयपलिच्छिन्ने णो पूयासकारलाभट्टी धम्मट्टी धम्मविऊ णियागपडिवन्ने For Fans Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ...... आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ~533~ ww.incibrary.om Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥४॥ दीप अनुक्रम [६३२-२] सूत्रकृता शीलाङ्काचायचियुतं ॥२६५॥ Educator “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ १६ ], उद्देशक [-], मूलं [४], निर्युक्ति: [१४१] - समि(मयं चरे दंते दविए वोसटुकाए निग्गंथेत्ति बच्चे ४ ॥ से एवमेव जाणह जमहं भयंता रो ॥ तिमि । इति सोलसमं गाहानामज्झयणं समत्तं ॥ पढमो सुअक्खंधो समत्तो ॥ १ ॥ 'एको' रागद्वेषरहिततया ओजाः, यदिवाऽसिन् संसारचक्रवाले पर्यटन्नसुमान् खकृतसुखदुःखफलभाक्लेनैकस्यैव परलोकगमनतथा सदैकक एव भवति । तत्रोद्यतविहारी द्रव्यतोऽप्येकको भावतोऽपि गच्छान्तर्गतस्तु कारणिको द्रव्यतो भाग्यो भावतस्त्वेकक एव भवति । तथैकमेवात्मानं परलोकगामिनं वेचीत्येकवित्, न मे कचिदुःखपरित्राणकारी सहायोऽस्तीत्येव मे कवित्, यदिचैवैकान्तविद् - एकान्तेन विदितसंसारस्वभावतया मौनीन्द्रमेव शासनं तथ्यं नान्यदित्येवं वेचीत्येकान्तवित्, अथबैको मोक्षः संयमो वा तं वेत्ती२४ ति, तथा बुद्धः - अबगततच्चः सम्यक् छिन्नानि-अपनीतानि भावस्रोतांसि संवृतत्वात्कर्माश्रयद्वाराणि येन स तथा, सुष्ठु संयतःकर्मवत्संयतगात्रो निरर्थककायक्रियारहितः सुसंयतः, तथा सुष्ठु पञ्चभिः समितिभिः सम्यगितः प्राप्तो ज्ञानादिकं मोक्षमार्गमसौ |सुसमितः, तथा सुष्ठु समभावतया सामायिक समशत्रुमित्रभावो यस्य स सुसामायिकः । तथाऽऽत्मनः- उपयोगलक्षणस्य जीवस्थासंख्येयप्रदेशात्मकस्य संकोचविकाशभाजः खकृतफलभुजः प्रत्येकसाधारणशरीरतया व्यवस्थितस्य द्रव्यपर्यायतया नित्यानित्याद्यनन्तधर्मात्मकस्य वा वाद आत्मवादस्तं प्राप्त आत्मवादप्राप्तः सम्यग्यथावस्थितात्मस्वतच्ववेदीत्यर्थः । तथा 'विद्वान' अवगतसर्वप| दार्थस्वभावो न व्यत्ययेन पदार्थानवगच्छति । ततो यत् कैश्चिदभिधीयते, तद्यथा- एक एवात्मा सर्वपदार्थस्वभावतया विश्वव्यापी श्यामाकतण्डुलमात्रोऽङ्गुष्ठपर्वपरिमाणो वेत्यादिको सद्भूताभ्युपगमः परिहृतो भवति, तथाविधात्मसद्भावप्रतिपादकस्य प्रमाण For Fans Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ...... आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ~ 534~ १६ गाथाषोडशका ध्ययनं. ॥२६५॥ www.org Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१५], उद्देशक [-], मूलं [४], नियुक्ति: [१४१] (०२) प्रत सूत्रांक ||४|| साभावादित्यभिप्रायः । तथा द्विधाऽपी'ति द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रष्यस्रोतांसि यथास्वं विषयेष्विन्द्रियप्रवृत्तयः भावस्रोतांसि तु शब्दादिष्वेवानुकूलप्रतिकूलेषु रागद्वेषोद्भवास्तान्युभयरूपाण्यपि स्रोतांसि संवृतेन्द्रियतया रागद्वेषाभावाच्च परिच्छिन्नानि येन स परिच्छिन्नस्रोताः, तथा नो पूजासत्कारलाभार्थी किंतु निर्जरापेक्षी सर्वास्तपश्चरणादिकाः क्रिया विदधाति, एतदेव दर्शयतिधर्म:-श्रुतचारित्राख्यस्तेनार्थः स एव वार्थों धर्मार्थः स विद्यते यस्थासौ धमार्थीति, इदमुक्तं भवति-न पूजाद्यर्थ क्रियासु प्रवतेते अपितु धर्मार्थीति । किमिति, यतो धर्म यथावत्तत्फलानि च स्वर्गावाप्तिलक्षणानि सम्यक् वेत्ति, धर्म च सम्यग् जानानो | यत्करोति तदर्शयति-नियागो-मोक्षमार्गः सत्संयमो वा तं सर्वात्मना भावतः प्रतिपन्नः नियागपडिवमोत्ति, तथाविधश्च यत्कुर्यात् र तदाह-समि(म)यं ति समतां समभावरूपां वासीचन्दनकल्पां 'चरेत् सततमनुतिष्ठेत् । किंभूतः सन् ?, आहू-दान्तो द्रव्यभूतो ग्युस्मष्टकायन, एतद्गुणसमन्वितः सन् पूर्वोक्तमाहनश्रमणभिक्षुशब्दानां यत् प्रवृत्तिनिमित्तं तत्समन्वितब निर्ग्रन्थ इति वाच्यः ।। तेऽपि माहनादयः शब्दा निर्गन्थशब्दप्रवृत्तिनिमित्ताविनाभाविनो भवन्ति, सर्वेऽप्येते भिमन्यजना अपि कथश्चिदेकार्थी | | इति ॥५॥ साम्प्रतमुपसंहाराथेमाह-सुधर्मस्वामी जम्बूखामिप्रभृतीनुद्दिश्येदमाह-से' इति तचन्मया कथितमेवमेव जानीत | 8| यूयं, नान्यो मद्वचसि विकल्पो विधेयः, यसादह सर्वेशाज्ञया ब्रवीमि । न च सर्वज्ञा भगवन्तः परहितैकरता भयात्रातारो। | रागद्वेषमोहान्यतरकारणाभावादन्यथा बुवते, अतो यन्मयादितः प्रभृति कथितं तदेवमेवावगच्छतेति । इतिः परिसमाप्त्यर्थे । ब्रवीमीति पूर्ववत् । उक्तोऽनुगमः, साम्प्रतं नयाः, ते च नैगमादयः सप्त, नैगमख सामान्यविशेषात्मकतया संग्रहव्यवहारप्रवे-18 शासंग्रहादयः षट्, समभिरूढेत्थंभूतयोः शब्दनयप्रवेशान्नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दाः पञ्च, नैगमस्याप्यन्तर्भावाचवारो, दीप अनुक्रम [६३२-२] JABERatinintamational wjanmiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~535~ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१५], उद्देशक [-], मूलं [४], नियुक्ति: [१४१] (०२) प्रत सूत्रांक सूत्रकृताङ्गं व्यवहारस्यापि सामान्यविशेषरूपतया सामान्यविशेषात्मनोः संग्रहर्जुसूत्रयोरन्तर्भावात्संग्रहर्जुसूत्रशब्दाखया, 'ते च द्रव्यास्ति १६ गाथाशीलाका- कपर्यायास्तिकान्तर्भावाड्रन्यास्तिकपर्यायास्तिकाभिधानी द्वौ नयौ, यदिवा सर्वेषामेव ज्ञानक्रिययोरन्तर्भावात् शानक्रियाभिधानीपोड चाय-यय- द्वी, तत्रापि शाननयो शानमेव प्रेधानमाह, क्रियानयश्च क्रियामिति । नयानां च प्रत्येक मिथ्याष्टिताज्ज्ञानक्रिययोष परस्परा-1 ध्ययन पेक्षितया मोक्षाङ्गखादुभयमत्र प्रधान, तचोभयं सत्कियोपेते साधौ भवतीति, तथा चोक्तम्---णायम्मि गिहियो अगिहिय-181 ॥२६६॥ Reमि चेव अत्थंमि । जइयत्वमेव इति जो उवएसो सो नओ नाम ॥ १॥ संवेसिपि णयाणं बहुविहवत्तवयं णिसामेत्ता । तं सब-18 नयविसुद्धं जं चरणगुणहिओ साहू ॥२॥"ति, समाप्तं च गाथाख्यं पोडशमध्ययनं, तत्समाप्ती च समाप्त: प्रथम:12 श्रुतस्कन्ध इति ॥ [ग्रन्धानम् ८१०६] STATESTATE-ENROTRASTRA-STREETRO-ETMASTRAMRAPA ॥इति श्रीमच्छीलाङ्काचार्यविरचितविवरणयुतः सूत्रकृताङ्गीयः प्रथमः श्रुतस्कन्धः॥ ||४|| दीप अनुक्रम [६३२-२] २६६॥ तेऽपि च। २ फलसापक, अन्यथा प्रमाणवाक्यतापातात्। शाते पहीतन्याहीतयेचवार्थ पवितव्यमेवेति य उपदेशः स भयो बाम ॥१॥10॥ 1| सर्वेषामपि नयाना बहुविधां वकन्यतां निशम्य तत्सर्वनयविशुद्ध वचरणगुणस्थितः साधुः ॥१॥ JABERatinintamational Swanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: अत्र षोडशं अध्ययनं परिसमाप्तं. प्रथम श्रुतस्कंधोऽपि समाप्त: ~536~ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम [ ৬১৬ “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ - ], उद्देशक [-], मूलं [-], निर्युक्तिः [१४२] - Education intimational ॐ नमः श्रीवीतरागाय ॥ अथ श्री द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीयः श्रुतस्कन्धः । प्रथमश्रुतस्कन्धानन्तरं द्वितीयः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरश्रुतस्कन्धे योऽर्थः समासतोऽभिहितः असावेवानेन श्रुतस्कन्धेन सोपपत्तिको व्यासेनाभिधीयते, त एव विधयः सुसंगृहीता भवन्ति येषां समासव्यासाभ्यामभिधानमिति, यदिवा पूर्वश्रुतस्कन्धोक्त एवार्थोऽनेन दृष्टान्तद्वारेण सुखावगमार्थं प्रतिपाद्यत इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य श्रुतस्कन्धस्य सम्बन्धीनि सप्त महाध्ययनानि प्रतिपाद्यन्ते, महान्ति च तान्यध्ययनानि, पूर्वश्रुतस्कन्धाध्ययनेभ्यो महत्वादेतेषामिति, तत्र महच्छ| ब्दाध्ययनशब्दयो निक्षेपार्थ निर्युक्तिकृदाह |णामंठवणादविए खेत्ते काले तहेव भावे य । एसो खलु महतंमि निक्लेवो छब्बिहो होति ॥ १४२ ॥ णामंठवणादविए खेत्ते काले तहेव भावे य । एसो खलु अज्झयणे निक्खेवो छव्विहो होति ॥ १४३ ॥ णामंठवणादविए खेत्ते काले य गणण संठाणे । भावे य अट्टमे खलु णिक्खेवो पुंडरीयस्स ॥ १४४ ॥ जो जीवो भविओ खलुबबज्जिकामो य पुंडरीयंमि । सो दच्चपुंडरीओ भावंमि विजाणओ भणिओ ॥ १४५ ॥ Forest Use Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...... आगमसूत्र -[ ०२ ], अंग सूत्र- [ ०२] "सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः अत्र द्वितीयः श्रुतस्कंधस्य आरम्भः प्रथम एवं द्वितीय श्रुतस्कंधस्य अभिसंबंध:, 'महत् एवं अध्ययन' शब्दयोः निक्षेपाः ~537~ eststo Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं -], नियुक्ति: [१४६] (०२) eceaesese सूत्रकृता १पौण्डरीकाध्य. पुण्डरीकनिक्षेपाः प्रत २श्रुतस्कन्धे शीलाकीयायां वृत्ती ॥२६७॥ सूत्रांक - | एगभचिए य बद्धाउए य अभिमुहियनामगोए य । एते तिन्निवि देसा दब्वंमि य पोंडरीयस्स ॥१४६ ॥ तेरिच्छिया मणुस्सा देवगणा चेव होंति जे पवरा । ते होंति पुंडरीया सेसा पुण कंडरीया उ ॥ १४७ ॥ | जलयर धलयर खयरा जे पवरा चेव होंति कंता य । जे अ सभावेऽणुमया ते होति पुंडरीया उ॥ १४८॥ अरिहंत चकबद्दी चारण विजाहरा दसारा य । जे अन्ने इडिमंता ते होंति पोंडरीया उ॥॥१४९ ॥ भवणवइवाणमंतरजोतिसवेमाणियाण देवाणं । जे तेसिं पवरा खलु ते होंति पुंडरीया उ ॥१५॥ | कंसाणं दूसाणं मणिमोत्तियसिलपवालमादीणं । जे अ अचित्ता पवरा ते होंति पोंडरीया उ॥१५१ ।। |जाई खेत्ताई खलु सुहाणुभावाई होति लोगंमि । देवकुरुमादियाई ताई खेत्ताई पवराई ॥१५२॥ |जीवा भवद्वितीए कायठितीए य होति जे पवरा । ते होंति पोडरीया अवसेसा कंडरीया उ ।। १५३ ॥ गणणाए रजू खलु संठाणं चेव होंति चउरंसं । एयाइं पोंडरीगाई होंति सेसाई इयराइं ॥ १५४ ॥ ओदइए उपसमिए खइए य तहा खओवसमिए अ । परिणामसन्निवाए जे पवरा तेवि ते चेव ॥ १५ ॥ अहवावि नाणदंसणचरित्तविणए तहेव अज्झप्पे । जे पवरा होति मुणी ते पवरा पुंडरीया उ ॥ १५६ ॥ एत्थं पुण अहिगारो वणस्सतिकायपुंडरीएणं । भावंमि अ समणेणं अज्झयणे पुंडरीमि ॥१५७ ॥ नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावात्मको महति पनिधो निक्षेपो भवति, तत्र नामस्थापने सुज्ञाने, द्रव्यमहदागमतो नोआगम___ अचित्त मीसगेमुं दव्येसु जे व होति पवरा उ । ते होति पौडरीया, सैसा पुण कंडरीया छ ॥ १॥ इति प्रत्यन्तरेऽधिका गाथा ॥ दीप अनुक्रम esesed | ॥२६७|| wwlanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: 'महत् एवं अध्ययन' शब्दयो: निक्षेपा: ~538~ Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [१५७] (०२) प्रत सूत्रांक - eceaeseseeeeeweredesese तश्च, आगमतो ज्ञाता तत्र चानुपयुक्तः, नोआगमतस्तु बशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्त सचित्ताचित्तमिश्रभेदाविधा, तत्रापि सचिचद्रव्यमहत् औदारिकादिकं शरीरं, तत्रौदारिक योजनसहस्रपरिमाणं मत्स्यशरीरं, वैक्रियं तु योजनशतसहस्रपरिमाणं, तैजसकामणे तु लोकाकाशप्रमाणे, तदेतदौदारिकवैक्रियतैजसकामेणरूपं चतुर्विधं द्रव्यसचित्तमहद्, अनित्तद्रव्यमहत समस्तलोकव्याप्य-18|| चित्तमहास्कन्धः, मिश्रं तु तदेव मत्स्यादिशरीरं, क्षेत्रमहत् लोकालोकाकाशं, कालमहत्सर्वाद्धा, भावमहदौदयिकादिभावरूपतया । पोढा, तत्रौदयिको भावः सर्वसंसारिषु विद्यत इतिकुखा बहाश्रयखान्महान् भवति, कालतोऽप्यसौ त्रिविधः, तद्यथा-अनाद्यप18 यवसितोऽभव्यानामनादिसपर्यवसितो भव्यानां सादिसपर्यवसितो नारकादीनामिति, क्षायिकस्तु केवलज्ञानदर्शनात्मकः सायपर्य वसितखात्कालतो महान् , क्षायोपशमिकोऽप्याश्रयवहुसादनाद्यपर्यवसितसाच महानिति, औपशमिकोऽपि दर्शनचारित्रमोहनीयानुदयतया शुभभावसेन च महान् भवति, पारिणामिकस्तु समस्तजीवाजीवाश्रयखादाश्रयमहत्वान्महानिति, सान्निपातिकोऽप्याश्रयबहुखादेव महानिति । उक्तं महद्, अध्ययनस्थापि नामादिकं पोढा निक्षेपं दर्शयितुं नियुक्तिकृदाह-अध्ययनस्य नामादिका पोढा निक्षेपः, स चान्यत्र न्यक्षेण प्रतिपादित इति नेह प्रतन्यते, अत्र च श्रुतस्कन्धे सप्त महाध्ययनानि, तेपामाधुमध्ययनं पीण्डरीकाख्यं, तख चोपक्रमादीनि चत्वार्यनुयोगद्वाराणि प्ररूपणीयानि, तत्रोपक्रम आनुपूर्वीनामप्रमाणवक्तव्यताथाधिकारसमवतार| भेदात्योढा, तत्र पूर्वानुपूयो प्रथममिदं पश्चानुपूयों तु सप्तममनानुपूा तु सप्तगच्छगतायाः श्रेण्या अन्योऽन्याभ्यासेन द्विरूपोने 18 सति पश्चाशच्छतान्यष्टत्रिंशदधिकानि भवन्ति, नाम्नि तु षण्णाग्नि, तत्रापि धायोपशमिके भावे, सर्वस्यापि च श्रुतस्य क्षायोपश|| मिकसात् , प्रमाणचिन्तायां जीवगुणप्रमाणे, वक्तव्यतायां सामान्येन सर्वेष्वध्ययनेषु खसमयवक्तव्यता, अर्थाधिकारः पौण्डरीकोप एलटcessersersesesesesese दीप अनुक्रम ब्र wjanmitrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्' मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: 'महत् एवं अध्ययन' शब्दयो: निक्षेपा: ~539~ Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम [ सूत्रकृताने २ श्रुतस्क न्धे शीलाश्रीयायां वृत्ती ॥ २६८ ॥ “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-] मूलं [-], निर्युक्ति: [१५७] Education intimatio - मया स्वसमयगुणव्यवस्थापनं, समवतारे तु यत्र यत्र समवतरति तत्र तत्र लेशतः समवतारितमेवेति । उपक्रमानन्तरं निक्षेपः, स च नाम निष्पने निक्षेपे पौण्डरीकमित्यस्याध्ययनस्य नाम, तत्रिक्षेपार्थं निर्युक्तिकदाह--'नाम' मित्यादि, पौण्डरीकस्य नाम स्थापनाद्रव्यक्षे| कालगणना संस्थान भाषात्मकोऽष्टधा निक्षेपः, तत्र नामस्थापने क्षुण्णवादनादृत्य द्रव्यपौण्डरीकमभिधित्सुराह - 'जो' इत्यादि, यः | कचित्प्राणधारणलक्षणो जीवो भविष्यतीति भव्यः, तदेव दर्शयति- 'उत्पतितुकामः' समुत्पित्सुस्तथाविधकर्मोदयात् 'पौण्डरीकेषु' वेतपद्येषु वनस्पतिकायविशेषेष्वनन्तरभवे भावी स द्रव्यपौण्डरीकः, खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे, भावपौण्डरीकं लागमतः पौण्डरीकपदार्थ- ४ | ज्ञस्तत्र चोपयुक्त इति । एतदेव द्रव्ययौण्डरीकं विशेषतरं दर्शयितुमाह-'एगे' त्यादि, एकेन भवेन गतेनानन्तरभव एव पौण्डरी केषूत्पत्स्यते स एकभविकः, तथा तदासन्नतरः पौण्डरीकेषु बद्धायुष्कस्ततोऽप्यास नवमोऽभिमुखनामगोत्रोऽनन्तरसमयेषु यः पौण्डरीकेषूत्पद्यते, एते अनन्तरोक्ता त्रयोऽप्यादेश विशेषा द्रव्यपौण्डरीकेऽवगन्तव्या इति, “भूतस्य भाविनो वा भावस्य हि कारणं तु यलोके । तद्रव्यं तत्त्वज्ञैः सचेतनाचेतनं कथितम् ? ॥१॥” इति वचनात् इह च पुण्डरीककण्डरीकयो अत्रोर्महाराजपुत्रयोः सदसदनुष्ठानपरायणत या शोभनाशोभनत्वमवगम्य तदुपमयाऽन्यदपि यच्छोभनं तत्पौण्डरीकमितरत्तु कण्डरीकमिति । तत्र च नरकवर्जासु तिसृष्वषि गतिषु | ये शोभनाः पदार्थास्ते पौण्डरीकाः शेषास्तु कण्डरीका इत्येतत्प्रतिपादयन्नाह - 'तेरिच्छिये 'त्यादि कण्ठ्या, तत्र तिर्यक्षु प्रधानस्य पौण्ड|रीकत्वप्रतिपादनार्थमाह-जलचरेत्यादि, जलचरेषु मत्स्यकरिमकरादयः स्थलचरेषु सिंहादयो वलवर्णरूपादिगुणयुक्ता उरः परिसर्पेषु मणिफणिनो भुजपरिसर्पेषु नकुलादयः खचरेषु हंसमयूरादयः इत्येवमन्येऽपि 'स्वभावेन' प्रकृत्या लोकानुमतास्ते च पौण्डरीका इव प्रधाना भवन्ति । मनुष्यगतौ प्रधानाविष्करणायाह- 'अरिहंते' त्यादि, सर्वातिशायिनीं पूजामर्हन्तीत्यर्हन्तः, ते निरुपमरूपादिगुणोपेताः, तथा For Parts Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र [०२ ], अंग सूत्र- [ ०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः 'महत् एवं अध्ययन' शब्दयोः निक्षेपाः, प्रथम अध्ययन पौंडरिक' शब्दस्य अर्थ एवं द्रव्यादि भेदाः ~ 540 ~ १ पौण्ड रीकाध्य. पुण्डरीकनिक्षेपाः ॥२६८॥ p Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [१५७] (०२) प्रत పందిరి सूत्रांक 18| चक्रवर्तिनः पटखण्डभरतेश्वराः तथा चारणश्रमणा बहुविधार्यभूतलन्धिकलापोपेता महातपस्विनः तथा विद्याधरा वैताठ्यपुरा-18॥ धिपतयः तथा दशारा हरिवंशकुलोद्भवाः, अस्य चोपलक्षणार्थखादन्येऽपीक्ष्वाकादयः परिगृह्यन्ते, एतदेव दर्शयति ये चान्ये मह-II धिमन्तो महेभ्याः कोटीश्वरास्ते सर्वेऽपि पौण्डरीका भवन्ति, तुशब्दस्यानुक्तसमुच्चयार्थखात्, ये चान्ये विद्याकलाकलापोपेतास्ते ! पौण्डरीका इति । साम्प्रतं देवगतौ प्रधानस्य पौण्डरीकलं प्रतिपादयबाह-'भवणे'त्यादि, भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकानां चतुर्णा देवनिकायानां मध्ये ये प्रवरा:-प्रधाना इन्द्रेन्द्रसामानिकादयस्ते प्रधाना इतिकृसा पौण्डरीकाभिधाना भवन्ति । साम्प्र-18 तमचित्तद्रग्याणां यत्प्रधानं तस्य पौण्डरीकसप्रतिपादनायाह-'कसणा'मित्यादि, कांस्खानां मध्ये जयघण्टादीनि दृष्याणां चीना-1 शुकादीनि मणीनामिन्द्रनीलबैडूर्यपद्मरागादीनि रतानि मौक्तिकानां यानि वर्णसंस्थानप्रमाणाधिकानि, तथा शिलानां मध्ये पाण्डुकम्बलादयः शिलास्तीर्थजन्माभिषेकसिंहासनाधाराः, तथा प्रवालानां यानि वर्णादिगुणोपेतानि, आदिग्रहणाजात्यचाशमीकरं तद्विकारावाभरणविशेषाः परिगृह्यन्ते, तदेवमनन्तरोक्तानि कांस्सादीनि यानि प्रवराणि तान्यचित्तपौण्डरीकाण्यभिधीयन्त ॥ इति । मिश्रद्रव्यपौण्डरीकं तु तीर्थकृच्चक्रवोदय एवं प्रधानकटककेयूरालङ्कारालङ्कता इति, द्रव्यपौण्डरीकानन्तरं क्षेत्रपौण्डरीMS कामिधित्सयाह-'खिचानी'त्यादि, यानि कानिचिदिह देवकुर्वादीनि शुभानुभावानि क्षेत्राणि तानि प्रवराणि पौण्डरीकाभि-19 धानानि भवन्ति ॥ साम्प्रतं कालपोण्डरीकप्रतिपादनायाह-'जीवाः' प्राणिनो भवस्थित्या कायस्थित्या च ये 'प्रवराः प्रधानास्ते पौण्डरीका भवन्ति, शेषास्वप्रधानाः कण्डरीका इति, तत्र भवस्थित्या देवा अनुत्तरोपपातिकाः प्रधाना भवन्ति, तेषां यावद्भवं शुभानुभावसात, कायस्थित्या तु मनुष्याः शुभकर्मसमाचाराः सप्लाष्टभवग्रहणानि मनुष्येषु पूर्वकोट्यायुकेष्वनुपरिवानन्तरभवे । - दीप अनुक्रम Swlanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्' मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रथम अध्ययन-- 'पौंडरिक' शब्दस्य अर्थ एवं द्रव्यादि भेदा:, ~541~ Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [१५७] (०२) प्रत सूत्रांक - सूत्रकृताङ्केत्रिपल्योपमायुष्केपूत्पादमनुभूय ततो देवेधूत्पद्यन्त इतिकता ततस्ते कायस्थित्या पौण्डरीका भवन्ति, अवशिष्टास्तु कण्डरीका १ पौण्ड इति । कालपौण्डरीकानन्तरं गणनासंस्थानपौण्डरीकद्वयप्रतिपादनायाह-गणनया-सङ्ख्यया पौण्डरीक चिन्त्यमानं दशप्रकारस्य। न्धे शीला- गणितस्स मध्ये 'रनु अगणितं प्रधानखात्पौण्डरीकं, दशप्रकारं तु गणितमिदं-"परिकम्म १ र २ रासी ३ ववहारे ४ तह पुण्डरीककीयायां कलासवण्णे ५ य । पुग्गल ६ जायं तापं ७ घणे य ८ घणवग्ग ९ वग्गे य १०॥१॥" पण्णां संस्थानानां मध्ये समचतुरस्र | निक्षपाः वृत्तौ ४ संस्थानं प्रवरखावीण्डरीकमित्येवमेते द्वे अपि पीण्डरीके, शेषाणि तु परिकर्मादीनि गणितानि म्यग्रोधपरिमण्डलादीनि च संस्था-18 ॥२६९॥ नानि 'इतराणि' कण्डरीकान्यप्रवराणि भवन्तीतियावत् ॥ साम्प्रतं भावपौण्डरीकप्रतिपादनानिधित्सयाऽऽह-'ओदईत्यादि, औ-18|| दयिके भावे तथोपशमिके क्षायिके क्षायोपशमिके पारिणामिके सानिपातिके च भावे चिन्त्यमाने तेषु तेषां वा मध्ये ये 'प्रवरा' प्रधानाः 'तेऽपि' औदायिकादयो भावाः 'त एव' पौण्डरीका एवावगन्तव्याः, तथौदायिक भावे तीर्थकरा अनुत्तरोपपातिकसुरा|स्तथान्येऽपि सितशतपत्रादयः पौण्डरीकाः, औपशमिके समस्तोपशान्तमोहाः, क्षायिके केवलज्ञानिनः, क्षायोपशमिके विपुलम-1 | तिचतुर्दशपूर्ववित्परमावधयो व्यस्ताः समस्ता वा, पारिणामिके भावे भव्माः, सानिपातिके भावे द्विकादिसंयोगाः सिद्धादिषु॥8॥ खपुख्ता पौण्डरीकलेन योजनीयाः, शेषास्तु कण्डरीका इति । साम्प्रतमन्यथा भावपौण्डरिकप्रतिपादनायाह-'अहवावी स्यादि, 18| अथवापि भावपौण्डरीकमिदं, तद्यथा-सम्यग्रज्ञाने तथा सम्यग्दर्शने सम्यकचारित्रे ज्ञानादिके विनये तथा 'अध्यात्मनि च ॥२६९।। | धर्मध्यानादिके ये 'प्रवराः' श्रेष्ठा मुनयो भवन्ति ते पौण्डरीकलेनावगन्तव्यास्ततोऽन्ये कण्डरीका इति । तदेवं सम्भविनमष्टया । १ परिफर्म रबुः राशिः व्यवहारस्तथा कलासवर्णन । पुद्गलाः यावत्तावत् भवंति धन धनमूलं वर्गः वर्गमूलं ॥१॥ दीप अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रथम अध्ययन-- 'पौंडरिक' शब्दस्य अर्थ एवं द्रव्यादि भेदा: ~542~ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [3] दीप अनुक्रम [६३३] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [-], मूलं [१], निर्युक्ति: [१५७] - | पौण्डरीकस्य निक्षेपं प्रदर्श्याधुनेह येनाधिकारस्तमाविर्भावयबाह – 'अत्र' पुनर्दृष्टान्तप्रस्तावे 'अधिकारी' व्यापारः सचित्ततिर्यग्योनिकै केन्द्रियवनस्पतिकायद्रव्यपौण्डरीकेण जलरुहेण, यदिवा औदधिकभाववर्तिना वनस्पतिकायपौण्डरीकेण सितशतपत्रेण, तथा भावे 'श्रमणेन च' सम्यग्दर्शनचारित्र विनयाध्यात्मवर्तिना सत्साधुनाऽस्मिन्नध्ययने पौण्डरीकाख्येऽधिकार इति । गता निक्षेपनियुक्तिः, अधुना सूत्रस्पर्शिकनिर्युक्तेरवसरः, सा च सूत्रे सति भवति, सूत्रं च सूत्रानुगमे, स चावसरप्राप्तोऽतोऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुचारयितव्यं तवेदं--- Education intol सुगं मे आउसंतेण भगवया एवमक्वायं-इह खलु पोंडरीए णामायणे, तस्स णं अयमट्ठे पण्णत्ते-से जहाणाम पुक्खरिणी सिया बहुउद्गा बहुसेया बहुपुक्खला लट्ठा पुंडरिकिणी पासादिया दरिसणिया अभिरुवा पडिवा, तीसे णं पुक्खरिणीए तत्थ तत्थ देसे देसे तहिं तहि बहवे पडमवरपोंडरीया बुझ्या, अणुपुच्छुट्टिया ऊसिया रुइला वण्णमंता गंधमंता रसमता फासमंता पासादिया दरिसणिया अभिरुवा पडिवा, तीसे णं पुक्खरिणीए बहुमज्झदेसभाए एगे महं पउमवरपोंडरी बुझ्ए, अणुपुव्वुद्विए उस्सिते रुले वनमंते गंधमंते रसमंते फासमंते पासादीए जाव पडिरूवे । सव्वावति च णं तीसे क्खरिणीए तत्थ तत्थ देसे देसे तर्हि तर्हि बहवे पउमवरपोंडरीया बुझ्या अणुपुछुट्टिया ऊसिया रुहला जाव पडिवा, सव्वावति च णं तीसे णं पुक्खरिणीए बहुमज्झदेसभाए एवं महं परमवरपोंडरीए बहुए अणुपुब्बुट्ठिए जाव पडिब्वे ॥ १ ॥ अह पुरिसे पुरित्थिमाओ दिसाओ आगम्म तं पुंक्खरिणीं तीसे For Fasten मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र [०२ ], अंग सूत्र- [ ०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः मूल- सूत्रस्य आरम्भः एते अध्ययने सर्व-सूत्राणि मध्यबद्धः सन्ति, गाथा व पध्यरूपेण न किंचित् अस्ति. ~ 543~ www.ncbrary.org Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [६३४] सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्क न्धे शीलाङ्कीयायां वृत्तो ॥२७०॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [२], निर्युक्तिः [१५७] पुक्खरिणीए तीरे ठिचा पासति तं महं एगं पउमवरपोंडरीयं अणुपुछुट्टियं ऊसियं जाव पडिवं । तए से पुरिसे एवं बयासी - अहमंसि पुरिसे खेयने कुसले पंडिते वियत्ते मेहावी अवाले मग्गत्थे मग्गविऊ मग्गस्स गतिपरकमण्णू अमेयं परमवरपोंडरीयं उन्निक्विस्सामित्तिक इति वुया से पुरिसे अभिकमेति तं पुक्खरिणीं, जावं जावं च णं अभिकमेइ तावं तावं च णं महंते उदए महंते सेए पहीणे तीरं अपत्ते पमवरपोंडरीयं णो हव्वाए णो पाराप, अंतरा पोक्खरिणीए सेयंसि निसण्णे पढने पुरिसजाए ! ॥ २ ॥ अहावरे दोघे पुरिसजाए, अह पुरिसे दक्खिणाओ दिसाओ आगम्म तं पुक्खरिणि तीसे पुक्खरिणी तीरे ठिचा पासति तं महं एवं पउमवरपोंडरीयं अणुपुच्छुट्टियं पासादीयं जाव परुिवं तं च एत्थ एवं पुरिसजातं पासति पहीणतीरं अपत्तपमवरपोंडरीयं णो हब्वाए णो पाराए अंतरा पोक्खरिणीए सेयंसि णिसन्नं, तए णं से पुरिसे तं पुरिसं एवं वयासी-अहो णं इमे पुरिसे अखेयन्ने अकुसले अपंडिए अवियत्ते अमेहावी वाले णो मरगत्थे णो मरगविऊ णो मग्गस्स गतिपरक्कमण्णू जनं एस पुरिसे, अहं खेयने कुसले जाव पडमवरपोंडरीयं उन्निक्खिस्सामि, णो य खलु एवं पउमवरपोंडरीयं एवं उन्निक्लेयवं जहा णं एस पुरिसे मन्ने, अहमंसि पुरिसे खेयने कुसले पंडिए वियत्ते मेहावी अबाले मग्गत्थे मग्गfor मग्गस्स गतिपरकमण्णू अहमेयं पउमवरपोंडरीयं उन्निक्खिस्सामित्तिकहु इति वचा से पुरिसे अ भिक्कमेतं पुक्खरिणि, जावं जावं च णं अभिकमेव तावं तावं च णं महंते उदए महंते सेए पहीणे तीरं Education infamational For Fast Use Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ...... आगमसूत्र [०२] अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ~544~ १ पौण्डरीकाध्य० ॥२७०॥ www.janbrary.org Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [3] दीप अनुक्रम [६३५] Education intemational “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र - २ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [३], निर्युक्ति: [१५७] - अपत्ते उमरपोंडरीयं णो हव्वा णो पाराए अंतरा पोक्खरिणीए सेयंसि जिसने दोघे पुरिसजाने ॥ ३ ॥ अहावरे तचे पुरिसजाते, अह पुरिसे पचत्थिमाओ दिखाओ आगम्म तं क्खरिणिती रिणीए तीरे ठिचा पासति तं एवं महं परमवरपोंडरीयं अणुपुब्बुद्वियं जाब पढिरूवं, ते तत्थ दोन्नि पुरिसजाते पासति पहीणे तीरं अपत्ते पडमवरपोंडरीयं णो हव्वाए णो पाराए जाब सेयंसि णिसन्ने, तर णं से पुरिसे एवं बयासी - अहो णं इमे पुरिसा अखेयन्ना अकुसला अपंडिया अवियत्ता अमेहाची बाला जो मथाणो मग्गवि णो मग्गस्स गतिपरकमण्णू, जं णं एते पुरिसा एवं मन्ने अम्हे एतं पउमरपोंड रीयं उष्णिक्खिस्सामो, नो य खलु एयं परमवरपोंडरीयं एवं उन्निक्वेतव्यं जहा णं एए पुरिसा मन्ने, अहमंसि पुरिसे खेयने कुसले पंडिए वियते मेहावी अवाले मग्गस्थे मग्गबिऊ मग्गस्स गतिपरकमण्णू अहमेयं पउमवरपोंडरीयं उन्निक्खिस्सामित्तिकट्टु इति बुच्चा से पुरिसे अभिक्कमे तं पुक्खरिणि जावं जावं चणं अभिकमे तावं तावं च णं महंते उदर महंते सेए जाव अंतरा पोक्खरिणीए सेयंसि णिसन्ने, तथे पुरिसजाए ॥ (सूत्रं ४) ॥ अहावरे चडत्थे पुरिसजाए, अह पुरिसे उत्तराओ दिसाओ आगम्म तं पुक्खरिर्णि, तीसे पुक्खरिणीए तीरे ठिचा पासति तं महं एवं परमवरपोंडरीयं अणुपुब्बुद्वियं जाव पडिवं, ते तस्थ तिनि पुरिसजाते पासति पहीणे तीरं अपत्ते जाव सेयंसि णिसन्ने, तए णं से पुरिसे एवं बयासी - अहो इमे पुरिसा अत्रेयन्ना जाव णो मग्गस्स गतिपरक्कमण्णू जपणं एते पुरिसा एवं मन्ने अम्हे एवं पउम For Fans Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .....आगमसूत्र -[ ०२ ], अंग सूत्र- [ ०२] "सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ~ 545~ Deseseaseseeeee www.ncbrary.org Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [५], नियुक्ति: [१५७] (०२) सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्कमधेशीलाकीयावृत्तिः ॥२७॥ १ पुण्डरीकाध्य दृष्टान्तः प्रत सूत्रांक वरपोंडरीयं उन्निक्खिस्सामो णो य खलु एयं पउमवरपोंडरीयं एवं उन्निक्खेयव्वं जहा णं एते पुरिसा मन्ने, अहमंसि पुरिसे खेयन्ने जाव मग्गरस गतिपरफमण्णू, अहमेयं पउमवरपोंडरीय उन्निक्खिस्सामित्तिकट्ट इति वुचा से पुरिसे तं पुक्वरिणिं जावं जावं च णं अभिकमे तावं तावं च णं महंते उदए महंते सेए जाव णिसन्ने, चउत्थे पुरिसजाए ॥ (सूत्रं ५)। अह भिक्खू लूहे तीरट्ठी खेयन्ने जाव गतिपरकमण्णू अन्नतराओ दिसाओ वा अणुविसाओ वा आगम्म तं पुक्खरिणं तीसे पुक्खरिणीए तीरे ठिचा पासति तं महं एर्ग पउमवरपोंडरीयं जाव पडिरूवं, ते तत्थ चत्तारि पुरिसजाए पासति पहीणे तीरं अपत्ते जाव पउमवरपोंडरीयं णो हवाए णो पाराए अंतरा पुक्खरिणीए सेयंसि णिसने, तएणं से भिक्खू एवं वपासी-अहोणं इमे पुरिसा अखेयना जाव णो मग्गस्स गतिपरकमण्णू, जं एते पुरिसा एवं मन्ने अम्हे एवं पउमवरपोंडरीयं उन्निक्खिस्सामो, णो य खलु एवं पउमवरपोंडरीयं एवं उनिक्खेतव्यं जहा ण एते पुरिसा मन्ने, अहमंसि भिक्खू लूहे तीरही खेयन्ने जाव मग्गस्स गतिपरक्कमपणू, अहमेयं पउमवरपॉडरीयं उपिणक्खिस्सामित्तिकट्ठ इति बुचा से भिक्खू णो अभिक्कमे तं पुक्खरिणि तीसे पुक्खरिणीए तीरे ठिचा सई कुज्जाउप्पयाहि खलु भो पउमवरपोंडरीया ! उप्पयाहि, अह से उप्पतिते पजमवरपोंडरीए । (सूत्रं ६॥ अस्य चानन्तरसूत्रेण सह सम्बन्धो वाच्यः, स चायं-सि एवमेव जाणह जमई भयंतारो'ति तदेतदेव जानीत भयख त्रातारः, तद्यथा-श्रुतं मयाऽऽयुष्मता भगवतैवमाख्यातम्, आदिसूत्रेण च सह सम्बन्धोऽयं, तद्यथा-यद्भगवताऽऽख्यातं दीप अनुक्रम [६३७] ॥२७१॥ wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: मुनि दीपरत्नसागरेण ~546~ Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [६], नियुक्ति : [१५७] (०२) प्रत सुत्रांक [६] IN मया च श्रुतं तदुध्यतेत्यादिकं, किं तद्भगवताऽऽख्यातमित्याह-'इह' प्रवचने सूत्रकृद्वितीयश्रुतस्कन्धे वा खलुशब्दो चाक्या लङ्कारे पौण्डरीकाभिधानमध्ययनं पौण्डरीकेण-सितशतपत्रेणात्रोपमा भविष्यतीतिकृता, अतोऽस्याध्ययनस्य पौण्डरीकमिति नाम [कृतं, तस्य चायमर्थः, णमिति वाक्यालङ्कारे, 'प्रज्ञप्तः' प्ररूपितः, 'सेजह'त्ति तयथार्थः, स च वाक्योपन्यासार्थः, नामशब्दः सम्भावनायां, सम्भाव्यते पुष्करिणीदृष्टान्तः, पुष्कराणि-पद्यानि तानि विद्यन्ते यस्थामसौ पुष्करिणी 'स्वादु' भवेदेवम्भूता, तद्यथा'बहु' प्रचुरमगाधमुदकं यखां सा बहुदका, तथा बहुः-प्रचुरसीयन्ते-अवबध्यन्ते यसिबसौ सेयः-कर्दमः स यस्यां सा बहुसेया-18 प्रचुरकर्दमा बहुवेतपद्यसद्भावात् खच्छोदकसंभवाच बहुश्वेता वा, तथा 'बहुपुष्कला' बहुसंपूर्णा-प्रचुरोदकभृतेत्यर्थः । तथा लब्धः-प्राप्तः पुष्करिणीशब्दान्वर्थतयाऽर्थो यया सा लब्धार्थी, अथवाऽऽस्थानमास्था-प्रतिष्ठा सा लब्धा यया सा लब्धास्था, तथा पौण्डरीकाणि-श्वेतशतपत्राणि विद्यन्ते यस्यां सा पौण्डरीकिणी, प्रचुरार्थे मबर्थीयोत्पत्तेर्वहुपबेत्यर्थः । तथा प्रसादः-प्रसन्नता | निर्मलजलता सा विद्यते यस्याः सा प्रसादिका प्रासादा वा-देवकुलसनिवेशास्ते विद्यन्ते यस्यां समन्ततः सा प्रासादिका, दर्श नीया शोभना सत्संनिवेशतो वा द्रष्टच्या दर्शनयोग्या, तथाभिमुख्येन सदाऽवस्थितानि रूपाणि-राजहंसचक्रवाकसारसादीनि | गजमहिपमृगयूथादीनि वा जलान्तर्गतानि करिमकरादीनि वा यस्यां साभिरूपेति, तथा प्रतिरूपाणि-प्रतिबिम्बानि विद्यन्ते | यस्यां सा प्रतिरूपा, एतदुक्तं भवति-वच्छखात्तस्याः सर्वत्र प्रतिबिम्बानि समुपलभ्यन्ते, तदतिशयरूपतया वा लोकेन तत्प्रतिबिम्बानि क्रियन्ते(इति) सा प्रतिरूपति, यदिवा-'पासादीया दरिसणीया अभिरूवा पडिरूवत्ति पर्याया इत्येते चखारोऽप्य१ पुष्कलस्तु पूर्ण श्रेष्ठे इत्यनेकार्थोके, बहुनि प्रत्ययः । 200908200809200aesesa दीप अनुक्रम [६३८] Swlanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~547~ Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [६], नियुक्ति: [१५७] (०२) प्रत सूत्रांक कतातिशयरमणीयखख्यापनार्थ पाताः। तस्याष पुष्करिण्याः णमिति वाक्यालकारे 'तत्र तत्रे'त्यनेन चीप्सापदेन पौण्डरीकैर्ध्यापक-18 १ पुण्डरी२ श्रुतस्क- खमाह, 'देशे देशे इत्यनेन खेकैकप्रदेशे प्राचुर्यमाह, 'तस्मिंस्तस्मिन्नित्यनेन तु नास्त्येवासौ पुष्करिण्याः प्रदेशो यत्र तानिन । न्धे शीला-IS सन्तीति, यदिवा-'देशे देशे' इत्येतत्प्रत्येकमभिसम्बध्यते तत्र तत्रेति, कोऽर्थः १-देशे देशे तसिंस्तमिबिति च, कोर्थः १, कीयावृत्तिः| देशैकदेश इति, यदिवा-अत्यादरख्यापनायैकार्थान्येवैतानि त्रीण्यपि पदानि, तेषु च पुष्करिण्याः सर्वप्रदेशेषु बहूनि-प्रचुराणि पमान्येव 'वराणि' श्रेष्ठानि पौण्डरीकाणि पद्मवरपौण्डरीकाणि, पद्मग्रहणं छत्रव्याघ्रव्यवच्छेदार्थ, पौण्डरीकग्रहणं श्वेतशतपत्रत्र-1 ॥२७॥ तिपयर्थ, वरग्रहणमप्रधाननिवृत्त्यर्थ, तदेवम्भूतानि बहूनि पद्मवरपौण्डरीकाणि 'बुइय'चि उक्तानि-प्रतिपादितानि विद्यन्ते इत्वपाः, 'आनुपूर्पण' विशिष्टरचनया स्थितानि, तथोरितानि पङ्कजले अतिलङ्गयोपरि व्यवस्थितानि, तथा 'रुचिः' दीप्तिस्ता । लान्ति-आददति रुचिलानि--सद्दीतिमन्ति, तथा शोभनवर्णगन्धरसस्पर्शवन्ति, तथा प्रासादीयानि-दर्शनीयानि अनि-1 रूपाणि प्रतिरूपाणि । तस्याथ पुष्करिण्याः सर्वतः पयावृतायाः णमिति वाक्यालङ्कारे 'बहुदेशमध्यभागे' निरुपचरितमप| देशे एक महत्पबवरपीण्डरीकमुक्तमानुपूज्येण व्यवस्थितमुचितं रुचिल वर्णगन्धरसस्पर्शवत् तथा प्रासादीय दर्शनीयं अभिरूप तरं प्रतिरूपतिर मिति । साम्प्रतमेतदेवानन्तरोक्तं सूत्रद्वयं 'सब्वावंति च णं ती त्यनेन विशिष्टमपरं सूत्रद्वयं द्रष्टव्यम्, अस्याय मर्थ:--'सब्बावति'त्ति सर्वेस्या अपि तस्याः पुष्करिण्याः सर्वप्रदेशेषु यथोक्तविशेषणविशिष्टानि बहूनि पवानि, तथा सवेस्थाब 1 तस्या बहुमध्यदेशमागे यथोक्तविशेषणविशिष्टं महदेकं पौण्डरीकं विद्यत इति, उभयत्रापि चः समुच्चये, पामिति वाक्यालबारे मिति वाक्याला २७२|| इति ॥१॥ 'अर्थ' अनन्तरमेवम्भूतपुष्करिण्याः पूर्वस्या दिशः कश्चिदेकः पुरुषः समागत्य तो पुष्करिणीं तस्याय 'तीर' वटा दीप अनुक्रम [६३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~548~ Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [६] दीप अनुक्रम [६३८] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [६], निर्युक्ति: [१५७] Education intemational - | स्थिखा तदेतत्पद्मं प्रासादीयादिप्रतिरूपान्तविशेषणकला पोपेतं स पुरुषः पूर्वदिग्भागव्यवस्थितः 'एव' मिति वक्ष्यमाणनीत्या 'वदेत्' त्रूयात् – 'अहमंसि' त्ति अहमस्मि पुरुषः, किम्भूतः १ - 'कुशलो' हिताहितप्रवृत्तिनिवृत्तिनिपुणः, तथा पावाडीमः पण्डितो धर्मज्ञो देशकालज्ञः क्षेत्रज्ञो 'व्यक्तो' बालभावान्निष्क्रान्तः परिणतबुद्धिः 'मेघावी' वनोत्प्लवनयोरुपायज्ञः, तथा 'अबालो' मध्यमवयाः षोडशवर्षोपरिवर्ती 'मार्गस्थः' सद्भिराचीर्णमार्गव्यवस्थितः तथा सन्मार्गज्ञः, तथा मार्गस्थ या गतिर्गुणजं | वर्तते तथा यत्पराक्रमणं - विवक्षितदेशगमनं तज्जानातीति पराक्रमज्ञः, यदिवा - पराक्रमः - सामर्थ्यं तज्ज्ञोऽहमात्मज्ञ इत्यर्थः, तदेव|म्भूतविशेषणकलापोपेतोऽहम् 'एतत् पूर्वोक्तविशेषणकला पोपेतं पद्मवरपौण्डरीकं पुष्करिणीमध्यदेशावस्थितमहमुत्क्षेप्स्यामीतिकले - हागतः 'इति' एतत्पूर्वोक्तं तद् प्रतीत्योक्वाऽसौ पुरुषस्त्रां पुष्करिणीमभिमुखं क्रामेत्-अभिक्रामेत् तदभिमुखं गच्छेत् यावया वश्वासौ तदवतरणाभिप्रायेणाभिमुखं क्रामेत्तावत्तावच्च णमिति वाक्यालङ्कारे तस्याः पुष्करिण्या महदगावमुदकं तथा महाँथ 'सेयः' कर्दमः, ततोऽसौ महाकर्दमोदकाभ्यामाकुलीभूतः प्रहीणः - सद्विवेकेन रहितस्त्यक्ला तीरं सुव्यत्ययाद्वा तीरात्प्रहीणः प्रभ्रष्टः अप्राप्तश्च विवक्षितं पद्मवरपौण्डरीकं तस्याः पुष्करिण्यास्तस्यां वा यः सेयः कर्दमस्तस्मिन्निषण्णो निमन आत्मानमुद्धर्तुमसमर्थः, तस्माच तीरादपि प्रभ्रष्टः, तवस्तीरपद्मयोरन्तराल एवावतिष्ठते, यत एवमत: 'नो हव्वाए'त्ति नार्वाकृतटवर्त्यसी भवति 'नो पाराए'सि नापि विवक्षितप्रदेशप्रात्या पारगमनाय वा समर्थो भवति । एवमसानुभय भ्रष्टो मुक्तमुक्तोलीवदनर्थायैव प्रभवतीत्ययं प्रथमः पुरुषः, पुरुष एव पुरुषजात:- पुरुषजातीय इति ॥ २ ॥ 'अथ' प्रथमपुरुषादनन्तरम् 'अपरो' द्वितीयः पुरुषजातः पुरुष इति । अथवेति वाक्योपन्यासार्थे, अथ कश्वित्पुरुषो दक्षिणादिग्भागादागत्य तां पुष्करिणीं तस्याव पुष्करिण्यास्तीरे स्थिता तत्रस्थ पदयति For Fans Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ~ 549~ www.janbay.org Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [६], नियुक्ति: [१५७] (०२) प्रत सूत्रांक सूत्रकृतारे 18 महदेकं पनवरपौण्डरीकमानुपूर्येण व्यवस्थितं प्रासादीयं यावत्प्रतिरूपम् 'अत्र च' असिंश्च तीरे व्यवस्थितः, तं च पूर्वव्यवस्थि-११ पुण्डरी२श्रुतस्क- तमेकं पुरुष पश्यति, किम्भूतं ?-तीरात्परिभ्रष्टमनवाप्नुपमवरपौण्डरीकमुभयभ्रष्टमन्तराल एवावसीदन्तं, दृष्ट्वा च तमेवमवस्त्रं पुरुष काय. न्धे शीला- ततोऽसौ द्वितीयः पुरुषः तं प्राक्तनं पुरुषमेवं वदेव-'अहो' इति खेदे, सर्वत्र णमिति वाक्यालङ्कारे द्रष्टव्यो, योऽयं कर्दमे नि-8 दृष्टान्त कीयावृतिः भन्नः पुरुषः सोऽखेदज्ञोऽकुशलोऽपण्डितोऽव्यक्तोऽमेधावी बालो न मार्गस्थो नो मार्गनो नो मार्गस गतिपराक्रमज्ञा, अकुशलखादिके । ॥२७॥ कारणमाह-'यद्' यसादेष पुरुष एतत्कृतवान्, तबधा-अहं खेदजः कुशल इत्यादि भणिया पावरपौण्डरीकमुत्क्षेप्यामीत्येवं ।। प्रतिज्ञातवान, न चैतत्पअवरपौण्डरीकम् 'एवम्' अनेन प्रकारेण यथाऽनेनोक्षेनुमारब्धमेवमुत्क्षेप्तव्यं यथाऽयं पुरुषो मन्यत इति ॥18| ततोऽहमेवास्योत्क्षेपणे कुशल इति दर्शयितुमाह-'अहमंसीत्यादि जाव दोचे पुरिसजाए'ति, सुगमं ॥ ३ ॥ तृतीय पुरुषजातमधिकृत्याह-'अहावरे तचे' इत्यादि सुगर्म, यावच्चतुर्थः पुरुषजात इति ॥४-५॥ साम्प्रतमपरं पञ्चमं तद्विलक्षणं पुरुष-101 जातमधिकृत्याह-'अथे' त्यानन्तर्ये, चतुर्थपुरुषादयमनन्तरः पुरुषः तस्यामूनि विशेषणानि-भिक्षणशीलो भिक्षु:-पचनपाचनादिसावधानुष्ठानरहिततया निर्दोषाहारभोजी, तथा 'रुक्षो' रागद्वेषरहितः, तौ हि कर्मबन्धहेतुतया स्निग्धी, यथा हि स्नेहाभा-|| बाद्रजो न लगति तथा रागद्वेषाभावात्कमरेणुर्न लगति, अतस्तद्रहितो रूक्ष इत्युच्यते, तथा-संसारसागरस तीरार्थी, तथा क्षेत्र-181 शः खेदज्ञो वा, पूर्व व्याख्यातान्येव विशेषणानि, यावन्मार्गस्थ गतिपराक्रमज्ञः, स चान्यतरस्या दिशोऽनुदिशो वाऽऽगत्य ता 18| पुष्करिणीं तस्याश्च तीरे स्थिता समन्तादवलोकयन् बहुमध्यदेशभागे तन्महदेकं पद्मवरपौण्डरीकं पश्यति, तांध चतुरः पुरुषान् । .१ पदेदिकर्मकखादन्यं प्रायुधारेऽपि वाक्यस्य कर्मणि द्वितीयाञापि, अयमित्यादिना नामा निर्देशोऽव्य सौव न दोषाय। दीप अनुक्रम [६३८] टि2000 Swjanmiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~550~ Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [६], नियुक्ति: [१५७] (०२) प्रत सुत्रांक ॥ पश्यति, यत्र च व्यवस्थितानिति, किम्भूतान् ?-त्यक्ततीरान् अप्राप्तपद्मवरपुण्डरीकान् पङ्कजलावमग्नान पुनस्तीरमप्यागन्तुमसम-1 AS न् , दृष्ट्वा च तास्तदवस्थान् ततोऽसौ भिक्षुः 'एवं' मिति वक्ष्यमाणनीत्या वदेव, तयथा-अहो इति खेदे णमिति वाक्याल कारे, इमे पुरुषाश्वतारोपि अखेदज्ञा यावनो मार्गस गतिपराक्रमज्ञाः, यसात्ते पुरुषा एवं ज्ञातवन्तो यथा वयं पनवरपौण्डरीक-18 मुनिक्षेप्यामः-उत्खनियामो, न च खलु तत् पोण्डरीकमेवम्-अनेन प्रकारेण यथैते मन्यन्ते तथोत्क्षेप्तव्यं । अपि सहमसि भिक्षु । MRI रूक्षो यावद्गतिपराकमज्ञः, एतद्गुणविशिष्टोऽहमेतत्पोण्डरीकमुत्क्षेप्यामि-उत्खनिष्यामि-समुद्धरिष्यामीत्येवमुक्ताऽसौ 'नाभिका-18|| 18 मेत् ता पुष्करिणी न प्रविशेख, तत्रस्थ एवं यत्कुयोत्तदर्शयति-तस्यास्तीरे स्थिखा तथाविध शब्दं कुर्यात् , तद्यथा-ऊर्ध्वमुत्पतो त्पत, खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे हे पद्मवरपौण्डरीक! तस्याः पुष्करिण्या मध्यदेशात् एवमुत्पतोत्पत, 'अर्थ' तच्छन्दश्रवणादन18न्तरं तदुत्पतितमिति ॥६॥ तदेवं दृष्टान्तं प्रदर्य दाष्टोन्तिकं दर्शयितुकामः श्रीमन्महावीरवर्धमानखामी वशिष्यानाह किहिए नाए समणाउसो!, अहे पुण से जाणितब्बे भवति, भंतेत्ति समणं भगवं महावीरं निग्गंधा य निग्गंधीओ य वंदंति नमसंति वंदेत्ता नमंसित्ता एवं वयासि-किहिए नाए समणाउसो!, अहं पुण से ण जाणामो समणाउसोत्ति, समणे भगवं महावीरे ते य बहवे निग्गंधे य निग्गंधीओ य आमंतेत्ता एवं वयासी-हंत समणाउसो! आइक्खामि विभावेमि कि मि पवेदेमि सअहं सहे सनिमित्तं भुजो भुजो उवदंसेमि से बेमि ॥ (सूत्रं ७)॥ 'कीर्तिते' कथिते प्रतिपादिते मयाऽसिन् 'ज्ञाते' उदाहरणे हे श्रमणा आयुष्मन्तोऽर्थः पुनरस्य ज्ञातव्यो भवति भवन्दिर, एत 600000000 [६] sagacasa99999990sa दीप अनुक्रम [६३८] Swlanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~551~ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [७], नियुक्ति: [१५७] (०२) प्रत सूत्रांक [७] कताले दुक्तं भवति-नास्योदाहरणस्य परमार्थ यूयं जानीथ, एवमुक्ते(का) भगवता ते यहयो निग्रन्था निम्रन्थ्यश्च तं श्रमणं भगवन्तं । पुण्डरी२ श्रुतस्क-18| महावीरं ते निर्ग्रन्थादयो वदन्ते कायेन नमस्पन्ति तत्पः शब्दैः स्तुवन्ति वन्दिखा नमस्थिता चैवं-वक्ष्यमाणं वदेयुः, तद्यथान्धे शीला-18'कीर्तितं' प्रतिपादितं 'ज्ञातम् उदाहरणं भगवता, अर्थ पूनरस्य न सम्यक जानीम इत्येवं पृष्टो भगवान् श्रमणो महावीरस्ता- 18काध्यदा न्तिकदकीयावृत्तिः निर्ग्रन्थादीनेवं वदेत्-'हन्ते'ति संप्रेषणे, हे श्रमणा आयुष्मन्तो! यद्भवद्भिरह पृष्टस्तत्सोपपत्तिकमाख्यामि भवता, तथा 'विभाष- शनाय सं यामि' आविर्भावयामि प्रकटार्थ करोमि, तथा 'कीर्तयामि' पर्यायकथनद्वारेणेति तथा 'प्रवेदयामि' प्रकर्षेण हेतुदृष्टा- ॥२७४॥ बोधनं 18न्तचित्तसंततावारोपयामि, अथकार्थिकानि चैतानि । कथं प्रतिपादयामीति दर्शयति-सहार्थेन- दार्शन्तिकार्थेन वर्तेत इति || साथैः पुष्करिणीदृष्टान्तस्तं, तथा सह हेतुना-अन्वयन्यतिरेकरूपेण वर्तत इति सहेतुस्तं तथाभूतमर्थ प्रतिपादयिष्यामि यथा ते || पुरुषा अप्राप्तप्रार्थिताथों पुष्करिणीकर्दमे दुरुत्तारे निममा एवं वक्ष्यमाणास्तीथिका अपारगाः संसारसागरस्य तत्रै निमजन्ती-|| सेवरूपोऽर्थः सोपपत्तिकः प्रदर्शयिष्यते, तथा सह निमित्तेन-उपादानकारणेन सहकारिकारणेन वा वर्तत इति सनिमिफ-सफा-1 रणं दृष्टान्तार्थे भूयो भूयोऽपररपरैतुरष्टान्तरूपदर्शयामि सोऽहं साम्प्रतमेव ब्रवीमि शृणुत यूयमिति ॥ ७॥ तदधुना भगवान् पूर्वोक्तस्य दृष्टान्तस्य यथाखं दाष्टोन्तिकं दर्शयितुमाह लोयं च खल्लु मए अप्पाहट्ट समणाउसो! पुक्खरिणी बुइया, कम्मं च खलु मए अप्पाहहु समणासो से ॥२७४॥ उदए बुइए, कामभोगे य खलु मए अप्पाहड समणाउसो से सेए बुहए, जणजाणवयं च वस्तु मए अप्पाहहु समणाउसो ! ते बहवे पउमवरपोंडरीए बुइए, रायाणं च खलु मए अप्पाहटु समणाउसोरसे एमे Serserseeeeeeestaese दीप अनुक्रम [६३९] JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~552~ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [८], नियुक्ति: [१५७] (०२) seeseseseeees प्रत सूत्रांक asiseas महं पउमवरपोंडरीए बुइए, अन्नउत्थिया य खलु मए अप्पाहड्ड समणाउसो! ते चत्तारि पुरिसजाया बु. इया, धम्मं च खलु मए अप्पाहटु समणाउसो ! से भिक्खू बुइए, धम्मतित्थं च खलु मए अप्पाहहु समणाउसो! से तीरे बुइए, धम्मकहं च खलु मए अप्पाहड समणाउसो! से सदे बुइए, निव्वाणं च खलु मए अप्पाहटु समणाउसो से उप्पाए बुइए, एवमेयं च खलु मए अप्पाहल समणापसो! से एपमेयं बुइयं ।। (सूत्रं)॥ लोकमिति मनुष्यक्षेत्रं, चशब्द उत्तरापेक्षया समुच्चयार्थः, खलुरिति वाक्यालङ्कारे, मयेत्यात्मनिर्देशः, योज्यं लोको मनुष्याधारस्तमात्मनि 'आहृत्य व्यवस्थाप्य अपाहृत्य वा हे आयुष्मन् ! श्रमण आत्मना वा-मयाऽहत्य न परोपदेशतः, सा पुष्करिणी पद्माधारभूतोक्ता, तथा कर्म चाष्टप्रकारं, यदलेन पुरुषपौण्डरीकाणि भवन्ति तदेवंभूतं कर्म मयाऽऽत्मन्याहृत्य आत्मना वा आह त्य अपाहृत्य वा, एतदुक्तं भवति-हे श्रमण ! आयुष्मन् सर्वावस्थानां निमित्तभूतं कर्माश्रित्य तदुदकं दृष्टान्तसेनोपन्यस्त, कर्म चात्र दाष्टॉन्तिकं भविष्यति, तत्रेच्छामदनकामाः शब्दादयो विषयास्ते एव भुज्यन्त इति भोगाः, पदिका कामा-हळाल्पा मदनकामास्तु भोगास्तान् मयाऽऽत्मन्याहृत्य 'सेयः' कर्दमोऽभिहितः, यथा महति पङ्के निमनो दुःखेनात्मानमुद्धरत्येवं विषयेप्वप्यासको नात्मानमुद्धर्तमलमित्येतत्कदमविषययोः साम्बमिति, तथा 'जन' सामान्येन लोक, तथा जनपदे भवा जानपदा विशिष्टायदेशोत्पन्ना गृह्यन्ते, ते चार्टूपविशतिजनपदोनवा इति, तांश्च समाश्रित्य मया दाान्तिकबेनाङ्गीकृत्य तानि बहूनि | 10 पावरपौण्डरीकाणि दृष्टान्तखेनाभिहितानि, तथा राजानमात्मन्याहस तदेकं पावरपौण्डरीकं दृष्टान्तलेनाभिहितं, तथापती mer दीप अनुक्रम [६४०] 329082908280 JABERatinintamational wlanmiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~553~ Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [८], नियुक्ति: [१५७] (०२) प्रत सूत्रांक [८] सूत्रकृताङ्गेर्थिकान् समाश्रित्य ते चत्वारः पुरुषजाता अभिहिताः, तेषां राजपौण्डरीकोद्धरणे सामर्थ्यवैकल्याव , तथा धर्म च खल्वात्मन्या-18|१ पुण्डरी२ श्रुतस्क- हत्य श्रमणायुष्मन् ! स भिक्षुः रूक्षवृत्तिरभिहितः, तस्यैव चक्रवर्त्यादिराजपावरपौण्डरीकोद्धरणे सामर्थ्यसद्भावात् , धर्मतीर्थ च। काध्य० न्धे शीला खल्याश्रित्य मया तत्तीरमुक्तं, तथा सद्धर्मदेशनां चाश्रित्य मया स भिक्षुसंबन्धी शब्दोऽभिहितः, तथा 'निर्वाणं' मोक्षपदमशेष- उपनयः कीयावृतिः कर्मक्षयरूपमीपतप्रागभाराख्यं भूभागोपर्यवस्थितक्षेत्रखण्डं वाऽऽत्मन्याहृत्य स पनवरपौण्डरीकस्योत्पातोऽभिहित इति । साम्प्रतं ॥२७५॥ समस्तोपसंहारार्थमाह-'एवं' पूर्वोक्तप्रकारेण एतल्लोकादिकं च खल्वात्मन्याहत्य-आश्रित्य मया श्रमणायुप्मन् ! 'से एतपुष्करिण्यादिकं दृष्टान्तत्वेन किश्चित्साधादेवमेतदुक्तमिति ॥ ८॥ तदेवं सामान्येन दृष्टान्तदाान्तिकयोर्योजनां कृत्वाऽधुना 8 | विशेषेण प्रधानभूतराजदार्शन्तिकं [तदुद्धरणार्थत्वात्सर्वप्रयासस्पेति ] दर्शयितुमाह इह खलु पाईणं वा पडीणं वा उदीणं वा दाहिणं वा संगतिया मणुस्सा भवंति अणुपुच्वेणं लोग उचवन्ना, तंजहा-आरिया वेगे अणारिया बेगे उच्चागोत्ता वेगे णीयागोया येगे कायमंता वेगे रहस्समंता बेगे सुवन्ना वेगे दुब्बन्ना बेगे सुरूवा वेगे दुरूवा वेगे, तेसिं च णं मणुयाणं एगे राया भवइ, महयाहिमवंतमलयमंदरमहिंदसारे अचंतविसुद्धरायकुलबसप्पसूते निरंतररायलक्खणविराइयंगमंगे बहुजणबहुमाणपूहए सव्वगुणसमिद्धे खत्तिए मुदिए मुद्धाभिसित्ते माउपिउसुजाए दयप्पिए सीमंकरे सीमंधरे खेमंकरे खेमघरे मणुस्सिंदे जणवयपिया जणवयपुरोहिए सेउकरे केउकरे नरपवरे पुरिसपवरे पुरिससीहे पुरिसआसी१ द्वादशानं शासनं वा । र राजदाान्तिकयोजने हेतुदर्शनाय टोप्पणमिदमित्याभाति । दीप अनुक्रम [६४०] ॥२७५॥ JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~554~ Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [९], नियुक्ति: [१५७] (०२) प्रत सूत्रांक विसे पुरिसवरपोंडरीए पुरिसवरगंधहत्थी अड्ढे दित्ते वित्ते विच्छिन्नविउलभवणसयणासणजाणघाहणाइपणे बहुधणबहुजातरूवरतए आओगपओगसंपउत्ते विच्छड्डियपउरभत्तपाणे बहुदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभूते पडिपुण्णकोसकोडागाराजहागारे बलवं दुव्बल्लपञ्चामित्त ओहयकंटयं निहयकंटयं मलियकंटयं उद्धियकंटयं अकंटयं ओहयसत्तू निहयसत्तू मलियसत्तू उद्धियसत्तू निज्जियसत्तू पराइयसन ववगयदुभिक्खमारिभयविप्पमुफ रायवनओ जहा उववाइए जाव पसंतडिंबडमरं रज पसाहेमाणे विहरति । तस्स णं रन्नो परिसा भवइ-उग्गा उग्गपुत्ता भोगा भोगपुत्ता इक्खागाइ इक्खागाइपुत्ता नाया नायपुत्ता कोरव्वा कोरध्वपुत्ता भट्टा भहपुत्ता माहणा माहणपुत्ता लेच्छह लेच्छइपुत्ता पसत्थारो पसत्यपुत्तासेणावई सेणावइपुत्ता । तेसिं च णं एगतीए सही भवह कामं तं समणा वा माहणा वा संपहारिंसु गमणाए, तत्थ अन्नतरेणं धम्मेणं पन्नत्तारो वयं इमेणं धम्मेणं पन्नवहस्सामो से एवमायाणह भयंतारो जहा भए एस धम्मे सुपक्खाए सुपन्न भवइ, तंजहा-उर्ल्ड पादतला अहे केसग्गमस्थया तिरियं तयपरियंते जीवे एस आयापज्जवे कसिणे एस जीवे जीवति एस मए णो जीवह, सरीरे धरमाणे धरह विणट्ठमि य णो धरह, एयंत जीवियं भवति, आदहणाए परेहिं निजइ, अगणिझामिए सरीरे कबोतवन्नाणि अट्ठीणि भवंति, आसंदीपंचमा पुरिसा गाम पचागच्छंति, एवं असंते असंविजमाणे जेसि तं असंते असंविजमाणे तेर्सि तं सुयक्खायं भवति-अन्नो भवति जीवो अन्नं सरीरं, तम्हा, ते एवं नो विपडिवेदेति-अयमाउसो! ISROcticece sectroeseroeseatest दीप अनुक्रम [६४१] B929020302 JABERatinintamational Swlanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~555~ Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [s] दीप अनुक्रम [६४१] सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्क न्धे शीलाकीयावृत्तिः ॥२७६॥ Education intimational “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [९], निर्युक्ति: [१५७] आया दीहेति वा हस्सेति वा परिमंडलेति वा कति वा तंसेति वा चउरंसेति वा आयतेति वा छलंसिएति वा अहंसेति वा किण्हेति वा णीलेति वा लोहियहालिदे सुकिल्लेति वा सुभिगंधेति वा दुभिगंधेति वा तित्तेति वा कएति वा कसाएति वा अंबिलेति वा महुरेति वा कक्खडेति वा मउएति वा गुरुपति वा लहुएति वा सिएति वा उसिति वा निद्वेति वा लुक्खेति वा, एवं असंते असंविधमाणे जेसिं तं सूयवखायं भवति-अन्नो जीवो अन्नं सरीरं, तम्हा ते णो एवं उबलब्भंति से जहाणामए के पुरसे कोसीओ असं अभिनिव्वहित्ताणं उवदंसेजा अग्रमाउसो ! असी अयं कोसी, एवमेव णत्थि केह पुरिसे अभिनिव्यत्ति णं वसेत्तारो अयमाउसो ! आया इयं सरीरं । से जहाणामए केइ पुरिसे मुंजाश्रो इसियं अभिनिव्वट्टित्ता णं जवदंसेज्जा अयमाउसो ! मुंजे इयं इसियं, एवमेव नत्थि केइ पुरिसे उघसेतारो अयमाउसो ! आया इयं सरीरं । से जहाणामए केइ पुरिसे मंसाओ अट्ठि अभिनिव्वहित्ता णं उवदंसेज्जा अयमाउसो ! मंसे अयं अट्ठी, एवमेव नत्थि केह पुरिसे उवदंसेत्तारो अयमाउसो ! आया इयं सरीरं । से जहाणामए केइ पुरिसे करयलाओ आमलकं अभिनिव्वद्दित्ता णं उवदंसेज्जा अयमाउसो ! करतले अयं आमलए, एवमेव णत्थि केइ पुरिसे उवसेत्तारो अयमाउसो ! आया इयं सरीरं । से जहाणामए केइ पुरिसे दहिओ नवनीयं अभिनिव्वहित्ताणं उदसेज्जा अयमाउसो ! नवनीयं अयं तु दही, एवमेव णत्थि केइ पुरिसे जाव सरीरं । से जहाणामए केइ पुरिसे तिलेहिंतो तिलं अभिनिव्वहिता णं For Full मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ...... आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ~556~ ১৩৬৬°°°°° १ पुण्डरीकाव्यप्र थमपुरुषमतं नास्तिक्यं ॥२७६॥ www.or Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [९], नियुक्ति: [१५७] (०२) प्रत सूत्रांक Secerseasesesersesesesekcperpers उवदंसेजा अयमाउसो! तेल्लं अयं पिनाए, एवमेव जाव सरीरं । से जहाणामए केइ पुरिसे इक्खूतो खोतरसं अभिनिवहित्ता णं उवदंसेजा अयमाउसो ! खोतरसे अयं छोए, एवमेव जाव सरीरं । से जहाणामए केइ पुरिसे अरणीतो अग्गि अभिनिवहिताणं उवदंसेज्जा अयमाउसो! अरणी अयं अग्गी, एवमेव जाव सरीरं । एवं असंते असंविबमाणे जेसिं तं सुयक्खायं भवति, तं० अन्नो जीवो अन्नं सरीरं । तम्हा ते मिच्छा ॥ से हंता तं हणह खणह छणह डहह पयह आलुपह बिलुपह सहसाकारह विपरामुसह, एतावता जीवे णत्थि परलोए, ते णो एवं विप्पडिवेदेति, तं०-किरियाइ वा अकिरियाइ चा सुक्कडेइ वा दुक्कडेइ वा कल्लाणेइ वा पावएइ वा साहुइ वा असाहुइ वा सिद्धीइ वा असिद्धीइ वा निरएइ वा अनिरएइ वा, एवं ते विरूवरूवेहिं कम्मसमारंभेहिं विरूवरूवाई कामभोगाई समारभंति भोयणाए ॥ एवं एगे पागभिया णिक्खम्म मामगं धम्म पन्नवेंति, तं सद्दहमाणा तं पत्तियमाणा तं रोएमाणा साहु सुयक्खाए समणेति वा माहणेति वा कामं खलु आउसो! तुमं पूययामि, तंजहा-असणेण वा पाणेण वा खाइमेण वा साइमेण वा वत्धेण वा पडिग्गहेण वा कंबलेण वा पायपुंछणेण वा तत्थेगे पूयणाए समाउदिसु तत्थेगे पूयणाए निकाइंसु ॥ पुषमेव तेसिं णायं भवति-समणा भविस्सामो अणगारा अकिंचणा अपुत्ता अपसू परदसभोइणो भिक्खुणो पावं कम्मं णो करिस्सामो समुट्ठाए ते अप्पणा अप्पडिविरया भवंति, सयमाइयंति अन्नेवि आदियाति अन्नंपि आयतंतं समणुजाणंति, एवमेव ते इत्थिकामभोगेहिं मुच्छिया गिद्धा दीप अनुक्रम [६४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~557~ Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [९], नियुक्ति: [१५७] (०२) प्रत सूत्रांक सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्कन्धे शीलाकीयावृत्तिः ॥२७७|| [१] गढिया अज्झोववन्ना लुद्धा रागदोसवसहा, ते णो अप्पाणं समुच्छेदेति ते णो परंसमुच्छेदेति तेणो अण्णाई १ पुण्डरीपाणाई भूताई जीवाई सत्ताई समुच्छेदेंति, पहीणा पुवसंजोगं आयरिषं मग्गं असंपत्ता इति ते णो हवाए तणावाए | काध्यतणो पाराए अंतरा कामभोगेसु विसन्ना इति पढमे पुरिसजाए तज्जीवतच्छरीरएत्ति आहिए ॥ सूत्रं ९॥ 'इह' असिन्मनुष्यलोके, खलुवाक्यालङ्कारे, इहालिन् लोके प्राच्या प्रतीच्या दक्षिणायामुदीच्यामन्यतरस्यां वा दिशिरीरवादी |'सन्ति' विद्यन्ते एके केचन तथाविधा मनुष्याः आनुपूपेणेमं लोकमाश्रित्योत्पन्ना भवन्ति । तानेबानुपूर्येण दर्शयति'तयथे' त्युपन्यासार्थः, आराद्याताः सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यार्याः, तत्र क्षेत्रायों अर्धपशितिजनपदोत्पन्नाः, तव्यतिरिक्तास्वनार्या । | एके केचन भवन्ति, ते चानार्यक्षेत्रोत्पन्ना अमी द्रष्टव्या, तद्यथा-सगजवणसबरबब्बर कायमुरुंडोडगोडपकणिया । अरबाग-1 | होणरोमय पारसखसखासिया चेव ॥१॥ डोंबिलयलउसबोकस भिल्लंधपुलिंदकोंचभमररुया । कोंचा व चीणचंचुयमालव | दमिला कुलग्या य ।। २॥ केकयकिरायहयमुहखरमुह तह तुरगमेंढयमुहा य । हयकण्णा गयकण्णा अण्णे य अणारिया बहवे ॥1 ॥॥३॥ पावा य चंडदंडा अणारिया णिग्षिणा णिरणुकंपा । धम्मोत्ति अक्खराई जेण ण णअंति मुमिणेवि ॥ ४॥ इत्यादि ।। तथोचैर्गोत्रम्-इक्ष्वाकुवंशादिकं येषां ते तथाविधा एके केचन तथाविधकोदयवर्तिनः, वाशब्द उत्तरापेक्षया विकल्पार्थः तथा 8 ॥२७७॥ |'नीचैगोनं' सर्वजनावगीतं येषां ते तथा एके केचन नीचैर्गोत्रोदयवर्तिनी, न सर्वे, वाशब्दः पूर्ववदेव, ते चोथैर्गोत्रा नीचेर्गोत्रावा। 18|| कायो-महाकायः प्रांशुखं तद्विद्यते येषां ते कायवंतः, तथा 'हखवन्तो वामनककुजवडभादय एके केचन तथाविधनामकर्मोदयवर्तिनः, तथा शोभनवों: सुवर्णाः-प्रतप्तचामीकरचारुदेहाः, तथा दुर्वर्णाः-कृष्णरूक्षादिवर्णा एके केचन, तथा मुरूपा: दीप अनुक्रम [६४१] Hiralanmitrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~558~ Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [६४१] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [९], निर्युक्ति: [१५७] Education intamational - सुविभक्तावयव चारुदेहाः, तथा दुष्टरूपा दुरूपा बीभत्सदेहाः, तेषां चोबेगोत्रादिविशेषणविशिष्टानां महान् कश्विदेवैकस्तथाविधकर्मोदयाद्राजा भवति, स विशेष्यते - महाहिमवन्मलयमन्दरमहेन्द्राणामिव सारः - सामर्थ्यं विभवो वा यस्य स तथा इत्येवं | राजवर्णको यावदुपशान्तडिम्बडमरं राज्यं प्रसाधयंस्तिष्ठतीति, तत्र डिम्बः परानीकशृगालिको डमरं - स्वराष्ट्रक्षोभः, पर्यायौ वैतावत्यादूरख्यापनार्थमुपात्तौ इति । तस्य चैवंविधगुणसंपदुपेतस्य राज्ञ एवंविधा पर्षद्भव [ती] ति, तद्यथा - उग्रास्तत्कुमाराचोग्रपुत्राः, | एवं भोग भोगपुत्रादयोऽपि द्रष्टव्याः, शेषं सुगमं, यावत्सेनापतिपुत्रा इति, णवरं 'लेच्छइ'नि लिप्सुकः स च वणिगादिः, तथा प्रशास्तारो — बुद्ध्युपजीविनो मन्त्रिप्रभृतयः तेषां च मध्ये कश्विदेवैकः श्रद्धावान् धर्मलिप्सुर्भवति, 'काम' मित्यवधृतार्थेऽवधृतमेतयथाऽयं धर्मश्रद्धालुः, अवधार्य च तं धर्मलिप्सुतया श्रमणा ब्राह्मणा वा 'संप्रधारितवन्तः' समालोचितवन्तो धर्मप्रतिबोधनिमित्तं वदन्तिकगमनाय तत्र चान्यतरेण धर्मेण-खसमयप्रसिद्धेन प्रज्ञापयितारो वयमित्येवं नाम संप्रधार्य तं राजानं स्वकीयेन धर्मेण | प्रज्ञापयिष्याम एवं संप्रधार्य राशोऽन्तिकं गलैवमूचुः, तद्यथा - एतद्यथाऽहं कथयिष्यामि 'एव' मिति च वक्ष्यमाणनीत्या | भवन्तो-यूयं जानीत भयात्रातारो वा 'यथा' येन प्रकारेण मयैष धर्मः स्वाख्यातः सुप्रज्ञप्तो भवतीति । एवं तीर्थिकः खदर्शना| नुरञ्जितोऽन्यस्यापि राजादेः स्वाभिप्रायेणोपदेशं ददाति ॥ तत्राद्यः पुरुषजातस्तज्जीवतच्छरीरवादी राजानमुद्दिश्यैवं धर्मदेशनां चक्रे, तद्यथा- 'ऊर्ध्वम्' उपरि पादतलादधश्च केशाग्रमस्तकातिर्यक् च तपर्यन्तो जीवः, एतदुक्तं भवति-यदेवैतच्छरीरं स एव जीवो, नैतस्माच्छरीराद्व्यतिरिक्तोऽस्त्यात्मेत्यतस्तत्प्रमाण एव भवत्यस्तै, इत्येवं च कलैप आत्मा योऽयं कायोऽयमेव च तस्यात्मनः १ राजान्तिकं प्र०२ एतचाहं प्र०३ कथयामि प्र० । For Patines Use Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ~559~ www.incibrary.org Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [s] दीप अनुक्रम [६४१] सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्कन्धे शीलाकीयावृति: ॥२७८॥ “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [९], निर्युक्ति: [१५७] Education infamational - पर्यवः 'कृत्स्नः' संपूर्णः 'पर्याय' अवस्थाविशेषः, तस्मिंश्च कायात्मन्यवाप्ते तदव्यतिरेकाजी वोऽप्यवाप्त एव भवति, एष च कायो यावन्तं कालं जीवेद्-अविकृत आस्ते तावन्तमेव कालं जीवोऽपि जीवतीत्युच्यते, तदव्यतिरेकात्, तथैव कायो यदा 'मृतो' विकारभाग्भवति तदा जीवोऽपि न जीवति, जीवशरीरयोरेकात्मकत्वात् यावदिदं शरीरं पञ्चभूतात्मकमव्यङ्गं चरति तावदेव जीवोऽपीति, तमिंश्च विनष्टे सति - एकस्यापि भूतस्यान्यथाभावे विकारे सति जीवस्थापि तदात्मनो विनाशः, तदेवं यावदेतच्छरीरं | वातपित्तश्लेष्माधारं पूर्वस्वभावादप्रच्युतं तावदेव तज्जीवस्य जीवितं भवति, तसिंव विनष्टे तदात्मा जीवोsपि विनष्ट इतिकृत्वा 'आदहनाय ' आसमन्ताद्दहनार्थं श्मशानादौ नीयते यतोऽसौ तसिश्च शरीरेऽग्निना ध्मापिते कपोतवर्णान्यस्थीनि केवलमुपलभ्यन्ते न तदतिरिक्तोऽपरः कविद्विकारः समुपलभ्यते यत आत्मास्तिखशङ्का स्यात् ते च तद्वान्धवा जघन्यतोऽपि चलारः आसन्दीमञ्चकः स पश्चमो येषां ते आसन्दीपश्चमाः पुरुषास्तं कायमनिना ध्मापयिता पुनः स्वग्रामं प्रत्यागच्छन्ति यदि पुनस्तत्रामा | निजशरीराद्भिन्नः स्याचतः शरीरान्निर्गच्छन् दृश्येत, न चोपलभ्यते, तस्माचज्जीवस्तदेव शरीरमिति स्थितं । तदेवमुक्तनीत्याऽसौ जीवोऽसन्- अविद्यमानस्तत्र तिष्ठन् गच्छंश्च 'असंवेद्यमानः' अननुभूयमानः येषामयं पक्षस्तेषां तत्खाख्यातं भवति, येषां पुनरन्यो जीवोऽन्यच्छरीरमेवंभूतोऽप्रमाणक एवाभ्युपगमः, तमांचे स्वमूढ्या प्रवर्तमाना 'एव' मिति वक्ष्यमाणं तेनैव 'विप्रतिवेदयन्ति' जानन्ति तद्यथा-अयमात्माऽऽयुष्मन् ! शरीराद्वहिरभ्युपगम्यमानः किंप्रमाणकः स्यादिति वाच्यं तत्र किं दीर्घः खशरीरात्प्रांशुतरः उत हस्वः- अङ्गुष्ठश्यामा कतण्डुलादिपरिमाणो वा ?, तथा संस्थानानां परिमण्डलादीनां मध्ये किंसंस्थानः १, तथा १०रात्मानिज० प्र० For Fans Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ~560~ १ पुण्डरीकाव्य० त जीवतच्छ रीरवादी ॥२७८॥ www.ncbrary.org Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [९], नियुक्ति: [१५७] (०२) प्रत सूत्रांक कृष्णादीनां वर्णानां मध्ये कतमवर्णवर्ती ?, तथा द्वयोर्गन्धयोर्मध्ये किंगन्धः?, पण्णां रसानां मध्ये कतमरसवती ?, तथाऽष्टानां स्प| शानां मध्ये कतमे स्पर्शे वर्तते । तदेवं संस्थानवर्णगन्धरसस्पर्शान्यरूपतया कथमप्यसावगृह्यमाणोऽसन्नसी, तथापि केनापि प्रकारेण संवेद्यमानोऽपि येषां तत्स्थाख्यातं भवति यथाऽन्यो जीवोऽयच्छरीरकमित्ययं पक्षः, तसात्पृथगविद्यमानसाचे शरीरात्पृथगात्म-10 वादिनो नैव वक्ष्यमाणनीत्याऽऽत्मानमुपलभन्ते ।। तयथा नाम कश्चित्पुरुषः 'कोशतः परिवारादू 'अर्सि' खड्गम् 'अभिनिवेत्ये 18 समाकृष्पान्येषामुपदर्शयेत् , तद्यथा-अयमायुष्मन् ! 'असिः खगोऽयं च 'कोश' परिवारः, एवमेव जीवशरीरयोरपि नास्त्युपदशयिता, तद्यथा-अयं जीव इदं च शरीरमिति, न चास्त्येवमुपदर्शयिता कश्चिद् अतः कायान्न भिन्नो जीव इति । असिंश्चार्थे । बहवो दृष्टान्ताः सन्तीत्यतो दर्शयितुमाह-तद्यथा वा कश्चित्पुरुषो 'मुन्नात् तृणविशेषात् 'इसिय'ति तद्गर्भभूतां शलाका पृथ-18 कृत्य दर्शयेत् , तथा मांसादस्थि तथा करतलादामलकं तथा दनो नवनीतं तिलेभ्यस्तैलं इति तथेक्षो रस तथाऽरणितोऽग्निमभिनिवैसे-पृथकृत्य दर्शयेद, एवमेव शरीरादपि जीवमिति, न चास्त्येवमुपदर्शयिताऽतोऽसनात्मा शरीरात्पृथगसंवेद्यमानश्चेति ।। प्रयोगश्चात्र-सुखदुःखभाक् परलोकानुयायी नास्त्यात्मा, तिलशश्छिद्यमानेऽपि शरीरके पृथगनुपलब्धेः, घटात्मवत् , व्यतिरेकेण च कोशखगवत् , तदेवं युक्तिभिः प्रतिपादितेऽप्यात्माभावे येषां पृथगात्मवादिना खदर्शनानुरागादेतत्स्वाख्यातं भवति, तद्यथा-अन्यो जीवः परलोकानुयायी अमूर्तः, अन्यच्च तद्भववृत्ति मूर्तिमच्छरीरम् , एतच्च पृथङ् नोपलभ्यते तसाचन्मिध्या लयकैश्चिदुच्यते यथाऽस्त्यात्मा परलोकानुयायीति ॥ एतदध्यवसायी च 'स' लोकायतिका खतः प्राणिनामेकेन्द्रियादीनां दीप अनुक्रम [६४१] Reseree wjanmiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~561~ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [s] दीप अनुक्रम [६४१] सूत्रकृताने २ श्रुतस्क न्धे शीलाकीयावृत्तिः ॥२७९॥ “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [९], निर्युक्ति: [१५७] Education intimational - 'हन्ता' व्यापादको भवति, प्राणातिपाते दोषाभावमभ्युपगम्यान्येषामपि प्राण्युपघातकारिणामुपदेशं ददाति, तद्यथा-प्राणिनः खड्गादिना घातयत, पृथिव्यादिकं खनतेत्यादि सुगमं यावद 'एतावानेव' शरीरमात्र एव जीवः, ततः परलोकिनोऽभावान्नास्ति परलोकः, तदभावाच्च यथेष्टमासत (ध्वं ), तथा चोक्तम् - "पिब खाद च साधु शोभने !, यदतीतं वरगात्रि ! तव ते । न हि भीरु ! गतं निवर्तते, समुदयमात्रमिदं कलेवरम् ||१||" तदेवं परलोकयायिनो जीवस्याभावान्न पुण्यपापे स्तः नापि परलोक इत्ययं येषां पक्षस्ते लोकायतिकास्तज्जीवतच्छरीरवादिनो नैवेतद्वक्ष्यमाणं विप्रतिवेदयन्ति-अभ्युपगच्छन्ति, तद्यथा क्रियां वा सदनुष्ठा| नात्मिकाम् अक्रियां वा-असदनुष्ठानरूपाम्, एवं नैव ते विप्रतिवेदयन्ति, यदि हि आत्मा तत्क्रियावाप्तकर्मणो भोक्ता स्थातोऽ| पायभयात्सदनुष्ठानचिन्ता स्यात्, तदभावाच्च सत्क्रियादिचिन्ताऽपि दूरोत्सादितैव । तथा सुकृतं दुष्कृतं वा कल्याणमिति वा | पापमिति वा साधु कृतमसाधु कृतमित्यादिका चिन्तैव नास्ति, तथाहि सुकृतानां कल्याणविपाकिनां साधुतयाऽवस्थानं दुष्क| तानां च पापचिपा किनामसाधुलेनावस्थानम्, एतदुभयमपि सत्यात्मनि तत्फलभ्रुजि संभवति, तदभावाच्च कुतोऽनर्थको हिताहितप्राप्तिपरिहारौ स्यातां ?, तथा सुकृतेन- कल्याणेन साध्वनुष्ठानेनाशेषकर्मक्षयरूपा सिद्धिस्तद्विपर्ययेणासिद्धिः, तथा दुष्कृतेन-पा पानुबन्धिना असाध्वनुष्ठानेन नरकोऽनरको वा तिर्यक्रनरामरगतिलक्षणः स्यादित्येवमात्मिका चिन्तैव न भवेत्, तदाधारस्यात्म सद्भावस्थानभ्युपगमादिति भावः । पुनरपि लोकायतिकानुष्ठानदर्शनायाह- 'एवं ते' इत्यादि 'एवम्' अनन्तरोक्तेन प्रकारेण तेनास्तिका आत्माभावं प्रतिपद्य विरूपं नानाप्रकारं रूपं स्वरूपं येषां ते तथा कर्मसमारम्भाः- सावधानुष्ठानरूपाः पशुघातमां| सभक्षणसुरापान निर्लाञ्छनादिकास्तैरेवंभूतैर्नानाविधैः कर्मसमारम्भः कृषीवलानुष्ठानादिभिर्विरूपरूपान् कामभोगान् 'समारभ For Fans at Use Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ...... आगमसूत्र [०२] अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ~ 562~ १ पुण्डरीकाध्य० त जीवतच्छरीवादी ॥२७९ ॥ www.pincibrary.org Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [६४१] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [९], निर्युक्ति: [१५७] Education intimation - न्ते' समाददति तदुपभोगार्थमिति । साम्प्रतं तजीवतच्छरीरवादिमतमुपसंजिघृक्षुः प्रस्तावमारचयन्नाह – 'एवं चेग' इत्यादि, | मूर्तिमतः शरीरादन्यदमूर्त ज्ञानमात्मन्यनुभूयते, तस्य चामूर्तेनैव गुणिना भाव्यम्, अतः शरीरात्पृथग्भूत आत्मा मूर्ती ज्ञानवत् | तदाधारभूतोऽस्तीति न चात्माभ्युपगममन्तरेण तञ्जीवतच्छरीरवादिनः कथञ्चिद्विचार्यमाणं मरणमुपपद्यते, दृश्यन्ते च तथाभूत | एव शरीरे म्रियमाणा मृताच, तथा कुतः समागतोऽहं कुत्र चेदं शरीरं परित्यज्य यास्यामि ?, तथा 'इदं मे शरीरं पुराणं कर्मेत्येवमादिकाः शरीरात्पृथग्भावेनात्मनि संप्रत्यया अनुभूयन्ते तदेवमपि स्वानुभवसिद्धेऽप्यात्मनि एके केचन नोस्तिकाः पृथग्जीवास्तित्वमश्रद्दधानाः 'प्रागल्भिकाः प्रागल्भ्येन चरन्ति पृष्टतामापना अभिदधति यद्ययमात्मा शरीरात्पृथग्भूतः स्वात् ततः संस्था|नवर्णगंधरसस्पर्शान्यतमगुणोपेतः स्यात् न च ते वराकाः स्वदर्शनानुरागाच तमसावृतदृष्टय एतद्विदन्ति यथा - मूर्तस्यायं धर्मो नामूर्तस्य, न हि ज्ञानस्य संस्थानादयो गुणाः संभाव्यन्ते, न च तत्तदभावेऽपि नास्ति, इत्येवमात्मापि संस्थानादिगुणरहितोऽपि विद्यत इति एवं युक्तियुक्तमप्यात्मानं धार्थ्यानाभ्युपगच्छन्ति । तथा 'निष्क्रम्य' च स्वदर्शन विहितां प्रवज्यां गृहीला नान्यो जीवः शरीराद्विद्यत इत्येवं यो धर्मो मदीयोऽयमित्येवमभ्युपगम्य स्वतोऽपरेषां च तं तथाभूतं धर्मं प्रतिपादयन्ति । यद्यपि लोकायतिकानां नास्ति दीक्षादिकं तथाऽप्यपरेण शाक्यादिना प्रव्रज्याविधानेन प्रव्रज्य पश्चाल्लोकायतिकमधीयानस्य (नानां) तथाविधपरिण | तेस्तदेवाभिरुचितम् अतो मामकोऽयं धर्मः (इति) स्वयमभ्युपगच्छन्त्यन्येषां च प्रज्ञापयन्ति, यदिवा - नीलपटाद्यभ्युपगन्तुः कविदस्त्येव प्रव्रज्याविशेष इत्यदोष इति । सांप्रतं तत्प्रज्ञापितशिष्यव्यापारमधिकृत्याह-'तं सद्दहमाणे'त्यादि, 'तं' नास्तिकवाद्युप१ ये मण्डलवादिकाः प्र० । Forest Use Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ~ 563~ www.jancibrary.org Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [६४१] सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्कन्धे शीलाश्रीयावृत्तिः ॥ २८० ॥ “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [९], निर्युक्ति: [१५७] Education intemattomal - न्यस्तं धर्मं विषयिणामनुकूलं 'श्रद्दधानाः' स्वमतावतिशयेन रोचयन्तः तथा 'प्रतिपादयन्तः' अवितथभावेन गृहन्तः तथा तत्र | रुचि कुर्वन्तः तथा साधु - शोभनमेतद्यत् यथा वाख्यातो यथावस्थितो भवता धर्मोऽन्यथाऽसति हिंसादिष्ववर्त्तमानाः परलोकभयात्सुखसाधनेषु मांसमयादिष्वप्रवृत्तिं कुर्वन्तो मनुष्यजन्मफलवश्चिता भवेयुः, ततः शोभनमकारि भवता हे श्रमण ! ब्राह्मण ! इति वा यदयं तजीवतच्छरीरधर्मोऽसाकमावेदितः, काममिष्टमेतदस्माकं धर्मकथनं, खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे, हे आयुष्मंस्त्वया वयमभ्युद्धृताः अन्यथा कापटिकैस्ती थिंकर्वञ्चिताः स्युरि (स्वामे) ति, तस्मादुपकारिणं 'त्या' भवन्तं पूजयामः, अहमपि कश्चिदायुष्मतो भवतः प्रत्युपकारं करोमि । तदेव दर्शयति तद्यथा 'असणेणे'त्यादि सुगमं यावत्पादपुञ्छन कमि (केने) ति । तत्रैके केचन पूर्वोक्तया पूजया पूजायां वा 'समाउहिंसुति समावृत्ताः - प्रहीभूतास्ते राजानः पूजां प्रति प्रवृत्ताः, तदुपदेष्टारो वा पूजामध्युपपन्नाः सन्तस्तं राजादिकं स्वदर्शनप्रतिपन्नमेके केचन स्वदर्शन स्थित्या हिताहितप्राप्तिपरिहारेषु 'निकाचितवन्तो' नियमितवन्तः तथाहिभवतेद् तञ्जीवतच्छरीरमित्यभ्युपगन्तव्यम्, अन्यो जीवोऽन्यच शरीरमित्येतच्च परित्याज्यम्, अनुष्ठानमपि एतदनुरूपमेव विधेयमित्येवं निकाच्चितवन्त इति । तत्र ये भागवतादिकं लिङ्गमभ्युपगताः पथालोकायत ग्रन्थश्रवणेन लोकायताः संवृत्तास्तेषां 'पूर्वम्' आदौ प्रव्रज्याग्रहणकाल एवैतत्परिज्ञातं भवति, तद्यथा परित्यक्तपुत्र कलत्राः 'श्रमणा' यतयो भविष्यामः 'अनगारा' गृहरहिताः तथा 'निष्किञ्चनाः' किञ्चनं द्रव्यं तद्रहिताः तथा 'अपशवो' गोमहिष्यादिरहिताः, परदत्तभोजिनः स्वतः पचनपाचनादिक्रियारहितलात्, भिक्षणशीला भिक्षवः, कियद्रक्ष्यते अन्यदपि यत्किञ्चित्पापं सावयं कर्मानुष्ठानं तत्सर्वं न करिष्यामी ( मइ ) १०यथाप्र० । For Funny मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ~564~ statse Rece १ पुण्डरी काध्य०तजीवतच्छरीवादी ॥२८०॥ www.ncbrary.org Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [९], नियुक्ति: [१५७] (०२) प्रत सुत्रांक [९] 18| त्येवं सम्यगुत्थानेनोत्थाय पूर्व पश्चाचे लोकायतिकभावमुपगता आत्मनः-स्वतः पापकर्मभ्योअतिविरता भवन्ति, पिरत्यभावे च || यत्कुर्वन्ति तदर्शयति --पूर्व सावद्यारम्भानिवृत्ति विधाय नीलपटादिकं च लिङ्गमास्थाय स्वयमात्मना सावधमनुष्ठानमाददते| खीकुर्वन्ति अन्यानप्यादापयन्ति-ग्राहयन्त्यन्यमप्पाददानं-परिग्रहं खीकुर्वन्तं समनुजानन्ति । एवमेव-पूर्वोक्तप्रकारेण स्त्रीप्र धानाः खियोपलक्षिता वा काम्यन्त इति कामा भुज्यन्त इति भोगास्तेषु सातबहुलतयाजितेन्द्रियाः सन्तस्तेषु कामभोगेषु मूच्छिता| एकीभावतामापना गृद्धाः-कालावन्तो ग्रथिता-अवबद्धा अध्युपपन्ना-आधिक्येन भोगेषु लुब्धा रागद्वेषा(पवशा)तों-रागद्वे पवशगाः कामभोगान्धा वा, त एवं कामभोगेषु अवबद्धाः सन्तो नात्मानं संसारास्कर्मपाशाद्वा समुच्छेदयन्ति-मोचयन्ति, नापि परं | सदुपदेशदानतः कमेपाशावपाशितं समुच्छेदयन्ति-कर्मबन्धात्रोटयन्ति, नाप्यन्यान् दशविधप्राणवर्तिनःप्राणान्-प्राणिना, तथा अ भूवन् भवन्ति भविष्यन्ति च भूतानि तथा आयुष्कधारणाजीवास्तान् तथा सत्यास्तथाविधवीर्यान्तरायक्षयोपशमापादितवीर्यगुणोपे|| तास्तान् न समुच्छेदयन्ति, असदभिप्रायप्रवृत्तखान , ते चैवंविधास्तजीवतच्छरीवादिनो लोकायतिका अजितेन्द्रियतया कामभोगा-18| वसक्ताः पूर्वसंयोगात्-पुत्रदारादिकात्यहीणा:-प्रभ्रष्टा आराधातः सर्वहेयधर्मभ्य इत्यार्यों मार्गः-सदनुष्ठानरूपस्तमसंप्राप्ता इति, एवं पूर्वोक्तया नीत्या ऐहिकामुष्मिकलोकदयसदनुष्ठानभ्रष्टा अन्तराल एव भोगेषु विषण्णास्तिष्ठन्ति, न विवक्षितं पीण्डरीकोत्क्षेप| गादिक कार्य प्रसाधयन्तीति । अयं च प्रथमः पुरुषस्तजीवतच्छरीरवादी परिसमाप्त इति ।। प्रथमपुरुषानन्तरं द्वितीयं पुरुषजात| मधिकृत्याह अहावरे दोचे पुरिसजाए पंचमहब्भूतिएत्ति आहिज्जइ, इह खलु पाइणं वा ६ संतेगतिया मणुस्सा, भवंति दीप अनुक्रम [६४१] JABERatinintamational Siwanmiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~565~ Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [१०] दीप अनुक्रम [६४२] सूत्रकृताने २ श्रुतस्कन्धे शीलाडीयावृत्तिः ॥२८१॥ Education infamational “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [-], मूलं [१०], निर्युक्ति: [१५७] अणुपुत्रेणं लोयं उबवन्ना, तंजहा आरिया वेगे अणारिया वेगे एवं जाव दुरूवा वेगे, तेसिं चणं महं एगे राया भवइ महया एवं चैव णिरवसेसं जाव सेणावइपुत्ता, तेसिं च णं एगतिए सट्टा भवंति कामं तं समणा य माहणा य पहारिंसु गमणाए तत्थ अन्नयरेणं धम्मेणं पनसारो वयं इमेणं धम्मेणं पनवइस्सामो से एवमायाह भयंतारो ! जहा मए एस धम्मे सुअक्खाए सुपन्नन्ते भवति । इह खलु पंख महम्भूता, जेहिं नो विज किरियाति वा अकिरियाति वा सुकडेति वा दुकडेति वा कल्लाणेति वा पावएति वा साहुति वा असाहुति वा सिद्धीति वा असिद्धीति वा णिरएति वा अणिरएति वा अवि अंतसो तणमायमवि । तं च पिद्देसेणं पुढोभूतसमवातं जाणेज्जा, तंजहा पुढवी एगे महम्भूते आऊ दुच्चे महम्भूते तेऊ तचे महन्भूते बाऊ चत्थे महन्भूते आगासे पंचमे महभूते, इचेते पंच महन्भूया अणिम्मिया अणिम्माविता अकडा णो कित्तिमा णो कडगा अणाइया अणिहणा अवंझा अपुरोहिता सतंता सासता आयछढा, पुण एगे एवमाह-सतो णत्थि विणासो असतो णत्थि संभवो ॥ एतावताव जीवकाए, एताबनाव अस्थिकाए, एतावताव सङ्घलोए, एवं मुहं लोगस्स करणयाए, अवियंतसो तणमायमवि ॥ से किणं किणावेमाणे हणं धायमाणे पर्यं पयावेमाणे अवि अंतसो पुरिसमवि कीणित्ता घायइत्ता एत्थंपि जाणाहि त्थिदोसो, ते णो एवं विप्पडिवेदेति, तंजहा - किरियाह वा जावऽणिरएह वा, एवं ते विरूवरूवेहिं १ एवं प्र० । Forsy मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ...... आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ~566~ १ पुण्डरीकाध्य० भौतिकसाश्री ww ॥२८१ ॥ Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [१०] दीप अनुक्रम [६४२] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [-], मूलं [१०], निर्युक्ति: [१५७] Education intemational - कम्मसमारंभेहिं विख्वरूवादं कामभोगाई समारभंति भोषणाए, एवमेव ते अणारिया विप्पधिन्ना तं सहमाणा तं पत्तियमाणा जाव इति, ते णो हवाए णो पाराए, अंतरा कामभोगेसु विसण्णा, दोघे पुरिसजाए पंचमहन्भूतिएत्ति आहिए ॥ सूत्रं १० ॥ अथशब्द आनन्तर्यार्थे, प्रथमपुरूषानन्तरमपरो द्वितीयः पुरुष एव पुरुषजातः पश्चमि (भूतैः ) पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशाख्यैअरति पञ्चभूतिकः पञ्च वा भूतानि अभ्युपगमद्वारेण विद्यन्ते यस्य स पञ्चभूतिको, मार्थीयष्टक् स च सांख्यमतावलम्बी | आत्मनस्तृणकुनीकरणेऽप्यसामर्थ्याभ्युपगमात् भूतात्मिकायाश्च प्रकृतेः सर्वत्र कर्तृसाभ्युपगमात् द्रष्टव्यो, लोकायतमतावलम्बी वा नास्तिको भूतव्यतिरिक्तनास्तिखाभ्युपगमादाख्यायते, प्रथमपुरुषादनन्तरमयं पश्चभूतात्मवाद्यभिधीयते चेति । अत्र च प्रथमपुरुषगमेन 'इह खलु पाइणं वेत्यादिको ग्रन्थः सुपण्णत्ते भवतीत्येतत्पर्यवसानोऽवगन्तव्य इति ॥ सांप्रतं सांख्यस्य लोकाय| तिकस्य चाभ्युपगमं दर्शयितुमाह- 'इह' अस्मिन् संसारे द्वितीयपुरुषवक्तव्यताधिकारे वा, खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे, पृथिव्यादीनि पञ्च महाभूतानि विद्यन्ते, महान्ति च तानि भूतानि च महाभूतानि तेषां च सर्वव्यापितयाऽभ्युपगमात् महत्त्वं, तानि च पञ्चैव, अपरस्य पष्ठस्य क्रियाकर्तृलेनानभ्युपगमात् यैर्हि पञ्चभिर्भूतैरप्युपगम्यमानैः 'नः' अस्माकं क्रिया परिस्पन्दात्मिका चेष्टारूपा | क्रियते अक्रिया वा निर्व्यापाररूपतया स्थितिरूपा क्रियते, तथाहि तेषां दर्शनं सत्त्वरजस्तमोरूपा प्रकृतिर्भूतात्मभूताः सर्वा | अर्थक्रियाः करोति, पुरुषः केवलमुपभुझे, 'बुद्ध्यध्यवसितमर्थं पुरुषश्वेतयते' इति वचनात् बुद्धिश्व प्रकृतिरेव तद्विकारत्वात्, तस्याश्च प्रकृतेर्भूवात्मिकायाः सत्त्वरजस्तमसां चयापचयाभ्यां क्रियाक्रिये स्वातामितिकृला भूतेभ्य एव क्रियादीनि प्रवर्तन्ते, तथ्य For Parts Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ~ 567~ www.brary.org Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१०], नियुक्ति: [१५७] (०२) स्वी प्रत सूत्रांक [१०] सूत्रकृताङ्गे तिरकेणापरस्याभावादिति भावः । तथा सुष्टु कृतं सुकृतम् एतच सत्वगुणाधिक्येन भवति, तथा दुष्टं कृतं दुष्कृतम्, एतदपि १ पुण्डरी२ श्रुतस्क- रजस्तमसोरुत्कटतया प्रवर्तते, एवं कल्याणमिति वा पापकमिति वा साध्विति वा असाविति वा इत्येतत्सत्वादीनां गुणानामुत्क काध्य न्यू शीला- नुत्कर्षतया यथासंभवमायोजनीयं । तथेप्सितार्थनिष्ठानं सिद्धिविपर्ययस्वसिद्धिः निर्वाणं वा-सिद्धिः असिद्धिः-संसारः संसा-181 भौतिकसाकीयावृत्तिः |रिणां तथा नरका-पापकर्मणां यातनास्थानम् अनरकस्तिर्यमनुष्यामराणाम् , एतत्सर्वं सच्चादिगुणाधिष्ठिता भूतात्मिका प्रकृति॥२८॥ विधत्ते । लोकायताभिप्रायेणापीहैव तथाविधसुखदुःखावस्थाने खर्गनरकाविती येवमन्तशस्तृणमात्रमपि यत्कार्य ततैरेव प्रधा रूपापन्नैः क्रियते, तथा चोक्तम्- 'सत्त्वं लघु प्रकाशकमिष्टमुपष्टम्भकं बलं च रजः । गुरु चरणकमेव तमः प्रदीपवद्यार्थतो वृत्तिः Mini॥" इत्यादि । तदेवं सांख्याभिप्रायेणात्मनस्तुणकुब्जीकरणेऽप्यसामर्थ्याल्लोकायतिकाभिप्रायेण खात्मन एवाभावाद्भूतान्येव | 18|| सर्वकार्यकटेणीत्येवमभ्युपगमः, तानि च समुदायरूपापनानि नानाखभावं कार्य कुर्वन्ति ॥ तं च तेषां समवायं पृथग्भूतपदोहे | शेन जानीयात् , तद्यथा-पृथिव्येका काठिन्यलक्षणा महाभूतं, तथाऽऽपो द्रवलक्षणा महाभूतं, तथा तेज उष्णोद्योतलक्षणं, तथा | वायुहेतिकम्पलक्षणः, तथाऽवगाहदानलक्षणं सर्वद्रव्याधारभूतमाकाशमित्येवं पृथग्भूतो यः पदोदेशस्तेन कायाकारतया यस्तेषां सम वायः स एकखेऽपि लक्ष्यते इत्येतानि पूर्वोक्तानि पृथिव्यादीनि, 'संख्या झुपादीयमाना संख्यान्तरं निवर्तयती तिखा न न्यूना|नि नाप्यधिकानि, विश्वव्यापितया महान्ति, त्रिकालभवनाद्भूतानि, तदेवमेतान्येव पञ्च महाभूतानि 'प्रकृतेमहान् महतोऽहकार ॥२८२॥ स्तस्मात् गणश्च पोडशकः । तस्मादपि पोडशकात्पञ्चभ्यः पञ्च भूतानि ॥१॥ इत्येवं क्रमेण व्यवस्थितानि, अपरेण कालेश्वरादिMD ना केनचिदनिर्मितानि-अनिष्पादितानि, तथा परेणानिर्मापयितव्यानि, तथाऽकृतानि न केनचित्तानि क्रियन्ते, अभ्रेन्द्रधनुरादि दीप अनुक्रम [६४२] JABERatininthimational wlanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~568~ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [१०] दीप अनुक्रम [६४२] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१०], निर्युक्तिः [१५७] Education intamational - वद्विसापरिणामेन निष्पन्नखात्, तथा न घटवत्कुत्रिमाणि, कर्तृकरणव्यापारसाध्यानि न भवन्तीत्यर्थः तथा परव्यापाराभावतया 'नो' नैव कृतकानि, अपेक्षित परव्यापारः स्वभावनिष्पत्तौ भावः कृतक इति व्यपदिश्यते तानि च विस्रसापरिणामेन निष्पअलात्कृत कव्यपदेशभाञ्जि न भवन्ति, तथा अनाद्यनिधनानि, अवन्ध्यानि - अवश्य कार्यकर्तृणि, तथा न विद्यते 'पुरोहितः' कार्य ६ प्रति प्रवर्तयिता येषां तान्यपुरोहितानि, स्वतन्त्राणि स्वकार्यकर्तृत्वं प्रत्यपरनिरपेक्षाणि, शाश्वतानि नित्यानि वा 'न कदाचिदनीदृशं जगदिति वचनात् तदेवंभूतानि पञ्च महाभूतान्यात्मपष्ठानि पुनरेके एवमाहुः, आत्मा चाकिञ्चित्करः सांख्यानां लो| कायतिकानां पुनः कायाकारपरिणतान्येव भूतान्यभिव्यक्त चेतनानि आत्मव्यपदेशं भजन्त इति । तदेवं सांख्याभिप्रायेण 'सतो'' विद्यमानस्य प्रधानादेर्नास्ति 'विनाशः' अत्यन्ताभावरूपो नाप्यसतः शशविषाणादेः संभवः- समुत्पत्तिरस्ति, कारणे कार्यस्य विद्यमानस्यैवोत्पत्तिरिष्टा, नासतः, सर्वस्मात्सर्वस्योत्पत्तिप्रसङ्गात्, तथा चोक्तम्- “नासतो जायते भावो नाभावो जायते सतः” इत्यादि, तथा असतः खरविषाणादेरकरणादुपादानकारणस्य च मृत्पिण्डादेर्घटार्थिनोपादानादित्यादिभ्यश्च हेतुभ्यः कारणे सत्कार्य - वादः । तदेवमेतावानेव तावदिति सांख्यो लोकायतिको वा माध्यस्थ्यमवलम्बमान एवमाह, तद्यथा अस्मद्युक्तिभिर्विचार्यमाणस्तावदेतावानेव जीवकायो यदुत पञ्च महाभूतानि, यतस्तान्येव सांख्याभिप्रायेण प्रधानरूपतामापन्नानि सस्वादिगुणोपचयापचयाभ्यां सर्वकार्यकर्तृणि, आत्मा चाकिञ्चित्करत्वादसत्कल्प एव, लोकायतस्य तु स नास्त्येवेत्यत 'एतावानेव' भूतमात्र एव जीवकायः, तथा एतावानेव भूतास्तिसमात्र एवास्तिकायो नापरः कश्वित्तीर्थिकाभिप्रेतः पदार्थोऽस्तीति । तथा एतावानेव सर्वलोको यदुत पञ्च महाभूतानि प्रधानरूपापन्नानि, आत्मा चाकर्ता निर्गुणः सांख्यस्य, लोकायतिकस्य तु पञ्चभूतात्मक एव लोकः, तदतिरिक्तस्थापरस्य For Funny मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...... आगमसूत्र -[ ०२ ], अंग सूत्र- [ ०२] "सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ~569~ www.incibrary.org Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [१०] दीप अनुक्रम [६४२] सूत्रकृताङ्गे २ कन्धे शीलाकीयावृत्तिः ॥२८३ ॥ “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [-], मूलं [१०], निर्युक्ति: [१५७] Education intemational - | पदार्थस्याभावादिति । तथा एतदेव पञ्चभूतास्तिखं 'मुखं' कारणं लोकस्य, एतदेव च कारणतया सर्वकार्येषु व्याप्रियते, तथाहि सांख्यस्य प्रधानात्मभ्यां सृष्टिरुपजायते, लोकायतिकस्य तु भूतान्येव अन्तशस्तृणमात्रमपि कार्यं कुर्वन्ति, तदतिरिक्तस्यापरस्याभावादिति भावः । स चैर्ववाद्येकत्रात्मनोऽकिश्चित्करत्वादन्यत्र चात्मनोऽसत्वादसदनुष्ठानैरप्यात्मा पापैः कर्मभिर्न बध्यत इति (मन्यतेतद्) दर्शयितुमाह-' से कीण' मित्यादि 'से'ति स इति यः कथित्पुरुषः क्रयार्थी 'क्रीणन' किश्चित् क्रयेण गृह्णस्तथाऽपरं क्रापयंस्तथा प्राणिनो मन् हिंसन् तथा परैर्घातयन् व्यापादयन् तथा पचनपाचनादिकां क्रियां कुर्वस्तथाऽपरैश्च पाचयन् अस्य चोपलक्षणार्थ- १४ त्वात् ( अनुमोदन) क्रीणतः क्रापयतो नतो घातयतः पचतः पाचयतश्चापरांस्तथा अप्यन्तशः पुरुषमपि प्रञ्चेन्द्रियं विक्रीय घातयिता, अपि पञ्चेन्द्रियधाते नास्ति दोषोऽत्र एवं 'जानीहि' अवगच्छ, किं पुनरेकेन्द्रियवनस्पतिघात इत्यपिशब्दार्थः । ततथैवादिनः सांख्या बार्हस्पत्या वा 'नो' नैव 'एतद्' वक्ष्यमाणं 'विप्रतिवेदयन्ति' जानन्ति तद्यथा- क्रिया-परिस्पन्दात्मिका सावधानुष्ठानरूपा एवमक्रिया वा स्थानादिलक्षणा यावदेवमेव 'विरूपरूपैः' उच्चावचैर्नानाप्रकारैर्जलनानावगाहनादिकैस्तथा प्राण्युपमर्दकारिभिः कर्मसमारम्भः 'विरूपरूपान' नानाप्रकारान् सुरापानमांसभक्षण। गम्यगमनादिकान् कामभोगान् समारभन्ते स्वतः, परांश चोदयन्ति - नास्त्यत्र दोष इत्येवं प्रतार्यासत्कार्यकरणाय प्रेरयन्ति, एवं च तेनार्या अनार्यकर्मकारित्वादार्यान्मार्गाद्विरुद्धं मार्ग प्रतिपन्नाः विप्रतिपन्नाः, तथाहि - सांख्यानामचेतनखात्प्रकृतेः कार्यकर्तृखं नोपपद्यते, अचेतनखं तु तस्याः 'चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूप' मिति वचनात्, आत्मैव प्रतिविम्बोदयन्यायेन करिष्यतीति चेत्तदपि न युक्तिसंगतं यतोऽकर्तृसादात्मनो नित्यखाच प्रतिबिम्बोदयो न युज्यते, किंच- नित्यसात्प्रकृतेर्महदादि विकारतया नोत्पत्तिः स्यात्, अपिच 'नासतो जायते भावो नाभावो जायते सत' इत्याद्यभ्युप For Fans Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...... आगमसूत्र -[ ०२ ], अंग सूत्र- [ ०२] "सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ~570~ १ पुण्डरी काध्यय ० पाश्चभीतिकः ॥२८३॥ g Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [१०] दीप अनुक्रम [६४२] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [-], मूलं [१०], निर्युक्ति: [१५७] Education intimation - गमात्प्रधानात्मनोरेव विद्यमानत्वान्महदहङ्कारादेरनुत्पत्तिरेव एकखाच्च प्रकृतेरेकात्मवियोगे सति सर्वात्मनां वियोगः स्याद् एकसंबन्धे या सर्वात्मनां प्रकृतिसंयोगो न पुनः कस्यचित्तत्वपरिज्ञानात् प्रकृतिवियोगे मोक्षोऽपरस्य तु विपर्ययात्संसार इति, एवं जगद्वैचित्र्यं न स्याद्, आत्मनश्चाकर्तृले तत्कृतौ बन्धमोक्षो न स्याताम् एतच्च दृष्टेष्टबाधितं । नापि कारणे सत्कार्यवादो, युक्तिभिरनुपपद्यमानखात्, तथाहि मृत्पिण्डावस्थायां घटोत्पत्तेः प्राग्घदसंबन्धिनां कर्मगुणव्यपदेशानामभावात्, घटार्थिनां च क्रियासु प्रवृतेर्न कारणे कार्यमिति । लोकायतिकस्यापि भूतानामचेतन सात्कर्तृसानुपपत्तिः, कायाकारपरिणतानां चैतन्याभिव्यक्यभ्युपगमे च मरणाभावप्रसङ्गः स्यात्, तस्मान्न पञ्चभूतात्मकं जगदिति स्थितम् । अपिच ददं ज्ञानं स्वसंवित्तिसिद्धमात्मानं धर्मिणमुपस्थापयति, नच भूतान्येव धर्मिंसेन परिकल्पयितुं युज्यन्ते, तेषामचेतनत्वाद्, अथ कायाकारपरिणतानां चैतन्यं धर्मो भविष्यतीत्येतदप्ययुक्तं यतः कायाकारपरिणाम एव तेषामात्मानमधिष्ठातारमन्तरेण न भवितुमर्हति निर्हेतुकत्वप्रसङ्गात्, निर्हेतुकत्वे च नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वा स्वादिति । तदेवं भूतव्यतिरिक्त आत्मा, तस्मिंश्च सति सदसदनुष्ठानतः पुण्यपापे, ततश्च जगद्वैचित्र्यसिद्धिरिति । एवं च व्यवस्थिते तेनार्याः सांख्या लोकायतिका वा पञ्चमहाभूतप्रधानाभ्युपगमेन विप्रतिपन्ना यत्कुर्युस्तदर्शयितुमाह-'तं सद्द| हमाणा' इत्यादि, 'तम्' आत्मीयमभ्युपगमं पूर्वोक्तया नीत्या निर्मुक्तिकमपि श्रदधानाः पञ्चमहाभूतात्मकप्रधानस्य सर्वकार्याणि उपगच्छन्ति, तदेव च सत्यमित्येवं 'प्रतियन्तः ' प्रतिपद्यमानास्तदेव चात्मीयमभ्युपगमं रोचयन्तस्तद्धर्मस्याख्यातारं प्रशंसयन्तः, तद्यथा-स्वाख्यातो भवता धर्मोऽसाकमयमत्यन्तमभिप्रेत इत्येवं ते तदध्यवसायाः - सावद्यानुष्ठानेनाप्यधर्मो न भवतीत्यध्यवसायिनः For Fans Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ~571~ p Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१०], नियुक्ति: [१५७] (०२) काध्य प्रत सूत्रांक [१०] सूत्रकृताङ्गे शास्त्रीकामेषु मूञ्छिता इत्येवं पूर्ववज्ज्ञेयं यावत्तदन्तरे कामभोगेषु विषण्णा ऐहिकामुष्मिकोभयकार्यभ्रष्टा नात्मत्रा(नखा)णाय नापि |१ पुण्डरी२ श्रुतस्क-18| परेषामिति । भवत्येवं द्वितीयः पुरुषजातः पञ्चमहाभूताभ्युपगमिको व्याख्यात इति ॥ साम्प्रतमीश्वरकारणिकमधिकृत्याहन्धे शीला-18 अहावरे तचे पुरिसजाए ईसरकारणिए इति आहिजइ, इह खलु पादीणं वा ६ संगतिया मणुस्सा भवं इश्वरकारदीयावृत्तिः ति अणुपुषेणं लोयं उबवन्ना, तं०-आरिया वेगे जाव तेसिंच णं महंते एगे राया भवइ जाव सेणावइपुत्ता, do |णिका ॥२८॥ तेर्सि च णं एगतीए सही भवइ, कामं तं समणा य माहणा य पहारिंसुगमणाए जाव जहा मए एस धम्मे सुअक्खाए सुपन्नत्ते भवह ॥ इह खलु धम्मा पुरिसादिया पुरिसोत्तरिया पुरिसप्पणीया पुरिससंभूया पुरिसपज्जोतिता पुरिसअभिसमण्णागया पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति, से जहाणामए गंडे सिया सरीरे जाए सरीरे संबुद्धे सरीरे अभिसमण्णागए सरीरमेव अभिभूय चिट्ठति, एवमेव धम्मा पुरिसादिया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति । से जहाणामए अरई सिया सरीरे जाया सरीरे संवुडा सरीरे अभिसमण्णागया सरीरमेव अभिभूय चिट्ठति, एवमेव धम्मावि पुरिसादिया जाव पुरिसमेव अभिभूप चिट्ठति । से जहाणामए चम्मिए सिया पुढविजाए पुढविसंवड़े पुढविअभिसमण्णागए पुढविमेव अभिभूय चिट्ठा एवमेव धम्मावि पुरिसादिया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति । से जहाणामए रुक्से सिया पुढविजाए पुढविसंबुद्धे पुढविअभिसमण्णागए पुढविमेव अभिभूय चिट्ठति, एवमेव धम्मावि पुरिसादिया जाच पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति । से जहाणामए पुकखरिणी सिया पुढविजाया जाच पुढविमेव अभिभूय चिट्ठ दीप अनुक्रम [६४२] seeeeese मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~572~ Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक -], मूलं [११], नियुक्ति: [१५७] (०२) es प्रत सूत्रांक [११] ति, एवमेव धम्मावि पुरिसादिया जाय पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति । से जहाणामए उदगपुक्खले सिया उदगजाए जाच उदगमेव अभिभूय चिट्ठति, एवमेव धम्मावि पुरिसादिया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति । से जहाणामए उदगबुबुए सिया उद्गजाए जाच उदगमेव अभिभूय चिट्ठति, एवमेव धम्मावि पुरिसादिया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति ॥ जंपिय इमं समणाणं णिग्गंथाणं उदिह पणीयं वियंजियं दुवालसंगं गणिपिडयं, जहा-आयारोसूयगडोजाव दिडिवातो, सबमेवं मिच्छा, ण एयं तहियं, ण एवं आहातहियं, हम सचं इमं तहियं हम आहातहियं, ते एवं सन्नं कुषंति, ते एवं सन्नं संठवेंति, ते एवं सन्न सोवढवयंति, तमेवं ते तज्जाइयं दुक्खं णातिउति सउणी पंजरं जहा ॥ ते णो एवं विपडिवेदेति, तंजहा-किरिया इ वा जाव अणिरए इवा, एबामेव ते विरूवरूवेहिं कम्मसमारंभेहिं विरूवरूवाई कामभोगाई समारंभंति भोयणाए, एवामेव ते अणारिया विप्पडिवन्ना एवं सद्दहमाणा जाव इति ते णो हवाएणो पाराए, अंतरा कामभोगेसु विसण्णेत्ति, तचे पुरिसजाए ईसरकारणिएत्ति आहिए (सूत्रं ११)॥ अथ द्वितीयपुरुपादनन्तरं तृतीय ईश्वरकारणिक आख्यायते, समस्तस्वापि चेतनाचेतनरूपस्य जगत ईश्वरः कारणं, प्रमाणं चात्र| तनुभुवनकरणादिक धर्मिलेनोपादीयते, ईश्वरककमिति साध्यो धर्मः, संस्थानविशेषखात् कूपदेवकुलादिवत् तथा स्थिखा २ प्रवृत्चे-18| स्यादिवत् , उक्तं च-"अज्ञो जन्तुरनीशः स्वादात्मनः सुखदुःखयोः। ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा ॥शा" इत्यादि। तथा 'पुरुष एवेदं सर्व यद्भतं यच भाव्य' मित्यादि, तथा चोक्तम्-"एक एव हि भूतात्मा, भूते भूते प्रतिष्ठितः । एकधा बहुधा दीप अनुक्रम [६४३] အ၀အသောက် Sirajaniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~573 Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [११], नियुक्ति: [१५७] (०२) सूत्रकृताङ्ग प्रत सूत्रांक [११] चैत्र, दृश्यते जलचन्द्रवद् ॥१॥" इत्यादि, तदेवमीश्वरकारणिक आत्माद्वैतवादी वा तृतीयः पुरुषजात आख्यायते । 