________________
आगम
(०२)
“सूत्रकृत्” - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [६], नियुक्ति: [९०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सुत्रकृत" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
||६||
cekcese
दीप अनुक्रम [३८६]
'निर्वापयन्' विध्यापर्यस्तदाश्रितानन्यांच प्राणिनो निपातयेत्रिपातयेद्वा तत्रोञ्चालकनिर्वापकयोर्योऽग्निकायमुज्ज्वलयति स बहू-18 नामन्यकायानां समारम्भकः, तथा चागमः-"दो भंते ! पुरिसा अनमन्त्रेण सद्धि अगणिकार्य समारभंति, तत्थ णं एगे पु-18| | रिसे अगणिकार्य उजालेह एगेणं पुरिसे अगणिकार्य निववेइ, तेसि भंते! पुरिसाणं कयरे पुरिसे महाकम्मतराए कयरे वा पुरिसे |8| | अप्पकम्मतराए !, गोयमा ! तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं उज्जालेह से णं पुरिसे बहुतरागं पुढविकार्य समारभति, एवं 8
आउकार्य वाउकार्य वणस्सइकार्य तसकार्य अप्पतरागं अगणिकार्य समारभइ, तत्थ ण जे से पुरिसे अगणिकार्य निवावेइ से | पुरिसे अप्पतरागं पुढविकार्य समारभइ जाव अप्पतरागं तसकार्य समारभइ बहुतरार्ग अगणिकार्य समारभर, से एतेणं अटेणं
गोयमा! एवं चुदइ" | अपि चोक्तम्-"भूयाणं एसमाघाओ, हबवाहो ण संसओ" इत्यादि । यस्मादेवं तस्मात् 'मेधावी' सद| सद्विवेकः सश्रुतिक समीक्ष्य धर्म पापाड्डीनः पण्डितो नाग्निकार्य समारभते, स एव च परमार्थतः पण्डितो योनिकायसमारम्भ|कृतात् पापानिवर्तत इति ।। ६॥ कथमग्निकायसमारम्भेणापरप्राणिवधो भवतीत्याशक्याह
पुढवीवि जीवा आऊवि जीवा, पाणा य संपाइम संपयंति । संसेयया कटुसमस्सिया य, एते 18 दहे अगणि समारभंते ॥ ७॥ हरियाणि भूताणि विलंबगाणि, आहार देहा य पुढो सियाई।
१ भूतानामेष माधातो हन्यवाही न संशयः ॥
Eseseversecenectioeceiverserseces
~317~