Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charita Mahakavyam_02
Author(s): Hemchandracharya, Charanvijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education inter श्री जैन आत्मानंद शताब्दि ग्रंथमालायाः अष्टमग्रन्थाङ्क (८). कलिकाल सर्वज्ञ श्रीहेमचंद्राचार्यविरचितं - श्री त्रिपष्ठिशलाका पुरुष चरित्र महाकाव्यम् । । (द्वितीय, तृतीय, चतुर्थपर्वात्मकः ) द्वितीयः विभागः JAS सम्पादकः मुनिराजश्री पुण्यविजयजी महाराज, - प्रकाशकः श्री जैन आत्मानंद सभा - भावनगर, www.jage Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ stain Educatio [+] [...]00 सदगतनिधिना श्री १००८ *श्रीमानन्दमाराम महाराज શ્રી માય પ્રેસ-ભાવનગર ::::::::.......... स्व-परशास्त्रपरमार्थप्रपंच प्रवीण वृहत्त पागच्छान्तर्गत संविग्नशास्त्रीय-आद्याचार्य-पंजाबदेशोद्धारक न्यायाम्भोनिधि - जैनाचार्य श्रीमद् विजयानन्दसूरीश्वरजी ( श्रीआत्मारामजी महाराज ) जन्म - वि० सं० १८९३ चैत्र सुदि १ बृहस्पतिवार --गाम लेहरा ( पंजाब ) तहसील जीरा, जिला फिरोजपुर, स्थानकवासी दीक्षा - वि० सं० १९९० मालेरकोटला (पंजाब) संविग्रदीक्षा वि० सं० १९३२ अमदाबाद.. आचार्यपद वि० सं० १९४२ पालीताणा. स्वर्गगमन वि० सं० १९५२ गुजरानवाला ( पंजाब ) ..............+ www.janelitary.org Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासंगिक. **** K HOM -%%AKAXXXA आ बीजा भागना संपादननी प्रस्तावनामा हुं विशेष कशुं लखी शकुं एवी परिस्थितिमा नथी. मात्र एटलं ज कहीश के आ " त्रिषष्ठि शलाकापुरुष चरित्र" ग्रंथy संपादन कार्य पू. पा. आचार्य भगवान श्री विजयवल्लभसरिजी महाराजना शिष्य मुनिश्री चरणविजयजीए शरु कयु हतुं. तेनो प्रथम भाग सन १९३६ मा पत्राकारे अने पुस्तकाकारे एम बन्ने स्वरूपे प्रकाशित थई चूक्यो छे ते पछी बीजो भाग पण तरत प्रकाशित करवानो इरादो हतो ज. पण बीजा भागनुं थोडं काम थया पछी मुनि चरणविजयजी काची उमरे काळधर्म पाम्या. एवा विद्वान साधुनो देहांत ए अमारा बधा माटे घणाज दुःखनी वात मनाई छे. एमना स्वर्गवास पछी आ संपादन कार्य मारी पासे आव्युं. मारी पासे बीजां कामो हतां ज, छतांय में ए स्वीकारी लीधुं. पण ए पछीना वर्षोनो समय मारा माटे संघर्षणनो | काळ पूरवार थयो छे अने घणी अणचिंतवी घटनाओ ए समयमां बनी छे. प्रथम तो मारी बीमारीज शरु थई, जे घणा वर्षों सुधी चाली. ते दरम्यान पाटण श्री हेमचंद्राचार्य ज्ञानमंदिरनुं काम शरु थयु. तेने व्यवस्थित करवामां केटलाक वर्षो गया. ते पछी पू. पा. श्रीमान चतुरविजयजी महाराज काळधर्म पाम्या. ते पछी पू. पा. श्रीमान प्रवर्तकजी महाराज काळधर्म पाम्या. एटले बीजी जवाबदारीओ पण आवी, एवामा प्रकाशननुं काम शरु थयुं अने विहार पण शरु थया.. आ घटनाओ एवी सतत रीते बनती रहो के प्रस्तुत ग्रंथना संपादन- काम ठंडे पडतुं गयु अने ठेलातुं गयुं. HARITRA 4 % Jain Education inte w .jainelibrary.org Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ २॥ | पण ज्यारे आगम संपादन- काम शरु थयुं त्यारे आ काम तरफ कांईक उपेक्षा पण आवी. पण ए जवाबदारीनो भार मन उपर सतत रह्या करतो हतो एटले तेनो केटलोक अंश तो में तैयार कर्यो पण पाछळथी अवशिष्ट भागनुं काम एक पछी एक जुदी जुदी व्यक्तिओने सोंपवू पडयु. तेना पाठांतरो कोईए लीधा, तो टिप्पणो वळी बीजाए का. तो प्रूफ रिंडींग वळी त्रीजाए कयु. पाठांतरो पाटणवासी पं. अमृतलाल मोहनलाले लीधा, टिप्पणो पं. बहेचरदासजीए तैयार कर्यां, बाकीनु काम पं. अंबालाल शाहे कयु. एटले मारी तो एमां उपलकदृष्टिनी नजर ज रही शकी छे. आ रीते आ बीजा भागना संपादननु काम अनेक हाथे तैयार थयेली रसोई जेतुं छे. ते स्वादिष्ट छे के अस्वादिष्ट छे अथवा एने माटे मने प्रसन्नता छे के विषाद छे ए कशुं व्यक्त करी शकतो नथी. तोपण आटला वर्षो | पछीय प्रस्तुत ग्रंथना बीजा भागने वाचको समक्ष रजू करी संतोष अनुभववानो प्रयत्न करूं छु. आ संपादन मारी स्वीकारेली जबाबदारी छे. तेने मारा ढंगे पूरी रीते अदा नथी करी शक्यो ए माटे सद्गतनो क्षमाप्रार्थी छु. मुनि पुण्यविजय. SERICA4%ACRECORRESCHEDOSXXX For Private & Personal use only Vijainelibrary.org, IWANT Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैन-आत्मानन्द-शताब्दि-सिरीझ ECEOE प्रन्थाङ्क ८ =OEO= س ياسي لت ملتان حل SRI ATMARAMAJI MAHARAJ. Pomrmmrememome منهم للالته CRLSCRECTORROCERO श्रीआत्मारामजी महाराज. memomme कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचित त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्य. सम्पादक-मुनिराजश्री पुण्यविजयजी महाराज. S CALE Jain Education Internet For Private & Personal use only Rijainelibrary.org Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ४ ॥ Jain Education Interna श्रीजैन - आत्मानन्द-शताब्दि - ग्रन्थमाला बृहत्तपागच्छान्तर्गतसं विमशाखीय आद्याचार्य-न्यायाम्भोनिधि-संविग्नचडामणि- स्व- परसिद्धान्तोदधिपारगाभी जैनाचार्य श्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वरजी प्रसिद्धनाम श्रीआत्मारामजी महाराजके जन्म-शताब्दिमहोत्सव के चिरस्मरणनिमित्त आपके पट्टधर, अपने असाधारण सदुपदेशके प्रभाव से श्रीमहावीर जैन विद्यालय, मुंबई, श्रीआत्मानंद जैन गुरुकुल, गुजरांवाला, ( पंजाब ) श्रीआत्मानन्द-जैन हाईस्कूल, अंबालासिटी, (पंजाब) श्रीपार्श्वनाथ जैनविद्यालय, वरकाणा, (मारवाड़) श्री आत्मानन्द- जैन-लायब्ररी, पूनासिटी, इत्यादि भिन्न भिन्न प्रान्तों में विद्यालय, छात्रालय, गुरुकुल, लायब्रेरी, पुस्तकालय, ग्रन्थालय, औषधालयादि अनेक जैनसमाजोपयोगी धार्मिक व्यवहारिक संस्थाओंके संस्थापक धर्मधुरंधर पूज्यपाद शान्तिप्रिय - आचार्य श्रीविजय वल्ल मसूरीश्वरजी महाराजकी आज्ञासे संस्थापित. - ग्रन्थांक ८ प्राप्तिस्थान श्री जैन आत्मानंद - सभा. भावनगर ( काठियावाड ). [ स्थापना विक्रम संवत् १९८९, आत्मसंवत् ३८, वीरसंवत् २४५९, ईस्वी सन् १९३३ ] -%2%% ainelibrary.org Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Int त्रिपष्टिशलाका पुरुषचरितस्य प्रथमः सर्गः । ॐ अर्ह नमः ॥ द्वि-त्रि- चतुर्थपर्वणाम् विषयानुक्रमणिका । द्वितीयम् पर्व विषयः पृष्ठम् विमलवाहनस्य सूरिम् वैराग्यकारणस्य पृच्छा १७९/२ अरिन्दमसूरेः आत्मवृत्तान्तः । १८०/१ विमलवाहनस्य दीक्षाग्रहणेच्छा । १८१।१ मंत्रिभिः परामर्शः । १८१/२ कुमारसंबोधनम् । १८२/२ १८२।२ विषयः वत्स विजयवर्णनम् । सुसीमानगरी स्वरूपम् । पूर्वभवे प्रथम श्रीविमलवाहनभवः । विमलवाहनस्य वैराग्यवासना | अरिन्दमसूरिवंदनार्थं विमलवाहनस्य उद्यानगमनम् । .... -959+ पृष्ठम् १७६।२ १७७/१ १७७/२ १७८।१ १७९/१ कुमारस्य प्रत्युत्तरः । ---- **** . Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % पृष्ठम् विषयानुः त्रिषष्टिः शलाकापुरुषचरितस्य %% क्रमणिका AE विषयः पृष्टम् | विषयः मंत्रिणः कुमारं प्रति शिक्षाप्रदानम् । .... १८३।१ | अजितप्रभोर्गर्भावतरणं, विजयादेव्याः कुमारस्य राज्याभिषेकः । ... .... १८३।२ | । स्वप्नदर्शनञ्च । ... ... १८८।२ कुमारं उद्दिश्य विमलवाहनस्य शिक्षावचनम। १८४।१ स्वप्नलक्षणपाठकाः ... .... १९०१२ विमलवाहन-प्रवज्या-महोत्सवः। ... १८४।२ अजितप्रभोर्जन्म.... १९१२२ विमलवाहनस्य पञ्चमुष्टिलोचः। दिक्कुमारिकाकृतो जिनजन्मोत्सवः । ... १९२२२ ... १८५।१ सुरिवर्यस्य देशना । .... सौधर्मेन्द्रागमनम् । ... १८५।१ सौधर्मेन्द्रेण पञ्चरूपेण प्रभोर्मेरौ नयनम् ।। विमलवाहनस्य विशुद्धचारित्रपालनम् । .... १८५।२ ईशानेन्द्रागमनम् । विमलवाहनस्य परिषहसहनं तीर्थकृत्कर्मो .... ... १९९।२ जिनजन्मोत्सवार्थ चतुःषष्टेरिन्द्राणामापाजेनञ्च । ... ... .... १८६२ गमनम् । .... विजयविमाने अमरो जातः । ... ... २०११ ... १८७४१ मेरुशिरसि अच्युतेन्द्रविहिताजितजिनद्वितीयः सर्गः । पूजनम् । .... .... २०१।२ अजितप्रभोः च्यवनम् । .... ... १८८।१ | मेरुशिरसि सौधर्मेन्द्रविहिताजितजिनपूजनम् । २०४१ चतुर्दश स्वप्नाः। ..... १८८।१ | सौधर्मेन्द्रेणाजितप्रभोः मातुः समीपे नयनम् । २०५१ %ACADOSAX ॥ १ ॥ For Private & Personal use only H r .jainelibrary.org Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Kakk%%% विषयः पृष्ठम् | विषयः पृष्ठम् अजितजिन-सगरचक्रिजन्मोत्सवः । ... २०५।२ | अजितप्रभोः प्रत्रग्या । ... २१७१ जितशत्रुराजनिर्मितो नामकरणोत्सवः । २०७१ | पञ्च दिव्यानि .... २१८।१ तृतीयः सर्गः। अजितजिनस्योगविहारिता। .... २१८०२ अजितजिन-सगरचक्रिणोर्खाल्यलीला। २०८।१ अजितप्रभोस्तपः । ... २१९६१ सगरचक्रिणो विद्याभ्यासः। ... .... २०८२ | अजितजिनस्योग्रचर्या । ... २१९/२ अजितजिन-सगरचक्रिणोयौवनं पाणि- .... अजितप्रभोः केवलोत्पत्तिः, देवेन्द्राणामाग्रहणश्च । ... ... ... २१०११ | गमनं च। ... ... .... २२०११ अजितजिनराज्याभिषेक: तप्तितुर्दीक्षा च। २१०।२ | समवसरणम् । ... . ... २२००२ अजितप्रभो राज्यवैभवः । ... २१११२ | भगवतो द्वादशपर्षदा, समवसरणान्तर्गमनश्च । २२१११ अजितजिनस्य दीक्षासङ्कल्पः । २१२११ | कर्मक्षयजास्तीर्थकृदतिशयाः। .... २२११२ सगरस्य प्रार्थना । .... .... ..... २१३६१ | प्रभोर्वन्दनार्थ सगरस्य गमनम् । ... .... २२२।१ सगरस्य राज्याभिषेकः। ... ..... २१३३२ अजितप्रभोर्देशना । ... .... २२३३१ जिनस्य वार्षिकं दानम् । .... २१४६१ चतुर्विधं धर्मध्यानम् , आज्ञाविचयमपायअजित जिनप्रव्रज्यामहोत्सवः । ... २१४॥२ विचयं च । ..... ... ... २२३१२ CHCHOCHECIRCISCORRECHANCE ARSACROREKAR Jain Education in For Private & Personal use only . Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानु त्रिषष्टिशलाका क्रमणिका चरितस्य SARKAASHAANGAROOR विषयः पृष्ठम् | विषय पृष्ठम् विपाकविचयम् , विपाकः, अष्टौ कर्माणि । २२४१ | आर्यानार्यदेशा मनुष्याश्च । .... २३१३१ संस्थानविचयम लोकस्वरूपं च। ... २२४।२ | अन्तरद्वीपाः । ... २३११२ अधोलोकः, नरकाः, नरकावासा वलयाश्च। २२५६१ | नन्दीश्वरः। .... २३२।१ भवनपतयस्तञ्चिह्नानि तदिन्द्राश्च । .... २२५/२ कर्मभूमयः, ऊर्ध्वलोकश्च । ... २३३१२ व्यन्तरा वानव्यन्तरस्तच्चिह्नानि तदिन्द्राश्च । २२६।१ | वैमानिकाः। .... २३४।२ ज्योतिष्काः। .... २२६:२ | गणभृतां स्थापना । ... २३६१ तियग्लोकः, मरुश्च । ... ... २२७११ २२७१ | बलिः, गणभृद्देशना च । .... २३६१२ जम्बूद्वीपस्तद्वर्षाणि वर्षधराश्च । ... २२७१२ | शासनाधिष्ठायक-देव--देव्यौ। .... २३७१ जम्बूद्वीपहदाः, महानद्यः, विदेहक्षेत्रम् च | २२८1१ | द्विजन्मना सह भगवतः संकेतवार्ता। .. २३७११ विजयाः। ... .... ... २२८।२ | सुलक्षणा-शुद्धभट्टयोः कथानकम् । ... २३७।२ जम्बूद्वीपस्य जगती वैतादयगिरयश्च । .... २२९।१ | सम्यक्त्व-मिध्वात्वयोर्देवगुरुधर्मणां च .... लवणाब्धिः, पातालकलशा वेलन्धरदेवाश्च । २२९।२ स्वरूपम् । .... ... २३८।२ धातकी पुष्कराद्धं तद्गता मेरवश्च । .... २३०।१ | सम्यक्त्वस्य लक्षणादि। .... २३९।१ मानुषोत्तरः। ... ... .... २३०१२ | शुद्धभट्टस्य केवलोपार्जनम्। ... २४०१ CA%AAAAAAAACAR Jan Education Internatie For Private & Personal use only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -% 5 % % % विषयः पृष्ठम् | विषय पृष्ठम् चतुर्थः सर्गः। अष्टापदे जिनार्चनम् । ... २५७११ सगरस्य चक्ररत्नोत्पत्तिः, तत्पूजा च । ... २४०१२ सगरपुत्रैः अष्टापदगिरेः परिखाविधानम्। २५८।१ दिग्विजयाय प्रयाणकम्। ... सगरात्मजानां नागराजेन भस्मीकरणम्। २५९१ सगरस्य दिग्विजयः। .... २४२।१ षष्ठः सर्गः। सगरस्य स्त्रीरत्नप्राप्तिः । .... २५११२ | सगरपुत्रमरणे तत्सैन्यानां विलापः। .... २६०।१ सगरस्य विनीतायां प्रवेशः ।.... २५२११ | सगरपुत्राणां मरणे तदन्तःपुरीणां परिदेवनम् । २६०११ सगरस्य चक्रिपदाभिषेकः । ... सामन्तादीनां शोचनम् । .... ... २६०।२ पञ्चमः सर्गः। सगरपुत्रान्तःपुरीप्रभृतीनामयोध्या प्रति पूर्णमेघसुलोचनयोः पूर्वभवसम्बन्धः। ... २५३१२ प्रस्थानम्। ... .... .... २६१११ मेघवाहनसहस्राक्षयोः पूर्वभवः ।। २५४१ | मुमूर्षणां तेषां अपरिचितेन द्विजेन संस्थापनम् । २६२२२ राक्षसवंशः। .... ..... २५४।२ | अपरिचितेन द्विजेन स्वपुत्रमरणमिषेण ... सगरपुत्राणां देशदर्शनाय प्रस्थानम् , सगरप्रतिबोधनम् । .... ... २६२।२ अपशकुनानि च। .... २५५२ सगरस्य विलापः। .. २६६।२ सगरपुत्रैः अष्टापदगिरेर्दर्शनम् । २५६।२ | अपरिचितेन द्विजेन सगरस्याश्वासनम् ।.... २६७११ CRECROCESC4%9 %akGARH पापात %-% % I RORE RAE% Jain Education Internal For Private & Personal use only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E %AE% त्रिषष्टीशलाका. विषयानुक्रमणिका २८२।२ 4%9C २८३॥ चरितस्य ॥ ३॥ विषयः पृष्ठम् | विषयः पृष्ठम् सुबुद्धिमन्त्र्युक्तं तान्त्रिको दाहरपम् । ... २६७।२ | सगरस्य प्रव्रज्या। ..... ... २८१११ द्वितीयमन्त्र्युक्तं अपरमिन्द्रजालिकोदादरणम् । २७३।१ | सगरस्य केवलज्ञा । गङ्गाप्रवाहस्खलनाय भगीरथस्य गमनम्। २७८०२ अजितम्वामिसगरयोनिर्वाणम् । जहनुप्रभृतीनां सगरपुत्राणां भगीरथस्य च अजितप्रभुनिर्वाणमहोत्सवः । २८३१२ पूर्वभवाः । .... .... .... २८००२ तृतीयम् पर्व विषयः पृष्ठम् | विषयः पृष्ठम् प्रथमः सर्गः। सम्भवजिनजन्म दिक्कुमारीकृतो महोत्सवश्च ।। २९०१२ सम्भवजिनपूर्वभवचरितम्। .... २८५।२ | चतुष्पष्टीन्द्र विहितः सम्भवजिनजन्मोत्सवः । २९१।२ दुर्भिक्षः। ... २८६।२ चतुःषष्टिः इन्द्राः ... .... २९२।११ संसारविरागता। २८८०१ | शक्रेन्द्रेण कृता प्रार्थना सम्भवजिनस्य गर्भावतरणम् । ... २८९।२ सम्भवनामस्थापनम् । ... ... २९३/२ चतुर्दश स्वप्नाः। .... २९०११ | पित्रा राज्यसमर्पणम २९४।२ %EC%C4 E %E0%A4%96% २९३।१ %C Hir.jainelibrary.org For Private & Personal use only % Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I पृष्ठम् ३०५।१ ३०५।२ ३०६।१ ३०७१ ३०७१ ३०७१२ कवलज्ञानव। .... .... विषयः पृष्टम | विषयः सम्भवजिनवार्षिकदानं दीक्षा च। २९५/१ | वार्षिकदानं, दीक्षा च । ... शक्रस्तुतिः। ... २९६।२ । जिनकेवलज्ञानम्। .... सम्भवजिनपारणम् , पञ्च दिव्यानि, पीठं अशरणभावनागर्भा देशना । केवलज्ञानश्च । २९७१ | यक्ष-यक्षिण्यौ। ... . समवसरणरचना । .. २९७२ जिनपरिवारादिकम् । ... अनित्यभावनागर्भिता सम्भवजिनदेशना । २९८०२ | अभिनंदनजिननिर्वाणम् । ... त्रिमुखो यक्षः, दुरितारिश्च यक्षिणी। .... ३००।१ तृतीयः सर्गः। सम्भवजिनपरिवारादिकम् ।.... .... ३००१ | निष्पुत्रताया दुःखम् । ... प्रभोर्निर्वाणम्। ... .... ... ३००।२ | कुलदेवीवरदानम् । ३००।२ द्वितीयः सर्गः। पुरुषसिंहनामस्थापनम् । अभिनन्दनजिनपूर्वभवचरितम् । ... ३०११ | दशधा यतिधर्मः। अभिनन्दनजिनजन्मनगरी पितरौ च। ... ३०२।१ | प्रव्रज्याया दुष्करत्वम् । .... चतुर्दश स्वप्नाः, जन्मोत्सवश्च । ३०३।१ | चातुर्गतिकभवपास दुःखम् । जिनेश्वराय राज्यसमर्पणम् ।.... ३०४।२ | सुमतिस्वामिजन्मपुरी पितरौ च । ३०८१ ३०९।१ ३१०१ ३११११ ३१२२ ३१२।१ ३१२२ NISAA% C3%AS Jain Education Internation For Private & Personal use only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 -%AE% विषयानुक्रमणिका % त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितस्य E3 % विषयः जिनमात्रा विवादभञ्जनम् । ... जिनजन्मादिकम् । ... सुमतिजिनदीक्षा। केवलज्ञानम् । ... अष्टप्रातिहार्यगर्भिता स्तुतिः । एकत्वभावनागर्भिता जिनदेशना सुमतिजिनशासनदेवदेव्यो। जिनपरिवारः। ... .... जिननिर्वाणम् । ... चतुर्थः सर्गः। पद्मप्रभजिनपूर्वभवचरितम् । जन्मपुरी पितरौ च । .... जिनजन्मोत्सवः । ... ... पद्मप्रभजिनस्य प्रव्रज्या । ... पृष्ठम् ३२१११ ३२१११ ३२२२१ ३२३।१ ३२३।२ ३२५/१ ३२५।१ ३२५।१ % पृष्ठम् | विषयः ३१३।१ | पद्मप्रभजिनदेशना .... ३१४२ | नरकगतिक्लेशस्वरूपम् । ३१५।१ । तिर्यग्गतिदुःखस्वरूपम्। ... ३१५।२ | मनुष्यगतिदुःखस्वरूपम्। ... ३१६११ देवगतिक्लेशवर्णनम्। .... ३१६३१ पद्मप्रभस्वामिशासनदेवदेव्यौ । ३१६१ पद्मप्रभजिनपरिवारः। ..... ३१७१ | पद्मप्रभजिननिर्वाणम्। ... ३१७११ पञ्चमः सर्गः। सुपार्श्वजिनपूर्वजन्मसम्बन्धः । ... ३१८६१ सुपार्श्वजिनजन्मादि। ... ३१८२ जिनस्य दीक्षा केवलज्ञानं च । ३३९।१ | सुपार्श्वजिनदेशना । ३२०११ | जिनस्य यक्ष-यक्षिण्यो। .... %A8-%A4%AACAॐ % % ३२६।१ ३२७।१ ३२८१ ३२९१ % ॥४॥ ३०१ % Jain Education Inter For Private & Personal use only % Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयः सुपार्श्वजिन परिवारः । जिननिर्वाणम् । ... .... .... षष्ठः सर्गः । चन्द्रप्रभजिन पूर्व भव सम्बन्धः ... चन्द्रप्रभपरिवारः । चन्द्रप्रभनिर्वाणम् । चन्द्रप्रभजिनजन्म | चन्द्रप्रभजिनस्य प्रव्रज्यादि ।... चन्द्रप्रभजिनस्य देशना । चन्द्रप्रभजिनयक्ष-यक्षिण्यौ । ... .... सप्तमः सर्गः । सुविधिजिनपूर्वभव सम्बन्धः । सुविधिजिनजन्मादि । सुविधि जिन दीक्षादि । ... :: *** ... .... .... पृष्ठम् विषयः ३३०|१| अष्टकर्मोत्तर प्रकृत्याश्रवस्वरूपज्ञापिका सुविधि ३३०/२ ... ३३१/१ ३३२।१ ३३३।१ ३३४।२ ३३५/१ ३३५/१ ३३५/९ .... स्वामिदेशना । सुविधिजिनशासन- देव-देव्यौ । सुविधिजिनपरिवारः । सुविधिजिननिर्वाणम् । अष्टजिनान्तरे तीर्थोच्छेदन ... अष्टमः सर्गः । ३३६।१ ३३७/१ ३३८|१ .... .... ... शीतल जिन पूर्वभव सम्बन्धः । शीतलजिनजन्मादि । शीतलजिनप्रव्रज्यादि । आश्रव-संवरस्वरूपगर्भा शीतलजिनदेशना । शीतलजिन यक्ष-यक्षिण्यौ परिवारादि च । शीतल जिननिर्वाणम् । ... .... ... .... **** ... पृष्ठम् ३३९।१ ३४१।१ ३४१।१ ३४१।२ ३४१।२ ३४२/२ ३४३/२ ३४४।२ ३४५/२ ३४६।२ ३४७/१ ainelibrary.org Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CAR विषयानु क्रमणिका त्रिषष्टिः शलाका पुरुष चरितस्य %E4%AC -% चतुर्थ पर्व विषयः पृष्टम् | विषयः पृष्ठम् प्रथमः सर्गः। जिनस्य निवाणम् । .... .... ३८१११ श्रेयांसजिनपूर्वभवसम्बन्धः । त्रिपृष्ठस्य नरकगमनम् । .... ३४८२ ... ३८२११ श्रेयांसजिनगर्भावतारः। ... अचलबलदेवस्य सिद्धिगमनम् । ३८२।२ ... ३४९।२ श्रेयांसजिनजन्मादि । ... ... ३५०।१ द्वितीयः सर्गः। जिनप्रव्रज्यादि । ३५२।१ । श्रीवासुपूज्यपूर्वभवसम्बन्धः । ३८३११ त्रिपृष्ठवासुदेव-अचलबलदेवादीनां चरितम् । ३५२१२ | वासुपूज्यजिनजन्मोत्सववर्णनम् । ३८४०१ श्रेयांसजिनस्य केवलज्ञानम् । ३७८१ शक्रस्तुतिः । ... समवसरणम् । .... ३७८०२ पाणिग्रहणार्थ पितुराज्ञा। .... ३८६३१ जिनस्य देवताकृतस्तुतिः। ... .... ३७९।२ वासुपूज्यस्य प्रत्युत्तरः। ३८६।२ श्रेयांसजिनस्य देशना। . ३७१।२ वासुपूज्यस्य दीक्षा। ३८७२ निर्जरास्वरूपगर्भा श्रेयांसजिनदेशना । .... ३८०१ द्विपृष्ठवासुदेवस्य विजयबलदेवस्य च वृत्तान्तः। ३८७१२ जिनस्य परिवारादि । ३८१।२ | वासुपूज्यस्य समवसरणम् । ... ... ३९३।२ ३८४२ Jain Education Internationelle For Private & Personal use only , Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठम् विषयानुः त्रिषष्टिः शलाका क्रमणिका ४२६२ ४३१११ ४३१०१ चरितस्य विषयः पृष्ठम् । विषयः पञ्चमः सर्गः। धर्मनाथ जिनस्य धर्मदेशना । ... धर्मनाथजिनस्य पूर्वभवसम्बन्धः । ... ४१७।१ धर्मनाथ जिनस्य परिवारः। ... धर्मनाथजिनजन्म। ... ... ४१९।१ प्रभोः निर्वाणम् । ... .... जिनप्रत्रज्या। .... .... ... ४२०११ ___षष्ठः सर्गः। पुरुषसिंहवासुदेवस्य सुदर्शनबलदेवस्य च ... मघवचक्रवर्तिचरितम् । .... वृत्तान्तः । .... ... ... ४२०१२ सप्तमः सर्गः। धर्मनाथ जिनस्य कैवल्यं समवसरणं च ।... ४२५/१ सनत्कुमारचक्रिचरितम् । ... ..... ४३२।१ .... ४३४॥२ RANSAC4%%AA%CKS Jain Education Internation1 For Private & Personal use only , Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S'ri-Jaina-Atmananda-S'atabdi Series; No. VIII. THE TRISHASHTIS'ALĀKĀPURUSHACHARITRAM-MAHĀKĀVYAM BY S'RI-HEMACHANDRA-ACHARYA Parvan Second, Third, Forth-( Part Second,) (describing the noble deeds of Ajitaswami to Dharmanatha, and Chakravartin Etc.) ORIGINALLY EDITED BY (First Parvan) MUNI CHARANAVIJAYA, the disciple of Acharya Sri-VIJAYAVALLABHA-Suri, Pattadhara of Nyayambhonidhi Sri-VIJAYĀNADA-Sāri, the First Acharya of the BRIHAT-TAPAGACHCHHA-SAMVIGNA-S'AKHA. PUBLISHED BY First editiion: S'ri-JAINA-ĀTMĀNADA-SABHA, BHAVNAGAR. Price Rs. 10-0-0 Vira-Samvat 2476, 1250 Copies Vikrama-Samvat 2006, Atma-Samvat 55, 1950 A. C. Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * *% *% * **% S'ri-Jaina-Atmānanda-S'atābdi Series; Vol. VIII. This Series is started to comnemmorate the Birth-cencenary of the great S'vertambara Acharya Sri-Vijayānanda-Sūri generally known by the name of Sri Atmārāmji, who was the First Acharya of the Samvigna-S'e kha of the Brihat-Tapa gachchha, by his worthy Pattadhara Acharya-Sri-Vijayavallabha-Sūri, the founder of Sri-Mabavīra-Jaina-Vidyalaya, Bombay, Sri-Atmananda-Jaina-Gurukul, Gujranwala, (Punjab ), S'ri-Atmānanda-Jaina High-School, Ambala City, (Punjab ), S'riPars'vanātha-Jaina-Vidyalaya, Varkānā, (Marwar ) S'ri-Atmānanda-Jaina Library, Poopā City, etc. NUMBER 8 *% %**% * * %* %**% %*%** To BX HAD FROM Sri-Jaina-Atmānand-Sabhā, Bhavnagar (Kāthiawad) Founded in V. S 1989, Atma-Samvat 38, Vira-Samvat 2459, 1933 A. C. % For Private & Personal use only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ h號號號號號號號號號號號號號號號號號跨號號號號號號號號號號號號號號號號號 श्रीजन-आरमानन्द-शताब्दि-ग्रन्थमालायाः अष्टम ग्रन्थाङ्कः [4] । कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यसन्हब्धं त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् । तस्यायं पाठान्तरादिसमलङ्कतः अजितस्वाम्यादि-धर्मनाथपर्यन्तजिनादिचरितगर्भः द्वितीय तृतीय-चतुर्थ पर्वात्मकः द्वितीयो विभागः । मूल (प्रथम विभाग.) सम्पादकः संशोधकश्च, स्व-परसिद्धान्तपरमार्थप्रपश्चप्रवीण-बृहत्तपागच्छन्तरगतसंविग्नशाखीय-आद्याचार्य-न्यायाम्भोनिधि-जैनाचार्य श्रीमदविजयानन्द सूरीश्वर( प्रसिद्धनाम-श्रीआत्मारामजीमहाराज )पट्टधराचायश्रीविजयवल्लभसूरीशमुख्यरत्नतपोनिधि-श्रीविवेकविजयसुशिष्याचार्यपदोपशोभितश्रीविजयोमङ्गसूरिविनयश्चरणविजयः । प्रकाशयित्री-श्रीजैन-आत्मानन्दसभा, भावनगर ( काठियावाड) [प्रतयः १२५०] वीरसंवत् २४७६, विक्रमसंवत् २००६, आत्मसंवत् ५५, ईस्वी सन् १९५०. HESENSSSSSSSSSSSSSSSSS S SSSSSSSSSS 步第9號號號號號號號號號號號號號號號號 5號號號號號號號號號號號號號號號號步 For Private & Personal use only . Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥८॥ toctoCHCO इदं पुस्तकं मुम्बय्यां कालबादेवीरोड-कोलभाटवीथ्यां २६-२८ तमे गृहे निर्णयसागरमुद्रणालये रामचन्द्र येसू शेडगेद्वारा मुद्रापितम् प्रथमावृत्तिः १२५० (प्रत तथा बुकाकारे.) । :::::::EEL प्रताकारे दश रुपीया (बुकाकारे आठ रुपीया अने पोस्टेज अलग. E % BEE % % प्रकाशितं च तत् “वल्लभदास त्रिभुवनदास गांधी, ( साहित्य भूषण) सेक्रेटरी श्रीजैन-आत्मानन्द सभा, भावनगर ( काठियावाड)" इत्यनेन. % % Jain Education Inten For Private & Personal use only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ C प्रकाशक- निवेदन. 4% AGRA% कलिकालसर्वज्ञ परम पूज्य श्रीहेमचंद्राचार्यकृत श्री त्रिषष्ठिश्लाका पुरुष चरित्र मूळ ग्रंथनुं बीजं, त्रीजुं अने चोथु (त्रण पर्व ) बीजो ग्रंथ ( विभाग ) प्रताकारे अने पुस्तकाकारे श्री जैन आत्मानंद शताब्दिना आठमा पुष्प तरीके प्रगट करवामां आवेल छे. न्यायांभोनिधि श्रीमद्विजयानंदसूरीश्वरजी ( आत्मारामजी ) महाराजनी जन्मजयंति श्री वडोदरा शहेरमा आचार्य महाराजश्री विजयवल्लभसूरीश्वरजी महाराज साहेबना अध्यक्षपणा नीचे समारोहपूर्वक उजवाणी हती; ते परम गुरुभक्ति अने शताब्दिन चिरस्मरण जळवाई रहे ते माटे पूज्य आचार्य महाराजना विद्वान प्र. शिष्यश्री चरणविजयजी महाराजने ते कार्य सुप्रत करवामां आवेलुं हतुं. अने क्रमे क्रमे आत्मानंद शताब्दि सिरिझनी पाछळ आपवामां आवेल सात ग्रंथो प्रकट थया हता. दरम्यान विद्वान मुनिराजश्री चरणविजयजी महाराजनो अचानक स्वर्गवास थयो. आवा विद्वान मुनिवर माटे आखा परिवारनी जेम ज आ सभाने पण ते दुःखनो विषय बनेल छे. ___त्यारबाद आ कार्य केटलोक वखत सुधी मुलतवी रह्यं हतुं, परंतु त्रिषष्ठिश्लाका पुरुष चरित्र जेवा महामूला व्याख्यान उपयोगी कथा अने काव्य साहित्यना अपूर्व ग्रंथy बाकी- प्रकाशन कार्य पूर्ण थर्बु जोईए, तेम आचार्यश्री विजयबल्लभसूरीश्वरजी महाराजनी इच्छा थतां साक्षर शिरोमणि पूज्य श्री पुण्यविजयजी महाराजने ते कार्य सुप्रत कयु. परम पूज्यश्री पुण्यविजयजी महाराजश्रीए पाटण ज्ञानमंदिर अने भंडारोनी व्यवस्था कर्या पछी आगमो %EC%ERes-4 AF% % %A For Private & Personal use only Marw.jainelibrary.org Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ १० ॥ बगेरेना संपादननुं महान् कार्य तेओ घणा परिश्रमवडे करी रह्या हता. समय पण बीजा कार्यो माटे नहोतो तेम छतां हाथमां लधुं अने तेओ कृपाळुश्रीए आ ग्रंथमां आपेल प्रासंगिक विवेचनमां जणाव्या प्रमाणे आ ग्रंथनुं सुंदर संशोधन करी आ सभाने प्रकाशन कार्य सुप्रत कथुं, जे माटे विद्वान मुनिराजश्री पुण्यविजयजी महाराजनो आ सभा परम उपकार माने छे. कृपाळु श्री पुण्यविजयजी महाराजे आ कार्य हाथमां लेवाथी ज आ बीजुं पुस्तक आटला वखते पण प्रकाशन थवा पाम्युं छे. जे माटे सभा पोतानो आनंद व्यक्त करे छे. छापकाम, कागळो वगेरे तेना तमाम कार्योनी हजी सुधीनी सख्त वधती जती मोंघवारीने लइने आ ग्रंथमां घणो म्होटो खर्च थयो छे. पूज्यपाद आचार्य महाराजश्री विजयवल्लभसूरीश्वरजी महाराजनां उपदेशथी नीचे मुजब मदद मळी छे. जे माटे आ सभा अंतःकरणपूर्वक आभार माने छे. रु. २०००) श्री आत्मानंद जन्म शताब्दि बॉर्ड मुंबई. रु. १०००) श्री गुजरानवाला ( पंजाब ) जैन संघ. रु. ५०१ ) शाह प्रेमचंद मणिलालनी विधवा बाई मणिव्हेन पाटण. रु. ३५०१) उक्त त्रणे सहायकोने खरा अंतःकरणथी धन्यवाद आपवामां आवे छे. श्री आत्मानंद भवन - भावनगर. धनतेरस सं. २००६ गांधी वल्लभदास त्रिभुवनदास. ( साहित्य भूषण. ) Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥। ११ ॥ Jain Education Inter श्रीजैन-आत्मानन्द-शताब्दि -ग्रन्थमाला मुद्रितग्रन्थाः " १ श्रीवीतराग - महादेवस्तोत्रम् - कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतम् x२ प्राकृतव्याकरणम् – (अष्टमाध्यायसूत्रपाठो धातुपाठसहितश्च ) *३ श्रीवीतराग - महादेवस्तोत्रम् - ( गूर्जरभाषया सहितम् ) ४ न्यायाम्भोनिधि- जैनाचार्य श्रीविजयानन्दसूरीश्वर ( प्रसिद्धनामधेय श्री आत्मारामजी )स्य जीवनचरितम् (गूर्जर गिरायाम् ) 39 ५ नवस्मरणादिस्तोत्र सन्दोहः ६ चारित्र पूजादित्रयीसङ्ग्रहः - आचार्य श्रीविजयवल्लभ सूरिरचितः *७ त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरितमहाकाव्यम् - प्रथमं पर्व, कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यप्रणीतम् प्रताकार रु. ६, बुकाकार रु. ६ ८ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरितमहाकाव्यम् - बीजुं, त्रीजुं, चोथुं पर्व श्री कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य प्रणितम् प्रताकारे रु. १०, बुकाकारे रु. ८ * आ निशानीवाळा प्रन्थो मळता नथी. मूल्यम् 01210 -8-0 ० – ८. ०-८ ६०-० १००० पोस्टेज अलग. ) . Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www.janelibrary.org For Private & Personal use only *9 ******* * ******** ***** II P11 Jain Education Inter Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अहम् ॥ ॥ नमः प्रथमानुयोगप्रणेतृभ्यः श्रीकालकार्येभ्यः॥ न्यायाम्भोनिधि-जैनाचार्य-श्रीविजयानन्दसूरीश्वरपट्टालङ्कार-श्रीविजयवल्लभसूरिभ्यो नमः ॥ ___कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविनिर्मितं ASSES त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । त्रिषष्टि. ३१ For Private & Personal use only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते द्वितीय पर्व प्रथम: सर्गः ॥१७६॥ अजितनाथचरितम् । SAMODALAMOROSCAMESSAGACAD अजितस्वामि सगरचक्रवर्तिप्रतिबद्धं द्वितीयं पर्व । __ प्रथमः सर्गः जयन्त्यजितनाथस्य, जितशोणमणिश्रियः । नरेन्द्रवदनादर्शाः, पादपद्मद्वयीनखाः॥१॥ काहिपाशनिर्णाशजाङ्गलीमन्त्रसन्निभम् । अजितस्वामिदेवस्य, चरितं प्रस्तवीम्यतः ॥२॥ नाभीसनामेपानां, जम्बूद्वीपस्य मध्यगम् । दुःपमसुषमाप्रायं, विदेहक्षेत्रमस्ति तत् ॥३॥ अस्ति तत्र महानद्याः, सीताया दक्षिणे तटे । विजयो वत्स इत्याख्याविख्यातो विपुलर्द्धिकः ॥४॥ एकदेश इव स्वर्गप्रदेशस्य भुवं गतः । अभ्राजिष्ट स विभ्राणो, रामणीयकमद्भुतम् ॥५॥ तत्रोपर्युपरि ग्राम, ग्रामैरथ पुरं पुरैः । निवसद्भिर्यदि परं, नभस्येवं हि शून्यता ॥६॥ सम्पदा निर्विशेषाणां, परस्परमतुच्छया । पूर्नामाणां तत्र भेदो, राजाश्रयकृतो यदि ॥७॥ स्वच्छखादुजलास्तत्र, महावाप्यः पदे पदे । क्षीराम्भोनिधिनिर्गच्छत्सिराभिरिख पूरिताः ॥८॥ तत्र चाऽलब्धमध्यानि, स्वच्छानि च महान्ति च । स्थाने स्थाने तडागानि, मनांसीव महात्मनाम् ॥९॥ तत्राऽऽर्द्रवल्लीबहला, आरामाश्च पदे पदे । तन्वन्ति मेदिनीदेव्याश्चित्रपत्रलताभ्रमम् ॥ १० ॥ ग्रामे ग्रामे चेहूंवाटास्तत्र पान्थत्पाच्छिदः । महेक्षुभिः शोभमाना, रसाम्भस्कुम्भसन्निभैः ॥११॥ १ पद्मरागमणिः। २ कर्मनागपाशनाशे जाङ्गुलीमनसमम् । * म्यहम् ल ॥ ३ नाभिसदृशस्य । °वाऽस्ति शू खंता ॥ ४ इक्षुक्षेत्राणि। CARE पूर्वभवचरिते प्रथमो विमलवाहनभवः। ॥१७६॥ For Private & Personal use only . Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्राऽनुगोकुलं गावः, प्लावयन्ति महीतलम् । क्षीरनद्य इवाऽङ्गिन्यः, प्रक्षरत्क्षीरनिर्झराः ॥ १२ ॥ तत्राऽऽसीनैः पथि पथि, पान्थद्वन्द्वैः फलद्रुमाः । विराजन्ते युगलिभिः, कुरुकल्पद्रुमा इव ॥ १३ ॥ तमिन्नवन्यास्तिलकसनाभिः सम्पदां निधिः । यथार्थनामा नगरी, सुसीमेत्यस्ति विश्रुता ॥ १४ ॥ असाधारणया ऋद्ध्या, पुरीरनं चकास्ति तत् । आविर्भूतं भुवो मध्यात् , किश्चित् पुरमिवाऽऽसुरम् ॥१५॥ तत्रैकाकिन्योऽपि नार्यः, सञ्चरन्त्यो गृहान्तरे। सत्सखीका इवाऽऽभान्ति, सङ्क्रान्ता रत्नभित्तिषु ॥१६॥ परिखाम्भोधिपरिधिश्चित्ररत्नशिलामयः। जगत्यां जगतीवोच्चैः, प्राकारस्तत्र शोभते ॥ १७॥ *सञ्चरद्भिर्गजैस्तत्र, प्रक्षरन्मदवारिभिः । प्रशान्तपांसवो रथ्या, नित्यं वर्षाजलैरिव ॥ १८ ॥ नीरङ्गीषु कुलस्त्रीणां, कुमुदिन्युदरेष्विव । लभन्ते यंत्र सूर्योता, नाऽवकाशं मनागपि ॥ १९ ॥ राजन्ते तत्र चैत्येपु, चलद्धजपटाञ्चलाः । मा गाश्चैत्योपरीत्यर्क, निषेधन्त इवाऽसकृत् ॥२०॥ श्यामीकृतनभांस्यम्भाप्लतभूमीनि भूरिशः । उद्यानानि महीलग्नमेघसध्यश्चि तत्र च ॥२१॥ स्वर्णरत्नमयास्तत्र, क्रीडाशैलाः सहस्रशः। आरामरम्यकटका, मेरोरिव कुमारकाः॥२२॥ सा च धर्मार्थकामानां, युगपत् सुहृदामिव । क्रीडार्थमेकसङ्केतनिकेतनमिवोच्चकैः ॥ २३ ॥ भोगावत्यमरावत्योरधऊर्ध्वस्थयोः पुरोः। सोर्यवाऽन्तरे जाता, सा संधीची महर्द्धिभिः ॥ २४ ॥ नगर्यामभवत् तस्यां, राजा विमलवाहनः । विमलात्माऽतिविमलैर्गुणोश्चन्द्रमा इव ॥ २५॥ १ तिलकसदृशः। २ असुरसम्बन्धि । *संवहद्भिर्ग खंता ॥ ३ लजावस्नेषु । तत्र पा॥ ४ सूर्यकिरणाः । ता५ सदृशानि । ६ समो मध्यप्रदेशः । ७ भगिनीव । ८ तुल्या। विमलाङ्गोऽतिल ॥ For Private & Personal use only . Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरिते ॥ १७७॥ Jain Education Internatio प्रपुष्णन् लालयन् वृद्धिं प्रापयन् लम्भयन् गुणैः । स प्रजाः पालयामास, स्वापत्यानीव वत्सलः ॥ २६ ॥ द्वितीयं पर्व अन्यायं स निजस्याsपि न सेहे न्यायनिष्ठुरः । चिकित्स्यते हि निपुणैरङ्गोद्भवमपि व्रणम् ॥ २७ ॥ लीलयैव महौजस्कः, स विवेगवनीभुजाम् । शिरांसि नमयामास, समीर इव भूरुहाम् ॥ २८ ॥ त्रिवर्ग पालयामास, परस्परमबाधितम् । नानाविधं प्राणिगणं, महात्मेव तपोधनः ॥ २९ ॥ औदार्य -- गाम्भीर्य क्षान्तिप्रभृतयो गुणाः । तस्याऽन्योऽन्यमभूष्यन्तोपवनस्येव पादपाः ॥ ३० ॥ सर्पन्तो गुणास्तस्य, सौभाग्यैकधुरन्धराः । कस्य न ह्यलगन् कण्ठे, चिरायातवयस्यवत् १ ॥ ३१ ॥ पर्वतारण्यदुर्गादिदेशेष्वपि महौजसः । सदागतेरिव गतिः, शासनं तस्य नाऽस्खलत् ॥ ३२ ॥ आक्रान्ताशेषदिकस्य, प्रसरचण्डतेजसः । लुलुठुर्भूभृतां मूर्ध्नि, पादास्तस्य खेरिव ॥ ३३ ॥ सर्वज्ञो भगवान् स्वामी, यथा तस्य महामतेः । भ्रूभुजामपि सर्वेषां स एवैकस्तथाऽभवत् ॥ ३४ ॥ विसूत्रितामित्रवलः, सुत्रामेवैकविक्रमः । साधुभ्य एव स शिरो, नमयामास बाल्यतः ॥ ३५ ॥ यथा तस्याsतुला शक्तिर्बाह्यानां द्विषतां जये । आन्तराणामपि तथा, वभूवैकविवेकिनः || ३६ || दुर्दमं दमयामास, बलादुत्पथगत्वरम् । यथेभ-वाजिप्रभृति, स इन्द्रियगणं तथा ॥ ३७ ॥ स ददौ दानशीलोऽपि, पात्र एव यथाविधि । पात्रे बहुफलं तद्धि, शुक्तावम्भोदवारिवत् ॥ ३८ ॥ विदधानः पैरपुरप्रवेशमिव सर्वतः । प्रजाः प्रवर्त्तयामास, धर्म्येऽध्वनि स धर्मवित् ॥ ३९ ॥ चरित्रेण पवित्रेण, सोऽवासयदिदं जगत् । मलयोवीं परिमलेनेव चन्दनपादपः ॥ ४० ॥ १ सर्वत्र । २ पवनस्य । ३ इन्द्रः । ४ क्रोधादीनाम् । ५ परकायाप्रवेशमिव । प्रथमः सर्गः अजित नाथ चरितम् । पूर्वभवचरिते प्रथमो विमलवाहनभवः । ॥१७७॥ . Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयादातुरत्राणादर्थिसम्प्रीणनादपि । युद्धवीरो दयावीरस्त्यागवीरश्च सोऽभवत् ॥४१॥ स एवं राजधर्मस्थः, स्थिरधीरप्रमद्वरः । चिरं ररक्ष वसुधां, सुधामिव फणीश्वरः ॥ ४२ ॥ कृत्याकृत्यविदस्तस्य, सारासारं विविञ्चतः । अन्येयुरेवमुत्पेदे, भववैराग्यवासना ॥ ४३ ॥ योनिलक्षमहावर्तनिपातक्लेशभीषणः । पारावार इवाऽपारः, संसारो धिगसावहो!॥४४॥ इहेन्द्रजालवत् स्वप्मजालवच्च भवे हहा! । क्षणाद् दृष्टैः क्षणानष्टैरथैद्यन्ति जन्तवः ॥ ४५ ॥ यौवनं पवनोद्धृतपताकाञ्चलचञ्चलम् । आयुः कुशाग्रविश्रान्तजलबिन्दुचलाचलम् ॥४६॥ अमुष्याऽप्यायुषो गर्भवासे नरकवासवत् । अत्यन्तदुःखाद् गच्छन्ति, मासाः पल्योपमोपमाः ॥४७॥ अथ जातस्य बालत्वेऽप्यायुर्भागः कियानपि । परप्रणेयस्य सतो, मुधाऽन्धस्येव गच्छति ॥४८॥ इन्द्रियार्थरसखादुरसास्वादेन यौवने । मत्तस्येव वृथा गच्छत्यायुरंशः कियानपि ॥ ४९ ॥ त्रिवर्गसाधनाशक्तवपुषश्च वपुष्मतः । आयुः शेषं वृथा याति, प्रसुप्तस्येव वाईके ॥५०॥ इत्थं विदन्नपि भवी, भवायैव विचेष्टते । कामं रोगीव रोगाय, विषयास्वादलम्पटः ॥५१॥ यौवने विषयेभ्योऽसौ, यथा द्युत्तिष्ठते भवी । तथोत्तिष्ठेत चेन्मुक्त्यै, किं हि न्यूनं तदा भवेत् ? ।। ५२॥ खयङ्कतैः कर्मपाशैः, खं भवी वेष्टयत्यहो। स्खलालातन्तुसन्तत्या, जालकार इव कृमिः ॥ ५३॥ अम्भोधौ युगशमिलाप्रवेशन्यायतो भवे । कथश्चिन्मानुषं जन्म, लभ्यते पुण्ययोगतः ॥ ५४॥ तत्रापि चाऽऽर्यदेशेषु, जन्मिनो जन्म जायते । महतश्च कुलस्याऽऽप्तिः, सेवा गुरुकुलस्य च ॥ ५५ ॥ १ अरिजयात् । २ परापेक्षारहितः। ३ समुद्रः। ४ पराधीनस्य । ५ आत्मानम् । For Private & Personal use only How.jainelibrary.org. Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरिते ॥१७८॥ Jain Education Internatio इति प्राप्याऽपि सामग्री, शिवाय यतते न यः । सम्पन्नायां रसवत्यां स तिष्ठति बुभुक्षितः ॥ ५६ ॥ उभयोरपि चोर्ध्वाऽधोगत्योः स्वायत्तयोरिह । धावत्यधोमुखं प्रायो, जडधीर्जलवज्जनः ॥ ५७ ॥ समये साधयिष्यामि, स्वार्थमित्याशयं वहन् । प्राप्यतेऽर्वाग् यमदूतैररण्ये तस्करैरित्र ॥ ५८ ॥ कृत्वाऽघमपि यान् पुष्येत्, तेषामुत्पश्यतामपि । अत्राणो रङ्कवजन्तुः, कृष्ट्वा कालेन नीयते ॥ ५९ ॥ ततश्च नीतो नरके, लभतेऽनन्तवेदनाः । जन्मान्तरानुधावीनि कर्माणि ऋणवन्नृणाम् ॥ ६० ॥ माताऽसौ मे पिता चाऽसौ, भ्राताऽसावङ्गभूरसौ । इति खबुद्धिर्मिथ्यैव, शरीरमपि न स्वकम् ॥ ६१ ॥ एषां पृथक् पृथक् स्थानादेर्युपामिह केवलम् । एकत्राऽवस्थितिः स्थाने, पक्षिणामिव पादपे ॥ ६२ ॥ ततोऽप्यन्यत्र गच्छन्ति, पृथक् स्थानेषु देहिनः । नक्तमेकत्र शयिताः, पान्था इव निशात्यये ॥ ६३ ॥ अरघट्टघटीन्यायेनैहिरेयांहिरामिह । कुर्वतां देहिनां हन्त !, कः स्वकः ? कः परोऽथवा ? ॥ ६४ ॥ तत् त्यक्तव्यं कुटुम्बादि, त्यक्तव्यं पुरतोऽप्यदः । स्वार्थायैव यतितव्यं, स्वार्थभ्रंशो हि मूर्खता ॥ ६५ ॥ एकान्तानन्तसुखदः, स्वार्थो निर्वाणलक्षणः । मूलोत्तरगुणैः स स्यात्, प्रकाशोर्ककरैरिव ॥ ६६ ॥ इति चिन्तयतो राज्ञश्चिन्तामणिरिव स्वयम् । श्रीमानरिन्दमो नामोद्याने सूरिः समाययौ ॥ ६७ ॥ तदागमनवार्ता च, समाकर्ण्य महीपतिः । पीतपीयूषगण्डूप, इव हर्षं समासदत् ॥ ६८ ॥ तं वन्दितुमथाऽऽनन्दादचालीदचलापतिः । मायूरपत्रातपत्रैः कुर्वन् साब्दमिवाऽम्बरम् ॥ ६९ ॥ १ स्वाधीनयोः । २ बन्धूनाम् । * रानुबन्धीनि खंता ॥ ३ पुत्रः । ४ आगवानाम् । ५ गमनागमनम् । ६ मोक्षलक्षणः । ७ राजा । ८ मेघसहितम् । द्वितीयं पर्व प्रथमः सर्गः अजित नाथ चरितम् । पूर्वभवचरिते प्रथमो विमलवाहनभवः । ॥१७८॥ . Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Internal लक्ष्मीदेव्या निपतयां, कटाक्षाभ्यामिवोच्चकैः । स्पृश्यमानश्चामराभ्यामुभयोरपि पार्श्वयोः ।। ७० ।। तुरङ्गैः स्वर्णसन्नाहैः, स्वर्णपक्षैः खगैरिव । वेगिभिर्विजितश्वासै रुन्धानः ककुभोऽखिलाः ॥ ७१ ॥ अञ्जनाचलचूलाभिर्जङ्गमाभिरिवाऽभितः । महास्तम्बेरमैर्भारान्यञ्चैयन्नवनीतलम् ॥ ७२ ॥ स्वयं समन्तात् सामन्तैर्भक्तितः परिवारितः । निजस्वामिमनोज्ञानान्मनः पर्ययिकैरिव ॥ ७३ ॥ बन्दिकोलाहलस्पर्द्धादिव प्रसृमरैर्दिवि । नादैर्मङ्गलतूर्याणां दूरात् पिशुनितागमः ॥ ७४ ॥ करेणुकाधिरूढाभिर्वारस्त्रीभिः सहस्रशः । शृङ्गाररसवापीभिः परितः परिवारितः ॥ ७५ ॥ सिन्धुरस्कन्धमारूढश्छायाकुलैनिकेतनम् । उद्यानं नन्दनप्रायं प्राप तद् भूमिवासवः ॥ ७६ ॥ [ सप्तभिः कुलकम् ] उत्तीर्य कुञ्जरस्कन्धादवनीपतिकुञ्जरः । प्रविवेश तदुद्यानं सिंहो गिरिगुहामिव ॥ ७७ ॥ वज्रसंवर्मितमिवाऽभेद्यं मन्मथपत्रिणाम् । रागरोगागर्दैङ्कारं, द्वेषद्वेषिद्विषन्तपम् ॥ ७८ ॥ क्रोधानलनवाम्भोदं, मानद्रुममहागजम्। मायोरगीगरुत्मन्तं, लोभशैलमहाशनिम् ॥ ७९ ॥ मोहान्धकारर्तरणिं, तपस्तेजोऽनलारणिम् । क्षमासर्वस्वधरणिं, बोधिवीजाम्बुसारणिम् ॥ ८० ॥ आराममिव धर्मद्रोरात्मारामं महामुनिम् । आरादरिन्दमाचार्यमद्राक्षीत् तत्र पार्थिवः ॥ ८१ ॥ [ चतुर्भिः कलापकम् ] १ महागजैः । २ नम्रीकुर्वन् । ३ मनः पर्यायज्ञानिभिः । ४ सूचितागमनः । ५ छायाव्याप्तस्थानम् । ६ कामवाणानाम् । वैद्यम् । ८ सूर्यम् । . Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1-86 त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥१७९॥ द्वितीयं पर्व प्रथमः सर्गः अजितनाथचरितम् । कांश्चिदुत्कटिकासीनान्, कांश्चित् पद्मासनस्थितान् । गोदोहिकासनान् कांश्चित्, कांश्चिद् वीरासनासितान् ॥ वज्रासनजुषः कांश्चित, कांश्चिद्भद्रासनस्थितान् । कांश्चिद् दण्डासनासीनान्, कांश्चिद् वल्गुलिकासनान् ॥ कांश्चित् क्रौञ्चनिषदनान्, कांश्चिद्धसासनस्थितान् । पर्यङ्कासनिनः कांश्चित, कांश्चिदुष्ट्रासनस्थितान् ॥८४॥ कांश्चित ताक्ष्योसनान् कांश्चित, कपालीकरणस्थितान् । आम्रकुब्जासनान् कांश्चित्, कांश्चन स्वस्तिकासनान् ॥ दण्डपद्मासनान् कांश्चित्, कांश्चित सोपाश्रयासनान् । कायोत्सर्गस्थितान् कांश्चित्, कांश्चिदुक्षासनस्थितान् ।। निरपेक्षान् शरीरेऽपि, नियूंढखप्रतिश्रवान् । विविधेषपसर्गेषु, समरेषु भटानिव ॥ ८७॥ अन्तरङ्गानरीन् जिष्णून् , सहिष्णूंश्च परीषहान् । तपोध्यानरलम्भूष्णून् , साधूनपि ददर्श सः॥८८॥ उपेत्याऽरिन्दमाचार्यान् , ववन्दे मेदिनीपतिः । विभ्राणः पुलकव्याजाद्, भक्तिमङ्कुरितामिव ॥८९॥ सूरिवर्योऽप्युपमुखं, विन्यस्तमुखवत्रिकः । धर्मलाभाशिषमदात् , सर्वकल्याणमातरम् ॥९॥ नरेश्वरोऽपि विनयात् , तनुं सङ्कोच्य कूर्मवत् । अवग्रहभुवं मुक्त्वा, निषसाद कृताञ्जलिः ॥ ९१॥ शुश्राव देशनां तस्मादाचार्यादवनीपतिः । ऐकतानमनास्तीर्थकरादिव पुरन्दरः ॥ ९२ ॥ राज्ञस्तद्भववैराग्य, धर्मदेशनया तया । व्यशिष्यताऽवदातत्वं, शरदेव हिमश्रुतेः ॥ ९३ ॥ आचार्यपादान् वन्दित्वा, रचिताञ्जलिसम्पुटः । गिरा विनयगर्भिण्येत्यभ्यधाद् वसुधाधवः ॥ ९४ ॥ अनन्तदुःखरूपाणि, फलान्यनुभवन्नपि । संसारविषवृक्षस्य, जनो वैराग्यभाग् न हि ॥ ९५॥ कथं संसारवैराग्यं, जातं भगवतामिह । आलम्बनविभावेन, भवितव्यं हि केनचित् ॥ ९६॥ निर्वाहितस्वप्रतिज्ञान् । २ एकाग्रचित्तः । ३ इन्द्रः । * °याऽनया ल ॥ ४ विशेषं जातम् । ५ उज्वलत्वम् । ६ चन्द्रस्य । पूर्वभवचरिते प्रथमो विमलवाहनभवः। ॥१७९॥ Jain Education inte Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MOREOSECORRCESSORSEASES दन्तांशुज्योत्स्नया व्योमतलं धवलयन्नथ । एवमाचार्यचन्द्रोऽपि, सप्रसादमभाषत ।। ९७॥ संसारे धीमतां सर्वमपि वैराग्यकारणम् । विशेषतस्तु वैराग्यहेतुः कस्यापि कश्चन ॥ ९८॥ अहं हि गृहवासस्थः, पुरा दिग्जयहेतवे । हस्त्यश्व-रथ पादातचमूभिः सहितोऽचलम् ॥ ९९ ॥ मार्गान्तराले सततस्निग्धच्छायामनोरमम् । जगद्धमणखिन्नाया, विश्रामौक इव श्रियः ॥ १० ॥ नृत्यन्तमिव कङ्केल्लिलोलपल्लवपाणिभिः । हसन्तमिव विहसन्मल्लिकास्तवकोत्करैः ॥ १०१॥ रोमाश्चितमिवोदश्चत्कदम्बकुसुमोच्चयैः । वीक्ष्यमाणमिव मेरकेतकीकुसुमेक्षणैः ॥ १०२ ॥ सन्तापिनस्तपनांशून , दुरादापततोऽपि हि । साल-तालगुमभुजैनिधन्तमिवोच्छ्रितः॥१०३॥ दत्तगुप्यद्गुरुमिवाऽध्वगार्थ वटपादपैः । सजीकृतपाद्यमिव, सारणीभिः पदे पदे ॥ १०४ ॥ शृङलिताम्भोदमिव, महद्भिररघट्टकैः । गुञ्जन्मधुकरारावैराह्वयन्तमिवाऽध्वगान् ॥ १०५॥ तमाल-ताल-हिन्ताल-चन्दनैर्मध्यवर्तिभिः। दिवाकरकरत्रासात , तिमिरैरिव सेवितम् ॥१०६॥ चूत-चम्पक-पुन्नाग-नाग-केसरकेसरैः। जगत्येकातपत्रत्वं, तन्वानं सौरभैश्रियः ॥ १०७॥ ताम्बूली-लबली-द्राक्षावितानैरतिसन्ततैः । पान्थयनां विना यत्नं, तन्वन्तं रतिमण्डपान् ॥ १०८॥ भद्रशालमिवाऽऽयातं, मेरुशैलतलावनेः । भृशाभिराममाराम, तदाऽद्राक्षमहं व्रजन् ॥ १०९॥ चिरेण दिग्जयं कृत्वा, निवृत्तः पुनरप्यहम् । आरामस्याऽन्तिके तस्य, सह चम्बा समागमम् ॥ ११ ॥ उत्तीर्य वाहनेभ्योऽहं, कौतुकात् सपरिच्छदः । तदन्तः प्रविशन्नन्यादृक्षमद्राक्षमग्रतः ॥ १११॥ विश्रामस्थानम् । २ उन्नतैः । ३ क्षुद्रनदीभिः। ४ सुगन्धलक्ष्म्याः । Jain Education Internator For Private & Personal use only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते ॥१८॥ द्वितीयं पर्व प्रथमः सर्गः अजितनाथ चरितम् । इति चाचिन्तयमहं, भ्रान्तोऽन्यत्र किमागमम् । इदं किंवा परावृत्तमिन्द्रजालमथेदृशम् ॥११२॥ यत् क्व पत्रलता साऽर्ककरप्रसरवारणी? । क्व वाऽसावातपस्सैकातपत्रत्वमपत्रता ॥ ११३ ॥ क्क सा कुञ्जेषु विश्रान्तरमणीरमणीयता ? । निद्रायमाणाजगरदारुणत्वमिदं क्व च ॥ ११४ ॥ कैलापिकलकण्ठादिमधुरालापिता क्व सा? । विलोलकाकोलकुलरोलॅव्याकुलता क्व च ? ॥ ११५ ॥ प्रलम्बलम्बमानाशिम्बीबहलता व सा? । क्व चैषा शुष्कशाखाग्रदोलायितभुजङ्गता ॥ ११६॥ क्व च सा कुसुमामोदसुरभीकृतदिकता। चिल्ली-कपोत-ध्वाङ्गादिविष्टादुर्गन्धता व च? ॥११७॥ प्रसूनरसनिस्सन्दस्तीमितावनिता व सा। क ज्वलद्धाष्ट्रसिकतातुल्यसन्तापपांसुता ॥ ११८॥ फलप्राग्भारभारावनम्रपादपता क्व सा? । मूलोपदेहिकाग्रस्तपतितद्रुमता व च?॥ ११९ ॥ अनेकवल्लीवलयलटभा वृतयः क्व ताः । क्व चैताः सर्पनिमुक्तास्तोकनिर्मोकदारुणाः ॥ १२० ॥ तले तरूणां प्रचुरः, प्रसूनप्रकरः क्व सः? । उद्भूतस्थलशृङ्गाटकण्टका उत्कटाः क्व च ॥ १२१ ॥ मन्ये यथाऽयमारामो, जज्ञे सम्प्रत्यतादृशः। तथा संसारिणः सर्वे, संसारस्थितिरीदृशी ॥ १२२ ॥ सौन्दर्येण स्वकीयेन, य एव मदनायते । यस्तो रोगेण घोरेण, कङ्कालति स एव हि ॥ १२३ ॥ य एव छेकतामाजा, वाचा वाचस्पतीयते । कालान्मुहुःस्खलजिह्वः, सोऽपि मुकायतेतराम् ॥ १२४॥ चारुचङ्क्रमणशक्त्या, यो जात्यतुरगायते । वातादिभनगमनः, पङ्गयते स एव हि ॥ १२५॥ पत्रराहित्यम् । २ मयूरकोकिलादि । ३ काकपक्षिविशेषः । ४ कठोरध्वनिः । ५ काकः । ६ आर्द्रभूमिता । ७ कीटविशेषः । मनोहराः। ९ सर्पकचकः । १० कण्टकवृक्षविशेषः। ११ अस्थिपञ्जरशेषवपुरिव भवति। १२ चातुर्ययुक्तया । १३ वातरोगनष्टपादः । पूर्वभवचरिते प्रथमो विमलवाहनभवः। ॥१८॥ टू Jan Education International For Private & Personal use only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intern हस्तेनौजायमानेन, हस्तिमल्लायते च यः । रोगाद्यक्षमहस्तत्वात् स एव हि कुणीयते ॥ १२६ ॥ दूरदर्शनशक्त्या च गृध्रायेत य एव हि । पुरोऽपि दर्शनाशक्तेरन्धायेत स एव हि ॥ १२७ ॥ क्षणाद् रम्यमरम्यं च, क्षणाच्च क्षममक्षमम् | क्षणाद् दृष्टमदृष्टं च, प्राणिनां वपुरप्यहो ! ॥ १२८ ॥ इति चिन्तयतो धाराधिरूढमभवत् तदा । मम संसारवैराग्यं, जपतो मत्रशक्तिवत् ॥ १२९ ॥ महामुनीनामभ्यर्णे, कर्मक्षहुताशनम् । निर्वाणचिन्तामाणिक्यं ततोऽहं व्रतमात्तवान् ॥ १३० ॥ पुनः प्रणम्य शिरसाऽऽचार्यवर्यमरिन्दमम् । विवेकवान् महीपालो, भक्तिमानभ्यधादिति ॥ १३१ ॥ निरीहा निर्ममाः सन्तः, पूज्यपादा अभी इमाम् । पुण्यैरस्मादृशामेव, विहरन्ते वसुन्धराम् ॥ १३२ ॥ हातिघोरे संसारे, जनो वैषयिकैः सुखैः । अन्धकूपे तटतृणैश्छन्ने पतति गौरिव ॥ १३३ ॥ तस्माच्च प्राणिनस्त्रातुं, विधत्ते भगवानिह । कारुण्यवान हैंरहघोषणामिव देशनाम् ॥ १३४ ॥ न श्रियो न कलत्राणि, न पुत्रा न च बान्धवाः । अस्मिन्नसारे संसारे, सारं गुरुगिरः परम् ॥ १३५ ॥ पर्याप्तं सम्पदा तन्मे, विद्युल्लेखाविलोलया । कृतमा पातमधुरैर्विषयैर्विषसन्निभैः ॥ १३६ ॥ कलत्र-पुत्र- मित्राद्यैरिह लोकसखैरलम् । भवाब्धितारणतरी, देहि दीक्षां प्रसीद मे ॥ १३७ ॥ यावत् कुमारं स्वे राज्ये, स्थापयित्वाऽभ्युपैम्यहम् | अलङ्कार्यमिदं स्थानं, तावत् पूज्यैः कृपापरैः ॥ १३८ ॥ आचार्योऽप्याललापैवं, प्रोत्साहनकृता गिरा । इच्छा तव महेच्छस्य, भूपते ! साधु साध्वसौ ॥ १३९ ॥ राजन् ! प्राग्जन्मसंस्काराज्ज्ञाततत्त्वः पुराऽप्यसि । हस्तालम्बो दृढस्येव हेतुमात्रं तु देशना ॥ १४० ॥ १ कुण्ठितकरो भवति । २ कर्मवनेषु वह्निसमम् । ३ निरन्तरम् । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते द्वितीय पर्व प्रथमः सर्गः अजितनाथचरितम् । ॥१८१॥ प्रव्रज्या त्वादृशैरात्ता, फलत्यातीर्थकृच्छ्रियः। गौः पालकविशेषेण, कामं दुग्धे विशिष्यते ॥ १४१॥ स्थास्यामो वयमत्रैव, त्वदीहितचिकीर्षया । विहरामो वयं भव्योपकारायैव केवलम् ॥ १४२।। उदीरिते सूरिणैवं, नृपसूरः प्रणम्य तम् । उत्तस्थौ निश्चिते कार्ये, नालसन्ति मनखिनः ॥ १४३ ॥ पार्थिवोरिन्दमाचार्यपादलग्नस्य चेतसः । हठादपि ययौ वेश्म, दुर्भगां गृहिणीमिव ॥ १४४ ॥ सिंहासने निषद्याऽथ, समाहूय च मत्रिणः । स्वराज्यभवनस्तम्भानित्यभाषिष्ट भूपतिः ॥१४५॥ भो भो! गृहेऽत्र राजानो, वयमाम्नायतो यथा । मत्रिणोऽपि तथा यूयं, स्वाम्यर्थैकमहाव्रताः ॥१४६॥ युष्मन्मत्रबलेनैपाऽसाधि विद्येव मेदिनी । निमित्तमात्रं तत्राऽभूत् , दोर्बलोपक्रमस्तु नः ॥ १४७ ॥ भवन्तो विभराञ्चक्रुभूमिभारं पुराऽपि मे । घनवात-घनाम्भोधि-तनुवाता इवाऽभितः ॥ १४८ ॥ अहं तु विविधक्रीडारसमग्नो दिवानिशम् । अतिष्ठं विषयासक्त्या, सुपर्वेव प्रमद्वरः ॥ १४९ ॥ मयाऽद्य तु प्रमादोऽयमनन्तभवदुःखदः । गुरुप्रसादेनाऽज्ञायि, निशि दीपेन गर्त्तवत् ॥ १५० ॥ अज्ञानाद् वञ्चितोऽस्माभिश्चिरमात्माऽऽत्मनैव हि । चक्षुष्मानपि किं कुर्यादन्धकारे प्रसृत्वरे ? ॥१५१॥ अहो! वयमियत्कालमदान्तैरेभिरिन्द्रियैः । उत्पथेनैव नीताः स्मः, शूकलैरिव वाजिभिः ॥ १५२॥ मया विषयसेवेयं, परिणत्यामनर्थदा । कृता विभीतकतरुच्छायासेवेव दुर्धिया ।। १५३ ॥ मया दिग्जययात्रायामन्यवीर्यासहिष्णुना । गजा गन्धगजेनेव, हताः मापा निरागसः ॥ १५४ ॥ मम सन्ध्यादिपागुण्यं, प्रयुञ्जानस्य राजसु । कियत्यवितथा वाणी, छाया तालतरोरिख ॥ १५५ ॥ १ राजा । २ कुलपरम्परातः। ३ देवः । ४ प्रमत्तः। ५ अवशीकृतैःः । ६ उद्वतैः । पूर्वभवचरिते प्रथमो विमल| वाहनभवः। SROSCUSSIOSURG ॥१८॥ Jain Education Internation For Private & Personal use only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आच्छिन्दता च राज्यानि, प्रसह्याऽन्यमहीभुजाम् । अदत्तादानमेवैकमाजन्माऽचरितं मया ॥ १५६ ॥ रतिसागरमध्यावगाढेन च निरन्तरम् । शिष्येणेव मन्मथस्थाऽब्रह्मैवाऽनुष्ठितं मया ॥१५७ ।। प्राप्तैरथैरतृप्तस्याऽप्राप्यानर्थान् जिघृक्षतः । इयत्कालमहो! मोहान्मूर्छा मेऽभूद् बलीयसी ॥ १५८ ।। हिंसादीनामेकतमोऽपि हि दुर्गतिकारणम् । स्पृष्ट एकोऽपि चण्डालः, स्यादस्पृश्यत्वकारकः ॥ १५९ ॥ ततः प्राणातिपातादिपञ्चकात् सकलादपि । विरतिं प्रतिपत्स्येऽद्य, वैराग्याद् गुरुसन्निधौ ॥ १६॥ कुमारे कवचहरे, राज्यभारमिमं पुनः । निधास्यामि निजं तेजो, वह्नौ सायमिवार्यमा ।। १६१॥ भाव्यं मयीव युष्माभिः, कुमारेऽप्युरुभक्तिभिः । अनया शिक्षयाऽलं वा, जात्यानां शीलमप्यदः ॥१६२॥ __ अथैवं मत्रिणोऽप्यूचुः, स्वामिन्नेवंविधा धियः । न बनासन्नमोक्षाणां, भवन्ति भविनां क्वचित् ॥१६३॥ युष्माकं पूर्वजन्मानोऽप्याजमाखण्डशासनाः । अवनीं साधयामासुर्बिडौस इवौजसा ॥ १६४॥ राज्यमुत्सृज्य निष्ठ्यूतमिवाऽनिष्ठितशक्तयः । व्रतमाददिरे सर्वे, रत्नत्रयपवित्रितम् ॥ १६५ ॥ इमं देवोऽपि भूभारं, बभार स्वभुजौजसा । शोभाभूता वयं तत्र, रम्भास्तम्भा इवौकसि ॥ १६६ ॥ इदं देवस्य साम्राज्यं, यथाक्रमसमागतम् । सावदानं निर्निदान, व्रतादानमिदं तथा ॥ १६७ ॥ लीलाकमलवद् वोढुं, क्षमामारमसौ क्षमः । कुमारोऽपि हि देवस्य, द्वितीय इव चेतनः ।। १६८ ॥ यदि गृह्णाति गृह्णातु, दीक्षां मोक्षफलां विभुः । आरोहत्युच्चकैः काष्ठां, स्वामिन्यसाकमुत्सवः ॥ १६९ ॥ निशातन्यायनिष्ठेन, सचशौण्डीर्यशालिना । देवेनेव कुमारणाऽप्यस्तु राजन्वती मही ।। १७० ॥ १सूर्यः। २ पूर्वजाः। ३ इन्द्राः। ४ सपराक्रमम् । ५ निदानरहितम् । ६ आत्मा। . तीक्ष्णः । त्रिवटि. ३२ For Private & Personal use only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका द्वितीयं पर्व प्रथमः सर्ग: अजित पुरुषचरिते ॥१८२॥ नाथ चरितम् । __अनुज्ञावचनैस्तेषां, मुदितो मेदिनीपतिः । शीघ्रमाह्वाययामास, कुमारं वेत्रधारिणा ॥ १७१॥ सलीलचरणन्यासं, कुर्वाणो राजहंसवत् । मूर्त्या देवो मार इव, कुमारोऽपि समाययौ ॥१७२॥ प्रणम्य नृपतिं भक्त्या, स पत्तिपरमाणुवत् । निषसाद यथास्थानं, तस्थौ च रचिताञ्जलिः ॥ १७३ ॥ अभिषिञ्चन्निव दृशा, पीयूपरससारया । पश्यन् कुमारं सानन्दं, व्याजहारेति भूपतिः ॥ १७४॥ - अस्मद्वंश्या नृपाः पूर्वेऽप्युर्वीमेतामपालयन् । अंगृनवो दयाबुद्ध्या, गामिवैकाकिनी वने ॥ १७५ ॥ क्षमीभूतेषु पुत्रेषु, क्षमाभारं क्रमेण ते । स्वयमारोपयामासुधौरेयवृषभेष्विव ॥ १७६ ॥ आतिष्ठमानाः सकलमप्यनित्यं जगत्रये । उत्तस्थिरे स्वयं तसै, शाश्वताय पदाय ते ॥ १७७ ॥ इयत्कालं न कोऽप्यस्थाद् , गृहवासेऽस्सदादिमः । अहो ! गार्हस्थ्यमूढस्य, प्रमादोऽभूत् कियान्मम?॥१७८॥ राज्यभारं गृहाणेमं, ग्रहीष्यामो वयं व्रतम् । भवाम्भोधिं तरिष्यामो, निर्भारा भवता कृताः ॥ १७९ ॥ तया नृपगिरा म्लायन , हिमेनाऽम्भोजकोशवत । उदस्रनेत्रकमलः, कुमारोऽप्येवमब्रवीत् ॥ १८॥ अकाण्डेऽप्यप्रसादोऽयं, देव ! केनाऽऽगसा मम । पदातिमानिनि मयि, स्वामिन् ! यदिदमादिशः ॥१८॥ अपराधः कृतः कोऽपि, किंवा वसुधयाऽनया ? । चिरत्रातापि तृणवद् , यदियं त्यज्यतेऽधुना ॥१८२॥ तातपादेविना तात!, राज्येनाऽपि कृतं मम । पूर्णेनाऽप्यब्जहीनेन, सरसा भ्रमरस्य किम् ॥१८३॥ प्रतिकूलमहो! देवमहो! मे मन्दभाग्यता । तातो यदादिशत्येवं, त्यजन् मामिह लोष्ठवत् ॥ १८४॥ अहमेतां ग्रहीष्यामि, कथश्चिदपि नो महीम् । प्रायश्चित्तं चरिष्यामि, गुर्वादेशव्यतिक्रमे ॥ १८५॥ कामदेवः । २ अनासक्ताः। ३ गुर्वाज्ञाया उल्लङ्घने । पूर्वभवचारते प्रथमो विमक| वाहनभवः। ॥१८२॥ Jain Education Internation For Private & Personal use only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Internation नोरा तया स्वाज्ञालोपिन्या सवसारया । विषण्णव प्रसन्नश्व, जगादेति महीपतिः ॥ १८६ ॥ मत्पुत्रोऽसि समर्थोऽसि, विद्वानसि विवेक्यसि । किन्त्वज्ञानात् स्नेहमूलादविचायैवमभ्यधाः ॥ १८७ ॥ गुर्वाज्ञा हि कुलीनानां, विचारमपि नार्हति । युक्तियुक्तेति मद्वाणी, विचार्यापि विधीयताम् ॥ १८८ ॥ भारं वोढुं क्षमे पुत्रे, निराभारः पिता ननु । वालेऽपि हि सुते हन्त !, सिंही स्वपिति निर्भरम् ॥ १८९ ॥ किञ्च त्वामप्यनापृच्छय, मोक्षकामः क्षमामिमाम् । मोक्ष्यामि यदहं वत्स !, परतन्त्रस्त्वया न हि ॥ १९० ॥ विलुलन्तीमनाथां क्ष्मां, ततोऽपि त्वं धरिष्यसि । अतिरिक्तं तु ते भावि, मदाज्ञालङ्घनादधम् ॥ १९९ ॥ एवं वत्स ! विचारेणाऽविचारेणाऽपि मद्वचः । अनुष्ठेयं त्वया भक्तिनिष्ठेन सुखदं मम ॥ ९९२ ॥ जगदुर्मत्रिणोऽप्येवं, निसर्गेण विवेकिनः । देवकीयकुमारस्य, समीचीनमिदं वचः ॥ १९३ ॥ तथापि देवपादा यदादिशन्ति तदाचर । गुर्वाज्ञाकरणं सर्वगुणेभ्यो ह्यतिरिच्यते ॥ १९४ ॥ देवेनाऽपि पितृवचः कृतं जानीमहे वयम् । पितृतः कः परो लोकेऽनुल्लङ्घयवचनो भवेत् १ ॥ १९५ ॥ एवं मत्रिभिरप्युक्तः, कुमारो गद्गदखरम् । स्वाम्यादेशो मे प्रमाणमित्यूचे नेतकन्धरः ॥ १९६ ॥ कुमुदं कौमुदी नावानेव बर्हिणः । कुमारेणाऽऽदेशकर्त्रा महीपतिरमोदत ॥ १९७ ॥ अथ भूमिपतिः प्रीतः, स्वयमादाय पाणिना । कुमारमासयामासाऽभिषेका निजासने ॥ १९८ ॥ पवित्राणि पवित्राणि, धरित्रीभर्तुराज्ञया । आनिन्यिरे तीर्थपाथांस्यन्दैरिव नियोगिभिः ॥ १९९ ॥ वाद्यमानेषु मङ्गल्यतूर्येषूच्चैःखरेष्वथ । मूर्ध्नि मूर्धाभिषिक्तेन, कुमारः सिषिचे स्वयम् ॥ २०० ॥ १ स्वभावेन । २ नम्रग्रीवः । ३ चन्द्रेण । ४ मेघेन । ५ तीर्थजलानि । ६ अधिकारिभिः । ७ राज्ञा । . Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते Brot द्वितीयं पर्व प्रथमः सगे: अजितनाथचरितम् । ॥१८३॥ उत्पत्योत्पत्य राजानोऽभ्यषिञ्चनपरेऽपि तम् । नवोदयमिवाऽऽदित्यं, नमश्चक्रश्च भक्तितः ॥ २०१॥ नृपादेशेन सदशान्यंशुकानि स पर्यधात । तैश्चाऽदत्रैः शारदाप्रैः, शुभ्रर्गिरिरिवाऽऽबभौ ॥ २०२॥ गोशीर्षचन्दनस्तस्याऽङ्गरागं वारयोषितः । सर्वाङ्गीणं विदधिरे, ज्योत्स्नापूरैखिाऽमलैः ॥२०३ ॥ मुक्तामयानि सर्वाङ्गं, भूषणानि स पर्यधात । निर्मितानि दिवः कृष्टा, प्रोतैरुईंगणैरिव ।। २०४ ।। ज्वलन्माणिक्यतेजस्कं, किरीटं तस्य मूर्धनि । खयं न्यवेशयद् राजा, स्खं प्रतापमिवोर्जितम् ।। २०५॥ तस्य मूर्ध्नि धराधीशो, धारयामास निर्मलम् । सितच्छत्रं यश इव, प्रादुर्भूतं क्षणादपि ॥२०६॥ पार्श्वतो वारनारीभिरवीज्यत स चामरैः । राज्यसम्पल्लतोद्भुतप्रसूनस्तबकैरिव ॥ २०७॥ चन्दनेन स्वयं भूपस्तद्भाले तिलकं व्यधात् । उदयाचलचूलास्थनिशाकरविडम्बिनम् ।। २०८ ॥ राजा राज्ये निवेश्यैवं, कुमारं परया मुदा । लक्ष्म्या रक्षामन्त्रमिव, सम्यक शिक्षां ददाविति ।। २०९ ॥ क्षितेरसि त्वमाधारस्तवाऽऽधारो न कोऽपि तत् । त्यक्त्वा प्रमादमात्मानमात्मना वत्स धारयः ।।२१०।। भ्रश्यत्याधारशैथिल्यादाधेयं ननु सर्वथा । विषयातिप्रसङ्गोत्थं, शैथिल्यं तस्स रक्ष तत् ॥ २११॥ यौवनं विभवो रूपं, खाम्यमेकैकमप्यतः । प्रमादकारणं विद्धि, बुद्धिमत्कार्यसिद्धिभित् ।। २१२ ॥ कुलक्रमागताऽप्येषा, लक्ष्मीश्छलगवेपिणी । दुराराधा छलयति, राक्षसीव प्रमद्वरम् ।। २१३ ॥ चिरवासभवस्नेहो, नाऽस्याः स्थैर्याय किन्त्वसौ । प्रयाति लब्धावसरा, शारिकेवाऽन्यतो द्रुतम् ।। २१४ । कुलटेवाऽपवादेभ्यो, भीरुतामदधत्यसौ । सुप्तवञ्जाग्रतमपि, प्रमत्तं पतिमुज्झति ।। २१५ ॥ वनप्रान्तसहितानि । २ सर्वाङ्गब्याप्तम् । ३नक्षत्रसमूहः। ४ स्वामिता । ५ छिद्रान्वेषिणी । ६ प्रमादिनम् । पूर्वभवचरिते प्रथमो विमकवाइनभवः। nost ॥१८३॥ Jain Education Internet For Private & Personal use only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Internation दाक्षिण्यं रक्षणभवं, नैतस्या जातु जायते । किन्तु क्षणात् प्लवङ्गीवोत्प्लुत्य यात्याश्रयान्तरम् ॥ २१६ ॥ निर्लज्जता चपलता, निःस्नेहत्वमथाऽपरे । दोषाः प्रकृतिरेवाऽस्या, नीचैर्यानमिवाऽम्भसः ॥ २१७ ॥ निःशेषदोषमय्याऽपि, सर्वः कोऽपि श्रियैधते । शक्रोऽपि हि श्रिया शक्तः, किं पुनर्मानवो जनः १ ॥२१८॥ तस्याः प्राहॅरिक इव, स्थिरीकरणकर्मणि । नय विक्रमसम्पन्नो, जागरूकः सदा भवेः ॥ २१९ ॥ श्रीकाङ्क्षिणाऽपि भवता, भूः पाल्येयमगृनुना । अगृनोरनुगा लक्ष्म्यः, सुभगस्येव योषितः ॥ २२० ॥ अति चण्डत्वमालम्ब्य निदाघस्य इवार्यमा । त्वं दुःसहकराक्रान्तां पृथिवीं जातु मा कृथाः ।। २२१ ।। एकदाऽपि कृतान्यायं जनं निजमपि त्यजेः । त्यज्यते वैरवासोऽपि, मनागप्यनिदूषितम् ॥ २२२ ॥ मृगया- द्यूत-पानानि वारयेः सर्वतोऽपि यत् । तत्पापानां नृपो भागी, तपस्वितपसामिव ॥ २२३ ॥ अन्तरङ्गान् जयेः शत्रूंस्तेषामविजये सति । जिता अप्यजिता एव, शत्रवो यद् बहिर्भवाः ॥ २२४ ॥ धर्ममर्थं च कामं च परस्परमबाधया । यथाकालं निषेवेथाः, पत्नीनेतेवं दक्षिणः ।। २२५ ।। तथा भजेत्रीन् पुमर्थान्, यथा हि समये सति । पुरुषार्थे चतुर्थेऽपि, नोत्साहो हीयते तत्र ॥ २२६ ॥ अभिधायेति तूष्णीकीभूते विमलवाहने । बद्धाञ्जलिः कुमारस्तत्, तथेति प्रत्यपद्यत ॥ २२७ ॥ सिंहासनादथोत्थाय, विनीतः प्राग्वदेव सः । उत्तिष्ठासोव्रतकृते, हस्तालम्बं ददौ पितुः ॥ २२८ ॥ दत्तहस्तः स पुत्रेण, वेत्रितोऽप्यल्पमानिना । जगाम स्वपनागारं भूरिभृङ्गारभूषितम् ।। २२९ ॥ १ वानरीव २ अधोगमनम् । ३ यामिकः । ४ अनुसारिण्यः । ५ श्रेष्ठवस्त्रम् । ६ सुरापानम् । ७ नायक इव । ८ विनयवान् । ९ उत्थातुमिच्छो: । १० बहुकलश भूषितम् । . Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते द्वितीयं पर्व प्रथम: सगे अजितनाथचरितम् । ॥१८४॥ SCSCARRAGE मकराननसौवर्णभृङ्गारलुठदम्बुभिः । जीमूतधाराभिरिव, स सस्नो भूभृतां वरः ॥ २३०॥ कोमलेन दुकूलेनोन्मृष्टाङ्गो नृपतिस्ततः । सर्वाङ्गमपि गोशीर्षचन्दनेन व्यलिप्यत ॥ २३१ ॥ नीलोत्पलदलश्यामः, शशिगर्भ इवाऽम्बुदः । पुष्पगर्भः केशपाशो, राज्ञस्तहररच्यत ॥ २३२ ॥ विशाले निर्मले स्वच्छे, मनोहरगुणे खैवत् । संविव्यायाऽथ भूनाथो, मङ्गल्ये दिव्यवाससी ।। २३३॥ ततः पुत्रोपनीतं स, नरेन्द्रमुकुटायितः । माणिक्यवर्णमुकुट, धारयामास मूर्धनि ॥ २३४॥ हार-केयूर-ताडङ्कप्रभृतीन्यपराण्यपि । स सर्वाङ्गं भृषणानि, पर्यधाद् गुणभूषणः ॥ २३५॥ रत्नकाञ्चनरूप्याणि, वस्त्राण्यन्यदपीप्सितम् । अर्थिभ्यः स ददौ तत्र, कल्पद्रुम इवाऽपरः ॥२३६ ॥ ततो नरशतोद्वाह्यां, शिविकां नरकुञ्जरः । आरोहत् पुष्पकमिव, विमानं नरवाहनः ॥ २३७ ॥ राजन् श्वेतातपत्रेण, चामराभ्यां च तत्क्षणात् । साक्षाद् रत्नत्रयेणेवाऽभ्यागतेन निषेवितः ।। २३८ ॥ बन्दिकोलाहलेनोचैस्तारतूर्यरवेण च । सुहृझामिव मिलयां, मुदमुद्बोधयन् नृणाम् ॥ २३९ ॥ श्रीमद्भिर्नृपसामन्तैः, पृष्ठतः पार्श्वतोऽग्रतः । आपतद्भिः शोभमानो, ग्रहरीजो ग्रहैरिख ।। २४०॥ . आवृत्तवृन्तपद्माभवलदीवेण सूनुना । आदेशकाविणा द्वास्थेनेवाग्रस्थेन शोभितः ॥ २४१॥ सम्पूर्णपात्रकुम्भाभिर्नागरीभिः पदे पदे । मङ्गलानि क्रियमाणानीक्षमाणो यथाक्रमम् ॥२४२॥ चित्रमञ्चशताकीण, पताकामालभारिणम् । पवित्रयन् राजमार्ग, यक्षकर्दमपङ्किलम् ॥ २४३॥ मश्चे मश्चे च गन्धर्ववर्गसङ्गीतपूर्वकम् । प्रतीच्छन् पण्यवनिताकृतारात्रिकमङ्गलम् ।। २४४ ॥ १ मेघः । २ केशपाशविधिज्ञैः । ३ आत्मवत् । ४ शोभमानः। ५ सूर्यः। ६ सुगन्धिद्रव्यविशेषः। ७ गृहन् । | पूर्वभवचरिते प्रथमो बिमक| वाहनभवः। ॥१८४॥ For Private & Personal use only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education In अदृष्टपूर्ववद् दूरात्, पौरैरुत्फुल्ललोचनैः । आलोक्यमानो निस्पन्दैरालेख्यलिखितैरिव ॥ २४५ ॥ लोकैर्मन्त्रबलाकृष्टैरव कार्मणितैरिव । वाग्बद्धैरिव परितोऽन्वीयमानो भृशायितैः ॥ २४६ ॥ उद्यानेऽरिन्दमाचार्यपादपद्मपवित्रिते । जगाम धाम पुण्यानां, राजा विमलवाहनः ॥ २४७ ॥ [ दशभिः कुलकम् ] शिबिकातः समुत्तीर्य, पादाभ्यां मेदिनीपतिः । तत्र प्राविशदुद्याने, मनसीव तपस्विनाम् ॥ २४८ ॥ अथाऽऽभरणसम्भारं विश्वं विश्वम्भरापतिः । अङ्गादुत्तारयामास, धराभारं भुजादिव ॥ २४९ ॥ कन्दर्पशासनमिव, चिराय शिरसा धृतम् । उज्झाञ्चकार स्रग्दाम, सद्यो वसुमतीपतिः ॥ २५० ॥ आचार्यवामपार्श्वस्थः, स कृत्वा चैत्यवन्दनाम् । तदत्तमादत्त रजोहरणादि ऋषिध्वजम् || २५१ ॥ केशानुत्पाटयामास, मुष्टिभिः पञ्चभिर्नृपः । सावद्यं सकलं योगं प्रत्याख्यामीत्युदीरयन् ॥ २५२ ॥ तत्कालमप्युपात्तेन, व्रतिलिङ्गेन तेन तु । आवाल्यत्रतधारीव, शुशुभे स महामनाः ॥ २५३ ॥ प्रदक्षिणात्रीपूर्व, विधाय गुरुवन्दनाम् । स्थिते तस्मिन् गुरुरेवं, विदधे धर्मदेशनाम् ॥ २५४ ॥ अस्मिन्नपारे संसारे, कथञ्चिज्जन्म मानुषम् । अवाप्यते पयोराशौ, दक्षिणावर्तशङ्खवत् ॥ २५५ ॥ मानुष्यकेऽपि सम्प्राप्ते, बोधिबीजं सुदुर्लभम् । तत्रापि पुण्ययोगेन, परिव्रज्यो पलभ्यते ॥ २५६ ॥ तावद् भ्रुवोऽर्कसन्तापो, न यावत् प्रावृडम्बुदः । भङ्गो वनस्य हस्तिभ्यस्तावद् यावन्न केसरी ॥ २५७ ॥ तमोभिरान्ध्यं जगतस्तावद् यावन्न भास्करः । देहिनां पन्नगभयं तावद् यावन्न पक्षिराद् ॥ २५८ ॥ * अयमर्द्धश्लोकः खंतापुस्तके पतितः ॥ १ अतिशयेन सम्मिलितैः । %%** . Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरिते ॥१८५॥ Jain Education Inter सुरत्वं दारिद्र्यं प्राणिनां तावन्न यावत् कल्पपादपः । भविनां भवभीस्तावद् यावन्नैवाऽऽप्यते व्रतम् ॥ २५९ ॥ द्वितीयं पर्व आरोग्यं रूपलावण्ये, दीर्घायुष्यं महर्द्धिता । आज्ञैश्वर्यं प्रतापित्वं, साम्राज्यं चक्रवर्तिता ॥ २६० ॥ सामानिकत्वमिन्द्रत्वमहमिन्द्रता | सिद्धत्वं तीर्थनाथत्वं, सर्व व्रतफलं ह्यदः ॥ २६१ ॥ एकाहमपि निर्मोहः, प्रत्रज्यापरिपालकः । न चेन्मोक्षमवाप्नोति, तथापि स्वर्गभाग् भवेत् ॥ २६२ ॥ किं पुनः स महाभागस्त्यक्त्वा तृणमिव श्रियम् । यो गृह्णाति परिव्रज्यां, सुचिरं पालयत्यपि ।। २६३ ।। विधाय देशनामेवमरिन्दममहामुनिः । विहर्तुमन्यतोऽचालीत्, तिष्ठन्त्येकत्र नर्षयः ॥ २६४ ॥ ततो ग्राम-पुरारण्याकर-द्रोणमुखादिषु । स व्यहार्षीदविच्छिन्नं, छायेव गुरुणा सह ॥ २६५ ॥ लोकाक्रान्तेऽर्कभास्पृष्टे, जन्तुरक्षाकृते पथि । युगमात्रदत्तदृष्टिः, सोऽगादीर्याविचक्षणः ॥ २६६ ॥ निरवद्यां मितां सर्वजनीनां भारतीं च सः । महामुनिरभाषिष्ट, भाषासमितिकोविदः ॥ २६७ ॥ द्विचत्वारिंशता भिक्षादोषैरपरिदूषितम् । पारणेष्वाददे पिण्डमेषणानिपुणो हि सः ।। २६८ ॥ आसनादीनि संवीक्ष्य, यत्नतः प्रतिलिख्य च । अग्रहीन्यक्षिपच्चाऽपि स औदानविशारदः ।। २६९ ।। कफ-मूत्र - मलप्रायं, निर्जन्तुजगतीतले । उत्ससर्ज महासाधुः, स प्राणिकरुणापरः ॥ २७० ॥ विमुक्तकल्पनाजालं, समत्वे सुप्रतिष्ठितम् । स गुणक्ष्मारुहाराम, आत्मारामं मनो व्यधात् ॥ २७९ ॥ मौन तस्थौ स प्रायः संज्ञादिपरिहारतः । अनुग्राह्योपरोधेन यद्यवोचत् तदा मितम् ॥ २७२ ॥ स्तम्भबुद्धया महिषाद्यैः, स्कन्धकण्डूयनेच्छुभिः । बाढमुद्धृष्यमाणोऽपि, कायोत्सर्ग जहौ न सः ॥ २७३ ॥ १ सूर्यकिरणैः स्पृष्टे । २ सर्वजनहिताम् । ३ आदाननिक्षेपणासमितिविशारदः । ४ गुणवृक्षोद्यानः । प्रथमः सर्गः अजित नाथ चरितम् । पूर्वभवचरिते प्रथमो विमल वाहनभवः । ॥१८५॥ . Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शयनासननिक्षेपादानचङ्कमणादिषु । स्थाने च चेष्टानियम, स चकार महामनाः ॥ २७४ ॥ इत्थं चारित्रगात्रस्य, जननत्राणशोधनः । मातृभूताः स समितिगुप्तीरष्टाऽप्यधारयत् ॥ २७५ ॥ क्षुधातः शक्तिसम्पन्न, एषणामविलयन् । सोऽदीनोविह्वलो विद्वान् , यात्रामात्रोद्यतोऽचरत् ॥२७६॥ पिपासितः पथिस्थोऽपि, तत्त्वविद् दैन्यवर्जितः । नैच्छच्छीतोदकं किन्तु, जग्राह प्रासुकोदकम् ॥ २७७॥ माध्यमानोऽपि शीतेन, त्वग्वस्त्रत्राणवर्जितः । *वासोऽकल्प्यं नाऽऽददे सोज्वालयज्वलनं न च ॥२७८॥ उष्णेन तप्तो नाऽनिन्ददुष्णं छायां च नाऽस्मरत् । वीजनं मजनं गात्राभिषेकादि च नाऽकरोत् ॥ २७९ ॥ दष्टोऽपि दंशैर्मशकैः, सर्वेषां भोज्यलौल्यवित् । वासं द्वेषं निरासं स, न चक्रेऽस्थादुपेक्षया ॥२८॥ नास्ति वासोऽशुभं चैतन्नेयेषोभयथाऽपि तत् । स नाम्न्यबाधितो जानन् , लाभालामविचित्रताम् ॥२८१॥ न कदाप्यरतिं चक्रे, धर्मारामरतिर्यतिः । गच्छंस्तिष्ठन्नथाऽऽसीनः, स्वास्थ्यमेव स शिश्रिये ॥२८२॥ दुर्धावसङ्गपङ्काश्च, मोक्षद्वारार्गलाः स्त्रियः । नाचिन्तयदसौ ता हि, धर्मनाशाय चिन्तिताः ॥ २८३ ॥ प्रामाधनियतस्थायी, स्थानाबन्धविवर्जितः । चर्यामेकोऽपि चक्रे स, विविधाभिग्रहैर्युतः ॥२८४ ॥ आसनादौ निषद्यायां, स्यादिकण्टकवर्जिते । इष्टानिष्टानुपसर्गान् , स सेहे निःस्पृहोऽभयः ॥ २८५॥ . शुभाशुभायां शय्यायां, स विषेहे सुखासुखे । रागद्वेषावकुर्वाणः, प्रातस्त्याज्येति चिन्तयन् ॥ २८६ ॥ आक्रुष्टोऽपि स नाऽक्रोशत् , क्षमाश्रमणतां विदन् । किन्तु प्रत्युत मेनेऽसावाकोष्टर्युपकारिताम् ॥२८७॥ १ पञ्च समितयः तिस्रो गुप्तयः मिलित्वा भष्टौ भवन्ति । * वासोऽकल्पं खंता, ल ॥ २ अमिम् । ३ खानम् । दुर्वारस खंता ॥ ४ दुःशालसंसर्गकर्दमाः । SASAGOTAGORECHO For Private & Personal use only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते द्वितीयं पर्व प्रथमः सर्गः अजित ॥१८६॥ SOLUSIC चरितम्। विषेहे हन्यमानोऽपि, न तु प्रतिजघान सः। जीवानाशात् क्रुधो दौष्ट्यात् , क्षमया च गुणार्जनात् ॥२८८॥ नाध्याचितं यतीनां यत्, परदत्तोपजीविनाम् । याज्जादुःखं न चक्रे तन्नेयेष गृहितां च सः॥२८९॥ परात् परार्थ खार्थ वा, स लेभेऽन्नादिकं न वा । लाभेऽमाद्यन्न नाऽलाभेऽनिन्दत् स्वमथवा परम् ॥२९॥ स रोगेभ्यो नोद्विविजे, न चकाङ्क्ष चिकित्सितम् । शरीरादात्मभेदज्ञोऽसहताऽदीनमानसः ॥२९१ ॥ . अमृताल्पाणुचेलत्वे, संस्तृतेषु तृणादिषु । सेहे तत्स्पर्शजं दुःखमियेष न च तान् मृदून ॥ २९२॥ ग्रीष्मातपपरिक्लिन्नात् , सर्वाङ्गीणमलादपि । न स उद्विविजे स्नातुं, नैच्छन्नाऽ प्युदवर्त्तयत् ॥ २९३ ॥ अभ्युत्थानेऽर्चने दाने, न सोऽभूदभिलाषुकः । न व्यषीददसत्कारे, सत्कारेऽपि जहर्ष न ॥२९४ ॥ प्रज्ञा प्रज्ञावतां पश्यन्नात्मन्यप्रज्ञतां विदन् । न व्यषीदन्न चाऽमावत, प्रज्ञोत्कर्षमुपागतः ॥ २९५ ॥ ज्ञान-चारित्रयुक्तोऽस्मि, च्छमस्थोऽहं तथापि हि । इत्यज्ञानं विषेहे स, ज्ञानस्य क्रमलाभवित् ॥२९६॥ जिनास्तदुक्तं जीवो वा, धर्माधौं भवान्तरम् । परोक्षत्वान्मृषा नैव, स मेने शुद्धदर्शनः ॥२९७।। शारीरान् मानसानेवं, स्वपरप्रेरितान् मुनिः । परीषहान् विषेहे स, वाकायमनसां वशी॥ २९८॥ ध्यानकतानः सततं, स्वामिनां श्रीमदर्हताम् । चक्रे चैत्यायमानं स, चेतः स्थिरतरं निजम् ।। २९९॥ सिद्धेषु गुरुषु बहुश्रुतेषु स्थविरेषु च । तपस्विषु श्रुतज्ञाने, सङ्घ चाऽभूत् स भक्तिमान् ॥ ३०॥ एवं च तीर्थकृत्कर्मोपार्जनान्यपराण्यपि । स्थानकानि सिषेवेऽसौ, दुर्लभान्यमहात्मनाम् ।। ३०१॥ तप एकावलिं रत्नावलिं च कनकावलिम् । सिंहनिःक्रीडितं ज्येष्ठं, कनिष्ठं च चकार सः॥३०२||* मासोपवासादारभ्य, स कर्तुं कर्मनिर्जराम् । अष्टमासोपवासान्तमुपवासतपो व्यधात् ॥ ३०३ ॥ पूर्वभवचरित प्रथमो विमक वाहनभवः। ॥१८६॥ For Private & Personal use only . Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वभवचरिते द्वितीको देवभवः। एवं तीव्र तपस्तत्वा, कृत्वा संलेखनाद्वयम् । चकाराऽनशनं प्रान्ते, समतैकपरायणः॥३०४॥ सरन् पञ्चपरमेष्ठिनमस्कारं समाहितः । स देहत्यागमकरोनिलयत्यागलीलया ॥३०५॥ अनुत्तरविमानेषु, विमाने विजयाभिधे । त्रयस्त्रिंशत्सागरायुः, सोऽमरः समजायत ॥ ३०६ ॥ हस्तमात्रतनुस्तत्र, निशाकरकरोज्वलः । अहमिन्द्रोऽनहङ्कारश्चारुभूषणभूषितः ॥३०७ ॥ सर्वदा निःप्रतीकारः, सुखशय्यामधिष्ठितः । स्थानान्तरमगामी चाऽनिर्मितोत्तरवैक्रियः॥ ३०८॥ आलोकपॅल्लोकनालिमवधिज्ञानसम्पदा । निर्वाणसुखदेशीयं, सोऽन्वभूत् सुखमुत्तमम् ॥ ३०९ ॥ [त्रिमिविशेषकम् ] आंयुःसागरसङ्ख्यैः स, पक्षैनिःश्वसितं व्यधात् । समासहस्रस्तावद्भिर्विदधे भक्ष्यकामनाम् ॥ ३१० ।। आयुःशेष मासषवे, न मोहोऽपरदेववत् । प्रत्युतासन्नपुण्यत्वात् , तस्य तेजो व्यवर्धत ॥ ३११ ॥ स एवमद्वैतसुखप्रपञ्चे, सुधाइदे हंस इवाऽवगाढः । आयुस्त्रयस्त्रिंशतमम्बुराशीनेकाहवनिर्गमयाम्बभूव ॥ ३१२ ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये द्वितीये पर्वणि श्रीअजितखामिपूर्वभववर्णनो नाम प्रथमः सर्गः॥ मोक्षसुखादीपच्यूनम् । २ त्रयस्त्रिंशता पक्षैः । ३ त्रयस्त्रिंशद्वर्षसहस्त्रैः। ४ भोजनेच्छाम् । ५ एकदिनवत् । Jain Education Internet For Private & Personal use only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते द्वितीय पर्व | द्वितीयः सर्गः अजितनाथचरितम्। ॥१८७॥ द्वितीयः सर्गः। इतोऽस्य जम्बूद्वीपस्य, द्वीपस्य भरते पुरी । अस्ति नाम्ना विनीतेति, शिरोमणिरिवाऽवनेः ॥१॥ तस्यां च त्रिजगद्भर्तुरादितीर्थकृतः प्रभोः। ऋषभखामिदेवस्य, मोक्षकालादनन्तरम् ॥२॥ सिद्धिं सर्वार्थसिद्धं च, निरवच्छिन्नभावतः । गतेष्विक्ष्वाकुवंश्येषु, सङ्ख्यातीतेषु राजसु ॥३॥ अभूदिक्ष्वाकुवंशस्य, विततच्छत्रसन्निभः। विश्वसन्तापहरणो, जितशत्रुर्महीपतिः॥४॥ [विभिर्विशेषकम् ] यशसा विशदेनोचैस्तस्योत्साहादयो गुणाः। प्रपेदिरे सनाथत्वं, धिष्ण्यानीव हिमांशुना ॥५॥ सोऽलब्धमध्योऽब्धिरिव, शशीवाऽऽप्यायको दृशाम् । वौकः शरणेच्छूना, श्रीवल्लीमण्डपोऽभवत् ॥६॥ स सर्वनरदेवानां, हृदयेषु पदं दधत् । एकोऽप्यनेकतां प्राप, जलेष्विव निशाकरः ॥७॥ अभूदाक्रान्तदिक्चस्तेजोभिरतिदुःसहैः । जगतोऽपि स मूर्धन्यो, माध्याहिक इवार्यमा ॥८॥ वसुधां शासतस्तस्य, शासनं वसुधाधवाः । अनिशं धारयामासुः, किरीटमिव मूर्धनि ॥९॥ वसुधाया वसुन्युच्चैराददे च ददे च सः। विश्वलोकोपकाराय, सलिलानीव वारिदः ॥१०॥ धर्मायाऽचिन्तयन्नित्यं, स धर्माय जगाद च । धर्माय व्यचरत् तस्य, सर्व धर्मनिबन्धनम् ॥ ११॥ तस्याऽनुजन्मा नृपतेरसाधारणविक्रमः । सुमित्रविजयो नाम, यौवराज्यघरोऽभवत् ॥ १२॥ अजितप्रभोजन्म । ॥१८७॥ १ नक्षत्राणीच । २ आह्लादकः । Jain Education Internation For Private & Personal use only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दश स्वमाः। सधर्मचारिणी चाऽऽसीजितशत्रुमहीपतेः । श्रीमती विजयादेवी, देवीव भुवमागता ॥१३॥ पाणिभ्यां चरणाभ्यां च, नेत्राभ्यां च मुखेन च | चकासामास विकचाम्भोजखण्डमयीव सा ॥ १४ ॥ पृथिव्या भूषणं साऽभूत् , तस्याः शीलं तु भूषणम् । अन्यभूपणभारस्तु, प्रक्रियामानहेतुकः ॥१५॥ । कलाकलापकलनाद् , विश्वशोभानिबन्धनात् । देवी सरस्वती वा सावतीर्णा कमलाऽथवा ॥१६॥ स नरेपूत्तमो राजा, सा नारीषु शिरोमणिः । सदृग्योगस्तयोरासीद् , गङ्गासागरयोरिव ॥ १७॥ इतश्च विजयाच्युत्वा, जीवो विमलभूभुजः। तस्याः श्रीविजयादेव्याः, कुक्षौ रत्नखनाविव ॥१८॥ राधशुक्लत्रयोदश्यां, रोहिणीधिष्ण्यगे विधौ । ज्ञानत्रयधरः पुत्ररत्नत्वेनोदपद्यत ॥ १९ ॥ प्रभावात् स्वामिनस्तस्य, गर्भवासमुपेयुषः । क्षणं सुखं समुत्पेदे, नारकप्राणिनामपि ॥२०॥ तस्या एव हि यामिन्यास्तुर्ये यामेऽतिपावने । देव्या विजयया स्वमा, अदृश्यन्त चतुर्दश ॥२१॥ आदौ तत्र मदामोदभ्रमद्भमरमण्डलः । गर्जितेनाऽतिपर्जन्यो, गजः सुरगजोपमः ॥ २२ ॥ उत्तुङ्गशृङ्गरुचिरः, शरदम्भोदपाण्डुरः । रम्यपादोऽथ वृषभः, कैलास इव जङ्गमः ॥ २३ ॥ नखैरिन्दुकलावरतिकुकुमकेसरैः । केसरैश्च भ्राजमानः, पञ्चाननयुवापि च ॥ २४ ॥ उदस्तपूर्णकुम्भाभ्यां, कुम्भिभ्यां पार्श्वयोर्द्वयोः । क्रियमाणाभिषेका च, कमला कमलासना ॥ २५ ॥ विकासिकुसुमामोदाधिवासितदिगन्तरम् । दिवो ग्रैवेयकमिक, पुष्पदाम दिवि स्थितम् ॥ २६ ॥ सम्पूर्णमण्डलत्वेनाऽकाण्डे राकां प्रदर्शयन् । ज्योत्स्नातरङ्गितव्योमा, शीतधामा ततः परम् ॥ २७ ॥ १ पत्नी। *वाऽसावुत्तीर्णा संता, पात. ॥२ वैशाखः। ३ रोहिणी नक्षत्रस्थिते। । रात्रैः। ५ सिंहः। । हस्तिभ्याम् । ७ पूर्णिमाम् । त्रिषष्टि, ३३ Jain Education Internationa For Private & Personal use only . Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥१८८॥ द्वितीयं पर्व द्वितीय सर्गः अजितनाथचरितम् । ध्वस्तान्धकारपटलः, प्रसरद्भिर्मरीचिभिः । रजन्यामपि तन्वानो, दिनं दिनमणिस्ततः ॥ २८॥ शाखा कल्पद्रुमस्येव, शृङ्गं रत्नगिरेरिख । अभ्रंलिहपताकाङ्कस्तथा रत्नमयध्वजः॥२९॥ विकस्वरनवश्वेतसरोजपिहिताननः । मङ्गलस्यैकनिलयः, पूर्णकुम्भोऽतिशोभनः ॥ ३०॥ पङ्कजैरङ्कितो विश्वक्, श्रीदेव्या विष्टरैखि । पद्माकरोऽथ स्वच्छाम्भोलहरीभिर्मनोहरः ॥ ३१॥ उपर्युपरि कल्लोलं, कल्लोलैरम्बुधिस्तथा । नभःस्थितं चन्द्रमसमालिङ्गितुमना इव ॥ ३२॥ अनुत्तरविमानेभ्य, इवैकतमदागतम् । विचित्ररत्नरचितं, विमानप्रवरं तथा ॥ ३३ ॥ खरत्नसर्वस्वमिव, प्रसूतं रत्नगर्भया । अत्यद्भुतप्रभापुञ्जो, रत्नपुञ्जस्तथोच्चकैः ॥ ३४ ॥ तेजस्विनामशेषाणां, त्रैलोक्योदरवर्तिनाम् । तेजःपुञ्ज इवैकत्राऽऽहृतो निधूमपावकः ॥ ३५॥ एते च विजयादेव्या, परिपाट्याऽनया निजे । प्रविशन्तो मुखाम्भोजेऽदृश्यन्त भ्रमरा इव ॥३६॥ ___ सिंहासनप्रकम्पोऽभूत , तदानीं च दिवस्पतेः । चक्षुःसहस्रादधिकं, चक्षुः प्रायुक्त सोऽवधिम् ॥ ३७॥ अवधिज्ञानतोऽज्ञासीत , तीर्थकृद्गर्भसम्भवम् । रोमाश्चितवपुश्चैवं, चिन्तयामास वासवः ।। ३८॥ असाविदानी विजयादनुत्तरविमानतः । अच्योष्ट जगदानन्दनिदानं परमेश्वरः ॥ ३९॥ ततश्च जम्बूद्वीपाभिधाने द्वीपवरेऽधुना । यौम्यभारतवर्षार्धमध्यखण्डस्य मध्यतः॥४०॥ विनीतायां महापुयाँ, जितशत्रोर्महीपतेः । भार्याया विजयादेव्याः, कुक्षौ समवतीर्णवान ॥४१॥ एतस्थामवसर्पिण्यां, करुणारससागरः। भगवांस्तीर्थनाथोऽयं, द्वितीयीको भविष्यति ॥४२॥ १ आसनैरिव । * इत आरभ्य ३३ पर्यन्तं पाठः खंतापुस्तके पतितः ॥ २ इन्द्रस्य । ३ दक्षिणम् । * द्विती खंता ॥ % ग अजितप्रभोर्गर्भावतरण, विजयादे व्याः स्वप्नदर्शनं च। ॥१८८॥ Jan Education International For Private&Personal use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेतसा चिन्तयित्वैवं, शुनासीरः ससम्भ्रमम् । सिंहासनं पादपीठं, पादुके अपि चाऽत्यजत् ॥४३॥ गत्वा पदानि सप्ताऽष्टान्युन्मुखं तीर्थकृदिशः । सद्यः कृतोत्तरासङ्गो, देवराजस्ततो भुवि ॥४४॥ विन्यस्य दक्षिणं जानें, वामं च न्यश्य किश्चन । नमश्चक्रे शिरःपाणिसंस्पृष्टवसुधातलः ॥४५॥ [युग्मम्]| अवन्दिष्ट जिनं शक्रः, शक्रस्तवपुरःसरम् । जगाम च विनीतायां, जितशत्रुनृपौकसि ॥ ४६॥ ज्ञात्वाऽर्हतोऽवतारं च, तदैवाऽऽसनकम्पतः । भक्त्या समाययुस्तत्राऽपरेऽपि हि पुरन्दराः॥४७॥ तत्र चाऽऽमलकस्थूलैरमलैः समवर्तुलैः। अनध्यमौक्तिकगणविन्यस्तस्वस्तिकाजिरम् ॥४८॥ शाकुम्भमयैः स्तम्भैनीलपाञ्चालिकाङ्कितः । पत्रैमरकतमयेद्वारे रचिततोरणम् ॥ ४९ ॥ परितो रचितोल्लोचमखण्डैः सूक्ष्मतन्तुभिः । दिव्यांशुकैः पञ्चवर्णैः, सन्ध्यामेधैरिवाऽम्बरम् ॥५०॥ सुवर्णधूपघटिकायत्रोद्यद्धमवर्तिभिः । स्थापत्ययष्टिभिरिवोद्यताभिः परिशोभितम् ॥ ५१॥ खामिन्या विजयादेव्याः, शय्यासदनमुच्चकैः । कल्याणीभक्तयोऽभ्येयुरिन्द्राः शक्रादयोऽथ ते ॥५२॥ [पञ्चभिः कुलकम् ] उन्नते पार्श्वतः किञ्चित् , किञ्चिन्निने च मध्यतः । हंसरोमलतातूलपूर्णोच्छीर्षकशालिनि ॥ ५३॥ विशदाच्छादनास्तीणे, तत्र तल्पे मनोरमे । ददृशुः स्वामिनी गङ्गापुलिने हंसिकामिव ॥५४॥ [युग्मम् ] आत्मानं ज्ञापयित्वा ते, नत्वा च व्याचचक्षिरे । विजयायै स्वमफलं, तीर्थजन्मलक्षणम् ॥ ५५॥ आदिदेश ततः शक्रो, धनदं यदियं त्वया । ऋषभखामिराज्यादौ, रत्नाद्यैः पूरपूर्यत ॥ ५६ ॥ * • त्वेति ल ॥ १ इन्द्रः। २ सुवर्णमयैः । ३ पुत्तलिका । ४ अन्तःपुररक्षकः । Jain Education in For Private & Personal use only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते NCCASS ॥१८९॥ नाथ नवीकुरु पुरीमेतां, नूतनस्तद्गृहादिभिः । मधुमास इवोद्यानं, प्रत्यग्रैः पल्लवादिभिः ॥ ५७ ॥ द्वितीयं पर्व रत्नैः स्वर्णैर्धनैर्धान्यैर्वासोभिश्च समन्ततः । पूरयेमा पुरीं पृथ्वी, जलैरिव बलाहकः ॥५८॥ द्वितीयः इत्युक्त्वा सोऽपरेऽपीन्द्रा, मध्येनन्दीश्वरं ततः। गत्वा चक्रुः शाश्वताहत्प्रतिमाष्टाह्निकोत्सवम् ॥ ५९॥ | सर्गः ततो निजनिजं स्थानं, ययुः सर्वेऽपि वासवाः । यक्षोऽपि कृत्वेन्द्रादिष्टं, तत्पुर्याः स्वपुरीं ययौ ॥६॥ अजितवर्णराशिभिरुत्तुङ्गः, शृङ्गैर्मेरुगिरेरिव । कलधोतोच्चयैरुच्चैवैताब्यशिखररिव ॥ ६१॥ रत्नाकरस्य सर्वखेनेव रत्नोत्करैरपि । धान्यैश्च सप्तदशभिर्वीजैरिव जगन्मुदः ॥ ६२॥ चरितम् । वासोभिः कल्पवृक्षेभ्यः, सर्वतोऽप्याहृतैरिव । ज्योतिष्काणामिव स्थैर्वाहनैश्चाऽतिसुन्दरैः ॥ ६३ ॥ नवीकृता प्रतिगृह, प्रत्यापणचतुप्पथम् । अलकापतिना पूर्णा, साऽलकेव पुरी बभौ ॥ ६४॥ _ [चतुर्भिः कलापकम् ] अजितप्रभोर्गसुमित्रस्यापि गृहिणी, स्वमांस्तानेव तनिशि । वैजयन्ती निरैक्षिष्ट, यशोमत्यपराभिधा ॥६५॥ र्भावतरणं, ततस्तद्रजनीशेषं, कुमुदिन्याविवोन्मुदौ । विजया-वैजयन्त्यौ ते, जाग्रत्यावेव निन्यतुः ॥६६॥ ICE | विजयादेव्याः विजया स्वामिनी प्रातस्तान स्वमान् जितशत्रवे। आचचक्षे वैजयन्ती, सुमित्रविजयाय तु॥६७॥ तान् स्खमान् विजयादेव्या, विचार्य मनसर्जुना । आख्याति म स्वमफलमेवं वसुमतीपतिः ॥१८॥ एभिः खनैर्महादेवि, यशोवृद्धिर्गुणैरिव । विशेषज्ञानसम्पत्तिरागमाभ्यसनैरिव ॥ ६९ ॥ जगदुयोतनमिव, प्रद्योतनमरीचिभिः । तव त्रिजगदुत्कृष्टो, नूनं सूनुर्भविष्यति ॥७॥ ॥१८९॥ एवं खमफलं राज्ञो, यथाप्रज्ञं विविञ्चतः । सुमित्रविजयोऽभ्यागात् , प्रतीहारीनिवेदितः ॥ ७१॥ १ रूप्यराशिभिः। * कलधूतो खंता ॥ इदं नास्ति पात, खंतापुस्तके ॥ २ सूर्यकिरणैः । Jan Education inte For Private & Personal use only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दश खमाः । नृदेवं देववन्नत्वा, पञ्चाङ्गस्पृष्टभूतलः । निषसाद यथास्थानं, सुमित्रविजयस्ततः॥७२॥ क्षणं स्थित्वा पुनर्नत्वा, भक्तितो वसुधापतिम् । एवं विज्ञपयामास, कुमारो रचिताञ्जलिः ॥ ७३ ।। युष्मद्वध्वा वैजयन्त्या, प्रहरेऽद्य निशोऽन्तिमे । निरीक्षाश्चक्रिरे स्वप्नेऽमी मुखाब्जप्रवेशिनः ॥ ७४॥ तत्राऽऽदौ गज ऊर्जस्वी, गर्जिनिर्जितदिग्गजः । नदन्नुत्तुङ्गककुदः, केकुमान् विशदाकृतिः ॥७५॥ उत्केसरततिात्ताननः पञ्चाननोऽपि च । क्रियमाणाभिषेका श्रीहस्तिभ्यां पार्श्वयोर्द्वयोः ॥ ७६ ॥ पञ्चवर्ण च सुमनोदामैन्द्रमिव कार्मुकम् । सुधाकुण्डमिवाऽऽपूर्ण, शशी सम्पूर्णमण्डलः ॥ ७७॥ विश्वस्याऽप्याहृत इव, प्रतापस्तपनस्ततः । दिव्यरत्नमयः प्रेङ्खत्पताकश्च महाध्वजः॥७८॥ पूर्णकुम्भो नवश्वेताम्भोरुहच्छादिताननः । सहस्राक्षमिव स्मेरैः, पौः पद्मसरोऽपि च ॥ ७९ ॥ आपिप्लावैयिषुरिव, धामप्यूमिभिरम्बुधिः। सामानिकविमानाभ, विमानं च महर्द्धिकम् ॥८॥ सारं रत्नाचलस्येव, रत्नपुञ्जः स्फुरत्प्रभः । धूमध्वजश्च निधूमः, शिखापल्लविताम्बरः ॥ ८१॥ एते ददृशिरे स्वमाः, फलमेषां तु तत्त्वतः । देव एव हि जानाति, फलभाग् देव एव च ।। ८२ ॥ राजाऽप्युवाचाऽमी स्वमा, देव्या विजययाऽपि हि । अद्यैव यामे यामिन्यास्तुर्ये ददृशिरे स्फुटाः॥८३ यद्यप्येते महास्वमाः, सामान्येन महाफलाः । आनन्दकारिणो राकानिशाकरकरा इव ॥ ८४ ॥ तथापि तज्ज्ञाः प्रष्टव्याः, फलं ज्ञातुं विशेषतः । अमीषां कुमुदानन्दकृत्त्वं शशिरुचामिव ॥ ८५ ॥ आमित्युक्ते कुमारेण, राज्ञा सादरमीरितः। आजुहाव प्रतीहारः, स्वमशास्त्रविचक्षणान् ॥८६॥ १ मम पक्ष्या । २ वृषभः। ३ प्लावयितुमिच्छुः । ४ प्रेरितः। Jain Education a l For Private & Personal use only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥१९॥ द्वितीयं पर्व द्वितीय सर्गः अजितनाथचरितम् । ते धौतश्वेतवसनावृताः स्नानामलत्विषः । पार्वणोडुपतिज्योत्स्नाच्छादितास्तारका इव ॥ ८७॥ दूर्वाङ्करैः शिरोन्यस्तैरवतंसधरा इव । सपुष्पकेशा नद्योधाः, सहसेन्दीवरा इव ॥ ८८ ॥ गोरोचनाचूर्णकृतैस्तिलकैरलिकस्थितैः । अविम्लानज्ञानदीपशिखाभिरिव शोभिताः ॥ ८९ ॥ अनग्रंखल्परुचिरालङ्काराङ्कितविग्रहाः । सुगन्धिस्तोककुसुमा, इव चैत्रमुखद्रुमाः ॥ ९ ॥ नैमित्तिकाः पुरो राज्ञो, विज्ञप्ता वेत्रधारिणा । साक्षादिव ज्ञानशास्त्ररहस्यानि समाययुः ॥ ९१॥ ते मत्रानार्यवेदोक्तान् , विश्वकल्याणकारकान् । प्रत्येकं युगपदपि, पेठुरग्रे महीपतेः ॥ ९२ ॥ क्षेमङ्करं क्षितिपतेर्मूर्ध्नि दुर्वाक्षतादिकम् । प्रचिक्षिपुस्ते कुसुमान्युद्यानपवना इव ॥ ९३ ॥ भद्रासनेषु रम्येषु, द्वाःस्थसन्दर्शितेषु ते । अथाऽऽसाञ्चक्रिरे हंसाः, पमिनीच्छदनेष्विव ॥ ९४ ॥ जायां वधूं च तदनु, राजा यवनिकान्तरे । आसयामास शशंभृल्लेखामिव धनान्तरे ॥ ९५॥ साक्षात् स्वमफलमिवाऽञ्जलौ पुष्पफले दधत् । जायावध्वोर्महास्वमांस्तेषामकथयन्नृपः॥९६॥ ___ जनान्तिकेन तत्रैव, पर्यालोच्य परस्परम् । स्वमशास्त्रानुसारात् ते, स्वमार्थ व्याचचक्षिरे ॥ ९७॥ देव! द्वासप्ततिः स्वभाः, स्वमशास्त्रे प्रकीर्तिताः। तेषु च त्रिंशदुत्कृष्टा, ज्योतिष्केषु ग्रहा इव ॥ ९८॥ स्वमानां त्रिंशतस्तेषां, मध्यादेते चतुर्दश । उदीयन्ते महास्वमाः, स्वमशास्त्रविशारदैः॥ ९९॥ एतान् गर्भस्थिते तीर्थकरे चक्रधरेऽपि च । तन्माता क्रमशो रात्रितुर्ययामे निरीक्षते ॥१०॥ मध्यादमीषां स्वमानां, सप्त मातेक्षते हरेः । चतुरः सीरिणो माता, मातैकं मण्डलेशितुः ॥१०१॥ पूर्णिमाचन्द्रः । २हंस-कमलसहिताः। ३ ललाटस्थितैः। ४ कमलिनीदलेषु । ५ चन्द्र लेखामिव । ६ एकान्ते । . वासुदेवस्य । ८ बलदेवस्य । पाठकाः। | ॥१९॥ Jain Education in For Private & Personal use only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न द्वौ युगपदर्हन्तौ, युगपञ्चक्रिणौ न च । एकस्यास्तीर्थकृत सूनुरन्यस्याश्चक्रभृत् ततः॥१०२॥ ऋषभे भरतश्चक्री, सौमित्रिः सगरोऽजिते । जितशत्रुसुते तीर्थङ्कर इत्यहेदागमात् ॥ १०३॥ ज्ञातव्यो विजयादेव्याः, सूनुस्तीर्थकरः खलु । षट्खण्डभरताधीशो, वैजयन्त्यास्तु नन्दनः॥१०४॥ परितुष्टस्ततस्तेषां, नृपतिः पारितोषिकम् । प्रददौ ग्रामखेटादि, वस्त्रालङ्करणादि च ॥ १०५॥ आजन्मदौस्थ्यमगमत् , तेषां तज्जन्मशंसनात् । महापुमांसो गर्भस्था, अपि लोकोपकारिणः ॥ १०६ ॥ वस्त्रालङ्करणैः कल्पद्रुमा इव विराजिनः । ते राजानुज्ञया जग्मुस्ततः खं खं निकेतनम् ॥ १०७॥ विजया-वैजयन्त्यौ च, वासागारं निजं निजम् । जग्मतुर्मुदिते गङ्गा-सिन्धू इव पयोनिधिम् ॥१०८॥ ततः पुरन्दरादेशान्नित्यं देवासुरस्त्रियः। सेवितुं विजयादेवीमेवमारेभिरे भृशम् ॥ १०९॥ वामिनीसदनात् पांमुतृणकाष्ठादि सर्वतः । सदाऽपनिन्यिरे वायुकुमाररमणीजनाः ॥ ११० ॥ गन्धोदकेन सिषिचुस्तद्वेश्माङ्गणभूमिकाम् । भुजिष्याजनवन्मेषकुमारकमृगीदृशः॥१११॥ ववृषुः पञ्चवर्णानि, पुष्पाणि ऋतुदेवताः । प्रभोर्गर्भस्थितस्यापि, दातुमर्घमिवोद्यताः ॥ ११२ ॥ प्रकाशमुपनिन्युश्च, ज्योतिष्काणां पुरन्ध्रयः । यथासुखं यथाकालं, स्वामिन्या भाववेदिकाः॥११३ ॥ वनदेव्यो दास्य इव, चक्रिरे तोरणादिकम् । ता मागधस्त्रिय इव, तुष्टुवुश्च सुरस्त्रियः ॥११४ ॥ देवताभिरिति स्वाधिदेवतेव ततोऽपि वा । अधिकेव प्रतिदिनं, विजयादेव्यसेव्यत ।। ११५ ॥ कालिकेवाशुमझिम्ब, निधानमिव मेदिनी । विजया वैजयन्ती च, देवी गर्भमधारयत् ॥११६॥ १ आजन्मदारियम् । २ दासीजनवत् । ३ मेघमाला। Jain Education Inter For Private & Personal use only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते द्वितीयं पर्व द्वितीयः सर्गः अजितनाथचरितम् । ॥१९॥ निसर्गेणापि राजन्त्यौ, ते गर्भणाऽतिरेजतुः । सरस्थाविव सम्पूर्ण, मध्ये स्वर्णाम्बुजन्मना ॥११७॥ वर्णप्रभागौरमपि, तयोर्वदनपङ्कजम् । पाण्डिमानं दधौ दन्तिदन्तच्छेदच्छविस्पृशम् ॥ ११८ ॥ तयोः कर्णान्तविश्रान्ते, स्वभावादपि लोचने । अधिकं सविकासे चाऽजायेतां शरदब्जवत् ॥ ११९ ॥ तयोर्लवणिमा तागवर्धिष्टाधिकाधिकम् । सद्यो मार्जितयोः कान्तिQम्योरिव शलाकयोः॥१२०॥ अग्रेऽपि मन्थरं यान्त्यौ, विशेषादतिमन्थरम् । देव्यौ सश्चेरतू राजहंस्याविव मदालसे॥ १२१ ॥ अतिगूढं ववृधाते, तयोगीं सुखप्रदौ । नलिनीनालवन्नद्योः, शुक्त्योमौक्तिकरत्नवत् ॥ १२२ ॥ ततो नवसु मासेषु, दिनेष्वर्धाष्टमेषु च । गतेषु माघमासस्य, शुक्लाष्टम्यां शुभेक्षणे ॥ १२३ ॥ ग्रहेषञ्चस्थितेष्वृक्षे, रोहिण्यां गजलाञ्छनम् । असूत विजया सूनुं, पुण्यं सूनृतवागिव ।। १२४ ॥ प्रसूतिदुःखं नो देव्या, न सूनोरप्यजायत । स एष तीर्थनाथानां, प्रभावो हि स्वभावजः ॥ १२५॥ जज्ञे तदानीमुयोतः, क्षणं त्रिभुवनेऽपि हि । अकाण्डोद्भूतनिर्मेघविद्युद्योतसोदरः॥ १२६ ॥ नारकाणामपि सुखं, तदा क्षणमजायत । अभ्रच्छायासुखभिव, पान्थानां शरदागमे ॥ १२७ ॥ शरद्यपामिव तदा, प्रसादः ककुभामभूत् । अत्युल्लासश्च लोकानां, कमलानामिवोपसि ॥ १२८ ॥ प्रदक्षिणोऽनुकूलच, भूमिसपी च मारुतः। मन्दं मन्दं ववौ सद्यो, भूतलादुद्भवन्निव ॥ १२९ ॥ सञ्जज्ञिरे समन्ताच, शकुनाः शुभसूचकाः । सर्व हि शुभमेव स्थाजन्मतोऽपि शुभात्मनाम् ॥ १३०।। तदा च दिक्कुमारीणामासनानि चकम्पिरे । उन्मनांसीवोत्पतितुं, जिनान्तिकयियासया ॥ १३१॥ १ लावण्यम् । * तु ल. पा ॥ २ नक्षत्रे । ३ उत्सुकानीव । ४ जिनसमीपं जिगमिषया। अजितप्रभोजन्म। RANGACASEARCRAC ॥१९॥ Jain Education Internet For Private & Personal use only , Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education चारुचूडामणिरुचिप्रसरव्यपदेशतः । रचितोदात्तकौसुम्भवस्त्रनीरङ्गिका इव ॥ १३२ ॥ शोभिताः स्वप्रभापूर्णान्तरैर्मौक्तिककुण्डलैः । सुधाकुण्डैरिव झलज्झलायितसुधोर्मिभिः ॥ १३३ ॥ ग्रैवेयकैः शोभमाना, विचित्रमणिनिर्मितैः । कुण्डलीकृतसुत्रामंकोदण्डश्रीविडम्बिभिः ॥ १३४ ॥ अधिस्तनतटामुक्तैर्मुक्ताहारैर्मनोहराः । रत्नशैलतटीचञ्चन्निर्झर श्रीमलिम्लुचैः ।। १३५ ।। माणिक्यचूडावलयैर्विराजद्भुजवल्लयः । न्यासीकृतैरनङ्गेन, निपङ्गैरिव चारुभिः ॥ १३६ ॥ अनर्घ्यरत्नरचितां दधाना रसनालताम् । जगजिगीषोः पश्चेषोः कृते ज्यामित्र सञ्जिताम् ॥ १३७ ॥ अङ्गांशुनिर्जितैः सर्वज्योतिष्काणामिवाऽंशुभिः । लग्नैश्चरणपद्मेषु, शोभिता रत्ननूपुरैः ॥ १३८ ॥ काश्विनीलाङ्गरुचयः, प्रियङ्गुलतिका इव । काचित् स्वभाभिस्तन्वन्त्यस्तालीवनमिवाम्बरे ।। १३९ ॥ विकिरन्त्यो रुचीः काश्चिद्, बालारुणरुचीरिव । स्नपयन्त्यो रुचा काश्चित् सितया ज्योत्स्रयेव खम् ॥१४०॥ काश्चिद् ददत्यः कनकसूत्राणीव दिशां रुचा । काचिच्च कान्त्या वैरत्नपाञ्चालिका इव ॥ १४१ ॥ सर्वाः कुचाभ्यां वृत्ताभ्यां संचक्रा इव निम्नगाः । सर्वाः सलीलगामिन्यो, राजहंसाङ्गना इव ॥ १४२ ॥ सपल्लवा इव लताः सर्वाः कोमलपाणयः । उन्निद्रपद्माः पद्मिन्य इव सर्वाः सुलोचनाः ॥ १४३ ॥ सर्वा लावण्यपूरेण, सजला इव दीर्घिकाः । सर्वाः सौन्दर्यशालिन्यो, मन्मथस्येव देवताः || १४४ ॥ सञ्जाताssसनकम्पेन, किमेतदिति सम्भ्रमात् । षट्पञ्चाशदपि हि ताः सद्यः प्रायुञ्जताऽवधिम् ॥ १४५ ॥ [ पञ्चदशभिः कुलकम् ] १ इन्द्रधनुः । २ करकङ्कणैः । ३ तूणीरैः । ४ कटिमेखलाम् । ५ कामदेवस्य । ६ चक्रवाकसहिताः । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते द्वितीय पर्व द्वितीयः सर्गः ॥१९२॥ अजितनाथचरितम् । तत्कालमवधिज्ञानाद् , युगपद् दिकुमारिकाः । विविदुर्विजयादेव्या, तीर्थकृञ्जन्म पावनम् ॥ १४६॥ एवं च चिन्तयामासुर्जम्बूद्वीप इहैव हि । याम्यभारतवर्षार्धमध्यखण्डस्य मध्यतः॥१४७॥ विनीतायां महापुर्यामिक्ष्वाकुकुलजन्मनः । विजयायां धर्मपन्यां, जितशत्रुमहीपतेः॥१४८॥ एतस्यामवसर्पिण्यां, भगवानेष तीर्थकृत् । ज्ञानत्रयधरः श्रीमान् , द्वितीय उदपद्यत ॥१४९॥ विमृश्यैवं समुत्थायाऽऽसनेभ्यस्ताः ससम्मदाः । ददुः पदानि सप्ताऽष्टान्युन्मुखं तीर्थकृद्दिशः ॥ १५०॥ पुरस्कृत्येव मनसा, नमस्कृत्य जिनेश्वरम् । शक्रस्तवेन ताः सर्वा, अवन्दन्तोरुभक्तयः॥१५१॥ वलित्वा पुनरध्यास्य, रत्नसिंहासनानि ताः । इत्यादिशन्निजनिजानमरानाभियोगिकान ॥१५२॥ हहो! गन्तव्यमस्माभिर्भरतार्धेऽद्य दक्षिणे । समुत्पन्नद्वितीयार्हत्सूतिकाकर्महेतवे ॥ १५३॥ ततो वितंतगर्भाणि, नानामणिमयानि च । विकुरुध्वं विमानानि, महामानानि नः कृते ॥ १५४ ॥ दन्तुराणि ततः कुम्भैः, शातकौम्भैः सहस्रशः । वैमानिकविमानानामुत्पत्राणीव केतुभिः ॥ १५५॥ रुचिराणि मणिस्तम्भैः, शालभञ्जीविराजितैः । ताण्डवश्रमविश्रान्तनर्तकीनिचयैरिव ॥ १५६॥ स्तम्बरमानुकारीणि, घण्टानिर्घोषडम्बरैः । प्रक्वणत्किङ्किणीजालैर्वाचालानि निरन्तरम् ॥१५७ ॥ रम्याणि वज्रवेदीभिः, श्रियामिव महासनैः । रुक्सहस्रैः सहस्रांशुबिम्बानीव प्रसारिभिः ॥ १५८ ॥ ईहामृगै रत्नमयैपभैस्तुरगैनरैः । रुरुभिर्मकरैर्हसैः, शरभैश्चमरैर्गजैः ॥ १५९ ॥ किन्नरैर्वनलताभिस्तथा पद्मलतोच्चयः । अङ्कितान्यभितो भित्तिवलभीस्तम्भमूर्धसु ॥ १६० ॥ * °देव्यास्ती खंता ॥ । विस्तृतमध्यभागानि । २ हस्तिसदृशानि । ३ वृषभैः । ४ मृगैः । ५ अष्टापदैः । SSSSSSSSSS दिकुमारिका कृतो जिन| जन्मोत्सवः। ॥१९२॥ Jan Education in Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदेशेन समं तासां, ते देवा आभियोगिकाः । विकृत्य दर्शयामासुर्विमानान्युरुशक्तयः॥१६१ ॥ [सप्तभिः कुलकम् ] अथाऽधोलोकवास्तव्यास्तास्वष्टौ दिकुमारिकाः । देवदृष्यनिवसनाः, पुष्पालङ्कृतकुन्तलाः ॥ १६२॥ भोगङ्करा भोगवती, सुभोगा भोगमालिनी। तोयधारा विचित्राच, पुष्पमालाऽप्यनिन्दिता प्रत्येकं च सामानिकीचत्वारिंशच्छतावृताः । महत्तराभिः प्रत्येकं, तथा चतसृभिर्युताः ॥ १६४ ॥ प्रत्येकं च महानीकैः, सप्तभिः परिवारिताः । अनीकाधिपतिभिश्च, प्रत्येकमपि सप्तभिः ॥ १६५ ॥ आत्मरक्षीसहस्रैश्चकैका पोडशभिर्युताः । अन्यैश्च व्यन्तरैर्देवैर्देवीभिश्च महर्द्धिभिः॥ १६६॥ विमानानि समारुह्य, गीतनृत्तमनोहरम् । प्रति पूर्वोत्तरदिशं, सोत्कण्ठमुपचक्रमुः॥१६७॥ अथ कृत्वा समुद्धातं, वैक्रियं ताः क्षणादपि । योजनान्यर्पसङ्ख्यानि, यावद् दण्डं विचक्रिरे ॥ १६८॥ रत्न-वैडूर्य-वज्राणां, लोहिताक्षाङ्कयोरपि । अञ्जनाञ्जनपुलक-पुलकानां तथैव च ॥ १६९ ॥ ज्योतीरस-सौगन्धिक-रिष्टानां स्फटिकाश्मनाम् । जातरूपहंसगर्भरत्नानामपि सर्वतः ॥ १७०॥ तथा मसारगल्लानां, मणीनां स्थूलपुद्गलान् । परितः शातयामासुर्जगृहुश्चाऽणुपुद्गलान् ॥ १७१॥ ततश्च चक्रिरे खं स्वं, रूपमुत्तरक्रियम् । देवतानां जन्मसिद्धाः, खलु वैक्रियलब्धयः ॥ १७२ ॥ उत्कृष्टया त्वरितया, चलया चण्डयाऽपि च । सिंहोद्धताभ्यां पतनाच्छेकाभ्यामथ दिव्यया ॥ १७३ ॥ देवगत्या तथा सर्वऋद्ध्या सर्वबलेन च । ययुः पुर्यामयोध्यायां, जितशत्रुनृपौकसि ॥ १७४ ॥ १ऐशानीम् । २ असङ्ख्यातानि । Jain Education into For Private & Personal use only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते द्वितीय पर्व द्वितीयः सगः अजितनाथ ॥१९३॥ चरितम्। ततो महाविमानैः स्वैर्योतीषीवाऽमराचलम् । तास्त्रिः प्रदक्षिणीचक्रुस्तीर्थकृत्सूतिकागृहम् ॥ १७५॥ चतुरङ्गुलमात्रेणाऽसंस्पृशन्त्यो महीतलम् । अस्थापयन् विमानानि, पूर्वोदीच्यां ततश्च ताः ॥ १७६ ॥ प्रविश्य सूतिकागारं, जिनेन्द्रं जिनमातरम् । त्रिस्ताः प्रदक्षिणीकृत्य, बद्धाञ्जल्येवमूचिरे ॥ १७७ ॥ नमस्तुभ्यं जगन्मातः!, कुक्षिणा रत्नधारिणि । सर्वनारीसारभूते!, जगद्दीपप्रदायिनि! ॥ १७८ ॥ त्वं धन्याऽसि पवित्रासि, त्वं चाऽसि जगदुत्तमा । मनुष्यलोके चैतस्मिन् , जन्मेदं सफलं तव ॥१७९॥ यत् त्वं पुरुषरत्नस्य, कारुण्यक्षीरनीरधेः। त्रैलोक्यवन्दनीयस्य, स्वामिनो धर्मचक्रिणः ॥ १८०॥ जगद्गरोजगद्वन्धोर्विश्वानुग्रहकारिणः । द्वितीयस्याऽवसर्पिण्यां, जिनेन्द्रस्य जनन्यसि ॥ १८१॥ मातर्वयमधोलोकवास्तव्या दिक्कुमारिकाः। कर्तुं तीर्थकृतो जन्ममहिमानमिहाऽऽगताः ॥१८२॥ तद् युष्माभिर्न भेतव्यमित्युदीर्य प्रणम्य च । पूर्वोत्तरस्यां ककुभि, तत्र ता व्यपचक्रमुः॥१८३॥ वैक्रियेण समुद्घातेनाऽथ ताः शक्तिसम्पदा । वातं संवर्तकं नाम, क्षणेनाऽपि विचक्रिरे ॥ १८४ ॥ शिवेन मृदुशीतेन, तेन तिर्यक्प्रवायिना । सर्वतकुसुमाभोगगन्धसर्वस्ववाहिना ॥ १८५॥ मरुता सूतिकागारं, परितो योजनावधि । अपनीय तृणाधुच्चैश्चोक्षीचक्रुः क्षमातलम् ॥ १८६ ॥ भगवद्भगवन्मात्रोरदेवीयसि तास्ततः । मङ्गल्यगीतं गायन्त्यो, हर्षवत्योऽवतस्थिरे ॥ १८७॥ ___ अथो रुचकसंस्था, नन्दनोद्यानकूटगाः। दिव्यालङ्कारधारिण्य, इत्यष्टौ दिक्कुमारिकाः ॥१८८॥ मेघङ्करा मेघवती, सुमेघा मेघमालिनी। सुवत्सा वत्समित्रा च, वारिषेणा बलाहका॥१८९॥ १ मेरुम् । २ अनतिदूरे। दिक्कुमारिकाकृतो जिनजन्मोत्सवः। ॥१९३॥ Jain Education Intern For Private&Personal use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महत्तराभिः सामानिक्यङ्गरक्षीभिरेव च । अनीकानीकपतिभिः, पूर्ववत् परिवारिताः ॥१९॥ एयुस्तत् सूतिकावेश्म, स्वामिजन्मपवित्रितम् । त्रिश्च प्रदक्षिणीचक्रुर्जिनेन्द्र-जिनमातरौ ॥ १९१॥ पूर्ववज्ज्ञापयित्वा खं, विजयायै प्रणम्य च । अभिष्टुत्य च तत्रोचैर्विचक्रुर्मेघदुर्दिनम् ॥ १९२ ॥ ततश्च भगवजन्मभवनाद् योजनावधि । नाऽतिस्तोकां नातिबह्रीं, वृष्टिं गन्धोदकैर्व्यधुः ॥ १९३॥ तपसेवाऽहंसां राकाज्योत्स्नया तमसामिव । तया च रजसां शान्तिाग् वृष्टया समजायत ॥ १९४ ॥ ततो विचित्रमुन्निद्रं, पुष्पप्रकरमाशु ताः। तत्र रङ्गावनौ रङ्गाचार्या इव विचक्रिरे ॥ १९५॥ घनसारागुरुपायधूपधूमेन चोच्चकैः । तां भुवं वासयामासुर्वासागारमिव श्रियः ॥ १९६॥ तीर्थकृत्तीर्थकुन्मात्रोरनत्यासन्नदूरतः । अथाऽमलान् स्वामिगुणांस्ता गायन्त्योऽवतस्थिरे ॥ १९७ ॥ ___ अथ पूर्वरुचकाद्रिवास्तव्या दिक्कुमारिकाः । सहिताः सर्वया ऋद्ध्या, सकलेन बलेन च ॥ १९८ ॥ तत्र नन्दोत्तरानन्दे, आनन्दानन्दवर्धने । विजया वैजयन्ती च, जयन्ती चाऽपराजिता॥१९९5 पूर्ववत् सपरीवारास्तदेयुः सूतिकागृहम् । त्रिश्च प्रदक्षिणीचकुस्ताः खामि-खामिमातरौ ॥२०॥ खं ज्ञापयित्वा स्वामिन्यै, नत्वा स्तुत्वा च पूर्ववत् । तत्पूर्वतोऽस्थुर्गायन्त्यो, रत्नदर्पणपाणयः ॥ २०१॥ अपाच्यरुचकशैलवास्तव्याश्चारुभूषणाः । स्रग्विण्यो दिव्यवसना, इत्यष्टौ दिक्कुमारिकाः॥२०२॥ समहारा सुप्रदत्ता, सुप्रबुद्धा यशोधरा । लक्ष्मीवती शेषवती, चित्रगुप्ता वसुन्धरा ॥२०३॥ प्राग्वत् परिच्छदभृतस्तसिन्नभ्येत्य वेश्मनि । नत्वा प्रदक्षिणापूर्व, स्वामिन्यै स्खमजिज्ञपन् ॥ २०४॥ १ पापानाम् । २ विकसितम् । ३ सूत्रधाराः। ४ दाक्षिणात्यः । त्रिषष्टि. ३४ Jain Education For Private & Personal use only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6456 त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥१९४॥ द्वितीय पर्व द्वितीयः सर्गः अजितनाथचरितम् । जिनेन्द्र-जिनजनन्योर्दक्षिणेन कैलखनाः। ता मङ्गलानि गायन्त्यस्तस्थुर्भृङ्गारपाणयः॥ २०५॥ तथा प्रत्यग्रुचकादिवास्तव्या दिक्कुमारिकाः। पूर्ववज्ज्ञापयित्वा खं, तावन्मात्रपरिच्छदाः ॥ २०६॥ इलादेवी सुरादेवी, पृथिवी पद्मवत्यपि । एकनासा नवमिका, भद्रा सीता च नामतः॥२०७॥ कृत्वा प्रदक्षिणापूर्व, नेतिं जिन-जिनाम्बयोः । गायन्त्यः पश्चिमेनाऽस्थुश्वारुव्यजनपाणयः ॥२०८ ॥ ॥ तथोदग्रुचकशैलवास्तव्या दिकुमारिकाः। निवेद्य प्राग्वदात्मानं, तथैव सपरिच्छदाः॥२०९॥ अलम्बुसा मिश्रकेशी, पुण्डरीका च वारुणी। हासा सर्वप्रभा चैव, ही श्रीरिति च नामतः॥२१० नत्वा प्रदक्षिणापूर्व, पादान् जिन-जिनाम्बयोः । गायन्त्य उत्तरेणाऽस्थुश्वारुचामरपाणयः ॥ २११॥ विदिग्रुचकवास्तव्याश्चतस्रो दिक्कुमारिकाः। चित्रा चित्रकनका सतेरा सौत्रामणी तथा ॥२१२॥ एत्य प्रदक्षिणापूर्व, नमस्कारं विधाय च । जिनस्य जिनमातुश्च, स्वमायातं न्यवेदयन् ॥ २१३ ॥ खामिनः स्वामिमातुश्च, गायन्त्यो विपुलान् गुणान् । दीपिकापाणयस्तस्थुरैशान्यादिविदिक्षु ताः॥२१४॥ रुचकद्वीपमध्यस्थाश्चतस्रो दिक्कुमारिकाः। रूपा रूपांशिका चैव, सुरूपा रूपकावती॥२१५॥ प्रत्येक पूर्ववत् सर्वपरिवारविराजिताः । महाविमानान्यारुह्याऽर्हजन्मगृहमाययुः ॥ २१६ ॥ तत् त्रिः प्रदक्षिणीचक्रुर्विमानेष्वेव ताः स्थिताः । अस्थापयन् विमानानि, देशे समुचिते ततः ॥२१७ ॥ ततश्चरणचारिण्यो, जिनेन्द्र-जिनमातरौ । भक्त्या प्रदक्षिणीकृत्य, नत्वा चैवं बभाषिरे ॥ २१८ ॥ जय जीव चिरं नन्द, विश्वानन्दननन्दने!। सुमुहूर्त जगन्मातरद्य त्वद्दशेनेन नः ॥ २१९॥ 1 मधुरस्वराः । २ नमस्कारम् । दिकुमारिकाकृतो जिनजन्मोत्सवः। ॥१९४॥ Jain Education inte For Private & Personal use only . Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नाकरो रत्नशैलो, रत्नगर्भा मुधा ह्यमी । त्वमेका रत्नभूः पुत्ररत्नं यत् सूतवत्यदः ॥ २२०॥ वयं हि रुचकद्वीपमध्यस्था दिकुमारिकाः । अर्हतो जन्मकृत्यानि, कर्तुमत्र समागताः॥२२१ ।। भवत्या तन्न भेतव्यमित्युक्त्वा परमेशितुः । चतुरङ्गुलवर्ज ता, नाभिनालमकल्पयन् ॥ २२२ ॥ खनित्वा विदरं तत्र, नालं निधिमिव न्यधुः। विदरं पूरयामास , रत्नैर्वजैश्च तं ततः ॥ २२३ ॥ बबन्धुस्तत्र पीठं ताः, सद्यः प्रोद्भूतदूर्वया । अप्युद्यानान्युद्भवन्ति, देवतानां प्रभावतः ॥ २२४ ॥ सूतिकावेश्मनस्तस्य, ककुप्सु तिसृषु क्षणात् । विकुर्वन्ति स कदलीगृहाणि श्रीगृहाणि ताः॥२२५ ॥ प्रत्येकमेकं तन्मध्ये, चतुःशालं विचक्रिरे । मध्ये च तेषामेकैकं, रत्नसिंहासनं महत् ॥ २२६ ॥ ततश्च जगृहुस्तीर्थकरं करतलेन ताः । स्वामिनी च भुजे निन्युश्चाऽपाच्यकदलीगृहे ॥ २२७॥ तत्र चाऽन्तश्चतुःशालं, रत्नसिंहासनोत्तमे । ताः सुखं स्वामिनं स्वामिमातरं च न्यवेशयन् ॥ २२८ ॥ खयं संवाहिकीभृय, पाणिन्यासैर्यथासुखैः । शतपाकादिभिस्तैलैरभ्यङ्गं च तयोर्व्यधुः ॥२२९॥ गन्धद्रव्यैः सुरभिभिः, सूक्ष्मपिष्टैः क्षणेन ताः । उद्वर्त्तनं विदधिरे, रत्नदर्पणवत् तयोः ॥ २३० ॥ जिनेन्द्रं करतलेन, जिनेन्द्रजननी भुजे । गृहीत्वा निन्यिरे ताच, पौरस्त्ये कदलीगृहे ॥ २३१॥ तत्र मध्ये चतुःशालं, रत्नसिंहासनोत्तमे । आसयामासुरथ ता, जिनेन्द्र-जिनमातरौ ।। २३२ ॥ ताश्च गन्धोदकैः पुष्पोदकैः शुद्धोदकैरपि । द्वावपि स्नपयामासुस्तदिवाऽऽजन्मशिक्षिताः॥२३३॥ +विवरं ल, पात ॥ १ गतम् । विवरं पात ॥ २ दिक्षु। ३ दक्षिणकदलीगृहे । ४ दासीभूय ।५ पूर्वदिक्सम्बन्धिनि ।। जम्मत भारम्य शिक्षिता इव । CRACKAGRA C Jain Education Inter . Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥१९५॥ द्वितीयं पर्व द्वितीयः । सर्गः अजितनाथचरितम् । विचित्ररत्नालङ्कारांस्तास्ताभ्यां पर्यधापयन् । चिरात् स्वशक्तेस्तादृश्या, मन्यमानाः कृतार्थताम् ॥ २३४ ॥ जिनेन्द्र-विजयादेव्यौ, देव्योऽथाऽऽदाय पूर्ववत् । मनोहारिणि ता जग्मुरुदीच्ये कदलीगृहे ॥ २३५॥ तत्राऽऽसयंश्चतुःशालमध्यसिंहासने च ताः । तौ गृह्णन्तौ नगासीनसिंहीतत्सुतयोः श्रियम् ॥ २३६॥ क्षणादानाययामासुस्त्रिदशैराभियोगिकैः । गोशीर्षचन्दनैधांसि, ताः क्षुद्रहिमवद्गिरेः ॥ २३७ ॥ पावकं पातयामासुर्मथित्वाऽरणिदारुणी । जायते घृष्यमाणाद्धि, देहनश्चन्दनादपि ॥ २३८ ॥ समिधीकृत्य गोशीर्षचन्दनानि समन्ततः । एधयामासुरग्निं तं, देव्यस्ता आहिताग्निवत् ॥ २३९ ॥ ततस्तेनाऽग्निहोमेन, भूतिकर्म विधाय ताः । रक्षाग्रन्थि जिनेन्द्रस्य, बबन्धुभक्तिवन्धुराः ॥ २४० ॥ पर्वतायुर्भवेत्युच्चैर्वदन्त्यो जिनकर्णयोः । मिथ आस्फालयामासू , रत्नपाषाणगोलकौ ॥ २४१॥ तीर्थङ्करं करतलेनाऽऽदाय विजयां भुजे । ताः सूतिकागृहे निन्युः, शय्यायां चाऽध्यरोपयन् ॥२४२॥ ततश्च स्वामिनः खामिजनन्याश्चोज्वलान् गुणान् । गायन्त्यो मञ्जु तास्तस्थुरनत्यासन्नदूरतः॥२४३ ॥ __ तदानीमेव सौधर्मे, कल्पेऽल्पेतरवैभवः । आवृतो देवकोटीभिरप्सरोभिश्च कोटिशः ॥ २४४ ॥ कोटिशश्चारणवरैः, स्तूयमानपराक्रमः । गन्धर्ववर्गेणाऽखर्व, गीयमानगुणोच्चयः ॥ २४५॥ पार्श्वतो वारनारीभिर्वीज्यमानश्च चामरैः । मूर्ध्नि श्वेतातपत्रेण, राजमानोऽतिहारिणा ॥ २४६ ॥ दत्तास्थानः सुधर्मायामास्थान्यां प्रामुखः सुखम् । शक्रो यावनिषण्णोऽस्थाचकम्पे तावदासनम् ॥२४॥ [चतुर्भिः कलापकम् ] १ पर्वतोपविष्टसिंहीतरपुत्रयोः। २ अग्निः। ३ प्रभूतवैभवः। ४ सभायाम् । | दिकुमारिका कृतो जिन| जन्मोत्सवः। ॥१९५॥ Jain Education For Private & Personal use only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Int तेन चाssसनकम्पेन, कोपाटोपविसंस्थुलः । कम्पमानाधरदलः, स्फुरज्वाल इवाऽनलः ॥ २४८ ॥ उत्कटभ्रकुटीभीमो, व्योमेवोद्धूमकेतुकम् । आताम्रीभूतवदनो, मदाविष्ट इव द्विपः ॥ २४९ ॥ उत्तरङ्ग इवाऽम्भोधिस्त्रिवलीलाञ्छितालिकः । वज्रमालोकयामास, वज्रभृद् वैरिघातकम् ॥ २५० ॥ [ त्रिभिर्विशेषकम् ] तत्कोपमुपलक्ष्येत्थमुत्थायाऽग्रे कृताञ्जलिः । चमूपतिनैगमेषी, प्रोचे प्राचीनं बर्हिषम् ।। २५१ ॥ • कं प्रति स्वयमावेशो, मय्यप्यादेशकारिणि । सुरासुरमनुष्येषु, नाऽधिको न समश्च ते ।। २५२ ॥ हेतुरासनकम्पस्य, यस्ते सम्प्रत्यजायत । विमृश्याऽऽज्ञापय स्वामिंस्तत्र मां दण्डैकारिणम् ॥ २५३ ॥ एवं च सेनापतिनाऽभिहितो दिविषैत्पतिः । कृत्वाऽवधानमवधिज्ञानं प्रायुङ्ग तत्क्षणात् ॥ २५४ ॥ जैनप्रवचनेनेव, धर्म दीपेन वस्त्विव । द्वितीयतीर्थकृज्जन्माऽज्ञासीदवधिना हरिः ।। २५५ ॥ सदध्यौ चेत्यहो ! जम्बूद्वीपे वर्षे च भारते । विनीतायां महापुर्यां जितशत्रोर्महीपतेः ।। २५६ ।। जायाया विजयादेव्याः, सम्प्रत्ययमजायत । एतस्यामवसर्पिण्यां, द्वैतीयीको जिनेश्वरः ।। २५७|| [ युग्मम् ] तेन चाssसनकम्पोऽयं, धिग् धिग् दुश्चिन्तितं मया । ऐश्वर्येणोन्मदिष्णोर्मे, मिथ्यादुष्कृतमस्तु तत् ॥ २५८ ॥ चेतसा चिन्तयित्वैवं, रत्नसिंहासनं निजम् । पादपीठं पादुके च, त्यक्त्वोत्तस्थौ पुरन्दरः ।। २५९ ।। ससम्भ्रमः शर्तमखोऽभिमुखं तीर्थकृदिशः । ददौ पदानि कतिचित्, प्रस्थानमिव साधयन् ॥ २६० ॥ न्यस्योर्व्या दक्षिणं जानुमन्यं न्यश्य च किञ्चन । क्ष्मां स्पृशन् पाणिशीर्षेण, ननाम खामिने हरिः || २६१ १ ललाटम् । २ इन्द्रम् । ३ दण्डकारकम् । ४ इन्द्रः । ५ मत्तस्य । ६ इन्द्रः । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय पर्व द्वितीय त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥१९६॥ सर्गः अजितनाथचरितम् । शक्रस्तवेन वन्दित्वा, स्वामिनं पाकशासनः । वेलानिवृत्तोऽब्धिरिव, भेजे भूयः स्वभूमिकाम् ॥२६२॥ अथ तत् तीर्थजन्म, सर्वान् ज्ञापयितुं सुरान् । तदुत्सवाय चाऽऽह्वातुं, गृहस्थः खजनानिव ॥ २६३॥ सद्यो रोमाञ्चितवपुर्वपुष्मानिव सम्मदः । आदिदेश शुनासीरः, सेनान्यं नैगमेषिणम् ॥२६४॥ [युग्मम्] सादरं शिरसाऽऽदाय, पाकशासनशासनम् । सेनानीरपचक्राम, पीत्वाऽम्भः पिपासितः ॥ २६५ ॥ सुधर्मापरिषद्गव्याः, कण्ठघण्टामिवोद्भटाम् । सोऽताडयत् सुघोषां विर्घण्टां योजनमण्डलाम् ॥२६६॥ तस्याश्च ताड्यमानाया, विश्वकर्णपथातिथिः । समुत्तस्थौ महान् नादो, मध्यमानाम्बुधेरिव ॥ २६७ ॥ एकोनद्वात्रिंशल्लक्षा, घण्टा अन्या अपि स्फुटम् । प्रणेदुरथ तन्नादाद्, गोनादादिव तेर्णकाः ॥ २६८॥ तासां शब्देन घण्टानां, जृम्भमाणेन भूयसा । सौधर्मकल्पः सर्वोऽपि, शब्दाद्वैतमयोऽभवत् ॥२६९॥ नित्यप्रमादिनस्तेषु, विमानेषु दिवौकसः । नादेन तेनाऽबुध्यन्त, सिंहा इव गुहाशयाः ॥ २७० ॥ आज्ञया धुसदांराज्ञो, मन्ये केनापि नाकिना। घोषणानाट्यनान्दीयं, सुघोषा वादिताऽधुना ॥२७१।। श्रोतव्या घोषणाऽवश्यं, वासवाज्ञाप्रकाशिनी । इत्याशयाद् दत्तकर्णमवातिष्ठन्त नाकिनः॥२७२॥ [युग्मम् ] शान्ते सुघोषानि?षे, कण्ठनादेन भूयसा । पुरन्दरस्य सेनानीश्चकाराऽऽघोषणामिति ॥ २७३ ॥ भो भोः! शृण्वन्तु गीर्वाणाः!, सौधर्मस्वर्गवासिनः। समादिशति वः सर्वानसौ दिविषदांपतिः ॥२७४॥ जम्बूद्वीपस्य भरतेऽयोध्यायां पुरि भूपतेः। जितशत्रोः सधर्मिण्यां, विजयायां जगद्गुरुः॥२७५॥ भाग्योदयेन विश्वस्य, विश्वानुग्रहकारकः। द्वितीयस्तीर्थनाथोऽद्य, प्रभुः समुदपद्यत ॥ २७६ ॥ । सुधर्माख्यसभागव्याः । २ वत्साः। ३ हे देवाः !। *ATSASTUSOHO सौधर्मेन्द्रागमनम्। ॥१९६॥ Jain Education in For Private & Personal use only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत् पावयितुमात्मानमस्माभिः सपरिच्छदैः। जिनजन्माभिषेकाय, गन्तव्यं तत्र सम्प्रति ॥ २७७॥ भवद्भिरपि सर्वा , सर्वैः सर्वबलेन च । तत्र गन्तुं मया सार्द्धमागन्तव्यमिह द्रुतम् ॥ २७८ ॥ तस्यैवमाधोषणया, स्तनितेनेव केकिनः । कलयामासुरानन्दममन्दं त्रिदिवौकसः ॥ २७९ ॥ सद्यो विमानान्यारुह्य,पोतानिव दिवौकसः । आक्रामन्तो नभोम्भोधिमाजग्मुः शक्रसन्निधौ ॥ २८॥ अन्तिके स्वामिनो गन्तुं, विमानं क्रियतामिति । आदिशत् पालकं नामाऽऽभियोगिकसुरं हरिः॥२८१ उद्विद्रुममिवाऽम्भोधि, रत्नभित्तिमरीचिभिः । शातकुम्भमयैः कुम्भैरुत्पद्ममिव मानसम् ॥ २८२॥ सर्वाङ्गीणं तिलकितमिव दीर्थैर्ध्वजांशुकैः । विचित्रै रत्नशिखरैरुच्छेखरमिवोच्छ्रितैः ॥ २८३ ॥ रत्नस्तम्भैः श्रीकरेणोरिवाऽऽलानैर्मनोरमम् । शालँभञ्जीभिरन्याभिरप्सरोभिरिवाऽऽश्रितम् ॥ २८४ ॥ आत्ततालं नटमिव, *किङ्कणीजालमण्डितम् । सनक्षत्रं वियदिव, मौक्तिकस्वस्तिकाङ्कितम् ॥ २८५॥ ईहामृगाश्ववृषभैनरकिन्नरकुञ्जरैः । हंसैर्वनलतापमलताभिश्च मनोरमम् ॥ २८६ ।। लक्षयोजनविस्तीर्ण, जम्बूद्वीपमिवाऽपरम् । पञ्चयोजनशत्युच्चं, विमानं विचकार सः॥ २८७॥ [पतिः कुलकम् ] तिसृष्वाशासु तस्याऽऽसंस्तिस्रः सोपानपतयः । महागिरेवतरन्निझरोर्म्य इवाऽऽयताः ॥२८८॥ अग्रे सोपानपतीनामभूवन रत्नतोरणाः । अखण्डाखण्डलधनुःश्रेणिश्रीसोदरा इव ॥ २८९ ॥ १ मेघगर्जितेन । २ मयूराः। ३ यानपात्राणि । ४ सुवर्णमयैः । ५ लक्ष्मीहस्तिन्याः। ६ बन्धनस्तम्भैः। • घुसलिकाभिः। *किङ्किणी पात ॥ Jain Education Inter2 For Private & Personal use only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते द्वितीयं पर्व द्वितीयः सर्गः अजित ॥१९७॥ नाथ चरितम् । आलिङ्गिपुष्करमुखादर्शदीपकमल्लिवत् । मध्यभागः समतलस्तस्य मांसृण्यभागभूत् ॥ २९०॥ सुस्पशैंः सुप्रभैः पञ्चवर्णैश्चित्रविचित्रितः । केकिपरिवाऽऽस्तीर्णो, भूमिभागो राज सः ॥ २९१ ॥ अभवन्मध्यतस्तस्यैकः प्रेक्षागृहमण्डपः। क्रीडावेश्म श्रियामन्तनगर्या राजवेश्मवत् ॥ २९२ ॥ मध्ये च तस्य विष्कम्भायामाभ्यामष्टयोजना । चतुर्योजनवाहल्या, बभूव मणिपीठिका ॥ २९३ ॥ तस्या उपर्येकमासीद्, रत्नसिंहासनोत्तमम् । महन्महत्यङ्गुलीये, माणिक्यमिव पावनम् ॥ २९४ ॥ . __ तस्योपरिष्टादुल्लोचो, राजतोऽराजतोज्ज्वलः । स्त्यांनीभूतशरज्योत्स्नाप्रसरभ्रमदायकः ॥ २९५॥ तन्मध्ये लम्बमानोऽभूदेको वज्रमयोऽङ्कशः। तत्र प्रलम्ब्यभूदेकं, मुक्तादामैककुम्भिकम् ॥ २९६ ॥ तस्याऽनुजन्मान इव, ककुप्सु चतसृष्वपि । अर्धकुम्भप्रमैमुक्ताफलैहारस्रजोऽभवन् । २९७॥ । मन्दमन्दोल्यमानास्ते, वातेन मृदुनाऽद्युतन् । शुनासीरश्रियो लीलादोलालक्ष्मीमलिम्लुचाः ॥ २९८ ॥ महतस्तस्य शाक्रस्य, रत्नसिंहासनस्य तु । पूर्वोदीच्यामुदीच्यां चाऽपरोदीच्यां तथा दिशि ॥ २९९ ॥ चतुरशीतिसहस्रसामानिकदिवौकसाम् । भद्रासनानि तावन्ति, रत्नरम्याणि जज्ञिरे ॥३०॥ तत्राऽष्टानामिन्द्राणीनां, प्राच्यामष्टाऽऽसनानि च । कमलाकेलिमाणिक्यवेदिकासनिभान्यभान् ॥३०१॥ दिशि दक्षिणपूर्वस्यां, तत्राऽभ्यन्तरपर्षदः । देवद्वादशसहरुया, अभवन्नासनानि तु ॥ ३०२॥ दक्षिणस्यां दिश्यभूवन् , मध्यायाः शक्रपर्षदः । चतुर्दशामरसहस्यासनानि निरन्तरम् ॥ ३०३ ॥ दिशि याम्यप्रतीच्यां च, बभूवुर्बाह्यपर्षदः । षोडशानां सहस्राणामासनानि दिवौकसाम् ॥ ३०४ ॥ १ मृदुताभाक् । २ मयूरपिच्छैः। ३ महत्यां मुद्रिकायाम् । ४ घनीभूतः । सौधर्मेन्द्रागमनम्। AUGUSTUSSUUS ॥१९७॥ Jain Education Inter For Private & Personal use only . Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शक्रसिंहासनसोचैस्तस्य पश्चिमतोऽभवन् । सप्तानामप्यनीकाधिपतीनामासनानि तु ॥ ३०५॥ शक्रासनस्य प्रत्येकं, ककुप्सु चतसृष्वपि । चतुरशीत्यात्मरक्षसहरुया आसनानि तु ॥ ३०६ ॥ ईदृग् विमानं शक्राज्ञासमकालमजायत । निष्पद्यन्ते सुमनसां, मनसा हीष्टसिद्धयः॥ ३०७ ॥ सङ्कन्दनो विचके च, जिनाभिगमनोत्सुकः । विचित्रभूषणधरं, रूपमुत्तरवैक्रियम् ॥ ३०८॥ लावण्यामृतवल्लीभिर्महिषीभिः सहाऽष्टभिः । नाट्यानीकेन गन्धर्वानीकेन च महीयसा ॥ ३०९ ॥ हृष्टः प्रदक्षिणीकृत्य, तद् विमानवरं हरिः । अध्यारुरोह पूर्वेण, रत्नसोपानवर्त्मना ॥ ३१ ॥ [युग्मम् ]| रत्नसिंहासने पूर्वाभिमुखस्तत्र वासवः । आसाञ्चक्रे शैलचूलाशिलायामिव केसरी ॥ ३११ ॥ स्वान्यासनान्यलचक्रुर्महिष्योऽपि बिडौजसः । यथाक्रम कमलिनीदलानीव मरालिकाः ॥३१२ ॥ चतुरशीतिः सहस्राः, सामानिकदिवौकसाम् । अध्यारोहन विमानं तदुदक्सोपानवर्त्मना ॥३१३ ॥ तत्राऽऽसाश्चक्रिरे स्वेषु, खेषु भद्रासनेषु ते । रूपधेयान्तराणीवाऽप्रतिरूपाणि वज्रिणः ॥ ३१४ ॥ अन्येऽपि देवा देव्यश्चाऽपाच्यसोपानवर्त्मना । तद् विमानं समारोहन, निषेदुश्च यथासनम् ॥ ३१५ ॥ हरेः सिंहासनस्थस्य, पुरोऽभूदष्टमङ्गली । पत्नीभिरष्टाभिरिवैकैकमङ्गलकल्पनात् ॥ ३१६॥ तदनु च्छत्र-भृङ्गार-पूर्णकुम्भादयोऽभवन् । ते हि स्वाराज्यचिह्नानि, च्छायावत् सहचारिणः ॥ ३१७ ॥ सहस्रयोजनोत्सेधस्तदग्रेऽभून्महाध्वजः। युतो लघुध्वजशतैः, पल्लवैरिव पादपः ॥ ३१८॥ तदने चाऽभवन् पञ्चाऽनीकाधिपतयो हरेः। आभियोगिकदेवाश्च, स्वाधिकाराप्रमादिनः॥ ३१९ ॥ १ इन्द्रः। २ दक्षिणसोपानमार्गेण । ३ उन्नतः । Jain Education Intel For Private & Personal use only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥१९८॥ नाथ इत्थं महर्द्धिभिः शक्रः, सुरकोटीभिरावृतः । चतुरैश्चारणगणैः, स्तूयमानमहर्द्धिकः ॥ ३२०॥ 18 द्वितीयं पर्व नाट्यानीकेन गन्धर्वानीकेन च निरन्तरम् । प्रक्रान्तनाट्याभिनयसङ्गीतककुतूहलः॥ ३२१॥ द्वितीयः अनीकैः पञ्चभिश्चाऽग्रे, कृष्यमाणमहाध्वजः । पुरस्तूर्यनिनादेन, ब्रह्माण्डं स्फोटयन्भिव ॥ ३२२॥ सर्गः सौधर्मदेवलोकस्योदीचीने तिर्यगध्वनि । तेनाऽऽययौ विमानेनाऽवतितीर्घमहीतले ॥३२३॥ अजित [चतुर्भिः कलापकम् ] आपूर्णो देवकोटीभिरखरोहन व्यराजत । बिमानः पालकः कल्पः, सौधर्म इव जङ्गमः॥ ३२४॥ | चरितम्। द्वीपाम्भोधीनसङ्ख्यातानलविष्ट क्षणादपि । तद् विमानवरं दिव्यं, वेगेनाऽतिमनोगति ॥ ३२५॥ । सौधर्ममिव भूमिष्ठ, देवक्रीडानिकेतनम् । नन्दीश्वरमहाद्वीपं, तद् विमानमथाऽऽसदत् ।। ३२६ ॥ सौधर्मेन्द्रातत्र दक्षिणपूर्वस्मिन् , शैले रतिकराभिधे । गत्वा पुरन्दरो वेगात् , तद् विमानं समेक्षिपत ॥ ३२७॥। गमनम् । सविपन् सविपन्नेवं, विमानं क्रमशो हरिः। जम्बूद्वीपस्य भरते, विनीतामाययौ पुरीम् ॥ ३२८ ॥ तत्र तेन विमानेन, स्वामिनः सूतिकागृहम् । स त्रिः प्रदक्षिणीचक्रे, खामिवत् स्वामिभूम्यपि ॥ ३२९॥ तस्योदक्पूर्वककुभि, स विमानमतिष्ठिपत् । हरिभ्राद् यानमिव, सामन्तो राजवेश्मनि ।। ३३०॥ ॥१९८॥ प्राविशत् सूतिकावेश्म, स्वामिनोऽथ पुरन्दरः । कुलीनकर्मकरवद्, भक्तितः सङ्घचत्तनुः॥ ३३१॥ तीर्थकृतीर्थकृन्मात्रोरप्यालोकितमात्रयोः । प्रणनाम सहस्राक्षो, धन्यमानी स्वचक्षुषाम् ॥ ३३२॥ तत्र प्रदक्षिणीकृत्य, स्वामिनं विजयां च सः। नमस्कृत्य च वन्दित्वा, चैवमूचे कृताञ्जलिः॥३३३॥ - सङ्क्षिप्तमकरोत् । २ कुलवान् किक्कर इव । Jain Education into For Private & Personal use only . Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intern नमस्ते कुक्षिणा रत्नधारिके ! विश्वपावनि ! | जगन्मातः ! सदालोकजगद्दीपप्रदायिनि ! ॥ ३३४ ॥ मातस्त्वमेका धन्याऽसि, द्वितीयस्तीर्थकृद् यया । विश्वोपकारी सुषुवे, पृथिव्या कल्पवृक्षवत् ॥ ३३५ ॥ अहं हि सौधर्मपतिः, स्वामिजन्म महोत्सवम् । कर्तुमत्राऽऽगमं मातर्न भेतव्यमतस्त्वया ॥ ३३६ ॥ इत्युदीर्य सहस्राक्षस्तदाऽपखापनीं ददौ । विकृत्य तीर्थकृद्रूपं, देव्याः पार्श्वे न्यधत्त च ॥ ३३७ ॥ ततः शक्रः क्षणाच्छक्रान्, विचक्रे चाऽऽत्मपञ्चमान्। एकधाऽनेकधा च स्युः, कामरूपा दिवौकसः ॥ ३३८ ॥ एकः सुरपतिस्तेषु, प्रोद्भिन्नपुलकाङ्कुरः । मनसेव शुचिर्भूत्वा, शरीरेणाऽपि भक्तितः ॥ ३३९ ॥ नमस्कृत्याऽनुजानीहीत्यभिधाय जिनेश्वरम् । गोशीर्षरसलिप्ताभ्यां कराब्जाभ्यामुपाददे || ३४० || [ युग्मम् ] द्वितीयः पृष्ठतः स्थित्वाऽऽतपत्रं स्वामिमूर्धनि । अधारयद् गिरिशिरः स्थितरीकेन्दुविभ्रमम् ॥ ३४९ ॥ विराञ्चतुरुभौ, पार्श्वतश्चामरे हरी । स्वामिदर्शनतः साक्षादात्तौ पुण्यचयाविव ॥ ३४२ ॥ एक उल्लालयन् वज्रं, प्रतीहार इवाऽग्रतः । ससर्प स्वामिनं पश्यन् किञ्चिद् वलितकन्धरः || ३४३ ॥ सामानिकाः पारिषद्याखायस्त्रिंशास्तथाऽपरे । परिवत्रुर्दिविषेदः, प्रभुं पद्ममिवाऽलयः || ३४४ ॥ भुवनस्वामिनं यत्नात्, पाणिभ्यां धारयन् हरिः । मेरुशैलं प्रत्यचालीजन्मोत्सवविधित्सया ।। ३४५ ॥ अनुवामि दधावेऽथ, पर्यस्यद्भिः परस्परम् | अहम्पूर्विकया देवैरनुगीतं मृगैरिव ॥ ३४६ ॥ स्वामिनं पश्यतां दूराद्, दृष्टिपातैर्दिवौकसाम् । फुल्लनीलोत्पलवनाकीर्णेन द्यौरजायत ।। ३४७ ॥ भूयो भूयो भगवन्तमुपेत्योपेत्य दूरतः । निरीक्षाञ्चक्रिरे देवाः, स्वधनं तर्द्धना इव ॥ ३४८ ॥ १ पूर्णिमा | २ देवाः । ३ भ्रमराः । ४ कृपणाः । सौधर्मेन्द्रेण पञ्चरूपेण प्रभोर्मेरौ नयनम् ॥ . Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते द्वितीयं पर्व द्वितीयः सर्ग: अजितनाथ ॥१९९॥ चरितम् । समापतन्तो युगपत् , सम्मर्दैन दिवौकसः । अन्योऽन्यमास्फलन्ति स्म, तरङ्गा इव वारिधः ॥ ३४९ ॥ गगने शक्रयानेन, गच्छतः खामिनः पुरः । पुष्पप्रकरतां भेजुर्ग्रह-नक्षत्र-तारकाः॥ ३५०॥ पुरुहूतो मुहूर्तान्तर्मेरुमूर्ध्नि ययौ शिलाम् । अतिपाण्डुकम्बलाख्यां, चूलादक्षिणतः स्थिताम् ।।३५१॥ रत्नसिंहासनोत्सङ्गे, खोत्सङ्गस्थापितप्रभुः। तत्र चोपाविशत् पूर्वाभिमुखः पूर्वदिक्पतिः ॥ ३५२ ॥ तदैवैशानकल्पेन्द्रोऽप्युद्भतासनकम्पतः । अज्ञासीदवधिज्ञानाच्छ्रीमत्सर्वज्ञजन्म तत् ॥ ३५३ ॥ शक्रवत् सोऽपि सन्त्यज्य, रत्नसिंहासनादिकम् । दत्त्वा पदानि सप्ताऽष्टान्यनमज्जगदीश्वरम् ॥ ३५४ ॥ तस्याऽऽज्ञया च सेनानीर्नाम्नाऽलघुपराक्रमः । घण्टामास्फालयामास, महाघोषां महास्वनाम् ॥३५५॥ विमानलक्षास्तन्नादोऽष्टाविंशतिमपूरि सः । उद्वेलजलधिध्वानस्तटाचलदरीरिव ॥ ३५६ ॥ देवास्तेषां विमानानां, तन्निनादेन चाऽबुधन् । प्रभातशङ्खध्वनिना, प्रसुप्ता इव भूभुजः ॥ ३५७ ॥ शान्ते तस्मिन् महाघोषाघण्टाघोषे चम्पतिः। पर्जन्यधीरध्वनितः, स एवं घोषणां व्यधात् ॥३५८ ॥ जम्बूद्वीपस्य भरते, विनीतायां पुरि प्रभुः। विजया-जितशत्वोस्तु, द्वितीयोऽजनि तीर्थकृत् ॥३५९॥ तस्य जन्माभिषेकाय, मेरौ यास्यति वः प्रभुः। तत्समं स्वामिना गन्तुं, त्वरचं हे दिवौकसः!॥३६०॥ इत्युच्चकै?षणया, सर्वे देवास्तदैव हि । मत्राकृष्टा इवाऽऽजग्मुरैशानपतिसन्निधौ ॥ ३६१॥ शूलपाणिरथेशान, उत्तरार्धदिवस्पतिः । रत्नभूषणभृद् रत्नसानुमानिव जङ्गमः ॥ ३६२ ॥ श्वेताम्बरधरः स्रग्वी, महावृषभवाहनः । सामानिकादिभिर्देवैः, कोटिशः परिवारितः ॥ ३६३ ॥ १ शक्रवाहनेन । २ इन्द्रः। ३ गिरिगुहा इव । ४ रत्नगिरिरिव । ईशानेन्द्रागमनम् । ॥१९९॥ Jain Education in For Private & Personal use only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमानं पुष्पकं नामाऽध्यारुह्य सपरिच्छदः । दक्षिणेनैशानकल्पस्याऽध्वना निरगाद् द्रुतम् ॥३६४ ॥ [त्रिभिर्विशेषकम् ]. असङ्ख्यातान् समुल्लञ्चय, द्वीपा-ऽम्भोधीन क्षणादपि । नन्दीश्वरमहाद्वीपं, प्रापैशानसुरेश्वरः ॥ ३६५ ॥ तत्र चोत्तरपूर्वमिन्, शैले रतिकरे निजम् । सञ्चिक्षेप विमानादि, हेमन्त इव वासरम् ॥ ३६६ ॥ क्रमेण सविपस्तत् तदकालक्षेपतो ययौ । सुमेरावन्तवासीव, पादान्तं जगदीशितुः॥३६७ ॥ सनत्कुमारोब्रह्मा च, शुक्रश्च प्राणतःसुरैः। घण्टां सुघोषामास्फाल्य, बोधितर्नैगमेषिणा॥३६८ शक्रवद् वर्त्मनोदीचा, नन्दीश्वरमुपेत्य च । अपाक्पूर्वे रतिकरे, विमानादि समक्षिपन् ॥ ३६९ ॥ ययुश्च मेरुशिरसि, शक्रोत्सङ्गे निषेदुषः। सन्निधाने भगवतो, नक्षत्राणि विधोरिव ॥ ३७०॥ महेन्द्रो लान्तकश्चापि, सहस्रारोऽच्युतोऽपि च । महाघोषाऽलघुपराक्रमाभ्यां बोधितामराः ३७१ ईशानवद् दक्षिणेन, पथा नन्दीश्वरं ययुः । उदक्पूर्वे रतिकरे, विमानादि समक्षिपन्॥३७२ युग्मम् अधिस्वामि ततो जग्मुः, काश्चनाचलमूर्धनि । पथिका इव सानन्दं, वनेऽधिफलपादपम् ॥ ३७३ ॥ पुयां चमरचश्चायां, दक्षिणश्रेणिभूषणे । सुधर्मायां चकम्पे च, चमरस्याऽऽसनं तदा ॥३७४ ।। सोऽपि ज्ञात्वाऽवधिज्ञानात, तीर्थजन्म पावनम् । गत्वा पदानि सप्ताष्टान्याननाम जिनेश्वरम् ॥३७५॥ आज्ञया तस्य सद्योऽपि, पत्त्यनीकपतिर्दुमः। घण्टामोघखरां नामाऽऽस्फालयामास सुखराम् ।। ३७६ ॥ शान्ते चौघखराघोष, तेन चाऽऽघोषणे कृते । असुराश्चमरं भेजुः, सायं द्रुमिव पक्षिणः ॥ ३७७॥ | १ कालक्षेपं विना। २ शिष्य इव । * माहेन्द्रोसङ्घ ३ संता०॥ ३ अधिकानि फलानि यत्रेतादृशं पादपं प्रति । नाम्नाऽऽ° सङ्घ॥ अजितजिनजन्मोत्सवार्थ चतुःषष्टेरिन्द्राणामागमनम् त्रिषष्टि. ३५ Jain Education Inter For Private & Personal use only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते। ॥२०॥ द्वितीयं पर्व द्वितीयः सर्ग: अजितसगरचरितम् । आभियोगिकदेवश्च, चमरेन्द्रस्य शासनात् । योजनार्धलक्षमान, विमानं व्यकरोत क्षणात ॥ ३७८ ॥ पञ्चयोजनशत्युच्चमहेन्द्रध्वजमण्डितम् । पोतः सकूपक इव, तद् विमानमराजत ॥ ३७९ ॥ चतुःषष्टिसहस्रैः स, समं सामानिकासुरैः । त्रयस्त्रिंशित्रायस्त्रिंशैश्चतुर्भिर्लोकपालकैः॥ ३८॥ परिवारसमेताभिर्महिषीभिश्च पञ्चभिः । तिसृभिः परिषद्भिश्च, महानीकैश्च सप्तभिः ॥ ३८१ ॥ सप्तभिश्चानीकनाथैः, सामानिकचतुर्गुणैः । आत्मरक्षैस्तथाऽन्यैरप्यसुराणां कुमारकैः ॥ ३८२॥ तद् विमानं समारुह्य, क्षणानन्दीश्वरं ययौ । विमानं खे रतिकरे, सश्चिक्षेप च शक्रवत् ॥ ३८३॥ प्रवाह इव जाह्नव्या, वेगात् पूर्वपयोनिधिम् । स ययौ स्वामिपादान्तं, मेरुपर्वतमर्धनि ॥ ३८४ ॥ . नगर्या बलिचञ्चायामुत्तरश्रेणिमण्डने । बलिश्चाऽऽसनकम्पेनाऽहजन्माऽवधिनाबुधत ॥ ३८५॥ तस्याऽऽदेशात् पत्त्यनीकपतिर्नाम्ना महाद्रुमः । द्राग् महोघखरां नाम, घण्टा त्रिःपर्यताडयत ॥३८६॥ घण्टानादे च विश्रान्ते, प्राग्वदाघोषणामसौ । अकार्षीदेसुरश्रोत्रसुधाश्रोतःसहोदराम् ।। ३८७ ॥ तया घोषणयाऽभ्येयुः, सर्वतोऽप्यसुरा बलिम् । अम्बुदस्येव नादेन, मानसं मानसौकसः ॥ ३८८ ॥ पूर्वसङ्ख्यैर्महिष्याधैर्युक्तः सामानिकैः पुनः । षष्टिसहस्रेस्तेभ्यश्चाऽऽत्मरक्षैस्तु चतुर्गुणैः ॥ ३८९ ॥ प्राग्मानेन विमानेन, प्राग्वदिन्द्रध्वजेन च । गत्वा नन्दीश्वररतिकरं मेरुशिरस्यगात ॥ ३९० ॥ घरणेन्द्रोहरिर्वेणुदेवश्चाऽग्निशिखस्तथा । वेलम्ब-सुघोष-जलकान्ताः पूर्णोऽमितोऽपि च ॥३९॥ नाग-विद्युत्-सुपर्णा-ऽग्नि-वायु-मेघ-सरस्वताम् । द्वीपानां च दिशांचेन्द्रा, दक्षिणश्रेणिगाः क्रमात् ।। . सेवकस्थानीयो देवः । २ असुरकर्णामृतप्रवाहसदृशाम् । ३ हंसाः । ४ पञ्चभिः । EXERCACANASANSAR अजितजिनजन्मोत्सवार्थ चतुःषष्टेरिन्द्राणामागमनम् ॥२०॥ Jain Education Inter For Private & Personal use only. Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S ARALA उदक्श्रेणेस्त्वमी भूतानन्दो हरिशिखस्तथा । वेणुदारी तथा चाऽग्निमाणवश्व प्रभञ्जनः॥३९३॥ महाघोषो जलप्रभो, वशिष्ठोऽमितवाहनः । सर्वेऽप्यासनकम्पेनाऽर्हजन्माऽवधिनाबुधन ॥३९४॥ ततश्च धरणादीनां, भद्रसेनैश्चमधवैः । भूतानन्दादीनां दक्षाभिधैर्घण्टास्त्रिराहताः ॥ ३९५॥ तत्र मेघखरा क्रौञ्च-हंस-म खरास्तथा । नन्दिखरा नन्दिघोषा, सुखरा मधुरवरा ॥३९६ ॥ मघोषा चेति घण्टा, नेदुस्तेषां यथाक्रमम् । नागादिकानां भवनपतीनां पक्षयोर्द्वयोः॥ ३९७ ॥ द्वयोरपि ततः श्रेण्योः, सर्वे नागादयः क्षणात् । खं स्वमिन्द्रं समाजग्मुः, खस्थानमिव वाजिनः॥३९८॥ तेषामप्याज्ञया खे खे, त्रिदशा आभियोगिकाः । रत्न-स्वर्णविचित्राणि, विमानानि तदैव हि ॥ ३९९ ॥ योजनानां पश्चविंशिसहस्रान विस्तृतानि च । सार्धद्वियोजनशतेन्द्रध्वजानि विचक्रिरे ॥ ४०॥ प्रत्येकं महिषीभिस्ते, पद्भिः सामानिकैस्तथा । षट्सहस्रैश्च तेभ्यश्चाऽङ्गरक्षैस्तु चतुर्गुणैः ॥ ४०१॥ अन्यैश्चमर-बलिवत , त्रायस्त्रिंशादिभिर्वृताः । विमानानि समारुह्य, मेरी खाम्यन्तिके ययुः ॥४०२॥ पिशाचानां च भूतानां,यक्षाणां रक्षसामपि। किन्नर-किम्पुरुषा-हि-गन्धर्वाणामधीश्वराः॥