'इह खलु १ पुण्डरी२श्रुतस्क-1 | इत्यादि, इहैव-पुरुषजातप्रस्तावे, खलुशब्दो वाक्यालकारे, प्राच्यादिषु दिक्ष्वन्यतमस्यां दिशि व्यवस्थितः कश्चिदेवं बूयात , तद्यथा-18| काध्य. न्धे शीला- राजानमुद्दिश्य तावद्यावत्वाख्यातः सुप्रज्ञप्तो धर्मो भवति ।। स चायम्-इह खलु धर्माः स्वभावाश्चेतनाचेतनरूपाः पुरुष-ईश्वर आ-|| इश्वरकारहायाचित्मा वा कारणमादिर्येषां ते पुरुषादिका ईश्वरकारणिका आत्मकारणिका वा, तथा पुरुष एवोत्तरं कार्य येषां ते पुरुषोत्तराः, तथा 18 णिका पुरुषेण प्रणीताः सर्वस्य तदधिष्ठितखात् तदात्मकसावा, तथा पुरुषेण द्योतिताः-प्रकाशीकृताः प्रदीपमणिसूर्यादिनेव घटपटादय 18 | इति । ते च धर्मा जीवानां जन्मजरामरणच्याधिरोगशोकसुखदुःखजीवनादिकाः, अजीवधर्मास्तु मूर्तिमतां द्रव्याणां वर्णगन्धरस-11 स्पर्शा अमूर्तिमतां च धर्माधर्माकाशानां गत्यादिका धर्माः, सर्वेऽपीश्वरकृता आत्माद्वैतवादे वाऽऽत्मविवाः, सर्वेऽप्येते पुरुषमेवाभिभूय-अभिव्याप्य तिष्ठन्ति । अस्मिन्नर्थे दृष्टान्तानाविर्भावयन्नाह-'से जहाणामए' इत्यादि, सेशब्दस्तच्छब्दाथें, नामशब्दः संभावनायां, तद्यथा नाम गण्डं 'स्याद' भवेत् , संभाव्यते च शरीरिणां संसारान्तर्गतानां कर्मवशगानां गण्डादिसमुद्भवः, तच्च शरीरे जात-शरीरजातं शरीरावयवभूतं, तथा शरीरे वृद्धिमुपगत-शरीराभिवृद्धौ च तस्याभिवृद्धिः, तथा शरीरेऽभिसमन्वागत-शरीरमा| भिमुख्येन व्याप्य व्यवस्थित, न तदवयवोऽपि शरीरात्पृथग्भूत इति भावः, तथा शरीरमेवाभिभूय-आभिमुख्येन पीडयित्वा ||२८५।। तिष्ठति, यदिवा तदुपशमे शरीरमेवाश्रित्य तद्गण्डं तिष्ठति न शरीराबहिर्भवति, एतदुक्तं भवति-यथा तत्पिटकं शरीरैकदेशभूतं न M युक्तिशतेनापि शरीरात्पृथग्दर्शयितुं शक्यते, एवमेवामी धर्माश्चेतनाचेतनरूपास्ते सर्वेऽपीश्वरकर्तृका न ते ईश्वरात्पृथकर्तुं पार्यन्ते, दीप अनुक्रम [६४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~574 ~ Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [११], नियुक्ति: [१५७] (०२) प्रत सूत्रांक Caesesed [११] eeseeeeeeeesesesen | यदिवा सर्वव्यापिन आत्मनस्त्रैलोक्योदरविवरवर्तिपदार्थात्मनो ये केचन धर्माः प्रादुष्पन्ति ते पृथकर्तुं न शक्यन्ते, यथा तद्गण्डं शरीरविकारभूतं तदपृथग्भूतं तद्विनाशे च शरीरमेवावतिष्ठते, एवमेव सर्वेऽपि धर्माः पुरुषादिकाः पुरुषकारणिकाः पुरुषविकाररूपा वा न पुरुषात्पृथग्भवितुमर्हन्ति तद्विकारापगमे चात्मानमेवाश्रित्यावतिष्ठन्ते न तसादहिमवन्तीति, शास्त्रे च दृष्टान्तप्राचुर्यमविरुद्ध, यदिवासिन्नर्थे बहवो दृष्टान्ताः संभवन्तीश्वरकतत्ववादस्यात्माद्वैतवादस्य च सुप्रसिद्धत्वाइष्टान्तबहुत्वमित्याह-'से जहा-8 इत्यादि, तद् यथा नामारतिः-चित्तोद्वेगलक्षणा 'स्याद्' भवेत् , सा च शरीरजाता इत्यादि गण्डवन्नेया, दान्तिकेऽप्येवमेव, सर्वे धर्माः पुरुषादिकाः पुरुषप्रभवा इत्यादि पूर्ववन्नेयं । तथा तद् यथा नाम वल्मीकं पृथ्वीविकाररूपं स्यात् , तच्च पृथिव्यां || | जातं पृथिवीसंबद्धं पृथिव्यभिसमन्वागतं पृथिवीमेवामि[संभूय तिष्ठति, एवमेव यदेतचेतनाचेतनरूपं तत्सर्वमीश्वरकारणिकमात्मविवर्तरूपं वा नात्मनः पृथग्भवितुमर्हति, पृथिव्या वल्मीकवत् । तथा तत् यथा नाम वृक्षोऽशोकादिकः स्यात् स च पृथि-९ | वीजात इत्यादि दृष्टान्तदाष्टोन्तिके पूर्ववदायोज्ये, तद् यथा नाम पुष्करिणी स्थान-तडागरूपा भवेत् , साऽपि पृथिव्यामेव जाते त्यादि प्राग्वचर्यः, तथा तद् यथा नाम पुष्कलं-प्रचुरमुदकपुष्कलम्-उदकप्राचुर्य तच्च तद्धर्मत्वादुदकमेव यावदुदकमेवा|भिभूय तिष्ठत्येवं दान्तिकेऽप्यायोज्यं, तथा तद् यथा नामोदकबुदुदः स्याद् , अत्रापि दृष्टान्तदाान्तिके, न तसादवयविनः | पृथग्भूत इति सुगमम् ।। तदेवं यदीश्वरकृतत्वेनाभ्युपगम्यते तत्सर्वं तथ्यमपरं तु मिथ्या इत्येतदाविर्भावयन्नाह यदपि चेदर संव्यवहारतः प्रत्यक्षासन्नभूतं 'श्रमणानां यतीनां 'निर्ग्रन्धानां निष्किञ्चनानामुद्दिष्टं तदर्थ प्रणीतं व्यञ्जित-तेषामभिव्यक्ती-18 | कृतं द्वादशाङ्गं गणिपिटकं तद्यथा-आचार इत्यादि याबद्दृष्टिवादः, सर्वमेतन्मिथ्या अनीश्वरप्रणीतखात् स्वरुचिविरचितरथ्यापु दीप अनुक्रम [६४३] ecenenerdest shirwsaneiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~575~ Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [११], नियुक्ति: [१५७] (०२) प्रत सूत्रांक [११] सूत्रकृताले रुषवाक्यवत् , तथा नैतत्तथ्य, मिथ्येत्यनेनाभूतोद्भावनत्वमाविष्कृतमचौरचौरसवत, नैतत्तथ्यमित्यनेन तु सद्भूतानिढ़वो यथा||१ पुण्डरी२ श्रुतस्क-1|| नास्त्यात्मेति, तथा नैतयाथातथ्यम्-यथाध्यस्थितोऽर्थो न तथाऽवस्थितमिति भावः, अनेन सद्भूतार्थनिहवेनासद्भूताधारोपणमा-|| काध्य० न्धे शीला विष्कृतं, तद् यथा गामश्वं सुवतोऽश्वं वा गामिति, एकार्थिकानि बैतानि शकेन्द्रादिवद्रष्टव्यानि । तदेवं यदेतद्वादशाङ्गं गणि-18 ईश्वरकारडीयावृत्तिः | पिटकं तदनीश्वरप्रणीतखान्मिथ्येति स्थितम् , इदं तु पुनरीश्वरकर्तुकलं नामात्माद्वैतं वा सलं यथाऽवस्थितार्थप्रतिपादनात् । त-18णिक: ॥२८६॥ थेदमेव तथ्यं सद्भूतार्थोशासनात् , तदेवं ते ईश्वरकारणिका आत्माद्वैतवादिनो वा 'एवम् अनन्तरोक्तया नीत्या सर्वे तनुभुवनकरणादिकमीश्वरकारणिकं तथा सर्व चेतनमचेतनं वाऽऽत्मविवर्तखभावम् , आत्मन एव सर्वाकारतयोत्पत्तेरित्येवं संज्ञान संज्ञा || तामेवं कुर्वन्त्यन्येषां च ते स्वदर्शनानुरक्तमनसा संज्ञा संस्थापयन्ति, तथा त एव एवंभूतां संज्ञा वक्ष्यमाणेन न्यायेन नियुक्तिका-18 मपि सुष्टु उप-सामीप्येन तदात्रहितया तदभिमुखा युक्तीनिनीयवः 'स्थापयन्ति' प्रतिष्ठापयन्ति । ते चैवंवादिनस्तमीश्वरकट्टेल-18 |वादमात्माद्वैतवादं वा नातिवतेन्ते, तदभ्युपगमजातीयं च दुःख-दुःखहेतुलादुःख नातिवर्तन्ते न त्रोटयन्ति वा, असिन्नर्थ ह. ष्टान्तमाह-यथा शकुनिः-पक्षिविशेषो लावकादिकः पञ्जरं नातिवर्तते पौन:पुन्येन प्रान्त्वा तत्रैव वर्तते, एवं तेऽप्यवभूताभ्युप|गमवादिनस्तदापादितकर्मवन्धनं नातिवर्तन्ते न वा त्रोटयन्ति । ते च खाग्रहाभिमानग्रहास्ता नैतद्वक्ष्यमाणं विप्रतिवेदयन्ति न सम्यक जानन्ति, तद्यथा-इयं क्रिया-सदनुष्ठानरूपेयं चाक्रिया-तद्विपरीतेत्येवं खाग्रहिणो नान्यत् शोभनमशोभनं वा यावदय- २८६॥ ॥ मनरक इत्येवं सदसद्विवेकरहितलावावधारयन्ति, एवमेव यथाकथश्चित्ते विरूपरूपैः कर्मसमारम्भैः-नानाप्रकार: सावधानुष्ठा नैट्रेन्योपार्जनोपायभूतेन॒न्यमुपादाय विरूपरूपान्कामभोगानुचावचान्समाचरन्ति भोजनाय-उपभोगार्थमित्येषमनायोस्ते विरुद्ध दीप अनुक्रम [६४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~576~ Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [११] दीप अनुक्रम [६४३] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [११], निर्युक्ति: [१५७] मार्ग प्रतिपन्ना विप्रतिपन्ना न सम्यग्वादिनो भवन्ति, तथाहि सर्वमीश्वर कर्तृकमित्यत्राभ्युपगमे किमसावीश्वरः खत एव परान् क्रियासु प्रवर्त (य) ते उतापरेण प्रेरितः ?, तत्र यद्याद्यः पक्षस्तदा तद्वदन्येषामपि स्वत एव क्रियासु प्रवृत्तिर्भविष्यति किमन्तर्गडनेश्वरपरिकल्पनेन ?, अथासावप्यपरप्रेरितः, सोऽप्यपरेण सोऽप्यपरेणेत्येवमनवस्थालता नभोमण्डलमालिनी प्रसर्पति । किञ्च असावीश्वरो | महापुरुषतया वीतरागतोपेतः सन्नेकान्नरकयोग्यासु क्रियासु प्रवर्तयत्यपरांस्तु स्वर्गापवर्गयोग्यास्खिति ?, अथ ते पूर्वशुभाशुभाचैरितोदयादेव तथाविधासु क्रियासु प्रवर्तन्ते स तु निमित्तमात्रम्, तदपि न युक्तिसंगतं यतः प्राक्तनाशुभप्रवर्तनमपि तदायत्तमेव, तथा | चोक्तम्- "अज्ञो जन्तु" रित्यादि, अथ तदपि प्राक्तनमन्येन प्राक्तनतरेण कारितमिति, एवमनादिहेतुपरम्परेति, एवं च सति तत एव शुभाशुभे स्थाने भविष्यतः किमीश्वरपरिकल्पनेन १ तथा चोक्तम्- "शस्त्रौषधादिसंबन्धाञ्चैत्रस्य वणरोहणे । असंबद्धस्य किं स्थाणोः, कारणखं न कल्प्यते ? ॥ १ ॥" इत्यादि । यञ्चोक्तं सर्वं तनुश्चवनकरणादिकं बुद्धिमत्कारणपूर्वकं संस्थान विशेषलात् देवकुलादिवदिति, एतदपि न युक्तिसंगतं यत एतदपि साधनं न भवदभिप्रेतमीश्वरं साधयति, तेन सार्धं व्याप्यसिद्धेः, देवकुलादिके दृष्टान्तेनीश्वरस्यैव कर्तृखेनाभ्युपगमात् न च संस्थानशब्दप्रवृत्तिमात्रेण सर्वस्य बुद्धिमत्कारणपूर्वकलं सिध्यति, अन्यथा - नुपपत्तिलक्षणस्य साध्यसाधनयोः प्रतिबन्धस्याभावात्, अथाविनाभावमन्तरेणैव संस्थानमात्रदर्शनात्साध्यसिद्धिः स्याद् एवं च सत्यतिप्रसङ्गः स्यात् उक्तं च- "अन्यथा कुम्भकारेण, मृद्विकारस्य कस्यचित् । घटादेः करणात्सियेद्वल्मीकस्यापि तत्कृतिः । ॥ १ ॥" इत्यादि । न चेश्वरकर्तृले जगद्वैचित्र्यं सिध्यति, तस्यैकरूपत्वादित्युक्तप्रायमिति । आत्माद्वैतपक्षस्वत्यन्तम युक्तिसंगतता१ परासु किया प्रवर्तते उता उदा० प्र० २ ० स्ततः प्र०३ कि चा ४ पूर्वाशुभ Education intemational For Funny मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ~577~ www.incibrary.org Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [११], नियुक्ति: [१५७] (०२) प्रत सूत्रांक [११] सूत्रकृताङ्गेनाश्रयणीयः, तथाहि-तत्र न प्रमाणं न प्रमेयं न प्रतिपाद्यं न प्रतिपादको न हेतुर्न दृष्टान्तो न तदाभासो भेदेनावगम्यते, सर्व- पुण्डरी २ श्रुतस्क-18 स्वैव जगत एकत्वं स्याद् आत्मनोऽभिन्नत्वात् , तदभावे च कः केन प्रतिपाद्यते? इत्यप्रणयनमेव शाखस, आत्मनश्चैकत्वात न्धे शीला- कार्यमप्येकाकारमेव स्थादित्यतो निर्हेतुकं जगद्वैचित्र्यं, तथा च सति-"नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वाहेतोरन्यानपेक्षणात् । अपेक्षातो चकत्वातकाध्यनि यतिवादी कीयावृत्ति हि भावानां, कादाचित्कत्वसंभवः॥१॥" इत्यादि । तदेवमीश्वरकर्तृत्वमात्माद्वैतपक्षश्च युक्तिभिर्विचार्यमाणो न कश्चिद् घटा| १२ प्राश्नति, तथापि एते खदर्शनमोहमोहितास्तजातीयाहुःखात् शकुनिः पञ्जरादिव नातिमुच्यन्ते, विप्रतिपन्नाश्च तत्प्रतिपादिका भियुक्तिभिस्तदेव स्वपक्षं प्रतियन्ति श्रद्दधतीति पूर्ववन्नेयं यावत् 'णो हवाए णो पाराए अंतरा कामभोगेसु चिसण्ण'ति इत्ययं तृतीयः पुरुषजात ईश्वरकारणिक इति । स येवमाह-'यस्य बुद्धिन लिप्येत, हत्त्वा सर्वमिदं जगत । आकाशमिव परेन, II नासौ पापेन लिप्यते ॥ १॥' इत्याद्यसमञ्जसभाषितया त्यक्त्वा पूर्वसंयोगमप्राप्तो विवक्षित स्थानमन्तराल एव कामभोगेषु | मूछितो विषण्ण इत्यवगन्तव्यमिति ॥ साम्प्रतं चतुर्थपुरुषजातमधिकृत्याह अहावरे चउत्थे पुरिसजाए णियतिवाइपत्ति आहिजइ, इह खलु पाईणं वा ६ तहेव जाव सेणावइपुत्ता वा, तेसिं च णं एगतीए सड्डी भवइ, काम तं समणा य माहणा य संपहारिंसु गमणाए जाव मए एस धम्मे ॥२८७॥ मुअक्खाए सुपन्नत्ते भवह ॥ इह खलु दुवे पुरिसा भवंति-एगे पुरिसे किरियमाइक्खइ एगे पुरिसे णोकिरियमाइक्खइ, जे य पुरिसे किरियमाइक्खइ जे य पुरिसे णोकिरियमाइक्खइ दोवि ते पुरिसा तुल्ला saerande203939200aeneraprasaera दीप अनुक्रम [६४३] JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~578~ Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१२], नियुक्ति: [१५७] (०२) प्रत सूत्रांक [१२] एगट्ठा, कारणमावन्ना । वाले पुण एवं विप्पडिवेदेति कारणमावन्ने अहमंसि दुक्खामि वा सोयामि वा जूरामि वा तिप्पामि वा पीडामि वा परितप्पामि वा अहमेयमकासि परो वा जं दुक्खइ वा सोयइ वा जूरइ वा तिप्पइ वा पीडइ वा परितप्पड वा परो एवमकासि, एवं सेवाले सकारणं वा परकारणं वा एवं विप्पडिवेदेति कारणमावन्ने । मेहावी पुण एवं विप्पड़िवेदेति कारणमावन्ने-अहमंसि दुक्खामि वा सोयामि वा जूरामि वा तिप्पामि वा पीडामि वा परितप्पामि वा, णो अहं एबमकासि, परो वा जं दुक्खा वा जाब परितपद वा णो परो एवमकासि, एवं से मेहावी सकारणं वा परकारणं वा एवं विपडिवेदेति कारणमाबन्ने, से बेमि पाईणं वा जे तसथावरा पाणा ते एवं संघायमागच्छंति ते एवं विपरियासमावति ते एवं विवेगमागच्छंति ते एवं विहाणमागच्छति ते एवं संगतियंति उहाए, णो एवं विप्पडिवेदेति, तं जहा-किरियाति वा जाच णिरएति वा अणिरपति वा, एवं ते विरूवरूवेहिं कम्मसमारंभेहिं विरूवरूवाई कामभोगाई समारभंति भोयणाए॥ एवमेव ते अणारिया विप्पडिवन्ना तं सद्दहमाणा जाव इति ते णो हवाए णो पाराए अंतरा कामभोगेसु विसण्णा । चउत्थे पुरिसजाए णियइवाइएत्ति आहिए ॥ इचेते चत्तारि पुरिसजाया णाणापन्ना णाणाछंदा णाणासीला णाणादिट्टी णाणारहे णाणारंभा णाणाअज्झवसाणसंजुत्ता पहीणपुषसंजोगा आरियं मग्गं असंपत्ता इति ते णो हवाए णो पाराए अंतरा कामभोगेसु बिसण्णा ।। (सूत्रं १२)॥ ABHEIGEReceiserateseeeeeeee दीप अनुक्रम [६४४] Swlanmiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~579~ Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१२], नियुक्ति: [१५७] (०२) प्रत सूत्रांक [१२] सूत्रकृताङ्गे अथ तृतीयपुरुषादनन्तरमपरचतुर्थः पुरुष एव पुरुषजातो नियतिवादिक आख्यायते-प्रतिपाद्यते, स चैवमाह-नात्र कश्चि-II नान काच- पुण्डरी२ श्रुतस्क- कालेश्वरादिकः कारणं नापि पुरुषकारः, समानक्रियाणामपि कस्यचिदेव नियतिवलादर्थसिद्धेः, अतो नियतिरेव कारणम् , उक्त काध्यनिन्धे शीला- च-"प्राप्तव्यो नियतिवलाश्रयेण योर्थः, सोऽवश्यं भवति नृणां शुभोऽशुभो वा । भूतानां महति कृतेऽपि हि प्रयत्ले, नाभाव्यं भवति ॥४॥ कायाचिन भाविनोऽस्ति नाशः ॥१॥" इत्यादि ।। 'इह खलु पाईणं इत्यादिको ग्रन्थः प्राग्वनेतन्यो यावदेष धर्मो-नियतिवाद-18 T/૨૮૮ાા रूपः खाख्यातः सुप्रज्ञप्तो भवतीति ।। स च नियतिवादी स्वाभ्युपगर्म दर्शयितुमाह-'इह खलु दुवे पुरिसा भवंती'त्यादि, इह' असिन् जगति खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे, द्वौ पुरुषो भवतः, तत्रैकः क्रियामाख्याति, क्रिया हि देशादेशान्तरावाप्तिलक्षणा पुरुषस्य भवति, न कालेश्वरादिना चोदितस्य भवति, अपितु नियतिप्रेरितस्य, एवमक्रियाऽपि । यदि तावस्वतत्रौ क्रियावादमक्रि8 यावादं च समाश्रितौ तौ द्वावपि नियत्यधीनत्वात्तुल्यौ, यदि पुनस्तौ खतत्रौ भवतस्ततः क्रियाक्रियाभेदान तुल्यो सातामिति, अत एकार्थावेककारणापंचत्वादिति, नियतिवशेनैव तो नियतिवादमनियतिवाद चाश्रिताविति भावः । उपलक्षणार्थत्वाचास्यान्योऽपि यः कश्चित्कालेश्वरादिपक्षान्तरमाश्रयति सोऽपि नियतिचोदित एव द्रष्टव्य इति ।। साम्प्रतं नियतिवादी परमतोद्विभावविषयाऽऽह-'पाल' अब पुरुषकारकालेश्वरवादीत्यादिकः, पुनरिति विशेषणार्थः, तदेव दर्शयति-'एच' मिति वक्ष्यमाणनीत्या | 'विप्रतिवेदयति' जानीते कारणमापनः मुखदुःखयोः सुकृतदुष्कृतयोवा वकृत एव पुरुषकारः कालेश्वरादिवा कारणमित्यवम-118॥२८८।। NIयत्त.प्र.२ पुनरपि नियतिवायेव सपक्षमन्यथा समयितुमाह प्रा३ युक्त्यन्तरोपन्यासार्थः प्र.। ४ मा, कारणमुद्दिश्य वक्ष्यमाणाच कारणात् | ॥ नियतिरेख बत्रों न पुरुषकारादिकामिति भावः, तदेव नियतिवादसमर्थनकारणं दर्शयति, तद्यथा-योऽह. प्रा। दीप अनुक्रम [६४४] Sarwajaniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~580~ Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१२], नियुक्ति: [१५७] (०२) प्रत सूत्रांक [१२] भ्युपपन्नो नान्यन्नियत्यादिकं कारणमस्तीति, तदेवाह तद्यथा-योऽहमस्मि 'दुक्खामि त्ति शारीरं मानसं दुःखमनुभवामि तथा शोचामि-इष्टानिष्टवियोगसंप्रयोगकृतं शोकमनुभवामि, तथा 'तिप्पामित्ति शारीरबलं क्षरामि, तथा 'पीडामित्ति सबाह्या-19 भ्यन्तरया पीड़या पीडामनुभवामि, तथा 'परितप्पामि'चि परितापमनुभवामि, तथा 'जूरामिति अनार्यकर्मणि प्रवृत्तमात्मानं गहोमि, अनर्थावाप्तौ विसूरयामीत्यर्थः, तदेवं यदहं दुःखमनुभवामि तदहमेवाकाष, परपीडया कृतवानसीत्यर्थः, तथा परोऽपि 181 यदुःखशोकादिकमनुभवति मयि वाऽऽपादयति तत्स्वयमेव कृतमिति, तदेव दर्शयति-'परो वे'त्यादि, तथा परोपि यन्मां दुःख यति शोचयतीत्यादि प्राग्वन्नेयं तत्सर्वमहमकार्षमित्येवं द्वाभ्यामाकलितोज्ञो वा वाल एवं 'विप्रतिवेदयति' जानीते स्वकारण वा परकारणं चा सर्व दुःखादि पुरुषकारकृतमिति जानीते एवं पुरुषकारकारणमापन इति ॥ तदेवं नियतिवादी पुरुषकारकारणवादिनो बालतमापाद्य स्वमतमाह-मेधा-मर्यादा प्रज्ञा वा तद्वान् मेधावी नियतिवादपक्षाश्रयी एवं विप्रतिवेदयति-जानीते, कारणमापन इति नियतिरेव कारणं सु(दुः)खाद्यनुभवस्य, तद्यथा-योऽहमस्मि दुःखयामि शोचयामि तथा 'तिप्पामिति रामिपीडामिति पीडामनुभवामि 'परितप्पामिति परितापमनुभवामि, नाहमेवमकार्ष दुःखम् , अपि तु नियतित एवैत-1 न्मय्यागतं, न पुरुषकारादिकृतं, यतो न हि कस्यचिदात्माऽनिष्टो येनानिष्टा दुःखोत्पादादिकाः क्रियाः समारभते, नियत्यैवासाब-18॥ निच्छन्नपि तत्कायते येन दुःखपरम्पराभाग्भवति, कारणमापन इति परेऽप्येवमेव योजनीयम् । एवं सति नियतिवादी मेधावीति ॥8| सोल्लष्ठमेतत् , स किल नियतिवादी दृष्टं पुरुषकारं परित्यज्यादृष्टनियतिवादाश्रयेण महाविवेकीत्येवमुल्लण्ठ्यते, खकारणं परकारणं । च दुःखादिकमनुभवनियतिकृतमेतदेवं विप्रतिवेदयति-जानाति नात्मकृतं नियति कारणमापनं, कारणं चात्रैकस्यासदनुष्ठानरतस्थापि అలనాటి నుంచి పని दीप अनुक्रम [६४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~581~ Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१२], नियुक्ति: [१५७] (०२) కాలం न्धे शीला प्रत सूत्रांक [१२] सूत्रकृताङ्गे ||न दुःखमुत्पते परस्य तु सदनुष्ठायिनोऽपि तद्भवतीत्यतो नियतिरेव कीति । तदेवं नियतिवादे स्थिते परमपि यत्किश्चित्तत्सर्वे || | १ पुण्डरीनियत्यधीनमिति दर्शयितुमाह-'से वेमी'त्यादि, सोऽहं नियतिवादी युक्तितो निश्चित्य 'ब्रवीमी'ति प्रतिपादयामि ये केचन || | यतिवादी प्राच्यादिषु दिक्षु त्रस्यन्तीति त्रसा-दीन्द्रियादयःस्थावराश्च-पृथिव्यादयःप्राणाः-प्राणिनस्ते सर्वेऽप्येवं नियतित एवौदारिकादिशकीयावृत्तिः रीरसंवन्धमागच्छन्ति, नान्येन केनचित्कर्मादिना शरीरं ग्राद्यन्ते, तथा बालकुमारयौवनस्थविरवृद्धावस्थादिकं विविधपर्यायं नियतित || ॥२८९॥ एवानुभवन्ति, तथा नियतित एव 'विवेक' शरीरात्पृथग्भावमनुभवन्ति, तथा नियतित एव विविध विधानम्--अवस्थाविशेष कुन्नकाणखञ्जवामनकजरामरणरोगशोकादिक बीभत्समागच्छन्ति, तदेवं ते प्राणिनस्त्रसाः स्थावरा 'एवं' पूर्वोक्तया नीत्या संगति यान्ति-नियतिमापन्ना नानाविधविधानभाजो भवन्ति, त एव वा नियतिवादिनः 'संगइय'ति नियतिमाश्रित्य 'तदुत्प्रेक्षया' 12 नियतिवादोत्प्रेक्षया यत्किञ्चनकारितया परलोकाभीरवो 'नो' नैव एतद्वक्ष्यमाणं विप्रतिवेदयन्ति-जानन्ति, तद्यथा-क्रियासदनुष्ठानरूपा अक्रिया तु-असदनुष्ठानरूपा इत्यादि यावदेवं ते नियतिवादिनस्तदुपरि सर्व दोषजातं प्रक्षिप्य विरूपरूपैः कर्मसमारम्भैविरूपरूपान् कामभोगान् भोजनाय-उपभोगार्थं समारभन्त इति ।। तदेवमेव-पूर्वोक्तया नीत्या तेनार्या विरूपं नियतिमार्ग प्रतिपन्ना विप्रतिपन्नाः, अनार्यलं पुनस्तेषां नियुक्तिकस्यैव नियतिवादस्य समाश्रयणात, तथाहि-असो नियतिः किं खत एवं नियतिस्वभावा उतान्यया नियत्या नियम्यते ? किंचातः ?, तत्र यद्यसौ स्वयमेव तथास्वभावा सर्वपदार्थानामेव तथाखभावसं किं न | कलप्यते ?, किं बहुदोषया नियत्या समाश्रितया ? । अथान्यया नियत्या तथा नियम्यते, साऽप्यन्यया साऽप्यन्ययेत्येवमनवस्था । दीप अनुक्रम [६४४] DO20530 విలువ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~582~ Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१२], नियुक्ति: [१५७] (०२) प्रत सूत्रांक तथा नियतेः स्वभावाभियतस्वभावयाऽनया भवितव्यं न नानाखभावयेति, एकखाच नियतेस्तत्कायेंणाप्येकाकारेणैव भवितव्यं, तथा च सति जगद्वैचित्र्याभावः, न चैतदृष्टमिष्टं वा । तदेवं युक्तिभिर्विचार्यमाणा नियतिर्न कथञ्चिद् घटते, यदप्युक्तंद्वावपि तौ पुरुषी क्रियाक्रियावादिनौ तुल्यौ, एतदपि प्रतीतिबाधितं, यतस्तथोरेकः क्रियावाद्यपरस्त्रक्रियावादीति कथमनयोस्तुल्यखम् , अथैकया नियत्या तथानियतखातुल्यता अनयोः, एतच्च निरन्तराः सुहृदः प्रत्येष्यन्ति, नियतेरप्रमाणखात्, अप्रमाणसं च प्राग्लेशतः प्रदर्शितमेव, यदप्युक्तं यदुःखादिकमहमनुभवामि तबाहमकार्पमित्यादि, तदपि बालवचनप्राय, यतो(यत) जन्मान्तर-1 कृतं शुभमशुभं वा तदिहोपभुज्यते, खकुतकर्मफलेश्वरवादसुमतां, तथा चोक्तं-'यदिह क्रियते कमें, तत्परत्रोपभुज्यते । मूलसि-1 तेषु वृक्षेषु, फलं शाखामु जायते ॥१॥" तथा-'यदुपात्तमन्यजन्मनि शुभमशुभं वा स्वकर्म परिणत्या । तच्छक्यमन्यथा नो & कर्तुं देवासुरैरपि हि ॥२॥" तदेवं ते नियतिवादिनोऽनार्या विप्रतिपन्नास्तमेव नियुक्तिकं नियतिवाद श्रद्दधानास्तमेव च प्रतीयन्ते इत्यादि तावन्नेयं यावदन्तरा कामभोगेषु विषण्णा इति चतुर्थः पुरुषजातः समाप्तः।। साम्प्रतमुपसंजिघृक्षुराह-'इत्येते' पूर्वोक्तास्तजीवतच्छरीरपञ्चमहाभूतेश्वरकर्तृखनियतिवादपक्षाश्रयिणश्चवारः पुरुषा नानाप्रकारा प्रज्ञा-मतिर्येषां ते तथा नाना-भिन्नश्छन्दःअभिप्रायो येषां ते तथा, नानाप्रकारं शीलम् अनुष्ठानं येषां ते तधा, नानारूपा दृष्टिः दर्शनं येषां ते तथा, नानारूपा रुचिः-8 चेतोऽभिप्रायो येषां ते तथा, नानाप्रकार आरम्भो-धर्मानुष्ठानं येषां ते तथा, नानाप्रकारेण-परस्परभिन्नेनाध्यवसायेन संयुक्ता धर्मार्थमुद्यताः, नहीण:-परित्यक्तः पूर्वसंयोगो-मातृपितृकलत्रपुत्रसंबन्धो यैस्ते तथा, तथा आरायातः सबहेयधर्मभ्य इत्यार्यों १ परकारपनिरपेक्षवेन साभाविकलात् । २ एकरूपया। edeocoteRemedeceae [१२] दीप अनुक्रम [६४४] JABERatinintamational rajaniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~583~ Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१२], नियुक्ति: [१५७] (०२) easo90938 |१पुण्डरीकाध्य प्रत सूत्रांक [१२] सूत्रकृताङ्गे मागों निर्दोषः पापलेशासंपृक्तस्तमार्य मार्गमसंप्राप्ता इति पूर्वोक्तया नीत्या ते चखारोऽपि नास्तिकादयो 'णो हवाए' इति परि-TRI २ श्रुतस्क-15 स्यक्तवान्मातापित्रादिसंबन्धस्स धनधान्याहिरण्यादिसंचयस च नैहिकसुखभाजो भवन्ति, तथा 'णो पाराए'ति असंप्राप्तत्वादा-1 न्धे शीला भिक्षुःपञ्चयस्य मार्गस्य सर्वोपाधिविशुद्धस्य प्रगुणमोक्षपद्धतिरूपस्य न संसारपारगामिनो भवन्ति, न परलोकसुखभाजो भवन्तीति, किस-IN मावैराग्यकीयावृत्तिः न्तराल एव गृहवासार्यमार्गयोमध्यवर्तिन एव कामभोगेषु 'विषण्णा' अध्युपपना दुष्पारपथमन्ना इव करिणो विषीदन्तीति स्थि खरूपं ॥२९॥ तम् ।। उक्ताः परतीर्थिकाः, साम्प्रतं लोकोतरं भिक्षावृत्ति भिक्षु पञ्चमं पुरुषजातमधिकृत्याह से चेमि पाईणं वा ६ संतेगतिया मणुस्सा भवंति, तंजहा-आरिया वेगे अणारिया वेगे उच्चागोया वेगे णीया गोया वेगे कायमंता वेगे हस्समंता वेगे मुवन्ना वेगे दुवन्ना वेगे सुरूवा वेगे दुरूवा वेगे, तेसिं च णं जणजाणवयाइं परिग्गहियाई भवंति, तं० अप्पयरा वा भुजयरा वा, तहप्पगारेहिं कुलेहिं आगम्म अभिभूय एगे भिक्खायरियाए समुट्टिता सतो वावि एगे णायओ (अणायओ) य उवगरणं च विष्पजहाय भिक्खायरियाए समुहिता असतो वावि एगे णायओ (अणायओ) य उचगरणं च विप्पजहाय भिक्खायरियाए समुट्टिता, [जे ते सतो वा असतो वा णायओ य अणायओ य उवगरणं च विप्पजहाय भिक्खायरियाए ॥२९०|| समुट्ठिता] पुषमेव तेहिंणायं भवइ, तंजहा-इह खलु पुरिसे अन्नमन्नं ममहाए एवं विप्पनिवेति, तंजहाखेतं मे वत्थू मे हिरणं मे सुवनं मे धणं मे धपणं मे कंसं मे दूसं मे विपुलधणकणगरयणमणिमोत्तियसंख दीप अनुक्रम [६४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~584~ Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१३], नियुक्ति: [१५७] (०२) प्रत सूत्रांक Droeserveerseseaesesesesex [१३] सिलप्पवालरत्तरयणसंतसारसावतेयं मेसहा मे स्वा मे गंधा मे रसा मे फासा मे, एते खलु मे कामभोगा अहमवि एतेसि ॥ से मेहाची पुवामेव अप्पणो एवं समभिजाणेजा, तंजहा-इह खलु मम अन्नयरे दुक्खे रोयातके समुप्पजेजा अणि? अकंते अप्पिए असुभे अमणुन्ने अमणामे दुक्खे णो सुहे से इंता भयंता. रो! कामभोगाई मम अन्नयर दुक्खं रोयातंक परियाइयह अणिर्ट अकंतं अप्पियं असुभ अमणुन्नं अमणाम दुक्खं णो सुह, ताऽहं दुक्खामि वा सोयामि वा जूरामि वा तिप्पामि वा पीडामि वा परितप्पामि वा इमाओ मे अण्णयराओ दुक्खाओ रोगातंकाओ पडिमोयह अणिट्टाओ अकंताओ अप्पियाओ असुभाओ अमणुन्नाओ अमणामाओ दुक्खाओ णो सुहाओ, एवामेव णो लद्धपुर भवइ, इह खलु कामभोगा णो ताणाए वा णो सरणाए वा, पुरिसे वा एगता पुर्वि कामभोगे विप्पजहति, कामभोगा वा एगता पुर्वि पुरिसं विप्पजहंति, अन्ने खल्लु कामभोगा अन्नो अहमंसि, से किमंग पुण वयं अन्नमन्नेहि कामभोगेहिं मुच्छामो? इति संखाए णं वयं च कामभोगेहिं विप्पजहिस्सामो, से मेहाची जाणेजा बहिरंगमेतं, इणमेव उवणीयतरागं, तंजहा-माया मे पिता मे भाया मे भगिणी मे भज्जा मे पुत्ता मे धूता मे पेसा मे नत्ता मे मुण्हा मे सुहा मे पिया मे सहा मे सयणसंगंथसंथुया मे, एते खलु मम णायओ अहमवि एतेसिं, एवं से मेहावी पुषामेव अप्पणा एवं समभिजाणेजा, इह खलु मम अन्नयरे दुक्खे रोयातके समुप्पज्जेज्जा अणिढे जाव दुक्खे णो सुहे, से हंता भयंतारो ! णायओ इमं मम अन्नयरं दुक्खं रोयातंक परि Receneseseeeeeeeeeesecsi दीप अनुक्रम [६४५] Swlanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~585~ Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [१३] दीप अनुक्रम [६४५] सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्क न्धे शीलाकीयावृत्तिः ॥२९१ ॥ Education intemational “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१३], निर्युक्ति: [१५७] याइयह अणि जाव णो सुहं, ताऽहं दुक्खामि वा सोयामि वा जाव परितप्यामि वा इमाओ मे अन्नयरातो दुक्खातो यातंकाओ परिमोएह अणिट्ठाओ जाव णो सुहाओ, एवमेव णो लद्धपुत्रं भवइ, तेसिं वाचि भयंताराणं मम गाययाणं अन्नयरे दुक्खे रोयातंके समुपज्जेज्जा अणिट्टे जाव णो सुहे, से हंता अहमेतेसिं भयंताराणं णाययाणं इमं अन्नयरं दुक्खं रोयातंकं परियाइयामि अहिं जाव णो सुहे, मा मे दुक्खंतु वा जाव मा मे परितप्पंतु वा, हमाओ णं अण्णयराओ दुक्खातो रोपातकाओं परिमोएमि अबिहाओ जाव णो सुहाओ, एवमेव णो लद्धपुषं भवइ, अन्नस्स दुक्खं अन्नो न परियाइयति अन्नेण कडं अन्नो नो डिसंवेदेति पत्तेयं जायति पत्तेयं मरइ पत्तेयं चयइ पत्तेयं उववज्जइ पत्तेयं झंझा पत्तेयं सन्ना पत्तेयं मन्ना एवं विनू वेदणा, इह (इ) खलु णातिसंजोगा णो ताणाए वा णो सरणाए वा पुरिसे वागत पु िणातिसंजोए विप्पजहति, णातिसंजोगा वा एगता पुष्विं पुरिसं विप्पजहंति, अन्ने खलु णातिसंजोगा अन्नो अहमंसि, से किमंग पुण वयं अन्नमन्नेहिं णातिसंजोगेहिं मुच्छामो ?, इति संखाए णं वयं णातिसंजोगं विष्पजहिस्सामो से मेहावी जाणेजा बहिरंगमेयं, इणमेव उवणीयतरागं, तंजहाहत्था में पाया मे बाहा मे ऊरू मे उदरं मे सीसं मे सीलं मे आऊ में बलं मे वण्णो मे तया मे छाया मे सोयं मे च मे घाणं मे जिन्भा में फासा मे ममाइजर, बयाड पडिजूरइ, तंजहा- आओ बलाओ वण्णाओ तयाओ छायाओ सोयाओ जाव फासाओ सुसंधितो संधी सिंधीभवर, बलियतरंगे गाए For Fans Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ...... आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ~ 586~ पुण्डरी काव्य० 9. भिक्षुःपञ्च मः वैराग्यस्वरूपं ॥२९१ ॥ www.ncbrary.org Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१३], नियुक्ति: [१५७] (०२) प्रत सूत्रांक [१३] भवइ, किण्हा केसा पलिया भवंति, तंजहाजंपि य इमं सरीरगं उरालं आहारोवयं एयपि य अणुपुवेणं विप्पजहियवं भविस्सति, एवं संवाए से भिक्खू भिक्खायरियाए समुटिए दुहओ लोग जाणेज्जा, तं०-जीवा व अजीवा चेव, तसा चेव थावरा चेव ।। (सूत्रम् १३) याटकामभोगेष्यसक्तः समन्तरा नोऽवसीदति पद्मवरपौण्डरीकोद्धरणाय च समर्थों भवति तदेतदहं प्रवीमीति । अस्य चार्थ|स्योपदर्शनाय प्रस्तावमारचयन्नाह-प्राचीनादिकामन्यतरां दिशमुद्दिश्यैके केचन मनुष्याः सन्ति' भवन्ति, तद्यथा-आर्या-आयदेशो-18 त्पन्ना मगधादिजनपदोद्भवाः, तथा 'अनार्याः' शकययनादिदेशोद्भवाः, तथा च 'उच्चैर्गोत्रोद्भवा' इक्ष्वाकुहरिवंशादिकुलोद्भवाः,81 | तथा 'नीचैर्गोत्रोद्भया' वर्णापसदसंभूताः, तथा 'कायवन्तः' प्रांशवः, तथा 'हवा' वामनकादयः, तथा 'सुवर्णा दुर्वर्णाः सुरूपा दूरूपा वा एके केचन कर्मपरवशा भवन्ति, तेषां चार्यादीनां 'ण' मिति वाक्यालङ्कारे 'क्षेत्राणि' शालिक्षेत्रादीनि 'वास्तूनि' खातोरिङ्गतादीनि तानि 'परिगृहीतानि' स्वीकृतानि भवन्ति, तान्येव विशिनष्टि-'अल्पतराणि स्तोकतराणि वा प्रभूततराणि वा भवन्ति । तथा ते(ये)पामेव च जनजानपदाः परिगृहीता भवन्ति, तेऽप्यल्पतराः प्रभूततरा वा भवेयुः, तेषु चार्यादिविशेषणविK शिष्टेषु तथाप्रकारेषु कुलेवागम्यैवंभूतानि गृहाणि गला तथाप्रकारेषु वा कुलेषु 'आगम्य' जन्म लब्ध्वाभिभूय च विषयकषाया| दीन् परीषहोपसर्गान् वा सम्यगुस्थानेनोत्थाय प्रव्रज्यां गृहीबके केचन तथाविधसत्त्यवन्तो भिक्षाचर्यायां सम्यगुत्थिताः सगु-18 स्थिताः तथा 'सतो' विद्यमानानपि वा एके केचन महास चोपेता 'ज्ञातीन' खजनान् (अज्ञातीन्-परिजनान्) तथा 'उपकरणं Saeasrae09390saerae393000202oras दीप अनुक्रम [६४५] JABERatinintamational rajaniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~587~ Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [१३] दीप अनुक्रम [६४५] सूत्रकृताने २ श्रुतस्क मधे शीलाडीयावृत्तिः ॥२९२ ॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१३], निर्युक्ति: [१५७] च' कामभोगाङ्गं धनधान्यहिरण्यादिकं विविधं प्रकर्षेण 'हित्वा' त्यक्ता भिक्षाचर्यायां सम्यगुत्थिताः, असतो वा ज्ञातीनुपकरणं च विग्रहाय भिक्षाचर्यायामेके केचनापगतस्वजन विभवाः समुत्थिताः ॥ ये ते पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टा भिक्षाचर्यायामभ्युद्यताः पूर्वमेव – प्रवज्याग्रहणकाल एव तैरेतज्ज्ञातं भवति, तद्यथा— 'इह' जगति खलुर्वाक्यालङ्कारे अन्यदन्यद्वस्तुद्दिश्य ममैतद्भोगाय भविष्यतीति, एवमसौ प्रव्रज्यां प्रतिपन्नः प्रविवजिपुर्वा 'प्रवेदयति' जानात्येवं परिच्छिनति, तद्यथा - 'क्षेत्रं' शालिक्षेत्रादिकं 'वास्तु' खातोच्छ्रितादिकं 'हिरण्यं' धर्मलाभादिकं 'सुवर्ण' कनकं 'धनं' गोमहिष्यादिकं 'धान्यं' शालिगोधूमादिकं 'कांस्यं' कांस्यपात्रादिकं तथा 'विपुलानि' प्रभूततराणि धनकनकरत्नमणिमौक्तिकानि 'शंखशिल'त्ति मुक्तशैलादिकाः शिलाः 'प्रवालं' विद्रुमं यदिवा- 'सिलपवाले ति श्रिया युक्तं प्रवालं श्रीप्रवालं वर्णादिगुणोपेतं तथा 'रक्तरयणं'ति रक्तरत्नं - पद्मरागादिकं तथा ४ 'सत्सारं' शोभनसारमित्यर्थः शूलमण्यादिकं, तथा 'स्वापतेयं' रिक्थं द्रव्यजातं सर्वमेतत्पूर्वोक्तं 'मे' ममोपभोगाय भविष्यति, तथा 'शब्दा' वेण्णादयो 'रूपाणि' अङ्गनादीनि 'गन्धाः' कोष्ठपुटादयः 'रसा' मधुरादयः मांसरसादयो वा 'स्पर्श' मृद्रादयः, एते सर्वेऽपि खलु मे कामभोगाः, अहमप्येषां योगक्षेमार्थं प्रभविष्यामीत्येवं संप्रधार्य ।। स मेधावी पूर्वमेवात्मानं विजानीयाद्एवं पर्यालोचयेत्, तद्यथा- 'इह' संसारे खलुशब्दोऽवधारणे, इहैव-अस्मिन्नेव जन्मनि मनुष्यभवे वा ममान्यतरदुःखं शिरोवेदनादिकं आतङ्को वाऽऽशु जीवितापहारी शूलादिकः समुत्पद्यते, तमेव विशिनष्टि-अनिष्टः अकान्तः अप्रियः अशुभो मनोज्ञोऽवनामयतीत्यवनाम: - पीडाविशेषकारी दुःखरूपो यदिवा न मनागमनाक 'मे' मम नितरामित्यर्थः दुःखयतीति दुःखं पुनरपि १०द्राय प्र० । विषयासक्तः पुरुषशे मनुते इति शेषः ३ धर्मलालादिकं प्र० । ४ अपदितरूप्यसुवर्णमितिपर्यायः प्राचीनपुस्तके ५ शुद्ध प्र० । Education intimational For Full मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ...... आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ~ 588~ १ पुण्डरीकाव्य० • भिक्षुःपश्चमः वैराग्यस्वरूपं ॥२९२॥ www.brary.org Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१३], नियुक्ति: [१५७] (०२) प्रत सूत्रांक des [१३] दुःखोपादानमत्यन्तदुःखप्रतिपादनार्थ सुखलेशस्थापि परिहारार्थ च, 'नो' नैव शुभः, अशुभकर्मविपाकापादितखादिति । अत्र | च यदुक्तमपि पुनरुच्यते तदत्यादरख्यापनार्थ तद्विशेषप्रतिपादनार्थ चेति, तदेवंभूतं दुःखं रोगातर्फ वा 'हन्त' इति खेदे भया-1 बातारो यूयं क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यादिकाः परिग्रहविशेषाः शब्दादयो वा विषयाः तथा हे भगवन्तः! कामभोगा यूर्य मया पालिताः परिगृहीताश्च ततो यमपीदं दुःखं रोगात वा 'परियाझ्यहत्ति विभागशः परिगृहीत यूयम् , अत्यन्तपीड| योद्विनः पुनस्वदेव दुखं रोगातङ्क वा विशेषणद्वारेणोच्चारयति-अनिष्टमप्रियमकान्तमशुभममनोज्ञममनाग्भूतमपनामक वा दुःखमे बैतत् ततोऽशुममित्येवंभूतं ममोस्पन्न यूयं विभजत अहमनेनातीव दुःखामीति दुःखित इत्यादि पूर्ववनेयमिति, अतोऽमुष्मान्माम|न्यतरसादुखावोगातकाद्वा प्रतिमोचयत मम् , अनिष्टादिविशेषणानि तु पूर्ववन्याख्येयानि । प्रथम प्रथमान्तानि पुनर्द्वितीया तानि साम्प्रतं पञ्चम्यन्तानीति । न चायमर्थस्तेन दुःखितेन 'एवमेवेति यथा प्रार्थितस्तथैव लब्धपूर्वो भवति, इदमुक्तं भवतिन हि ते क्षेत्रादयः परिग्रहविशेषा नापि शब्दादयः कामभोगास्तं दुःखितं दुःखाद्विमोचयन्तीति ।। एतदेव लेशतो दर्शयति 'इह | अस्मिन् खलु वाक्यालङ्कारे ते कामभोगा अत्यन्तमभ्यस्ता न 'तस्य' दुःखितस्य त्राणाय शरणाय वा भवन्ति, मुलालितानामपि | कामभोगाना पर्यवसानं दर्शयितुमाह-'पुरिसो वा' इत्यादि, पुरि शयनात्पुरुषः-प्राणी 'एकदा व्याध्युत्पत्तिकाले जराजीणेकाले वाऽज्यस्मिन्वा राजाधुपद्रवे 'तान्' कामभोगान् परित्यजति, स वा पुरुषो द्रव्याद्यभावे तैः कामभोगविषयोन्मुखोऽपि त्यज्यते, स चैवमवधारयति-'अन्ये' मत्तो भिन्नाः खल्वमी कामभोगाः, तेभ्यश्चान्योऽहमणि । तदेवं व्यवस्थिते "फिमिति वयं पुनरेतेवनित्येषु परभूतेष्वन्येषु कामभोगेषु मूच्छी कुर्म" इत्येवं केचन महापुरुषाः 'परिसंख्याय' सम्यग् ज्ञाखा कामभोगान् पर्व 'विप्र e दीप अनुक्रम [६४५] Sirmlanmitrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~589~ Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [१३] दीप अनुक्रम [६४५] सूत्रकृता २ श्रुतस्क | न्धे शीलाड्रीयावृत्तिः ॥२९३॥ “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [-], मूलं [१३], निर्युक्ति: [१५७] Jus Education intemational - जहिष्यामः त्यक्ष्याम इत्येवमध्यवसायिनो भवन्ति । पुनरपरं वैराग्योत्पत्तिकारणमाह- 'से मेहावी' स 'मेधावी' सश्रुतिकः एतज्जानीयात्, तद्यथा - यदेतत्क्षेत्र वास्तुहिरण्यसुवर्णशब्दादिविषयादिकं दुःखपरित्राणाय न भवतीत्युपन्यस्तं तदेतद्राह्यतरं वर्तते, इदमेव चान्यद्वक्ष्यमाणम् 'उपनीततरम्' आसन्नतरं वर्तते, तद्यथा-माता पिता भ्राता भगिनीत्यादयो ज्ञातयः पूर्वापरसंस्तुता एते खलु ममोपकाराय ज्ञातयो भविष्यन्ति, अहमप्येतेषां खानभोजनादिनोपकरिष्यामीत्येवं स मेधावी पूर्वमेवात्मनैवं समभिजानीयादित्यादि, एवं पर्यालोचयत्कल्पितवानिति वा एतदध्यवसायी चासौ स्यादिति दर्शयितुमाह-' इह खलु' इत्यादि 'इह' अस्मिन् भवे मम वर्तमानस्यानिष्टादिविशेषणविशिष्टो दुःखातङ्कः समुत्पद्येत ततोऽसौ तदुःखदुःखितो ज्ञातीनेवमभ्यर्थयेत् तद्यथा- इमं ममान्यतरं दुःखातङ्कमुत्पन्नं परिगृहीत यूयमहमनेनोत्पन्नेन दुःखातङ्केन पीडयिष्यामी (प्य इत्यतोऽमुष्मान्मां परिमोचयत यूयमिति, न चैतत्तेन दुःखितेन लब्धपूर्वं भवति, न हि ते ज्ञातयस्तं दुःखान्मोचयितुमलमिति भावः नाप्यसौ तेषां दुःखमोचनायालमिति दर्शयितुमाह- 'तेसिं वावी' त्यादि, सर्व प्राग्वद्योजनीयं यावदेवमेव नो लब्धपूर्व भवतीति किमित्येवं नोपलब्धपूर्व भवतीत्याह- 'अण्णस्स दुक्खमित्यादि सर्वस्यैव संसारोदर विवरवर्तिनोऽसुमतः स्वकृत कर्मोदयाद्यदुःखमुत्पद्यते तदन्यस्य संबन्धि दुःखमन्यो- मातापित्रादिकः कोऽपि न प्रत्यापित्रति न तस्मात्पुत्रादेर्दुः खेनासनात्यन्तपीडिताः खजना नापि तद्दुःखमात्मनि कर्तुमलं किमित्येवमाशङ्कयाह- 'अण्णेण कड' मित्यादि, 'अन्येन' जन्तुना कपाय वशगेन इन्द्रियानुकूलतया भोगाऽभिलाषिणाऽज्ञानावृतेन मोहोदयवर्तिना यत्कृतं कर्म तदुदयमन्यः प्राणी नो प्रतिसंवेदयति-नानुभवति, तदनुभवने हाकुतागमकृतनाशौ स्यातां न चेमौ युक्तिसंगती, अतो यद्येन कृतं तत्सर्वं स एवानुभवति, तथा चोक्तम्- "परकृतकर्मणि यस्मान For False मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...... आगमसूत्र -[ ०२ ], अंग सूत्र- [ ०२] "सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ~ 590~ १ पुण्डरीकाध्य० भिक्षुःपञ्चमः वैराग्यस्वरूपं ॥२९३॥ www.ncbrary.org Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१३], नियुक्ति: [१५७] (०२) प्रत सूत्रांक [१३] Heracraterasamaerasas993029000rawa | कामति संक्रमो विभागो वा । तस्मात्सत्वानां कर्म यस्य यत्तेन तद्वयम् ॥१॥" यसात्वकृतकर्मफलेश्वरा जन्तयस्तस्मादेतद्भवतीत्याह-'पत्तेय'मित्यादि, एकमेकं प्रति प्रत्येकं सर्वोऽप्यसुमान् जायते, तथा क्षीणे चायुषि प्रत्येकमेव म्रियते, उक्तं च-"एकस्य जन्ममरणे गतयक्ष शुभाशुभा भवावर्ते । तस्मादाकालिकहितमेकेनैवात्मनः कार्यम् ॥१॥” इति, तथा प्रत्येक क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णादिकं परिग्रहं शब्दादींश्च विषयान् मातापितुकलत्रादिकं च त्यजति, तथा प्रत्येकमुपपद्यते-युज्यते परिग्रहखीकरणतया, तथा प्रत्येकं झंझा-कलहस्तद्ग्रहणात्कषायाः परिगृह्यन्ते, ततः प्रत्येकमेवासुमतां मन्दतीव्रतया कषायोद्भवो भवति, तथा संज्ञानं | संज्ञा-पदार्थपरिच्छित्तिः, साऽपि मन्दमन्दतरपटुपटुतरभेदात्प्रत्येकमेवोपजायते, सर्वज्ञादारतस्तरतमयोगेन मतेर्व्यवस्थितखात्, तथा प्रत्येकमेव 'मन्नति मननं चिन्तनं पर्यालोचनमितियावत् , तथा प्रत्येकमेव 'विष्णु'त्ति विद्वान् , तथा प्रत्येकमेव सातासातरूप-| | वेदना सुखदुःखानुभवः, उपसजिघृक्षुराह-'इति खलु' इत्यादि, 'इति' एवं पूर्वोक्तेन प्रकारेण यतो नान्येन कृतमन्यः प्रतिसंवेदयते प्रत्येकं च जातिजरामरणादिकं ततः खल्वमी ज्ञातिसंयोगा:-खजनसंबन्धाः संसारचक्रवाले पर्यटतोऽत्यन्तपीडितस्य तदुद्धरणे न ब्राणाय-न त्राणं कुर्वन्ति, नाप्यनागतसंरक्षणतः शरणाय भवन्ति, किमिति', यतः पुरुष 'एकदा' क्रोधोदयादिकाले ज्ञातिसंयोगान् 'विप्रजहाति' परित्यजति, 'खजनाच न बान्धवा' इति व्यवहारदर्शनात् , शातिसंयोगा वैकदा तदस|दाचारदर्शनतः पूर्वमेव तं पुरुषं परित्यजन्ति-खसंवन्धादुत्तारयन्ति । तदेवं व्यवस्थिते एतद्भावयेत् , तद्यथा--अन्ये खल्वमी ज्ञातिसंयोगा मत्तो भिन्ना इखरा एभ्यश्चान्योहमसि । तदेवं व्यवस्थिते किमङ्ग पुनर्वयमन्यैरन्यैातिसंयोगैमूर्छा कुर्मः १, न तेषु | मूछों क्रियमाणा न्याय्या इत्येवं 'संख्याय' ज्ञाखा प्रत्याकलय्य चयमुत्पन्नवैराग्या ज्ञातिसंयोगांस्त्यक्ष्याम इत्येवं कृताध्यवसा दीप अनुक्रम [६४५] JABERatinintamational Sirwsaneiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~591~ Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [१३] दीप अनुक्रम [६४५] सूत्रकृताङ्गे २ धुतस्क न्धे शीलाङ्कीयावृतिः ।।२९४ ॥ Education intam “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [-], मूलं [१३], निर्युक्ति: [१५७] - यिनो विदितवेद्या भवन्तीति ॥ साम्प्रतमन्येन प्रकारेण वैराग्योत्पत्तिकारणमाह-स 'मेघावी' सश्रुतिक 'एतद्' वक्ष्यमाणं जा| नीयात्, तद्यथा बाह्यतरमेतत् यज्ज्ञातिसंबन्धनम् इदमेवान्यदुपनीततरम् - आसन्नतरं, शरीरावयवानां भिन्नातिभ्य आसन्नत रखात्, तद्यथा-हस्तौ ममाशोकपालसदृशौ तथा भुजौ करिकराकारों पर पुरंजयौ प्रणयिजनमनोरथपूरको शत्रुशतजीवितान्तकरौ यथा मम न तथाऽन्यस्य कस्यापीत्येवं पादावपि पद्मगर्भसुकुमारावित्यादि सुगमं यावत्स्पर्शाः स्पर्शनेन्द्रियं 'ममाति' ममीकरोति, याटको न तारगम्यस्येति भावः, एतच हस्तपादादिकं स्पर्शनेन्द्रियपर्यवसानं शरीरावयवसंबन्धिवेन विवक्षितं यत्किमपि वयसः परिणामात् कालकृतावस्थाविशेषात् 'परिजूरह'त्ति परिजीर्यते जीर्णतां याति प्रतिक्षणं विशरास्तां याति तस्मिंश्व प्रतिस मयं विशीर्यति शरीरे प्रतिसमयमसौ प्राणी एतस्माद्भश्यति, तद्यथा-- आयुपः पूर्वनिबद्धात्समयादिहान्याऽपचीयते, आवीची मरणेन प्रतिसमयं मरणाभ्युपगमात्, तथा बलादपचीयते, तथाहि -यौवनावस्थायाध्यवमाने शरीर के प्रतिक्षणं शिथिलीभवत्सु संधिबन्धनेषु बलादवश्यं भ्रश्यते, तथा वर्णाचचच्छायातोऽपचीयते, अत्र च सनत्कुमारदृष्टान्तो वाच्यः, तथा जीर्यति शरीरे श्रोत्रादीनीन्द्रियाणि न सम्यक् स्वविषयं परिच्छेत्तुमलं, तथा चोक्तम्- "वाल्य वृद्धिर्वयो मेधा सक्चक्षुः शुक्रविक्रमाः । दशकेषु निवर्तन्ते, मनः सर्वेन्द्रियाणि च ॥ १ ॥ तथा च विशिष्टवयोहान्या 'सुसंघितः' सुबद्धः संधिः - जानुरादिको 'विसंधिर्भवति' विगलितबन्धनो भवतीत्यर्थः तथा चलितरङ्गाकुलं सर्वतः शिराजालवेष्टितमात्मनोऽपि शरीरमिदमुद्वेगकृद्भवति किंपुनरन्येषां ?, तथा | चोक्तम्- "वलिसंततमस्थिशेषितं, शिथिलस्नायुवृतं कडेवरम् । स्वयमेव पुमान् जुगुप्सते, किमु कान्ताः कमनीयविग्रहाः १ ॥ १२ ॥ " | तथा कृष्णाः केशा वयःपरिणामजलप्रक्षालिता धवलतां प्रतिपद्यन्ते, तदेवं वयःपरिणामापादितसम्मतिरेतद्भावयेत्, तद्यथा--- For Fans Use Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ...... आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ~ 592~ a; १ पुण्डरीकाध्य० भिक्षुःपञ्च मः वैराग्य स्वरूपं ॥२९४॥ Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१३], नियुक्ति: [१५७] (०२) प्रत Zeedesesex सूत्रांक [१३] IN यदपीदं शरीरमदारं-शोभनावयवरूपोपेतं विशिष्टाहारोपचितम् , एतदपि मयाऽवश्यं प्रतिक्षणं विशीर्यमाणमायुपः क्षये विप्रहात व्यं भविष्यतीत्येतदवगम्य शरीरानित्यतया संसारासारतां 'संख्याय' अवगम्य परित्यक्तसमस्तगृहप्रपञ्चो निष्किश्चनतामुपगम्य स भिक्षुर्देहदीर्घसंयमयात्रार्थ भिक्षाचर्यायां समुत्थितः सन् द्विधा लोकं जानीयादिति । तदेव लोकद्वैविध्य दर्शयितुमाहतद्यथा-जीवाश्व-प्राणधारणलक्षणास्तद्विपरीताचाजीवा-धर्माधर्माकाशादयः, तत्र तस्य भिक्षोरहिंसाप्रसिद्धये जीवान् विभागेन दर्शयितुमाह -जीवा अप्युपयोगलक्षणा द्विधा, तद्यथा-त्रस्सन्तीति बसा-दीन्द्रियादयः तथा तिष्ठन्तीति स्थावरा:-पृथिवीकाया-1 दयः । तेऽपि सूक्ष्मवादरपर्याप्तकापर्याप्तकादिभेदेन बहुधा द्रष्टव्याः, एतेषु चोपरि बहुधा च्यापारः प्रवर्तते ।। साम्प्रतं तदुपमदे-16 कव्यापारकन् दशेयत्राहइह खलु गारत्था सारंभा सपरिग्गहा, संतेगतिया समणा माणावि सारंभा सपरिग्गहा, जे इमे तसा थावरा पाणा ते सयं समारभंति अनेणवि समारंभावेंति अण्णंपि समारभंतं समणुजाणंति ॥ इह खल्लु गारत्था सारंभा सपरिग्गहा, संतेगतिया समणा माहणावि सारंभा सपरिग्गहा, जे इमे कामभोगा सचिता वा अचित्ता चा ते सयं परिगिण्हंति अन्नेणवि परिगिण्हाति अन्नपि परिगिण्हतं समणुजाणंति ॥ इह खलु गारत्या सारंभा सपरिग्गहा, संतेगतिया समणा माहणावि सारंभा सपरिग्गहा, अहं खलु अणारंभे अपरिग्गहे, जे खलु गारत्था सारंभा सपरिग्गहा, संतेगतिया समणा माहणावि सारंभा सपरिग्गहा, एतेसिं चेव निस्साए बंभचेरवासं वसिस्सामो, कस्स णं तं हेउं ?, जहा पुर्व तहा अवरं जहा अवरं eroesesececececeneceseroesel दीप अनुक्रम [६४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~593~ Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१४], नियुक्ति: [१५७] (०२) प्रत అంది साधोला सूत्रांक सूत्रकृताङ्गे तहा पुवं, अंजू एते अणुवरया अणुवद्विया पुणरबि तारिसगा चेव ॥ जे खलु गारत्था सारंभा सपरिग्ग- पौण्डरी२ श्रुतस्क-18 हा, संगतिया समणा माहणावि सारंभा सपरिग्गहा, बुहतो पाबाई कुषंति इति संखाए दोहिवि अंत- काध्य न्धे शीला- हिं अदिस्समाणो इति भिक्खू रीएज्जा ।। से बेमि पाईणं वा ६ जाव एवं से परिणायकम्मे, एवं से बवे- पश्चमस झीयावृत्तिः यकम्मे, एवं से बिअंतकारए भवतीति मक्वायं ।। (सूत्रं १४) कनिश्रा ॥२९॥ 'इह' अस्मिन् संसारे खलुक्यालङ्कारे गृहम्-अगारं तत्र तिष्ठन्तीति गृहस्थाः, ते च सहारम्भेण-जीवोपमर्दकारिणी || 18 वर्तन्त इति सारम्भाः, तथा सह परिग्रहेण-द्विपदचतुष्पदधनधान्यादिना वर्तन्त इति सपरिग्रहाः, न केवलं त एव अन्येऽपि 'सन्ति' विद्यन्ते एके केचन 'श्रमणाः' शाक्यादयः, ते च पचनपाचनाद्यनुमतेः सारम्भा दास्यादिपरिग्रहान सपरिग्रहाः, तथा|| ब्राह्मणाबैवंविधा एव, एतेषां च सारम्भकवं स्पष्टतरं सूत्रेणेव दर्शयति-य इमे प्राग्व्यावर्णिताखसाः सावराब प्राणिनस्तान् वय-॥॥ मेव-अपरप्रेरिता एव समारभन्ते, तदुपमर्दक व्यापार खत एवं कुर्वन्तीत्यर्थः, तथा अन्यांध समारम्भयन्ति समारम्भ कुवेत-18|| धान्यान् समनुजानन्ति ।। तदेवं प्राणातिपातं प्रदर्य भोगाङ्गभूतं परिग्रहं दर्शयितुमाह-इह खलु' इत्यादि, इह खलु गृहस्थाः | सारम्भाः सपरिग्रहाः सन्ति श्रमणा ब्राह्मणाच, ते च सारम्भपरिग्रहखात् किं कुर्वन्तीति दर्शयति-य हमे प्रत्यक्षाः कामप्रधाना॥8॥२९५।। भोगाः कामभोगाः काम्यन्त इति कामा:-स्त्रीगात्रपरिवङ्गादयो भुज्यन्त इति भोगाः-सकचन्दनबादित्रादयः, त एते सचि-1% ताः-सचेतना अचेतना वा भवेयुः, तदुपादानभूता वार्थाः, तांश्च सचित्तानचित्तान्बार्थान् 'ते' कामभोगार्थिनो गृहस्थादयः खत एव परिगृहन्ति अन्येन च परिग्राहयन्ति अपरं च परिगृण्हन्तं समनुजानत इति ॥ साम्प्रतमुपसंजिघृक्षुराह-'इह खलु [१४] दीप अनुक्रम [६४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~594 ~ Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१४], नियुक्ति: [१५७] (०२) प्रत सूत्रांक [१४] toeratisebeoercenewestseeReceae इत्यादि, इह-असिन जगति 'सन्ति' विद्यन्ते गृहस्थास्तथाविधाः श्रमणा ब्राह्मणाश्र सारम्भाः सपरिग्रहा इत्येवं ज्ञाखा स भिक्षुरेवमवधारयेद्-अहमेवात्र खल्पनारम्भोऽपरिग्रहथ, ये चामी गृहस्थादयः सारम्भादिगुणयुक्तास्तदेतन्निश्रया-सदाश्रयेण ब्रह्मचर्य-श्रा-12 मण्यमाचरिष्यामोऽनारम्भा अपरिग्रहाः सन्तः, धर्माधारदेहप्रतिपालनार्थमाहारादिकृते सारम्भपरिग्रहगृहस्थनिश्रया प्रवज्यां करिप्याम इत्यर्थः । ननु च यदि तन्निश्रया पुनरपि विहर्तव्यं किमर्थ ते त्यज्यन्त इति जाताशङ्कः पृच्छति-'कस्य हेतोः' केन कारणेन तदेतद्गृहस्थश्रमणब्राह्मणत्यजनमभिहितमिति, आचार्योऽपि विदिताभिप्राय उत्तरं ददाति, यथा-'पूर्वम्' आदी सार-18 म्भपरिग्रहलं तेषां तथा 'पश्चादपि सर्वकालमपि गृहस्थाः सारम्भादिदोषदुष्टाः श्रमणाश्च केचन यथा 'पूर्व गृहखभावे सार-10 म्भाः सपरिग्रहास्तथा 'अपरस्मिन्नपि' प्रवज्यारम्भकाले तथाविधा एव त इति, अधुनोभयपदाव्यभिचारिखप्रतिपादनार्थमाहयथा 'अपरम्' अपरस्मिन् प्रवज्याप्रतिपत्तिकाले तथा 'पूर्वमपि गृहस्वभावादावपीति, यदिवा-कस्स हेतोस्तगृहस्थाद्याश्ररायणं क्रियते यतिनेत्याह-यथा 'पूर्व प्रवज्यारम्भकाले सर्वमेव भिक्षादिकं गृहस्थायर्त तथा पश्चादपि, अतः कथं नु नामानवद्या वृत्तिर्भविष्यतीत्यतः साधुभिरनारम्भैः सारम्भाश्रयणं विधेयं । यथा चैते गृहस्थादयः सारम्भाः सपरिग्रहाभ तथा प्रत्यक्षेणैवोपलभ्यन्त इति दर्शयितुमाह--'अंजू' इति व्यक्तमेतदेते गृहस्थादयो यदिवा-'अ' इति प्रगुणेन न्यायेन स्वरसप्रवृत्या सावधानुठानेभ्योऽनुपरताः परिग्रहारम्भाच्च सत्संयमानुष्ठानेन चानुपस्थिताः-सम्पगुत्थानमकृतवन्तो येऽपि कथञ्चिद्धकरणायोस्थिता|स्तेऽप्युदिष्टभोजिलात्सापद्यानुष्ठानपरखाच गृहस्वभावानुष्ठानमनतिवर्तमानाः पुनरपि ताशा एव-गृहस्पकल्पा एवेति ।। साम्प्रतमुपसंहरति-य इमे-गृहस्थादयस्ते 'द्विधाऽपि सारम्भसपरिग्रहत्वाभ्यामुभाभ्यामपि पापान्युपाददते यदिवा रागद्वेषाभ्यामुभा दीप अनुक्रम [६४६] JABERatinintamational Samanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~595 Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१४], नियुक्ति: [१५७] (०२) प्रत सूत्रांक [१४] मन्त्रकताभ्यामपि यदिवा गृहस्थप्रवज्यापर्यायाभ्यामुभाभ्यां पापानि कुर्वत इत्येवं 'संख्याय' परिज्ञाय 'द्वयोरप्यन्तयो।' आरम्भपरि- पौण्डरी२ श्रुतस्क- ग्रहयो रागद्वेषयोर्वा 'अदृश्यमानः' अनुपलभ्यमानो यदिवा रागद्वेषयोर्यावन्तौ-अभावी तयोरादिश्यमानो रागद्वेषाभाववृत्तिखे काध्य न्धे शीला- नापदिश्यमानः सन्नित्येवंभूतो 'भिक्षुः' भिक्षणशीलोज्नवद्याहारभोजी सत्संयमानुष्ठाने 'रीयेत' प्रवर्तेत, एतदुक्तं भवति य इमे। पञ्चमस कीयावृत्तिः ज्ञातिसंयोगा यश्चायं धनधान्यादिकः परिग्रहो यचेदं हस्तपादाद्यवयवयुक्तं शरीरकं यच्च तदायुर्बलवर्णादिकं तत्सर्वमशाश्वतमनि साघोर्लोत्यं खमेन्द्रजालसदृशमसारं, गृहस्थश्रमणब्राह्मणाश्च सारम्भाः सपरिग्रहाश्च, एतत्सर्व परिज्ञाय सत्संयमानुष्ठाने भिक्षू रीयेतेति स्थि- कनिश्रा ॥२९६॥ तम् ।। स पुनरप्यहमधिकृतमेवार्थ विशेपिततरं सोपपत्तिकं ब्रवीमीति-तत्र प्रज्ञापकापेक्षया प्राच्यादिकाया दिशोऽन्यतरस्याः। समायातः स भिक्षुयोरप्यन्तयोरदृश्यमानतया सत्संयमे रीयमाणः सन् 'एवम् अनन्तरोक्तेन प्रकारेण ज्ञपरिजया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया प्रत्याख्याय च परिज्ञातकर्मा भवति । पुनरपि 'एव मिति परिजातकर्मखायपेतकर्मा भवति-अपूर्वस्याबन्धको भवतीत्यर्थः, पुनरेवमित्यबन्धकतया योगनिरोधोपायतः पूर्वोपचितस्य कर्मणो विशेषेणान्तकारको भवतीति, एतच तीर्थकरगणधरादिभितिज्ञेयैराख्यातमिति ॥ कथं पुनः प्राणातिपातविरतिव्रतादिव्यवस्थितस्य कर्मापगमो भवतीत्युक्तं ?, यतस्तत्प्रवृत्तखात्मीपम्पेन प्राणिनां पीडोत्पद्यते, तया च कर्मबन्ध इत्येवं सर्व मनसाधायाह---- तत्थ खलु भगवता छज्जीवनिकाय हेऊ पण्णत्ता, तंजहा-पुढवीकाए जाच तसकाग, से जहाणामए मम अस्सायं दंडेण वा अट्ठीण वा मुट्ठीण वा लेटूण वा कवालेण वा आउहिजमाणस्स वा हम्ममाणस्स वा १ येत तिष्ठत प्र० । २ काइया भाव तसकाइया प्रा। दीप अनुक्रम [६४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~596~ Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [६४७] Education intemational “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१५], निर्युक्ति: [१५७] तजिनमाणस्स वा ताडिजमाणस्स वा परियाविजमाणस्स वा किलामिमाणस्स वा उद्दविजमाणस्स वा जाव लोमुक्खणणमायमवि हिंसाकारगं दुक्खं भयं पडिसंवेदेमि, इचेवं जाण सबै जीवा सबै भूता सबै पाणा सधे सत्ता दंडेण वा जाव कवालेण वा आउहिजमाणा वा हम्ममाणा वा तजिजमाणा वा ताडिजमाणा वा परियाविजमाणा वा किलाभिज्नमाणा वा उदविजमाणा वा जाव लोमुक्खणणमायमवि हिंसाकारणं दुक्खं भयं पडिसंवेदेति, एवं नच्चा सर्वे पाणा जाब सत्ता ण हंतवाण अज्जावेयवा ण परिघेतवा ण परतावा ण उदयवा ।। से बेमि जे य अतीता जे य पप्पन्ना जे य आगमिस्सा अरिहंता भगवंता सचे ते एवमाक्र्स्वति एवं भासंति एवं पण्णवंति एवं परुवंति-सङ्के पाणा जाव सत्ता ण हंतवाण अजावयचा पण परिघेवाण परितावेयवा ण उद्दवेयवा एस धम्मे धुवे णीतिए सासए समिच लोगं खेयन्नहिं पवेदिए, एवं से भिक्खू विरते पाणातिवायातो जाव विरते परिग्गहातो णो दंतपक्वालणेणं दंते पक्खालेजा णो अंजणं णो वमणं णो धूवणे णो तं परिआविएना || से भिक्खु अकिरिए अलूसए rate अमाणे अमाए अलोहे उवसंते परिनिच्छुडे णो आसंसं पुरतो करेला इमेण मे दिद्वेण वा सुरण वा मण वा विनाएण वा इमेण वा सुचरियतवनियमवंभचेरवासेण इमेण वा जायामायाबुत्तिएणं धम्मेणं इओ पेचा देवे सिया कामभोगाण बसवत्ती सिद्धे वा अदुक्खमसुभे एत्थवि सिया एत्थवि णो सिया ॥ से भिक्खू सदेहिं अमुच्छिए रूवेहिं अमुच्छिए गंधेहिं अमुच्छिए रसेहिं अमुच्छिए फासेहिं अमुच्छिए विरए For Fans Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ~ 597 ~ సరససాధన ఫల సరసన 29 30 39 సిద్ధ సర్వ స్థితి స www.jancibrary.org Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१५], नियुक्ति: [१५७] (०२) सूत्रकृताङ्गे २श्रुतस्क-18 न्धे शीलाकीयावृत्तिः १ पौण्डरीकाध्य अहिंसापरिभावना साधोः प्रत सूत्रांक ॥२९॥ [१५] कोहाओ माणाओ मायाओ लोभाओ पेचाओ दोसाओ कलहाओ अभक्खाणाओ पेसुन्नाओ परपरिवायाओ अरहरईओ मायामोसाओ मिच्छादसणसल्लाओ इति से महतो आयाणाओ उवसंते उवहिए पडिविरते से भिक्खू ॥ जे इमे तसथावरा पाणा भवंति ते णो सयं समारंभइ णो वण्णेहिं समारंभावेंति अन्ने समारभंतेवि न समणुजाणंति इति से महतो आयाणाओ उवसंते उवट्ठिए पडिविरते से भिक्खू ॥ जे इमे कामभोगा सचित्ता वा अचित्ता वा ते णो सयं परिगिण्हंति णो अन्नेणं परिगिण्हावेंति अन्नं परिगिण्हतंपि ण समणुजाणंति इति से महतो आयाणाओ उपसंते उवहिए पडिविरते से भिक्खू ॥ जं. पिय इमं संपराइयं कम्मं कजइ, णो तं सयं करेति णो अण्णाणं कारबेति अन्नपि करतं ण समणुजाणइ इति, से महतो आयाणाओ उबसंते उबट्टिए पडिविरते॥से भिक्खू जाणेज्जा असणं वा ४ अर्सि पडियाए एगं साहम्मियं समुद्दिस्स पाणाइं भूताई जीवाई सत्ताईसमारंभ समुहिस्स कीतं पामिचं अच्छिज्ज अणिसह अभिहडं आहङदेसियं तं चेतियं सिया तं (अप्पणो पुत्ताईणवाए जाव आएसाए पुढो पहेणाए सामासाए पायरासाए संणिहिसंणिचओ किजा इहएतेसिं प्राणवाणं भोयणाए) णो सयं भुजह णो अपणेणं भुंजावेति अन्नंपि भुजंतं ण समणुजाणइ इति, से महतो आयाणाओ उवसंते उवट्टिए पडिविरते ॥ तत्थ भिक्खू परकर्ड परणिहितमुग्गमुप्पायणेसणासुद्धं सत्थाईयं सत्यपरिणामियं अविहिसियं एसियं वेसियं सामुदाणियं पत्तमसणं कारणहा पमाणजुत्तं अक्खोवंजणवणलेवणभूयं संजमजायामायावत्तियं विलमिव दीप अनुक्रम [६४७] ॥२९७॥ JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~598~ Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [६४७] Education into “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [-], मूलं [१५], निर्युक्ति: [१५७] पन्नगभूतेणं अप्पाणेणं आहारं आहारेना अन्नं अन्नकाले पाणं पाणकाले वत्थं वत्थकाले लेणं लेणकाले सयणं सयणकाले ॥ से भिक्खू मायने अन्नयरं दिसं अणुदिसं वा पडिवन्ने धम्मं आइक्त्रे विभए किट्टे उबडिएस वा अणुवट्ठिएसु वा सुस्तुसमाणेसु पवेदए, संतिविरति उवसमं निवाणं सोयवियं अज्जवियं महवियं लाघवियं अणनिवातियं सवेसिं पाणाणं सबेसिं भूताणं जाव सत्ताणं अणुवाई किए धम्मं ॥ से भिक्खू धम्मं किमाणे णो अन्नस्स हे धम्ममाइक्स्वेज्जा, णो पांणस्स हेडं धम्ममाइक्स्खेजा, णो वत्थस्स हे धम्ममाइक्स्वेजा, णो लेणस्स हेडं धम्ममाइक्रवेज्जा, णो सयणस्स हे धम्ममाइक्वेजा, णो अन्नेसिं विरूवरूवाणं कामभोगाणं हे धम्ममाइक्खेजा, अगिलाए धम्ममाइक्खेजा, नन्नत्थ कम्मनिजरट्ठाए धम्ममाइक्खेजा || इह खलु तस्स भिक्खुस्स अंतिए धम्मं सोचा णिसम्म उट्ठाणेणं उट्ठाय वीरा अस्सि धम्मे समुट्टिया जे तस्स भिक्खुस्स अंतिए धम्मं सोचा णिसम्म सम्मं उद्वाणेणं उट्ठाय वीरा अरिंस घम्मे समुट्टिया ते एवं सोवगता ते एवं सङ्घोवरता ते एवं सघोवसंता ते एवं सत्ता परिनिव्हत्तियेमि ॥ एवं से भिक्खू धम्मट्ठी धम्मविऊ णियागपडिवण्णे से जहेयं बुतियं अदुवा पत्ते पमवरपोंडरीयं अदुवा अपत्ते पमवरपोंडरीयं, एवं से भिक्खू परिण्णायकम्मे परिण्णायसंगे परिष्णाय गेहवासे उबसंते समिए सहिए सया जए, सेवं वयणिज्जे, तंजहा-समणेति वा माहणेति वा खंतेति वा दंतेति वा गुत्तेति वा मुतेति वा इसीति वा मुणीति वा कतीति वा विऊति वा भिक्खुति वा उहेति वा तीरट्ठीति वा चरणक For FPs Use Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ...... आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ~599~ Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१५], नियुक्ति: [१५७] (०२) प्रत सूत्रांक [१५] सूत्रकृताङ्गे रणपारवित्तियेमि ॥ (सूत्र १५) इति थितियसुयक्खंधस्स पोंडरीयं नाम पढमायणं समत्तं ॥ 18| पौण्डरी२ श्रुतस्क-18 'तत्रे'ति कर्मबन्धप्रस्तावे खलु वाक्यालङ्कारे 'भगवता उत्पन्नज्ञानेन तीर्थंकृता पडूजीवनिकाया हेतुलेनोपन्यस्ताः, तथथा-18 काध्य न्धे शीलापृथिवीकायो यावत्रसकायोऽपीति, तेषां च पीब्यमानानां यथा दुःखमुत्पद्यते तथा स्वसंविचिसिद्धेन दृष्टान्तेन दर्शयितुमाह अहिंसापडीयावृत्तिः तद्यथा नाम मम 'असातं' दुःखं वक्ष्यमाणैः प्रकारैरुत्पद्यते तथाऽन्येपामपीति, तद्यथा-दण्डेनास्थ्ना मुष्टिना 'लेलुना' लोष्ठेन। रिभावना |'कपालेन' करेण 'आकोव्यमानस्य' संकोच्यमानस्य हन्यमानस्य कशादिभिः वय॑मानस्याङ्गुल्यादिभिः ताब्यमानस्य कुब्या-18 साधोः ॥२९८॥ दावभिघातादिना परिताप्यमानस्याम्पादौ अन्येन वा प्रकारेण परिकाम्यमानस्य तथा 'अपद्राव्यमानस्य' मामाणस्य यावलोमोत्खननमात्रमपि हिंसाकर दुःखं भयं च यन्मयि क्रियते तत्सर्वमहं संवेदयामीत्येवं जानीहि, तथा सर्व प्राणा जीवा भूतानि । | सच्चा इत्येते एकाधिकाः कश्चिनेदं वाऽऽश्रित्य व्याख्येयाः, ततेषां दण्डादिनाऽऽकुटरमानानां यावलोमोत्खननमात्रमपि दुःखं हा प्रतिसंवेदयतामेतच हिंसाकर दुःखं भयं चोत्पन्न ते सर्वेऽपि प्राणिनः प्रतिसंवेदयन्ति-साक्षादनुभवन्तीति, एवमात्मोपमया पीय-18| मानानां जन्तूनां यतो दुःखमुत्पद्यतेऽतः सर्वेऽपि प्राणिनो न हन्तव्या न व्यापादयितव्या 'नाज्ञापयितव्या' बलात्कारेण च्या-1 पारे न प्रयोक्तम्पाः तथा न परिग्राधा न परितापयितव्या नापद्रावयितव्याः । सोऽहं ब्रवीमि, एतत् न खमनीपिकया किंतु सर्वे-18| | तीर्थकराज्ञयेति दर्शयति-'जे अतीए' इत्यादि, ये केचन तीर्थकृत ऋषभादयोऽतीता ये च विदेहेषु वर्तमानाः सीमन्धरादयो | ॥२९॥ ये चागामिन्यामुत्सर्पिण्या भविष्यन्ति पद्मनाभादयः 'अर्हन्तः' अमरासुरनरेश्वराणां पूजाहाँ भगवन्त-ऐश्वयोदिगुणकलापोपेताः || | सर्वेऽप्येवं ते व्यक्तवाचा 'आख्यान्ति' प्रतिपादयन्ति एवं सदेवमनुजायां पर्षदि भाषन्ते, स्वत एव, न यथा बौद्धानां बोधिसच्चा 929890saceasasraeaasaeasraord दीप अनुक्रम [६४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~600~ Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१५], नियुक्ति: [१५७] (०२) प्रत सूत्रांक भावात् कुब्यादिदेशनत इति, एवं प्रकर्षेण ज्ञापयन्ति हेतूदाहरणादिभिः, एवं प्ररूपयन्ति नामादिभिर्यथा सर्वे प्राणा न हन्तम्या इत्यादि, 'एष धर्मः' प्राणिरक्षणलक्षणः प्राग्व्यावर्णितस्वरूपो 'ध्रुवः' अवश्यंभावी नित्यः क्षान्त्यादिरूपेण शाश्वत इत्येवं च | 'अभिसमेत्य केवलज्ञानेनावलोक्य 'लोक' चतुर्दशरज्ज्वात्मकं 'खेद' तीर्थकृद्भिः 'प्रवेदितः कथित इत्येवं सर्व शाखा स भिक्षुर्विदितवेद्यो विरतः प्राणातिपातायावत्परिग्रहादिति, एतदेव दर्शयितुमाह-'णो दंत' इत्यादि, इह पूर्वोक्तमहावतपा-19 लनार्थमनेनोत्तरगुणाः प्रतिपाद्यन्ते, तत्र अपरिग्रहो-निष्किञ्चनः सन् साधुनों 'दन्तप्रक्षालनेन' कदम्बादिकाष्ठेन दन्तान् प्रक्षा लयेत् तथा नो 'अञ्जनं' सौवीरादिकं विभूषार्थमक्ष्णोर्दद्यात् तथा नो वमनविरेचनादिकाः क्रियाः कुर्यात् तथा नो शरीरस्य । ४ स्वीयवस्त्राणां वा धूपनं कुर्यात् नापि कासाद्यपनयनार्थ तं धूमं योगवर्तिनिष्पादितमापिवेदिति ॥ साम्प्रतं मूलगुणोत्तरगुणप्रस्ताव मुपसंजिघृक्षुराह-(ग्रन्या ९०००)स मूलोत्तरगुणव्यवस्थितो भिक्षुनोस्य क्रिया-सावद्या विद्यते इत्यक्रिया, संघृतात्मकतया सांपरा-18 यिककर्माबन्धक इत्यर्थः, कुत एवंभूतः यतः प्राणिनामलूपका-अहिंसकोऽनुपमर्दक इत्यर्थः, तथा न विद्यते क्रोधो अस्त्यको-| धः, एवममानोमायोज्लोभः कषायोपशमाच्चोपशान्तः-शीतीभूतस्तदुपशमाच्च परिनिर्वृत इव परिनिर्वृतः एवं तावदैहिकेभ्यः कामभोगेभ्यो विरतः पारलौकिकेभ्योऽपि विरत इति दर्शयति-'नो आसंसं' इत्यादि, 'नो' नैवाशंसां पुरस्कृत्य ममानेन वि| शिष्टतपसा जन्मान्तरे कामभोगावाप्तिर्भविष्यतीत्येवभूतामाशंसां न पुरस्कुर्यादिति, एतदेव दर्शयितमाह-'इमेण में' इत्यादि.18 अस्मिन्नेव जन्मन्यमुना विशिष्टतपश्चरणफलेन दृष्टेनामोषध्यादिना तथा पारलौकिकेन च श्रुतेनाकधम्मिल्लब्रह्मदत्तादीनां का विशिष्टतपश्चरणफलेन, तथा 'मएण पति 'मन ज्ञाने' जातिसरणादिना ज्ञानेन, तथाऽऽचार्यादेः सकाशाद्विज्ञातेन-अवगतेन || दीप अनुक्रम [६४७] Surajaniorayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~601~ Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [६४७] सूत्रकताओ २ श्रुतस्क न्धे शीलाङ्कीयावृत्तिः ॥२९९॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१५], निर्युक्ति: [१५७] | ममापि विशिष्टं भविष्यतीत्येवं नाशंसां विदध्यात् तथाऽमुना सुचरिततपोनियमत्रह्मचर्यवासेन तथाऽमुना वा यात्रा मात्रावृत्तिना धर्मेणानुष्ठितेन ' इतः' अस्माद्भवाच्युतस्य 'प्रेत्य' जन्मान्तरे स्वामहं देवः तत्रस्थस्य च मे वशवर्तिनः कामभोगा भवेयुः अशेषकर्मवियुतो वा सिद्धोऽदुःखः (अशुभः) शुभाशुभकर्मप्रकृत्यपेक्षयेत्येवंभूतोऽहं स्वामागामिनि काल इत्येवमाशंसां न विदध्यादिति, यदिवा विशिष्टतपश्चरणादिनाऽऽगामिनि काले ममाणिमालघिमेत्यादिकाऽष्टप्रकारा सिद्धिर्भविष्यतीत्यनया च सिया सिद्धोऽहमदुःखोऽशुभो मध्यस्थ इत्येवंरूपामाशंसां न कुर्यात् । तदकरणे च कारणमाह- 'एत्थवि' इत्यादि, 'अत्रापि' विशिष्टतपश्चरणे सत्यपि कुतश्चिन्निमित्ताप्रणिधानसद्भावे सति कदाचित्सिद्धिः स्यात्कदाचिच नैवाशेषकर्मक्षयलक्षणा सिद्धिः स्यात्, तथा चोक्तम्- “जे जत्तिया उ ऊ भवस्स ते चैव तत्तिया मोक्खे” इत्यादि । यदिवाऽवाप्यणिमाद्यष्टगुणकारणे तपश्चरणादौ सिद्धिः स्यात्कदाचिच्च न स्यात् तद्विपर्ययोऽपि वा स्यादिति, एवं व्यवस्थिते प्रेक्षापूर्वकारिणां कथमाशंसा कर्तुं युज्यते इति, सिद्धिश्रष्टप्रकारे अणिमा १ लघिमा २ महिमा ३ प्राप्तिः ४ प्राकाम्यं ५ ईश ६ वशितं ७ यत्रकामावसायित्वमिति ८ तदेवमैहिकार्थमा मुष्मिकार्थ कीर्तिवर्णश्लोकाद्यर्थं च तपो न विधेयमिति स्थितम् । साम्प्रतमनुकूलप्रतिकूलेषु शब्दादिषु विषयेषु रागद्वेवाभावं दर्शयितुमाह-स भिक्षुः सर्वाशंसारहितो वेणुवीणादिषु शब्देषु 'अमूच्छितः' अगृद्धोऽनध्युपपन्नः, तथा रासभादिशब्देषु कर्कशेषु अद्विष्टः, एवं रूपरसगन्धस्पर्शेष्वपि वाच्यमिति । पुनरपि सामान्येन क्रोधाद्युपशमं दर्शयितुमाह- 'विरए कोहाओ' इत्यादि, क्रोधमानमायालो भेभ्यो विरत इत्यादि सुगमं यावदिति 'से महया आयाणाओ उवसंते उबट्टिए पडिविरए १ इच्छाऽनभिघातः । २ स्थावरेष्वप्याज्ञाकारित्वं । ३ भूमावप्युन्मज्जननिमज्जने । ४ सत्यसंकल्पता । Education national For FPs Use Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ...... आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ~602~ १ पौण्डरी काध्य० अहिंसापरिभावना साधोः ॥२९९ ॥ www.ncbryo Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक -], मूलं [१५], नियुक्ति : [१५७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक Deeeeeeeeeeeeeeeeeese दीप अनुक्रम [६४७] से भिक्खुसि, स भिक्षुर्भवति यो महतः कर्मोपादानादुपशान्तः सत्संयमे वोपस्थितः सर्वपापेभ्यध विरतः प्रतिविरत इति ॥ एतदेव च महतः कर्मोपादानाद्विरमणं साधादर्शयितुमाह-'जे इम' इत्यादि, ये केचन त्रसाः स्थावराश्च प्राणिनो भवन्ति, तान् सर्वानपि 'नो' नैव खयं सत्साधवः समारभन्ते प्राण्युपमर्दकमारम्भ नारम्भन्त इतियावत , तथा नान्यैः समारम्भयन्ते न चान्यान् समारभमाणान् समनुजानत इत्येवं महतः कर्मोपादानादुपशान्तः प्रतिविरतो भिक्षुर्भवतीति ।। साम्प्रतं कामभोगनिवतिमधिकृत्याह-'जे इमे इत्यादि, ये केचनामी काम्यन्त इति कामा भुज्यन्त इति भोगाः, ते च सचित्ता अचित्ता वा भवेयुः, || तांश्च न खतो गृण्हीयानाप्यन्येन ग्राहयेत् नाप्यपरं गृहन्तं समनुजानीयादित्येवं कर्मोपादानाद्विरतो भिक्षुर्भवतीति ।। साम्प्रतं || सामान्यतः साम्परायिककर्मोपादाननिषेधमधिकृत्याह-यदपीदं संपर्येति तासु नासु गतिष्यनेन कर्मणेति सांपरायिक, तच तत्प्र-18 द्वेषनिहवमात्सर्यान्तरायाशातनोपघातैर्वध्यते, तत्कर्म तत्कारणं वा न कृतकारितानुमतिभिः करोति स भिक्षुरभिधीयत इति ॥ साम्प्रतं भिक्षाविशुद्धिमधिकृत्याह-'से भिक्खू' इत्यादि स भिक्षुर्यत्पुनरेवंभूतमाहारजातं जानीयात. 'अस्सि पडियाए चिर एतत्प्रतिज्ञया' आहारदानप्रतिज्ञया यदिवा 'अस्मिन्पर्याये' साधुपर्याये व्यवस्थितमेकं साधु साधर्मिकं समुद्दिश्य कश्चिच्छ्रावकः प्रकृतिभद्रको वा साध्याहारदानार्थ 'प्राणिनः' व्यक्तेन्द्रियान् 'भूतानि' त्रिकालभावीनि 'जीवान' आयुष्कधरणलक्षणान् । 'सत्त्वान् सदा सचोपेतान् 'समारभ्य तदुषमर्दकमारम्भ विधाय 'समुद्दिश्य' तत्पीडां सम्यगुद्दिश्य, क्रीतं क्रयेण द्रव्यविनिमयेन 'पामिचं'ति उद्यतकम् 'आच्छेद्य' मित्यन्यसादाच्छिद्य 'अनिसृष्ट'मिति परेणानुत्संकलितम् 'अभ्याहत'मिति सा-1 ध्वभिमुखं ग्रामादेरानीतम् 'आहत्य' उपेत्य साध्वर्थ कृतमुद्देशिकमित्येवंभूतमाहारजातं साधचे दत्तं स्यात् । तद्याकामेन तेन परि 302999990sas02003 ~603~ Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [६४७] सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्क न्धे शीलाकीयावृत्तिः ॥ ३००॥ “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [-] मूलं [१५], निर्युक्ति: [१५७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - गृहीतं स्यात्, तदेवं दोषदुष्टं च शाखा स्वयं न भुञ्जीत नाप्यपरेण भोजयेत् न च भुञ्जानमपरं समनुजानीयादित्येवं दुष्टाहारदोषानिवृत्तो भिक्षुर्भवतीति ॥ अथ पुनरेवं जानीयादित्यादि, तद्यथा विद्यते तेषां गृहस्थानामेवंभूतो वक्ष्यमाणः 'पराक्रमः' सामर्थ्यमाहारनिर्वर्तनं प्रत्यारम्भस्तेन च यदाहारजातं निर्वर्तितं यस्य चार्थाय' यत्कृते तत् 'चेतितमिति दत्तं निष्पादित 'स्वाद' भवेत्, यत्कृते च तनिष्पादितं तत्स्वनामग्राहमाह, तद्यथा— आत्मनः खनिमित्तमेवाहारादिपाकनिर्वर्तनं कृतमिति, तथा पुत्रायर्थ यावदादेशाय आदिश्यते यस्मिन्नागते संभ्रमेण परिजनस्तदासनदानादिव्यापारे स आदेशः - प्राधूर्गकस्तदर्थं वा पृथकप्रहणार्थं | विशिष्टाहार निर्वर्तनं क्रियते, तथा श्यामा-रात्रिस्तस्थामशनमाशः श्यामाशस्तदर्थ, प्रातरशनं प्रातराशः- प्रत्यूषस्येव भोजनं तदर्थं 'सन्निधिसंनिचयो' विशिष्टाहारसंग्रहस्य संचयः क्रियते । अनेन चैतत्प्रतिपादितं भवति - बालवृद्धलानादिनिमित्तं प्रत्यूषादिसमयेष्वपि भिक्षाटनं क्रियते, तस्य चायमभिहितः संभवः, स च 'संनिधिसंचय' इहेकेषां मानवानां भोजनार्थं भवति, तत्र भिक्षुरुद्यतविहारी परकृतपरनिष्ठितमुद्गमोत्पादनैषणाशुद्धमाहारमाहरेत्, अत्र च परकृतपरनिष्ठिते चखारो भङ्गाः, तद्यथा - तस्य कृतं तस्यैव च निष्ठितं, तस्य कृतमन्यस्य निष्ठितम् अन्यस्य कृतं तस्यैव निष्ठितम् अन्यस्य कृतमन्यस्य निष्ठितमित्ययं चतुर्थो भङ्गः सूत्रेणोपात्तः, अयं च शुद्धो द्वितीयश्च अन्यस्य निष्ठितलात्, तत्राधाकमौदेशिकादय उद्गमदोषाः पोडश तथोत्पादनादोषा धात्री| दूत्यादिकाः षोडशैव तथैषणादोषाः शङ्कितादयो दश, एवमेभिर्द्विचखारिंशद्दोष रहितसाच्छुद्धं, तथा शस्त्रम् - अश्यादिकं तेनातीतं - | प्रासुकीकृतं 'शस्त्रपरिणामित' मिति शस्त्रेण स्वकायपरकायादिना निर्जीवीकृतं वर्णगन्धरसादिभिश्व परिणमितं, हिंसां प्राप्तं हिंआदिशब्दस्य प्रकारार्थत्वाद दुहितृस्तुषाः यावच्छादव धान्यार्धम् २ ० शनासनदा० प्र० । ३ समुदायस्य । Education International For Par Use Only ~604~ १पौण्डरी काव्य ० अहिंसापरिभावना साधोः ॥३००॥ waryra Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक -], मूलं [१५], नियुक्ति : [१५७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक emeseseaesereveedeoeeseces सितं विरूपं हिंसितं विहिसितं न सम्यक निर्जीवीकृतमित्यर्थः, तत्प्रतिषेधादविहिसितं, निर्जीवमित्यर्थः, तदप्येषितम्-अन्वेषित | भिक्षाचर्याविधिना प्राप्तं, 'वैषिक मिति केवलसाधुवेषावाप्तं न पुनर्जात्याद्याजीवनतो निमित्तादिना वोत्पादितं, तदपि 'सामुदा|निक' समुदान-भिक्षासमूहस्तत्र भवं सामुदानिकम् , एतदुक्तं भवति-मधुकरवृत्त्याऽवात सर्वत्र स्तोकं स्तोकं गृहीतमित्यर्थः । तथा प्रज्ञस्येदं प्राज्ञ-गीतार्थेनोपात्तमशनम्-आहारजातं, तदपि वेदनावय्यावृत्यादिके कारणे सति, तत्रापि प्रमाणयुक्तं नातिमात्र, प्रमाणं चेदम्-"अद्भमसणस सर्वजणस्स कुज्जा दवस्स दो भाए । बाउपविधारणहा छन्भागं ऊणय कुजा ॥१॥" इति । एतदपि न वणे-10॥ बलायर्थ किंतु यावन्मात्रेणाहारेण देहः क्रियासु प्रवर्तते, तत्र दृष्टान्तद्वयमाह-तथथा अक्षस्योपाञ्जनम्-अभ्यङ्गो ग्रणस्य च लेपन-1% प्रलेपस्तदुपमया आहारमाहरेत, तथा चोक्तम्-"अम्भंगेण व सगई ण तरइ विगई विणा उ जो साहू । सो रागदोसरहिओ मचाएँ विहीइ तं सेवे ॥१॥" एतदेव दर्शयति-संयमयात्रायां मात्रा संयमयात्रामात्रा यावत्याऽऽहारमात्रया संयमयात्रा प्रवर्तते सा तथा तया-संयमयात्रामात्रया वृत्तिर्यस्य तत्तथा, तदपि बिलप्रवेशपनगभूतेनात्मनाहारमाहरेत् , एतदुक्तं भवति-यथाहि बिलं प्रविशन् || तूर्णं प्रविशति एवं साधुनाऽप्याहारस्तरखादमनाखादयता शीघ्रं प्रवेशयितव्य इति, यदिवा सपेणेवाहारो लब्ध्वाऽस्वादमभ्यवहार्यत । इति । तदेव चाहारजात दर्शयितुमाह-'अन्नं' भक्तम् 'अन्नकाले मूत्रार्थपौरुष्युत्तरकालं भिक्षाकाले प्राप्ते, पुरपश्चात्कर्मपरिहतं भवति यथोक्तभिक्षाटनेन, प्रहणकालावाप्तं भैक्षं परिभोगकाले भुञ्जीत, तथा पानकं पानकाले, नातिवृषितो भुञ्जीत ना-1 मशनस्य सव्यंजनरूप कुर्यातवस्य द्वी भागौ धातप्रविधारणार्थ षष्ठ भागमून कुर्यात् ॥१॥२ अभ्यङ्गनेव शकटं न शक्रोति विकृति विनैव यः साधुः । सर रागद्वेषरहितो मात्रया विधिना ता सेवेत ।।। दीप अनुक्रम [६४७] ~605~ Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक -], मूलं [१५], नियुक्ति : [१५७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [६४७] मकतामा प्यतिबुभुक्षितः पानक पिवेदिति, तथा वस्त्र वस्त्रकाले गृहीयाद् , उपभोग वा कुर्यात् , तथा 'लयनं' गुहादिकमाश्रयस्तस्य वर्षा- 10 पौण्डरी२ श्रुतस्क खवश्यमुपादानम् अन्यदा सनियमः, तथा शय्यतेऽसिबिति शयन-संस्तारकः स च शयनकाले, तत्राप्यगीतार्थानां प्रहरद्वयं 8 काध्यूय० न्धे शीला- | निद्राविमोक्षो गीताथानां प्रहरमेकमिति ॥ स भिक्षुराहारोपधिशयनखाध्यायध्यानादीनां मात्रा जानातीति तद्विधिज्ञः सन् अन्य-भिक्षावृत्तिः कीयावृत्तिः तरां दिशमनुदिशं वा 'प्रतिपन्नः' समाश्रितो धर्ममाख्यापयेत-प्रतिपादयेत् ययेन विधेयं तद्यथायोग विभजेद् धर्मफलानि च कीर्तयेवू-आविभावयेत् , तच्च धर्मकथनं परहितार्थप्रवृत्तेन साधुना सम्यगुपस्थितेषु शिष्येषु अनुपस्थितेषु वा--कौतुकादिप्रवृत्तेषु । ॥३०१॥ 'शुश्रूषमाणेषु' श्रोतुं प्रवृत्तेषु स्वपरहिताय 'प्रवेदयेद' आवेदयेत्प्रकथयेदितियावत् । श्रोतुमुपस्थितेषु यत्कथयेत्तद्दर्शयितुमाह'संतिविरई' इत्यादि शान्तिः--उपशमः क्रोधजयस्तत्प्रधाना प्राणातिपातादिभ्यो विरतिः शान्तिविरतिः, यदिवा शान्ति:-अशे-1|| पक्केशोपशमरूपा तस्यै–तदर्थ विरतिः शान्तिविरतिस्तां कथयेत, तथा 'उपशमम्' इन्द्रियनोइन्द्रियोपशमरूपं रागद्वेषाभावजनितं. | तथा 'निवृति' निर्वाणमशेषद्वन्द्वोपरमरूपं तथा 'सोयवियंति शौचं तदपि भावशौचं सर्वोपाधिविशुद्धता व्रतामालिन्यं 'अज-11 विर्य'ति आर्जवम्-अमायिख तथा मार्दवं-मृदुभावः सर्वत्र प्रश्रयवत्वं विनयनम्रतेतियावत् , तथा 'लाघविर्य'ति कर्मणां | लाघवापादनं कमेंगुरोवोऽऽत्मनः कर्मापनयनतो लघ्ववस्थासंजननं, साम्प्रतमुपसंहारद्वारेण सर्वशुभानुष्टानानां मूलकारणमाह-अति S||३०१॥ | पतनम्-अतिपातः प्राण्युपमर्दनं तद्विद्यते यस्थासावतिपातिकस्तत्प्रतिषेधादनतिपातिकस्तं सर्वेषां प्राणिनां भूतानां यावत्सत्त्वाना | |धर्ममनुविविच्यानुविचिन्त्य वा 'कीर्तयेत् कथयेत, इदमुक्तं भवति-सर्वप्राणिनां रक्षाभूतं धर्म कथयेदिति ।। साम्प्रतं धर्म-18 कीत्तेनं यथा निरुपधि मवति तथा दर्शयितुमाह-स भिक्षुः परकृतपरनिष्ठिताहारभोजी यथाक्रियाकालानुष्ठायी शुश्रूषतमु धर्म | ~606~ Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [१५], नियुक्ति: [१५७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[२] "सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक कीर्तयेत् नान्नस्य हेतोममायमीश्वरो धर्मकथाप्रवणो विशिष्टमाहारजातं दास्यतीत्येतन्निमित्तं न धर्ममाचक्षीत, तथा पानवस्त्रलयनशयननिमित्तं न धर्ममाचक्षीत, अन्येषां वा विरूपरूपाणाम् उच्चावचानां कार्याणां कामभोगानां वा निमित्तं न धर्ममाचक्षीत | तथा ग्लानिमनुपगच्छन् धर्ममाचक्षीत, कर्मनिर्जरायाश्चान्यत्र न धर्म कथयेद, अपरप्रयोजननिरपेक्ष एव धर्म कथयेदिति ॥ धर्म| कथाश्रवणफलदर्शनद्वारेणोपसंजिघृक्षुराह-'इह खलु तरसे त्यादि, 'इह' असिन् जगति खलु वाक्यालङ्कारे 'तस्य' भिक्षी-18 गुणवतः 'अन्तिके' समीपे पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टं धर्म श्रुखा 'निशम्य' अवगम्प सम्पगुत्थानेनोत्थाय 'बीरा' कमेविदारणस-1 हिष्णवो ये चैर्वभूतास्ते 'एवं पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टानुष्ठानतया सर्वसिन्नपि मोक्षकारणे सम्यग्दर्शनादिके उप-सामीप्येन गताः सर्वोपगताः, तथैव सर्वेभ्यः पापस्थानेभ्य उपरताः सर्वोपरताः तथा त एव सर्वोपशान्ता जितकवायतया शीतलीभूताः तथा त एव सर्वात्मतया-सर्वसामर्थेन सदनुष्ठाने उद्यम कृतवन्तो ये चैवंभूतास्तेऽशेषकर्मक्षयं कृता परि-समन्तानिवृताः परिनिवृताः अशे-18 पकर्मक्षयं कृतवन्तः, इति ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ साम्प्रतमध्ययनोपसंहारार्थमाह-एवं मिति पूर्वोक्तविशेषणकलापविशिष्टः स | भिक्षुः पुनरपि सामान्यतो विशिष्यते-धर्म:-श्रुतचारित्राख्यस्तेनार्थी धर्मार्थी, यथावस्थितं परमार्थतो धर्म सर्वोपाधिविशुद्ध जाना| तीति धर्मवित् , तथा नियाग:-संयमो विमोक्षो वा कारणे कार्योपचार कसा तं प्रतिपनो नियागप्रतिपन्नः, स चैवंभूतः पश्च-| | मपुरुषजातः, तं चाश्रित्य तत्-यथेदं प्राक् प्रदर्शितं तत्सर्वमुक्तं, स च प्राप्तो वा स्यात्पमवरपौण्डरीकम्-अनुग्रायं पुरुषविशेष चक्रवत्योदिकं, तत्प्राप्तिश्च परमार्थतः केवलज्ञानावाप्तौ सत्यां भवति, साक्षाद्यथाऽवस्थितवस्तुखरूपपरिच्छित्तेः, अप्राप्तो वा स्यात् । ॥ मतिश्रुतावधिमनःपर्यायज्ञानैयस्तैः समस्तैर्वा समन्वितः, स चैवंभूतः प्राग्व्यावर्णितगुणकलापोपेतो भिक्षुः परि-समन्तात् ज्ञातं ॥ दीप अनुक्रम [६४७] एesesesetsectoratedesesesesels 10THunioranora ~607~ Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक -], मूलं [१५], नियुक्ति : [१५७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक कतारे कर्म स्वरूपतो विपाकतस्तदुपादानतश्च येन स परिज्ञातकर्मा, तथा परिज्ञातः सङ्गः-संवन्धः सबाह्याभ्यन्तरो येन स तथा, परि- पौण्डरी२ श्रुतस्क-18 ज्ञाती निःसारतया गृहवासो येन स तधा, उपशान्त इन्द्रियनोइन्द्रियोपशमात्, तथा समितः पञ्चभिः समितिभिः, तथा सह काध्यय० न्धे शीला-हितेन वर्तत इति सहितो ज्ञानादिभिर्वा सहितः-समन्वितः, 'सदा सर्वकाल 'यतः' संयतः प्राग्व्यावर्णितनियमकलापोपेतः,मिक्षोतिः कीयावृत्तिःस एवंगणकलापा स एवंगुणकलापान्वित एतद्वचनीयः, तयथा श्राम्यतीति श्रमणः सममना का, तथा मा प्राणिनो जहि-व्यापादयेत्येवं प्रवृत्ति:॥३०२॥ उपदेशो यस स माहनः स ब्रह्मचारी वा ब्राह्मणः, क्षान्तः स क्षमोपेतो, दान्त इन्द्रियनोइन्द्रियदमनेन, तथा तिसभिगुप्तिभिगुप्तः, || | तथा मुक्त इव मुक्तः, तथा विशिष्टतपश्चरणोपेतो महर्षिः, तथा मनुते जगतखिकालावस्थामिति मुनिः, तथा कृतमस्थास्तीति कृती पुण्यवान् परमार्थेपण्डितो वा, तथा विद्वान् सद्विद्योपेतः, तथा भिक्षुर्निरवद्याहारतया भिक्षणशीलः, तथाऽन्तप्रान्ताहारखेन रूक्षः, तथा संसारतीरभूतो मोक्षस्तदर्थी, तथा चर्यत इति चरणं-मूलगुणाः क्रियत इति करणम्-उत्तरगुणास्तेषां पारं-तीरं पर्यन्तग18/ मनं तद्वेतीति चरणकरणपारविदिति । इतिशब्दः परिसमाप्तौ । ब्रवीमीति तीर्थकरवचनादार्यः सुधर्मखामी जम्बूखामिनमुद्दिश्य एवं भणति-यथाऽहं न स्वमनीषिकया प्रवीमीति ॥ साम्प्रतं समस्ताध्ययनोपात्तदृष्टान्तदाष्टान्तिकयोस्तात्पयार्थ गाथाभिनियुक्तिकद्दर्शयितुमाहउपमा य पंडरीए तरसेव य उवचएण निजत्ती । अधिगारो पुण भणिओ जिणोवदेसेण सिद्धित्ति ॥१५८॥ ॥३०२॥ सुरमणुयतिरियनिरओवंगे मणुया पट्ट चरित्तम्मि । अविय महाजणनेयत्ति चकवहिमि अधिगारो ॥ १५९॥ अविय हु भारियकम्मा नियमा उक्करसनिरयठितिगामी।तेवि हु जिणोवदेसेण तेणेव भवेण सिजसंति ॥१६०॥1॥ ఆటంబాం दीप अनुक्रम [६४७] ~608~ Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [६४७] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [-], मूलं [१५], निर्युक्ति: [ १६१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - | जलमालकद्दमालं बहुविह्वल्लिगहणं च पुक्खरिणि । जंघाहि व बाहाहि व नावाहि व तं दुरवगाहं ॥ १६९ ॥ | परमं उल्लंघेत्तुं ओयरमाणस्स होइ बाबत्ती । किं नत्थि से उवाओ जेणुल्लंघेन अविवन्नो ॥ १६२ ॥ विज्जा व देवकम्मं अहवा आगासिया विउचणया । पउम उल्लंघेत्तुं न एस इणमो जिणक्खाओ ॥ १६३ ॥ सुद्धपओगविजा सिद्धा उ जिणस्स जाणणा विज्जा । भवियजणपोंडरीया उ जाए सिद्धिगतिमुर्वेति ॥ १६४ ॥ इह 'उपमा' दृष्टान्तः 'पौण्डरीकेण' श्वेतशतपत्रेण कृतः, तस्येहाभ्यर्हितखात् तस्यैव चोपचयेन सर्वावयवनिष्पत्तिर्यावद्विशिष्टोपायेनोद्धरणं, दार्शन्तिकाधिकारस्तु पुनरत्र भणितः - अभिहितश्चक्रवर्त्यादिर्भव्यस्य जिनोपदेशेन सिद्धिरिति, तस्यैव पूज्यमानखा| दिति । पूज्यत्वमेव दर्शयितुमाह-'सुरमय' इत्यादि, सुरादिषु चतुर्गतिकेषु जन्तुषु मध्ये मनुजाश्वरित्रस्य सर्वसंवररूपस्य प्रभवःशक्ता वर्तन्ते, न शेषाः सुरादयः तेष्वपि मनुजेषु महाजननेतारचक्रवर्त्यादयो वर्तन्ते तेषु प्रबोधितेषु प्रधानानुगामिलात् इतरजनः सुप्रतिबोध एव भवतीत्यतोऽत्र चक्रवर्त्यादिना पौण्डरीककल्पेनाधिकार इति । पुनरप्यन्यथा मनुजप्राधान्यं दर्शयितुमाह'अविय हु' इत्यादि, गुरुकर्माणोऽपि मनुजा आसंकलितनर कायुषोऽपि नरकगमन योग्या अपि तेऽप्येवंभूताजिनोपदेशात्तेनैव भवेन समस्त कर्मक्षयात् सिद्धिगामिनो भवन्तीति । तदेवं दृष्टान्तदार्शन्तिकयोस्तात्पर्यार्थ प्रदर्श्य दृष्टान्तभूत पौण्डरीकाऽऽधारायाः पुष्करिण्या दुरवगाहितं सूत्रालापकोपाचं नियुक्तिकृदर्शयितुमाह- 'जलमाले' त्यादि, जलमालाम्- अत्यर्थप्रचुरजलां तथा कर्दममालाम्-अप्रतिष्ठिततलतया प्रभूततरपङ्कां तथा बहुविधवल्लिगहनां च पुष्करिणीं जङ्घाभ्यां वा बाहुभ्यां वा नावा वा दुस्तरां पुष्करिणीं, दृष्ट्वेति क्रियाध्याहारः, किंचान्यत्- 'पउमं' इत्यादि, तन्मध्ये पद्मवरपौण्डरीकं गृहीला समुचरतोऽवश्यं व्यापत्तिः प्राणानां भवेत्, Education Internation For Parts Only ~609~ Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक -], मूलं [१५], नियुक्ति : [१६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत मजकता किं तत्र कश्चिदुपायः स नास्ति ? येनोपायेन गृहीतकमलः सन् ता पुष्करिणीमुल्लङ्गयेदविपन्न इति । तदुल्लाङ्कनोपायं दर्शयितुमाह-18/१ पौण्डरी२ श्रुतस्क- 'विद्या वे' त्यादि, विद्या वा काचित्प्रज्ञाप्यादिका देवताकर्म वाऽथवाऽऽकाशगमनलब्धिर्वा कस्खचिद्भवेत् तेनासावविपन्नो गृहीतपो- काध्यय० न्धे शीला-1 ण्डरीकः सनुलायेत्ता पुष्करिणीम्, एष च जिनरुपायः समाख्यात इति । सर्वोपसंहारार्थमाह-'मुद्धप्पे' त्यादि, शुद्धप्रयोगविद्या सिद्धा भिक्षोवृत्तिः दीयावृत्तिः | जिनस्यैव विज्ञानरूपा विद्या नान्यस्य कस्यचिद्यया विद्यया तीर्थकरदर्शितया भव्यजनपौण्डरीकाः सिद्धिमुपगच्छन्तीति । गतोऽनुगमः, Ri साम्प्रतं नयाः, ते च पूर्ववदृष्टच्या इति ।। समाप्त पौण्डरीकाख्यं द्वितीयश्रुतस्कन्धे प्रथमाध्ययनमिति ॥ [ग्रन्थानम् १०३०] ॥8॥ ॥३०॥ सूत्रांक [१५] Reseseseeeectsesesesesearces YA दीप अनुक्रम [६४७] इति श्रीसूत्रकृताङ्गे पौण्डरीकाख्यमाद्यमध्ययनं समाप्तम् ॥ wwwwwwwwwwwwww w अत्र द्वितीय श्रुतस्कन्धे प्रथम अध्ययनं परिसमाप्तं ~610~ Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [६४७] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], मूलं [ १५...], निर्युक्ति: [ १६५ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - Education International अथ द्वितीयक्रिया स्थानाख्याध्ययनस्य प्रारम्भः ॥ व्याख्यातं प्रथमाध्ययनं, साम्प्रतं द्वितीयमारभ्यते, अस्य चायमभिसंबन्धः इहानन्तराध्ययने पुष्करिणीपौण्डरीकदृष्टान्तेन तीर्थिकाः सम्यङ्मोक्षोपायाभावात्कर्मणां बन्धकाः प्रतिपादिताः, सत्साधवथ सम्यग्दर्शनादिमोक्षमार्गप्रवृत्तखान्मोचकाः सदुपदेशदानतोऽपरेषामपीति । तदिहापि यथा कर्म द्वादशभिः क्रियास्थानैर्वध्यते यथा च त्रयोदशेन मुच्यते तदेतत्पूर्वोक्तमेव बन्धमोक्षयोः प्रतिपादनं क्रियते, अनन्तरसूत्रेण चायं संबन्धः, तद्यथा- भिक्षुणा चरणकरणविदा कर्मक्षपणायोद्यतेन द्वादश क्रियास्थानानि - कर्मबन्धकारणानि सम्यक् परिहर्तव्यानि तद्विपरीतानि च मोक्षसाधनानि आसेवितव्यानि इत्यनेन संबन्धेनाऽऽयातस्यास्याध्यय नस्योपक्रमादीनि चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्राप्युपक्रमान्तर्गतोऽर्थाधिकारोऽयं, तद्यथा कर्मणां बन्धोऽनेन प्रतिपाद्यते तद्विमोक्षचेति । नामनिष्पन्ने तु निक्षेपे क्रियास्थानमिति द्विपदं नाम, तत्रापि क्रियापदनिक्षेपार्थं प्रस्तावमारचयन्निर्युक्तिकृदाहकिरियाओ भणियाओ किरियाठाणंति तेण अज्झयणं । अहिगारो पुण भणिओ बंधे तह मोक्खमग्गे य ॥ १६५॥ दवे किरिएजणया य पयोगुवायकरणिज्जसमुदाणे । इरियावहसंमत्ते सम्मामिच्छा य मिच्छन्ते ।। १६६ ।। नामं ठवणा दविए खेत्तेऽद्धा उड्ड उवरती वसही। संजमपग्गहजोहे अचलगणण संघणा भावे ॥ १६७ ॥ For PanalPrata Use Only अत्र द्वितीयं अध्ययनं "क्रियास्थानं" आरब्धं प्रथमं अध्ययनेन सह अस्य अध्ययनस्य अभीसम्बन्धः, क्रिया शब्दस्य निक्षेपाः ~ 611~ ১৬১৬১১৬992999১৩১৬১৬৬১৩ Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [६४७] सूत्रकताओ २ श्रुतस्क न्धे शीलाकीयावृत्तिः ॥२०४॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], मूलं [ १५...], निर्युक्तिः [१६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः समुद्राणियाणिह तओ संमपउत्ते य भावठाणंमि । किरियाहिं पुरिस पावाइए उस परिक्खेजा ॥ १६८ ॥ तत्र क्रियन्त इति क्रियास्ताञ्च कर्मबन्धकारणवेनाऽऽवश्यकान्तर्वर्तिनि प्रतिक्रमणाध्ययने 'पटिकमामि तेरसहिं किरियाठाणेहिं' ति अस्मिन्सूत्रे ऽभिहिताः । यदिवा इहैव क्रिया: 'भणिता' अभिहितास्तेनेदमध्ययनं क्रियास्थानमित्युच्यते । तच्च क्रियास्थानं क्रियावत्स्वेव भवति नाक्रियावत्सु, क्रियावन्तश्च केचिद्रध्यन्ते केचिन्मुच्यन्तेऽतोऽध्ययनार्थाधिकारः पुनरभिहितो बन्धे तथा मोक्षमार्गे चेति । तत्र नामस्थापने सुगमलादनादृत्य द्रध्यादिकां क्रियां प्रतिपादयितुमाह-तत्र द्रव्ये द्रव्यविषये या क्रिया एजनता 'एजू कम्पने' जीवस्थाजीवस्य वा कम्पनरूपा चलनखभावा सा द्रव्यक्रिया, सापि प्रयोगाद्विवसया वा भवेत् तत्राप्युपयोगपूर्विका वाऽनुपयोगपूर्विका वा अक्षिनिमेषमात्रादिका सर्वा द्रव्यक्रियेति । भावक्रिया खियं, तयथा— प्रयोगक्रिया उपायक्रिया करणीयक्रिया समुदानक्रिया ईर्यापथक्रिया सम्यक्त्वक्रिया सम्यमिध्यात्वक्रिया मिध्यात क्रिया चेति । तत्र प्रयोगक्रिया मनोवाक्कायलक्षणा त्रिधा, तत्र स्फुरद्भिर्मनोद्रव्यैरात्मन उपयोगो भवति, एवं वाकाययोरपि वक्तव्यं तत्र शब्दे निष्पाद्ये वाकाययोर्द्वयोरप्युपयोगः, तथा चोक्तम्- "गिण्ड य काइएणं णिसिरह तह वाइएण जोगेण" गमनादिका तु कार्यक्रियैव १, उपायक्रिया तु घटादिकं द्रव्यं येनोपायेन क्रियते, तद्यथा-मृत्खननमर्दनचकारोपण दण्डचक्र सलिलकुम्भकारव्यापारैर्यावद्भिरुपायैः क्रियते सा सर्वोपाय क्रिया २, करणीयक्रिया तु यद्येन प्रकारेण करणीयं तत्तेनैव क्रियते नान्यथा, तथाहि घटो मृत्पिण्डादिकयैव सामय्या क्रियते न पाषाणसिकतादिकयेति ३, समुदानक्रिया तु यत्कर्म प्रयोगगृहीतं समुदायावस्थं सत्प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशरूपतया १] आचारावृत्तिः पत्रे २० द्रष्टव्या प्र०३ काययोगयुकस्य ४ प्रयोजनं व्यापारः ५ गृह्णाति च कायिकेन निस्वारयति वाचिकेन योगेन क्रिया शब्दस्य निक्षेपा:, क्रियायाः काय, उपाय आदि अष्ट-भेदा: For Parts Only ~ 612~ १२ क्रियास्थानाव्यय०क्रियास्थानयोनिक्षेपाः ॥३०४॥ Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [१५...], नियुक्ति: [१६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ఆండలంలో यया व्यवस्थाप्यते सा समुदानक्रिया, सा च मिथ्यादृष्टेरारभ्य सूक्ष्मसंपरायं यावत् भवति ४, ईर्यापथक्रिया तूपशान्तमोहादार-12 भ्य सयोगिकेवलिनं यावदिति ५, सम्यक्त्रक्रिया तु सम्यग्दर्शनयोग्याः कर्मप्रकृतीः सप्तसप्ततिसंख्या यया बधाति साभिधीयते । ६, सम्यश्चिथ्याखक्रिया तु तद्योग्याः प्रकृतीश्चतुःसप्ततिसंख्या यया क्रियया बनाति साभिधीयते ७, मिथ्याखक्रिया तु सर्वाः | प्रकृतीविशत्युत्तरशतसंख्यास्तीर्थकराहारकशरीरतदङ्गोपाङ्गत्रिकरहिता यया बध्नाति सा मिथ्याखक्रियेत्यभिधीयते ८ । साम्प्रतं | | स्थाननिक्षेपार्थमाह-इयं च गाथाऽऽचारप्रथमश्रुतस्कन्धे द्वितीयाध्ययने लोकविजयाख्ये 'जे गुणे से मूलढाणे' इत्यत्र स्थानशब्दस मूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यां प्रबन्धेन व्याख्यातेति नेह प्रतन्यते । इह पुनर्यया क्रियया येन च स्थानेनाधिकारस्तदर्शयितुमाह-- क्रियाणां मध्ये समुदानिका क्रिया या व्याख्याता, तस्याश्च कषायानुगतखात् बहवो भेदा यतस्ततस्तासां सामुदानिकानां क्रिया-12 | णामिह प्रकरणे 'तउत्ति अधिकारो व्यापारः, सम्यक्प्रयुक्ते च भावस्थाने, तचेह विरतिरूपं संयमस्थानं प्रशस्तभावसंघनारूपं च गृह्यते, सम्यक्प्रयुक्तभावस्थानग्रहणसामर्थ्यादैर्यापथिकी क्रियापि गृह्यते, सामुदानिकाक्रियाग्रहणाचाप्रशस्तभावस्थानान्यपि गृही. शतानि, आभिश्च पूर्वोक्ताभिः क्रियाभिः पूर्वोक्तान् पुरुषान् तद्वारायातान्यावादुकांच परीक्षेत सर्वानपीति । यथा चैवं तथा खत एव सूत्रकारः 'तंजहा से एगइया मणुस्सा भवंती' त्यादिना तथा प्रावादुकपरीक्षायामपि 'णायओ उवगरणं च विप्पजहाय भि-| क्खायरियाए समुट्ठिया' इत्यादिना वक्ष्यतीति । गतो नियुक्त्यनुगमः, साम्प्रतं मूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं मूत्रमुचारयितच्यं, | तच्चेदम्-- दीप अनुक्रम [६४७] SAREastatinintennational क्रियाया: काय, उपाय आदि अष्ट-भेदाः, स्थान-निक्षेपा: ~613~ Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [१६], नियुक्ति: [१६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६] दीप अनुक्रम [६४८] सूत्रकृताओं सुयं मे आउसंतेणं भगवया एवमक्खायं-इह खलु किरियाठाणे णामज्झयणे पण्णत्ते, तस्स णं अयम? 18२ क्रिया२ श्रुतस्क- इह खलु संजहेणं दुवे ठाणे एवमाहिजंति, तंजहा-धम्मे चेव अधम्मे चेव उवसंते व अणुवसंते चेव । स्थानाध्यन्धे शीला-18 तत्थ णं जे से पढमस्स ठाणस्स अहम्मपक्खस्स विभंगे तस्स णं अयम? पपणते, इह खलु पाईणं यत्रयोदकीयावृत्तिः वा ६ संगतिया मणुस्सा भवंति, तंजहा-आरिया वेगे अणारिया बेगे उच्चागोया वेगे णीयागोया वेगे शक्रिया॥३०॥ कायमंता वेगे हस्समंता वेगे सुवण्णा बेगे दुषपणा गे सुरूवा वेगे तुरूवा वेगे ॥ तेसिं च णं इमं एतारूवं स्थानानि दंडसमादाणं संपेहाए तंजहा-णेरइएसु वा तिरिवखजोणिएसु वा मणुस्सेसु वा देवेसु वा जे यावन्ने तहप्पगारा पाणा विन्नू वेयणं वेयंति ॥ तेसिं पि य णं इमाईतेरस किरियाठाणाई भवंतीतिमक्खायं, तंजहा अहादंडे १ अणहादंडे २हिंसादंढे ३ अकम्हादंडे ४ विट्ठीविपरियासियादंडे ५ मोसबत्तिए ६ अदिनादाणवत्तिए ७ अज्झत्थवत्तिए ८ माणवत्तिए १मित्तदोसवत्तिए १० मायावत्तिए ११ लोभवत्तिए १२ इरियावहिए १३ ॥ (मूत्रं १६) सुधर्मस्वामी जम्यूस्खामिनमुद्दिश्येदमाह, तद्यथा-श्रुतं मयाऽऽयुष्मता भगवतैवमाख्यातम्-इह खलु क्रियाखानं नामाध्ययनं | | भवति, तस्य चायमर्थः-इह खलु 'संजूहेणीति 'सामान्येन' संक्षेपेण समासतो द्वे स्थाने भवतः, य एते क्रियावन्तस्ते सर्वेऽप्य- ॥३०५॥ नयोः स्थानयोरेवमाख्यायन्ते, तद्यथा-धर्मे चैषाधर्मे चैव, इदमुक्तं भवति-धर्मस्थानमधर्मस्थानं च, यदिवा-धर्मादनपेतं धर्म्य || विपरीतमधये, कारणशुद्धा च कार्यशुद्धिर्भवतीत्याह-उपशान्तं यत्तद्धर्मस्थानम् , अनुपशान्तं चाधर्मस्थानं, तत्रोपशान्ते-उपश मूल-सूत्रस्य आरम्भ: ~614~ Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [१६], नियुक्ति: [१६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६] मप्रधाने धर्मस्थाने धर्म्यस्थाने वा केचन महासच्चाः समासन्नोत्तरोत्तरशुभोदया वर्तन्ते, परे च तद्विपर्यस्ते विपर्यस्तमतयः संसाराभिवङ्गिणोऽधोऽधोगतयो वर्तन्ते । इह च यद्यप्यनादिभवाभ्यासादिन्द्रियानुकूलतया प्रायशः पूर्वमधर्मप्रवृत्तो भवति लोकः पश्चात्सदुपदेशयोग्याचार्यसंसर्गाद्धर्मस्थाने प्रवर्तते तथाऽप्यभ्यहिंतखात्पूर्व धर्मस्थानमुपशमस्थानं च प्रदर्शितं, पधात्तद्विपर्यस्तमिति ॥ साम्प्रतं तु यत्र प्राणिनामनुपदेशतः स्वरसप्रवृच्याऽऽदावेव स्थानं भवति तदधिकृत्याह-'तत्थ णं' इत्यादि, तत्रेति वाक्योपन्यासार्थे णमिति वाक्यालङ्कारे योऽसौ प्रथमानुष्टेयतया प्रथमस्याधर्मपक्षस्य स्थानस्य विविधो भङ्गो विभङ्गो-विभागो विचारस्तस्थायमर्थ | इति । 'इह' अस्मिन् जगति प्राच्यादिषु दिक्षु मध्येऽन्यतरस्यां दिशि 'सन्ति' विद्यन्ते एके केचन 'मनुष्याः पुरुषाः, ते चैवंभूता भवन्तीत्याह, तद्यथा-आराधाताः सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यार्याः तद्विपरीवाश्चानार्या एके केचन भवन्ति यावद्रूपाः सुरूपाश्चेति । 'तेषां च' आर्यादीनाम् 'इदं वक्ष्यमाणमेतद्रूपं दण्डयतीति दण्डः-पापोपादानसंकल्पस्तस्य समादान-ग्रहणं । 'संपेहाए'त्ति संप्रेक्ष्य, तन चतुर्गतिकानामन्यतमस्य भवतीति दर्शयति-'तंजहे' त्यादि, तयथा-नारकादिपु, ये चान्ये तथाप्रकारास्तदेदवर्तिनः सुवर्णदुर्वर्णादयः 'प्राणाः प्राणिनो विद्वांसो वेदना-ज्ञानं तद् 'वेदयन्ति' अनुभवन्ति, यदिवा सातासातरूपां वेदनामनुभवन्तीति, अत्र चखारो भङ्गाः, तद्यथा-संज्ञिनो वेदनामनुभवन्ति विदन्ति च १ सिद्धास्तु विदन्ति नानुभवन्ति २ असंझिनोऽनुभवन्ति न पुनर्विदन्ति ३ अजीबास्तु न विदन्ति नाप्यनुभवन्तीति ४, इह पुनः प्रथमतृतीयाभ्यामधिकारो द्वितीयचतुर्थाववस्तुभूताविति, 'तेषां च' नारकतिर्यअनुष्यदेवानां तथाविधज्ञानवताम् 'इमानि वक्ष्यमाणलक्षणानि त्रयोदश क्रियास्थानानि भवन्तीत्येवमाख्यातं तीर्थकरगणधरादिभिरिति । कानि पुनस्तानीति दर्शयितुमाह-'तंजहे' त्यादि, तद्यथेत्ययमु Scercedeseserceneseerata दीप अनुक्रम [६४८] ~615~ Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [१६] दीप अनुक्रम [६४८] सूत्रकृताने २ श्रुतस्कन्धे शीलाङीयावृत्तिः ॥३०६ ॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र -२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], मूलं [१६], निर्युक्ति: [१६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः दाहरणवाक्योपन्यासार्थः, 'आत्मार्थाय' स्वप्रयोजनकृते दण्डोऽर्थदण्डः पापोपादानं १, तथाऽनर्थदण्ड इति निष्प्रयोजनमेव | सावद्यक्रियानुष्ठानमनर्थदण्डः २, तथा हिंसनं हिंसा प्राण्युपमर्दरूपा तथा सैव वा दण्डो हिंसादण्डः ३, तथाऽकसाद् अनुपयु| तस्य दण्डोऽकसाद्दण्डः, अन्यस्य क्रिययाऽन्यस्य व्यापादनमिति ४, तथा दृष्टेर्विपर्यासो -रज्ज्यामिव सर्पबुद्धिस्तया दण्डो दृष्टिविपर्यासदण्डः, तद्यथा-लेष्टुकादिबुद्ध्या शराद्यभिघातेन चटकादिव्यापादनं ५, तथा मृषावादप्रत्ययिकः, स च सद्भूतनिवासद्भूतारोपणरूपः ६, तथा अदत्तस्य परकीयस्थाऽऽदानं स्वीकरणमदत्तादानं स्तेयं तत्प्रत्ययिको दण्ड इति ७ तथाऽऽत्मन्यध्यध्यात्मं तत्र भव आध्यात्मिको दण्डः, तद्यथा-निर्निमित्तमेव दुर्मना उपहतमनः संकल्पो हृदयेन दूयमानचिन्तासागरावगाढः संतिष्ठते ८, | तथा जात्याद्यष्टमदस्थानोपहतमनाः परावमदर्शी तस्य मानप्रत्ययिको दण्डो भवति ९, तथा मित्राणामुपतापेन दोषो मित्रदोषस्तस्प्रत्ययिको दण्डो भवति १०, तथा माया-परवञ्चनबुद्धिस्तथा दण्डो मायाप्रत्ययिकः ११, तथा लोभप्रत्ययिको- लोभ निमित्तोदण्ड इति १२, तथा एवं पश्चभिः समितिभिः समितस्य तिसृभिर्गुप्तिभिर्गुप्तस्य सर्वत्रोपयुक्तस्येर्याप्रत्ययिकः सामान्येन कर्मबन्धो भवति १३, एतच त्रयोदशं क्रियास्थानमिति || ' यथोद्देशस्तथा निर्देश' इतिकृला प्रथमात्क्रियास्थानादारभ्य व्याचिख्यासुराहपढमे दंडसमादाणे अट्ठादंडवत्तिएसि आहिज्जर, से जहाणामए केइ पुरिसे आयहेडं वा पाइहे वा अगारहेडं वा परिवारहेडं वा मित्तहेडं वा नागडं वा भूतहेडं वा जक्खहेडं वा तं दंडं तस्थावरेहिं पाणेहिं यमेव णिसिरिति अण्णेणवि णिसिरावेति अण्णपि णिसितं समणुजाणइ, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावजंति आहिजर, पढमे दंडसमादाणे अट्ठादंडवत्तिएत्ति आहिए ॥ ( सूत्रं १७ ) Education Internation प्रथमा अर्थदंड - क्रिया आरभ्यते For Parts Only ~ 616~ २ क्रिया स्थानाध्य य०१अर्थदण्डक्रिया ॥३०६ ॥ Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [१७] दीप अनुक्रम [६४९] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र -२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], मूलं [१७], निर्युक्ति: [ १६८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .....आगमसूत्र - [०२ ], अंग सूत्र - ०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः यत्प्रथममुपात्तं दण्डसमादानमर्थाय दण्ड इत्येवमाख्यायते तस्यायमर्थः, तद्यथा नाम कचित्पुरुषः, पुरुषग्रहणमुपलक्षणं सर्वोऽपि चातुर्गतिकः प्राणी 'आत्मनिमित्तम्' आत्मार्थं तथा 'ज्ञातिनिमित्तं' खजनाद्यर्थं तथा अगारं गृहं तनिमित्तं तथा 'परिवारो' दासीकर्मकरादिकः परिकरो वा — गृहादेर्बुच्यादिकस्तन्निमित्तं तथा मित्रनागभूतयक्षाद्यर्थं 'तं' तथाभूतं स्वपरोपघात - रूपं दण्डं सस्थावरेषु प्राणिषु स्वयमेव 'निस्सृजति' निक्षिपति, दण्डमिव दण्डमुपरि पातयति, प्राण्युपमर्दकारिणीं क्रियां करोतीत्यर्थः, तथाऽन्येनापि कारयति, अपरं दण्डं निसृजन्तं समनुजानीते, एवं कृतकारितानुमतिभिरेव तस्यानात्मज्ञस्य तत्प्रत्यथिकं सावधक्रियोपातं कर्म 'आधीयते' संबध्यते इति । एतत्प्रथमं दण्डसमादानमर्थदण्डप्रत्ययिकमित्याख्यातमिति ॥ अहावरे दोचे दंडसमादाणे अण्डादंडवत्तिएत्ति आहिज्जह, से जहाणामए केइ पुरिसे जे इमे तसा पाणा भवति ते णो अचाए णो अजिणार णो मंसाए जो सोणियाए एवं हियाए पित्ताए बसाए पिच्छाए पुच्छाए बालाए सिंगाए बिसाणाए दंताए दाढाए हाए पहारुणिए अट्ठीए अह्निमंजाए जो हिंसिंस मे णो हिंसंति मेति णो हिंसिस्संति मेति णो पुत्तपोसणाए णो पसुपोसणयाए णो अगारपरिवहणता णो समणमाहणवत्तणाहेडं णो तस्स सरीरगस्स किंचि विप्परियादिता भवंति से हंता ऐसा भेत्ता लुंपइत्ता विलुपता उहवता उज्झिर्ज वाले वेरस्स आभागी भवति, अणट्ठादंडे ॥ से जहाणामए केइ पुरिसे जे इमे धावरा पाणा भवंति, तंजहा इकडा इ वा कडिणा छ वा जंतुंगा ह वा परवा वा तणा इ वा कुसाइ वा कुच्छगा इ वा पवगा इ वा पलाला इ वा, ते णो पुत्तपोसणाए णो पसुपोस द्वितीया अनर्थदंड -क्रिया आरभ्यते For Park Use Only ~617~ Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [१८] दीप अनुक्रम [६५०] सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्क म्बे शीलाडीयावृत्तिः ॥३०७॥ “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], मूलं [१८], निर्युक्ति: [ १६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - Ja Eucation International गाए णो अगारपडिब्रूहणयाए जो समणमाहणपोसणयाए जो तस्स सरीरगस्स किंचि विपरियाइत्ता भवं ति, से हंता छेता भेत्ता लुंपइत्ता विलुपहन्ता उद्दवत्ता उज्झिडं वाले बेरस्स आभागी भवति, अणट्ठादंडे ॥ से जहाणामए केइ पुरिसे कच्छंसि वा दहंसि वा उदगंसि वा दवियंसि वा वलयंसि वा णूमंसि वा गहणंसि वा गहणविदुग्गंसि वा वर्णसि वा वणविदुग्गंसि वा पञ्चयंसि वा विदुग्गंसि वा तणाई ऊसविय ऊसविय सयमेव अगणिकायं णिसिरति अण्णेणवि अगणिकायं णिसिरावेति अण्णंपि अगणिकायं णिसिरिंतं समणुजाणइ अण्डादंडे, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जन्ति आहिज्जर, दोघे दंडसमादाणे अणट्टादंडवत्तिएत्ति आहिए | सूत्रम् १८ ॥ तथापरं द्वितीयं दण्डसमादानमनर्थदण्डप्रत्ययिकमित्यभिधीयते, तदधुना व्याख्यायते, तद्यथा नाम कचित्पुरुषो निर्निमित्तमेव निर्विवेकतया प्राणिनो हिनस्ति, तदेव दर्शयितुमाह- 'जे इमे' इत्यादि, ये केचन 'अमी' संसारान्तर्वर्तिनः प्रत्यक्षा वस्तादयः प्राणिनस्तथासौ हिंसन्नर्था शरीरं 'नो' नेवार्चाये हिनस्ति, तथाऽजिनं- चर्म नापि तदर्थम् एवं मांसशोणितहृदय पित्तवसापिच्छपु|च्छवालशृङ्गविषाणनखस्त्राय्वस्थ्यस्थिमज्जा इत्येवमादिकं कारणमुद्दिश्य, नैवाहिंसिषुर्नापि हिंसन्ति नापि हिंसयिष्यन्ति मां मदीयं श्वेति, तथा नो 'पुत्रपोषणायेति पुत्रादिकं पोषयिष्यामीत्येतदपि कारणमुद्दिश्य न व्यापादयति, तथा नापि पशूनां पोषणाय, तथाऽगारं गृहं तस्य परिबृंहणम् - उपचयस्तदर्थं वा न हिनस्ति, तथा न श्रमणत्राह्मणवर्तनाहेतुं तथा यचेन पालयितुमारब्धं For Parts Only ~ 618~ २ क्रियाअनर्थदण्ड: स्थानाध्य ॥३०७॥ Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [°C] दीप अनुक्रम [६५०] Jacation “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], मूलं [१८], निर्युक्ति: [ १६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - नो तस्य शरीरस्य किमपि परित्राणाय 'तत्' प्राणव्यपरोपणं भवति, इत्येवमादिकं कारणमनपेक्ष्यैवासौ क्रीडया तच्छीलतया व्यसनेन वा प्राणिनां हन्ता भवति दण्डादिभिः तथा छेत्ता भवति कर्णनासिकाविकर्तनतः तथा भेत्ता शूलादिना तथा लुम्पयिता अन्यतराङ्गावयवविकर्तनतः तथा विलुम्पयिता अक्ष्युत्पाटनचर्मविकर्त्तनकरपादादिच्छेदनतः परमाधार्मिकवत्प्राणिनां निर्निमित्तमेव नानाविधोपायैः पीडोत्पादको भवति तथा जीवितादप्यपद्रावयिता भवति, स च सद्विवेकमुज्झित्वाऽऽत्मानं वा परित्यज्य बालवहाल:- अज्ञोऽसमीक्षितकारितया जन्मान्तरानुबन्धिनो वैरस्याभागी भवति, तदेवं निर्निमित्तमेव पञ्चेन्द्रियप्राणिपीडनतो यथाऽन| र्थदण्डो भवति तथा प्रतिपादितम् अधुना स्थावरानधिकृत्योच्यते- 'से जहे' त्यादि, यथा कश्वित्पुरुषो निर्विवेकः पथि गच्छन् वृक्षादेः पल्लवादिकं दण्डादिना प्रध्वंसयन् फलनिरपेक्षस्तच्छीलतया व्रजति, एतदेव दर्शयति 'जे इमे' इत्यादि, ये केचन 'अमी' प्रत्यक्षाः स्थावरा वनस्पतिकायाः प्राणिनो भवन्ति, तद्यथा इकडादयो वनस्पतिविशेषा उत्तानार्थास्तदिहेयमिकडा ममानया प्रयोजनमित्येवमभिसंधाय न छिनत्ति, केवलं तत्पत्रपुष्पफलादिनिरपेक्षस्तच्छीलतया छिनत्तीत्येतत्सर्वत्रानुयोजनीयमिति, तथा न पुत्रपोषणाय नो पशुपोषणाय नागारप्रतिबृंहणाय न श्रमणत्राह्मणवृत्तये नापि शरीरस्य किञ्चित्परित्राणं भविष्यतीति, केवलमेवमेवासौ वनस्पतिं हन्ता छेतेत्यादि यावजन्मान्तरानुबन्धिनो वैरस्याभागी भवति, अयं वनस्पत्याश्रयोऽनर्थदण्डोऽभिहितः ॥ साम्प्रतमहयाश्रितमाह-'से जहे त्यादि, तद्यथा नाम कश्वित्पुरुषः सदसद्विवेकविकलतया कच्छादिकेषु दशसु स्थानेषु वनदुर्गपर्य|न्तेषु तृणानि-कुशपुष्पकादीनि पौनःपुन्येनोर्थ्याधः स्थानि कृला 'अग्निकार्य' हुतभुजं 'निस्सृजति' प्रक्षिपत्यन्येन वाऽग्निकार्य बहुत्वापकारिणं दवार्थ 'निसर्जयति' प्रक्षेपयत्यन्यं च निसृजन्तं समनुजानीते । तदेवं योगत्रिकेण कृतकारितानुमतिभिस्तस्य For Parts Only ~619~ Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक -], मूलं [१८], नियुक्ति: [१६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक २ श्रुतस्क- न्धे शीलाझीयावृत्तिः ॥३०८॥ [१८] दीप अनुक्रम [६५०] यत्किञ्चनकारिणः 'तत्मत्ययिक' दवदाननिमित्त 'सावधं कर्म' महापातकमाख्यातम् , एतच्च द्वितीयमनर्थदण्डसमादानमाख्यातमिति ।। तृतीयमधुना व्याचिख्यासुराह स्थानाध्य. अहावरे तचे दंडसमादाणे हिंसादंडवत्तिएत्ति आहिजइ, से जहाणामए केइ पुरिसे ममं वा ममि वा अन्नं हिंसादण्ड वा अन्निं वा हिंसिसु वा हिंसइ वा हिंसिस्सइ वा तं दंड तसथावरेहिं पाणेहिं सयमेव णिसिरति अण्णेणवि णिसिरावेति अन्नपि णिसिरतं समणुजाणइ हिंसादंडे, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावर्जति आहिज्वइ, तच्चे दंडसमादाणे हिंसादंडवत्तिएत्ति आहिए ॥ सूत्रम् १९॥ अथापरं तृतीयं दण्डसमादानं हिंसादण्डप्रत्ययिकमाख्यायते, तद्यथानाम कश्चित् 'पुरुषः' पुरुषकार वहन खतो मरणभीरुतया चा मामयं पातयिष्यतीत्येवं मला कंसवदेवकीसुतान् भावतो जघान मदीयं वा पितरमन्यं वा मामकं-ममीकारोपेतं परशुरामब-| स्कार्तवीर्य जपानान्यं वा कश्चनाय सर्पसिंहादिापादयिष्यतीति मला सर्पादिकं व्यापादयति अन्यदीयस्य वा कस्यचिद्धिरण्यप-18| |श्वादेरयमुपद्रवकारीतिकखा तत्र दण्डं निसृजति, तदेवमयं मां मदीयमन्यदीयं वा हिंसितवान् हिनस्ति हिसिष्यतीत्येवं संभाविते || से स्थावरे वा 'तं दण्ड' प्राणव्यपरोपणलक्षणं खयमेव निसृजति अन्येन निसर्जयति निसृजन्तं वाऽन्यं समनुजानीते । इत्ये-12॥३०८।। तत्तृतीयं दण्डसमादानं हिंसादण्डप्रत्ययिकमारुयातमिति ॥ अहावरे चउत्थे दंडसमादाणे अकस्मात् दण्डवत्तिएत्ति आहिज्जइ, से जहाणामए केइ पुरिसे कच्छसि या जाव वणविदुग्गंसि वा मियवत्तिए मियसंकप्पे मियपणिहाणे मियवहाए गंता एए मियत्तिका अन्नय तृतीया हिंसादंड-क्रिया आरभ्यते, ~620~ Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [२०] दीप अनुक्रम [६५२] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र -२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], मूलं [२०], निर्युक्ति: [ १६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः रस्स मियरस बहाए उसुं आयामेत्ता णं णिसिरेज्जा, स मियं वहिस्सामित्तिकट्टु तित्तिरं वा वहगं वा गंवा लावगं वा कवोयगं वा कविं वा कविजलं वा विधित्ता भवइ, इह खलु से अन्नस्स अट्ठाए अण्ण फुसति अकमहादंडे || से जहाणामए केइ पुरिसे सालीणि वा वीहीणि वा कोदवाणि वा कंगुणि वा परगाणि वा रालाणि वा गिलिज़माणे अन्नयरस्स तणस्स बहाए सत्थं णिसिरेज्जा, से सामगं तणगं कुमुदुगं वीडीऊसियं कलेसुयं तणं छिंदिस्सामित्तिकट्टु सालिं वा धीहिं वा कोदवं वा कंगुं वा परगं वा रालय वा छिंदिता भवइ, इति खलु से अन्नस्स अट्ठाए अन्नं फुसति अकम्हादंडे, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सम्वजं आहिज्जर, चउत्थे दंडसमादाणे अकम्हादंडवत्तिए आहिए ॥ सूत्रम् २० ॥ अथापरं चतुर्थं दण्डसमादानमकस्साद्दण्डप्रत्ययिकमाख्यायते, इह चाकस्मादित्ययं शब्दो मगधदेशे सर्वेणाप्यागोपालाङ्गनादिना संस्कृत एवोचार्यत इति तदिहापि तथाभूत एवोचरित इति । तद्यथा नाम कचित्पुरुषो लुब्धकादिकः कच्छे वा यावद्वनदुर्गे वा गला मृगे :- हरिणैराटव्यपशुभिर्वृत्तिः -- वर्त्तनं यस्य स मृगवृत्तिकः, स चैवंभूतो मृगेषु संकल्पो यस्यासौ मृगसंकल्पः एतदेव दर्शयति-- मृगेषु प्रणिधानम् - अन्तःकरणवृत्तिर्यस्य स मृगप्रणिधानः क मृगान्द्रक्ष्यामीत्येतदध्यवसायी सन् मृगवधार्थं कच्छादिषु गन्ता भवति, तत्र च गतः सन् दृष्ट्वा मृगानेते मृगा इत्येवं कृत्वा तेषां मध्येऽन्यतरस्य मृगस्य वघार्थम् 'इषु' शरं 'आयामे तत्ति आयामेन समाकृष्य मृगमुद्दिश्य निसृजति, स चैवं संकल्पो भवति यथाऽहं मृगं हनिष्यामीति इषु॑ क्षिप्तवान् स च तेनेपुणा तित्तिरादिकं पक्षिविशेषं व्यापादयिता भवति, तदेवं खल्वसावन्यस्वार्थाय निक्षिप्तो दण्डो यदाऽन्यं स्पृशति' घातयति Education Internation चतुर्था अकस्मातदंड-क्रिया आरभ्यते, For Parts Only ~621~ Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [२०] दीप अनुक्रम [६५२] सूत्रकृताने २ श्रुतस्क न्धे शीला. शीयावृत्तिः ॥३०९ ॥ “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], मूलं [२०], निर्युक्ति: [ १६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः सोकस्माद्दण्ड इत्युच्यते ॥ अधुना वनस्पतिमुद्दिश्याकसादण्डमाह से जहे' त्यादि, तद्यथा नाम कवित्पुरुषः कृषीवलादिः शाल्यादे :- धान्यजातस्य 'श्यामादिकं' तृणजातमपनयन् धान्यशुद्धिं कुर्वाणः सन्नन्यतरस्य तृणजातस्यापनयनार्थं 'शस्त्रं' | दात्रादिकं निसृजेत् स च श्यामादिकं तृणं छेत्स्यामीतिकृलाऽकसाच्छालि वा यावत् लिकं वा छिन्द्याद्रक्षणीय सैवासावकस्साच्छेत्ता भवति इत्येवमन्यस्यार्थाय - अन्यकृतेऽन्यं वा 'स्पृशति' छिनति, यदिवा 'स्पृशती' त्यनेनापि परितापं करोतीति दर्शयति, तदेवं खलु 'तस्य' तत्कर्तुः 'तत्प्रत्ययिकम्' अकसाद्दण्डनिमित्तं 'सावध' मिति पापम् 'आधीयते' संबध्यते, तदेतचतुर्थं दण्डसमादानमकस्माद्दण्डप्रत्ययिकमाख्यातमिति Education International - अहावरे पंचमे दंडसमादाणे दिट्टिविपरियासियादंडवत्तिएत्ति आहिज्जह, से जहाणामए केइ पुरिस माईहिंवा पहिं वा भाईहिं वा भगिणीहिं वा भज्जाहिं वा पुत्तेहिं वा धूताहिं वा सुहाहिं वा सद्धिं संवसमाणे मित्तं अमित्तमेव मन्नमाणे मित्ते हयपुत्रे भवइ दिद्विविपरियासियादंडे । से जहाणामए केइ पुरिसे गामघायंसि वा नगरघायंसि वा खेड० कव्वड० मबघायंसि वा दोणमुहघायंसि वा पट्टणघायंसि वा आसमघायंसि वा सन्निवेसघायंसि वा निग्गमघायंसि वा रायहाणिघायंसि वा अतेणं तेणमिति मन्त्रमाणे अतेणे हयपुत्रे भवइ दिट्टिविपरियासियादंडे, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जंति आहिलइ, पंचमे दंडसमादाणे दिट्टिविपरियासियादंडवत्तिपत्ति आहिए । सूत्रम् २१ ॥ अथापरं पञ्चमं दण्डसमादानं दृष्टिविपर्यासदण्डप्रत्यविकमित्याख्यायते, तद्यथा नाम कचित्पुरुषः- चारभट्टादिको मातृपितृभ्रा पंचमा दृष्टिविपर्यासदंड-क्रिया आरभ्यते, For Palata Use Only ~622~ २ क्रियास्थानाध्य० अकस्माद्दष्टिविषया सदण्डौ ॥३०९॥ Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [२१] दीप अनुक्रम [६५३] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], मूलं [२१], निर्युक्ति: [ १६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः तृभगिनीभार्यापुत्रदुहितृस्नुषादिभिः सार्धं '(सं)बसन्' तिष्ठन् ज्ञातिपालनकृते मित्रमेव दृष्टिविपर्यासादमित्रोऽयमित्येवं मन्यमानो 'हन्यात्' व्यापादयेत् तेन च दृष्टिविपर्यासवता मित्रमेव हतपूर्व भवतीति अतो दृष्टिविपर्यासदण्डोऽयम् || पुनरप्यन्यथा तमेवाह - 'से जहे' त्यादि, तद्यथा नाम कश्चित्पुरुषः पुरुषकारमुद्वहन् ग्रामघातादिके विभ्रमे आन्तचेता दृष्टिविपर्यासादचौरमेव चौरोऽयमित्येवं मन्यमानो व्यापादयेत् तदेवं 'तेन' भ्रान्तमनसा विभ्रमाकुलेनाचौर एवं हतपूर्वो भवति, सोऽयं दृष्टिविपर्यासदण्डः, तदेवं खलु 'तस्य' दृष्टिविपर्यासवत् तत्प्रत्ययिकं सावधं कर्माधीयते । तदेवं पञ्चमं दण्डसमादानं दृष्टिविपर्यासप्रत्ययिकमाख्यातमिति ॥ - अहावरे छुट्टे किरियट्टाणे मोसावत्तिपत्ति आहिजह से जहाणामए केइ पुरिसे आहे वा पाइहेडं वा अगारहेडं वा परिवारहेडं वा सयमेव मुखं वयति अण्णेणवि मुसं वाएह मुसं वयंतंपि अण्णं समणुजाण, एवं खलु तस्स तष्पत्तियं सावजंति आहिजइ, छट्ठे किरियट्ठाणे मोसावत्तिएत्ति आहिए | सूत्रम् २२ ॥ अथापरं षष्ठं क्रियास्थानं मृषावादप्रत्ययिकमाख्यायते, तत्र च पूर्वोक्तानां पञ्चानां क्रियास्थानानां सत्यपि क्रियास्थानले प्रायशः परोपघातो भवतीतिकृत्वा दण्डसमादानसंज्ञा कृता, षष्ठादिषु च बाहुल्येन न परव्यापादनं भवतीत्यतः क्रियास्थानमित्येपा संज्ञोच्यते, तद्यथा नाम कश्चित्पुरुषः स्वपक्षाचेशादाग्रहादात्मनिमित्तं यावत्परिवारनिमित्तं वा सद्भूतार्थनिवरूपमसद्भूतोद्भावनखभावं वा स्वयमेव मृषावादं वदति, तद्यथा नाहं मदीयो वा कश्चिचौरः, स च चौरमपि सद्भूतमप्यर्थमपलपति, तथा परमचौरं चौरमिति वदति, तथाऽन्येन मृपावादं माणयति, तथाऽन्यांथ मृषावादं वदतः समनुजानीते । तदेवं खलु तस्य Education Internationa षष्ठी मृषावाद - क्रिया आरभ्यते, For Penal Use On ~623~ Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [२२], नियुक्ति: [१६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक [२२] दीप अनुक्रम [६५४] सूत्रकृताङ्गे 18| योगत्रिककरणत्रिकेण मृषावादं बदतस्तत्प्रत्ययिकं सावधं कर्म 'आधीयते' संबध्यते, तदेतत्पष्ठं क्रियास्थानं मृपापादप्रत्ययि-18|२ क्रिया२ श्रुतस्क- 8 कमाख्यातमिति ।। स्थानाध्य न्धे शीला- अहावरे सत्तमे किरियट्ठाणे अदिन्नादाणवत्तिएत्ति आहिजइ, से जहाणामए केइ पुरिसे आयहे वा मृषावादाकीयावृत्तिः जाव परिवारहेउ वा सयमेव अदिन्नं आदियइ अन्नेणवि अदिनं आदियावेति अदिन्नं आदियंतं अन्नं ध्यात्मिक ॥३१०॥ समणुजाणइ, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावर्जति आहिजह, सत्तमे किरियवाणे अदिनादाणवत्तिएत्ति आहिए ॥ सूत्रम् २३ ॥ अथापरं सप्तमं क्रियास्थानमदत्तादानप्रत्ययिकमाख्यायते, एतदपि प्राग्वन्नेय, तद्यथा नाम कश्चित्पुरुष आत्मनिमित्तं यावत्परिवारनिमित्तं परद्रव्यमदत्तमेव गृह्णीयादपरं च ग्राहयेगृहन्तमप्यपरं समनुजानीयादित्येवं तस्यादत्तादानप्रत्ययिकं कम संवध्यते । इति सप्तमं क्रियास्थानमाख्यातमिति ॥ 'अहावरे अट्ठमे किरियट्ठाणे अज्झत्यवत्तिएत्ति आहिज्जइ, से जहाणामए केइ पुरिसे णस्थि णं केह किंचि विसंवादेति सयमेव हीणे दीणे हे दुम्मणे ओहयमणसंकप्पे चिंतासोगसागरसंपविढे करतलपल्हत्थमुहे अज्झाणोवगए भूमिगयदिहिए झियाइ, तस्स णं अज्झत्थया आसंसइया चत्तारि ठाणा एव- ॥३१॥ माहिजइ (जंति), तं०-कोहे माणे माया लोहे, अज्झत्यमेव कोहमाणमायालोहे, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावर्जति आहिजह, अहमे किरियट्ठाणे अज्झस्थवत्तिएत्ति आहिए ॥ सूत्रम् २४ ॥ eseseedesesestrea | सत्तमा अदत्तादान-क्रिया आरभ्यते, अष्टमा आध्यात्मिक-क्रिया आरभ्यते ~624 ~ Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [२४], नियुक्ति: [१६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक [२४] अथापरमष्टमं क्रियास्थानमाध्यात्मिकमिति-अन्तःकरणोद्भवमाख्यायते, तद्यथा नाम कश्चित्पुरुषविन्तोत्प्रेक्षाप्रधानः, तस्य च नास्ति कश्चिद्विसंवादयिता-न तस्य कचिद्विसंवादेन परिभावेन वाऽसद्भूतोद्भावनेन वा चिचदुःखमुत्पादयति, तथाप्यसौ खयमेव वापसदवहीनो दुर्गतवद्धीनो दुश्चित्ततया दुष्टो दुर्मनास्तथोपहतोऽवस्थतया मनःसंकल्पो यस्य स तथा, तथा चिन्तैव शोक इति या | (स एव) सागरः चिन्ताशोकसागरश्चिन्ताप्रधानो वा शोकचिन्ताशोकः स एव सागरः तत्र प्रविष्टः चिन्ताशोकसागरप्रविष्टः । तथा । भूतश्च यदवस्थो भवति तदर्शयति-करतले पर्यस्तं मुखं यस्य स तथाऽहर्निशं भवति, तथाऽऽध्यानोपगतोऽपमतसद्विवेकतया धर्मध्यानाहूरवर्ती निनिमित्तमेव द्वन्द्वोपहतवद्ध्यायति । तस्यैवं चिन्ताशोकसागरावगाढस्य सत आध्यात्मिकानि-अन्तःकरणोद्भवानि मनःसंश्रितान्यसंशयितानि वा-निःसंशयानि चखारि वक्ष्यमाणानि स्थानानि भवन्ति, तानि चैवमाख्यायन्ते, तद्यथा-क्रोधस्थान |मानस्थानं मायास्थानं लोभस्थानमिति । ते चावश्यं क्रोधमानमायालोमा आत्मनोऽधि भवन्त्या(न्तीत्या)ध्यात्मिकाः, एभिरेव सद्भिर्दुष्टं 18| मनो भवति । तदेवं तस दुर्मनसः क्रोधमानमायालोभवत एवमेवोपहतमनःसंकल्पस 'तत्प्रत्यधिकम्' अध्यात्मनिमितं सावधं | कर्म 'आधीयते' संवध्यते । तदेवमष्टममेतक्रियास्थानमाध्यात्मिकायमाख्यातमिति ।। अहावरे णवमे किरियहाणे माणवत्तिएत्ति आहिजइ, से जहाणामए केइ पुरिसे जातिमएण वा कुलमएण वा बलमएण या रूवमएण वा तवमएण वा सुयमएण वा लाभमएण चा इस्सरियमएण वा पन्नामएण वा अन्नतरेण वा मयहाणेणं मत्ते समाणे परं हीलेति निदेति खिंसति गरहति परिभवइ अवमण्णेति, इत्तरिए अयं, अहमंसि पुण विसिट्टजाइकुलबलाइगुणोववेए, एवं अप्पाणं समुक्कस्से, देहचुए कम्मवि ccesee essemeseene दीप अनुक्रम [६५६] नवमा मान-क्रिया आरभ्यते, ~625~ Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [२५], नियुक्ति: [१६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्' मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः स्थाना० मानदण्डः प्रत सूत्रांक [२५] सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्कन्वे शीलाकीयावृत्तिः ॥३११॥ eseseeeeeeeeeeee दीप अनुक्रम [६५७] तिए अवसे पयाइ, तंजहा-गम्भाओ गम्भं ४ जम्माओ जम्मं माराओ मार णरगाओ णरगं चंडे धद्धे ||२ चवले माणियावि भवइ, एवं खलु तरस तप्पत्तियं सापजंति आहिजड, णवमे किरियाठाणे माणवत्तिएत्ति आहिए ॥ सूत्रम् २५ ॥ अथापरं नवम क्रियास्थान मानप्रत्ययिकमाख्यायते, तद्यथा नाम कश्चित्पुरुषो जात्यादिगुणोपेतः सन् जातिकुलबलरूपतपाथु-| तलामैश्वर्यप्रज्ञामदारुयैरष्टेभिर्मदस्थानैरन्यतरेण वा मचः परमवमवुझ्या हीलयति तथा निन्दति जुगुप्सते गर्हति परिभवति, एतानि | चैकार्थिकानि कश्चिद्भेदं वोत्प्रेक्ष्य व्याख्येयानीति । यथा परिभवति तथा दर्शयति-इतरोऽयं जघन्यो हीनजातिका तथा मनः॥ | कुलबलरूपादिभिर्दूरमपभ्रष्टः सर्वजनावगीतोऽयमिति । अहं पुनर्विशिष्टजातिकुलबलादिगुणोपेतः, एवमात्मानं समुत्केषेयेदिति । साम्प्रतं मानोत्कर्षविपाकमाह-'देहचुए' इत्यादि, तदेवं जात्यादिमदोन्मत्तः सबिहैव लोके गर्हितो भवति, अत्र च जात्यादिपदगयादिसंयोगा द्रष्टव्याः, ते चैवं भवन्ति-जातिमदः कस्यचिन्न कुलमदः, अपरख कुलमदो न जातिमदः, परस्योभयम् , अपरस्थानुभयमित्येवं पदत्रयेणाष्टौ चतुर्भिः षोडशेत्यादि यावदष्टमिः पदैः षट्पंचाशदधिकं शतद्वयमिति, सर्वत्र मदाभावरूपश्चरमभङ्गः शुद्ध 18 इति । परलोकेऽपि च मानी दुःखभाग्भवतीत्यनेन प्रदश्यते-खायुषः क्षये देहाच्युतो भवान्तरं गच्छन् शुभाशुभकमेद्वितीयः कर्म-18|| ॥३१॥ खभिवक्मात् बोगशाने 'जातिलाम खनन प्रशामदः पृथक् प्रशमरतौ च जातिकुलेखादी मैश्वर्यमद इति प्रसिदधनुरोधनान्यतरापियक्षणाद्वाष्टभिरिति । २.यितुमाह प्र० । ३ पक्षम्यन्तस्यास्मदो रूपम् । ४ अत्यन्तं, ५ वक्ष्यमाणः तदेवभिल्यादितः शुद्ध इति पर्यन्तः पाठोऽत्रत्य भाभाति । परलोकेऽपीति वाक्यं च भवतीयस्थाने। Facememeseses ~626~ Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [२५] दीप अनुक्रम [६५७] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र -२ ( मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], मूलं [२५], निर्युक्ति: [ १६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः परायणत्वादवशः--परतन्त्रः प्रयाति, तद्यथा - गर्भाद्गर्भ पञ्चेन्द्रियापेक्षं तथा गर्भादगर्भ विकलेन्द्रियेषूत्पद्यमानः पुनरगर्भाद्गर्भमेवमगर्भादगर्भम् एतच नरककल्पगर्भदुःखापेक्षायामभिहितम्, उत्पद्यमानदुःखापेक्षया विदमभिधीयते - जन्मन एकस्मादपरं जन्मांतरं व्रजति, तथा मरणं मारस्तस्मान्मारान्तरं व्रजति, तथा नरकदेश्यात् – श्वपाकादिवासाद्रत्नप्रभादिकं नरकान्तरं व्रजति, यदिवा नरकात्सीमन्तकादिकादुद्धृत्य सिंहमत्स्यादावृत्पद्य पुनरपि तीव्रतरं नरकान्तरं ब्रजति । तदेवं नटवद्रङ्गभूमौ संसारचक्रवाले स्त्रीपुंनपुंसकादीनि बहून्ययस्थान्तराण्यनुभवति । तदेवं मानी परपरिभवे सति चण्डो रौद्रो भवति परस्यापकरोति, तदभावे ह्यात्मानं व्यापादयति । तथा स्तब्धचपलो यत्किञ्चनकारी मानी सन् सर्वोऽप्येतदवस्थो भवतीति । तदेवं 'तत्प्रत्ययिकं' माननिमित्तं सावधं कर्म 'आधीयते' संबध्यते । नवममेतत्क्रियास्थानमाख्यातमिति ॥ Education Internationa अहावरे इसमे किरियद्वाणे मित्तदोसवत्तिएत्ति आहिज्जर, से जहाणामए केइ पुरिसे माईहिं वा पिती वा भाईहिं वा भइणीहिं वा भज्जाहिं वा धूयाहिं वा पुत्तेहिं वा सुण्हाहिं वा सद्धिं संवसमाणे तेर्सि अन्नयरंसि अहालहूगंसि अवराहंसि सयमेव गरुयं दंड निवत्लेति, तंजहा - सीओदगवियडंसि वा कार्य उच्छोलित्ता भवति, उसिणोद्गविय डेण वा कार्य ओसिंचिन्ता भवति, अगणिकाएणं कार्य उवष्टहिता भवति, जोसेण वा वेलेण वा णेत्तेण वा तयाइ वा [कण्णेण वा छियाए वा] लयाए वा (अन्नयरेण वा दवरण) पासाई उद्दालिता भवति, दंडेण वा अट्टीण वा मुट्टीण वा लेलूण वा कवालेण वा कार्य आउट्टिता भवति, तहप्पगारे पुरिसजाए संवसमाणे दुम्मणा भवति, पवसमाणे सुमणा भवति, तहप्पगारे पुरिसजाए दंडपासी दंडगुरुण दसमा मित्रदोष - क्रिया आरभ्यते, For Park Use Only ~ 627 ~ arr Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [२६] दीप अनुक्रम [६५८] सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्क न्धे शीलाङ्कीयावृत्तिः ॥३१२|| “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र -२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], मूलं [२६], निर्युक्ति: [ १६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः दंडपुरकडे अहिए इमंसि लोगंसि अहिए परंसि लोगंसि संजलणे कोहणे पिहिमंसि यावि भवति, एवं खलु तर तप्पत्तियं सावज्जंति आहिज्जति, दसमे किरियट्टाणे मित्तदोसवत्तिपत्ति आहिए ।। सूत्रम् २६ । अथापरं दशमं क्रियास्थानं मित्रदोषप्रत्ययिकमाख्यायते, तद्यथा नाम कश्चित्पुरुषः प्रभुकल्पो मातापितृसुहृत्स्वजनादिभिः सार्धं | परिवसंस्तेषां च मातापित्रादीनामन्यतमेनानाभोगतथा यथाकथंचिल्लघुतमेऽप्यपराधे वाचिके दुर्वचनादिके तथा कायिके हस्तपादादिके संघट्टनरूपे कृते सति स्वयमेव- आत्मना क्रोधाध्मातो गुरुतरं 'दण्डं' दुःखोत्पादकं 'निर्वर्तयति' करोति, तद्यथा-श्रीतोदके 'चिकटे' प्रभूते शीते वा शिशिरादौ 'तस्य' अपराधकर्तुः कायमधो बोलयिता भवति, तथोष्णोदकविकटेन 'कार्य' शरीरमयसिञ्चयिता भवति, तत्र विकट ग्रहणादुष्णतैलेन काञ्जिकादिना वा कायमुपतापयिता भवति, तथा अग्रिकायेन उल्मुकेन तप्ता|यसा वा कायमुपदाहयिता भवति, तथा योत्रेण वा वेत्रेण वा नेत्रेण वा 'त्वचा वा' सनादिकया लतया वाऽन्यतमेन वा दवरकेण ताडनतः 'तस्य' अपराधकर्तुः 'शरीरपार्श्वाणि उद्दालयितुं' ति चर्माणि लुम्पयितुं भवति, तथा दण्डादिना कायमुपताडयिता ॐ भवतीति । तदेवमल्पा पराधिन्यपि महाक्रोधदण्डवति तथाप्रकारे पुरुषजाते एकत्र वसति सति तत्सहवासिनो मातापित्रादयो दुर्म१४ नसस्तदनिष्टाशङ्कया भवन्ति, तसिश्च 'प्रवसति' देशान्तरे गच्छति गते वा तत्सहवासिनः सुमनसो भवन्ति । तथाप्रकारथ पुरुषजातोऽल्पेऽप्यपराधे महान्तं दण्डं कल्पयतीति एतदेव दर्शयितुमाह--दण्डस्य पार्श्व दण्डपार्श्व तद्विद्यते यस्यासौ दण्डपार्श्वी खव्यतया स्तोकापराधेऽपि कुप्यति दण्डं च पातयति । तमप्यतिगुरुमिति दर्शयितुमाह-दण्डेन गुरुको दण्डगुरुको यस्य च दण्डो महान् भवति असौ दण्डेन गुरुर्भवति, तथा दण्डः पुरस्कृतः सदा पुरस्कृतदण्ड इत्यर्थः स चैवंभूतः स्वस्थ परेषां च 'अस्मिन् Jacaton Internationa For Pale Only ~628~ 220797 २ क्रिया स्थाना० मित्रद्वेषः ॥३१२ ॥ Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [२६] दीप अनुक्रम [६५८] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र -२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], मूलं [२६], निर्युक्ति: [ १६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः | लोके' अस्मिन्नेव जन्मनि अहितः प्राणिनामहितदण्डापादनात् तथा परस्मिन्नपि जन्मन्यसावहितः तच्छीलतया चासौ यस कस्यचिदेव येन केनचिदेव निमित्तेन क्षणे क्षणे संज्चलयतीति संज्वलनः स चात्यन्तक्रोधनो वधबन्धछ विच्छेदादिषु शीघ्रमेव क्रियासु प्रवर्तते, तदभावेऽप्युत्कटद्वेषतया ममनतः पृष्ठिमांसमपि खादेत् तत्तदसौ ब्रूयात् येनासावपि परः संज्वलेत् ज्वलितश्चान्येषामपकुर्यात् तदेवं खलु तस्य महादण्डप्रवर्तयितुखद्दण्डप्रत्ययिकं सावधं कर्माऽऽधीयते । तदेतदशमं क्रियास्थानं मित्रद्रोह| प्रत्ययिकमाख्यातमिति । अपरे पुनरष्टमं क्रियास्थानमात्मदोषप्रत्ययिकमाचक्षते, नवमं तु परदोषप्रत्ययिकं दशमं पुनः प्राणत्तिकं क्रियास्थानमिति | अहावरे एकारसमे किरियट्ठाणे मायावत्तिएत्ति आहिज्जह, जे इमे भवंति - गूढायारा तमोकसिया उलुपत्तलहुया पचगुरुया ते आयरियावि संता अणारियाओ भासाओबि पउजंति, अन्नहासंत अप्पाणं अन्ना मन्नति, अन्नं पुट्ठा अन्नं वागरंति, अन्नं आइक्खियां अनं आइक्वंति ॥ से जहाणामए केइ पुरिसे अंतस तं स णो सर्प णिहरति णो अनेण णिहरावेति णो पडिविद्धंसेइ, एवमेव निण्हवेइ, अविउट्टमाणे अंतोअंतो रियइ, एवमेव माई मायं कट्टु णो आलोपइ णो पडिकमेह णो शिंदर णो गरहइ णो farer णो विसोहेt णो अकरणाए अम्भुट्टेइ णो अहारिहं तवोकम्मं पायच्छिन्तं पडिवजह, माई अस्सि लोए पचायाइ माइ परंसि लोए (पुणो पुणो ) पञ्चायाइ निंदर गरहइ पसंसह णिश्चरह ण नियगृह णिसि एकादशमा माया- क्रिया आरभ्यते, For Parts Only ~629~ waryra Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [२७] दीप अनुक्रम [६५९ ] सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्क न्धे शीलाझीयावृत्तिः ॥३१३॥ “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], मूलं [२७], निर्युक्ति: [१६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - रियं दंड छापति, माई असमाहडसुहस्से यावि भवइ, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावजंति आहिजर, एक्कारसमे किरियाणे मायावत्तिपत्ति आहिए ॥ सूत्रं २७ ॥ अथापरमेकादशं क्रियास्थानमाख्यायते, तद्यथा-ये केचनामी भवन्ति पुरुषाः, किंविशिष्टाः ?- गूढ आचारो येषां ते गूढाचाराः - गलकर्तकग्रन्थिच्छेदादयः, ते च नानाविधैरुपायैर्विश्रम्भमुत्पाद्य पश्चादपकुर्वन्ति, प्रद्योतादेर भयकुमारादिवत् । ते च मायाशीलवेनाप्रकाशचारिणः, तमसि कृषितुं शीलं येषां ते तमसिकाषिणस्त एव च कापिकाः, पराविज्ञाताः क्रियाः कुर्वन्तीत्यर्थः । ते च खचेष्टयैवो लूकपत्रव लघवः, कौशिकपिच्छवल्लघीयांसोऽपि पर्वतवगुरुमात्मानं मन्यन्ते यदिवाऽकार्यप्रवृत्तेः पर्वतवन्त्र स्तम्भयितुं शक्यन्ते, ते चार्यदेशोत्पन्ना अपि सन्तः शाख्यादात्मप्रच्छादनार्थमपरभयोत्पादनार्थं चानार्यभाषाः प्रयुञ्जते, परव्यामोहार्थं स्वमतिपरिकल्पितभाषाभिरपरा विदिताभिर्भाषन्ते तथाऽन्यथाव्यवस्थितमात्मानम् अन्यथा - साध्वाकारेण मन्यन्ते व्यवस्थापयन्ति च तथाऽन्यत्पृष्टा मातृस्थानतोऽन्यदाचक्षते, यथाऽऽग्रान् पृष्टाः केदारकानाचक्षते, वादकाले वा कश्चिन्नाथ (न्याय) वादितया व्याकरणे प्रवीणस्त (णं तर्कमार्गमवतारयति, यथा वा 'शरदि वाजपेयेन यजेते' त्यस्य वाक्यस्यार्थं पृष्टस्तदर्थानभिज्ञः कालातिपातार्थं शरत्कालं व्यावर्णयति, तथाऽन्यसिंश्चार्थे कथयितव्येऽन्यमेवार्थमाचक्षते ।। तेषां च सर्वार्थविसंवादिनां कपटप्रपञ्चचतुराणां विपाकोवनाय दृष्टान्तं दर्शयितुमाह- 'से जहे' त्यादि, तत् यथा नाम कचित्पुरुषः संग्रामादपक्रान्तोऽन्तः - मध्ये शल्यं - तोमरादिकं यस्य सोऽन्तः शल्यः, स च शयघन वेदनाभीरुतया तच्छल्यं न खतो 'निर्हरति अपनयति उद्धरति नाप्यन्येनोद्धारयति, नापि तच्छल्यं वैद्योपदेशेनौषधोपयोगादिभिरुपायैः 'प्रतिध्वंसयति' विनाशयति, अन्येन केनचित्पृष्टो वाऽपृष्टो वा Educator International For Park Use Only ~630~ २ क्रियास्थानाध्य० मायाप्रत्यकिं ११ ॥३१३॥ Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [२७], नियुक्ति: [१६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक [२७] दीप अनुक्रम [६५९] तरछल्य निष्प्रयोजनमेष 'निहुते' अपलपति, तेन च शल्येनासावन्तर्वर्तिना 'अविउद्दमाणे ति पीव्यमानः 'अंतो अंतोत्ति || मध्ये मध्ये पीड्यमानोऽपि रीयते' व्रजति, तत्कृतां वेदनामधिसहमानः क्रियासु प्रवर्तत इत्यर्थः । साम्प्रतं दार्शन्तिकमाह'एवमेवेत्यादि, यथाऽसौ सशल्यो दुःखभाग्भवति एवमेवासी 'मायी' मायाशल्यवान् यत्कृतमकार्य तन्मायया निगृहयन् मायां | कला न तां मायामन्यसै 'आलोचयति' कथयति, नापि तस्मात् स्थानात्प्रतिकामति-न ततो निवर्तते, नाप्यात्मसाक्षिकं 18 |तन्मायाशल्यं निन्दति, तद्यथा-धिमा यदहमेवंभूतमकार्य कर्मोदयात्तत् कृतवान् , तथा नापि परसाक्षिकं गहति-आलोचनाईस-1 मीये मतो नापि च जुगुप्सते, तथा 'नो विउद्दति' नापि सन्मायाख्यं शल्यमकार्यकरणात्मकं विविधम्-अनेकप्रकारं त्रोटयति-| | अपनयति, यद्यस्सापराधख प्रायवित्तं तचेन पुनस्तदकरणतया (न) निवेत्तयतीत्यर्थः, नापि तन्मयादिकमकार्य सेषिखाऽऽलोचनाहीयात्मानं निवेद्य तदकार्याकरणतयाऽभ्युत्तिष्ठते, प्रायश्चित्तं प्रतिपद्यापि नोयुक्तविहारी भवतीत्यर्थः, तथा नापि गुर्वादिभिरभिधीयमानोऽपि 'यथाऽहम्' अकार्यनिर्वहणयोग्य प्रायः चित्रं शोधयतीति प्रायश्चित्तं-तपःकर्म विशिष्टं चान्द्रायणाद्यात्मक 'प्रतिपद्यते' अभ्युपगच्छति । तदेवं मायया सत्कार्यप्रच्छादकोऽसिन्नेव लोके मायावीत्येवं सर्वकार्येष्वेवाधिश्रम्भणसेन 'प्रत्यायाति' प्रख्याति याति, तथाभूतश्च सर्वस्यापि अविश्वास्यो भवति, तथा चोक्तम्-"मायाशीलः पुरुषः" (यद्यपि न करोति किश्चिदपराधं । सर्वस्याविश्वाखो भवति तथाप्यात्मदोपहतः।१) इत्यादि, तथातिमायाविवादसौ परस्मिन् लोके जन्मान्तरावाप्तौ सर्वाधमेषु ।। यातनास्थानेषु नरकतिर्यगादिषु 'पौनःपुन्येन प्रत्यायाति' भूयोभूयस्तेष्वेवारघट्टघटीयश्रन्यायेन प्रत्यागच्छतीति । तथा नानाविधैः। प्रपञ्चैर्वश्चयिता परं निन्दति जुगप्सते, तद्यथा-अयमज्ञः पशुकल्पो नानेन किमपि प्रयोजनमिति, एवं परं निन्दयिताऽऽत्मानं प्रशं-1 ~631~ Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [२७], नियुक्ति: [१६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक १२ [२७] दीप अनुक्रम [६५९] सूत्रकृताङ्गे तासयति, तद्यथा असावपि मया बश्चित इत्येवमात्मप्रशंसया तुष्यति, तथा चोक्तम्-"येनापत्रपते साधुरसाधुस्तेन तुष्यतीति । एवं क्रिया२ श्रुतस्क-२ चासौ लब्धप्रसरोऽधिकं निश्चयेन चा चरति-तथाविधानुष्ठायी भवतीति निश्चरति । तत्र च गृद्धः संस्तसान्मातृस्थानान्न निवर्तते, || स्थानाध्य न्धे शीला-18 तथाऽसौ मायावलेपेन 'दण्ड' प्राण्युपमर्दकारिणं 'निसृज्य' पातयिसा पश्चात् 'छादयति' अपलपति अन्यस्य वोपरि प्रक्षिपति, स लोभक्रिया कीयावृत्तिः च मायावी सर्वदा वश्चनपरायणः संस्तन्मनाः सर्वानुष्ठानेष्वप्येवंभूतो भवति-असमाहृता-अनङ्गीकृता शोभना लेश्या येन सel ॥३१४॥ तथा आध्यानोपहततयाऽसावशोभनलेश्य इत्यर्थः । तदेवमपगतधर्मध्यानोऽसमाहितोऽशुद्धलेश्यचापि भवति । तदेवं खलु तस्य 'तत्प्रत्ययिक' मायाशल्यप्रत्ययिकं सावा काऽऽधीयते । तदेतदेकादशं क्रियास्थानं मायाप्रत्ययिक व्याख्यातं ।। एतानि चार्थ18 दण्डादीनि एकादश क्रियास्थानानि सामान्यनासंयतानां भवन्ति, इदं तु द्वादशं क्रियास्थानं पाखण्डिकानुद्दिश्याभिधीयते अहावरे यारसमे किरियहाणे लोभवत्तिएत्ति आहिजइ, जे इमे भवंति, तंजहा-आरन्निया आवसहिया गामंतिया कण्हुईरहस्सिया णो बहुसंजया णो बहुपडिविरया सबपाणभूतजीवसत्तेहि ते अप्पणो सञ्चामोसाई एवं विजंति, अहं ण हतबो अन्ने हंतचा अहंण अन्जावेयबो अन्ने अजावेयचा अहं ण परिघेतयो अन्ने परिघेतबा अहं ण परितावेयबो अन्ने परितायचा अहं ण उद्दवेयचो अन्ने उद्दयेयवा, एवमेव ते इस्थिकामेहिं मुच्छिया गिद्धा गढिया गरहिया अझोववन्ना जाव वासाई चउपंचमाई छहसमाई अप्पपरो वा ॥३१४॥ भुजयरो वा भुंजिनु भोगभोगाई कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु आसुरिएसु किब्धिसिएसु ठाणेसु उववत्तारो भवंति, ततो विप्पमुच्चमाणे भुजो भुजो एलमयत्ताए तमूयत्ताए जाइयत्ताए पञ्चायंति, एवं Sweceaeeseseree 98289390sass | द्वादशमा लोभ-क्रिया आरभ्यते, ~632~ Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक -], मूलं [२८], नियुक्ति: [१६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः మరిన్ని प्रत सूत्रांक [२८] दीप अनुक्रम [६६०] खलु तस्स तप्पत्तियं सावजंति आहिजइ, दुवालसमे किरियट्टाणे लोभवत्तिएत्ति आहिए ॥ इच्चेयाई दुवालस किरियट्ठाणाई दविएणं समणेण वा माहणेण वा सम्म सुपरिजाणिअबाई भवंति ॥ सूत्रं २८॥ 1 एकादशात् क्रियास्थानादनन्तरमथापरं द्वादशं क्रियास्थानं लोभनत्ययिकमाख्यायते, तद्यथा-य इमे वक्ष्यमाणा अरण्ये बस18न्तीत्यारण्यकाः, ते च कन्दमूलफलाहाराः सन्तः केचन वृक्षमूले वसन्ति, केचनावसथेषु-उटजाकारेषु गृहेषु, तथा अपरे ग्रामादि-18 18| कमुपजीवन्तो ग्रामस्थान्ते-समीपे वसन्तीति प्रामान्तिकाः, तथा 'कचित्' कार्य मण्डलप्रवेशादिके रहस्यं येषां ते कचिद्राहसिकाः, || 81 ते च 'न बहुसंयता' न सर्वसावधानुष्ठानेभ्यो निवृत्ताः, एतदुक्तं भवति-न बाहुल्पेन बसेषु दण्डसमारम्भं विदधति, एकेन्द्रियो-18 पजीविनस्वविगानेन तापसादयो भवन्तीति, तथा 'न बहुविरता' न सर्वेष्वपि प्राणातिपातविरमणादिषु तेषु वर्तन्ते, किंतु द्रव्यतः कतिपयव्रतवर्तिनो न भावतो, मनागपि तत्कारणस सम्यग्दर्शनस्थाभावादित्यभिप्रायः, इत्येतदाविभावयितुमाह। 'सबपाणे'त्यादि, ते धारण्यकादयः सर्वप्राणिभूतजीवसवेभ्य आत्मना-खतः अविरता:-तदुपमर्दकारम्भादविरता इत्यर्थः । तथा ते पापण्टिका आत्मना-खतो बहूनि सत्या(त्य)मृपाभूतानि वाक्यानि 'एवं वक्ष्यमाणनीया विशेषेण 'युअन्ति' प्रयुञ्जन्ति | SH 18वत इत्यर्थः, यदिवा सत्यान्यपि तानि प्राण्युपमर्दकलेन मृषाभूतानि सत्या(त्य)मृपाणि, एवं ते प्रयुञ्जन्तीति दर्शयति तयथा R/ अहं ब्राह्मणखाद्दण्डादिभिर्न हन्तव्योऽन्ये तु शूद्रखाद्धन्तन्याः, तथाहि तद्वाक्य-'शूद्र व्यापाद्य प्राणायाम जपेत् , किंचिद्वा दद्यात् , 18 तथा क्षुद्रसत्त्वानामनखिकानां शकटभरमपि च्यापाद्य ब्राह्मणं भोजये(दि)त्यादि, अपरं चाहं वर्णोत्तमखात नानापयितव्यों ऽन्ये तु मत्तोऽधमाः समाज्ञापयितव्याः, तथा नाहं परितापयितव्योऽन्ये तु परितापयितव्याः, तथाऽहं वेतनादिना कर्मकरणाय न8 ~633~ Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [२८] दीप अनुक्रम [६६०] सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्क न्वे शीला ङ्कीयावृत्तिः ॥३१५॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र -२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], मूलं [२८], निर्युक्ति: [ १६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ग्राह्योऽन्ये तु शूद्रा ब्रह्मा इति किं बहुनोक्तेन ?, नाहमुपद्रावयितच्यो- जीवितादपरोपयितव्योऽन्ये तु अपरोपयितव्या इति । तदेवं तेषां परपीडोपदेशनतोऽतिमूढतयाऽसंबद्धप्रलापिनामज्ञानावृतानामात्मभरीणां विषमदृष्टीनां न प्राणातिपातविरतिरूपं व्रतमस्ति, अस्य चोपलक्षणार्थखात् मृषावादादत्तादानविरमणाभावोऽप्यायोज्यः । अधुना त्वनादिभवाभ्यासादुस्त्यजसेन प्राधान्यात् सूत्रेवात्रक्षाधिकृत्याह--'एवमेवेत्यादि, 'एवमेव' पूर्वोकेनैव कारणेनातिमूढखादिना परमार्थमजानानास्ते तीर्थिकाः श्रीप्रधानाः कामाः स्त्रीकामाः यदिवा स्त्रीषु कामेषु च शब्दादिषु मूर्च्छिता गृद्धा प्रथिता अभ्युपपन्नाः । अत्र चात्यादरख्यापनार्थ प्रभूतपर्यायग्रहणम्, एतच स्त्रीषु शब्दादिषु च प्रवर्तनं प्रायः प्राणिनां प्रधानं संसारकारणं, तथा चोक्तम्- “मूलमेयमहम्मस्स, महादोससमुस्सय' मित्यादि, इह च खीसङ्गासक्तस्यावश्यंभाविनी शब्दादिविषयासक्तिरित्यतः श्रीकामग्रहणं, सत्र चाऽऽसका वावन्तं कालमासते तत्सूत्रेणैव दर्शयति- यावद्वर्षाणि चतुष्पञ्चपदशकानि, अर्थ व मध्यमकालो गृहीतः, एतावत्कालोपादानं व साभिप्रायकं, प्रायस्तीर्थिका अतिक्रान्तवयस एवं प्रव्रजन्ति तेषां चैतावानेव कालः संभाव्यते, बदिवा मध्यग्रहणाचत ऊर्ध्वमध्य गृझते | इति दर्शयति तस्साचोपात्तादल्पतरः प्रभूततरो वापि कालो भवति । तत्र च ते त्यक्सापि गृहवासं 'भुक्त्वा भोग भोगाव इति स्त्रीभोगे सति अवश्यं शब्दादयो भोगाः भोगमोगास्तान् शुक्ला, ते च किल वयं प्रत्रजिता इति, न ख भोगेभ्यो विनिवृताः, यतो मिध्यादृष्टितयाऽज्ञानान्धत्वात्सम्यग्विरतिपरिणाम [ ग्रन्थानं ९५०० ] रहिताः, ते चैवंभूतपरिणामाः स्वायुषः क्षमे कालमासे कालं कृता विष्टतपसोऽपि सन्तोऽन्यतरेष्वासुरिकेषु किल्विविकेषु स्थानेपुत्पादयितारो भवन्ति, से अज्ञानतपसा मृता १ मूले व्यत्ययेन । २ मूलमेतदपस्य महादोषसमुच्छ्रयं । Education Internation For Parts Only ~634~ २ क्रियास्थानाध्य० लोभक्रिया १२ ॥३१५॥ Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक -], मूलं [२८], नियुक्ति: [१६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८] दीप अनुक्रम [६६०] a9a900ass89390090ae अपि किल्विषिकेषु स्थानेधूत्पत्स्यन्ते, तस्मादपि स्थानादायुषः क्षवाद्विप्रमुच्यमानाः च्युताः किल्विषबहुलास्तस्कमशेषेणैलवन्मूका एलमूकास्तद्भावेनोत्पद्यन्ते, किल्बिषिकस्थानाच्युतः समनन्तरभवे या मानुषखमवाप्य यथैलकने यूकोचाकवाक् भवति एवमसावप्प-1 व्यक्तवाक् समुत्पद्यत इति । तथा 'तमूयसाएति तमस्खेन-अत्यन्तान्धतमसलेन जात्यन्धतया अत्यन्ताज्ञानावृततया वा तथा | जातिमूकलेनापगतवाच इह प्रत्यागच्छन्तीति । तदेवंभूतं खलु तेषां तीथिकानां परमार्थतः सावधानुष्ठानादनिवृत्तानामाधाकमोंदिप्रवृत्तेस्तत्प्रायोग्यभोगभाजां 'तत्प्रत्ययिक' लोभप्रत्ययिक सावर्व कर्माधीयते । तदेतल्लोभप्रत्ययिक द्वादशं क्रियास्थानमाख्या-18 तमिति ॥ साम्प्रतमेतेपा द्वादशानामप्युपसंहारार्थमाह-'इतिः उपप्रदर्शने 'एतानि' अर्थदण्डादीनि लोभप्रत्ययिकक्रियास्थानपर्यबसानानि द्वादशापि क्रियास्थानानि कर्मग्रन्थिद्रावणावः-संयमः स विद्यते यस्खासौ द्रविको मुक्तिगमनयोग्यतया वा द्रव्यभूतः181 श्रमण:-साधुः, तमेव विशिनष्टि-मा बधीरित्येवं प्रवृत्तियेस्थासौ माहनस्तेनैव एतद्गुणविशिष्टेनैतानि सम्पग्यथावस्थितवस्तुखरूप-12 निरूपणतो मिथ्यादर्शनाश्रितानि संसारकारणानीतिकला परिज्ञथा ज्ञातव्यानि प्रत्याख्यानपरिशया परिहर्सव्यानि भवन्तीति ॥ अहावरे तेरसमे किरियट्ठाणे इरियावहिएत्ति आहिजइ, इह खलु अत्तत्साए संवुडस्स अणगारस्स इरियासमियस्स भासासमियस्स एसणासमियरस आयाणमंडमत्तणिक्खेवणासमियस्स चारपासवणवेलसिंघाणजल्लपारिहावणियासमियस्स मणसमियस्स वयसमियस्स कायसमियस्स मणगुत्तस्स वयगुस्सस्स कायगुस्सस्स गुसिंदियस्स गुत्तभयारिस्स आउसं गच्छमाणस्स आपसं चिट्ठमाणस्स आउ णिसीयमाणस्स आउसं तुपमाणस्स आउत्तं भुंजमाणस्स आउसं भासमाणस्स आउत्तं वत्थं पडिग्गहं कंबलं पा | तेरशमा ईर्याप्रत्ययिका-क्रिया आरभ्यते, ~635~ Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक -], मूलं [२९], नियुक्ति: [१६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक [२९] सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्कन्धे शीलाकीयावृत्तिः ॥३१६॥ दीप अनुक्रम [६६१] एeseseaeseseaecsesese यपुंछणं गिण्हमाणस्स वा णिक्खिवमाणस्स वा जाव चक्खुपम्हणिवायमवि अस्थि विमाया सुहमा कि २क्रियारिया इरियावहिया नाम कजइ, सा पढमसमए बद्धा पुट्ठा बितीयसमए वेइया तइयसमए णिजिण्णा सा स्थानाध्य बद्धा पुट्ठा उदीरिया वेइया णिजिण्णा सेयकाले अकम्मे यावि भवति, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावळ १३ ईर्यापति आहिज्जइ, तेरसमे किरियट्ठाणे ईरियावहिएत्ति आहिजइ ॥ से बेमि जे य अतीता जे य पडुपन्ना जे विकक्रिया य आगमिस्सा अरिहंता भगवंता सबे ते एयाई चेव तेरस किरियाणाइंभासिंसु वा भासेंति वा भासिस्संति वा पन्नविंसु वा पन्नविति वा पन्नविस्संति वा, एवं चेव तेरसमं किरियट्ठाणं सेविसु वा सेवंति वा सेविस्संति वा ॥ सूत्रं २९॥ अथापरं त्रयोदर्श क्रियास्थानमीर्यापथिकं नामाख्यायते, ईरणमीर्या तस्खास्तया वा पन्था ईर्यापथस्तत्र भवमी-पथिकम् , एतच शब्दव्युत्पचिनिमित्तं, प्रवृत्तिनिमित्तं खिद-सर्वत्रोपयुक्तस्याकषायस्य समीक्षितमनोवाकायक्रियस्य या क्रिया तया यत्कर्म तदर्यापथिक, सैव वा क्रिया ईर्यापथिकेत्युच्यते । सा कस भवति? किंभूता वा? कीटकर्मफला वा? इत्येतदर्शयितुमाह-18 'इह खलु' इत्यादि, 'इह' जगति प्रवचने संयमे वा वर्तमानस्य खलुशब्दोऽवधारणेऽलङ्कारे वा आत्मनो भाव आत्मसं तदर्थमास्मखार्थे संवृतख मनोवाकार्यः, परमार्थत एवंभूतस्यैवात्मभावोऽपरस्य बसंघृतस्यात्मत्वमेव नास्ति, सद्भूतात्मकार्याकरणात् , तदेव-| ॥३१६॥ | पथः स विद्यते यस साधोरप्रमत्तस्य तदौर्या (स इपिथिकः तस्संदीया ) प्र. प्रत्यपेक्षया सावतत् । ~636~ Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [२९], नियुक्ति: [१६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९] दीप अनुक्रम [६६१] मात्मार्थ संवृतस्थानगारखेर्यापथिकादिभिः पञ्चभिः समितिभिर्मनोवाकायैः समितस्य तथा तिमृभिर्गुप्तिभिगुप्तस्य, पुनर्गुसिग्रह| गमेता भिरेव गुप्तिभिगुप्तो भवतीत्यस्यार्थस्याविर्भावनायात्यादरख्यापनार्थ वेति । तथा गुप्तेन्द्रियस्य नवब्रह्मचर्यगुप्त्युपेतब्रह्मचारिणश्च | सतः, तथोपयुक्तं गच्छतस्तिष्ठतो निषीदतस्ववर्तनां कुर्वाणस्य तथोपयुक्तमेव वस्त्रं पतद्ग्रहं कम्बलं पादपुञ्छनकं वा गृहतो| | निक्षिपतो वा यावचक्षुःपक्ष्मनिपातमप्युपयुक्तं कुर्वतः सतोऽत्यन्तमुपयुक्तस्यापि अस्ति-विधते विविधा मात्रा विमात्रा तदेवंविधा| सूक्ष्माक्षिपक्ष्मसंचलनरूपादिकर्यापथिका नाम क्रिया केवलिनापि क्रियते, तथाहि-सयोगी जीवो न शक्रोति क्षणमप्येकं निश्चलः स्थातुम् , अमिना ताप्यमानोदकवत्कार्मणशरीरानुगतः सदा परिवर्तयन्नेवास्ते, तथा चोकम् "केवली णं भंते ! अस्सि समयंसि | जेसु आगासपएसेमु" इत्यादि । तदेवं केवलिनोऽपि सूक्ष्मगात्रसंचारा भवन्ति, इह च कारणे कार्योपचारात्तया क्रियया यवध्यते | | कर्म तस्य च कर्मणो या अवस्थास्ता: क्रियाः, ता एव दर्शयितुमाह-सा पढमसमये' इत्यादि, याऽसावकषाषिणः क्रिया तया यद्वध्यते कर्म तत्प्रथमसमय एवं बर्द्ध स्पृष्टं चेतिकता तक्रियैव बद्धस्पृष्टेत्युक्ता, तथा द्वितीयसमये वेदितेत्यनुभूता तृतीयसमये 8 | निजीर्णा, एतदुक्तं भवति-कर्म योगनिमित्तं बध्यते, तत्स्थितिश्च कषायायचा, तदभावाच न तस्स सांपरायिकस्येव स्थितिः, किंतु योगसद्भावाद्वध्यमानमेव स्पृष्टता-संश्लेष याति, द्वितीयसमधे खनुभूयते, तच्च प्रकृतितः सातावेदनीयं स्थितितो द्विसमयस्थितिकमनुभावतः शुभानुभावं अनुत्तरोपपातिकदेवमुखातिशायि प्रदेशतो बहुप्रदेशमस्थिरबन्धं बहुम्पयं च, तदेवं सेयोपथिका क्रिया १ केवली भदन्त । अस्मिन् समये येच्चाकाशप्रदेशेषु । १ बध्यमानस पालादायस्य गणना तृतीयस्य तु निजामाणस्य निर्माणलान स्थिती गणनेति कमिस्र्थ, भाष्ये तत्वार्थस्य तु एकसमयस्थितिकमिति । ~637~ Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [२९] दीप अनुक्रम [६६१] सूत्रकृताङ्ग २ श्रुतस्कन्धे शीलाझीयावृत्तिः ॥३१७॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र -२ ( मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], मूलं [२९], निर्युक्ति: [ १६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः प्रथमसमये बद्धस्पृष्टा द्वितीयसमये उदिता वेदिता निर्जीर्णा भवति, 'सेयकाले 'ति आगामिनि तृतीयसमये तत्कर्मापेक्षयाकर्मतापि च भवति, एवं तावद्वीतरागस्येयाप्रत्ययिकं कर्म 'आधीयते' संबध्यते । तदेतत्रयोदशं क्रियास्थानं व्याख्यातं । ये पुनस्तेभ्योऽन्ये प्राणिनस्तेषां सांपरायिको बन्धः, ते तु यानि प्रागुक्तानीर्यापथवर्ज्यानि द्वादश क्रियास्थानानि तेषु वर्तन्ते तेषां च तद्वर्तिनामसुमतां मिथ्याला विरतिप्रमादकपाययोगनिमित्तः सांपरायिको बन्धो भवति, यत्र च प्रमादस्तत्र कपाया [योगार्थ ] नियमाद्भवन्ति, कपायिणश्च योगाः, योगिनस्त्वेते भाज्याः, तत्र प्रमादकषायप्रत्ययिको बन्धोऽनेकप्रकारस्थितिः, तद्रहितस्तु केवलयोगप्रत्ययिको द्विसमयस्थितिरेवेर्याप्रत्ययिक इति स्थितम् । एतानि त्रयोदश क्रियास्थानानि न भगवद्वर्धमानखामिनेवोक्तानि अपि सन्यैरपीत्येतदर्शयितुमाह- 'से बेमी' त्यादि, सोऽहं ब्रवीमीति, यत्प्रागुक्तं तद्वा बचीमीति, तद्यथा-ये तेऽतिक्रान्ता ऋषभादयस्तीर्थकृतो ये च वर्तमानाः क्षेत्रान्तरे सीमन्धरस्वामिप्रभृतयो ये चागामिनः पद्मनाभादयोऽर्हन्तो भगवन्तः सर्वेऽपि ते पूर्वोक्तान्येतानि त्रयोदश क्रियास्थानान्यभाषिषुः भाषन्ते भाषिष्यन्ते च । तथा तत्स्वरूपतस्तद्विपाकतथ प्ररूपितवन्तः प्ररूपयन्ति प्ररूपयिष्यन्ति च । तथैतदेव त्रयोदशं क्रियास्थानं सेवितवन्तः सेवन्ते सेविध्यन्ते च यथा हि जम्बूद्वीपे सूर्यद्वयं तुल्यप्रकाशं | भवति यथा वा सदृशोपकरणाः प्रदीपास्तुल्यप्रकाशा भवन्ति एवं तीर्थकृतोऽपि निरावरणवाद कालत्रयवर्तिनोऽपि तुल्योपदेशा भवन्ति । साम्प्रतं त्रयोदशसु क्रियास्थानेषु यन्नाभिहितं पापस्थानं तद्विभणिपुराह् अदुत्तरं च णं पुरिसविजयं विभंगमाइक्खिस्सामि, इह खलु णाणापण्णाणं णाणाछंदाणं णाणासीलाणं १०ः स्थितितः प्र०१ 'मिथ्या न भाषामि विशालनेत्रे ।' इति वत्परस्मै । Education Internation अथ पापस्थानानी आरभ्यते For Park Use Only ~638~ २ क्रियास्थानाध्य० १३ ईयॉपचिकक्रिया ॥३१७॥ Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [३०] दीप अनुक्रम [६६२] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२. ], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], मूलं [३०], निर्युक्तिः [१६८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - जाणादिट्टीण जाणारुणं णाणारंभाणं णाणाज्झवसाणसंजुत्ताणं णाणाविहपावसुयज्झयणं एवं भवह, तंजा-भोमं उपायं सुविणं अंतलिक्खं अंगं सरं लक्खणं वंजणं इत्थिलक्खणं पुरिसलक्खणं हयलक्खणं गयलक्खणं गोगलक्खणं मिंडलक्खणं कुडलक्खणं तित्तिरलक्खणं वगलक्खणं लावयलक्खणं चकलक्खणं छत्तलक्खणं चम्मलक्खणं दंडलक्खणं असिलक्खणं मणिक्खणं कागिणिलकवणं सुभगाकरं दुब्भगाकरं गन्भाकरं मोहणकरं आहवणिं पागसासणिं दद्द होमं स्वत्तियविजं चंदचरियं सुरचरियं सुक्कचरियं बहस्सहचरियं उक्कापायं दिसादाहं मियचक्रं वायसपरिमंडल पंसुबुद्धिं केसवुद्धिं मंसबुद्धि रुहिरबुद्धिं वेताल अद्भवेतालिं ओसोवणिं तालुगधाडणिं सोवागिं सोवरिं दामिलि कालिंगि गोरिं गंधारि ओवनणि उप्पयणि जंभणि श्रंभणि लेसणि आमयकरणिं विसल्लकरणिं पकर्माणि अंतद्वाणि आयमिणि, एवमाहआओ बिनाओ अन्नस्स हे पउंजंति पाणस्स हेडं पडंजंति वत्थस्स हेड पडजति लेणस्स हे परंजंति सयणस्स हेडं पउंजंति, अन्नेसिं वा विरूवस्वाणं कामभोगाण हेडं पउंजंति, तिरिच्छं ते बिजं सेवेंति, ते अणारिया विप्पडिवन्ना कालमासे कालं किच्चा अन्नयराई आसुरियाई किव्विसियाई ठाणाई उववन्तारो भवति, ततोऽवि विप्पमुद्यमाणा भुजो एलम्यताए तमअंधयाए पञ्चायति ॥ सूत्रं ३० ॥ अस्मात्रयोदशक्रियास्थानप्रतिपादनादुत्तरं यत्र न प्रतिपादितं तदधुनोत्तरभूतेनानेन सूत्रसंदर्भेण प्रतिपाद्यते, यथाऽऽचारे प्रथमश्रुतस्कन्धे यन्नाभिहितं तदुत्तरभूताभिञ्चलिकाभिः प्रतिपाद्यते, तथा चिकित्साशास्त्रे मूलसंहितायां श्लोकस्थाननिदानशारीरचि Etication Internation For Park Use Only ~639~ Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३०], नियुक्ति: [१६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक [३०] कीयावृत्तिः दीप अनुक्रम [६६२] मूत्रकृताङ्गे ४ कित्सितकल्पसंज्ञकायां यन्नाभिहितं तदुत्तरेऽभिधीयते, एवमन्यत्रापि छंदश्चियादावुत्तरसद्भावोजगन्तव्यः, तदिहापि पूर्वेण २ किया२ श्रुतस्क- यन्नाभिहितं तदनेनोत्तरग्रन्थेन प्रतिपाद्यत इति, चः समुच्चये, णमिति वाक्यालङ्कारे, पुरुषा विचीयन्ते-मृग्यन्ते विज्ञानदारेणा- स्थानाध्य. न्धे शीला- न्वेष्यन्ते येन स पुरुषविचयः पुरुषविजयो वा-केषाञ्चिदल्पसवानां तेन ज्ञानलवेनाविधिप्रयुक्तनानानुवन्धिना विजयादिति, भामादिनस च विभङ्गवद्-अवधिविपर्ययवद्विभङ्गो-ज्ञानविशेषः पुरुषविचयश्चासौ विभङ्गश्च पुरुषविचयविभङ्गस्तमेवंभूतं ज्ञानविशेषमाख्यास्या योक्तःफलं ३ मि-प्रतिपादयिष्यामि, यादृशानां चासौ भवति ताल्लेशतः प्रतिपादयितुमाह-इह ग्वलु' इत्यादि, 'इह' जगति मनुष्यक्षेत्रे प्रवचने का नानाप्रकारा-विचित्रक्षयोपशमात् प्रज्ञायतेऽनयेति प्रज्ञा सा चित्रा येपां ते नानाप्रज्ञाः, तया चाल्पाल्पतराल्पतमया चिन्त्यमानाः पुरुषाः पदस्थानपतिता भवन्ति, तथा छन्द:-अभिप्रायः स नाना येषां ते तथा तेषां, नानाशीलानां तथा नानारूपा दृष्टिः-अन्तःकरणाप्रवृत्तिर्येषां ते तथा तेषामिति, तेषां च त्रीणि शतानि त्रिपवधिकानि प्रमाणमवगन्तव्यं, तथा नाना | रुचिर्येषां ते नानारुचयः, तथाहि--आहारविहारशयनासनाच्छादनाभरणयानवाहनगीतवादित्रादिषु मध्येऽन्यस्थान्याऽन्यस्सान्या 18 रुचिर्भवति तेषां नानारुचीनामिति, तथा नानारम्भाणां कृषिपाशुपाल्यविपणिशिल्पकर्मसेवादिष्वन्यतमारम्भेणेति, तथा नानाध्यवसायसंयुतानां शुभाशुभाध्यवसायभाजामिहलोकमात्रप्रतिबद्धानां परलोकनिष्पिपासानां विषयतृषितानामिदं नानाविध | पापश्रुताध्ययनं भवति, तद्यथा-भूमौ भवं भौमं निघोतभूकम्पादिकं, तथोत्पातं कपिहसितादिक, तथा स्वप्नं-गजवृषभसिंहादिकं, ॥३१८॥ | तथाऽन्तरिक्षम्-अमोधादिक, तथा अङ्गे भवमाङ्गम् अक्षिवाहुस्फुरणादिकं, तथा स्वरलक्षणं का कखरगम्भीरस्वरादिक, तथा| | लक्षणं यवमत्स्यपद्मशङ्खचक्रश्रीवत्सादिकं व्यञ्जन-तिलकमषादिक, तथा स्त्रीलक्षणं रक्तकरचरणादिकं, एवं पुरुषादीनां ~640~ Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३०], नियुक्ति: [१६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक [३०] दीप अनुक्रम [६६२] शिकाकिणीरलपर्यन्तानां लक्षणप्रतिपादकशास्त्रपरिज्ञानमवगन्तव्यम् । तथा मत्रविशेषरूपा विद्याः, तद्यथा-दुर्भगमपि सुभगमाक-18 | रोति सुभगाकरां, तथा सुभगमपि दुर्भगमाकरोति दुर्भगाकरां, तथा गर्भकरां-गर्भाधान विधायिनी, तथा मोहो-व्यामोहो वेदोदयो। वा वत्करणशीलामाथर्वणीमाथर्वणाभिधानां सद्योऽनर्थकारिणी विद्यामधीयते, तथा पाकशासनीम् [आथर्वणीम् ] इन्द्रजालसं-181 | झिका तथा नानाविधैर्द्रव्यैः-कणवीरपुष्पादिभिर्मधुघृतादिभिर्वोच्चाटनादिकः कार्यहोमो-हवनं यस्यां सा द्रव्यहवना तां, तथा क्षत्रियाणां विद्या धनुर्वेदादिकाऽपरा वा या खगोत्रक्रमेणायाता तामधीत्य प्रयुञ्जते, तथा नानाप्रकारं ज्योतिषमधीत्य व्यापारयतीति दर्शयति-'चंदचरिय' मित्यादि, चन्द्रस्य-ग्रहपतेश्वरितं चन्द्रचरितमिति, तब वर्णसंस्थानप्रमाणप्रभानक्षत्रयोगराहुग्रहा|दिक, सूर्यचरितं सिद-सूर्यस्य मण्डलपरिमाणराशिपरिभोगोद्योतावकाशराहूपरागादिकं, तथा शुकचारो-वीथीत्रयचारादिका, तथा बृहस्पतिचारः शुभाशुभफलप्रदः संवत्सरराशिपरिभोगादिकध, तथोल्कापाता दिग्दाहाथ वायच्यादिषु मण्डलेषु भवन्तः शखाप्रिक्षुत्पीडाविधायिनो भवन्ति, तथा मृगा-हरिणशगालादय आरण्यास्तेषां दर्शनरुतं ग्रामनगरप्रवेशादौ सति शुभाशुभं यत्र [चिन्त्यते तन्मृगचक्र, तथा वायसादीनां पक्षिणां यत्र खानदिरुखराश्रयणात् शुभाशुभफलं चिन्त्यते तद्वायसपरिमण्डलं, तथा IS पासुकेशमांसरुधिरादिवृष्टयोऽनिष्टफलदा यत्र शाखे चिन्त्यन्ते तत्तदभिधानमेव भवति, तथा विद्या नानाप्रकाराः क्षुद्रकर्मकारि18|ण्यः, साधेमा:-चैताली नाम विधा नियताक्षरप्रतिवद्धा, सा च किल कतिभिजेपैदण्डमुत्थापयति, तथाऽर्धवैताली तमेवोपशमयति, तथाऽप(व वापिनी तालोद्घाटनी श्वपाकी शाम्बरी तथाऽपरा द्राविडी कालिङ्गी गौरी गान्धार्यवपतन्युत्पतनी जृम्भणी स्तम्भनी श्लेपणी आमयकरणी विशल्यकरणी प्रक्रामण्यन्तर्धानकरणीत्येवमादिका विद्या अधीयते, आसां चार्थः संज्ञातोऽयसेय इति, ~641~ Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३०], नियुक्ति: [१६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०] दीप अनुक्रम [६६२] सूत्रकृताङ्गेनवरं शाम्बरीद्रापिडीकालिङ्गयस्तद्देशोद्भवास्तद्भापानिबद्धा वा चित्रफलाः, अवपतनी तु जपन खत एव पतत्यन्य वा पातयत्वे- २ क्रिया२ श्रुतस्क-1 मुत्पतन्यपि द्रष्टच्या । तदेवमेवमादिका पिया आदिग्रहणात्प्रज्ञत्यादयो गृयन्ते । एताब विद्याः पापण्डिका अविदितपरमार्था खानाध्य. | गृहस्था वा खयूथ्या वा द्रच्पलिङ्गधारिणोऽनपानाधर्थ प्रयुञ्जन्ति, अन्येषां वा विरूपरूपाणाम्-उच्चावचानां शब्दादीनां काम- अधमपक्षः कीयावृत्तिः भोगानां कृते प्रयुञ्जन्ति । सामान्येन विद्याऽऽसेवनमनिष्टकारीति दर्शयितुमाह-'तिरिच्छ'मित्यादि, तिरबीनाम् अननुकला || ऽनुगामुक त्वाद्याः ॥३१९॥ सदनुष्ठानप्रतिघातिका ते अनार्या विप्रतिपन्ना विद्या सेवन्ते, ते च यद्यपि क्षेत्रार्या भाषार्यास्तथापि मिथ्याखोपहतबुद्धयोऽमार्यकमकारितादनार्या एव द्रष्टव्याः, ते च खायुषः क्षये कालमासे कालं कृता यदि कथञ्चिदेवलोकगामिनो भवन्ति ततोज्यतरेषु आसुरीयकेषु किल्बिषिकादिषु स्थानेपूत्पत्स्यन्ते, ततोऽपि विप्रमुक्ताः-च्युता यदि मनुष्येषूत्पद्यन्ते, तत्र च तत्कर्मशेषतयैडमूकले18 नाव्यक्तभाषिणस्तमस्वेनान्धतया मूकतया वा प्रत्यागच्छन्ति, ततोऽपि नानाप्रकारेषु यातनास्थानेषु नरकतिर्यगादिषुत्पद्यन्ते ।। | साम्प्रतं गृहस्थानुद्दिश्याधर्मपक्षसेवनमुच्यते से एगइओ आयोउं वा णापहे वा सयणहेउं वा अगारहेड वा परिचारहे वा नायगं वा सहवासियं वा णिस्साए अदुवा अणुगामिए १ अदुवा उवचरए २ अदुवा पडिपहिए ३ अदुवा संधिछेदए ४ अदुवा गंठिछेदए ५ अदुवा उरम्भिए ६ अदुवा सोचरिए ७ अदुवा वागुरिए ८ अदुवा साउणिए ९ अदुवा ॥३१९ मच्छिए १० अदुधा गोघायए ११ अदुवा गोवालए १२ अदुवा सोवणिए १३ अदुवा सोवणियंतिए १४ ॥ एगइओ आणुगामियभावं पडिसंधाय तमेव अणुगामियाणुगामियं हंता ऐसा भेत्ता लुपहत्ता विलुंपत्ता seleseseseseseeeeeeseae వారిని వారించిన ~642~ Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [३१] दीप अनुक्रम [६६३] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र -२ ( मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], मूलं [३१], निर्युक्ति: [ १६८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः Eucation Internationa उद्दवत्ता आहारं आहारेति, इति से महया पावेहिं कस्मेहिं अन्ताणं उबक्खाहता भवइ ॥ से एगहओ उवचरयभावं पडिसंघाय तमेव उवचरियं हंता छेप्त भेत्ता पइन्ता विलुंपइसा उद्दवइन्ता आहारं आहारेति, इति से महया पावेहिं कस्मेहिं अन्ताणं उबक्वाइसा भवइ ॥ से एगइओ पाडिपहियभावं परिसंधाय तमेव पाडिप टिचा हंता छेत्ता भेत्ता लुपहत्ता विलुपइसा उद्दवता आहारं आहारेति, इति से महया पावेहिं कम्मेहिं अत्ताणं उवक्वाइत्ता भवइ ॥ से एगइओ संधिछेदगभावं पडिसंधाय तमेव संधि छेत्ता भेता जाव इति से महया पावेहिं कस्मेहिं अत्ताणं वक्वात्ता भवइ ।। से एगइओ गंठिछेद्गभावं परिसंघाय तमेव गठि छेत्ता भेत्ता जाव इति से महया पावेहिं कम्मेहिं अत्ताणं उबक्वाइसा Har || से एगइओ उरग्भियभावं पडिसंधाय उरुभं वा अण्णतरं वा तसं पाणं हंसा जाब उवखाइसा भवइ । एसो अभिलायो सवत्थ ॥ से एगइओ सोयरियभावं पडिसंधाय महिसं वा अण्णतरं वा तसं पाणं जाय उबक्खात्ता भवइ ॥ से एगइओ वागुरियभावं पडिसंघाय मियं वा अण्णतरं वा तसं पाण हंता जाव उवक्खाइता भवइ ॥ से एगइओ सउणियभावं परिसंघाय सउणिं वा अण्णतरं वा तसं पाण हंता जाव उबक्वाइसा भवइ ॥ से एगइओ मच्छियभावं पडिसंधाय मच्छं वा अण्णतरं वा तसं पाण हंता जाव उवक्वाइसा भवइ । से एगइओ गोघायभावं परिसंघाय तमेव गोणं वा अण्णपरं वा तसं पाणं हंता जाब उवक्वाइसा भवइ ॥ से एगइओ गोवालभावं परिसंघाय तमेव गोवालं वा परिजविय For Parts Only ~643~ restostese Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३१], नियुक्ति: [१६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः २ श्रुतस्क प्रत सूत्रांक [३१] न्वे शीला दीप अनुक्रम [६६३] सूत्रकृताङ्गे परिजविय हंता जाव उवक्खाइत्ता भवद ॥ से एगइओ सोवणियभावं पडिसंधाय तमेव सुणगं वा IR२ क्रियाअन्नयरं वा तसं पाणं हंता जाव उवक्खाइत्ता भव ॥ से एगइओ सोवणियंतियभावं पडिसंधाय तमेव शीखानाध्य. मणुस्सं वा अन्नयरं वा तसं पाणं हंता जाव आहारं आहारेति, इति से महया पावहिं कम्मेहिं अत्ताणं अधमेपथेकीयावृत्तिः उवक्वाइत्ता भवइ ॥ सूत्रं ३१॥ ऽनुगामुक॥३२०॥ 18स एकः कदाचिन्निस्त्रिंशः साम्प्रतापेक्षी अपगतपरलोकाध्यवसायः कर्मपरतया भोगलिप्सुः संसारस्वभावानुवनी आत्मनिमित्त । वेत्येतान्यनुगामुकादीन्यन्यकर्तव्यहेतुभूतानि चतुर्दशासदनुष्ठानानि विधत्ते, तथा-ज्ञातयः-खजनास्तनिमित्तं तथाऽगारनिमिर्च-गृ-18 हसंस्करणार्थ सामान्येन वा कुटुम्बार्थ परिवारनिमित्तं वा-दासीदासकर्मकरादिपरिकरकृते तथा ज्ञात एव ज्ञातकः-परिचितस्तमुद्दिश्य तथा सहवासिकं वा प्रतिवेश्मिकै निश्रीकृत्यैतानि वक्ष्यमाणानि कुर्यादिति संबन्धः । तानि च दर्शयितुमाह-'अदुवे त्यादि, अथवेत्येवं वक्ष्यमाणापेक्षया पक्षान्तरोपलक्षणार्थः, गच्छन्तमनुगच्छतीत्यनुगामुकः, स चाकार्याध्यवसायेन विवक्षितस्थान|| कालाधपेक्षया विरूपकर्तव्यचिकीपुस्तं गच्छन्तमनुगच्छति, अथवा तस्सापकर्तव्यस्थापकारावसरापेक्ष्युपचरको भवति, अथवा | का तख प्रातिपथिको भवति-प्रतिपथ-संमुखीनमागच्छति, अथवाऽऽत्मखजनार्थ संधिरछेदको भवति-चौर्य प्रतिपद्यते, अथवोर: मेषैश्वरत्यौरभ्रिक अथवा सौकरिको भवति, अथवा शकुनिभिः-पक्षिभिश्वरतीति शाकुनिकः अथवा बागुरया-मृगादिवन्धनरज्ज्वा ॥३२०॥ || चरति वागुरिका, अथवा मत्स्यैश्वरति मात्स्यिका, अथवा गोपालभावं प्रतिपद्यते, अथवा गोपातकः स्याद् , अथवा श्वभिश्वरति || शौवनिकः शुनां परिपालको भवतीत्यर्थः, अथवा 'सोवणियंति श्वभिः पापाई कुर्वन्मृगादीनामन्तं करोतीत्यर्थः ।। ~644~ Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [३१] दीप अनुक्रम [६६३] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], मूलं [३१], निर्युक्ति: [ १६८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - तदेवमेतानि चतुर्दशाप्युद्दिश्य प्रत्येकमादितः प्रभृति विवृणोति — तत्रैकः कश्चिदात्माद्यर्थ अपरस्य गन्तुर्ग्रामान्तरं किञ्चिद्रव्यजातमवगम्य तदादित्सुस्तस्यैवानुगामुकभावं 'प्रतिसंधाय' सहगन्तुभावेनानुकूल्यं प्रतिपय विवक्षितवञ्चनावसरका लायपेक्षी तमेव गच्छन्तमनुव्रजति, तमेव चाभ्युत्थान विनयादिभिरत्यन्तोपचारैरुपचर्यानुब्रज्य च विवक्षितमवसरं लब्ध्वा तस्यासौ हन्ता दण्डादिभिः तथा छेत्ता खङ्गादिना हस्तपादादेः तथा भेत्ता वज्रमुष्यादिना तथा लुम्पयिता केशाकर्षणादिकदर्थनतः तथा विलुम्पयिता कशाप्रहारादिभिरत्यन्तदुःखोत्पादनेन तथा अपद्रावयिता जीविताद्व्यपरोपणतो भवतीत्येवमादिकं कृखाऽऽहारमाहारयत्यसौ, एतदुक्तं भवति - गलकर्तकः कचिदन्यस्य घनवतोऽनुगामुकभावं प्रतिपद्य तं बहुविधैरुपायैर्विश्रम्भे पातयिखा भोगार्थी मोहान्धः साम्प्रतेक्षितया तस्य रिक्थवतोऽपकृत्याहारादिकां भोगक्रियां विधत्ते । इत्येवमसौ महद्भिः क्रूरैः कर्मभिः - अनुष्ठानैर्महापातकभूतैर्वा तीत्रानुभावैदर्घस्थिति कैरात्मानमुपख्यापयिता भवति, तथाहि - अयमसौ महापापकारीत्येवमात्मानं लोके ख्यापयति, अष्टप्रकारैर्वा कर्मभिरात्मानं तथा बन्धयति यथा लोके तद्विपाकापादितेनावस्थाविशेषेण सता नारकतिर्यङ्नरामररूपतयाऽख्यात इति । तदेवमेकः कचिदकर्तव्याभिसंधिना परस्य स्वापतेयवतस्तद्वञ्चनार्थमुपचरकभावं 'प्रतिसंधाय प्रतिज्ञाय पश्चातं नानाविधैर्विनयोपायैरुपचरति, उपचर्य च विश्रम्भे पातथिवा तद्रव्यार्थी तस्य हन्ता छेत्ता भेता यावदपद्रावयिता भवतीत्येवमसावात्मानं 'महद्भिः' बृहद्भिः पापैः कर्मभिः उपाख्यापयिता भवतीति ॥ अथैकः कश्चित्प्रतिपथेन-अभिमुखेन चरतीति प्रातिपथिकस्तद्भावं प्रतिपद्या परस्यार्थवतस्तदेव प्रातिपथिकत्वं कुर्वन् प्रतिपथे स्थिता तस्यार्थवतो विश्रम्भतो हन्ता छेता यावदपद्रावयिता भवतीत्येवमसावात्मानं पापैः कर्मभिः ख्यापयतीति । अथैकः कश्विद्विरूपकर्मणा जीवितार्थी 'संधिच्छेदकभावं' Eucation International For Parts Only ~ 645~ waryru Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [38] दीप अनुक्रम [६६३] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र -२ ( मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], मूलं [३१], निर्युक्ति: [ १६८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः सूत्रकृताने २ श्रुतस्क मधेशीला ॥३२१॥ | खत्रखनन तं प्रतिपधानेनोपायेनात्मानमहं कर्तयिष्यामीत्येवं प्रतिज्ञां कृत्वा तमेव प्रतिपद्यते, ततोऽसौ संधि छिन्दन् खत्रं खनन् प्राणिनां ( हन्ता छेता भेता विलुम्पयिता भवतीति एतच्च कृत्वाऽऽहारमाहारयतीति एतच्चोपलक्षणमन्यश्च कामभोगान् स्वतो मुझेऽन्यदपि ज्ञातिगृहादिकं पालयतीत्येवमसौ महद्भिः पापैः कर्मभिरात्मानमुपख्यापयति ॥ अथैकः कश्चिदसदनुष्ठायी झीयावृत्तिः पुर्षुरादिना ग्रन्थिच्छेदकभावं प्रतिपद्य तमेवानुयाति, शेषं पूर्ववत् ॥ अथैकः कचिदधर्मकर्मवृत्तिः उरभ्रा- उरणकास्तैश्चरति यः स औरभ्रिकः, स च तदूर्णया तन्मांसादिना वाऽऽत्मानं वर्तयति, तदेवमसौ तद्भावं प्रतिपद्यरथं वाऽन्यं वा त्रसं प्राणिनं स्वमांसपुष्ट्यर्थं व्यापादयति, तस्य वा हन्ता छेता भेत्ता भवतीति शेषं पूर्ववत् ॥ अत्रान्तरे सौकरिकपदं तच स्वबुद्ध्या व्याख्येय, सौकरिकाः श्वपचाचाण्डालाः खट्टिका इत्यर्थः ॥ अथैकः कश्चित् क्षुद्रसच्चो 'वागुरिकभावं' लुब्धकलं 'प्र|तिसंघाय प्रतिपद्य वागुरया 'मृगं' हरिणमन्यं वा त्रसं प्राणिनं शशादिकमात्मवृत्यर्थं स्वजनाद्यर्थं वा व्यापादयति, तस्य च हन्ता छेत्ता मेत्ता भवति, शेषं पूर्ववत् ॥ अथैकः कथिदधमोपायजीवी शकुना लावकादयस्तैश्चरति शाकुनिकस्तद्भावं प्रतिसंधाय तन्मांसाद्यर्थी शकुनमन्यं वा त्रसं व्यापादयति, तस्य हननादिकां क्रियां करोतीति शेषं पूर्ववत् ॥ अथैकः | कश्चिदधमाधम मात्स्यिकभावं प्रतिपद्य मत्स्यं वाऽन्यं (वा) जलचरं प्राणिनं व्यापादयेत्, हननादिकाः वा क्रियाः कुर्यात्, शेषं सुगमम् ॥ अथैकः कथिगोपालकभावं प्रतिपद्य कस्याविगोः कुपितः सन् तां गां 'परिविच्य' पृथक् कुखा तथा हन्ता छेता भेत्ता भूयो भूयो भवति शेषं पूर्ववत् ॥ अथैकः कचित्क्रूरकर्मकारी गोघातकभावं प्रतिपद्य गामन्यतरं वा त्रसं प्राणिनं व्यापादयेत् तस्य च हननादिकाः क्रियाः कुर्यादिति । अथैकः कचिज्जघन्यकर्मकारी 'शौवनिकभावं प्रति Ja Eucation International For Parts Only ~646~ २ क्रिया थानाध्य० अधर्मपक्षे अनुगामुक त्वाद्याः ॥३२१॥ Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [३१] दीप अनुक्रम [६६३] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र -२ ( मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], मूलं [३१], निर्युक्ति: [ १६८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः पथ' सारमेयपापर्द्धिभावं प्रतिज्ञाय तमेव श्वानं तेन वा 'परं' मृगसूकरादिकं असं प्राणिनं व्यापादयेत् तस्य च हननादिकाः क्रियाः कुर्यादिति । अथैकः कचिदनायें निर्विवेकः 'सोवणियंतिय भावं'ति श्रभिवरति शौवनिकः अन्तोऽस्यास्तीत्यन्तिकोइन्ते वा चरत्यान्तिकः पर्यन्तवासीत्यर्थः, शौवनिकवासावान्तिकथ शौवनिकान्तिकः -- क्रूर सारमेयपरिग्रहः प्रत्यन्तनिवासी च प्रत्यन्तनिवासिभिर्वा श्रभिवरतीति, तदसौ तद्भावं प्रतिसंधाय दुष्टसारमेयपरिग्रहं प्रतिपद्य, मनुष्यं वा कञ्चन पथिकमभ्यागतमन्यं वा मृगसूकरादिकं असं प्राणिनं हन्ता भवति, अयं च ताच्छीलिकस्तृन उदप्रत्ययो वा द्रष्टव्यः, तृचि तु साध्याहारं प्राग्वव्याख्येयं तद्यथा- पुरुषं व्यापादयेत् तस्य च हन्ता छेता इत्यादि, तुन्तुद्रप्रत्ययौ प्रागपि योजनीयाविति । तदेवमसी महाक्रूरकर्मकारी महद्भिः कर्मभिरात्मानमुपख्यापयिता भवतीति । उक्ताऽसदाजीवनोपायभूता वृत्तिः, इदानीं कचित्कुतश्चिन्नि मित्तादभ्युपगमं दर्शयति Eucation International से एगइओ परिसामज्झाओ उट्टित्ता अमेयं हणामित्तिकडु तित्तिरं वा वहगं वा लावगं वा कवोयगं वा कविजलं या अन्नयरं वा तसं पाणं हंता जाव उवक्वाइत्ता भवइ ॥ से एगहओ केणइ आयाणेणं विरुद्धे समाणे अदुवा खलदाणेणं अदुवा सुराधालएणं गाहाबतीण वा गाहावइपुताण वा सयमेव अगfuaryणं सस्साई झामेइ अनेणवि अगणिकाएणं सस्साई सामावेश अगणिकाएणं सस्साई झामतंपि अन्नं समजाण इति से महया पावकम्मेहिं अत्ताणं उबक्स्वाइत्ता भव || से एगइओ केणइ आयाणेणं विरुद्धे समाणे अडवा ग्वलदाणेणं अदुवा सुराधालपणं गाहावतीण वा गाहावपुत्ताण वा For Pale Only ~647~ war Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३२], नियुक्ति: [१६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः २ क्रिया स्थानाध्य. प्रत सूत्रांक [३२] नैमित्तिका सूत्रकृताओं २ श्रुतस्कन्धे शीलाकीयावृत्तिः ॥३२२॥ धमवृत्तिः दीप अनुक्रम [६६४] उहाण वा गोणाण वा घोडगाण वा गद्दभाण वा सयमेव घूराओ कप्पेति अन्नणवि कप्पावति कप्पतपि अन्नं समणुजाणइ इति से महया जाव भवइ ॥ से एगइओ केणइ आयाणेणं विरुद्धे समाणे अदुवा खलदाणेणं अदुवा सुराधालएणं गाहावतीण वा गाहावइपुत्ताण वा उसालाओ वा गोणसालाओ वा घोडगसालाओ वा गद्दभसालाओ वा कंटकवोंदियाए पडिपेहित्ता सयमेव अगणिकाएणं झामेइ अन्नेणवि झामावेइ झामंतंपि अन्नं समणुजाणइ इति से महया जाच भवइ ॥ से एगइओ केणइ आयाणेणं विरुद्धे समाणे अदुवा खलदाणेणं अदुवा सुराधालएणं गाहावतीण वा गाहावइपुत्ताण वा कुंडलं वा मणिं वा मोत्तियं वा सयमेव अवहरइ अन्नेणवि अवहरावइ अवहरंतंपि अन्नं समणुजाणइ इति से महया जाव भव ॥ से एगइओ केणइबि आदाणेणं विरुद्ध समाणे अदुवा खलदाणेणं अदुवा सुराथालएणं समणाण वा माहणाण वा छत्सगं वा दंडगं वा भंडगं वा मत्सर्ग वा लर्हि वा भिसिगं वा चेलगं वा चिलिमिलिगं वा चम्मयं वा छेयणगं वा चम्मकोसियं वा सयमेव अवहरति जाव समणुजाणइ इति से महया जाव उवक्खाइत्ता भवह ॥ से एगइओ णो वितिगिंका तं०-गाहावतीण वा गाहावइपुत्ताण वा सयमेव अगणिकाएणं ओसहीओ झामेह जाव अन्नपि झामतं समणुजाणइ इति से महया जाय उवक्खाइत्ता भवति ॥ से एगइओ णो वितिगिंछइ, तं०-गाहावतीण वा गाहावइपुत्ताण वा उहाण वा गोणाण वा घोडगाण वा गद्दभाण वा सयमेव घूराओ कप्पेद अन्नेणवि कप्पावे Recesereese ॥३२२॥ ~648~ Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३२], नियुक्ति: [१६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक [३२] ति अन्नपि कप्पंतं समणुजाण ॥ से एगइओ णो वितिगिंछह तं०-गाहावतीण वा गाहावापुत्ताण वा उसालाओ वा जाव गहभसालाओ वा कंटकवोंदियाहिं पडिपेहित्ता सयमेव अगणिकाएक झामेइ जाँच समणुजाणइ ॥ से एगइओ णो वितिगिंछह, तं०-गाहावतीण वा गाहावापुत्ताण वा जाव मोतियं वा सयमेव अवहरह जाव समणुजाणइ ॥ से एगइओ णो वितिगिंछइ तं०-समणाण वा माहणाण या उत्सगं वा दंडगं वा जाव चम्मच्छेदणगं वा सयमेव अवहरद जाव समणुजाणइ इति से महया जाव उबक्खाइत्ता भव ॥ से एगइओ समणं वा माहणं वा दिस्सा णाणाबिहेहिं पावकम्मेहिं अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवइ, अदुवा णं अच्छराए आफालित्ता भवइ, अदुवा णं फरुसं वदित्ता भवाइ, कालेणचि से अणुपचिट्ठस्स असणं वा पाणं वा जाव णो दवावेत्ता भवइ, जे इमे भबन्ति बोनमंता भारवंता अलसगा वसलगा किवणगा समणगा पवयंति ते इणमेव जीवितं धिजीवितं संपडिव्हेंति, नाइते परलोगस्स अट्ठाए किंचियि सिलीसंति, ते दुक्खंति ते सोयंति ते जूरंति ते तिप्पंति ते पिट्टति ते परितप्पति ते दुखणजूरणसोयणतिप्पणपिट्टणपरितिप्पणवहबंधणपरिकिलेसाओ अप्पडिविरया भवंति, ते महया आरंभेणं ते महया समारंभेणं ते महया आरंभसमारंभेणं विरूवरूवेहिं पावकम्मकिच्चेहिं उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुंजित्तारो भवंति, तंजहा-अन्नं अन्नकाले पाणं पाणकाले वत्थं वत्थकाले लेणं लेणकाले सयणं सयणकाले सपुवावरं च ण पहाए कयबलिकम्मे Esteesesesepececeocoeace दीप अनुक्रम [६६४] ~649~ Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३२], नियुक्ति: [१६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्कन्धे शीलाकीयावृत्तिः २ क्रियास्थानाध्य० अधपक्षे भोगिनः सूत्रांक [३२] ॥३२३॥ दीप अनुक्रम [६६४] कयकोउयमंगलपायरिछते सिरसा पहाए कंठमालाकडे आविद्धमणिमुवन्ने कप्पियमालामउली परिबद्धसरीरे बग्घारियसोणिसुत्तगमल्लदामकलावे अहतवस्थपरिहिए चंदणोक्खित्तगायसरीरे महतिमहालियाए कूडागारसालाए महतिमहालयंसि सीहासणंसि इत्थीगुम्मसंपरिबुडे सचराइएणं जोइणा झियायमाणेणं महयाहयनहगीयवाइयतंतीतलतालतुडियघणमुइंगपडपवाइयरवेणं उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरह, तस्स णं एगमवि आणवेमाणस्स जाव चत्तारि पंच जणा अवुत्ता चेव अन्भुटुंति, भणह देवाणुप्पिया ! किं करेमो ? किं आहरेमो? किं उवणेमो ? किं आचिट्ठामो ! किंभे हियं इच्छियं ? किं भे आसगस्स सपइ ?, तमेव पासित्ता अणारिया एवं वयंति-देवे खल्लु अयं पुरिसे, देवसिणारा खल्लु अयं पुरिसे, देवजीवणिजे खलु अयं पुरिसे, अन्नेवि य गं उवजीवंति, तमेव पासित्ता आरिया वयंति-अभितकरकम्मे ग्बलु अयं पुरिसे अतिधुन्ने अइयायरक्वे दाहिणगामिए नेरहए कण्हपक्विा आगमिस्साणं दुल्लहबोहियाए यावि भविस्सइ ।।श्चेयस्स ठाणस्स उडिया वेगे अभिगिझंति अणुडिया वेगे अभिगिजांति अभिझंझाउरा अभिगिनंति, एस ठाणे अणारिए अकेवले अप्पडिपुग्ने अणेयाउए असंसुद्धे असल्लगत्तणे असिद्धिमग्गे अमुत्तिमग्गे अनिवाणमग्गे अणिजाणमग्गे असदुक्खपहीणमग्गे गगतमिकछे असाहु एस ग्वलु पढमस्स ठाणस्स अधम्मपक्वस्स विभंगे एवमाहिए ॥ सूत्रं ३२॥ अयं चात्र पूर्वमाद्विशेषः-पूर्वत्र वृत्तिः प्रतिपादिता प्रच्छन वा प्राणव्यपरोपणं कुर्यात् , इह तु कुतश्चिनिमित्तात्साक्षाजनमध्ये cceedeesersemerserseasesex ॥३२॥ ~650~ Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३२], नियुक्ति: [१६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक [३२] IS| पाणिच्यापादनप्रतिज्ञां विधायोपरछप्त इति दर्शयति । अथैकः कश्चिन्मांसादनेच्छया व्यसनेन क्रीडया कुपितो वा पर्षदो मध्या-13 ॥ दभ्युत्थायैवंभूतां प्रतिज्ञां विदध्यात्-यथाऽहम् 'एनं वक्ष्यमाणं प्राणिनं हनिष्यामीति प्रतिज्ञां कृत्सा पश्चात्तित्तिरादिकं हन्ता | भेत्ता छेनेति ताच्छीलिकस्तन् लुट्प्रत्ययो वा, तस्य वा हन्तेत्यादि, यावदात्मानं पापेन कर्मणा ख्यापयिता भवतीति ॥ इह चाधर्मपाक्षिकेष्वभिधीयमानेषु सर्वेऽपि प्राणिद्रोहकारिणः कथञ्चिदभिधातव्याः, तत्र पूर्वमनपराधक्रुद्धा अभिहिताः, साम्प्रतसमपराधकुद्धान् दर्शयितुमाह-से एगइओ' इत्यादि, अथैका कश्चित्प्रकृत्या क्रोधनोऽसहिष्णुतया केनचिदादीयत इत्यादानं-181 ॥ शब्दादिकं कारणं तेन विरुद्धः समानः परस्यापकुर्यात् , शब्दादानेन तावत्केनचिदाक्रुष्टो निन्दितो वा वाचा विरुध्येत, रूपादा-1 नेन तु बीभत्सं कश्चन दृष्ट्वाऽपशकुनाध्यवसायेन कुप्येत, गन्धरसादिक खादानं मूत्रेणैव दर्शयितुमाह-अथवा खलव-कुथिता-R | दिविशिष्टस्य दानं खलख पाल्पधान्यादेदानं खलदानं तेन कुपितः, अथवा सुरायाः स्थालक-कोशकादि तेन विवक्षितलाभा-18 Nभावात् कुपितः गृहपत्यादेरेतत् कुर्यादित्याह-स्वयमेवाग्मिकायेन अग्निना तत्सस्यानि-खलकवर्तीनि शालिवीबादीनि 'ध्मापये Sil दहेदन्येन वा दाहयेदहतो वाऽन्यान्समनुजानीयादित्येवमसी महापापकर्मभिरात्मानमुपख्यापयिता भवतीति ।। साम्प्रतमन्येन । प्रकारेण पापोपादानमाह-अधकः कश्चित्केनचित्तु खलदानादिनाऽऽदानेन गृहपत्यादेः कुपितस्तत्संबन्धिन उष्ट्रादेः खयमेवआत्मना परश्वादिना 'धूरीया(रा)ओ'त्ति जडाः खलका वा 'कल्पयति' छिनति अन्येन वा छेदयति अन्यं वा छिन्दन्तं समनुजानीते, इत्येवमसावात्मानं पापेन कर्मणोपाख्यापयिता भवति ।। किञ्च अथैकः कश्चिकेनचिनिमित्तेन गृहपत्यादेः कुपितस्तत्संबन्धिनामुष्ट्रादीनां शाला-गृहाणि 'कंटकवोंदियाए'त्ति कण्टकशाखाभिः 'प्रतिविधाय' पिहित्वा स्थगिखा खयमेवामिना दीप अनुक्रम [६६४] Receesecseeeeeeesekse enterseceaeeकरsenteल ~651~ Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३२], नियुक्ति: [१६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक [३२] दीप अनुक्रम [६६४] सूत्रकृताङ्गे 18 दहेत् । शेष पूर्ववत् ।। अपिच-अथकः कश्चित्केनचिदादानेन कुपितो गृहपत्यादेः संबन्धि कुण्डलादिक द्रव्यजातं स्वयमेवाप-181 क्रिया२ श्रुतस्क-18|हरेदवशिष्ट पूर्ववत् ॥ साम्प्रतं पाखण्डिकोपरि कोपेन यत्कुर्यात्तदर्शयितुमाह-अथैकः कवित्वदर्शनानुरागेण वा वादपरा- स्थानाध्य. न्धे शीला-जितो वाज्येन वा केनचिनिमित्तेन कुपितः समेतत्कुर्यादित्याह-तद्यथा-आम्यन्तीति श्रमणास्तेषामन्येषामपि तथाभूतानां अधर्मपक्षा कीयावृत्तिः केनचिदादानेन कुपितः सन् दण्डकादिकमुपकरणजातमपहरेत् अन्येन वा हारवेदन्यं वा हरन्तं समनुजानीयात् इत्यादि पूर्व॥३२॥ |वत् ॥ एवं तावद्विरोधिनोऽभिहिताः, साम्प्रतमितरेऽभिधीयन्ते-अथैकः कश्चित् रढमूढतया 'नो वितिगिछइ'त्ति 'न|SH विमर्षति' न मीमांसते, यथाऽनेन कृतेन ममामुत्रानिष्टफलं स्यात् , तथा मदीयमिदमनुष्ठानं पापानुवन्धीत्येवं न पर्यालोचयति, तद्भावापनश्च यत्किञ्चनकारितया इहपरलोकविरोधिनीः क्रियाः कुर्यात , एतदेवोदेशतो दर्शयति तद्यथा-गृहपत्यादेनिनिमित्तमेव-तत्कोपमन्तरेणैव खयमेवात्मनाऽनिकायेन-अनिनौषधी:-शालिबीद्यादिकाः मापयेत् -दहेत् तथाऽन्येन दाहयेद्दहन्तं | |च समनुजानीयादित्यादि । तथेहामुत्र च दोषापर्यालोचको निस्त्रिंशतया गृहपत्यादिसंबन्धिनां क्रमेलकादीनां जवादीनव| याश्छिन्द्यात् ॥ तथा शाला दहेत् ॥ तथा गृहपत्यादेः संबन्धि कुण्डलमणिमौक्तिकादिकमपहरेत् ॥ तथा श्रमणबामणा-| दीनां दण्डादिकमुपकरणजातमपहरेदित्येवं प्राक्तना एवालापका आदानकुपितस्स येभिहितास्त एव तदभावेनाभिधातव्या 12|| इति ॥ साम्प्रतं विपर्यस्तदृष्टयः आगाढमिथ्यादृष्टयोऽभिधीयन्ते-अथैकः कश्चिदभिगृहीतमिथ्याष्टिरभद्रक: साधुप्रत्यनी-| ||३२४॥ कतया श्रमणादीनां निर्गच्छतां प्रविशता वा खतश्च निर्गच्छन् प्रविशन् वा नानाविधैः पापोपादानभूतैः कर्मभिरात्मानमुपख्यापयिता भवतीति, एतदेव दर्शयति 'अथवे'त्ययमुत्तरापेक्षया पक्षान्तरोपग्रहार्थः, कचित्साधुदर्शने सति मिथ्याखोपहतह Caeeeeeeeeeeeeee ~652~ Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [३२] दीप अनुक्रम [६६४] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र -२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], मूलं [३२], निर्युक्ति: [ १६८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ष्टितमाऽपशकुनोऽयमित्येवं मन्यमानः सन् दृष्टिपथादपसारयन् साधुमुद्दिश्यावज्ञया 'अप्सरायाः' चप्पुटिकायाः आस्फालयिता भवस्यथवा ततिरस्कारमापादयन् परुषं वचो ब्रूयात्, तद्यथा-ओदनमुण्ड ! निरर्थककायक्लेशपरायण दुर्बुद्धेऽपसराग्रतः, तदसौ भ्रुकुटिं विदध्यादसत्यं वा श्रूयात्, तथा भिक्षाकालेनापि 'से' तस्य भिक्षोरन्येभ्यो मिक्षाचरेभ्योऽनुपश्चात्प्रविष्टस्य सतोऽत्यन्तदुष्टतयाऽनादेन दापयिता भवति, अपरं च दानोयतं निषेधयति तत्प्रत्यनीकतया, एतच्च ब्रूते-ये इमे पापण्डिका भवन्ति त एवंभूता भवन्तीत्याह-'योपण'न्ति तृणकाष्ठहारादिकमधमकर्म तद् विद्यते येषां ते तद्वन्तः, तथा मारेण-कुटुम्बभारेण पोहलिकादिभारेण वाऽऽक्रान्ताः - | पराभन्नाः सुखलिप्सवोऽलसाः क्रमागतं कुटुम्बं पालयितुमसमर्थाः ते पापण्डव्रतमाश्रयन्ति, तथा चोक्तम्- 'गृहाश्रमपरो धर्मों, न भूतो | न भविष्यति। पालयन्ति नरा धन्याः, क्लीवाः पाषण्डमाश्रिताः॥१२॥' इत्यादि, तथा 'वसलग' ति वृपला-अधमाः शूद्रजातयस्त्रिवर्गत्रतिचारकाः, तथा 'कृपणाः' क्लीवा अकिञ्चित्कराः श्रमणा भवन्ति प्रव्रज्यां गृहन्तीति । साम्प्रतमेषामगारिकाणामत्यन्तविपर्यस्तमतीनामसदृत्तमाविर्भावयन्नाह ते हि साधुवर्गापवादिनः सद्धर्मप्रत्यनीका इदमेव 'जीवितं' परापवादोद्घट्टनजीवितं 'धिग्रजीवितं कुत्सितं जीवितं साधुजुगुप्सापरायणं संप्रतिबृंहन्ति, एतदेवासद्वृत्तजीवितं प्रशंसन्तीति भावः । ते चेह लोकप्रतिबद्धाः साधुजुगुप्साजीविनो मोहान्धाः साधूनपवदन्ति, नापि च ते पारलौकिकस्यार्थस्य साधनम् - अनुष्ठानं 'किञ्चिदपि खल्पमपि 'लिष्यन्ति' समाश्रयन्ति, केवलं से परान् साधून् बागादिभिरनुष्ठानैर्दुःखयन्ति पीडामुत्पादयन्ति आत्मनः परेषां च, तथा तेऽज्ञानान्धास्तथा तत्कुर्वन्ति येनाधिकं शोचन्ते, परामपि शोचयन्ति-दुर्मापितादिभिः शोकं चोत्पावयन्ति, तथा ते परान् 'जूरयन्ति' गर्हन्ति, तथा विप्यन्ति मुखान्यायत्यात्मानं परोच, तथा ते बराका अपुष्टधर्माणोऽसदनुष्ठानाः खतः पीड्यन्ते परांच पीडयन्ति, तथा ते पापे Educatin internation For Penal Use Only ~653~ otsese www.nirror Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [३२] दीप अनुक्रम [६६४] सूत्रकृताने २ श्रुतस्क न्धे शीलाङ्गीयावृत्तिः ॥३२५॥ “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], मूलं [३२], निर्युक्ति: [ १६८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - न कर्मणा परितप्यन्ते अन्तर्दशन्तेपरांच परितापयन्ति । तदेवं तेऽसद्वृत्तयः सन्तो दुःखनशोचनादिक्लेशादप्रतिचिरताः सदा भवन्ति । २ क्रियाएवंभूताश्च सन्तस्ते महताऽऽरम्भेण - प्राणिव्यापादनरूपेण तथा महता समारम्भेण प्राणिपरितापनरूपेण तथोभाभ्यामप्यारम्भस१६ स्थानाध्य० मारम्भाभ्यां 'विरूपरूपैश्च' नानाप्रकारैः सावद्यानुष्ठानैः पापकर्मकृत्यैः 'उदारान्' अत्यन्तोद्भटान् समग्रसामग्री कानू मधुमद्यमांसाअधार्मिकपक्षः द्युपेतान् 'मानुष्यकान्' मनुष्यभवयोग्यान् भोगेभ्योऽप्युत्कटान् भोगभोगान् ते सावधानुष्ठायिनो भोक्तारो भवन्ति । एतदेव दर्शयितुमाह-- 'तंज' त्यादि, तद्यथेत्युपप्रदर्शने, अन्नमन्नकाले यथेप्सितं तस्य पापानुष्ठानात्संपद्यते, एवं पानवस्त्रशयनासनादिकमपि । सर्वमेतद्यथाकालं सपूर्वापरं संपद्यते, सह पूर्वेण - पूर्वाह्नकर्तव्येनापरेण च - अपराह्नकर्तव्येन यदिवा पूर्वं यत् क्रियते स्नानादिकं तथा परं च यत् क्रियते विलेपनभोजनादिकं तेन सह वर्तत इति सपूर्वापरम् इदमुक्तं भवति यद्यदा प्रार्थ्यते तत्तदा संपद्यत इति, अभिलषितार्थप्राप्तिमेव लेशतो दर्शयितुमाह-तद्यथा - विभूत्या स्नातस्तथा कृतं देवतादिनिमित्तं बलिकर्म येन स तथा, तथा कृतानि कौतुकानि - अवतारणकादीनि मङ्गलानि च सुवर्ण चन्दनदध्यक्षतदूर्वा सिद्धार्थकादर्शकस्पर्शनादीनि तथा दुःखमादिप्रति| घातकानि प्रायश्रितानि येन स कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्तः, तथा कल्पितश्चासौ मालाप्रधानो मुकुटश्व २ स तथा विद्यते यस्य |भवति कल्पितमाला मुकुटी, तथा प्रतिबद्धशरीरो- दृढावयवकायो युवेत्यर्थः, तथा 'बग्घारियं' ति प्रलम्बितं श्रोणीसूत्रं कटिसूत्रं मल्लदामकलापञ्च येन स तथा तदेवमसौ शिरसिस्नातः नानाविधविलेपनावलिप्तच कण्ठेकृतमालस्तथाऽपरर्यथोक्तभूषणभूषितः सन्महत्याम्-उच्चायां 'महालियाए ति विस्तीर्णायां कूटागारशालायां तथा 'महतिमहालये' विस्तीर्णे 'सिंहासने' भद्रासने समुपविष्टः 'स्त्रीगुल्मेन' युवतिजनेन सार्द्धमपरपरिवारेण 'संपरिवृतो' वेष्टितः, तथा 'महता' बृहत्तरेण प्रहतनाव्यगीतवादित्र Education International For Park Lise Only ~654~ ॥३२५॥ Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३२], नियुक्ति: [१६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक [३२] दीप अनुक्रम [६६४] शतव्यादिरवेणोदारान्मानुष्यकान् भोगभोगान्भुञ्जानो 'विहरति' प्रविचरति विजृम्भतीत्यर्थः ।। तस्य च कचिलायोजने समुत्पन्ने सति एकमपि पुरुषमाज्ञापयतो यावच्चत्वारः पञ्च वा पुरुषा अनुक्ता एव समुपतिष्ठन्ते, ते च किं कुर्वाणाः १, एतद्वक्ष्यमाणमूचुः, | तद्यथा-भण-आज्ञापय स्वामिन् ! धन्या वयं येन भवताऽप्येवमादिश्यन्ते, किं कुर्म इत्यादि सुगम, यावद्दयेप्सितमिति, तथा 1] किं च 'ते' युष्माकम् 'आस्यकस्य मुखस्य 'खदते' खादु प्रतिभाति १, यदिवा यदेवास्य-भवदीयास्यस्य स्रवति निर्गच्छति तदेव वयं कुर्म इति । तथा 'नमेवेत्यादि, तमेव राजानं तथा क्रीडमानं दृष्ट्वा अन्येऽनार्या एवं वदन्ति, तद्यथा देवः खल्वयं पुरुषः, तथा 'देवस्नातको' देवश्रेष्ठो बहूनामुपजीव्यः, तथा तमेवं साम्प्रतेक्षितयाऽसदनुष्ठायिनं दृष्ट्वा 'आर्या' 18 विवेकिनः सदाचारवन्त एवं ब्रुवते, तद्यथा-अभिक्रान्तक्रूरकर्मा खल्वयं पुरुषो, हिंसादिक्रियाप्रवृत्त इत्यर्थः, तथा धूयते|| रेणुवद्वायुना संसारचक्रवाले भ्राम्यते येन तद्भूतं-कर्म, औणादिको नक्प्रत्ययः, अतीव---प्रभूतं धूतम्-अष्टप्रकारं कमें यस्य || सोऽतिधूतः, तथाऽतीवात्मनः पापैः कर्मभिः रक्षा यस्य सोऽत्यात्मरक्षः, तथा दक्षिणस्यां दिशि गमनशीलो दक्षिणगामुका, इद| मुक्तं भवति-यो हि क्रूरकर्मकारी साधुनिन्दापरायणस्तद्दाननिषेधकः स दक्षिणगामुको भवति-दाक्षिणात्येषु नरकतिर्यग्मनुष्याम | | रेषु उत्पद्यते, ताग्भूतचायमतो दक्षिणगामुक इत्युक्तं, इदमेवाह-'नेरइए' इत्यादि, नरकेषु भवो नारका, कृष्णः पक्षोऽस्था-18 ॥ स्तीति कृष्णपाक्षिका, तथा आगामिनि काले नरकादुद्वत्तो दुर्लभबोधिकचायं बाहुल्येन भविष्यति, इदमुक्तं भवति–दिक्षु मध्ये दक्षिणा दिग् अशस्ता, गतिषु नरकगतिः, पक्षयोः कृष्णपक्षः, तदस्य विषयान्धखेन्द्रियानुकूलवर्तिनः परलोकनिस्पृहमतेः साधु-पर प्रवेषिणो दानान्तरायविधायिनो दिगादिकमशस्तं दर्शितम् , अन्यदपि यदशस्तं तिर्यग्गत्यादिकमबोधिलाभादिकं च तद्योजनीय Recemerserseseseseseseaesesers ~655~ Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [३२] दीप अनुक्रम [६६४] सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्क न्धे शीलाङ्कीयावृत्तिः ॥३२६ ॥ “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], मूलं [३२], निर्युक्ति: [ १६८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - मस्येति । एतद्विपरीतस्य तु विषयनिःस्पृहस्य इन्द्रियाननुकूलस्य परलोक भीरोः साधुप्रशंसावतः सदनुष्ठानरतस्यादक्षिणगामुकलं सुदेवलं शुरुपाक्षिकसं तथा समानुपतायातस्य सुलभबोधितमित्येवमादिकं सद्धर्मानुष्ठायिनः सर्वे भवतीति ॥ साम्प्रतमुपसं| जिष्टभुराह इत्येतस्य पूर्वोक्तस्य स्थानस्य ऐश्वर्यलक्षणस्य शृङ्गारमूलस्य सांसारिकस्य परित्यागच्या एके केचन विपर्यस्तमतयः पाषण्डिकोत्थानेनोत्थिताः परमार्थमजानाना 'अभिगिज्झति त्ति आभिमुख्येन 'लभ्यन्ते' लोभवशगा भवन्तीत्यर्थः । तथा एके केचन साम्प्रतेक्षिणस्तस्मात्स्थानादनुपस्थिता गृहस्था एव सन्तः 'अभिझंझ'त्ति झञ्झा - तृष्णा तदातुराः सन्तोषत्यर्थं लुभ्यन्ते, यत एवमतोऽदः स्थानमनार्यानुष्ठानपरत्वादनायें महापुरुषानुचीर्ण न भवति, तथा न विद्यते केवलमसिनित्यके वलम् - अशुद्धमित्यर्थः, तथेतरपुरुषाचीर्णत्वादपरिपूर्ण सद्गुणविरहात्तुच्छमित्यर्थः, तथा न्यायेन चरति नैयायिकं न नैयायिकमनयायिकम् - असन्यायवृत्तिकमित्यर्थः तथा 'रंगे लगे संवरणे' शोभनं लगनं संवरणं इन्द्रियसंयमरूपं सगस्तद्भावः सलगखं न विद्यते सहगलमसिनित्यसलगलम् इन्द्रियासंवरणरूपमित्यर्थः यदिवा शल्यवच्छलयं मायानुष्ठानमकार्य तद्भायतिकथयतीति तच्छत्यगं यत्परिज्ञानं तन्नात्रेत्यशल्पगतमिति, तथा न विद्यते सिद्धेः -- मोक्षस्य विशिष्टस्थानोपलक्षितस्य मार्गो यस्मिंस्तदसिद्धिमार्ग, तथा न विद्यते मुक्तेः - अशेषकर्मप्रच्युतिलक्षणाया मार्गः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मको यसिंस्तदमुक्तिमार्ग, तथा न विद्यते परिनिर्वृतेः परिनिर्वाणस्यात्मस्वास्थ्यापत्तिरूपस्य मार्गः पन्था यस्मिन् स्थाने तदपरिनिर्वाणमार्ग, तथा न विद्यते | सर्वदुःखानां शारीरमानसानां प्रक्षयमार्गः सदुपदेशात्मको यस्मिंस्तदसर्वदुःखप्रक्षीणमार्ग, कुत एवंभूतं तत्स्थानमित्याशङ्कयाह- ४ 'एगते' स्यादि, एकान्तेनैव तत्स्थानं यतो मिथ्याभूतं - मिथ्यालोपहतबुद्धीनां यतस्तद्भवत्यत एवासाधु असद्वृत्तलात् न ह्ययं से ॥३२६ ॥ Education Internation For Parts Only ~656~ २ क्रिया स्थानाध्य० अधार्मिक पक्षः Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३२], नियुक्ति: [१६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३२] दीप अनुक्रम [६६४] त्पुरुषसे वितः पन्था येन विषयान्धाः प्रवर्तन्त इति । तदयं प्रथमस्य स्थानस्याधर्मपाक्षिकस्य पापोपादानभूतस्य विभङ्गो-विभागो विशेषः स्वरूपमितियावत् ॥ ५७ । साम्प्रतं द्वितीयं धर्मोपादानभूतं पक्षमाश्रित्याह अहावरे दोचस्स हाणस्स धम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिजह, इह खलु पाईणं वा पडीणं वा उदीणं वा दाहिणं वा संतेगइया मणुस्सा भवंति, तंजहा-आयरिया वेगे अणारिया वेगे उच्चागोया वेगे णीयागोया वेगे कायमंता वेगे हस्समंता धेगे सुवन्ना वेगे दुबन्ना वेगे सुरूवा वेगे दुरूवा वेगे, तेसिं च णं खेत्तवत्थूणि परिग्गहियाई भवंति, एसो आलाचगो जहा पोंडरीए तहा तबो, तेणेव अभिलावेण जाव सबोवसंता सवत्ताए परिनिबुडेत्तियेमि ॥ एस ठाणे आरिए केवले जाव सबढुक्खप्पहीणमग्गे एगंतसम्म साहु, दोबस्स ठाणस्स धम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिए ।। सन ३३ ॥ 'अधे'त्यधर्मपाक्षिकस्थानादनन्तरमयमपरो द्वितीयस्य स्थानस्य 'धर्मपाक्षिकस्य' पुण्योपादानभूतस्य 'विभङ्गो विभागः19 I स्वरूप समाधीयते-सम्यगाख्यायते, तद्यथा-प्राचीनं प्रतीचीनमुदीचीनं दक्षिणं वा दिग्विभागमाश्रित्य 'सन्ति' विद्यन्ते एके। K केचन कल्याणपरम्परामाज: 'पुरुषा' मनुष्याः, ते च वक्ष्यमाणखमावा भवन्ति, 'तद्यथेत्ययमुपप्रदर्शनार्थः, आर्या एके केच नार्यदेशोत्पन्नाः, तथाऽनार्याः शकयवनशवरवर्वरादय इत्याद्येवं यथा पौण्डरीकाध्ययने तथेहापि सर्व निरषयवं भणितव्यम् । है यावत्ते 'एवं पूर्वोक्तेन प्रकारेण सर्वेभ्यः पापस्थानेभ्य उपशान्ताः, तथा अत एव सर्वात्मतया परिनिर्वृता इत्यहमेवं ब्रवीमि || ~657~ Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३३], नियुक्ति: [१६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३] 18 मिश्रपक्षण दीप अनुक्रम [६६५] || तदेवमेतत्स्थानं 'कैवलिक प्रतिपूर्ण नैयायिकमित्यादि प्राग्वद्विपर्ययेण नेयं यावद्वितीयस्य स्थानस्य धार्मिकस्यैषः 'विभङ्गो विभागः18|२ क्रियाSUMAR खरूपमाख्यातमिति ।। साम्प्रतं धर्माधर्मयुक्तं तृतीय स्थानमाश्रित्याह स्थानाध्य न्धे शीला-8 अहावरे तच्चस्स हाणस्स मिस्सगस्स विभंगे एवमाहिजइ, जे इमे भवंति आरणिया आवसहिया गामकीयावृत्तिः णियंतिया कण्हुईरहस्सिता जाव ते तओ विप्पमुच्चमाणा भुज्जो एलमूयत्ताए तमूत्ताए पचापंति, एस- धमेपक्षः ठाणे अणारिए अकेवले जाव असबदुक्खपहीणमग्गे एगंतमिच्छे असाह, एस खलु तचस्स ठाणस्स मि॥३२७॥ स्सगस्स विभंगे एवमाहिए ॥ सूत्रं ३४ ॥ | अथापरस्तृतीयस्य स्थानस मिश्रकाख्यस्य 'विभङ्गो विभागः स्वरूपमाख्यायते । अत्र चाधर्मपक्षेण युक्तो धर्मपक्षो मिश्र || इत्युच्यते, तत्राधर्मस्येह भूयिष्ठखादधर्मपक्ष एवायं द्रष्टव्यः, एतदुक्तं भवति-चद्यपि मिथ्यादृष्टयः काश्चित्तथाप्रकारां प्राणातिपा18 तादिनिवृत्तिं विदधति तथाप्याशयाशुद्धतादभिनवे पित्तोदये सति शर्करामिश्रक्षीरपानवपरप्रदेशवृष्टिवद्विवक्षितार्थासाधकखाभिर-18 र्थकतामापद्यते, ततो मिथ्याखानुभावात् मिश्रपक्षोऽप्यधर्म एवावगन्तव्य इति । एतदेव दर्शयितुमाह-ज इमे भवंती'त्यादि, ये इमेऽनन्तरमुच्यमाना अरण्ये चरन्तीत्यारण्यिकाः-कन्दमूलफलाशिनस्तापसादयो ये चावसथिकाः-आवसथो-गृहं तेन चर-18 न्तीत्यावसथिकाः-गृहिणः, ते च कुतचित् पापस्थानानिवृत्ता अपि प्रबलमिथ्यालोपहतबुद्धयः, ते यद्यप्युपवासादिना महता ४॥३२७॥ कायक्लेशेन देवगतयः केचन भवन्ति तथापि ते आसुरीयेषु स्थानेषु किल्विषिकेतृत्पद्यन्त इत्यादि सर्व पूर्वोक्तं भणनीयं यावत्तत-18 युता मनुष्यभवं प्रत्यायाता एलमूकलेन तमोऽन्धतया जायन्ते । तदेवमेतत्स्थानमनार्यमकेवलम्-असंपूर्णमनैयायिकमित्यादि याव Receo ~658~ Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक -], मूलं [३४], नियुक्ति: [१६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४] दीप अनुक्रम [६६६] 00000000000000000ssosas देकान्तमिध्याभूतं सर्वथैतदसाध्विति, तृतीयस्थानस्य मिश्रकस्यायं 'विभङ्गो विभागः खरूपमारुपातमिति ॥ उक्तान्यधर्मधर्ममिश्रस्थानानि, साम्प्रतं तदाश्रिताः स्थानिनोऽभिधीयन्ते यदिवा प्राक्तनमेवान्येन प्रकारेण विशेषिततरमुच्यते-तत्राथमधार्मिकस्थानकमाश्रित्याह अहावरे पढमस्स ठाणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिलइ-इह खलु पाईणं वा ४ संतेगतिया मणुस्सा भवंति-गिहत्था महिच्छा महारंभा महापरिग्गहा अधम्मिया अधम्माणुया(ण्णा) अधम्मिट्ठा अधम्मक्खाई अधम्मपायजीविणो अधम्मप(वि)लोई अधम्मपलज्जणा अधम्मसीलसमुदायारा अधम्मेणं चेव विर्ति कप्पेमाणा विहरंति ॥ हण छिंद भिंद विगत्तगा लोहियपाणी चंडा रुद्दा खुद्दा साहस्सिया उकुंचणवंचणमायाणियडिकूडकवडसाइसंपओगबहुला दुस्सीला दुवया दुष्पडियाणंदा असाह सचाओ पाणाइवायाओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए जाव सबाओ परिग्गहाओ अप्पडिविरया जावजीवाए सवाओ कोहाओ जाव मिच्छादसणसल्लाओ अप्पडिविरया, सबाओ ग्रहाणुम्मद्दणवण्णगगंधविलेवणसहफरिसरसरूवर्गधमल्लालंकाराओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए सबाओ सगडरहजाणजुम्गगिल्लिथिल्लिसियासंदमाणियासयणासणजाणवाहणभोगभोयणपवित्थरविहीओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए सबाओ कयविक्कयमासद्धमा: सरूवगसंववहाराओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए सबाओ हिरण्णसुवण्णधणधषणमणिमोत्तियसंखसिलप्पवालाओ अप्पडिविरया जावजीचाए सवाओ कूडतुलकूडमाणाओ अप्पडिविरया जावजीवाए सबाओ 90sarasameraene9900000 ~659~ Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३५], नियुक्ति: [१६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रकृताङ्ग २श्रुतस्कग्धे शीला २ क्रियास्थानाध्य अधर्मपक्षवन्तः सूत्रांक शीयावृत्तिः ececesticesesesea [३५] ॥३२८|| आरंभसमारंभाओ अप्पडिविरया जावजीवाए सबाओ करणकारावणाओ अप्पडिविरया जावजीवाए सवाओपयणपयावणाओ अप्पडिविरया जावजीवाए सबाओ कुट्टणपिट्टणतजणताडणवहबंधपरिकिलेसाओ अप्पडिविरया जावजीवाए, जे आवण्णे तहप्पगारा सावजा अबोहिया कम्मंता परपाणपरियावणकरा जे अणारिएहिं कति ततो अप्पडिविरया जाबज्जीवाए, से जहाणामए केह पुरिसे कलममसरतिलमुग्गमासनिष्फावकुलस्थआलिसंदगपलिमंधगमादिएहिं अयंते कूरे मिच्छाद पउंजंति, एवमेव तहप्पगारे पुरिसजाए तित्तिरवदृगलावगकवोतकपिंजलमियमहिसघराहगाहगोहकुम्मसिरिसिवमादिएहिं अयंते करे मिच्छादं पउंजंति, जाविय से बाहिरिया परिसा भवइ, तंजहा-दासे इ वा पेसे इ वा भयए हुवा भाइल्ले इ वा कम्मकरण इवा भोगपुरिसे इ वा तेर्सिपि य णं अन्नयरंसि वा अहालहुगंसि अवराहंसि सयमेव गरुयं दंड निवत्तेइ, तंजहा-इम दंडेह इमं मुंडेह इमं तज्जेह इमं तालेह इमं अदुयबंधणं करेह इमं नियलबंधणं करेह इमं हड्डिबंधणं करेह हम चारगबंधणं करेह इमं नियलजुयलसंकोधियमोडियं करेह इम हत्यछिन्नयं करेह इमं पायछिन्नयं करेह इमं कन्नछिण्णर्य करेह इमं नकओहसीसमुहछिन्नयं करेह बेयगछहियं अंगछहियं पक्वाफोडियं करेह इमं णयणुप्पाडियं करेह इमं दसणुप्पाडियं वसणुप्पाडियं जिन्भुप्पाडियं ओलंविषं करेह घसियं करेह घोलियं करेह सूलाइयं करेह सलाभिन्नयं करेह खारवत्तियं करेह वज्रवत्तियं करेह सीहपुच्छियगं करेह वसभपुच्छियगं करेह दवग्गिवहयंग कागणिमंसखाषियंग दीप अनुक्रम [६६७] ॥३२८॥ ~660~ Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३५], नियुक्ति: [१६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक [३५] दीप अनुक्रम [६६७] भत्तपाणनिरुद्धगं इमं जावज्जीव वहबंधणं करेह इमं अन्नयरेणं असुभेणं कुमारेणं मारेह ॥ जावि य से अभितरिया परिसा भवइ, तंजहा-माया इ वा पिया इ वा भाया इ वा भगिणी इ वा भज्जा इ वा पुत्ता इ वा धूता इ वा सुण्हा इ वा, तेसिपि य णं अन्नयरंसि अहालहुगंसि अवराहसि सयमेव गरुयं दंड णिवत्तेइ, सीओदगवियांसि उच्छोलित्ता भवइ जहा मित्तदोसवत्तिए जाव अहिए परंसि लोगंसि, ते दुक्खंति सोयंति जूरंति तिप्पंति पिट्ठति परितप्पति ते दुक्खणसोयणजूरणतिप्पणपिडणपरितप्पणवहवंधणपरिकिलेसाओ अपडिविरया भवंति । एवमेव ते इस्थिकामेहिं मुछिया गिद्धा गढिया अजमोववन्ना जाव वासाइं चउपंचमाई छ।समाई वा अप्पतरो वा भुजतरो वा कालं भुंजितु भोगभोगाई पविसुइत्ता वेरायतणाई संचिणित्ता बहई पावाई कम्माई उस्सन्नाई संभारकडेण कम्मणा से जहाणामए अयगोले इचा सेलगोले इवा उदगंसि पक्खिते समाणे उदगतलमइवइत्ता अहे धरणितलपइहाणे भवइ, एवमेव तहप्पगारे पुरिसजाते वजबहुले धूतबहुले पंकबहले वेरपहले अप्पत्तियबहले दंभयहुले णियडिबहुले साइबहुले अयसबहुले उरसन्नतसाणघाती कालमासे कालं किचा धरणितलमइवइत्ता अहे णरगतलपइटाणे भवइ ।। सूत्रं ३५॥ अथापरोऽन्यः प्रथमस्य स्थानसाधर्मपाक्षिकस 'विभङ्गो विभागः खरूपं व्याख्यायते-'इह खलु इत्यादि, सुगम यावन्मनुष्या एवंखभावा भवन्तीति । एते च प्रायो गृहस्था एव भवन्तीत्याह-'महेच्छा' इत्यादि, महती-राज्यविभवपरिवारादिका || ecticesecaciaersesesesecccescaeses ~661~ Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [३५] दीप अनुक्रम [६६७] सूत्रकृताक्रे २ श्रुतस्क वे शीलाङ्कीयावृतिः ॥३२९॥ “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], मूलं [३५], निर्युक्ति: [ १६८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - | सर्वातिशायिनी इच्छा - अन्तःकरणप्रवृत्तिर्येषां ते महेच्छाः, तथा महानारम्भो वाहनोष्ट्रमण्डलिकागश्रीप्रवाहकृषिपण्डपोषणादिको येषां ते महारम्भाः, ये चैवंभूतास्ते महापरिग्रहाः धनधान्यद्विपदचतुष्पदवास्तु क्षेत्रादिपरिग्रहवन्तः कचिदप्यनिवृत्ताः, अत एवाधर्मेण चरन्तीत्याधर्मिकाः, तथा अधर्मिष्ठा निस्त्रिंशकर्मकारित्रादधर्मबहुलाः, ततत्राधर्मे कर्तव्ये अनुज्ञा - अनुमोदनं येषां ते भवन्त्यधर्मानुज्ञाः, एवमधर्मम् आख्यातुं शीलं येषां ते तथा, एवमधर्मप्रायजीविनः, तथा अधर्ममेव प्रविलोकयितुं शीलं येषां ते भवन्त्यधर्मप्रविलोकिनः, तथा अधर्मप्रायेषु कर्मसु प्रकर्षेण रज्यन्त इति अधर्मप्ररक्ताः, रलयोरैक्यमिति रस्य स्थाने लकारोऽय कृत इति, तथाऽधर्मशीला अधर्मस्वभावाः तथाऽधर्मात्मकः समुदाचारो -- यत्किञ्चनानुष्ठानं येषां ते भवन्त्यधर्मशीलसमुदाचाराः, तथाऽधर्मेण - पापेन सावयानुष्ठानेनैव दहनाङ्कननिर्लाञ्छनादिकेन कर्मणा वृत्तिः-वर्तनं 'कल्पयन्तः' कुर्वाणा 'विहरन्ती' ति कालमतिवाहयन्ति ॥ पापानुष्ठानमेव लेशतो दर्शयितुमाह-'हण छिन्द भिन्दे' त्यादि स्वत एव हननादिकाः क्रियाः कुर्वाणा अपरेषामप्येवमात्मकमुपदेशं ददति, सत्र हननं दण्डादिभिस्तत्कारयन्ति तथा छिन्द्धि कर्णादिकं मिन्द्धि शूलादिना, विकर्तकाः प्रा | णिनामजिनापनेतारः अत एव लोहितपाणयः, तथा चण्डा रौद्रा-नित्रिंशाः क्षुद्राः क्षुद्रकर्मकारिवाद तथा 'साहसिका' असमीक्षितकारिणः, तथा उत्कुञ्चनवञ्चनमायानितिकूटकपटादिभिः सहातिसंप्रयोगो-गार्ध्यं तेन बहुलाः- तत्प्रचुरास्ते तथा, तत्रोर्ध्व कुञ्चनं-शूलाद्यारोपणार्थमुत्कुश्चनं वञ्चनं प्रतारणं तत् यथा अभयकुमारः प्रयोतगणिकाभिर्धार्मिकवञ्चनया वञ्चितः माया- वश्चनबुद्धिः प्रायो वणिजामिव निकृतिस्तु चकवृत्त्या कुर्कुटादिकरणेन दम्भप्रधानवणिश्रोत्रियसाध्वाकारेण परवञ्चनार्थ गलकर्तकानामिवावस्थानं, देशभाषानेपथ्यादिविपर्ययकरणं कपटं यथा आषाढभूतिना नटेनेवापरापरवेषपरावृत्याऽऽचार्योपा Education Internationa For Parks Use Only ~662~ २ क्रिया स्थानाध्य० ravaवन्तः ॥३२९ ॥ Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [३५] दीप अनुक्रम [६६७] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], मूलं [३५], निर्युक्ति: [ १६८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - ध्यायसंघाटकात्मार्थं चलारो मोदका अवाप्ताः, कूटं तु कार्षापणतुलाप्रस्यादेः परवश्चनार्थं न्यूनाधिककरणम्, एतैरुत्कुञ्चनादिभिः सहातिशयेन संप्रयोगो यदिवा- सातिशयेन द्रव्येण कस्तूरिकादिनाऽपरस्य द्रव्यस्य संप्रयोगः सातिसंप्रयोगस्तद्बहुलाः- तत्प्रधाना इत्यर्थः, उक्तं च- "सो होई सातिजोगो दबं जं छादियण्णदत्रेसु । दोसगुणा वयणेसु व अत्थविसंवायणं कुणइ ॥ १ ॥” एते चोत्कुश्चनादयो मायापर्याया इन्द्रशक्रादिवत् कथञ्चित्क्रियाभेदेऽपि द्रष्टव्याः । तथा दुष्टं शीलं येषां ते दुःशीलाःचिरमुपचरिता अपि क्षिप्रं विसंवदन्ति, दुःखानुमेया दारुणस्वभावा इत्यर्थः तथा दुष्टानि व्रतानि येषां ते तथा यथा मांसभक्ष| णत्रतकालसमाप्तौ प्रभूततरसच्वोपघातेन मांसप्रदानम्, अन्यदपि नक्तभोजनादिकं तेषां दुष्टव्रतमिति, तथाऽन्यस्मिन् जन्मान्तरे मधुमद्यमांसादिकमभ्यवहरिष्यामीत्येवमज्ञानान्धा जन्मान्तरविधिद्वारेण सनिदानमेव तं गृहन्ति, तथा दुःखेन प्रत्यानन्द्यन्ते दुष्प्रत्यानन्याः, इदमुक्तं भवति तैरानन्दितेनापरेण केनचित्प्रत्युपकारेप्सुना गर्वाध्माता दुःखेन प्रत्यानन्द्यन्ते, यदिवा सत्यप्युपकारे प्रत्युपकारभीरवो नैवानन्यन्ते प्रत्युत शठतयोपकारे दोषमेवोत्पादयन्ति तथा चोक्तम्- “प्रतिकर्तुमशक्तिष्ठा, नराः पूर्वोपकारिणाम् । दोषमुत्पाद्य गच्छन्ति, महूनामिव वायसाः ॥ १ ॥" यत एवमतोऽसाधवस्ते पापकर्मकारितात्, तथा 'यावज्जीवं' यावत्प्राणधारणेन सर्वमात्प्राणातिपाताद्प्रतिविरता लोकनिन्दनीयादपि ब्राह्मणघातादेरविरता इति सर्वग्रहणं, एवं सर्वसादपि कूटसाक्ष्यादेरप्रतिविरता इति, तथा सर्वस्मात्त्रीवालादेः परद्रव्यापहरणादविरताः, तथा सर्वस्मात्परस्त्रीगमनादेमैथुनादचिरताः, एवं सर्वस्मात्परिग्रहाद्यो निपोषकादप्यविरताः, एवं सर्वेभ्यः क्रोधमानमायालो मेभ्योऽविरताः, तथा प्रेमद्वेषकलहाभ्याख्यानपैशुन्य१ स भवति सातियोगो इव्यं यच्छादयिलाऽन्यत्रम्यैः दोषगुणांश्च वचनैरथंनिसंवादनं करोति ॥ १ ॥ Education Internationa For Park Use On ~663~ Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३५], नियुक्ति: [१६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक [३५] दीप अनुक्रम [६६७] सूत्रकृताङ्गे परपरिवादारतिरतिमायामृपावादमिथ्यादर्शनशल्यादिभ्योऽसदमुष्टानेभ्यो यावज्जीवं येअतिविरता भवन्तीति । तथा सर्वसाला- २ क्रिया२ श्रुतस्क- मोन्मर्दनवर्णकविलेपनशब्दस्पर्शरूपरसगन्धमाल्यालङ्कारात्कामानान्मोहजनितादप्रतिविरता यावजीवयेति, इह च वर्णकग्रहणेन शस्थानाध्य. वर्णविशेषापादक लोधादिकं गृह्यते, तथा सर्वतः शकटरथादेयोनविशेषादिकात्प्रतिविस्तरविधेः परिकररूपाल्परिग्रहादप्रतिविरताः, अधपक्षकीयावृत्तिः । इह च शकटरथादिकमेव यानं शकटरथयानं, युग्यं-पुरुपोरिक्षप्तमाकाशयानं 'गिल्लित्ति पुरुषद्वयोरिक्षता झोल्लिका 'थिल्लितिवन्तः ॥३३०॥ वेगसरावयविनिर्मिती यान विशेषः तथा 'संवमाणिय'ति शिविकाविशेष एव, तदेवमन्यस्मादपि वखादेः परिग्रहादुपकरणभूताद-11 |विरताः, तथा सर्वतः-सर्वसाकयषिक्रयाभ्यां करणभूताभ्यां यो मापकार्धमाषकरूपकार्षापणादिभिः पण्यविनिमयात्मकः सं-16 व्यवहारस्तसाद विरता यावजीवयेति, तथा सर्वसाद्धिरण्यसुवर्णादेः प्रधानपरिग्रहादविरताः, तथा कूटतुलकूटमानादेरविरताः, | तथा सर्वतः कृषिपाशुपाल्यादेयत्खतः करणमन्येन च यत्किश्चित्कारयति तस्मादविरताः, तथा पचनपाचनतः तथा कण्डनकुट्टन|| पिट्टनतर्जनताडनवधवधादिना या परिक्लेशःप्राणिनां तस्मादविरताः, साम्प्रतमुपसंहरति-ये चान्ये तथाप्रकाराः परपीडाका|रिणः सावधाः कर्मसमारम्भा अबोधिका:-बोधभावकारिणः तथा परमाणपरितापनकरा-गोग्राहवन्दिग्रहग्रामघातात्मका येज्ना यः क्रूरकर्मभिः क्रियन्ते ततोऽअतिषिरता यावञ्जीवयेति ॥ पुनरन्यथा बहुप्रकारमधार्मिकपदं प्रतिपिपादयिषुराह-'तय!'त्युपप्रदर्शनार्थो नामशब्दः संभावनायो, संभाव्यते अस्मिन्विचित्रे संसारे केचनवंभूताः पुरुषाः ये कलमममूरतिलमुद्गादिषु पच-18||३३०॥ नपाचनादिकया क्रियया स्वपरार्थमयता-अप्रयत्नवन्तो निष्कृपाः क्रूरा मिथ्यादण्डं प्रयुञ्जन्ति, मिथ्यैव-अनपराधिष्वेव दोषमा-18॥ | रोप्य दण्डो मिथ्यादण्डस्तं विदधति, तथैवमेव-प्रयोजनं विनैव तथाप्रकाराः पुरुषा निष्करुणा जीवोपघातनिरतास्तित्तिरवर्तकला-11 eesecheeses ~664~ Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [३५] दीप अनुक्रम [६६७] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र -२ ( मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], मूलं [३५], निर्युक्ति: [ १६८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः वकादिषु जीवनप्रियेषु प्राणिध्वयताः क्रूरकर्माणो मिथ्यादण्डं प्रयुञ्जन्ति । तेषां च क्रूरधियां "यथा राजा तथा प्रजा" इति प्रवादात् परिवारोऽपि तथाभूत एव भवतीति तथा दर्शयितुमाह- 'जावि य से' इत्यादि, याऽपि च तेषां बाह्या पर्षद्भवति, तथथा- 'दासः' खदासीसुतः 'प्रेष्यः' प्रेषणयोग्यो भृत्यदेश्यो 'भृतको' वेतनेनोदकाद्यानयनविधायी तथा 'भागिको 'यः षष्ठांशादिलाभेन कृष्यादौ व्याप्रियते 'कर्मकरः' प्रतीतः तथा नायकाश्रितः कचिद्भोगपरः, तदेवं ते दासादयोऽन्यस्य लघावप्यपराधे गुरुतरं दण्डं प्रयुञ्जन्ति प्रयोजयन्ति च । स च नायकस्तेषां दासादीनां बाह्यपर्षद्भूतानामन्यतरसिंस्तथा लवावप्यपराधे-शब्दार्थवणादिके गुरुतरं दण्डं वक्ष्यमाणं प्रयुक्ते, तद्यथा-इमं दासं प्रेष्यादिकं वा सर्वस्वापहारेण दण्डयत यूयमित्यादि सूत्रसिद्धं यावदि| ममन्यतरेणाशुभेन कुत्सितमारेण व्यापादयत यूयम् । याऽपिच क्रूरकर्मवतामभ्यन्तरा पर्षद्भवति, तद्यथा मातापित्रादिका, मित्रदोषप्रत्ययिक क्रियास्थानवद् नेयं यावदहितोऽयमस्मिन् लोके इति, तथा हि आत्मनोऽपथ्यकारी परस्मिन्नपि लोके, तदेवं ते मातापित्रादीनां स्वल्पापराधिनामपि गुरुतरदण्डापादनतो दुःखमुत्पादयन्ति तथा नानाविधैरुपायैस्तेषां शोकमुत्पादयन्ति-शोकयन्तीत्येवं ते प्राणिनां बहुप्रकारपीडोत्पादकाः यावद्वधबन्धपरिक्लेशादप्रतिविरता भवन्ति । ते च विषयासक्ततया एतस्कुर्वन्तीत्येतदर्शयितुमाह-एवमेव पूर्वोक्तस्वभावा एवं ते निष्कृपा निरनुक्रोशा बाह्याभ्यन्तरपर्षदोरपि कर्णनासा विकर्तनादिना | दण्डपातनस्वभावाः स्त्रीप्रधानाः कामाः स्त्रीकामाः यदिवा स्त्रीषु मदनकामविषयभूतासु कामेषु च शब्दादिषु इच्छाकामेषु मूच्छिता गृद्धा ग्रथिता अध्युपपन्नाः, एते च शक्रपुरन्दरादिवत्पर्यायाः कथञ्चिद्भेदं वाऽऽश्रित्य व्याख्येयाः, ते च भोगासक्ता व्यपगतपरलोकाध्यवसाया यावद्वर्षाणि चतुःपञ्च षट् सप्त वा दश वाऽल्पतरं वा कालं प्रभूततरं वा कालं भुक्खा भोगभोगान् इन्द्रियानुकू Education Internation For Parts Only ~665~ Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [३५] दीप अनुक्रम [६६७] सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्कन्धे शीलाकीयावृत्ति: ॥३३१ ॥ “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], मूलं [३५], निर्युक्ति: [ १६८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - लान् मधुमद्यमांसपरदारासेवनरूपान् भोगासक्ततया च परपीडोत्पादनतो 'वैरायतनानि' वैरानुबन्धान् अनुप्रसूय-उत्पाद्य | विधाय तथा 'संचयित्वा' संचिन्त्योपचित्य 'बहूनि ' प्रभूततरकालस्थितिकानि 'क्रूराणि' क्रूरविपाकानि नरकादिषु यातना - स्थानेषु क्रकचपाटनशाल्मल्यवरोहणततत्रपुपानात्मकानि कर्माण्यष्टप्रकाराणि बद्धस्पृष्टनिधन निकाचनावस्थानि विधाय तेन च संभारकृतेन कर्मणा प्रेर्यमाणास्तत्कर्मगुरवो वा नरकतलप्रतिष्ठाना भवन्तीत्युत्तरक्रिययाऽऽपादित बहुवचन रूपयेति संबन्धः । अस्मि| नेवार्थे सर्वलोकप्रतीतं दृष्टान्तमाह-'से जहाणामए' इत्यादि, तद्यथा नामायोगोलक:- अयस्पिण्डः 'शिलागोलको' वृत्ताश्मशकलं बोदके प्रक्षिप्तः समानः सलिलतलमतिवर्त्य - अतिलङ्घयाधो धरणीतलप्रतिष्ठानो भवति । अधुना दार्शन्तिकमाह-'एवमेवे'त्यादि, यथाऽसावयोगोलको वृत्तत्वाच्छीघ्रमेवाधी यात्येवमेव तथाप्रकारः पुरुषजातः, तमेव लेशतो दर्शयति-वज्रवद्वजं गुरुखात्कर्म तद्रहुल:- तत्प्रचुरो बध्यमानक कर्मगुरुरित्यर्थः तथा घूयत इति धूतं प्राग्वद्धं कर्म तत्प्रचुरः पुनः सामान्येनाह - पद्मयतीति पर्व - पापं तद्बहुला, तथा तदेव कारणतो दर्शयितुमाह-'वैरबहुलो' वैरानुबन्धप्रचुरः, तथा 'अपत्तियं'ति मनसो | दुष्प्रणिधानं तत्प्रधानः, तथा दम्मो मायया परवञ्चनं तदुत्कटः, तथा निकृतिः- माया वेषभाषापरावृत्तिच्छद्मना परद्रोहबुद्धिस्तन्मयः, तथा 'सातिबहुल' इति सातिशयेन द्रव्येणापरस्य हीनगुणस्य द्रव्यस्य संयोगः सातिस्तद्रहुलः- तत्करणप्रचुरः, तथा | अयश:-अश्लाघा असद्वृत्ततया निन्दा, यानि यानि परापकारभूतानि कर्मानुष्ठानानि विधत्ते तेषु तेषु कर्मसु करचरणच्छेदनादिषु अयशोभाग्भवतीति, स एवंभूतः पुरुषः 'कालमासे' स्वायुषः क्षये कालं कृत्वा पृथिव्याः - रत्नप्रभादिकायास्तलम् 'अतिवर्त्य' योजन सहस्रपरिमाणमतिलय नरकतलप्रतिष्ठानोऽसौ भवति ।। नरकस्वरूपनिरूपणा याह Education International For Peaks On ~999~ २ क्रिया स्थानाध्य अधमेपक्षवन्तः ॥३३१|| Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [३६] दीप अनुक्रम [६६८] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], मूलं [३६], निर्युक्ति: [ १६८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः Education Intention - ते णं णरगा अंतो वा बाहिं चउरंसा अहे खुरप्पसंठाणसंठिया णिचंधकारतमसा ववगयगहचंद्रसूरनक्खतजोइस पहा मेदवसामंसरुहिरपूयपडलचिल्लिलित्ताणुलेवणतला असुई वीसा परमदुभिगंधा कण्हा अगणिवन्नाभा कक्खडफासा दुरहियासा असुभा णरगा असुभा णरपसु वेयणाओ ॥ णो चेव ree नेरया विद्दाति वा पयलायंति वा सुई वा रतिं वा धितिं वा मतिं वा उबलभंते, ते णं तत्थ उज्जलं विलं पगाढं कयं कक्कसं चंडं दुक्खं दुग्गं तिचं दुरहियासं णेरइया बेयणं पचणुभवमाणा विहरति ॥ सूत्रं ३६ ॥ मिति वाक्यालङ्कारे ते नरकाः सीमन्तकादिका बाहुल्यमङ्गीकृत्यान्तः - मध्ये वृत्ता बहिरपि चतुरस्रा अधव क्षुरप्रसंस्थानसंस्थिताः, एतच संस्थानं पुष्पावकीर्णानाश्रित्योक्तं तेषामेव प्रचुरत्वात्, आवलिकाप्रविष्टास्तु वृत्तत्र्यत्रचतुरस्रसंस्थाना एव भवन्ति, | तथा नित्यमेवान्धतमसं येषु ते नित्यान्धतमसाः कचित्पाठो नित्यान्वकारतमसा इति, मेघावच्छन्नाम्बरतलकृष्णपक्षरजनीवत् तमोबहुलाः, तथा व्यपगतो ग्रहचन्द्रसूर्यनक्षत्रज्योतिःपथो येषां ते तथा । पुनरप्यनिष्टापादनार्थ तेषामेव विशेषणान्याह - 'मेदवसेत्यादि, दुष्कृतकर्मकारिणां ते नरकास्तदुःखोत्पादनायैवंभूता भवन्ति, तद्यथा-मेदवसामांसरुधिरपूयादीनां पटलानि सङ्गास्तेलिप्तानि - पिच्छिलीकृतान्यनुलेपनतलानि - अनुलेपनप्रधानानि तलानि येषां ते तथा, अशुचयो विष्ठाऽसृक्क्लेदप्रधानत्वाद् अत एव | विश्राः कुथितमांसादिकल्प कर्दमावलिप्तखात् एवं परमदुर्गन्धाः कुथितगोमायुकलेवरादपि असगन्धाः, तथा कृष्णामिवर्णाभा | रूपतः स्पर्शतस्तु कर्कशः- कठिनो वज्रकण्टकादप्यधिकतरः स्पर्शो येषां ते तथा, किं बहुना ?, अतीव दुःखेनाधिसान्ते, किमि - अत्र नरक स्वरुप निरूपणा क्रियते For Pale Only ~667~ nayor Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [३६] दीप अनुक्रम [६६८] सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्क न्धे शीलावीयावृति: ||३३२ ॥ “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], मूलं [३६], निर्युक्ति: [ १६८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - ति ?, यतस्ते नरकाः पञ्चानामपीन्द्रियार्थाना मशोभनत्वादशुभाः, तत्र च सस्यानामशुभकर्मकारिणा मुग्रदण्डपातिनां च वज्रप्रचुराणां तीव्रा अतिदुःसहवेदनाः शारीराः प्रादुर्भवन्ति तथा च वेदनयाऽभिभूतास्तेषु नरकेषु ते नारका नैवाक्षिनिमेषमपि कालं निद्रायन्ते, नाप्युपविष्टाद्यवस्था अक्षिसंकोचनरूपामीपनिद्रामयाशुवन्ति न येवंभूतवेदनाभिभूतस्य निद्रालाभो भवतीति दर्शयति, तामुज्ज्वलां तीव्रानुभावेनोत्कटामित्यादिविशेषणविशिष्टां यावद्वेदयन्ति अनुभवन्तीति । अयं तावदयोगोलकपापाणदृष्टान्तः | शीघ्रमधोनिमज्जनार्थप्रतिपादकः प्रदर्शितः, अधुना शीघ्रपातार्थप्रतिपादकमेवापरं दृष्टान्तमधिकृत्याह - से जहाणामए रुक् सिया पायांगे जाए मूले छिन्ने अग्गे गरुए जओ णिण्णं जओ विसमं जओ दुग्गं तओ पवडति, एवामेव तहप्पगारे पुरिसजाए गन्मातो गर्भ जम्मातो जम्मं माराओ मारं परगाओ पारगं दुक्खाओ दुक्खं दाहिणगामिए पेरइए कण्हपक्खिए आगमिस्साणं दुल्लभवोहिए यावि भवइ, एस ठाणे अणारिए अकेवले जाव असङ्घदुक्खपहीणमग्गे एगतमिच्छे असाहू पढमस्स स्स अथम्पक्स विभंगे एवमाहिए ॥ सूत्रं ३७ ॥ तद्यथा नाम कभिक्षः पर्वताग्रे जातो मूले छिन्नः शीघ्रं यथा निम्ने पतति, रवमसावप्यसाधु कर्मकारी तत्कर्मवारितः शीघ्रमेव नरके पतति, ततोऽप्युद्वत्तो गर्भाद्गर्भमवश्यं याति तस्य किंचित्राणं भवति यावदागामिन्यपि कालेऽसी दुर्लभधर्मप्रतिपचिर्भवतीति । साम्प्रतमुपसंहरति- 'एस ठाणे' इत्यादि, तदेतत्स्थानमनायें पापानुष्ठानपरखाद्यावदेकान्त मिथ्या रूपमसाधु । तदेवं | प्रथमस्याधर्मपाक्षिकस्य स्थानस्य 'विभङ्गो' विभागः स्वरूपमेप व्याख्यातः ॥ Education Internation For Pasta Lise Only ~899~ २ क्रिया स्थानाध्य० अधर्मपक्षे नरकस्व० दुर्लभबो धिता च ॥३३२ ॥ Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [३८] दीप अनुक्रम [६७०] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], मूलं [३८], निर्युक्ति: [ १६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः Internationa - अहावरे दोचस्स ठाणस्स धम्मपक्स्वस्स विभंगे एवमाहिजइ-इह खलु पाइणं वा ४ संतेगतिया मनुस्सा भवति, तंजा - अणारंभा अपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुया धम्मिट्ठा जाव धम्मेणं चैव वित्तिं कप्पेमाणा विरंति, सुसीला सुवा सुप्पटियाणंदा सुसाह सबतो पाणातिवायाओ पडिविरया जावजीवाए जाव जे यावन्ने तहप्पारा सावजा अथोहिया कम्मता परपाणपरियावणकरा कांति ततो विपडिविरता जाबजीवाए | से जहाणामए अणगारा भगवंतो ईरियासमिया भासासमिया एसणासमिया आयाणभंडमत्तणिक्खेवणासमिया उच्चारपासवणखेलसिंघाणजलपारि द्वावणियासमिया [मणसमिया वयसमिया कायसमिया मणगुत्ता वयगुत्ता कायगुत्ता गुत्ता गुत्तिंदिया गुत्तवं भयारी अकोहा अमाणा अमाया अलोभा संता पसंता उवसंता परिणिन्बुडा अणासवा अग्गंथा छिन्नसोया निरुबलेवा कंसपाइ व मुकतोया संखो इव णिरंजणा जीव इव अपडियगती गगणतलंपिव निरालंबणा बाउरिव अपडिबद्धा सारदसलिलं व सुद्धहिया पुक्खरपत्तं व निरुबलेवा कुम्मो इव गुसिंदिया बिहग इव विप्पभुक्का खग्गविसाणं व एगजाया भारंडपक्खीव अप्पमत्ता कुंजरो इव सोंडीरा वसभो इव जातत्थामा सीहो इव बुद्धरिसा मंदरो इव अप्पकंपा सागरो इव गंभीरा चंदो इव सोमलेसा सूरो इव दिसतेया जबकंचणगं व जातरूवा वसुंधरा इव सबफासविसहा सुहयहुयासणो विव तेयसा जलता ॥ णत्थि णं तेसिं भगवंताणं कत्थवि पडिषेधे भवइ, से पडिबंधे चडविहे पण्णत्ते, तंजहा- अंडए इ वा पोयए इ वा उग्गहे इ वा पग्गहे For Parts Only ~669~ ९९९९ waryra Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [३८] दीप अनुक्रम [६७०] सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्क न्धे शीलाझीयावृत्तिः ॥३३३॥ “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], मूलं [३८], निर्युक्ति: [ १६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः Education Internation - इ वा जनं जन्नं दिसं इच्छंति तनं तनं दिसं अपटिबद्धा सुइभूया लहुभूया अप्पगंधा संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति ॥ तेसिं णं भगवंताणं इमा एताख्या जायामायावित्ती होत्था, तंजाचत्थे भत्ते छुट्टे भन्ते अट्टमे भत्ते दसमे भत्ते दुवालसमे भन्ते चउदसमे भत्ते अद्धमासिए भत्ते मासिए भत्ते दोमासिए निमासिए चाउम्मासिए पंचमासिए छम्मासिए अनुत्तरं च णं उक्खित्तचरया णिक्खितरया वित्तणिक्खित्तचरगा अंतचरगा पंतचरगा लूहचरगा समुद्राणचरगा संसहचरगा असंसचरंगा तज्जातसंसट्टचरगा दिल्लाभिया अदिहलाभिया पुलाभिया अपुलाभिया भिक्खलाभिया अभिक्खलाभिया अन्नायचरगा उचनिहिया संखादत्तिया परिमितपिंडवाझ्या सुद्धेमणिया अंताहारा पंताहारा अरसाहारा विरसाहारा ढहाहारा तुच्छाहारा अंतजीवी पंतजीवी आयंबिलिया पुरिमडिया निधिगइया अज्जमंसासिणो णो नियामरसभोई ठाणाइया पडिमाठाणाइया उकटुआसणिया णेसज्जिया वीरामणिया गंडा अप्पाउडा अगत्तया अकंडया अणिहा] (एवं जहोववाइए) धुतके समंसुरोमनहा सङ्घगायपडिकम्मविप्पमुक्का चिर्हति ॥ ते णं एतेणं विहारेण विहरमाणा बहु वासाई सामन्नपरियागं पाउणति २ हुबहु आबाहंसि उत्पन्नंसि वा अणुप्पन्नंसि वा बहुई भत्ताई पञ्चक्खन्ति पथक्वाइता बहूई भत्ताई अणसणाए छेदिति अणसणाए छेदित्ता जस्सद्वाए कीरति नग्गभावे मुंडभावे अण्हाणभावे अदंतवणगे अछत्तए अणोवाहणए भूमिसेज्जा फलगसेज्जा कहसेज्जा केसलोए बंभचेरवासे परघरपवेसे लद्वा For Parts On ~670~ ९०९६९९६६esesese २ क्रिया स्थानाच्य० धर्मपक्षव न्तः ||३३३|| Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक -], मूलं [३८], नियुक्ति: [१६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक [३८] दीप अनुक्रम [६७०] Paeseseseredaceaeeeesex वलद्धे माणावमाणणाओ हीलणाओ निंदणाओ खिंसणाओ गरहणाओ तजणाओ तालणाओ उच्चावया गामकंटगा बावीसं परीसहोवसग्गा अहियासिज्जति तमटुंआराहंति, तमटुं आराहित्ता चरमेहिं उस्सासनिस्सासहि अणतं अणुत्तरं निवाघातं निरावरणं कसिणं पडिपुण्णं केवलवरणाणदंसणं समुप्पाडेंति, समुप्पाडित्ता ततो पच्छा सिझंति वुझंति मुच्चंति परिणिद्यायंति सबदुक्खाणं अंतं करेंति ॥ एगवाए पुण एगे भयंतारोभवंति, अवरे पुण पुचकम्मावसेसेणं कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति, तंजहा-महहिएम महज्जुतिएच महापरक्कमेसु महाजसेसु महाबलेसु महाणुभावेसु महामुक्खेसुते णं तत्थ देवा भवंति महहिया महज्जुतिया जाव महासुक्खा हारविराइयवच्छा कडगतुडियधंभियभुया अंगयकुंडलमट्टगंडयलकन्नपीढधारी विचित्तहत्याभरणा विचित्तमालामउलिमउडा कल्लाणगंधपवरचत्वपरिहिया कल्लाणगपवरमल्लाणुलेवणधरा भासुरबोंदी पलंबवणमालधरा दिवेण रूपेणं विषेणं वनेणं दिवेणं गंधेणं दिवेणं फासेणं दिवेणं संघाएणं दिवेणं संठाणेणं दिवाए इडीए दिवाए जुत्तीए दिवाए पभाए दियाए छायाए दिवाए अचाए दिवेणं तेएणं दिवाए लेसाए दस दिसाओ उजोषमाणा पभासेमाणा गइकल्लाणा ठिइकल्लाणा आगमेसिभहया यावि भवंति, एस ठाणे आयरिए जाव सबदुक्खपहीणमग्गे एगंतसम्मे सुसाह । दोच्चस्स ठाणस्स धम्मपक्वस्स विभंगे एवमाहिए ॥ सूत्रं ३८॥ 88889929890888 ~671 Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक -], मूलं [३८], नियुक्ति: [१६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक [३८] दीप अनुक्रम [६७०] सूत्रकृताङ्गे अथापरस्य द्वितीयस्य स्थानस्य 'विभो' विभागः स्वरूपम् एवं' वक्ष्यमाणनीत्या व्याख्यायते, तयथा-इह खलु' क्रिया२ मुतस्क- 18| इत्यादि, प्राच्यादिषु दिक्षु मध्येऽज्यतरस्यां दिशि 'सन्ति' विद्यन्ते, ते चैवंभूता भवन्तीति, तषथा-न विद्यते सावध आरम्भो स्थानाध्य. न्धे शीला- 18| येषां ते तथा, तथा 'अपरिग्रहा' निष्किश्वनाः, धर्मेण चरन्तीति धार्मिका यावद्धर्मणैवात्मनो वृत्ति परिकल्पयन्ति, तथा 8॥ धर्मपक्षवकीयावृत्तिः 18 सुशीलाः सुव्रताः सुप्रत्यानन्दाः सुसाधवः सर्वसालपाणातिपाताद्विरता एवं यावत्परिग्रहाद्विरता इति । तथा ये चान्ये तथाप्रकाराः ॥३३॥ 18 सावधा आरम्भा याबदबोधिकारिणस्तेभ्यः सर्वेभ्योऽपि विरता इति । पुनरन्येन प्रकारेण साधुगुणान् दर्शयितुमाह-तयथा । नाम केचनोत्तमसंहननधृतिबलोपेता अनगारा भगवन्तो भवन्तीति, ते पञ्चभिः समितिभिः समिताः 'एव'मित्युपप्रदर्शने | औपपातिकमाचारागसंबन्धि प्रथममुपाङ्गं तत्र साधुगुणाः प्रबन्धेन व्यावर्ण्यन्ते तदिहापि तेनैव क्रमेण द्रष्टव्यमित्यतिदेशः। | यावद्भतम्-अपनीतं केशश्मश्रुलोमनखादिकं यैस्ते तथा, सर्वगात्रपरिकर्मविप्रमुक्ता निष्प्रतिकर्मशरीरास्तिष्ठन्तीति । ते चोप्रवि-% । हारिणः प्रव्रज्यापयोयमनुपाल्य, अबाधारूपे रोगातले समुत्पनेऽनुत्पन्ने वा भक्तप्रत्याख्यानं विदधति, किंबहुनीक्तन! यस्कूतेऽयमयोगोलकवनिरास्वाद: फरचालधारामार्गबदुरध्यवसायः श्रमणभावोऽनुपाल्यते तमर्थ-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राख्यमाराध्य अव्याहतमेकमनन्तं मोक्षकारणं केवलज्ञानमामुवन्ति, केवलज्ञानावाप्रूचं सर्वदुःखविमोक्षलक्षणं मोक्षमवानुवन्तीति । एक पुनरेकयाऽर्चया-एकेन शरीरेणैकसाता भवासिद्धिगतिं गन्तारो भवन्ति, अपरे पुनस्तथाविधपूर्वकर्माचशेपे सति तत्कर्मवशगाः कालं |3||३३४॥ कृता अन्यतमेषु वैमानिकेषु देवेतृत्पद्यन्ते तत्रेन्द्रसामानिकवायसिंशलोकपालपार्षदात्मरक्षप्रकीर्णेषु नानाविधसमृद्धिषु भवन्तीति, न[ग्रन्था०१००००] साभियोगिककिल्विपिकादिष्विति । एतदेवाह-'तंजहे'त्यापि, तबथा महादिषु देवलोकेपूरपद्यन्ते । देवास्ते eaeeeeeeeeeeeees ~672~ Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [३८] दीप अनुक्रम [६७०] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], मूलं [३८], निर्युक्ति: [ १६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - | वंभूता भवन्तीति दर्शयति- 'ते णं तत्थ देवा' इत्यादि, ते देवा नानाविधतपश्चरणोपात्तशुभकर्माणो महार्घ्यादिगुणोपेता भवन्तीत्यादिकः सामान्यगुणवर्णकः, ततो हारविराजितवक्षस इत्यादिक आभरणवस्त्रपुष्पवर्णकः पुनरतिशयापादनार्थं दिव्यरूपादिप्रतिपादनं चिकीर्षुराह - 'दिघेणं रूवेण' मित्यादि, दिवि भवं दिव्यं तेन रूपेणोपपेता यावद्दिन्यया द्रव्यलेश्ययोपपेता दशापि | दिशः समुद्योतयन्तः, तथा 'प्रभासयन्तः' अलंकुर्वन्तो 'गत्या' देवलोकरूपया कल्याणा: - शोभना गत्या वा - शीघ्ररूपया | प्रशस्तविहायोगतिरूपया वा कल्याणाः, तथा स्थित्या उत्कृष्टमध्यमया कल्याणास्ते भवन्ति, तथाऽऽगामिनि काले भद्रकाः शोभनमनुष्यभवरूपसंपदुपपेताः, तथा सद्धर्मप्रतिपत्तारथ भवन्तीति । तदेतत्स्थानमार्यमेकान्तेनैव सम्यग्भूतं सुसाध्वितीत्येतद्वितीयस्य स्थानस्य धर्मपाक्षिकस्य विभङ्ग एवमाख्यातः । अहावरे care area मीसगस्स विभंगे एवमाहिज्जइ-इह खलु पाईणं वा ४ संतेगतिया मणुस्सा भवंति, तंजा - अपिच्छा अप्पारंभा अप्पपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुधा जाव धम्मेणं चैव वित्तिं कप्पेमाor विहरति सुसीला सुइया सुपडियाणंदा साह एगचाओ पाणाइवायाओ पडिविरता जावजीवाए एगचाओ अडिविरया जाव जे यावण्णे तहष्पगारा सावजा अबोहिया कम्मता परपाण परितावणकरा कजति ततोचिएगचाओ अप्पडिविरया ॥ से जहाणामए समणोवासगा भवंति अभिगयजीवाजीवा उवलayurपाचा आसवसंवरवेयणाणिज्जराकिरियाहिगरणबंधमोक्खकुसला असहेज्जदेवासुरनागसुवण्णजक्खरक्खसकिंन्नरकिंपु रिसगरुलगंधवमहोरगाइएहिं देवगणेहिं निग्गंथाओ पावयणाओ अणइक्कमणिजा Internationa For Park Use Only ~673~ wor Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३९], नियुक्ति: [१६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक सूत्रकृताओं २ श्रुतस्कन्धे शीलाकीयावृत्तिः ॥३३५॥ २ क्रियास्थानाध्य मिश्रे धर्मपक्षे श्रावकव० . [३९] दीप अनुक्रम [६७१] इणमेव निग्गंधे पावयणे णिस्संकिया णिकरिखया निवितिगिच्छा लट्ठा गहियट्ठा पुच्छियट्ठा विणिच्छियट्ठा अभिगयट्ठा अहिमिंजपेम्माणुरागरत्ता अयमाउसो! निग्गंथे पावयणे अट्टे अयं परमट्टे सेसे अणढे उसियफलिहा अचंगुयदुवारा अचियत्तंतेउरपरघरपवेसा चाउद्दसहमुद्दिवपुषिणमासिणीसु पडिपुन्नं पोसहं सम्म अणुपालेमाणा समणे निग्गंध फासुएसणिजेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थपटिग्गहकंघलपायपुंछणेणं ओसहभेसजेणं पीठफलगसेज्जासंथारएणं पडिलाभेमाणा बहहिं सीलचयगुणवेरमणपञ्चक्खाणपोसहोववासेहिं अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावमाणा विहरंति ॥ ते णं एपारवेणं विहारेणं विहरमाणा यहई वासाई समणोबासगपरियागं पाउणंति पाउणित्ता आवाहंसि उप्पन्नसि वा अणुप्पन्नंसि वा बहुई भत्ताई पञ्चक्खायंति बहई भत्ताई पञ्चक्खाएत्ता बहई भत्ताई अणसणाए छेदेन्ति पहुई भत्ताई अणसणाए छेत्ता आलोइयपडिकंता समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवलोएसु देवसाए उबवत्तारो भवंति, तंजहा-महड्डिएमु महज्जुइएसु जाव महामुक्वेसु सेसं तहेव जाच एस ठाणे आयरिए जाव एगंतसम्म साह । तच्चस्स ठाणस्स मिस्सगस्स विभंगे एवं आहिए ॥ अविरई पहुच बाले आहिजइ, विरई पडुच्च पंडिए आहिजइ, विरयाविरई पडुच्च बालपंडिए आहिजइ, तत्थ णं जा सा सवतो अविरई एस ठाणे आरंभट्ठाणे अणारिए जाव असबदुवप्पहीणमग्गे एगंतमिच्छे असाह, तत्थ णं जा सा सवतो चिरई एस ठाणे अणारंभट्ठाणे आरिप जाव सबदुवप्पहीणमग्गे एगंतसम्म साह, तस्थ ॥३३५॥ ce ~674~ Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [३९] दीप अनुक्रम [६७१] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], मूलं [३९], निर्युक्ति: [ १६८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - जा सा सबओ विरयाविरई एस ठाणे आरंभणोआरंभट्टाणे एस ठाणे आरिए जाव सङ्घदुक्खप्पहीणमरगे एतसम्म साहू ॥ सूत्रं ३९ ॥ अथपरस्य तृतीयस्य स्थानस्य मिश्रकाख्यस्य विभङ्गः समाख्यायते - एतच्च यद्यपि मिश्रखाद्धर्माधर्माभ्यामुपेतं तथापि धर्मभूयिष्ठखाद्धार्मिकपक्ष एवावतरति, तद्यथा— बहुपु गुणेषु मध्यपतितो दोषो नात्मानं लभते कलङ्क इव चन्द्रिकायाः, | तथा बहूदकमध्यपतितो मृच्छकलावयवो नोदकं कल्पयितुमलम् एवमधर्मोऽपि धर्ममिति स्थितं धार्मिकपक्ष एवायं । 'इह' अस्मिन् जगति प्राच्यादिषु दिक्षु एके केचन शुभकर्माणो मनुष्या भवन्तीति, तद्यथा— अल्पा—स्तोका परिग्रहारम्भेष्वि|च्छा - अन्तःकरणप्रवृत्तिर्येषां ते तथा एवंभूता धार्मिकवृत्तयः प्रायः सुशीलाः सुत्रताः सुप्रत्यानन्दाः साधवो भवन्तीति । तथैकस्मात्-स्थूलात्संकल्पकृतात् प्रतिनिवृत्ता एकसाथ सूक्ष्मादारम्भजादप्रतिनिवृत्ता एवं शेषाण्यपि प्रतानि संयोज्यानीति । एतसादपि सामान्येन निष्टता इत्यतिदिशन्नाह 'जे यावण्णे' इत्यादि, ये चान्ये सावद्या नरकादिगमनहेतवः कर्मसमारम्भास्तेभ्य एकस्साद्यत्रपीडननिर्लाञ्छन कृषीवलादेर्निवृत्ता एकस्माच्च क्रयविक्रयादेरनिट्टत्ता इति ॥ तां विशेषतो दर्शयितुमाह - विशिष्टोपदेशार्थं श्रमणानुपासते – सेवन्त इति श्रमणोपासकाः ते च श्रमणोपासनतोऽभिगतजीवाजीवस्वभावाः तथो|पलब्धपुण्यपापाः । इह च प्रायः सूत्रादर्थेषु नानाविधानि सूत्राणि दृश्यन्ते न च टीकासंवाद्येकोऽप्यस्माभिरादर्शः समुप| लब्धोऽत एकमादर्शमङ्गीकृत्यासाभिर्विवरणं क्रियते इत्येतदवगम्य सूत्रविसंवाददर्शनाचिव्यामोहो न विधेय इति । ते श्रा वकाः परिज्ञातबन्धमोक्षखरूपाः सन्तो न धर्मास्याम्यन्ते मेरुरिव निष्प्रकम्पा दृढमार्हते दर्शनेऽनुरक्ताः । अत्र चार्थे सुखप्रतिप Education International For Parts Only ~675~ Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [३९] दीप अनुक्रम [६७१] सूत्रकृताने २ श्रुतस्क न्धे शीलाकीयावृत्तिः ॥३३६ ॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र -२ ( मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-], मूलं [३९], निर्युक्ति: [१६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः त्यर्थं दृष्टान्तभूतं कथानकं तच्चेदं तद्यथा- राजगृहे नगरे कश्विदेकः परिवाद विद्यामन्त्रौषधिलब्धसामर्थ्यः परिवसति, स च विद्यादिवलेन पत्तने पर्यटन यां यामभिरूपतरामङ्गनां पश्यति तां तामपहरति, ततः सर्वनागरै राज्ञे निवेदितं यथा देव ! प्रत्यहं पत्तनं मुष्यते केनापि, नीयते सर्वसारमङ्गनाजनोऽपि, यस्तस्यानभिमतः सोऽत्र केवलमास्ते, तदेवं (देव ! ) क्रियतां प्रसादस्तद म्वेषणेनेति । राज्ञाऽभिहितं गच्छत यूयं विश्रब्धा भवत अवश्यमहं तं दुरात्मानं लप्स्ये किंच – यदि पञ्चषैरहोभिर्न लभे चौरं वि मर्शयुक्तोऽपि च त्वक्ष्याम्यात्मानमहं ज्वालामालाकुले वहाँ, तदेवं कृतप्रतिज्ञं राजानं प्रणम्य निर्गता नागरिकाः राज्ञा च सचि| शेषं नियुक्ता आरक्षकाः । आत्मनाऽप्येका की खगखेटकसमेतोऽन्वेष्टुमारब्धः, न चोपलभ्यते चौरः, ततो राज्ञा निपुणतरमन्वेषयता पञ्चमेऽहनि भोजन ताम्बूलगन्धमाल्यादिकं गृहन् रात्रौ स्वतो निर्गतेनोपलब्धः स परिवाद, तत्पृष्ठगामिना नगरोद्यानवृक्षको प्र| वेशेन गुहाभ्यन्तरं प्रविश्य व्यापादितः, तदनन्तरं समर्पितं यद्यस्य सत्कमङ्गनाजनोऽपीति । तत्र चैका सीमन्तिनी अत्यन्तमौष| धिभिर्भाविता नेच्छत्यात्मीयमपि भर्तारं ततस्तद्विद्भिरभिहितं यथाऽस्याः परिव्राट्सत्कान्यस्थीनि दुग्धेन सह संवृष्य यदि दीयन्ते तदेयं तदाग्रहं मुञ्चति ततस्तत्स्वजनैरेवमेव कृतं यथा यथा चासौ तदस्थ्यभ्यवहारं विधत्ते तथा तथा तत्स्नेहानुबन्धोऽपैति, सर्वास्थिपाने चापगतः प्रेमानुबन्धः, तदनु रक्ता निजे भर्तरि । तदेवं यथाऽसावत्यन्तं भाविता तेन परित्राजा नेच्छत्यपरम् एवं श्रावकजनोऽपि नितरां भावितात्मा मौनीन्द्रशासने न शक्यते अन्यथाकर्तुम्, अत्यन्तं सम्यक्लोपधेन वासितत्वादिति । पुनरपि | श्रावकान् विशिनष्टि- 'जाव उसियफलिहा' इत्यादि, उच्छ्रितानि स्फटिकानीव स्फटिकानि - अन्तःकरणानि येषां ते तथा, एतदुक्तं भवति — मौनीन्द्रदर्शनावाप्तौ सत्यां परितुष्टमानसा इति, तथा अप्रावृतानि द्वाराणि यैस्ते तथा उद्घाटितगृहद्वारास्तिष्ठन्ति Education International For Parts Only ~676~ १२ क्रिया स्थानाध्य० मिश्र धर्मपक्षे श्राव कव० ॥३३६॥ wor Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३९], नियुक्ति: [१६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक [३९] दीप अनुक्रम [६७१] अचियत्तः-अनभिमतोऽन्तःपुरप्रवेशवत्परगृहद्वारप्रवेशोऽन्यतीर्थिकप्रवेशो येषां ते तथा, अनवरतं श्रमणानुयुक्तविहारिणो निम्रन्थान् प्रामुकेनपणीयेनाशनादिना तथा पीठफलकशय्यासंस्तारकादिना च प्रतिलाभयंतः तथा बहूनि वर्षाणि शीलवतगुण व्रतप्रत्याख्यानपौषधोपवासरात्मानं भावयन्तस्तिष्ठन्ति ॥ तदेवं ते परमश्रावकाः प्रभूतकालमणुवतगुणव्रतशिक्षात्रतानुष्ठायिनः 8 साधूनामौषधवखपात्रादिनोपकारिणः सन्तो यथोक्तं यथाशक्ति सदनुष्ठानं विधायोत्पन्ने वा कारणेऽनुत्पन्ने वा भक्तं प्रत्याख्या |यालोचितप्रतिक्रान्ताः समाधिप्राप्ताः सन्तः कालमासे कालं कलाऽभ्यतरेषु देवेषुत्पद्यन्त इति । एतानि चाभिगतजीवाजीवादिR| कानि पदानि हेतुहेतुमदावेन नेतण्यानि, तद्यथा-यस्मादभिगतजीवाजीवास्तसादुपलब्धपुण्यपापाः, यसादुपलब्धपुण्यपापास्त सादुच्छ्रितमनसः, एवमुत्तरत्रापि एकैकं पदं त्यजद्भिरेकैकं चोत्तरं गृहद्भिर्वाच्य, ते च परेण पृष्टा अपृष्टा वा एतदूचुः, तद्यथाअयमेव मौनीन्द्रोक्तो मार्गः सदर्थः शेषस्वनों, यस्मादेवं प्रतिपद्यन्ते तसाचे समुच्छ्रितमनसः सन्तः साधुधर्म श्रावकधर्म च प्रकाशयन्तो विशेषेणैकादशोपासकप्रतिमाः स्पृशन्तो बिहरन्तोऽष्टमीचतुर्दश्यादिषु पौषधोपवासादी साधून प्रासुकेन प्रतिलाभयन्ति, पाचात्ये च काले संलिखितकायाः संस्तारकश्रमणभावं प्रतिपद्य भक्तं प्रत्याख्यायायुषः क्षये देवेधूत्पबन्ते । ततोऽपि च्युताः सुमानुपमा प्रतिपय तेनैव भवेनोत्कृष्टतः सप्तखष्टसु वा भवेषु सिध्यन्तीति । तदेतत्स्थान कल्याणपरम्परया सुखविपाकमितिकृसायमिति । अयं विभङ्गस्तृतीयस्य स्थानस्य मिश्रकारूपस्याख्यात इति ॥ उक्ता धार्मिकाः, अधार्मिकास्तदुभयरू पाश्चाभिहिताः, साम्प्रतमेतदेव स्थानत्रिकमुपसंहारद्वारेण संक्षेपतो विभणिषुराह-येयमविरतिः-असंयमरूपा सम्यक्त्वाभावा18|न्मिध्यादृष्टे व्यतो विरतिरप्यविरतिरेव तां प्रतीत्य-आश्रित्य बालबद्वाल:-अज्ञः सदसद्विवेकविकलखात इत्येवम् 'आधीयते' sekeepeserverceneusercececeoes 2Remesese ~677~ Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [३९], नियुक्ति: [१६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः क्रियाथानाध्य० प्रत सूत्रांक [३९] सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्कन्धे शीलाद्वीयावृत्तिः ॥३३७ दीप अनुक्रम [६७१] व्यवस्थाप्यते आख्यायते चा, तथा विरतिं च 'प्रतीत्य आश्रित्य पापाडीनः पण्डितः परमार्थशो वेत्येवमाधीयते आख्यायते वा, तथा विरताविरतिं चाथित्य बालपण्डित इत्येतत्वाग्वदायोग्यमिति । किमित्यविरति (विरताविरति) विरत्याश्रेयण (काल) बाल- पाण्डिस्यपाण्डित्यापत्तिरित्याशवाह-'तस्थ ण' मित्यादि, 'तत्र' पूर्वोकेषु स्थानेषु येयं 'सर्वात्मना सर्वस्मात् 'अविरति विरतिपरिणामाभावः एतत्स्थानं सावद्यारम्भस्थानमाश्रय एतदाश्रित्य सर्वांण्यकार्याणि क्रियन्ते, यत एवमत एतदनार्य स्थान लि:-18 | शूकतया यत्किञ्चनकारिखाचावदसर्वदुःखप्रक्षीणमार्गोऽयं तथैकान्तमिध्यारूपोऽसाधुरिति । तत्र च येयं 'विरतिः' सम्यक्सपूर्विका सावद्यारम्भानिवृत्तिः सा स्थगितद्वारखान पापानुपादानरूपेति, एतदेवाह-तदेतत्स्थानम् अनारम्भखान-सावद्यानुष्ठानरहितला संयमस्थानं, तथा चैतत्स्थानमार्यस्थानम् आराद्यातं सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यार्य तथा सर्वदुःखप्रक्षीणमार्ग:-अशेषकर्मक्षयपथ इति, त्यिकान्तसम्यग्भूतः, एतदेवाह-'साधु रिति, साधुभूतानुष्ठानात्साधुरिति । तत्र च येयं (विरता) विरतिरभिधीयते सैपा मिश्र-11 | स्थानभूता, तदेतदारम्भानारम्भरूपस्थानम् , एतदपि कथश्चिदायमेव, पारम्पर्येण सर्वदुःखप्रक्षीणमार्गः, तथैकान्तसम्पग्भूतः साधु-1 अति । तदेवमनेकविधोऽयमधर्मपक्षो धर्मपक्षस्तथा मिश्रपक्षश्चेति संक्षेपेणाभिहितः पक्षत्रयसमाश्रयणेन ।। साम्प्रतमसावपि मिश्रपक्षो। धर्माधर्मसमाश्रयणेनानयोरन्तर्वती भवतीति दर्शयतिएवमेव समणुगम्ममाणा इमेहिं व दोहि ठाणेहिं समोअरंति, तंजहा-धम्मे चेच अधम्मे येव उपसंते चेव अणुवसंते येव, तत्थ णं जे से पढमस्स ठाणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिए, तत्थ णं इमाई तिग्नि तेवढाई पावाद्यसयाई भवतीति मक्खायाई (यं), तंजहा-किरियावाईणं अकिरियावाईणं अन्ना ॥३३७॥ ~678~ Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [४०], नियुक्ति: [१६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः S प्रत सूत्रांक [४०] दीप अनुक्रम [६७२] णियवाईणं वेणइयवाइणं, तेवि परिनिवाणमासु, तेऽवि मोक्खमाहंसु तेऽवि लवंति, सावगा! तेऽवि लवंति सावइत्तारो ॥ सूत्रम् ४०॥ 'एवमेव' संक्षेपेण 'सम्यगनुगम्यमाना' व्याख्यायमानाः सम्यगनुगृह्यमाणाः 'अनयोरेव' धर्माधर्मस्थानयोरनुपतन्ति । किमिति , यतो यदुपशान्तस्थानं तद्धर्मपक्षस्थानमनुपशान्तस्थानमधर्मपक्षस्थानमिति । तत्र च यदधर्मपाक्षिकं प्रथम स्थानं तत्रामूनि त्रीणि त्रिपश्यधिकानि प्रावादुकशतान्यन्तर्भवन्तीत्येवमाख्यातं पूर्वाचायरिति । एतानि च सामान्येन दर्शयितुमाह'जहे त्यादि, तद्यथेत्युपदर्शनार्थः क्रियां-ज्ञानादिरहितामेकामेव स्वर्गापवर्गसाधनलेन वदितुं शीलं येषां ते क्रियावादिनः, ते च दीक्षात एव मोक्षं बदन्तीत्येवमादयो द्रष्टव्या इति, तेषां च बहवो भेदाः, तथा अक्रियां परलोकसाधनखेन वदितुं शील येषां ते तथा तेषामिति, अज्ञानमेव श्रेयः इत्येवं वदितुं शीलं येषां ते भवन्त्यज्ञानवादिनस्तेषां, तथा विनय एव परलोकसाधने प्रधानं कारणं येषां ते तथा तेषामिति । अत्र च सर्वत्र षष्ठीबहुवचनेनेदमाह, तद्यथा-क्रियावादिनामशीत्युत्तरं शतं अक्रियावादिनां चतुरशीतिरज्ञानिकानां सप्तपष्टिीनयिकानां द्वात्रिंशदिति । तत्र च सर्वेऽप्येते मौलास्तच्छिष्याच प्रवदनशीलवात्प्रावा- 10 दुकाः, तेषां च भेदसंख्यापरिज्ञानोपाय आचार एवाभिहित इति नेह प्रतन्यते । ते सर्वेऽप्याहता इव परिनिर्वाणम्-अशेष-8 द्वन्द्वोपरमरूपमवर्णगन्धरसस्पर्शखभावमनुपचरितपरमार्थस्थानं ब्रह्मपदाख्यमवाधात्मक परमानन्दसुखस्वरूपमाहुः-उक्तवन्तः, तथा तेऽपि प्रावादुकाः संसारबन्धनान्मोचनात्मकं मोक्षमाहुः, पूर्वेण निरुपाधिकं कायेंमेव निर्वाणाख्यमुक्तम् , अनेन तु तदेव कारणोपाधिकमित्ययं विशेषः । तत्र येषामप्यात्मा नास्ति ज्ञानसन्ततिवादिनां तेषामपि कर्मसंततेः संसारनिबन्धन ताया विच्छे 200000 ~679~ Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [४०], नियुक्ति: [१६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः २ क्रियास्थानाध्य. प्रत सूत्रांक [४०] दीप अनुक्रम [६७२] सूत्रकृताङ्गे शदान्मोक्षभावाविरोधः, तेषां चोपादानक्षयादनागतानुत्पत्तेः संततिच्छेद एव मोक्षः, प्रदीपस्पेव तैलवयभावे निर्वाणमिति, २ श्रुतस्क- तथा चाहु:-"न तस्य किश्चिद्भवति, न भवत्येव केवल'मिति । एतच तेषां महामोह विजृम्भित, यत:-"कर्म चास्ति फलं चास्ति, न्धे शीला- कर्ता नैवास्ति कर्मणाम् । संसारमोक्षवादिलमहो ध्यान्ध्यविजृम्भितम् ॥ १॥” इति । येषां चात्माऽस्ति सांख्यादीनां तेषां प्रककीयावृत्तिः18 तिविकारवियोगो मोक्षः, क्षेत्रज्ञस्य पञ्चविंशतितत्त्वपरिज्ञानादेव विद्यमानः प्रधानविकारविमोचनं मोक्ष इति, तेषामप्येकान्तनित्य॥३३८॥ वादितया मोक्षाभावः। एवमन्येऽपि नैयायिकवैशेषिकादयः संसाराभावमिच्छन्तोऽपि न मुच्यन्ते, सम्यग्दर्शनादिकस्योपायस्याभावाद , इत्यभ्यूधाह-यदि न तेषां मोक्षः कथं ते लोकस्योपास्या भवन्तीत्याशवाह-'तेऽपि' तीथिका लपन्ति' पवते, मोध प्रति धर्मदेशनां विदधति, शृण्वन्तीति श्रावकाः हे श्रावका! एवं गृहीत यूयं यथाऽहं देशयामि, तथा तेपि धर्मश्रावयितारः1 सन्त एवं 'लपन्ति' भाषन्ते यथाऽनेनोपायेन खर्गमोक्षावाप्तिरिति तद्वचनं मिथ्यात्वोपहतबुद्धयोऽवितथमेव गृहन्ति, कूटपण्य| दायिनां विपर्यस्तमतय इवेति । तदेवमादितीथिकास्तच्छिष्याश्च पारम्पर्येण मिथ्यादर्शनानुभावात्परान्प्रतारयन्ति, तेऽपि च तेषां प्रतीयन्ति, आह-कथमेते प्रावादुका मिथ्यावादिनो भवन्तीति?, अत्रोच्यते, यतस्तेऽप्यहिंसां प्रतिपादयन्ति न च तां प्रधानमो क्षाभूतां सम्यगनुतिष्ठन्ति, कथम् ?, सांख्यानां तावज्ज्ञानादेव धर्मो न तेपामहिंसा प्राधान्येन व्यवस्थिता, किंतु पञ्च यमा || इत्यादिको विशेष इति । तथा शाक्यानामपि दश कुशला धर्मपथा अहिंसापि तत्रोक्ता, न तु सैव गरीयसी धर्मसाधनखेन तेराश्रिता । वैशेषिकाणामपि अभिसेचनोपवासब्रह्मचर्यगुरुकुलवासप्रस्थादानयज्ञादिनक्षत्रमन्त्रकालनियमा दृष्टाः' तेषु चाभिषेचनादिषु १ ज्ञानसताना क्षणपरम्परकस वा २ शान सन्तानान्यभागरूपं ३ हेतुत्वापेक्षा तृतीया, हेतुत्वं च मोक्षस्य तदविनामावित्यात ४ प्रस्थान प्रस्थादग. ॥३३८॥ ~680~ Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [४०] दीप अनुक्रम [६७२] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र -२ ( मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-] मूलं [४०], निर्युक्ति: [ १६८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः पर्यालोच्यमानेषु हिंसव संपद्यते । वैदिकानां च हिंसेब गरीयसी धर्मसाधनं, यज्ञोपदेशात्, तस्य च तयाऽविनाभावादित्यभिप्रायः, उक्तं च- "ध्रुवः प्राणिवधो यज्ञे० " || तदेवं सर्वप्रावादुका मोक्षाङ्गभूतामहिंसां न प्राधान्येन प्रतिपद्यन्त इति दर्शयितुमाहते सधे पावाडया आदिकरा धम्माणं णाणापन्ना णाणाछंदा णाणासीला णाणादिट्ठी णाणारुई णाणारंभा नाणावसाणसंजुत्ता एवं महं मंडलिबंध किया सत्रे एगओ चिति ॥ पुरिसे य सागणियाणं इंगाला पाई बहुपडिनं अओमएणं संडासरणं गहाय ते सत्रे पावाउए आइगरे धम्माणं णाणापन्ने जाव णाणाज्झवसाणसंजुते एवं वयासी-हंभो पावाडया ! आइगरा धम्माणं णाणापन्ना जाव णाणाअज्झमाणसंजुत्ता ! इमं ताव तुभे सागणियाणं इंगालाणं पाई बहुपडिपुन्नं गहाय मुहुत्तयं मुहुत्तगं पाणिणा धरेह, णो बहुसंडासगं संसारियं कुज्जा णो बहुअग्गियंभणियं कुजा णो बहु साहम्मियवेयावडियं कुजा णो बहुपरधम्मियवेद्यावडियं कुजा उज्जुया णियागपडिवन्ना अमायं कुछमाणा पाणि पसारेह, इति बुचा से पुरिसे तेसिं पावादुयाणं तं सागणियाणं इंगालाणं पाई बहुपडिनं अओमएणं संडासपूर्ण गहाय पाणिस णिसिरति, तए णं ते पावादुया आइगरा धम्माणं णाणापन्ना जाव णाणाज्झवसाणसंजुत्ता पाणि पडिसाहरंति, तप णं से पुरिसे ते सधे पावाउए आदिगरे धम्माणं जाव णाणाज्झवसाणसंजुत्ते एवं वयासी हंभो पावादुया ! आइगरा धम्माणं णाणापन्ना जाव णाणाज्झवसाणसंजुत्ता ! कम्हा णं तुन्भे Education internationa For Parts Only ~681~ yor Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [४१] दीप अनुक्रम [६७३] सूत्रकृताक्रे २ श्रुतस्क न्धे शीलाडीयावृतिः ||३३९॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र -२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-] मूलं [४१], निर्युक्ति: [ १६८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः Education International पाणि पडिसाहरह ?, पाणि नो डहिजा, दड्ढे किं भविस्सद ?, दुक्खं दुक्खति मन्नमाणा पडिसाहरह, एस तुला एस पमाणे एस समोसरणे, पत्तेयं तुला पत्तेयं पमाणे पत्तेयं समोसरणे, तत्थ णं जे ते समणा माहणा एवमातिक्वंति जान पति सङ्के पाणा जाब सबै सत्ता हतचा अज्जावेयवा परिधेतवा परितावेया किलामेतवा उद्दवेतवा, ते आगंतुछेयाए ते आगंतुर्भयाए जाव ते आगंतुजाइजरामरणजोणिजम्मणसंसारपुणग्भवगग्भवासभवपर्वचकलंकलीभागिणो भविस्संति, ते बहूणं दंडणाणं बहूणं मुंडणाणं तजणाणं तालणाणं अंदुबंधणाणं जाव घोलणाणं माइमरणाणं पिझ्मरणाणं भाइमरणाणं भगिणीमरणाणं भजापुत्तधूत सुहामरणाणं दारिदाणं दोहग्गाणं अप्पियसंवासाणं पियविप्पओगाणं बहूणं दुक्खदोम्मणस्साणं आभागिणो भविस्संति, अणादियं च णं अणवयरगं दीहम चाउरंत संसारकंतारं भुज्जो भुजो अणुपरियहिस्संति, ते णो सिझिस्संति णो बुझिरसंति जाव णो सङ्घदुक्खाणं अंतं करिस्संति, एस तुला एस पमाणे एस समोसरणे पत्तेयं तुला पत्तेयं पमाणे पत्तेयं समोसरणे ॥ तत्थ णं जे ते समणा माहणा एवमाक्वति जाय परूवेंति-सवे पाणा सबै भूया सवे जीवा सबै सत्ता ण तवा ण अज्जावेवाण परिघेवाण उवेयवा ते णो आगंतुछेयाए ते णो आगंतुभ्याए जाव जाइजरामरणजोणिजम्मणसंसारपुणन्भवगन्भवासभवपर्वच कलंकली भागिणो भविस्संति, ते णो बहूणं दंडणाणं जाव णो बहूणं मुंडणाणं जाव बहूणं दुक्खदोम्मणस्साणं णो भागिणो भविस्संति, अणादियं च णं अणवयग्गं For Penal Use On ~682~ २ क्रियास्थानाध्य० ॥३३९॥ Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [४१] दीप अनुक्रम [६७३] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र -२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [-] मूलं [४१], निर्युक्ति: [ १६८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः दीहमद्धं चाउरंतसंसारकंतारं भुजो भुजो णो अणुपरियहिस्संति, ते सिज्झिस्संति जाव दुखणं अंत करिस्सति || (सू ४१) ।। प्रवदनशीलाः प्रायादुकाः 'सर्वेऽपि ते' त्रिपश्युत्तरत्रिशतपरिमाणा अपि आदिकरा यथाखं धर्माणां, येऽपि च तच्छिष्यास्तेऽपि सर्वे नाना- भिन्ना प्रज्ञा-ज्ञानं येषां ते नानाप्रज्ञाः, आदिकरा इत्यनेनेदमाह-स्वरुचिविरचितास्ते न खनादिप्रवाहायाताः, ननु चाहतानामपि आदिखविशेषणमस्त्येव, सत्यमस्ति, किंतु अनादिहेतुपरम्परेत्यनादिखमेव, तेषां च सर्वज्ञप्रणीतागमानाश्रयणात्रिबन्धनाभावः तदभावाच्च भिन्नं परिज्ञानम्, अत एव नानाछन्दाः, छन्दः - अभिप्रायः, भिन्नाभिप्राया इत्यर्थः तथाहि उत्पादव्ययाव्यात्मके वस्तुनि सांख्यैरेकान्तेनाविर्भावति रोभावाश्रयणादन्वयिनमेव पदार्थ सत्यत्वेनाश्रित्य नित्यपक्षं (ते) समाश्रिता:, तथा | शाक्या अत्यन्तक्षणिकेषु पूर्वोत्तरभिन्नेषु पदार्थेषु सत्सु स एवायमिति प्रत्यभिज्ञाप्रत्ययः सदृशापरापरोत्पत्तिविप्रलब्धानां भवती| त्येतत्पक्षसमाश्रयणादनित्यपक्षं समाश्रिता इति । तथा नैयायिकवैशेषिकाः केषाञ्चिदाकाशपरमाण्यात्मादीनामेकान्तेन नित्यलमेव कार्यद्रव्याणां च घटपटादीनामेकान्तेनानित्यत्वमेवाश्रिताः । एवमनया दिशाऽन्येऽपि मीमांसकतापसादयोऽभ्यूद्या इति तथा ते तीर्थिका नाना शीलं येषां ते तथा, शीलं व्रतविशेषः, स च भिन्नस्तेषामनुभवसिद्ध एव । तथा नाना दृष्टि:- दर्शनं येषां ते तथा, तथा नाना रुचियेषां ते नानारुचयः, तथा नानारूपमध्यवसानम्-अन्तःकरणप्रवृत्तिर्येषां ते तथा, इदमुक्तं भवति - अहिंसाऽत्र प्रधानं धर्माङ्ग, सा च तेषां नानाभिप्रायखादविकललेन न व्यवस्थिता । तस्या एव सूत्रकारः प्राधान्यं दर्शयितुमाह-ते सर्वेऽपि प्रावादुका यथास्वपक्षमाश्रिता एकत्र प्रदेशे संयुता मंडलिन्यमाधाय तिष्ठन्ति तेषां Education International For Park Use Only ~683~ Mandrary org Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [४१], नियुक्ति: [१६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक [४१] नावानAAA.SAAR सूत्रकृताङ्गेचचं व्यवस्थितानामेकः कश्चित्पुरुषस्तेषां संवित्यर्थ ज्वलतामगाराणां प्रतिपूर्णा पात्रीम-अयोमयं भाजनमयोमयेनैव २ क्रिया | संदंशकेन गृहीखा तेषां ढोकितवान्, उवाच च तान् यथा-भोः प्रावादुकाः ! पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टा इदमकारभृतं स्थानाध्य. न्धे शोला- भाजनमेकैकं मुहूर्त प्रत्येकं बिभृत यूयं, न चेदं (ह) संदंशकं सांसारिकं नापि चाग्निस्तम्भनं विदध्युः नापि च साधर्मिकान्यधार्मिकाणाकीयावृत्तिः 18 मनिदाहोपशमादिनोपकार कुयुरिति, 'ऋजयो मायामकुर्वाणाः पाणिं प्रसारयत, तेऽपि च तथैव कुयुः, ततोऽसौ पुरुषः ॥३४॥ तद्भाजनं पाणी समर्पयति, तेऽपि च दाहशङ्कया हस्तं सङ्कोचयेयुरिति, ततोऽसौ तानुवाच-किमिति पाणिं प्रतिसंहरत यूयं, एवमभिहितास्ते ऊचुः-दाहमयादिति, एतदुक्तं भवति-अवश्यमग्निदाहभयान कविदयभिमुखं पाणिं ददातीत्येतत्परोऽयं । & दृष्टान्तः । पाणिना दग्धेनापि किं भवतां भविष्यतीति ?, दुःखमिति चेयद्येवं भवन्तो दाहापादितदुःखभीरवः सुखलिप्सवः, 18॥ तदेवं सति सर्वेऽपि जन्तवः संसारोदरविवरवर्तिन एवंभूता एवेत्येवम् 'आत्मतुलया' आत्मौपम्येन यथा मम नाभिमतं दुःख| मिस्येवं सर्वजन्तूनामित्यवगम्याहिंसैव प्राधान्येनाश्रयणीया, 'तदेतत्ममाणं' सैषा युक्तिः 'आत्मवत्सर्वभूतानि, यः पश्यति स 8 पश्यति । तदेतत् समवसरणं स एव धर्मविचारो यत्राहिंसा संपूर्णा तत्रैव परमार्थतो धर्मः, इत्येवं व्यवस्थिते तत्र ये केचनावि-18 || दिवपरमार्थाः श्रमणब्राह्मणादयः 'एवं वक्ष्यमाणमाचक्षते परेषामात्मदान्धोत्पादनायैवं भाषन्ते तथैवमेव धर्म 'प्रज्ञापयन्ति | IS व्यवस्थापयन्ति, तथा अनेन प्राण्युपतापकारिणा प्रकारेण परेषां धर्म 'प्ररूपयन्ति' व्याचक्षते, तद्यथा-'सर्वे प्राणा' इत्यादि, ॥३४०॥ यावद्धन्तच्या दण्डादिभिः परितापयितच्या धर्मार्थमरघट्टादिवहनादिभिः परिग्राह्या विशिष्टकाले श्राद्धादी रोहितमत्स्यादय इव तथाऽपद्रावयितव्या देवतायागादिनिमित्तं वस्तादय इवेत्येवं ये श्रमणादयः प्राणिनामुपतापकारिणी भाषां भाषन्ते (ते) आगामिनि, 30093e220060030 दीप अनुक्रम [६७३] ~684~ Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [४१], नियुक्ति: [१६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक [४१] दीप अनुक्रम [६७३] eaceaeneweceeseseaonetiserses कालेज्नेकशी बहुशः खशरीरच्छेदाय मेदाय च भापन्ते, तथा ते सावद्यभाषिणो भविष्यति काले जातिजरामरणानि बहुनि प्रामुवन्ति । योन्यां जन्म योनिजन्म तदनेकशो गर्भव्युत्क्रान्तजावस्थायां प्राप्नुवन्ति, तथा संसारप्रपश्चान्तर्गतास्तेजोवायुपूधैर्गोत्रो| दुलनेन कलकलीभावभाजो भवन्ति बहुशो भविष्यन्ति च, तथा ते बहूनां दण्डादीनां शारीराणां दुःखानामात्मानं भाजनं कुर्वन्ति, तथा ते निर्विवेका मानवधादीनां मानसानां दुःखानां तथाऽन्येषामप्रियसंप्रयोगार्थनाशादिभिर्दुःखदोमनस्यानामाभागिनो भविष्यन्तीति । किंबहुनोक्तेन ?, उपसंहारव्याजेन गुरुतरमनर्थसंबन्धं दर्शयितुमाह-'अणादियं' इत्यादि, नास्यादि- रस्तीत्यनादि:--संसार, तदनेनेदमुक्तं भवति यत्कश्चिदभिहितं यथाज्यमण्डकादिक्रमेणोत्पादित इत्येतदपास्तं, न विद्यतेऽवद-18 -पर्यन्तो यस्ख सोऽयमनवदनोऽपर्यन्त इत्यर्थः, तदनेनेदमुक्तं भवति-यदुक्तं कैश्चिद्यथा प्रलयकालेऽशेपसागरजलप्लावनं द्वादशा|दित्योद्गमेन चात्यन्तदाह इत्यादिकं सर्व मिथ्येति, 'दीर्घ' मित्यनन्तपुद्गलपरावर्तरूपकालावस्थान, तथा चत्वारोऽन्ता-गतयो यस्य स तथा, चातुर्गतिक इत्यर्थः, तत्संसार एवं कान्तार: संसारकान्तारो, निर्जल: समयसागरहितोऽरण्यप्रदेशः कान्तार इति । | तदेवंभूतं 'भूयो भूयः' पौन:पुन्येनानुपरिवर्तिष्यन्ते-अरहट्टघटीन्यायेन तत्रैव भ्रमन्तः स्थास्वन्तीति, अत एवाह-यतस्ते प्राणिनां हन्तारः, कुत एतदिति चेत्सावयोपदेशाद् , एतदपि कथमिति चेदन्ततः आदेशिकादिपरिभोगानुज्ञयेत्येवमवगन्तव्यमित्यतस्ते कुप्रावचनिका नैव सेत्स्यन्ति-नैव ते लोकाग्रस्थानमाक्रमिष्यन्ति, तथा न ते सर्वपदार्थान् केवलज्ञानावास्या भोत्स्यन्ते, अनेन ज्ञानातिशयाभावमाह, तथा न तेऽष्टप्रकारेण कर्मणा मोक्ष्यन्ते, अनेनाप्यसिद्धेरकैवल्यावाप्तेच कारणमाह, तथा परिनितिः परिनिर्वाण-आनन्दसुखावाप्तिस्तां ते नैव प्राप्स्यन्ते, अनेनापि सुखातिशयाभावः प्रदर्शितो भवतीति, तथा नेते शारीरमानसानां ~685~ Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [४१], नियुक्ति: [१६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक [४१] धेशीला दीप अनुक्रम [६७३] सूत्रकृताङ्गे18 दुःखानामात्यन्तिकमन्तं करिष्यन्तीत्यनेनाप्यपायर्यातिशयाभावः प्रदर्शितो भवति । एषा तुला तदेतदुपमानं यथा सावद्यानुष्ठा-18२ क्रिया२ श्रुतस्क- नपरायणाः सावधभापिणश्च कुप्रावचनिका न सिध्यन्त्येवं स्वयूच्या अप्योद्देशिकादिपरिभोगिनो न सिध्यन्तीति । तदेतत्प्रमाणं-स्थानाध्यक प्रत्यक्षानुमानादिकं, तथाहि-प्रत्यक्षेणैव जीवपीडाकारी चौरादिर्बन्धनान्न मुच्यते, एवमन्येऽपीति, अनुमानादिकमप्यायोज्यं । कीयावृतिः | तथा तदेतत्समवसरणम्-आगमविचाररूपमिति, प्रत्येकं च प्रतिप्राणि प्रतिप्रावादुकमेतत्तुलादिकं द्रष्टव्यमिति ।। ये पुनर्वि-11 ॥३४१॥ दिततच्या आत्मौपम्येन-आत्मतुलया सर्वजीवेष्वहिंसां कुर्वाणा एवमाचक्षते, तद्यथा-सर्वेऽपि जीवा दुःखद्विषः सुखलिप्सवस्ते न हन्तव्या इत्यादि । तदेवं पूर्वोक्तं दण्डनादिकं सप्रतिषेध भणनीयं यावत्संसारकान्तारमचिरेणैव ते व्यतिक्रमिष्यन्तीति | || भणितानि क्रियास्थानानि, साम्प्रतमुपसंजिघृक्षुरेतदेव पूर्वोक्तं समासेन विभणिपुराह इतेहिं बारसहिं किरियाठाणेहिं वहमाणा जीवा णो सिज्झिसु णो बुद्धिंसु णो मुधिंसु णो परिणिवाइंसु जाव णो सबदुक्खाणं अंतं करेंसु वा णो करेंति वा णो करिस्संति वा । एयंसि चेव तेरसमे किरियाठाणे वट्टमाणा जीवा सिद्धिंसु बुद्धिंसु मुचिंसु परिणिवाईसु जाव सबदुक्खाणं अंतं करेंसु वा करति वा करिस्संति वा । एवं से भिक्खु आयट्ठी आयहिते आयगुत्ते आयजोगे आयपरकमे आयरक्खिए आयाणुकंपए आयनिफेडए आयाणमेव पडिसाहरेज्जासि त्तिवेमि ॥ (मत्रं ४२) । इति बीयसुयक्वंधस्स किरियाठाणं नाम बीयमज्झयणं समत्तं ॥ १ पगमा कचित् काविच नायायाति २ आत्यन्तिकदुःखनाशाभाय इति । ॥३४॥ ~686~ Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [४२], नियुक्ति: [१६८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक [४२] दीप अनुक्रम [६७४] इत्येतेषु द्वादशसु क्रियास्थानेष्वधर्मपक्षोऽनुपशमरूपः समवतार्यते, अत एतेषु वर्तमाना जीवा नातीते काले सिद्धा न वर्तमाने | सिध्यन्ति न भविष्यति सेत्स्यन्ति, तथा न बुबुधिरे न बुध्यन्ते न च भोत्स्यन्ते, तथा न मुमुचुन मुश्चन्ति न च मोक्ष्यन्ते, तथा न | निवृता न निर्वान्ति न च निर्वास्यन्ति, तथा न दुःखानामन्तं ययुने पुनयोंन्ति न च यावन्तीति ।। साम्प्रतं त्रयोदशं क्रियास्थानं | || धर्मपक्षाश्रितं दर्शयितुमाह-एतसिंखयोदशे क्रियास्थाने वर्तमाना जीवाः सिद्धाः सिध्यन्ति सेत्स्वन्तीति यावत्सर्वदुःखानामन्तं | करिष्यन्तीति स्थितं । तदेवं स भिक्षुर्यः पीण्डरीकाध्ययनेऽभिहितो द्वादशक्रियास्थानवर्जकः अधर्मपक्षानुपशमपरित्यागी धर्मपक्षे | स्थित उपशान्त आत्मना आत्मनो वाऽर्थः आत्मार्थः स विद्यते यस स तथा, यो बन्यमपायेभ्यो रक्षति स आत्मार्थ्यात्मवानि त्युच्यते, अहिताचाराश्च चौरादयो नात्मवन्तोऽयं खात्महित ऐहिकामुष्मिकापायभीरुखात, तथाऽऽत्मा गुप्तो यस्य स तथा, एत18 दुक्तं भवति-खयमेवासी संयमानुष्ठाने पराक्रमते, तथाऽऽस्मयोगी आत्मनो योगः-कुशलमन:प्रवृत्तिरूप आत्मयोगः स 8 यस्यास्ति स तथा, सदा धर्मध्यानावस्थित इत्यर्थः, तथाऽऽत्मा पापेभ्यो दुर्गतिगमनादिभ्यो रक्षितो येन स तथा, दुर्गतिगमनहे तुनिवन्धनस्य सावद्यानुष्ठानस्य निवृत्तवादितिभावः, तथाऽऽत्मानमेवानर्थपरिहारद्वारेणानुकम्पते शुभानुष्ठानेन सद्गतिगामिनं विधत्त इति, तथाऽत्मानं सम्यग्दर्शनादिकेनानुष्ठानेन संसारचारकानिःसारयतीति, तथाऽऽत्मानमनर्थभूतेभ्यो द्वादशभ्यः क्रिNयास्थानेभ्यः प्रतिसंहरेत् , यदिवोपदेशः-आत्मानं सर्वापायेभ्यः प्रतिसंहियात् सर्वानथेभ्यो निवर्तयेदित्येतस्मिन्महापुरुषे संभा| व्यत इति । इति परिसमाप्त्यर्थे, ब्रवीमीति पूर्ववत् । नयाः पूर्ववयाख्येयाः । समाप्त क्रियास्थानाख्यं द्वितीयमध्ययनमिति ॥ कतरिप्रयोगे आद्यद्वये कमंग इस्पध्याहारः। RECacaenerceptemeseseselse अत्र द्वितीयं-अध्ययनं परिसमाप्तं ~687~ Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [४२...], नियुक्ति: [१६९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्क अथ द्वितीयश्रुतस्कन्धे तृतीयाध्ययनप्रारम्भः ॥ ३ आहारपरिज्ञा. प्रत सूत्रांक [४२] न्धे शीला दीयावृतिः ॥३४२॥ दीप अनुक्रम [६७४] द्वितीयाध्ययनानन्तरं तृतीयमारभ्यते, अस्य चायमभिसंबन्धः-कर्मक्षपणार्थमुद्यतेन भिक्षुगा द्वादशक्रियास्थानरहितेनान्त्य-18 क्रियाथानसेविना सदाहारगुप्तेन भवितव्यं, धर्माधारभूतस्य शरीरस्वाधारो भवत्याहारः, स च मुमुक्षुणोदेशकादिदोषरहितो 81 ग्राह्यः, तेन च प्रायः प्रतिदिनं कार्यमित्यनेन संबन्धेनाहारपरिज्ञाध्ययनमायातम् , अस्य चखार्यनुयोगद्वाराष्पक्रमादीनि भवन्ति,8 तत्रेदमध्ययन पूर्वानुपूर्ध्या तृतीयं पश्चानुपूर्व्या पञ्चममनानुपूर्त्या खनियतमिति, अर्थाधिकारः पुनरवाहारः शुद्धाशुद्धभेदेन निरूप्यते । निक्षेपविविधः-ओघादिः, तत्रौषनिष्पन्ने निक्षेपेऽध्ययन, नामनिष्पने तु आहारपरिक्षेति द्विपद नाम, तत्राहारपदनिक्षेपार्थमाह नियुक्तिकारः-- नामंठवणादविए खेत्ते भावे य होति बोद्धयो । एसो खलु आहारे निक्खेवो होइ पंचविहो ॥१९॥ दधे सश्चित्सादी खेत्ते नगरस्स जणवओ होइ । भावाहारो तिविहो ओए लोमे य पक्खेवे ॥ १७ ॥ सरीरेणोयाहारो तयाय फासेण लोमआहारो। पक्खेवाहारो पुण कावलिओ होइ नायबो ॥ १७१॥ ओयाहारा जीवा सबे अप्पजत्तगा मुणेयद्या । पजत्तगा य लोमे पक्वेवे होइ (होंति) नायबा ।। १७२ ।। एगिदियदेवाणं नेरझ्याणं च नत्थि पक्वेवो । सेसाणं पक्वेवो संसारस्थाण जीवाणं ॥ १७३ ।। ॥३४२॥ अत्र तृतीयं अध्यननं "आहार-परिज्ञा" आरभ्यते, पूर्व-अध्ययनेन सह अस्य अध्ययनस्य अभिसंबंध:, आहारपद शब्दस्य निक्षेपा: ~688~ Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [४२] दीप अनुक्रम [६७४] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [-], मूलं [४२...], निर्युक्तिः [ १७४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः एकं च दो व समए तिन्नि व समए मुहुत्तमद्धं वा । सादीयमनिहणं पुण कालमणाहारगा जीवा ॥ १७४ ॥ एकं य दो व समए केवलिपरिवजिया अणाहारा। मंधमि दोणि लोए य पूरिए तिन्नि समया उ ।। १७५ ।। अंतमुत्तमद्धं सेलेसीए भवे अणाहारा । सादीयमनिहणं पुण सिद्धा यणहारगा होति ॥ १७६ ॥ जोएण कम्मरणं आहारेई अनंतरं जीवो। तेण परं मीसेणं जाव सरीरस्स निष्फसी ॥ १७७ ॥ णामं ठवणपरिक्षा दवे भावे य होइ नायवा । दधपरिन्ना तिविहा भावपरिन्ना भवे दुबिहा ।। १७८ ॥ नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्र भावरूपः पञ्चप्रकारो भवति निक्षेप आहारपदाश्रय इति, तत्र नामस्थापने अनादृत्य द्रव्याहारं प्रतिपा दयितुमाह-द्रव्याहारे चिन्त्यमाने सचित्तादिराहारस्त्रिविधो भवति, तद्यथा सचित्तोऽचित्तो मिश्रम, तत्रापि सचितः पविधः पृथिवीकायादिकः, तत्र सचित्तस्य पृथिवीकायस्य लवणादिरूपापनस्याहारो द्रष्टव्यः तथाऽप्रकायादेरपीति, एवं मिश्रोऽचित्तथ [ खोज्यः, नवरमनिकायमचित्तं प्रायशी मनुष्या आहारयन्ति, ओदनादेस्तदूपत्तादिति । क्षेत्राहारस्तु यस्मिन्क्षेत्रे आहारः क्रियते उत्पद्यते व्याख्यायते वा यदिवा नगरस्य यो देशो धान्येन्धनादिनोपभोग्यः स क्षेत्राहारः, तद्यथा- मधुरायाः समासनो देशः परिभोग्यो मथुराहारो मोढेरकाहारः स्वेदाहार इत्यादि । भावाहारस्वयं क्षुधोदयाद्भक्ष्यपर्यायापत्नं वस्तु यदाहारयति स भाषाद्वार इति । तत्रापि area आहारस्य जिह्वेन्द्रियविषयत्वातिक्तकटुकषायाम्ललवणमधुररसा गृहान्ते तथा चोक्तम्- “राईभने पोलादी सचित्तामिक विकाखादचं यद्वा चकोरादयोऽप्रेक्षका इति किंवदन्ती २ ओदनादीनाममिनिष्पन्नत्वेनाचितामिरूपाणां भस्मादीनां च तद्रूपतया परिणामवादधुनाऽचित्ताभिकायता, भगवतीवृत्ती अभिपरिणामव्याख्यानमप्योदनादीनामौष्ण्ययोगादेव ३ रात्रिभयं भावविकं या यावन्मधुरं वा । आहारपद शब्दस्य निक्षेपा:, For Parts Only ~689~ Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [४२...], नियुक्ति : [१७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४२] दीप अनुक्रम [६७४] सूत्रकृताओं भावओ तिचे वा जाव मधुरे"त्यादि, अन्यदपि प्रसङ्गेन गृह्यते, तद्यथा-परविशदमभ्यवहार्य भक्ष्य, तत्रापि बाष्पाढ्य ओदनः ३ आहार २ श्रुतस्क-18 प्रशस्यते न शीतः, उदकं तु शीतमेव, तथा चोक्त-"शैत्यमपां प्रधानो गुणः" एवं तावदभ्यवहार्य द्रव्यमाश्रित्य भावाहारः प्रति-| परिज्ञा न्धे शीला-18| पादितः, साम्प्रतमाहारकमाश्रित्य भावाहारं नियुक्तिकदाह-भावाहारविविधः-त्रिप्रकारो भवति, आहारकस्य जन्तोखिभिः प्रकाकीयावृत्तिः शरैराहारोपादानादिति, प्रकारानाह-'ओए'ति तैजसेन शरीरेण तत्सहचरितेन च कार्मणेनाभ्यां द्वाभ्यामप्याहारयति यावदपर॥३४॥ मौदारिकादिकं शरीरं न निष्पद्यते, तथा चोक्तम्-"तेएणं कम्मएणं आहारेइ अणंतरं जीवो । तेण परं मिस्सेणं जाव सरीरस्स I|| निष्फत्ती ॥१॥" तथा-ओआहारा जीवा सबे आहारगा अपज्जत्ता।" लोमाहारस्तु शरीरपर्याप्युत्तरकालं माझया खचा, || लोममिराहारो लोमाहारः, तथा प्रक्षेपण कवलादेराहारः प्रक्षेपाहारः, स च वेदनीयोदयेन चतुर्भिः स्थानराहारसंज्ञासद्भावाड वति, तथा चोक्तम्--"चाहिं ठाणेहिं आहारसण्णा समुप्पजइ, तंजहा-ओमकोट्टयाए १ छुहावेयणिजस्स कम्मस्स उदएणं २ 1 मईए ३ तयहोवओगेणं"ति । साम्प्रतमेतेषां त्रयाणामप्येकयैव गाथया व्याख्यानं कर्तुमाह-तैजसेन कार्मणेन च शरीरेणीदारि-॥3॥ || कादिशरीरानिष्पमिश्रेण च य आहारा स सर्वोऽप्योजाहार इति, केचिद्याचक्षते-औदारिकादिशरीरपर्याश्या पर्याप्तकोऽपीन्द्रि-18 यानापानभाषामनःपर्याप्तिभिरपर्याप्तकः शरीरेणाहारयन् ओजाहार इति गृह्यते, तदुत्तरकालं तु त्वचा स्पर्शेन्द्रियेण य आहारः स || 18|| लोमाहार इति, प्रक्षेपाहारस्तु 'कावलिक' कवलप्रक्षेपनिष्पादित इति ज्ञातव्यो भवति । पुनरप्येषामेव स्वामिविशेषेण विशेषमा-1313331 सैजसेन कार्मणेन चाहारयत्खनन्तरं जीवः ततः पर निधण यापरछरीरस्य निष्पत्तिः ॥१॥ीजआहारा जीवाः सर्वे आहारका अपर्याप्ताः ॥१॥ चतुर्मिः स्थानराहारसंज्ञा समुत्पद्यते तद्यथा-बानकोष्ठतया धावेदनीयस्थ कर्मण उदयेन मला तदर्थोपयोगेन ॥१॥ रव्य आहारपद शब्दस्य निक्षेपा: ~690~ Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [४२] दीप अनुक्रम [६७४] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [-], मूलं [ ४२...], निर्युक्ति: [ १७८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - विर्भावयन्नाह यः प्रागुक्तः शरीरेणौजसाऽऽहारस्तेनाहारेणाहारका जीवाः सर्वेऽप्यपर्याप्तका ज्ञातव्याः सर्वाभिः पर्याप्तिभिरपर्यातास्ते वेदितव्याः, तत्र प्रथमोत्पत्तौ जीवः पूर्वशरीरपरित्यागे विग्रहेणाविग्रहेण वोत्पत्तिदेशे तैजसेन कार्मणेन च शरीरेण तप्तस्नेहपतित| संपानकवत्तत्प्रदेशस्थानात् (स्थान) पुद्गलानादत्ते, तदुत्तरकालमपि यावदपर्याप्तकावस्था तावदोजआहार इति, पर्याप्तकास्त्विन्द्रिया| दिभिः पर्याप्तिभिः पर्याप्ताः केषांचिन्मतेन शरीरपर्याप्तका वा गृहखन्ते, तदेवं ते लोमाहारा भवन्ति, तत्र स्पर्शेन्द्रियेणोष्मादिना तछायया शीतवायुनोदकेन वा प्रीयते प्राणी गर्भस्थोऽपि पर्याप्युत्तरकालं लोमाहार एवेति, प्रक्षेपाहारे तु भजनीयाः, यदैव प्रक्षेपं कुर्वन्ति तदैव प्रक्षेपाहारा नान्यदा, लोमाहारता तु वाय्वादिस्पर्शात्सर्वदैवेति, स च लोमाहारश्रक्षुष्मताम्- अर्वाग्दृष्टिमतां न दृष्टि| पथमवतरति, अतोऽसौ प्रतिसमयवर्ती प्रायशः, प्रक्षेपाहारस्तुपलभ्यते प्रायः, स च नियतकालीयः, तद्यथा-देवकुरूत्तरकुरु (र्वादि) प्रभवा अष्टमभक्ता (घा)हाराः, संख्येय वर्षायुपामनियतकालीयः प्रक्षेपाहार इति ।। साम्प्रतं प्रक्षेपाहारं स्वामिविभागेन दर्शयितुमाह एकमेव स्पर्शेन्द्रियं येषां ते भवन्त्येकेन्द्रियाः पृथिवीकायादयस्तेषां देवनारकाणां च नास्ति प्रक्षेषः, ते हि पर्याप्त्युत्तरकालं स्पर्शेन्द्रियेणैवाहारयन्तीति कृत्वा लोमाहाराः, तत्र देवानां मनसा परिकल्पिताः शुभाः पुद्गलाः सर्वेचैव कायेन परिणमन्ति नारकाणां स्वशुभा इति, शेपास्त्वौदारिकशरीरा द्वीन्द्रियादयस्तिर्यमनुष्याश्च तेषां प्रक्षेपाहार इति, तेषां संसारस्थितानां कायस्थितेरेवाभावात्प्रक्षेपमन्तरेण, काबलिक आहारो जिडेन्द्रियस्य सद्भावादिति, अन्ये त्वाचार्या अन्यथा व्याचक्षते - तत्र यो जिद्वेन्द्रियेण स्थूलः शरीरे प्रक्षिप्यते स प्रक्षेपाहारः, यस्तु प्राणदर्शनश्रवणैरुपलभ्यते धातुभावेन परिणमति स ओजाहारः, यः पुनः स्पर्शेन्द्रियेणे१ वायुस्पर्शालोमाहारस्य सार्वेदिकत्वात् विग्रहादी व्यभिचारवारणाय प्रायश इति । आहारपद शब्दस्य निक्षेपाः For Park Use Only ~691~ wor Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [४२] दीप अनुक्रम [६७४] सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्क न्धे शीलाडीयावृत्तिः ॥३४४॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [-], मूलं [ ४२...], निर्युक्ति: [ १७८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः वोपलभ्यते धातुभावेन (च) प्रयाति स लोमाहार इति ।। साम्प्रतं कालविशेषमधिकृत्यानाहार कानभिधित्सुराह तत्र 'चिग्गहगहमाबना केवलियो समुहया अयोगी या । सिद्धा य अगाहारा सेसा आहारगा जीवा ॥ १ ॥' अस्खा लेशतोऽयमर्थः - उत्पत्तिकाले विग्रहगतौ चक्रगतावापन्नाः केवलिनो लोकपूरणंकाले समुद्घातावस्थिता अयोगिनः- शैलेश्यावस्थाः सिद्धावानाहारकाः शेषास्तु जीवा आहारका इत्यवगन्तव्यं तत्र भवाद्भवान्तरं यदा समश्रेण्या याति तदा नाहारको न लभ्यते, यदापि विश्रेष्यामेकेन वक्रेणोत्पद्यते तदापि प्रथमसमये पूर्वशरीरस्थेनाहारितं द्वितीये लवकसमये समाश्रितशरीरस्थेनेति, वक्रद्वये तु त्रिसमयोत्पत्ती मध्यम समयेऽनाहारक इति इतरयोस्त्वाहारक इति, वक्रत्रये तु चतुःसमयोत्पत्तिके मध्यवर्तिनोः समययोरनाहारकः, चतुःसमयो| त्पत्तिचैवं भवति - त्रसनाच्या वहिरुपरिष्टादयोऽधस्ताद्वोपर्युत्पद्यमानो दिशो विदिशि विदिशो वा दिशि यदोत्पद्यते तदा लभ्यते, तत्रैकेन समयेन त्रसनाडीप्रवेशो द्वितीयनोपर्यधो वा गमनं, तृतीयेन च बहिर्निःसरणं, चतुर्थेन तु विदिक्षुत्पत्तिदेशे प्राप्तिरिति । | पञ्चसमया तु सनाढ्या बहिरेव विदिशो विदित्पत्तौ लभ्यते तत्र च मध्यवर्तिषु (त्रिषु) अनाहारक इत्यवगन्तव्यम्, आद्यन्तसमय| योस्वाहारक इति । केवलिसमुद्घातेऽपि कार्मणशरीरवर्तिखात् तृतीयचतुः पञ्चमसमयेष्वनाहारको द्रष्टव्यः । शेषेषु तु औदारिकतन्| मिश्रशरीरवर्तिखादाहारक इति । 'सुहुत्तमद्धं चत्ति अन्तर्मुहूर्त गृह्यते तच केवली स्वायुषःक्षये सर्वयोगनिरोधे सति इस्वपञ्चा | क्षरोद्गिरणमात्रकालं यावदनाहारक इत्येवमवगन्तव्यं । सिद्धजीवास्तु शैलेश्यवस्थाया आदिसमयादारभ्यानन्तमपि कालमनाहारका इति ॥ साम्प्रतमेतदेव स्वामिविशेषविशेषिततरमाह - केवलिपरिवर्जिताः संसारस्या जीवा एक द्वौ वा अनाहारका भवन्ति । १] उपलक्षणात्पूर्णता संहरणयोः २ ततोऽवांक, सामीप्ये व सप्तमी । Education Internation आहारपद शब्दस्य निक्षेपाः For Parts Only ~692~ ३ आहारपरिज्ञा ॥ ३४४॥ Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [४२] दीप अनुक्रम [६७४] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [-], मूलं [ ४२...], निर्युक्तिः [१७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - ते च विग्रहविग्रहोत्पत्ती विचतुःसामविकायां द्रष्याः, चतुर्विग्रहपश्चसमयोत्पत्तिस्तु स्वल्पसत्त्वाश्रितेति न साक्षादुपात्ता, तथा चान्यत्राप्यभिहितम् - "एक डौ वाग्नाहारकः" (तत्त्वा० अ०२सू० ३१), वाशब्दात् त्रीन् वा, आनुपूर्व्या अभ्युदय उत्कृष्टतो विग्रहगतौ चतुरः समयानागमेऽभिहितः, ते च पञ्चसमयोत्पत्तौ लभ्यन्ते नान्यत्रेति । भवस्यकेवलिनस्तु समुद्घाते गन्धे तत्क रणोपसंहारावसरे तृतीयपञ्चमसमयौ द्वौ लोकपूरणाच्चतुर्थसमयेन सहितास्त्रयः समया भवन्तीति । पुनरपि निर्युक्तिकारः सादिक|मपर्यवसानं कालमनाहारकत्वं दर्शयितुमाह- शैलेश्यवस्थाया आरभ्य सर्वदानाहारकः सिद्धावस्था प्राप्तावनन्तमपि कालं यावदिति, पूर्व तु कावलिकव्यतिरेकेण प्रतिसमयमाहारकः कावलिकेन तु कादाचित्क इति । ननु केवलिनो घातिकर्मक्षयेऽनन्तथीका भवत्येव कावलिक आहारः, तथाहि आहारादाने यानि वेदनादीनि पट् कारणान्यभिहितानि तेषां मध्ये एकमपि न विद्यते केवलिनि तत्कथमसाकाहारं बहुदोषदुष्टं गृह्णीयात् ?, तत्र न तावत्तस्य वेदनोत्पद्यते, तद्वेदनीयस्य दग्धर स्थानिकत्वात्, सत्यामपि न तस्य तत्कृता पीडा, अनन्तवीर्यखात्, वैयावृत्यकारणं तु भगवति सुरासुरनराधिपतिपूज्ये न संभाव्यत एवेति, ईर्यापथः पुनः केवलज्ञानावरणपरिक्षयात्सम्यगवलोकयत्येवासा, संयमस्तु तस्य यथाख्यातचारित्रिणो निष्ठितार्थलानाहारग्रहणाय कारणीभवति, प्राणवतिस्तु तस्यानपवर्तित्वात् आयुषोऽनन्वषीर्यसाच्चान्यथा सिद्धैव, धर्मचिन्तावसरस्वपगतो निष्ठितावात्, तदेवं केवलिनः कावलिकाहारो बहपायसान्न कथचिद् घटत इति स्थितम् अत्रोच्यते, तत्र यत्तावदुक्तं 'घातिकर्मक्षये कवेलज्ञानोत्पत्तावनन्तवीर्यवान्न केवलिनो मुक्ति रिति, तदागमानमिज्ञस्य तत्त्वविचाररहितस्य युक्तिहृदयमजानतो वचनं, तथा १ अन्तराणि समन्धीभवनसमयः २ सति कारणताज्ञापनाय | अनाहारकत्वं दर्शनं, केवलिनः भुक्तिः For Pale Only ~693~ Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [४२...], नियुक्ति : [१७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः A थापरिवाया प्रत सूत्रांक [४२] दीप अनुक्रम [६७४] सूत्रकृताङ्गे हि-यदाहारनिमित्तं वेदनीयं कर्म तत्तस्य तथैवाऽस्ते, किमिति सा शारीरी स्थितिः प्राक्तनी न भवाते , प्रमाण च-अस्ति केव-18 २ श्रुतस्क- लिनो भुक्तिः, समग्रसामग्रीकत्वात्पूर्वभुक्तिवत् , सामग्री चेयं प्रक्षेपाहारस, तद्यथा-पर्याप्सत्वं १ वेदनीयोदयः २ आहारपक्ति-18 धे शीला निमित्तं तैजसशरीरं ३ दीर्घायुष्कत्वं ४ चेति, तानि च समस्तान्यपि केवलि नि सन्ति, यदपि दग्धरजसंस्थानिकत्वमुच्यते वेदनीकीयावृत्तिः केवलिनो मुक्ति यस्य तदप्यनागमिकमयुक्तिसंगतं च, आगमे हत्यन्तोदयः सातस्य केवलिन्यभिधीयते, युक्तिरपि-यदि घातिकर्मक्षयाज्ञानादय॥३४५॥ स्तस्याभूवन् वेदनीयोद्भवायाः क्षुधः किमायातं ? येनासौ न भवति, न तयोश्छायातपयोरिव सहानवस्थानलक्षणो नापि भावा A भावयोरिव परस्परपरिहारलक्षणः कश्चिद्विरोधोऽस्तीति, सातासातयोश्चान्तर्मुहूर्तपरिवर्तमानतया यथा सातोदय एवमसातोदयो पीत्पनन्तवीर्यत्वे सत्यपि शरीरबलापचयः क्षुद्वेदनीयोद्भवा पीडा च भवत्येव, न चाहारग्रहणे तस्य किंचित्क्षीयते, केवलमाहोपुरुषिकामात्रमेवेति । यदप्युच्यते-वेदनीयस्थोदीरणाया अभावात्प्रभूततरपुद्गलोदयाभावस्तदभावाचात्यन्तं वेदनीयपीडाऽभाव || इति वायात्रं, तथाहि-अविरतसम्यग्दृष्यादिवेकादशसु स्थानकेषु वेदनीयस्य गुणश्रेणीसद्भावात्प्रभूतपुद्गलोदयसद्भावः ततः किं तेषु का प्राक्तनेभ्योऽधिकपीडासद्भाव इति, अपिच-यो जिने सातोदयस्तीवः किमसी प्रचुरखुद्गलोदये नेति, अतो यत्किश्चिदेतदिति ।। प्र तदेवं सातोदयवदसातोदयोऽपि केवलिन्यनिवारित इति, तयोरन्तर्मुहर्नकालेन परिवर्तमानत्वात् । यदपि कचिकैबिदभिधीयते-18॥ 7. केव | विषयमानतीर्थकरनानो देवस्य च्यवनकाले पण्मासकालं यावदत्यन्तं सातोदय एवेत्यसावपि यदि स्थान नो बाधाये, केव |३४५॥ || लिनों भुक्तेरनिवारितत्वात् । यदप्युच्यते-आहारविषयाकासारूपा क्षुद्भवति, अभिकाना चाहारपरिग्रहबुद्धिा, सा च मोहनीय-11 S| आत्मशक्याविष्करणमात्र २ पूर्वोक्तवादिमिः, षण्मासाधिकायुषामपि केवलाद्वेति । 9999999928sa | केवलिन: भुक्ति: स्वरूपं ~694 Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [४२...], नियुक्ति: [१७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक [४२] Jassacaso90003 दीप अनुक्रम [६७४] | विकारः, तस्स चापगतत्वात्केवलिनो न भुक्तिरिति, एतदप्यसमीचीनं, यतो मोहनीयविपाका क्षुन्न भवति, तद्विपाकस्य प्रतिपक्षमावनया प्रतिसंख्यानेन निवर्त्यमानत्वात् , तथाहि-कषायाः प्रतिकूलभावनया निवर्त्यन्ते, तथा चोक्तम्-"उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे । मायं चऽजवभावण, लोभं संतुहिए जिणे ॥१॥" मिथ्यात्वसम्यक्त्वयोश्च परस्परनिवृतिर्भावनाकृता प्रती-10 तैव, वेदोदयोऽपि विपरीतभावनया निवर्तते, तदुक्तम् - "काम ! जानामि ते मूलं, संकल्पात्किल जायसे । ततस्तं न करि-18 प्यामि, ततो मे न भविष्यसि ॥१॥" हास्यादिषट्कमपि चेतोविकाररूपतया प्रतिसंख्यानेन निवर्तते, क्षुद्वेदनीयं तु रोगशीतोप्मादिवजीवपुद्गलविपाकितया न प्रतीपवासनामात्रेण निवर्ततेऽतो न मोहविपाकस्खभावा क्षुदिति । तदेवं व्यवस्थिते यत्कैश्चिदा-18 ग्रहगृहीतैरभिधीयते, यथा-'अपवर्त्यतेऽकृतार्थ नायुज्ञानादयो न हीयन्ते । जगदुपकृतावनन्तं वीर्य किं गततषो भुक्तिः ॥१॥ 8 तदेतत् प्लवते, यतश्छमस्थावस्थायामप्येतदस्तीति तत्रापि किमिति मुझे , तत्र समस्तवीर्यान्तरायक्षयाभावान्भुक्तिसद्भाव इति चेत्, तदयुक्तं, यतः किं तत्रायुपोऽपवर्तनं सात् किं वा चतुर्णा ज्ञानानां काचिद्धानिः स्यायेन भुक्तिरिति, तमाद्यथा दीर्घकालस्थिते-% रायुष्कं कारणमेवमाहारोऽपि । यथा सिद्धिगतेयुपरतक्रियस्य ध्यानस्य चरमक्षणः कारणमेवं सम्यक्त्वादिकमपीति । अनन्तवी-18 र्यतापि तस्याहारग्रहणे सति न विरुध्यते, यथा तस्य देवच्छन्दादीनि विश्रामकारणानि गमननिषीदनानि च भवन्त्येवमाहारक्रियापि, विरोधाभावात् , नपत्र बलवत्तरवीर्यवतोऽल्पीयसी क्षुदिति, एवं च स्थिते यत्किश्चिदेतत् । अपि च-एकादश परीषहा | वेदनीयकृता जिने प्रादुषष्यन्ति, अपरे तु एकादश ज्ञानावरणीयादिकृतास्तत्क्षयेऽपगता इतीयमप्युपपत्तिः केवलिनि भुक्ति साध १ उपशमेन हन्यात को मान माई पत्ता जयेत् मायां चावभावेन लोभ सन्तोषतो जवेत ॥१॥२ मोहर हितस्य, आकाढाया मोहरूपत्वात् । | केवलिन: भुक्ति: स्वरूपं ~695~ Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [४२...], नियुक्ति : [१७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक [४२] दीप अनुक्रम [६७४] सूत्रकृताओं यति, तथाहि-क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनाम्यारतिस्त्रीचर्यानिषद्याशय्याऽऽक्रोशवधयाजालाभरोगतृणस्पर्शमलसत्कारपुरस्कारप्र-18|३ आहार२ श्रुतस्क- ज्ञाज्ञानदर्शनानीत्येते द्वाविंशतिर्मुमुक्षुणा परिसोढव्याः परिषहाः, तेषां च मध्ये ज्ञानावरणीयोत्थी प्रज्ञाज्ञानाख्यो, दर्शनमोहनीयसंभ- परिज्ञायां न्धे शीला- वो दर्शनपरिपहा, अन्तरायोत्थोऽलामपरिपहः, चारित्रमोहनीयसंभूतास्त्वमी-नाम्यारतिस्त्रीनिषद्याऽऽकोशयाजासत्कारपुरस्कारा, केवलिनो झीयावृत्तिः गाएते चैकादशापि जिने केवलिनि न संभवन्ति, तत्कारणानां कर्मणामपगतत्वात् , न हि कारणाभावे कचित्कार्योपपत्तिः, शेषा-| भुक्तिः ॥३४६॥ 1| स्वेकादश जिने संभवन्ति, तत्कारणस्य वेदनीयस्य विद्यमानत्वात् , ते चामी-क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकचर्याशघ्यावधरोगतृण-| | स्पर्शमलाख्याः, एते च वेदनीयप्रभवाः, तब केवलिनि विद्यन्ते, न च निदानानुच्छेदे निदानिन उच्छेदः संभाव्यते, अतः। हा केवलिनि क्षुद्वेदनीयादिपीडा संभाव्यते, केवलमसावनन्तवीर्यत्वान्न विकलीभवति, न चासौ निष्ठितार्थो निष्प्रयोजनमेव पीडाम-| | घिसहते, न च शक्यते वक्तुम्-एवंभूतमेव तस्स भगवतः शरीरं यदुत क्षुत्पीडा न बाधते आहारमन्तरेण(च) वर्तते, यथा स्खभावेनैव प्रखेदादिरहितमेव प्रक्षेपाहाररहितमित्येतच्चाप्रमाणकवादपकर्णनीयम् । अपि च-केवलोत्पत्तेः प्राग मुक्तेरभ्युपगमारकेव-181 लोत्पत्तावपि तदेवीदारिकं शरीरमाहाराघुपसंस्कार्यम् , अधान्यथाभावः कैबिदुच्यते असावपि युक्तिरहितलादपुषगममात्र || एवेति । तदेवं देशोनपूर्वकोटिकालय केबलिस्थितेः संभवादौदारिकशरीरस्थितेचे यथाऽऽयुष्क कारणमेवं प्रक्षेपाहारोपि, तथाहि-तैजसशरीरेण मृद्कृतस्याभ्यवहृतस्य नून्यस्य वपर्याप्या परिणामितस्योत्तरोत्तरपरिणामक्रमेणौदारिकशरीरिणामनेन प्रकारेण || सुदुद्भवो भवति । वेदवीयोदये सति, इयं च सामग्री सर्वापि भगवति केवलिनि संभवति, तस्किमर्थमसौ न भूरे, न च धाति-ISI ॥३४६॥ १ वीर्षकालस्थितिदर्शनाय । ३ विशेषणार्थः । ३ शारीरादिकपः । Dacecedesesesearcestseces | केवलिन: भुक्ति: स्वरूपं ~696~ Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [४२...], नियुक्ति: [१७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक [४२] दीप अनुक्रम [६७४] wedesesesesevedeoeneseseroes || चतुष्टयस्य सहकारिकारणभावोऽस्ति येन तदभावात्तदभाव इत्युच्यते । तदेवं संसारस्था जीवा विग्रहगतौ जघन्येनैक समय 12 | उत्कृष्टतः समयत्रयं भवस्थकेवली च समुद्घातावस्थः समयत्रयमनाहारकः शैलेश्यवस्थायां खन्तर्मुहत, सिद्धास्तु सादिकमपर्यन्तं | कालमनाहारका इति खितं ।। साम्प्रतं प्रथमाहारग्रहणं येन शरीरेण करोति तदर्शयति-ज्योति:-तेजस्तदेव तत्र वा भवं तेजसं || तेन कामेणेन चाहारयति, तैजसकार्मणे हि शरीरे आसंसारभाविनी, ताभ्यामेव चोत्पत्तिदेशं गता जीवाः प्रथममाहारं कुर्वन्ति, ततः परमौदारिकमिश्रेण वैक्रियमिश्रेण वा यावच्छरीरं निष्पद्यते ताबदाहारयन्ति, शरीरनिष्पत्ती सौदारिकेण वैक्रियेण पाऽऽहा-181 ॥ यन्तीति स्थितम् ॥ साम्प्रतं परिज्ञानिक्षेपार्थमाह-तत्र नामस्थापनाद्रव्यभावभेदात्परिक्षा चतुर्धा, तत्रापि नामस्थापने क्षुण्णत्वा|दनात्य द्रव्यपरिज्ञा प्रतिपादयन् गाथापश्चामाह-द्रव्यपरिशंति द्रव्यस्य द्रव्येण वा परिज्ञा द्रव्यपरिज्ञा, सा च परिच्छेद्यद्र-19 व्यप्राधान्यातस्य च सचिचाचित्तमित्रभेदेन त्रैविध्यात्रिविधेति । भावपरिज्ञापि परिज्ञाप्रत्याख्यानपरिज्ञाभेदेन द्विविधति, शेषस्वागमनोआगमझशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तादिको विचारः शनपरिज्ञावद्रष्टव्यः । गता निक्षेपनियुक्ति, अधुना सूत्रानुगमेऽ| स्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारयितव्यं, तवेदम् सुयं मे आउसंतेणं भगवया एवमक्खायं-इह खलु आहारपरिणाणामायणे, तस्स णं अयमढे-इह खलु पाईणं वा ४ सवतो सवावंति च णं लोगंसि चत्तारि बीयकाया एवमाहिजंति, तंजहा-अग्गबीया मूलबीया पोरवीया खंधवीया, तेसिं च णं अहावीएणं अहावगासेणं इहेगतिया सत्ता पुढचीजोणिया पुढवीसंभवा पुढबीवुकमा तज्जोणिया तस्संभवा तदुवकमा कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थषुकमा णाणा मूल-सूत्रस्य आरम्भ: ~697~ Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [४३] दीप अनुक्रम [६७५] सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्क न्धे शीलाकीयावृत्तिः ॥३४७॥ “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [-], मूलं [४३], निर्युक्ति: [१७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः Education International - विजोगियासु पुढवीसु रुक्खत्ताए बिउति । ते जीवा तेसिं णाणाविहजोणियाणं पुढवीणं सिणेहमाहारैति, ते जीवा आहारेति पुढवीसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं ॥ णाणाविहाण तस्थावराण पणाणं सरीरं अचित्तं कुषंति परिविद्वत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरियं सारुवियक संतं ॥ अवरेऽवि य णं तेसिं पुढविजोणियाणं रुक्खाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपुग्गलविउचिता ते जीवा कम्मोववन्नगा भवतित्तिमक्खायं || (सूत्रं ४३ ) || अहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता रुक्खजोणिया रुक्स्वसंभवा रुक्कमा तज्जोणिया तस्संभवा तदुवकमा कम्मोवगा कम्मनियाणेणं तत्थवुक्कमा पुढवीजोणिएहिं रुक्खेहिं रुक्खत्ताए विजयंति ते जीवा तेसिं पुढबीजोणियाणं रुक्खाणं सिणेहमाहारैति ते जीवा आहारति पुढवीसरीरं आतेउवाउवणस्सइसरीरं णाणाविहाणं तसधावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुति परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विष्परिणामियं सारुचिकडं संत अवरेवि य णं तेसिं रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविहसरीरपुग्गलविउच्चिया ते जीवा कम्मोववन्नगा भवतीतिमवखायं ॥ (सूत्रं ४४ ) ॥ अहावरं पुरक्वायं इगतिया सत्ता रुक्स्वजोणिया रुक्खसंभवा रुक्स्ववुकमा तज्जोणिया तस्संभवा तदुकमा कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवुकमा रुक्खजोणिएस रुक्खत्ताए बिउति, ते जीवा तेसिं रुक्खजोणियाणं For Parts Only ~698~ statatatatatatat ३ आहार ४ परिज्ञायां वृक्षाधि कारः ॥३४७॥ Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [४५], नियुक्ति: [१७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः eese प्रत सूत्रांक [४५] दीप अनुक्रम [६७७] cedeseselaeroeseseseseseseseroes रुक्खाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा आहारैति पुढवीसरीरं आउतेउवाउवणस्सइसरीरं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुबंति, परिविद्धत्वं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणामियं सारूविकडं संतं अवरेऽवि य णं तेसिं रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं सरीरा णाणावना जाव ते जीवा कम्मोववन्नगा भवंतीतिमक्खायं ।। (सूत्रं४५)। अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्तारुक्वजोणियारुक्खसंभवा रुक्खवुकमा तज्जोणिया तस्संभवा तदुवकमा कम्मोवगा कम्मनियाणेणं तत्ववुकमा रुक्खजोणिएसु रुक्वेसु मूलताए कंदत्साए खंधत्ताए तयत्ताए सालत्ताए पवालत्ताए पत्तत्ताए पुष्फत्ताए फलताए बीयत्ताए विउइंति, ते जीवा तेसिं रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा आहारेंति पुढवीसरीरं आउतेउवाउवणस्सइ० णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुचंति परिविद्धत्थं तं सरीरगं जाव सारूविकडं संतं, अवरेऽवि य णं तेर्सि रुक्खजोणियाणं मूलाणं कंदाणं खंधाणं तयाणं सालाणं पवालाणं जाव बीयाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा जावणाणाविहसरीरपुग्गलविरबिया ते जीवा कम्मोववन्नगा भवंतीतिमक्खायं ॥ (सूत्रं ४६)॥ अहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता रुक्खजोणिया रुक्खसंभवा रुक्खबुक्कमा तजोणिया तस्संभवा तदुवकमा कम्मोचवन्नगा कम्मनियाणेणं तत्थवुफमा रुक्खजोणिएहिं रुक्खेहिं अज्झारोहत्ताए विउद्घति, ते जीवा तेसिं रुक्खजोणियाणं रुक्वाणं सिणेहमाहारैति, ते जीवा आहारेंति पुढवीसरीरं जाव सारूविकडं संतं, अवरेवि य णं तेसिं रुक्खजोणियाणं अज्झारुहाणं सरीरा Receneneloenestsecese ~699~ Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [४७], नियुक्ति: [१७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्कन्धे शीला 90sas ३ आहार| परिज्ञायां सूत्रांक कीयावृत्तिः वृक्षाधिकार: [४७]] ॥३४८॥ दीप अनुक्रम [६७९] णाणावन्ना जावमक्खापं ॥ (सर्व४७)॥ अहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता अज्झारोहजोणिया अज्झारोहसंभवा जाव कम्मनियाणेणं तत्ववुकमा रुक्खजोणिएसु अज्झारोहेसु अज्झारोहत्ताए विउदृति, ते जीवा तेर्सि रुक्खजोणियाणं अज्झारोहाणं सिणेहमाहारेति, ते जीवा पुढवीसरीरं जाव सारूविकडं संतं, अवरेवि य गं तेर्सि अज्झारोहजोणियाणं अज्झारोहाणं सरीरा णाणावन्ना जावमक्खायं ॥ (सूत्रं ४८)। अहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता अज्झारोहजोणिया अज्झारोहसंभवा जाव कम्मनियाणेणं तत्थबुकमा अज्झारोहजोणिएम अज्झारोहत्ताए विउति, ते जीवा तेसिं अज्झारोहजोणियाणं अज्झारोहाणं सिणेहमाहारंति, ते जीवा आहारंति पुढविसरीरं आउसरीरं जाव सारूधिकई संतं, अवरेऽवि य णं तेर्सि अज्झारोहजोणियाणं अज्झारोहाणं सरीरा णाणावन्ना जावमक्वायं ॥ (सनं ४९)॥ अहावरं पुरक्खायं इहंगतिया सत्ता अज्झारोहजोणिया अज्झारोहसंभवा जाव कम्मनियाणेणं तत्थवुकमा अज्झारोहजोणिएसु अज्झारोहेसु मूलत्ताए जाव बीयत्ताए विउति ते जीवा तेसिं अज्झारोहजोणियाणं अज्झारोहाणं सिणेहमाहारैति जाच अवरेऽवि य णं तेसिं अज्झारोहजोणियाणं मूलाणं जाव बीयाणं सरीरा णापरावन्ना जावमक्खायं (मूत्रं५०)। अहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता पुढविजोणिया पुढविसंभवा जाव णाणाविहजोणियासु पुढवीसु तणत्ताए विउइंति, ते जीवा तेसिं गाणाविहजोणियाणं पुढवीणं सिणेहमाहारैति जाव ते जीवा कम्मोववन्ना भवंतीतिमक्खायं ।। (सूत्रं५१) ॥ एवं पुडविजोणिएमु तणेसु तणत्ताए विउति semeseseseserocinesese ॥३४८॥ ~700~ Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [५२] दीप अनुक्रम [६८४] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [-], मूलं [५२], निर्युक्ति: [१७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र - ०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः Ja Eucation International - जामखायं ॥ सूत्रं ५२ ॥ एवं तणजोणिए तणेसु तणस्ताए विउति, तणजोणियं तणसरीरं च आहारैति जायमक्वायं ॥ एवं तणजोणिएसु तणेसु मूलत्ताए जाव बीयत्ताए विउति ते जीवा जाव एवायं । एवं ओसहीणवि चत्तारि आलावगा || एवं हरियाणवि चत्तारि आलावगा ॥ सूत्रं ५३ ॥ अहावरं पुरस्वायं इहेगतिया सत्ता पुढ विजोणिया पुढविसंभवा जाव कम्मनियाणेणं तत्थवुक्कमा णाणाविहजोणियासु पुढचीसु आपत्ताए वायत्ताए कायत्ताए कूहणत्ताए कंदुकत्ताए उद्देहणियत्ताए निषेहणियत्ताए सछताए छत्तगत्ताए वासाणियत्ताए क्रूरताए बिउति, ते जीवा तेसिं णाणाविह जोणियाणं पुढवीणं सिणेहमाहारेति, तेवि जीवा आहारैति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरेऽवि य णं तेसिं पुढविजोणियाणं आता जाव कुराणं सरीरा णाणावण्णा जावमक्खायं, एगो चेव आलावगो सेसा तिष्णि णत्थि || अहावरं पुरखायं इहेगतिया सत्ता उदगजोणिया उदगसंभवा जाव कम्मनियाणेणं तस्थवकमा णाणाविहजोणिएस उदास रुक्त्ताए विति, ते जीवा तेसिं णाणाविहजोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारंति, ते जीवा आहारैति पुढबिसरीरं जाव संतं, अवरेऽवि य णं तेसिं उदगजोणियाणं रुवाणं सरीरा णाणावणा जावमनायं । जहा पुढविजोणियाणं रुक्खाणं चत्तारि गमा अज्झारुerra ata, auri ओसहीणं हरियाणं चत्तारि आलावगा भाणियवा एकेके । अहावरं पुरस्वायं इगतिया सत्ता उगजोणिया उद्गसंभवा जाव कम्मणियाणेणं तत्थवुक्कमा णाणाविहजोणिएस उदरसु For Parts Only ~701~ 223232329339999৬৬ Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक -], मूलं [१४], नियुक्ति: [१७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्क ३ आहारपरिज्ञाध्य न्धे शीला डीयावृत्तिः [५४] ॥३४९॥ दीप अनुक्रम [६८६] उदगत्ताए अवगत्ताए पणगसाए सेचालत्ताए कलंबुगत्ताए हडताए. कसेरुगत्ताए कच्छभाणियत्ताए उप्पलत्ताए पउमत्ताए कुमुयत्साए नलिणत्ताए सुभगत्ताए सोगंधियत्ताए पोंडरियमहापोंडरियत्ताए सयपत्तत्ताए सहस्सपत्तत्ताए एवं कल्हारकोंकणयत्ताए अरविंदत्ताए तामरसत्ताए भिसभिसमुणालपुक्खलत्ताए पुक्खलच्छिभगत्ताए विउति, ते जीवा तेसिं णाणाविहजोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा आहारेति पुढवीसरीर जाव संतं, अवरेऽविय णं तेसिं उद्गजोणियाणं उदगाणं जाव पुक्खलच्छिभगाणं सरीरा णाणावपणा जावमक्वायं, एगोचेव आलावगो ॥ सूत्रं ५४॥ अहावरं पुरावार्य इहेगतिया सत्ता तेसिं चेव पुढचीजोणिएहिं रुक्वेहिं रुक्खजोणिएहिं रुकवेहि रुक्खजोणिएहिं मूलहिं जाव बीएहिं रुक्खजोणिएहिं अज्झारोहेहिं अज्झारोहजोणिएहिं अज्झारुहेहिं अज्झारोहजोणिएहिं मूलेहिं जाय धीएहिं पुढविजोणिएहिं तणेहिं तणजोणिएहिं तणेहिं तणजोणिएहिं मूलेहिं जाव बीपहिं एवं ओसहीहिवि तिन्नि आलावगा, एवं हरिएहिवि तिन्नि आलावगा, पुढविजोणिएहिवि आएहि काहिं जाव कुरेहि उद्गजोणिएहि मक्खेहिं रुक्खजोणिएहिं रुक्रवहिं रुक्खजोणिएहिं मूलेहिं जाय बीएहिं एवं अज्झामहेहिवि तिण्णि तणेहिपि तिपिण आलावगा, ओसहीहिंपि तिपिण, हरिएहिंपि तिपिण, उदगजोणिएहिं उदएहि अवरहि जाव पुक्खलच्छिभएहिं तसपाणत्ताए विउद्देति ॥ ते जीवा तेसिं पुढचीजोणियाणं उदगजोणियाणं रुक्खजोणियाणं अज्झारोहजोणियाणं तणजोणियाणं ओसहीजोणियाणं हरियजोणियाणं रुक्खाणं अजझा ||३४९॥ ~702 ~ Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [१५], नियुक्ति: [१७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत् मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५५] మనం నింపు दीप अनुक्रम [६८७] सहाणं तणाणं ओसहीणं हरियाणं मूलाणं जाव बीयाणं आयाणं कायाणं जाव कुरवा(कुरा) णं उदगाणं अवगाणं जाव पुक्खलच्छिभगाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा आहारेति पुढवीसरीरं जाव संतं, अवरेऽवि यणं तेसिं रुक्वजोणियाणं अज्झारोहजोणियाणं तणजोणियाणं ओसहिजोणियाणं हरियजोणियाणं मूलजोणियाणं कंदजोणियाणं जाव बीयजोणियाणं आयजोणियाणं कायजोणियाणं जाव करजोणियाणं उदगजोणियाणं अवगजोणियाणं जाव पुक्वलच्छिभगजोणियाणं तसपाणाणं सरीरा णाणावण्णा जावमक्खायं ॥ भूत्रं ५५॥ सुधर्मस्वामी जम्यूस्वामिनमुद्दिश्येदमाह-तद्यथा-श्रुतं मयाऽऽयुष्मता तु भगवतेदमाख्यातं, तद्यथा-आहारपरिज्ञदमध्ययन, तस्य चायमर्थ:-प्राच्यादिषु दिक्षु 'सर्वत' इत्यू/धो विदिक्षु च 'सवार्वति'त्ति सर्वसिन्नपि लोके क्षेत्रे प्रज्ञापकभावदिगाधा| रभतेऽस्मिन लोके चखारो 'बीजकाया' बीजमेय कायो येषां ते तथा, बीजं वक्ष्यमाणं, चखारो 'बीजप्रकाराः समुत्पत्तिभेदा॥ भवन्ति, तद्यथा-अग्रे बीजं येषामुल्पद्यते ते तलतालीसहकारादयः शाल्यादयो वा, यदिवाऽग्राण्येवोत्पत्ती कारणतां प्रतिपद्यन्ते । येपां कोरण्टादीनां ते अग्रबीजाः, तथा मूलबीजा आर्द्रकादयः, पर्वबीजास्विक्ष्वादयः, स्कन्धबीजाः सल्लक्यादयः, नागार्जुनीयास्तु पठन्सि-"यणस्सइकाइयाण पंचविहा बीजबकती एवमाहि जइ-तंजहा-अग्गमूलपोरुक्संघवीयरुहा छहावि एगेंदिया || | संमुच्छिमा बीया जायंते" यथा दग्धवनस्थलीषु नानाविधानि हरितान्युद्भवन्ति पछिन्यो वाभिनवतडागादाविति । तेषां च । 9 चतुर्विधानामपि वनस्पतिकायानां यद्यस्य बीजम्-उत्पत्तिकारणं तपथाबीजं तेन यथाबीजेनेति, इदमुक्तं भवति-शाल्यकुरस 0 | वनस्पतिकायानां बीजस्य वर्णनं ~703~ Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [५५] दीप अनुक्रम [६८७] सूत्रकृता २ श्रुतस्क न्धे शीलाश्रीयावृत्तिः ॥३५०॥ “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [-], मूलं [५५], निर्युक्ति: [१७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र - ०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः शालिबीजमुत्पत्तिकारणम्, एवमन्यदपि द्रष्टव्यं यथाचकाशेने ति यो यथावकाश :- यद्यस्योत्पत्तिस्थानमथवा भूम्यम्बुकालाकाशबीजसंयोगा यथावकाशे गृहन्ते तेनेति, तदेवं यथावीजं यथावकाशेन च 'इह' अस्मिन् जगत्येके केचन सच्चा ये तथा| विधकमदियाद्वनस्पतित्पित्सवः ते हि वनस्पतयुत्पद्यमाना अपि पृथिवीयोनिका भवन्ति, यथा तेषां वनस्पतिबीजं कारणमेवमाधार मन्तरेणोत्पत्तेरभावात्पृथिव्यपि शैवालजम्वालादेरुदकवदिति तथा पृथिव्यां संभवः सदा भवनं येषां वनस्पतीनां ते तथा, इदमुक्तं भवति न केवलं ते तद्योनिकाः तत्स्थितिकाधेति तथा पृथिव्यामेव विविधमुत्-प्रावल्येन क्रमः क्रमणं येषां ते पृथिव्युक्रमाः, इदमुक्तं भवति - पृथिव्यामेव तेपामूर्ध्वक्रमणलक्षणा वृद्धिर्भवति, एवं च ते तद्योनिकास्तत्संभवास्तयुकमा इत्येतदन्यापरं विधातुकाम आह- 'कम्मोवगा' इत्यादि, ते हि तथाविधेन वनस्पतिकायसंभवेन कर्मणा प्रेर्यमाणास्तेष्वेव वनस्पतिधूप- सामीप्येन तस्यामेव च पृथिव्यां गच्छन्तीति कर्मोपगा भण्यन्ते, ते हि कर्मवशगा वनस्पतिकायादागत्य तेष्वेव पुनरपि वनस्पतिवृत्पद्यन्ते, न चान्यत्रोप्ता अन्यत्र भविष्यन्तीति, उक्तं च- "कुसुमपुरोते बीजे मथुरायां नाङ्कुरः समुद्भवति । यत्रैव तस्य बीजं तत्रैवोत्पद्यते प्रसवः ॥ १ ॥" तथा ते जीवाः कर्मनिदानेन कारणेन समाकृष्यमाणास्तत्र- पृथिव्यां वनस्पतिकाये वा व्युक| माः समागताः सन्तो नानाविधयोनिकासु पृथिवीष्वित्यन्येषामपि पण्णां कायानामुत्पत्तिस्थानभूतासु सचित्ताचित मिश्रासु वा | श्वेत कृष्णादिर्वणतिक्तादिरससुरभ्यादिगन्धमृदुकर्कशादिस्पर्शादिकैर्विकल्प बहुप्रकारासु भूमिषु वृक्षतया विविधं वर्तन्ते विवर्त्तन्ते, ते च तत्रोत्पन्नास्तासां पृथिवीनां 'स्नेह' स्निग्धभावमाददते, स एव च तेपामाहार इति, न च ते पृथिवीशरीरमाहारयन्तः पृथिव्याः पीडामुत्पादयन्ति । एवमकाय तेजोवायुवनस्पतीनामप्यायोज्यम् अत्र च पीडानुत्पादनेऽयं दृष्टान्तः, तद्यथा Education Internation - वनस्पतिकायानां बीजस्य वर्णनं For Parts Only ~704~ ३ आहारपरिज्ञाध्य. ||३५०॥ Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [ ५५ ] दीप अनुक्रम [६८७] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र -२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [-], मूलं [ ५५ ], निर्युक्ति: [ १७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः अण्डोद्भवाद्या जीवा मातुरुष्मणा विवर्धमाना गर्भस्था एवोदरगतमाहारयन्तो नातीव पीडामुत्पादयन्ति एवमसावपि वनस्पतिकायिकः पृथिवीस्नेहमाहारयन्नातीव तस्याः पीडामुत्पादयति उत्पद्यमानः समुत्पन्न वृद्धिमुपगतोऽसडशवर्णरसाद्युपेतत्वात् बाधां विदध्यादपीति । एवमप्कायस्थ भौमस्यान्तरिक्षस्य वा शरीरमाहारयन्ति तथा तेजसो भसादिकं शरीरमाददति, एवं वाय्वादेरपीति द्रष्टव्यं किं बहुनोक्तेन ?, नानाविधानां त्रसस्थावराणां प्राणिनां यच्छरीरं तत्ते समुत्पद्यमानाः 'अचित्त' मिति स्वकायेनावष्टभ्य प्रासुकीकुर्वन्ति, यदिवा परिविध्वस्तं पृथिवीकायादिशरीरं किञ्चित्प्रासुकं किञ्चित्परितापितं कुर्वन्ति ते वनस्पतिजीवा एतेषां पृथिवीकायादीनां तच्छरीरं 'पूर्वमाहारित' मिति तैरेव पृथिवीकायादिभिरुत्पत्तिसमये आहारितमासीत् स्वकायसेन परिणामितमासीत् तदधुनाऽपि वनस्पतिजीवस्तत्रोत्पद्यमान उत्पन्नो वा खचा स्पर्शेनाहारयति, आहार्य च स्वकायतेन विपरिणामयति, विपरिणामितं च तच्छरीरं स्वकायेन सह स्वरूपतां नीतं सचन्मयतां प्रतिपद्यते, अपराण्यपि शरीराणि मूलशाखाप्रतिशाखापत्रपुष्पफलादीनि तेषां पृथिवीयोनिकानां वृक्षाणां नानावर्णानि तथाहि--स्कन्धस्यान्यथाभूतो वर्णो मूलस्य चान्यादृश इति एवं यावन्नानाविधशरीरपुद्गलविकुर्वितास्ते भवन्तीति, तथाहि नानारसवीर्यविपाका नानाविधपुद्गलोपचयात्सुरूपकुरूपसंस्थानाः दृढाल्पसंहननाः कुशस्थूलस्कन्धाथ भवन्तीत्येवमादिकानि नानाविधस्वरूपाणि शरीराणि विकुर्वन्तीति स्थितं । केषांचिच्छाक्यादीनां वनस्पत्याद्याः स्थावरा जीवा एव न भवन्तीत्यतस्तत्प्रतिषेधार्थमाह- 'ते जीवा' इत्यादि, 'ते' वनस्पतिपुत्पन्ना जीवा नाजीचाः, उपयोगलक्षणताजीवानां, तथाहि तेषामप्याश्रयोत्सर्पणादिकया क्रिययोपयोगो लक्ष्यते, तथा विशिष्टाहारोपचयापच | याभ्यां शरीरोपचयापचयसद्भावादर्भकवत् जीवाः स्थावराः तथा छिन्नप्ररोहणात्स्वापात्सर्वखगपहरणे मरणादित्येवमादयो हेतवो तथा Eaton International For Parts Only ~705~ www.rary or Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [१५], नियुक्ति: [१७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: आहारपरिज्ञाध्य. प्रत सूत्रांक [५५] दीप अनुक्रम [६८७] सूत्रकृताई तात्र द्रष्टव्याः, यदत्र कैश्चित्स्पष्टेऽपि वनस्पतीनां चैतन्येऽसिद्धानकान्तिकखादिकमुक्त स्वदर्शनानुरागात् तदपकर्णनीय, नहि २श्रुतस्क सम्यगार्हतमताभिज्ञोऽसिद्धविरुद्धानकान्तिकोपन्यासेन व्यामोखते, सर्वस्व कथञ्चिदभ्युपगतसात्प्रतिषिद्धलाचेति । ते च जीवा- ग्वे शीला स्तत्र बनस्पतिषु तथाविधेन कर्मणा उपपन्नगाः, तच्चेदम्-एकेन्द्रियजातिस्थावरनामवनस्पतियोग्यायुष्कादिकमिति, तत्कर्मोदयेन कीयावृत्तिः तत्रोत्पना इत्युच्यन्ते न पुन: कालेश्वरादिना तत्रोत्पाद्यन्ते इत्येवमाख्यातं तीर्थकरादिभिरिति । एवं तावत्पृथिवीयोनिका वृक्षा अभिहिताः ॥ साम्प्रतं तयोनिकेष्वेव वनस्पतिषु अपरे समुत्पद्यन्त इत्येतद्दयितुमाह-सुधमेखामी शिष्योद्देशेनेदमाह-अधाप॥३५१॥ रमेतदाख्यातं पुरा तीर्थकरेण यदिवा तस्यैव वनस्पतेः पुनरपरं वक्ष्यमाणमाख्यातं, तद्यथा-'इह' असिन् जगत्येके केचन तथाविधकर्मोदयवर्तिनः 'सत्त्वाः' प्राणिनो वृक्षा एव योनिः-उत्पत्तिस्थानमाश्रयो येषां ते वृक्षयोनिकाः, इह च यत्पृथिवीयोनिकेषु वृक्षेष्वभिहितं तदेतेष्वपि वृक्षयोनिकेषु बनस्पतिषु तदुपचयकर्तृ सर्वमायोज्यं यावदारूयातमिति ॥ साम्प्रतं वनस्पत्यवयवानधिकृत्याह– अथापरमेतदाख्यातं (यदाख्यात) तदर्शयति-'इह' असिन् जगत्येके न सर्वे तथाविधकर्मोदयवर्तिनो वृक्षयोनिकाः | सच्चा भवन्ति तदवयवाश्रिताश्च परे वनस्पतिरूपा एव प्राणिनो भवन्ति, तथा यो होको वनस्पतिजीवः सर्ववृक्षावयवव्यापी भवति, | तस्य थापरे तदवयवेषु मूलकन्दस्कन्धतकशासाप्रवालपत्रपुष्पफलबीजभूतेषु दशपु स्थानेषु जीवाः समुत्पद्यन्ते, ते च तत्रोत्पद्यमाना वृक्षयोनिका वृक्षोद्भवा वृक्षव्युत्क्रमाश्चोच्यन्ते इति, शेषं पूर्ववत् , इह च प्राक्चतुर्विधार्थप्रतिपादकानि सूत्राण्यभिहितानि, तद्यथा-वनस्पतयः पृथिव्याश्रिता भवन्तीत्येकं १, तच्छरीरं अकायादिशरीरं वाऽऽहारयन्तीति द्वितीयं २, तथा विवृद्धास्तदाहारितं शरीरमचित्तं विध्वस्तं च कृखाऽऽत्मसात्कुर्वन्तीति तृतीयं ३, अन्यान्यपि तेषां पृथिवीयोनिकानां वनस्पतीनां शरीराणि seseseeeeeemedeser eseeroecemesese ॥३५॥ ~706~ Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [१५], नियुक्ति: [१७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक [५५] दीप अनुक्रम [६८७] मुलकन्दस्कन्धादीनि नानावर्णानि भवन्तीति चतुर्थ ४, एवमत्रापि वनस्पतियोनिकानां वनस्पतीनामेवंविधार्थप्रतिपादकानि चतुःप्रकाराणि सूत्राणि द्रष्टव्यानीति यावत्ते जीवा बनस्पत्यवयवमूलकन्दस्कन्धादिरूपाः कर्मोपपन्नगा भवन्त्येवमाख्यातम् ॥ साम्प्रतं पक्षोपयुत्पत्रान् वृक्षानाश्रित्याह--अथापरमेतत्पुराऽऽख्यातं यद्वक्ष्यमाणमिह के सवा वृक्षयोनिका भवन्ति, तत्र येते पृथिवीयोनिका वृक्षास्तेष्वेव प्रतिप्रदेशतया येऽपरे समुत्पद्यन्ते तसैकस्य बनस्पतेर्मूलारम्भकस्योपचयकारिणस्ते वृक्षयोनिका इत्यभिधीयन्ते, यदिवा ये ते मूलकन्दस्कन्धशाखाप्रशाखादिकाः पूर्वोक्तदशस्थानवर्तिनस्त एवमभिधीयन्ते, तेषु च वृक्षयोनिकेषु | वृक्षेषु कर्मोपादाननिष्पादितेषु उपयुपरि अध्यारोहन्तीत्यध्यारुहाः-वृक्षोपरिजाता बृक्षा इत्यभिधीयन्ते, ते च वल्लीवृक्षामिधानाः कामवृक्षाभिधाना वा द्रष्टव्याः, तद्भावे चापरे बनस्पतिकायाः समुत्पद्यन्ते वृक्षयोनिकेषु वनस्पतिष्विति, इहापि प्राग्वञ्चलारि | | सूत्राणि द्रष्टव्यानि, तद्यथा-वृक्षयोनिकेषु वृक्षेष्वपरेऽध्यारुहाः समुत्पद्यन्ते, ते च तत्रोत्पन्नाः खयोनिभूतं वनस्पतिशरीरमाहार| यन्ति, तथा पृथिव्यशेजोवारबादीनां च शरीरकमाहारयन्ति, तथा तच्छरीरमाहारितं सदचित्तं विध्वस्तं विपरिणामितमात्मसा| त्कृतं खकायावयवतया व्यवस्थापयन्ति, अपराणि च तेषामध्यारुहाणां नानाविधरूपरसगन्धस्पर्शपतानि नानासंस्थानानि शरीराणि भवन्ति, ते जीवास्तत्र खकृतकर्मोपपन्ना भवन्तीत्येतदाख्यातमिति प्रथमं सूत्रम्, द्वितीयं खिदम्-अथापरं पुराऽऽख्यातं ये ते प्राग्वृक्षयोनिकेषु वृक्षेषु अध्यारुहाः प्रतिपादितास्तेष्वेवोपरि प्रतिप्रदेशोपचयकर्तारोऽध्यारुहवनस्पतिलेनोपपद्यन्ते, ते च जीवा अध्यारुहप्रदेशेषत्पन्ना अध्यारहजीवास्तेषां खयोनिभूतानि शरीराण्याहारयन्ति, तत्रापराष्यपि पृथिव्यादीनि शरीराणि आहारयसन्ति अपराणि चाध्यारुहसंभवानामध्यारुहजीवानां नानाविधवर्णकादिकानि शरीराणि भवन्तीत्येवमाख्यातम् , तृतीयं मिदम् ~707~ Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [ ५५ ] दीप अनुक्रम [६८७] सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्क न्धे शीलाकीयावृत्तिः ॥३५२|| “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [-], मूलं [ ५५ ], निर्युक्ति: [ १७८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र - ०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः - अथापरं पुराख्यातं तद्यथा इहेके सच्चा अध्यारुह संभवेष्वध्यारुहेष्वध्यारुहवनोत्वयन्ते ये चैवमुत्पद्यन्ते तेऽध्यारुहयोनिकानामध्यारुहाणां यानि शरीराणि तानि आहारयन्ति, द्वितीयसूत्रे वृक्षयोनि कानामध्यारुहाणां यानि शरीराणि तान्यपरे अध्यारुहजीवा आहारयन्ति, तृतीये त्वध्यारुहयोनि कानामध्यारुहजीवानां शरीराणि द्रष्टव्यानीति विशेषः, इदं तु चतुर्थकं, तद्यथा - अथापरमिदमाख्यातं, तद्यथा-इहैके सच्चा अध्यारुहयोनिकेष्वध्यारुहेषु मूलकन्दस्कन्धत शाखाप्रवालपत्रपुष्पफलबीजभावेनोत्पद्यन्ते, ते च तथाविधकर्मोपगा भवन्तीत्येतदाख्यातमिति शेषं तदेवेति । साम्प्रतं वृक्षव्यतिरिक्तं शेषं वनस्प ( ग्रन्थानं १०५०० ) तिकायमाश्रित्याह- अथापरमिदमाख्यातं यदुत्तरत्र वक्ष्यते, तद्यथा - इहैके सच्चाः पृथिवीयोनिकाः पृथि वीसंभवाः पृथिवीम्युत्क्रमा इत्यादयो यथा वृक्षेषु चलार आलापका एवं तृणान्यप्याश्रित्य द्रष्टव्याः ते चामी - नानाविधासु पृथिवीयोनिषु तृणवेनोत्पद्यन्ते पृथिवीशरीरं चाहारयन्ति द्वितीयं तु पृथवीयोनिकेषु तृणेपूत्पद्यन्ते तृणशरीरं चाहारयन्तीति तृतीयं तु तृणयोनिकेषु तृणेनृत्पद्यन्ते तृणयोनिकतृणशरीरं चाहारयन्तीति चतुर्थं तृणयोनिकेषु तृणावयवेषु मूलादिषु दशप्रकारेषृत्पद्यन्ते तृणशरीरं चाहारयन्ति, इत्येवं यावदाख्यातमिति । एवमौपध्याश्रयाश्रवार आलापका भणनीयाः, नवरमोपधिग्रहणं कर्तव्यम् । एवं हरिताश्रयाश्चत्वार आलापका भणनीयाः । कुहणेषु खेक एवालापको द्रष्टव्यः, तद्योनिकानामपरेपामभावादिति भावः । इह चामी वनस्पतिविशेषा लोकव्यवहारतोऽनुगन्तव्याः प्रज्ञापनातो वाध्वसेया इति । अत्र च सर्वेषामेव पृथिवीयोनिक| खात्पृथिवीसमाश्रयलेनाभिहिताः । इह च स्थावराणां वनस्पतेरेव प्रस्पष्टचैतन्यलक्षणत्वात्तस्यैव प्राक् प्रदर्शितं चैतन्यम् साम्प्रतमप्काययोनिकस्य वनस्पतेः स्वरूपं दर्शयितुमाह- अथानन्तरमेतद्वक्ष्यमाणमाख्यातं तद्यथा-इके सच्चास्तथाविधकर्मोदयादु Internationa For Parts Only ~708~ ३ आहारपरिज्ञाध्य. ॥३५२॥ Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [१५], नियुक्ति: [१७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक [५५] दीप अनुक्रम [६८७] eneraprasamrapcensesea9092e दकं योनिः-उत्पत्तिस्थानं येषां ते तथा, तथोदके संभवो येषां ते तथा, यावत्कर्मनिदानेन संदानितास्तदुपक्रमा भवन्तीति । ते च तत्कर्मवशगा नानाविधयोनिषूदकेषु वृक्षसेन व्युत्क्रामन्ति-उत्पद्यन्ते । ये च जीवा उदकयोनिका वृक्षवेनोत्पन्नास्ते तछरी-18 | रम्-उदकशरीरमाहारयन्ति, न केवलं तदेवान्यदपि पृथिवीकायादिशरीरमाहारयन्तीति । शेषं पूर्ववत् नेयं । यथा पृथिवीयोनिकानां वृक्षाणां चखार आलापका एवमुदकयोनिकानामपि वृक्षाणां भवन्तीत्येवं द्रष्टव्यं, तदुत्पन्नानां वपरविकल्पाभावा-18 देक एवालापको भवति, एतेषां हि उदकाकृतीनां वनस्पतिकायानां तथा अवकपनकशवलादीनामपरस्य प्रागुक्तस्य विकल्प-181 स्वाभावादिति । एते च उदकाश्रया वनस्पतिविशेषाः कलम्बुकाहडादयो लोकव्यवहारतोऽबसेया इति ।। साम्प्रतमन्येन प्रका-13 रेण वनस्पत्याश्रयमालापकत्रयं दर्शयितुमाह-तद्यथा-पृथिवीयोनिकै वृक्षयोनिक्षस्तथा वृक्षयोनिकैलादिभिरिति, एवं वृक्षयोनिकैरध्यारुहैस्तथाऽध्यारुहयोनिकैरध्यारुहस्तथाध्यारुहयोनिकैर्मूलादिभिरिति । एवर्मन्येऽपि तृणादयो द्रष्टव्याः । एवमुदकयोनिकेष्वपि वृक्षेप योजनीयं ।। तदेवं पृथिवीयोनिकवनस्पतेरुदकयोनिकवनस्पतेव भेदानुपदाधुना तदनुवादेनोपसजिघृक्षुराह-'ते जीवा इत्यादि, ते वनस्पतित्पन्ना जीवाः पृथिवीयोनिकानां तथोदेकवृक्षाध्यारुहतृणीषधिहरितयोनिकानां पृक्षाणां यावत्स्नेहमाहारयन्तीत्येतदाख्यातमिति, तथा सानां प्राणिनां शरीरमाहारयन्त्येतदवसाने द्रष्टव्यमिति । तदेवं वनस्पतिकायि| कानां सुप्रतिपायचैतन्यानां खरूपमभिहितं, शेषाः पृथ्वीकायादयश्चखार एकेन्द्रिया उत्तरत्र प्रतिपादयिष्यन्ते, साम्प्रतं त्रसकायस्यावसरः, स च नारकतिर्य धनुष्यदेवभेदभिन्नः, तत्र नारका अप्रत्यक्षत्वेनानुमानग्राडाः-(तथाहि) दुष्कृतकर्मफल भुजः १ एक्मन्येष्वपि तृणादियोनिकैयपि यक्षेषु योजनीय, तदेवं प्र. २ तथोदकानां वृक्षा० प्र० । ~709~ Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [१५], नियुक्ति: [१७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्क प्रत सूत्रांक [५५] न्धे शीलाकीयावृत्तिः ॥३५३॥ दीप अनुक्रम [६८७] केचन संतीत्येवं ते ग्राह्योः । तदाहारोऽप्येकान्तेनाशुभपुद्गलनिर्वर्तित ओजसा न प्रक्षेपेणेति । देवा अप्यधुना बाहुल्येनानुमान- आहार गम्या एव, तेषामप्याहारः शुभ एकान्तेनोजोनिवर्तितो न प्रक्षेपकृत इति, स चाभोगनिवर्तितोऽनाभोगकृतध, तत्रानाभोगकतः परिज्ञाध्य. | प्रतिसमयभावी आभोगकृतब जघन्येन चतुर्थभक्तकृत उत्कृष्टतस्तु त्रयस्त्रिंशद्वर्पसहस्रनिष्पादित इति । शेषास्तु तिर्यअनुष्याः,181 तेपां च मध्ये मनुष्याणामभ्यर्हितखातानेच प्राग्दर्शयितुमाह अहावरं पुरक्वायं णाणाविहाणं मणुस्साणं तंजहा-कम्मभूमगाणं अकम्मभूमगाणं अंतरदीवगाणं आरियाणं मिलकखुयाणं, तेसिं च णं अहावीएणं अहावगासेणं इत्थीए पुरिसस्स य कम्मकडाए जोणिए एत्थ णं मेहुणवत्तियाए [व] णामं संजोगे समुप्पजद, ते दुहओवि सिणेहं संचिणंति, तत्थ णं जीवा इस्थित्ताए पुरिसत्ताए गपुंसगत्साए विउटुंति, ते जीवा माओउयं पिउसुकतं तदुभयं संसह कलुसं किविसं तं पढमत्साए आहारमाहारेंति, ततो पच्छा जं से माया णाणाविहाओ रसविहीओ आहारमाहारेति ततो एगदेसेणं ओयमाहारेति, आणुपुत्रेण वुड्डा पलिपागमणुपवना ततो कायातो अभिनिधहमाणा इत्धि वेगया जणयंति पुरिसं गया जणयंति णपुंसगं वेगया जपायंति, ते जीवा डहरा समाणा माउ ॥३५३॥ क्खीरं सप्पि आहारति, आणुपुबेणं बुड्डा ओयणं कुम्मासं तसथावरे य पाणे, ते जीवा आहारति पुढ१ सर्वग्वादर्शयति पाठ एषः, तथापि टीप्पणीतोऽन्तःप्रविष्ट इति ज्ञायते। २ लोमाहारोऽप्याजस्तया विवक्षितस्तेन केवलः प्रक्षेपः प्रतिषियः । merseeeeeeseroen ~710~ Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [१६], नियुक्ति: [१७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक [५५] cercecedes दीप अनुक्रम [६८८] aasa929092eae बिसरीरं जाव सारूविकर्ड संतं, अवरेऽवि य क तेसिं णाणाविहाणं मणुस्सगाणं कम्मभूमगाणं अकम्मभूमगाणं अंतरदीवगाणं आरियाणं मिलक्खूणं सरीराणाणावण्णा भवंतीतिमक्खायं ।। सूत्रं ५६॥ अथानन्तरमेतत् 'पुरा' पूर्वमाख्यातं, तद्यथा-आर्याणामनार्याणां च कर्मभूमिजाकर्मभूमिजादीनां मनुष्याणां नानाविधयो| निकानां खरूपं वक्ष्यमाणनीत्या समाख्यातं, तेषां च स्वीjनपुंसकभेदभिन्नानां 'यथाबीजेने ति यद्यस बीजं, तत्र खियाः संबन्धि शोणितं पुरुषस्य शुक्रं एतदुभयमप्यविध्वस्तं, शुक्राधिकं सत्पुरुषस्य शोणिताधिकं स्त्रियास्तत्समता नपुंसकस कारणतां प्रतिपद्यते, तथा 'यथावकाशेने ति यो यस्थावकाशो मातुरुदरकुत्यादिका, वत्रापि किल वामा स्त्रियो दक्षिणा कुक्षिः पुरुषस्योभयाश्रितः षण्ड इति । अत्र चाविध्यस्ता योनिरविध्वस्त बीजमिति चलारो भङ्गाः, तत्राप्याद्य एव भङ्गक उत्पत्तेरवकाशोन शेषेषु त्रिष्विति । अत्र च स्त्रीपुंसयोर्वेदोदये सति पूर्वकमनिवर्तितायां योनौ 'मैथुनप्रत्ययिको रताभिलाषोदयजनितोऽग्निकारणयोररणिकाष्ठयोरिव संयोगः समुत्पद्यते, तत्संयोगे च तच्छुक्रशोणिते समुपादाय तत्रोत्पित्सुवो जन्तवस्तैजसकार्मणाभ्यां शरीराभ्यां कमरज्जुसंदानितास्तत्रोत्पद्यन्ते । ते च प्रथममुभयोरपि खेहमाचिन्वन्त्यविध्वस्तायां योनौ सत्यामिति, विध्वस्यते तु योनिः पञ्चपू&ाशिका (यदा) नारी सप्तसप्ततिकः पुमान् इति, तथा द्वादश मुहूर्तानि यावच्छुक्रशोणिते अविध्वस्तयोनिके भवतः तत ऊर्वर समुपगच्छत इति । तत्र च जीवा उभयोरपि स्नेहमाहार्य स्वकर्मविपाकेन यथावं स्त्रीपुनपुंसकभावेन 'विउदृति चि वर्तन्ते । समुत्पद्यन्त इतियावत् , तदुत्तरकालं च सीकुक्षी प्रविष्टाः सन्तः खियाहारितसाहारस निर्यास नेहमाददति, तत्लेहेन च तेषां जन्तूनां कमोपचयाद् अनेन क्रमेण निष्पत्तिरुपजायते-'सत्ताह कललं होइ, सत्ताहं होइ बुब्बुर्य' इत्यादि । तदेवमनेन क्रमेण || 9 तदेकदेशेन वा मातुराहारमोजसा मिश्रेण वा लोमभिवाऽऽनुपूर्येणाहारयन्ति 'यथाक्रमम् आनुपूर्पण वृद्धिमुपागताः सन्तो। ~711 Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [१६], नियुक्ति: [१७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत ३ आहारपरिक्षाध्य. सूत्रांक [५५] दीप अनुक्रम [६८८] सूत्रकृताङ्गे गर्भपरिपार्क' गर्भनिष्पत्तिमनुप्रपन्नास्ततो मातुः कायादभिनिवर्तमाना:-पृथग्भवन्तः सन्तस्तयोनेनिर्गच्छन्ति । ते च तथाविध- २ श्रुतस्क- कर्मोदयादात्मनः खीभावमप्येकदा 'जनयन्ति' उत्पादयन्त्यपरे केचन पुंभावं नपुंसकमावं च, इदमुक्तं भवति-खीपुंनपुंस- ग्ध शीला-18|कभावः प्राणिनां स्वकृतकर्मनिर्वतितो भवति, न पुनयों यादृगिह भवे सोमुष्मिन्नपि ताहगेवेति, ते च तदहर्जातबालकाः सन्तः18 कीयावृत्तिः पूर्वभवाभ्यासादाहाराभिलाषिणो मातुः स्तनस्तन्यमाहारयन्ति, तदाहारेण चानुपूव्र्येण च वृद्धास्तदुत्तरकालं नवनीतदथ्योदना-1 ॥३५॥ | दिकं यावत्कुल्माषान भुञ्जते, तथाऽऽहारखेनोपगतांस्त्रसान् स्थावरांश्च प्राणिनस्ते जीवा आहारयन्ति, तथा नानाविधपृथिवीश रीरं लवणादिकं सचेतनमचेतनं वाऽऽहारयन्ति, तथाहारितमात्मसात्कृतं सारूप्यमापादितं सत् 'रसामृगांसमेदोऽस्थिमजाशुक्राणि धातव' इति सप्तधा व्यवस्थापयन्ति, अपराण्यपि तेषां नानाविधमनुष्याणां शरीराणि नानावर्णान्याविर्भवन्ति, ते च तद्योनिक| खात्तदाधारभूतानि नानावर्णानि शरीराण्याहारयन्तीत्येवमाख्यातमिति ।। एवं तावद्गर्भव्युकान्तिजमनुष्याः प्रतिपादिताः, तदनन्तरं 18 18| संमूर्छनजानामवसरः, तांश्चोत्तरत्र प्रतिपादयिष्यामि, साम्प्रतं तिर्यग्योनिकाः, तत्रापि जलचरानुदिश्याह अहावरं पुरक्खायं णाणाविहाणं जलचराणं पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं, संजहा मच्छाणं जाव सुंसुमाराणं, तेसिं च णं अहावीएणं अहावगासेणं इत्थीए पुरिसस्स य कम्मकडा तहेव जाव ततो एगदेसेणं ओयमाहारेंति, आणुपुष्वेणं बुड़ा पलिपागमणुपवना ततो कायाओ अभिनिवद्यमाणा अंड वेगया जणयंति पोयं वेगया जणयंति, से अंडे उन्भिजमाणे इत्थ वेगया जणयंति पुरिसं वेगया जणयंति नपुंसर्ग वेगया जणयंति, ते जीवा डहरा समाणा आउसिणेहमाहारेंति आणुपुवेणं वुहा वणस्सतिकार्य तसथा-- erserverseseseseseaerservercerate ॥३५॥ ~712~ Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) ཡྻ सूत्रांक [५७] अनुक्रम [६८९] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [-], मूलं [५७], निर्युक्ति: [१७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः Ja Eucation Internation - वरे य पाणे, ते जीवा आहारेति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरेऽवि य णं तेसिं णाणाविहाणं जलचरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं मच्छार्ण संसुमाराणं सरीरा णाणावण्णा जावमखायं ॥ अहावरं पुरखायं णाणाविहाणं चप्पलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं, तंजहा-एमखुराणं दुखुराणं गंडीपदाणं सणप्फयाणं, तेसिं च णं अहावीएणं अहावगासेणं इत्थपुरिसस्स य कम्म जाथ मेहुणवत्तिए णामं संजोगे समुप्पा, ते दुहओ सिणेहं संचिणंति, तम्थ णं जीवा इत्थित्ताए पुरिसत्ताए जाब विउति, ते जीवा माओउयं पिकं एवं जहा मणुस्साणं इत्थिपि वेगया जणयंति पुरिसंपि नपुंसगंपि, ते जीया डहरा समाणा माक्स्वीरं सप्पि आहारैति आणुपुवेणं बुड्डा वणस्सइकार्यं तस्थावरे य पाणे, ते जीवा आहारैति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरेऽवि य णं तेसिं णाणाविहाणं चउप्पयथलपरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं एगखुराणं जाव सणफयाणं सरीरा णाणावण्णा जावमक्खायं ॥ अहावरं पुरकखायं णाणाविहाणं उरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं, तंजहा-अहीणं अयगराणं आसालियाणं महोरगाणं, तेसिं च णं अहावीएणं अहावगासेणं इत्थीए पुरिस जाव एत्थ णं मेहुणे एवं तं चैव नाणत्तं अंडं वेगझ्या जणयंति पोयं वेगइया जणयंति से अंडे उभिमाणे इस्थि वेगइया जणयंति पुरिसंपि णपुंसगंपि, ते जीवा टहरा समाणा घाउकायमाहारैति आणुपुवेणं बुडा वणरसइकार्य तसधावरपाणे, ते जीवा आहारैति पुढ For Pasta Use Only ~713~ wor Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [१७], नियुक्ति: [१७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्कन्धे शीलाकीयावृत्तिः सूत्रांक [१७] दीप अनुक्रम [६८९] विसरीरं जाव संतं, अवरेऽवि य णं तेसिं गाणाविहाणं उरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्ख० अहीणं ३ आहार. जाव महोरगाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा जावमक्खायं ।। अहावरं पुरक्खायं णाणाविहाणं भुयप परिज्ञाध्यरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं, तंजहा-गोहाणं नउलाणं सिहाणं सरडाणं सल्लाणं सरवाणं खराणं घरकोइलियाणं विस्संभराणं मुसगार्ण मंगुसाणं पयलाइयाणं बिरालियाणं जोहाणं चप्पाइयाण, तेसिं च णं अहावीएणं अहावगासेणं इत्थीए पुरिसस्स य जहा उरपरिसप्पाणं तहा भाणियवं जाव सारुविकर्ड संत, अवरेऽवि य णं तेसिं गाणाविहाणं भुयपरिसप्पपंचिंदियथलयरतिरिक्खाणं तं० गोहाणं जावमक्वायं ॥ अहावरं पुरक्खायं णाणाविहाणं जलचरपंचिंदियतिरिक्ग्वजोणियाणं, तंजहाचम्मपक्वीणं लोमपक्खीणं समुग्गपक्वीणं विततपक्खीणं तेसिं च णं अहाबीएणं अहावगासेणं इत्थीए जहा उरपरिसप्पाणं, नाणतं ते जीवा डहरा समाणा माउगात्तसिणेहमाहारेंति आणुपुवेणं युवा वणस्सतिकार्य तसथावरे य पाणे, ते जीवा आहारेति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरेऽवि य णं तेर्सि णाणाविहाणं खहचरपंचिंदियतिरिक्वजोणियाणं चम्मपक्वीणं जावमक्खायं (सूत्रं ५७)॥ अथानन्तरमेतद्वक्ष्यमाणं पूर्वमाख्यातं, तद्यथा-नानाविधजलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां संबन्धिनः कांश्चित्खनामग्राहमाह,81॥३५५।। तद्यथा-'मच्छाणं जाच सुसुमाराण'मित्यादि, तेषां मत्स्यकच्छपमकरग्राहसुसुमारादीनां यथापीजेन-यस्य यथा यहीजं यथाचीज तेन | तथा यथावकाशेन-यो यसोदरादाववकाशस्तेन खियाः पुरुषस्य च खकर्मनिवेर्तितायां योनावुत्पद्यन्ते । ते च तत्राभिव्यक्ता मातु-11 ~714~ Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [५७] दीप अनुक्रम [६८९] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [-], मूलं [५७], निर्युक्ति: [१७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - राहारेण वृद्धिमुपगताः स्त्रीपुंनपुंसकानामन्यतमत्वेनोत्पद्यन्ते, ते च जीवा जलचरा गर्भाद्वयुत्क्रान्ताः सन्तस्तदनन्तरं यावद् 'डहर'सि लघवस्तावद स्नेहम् - अपूकायमेवाहारयन्ति आनुपूर्येण च वृद्धाः सन्तो वनस्पतिकार्य तथाऽपरांथ त्रसान् | स्थावरांधाहारयन्ति यावत्पञ्चेद्रियानप्याहारयन्ति तथा चोक्तम् - " अस्ति मत्स्यस्तिमिर्नाम, शतयोजनविस्तरः । तिमिङ्गिकगिलोऽप्यस्ति, तद्विलोऽप्यस्ति राघव ! ॥ १ ॥" तथा ते जीवाः पृथिवीशरीरं कर्दमस्वरूपं क्रमेण वृद्धिमुपगताः सन्त आहारयन्ति, तचाहारितं सत्समानरूपी कृत मान्म सात्परिणामयन्ति, शेषं सुगमं यावत्कर्मोपगता भवन्तीत्येवमाख्यातम् ॥ साम्प्रतं | स्थलचरानुद्दिश्याह-'अहावर 'मित्यादि, अथापरमेतदाख्यातं नानाविधानां चतुष्पदानां तद्यथा एकखुराणामित्यश्वखरादीनां तथा द्विखुराणां गोमहिष्यादीनां तथा गण्डीपदानां हस्तिगण्डकादीनां तथा सनखपदानां सिंहव्याघ्रादीनां यथावीजेन यथावकाशेन सकलपर्याप्तिमवाप्योत्पद्यन्ते ते चोत्पन्नाः सन्तस्तदनन्तरं मातुः स्तन्यमाहारयन्तीति क्रमेण च वृद्धिमुपगताः सन्तोऽपरेषामपि शरीरमाहारयन्तीति शेषं सुगमं यावत्कमपिगता भवन्तीति । साम्प्रतमुरः परिसर्पानुद्दिश्याह- 'नानाविधानां बहुप्रकाराणामुरसा ये प्रसन्ति तेषां तद्यथा-अहीनामजगराणामाशालिकानां महोरगाणां यथावीजलेन यथावकाशेन चोत्पच्याऽण्डजलेन | पोतजखेन वा गर्भाभिर्गच्छन्तीति । ते च निर्गता मातुरूष्माणं वायुं चाहारयन्ति, तेषां च जातिप्रत्ययेन तेनैवाहारेण क्षीरादिनेव वृद्धिरुपजायते, शेषं सुगमं यावदाख्यातमिति । साम्प्रतं भुजपरिसर्पानुद्दिश्याह- नानाविधानां भुजाभ्यां ये परिसर्पन्ति तेषां तद्यथा-गोधानकुलादीनां स्वकर्मोपात्तेन यथावीजेन यथावकाशेन चोत्पत्तिर्भवति, ते चाण्डजलेन पोतजखेन चोत्पन्नास्तदनन्तरं मातुरूष्मणा वायुना चाऽऽहारितेन वृद्धिमुपयान्ति, शेषं सुगमं यावदाख्यातमिति ॥ साम्प्रतं खचरानुद्दिश्याह--नानाविधानां Jan Eaton International For Pale Only ~715~ Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [46] दीप अनुक्रम [६८९] सूत्रकृताने २ श्रुतस्क मधेशीलाङ्कीयावृत्तिः ॥३५६॥ “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [-], मूलं [५७], निर्युक्ति: [१७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - खेचराणामुत्पत्तिरेवं द्रष्टव्या - तद्यथा चर्मपक्षिणां चर्मकीटवल्गुलीप्रभृतीनां तथा लोमपक्षिणां सारसराज हंस काकपकादीनां तथा | समुद्रपक्षिविततपक्षिणां वहिद्वीपवर्तिनामेतेषां यथावीजेन यथावकाशेन चोत्पन्नानामाहारक्रियैवमुपजायते, तद्यथा-सा पक्षिणी तदण्डकं स्वपक्षाभ्यामावृत्य तावतिष्ठति यावत्तदण्डकं तद्ष्मणाहारितेन वृद्धिमुपगतं सत् कललावस्थां परित्यज्य चश्चादिकानवयवान् परिसमापथ्य भेदमुपयाति, तदुत्तरकालमपि मात्रोपनीतेनाहारेण वृद्धिमुपयाति शेषं प्राग्वत् ॥ व्याख्याताः पञ्चेन्द्रिया मनुष्यास्तिर्यञ्चथ, तेपां चाहारो द्वेधा आभोगनिवर्तितोऽनाभोग निर्वर्तितत्र तत्रानाभोग निर्वर्तितः प्रतिक्षणभावी आभोगनिर्वर्तितस्तु | यथास्वं क्षुद्वेदनीयोदय भावीति । साम्प्रतं विकलेन्द्रियानुद्दिश्याह- अहावरं पुरग्वायं इहेगतिया सत्ता णाणाविह जोणिया णाणाविहसंभवा णाणाविबुकमा तज्जोणिया तस्संभवा तवकमा कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्यबुकमा णाणाविहाणं तस्थावराणं पोरगलाणं सरीरेसु वा सचित्ते या अचित्तेसु वा अणुसूपत्ताए बिउति, ते जीवा लेसिं णाणाविहाणं तस्थावराणं पाणाणं सिणेहमाहारेति, ते जीवा आहारति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरेऽवि य णं तेसिं तसथावरजोणियाणं अणुसूयगाणं सरीरा णाणावपणा जावमत्रस्वायं । एवं दुरुबसंभवत्ताए ॥ एवं खुरदुगाए || (सूनं ५८ ) अथानन्तरमेतदाख्यातं 'इ' अस्मिन् संसारे एके केचन तथाविधकर्मोदयवर्तिनः 'सत्त्वाः प्राणिनो नानाविधयोनिकाः कर्मनिदानेन स्वकृतकर्मगोपादानभूतेन तत्रोत्पत्तिस्थाने 'उपक्रम्य' आगत्य नानाविधत्रसस्थावराणां शरीरेषु सचितेषु अचित्तेषु Education Internationa For Pasta Use Only ~716~ ३ आहारपरिज्ञाध्य. ॥३५६॥ Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [५८], नियुक्ति: [१७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत senekeesea सूत्रांक [५८] दीप अनुक्रम [६९०] वा 'अणुसूयत्ताए'त्ति अपरशरीराश्रिततया परनिश्रया विवर्तन्ते समुत्पद्यन्ते इतियावत् , ते च जीवा विकलेन्द्रियाः सचित्तेषु मनुष्यादिशरीरेषु यकालिक्षादिकत्वेनोत्पद्यन्ते,तथा तत्परिभुज्यमानेषु मञ्चकादिष्वचित्तेषु मत्कुणत्वेनाविर्भवन्ति, तथाऽचित्तीभूतेषु || मनुष्यादिशरीरकेषु विकलेन्द्रियशरीरेषु वा ते जीवा अनुस्यूतत्वेन-परनिश्रया कृम्यादित्वेनोत्पद्यन्ते, अपरे तु सचित्ते तेजःकायादौ मूषिकादित्वेनोत्पद्यन्ते, यत्र चाग्निस्तत्र वायुरित्यतस्तदुद्भवा अपि द्रष्टव्याः, तथा पृथिवीमनुश्रित्य कुन्थुपिपीलिकादयो वर्षा-16 |दावृष्मणा संखेदजा जायन्ते, तथोदके पूतरकाडोल्लणकभ्रमरिकाछेदनकादयः समुत्पद्यन्ते, तथा वनस्पतिकाये पनकभ्रमरादयो जायन्ते । तदेवं ते जीवास्तानि खयोनिशरीराण्याहारयन्ति इत्येवमाख्यातमिति ॥ साम्प्रतं पञ्चेन्द्रियमूत्रपुरीपोद्भवानसुमतः प्रति| पादयितुमाह-'एव'मिति पूर्वोक्तपरामर्शः, यथा सचित्ताचित्तशरीरनिश्रया विकलेन्द्रियाः समुत्पद्यन्ते तथा तत्संभवेषु मूत्रपुरीपवान्तादिषु अपरे जन्तको दुष्ट-विरूपं रूपं येषां कृम्यादीनां ते दुरूपास्तत्संभवत्वेन-तद्भावनोत्पद्यन्ते, ते च तत्र विष्ठादी देहा-18 निर्गतेऽनिर्गते वा समुत्पद्यमाना उत्पन्नाथ तदेव विष्ठादिकं खयोनिभूतमाहास्यन्ति, शेष प्राग्वत् ।। साम्प्रतं सचित्तशरीराश्रयान | जन्तून् प्रतिपादयितुमाह-एवं मिति, यथा मूत्रपुरीषादावुत्पादस्तथा तिर्यशरीरेषु 'खुरदुगताए'त्ति चर्मकीटतया समुत्प| धन्ते, इदमुक्कं भवति-जीवतामेव गोमहिष्यादीनां चर्मणोऽन्तः प्राणिनः संमूच्छर्यन्ते, ते च तन्मांसचर्मणी भक्षयन्ति, भक्षय|न्तश्चमणो विवराणि विदधति, गलच्छोणितेषु विवरेषु तिष्ठन्तस्तदेव शोणितमाहारयन्ति, तथा अचित्तगवादिशरीरेऽपि, तथा | सचित्ताचित्तवनस्पतिशरीरेऽपि घुणकीटकाः संमूच्छर्यन्ते, ते च तत्र संमूर्च्छन्तस्तच्छरीरमाहारयन्तीति ।। साम्प्रतमपूकार्य प्रतिपि-18 | पादयिपुस्लत्कारणभूतवातप्रतिपादनपूर्वकं प्रतिपादयतीत्याह-- MEGESweatersekee ~717~ Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [ ५९ ] दीप अनुक्रम [६९१] सूत्रकृताने २ श्रुतस्क न्धे शीलाङ्गीयावृत्तिः ||३५७|| Education Internation “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [-], मूलं [ ५९ ], निर्युक्ति: [ १७८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - अहावरं पुरखायं हेगतिया सत्ता णाणाविहजोणिया जाव कम्मणियाणेणं तस्थवुकमा णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरेस सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा तं सरीरगं वायसंसिद्धं वा वायसंगहियं वा वायपरिग्गहियं उडुवाएस उड्डभागी भवति अहेवाएस अहेभागी भवति तिरियवासु तिरियभागी भवति, तंजा-ओसा हिमए महिया करए हरतणुए सुद्धोदए, ते जीवा तेसिं णाणाविहाणं तस्थावराणे पाणाणं सिणेहमाहारैति, ते जीवा आहारैति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरेऽवि य णं तेसिं तसथावरजोणियाणं ओसाणं जाव सुद्धोदगाणं सरीरा णाणावण्णा जावमक्वायं ॥ अहावरं पुरवार्य इहेंगतिया सत्ता उगजोणिया उदगसंभवा जाव कम्मणियाणेणं तत्थवुकमा तसथावरजोगिएसु उदरसु उदगन्ताए विति, ते जीवा तेसिं तस्थावरजोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारेति, ते जीवा आहारैति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरेऽवि य णं तेसिं तसथावरजोणियाणं उदगाणं सरीरा णाणावण्णा जावक्वायं । अहावरं पुरक्वायं इंहेगतिया सत्ता उदगजोणियाणं जाव कम्मनियाणेणं तत्थवुकमा उदगजोणिए उदre उदगत्ताए विउति, ते जीवा तेर्सि उदगजोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा आहारैति पुढबिसरीरं जाव संतं, अवरेऽवि य णं तेसिं उदगजोणियाणं उदगाणं सरीरा णाणावन्ना जावमक्वायं ॥ अहावरं पुरस्स्वार्थ इहेगतिया सत्ता उदगजोणियाणं जाव कम्मनियाणेणं तत्थवुकमा उदगजोणिएस उदपसु तसपाणसाए बिउति, ते जीवा तेसिं उदगजोणियाणं For Penal Use Only ~718~ ३ आहारपरिज्ञाध्य. 1124011 wor Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [ ५९ ] दीप अनुक्रम [६९१] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [-], मूलं [ ५९ ], निर्युक्ति: [ १७८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - उदगाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा आहारैति पुढविसरीरं जाय संतं, अवरेऽवि य णं तेसिं उदगजोणियाणं तसपाणाणं सरीरा णाणावण्णा जावमक्वायं ॥ (सूत्रं ५९ ) अथानन्तरमेतद्वक्ष्यमाणं 'पुरा' पूर्वमाख्यातं, 'इह' अस्मिन् जगत्येके सच्चास्तथाविधकर्मोदयाद् नानाविधयोनिकाः सन्तो याव स्कर्मनिदानेन 'तत्र' तस्मिन्वातयोनिकेऽपूकाये 'व्युत्क्रम्य' आगत्य 'नानाविधान' बहुप्रकाराणां 'सानी' दर्दुरप्रभृतीनां 'स्थावराणां च' हरितलवणादीनां प्राणिनां सचित्ताचित्तभेदभिन्नेषु शरीरेषु तदप्रकायशरीरं वातयोनिकवाद कायस्य वायुनोपादानकारणभूतेन सम्पक 'संसिद्ध' निष्पादितं तथा वातेनैव सम्यग् गृहीतम अकपटलान्तर्निर्वृत्तं तथा वातेनान्योऽन्यानुगतत्वात्परिगतं तथोर्ध्वगतेषु वातेपूर्ध्वभागी भवत्यप्रकायो, गगन गतवातवशादिवि संमूर्च्छते जलं, तथाऽधस्ताद्वतेषु वातेषु तद्वशाद्भवत्यधोभागी अकाय:, एवं तिर्यग्गतेषु वातेषु तिर्यग्भागी भवत्यप्रकायः, इदमुक्तं भवति - यातयोनिकसाद कायस्य यत्र यत्रासौ तथाविधपरिणामपरिणतो भवति तत्र तत्र तत्कार्यभूतं जलमपि संमूर्च्छते, तस्य चाभिधानपूर्वकं भेदं दर्शयितुमाह-तद्यथा'ओस'ति अवश्याय: 'हिमये'ति शिशिरादौ वातेरिता हिमकणा महिकाः- धूमिकाः करकाः प्रतीताः 'हरितणुय'ति तृणाअव्यवस्थिता जलबिन्दवः शुद्धोदकं प्रतीतमिति । 'इह' अस्मिन्नुदकप्रस्तावे एके सश्वास्तत्रोत्पद्यन्ते स्वकर्मवशगास्तत्रोत्पन्नास्ते | जीवास्तेपां नानाविधानां प्रसस्थावराणां खोत्पच्याधारभूतानां खेहमाहारयन्ति, ते जीवास्तच्छरीरमाहारयन्ति, अनाहारका न भवन्तीत्यर्थः शेषं सुगमं यावदेतदाख्यातमिति । तदेवं वातयोनिकमपकार्यं प्रदधुना काय संभव मेवाकार्य दर्शयितुमाहअथापरमाख्यातं 'इट' अस्मिन् जगति उदकाधिकारे वा एके सच्चास्तथाविधकर्मोदयाद्वातव शोत्पन्नत्रसंस्थावरशरीराधारमुदकं Jan Eucation Internationa For Parts Only ~719~ enesex ১৩৯৫ yor Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [१९], नियुक्ति: [१७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक [५९] दीप अनुक्रम [६९१] मूत्रकृताङ्गेयोनिः- उत्पत्तिस्थानं येषां ते तथा, तथोदकसंभवा यावत्कमनिदानेन तत्रोस्पित्सवस्त्रसस्थावरयोनिकेपदकेष्वपरोदकतया ३आहार२ श्रुतस्क- विवर्तन्ते' समुत्पद्यन्ते, ते चोदकजीवास्तेषां प्रसस्थावरयोनिकानामुदकानां स्नेहमाहारयन्ति अन्यान्यपि पृथिव्यादिशरीराण्या-1 परिज्ञाच्या न्धे शीला हारयन्ति, तब पृथिव्यादिशरीरमाहारितं सत् सारूप्यमानीयात्मसात्मकुर्वन्त्यपराण्यपि तत्र बसस्थावरशरीराणि विवर्तन्ते, तेषां कीयावृत्तिः चोदकयोनिकानामुदकानां नानाविधानि शरीराणि विवर्तन्ते इत्येतदाख्यातम् ॥ तदेवं त्रसस्थावरशरीरसंभवमुदकं योनित्वेन || ॥३५८॥ प्रदाधुना निर्विशेषणमप्कायसंभवमेवापुकार्य दर्शयितुमाह-अथापरमेतदाख्यातं 'इह' अस्मिन् जगत्पुदकाधिकारे वा एके सवाः 18| स्वकृतकर्मोदयादुदकयोनिषदकेषुत्पद्यन्ते, ते च तेषामुदकसंभवानामुदकजीवानामात्माधारभूतानां शरीरमाहारयन्ति, शेष सुगम | याबदाख्यातमिति ।। साम्प्रतमुदकाधारान् परान् पूतरकादिकांखसान् दर्शयितुमाह-अथापरमेतदाख्यातमिहके सत्त्या उदकेषु उद-18 | कयोनिषु चोदकेषु प्रसपाणितया पूतरकादिखेन 'विवतेन्ते' समुत्पद्यन्ते, ते चोत्पद्यमानाः समुत्पन्नाथ तेपामुदकयोनिकानामुद-18 |कानां स्नेहमाहारयन्ति, शेष सुगमं यावदाख्यातमिति ।। साम्प्रतं तेजःकायमुद्दिश्याह अहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता णाणाविहजोणिया जाव कम्मनियाणणं तत्ववुकमा णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा अगणिकायत्साए विउति, ते जीवा तेर्सि णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा आहारति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरेऽवि ॥३५८॥ यणं तेसिं तसथावरजोणियाणं अगणीणं सरीरा णाणावण्णा जावमक्खायं, सेसा तिन्नि आलावगा जहा उदगाणं ।। अहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता णाणाविहजोणियाणं जाव कम्मनियाणेणं तस्थ ~720~ Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [६०] दीप अनुक्रम [६९२] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [3], उद्देशक [-], मूलं [६०] - (गाथा १-२ ), निर्युक्तिः [१७८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[ ०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः - बुकमा णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचितेसु वा वाshreery farईति, जहा अगणीणं तहा भाणियवा, चत्तारि गमा ॥ (सूत्रं ६० ) । अथैतदपरमाख्यातं 'इह' अस्मिन् संसारे एके केचन 'सत्त्वाः' प्राणिनस्तथाविधकर्मोदयवर्त्तिनो नानाविधयोनयः प्राक् सन्तः पूर्वजन्मनि तथाविधं कर्मोपादाय तत्कर्मनिदानेन नानाविधानां त्रसस्थावराणां प्राणिनां शरीरेषु सचित्तेष्वचितेषु चाग्निलेन 'विवर्तन्ते' प्रादुर्भवन्ति, तथाहि - पञ्चेन्द्रियतिरथां दन्तिमहिपादीनां परस्परं युद्धावसरे विषणसंघर्षे सति अग्निरुत्तिष्टते, एवमचितेष्वपि तदस्थिसंघर्षादप्रेरुत्थानं, तथा द्वीन्द्रियादिशरीरेष्वपि यथासंभवमायोजनीयं तथा स्थावरेष्वपि वनस्पत्युपलादिषु सचित्ताचित्तेष्वग्निजीवाः समुत्पद्यन्ते, ते चाग्निजीवास्तत्रोत्पन्नास्तेषां नानाविधानां सस्थावराणां स्नेहमाहारयन्ति, शेष सुगमं यावद्भवन्तीत्येवमाख्यातम् । अपरे त्रयोऽध्यालापकाः प्राग्वद् द्रष्टव्या इति । साम्प्रतं वायुकायमुद्दिश्याह-'अहावर'मित्यादि, अथापरमेतदाख्यातमित्याद्यग्निकायगमेन व्याख्येयम् ॥ साम्प्रतमशेषजीवाधारं पृथिवीकायमधिकृत्याह Ja Eucation International अहावरं पुरखायं इहेगतिया सत्ता णाणाविहजोणिया जाव कम्मनियाणेणं तत्थवुकमा णाणाविहाणं तस्थावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचितेसु वा पुढवित्ताए सक्करत्ताए बालुयन्ताए इमाओ गाहाओ अणुगंतवाओ- 'पुढवी व सकरा वालुया य उबले सिला य लोणूसे । अय तय तंब सीसग रुप्प सुवण्णेय वइरे य ॥ १ ॥ हरियाले हिंगुलए मणोसिला सासगंजणपवाले अन्भपडल १ दन्तयोः परिमापेक्षा सविलापेक्षा का अभिनता २ मतियुक्ताः । For Park Use On ~721~ Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [६१]- (गाथा २-४), नियुक्ति: [१७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ३ आहारपरिज्ञाध्य. प्रत सूत्रांक [६१] ||१-४|| सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्कन्धे शीलाकीयावृत्तिः व्भवालुय बायरकाए मणिविहाणा ॥२॥ गोमेज्जए य रुपए अंके फलिहे य लोहियक्ष य । मरगयमसारगल्ले भुयमोयग इंदणीले य ॥३॥ चंदण गेरुय हंसगन्भ पुलए सोगंधिए य योद्धये । चंदप्पभ वेलिए जलकंते सरकते य॥४॥ एयाओ एएसु भाणियबाओ गाहाओ जाव सूरकंतताए विउद्घति, ते जीवा तेसिं णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरेऽवि य णं तेसिं तसथावरजोणियाणं पुडवीणं जाब सरकंताणं सरीरा णाणायण्णा जावमक्वायं, सेसा तिपिण आलाबगा जहा उदगाणं ।। (सूत्रं ६१)॥ अथापरमेतत्पूर्वमाख्यातं इहैके सच्चाः पूर्व नानाविधयोनिकाः स्वकृतकर्मयशा नानाविधत्रसस्थावराणां शरीरेषु सचिचेषु अचित्तेषु वा पृथिवीखेनोत्पद्यन्ते, तद्यथा-सपेशिरःसु मणयः करिदन्तेषु मौक्तिकानि विकलेन्द्रियेष्वपि शुल्यादिषु मौक्तिकानि | स्थावरेष्वपि घेण्यादिपु तान्येवेति, एवमचित्तेपूपरादिषु लवणभानोत्पद्यन्ते, तदेवं पृथिवीकायिका नानाविधामु पृथिवीपु | शर्करावालुकोपलशिलालवणादिभावन तथा गोमेदकादिरलभावेन च बादरमणि विधानतया समुत्पद्यन्ते, शेपं सुगमं यावश्चखा-18 | रोऽप्यालापका उदकगमेन नेतव्या इति ।। साम्प्रतं सर्वोपसंहारद्वारेण सर्वजीवान सामान्यतो विभणिपुराह अहावरं पुरक्वायं सचे पाणा सधे भूता सबे जीवा सब सत्ता णाणाबिहजोणिया जाणाविहमभवा णाणाविहवुकमा सरीरजोणिया सरीरसंभवा सरीरबुकमा सरीराहारा कम्मोवगा कम्मनियाणा कम्मगतीया कम्मठिइया कम्मणा व विपरियासमुति।। से एवमायाणह से एवमायाणित्ता आहारगुत्ते सहिए समिए दीप अनुक्रम [६९३ ॥३५९॥ ६९८] ~722~ Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [३], उद्देशक [-], मूलं [६२], नियुक्ति: [१७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक [६२] दीप अनुक्रम [६९९] सया जए तिमि ॥ (सन्न ६२ ) ॥ वियसुयक्वंधस्स आहारपरिण्णा णाम तईयमज्नयणं समत्तं ॥ अथापरमेतदाख्यातं, तद्यथा-संबै 'प्राणाः' प्राणिनोत्र च प्राणिभूतजीवसत्त्वशब्दाः पर्यायत्त्वेन द्रव्याः, कथञ्चिद्भेदं 18वाऽऽश्रित्य व्याख्येयाः, ते च नानाविधयोनिका नानाविधासु योनिषूत्पद्यन्ते, नारकतिर्यनरामराणां परस्परगमनसंभवात् , 8 ते च यत्र यत्रोत्पद्यन्ते तत्तच्छरीराण्याहारयन्ति, तदाहारवन्तश्च तत्रागुप्तास्तद्वारायाततत्कर्मवशगा नारकतिर्यजनरामरगतिषु जघन्यमध्यमोत्कृष्टस्थितयो भवन्ति, अनेनेदमुक्तं भवति यो यारगिह भवे स तादृगेवामुत्रापि भवतीत्येतन्निरस्त भवति, अपितु कोपगाः कर्मनिदानाः कोयत्तगतयो भवन्ति, तथा तेनैव कर्मणा मुखलिप्सबोऽपि तद्विपर्यास-दुःखमुपगच्छन्तीति ।।। साम्प्रतमध्ययनार्थमुपसंजिघृक्षुराह-यदेतन्मयादितः प्रभृत्युक्तं, तद्यथा-यो यत्रोत्पद्यते स तच्छरीराहारको भवति आहारागुप्तश्च कर्मादत्ते कर्मणा च नानाविधामु योनिपु अरहघटीन्यायेन पौनःपुन्येन पर्यटतीत्येवमाजानीत यूर्य, एतद्विपर्यासे दुःखमुपगच्छन्तीति । एतत्परिज्ञाय च सदसद्विवेक्पाहारगुप्तः पञ्चभिः समितिभिः समितो यदिवा सम्यगनानादिके मार्गे इतो-181 गतः समितः तथा सह हितेन वर्तते सहितः सन् सदा-सर्वकालं यावदुरासं तावद्यतेत सत्संयमानुष्ठाने प्रयलवान् भवेदिति 18 इतिः परिसमाप्त्यर्थे, अधीमीतिपूर्ववत् । गतोऽनुगमः । साम्प्रतं नयाः, ते च प्रामद् द्रएण्याः ॥ समाप्तमाहारपरिज्ञाख्या तृतीयमध्ययनम् ।। ३॥ इति श्रीसूत्रकृदङ्गे द्वितीयश्रुतस्कन्धे आहारपरिज्ञाख्यं तृतीयमध्ययनं सवृत्तिकं समाप्तिमगात् Newerstice creasestepse अत्र तृतीयं अध्ययनं परिसमाप्तं ~723~ Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [४], उद्देशक [-], मूलं [६२...], नियुक्ति: [१७९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: अथ द्वितीयश्रुतस्कन्धे चतुर्थप्रत्याख्यानाध्ययनप्रारम्भः ॥ ४ प्रत्या| ख्यानाध्य. प्रत सूत्रांक सूत्रकृताङ्ग २ श्रुतस्कन्धे शीलाकीयावृत्तिः ॥३६०॥ [६२] secesesere दीप अनुक्रम [६९९] तृतीयाध्ययनानन्तरं चतुर्थमारभ्यते, अस्स चायमभिसंबन्धः-इहानन्तराध्ययने आहारागुप्तख कर्मबन्धोभिहितोऽतोत्र तत्प्रत्याख्यानं प्रतिपाद्यते, यदिवोत्तरगुणसंपादनार्थ शुद्धतराहारविवेकार्थमाहारपरिज्ञोक्ता, सा चोत्तरगुणरूपा प्रत्याख्यानक्रियासमन्वितस्य भवतीत्यत आहारपरिज्ञानन्तरं प्रत्याख्यानक्रियाध्ययनमारभ्यते इत्यनेन संबन्धेनायातस्खास्याध्ययनस्योपक्रमादीनि चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्रोपक्रमान्तर्गतोऽाधिकारोऽयम् , तद्यथा-इह कर्मोपादानभूतस्याशुभस्य प्रत्याख्यानं प्रतिपाचत इति । साम्प्रतं निक्षेपः, तत्राप्योपनिष्पन्नेऽध्ययनं नामनिष्पन्ने प्रत्याख्यानक्रियेति द्विपदं नाम, तत्र प्रत्याख्यानपदनिक्षेपार्थ । नियुक्तिकृदाह णामंठवणादविए अइच्छ पडिसेहए य भाव य । एसो पञ्चक्वाणस्म छविहो होह निक्वेवो ॥ १७९॥ मूलगुणसु य पगयं पचक्रवाणे इहं अधीगारो । होज हु तप्पच्चझ्या अप्पचक्वाणकिरिया उ ॥ १८ ॥ नामस्थापनाद्रव्यादित्साप्रतिषेधभावरूपः प्रत्याख्यानस्यायं पोढा निक्षेपः, तत्रापि नामस्थापने सुगमे, द्रव्यप्रत्याख्यानं तु || ॥३६०॥ द्रव्यस्य द्रव्येण द्रव्याद् द्रव्ये द्रव्यभूतस्य वा प्रत्याख्यानं द्रव्यप्रत्याख्यान, तत्र सचित्ताचित्तमिश्रभेदस्य द्रव्यस्य प्रत्याख्यान द्रव्यप्रत्याख्यानं, द्रव्यनिमित्तं वा प्रत्याख्यानं यथा धम्मिल्लस्य, एवमपराण्यपि कारकाणि खधिया योजनीयानि, तथा दातु SARERatunintenmatra | अथ चतुर्थ अध्ययनं "प्रत्याख्यान" आरभ्यते, तृतीय- अध्ययनेन सह अभिसंबन्धः, प्रत्याख्यान-पदस्य निक्षेपा: ~724 ~ Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [४], उद्देशक [-], मूलं [६२...], नियुक्ति: [१८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६२] मिच्छा दित्सा न दित्सा अदित्सा तया प्रत्याख्यानमदित्साप्रत्याख्यान-सत्यपि देये सति च संप्रदानकारके केवलं दातृत| मिच्छा नास्तीत्यतोऽदित्साप्रत्याख्यान, तथा प्रतिषेधप्रत्याख्यानमिदं, तद्यथा-विवक्षितद्रव्याभावाद्विशिष्टसंग्रदानकारकाभावाद्वा | सत्यामपि दित्सायां यः प्रतिषेधस्तत्प्रतिषेधप्रत्याख्यानं, भावप्रत्याख्यानं तु द्विधा अन्तःकरणशुद्धस्य साधोः श्रावकस पा|8 मूलगुणप्रत्याख्यानमुत्तरगुणप्रत्याख्यानं चेति, चशब्दादेतद् द्विविधमपि नोआगमतो भावप्रत्याख्यानं द्रष्टव्यं, नान्यदिति । साम्प्रतं क्रियापदं निक्षेप्तव्यं, तच्च क्रियास्थानाध्ययने निक्षिप्तमिति न पुननिक्षिप्यते । इह पुनर्भावप्रत्याख्यानेनाधिकार इति । दर्शयितुमाह-मूलगुणा:-प्राणातिपातविरमणादयस्तेषु प्रकृतम्-अधिकारः प्राणातिपातादेः प्रत्याख्यानं कर्तव्यमितियावत् 'इहा। प्रत्याख्यानक्रियाध्ययनेाधिकारो, यदि मूलगुणप्रत्याख्यानं न क्रियते ततोऽपाय दर्शयितुमाह-प्रत्याख्यानाभावेऽनियतत्वाध-INI किञ्चनकारितया तत्प्रत्ययिका-तनिमित्ता भवेद्-उत्पद्येत अप्रत्याख्यानक्रिया-सावद्यानुष्ठानक्रिया तत्ात्ययिकश्च कर्मवन्धः। तनिमित्तय संसार इत्यतः प्रत्याख्यान क्रिया मुमुक्षुणा विधेयेति । गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, अधुना सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारयितव्यं, तच्चेदम् सुर्य मे आउसंतेणं भगवया एवमक्खायं-इह खलु पञ्चक्खाणकिरियाणामायणे, तस्सणं अयम? पण्णते-आया अपचक्रवाणी.यावि भवति आया अकिरियाकुसले यावि भवति आया मिच्छासंठिए याचि भवति आया एगंतदंडे यावि भवति आया एगंतवाले यावि भवति आया एगंतसुत्ते यावि भवति आया अवियारमणवयणकायवके यावि भवति आया अप्पडिहयअपचक्खायपावकम्मे पावि भवति, दीप अनुक्रम [६९९] ar2029092030Sane2a200 प्रत्याख्यान-पदस्य निक्षेपा:, मूलसूत्रस्य आरम्भ: ~725~ Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [४], उद्देशक [-], मूलं [६३], नियुक्ति: [१८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत न्धे शीला सूत्रांक [६३] सूत्रकृताङ्गे एस खलु भगवता अक्खाए असंजते अविरते अप्पडिहयपञ्चक्वायपावकम्मे सकिरिए असंबुडे एग- ४प्रत्या२ श्रुतस्कतदंडे एगंतवाले एगतसुत्से, से बाले अवियारमणवयणकायवके सुविणमवि ण परसति, पावे य से ख्याना कम्मे कजइ ॥ (सून ६३)॥ अविरतस्य बीयावृत्तिः पापबन्धः अस्स चानन्तरपरम्परमूत्रैः सह संबन्धो वक्तव्यः, स चायम्-इहानन्तराध्ययनपरिसमाप्ताविदं सूत्रम्-'आहारगुप्तः समितः1% ॥३६१॥ सहितः सदा यतेते'ति एतन्मया श्रुतमायुष्मता भगवतेदमाख्यातम् , एवमनया दिशा परम्परसूत्ररपि संबन्धोत्र्भ्यूया, 'इह | [ असिन प्रवचने सूत्रकृताङ्गे वा 'खल्वि'ति वाक्यालङ्कारे प्रत्याख्यानक्रियानामाध्ययनं तस्थायमर्थो वक्ष्यमाणलक्षणः, अततीत्यात्मा ! -जीवः प्राणी, स चानादिमिथ्याखाविरतिप्रमादकपाययोगानुगततया स्वभावत एवाप्रत्याख्यान्यपि भवति, अपिशब्दात्स एव | कुतधिनिमित्तात्प्रत्याख्यान्यपि, तत्रात्मग्रहणमपरदर्शनव्युदासार्थ, तथाहि-सायानामग्रच्युतानुत्पनखिरकम्खभाव आत्मा, स च तृणकुजीकरणेऽप्यसमर्थतयाकिश्चित्करत्वान्न प्रत्याख्यानक्रियायां भवितुमर्हति, बौद्धानामप्यात्मनोऽभावात् ज्ञानस्य च क्षणिक-RM तया खितेरभावात् कुतः प्रत्याख्यानक्रियेति, एवमन्यत्रापि प्रत्याख्यानक्रियाया अभावो वाच्यः, तथा सदनुष्ठान क्रिया तस्यां || ४ कुशलः क्रियाकुशलस्तत्प्रतिषेधाद क्रियाकुशलोऽप्यात्मा भवति, तथाऽऽत्मा मिथ्यात्वोदयसंस्थितोऽपि भवति, तथकान्तेनापरान् प्राणिनो दण्डयतीति दंडस्तदेवभूतधारमा भवति, तथाऽसारतापादनाद्रागद्वेषाकुलितखाद्वालवद्वाल आत्मा भवति, तथा सुप्तवत्सुप्तः || | यथा हि द्रव्यसुप्तः शब्दादीन विषयान् न जानाति हिताहितप्रातिपरिहारविकलश्च तथा भावसुप्तोऽप्यात्मैवंभूत एव भवतीति, एवमविचारणीयानि-अशोभनतयाऽनिरूपणीयान्यपर्यालोचनीयानि मनोवाकायवाक्यानि यस्य स तथा, तत्र मना-अन्तःकरणं seeeesदलद दीप अनुक्रम [७००] ~726~ Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [४], उद्देशक [-], मूलं [६३], नियुक्ति: [१८०] (०२) प्रत सूत्रांक [६३] वाय-वाणी कायो देहः अर्थप्रतिपादकं पदसमूहात्मकं वाक्यमेकतिङ सुबन्तं वा, तत्र वाग्ग्रहणेनैव वाक्यस्य गतार्थत्वायत्पुन-1 शाक्यग्रहणं करोति तदेवं ज्ञापयति-इह याग्रब्यापारस्य प्रचुरतया प्राधान्यं, प्रायशस्तत्प्रवृत्त्यैव प्रतिषेधविधानयोरन्येषां प्रवर्तनं । भवति, तदेवमप्रत्याख्यानाक्रियः सन् आत्माऽविचारितमनोवाकायवाक्यश्चापि भवतीति, तथा प्रतिहतं-प्रतिस्खलितं प्रत्याक्यात-- निराकृतं विरतिप्रतिपच्या पापकर्म असदनुष्ठानं येन स प्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा तत्प्रतिषेधादसदनुष्ठानपरमात्मा भवतीति ।। | तदेवमेष-पूर्वोक्तोऽसंयतोऽविरतो प्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा सक्रियः ससाबधानुष्ठानः, तथाभूतश्चासंधुतो मनोवाकार्यरगुप्तोऽ-15 | सखाचात्मनः परेषां च दण्डहेतुखाद्दण्डः, तदेवंभूतश्च सन् एकान्तेन बालबद्वालः सुप्तवदेकान्तेन सुप्तः, तदेवंभूतथ बालमुप्तत या विचाराणि-अविचारितरमणीयानि परमार्थविचारणया युक्त्या वा विघटमानानि मनोवाकायवाक्यानि यस्य स तथा, यदिवा | 18|परसंबन्ध्यविचारितमनोवाकायवाक्यः सन् क्रियासु प्रवर्चते, तदेवंभूतो निर्विवेकतया पद्धविज्ञानरहितः स्वममपि न पश्यति, तस्य || | चाव्यक्तविज्ञानस्य खममप्यपश्यतः पापं कर्म बध्यते, तेनैवंभूतेनाव्यक्तविज्ञानेनापि पायं कर्म क्रियत इति भावः ।। तत्र चैवं 181 व्यवस्थिते चोदकः प्रज्ञापकमेवमवादीत-अत्र चाचार्याभिप्रायं चोदकोऽन्य प्रतिषेधयति तत्य चोयए पन्नवर्ग एवं वयासि-असंतएणं मणेणं पावएणं असंतियाए वतीए पावियाए असंतएणं कारणं पावएणं अहणंतस्स अमणक्खस्स अवियारमणवयकायवकस्स सुविणमवि अपस्सओ पावकम्मे णो कज्जइ, कस्स णं तं हे?, चोयए एवं वबीति अन्नयरेणं मणेणं पावएणं मणवत्तिए पावे कम्मे कज्जा, अन्नयरीए वतिए पावियाए बतिवत्तिए पावे कम्मे कजइ, अन्नयरेणं कारणं पावएणं कायवत्तिए पावे कम्मे दीप अनुक्रम [७००] Swatanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ~727~ Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [६४] दीप अनुक्रम [७०१] सूत्रकृताने २ श्रुतस्कन्चे शीला ड्रीयावृतिः ॥३६२॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र -२ ( मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ४ ], उद्देशक [-], मूलं [६४], निर्युक्ति: [१८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः Education internation कजइ, हणंतस्स समणक्स्वस्स सवियारमणवयकायवकस्स सुविणमवि पासओ एवंगुणजातीयस्स पावे कम्मे कजइ । पुणरवि चोगए एवं बवीति तत्थ णं जे ते एवमाहंसु असंतएणं मणेणं पावएणं असंतीयाए बलिए पावियाए असंतएणं कारणं पावएणं अहणंतस्स अमणक्खस्स अवियारमणवयणकायवकस्स सुविणमवि अपस्सओ पावे कम्मे कज्जइ, तत्थ णं जे ते एवमाहंसु मिच्छा ते एवमाहंसु । तत्थ पन्नबए चोयगं एवं वयासी तं सम्मं जं मए पुषं वृत्तं, असंतपणं मणेणं पावएणं असंतियाए वतिए पावियाए असंतएण कारणं पावपूर्ण अहणंतस्स अमणक्खस्स अवियारमणवयणकायचक्करस सुविणमवि अपसओ पावे कम्मे कयति, तं सम्मं, कस्स णं तं हेउं ?, आचार्य आह-तत्थ खलु भगवया छजीवणिकायहे पण्णत्ता, तंजा-पुढंविकाइया जाव तसकाइया, इथेपहिं छहिं जीवणिकाएहिं आया अप्पडियपञ्चक्वायपावकम्मे निचं पसढविडवातचित्तदंडे, तंजहा-पाणातिवाए जाव परिग्गद्दे कोहे जाव मिच्छादंसणसले । आचार्य आह- तत्थ खलु भगवया वहए दिते पण्णत्ते से जहाणामए बहए सिया गाहावइरस वा गाहाबइपुत्तस्स वा रण्णो वा रायपुरिसस्स वा स्वर्ण निहाय पविसिस्सामि खणं लढूणं वहिस्सामि पहारेमाणे से किं नुं हु नाम से बहए तस्स गाहावइस्स वा गाहाबइपुत्तस्स वा रण्णो वा रायपुरिसेस्स वा ॥३६२॥ स्वर्ण निहाय परिसिस्सामि खणं लडूणं वहिस्सामि पहारेमाणे दिया वा राओ वा सुते वा जागरमाणे वा १ विद्वा प्र० २ किन्छु ३ पुत्तरस (ढोका) 2 For Park Use Only ১৬999999:58 ~728~ ४ प्रत्या ख्याना ० अविरतस्य पापबन्धः wor Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [ ६४ ] दीप अनुक्रम [७०१] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ४ ], उद्देशक [-], मूलं [६४], निर्युक्ति: [१८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०२ ], अंग सूत्र - [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - अमितभूप मिच्छासंठिते निचं पसढविडवायचित्तदंडे भवति ?, एवं वियागरेमाणे समियाए वियागरे चोयए हंता भवति ॥ आचार्य आह-जहा से वहए तस्स गाहावइरस वा तस्स गाहाबइपुत्तस्स वा रणो वा रायपुरिसस्स वा स्वणं निद्दाय पविसिस्सामि स्वणं लणं वहिस्सामित्ति पहारेमाणे दिया वा राओ वा सुत्ने वा जागरमाणे वा अमित्तभूए मिच्छासंठिते निबं पसढविडवायचित्तदंडे, एवमेव बालेवि ससिं पाणा जाव सबेसिं सत्ताणं दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूए मिच्छासंठिते निच पसढचिडवायचित्तदंडे, तं० पाणातिवाए जाव मिच्छादंसणसल्ले एवं खलु भगवया अक्खाए असंजए अविरए अप्पडियपचक्थायपावकम्मे सकिरिए असंबुडे एगंतदंडे एगंतवाले एगंतसुत्ते यावि भवइ, से बाले अवियारमणवयणकायवके सुविणमवि परसह पावे य से कम्मे कजह ॥ जहा से बहए तरस वा गाहावइस्स जाव तस्स वा रायपुरिसस्स पत्तेयं पत्तेयं चित्तसमादाए दिया वा राओ वा सुते वा जागरमाणे वा अमित्तभूप मिच्छासंठिते निचं पसहविज्वायचित्तदंडे भवइ, एवमेव वाले सत्रेसं पाणणं जाव सवेसिं सत्ताणं पत्तेयं पत्तेयं चित्तसमादाए दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूते मिच्छासंठिते निचं पसढविश्वायचित्तदंडे भवइ || (सूत्रं ६४ ) ॥ 'असंतएण 'मित्यादि, अविद्यमानेन - असता मनसाऽप्रवृत्तेनाशोभनेन तथा बाचा कायेन च पापेनासता तथा सच्चाननतः तथाऽमनस्कस्याविचारमनोवाक्कायवाक्यस्य स्वप्नमप्यपश्यतः स्वशान्तिकं च कर्म नोपचयं यातीत्येवमव्यक्तविज्ञानस्य पापं Education International For Par Lise On ~729~ rryp Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [४], उद्देशक -], मूलं [६४], नियुक्ति: [१८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक [६४] दीप अनुक्रम [७०१] सूत्रकृताङ्गे ४ कर्म न बध्यते, एवंभूतविज्ञानेन पाप कर्म न क्रियत इतियावत् । 'कस्य हेतोः? केन हेतुना केन कारणेन तत्पापं कर्मबध्यते , ४ प्रत्या२श्रुतस्क- 18 नात्र कश्चिदश्यक्तविज्ञानखात्पापकर्मबन्धहेतुरिति भावः । तदेवं चोदक एवं खाभिप्रायेण पापकर्मबन्धहेतुमाह-'अन्नयरेण मि-18 ख्याना० म्वे शीला-18| त्यादि, कर्माश्रवद्वारभूतैर्मनोवाकायकर्मभिः कर्म बध्यत इति दर्शयति-अन्यतरेण क्लिष्टेन प्राणातिपातादिप्रवृच्या मनसा वाचा अविरतस हीयावृत्तिः शिकायेन च तत्प्रत्ययिक कर्म बध्यत इति, इदमेव स्पष्टतरमाह-प्रतस्सत्वान्समनस्कख सविचारमनोवाकायवाक्यस्य खममपि पश्यतः पापबन्धः ॥३६॥ प्रस्पष्टविज्ञानपेतद्गुणजातीयस पापं कर्म बध्यते, न पुनरेकेन्द्रियविकलेन्द्रियादेः पापकर्मसंभव इति, तेषां घातकस्य मनोवाकाय | व्यापारस्थाभावात् , अथैतद्वयापारमन्तरेणापि कर्मबन्ध इष्यते एवं च सति मुक्तानामपि कर्मवन्धः स्यात् । न चैतदिप्यते, तस्मा- |वमखमान्तिकमविज्ञोपचितं च कर्म वध्यत इति, तेत्र यदेवंभूतैरेव मनोवाकायच्यापारः कर्मबन्धोऽभ्युपगम्यते । तदेवं व्यव|स्थिते सति ये ते एवमुक्तवन्तः-तद्यथा-अविद्यमानरेवाशुभैयोगैः पापं कर्म क्रियते, मिथ्या त एवमुक्तवन्त इति स्थितम् । तदेवं चोदकेनाचार्यपक्षं दूषयिसा खपक्षे व्यवस्थापिते सत्याचार्य आह-तत्राचार्यः खमतमन्द्य तत्सोपपत्तिकं साधयितुमाह-'तं सम्म'-161 मित्यादि, यदेतन्मयोक्तं प्राग् यथाऽस्पष्टाव्यक्तयोगानामपि कर्म बध्यते तत्सम्यक्-शोभनं युक्तिसंगतमिति, एवमुक्ते पर आह| 'कस्य हेतोः? केन कारणेन तत्सम्यगिति चेदाह-तत्थ खलु' इत्यादि, तत्रेति वाक्योपन्यासार्थ खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे ॥३६३॥ भगवता वीरवर्द्धमानखामिना पङ् जीवनिकायाः कर्मबन्धहेतुखेनोपन्यस्ताः, तद्यथा-पृथिवीकायिका इत्यादि यावत्रसकायिका १नोदकस्यैव वारूप प्रशापर्क प्रति । २ नोदकपक्षे । ३ यद्येवं प्रातस्मादित्यादिवाक्यस्यायें हेतुभूतः सात् । ४ स्पष्टविज्ञानयुफैः । ५ आचार्यवाक्यमिदं पूर्वपक्षे हेतुदर्शनाय । ~ 730~ Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [ ६४ ] दीप अनुक्रम [७०१] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ४ ], उद्देशक [-], मूलं [६४], निर्युक्तिः [१८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - इति । कथमेते षड् जीवनिकायाः कर्मबन्धस्य कारणमित्याह- 'इच्चे एहि 'मित्यादि, इत्येतेषु पृथिव्यादिषु षड्जीवनिकायेषु प्रतिहतं -- विभितं प्रत्याख्यातं नियमितं पापं कर्म येन स तथा, पुनर्नञ्समासेना प्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा य आत्मा जन्तुस्तथा तद्भावत्वादेव नित्यं सर्वकालं प्रकर्षेण शठः प्रशठस्तथा व्यतिपाते- प्राणव्यपरोपणे चित्तं यस्य स व्यतिपातचित्तः स्वपरदण्डहेतु| लादण्डः प्रशठश्वासौ व्यतिपातचित्तदण्डचेति कर्मधारय इति एतदेव प्रत्येकं दर्शयितुमाह-- 'तंज' त्यादि, तद्यथा प्राणातिपाते | विधेये प्रशठव्यतिपातचित्तदण्डः, एवं मृषावादादत्तादानमैथुनपरिग्रहेष्वपि वाच्यं यावन्मिथ्यादर्शनशल्यमिति । तेपामिहैकेन्द्रि| यविकलेन्द्रियादीनामनिवृत्तखान्मिथ्याला विरतिप्रमादकपाययोगानुगतखं द्रष्टव्यं तद्भावाच्च ते कथं प्राणातिपातादिदोषवन्तो न भवन्ति, प्राणातिपातादिदोषवत्तया चाव्यक्तविज्ञाना अपि सन्तोऽस्माद्यवस्थायामपि ते कर्मबन्धका एव । तदेवं व्यवस्थिते यत्प्रागुक्तं परेण यथा नाव्यक्तविज्ञानानामशताममनस्कानां कर्मबन्ध इत्येतत् लवते । साम्प्रतमाचार्यः स्वपक्षसिद्धये दृष्टान्तमाह - 'तत्थ खलु भगवया' तत्रेति वाक्योपन्यासार्थमाह, खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे, भगवता-ऐश्वर्यादिगुणोपेतेन चतुस्त्रिंशदतिशयसमन्वितेन तीर्थकृता वधकदृष्टान्तः प्रज्ञसः' प्ररूपितः, तद्यथा नाम वधकः कथित्स्यादिति, कुतथिनिमित्तात्कुपितः सन् कस्यचिद्वधपरिणतः कश्चित्पुरुषो भवति, यस्यासौ वधकस्तं विशेषेण दर्शयितुमाह- 'गाहावइस्स वे' त्यादि, गृहस्य पतिगृहपतिस्तत्पुत्रो वा अनेन सामान्यतः प्राकृतपुरुषोऽभिहितः, तस्योपरि कुतश्चिन्निमित्ताद्वषकः कचित्संवृत्तः, स च वधपरिणामपरिणतोऽपि कस्मिंश्चित्क्षणे पापकारिणमेनं घातयिष्यामीति । तथा राज्ञस्तत्पुत्रस्य वोपरि कुपित एतत्कुर्यादित्याह - 'स्वणं निद्दाय' १ योग्येऽवसरे २ अपायस्य Internationa For Park Use Only ~731~ www.landbrary org Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [ ६४ ] दीप अनुक्रम [७०१] सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्कन्धे शीलाडीयावृत्तिः ॥३६४।। Education 17 “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र -२ ( मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ४ ], उद्देशक [-], मूलं [६४], निर्युक्तिः [१८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः इत्यादि, क्षणम्-अवसरं 'णिद्दाय'ति प्राप्य लब्ध्वा वध्यस्य पुरे गृहे वा प्रवेक्ष्यामीत्येतदध्यवसायी भवति, तथा क्षणम्-अवसरं छिद्रादिकं वध्यस्य लब्ध्वा तदुत्तरकालं तं बध्यं हनिष्यामीत्येवं संप्रधारयति, एतदुक्तं भवति गृहपतेः सामान्य पुरुपस्य राज्ञो वा | विशिष्टतमस्य कस्यचिद्वधपरिणतोऽप्यात्मनोऽवसरं लब्ध्वाऽपरकार्यक्षणे सति तथा वध्यस्य च छिद्रमपेक्षमाणस्तदवसरापेक्षी कंचित्कालमुदास्ते, स च तत्रोदासीन्यं कुर्वाणोऽपरकार्यं प्रति व्यग्रचेताः संस्तस्मिन्नवसरे वधं प्रत्यस्पष्टविज्ञानो भवति स चैवंभूतोऽपि यथा तं बध्यं प्रति नित्यमेव प्रशठव्यतिपातचित्तदण्डो भवति, एवमविद्यमानैरपि प्रव्यक्तैरशुभैर्येगिरे केन्द्रिय विकलेन्द्रियादयोऽस्य|टविज्ञाना अपि मिथ्याला विरतिप्रमादकपाययोगानुगतत्वात्प्राणातिपातादिदोषवन्तो भवन्तीति न च तेऽवसरमपेक्षमाणा उदासीना अप्यवैरिण इति, एवमस्पष्टचिज्ञाना अप्यवैरिणो न भवन्तीति, अत्र च बध्यवधकयोः क्षणापेक्षया चखारो भङ्गाः, तद्यथावध्यस्थानवसरो १ वधकस्य च २ उभयोर्वाऽनवसरो ३ द्वयोरप्यवसर इति ४ । नागार्जुनीयास्तु पठन्ति - 'अप्पण्णो अक्खणयाए | तस्स वा पुरिसस्स छिदं अलभमाणे णो वहेर, तं जया मे खणो भविस्सइ तस्स पुरिसस्स छिदं लभिस्सामि तथा मे स पुरिसे अवस्सं बहेयवे भविस्सइ, एवं मणो पहारेमाणे ति सूत्रं निगदसिद्धम् ॥ साम्प्रतमाचार्य एवं स्वाभिप्रेतमर्थं परप्रभपूर्वकमाविर्भावयन्नाह - 'से किं नु हुइत्यादि, आचार्यः खतो हि निर्णीतार्थोऽयया परं पृच्छति किमिति परप्रश्ने, नुरिति वितर्के दुशब्दो वाक्यालङ्कारे, किमसौ वधकपुरुषोऽवसरापेक्षी 'छिद्रम्' अवसरं 'प्रधारयन्' पर्यालोचयत्रहर्निशं सुप्तो जाग्रदवस्थो वा 'तस्य' गृहपते राज्ञो वा वध्यस्यामित्रभूतो मिध्यासंस्थितो नित्यं प्रशठव्यतिपात चित्तदण्डो भवत्याहोखिनेति १, एवं पृष्टः परः समतया १ कश्चित्कारणको पाद्र्ध परिणतोऽप्या० प्र० । २ परचित्तस्था यासूवा-यथार्थेऽयथार्थतोद्भावनरूपा तथा हेतुभूतया । For Parts Only ~732~ ४ प्रत्याख्याना० अविरतस्य पापबन्धः ॥३६४॥ Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [४], उद्देशक [-], मूलं [६४], नियुक्ति: [१८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक [६४] दीप अनुक्रम [७०१] माध्यस्थ्यमवलम्बमानो यथावस्थितमेव ब्यागृणीयात् , तद्यथा-हन्ताचार्य ! भवत्यसावमित्रभूत इतीत्यादि । तदेवं दृष्टान्त प्रदर्य दान्तिकं दर्शयितुमाह-यथाऽसौ वधक इत्यादिना दृष्टान्तमनूद्य दार्शन्तिकमर्थ दर्शयितुमाह-एवमेवेत्यादि, एवमेवेति यथासौ। वधकोऽवसरापेक्षितया वध्यस्य व्यापत्तिमकुर्वाणोऽप्यमित्रभूतो भवत्येवमेवासावपि बालबबालोऽस्पष्टविज्ञानो भवत्येव, निवृत्तेरभावायोग्यतया सर्वेषां प्राणिनां व्यापादको भवति यावन्मिथ्यादर्शनशल्योपेतो भवति, इदमुक्तं भवति-ययप्युत्थानादिकं विनयं ||8| | कुतधिनिमित्तादसी विधते तथाऽप्युदायिनपव्यापादकवदन्तर्दुष्ट एवेति, नित्यं प्रशठव्यतिपातचित्तदण्डव यथा परशुरामः कृत-18 | वीर्य व्यापाचापि तदुत्तरकालं सप्तवारं निक्षत्रां पृथिवीं चकार, आह हि- "अपकारसमेन कर्मणा न नरस्तुटिमुपति शक्ति| मान् । अधिकां कुरुतेरियातनां द्विषतां मूलमशेपमुद्धरेत् ॥१॥" इत्येवमसावमित्रभूतो मिथ्याविनीतश्च भवतीति । साम्प्रत-IN | मुपसंहरन् प्राक् प्रतिपादितमर्थमनुवदन्नाह-'एवं खलु भगवया इत्यादि, यथाऽसौ वधकः स्वपरावसरापेक्षी सन्न तावद् घात| यत्यथ चानिवृत्तवादोपदुष्ट एव, एवमसावप्यकेन्द्रियादिकोऽस्पष्टविज्ञानोऽपि तथाभूत एवाविरताप्रतिहतप्रत्याख्यातासकियादिदोपदुष्ट इति, शेष सुगम यावत्पापं कर्म क्रियत इति ॥ तदेवं दृष्टान्तदान्तिकप्रदर्शनेन पूर्वप्रतिपादितार्थस्य निगमनं कृत्वाs-18 धुना सर्वेषामेव प्रत्येकं प्राणिनां दुष्ट आत्मा भवति इत्येतत्प्रतिपादयितुकाम आह-यथाऽसौ वधकः परात्मनोरवसरापेक्षी तस्य | गृहपतेस्तत्पुप्रस वाऽभ्यर्हितस्य वा राजादेस्तत्पुत्रस्य वैकमेकं पृथक पृथक् सर्वेष्वपि वध्येषु घातकचित्तं समादाय प्राप्तावसरो हमेनं चैरिणं मदाधिविधायिनं पातयिष्यामीत्येवं प्रतिज्ञाय दिवा वा रात्रौ वा सुप्तो या जाग्रता साखवस्थासु सर्वेषामेव वध्यानां | 18प्रत्येकममित्रभूतोऽअसरापेक्षितयानपि मिथ्यासंस्थितो नित्यं प्रशठव्यतिपातचित्तदण्डो भवति, एवं रागद्वैपाकुलितो बालवद्वालो18 Relatedeseseservestmenewesese anditurary.com ~733~ Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [४], उद्देशक -], मूलं [६४], नियुक्ति: [१८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत ख्याना सूत्रांक शीयावृत्तिः [६४] दीप अनुक्रम [७०१] सूत्रकृताओं 18 ज्ञानावृत एकेन्द्रियादिरपि सर्वेषामेव प्राणिनां विरतेरभावात्तद्योग्यतया प्रत्येक बध्येषु घातकचित्तं समादाय नित्यं प्रशठव्यतिपातदि- ४ प्रत्या२ श्रुतस्क- सदण्डो भवतीति, इदमुक्तं भवति-यथाऽसौ तसागृहपतिराजादिधातादनुपशान्तवरः कालावसरापेक्षितया वधमकुर्वाणोऽप्यविरतिन्धे शीलासद्भावाद्वैरान निवर्तते तत्प्रत्ययिकेन च कर्मणा बध्यते एवं तेऽपि एकेन्द्रियविकलेन्द्रियादयस्तत्प्रत्ययिकेन [च] कर्मणा वध्यन्ते, एवं अविरतख मृपावादादत्तादानमैथुनपरिग्रहेष्वपि प्रतिज्ञाहेतुदृष्टान्तोपनयनिगमनार्थविधानेन पञ्चावयवत्वं वाच्यमिति, इहवं पञ्चावयवस पापबन्ध ॥३६५॥ वाक्यस्य सूत्राणां विभागो द्रष्टव्यः, तबधा-'आया अपञ्चक्खाणी यावि भवतीत्यत आरभ्य यावत्पावे य से कम्मे कजइति । | इतीयं प्रतिज्ञा, तत्र परः प्रतिज्ञामात्रेणोक्तमनुक्तसममितिकला चोदयत्ति, तद्यथा-'तस्थ चोयए पण्णवर्ग एवं वयासीत्यत आरभ्य। यावजे ते एवमासु मिच्छ ते एवमासु'त्ति । तत्र प्रज्ञापकदोदकं प्रत्येवं बदेव , तबधा यन्मया पूर्व प्रतिज्ञातं तत्सम्यक्, कस्स हेतोः ?-केन हेतुनेति चेत्, तत्र हेतुमाह-'तत्थ खलु भगवया छ जीवनिकाया हेऊ. पण्णत्ता इत्यत आरभ्य यावत् मिच्छादसराणसल्ले' इत्ययं हेतुः, तदस्य हेतोरनैकान्तिकलव्युदासार्थ स्वपक्षे सिद्धिं दर्शयितुं उष्टान्तमाह, तद्यथा-'तत्थ खलु भगक्या वहए 18 दिलुते पण्णत्ते इत्यत आरभ्य यावत् खणं लभूर्ण बहिस्सामीति पहारेमाणे ति, तदेवं दृष्टान्त प्रदर्य तत्र च हेतोः सत्ता स्वाभि-18 प्रेता परेण भाणयितुमाह-'से किं नु हु णाम से वहए इत्यादेरारभ्य यावद्धन्ता भवति तदेवं हेतोदृष्टान्ते सत्र असाध्य हेतोः पक्षधर्मख दर्शयितुमुपनया दृष्टान्तधार्मिणि हेतोः सत्ता परेणाभ्युपगतामनुवदति-'जहा से वहए इत्यत आरभ्य यावण्णिचं पस- ३६५॥ ढविउवायचित्तदंडे'ति, साम्प्रतं हेतोः पक्षधर्मखमाह-'एवमेव वाले अवीत्यादीत्यत आरभ्य यावत्पावे य से कम्मे कजईत्ति । तदेवं प्रतिज्ञाहेतुदृष्टान्तोपनयप्रतिपादकानि यथाविधि सूत्राणि विभागतः प्रदर्याधुना प्रतिज्ञाहेखोः पुनर्वचनं निगमनमित्ये ~734~ Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [४], उद्देशक [-], मूलं [६४], नियुक्ति: [१८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक [६४] दीप अनुक्रम [७०१] तत्प्रतिपादयितुमाह-'जहा से वहए तस्स वा गाहावइस्स इत्यादि यावण्णिचं पसढविउवायचित्तदंडे'त्ति, एतानि च प्रतिज्ञाहेतुदृष्टान्तोपनयनिगमनान्यर्थतः सूत्रैः प्रदर्शितानि, प्रयोगस्खेवं द्रष्टव्यः-तत्राप्रतिहतप्रत्याख्यातक्रिय आत्मा पापानु बन्धीति प्रतिज्ञा, सदा पड्जीवनिकायेषु प्रशठव्यतिपातचित्तदण्डखादिति हेतुः, खपरावसरापेक्षितया कदाचिदव्यापादयन्नपि । & राजादिवधकवदिति दृष्टान्तः, यथाऽसौ वधपरिणामादनिवृत्तवाध्यस्यामित्रभूतस्तथाऽऽत्माऽपि चिरतेरभावात्सर्वेष्वपि सच्चेषु नित्यं प्रशठन्यतिपातचित्तदण्ड इत्युपनयः, यत एवं तमात्पापानुवन्धीति निगमनम् । एवं मृपावादादिष्यपि पश्चावयवलं योज-18 नीयमिति, केवलं मृपावादादिशब्दोचारणं विधेयं, तच्चानेन विधिना नित्यं प्रशठमिथ्यावादचित्तदण्डखात् तथा नित्यं प्रशठाद चादानचित्तदण्डलादित्यादि । तदेवं सर्वात्मना पट्खपि जीवनिकायेषु प्रत्येकममित्रभूततया पापानुवन्धिले प्रतिपादिते परो 187 व्यभिचारं दर्शयन्नाह णो इणढे सम? [चोदकः ] इह खल्लु बहवे पाणा जे इमेणं सरीरसमुस्सएणं णो विट्ठा वा सुया वा नाभिमया वा चिन्नाया वा जेसिं णो पत्तेयं पत्तेयं चित्तसमायाए दिया वा राओ वा मुत्ते वा जागरमाणे वा अमिसभूते मिच्छासंठिते निचं पसदविउवायचित्तदंडे तं० पाणातिवाए जाव मिच्छादसणसल्ले(मत्रं६५) आचार्य आह-तत्व खलु भगवया दुवे दिटुंता पण्णत्ता, तं०-सन्निदिटुंते य असन्निदिढते य, से किं तं सन्निदिढते , जे इमे सनिपंचिंदिया पज्जत्तगा एतेसि णं छजीवनिकाए पहुच तं०-पुढवीकार्य जाव तसकार्य, से एगइओ पुढवीकारणं किचं करेइवि कारवेइवि, तस्स णं एवं भवइ-एवं खलु अहं पुढवीकारणं Sasaya6782889039292-93929 Aweseseseesesekese ~735~ Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [६६] दीप अनुक्रम [७०३] सूत्रकृताङ्गे २ शुतस्कन्धे शीलाङ्कीयावृत्तिः ।।३६६ ।। “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र -२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ४ ], उद्देशक [-], मूलं [६६], निर्युक्ति: [१८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः Education International hi कमवि कारवेमवि, णो चेव णं से एवं भवइ इमेण वा इमेण वा, से एतेणं पुढवीकारणं किचं करेइवि कारवेइवि से णं तातो पुढवीकायाओ असंजयअविरयअप्पडिहयपञ्चस्वायपाचकम्मे यावि भवइ, एवं जाव तसकाएति भाणियां, से एगइओ छजीवनिकाएहिं कि करेइवि कारवेइवि, तस्स णं एवं भवइ एवं छजीवनिकाएहिं किचं करेमिवि कारवेमिवि, णो चैव णं से एवं भवइ-इमेहिं वा इमेहिं वा, से य तेहिं छहिं जीवनिकाएहिं जाव कारवेइवि, से य तेहिं छहिं जीवनिकाएहिं असंजयअविरयअप्पडियपचखापावकम्मे तं० पाणातिवाए जाव मिच्छादंसणसल्ले, एस खलु भगवया अक्खाए असंजए अविरए अप्पडिहपचस्वायपावकम्मे सुविणमवि अपस्सओ पावे य से कम्मे कज्जइ, से तं सन्निदिते ॥ से किं तं असन्निहिते ?, जे इमे असन्निणो पाणा तं०- पुढवीकाइया जाव वणस्सइकाइया छट्टा वेगइया तसा पाणा, जेसिं णो तक्का इ वा सन्ना ति वा पन्ना ति वा मणा ति वा वई वा सयं वा करणाए अन्नेहिं वा कारावेत्त करतं वा समणुजाणित्तए, तेऽवि णं वाले सवेसिं पाणाणं जाव सबेसि सत्ताणं दिया वा राओ वा सुते वा जागरमाणे वा अभित्तभूता मिच्छासंठिया निचं पसढविडवातचित्तदंडा तं०-पाणाइवाते जाव मिच्छादंसणसल्ले, इच्चैव जाव णो चेव मणो णो चेच वई पाणाणं जाव सत्ताणं दुक्खणयाए सोयणयाए जूरणयाए तिप्पणयाए पिणया परितप्पणया ते दुक्खणसोयणावपरित पणबधणपरिकिलेसाओ अप्पडिविरया भवंति ॥ इति खलु से असन्निणोऽवि सत्ता अहोनिसिं पाणातिवाद For Penal Use Only ~736~ ४ प्रत्या ख्याना० अविरतस्य पापबन्धः ॥३६६॥ Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [४], उद्देशक [-], मूलं [६६], नियुक्ति: [१८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक [६६] दीप अनुक्रम [७०३] उबक्खाइजंति जाब अहोनिसिं परिग्गहे उवक्खाइजति जाव मिच्छादसणसल्ले उबक्खाइजंति, [ एवं भूतवादी] सबजोणियावि खलु सत्ता सन्निणो हुचा असन्निणो होति असन्निणो हुचा सन्निणो होति, होचा सन्नी अदुवा असन्नी, तस्थ से अविविचित्ता अविधूणित्ता असंमुच्छित्सा अणणुतावित्ता असन्निकायाओ वा सन्निकाए संकमंति सन्निकायाओ वा असन्निकार्य संकर्मति सनिकायाओ वा सन्निकार्य संकमंति असन्निकायाओ वा असन्निकार्य संकमंति, जे एए सन्नि वा असन्नि वा सचे ते मिच्छायारा निच्च पसदविउवायचित्तदंडा, तं०-पाणातिवाए जाव मिच्छादसणसल्ले, एवं खलु भगवया अक्खाए असंजए अविरए अप्पटिहयप्पचक्यायपावकम्मे सकिरिए असंबुडे एगंतदंडे एगंतवाले एगतसुत्ते से वाले अवियारमणवयणकायवके सुविणमचि ण पासइ पावे य से कम्मे कलह ॥ (मत्रं ६६)॥ नायमर्थः समर्थ इति-प्रतिपतुं योग्यः, तद्यथा-सर्वे प्राणिनः सर्वेषामपि सच्चानां प्रत्येकममित्रभूता इति, तत्र परः स्वपक्षसिद्धये सर्वेषां प्रत्येकममित्राभावं दर्शयितुं कारणमाह-'इह' असिंश्चतुर्दशरज्वात्मके लोके बहयोऽनन्ताः प्राणिनः मूक्ष्मत्रादरपर्याप्तकापर्याप्तकादिभेदभिन्नाः सन्ति, ययेवं ततः किमित्याह-ते च देशकालखभावविप्रकृष्टास्तथाभूता बहवः संति ये प्राणिनः १ सूक्ष्मविप्रकृष्टाद्यवस्थाः 'अमुना शरीरसमुच्छ्रयेणे'त्यनेनेदमाह-प्रत्यक्षासन्नवाचितादिदमोऽनेनाग्दिर्शिज्ञानसमन्वितसमुच्छ|येण न कदाचिद्दष्टाश्चक्षुषा न श्रुताः श्रवणेन्द्रियेण विशेषतो नाभिमता-इष्टा न च विज्ञाताः प्रातिभेन खयमेवेत्वतः कथं तद्विषयस्तस्यामित्रभावः स्यात् , अतस्तेषां कदाचिदप्यविज्ञातानां कथं प्रत्येक वधं प्रति चित्तसमादानं भवति, न चासौ तान् प्रति नित्यं Receceaesese ~737~ Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [४], उद्देशक -], मूलं [६६], नियुक्ति: [१८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत ४ प्रत्याख्यानाध्य. सूत्रांक [६६] elese दीप अनुक्रम [७०३] सूत्रकृताङ्गे 8 प्रशठव्यतिपातचित्तदण्डो भवतीति, शेष सुगमम् ॥ एवं व्यवस्थिते न सर्वविषयं प्रत्याख्यानं झुंज्यते ॥ इत्येवं प्रतिवादिते २ श्रुतस्क- २ परेण सत्याचार्य आह-यद्यपि सर्वेष्वपि सत्त्वेषु देशकालखभावविप्रकृष्टेषु वधकचित्तं नोत्पयते तथाप्यसावविरतिप्रत्ययखानेष्य- न्धे शीला- मुक्तवैर एव भवति, अस्स चार्थस्य मुखप्रतिपत्तये भगवता तीर्थकृता द्वौ दृष्टान्तौ 'प्रज्ञप्ती प्ररूपितो, तद्यथा-संशिष्टान्तोऽसकायााता ज्ञिदृष्टान्तथ । अथ कोऽयं संजिटष्टान्तो ?, ये केचन 'इमे प्रत्यक्षासन्नाः पाभिरपि पर्यातिभिः पर्याप्ताः ईहापोह विमर्शरूपा ॥३६४ा संज्ञा विद्यन्ते येषां ते संजिना, पञ्चेन्द्रियाणि येषां ते पञ्चेन्द्रियाः, करणपर्याप्या पर्याप्तकाः, एषां च मध्ये कश्चिदेकः षड्जीवनिकायान् प्रतीत्यैवंभूतां 'प्रतिज्ञा' नियमं कुर्यात् , तद्यथा-अहं पट्सु जीवनिकायेषु मध्ये पृथिवीकायेनैवैकेन वालुकाशिलोपललवणादिखरूपेण 'कृत्यं कार्य कुर्या, स चैत्र कृतप्रतिज्ञस्तेन तस्मिन् तसा या करोति कारयति च, शेषकायेभ्योऽहं विनिवृत्तः, तस्य च कृतनियमस्वंभूतो भवत्यध्यवसायः, तद्यथा-एवं खल्वहं पृथिचीकायेन कृत्यं करोमि कारयामि च, तस्य च सामान्यकृतप्रति8 ज्ञस्य विशेषाभिसंधिव भवति, तद्यथा-अमुना कृष्णेनामुना वा श्वेतेन पृथिवीकायेन कार्य करोमि कारयामि च, स तसात्पृ|थिवीकायादनिवृत्तोऽप्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा भवति, तत्र खननस्थाननिषीदनखम्बर्तनोचारप्रश्रवणादिकरणक्रियासद्भावाद्, एवमप्तेजोवायुवनस्पतिष्वपि वाच्यं, तत्रापूकायेन स्नानपानावगाहनभाण्डोपकरणधावनादिषु उपयोगः, तेजःकायेनापि पचनपाचनवितापनप्रकाशनादिषु, वायुनापि व्यञ्जनतालवृन्तोड्डपादिच्यापारादिषु प्रयोजन, वनस्पतिनापि कन्दमूलपुष्पफलपत्रसक्शाखाद्युपयोगः, एवं विकलेन्द्रिय पञ्चेन्द्रियेवप्यायोज्यमिति । तथैकः कश्चित् पट्स्वपि जीवनिकायेषु अविरतः असंयतखाच तेरसौ 'कार्य' सावधानुष्ठानं स्वयं करोति कारयति च तत्परः, तस्य च कचिदपि निवृत्तेरभावादेवंभूतोऽध्यवसायो भवति, तद्य Secececes Bee ॥३६७॥ ~738~ Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [४], उद्देशक -], मूलं [६६], नियुक्ति: [१८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः - - - प्रत सूत्रांक [६६] दीप अनुक्रम [७०३] ISHथा-एवं खल्वहं पाइभिरपि जीवनिकायः सामान्येन कुत्यं करोमि, न पुनस्तद्वियोपप्रतिक्षेति, स च तेषु पट्खपि जीवनिकाये8| वसंयतोऽविरतोऽप्रतिहतप्रत्याख्यातपापकमों भवति, एवं मृषावादेऽपि वाच्यं, नद्यथा-इदं मया वक्तव्यमन्तमीहरभूतं तु न वक्त व्यं, स च तसान्मृपावादादनिवृत्तवादसंयतो भवति, तथाऽदत्तादानमप्याथित्य वक्तव्यं, तद्यथा-इदं मयाऽदत्तादान ग्राह्यमिदं | तु न ग्राह्यमित्येवं मैथुनपरिग्रहेप्पीति । तथा कोधमानमायालोभेष्वपि खयमभ्यूध वाच्यं । तदेवमसौ हिंसादीन्यकर्वनप्पविरतत्वा-11 तत्प्रत्ययिक कर्माश्रवति, तथा चासावविरतिप्रत्ययिक कर्म चिनोतीति, एवं देशकालखभावविप्रकृष्टेष्वपि जन्तुष्यमित्रभूतो-४ सो भवति तत्प्रत्यधिकं च कर्माचिनोतीति, सोऽयं संजिदृष्टान्तो भिहितः । स च कदाचिदेकमेव पृथिवीकार्य व्यापादयति शेषेषु निवृत्तः कदाचिहावे त्रिकादिकाः संयोगा भणनीया यावत्सवानपि पापादयतीति । स च सपा व्यापादकलेन व्यव-11 स्थाप्यते, सर्व विषयारम्भप्रवृत्तेः, सत्प्रवृत्तिरपि तदनिवृत्तेः, यथा कश्चिद् ग्रामघातादौ प्रवृत्तो यद्यपि च न तेन विवक्षितकाले । 10 केचन पुरुषा दृष्टास्तथाऽप्यसौ तत्प्रवृत्तिनिवृत्तेरभावात्तयोग्यतया तद्घातक इत्युच्यते, इत्येवं दाटोन्तिकेप्यायोज्यम् ।। | संजिशान्तानन्तरमसंज्ञिदृष्टान्तः प्रागुपन्यस्तः सोऽधुना प्रतिपाद्यते-संज्ञानं संज्ञा सा विद्यते येषां ते संशिनस्तत्प्रतिषेधादसं | झिनो मनसो ,व्यताया अभावानीबातीबाध्यवसायविशेषरहिताः प्रसुप्तमत्तमूञ्छितादिवदिति, ये हमेऽसंज्ञिनः तद्यथा-पृथिवी-181 प्रकायिका यावदनस्पतिकायिकाः, तथा पष्ठा अप्येके प्रसाः प्राणिनो चिकलेन्द्रिया यावरसमूछिनः पञ्चेन्द्रियाः, ते सर्वेऽप्यसंझिनो । ॥ येषां नो 'तको विचारो मीमांसा विशिष्टविर्मों विद्यते यथा कस्यचित्संज्ञिनो मन्दमन्दप्रकाशे स्थाणुपुरुषोचिते देशे किमयं १ कतव्याक्त्तव्यभेदानपेक्ष्य महत्वं । २ व्यापारयति प्र.1३न प्रवृत्तः । ४ उपयोगस्य भावमनोरुपतास्वीकारात, स चास्ति तेषां । ५ तीनाः संक्षिपर्याप्तकस्वोत्कटयोगिनः अती वस्तु सूक्ष्मसंपरायाणां । गुणदोपानोपणपुरस्सरः ।। secesesepectsececesesercedese ~739~ Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [६६] दीप अनुक्रम [७०३] सूत्रकृठाने २ श्रुतस्क न्धे शीलाड्रीयावृतिः ॥३६८ ॥ “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ४ ], उद्देशक [-], मूलं [६६], निर्युक्ति: [१८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - स्थाणुरुत पुरुष इत्येवमात्मक ऊहस्तर्कः संभवति, नैवं तेषामसंज्ञिनां तर्का: संभवन्तीति, तथा संज्ञानं संज्ञा-पूर्वोपलब्धेऽर्थे तदुत्तकालपर्यालोचना, तथा प्रज्ञानं प्रज्ञा-खबुद्ध्योत्प्रेक्षणं स एवायमित्येवंभूतं प्रत्यभिज्ञानं च, तथा मननं मनो-मतिरित्यर्थः, सा चाव| ग्रहादिरूपा तथा प्रस्पष्टवर्णा वाकू सा च न विद्यते तेषामिति, यद्यपि च द्वीन्द्रियादीनां जिहेन्द्रियगलविवरादिकमस्ति तथापि न तेपां अस्पष्टवर्णलं, तथा न चैपां पापं हिंसादिकं करोमि कारयामि वेत्येवंभूताध्यवसाय पूर्विका वागिति तथा स्वयं करोम्यन्यैर्वा कारयामीत्येवंभूतोऽध्यवसायो न विद्यते तेषां । तदेवं तेऽप्यसंज्ञिनो बालवद्वालाः सर्वेषां प्राणिनां घातनिवृत्तेरभावात्तद्योग्य| तया घातका व्यापादकाः, तथाहि द्वीन्द्रियादयः परोपघाते प्रवर्तन्ते एव तद्भक्षणादिना, अनृतभाषणमपि विद्यते तेषामविरतत्वात् केवलं कर्मपरतत्राणां वागभावः, तथाऽदत्तादानमपि तेषामस्त्येव दध्यादिभक्षणात् तथेदमसदीयमिदं च पारक्यमि| त्येवंभूतविचाराभावाचेति तथा तीव्रनपुंसक वेदोदयान्मैथुनाविरतेय मैथुनसद्भावोऽपि तथाऽशनादेः स्थापनात्परिग्रहसद्भावोऽ| पीत्येवं क्रोधमानमायालोभा यावन्मिथ्यादर्शनशल्यसद्भावञ्च तेषामवगन्तव्यः, तत्सद्भावाच्च ते दिवा रात्रौ वा सुप्ता जाग्रदवस्था वा नित्यं प्रशठव्यतिपातचितदण्डा भवति, तदेव दर्शयितुमाह- 'तंजहा' इत्यादि, ते ह्यसंज्ञिनः कचिदपि निवृतेरभावात्तत्प्रत्यधिक कर्मबन्धोपेता भवति, तयथा- प्राणातिपात यावन्मिथ्यादर्शन शल्यवन्तो भवन्ति, तद्वत्तया च यद्यपि ते विशिष्टमनोवाव्यापाररहितास्तथापि सर्वेषां प्राणिनां दुःखोत्पादनतया तथा शोचनतया - शोकोत्पादनलेन तथा 'जूरणतया 'जूरणं-वयोहानिरूपं तत्करणशीलतया तथा त्रिभ्यो- मनोवाक्कायेभ्यः पातनं त्रिपातनं तद्भावस्तया यदिवा 'तिप्पणयाए'ति परिदेवनतया तथा १ मध्यमाध्यवसायवत्वात् चित्तमप्राप्यवसायस्य सारस्य वाचकं भावमनोदाय या Eaton Internationa For Park Use Only ~740~ ४ प्रत्याख्यानाध्य ધારૂકા www.rary.org Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [४], उद्देशक -], मूलं [६६], नियुक्ति: [१८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक [६६] दीप अनुक्रम [७०३] पिट्टणयाए'ति मुष्टिलोष्टादिप्रहारेण तथा 'तथाविधपरितापनतया' बहिरन्तश्च पीडया, ते चासंझिनोऽपि यद्यपि देशकालस्वभावविप्रकृष्टानां न सर्वेषां दुःखमुत्पादयन्ति तथापि विरतेरभावात्तद्योग्यतया दुःखपरितापक्लेशादेरपतिविरता भवन्ति, तत्सद्भावाच तत्प्रत्ययिकेन कर्मणा वध्यन्ते । तदेवं विप्रकृष्टविषयमपि कर्मबन्धं प्रदश्योपसंजिहीर्षराह-इतिरुपनदर्शने खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे विशेषणे वा, किं विशिनष्टि ? ये इमे पृथिवीकायादयोऽसंज्ञिनः प्राणिनस्तेषां न तकों न संज्ञा न प्रज्ञा न मनो न वाक् न खयं कर्तु नान्येन कारयितुं न कुर्वन्तमनुमन्तुं वा प्रवृत्तिरस्ति, ते चाहनिशममित्रभूता मिथ्यासंस्थिता नित्यं प्रश-118 1 ठव्यतिपातचित्तदण्डा दुःखोत्पादनयावत्परितापनपरिकेशादेरपतिविरता असंन्निनोऽपि सन्तोऽहर्निशं सर्वकालमेव प्राणातिपाते कर्तव्ये तद्योग्यतया तदसंग्राप्तावपि ग्रामघातकवदुपाख्यायन्ते यावन्मिध्यादर्शनशल्य उपाख्यायन्त इति, उपाख्यानं चासंशिनोऽपि | योग्यतया पापकर्मानिवृत्तेरित्यभिप्रायः । तदेवं दर्शिते दृष्टान्तद्वये तत्प्रतिवद्धमेवार्थशेष प्रतिपादयितुं चोधं क्रियते, तयथाकिमेते सत्त्वाः संशिनोऽसंज्ञिनश्च भव्याभव्यखवानियतरूपा एवाहोवित्संज्ञिनो भूखाऽसंज्ञिख प्रतिपद्यन्ते असंशिनोऽपि संज्ञिखमित्येवं चोदिते सत्याहाचार्य:-'सबजोणियावि खलु इत्यादि, यदिवा सन्त्येवंभूता वेदान्तवादिनो य एवं प्रतिपादयन्ति-'पुरुषः पुरुषसमश्नुते पशुरपि पशुख मिति, तदत्रापि संन्निनः संजिन एव भविष्यन्त्यसंज्ञिनोऽप्यसंज्ञिन इति, तन्मतव्यवच्छेदार्थमाह'सबजोणियावी'त्यादि, यदिवा किं संशिनोऽसन्निकर्मबन्धं प्राक्तने सत्येव कमणि कुर्वन्ति किंवा नेत्येवमसंज्ञिनोऽपि संज्ञिकर्मबन्धं प्राक्तने सत्येव कुर्वन्त्याहोखिन्नेत्येतदाशयाह-'सबजोणियावी'त्यादि, सर्वा योनयो येषां ते सर्वयोनयः संवृतविवृतो। संझिसमुच्चयाय । २ अप्रति विरततःसद्भावात् । ३ सहित्यावाप्ता यह तस्मिन्-वेशदिके । यहा संशयावाप्तिनिमित्त serserversereedeseseaeiseawatest ~741~ Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [६६] दीप अनुक्रम [७०३] सूत्रकृताङ्के २ श्रुतस्क न्धे शीलाकीयावृत्तिः, ॥३६९ ॥ “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ४ ], उद्देशक [-], मूलं [६६], निर्युक्ति: [१८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - भयशीतोष्णोभयस चित्ताचित्तोभयरूपयोनय इत्यर्थः ते च नारकतिर्यङ्नरामरा अपिशब्दा द्विशिष्टकयो नयोऽपि खल्विति विशेपणे, एतद्विशिनष्टि - तज्जन्मापेक्षया सर्वयोनयोऽपि सत्त्वाः पर्यात्यपेक्षया यावन्मनः पर्याप्तिर्न निष्पद्यते तावदसंज्ञिनः करणतः सन्तः पञ्चात्संज्ञिनो भवन्त्येकस्मिन्नेव जन्मनि, अन्यजन्मापेक्षया स्वकेन्द्रियादयोऽपि सन्तः पश्चान्मनुष्यादयो भवन्तीति, तथाभूतकर्मपरिणामात्, न पुनर्भव्याभव्यलवत् व्यवस्थानियमो भव्याभव्यते हि न कर्मायचे अतो नानयोर्व्यभिचार:, ये पुनः कर्मवशगास्ते संज्ञिनो भूखाऽन्यत्रसंज्ञिनो भवन्त्यसंज्ञिनश्व भूला संज्ञिन इति । वेदान्तवादिमतस्य तु प्रत्यक्षेणैव व्यभिचारः समुपलभ्यते, तद्यथा-संज्ञ्यपि कश्चिन्मूर्च्छाद्यवस्थायामसं शिवं प्रतिपद्यते, तदपगमे तु पुनः संज्ञिसमिति, जन्मान्तरे तु सुतरां व्यभि| चार इति । तदेवं संज्ञयसंज्ञिनो कर्मपरत खादन्योऽन्यानुगतिरविरुद्धा, यथा प्रतिबुद्धो निद्रोदयात्स्वपिति सुप्तश्च प्रतिबुध्यते | इत्येवं स्वापप्रतिबोधयोरन्योऽन्यानुगमनमेवमिहापीति । तत्र प्राक्तनं कर्म यदुदीर्णे यच वद्धमास्ते तस्मिन् सत्येव तदविविच्य-अपृथक्कृत्य तथाऽविध्य असमुच्छिद्याऽननुताप्यते चाविविच्यादयश्वत्वारोऽप्येकाथिका अवस्थाविशेषं वाऽऽश्रित्य भेदेन व्याख्यातव्याः । तदेवमपरित्यक्तप्राक्तनकर्मणोऽसंज्ञिकायात् संज्ञिकार्य संक्रामन्ति तथा संज्ञिकाबाद संज्ञिकायमिति संज्ञिकायात्संज्ञिकार्य असंज्ञिकायादसंज्ञिकायं यथा नारकाः सावशेषकर्माण एव नरकादुद्धृत्य प्रतनुवेदनेषु तिर्यक्षूत्पद्यन्ते, एवं देवा अपि प्रायशस्तत्कर्मशेषतया शुभस्थानेषूत्पद्यन्ते इत्यवगन्तव्यं, अत्र च चतुर्भगकसंभवं सूत्रेणैव दर्शयति । साम्प्रतमध्ययनार्थमुपसंजिघृक्षुः प्राकूप्रतिपन्नमर्थं निगमयन्नाह 'जे एते से'त्यादि, ये एते सर्वाभिरपि पर्याप्तिभिः पर्याप्ताः लब्ध्या करणेन च तद्विकलाश्रापर्याप्तकाः अन्योऽन्यसंक्रमभाजः संज्ञिनोऽसंज्ञिनो वा सर्वेऽप्येते मिथ्याचारा अप्रत्याख्यानित्वादित्यभिप्रायः, तथा सर्वजीवेष्वपि Education Internationa For Parts Only ~742~ ४ प्रत्याख्यानाध्य. ॥३६९॥ Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [४], उद्देशक -], मूलं [६६], नियुक्ति: [१८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक [६६] दीप अनुक्रम [७०३] नित्यं प्रशठव्यतिपातचित्तदण्डा भवन्तीत्येवंभूताश्च प्राणातिपातायेषु सर्वेष्वप्याश्रवद्वारेषु वर्तन्त इति । तदेवं व्यवस्थिते यदुक्तं चोदकेन तद्यथा-इहाविद्यमानाशुभयोगसंभवे कथं पापं कर्म बध्यत इत्येतन्निराकृत्य विरतेरभावात्नयोग्यतया पापकर्मसद्भाव दर्शयति-'एवं खलु इत्यादि 'एवं' उक्तनीत्या खल्ववधारणेऽलकारे वा भगवता तीर्थकृतेत्यादिना यत्प्राक् प्रतिज्ञातं तदनुबदति यावत्पापं च कर्म क्रियत इति ॥ तदेवमप्रत्याख्यानिनः कर्मसंभवात्तत्संभवाश्च नारकतियङ्नरामरगतिलक्षणं संसारमवगम्य |संजातवैराग्यश्चोदक आचार्य प्रति प्रवणचेताः प्रश्नयितुमाह चोदकः-से कि कुचं किं कारवं कहं संजयविरयप्पडिहयपचक्वायपावकम्मे भवद ?, आचार्य आहतत्थ खलु भगवया छज्जीवणिकाय हेऊ पपणत्ता, तंजहा-पुढवीकाइया जाव तसकाइया, से जहाणामए मम अस्सातं डंडेण वा अट्ठीण वा मुट्ठीण वा लेलूण वा कवालेण वा आतोडिजमाणस्स वा जाव उवद्दविजमाणस्स वा जाव लोमुक्वणणमायमवि हिंसाकारं दुक्खं भयं पडिसंवेदेमि, इचेवं जाण सधे पाणा जाव सवे सत्ता दंडेण वा जाव कवालेण वा आतोडिजमाणे वा हम्ममाणे वा तजिजमाणे वा तालिजमाणे वा जाव उवद्दविजमाणे वा जाव लोमुक्खणणमायमवि हिंसाकारं दुकावं भयं पडिसंवेदेति, एवं णचा सवे पाणा जाच सवे सत्ता न हंतचा जाव ण उद्दवेयचा, एस धम्मे धुवे णिइए सासए समिञ्च लोग खेयन्नेहिं पवेदिए, एवं से भिक्खू विरते पाणाइवायातो जाब मिच्छादसणसल्लाओ, से भिक्खू णो दंतपक्खालणेणं दंते पक्वाले जा, णो अंजणं णो वमणं णो धूवणित्तं पिआइते, से भिक्खू अकिरिए अलूसए Recedeocoeseatbeseseeeeeese ~743~ Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [६७] दीप अनुक्रम [७०४] सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्कन्धे शीलाश्रीयावृत्तिः ॥३७० ॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र -२ ( मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ४ ], उद्देशक [-], मूलं [ ६७ ], निर्युक्ति: [१८०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः अकोहे जाव अलोभे उवसंते परिनिन्बुडे, एस खलु भगवया अक्खाए संजयविरयपडिय पञ्चक्वायपावकम्मे अकिरिए संबुडे एगंतपंडिए भवइ त्तिबेमि (सूत्रं ६७) । इति वीयसुखंधस्स पञ्चक्खाणकिरिया णाम उत्थमज्झयणं समत्तं ॥ २-४ ॥ अथ किमनुष्ठानं स्वतः कुर्वन् किं वा परं कारयन् 'कथं' वा केन प्रकारेण संयतविरतप्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा जन्तुर्भवति १, संगतस्य हि विरतिसद्भावात्सावद्यक्रियानिवृत्तिस्तनिवृत्तेश्च कृतकर्म संचयाभावस्तदभावान्नरकादिगृत्यभाव इत्येवं पृष्टे सत्याचार्य आह- 'तस्थ खल्लू' इत्यादि, [ ग्रन्थानं ११००० ] तत्र - संयमसद्भावे पड जीवनिकाया भगवता हेतुलेनोपन्यस्ताः, यथा प्रत्याख्यानरहितस्य पूड जीवनिकायाः संसारगतिनिबन्धनखेनोपन्यस्ताः एवं त एवं प्रत्याख्यानिनो मोक्षाय भवन्तीति, तथा चोक्तम्"जे' जत्तिया य हेऊ भवस्स ते चैव तत्तिया मोक्खे । गणणाईया लोगा दोन्हवि पुण्णा भवे तुला || १ ||" इत्यादि, इदमुक्तं भवति यथाऽस्मनो दण्डाद्युपघाते दुःखम । एवं सर्वेषामपि प्राणिनामित्यात्मोपमया तदुपघाताभिवर्तते, एप 'धर्मः सर्वा त्योद्गतिरिव शश्वद्भवनाच्छाश्वतः परैः कचिदप्यस्खलितो युक्तिसंगतत्वादित्यभिप्रायः, अयमेवंभूतव धर्मः समेत्य' अवगम्य 'लोकं' चतुदर्शरज्वात्मकं 'खेदज्ञेः' सर्वः प्रवेदितः, तदेवं स भिक्षुर्निवृत्तः सूर्वाश्रवद्वारेभ्यो दन्तप्रक्षालनादिकाः क्रियाः अक्कुर्वन् सावधक्रियाया अभावादक्रियोऽक्रियत्वाच्च प्राणिनामलूषकः- अव्यापादको यावदेकान्तेनैवास पण्डितो भवति । इतिः परिसमाप्यर्थे, त्रवीमीति पूर्ववत्, नयाः प्राग्वद्वयाख्येयाः ॥ समाप्तं प्रत्याख्यानाख्यं चतुर्थमध्ययनमिति ॥ ४ ॥ ये सावन्तो हेतव भवस्य ते तावन्तथैव मोक्षस्य गणनातिगा ठोका द्वयोरपि पूर्णा भवेयुस्तुल्याः ॥१॥ Education Intention अत्र चतुर्थ अध्ययनं परिसमाप्तं For Parts Only ~744~ ४ प्रत्या ख्यानाध्य. ॥३७०॥ Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक [ ६७ ] दीप अनुक्रम [७०४] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [-], मूलं [६७...], निर्युक्तिः [१८१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - अथ पञ्चरमाचारश्रुताध्ययनप्रारंभः । साम्प्रतं पञ्चममारभ्यते, अस्य चायमभिसंबन्धः, इहानन्तराध्ययने प्रत्याख्यानक्रियोक्ता, सा चाचारव्यवस्थितस्य सतो भवतीत्यतस्तदनन्तरमाचारश्रुताध्ययनमभिधीयते, यदिवाऽनाचारपरिवर्जनेन सम्यक् प्रत्याख्यानमस्खलितं भवतीत्यतोऽनाचारश्रुताध्ययनमभिधीयते, यदिवा प्रत्याख्यानयुक्तः सन्नाचारवान् भवतीत्थतः प्रत्याख्यानक्रियाऽनन्तरमाचारश्रुताध्ययनं तत्प्रतिपक्षभूतमनाचारश्रुताध्ययनं वा प्रतिपाद्यत इत्यनेन संबन्धेनाऽऽयातस्यास्याध्ययनस्योपक्रमादीनि चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति । तत्रोपकमान्तर्गतोऽर्थाधिकारोऽयं, तद्यथा— अनाचारं प्रतिषिध्य साधूनामाचारः प्रतिपाद्यते, नामनिष्पत्रे तु निक्षेपे आचारश्रुतमिति द्विपदं नाम, तदनयोर्निक्षेपार्थ निर्मुक्तिकृदाह--- णामंठवणायारे दवे भावे य होति नायो । एमेव य सुत्तस्सा निक्खेवो चउविहो होति ॥ १८९ ॥ आपारसुयं भणियं वज्जेयता सया अणायारा । अबहुसुस्स हु होज विराहणा इत्थ जहयवं ।। १८२ ॥ एयरस उ पडिसेहो इहमज्झयणंमि होति नायवो तो अणगारसुयंति य होई नामं तु एयस्स ॥ ९८३ ॥ ● तत्राचारो नामस्थापनाद्रव्यभावभेदभिभवतुर्धा द्रष्टव्यः, एवं श्रुतमपीति । तत्राचार तयोरन्यत्राभिहितयोर्लाघवार्थमतिदेशं कुर्वन्नाह - आचारथ श्रुतं च आचारश्रुतं द्वन्द्वैकवद्भवस्तदुभयमपि 'भणितम्' उक्तं, तत्राचारः क्षुल्लिकाचार कथायामभिहितः श्रुतं For Parts Only अथ पंचमं अध्ययनं "आचारश्रुत" आरभ्यते, पूर्व अध्ययनेन सह् अस्य अभिसंबन्ध:, आचार एवं श्रुत शब्दस्य निक्षेपाः अत्र अध्ययनस्य नाम्नी मुद्रणदोष: वर्तते (प्रतमें ऊपर शीर्षकमें "पंचरमा,,,,,," ऐसा लिखा है, यहाँ "पंचममा ...." होना चाहिए ~ 745~ Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [५], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-१], नियुक्ति: [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: 9208 प्रत सूत्रांक ||१|| सूत्रकृताङ्गे शत विनयश्रुते, भावार्थस्तु 'वर्जयितव्याः' परिहार्याः 'सदा' सर्वकालं यावञ्जीवं साधुनाऽनाचाराः, तांच 'अबहुश्रुतः' अगीतार्थों ५आचार२ श्रुतस्कन सम्यग् जानातीत्यतसय विराधना भवेत, हुशब्दोऽवधारणे, अबहुश्रुतस्यैव विराधना न गीतार्थत्यतः 'अत्र' सदाचारे तत्प- श्रुताध्य. न्ध शीला-1 रिज्ञाने च यतितव्यं, यथा हि मार्गज्ञः पथिकः कुमार्गवर्जनेन नापथगामी भवति न चोन्मार्गदोपैयुज्यते एवमनाचारं वर्जयहापा नाचारवान् भवति न चानाचारदोषैर्युज्यत इत्यतस्तत्प्रतिषेधार्थमाह -'एतस्य' अनाचारस्य सर्वदोपास्पदस दुर्गतिगमनकहेतोः ॥३७१॥ 'प्रतिषेधो निराकरणं सदाचारप्रतिपच्यर्थम् इह-अध्ययने ज्ञातव्यः, स च परमार्थतोऽनगारकारणमिति, ततः केपांचिन्मतेनैत-II साध्ययनस्थानगारश्रुतमित्येतनाम भवतीति । गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, तदनन्तरं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुचारयितव्यं, तवेदम्___ आदाय बंभचेरं च, आसुपने इमं वई । अस्सि धम्मे अणायारं, नायरेज कयाइवि ॥१॥ (सूत्रं) . अस्य चानन्तरपरम्परमूत्रः संबन्धो वाच्यः, तत्रानन्तरमूत्रेण सहायम्-एकान्तपण्डितो भवति, कथम् ?-'आदाय ब्रह्मचर्य-12 | मिति, परम्परसूत्रसंवधस्त्वयं-'बुध्येत तथा त्रोटयेद् बन्धन' किं कृतेत्याह-आदाय ब्रह्मचर्यमिति, एवमन्यैरपि मूत्रः संवन्धो वाच्यः, अर्थस्वयम्-'आदाय' गृहीखा, किं तद् !, ब्रह्मचर्य-सत्यतपोभूतदयेन्द्रियनिरोधलक्षणं तच्चर्यते-अनुष्ठीयते यस्मिन् तन्मीनीन्द्रं प्रवचनं ब्रह्मचर्यमित्युच्यते तदादाय 'आशुप्रज्ञः' पटुप्रज्ञः सदसद्विवेकज्ञः, क्खाप्रत्ययस्योत्तरक्रियासव्यपेक्षिखातामाह-- ॥३७॥ |'इमां'समस्ताध्ययनेनामि धीयमानां प्रत्यक्षासनभूतां वाचम्-'इदं शाश्वतमेवे त्यादिका कदाचिदपि 'नाचरेत्' नाभिदध्यात, तथाऽसिन्ध-सर्वज्ञप्रणीते व्यवस्थितः सन्ननाचार-सावद्यानुष्ठानरूपं 'न समाचरेत्' न विदयादिति संवन्धः, यदिवाऽऽशु दीप अनुक्रम [७०५] cene | ["मूलं-६७] ऊपर दिया गया ये सूत्रक्रम के बाद मूल सम्पादक ने गाथा के अलग क्रमांक दिए है, इसीलिए हमने मूलं के बाद गाथा-१ ऐसा लिखा है, अब आगे पृष्ठ ८१४ तक अर्थात् गाथा ५५ तक ऊपर मूल के साथ गाथा शब्द ही मिलेगा उसके आगेसे फिर मूलसूत्र क्रम-६८ से आरम्भ हो जाएगा | ~746~ Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [५], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-१], नियुक्ति: [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||१|| दीप अनुक्रम [७०५] 19 प्रज्ञा-सर्वज्ञः प्रतिसमय केवलज्ञानदर्शनोपयोगिलात्तत्संबन्धिनि धमें व्यवस्थितः 'इमां वक्ष्यमाणां वाचम् अनाचार च कदाचिदपि। नाचरेदितिश्लोकार्थः ।। १॥ तत्रानाचारं नाचरेदित्युक्तम् , अनाचारश्च मौनीन्द्रप्रवचनादपरोऽभिधीयते, मौनीन्द्रप्रवचनं तुरा मोक्षमार्गहेतुतया सम्यग्दर्शनशानचारित्रात्मक, सम्यग्दर्शनं तु तत्वार्थश्रद्धानरूपं, तवं तु जीवाजीवपुण्यपापाश्रवबन्धसंवरनिर्ज-1 रामोक्षात्मक, तथा धर्माधर्माकाशपुद्गलजीवकालात्मकं च द्रव्यं नित्यानित्यस्वभावं, सामान्य विशेषात्मकोऽनाथपर्यवसानचतुर्दशरज्ज्वात्मको वा लोकस्तचमिति, ज्ञानं तु मतिश्रुताव धिमनःपर्यायकेवलस्वरूपं पञ्चधा, चारित्रं सामायिकच्छेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्धीयमूक्ष्मसंपराययथाख्यातरूपं पञ्चधैव मूलोत्तरगुणभेदतो वाऽनेकधेत्येवं व्यवस्थिते मौनीन्द्रप्रवचने 'न कदाचिदनीदृशं जग दितिकृलानाद्यपर्यवसाने लोके सति दर्शनाचारप्रतिपक्षभूतमनाचार दर्शयितुकाम आचार्यों यथावस्थितलोकस्वरूपोद्घट्टनपूर्वकमाह--- अणादीयं परित्राय, अणवदग्गेति वा गुणो । सासयमसासए वा, इति दिहि न धारए ॥२॥ (सन) एएहिं दोहि ठाणेहिं, ववहारो ण विजई । एएहिं दोहि ठाणेहिं, अणायारं तु जाणए ॥ ३॥ (सूत्रं) नास चतुर्दशरज्ज्यात्मकस्य लोकस्य धर्माधर्मादिकख वा द्रव्यस्यादि:-प्रथमोत्पतिविद्यत इत्यनादिकस्तमेवंभूतं 'परिज्ञाय' प्रमाणतः परिच्छिय तथा 'अनवदनम् ' अपर्यवसानं च परिज्ञायोभयनयात्मकव्युदासेनकनयदृयाध्यधारणात्मकप्रत्ययमनाचारं दर्शयति- शश्वद्भवतीति शाश्वत-नित्यं सांख्याभिप्रायेणाप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकखभावं खदर्शने चानुयायिनं सामान्यांशमव प्रमाणपत्वामीनीन्त्रागमसोभवनयात्मकता । २०त्मक प्रया, प्रवयं ज्ञान, प्रतीत्यस्य चाध्याहारः । ३ मिभ्यासकारण। ४ सयतारूयं । అటవలసినంత వరకు పాలు 2800202000 ~747~ Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [५], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-३], नियुक्ति: [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३|| दीप अनुक्रम [७०७] सूत्रकृताङ्गे लम्ब्य धर्माधर्माकाशादिष्वनादिखमपर्यवसान चोपलभ्य सर्वमिदं शाश्वतमित्येवंभूतां दृष्टिं 'न धारयेदिति एवं पक्षं न समा-18५आचार२ श्रुतस्क- श्रयेत् । तथा विशेषपक्षमाश्रित्य 'वर्तमाननारकाः समुच्छेत्स्यन्ती'त्येतच मूत्रमङ्गीकृत्य यत्सत्तत्सर्वमनित्यमित्येवंभूतबौद्धदर्शनाभि- श्रुताध्य. कीयावृत्तिः प्रायेण च सर्वमशाश्वतम्-अनित्यमित्येवंभूतां च दृष्टिं न धारयेदिति ॥२॥ किमित्येकान्तेन शाश्वतमशाश्वतं वा वस्वित्येवं भूतां दृष्टिं न धारयेदित्याह-सर्व नित्यमेवानित्यमेव वैताभ्यां द्वाभ्यां स्थानाभ्यामभ्युपगम्यमानाभ्यामनयोर्वा पक्षयोर्व्यवहरणं ॥३७॥ व्यवहारो-लोकस्यैहिकामुष्मिकयोः कार्ययोः प्रवृत्तिनिवृत्तिलक्षणो न विद्यते, तथाहि-अप्रच्युतानुत्पस्थिरैकस्वभावं सर्वं नित्य मित्येवं न व्यवहियते, प्रत्यक्षेणैव नवपुराणादिभावेन प्रध्वंसाविन वा दर्शनात् , तथैव च लोकस्य प्रवृत्तेः, आमुष्मिकेऽपि नित्य-18 एखादात्मनो बन्धमोक्षायभावेन दीक्षायमनियमादिकमनर्थकमिति नै व्यवहियते । तथैकान्तानित्यवेऽपि लोको धनधान्यघटपटा-1 दिकमनागतभोगार्थ न संगृह्णीयात् , तथाऽमुष्मिकेपि क्षणिकखादात्मनः प्रवृत्तिन स्वात् , तथा च दीक्षाविहारादिकमनर्थक, | तस्मानित्यानित्यारमके एव साद्वादे सर्वव्यवहारप्रवृतिः, अत एव तयोनित्यानित्ययोः स्थानयोरेकान्तलेन समाश्रीयमाणयोरेहि-18 | कामुष्मिककार्यविध्यसरूपमनाचारं मौनीन्द्रागमबाह्यरूपं विजानीयात् , तुशब्दो विशेषणार्थः, कथचिनित्यानित्ये वस्तुनि सति | व्यवहारो युज्यत इत्येतद्विशिनष्टि, तथाहि-सामान्यमन्वयिनमंशमाश्रित्य स्थानित्यमिति भवति, तथा विशेषांश प्रतिक्षणमन्यथा च अन्यथा च नवपुराणादिदर्शनतः स्यादनित्य इति भवति, तथोत्पादव्ययधौव्याणि चाईदर्शनाश्रितानि व्यवहारा भेवति ॥३७२।। १ असरूपोऽभाषः, तेन तापणेत्यर्थः, ईयया साधुरितिवद् प्रकृल्या चार्वितिबा तृतीया । २ अनकतणा नि प्रतिरूपफलदतया । ३ सामान्यांशापेक्षया नए । | ४ विशेषांशापेक्षया पुंस्त्वं । ५ भवन्ति ( विधेयतोत्पादादीनां) । cerseserdepeeeeeserelese ~748~ Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||3|| दीप अनुक्रम [७०७] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र- २ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [-] मूलं [गाथा - ३], निर्युक्तिः [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः | तथा चोक्तम् — “घटमौलि सुवर्णार्थी, नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं, जनो याति सहेतुकम् ।। १ ।। इत्यादि । तदेवं नित्यानित्यपक्षयोर्व्यवहारो न विद्यते, तथाऽनयोरेवानाचारं विजानीयादिति स्थितम् ॥ ३ ॥ तथाऽन्यमप्यनाचारं प्रतिपेद्धुकाम आह समुच्छिहंत सत्धारो, सबै पाणा अणेलिसा । मंठिगा वा भविस्संति, सासयंति व णो वए ॥ ४ ॥ एहिं दोहिं ठाणेहिं, ववहारो ण विज्जइ । एएहिं दोहिं ठाणेहिं, अणायारं तु जाणए ॥ ५ ॥ ( सूत्र ) सम्यक् - निरवशेषतया 'उच्छेत्स्यन्ति' उच्छेदं यास्यन्ति-क्षयं प्राप्स्यन्ति सामस्त्येनोत् प्राबल्येन सेत्स्यन्ति वा सिद्धिं याखन्ति, के ते? - शास्तारः - तीर्थकृतः सर्वज्ञास्तच्छासनप्रतिपन्ना वा 'सर्व' निरवशेषाः सिद्धिगमनयोग्या भय्याः, ततवोच्छिन्नभव्यं जगत्स्यादिति, शुष्कतकभिमानग्रहगृहीता युक्तिं चाभिदधति - जीवसद्भावे सत्यप्यपूर्वोत्पादाभावादभव्यस्य च सिद्धिगमनासंभवा| त्कालस्य चानन्त्यादनारतं सिद्धिगमनसंभवेन तद्व्ययोपपत्तेरपूर्वायाभावाद्भव्योच्छेद इत्येवं नो वदेत् तथा सर्वेऽपि 'प्राणिनो' | जन्तवः 'अनीदृशा' विसदृशाः सदा परस्परविलक्षणा एव, न कथञ्चित्तेषां सादृश्यमस्तीत्येवमध्ये कान्तेन नो वदेत् यदिवासर्वेषां भन्यानां सिद्धिसद्भावेऽवशिष्टाः संसारे 'अनीदृशा' अभव्या एव भवेयुरित्येवं च नो वदेत्, युक्ति चोत्तरत्र वक्ष्यति । तथा कर्मात्मको ग्रन्थो येषां विद्यते ते ग्रन्थिकाः सर्वेऽपि प्राणिनः कर्मग्रन्थोपेता एवं भविष्यन्तीत्येवमपि नो वदेत् इदमुक्तं भवति--सर्वेऽपि प्राणिनः सेत्स्वन्त्येव कर्मावृता वा सर्वे भविष्यन्तीत्येवमेकमपि पक्षमेकान्तिकं नो वदेत् । यदिवा — 'ग्रन्थिका' इति ग्रन्थिकसच्चा भविष्यन्तीति, ग्रन्थिभेदं कर्तुमसमर्था भविष्यन्तीत्येवं च नो वदेत्, तथा 'शाश्वता' इति शास्तारः | 'सदा' सर्वकालं स्थायिनस्तीर्थकरा भविष्यन्ति 'न समुच्छेस्यन्ति' नोच्छेदं यास्यन्तीत्येवं नो वदेदिति ॥४॥ तदेवं दर्शनाचारवा Ja Eucation Internation For Parts Only ~749~ Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [9], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-५], नियुक्ति: [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक न्धे शीला ||५|| दीप अनुक्रम [७०९] सूत्रकृताङ्गे देनिषेधं वायात्रेण प्रदाधुना युक्ति दर्शयितुकाम आह–'एतयोः अनन्तरोक्तयोईयोः स्थानयोः, तद्यथा-शास्तारः क्षयं आचार२ श्रुतस्क-8| यावन्तीति शाश्वता वा भविष्यन्तीति, यदिवा सर्वे शास्तारस्तद्दर्शनप्रतिपना वा सेत्स्यन्ति शाश्वता वा भविष्यन्ति, यदिवा सर्वे ॥ श्रुताध्य. प्राणिनी बनीटशा:-विसदृशाः सदृशा वा, तथा ग्रन्थिकसत्तास्तद्रहिता वा भविष्यन्तीत्येवमनयोः स्थानयोर्व्यवहरणं व्यवहारस्तद-18 कीयावृत्तिः स्तिले युक्तरभावान विद्यते, तथाहि-यत्तावदुक्तं 'सर्वे शास्तारः क्षयं यासन्ती'त्येतदयुक्तं, क्षयनिवन्धनस कर्मणोऽभावारिस-18 ॥३७३|| द्धानां क्षयाभावः, अथ भवस्थकेवल्यपेक्षयेदमभिधीयते, तदप्यनुपपन्न, यतोनाद्यनन्तानां केवलिनां सद्भावात्प्रवाहापेक्षया तदभावाभावः । यदप्युक्तम्-'अपूर्वस्वाभावे सिद्धिगमनसद्भावेन च व्ययसद्भाबाद्भव्यशून्यं जगत् स्थादित्येतदपि सिद्धान्तपरमार्थावेदिनो बचनं, यतो भव्यराशे राद्धान्ते भविष्यत्कालस्येवानन्त्यमुक्तं, तश्चैवमुपपद्यते यदि क्षयो न भवति, सति च तसिन् आनन्त्यं न स्यात्, नापि चावश्यं सर्वस्यापि भव्यस्य सिद्धिगमनेन भाय्यमित्यानन्त्यानव्यानां तत्सामग्र्यभावाद्योग्यदलिकप्रतिमावसदनुपपचिरिति । तथा नापि शाश्वता एव, भवस्थकेवलिनां शास्तॄणां सिद्धिगमनसद्भावात्प्रवाहापेक्षया च शाश्वतखमतः कथश्चिच्छाश्वताः कथंचिदशाश्वता इति । तथा सर्वेऽपि प्राणिनो विचित्रकर्मसद्भावान्नानागतिजातिशरीराङ्गोपाङ्गादिसमन्वितखादनीदृशाः-विसदृशास्तथोपयोगासंख्येयप्रदेशखामूर्तखादिभिर्धर्मः कथश्चित्सदृशा इति, तथोल्लसितसवीर्यतया केचिद्भिन्नग्रन्थयोऽपरे च तथाविधपरिणामाभावाद् ग्रन्थिकसचा एव भवन्तीत्येवं च व्यवस्थिते नैकान्तेनैकान्तपक्षो भवतीति प्रतिषिद्धः, तदेवमेतयोरेव द्वयोः स्थानयोरु-181 ||३७३॥ कनील्यानाचारं विजानीयादिति स्थितम् । अपिच आगमे अनन्तानन्तास्वप्युत्सर्पिण्यवसर्पिणीषु भन्यानामनन्तभाग एवं सिय- दर्शभामाचारवादनिषेध प्र० । २ दर्शनाचारविषये वादस निवेध । ३ योग्यता व सामन्याधुपेततारूपा । ४ सफलभन्यानां मुल्यनुपपत्तेः । ceseneelaeseseae celse ~750~ Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [५], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-५], नियुक्ति: [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||५|| दीप अनुक्रम [७०९] Riतीत्ययमर्थः प्रतिपाद्यते, यदा चैवंभूतं तदानन्त्य तत्कथं तेषां क्षयः, युक्तिरप्यत्र-संबन्धिशब्दावेती, मुक्तिः संसारं विना न 81 भवति, संसारोऽपि न मुक्तिमन्तरेण, ततश्च भव्योच्छेदे संसारस्थाप्यभावः स्यादतोऽभिधीयते नानयोर्व्यवहारो युज्यत इति॥५॥ अधुना चारित्राचारमङ्गीकृत्याहIS जे केइ खुरगा पाणा, अदुवा संति महालया । सरिसं तेहिं बेरंति, असरिसंती य णो बदे ॥६॥ एएहिं दोहिं ठाणेहिं, ववहारो ण विजई । एएहिं दोहिं ठाणेहि, अणायारं तु जाणए ॥७॥ (सूत्र) ये केचन क्षुद्रकाः सच्चाः प्राणिन एकेन्द्रियगीन्द्रियादयोऽल्पकाया वा पञ्चेन्द्रिया अथवा 'महालया' महाकायाः 'सन्ति' विद्यन्ते तेषां च क्षुद्रकाणामल्पकायानां कुन्वादीनां महानालयः-शरीरं येषां ते महालया-हस्त्यादयस्तेषां च व्यापादने सदर्श 'वैर'मिति वजं कर्म विरोधलक्षणं वा वैरं तत् 'सदृशं' समानं तुल्यप्रदेशवात्सर्वजन्तूनामित्येवमेकान्तेन नो बदेत, तथा 'विसह|शम्' असरशं तद्वयापचौ वैरं कर्मबन्धो विरोधो वा इन्द्रियविज्ञानकायानां विसशसात् सत्यपि प्रदेशतुल्यते न सदर्श वैरमि- | त्येवमपि नो वदेत् , यदि हि वध्यापेक्ष एव कर्मवन्धः स्यात्तदा तत्तदशात्कर्मणोऽपि सादृश्यमसारश्य वा वक्तुं युज्येत, न प तशादेव | | बन्धः अपि सध्यवसायवशादपि, ततथ तीबाध्यवसायिनोऽल्पकायसवव्यापादनेऽपि महरिम् , अकामस तु महाकायसवच्यापादनेऽपि खल्पमिति ॥ ६॥ एतदेव सूत्रेणैव दर्शयितुमाह-आभ्यामनन्तरोक्ताभ्यां खानाभ्यामनयोर्वा स्थानयोरल्पकायमहाकायव्यापादनापादितकर्मवन्धसदृशखासदृशखयोर्व्यवहरणं व्यवहारो नियुक्तिकखात्र युज्यते, तथाहि-न वध्यस्थ सदृशखमसदृशवं १ अत्र हि हखदीर्घत्ववदू घटतदभाववत्सत्यापेक्षता न तु कार्यकारणरूपेण, तथा च न मुक्तिमन्तरेण न संसार इवत्र विरोधः । Saawara909003830amera ~751~ Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [9], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-७], नियुक्ति: [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||७|| दीप अनुक्रम [७११] सूत्रकृताङ्गे चैकमेव कर्मबन्धस्य कारणम् , अपितु वधकस्य तीवभावो मन्दभावो ज्ञानभावोऽज्ञानभावो महावीर्यखमल्पवीर्यवं चेत्येतदपि । ||५आचार२ श्रुतस्क- तदेवं वध्यवधकयोर्विशेषात्कर्मवन्धविशेष इत्येवं व्यवस्थिते वध्यमेवाश्रित्य सदृशखासदृशखध्यवहारो न विद्यत इति । तथाऽनयोरेवर श्रुताध्य. न्धे शीला-18 स्थानयोः प्रवृत्तस्थानाचारं विजानीयादिति, तथाहि-यजीवसाम्यात्कर्मबन्धसदृशसमुच्यते, तदयुक्तं, यतो न हि जीवव्याप-1 कीयावृत्तिः18]च्या हिंसोच्यते, तस्स शाश्वतखेन व्यापादयितुमशक्यवाद् , अपि खिन्द्रियादिव्यापया, तथा चोक्तम्-"पश्चेन्द्रियाणि त्रिविधं चल ॥३७॥ ॥हाच, उच्छासनिःश्वासमथान्यदायुः । प्राणा दशैते भगवद्भिरुक्तास्तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा ॥१॥" इत्यादि । अपिच भाव-18| सम्पपेक्षस्यैव कर्मबन्धोऽभ्युपेतुं युक्तः, तथाहि-वैद्यखागमसधपेक्षस्य सम्यक् क्रियां कुर्वतो यद्यप्यातुरविपत्तिभवति तथापि न वैरानुपङ्गो भावदोपाभावाद्, अपरस्य तु सर्पबुद्धा रज्जुमपि मतो भावदोषाकर्मवन्धः, तंद्रहितस्य तु न बन्ध इति, उक्तं | चागमे 'उच्चालियंमि पाए इत्यादि, तण्डुलमत्स्याख्यानक तु सुप्रसिद्धमेव ।। तदेवं विधवध्यवधकभावापेक्षया स्यात् सदशलं || सादसशसमिति, अन्यथानाचार इति ॥ ७॥ पुनरपि चारित्रमधिकृत्याहारविषयानाचाराचारौ प्रतिपादयितुकाम आह अहाकम्माणि भुजंति, अण्णमण्णे सकम्मुणा । उवलितेति जाणिज्जा, अणुवलित्तेति वा पुणो ॥८॥ (सू०)। एएहिं दोहि ठाणेहि, ववहारो ण विजई । एएहिं दोहिं ठाणेहिं, अणायारं तु जाणए ॥ ९॥ (मू०) साधु प्रधानकारणमांधाय-आश्रित्य कर्माण्याधाकर्माणि, तानि च वनभोजनवसत्यादीन्युच्यन्ते, एतान्याधाकर्माणि ये भुञ्ज-IM॥३७४।। 1 १ असंख्यप्रदेशत्वादिना । २ भवेदोषा. प्र. शासप्रसिद्धत्वात्पूर्व व्यतिरे किणं प्रदय अन्नवी एष कर्मबन्ध इति । ४ भावदोषरहितस्य । ५ उचालिते पाये। हामादाय प्र० Recedeseserce ~752~ Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||९|| दीप अनुक्रम [७१३] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [-] मूलं [गाथा - ९], निर्युक्तिः [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - न्ते- एतैरुपभोगं ये कुर्वन्ति 'अन्योऽन्यं' परस्परं तान् खकीयेन कर्मणोपलिप्तान् विजानीयादित्येवं नो वदेत् तथाऽनुपलिप्तानिति वा नो वदेत्, एतदुक्तं भवति - आधाकर्मापि श्रुतोपदेशेन शुद्धमितिकृला भुञ्जानः कर्मणा नोपलिप्यते, तदाधाकर्मोपभोगेनावश्यतया कर्मबन्धो भवतीत्येवं नो वदेत् तथा श्रुतोपदेशमन्तरेणाहारगृज्याऽऽयाकर्म भुञ्जानस्य तन्निमित्तकर्मबन्धसद्भावात् | अतोऽनुलिप्तानपि नो वदेत्, यथावस्थितमौनीन्द्रागमज्ञस्य खेवं युज्यते वक्तुम् - आधाकर्मोपभोगेन स्वात्कर्मबन्धः स्यान्नेति, यत उक्तम् "किंचिच्छुद्धं कल्प्यमकल्प्यं वा स्यादकल्प्यमपि कल्प्यम् । पिण्डः शय्या वस्त्रं पात्रं वा भेपजाद्यं वा ॥ १॥" तथाऽन्यैरप्यसिहितम् - "उत्पद्येत हि साध्वस्था, देशकालामयान्प्रति । यस्यामकार्य कार्य स्यात्कर्म कार्य च वर्जयेद् ||१||" इत्यादि ||८|| किमि - त्येवं स्याद्वादः प्रतिपाद्यत इत्याह- आभ्यां द्वाभ्यां स्थानाभ्यामाश्रिताभ्यामनयोर्वा स्थानयोराधाकमोंपभोगेन कर्मबन्धभावाभावभूतयोर्व्यवहारो न विद्यते, तथाहि-- यद्यवश्यमाधाकर्मोपभोगेन कान्तेन कर्मबन्धोऽभ्युपगम्येत एवं चाहाराभावेनापि कचित्सुतरामनर्थोदयः स्यात्, तथाहि--क्षुत्प्रपीडितो न सम्यगीर्यापथं शोधयेत् ततश्च व्रजन् प्राप्युपमर्द्दमपि कुर्यात् मूर्च्छादिसद्भाव| तया च देहपाते सत्यवश्यंभावी प्रसादिव्याघातोऽकालमरणे चाविरतिरङ्गीकृता भवत्यार्तध्यानापत्तौ च तिर्यग्गतिरिति, आगमश्च"संवत्थ संजमं संजमाओ अप्पाणमेव रक्खेज्जा" इत्यादिनाऽपि तदुपभोगे कर्मबन्धाभाव इति, तथाहि आधाकर्मण्यपि निष्पाद्यमाने षड्जीवनिकायवधस्तद्वधे च प्रतीतः कर्मबन्ध इत्यतोऽनयोः स्थानयोरेकान्तेनाश्रीयमाणयोर्व्यवहरणं व्यवहारो न युज्यते, तथा ऽऽभ्यामेव स्थानाभ्यां समाश्रिताभ्यां सर्वमनाचारं विजानीयादिति स्थितम् ॥९॥ पुनरप्यन्यथा दर्शनं प्रति वागनाचारं दर्शयितुमाह१ सर्वत्र व संयमादात्मानमेव रक्षेत् । For Parts Only ~753~ any org Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-१०], नियुक्ति: [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||१०|| दीप अनुक्रम [७१४] सूत्रकृताङ्के जमिदं ओरालमाहारं, कम्मगं च तहेव य (तमेव तं)। सवत्थ चीरियं अस्थि, णत्थि सवत्थ वीरियं ॥१०॥ (सू०) आचार२श्रुतस्कएएहिं दोहिं ठाणेहिं, ववहारो ण विजई । एएहिं दोहिं ठाणेहिं, अणायारं तु जाणए ॥११॥ (सू०) श्रुताध्य. न्धे शीला- यदिवा योऽयमनन्तरमाहारः प्रदर्शितः स सति शरीरे भवति शरीरं च पञ्चधा तस्य चौदारिकादेः शरीरस्य भेदाभेदं प्रतिकीयावृत्तिः पादयितुकामः पूर्वपक्षद्वारेणाह-'जमिद मित्यादि, यदिदं सर्वजनप्रत्यक्षमुदारैः पुद्गलैनिवृत्तमौदारिकमेतदेवोरालं निस्सारखा । ॥३७५॥ एतच तिर्यअनुष्याणां भवति, तथा चतुर्दशपूर्वविदा कचित्संशयादावाहियत इत्याहारम् , एतद्ग्रहणाच्च वैकियोपादानमपि द्रष्टव्यं, तथा कर्मणा निर्वृत्तं कार्मणम् , एतत्सहचरितं तैजसमपि प्रायम् । औदारिकवैक्रियाहारकाणां प्रत्येकं तैजसकार्मणाम्यां | || सह युगपदुपलब्धः कस्यचिदेकलाशा सादतस्तदपनोदार्थं तदभिप्रायमाह-'तदेव तद' यदेवौदारिकं शरीरं ते एव तैजसकार्मणे || शरीरे, एवं बैंक्रियाहारकयोरपि वाच्य, तदेवभूतां संज्ञां नो निवेशयेदित्युचरश्लोके क्रिया, तथैवेषामात्यन्तिको भेद इत्येवंभूतामपि संज्ञां नो निवेशयेत् । युक्तिश्चात्र-ययेकान्तेनाभेद एव तत इदमौदारिकमुदारपुद्गलनिष्पन्न तथैतत्कर्मणा निर्वर्तित कार्मणं सर्वस्वतस्य संसारचक्रवालभ्रमणस्य कारणभूतं तेजोद्रव्यैर्निष्पनं तेज एव तैजसं आहारपक्तिनिमित्तं तैजसलब्धिनिमिर्च चेत्येवं भेदेन संज्ञा निरुक्तं कार्य च न स्यात् । अथात्यन्तिको भेद एव ततो घटव दिन्नयोर्देशकालयोरप्युपलब्धिः स्यात्, न 81 | नियता युगपदुपलब्धिरिति, एवं च व्यवस्थिते कथञ्चिदेकोपलब्धेरभेदः कथञ्चिच्च संज्ञाभेदाभेद इति स्थित । तदेवमौदारिकादीनां || ॥३७॥ शरीराणां भेदाभेदौ प्रदाधुना सर्वस्व द्रव्यस्य भेदाभेदौ प्रदर्शयितुकामः पूर्वपक्षं श्लोकपश्चार्द्धन दर्शयितुमाह-'सव्यत्य ॥ औदारिककार्यस्य धर्माधर्मार्जनमुक्त्पनात्यादेः प्रसिद्धत्वान्न निर्देशः। 982908seas SARERaininainarana ~754 ~ Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [५], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-११], नियुक्ति: [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||११|| दीप अनुक्रम [७१५] वीरिय'मित्यादि, 'सर्व सर्वत्र विद्यत' इतिकृत्वा सांख्याभिप्रायेण सत्त्वरजस्तमोरूपस्य प्रधानस्यैकलात्तस्य च सर्वस्मैच कारणखात् अतः सर्व सर्वात्मकमित्येवं व्यवस्थिते 'सर्वत्र' घटपटादौ अपरस्य-व्यक्तख 'वीर्य' शक्तिर्विद्यते, सर्वस्यैव हि व्यक्तस्य प्रधानका| येसात्कार्यकारणयोधकखाद, अतः सर्वस्य सर्वत्र वीर्यमस्तीत्येवं संज्ञा नो निवेशयेत , तथा 'सर्वे भावो खौवन, स्वखभावव्यव| स्थिता'इति प्रतिनियतशक्तिखान सर्वत्र सर्वस्व 'बीर्य'शक्तिरित्येवमपि संज्ञां नो निवेशयेत् । युक्तिश्चात्र-यत्तावदुच्यते 'सांख्याभिप्रायेण सर्व सर्वात्मकं देशकालाकारप्रतिबन्धात्तु न समानकालोपलब्धि'रिति, तदयुक्तं, यतो भेदेन सुखदुःखजीवितमरणदूरासन्नमू-18 क्ष्मवादरसुरूपकुरूपादिकं संसारवैचित्र्यमध्यक्षेणानुभूयते, न च दृष्टेऽनुपपन्नं नाम, न च सर्व मिथ्येत्यभ्युपपत्तुं युज्यते, यतो दृष्टहा-1 निरदृष्टकल्पना च पापीयसी । किंच-सर्वथैक्येऽभ्युपगम्यमाने संसारमोक्षाभावतया कृतनाशोऽकृताभ्यागमश्र बलादापतति, यञ्चैतत् सत्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः प्रधानमित्येतत्सर्वस्वास्थ जगतः कारणं तनिरन्तराः सुहृदः प्रत्येष्यन्ति, नियुक्तिकखाद् अपिच-सर्वथा सर्वस वस्तुन एकखेऽभ्युपगम्यमाने सत्वरजस्तमसामप्येकवं स्यात् , तद्भेदे च सर्वस्य बद्धदेव भेद इति । तथा यद-18 प्युच्यते-'सर्वस्व व्यक्तख प्रधानकार्यवात्सत्कार्यवादाच मयूराण्डकरणे चञ्चपिच्छादीनां सतामेवोत्पादाभ्युपगमाद् असदुत्पादे चाम्र-18 फलादीनामप्युत्पत्तिप्रसङ्गा'दित्येतद्वामात्र, तथाहि-यदि सर्वथा कारणे कार्यमस्ति न तर्युत्पादो निष्पन्नघटस्पेव, अपिच मृत्पिण्डा-12 वस्थायामेव घटगताः कर्मगुणव्यपदेशा भवेयुः, न च भवन्ति, ततो नास्ति कारणे कार्यम्, अथानभिव्यक्तमस्तीति चेन तर्हि सर्वात्मना विद्यते, नाप्येकान्तेनासत्कार्यबाद एव, तद्भावे हि व्योमारविन्दानामध्येकान्तेनासतो मृत्पिण्डादेर्घटादेरिवोत्पत्तिः स्थात् , न चैतह१ कास्य । २ शक्तयः । ३ लारूपेण । ४ खवाधारपदार्थेषु । ५ पपर्न प्र.। ~755~ Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||??|| दीप अनुक्रम [७१५] सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्क न्धे शीलाझीयावृत्तिः ॥३७६ ॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र -२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [ - ], मूलं [गाथा - ११], निर्युक्तिः [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०२ ], अंग सूत्र - [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः टमिष्टं वा, अपिच एवं सर्वस्य सर्वस्मादुत्पत्तेः कार्यकारणभावानियमः स्याद् एवं च न शाल्यङ्कुरार्थी शालीवीजमेवादद्याद् अपि तु यत्किञ्चिदेवेति, नियमेन च प्रेक्षापूर्वकारिणामुपादानकारणादौ प्रवृत्तिः, अतो नासत्कार्यवाद इति । तदेवं सर्वपदार्थानां सच्चज्ञेयत्वप्रमेयखादिभिर्धमः कथञ्चिदेकत्वं तथा प्रतिनियतार्थकार्यतया यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थतः सदितिकृत्वा कथञ्चिद्भेद इति सामान्यविशेषात्मकं वस्थिति स्थितम् । अनेन च स्यादस्ति स्वाभास्तीतिभङ्गकद्वयेन शेषभङ्गका अपि द्रष्टव्याः, तत सर्व वस्तु सप्तभङ्गीस्वभावं ते चामी - खद्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षया स्यादस्ति, परद्रव्याद्यपेक्षया स्यान्नास्ति, अनयोरेव धर्मयोयाँगपद्ये| नाभिधातुमशक्यत्वात्स्यादवक्तव्यं, तथा कस्यचिदंशस्य स्वद्रव्याद्यपेक्षया विवक्षितत्वात्कस्यचिच्चांशस्य परद्रव्याद्यपेक्षया विवक्षितखात् स्यादस्ति च स्यान्नास्ति चेति, तथैकस्यांशस्य स्वद्रव्याद्यपेक्षया परस्य तु सामस्त्येन स्वपरद्रव्याद्यपेक्षया विवक्षितसात्स्यादस्ति चावक्तव्यं चेति, तथैकस्यांशस्य परद्रव्याद्यपेक्षया परस्य तु सामस्त्येन स्वद्रव्याद्यपेक्षया विवक्षितत्वात् स्यान्नास्ति चावक्तव्यं | चेति, तथैकस्यांशस्य स्वद्रव्याद्यपेक्षया परस्य तु परद्रव्याद्यपेक्षयाऽन्यस्य तु यौगपद्येन स्वपरद्रव्याद्यपेक्षया विवक्षितनात्स्यादस्ति च नास्ति चाबक्तव्यं चेति, इयं च सप्तभङ्गी यथायोगमुत्तरत्रापि योजनीयेति ॥ १० ॥ ११ ॥ तदेवं सामान्येन सर्वस्यैव वस्तुनो भेदाभेदी प्रतिपाद्याधुना सर्वशून्यवादिमतनिरासेन लोकालोकयोः प्रविभागेनास्तित्वं प्रतिपादयितुकाम आह--यदिवा 'सर्वत्र वीर्यमस्ति नास्ति सर्वत्र वीर्य' मित्यनेन सामान्येन वस्वस्तिखमुक्तं, तथाहि — सर्वत्र वस्तुनो 'वीर्य' शक्तिरर्थक्रियासामर्थ्यमन्तशः स्वविषयज्ञानोत्पादनं तचैकान्तेनात्यन्ताभावाच्छशविषाणादेरप्यस्तीत्येवं संज्ञां न निवेशयेत्, सर्वत्र वीर्य नास्तीति नो एवं संज्ञां ११ मनसः प्र० । २ भावाभावा प्र०३ सर्वत्र वीर्यमित्येवंरूप। Education International For Pale On ~756~ ५ आचारश्रुताध्य. ॥ ३७६ ॥ yor Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१२|| दीप अनुक्रम [७१६] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र -२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [-] मूलं [गाथा - १२], निर्युक्तिः [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०२ ], अंग सूत्र - [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः निवेशयेदिति, अनेनाविशिष्टं वस्त्वस्तित्वं प्रसाधितम् इदानीं तस्यैव वस्तुन ईषद्विशेषितलेन लोकालोकरूपतयाऽस्तित्वं प्रसाधयन्नाहणत्थि लोए अलोए वा, शेवं सन्नं निवेसए। अस्थि लोए अलोए वा, एवं सन्नं निवेस ॥ १२ ॥ णत्थि जीवा अजीवा वा, जैवं सन्नं निवेसए। अस्थि जीवा अजीवा वा, एवं सन्नं निवेस || १३ || (सू० 'लोकः' चतुर्दशरज्ज्यात्मको धर्माधर्माकाशादिपञ्चास्तिकायात्मको वा स नास्तीत्येवं संज्ञां नो निवेशयेत् । तथाऽऽकाशास्तिकायमात्रकस्स्वलोकः स च न विद्यते एवेत्येवं संज्ञां नो निवेशयेत् । तदभावप्रतिपत्तिनिबन्धनं खिदं तद्यथा-प्रतिभासमानं वस्त्ववयचद्वारेण वा प्रतिभासेतावयविद्वारेण वा ? तत्र न तावदवयवद्वारेण प्रतिभासनमुत्पद्यते, निरंशपरमाणूनां प्रतिभासनासंभवात्, सर्वारातीयभागस्य च परमाण्वात्मकत्वात्तेषां च छद्मस्थविज्ञानेन द्रष्टुमशक्यत्वात्, तथा चोक्तम्- "यावदृश्यं परस्तावद्भागः स च न दृश्यते । निरंशस्य च भागस्य, नास्ति छद्मस्थदर्शनम् ॥ १ ॥ इत्यादि, नाप्यवयचिद्वारेण, विकल्प्यमानस्यावयविन एवाभावात् तथाहि असौ खावयवेषु प्रत्येकं सामस्त्येन वा वर्चेत १ अंशांशिभावेन वा १, न सामस्त्येनावयवि बहुवप्रसङ्गात्, नाप्यंशेन पूर्वविकल्पानतिक्रमेणानवस्थाप्रसङ्गात् तस्माद्विचार्यमाणं न कथञ्चिद्रस्वात्मभावं लभते ततः सर्वमेवैतन्मायास्वमेन्द्रजालमरुमरीचिका विज्ञानसदृशं तथा चोक्तम्- "यथा यथार्थाश्विन्त्यन्ते, विविच्यन्ते तथा तथा । यद्येते (तत्) स्वयमर्थेभ्यो, रोचन्ते (ते) तत्र के वयम् १ ॥ १ ॥" इत्यादि । तदेवं वस्वभावे तद्विशेपलोकालोकाभावः सिद्ध एवेत्येवं नो संज्ञां निवेशयेत् । किंवस्ति लोक ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्रूपो वैशाखस्थानस्थित कटिन्यस्तकरयुग्म पुरुषसदृशः पश्चास्तिकायात्मको वा तद्व्यतिरिक्तञ्चालोकोऽप्यस्ति संबन्धिशब्दवात्, लोकव्यवस्थाऽन्यथाऽनुपपत्तेरिति भावः युक्तिवात्र- यदि सर्व नास्ति तत सर्वान्तःपातिना Educatin internation For Parts Only ~757~ Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-१३], नियुक्ति: [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||१३|| दीप अनुक्रम [७१७] सूत्रकृताङ्गे शत्प्रतिषेधकोऽपि नास्तीत्यतस्तद्भावात्प्रतिषेधाभावः, अपि च सति परमार्थभूते वस्तुनि मायाखमेन्द्रजालादिन्यवस्था, अन्यथा किमा- ५आचार२ श्रुतस्क-18श्रित्य को वा मायादिकं व्यवस्थापयेदिति । अपिच--"सर्वाभावो यथाऽभीष्टो, युक्त्यभावे न सियति । साऽस्ति पेस्सैव नस्तत्त्वं,81 श्रुताध्य. न्य शाला- तत्सिद्धौ सर्वमस्तु सद् ॥१॥" इत्यादि । यदप्यवयवाक्यविविभागकल्पनया दूषणमभिधीयते तदप्याहतमतानभिजेन, उन्मतं कीयावृत्तिः वेवंभूतं, तवथा-नैकान्तेनावयवा एव नाप्यवयव्येव चेत्यतः स्याद्वादाश्रयणात्पूर्वोक्तविकल्पदोषानुपपत्तिरित्यतः कथचिल्लोको-18|| ॥३७७॥ स्त्येवमलोकोऽपीति स्थितम् ॥१२॥ तदेवं लोकालोकास्तिलं प्रतिपाद्याधुना तद्विशेषभूतयोर्जीवाजीवयोरस्तिलप्रतिपादनायाह ISणत्थि जीवा अजीवेत्यादि, जीवा उपयोगलक्षणाः संसारिणो मुक्ता बा ते न विद्यन्ते, तथा अजीवाध धर्माधर्माकाशगल | | कालात्मका गतिस्थित्यवगाहदानच्छायातपोधोतादिवर्चनालक्षणा न विद्यन्त इत्येवं संज्ञा-परिज्ञानं नो निवेशयेत्, नास्तितनि-1 बन्धनं खिद-प्रत्यक्षेणानुपलभ्यमानबाजीवा न विद्यन्ते, कायाकारपरिणतानि भूतान्येव धावनवल्गनादिका क्रिया कुर्वन्तीति ।। तथाऽऽत्माद्वैतवादमताभिप्रायेण 'पुरुष एवेदं निं सर्व यतं यच भाग्य'मित्यागमात् तथा अजीवा न विद्यन्ते सर्वस्वैव चेतनाचेतन रूपस्यात्ममात्रविवत्तेवात् नो एवं संज्ञां निवेशयेत् , किंत्वस्ति जीवः सर्वस्वास्थ सुखदुःखादेर्निबन्धनभूतः खसंवित्तिसिद्धोडप्रत्यय-1 8 ग्राह्यः, तथा तद्वयतिरिक्ता धर्माधर्माकाशपुद्गलादयश्च विद्यन्ते, सकलप्रमाणज्येष्ठेन प्रत्यक्षेणानुभूयमानत्वात्तद्गुणानां, भूराचैतन्य-18 वादी च वाच्यः-किं तानि भवदभिप्रेतानि भूतानि नित्यान्युतानित्यानि ?, यदि नित्यानि ततो अच्युतानुत्पन्नस्थिरेकखभावत्वान ॥३७॥ कायाकारपरिणतिः, नापि प्रागविद्यमानस्य चैतन्यस्य सद्भावो, नित्यत्वहानेः । अथानित्यानि किं तेष्वविद्यमानमेव चैतन्यमुत्पद्यते सर्व वस्तु प्र. । २ पक्षाभ्युचये। ३ विवर्ति प्र०। ४ नरूपः प्रा। Recenesceseseseces ~758~ Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-१३], नियुक्ति: [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||१३|| दीप अनुक्रम [७१७] eseseseekeeseseeeee आहोस्विद्विधमान ?, न तावदविद्यमानमतिप्रसङ्गाद, अभ्युपेतागमलोपाद्वा, अथ विद्यमानमेव सिद्धं तर्हि जीवनम् । तथाऽऽत्माद्वैतवाद्यपि वाग्यः-यदि पुरुषमात्रमेवेदं सर्व कथं घटपटादिषु चैतन्य नोपलभ्यते , तथा तदैक्येज्मेदनियन्धनानां पक्षहेतुरष्टान्तानामभावात्साध्यसाधनाभावः, तस्माकान्तेन जीवाजीवयोरभावः, अपितु सर्वपदार्थानां स्थाद्वादाश्रयणाजीवः स्थाजीवः स्वादजीवः अजीवोऽपि च साद जीवः खाजीव इति, एतच स्वाद्वादाश्रयणं जीवपुद्गलयोरन्योन्यानुगतयोः शरीरप्रत्यक्षतयाऽध्यक्षेणैवोपलम्भाद्रष्टव्यमिति ॥ १३ ॥ जीवास्तिले च सिद्धे तेभिबन्धनयोः सदसत्क्रियाद्वारायातयोधर्माधर्मयोरस्तिखप्रतिपादनायाह णस्थि धम्मे अधम्मे वा, णेवं सन्नं निवेसए । अत्धि धम्मे अधम्मे वा, एवं सत्रं निवेसए ॥ १४ ॥ णस्थि बंधे व मोक्खे वा, णेवं सन्नं निवेसए । अस्थि बंधे व मोक्खे वा, एवं सत्र निवेसए ॥१५॥ (सू०)। 'धर्मः' श्रुतचारित्रात्मको जीवस्यात्मपरिणामः कर्मक्षयकारणम् , एवमधर्मोऽपि मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकपाययोगरूपः कर्मबन्ध-18 कारणमात्मपरिणाम एच, तावेवंभूती धर्माधौं कालखभावनियतीश्वरादिमतेन न विद्यते इत्येवं संज्ञा नो निवेशयेत्-कालादय 81 एवास्य सर्वस जगद्वैचित्र्यस्य धर्माधर्मव्यतिरेकेणैकान्ततः कारणमित्येवमभिप्रायं न कुर्यात्, यतः त एवैकका न कार-18|| णमपि तु समुदिता एवेति, तथा चोक्तम्-"नं हि कालादीहिंतो केवलएहितो जायए किंचि । इह मुग्गरंधणाइविता सो समुदिया हेऊ ॥१॥"इत्यादि । यतो धर्माधर्मान्तरेण संसारवैचित्र्यं न घटामियर्त्यतोऽस्ति धर्मः सम्यग्दर्शनादिकोऽधर्मश्च सबभेदसिदिनियन्धनानां । भेदनिबन्धनानामिति चेद् भेदजाना मित्यर्थः । २ नैव कालादिभ्यः केवलेभ्यो जायते किश्चिदपि । इह मुद्रधनायपि ततः सर्वे समुदिता हेतुः ॥ १॥३ नारकलादिविशिष्टजीवनिबन्धनयोः बहुमीहियों। 9397902929202099 ~759~ Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-१५], नियुक्ति: [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||१५|| सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्क- न्धे शीलाकीयावृत्तिः ॥३७८॥ दीप अनुक्रम [७१९] मिथ्यात्वादिक इत्येवं संज्ञा निवेशयेदिति ॥१४॥ सतोश्च धर्माधर्मयोबंधमोक्षसद्भाव इत्येतद्दर्शयितुमाह-वन्धः-प्रकृतिस्थित्यनु- आचारभावप्रदेशात्मकतया कर्मपुद्गलानां जीवेन खव्यापारतः खीकरणं, स चामूर्तस्यात्मनो गगनखेव न विद्यत इत्येवं नो संज्ञा निवे- श्रुवाध्य. शयेत् , तथा तदभावाच मोक्षस्थाप्यभाव इत्येवमपि संज्ञां नो निवेशयेत् । कथं तर्हि संज्ञां निवेशयेदित्युत्तरार्द्धन दर्शयति-अस्ति | |बन्धः कर्मपुद्गलैजीववेत्येवं संत्रा निवेशयेदिति, यत्तूच्यते-अमृतस्य मूर्तिमता संबन्धो न युज्यत इति, तदयुक्तम् , आकाशस्य सर्वव्यापितया पुद्गलैरपि संबन्धो दुर्निवार्यः, तदभावे तव्यापित्वमेव न स्वाद्, अन्यच अस्य विज्ञानस्य हत्पूरमदिरादिना विकारः समुपलभ्यते न चासौ संपन्धमृते अतो यत्किञ्चिदेतत् । अपिच-संसारिणामसुमता सदा तैजसकार्मणशरीरसद्धावादात्यन्तिक-| ममूर्तत्वं न भवतीति । तथा तत्प्रतिपक्षभूतो मोक्षोऽप्यस्ति, तदभावे बन्धस्याप्यभावः सादित्यतोऽशेषबन्धनापगमखभावो मोक्षोऽस्तीत्येवं च संज्ञां निवेशयेदिति ॥ १५ ॥ बन्धसद्भावे चावश्यं भावी पुण्यपापसद्भाव इत्यतस्तद्भाव निषेधद्वारेणाहणस्थि पुण्णे व पावे वा, णेवं सन्नं निवेसए । अस्थि पुण्णे व पावे वा, एवं सन्नं निवेसए ॥१६॥ णस्थि आसवे संवरे वा, वं सनं निवेसए । अस्थि आसवे संवरे वा, एवं सन्नं निवेसए ॥ १७॥ (सू०) || 'नास्ति' न विद्यते 'पुण्यं शुभकर्मप्रकृतिलक्षणं तथा 'पापं तद्विपर्ययलक्षणं 'नास्ति' न विद्यते इत्येवं संज्ञा नो निवेशयेत् ।। तदभावप्रतिपचिनिबन्धनं खिद-तत्र केपाश्चिनास्ति पुण्यं, पापमेव झुत्कर्षावस्वं सत्सुखदुःखनिबन्धनं, तथा परेषां पापं नास्ति, पुण्यमेव | ॥३७ | अपचीयमानं पापकार्य कुयोंदिति, अन्येषां तूभगमपि नास्ति, संसारवैचित्र्यं तु नियतिखभावादिकतं, तदेतदयुक्तं, यतः पुण्यपाप १ मूर्तस्यामूर्तिमता प्र० । २ तावे प्र• फर्मपुद्गलानामनिर्जरणेन मोक्षाभावात्सर्वेषां कालेनादानादपरेषा वाभावाद्वन्धाभावः) । ३ संवन्धिशब्दत्वात् । eaeseseseseserveses ~760~ Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-१७], नियुक्ति: [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||१७|| दीप अनुक्रम [७२१] शब्दो संबन्धिशब्दौ संबंधिशब्दानामेकांशस्य सत्ताऽपरसत्तानान्तरीयका अतो नैकतरस्य सत्तेति, नाप्पुभयाभावः शक्यते वक्तुं, निर्निबन्धनस्य जगद्वैचित्र्यस्याभावात्, न हि कारणमन्तरेण क्वचित्कार्यस्योत्पचिदृष्टा, नियतिखभावादियादस्तु नष्टोत्तराणां पादनसारिकाप्रायः, अपि च-तद्वादेऽभ्युपगम्यमाने सकलक्रियावयर्थ्य तत एव सकलकार्योत्पत्तेरित्यतोऽस्ति पुण्यं पापं चेत्येवं संज्ञां निवे|शयेत् । पुण्यपापे चर्वरूपे, सबधा-"पुद्गलकर्म शुभं यत्तत्पुण्यमिति जिनशासने दृष्टम् । यदशुभमथ तल्पापमिति भवति सर्वज्ञनिर्दि-18 एम् ॥१॥” इति ॥१६॥ न कारणमन्तरेण कार्ययोत्पत्तिरतः पुण्यपापयोः प्रागुक्तयोः कारणभूतावाश्रवसंवरी तत्प्रतिपेधनिषेधद्वारेण |8 दर्शयितुकाम आह-आश्रवति-प्रविशति कर्म येन स प्राणातिपातादिरूप आश्रवः-कर्मोपादानकारणं, तथा तनिरोधः संवरः, एतौ । द्वायपि न स्त इत्येवं संज्ञां नो निवेशयेत् , तदभावप्रतिपच्याशङ्काकारणं विद-कायवाचनःकमें योगः, स आश्रव इति, यथेदमुक्त । तथेदमप्युक्तमेव-'उच्चालियंमि पाए' इत्यादि, ततश्च कायादिव्यापारण कर्मबन्धो न भवतीति, युक्तिरपि-किमयमाश्रव आत्मनो। भिन्न उताभिन्नः ।, यदि भिन्नो नासावाश्रयो घटादिवद, अभेदेऽपि नाश्रवलं, सिद्धात्मनामपि आश्रवप्रसङ्गात् , तदभावे च | तन्निरोधलक्षणस्य संवरस्याप्यभावः सिद्ध एवेत्येवमात्मकमध्यवसायं न कुर्यात् । यतो यत्तदनैकान्तिकसं कायव्यापारस्य 'उचालयंमि |पाए'इत्यादिनोक्तं तदसाकमपि संमतमेव, यतो नबसाभिरप्युपयुक्तस कर्मबन्धोऽभ्युपगम्यते, निरुपयुक्तस वस्त्येव कर्मबन्धः, तथा भेदाभेदोभयपक्षसमाश्रयणाचदेकपक्षाश्रितदोपाभाव इत्यस्त्याश्रवसनावा, तनिरोधन संवर इति, उक्तं च-'योगः उचालिते पादे रियासमिया संकमलाए । पावनिमलिंगी मरिण तं जोगमाराज ॥१॥नय तस्स राम्पिमित्तो यो मुहुमोऽवि देखि भी समए । अगवन्नो उ पओगेण सा उ पगादोति निद्दिडा ॥२॥ ~761~ Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-१७], नियुक्ति: [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक Seceicesese ||१७|| दीप अनुक्रम [७२१] सूत्रकृताङ्गे शुद्धः पुण्यावस्तु पापस्य तद्विपर्यासः । वाकायमनोगुप्तिर्निरायवः संवरस्तूक्तः॥१॥" इत्यतोऽस्त्याश्रवस्तथा संवरचेत्येवं ||५ आचार२ श्रुतस्क-18 संज्ञां निवेशयेदिति ॥ १७ ॥ आश्रवसंवरसद्भावे चावश्यंभावी वेदनानिजेरासद्भाव इत्यतस्तं (तत्) प्रतिपेधनिषेधद्वारेणाह श्रुताध्य. न्धे शीला- णत्थि वेपणा णिजरा वा, जेवं सन्नं निवेसए । अस्थि वेयणा णिज्जरा वा, एवं सन्न निवेसए ॥१८॥ कीयावृत्तिः णस्थि किरिया अकिरिया वा, णेवं सन्नं निवेसए । अत्थि किरिया अकिरिया वा, एवं सन्नं निवेसए ॥१९॥ सूत्रं || वेदना-कर्मानुभवलक्षणा तथा निर्जरा-कर्मपुद्गलशाटनलक्षणा एते द्वे अपि न विद्यते इत्येवं नो संज्ञां निवशयत् ।। ॥३७९क्षा तदभावं प्रत्याशशकारणमिद, तद्यथा-पल्योपमसागरोपमशैतानुभवनीयं कर्मान्तमहतेनैव क्षयमुपयातीत्यभ्युपगमात , तदुक्तम्-8| "जं अण्णाणी कर्म खवेइ बहुयाहि वासकोडीहिं । तं गाणी तिहि गुचो खबेइ ऊसासमिनेणं ।। १॥" इत्यादि, तथा क्षपक-21 श्रेण्यां च झटित्येव कर्मणो भसीकरणाद्यथाक्रमबद्धस्स चानुभवनाभावे वेदनाया अभावः तदभावाच निर्जराया अपीत्येवं नो | संज्ञां निवेशयेत् । किमिति !, यतः कस्यचिदेव कर्मण एवमनन्तरोक्तया नीत्या क्षपणात्तपसा प्रदेशानुभवेन च अपरख तूदयोदीरणाभ्यामनुभवनमित्यतोऽस्ति वेदना, यत आगमोऽप्येवंभूत एव, तद्यथा-'पुर्वि दुभिणाणं दुप्पडिकंताणं कम्भाणं वेइत्ता मोक्खो, णत्थि अवेदत्ता इत्यादि, वेदनासिद्धौ च निर्जराऽपि सिवेत्यतोऽस्ति वेदना निर्जरा चेत्येवं संज्ञां निवेशयेदिति ॥१८॥18 १आश्रय बन्धात् ततो देवना संवरात्तपततो निर्जराया अस्तित्वं । २ निषेधद्वारेण प्र० । ३ जाती बहुत्वं, तथा च कोटाकोव्याऽनुभवीप्यविरुदः, तत्र क्षपणेऽपि ॥३७९॥ न वेदनाऽस्तीति हेतुदर्शमाय । ४ यदहानी कर्म क्षपयति बहुकाभिर्वर्षकोटीभिः । समानी निमिर्गतः क्षायत्युच्वासमात्रेण ॥१॥ ५ पूर्व दुधीर्णानां दुष्पति| कान्तानां कर्मणां वेदयित्वा मोक्षो नास्ववेदविखा। ecemedeceaerce ~762~ Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||१९|| दीप अनुक्रम [७२३] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र- २ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [ - ], मूलं [गाथा - १९], निर्युक्तिः [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र- [ ०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः वेदनानिर्जरे च क्रियाऽक्रियायचे, ततस्तत्सद्भावं प्रतिषेधनिषेधपूर्वकं दर्शयितुमाह-क्रिया-परिस्पन्दलक्षणा तद्विपर्यस्ता वक्रिया, ते द्वे अपि 'न स्तो' न विद्येते, तथाहि -सांख्यानां सर्वव्यापित्वादात्मन आकाशस्येव परिस्पन्दात्मिका क्रिया न विद्यते, शाक्यानां तु | क्षणिकत्वात्सर्वपदार्थानां प्रतिसमयमन्यथा चान्यथा चोत्पत्तेः पदार्थसत्चैव न तव्यतिरिक्ता काचित्क्रियाऽस्ति, तथा चोक्तम्- "भूतिर्येषां क्रिया सैव, कारकं सैव चोच्यते" इत्यादि, तथा सर्वपदार्थानां प्रतिक्षणमवस्थान्तरगमनात्सक्रियत्वमतोऽक्रिया न विद्यते इत्येवं संज्ञां नो निवेशयेत् किं तर्हि ?, अस्ति क्रिया अक्रिया चेत्येवं संज्ञां निवेशयेत् तथाहि शरीरात्मनोर्देशाद्देशान्तरावाप्तिनिमित्ता परिस्पन्दात्मिका क्रिया प्रत्यक्षेणैवोपलभ्यते, सर्वथा निष्क्रियते चात्मनोऽभ्युपगम्यमाने गगनस्येव बन्धमोक्षाद्यभावः, स च दृष्टेष्टबाधितः तथा शाक्यानामपि प्रतिक्षणोत्पत्तिरेव क्रियेत्यतः कथं क्रियाया अभावः १ अपि च-एकान्तेन क्रियाऽभावे संसारमोक्षाभावः स्यादित्यतोऽस्ति क्रिया, तद्विपक्षभूता चाक्रियेत्येवं संज्ञां निवेशयेदिति ||१९|| तदेवं सक्रियात्मनि सति क्रोधादिसद्भाव इत्येतदर्शयितुमाह णत्थि कोहे व माणे वा, शेवं सन्नं निवेसए । अन्थि कोहे व माणे वा, एवं सन्नं निबेसए ॥ २० ॥ णत्थि माया व लोभे वा, पणेवं सन्नं निवेसए । अस्थि माया व लोभे वा, एवं सन्नं निवेस ॥ २१ ॥ णत्थि पेले व दोसे वा, शेवं सन्नं निवेसए । अस्थि पेले व दोसे वा, एवं सन्नं निवेस ॥ २२ ॥ सूत्रं स्वपरात्मनोरप्रीतिलक्षणः क्रोधः स चानन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणसंज्वलनभेदेन चतुर्थाऽऽगमे पठ्यते, तथैतावद्भेद एव मानो गर्वः, एतौ द्वावपि 'न स्तो' न विद्येते, तथाहि क्रोधः केषांचिन्मतेन मानांश एव अभिमानग्रहगृहीतस्य Ecatur International For Parts Only ~763~ Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-२२], नियुक्ति: [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२२|| सूत्रकृता २ श्रुतस्कन्धे शीला- शीयातिः ॥३८॥ दीप अनुक्रम [७२६] तस्कृतावत्यन्तक्रोधोदयदर्शनात् , क्षपकश्रेण्यां च भेदन क्षपणानभ्युपगमात् , तथा किमयमात्मधर्म आहोखित्कर्मण उतान्य| स्वेति ?, तत्रात्मधर्मले सिद्धानामपि क्रोधोदयप्रसङ्गः, अथ कर्मणस्ततस्तदन्यकषायोदयेऽपि तदुदयप्रसङ्गात् मूर्तखाच कर्मणो । ५आचार श्रुताध्य. घटस्खेव तदाकारोपलब्धिः खाद्, अन्यधर्मले खकित्रिकरखमतो नास्ति क्रोध इत्येवं मानाभावोऽपि वाच्य इत्येवं संज्ञां नो | | निवेशयेत् , यतः कषायकर्मोदयवर्ती दष्टोष्टः कृतभृकुटीमङ्गो रक्तवदनो गलत्स्वेदबिन्दुसमाकुलः क्रोधाध्मातः समुपलभ्यते, न चासौ मानांशः, तत्काकिरणात् तथा परनिमित्तोत्थापितखाचेति, तथा जीवकर्मणोरुभयोरप्ययं धर्मः, तद्धर्मले च प्रत्येकविकल्पदोषानुपपत्तिः, अनभ्युपगमात् , संसार्यात्मनां कर्मणा सार्द्ध पृथग्भवनाभावात्तदुभयस्य च नरसिंहवद्वस्त्वन्तरखादित्यतो|ऽस्ति क्रोधो मानथेत्येवं संज्ञां निवेशयेत् ।। २० ।। साम्प्रतं मायालोभयोरस्तिवं दर्शयितुमाह-अत्रापि प्राग्वन्मायालोभयो|रभाववादिनं निराकृत्यास्तिवं प्रतिपादनीयमिति ॥ २१ ॥ साम्प्रतमेपामेव क्रोधादीनां समासेनास्तित्वं प्रतिपादयन्नाहप्रीतिलक्षणं प्रेम-पुत्रकलत्रधनधान्याद्यात्मीयेषु रागस्तद्विपरीतस्त्वात्मीयोपघातकारिणि द्वेपः, तावेतौ द्वावपि न विद्यते, तथाहिकेषाश्चिदभिप्रायो यदुत-मायालोमावेवावयवौ विद्यते, न तत्समुदायरूपो रागोजयव्यस्ति, तथा क्रोधमानावेव स्तः, न तत्समुदायरूपोऽवयवी द्वेष इति, तथाहि-अवयवेभ्यो यद्यभिन्नोऽवयवी वहि तदभेदात्त एव नासौ अथ भिन्नः पृथगुपलम्भः स्वाद् घटपटवदित्येवमसद्विकल्पमूढतया नो संज्ञां निवेशयेत् , यतोऽवयवावयविनोः कथञ्चिद्भेद इत्येवं भेदाभेदारपतृतीयपक्षसमाश्र-IINon मानकियायां मानिकिवायदा। २ अनन्तानुयन्ध्यानाख्यानप्रत्याख्यानावरणानो युगपक्षपणात् संम्वलनकोषस्यापि मानदलिकेषु क्षेपण क्षपणान् । ३ कर्मभूतकोवस्त स्वतन्त्राकारोएलस्थिप्रसङ्गात् । ४ तत्कार्यतचापरनि प्रक। Scooteredases ~764~ Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [५], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-२२], नियुक्ति: [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम [७२६] Secenesceceaesesesesesesesented यणात्प्रत्येकपक्षाश्रितदोषानुपपत्तिरिति, एवं चास्ति प्रीतिलक्षणं प्रेमाप्रीतिलक्षणश्च द्वेष इत्येवं संज्ञां निवेशयेत् ॥ २२ ॥ साम्प्रतं | कषायसद्भावे सिद्धे सति तत्कार्यभूतोऽवश्यंभावी संसारसद्भाव इत्येतत्प्रतिषेधनिषेधद्वारण प्रतिपादयितुमाह-- त्थि चाउरते संसारे, णेवं सन्नं निवेसए । अस्थि चाउरंते संसारे, एवं सन्नं निवेसए ॥ २३ ॥ णस्थि देवो व देवी वा, वं सन्नं निवेसए । अत्थि देवो व देवी वा, एवं सन्नं निवेसए ॥ २४ ॥ सूत्र चत्वारोऽन्ता-गतिभेदा नरकतिर्यनरामरलक्षणा यस संसारस्थासौ चतुरन्तः संसार एव कान्तारो भयैकहेतुत्वात् , स च चतु-18 विधोऽपि न विद्यते, अपितु सर्वेषां संमृतिरूपत्वात्कर्मबन्धात्मकतया च दुःखैकहेतुत्वादेकविध एव, अथवा नारकदेवयोरनुपलभ्य-18 मानत्वात्तिर्यमनुष्ययोरेव सुखदुःखोत्कर्षतया तव्यवस्थानाद् द्विविधः संसारः, पर्यायनयाश्रयणाचनेकविधः, अतश्चातुर्विध्यं न | कथश्चिद् घटत इत्येवं संज्ञां नो निवेशयेद् , अपितु अस्ति चतुरन्तः संसार इत्येवं संज्ञां निवेशयेत् । यत्तूक्तम्-एकविधः संसारः, MALI तन्नोपपद्यते, यतोऽध्यक्षेण तिर्यमनुष्ययोर्भेदः समुपलभ्यते, न चासावेकविधत्वे संसारस्य घटते, तथा संभवानुमानेन नारकदेवानामप्यस्तित्वाभ्युपगमाद् द्वैविध्यमपि न विद्यते, संभवानुमानं तु-सन्ति पुण्यपापयोः प्रकृष्टफलभुजा, तन्मध्यफलभुजां तिर्यन-1 नुष्याणां दर्शनाद्, अतः संभाव्यन्ते प्रकृष्टफलभुजो, ज्योतिषां प्रत्यक्षेणैव दर्शनाद्, अथ तद्विमानानामुपलम्भः, एवमपि तदधिष्ठातृभिः कैश्चिद्भवितव्यमित्यनुमानेन गम्यन्ते, ग्रहगृहीतवरप्रदानादिना च तदस्तित्वानुमितिः, तदस्तित्वे तु प्रकृष्टपुण्यफलभुज इव प्रकृष्टपापफलम्भिरपि भाष्यमित्यतोऽस्ति चातुर्विध्यं संसारस, पोयनयाश्रयणे तु यदनेकविधवमुल्यते तदयुक्तं, यतः सप्तपथिव्याश्रिता अपि नारकाः समानजातीयाश्रयणादेकप्रकारा एव, तथा तिर्यञ्चोऽपि पृथिव्यादयः स्थावरास्तथा द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियाश्च Sasaaraaraane203999aadhaaran ~765~ Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२४|| दीप अनुक्रम [७२८] सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्कन्धे शीलाश्रीयावृतिः ॥३८१ ॥ “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [ - ], मूलं [गाथा - २४], निर्युक्तिः [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र- [ ०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - द्विषष्टियोनिलक्षप्रमाणाः सर्वेऽप्येकविधा एव, तथा मनुष्या अपि कर्मभूमि कर्मभूमिजान्तरद्वीपकसंमूर्च्छन जात्मक भेदमनादृत्यैक| विधत्वेनैवाश्रिताः, तथा देवा अपि भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकभेदेन भिन्ना एकविधत्वेनैव गृहीताः, तदेवं सामान्यवि| शेषाश्रयणाच्चातुर्विध्यं संसारस्य व्यवस्थितं नैकविधत्वं, संसारवैचित्र्यदर्शनात् नाप्यनेकविधत्वं सर्वेषां नारकादीनां स्वजात्यन| तिक्रमादिति ॥ २३ ॥ २४ ॥ सर्वभावानां सप्रतिपक्षत्वात्संसारसद्भावे सति अवश्यं तद्विमुक्तिलक्षणया सिद्ध्यापि भवितव्यमित्यतोऽधुना सप्रतिपक्षां सिद्धिं दर्शयितुमाह णत्थि सिद्धी असिद्धी वा, शेवं सन्नं निवेसए । अत्थि सिद्धी असिद्धी वा, एवं सन्नं निबेसए ।। २५ ।। णत्थि सिद्धी नियं ठाणं, णेवं सन्नं निवेसए। अत्थि सिद्धी नियं ठाणं, एवं सन्नं निवेसए ॥ २६ ॥ सूत्रं सिद्धिः अशेषकर्मच्युतिलक्षणा तद्विपर्यस्ता चासिद्धिर्नास्तीत्येवं नो संज्ञां निवेशयेद, अपि त्वसिद्धेः संसारलक्षणाया श्रातुर्विध्येनानन्तरमेव प्रसाधिताया अविगानेनास्तित्वं प्रसिद्धं तद्विपर्ययेण सिद्धेरप्यस्तित्वमनिवारितमित्यतोऽस्ति सिद्धिरसिद्धिर्वेत्येवं संज्ञां निवेशयेदिति स्थितम् इदमुक्तं भवति सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकस्य मोक्षमार्गस्य सद्भावात्कर्मक्षयस्य च पीडोपशमादिनाऽध्यक्षेण दर्शनादतः कस्यचिदात्यन्तिककर्महानिसिद्धेरस्ति सिद्धिरिति, तथा चोक्तम् – “दोषावरणयोर्हानिर्निःशेषाऽस्त्यतिशायिनी । कचिद्यथा स्वहेतुभ्यो वहिरन्तर्मलक्षणः || १ ||" इत्यादि, एवं सर्वज्ञसद्भावोऽपि संभवानुमानाद्रष्टव्यः तथाहि अभ्यस्यमानायाः [ प्रज्ञाया व्याकरणादि [ना] शास्त्रसंस्कारेणोत्तरोत्तर वृद्ध्या प्रज्ञातिशयो दृष्टः, तत्र कस्यचिदत्यन्तातिशयप्राप्तेः सर्वज्ञत्वं स्यादिति संभवानुमानं, न चैतदाशङ्कनीयं तद्यथा - ताप्यमानमुदकमत्यन्तोष्णता मियान्नाग्निसाद्भवेत्, तथा 'दशहस्तान्तरं व्योम्नि यो नामो Eaton International For Parts Only ~766~ ५ आचारश्रुताध्य. ॥३८१ ॥ Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२६|| दीप अनुक्रम [७३०] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [ - ], मूलं [गाथा - २६], निर्युक्तिः [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०२ ], अंग सूत्र - [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - स्तुत्य गच्छति । न योजनमसौ गन्तुं शक्तोऽभ्यासशतैरपि ॥ १ ॥” इति दृष्टान्तदार्शन्तिकयोरसाम्यात्, तथाहि - ताप्यमानं जलं प्रतिक्षणं क्षयं गच्छेत् प्रज्ञा तु विवर्द्धते यदिवा ठोपोपलब्धेरव्याहृतमग्नित्वं तथा वनविषयेऽपि पूर्वमर्यादाया अनतिक्रमाद्योजनोच्यवनाभावः, तत्परित्यागे चोत्तरोत्तरं वृद्ध्या प्रज्ञाप्रकर्षगमनवद्योजनशतमपि गच्छेदित्यतो दृष्टान्तदार्शन्तिकयोरसाम्यादेतन्नाशङ्कनीयमिति स्थितम्, प्रज्ञावृद्धेश्व बाधकप्रमाणाभावादस्ति सर्वज्ञत्वप्राप्तिरिति । यदिवा अञ्जनभृतसमुद्गकदृष्टान्तेन जीवा| कुलत्वाज्जगतो हिंसाया दुर्निवारत्वात्सिद्ध्यभावः, तथा चोक्तम्- "जले जीवाः स्थले जीवा, आकाशे जीवमालिनि । जीवमालाकुले लोके, कथं भिक्षुरहिंसकः १ ॥ १ ॥ इत्यादि, तदेवं सर्वस्यैव हिंसकत्वात्सिद्ध्यभाव इति, तदेतदयुक्तं, तथाहि सदोपयुक्तस्व | पिहिताश्रवद्वारस्य पञ्चसमितिसमितस्य त्रिगुप्तिगुप्तस्य सर्वथा निरवद्यानुष्ठायिनो द्विचत्वारिंशद्दोषरहितभिक्षाभुज ईर्यासमितस्य | कदाचिद्रव्यतः प्राणिव्यपरोपणेऽपि तत्कृतबन्धाभावः, सर्वथा तस्यानवद्यत्वात्, तथा चोक्तम् - "उच्चालियंमि पाए, "इत्यादि प्रतीतं, | तदेवं कर्मबन्धाभावात्सिद्धेः सद्भावोऽव्याहतः, सामय्यभावादसिद्धिसद्भावोऽपीति ॥ २५ ॥ साम्प्रतं सिद्धानां स्थाननिरूपणायाह- ' णत्थि सिद्धी' त्यादि, सिद्धेः- अशेषकर्मच्युतिलक्षणाया निजं स्थानं-ईषत्प्राग्भाराख्यं व्यवहारतो निश्वयतस्तु तदुपरि योजनकोशषभागः, तत्प्रतिपादकप्रमाणाभावात्स नास्तीत्येवं संज्ञां नो निवेशयेत् यतो बाधकप्रमाणाभावात्साधकस्य चागमस्य सद्भावात्तत्सत्ता दुर्निवारेति । अपिच-अपगताशेषकल्मषाणां सिद्धानां केनचिद्विशिष्टेन स्थानेन भाच्यं तच्चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्य लोकस्याग्रभूतं द्रष्टव्यं न च शक्यते चक्कुमाकाशवत्सर्वव्यापिनः सिद्धा इति, यतो लोकालोकव्याप्याकाशं, न चालोकेऽपरद्रव्यस्य संभवः, तस्याकाशमात्ररूपत्वात्, लोकमात्रव्यापित्वमपि नास्ति, विकल्पानुपपत्तेः तथाहि - सिद्धावस्थायां तेषां व्यापि Educatin internation For Parts Only ~767~ Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-२६], नियुक्ति: [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||२६|| दीप अनुक्रम [७३०] सूत्रकृताङ्गे त्वमभ्युपगतमुत प्रागपि, न तावत्सिद्धावसायां, तद्व्यापित्वभवने निमित्ताभावात , नापि प्रागवस्थायां, तदावे सर्वसंसारिणां||५आचार२ तस्क प्रतिनियतसुखदुःखानुभवो न स्यात् , न च शरीराबहिरवस्थितमवस्थानमस्ति, तत्सत्तानिबन्धनस्य प्रमाणसाभावात, अतः सर्व-| श्रुताध्य. न्धे शीला- च्यापितं विचार्यमाणं न कथश्चिद् घटते, तदभावे च लोकाग्रमेव सिद्धानां स्थानं, तद्गतिश्च 'कमविमुक्तयोध्य गति'रितिकृता || कीयावृत्तिः भवति, तथा चोक्तम्-"लाउ एरंडफले अग्गी धूमे य उसु धणुविमुके । गइ पुत्वपओगेणं एवं सिद्धाणचि गईओ ॥१॥"इत्या दि । तदेवमस्ति सिद्धिस्तस्याश्च निजं स्थानमित्येवं संज्ञां निवेशयेदिति ॥ २६ ॥ साम्प्रतं सिद्धेः साधकानां साधूनां तत्प्रतिपक्ष॥३८२॥ भूतानामसाधूनां चास्तित्वं प्रतिपिपादयिषुः पूर्वपक्षमाह णस्थि साह असाहू वा, णेवं सन्नं निवेसए । अत्थि साहू असाहू वा, एवं सन्नं निवेसए ॥ २७ ॥ णधि कल्लाण पावे या, णेवं सनं निवेसए । अस्थि कल्लाण पावे चा, एवं सन्नं निवेसए ॥ २८॥ सूत्रं 'नास्ति' न विद्यते ज्ञानदर्शनचारित्रक्रियोपेतो मोक्षमार्गव्यवस्थितः साधुः, संपूर्णस्य रखत्रयानुष्ठानसाभावात् , तदभावाच | तत्प्रतिपक्षभूतस्यासाधोरप्यभावः, परस्परापेक्षित्वादेतव्यवस्थानहँकतराभावे द्वितीयस्थाप्पभाव इत्येवं संज्ञां नो निवेशयेत्, अपि |तु अस्ति साधुः, सिद्धेः प्राक्साधितत्वात् , सिद्धिसत्ता च न साधुमन्तरेण, अतः साधुसिद्धिः, तत्प्रतिपक्षभूतस्य चासाधोरिति । यश्च || संपूर्णरत्नत्रयानुष्ठानाभावः प्रागाशद्धितः स सिद्धान्ताभिप्रायमवुद्वैव, तथाहि-सम्यग्दृष्टरुपयुक्तस्यारक्तद्विष्टस्य सत्संयमवतः श्रुता- 1810 ३८२ ।। | नुसारेणाऽहारादिकं शुद्धबुद्ध्या गृह्णतः कचिदज्ञानादनेषणीयग्रहणसंभवेऽपि सततोपयुक्ततया संपूर्णमेव रत्नत्रयानुष्ठानमिति, अलापुरण्टफलानिधूभेषु चतुर्मुक्त इयौ पूर्वप्रयोगेण गतिरेष शिक्षानामपि गतयः ॥1॥ cceesesevedeoeceaestreae eesesesee ~768~ Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-२८], नियुक्ति: [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||२८|| दीप अनुक्रम [७३२] Hयव भक्ष्यमिदमिदं चाभक्ष्य गम्यमिदमिदं चागम्यं प्रासुकमेषणीयमिदमिदं च विपरीतमित्येवं रागद्वेषसंभवेन समभावरूपस्य सामायिकस्याभावः कैश्चिचोयते तत्तेषां चोदनमज्ञानविजृम्भणात् , तथाहि-न तेषां सामायिकवतां साधूनां रागद्वेषतया भक्ष्या॥ भक्ष्यादिविवेकः, अपितु प्रधानमोक्षाङ्गस्य सच्चारित्रस्य साधनार्थम् , अपि च-उपकारापकारयोः समभावतया सामायिकं न पुन भक्ष्याभक्ष्ययोः समप्रवृत्त्येति ॥ २७ ॥ तदेवं मुक्तिमार्गप्रवृत्तस्य साधुत्वमितरस्य चासाधुत्वं प्रदश्योधुना च सामान्पेन कल्याण-| | पापवतोः सद्भाव प्रतिषेधनिषेधद्वारेणाह-'णस्थि कल्लाण पावे वा इत्यादि, यथेष्टार्थफलसंप्राप्तिः कल्याणं तन्त्र वियते, सर्वा-181 शुचितया निरात्मकत्वाच्च सर्वपदार्थानां बौद्धाभिप्रायेण, तथा तदभावे कल्याणवांश्च न कश्चिद्विद्यते, तथाऽऽत्माद्वैतवाद्यभिप्रायेण | 'पुरुष एवेदं सर्वमितिकृत्वा पापं पापवान् वा न कधिद्विद्यते, तदेवमुभयोरप्यभावः, तथा चोक्तम्-"विद्या विनयसंपन्ने, ब्राह्मणे गवि हस्तिनि । शुनि चैव श्वपाके च, पण्डिताः समदर्शिनः ॥१॥" इत्येवमेव कल्याणपापकाभावरूपां संज्ञां नो निवेशयेद्, अपि | त्वस्ति कल्याणं कल्याणवांश्व विद्यते, तद्विपर्यस्तं पापं तद्वांश्च विद्यते, इत्येवं संज्ञां निवेशयेत् , तथाहि-नैकान्तेन कल्याणाभावो यो बौद्धरभिहितः, सर्वपदार्थानामशुचित्वासंभवात, सर्वाशुचित्वे च बुद्धस्थाप्यशुचित्वप्राप्तः, नापि निरात्मानः खद्रव्यक्षेत्र-15 कालभावापेक्षया सर्वपदार्थानां विद्यमानत्वात् परद्रव्यादिभिस्तु न विद्यन्ते, सदसदात्मकत्वाद्वस्तुनः, तदुक्तम्-"खपरसत्ताब्युदासोपादानापाद्यं हि वस्तुनो वस्तुत्व"मिति । तथाऽऽत्माद्वैतभावाभावात्पापाभावोऽपि नास्ति, अद्वैतभावे हि मुखी दुःखी सरोगो नीरोगः सुरूपः कुरूपो दुर्भगः सुभगोऽर्थवान् दरिद्रस्तथाऽयमन्तिकोऽयं तु दवीयान् इत्येवमादिको जगद्वैचित्र्यभावोऽध्य| क्षसिद्धोऽपि न स्यात् । यच समदर्शित्वमुच्यते ब्रामणचाण्डालादिषु तदपि समानपीडोत्पादनतो द्रष्टव्यं, न पुनः कर्मापादित easerseratiwesedesiseaseseserernea ~769~ Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२८|| दीप अनुक्रम [७३२] सूत्रकृता २ श्रुतस्क न्धे शीलाकीयावृत्तिः ॥ ३८३॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र- २ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [-] मूलं [गाथा - २८ ], निर्युक्तिः [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०२ ], अंग सूत्र - [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः वैचित्र्यभावोऽपि तेषां त्राह्मणचाण्डालादीनां नास्तीति तदेवं कथञ्चित्कल्याणमस्ति तद्विपर्यस्तं तु पापकमिति । न चैकान्तेन कल्याणं कल्याणमेव, यतः केवलिनां प्रक्षीणघनघातिकर्मचतुष्टयानां सातासातोदयसद्भावात्तथा नारकाणामपि पञ्चेन्द्रियत्वविशिज्ञानादिसद्भावान्नैकान्तेन तेऽपि पापवन्त इति तसात्कथञ्चित्कल्याणं कथञ्चित्पापमिति स्थितम् ॥ २८ ॥ तदेवं कल्याणपापयोरनेकान्तरूपत्वं प्रसाध्यैकान्तं दूषयितुमाह कलाणे पावy are, बहारो ण विज्जइ । जं वेरं तं न जाणंति, समणा बाल पंडिया ॥ २९ ॥ असे अक्खयं वावि, सबदुक्खेति वा पुणो । वज्झा पाणा न वज्झत्ति, इति वायं न नीसरे ॥ ३० ॥ दीसंति समियायारा, भिक्खुणो साहुजीविणो । एए मिच्छोवजीवंति, इति दिहिं न धारए ॥ ३१ ॥ सूत्रं कल्यं - सुखमारोग्यं शोभनत्वं वा तदणतीति कल्याणं तदस्यास्तीति कल्याणो मत्वर्थीयान्प्रत्ययान्तोऽर्श आदिभ्योऽजित्यनेन, कल्याणवानितियावत् । एवं पापकशब्दोऽपि मत्वर्थीयाच्प्रत्ययान्तो द्रष्टव्यः । तदेवं सर्वथा कल्याणवानेवायं तथा पापवाने वाय| मित्येवंभूतो व्यवहारो न विद्यते, तदेकान्तभूतस्यैवाभावात्, तदभावस्य च सर्ववस्तूनामनेकान्ताश्रयणेन प्राक्प्रसाधितत्वादिति । एतच्च व्यवहाराभावाश्रयणं सर्वत्र प्रागपि योजनीयं, तद्यथा सर्वत्र वीर्यमस्ति नास्ति वा सर्वत्र वीर्यमित्येवंभूत एकान्तिको व्यवहारो न विद्यते, तथा नास्ति लोकोऽलोको वा तथा न सन्ति जीवा अजीवा इति चेत्येवंभूतो व्यवहारो न विद्यत इति सर्वत्र संबन्धनीयं । तथा वैरं वज्रं तद्वत्कर्म वैरं विरोधो वा वैरं तद्येन परोपघातादिनै कान्वपक्षसमाश्रयणेन वा भवति तत्ते 'श्रमणाः' तीर्थिका | बाला इव रागद्वेषकलिताः 'पण्डिताः' पण्डिताभिमानिनः शुष्कतर्कदपध्माता न जानन्ति परमार्थभूतस्याहिंसालक्षणस्य धर्म For Parks Use One ~ 770~ ५ आचारश्रुताध्य. ||३८३॥ Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||38|| दीप अनुक्रम [७३५] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र -२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [ - ], मूलं [गाथा - ३१], निर्युक्तिः [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०२ ], अंग सूत्र - [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः | स्यानेकान्तपक्षस्य वानाश्रयणादिति । यदिवा यद्वैरं तत्ते श्रमणा बालाः पण्डिता वा न जानन्तीत्येवं वाचं न निसृजेदित्युत्तरेण संबन्धः, किमिति न निसृजेत् १ यतस्तेऽपि किञ्चिज्जानन्त्येव । अपिच तेषां तन्निमित्तकोपोत्पत्तेः, यच्चैवंभूतं वचस्तन्न वाच्यं यत उक्तम्- "अप्पत्तियं जेण सिया, आसु कुप्पिन वा परो । सहसो तं ण भासेजा, भासं अहियगामिण || १ ||" इत्यादि ॥ २९ ॥ अपरमपि वाक्संयममधिकृत्याह – 'असेस' मित्यादि, अशेष- कृत्स्नं तत्सांख्याभिप्रायेण अक्षतं नित्यमित्येवं न ब्रूयात्, प्रत्यर्थं प्रतिसमयं चान्यथाऽन्यथाभावदर्शनात् स एवायमित्येवंभूतस्यैकत्वसाधकस्य प्रत्यभिज्ञानस्य लूनपुनर्जातेषु केशनखादिष्वपि प्रदर्शनात्, तथा अपिशब्दादेकान्तेन क्षणिकमित्येवमपि वाचं न निसृजेत् सर्वथा क्षणिकत्वे पूर्वस्य सर्वथा विनष्टत्वादुत्तरस्य निर्हेतुक उत्पादः स्वात्, तथा च सति 'नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वाऽहेतोरन्यानपेक्षणा' दिति । तथा सबै जगदुःखात्मकमित्येवमपि न ब्रूयात्, सुखात्मक| स्यापि सम्यग्दर्शनादिभावेन दर्शनात्, तथा चोक्तम्- "तैणसंथारनिसष्णोऽवि मुणिवरी भट्टरागमयमोहो । जं पावर मुत्तिसुहं कत्तो तं चकवट्टीवि १ ||१||” इत्यादि, तथा वध्यार्थीौरपारदारिकादयोऽयध्या वा तत्कर्मानुमतिप्रसङ्गादित्येवंभूतां वाचं खानुष्ठानपरा| यणः साधुः परव्यापारनिरपेक्षो न निसृजेत् तथा हि सिंहव्याघ्रमार्जारादीन्परसव व्यापादनपरायणान् दृष्ट्वा माध्यस्थ्यमवलम्बयेत् तथा चोक्तम्- "मैत्रीप्रमोद कारुण्यमाध्यस्थ्यानि सत्त्वगुणाधिक क्लिश्यमानाविनेयेष्विति, (तत्त्वा०अ०७०६) एवमन्योऽपि १ अप्रीतिकं यया स्यादाशु कुप्येा परः सर्वथा तां न भाषेत भाषा हितगामिनीं ॥ २ तृण संस्तारक निषण्णोऽपि मुनियरो भ्रष्टरागमदमोहः । यत्त्राप्रो मुक्तिमुखं कुतस्तत् चक्रवपि ॥ १ ॥ ३ वध्यकथने दिसादिकर्मण अवष्यकथने चौयादिकर्मणां । एवमप्रतिवाक्ये समुचये इतिवचनात्समुचये न वाचं निसृजेत् nireviereoम्बयेत् इति । Eucation Internation For Park Use Only ~ 771~ Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||38|| दीप अनुक्रम [७३५] सूत्रकृताने २ श्रुतस्क न्धे शीलाकीयावृत्तिः ||३८४ ॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र- २ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [-] मूलं [गाथा - ३१], निर्युक्तिः [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०२ ], अंग सूत्र - [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः वाक्संयमो द्रष्टव्यः, तद्यथा— अमी गवादयो वाह्यान वाद्या वा तथाऽमी वृक्षादयश्छेद्या न छेद्या वेत्यादिकं वचो न वाच्यं साधुनेति ॥ ३०॥ अयमपरो वाक्संयम प्रकारो ऽन्तः करणशुद्धिसमाश्रितः प्रदर्श्यते- 'दीसंती' त्यादि, 'दृश्यन्ते' समुपलभ्यन्ते स्वशास्त्रोकेन विधिना निभृतः संयत आत्मा येषां ते निभृतात्मानः, कचित्पाठः 'समियाचार'ति सम्यक् -- स्वशास्त्रविहितानुष्ठानादविपरीत आचार:-अनुष्ठानं येषां ते सम्यगाचाराः सम्यग्वा इतो व्यवस्थित आचारो येषां ते समिताचाराः, के ते ? - भिक्षणशीला भिक्षवोभिक्षामात्रवृत्तयः, तथा साधुना विधिना जीवितुं शीलं येषां ते साधुजीविनः तथाहि ते न कस्यचिदुपरोधविधानेन जीवन्ति, | तथा क्षान्ता दान्ता जितक्रोधाः सत्यसंधा दृढव्रता युगान्तरमात्रदृष्टयः परिमितोदकपायिनो मौनिनः सदा तायिनो विविक्तैकान्तध्यानाध्यासिनः अकौकुच्यास्तानेवंभूतानवधार्यापि 'सरागा अपि वीतरागा इव चेष्टन्ते' इति मत्वते मिथ्यात्वोपजीविन इत्येवं दृष्टिं न धारयेत् नैवंभूतमध्यवसायं कुर्यान्नाप्येवंभूतां वाचं निसृजेद् यथैते मिथ्योपचारप्रवृत्ता मायाविन इति, छबस्थेन - ग्दर्शिनैवंभूतस्य निश्वयस्य कर्तुमशक्यत्वादित्यभिप्रायः ते च स्वयूथ्या वा भवेयुस्तीर्थान्तरीया था, तावुभावपि न वक्तव्यौ साधुना, यत उक्तम्- " यावत्परगुणपरदोषकीर्तने व्यापृतं मनो भवति । तावद्वरं विशुद्धे ध्याने व्ययं मनः कर्तुम् ॥ १ ॥ इत्यादि ।। ३१ ।। किंचान्यत् Eucation International दक्खिणा पडिलंभो, अस्थि वा णत्थि वा पुणो ण विद्यागरेज मेहावी, संतिमग्गं च वृहए ॥ ३२ ॥ इच्चेएहिं ठाणेहिं, जिणदिट्ठेहिं संजए । धारयंते उ अप्पाणं, आमोक्खाए परिवज्जासि ॥ ३३॥ त्तियेमि ॥ सूत्रं इति वसुधस्स अणायारणाम पंचममज्झयणं समत्तं ॥ For Parts Only ~ 772~ ५ आचार श्रुताध्य. ॥३८४॥ Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [१], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-३३], नियुक्ति: [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||३३|| दीप अनुक्रम [७३७] दानं दक्षिणा तस्याः प्रतिलम्भ:-प्राप्तिः स दानलाभोऽस्साहस्थादेः सकाशादस्ति नास्ति वेत्येवं न व्यागृणीयात् मेधावी| मर्यादाव्यवस्थितः । यदिवा खयूथ्यस्य तीर्थान्तरीयस्य वा दानं ग्रहणं वा प्रति यो लाभः स एकान्तेनास्ति-संभवति नास्ति वेत्येवं न ध्यादेकान्तेन, तहानग्रहणनिषेधे दोषोत्पत्तिसंभवात् , तथाहि-तदाननिषेधेऽन्तरायसंभवस्तद्वैचित्यं च, तहानांनुमतावप्यधिकरणोद्भव इत्यतोऽस्ति दानं नास्ति वेत्येवमेकान्तेन न ब्रूयात् । कथं तर्हि ब्यादिति दर्शयति-शान्तिः-मोक्षस्तस्य मार्गः सम्यग्दर्शनशानचारित्रात्मकस्तमुपहयेद्-वधयेत् , यथा मोक्षमार्गाभिवृद्धिर्भवति तथा ब्रूयादित्यर्थः, एतदुक्तं भवति-पृष्टः केनचिद्विधिप्रतिषेधमन्त-| रेण देयप्रतिग्राहकविषय निरवद्यमेव ब्रूयादित्येवमादिकमन्यदपि विविधधर्मदेशनावसरे वाच्यं, तथा चोक्तम्-'सावजणवजाणं वयणाणं जो न जाणइ विसेस'इत्यादि ॥३२॥ साम्प्रतमध्ययनार्थमुपसंजिघृक्षुराह-'इचे एहि'मित्यादि, इत्येतरेकान्तनिषेधद्वारेणानेकान्तविधायिभिः स्थानक्सिंयमप्रधानैः समस्ताध्ययनोक्कै रागद्वेषरहितजिनदृष्टः-उपलब्धर्न खमतिविकल्पोत्थापितेः संयतः-18॥ || सत्संयमवानात्मानं धारयन्-एभिः स्थानैरात्मानं वर्तयन्नामोक्षाय-अशेषकर्मक्षयाख्यं मोक्षं यावत्परिः-समन्तात्संयमानुष्ठाने बजे गच्छेस्त्वमिति विधेयस्योपदेशः । इति परिसमात्यर्थे, बचीमीति पूर्ववत् । नया अभिहिताः अभिधास्थमानलक्षणायेति ॥ ३३ ॥ समाप्तमनाचारभुताख्यं पश्चममध्ययनमिति ।। ॥ इति श्रीमूत्रकृताङ्गे द्वितीयश्रुतस्कन्धे पश्चममनाचाराध्ययनं समाप्तम् ॥ १ साचद्यानवयानो बचनानां यो न जानाति विशेष । अत्र पञ्चमं अध्ययनं परिसमाप्तं ~773 Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||33|| दीप अनुक्रम [७३७] सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्क न्धे शीलाङ्कीयावृत्तिः ||३८५|| “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [-], मूलं [गाथा - ३३...], निर्युक्तिः [१८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः अथ षष्ठमध्ययनम् ॥ उक्तं पञ्चममध्ययनं साम्प्रतं षष्ठमारभ्यते, अस्य चायमभिसंबन्धः - इहानन्तराध्ययने आचारः प्रतिपादितोऽनाचारपरिहारथ, स च येनाचीर्णः परिहृतश्चासावधुना प्रतिपाद्यते यदिवाऽनन्तराध्ययने स्वरूपमाचारानाचारयोः प्रतिपादितं तच्चाशक्यानुष्टानं न भवत्यतस्तदासेबको दृष्टान्तभूत आर्द्रकः प्रतिपाद्यत इति, अथवाऽनाचारफलं ज्ञाला सदाचारे प्रयत्नः कार्यों यथा| ककुमारेण कृत इत्येतदर्शनार्थमिदमध्ययनम् । अस्य चतार्यनुयोगद्वाराण्युपक्रमादीनि वाच्यानि, तत्रोपक्रमान्तर्गतोऽर्थाधिकारोऽयं, | तद्यथा आर्द्रककुमारवक्तव्यता, यथाऽसाव भयकुमारप्रतिमाव्यतिकरात्प्रतिबुद्धः तथाऽत्र सर्व प्रतिपाद्यत इति । निक्षेपविधातत्रौधनिष्पन्ने निक्षेपेऽध्ययनं नामनिष्पन्ने निक्षेपे स्वार्द्रकीयं तत्रार्द्रपदनिक्षेपार्थं निर्युक्तिकृदाह- | नामंठवणाअहं दवदं चैव होइ भावहं । एसो खलु अद्दस्स उ निक्वेवो चडविहो होइ ॥ १८४ ॥ उदगदं सारदं छवियद वसद्द तहा सिलेसदं । एयं दवदं खलु भावेणं होइ रागदं ।। १८५ ॥ भविबद्धा य अभिमुहए य नामगोए य । एते तिन्नि पगारा दुव्वद्दे होंति नामा ॥ १८६ ॥ अपुरे अमृतो नामेणं अदओत्ति अणगारो । तत्तो समुट्टियमिणं अज्झयणं अदइजंति ॥ १८७ ॥ कामं दुबालसंग जिणवणं सासयं महाभागं । सवज्झयणाई तहा सङ्घक्खरसण्णिवाया य ॥ १८८ ॥ For Parts Use Only अथ षष्ठं अध्ययनं "आर्द्रकियं आरभ्यते, पञ्चम अध्ययनेन सह अस्य अभिसंबन्ध:, आर्द्र पदस्य निक्षेपाः ~774~ ६ आर्द्रका ध्ययन. ||३८५ ॥ Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||33|| दीप अनुक्रम [७३७] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [-], मूलं [गाथा - ३३...], निर्युक्तिः [१८९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः Refer कोई अथ उपज्जति तम्मि तंमि समयंमि । पुवभणिओ अणुमतो अ होइ इसि भासिएस जहा ॥ १८९ ॥ नामस्थापनाद्रव्यभावभेदाच्चतुर्थाऽऽर्द्रकस्य निक्षेपो द्रष्टव्यः, तत्र नामस्थापने अनाहत्य द्रव्यार्द्रप्रतिपादनार्थमाह तंत्र द्रव्यार्द्र | द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च, आगमतो ज्ञाता तत्र चानुपयुक्तः 'अनुपयोगी द्रव्य 'मितिकृता, नोआगमतस्तु ज्ञशरीरभव्यशरी| रव्यतिरिक्तं यदुदकेन मृत्तिकादिकं द्रव्यमाद्रीकृतं तदुदकाई, साराई तु यद्धहि । शुष्काकारमप्यन्तर्मध्ये साईमास्ते, यथा श्रीपर्णीसोवर्चलादिकं 'छविअहं' तु यत् स्निग्धवग्रद्रव्यं मुक्ताफलर काशोकादिकं तदभिधीयते, वसयोपलिप्तं बसाई, तथा लेपा वज्रलेपाद्युपलितं स्तम्भकुड्यादिकं यद्रव्यं तत्निग्धाकारत्या श्लेषार्द्रमित्यभिधीयते एतत्सर्वमप्युदकार्द्रादिकं द्रव्यार्द्रमेवाभिधीयते, | खलुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् । भावार्द्र तु पुनः रागः खेहोऽभिष्वङ्गस्तेनाई यज्जीवद्रव्यं तद्भावामित्यभिधीयते । साम्प्रतमार्द्रककुमारमधिकृत्यान्यथा द्रव्याई प्रतिपादयितुमाह – एकेन भवेन यो जीवः स्वर्गादेरागत्यार्द्रककुमारखेनोत्पत्स्यते तथा ततोऽप्यासअतरो बद्धायुष्कः तथा ततोऽप्यासन्नतमोऽभिमुखनामगोत्रो - योऽनन्तरसमयमेवाईफलेन समुत्पत्स्यते एते च त्रयोऽपि प्रकारा | द्रव्यार्द्रके भ्रष्टव्या इति । साम्प्रतं भावार्द्रकमधिकृत्याह - आर्द्रकायुष्कनामगोत्राण्यनुभवन् भावाद्रों भवति, यद्यपि शृङ्गवेरादीनामप्यार्द्रकसंज्ञाध्यवहारोऽस्ति तथापि नेदमध्ययनं तेभ्यः समुत्थितमतो न तैरिहाधिकारः, किलाई कुकुमारा नगारात्समुत्थितम| तस्तेनैवेहाधिकार इतिकृसा तद्वक्तव्यताऽभिधीयते । एतदेव निर्मुक्तिकृदाह- अस्याः समासेनायमर्थः - आर्द्रकपुरे नगरे आर्द्रको नाम | राजा, तस्सुतोऽप्याकाभिधानः कुमारः, तद्वंशजाः किल सर्वेऽप्याकाभिधाना एव भवन्तीतिकृत्वा स चानगारः संवृत्तः, तस्य श्रीमन्महावीरवर्द्धमानखामि समवसरणावसरे गोशालकेन सार्द्धं हस्तितापसैश्च वादोऽभूत् तेन च ते एतदध्ययनार्थीपन्या Education Intention आर्द्र पदस्य निक्षेपाः - For Parata Lise Only ~ 775~ Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-३३..], नियुक्ति: [१८९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: का प्रत सूत्रांक ||३३|| न्थेशीला दीप अनुक्रम [७३७] सूत्रकृताङ्गे || सेन पराजिता अत इदमभिधीयते-'ततः तस्मादाकात्समुत्थितमिदमध्ययनमाईकीयमिति गाथासमासार्थः । च्यासार्थं तु ॥॥ २ श्रुतस्क- खत एवं नियुक्तिकदाकपूर्वभवोपन्यासेनोत्तरत्र कथयिष्यतीति । ननु च शाश्वतमिदं द्वादशाङ्गमपि गणिपिटकम् आद्रेककथानकं || ध्ययन. IS तु श्रीवर्द्धमानतीर्थावसरे तत्कथमस्य शाश्वतखमित्याशझ्याह-'काम'मित्येतदभ्युपगमे इष्टमेवैतदसाकं तयथा-द्वादशाङ्गमपि हीयावृत्तिः जिनवचनं नित्यं शाश्वतं 'महाभार्ग' महानुभावमामपोषध्यादिऋद्धिसमन्वितत्वात् न केवल मिदं सर्वाण्यप्यध्ययनान्येवंभूतानि, ॥३८६|| तथा सर्वाक्षरसनिपाताश्च-मेलापका द्रव्यार्थादेशानित्या एवेति । ननु च मतानुज्ञानाम निग्रहस्थानं भवत इत्याशवाह-'जइवि' यद्यपि सर्वमपीदं द्रव्यार्थतः शाश्वतं तथाऽपि कोऽप्यर्थस्तसिन्समये तथा क्षेत्रे च कुतचिदाकादेः सकाशादाविभावमास्कन्दति स &| तेन ध्यपदिश्यते । तथा पूर्वमप्यसावर्थोऽन्यमुद्दिश्योक्तोऽनुमतश्च भवति, ऋषिभाषितेषूत्तराध्ययनादिषु यथेति । साम्प्रतं 8 १४ विशिष्टतरमध्ययनोत्थानमाह अजहएण गोसालभिक्खुर्षभवतीतिदंडीणं । जह हत्थितावसाणं कहियं इणमो तहा बुच्छं ॥१९॥ गामे वसंतपुरए सामइतो घरणिसहितो निक्खंतो। भिक्खायरियादिहा ओहासियभत्तवेहासं ॥ १९१ ॥ संवेगसमावन्नो माई भत्तं चइत्त दियलोए। चइऊणं अद्दपुरे अद्दसुओ अद्दओ जाओ ॥ १९२।। पीती य दोण्ह दूओ पुरुङणमभयस्स पट्टचे सोऽवि । तेणावि सम्मदिहित्ति होज पडिमा रहेमि गया ॥१९॥ | ॥३८६।। दहूं संबुद्धो रक्खिओ य आसाण वाहण पलातो । पवावंतो धरितो रज्जं न करेति को अन्नो ? ॥ १९४ ॥ अगणितो निक्र्वतो विहरइ पडिमाइ दारिगा वरिओ। सुबण्णवसुहाराओ रन्नो कहणं च देवीए ॥ १९५॥ ॥४॥ | आर्द्र पदस्य निक्षेपाः, आर्द्रकुमार संबन्धे विशिष्ट वक्तव्यता ~776~ Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||33|| दीप अनुक्रम [७३७] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [-], मूलं [गाथा - ३३...], निर्युक्ति: [१९६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः तं नेह पिता तीसे पुच्छण कहणं च वरण दोबारे । जाणाहि पायविवं आगमणं कहण निगमणं ॥ १९६ ॥ पडिमागतस्समीवे सप्परीवारा अभिक्ख पडिवयणं । भोगा सुताण पुच्छण सुतबंध पुण्णे य निग्गमणं ॥ १९७॥ रायगिहागम चोरा रायभया कण तैसि दिक्खा य । गोसालभिक्खुबं भी तिदंडिया तावसेहि सह वादो ॥। १९८ ।। वादे पराइइत्ता सवेविय सरणमन्भुवगता ते । अद्दगसहिया सवे जिणवीरसगासे निक्वंता ॥ १९९ ॥ णदुकरं वा णरपासमोयणं, गयस्स मत्तस्स वर्णमि राय । जहा उवत्तावलिएण तंतुणा, सुदुकरं मे पडिहाइ मोयणं २०० आर्याकेण समवसरणाभिमुखमुचलितेन गोशालक भिक्षोस्तथा ब्रह्मत्रतिनां त्रिदण्डिनां यथा हस्तितापसानां च कथितमिदमध्ययनार्थजातं तथा वक्ष्ये सूत्रेणेति ।। साम्प्रतं सपूर्वभवमार्द्रककथानकं गाथाभिरेव निर्मुक्तिकृदाह-'गामे' इत्यादि गाथाष्टकं, आसां चार्थः कथानकादवसेयः, तच्छेद- मगधाजनपदे वसन्तपुरको ग्रामः, तत्र सामायिको नाम कुटुम्बी प्रतिवसति, स च संसारभयो द्विझो धर्मघोषाचार्यान्तिके धर्म श्रुला सपलीकः प्रब्रजितः, स च सदाचाररतः संविधैः साधुभिः सार्द्ध विहरति, इतरापि साध्वीभिः सहेति । कदाचिच्चासावेकस्मिन्नगरे भिक्षार्थमटन्तीं दृष्ट्वा तामसौ तथाविधकर्मोदयात्पूर्वरतानुसरणेन तस्यामभ्युपपन्नः, तेन चात्मीयोऽभिप्रायो द्वितीयस्य साधोर्निवेदितः, तेनापि च तत्प्रवर्तिन्याः, तयाऽपि तस्याः, तयाऽपि चाभिहितं न मम देशान्तरे एकाकिन्या गमनं युज्यते, न चासौ तत्राप्यनुबन्धं त्यक्ष्यतीत्यतो ममास्मिन्नवसरे भक्तप्रत्याख्यानमेव श्रेयो न पुनर्ब्रतविलोपनमित्यतस्तया भक्तप्रत्याख्यान| पूर्वकमात्मोद्भन्धनमकारि, मृता चासौ अगाद्देवलोकं । श्रुखा चैनं व्यतिकरमसौ परं संवेगमुपगतचिन्तितं च तेन-वया व्रतभङ्गभ Education Internation आर्द्रकुमार संबन्धे विशिष्ट वक्तव्यता, For Pasta Use Only ~ 777 ~ yor Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक -], मूलं [गाथा-३३...], नियुक्ति: [२००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३३|| दीप अनुक्रम [७३७] सूत्रकृताङ्गे 8 यादिदमनुष्ठितं मम खसौ संजात एवेत्यतोऽहमपि भक्तप्रत्याख्यानं करोमीत्याचार्यस्यानिवेद्यैवासौ मायावी अथ च परमसंवेगा-18| आका२श्रुतस्क- पन्नः असावपि भक्तं प्रत्याख्याय दिवं गतः, ततोऽपि च प्रत्यागत्याद्रपुरे नगरे आद्रकसुत आकाभिधानो जातः, साऽपिच । ध्ययन. देवलोकायुता वसन्तपुरे नगरे श्रेष्ठिकुले दारिका जाता | इतरोऽपि च परमरूपसंपन्नो यौवनस्थः संवृत्तः, अन्यदाऽस्याकरिता कीयावृत्तिः राजगृहे नगरे श्रेणिकस्य राज्ञः स्नेहाविष्करणार्थ परमप्राभृतोपेतं महत्तमं प्रेषयति, आर्द्रककुमारेणासौ पृष्टो यधा-कस्यैतानि महा૨૮હા | होण्यत्युग्राणि प्राभूतानि मत्पित्रा प्रेषितानि यास्यन्तीति, असायकथयद् यथा आर्यदेशे तब पितुः परममित्रं श्रेणिको महाराजः। | तस्यैतानीति, आर्द्रककुमारेणाप्यभाणि-किं तस्यास्ति कश्चिद्योग्यः पुत्रः, अस्तीत्याह, यद्येवं मत्ाहितानि प्राभृतानि भवता तख | समर्पणीयानीति मणिखा महार्हाणि प्राभूतानि समप्याभिहितं-वक्तव्योऽसौ मद्वचनात् यथाऽककुमारस्वयि नितरां नियतीति, ।। 18 स च महत्तमो गृहीतोभयपाभृतो राजगृहमगात् , गवा च राजद्वारपालनिवेदितो राजकुलं प्रविष्टो, दृष्टश्च श्रेणिका, प्रणामपूर्वकं | | निवेदितानि प्राभृतानि, कथितं च यथासंदिष्ट, तेनाप्यासनाशनताम्बूलादिना यथार्हप्रतिपच्या सन्मानितः, द्वितीये चादयाईक कुमारसत्कानि प्राभृतान्यभयकुमारस्य समर्पितानि, कथितानि च तत्प्रीत्युत्पादकानि तत्संदिष्टवचनानि, अभयकुमारेणापि पारिणा| मिक्या घुझ्या परिणामितं-नूनमसौ भन्यः समासनमुक्तिगमनश्च तेन मया सार्द्ध प्रीतिमिच्छतीति, तदिदमत्र प्राप्तकालं यदा-18|| दितीर्थकरप्रतिमासंदर्शनेन तस्यानुग्रहः त्रिमत इति मखा तथैव कृतं, महार्हाणि च प्रेषितानि प्राभृतानीति, उक्तवासी महत्तमो ॥३८७॥ । यथा-मत्प्रहितग्राभृतमेतदेकान्ते निरूपणीयं, तेनापि तथैव प्रतिपन, गतश्चासावाकपुरं, समर्पितं च प्राभृतं राजा, द्वितीये चा हयाककुमारस्पति, कथितं च यथासंदिष्टं, तेनाप्येकान्ते स्थिखा निरूपिता प्रतिमा, तां च निरूपयत ईहापोहविमर्शनेन समुत्पन्न आर्द्रकुमार संबन्धे विशिष्ट वक्तव्यता ~778~ Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक -], मूलं [गाथा-३३...], नियुक्ति: [२००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३३|| दीप अनुक्रम [७३७] Paeseenecesssecesesesed | जातिसरणं, चिन्तितं च तेन यथा-ममाभयकुमारेण महानुपकारोऽकारि सद्धर्मप्रतिबोधत इति, ततोऽसाबाईक: संजातजातिसरणोऽचिन्तयत्-यस्य मम देवलोकभोगैर्यथेप्सितं संपद्यमानस्तृप्तिाभूत तस्यामीभिस्तुच्छर्मानुषैः स्वल्पकालीनः कामभोगैस्तृप्तिर्भ-|| विष्यतीति कुतस्त्यमिति, एतत्परिगणय्य निर्विणकामभोगो यथोचितं परिभोगमकुर्वन् राज्ञा संजातभयेन मा कचिद्यास्यति । अतः पञ्चभिः शते राजपुत्राणां रक्षयितुमारेभे, आद्रेककुमारोऽप्यश्ववाहनिकया विनिर्गतः प्रधानावेन प्रपलायितः । ततथ प्रब-181 ज्यां गृह्णन् देवतया सोपसर्ग भवतोऽद्यापीति भणिखा निवारितोऽप्यसावा को राज्यं तावन्न करोति कोऽन्यो मां विहाय प्रवज्यां | ग्रहीष्यतीत्यभिसंधाय तां देवतामवगणय्य प्रबजितः। विहरनन्यदाज्यतरप्रतिमाप्रतिपन्नः कायोत्सर्गव्यवस्थितो बसन्तपुरे तया देवलोकच्युतया श्रेष्ठिदुहित्राऽपरदारिकामध्यगतया रमन्त्य(ममाणय)प मम भत्त्येवमुक्ते सत्यनन्तरमेव तत्सभिहितदेवतया त्रयोद-18 |शकोटिपरिमाणा शोभनं वृतमनयेति भणिखा हिरण्यवृष्टिर्मुक्ता, तांच हिरण्यवृष्टिं राजा गृहन देवतया सद्युत्थानतो विधृतोऽभिहितं । च तया यथा-एतद्धिरण्यजातमस्या दारिकायाः नान्यस्य कस्यचिदित्यतस्तत्पित्रा सर्व संगोपितम् , आईककुमारोऽप्यनुकूलोपसर्ग इतिमखाऽऽश्वेवान्यत्र गतः, गच्छति च काले दारिकाया वरकाः समागच्छन्ति, पृष्टौ च पितरौ तया-किमेपामागमनप्रयोजन, कथितं च ताभ्यां यथैते तव वरका इति, ततस्तयोक्तं-तात ! सत्कन्याः प्रदीयन्ते नानेकशः, दत्ता चाहं तौ यत्संबन्धि हिरण्यजातं भवद्भिगृहीतं, ततः सा पित्राऽभाणि किं त्वं तं जानीपे , तयोक्तं-तत्पादगताभिज्ञानदर्शनतो जानामीति, तदेवमसौ तत्परिज्ञानार्थ सर्वस्य भिक्षार्थिनी भिक्षां दापयितुं निरूपिता, ततो द्वादशभिर्वर्षगतेः कदाचिच्चासौ भवितव्यतानियोगेन तत्रैच 80 विहरन् समायातः, प्रत्यभिज्ञातश्च तया तत्पादचिह्नदर्शनतः, ततोऽसौ दारिका सपरिवारा तत्पृष्ठतो जगाम, आर्द्रककुमारोपि आर्द्रकुमार संबन्धे विशिष्ट वक्तव्यता ~779~ Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक -], मूलं [गाथा-३३...], नियुक्ति: [२००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||३३|| दीप अनुक्रम [७३७] सूत्रकृताओं | देवतावचनं स्मरंस्तथाविधकमंदियाचावश्यंभाविभवितव्यतानियोगेन च प्रतिभन्नस्तया साई भुनक्ति भोगान् , पुत्रधोपना, आका२ श्रुतस्क- पुनराककुमारेणासावभिहिता-साम्प्रतं ते पुत्रो द्वितीयः अहं च स्वकार्यमनुतिष्ठामि, तया सुतच्युत्पादनार्थ कासकर्तनमारब्धं, | ध्ययन. न्धे शीला- पृष्टा चासौ बालकेन-किमबैतद्भवत्या प्रारब्धमितरजनाचरितं , ततोऽसाववोचद्-यथा तव पिता प्रबजितुकामः त्वं चाद्यापि कीयावृत्तिः शिशुरसमर्थोजिने ततोऽहमनाथा स्त्रीजनोचितेनानिन्येन विधिनात्मानं भवन्तं च किल पालयिष्यामीत्येतदालोच्येदमारब्धl૨૮૮ાા || मिति । तेनापि बालकेनोत्पन्नप्रतिभया तत्कर्तितसूत्रेणैव कार्य मद्धो यास्पतीति मन्मनभाषिणोपविष्ट एवासौ पिता परिवेष्टितः, IS तेनापि चिन्तितं-यावन्तोऽमी बालककृतवेष्टनतन्तवस्तावन्त्येव वर्षाणि मया गृहे स्थातव्यमिति, निरूपिताच तन्तवो यावद् द्वादशी 1 तावन्त्येव वर्षाण्यसौ गृहवासे व्यवस्थितः, पूर्णेषु च द्वादशसु संवत्सरेषु गृहानिर्गतः प्रत्रजितचेति । ततोऽसौ सूत्रार्थनिष्पत्र एका-1 18 किविहारेण विहरन् राजगृहाभिमुखं प्रथिता, तदन्तराले च तद्रक्षणार्थ यानि प्राक पित्रा निरूपितानि पञ्च राजपुत्रशतानि तमि-181 18 नश्वेन नष्टे राजभयाद्विलक्ष्याच न राजान्तिकं जग्मुः, तत्राटवीदुर्गे चौर्येण वृत्ति कल्पितवन्तः, तैवासौ दृष्टः प्रत्यभिज्ञातच, ते 8 |च तेन पृष्टाः-किमिति भवद्भिरेवंभूतं कर्माश्रितं , तैश्च सर्व राजभयादिकं कथितम् , आईककुमारवचनाच संबुद्धाः प्रबजिताथ। तथा राजगृहनगरप्रवेशे गोशालको हस्तितापसाः ब्राह्मणाश्च वादे पराजिताः । तथाककुमारदर्शनादेव हस्ती बन्धनाद्विमुक्ता, ते च हस्तितापसादय आर्द्रककुमारधर्मकथाक्षिप्ता जिनवीरसमवसरणे निष्क्रान्ताः । राज्ञा च विदितवृत्तान्तेन महाकुतूहलापूरित 21 ३८८॥ हृदयेन पृष्टो-भगवन् ! कथं खद्दर्शनतो हस्ती निरर्गलः संवृत्त इति ?, महान् भगवतः प्रभाव इत्येवमभिहितः सन्नाककुमारोन|वीत् नवमगाथयोत्तरं-न दुष्करमेतषनरपाशर्बद्धमत्तवारणस्य विमोचनं वने राजन् ! एतत्तु मे प्रतिभाति दुष्करं यश्चतत्रावलितेन आर्द्रकुमार संबन्धे विशिष्ट वक्तव्यता ~ 780~ Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-१], नियुक्ति: [२००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||१|| दीप अनुक्रम [७३८] 18तन्तुना बद्धस्य मम प्रतिमोचनमिति । स्नेहतन्तवो हि जन्तूनां दुरुच्छेदा भवन्तीति भावः । गतमार्द्रककथानकम् , नामनिष्पन्न-181 निक्षेपश्च । तदनन्तरं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं मूत्रमुचारयितथ्य, तच्चेदम् -... पुराकडं अह ! इमं सुणेह, मेगंतयारी समणे पुरासी । से भिक्खुणो उवणेत्ता अणेगे, आइक्षतिहि पुढो वित्थरेणं ॥१॥ साऽऽजीविया पट्टविताऽधिरेणं, सभागओ गणओ भिक्खुमज्झे । आइक्खमाणो बहुजन्नमत्थं, न संधयाती अवरेण पुर्व ॥२॥ एगंतमेवं अदुवा विइण्डि, दोऽचण्णमन्नं न समेति जम्हा । सूत्र यथा गोशालकेन सार्द्ध वादोऽभूदाककुमारस्य तथाऽनेनाध्ययनेनोपदिश्यते, तं च राजपुत्रकमाईककुमार प्रत्येकबुद्ध भगव-181 समीपमागच्छन्तं गोशालकोववीत्-यथा हे आर्द्रक ! यदहं ब्रवीमि तच्छृणु-'पुरा' पूर्व यदनेन भवत्तीर्थकृता कृतं, तचेद-11%81 मिति दर्शयति -एकान्ते जनरहिते-प्रदेशे चरितुं शीलमवेत्येकान्तचारी, तथा धाम्यतीति श्रमणः पुराऽऽसीत्तपश्चरणोयुक्तः, साम्प्रतं | तूप्रैस्तपवरणविशेषनिर्भसितो मां विहाय देवादिमध्यगतोऽसौ धर्म किल कथयति, तथा 'बहून्' भिक्षून 'उपनीय' प्रभूतशि-12 प्यपरिकर कला भवद्विधानां च मुग्धजनानामिदानी पृथक् पृथग्विस्तरेणाचष्टे धर्ममिति शेषः ॥१॥ पुनरपि गोशालक एव | 'साजीविए'त्याचाह, येयं बहुजनमध्यगतेन धर्मदेशना युष्मद्गुरुणाऽऽरब्धा साऽऽजीविका प्रकर्षेण स्थापिता प्रस्थापिता, एकाकी विहरंल्लोकिकैः परिभूयत इतिमला लोकपक्लिनिमित्तं महान् परिकरः कृतः, तथा चोच्यते-"छत्र छात्रं पात्र वसं यष्टि च चर्च-| यति भिक्षुः । वेषेण परिकरेण च कियताऽपि विना न भिक्षापि ॥ १॥" तदनेन दम्भप्रधानेन जीविकार्थमिदमारब्धं । किंभू-19 | तेन :-अस्थिरेण, पूर्व इयं मया साईमेकाक्यन्तप्रान्ताशनेन शून्यारामदेवकुलादी वृत्ति कल्पितवात् , न च तथाभूतमनुष्ठानं | आर्द्रकुमार संबन्धे विशिष्ट वक्तव्यता, मूलसूत्रस्य आरम्बः: ~781~ Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-३], नियुक्ति: [२००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत २ श्रुतस्क ध्ययन. सूत्रांक ॥३॥ दीप अनुक्रम [७४०] सूत्रकृताङ्गे 18|सिकताकवलवचिरास्वाद यावजीवं कर्तुमलम् अतो मां विहायायं बहून् शिष्यान् प्रतावंभूतेन स्फटाटोपेन विहरतीत्यतः कर्तव्ये ||४|| आर्द्रका 'अस्थिरः चपला, पूर्वचर्यापरित्यागेनापरकल्पसमाश्रयात् , एतदेव दर्शयति-'सभायां गतः सदेवमनुजपर्षदि व्यवस्थितो न्धे शीला | 'गणओति गणशो पहुशोऽनेकश इतियावत् भिक्षणांमध्ये 'गतो व्यवस्थित आचक्षाणो बहुजनेभ्यो हितः अर्थों बहुजन्योऽर्थदीयावृत्तिः स्तमर्थ बहुजनहितं कथयन् विहरति, एतच्चास्यानुष्ठानं पूर्वापरेण न संधत्ते, तथाहि-यदि साम्प्रतीयं वृत्तं प्राकारत्रयसिंहासनाशो॥३८॥18कवृक्षभामण्डलचामरादिकं मोक्षाङ्गमभविष्यत्ततो या प्राक्तन्येकचर्या लेशबहुलाऽनेन कृता सा क्लेशाय केवलमस्पेति, यदि सा कर्म निर्जरणहेतुका परमार्थभूता ततः साम्प्रतावस्था परप्रतारकबादम्भकल्पेत्यतः पूर्वोत्तरयोरनुष्ठानयोः-मौनव्रतिकधर्मदेशनारूपयोः। परस्परतो विरोध इति ॥२॥ अपिच-ययेकान्तचारित्वमेव शोभनं पूर्वमाश्रितत्वात् ततः सर्वदान्यनिरपेक्षस्तदेव कर्तव्यम् , अथ ||१! चेदं साम्प्रतं महापरिवारवृतं साधुं मन्यसे ततस्तदेवादावप्याचरणीयमासीद्, अपिच वे अप्येते छायातपवदत्यन्तविरोधिनी वृत्ते 18 नैकत्र समवायं गच्छतः, तथा यदि मौनेन धर्मस्ततः किमियं महता प्रबन्धेन धर्मदेशना, अथानयैव धर्मस्ततः किमिति पूर्व मौनव्रतमनेनाललम्बे', यस्मादेवं तस्मात्पूर्वोत्तरच्याहतिः । तदेवं गोशालकेन पर्यनुयुक्त आईककुमारः श्लोकपश्चार्द्धनोत्तरदानायाह पुद्धिं च इहि च अणागतं वा, एगंतमेवं पडिसंधयाति ॥ ३ ॥ समिच लोगं तसथावराणं, खेमंकरे समणे माहणे वा । आइक्खमाणोवि सहस्समझे, एगतयं सारयती तहाचे ॥४॥ धम्मं कहतस्स उ णधि दोसो, ॥३८९॥ खंतस्स दंतस्स जितिंदियस्स । भासाय दोसे य विचजगस्स, गुणे य भासाय णिसेवगस्स ॥५॥ महबए पंच अणुचए य, तहेव पंचासव संवरे य । विरतिं इहस्सामणियंमि पन्ने, लवावसकी समणेत्तिवेमि ॥६॥ सूत्रं G290920029299999 ~782~ Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-६], नियुक्ति: [२००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||६|| दीप अनुक्रम [७४३] 'पूर्व पूर्वस्मिन्काले यन्मौनव्रतिकत्वं या चैकचर्या तच्छद्मस्थत्वाद्घातिकर्मचतुष्टयक्षयार्थ, साम्प्रतं यन्महाजनपरिवृतस्य धर्मदेशना || विधानं तत्प्रारबद्धभवोपवाहिकर्मचतुष्टयक्षपणोद्यतस्य विशेषतस्तीर्थकरनाम्नो वेदनार्थ अपरासां चोर्गोत्रशुभापुर्नामादीनां शुभप्रक| तीनामिति । यदिवा पूर्व साम्प्रतमनागते च काले रागद्वेषरहितत्वादेकत्वभावनानतिक्रमणाचकत्वमेवानुपचरितं भगवानशेषजनहितं धर्म कथयन् प्रतिसंदधाति, न तस्य पूर्वोत्तरयोरवस्थयोराशंसारहितत्वा दोस्ति, अतो यदुच्यते भवता-पूर्वोत्तरयोरवस्थयोरसाङ्गत्यं तत् प्लवत इति ॥३॥ यादेतद्-धर्मदेशनया प्राणिनां कश्चिदुपकारो भवत्युत नेति ?, भवतीत्याह-'समिच लोय' मित्यादि, सम्यग| यथावस्थित 'लोक' पइद्रव्यात्मकं 'मत्वा' अवगम्य केवलालोकेन परिच्छिद्य त्रस्यन्तीति प्रसा:-त्रसनामकर्मोदया द्वीन्द्रियादयः, तथा तिष्ठन्तीति स्थावरा:-स्थावरनामकर्मोदयात्स्थावराः पृथिव्यादयस्तेषामुभयेषामपि जन्तूनां 'क्षेम' शान्तिः रक्षा तत्करणशील: | क्षेमकरः श्राम्यतीति श्रमणो द्वादशप्रकारतपोनिष्टतदेहः, तथा मा हणत्ति प्रवृत्तिर्यस्थासौ माहनो ब्राह्मणो या स एवंभूतो 'निर्म मो' रागद्वेषरहितः प्राणिहितार्थ न लाभपूजाख्यात्यर्थ धर्ममाचक्षाणोऽपि प्राम्वत् छद्मस्थावस्थायां मौनव्रतिक इव बाक्संयत एव, उत्पन्नदिव्यज्ञानत्वादापागुणदोषविवेकज्ञतया भाषणेनेव गुणावाप्तेः, अनुत्पन्नदिव्यज्ञानस्य तु मौनप्रतिकत्येनेति, तथा देवासुरनरतिर्यक्सहस्रमध्येऽपि व्यवस्थितः पङ्काधारपङ्कजवत्तद्दोषच्यासङ्गाभावान्ममत्व विरहादाशंसादोपविकलवादेकान्तमेवासी 'सार-12 यति' प्रख्याति नयति साधयतीतियावत् । ननु चैकाकिपरिकरोपेतावस्थयोरस्ति विशेषः, प्रत्यक्षेणैवोपलभ्यमानत्वात् , सत्यम् , अस्ति विशेषो बाधतो न त्वान्तरतोऽपि, दर्शयति-'तथा' प्रारबदचर्चा-लेश्या शुक्लध्यानाख्या यस्य स तथाः , यदिवा अर्चा-शरीरं 18 तच्च प्राग्वद्यस्य स तथाः, तथाहि-असावशोकाद्यष्टप्रातिहार्योपेतोऽपि नोत्सेकं याति, नापि शरीर संस्कारायत्तं विदधाति, स हि Sesesesesekseeestaesesesese ~783~ Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-६], नियुक्ति: [२००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||६|| मूत्रकृता भगवानात्यन्तिकरागद्वेषप्रहाणादेकाक्यपि जनपरिवृतोऽप्येकाकी, न तस्य तयोरवस्थयोः कश्चिद्विशेगोऽस्ति, तथा चोक्तम्-"रागद्वेषी आर्द्रका२ श्रुतस्क- विनिर्जित्य, किमरण्ये करिष्यसि । अथ नो निर्जितावेती, किमरण्येकरिष्यसि ॥१॥" इत्यतो बाबमनङ्गमान्तरमेव कषायज- ध्ययन. न्धे शीला- Iयादिकं प्रधानं कारणमिति स्थितम् ।। ४ ।। अपगतरागद्वेषस्य प्रभापमाणस्यापि दोषाभावं दर्शयितुमाह-तस्य भगवतोऽपगतपनघा-18 कीयावृत्तिः तिकलङ्कस्योत्पन्नसकलपदार्थावि विज्ञानस्य जगदभ्युद्धरणप्रवृत्तस्पैकान्तपरहितप्रवृत्तस्य खकार्यनिरपेक्षस्य धर्म कथयतोऽपि ॥३९॥ तुशब्दस्यापिशब्दार्थत्वात् नास्ति कविदोषः । किंभूतस्येत्याह-क्षान्तस्य शान्तिसंपन्नस्यानेन क्रोधनिरासमाह, तथा 'दान्तस्य' | उपशान्तस्पानेन तु मानव्युदासं, तथा जितानि स्वविषयप्रवृत्तिनिषेधेनेन्द्रियाणि येन स जितेन्द्रियो वश्येन्द्रियोऽनेन तु | लोभनिरासमाचष्टे, मायायास्तु लोभनिरासादेव निरासो द्रष्टव्यः, तन्मूलत्वात्तस्याः, भाषाया दोषा-असत्यासत्यामृपा-18 | कर्कशासभ्यशब्दोचारणादयस्तद्विवजेकस्य-तत्परिहर्तुंस्तथा भाषाया ये गुणा-हितमितदेशकालासंदिग्धभाषणादयस्तभिषेषकस्य ४ | सतो मुक्तोऽपि नास्ति दोषः, छमस्थस्य हि बाहुल्येन मौनव्रतमेव श्रेयः, समुत्पत्रकेवलस्य तु भाषणमपि गुणायेति ॥५॥ | किंभूतं धर्ममसी कथयतीत्याह 'महब्बए पंचे'त्यादि, महान्ति च तानि व्रतानि-प्राणातिपातविरमणादीनि तानि च साधूनां | प्रज्ञापितवान् , पश्चापि तदपेक्षयाऽणूनि-लघूनि ब्रतानि अणुव्रतानि पश्चैव तानि श्रावकानुद्दिश्य प्रज्ञापितवान , पश्चाश्रयान्प्राणातिपातादिरूपान् कर्मणः प्रवेशद्वारभूतान् तत्संबरं च सप्तदशप्रकारं संयम प्रतिपादितवान , संवरवतो हि विरतिर्भवतीत्यतो ॥३९०॥ विरतिं च प्रतिपादितवान् चशब्दातत्फलभूती निर्जरामोक्षौ च, 'इह' असिन्प्रवचने लोके वा श्रमणभावः श्रामण्य-संपूर्णसं| यमस्तमिन् वा विधेये मूलगुणान्-महाव्रताणुव्रतरूपान् तथोत्तरगुणान्-संवरविरत्यादिरूपान् 'पूर्ण कृत्स्ने संयमे विधातथ्ये 'प्राज्ञ' eteraeseeeeee दीप अनुक्रम [७४३] ~784 Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-६], नियुक्ति: [२००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत ॐEGee सूत्रांक ||६|| दीप अनुक्रम [७४३] इति वा कचित्पाठः, प्रज्ञावानेतत्प्रतिपादितवानिति । किंभूतोऽसौ ?-लवं-कर्म तस्माद् 'अवसक्कइ'ति अपसर्पणशीलोऽवसपी । श्राम्यतीति श्रमणः-तपश्चरणयुक्त इत्येतदहं ब्रवीमि, स्वयमेव च भगवान्पश्चमहावतोपपत्र इन्द्रियनोइन्द्रियगुप्तो विरतबासौ लवावसपी सन् स्वतोऽन्येषामपि तथाभूतमुपदेशं दत्तवानित्येतद् ब्रवीमीति । यदिवाऽऽककुमारवचनमाकासी गोशालकस्तत्प्रतिपक्षभूतं अर्थ वक्तुकाम इदमाह-इत्येतद्वक्ष्यमाणं यदहं ब्रवीमि तच्छृणु ! समिति ॥ ६ ॥ यथाप्रतिज्ञातमेवाह गोशालकासीओदर्ग सेवउ बीयकायं, आहायकम्मं तह इस्थियाओ। एगतचारिस्सिह अम्ह धम्मे, तवस्सिणो णाभिसमेति पावं ॥७॥ सीतोदगं वा तह बीयकायं, आहायकम्मं तह इस्थियाओ। एयाई जाणं पडिसेवमाणा, अगारिणो अस्समणा भवंति ॥ ८॥ सिया य बीओदग इथियाओ, पडिसेवमाणा समणा भवंतु । अगारिणोऽवी समणा भवंतु, सेवंति उतंऽवि तहप्पगारं ॥९॥ जे यावि बीओदगभोति भिक्खू , भिक्खं विहं जायति जीवियट्टी। ते णातिसंजोगमविष्पहाय, कायोवगा पंतकरा भवंति ॥१०॥ भवतेदमुदाहितं-परार्थ प्रवृत्तस्याशोकादिप्रातिहार्यपरिग्रहस्तथा शिष्यादिपरिकरो धर्मदेशना च न दोषायेति यथा तथाऽसा-5 | कमपि सिद्धान्ते यदेतद्वक्ष्यमाणं तन्म दोषायेति । शीतं च तदुदकं च शीतोदकम्-अप्रासुकोदक तत्सेवनं-परिमोगं करोतु, 11 | तथा बीजकायोपभोगमाधाकर्माश्रयण स्त्रीप्रसङ्गं च विदधातु, अनेन च स्वपरोपकारः कृतो भवतीत्यस्मदीये धर्म प्रवृत्तस्य 'एका-18 |न्तचारिण: आरामोद्यानादिष्वेकाकिविहारोद्यतस्य तपखिनो 'नाभिसमेति' न संबन्धमुपयाति 'पापम्' अशुभकर्मेति, इदमुक्तं || भवति-एतानि शीतोदकादीनि यद्यपीपत्कर्मबन्धाय तथापि धर्माधारं शरीरं प्रतिपालयत एकान्तचारिणस्तपखिनो बन्धाय न8 ~785~ Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥१०॥ दीप अनुक्रम [७४७] सूत्रकृता २ श्रुतस्क न्धे शीलाडीयावृत्तिः ॥३९१ ॥ “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [-], मूलं [गाथा- १०], निर्युक्तिः [२००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०२ ], अंग सूत्र - [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - | भवन्तीति ॥ ७ ॥ एतत्परिहर्तुकाम आह-'सीतोदग' मित्यादि, 'एतानि' प्रागुपन्यस्तानि अत्रासुकोदकपरिभोगादीनि प्रति| सेवन्तोऽगारिणो- गृहस्थास्ते भवन्ति अश्रमणाश्च-अप्रब्रजिताथैवं जानीहि यतः - 'अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यमनुब्धता' इत्येतमणलक्षणं, तचैषां शीतोदक बीजाऽऽधा कर्मस्त्रीपरिभोगवतां नास्तीत्यतस्ते नामाकाराभ्यां श्रमणा न परमार्थानुष्ठानत इति ॥८॥ पुनरप्यार्द्रक एवैतडूपणायाह- स्यादेतद्भवदीयं मतं यथा ते एकान्तचारिणः क्षुत्पिपासादिप्रधानतपश्चरणपीडिताच तत्कथं ते न | तपखिन इत्येतदाशङ्कयाईक आह-यदि बीजाद्युपभोगिनोऽपि श्रमणा इत्येवं भवताऽभ्युपगम्यते एवं तर्ह्यगारिणोऽपि - गृहस्थाः श्रमणा भवन्तु, तेषामपि देशिकावस्थायामाशंसावतामपि निष्किश्चनतयैकाकिविहारिलं क्षुत्पिपासादिपीडनं च संभाव्यते । अत आह'सेवंति उ' तुरवधारणे सेवन्त्येव 'तेऽपि' गृहस्थास्तथाप्रकारमेकाकि विहारादिकमिति ॥ ९ ॥ पुनरप्यार्द्रको बीजोदकादिभो| जिनां दोषाभिधित्सयाऽऽह - 'जे यावी'त्यादि, ये चापि 'भिक्षवः' प्रवजिता बीजोदकभोजिनः सन्तो द्रव्यतो ब्रह्मचारिणोऽपि भिक्षां चाटन्ति जीवितार्थिनस्ते तथाभूता 'ज्ञातिसंयोगं' खजनसंबन्धं 'विप्रहाय त्यक्त्वा कायान् कायेषु वोपगच्छन्तीति | कायोपगास्तदुपमर्दकारम्भप्रवृत्तत्वात् संसारस्यानन्तकरा भवन्तीति, इदमुक्तं भवति केवलं खीपरिभोग एव तैः परित्यक्तोऽसावपि द्रव्यतः, शेषेण तु बीजोदकाद्युपभोगेन गृहस्थकल्पा एव ते यत्तु भिक्षाटनादिकमुपन्यस्तं तेषां तद्गृहस्थानामपि केषाञ्चित्संभाव्यते, नैतावता श्रमणभाव इति ॥ १० ॥ अधुनैतदाकर्ण्य गोशालकोsपरमुचरं दातुमसमर्थोऽन्यतीर्थिकान्सहायान् विधाय सोल्लुण्ठमसारं वक्तुकाम आह इमं वयं तु तुम पाकु, पावाइणो गरिहसि सङ्घ एव । पावाइणो पुढो कियंता, सयं सयं दिट्ठि करेंति Education Intiation For Pale Only ~786~ ६ आर्द्रका ध्ययन. ||३९१॥ Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-११], नियुक्ति: [२००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||१०|| पाउ ॥ ११॥ ते अन्नमन्नस्स उ गरहमाणा, अक्वंति भो समणा माहणा य । सतो य अस्थी असतो य पत्थी, गरहामो दिढि ण गरहामो किंचि ॥ १२॥ ण किंचि रूवेणऽभिधारयामो, सदिहिमग्गं तु करेमु पाउं । मग्गे इमे किहिए आरिएहिं, अणुत्तरे सप्पुरिसेहिं अंजू ॥ १३॥ उर्दू अहेयं तिरिय दिसासु, तसा य जे धावर जे य पाणा । भूयाहिसंकाभि दुगुंछमाणा, णो गरहती बुसिमं किंचि लोए ॥ १४ ॥ (म०) 'इमां' पूर्वोक्तां वाचं तुशब्दो विशेषणार्थः ख 'प्रादुष्कुर्वन् प्रकाशयन् सर्वानपि प्रावादुकान् 'गर्हसि जुगुप्ससे, यसा18 सर्वेऽपि तीथिका बीजोदकादिभोजिनोऽपि संसारोच्छित्तये प्रवर्त्तन्ते, ते तु भवता नाभ्युपगम्यन्ते, ते तु प्रावादुकाः पृथक् पृथक खीयां स्वीयां दृष्टिं प्रत्येकं वदर्शनं कीर्तयन्तः 'प्रादुष्कुर्वन्ति' प्रकाशयन्ति । यदिवा श्लोकपबार्द्धमाककुमार आह-सर्वेऽपि % प्रावादुका यथावस्थित खदर्शनं प्रादुरकुर्वन्ति, तत्प्रामाण्याच वयमपि स्वदर्शनाविभावनं कुर्मः, तथाहि-अप्रासुकेन बीजोदका| दिपरिभोगेन कर्मबन्ध एव केवलं न संसारोच्छेद इतीदमसदीयं दर्शनम् , एवं व्यवस्थिते कान परनिन्दा को वाऽऽत्मोत्कर्ष इति । ॥११॥ किं च--'ते अण्णमण्णस्से'त्यादि, 'ते' प्रावादुकाः 'अन्योऽन्यस्य' परस्परेण तु खदर्शनप्रतिष्ठाशया परदर्शनं गह|माणाः खदर्शनगुणानाचक्षते, तुशब्दात्परस्परतो व्याहतमनुष्ठानं चानुतिष्ठन्ति, ते च 'श्रमणा' निग्रन्थादयो 'ब्राह्मणा'द्विजा| तयः सर्वेऽप्येते वकं पदं समर्थयन्ति परकीयं च दुपयन्ति । तदेव पश्चाद्धेन दर्शयति-'खत' इति खकीये पक्षे स्वाभ्युपग-|| K मेऽस्ति पुण्यं तत्कार्य च खर्गापवर्गादिकमस्ति, अवतश्च-पराभ्युपगमाच नास्ति पुण्यादिकमित्येवं सर्वेऽपि तीथिकाः परस्परच्या-18 घातेन प्रवृत्ताः, अतो वयमपि यथावस्थिततचनरूपणतो युक्तिविकलखादेकान्तदृष्टिं 'गहोमो'जुगुप्सामो-न बसावेकान्तो दीप अनुक्रम [७४७] eeseeeeeeeeeeeeee ~787~ Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ॥१४॥ दीप अनुक्रम [७५१] सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्क न्धे शीला श्रीयावृत्तिः ॥३९२॥ “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा - १४], निर्युक्तिः [२००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०२ ], अंग सूत्र - [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - यथावस्थिततत्त्वाविर्भावको भवतीति, एवं च व्यवस्थिते तत्त्वस्वरूपं वयमाचक्षाणा न कंचिद्रमः काणकुण्टो चट्टनादिप्रकारेण, | केवलं स्वपरस्वरूपाविर्भावनं कुर्मो, न च वस्तुस्वरूपाविर्भावने परापवादः तथा चोक्तम्- ''नत्रैर्निरीक्ष्य बिलकण्टककीटसर्पान्, सम्यक् पथा व्रजेति तान्परिहृत्य सर्वान् । कुज्ञानकुश्रुतिकुमार्गकुदृष्टिदोषान्, सम्यग्विचारयत कोऽत्र परापवादः ? || १ ||" इत्यादि । यदि वैकान्तवादिनामेव अस्त्येव नास्त्येव नित्यमेवानित्यमेव सामान्यमेव विशेषा एवेत्याद्यभ्युपगमवतामयं परस्परगर्हारूपो दोषो, | नास्माकमनेकान्तवादिनां सर्वस्यापि सदसदादेः कथञ्चिदभ्युपगमात् । एतदेव लोकपथार्द्धन दर्शयति- 'स्वत' इति, स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावैरस्ति, तथा 'परत' इति परद्रव्यादिभिर्नास्तीत्येवं पराभ्युपगमं दूषयन्तो गर्हामोऽन्याने कान्तवादिनः, तत्स्वरूपनिरूपणतस्तु रागद्वेषविरहान्न किञ्चिद्गर्हाम इति स्थितम् ॥ १२ ॥ एतदेव स्पष्टतरमाह-न कञ्चन भ्रमणं ब्राह्मणं वा स्वरूपेण-जुगुप्सिताङ्गावयवोद्घट्टनेन जात्या तलिङ्गग्रहणोद्घट्टनेन वा 'अभिघारयामो' गर्हणावुद्ध्योद्घट्ट्यामः, केवलं 'खदृष्टिमार्ग' तदभ्युपगतं दर्शनं 'प्रादुष्कुर्मः' प्रकाशयामः, तद्यथा- "ब्रह्मा लूनशिरा हरिदेशि सम्म्या लुप्तशिनो हरः, सूर्योऽप्युल्लिखितोऽनलोऽप्यखिलभु| क् सोमः कलङ्काङ्कितः । खर्नाथोऽपि विसंस्थूलः खलु वपुः संस्यैरुपस्यैः कृतः, सन्मार्गस्खलनाद्भवन्ति विपदः प्रायः प्रभूणामपि ॥ १ ॥ इत्यादि । एतच तैरेव स्वागमे पापठ्यते वयं तु श्रोतारः केवलमिति । आर्द्रककुमार एव परपक्षं दूषयित्वा स्वपक्षसाधनार्थ लोकपथार्द्धनाह--अयं 'मार्ग' पन्थाः सम्यग्दर्शनादिकः 'कीर्त्तितो' व्यावर्णितः, के ? - 'आर्य' सर्वशेस्त्याज्यधर्मदूरव तिभिः किंभूतो धर्मो :- नामादुत्तरः- प्रधानो विद्यत इत्यनुत्तरः पूर्वापराव्याहतवाद्यथावस्थितजीवादिपदार्थस्वरूपनिरूपणाच्च, १] अजय प्रकियाsभिव्याहारे प्रययः खड्डा २ काकुण्डादि । Education Internation For Pernal Use Only ~788~ ६ आर्द्रका ध्ययन, ॥३९२॥ Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-१४], नियुक्ति: [२००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||१४|| दीप अनुक्रम [७५१] H|| किंभूतैराय: -सन्तश्च ते पुरुषाश्च सत्पुरुषास्तैश्चतुर्विंशदतिशयोपेतैराविर्भूतसमस्तपदार्थाविर्भावकदिव्यज्ञानः, किंभूतो मार्गों ?-13॥ 'अंज' व्यक्तः निर्दोषत्वात्प्रकटः ऋजुर्वा वकान्तपरित्यागादकुटिल इति ॥१३॥ पुनरपि सद्धर्मस्वरूपनिरूपणायाह-'उहुं अहे-18 यमित्यादि, ऊर्ध्वमधस्तियक्ष्वेवं सर्वाखपि दिक्षु प्रज्ञापकापेक्षया भावद्गिपेक्षया वा तासु ये वसा ये च स्थावराः प्राणिनः | चशब्दो खगतानेकभेदसंसूचकी, 'भूत' सद्भूतं तथ्यं तत्राभिशङ्कया-तध्यनिर्णयेन प्राणातिपातादिकं पातकं जुगुप्समानो गहे-18 18माणो वा यदिवा भूताभिशया प्राण्युपमर्दशङ्या सर्वसावद्यमनुष्ठानं जुगुप्समानो नैवापरलोक कश्चन गर्हति निन्दति 'बुसि-18 मति संयमवानिति । तदेवं रागद्वेषवियुक्तस्य वस्तुखरूपाविर्भावने न काचिद्गति, अथ तत्रापि गरे भवति न तर्घष्णोऽग्निः81 शीतमुदकं विषं मारणात्मकमित्येवमादि किञ्चिद्वस्तुखरूपमाविर्भावनीयमिति ॥ १४ ॥ स एवं गोशालकमतानुसारी त्रैराशिको निराकृतो पुनरन्येन प्रकारेणाह आगंतगारे आरामगारे, समणे उ भीते ण उवेति वासं । दक्खा हु संती बहवे मगुस्सा, ऊणातिरित्ता य लवालवा य ॥१५॥ मेहाविणो सिक्खिय बुद्धिमंता, मुत्तेहि अत्थेहि य णिच्छयन्ना । पुछिसु मा णे अणगार अन्ने, इति संकमाणो ण उवेति तत्थ ॥१६॥णो कामकिचा ण य बालकिचा, रायाभिओगेण कुओ भएणं । वियागरेज पसिणं नवावि, सकामकिचेणिह आरियाणं॥ १७॥ गंता च तत्था अदुवा अगंता, वियागरेजा समियासुपन्ने । अणारिया दंसणओ परित्ता, इति संकमाणो ण उवेति तत्थ ॥१८॥ (सू०) caeeeeeeeeeeeeeee For P OW Baitaram.org ~789~ Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-१८], नियुक्ति: [२००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||१८|| ॥३९ ॥ दीप अनुक्रम [७५५] सूत्रकृताङ्गेस विप्रतिपन्नः सन्नाईकमेक्माह-योऽसौ भवत्संबन्धी तीर्थकरः स रागद्वेषभययुक्तः, सथाहि-असावागन्तुकानां कार्पटि- आईका२ श्रुतस्क- कादीनामगारमागन्तागार तथायामेऽगारमारामागारं तत्रासौ 'श्रमणों' भवत्तीर्थकरः, तुशब्द एवकारार्थे, भीत एवासौ तदप-1॥ध्ययन, न्धे शीला- बसनभयात् 'तन्त्र' आगन्तागारादौ 'न वासमुपैति' न तत्रासनस्थानशयनादिकाः क्रियाः कुरुते । किं तत्र भयकारणमिति || हायानतिनचेत्तदाह-'दक्षा' निपुणाः प्रभूतशास्त्रविशारदाः, हुशब्दो यमादर्थे, यमाहवः सन्ति मनुष्याः तस्मादसी तबीतो न वार्स | | तत्र समुपैति-न तत्र धासमातिष्ठते । किंभूता: ?-'न्यूना: खतोऽवमा हीना जाल्याचतिरिक्ता वा ताभ्यां पराजितस महाश्छायाभ्रंश इति । तानेव विशिनष्टि लपन्तीति लपा-वाचालाः घोषितानेकतर्कविचित्रदण्डकाः तथा अलपा-मौनवतिका निष्ठित योगाः गुडिकादियुक्ता या यशादभिधेयविषया वागेव न प्रवर्तते ततस्तगयनासौ युष्मत्तीर्थकदागन्तागारादौ नैव ब्रजतीति ४॥१५॥ पुनरपि गोशालक एवाह-'मेहाविणो' इत्यादि, मेधा विद्यते येषां ते मेधाविनो-ग्रहणधारणसमर्थाः, तथाऽऽचार्यादेः18|| 18 समीपे शिक्षा ग्राहिताः शिक्षिताः तथौत्पत्तिक्यादिचतुर्विधबुब्युपेता बुद्धिमन्तः, तथा 'सूत्रे' सूत्रविषये विनिधयज्ञाः तथा अर्थ-18|| विषये च निश्चयज्ञा यथावस्थितसूत्राथवेदिन इत्यर्थः । ते चैर्वभूताः सूत्रार्थविषयं मा प्रभ कार्युरन्येऽनगारा एके केचनेत्येवमसी शकमान:-तेषां विभ्यन 'तत्र' तन्मध्ये उपैति-उपगच्छतीति, ततश्च न ऋजुर्मार्गः, इति भययुक्तलात्तस्य, तथा म्लेच्छविषयं गता न कदाचिद्धर्मदेशनां च करोति, आर्यदेशेऽपि न सर्वत्र अपितु कुत्रचिदेवेत्यतो विषमदृष्टिखाद्रागद्वेपवर्त्यसाविति ।। १६ ॥ एत-1 ॥३९॥ S| गोशालकमतं परिहतुकाम आईक आह-स हि भगवान्प्रेक्षापूर्वकारितया नाकामकृत्यो भवति, कमनं कामः-इच्छा न कामोऽ कामस्तेन कृत्यं-कर्तव्यं यस्खासावकामकृत्या, स एवंभूतो न भवति, अनिच्छाकारी न भवतीत्यर्थः, यो झप्रेक्षापूर्वकारितया वर्तते । eleseseserceaesesesesesese ~790~ Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-१८], नियुक्ति: [२००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१८|| eceaeeeeeeee Leela दीप अनुक्रम [७५५] सोऽनिष्टमपि स्वपरात्मनोनिरर्थकमपि कृत्यं वति, भगवास्तु सर्वज्ञः सर्वदर्शी परहितैकरतः कथं खपरात्मनोनिरुपकारकमेयं 18| कुर्यात् । तथा च बालखेव कृत्यं यस्य स बालकृत्यो, न चासौ बालवदनालोचितकारी, न परानुरोधानापि गौरवाद्धर्मदेशना |दिक विधने अपितु यदि कस्यचिद्भव्यसत्वस्योपकाराय तद्भाषितं भवति ततः प्रवृत्तिर्भवति, नान्यथा, तथा न राजा|भियोगेनासौ धर्मदेशनादौ कश्चित्प्रवर्तते, ततः कुतस्तस्य मयेन प्रवृत्तिः स्यादित्येवं व्यवस्थिते केनचित्कचित्सं-16 शयकृतं प्रश्नं च्यागृणीयाद् यदि तस्योपकारो भवति, उपकारमन्तरेण 'न च' नैव व्यागृणीयाद्, यदिवाऽनुत्तरसुराणां मनःपर्यायज्ञानिनां च द्रव्यमनसैव तनिर्णयसंभवादतो न व्यागृणीयादित्युच्यते । यदप्युच्यते भवता-यदि वीतरागोऽसौ 8॥ किमिति धर्मकां करोतीति चेदित्याशङ्कयाह-'खकामकृत्येन' खेच्छाचारिकारितयाऽसावपि तीर्थकुनामकर्मणः क्षपणाय न यथाकथंचिद्, अतोऽसावग्लानः 'इह' असिन्संसारे आर्यक्षेत्रे वोपकारयोग्ये, आर्याणां सर्वहेयधर्मदूरवर्तिनां तदुपकाराय धर्मदेशनां व्यागृणीयादसाविति ।। १७ ॥ किंचान्यत्-'गते'त्यादि, स हि भगवान् परहितैकरतो गखापि विनेयासनमथवाऽप्यगखा यथा यथा भव्यसत्त्वोपकारो भवति तथा तथा भगवन्तोर्हन्तो धर्मदेशनां विदधति, उपकारे सति गखापि कथयन्त्यसति तु स्थिता अपि न कथयन्तीत्यतो न तेषां रागद्वेषसंभव इति, केवलमाशुप्रज्ञ-सर्वज्ञः 'समतया' समदृष्टितया चक्रवर्तिद्रमकादिषु | पृष्टोऽपृष्टो वा धर्म व्यागृणीयात् 'जहा पुण्णस्स कत्थइ तहा तुलस्स कत्थई' इति वचनादित्यतो न रागद्वेषसद्भावस्तस्येति । यत्पुनरनार्यदेशमसौ न ब्रजति तत्रेदमाह-अनार्याः क्षेत्रभाषाकर्मभिर्वहिष्कृता दर्शनतोऽपि परि-समन्तादिता:-गताः प्रभ्रष्टा इतियावत् । तदेवमसौ भगवानित्येतत्नेषु सम्यग्दर्शनमात्रमपि कथञ्चिन्न भवतीत्याशङ्कमानस्तत्र न बजतीति । यदिवा-अविपरीत-18 ~791~ Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-१८], नियुक्ति: [२००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः आईकाध्ययन. प्रत सूत्रांक ||१८|| दीप अनुक्रम [७५५] सूत्रकृताङ्गे दर्शनाः-साम्प्रतक्षिणो दीर्घदर्शनिनो न भवन्त्यनार्याः शकयवनादयः, ते हि वर्तमानसुखमैवैकमशीकय प्रवर्तन्ते न पारलौकिकम-8 २ श्रुतस्क- शीकुर्वन्त्यतः सद्धर्मपराशुखेषु तेषु भगवान याति, न पुनस्तद्वेषादिबुद्धयेति । यदप्युच्यते खया-'यथाऽनेकशाख विशारदगुडि- न्धे शीला कासिद्धविद्यासिद्धादितीर्थिकपराभवभयेन न तत्समाजे गच्छत्ती'त्येतदपि बालप्रलपितप्रायं, यतः सर्वज्ञस्य भगवतः समस्तैरपि वीयावृत्तिः प्रावादुकैमुखमप्यवलोकयितुं न शक्यते वादस्तु दूरोत्सादित एवेत्यतः कुतस्तत्पराभवः ?, भगवांस्तु केवलालोकेन यत्रैव स्वपरो॥३९४॥ ॥ पकारं पश्यति तत्रैव गत्वापि धर्मदेशनां विधत्त इति ॥ १८॥ पुनरन्येन प्रकारेण गोशालक आह पन्नं जहा वणिए उदयट्ठी, आयस्स हेउँ पगरेति संग । तऊवमे समणे नायपुत्ते, इच्चेव मे होति मती वियका ॥१९॥ नवं न कुज्जा विहुणे पुराणं, चिच्चाऽमई ताइ य साह एवं । एतोवया बंभवतित्ति वुत्ता, तस्सोदयट्ठी समणेत्तिवेमि ॥ २० ॥ समारभंते वणिया भूयगामं, परिग्गहं चेव ममायमाणा । ते णातिसंजोगमविप्पहाय, आयस्स हेर्ड पगरंति संग ॥२१॥ वित्तेसिणो मेहुणसंपगाढा, ते भोयणहा वणिया वयंति ।। वयं तु कामेसु अझोववन्ना, अणारिया पेमरसेम गिद्धा ॥२२॥ आरंभगं व परिग्गहं च, अविउस्सिया णिस्सिय आयदंडा। तेर्सि च से उदए जं वयासी, चउरंतणंताय दुहायणेह ॥२॥ गत णचंतिव ओदए सो, वयंति ते दो विगुणोदयंमि । से उदए सातिमणंतपत्ते, तमुदयं साहयह ताइ णाई ।। २४॥ अहिंसयं सवपयाणुकंपी, धम्मे ठियं कम्मविवेगहेउं । तमायदंडेहिं समायरंता, अबोहीए ते पडिरूवमेयं ॥ २५ ॥ ॥३९॥ cesk6 ~792~ Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-२५], नियुक्ति: [२००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२५|| दीप अनुक्रम [७६२] यथा वणिक् कश्चिद् 'उदयार्थी लाभार्थी 'पण्यं' व्यवहारयोग्य भाण्डं कर्पूरागरुकस्तूरिकाम्बरादिकं गृहीखा देशान्तरं गता। विक्रीणाति, तथा 'आयस्स' लाभस हेतोः' कारणान्महाजनसङ्गं विधत्ते, तदुपमोऽयमपि भवतीर्थकरः श्रमणो ज्ञातपुत्र इत्येवं. 'मे' मम मतिर्भवति, वितर्को-मीमांसा वेति ॥ १९ ॥ एवमुक्त गोशालकेनाईक आह-'नवं न कुजा इत्यादि, योऽयं भवता || | दृष्टान्त प्रदर्शितः स किं सर्वसाधम्र्येणोत देशतः, यदि देशतस्ततो न नःक्षतिमावहति, यतो वणिग्वत् यत्रैवोपचयं पश्यति || | तव क्रिया व्यापारयति न यथाकथञ्चिदित्येतावता साधर्म्यमस्त्येव, अथ सर्वसाधण तन्न युज्यते, यतो भगवान् विदितवे-13 | बतया सावद्यानुष्ठानरहितो 'नवं' प्रत्यग्रं कर्म न कुर्यात् , तथा 'विधूनयति अपनयति पुरातनं यद्भवोपग्राहि कमें बद्धं, तथा|8| त्यक्सा 'अमति' विमति 'बायीं भगवान् सर्वस्व परित्राणशीलो, विमतिपरित्यागेन चैवंभूत एव भवतीति भावः, तायी वा ४ | मोक्षं प्रति, अयवयमयपयचयतयणय गतावित्यस्य रूपं, स एव-भगवानेवाह-यथा विमतिपरित्यागेन मोक्षगमनशीलो भवती-| त्येतावता च संदर्भण ब्रह्मणो-मोक्षस्य व्रतं ब्रह्मत्रतमित्येतदुक्तं, तसिंश्चोक्ते तदर्थे चानुष्ठाने क्रियमाणे तस्योदयस्यार्थी-- लाभार्थी श्रमण इति अधीम्यहमिति ॥ २० ॥ न चैवंभूता वणिज इत्येतदाककुमारो दर्शयितुमाह-ते हि वणिजश्वतुर्दशप्रकारमपि 'भूतग्राम' जन्तुसमूह 'समारभन्ते तदुपमर्दिकाः क्रियाः प्रवयन्ति क्रयविक्रयार्थ शकटयानवाहनो|ष्ट्रमण्डलिकादिभिरनुष्ठानैरिति, तथा 'परिग्रहं द्विपदचतुष्पदधनधान्यादिकं 'ममीकुर्वन्ति' ममेदमित्येवं व्यवस्थापयन्ति, ते हि वणिजो 'ज्ञातिभिः' खजनैः सह यः संयोगस्तम् 'अविप्रहाय' अपरित्यज्य 'आयस्य लाभस्स हेतोः' निमिचादपरेण ॥ सार्द्ध 'सङ्गं संबन्धं कुर्वन्ति । भगवास्तु षड्जीवरक्षापरोऽपरिग्रहस्त्यक्तखजनपक्षः सर्वत्राप्रतिबद्धो धोऽध्यमन्वेषयन् गवापि । ~793~ Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-२५], नियुक्ति: [२००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: २ श्रुतस्क प्रत सूत्रांक ||२५|| दीप अनुक्रम [७६२] सूत्रकृताङ्गे || धर्मदेशनां विधत्ते, अतो भगवतो वणिग्भिः साई न सर्वसाधर्म्यमस्तीति ॥ २१ ॥ पुनरपि वणिजा दोषमुनावयमाह- आका 'वित्तेसिणों इत्यादि, विनं-द्रव्यं तदन्वेष्टुं शीलं येषां ते वित्तैषिणः, तथा 'मैथुने स्त्रीसंपर्के 'संप्रगाढा' अध्युपपना, न्धे शीला- | तथा ते 'भोजनार्थम् ' आहारार्थ वणिज इतश्चेतश्च ब्रजन्ति बदन्ति वा । तांस्तु वणिजो वयमेवं घूमो-यथते कामेष्वध्युपकीयावृत्तिः | पन्ना-गृद्धाः, अनार्यकर्मकारिखादनार्या रसेषु च-सातागौरवादिषु गृद्धा-मूर्छिताः, न त्वेवंभूता भगवन्तोर्हन्तः, कथं तेषां तैः ॥३९५॥ | सह साधर्म्यमिति ?, दूरत एवं निरस्तैषा कथेति ॥ २२ ॥ किंचान्यत् -'आरम्भं सावधानुष्ठानं च तथा परिग्रहं च 'अव्यु त्सृज्य अपरित्यज्य तस्मिन्नेवारम्भे क्रयविक्रयपचनपाचनादिके तथा परिग्रहे च-धनधान्यहिरण्यसुवर्णद्विपदचतुष्पदादिके | निश्चयेन श्रिता-अवबद्धा निःश्रिता वणिजो भवन्ति, तथाऽऽत्मैव दण्डयतीति दण्डो येषां ते भवन्त्यात्मदण्डा असदाचारप्रवृत्ते| रिति, भावोऽपि चैषां वणिजा परिग्रहारम्भवतां स उदयो लाभो यदर्थ ते प्रवृत्ताः यं च सं लाभं वदसि स तेषां 'चतुरन्तः'18 | चतुर्गतिको यः संसारोऽनन्तस्तस्मै तदर्थ भवतीति, तथा दुःखाय च भवतीति, न चेहासावेकान्तेन तत्प्रवृत्तसापि भवतीति २३।। एतदेव दर्शयितुमाह-'णेगंतिणयंति इत्यादि, एकान्तेन भवतीत्येकान्तिकः, तथा न, लाभार्थ प्रवृत्तख विपर्ययस्यापि दर्शनात् , तथा नाप्यात्यन्तिकः सर्वकालभावी, तत्क्षयदर्शनात् , स तेषां उदयो-लाभोज्नैकान्तिकोऽनात्यन्तिकश्चेत्येवं तद्विदो वदन्ति । तौ च द्वावपि भावौ विगतगुणोदयौ भवतः, एतदुक्तं भवति-किं तेनोदयेन लाभरूपेण योऽनैकान्तिकोऽनात्यन्तिकश्च, ||३९५॥ | यशानायेति । यश्च भगवतः 'से' तस्य दिव्यज्ञानप्राप्तिलक्षणः 'उदयों लाभो यो वा धर्मदेशनावाप्तनिर्जरालक्षणः स च सादि-18 | रनन्तश्च, तमेवंभूतमुदर्य प्राप्तो भगवानन्येषामपि तथाभूतमेवोदयं 'साधयति' कथयति श्लाघते वा! किंभूतो भगवान् ?-'तायी ~794~ Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२५|| दीप अनुक्रम [७६२] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [-], मूलं [गाथा - २५], निर्युक्तिः [२००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०२ ], अंग सूत्र - [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - 'अयवयपयमयचयतयणय गता' चित्यस्य दण्डकधातोर्णिनिप्रत्यये रूपं, मोक्षं प्रति गमनशील इत्यर्थः, त्रायी वा आसन्नभव्यानां त्राणकरणात्, तथा 'ज्ञाती' ज्ञाताः - क्षत्रिया ज्ञातं वा वस्तुजातं विद्यते यस्य स ज्ञाती, विदितसमस्तवेद्य इत्यर्थः । तदेवंभूतेन भगवता तेषां वणिजां निर्विवेकिनां कथं सर्वसाधर्म्यमिति ॥ २४ ॥ साम्प्रतं देवकृतसमवसरणपद्मा वलीदेव च्छन्दकसिंहासनायुपभोगं कुर्वन्नप्याधाकर्मकृतवसतिनिषेवकसाधुवत्कथं तदनुमतिकृतेन कर्मणाऽसौ न लिप्यत इत्येतद्गोशालकमतमाशङ्कयाह४ असौ भगवान् समवसरणाद्युपभोगं कुर्वन्नप्यहिंसकः, स उपभोगं करोति, एतदुक्तं भवति न हि तत्र भगवतो मनागप्याशंसा प्रतिबन्धो वा विद्यते, समतृणमणिमुक्कालोष्टकाश्चनतया तदुपभोगं प्रति प्रवृत्तेः, देवानामपि प्रवचनोद्विभावयिष्णां कथं नु नाम भव्यानां धर्माभिमुखं प्रवृत्तिर्यथा स्यादित्येवमर्थमात्मलाभार्थं च प्रवर्त्तनादतोऽसौ भगवान हिंसकः, तथा सर्वेषां प्रजायन्त इति प्रजा-जन्तवस्तदनुकम्पी च तान्संसारे पर्यटतोऽनुकम्पते भगवान् तच्छीलन तमेवंरूपं 'धर्मे परमार्थभूते व्यवस्थितं कर्मविवेकहेतुभूतं भवद्विधा आत्मदण्डैः समाचरन्त - आत्मकल्पं कुर्वन्ति वणिगादिभिरुदाहरणैः, एतचाबोधे: अज्ञानस्य प्रतिरूपं वर्तते, एकं तावदिदमज्ञानं यत्स्वतः कुमार्गप्रवर्तनं द्वितीयं चैतत्प्रतिरूपमज्ञानं यद्भगवतामपि जगद्वन्द्यानां सर्वातिशयनिधानभूतानामितरैः समखापादनमिति ||२५|| साम्प्रतमार्द्रककुमारमपहस्तितगोशालकं ततो भगवदभिमुखं गच्छन्तं दृष्ट्वाऽपान्तराले शाक्यपुत्रीया भिक्षव इदमूचुःपिन्नागपिंड़ीमवि विद्ध सूले, केइ परजा पुरिसे इमेति । अलाउयं वावि कुमारपत्ति, स लिप्पती पाणिबहेण अम्हे || २६ || अहवावि विद्धूण मिलक्खु सूले, पिन्नागवुद्धीइ नरं पजा । कुमारगं वावि अलाबु१ आधा कर्मकृतवसतेो यस्य स आधाकर्मकृतवसतिनिषेधकः। For Park Use On ~795~ 29১৬93 ১92999999, war Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-२७], नियुक्ति: [२००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: आईका ध्ययन. प्रत सूत्रांक ||२७|| सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्कन्धे शीलाकीयावृत्तिः ॥३९६॥ दीप अनुक्रम [७६४] weseserversesesesesee यंति, न लिप्पह पाणिवहेण अम्हं ॥ २७ ॥ पुरिसं च विण कुमारगं वा, मूलंमि केई पए जायतेए। पिनाय पिंडं सतिमारुहेत्ता, बुद्धाण तं कप्पति पारणाए ॥ २८॥ (सू०) यदेतद्वणिग्दृष्टान्तदूषणन बाधमनुष्ठानं दृषितं तच्छोभनं कृतं भवता यतोऽतिफल्गुप्राय बाह्यमनुष्ठान, आन्तरमेव स्वनुष्ठानं | संसारमोक्षयोः प्रधानाङ्गम् , अस्मसिद्धांत चैतदेव व्यावय॑ते, इत्येतदाककुमार भो राजपुत्र! बमवहितः शृणु श्रुखा चावधारये ति | भणिता ते भिक्षुका आन्तरानुष्ठानसमर्थकमात्मीयसिद्धान्ताविर्भावनायेदमाहुः 'पिन्नागे त्यादि, 'पिण्याक' खलस्तस्य 'पिण्डिः' | भिन्न तदचेतनमपि सत् कश्चित् संभ्रमे म्लेच्छादिविषये केनचिन्नश्यता प्रावरणं खलोपरि प्रक्षिप्तं तच म्लेच्छेनान्वेष्टुं प्रवृत्तेन | पुरुषोऽयमिति मला खलपिण्ड्या सह गृहीतं, ततोऽसौ म्लेच्छो वस्त्रवेष्टितां तां खलपिण्डी पुरुषबुद्ध्या शूले प्रोतां पावके पचेत् , | तथा 'अलावुकं' तुम्बकं कुमारकोऽयमिति मखानावेव पपाच, स चैवं चित्तस्य दुष्टखात्प्राणिवधजनितेन पातकेन लिप्यते असत्सिद्धान्ते, चित्तमूलखाच्छुभाशुभवन्धस्पति, एवं तावदकुशलचित्तप्रामाण्यादकुर्वन्नपि प्राणातिपातं प्राणिघातफलेन युज्यते ।। २६ ॥ अमुमेव दृष्टान्तं वपरीत्येनाह-अथवापि सत्यपुरुषं खलबुद्ध्या कश्चिन्म्लेच्छः शूले प्रोतमन्नौ पचेत्, तथा कुमारकं च लायुकबु-12 ध्याऽमावेव पचेत् , न चासौ प्राणिवधजनितेन पातकेन लिप्यतेऽलाकमिति ॥ २७ ॥ किंचान्यत्-'पुरिसमित्यादि, पुरुपं वा| कुमारकं वा विद्धा शूले कश्चित्पचेत् 'जाततेजसि' अनावारुह्य खलपिण्डीयमिति मला 'सती' शोभनां, तदेतदुद्धानामपि 'पारणाय' भोजनाय 'कल्पते' योग्यं भवति, किमुतापरेषाम् ?, एवं सर्वाखवस्थास्वचिन्तितं-मनसाऽसंकल्पितं कर्म चयं न ग seocmeradesese ॥३९६॥ ~796~ Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||२८|| दीप अनुक्रम [७६५] “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र- २ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [-], मूलं [गाथा - २८], निर्युक्तिः [२००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः च्छत्यसत्सिद्धान्ते, तदुक्तम् - "अविज्ञानोपचितं परिज्ञानोपचितमीर्यापथिकं स्वप्नान्तिकं चेति कर्मोपचयं न याति ।। २८ ।। | पुनरपि शाक्य एव दानफलमधिकृत्याह सिणा गाणं तु दुबे सहस्से, जे भोयए यिए भिक्खुयाणं । ते पुन्नखंधं सुमहं जिणित्ता, भवंति आरोप्प महंतसत्ता ।। २९ ।। अजोगरूवं इह संजयाणं, पावं तु पाणाण पसज्झ काउं । अबोहिए दोहवि तं असाहु, वयंति जे यावि पडिस्सुणंति ॥ ३० ॥ उ अहेयं तिरियं दिसासु, विज्ञाय लिंगं तस्थावराणं । भूयाभिसकाइ दुगुंछमाणे, वदे करेजा व कुओ विहत्थी ? ॥३१॥ पुरिसेन्ति विन्नत्ति न एवमस्थि, अणारिए से पुरिसे तहा हु । को संभवो ? पिन्नगपिंडियाए, वायाचि एसा बुझ्या असता ॥ ३२ ॥ वायाभियोगेण जमावहेजा, णो तारिसं वायमुदाहरिजा । अट्टाणमेयं वयणं गुणाणं, णो दिखिए बूय सुरालमेघं ॥ ३३ ॥ लद्धे अड्डे अहो एव तुम्भे, जीवाणुभागे सुविचितिए व पुत्रं समुदं अवरं च पुढे, उलोइए पाणितले ठिए वा ॥ ३४ ॥ जीवाणुभागं सुविचितयंता, आहारिया अन्नविहीय सोहिं । न वियागरे छन्नपओपजीवि, एसोऽणुधम्मो इह संजयाणं ॥ ३५ ॥ सिणायगाणं तु दुवे सहस्से, जे भोयए नियए भिक्खुयाणं । असंजए लोहियपाणि से ऊ, नियच्छति गरिहमिहेब लोए ॥ ३६ ॥ ananta: शब्दात्पञ्चशिक्षापदिकादिपरिग्रहः, तेषां भिक्षुकाणां सहस्रद्वयं 'निजे' शाक्यपुत्रीये धर्मे व्यवस्थितः कश्चिदुपासकः पचनपाचनाद्यपि कृता भोजयेत् समासगुडदाडिमेनेष्टेन भोजनेन, ते पुरुषा महासया: श्रद्धालयः पुण्यस्कन्धं Education International For Parts Only ~ 797 ~ waryra Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-३६], नियुक्ति: [२००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||३६|| सूत्रकृताले २ श्रुतस्क- न्धे शीलाकीयावृत्तिः ॥३९७॥ एeeceae दीप अनुक्रम [७७३] महान्तं समावज्ये तेन च पुण्यस्कन्धेनारोप्याख्या देवा भवन्त्याकाशोपगाः(मा.), सर्वोत्तमा देवगतिं गच्छन्तीत्यर्थः ॥२९॥ तदेवं बुद्धेन दानमूला शीलमूलश्च धर्मः प्रवेदितः, तद् 'एहि आगच्छ बौद्धसिद्धान्तं प्रतिपद्यस्खेत्येवं भिक्षुकैरभिहितः सन्नाईकोऽना- ध्ययन. कुलया दृष्ट्या तान्वीक्ष्योवाचेदं वक्ष्यमाणमित्याह-'अजोगरूव'मित्यादि, 'इह' अस्मिन् भवदीये शाक्यमते 'संयताना' भिक्षूणां यदुक्तं प्राक्तदत्यन्तेनायोग्यरूपम्-अघटमानकं, तथाहि-अहिंसार्थमुत्थितस्य त्रिगुप्तिगुप्तस्य पञ्चसमितिसमितस्य सतः प्रबजितस्य सम्यगज्ञानपूर्विका क्रियां कुर्वतो भावशुद्धिः फलवती भवति, तद्विपर्यस्तमतेस्वज्ञानावृतस्य महामोहाकलीकतान्तरा-18 | स्मतया खलपुरुषयोरपि विवेकमजानतः कुतस्त्या भावशुद्धिः, अतोऽत्यंतमसाम्प्रतमेतदुद्धमतानुसारिणां यत्खलवुझ्या पुरुषस्य | शूलपोतनपचनादिक, तथा बुद्धस्य पिन्नाकबुद्धया पिशितभक्षणानुमत्यादिकमिति । एतदेव दर्शयति-प्राणानाम् इन्द्रियादीना-1 मपगमेन तुशब्दस्यैवकारार्थखात्पापमेव कृला रससातागौरवादिगृद्धास्तदभावं व्यावर्णयन्ति, एतच तेषां पापाभावव्यावर्णनम् | 'अयोध्य' अयोधिलाभार्थं तयोईयोरपि संपद्यते, अतोऽसाध्वेतत् । कयोयोरित्याह-ये वदन्ति पिण्याकबुद्धया पुरुषपाकेऽपि |पातकाभावं, ये च तेभ्यः शृण्वन्ति, एतयोईयोरपि वर्गयोरसाध्वेतदिति । अपिच-नाज्ञानावृतमूढजने भावशुद्ध्या शुद्धिर्भवति, यदि च स्यात्संसारमोचकादीनामपि तर्हि कर्मविमोक्षः स्यात् , तथा भावभुद्धिमेव केवलामभ्युपगच्छतां भवतां शिरस्तुण्डमुण्डनपिण्डपातादिकं चैत्यकर्मादिकं चानुष्ठानमनर्थकमापद्यते, तसानैवंविधया भावशुद्ध्या शुद्धिरुपजायत इति स्थितम् ॥ ३०॥ परपक्षं यिखाऽऽर्द्रका स्वपक्षाविर्भावनायाह-ऊर्ध्वमधस्तियक्षु या दिशः प्रज्ञापकादिकास्तासु सर्वाखपि दिक्षु त्रसानां स्थावराणां । च जन्तूनां यत्रसस्थावरखेन जीवलिङ्ग-चलनस्पन्दनाङ्कुरोद्भवच्छेदम्लानादिकं तद्विज्ञाय अतो 'भूताभिशङ्कया'जीवोपमर्दोत्र ~798~ Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||३६|| दीप अनुक्रम [७७३] “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा - ३६], निर्युक्तिः [२००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र- [ ०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - भविष्यतीत्येवंबुद्ध्या सर्वमनुष्ठानं जुगुप्समानः- तदुपमर्दं परिहरन् वदेत् कुर्यादप्यतः कुतोऽस्तीह-असिन्नेवंभूतेऽनुष्ठाने क्रियमाणे प्रोच्यमाने वाऽस्मत्पक्षे युष्मदापादितो दोष इति ॥ ३१ ॥ अधुना पिण्या पुरुषबुद्ध्या असंभवमेव दर्शयितुमाह - 'पुरिसेंत्यादि, तस्यां पिण्याकपिण्ड्यां पुरुषोऽयमित्येवमत्यन्तजडस्यापि चिज्ञप्तिरेव नास्ति, तसाद्य एवं वक्ति सोऽत्यन्तं पुरुषस्तथाभ्युपगमेन हुशब्दस्यैव कारार्थत्वेन अनार्य एवासौ यः पुरुषमेव खलोऽयमितिमता हतेऽपि नास्ति दोष इत्येवं वदेत् तथाहि — कः संभवः पिनाकपिण्डयां पुरुषबुद्धेरित्यतो वागपीयमीहगसत्येति सच्चोपघातकत्वात्, ततव निःशङ्कप्रहार्थनालोचको निर्विवेकतया बच्यते, तस्मात्पिण्याककाष्टादावपि प्रवर्त्तमानेन जीवोपमर्द्द भीरुणा साशङ्केन प्रवर्तितव्यमिति ||३२|| किञ्चान्यत् - वाचाऽभियोगो वागभियोगस्तेनापि 'यद्' यस्मादावहेत्पापं कर्म अतो विवेकी भाषागुणदोषज्ञो न तारशी भाषामुदाहरेत्-नाभिदध्याद्, यत एवं ततोऽस्थानमेतद्वचनं गुणानां न हि प्रब्रजितो यथावस्थितार्थाभिधायी एतद् 'उदार' सुष्ठु परिस्थूरं निःसारं निरुपपत्तिकं वचनं ब्रूयात्, तद्यथा-पिण्या कोऽपि पुरुषः पुरुषोऽपि पिण्याकः, तथाऽलाबुकमेव बालको बालक एव वाऽलाबुकमिति ||३३|| साम्प्रतमाईककुमार एव तं भिक्षुकं युक्तिपराजितं सन्तं सोल्लुण्ठं विभणिपुराह – 'लद्धे' इत्यादि, अहो युष्माभिरथ-अनन्तरं एवंभूताभ्युपगमे |सति लब्धोऽथ विज्ञानं यथावस्थितं तत्त्वमिति, तथाऽवगतः सुचिन्तितो भवद्भिर्जीवानामनुभागः कर्मविपाकस्तत्पीडेति, तथैव| भूतेन विज्ञानेन भवतां यशः पूर्वसमुद्रमपरं च स्पृष्टं गतमित्यर्थः, तथा भवद्भिरेवंविधविज्ञानावलोकनेनावलोकितः पाणितलस्थ इवायं लोक इति अहो ! भवतां विज्ञानातिशयो यदुत-भवन्तः पिण्याकपुरुषयोर्चालालाकयोर्वा विशेषानभिज्ञतया पापस्य कर्मणो यथैतद्भावाभावं प्राकल्पितवन्त इति ॥ ३४ ॥ तदेवं परपक्षं दूषयित्वा स्वपक्षस्थापनायाह - मौनीन्द्रशासन प्रतिपन्नाः सर्वज्ञोत Eucation Imation For Parts Only ~799~ Mantrary org Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-३६], नियुक्ति: [२००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||३६|| दीप अनुक्रम [७७३] मार्गानुसारिणो जीवानामनुभागम्-अवस्थाविशेष तदुपमर्दैन पीडा वा सुष्टु 'विचिन्तयन्तः' पर्यालीचयन्तोऽनविधी शुद्धि- आईकासूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्क शम् 'आहृतवन्तः' खीकृतवन्तो द्विचवारिंशद्दोषरहितेन शुद्धनाहारेणाहारं कृतवन्तो न तु यथा भवतां पिशिताधपि पात्रपतितं ना ध्ययन, न्धे शीला-18 दोपायेति । तथा 'छन्नपदोपजीवी' मातृस्थानोपजीवी सन् न भ्यागृणीया 'एषः अनन्तरोक्तोऽनु-पश्चाद्धर्मोऽनुधर्मस्तीर्थकराकीयावृत्तिः ISनुष्ठानादनन्तरं भवतीत्यनुना विशिष्यते, 'इह' असिन् जगति प्रवचने वा सम्यग्यतानां संयतानां-सत्साधूनां, न तु पुनरेवं | विधो भिषणामिति । यच भवगिरोदनादेरपि प्राण्यङ्गसमानतया हेतुभूतया मांसादिसारश्यं चोद्यते तदविज्ञाय लोकतीर्थान्त॥३९८॥ रीयमतं, तथाहि-प्राण्यङ्गत्वे तुल्येऽपि किश्चिन्मांस किचिचामांसमित्येवं व्यवहियते, तद्यथा-गोक्षीररुधिरादेर्भक्ष्याभल्यव्यवस्थितिः, तथा समानेऽपि स्त्रीले भार्यास्ववादी गम्यागम्यव्यवस्थितिरिति । तथा शुष्कतर्करल्या योऽयं प्राण्याखादिति हेतुर्भ-| |वतोपन्यस्यते तद्यथा- 'भक्षणीयं भवेन्मांसं, प्राण्यङ्गत्वेन हेतुना । ओदनादिवदित्येवं, कश्चिदाहातितार्किकः ॥१॥ सोऽसिद्धानकान्तिकविरुद्धदोषदुष्टखादपकर्णनीयः, तथाहि-निरंशलाद्वस्तुनस्तदेव मांसं तदेव च प्राण्यङ्गमिति प्रतिज्ञार्थंकदेशासिद्धः, तयथा-नित्यः शब्दो नित्यवाद, अथ भिन्न प्राण्यङ्गं ततः सुतरामसिद्धो, व्यधिकरणखाद्, यथा देवदत्तस्य गृहं काकस्स का|ण्यो , तथाऽनेकान्तिकोऽपि श्वादिमासस्थाभक्ष्यखाव , अथ तदपि कचित्कदाचिकेवाञ्चिद्भक्ष्यमिति चेदेवं च सत्यध्यादेरभक्ष्य| खादनकान्तिकर्स, तथा विरुद्धाव्यभिचार्यपि, यथाऽयं हेतुर्मासस्य भक्ष्यवं साधयत्येवं बुद्धाभ्नामपूज्यसमपि । तथा लोकषि-I ॥३९८॥ रोधिनी चेयं प्रतिज्ञा, मांसौदनयोरसाम्यादृष्टान्तविरोधश्चेत्येवं व्यवस्थिते यदुक्तं प्राग यथा बुद्धानामपि पारणाय कल्पत एतदिति,13 तदसाविति स्थितम् ॥३५ ।। अन्यदपि भिक्षुकोक्तमार्द्रककुमारोऽनूध दूषयितुमाह-'सिणायगाणं तु' इत्यादि, 'लातकानां' ~800~ Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-३६], नियुक्ति: [२००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||३६|| दीप अनुक्रम [७७३] बोधिसत्त्वकल्पानां भिक्षूणां नित्यं यः सहस्रद्वयं भोजयेदित्युक्तं प्राक् तदूषयति-असंयतः सन् रुधिरक्लिन्नपाणिरनार्य इब 'गहीं' निन्दा जुगुप्सापदवीं साधुजनानामिहलोक एव निश्चयेन गच्छति परलोके चानार्यगम्यां गतिं यातीति ॥३६॥ एवं| तावत्सावधानुष्ठानानुमन्त्रणामपात्रभूतानां यदानं तत्कर्मपन्धायेत्युक्तं, किंचान्यत् थूलं उरम्भं इह मारियाणं, उद्दिभत्तं च पगप्पएत्ता । तं लोणतेल्लेण उवक्खडेत्ता, सपिप्पलीयं पगरंति मंसं ॥ ३७॥ तं भुजमाणा पिसितं पभूतं, णो उबलिप्पामो वयं रएणं । इच्चेवमाहंसु अणजधम्मा, अणारिया बाल रसेस गिद्धा ॥ ३८॥जे यावि भुंजंति तहप्पगारं, सेवंति ते पायमजाणमाणा । मणं न एयं कुसला करेंती, वायावि एसा बुइया उ मिच्छा ॥ ३९ ॥ सवेसि जीवाण दयट्टयाए, सावज्जदोसं परिवजयंता । तस्संकिणो इसिणो नायपुत्ता, उदिहभतं परिवजयंति ॥४०॥ भूयाभिसंकाऍ दुगुंछमाणा, सवेसि पाणाण निहाय दंडं । तम्हा ण भुंजंति तहप्पगारं, एसोऽणुधम्मो इह संजयाणं ॥४१॥ निग्गंधधम्ममि इम समाहिं, अस्सि सुठिचा अणिहे चरेज्जा । बुद्धे मुणी सीलगुणोववेए, अञ्चत्थतं(ओ) पाउणती सिलोगं ॥४२॥ आर्द्रकुमार एवं तन्मतमाविष्कुर्वन्निदमाह, स्थूल' बृहत्कायमुपचितमांसशोणितमुरभ्रम्-ऊरणकमिह-शाक्यशासने भिक्षुकसंघोद्देशेन 'व्यापाद्य' धातयिखा तथोद्दिष्टभक्तं च प्रकल्पयित्वा विकर्त्य वा तमुरभ्रं तन्मांसं च लवणतैलाभ्यामुपस्कृत्य | पाचयिता सपिप्पलीकमपरसंस्कारकद्रव्यसमन्वितं प्रकर्षेण भक्षणयोग्यं मांसं कुर्वन्तीति ॥ ३७ ॥ संस्कृत्य च यत्कुर्वन्ति तद्द-16 serveroeseseeke ekeeseccesesese ~801~ Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-४२], नियुक्ति: [२००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||४२|| दीप अनुक्रम [७७९] यितुमाह-'तं भुंजमाणा'इत्यादि, 'तत्' पिशितं शुक्रशोणितसंभूतमनार्या इव भुजाना अपि प्रभूतं तद्रजसा पापेन 8 आर्द्रकाकर्मणान वयमुपलिप्यामह इत्येवं धार्थोपेताः प्रोचुः अनार्याणामिव धर्मः-खभावो येषां ते तथा अनार्यकर्मकारिखादनार्या वाला ध्ययन, न्धे शीला इव बाला विवेकरहितवाद्रसेषु च-मांसादिकेषु 'गृद्धा' अध्युपपन्नाः ॥ ३८॥ इत्येतच तेषां महतेऽनायेति दर्शयतिकीयावृत्तिः ये चापि रसगौरवगृद्धाः शाक्योपदेशवर्तिनस्तथाप्रकारं स्थूलोरभ्रसंभूतं घृतलवणमरिचादिसंस्कृतं पिशितं 'भुञ्जते' अश्नन्ति ॥३९९॥ | तेनार्याः 'पाप' कल्मषमजानाना निर्विवेकिनः 'सेवन्ते' आददते, तथा चोक्तम्-"हिंसामूलममेध्यमास्पदमलं ध्यानस्य रौद्रस्य 1 यद्वीभत्स रुधिराविलं कृमिगृहं दुर्गधि पूयादिम् । शुक्रासक्प्रभवं नितान्तमलिनं सद्भिः सदा निन्दितं, को हो नरकाय राक्षससमो मांसं तदात्मद्रुहः ॥१॥" अपिच-"मां स भक्षयिताभुत्र, यस्य मांसमिहाम्यहम् । एतन्मांसस्य मांससं, प्रवदन्ति मनीषिणः | 18||२||" तथा । "योति यस्य च तन्मांसमुभयोः पश्यतान्तरम् । एकस्य क्षणिका तृप्तिरन्यः प्राणैर्वियुज्यते ॥३॥(ग्रन्थाग्रं१२०००)18॥ | तदेवं महादोषं मांसादनमिति मला यद्विधेयं तदर्शयति-तदेवंभूतं मांसादनाभिलापरूपं मन:-अन्तःकरणं 'कुशला' निपुणा ४ कामांसाशिखविपाकवेदिनस्तनिवृत्तिगुणाभिज्ञाय न कुर्वन्ति, तदभिलापात् मनो निवर्तयन्तीत्यर्थः, आस्तां तावद्भक्षणं, वागप्येषा | यथा 'न मांसभक्षणे दोष'इत्यादिका भारत्यप्यभिहिता-उक्ता मिथ्या, तुशब्दान्मनोऽपि तदनुमत्यादी न विधेयमिति, तनिवृत्ती पाचहेबानुपमा श्लाघाऽमुत्र च वर्गापवर्गगमनमिति, तथा चोक्तम्-"श्रुला दुःखपम्परामतिघृणां मांसाशिनां दुर्गति, ये कुर्वन्ति ॥३९९॥ शुभोदयेन विरतिं मांसादनस्यादरात् । सद्दीर्घायुरदूषितं गदरुजा संभाव्य यास्यन्ति ते, मर्येषूद्भटभोगधर्ममतिषु स्वर्गापवर्गेषु च ॥ २॥"इत्यादि ।। ३९ ।। न केवल मांसादनमेव परिहार्यम् , अन्यदपि मुमुक्षूणां परिहर्तव्यमिति दर्शयितुमाह-'सबेसिमि ~802~ Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-४२], नियुक्ति: [२००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||४२|| त्यादि, सर्वेषां जीवानां प्राणार्थिनां, न केवलं पञ्चेन्द्रियाणामेवेति सर्वग्रहणं, 'दयार्थतया' दयानिमित्तं सावधमारम्भ महानयं दोष इत्येवं मसा तं परिवर्जयन्तः साधवस्तच्छंकिनो-दोषशङ्किनः 'ऋषयो महामुनयो 'ज्ञातपुत्रीयाः' श्रीमन्महावीरव-18 मानशिष्याः 'उदिष्टं' दानाय परिकल्पितं यद्भक्तपानादिकं तत्परिवर्जयन्ति ॥४०॥ किश्च-'भूतानां जीवानां उपम-18 ईशङ्कया सावद्यमनुष्ठानं 'जुगुप्समानाः' परिहरन्तः, तथा सर्वेषां प्राणिनां दण्डयतीति दण्डः-समुपतापस्तं 'निधाय' परित्यज्य सम्यगुत्थानेनोत्थिताः सत्साधबो-यतयस्ततो न भुञ्जते तथाप्रकारमाहारमशुद्धजातीयम् एषोऽनुधर्मः 'इह' अस्मिन् प्रवचने 'संयतानां यतीनां, तीर्थकराचरणादनु-पश्चाचर्यत इत्यनुना विशेष्यते, यदिवाऽणुरिति स्तोकेनाप्यतिचारेण बाध्यते शिरीषपुप्पमिव सुकुमार इत्यतोऽणुना विशेष्यत इति ॥४१॥ किंचान्यत्-'णिग्गंथधम्म'मित्यादि, नासिन्मौनीन्द्रधर्मे वाद्याभ्यन्तररूपो ग्रन्थोऽसास्तीति निर्ग्रन्थः स चासौ धर्मश्च निर्ग्रन्थधर्मः स च श्रुतचारित्राख्यः क्षान्त्यादिको वा सर्वज्ञोक्तस्तमिन्नेवंभूते धर्मे व्यवस्थितः 'इमं पूर्वोक्त समाधिमनुप्राप्तः अस्मिंश्राशुद्धाहारपरिहाररूपे समाधौ सुष्ठु-अतिशयेन स्खिला 'अनिहः' अमायोऽथवा निहन्यत इति निहो न निहोउनिहा-परीपहरपीडितो यदिवा 'निह बंधने' अस्निह इति स्नेहरूपबन्धनरहितः संयमानुष्ठान चरेत् , तथा बुद्धोऽवगततत्त्वो 'मुनिः कालत्रयवेदी 'शीलेन' क्रोधाद्युपंशमरूपेण 'गुणैश्च मूलोत्तरगुणभूतैरुपपेतो युक्त इत्येवंगुणकलितोऽत्यर्थतां(तः)-सर्वगुणातिशायिनी सर्वद्वन्द्वोपरमरूपां संतोषात्मिका 'श्लाघां' प्रशंसा लोके लोकोचरे वाऽऽनोति, तथा चोक्तम् - "राजानं तृणतुल्यमेव मनुते शकेपि नैवादरो, वित्तोपार्जनरक्षणव्ययकृताः प्रामोति नो वेदनाः । संसारान्तरवयंपीह 18 लभते शं मुक्तवनिर्भयः, संतोषात्पुरुषोऽमृतत्वमचिराधायात्सुरेन्द्रार्चितः ॥१॥"इत्यादि ॥ ४२ ॥ तदेवमाककुमारं निराकृतगो दीप अनुक्रम [७७९] AREauratonintanational ~803~ Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) प्रत सूत्रांक ||४२|| दीप अनुक्रम [७८३] सूत्रकृताङ्गे २ शुतस्क न्धे शीलाङ्कीयावृत्ति: ॥४००॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र- २ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा- ४२], निर्युक्तिः [२००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०२ ], अंग सूत्र - [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः | शालकाजीवक मतमभिसमीक्ष्य साम्प्रतं द्विजातयः प्रोचुः, तद्यथा-भो आर्द्रककुमार ! शोभनमकारि भवता यदेते वेदना द्वे अपि मते निरस्ते, तत्साम्प्रतमेतदप्यार्हतं वेदवाद्यमेवातस्तदपि नाश्रयणाहं भवद्विधानां, तथाहि भवान् क्षत्रियवरः, क्षत्रियाणां च सर्ववर्णोत्तमा ब्राह्मणा एवोपास्या न शूद्राः, अतो यागादिविधिना ब्राह्मणसेवैव युक्तिमतीत्येतत्प्रतिपादनायाहसिणायगाणं तु दुबे सहस्से, जे भोयए णियए माहणाणं । ते पुन्नखंधे सुमहऽज्जणित्ता, भवंति देवा इति वेयवाओ ॥ ४३ ॥ सिणायगाणं तु दुवे सहस्से, जे भोयए णियए कुलालयाणं । से गच्छति लोलुवसंपगाढे, तिघाभितावी रगाभिसेवी ॥ ४४ ॥ दद्यावरं धम्म दुर्गुछमाणा, वहावहं धम्म पसंसमाणा । एपि जे धोयती असलं, णिवो णिसं जाति कुओ सुरेहिं ? ॥ ४५ ॥ दुह ओवि धम्मंमि समुट्ठियामो, अस्सिं सुट्टिचा तह एसकालं । आयारसीले बुझ्एह नाणी, ण संपरायंमि विसेसमत्थि ॥ ४६ ॥ तुशब्दो विशेषणार्थः, षट्कर्माभिरता वेदाध्यापकाः शौचाचारपरतया नित्यं स्नायिनो ब्रह्मचारिणः स्नातकास्तेषां सहस्रद्वयं नित्यं ये भोजयेयुः कामिकाहारेण ते समुपार्जितपुण्यस्कन्धाः सन्तो देवाः स्वर्गनिवासिनो भवन्तीत्येवंभूतो बेदवाद इति ॥ ४३ ॥ अधुनाऽऽर्द्रककुमार एतद्दूपयितुमाह – 'सिणायगाणं तु' इत्यादि, स्नातकानां सहस्रद्वयमपि नित्यं ये भोजयन्ति, किंभूतानां :| कुलानि - गृहाण्यामिषान्वेषणार्थिनो नित्यं येष्टन्ति ते कुलाटाः - मार्जाराः कुलाटा इव कुलाटा ब्राह्मणाः, यदिवा--कुलानि - क्षत्रियादिगृहाणि तानि नित्यं पिण्डपातान्वेषिणां परतर्कुकाणामालयो येषां ते कुलालयास्तेषां निन्द्यजीविकोपगतानामेवंभूतानां स्नातकानां यः सहस्रद्वयं भोजयेत्सोऽसत्पात्रनिक्षिप्तदानो गच्छति बहुवेदनासु गतिषु । किंभूतः सन् १- 'लोलुपैः' आमिषगृद्वै Education International For Pasta Use Only ~804~ ६ आर्द्रकाध्ययन. ॥४००॥ Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-४६], नियुक्ति: [२००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||४६|| रससातागौरवाद्युपपन्नः जिढेन्द्रियवशगैः संप्रगाढो-व्यानो, यदिवा किंभूते नरके याति?-लोलुपैः--आमिषगृभुभिरसुमद्भिर्याप्तो यो नरकस्तमिबिति, किंभूतथासौदाता नरकाभिसेवी भवति तदर्शयति-तीव:-असद्यो योऽमिताप:-क्रकचपाटनकुम्भीपाकत-IM पत्रपुपानशाल्मल्यालिङ्गनादिरूपः स विद्यते यस्थासौ स तीत्राभितापीत्येवंभूतवेदनाभितप्तसयविंशत्सागरोपमाणि यावदप्रतिष्ठाननरकाधिवासी भवतीति ।। ४४ ॥ अपिच दया-प्राणिषु कृपा तया वरः-प्रधानो यो धर्मस्तमेवंभूतं धर्म 'जुगुप्समानों निन्दन तथा वध-प्राण्युपमईमावहतीति वधावहस्तं तथाभूतं धर्म 'प्रशंसन् ' स्तुवन् एकमप्यशीलं-निश्शीलं निव्रतं पइजीव-131 कायोपमर्दैन यो भोजयेत् , किं पुनः प्रभूतान् ?, नृपो राजन्यो वा यः कश्चिन्मूढमतिर्धार्मिक आत्मानं मन्यमानः, स वराको| | निशेष नित्यान्धकारखानिशा-नरकभूमिस्तां याति, कुतस्तस्यासुरेष्वपि-अधमदेवेष्वपि प्राप्तिरिति । तथा कर्मवशासुमा विचि-1 त्रजातिगमनाजातेरशाश्वतसमतो न जातिमदो विधेय इति । यदपि कैश्चिदुच्यते-यथा 'बामणा ब्रह्मणो मुखाद्विनिर्गता बाहुभ्यां | क्षत्रिया ऊरुभ्यां वैश्याः पयां शूद्राः' इत्येतदप्यप्रमाणखादतिफल्गुप्रायं, तदभ्युपगमे च न विशेषो वर्णानां स्वाद, एकस्मात्प्र-18 सूतेव॒भशाखाप्रतिशाखाग्रभूतपनसोदुम्बरादिफलवद् , ब्रह्मणो वा मुखादेवयवानां चातुर्वर्ण्यावाप्तिः स्यात् , न चैतदिष्यते भवद्भिः || तथा यदि ब्राह्मणादीनां ब्रह्मणो मुखादेरुद्भवः साम्प्रतं किं न जायते?, अथ युगादावेतदिति एवं च सति दृष्टहानिरदृष्टकल्पना । खादिति । तथा यदपि कैत्रिदभ्यधायि सर्वज्ञनिक्षेपावसरे, तबधा-सर्वज्ञरहितोऽतीतः कालः कालखाद्वर्तमानकालवत्, एवं च सत्येतदपि शक्यते वक्तुं यथा-नातीतः कालो ब्रह्ममुखादिविनिर्गतचातुर्वर्ण्यसमन्वितः काललावर्चमानकालवद, भवति च विशेषे पक्षी-1 कृते सामान्य हेतुरित्यतः प्रतिज्ञार्थंकदेशासिद्धता नाशकनीयेति । जातेश्वानित्यत्वं युष्मसिद्धान्त एवाभिहितं, तद्यथा-'शू दीप अनुक्रम [७७९] Doceaeo203090 ~805~ Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) सूत्रकृताने २ श्रुतस्क न्धे शीलाझीयावृत्तिः 1180211 “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र- २ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [-] मूलं [गाथा - ४६], निर्युक्तिः [२००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०२ ], अंग सूत्र - [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः गालो वै एष जायते यः सपुरीषो दात' इत्यादिना तथा 'सयः पतति मांसेन, लाक्षया लवणेन च। त्र्यहेन शुद्रीभवति, त्राझणः क्षीरविक्रयी ।। १ ।। इत्यादि, परलोके चावश्यंभावी जातिपातः, यत उक्तम् - "कायिकैः कर्मणां दोषैर्याति स्थावरतां नरः । वाचिकैः पक्षिमृगतां मानसैरन्त्यजातिताम् ॥ १ ॥ इत्यादि, गुणैरप्येवंविधैर्न ब्राह्मणलं युज्यते, तद्यथा - "पट् शतानि नियुज्यन्ते, पशूनां मध्यमेऽहनि । अश्वमेधस्य वचनाभ्यूनानि पशुभिस्त्रिभिः ॥ १ ॥ इत्यादि, वेदोक्तवान्नायं दोष इति चेत् | नन्विदमभिहितमेव 'न हिंस्यात्सर्वभूतानी'त्यतः पूर्वोत्तरविरोधः, तथा “आततायिनमायान्तमपि वेदान्तगं रणे । जिघांसन्तं | जिघांसयान तेन ब्रह्महा भवेत् ॥ १ ॥" तथा 'शूद्रं हत्वा प्राणायामं जपेत् अपहसितं वा कुर्यात् यत्किञ्चिद्वा दद्यात्', तथा 'अनस्थिजन्तूनां शकटभरं मारयित्वा ब्राह्मणं भोजयेद्' इत्येवमादिका देशना विद्वज्जनमनांसि न रञ्जयतीत्यतोऽत्यर्थमसमञ्जसमिव लक्ष्यते युष्मदर्शनमिति । तदेवमार्द्रककुमारं निराकृतब्राह्मणविवादं भगवदन्तिकं गच्छन्तं दृष्ट्वा एकदण्डिनोऽन्तराले एवोचुः, तद्यथा भो आर्द्रककुमार ! शोभनं कृतं भवता यदेते सर्वारम्भप्रवृत्ता गृहस्थाः शब्दादिविषयपरायणाः पिशिताशनेन राक्षसकल्पा द्विजातयो निराकृताः, तत्साम्प्रतम सत्सिद्धान्तं शृणु श्रुला चावधारय, तद्यथा - सस्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः प्रकृतेर्महांस्ततोऽहङ्का| रस्तसाद्गणश्च षोडशकस्तसादपि पोडशकात्पञ्चभ्यः पश्च भूतानि, तथा चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपमित्येतत्त्वार्हतैरप्याश्रितम्, अतः पञ्चविंशतितत्व परिज्ञानादेव मोक्षावाप्तिरित्यतोऽसत्सिद्धान्त एव श्रेयानापर इति ॥ ४५ ॥ तथा न युष्मत्सिद्धान्तोऽतिदूरेण भिद्यत इत्येतदर्शयितुमाह-- 'दुहओऽवी' त्यादि, योऽयमसद्धमभवदीयथार्हतः स उभयरूपोऽपि कथञ्चित्समानः, तथाहि-युष्माकमपि जीवास्तिखे सति पुण्यपापबन्धमोक्षसद्भावो न लोकायतिकानामिव तदभावे प्रवृत्तिः नापि बौद्धानामिव सर्वाधार Educatin internation For Park Use Only ~806~ ६ आईका ध्ययन. ॥४०२१॥ wor Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-४६], नियुक्ति: [२००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः eseeneceseeeeeesesese भूतस्यान्तरात्मन एवाभावः, तथाऽसाकमपि पञ्च यमाः अहिंसादयो भवतां च त एवं पञ्च महाव्रतरूपाः, तथेन्द्रियनोइन्द्रिय-| | नियमोऽप्यावयोस्तुल्य एव, तदेवमुभयसिन्नपि धर्मे बहुसमाने सम्यगुत्थानोत्थिता यूयं वयं च तस्माद्धर्मे मुष्ठ स्थिताः पूर्वमिन् काले | वर्तमाने एष्ये च यथागृहीतप्रतिज्ञानिर्वोढारो, न पुनरन्ये, यथा व्रतेश्वरयागविधानेन प्रवज्यां मुक्तवन्तो मुश्चन्ति मोक्षन्ति चेति, तथाऽऽचारप्रधानं शीलमुक्तं यमनियमलक्षणं न फल्गु कल्ककुहकाजीवनरूपम् अथानन्तरं ज्ञानं च मोक्षाङ्गतयाऽभिहितं, तच श्रुतज्ञानं केवलाख्यं च यथाखमावयोर्दर्शने प्रसिद्ध, तथा संपर्यन्ते-खकर्मभिर्धाम्यन्ते प्राणिनो यसिन्स संपरायः-संसारस्तसिंश्चावयोर्न विशेषोऽस्ति, तथाहि-यथा भवतां कारणे कार्य नैकान्तेनासदुत्पद्यते असाकमपि तथैव, द्रव्यात्मतया नित्यलं भवद्भिरप्याश्रितमेव, तथोत्पादविनाशावपि युष्मदभिप्रेतावाविभावतिरोभावाश्रयादसाकमपीति ॥ ४६ ।। पुनरपि त एवेकदण्डिनः सांसारिकजीवपदार्थसाम्योपादनायाहुः अचत्तरूवं पुरिसं महंतं, सणातणं अक्षयमवयं च । सवेसु भूतेमुवि सघतो से, चंदो व ताराहिं समतरूवे.॥४७॥ एवं ण मिजंति ण संसरंती, ण माणा खत्तिय घेस पेसा । कीडा य पक्खी य सरीसिवा य, नरा य सबै तह देवलोगा ॥४८॥ पुरि शयनात्पुरुषो-जीवस्तं यथा भवन्तोऽभ्युपगतवन्तस्तथा वयमपि, तमेव विशिनष्टि-अमूर्तलादब्यक्तं रूपं-खरूपमखासावव्यक्तरूपः तं, करचरणशिरोग्रीवायवयवतया खतोऽनवस्थानात् , तथा 'महान्तं' लोकव्यापिनं तथा 'सनातन' शाश्वतं द्रव्या १ वक्ष्यमाणानां विशेषणानां सापेक्षमभ्युपगमापेक्षया । ~807~ Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-४८], नियुक्ति: [२००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः सूत्रकृताङ्गेर्थतया नित्यं, नानाविधगतिसंभवेऽपि चैतन्यलक्षणात्मखरूपस्याप्रच्युतेः, तथा 'अक्षयं केनचित्प्रदेशानां खण्डशः कर्तुमशक्य-४६आईका२ श्रुतस्क-18 खात्, तथा 'अव्ययम्' अनन्तेनापि कालेनैकस्यापि तत्प्रदेशस्य व्ययाभावात् , तथा सर्वेषपि भूतेषु कायाकारपरिणतेषु प्रतिश-1 ध्ययन, न्धं शीला- रीरं सर्वतः सामस्त्यानिरंशवादसावात्मा संभवति, क इव ?-'चन्द्र इव' शशीव 'ताराभिः' अश्विन्यादिभिर्नक्षत्रैः यथा कीयावृत्तिः 'समस्तरूपः' संपूर्णः संबन्धमुपयाति एवमसावपि आत्मा प्रत्येकं शरीरैः सह संपूर्णः संबन्धमुपयाति । तदेवमेकदण्डिभिर्द॥४०॥ नसाम्यांपादनेन सामवादपूर्वकं खदर्शनारोपणार्थमाईककुमारोऽभिहितो, यत्रैतानि संपूर्णानि-निरुषचरितानि पूर्वोक्तानि विशेपणानि धर्मसंसारयोवियन्ते स एव पक्षः सश्रुतिकेन समाश्रयितव्यो भवति । एतानि चास्मदीय एवं दर्शने यथोक्तानि सन्ति, नाऽऽहते, अतो भवताऽप्यमदर्शनमेवाभ्युपगन्तव्यमिति ॥४७॥ तदेवमभिहितः सन्नाईककुमारस्तदुत्तरदानायाह-'एव'मित्यादि.18 | यदिवा प्राक्तनः श्लोकः 'अबत्तरूव'मित्यादिको वेदान्तवाद्यात्माद्वैतमतेन व्याख्यातव्यः, तथाहि ते एकमेवान्यक्तं पुरुषम्|आत्मानं महान्तमाकाशमिव सर्वच्यापिनं सनातनम् अनन्तमक्षयमव्ययं सर्वेष्वपि भूतेषु-चेतनाचेतनेषु सर्वतः-सर्वात्मतयाऽसी | स्थित इत्येवमभ्युपगतवन्तो, यथा सर्वास्वपि ताराखेक एव चन्द्रः संवन्धमुपयात्येक्मसावपीति । अस्य चोत्तरदानायाह-'एव'मित्यादि, | 'एवं मिति यथा भवतां दर्शने एकान्तेनैव नित्योऽविकार्यात्माऽभ्युपगम्यते इत्येवं पदार्थाः सर्वेपि नित्याः, तथा च सति कुतो IS४०२॥ बन्धमोक्षसद्भावः, बन्धाभावाच्च न नारकतियनरामरलक्षणश्चतुर्गतिकः संसारः, मोक्षाभावाच निरर्थकं व्रतग्रहणं भवतां पञ्चरानोपदिष्टयमनियमप्रतिपत्तिथेति, एवं च यदुच्यते भवता-यथा 'आवयोस्तुल्यो धर्म' इति, तदयुक्तमुक्तं, तथा संसारान्तर्गतानां च पदार्थानां न साम्यं, तथाहि-भवतां द्रव्यैकसवादिना सर्वस्व प्रधानादभिन्नखात्कारणमेवास्ति, कार्य च कारणाभिन्नखा 0000000000000000000 eesesesereverence ए ~808~ Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-४८], नियुक्ति: [२००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः सर्वात्म ना तत्र विद्यते, अस्माकं च द्रव्यपर्यायोभयवादिना कारणे कार्य द्रव्यात्मतयां विद्यते न पर्यायात्मकतया, अपिच-अस्माकमत्पादव्ययधीव्ययुक्तमेव सदित्युच्यते, भवतां तु धीच्ययुक्तमेव सदिति, यावप्पा विर्भावतिरोभावी भवतोच्येते तावपि । नोत्पादविनाशावन्तरेण भवितुमुत्सहेते, तदेवमैहिकामुष्मि कचिन्तायामावयोन कथश्चित्साम्यं। किंच-सर्वव्यापिसे सत्यात्मनामविकारिखे चात्माद्वैते चाभ्युपगम्यमाने नारकतियेझ्नरामरभेदेन चालकुमारसुभगदुर्भगाढ्यदरिद्रादिभेदेन या न मीयेरन्न परिच्छिोरन् , नापि स्वकर्मचोदिता नानागतिषु संसरन्ति, सर्वव्यापिखादेकखाद्वा, तथा न बामणा न क्षत्रिया न वैश्या न प्रेष्या-न शूद्रा नापि कीटपक्षिसरीसृपाश्च भवेयुः, तथा नराश्च सर्वेऽपि देवलोकाचेत्येवं नानागतिभेदेन न मियेरन् , अतो न सर्वव्यापी आत्मा, नाप्यात्माद्वैतवादो ज्यायान् , यतः प्रत्येकं सुखदुःखानुभवः समुपलभ्यते, तथा शरीरखपर्यन्तमात्र एवात्मा, तत्रैव तद्गुणविज्ञानोपलब्धेरिति स्थितम् , तदेवं व्यवस्थिते युष्मदागमो यथार्थाभिधायी न भवति, असर्वेशप्रणीतखाद्, असर्वज्ञप्रणीतसं चैकान्तपक्षसमाश्रयणादिति ।। ४९ ॥ एवमसर्वज्ञस्य मार्गोद्भावने दोपमाविर्भावयन्नाहलोयं अयाणित्तिह केवलेणं, कहंति जे धम्ममजाणमाणा । णासंति अप्पाण परं च णट्ठा, संसार घोरंमि अणोरपारे॥४९॥ लोयं बिजाणंतिह केवलेणं, पुन्नेण नाणेण समाहिजुत्ता । धम्म समत्तं च कहति जे उ, तारंति अप्पाण परं च तिन्ना ॥५०॥ 'लोक' चतुर्दशरज्ज्वात्मकं चराचरं वा लोकमज्ञाखा केवलेन दिव्यज्ञानावभासेन 'इह' असिन् जगति ये तीथिका 'अजानाना' अविद्वांसो 'धर्म' दुर्गतिगमनमार्गस्वार्गलाभूतं 'कथयन्ति' प्रतिपादयन्ति ते खतो नष्टा अपरानपि नाशयन्ति, क? ESCOPE CREERecene ~809~ Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्कअन्धे शीलाङ्कीयावृत्तिः ॥४०३ ॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र- २ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [-], मूलं [गाथा - ५०], निर्युक्तिः [२००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०२ ], अंग सूत्र - [०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः 'घोरे' भयानके संसारसागरे 'अणोरपारे' ति अर्वाग्भागपरभागवर्जितेऽनाद्यनन्ते इति, एवंभूते संसारार्णवे आत्मानं प्रक्षिपन्तीतियावत् ॥ ४९ ॥ साम्प्रतं सम्यग्ज्ञानवतामुपदेष्टृणां गुणानाविर्भावयन्नाह – 'लोय' मित्यादि, 'लोकं' चतुर्दशरज्ज्वात्मकं केवलालोकेन केवलिनो विविधम् — अनेकप्रकारं जानन्ति - विदन्तीह-अस्मिन् जगति, प्रकर्षेण जानाति प्रज्ञः पुण्यहेतुत्वाद्वा पुण्यं, तेन तथाभूतेन ज्ञानेन समाधिना च युक्ताः समस्तं 'धर्म' श्रुतचारित्ररूपं ये तु परहितैषिणः 'कथयन्ति' प्रतिपादयन्ति ते महापुरुषाः स्वतः संसारसागरं तीर्णाः परं च तारयन्ति सदुपदेशदानत इति । केवलिनो लोकं जानन्तीत्युक्तेऽपि यत्पुनर्ज्ञानेनेत्युक्तं तद् बौद्धमतोच्छेदेन ज्ञानाधार आत्मा अस्तीति प्रतिपादनार्थमिति, एतदुक्तं भवति - यथा देशिकः सम्यगमार्गज्ञ आत्मानं परं च तदुपदेशवर्तिनं महाकान्ताराद्विवक्षितदेशप्रापणेन निस्तारयति, एवं केवलिनोऽप्यात्मानं परं च संसारकान्ताराभिस्तारयन्तीति ॥ ५० ॥ पुनरप्याट्रेककुमार एवमाह - जे गरहियं ठाणमिहावसंति, जे यावि लोए चरणोववेया । उदाहढं तं तु समं मईए, अहाउसो विप्परियासमेव ॥ ५१ ॥ संवच्छरेणाविय एगमेगं, वाणेण मारेड महागयं तु। सेसाण जीवाण दयट्टयाए, वासं वयं वित्ति पकप्पयामो ॥ ५२ ॥ सर्वज्ञ प्ररूपणमेवंभूतं भवति, तद्यथा-ये केचित्संसारान्तर्वर्तिनोऽशुभकर्मणोपपेताः - समन्वितास्तद्विपाकसहाया 'गर्हित' निन्दिर्त जुगुप्सितं निर्विवेकिजनाचरितं 'स्थानं' पदं कर्मानुष्ठानरूपमिह — अस्मिन् जगत्यासेव ( बस )न्ति -- जीविकाहेतुमाश्रयन्ति, तथा ये च सदुपदेशवर्तिनो लोकेऽस्मिन् 'चरणेन' विरतिपरिणामरूपेणोपपेताः - समन्विताः, तेषामुभयेषामपि यदनुष्ठानं– शोभना Education International For Parts Only ~810~ ६ आर्द्रकी या० ॥ ४०३ ॥ or Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-१०], नियुक्ति: [२००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[२] "सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: शोभनखरूपमपि सत् तदसर्वज्ञैः-अर्वान्दर्शिभिः 'सम' सदृशं तुल्यमुदाहृतं-उपन्यस्तं 'स्वमत्या' स्वाभिप्रायेण, न पुनर्यथावस्थितपदार्थनिरूपणेन, अथवाऽऽयुष्मन् हे एकदण्डिन् ! 'विपर्यासमेव' विपर्ययमेवोदाहरेद् असर्वज्ञो-यदशोभनं तच्छोमनसेनेतरवितरथेति, यदिवा विपर्यास इति मदोन्मत्तालापवदित्युक्तं भवतीति ॥५२॥ तदेवमेकदण्डिनो निराकृत्याककुमारो यावद्भगवदन्तिकं व्रजति तावद्धस्तितापसाः परिवृत्य तस्थुरिदं च प्रोचुरित्याह-'संवच्छरेण' इत्यादि, हस्तिनं व्यापाद्यात्मनो |वृत्ति कल्पयन्तीति हस्तितापसास्तेषां मध्ये कश्चिद्बुद्धतम एतदुवाच, तद्यथा-भो आर्द्रककुमार! सश्रुतिकेन सदाऽल्पबहुखमा1% लोचनीयं, तत्र ये अमी तापसाः कन्दमूलफलाशिनस्ते बहूनां सत्चानां स्थावराणां तदाश्रितानां चोदुम्बरादिषु जङ्गमानामुपपाते वर्तन्ते, येऽपि च भैक्ष्येणात्मानं वर्तयन्ति तेऽप्याशंसादोषदृपिता इतश्चेतबाटाव्यमानाः पिपीलिकादिजन्तूना उपघाते वर्तन्ते, वयं तु संवत्सरेणापि अपिशब्दात् पण्मासेन चैकैकै हस्तिनं महाकायं बाणप्रहारेण व्यापाद्य शेषसचानां दयार्थमात्मनो 'वृत्ति' वर्तनं तदामिपेण वपमेकं यावत्कल्पयामः, तदेवं वयमल्पसचोपघातेन प्रभूततरसत्त्वानां रक्षा कर्म इति ॥ ५२ ॥ साम्प्रतमेतदेवाककुमारो हस्तितापसमतं दूपयितुमाह संवच्छरेणावि य एगमेगं, पाणं हणता अणियत्तदोसा । सेसाण जीवाण बहेण लग्गा, सिया य थोवं गिहिणोऽवि तम्हा ॥ ५३ ॥ संवच्छरेणावि य एगमेगं, पाणं हणंता समणबएसु । आयाहिए से पुरिसे अणजे, ण तारिसे केवलिणो भवति ॥५४॥ बुद्धस्स आणाएँ इमं समाहिं, अस्सिं सुठिचा तिविहेण . enesentsersectroeseceaesesesesese SAREastatinintenmational ~811~ Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-१५], नियुक्ति: [२००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: అంది A सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्कन्धे शीलाकीयावृतिः ॥४०४॥ ताई । तरिउं समुई व महाभचोघं, आयाणवं धम्ममुदाहरेजा ॥ ५५ ॥ त्तिवेमि, इति अद्दइजणाम छट्ठ- मज्झयणं समत्तं ।। संवत्सरेणैकैकं प्राणिनं प्रतोऽपि प्राणातिपातादनिवृत्तदोषास्ते भवन्ति, आशंसादोषश्च भवतां पश्चेन्द्रियमहाकायसत्त्ववधपरायणा-18 नामतिदुष्टो भवति, साधूनां तु सूर्यरश्मिप्रकाशितषीथिषु युगमात्रदृष्ट्या गच्छतामीर्यासमितिसमिताना द्विचत्वारिंशदोषरहितमाहारमन्वेषयतां लाभालाभसमवृत्तीनां कुतस्त्य आशंसादोपः पिपीलिकादिसच्चोपघातो वेत्यर्थः, स्तोकसचोपघातेनैवंभूतेन दोषाभावो भवताऽभ्युपगम्यते, तथा च सति गृहस्था अपि खारम्भदेशवर्तिन एव प्राणिनो प्रन्ति शेषाणां च जन्तूनां क्षेत्रकालव्यवहितानां | भवद भिप्रायेण वधेन प्रवृत्ताः, यत एवं तमात्कारणात्स्यादेवं 'स्तोक मिति खल्पं यसात् नन्ति ततस्तेऽपि दोषरहिता इति ॥५॥ साम्प्रतमार्द्रककुमारो हस्तितापसान्दूषयिखा तदुपदेष्टारं दूषयितुमाह-'संवच्छरेणे'त्यादि, श्रमणानां यतीनां व्रतानि श्रमणबतानि ते ध्वपि व्यवस्थिताः सन्त एकैकं संवत्सरेणापि ये मन्ति ये चोपदिशन्ति तेऽनायाः, असत्कर्मानुष्ठायित्वात् , तथा आत्मानं परेषां || चाहितास्ते पुरुषाः, बहुवचनमापखात् , नताशाः केवलिनो भवन्ति, तथाहि-एकस्य प्राणिनः संवत्सरेणापि धाते येऽन्ये पिशि ताश्रितास्तत्संस्कारे च क्रियमाणे स्थावरजङ्गमा विनाशमुपयान्ति ते तैः प्राणिवधोपदेष्टुमिन दृष्टाः, न च तैनिरवद्योपायो माधु-18 कर्या वृच्या यो भवति स दृष्टः, अतस्ते न केवलमकेवलिनो विशिष्टविवेकरहितामेति । तदेवं हस्तितापसान्निराकृत्य भगवदन्तिकं | गच्छन्तमाईककुमार महता कलकलेन लोकेनाभिष्ट्रयमानं तं समुपलभ्य अभिनवगृहीतः सर्वलक्षणसंपूर्णों वनहस्ती समुत्पन्न-1 तथाविधविवेकोचिन्तयत्-यथाध्यमाईककुमारोपाकृताशेपतीथिको निष्प्रत्यूह सर्वज्ञपादपद्मान्तिक वन्दनाय ब्रजति तथाऽहमपि ॥४०४॥ ~812~ Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-१५], नियुक्ति: [२००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः ececemercersersesesesentencesercene | यद्यपगताशेषबन्धनः स्यां तत एनं महापुरुषमाककुमारं प्रतिबुद्धतस्करपश्चशतोपेतं तथा प्रतिबोधितानेकवादिगणसमन्धितं परमया ॥ भक्त्यैतदन्तिकं गला बन्दामीत्येवं यावदसी हस्ती कृतसंकल्पस्तावत्रटवटादिति त्रुटितसमस्तबन्धनः सचाककुमाराभिमुखं प्रदत्त-18 कर्णतालस्तथोर्ध्वप्रसारितदीर्घकरः प्रधावितः, तदनन्तरं लोकेन कृतहाहारवगर्भकलकलेन पूत्कृतं-यथा धिरु कष्टं हतोऽयमाईककमारो महर्षिहापुरुषः, तदेवं प्रलपन्तो लोका इतश्वेतश्च प्रपलायमानाः (सन्ति), असावपि वनहस्ती समागत्याककुमारसमीपं भक्ति-18 संभ्रमावनताग्रभागोत्तमाङ्गो निवृत्तकर्णतालस्त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य निहितधरणीतलदन्ताग्रभागः स्पृष्टकराग्रतच्चरणयुगलः सुप्रणिहित-18 मनाः प्रणिपत्य महर्षि वनाभिमुखं ययाविति । तदेवमाककुमारतपोऽनुभावाद्वन्धनोन्मुक्तं महागजमुपलभ्य सपौरजनपद: श्रेणि-2 श्रीकराजस्तमाककुमारं महर्षि तत्तपाप्रभावं चाभिनन्धाभिवन्य च प्रोवाच-भगवन्नाश्चर्यमिदं यदसौ वनहस्ती ताम्बिधाच्छना छेवाच्यालावन्धनाधुष्मत्तपःप्रभावान्मुक्त इत्येतदतिदुष्करमित्येवमभिहिते आर्द्रककुमारः प्रत्याह-भोः श्रेणिकमहाराज! नैत-18 दुष्करं यदसौ वनहस्ती बन्धनान्मुक्ता, अपि खेतदुष्करं यत्स्नेहपाशमोचनं, एतञ्च प्राशनियुक्तिगाथया प्रदर्शितं । सा चेय| "ण दुकर वा णरपासमोयणं, गवस्स मत्तस्स वर्णमि राय !| जहा उ चत्तावलिएण तंतुणा, मुदुक्करं मे पडिहाइ मोयणं ॥१॥ एवमाककुमारो राजानं प्रतियोध्य तीर्थकरान्तिकं गवाऽभिवन्ध च भगवन्तं भक्तिभरनिभेर आसांचक्रे, भगवानपि तानि पञ्चापि शतानि प्रवाज्य तच्छिष्यखेनोपनिन्य इति ।।५४।। साम्प्रतं समस्ताध्ययनार्थोपसंहारार्थमाह-'बुद्धस्से त्यादि, 'बुद्धः' अवगततत्वः सर्वज्ञो वीरवर्द्धमानस्वामी तस्याशया-तदागमेन इमं 'समाधि' सद्धर्मावाप्तिलक्षणं अवाप्यासिंश्च समाधौ सुष्टु स्थिखा मनोवाकायैः सुप्रणिहितेन्द्रियो न मिथ्यादृष्टिमनुमन्यते, केवलं तदावरणजुगुप्सां त्रिविधेनापि करणेन विधने, स एवंभूत आ ccesentecenesesesecaciseseae ~813~ Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [गाथा-१५], नियुक्ति: [२००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: सूत्रकृताङ्गे २श्रुतस्कन्धे शीलाबीयाचिः स्मनः परेषां च त्रायी-त्राणशीलस्तायी वा-गमनशीलो मोक्षं प्रति, स एवंभूतस्तरीतुम् अतिलल्य समुद्रमिव दुस्तरं महाभवौघं आर्द्रकी| मोक्षार्थमादीयत इत्यादान-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूपं तद्विद्यते यस्खासावादानवान् साधुः, सच सम्यग्दर्शनेन सता पर- या तीर्थिकतपःसमृयादिदर्शनेन मौनीन्द्रादर्शनाम प्रच्यवते, सम्यगज्ञानेन तु यथावस्थितवस्तुप्ररूपणतः समस्तपावादुकवाद निरा-|| करणेनापरेषां यथावस्थितमोक्षमार्गमाविर्भावयतीति, सम्यक्चारित्रेण तु समस्तभूतग्रामहितैषितया निरुद्धाश्रयद्वारः सन् तपोविशेषाचानेकभवोपार्जितं कर्म निर्जरयति खतोऽज्येषां चैवंप्रकारमेव धर्ममुदाहरे-व्यागृणीयात् आविर्भावयेदित्यर्थः । इतिः परिसमाप्त्यर्थे । प्रवीमीति नयाच प्राम्बदेव वाच्याः, वक्ष्यन्ते चोत्तरत्र ।। ५५ ॥ समाप्त चेदमाईकीयाख्यं पष्ठमध्ययनमिति ॥ ६॥ ॥४०५॥ eseroterstoerdeceaeesesents इति श्रीसूत्रकृताङ्गे इदमाईकीयाख्यषष्ठमध्ययनं समाप्तम् ॥ 1४०५॥ | अत्र षष्ठं अध्ययनं परिसमाप्त ~814~ Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक -], मूलं [गाथा-५५...], नियुक्ति: [२०१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः अथ सप्तमनालन्दीयाध्ययनप्रारम्भः । STARSee व्याख्यातं षष्ठमध्ययनम् , अधुना सप्तममारभ्यते, अस्ख चायमभिसंबन्धः-इह प्राग्व्याख्यातेनाखिलेनापि सूत्रकृताङ्गेन खसमयपरसमयप्ररूपणाद्वारेण प्रायः साधूनामाचारोभिहितोऽनेन तु श्रावकगतो विधिरुच्यते, यदिवाऽनन्तराध्ययने परखादनिराकरणं कृखा साध्वाचारस्य य उपदेष्टा स उदाहरणद्वारेण प्रदर्शिता, इह तु श्रावकधर्मस्य य उपदेष्टा स उदाहरणद्वारेणैव प्रदश्यते, यदिवाऽनन्तराध्ययने परतीथिकैः सह बाद इह तु स्वयूथ्यैरिति । अनेन संचन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चखार्यनुयोगद्वाराण्युपवर्णितव्यानि उपक्रमादीनि, तत्रापि नामनिष्पने निक्षेपे नालन्दीयाभिधानमिदमध्ययनम् , इदं चैवं व्युत्पाद्यते-प्रतिषेधवाचिनो नकारस्य तदर्थस्यैवालंशब्दस 'हुदा दाने' इत्येतस्य धातोमीलनेन नालं ददातीति नालंदा, इदमुक्तं भवति-प्रतिषेधप्रतिषेधेन धातर्थस्यैव प्राकृतस गमनात्सदार्थिभ्यो यथाभिलपितं ददातीति नालन्दा-राजगृहनगरबाहिरिका तस्यां भवं नालन्दीयमिद-15 मध्ययन, अनेन चाभिधानेन समस्तोऽप्युपोद्घात उपक्रमरूप आवेदितो भवति, तत्खरूपं च पर्यन्ते खत एव नियुक्तिकारः 'पासा-8 वचिजे इत्यादिगाथया निवेदयिष्यतीति । साम्प्रतं संभविनमलंशब्दस्य निक्षेपं नदी परित्यज्य कर्तुमाह-- णामअल ठवणअलं दधअलं चेव होइ भावलं । एसो अलसइंमिउ निक्खेचो चउविहो होइ ॥२०१॥ पजत्तीभावे खलु पदमो बीओ भवे अलंकारे । ततितो उ पडिसेहे अलसद्दो होइ नापषो ।। २०२॥ aeeeeeee अथ सप्तमं अध्ययनं नालन्दीय" आरब्धं, पूर्व-अध्ययनेन सह अस्य अध्यायनस्य अभिसंबंध:, 'अलं" शब्दस्य निक्षेपा: ~815~ Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) सूत्रकृताने २ श्रुतस्क न्धे शीलाडीयावृत्तिः ॥४०६ ॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ७ ], उद्देशक [-], मूलं [ गाथा ५५...], निर्युक्तिः [२०३ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः डिसेणगारस्सा इत्थिसद्देण चैव अलसदो। रायगिहे नयरंमी नालंदा होइ बाहिरिया ॥ २०३ ॥ नालंदा समिवे मणोरहे भासि इंद्रभूहणा उ । अज्झयणं उदगस्स उ एवं नालंदजं तु ॥ २०४ ॥ तत्र अमानोनाः प्रतिषेधवाचकाः, तद्यथा-अगौः अघट इत्यायकारः प्रायो द्रव्यस्यैव प्रतिपेधवाचीत्यलंदानेन सहास्य प्रयोगाभावः, माकारस्वनागतक्रियाया निषेधं विधत्ते, तद्यथामा कार्यस्वमकार्य मा मंस्थाः संस्था नो युष्मदविष्ठितदिगेव बीतायेत्यादि, नोकारस्तु देशनिषेधे सर्वनिषेधे च वर्त्तते, तद्यथा नो घटो घटैकदेशो घटैकदेशनिषेधेन, तथा हास्यादयो नोकपायाः कषायमोहनीयैकदेशभूताः, नकारस्तु समस्तद्रव्यक्रियाप्रतिषेधाभिधायी, तद्यथा-न द्रव्यं न कर्म न गुणोऽभावः, तथा नाकार्ष न करोमि न करिष्यामीत्यादि, तथाऽन्यैरप्युक्तं – “न याति न च तत्रासीदस्ति पथान्नवांशवत् । जहाति पूर्व नाधारमहो व्यसनसंततिः ॥ १ ॥ किंचान्यत् - "गतं न गम्यते तावद्गतं नैव गम्यते । गतागतविनिर्मुक्तं, गम्यमानं तु गम्यते ॥" इत्यादि । तदेवमत्र नकारः प्रतिषेधविधायकोऽप्युपात्तः, अलंशब्दोऽपि यद्यपि 'अलं पर्याप्ति 'वारणभूषणेष्वपी'ति त्रिष्वर्थेषु पठ्यते, तथाऽपीह | प्रतिषेधवाचकेन नया साहचर्यात्प्रतिषेधार्थ एव गृह्यते, तत्र चालशब्दे नामस्थापनाद्रव्यभावभेदाचतुर्विधो निक्षेषो भवति, तत्र नामालं यस्य चेतनस्य अचेतनस्य वाऽलमिति नाम क्रियते, स्थापनालं तु यत्र कचिचित्र पुस्तकादी पापनिपेधं कुर्वन्साधुः स्थाप्यते, | द्रव्यनिषेधस्तु नोआगमतो ज्ञशरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यस्य चौराद्याहृतस्यैहिकापायभीरुणा यो निषेधः क्रियते स द्रव्यनिषेधः, एवं द्रव्येण द्रव्याद् द्रव्ये वा निषेधः, भावनिषेधं तु स्वत एव नियुक्तिकारोऽलंशब्दस्य संभविनमर्थं दर्शयन्त्रिभणिपुराह| पर्याप्तिभाव:- सामर्थ्य तत्रालंशब्दो वर्तते, अलं मल्लो मल्लाय, समर्थ इत्यर्थः, लोको नरेऽपि "नालं ते तत्र ताणाए वा सरणाए वा" । Education Internation 'अलं" शब्दस्य निक्षेपा:, For Par Use Only ~ 816~ Seseesetseventee ७ नालन्दीयाध्य. ॥४०६ ॥ wor Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक -], मूलं [गाथा-५५...], नियुक्ति: [२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः HS अन्यैरप्युक्तम् -"द्रच्यास्तिकरथारूढः, पर्यायोद्यतकार्मुकः । युक्तिसन्नाहवान्वादी, कुवादिभ्यो भवत्यलम् ॥ १॥" अयं प्रथमो-131 19 लंशब्दार्थों भवति, खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे, द्वितीयस्वर्थोऽलङ्कारे-अलङ्कारविषये भवेत् , संभावनायां लिङ्, तद्यथा-अलं |कृतं देव ! देवेन खकुलं जगच नाभिमूनुने'त्यादि । तृतीयस्खलंशब्दार्थ प्रतिषेधे ज्ञातव्यो भवति, तद्यथा--अलं मे गृहवा-|| | सेन, तथा 'अलं पापेन कर्मणा' उक्तं च-"अलं कुतीथैरिह पर्युपासितैरलं वितकाकुलकाहलैमतैः । अलं च मे कामगुणैर्निथे-18 | वितैभयंकरा ये हि परत्र चेह च ॥१॥" तदिह प्रतिषेधवाचिनाऽलंशब्देनाधिकार इत्येतद्दर्शयितुमाह-सत्यप्पलंशब्दस्वार्थत्रये 8 नकारख सान्निध्यात्प्रतिषेधविधाय्येवेह गृह्यते, ततश्च निरुक्तविधानादयमर्थः-नालं ददातीति नालन्दा, वाहिरिकायाः स्त्रियोहे| शकत्वेन वाचकवेन च नालन्दशब्दख स्त्रीलिंगता, सा च सदैहिकामुष्मिकसुखहेतुखेन मुखपदा राजगृहनगरबाहिरिका धनक-18 नकसमृद्धलेन सत्साध्वाश्रयखेन च सर्वकामप्रदेति । साम्प्रतं प्रत्ययार्थ दर्शयितुकाम आह–नालन्दायाः समीपे मनोरथाख्थे । उद्याने इन्द्रभूतिना गणधरणोदकाख्यनिर्ग्रन्थपृष्टेन तुशब्दस्सैक्कारार्थखात्तस्यैव भाषितमिदमध्ययनं । नालन्दायां भवं नालन्दीयं । शनालन्दासमीपोधानकथनेन वा निवृत्तं नालन्दीयं । यथा चेदमध्ययनं नालन्दायां संवृत्तं तथोत्तरत्र "पासावधिजे" इत्यादिकया सूत्रस्पर्शिकगाथयाऽऽविष्करिष्यते, साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारयितव्यं, तच्चेदंतेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे होत्या, रिद्धिस्थिमितसमिद्धे वण्णओ जाव पडिरूवे, तस्स णं रायगिहस्स नयरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए, एस्थ णं नालंदानाम बाहिरिया होत्या, अणेगभवणसयसन्निविट्ठा जाव पडिरूवा (सू०६८)। तस्य णं नालंदाए बाहिरियाए लेवे नाम गाहावई होत्था, actacseccccescisesencestocal 'अलं" शब्दस्य निक्षेपा:, नालन्द शब्दस्य परिचय, मूलसूत्रस्य आरम्भ: ~817~ Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्कन्धे शीलाश्रीयावृतिः ॥४०७॥ ৫০১৩ “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ७ ], उद्देशक [-], मूलं [ ६८ ], निर्युक्ति: [ २०४ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - अहे दिसे विसे विच्छिण्णविपुल भवणसयणासणजाणवाहणाइण्णे बहुधणबहुजायरूवरजते आओगपओगसंपत्ते विच्छड्डियपउर भत्तपाणे बहुदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभूए बहुजणस्स अपरिभूए यावि होत्था अस्य चानन्तरपरम्परसूत्रैः सह संबन्धो वाच्यः, तत्रानन्तराध्ययनपर्यन्ते सूत्रमिदम् - आदानवान् धर्ममुदाहरेत्, धर्मश्व साधुश्रावकभेदेन द्विधा, तत्र पूर्वोकेनाङ्गद्वयेन प्रायः साधुगतो विधिरभिहितोऽनेन तु श्रावकगतो विधिरुच्यते । परम्परसूत्र संवन्धस्त्वयं-'बुध्येते' त्येतदादि सूत्रं, किं तत्र बुध्येत ?, यदेतद्वक्ष्यत इति सूत्रार्थस्वयं सप्तम्यर्थे तृतीया, यस्मिन्काले सिधावसरे | राजगृहं नगरं यथोक्तविशेषणविशिष्टमासीत्, तसिन् काले तस्मिंश्च समये इदमभिधीयते । राजगृहमेव विशिनष्टि-प्रासादाः संजाता यस्मिंस्तत्प्रासादिर्तमाभोगमद्वा, अत एव दर्शनीयं -दर्शनयोग्यं दृष्टिसुखहेतुत्वात्, तथाऽऽभिमुख्येन रूपं यस्य तदभिरूपं, तथाऽप्रतिरूपमनन्यसदृशं प्रतिरूपं वा प्रतिविम्बं वा स्वर्गनिवेशस्य, तदेवंभूतं राजगृहं नाम नगरं 'होत्थ' चि आसीत्, यद्यपि तत्कालत्रयेऽपि सत्तां विभर्त्ति तथाप्यतीताख्यानकसमाश्रयणादासीदित्युक्तं । तस्य च राजगृहस्य बाहिरुत्तरपूर्वस्यां दिशि नालन्दा नाम बाहिरिका आसीत् सा चानेकभवनशतसन्निविष्टा- अनेकभवनशतसंकीर्णेत्यर्थः ॥ तस्यां च लेपो नाम 'गृहपतिः' कुटुम्बिक | आसीत्, स चाढ्यो दीप्त:- तेजस्वी 'वित्तः' सर्वजन विख्यातो विस्तीर्णविपुल भवनशयनासन यान वाहनाकीर्णो बहुधनबहुजातरूपरजतः आयोगाः - अर्थोपाया यानपात्रोष्ट्रमंडलिकादयः तथा प्रयोजनं प्रयोगः- प्रायोगिकत्वं तैरायोगप्रयोगैः संप्रयुक्तः समन्वितः, तथेतश्चे १ दीयमा० प्र० आभोगद प्र वरणच्छयायोरिति यावद्धा मूलपाठे तु परिपूर्णतावत् Jae Eucation International For Pale Onl ~818~ ७ नाल न्दीयाध्य ॥४०७॥ Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक -], मूलं [६९], नियुक्ति : [२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः sesesta तथ विक्षिप्तप्रचुरभक्तपानो बहुदास्यादिपरिवृतो बहुजनस्यापरिभूतश्वासीत् । तदियता विशेषणकदम्बकेनैहिकगुणा विष्करणेन द्रव्यसंपदभिहिता ।। अधुनाऽऽमुष्मिकगुणाविर्भावेन भावसंपदभिधीयते से णं लेचे नाम गाहावई समणोवासए यावि होत्था, अभिगयजीवाजीवे जाव विहरह, निग्गंथे पावयणे निस्संकिए निकंखिए निवितिगिच्छे लढे गहियढे पुच्छिय? विणिच्छियढे अभिगहियडे अट्टिमिंजापेमाणुरागरत्ते, अयमाउसो ! निग्गंधे पावयणे अयं अहे अयं परम? सेसे अणद्वे, उस्सियफलिहे अप्पावयदुवारे चिपत्तंतेउरप्पवेसे चाजद्दसट्टमुद्दिद्वपुण्णमासिणीसु पडिपुन्नं पोसह सम्म अणुपालेमाणे समणे निग्गंधे तहाविहेणं एसणिजेणं असणपाणखाइमसाइमणं पडिलाभेमाणे बहहिं सीलबयगुणविरमणपञ्चक्वाणपोसहोषवासेहिं अप्पाणं भावेमाणे एवं च णं विहरद ॥ (सू०६९)॥ णमिति वाक्यालङ्कारे, स लेपाख्यो गृहपतिः श्रमणान्-साधनुपास्ते-प्रत्यहं सेवत इति श्रमणोपासकः, तदनेन विशेषणेन तख जीवादिपदार्थाविर्भावकश्रुतज्ञानसंपदावेदिता भवति, एतदेव दर्शयति अभिगतजीवाजीचेत्यादिना ग्रन्थेन यावदसहायोऽपि | देवासुरादिभिर्देवगणैरनतिक्रमणीयः-अनतिलानीयो धर्मादाच्यावनीय इतियावत् , नदियता विशेषणकलापेन तस्य सम्यग्ज्ञानिस-11 मावेदितं भवति । साम्प्रतं तस्य विशिष्टसम्यग्दर्शनिख प्रतिपादयितुमाह-निग्गंथे' इत्यादि, 'निर्ग्रन्धे आईते प्रवचने निर्गता शङ्का देशसर्वरूपा यस्य स निःशङ्कः, 'तदेव सत्यं निःशवं यजिनैः प्रवेदित'मित्येवं कृताध्यवसायः, तथा निर्गता कासा-अन्यान्यदर्शनग्रहणरूपा यथासौ निराकासः, तथा निर्गता विचिकित्सा-चित्तविलतिर्विद्वज्जुगुप्सा वा यस्यासी निर्षिचिकित्सो, यत coteeses ~819~ Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक -], मूलं [६९], नियुक्ति: [२०४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः न्धे शीला मत्रताले 18 एवमतो लब्धः---उपलब्धोऽर्थः परमार्थरूपो येन स लब्धार्थो ज्ञाततच इत्यर्थः, तथा गृहीतः खीकृतोऽर्थी-मोक्षमार्गरूपो येन नाल२ श्रुतस्क- |स गृहीतार्थः, तथा-विशेषतः पृष्टोऽर्थों येन स पृष्टार्थो, यत एवमतो विनिचितार्थः ततोऽभिगत:-पृष्टनिर्वचनतः प्रतीतोऽयोंन्दीयाध्य. येन सोऽभिगतार्थः, तथास्थिमिञ्जा-अस्थिमध्यं यावत् स धर्मे प्रेमानुरागेण रक्तः अत्यन्तं सम्यक्सवासितान्तश्वेता इतियावत् , कीयावृत्तिः | एतदेवाविर्भावयवाह-'अयमाउसो'इत्यादि, केनचिद्ध सर्वेखं पृष्टः सन्नेतदाचष्टे, तद्यथा-भो आयुष्मभिदं नन्थं मीनीन्द्र॥४०॥ प्रवचनमर्थः-सद्भतार्थः तथाप्ररूपणतया, तथेदमेवाह-अयमेव परमार्थः, कपतापच्छेदैरस्यैव शुद्धखेन निषेटितखान , शेषस्तु | सर्वोऽपि लौकिकतीथिंकपरिकल्पितोऽनर्थः, तदनेन विशेषणकदम्बकेन सम्यक्त्रगुणाविष्करणं कृतं भवति । साम्प्रतं तस्यैव सम्य-|| ग्दर्शनशानाभ्यां कृतो यो गुणस्तदाविष्करणायाह-'उस्सिय'इत्यादि, उच्छृतं-प्रख्यात स्फटिकवनिर्मलं यशो यस्थासावुचित-161 स्फटिकः, प्रख्यातनिर्मलयशा इत्यर्थः, तथाऽग्रावृतम्-अस्थगितं द्वार-गृहमुखं यस्य सोमायतद्वारः, इदमुक्तं भवति-गृह प्रविश्य परतीर्थिकोऽपि यद्यत्कथयति तदसौ कथयतु न तस्य परिजनोऽप्यन्यथा भावयितुं सम्यक्त्वाच्यावपितु शक्यत इतियावत् , तथा राज्ञां बल्लभान्तःपुरद्वारेषु प्रवेष्टुं शीलं यस्य स तथा, इदमुक्तं भवति-प्रतिषिद्धान्यजनप्रवेशान्यपि यानि स्थानानि |भाण्डागारान्तः पुरादीनि तेष्वप्यसौ प्रख्यातश्रावकाख्यगुणवेनास्खलितप्रवेशः, तथा चतुर्दश्यष्टम्यादिषु तिथिखूपदिष्टासु-महा- II कल्याणकसंबन्धितया पुण्यतिथिखेन प्रख्यातासु तथा पौर्णमासीषु च तिसृष्वपि चतुर्मासकतिथिवित्यर्थः, एवंभूतेषु धर्म-शा दिवसेषु सुष्ठ-अतिशयेन प्रतिपूर्णों यः पौषधो-त्रताभिग्रहविशेषस्तै प्रतिपूर्णम्-आहारशरीरसत्कारब्रह्मचर्याव्यापाररूपं पौषधमनुपालयन् संपूर्ण श्रावकधर्ममनुचरति, तदनेन विशेषणकलापेन विशिष्टं देशचारित्रमावेदितं भवति । साम्प्रतं तस्यैवोत्तरगुणख्या Saer20 Crococceroentencloserseases ~820~ Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ ७ ], उद्देशक [-], मूलं [ ६९ ], निर्युक्ति: [ २०४ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - पनेन दानधर्ममधिकृत्याह- 'समणे निग्गंधे' इत्यादि, सुगमं यावत्' पडिला मेमाणेत्ति, साम्प्रतं तस्यैव शीलतपोभावनात्मकं धर्ममावेदयन्नाह - 'बहूहि'मित्यादि, बहुभिः शीलवतगुणविरमणप्रत्याख्यानपौषधोपवासैस्तथा यथापरिगृहीतैश्च तपः कर्मभिरास्मानं भावयन् एवं चानन्तरोक्तया नीत्या विहरति-धर्ममाचरंस्तिष्ठति चः समुच्चये णमिति वाक्यालङ्कारे ॥ तस्स णं लेवस्स गाहाबहस्स नालंदा बाहिरियाए उत्तरपुरच्छिमे दिसिभाए एत्थ णं सेसदविया नामं उद्गसाला होत्था, अणेगस्वंभसयसन्निविद्वा पासादीया जाव पडिख्वा, तीसे णं सेसद्वियाए उद्गसालाए उत्तरपुरच्छिमे दिसि भाए, एत्थ णं हरिथजामे नामं वणसंडे होत्था, किण्हे वण्णओ वणसंडस्स || (सु.७०) तस्सि चणं गिहपदेसंमि भगवं गोयमे बिहरह, भगवं च णं आहे आरामंसि । अहे णं उदए पेढालपुत्ते भगवं पासावचिज्जे नियंठे मेयज्जे गोत्तेणं जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छ, उवागच्छत्ता भगवं गोयमं एवं बयासी—आउसंतो ! गोयमा अस्थि खलु मे केह पदेसे पुच्छियचे, तं च आउसो ! अहासूर्य अहादरिसिगं मे वियागरेहि सवायं, भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं एवं वयासी - अवियाइ आउसो ! सोचा निसम्म जाणिस्सामो सवायं, उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयमं एवं वयासी । (सू.७१) तस्य चैवंभूतस्य लेपोपासकस्य गृहपतेः संबन्धिनी नालन्दायाः पूर्वोत्तरस्यां दिशि शेषद्रव्याभिधाना-गृहोपयुक्तशेषद्रव्येण कृता शेषद्रव्येत्येतदेवाभिधानमस्या उदकशालायाः, सेवंभूताऽऽसीदनेक स्तम्भशत सन्निविष्टा प्रासादीया दर्शनीयाऽभिरूपा प्रतिरूपेति, तस्यावोचरपूर्व दिग्विभागे हस्तियामाख्यो वनखण्ड आसीत्, कृष्णावभास इत्यादिवर्णकः । तसिंव वनखण्डगृहप्रदेशे Jan Eaton International For Pasta Use Only ~821~ Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्क न्धे शीलाङ्कीयावृतिः ॥४०९ ॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र -२ ( मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [७१], निर्युक्ति: [ २०५ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः भगवान् गौतमस्वामी श्री वर्धमानस्वामिगणधरो विहरति । अथानन्तरं भगवान् गौतमस्वामी तस्मिन्नारामे सह साधुभिर्व्यवस्थितः, | 'अर्थ' अनन्तरं णमिति वाक्यालङ्कारे उदकाख्यो निर्ग्रन्थः पेढालपुत्रः 'पार्श्वापत्यस्य' पार्श्वस्वामिशिष्यस्यापत्यं शिष्यः पार्श्वापत्वीयः, स च मेदाय गोत्रेण येनैवेति सप्तम्यर्थे तृतीया, यस्यां दिशि यस्मिन्वा प्रदेशे भगवान् श्रीगौतमखामी तस्यां दिशि तसिन्वा प्रदेशे समागत्येदं वक्ष्यमाणं प्रोवाचेति । अत्र नियुक्तिकारोऽध्ययनोत्थानं तात्पर्य च गाथया दर्शयितुमाहपासावचिजो पुछियाइओ अज्जगोयमं उदगो । सावगपुच्छा धम्मं सोडं कहियंमि उवसंता ॥ २०५ ॥ पार्श्वनाथशिष्य उदकाभिधान आर्यगौतमं पृष्टवान् किं तत् १ - श्रावकविषयं प्रश्नं, तद्यथा-भो इन्द्रभूते ! साधोः श्रावकाणुत्रतदाने सति स्थूलप्राणातिपातादिविषये तदन्येषां सूक्ष्मवादराणां प्राणिनामुपघाते सत्यारंभजनिते तदनुमतिप्रत्ययजनितः कर्मबन्धः कस्मान्न भवति ?, तथा स्थूलप्राणातिपातत्रतिनस्तमेव पर्यायान्तरगतं व्यापादयतो नागरिकबधनिवृत्तस्य तमेव बहिःस् | व्यापादयत इव तद्वतभङ्गजनितः कर्मबन्धः कस्मान्न भवतीत्येतत्प्रश्नस्योत्तरं गृहपतिचौरग्रहणविमोक्षणोपमया दत्तवान्, तच श्रावप्रश्नस्योपम्यं गौतमखामिना कथितं श्रुखोदकाख्यो निर्ग्रन्थः 'उपशांतः' अपगतसंदेहः संवृत्त इति । साम्प्रतं सूत्रमनुत्रियते'स' उदको गौतमस्वामिसमीपं समागत्य भगवन्तमिदमवादीत्, तद्यथा-- आयुष्मन्गौतम ! 'अस्ति मम विद्यते कश्चित्प्रदेशः प्रष्टव्यः' तत्र संदेहात् तं च प्रदेशं यथाश्रुतं भवता यथा च भगवता संदर्शितं तथैव मम 'व्यागृणीहि' प्रतिपादय । एवं पृष्टः, स चार्य भगवान्, यदिवा सह वादेन सवादं पृष्टः सद्वाचं वा— शोभनभारतीकं वा प्रश्नं पृष्टः, तमुदकं पेढालपुत्रमेवमवादीत्, Eaton Interation For Parts Only ~822~ ७ नाल न्दीयाध्य ॥४०९ ॥ Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक -], मूलं [७१], नियुक्ति: [२०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: तयथा-अपिचायुष्मन्बुदक ! श्रुला भवदीयं प्रश्नं निशम्य च-अवधार्य च गुणदोषविचारणतः सम्यगासे, तदुच्यता IS विश्रब्धं भवता वाभिप्रायः 'सवाय सदाचं चोदकः, सवाद सदाच वोदकः पेढालपुत्रो भगवन्त गौतममेवमवादीत् ॥ आउसो ! गोयमा अस्थि खलु कुमारपुत्तिया नाम समणा निग्गंधा तुम्हाणं पवयर्ण पवयमाणा गाहावई समणोवासगं उवसंपनं एवं पचक्खाति–णण्णत्व अमिओएणं गाहावइचोरगहणविमोकखणयाए तसेहिं पाणेहिं णिहाय दंड, एवं पहं पञ्चक्खंताणं दुप्पच्चक्खायं भवइ, एवं हं पचक्खावेमाणाणं दुपञ्चक्खाविय भवइ, एवं ते परं पञ्चक्खावेमाणा अतियरंति सयं पतिण्णं, कस्स णं सं हे, संसारिया खलु पाणा धावरावि पाणा तसत्ताए पञ्चायंति, तसावि पाणा थावरत्साए पचायंति, थावरकायाओ विप्पमुच्चमाणा तसकायंसि उवववति, तसकायाओ विष्पमुच्चमाणा धावरकायंसि उववजंति, तेर्सि च णं थावरकार्यसि उपवण्णाणं ठाणमेयं धत्तं ॥ (स.७२) एवं ण्हं पञ्चक्वंताणं सुपचक्खायं मवह, एवं ण्हं पञ्चक्खावेमाणाणं सुपचक्खावियं भवह, एवं ते परं पञ्चक्खावेमाणा णातियरंति सयं पइपणं, णण्णस्थ अभिओगेणं गाहावदचोरग्गहणविमोक्खणयाए तसभूएहिं पाणेहि णिहाय दंड, एवमेव सह भासाए परक्कमे विजमाणे जे ते कोहा वा लोहा वा परं पच्चक्खावेंति अयंपि णो उवएसे णो णेआउए भवइ, अवियाई आउसो! गोयमा! तुन्भपि एवं रोयइ? (म.७३) सवायं भगवं गोयमे ! उदयं पेढालपुत्तं एवं वयासी-आउसंतो! उदगा नो खलु अम्हे एयं रोयइ, जे ते समणा वा माहणा वा एवमाइक्खंति 300wwsereas3000 seaedeserselseekersecsee ~823~ Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्कन्धे शीलाझीपावृत्तिः ॥ ४१० ॥ “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [७४], निर्युक्ति: [ २०५ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - जाव परूति णो खलु ते समणा वा णिग्गंधा वा भासं भासंति, अणुतावियं खलु ते भासं भासंति, अग्भाइक्खति खलु ते समणे समणोवासए वा, जेहिंवि अन्नेहिं जीवेहिं पाणेहिं भूएहिं सत्तेहिं संजम यति ताणाव ते अभाइक्वंति, कस्स णं तं हे ?, संसारिया खलु पाणा, तसावि पाणा धावरत्ताए पञ्चायंति धावरावि पाणा तसत्ताए पञ्चायंति तसकायाओ विष्पमुचमाणा थावरकायंसि उववज्रंति थावरकायाओ विष्पमुचमाणा तसकायंसि उवचांति, तेसिं च णं तसकार्यसि उववन्नाणं ठाणमेयं अघतं ॥ (सू.७४) तद्यथा - भो गौतम! अस्तीत्ययं विभक्तिप्रतिरूपको निपात इति वदर्थवृत्तिर्गृहीतः, ततश्चायमर्थ:- 'सन्ति' विद्यन्ते कुमार| पुत्रा नाम निर्ग्रन्था युष्मदीयं प्रवचनं प्रवदन्तः, तद्यथा - गृहपतिं श्रमणोपासकमुपसंपन्न - नियमायोत्थितमेवं 'प्रत्याख्यापयन्ति' प्रत्याख्यानं कारयन्ति तद्यथा-स्थूलेषु प्राणिषु दण्डयतीति दण्डः --- प्राण्युपमर्दस्तं 'निहाय' परित्यज्य, प्राणातिपातनिवृतिं कुर्वन्ति, तामेवापवदति-- नान्यत्रेति, खमनीषिकाया अन्यत्र राजाद्यभियोगेन यः प्राण्युपधातो न तत्र निवृत्तिरिति । तत्र किल स्थूलप्राणिविशेषणाचदन्येषामनुमतिप्रत्ययदोषः स्यादित्याशङ्कावानाह' गाहाबद इत्यादि, अस्य चार्थमुत्तरत्राविभावयिष्यामः । येनाभिप्रायेणोदक भोदितवांस्तमाविष्कुर्ववाह – ' एवं हमित्यादि, व्हमिति वाक्यालङ्कारे, अवधारणे वा, एवमेव सप्राणिविशेपणखेनापरत्रसभूत विशेषणरहितलेन प्रत्याख्यानं गृद्धतां भावकाणां दुष्प्रत्याख्यानं भवति, प्रत्याख्यानमसद्भावात् तथैवमेव प्रत्याख्यापयतामपि साधूनां दुष्टं प्रत्याख्यानदानं भवति, किमित्यत आह-एवं ते श्रावकाः प्रत्याख्यानं गृहन्तः साधवध परं प्रत्याख्यापयन्तः स्त्रां प्रतिज्ञामतिचरन्ति - अविलङ्घयन्ति । 'कस्स णं हे 'ति प्राकृतशैल्या कसा Education International For Parts Only ~824~ ७ नाल न्दीयाध्य. ॥४१०॥ Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [७४], नियुक्ति: [२०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: 8093erasasesGa92000992929 | देतोरित्यर्थः । तत्र प्रतिज्ञाभङ्गकारणमाह-संसारिया'इत्यादि, संसारो विद्यते येषां ते सांसारिकाः, खलुरलङ्कारे, 'प्राणा | जन्तवः स्थावराः 'प्राणिनः पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः सन्तोऽपि तथाविधकर्मोदयात्रसतया-त्रसबेन द्वीन्द्रियादिभावेन प्रत्यायान्ति-उत्पयन्ते, तथा प्रसा अपि स्थावरतयेति, एवं च परस्परगमने व्यवस्थिते सत्यवश्यंभावी प्रतिक्षाविलोपः, तथाहि-नाग-॥ |रिको मया न हन्तव्य इत्येवंभूता येन प्रतिज्ञा गृहीता स यदा बहिरारामादो व्यवस्थित नागरिकं व्यापादयेत् किमेतावता तस्य न भवेत्प्रतिज्ञाविलोपः, एवमत्रापि येन प्रसवधनिवृत्तिः कृता स यदा तमेव सं प्राणिनं स्थावरकायस्थितं व्यापादयेत् किंवा | तस्य न भवेत्प्रतिज्ञाविलोपः १, भवत्येवेत्यर्थः । एवमपि त्रसस्थावरकाये समुत्पन्नानां प्रसानां यदि तथाभूतं किश्चिदसाधारणं लिका स्थात् ततस्ते वसाः स्थावरसेनाप्युत्पन्नाः शक्यन्ते परिहर्त, न च तदस्तीत्येतद्दयितुमाह-'थावरकायाओ'इत्यादि, स्थावरकायात्सकाशाद्विविधम् - अनेक प्रकारः प्रकर्षेण मुच्यमानाः स्थावरकायायुषा तयोग्यैश्वापरैः कर्मभिः सर्वात्मना प्रसकाये समुत्पद्यन्ते, तथा त्रसकायादपि सर्वात्मना विमुच्यमानास्तत्कर्मभिः स्थावरकाये समुत्पद्यन्ते, तत्र चोपनानां तथाभूतत्रसलिशाभावात्प्रतिज्ञालोप इत्येतत्सूत्रेणैव दर्शयितुमाह-'तेर्सि च ण'मित्यादि, 'तेषां च' प्रसानां स्थावरकाये समुत्पनानां गृहीतत्रसपा-1 णातिपातविरतेः श्रावकस्याप्यारम्भप्रवृत्तवेनैतत्स्थावराख्यं घालं स्थानं भवति, तस्मादनिवृत्तवात्तखेति ॥ तदेवं व्यवस्थिते नागरिकदृष्टान्तेन त्रसमेव खावरलेनायात व्यापादयतोऽवश्यंभावी प्रतिज्ञाविलोपो यतः तत एव मदुक्तया वक्ष्यमाणनीत्या प्रत्याख्यानं कुर्वतां सुप्रत्याख्यातं भवति, एवमेव च प्रत्याख्यापयतां सुप्रत्याख्यापितं भवति, एवं च ते प्रत्याख्यापयन्तो नातिचरन्ति स्वीयां प्रतिज्ञामित्येतदर्शयितुमाह-'णण्णत्धेत्यादि, तत्र गृहपतिः प्रत्याख्यानमेवं गृह्णाति, तद्यथा-'नसभूतेषु' वर्तमानकाले || ~825~ Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक -], मूलं [७४], नियुक्ति: [२०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः सूत्रकृताङ्गे । सनोत्पश्रेषु प्राणिषु दण्डयतीति दण्डः-प्राण्युपमर्दस्त 'विहाय परित्यज्य प्रत्याख्यानं करोति, तदिह भूतखविशेषणास्था- ७ नाल२श्रुतस्क- वरपर्यायापनवधेऽपि न प्रतिज्ञाविलोपः । तथा 'नान्यत्राभियोगेने ति राजाद्यमियोगादन्यत्र प्रत्याख्यानमिति । तथा गृहपति- न्दीयाध्य. न्धे शीला- चौरविमोक्षणतयेति, एतच भवद्भिः सम्यगुक्त, एतदपि त्रसकाये भूतलविशेषणमभ्युपगम्यतामिति, एतदभ्युपगमेऽपि हि यथा कीयावृत्ति क्षीरविकृतिप्रत्याख्यायिनो दधिभक्षणेऽपि न प्रतिज्ञाविलोपः तथा असभूताः सत्त्वा न हन्तव्या इत्येवं प्रतिज्ञावतः स्थावरहिंसा॥४१॥ यामपि न प्रत्याख्यानातिचारः । तदेवं विद्यमाने सति 'भाषाया' प्रत्याख्यानवाचः 'पराक्रमें भूतविशेषणादोपपरिहारसा-18 मध्ये एवं पूर्वोक्तया नीत्या सति दोषपरिहरणोपाये ये केचन क्रोधाद्वा लोभावा 'परं' श्रावकादिक निर्विशेषणमेव प्रत्याख्या-1 | यन्ति, तेषां प्रत्याख्यानं ददतां मृपावादो भवति, गृह्णतां चावश्यंभावी व्रतविलोप इति, तदेवमयमपि नः असदीयोपदेशाभ्यु-18 | पगमो भूतखविशेषणविशिष्टः पक्षः किं भवतां 'नो' नैव 'नैयायिको न्यायोपपत्रो भवति , इदमुक्तं भवति-भूतखविशेषणेन हि वसान् स्थावरोत्पन्नान् हिंसतोऽपि न प्रतिज्ञातिचार इति, अपि चैतदायुष्मन् गौतम! तुभ्यमपि रोचते-एवमेतद्यथा मया व्याख्या-1 तम् । एवममिहितो गौतमः सद्वाचं सवादं वा तमुदकं पेढालपुत्रमेवं वक्ष्यमाणमवादीत् , तवथा नोखलायुष्मनुदकासभ्यमेतदेव || यद्यथा खयोच्यते तद्रोचत इति, इदमुक्तं भवति-यदिदं त्रसकायविरतौ भूतख विशेषणं क्रियते तनिरर्थकतयाऽसब न रोचत । इति । तदेवं व्यवस्थिते भो उदक! ये ते श्रमणा वा ब्राह्मणा वा एवं भूतशब्दविशेषणलेन प्रत्याख्यानमाचक्षते, परैः पृष्टास्त-S४१शा थैव भाषन्ते प्रत्याख्यानं, स्वतः कुर्वन्तः कारयन्तचैवमिति-सविशेषणं प्रत्याख्यानं भाषन्ते, तथैवमेव सविशेषणप्रत्याख्यानमरूपणावसरे सामान्येन प्ररूपयन्ति, एवं च प्ररूपयन्तो न खलु ते श्रमणा वा निर्ग्रन्था वा यथार्थों भाषा भाषन्ते, अपिलनुताप eseseaesesekeseeseseses ~826~ Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक -], मूलं [७४], नियुक्ति: [२०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ॥ एeoesesesese 18 यतीत्यनुतापिका तां, तथाभूतां च खलु ते भाषा भाषन्ते, अन्यथामाषणे घपरेण जानता घोधितस सतोज्नुतापो भवतीत्य-1॥ तोऽनुतापिकेत्युच्यत इति । पुनरपि तेषां सविशेषणप्रत्याख्यानवतामुल्वणदोषोद्विभावविषयाह-'अन्भाइक्खंती त्यादि, ते हि सविशेषणप्रत्याख्यानवादिनो यथावस्थितं प्रत्याख्यानं ददतः साधून गृह्णतश्च श्रमणोपासकानभ्याख्यान्ति-अभूतदोपोद्भा| वनतोऽभ्याख्यानं ददति । किंचान्यत्-'जेहिवि'इत्यादि, येवप्यन्येषु प्राणिषु भूतेषु जीवेषु सच्चेषु विषयभूतेषु विशिष्य ये || संयम कुर्वन्ति संयमयन्ति, तद्यथा-ब्राह्मणो न मया हन्तव्य इत्युक्ते स यदा वर्णान्तरे तिर्यक्षु वा व्यवखितो भवति तदधे ब्राह्मणवध आपद्यते, भूतशब्दाविशेषणात् , तदेवं तान्यपि विशेषत्रतानि करो मया न हन्तव्य इत्येवमादीनि ते भूतभन्दविशेषणवादिनोऽभ्याख्यान्ति-दूषयन्ति । किमित्यत आह-'कस्स ण'मित्यादि कसा तोस्तदसतं पण भवतीति ? यस्मात्सांसारिकाः खलु प्राणाः परस्परजातिसंक्रमणभाजो यतस्ततखसाः प्राणिनः स्थावरलेन प्रत्यायान्ति स्थावराच त्रसबेनेति । सकायाच सर्वात्मना वसायुष्कं परित्यज्य स्थावरकाये तयोग्यकर्मोपादानादुत्पद्यन्ते, तथा स्थावरकायाच तदायुष्कादिना कर्मणा विमुच्यमानाखसकाये समुत्पद्यन्ते, तेषां च त्रसकाये समुत्पन्नानां स्थानमेतत्रसकायाख्यमघात्यम्-अघाताह भवति, यसात्तेन श्रावकेण प्रसानुद्दिश्य स्थूलपाणातिपातविरमणं कृतं, तस्य तीब्राध्यवसायोत्पादकखाल्लोकगर्हितसाति, तत्रासौ स्थूलप्राणाति-1|| पातानिवृत्तः, तनिवृत्या च त्रसस्थानमघात्यं वर्तते, स्थावरकायाचानिवृत्त इति तयोग्यतया तत्स्थानं घात्यमिति । तदेवं भवदभिप्रायेण विशिष्टसचोद्देशेनापि प्राणातिपातनिवृचौ कृतायामपरपर्यायापन प्राणिनं व्यापादयतो व्रतभङ्गो भवति, ततश्च न कस्स-1 चिदपि सम्यग्वतपालनं सादित्येवमभ्याख्यातम्---असद्भूतदोषोद्भावनं भवन्तो ददति । यदपि भवद्भिर्वर्तमानकालविशेष-18 Rijaanasaramorg ~827~ Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक -], मूलं [७४], नियुक्ति: [२०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः सूत्रकृताओं न्धे शीला कीयावृत्तिः णखेन किलायं भूतशब्द उपादीयते असावपि व्यामोहाय केवलमुपतिष्ठते, तथाहि-भूतशब्दोज्यमुपमानेऽपि वर्तते, तद्यथा- |७नाळदेवलोकभूतं नगरमिदं, न देवलोक एव, तथात्रापि त्रसभूताना-प्रससदृशानामेव प्राणातिपातनिवृत्तिः कृता स्यात् । न तु वसा- न्दीयाध्य. नामिति, अथ तादर्थे भूतशब्दोऽयं, यथा शीतीभूतमुदकं, शीतमित्यर्थः, एवं त्रसभूतास्त्रसख प्राप्ताः, तथा च सति सशब्देनैव || गतार्थखात्पीनरुक्त्यं साद्, अथैवमपि स्थिते भूतशब्दोपादानं क्रियते, तथा च सत्यतिप्रसङ्गः स्थात् , तथाहि-क्षीरभूतविकृतेः प्रत्याख्यानं करोम्येवं घृतभूतं मे ददखैवं घटभूतः पटभूत इत्येवमादावप्यायोग्यमिति ॥ तदेवं निरस्ते भूतशब्दे-18| | सत्युदक आह सवायं उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयम एवं वयासी-कयरे खलु ते आपसंतो गोयमा ! तुन्भे वयह तसा पाणा तसा आउ अन्नहा', सवायं भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं एवं वयासी-आउसंतो उदगा ! जे तुम्भे वयह तसभूता पाणा तसा ते वयं वयामो तसा पाणा, जे वयं वयामो तसा पाणा ते तुम्भे वयह तसभूया पाणा, एए संति दुवे ठाणा तुल्ला एगट्ठा, किमाउसो ! इमे भे सुप्पणीयतराए भवइ तसभूया पाणा तसा, इमे भे दुप्पणीयतराए भवइ-तसा पाणा तसा, ततो एगमाउसो ! पडिकोसह एक अभिणंदह, ॥४१२॥ अयंपि भेदो से णो णेआउए भव ॥ भगवं च णं उदाहु-संतेगइआ मणुस्सा भवंति, तेसिं च णं एवं वुत्तपुर्व भवइ-णो खलु वयं संचाएमो मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पवइत्तए, सावयं ण्डं अणुपुत्वेणं sectAccesemese ॥४१२॥ FarPurwanaBNamunoonm ~828~ Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र -२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [ ७५ ], निर्युक्ति: [ २०५ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः गुत्तस्स लिसिस्सामो, ते एवं संखवेंति ते एवं संखं ठवयंति ते एवं संखं ठावयंति नन्नत्थ अभिओएणं गाहावइ चोरग्गहणविमोक्खणयाए तसेहिं पाणेहिं निहाय दंडं, तंपि तेसिं कुसलमेव भवइ ॥ ( सू० ७५) सद्वाचं सवादं बोदकः पेढालपुत्रो भगवन्तं - गौतममेवमवादीत्, तद्यथा हे आयुष्मन् गौतम ! कतरान्प्राणिनो यूयं वदथ, त्रसा एव ये प्राणाः प्राणिनस्त एव त्रसाः प्राणा इत्युतान्यथेति, एवं पृष्टो भगवान् गौतमस्तमुदकं सद्वाचं पेढालपुत्रमेवमवादीत्, तद्यथा| आयुष्ममुदक ! यान्प्राणिनो यूयं वदथ त्रसभूताः सलेनाविर्भूताः प्राणिनो नातीता नाप्येष्याः, किं तु । वर्तमानकाल एव त्रसाः प्राणा इति, तानेव वयं वदामखसा:- त्रसत्वं प्राप्तास्तत्काल वर्तिन एवं त्रसाः प्राणा इति एतदेव व्यत्ययेन विभणिषुराह- 'जे वय 'मित्यादि, यान् वयं वदामखसा एव प्राणानसाः प्राणास्तानेव यूयमेवं वदथ - प्रसभूता एवं प्राणात्रसभूताः प्राणाः, एवं च व्यवस्थिते एते अनन्तरोक्ते द्वे अपि स्थाने एकार्थे- तुल्ये भवतो, न ह्यत्रार्थभेदः कविदस्त्यन्यत्र शब्दभेदादिति, एवं च व्यवस्थिते किमायुष्मन् ! युष्माकमयं पक्षः सुष्ठु प्रणीततरो—– युक्तियुक्तः प्रतिभासते ?, तद्यथा-त्रसभूता एव प्राणाखसभूताः प्राणा इति, अयं तु पक्षो दुष्प्रणीततरो 'भवति' प्रतिभासते भवतां ?, तद्यथा---सा एवं प्राणासाः प्राणाः सन्ति चैकार्थत्वेन ( सति चैकार्थत्वे ) भवतां कोऽयं व्यामोहो १ येन शब्दभेदमात्रमाश्रित्यात एक पक्षमाक्रोशपथ द्वितीयं लभिनन्दथ | इति । तदयमपि तुल्येऽप्यर्थे सत्येकस्य पक्षस्याक्रोशनमपरस्य सविशेषणपक्षस्याभिनन्दनमित्येष दोषाभ्युपगमो भवतां 'नो नैयापिको' न न्यायोपपन्नो भवति, उभयोरपि पक्षयोः समानखात् केवलं सविशेषणपक्षे भूतशब्दोपादानं मोहमावहतीति ॥ यच्च भवताऽस्माकं प्राग्दोषोद्भावनमकारि, तद्यथा - त्रसानां वधनिवृत्तौ तदन्येषां वधानुमतिः स्यात् साधोः, तथा भूतशब्दानु Education Internation For Parts Only ~829~ caror Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक -], मूलं [७५], नियुक्ति: [२०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः तापादानेऽनन्तरमेव अस स्थावरपर्यायापमं व्यापादयतो व्रतभङ्ग इत्येतत्तुचोघजातं परिहतुकाम आह-णमिति वाक्यालकारे, भग- ७ नाल२ श्रुतस्क- वान्गौतमस्खामी, चशब्दः पुनःशब्दार्थे, पुनराह, तद्यथा-'सन्ति' विद्यन्ते एके केचन लघुकर्माणों मनुष्याः प्रवज्या कर्तुमस- न्दीयाध्य. न्धे शीला 18मर्थाः, तद्व्यतिरेकेणैव धर्म चिकीर्षवः, तेषां चैवमध्यवसायिनां साधोधर्मोपदेशप्रवणस्याग्रत इदमुक्तपूर्व भवति, तद्यथा--भोः डीयावृत्तिः साधो! न खलु वयं शक्नुमो मुण्डा भवितुं-प्रव्रज्यां ग्रहीतुमगाराद्-गृहादनगारता-साधुभावं प्रतिपत्त, वयं त्वानुपूर्येण-क्रमशो 'गोत्रस्येति गां त्रायत इति गोनं-साधुखं तस्य साधुभावस्य पर्यायेण-परिपाट्याऽऽत्मानमनुश्लेषयिष्यामः, इदमुक्तं भवति-पूर्व ॥४१३॥ देशविरतिरूपतया श्रावकधर्म गृहस्थयोग्यमनिन्धमनुपालयामः, ततोऽनुक्रमेण पश्चाच्छ्रमणधर्ममिति । तत एवं ते 'संख्या व्यवस्था 'श्रावयन्ति' प्रत्याख्यानं कुर्वन्तः प्रकाशयन्ति, तद्यथा-नान्यत्राभियोगेन, स चाभियोगो राजाभियोगो गणामियोगों क्ला-18|| भियोगो देवताभियोगो गुरुनिग्रहश्चेत्येवमादिनाऽभियोगेन च्यापादयतोऽपि त्रस न बतभङ्गः । तथा गृहपतिचोरविमोक्षणतयेत्यस्यायमर्थः कस्यचिलहपतेः पट् पुत्राः, तैश्च सत्यपि पितृपितामहक्रमायाते महति विने तथाविधकर्मोदयाद्राजकुलभाण्डा| गारे चौर्यमकारि, राजपुरुषैश्च भवितव्यतानियोगेन गृहीतास्ते इत्येके, परे बन्यथा व्याचक्षते, तद्यथा-रत्नपुरे नगरे रत्नशेखरो नाम राजा, तेन च परितुष्टेन रत्नमालाग्रमहिषीप्रमुखान्तःपुरस्य कौमुदीप्रचारोऽनुज्ञातः, तदवगम्य नागरलोकेनापि राजानुमत्या खकीयस्य स्त्रीजनस्य तथैव क्रीडनमनुमतं, राज्ञा च नगरे सडिण्डिमशब्दमाघोषितं, तद्यथा-अस्तमनोपरि कौमुदीमहोत्सवे प्रवृत्ते यः कश्चित्पुरुषः समुपलभ्यते नगरमध्ये तस्याविज्ञप्तिकः शरीरनिग्रहः क्रियत इति, एवं च व्यवस्थिते सत्येकस्य वणिजः पटू पुत्राः, ते च कौमुदीदिने क्रयविक्रयसंन्यवहारव्यग्रतया तावत्स्थिता यावत्सविताऽस्तमुपगतः । तदनन्तरमेव सगितानि च ~830~ Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [७५], निर्युक्ति: [२०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - नगरद्वाराणि तेषां च तत्कालात्ययान्न निर्गमनमभूत्, ततस्ते भयसंभ्रान्ता नगरमध्य एवात्मानं गोपयित्वा स्थिताः, ततो निष्क्रान्ते कौमुदीप्रचारे राज्ञाऽऽरक्षिकाः समाहूयादिष्टाः – यथा सम्यक् निरूपयत यूयं नात्र नगरे कौमुदीचारे कश्चित्पुरुषो व्यवस्थित १ इति, तैरप्यारक्षिकैः सम्यग् निरूपयद्भिरुपलभ्य पणिकपुत्रवृचान्तो यथावस्थित एव राज्ञे निवेदितः राज्ञाऽप्याज्ञाभङ्गकुपितेन तेषां षण्णामपि वधः समादिष्टः, ततस्तत्पिता पुत्रवधसमाकर्णन गुरुशोकविहलोऽकाण्डा पतितकुलक्षयोद्भ्रान्तलोचनः किंकर्तव्यतामूढतया गणितविधेया विधेयविशेषो राजानमुपस्थितोऽवादीच्च गद्गदया गिरा — यथा मा कृथा देवास्माकं कुलक्षयं, गृह्यतामिदमस्मदीयं कुलक्रमायातं स्वभुजोपार्जितं प्रभूतं द्रविणजातं, मुध्यतां मुच्यताममी पट् पुत्राः क्रियतामयमस्माकमनुग्रह इति । एवमभिहितो राजा तद्वचनमनाकर्ण्य पुनरपि सविशेषमादिदेश, असावपि वणिक्सर्ववधाशङ्की सर्वमोचनानभिप्राय राजानमवेत्य पञ्चानां मोचनं याचितवान् तानप्यसौ राजा न मोक्तुमना इत्येवमभिगम्य चतुर्मोचनकृते सादरं विशप्तवान् तं तथापि राजा तमनादृत्य कुपितवदन एव स्थितः, ततस्त्रयाणां विमोचने कृतादरस्तत्पिताऽभूत्, तानप्यमुञ्चन्तं राजानं ज्ञाता गणितखापराधो द्वयोर्मोचनं प्रार्थितवान् तत्राप्यवज्ञाप्रधानं नृपतिमवगम्य ततः पौरमह चमसमेतो राजानमेवं विज्ञप्तवान्, तद्यथादेवाकाण्ड एवास्माकं कुलक्षयः समुपस्थितः, तस्माच्च भवन्त एव त्राणायालम्, अतः क्रियतामेकमत्पुत्रविमोचनेन प्रसाद इति भणिखा पादयोः सपौरमहत्तमः पतितो राज्ञापि संजातानुकम्पेन मुक्तस्तदेको ज्येष्ठपुत्र इति । तदेवमस्य दृष्टान्तस्य दार्शन्तिकयोजनेयं, तद्यथा-साधुनाऽभ्युपगतसम्यग्दर्शनमवगम्य श्रावकमखिलप्राणातिपातविरतिग्रहणं प्रति चोदितोऽप्यशक्तितया यदा न सर्वप्राणातिपातविरतिं प्रतिपद्यते, यथाऽसौ राजा वणिजात्यर्थं विज्ञापितोऽपि न पडपि पुत्रान् मुमुक्षति, नापि पञ्चचतुस्त्रिद्वि Eaton International For Parts Only ~ 831~ Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक -], मूलं [७५], नियुक्ति : [२०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः पत्रकता संख्या पुत्रानिति, तत एकविमोक्षणेनात्मानं कृतार्थमिव मन्यमानः स्थितोऽसौ, एवं साधोरपि श्रावकस्स यथाशक्ति व्रतं गृह्णत-18 नाल२ श्रुतस्क- तदनुरूपमेवाणुव्रतदानमविरुद्धमिति, यथा च तस्य वणिजोन शेपपुत्रवधानुमतिलेशोऽप्यस्ति, एवं साधोरपि न शेषप्राणिवधानुमति-II न्धे शीला- प्रत्ययजनितः कर्मबन्धो भवति, किं तर्हि ?, यदेव व्रतं गृहीत्वा यानेव सत्त्वान् चादरान् संकल्पजप्राणिवधनिवृत्या रक्षति तनिकीयावृत्तिः | मित्तः कुशलानुवन्ध एवेत्येतत्सूत्रेणैव दर्शयितुमाह-'तसेहि मित्यादि, वसन्तीति बसा:-द्वीन्द्रियादयस्तेभ्यः सकाशानिधाय ॥४१४॥ निहाय वा परित्यज्येतियावत् के ?-दण्डयतीति दण्डसं परित्यज्य, वसेषु प्राणातिपातविरतिं गृहीत्वेत्यर्थः, 'तदपि च त्रसप्राणाAR| तिपातविरमणवतं तेषां देशविरतानां कुशलहेतुत्वात्कुशलमेव भवति ॥ यच्च प्रागभिहितं, तद्यथा-तमेव वसं स्थावरपर्यायापन || नागरकमिव बहिःस्थं व्यापादयतोऽवश्यंभावी व्रतभङ्ग इत्येतत् परिहतुकाम आहतसाबि बुचंति तसा तससंभारकडेणं कम्मुणा णामं च णं अन्भुवगयं भवइ, तसाउयं च णं पलिक्खीणं भवह, तसकायट्टिइया ते तओ आउयं विप्पजहंति, ते तओ आउयं विप्पजहिता थावरत्ताए पचायंति । थावरावि चुचंति थावरा थावरसंभारकडेणं कम्मुणा णामं च णं अन्भुवयं भवइ, थावराउयं च पलिक्खीणं भवइ, थावरकायट्टिइया ते तओ आउयं विप्पजहंति तओ आ K ॥४१४॥ उयं विष्पजहित्ता भुजो परलोइयत्ताए पञ्चायंति, ते पाणावि बुचंति, ते तसावि बुचंति, ते महाकाया ते चिरहिइया ।। (सूत्रं ७६) 'बसा अपि' दीन्द्रियादयोऽपि सा इत्युच्यन्ते च प्रसाः त्रससंभारकृतेन कर्मणा भवन्ति, संभारो नामावश्यतया कर्मणो eeseeeeeeeeeeeeeeera 1920 ~832~ Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [७६], निर्युक्ति: [ २०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - विपाकानुभवेन वेदनं तथेह त्रसनाम प्रत्येकनामेत्यादिकं नामकर्माभ्युपगतं भवति त्रसवेन यत्परिषद्धमायुष्कं तद्यदोदयप्राप्तं भवति, तदा त्रससंभारकृतेन कर्मणा त्रसा इति व्यपदिश्यन्ते, न तदा कथञ्चित्स्थावरत्वव्यपदेशः, यदा च तदायुः परिक्षीणं भवति, णमिति वाक्यालङ्कारे, त्रसकायस्थितिकं च कर्म यदा परिक्षीणं भवति, तच्च जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कृष्टतः सातिरेक सहस्रदयसागरीपमपरिमाणं तदा ततस्त्रसकाय स्थितेरभावात्तदायुष्कं ते परित्यजन्ति, अपराण्यपि तत्सहचरितानि कर्माणि परित्यज्य स्थावरलेन प्रत्यायान्ति, स्थावरा अपि स्थावरसंभारकृतेन कर्मणा तत्रोत्पद्यन्ते, स्थावरादिनाम च तत्राभ्युपगतं भवति, अपराण्यपि तत्सहचरितानि सर्वात्मना त्रसखं परित्यज्य स्थावरलेनोदयं यान्ति इति, एवं च व्यवस्थिते कथं स्थावरकार्यं व्यापादयतो गृहीतत्र सकायप्राणातिपातनिवृत्तेः श्रावकस्य प्रवभङ्ग इति १ । किंचान्यत् – 'धावराज्यं च णमित्यादि, यदा तदपि स्थावरायुष्कं परिक्षीणं भवति तथा स्थावरकायस्थितिश्च सा जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कृष्टोऽनन्तकालमसंख्येयाः पुद्गलपरावर्ता इति, ततस्तत्कायस्थितेरभावाचदायुष्कं परित्यज्य 'भूयः पुनरपि पारलौकिकलेन स्थावरकायस्थितेरभावात् जसलेन सामर्थ्यात्प्रत्यायान्ति तेषां च त्रसानामन्वर्थिकान्यभिधानान्यभिधित्सुराह - 'ते पाणावी' त्यादि, ते त्रससंभारकृतेन कर्मणा समुत्पन्नाः सन्तः सामान्यसंज्ञया प्राणा अप्युच्यन्ते, तथा विशेषतः 'बस भयचलनयो रिति धात्वर्थानुगमाद्भयचलनाभ्यामुपपेताखसा अप्युच्यन्ते, तथा महान् कायो येषां ते महाकायाः योजन लक्षप्रमाणशरीरविकुर्वणात् तथा चिरस्थितिका अप्युच्यन्ते, भवस्थित्यपेक्षया त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमायुष्कसद्भावात्, ततस्त्र सपर्यायव्यवस्थितानामेव प्रत्याख्यानं तेन गृहीतं, न तु स्थावरकायत्वेन व्यवस्थितानामपीति । यस्तु नागरकदृष्टान्तो भवतोपन्यस्तः असावपि दृष्टान्तदाष्टन्तिकयोरसाम्यात्केवलं भवतोऽनुपासितगुरुकुलवासित्वमावि Eucation International For Pasta Lise Only ~ 833~ Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्कवे शीलाकीयावृतिः ॥४१५॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र -२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [७६], निर्युक्ति: [ २०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र [०२] “सुत्रकृत्" मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः ष्करोति, तथाहि - नगरधर्मैर्युक्तो नागरिकः स च मया न हन्तव्य इति प्रतिज्ञां गृहीत्वा यदा तमेव व्यापादयति बहिः स्थितं पर्यायापनं तदा तस्य किल व्रतभङ्ग इति भवतः पक्ष इति, स च न घटते, यतो यो हि नगरधर्मैरुपेतः स वहिःस्थोऽपि नागरिक एव, अतः पर्यायापन इत्येतद्विशेषणं नोपपद्यते, अथ सामस्त्येन परित्यज्य नगरधर्मानसौ वर्तते अतस्तमेवेत्येतद्विशेषणं नोपपद्यते, तदेवमत्र त्रसः सर्वात्मना त्रसत्वं परित्यज्य यदा स्थावरः समुत्पद्यते तदा पूर्वपर्यायपरित्यागादपरपर्यायापन्नत्वात्रस एवासौ न भवति, तद्यथा - नागरिकः पल्यां प्रविष्टस्तद्धर्मोपेतत्वात्पूर्वधर्मपरित्यागाच्च नागरिक एवासौ न भवतीति ॥ पुनरप्यन्यथोदकः पूर्वपक्षमारचयितुमाह Eucation International सवायं उदर पैढालपुत्ते भएवं गोयमं एवं वयासी- आउसंतो गोयमा ! णत्थि णं से केह परियाए जपणं समणोवासगस्स एगपाणातिवायविरएव दंडे निक्खित्ते, कस्स णं तं हे ?, संसारिया खलु पाणा, थावराव पाणा तसत्ताए पञ्चायंति, तसाबि पाणा थावरत्ताए पच्चायंति, थावरकायाओ विप्पमुचमाणा सवे तसकार्यसि उबवजंति, तसकायाओ विप्पमुचमाणा सबै थावरकायंसि उववज्जंति, तेसिं च णंथावकासि बन्नाणं ठाणमेयं धत्तं ॥ सवायं भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं एवं वयासी- णो खलु आउसो ! अस्माकं वत्तवएणं तुम्भं चैव अणुष्पवादेणं अस्थि णं से परियाए जे णं समणोवासगस्स सबपाणेहिं सवभूएहिं सङ्घजीवेहिं सबसत्तेहिं दंडे निक्खित्ते भवइ, कस्स णं तं हेडं १, संसारिया खलु पाणा, तसावि पाणा धावरत्ताए पचायंति, थावरावि पाणा तसत्ताए पञ्चायंति, तसकायाओ विप्पमुचमाणा For Penal Use On ~ 834~ ७ नाल न्दीयाध्य. श्रावकप्र त्याख्यान स्य सविष यता ॥४१५॥ Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [७७], नियुक्ति: [२०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः 200 eceaepela 0 అందించిన చివరి వనం सबे थाघरकार्यसि उववज्जति, थावरकायाओ विप्पमुचमाणा सबे तसकार्यसि उववजंति, तेसिं च णं तसकार्यसि उववन्नाणं ठाणमेयं अघतं, ते पाणावि बुचंति, ते तसावि बुचंति, ते महाकाया ते चिरहिया. ते वहयरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स सुपचक्खायं भवति, ते अप्पयरागा पाणा जेहि समणोबासगस्स अपचक्खायं भवइ, से महया तसकायाओ उवसंतस्स उपट्ठियस्स पडिविरयस्स जन्नं तुब्भे वा अन्नो वा एवं बदह-णत्थि णं से केइ परियाए जंसि समणोवासगस्स एगपाणाएवि दंडे णिक्खित्ते, अयंपि भेदे से णो णेयाउए भवइ ।। सूत्रं ७७॥ सदाचं सवादं वोदका पेढालपुत्रो भगवन्तं गौतममेवमयादीत् , तद्यथा-आयुष्मन गौतम ! नास्त्यसौ कविपर्यायो यसिने-18 कमाणातिपातविरमणेऽपि श्रमणोपासकस विशिष्टविषयामेव प्राणातिपातनिवृत्तिं कुर्वतो दण्डः-प्राण्युपमर्दनरूपो निक्षिप्तपूर्वःपरित्यक्तपूर्वो भवति, इदमुक्तं भवति-श्रावकेण प्रसपयोयमेकमुद्दिश्य प्राणातिपातविरतिव्रतं गृहीतं, संसारिणां च परस्परगम-12 नसंभवात् ते च प्रसाः सर्वेऽपि किल स्थावरखमुपगतास्ततश्च सानामभावानिर्विषयं तत्प्रत्याख्यानमिति । एतदेव प्रश्नपूर्वक दर्शयितुमाह-'कस्स णं तं हेज'मित्यादि, णमिति वाक्यालङ्कारे, कस्य हेतोरिदमभिधीयते, केन हेतुनेत्यर्थः । सांसारिकाः प्राणाः परस्परसंसरणशीला यतस्ततः स्थावराः सामान्येन त्रसतया प्रत्यायान्ति, असा अपि स्थावरतया प्रत्यायान्ति । तदेवं संसारिणां परस्परगमनं प्रदाधुना यत्परेण विवक्षितं तदाविष्कुर्ववाह-'थावरकायाओ'इत्यादि, स्थावरकायाद्विप्रमुच्यमानाः खायुषा तत्सहचरितैश्च कर्मभिः सर्वे-निरवशेषाखसकाये समुत्पद्यन्ते, त्रसकायादपि तदायुषा विप्रमुच्यमानाः सर्वे स्थावरकाये raaraarana: ~835~ Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्क न्धे शीलाकीयावृत्तिः ॥४१६ ॥ “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [७७], निर्युक्ति: [ २०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - समुत्पद्यन्ते तेषां च त्रसानां सर्वेषां स्थावर कायसमुत्पन्नानां स्थानमेतद् घात्यं वर्तते तेन श्रावकेण स्थावरकायवधनिवृत्तेरकर - शाद्, अतः सर्वस्य त्रसकायस्य स्थावरका यत्वेनोत्पत्तेर्निर्विषयं तस्य श्रावकस्य त्रसवध निवृत्तिरूपं प्रत्याख्यानं प्राप्नोति, तद्यथाकेनचिद्रतमेवंभूतं गृहीतं यथा-मया नगरनिवासी न इन्तव्यः, तच्चोइसितं नगरम्, अतो निर्विषयं तत्तस्य प्रत्याख्यानम्, एवमत्रापि सर्वेषां त्रसानामभावान्निर्विषयत्वमिति । एवमुदकेनाभिहिते सति तदभ्युपगमेनैव गौतमस्वामी दूषयितुमाह सद्वाचं सवाद वा तमुदकं पेढालपुत्रं गौतमस्वाम्येवमवादीत्, तद्यथा-नो खल्वायुष्मन्नुदक! अस्माकमित्येतन्मगधदेशे आगोपालाङ्गनादिप्रसिद्धं संस्कृतमेवोश्चार्यते तदिहापि तथैवोच्चारितमिति, तदेवमसाकं संबन्धिना वक्तव्येन नैतदशोभनं किं तर्हि ?, युष्माकमेवानुप्रवादेनैतदशोभनं इदमुक्तं भवति- अस्मद्वक्तव्येनास्य चोद्यस्यानुत्थानमेव, तथाहि नैतद्भूतं न च भवति नापि कदाचिद्भविष्यति यदुत - सर्वेऽपि स्थावरा निर्लेपतया त्रसत्वं प्रतिपद्यन्ते, स्थावराणामानन्त्यात्रसानां चासंख्येयलेन तदाधारत्वानुपपत्तेरित्यभिप्रायः, तथा असा अपि सर्वेऽपि न स्थावरस्वं प्रतिपन्ना न प्रतिपद्यन्ते नापि प्रतिपत्स्यन्ते इदमुक्तं भवतियद्यपि विवक्षितकालवर्तिनसाः कालपर्यायेण स्थावरकायत्वेन यास्यन्ति तथापि अपरापरत्रसोत्पच्या त्रसजात्यनुच्छेदान्त्र कदाचिदपि त्रसकायशून्यः संसारो भवतीति, तदेवमसन्मतेन चोद्यानुत्थानमेव, अभ्युपगम्य च भवदीयं पक्षं युष्मद्भ्युपगमेनैव परिहियते—तदेव पराभिप्रायेण परिहरति-अस्त्यसौ पर्यायः - स चायं भवदभिप्रायेण यदा सर्वेऽपि स्थावरास्त्रसत्वं प्रतिपद्यन्ते यस्मिन्पर्याये - अवस्थाविशेषे श्रमणोपासकस्य कृतन्त्रसप्राणातिपातनिवृचेः सतः प्रसत्वेन च भवदभ्युपगमेन सर्वप्राणिनामुत्पत्तेः तैश्व सर्वप्राणिभित्रसत्वेच भूतैः - उत्पन्नैः करणभूतैस्तेषु वा विषयभूतेषु दण्डो निक्षिप्तः - परित्यक्तः, इदमुक्तं भवति यदा Ja Education International For Parts Only ~836~ ७ नालन्दीयाध्य श्रावकप्रत्याख्यानस्य सविषयता ।।४१६ ॥ Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक -], मूलं [७७], नियुक्ति: [२०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः सर्वेऽपि स्थावराः भवदभिप्रायेण त्रसत्वेनोत्पद्यन्ते तदा सर्वप्राणिविषयं प्रत्याख्यानं श्रमणोपासकस्य भवतीति । एतदेव प्रश्नपू-1 के दर्शयितुमाह -'कस्स णं हेउ'मित्यादि, सुगम यावत्रसकाये समुत्पन्नानां स्थानमेतदयात्यम्-अघाताई, तत्र विरतिस-18| द्भावादित्यभिप्रायः । ते च सा नरकतिर्यनरामरगतिभाजः सामान्यसंज्ञया प्राणिनोऽप्यभिधीयन्ते, तथा विशेषसंजया भयचलनोपेतत्वातसा अप्युच्यन्ते, तथा महान् कायः शरीरं येषां ते महाकायाः, क्रियशरीरस्य योजनलक्षप्रमाणत्वादिति ।। तथा चिरस्थितिकाः त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमपरिमाणत्वाद्भवस्थितेः, तथा (च) ते प्राणिनखसा बहुतमा-भूयिष्ठा यैः श्रमणोपासकस सुप्रत्याख्यानं भवति, सानुद्दिश्य तेन प्रत्याख्यानस्य ग्रहणात् तदभ्युपगमेन च सर्वस्थावराणां त्रसत्वेनोत्पचेरतस्तेऽल्पतरकाः प्राणिनो यैः करणभूतैः श्रावकस्याप्रत्याख्यानं भवति, इदमुक्तं भवति-अल्पशब्दस्वाभाववाचित्वाब सन्त्येव ते येवप्रत्याख्यानमितीत्येवं पूर्वोक्तया नीत्या 'से तस्य श्रमणोपासकस्य महतस्त्रसकायादुपशान्तस्य-उपरतस्य प्रतिविरतस्य सतः सुप्रत्याख्यानं | भवतीति संबन्धः, तदेवं व्यवस्थिते णमिति वाक्यालङ्कारे ययूयं वदथान्यो वा कश्चित्तद्यथा-नास्त्यसावित्यादि सुगर्म यावत् 'णोणेयाउए भवइति ।। साम्प्रतं प्रसानां स्थावरपर्यायापनानां व्यापादनेनापि न व्रतमङ्गो भवतीत्यर्थव प्रसिद्धये दृष्टान्तत्रयमाह भगवं च णं उदाह नियंठा खलु पुच्छियवा-आउसंतो! नियंठा इह खल्लु संतेगइया मणुस्सा भवंति, तेसिं च एवं वुत्तपुवं भवइ-जे इमे मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पदइए, एसिं च णं आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते, जे इमे अगारमावसंति एएसि णं आमरणंताए दंडे णो णिक्वित्ते, केई चणं समणम ReceneseeeestaeneweA For P OW ~837~ Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [७८], नियुक्ति: [२०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः सूत्रकताओं २श्रुतस्कन्धे शीलाकीयाचिः ॥४१७॥ s esearcelesedeo ७नालन्दीयाध्य. श्रावकत्याख्यानस्य सविषयता जाव वासाइं चउपचमाई छट्ठहसमाई अप्पयरो वा भुजयरोवा देसं दूई जित्ता अगारमावसेजा ?, हतावसेज्जा, तस्स णं तं गारत्थं वहमाणस्स से पञ्चक्खाणे भंगे भवइ ?, णो तिणढे समढे, एवमेव समणोवासगस्सवि तसेहिं पाणेहिं दंडे णिक्खित्ते, थावरेहिं पाणेहिं दंडे णो णिक्खित्ते, तस्स गं तं थावरकायं वहमाणस्स से पच्चक्खाणे णो भंगे भवह, से एवमायाणह? णियंठा 1, एवमायाणियचं ॥ भगवं च णं उदाहु नियंठा खलु पुच्छियवा-आउसंतो नियंठा! इह खलु गाहावेइ वा गाहावइपुत्तो वा तहप्पगारेहिं कुलेहिं आगम्म धम्मं सवणवत्तियं उबसंकमेजा, हंता उघसंकमेजा,तेर्सिचणं तहप्पगारार्ण धम्म आइक्खियचे?, हंता आइक्खियवे, किं ते तहप्पगारं धम्मं सोचा णिसम्म एवं वएजा-इणमेव निग्गंध पावयणं सचं अणुत्तरं केवलियं पडिपुणं संसुद्धं णेयाउयं सल्लकत्तणं सिद्धिमग्गं मुत्तिमग्गं निजाणमग्गं निहाणमग्गं अवितहमसंदिद्धं सबदुक्खप्पहीणमग्गं, एत्थं ठिया जीवा सिझंति बुझंति मुचंति परिणिवायंति सबदुक्खाणमंतं करेंति, तमाणाए तहा गच्छामो तहा चिट्ठामो तहा णिसियामो तहा तुयद्दामो तहा भुंजामो तहा भासामो तहा अब्भुट्ठामो तहा उट्ठाए उद्धेमोत्ति पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं संजमेणं संजमामोत्ति वएज्जा ?, हंता वएजा, किं ते तहप्पगारा कप्पंति पवावित्तए !, हंता कप्पति, किं ते तहप्पगारा कप्पंति मुंडावित्तए, हंता कप्पंति, किं ते तहप्पगारा कप्पंति सिक्खावित्तए !, हंता कप्पंति, किं ते तहप्पगारा कप्पंति उचट्ठावित्तए ?, हंता कप्पंति, तेसिं च णं तहप्पगाराणं सबपाणेहिं जाव सबसत्तेहिं ॥४१७॥ ae ~838~ Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र -२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [ ७८ ], निर्युक्ति: [ २०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .....आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र -[ ०२ ] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः दंडे णिक्खिते?, हंता णिक्खित्ते, से णं एयारूवेणं बिहारणं विहरमाणा जाव यासाई चउपंचमाई छसमाई वा अप्पयरो वा भुजयरो वा देसं दृइज्जेत्ता अगारं वज्जा ?, हंता वएज्जा, तस्स णं सहपाणेहिं जाव सङ्घसत्तेहिं दंडे णिक्खिते ?, णो इण्डे समट्ठे से जे से जीवे जस्स परेणं सहपाणेहिं जाव सबसत्तेहिं दंडे णो णक्खिते, से जे से जीवे जस्स आरेणं सबपाणेहिं जाव सत्तेहिं दंडे णिक्खिते, से जे से जीवे जस्स इयाणि सहपाणेहिं जाव सत्तेहिं दंडे णो णिक्लित्ते भवइ, परेणं असंजए आरेण संजए, इयाणिं असंजए, असंजयस्स णं सङ्घपाणेहिं जाव सत्तेहिं दंडे णो णिक्खित्ते भवइ, से एवमायाणह ? नियंठा !, से एवमायाणियां ॥ भगवं च णं उदाहू नियंठा खलु पुच्छिपवा - आउसंतो! नियंठा इह खलु परिक्षाइया वा परिवाइ आओ वा अन्नपरेहिंतो तित्थाययणेहिंतो आगम्म धम्मं सवणवत्तियं उवसंकमेज्जा ?, हंता Education International मेजा, किं तेसिं तत्पगारेणं धम्मे आइक्खियते ?, हंता आइक्वियवे, तं चेव उवद्वावित्तए जाव कति ?, हंता कप्पंति, किं ते तहप्पगारा कप्पंति संभुंजित्तए ?, हंता कप्पंति, तेणं एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणा तं चैव जाव अगारं बज्जा ?, हंता वएज्जा, ते णं तहष्पगारा कप्पंति संभुंजित्तए ?, णो इणट्टे समहे, से जे से जीवे जे परेणं नो कप्पंति संभुंजित्तए, से जे से जीवे आरेणं कप्पंति संभुंजित्तए, से जे से जीवे जे याणीणो कति संभुंजित्तए, परेणं अस्समणे आरेणं समणे, इयाणिं अस्समणे, अस्समणेणं सद्धिं णो कप्पंति समणाणं निग्गंथाणं संभुंजित्तए, से एवमायाणह? नियंठा !, से एवमायाणियवं ॥ सूत्रं ७८ ॥ For Park Use Only ~839~ rary org Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक -], मूलं [७८], नियुक्ति: [२०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः सूत्रकृताङ्गे णमिति वाक्यालङ्कार, चशब्दः पुनःशब्दार्थे, पुनरपि भगवान् गौतमखाम्बेवाह-स्खौद्धृत्यपरिहरणार्थमपरानपि तत्स्थविरान् । २ श्रुतस्क- साक्षिणः कर्तुमिदमाह–'निर्ग्रन्धा' युष्मत्स्थविराः खलु प्रष्टव्याः, तद्यथा-आयुष्मन्तो निर्गन्धा! युष्माकमप्येतद्वक्ष्यमाणमभिम- न्दीयाध्य. न्धे शीला- तमाहोखिन्नेति, अवष्टम्मेन चेदमाह, युष्माकमप्येतदभिप्रेतं यदहं बच्मि, तद्यथा--शान्तिः-उपशमस्तत्प्रधाना एके केचन मनुष्या आवककीयावृत्तिः भवन्ति, न नारकतिर्यग्देवाः, किं तर्हि १, मनुष्याः, तेपि नाकर्मभूमिजा नापि म्लेच्छा अनायों वा, तेषां चार्यदेशोत्पन्नानामु विसावायचायगोपनाना-त्याख्यान॥ पशमप्रधानानाम् एतद् उक्तपूर्व भवति-अयं व्रतग्रहणविशेषो भवति, तद्यधा-य इमे मुण्डा भूत्वाऽगाराद्-गृहानिर्गत्यानगारता स्य सविष॥४१॥ यता प्रतिपन्नाः-प्रबजिता इत्यर्थः, एतेषां चोपर्यामरणान्तं मया दण्डो निक्षिप्तः--परित्यक्तो भवति, इदमुक्तं भवति-कश्चित्तथा- |विधो मनुष्यो यतीनुद्दिश्य व्रतं गृह्णाति, तद्यथा-न मया यावज्जीवं यतयो हन्तव्याः, तथा ये चेमेऽमार-गृहवासमावसन्ति तेषां । | दण्डो निक्षिप्त इत्येवं केषांचिद् व्रतग्रहणविशेषे व्यवस्थिते सति इदमपदिश्यते-तत्र केचन श्रमणाः प्रबजिताः कियन्तमपि कालं प्रव्रज्यापर्याय प्रतिपाल्य, तमेव कालविशेष दर्शयति--यावद्वर्षाणि चत्वारि पञ्च वा पड़ दश वा, अख चोपलक्षणार्थत्वादन्योऽपि । 18|| कालविशेष द्रष्टव्यः, तमेवाह-अल्पतरं वा प्रभूततरं वा कालं तथा देशं च 'दूइजित्त'त्ति विहत्य कुतबित्कर्मोदयात्तथाविधप-118|| परिणतेरगार-गृहवासं बसेयुः-गृहस्था भवेयुरित्येवंभूतः पर्यायः किं संभाव्यते । उत नेत्येवं पृष्टा निर्ग्रन्थाः प्रत्यूचुः-हन्त गृह-1% वासं ब्रजेयुः, तस्य च यतिवधगृहीतव्रतस्य तं गृहस्वं व्यापादयतः किं व्रतभङ्गो भवेदुत नेति', आहुर्नेति, एवमेव श्रमणोपासक-8॥११॥ खापि त्रसेषु दण्डो निक्षिप्तो न स्थावरेविति, अतस्त्रसं स्थावरपर्यायापवं व्यापादयतस्तत्प्रत्याख्यानभनो न भवतीति ॥ साम्प्रतं ॥४॥ पुनरपि पयोयापजस्थान्यथात्वं दर्शयितुं द्वितीयं दृष्टान्तं प्रत्याख्यातृविषयगतं दर्शयितुकाम आह-भगवानेव गौतमस्खाम्याह, || ~840~ Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [७८], नियुक्ति: [२०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः तद्यथा-गृहस्थाः यतीनामन्तिके समागत्य धर्म श्रुत्वा सम्यक्त्वं प्रतिपद्य तदुत्तरकालं संजातवैराग्याः प्रत्रज्यां गहीत्वा पुनस्तथा-1 विधकर्मोदयातामेव त्वजन्ति, ते च पूर्व गृहस्थाः सर्वारम्भप्रवृत्तास्तदारतः प्रबजिताः सन्तो जीवोपमईपरित्यक्तदण्डाः पुनः प्रब| ज्यापरित्यागे सति नो परित्यक्तदण्डाः, तदेवं तेषां प्रत्याख्याणां यथावस्थात्रयेऽप्यन्यथात्वं भवत्येवं त्रसस्थावरयोरपि द्रष्टव्यम्, एतच "भगवं च णमुदाह'रित्याग्रन्थस्य से एवमायाणिय' इत्येतत्पर्यवसानस्य तात्पर्य, अक्षरघटना तु सुगमेति खबुयार कार्या ॥ तदेवं द्वितीयं दृष्टान्तं प्रदाधुना तृतीयं दृष्टान्तं परतीधिकोद्देशन दर्शयितुमाह-'भगवं चणं उदाहु इत्यादि, यावत् से एवमायाणिय'ति उचानार्थे । तात्पयोर्थस्त्वयं-पूर्व परिव्राजकादयः सन्तोऽसंभोग्याः साधूनां गृहीतश्रामण्याः साधूनां संभोग्याः संवृत्ताः पुनस्तदभावे त्वसंभोग्या इत्येवं पर्यायान्यथात्वं त्रसस्थावराणामप्यायोजनीयमिति ॥ तदेवं दृष्टान्तत्रये प्रथम दृष्टान्ते | 8 || हन्तव्यविषयभूतो यतिगृहस्थभावेन पर्यायभेदो दर्शितो द्वितीये दृष्टान्ते प्रत्याख्यातृविषयगतो गृहस्थयतिपुनर्गृहस्थभेदेन पर्या-18 यभेदः प्रदर्शितः, तृतीये तु दृष्टान्ते परतीर्थिकसाधुभावोनिष्क्रमणभेदेन संभोगासंभोगद्वारेण पर्यायभेदोव्यवस्थापित इति । तदेवं दृष्टान्तप्राचुर्येण निर्दोषां देशविरतिं प्रसाध्य पुनरपि तद्गतमेव विचारं कर्तुकाम आह भगवं च णं उदाहु संतेगइया समणोवासगा भवंति, तेसिं च णं एवं वुत्तपुवं भवइ-णो खलु वयं संचाएमो मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पवइत्तए, वयं णं चाउद्दसहमुद्दिपुणिमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्म अणुपालेमाणा बिहरिस्सामो, थूलगं पाणाइवायं पचक्खाइस्सामो, एवं धूलगं मुसावायं थूलगं अदिन्नादाणं थूलगं मेहुणं धूलगं परिग्गरं पञ्चक्खाइस्सामो, इच्छापरिमाणं करिस्सामो, दुविहं तिवि AREauratonintashatkana Auditurary.com ~841~ Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) सूत्रकृताक्रे २ श्रुतस्क न्धे शीलाङ्कीयावृत्तिः ॥४१९॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र -२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [७९], निर्युक्ति: [ २०५ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः Ja Eucation Interation हेणं, मा खलु समझाए किंचि करेह वा करावेह वा तत्थवि पक्वाइस्सामो, ते णं अभोचा अपिचा असिणाइत्ता आसंदीपेढियाओ पञ्चारुहित्ता, ते तहा कालगया किं तवं सिया-सम्मं कालगतन्ति ?, सिया, ते पाणावि बुबंति ते तसावि दुयंति ते महाकाया ते चिट्ठिया, ते बहुतरगा पाणा जेहिं समोवासगस्स सुपचक्खायं भवइ, ते अप्पयरागा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अपचक्खायं भवद्द, इति से महयाओ जण्णं तुम्भे वग्रह तं चैव जाव अयंपि भेदे से णो णेयाउए भवइ ॥ भगवं व णं उदार संतेगइया समणोवासगा भवति, तेसिं च णं एवं वुत्तपुत्रं भवइ, णो खलु वयं संचारमो मुंडा भवित्ता अगाराओ जाव पवइन्तए, णो खलु वयं संचाएमो चाउद्दसमुद्दिपुण्णमासिणीसु जाव अणुपालेमाणा बिहरित्तए, वयं णं अपच्छिममारणंतियं संलेहणाजूसणाजूसिया भक्तपाणं पडियाइक्खिया जाव काल अणवखमाणा विहरिस्सामो, सर्व पाणाश्वायं पचक्वाइस्सामो जाव सवं परिग्गहं पञ्चक्वाइस्सामो तिविहं तिविहेणं, मा खलु ममट्ठाए किंचिवि जाव आसंदीपेढियाओ पञ्चोरुहिता एते तहा कालगया, किं वत्त सिया संमं कालगयत्ति ?, वत्तवं सिया, ते पाणावि बुचंति जाव अयंपि भेदे से णो णेयाउए भवत् ॥ भगवं च णं उदाहू संतेगइया मणुस्सा भवति, तंजहा- महइच्छा महारंभा महापरिग्गहा अहम्मिया जाव दुष्पडियाणंदा जाब सहाओ परिग्गदाओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए, जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते, ते ततो आउगं विप्पजहंति, ततो भुजो सगमाद्राए For Parts Use Only ~ 842~ 992999039922929292 ७ नालन्दीयाध्य. श्रावकप्र स्वाख्यान स्य सविष यता ॥४१९ ॥ Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक -], मूलं [७९], नियुक्ति : [२०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सुत्रकृत्' मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः दुग्गइगामिणो भवंति, ते पाणावि वुचंति ते तसावि वुचंति ते महाकाया ते चिरहिइया ते बहुयरगा आयाणसो, इति से महयाओ णं जपणं तुन्भे वदह तं चेव अयंपि भेदे से णो णेयाउए भवइ ॥ भगवं चणं उदाह संतेगइया मणुस्सा भवंति, तंजहा-अणारंभा अपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुया जाव सहाओ परिग्गहाओ पडिविरया जावजीवाए, जेहिं समणोबासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते ते तओ आउगं विप्पजहंति ते तओ भुज्जो सगमादाए सोग्गइगामिणो भवंति, ते पाणावि चुचंति जाव णो णेयाउए भवइ ।। भगवं च णं उदाहु संतेगइया मणुस्सा भवंति, तंजहा-अप्पेच्छा अप्पारंभा अप्पपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुया जाव एगचाओ परिग्गहाओ अप्पडिविरया, जेहिं समणोवासगस्स आया सो आमरणताए दंडे णिक्खित्ते, ते तओ आउगं विप्पजहंति, ततो भुजो सगमादाए सोग्गइगामिणो भवति, ते पाणावि वुचंति जाव णो णेयाउए भवइ ॥ भगवं च णं उदाहु संतेगइया मणुस्सा भवंति, तंजहा-आरपिणया आवसहिया गामणियंतिया कण्हुई रहस्सिया, जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणताए दंडे णिक्खित्ते भवइ, णो बहुसंजया णो बहुपडिविरया पाणभूयजीवसत्तेहि, अप्पणा सचामोसाई एवं विपडिवेदेति-अहं ण हतबो अन्ने हंतवा, जाव कालमासे कालं किचा अन्नपराई आसुरियाई किबिसियाई जाव उववत्तारो भवंति, तओ विप्पमुच्चमाणा भुजो एलमुयत्साए तमोरूवत्साए पञ्चायंति, ते पाणावि बुचंति जाव णो णेयाउए भवद ॥ भगवं च णं उदाहु संतेगइया पाणा दीहाउया esesekesekesekeseeneces ~843~ Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) सूत्रकृताने २ श्रुतस्कन्धे शीलाङ्कीयावृत्तिः ॥४२०॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र -२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [७९], निर्युक्ति: [२०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः Education Internation जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए जाव दंडे णिक्खित्ते भवइ, ते पुवामेव कालं करेंति, करिता पारलोइयत्ताए पचायंति, ते पाणावि बुषंति ते तसावि वुचंति ते महाकाया ते चिरट्टिया ते दीहाउया ते बहुरगा, जेहिं समणोवासगस्स सुपचक्खायं भवइ, जाव णो णेयाउए भवइ || भगवं चणं उदाहु संतेगइया पाणा समाज्या, जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए जाव दंडे णिक्खित्ते भवइ, ते सयमेव कालं करेंति करित्ता पारलोइयत्ताए पचायति, ते पाणावि बुचंति तसावि बुचति ते महाकाया ते समाज्या ते बहुयरगा जेहिं समणोवासगस्स सुपचक्वायं भवइ जाव णो णेयाउए भवइ ॥ भगवं च णं उदाहु संतेगइया पाणा अप्पाज्या, जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताप जाव दंडे णिक्खिते भवइ, ते पुद्दामेव कालं करेंति करेत्ता पारलोइयत्ताए पञ्चायंति, ते पाणावि बुयंति ते तसावि बुचंति ते महाकाया ते अप्पाउया ते बहुयरगा पाणा, जेहिं समणोवासगस्स सुपचक्खायं भवह, जाव णो णेयाउए भवइ ॥ भगवं च णं उदाहु संतेगइया समणोवासगा भवति, तेसिं चणं एवं बुतपुर्व भवइ णो खलु वयं संचाएमो मुंडे भविता जाव पत्तए, णो खलु वयं संचाएमो चाउद्दसमुहिपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं अणुपालित्तए, णो खलु वयं संचाएमो अपच्छिमं जाव विहरित्तए, वयं णं सामाइयं देसावगासियं पुरस्था पाईणं वा पडिणं वा दाहिणं वा उदीणं वा एतावता जाव सहपाणेहिं जाव सङ्घसत्तेहिं दंडे णिक्खिते सङ्घपाणभूयजीवसत्तेहिं खेमंकरे अहमंसि, तत्थ आरेणं जे For Palata Use Only ~844~ toesesette Kotsese ७ नाल न्दीयान्य. श्रावकप्रत्याख्यान स्य सविषयता ॥४२०॥ Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [७९], निर्युक्ति: [ २०५ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - तसा पाणा जेहिं समणोबासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खिते, तओ आई विप्पजहंति विप्पजहिता तत्थ आरेणं चैव जे तसा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो जाव तेसु पचायति, जेहिं समणोवासगस्स सुपचक्खायं भवइ, ते पाणावि जाव अयंपि भेटे से० ॥ ( सूत्रं ७९ ) ॥ पुनरपि गौतमस्वाम्युदकं प्रतीमाह - तद्यथा - बहुभिः प्रकारखससद्भावः संभाव्यते, ततथाशून्यस्तैः संसारः, तदशून्यत्वे निर्विषयं श्रावकस्य सवधनिवृत्तिरूपं प्रत्याख्यानं । तदधुना बहुप्रकारत्रससंभूत्याशून्यतां संसारस्य दर्शयति भगवानाह 'सन्ति' विद्यन्ते शान्तिप्रधाना वा एके केचन श्रमणोपासका भवन्ति तेषां चेदमुक्तपूर्व भवति - संभाव्यते च श्रावकाणामेवंभूतस्य वचसः संभव इति, तद्यथा- न खलु वयं शक्नुमः प्रव्रज्यां ग्रहीतुं, किंतु १ वयं णमिति वाक्यालङ्कारे चतुर्द्दश्यष्टमीपौर्णमासीषु संपूर्ण पौषधमाहारशरीरसत्कारब्रह्मचर्याव्यापाररूपं पौषधं सम्यगनुपालयन्तो विहरिष्यामः, तथा स्थूलप्राणातिपातमृषावादादचादानमै धुनपरिग्रहं प्रत्याख्यास्यामो 'द्विविध' मिति कृतकारितप्रकारद्वयेन अनुमतेः श्रावकस्याप्रतिषिद्धत्वात् तथा 'त्रिविधेने 'ति मनसा वाचा कायेन च, तथा 'मा' इति निषेधे 'खलु' इति वाक्यालङ्कारे मदर्थं पचनपाचनादिकं पौषधस्यस्य मम कृते मा र्काष्ट, तथा परेण मा कारयत तत्राप्यनुमतावपि सर्वथा यदसंभवि तत्प्रत्याख्यास्यामः, ते एवंभूतकृत प्रतिज्ञाः सन्तः श्रावकाः अभुक्त्वाऽपीसाऽखासा च पौषधोपेतत्वादासन्दीपीठिकातः प्रत्यारुद्य अवतीर्य सम्यक् पौषधं गृहीला कालं कृतवन्तः, ते तथाप्रकारेण कृतकालाः सन्तः किं सम्यक्कृतकाला उतासम्यगिति १, कथं वक्तव्यं खादिति १, एवं पृष्टैर्निर्ग्रन्थैरव| श्यमेवं वक्तव्यं स्यात् सम्यकालगता इति, एवंच कालगतानामवश्यंभावी तेषां देवलोके पूत्पादः, तदुत्पन्नच त्रस एव ततव कथं Eucation Interation For Parts Only ~ 845~ Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक -], मूलं [७९], नियुक्ति: [२०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः मत्रतामा निर्विषयता प्रत्याख्यानस्योपासकस्येति । पुनरन्यथा श्रावकोद्देशेनैव प्रत्याख्यानस विषयं प्रदर्शयितुमाह-गौतमस्वाम्पेवाह-तपथा|| ७ नाल२ श्रुतस्क- 'सन्ति' विद्यन्ते एके केचन श्रमणोपासकाः, तेषां चैतदुक्तपूर्व भवति, तद्यथा-खलु न शक्नुमो वयं प्रव्रज्यां ग्रहीत, नापिन्दीयाध्य, न्धे शीला-18चतर्दश्यादिषु सम्पक पौषधं पालयितुं, वयं चापश्चिमया संलेखनक्षपणया क्षपितकाया यदिवा लेखनाजोषणया सेवनवा । कीयावृत्तिः जोषिताः-सेविता उत्तमार्थगुणरित्येवंभूताः सन्तो मक्तपानं प्रत्याख्याय 'कालं' दीर्घकालमनवकालमाणा विहरिष्यामः, मुक्त ॥४२॥ TR भवति-न वयं दीर्घकालं पौषधादिकं व्रतं पालयितुं समर्थाः, किंतु चयं सर्वमपि प्राणातिपातादिकं प्रत्याख्याय संलेखनया संलिखितकायाचतुर्विधाहारपरित्यागेन जीवितं परित्यक्तुमलमिति, एतत्सूत्रेणैव दर्शयति–'सचं पाणाइवाय'मित्यादि, सुगम, 8 यावत्ते तथा कालगताः किं वक्तव्यमेतत्स्थान-सम्यक् ते कालगता इति ?, एवं पृष्टा निग्रेन्था एतदूचुः, यथा-से सन्मनस: शोभनमनसस्ते कालगता इति, ते च सम्यक्सलेखनया यदा काल कुर्वन्ति तदाऽवश्यमन्यतमेषु देवलोकेषूत्पबन्ते, नव चोरपना। कायद्यपि ते व्यापादयितुं न शक्यन्ते तथापि त्रसत्वाचे श्रावकस्य वसवधनिवृत्तख विषयता प्रतिपद्यन्ते । पुनरप्यन्यथा प्रसास्या नस्य विषयमुपदर्शयितुमाह-भगवानाह-एके केचन मनुष्या एवंभूता भवन्ति, तद्यथा-महेच्छा महारम्भा महापरिग्रहा इत्यादि । सुगम, यावद्यैर्येषु वा श्रमणोपासकस्यादीयत इत्यादान-प्रथमव्रतग्रहणं, तत आरभ्याऽऽमरणान्ताद्दण्डो निक्षिमा-परित्यक्तो। भवति, ते च वाग्विधास्तस्माद्भवात्कालात्यये वायुपं विजहन्ति, त्यक्त्वा त्रसजीवितं ते भूयः पुनः स्वकर्म-खकृतं किल्विष-| ४२१॥ मादाय-गृहीखा दुर्गतिगामिनो भवन्ति, एतदुक्तं भवति-महारम्भपरिग्रहखाते मृताः पुनरन्यतरपृथिन्या नारकत्रसत्वेनोत्पद्यन्ते, | ते च सामान्यसंज्ञया प्राणिनो विशेषसंजया वसा महाकायाः चिरस्थितिका इत्यादि पूर्ववद्यावत् णो णेयाउए चि पुनरप्यन्ये ~846~ Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [७९], निर्युक्ति: [ २०५ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - न प्रकारेण प्रत्याख्यानस्य विषयं दर्शयितुमाह 'भगवं च णं उदाहुरित्यादि, पूर्वोक्तेभ्यो महारम्भपरिग्रहवदादिभ्यो विपर्यस्ताः सुशीलाः सुव्रताः सुप्रत्यानन्दाः साधव इत्यादि सुगमं यावत् 'णो णेयाउए भवइति एते च सामाम्यधावकाः, तेऽपि श्रसेलेवान्यतरेषु देवेषूत्पद्यन्ते ततोऽपि न निर्विषयं प्रत्याख्यानमिति । किश्वान्यत्- 'भगवं च णं उदाहुरित्यादि सुगमं बाबत 'णो णेयाउए भवइ'त्ति, एते चाल्पेच्छादिविशेषणविशिष्टा अवश्यं प्रकृतिभद्रकतया सद्गतिगामित्वेन सकभ्येत्पयन्त इति द्रष्टव्यं ॥ किञ्चान्यत् 'भगवं च णं उदादु' रित्यादि - गौतमस्वाम्मेव प्रत्याख्यानस्य विषयं दर्शयितुमाह-- एके केचन मनुष्या एवंभूता भवन्ति, तद्यथा— अरण्ये भवा आरण्यकाः- तीर्थिकविशेषाः तथा आवसथिकाः तीर्थिकविशेषा एव, तथा ग्रामनिमत्रिकाः तथा 'कण्डुरहस्सिय'ति कचित्कार्ये रहस्यकाः कचिद्रहस्यकाः, एते सर्वेऽपि तीर्थिकविशेषाः, ते च नो बहुयता इस्तपादादिक्रियासु तथा ज्ञानावरणीयावृतलात् न चिरताः सर्वप्राणभूतजीवसत्त्वेभ्वस्तत्स्वरूपापरिज्ञानात्तद्वधादविरता इत्यर्थः । ते तीर्थिक विशेषा वह्नसंयताः स्वतोऽविरता आत्मना सत्यानृषाणि वाक्यानि 'एव' मिति वक्ष्यमाणनीत्या विद्युञ्जन्ति, 'एवं विप्पडिवेदेति' कचित्पाठोऽस्वायमर्थः एवंविधप्रकारेण परेषां प्रतिवेदयन्ति — ज्ञापयन्ति, तानि पुनरेवंभूतानि वाक्यानि दर्शयति, तद्यथा - अहं न हन्तव्यो ये पुनर्हन्तव्याः तथाऽहं नाज्ञापयितव्योऽन्ये पुनराज्ञापयितव्या इत्यादीन्युपदेशवाक्यानि ददति, ते चैवमेवोपदेशदायिनः स्त्रीकामेषु मूर्च्छिता गृद्धा अध्युपपद्मा यावद्वर्षाणि चतुःपश्चमानि वा षदशमानि वा अतो|ऽप्यल्पतरं वा प्रभूततरंगा कालं भुक्त्वा उत्कटा भोगा भोगभोगास्तान् ते तथाभूताः किञ्चिदज्ञानतपः कारिणः कालमासे कालं कृता|ऽन्यतरेष्वासुरीयेषु स्थानेषु किल्बिषेष्वसुरदेवाधमेषु स्थानेपुपपत्तारो भवन्ति, यदिवा प्राण्युपधातोपदेशदायिनो भोगाभिलाषुका Education International For Parts Only ~847~ Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) सूत्रकृताक्रे २ श्रुतस्क न्धे शीलाङ्गीयावृत्तिः ॥४२२॥ “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [७९], निर्युक्ति: [ २०५ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - 'असूर्येषु' नित्यान्धकारेषु किल्बिषप्रधानेषु नरकस्थानेषु ते समुत्पद्यन्ते, ते च देवा नारका वा त्रसत्वं न व्यभिचरन्ति तेषु च यद्यपि द्रव्यप्राणातिपातो न संभवति तथापि ते भावतो यः प्राणातिपातस्तद्विरतेर्विषयतां प्रतिपद्यन्ते ततोऽपि च देवलोकाच्युता नरकोद्धृताः क्लिष्टपञ्चेन्द्रियतिर्यक्षु तथाविधमनुष्येषु चैडमूकतया समुत्पद्यन्ते, तथा 'तमोख्वत्ताए' चि अन्धवधिरतया प्रत्यायान्ति, | ते चोभयोरप्यवस्ययोस्त्रसत्वं न व्यभिचरन्ति इत्यतो न निर्विषयं प्रत्याख्यानम्, एतेषु च द्रव्यतोऽपि प्राणातिपातः संभवतीति ।। साम्प्रतं प्रत्यक्षसिद्धमेव विरतेर्विषयं दर्शयितुमाह-'भगवं च णं उदाह' रित्यादि, भगवानाह यो हि प्रत्याख्यानं गृह्णाति तसादीर्घायुष्काः 'प्राणाः प्राणिनः, ते च नारकमनुष्यदेवा द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियतिर्यश्चश्च संभवन्ति, ततः कथं निर्विषयं प्रत्याख्यानमिति ?, शेषं सुगमं यावत् 'णो णेयाउए भवइ' ।। एवमुत्तरसूत्रमपि तुल्यायुष्क विषयं समानयोगक्षेमलाद्व्याख्येयं ॥ तथाऽल्पा|युष्कसूत्र मप्यतिस्पष्टत्वात्सूत्रसिद्धमेव, इयांस्तु विशेषो — यावत्ते न त्रियन्ते तावत्प्रत्याख्यानस्य विषयस्वसेषु वा समुत्पन्नाः सन्तो, विषयतां प्रतिपद्यन्त इति ॥ पुनरपि श्रावकाणामेव दिखतसमाश्रयणतः प्रत्याख्यानस्य विषयं दर्शयितुमाह- 'भगवं च णमित्यादि सुगमं यावत् 'वयं णं सामाइयं देसावकासिगं ति देशेऽवकाशो देशावकाशः तत्र भवं देशावकाशिकं, इदमुक्तं | भवति - पूर्वगृहीतस्य दिग्नतस्य योजनशतादिकस्य यत्प्रतिदिनं संक्षिप्ततरं योजनगव्यूतिपत्तनगृह मर्यादादिकं परिमाणं विधत्ते | तद्देशावका शिकमित्युच्यते । तदेव दर्शयति- 'पुरत्या पायीण'मित्यादि, 'पुरस्थि' चि प्रातरेव प्रत्याख्यानावसरे दिगाश्रितमेवंभूतं प्रत्याख्यानं करोति, तद्यथा - 'प्राचीनं' पूर्वाभिमुखं प्राच्यां दिश्येतावन्मयाऽय गन्तव्यं, तथा प्रतीचीनं प्रतीच्यामपरस्यां दिशि तथा दक्षिणाभिमुखं दक्षिणस्सामेवमुदीच्यां दिश्येतावन्मयाऽद्य पञ्च योजनमात्रं तदधिकमूनतरं वा गन्तव्यमित्येवंभूतं For Parts Only ~848~ ७ नाक न्दीयाध्य. ||४२२॥ wor Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र -२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [७९], निर्युक्ति: [ २०५ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः स प्रतिदिनं प्रत्याख्यानं विधते तेन च गृहीतदेशावकाशिकेनोपासकेन सर्वप्राणिभ्यो गृहीतपरिमाणात्परेण दण्डो निक्षिप्त:परित्यक्तो भवति, ततश्वासौ श्रावकः सर्वप्राणभूतजीव सच्चेषु क्षेमंकरोऽहमस्मि इत्येवमध्यवसायी भवति, तत्र गृहीतपरिमाणे देशे ये आरेण त्रसाः प्राणा येषु श्रमणोपासकस्थादान इत्यादेरारभ्याऽऽमरणान्तो दण्डो निक्षिप्तः परित्यक्तो भवति, ते च त्रसाः प्राणाः स्वायुष्कं परित्यज्य तत्रैव गृहीतपरिमाणदेश एवं योजनादिदेशाभ्यन्तर एव त्रसाः प्राणास्तेषु प्रत्यायान्ति इदमुक्तं भवति-गृहीतपरिमाणदेशे त्रसायुष्कं परित्यज्य त्रसेष्वेवोत्पद्यन्ते ततथ तेषु श्रमणोपासकस्य सुप्रत्याख्यानं भवति, उभयथापि त्रसखसद्भावात् शेषं सुगमं, यावत् 'णो णेयाउए भवति ॥ तत्थ आरणं जे तसा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खिते ते तओ आडं विप्पजहंति विप्पजहिता तत्थ आरेणं चैव जाव धावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अट्ठाए दंडे अणिक्खिते अणद्वाए दंडे णिक्खिते तेसु पञ्चायंति, तेहिं समणोवासगस्स अट्ठाए दंडे अणिक्खिते अणढाए दंडे णिक्खिते ते पाणावि बुचंति ते तसा ते चिरद्विइया जाव अपि भेदे से० ॥ तत्थ जे आ रेणं तसा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए० तओ आरं विप्यजहंति विप्पजहित्ता तत्थ परेण जे तसा थावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताएं० तेसु पञ्चायंति, तेहिं समणोवासगस्स सुपञ्चक्खायं भवइ, ते पाणावि जाव अपि भेदे से० ॥ तत्थ जे आरेण थावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अट्ठाए दंडे अणिक्खिते अणद्वाए निक्खित्ते ते तओ आई विप्पजहंति विप्प Etication Internation For Parata Lise Only ~849~ Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक -], मूलं [८०], नियुक्ति: [२०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः | ७नाल न्दीयाध्य. सूत्रकृताङ्गे २श्रुतस्कन्धे शीलाकीयावृत्तिः ॥४२३॥ जहित्ता तत्थ आरेणं चेव जे तसा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए. तेसु पच्चायंति तेसु समणोबासगस्स सुपचक्खायं भवइ, से पाणावि जाव अयंपि भेदे से णो०॥ तत्थ जेसे आरेणं जे थावरा पाणा जेहिं समणोचासगस्स अट्ठाए दंडे अणिक्खित्ते अणट्ठाए णिक्खित्ते, ते तओ आविष्य जहंति विप्पजहित्ता ते तत्थ आरेणं चेव जे थावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अट्टाए दंडे अणिक्षिसे अणट्ठाए णिक्खित्ते तेसु पञ्चायंति, तेहि समणोबासगस्स अढाए अणट्ठाए ते पाणाथि जाव अयंपि भेटे से णो०॥ तत्थ जे ते आरेणं धावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अट्ठाए दंडे अणिक्खिसे अपवाए मिक्खित्ते तओ आउं विप्पजहंति विप्पजहित्ता तत्थ परेणं जे तसथावरा पाणा जेहिं समणोषासगस्स आयाणसो आमरणताए तेसु पञ्चायति तेहिं समणोवासगस्स सुपञ्चक्खायं भवइ, ते पाणावि माघ अयंपि भेदे से णो णेयाउए भवइ ॥ तत्थ जे ने परेणं तसथावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए० ते तओ आउं विप्पजहंति विष्पजहित्सा तत्थ आरेणं जे तसा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणताए तेसु पञ्चायंति, तेहिं समणोवासगस्स सुपचक्खायं भवइ, ते पाणावि जाप अयंपि भेदे से णो गेयाउए भवइ ।। तत्य जे ते परेणं तसथावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणलाए० ते तओ आउं विप्पजहंति विप्पजहिसा तस्थ आरेणं जे थावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अट्वाए दंडे अणिक्खित्ते अणट्टाए मिक्खित्ते तेसु पचायंति, जेहिं समणोवासगस्स अट्टाए अणि Caesesesearceaeseseroticerses ॥४२३॥ ~850~ Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र -२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [ ८० ], निर्युक्ति: [ २०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः अणद्वार क्विन्ते जाव ते पाणावि जाव अपि भेदे से णो० ॥ तत्थ ते परेणं तस्थावरा पाया जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए• ते तओ आउं विप्पजहंति विप्पजहिसा से तत्थ परेण चैव जे तसथावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताएं० तेसु पञ्चायति, जेहिं समणोवासगस्स सुपचक्वायं भवइ, ते पाणावि जाव अपि भेदे से णो० ॥ भगवं च णं उदाहण एवं भूयं ण एतं भवं ण एतं भविस्संति जपणं तसा पाणा वोच्छिजिहिंति धावरा पाणा भविस्संति, धावरा पाणावि वोच्छिजिहिंति तसा पाणा भविस्संति, अवोच्छिन्नेहिं तसथावरेहिं पाणेहिं जपणं तुम्भे वा अन्नो बा एवं वदह-स्थि णं से केद परियाए जाव णो णेयाउए भवइ || (सूत्रं ८० ) ॥ | एवमन्यान्यप्यष्ट सूत्राणि द्रष्टव्यानि सर्वाण्यपि, नवरं तत्र प्रथमे सूत्रे तदेव यद्व्याख्यातं तचैवंभूतं, तद्यथा-गृहीतपरिमाणे | देशे ये सास्ते गृहीत परिमाणदेशस्थास्तेष्वेव त्रसेषूत्पद्यन्ते । तथा द्वितीयं सूत्रं वारादेशवर्तिनस्त्रसाः आरादेशवर्तिषु स्वतवरेत्पयन्ते ॥ तृतीये खारादेशवर्तिनसा गृहीतपरिमाणाद्देशाद्वहियें त्रसाः स्थावराश्र तेषुत्पद्यन्ते । तथा चतुर्थसूत्रं साराद्देशवर्तिनो ये स्थावरास्ते तदेशवर्तिष्वेव वसेत्पद्यन्ते ॥ पञ्चमं सूत्रं तु आरादेशवर्तिनो ये स्थावरास्ते तद्देशवर्तिष्वेव स्थावरेत्पद्यन्ते ॥ षष्ठं सूत्रं तु परदेशवर्तिनो ये स्थावरास्ते गृहीतपरिमाणस्थे ( परदेशवसिं) षु सस्थावरे पूत्पद्यन्ते । सप्तमसूत्रं सिदं - परदेशवर्तिनो ये सस्थावरास्ते आदेशवर्तिषु त्रसेवृत्पद्यन्ते ॥ अष्टमसूत्रं तु परदेशवर्तिनो ये सस्थावरास्ते आराद्देशवर्तिषु स्थावरेत्पद्यन्ते ॥ | नवमसूत्रं तु परदेशवर्तिनो ये सस्थावरास्ते परदेशवर्तिष्येव सस्थावरेषूत्पद्यन्ते । एवमनया प्रक्रियया नवापि सूत्राणि भणनी Education Internation For Parts Only ~851~ wor Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक -], मूलं [८०], नियुक्ति: [२०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः सूत्रकृताङ्ग यानि, तत्र यत्र यत्र त्रसास्तत्रादानश:-आदेरारभ्य श्रमणोपासकेनामरणान्तो दण्डस्त्यक्त इत्येवं योजनीय, यत्र तु स्थावरास्त- नाकवार्थाय दण्डो न निक्षिप्तो-न परित्यक्तोऽनाय च दण्डः परित्यक्त इति । शेषाक्षरघटना तु स्वबुद्ध्या विधेयेति ॥ तदेवंन्दीयाध्य. बहुभिदृष्टान्तः सविषयतां श्रावकप्रत्याख्यानस्य प्रसाध्याधुनात्यन्तासंबद्धतां चोधस्स मूत्रेणैव दर्शयितुमाह-'भगवं च णं उदाहु' कीयावृत्तिः | SIरित्यादि, भगवान् गौतमखाम्युदकं प्रत्येतदाह, तद्यथा नैतद्भूतमनादिके काले प्रागतिक्रान्ते नाप्येतदेष्येऽनन्ते काले भाव्यं नाप्ये॥४२४॥ | तद्वर्तमानकाले भवति ये (यत्) त्रसाः प्राणाः सर्वथा निलेपतया खजात्युच्छेदेनोच्छेत्स्यन्ति-स्थावरा भविष्यन्तीति, तथा स्थावराश्च । प्राणिनः कालत्रयेऽपि नैव समुच्छेत्स्यन्ति-घसा भविष्यन्ति, यद्यपि तेषां परस्परसंक्रमेण गमनमस्ति तथापि न सामस्त्येनान्यतरेषामितरत्र सद्भावः, तथाहि-नोवंभूतः संभवोऽस्ति यदुत प्रत्याख्यानिनमेकं विहायापरेषां नारकाणां द्वीन्द्रियादीनां तिरश्चा मनुष्यदेवानां च सर्वदाऽप्यभावः, एवं च बसविषयं प्रत्याख्यानं निर्विषयं भवति यदि तस्य प्रत्याख्यानिनो जीवत एव सर्वेऽपि नारकादयखसाः समुच्छिद्यन्ते, न चास्य प्रकारस्य संभवोऽस्त्युक्तन्यायेनेति, स्थावराणां चानन्तानामनन्तलादेव नासंख्येयेषु । त्रसेपूत्पाद इति सुप्रतीतमिदं । तदेवमव्यवच्छिन्नैखसैः स्थावरैश्च प्राणिभिर्यद्वदत यूयमन्यो वा कबिद्वदति, तबधा-नास्त्यसौ 81 पर्यायो यत्र श्रमणोपासकसैकत्रसविषयोऽपि दण्डपरित्याग इति, तदेतदुक्तनीत्या सर्वमशोभनमिति ॥ सांप्रतमुपसंजिघृक्षुराह-8 भगवं च णं उदाहु आउसंतो! उद्गा जे खलु समणं वा माहणं वा परिभासेइ मित्ति मन्नंति आगमि 1 ॥४२४॥ त्ता णाणं आगमित्ता दसणं आगमित्ता चरितं पावाणं कम्माणं अकरणयाए से खल्लु परलोगपलिमंथताए चिट्ठह, जे खलु समणं वा माहणं वा णो परिभासइ मित्ति मन्नंति आगमित्सा णाणं आगमित्ता ~852 Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक -], मूलं [८१], नियुक्ति: [२०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: दसणं आगमित्ता चरित्तं पावाणं कम्माणं अकरणयाए से खलु परलोगविसुद्धीए चिट्ठइ, तए णं से उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयम अणादायमाणे जामेव दिसिं पाउन्भूते तामेव दिसिं पहारेत्थ गमणाए ॥ भगवं च णं उदाहु आउसंतो उदगा! जे खलु तहाभूतस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि आरियं धम्मियं सुक्यणं सोचा निसम्म अप्पणो चेव सुहुमाए पडिलेहाए अणुत्तरं जोगखेमपर्य लंभिए समाणे सोवि ताव तं आढाइ परिजाणेति वंदति नमसति सक्कारेइ संमाणेइ जाव कल्लाणं मंगलं.देवयं चेइयं पञ्जुवासति ॥ तए णं से उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयम एवं वयासी-एतेसि णं भंते ! पदाणं पुविं अन्नाणयाए असवणयाए अयोहिए अणभिगमेणं अदिवाणं असुयाणं अमुयाणं अविनायाणं अबोगडाणं अणिगूढाणं अविच्छिन्नाणं अणिसिहाणं अणिबूदाणं अणुबहारियाणं एयमढ णो सद्दहियं णो पत्तिय णो रोइयं, एतेसि णं भंते ! पदाणं एहि जाणयाए सवणयाए बोहिए जाव उवहारणयाए एयमé सहहामि पत्तियामि रोएमि एवमेव से जहेयं तुन्भे बदह । तर भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं एवं बयासीसद्दहाहि णं अजो! पत्तियाहि णं अज्जो रोएहि णं अजो! एवमेयं जहा णं अम्हे वयामो, तए णं से उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयम एवं वयासी-इच्छामि णं भंते! तुम्भं अंतिए चाउजामाओ धम्माओ पंचमहपाइयं सपडिकमणं धम्म उपसंपजित्ता णं विहरित्तए ।तए णं से भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं गहाय जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छद, उवागच्छइत्ता तए णं से उदए पेढालपुत्ते समणं भगवं महा 0000000000 ~853~ Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) सूत्रकृताङ्गे २ श्रुतस्कन्वे शीलाङ्कीयावृत्तिः ॥४२५|| “सूत्रकृत्” अंगसूत्र-२ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [८१], निर्युक्ति: [ २०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः - वीरं तिक्खुतो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, तिक्खुतो आयाहिणं पयाहिणं करिता बंदर नमसति, बंदित्ता नमसित्ता एवं वयासी- इच्छामि णं भंते ! तुम्भं अंतिए बाउजमाओ धम्माओ पंचमहवयं सपडिकमणं धम्मं उवसंपजित्ता णं विहरितए, तए णं समजे भगवं महावीरे उदयं एवं बयासी - अहासुरं देवाशुप्पिया ! मा पडिबंधं करेहि, तए णं से उदए पेढालपुत्ते समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए चाङजामाओ धम्माओ पंचमहवइयं सपडिकमणं धम्मं उपसंपत्तिा णं विहरइ तिबेमि ॥ (सूत्रं ८१) ॥ इति नालंदा सत्तमं अज्झयणं समत्तं । इति सूयगडांगवीयसुयक्खंधो समत्तो ॥ ग्रंथाग्रं० २१०० 'भगवं च णं उदाहुरित्यादि गौतमस्वाम्याह- आयुष्ममुदक । यः खलु श्रमणं वा यथोक्तकारिणं माहनं वा सह्मचर्योपेतं 'परिभाषते' निन्दति मैत्रीं मन्यमानोऽपि तथा सम्यग् ज्ञानमागम्य तथा दर्शनं चारित्रं च पापानां कर्मणामकरणाय समुत्थितः स खलु लघुप्रकृतिः पण्डितंमन्यः 'परलोकस्य' सुगतिलक्षणस्य तत्कारणस्य वा सत्संयमस्य 'पलिमन्धाय' तद्विलोडनाय तद्विघाताय तिष्ठति, यस्तु पुनर्महासच्चो रजाकरवद्गम्भीरो न श्रमणादीन् परिभाषते तेषु च परमां मैत्रीं मन्यते सम्बन्दर्शनज्ञानचारित्राण्यनुगम्य तथा पापानां कर्मणामकरणायोत्थितः स खलु परलोकविशुद्ध्याऽवतिष्ठते, अनेन च परपरि भाषावर्जनेन यथावस्थितार्थस्वरूपदर्शनतो गौतमस्वामिना वौद्धत्यं परिहृतं भवति, तदेवं यथावस्थितमर्थ गौतमस्वामिनाऽवगमितोऽप्युदकः | पेढालपुत्रो यदा भगवन्तं गौतममनाद्रियमाणो यस्या एवं दिशः प्रादुर्भूतस्तामेव दिशं गमनाय संप्रधारितवान् । तं चैवमभिप्रा यमुदकं दृष्ट्वा भगवान्गौतम स्वाम्याह, तद्यथा आयुष्मनुदक ! यः खलु तथाभूतस्य भ्रमणस्य ब्राह्मणस्य वाऽन्तिके समीपे एकमपि Education International For Parts Only ~ 854 ~ ७ नाल न्दीयाध्य. ॥४२५॥ Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र -२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [८१], निर्युक्ति: [ २०५] दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः | योगक्षेमाय पद्यते गम्यते येनार्थस्तत्पदं योगक्षेमपदं, किंभूतम् ? - जार्यम् आर्यानुष्ठानहेतुवादार्य, तथा धार्मिक तथा शोमनवचनं | सुवचनं सद्धतिहेतुलात् तदेवंभूतं पदं श्रुला निशम्य अवगम्य चात्मन एव तदनुत्तरं योगक्षेमपदमित्येवमवगम्य सूक्ष्मया इशाश्रीयमा बुद्ध्या 'प्रत्युपेक्ष्य' पर्यालोच्य तद्यथा अहमनेनैवंभूतमर्थपदं 'लम्भितः' प्रापितः समसावपि तावलौकिकसमुपदेशदातारमाद्रियते- पूज्योऽयमित्येवं जानाति, तथा कल्याणं मङ्गलं देवतामिव स्तौति पर्युपास्ते च यद्यप्यसौ पूजनीयः किमपि नेच्छति तथापि तेन तस्य परमार्थोपकारिणो यथाशक्ति विधेयम् । तदेवं गौतमस्वामिनाऽभिहित उदक हदमाह - तद्यथा- एतेषां पदानां | पूर्वमज्ञानतयाऽश्रवणतयाऽबोच्या चेत्यादिना विशेषण कदम्बकेन न श्रद्धानं कृतवान्, साम्प्रतं तु युष्मदन्तिके विज्ञायैनमर्थं श्रद्दऽिहं ॥ एवमवगम्य गौतमस्वाम्युदकमेवाह-यथा अस्मिन्नर्थे श्रद्धानं कुरु, नान्यथा सर्वज्ञोक्तं भवतीतिमला, पुनरप्युदक एवमाह - इष्टमेवैतन्मे, किं लघुष्माचातुर्यामिकाद्धर्मात्पञ्चयामिकं धर्म सम्प्रति सप्रतिक्रमणमुपसंपद्य विहर्तुमिच्छामि ॥ ततोऽसौ मौतमस्वामी तं गृहीला तीर्थकरान्तिकं जगाम । उदकथ भगवन्तं वन्दिला पञ्चयामिकधर्मग्रहणायेोत्थितः, भगवताऽपि तस्य सत्रतिक्रमणः पञ्चयामो धर्मोऽनुज्ञातः, स च तं तथाभूतं धर्ममुपसंपद्य विहरतीति । इति परिसमाप्यर्थे । ब्रवीमीति पूर्ववद, सुध| र्मस्वामी स्वशिष्यानिदमाह, तद्यथा-सोऽहं ब्रवीमि येन मया भगवदन्तिके श्रुतमिति । गतोऽनुगमः । सांप्रतं नयाः, ते चामी - नैगम १ संग्रह २ व्यवहार ३ र्जुसूत्र ४ शब्द ५ समभिरूडै ६ वंभूता७ख्याः सप्तैव तेषां च मध्ये नैगमाद्याश्रखा| रोऽप्यर्थनयाः अर्थमेव प्राधान्येन शब्दोपसर्जनमिच्छन्ति, शब्दाद्यास्तु त्रयः शब्दनयाः शब्दप्राधान्येनार्थमिच्छन्ति । तत्र नैगमस्येदं १] देवताप्रतिमरूपत्वाथैत्यस्य देवतया गतार्थत्वान्न पृथनिर्देशः, सूत्रे तु स्थापनायाः पूज्यतमत्वापेक्षया स्पष्टं पृषभिर्देशः इति भाति । Education Internationa For Park Use Only ~ 855 ~ Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) सूत्रकृता २ श्रुतस्कन्धे शीलाझीयावृतिः ॥४२६॥ “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र -२ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [८१], निर्युक्ति: [ २०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः | स्वरूपं, तद्यथा- सामान्य विशेषात्मकस्य वस्तुनो नैकेन प्रकारेणावगमः परिच्छेदो निगमस्तत्र भवो नैगमो, नैकगमो वा नैगमःमहासामान्यापान्तरालसामान्यविशेषाणां परिच्छेदकः, तत्र महासामान्यं सर्वपदार्थानुयायिनी सत्ता अपान्तरालसामान्यं द्रव्यखजीवखाजीवखादिकं, विशेषाः परमाणवादयस्तद्गता वा शुक्लादयो गुणाः, तदेतत्रितयमप्यसाविच्छतीति निलयनप्रस्खकादिदृष्टान्तैरनुयोगद्वारप्रसिद्धैस्तत्स्वरूपमवसेयम्, अयं च नैगमः सामान्यविशेषात्मक वस्तु समाश्रयणेऽपि न सम्यग्दृष्टिः, भेदेनैव सामान्य विशेषयोराश्रयणात्, तन्मताश्रितनैयायिकवैशेषिकवत् । तथा संग्रहोऽप्येवंखरूपः, तद्यथा सम्यक पदार्थानां सामान्याकारतया ग्रहणं सङ्ग्रहः, तथाहि अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकखभावमेव सत्तारूपं वस्त्रसावभ्युपगच्छति, सत्तातो व्यतिरिक्तस्यावस्तुत्वं खरविषाणस्येव, स च संग्रहः सामान्य विशेषात्मकस्य वस्तुनः सामान्यांशस्यैवाश्रयणान्मिथ्यादृष्टिः, तन्मताश्रित सांख्यवत् । व्यवहारनयस्य तु स्वरूपमिदं तद्यथा— यथालोकग्राहमेव वस्तु, यथा व शुष्कतार्किकैः स्वाभिप्रायकृतलक्षणानुगतं तथाभूतं वस्तु न भवत्येव, नहि प्रतिलक्षणमर्थानामात्मभेदो भवति, किं तर्हि ?, यथा यथा लोकेन विशिष्ट भूयिष्ठतयाऽर्थक्रियाकारि वस्तु व्यवहियते | तथैव तद्वस्खित्याबालगोपालाङ्गनादिप्रसिद्धत्वाद्वस्तुस्वरूपस्येति, अयमप्युत्पादव्ययधीन्ययुक्तस्य वस्तुनोऽनभ्युपगमात् मिथ्यादृष्टिः, तथाविधरध्यापुरुषवदिति । ऋजुसूत्रमतं त्विदं-ऋजु-प्रगुणं तच विनष्टानुत्पन्नतयाऽतीतानागतवत्रपरित्यागेन वर्त्तमानकालक्षणभावि यद्वस्तु तत्सूत्रयति--प्रतिपादयत्याश्रयतीति ऋजुमुत्रः, तस्यैवार्थक्रियाकारितया वस्तुवलक्षणयोगादिति, अयमपि सामान्यविशेषोभयात्मकस्य वस्तुनः सामान्यांशपरित्यागेन विशेषांशस्यैव समाश्रयणाच्छौद्धोदनवन सम्यग्दृष्टिः, कारणभूतद्रव्यानभ्युपगमेन तदाश्रितविशेषस्यैवाभावादिति । शब्दनयस्वरूपं खिदं तद्यथा - शब्दद्वारेणैवास्यार्थप्रतीत्यभ्युपगमालिङ्गवचन साधनोप Education International For Penal Use On ~ 856~ ७ नाक न्दीयाध्य ॥४२६ Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक -], मूलं [८१], नियुक्ति: [२०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सुत्रकृत्” मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ग्रहकालभेदाभिहितं वस्तु भिन्नमेवेच्छति, तत्र लिहंगभेदाभिहितं वस्यन्यदेव भवति, तयथा-पुष्यस्तारका नक्षत्रमेव संख्याभिन्न जलमापो वर्षा ऋतुः, साधनभेदस्वयं-एहि मन्ये रथेन यास्यसि, नहि यातस्ते पिता, अस्थायमर्थः-एवं त्वं मन्यसे यथाऽहं रथेन यास्यामीत्यत्र मध्यमोत्तमपुरुषयोयत्ययः, उपग्रहस्तु परस्मैपदात्मनेपदयोर्व्यत्ययः, तद्यथा-तिष्ठति प्रतिष्ठते रमते उपरमती-181 त्यादि, कालभेदस्तु अनिष्टोमयाजी पुत्रोऽस्य भविता, अस्थायमर्थ:-अग्निष्टोमयाजी अग्निष्टोमेनेष्टवान्, भूते णिनिः, भवितेति RI भविष्यदनद्यतने लुद, तत्रायमर्थः-णिनिप्रत्ययो भवितेत्यस्य संबन्धाद्भूतकालतां परित्यज्य भविष्यत्कालता प्रतिपद्यते, तेनेदमुक्त भवति-एवंभूतोऽस्य पुत्रो भविष्यति योऽग्निष्टोमेन यक्ष्यति । तदेवंभूतं व्यवहारनयं शब्दनयो नेच्छति, लिङ्गायभिन्नांस्तु पर्या यान् अनेकविषयखेनेच्छति, तयथा----घटः कुटः कुम्भः इन्द्रः शक्रः पुरन्दर इत्यादि, अयमप्यर्थव्यञ्जनपयर्यायोभयरूपस्य वस्तुनो | 18| व्यञ्जनपर्यायस्यैव समाश्रयणान्मिथ्यादृष्टिरिति । तथा पर्यायाणां नानार्थतया समभिरोहणात्समभिरूढो, न बयं घटादिपर्याया-18 णामेकार्थतामिच्छति, तथाहि-घटना घट: कुटनात्कुटः को भातीति कुम्भो, नहि घटनं कुटनं भवति, तथेन्दनादिन्द्रः पुर्दा-18 |रणात्पुरन्दर इत्यादेरपि शब्दप्रवृत्तिनिमित्तस्य न परस्परानुगतिरिति, तदयमपि मिथ्यादृष्टिः, पर्यायाभिहितधर्मवद्वस्तुनोऽनाथ-RA यणाद् गृहीतप्रत्येकावयवान्धहस्तिज्ञानवदिति । एवंभूताभिप्रायस्वयं-यदैव शब्दप्रवृत्तिनिमित्तं चेष्टादिकं तसिन्घटादिके वस्तुनि तदैवासी युवतिमस्तकारूढ उदकाचाहरणक्रियाप्रवृत्तो घटो भवति, न निर्व्यापारः, एवंभूतस्यार्थस्य समाश्रयणादेवंभूताभिधानो, नयो भवति, तदयमप्यनन्तधर्माध्यासितस्य बस्तुनोनाश्रयणान्मिथ्याष्टिः, रलावल्यवयवे पमरागादौ कृतरनावलीव्यपदेश-18 | रुषवदिति । तदेवं सर्वेऽपि नयाः प्रत्येकं मिथ्यादृष्टयोऽन्योऽन्यसव्यपेक्षास्तु सम्पत्वं भजन्ति । अत्र च ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्ष इति ~857~ Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०२) “सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [८१], नियुक्ति: [२०५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति: सूत्रकृताङ्गेकला ज्ञानक्रियानययोः सर्वेऽप्येते खधिया समवतारणीयाः । तत्रापि ज्ञाननय एहिकामुष्मिकयोनिमेव फलमाधकवेनेच्छति | ७ नाल२ श्रुतस्क- न क्रियां, क्रियानयस्तु क्रियामेव न ज्ञानं, परमार्थस्तूभयमपि समुदितमन्योऽन्यसब्यपेक्षं पंग्वन्धवदभिप्रेतफलसिद्धयेऽल मितिन्दीयाध्य. न्धे शीला- एतदुभययुक्त एव साधुरभिप्रेतमर्थ माधयति, उक्तं च-"सत्वेसिपि णयाणं बहुविहवचवर्ष णिसामेचा ॥ तं सवणयविसुद्धंज कीयावृत्तिः चरणगुणडिओ साहू ॥१॥" समाप्तमिदं नालन्दाख्यं सप्तममध्ययनम् ॥ इति समाप्तेयं मूत्रकृतद्वितीयाङ्गस्य टीका । कृता |% ॥४२७॥ चेयं शीलाचार्येण बाहरिगणिसहायेन ।। यदवासमत्र पुण्यं टीकाकरणे मया समाधिभृता । तेनापेततमस्को भव्यः कल्याणभाग भवतु ॥१॥ ग्रंथाग्रं (१२८५०)। सवामपि नयानां बहुविधवक्तव्यतां निशम्य । तत् मपनयसंमतं यत् चरणगुणस्थितः साधुः॥१॥ इति श्रीमच्छीलाङ्काचार्यविरचितविकृतियुते श्रीसूत्रकृताङ्गे द्वितीयः श्रुतस्कन्धः समातः समाप्तं च द्वितीयमङ्गमेवम् ॥ | ॥४२७॥ For PARATHARVatuROIN Prerancibraram अत्र सप्तमं अध्ययनं समाप्तं. द्वितीय श्रुतस्कंधोऽपि समाप्त: मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित आगम-२. अंगसूत्र-२ 'सूत्रकृत्' परिसमाप्तं ~858~ Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः / पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च / “सूत्रकृताङ्गसूत्र” [मूलं, भद्रबाहूस्वामी रचित नियुक्ति: एवं शिलांकाचार्य विहित वृत्तिः] / (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: “सूत्रकृत्” मूलं एवं वृत्ति:” नामेण परिसमाप्त: Remembar it's a Net Publications of 'jain_e_library' ~859~