४०३ कालः सुरूपोऽथ पूर्णभद्रो भीमश्च किन्नरः। सत्पुरुषश्चाऽतिकायो, नाम्नागीतरतिस्तथा ॥४०४॥ दक्षिणश्रेणिगा एते, घुत्तरश्रेणिगास्त्वमी। महाकालोप्रतिरूपो, माणिभद्राभिधोऽपि च ॥४०५॥ महाभीमः किम्पुरुषो, महापुरुष एव च । महाकायो गीतयशा, द्वयेऽप्यासनकम्पतः ॥४०६॥ ज्ञात्वाऽर्हजन्म ते खैः खैः, सन्यनाथैर्निजां निजाम् । म स्वरांमञ्जुघोषां, घण्टामास्फालयन् क्रमात् ४०७| [पञ्चभिः कुलकम् ] * सेनानाथै सद्ध ।। Jan Education Intern For Private & Personal use only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरिते ॥२०१॥ Jain Education In शान्ते नादे च घण्टानां सेनान्या घोषणे कृते । व्यन्तरास्ते पिशाचाद्या, एयुरिन्द्रानिजान्निजान् ॥ ४०८ ॥ इन्द्राः परिवृता देवैरत्रायस्त्रिंश-लोकपैः । त्रायस्त्रिंश-लोकपा हि, नैषां चन्द्रा-र्कयोरिव ॥ ४०९ ॥ सामानिकसहस्रैस्तु, ते चतुर्भिः पृथक् पृथक् । सहस्रैरात्मरक्षाणां वृताः षोडशभिस्तथा ॥ ४१० ॥ विकृतानि विमानानि, खैर्देवैराभियोगिकैः । तेऽधिरुह्य समाजग्मुमैरौ भगवदन्तिके ॥ ४११ ॥ तथाऽणपन्निकादीनां दक्षिणश्रेणिवर्तिनाम् । उत्तरश्रेणिभाजां च पिशाचादिसुरेन्द्रवत् ||४१२ ॥ व्यन्तराष्टनिकायानां, सुरनाथाश्च षोडश । प्राग्वदासनकम्पेन, ज्ञात्वा जन्म जिनेशितुः ॥ ४१३ ॥ मञ्जुस्वरां मञ्जुघोषां, पृथगास्फाल्य सैन्यपैः । घोषणां कारयित्वा च, स्वैः स्वैश्च व्यन्तरैर्युताः ॥ ४१४ ॥ अधिरुह्य विमानानि, विकृतान्याभियोगिकैः । सामानिकादिभिः प्राग्वत्, सम्भूयैयुर्जिनान्तिकम् ॥ ४१५ ।। [ चतुर्भिः कलापकम् ] चन्द्रा - ssदित्यावसङ्ख्यातौ तद्वदात्तपरिच्छदौ । आजग्मतुर्जिनं मेरौ, पितरं तनयाविव ।। ४१६ ।। एवमिन्द्राश्चतुःषष्टिः, स्वतन्त्राः परतन्त्रवत् । भक्त्या समापतन्ति स्म, स्वामिजन्मोत्सवेच्छया ॥ ४१७ ॥ एकादश-द्वादशयोः, कल्पयोरथ वासवः । स्नात्रोपकरणायाऽऽभियोगिकानादिशत् सुरान् ॥ ४१८ ॥ तैर्दिश्युत्तरपूर्वस्यामपक्रम्याऽऽभियोगिकैः । विधायोच्चैः समुद्धातमेवं कुम्भा विचक्रिरे ।। ४१९ ॥ सौवर्णा राजता रात्नाः, स्वर्णरूप्यमया अपि । स्वर्णरत्नमयाश्चापि रूप्यरत्नमया अपि ॥ ४२० ॥ स्वर्णरूप्यरत्नमयास्तथा मृत्स्नामया अपि । अष्टाधिकानि प्रत्येकं शतानि दश सङ्ख्यया ।। ४२१ ।। १ सेनापतिभिः । २ मृण्मयाः । द्वितीयं पर्व द्वितीयः सर्गः अजित सगर चरितम् । मेरुशिरसि अच्युतेन्द्र विहितम जितजिन पूजनम् ॥२०१॥ . Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एतावन्तश्च भृङ्गारा, दर्पणा भाजनानि च । पात्र्यश्च सुप्रतिष्ठाश्च, तथा रत्नकरण्डकाः॥४२२॥ पुष्पचङ्गेरिकाश्चापि, प्रत्येकं तैर्विचक्रिरे । अकालक्षेपतः कोशागारादिव समाहृताः॥ ४२३ ॥ आदाय तांश्च ते देवाः, कलसानलसेतराः । सरसीवाऽम्बुहारिण्यो, ययुः क्षीरोदसागरे ॥४२४॥ उद्बुद्बुदरवैः कुम्भैरुन्मङ्गलरवैरिव । खैरं क्षीरोदकं तत्र, तेऽगृह्णन् जलदा इव ॥ ४२५ ॥ पुण्डरीकाणि पद्मानि, कुमुदान्युत्पलानि च । सहस्रपत्राणि शतपत्राण्याददिरे च ते ॥ ४२६ ॥ उपेत्य पुष्करोदेऽपि, तेऽम्बुधौ पुष्करादिकम् । भृशायमाना जगृहुर्तीपे सांयात्रिका इव ॥ ४२७ ॥ भरतैरवतक्षेत्रवर्तिनामुदकादिकम् । तीर्थानां मागधादीनामप्युपाददिरे सुराः ॥ ४२८॥ गङ्गादिषु इदिनीषु, पद्मादिषु इदेषु च । मृदम्भोजानि जगृहुः, सन्तप्ताः पथिका इव ।। ४२९ ॥ सर्वतः कुलशैलेभ्यो, वैताख्येभ्यश्च सर्वतः । सर्वतो विजयेभ्यश्च, वक्षारेभ्यश्च सर्वतः॥ ४३० ॥ देवोत्तरकुरुभ्यश्च, सुमेरुपरिधिस्थितात् । भद्रशालान्नन्दनाच्च, सौमनसाच्च पाण्डकात् ॥४३१॥ पर्वतेभ्यश्च मलय-दर्दुरादिभ्य ओषधीः । गन्धान पुष्पाणि सिद्धार्थास्तेऽगृहंस्तुवराणि च ॥ ४३२॥ [त्रिभिर्विशेषकम् ] तानि द्रव्याणि सर्वाणि, मेलयन्ति स्म नाकिनः। भेषजानीव भिपजो, गन्धानिव च गान्धिकाः ॥४३३॥ तदुपादाय ते सर्वमुपस्वामि समाययुः । अच्युतेन्द्रस्य मनसा, स्पर्द्धमाना इवाऽऽदरात् ॥ ४३४ ॥ ततश्च भक्तिभागिन्द्र, आरणा-ऽच्युतकल्पयोः। वृतः सहस्रर्दशभिः, सामानिकदिवौकसाम् ॥४३५॥ 1 अप्रमादिनः। २ नौव्यापारिणः । Jain Education in For Private & Personal use only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥२०२॥ द्वितीयं पर्व द्वितीयः सर्गः अजितसगरचरितम् । RESSOURCES ACROSTICHES त्रयस्त्रिंशत्रायस्त्रिंशैश्चतुर्भिर्लोकपालकैः । पर्षद्भिस्तिसृभिः सैन्यैः, सैन्यनाथैश्च सप्तभिः॥४३६ ॥ चत्वारिंशता सहस्रैश्चाऽऽत्मरक्षदिवौकसाम् । उत्तरासङ्गवानग्रे, विमुच्य कुसुमाञ्जलिम् ॥ ४३७॥ । कृतचर्चाश्चन्दनेन, सेराब्जपिहिताननान् । अष्टोत्तरं सहस्रं स, कुम्भान् देवैः सहाऽग्रहीत् ॥ ४३८ ।। तान् कुम्भान् लोठयामास, स्वामिमूर्धन्यथाऽच्युतः। भक्तिप्रकर्षतः कुर्वन्नात्मवन्नमिताननान् ॥४३९ ॥ खामिसङ्गात् तदम्भोऽगात, पुण्यमप्यतिपुण्यताम् । तापनीये बलङ्कारे, सुतरां द्योतते मणिः॥४४०॥ पानीयधारोद्गिरणान्नदन्तः कलसाश्च ते । स्वामिनावविधौ मत्रान् , पठन्त इव रेजिरे ॥ ४४१॥ कुम्भेभ्यो निपतंस्तेभ्योऽम्भःप्रवाहो महांस्तदा । स्वामिलावण्यसरितावेणीसङ्गमतां ययौ ॥ ४४२॥ अङ्गेषु स्वामिनः स्वर्णगौरेषु प्रसरत् पयः । तद् गाङ्गमिव हैमेषु, पद्मखण्डेष्वराजत ॥ ४४३ ॥ आ सर्वाङ्गं प्रसरता, निर्मलेनाऽतिहारिणा । वारिणा शुशुभे तेन, संसंव्यान इव प्रभुः॥ ४४४ ॥ तत्रेन्द्रेभ्यः सुरेभ्यश्च, केपि भक्तिभराकुलाः । उत्क्षिप्य स्नपयितृभ्यः, पूर्णकुम्भानुपानयन् ॥ ४४५ ॥ तस्थुश्याकराः केचित् , केचिच्चामरपाणयः । उद्धृपदहनाः केचित् , पुष्पगन्धभृतोऽपरे ॥ ४४६ ॥ पेठुः स्वात्रविधि केपि, केपि चक्रुर्जयारवम् । केचिच्च ताडयामासुर्दुन्दुभीन् कोणपाणयः ॥ ४४७॥ केऽप्युत्फुल्लकपोला-ऽऽस्यास्तारं शङ्खानपूरयन् । मिथ आस्फालयामासुः, कांस्यतालानथाऽपरे ॥ ४४८॥ आजघ्नुर्झल्लरीः केपि, रत्नदण्डैरखण्डितैः । केचिदुन्नादचण्डिरनो, डिण्डिमान् पर्यताडयन् ॥ ४४९ ॥ विकसितकमलाच्छादितमुखान् । २ सौवर्णे । ३ शब्दायमानाः। ४ सुवर्णकमलेषु गङ्गावारीव। ५ उत्तरीयेण सहित इव । ६ छत्रधारिणः । ७ यष्टिपाणयः । मेरुविरसि भव्युतेन्द्र विहितमजितजिनपूजनम् ॥२०२॥ Jain Education Intel For Private & Personal use only . Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नर्तकीवत् केऽप्यनृत्यन्नुच्चैस्ताललयानुगम् । ननृतुर्विकृतं केऽपि, हास्याय विटचेटवत् ॥ ४५०॥ गायनीवत् केऽप्यगायन् , प्रबन्धैः करणादिभिः । जगुर्गोपालवत् केचिदुच्छृङ्खलगलस्वरम् ॥ ४५१ ॥ द्वात्रिंशत्पात्रकं केपि, नाटकाभिनयं व्यधुः । केचिदप्युत्पतन्ति स्म, निपतन्ति स्म केचन ॥ ४५२ ॥ रलानि ववृषुः केपि, वपुः केऽपि काञ्चनम् । अवर्षन् भूषणान्येकेऽवर्षश्चूर्णानि केचन ॥ ४५३॥ ववृषुः केपि माल्यानि, पुष्पाणि च फलानि च । ववल्गुश्चतुरं केचित् , केचित् क्ष्वेडों च चक्रिरे॥४५४॥ हेषां विदधिरे केऽपि, चक्रिरे केऽपि हितम् । स्थघोषं व्यधुः केपि, नादास्त्रीन् केपि चक्रिरे ॥४५५॥ केपि चाचालयन् पार्ददर्दरैर्मन्दराचलम् । मेदिनी दलयामासुश्चपेटाभिश्च केचन ॥ ४५६ ॥ केचिदानन्दबहलं, मुहुः कोलाहलं व्यधुः । भ्रमन्तो मण्डलीभूय, जगुः केपि च रासकान् ॥ ४५७ ॥ कृत्रिमं जज्वलुः केपि, प्रणेदुः केपि कौतुकात् । अगजेंर्जितं केपि, विद्युत् केचिदद्युतन् ॥४५८॥ " एवं विचित्रमानन्दाच्चेष्टमानेषु नाकिषु । अच्युतेन्द्रो भगवतोऽभिषेकमकरोन्मुदा ॥४५९॥ शिरस्यञ्जलिमुत्तंससन्निभं विरचय्य सः। व्याजहार जय जयेत्युच्चैरव्याजभक्तिभाक् ॥ ४६०॥ वस्त्रेण देवदूष्येण, ममार्ज स्वामिनस्तनुम् । दक्षसंवाहक इव, सुखस्पर्शेन पाणिना ॥ ४६१ ॥ आनन्दं नाटयन्नुच्चै व्यं नट इवाऽच्युतः । पुरतस्त्रिजगद्भर्तुरभ्यनैषीत् सहामरैः ॥ ४६२॥ मोशीर्षचन्दनरसैः, स्वामिनोऽथ विलेपनम् । दिव्यभौमैश्च कुसुमैरची च विदधेऽच्युतः।। ४६३॥ १ हास्यकारकनटवत् । २ गायकीवत् । ३ सिंहनादम्। ४ अश्वनादम्। ५ हस्तिनादम् । ६ पादधातैः। करतलघातः। शिरोभूषणसदृशम् । ९ अङ्गसंवाहनकर्मणि चतुरः सेवक इव । Jain Education Intern For Private & Personal use only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते द्वितीयं पर्व द्वितीयः सर्गः ॥२०३॥ अजितसगरचरितम् । कुम्भो भद्रासना-ऽऽदी, श्रीवत्स-खस्तिकावपि । नन्द्यावों वर्धमानो, मत्स्य इत्यष्टमङ्गलीम् ॥ ४६४ ॥ अत्यच्छै रजतमयैरखण्डैरथ तण्डुलैः। आरणा-ऽच्युतकल्पेन्द्र, आलिलेखाऽग्रतःप्रभोः॥४६५॥ युग्मम् ]] भक्तिनिघ्नो जानुदप्नं, कुसुमप्रकरं ततः। अमुश्चत् पञ्चवर्ण स, सन्ध्याभ्रकणिकोपमम् ॥ ४६६॥ उत्तोरणामिव दिवं, कुर्वाणो धूमवर्तिभिः । उर्दूपदहनो धूपमधूपायदथाऽच्युतः॥४६७॥ उत्क्षिप्यमाणे धूपे च, वाद्यमानाऽमरोत्तमैः । सङ्क्षिसेव महाघोषा, घण्टा तारस्वरा बभौ ॥ ४६८॥ हरिरुत्तारयामासाऽऽरात्रिकं स्वामिने स्वयम् । उच्छिखामण्डलं ज्योतिर्मण्डलश्रीविडम्बकम् ॥ ४६९ ॥ ततः पदानि सप्ताष्टान्यपक्रम्य प्रणम्य च । रोमाञ्चितोऽच्युतपतिः, स्तोतुमेवं प्रचक्रमे ॥ ४७० ॥ जात्यजाम्बूनदच्छेदच्छविच्छन्ननभस्तल! प्रभो! तवाधौतशुचिः, कायः कमिव नाऽऽक्षिपेत॥४७१॥ मन्दारदामवन्नित्यमवासितसुगन्धिनि । तवाऽङ्गे भृङ्गतां यान्ति, नेत्राणि सुरयोषिताम् ॥ ४७२ ॥ . दिव्यामृतरसास्वादपोषप्रतिहता इव । समाविशन्ति ते नाथ !, नाऽङ्गे रोगोरगव्रजाः॥ ४७३ ॥ त्वय्यॊदर्शतलालीनप्रतिमाप्रतिरूपके । क्षरत्स्वेदविलीनत्वकथाऽपि वपुषः कुतः १ ॥ ४७४ ॥ न केवलं रागमुक्तं, वीतराग! मनस्तव । वपुःस्थितं रक्तमपि, क्षीरधारासहोदरम् ॥ ४७५ ॥ जगद्विलक्षणं किं वा, तवाऽन्यद् वक्तुमीश्महे ? । यदविप्रेमबीभत्सं, शुभ्रं मांसमपि प्रभो! ॥ ४७६ ॥ जल-स्थलसमुद्भूताः, सन्त्यज्य सुमनःस्रजः । तव निःश्वाससौरभ्यमनुयान्ति मधुव्रताः ॥ ४७७॥ , अतिस्वच्छैः। २ जानुप्रमाणम् । * उद्धृतदहनो सङ्घ १॥ ३ सुवर्णम् । ४ आदर्शतलप्रतिविम्बितप्रतिमासदृशे । ५ दुग्धधारासदृशम् । ६ दुर्गन्धरहितम् । ७ कुसुममालाः । मेरुशिरसि अच्युतेन्द्र विहितमजितजिनपूजनम् OSTOSKORO ॥२०॥ Jain Education a l For Private & Personal use only . Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Int लोकोत्तरचमत्कारकरी तव भवस्थितिः । यतो नाऽऽहार-नीहारौ, गोचरश्चर्मचक्षुषाम् ॥ ४७८ ॥ इति स्तुत्वा प्रभुं किञ्चिदपक्रम्य कृताञ्जलिः । शुश्रूषातत्परस्तस्थावच्युतो ऽच्युतभक्तिभाक् ॥ ४७९ ॥ इन्द्रा द्वाषष्टिरन्येऽपि, क्रमेण सपरिच्छदाः । अभिषेकं जगद्भर्तुश्चक्रुरच्युतनाथवत् ॥ ४८० ॥ तद्वत् स्तुत्वा नमस्कृत्याऽपक्रम्य च कृताञ्जलि । उपासाञ्चक्रिरे नाथं, तत्पराः किङ्करा इव ॥ ४८१ ॥ अथ सौधर्मकल्पेन्द्र, इव द्रागतिभक्तितः । विचक्रे पञ्चधाऽऽत्मानं, द्वितीयस्वर्गवासवः ॥ ४८२ ॥ अतिपाण्डुकम्बलायामर्धचन्द्रसमाकृतौ । ऐशानकल्पवत् सिंहासनमेकोऽथ शिश्रिये ॥ ४८३ ॥ शक्रोत्सङ्गानिजोत्सङ्ग, रथादिव रथान्तरम् । स समारोपयामास, यतमानो जगद्गुरुम् ॥ ४८४ ॥ आतपत्रं दधारैको विशदं स्वामिमूर्धनि । धारयामासतुश्चान्यौ, चामरे प्रभुपार्श्वयोः ॥ ४८५ ।। पञ्चमः शूलपाणिः सन्, पुरस्तस्थौ जगत्पतेः । प्रतीहार इवोदारेणाऽऽकारेण मनोरमः ॥ ४८६ ॥ ततः सौधर्मकल्पेन्द्रोऽप्यमरैराभियोगिकैः । अभिषेकोपकरणद्रव्याण्यानाययद् द्रुतम् ॥ ४८७ ॥ दिक्षु प्रभोवतसृषु, स्फटिकाद्री निवाऽपरान् । स्फाटिकान् सोऽतिचतुरचतुरो व्यकरोद् वृषान् ॥ ४८८ ॥ तेषां वृषाणां शृङ्गेभ्योऽष्टभ्य उत्पेतुरुज्वलाः । अष्टाम्बुधारा धवला, रश्मिदण्डा इवैन्दवाः ॥ ४८९ ॥ समुत्पत्य मिलन्ति स्म, पुरो नद्य इवैकतः । निपतन्ति स्म पयसां, पैत्याविव जगत्पतौ ।। ४९० ॥ अभिषेकं जगद्भर्तुरेवङ्कारं चकार सः । भङ्ग्यन्तरेण कविवच्छक्ताः खं ज्ञापयन्ति हि ॥ ४९१ ॥ मार्ष्टि विलेपनं पूजामष्टमङ्गलिकामपि । आरात्रिकं च विधिना, विदधे सोऽच्युतेन्द्रवत् ॥ ४९२ ॥ १ अतिदक्षः । २ समुद्रे | ३ मार्जनम् । मेरुशिरस सौधर्मेन्द्र विहितम जितजिनपूजनम् Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते द्वितीयं पर्व द्वितीयः सर्गः ॥२०४॥ शक्रस्तवेन वन्दित्वा, प्रणम्य च जगत्पतिम् । हर्षगद्गदया वाचा, स स्तोतुं प्रास्तवीदिति ॥ ४९३ ॥ - जय त्रिभुवनाधीश !, जय विश्वकवत्सल ! । जय पुण्यलतोद्भेदनवाम्बुद ! जगत्प्रभो! ॥ ४९४ ॥ स्वामिन् ! विमानाद् विजयादवतीर्णोऽसि भूतले । इदं जगत् प्रीणयितुं, सरिदोघ इवाचलात् ॥४९५॥ बीजं मोक्षद्रुमस्येव, ज्ञानत्रितयमुज्वलम् । स्वामिन्नाजन्मसिद्धं ते, शीतलत्वमिवाम्भसः॥ ४९६ ।। ये त्वां त्रिभुवनाधीश, धारयन्ति सदा हृदि । सम्मुखीनाः श्रियस्तेषामादर्शप्रतिबिम्बवत् ॥ ४९७॥ उल्वणैर्बाध्यमानानां, कर्मरोगैः शरीरिणाम् । दिष्ट्या त्वमगदङ्कारप्रतीकारकरोऽभवः ॥ ४९८॥ त्वद्दर्शनसुधासारास्वादस्य त्रिजगत्पते । मरुपान्था इव वयं, न तृप्यामो मनागपि ॥ ४९९ ॥ रथः सारथिनेवाऽद्य, कर्णधारेण नौरिव । पथा बजतु लोकोऽयं, त्वया नेत्रा जगत्पते ! ॥ ५००॥ त्वत्पादपद्मशुश्रूषासमयाधिगमेन नः । भगवन्निदमैश्वर्य, कृतार्थमधुनाऽभवत् ॥ ५०१॥ स्तुत्वैवमादिभिः श्लोकैरष्टोत्तरशतेन तम् । विचके पञ्चधा रूपं, प्राग्वत् प्राचीनबर्हिपा ॥५०२॥ नाथमेकोऽग्रहीच्छत्रमेको द्वावथ चामरे । वज्रपाणिः पुरस्तस्थावेकः शक्रस्तु पूर्ववत् ॥५०३॥ ततो मनोवत् स यथाकामीनः सपरिच्छदः । विनीतात्मा विनीतायां, जितशत्रुगृहं ययौ ॥५०४॥ तीर्थकृत्प्रतिरूपं स, संवत्रे तत्र तत्क्षणात । विजयावामिनीपार्श्वे, तीर्थनार्थ न्यधत्त च ॥ ५०५॥ उच्छीर्षे कुण्डलद्वन्द्वं, न्यधादर्केन्दुसोदरम् । देवदृष्यं च मसृणं, कोमलं शीतलं प्रभोः ॥५०६ ॥ दिवोऽवतरदभिं, वर्णप्राकारमण्डितम् । बबन्ध भर्तुरुल्लोचे, शक्रः श्रीदामगण्डकम् ॥५०७॥ * कारः, प्रति सच २ सङ्घ ३॥ १ इन्द्रेण । २ यथेच्छगामी । ३ नम्रात्मा। खिग्धम् । AUSTO OSASTOSSA अजित सगरचरितम्। मेरुधिरसि सौधर्मेन्द्रविहितमजितजिनपूजनम् ॥२०४॥ Jain Education Intel For Private & Personal use only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मणि-रत्नयुता हारा, अर्धहाराश्च हारिणः । हरिणा दधिरे तत्र, दृग्विनोदकृते प्रभोः॥५०८॥ तत्राऽपखापनी देव्या, विजयाया जहार सः। कुमुदिन्या इव शशी, पद्मिन्या इव चार्यमा ॥५०९॥ शक्रादिष्टवैश्रवणनिदेशेन दिवौकसः । जृम्भका नाम तत्रेयुर्जितशत्रुनिकेतने ॥ ५१०॥ हिरण्य-स्वर्ण-रत्नानां, कोटी त्रिंशतं पृथक् । ववृषुस्ते द्वात्रिंशतं, नन्दभद्रासनानि च ॥ ५११ ॥ व्यधुर्भूषणवृष्टिं च, मण्यङ्गा इव शाखिनः । वस्त्रवृष्टिमथाऽनना, इव कल्पमहीरुहाः॥५१२॥ वनानि भद्रशालादीन्यवचित्येव सर्वतः । पत्रवृष्टिं पुष्पवृष्टिं, फलवृष्टिं च ते व्यधुः॥५१३ ॥ विचित्रवर्णसुमनोमाल्यवृष्टिं महीयसीम् । वितेनिरे च चित्राङ्गनामकल्पद्रुमा इव ॥५१४॥ विदधुर्गन्धवृष्टिं च, चूर्णवृष्टिं च पावनीम् । उत्क्षिप्तैलादिकक्षोदा, इव दक्षिणमारुताः ॥५१५॥ अत्युदारां वसुधारावृष्टिं च परितेनिरे । वारिधारावृष्टिमिव, पुष्करावर्तवारिदाः ॥ ५१६ ॥ सौधर्मशासिनः पाकशासनस्याऽनुशासनात् । अथाऽऽभियोगिका देवा, इत्थमाघोषणां व्यधुः॥५१७॥ आकर्णयन्तु सर्वेऽपि, भो भो वैमानिकाः सुराः !। भवनाधिपति-ज्योतिय॑न्तराश्चाधानतः ॥५१८॥ अर्हतोऽर्हजनन्याश्च, योऽशुभं चिन्तयिष्यति । तन्मूर्धा सप्तधा गच्छत्वर्जकस्येव मञ्जरी॥५१९॥ तदा च मेरुशिखरात, सेन्द्राः सर्वे सुरा-ऽसुराः । द्वीपं कन्दलितानन्दा, नन्दीश्वरमुपाययुः॥५२०॥ भगवन्तं नमस्कृत्य, जितशत्रुनिकेतनात् । ययौ नन्दीश्वरद्वीपं, सौधर्मेन्द्रोऽपि तत्क्षणात् ॥५२॥ तत्राञ्जनाद्रौ पूर्वस्मिन् , शाश्वतायतनेषु सः। शाश्वतार्हत्प्रतिमानां, चकाराऽष्टाह्निकोत्सवम् ॥ ५२२ ॥ १ मनोहराः । २ सूर्यः। ३ सिंहासनविशेषाः। ४ सावधानतया। ५ पञ्छवितानन्दाः । सौधर्मेन्द्रेणाजितप्रभोः मातुः समीपे नयनम् Jain Education inte For Private & Personal use only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते द्वितीयं पर्व द्वितीयः पालाश्च तस्यापि, प्राग्वद् दानाचले । चतुर्पु तद्दधिमबाण, चक्रुर्दधिमुखेपुर सगे ॥२०५॥ अजितसगरचरितम्। सौधर्मेन्द्रस्य चत्वारो, लोकपालाश्चतुर्वपि । अष्टाह्निकोत्सवं हृष्टाश्चक्रुर्दधिमुखाद्रिषु ॥ ५२३ ॥ उत्तरसिन्नञ्जनाद्री, शाश्वतायतनेषु तु । ईशानेन्द्रः शाश्वताहत्प्रतिमाष्टाह्निकां व्यधात् ॥ ५२४ ॥ लोकपालाश्च तस्यापि, प्राग्वद् दधिमुखाद्रिषु । ऋषभादिप्रतिमानां, व्यधुरष्टाह्निकोत्सवम् ॥ ५२५॥ अष्टाह्निकां चमरेन्द्रश्चक्रेऽपाच्येऽञ्जनाचले । चतुर्पु तद्दधिमुखाद्रिषु तस्य तु लोकपाः ॥ ५२६ ॥ बलीन्द्रोऽष्टाह्निकां चक्रे, पश्चिमे त्वञ्जनाचले । तल्लोकपालाः शैलेषु, चक्रुदेधिमुखेषु तु ॥ ५२७॥ ततश्च सङ्केतस्थानादिव द्वीपवरात् ततः। कृतकृत्या निजनिजं, स्थानं जग्मुः सुरा-ऽसुराः॥५२८॥ । इतश्च तस्यां यामिन्यामन्वहद् वैजयन्त्यपि । सुखेन सुषुवे सूर्नु, गङ्गेव कनकाम्बुजम् ॥ ५२९ ॥ जाया-वध्वोस्तु विजया-वैजयन्त्योः परिच्छदः । पुत्रोत्पत्तिकिंवदन्त्या, जितशत्रुमवर्धयत् ॥५३०॥ तया च वार्तया तुष्टो, राजाऽदात् पारितोषिकम् । तथा यथा तत्कुलेपि, श्रीरभूत् कामधेनुवत् ॥५३१॥ घनागमे सिन्धुरिव, सिन्धुराडिव पर्वणि । स्फारीबभूव वपुषा, तदानीं मेदिनीपतिः ॥ ५३२॥ उच्छासं सह मेदिन्या, प्रसादं नभसा सह । आप्यायकत्वं मरुता, सह भेजे महीपतिः॥५३३॥ राज्ञा मुमुचिरे तेन, काराबन्धाद् द्विषोपि हि । अवाशिष्यत बन्धस्तु, तदेभादिषु केवलम् ॥ ५३४॥ चैत्येषु जिनबिम्बानां, पूजाश्च विदधेऽद्धताः । शाश्वतार्हत्प्रतिमानामिव शक्रो नरेश्वरः॥५३५॥ अर्थिनश्च स्वक-परानपेक्षं सोधिनोद् धनैः । सर्वसाधारणी वृष्टिारिदस्योद्यतस्य हि ॥ ५३६ ॥ उपाययुरुपाध्यायाः, पठन्तः सूतमातृकाम् । उल्ललद्भिः समं छात्रैर्वत्सः कीलोज्झितैरिव ॥ ५३७॥ १ वृत्तान्तेन । २ तृप्तत्वम् । ३ अतर्पयत् । ४ कीलकबन्धान्मुक्तः । जितशत्रुरानविहितोऽजितजिन-सगरचक्रिजन्मो सवः |॥२०५० Jain Education Internal For Private & Personal use only , Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते द्वितीय पर्व द्वितीयः सर्गः ॥२०६॥ अजितसगरचरितम् । पौरगन्धर्ववनितागीततालमनोरमम् । सङ्गीतकानि विदधर्विबुधानामिव स्त्रियः ॥५५०॥ ॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥ कौसुम्भेनोत्तरीयेण, चारुनीरैङ्गिकाजुपः । सन्ध्याच्छन्नपूर्वाशामुखलक्ष्मीमलिम्लुचाः ॥ ५५१॥ कौङ्कमेनाङ्गरागेण, विशेषितवपुःश्रियः । विकखराम्भोजवनपरागेणेव निम्नंगाः॥ ५५२ ॥ ईर्यासमितिशालिन्य, इव न्यसुख-लोचनाः। खशीलेनेवामलेन, नेपथ्येन विराजिताः॥५५३॥.. पुष्प-दुर्वासनाथानि, पूर्णपात्राणि पाणिषु । बिभ्राणाश्चाऽऽययुस्तत्र, पौरेभ्यकुलयोषितः ॥ ५५४॥ ॥चतुर्भिः कलापकम् ॥ अक्षतैरिव मुक्ताभिः, पात्राण्यापूर्य चारुमिः । सामन्ताः केचिदाजग्मुर्मङ्गलाय महीपतेः॥५५५॥ रत्नाभरणसम्भारानपरे परमर्द्धयः। जितशत्रोरुपनिन्युः, शंतमन्योरिवाऽमराः॥ ५५६ ॥ महाणि दुकूलानि, केचिदानिन्यिरे पुनः । व्यूतानि कदलीसूत्रैर्षिसमूत्ररिवाऽथवा ॥५५७ ॥ केचिच्च दौकयामासुः, स्वर्णराशिं महीपतेः। जम्भकामरनिर्मुक्तवसुधारासहोदरम् ॥ ५५८॥ दिग्गजानां युवराजानिव शौडीर्यशालिनः । मसाननेकपानेकेऽनेकशः पर्यढोकयन् ॥ ५५९ ॥ बन्धूनिवोचैःश्रवसः, सूर्याश्वानामिवाऽनुजान् । आनिन्युवाजिनो वाजवरिष्ठानपरे नपाः ॥५६॥.. राज्ञो वेश्माङ्गणं जज्ञे, विशालमपि सङ्कटम् । नृपोपायनयानेस्तैहृदयं प्रमदैरिव ॥ ५६१॥ प्रतीयेषोपायनानि, तेषां च प्रीतये नृपः। किं हि न्यूनं तस्य यस्य, देवदेवः स्वयं सुतः॥५६२ ॥ . . अवगुण्ठनम् । २ नद्यः । ३ सहितानि । ४ इन्द्रस्य । ५ वेगोत्तमान् । प्रतिजग्राह । जितशत्रुराजविहितोऽजितजिन-सगरचक्रिजन्मोत्सवः ॥२०६॥ Jain Education Inter For Private & Personal use only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदेशाद् भूपतेस्तस्य, तस्यां पुर्या तु जज्ञिरे । स्थाने स्थाने महामश्चा, विमानानीव नाकिनाम् ॥५६३॥ प्रत्यट्ट-गृहमासंश्च, तोरणा रत्नभाजनैः । स्थितैरायातदेवेभ्यो, ज्योतिष्कैरिव कौतुकात् ॥५६४ ॥ प्रतिरथ्यं रजःशान्त्यै, निषेकः कुङ्कुमाम्बुभिः । चक्रे विलेपनमिव, भुवो मङ्गलसूचकम् ॥ ५६५॥ पदे पदे नाटकानि, सङ्गीतानि पदे पदे । पदे पदे तूर्यनादाः, पौरैर्विदधिरे मुदा ॥ ५६६ ॥ अशुल्क-दण्डामभटप्रवेशामकरां च ताम् । महोत्सवमयीं राजा, दशाहं विदधे पुरीम् ॥ ५६७ ॥ शुभेऽहनि नरेन्द्रोऽथ, सुत-भ्रातृजयोस्तयोः । आदिशन्नामकरणोत्सवाय स्वनियोगिनः॥५६८॥ पटैर्धनानेकपुटैस्तदाऽतन्यत मण्डपः। भानोः करैरनाविष्टः, पार्थिवाज्ञाभयादिव ॥ ५६९ ॥ स्तम्मे स्तम्मे च कदलीस्तम्भास्तत्राऽशुभन् भृशम् । पुष्पकोशैर्वितन्वानाः, पद्मखण्डमिवाऽम्बरे ॥५७०॥ विचित्रैश्चक्रिरे तत्र, पुष्पैः पृष्पगृहाणि च । आश्रितानि श्रियाऽश्रान्तं, मधुकर्येव रक्तया ॥ ५७१ ॥ हंसरोमाश्चितैस्तूलपूर्णैर्दारुमयैरपि । स आसनैः सनाथोऽभून्मण्डपः खमिवोडुभिः॥५७२॥ मण्डपो नृपतेरेवं, सद्यश्चक्रेऽधिकारिभिः। विमानमिव शक्रस्य, विदशैराभियोगिकैः ॥५७३ ॥ ___ हर्षानराश्च नार्यश्च, मङ्गल्यद्रव्यपाणयः। तत्राऽऽयाता यथास्थानमुपावेश्यन्त वेत्रिभिः॥५७४॥ कौडमेनाङ्गरागेण, ताम्बूलैः कुसुमैरपि । सञ्चक्रिरे नियुक्तास्तान् , स्वबन्धूनिव गौरवात् ॥ ५७५ ॥ नेदुर्मङ्गलतूर्याणि, वर्याणि मधुरैः स्वरैः । उच्चरुमङ्गलगिरः, परितः कुलयोषिताम् ॥ ५७६ ॥ पवित्राः प्रादुरासंश्च, मत्रोद्वारा द्विजन्मनाम् । प्रारेभिरे च गन्धर्वैवर्द्धमानादिगीतयः ॥ ५७७ ॥ क्रियवस्तुमाझकरदण्डरहिताम् । जितशत्रुराजनिर्मितोऽजितजिन-सगरचक्रिणोनामकरणोत्सवः SWEEEEEEEEE ER Jain Education Inter For Private & Personal use only Al Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥२०७॥ *OSAA SOSIALISASSOS वैतालिकैरनुत्तालैश्चके जयजयारवः । उदारैस्तत्प्रतिरवैर्मण्डपोऽपि जगाविव ॥ ५७८ ॥ गर्भस्थितस्य माताऽस्य, नाऽक्षयूते जिता मया । इति सूनोरजित इत्यकान्निाम भूपतिः ॥५७९॥ महेन महता भ्रातुष्पुत्रस्यापि वपुत्रवत् । नरेश्वरः सगर इत्यकरोन्नाम पावनम् ॥ ५८०॥ उत्कृष्टलक्षणशतैरुपलक्ष्यमाणो, क्षोणीसमुद्धरणकर्मसहौ कुमारौ । राजा भुजाविव निजावपरौ प्रपश्यन् , पीयूषमग्न इव सौख्यमखण्डमाप ॥ ५८१ ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये द्वितीये पर्वणि अजितखामितीर्थकर-सगरचक्रधरजन्मवर्णनो नाम द्वितीयः सर्गः॥ द्वितीयं पर्व द्वितीय सर्ग: अजितसगरचरितम् । ASHISESEOSESSISSEASESORA ॥२०७॥ Jain Education Intern For Private & Personal use only I Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः अजितजिनसगरचक्रिणोोल्यलीला GREENASEENA धात्रीभिः पञ्चभिः शक्रादिष्टाभिरजितप्रभुः । अपाल्यत नराधीशादिष्टाभिः सगरः पुनः॥१॥ खपाणिपङ्कजाङ्गुष्ठे, सुरसङ्क्रमितां सुधाम् । पिबति माजितस्वामी, न ह्यहन्तः स्तनन्धयाः ॥२॥ सगरस्तु यथाकालं, धात्रीस्तन्यमनिन्दितम् । अपिबत् सारणीनीरमिवाऽऽराममहीरुहः ॥३॥ वृद्धिं शाखे इव तरोर्दन्ताविव च दन्तिनः । दिने दिने प्रपेदाते, तौ कुमारौ नरेशितुः ॥४॥ क्रमेण युगपच्चापि, तावुत्सङ्गं महीपतेः । समारुरुहतुः पञ्चाननपोतौ गिरेरिव ॥५॥ नितान्तमुग्धैः पितरौ, सिष्मियाते मितैस्तयोः। विसिष्मियाते सौजस्कैः, पादचङ्क्रमणैः पुनः ॥६॥ धात्रीभिर्धार्यमाणावप्युत्सङ्गे तौ न तस्थतुः। न केसरिकिशोराणां, पञ्जरे जात्ववस्थितिः ॥७॥ खच्छन्दं विचरन्तौ तौ, रभसादनुधाविनीः। खेदयामासतुर्धात्रीर्वयो गौणं महात्मनाम् ॥८॥ क्रीडाशुक-मयूरादीनाददाते विहङ्गमान् । राज्ञः कुमारौ तौ वेगादतिवायुकुमारकौ ॥९॥ गते प्रस्खलयामासुर्धात्र्यो विविधचाटुभिः । स्वच्छन्दचारिणौ बालौ, तौ भद्रकलभाविव ।। १०॥ दिव्यघर्घरका रेजुईयोरपि कुमारयोः । झणज्झणितिकुर्वाणाः, पदाब्जेष्वलयो यथा ॥११॥ तयोः कण्ठे निबद्धाऽभात् , स्वर्णरत्नललन्तिका । हृदि झलझलयन्ती, नभसीव तडिल्लता ॥ १२ ॥ तयोश्च क्रीडतोः खैरं, चले काश्चनकुण्डले । दधतुर्वारिसङ्क्रान्तनूतनादित्यविभ्रमम् ॥१३॥ १सिंहकिशोरको । २ आनाभि लम्बमाना माला । Jan Education inter For Private & Personal use only . Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरिते ॥२०८॥ Jain Education Intern चलतोवश्वले 'चूले, चकासामासतुस्तयोः । कैलापौ नूतनोद्भिन्नाविव बालकलापिनोः ॥ १४ ॥ अङ्कादङ्कं कौतुकेन, निन्याते राजभिश्व तौ । पद्मात् पद्मान्तरं राजहंसाविव महोर्मिभिः ॥ १५ ॥ उत्सङ्गे हृदये दोष्णोः, स्कन्धदेशे शिरस्यपि । तौ समारोपयामास, रत्नाभरणवनृपः ॥ १६ ॥ मधुव्रत इवाम्भोजं, भूयो भूयः शिरस्तयोः । आजिघ्रन् प्रीतिविवशो, नाऽनृप्यत् पृथिवीपतिः ॥ १७ ॥ राज्ञस्तावङ्गुलीलग्रावुभयोरपि पार्श्वयोः । विचरन्तौ विरेजाते, मेरोरिव दिवाकरौ ॥ १८ ॥ सततं चिन्तयामास, परमानन्दसुन्दरम् । तावात्म-परमात्मानौ, योगीव जगतीपतिः ॥ १९ ॥ तौ ददर्श मुहुर्वेश्मोद्भूतौ कल्पद्रुमाविव । मुहुश्च भाषयामास, राजा राजशुकाविव ॥ २० ॥ सहाऽऽनन्देन भूभर्तुः, सहेक्ष्वाकुकुलश्रिया । क्रमेण प्रतिपेदाते, तौ वृद्धिमधिकाधिकाम् ॥ २१ ॥ तत्राशेषाः कला न्याय, शब्दशास्त्रादि चापरम् । स्वयं जज्ञेऽजितखामी, त्रिज्ञाना हि खतो जिन्नाः ॥ १२ ॥ राज्ञा निर्दिष्टः सुदिने, महोत्सवपुरःसरम् । उपोपाध्यायमध्येतुमारे मे सगरः पुनः ॥ २३ ॥ शब्दशास्त्रादिशास्त्राणि, दिनैः कतिपयैरपि । अधिवत् सगरः सिन्धुसलिलानीव सागरः ॥ २४ ॥ साहित्यशास्त्रसर्वस्वमुपाध्यायादयत्ततः । सौमित्रिंशददे ज्योतिर्दीयो दीपान्तरादिव ॥ २५ ॥ साहित्यवल्लीकुसुमैः, काव्यैः कर्णरसायनैः । स वीतरागस्तत्रनैः, स्वां वाचमकृतार्थयत् ।। २६ ।। सम्यक् प्रमाणशास्त्राणि स प्रज्ञाप्रतिभार्णवः । अग्रही दविलम्बेन, स्वयंन्यस्तनिधानवत् ॥ २७ ॥ स्याद्वादवादोपन्यासैरमोघैः प्रतिवादिनः । विजिग्ये सगरः शत्रून्, जितशत्रुरिवेषुभिः ॥ २८ ॥ १ शिखे । २ पिच्छौ । १३ नदीनां जलानीव ४ सगरः । द्वितीयं पर्व तृतीयः सर्गः अजित सगर चरितम् । सगरचक्रिणो विद्याभ्यासः ॥२०८॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MERCEGOEN GANGI पाहुण्योपायशक्त्यादिप्रयोगोर्मिभिराकुलम् । अमाहिष्ट स दुर्गाहमर्थशास्त्रमहोदधिम् ॥ २९ ॥ सर्वोषधीरस-वीर्य-विपाकज्ञानदीपकम् । अप्यायुर्वेदमष्टाङ्गमध्यष्टाऽकष्टमेव सः ॥३०॥ चतुर्वाचं चतुर्वृत्ति, चतुर्धाभिवयात्मकम् । स तूर्यत्रयविज्ञाननिदानं शास्त्रमाददे ॥३१॥ दन्तघात-मदावस्था-ऽङ्गालक्षणचिकित्सितैः । बिनोपदेशैश्चाऽऽपूर्ण, सोऽज्ञासीद् गजलक्षणम् ॥ ३२॥ स वाहनविधि चाश्वलक्षणं सचिकित्सितम् । पाठतोऽनुभवतश्च, विदथे हृदयङ्गमम् ॥ ३३॥ धनुर्वेदमथाऽन्येषां, शस्त्राणामपि लक्षणम् । श्रुतमात्र लीलयापि, स खनामेव हृधधात् ॥३४॥ धनुषा फलका-सिभ्यां, छुर्या शल्येन पशुना । कुन्तेन भिन्दिपालेन, दया कम्पन च ॥३५॥ दण्डेन शक्त्या शूलेन, हलेन मुशलेन च । यष्टि पट्टिस-दुःस्फोट-मुघुण्डी-गोफणैरपि ॥ ३६॥ कायेन त्रिशूलेन, शङ्खना चापरैरपि । शौः शास्त्रानुमानेव, सोऽगात् सङ्घामकौशलम् ॥ ३७॥ ॥विभिर्विशेषकम् ।। सोऽभूत् सर्वकलापूर्णः, शशाङ्क इत्र पार्वणः । भूपरिव च गुणैर्विनयाकैरभूष्यत ॥ ३८॥ श्रीमानजितनाथोषि, यसिंस्तसिबपि क्षो । शक्रादिभिः सुरैर्भक्तिभाग्भिरेषमसेव्यत ॥ ३९ ॥ चिक्रीडः केचिदाणत्य, सवयोभूय नाकिनः। अजितखामिनस्तसल्लीलालोकनलालसाः॥४०॥ नोक्तिभिर्विचित्राभिश्चाटुमिश्च मुहुर्मुहुः । तं केप्यमापयंस्तद्वाक्सुधारसपिपासिताः ॥४१॥ आदेशाकासया भर्तुरसमादिशतः सतः। क्रीडाधूते पणीकृत्याऽऽदेशान् खं केऽप्यहारयन् ॥४२॥ . फलक 'ढाल' इति लोंके प्रसिद्धम् । Jain Education Internal For Private & Personal use only Ja Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयं पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते तृतीयः सर्ग: ॥२०९॥ अजितसगरचरितम् । प्रतीहार्यभवन् केचिन्मयभूवंश्च केचन । केऽप्युपानद्धर्यभूवंश्छत्र्यभृवंश्च केचन ॥४३॥ स्थगीवाह्यभवन् केचित्, प्रेष्य्यभूवंश्च केचन । अस्त्रधार्यभवन् केचिदमराः क्रीडतः प्रभोः॥४४॥ पाठं पाठं च शास्त्राणि, सगरोपि दिने दिने । स्वनियोग नियोगीवाऽजितेशाय व्यजिज्ञपत ॥४५॥ उपाध्यायेनाऽप्यभग्नान् , संशयान् सगरः सुधीः । पप्रच्छ स्वामिनं नाभिनन्दनं भरतेशवत ॥४६॥ मति-श्रुता-ऽवधिज्ञानैरजितखाम्यपि द्रुतम् । चिच्छेद तस्य सन्देहांस्तमांसीवेन्दुरंशुभिः॥४७॥ । त्रिभिर्यतैः समाक्रामन् , दृढासनपरिग्रहः । प्रसार्याऽदर्शयत् तस्मै, स व्यालमपि हस्तिनम् ॥४८॥ सपर्याणानपर्याणान् , शूकलानपि वाजिनः । तत्पुरो वाहयामास, धाराभिरपि पञ्चभिः ॥४९॥ राधावेधं शब्दवेधं, जलान्तर्लक्षवेधनम् । चक्रमृत्पिण्डवेधं च, बाणैः सोऽदर्शयत् प्रभोः॥५०॥ अदर्शयत् पादगति, फलकासिधरश्च सः। प्रविष्टः फलकमध्येऽभ्रमध्य इव चन्द्रमाः ॥५१॥ कुन्तं शक्तिं शर्वलां च, भ्रमयामास वेगतः। नभसि भ्राम्यदुद्दामविद्युल्लेखाभ्रमप्रदान् ॥५२॥ ! सर्वैरपि छरीस्थानः, सर्वचारीविचक्षणः। अदर्शयच्छरीविद्यां स नृत्यमिव नर्तकः॥५३॥ अजितस्वामिनेऽन्येषां, शस्त्राणामपि कौशलम् । अदर्शयद् गुरुभक्त्या, तक्षिादित्सया च सः॥५४॥ न्यूनं यत्किश्चिदप्यासीत् , कलासु सगरस्य तु । खामी तदशिषत् तादृक्, तादृशस्य हि शिक्षकः ॥५५॥ एवमात्मानुरूपं तो, चेष्टमानावुभावपि । आद्यं वयो ललचाते, ग्रामसीमामिवाऽध्वगौ ॥५६॥ समानचतुरस्रेण, संस्थानेनोपशोभितौ । वज्रऋषभनाराचाख्येन संहननेन च ॥ ५७ ॥ १ छत्रधारका अभूवन् । २ ताम्बूलकरण्डकः स्थगीत्युच्यते । ३ ताडनैः। ४ दुष्टम् । ५ उद्धतान् । ६ तच्छिक्षाग्रहणेच्छया । सगरचक्रिणो विद्याभ्यासः M॥२०९॥ Jain Education Inter For Private & Personal use only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेमद्युती सार्धचतुर्धनुःशतसमुच्छ्यौ । श्रीवत्सलाञ्छितोरस्कौ, रुचिरोष्णीषशालिनौ ॥ ५८॥ अथाऽऽपतुर्यौवनं तौ, वपुर्लक्ष्मीविशेषकम् । शरदं स्वप्रभाधिक्यकरी सूर्य-विधू इव ॥ ५९॥ ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ कुटिल-श्यामलैः केशैर्यमुनावीचिसोदरैः। तौ रेजाते ललाटेन, चाऽष्टमीचन्द्रबन्धुना ॥६॥ तयोः कपोलौ बभतुरादी काञ्चनाविव । नेत्रे च स्निग्ध-मधुरे, नीलोत्पलदलोपमे ॥ ६१॥ दृक्सरस्योरन्तराले, तयोः पालीव नासिका । शुशुभाते चोष्ठपुटे, युग्मबिम्बीफले इव ॥ ६२॥ तयोः श्रुती शुभावर्ते, रेजतुः शुक्तिके इव । रेखात्रयपवित्रश्च, कम्बुवत् कण्ठकन्दलः ॥ ६३॥ तयोश्च बाहुशिखरौ, कुम्भिकुम्भाविवोन्नतौ । अभातामायती पीनौ, भुजौ भुजगराजवत् ॥ ६४ ॥ तयोरुरःस्थलमपि, स्वर्णशैलशिलानिभम् । मनोवदतिगम्भीरा, नाभिश्च प्रत्यभासत ॥६५॥ कृशश्च कुलिशस्येव, मध्यदेशस्तयोरभूत् । महाकरिकराकारावूरू सरल-कोमलौ ॥ ६६ ॥ ऍणीजङ्घाप्रतिरूपे, जङ्घाकाण्डे पुनस्तयोः । ऋज्वॉलिदलौ पादौ, स्थलपद्मानुहारिणौ ॥ ६७ ॥ निसर्गेणापि तौ रम्यौ, यौवनेन विशेषतः । बभूवतुर्मधुनेवाऽऽरामौ रामाजनप्रियौ ॥ ६८॥ . सगरः सर्वमत्र्येभ्यः, सुरेभ्य इव वासवः । उदकृष्यत रूपेण, विक्रमादिगुणैरपि ॥ ६९॥ अजितेशः पुनः सर्वकल्पदेवेभ्य उच्चकैः । ग्रैवेयकनिवासिभ्योऽनुत्तरेभ्यश्च सर्वतः ॥७॥ आहारकशरीरादप्यत्यरिच्यत रूपतः। शैलेभ्य इव सर्वेभ्यो, मानतो मेरुपर्वतः॥७१ ॥ युग्मम् ॥ १ शुशुभाते। २ गजकुम्भौ। ३ वज्रस्येव । ४ मृगीजङ्घासहशे। ५ वसन्तेन । | अजितजिनसगरचक्रिणोयौवनं पाणिग्रहणं च Jain Education Inter For Private & Personal use only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1964 त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते ॥२१॥ सः - - जितशत्रनरेन्द्रोऽथ, महेन्द्रश्चाजितप्रभुम् । नीरागमपि वीवाहकर्मणे स्वयमचतुः ॥७२॥ द्वितीयं पर्व उपरोधात् तयोः स्खं च, कर्म भोगफलं विदन् । तद्वाचमजितस्वामी, तथेति प्रत्यपद्यत ॥७३॥ तृतीयः श्रियो मृर्त्यन्तराणीव, शतशोऽथ स्वयंवराः । तेन राजा राजकन्या, महा पर्यणाययत् ।। ७४॥ देवकन्योपमा राजकन्यकाः सगरेण च । पुत्रोद्वाहोत्सवावृप्त्योदवाहयदिलापतिः ॥ ७५॥ अजितअजितोऽपीन्द्रियै रेमे, रामाभिरजितप्रभुः । भोग्यकर्म क्षपयितुं, यथाव्याधि हि मेषजम् ॥ ७६॥ सगरनानाविधाभिः क्रीडाभिः, क्रीडास्थानेष्बनेकशः । रामाभिः सगरोस्त, करेणुभिरिव द्विषः॥ ७७॥ चरितम् । ___ समं भ्रात्रा भवोद्विग्नो, जितशत्रुनृषोऽन्यदा । सम्पूर्णाष्टादशपूर्वलक्षौ पुत्रावदोऽवदत् ॥ ७८॥ बत्सौ! सर्वेऽपि नः पूर्वे, पूर्वलक्षाणि कान्यपि । थरित्रीं विधिवत् त्रात्वा, पुत्रेषु च निधाय ताम् ॥७९॥ता अजितजिननिर्वाणसाचने हेतुभूतमाददिरे व्रतम् । तदेव हि निजं कार्य, परकार्यमतः परम् ॥ ८॥ राज्याभिषेक आवामपि ग्रहीष्यावः, कुमारौ ! सम्प्रति व्रतम् । स्वकार्यस्य ह्ययं हेतुरेष वंशक्रमश्च नः॥१॥ तत्पितुर्दीततो राज-युवराजावावामिव युवामिह । भवतं चाऽनुजानीतमद्य प्रव्रजनाय नौ ।। ८२ ॥ अथोवाचाऽजितस्वामी, तात! युक्तमिदं हि वः। ममापि युज्यते विनः, कर्म भोगफलं न चैत ॥३॥ अन्यस्यापि व्रतादाने, न विनाय विवेकिनः । किं पुनस्तातमिश्राणामहं समयसाधिनाम् ॥८४॥ ॥२१०॥ पितुः पुमर्थ तुर्य यो, भक्त्याऽपि हि निषेधति । सुतव्याजाद् द्विषन्नेव, स हि तसोदपवत ॥ ८५॥ १ अजितस्वामिना सह । २ जितशत्रुः । ३ राजा । ४ न जितः। ५ रोगानुरूपम् । ६ मोक्षसाधने। सङ्केतितकाले| | आराधनाकारिणाम् । ८ पुनमिषात् । NAR Jain Education . Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथापि प्रार्थ्यसे तात!, लघुतातोऽस्तु राज्यभृत् । विनयी हि लघुभ्राता, पुत्रादप्यतिरिच्यते ॥८६॥ सुमित्रोऽप्यभ्यधादेवं, स्वामिपादानहं न हि । त्यजामि राज्यमादातुं, कोऽल्पहेतोबहु त्यजेत् ॥८७॥ राज्यादप्यतिसाम्राज्याचक्रवर्तिपदादपि । देवत्वादपि विदुषां, गुरुसेवा गरीयसी ॥ ८८॥ अथोचेऽजितनाथस्तं, राज्यमादित्ससे न चेत् । तात! भावयतिर्भूत्वा, तथाप्यास्व सुखाय नः ॥ ८९॥ जितशत्रुरपि स्माऽऽह, बन्धो ! निर्बन्धकारिणः । सूनोर्मन्यस्व वचनं, भावतोऽपि यतिर्यतिः ॥९॥ साक्षादयं तीर्थकरोऽस्यैव तीर्थे तवेप्सितम् । सेत्स्यतीति प्रतीक्षस्थाऽत्युत्सुको वत्स! मास भूः ॥११॥ एकस्य धर्मचक्रित्वं, चक्रित्वमपरस्य च । सूनोः पश्यन् लप्स्यसे त्वं, सुखं सर्वसुखाधिकम् ॥ ९२॥ व्रतोत्सुकोऽपि तद्वाचं, सुमित्रः प्रत्यपद्यत । सतां ह्यलक्या गुर्वाज्ञा, मर्यादोदन्वतामिय ॥९३॥ जितशत्रुरथ प्रीत, उत्सवेन महीयसा । अजितस्वामिनो राज्याभिषेकमकरोन स्वयम् ॥ ९४॥ मुमुदे मेदिनी सर्वा, तस्य राज्याभिषेकतः। विश्चत्राणक्षमे नेता का प्रीयते न हि? || ९५ ॥ यौवराज्ये च समरमजितखाम्यपि न्यधात् । द्वैतीयीकीमिष निजा, तेनूमतनुसौहृदः॥९६ ॥ श्रीमानजितनाथोऽपि, जितशत्रोस्तदैव हि । ऋया महत्या विधिवञ्चक्रे निष्क्रमणोत्सवम् ॥ ९७॥ ऋषभखामितीर्थस्थस्थविराणामथान्तिके । जितशत्रुः परिव्रज्या, शिश्रिये मुक्तिमातरम् ।। ९८॥ बहिरङ्गानिव जयनन्तरङ्गानरीस्ततः । अखण्डितं राज्यमिव, पालयामास स व्रतम् ॥ ९९ ॥ उत्पत्रकेवलज्ञानः, शैलेशीध्यानमास्थितः । क्षीणाष्टकर्मा स प्राप, क्रमेण परमं पदम् ॥१०॥ १ समुद्राणां मर्यादा इव । २ शरीरम् । Jain Education Inter For Private & Personal use only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिपष्टि शलाका पुरुषचरिते ॥२११॥ Jain Education Inter इतश्चाजितनाथोऽपि, सनार्थः सकलर्द्धिभिः । सलीलं पालयामास, खापत्यमिव मेदिनीम् ॥ १०१ ॥ तस्यावतो वसुमतीमपि दण्डादिभिर्विना । ययुः प्रजा वर्त्मनैव, रेथ्या इव सुसारथेः ॥ १०२ ॥ धान्यानामेव निष्पेषः, पशूनामेव बन्धनम् । मणीनामेव वेधोऽपि, तूर्याणामेव ताडनम् ॥ १०३ ॥ स्वर्णानामेव सन्तापः, शस्त्राणामेव तेजनम् । शालीनामेवोत्खननं, स्त्रीभ्रुवामेव वक्रता ॥ १०४ ॥ शारीणामेव हननं, क्षेत्रोर्व्या एव दारणम् । पक्षिणामेव निक्षेपः, काष्ठपञ्जरमन्दिरे ॥ १०५ ॥ रुजामेव निग्रहश्चाऽब्नानामेव जडैस्थितिः । अगरोरेव दहनं, श्रीखण्डस्यैव घर्षणम् ॥ १०६ ॥ दधिष्वेव प्रमथनमिक्षुष्वेव निपीडनम् । अलिष्वेव मधुपती, गजेष्वेव मदोदयः ॥ १०७ ॥ प्रणयेष्वेव कलहोऽपवादेष्वेव भीरुता । गुणगणेष्वेव लोभः स्वदोषेष्वेव चाऽक्षमा ॥ १०८ ॥ प्रजामयूरीपर्जन्ये, प्रार्थनाकल्पपादपे । समभूद जितखामिनृपे शासति मेदिनीम् ॥ १०९ ॥ ॥ सप्तभिः कुलकम् ॥ भेजिरे भूभुजः पत्तिमानिनो मानिनोऽपि तम् । दासन्ति वन्यमणयः सर्वे चिन्तामणेः पुरः ॥ ११० ॥ न दण्डनीतिं प्रायुङ्क, भ्रूभङ्गमपि न व्यधात् । वशगा भूरभूत् तस्य, सुभगस्येव कामिनी ॥ १११ ॥ आचकर्ष श्रियो राज्ञां स स्वैस्तेजोभिरूर्जितैः । किरणैरुष्णकिरणो, वारीणि सरसामिव ॥ ११२ ॥ तस्य वेश्माङ्गणभ्रुवो, बभूवुः प्रतिवासरम् । नरेन्द्रोपायनेभानां, पङ्किला मदवारिभिः ॥ ११३ ॥ १ सहितः । २ अश्वाः । ३ अब्जपक्षे जले स्थितिः । ४ मद्यपानत्वम् । ५ आत्मानं पत्तिं मन्यमानाः । ६ मानयुक्ताः । ७ सूर्यपक्षे चन्द्राणाम् । ८ सूर्यः । द्वितीयं पर्व तृतीयः सर्गः अजित सगर चरितम् । अजितप्रभो राज्यवैभवः । ॥२११॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितजिनस्य दीक्षासंकल्पः चतुरं विक्रममाणैरीशितुस्तस्य वाजिभिः । वाह्यालीभूमिवत् सर्वाः, समाचक्रमिरे दिशः॥११४ ॥ अजितवामिनः सैन्ये, पत्तीनामसामपि । सङ्ख्यां कर्तुमलं कश्चिन्नोमीणामिव वारिधौ ॥११५॥ निषोदिनः सादिनच, रथिनः पत्तयोऽपि च । बभूवुः प्रक्रियामात्रं, भर्तुर्दोर्वीर्यशालिनः ॥ ११६ ॥ अद्वैतेऽपि स ऐश्वर्ये, जातु नोत्सेकमादधे । न चाऽवलेपमकरोदतुलेऽपि हि दोबले ॥ ११७ ॥ रूपे चाप्रतिरूपेऽपि, नेशः सुभगमान्यभूत । लाभेन विपुलेनापि, न भेजे चोन्मदिष्णुताम् ॥ ११८ ॥ अन्यैरपि मदस्थानैर्नाऽऽससाद मदं विभुः । तृणाय प्रत्युतामस्त, सर्व जानननित्यताम् ॥ ११९॥ ॥त्रिभिर्विशेषकम् ॥ एवं च पालयन राज्यं, कौमारात् प्रभृति प्रभुः। त्रिपञ्चाशत्पूर्वलक्षी, सुखमेवाऽत्यवाहयत् ॥ १२० ॥ विसृज्याऽन्येधुरास्थानी, रहास्थानमुपेयिवान् । ज्ञानत्रयधरः स्वामी, स्वयमेवमचिन्तयत् ॥ १२१॥ अद्यापि हि कियद् भुक्तप्रायभोगफलैरपि । स्वकार्यविमुखैः स्थेयमस्माभिर्गृहवासिभिः ॥१२२॥ | त्रातव्योऽयं मया देशो, रक्षणीयमिदं पुरम् । वासनीयास्त्वमी ग्रामाः, पालनीया इमे जनाः॥१२३॥ वर्द्धनीया हस्तिनोऽमी, पोषणीया इमे हयाः। भरणीया अमी भृत्यास्ताश्चामी वनीपंकाः॥१२४॥ पोष्या अमी सेवकाच, रक्ष्याचामी शरण्यगाः।सम्भाष्याः पण्डिताश्थामी, सत्कार्याः सुहृदस्त्वमी ॥ १२५ ॥ अनुग्राह्या मत्रिणोऽमी, उद्धार्या बन्धवोऽप्यमी । रञ्जनीयास्त्वमी दारा, लालनीयास्त्वमी सुताः ॥१२६॥ इति प्रतिक्षणमपि, परकार्यैः समाकुलः । क्षपयत्यखिलं जन्मी, मानुषं जन्म निष्फलम् ॥ १२७ ॥ १ रथानाम् । २ गजवाहाः। ३ अश्ववाराः । ४ अभिमानम् । ५ गर्वम् । ६ अनन्यसमाने । ७ सभाम् । ८ याचकाः ।। त्रिषष्टि. ३७ Jain Education Intern For Private & Personal use only T Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिपष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥२१२॥ द्वितीय पर्व तृतीयः सर्गः अजितसगरयो. श्वरितम् । GLOCALCARDCORRECARDCORROREOGREEMECOM पुमानेषां च कार्येण, युक्तायुक्तमचिन्तयन् । विमूढः पशुवन्नानापापानि विदधाति हि ॥ १२८॥ येषामर्थे च पापानि, विधत्ते मुग्धधीर्जनः । ते तं मृत्युपथे यान्तं, नानुयान्ति मनागपि ॥ १२९ ॥ इहैव तेऽवतिष्ठन्ते, यदि तिष्ठन्तु तन्ननु । अहो ! शरीरमप्येतन्नाऽनुयाति पदात् पदम् ॥ १३०॥ ततः शरीरकस्यापि, कृतघ्नस्य कृते मुधा । मुग्धैर्विधीयते हन्त !, पापकर्म शरीरिभिः ॥१३१॥ एक उत्पद्यते जन्तुरेक एव विपद्यते । कर्माण्यनुभवत्येकः, प्रचितानि भवान्तरे ॥ १३२ ।। अन्यैस्तेनार्जितं वित्तं, भूयः सम्भूय भुज्यते । स त्वेको नरकक्रोडे, क्लिश्यते निजकर्मभिः ॥१३३ ॥ दुःखदावाग्निभीष्मेसिन, वितते भवकानने । बम्भ्रमीत्येक एवाऽसौ, जन्तुः कर्मवशीकृतः ॥ १३४ ॥ यद् दुःखं भवसम्बन्धि, यत् सुखं मोक्षसम्भवम् । एक एवोपभुङ्क्ते तन्न सहायोऽस्ति कश्चन ॥ १३५॥ यथैवैकस्तरन् सिन्धुपारं व्रजति तत्क्षणात् । न तु हृत्पाणि-पादादिसंयोजितपरिग्रहः ॥ १३६ ॥ तथैव धन-देहादिपरिग्रहपराङ्मुखः । स्वस्थ एको भवाम्भोधिपारमासादयत्यसौ ॥१३७॥ इति चिन्तापरं नाथं, भवनिर्विष्णचेतसम् । सारस्वतादयो लोकान्तिका एत्याऽब्रुवन् सुराः॥१३८॥ खयं बुद्धोऽसि भगवन्नसाभिन हि बोध्यसे । किन्त्विदं स्मार्यते विश्वनाथ ! तीर्थं प्रवर्तय ॥ १३९ ॥ इत्युदीर्याजितखामिपादान् नत्वा च ते तदा । ब्रह्मलोकं ययुः सायं, स्वनीडमिव पक्षिणः ॥१४॥ आत्मचिन्तानुकूलेन, तेन तद्वचसा प्रभोः । ववृधे भववैराग्यं, पौरस्त्यमरुताऽब्दवत् ॥१४१॥ ततः सगरमाहूय, जगाद त्रिजगद्गुरुः । गृह्यतां राज्यभारो नः, संसाराब्धि तितीर्षताम् ॥ १४२ ॥ । सञ्चितानि। २ पुनः पुनः भ्रमति । ३ पूर्व दिग्वायुना मेघो यथा वर्धते तद्वत् । अजितजिनस्य दीक्षासंकल्पः ॥२१२॥ Jain Education Intel For Private & Personal use only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रविव्रजिषोरजितस्याने सगरस्य प्रार्थना EOSISESSASSOSASSASSA इत्युक्तोऽजितनाथेन, श्यामास्योऽश्रूणि पातयन् । एकैकबिन्दुवर्षीव, वारिदः सगरोऽब्रवीत् ॥१४३॥ ___ अभक्तिः किं मया देव!, विदधे देवपादयोः। आत्मनो मां पृथक् कर्तुमद्य येनैवमादिशः ॥१४४॥ अभक्तिर्वाऽस्तु विहिता, नाप्रसादाय साऽपि हि । पूज्यैरभक्तोऽपि शिशुः, शिष्यते न तु हीयते ॥१४५॥ किं नामाऽभ्रंलिहेनापि, छायाहीनेन शाखिना। किं वा समुन्नतेनापि, वृष्टिहीनेन वार्मुचा ? ॥१४६॥ किं वा निर्झरहीनेन, तुङ्गेनापि महीभृता ? । किं वा लावण्यहीनेन, सुरूपेणाऽपि वर्मणा ? ॥१४७॥ किं वा गन्धविहीनेन, पुष्पेणापि विकासिना? । अनेन त्वविहीनेन, राज्येनापि हि किंमम ॥१४८॥ ॥त्रिभिर्विशेषकम् ॥ निर्ममस्य निरीहस्य, मुमुक्षोरपि ते सतः। प्रभो! पादौ न मोक्ष्यामि, का राज्यादानसङ्कथा?॥१४९॥ राज्यं पुत्राः कलत्राणि, मित्राण्यथ परिच्छदः । तृणवत् सुत्यजं सर्व, त्वत्पादौ दुस्त्यजौ तु मे ॥१५०॥ राजीभवति नाथाऽहं, युवराज्यभवं यथा । त्वयि व्रतधरे शिष्यीभविष्याम्यधुना तथा ॥ १५१॥ गुरुपादाम्बुजोपास्तितत्परस्य दिवानिशम् । शैक्षैस्य भैक्षमपि हि, साम्राज्यादतिरिच्यते ॥ १५२ ॥ भवं तरिष्याम्यज्ञोऽपि, भवत्पादावलम्ब्यहम् । गोपुच्छलग्नो हि तरेन्नदीं गोपालबालकः ॥१५३ ॥ दीक्षां सह त्वयाऽऽदास्ये, विहरिष्ये सह त्वया । दुःसहांश्च सहिष्येऽहं, त्वया सह परीपहान् ॥ १५४॥ त्वया सहोपसर्गाश्च, सहिष्ये त्रिजगद्गुरो!। कथञ्चिदपि न स्थास्याम्यहमत्र प्रसीद मे ॥ १५५ ॥ अथेत्थमजितवामी, सेवावकिसङ्गरम् । सगरं व्याजहारातिपीयूषोद्गारया गिरा ।। १५६ ॥ १ शिक्ष्यते। २ मेघेन । ३ शरीरेण । ४ शिष्यस्य । ५ सेवानियद्धप्रतिज्ञम् । Jain Education a l . Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते द्वितीयं पर्व तृतीया सर्गः अजितसगरयोश्वरितम् । ॥२१३॥ युक्त एवाऽऽग्रहो वत्स !, संयमग्रहणं प्रति । किन्तु भोगफलं कर्म, क्षीयतेऽद्यापि ते न हि ॥ १५७॥ भुक्त्वा भोगफलं काहमिव त्वमपि स्वयम् । मोक्षस्य साधकतमं, गृह्णीयाः समये व्रतम् ॥ १५८॥ युवराज ! ततो राज्यं, गृहाणेदं क्रमागतम् । वयं संयमसाम्राज्यमुपादास्यामहे पुनः॥१५९॥ इत्युक्तः स्वामिना सोऽथ, मनस्येवमचिन्तयत् । भर्तुर्विरहभीराज्ञाभङ्गभीश्च दुनोति माम् ॥१६॥ दुःखाय स्वामिविरहस्तदाज्ञातिक्रमश्च मे । इति द्वयं विमृशतो, गुर्वाज्ञापालनं वरम् ॥१६१॥ इत्थं विचार्य मनसा, सगरो गद्गदस्वरः । तथेति स्वामिनो वाचं, प्रतिपेदे महामतिः॥१६२॥ ततो नरेश्वरवरः, सगरस्य महात्मनः । सद्यो राज्याभिषेकार्थमादिदेश नियोगिनः॥१६३ ॥ अथाऽऽनीयत पानीयं, स्नानीयं तीर्थसम्भवम् । कुम्भैरम्भोरुहच्छन्नलघूभूतहदैरिव ॥ १६४॥ अभिषेकोपकरणद्रव्याण्यन्यान्यपि क्षणात् । व्यापारिभिरढौक्यन्त, प्राभृतानीव राजभिः ॥१६५ ॥ प्रतापेष्विव मूर्तेषु, समायातेषु राजसु । आगतेषु च मत्रेणाऽतीन्द्रमत्रिषु मत्रिषु ॥ १६६ ॥ उपेतेषु चम्पालेष्वाशापालेष्विवाऽऽज्ञया । मिलितेष्वेककालं च, हर्षोत्तालेषु बन्धुषु ॥ १६७ ॥ हस्त्यश्वसाधनाध्यक्षप्रभृतिष्वपरेष्वपि । उपस्थितेषु युगपदुत्थायैकगृहादिव ॥ १६८॥ शङ्खष्वापूर्यमाणेषु, नादनिर्झरसानुषु । आहतेषु मृदङ्गेषु, मेघसब्रह्मचारिषु ॥ १६९ ॥ कोणराहन्यमानेषु, दुन्दुभिष्वानकेषु च । प्रतिशब्दैः सर्वदिशां, मङ्गलाध्यापकेष्विव ॥ १७॥ आस्फलत्सु मिथः कांस्यतालेषूमिष्विवाऽम्बुधेः । झणझणायमानासु, झल्लरीषु च सर्वतः॥ १७१।। १ अतिक्रान्तबृहस्पतिषु। २ दिक्पालेषु। ३ सेनापतिः। ४ मेघसदृशेषु । ।' सगरस्य राज्याभिषेक ॥२१३॥ Jain Education Intern . Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितस्य वार्षिक दानम् अपरेष्वपि तूर्येषु, पूर्यमाणेषु केषुचित् । केषुचित् ताड्यमानेष्वास्फाल्यमानेषु केषुचित् ॥ १७२ ॥ गन्धर्वेषु च गायत्सु, शुद्धगीतानि सुखरम् । आशिषो भाषमाणेषु, ब्रह्मवैतालिकादिषु ॥ १७३ ॥ सौवस्तिकप्राग्रहरैरजितखामिशासनात् । राज्याभिषेको विधिवत्, सगरस्य व्यधीयत ॥ १७४ ॥ ॥नवभिः कुलकम् ॥ प्रणेमुः सगरं सर्वे, नृप-सामन्त-मत्रिणः । उदयन्तमिवाऽऽदित्यमुद्यताञ्जलयो जनाः ॥१७५॥ उपेत्य पौरप्रवरा, वरोपायनपाणयः । भक्त्या तमुवीनेतारं, नवमिन्दुमिवानमन् ॥ १७६ ॥ स्वामिना न वयं त्यक्ता, मृर्त्यन्तरमिदं निजम् । नेतारं कुर्वताऽस्माकमित्यूचुर्मुदिताः प्रजाः॥१७७॥ भगवानजितेशोपि पारेमेऽथ कृपार्णवः । प्रदातुं वार्षिकं दानं, वर्षाब्द इव वर्षितुम् ॥ १७८॥ आज्ञप्ता वासवेनाऽथ, प्रेरिता धनदेन च । तिर्यग्ज़म्भकनामानस्तत्रोपेयुर्दिवौकसः॥१७९ ॥ अथ भ्रष्टानि नष्टानि, प्रक्षीणखामिकानि च । परितो नष्टकेतूंनि, प्रणष्टाधिपतीनि च ॥१८॥ गिरिकन्दरवर्तीनि, श्मशानस्थानगानि च । भवनान्तरगुप्तानि, तत्राऽऽजहुर्धनानि ते ॥१८१॥ युग्मम् ॥ शृङ्गाटेषु चतुष्केषु, चत्वरेषु त्रिकेषु च । प्रवेश-निर्गमोव्यां च, पुञ्जीचक्रुश्च तानि ते ॥ १८२॥ त्रिके त्रिके पथि पथि, चत्वरे चत्वरेऽपि च । एतद् गृहीत वस्खेवं, घोषणां स्वाम्यकारयत् ॥ १८३॥ यो यद् ययाचे तत् तस्मै, ददौ वसु जगत्पतिः। सूर्योदयात् समारभ्य, निषण्णो भोजनावधि ॥१८४॥ कोटिरेका हिरण्यस्य,लक्षैः समधिकाष्टभिः। अर्थिभ्यो विश्वनाथेन, दीयते स दिने दिने ॥१८५॥ पुरोहितश्रेष्ठैः। २ राजानम् । ३ नष्टस्वामिकानि। ४ नष्टचितानि । Jan Education inte For Private & Personal use only . Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयं पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते तृतीया सर्गः ॥२१४॥ अजितसगरयोचरितम् । ततश्चाऽदत्त वर्षेण, हेम्नः कोटिशतत्रयम् । अष्टाशीति तथा कोटीर्लक्षाशीति तथा प्रभुः॥१८६॥ अनुभावेन कालस्य, स्वामिनश्च प्रभावतः । यथेप्सितप्रदानेऽपि, नाधिकग्राहिणोऽभवन् ॥ १८७॥ कृपाधनो धिनोति स्म, धनैरेवं धरां प्रभुः। चिन्तामणिरिवाऽचिन्त्यमहिमा वत्सरावधि ॥ १८८॥ । अथ वार्षिकदानान्ते, शक्रस्याऽचलदासनम् । अवधिज्ञानतोऽज्ञासीत, स च दीक्षाक्षणं विभोः ॥१८९॥ चचाल च हेरिर्देवैः, समं सामानिकादिभिः । दीक्षाक्षणे भगवतः, कर्तु निष्क्रमणोत्सवम् ॥१९॥ विमानै रचयन्नाशाः, सञ्चरन्मण्डपा इव । उत्तुङ्गवारणवरैरुत्पतत्पर्वता इव ॥ १९१ ॥ आक्रामन् व्योम तुरगैस्तरङ्गैरिव सागरः । आघट्टयन् रविरथं, रथैरस्खलितस्सदैः॥ १९२॥ नभस्तलं तिलकयन, किङ्कणीमालभारिभिः। ध्वजांशुकैश्च दिग्दन्तिकर्णतालानुहारिभिः ॥ १९३॥ गीयमानोऽमरैः कैश्चिद्, गान्धारग्रामबन्धुरम् । स्तूयमानस्तथा कैश्चित, सत्काव्यकुलकर्नवैः॥ १९४ ॥ कैश्चिद् विज्ञप्यमानश्च, मुखदत्तपटाञ्चलैः । संसार्यमाणः कैश्चिच्च, प्राक्तनीस्तीर्थकृत्कथाः॥ १९५॥ पवित्रितां खामिपादैर्मन्यमानोऽधिकां दिवः । दिवस्पतिरुपेयाय, विनीतानगरी क्षणात् ॥ १९६ ॥ अन्येऽप्यासनकम्पेन, ज्ञात्वा दीक्षाक्षणं विभोः। सुरेन्द्रा असुरेन्द्राश्च, विनीतां तद्वदाययुः ॥ १९७॥ तत्राऽच्युताद्या देवेन्द्रा, नरेन्द्राः सगरादयः । दीक्षाभिषेकं विदधुः, क्रमेण परमेशितुः॥१९८॥ वाससा देवदृष्येण, वपुः स्नानजलाविलम् । ममार्ज शको माणिक्यमिव वैकेटिकाग्रणीः ॥ १९९॥ गन्धकार इवाऽऽयुक्तो, वज्रपाणिः खपाणिना । चर्चयामास रुचिरैरङ्गरागैजेंगद्गुरुम् ।। २००॥ दीक्षासमयम् । २ इन्द्रः । ३ अकुण्ठितवेगैः । * पद्भिः कुलकम् सङ्घ १ सङ्घ ३॥ ४ आईम् । ५ मणिकारमुख्यः । CARRIAGARCANCIAGAR अजितजिनप्रवज्यामहोत्सवः ॥२१४॥ Jain Education in Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवदष्याण्यदष्याणि, जगन्नाथेन तत्क्षणे । वासांसि वासयामास, वासवो वासनावसुः ॥२०१॥ मुकुटं कुण्डले हार, केयूरे कङ्कणे अपि । अपरानप्यलङ्कारान् , नाथेनाऽग्राहयद्धरिः ॥ २०२॥ प्रसूनदामभिर्दिव्यैः, सनाथीकृतकुन्तलः । तृतीयेनेव नेत्रेण, तिलकेनालिके विभान् ॥ २०३॥ देवीभिर्दानवीभिश्च, मानवीभिश्च सर्वतः । विचित्रभाषामधुरं, गीतोपक्रान्तमङ्गलः ॥२०४॥ सूतैरिव स्तूयमानः, सुरा-सुर-नरेश्वरैः । व्यन्तरैः कृतधृपार्षः, स्वर्णधूपघटीधरैः॥ २०५॥ " सकुरण्टकेन श्वेतातपत्रेण महीयसा । विराजमानः शिरसि, हदेनेव हिमाचलः ॥ २०६॥ वीज्यमानोऽमरैश्चारुचामरैः पार्श्वयोर्द्वयोः । वेत्रिणेव विनीतेन, दत्तहस्तो बिडौजेसा ॥ २०७॥ हर्ष-शोकविमूढेन, सगरेण महीभुजा । अनुकूलानिलेनेवाऽन्वीयमानोऽश्रुवर्षिणा ॥ २०८॥ परितः पावयन् पादैः, स्थलाम्भोजनिभर्भुवम् । सहस्रवाह्यामारोहच्छिविकां सुप्रभां प्रभुः ॥ २०९॥ ॥ सप्तभिः कुलकम् ॥ उदासे शिविका पूर्व, नरैर्विद्याधरैस्ततः । देवैस्तदनु खे खेर्टविमानभ्रमदायिनी ॥ २१ ॥ तैरुत्क्षिप्ताऽम्बरतलेऽनुद्धातगतिशालिनी । यानपात्रमिवाऽम्भोधौ, सा स्वामिशिविका बभौ ॥ २११॥ तत्र सिंहासनासीनं, चामराभ्यां जगत्प्रभुम् । वीजयामासतुरुभौ, सौधर्मशानवासवौ ॥ २१२ ॥ प्रचचाल जगन्नाथो, विनीतामध्यवर्मना । वरो वधूपाणिमिव, दीक्षामादातुमुत्सुकः ॥ २१३ ॥ चलन्तश्चलताडङ्काश्चलहाराश्चलाञ्चलाः । शिविकावाहिनो रेजुश्चलाः कल्पद्रुमा इव ॥ २१४ ॥ १ अदूषितानि । २ धर्मरूपा वासना एव वसुर्यस्य सः। ३ ललाटे । ४ बन्दिजनैः। ५ इन्द्रेण । ६ देवः। ७ प्रतिघात| वर्जितया गत्या राजमाना। ८ चलकुण्डलाः। ९ चलवस्त्राञ्चलाः। For Private & Personal use only , Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय पर्व त्रिषष्टिबलाकापुरुषचरिते तृतीयः । सर्गः ॥२१५॥ अजितसगरयोश्चरितम् । काचन प्रस्खलन्तीपु, सदा सहचरीष्वपि । काश्चिद् वक्षःस्थलास्फालाद्धारेषु प्रत्रुटत्स्वपि ॥ २१५॥ अंसाद् विस्रंसमानेषूत्तरीयेष्वपि काश्चन । काश्चिच्छ्न्यीभवद्वारेष्वपि गेहाङ्गणेषु च ॥ २१६॥ काश्चिद् देशान्तरादिष्टातिथिष्वभ्यागतेष्वपि । पुत्रजन्मोत्सवे सद्यः, समुत्पन्नेऽपि काश्चन ॥२१७ ॥ काश्चित् तत्कालमुद्वाहलग्नकालेऽप्युपस्थिते । काश्चन स्नानोपनतेष्वपि स्नानीयवस्तुषु ॥ २१८॥ गृहीताचमनाः काश्चिदर्धभुक्तेऽपि भोजने । काश्चिदर्थोपयुक्तेऽपि, कालप्राप्ते विलेपने ॥ २१९ ॥ कुण्डलादिष्वलङ्कारेष्वर्धामुक्तेषु काश्चन । स्वामिनिष्क्रमणोदन्तेऽर्धश्रुतेऽपि हि काश्चन ॥२२०॥ धम्मिल्लान्तः काश्चिदर्धबद्धे कुसुमदामनि । अधिभालस्थलं काश्चित् , तिलकेऽर्धकृतेऽपि हि ॥ २२१॥ गृहकर्तव्यमत्रेषु, काश्चिदोदितेष्वपि । काश्चिदर्घकृतेष्वेव, नित्यनैमित्तिकेष्वपि ॥ २२२ ॥ सम्भ्रमात् पादचारेण, यानेषूपस्थितेष्वपि । उपेयुः खामिनं द्रष्टुं, पौर्यो भक्तिपवित्रिताः ॥ २२३ ॥ ॥नवभिः कुलकम् ॥ क्षणमग्रे क्षणं पृष्ठे, क्षणं चोभयपार्श्वयोः। यूथपस्येव कलभाः, पौरास्तस्थुर्जगत्प्रभोः॥ २२४ ॥ अट्टानारुरुहुः केचित् , कुट्टिमानि च केचन । प्रासादाग्राणि केचित् तु, मश्चाग्राणि च केचन ॥२२५॥ केपि प्राकारशृङ्गाणि, केपि द्रुशिखराणि च । केऽप्युच्चैः सिन्धुरस्कन्धान् , स्वामिदर्शनकाम्यया ॥२२६॥ ॥ युग्मम् ॥ अञ्चलांश्चालयामासुः, काश्चिच्चामरलीलया । लाजान् प्रचिक्षिपुः काश्चिद्धर्मबीजमिवाऽवनौ ॥ २२७॥ अर्धपरिहितेषु । २ कबरीमध्ये। ३ गृहकार्यविचारेषु । ४ गजस्येव । ५ गजस्कन्धान् । | अजितजिन प्रव्रज्यामहोत्सवः AARRRrrrrr ॥२१५॥ For Private & Personal use only Jain Education in Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAISUUSASSASSASSAGE* आरात्रिकं सप्तशिखं, काश्चिद् वह्निमिवोद्दधुः । पूर्णपात्राण्यधुः काश्विद्, यशांसीव पुरः प्रभोः ॥२२८॥ पूर्णकुम्भान् दधुः काश्चिन्मङ्गलानां निधीनिव । खे सन्ध्याभ्रनिभं चक्रुः, काश्चिद् वस्त्रावतारणम् ॥ २२९॥ मङ्गलानि जगुः काश्चिन्नृत्यन्ति स च काश्चन । रुचिरं जहसुः काश्चिन्मुदिताः पौरयोषितः ॥ २३० ॥ | ॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥ व्योमापि व्यानशे भक्तैर्विद्याधर-सुरा-ऽसुरैः । इतस्ततो धावमानैः, सौपर्णेयकुलैरिव ॥ २३१ ॥ इन्द्राणां च चतुःषष्टे व्यानीकैरनेकशः। नाटकान्यभ्यनीयन्त, स्वाम्यग्रे धन्यमानिभिः॥ २३२ ॥ सङ्गीतकानि गन्धर्वसैन्या अपि बिडौजसाम् । ओजायमाना युगपञ्जायमानमुदो व्यधुः ॥ २३३ ॥ सगरानुजीविनोऽपि, जायाजीवाः पदे पदे । पात्रैर्विचित्रैर्नाट्यानि, दिविषत्स्पर्धया व्यधुः ॥ २३४ ॥ अयोध्यामण्डनं राजगन्धर्वरमणीजनाः । विश्वदृग्दृष्टिबन्धन्ति, प्रेक्षणीयानि चक्रिरे ॥ २३५॥ तदा च दिव्यैौंमैश्च, नाट्यसङ्गीतकखरैः । रोदःकुक्षिम्भरिरभूदुत्तालस्तुमुलध्वनिः ॥ २३६ ॥ अनेकनृप-सामन्त-महेभ्यानां प्रचारिणाम् । सम्मर्दत्रुटितहारैरासन् शर्करिला भुवः॥ २३७॥ दिव्यानामथ भौमानां, मत्तानां वरदन्तिनाम् । मदाम्भोभिरजायन्त, राजमार्गाश्च पङ्किलाः ॥२३८॥ सुरा-ऽसुर-नरैः सर्वैर्मिलितैः स्वामिनोऽन्तिके । एकाधीशतया रेजे, त्रिलोक्यप्येकलोकवत् ॥ २३९॥ अत्यन्तदक्षिणो लोकदाक्षिण्येन जगत्पतिः। प्रतीयेष निरीहोऽपि, मङ्गलानि पदे पदे ॥२४॥ सम्भूय गच्छतस्तत्र, सुरानपि नरानपि । समप्रसादया दृष्ट्याऽनुजग्राह जगद्गुरुः ॥ २४१॥ गरुडसमूहैः । २ नर्तकाः । ३ शर्करायुक्ताः। Jain Education i , n For Private & Personal use only al Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयं पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते तृतीयः ॥२१६॥ सर्ग: अजितसगरयोचरितम् । सुरा-ऽसुर-नरैरेवं, क्रियमाणमहोत्सवः। सहस्राम्रवणं नाम, प्रापोद्यानं क्रमात प्रभुः॥ २४२॥ कुसुमामोदमत्तालिश्रेणिदुःसञ्चरान्तरैः। परितः कृतवृतिकं, सन्ततः केतकीद्वमैः ॥ २४३ ॥ वण्ठैरिवं महेभ्यानां, नागराणां कुमारकैः । रिरंसुभिर्माय॑मानमहीरुहलतान्तरम् ॥ २४४ ॥ मुहुः कुरुबका-ऽशोक बकुलादिमहीरुहाम् । क्रीडाप्रसङ्गात् पौरीभिः, पूर्यमाणोरुदोहदम् ॥ २४५॥ विद्याधरकुमारैश्च, निषद्य पथिकैरिव । आचम्यमानसुस्वादुसारणीवारि कौतुकात् ॥ २४६ ॥ अभ्रंलिहेषु वृक्षेषु, कृतास्पदमनेकशः। क्रीडया खेचरद्वन्द्वैर्विहङ्गमिथुनैरिव ॥ २४७॥ परागैर्दिव्यकर्पूर-कस्तूरीक्षोदसोदरैः । अकर्कशैर्गुल्फदग्नैर्विश्वक् सिकतिलावनि ॥ २४८॥ राजादन-नागरङ्ग-करुणमारुहां तले । दुग्धेनोद्यानपालीभिः, पूर्यमाणालवालकम् ॥ २४९ ॥ विचित्रसन्दर्भविधौ, सस्पर्धाभिः परस्परम् । पुष्पैर्मालिकबालाभिरारब्धोद्दामदामकम् ॥ २५०॥ दिव्यतल्पा-ऽऽसनामत्रेष्वपि सत्सु कुतूहलात् । शयाना-ऽऽसीन-भुञ्जानजनं रम्भादलेवलम् ॥ २५१॥ फलप्राग्भारभारावनम्रपालम्बमण्डलैः । चुम्ब्यमानावनितलं, विविधैरवनीरुहैः ॥ २५२॥ सहकाराङ्कराखादादश्रान्तमवकोकिलेम् । दाडिमाखादनोन्मत्तशुककोलाहलाकुलम् ॥ २५३ ॥ एकच्छायं क्षितिरुहैर्वर्षात्रैरिव सन्ततैः । प्रविवेश तदुद्यानं, भगवानजितप्रभुः ॥ २५४ ॥ ॥द्वादशभिः कुलकम् ॥ ततश्च शिविकारत्नादुत्ततार जगद्गुरुः । स्थादिव रथी सिन्धुमुत्तरीतुं भवं स्वयम् ।। २५५॥ - कृतवेष्टनम् । २ विना वेतनेन कार्यकरा वण्ठाः । ३ गुल्फप्रमाणैः । ४ मालाकारकन्याभिः । ५ अवष्टं कोकिलाभिः। अजितजिनप्रव्रज्यामहोत्सवः ॥२१६॥ Jain Education Intel For Private & Personal use only , Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितप्रभोः प्रव्रज्या उज्झाञ्चकार तदनु, रत्नालङ्करणादिकम् । रत्नेत्रितयमादित्सुघुसदामपि दुर्लभम् ॥ २५६ ॥ देवंदृष्यं देवराजेनोपनीतमदूषितम् । सोपंधि धर्ममादेष्टुं, जगत्पतिरुपाददे ॥ २५७॥ कृतषष्ठतपा माघस्योनले नवमीदिने । रोहिणिऋक्षगे चन्द्रे, सप्तच्छदतरोस्तले ॥ २५८॥ सायाहन्यजितवामी, मुष्टिभिः पञ्चभिः कचान् । स्वयमुत्पाटयामास, रागादीनिव सर्वतः ॥२५९ ॥ ॥ युग्मम् ॥ सौधर्मेन्द्रः प्रतीयेष, खोत्तरीयाश्चलेन तान् । प्रसाददत्तार्थमिव, पुष्कलं वरिवस्यकः ॥ २६०॥ सहस्राक्षः क्षणेनापि, स्वामिनस्तान् शिरोरुहान् । क्षीरोदे प्राक्षिपत् पूजामिव सांयात्रिकः स्वयम् ॥२६॥ तत्रैत्य वेगात् तुमुलं, सुरा-ऽसुर-नृणां हरिः । न्यषेधन्मुष्टिसंज्ञातो, मौनमत्रमिव सरन् ॥ २६२॥ कृत्वा सिद्धनमस्कार, सामायिकमुदीरयन् । प्रभुश्चारित्रमारोहन्मोक्षमार्गमहारथम् ॥ २६३ ॥ सोदर्यमिव दीक्षाया, युग्मजातं तदैव हि । ज्ञानं तुरीयमुत्पेदे, मनःपर्ययमीशितुः ॥ २६४ ॥ अपि नारकजन्तूनां, क्षणं सुखमभूत् तदा । जगत्रये च प्रद्योत, उद्दयोत इव वैद्युतः ॥ २६५ ॥ नृपाः सहस्रं जगृहुस्ततो दीक्षामनुप्रभु । स्वामिपादानुगमनव्रतानामुचितं ह्यदः ॥ २६६ ॥ । अथ प्रदक्षिणीकृत्य, जगन्नाथं प्रणम्य च । एवमारेभिरे स्तोतुमच्युताद्याः पुरन्दराः ॥ २६७ ॥ पट्टभ्यासादरैः पूर्व, तथा वैराग्यमाहरः । यथेह जन्मन्याजन्म, तत् सात्मीभावमागमत् ॥ २६८ ॥ दुःखहेतुषु वैराग्यं, न तथा नाथ ! निस्तुषम् । मोक्षोपायप्रवीणस्य, यथा ते सुखहेतुषु ॥ २६९ ॥ १ ज्ञानदर्शनचारित्ररूपं । २ सवस्त्रमिति भावः। ३ नक्षत्रगे। ४ जग्राह । ५ सेवकः । ६ सहजातम् । ७ उज्ज्वलम् । Jain Education Internet For Private & Personal use only C w w.jainelibrary.org Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिपष्टि शलाका पुरुषचरिते ॥२१७॥ Jain Education Intern विवेकशाणैर्वैराग्यशस्त्रं शातं तथा त्वया । यथा मोक्षेऽपि तत् साक्षादकुण्ठितपराक्रमम् ॥ २७० ॥ यदा मैरुन्नरेन्द्र श्रीस्त्वया नाथोपभुज्यते । यत्र तत्र रतिर्नाम, विरक्तत्वं तदापि ते ॥ २७१ ॥ नित्यं विरक्तः कामेभ्यो, यदा योगं प्रपद्यसे । अलमेभिरिति प्राज्यं, तदा वैराग्यमस्ति ते ।। २७२ ॥ सुखे दुःखे भवे मोक्षे, यदौदासीन्यमीशिषे । तदा वैराग्यमेवेति, कुत्र नाऽसि विरागवान् १ ।। २७३ ।। दुःखगर्भे मोहगर्भे, वैराग्ये निष्ठिताः परे । ज्ञानगर्भ तु वैराग्यं, त्वय्येकायनतां गतम् ॥ २७४ ॥ औदासीन्येऽपि सततं, विश्वविश्वोपकारिणे । नमो वैराग्यनिनाय, तायिने परमात्मने ॥ २७५ ॥ जगद्गुरुमिति स्तुत्वा, नमस्कृत्य च सामराः । तेऽमरखामिनो जग्मुद्वीपं नन्दीश्वरं ततः ॥ २७६ ॥ जन्माभिषेकवत् तत्र, पर्वतेष्वञ्जनादिषु । शाश्वतार्हत्प्रतिमाष्टाह्निकां शक्रादयो व्यधुः ॥ २७७ ॥ नाथं कदा नु भूयोऽपि द्रक्ष्याम इति वादिनः । सदेवा देवपतयः, खं खं स्थानं ततो ययुः ॥ २७८ ॥ सगरोऽपि सभूपालः प्रणम्य परमेश्वरम् । कृताञ्जलिर्गद्गदवागिति स्तोतुं प्रचक्रमे ॥ २७९ ॥ भगवन्नजितखामिन्!, विजयख जगद्गुरो ! । त्रैलोक्यपद्मिनीखण्डविकासनदिवाकर ! ॥ २८० ॥ मति श्रुताऽवधि-मनः पर्ययैर्नाथ ! शोभसे । ज्ञानैश्चतुर्भिरुदामैरणवैरिव मेदिनी ॥ २८९ ॥ त्वं लयाऽपि कर्माणि, प्रोन्मूलयितुमीशिषे । अयं परिकरस्ते तु लोकानां मार्गदर्शकः ॥ २८२ ॥ भगवन्नन्तरात्मा त्वं मन्येऽहं सर्वदेहिनाम् । तेषामद्वैतसौख्याय, यतसे कथमन्यथा १ ॥ २८३ ॥ १ तीक्ष्णीकृतम् । २ देवेन्द्राणां राज्ञां च श्रीः । ७ क्रीडामात्रेण । ८ उपकरणम् । ३ अतिशयितम् । ४ वैराग्याधीनाय । ५ रक्षित्रे । ६ वितर्के । द्वितीयं पर्व तृतीयः सर्गः अजित सगरयो - श्वरितम् । अजितप्रभोः प्रव्रज्या ॥२१७॥ . Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितजिनदानप्रभावात् पञ्च दिव्यानि हित्वा कषायान् मलवत् , कृपाजलपरिप्लुतः । त्वमेवासि विशुद्धात्मा, निर्लेपः पद्मपत्रवत् ॥ २८४ ॥ राज्येऽपि न्यायनिष्ठस्य, न खो न च परस्तव । प्राप्तावसरमेतत् तेऽधुना साम्यं किमुच्यते ॥ २८५॥ वितर्कयामि भगवन् !, दानं यद् वार्षिकं तव । त्रैलोक्याभयदानोरुनाटकस्याऽऽमुखं हि तत् ।। २८६ ॥ धन्यास्ते विषया ग्रामा, नगर्यः पत्तनानि च । मलयानिलवद् यानि, प्रीणयन् विहरिष्यसे ॥ २८७ ।। स्तुत्वेति स्वामिनं राजा, नमस्कृत्य च भक्तितः। मन्दं मन्दं ययौ बाष्पक्लिन्ननेत्रो निजां पुरीम् ॥२८८॥ द्वितीयस्मिन् दिने स्वामी, ब्रह्मदत्तनृपौकसि । चकार षष्ठतपसः, परमानेन पारणम् ॥ २८९॥ ववृपुत्रिदशाः सार्धस्वर्णद्वादशकोटिकाम् । वसुधारां ब्रह्मदत्तनरेश्वरगृहाङ्गणे ॥ २९ ॥ उन्नमद्वाहवश्वेलाञ्चलानुचिक्षिपुः सुराः । अनिलान्दोलितलतापल्लवश्रीमलिम्लुचान् ॥ २९१॥ वेलाविलोलजलधिध्वानधीरध्वनिस्तथा । दध्वान दुन्दुभियॊग्नि, सानन्दामरताडितः ।। २९२ ।। पर्यटत्स्वामियशसां, स्खेदवारिभ्रमप्रदाम् । तत्र गन्धाम्बुवृष्टिं च, त्रिविष्टंपसदो व्यधुः ॥ २९३ ॥ अन्वीयमानां परितो, मित्रैरिव मधुवतैः । पञ्चवर्णपुष्पवृष्टिं, विदधुर्विबुधोत्तमाः ॥ २९४ ॥ अहो! दानं महादानं, सुदानमिदमस्य हि । प्रभावात् तत्क्षणं दाता, भवत्यतुलवैभवः ॥२९५॥ मुच्यते च भवेत्रैव, कश्चित् कश्चित् तृतीयके । द्वितीये कल्पातीतेषु, कल्पेषूत्पद्यतेऽथवा ॥ २९६ ॥ एवं कोलाहलं व्योनि, चक्रुर्मुदितचेतसः । दिवौकसो जयजयारावपूर्वकमुच्चकैः ॥ २९७ ॥ ॥त्रिभिर्विशेषकम् ॥ १ प्रस्तावना। २ देवाः। भ्रमरैः । त्रिषष्टि. ३८ Jain Education inte For Private & Personal use only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥२१८॥ दीयमानां प्रभोभिक्षा, ये प्रेक्षाञ्चक्रिरे जनाः। नीरोगास्ते समभवन, वपुषा निर्जरा इव ॥ २९८ ॥ द्वितीय पर्व ब्रह्मदत्तनृपगृहाद् , भगवान् कृतपारणः । वारणः सरसः पीतपानीय इव निर्ययौ ॥ २९९॥ तृतीयः माम कश्चिदतिक्रामत् , पदानीति प्रभोः पदे । ब्रह्मदत्तनृपस्तत्र, पीठं रत्नैरकारयत् ॥ ३०॥ सर्गः ब्रह्मदत्तनृपः पीठं, त्रिसन्ध्यं कुसुमादिभिः। पूजयामास तत्रस्थं, मन्यमानो जिनेश्वरम् ॥ ३०१॥ अजितचर्चा-कुसुम-वस्त्राद्यैः, पीठे तसिन्नपूजिते । आत्तवेल इव स्वामिन्यभुक्ते न ह्यभुक्त च ॥ ३०२॥ सगरयोभगवानप्रतिबद्धगमनः पवमानवत् । अखण्डितेर्यासमितिर्विजहार वसुन्धराम् ॥ ३०३ ॥ चरितम् । प्रतिलाभ्यमानः क्वचित् , प्रासुकैः पायसादिभिः । चय॑मानपदाम्भोजः, क्वापि हृद्येविलेपनैः॥३०४॥ प्रतीक्ष्यमाणः कुत्रापि, श्राद्धवन्दारुदारकैः । अन्वीयमानः कुत्रापि, दर्शनातृप्तिभिर्जनैः ॥ ३०५॥ IN अजितजिनलोकैः क्वचित् क्रियमाणवस्त्रोत्तारणमङ्गलः । कुत्रचिद् दीयमाना?, दधि-दूर्वा-ऽक्षतादिभिः ॥ ३०६ ॥ स्योगविहा रिता खवेश्मनयनायोपरोध्यमानः क्वचिजनैः । क्वापि भूलुठनागच्छजनेन प्रस्खलद्गतिः ॥ ३०७॥ मृज्यमानपदाम्भोजः, श्राद्धैः क्वापि शिरोरुहैः । आदेशं याच्यमानश्च, मुग्धधीभिः क्वचिजनैः ॥३०८॥ निर्ग्रन्थो निर्ममोऽनीहः, स्वामी ग्रामान् पुराणि च । तीर्थीकुर्वन् स्वसंसर्गाद्, विजहार वसुन्धराम् ॥३०९॥ ॥षद्धिः कुलकम् ॥ घूकघूत्कारपोरेषु, स्फारफेत्कारफेरुषु । फणिफूत्काररौद्रेषु, माद्यदुत्क्रोशदोर्तुषु ॥ ३१० ॥ ॥२१८॥ रटद्वककरालेषु, चमूरूत्क्रूरवृत्तिषु । शार्दूलकुलत्कारप्रकारप्रतिनादिषु ॥ ३११ ॥ १ गजः । २ प्रतीक्षमाणः । ३ वायुवत् । ४ श्रावकाणां वन्दनशीलः पुत्रैः । ५ ऋगालः । ६ बिडालः । ७ मृगविशेषः । ८ गर्जना । Jain Education in For Private & Personal use only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महेभभज्यमानढुविद्रुतद्रोणराविषु । सिंहपुच्छच्छटाच्छोटस्फोट्यमानाश्मभूमिषु ॥ ३१२ ॥ शरभोत्पिष्टदन्तीन्द्रकीकसाकुलवर्त्मसु । मृगयाव्यग्रशवरधनुर्नादानुनादिषु ।। ३१३ ॥ भट्रककर्णग्रहणव्यग्रभिल्लाभकेषु च । अन्योऽन्यतरुशाखाग्रसङ्घर्षाच्छलदग्निषु ॥ ३१४॥ महागिरि-महारण्येष्वपि ग्राम-पुरेष्विव । निष्प्रकम्पमनाः कामं, व्यहार्षीदजितप्रभुः॥३१५ ॥ ॥षद्धिः कुलकम् ॥ भूतलालोकमात्रेण, जायमानजनभ्रमौ । कदाचन गिरेर्मूर्ध्नि, शृङ्गान्तरमिव स्थिरः ॥ ३१६ ॥ उत्फालमर्कटकुलभज्यमानास्थिसन्धिनि । कदाचन महासिन्धुरोधःसीमनि वृक्षवत् ।। ३१७॥ क्रीडदुत्तालवेताल-पिशाच-प्रेतसङ्घले । वात्यावर्तितधूलीके, श्मशाने च कदाचन ॥ ३१८॥ रौद्रेभ्योऽपि हि रौद्रेषु, स्थानेष्वन्येष्वपि प्रभुः । कायोत्सर्ग निसर्गकधीरो व्यधित लीलया ॥ ३१९॥ ॥चतुर्भिः कलापकम् ॥ तपश्चतुर्थं कदाचित्, तपः षष्ठं कदाचन । तपोऽष्टमं कदाचिच्च, कदापि दशमं तपः॥३२०॥ अन्यदा द्वादशतपश्चतुर्दशतपोऽन्यदा । अन्यदा पोडशतपस्तपोऽष्टादशमन्यदा ॥ ३२१ ॥ एकदा मासिकं च द्विमासिकं च त्रिमासिकम् । चतु:-पञ्च-पण्मासिकान्यप्यथो सप्तमासिकम् ॥ ३२२॥ तपोऽष्टमासिकं यावद्, भगवानजितप्रभुः । विदधे विहरनार्यदेशेष्वक्षीणशक्तिकः ॥ ३२३ ।। ॥चतुर्भिः कलापकम् ।। १ उडीनः। २ काकः। ३ अष्टापदः। ५ अस्थि । ५ ऋक्षः। ६ अन्यच्छिखरमिव । * सह ३ एवं वर्त्तते । अजितप्रभोस्तपः Jain Education Intern For Private & Personal use only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते द्वितीयं पर्व तृतीया सर्गः अजित ॥२१९॥ सगरयो चरितम् । ललाटन्तपतपनातपे ग्रीष्मऋतावपि । नाऽऽचकास तरुच्छायामपि देहेऽपि निःस्पृहः ॥ ३२४॥ पतत्तुहिनसम्भारप्लुष्यमाणतरावपि । हेमन्ततौं प्रभुनैच्छद्, दीप्तपित्त इवाऽऽतपम् ॥ ३२५॥ झञ्झानिलोल्वणैर्धारासारैरपि पयोमुचाम् । मतङ्गजो वारिचर, इव नोद्विविजे विभुः॥३२६ ॥ परीषहानेवमन्यानपि सेहे सुदुःसहान् । सर्वसहो धरणिवद्, धरणीतिलकः प्रभुः॥ ३२७ ॥ उग्रैस्तपोभिर्विविधैर्विविधाभिग्रहैरपि । परीषहसहोऽब्दानि, द्वादशाऽलङ्घयत् प्रभुः ॥ ३२८॥ खड्डीव स्वाम्यनासीनः, खङ्गिशृङ्गमिवैककः । सुमेरुरिव निष्कम्पः, पश्चानन इवाऽभयः ॥ ३२९ ॥ वायुरिवाऽप्रतिबद्धो, भुजङ्गम इवैकदृक् । वहिना काञ्चनमिव, तपसातिशयानरुक ॥ ३३०॥ वृतिभिर्वरशाखीव, तिसृभिर्गुप्तिभिर्वृतः । समितीः पञ्च बिभ्राणो, धन्वी हस्त(स्ते) शरानिव ॥ ३३१॥ आज्ञा-ऽपाय-विपाकानां, संस्थानस्य च चिन्तनात् । ध्यायंश्चतुर्विधं ध्येयं, ध्येयरूपः स्वयं विभुः ॥३३२॥ प्रतिग्राम प्रतिपुरं, प्रत्यरण्यं च पर्यटन् । समाययावुपवनं, सहस्राम्रवणं क्रमात् ॥ ३३३ ॥ ॥पञ्चभिः कुलकम् ॥ तत्र च्छत्रायमाणस्य, सप्तच्छदतरोस्तले । तत्प्रकाण्डमिवाऽकम्पस्तस्थौ प्रतिमया प्रभुः ॥३३४ ॥ अप्रमत्तसंयताख्यगुणस्थानात् तदा विभुः । अपूर्वकरणं भेजे, गुणस्थानकमष्टमम् ॥ ३३५ ।। श्रौतादाद् व्रजन् शब्द, शब्दादर्थ वजन् ययौ । नानात्वश्रुतवीचारं, शुक्लध्यानमथाऽऽदिमम् ॥३३६।। अनिवृत्तिबादराख्यं, परिणामानिवृत्तिकृत् । आरुरोह गुणस्थानं, ततश्च नवमं विभुः ॥ ३३७ ॥ . सूर्यः। २ हस्ती। ३ वृक्षकाण्डम् । USAASAASLUSASUGARSISIRISH अजितजिनस्योनचर्या ॥२१९॥ Jain Education Internal For Private & Personal use only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ लोभकषायस्य, किट्टीकरणतो ययौ । सूक्ष्मसम्परायं नाम, गुणस्थानं नवोत्तरम् ॥ ३३८ ॥ अनन्तवीर्यस्त्रिजगत्सर्वकर्मक्षयक्षमः । क्षीणमोहं गुणस्थानं, प्राप मोहस्य सङ्ख्यात् ।। ३३९ ॥ गुणस्थानस्य चैतस्य, द्वादशस्यान्तिमे क्षणे । एकत्वश्रुतमीशोऽगाच्छुक्लध्यानं द्वितीयकम् ॥ ३४०॥ त्रिजगद्विषयं ध्यानेनाऽमुनाऽणौ दधौ मनः । सर्वाङ्गीणं विषं दंशे, मन्त्रेणेव जगत्प्रभुः ॥३४१॥ अपनीतेन्धनभरः, शेषस्तोकेन्धनोऽनलः । ज्वलितो निर्वाति यथा, निर्वाणं तन्मनस्तथा ॥ ३४२ ॥ ततश्च तस्मिन् ध्यानानौ, दीप्यमाने जिनेशितुः । हिमानीव व्यलीयन्त, घातिकर्माणि सर्वतः॥३४३॥ अथ पौषस्य शुक्लैकादश्यां चन्द्रेऽधिरोहिणि । खामिनः कृतषष्ठस्योत्पेदे केवलमुज्वलम् ॥ ३४४ ॥ ईक्षाश्चके जगन्नाथस्त्रिकालविषयानपि । त्रैलोक्यवर्तिनो भावान्, करोत्सङ्गगतानिव ॥३४५॥ उत्पन्ने स्वामिनो ज्ञाने, स्वाम्यवज्ञाभयादिव । सौधर्माधिपतेः सद्यः, सिंहासनमकम्पत ॥ ३४६॥ तत्कारणज्ञानकृते, प्रायुत मघवाऽवधिम् । रज्जु जलाशयपयोमानं ज्ञातुमना इव ॥ ३४७॥ खामिनः केवलज्ञानमुत्पन्नमिति वासवः । अज्ञासीदवधिज्ञानाद्, दीपालोकात् पदार्थवत् ॥ ३४८॥ रत्नसिंहासनं रत्नपादुके च पुरन्दरः । उज्झाञ्चकार बलवत् , स्वाम्यवज्ञाभयं सताम् ॥ ३४९॥ ददौ पदानि सप्ताऽष्टान्यहद्दिक्सम्मुखं हरिः । गीतार्थः शिष्य इवाऽनुज्ञापितावग्रहावनौ ॥ ३५०॥ सव्यं किञ्चिन्यश्य जानु, दक्षिणेन च जानुना। पाणिभ्यां शिरसा च मां, स्पृशन्ननमददिमित् ॥३५१॥ समुत्थाय व्यपक्रम्य, भूयोऽपि बलसूदनः । सिंहासनमलचके, गिरीन्द्रमिव केसरी ॥ ३५२ ।। १ दशममित्यर्थः । २ दंशस्थाने। ३ शान्तम् । ४ हस्तमभ्यगतान् । ५-६ इन्द्रः । अजितप्रभोः केवलोत्पत्तिः देवेन्द्राणामागमनं च Jain Education Int For Private & Personal use only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयं पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥२२०॥ तृतीयः सर्ग: अजितसगरयोश्चरितम् । HOSSESSORSOGO समवसरणम् पुरुहूतः समाहूताशेषदेवः क्षणादपि । ऋद्ध्या महत्या भक्क्येव, जिनेन्द्राभ्यर्णमाययौ ॥ ३५३॥ सर्वेऽन्येऽप्यासनकम्पाद, विज्ञातस्वामिकेवलाः। अहम्पूर्विकयेवेयुः, सममिन्द्रा जिनान्तिके ॥३५४॥ क्षेत्रे योजनमात्रे च, देवा वायुकुमारकाः। अपनिन्युः शर्करादि, ते यदत्राधिकारिणः ॥३५५॥ तत्र गन्धाम्बुवृष्टिं च, सुरा मेघकुमारकाः। रजोमात्रप्रशमनी, शरदष्टिनिभां व्यधुः ॥ ३५६॥ वर्ण-रत्नशिलास्तोमर्मसृणैस्तन्महीतलम् । बबन्धुर्वन्धुरतरं, चैत्यमध्यमिवाऽमराः ॥ ३५७ ॥ मेराणि जानुंदनानि, पञ्चवर्णान्य॒तुश्रियः । ववृषुस्तत्र पुष्पाणि, प्रत्यूषपवना इव ॥ ३५८॥ अन्तः कृत्वा मणिस्तूपं, परितस्तमधो व्यधुः। रौप्यं भवनपतयो, वर्ग रैकपिशीर्षकम् ॥ ३५९ ॥ वप्रं द्वितीयं ज्योतिष्काः , सरत्नकपिशीर्षकम् । विदधुः काञ्चनैरात्मज्योतिभिरिव पिण्डितैः॥३६०॥ प्राकारं चोपरितनं, वैमानिकदिवौकसः । रविरचयाञ्चकुर्माणिक्यकपिशीर्षकम् ॥ ३६१॥ वप्रे वप्रे च चत्वारि, जगत्यामिव जज्ञिरे । मनोविश्रामधामानि, चारुद्वाराणि तत्र च ॥ ३६२ ॥ पत्रैर्मारकतैरासन्, द्वारे द्वारे च तोरणाः । अम्बरे विचरचारुश्रेणीभूतशुकोपमाः ॥ ३६३ ॥ तोरणानुभयतश्च, कुम्भा मुखकृताम्बुजाः । न्यास्यन्त सिन्धूरभितश्चक्रा इव दिनात्यये ॥ ३६४॥ द्वारे द्वारेऽभवद् वापी, काञ्चनाम्भोजशालिनी । स्वच्छ-स्वादुपयःपूर्णा, मङ्गल्यकलशोपमा ॥ ३६५ ॥ धूपघट्यः प्रतिद्वारं, हैम्यो मुमुचिरेऽमरैः । धृपधूमारकतांस्तन्वन्त्यस्तोरणानिव ॥ ३६६ ॥ १ स्निग्धैः । २ विकसितानि । ३ जानुप्रमाणानि । ४ अवधिष्ठायिका देव्यः । ५ मणिपीठम् । ६ सुवर्णमयकपिशीर्षकम् ।। जम्बूद्वीपस्य दुर्गे। ८ नदीः। ॥२२०॥ Jain Education a l For Private & Personal use only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Inter प्राकारे मध्यमे पूर्वोदीच्यां दिशि दिवौकसः । देवच्छन्दं विदधिरे, स्वामिविश्रामहेतवे ॥ ३६७॥ तृतीयवप्रमध्योर्व्या, चैत्यदुं व्यन्तरा व्यधुः । चतुर्दशधनुः शत्याऽधिकां गव्यूतिमुन्नतम् ॥ ३६८ ॥ ततः सिंहासनं देवच्छन्दकं चामरे अपि । छत्रत्रयं च रुचिरं चक्रिरे व्यन्तरामराः ॥ ३६९ ॥ इत्थङ्कारं च समवसरणं विदधेऽमरैः । भवत्रस्तैकशरणं, हरणं निखिलापदाम् ॥ ३७० ॥ ततो जयजयारावकारिभिर्मागधैरिव । अमरैः कोटिसङ्ख्यातैः परितः परिवारितः ॥ ३७१ ॥ सुरसञ्चार्यमाणेषु, सौवर्णेष्वम्बुजन्मसु । नवसु क्रमशो न्यस्य, पादाम्भोजे जगत्पतिः ॥ ३७२ ॥ प्रविश्य पूर्वद्वारेण, चैत्यवृक्षप्रदक्षिणाम् । चकाराऽऽवश्यक विधिलियो महतामपि ॥ ३७३ ॥ नमस्तीर्थायेति गिरा, कृत्वा तीर्थनमस्क्रियाम् । तत्र सिंहासने पूर्वाभिमुखो न्यषत् प्रभुः ॥ ३७४ ॥ स्वामिनः प्रतिरूपाणि, दिक्ष्वन्यास्वपि तत्क्षणम् । विचक्रुर्व्यन्तरास्ते हि शेषकर्माधिकारिणः ॥ ३७५ ॥ स्वामिरूपानुरूपाणि, तान्यासंस्तत्प्रभावतः । तादृंशि स्वामिबिम्बानि, न ते कर्तुं स्वयं क्षमाः ॥ ३७६ ॥ पृष्ठे भामण्डलं धर्मचक्र -शक्रध्वजौ पुरः । दिवि दुन्दुभिनादश्र, प्रादुरासंस्तदा क्षणात् ॥ ३७७ ॥ पूर्वद्वाराऽविशन् साधु-साध्वी वैमानिकस्त्रियः । त्रिश्च प्रदक्षिणीकृत्य नेमुस्त्रिभुवनेश्वरम् ॥ ३७८ ॥ पूर्वदक्षिणदिश्यासाञ्चक्रिरे तत्र साधवः । तत्पृष्ठे तस्थुरूर्द्धास्तु, वैमानिक्योऽथ संयताः ॥ ३७९ ।। अंपाग्द्वारैत्य भवनेश-ज्योतिर्व्यन्तरस्त्रियः । प्रभुं प्रदक्षिणीकृत्योर्द्ध नैऋत्यां क्रमात् स्थिताः ॥ ३८० ॥ प्रत्यैग्द्वारैत्य भवनेश-ज्योतिर्व्यन्तराः प्रभुम् । नत्वा प्रदक्षिणापूर्व, वायव्ये न्यपदन् क्रमात् ॥ ३८१ ॥ १ पद्मेषु । २ साध्यः । ३ दक्षिणद्वारेण । ४ पश्चिमद्वारेण । भगवतो द्वादशपदांच समवसरणा न्तर्गमनम् w. Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकाशुरुषचरिते ROCHUCHOS द्वितीयं पर्द तृतीयः सर्गः अजितसगरयोचरितम् । ॥२२॥ Portortortortortorontortort प्रविश्योदीच्यद्वारेण, सेन्द्रा वैमानिकाः प्रभुम् । नत्वा प्रदक्षिणापूर्वमैशान्यां न्यषदन् क्रमात् ॥३८२॥ नाथं भूयो नमस्कृत्य, शक्रो विरचिताञ्जलिः। भक्त्या रोमाश्चितवपुः, स्तोतुमित्युपचक्रमे ॥ ३८३ ॥ सर्वाभिमुख्यतो नाथ !, तीर्थकुनामकर्मजात् । सर्वेषां सम्मुखीनस्त्वमानन्दयसि यत् प्रजाः॥ ३८४ ॥ यद् योजनप्रमाणेऽपि, धर्मदेशनसमनि । सम्मान्ति कोटिशस्तिर्यग्नृ-देवाः सपरिच्छदाः ॥ ३८५ ॥ तेषामेव स्वस्वभाषापरिणाममनोहरम् । अप्येकरूपं वचनं, यत् ते धर्मावबोधकृत् ॥ ३८६ ॥ साग्रेऽपि योजनशते, पूर्वोत्पन्ना गदाम्बुदाः । यदञ्जसा विलीयन्ते, त्वद्विहारानिलोमिभिः ॥ ३८७॥ नाविर्भवन्ति यद् भूमौ, मूषिकाः शलभाः शुकाः । क्षणेन क्षितिपक्षिप्ता, अनीतय इवेतैयः॥३८८ ।। स्त्री-क्षेत्र-पंद्रादिभवो, यद् वैराग्निः प्रशाम्यति । त्वत्कृपापुष्करावर्तवर्षादिव भुवस्तले ॥ ३८९ ॥ त्वत्प्रभावे भुवि भ्राम्यत्यशिवोच्छेदडिण्डिमे । सम्भवन्ति न यन्नाथ !, मारयो भुवनारयः॥ ३९०॥ कामवर्षिणि लोकानां, त्वयि विश्वैकवत्सले । अतिवृष्टिरवृष्टिा, भवेद् यन्नोपतापकृत् ॥३९१ ॥ खराष्ट्र-परराष्ट्रेभ्यो, यत् क्षुद्रोपद्रवा द्रुतम् । विद्रवन्ति त्वत्प्रभावात्, सिंहनादादिव द्विपाः ॥ ३९२ ॥ यत् क्षीयते च दुर्भिक्षं, क्षितौ विहरति त्वयि । सर्वाद्भुतप्रभावाढ्ये, जङ्गमे कल्पपादपे॥३९३॥ यन्मभंः पश्चिमे भागे, जितमार्तण्डमण्डलम् । मा भूद् वपुर्दुरालोकमितीवोत्पिण्डितं महः ॥३९४ ॥ स एष योगसाम्राज्यमहिमा विश्वविश्रुतः। कर्मक्षयोत्थो भगवन् !, कस्य नाऽऽश्चर्यकारणम्॥३९५॥ अनन्तकालप्रचितमनन्तमपि सर्वथा । त्वत्तो नाऽन्यः कर्मकक्षमुन्मूलयति मूलतः ॥ ३९६ ॥ १व्याधय एव मेघाः । २ क्षेत्रपाकविनकरा उपद्रवाः । ३ ग्रामः । ४ व्याधयः । ५ कर्मैव कक्षं वनम् । कर्मक्षयजास्तीर्थकदतियाः ASHUSHAHISISHT ॥२२१॥ Jain Education Interior For Private & Personal use only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथोपाये प्रवृत्तस्त्वं, क्रियासमभिहारतः । यथाऽनिच्छन्नुपेयस्य, परां श्रियमशिश्रियः ॥ ३९७ ॥ मैत्रीपवित्रपात्राय, मुदितामोदशालिने । कृपोपेक्षाप्रतीक्ष्याय, तुभ्यं योगात्मने नमः ॥ ३९८ ॥ ___ इतश्च समवसृतं, जिनेन्द्रमजितप्रभुम् । उद्यानपालका गत्वाऽऽचख्युः सगरचक्रिणे ॥ ३९९ ॥ प्रभोः समवसरणोदन्तेन मुमुदे तथा । चक्रवर्ती चक्ररत्नोत्पत्तावपि यथा न हि ॥४०॥ तेभ्यश्च तपनीयस्य, सार्धा द्वादशकोटयः। भूभुजा परितुष्टेन, ददिरे पारितोषिके ॥ ४०१॥ ततः स्नात्वा कृतप्रायश्चित्त-कौतुकमङ्गलः । उदासकाररत्नालङ्कारस्त्रिदशराडिव ॥ ४०२ ॥ दृढीकृतस्कन्धहारः, कराभ्यां नर्तयन् सृणिम् । सगरः कुञ्जरवरमासन्यारोहदग्रिमे ॥४०३॥ युग्मम् ॥13 कुम्भिकुम्भस्थलेनोचेनाऽऽनाभि च्छन्नविग्रहः । अर्थोदित इवाऽऽदित्यो, दिद्युते मेदिनीपतिः ॥४०४॥ दिग्मुखप्रसृतैः शङ्ख-दुन्दुभिप्रभृतिस्वनैः। एयुः सैन्याः सुघोषादिघण्टाघोषैरिवाऽमराः॥४०५॥ राज्ञां मुकुटबद्धानां, सहस्रैः परिवारितः । विरेजे वैक्रियानेकरूपधारीव चक्रभृत् ॥ ४०६ ॥ मूर्धाभिषिक्तमूर्धन्यो, मूर्ध्नि च्छत्रेण पाण्डुना । अशोभिष्ट नभोगङ्गावर्त्तभ्रमविधायिना ॥ ४०७॥ पार्श्वतः सञ्चरिष्णुभ्यां, चामराभ्यामरोचत । सगरश्चन्द्रबिम्बाभ्यामिव काञ्चनपर्वतः॥४०८॥ वाजिभिः स्वर्णसन्नाहैः, स्वर्णपक्षैः खगैरिव । रथैस्तुङ्गध्वजस्तम्भैः, पोतैरिर्वं सकूपकैः ॥ ४०९॥ क्षरन्मदैर्गजवरैः, शैलैरिव सनिर्झरैः । उदझैः पत्तिभिः सिन्धुतरङ्गैरिव सोरँगैः॥ ४१० ॥ प्रमोदभावनामोदशोभिताय । २ कृपा-माध्यस्थ्ययोः मुख्याय । ३ सुवर्णस्य । ४ अङ्कुशम् । ५ मूर्धाभिषिक्का राजानस्तेषां मुख्यः । ६ प्रवहणैः। ससः। प्रभोर्वन्दनाथ सगरस्य गमनम् Jain Education a l For Private & Personal use only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते द्वितीय पर्व तृतीयः सर्गः अजितसगरयोश्चरितम् । ॥२२२॥ परितश्छादयन्नुर्वीमुर्वीपतिरथ द्रुतम् । आससाद सहस्राम्रवणोपवनसन्निधिम् ॥ ४११ ॥ ॥त्रिभिर्विशेषकम् ॥ उद्यानद्वारसौवर्णवेद्यां सगरभृपतिः । उत्ततार द्विपात् तस्मान्मानादिव महामुनिः ॥ ४१२ ॥ उज्झाञ्चकार सगरः, खं छत्रं चामरे अपि । अप्यन्यराज्यचिह्नानि, विनीतानां क्रमो ह्ययम् ॥ ४१३॥ पादाभ्यां न ह्यलञ्चक्रे, विनयादप्युपानहौ । हस्तावलम्बनमपि, वेत्रिदत्तमुपेक्षत ।। ४१४ ॥ ततः समवसरणाभ्यणे सगरभूपतिः। पयां चलितवान् पौरनर-नारीगणैः समम् ॥ ४१५॥ उदग्द्वारेण समवसरणं प्राविशत् तदा । नृपो मकरसङ्क्रान्ती, व्योमाङ्गणमिवार्यमा ॥ ४१६ ॥ तत्र प्रदक्षिणीकृत्य, त्रिनत्वा च जगद्गुरुम् । सगरः स्तोतुमारेभे, सुधामधुरया गिरा ॥ ४१७ ॥ मिथ्यादृशां युगान्तार्कः, सुदृशाममृताञ्जनम् । तिलकं तीर्थकुल्लक्ष्म्याः , पुरश्चक्रं तवैधते ॥४१८॥ एकोऽयमेव जगति, स्वामीत्याख्यातुमुच्छ्रिता । उच्चैरिन्द्रध्वजव्याजात, तर्जनी जम्भंविद्विपा ॥ ४१९॥ यत्र पादौ पदं धत्तस्तव तत्र सुरा-ऽसुराः । किरन्ति पङ्कजव्याजाच्छ्रियं पङ्कजवासिनीम् ॥ ४२०॥ दान-शील-तपो-भावभेदाद् धर्म चतुर्विधम् । मन्ये युगपदाख्यातुं, चतुर्वक्त्रोऽभवद् भवान् ॥ ४२१॥ त्वयि दोषत्रयात् त्रातुं, प्रवृत्ते भुवनत्रयीम् । प्राकारत्रितयं चक्रुस्त्रयेऽपि त्रिदिवौकसः ॥४२२॥ अधोमुखाः कण्टकाः स्युर्धाच्यां विहरतस्तव । भवेयुः सम्मुखीनाः किं, तामसास्तिग्मरोचिषः ॥४२३॥ केश-रोम-नख-श्मश्रु, तवाऽवस्थितमित्ययम् । बाह्योऽपि योगमहिमा, नाऽऽसस्तीर्थकरैः परैः ॥ ४२४॥ १ नम्राणाम् । २ इन्द्रेण। ३ सूर्यस्य । ४ वृद्धिरहितम् । प्रभोर्वन्दनाथ सगरस्य गमनम् ॥२२२॥ Jan Education International For Private & Personal use only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितप्रभोदेंशना शब्द-रूप-रस-स्पर्श-गन्धाख्याः पञ्च गोचराः। भजन्ति प्रातिकूल्यं न, त्वदग्रे तार्किका इव ॥ ४२५ ॥ त्वत्पादावृतवः सर्वे, युगपत् पर्युपासते । आकालकृतकन्दर्पसाहायकमयादिव ॥ ४२६ ॥ सुगन्ध्युदकवर्षेण, दिव्यपुष्पोत्करेण च । भावित्वत्पादसंस्पर्शा, पूजयन्ति भुवं सुराः ॥ ४२७ ॥ जगत्प्रतीक्ष्य ! त्वां यान्ति, पक्षिणोऽपि प्रदक्षिणाम् । कागतिर्महतां तेषां, त्वयि ये वामवृत्तयः॥४२८॥ पञ्चेन्द्रियाणां दौःशील्यं, क भवेद् भवदन्तिके ? । एकेन्द्रियोऽपि यन्मुश्चत्यनिलः प्रतिकूलताम् ॥४२९॥ मूर्धा नमन्ति तरवस्त्वन्माहात्म्यचमत्कृताः। तत् कृतार्थ शिरस्तेषां, व्यर्थ मिथ्यादृशां पुनः॥४३०॥ जघन्यतः कोटिसङ्ख्यास्त्वां सेवन्ते सुरा-ऽसुराः । भाग्यसम्भारलभ्येऽर्थे, न मन्दा अप्युदासते ॥४३१॥ भगवन्तमिति स्तुत्वाऽपक्रम्य विनयक्रमात् । पृष्ठे मघवतस्तस्थौ, नर-नारीगणश्च सः॥ ४३२॥ इत्थं समवसरणस्योर्द्धवप्रान्तरावनौ । तस्थौ चतुर्विधः सङ्घो, ध्यानस्थ इव भक्तितः॥४३३ ।। द्वितीयवप्रमध्ये तु, भुजङ्ग-नकुलादयः। तिर्यश्चोऽस्थुस्त्यक्तवैरा, मित्राणीव परस्परम् ॥ ४३४॥ तृतीयवप्रमध्ये च, स्वामिसेवार्थमेयुषाम् । सुरा-ऽसुर-मनुष्याणां, वाहनान्यवतस्थिरे ॥ ४३५॥ अथाऽऽयोजनगामिन्या, सर्वभाषास्पृशा गिरा । भगवानजितखामी, प्रारेमे धर्मदेशनाम् ॥ ४३६॥ __असावसारः संसारः, सारबुद्ध्याऽवबुध्यते । काचो वैडूर्यबुद्ध्येव, धिगहो! मुग्धबुद्धिभिः॥ ४३७॥ प्रतिक्षणभवैदेहभाजां विविधकर्मभिः । संवर्ध्यते च संसारः, पादपो दोहदैरिव ।। ४३८॥ काभावेन संसाराभावो न्यायभवः खलु । कर्मध्वंसाय सुधिया, यतितव्यं ततः सदा ॥ ४३९ ॥ १ इन्द्रियविषयाः। २ हे जगत्पूज्य !। ३ प्रतिकूलवृत्तयः । Jain Education in.INX For Private & Personal use only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते द्वितीय पर्व तृतीयः सर्ग: ॥२२३॥ अजितसगरयो. चरितम्। कर्मध्वंसः शुभध्यानात, तच्च ध्यानं चतुर्विधम् । आज्ञा-ऽपाय-विपाकानां, संस्थानस्य च चिन्तनात् ॥४४०॥ __आज्ञा स्यादाप्तवचनं, सा द्विधैव व्यवस्थिता। आगमः प्रथमा तावद्धेतुवादोऽपरा पुनः॥४४१॥ शब्दादेव पदार्थानां, प्रतिपत्तिकृदागमः । प्रमाणान्तरसंवादाद्धेतुवादो निगद्यते ॥ ४४२ ॥ द्वयोरप्यनयोस्तुल्यं, प्रामाण्यमविगानतः । अदुष्टकारणारब्धं, प्रमाणमिति लक्षणात् ॥ ४४३ ॥ दोषा राग-द्वेष-मोहाः, सम्भवन्ति न तेर्हति । अदृष्टहेतुसम्भृतं, तत् प्रमाणं वचोहताम् ॥ ४४४॥ नय-प्रमाणसंसिद्धं, पौर्वापर्याविरोधि च । अतिक्षेप्यमपरैर्बलिष्ठैरपि शासनैः ॥ ४४५॥ अङ्गोपाङ्ग-प्रकीर्णादिबहुभेदापगाम्बुधि । अनेकातिशयप्राज्यसाम्राज्यश्रीविभूषितम् ॥ ४४६॥ सुदुर्लभं दूरभव्यैर्भव्यैस्तु सुलभं भृशम् । गणिपिटकतयोच्चैर्नित्यं स्तुत्यं नरा-ऽमरैः ॥ ४४७ ॥ इमामाज्ञां समालम्ब्य, स्याद्वादन्याययोगतः। द्रव्य-पर्यायरूपेण, नित्या-ऽनित्येषु वस्तुषु ।। ४४८॥ खरूप-पररूपाभ्यां, सदसद्रूपशालिषु । यः स्थिरप्रत्ययो ध्यानं, तदाज्ञाविचयाह्वयम् ॥ ४४९॥ ___ अस्पृष्टजिनमार्गाणामविज्ञातपरात्मनाम् । अपरामृष्टायतीनामपायाः स्युः सहस्रशः ॥ ४५०॥ माया-मोहा-ऽन्धतमसविवशीकृतचेतसा । किं किं नाऽकारि कलुषं?, कस्कोऽपायोऽप्यवापि न?॥४५॥ यद् यद् दुःखं नारकेषु, तिर्यक्षु मनुजेषु च । मयाऽप्रापि प्रमादोऽयं, ममैव हि विचेतसः॥४५२॥ प्राप्याऽपि परमां बोधि, मनो-चाक्कायकर्मजैः । दुश्चेष्टितैर्मयैवाऽऽत्मशिरसि ज्वालितोऽनलः॥४५३ ॥ खाधीने मुक्तिमार्गेऽपि, कुमार्गपरिमार्गणैः । अहो! आत्मंस्त्वयैवैष, खात्माऽपायेषु पातितः ॥४५४॥ १ प्रतिपादकः। २ अविरोधितया। ३ अबाध्यम् । ४ अविचारितोत्तरकालानाम् । SARKARRAGGALSURESS चतुर्विध धर्मभ्यानम् आज्ञाबिचयमपायविचयं ॥२२॥ Jain Education in For Private & Personal use only . Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SASARSANSAR विपाक: यथा प्राप्तेऽपि सौराज्ये, भिक्षां भ्राम्यति बालिशः । आत्मायत्ते तथा मोक्षे, भवाय भ्रान्तवानसि ॥४५५॥ एवं राग-द्वेष-मोहर्जायमानान् विचिन्तयेत् । यत्राऽपायांस्तदपायविचयध्यानमिष्यते ॥ ४५६ ॥ विपाकविपाकः फलमानातः, कर्मणां स शुभा-ऽशुभः । द्रव्य-क्षेत्रादिसामग्र्या, चित्ररूपोऽनुभूयते ॥ ४५७ ॥ विचयम् शुभस्तत्राङ्गना-माल्य-खाद्यादिद्रव्यभोगतः। अशुभस्त्वहि-शस्त्रा-ग्नि-विषादिभ्योऽनुभूयते ॥ ४५८ ।। क्षेत्रे सौध-विमानोपवनादौ वसनाच्छुभः । श्मशान-जाङ्गला-ऽरण्यप्रभृतावशुभः पुनः ॥ ४५९॥ काले त्वशीतला-ऽनुष्णे, वसन्तादौ रतेः शुभः । उष्णे शीते ग्रीष्म-हेमन्तादौ भ्रमणतोऽशुभः ॥४६०॥ मनःप्रसाद-सन्तोषादिभावेषु शुभो भवेत् । क्रोधा-ऽहङ्कार-रौद्रत्वादिभावेष्वशुभः पुनः॥४६१॥ सुदेवत्व-भोगभूमिमनुष्यादिभवे शुभः । कुमय-तिर्यग्नरकादिभवेष्वशुभः पुनः॥ ४६२॥ अपि च-उँदय-क्षय-क्षयोपशमोपशमाः कर्मणां भवन्त्यत्र । द्रव्यं क्षेत्रं कालं, भावं च भवं च सम्प्राप्य||४६३॥ इति द्रव्यादिसामग्रीयोगात् कर्माणि देहिनाम् । खं खं फलं प्रयच्छन्ति, तानि त्वष्टैव तद्यथा ॥४६४॥ जन्तोः सर्वज्ञरूपस्य, ज्ञानमात्रियते सदा । येन चक्षुः पटेनेव, ज्ञानावरणकर्म तत् ॥ ४६५॥ मति-श्रुता-ऽवधि-मनःपर्यायाः केवलं तथा । पश्चाऽऽत्रियन्ते ज्ञानानीत्येता ज्ञानावृतेर्भिदः ॥४६६ ॥ पश्च निद्रा दर्शनानां, चतुष्कस्याऽऽवृतिश्च या । दर्शनावरणीयस्य, विपाकः कर्मणः स तु ॥ ४६७ ॥ हाअष्टौ कर्माणि यथा दिदृक्षः खामी खं, प्रतीहारनिरोधतः। न पश्यति तथाऽऽत्माऽपि, येन दृष्ट्यावृतिस्तु तत् ॥४६८॥ मधुलिप्तासिधाराग्राखादाभं वेद्यकर्म यत् । सुख-दुःखानुभवनस्वभावं तत् प्रकीर्तितम् ॥ ४६९ ॥ मूर्खः । २ कथितः । ३ सुदेवत्वे भोगस्थानभूते मनुष्यादिभवे च।* इदं आर्यावृत्तम् । ४ ज्ञानावरणस्य भेदाः। ५ दर्शनावरणम् । CARCISCER त्रिषष्टि. ३९ Jain Education in For Private & Personal use only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयं पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते तृतीयः ॥२२४॥ सर्गः अजितसगरयो. श्वरितम् । सुरापाणसमं प्राज्ञा, मोहनीयं प्रचक्षते । यदनेन विमढात्मा, कृत्या-ऽकत्येषु मुह्यति ॥ ४७०॥ तत्राऽपि दृष्टिमोहाख्यं, मिथ्यादृष्टिविपाककृत् । चारित्रमोहनीयं तु, विरतिप्रतिषेधकम् ॥ ४७१ ॥ नृ-तिर्यग्नारका-ऽमर्त्य भेदादायुश्चतुर्विधम् । खखजन्मनि जन्तूनां, धारकं गुप्तिसन्निभम् ॥ ४७२॥ । गति-जात्यादिवैचित्र्यकारि चित्रकरोपमम् । नामकर्म विपाकोऽस्य, शरीरेषु शरीरिणाम् ॥ ४७३॥ उच्चैर्नीचैर्भवेद् गोत्रं, कर्मोच्चैर्नीचगोत्रकृत् । क्षीरभाण्ड-सुराभाण्डभेदकारि कुलालवत् ॥ ४७४ ॥ दानादिलब्धयो येन, न फलन्ति विबाधिताः । तदन्तरायं कर्म स्याद् , भाण्डागारिकसन्निभम् ॥४७५॥ इति मूलप्रकृतीनां, विपाकांस्तान् विचिन्वतः। विपाकविचयं नाम, धर्मध्यानं प्रवर्तते ।। ४७६ ।। अनाद्यन्तस्य लोकस्य, स्थित्युत्पत्ति-व्ययात्मनः । आकृति चिन्तयेद् यत्र, संस्थानविचयः स तु ॥४७७॥ कटिस्थकरवैशाखस्थानकस्थनराकृतिः । द्रव्यैः पूर्णः स तु लोकः, स्थित्युत्पत्ति-व्ययात्मकैः॥ ४७८॥ वेत्रासनसमोऽधस्तान्मध्यतो झल्लरीनिभः । अग्रे मुरजसङ्काशो, लोकः स्यादेवमाकृतिः ॥ ४७९ ॥ स च त्रिजगदाकीर्णो, भुवः सप्तात्र वेष्टिताः । घनाम्भोधि-धनवात-तनुवातैर्महाबलैः ।। ४८० ॥ जगत्रयं त्वधस्तिर्यगर्बलोकविभेदतः। अधस्तिर्यगूर्द्धभावो, रुचकापेक्षया पुनः ॥ ४८१ ॥ मेर्वन्तर्गोस्तनाकारचतुर्योमप्रदेशकः । रुचकोऽधस्तादृगू मेवमष्टप्रदेशकः ॥ ४८२ ॥ तिर्यग्लोकस्तु रुचकस्योपरिष्टादधोऽपि च । योजनानां नव नव, शतानि भवति स्फुटम् ॥ ४८३ ॥ तिर्यग्लोकस्य त्वधस्तादधोलोकः प्रतिष्ठितः। नवयोजनशत्यूनसप्तरज्जुप्रमाणकः ॥ ४८४ ॥ १ कारागृहसमानम् । २ कोशागारिकतुल्यम् । ३ दधिमथकस्यासनभेदः। ४ मृदङ्गसदृशः । ५ तारक चतुःप्रदेश इत्यर्थः । संस्थानविचयम् लोकस्वरूपम् ॥२२४॥ For Private & Personal use only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्राऽधो भागमासाद्याधोऽधःस्थाः सप्त भूमयः । यासु नीरकपण्डानां निवासाः सन्ति भीषणाः ॥ ४८५ ॥ रत्नशर्करावालुकापङ्कधूमतमःप्रभाः । महातमः प्रभा चाऽऽसां, बाहल्ये लक्षयोजनी || ४८६ ॥ अशीतिर्द्वात्रिंशदष्टाविंशतिर्विंशतिस्तथा । अष्टादश पोडशाऽष्टौ, सहस्राच क्रमेण तु ॥ ४८७ ॥ रत्नप्रभाभुवोऽघोऽधः क्रमात् पृथुतराच ताः । त्रिंशल्लक्षाणि नरकावासानां प्रथमावनौ ।। ४८८ ॥ पञ्चविंशतिलक्षाणि, द्वितीयनरकावनौ । तृतीयायां पञ्चदश, तुरीयायां पुनर्दश ॥ ४८९ ॥ पञ्चम्यां त्रीणि पञ्चोनं, लक्षं पश्यां पुनर्भुवि । पञ्चैव नरकावासाः, सप्तम्यां नरकावनौ ॥। ४९० ॥ rai रत्नप्रभादीनामधस्ताच्च घनाव्धयः । मध्योत्सेधे योजनानां सहस्राणि तु विंशतिः ॥ ४९१ ॥ तदधस्ताद् घनवाता, मध्योत्सेधे भवन्ति तु । योजनानामसङ्ख्यानि सहस्राणि घनाब्धितः ।। ४९२ ॥ तनुवातास्त्वसङ्ख्यानि, तानि स्युर्घनवाततः । आकाशं तनुवातेभ्योऽप्यसत्येयानि तानि च ।। ४९३ ॥ मध्योत्सेधादमुष्मात् तु हीयमानाः क्रमेण च । घनाम्भोध्यादयः प्रान्ते, वलयाकारधारिणः ॥ ४९४ ॥ रत्नप्रभाया मेदिन्याः, परिधिस्थितिशालिनः । घनाम्भोधिवलयस्य विष्कम्भो योजनानि षट् ॥ ४९५ ॥ महावातस्य वलयविष्कम्भे योजनानि तु । सार्धानि चत्वारि तनुवायोः सार्धं तु योजनम् ॥ ४९६ ॥ रत्नप्रभाया वलयमानस्योपरि जायते । शर्कराया घनाम्भोधौ, त्रिभागो योजनस्य तु ॥ ४९७ ।। महावाते च गव्यूतमेकं भवति निश्चितम् । गव्यूतस्य तृतीयांशस्तनुवातेऽपि वर्धते ॥ ४९८ ॥ शर्करावलयमानस्योपरि क्षेप एष च । तृतीयपृथ्वीवलय विष्कम्भेष्वपि जायते ॥ ४९९ ॥ ११ जैनागमेषु नारकाणां नपुंसकत्वं स्वीकृतमित्येवं प्रयोगः । २ स्थूलत्वे । ३ रत्नप्रभावनौ । अधोलोकः नरका नरकावासा वलयाच . Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते द्वितीयं पर्व तृतीय: सर्गः अजितसगरयो|श्चरितम् । ॥२२५॥ एवं च प्राक्प्राग्वलयमानोर्बु क्षेप एष च । सप्तमी पृथिवीं यावद्, वलयेषु विधीयते ॥ ५००॥ घनाम्भोधि-महावाता-ऽल्पवातवलयानि तु । स्वस्खपृथ्वीगतोत्सेधसमोत्सेधानि सर्वतः ॥५०१॥ इत्थं च भूमयः सप्त, घनाम्भोध्यादिधारिताः । तावेव नरकावासा, भोगस्थानं कुकर्मणाम् ॥५०२॥ यातना-रुक्शरीरा-ऽऽयु-लेश्या-दुःख-भयादिकम् । वर्धमानं विनिश्चयमधोऽधाश्वभ्रभूमिषु ॥ ५०३॥ अथ रत्नप्रभाभूम,हल्ये जायते खलु । योजनानां लक्षमेकं, सहस्राशीतिसंयुतम् ॥ ५०४ ॥ त्यक्त्वा योजनसहस्रमेकमूर्द्धमधोऽपि च । तदन्तः सन्ति भवनपतीनां भवनानि तु ॥ ५०५॥ ते च भवनपतयो, दक्षिणोत्तरयोर्दिशोः। श्रेणीद्वयेन तिष्ठन्ति, राजमार्गेऽट्टपतिवत् ॥ ५०६ ॥ तत्र चूडामणिचिहा, असुरा भवनाधिपाः।नागाः पुनः फणाचिह्ना, विद्युतो वज्रलाञ्छनाः ॥५०७॥ सुपणों गरुडचिह्ना, घटचिह्नाश्च वह्नयः । अश्वाङ्का वायवो वर्धमानाङ्काः स्तनिताः पुनः ॥५०८॥ मकराङ्का उदधयो, दीपाः केसरिलाञ्छनाः। भवन्ति दिक्कुमारास्तु, सर्वे कुञ्जरलाञ्छनाः ॥५०९॥ तत्राऽसुराणां द्वाविन्द्रौ, चमरो बलिरित्यपि । धरणो भूतानन्दश्च, नागानां तु पुरन्दरौ ॥ ५१०॥ इन्द्रौ विद्युत्कुमाराणां, हरिहरिसहस्तथा । वेणुदेवो वेणुदारी, सुपर्णानां तु वासवौ ॥५११॥ ईशावग्निकुमाराणामग्निशिखा-ऽग्निमाणवी । इन्द्रौवायुकुमाराणां, वेलम्बोऽथ प्रभञ्जनः॥५१२ सुघोषोऽथ महाघोषः,स्तनितानां तु वासवौ। इन्द्रावब्धिकुमाराणां, जलकान्त-जलप्रभो॥५१३॥! पूर्णो वशिष्टश्च द्वीपकुमाराणामधीश्वरौ । अधिपौ दिकुमाराणाममिता-ऽमितवाहनौ ॥५१४॥ १ नरकभूमिषु। २ वर्द्धमानं सम्पुटकः। ३ मेघकुमाराः । भवनपतबस्तचिहानि तदिन्द्राब ॥२२५॥ Jain Education Inter l a For Private & Personal use only . Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education रत्नप्रभाया उपरि, योजनानां सहस्रतः । उपरिष्टादधस्ताच्च, त्यक्त्वैकां शतयोजनीम् ॥ ५१५ ॥ वसन्ति योजनशतेष्वष्टस्वष्टविधाः खलु । दक्षिणोत्तरयोः श्रेण्योर्व्यन्तराणां निकायकाः ।। ५१६ ॥ पिशाचव्यन्तरास्तत्र, कदम्बतरुलाञ्छनाः । भूताः सुलसवृक्षाङ्का, यक्षास्तु वटलाञ्छनाः ॥ ५१७ ॥ राक्षसास्तु खद्वाङ्गाङ्का, अशोकाङ्कास्तु किन्नराः । चम्पकाङ्काः किम्पुरुषा, नागङ्का महोरगाः ।।५१८॥ गन्धर्वव्यन्तराश्चारुतुम्बुरुदुमलाञ्छनाः । तत्र काल-महाकालौ, पिशाचानामधीश्वरौ ।। ५१९ ।। सुरूपोऽप्रतिरूपश्च भूतानामधिपौ पुनः । यक्षाणां पूर्णभद्रश्व, माणिभद्रव वासवः ।। ५२० ।। राक्षसानां पुनर्भीमो महाभीमश्च नायकः । किन्नराणामधीशौ किन्नर - किम्पुरुषौ पुनः ॥ ५२१ ॥ तथा सत्पुरुष महापुरुषौ किम्पुरुषपौ । अतिकाय महाकायौ, महोरगपुरन्दरौ ॥ ५२२ ॥ गन्धर्वाणां प्रभुर्गीत रतिर्गीतयशा अपि । इत्थङ्कारं व्यन्तराणां तत्रेन्द्राः सन्ति षोडश ।। ५२३ ।। रत्नप्रभायाः प्रथमे, योजनानां शते तथा । योजनानि परित्यज्य, दशाऽधो दश चोपरि ।। ५२४ ।। सन्त्यशीतौ योजनेषु, व्यन्तराष्टनिकायकाः । तत्राऽप्रज्ञप्तिकः पञ्चप्रज्ञप्तिऋषिवादितः ॥ ५२५ ॥ भूतवादितः क्रन्दितो, महाक्रन्दित एव च । कूष्माण्डः पवकश्चेति, तेषु द्वौ द्वौ पुरन्दरौ ॥ ५२६ ॥ सन्निहितः समानच, तथा धातृ-विधातृकौ । ऋषिश्च ऋषिपालच, तथेश्वर - महेश्वरौ ||५२७॥ सुवत्सक - विशालौ च, हास-हासरती तथा । तथा श्वेत- महाश्वेतौ, पवकः पवकाधिपः ॥ ५२८ ॥ रत्नप्रभातलादूर्द्ध योजनानां शतेषु च । अष्टासु दशहीनेषु, ज्योतिष्काणामधस्तलम् ॥ ५२९ ॥ १ नागद्रोः नागवृक्षस्य अङ्कं चिह्नं येषां ते नागवङ्काः । व्यन्तरा वानव्यन्तरास्तचिडानि तदिन्द्राश्व . Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते द्वितीयं पर्व तृतीयः सर्गः अजितसगरयोश्चरितम् । ॥२२६॥ ज्योतिष्काः तदुर्द्ध दशयोजन्यां, सूर्यः सूर्यस्य चोपरि। भवत्यशीतियोजन्याः, प्रान्ते तुहिनदीधितिः॥ ५३०॥ ततो विंशतियोजन्याः, प्रान्ते तारा ग्रहा इति । बाहल्ये योजनशतं, ज्योतिर्लोको दशोत्तरम् ॥ ५३१॥ एकविंशैर्योजनानामत्रैकादशभिः शतैः । द्वीपस्य जम्बूद्वीपस्य, मेरुशैलमसंस्पृशत् ॥ ५३२ ॥ आस्थितं मण्डलिकया, दिक्षु सर्वासु सन्ततम् । ज्योतिश्चक्रं बम्भ्रमीति, ध्रुव एकस्तु निश्चलः ॥ ५३३॥ योजनानामेकादशशतैरेकादशोत्तरः । लोकान्तमस्पृशत् तद्धि, मण्डलेनाऽवतिष्ठते ॥ ५३४॥ अत्र सर्वोपरि स्वातिः, सर्वेषां भरणी त्वधः । सर्वेभ्यो दक्षिणो मूलोऽभीचिः सर्वोत्तरः पुनः॥५३५॥ तत्र जम्बूद्वीपेऽमुष्मिन्, द्वौ चन्द्रौ द्वौ च भास्करौ । लवणोदे च चत्वारश्चन्द्रा दिनकरास्तथा ॥५३६॥ द्वादश धातकीखण्डे, चन्द्रा द्वादश भानवः । कालोदे द्विचत्वारिंशचन्द्रा दिनकरास्तथा ॥ ५३७॥ द्वासप्ततिः पुष्करार्धे, चन्द्राश्च रवयोऽपि च । एवं द्वात्रिंशमिन्दूनां, शतं दिनकृतां तथा ॥ ५३८॥ एकस्यैकस्य चन्द्रस्य, जायते च पेरिग्रहः । अष्टाशीतिर्ग्रहाश्चैव, भान्यष्टाविंशतिस्तथा ॥ ५३९ ॥ षट्पष्टिश्च सहस्राणि, तथा नव शतानि च । तारकाकोटिकोटीनां, पञ्चसप्ततिरेव च ॥ ५४०॥ इन्दोविमानं विष्कम्भा-ऽऽयामयोर्योजनस्य तु । एकषष्ट्यंशीकृतस्य, स्युः षट्पञ्चाशदंशकाः ॥५४१॥ अष्टचत्वारिंशदंशा, विमाने तु विवस्वतः। योजनाधं ग्रहाणां तु, भानां गव्यूतमेककम् ।। ५४२ ॥ सर्वोत्कृष्टायुषस्तारकायाः क्रोशाधमेव तु । सर्वजघन्यायुष्कायाः, पश्च धन्वशतानि तु ॥५४३॥ पिण्डः सर्वत्र दैाध, मर्त्य क्षेत्रे भवन्ति ते । पञ्चचत्वारिंशल्लक्षयोजनप्रमिते खलु ॥ ५४४ ॥ १ चन्द्रः। २ परिवारः। ३ नक्षत्राणि । ४ सूर्यस्य । ५ नक्षत्राणाम् । ६ स्थूलत्वम्। . ॥२२६॥ Jain Education W aldnal For Private & Personal use only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिर्यग्लोकः GESTOSSESSO4OSRAMOSOS पुरः सिंहा दक्षिणतो, गजा अपरतो वृषाः । उत्तरतोऽश्वाश्चन्द्रादिविमानवाहनान्यमी ॥ ५४५॥ ते चाऽऽभियोगिकाश्चन्द्रांश्वोः सहस्राणि षोडश । ग्रह-नक्षत्र-ताराणामष्टौ चत्वार्युमे क्रमात् ॥ ५४६॥ चन्द्रादीनां गतिजुषां, स्वरसेनैव सन्ततम् । वाहनत्वेनाऽवतिष्ठन्त्याभियोग्येन कर्मणा ॥ ५४७ ।। मानुषोत्तरपरतो, योजनानां सहस्रकैः । पञ्चाशतेन्दवोऽर्काश्च, तिष्ठन्त्यन्तरिता मिथः॥ ५४८॥ मनुष्यक्षेत्रचन्द्रा-ऽर्कमानादर्धप्रमाणकाः । क्रमशः क्षेत्रपरिधिवृद्ध्या वर्धिष्णुसङ्ख्यकाः ॥ ५४९॥ . सुलेश्या ग्रह-नक्षत्र-तारकापरिवारिताः । सङ्ख्याविवर्जिता एवं, घण्टाकारमनोहराः ॥ ५५० ॥ खयम्भूरमणाम्भोधिमवधीकृत्य ते सदा । तिष्ठन्ति योजनलक्षान्तरिताभिश्च पतिभिः ॥ ५५१॥ मध्यलोके जम्बूद्वीप-लवणाद्याः शुभाभिधाः। द्विगुणद्विगुणाभोगा, असङ्ख्या द्वीप-सागराः ॥५५२॥ पूर्वपूर्वपरिक्षेपकृतो वलयसन्निभाः । अन्त्यः स्वयम्भूरमणो, नाम तेषां महोदधिः ॥ ५५३ ॥ जम्बूद्वीपान्तरे मेरुः, काञ्चनस्थालवतुलः। अधो योजनसहस्रमवगादो महीतले ॥ ५५४॥ नवनवतिं योजनसहस्राणि समुच्छ्रितः। योजनानां सहस्राणि, भूतले दश विस्तृतः॥ ५५५ ॥ एकं योजनसहस्रमुपरिष्टाच्च विस्तृतः । त्रिकाण्डश्च त्रिभिलॊकैः, प्रविभक्तवपुश्च सः ॥ ५५६ ॥ शुद्धपृथ्वी-प्राव-वज्र-शर्कराबहुलं खलु । एकं योजनसहस्रं, सुमेरोः काण्डमादिमम् ॥ ५५७ ॥ जातरूप-स्फटिका-ऽङ्क-रजतैबहुलावनि । योजनानां सहस्राणि, त्रिषष्टिस्तु द्वितीयकम् ॥ ५५८॥ षत्रिंशच्च तृतीयं तु, जाम्बूनदशिलामयम् । वैडूर्यरत्नबहुला, चूलिका तस्य शोभना ॥ ५५९ ॥ चन्द्र-सूर्ययोः। २ पूर्वपूर्वद्वीप-समुद्रपरिवृताः एकान्तरिता द्वीप-समुद्राः । मेह Jain Education Intel For Private & Personal use only IMIT. Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते द्वितीयं पर्व तृतीयः सर्गः ॥२२७॥ अजितसगरयोचरितम् । चत्वारिंशद्योजनानि, पुनस्तस्याः समुच्छ्ये । मूलविष्कम्भमाने तु, तस्या द्वादशयोजनी ॥ ५६०॥ अष्टौ तन्मध्यविष्कम्भे, चत्वार्युपरिविस्तृतौ । मेरोमले भद्रशालं, वनं वलयसन्निभम् ॥ ५६१ ॥ भद्रशालात् पञ्चशतयोजन्यामधिमेखेलम् । नन्दनं विस्तृतं पञ्च, योजनानां शतानि तु ॥५६२॥ सार्धद्विषष्टिसहस्रयोजनेष्वथ तादृशम् । मेखलायां द्वितीयस्यां, तावत् सौमनसं वनम् ।। ५६३॥ वनात् सौमनसात् षट्त्रिंशद्योजनसहस्रतः। भवेद्र्द्ध तृतीयस्यां, मेखलाभुवि सुन्दरम् ॥ ५६४॥ चतुर्नवत्यग्रचतुःशतयोजनविस्तृतम् । वलयाकारमुद्यानं, मेरोः शिरसि पाण्डकम् ॥ ५६५॥ जम्बूद्वीपे त्विह द्वीपे, सप्त वर्षाणि भारतम् । हैमवतं हरिवर्ष, विदेहं रम्यकं तथा ॥५६६ ॥ हैरण्यवतैरवते, अमून्या दक्षिणोत्तरम् । विभागकारिणोऽमीषाममी वर्षधराद्रयः॥ ५६७ ॥ हिमवन्महाहिमवन्निषधा नील-रुक्मिणी । शिखरी चेति मूलोर्द्धतुल्यविस्तारशालिनः॥ ५६८॥ तत्राऽवगाढो मेदिन्यां, पञ्चविंशतियोजनीम् । हेममयोऽद्रिर्हिमवानुच्छ्रितः शतयोजनीम् ॥ ५६९॥ महाहिमवदद्रिस्तद्विगुणोऽर्जुननिर्मितः। ततोऽपि द्विगुणस्तापनीयो निषधपर्वतः॥ ५७०॥ नीलस्तु निषधतुल्यो, गिरिर्वैडूर्यनिर्मितः। महाहिमवता तुल्यो, रुक्मी रजतनिर्मितः ॥ ५७१ ॥ तापनीयस्तु शिखरी, समो हिमवदद्रिणा । सर्वेऽपि पार्श्वभागेषु, विचित्रमणिशालिनः॥ ५७२ ॥ सहस्रयोजनायामस्तदर्धेन तु विस्तृतः। अद्रौ क्षुद्रहिमवति, पद्मनामा महादः॥ ५७३ ॥ महाहिमवदद्रौ तु, महापद्माभिधो ह्रदः। विद्यते पद्मइदतो, द्विगुणायाम-विस्तृतिः॥ ५७४॥ १ उच्चत्वे । २ मेखलायाम् । ३ श्वेतसुवर्णनिर्मितः। ४ सुवर्णमयः। जम्बूद्वीपस्तद्वर्षाणि वर्षधरान ॥२२७॥ Jain Education in For Private & Personal use only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापद्मात् तु द्विगुणस्तिनिच्छिनिषधे हृदः। तिङ्गिच्छितुल्यो नीलाद्रौ, इदः केसरिसंज्ञकः॥५७५॥|| जम्बूद्वीपहृदाः महापुण्डरीको महापद्मतुल्यस्तु रुक्मिणि । पद्मतुल्यः पुण्डरीकहदः शिखरिपर्वते ॥ ५७६ ॥ विकखराणि तिष्ठन्ति, पद्मादिषु ह्रदेषु तु । कमलान्यवगाढानि, जलान्तर्दशयोजनीम् ॥ ५७७ ॥ श्रीह्रीधृतिकीर्तिबुद्धिलक्ष्म्यः पल्यायुषोत्र तु । सामानिकपार्षद्याऽऽत्मरक्षानीकयुताः क्रमात् ॥५७८॥ तत्र च भरतक्षेत्रे, गङ्गा-सिन्धू महापगे। रोहिता-रोहितांशे तु, क्षेत्रे हैमवताभिधे ॥५७९॥ हरिद्धरिकान्ता नद्यौ, वर्षे तु हरिवर्षके। महाविदेहेषु शीता-शीतोदे सरिदुत्तमे ।। ५८०॥ जम्बूद्वीप महानद्यः नरकान्ता-नारीकान्ते, क्षेत्रे रम्यकनामनि । स्वर्णकूला-रूप्यकूले, हैरण्यवतवर्षके ॥ ५८१॥ नद्यौ तु रक्ता-रक्तोदे, क्षेत्र ऐरवताभिधे । आद्याः पूर्वाब्धिगामिन्यो, द्वितीयाः पश्चिमाब्धिगाः॥५८२॥ आपगानां सहस्रस्तु, चतुर्दशभिरुत्तमैः । गङ्गा-सिन्धू महानद्यौ, प्रत्येक परिवारिते ॥ ५८३ ॥ द्विगुणद्विगुणनदीवृते द्वे द्वे परे अपि । यावच्च शीता-शीतोदे, उत्तरा दक्षिणोपमाः ॥ ५८४॥ प्रत्येकं ते पुनः शीता-शीतोदे परिवारिते । द्वात्रिंशत्सहस्राधिकैर्नदीलक्षैस्तु पञ्चभिः ॥५८५ ॥ भरतोरुत्वे षडूविंशा, पञ्चयोजनशत्यथ । एकोनविंशत्यंशस्य, योजनस्य पडंशकाः ॥ ५८६ ॥ ततो द्विगुणद्विगुणविष्कम्भाश्च यथोत्तरम् । विदेहान्ता वर्षधराचल-वर्षा भवन्ति तु ॥ ५८७॥ विदेहक्षेत्रम् उत्तरे वर्षधराद्रि वर्षास्तुल्यास्तु दक्षिणैः । वर्षधराद्रि-वर्षाणां, प्रमाणमिदमेव हि ॥ ५८८॥ निषधानेरुत्तरतो, मेरोदक्षिणतोऽपि च । विद्युत्मभ-सौमनसौ, गिरी पश्चिम-पूर्वकौ ॥ ५८९ ॥ : जलमध्ये दशयोजनपर्यन्तमवगाय स्थितानि । २ महानद्यौ। ३ भरतस्य पृथुत्वे । For Private & Personal use only Jan Eco Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते द्वितीयं पर्व तृतीया सर्गः अजित ॥२२८॥ सगरयोचरितम् । गजदन्ताकृती मूर्धा, स्तोकादस्पृष्टमेरुको । अनयोरन्तरे देवकुरवो भोगभूमयः ॥ ५९० ॥ तद्विष्कम्भो योजनानामेकादश सहस्रकाः। द्विचत्वारिंशदधिका, योजनाष्टशती तथा ॥ ५९१ ॥ तत्र च शीतोदाभिन्नहदपञ्चकपार्श्वतः । स्वर्णशैला दश दश, ते मिथो मीलनाच्छतम् ॥ ५९२ ॥ तत्र नद्याः शीतोदायाः, पूर्वापरतटस्थितौ । शैलौ विचित्रकूटश्च, चित्रकूटश्च नामतः॥ ५९३ ॥ तयोः सहस्रमुत्सेधे, योजनानामधोऽपि च । तावानेव हि विस्तारस्तदर्ध चोर्द्धविस्तृतौ ॥ ५९४ ॥ मेरोरुत्तरतो नीलगिरेदक्षिणतो गिरी । गजदन्ताकृती गन्धमादनो माल्यवानपि ॥ ५९५ ॥ तयोरन्तः शीताभिन्नदपश्चकपार्श्वगैः । स्वर्णशैलैः शतेनातिरम्याः कुरव उत्तराः॥ ५९६ ॥ तेषु नद्याश्च शीतायास्तटयोर्यमकाभिधौ । सौवौँ विचित्रकूट-चित्रकूटसमौ गिरी ॥ ५९७ ॥ देवोत्तरकुरुभ्यः प्राक्, प्राग्विदेहाः स्मृताश्च ते । पश्चिमेऽपरविदेहा, मिथः क्षेत्रान्तरोपमाः॥५९८॥ परस्परमसञ्चारा, विभक्ताः सरिदद्रिभिः । चक्रिविजेया विजयास्तेषु षोडश षोडश ॥ ५९९ ॥ तत्र कच्छो महाकच्छः, सुकच्छः कच्छवानपि । आवों मङ्गलावर्तः, पुष्कल: पुष्कलावती॥ प्राग्विदेहोत्तरा ह्येते, दक्षिणास्त्वथ वत्सकः । सुवत्सोऽथ महावत्सो, रम्यवान् रम्य-रम्यको। रमणीयो मङ्गलवानथाऽपरविदेहगाः । पद्मः सुपद्मोऽथ महापद्मः पद्मावती तथा ॥६०२॥ शङः कुमुद-नलिने, नलिनवांश्च दक्षिणाः । वप्रः सुवप्रोऽथ महावप्रो वप्रावती तथा ॥६०३॥ अथ वल्गुः सुवल्गुश्च, गन्धिला गन्धिलावती। अपरेषु विदेहेषूत्तरस्था विजया अमी॥६०४॥ उच्चत्वे । २ पूर्वस्यां दिशि । ३ पूर्वविदेहाः। ४ चक्रिणा विजेतुं योग्याः । विदेहक्षेत्रम् विजयाः ॥२२८॥ Jain Education a l For Private & Personal use only . Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपस्य जगती वैताब्यगिरयश्च मध्ये च भरतस्याऽपागुत्तरार्धविभागकृत । वैताट्याद्रिः प्रागपरपयोधी यावदायतः॥६०५॥ पद् योजनानि सक्रोशान्युा मग्नः स विस्तृतः । पञ्चाशतं योजनानि, तदधं पुनरुच्छ्रितः॥६०६॥ भूमितो दशयोजन्यां, दक्षिणोत्तरपार्श्वयोः । तत्र विद्याधरश्रेण्यौ, दशयोजनविस्तृते ॥६०७॥ तत्रापाच्यां सराष्ट्राणि, पञ्चाशनगराणि तु । उत्तरस्यां पुनः षष्टिविद्याधरमहीभुजाम् ॥६०८॥ ऊर्द्ध विद्याभृच्छ्रेणिभ्यां, दशयोजन्यनन्तरम् । उमे च व्यन्तरश्रेण्यौ, व्यन्तरावासशोभिते ॥६०९॥ उपरि व्यन्तरश्रेण्योर्योजनेषु तु पञ्चसु । कूटानि नव वैताढ्य, ईगैरवतेऽपि हि ॥ ६१०॥ प्राकारभूता द्वीपस्य, जम्बूद्वीपस्य तिष्ठति । जगती वज्रमय्यष्टौ, योजनानि समुच्छ्रिता ॥ ६११॥ तस्याश्च मूले विष्कम्भमाने द्वादशयोजनी । मध्यभागे योजनानि, चाष्टौ चत्वारि मूर्धनि ॥ ६१२॥ तद जालकटको, गव्युतद्वितयोच्छ्रयः। विद्याधराणामाक्रीडस्थानमेकं मनोहरम ॥ ६१३॥ ततोऽपि जालकटकादुई पद्मवराभिधा । विद्यते वेदिका रम्या, भोगभूमिर्दिवौकसाम् ॥६१४॥ तस्या जगत्याः पूर्वादिदिक्षु द्वाराणि च क्रमात् । विजयं वैजयन्तं च, जयन्तमपराजितम् ॥६१५॥ अस्ति च क्षुद्रहिमवन्महाहिमवदन्तरे । शब्दापातीनामधेयाद्, वृत्तवैताठ्यपर्वतः॥६१६ ॥ शैलस्तु विकटापाती, मध्ये शिखरि-रुक्मिणोः । गन्धापाती पुनर्महाहिमवन्निषधान्तरे।।६१७।। माल्यवानन्तराले च, शैलयोनील-रुक्मिणोः। सर्वेऽपि पल्याकृतयः, सहस्रयोजनोच्छ्रयाः॥६१८॥ जबूद्वीपपरिक्षेपी, विस्तारे द्विगुणस्ततः । अवगाढो योजनानां, सहस्रमवनीतले ॥६१९ ॥ १ पूर्वपश्चिमसमुद्रौ। २ दक्षिणस्याम् । चक्षुद्रहिमवन्महाहिमबार सक्मिणोः । गन्धापाती पुनस्रयोजनोच्छ्रयाः ॥६१८ Jain Education Inte For Private & Personal use only . Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिपष्टिशलाका पुरुषचरिते द्वितीय पर्व तृतीयः सर्गः अजितसगरयो. चरितम् । ॥२२९॥ पञ्चनवतियोजनसहस्रीं च क्रमात क्रमात । उभयतोऽप्युच्छ्रयेण, वर्धमानजलस्तथा ॥ ६२०॥ मध्ये च योजनदशसहस्रीप्रमविस्ततौ । योजनानां सहस्राणि, पोडशोच्छ्रयवच्छिखः॥६२१ ॥ कालद्वये तदुपरि, गव्य॒तद्वितयावधि । हास-वृद्धिधरो नाम्ना, लवणोदः पयोनिधिः॥ ६२२॥ ॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥ पूर्वादिदिक्षु तत्रान्तः, प्रमाणे लक्षयोजनाः । वडवामुख-केयूप-यूपकेश्वरसंज्ञकाः ॥ ६२३ ॥ सहस्रयोजनीमानवज्रनिर्मितकुड्यकाः। योजनानां सहस्राणि, दशाऽधोऽन्ते च विस्तृताः॥ ६२४ ॥ वायुधृतेत्र्यंशजला, महालिञ्जरसन्निभाः। पातालकलसाः सन्ति, चत्वारः प्राक्क्रमादमी ॥६२५ ॥ तेषु कालो महाकालो, वेलम्बोऽथ प्रभञ्चनः । वसन्ति क्रीडावासेषु, क्रमेणैव दिवौकसः ॥६२६॥ सहस्रयोजनाश्चाऽन्ये, दशयोजनकुड्यकाः । अधस्ताच्च वेदने च, शतयोजनसम्मिताः ॥ ६२७॥ वायत्क्षिप्तमध्यमिश्रापाः शतान्यष्टसप्ततिः । चतुरशीतिश्च क्षुद्रपातालकलसा इह ॥ ६२८॥ द्विचत्वारिंशत्सहस्रसङ्ख्या नागकुमारकाः । अन्तर्वेलाधारिणोऽस्मिन्नायुक्ता इव सर्वदा ॥ ६२९॥ बाह्यवेलाधारिणां तु, सहस्राणि द्विसप्ततिः । तथा पष्टिः सहस्राणि, शिखावेलाप्रधारिणाम् ॥ ६३०॥ गोस्तूप उदकाभासः, शङ्कोऽप्यदकसीमकः। हेमा-ऽङ्क-रौप्य-स्फाटिका, वेलाधारीन्द्रपर्वताः६३१ गोस्तूप-शिवक-शङ्ख-मनोहृदसुराश्रयाः। द्विचत्वारिंशत्सहस्रयोजन्यां दिग्भवाश्च ते ॥ ६३२ ॥ १ उपरि। २ तृतीयभागो वायुपूरितो भागद्वये च जलमस्तीति तात्पर्यम् । ३ अलिअरो मृदाण्डविशेषः । उपरि । ५ प्रमाणाः। ६ वायुनोरिक्षप्ता मध्ये मिश्रा आपो येषां ते। ७ समुद्रे । ८ नियुक्ता इव । लवणाधिः पातालकलशा वेलन्धरदेवाश्च ॥२२९॥ Jain Education Inte For Private & Personal use only , Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धातकी पुष्कराई तद्गता एकविंशसप्तदशशतयोजनिकोच्छ्याः । ते द्वाविंशयोजनानां, सहस्रं विस्तृतास्त्वधः ॥ ६३३ ॥ उपरिष्टाचतुर्विंशां, योजनानां चतुःशतीम् । तेषामुपरि सर्वेषां, प्रासादाः सन्ति शोभनाः ॥ ६३४॥ कर्कोटकः कार्दमकः, कैलाशश्चाऽरुणप्रभः। सर्वरत्नमयाश्चाणुवेलाधारीन्द्रपर्वताः ॥ ६३५॥ कर्कोटको विद्युजिह्वः, कैलाशोथाऽरुणप्रभः । वसन्ति देवतास्तेषु, सर्वदैव यथाक्रमम् ॥ ६३६ ॥ सहस्रेषु द्वादशसु, योजनानां विदिक्षु च । प्राच्यामिन्दुद्वीपी तावद्विस्तारा-ऽऽयामशोभितौ ॥६३७॥ विद्यते सवितृद्वीपावपरेण च तावति । तथाऽस्ति गौतमद्वीपस्तावति सुस्थिताश्रयः॥ ६३८॥ अन्तर्वाह्यलावणकचन्द्रा-ऽर्काणां तथाऽऽश्रयाः । प्रासादास्तेषु लवणरसस्तु लवणोदधिः॥ ६३९ ॥ लवणोदपरिक्षेपी, ततो द्विगुणविस्तृतिः । धातकीखण्ड इत्यस्ति, नाम्ना द्वीपो द्वितीयकः॥६४०॥ जम्बूद्वीपे च ये मेरु-वर्ष-वर्षधराद्रयः। धातक्यां द्विगुणास्ते तु, ख्यातास्तैरेव नामभिः ॥ ६४१॥ इष्वाकारपर्वताभ्यां, दीर्घाभ्यामुदग्याम्ययोः। विभक्ता जम्बूद्वीपस्थसङ्ख्याः पूर्वापरार्धयोः॥ ६४२॥ चक्राराभा निषधोचाः, कालोद-लवणस्पृशः । वर्षधराः सेष्वाकारा, वर्षास्त्वरान्तरस्थिताः ॥ ६४३॥ धातकीखण्डद्वीपस्य, परिक्षेपी पयोनिधिः । कालोदाख्यो योजनानामष्टी लक्षाणि विस्तृतः ॥६४४॥ धातक्यां सेष्वाकाराणां, मेर्वादीनाममापि यः । सङ्ख्याविषयनियमः, पुष्कराधैं स एव हि ॥६४५॥ धातकीखण्डक्षेत्रादिविभागाद् द्विगुणः पुनः । क्षेत्रादिकविभागोत्र, पुष्करार्धे प्रकीर्तितः ॥६४६॥ चत्वारो मेरवः क्षुद्रा, धातकी-पुष्करार्धयोः। योजनानां पञ्चदशसहरुया मेरुतोष्णवः ॥ ६४७॥ १ सुस्थिताभिधानस्य देवस्याश्रयः। २ लघवः । मेरवश्र त्रिषष्टि. ४०१ Jain Education Intel For Private & Personal use only I Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥२३॥ द्वितीयं पर्व तृतीयः सर्गः अजितसगरयो. श्चरितम् । मानुषोत्तरः मेरोर्योजनषट्शत्या, हीनविष्कम्भकाः क्षितौ । तेषां च प्रथम काण्डं, महामेरोरेनूनकम् ॥ ६४८॥ द्वितीयं सप्तभिर्म्युनं, योजनानां सहस्रकैः । तृतीयमष्टभिर्मेस्वद् भद्रशाल-नन्दने ।। ६४९ ।। सहार्धपञ्चपञ्चाशसहस्रयोजनोपरि । पञ्चयोजनशत्या च, पृथु सौमनसं वनम् ॥ ६५०॥ अष्टाविंशतिसहरुया, योजनानामथोपरि । षडूनयोजनपञ्चशतविस्तारि पाण्डकम् ॥ ६५१॥ उपरिष्टादधस्ताच्च, विष्कम्भोऽथाऽवगाहनम् । महामेरुगिरेस्तुल्यं, तत्तुल्या चूलिकाऽपि च ॥ ६५२॥ तदेवं मानुषं क्षेत्रं, द्वीपावर्धतृतीयको । द्वावधी पञ्चत्रिंशच, वर्षाः पञ्च च मेरवः ॥ ६५३ ॥ त्रिंशद् वर्षधरा देवकुरवः पञ्च पञ्च च । उत्तराः कुरवः पथ्युत्तरं च विजयाः शतम् ।। ६५४ ॥ - ततः परं पर्वतोऽस्ति, नामतो मानुषोत्तरः। मर्त्यलोकपरिक्षेपी, पुरणाकारवर्तुलः॥ ६५५ ॥ निविष्टः पुष्करस्याऽर्धे सौवर्णः सैकविंशतिम् । योजनानां सप्तदशशतीं यावत् समुच्छ्रितः ॥ ६५६ ॥ चतुःशतीं योजनानां, त्रिंशां क्रोशं च भूमिगः। योजनानां सहस्रं द्वाविंशं विस्तीर्णवानधः ॥ ६५७ ॥ योजनानां सप्तशती, त्रयोविंशां च मध्यतः। उपरिष्टाचतुर्विशां, योजनानां चतुःशतीम् ॥ ६५८॥ नोत्पद्यन्ते न म्रियन्ते, मास्तत्परतः क्वचित । न म्रियन्ते चारणाद्या, अपि तत्परतो गताः ॥६५९॥ मानुषोत्तरनामा च, तेनाऽयं परतोऽस्य च । बादराग्नि-मेघ-विद्युन्नदी-कालादयो न हि ॥ ६६०॥ पञ्चविंशति वर्षेषु, चैष्वर्वाग् मानुषोत्तरात | मनुष्याः सान्तरद्वीपेपूत्पद्यन्ते हि जन्मतः ।। ६६१ ॥ संहार-विद्य-द्धियोगान्मेवादिशिखरेषु च । द्वीपेष्वर्धतृतीयेषु, समुद्रद्वितये च ते ॥ ६६२ ।। समानम् । * शत्सह° सङ्घ २ ।। ॥२३०॥ Jain Education in For Prvale & Personal use only . Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BOSSAGISTA OSASSA आर्यानार्यदेशा मनुष्याश्च ते च भारतका जम्बूद्वीप्या लावणका अपि । इत्येवमादयः क्षेत्र-द्वीपा-ऽम्भोधिविभागतः ॥६६॥ ___द्विधाऽऽर्य-म्लेच्छभेदात् ते, तत्राऽऽर्याः षड्विधा इह । क्षेत्र-जाति-कुल-कर्म-शिल्प-भाषाविभेदतः॥६६४॥ क्षेत्रार्याः पञ्चदशसु, जायन्ते कर्मभूमिपु । तत्रेह भारते सार्धपश्चविंशतिदेशजाः ॥ ६६५॥ ते चाऽऽयंदेशा नगरैरुपलक्ष्या इमे यथा । राजगृहेण मगधा, अङ्गदेशस्तु चम्पया ॥६६६॥ वङ्गा पुनस्ताम्रलिप्त्या, वाराणस्या च काशयः। काञ्चनपुर्याकलिङ्गाः, साकेतेन च कोसलाः॥ कुरवो गजपुरेण, शौर्येण च कुशार्तकाः। काम्पील्येन च पश्चाला, अहिच्छत्रेण जाङ्गलाः॥ विदेहास्तु मिथिलया, द्वारवत्या सुराष्ट्रकाः। वत्साश्च कौशाम्बीपुर्या, मलया भद्रिलेन तु ॥ नान्दीपुरेण सन्दर्भा, वरुणाः पुनरच्छया। वैराटेन पुनर्मत्स्याः , शुक्तिमत्या च चेदयः॥६७०॥ दशार्णा मृत्तिकावत्या, वीतभयेन सिन्धवः। सौवीरास्तु मथुरया, सूरसेनास्तु पापया ॥६७१॥ भङ्गया मासपुरीवर्ताः,श्रावस्त्या च कुणालकाः।कोटीवर्षेण लाटाच, श्वेतव्या केतकार्धकम् ॥ आर्यदेशा अमी एभिनगरैरुपलक्षिताः । तीर्थकृच्चक्रभृत्कृष्ण-बलानां जन्म येषु हि ॥ ६७३॥ इक्ष्वाकवो ज्ञात-हरि-विदेहाः कुरवोऽपि च । उग्रा भोजा राजन्याश्च, जात्यार्या एवमादयः॥६७४॥ कुलार्यास्तु कुलकराश्चक्रिणो विष्णवो बलाः । तृतीयात् पञ्चमात् सप्तमाद् वा ये शुद्धवंशजाः॥६७५॥ यजनैर्याजनैः शास्त्राध्ययना-ऽध्यापनरपि । प्रयोगैर्वार्त्तया वृत्तिमन्तः कार्यकाः स्मृताः ॥ ६७६ ॥ शिल्पायों स्वल्पसावद्यवृत्तयस्तन्तुवायकाः। तुन्नवायाः कुलालाच, नापिता देवलादयः ॥ ६७७ ॥ देवाजीवाः । Jain Education Index For Private & Personal use only . Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥२३॥ भाषार्या नाम ते शिष्टभाषानियतवर्णकम् । पञ्चानामपि चाऽऽर्याणां, व्यवहारं वदन्ति ये ॥६७८॥ द्वितीयं पर्व म्लेच्छास्तु शाका यवनाः, शबराबर्बरा अपि । काया मुरुण्डा उड्राश्च, गोड्राः पक्कणका अपि ॥ तृतीयः अरपाकाश्च हणाश्च, रोमकाः पारसा अपि । खसाश्च खासिका डौम्बिलिकाश्च लकुसा अपि ॥ सर्ग: भिल्ला अन्ध्रा वुक्कसाश्च, पुलिन्दाःक्रौञ्चका अपि । भ्रमररुताः कुञ्चाश्च, चीन-चक्षुक-मालवाः॥ अजितद्रविडाश्च कुलक्षा, किराताः कैकया अपि । हयमुखा गजमुखास्तुरगा-जमुखा अपि॥६८२॥18|| सगरयोहयकर्णा गजकर्णा, अनार्या अपरेऽपि हि । मर्त्या येषु न जानन्ति, धर्म इत्यक्षराण्यपि ॥ ६८३॥ चरितम् । ॥पञ्चभिः कुलकम् ॥ धर्मा-ऽधर्मोज्झिता म्लेच्छा, अन्तरद्वीपजा अपि । भवन्ति चाऽन्तरद्वीपाः, षट्पञ्चाशदमी यथा ॥६८४॥ अन्तरद्वीपाः तेऽर्धे क्षुद्रहिमवतः, पूर्वा-ऽपरविभागयोः । पूर्वोत्तराप्रभृतिषु, विदिक्षु चतसृष्वपि ॥ ६८५ ॥ पूर्वोदीच्यां दिशि तत्राऽवगाढो लवणोदधिः । त्रियोजनशतीं तावानायामे विस्तृतावपि ॥ ६८६ ॥ प्रथमोऽस्त्यन्तरद्वीप, एकोरुरिति नामतः । पुरुषा द्वीपनाम्नेह, सर्वाङ्गोपाङ्गसुन्दराः॥ ६८७ ॥ न खल्वेकोरुका एव, द्वीपेष्वित्यपरेष्वपि । ज्ञातव्या वक्ष्यमाणेषु, द्वीपनाम्नैव पूरुषाः ॥ ६८८॥ ॥२३॥ आग्नेय्यादिषु तन्मात्रावगाहा-ऽऽयाम-विस्तृताः। द्वीपा आभाषिको लाङ्गलिको वैषाणिकः क्रमात ॥ ततः परं योजनानामवगाह्य चतुःशतीम् । तावदायामसहितास्तावद्विष्कम्भशोभिनः ॥ ६९० ॥ ऐशान्यादिविदिश्वन्तीपाश्च हयकर्णकः । गजकर्णश्च गोकर्णः, शष्कुलकर्णकः क्रमात ॥६९१॥ - * मुरण्डा सङ्घ २ ॥ लकुला सङ्घ ३ ॥ Jain Education Inter For Private & Personal use only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥२३२॥ दशयोजनसहस्रातिरिक्तविस्तृतास्तले । सहस्रयोजनाश्चोर्द्ध, क्षुद्रा मेरूच्छ्याश्च ते ॥ ७०७॥ द्वितीयं पर्व तत्र प्राग देवरमणो, नित्योद्योतश्च दक्षिणः । स्वयम्प्रभःप्रतीच्यस्तु, रमणीय उदक्स्थितः॥७०८॥ तृतीया शतयोजन्यायतानि, तदधं विस्तृतानि च । द्विसप्ततियोजनोचान्यहच्चैत्यानि तेषु च ॥ ७०९॥ सर्गः पृथग्द्वाराणि चत्वार्युच्चानि षोडशयोजनीम् । प्रवेशे योजनान्यष्ट, विस्तारेऽप्यष्ट तेषु तु ॥ ७१० ॥ अजिततानि देवाऽसुर-नाग-सुपर्णानां दिवौकसाम् । समाश्रयास्तेषामेव, नामभिर्विश्रुतानि च ॥ ७११॥ सगरयोपोडशयोजनायामास्तावन्माच्यश्च विस्तृतौ । अष्टयोजनिकोत्सेधास्तन्मध्ये मणिपीठिकाः ॥ ७१२ ।। चरितम् । सर्वरत्नमया देवच्छन्दकाः पीठिकोपरि । पीठिकाभ्योऽधिकायामोच्छ्रयभाजश्च तेषु तु ॥ ७१३ ॥ ऋषभा वर्धमानाच, तथा चन्द्राननाऽपि च । वारिषेणा चेति नाम्ना, पर्यङ्कासनसंस्थिताः॥७१४॥ रत्नमय्यो युताः स्वस्वपरिवारेण हारिणा । शाश्वताहत्प्रतिमाः प्रत्येकमष्टोत्तरं शतम् ॥ ७१५॥ नन्दीश्वरः द्वे द्वे नाग-यक्ष-भूत-कुण्डभृत्प्रतिमे पृथक् । प्रतिमानां पृष्ठतस्तु, च्छत्रभृत्प्रतिमैकिका ॥ ७१६ ॥ तेषु धूपघटी-दाम-घण्टा-अष्टमङ्गली-ध्वजाः । छत्र-तोरण-चङ्गेयः, पटलान्यासनानि च ॥ ७१७ ॥ पोडश पूर्णकलसादीन्यलङ्करणानि च । सुवर्णरुचिररजोवालुकास्तलभूमयः ॥ ७१८॥ आयतनप्रमाणेन, रुचिरा मुखमण्डपाः । प्रेक्षार्थमण्डपा अक्षवाटिका मणिपीठिकाः ।। ७१९ ॥ ॥२३२॥ रम्याश्च स्तूप-प्रतिमाश्चैत्यवृक्षाश्च सुन्दराः । इन्द्रध्वजाः पुष्करिण्यो, दिव्याः सन्ति यथाक्रमम् ॥७२०॥8 प्रत्येकमञ्जनाद्रीणां, ककुप्सु चतसृष्वपि । क्रमादमः पुष्करिण्यो, मानतो लक्षयोजनाः॥ ७२१॥ नन्दिषणा चामोघाच, गोस्तूपाऽथ सुदर्शना । तथा नन्दोत्तरा नन्दा, सुनन्दा नन्दिवर्धना For Private & Personal use only Jain Education Intel . Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नन्दीश्वरः भद्रा विशाला कुमुदा, पुण्डरीकिणिका तथा । विजया वैजयन्ता च, जयन्ता चाऽपराजिता प्रत्येकमासां योजनपञ्चशत्याः परत्र च । योजनानां पञ्चशती, यावद् विस्तारभाञ्जि तु ॥ ७२४ ॥ लक्षयोजनदीर्घाणि, महोद्यानानि तानि तु । अशोक-सप्तच्छदक-चम्पक-चूतसंज्ञया ॥ ७२५॥ मध्ये पुष्करिणीनां च, स्फाटिकाः पल्यमूर्तयः । ललाम-वेद्युद्यानादिचिह्ना दधिमुखाद्रयः॥ ७२६॥ चतुःषष्टिसहस्रोच्चाः, सहस्रं चाऽवगाहिनः । *विस्तृता दशसहस्री, योजनानामुपर्यधः ॥ ७२७ ॥ अन्तरे पुष्करिणीनां, द्वौ द्वौ रतिकराचलौ । ततो भवन्ति द्वात्रिंशदेते रतिकराचलाः ॥ ७२८॥ शैलेषु दधिमुखेषु, तथा रतिकराद्रिषु । शाश्वतान्यहच्चैत्यानि, सन्त्यञ्जनगिरिष्विव ।। ७२९ ॥ चत्वारो द्वीपविदिक्षु, तथा रतिकराचलाः । दशयोजनसहस्रायाम-विष्कम्भशालिनः॥ ७३०॥ योजनानां सहस्रं तु, यावदुच्छ्रयशोभिताः । सर्वरत्नमया दिव्या, झल्लाकारधारिणः ॥ ७३१ ॥ तत्र द्वयो रतिकराचलयोर्दक्षिणस्थयोः । शक्रस्पैशानस्य पुनरुत्तरस्थितयोः पृथक ॥ ७३२ ॥ अष्टानां महादेवीनां, राजधान्योऽष्टदिक्षु ताः । लक्षाबाधा लक्षमाना, जिनायतनभूषिताः॥ ७३३॥ सुजाता सौमनसा चार्चिमाली च प्रभाकरा । पद्मा शिवा शुच्यञ्जने, भूता भूतावतंसिका गोस्तूपा-सुदर्शने अप्यमला-ऽप्सरसौ तथा। रोहिणी नवमी चाऽथ, रत्ना रत्नोच्चयापि च।।७३५॥ सर्वरत्ना रत्नसश्चया वसुर्वसुमित्रिका । वसुभागाऽपि च वसुन्धरानन्दोत्तरे अपि ॥ ७३६॥ नन्दोत्तरकुरुर्देवकुरुः कृष्णा ततोऽपि च । कृष्णराजीरामारामरक्षिताः प्राक्क्रमादमः ॥ ७३७॥ पल्याकृतयः। योजनानि दशाधस्तादुपरिष्टाञ्च विस्तृताः सङ्घ३विना ॥ २रतिकराल्लायोजनदूरे। चूता चूता सङ्घसङ्घ३॥ Jain Education Inter For Private & Personal use only . Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥२३३॥ GROSSOBLUSEST सर्वर्द्धयस्तासु देवाः, कुर्वते सपरिच्छदाः । चैत्येष्वष्टाह्निकाः पुण्यतिथिषु श्रीमदर्हताम् ॥ ७३८॥ द्वितीयं पर्व __ नन्दीश्वरपरिक्षेपी, ततो नन्दीश्वरोऽर्णवः। ततः परोऽरुणद्वीपोऽस्त्यरुणोदश्च सागरः॥७३९ ॥ तृतीयः ततोऽरुणवरो द्वीपस्तन्नामा च पयोनिधिः । ततः परोऽरुणाभासोऽरुणाभासश्च सागरः।। ७४०॥18| सर्गः ततश्च कुण्डलद्वीपः, कुण्डलोदश्च वारिधिः । ततश्च रुचकद्वीपो, रुचकश्च पयोनिधिः ॥ ७४१॥ अजितएवं प्रशस्तनामानो, द्विगुणद्विगुणाः क्रमात् । द्वीपाः समुद्रास्तेष्वन्त्यः, स्वयम्भूरमणोऽम्बुधिः ॥ ७४२॥ सगरयो द्वीपेष्वर्धतृतीयेषु, देवोत्तरकुरून् विना। भरतैरावत-महाविदेहाः कर्मभृमयः ॥ ७४३ ॥ चरितम् । कालोदः पुष्करोदश्च, स्वयम्भूरमणस्तथा । पानीयरसा लवणरसस्तु लवणोदधिः॥ ७४४ ॥ कर्मभूमयः वारुणोदश्चित्रपानहृयः क्षीरोदधिः पुनः । खण्डमिश्र-घृतचतुर्भागगोक्षीरसन्निभः ॥ ७४५ ॥ घृतोदः सद्यःकथितगोघृताभोऽपरे पुनः । चतुर्जातकवत्पर्वान्तच्छिन्नेक्षुरसोपमाः॥ ७४६ ॥ लवणोदोऽथ कालोदः, स्वयम्भूरमणोऽपि च । मत्स्य-कूर्मादिसङ्कीर्णाः, सागरा नाऽपरे पुनः ॥७४७॥ चत्वारस्तत्र तीर्थेशाश्चक्रिणो विष्णवो बलाः । सदा भवन्ति द्वीपेऽस्मिन्, जम्बूद्वीपे जघन्यतः ॥७४८॥ उत्कर्षेण चतुस्त्रिंशजिनास्त्रिंशच पार्थिवाः । भवन्ति द्विगुणाश्चैते, धातकी-पुष्करार्धयोः॥ ७४९ ॥ तिर्यग्लोकादितश्चोर्द्धमूर्द्धलोको महर्द्धिकः । नवयोजनशत्यूनसप्तरजुप्रमाणकः ॥ ७५०॥ ऊ लोकः तत्र सौधर्म ईशानः, सनत्कुमार इत्यपि । माहेन्द्रो ब्रह्मलोकश्च, लान्तकः शुक्रसंज्ञकः॥७५१॥ ॥२३३॥ सहस्रारा-ऽऽनत-प्राणता-ऽऽरणा अच्युतोऽपि च । कल्पा इति द्वादशाऽमी, नवग्रैवेयका इमे।।७५२॥ १ राजधानीषु । २ देवलोकाः । Jain Education i n For Private & Personal use only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Inte ततः परं योजनानां पञ्चशत्यवगाहिनः । तावदायाम - विष्कम्भा, अन्तरद्वीपका इमे ॥ ६९२ ॥ तत्राऽऽदर्शमुखो मेषमुखो हयमुखस्तथा । गजमुखश्च चत्वार, ऐशान्यादिषु पूर्ववत् ॥ ६९३ ॥ ततः षड्योजनशैतावगाहाऽऽयाम-विस्तृताः । अश्वमुखो हस्तिमुखः, सिंहव्याघ्रमुखावपि ॥ ६९४॥ योजनानां सप्तशतावगाहाऽऽयाम-विस्तृताः । अश्व-सिंह- हस्तिकर्णाः कर्णप्रावरणः क्रमात् ।।६९५ ।। ततोऽष्टयोजनशतीं, लवणोदेऽवगाहिनः । तावदायामसहितास्तावद्विष्कम्भशालिनः ॥ ६९६ ॥ पाउमुख विद्युज्जहो मेषंमुखोऽपि च । विद्युद्दन्तश्च चत्वार, ऐशान्यादिविदिक्क्रमात् ।। ६९७ योजनानां नवशतीं, ततोऽपि लवणोदधेः । अवगाह्य स्थितास्तावद्विष्कम्भाऽऽयामशालिनः ॥ ६९८ ॥ नाम्ना गूढदन्तो घनदन्तकः श्रेष्ठदन्तकः । शुद्धदन्तश्च चत्वारोऽन्तरद्वीपा विदिक्क्रमात् ।। ६९९ ॥ अष्टाविंशतिरेवं च, शिखरिण्यपि पर्वते । एकत्र मेलिताः सर्वे, षट्पञ्चाशद् भवन्ति ते ।। ७०० ॥ मानुषोत्तरपरतः, पुष्करार्धं द्वितीयकम् । पुष्करस्य परिक्षेपी, द्विगुणः पुष्करोदकः ॥ ७०१ ॥ ततोऽपि वारुणिवरौ, नाम्ना द्वीप - पयोनिधी । ततः परं क्षीरवरी, नामतो द्वीप - सागरौ ।। ७०२ ॥ ततो घृतवरौ द्वीपा - बुधी इक्षुवरौ ततः । ततो नन्दीश्वरो नाम्नाऽष्टमो द्वीपो घुसन्निभः ॥७०३ ॥ एतद्वलयविष्कम्भे, लक्षाशीतिश्चतुर्युता । योजनानां त्रिषष्टिश्र, कोट्यः कोटिशतं तथा ॥ ७०४ ॥ असौ विविधविन्यासोद्यानवान् देवभोगभूः । जिनेन्द्रपूजासंसक्तसुरसम्पातसुन्दरः ॥ ७०५ ।। अस्य मध्यप्रदेशे तु, क्रमात् पूर्वादिदिक्षु च । अञ्जनवर्णाश्चत्वारस्तिष्ठन्त्यञ्जनपर्वताः ॥ ७०६ ॥ * 'शत्यव° सङ्घ १ ॥ + मेघमु° ढंसं० ॥ १ पुष्करार्धाद् द्विगुणः । २ स्वर्गसदृशः । नन्दीश्वरः . Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CASE ARSANSKRONG-% आदौ सुदर्शनं नाम, सुप्रबुद्धं मनोरमम् । सर्वभद्रं सुविशालं, सुमनश्च ततः परम् ॥ ७५३ ॥ सौमनसं प्रीतिकरमादित्यमथ तत्परम् । अनुत्तराभिधानानि, पञ्च सन्ति ततः परम् ॥ ७५४ ॥ विजयं वैजयन्तं च, जयन्तं चाऽपराजितम् । प्राक्क्रमेण विमानानि, मध्ये सर्वार्थसिंद्धकम् ॥७५५॥ ततो द्वादशयोजन्या, ऊर्द्ध सिद्धिशिलास्ति तु । पञ्चचत्वारिंशल्लक्षयोजनायाम-विस्तृता ॥ ७५६ ॥ ततोऽप्युपरि गव्यतत्रितयात् समनन्तरम् । तुर्यगव्यतषष्टांशे, सिद्धा लोकाग्रतावधि ॥ ७५७॥ आ सौधर्मेशानकल्पं, सार्धा रज्जुः समावनेः। सनत्कुमार-माहेन्द्रौ, सार्ध रज्जुद्वयं पुनः॥७५८॥ रजवश्चाऽऽ सहस्रारं, पञ्च षद् चाऽच्युतावधि । लोकान्तमवधीकृत्य, जायन्ते सप्त रजवः ॥ ७५९ ॥ सौधर्मेशानकल्पौ तु, चन्द्रमण्डलवर्तुलौ । दक्षिणार्धे तत्र शक्र, ऐशानश्चोत्तरार्धके ॥ ७६०॥ सनत्कुमार-माहेन्द्रावप्येवं तत्समाकृती । सनत्कुमारोऽपाच्याथै, माहेन्द्रस्तूत्तराधके ॥ ७६१॥ लोकपुंस्कूर्परसमप्रदेशेऽतः परं पुनः । लोकमध्यभागे ब्रह्मलोको ब्रह्मा च तत्प्रभुः ॥ ७६२ ॥ प्रान्ते सारखता-ऽऽदित्या-ऽग्यरुण-गर्दतोयकाःतुषिता-व्यायाध-मरुद्रिष्टा लोकान्तिकामराः।। तदुर्द्ध लान्तकः कल्पस्तन्नामा तत्र वासवः । तस्योपरि महाशुक्र, इन्द्रस्तन्नामकोऽत्र च ॥७६४॥ तदूर्द्ध च सहस्रारस्तन्नामा तत्र वासवः। सौधर्मेशा संस्थानावानत-प्राणतो ततः॥ ७६५ ॥ तयोः प्राणतकल्पस्थः, प्राणताख्यः पुरन्दरः। तद्र च तदाकारी, द्वौ कल्पावारणा-ऽच्युतौ॥७६६॥ तयोरच्युतवास्तव्य, एक इन्द्रोऽच्युताभिधः । ग्रैवेयकाऽनुत्तरेषु, त्वहमिन्द्रा दिवौकसः ॥ ७६७॥15 * °सिद्धिकम् सङ्घ २ ॥ धर्मेशा सङ्घ २ ॥ धर्मेशा सङ्घ २ ॥ ईशा सङ्घ २ ॥ 1 सौधर्मेशानकल्पसदृशौ । JlainEducation internet For Private & Personal use only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरिते ॥२३४॥ Jain Education घनोदधिप्रतिष्ठानौ, कल्पौ तु प्रथमाविह । वायुकृतप्रतिष्ठानास्त्रयः कल्पास्ततः परम् ॥ ७६८ ॥ घनोदधि-घनवातप्रतिष्ठानास्ततस्त्रयः । ततस्तदूर्द्धमाकाशप्रतिष्ठानाः सुरालयाः ॥ ७६९ ॥ इन्द्राः सामानिकास्त्रयस्त्रिंशाः पार्षद्य-रक्षकाः । लोकपाला अनीकानि, प्रकीर्णा आभियोगिकाः ॥ ७७० ॥ किल्विपिकाचेति तेषु, दशभेदा दिवौकसः । इन्द्राः सामानिकादीनामधिपाः सर्वनाकिनाम् ।। ७७१ ॥ सामानिकाश्चेन्द्रसमाः, परमिन्द्रत्ववर्जिताः । त्रायस्त्रिंशा मन्त्रि-पुरोहितप्राया हरेः पुनः ॥ ७७२ ॥ वयस्यप्रायाः पार्षद्या, आत्मरक्षास्तु रक्षकाः । आरक्षकांर्थन्चरस्थानीया लोकपालकाः ॥ ७७३ ॥ प्रयाण्यनीकानि, प्रकीर्णा ग्राम्य-पौरवत् । दासप्राया आभियोग्याः, किल्विषाश्चान्त्यजोपमाः ॥ ७७४॥ ज्योतिष्क-व्यन्तरास्त्रायस्त्रिंश-लोकपवर्जिताः । विमानलक्षाः सौधर्मे, द्वात्रिंशत् त्रिदिवौकसाम् ॥ ७७५ || ऐशान - सनत्कुमार- माहेन्द्र ब्रह्मणामपि । अष्टाविंशतिर्द्वादशाऽष्टौ चत्वारः क्रमेण तु ।। ७७६ ॥ लक्षाधं लान्तके शुक्रे, चत्वारिंशत् सहस्रकाः । षद् सहस्राः सहस्रारे, युगले तु चतुःशती ॥ ७७७ ॥ त्रिशत्यारणा - Sच्युतयोरा ग्रैवेयकत्रिके । शतमेकादशाग्रं तु मध्ये सप्तोत्तरं पुनः ॥ ७७८ ॥ विमानानां शतं त्वेकमन्त्यग्रैवेयकत्रिके । अनुत्तरविमानानि, पञ्चैव हि भवन्ति तु ॥ ७७९ ॥ एवं देवविमानानां लक्षाशीतिश्चतुर्युता । सप्तनवतिः सहस्रास्त्रयोविंशतिरेव च ॥ ७८० ॥ अनुत्तरविमानेषु चतुर्षु विजयादिषु । देवा द्विचरमा एकचरमाः पञ्चमे पुनः ॥ ७८१ ॥ * °कार्थचरपुंस्था° सङ्घ ३ ॥ १ आरक्षकार्यं चारपुरुषसदृशाः । २ सेनासशानि । ३ लोकपालाः । ४ मनुष्य भवद्वयेन सिद्धिगामिनः । द्वितीयं पर्व तृतीयः सर्गः अजित सगरयो - वरितम् । ऊर्द्ध्वलोकः वैमानिकाः ॥२३४॥ . Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौधर्मकल्पादारभ्य, सर्वार्थ यात्रदेषु च । स्थित्या दीप्त्या प्रभावेण, विशुद्ध्या लेश्यया सुखैः॥७८२॥ इन्द्रियाणां विषयेणाऽवधिज्ञानेन चाऽमराः। भवन्ति पूर्वपूर्वेभ्योऽभ्यधिका उत्तरोत्तराः ॥ ७८३ ।। परिग्रहा-अभिमानाभ्यां, वपुषा गमनेन च । हीनहीनतरा एते, भवन्ति तु यथाक्रमम् ॥७८४ ॥ जायते सर्वजघन्यस्थितीनां त्रिदिवौकसाम् । सप्तस्तोकान्त उच्छास, आहारस्तु चतुर्थतः ॥ ७८५ ॥ पल्योपमस्थितीनां तु, भवति त्रिदिवौकसाम् । दिवसस्यान्तरुच्छास, आहारोऽहःपृथक्त्वतः ॥ ७८६ ॥ यावन्तः सागरा यस्य, तावन्मासार्धकैः पुनः । उच्छासस्तस्य तावद्भिराहारोऽब्दसहस्रकैः ॥ ७८७ ॥ देवाः सवेदनाः प्रायो, यद्यसवेदनाः पुनः । अन्तर्मुहूर्त्तकालं स्युर्मुहर्तात परतो न हि ॥ ७८८ ॥ आ ऐशानात समुत्पत्तिर्देवीनां गतिराऽच्युतात् । उत्पद्यन्ते तापसास्तु, ज्योतिष्कत्रिदशावधि॥७८९ ॥ आ ब्रह्मलोकाचक-परिव्राजां तु सम्भवः । पञ्चेन्द्रियतिरश्चामा सहस्रारं पुनर्जनिः ।। ७९० ॥ श्राद्धानामच्युतं मिथ्यादृशां तु जिनलिङ्गिनाम् । सामाचारीपालकानामन्त्यग्रैवेयकावधि ॥७९१॥ ब्रह्मलोकादिसर्वार्थसिद्धान्तं पूर्णपूर्विणाम् । साधु-श्राद्धानां सौधर्म, सद्रतानां जघन्यतः॥ ७९२ ॥ आ ऐशानाच्च भवनवास्याद्यास्त्रिदिवौकसः। भवन्त्यङ्गप्रवीचारास्ते हि सङ्किष्टकर्मकाः ।। ७९३ ॥ तीव्रानुरागाः सुरते, लीयमाना मनुष्यवत । सर्वाङ्गीणस्पर्शसुखात्, प्रीतिमासादयन्ति तु ॥७९४॥ युग्मम्॥ शेषाः स्पर्श-रूप-शब्दप्रवीचारा द्वयोर्द्वयोः । मनःप्रवीचारभृतश्चतुर्पु चाऽऽनतादिषु ॥ ७९५ ॥ अमरेभ्यः प्रवीचारवयोऽनन्तसुखात्मकाः । अपरेष्वप्रवीचारा, देवा ग्रैवेयकादिषु ॥ ७९६ ॥ ३ पूर्णचतुर्दशपूर्विणाम् । *सवता सङ्घ १॥ Jan Education in For Private & Personal use only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥२३५॥ इत्यधस्तात् तिर्यगूर्द्धमेदो लोकोऽस्य मध्यतः । वसनाड्यस्ति च चतुर्दशरजुप्रमाणिका ॥ ७९७ ॥ द्वितीय पर्व ऊर्द्धा-ऽधोभागयो रज्जुप्रमाणायाम-विस्तृतिः । अन्तस्त्रसाः स्थावराश्च, स्थावरा एव तदहिः ॥ ७९८ ॥ तृतीय विस्तारेऽधः सप्तरतुरेकरज्जुश्च मध्यतः । ब्रह्मलोके पश्चरज्जुः, पर्यन्ते चैकरज्जुकः ॥ ७९९ ॥ सर्ग: सुप्रतिष्ठाकृतिर्लोको, न केनापि कृतो धृतः। वयंसिद्धो निराधारो. व्योम्नि तिष्ठति किन्त्वसौ ? ॥८००॥ अजित - ॥युग्मम् ॥ द्र सगरयोअमुं लोकं समस्तं वा, व्यस्तं वापि हि चिन्तयेत । धीमान शुभेतर्रध्यानप्रतिषेधनिबन्धनम् ॥ ८०१॥18वरितम् । धर्मध्याने भवेद् भावः, क्षायोपशमिकादिकः । लेश्याः क्रमविशुद्धाः स्युः, पीत-पद्म-सिताः पुनः ॥८०२॥ अस्मिन् नितान्तवैराग्यव्यतिषङ्गतरङ्गिते । जायते देहिनां सौख्यं, स्वसंवेद्यमतीन्द्रियम् ॥ ८०३ ।। CI उर्दुलोकः त्यक्तसङ्गास्तनुं त्यक्त्वा, धर्मध्यानेन योगिनः । प्रैवेयकादिस्वर्गेषु, भवन्ति त्रिदशोत्तमाः ॥ ८०४॥ वैमानिकाः महामहिमसौभाग्यं, शरच्चन्द्रनिभप्रभम् । प्राप्नुवन्ति वपुस्तत्र, स्रग्भूषा-ऽम्बरभूषितम् ॥ ८०५॥ विशिष्टवीर्यबोधाढ्यं, कामार्तिज्वरवर्जितम् । निरन्तरायं सेवन्ते, सुखं चाऽनुपम चिरम् ॥ ८०६॥ इच्छासम्पन्नसर्वार्थमनोहारिसुखामृतम् । निर्विघ्नमुपभुञ्जाना, गतं जन्म न जानते ॥ ८०७॥ दिव्यभोगावसाने च, च्युत्वा त्रिदिवतस्ततः । उत्तमेन शरीरेणाऽवतरन्ति महीतले ॥ ८०८॥ दिव्यवंशे समुत्पन्ना, नित्योत्सवमनोरमान् । भुञ्जते विविधान् भोगानखण्डितमनोरथाः॥८०९॥ ॥२३५॥ ततो विवेकमाश्रित्य, विरज्याऽशेषेभोगतः। ध्यानेन ध्वस्तकर्माणः, प्रयान्ति पदमव्ययम् ॥ ८१०॥ १ सम्बन्धः। २ वैराग्यं प्राप्य । HASEASESAMSEX Jain Education Interesa For Private & Personal use only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि. ४१ Jain Education Intern एवं विश्वजनीनेन, तीर्थनाथेन निर्ममे । त्रिजगत्कुमुदानन्दकौमुदी धर्मदेशना ॥ ८११ ॥ श्रुत्वा च देशनां भर्तुः प्रतिबुद्धाः सहस्रशः । नरा नार्यश्च जगृहुदीक्षां मोक्षैकमातरम् ।। ८१२ ।। तदानीं च सुमित्रोsपि, पिता सगरचक्रिणः । पुरा भावयतिर्दीक्षामाददे खामिनोऽन्तिके ।। ८१३ ॥ ततश्च पञ्चनवतेर्गणभृन्नामकर्मणाम् । संयतानां सिंहसेनप्रभृतीनां सुमेधसाम् ॥ ८१४ ॥ - उत्पत्ति-विगम- ध्रौव्यरूपामूचे पदत्रयीम् । सर्वागमव्याकरणप्रत्याहारोपमां प्रभुः ।। ८१५ ।। त्रिपद्यनुसारेण द्वादशाङ्गीं सपूर्विकाम् । रेखानुसारेणाऽऽलेख्यमिव तेऽरचयन्नथ ॥ ८१६ ॥ चूर्णपूर्णमथ स्थालमादायोत्थाय वासवः । स्वामिनः पादपद्मान्ते, तस्थौ सुरगणावृतः ।। ८१७ ।। अथोत्थाय गणभृतां चूर्ण मूर्धसु निक्षिपन् । क्रमेण सूत्रेणाऽर्थेन, तथा तदुभयेन च ॥ ८१८ ॥ द्रव्यैर्गुणैः पर्ययैश्व, नयैरपि जगत्पतिः । ददावनुयोगानुज्ञां गणानुज्ञामपि स्वयम् ॥ ८१९ ॥ उपरिष्टाद् गणभृतां वासक्षेपं दिवौकसः । नरा नार्यश्च विदधुर्दुन्दुभिध्यानपूर्वकम् ॥ ८२० ॥ पीयूषनिः स्यन्दमिव, रचिताञ्जलिसम्पुटाः । खामिवाचं प्रतीच्छन्तस्तस्थुर्गणधरा अपि ॥। ८२१ ॥ भेजे सिंहासनं पूर्वाभिमुखः पूर्ववत् पुनः । अनुशिष्टिमयीं तेभ्यो, देशनां विदधे विभुः ।। ८२२ ॥ अत्रान्तरे च प्रथमा, पर्यपूर्यत पौरुषी । पारयामास भगवानपि तां धर्मदेशनाम् ॥ ८२३ ॥ तदा विशालस्थालस्थचतुःप्रस्थप्रमाणकः । आपूर्णः शालिभिः शुद्धैः, पद्मसौरभशालिभिः ।। ८२४ । उपसंवर्गितामोदो, दिविषद्गन्धमुष्टिभिः । कारितः सगरराजेनोत्क्षिप्तो वरपूरुषैः ।। ८२५ ।। विश्वहितकारिणा । २ सर्वागमानां स्पष्टीकरणे प्रत्याहारसदृशीभू । ३ सूत्राथाभ्याम् । ४ शिक्षामयीम् । ५ संमिश्रित आमोदो यस्मिन्सः । गणभृतां स्थापना . Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते द्वितीय पर्व तृतीयः सर्गः अजितसगरयोश्चरितम् । ॥२३६॥ उद्दामदुन्दुभिधानधनिताशेषदिअखः । उलूलुमुखरैश्वाऽनुगम्यमानो वधूजनैः ॥ ८२६ ॥ विष्वक परिवृतः पौरैः, पद्मकोश इवालिभिः । बलिः समवसरणं, पूर्वद्वाराऽधनाविशत् ॥ ८२७॥ ततः प्रदक्षिणीकृत्य, जगत्रयपतिं बलिः । तैः पुरश्चिक्षिपे दिव्यपुष्पवृष्टिविडम्बकः ॥ ८२८ ॥ नभस्तः पततस्तस्याऽगृह्णन्नध दिवौकसः। सगरो भृगतस्याऽधं, तच्छेपमपरे जनाः ॥ ८२९ ॥ बलेस्तस्य प्रभावेण, नश्यन्ति प्राग्भवा अपि । नोत्पद्यन्ते नूतनाश्च, षण्मासान यावदामयाः ॥ ८३०॥ सिंहासनात् समुत्थायाऽथोत्तरद्वारवर्त्मना । निर्वाणवर्त्मनोऽग्रेगूर्निर्जगाम जगत्पतिः ॥ ८३१॥ ऐशानदिश्यूद्धमध्यवप्रयोरन्तरस्थिते । देवच्छन्दे देवदेवो, विशश्राम ततः किल ॥ ८३२ ॥ सगरेणोपनीतेऽथ, तत्र सिंहासने स्थितः । अकरोद् देशनां सिंहसेनो गणधराग्रणीः॥ ८३३ ॥ भगवत्स्थानमाहात्म्यात्, स तत्र गणभृद्वरः । सङ्ख्यातीतान् भवानाख्यद्, यच्च पप्रच्छ कश्चन ॥ ८३४ ॥ खामिपर्षदि तस्यां तं, सन्देहापोहकं तथा । छद्मस्थ इति नाऽज्ञासीद्, विना केवलिनं जनः ॥ ८३५ ॥ गुरोः खेदविनोदच, प्रत्ययश्च द्वयोरपि । गुरु-शिष्यक्रमश्चेति, गणभृद्देशनागुणाः ॥ ८३६ ।। पौरुष्यां च द्वितीयायां, सम्पूर्णायां गणाग्रणीः । व्यरंसीद् देशनातः स, पथिको गमनादिव ॥ ८३७॥ देशनाविरते तस्मिन्, प्रणम्य परमेश्वरम् । चेलर्निजनिजस्थानं, प्रति सर्वे दिवौकसः॥ ८३८॥ गत्वा नन्दीश्वरद्वीपं, पर्वतेष्वञ्जनादिषु । शाश्वताहत्प्रतिमानां, चक्रुस्तेऽष्टाह्निकोत्सवम् ॥ ८३९ ॥ भूयो भूयोऽपि भूयान्नो, यात्रेदृगिति भाषिणः । ययुर्निजनिजं धाम, वर्धामानो यथागतम् ॥ ८४०॥ १ गीतादिध्वनिः । २ रोगाः । ३ अग्रगामी । ४ सन्देहनाशकम् । ५ देवाः । गणभृद्देशना ॥२३६॥ JainEducation in For Private & Personal use only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवन्तं नमस्कृत्य, सगरश्चक्रवर्त्यपि । पुरं जगाम साकेतं, श्रीसङ्केतनिकेतनम् ॥ ८४१॥ अजितजिन__ ततश्च तीर्थे तत्रैवोत्पन्नो यक्षश्चतुर्मुखः । श्यामवर्णो गजरथो,महायक्षोऽभिधानतः ॥ ८४२ ॥ शासना. धिष्ठायकवरदेन मुद्गरिणा, साक्षसूत्रेण पाशिना । चतुर्भिदक्षिणेहस्तैर्वामैस्तावद्भिरेव च ॥ ८४३ ॥ देव-देव्यो बीजपूरधरेणाऽभीदायिनाऽङ्कशधारिणा । सशक्तिना शोभितोऽभूत, खामिनः पारिपार्श्विकः ॥ ८४४॥ देवताजितबला च, तदोत्पन्ना सुवर्णरुक । भान्ती दक्षिणबाहुभ्यां, वरदेनाऽथ पाशिना ॥ ८४५॥ बीजपूरा-ऽङ्कशभृद्भयां, वामदोभ्यां च शोभिता । लोहासनस्था पार्श्वेऽस्थाद्, भर्तुः शासनदेवता ॥८४६॥ चतुस्त्रिंशदतिशयशोभितो भगवानपि । व्यहार्षीत् सिंहसेनादिपरिवारवृतो महीम् ॥ ८४७॥ बोधयन् भव्यभविनः, प्रतिग्राम-पुरा-ऽऽकरम् । कृपारत्नाकरः प्राप, कौशाम्बीं प्रभुरन्यदा ॥ ८४८॥ तस्याः पूर्वोत्तरदिशि, क्षेत्रे योजनमात्रके । प्रभोः समवसरणं, पूर्ववद् विदधे सुरैः ॥ ८४९ ॥ 18 द्विजन्मना सह तत्राऽशोकतले सिंहासनासीनो जगत्पतिः । ससुरा-ऽसुर-मायां, देशनां पर्षदि व्यधात् ॥ ८५० ॥ भगवतः संकेतवार्ता एकं द्विजन्ममिथुनमथैत्य त्रिजगद्गुरुम् । प्रदक्षिणीकृत्य नत्वा, यथास्थानमुपाविशत् ॥ ८५१ ॥ कथान्तरे जगन्नाथं, द्विजन्ममिथुनाद् द्विजः। पप्रच्छ साञ्जलिरिद, कथं नु भगवन्निति ॥८५२॥ शशंस प्रभुरप्येवं, सम्यक्त्वमहिमा ह्ययम् । सर्वानर्थनिषेधा-ऽर्थसिद्ध्योरेकं निबन्धनम् ॥ ८५३॥ तेन शाम्यन्ति वैराणि, वृष्ट्येव दववह्वयः । नश्यन्ति व्याधयोऽशेषाः, सर्पा इव गरुत्मता ॥ ८५४ ॥ दुष्कर्माणि विलीयन्ते, हिमानीवाहिमांशुना । सिध्यत्यभीप्सितं चिन्तामणिनेव क्षणादपि ॥ ८५५॥ १ गजवाहनः । २ फलविशेषः । ३ अभयमुद्राङ्कितेन । ४ वार्ताप्रस्तावे । ५ महद् हिमम् । ६ सूर्येण । । Jain Education in For Private & Personal use only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥२३७॥ वार्येव कुञ्जरवरो, देवायुःकर्म वध्यते । देवताः सनिधीयन्ते, मत्रेणेव महौजसा ॥ ८५६ ॥ द्वितीयं पर्व अथवा सर्वमप्येतत्, सम्यक्त्वफलमल्पकम् । महाफलं सिद्धिरपि, तीर्थकृत्त्वं च जायते ॥८५७॥ | तृतीय श्रुत्वेति मुदितो विप्रः, प्रणम्योचे कृताञ्जलिः । भगवन्नेवमेवेदं, न सर्वज्ञगिरोऽन्यथा ॥ ८५८॥ सर्गः इत्युक्त्वा तेत्र तूष्णीके, स्थिते गणधराग्रणीः । जानन्नपि जनज्ञानकृतेऽपृच्छज्जगद्गुरुम् ॥ ८५९ ॥ अजितकिमनेन प्रभो ! पृष्टं ?, प्रभुणा कथितं च किम् ? । सङ्केतवार्तासदृशमिदं बोधय नः स्फुटम् ॥ ८६०॥४॥ सगरयो आचख्यौ प्रभुरप्यस्याः, पुर्या अनतिदूरतः । अग्रहारो महानस्ति, शालिग्रामाभिधानकः ॥८६१॥ चरितम् । तत्र दामोदरो नाम, वसति ब्राह्मणाग्रणीः । सधर्मचारिणी चास्ति, तस्य सोमेति नामतः ॥८६२॥ शुद्धभट्टोऽभिधानेन, तयोश्च तनयोऽभवत । दुहिता सिद्धभहस्य, तेन वोढा सुलक्षणा ॥ ८६३॥ सुलक्षणा-शुद्धभदौ, प्रतिपद्य च यौवनम् । बुभुजाते यथाकामं, भोगान् स्वविभवोचितान् ॥८६४ ॥ सुलक्षणाकालक्रमेण पितरौ, विपेदाते तयोरथ । परिक्षयमुपेयाय, विभवः सोऽपि पैतृकः ॥ ८६५ ॥ शुद्धभट्टयोः क्षपायां क्षुधितोऽशेत, सुभिक्षेऽपि कदाऽप्यसौ । निर्धनस्य सुभिक्षेपि, दुर्भिक्षं पारिपाश्चिकम् ॥ ८६६ ॥ कथानकम् जीणेवासःखण्डधारी, पर्याट च कदाचन । पुरि राजपथे देशान्तरकपटिकोपमः ॥ ८६७॥ कदाचिच्चातक इव, चिरं तस्थौ पिपासितः। कदाचिन्मलमलिनः, पिशाच इव दुर्वपुः ॥ ८६८॥ ॥२३७॥ लजितः सहवासिभ्योऽपीदृशेनाऽऽत्मना च सः । भार्याया अप्यनाख्याय, दुरं देशान्तरं ययौ ॥८६९॥ देशान्तरगति तस्य, भार्या कतिपयैर्दिनैः । वज्रपातसोदरया, जनश्रुत्याऽशृणोत् ततः ॥ ८७० ॥ १ गजबन्धनरजुना। २ विप्रे। ३ समीपस्थम् । ४ भिक्षुकः । Jan Education in For Private & Personal use only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पितृक्षया-ऽर्थक्षयाभ्यां, पत्युर्विगमनेन च । चिरं निर्लक्षणम्मन्या, ताम्यति स्म सुलक्षणा ॥८७१॥ उद्विग्ना यावदस्थात् सा, तावदागात् तपात्यये । गणिनी विपुला नाम, तद्गृहे वसतीच्छया ॥ ८७२ ॥ अर्पयामास वसतिं, विपुलायाः सुलक्षणा । शुश्राव च प्रतिदिनं, तन्मुखाद् धर्मदेशनाम् ॥ ८७३ ॥ ययौ तस्याश्च मिथ्यात्वं, धर्मदेशनया तया । अम्लस्य मधुरद्रव्यसम्बन्धेनाऽम्लता यथा ॥ ८७४ ॥ ततः परं साऽनवद्यं, सम्यक्त्वं प्रत्यपद्यत । कृष्णपक्षमतिक्रम्य, नैर्मल्यमिव शर्वरी ॥ ८७५ ॥ जीवा-जीवादिपदार्थान्, सर्वानपि यथास्थितान् । वैद्यो दोषानिवाङ्गोत्थान, यथावत् प्रत्यपद्यत ॥८७६॥ धर्म जैनं च जग्राह, संसारोल्लङ्घनक्षमम् । सांयात्रिकः पोतमिव, सागरोत्तारणोचितम् ॥ ८७७॥ तस्या विषयवैराग्यमुपशान्तकषायता । निर्वेदो जन्म-मरणेष्वविच्छिन्नेषु चाऽभवत् ।। ८७८ ।। साध्वीशुश्रूषया सैवं, वर्षाकालमजीगमत् । रसाढ्यया जागरूकः, कथया रजनी मिव ॥ ८७९ ॥ तस्या दत्त्वाऽणुव्रतानि, गणिनी साऽन्यतो ययौ । प्रायः प्रावृष ऊर्द्धन, तिष्ठन्त्येकत्र संयताः॥८८०॥ अर्जितद्रविणः सोऽपि, शुद्धभट्टो दिगन्तरात् । प्रियाप्रेमसमाकृष्टः, पारापत इवाऽऽययौ ॥ ८८१ ॥ ऊचे विप्रः प्रियामेवमसहिष्ठाः कथं प्रिये ! । असोढपूर्विणी मद्वियोगं हिममिवाजिनी ॥८८२॥ सुलक्षणाऽप्याचचक्षे, श्रूयतां जीवितेश्वर ! । मरुस्थले मरालीव, शफरीवाऽल्पवारिणि ॥ ८८३ ॥ राहुवके चन्द्रलेखेवैणिकेव दवानले । मृत्युद्वारे त्वद्विरहे, दुःसहे पतिताऽस्म्यहम् ।। ८८४ ॥ अन्धकारे दीपिकेव, नौरिवाऽपारवारिणि । मरुस्थले वृष्टिरिव, दृष्टिरान्ध्य इवाऽनघा ॥ ८८५ ॥ १ साध्वीसमूहाग्रेसरा । * °पूर्विणं मद्वि सङ्घ १ ॥ EGORROSSESSES STENG Jain Education For Private & Personal use only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ह द्वितीयं पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते सरॐ तृतीयः सर्गः ॥२३८॥ अजितसगरयो. श्ररितम् । मम त्वद्विरहे तस्मिन्, पतितायाः समाययौ । गणिनी विपुला नाम, विपुलैकदयानिधिः ॥ ८८६ ॥ तद्दर्शनेन मे दुःखं, भवद्विरह ययौ । मया प्राप्तं च सम्यक्त्वं, फलं मानुषजन्मनः॥८८७॥ शुद्धभट्टोऽप्यभाषिष्ट, सम्यक्त्वं किं नु भट्टिनि! । जन्मनो मानुषस्याऽस्य, फलभूतं यदुच्यते ॥८८८॥ सुलक्षणाऽप्युवाचैवमार्यपुत्र ! निशम्यताम् । कथनीयं तदिष्टानामभीष्टः प्राणतोऽप्यसि ॥८८९ ॥ या देवे देवताबुद्धिर्गुरौ च गुरुतामतिः । धर्मे च धर्मधीः शुद्धा, सम्यक्त्वमिदमुच्यते ।। ८९० ॥ अदेवे देवबुद्धिर्या, गुरुधीरगुरौ च या । अधर्म धर्मबुद्धिश्च, मिथ्यात्वं तद्विपर्ययात् ॥ ८९१ ॥ सर्वज्ञो जितरागादिदोषस्त्रैलोक्यपूजितः । यथास्थितार्थवादी च, देवोऽहन् परमेश्वरः ॥ ८९२ ॥ ध्यातव्योऽयमुपास्योऽयमयं शरणमिष्यताम् । अस्यैव प्रतिपत्तव्यं, शासनं चेतनास्ति चेत ॥ ८९३ ॥ ये स्त्री-शस्त्रा-ऽक्षसूत्रादिरागाद्यङ्ककलङ्किताः। निग्रहा-ऽनुग्रहपरास्ते देवाः स्युन मुक्तये ॥ ८९४ ॥ नाट्या-ऽट्टहास-सङ्गीताद्युपप्लवविसंस्थुलाः । लम्भयेयुः पदं शान्तं, प्रपन्नान् प्राणिनः कथम् ॥ ८९५॥ महाव्रतधरा धीरा, भैक्षमात्रोपजीविनः । सामायिकस्था धर्मोपदेशका गुरवो मताः॥ ८९६ ॥ सर्वाभिलाषिणः सर्वभोजिनः सपरिग्रहाः । अब्रह्मचारिणो मिथ्योपदेशा गुरवो न तु ॥ ८९७॥ परिग्रहारम्भमनास्तारयेयुः कथं परान् । स्वयं दरिद्रो न परमीश्वरीकतुमीश्वरः ॥ ८९८॥ दुर्गतिप्रपतत्प्राणिधारणाद् धर्म उच्यते । संयमादिर्दशविधः, सर्वज्ञोक्तो विमुक्तये ॥ ८९९ ॥ अपौरुषेयं वचनमसम्भवि भवेद् यदि । न प्रमाणं भवेद् वाचां, ह्याप्ताधीना प्रमाणता ॥९००॥ १ज्ञानम् । सम्यक्त्वमिथ्याव योदेवगुरु DOSIESGOSMOSOGAUSA धर्मणां च स्वरूपम् ॥२३८॥ Jain Education For Prate & Personal use only . Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्वस्य लक्षणादि मिथ्यादृष्टिभिराम्नातो, हिंसाद्यैः कलुषीकृतः । स धर्म इति वित्तोऽपि, भवभ्रमणकारणम् ॥ ९०१॥ सरागोपि हि देवश्चेद्, गुरुरब्रह्मचार्यपि । कृपाहीनोऽपि धर्मः स्यात् , कष्टं नष्टं हहा ! जगत् ॥९०२॥ शम-संवेग-निर्वेदा-ऽनुकम्पा-ऽऽस्तिक्यलक्षणैः । लक्षणेः पञ्चभिः सम्यक्, सम्यक्त्वमुपलक्ष्यते ॥ ९०३॥ स्थैर्य प्रभावना भक्तिः, कौशलं जिनशासने । तीर्थसेवा च पञ्चाऽस्य, भूषणानि प्रचक्षते ॥ ९०४॥ शङ्का कासा विचिकित्सा, मिथ्यादृष्टिप्रशंसनम् । तत्संस्तवश्च पश्चापि, सम्यक्त्वं दृषयन्त्यलम् ॥९०५॥ ___ व्याजहार ब्राह्मणोऽपि, दयिते ! भाग्यवत्यसि । उपलब्धवती सम्यक्, सम्यक्त्वं यन्निधानवत् ॥९०६॥ शद्धभट्टोऽपि तत्कालं, सम्यक्त्वं प्रत्यपद्यत । धर्म धर्मोपदेष्टारः, साक्षिमात्रं शुभात्मनाम् ॥ ९०७॥ तौ सम्यक्त्वोपदेशेन, श्रावस्यभवतामुभौ । खीस्यातां सिद्धरसात् , सीसक-त्रपुणी अपि ॥ ९०८॥ तत्र ह्यग्रहारे साधुसंसर्गाभावतस्तदा । लोकोऽश्रावकधर्मोऽभून्मिथ्यादृष्टिः क्रमेण च ॥९०९॥ कुलक्रमागतं धर्ममिमौ सन्त्यज्य दुर्धियो । श्रावक्यभूतामित्यासीदपवादो जने तयोः ॥ ९१०॥ अपवादमवज्ञाय, श्राद्धत्वे तस्थुषोस्तयोः । जज्ञे कालक्रमात् पुत्रो, गार्हमेध्यतरोः फलम् ॥ ९११॥ शिशिरे ब्राह्मणोऽन्येद्युः, प्रातरादाय तं सुतम् । विप्रपर्षत्परिवृतां, धर्मार्थाग्निष्टिकां ययौ ॥ ९१२॥ श्रावकोऽसीति परतो, गच्छ गच्छेति सक्रुधः । प्रचण्डाश्चण्डालमिव, तं समाचुक्रुशुर्द्विजाः ॥ ९१३ ॥ तां धर्माग्निष्टिका ते च, वेष्टयित्वा समन्ततः। तस्थुर्द्विजातयो जातिधर्मस्तेषां हि मत्सरः ॥ ९१४ ॥ ततो विलक्षः सङ्घद्धो, विलक्षैर्वचनैः स तैः । समक्षं पर्षदस्तस्याश्चके सत्यापनामिति ॥ ९१५॥ ज्ञातोऽपि । २ श्रावको जातौ। ३ प्रतिज्ञाम् । Jain Education in For Private & Personal use only lm. Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते ॥२३९॥ द्वितीयं पर्व तृतीयः सर्गः अजितसगरयोश्वरितम् । 06446* जिनादिष्टो न चेद् धर्मः, संसाराम्भोधितारणः । आप्ता यदि न चार्हन्तः, सर्वज्ञास्तीर्थकारिणः ॥९१६॥ ज्ञान-दर्शन-चारित्राण्यध्वा यदि न निवृतेः । सम्यक्त्वं भुवि चेन्नास्ति, तन्मे सूनुः प्रदह्यताम् ॥९१७॥ अथाऽस्ति सर्वमप्येतज्वलनः प्रज्वलन्नपि । जलवच्छीतलस्तर्हि, मत्पुत्रस्य भवत्वसौ ॥ ९१८ ॥ इत्युदित्वा स रोषेण, ज्वलनोऽन्य इव ज्वलन् । ज्वलने तत्र चिक्षेप, पुत्रं रामसिको द्विजः॥९१९॥ अनार्येणाऽमुना बालो, दग्धो दग्धो हहा! स्वकः । एवमाक्रोशिनी पर्ष, तमाचुक्रोश सा तदा ॥९२०॥ तत्रस्था देवता चैका, सम्यग्दर्शनशालिनी । सद्यश्चिक्षेप तं बालं, मध्येपमं द्विरेफवत् ॥ ९२१॥ ज्वालाजालकरालस्य, ज्वलतो ज्वलनस्य च । दाहशक्तिं जहाराऽऽशु, चित्रस्थमिव तं व्यधात् ॥ ९२२ ॥ पुरा विराद्धश्रामण्या, मृत्वा व्यन्तर्यभूद्धि सा । बोधिलाभं तया पृष्टो, व्याजहारेति केवली ॥ ९२३ ॥ भवत्याः सुलभा बोधिर्भवितव्यं त्वयाऽनघे!। सम्यक्त्वभावनोद्योगनिष्ठया सुष्ठ तत्कृते ॥ ९२४ ॥ तद्वचो विभ्रती नित्यं, हृदये हारयष्टिवत् । सम्यक्त्वमाहात्म्यकृते, सा जुगोप तमर्भकम् ॥ ९२५॥ प्रभावं तं तु सम्प्रेक्ष्य, विस्मयस्सेरचक्षुषः । जज्ञिरे ते द्विजन्मान, आजन्मादृष्टपूर्विणः ॥९२६॥ __ गत्वा वेश्मन्याचचक्षे, ब्राह्मण्यै ब्राह्मणः स तम् । जातप्रमोदः सम्यक्त्वानुभावानुभवं तदा ॥ ९२७ ॥ विपुलागणिनीगाढसंसर्गेण विवेकिनी । ब्राह्मणीत्यब्रवीद् धिग्धिक्, किमिदं विदधे त्वया ॥ ९२८॥ सम्यक्त्वभाजः कस्याश्चिद्, देवताया हि सन्निधेः । वक्रमप्यूजुतां प्राप्तमिदं ते कोपचापलम् ॥ ९२९ ॥ तदा हि देवता कापि, सम्यक्त्वैकप्रभाविका । सन्निधौ नाऽभविष्यच्चेत् तदधक्ष्यत ते सुतः ॥९३०॥ . साहसिकः । २ संयमविराधिनी। सुलक्षणाशुद्धभटयोः कथानकम् **USSOS ॥२३९॥ Jain Education in For Private & Personal use only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ******** %**%*USHOGA जिनप्रणीतो धर्मोऽयं, न प्रमाणं तदा किमु । न प्रमाणमिति युस्ते तु पापा विशेषतः ॥ ९३१॥ बालिशोऽपीदृशं किंखित, कुर्याद् यद् भवता कृतम् । ईदृग् नाऽतः परं कार्यमार्यपुत्राविचारितम्॥९३२॥ अभिधायेति सम्यक्त्वस्थिरीकरणहेतवे । इमं भर्तारमेषा स्वमनैषीदसदन्तिके ॥ ९३३ ॥ .. तदेतन्मनसिकृत्याऽनेन पृष्टं द्विजन्मना । सम्यक्त्वस्य प्रभावोऽयमित्यस्माभिश्च कीर्तितम् ॥ ९३४ ॥ आकर्ण्य तच्च भगवद्वचनं बहवोऽपरे । प्राणिनः प्रत्यबुध्यन्त, स्थिरधर्माश्च जज्ञिरे ॥ ९३५ ॥ शुद्धभट्टस्तु भट्टिन्या, समं भगवदन्तिके । परिव्रज्यामुपादत्त, क्रमेणाऽऽप च केवलम् ।। ९३६ ॥ तां देशनां स भगवानपि पारयित्वा, स्थानात् ततो जगदनुग्रहणैकतानः। . चक्रेण चक्रभृदिवाऽग्रचरेण धर्मचक्रेण भान् वसुमती विजहार नाथः ॥ ९३७॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये द्वितीये पर्वणि अजितखामिदीक्षाकेवलज्ञानवर्णनो नाम तृतीयः सर्गः॥ * * R IAS *06*6* १शोभमानः। *ACHO Jain Education a l For Private & Personal use only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते द्वितीय पर्व चतुर्थः सर्गः अजितसगरयो. चरितम्। ॥२४॥ इतश्च सगरस्याऽस्वमन्दिरे मेदिनीभुजः । सुवर्णमयनेमीकं, लोहिताक्षमयारकम् ॥१॥ विचित्र-स्वर्णमाणिक्यपण्टिकाजालमालितम् । सनान्दीघोषममलमणि-मौक्तिकमण्डितम् ॥२॥ वज्रनिर्मितनामीकं, किङ्किणीश्रेणिशोभितम् । सर्वतकुसुमस्रग्भिरर्चितं सविलेपनम् ॥३॥ अन्तरिक्षस्थितं यक्षसहस्रसमधिष्ठितम् । नाम्ना सुदर्शन चक्ररत्नं समुदपद्यत ॥४॥चतुर्भिः कलापकम् ॥ ज्वालामालाकरालं तच्चण्डांशोरिव मण्डलम् । आविर्भूतं प्रेक्ष्य चक्रमायुधागारिकोऽनमत् ॥५॥ अथ तच्चक्रमर्चित्वा, विचित्रैः पुष्पदामभिः । शर्शस मुदितो गत्वा, सत्वरं सगराय सः॥६॥ सिंहासनं पादपीठं, पादुके अपि तत्क्षणम् । उज्झाञ्चकार सगरो, गुरुसन्दर्शनादिव ॥७॥ पदानि कतिचिद् दत्त्वा, चक्रं मनसिकृत्य सः। ननाम देवतीयन्ति, यदस्त्राण्यस्त्रजी विनः ॥८॥ सिंहासने स आसित्वा, चक्रोत्पत्तिनिवेदिने । सर्व ददौ वाङ्गलग्नं, भूपणं पारितोषिकम् ।। ९॥ ततश्च पावनैर्नी विधाय स्नानमङ्गलम् । दिव्यालङ्कार-वस्त्राणि, पर्यवत्त महीपतिः ॥१०॥ पद्धयां चचाल भूपालश्चक्ररत्नमथाऽर्चितुम् । पादचारेणोप॑स्थानं, पूजातोऽप्यतिरिच्यते ॥११॥ धावद्भिः प्रस्खलद्भिश्च, पतद्भिश्वातिसम्भ्रमात् । सोऽन्वगामिनृपैः पादचारिभिः किङ्करैरिव ॥१२॥ सोऽनुसरोऽप्यनाहूतैः, पूजाद्रव्यकरैनरैः । खाधिकारप्रमादित्वं, भीतये ह्यधिकारिणाम् ॥ १३ ॥ १ सुवर्णमयधारम् । २ रत्नविशेषः। ३ माङ्गल्यशब्दः । ४ समीपगमनम् । सगरस्य चक्ररनोत्पत्तिः तत्पूजा च ॥२४॥ Jan Education International Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमानमिव देवेन, दीव्यदुद्दामतेजसा । सनाथं तेन चक्रेणास्त्रागारं सगरो ययौ ॥ १४ ॥ ननामाऽऽलोकमात्रेऽपि, पञ्चाङ्गस्पृष्टभूतलः । चक्ररत्नं नभोरत्नतुल्यं वसुमतीपतिः॥ १५॥ सोऽमार्जद्धस्तविन्यस्तरोमहस्तस्तदञ्जसा । हस्त्यारोहो हस्तिवरमिव तल्पसमुत्थितम् ॥ १६ ॥ आनीयाऽऽनीय पानीयकुम्भैः पुम्भिः समर्पितैः । स चक्रं पयामास, देवताप्रतिमामिव ॥१७॥ चन्दनस्थासकांस्तत्र, स्थापयामास पार्थिवः । तदूरीकारदत्तस्वहस्तलक्ष्मीविडम्बिनः ॥१८॥ नृपतिश्चक्ररत्नस्य, विचित्रैः पुष्पदामभिः । जयलक्ष्मीपुष्पगृहोपमा पूजां चकार च ॥ १९॥ गन्धांश्च चूर्णवासांश्च, चक्रे चिक्षेप चक्रभृत् । प्रतिमायामिवाऽऽचार्यः, प्रतिष्ठासमये स्वयम् ॥२०॥ देवताहमहामूल्यैर्वस्त्रालङ्करणैरपि । अलश्चक्रे चक्ररत्नमात्मानमिव पार्थिवः ॥ २१॥ लिलेखाऽष्टौ मङ्गलानि, पुरोऽष्टाशाजयश्रियाम् । आकर्षणायाभिचारमण्डलानीव भूपतिः ॥ २२ ॥ अकरोदग्रतस्तस्य, कुसुमैः पञ्चवर्णकः । सारगन्धैरुपहारं, राजर्तुरिव सप्तमः ॥ २३ ॥ घनसारा-गुरुसारं, धृपं तस्याग्रतोऽदहत् । धूमैनरेन्द्रः कस्तूरीविलेपनमिवाऽऽदधत् ॥२४॥ तत्रिः प्रदक्षिणीकृत्य, सोऽपसृत्य च किञ्चन । चक्रं चक्री नमश्चक्रे, जयश्रीजन्मसागरम् ॥ २५॥ विदधेऽष्टाह्निकां तस्य, चक्ररत्नस्य तत्र सः । देवताया इव नवप्रतिष्ठाया महीपतिः॥२६॥ ऋद्ध्या महत्या चक्रस्य, चक्रे पूजामहोत्सवः । पौरैरपि पुरीपद्रदेवताया इवाऽखिलैः ॥२७॥ ततो वसुमतीनाथः, खं जगाम निकेतनम् । चक्रेणाऽऽमश्रित इव, दिग्यात्रायै समुत्सुकः ॥ २८॥ १ सूर्य तुल्यम् । २ हस्तधृतमयूरपिच्छमार्जनिकः । ३ हस्तिपकः। ४ सुप्तोत्थितम् । ५ अष्टदिन्जयलक्ष्मीणाम् । Jain Education Intel For Private & Personal use only www.janelibrary.org Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय पर्व त्रिपष्टिशलाकापुरुषचरिते चतुर्थः ॥२४॥ सर्गः अजितसगरयो. चरितम् । RECECARSA गत्वा स्नानगृहे स्नानं, पानीयैः पावनैरथ । चकार सगरो गङ्गास्रोतसीवेन्द्र कुञ्जरः ॥ २९॥ ' रत्नस्तम्भ इवोन्मृष्टदेहो दिव्येन वाससा । पर्यधाद् वसुधाधीशो, विशदे दिव्यवाससी ॥ ३०॥ गोशीर्षचन्दनरसैरच्छर्योत्स्वारसैरिव । अङ्गराग नरपतेर्विदधुर्गन्धकारिकाः ॥ ३१॥ . अलङ्कारानलश्चक्रे, स्वाङ्गसङ्गेन भूपतिः । प्रयान्ति ह्युत्तमस्थाने, भूषणान्यपि भूष्यताम् ॥ ३२ ॥ राजा मुहूर्ते मङ्गल्ये, पुरोधःकृतमङ्गलः। दिग्यात्रायै गजरत्नमारुरोहाऽसिरत्नभृत् ॥ ३३ ॥ अश्वरत्नं समारुह्य, दण्डरत्नं च पाणिना। बिभ्रत सेनापती रत्नं, प्रतस्थे भूपतेः पुरः॥ ३४ ॥ सर्वोपद्रवनीहारहरणे दिनरत्नवत् । पुरोधोरत्नमवनीनाथेन सह चाऽचलत् ॥ ३५ ॥ भोज्यदानक्षमः सैन्ये, प्रत्यावासं गृहाधिपः । सहाऽचलच्चित्ररसकल्पद्रुरिव जङ्गमः ॥ ३६॥ सद्यः पुरादिनिर्माणालङ्कर्मीणपराक्रमः । सहाऽगाद् विश्वकर्मेव, रत्नभूतोऽस्य वर्धकिः ॥ ३७॥ विस्तारिणी करस्पर्शाद्, रत्ने च च्छत्र-चर्मणी । अनुकूलानिलस्पर्शादभ्रवत् सह चेलतुः ॥३८॥ रत्ने च मणि-काकिण्यौ, तमिस्रक्षपणक्षमे । सहेयतुर्लघूभृतौ, जम्बूद्वीपरवी इव ॥ ३९ ॥ बहुदासीपरीवारं, स्त्रीराज्यत इवाऽऽगतम् । अन्तःपुरं सहाऽचालीद्, देहच्छायेव चक्रिणः ॥ ४० ॥ ककुभो द्योतयद् दूरादरीकृतककुब्जयम् । पुरोऽगात प्रामुखं चक्र, प्रताप इव भूपतेः॥४१॥ पुष्करावर्तकाम्भोदघटानिनदसोदरैः । यात्रातूर्यनिनादैर्दिग्गजानुकर्णतालयन् ॥ ४२ ॥ चक्र विक्रममाणाश्वखुरोत्खातैश्च पांसुभिः । एकीकुर्वन् द्यावा-भूमी, द्राक् सम्पुटपुटाविव ॥ ४३ ॥ हिमम् । २ सूर्यवत् । * र्णतां नयन् सङ्घ १॥ RECENOGRAMMECCAM सगरस्य दिग्विजयाय प्रयाणम् ॥२४॥ Jain Education Intel For Private & Personal use only . Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डरत्नेन, स्थलादिना सेनान्येव पुरोमास्तरयन भितो रथ-द्विप-ध्वजाग्रस्थपाठीन-मकरादिभिः । विदधानः सयादस्कमिव व्योममहार्णवम् ॥ ४४ ॥ सप्तधाप्रक्षरद्दानजलासारविराजिभिः । मतङ्गजघटास्तोमैर्दुर्दिनं दर्शयन्निव ॥४५॥ उत्साहादुत्प्लवमानामिवाऽध्यारुरुक्षुभिः । पदातिभिः कोटिसङ्ख्यैस्तिरयन्नभितो भुवम् ॥४६॥ अविषयप्रतापेन, सर्वत्राऽकुण्ठशक्तिना । सेनान्येव पुरोगेण, चक्ररत्नेन राजितः॥४७॥ सेनान्या दण्डरत्नेन, स्थलादिस्थपुटामपि । मतेनेव क्षेत्रमहीं, वसुधां कारयन् समाम् ॥ ४८॥ एकयोजनमानेन, प्रयाणेन दिने दिने । भद्रद्विप इवाऽध्वानमाक्रामन् गतिलीलया ॥४९॥ दिनैः कतिपयैः प्राच्यां, तुल्यः प्राचीनबर्हिषा । गङ्गामुखैकतिलकं, मागधक्षेत्रमासदत ॥५०॥ ॥नवभिः कुलकम् ॥ अभ्रंलिहेभशालाभिर्विशालाभिरनेकशः । महागुहासोदराभिर्मन्दुराभिः सहस्रशः॥५१॥ विमानमानिभिहम्यॆमेंघमन्यैश्च मण्डपैः। अद्वैः समानसंस्थानैरेकविम्बकतैरिव ॥५२॥ शृङ्गाटकादिरचनाराजिराजपथस्थितिम् । नवयोजनविस्तार, दैर्घ्य द्वादशयोजनम् ॥ ५३ ॥ स्कन्धावारं चक्रभृतः, सगरस्याऽऽज्ञया ततः । चकार वर्धकीरत्नं, विनीताया इवाऽनुजम् ॥ ५४॥ ॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥ तत्र पौषधशालायां, चक्रेऽष्टमतपस्ततः । मागधतीर्थकुमारं, कृत्वा मनसि भूपतिः॥ ५५॥ स मुक्ताशेषनेपथ्यः, कुशसंस्तरसंश्रयः । मुक्तशस्त्रो ब्रह्मचारी, प्रतिजाग्रदवास्थित ॥५६॥ १ मत्स्यविशेषः । २ छादयन् । ३ विषमाम् । ४ इन्द्रेण । ५ अश्वशालाभिः । ६ समानाकृतिभिः। त्रिषष्टि. ४२ Jain Education in For Private & Personal use only . Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयं पर्व त्रिषष्टिशलाका चतुर्थ पुरुषचरिते सर्गः ॥२४२॥ अजितसगरयो चरितम् । महीपतिः परिणमत्यष्टमे च तपस्यथ । निर्गत्य पौषधगृहात् , सस्तौ पुण्येन वारिणा ॥ ५७ ॥ सपाण्डुरध्वज-च्छत्रं, नानाप्रहरणाकुलम् । संहडिण्डीर-यादस्कमधिपं सरितामिव ॥ ५८॥ दिव्यघण्टाचतुष्केण, लम्बमानेन पार्श्वतः। चन्द्रा-ऽऽदित्यचतुष्केण, सुमेरुमिव शोभितम् ॥ ५९॥ उच्चैरुच्चैःश्रवकल्पैरश्वैरुद्धरकन्धरैः । सनाथं पृथिवीनाथोऽध्यारुरोह महारथम् ॥६॥ ॥त्रिभिर्विशेषकम् ॥ सेनया हस्त्यश्व-रथ-पदातिचतुरङ्गया । विराजमानो नीत्येव, खया चतुरुपायया ॥ ६१ ॥ राजश्छत्रेण शिरसि, चामराभ्यां च पार्श्वतः । जगत्रयव्यापियशोवल्लीकन्दैरिव त्रिभिः ॥ ६२॥ आततज्यधनुःपाणिः, सगरः सागरं ततः । रथचक्रनाभिदघ्नं,जलं यावदगाहत ।। ६३ ॥ जयश्रीनाटिकानान्दी, पाणिना ज्यामवीवेदत् । निषङ्गाच चकर्षे', राजा रत्नं निधेरिव ॥ ६४॥ निदधे च धनुर्मध्ये, तमिपुं पृथिवीपतिः । धातकीखण्डमध्यस्थेष्वाकाराद्रिविडम्बकम् ॥६५॥ आचकर्ष तमाकर्ण, यान्तं कर्णावतंसताम् । काञ्चनं निजनामाई, भूपतिर्वाणमुल्बणम् ॥६६॥ सूत्कारिपक्षमुखरं, नवं ताय॑मिवाम्बरे । अधिमागधतीर्थेशं, विससर्ज शरं नृपः॥ ६७ ॥ योजनानि द्वादशाब्धेः, समुल्लत्य निमेषतः। मागधतीर्थकुमारसभायां निपपात सः॥ ६८॥ तडिद्दण्डमिवाऽकाण्डे, काण्डं तं प्रेक्ष्य तत्क्षणात् । चुकोप मागधपतिर्भृकुटीभङ्गभीषणः॥६९॥ किश्चिद् विमृश्य तं शरमुत्थाय स्वयमाददे । तत्रेक्षाञ्चक्रे सगरचक्रिनामाक्षराणि च ॥ ७० ॥ १ पूर्णे सति । २ समुद्रफेनजलजन्तुसहितम् । ३ राजनीत्या सामदामदण्डभेदरूपया। ४ विस्तारिता। ५वाइयामास। ६ तूणीरात् । सगरस्य दिग्विजयः धातकीसमाच चक, यावदगाहत। ॥२४२॥ Jain Education in For Private & Personal use only . Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसाश्चक्रे धृतशरो, भूयः सिंहासने निजे । गिरा गम्भीरया स्वस्यां, पर्षयेवमुवाच च ॥ ७१ ॥ द्वीपस्य जम्बूद्वीपस्य, क्षेत्रे भरतनामनि । द्वितीयश्चक्रभृजज्ञे, सगरो नाम सम्प्रति ॥ ७२ ॥ अवश्यकृत्यं भूतानां, भाविनां च सतां तथा । मागधाधिपतीनां हि, प्राभृतं चक्रवर्तिषु ॥ ७३ ॥ स इत्युदीर्य निभृतं, प्राभृतैर्भूतकायितः। उपतस्थे सविनयः, सगरं चक्रवर्तिनम् ॥ ७४ ॥ तं शरं हार-केयर-ताडङ्क-कटकादिकम् । नेपथ्यं देवदृष्याणि, राज्ञेऽदात् स नभःस्थितः॥७५॥ अम्भो मागधतीर्थीयं, स मागधकुमारकः । नरेन्द्रस्याऽर्पयामास, रसेन्द्रमिव वार्तिकः ॥ ७६ ॥ अञ्जलिं रचयित्वोच्चैः, पद्मकोशविडम्बकम् । उवाच मागधपतिर्वसुधाधिपतिं ततः॥७७॥ एतस्मिन् भरतक्षेत्रे, प्राच्यां दिशि तवाऽस्म्यहम् । प्रान्तवत्यैकसामन्त, इवाऽऽदेशकरः सदा ॥७८ ॥ भृत्यत्वेन प्रतीयेष, ततस्तमवनीपतिः। विससर्ज च सत्कृत्य, दुर्गपालमिव स्वकम् ॥ ७९ ॥ उदयन्निव मार्तण्डः, सगरः सागराम्भसः । निर्जगाम निजेनोच्चै, रुन्धानस्तेजसा दिशः॥८॥ गत्वा च शिबिरं स्नान-देवार्चनपुरःसरम् । विदधे सपरीवारः, पारणं राजवारणः ॥ ८१॥ अथ मागधतीर्थाधिपतेरष्टाह्निकोत्सवम् । चक्रे चक्री स्वामिदत्तमाहात्म्याः खलु सेवकाः ॥ ८२॥ सर्वदिग्विजयश्रीणामर्पणप्रतिभृसमम् । चक्ररत्नं चक्रिणोऽथ, प्रतस्थे दक्षिणां प्रति ॥ ८३॥ अपाक्पश्चिममार्गेण, चक्री चक्रानुगस्ततः । प्रचचालाऽचलां सैन्यैः, साचलां चलयन्निव ॥ ८४॥ कानप्युन्मूलयन् राज्ञस्तरूनिव समीरणः । शालिस्तम्बानिवोत्खाय, कानपि प्रतिरोपयन् ॥ ८५ ॥ १ वर्तमानानाम् । २ भृत्य इवाचरितः । ३ सिद्धरसम् । ४ सिद्धपुरुषः। ५ साक्षी । ६ वसुधाम् । ७ पर्वतसहिताम् । Jain Education Internation For Private & Personal use only www.iainelibrary.org Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयं पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते चतुर्थः ॥२४३॥ सर्गः अजितसगरयोश्चरितम् । नवानारोपयन् कांश्चित् , कीर्तिस्तम्भानिवोच्चकैः । कांश्चिन्मुञ्चन् नमयित्वा, नद्योघो वेतसानिव ॥८६॥ कुर्वन् कृत्ताङ्गुलीन् कांश्चित् , कांश्चिद् रत्नानि दण्डयन् । हस्त्यश्वं त्याजयन् कांश्चित्,कांश्चिच्छत्राणि मोचयन्।। क्रमादासादयामास, रोधो दक्षिणवारिधेः। सर्वदिग्जयनिर्माणे, सगरो दृढसङ्गरः॥ ८८॥* अवतीर्य करिस्कन्धात् , स्कन्धावारे क्षणात् कृते । विमाने वज्रभृदिवोवास वेश्मनि चक्रभृत् ॥ ८९ ॥ तत्र पौषधशालायां, कृताष्टमतपा नृपः । उद्दिश्य वरदामानं, तस्थौ स्वीकृतपोषधः ॥९॥ सगरोऽष्टमभक्तस्य, प्रान्ते पारितपौषधः । आच्छिन्नमिव मार्तण्डादारुरोह महारथम् ॥९१॥ नाभिदनो रथो यावदगाहत महोदधिम् । रथेन सगरस्तेन, मथेव दधिमन्थनीम् ॥ ९२॥ अधिरोप्य धनुर्भि, ज्यां टङ्कारमकारयत । आकर्ण्यमानं न्यत्कफर्यादोभित्रासविह्वलैः॥९३ ॥ अथेषुमिषुधेमध्याद्, भीषणेभ्योऽपि भीषणम् । अग्रहीदवनीनाथो, वार्तिकोऽहिं बिलादिव ॥ ९४॥ विधाय लँस्तकन्यस्तं, तं कर्णाभ्यर्णमानयत् । विज्ञप्तिकार्थिनमिव, सेवकं सायकं नृपः ॥ ९५॥ वरदामपतेर्धाम, प्रतीषु विससर्ज तम् । चक्रभृद् वज्रभृदिव, वज्रं प्रति शिलोच्चयम् ॥ ९६॥ वरदामकुमारस्य, सभायां तस्थुषः पुरः । निपपात शरोऽकाण्डमुद्गराघातसन्निभः ॥ ९७ ॥ अकाले कस्य कालेनोत्क्षिप्तं पत्रमिति ब्रुवन् । वरदामपतिर्बाणमुत्थाय स्वयमाददे ॥ ९८॥ १ छिन्नाङ्गुलीन् । २ दृढप्रतिज्ञः । * इतोऽने चतुर्भिकलापकम् इति सङ्घ ३ ॥ ३ इन्द्रः । ४ गृहीतम् । ५ तूणीरस्य । ६ गाडिकः। धनुर्मध्यदेशः। ८ विज्ञापनाचिकीर्षुम् । सगरस्य दिग्विजयः ॥२४३॥ Jain Education in For Private & Personal use only | Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्ट्वा सगरराजस्य, तत्र नामाक्षराणि सः। शशाम नागदमनीमवलोक्येव पन्नगः॥ ९९॥ आख्यच्च पर्षदे खस्यै, जम्बूद्वीपस्य भारते । चक्रभृत् सगरो नाम, द्वितीय उदपद्यत ॥१०॥ वस्वैश्चित्रैमहामूल्यै, रत्नालङ्करणैरपि । ततश्च पूजनीयोऽयं, देवतेव गृहागतः ॥ १०१॥ सोऽभिधायैवमुपदामुपादाय च सत्वरम् । उपतस्थेऽन्तरिक्षस्थो, रथस्थं पृथिवीपतिम् ॥ १०२॥ किरीट-रत्न-मुक्तास्रक्केयूर-कटकादि सः । कोशागारिकवद् राज्ञेऽर्पयामास शरं च तम् ॥१०३ ॥ वरदामाधिपोऽथैवमूचे स्थास्याम्यतः परम् । तवाऽऽदेशकरः शक्रदेश्यदेशे निजेऽपि हि ॥ १०४ ॥ तत्प्राभृतमुपादाय, तद्वचः प्रतिपद्य च । तं सत्कृत्य च कृत्यज्ञो, विससर्ज महीपतिः॥१०५॥ ततश्च ववले चक्री, चक्रमार्गानुगस्तथा । हेषमाणस्यन्दनाश्वो, जलवाजिविलोकनात् ॥ १०६ ॥ स्कन्धावारमुपेत्याऽथ, स रथादवरुह्य च । स्नात्वा कृत्वा जिनाचा च, चकाराऽष्टमपारणम् ॥ १०७॥ वरदामकुमारस्योद्दाममष्टाह्निकोत्सवम् । चकार सगरो भक्तेष्वीशा हि प्रतिपत्तिदाः ॥१०८॥ ततः प्रतस्थे पृथ्वीशश्चक्ररत्नपथानुगः । पश्चिमाभिमुखं मुष्णन्नुष्णांशुं सैन्यरेणुभिः ॥१०९॥ पनगानिव पक्षीन्द्रो, द्रविडान् द्रावयन् द्रुतम् । तेजसाऽन्ध्रानन्धीकुर्वन्नुलूकानिव भास्करः ॥११॥ त्याजयन् राज्यलिङ्गानि, त्रिंकलिङ्गैरसूनिव । कुर्वन् विदर्भान् निःसत्त्वान्, दर्भसंस्तरणानिव ॥१११॥ त्यक्तराष्ट्रान् महाराष्ट्रान्, कुर्वन् कर्पटिकानिव । कुर्वाणः कौङ्कणान् बाणैरङ्कितांस्तुरगानिव ॥११२॥ ललाटस्थाञ्जलील्लाटान, घटयन् सातपानिव । विष्वक् सङ्कोचयन् कच्छानतुच्छान् कच्छपानिव ॥११३॥ १ ओषधिभेदः । २ प्राभृतम् । ३ इन्द्रसदृशदेशे । ४ गौरवकारिणः । ५ सूर्यम् । ६ देशविशेषैः। ७ भिक्षुकानिव । Jain Education Inc . For Private & Personal use only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयं पर्व चतुर्थः त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥२४४॥ ROSSIGGUGGE सर्ग: अजितसगरयोश्चरितम् । सुराष्ट्रान नाष्ट्रवत् क्रूरान्, विदधानो वशंवदान् । पश्चिमाम्भोनिधे रोधः, क्रमेण प्राप पार्थिवः॥११४॥ ॥पञ्चभिः कुलकम् ॥ स्कन्धावारमधिष्ठाय, प्रभासमधिकृत्य सः । कृताष्टमोऽथ जग्राह, पौषधं पौषधौकसि ॥११५॥ अष्टमान्ते रविरिवाऽऽरुह्य राजा महारथम् । नाभिदन्नं जलं यावजगाहे लवणोदधिम् ॥ ११६ ॥ तत्राधिज्यं धनुः कृत्वा, ज्यानिर्घोषं ततान सः । बाणप्रयाणकल्याणजयातोद्यरवोपमम् ॥ ११७॥ अधिप्रभासतीर्थेशनिवासमथ सायकम् । खनामाकं स सन्देशहरं दूतमिवाऽमुचत् ॥ ११८॥ अन्ते द्वादशयोजन्याः, प्रभाससुरसमनि । स तत्र न्यपतत् पैत्री, पतत्रीव महाद्रुमे ॥ ११९ ॥ सोऽपि तं पत्रिणं प्रेक्ष्य, प्रेक्षापूर्वकृतां वरः। अवाचयत् तत्र नामवर्णान् सगरचक्रिणः ॥ १२० ॥ उपात्तोपायनः सोऽथ, तमुपादाय सायकम् । भक्त्याऽतिथिं गुरुमिवाऽभ्यागमत् सगरं नृपम् ॥१२१॥ चूडामणिं निष्कोरस्के, कटकान् कटिसूत्रकम् । केयूरे चाऽऽर्पयद् राज्ञे, तं चेषु स नभःस्थितः ॥१२२॥ स विनीतो विनीतेशमित्यूचे विषयेऽत्र हि । चक्रवर्तिस्त्वदादेशवर्ती वत्स्याम्यतः परम् ॥ १२३॥ उपायनमुपादाय, समालप्य च सादरम् । विससर्जाऽऽयुक्तमिव, प्रभासं भूमिवासवः॥१२४ ॥ सगरः शिविरं गत्वा, स्नात्वा कृतजिनार्चनः । चकाराऽष्टमभक्तान्ते, पारणं सपरिच्छदः॥ १२५॥ प्रभासतीर्थाधिपतेर्वरदामपतेरिव । अष्टाह्निकोत्सवं चक्रे, प्रीतो वसुमतीपतिः॥१२६॥ अनुचक्रं ततश्चक्री, सिन्धोर्दक्षिणरोधसा । प्रतीपगामिसिन्ध्वेव, सेनया प्रामुखो ययौ ॥१२७॥ १ राक्षसवत् । २ शरः। ३ पक्षीव । ४ भृत्यमिव । सगरस्य दिग्विजयः ॥२४४॥ SA Jain Education a l For Private & Personal use only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RAISEASEASEANSEX सिन्धुदेवीसमनश्चाऽदूरतः शिबिरं न्यधात् । सद्योऽवतीर्णगन्धर्वपुरोपममिलापतिः ॥१२८ ॥ सिन्धुदेवीं च मनसि, कृत्वाऽष्टमतपो नृपः । चकार सिन्धुदेव्याश्च, रत्नासनमकम्पत ॥ १२९॥ विदाञ्चकाराऽवधिना, सा च चक्रिणमागतम् । उपायनकरा भक्तिपराऽथ तमुपाययौ ॥१३०॥ अष्टोत्तरं रत्नकुम्भसहस्रं निधिसोदरम् । मणि-रत्नविचित्रं च, स्वर्णभद्रासनद्वयम् ॥ १३१॥ केयूर-कटकादीनि, रत्नालङ्करणानि च । देवदृष्याणि च ददौ, भृभुजे सा नभस्थिता ॥१३२॥ युग्मम् ॥ इत्यभाषिष्ट सा देवी, नरदेववराऽधुना । भवद्विषयवास्तव्या, किङ्करीवासि शाधि माम् ॥ १३३ ॥ अतिपीयुषगण्डपैर्वचोभिः प्रतिभाष्य ताम् । विससर्ज महीनाथश्चके चाऽष्टमपारणम् ॥ १३४ ॥ विदधे सिन्धुदेव्याश्च, प्राग्वदष्टाह्निकोत्सवम् । महात्मनां महीनामुत्सवा हि पदे पदे ॥ १३५॥ चक्रमायुधशालायाः, स्वशालाया इव द्विपः । निर्जगाम श्रियां धाम, केकुभोत्तरपूर्वया ॥ १३६ ॥ नृपस्तदनुगच्छंश्च, दिनैः कतिपयैरपि । नितम्बं दक्षिणं प्राप, वैताव्यस्य महागिरेः ॥ १३७॥ निधाय तत्र शिविरं, विद्याधरपुरोपमम् । अधिवैताठ्यकुमार, सोऽष्टमं विदधे तपः॥१३८ । महीपतेः परिणमत्यष्टमे च तपस्यथ । वैताठ्याद्रिकुमारस्य, सिंहासनमकम्पत ॥ १३९॥ वैताठ्याद्रिकुमारोऽपि, बुबुधेऽवधिना ततः। भरतार्धावधावभ्युपेतं सगरचक्रिणम् ॥ १४०॥ सोऽभ्येत्य राज्ञे रत्नानि, दिव्यानि वसनानि च । ददौ नभःस्थितो भद्रासन-वीरासनानि च ॥१४१॥ चिरं जीव चिरं नन्द, चिरं जय जयेति च । सौवस्तिक इव माऽऽह, स हृष्टः पृथिवीपतिम् ॥१४२ ॥ । त्वद्देशवासिनी । २ दिशया। ३ पूर्णे। ४ भरतार्धस्य सीमनि । ५ स्वस्तिवाचको द्विजः । Jan Education Inter For Private & Personal use only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते द्वितीय पर्व | चतुर्थः सर्ग: अजितसगरयोचरितम् । ॥२४५॥ खं बान्धवमिवाऽभीष्टं, तमाभाष्य सगौरवम् । सगरो विससर्जाऽथ, चकाराऽष्टमपारणम् ॥ १४३॥ वैताड्याद्रिकुमारस्य, चक्रे चाऽष्टाह्निकोत्सवम् । निजप्रसादप्रासादसुवर्णकलसोपमम् ॥ १४४॥ ततश्चक्रानुगो गत्वा, तमिस्रा निकषा गुहाम् । पञ्चानन इवोवास, निधाय शिबिरं नृपः ॥१४५॥ कृतमालाभिधं तत्र, देवं मनसिकृत्य सः । चक्रेऽष्टमतपः कृत्यं, महान्तो न त्यजन्ति हि ॥१४६ ॥ राज्ञोऽष्टमे परिणमत्यकम्पत तदासनम् । तादृशामभियोगे हि, कम्पन्ते पर्वता अपि ॥ १४७ ॥ ज्ञात्वाऽवधिप्रयोगेण, कृतमालोऽपि चक्रिणम् । उपस्थितं प्रभुमिवोपतस्थे गगनस्थितः ॥१४८ ॥ स्त्रीरत्नयोग्यं तिलकचतुर्दशमदत्त सः। नेपथ्यजातं वस्त्राणि, गन्ध-चूर्ण-स्रगादि च ॥ १४९ ॥ देवो जय जयेत्युक्त्वा, स सेवा प्रत्यपद्यत । सेवनीयाश्चक्रिणो हि, देवैरपि नरैरिव ॥ १५० ॥ प्रसादपूर्वमालप्य, नृपतिर्विससर्ज तम् । चक्रे च सपरीवारोऽष्टमभक्तान्तपारणम् ॥ १५१॥ देवस्य कृतमालस्य, सादरः सगरस्ततः । अष्टाह्निकोत्सवं चक्रे, देवानां प्रीतिदं ह्यदः ॥१५२ ॥ __अष्टाह्निकान्ते सगरः, पश्चिमं सिन्धुनिष्कुटम् । *विजेतुमर्धसैन्येन, सैन्यनाथं समादिशत् ॥१५३॥ अथ तन्मेदिनीभर्तुः, शासनं रचिताञ्जलिः । शिरसा प्रतिजग्राह, मालामिव चमूपतिः ॥१५४॥ विख्यातो भारते वर्षे, महाबल-पराक्रमः । नभस्वानिव विवस्वानिव चोग्रेण तेजसा ॥ १५५॥ समस्तम्लेच्छभाषाज्ञः, समस्तलिपिपण्डितः। विचित्रचारुभाषी च, सरस्वत्या इवाऽऽत्मजः ॥१५६ ॥ निष्कुटानामशेषाणां, भरतक्षेत्रवर्तिनाम् । जल-स्थलजदुर्गाणां, विज्ञाताऽऽगम-निर्गमौ ॥ १५७ ॥ १ उद्योगे। २ स्वीकृतवान् । * निर्जेतु सङ्घ २॥ ३ वायुः । ४ सूर्यः । SCSCASSAMASSAGARCASASCANCE सगरस्य | दिग्विजयः ॥२४५॥ Jain Education in For Private & Personal use only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education In 'अत्रवेदः शरीरीव, सर्वायुधविचक्षणः । कृतस्नानः कृतप्रायश्चित्त कौतुकमङ्गलः ॥ १५८ ॥ सितपक्ष इव स्वल्पनक्षत्रमणिभूषणः । शरासनधरो धीरः, सेन्द्रचाप इवाम्बुदः ॥ १५९ ॥ सविद्रुमवितानोऽब्धिरिव चर्माख्यरत्नभृत् । सरोवत् पुण्डरीकेणोद्दण्डेनोपरि शोभितः ॥ १६० ॥ भश्चामराभां श्रीखण्डस्थासकाभ्यामिवांसयोः । तूर्यनादैर्नादयन् द्यां स्तनितैरिव वारिदः ॥ १६९ ॥ सैन्येन चतुरङ्गेण, सेनानीः परिवारितः । आरुह्येभवरं सिन्धुप्रवाहाभ्यर्णमाययौ ॥ १६२ ॥ ॥ अष्टभिः कुलकम् ॥ अथ पस्पर्श सेनानी चर्मरत्नं स्वपाणिना । तदन्तः सिन्धु ववृधे, नावाकारं बभूव च ॥ १६३ ॥ तेनोत्ततार तां सिन्धुं, सह चम्बा चमूपतिः । अपारमिव संसारं, योगीन्द्रो योगलीलया ।। १६४ ॥ सिन्धुतीरादथ स्तम्भादिव मत्तमतङ्गजः । प्रससार महासारोऽस्खलितं पृतनापतिः ।। १६५ ।। सिंहलकान् वर्बरकांष्टङ्कणानितरानपि । द्वीपं च यवनद्वीपमाचक्राम चमूपतिः ॥ १६६ ॥ कालमुखान् जोनकांच, तथा वैताढ्य संश्रिताः । नानाविधा म्लेच्छजातीः, स स्वच्छन्द मदण्डयत् ॥१६७ समस्तदेशप्रवरं, कच्छदेशं च लीलया । महोक्ष इव सेनानीरुपदुद्राव विक्रमी ।। १६८ ।। तदन्तात् प्रतिनिवृत्य, तस्यैवोर्वीतले समे । अवतस्थे चमूनाथोऽम्भः क्रीडोत्तीर्णहस्तिवत् ॥ १६९ ॥ म्लेच्छा मडम्ब - नगर - ग्रामादीनामधीश्वराः । तं तत्रेयुः सर्वतोऽपि, पाशाकृष्टा इव द्रुतम् ॥ १७० ॥ भूषणानि विचित्राणि रत्नानि वसनानि च । रजतं च सुवर्णं च, तुरङ्गान् कुञ्जरानपि ॥ १७१ ॥ १ धनुर्वेदः । २ शुक्लपक्षः । ३ शोभमानः । ४ सेनापतिः । . Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते द्वितीय पर्व चतुर्थः सर्गः अजितसगरयोचरितम् । ॥२४६॥ स्यन्दनान्यन्यदपि यत्, प्रकृष्टं वस्तु किश्चन । सेनान्ये तदुपनिन्युासार्पितमिवाऽथ ते ॥ १७२ ॥ ॥ युग्मम् ॥ कुटुम्बिका इव वयं, करदा वशगाश्च वः । स्थास्यामोऽत्रेति सेनान्यं, ते बद्धाञ्जलयोऽवदन् ॥ १७३ ॥ तत्प्राभृतमुपादाय, व्यसृजत् तांश्चमूपतिः । एत्योत्ततार सिन्धुं च, चर्मरत्नेन पूर्ववत् ॥ १७४ ॥ गत्वोपनिन्ये तत्सर्व, सगराय स भूभुजे । कृष्टाश्चेव्य इवाऽऽयान्ति, शक्त्या शक्तिमतां श्रियः॥१७५॥ दूरदूरादेत्य भूपैः, सरिद्भिरिव सागरः। उपास्यमानः सगरस्तत्राऽस्थाच्छिबिरे चिरम् ।। १७६ ॥ तमिस्रादक्षिणद्वारकपाटोद्घाटनाय सः । सेनान्यमन्यदाऽऽदिक्षद्, बिभ्राणं दण्डकुश्चिकाम् ॥१७७॥ स गत्वोपतमिस्त्रं च, कृतमालामरं प्रति । चक्रेऽष्टमतपः प्रायस्तपोग्राह्या हि देवताः ॥ १७८॥ अष्टमान्ते कृतस्नानः, शुचिवस्त्रविलेपनः । उपात्तधूपदहनोज्गाद् गुहां देवतामिव ॥ १७९ ॥ कृत्वा प्रणाममालोकमात्रेऽपि पृतनापतिः । तस्या द्वारे द्वा:स्थ इव, दण्डपाणिरवास्थित ॥ १८॥ विधायाऽष्टाहिकां तस्या, लिखित्वा चाऽष्टमङ्गलीम् । दण्डरत्नेन सेनानीस्तत्कपाटावताडयत् ॥ १८१॥ सैरत्सरिति संरावं, कुर्वाणो तत्क्षणादथ । व्यघटेतां तत्कपाटौ, शुष्कशिम्बापुटाविव ॥ १८२ ॥ कपाटोद्धाटनं तच्च, शशंस सगराय सः । सरत्सरिति निर्घोषकथितं पुनरुक्तवत् ॥ १८३ ॥ हस्तिरत्नं समारुह्य, चतुरङ्गचमूवृतः । दिक्पालानामेकतम, इव तत्राऽऽययौ नृपः ॥ १८४॥ निदधे दक्षिणे कुम्भे, कुम्भिरत्नस्य भूपतिः । मणिरत्नं मल्लिकायां, प्रदीपमिव भासुरम् ॥ १८५ ॥ १ दास्यः । * पाणिरिवास्थि सङ्घ १ ॥२ सर सर इतिरूपं शब्दम् । ३ दीपिकायाम् । सगरस्य दिग्विजयः ॥२४६॥ Jain Education a l For Private & Personal use only . Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततश्चक्रानुगश्चक्री, केसरीवास्खलद्गतिः । पञ्चाशद्योजनायामां, तमिस्रां प्राविशद् गुहाम् ।। १८६ ॥ गोमत्रिकाक्रमेणाऽथ, गुहाभियोर्द्वयोरपि । पञ्चधन्वशतीभाञ्जि, विष्कम्भा-ऽऽयाममानयोः॥१८७ ॥ योजनान्तरितान्येकहीनां पञ्चाशतं नृपः । ध्वान्तनाशाय काकिण्या, मण्डलान्यालिखन् ययौ ॥१८८॥ उद्घाटितं गुहाद्वार, गुहान्तमण्डलानि च । तावत् तान्यपि तिष्ठन्ति, यावजीवति चक्रभृत ॥ १८९॥ मानुषोत्तरसीमस्थचन्द्र-सूर्यपरम्पराम् । विडम्बयद्भिरुयोतो, गुहान्तस्तैरजायत ॥ १९ ॥ निर्यान्त्यौगुहाप्राग्भित्तेः, प्रत्यग्भित्तेश्च मध्यतः। प्रापोन्मना-निमग्नाख्ये, निम्नगे सोऽथ सिन्धुगे॥१९॥ उन्मनायां विनिक्षिप्ता, प्रोन्मजति शिलापि हि । निमग्नायां पुनः क्षिप्तमलाब्वपि निमज्जति ॥१९२॥ सद्यो वर्धकिरत्नेन, बद्धया पद्यया च ते । अलङ्घत गृहस्रोतोलीलया सबलो नृपः ॥ १९३॥ स क्रमेण तमिस्राया, उत्तरं द्वारमासदत् । व्यघटेतां तत्कपाटे, स्वयमेवाऽजकोशवत् ॥ १९४ ॥ निर्जगाम गुहामध्यादब्धिमध्यादिवाय॑मा । सगरः सपरीवारो, वारणस्कन्धमाश्रितः ॥ १९५॥ न्यत्कारकारिणं भानोः, सर्वतोऽप्यस्त्रदीप्तिभिः । भूरजोभिः खेचरीणां, दृग्निमेषविशेषदम् ॥ १९६ ॥ सैन्यप्राग्भारभारेण, भूमिकम्पविधायिनम् । दिवस्पृथिव्योस्तुमुलध्वानर्वाधिर्यदायिनम् ॥ १९७ ॥ अप्यकाण्डे काण्डपटमध्यादिव विनिर्गतम् । नभस्तलादिवाऽऽयातं, पातालादिव चोत्थितम् ॥ १९८॥ अनन्तसैन्यगहनं, पुरश्चक्रेण भीषणम् । सगरं सागरमिवाऽऽपतन्तं प्रेक्ष्य तत्क्षणात् ॥ १९९ ॥ १ नद्यौ । २ तरति । ३ तुम्बिका । ४ नद्यौ । ५ तिरस्कारकारिणम् । ६ बधिरत्वदायिनम् । Jan Education Inter For Private & Personal use only Ril Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥२४७॥ आपाता नाम दुष्पाताः, किराता दोर्मदोद्धुराः । सक्रोधं सोपहासं चाऽन्योऽन्यमेवं बभापिरे ॥२०॥ द्वितीय पर्व ॥पञ्चभिः कुलकम् ॥ चतुर्थः भो भोः सर्वेऽपि दोष्मन्तो, ब्रूत देशेऽत्र सम्प्रति । कोऽप्रार्थितप्रार्थकोऽयं, श्रीहीधीकीर्तिवर्जितः॥२०१॥ाट सर्गः निर्लक्षणो वीरमानी, मानेनान्धम्भविष्णुकः । कासरो हा! प्रविशति, वने केसर्यधिष्ठिते? ॥ २०२॥ अजित ॥युग्मम् ॥ । सगरयोइत्युदीर्य महावीर्या, अग्रानीकमुपाद्रवन् । म्लेच्छराजाश्चक्रपाणेर्वज्रपाणेरिवाऽसुराः ॥२०३ ॥ श्चरितम्। नष्टद्विपं हतहयं, भग्नाक्षस्यन्दनं तथा । क्षणात परावृत्तमिव, तदनीकमजायत । २०४॥ खसैन्यं चक्रिसेनानीः, किरातैः प्रेक्ष्य विद्रुतम् । वैवस्वत इव क्रुद्धोऽध्यारोहद् रत्नवाजिनम् ॥ २०५॥ असिरत्नं समाकृष्य, धूमकेतुमिवोद्गतम् । प्रभञ्जन इवौजस्वी, प्रति म्लेच्छमधावत ॥ २०६॥ सगरम कानप्युन्मूलयामास, निष्पिपेप च कानपि । कानप्यपातयन्म्लेच्छान्, स वनेभ इव दुमान् ॥ २०७॥ दिग्विजय: तेन भग्नाः किरातास्ते, निःस्थामानोऽपचक्रमुः। बहूनि योजनान्याशु, पवनोद्भूततूलवत् ॥ २०८ ॥ दूरे गत्वाऽथ सम्भूय, सिन्धुनद्यास्तटावनौ । वालुकास्रस्तरेष्वस्थुरुत्ताना मुक्तवाससः॥ २०९॥ देवान् मेघमुखान् नागकुमारान् कुलदेवताः । उद्दिश्याऽष्टमभक्तानि, जगृहुस्तेऽत्यमर्षणाः ॥२१॥ तदष्टमान्ते देवानामासनानि चकम्पिरे । दृशेवाऽवधिनाऽपश्यन्, किरातांस्ते तथास्थितान् ॥ २११॥ ॥२४७|| कृपया पितृवत् तेषामा जातातयोऽथ ते । तानुपेत्यान्तरिक्षस्थाः, प्रोचुर्मेघमुखा इति ॥ २१२ ॥ १ दुःखदः पातो येषां ते । २ महिषः। ३ यमः। ४ वायुरिव । ५ पीडया । SARALSAREERRIERRORISRORES Jain Education in all For Private & Personal use only , Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे वत्सा ! हेतुना केन, यूयमेवं हि तिष्ठथ ? । अविलम्बेन तं ब्रूत, यथा वः प्रतिकुर्महे ॥ २१३ ॥ ततः किराता इत्यूचुः, कोऽप्यसौ विषयेत्र नः । प्राविशद् दुःप्रवेशेऽपि, पयोधाविव वाडवः ॥२१४ ॥ वयं तेन पराभूता, युष्मान् शरणमाश्रिताः। स यथा याति भूयोऽपि, नाऽऽयाति च तथाऽस्तु नः॥२१५॥ तेऽप्यभ्यधुः सुरा एवं, कृशानोः शलभा इव । यूयमस्याऽनभिज्ञाः स्थ, तेनेदमभिधत्थ भोः ॥२१६॥ अयं हि सगरो नाम, चक्रवर्ती महाभुजः । सुराणामसुराणां चाविजय्यः शक्रविक्रमः ॥२१७॥ शस्त्रा-ग्नि-विष-मत्रा-ऽम्बु-तत्र-विद्याद्यगोचरः। उपद्रोतुं वज्र इव, नहि केनापि शक्यते ॥ २१८॥ तथापि वोऽनुरोधेन, चक्रिणोऽस्य महौजसः । मशकाः कुञ्जरस्येव, करिष्याम उपद्रवम् ।। २१९ ।। इत्युदित्वा तिरोभूय, ते मेघवदनाः सुराः । स्कन्धावारोपरि स्थित्वा, तेनिरे घोरदुर्दिनम् ॥ २२०॥ नीरन्ध्रेणान्धकारेणाऽपूर्यन्त ककुभस्तथा । जनुषाऽन्धलवद् रूपं, नोपलेभे यथा जनः ॥ २२१॥ धाराभिस्तेऽथ मुसलमानामिः शिविरोपरि । सप्तरात्रं प्रववृषुरनिर्विण्णाः समीरवत् ।। २२२ ॥ अरिष्टवृष्टिमच्छिन्नां, प्रेक्ष्य तां चक्रवर्त्यपि । स्वयं पाणिसरोजेन, चर्मरत्नं परामृशत् ॥ २२३ ॥ स्कन्धावारप्रमाणेन, ववृधे तत् क्षणादपि । तच्च तिर्यक् समास्तीण, ततार सलिलोपरि ॥२२४॥ महापोतमिवाऽऽरोहत, ससैन्यस्तन्नरेश्वरः । छत्ररत्नं च संस्पृश्याऽतानयचर्मरत्नवत् ॥ २२५॥ चक्रे चर्मोपरि च्छत्रं, सोऽभ्रं भुव इवोपरि। मणिरत्नं न्यधाच्छत्रदण्डान्ते द्योतहेतवे ॥ २२६॥ छत्र-चर्मान्तरे तस्थौ, तद् राज्ञः शिबिरं सुखम् । असुर-व्यन्तरगण, इव रत्नप्रभान्तरे ॥ २२७॥ १ अग्नेः । २ दिशः । ३ जम्मान्धवत् । मुसलप्रमाणाभिः । ५ अखण्डाम् । ६ पस्पर्श । विस्तारितम् । ८ विस्तारयामास । त्रिषष्टि. ४३ Jain Education Inted For Private & Personal use only www.iainelibrary.org Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥२४८॥ चतुर्थः सर्वधान्यानि शाकांच, फलादि च गृहाधिपः । प्रातरुत्वा ददौ सायं, रत्नमाहात्म्यमीदृशम् ॥ २२८॥ द्वितीयं पर्व अखण्डिताभिर्धाराभिर्वपति स निरन्तरम् । तथैव ते मेघमुखा, दुर्वाग्भिरिव दुर्मुखाः ॥ २२९ ॥ क एते मामुपद्रोतुं, प्रवृत्ता हन्त! दुर्धियः । एवं सकोपः सगरश्चिन्तयामास चेतसि ॥ २३०॥ सर्गः सान्निध्यकारिदेवानां, सहस्राः षोडशापि ते । कुपिता वर्मिताः सास्त्रास्तानुपेत्यैवमभ्यधुः॥ २३१॥ | अजितअरे वराकाः! किमिम, सगरं चक्रवर्तिनम् । देवादीनामप्यजय्यं, न जानीथाऽल्पमेधसः १ ॥२३२॥ सगरयोअपसर्पत तत् तूर्ण, चेदात्मकुशलेच्छवः । अन्यथा खण्डयिष्यामो, युष्मान् कूष्माण्डवद् वयम् ॥२३३॥ चरितम् । इत्युक्तास्तैर्मेघमुखा, मेघान् संहृत्य तत्क्षणम् । त्रस्तास्तिरोदधुः क्वापि, शेफरा इव वारिणि ॥ २३४ ॥18 तदापातकिरातानां, गत्वा मेघमुखाः सुराः। आदिशंश्चक्रवर्येष, न जय्योऽसादृशामिति ॥२३५॥ सगरस्य ततः किरातास्ते भीताः, स्त्रीवत् परिहितांशुकाः । रत्नोपायनमादाय, सगरं शरणं ययुः॥२३६ ॥ दिग्विजयः पतित्वा पादयोश्चक्रवर्तिनो वशवर्तिनः । आबद्धाञ्जलयो मूर्ध्नि, ते किराता व्यजिज्ञपन् ॥ २३७ ॥ स्वामिन्नसाभिरज्ञानात्, त्वां प्रतीदमनुष्ठितम् । शरभैः प्रति पर्जन्यं, फालकर्मेव दुर्मदैः ॥२३८॥ अविमृश्यविधायित्वं, तत् तितिक्षस्व नः प्रभो। प्रणिपातावसानो हि, कोपाटोपो महात्मनाम् ॥२३९॥ कुटुम्बिनः पत्तयो वा, सामन्ता वा त्वदाज्ञया । अतः परं भविष्यामस्त्वदधीना हि नः स्थितिः ॥२४०॥ चत्र्यप्युवाच तानेवं, मदीयीभूय तिष्ठत । अपाग्भरतवर्षाधसामन्ता इव दण्डदाः ॥ २४१॥ ॥२४८॥ एवमालप्य सत्कृत्य, किरातान् व्यसृजन्नृपः । सेनान्यं चाऽऽदिशजेतुं, सिन्धोः पश्चिमनिष्कुटम्॥२४२॥ , अस्त्रसहिताः । २ मत्स्याः । ३ अष्टापदैः । ***ZARAOSAR Jain Education in For Private & Personal use only | , Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्मणा पूर्ववत् सिन्धुमुत्तीर्य पृतनापतिः । गिरि-सागरमर्यादानजयत् सिन्धुनिष्कुटान् ॥ २४३॥ म्लेच्छानां दण्डमादाय, दण्डेशश्चण्डविक्रमः। आययौ सगरं वारिसम्पूर्ण इव वारिदः॥२४४॥ भोगान् विचित्रान् भुञ्जानः, सोऽय॑मानो महीश्वरैः। तत्रैवाऽस्थाचिरं नास्ति, विदेशः कोऽपि दोष्मताम् ॥ __ अन्यदा चक्रिणश्चक्रं, निश्चक्रामाऽऽयुधौकसः । मार्गेणोत्तरपूर्वेण, ग्रीष्मे बिम्बमिवोष्णगोः ॥२४६॥ गच्छंश्चक्रानुगो राजा, क्षुद्रस्य हिमवद्गिरेः । नितम्ब दक्षिणं प्राप, दत्तावासोऽध्युवास च ॥ २४७॥ उद्दिश्य क्षुद्रहिमवत्कुमारं तत्र सोऽकरोत् । तपोष्टमं पौषधं चोपाददे पौषधौकसि ॥ २४८॥ पौषधान्ते रथारूढोऽगात् क्षुद्रहिमवद्गिरिम् । जघान च रथाओण, स त्रिर्दन्तेन दन्तिवत् ॥ २४९ ॥ नियम्य तुरगांस्तत्र, कृत्वाऽधिज्यं शरासनम् । निजनामाङ्कितं बाणं, विससर्ज नरेश्वरः ॥ २५०॥ द्वासप्ततिं योजनानि, गत्वा क्रोशमिव क्षणात् । सोऽपतत् क्षुद्रहिमवत्कुमारस्य पुरो भुवि ॥२५१ ॥ क्षणं चुकोप बाणेन, बाणनामाक्षरैः पुनः । क्षणादशाम्यत् स क्षुद्रहिमाचलकुमारकः॥२५२ ॥ गोशीर्षचन्दनं सर्वोषधीः पद्महदोदकम् । देवदृष्याणि तं बाणं, रत्नालङ्करणानि च ॥ २५३ ॥ देवेद्रुपुष्पमालाश्चोपनिन्ये सगराय सः । प्रत्यपद्यत सेवां च, जयेत्युक्त्वा नभःस्थितः ॥ २५४॥ तं विसृज्य ततो राजा, वालयित्वा निजं रथम् । ययावृषभकूटादि, त्रिर्जघान तथैव तम् ॥ २५५ ॥ अश्वान् नियम्य काकिण्या, प्राग्भागे तस्य भूभृतः । द्वितीयः सगरश्चक्रीत्यक्षराणि लिलेख सः॥२५६॥ ततो रथं वालयित्वा, स्कन्धावारमुपेत्य च । विदधेऽष्टमभक्तान्तपारणं पृथिवीपतिः ॥ २५७॥ १ सूर्यस्य । २ कल्पवृक्षपुष्पमालाः । Jain Education Internal For Private & Personal use only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते द्वितीयं पर्व चतुर्थः सर्गः अजितसगरयोश्चरितम् । ॥२४९॥ हिमाचलकुमारस्य, चक्रेऽथाऽष्टाह्निकोत्सवम् । ऋद्ध्या महत्या सगरः, पूर्णदिग्जयसङ्गरः ॥ २५८॥ ___ मार्गेणोत्तरपूर्वेण, चक्ररत्नानुगस्ततः । गङ्गादेवीभवनाभिमुखं सुखमगान्नृपः ॥ २५९॥ निदधे शिबिरं गङ्गासद्मनोऽनतिदूरतः। विदधेऽष्टमभक्तं च, गङ्गामुद्दिश्य भूपतिः॥२६॥ सिन्धुदेवीव गङ्गाऽपि, विज्ञायाऽऽसनकम्पतः । उपतस्थेऽन्तरिक्षस्थाऽटमान्ते चक्रवर्तिनम् ॥ २६१॥ सहस्रं रत्नकुम्भानामष्टोत्तरमदत्त च । स्वर्ण-माणिक्यचित्रं च, रत्नसिंहासनद्वयम् ॥ २६२ ॥ विसृज्य गङ्गां सगरो, विदधेऽष्टमपारणम् । अष्टाह्निकोत्सवं चाऽस्याः, प्रीतये प्रीतमानसः॥ २६३ ।। चक्रादिष्टेन मार्गेण, दिशा दक्षिणया ततः। सोऽखण्डविक्रमः खण्डप्रपाताभिमुखं ययौ ॥२६४॥ आरात् खण्डप्रपातायाः, स्कन्धावारं न्यधत्त सः । नाट्यमालकमुद्दिश्याऽष्टमभक्तं चकार च ॥२६५॥ अष्टमान्ते नाट्यमालो, विज्ञायाऽऽसनकम्पतः । सोपायन उपागच्छद्, ग्रामेश इस भूपतिम् ॥ २६६ ॥ नानाविधानलङ्कारान्, स ददौ चक्रवर्तिनः । प्रत्यपद्यत सेवां च, विनीतो मण्डलेशवत् ॥२६७॥ विसृज्य तं च सगरः, पारणानन्तरं मुदा । अष्टाह्निकां तस्य चक्रे, कृतप्रतिकृतोपमाम् ॥ २६८ ॥ - अथ चक्रधरादेशात, सेनानीरसेनया । सिन्धुनिष्कुटवद् गाङ्गं, प्राग्निष्कुटमसाधयत् ॥ २६९ ॥ वैताठ्यपर्वतश्रेणिद्वयविद्याधरानथ । पर्वतीयानिव नृपान्, सगरस्तरसाऽजयत् ॥ २७॥ रत्नालङ्कार-वासांसि, हस्तिनस्तुरगांश्च ते । चक्रनाथस्य ददिरे, सेवां च प्रतिपेदिरे ॥ २७१ ॥ विद्याधरान् धराधीशः, सत्कृत्य विससजे तान् । तुष्यन्ति हि महीयांसः, सेवामय्या गिरापि हि ॥२७२।। प्रतिज्ञा। सगरस्य दिग्विजयः ॥२४९॥ Jain Education a l For Private & Personal use only ___ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृपादेशेन सेनानीरष्टमादिपुरःसरम् । तमिस्रावद् गुहां खण्डमपातामुदघाटयत् ॥ २७३ ॥ सगरो गजमारुह्य, तत्कुम्भे दक्षिणे मणिम् । मेरुशृङ्ग इवाऽऽदित्यं, न्यस्य तां प्राविशद् गुहाम् ॥२७॥ मण्डलान्यालिखन् प्राग्वत्, काकिण्या पार्श्वयोर्द्वयोः। उत्तीर्य प्राग्वदुन्मना-निमग्ने निम्नगे अपि॥२७५॥ गुहाया मध्यतस्तस्या, अपारद्वारेण भूपतिः । स्वयमुद्घाटितेनाऽथ, नद्योघ इव निर्ययौ ॥ २७६ ॥ गङ्गायाः पश्चिमे कूले, स्कन्धावारं न्यधान्नृपः । उद्दिश्य निधिरत्नानि, विदधे चाऽष्टमं तपः॥ २७७॥ सदन्ते नैसर्प-पाण्डू, पिङ्गलः सर्वरत्नकः। महापद्मः काल-महाकालौ माणव-शङ्खकौ ॥२७८॥ इत्येते नव निधयः, कृतसन्निधयोऽमरैः । सहस्रसङ्ख्यैः प्रत्येकं, नरेन्द्रमुपतस्थिरे ॥ २७९ ॥ इत्यूचुस्ते वयं गङ्गामुखमागधवासिनः। आगतास्त्वां महाभाग, त्वद्भाग्येन वशीकृताः ॥२८॥ यथाकाममविश्रान्तमुपभुत प्रयच्छ च । अपि क्षीयेत पाथोऽब्धौ, न तु क्षीयामहे वयम् ॥ २८१ ॥ नवभिर्यक्षसहस्रः, किङ्करैरिव तावकैः । आपूर्यमाणाः सततं, चक्राष्टकप्रतिष्ठिताः ॥ २८२ ॥ द्वादशयोजनायामा, नवयोजनविस्तृताः । भूमध्ये सञ्चरिष्यामो, देव ! त्वत्पारिपार्श्विकाः ॥ २८३ ॥ ॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥ तद्वाचमनुमन्याऽथ, भूपतिः कृतपारणः । अष्टातिकोत्सवं तेषामकापीदातिथेयवत् ।। २८४ ॥ सेनानीः सगरादेशाद्, द्वितीयमपि निष्कुटम् । प्राचीनं जाहवीदेव्याः, साधयामास खेटेवत् ।।२८५॥ चतुर्भिनिष्कुटेगेंगा-सिन्ध्वोर्मध्यस्थितेन च । खण्डद्वयेन पट्खण्ड, भारतं वर्षमित्यदः ॥ २८६ ॥ * सहस्रनवभिर्यक्षैः, किङ्क सङ्घ ३ ॥ १ क्षुद्रग्रामवत् । Jain Education Inte For Private & Personal use only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि द्वितीयं पर्व शलाकापुरुषचरिते ॥२५०॥ चतुर्थः सर्गः अजितसगरयोचरितम् । द्वात्रिंशताऽब्दसहस्रैः, सगरस्तदशात् सुखम् । अनुत्सुकानां शक्तानां, लीलापूर्वाः प्रवृत्तयः ॥२८७॥ चतुर्दशमहारत्नपतिर्नवनिधीश्वरः । द्वात्रिंशता सहस्रश्च, सेव्यमानो महीभुजाम् ॥ २८८॥ जायानां राजपुत्रीणां, 'तैः सहस्रैः समन्वितः। सहस्रैर्जानपदीनां, स्त्रीणां तावद्भिरन्वितः॥ २८९॥ द्वात्रिंशतो जनपदसहस्राणामधीश्वरः । द्वासप्ततेः पुरवरसहस्राणां च शासिता ॥ २९॥ एकसहस्रोनद्रोणमुखलक्षस्य चाऽधिपः । पत्तनाष्टचत्वारिंशत्सहस्राणामधीश्वरः ॥ २९१ ॥ कर्बटानां मडम्बानां, चतुर्विशिसहस्रपः । चतुर्दशसहरूयाश्च, सम्बाधानामपीश्वरः ॥ २९२॥ खेटकानां सहस्राणि, षोडशाऽपि च रक्षिता । तथाऽऽकरसहस्राणां, विंशतेरेक ईशिता ॥ २९३ ॥ पञ्चाशतः कुराज्यानामेकोनायाश्च नायकः । अन्तरोदकषट्पञ्चाशतश्च परिपालकः ॥ २९४ ॥ प्राप्तः षण्णवतिग्रामकोटीनां स्वामितां च ताम् । पत्तीनां पण्णवत्या च, कोटिभिः परिवारितः॥२९५॥ कुञ्जराणां वाजिनां च, रथानां च पृथक पृथक् । लक्षाभिश्चतुरशीत्या, छादितावनिमण्डलः ॥ २९६ ॥ ततो निववृते चक्री, चक्ररत्नपथानुगः । ऋद्ध्या महत्या सम्पूर्णः, पोतो द्वीपान्तरादिव ॥ २९७॥ ॥दशभिः कुलकम् ॥ ग्रामेशैर्दुर्गपालैश्च, मण्डलेशैश्च वर्त्मनि । क्रियमाणोचितार्घश्रीर्द्वितीयाचन्द्रमा इव ॥ २९८ ॥ प्रसारिभिरभिव्योम, पुरतः सैन्यरेणुभिः। शस्यमानागमो दूराद्, वर्धापकनरैरिव ।। २९९ ॥ हेषितैबृंहितैन्दिघोषैस्तूर्यारवैरपि । स्पर्धयेव प्रसृमरैर्दिशो बधिरयन्निव ॥ ३०॥ द्वात्रिंशता। २ अन्तरद्वीपः । सगरस्य दिग्विजयः ॥२५०॥ Jain Education For Private & Personal use only . Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RECENESELECORRECENGA दिने दिने योजनिकैः, प्रयाणैः सुखमापतन् । सगरो नगरी प्राप, विनीतां दयितामिव ॥ ३०१॥ ॥चतुर्भिः कलापकम् ॥ विनीतायाः परिसरे, सरित्पतिरिवावधौ । निवेश्य शिबिरं राजाऽवतस्थे स्थेमपर्वतः ॥३०२॥ तत्राऽपरेयुः सगरो, वाह्याल्यां वाहँकेलये । एकं सूकलमारुह्य, ययौ सर्वकलानिधिः॥ ३०३ ॥ तत्र विक्रमयामास, चतुरं तं तुरङ्गमम् । उत्तरोत्तरधारासु, क्रमेणाऽऽरोपयच्च सः॥३०४॥ आरूढः पञ्चमी धारामुत्पपात नभस्तले । वल्गादिसंज्ञानभिज्ञीभूतो भूतैरिवाश्रितः ॥ ३०५ ॥ सगरं सोऽपहृत्याऽश्वोऽश्वरूप इव राक्षसः । महारण्ये प्रचिक्षेप, कालाक्षेपेण रंहसा ॥ ३०६ ॥ वल्गां सामर्षमाकृष्योरुभ्यां चाऽऽक्रम्य पार्श्वयोः । दधार सगरोऽश्वं तं, झम्पां दत्त्वोत्ततार च ॥३०७॥ विधुरस्तुरगः सोऽपि, पपात पृथिवीतले । पृथ्वीनाथोऽपि पादाभ्यामेव गन्तुं प्रचक्रमे ॥ ३०८॥ यावत् किश्चिद् ययौ तावद्, ददशैकं महासरः । आदित्यकरपर्यस्तां, भूभ्रष्टामिव चन्द्रिकाम् ॥ ३०९॥ तत्र श्रमापनोदाय, सत्रौ वन्य इव द्विपः । खादु स्वच्छं पद्मगन्धि, शीतं च स पयः पपौ ॥ ३१०॥ निर्ययौ सरसस्तस्मात, स तस्थौ तीरसीमनि । ददर्श चैकां युवति, जलदेवीमिवाऽग्रतः ॥३११॥ तां नवाम्भोजवदनां, नीलोत्पलविलोचनाम् । तरङ्गायितलावण्यजलां चक्रयुगस्तनीम् ॥ ३१२ ॥ मेरकोकनदोदामपाणि-पादमनोरमाम् । शरीरिणीं सरोलक्ष्मी, स पश्यन्नित्यचिन्तयत् ॥ ३१३ ॥ अप्सराः किं ? व्यन्तरी किं?, किमथो नागकन्यका विद्याधरी वा किमियं?, न सामान्येदृशी भवेत् ॥ पराक्रमगिरिः । २ अश्वक्रीडाभूमौ । ३ अश्वक्रीडायै । ४ उद्धृताश्वम् । ५ अविलम्बेन । * °स्तभू सङ्घ३॥ ६ रक्तकमलम् ।। Jain Education Internet For Private & Personal use only MINww.jainelibrary.org Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥२५॥ न तथा हृदयानन्दं, करोति सरसीजलम् । यथा दर्शनमेतस्याः, सुधावृष्टिसहोदरम् ॥ ३१५॥ द्वितीयं पर्व तयाऽपि ददृशे राजा, राजीवदलचक्षुषा । ततः संवरितेनेवाऽनुरागेण तदैव हि ॥ ३१६ ॥ चतुर्थः सद्योऽपि कामविधुरा, सा सखीभिः कथञ्चन । संस्थाप्याऽऽनीयताऽऽवासे, म्लाना सायमिवाजिनी ॥३१७॥ सर्गः सगरोऽपि सरस्तीरे, शनैर्गच्छन् स्मरातुरः । एत्य कञ्चुकिना नत्वा, चैवमूचे कृताञ्जलिः॥ ३१८ ॥ अजित स्वामिनिहैव भरतक्षेत्रवैताठ्यपर्वते । वल्लभं सम्पदामस्ति, पुरं गगनवल्लभम् ॥ ३१९॥ सगरयोविद्याधरपतिस्तत्र, ख्यातो नाम्ना सुलोचनः । त्रिलोचनसखः पुर्यामलकायामिवाऽभवत् ॥ ३२०॥15 चरितम् । सहस्रनयनो नाम, तस्याऽस्ति तनयो नयी । सुकेशा दुहिता चेयं, विश्वस्त्रैणशिरोमणिः ॥ ३२१ ॥ नैमित्तिकेन चैकेन, जातमात्रापि वर्णिता । स्त्रीरत्नमेषा महिषी, भवित्री चक्रवर्तिनः ॥ ३२२॥ सगरस्य ___ इतश्च पूर्णमेघेन, रथनूपुरभूभुजा । भूयो भूयो याचितेयमुद्वोढुमनुरागिणा ॥ ३२३ ॥ स्त्रीरवप्राप्तिः तां पितर्यददाने च, हतुकामो हठादपि । पूर्णमेघो मेघ इव, गर्जन् योद्धमुपाययौ ॥ ३२४ ॥ पूर्णमेघश्चिरतरं, योधयित्वा सुलोचनम् । चक्रे दीर्घभुजो दीर्घनिद्रामुद्रितलोचनम् ॥ ३२५॥ स्वधनं तद्धन इवोपादाय भगिनीमिमाम् । सहस्रनयनोत्राऽऽगान्महात्मन् ! सपरिच्छदः ॥३२६॥ सरोवरे तया चेह, क्रीडन्त्या त्वमसीक्षितः। शिक्षिता चाऽऽशु कामेन, विकारं वेदनामयम् ॥ ३२७ ॥ धर्मार्त्तव खेदवती, स्तब्धा पाश्चालिकेव सा । शीतार्तेव सरोमाञ्चा, श्लेष्मलेव स्खलत्स्वरा ॥३२८॥ भीतेव वेपथुमती, विवर्णा रोगभागिव । उदश्रुः शोकमग्नेव, योगिनीव लयस्थिता ॥ ३२९ ॥ ॥२५॥ कमलपत्रनेत्रया। २ कामार्दिता । ३ कुबेरः। ४ स्त्रीणां समूहः स्त्रैणम् । ५ श्लेष्मवतीव । Jain Education Inte l For Private & Personal use only 4 w ww.jainelibrary.org Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सगरख विनीतायां प्रवेशः क्षणादवस्थावैचित्र्यं, प्रपेदे तव दर्शनात् । तत् त्रायस्व जगत्रातर्न यावत् सा विपद्यते ॥ ३३०॥ सोविदल्ले वदत्येवं, सहस्रनयनोऽपि सः । आययौ नभसा तत्र, नमश्चक्रे च चक्रिणम् ॥ ३३१॥ सोऽनुमान्य निजावासेऽनपीत् सगरचक्रिणम् । स्त्रीरत्नस्य सुकेशाया, दानाच तमतोषयत् ॥ ३३२ ॥ ततश्च तौ विमानेन, सहस्रेक्षण-चक्रिणौ । वैताढ्यशैले ययतुः, पुरं गगनवल्लभम् ॥ ३३३ निवेश्य पैतृके राज्ये, सहस्रनयनं ततः। सर्वविद्याधराधीश, व्यधत्त धरणीधवः ॥ ३३४ ॥ स्त्रीरत्नं तदुपादाय, सगरश्चक्रवर्त्यथ । जगाम साकेतपुरं, पुरन्दरपराक्रमः ॥ ३३५ ॥ समुद्दिश्य विनीतां च, चक्रेऽष्टमतपो नृपः । पौषधं पौषधागारे, प्रपेदे च यथाविधि ॥ ३३६ ॥ अष्टमान्ते च निष्क्रम्य, पौषधागारतस्ततः । समं परिजनैश्चक्रे, पारणं धरणीधवः ॥ ३३७ ॥ पदे पदे तोरणिनी, भूविकारवतीमिव । मुक्तास्वस्तिकसन्दोहकान्तिभिः समितामिव ॥ ३३८॥ अट्टशोभापताकाभिर्नर्तनायोद्भुजामिव । धूपघट्युत्थधूमाल्या, कृतपत्रलतामिव ॥ ३३९ ॥ मञ्चस्थरत्नपात्रीभिर्नेत्रविस्तारिणीमिव । मञ्चैर्विचित्रैरचितशयनीयामिवोचकैः ॥ ३४०॥ विमानकिङ्किणीकाणैर्मङ्गलोद्गायनीमिव । पुरी वासकसञ्जां तां, प्रविवेश विशांपतिः ॥ ३४१॥ ॥चतुर्भिः कलापकम् ।। उत्तोरणमुत्पताकमुद्वैतालिकमङ्गलम् । विमानमिव शक्रः खं, गृहाङ्गणमगानृपः ॥ ३४२ ॥ सान्निध्यभाजां देवानां, स सहस्राणि पोडश । द्वात्रिंशतं सहस्राणि, तथा वसुमतीभुजाम् ॥ ३४३॥ उम्रियते । २ कबुकिनी। * °नुशाप्य निजा सङ्घ १॥ ३ प्रियसमागमवासरे सज्जाम् । Jain Education inclu Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय पर्व चतुर्थः त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते ॥२५२॥ सर्गः अजितसगरयोश्चरितम् । महारत्नानि सेनानी-पुरोधो-गृहि-वर्धकीन् । त्रीणि त्रिषष्टियुक्तानि, सूपकारशतानि च ॥३४४॥ श्रेणिप्रश्रेणिका अष्टादश चाऽन्यानपि क्रमात् । दुर्गपाल-श्रेष्ठि-सार्थवाहादीन् व्यसृजत् स्वयम् ॥३४५॥ ॥त्रिभिर्विशेषकम् ॥ सान्तःपुरपरीवारः, स्त्रीरत्नेन समन्वितः । सतां मन इवोदारं, राजा वेश्मा विशन्निजम् ॥ ३४६ ॥ तत्र स्नानगृहे स्नात्वा, देवतावसरौकसि । कृतदेवार्चनो राजा, बुभुजे भोजनौकसि ॥३४७॥ सङ्गीतकैर्नाटकैश्च, विनोदैरपरैरपि । ततश्चाऽरंस्त सगरः, साम्राज्यश्रीलताफलैः ॥३४८॥ __एत्याऽपरेछुः सगरं, देवाद्या एवमभ्यधुः । विदधे भारतं क्षेत्रं, वशंवदमिदं त्वया ॥ ३४९ ॥ युष्माकं चक्रवर्तित्वाभिषेकमधुना वयम् । करिष्यामोऽर्हतो जन्माभिषेकमिव वासवाः ॥ ३५०॥ अनुजज्ञे च तांश्चक्री, लीलोनमितया ध्रुवा । महात्मानः प्रणयिनां, प्रणयं खण्डयन्ति न ॥३५१॥ अथाऽऽभियोगिका देवाः, पुर्या उत्तरपूर्वतः । विचारभिषेकाय, मण्डपं रत्नमण्डितम् ॥ ३५२ ॥ समुद्र-तीर्थ-हदिनी-हृदेभ्यः पावनीरपः । गिरिभ्यश्चौषधीर्दिव्यास्तत्राऽऽनिन्युर्दिवौकसः ॥ ३५३ ॥ अथ सान्तःपुरः सस्त्रीरत्नश्चक्रधरोऽविशत् । तं रत्नमण्डपं रम्यं, रताचलगुहामिव ॥ ३५४॥ समृगेन्द्रासनं तत्र, स्नानपीठं मणीमयम् । नृपः प्रदक्षिणीकृत्याऽऽहिताग्निरिव पावकम् ॥ ३५५॥ सान्तःपुरस्तदारुह्य, पूर्वसोपानवर्त्मना । सिंहासनमलश्चक्रे, प्राङ्मुखः पृथिवीपतिः॥ ३५६ ॥ द्वात्रिंशद्राजसहस्राण्युदक्सोपानवर्त्मना । आरुह्य तत्र न्यपदन् , हंसाः कमलपण्डवत् ॥ ३५७ ॥ खस्वभद्रासनासीना, बद्धाञ्जलिपुटाश्च ते । तस्थुः स्वामिनि दत्ताक्षाः, शके सामानिका इव ॥ ३५८॥ ONGCROCOCCASSCOOK सगरस्य चक्रिपदाभिषेकः ॥२५२॥ 2ी Jain Education in For Private & Personal use only 11 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेनापतिगृहपतिः, पुरोधा वर्धकिस्तथा । अपरे बहवः श्रेष्ठि-सार्थवाहादयोऽपि हि ॥ ३५९ ॥ स्नानपीठं तदारुह्याऽपाच्यसोपानवर्त्मना । निषेदुः खस्वस्थानेषु, ज्योतीषीव नभस्तले ॥३६०॥ युग्मम् ॥ तसिन् शुभे दिने वारे, नक्षत्रे करणेऽपि च । योगे चन्द्रे च लग्ने च, सर्वग्रहबलान्विते ॥ ३६१॥ अभिषेकं महीभर्तुश्चक्रुर्देवादयः क्रमात् । सौवर्णं राजतै रानैः, कलशैः कमलाननैः ॥ ३६२ ॥ युग्मम् ॥ वाससा देवदृष्येण, राज्ञोऽङ्गं ममृजुश्च ते । हस्तेन मृदुना सौधभित्ति चित्रकरा इव ॥ ३६३ ॥ दर्दर-मलयभवैरथ गन्धैः सुगन्धिभिः । राज्ञोऽङ्गं छुरयामासुर्योत्स्नयेव नभस्तलम् ॥ ३६४ ॥ दिव्यं च सुमनोदामोद्दामगन्धर्द्धिबन्धुरम् । स्वानुरागमिव दृढं, बबन्धुर्मूर्ध्नि भूपतेः ॥ ३६५ ॥ वासांसि देवदृष्याणि, रत्नालङ्करणानि च । ततस्तदुपनीतानि, पर्यधाद् वसुधाधवः ॥ ३६६ ॥ ततश्चक्रधरस्तत्र, मेघध्वनितधीरया । गिरा वनगराध्यक्ष, समादिक्षदिति खयम् ॥ ३६७॥ अदण्ड-शुल्कामभटप्रवेशामकरामिमाम् । महोत्सवां कुरु पुरी, यावद् द्वादशवत्सरीम् ॥ ३६८ ॥ इत्याज्ञां नगराध्यक्षो, हस्त्यारूढेनिजैनरैः । पुर्यामाघोषयामास, सद्यो डिण्डिमिकैरिव ॥ ३६९ ॥ इत्थं चक्रिपदाभिषेकपिशुनः पट्खण्डपृथ्वीपतेस्तस्य स्वर्नगरीविलासविभवस्तेयव्रतायां पुरि । प्रत्यर्ल्ड प्रतिमन्दिरं प्रतिपथं चाऽऽनन्दमुन्मुद्रयन्नुच्चैदश वत्सराणि समभृत् तस्यां महानुत्सवः॥३७॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये द्वितीये पर्वणि सगरदिग्जयचक्रवर्तित्वाभिषेकवर्णनो नाम चतुर्थः सर्गः॥ Jain Education Interne For Private & Personal use only Kolkww.jainelibrary.org Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चमः सर्गः। त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते द्वितीयं पर्व पञ्चमः सर्ग: अजितसगरयोश्चरितम्। ॥२५३॥ अथ साकेतनगरोद्यानेऽजितजिनेश्वरः । भगवान् समवासापति, सेव्यमानः सुरा-ऽसुरैः॥१॥ वासवादिषु देवेषु, सगरादिषु राजसु । आसीनेषु यथास्थानं, विदधे देशनां विभुः ॥२॥ तदा च वैताठ्यगिरी, पूर्णमेघं सहस्रदृक् । स्मरन् पितृवधं क्रुद्धोऽवधीत् ताक्ष्ये इवोरगम् ॥३॥ पूर्णमेघात्मजस्तस्मान्नष्टोऽथ घनवाहनः। तत्राऽऽजगाम समवसरणे शरणेच्छया ॥४॥ स त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य, भगवन्तं प्रणम्य च । उपपादमुपाविक्षदुपवृक्षमिवाऽध्वगः ॥५॥ समाकृष्याऽपि पातालाद्, भ्रंशयित्वा दिवोऽपि तम् । बलीयसो वा शरणात् , कृष्ट्वा हन्मीति विब्रुवन् ॥६॥ तस्याऽनुपदमेवाऽथ, सहस्राक्ष उदायुधः। आगात् समवसरणेऽपश्यच्च घनवाहनम् ॥७॥ प्रशान्तकोपस्त्यक्तास्त्रः, प्रभावात् परमेशितुः । नत्वा प्रदक्षिणापूर्व, यथास्थानमुपाविशत् ॥ ८॥ सगरश्चक्रभृदथ, पप्रच्छ परमेश्वरम् । किं वैरकारणं खामिन् !, पूर्णमेघ-सुनेत्रयोः॥९॥ आचख्यौ भगवानेवमादित्याभे पुरे पुरा । अभवद् भावनो नाम, द्रव्यकोटीश्वरो वणिक् ॥१०॥ वसूनोहरिदासस्य, सोऽर्पयित्वाऽखिलं धनम् । देशान्तरं वणिज्याय, जगाम श्रेष्ठिभावनः॥११॥ विदेशे द्वादशाब्दानि, स्थित्वोपायं महद् धनम् । आययौ भावनश्रेष्ठी, तस्थौ च नगराद् बहिः॥१२॥ तत्र मुक्त्वा परीवारमेकाक्यपि हि भावनः । निश्याययौ निजे समन्युत्कण्ठा हि बलीयसी ॥१३॥ १ वृक्षसमीपम् । पूर्णमेघसुलोचनयोः पूर्वभवसम्बन्धः ॥२५३॥ Jain Education Internal For Private & Personal use only hia Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि, ४४ Jain Education i प्रविशन् हरिदासेन, चौरोऽसाविति शङ्कया । निहतः खड्गघातेन, विमर्शः क्वाऽल्पमेधसाम् १ ॥ १४ ॥ स्वस्य व्यापादकं ज्ञात्वा, तदानीमपि भावनः । तत्कालकलितद्वेषः, कालधर्ममुपाययैौ ॥ १५ ॥ स ज्ञात्वा पितरं पश्चात् पश्चात्तापकदर्शितः । चकार प्रेतकार्याणि, सशैल्यस्तेन कर्मणा ॥ १६ ॥ विपेदे हरिदासोऽपि, गते काले कियत्यपि । दुःखदान् द्वावपि ततो भ्रमतुः कतिचिद् भवान् ॥१७॥ किञ्चिच्च सुकृतं कृत्वा, जीवोऽभूद् भावनस्य तु । पूर्णमेघो हरिदासजीवस्त्वासीत् सुलोचनः ॥१८॥ इति प्राग्जन्मसंसिद्धं, पूर्णमेघ-सुनेत्रयोः । वैरं प्राणान्तिकं राजन्नैहिकं त्वानुषङ्गिकम् ॥ १९ ॥ 1 भूयोऽपि सगरोऽपृच्छत्, तत्सून्वोरनयोर्मिथः । को वैरहेतुः ? स्नेहश्व, सहस्राक्षे कुतो मम १ ॥ २० ॥ स्वाम्यूचे दानशीलस्त्वं, परिवाद् रम्भकाभिधः । प्राग्भवेऽभूस्तवाऽभूतां, शिष्यौ शश्यावली त्विमौ ॥ अभूच्चाऽतिविनीतत्वादावलिस्तेऽतिवल्लभः । गोधेनुमेकामक्रीणादन्यदा द्रविणेन सः ॥ २२ ॥ भेदं गोस्वामिनः कृत्वा, कठोरहृदयः शशी । अन्तराले पतित्वैव तां क्रीणाति स्म धेनुकाम् || २३ || केशाकेशि मुष्टामुष्टि, दण्डादण्डि तयोस्ततः । युद्धं प्रववृते घोरं, शशिना चाssवलिर्हतः ॥ २४ ॥ शशी चिरं भवं भ्रान्त्वा, जज्ञेऽसौ मेघवाहनः । आवलिस्तु सहस्राक्षस्तदिदं वैरकारणम् ॥ २५ ॥ भ्रान्त्वा दानप्रभावेण, रम्भकोऽपि गतीः शुभाः । चत्र्यभूस्त्वं सहस्राक्षे, स्नेहः प्राग्जन्मभू ते ॥२६॥ अथ रक्षः पतिर्भीमो, निषण्णस्तत्र पर्षदि । उत्थायाऽऽलिङ्ग्य रभसान्मेघवाहनमब्रवीत् ॥ २७ ॥ पुष्करद्वीप भरतक्षेत्रे वैताढ्यपर्वते । प्राग्भवे काञ्चनपुरे, विद्युद्दंष्ट्रो नृपोऽभवम् ॥ २८ ॥ १ विचारः । २ दुःखसहितः । मेघवाहनसहस्राक्षयोः पूर्वभवः Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिपष्टिशलाकापुरुषचरित ORMELA द्वितीय पर्व पञ्चमः COLORSCORESE ॥२५४॥ सर्गः अजितसगरयोश्चरितम् । तस्मिन् भवे ममाऽभूस्त्वं, तनयो रतिवल्लभः। अत्यन्तवल्लभो वत्स!, साधु दृष्टोऽसि सम्प्रति॥२९॥18 तदेवं सम्प्रत्यपि मे, पुत्रोऽसि परिगृह्यताम् । सैन्यं मदीयं त्वदीयमथाऽन्यदपि यन्मम ॥३०॥ लवणोदे पयोराशौ, दुर्जयो द्युसदामपि । योजनानां सप्तशतीं, दिक्षु सर्वासु विस्तृतः॥३१॥ राक्षसद्वीप इत्यस्ति, सर्वद्वीपशिरोमणिः । तदन्तरे त्रिकूटाद्रि मिनाभौ सुमेरुवत् ॥ ३२॥ महर्द्धिर्वलयाकारो, योजनानि नवोन्नतः । पञ्चाशतं योजनानि, विस्तीर्णोऽस्त्यतिदुर्गमः ॥ ३३ ॥ तस्योपरिष्टात् सौवर्णप्राकार-गृह-तोरणा । मया लङ्केति नाम्ना पूरधुनैवाऽस्ति कारिता ॥ ३४ ॥ षड् योजनानि भूमध्यमतिक्रम्य चिरन्तनी । शुद्धस्फटिकवप्राङ्का, नानारत्नमयालया ॥ ३५॥ सपादयोजनशतप्रमाणा प्रवरा पुरी । मम पाताललङ्केति, विद्यते चाऽतिदुर्गमा ॥ ३६ ॥ पुरीद्वयमिदं वत्साऽऽदत्व तन्नृपतिर्भव । भवत्वयैव ते तीर्थनाथदर्शनजं फलम् ॥ ३७॥ इत्युक्त्वा राक्षसपतिर्माणिक्यैर्नवभिः कृतम् । ददौ तसै महाहारं, सद्यो विद्यां च राक्षसीम् ॥ ३८॥ भगवन्तं नमस्कृत्य, तदैव घनवाहनः । आगत्य राक्षसद्वीपे, राजाभूल्लङ्कयोस्तयोः ॥ ३९॥ राक्षसद्वीपराज्येन, राक्षस्या विद्ययाऽपि च । तदादि तस्य वंशोपि, ययौ राक्षसवंशताम् ॥ ४०॥ एवं स्थिते च सर्वज्ञो, विहरन्नन्यतो ययौ । खं खं स्थानं ययुस्तेऽपि, सुरेन्द्र-सगरादयः॥४१॥ इतः पुनश्चतुःषष्टिसहस्रस्त्रीभिरन्वितः । रतिसागरनिमग्नो, नाकीवारंस्त चक्रभृत् ॥ ४२ ॥ तस्याऽन्तःपुरसम्भोगजन्मा म्लानिरपास्वत । स्त्रीरत्नभोगादध्वन्यश्रमोऽपाच्यनिलादिव ॥४३॥ कामक्रीडासक्तः। २ देवः। ३ ननाश । ४ दक्षिणपवनात् । राक्षसवंशः ASERECCC ॥२५४॥ Jain Education inte For Private & Personal use only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं सुखं वैषयिक, तस्याऽनुभवतोऽनिशम् । जहुप्रभृतयः षष्टिसहस्रा जज्ञिरे सुताः॥४४॥ धात्रीभिः पाल्यमानास्ते, क्रमाद् ववृधिरे सुताः । उद्यानपालीभिरिवोद्यानजाता महीरुहाः॥४५॥ ते कलाग्रहणं चक्रुः, शनै रंजनिजानिवत् । वपुःश्रीवल्युपवनं, यौवनं च प्रपेदिरे ॥ ४६॥ ते निजं दर्शयामासुरस्त्रविद्यासु कौशलम् । ददृशुः परकीयं च, न्यूनाधिकदिदृक्षया ॥४७॥ वाह्याल्यां भ्रमिमानीय, समुद्रावर्तलीलया । दुर्दमानप्यदमयन् , शूकलांस्ते कलाविदः ॥४८॥ दुपत्रस्याऽप्यसहनान् , स्कन्धदेशविवर्तिनः । व्यालानपि वशीचक्रः, कुञ्जरांस्तेऽतिनिर्जराः॥४९॥ उद्यानादिषु ते खैरं, रेमिरे सर्वयोवृताः । अवन्ध्यशक्तयो विन्ध्याटव्यां मदकला इव ॥५०॥ ___ अथ चक्रिणमन्येयुः, सगरं सदसि स्थितम् । इति विज्ञपयामासुस्ते कुमारा महौजसः ॥५१॥ अमरो मागधपतिः, प्राचीमुखविभूषणः । दक्षिणाशेकतिलको, वरदामपतिस्तथा ॥५२॥ पश्चिमाशाकिरीटश्रीः, प्रभासाधिपतिः स च । भुजे इव भुवो गङ्गा-सिन्धू अपि सरिद्वरे॥५३॥ वैताठ्याद्रिकुमारश्च, भरताम्भोजकर्णिका । कृतमालस्तमिस्राद्वाक्षेत्रपाल इवोच्चकैः ॥५४॥ भरतावधिभूस्तम्भो, हिमाचलकुमारकः । खण्डप्रपाताधिष्ठानो, नाट्यमालः स चोत्कटः ॥५५॥ नैसर्पप्रमुखास्ते च, नवापि निधिदेवताः। दिवौकसोऽप्येवममी, नृवत् तातेन साधिताः॥५६॥ ॥पञ्चभिः कुलकम् ॥ षट्खण्डमरिषड्वर्गवदिदं वसुधातलम् । खयमेव पराजिग्ये, तातेनाऽमिततेजसा ॥ ५७॥ १चन्द्रवत् । २ दुष्टान् । ३ देवेभ्योऽप्यधिकाः। ४ मित्रैर्वृताः। ५ मत्तगजाः। Jan Education in For Private & Personal use only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते ॥२५५॥ कृत्यशेषं न ते किञ्चिदस्ति दोर्विक्रमोचितम् । त्वत्पुत्रत्वं ज्ञापयामो, यत् कृत्वा देव ! सम्प्रति ॥५८॥ द्वितीयं पर्व तातेन साधितेऽमुष्मिन् , भृतले सकलेऽपि तत् । खेच्छाविहरणेनैव, तात! पुत्रत्वमस्तु नः॥ ५९॥ पञ्चमः ततस्तातप्रसादेन, भवनाङ्गणवद् भुवि । वयं विहर्तुमिच्छामः, स्वच्छन्दं वनहस्तिवत् ॥६०॥ सर्गः प्रणयप्रार्थनां तां च, स तेषां प्रत्यपद्यत । महत्सु याजाऽन्यस्यापि, न मुधा किं पुनस्तुकाम् ॥६१॥ अजितअथ ते पितरं नत्वा, निजावासानुपेत्य च । दुन्दुभीस्ताडयामासुर्यात्रामङ्गलसूचकान् ॥ ६२॥ सगरयोधीराणामपि सङ्क्षोभदायीन्यशुभदानि च । उत्पाताशकुनान्येषां, तदानीमिति जज्ञिरे ॥ ६३ ॥ हश्चरितम् । मार्तण्डमण्डलं केतुशताकुलमजायत । रसातलद्वारमिव, महोरगकुलाकुलम् ॥ ६४॥ सगरपुत्राणां सञ्जातमध्यच्छिद्रं च, रजनीकरमण्डलम् । अदृश्यत नवोत्कीर्णदन्तताडङ्कसन्निभम् ॥६५॥ | देशदर्शनाय वातान्दोलितवल्लीव, चकम्पे च वसुन्धरा । शिलाशकलवृष्ट्यामा, जाताः करकवृष्टयः ॥६६॥ प्रस्थानम् अजायत रजोवृष्टिः, शुष्काभ्रक्षोदसोदरा । सम्मुखो वायुरुद्दण्डो, रुष्टो रिपुरिवाऽभवत् ॥ ६७॥ अपशकुनाअशिवाश्च शिवाः कामं, दक्षिणस्था ववाशिरे । तत्स्पर्द्धयेव तत्रस्थाश्रुक्रुशुः कौशिका अपि ॥ ६८ ॥ चिल्लाश्च मण्डलीभूय, प्रेमुर्नभसि नीचकैः । उच्चकैरापत्कालतचक्रक्रीडापरिस्पृशः ॥ ६९॥ अजायन्त च तत्कालं, गन्धेभा अपि निर्मदाः । स्रोतस्विन्य इव ग्रीष्मकाले निर्जलताजुषः ॥ ७० ॥ ॥२५५॥ हयानां हेषमाणानां, धूमलेखा मुखान्तरात् । निर्ययुीषणतरा, बिलेभ्य इव पन्नगाः ॥ ७१ ॥ तान्यवाजीगणन् सर्वाण्युत्पाताशकुनानि ते । तज्ज्ञानामपि हि नृणां, प्रमाणं भवितव्यता ॥ ७२ ॥ १ यत् कार्य कृत्वा वयं त्वत्पुत्रा इति ज्ञापयामः । २ अपत्यानाम् । ३ अशुभसूचकाः। ४ अवगणयाञ्चक्रुः । bottoRRA निच Jain Education Inte For Private & Personal use only . Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HOLOGROCHOWARUOSASSAGE* कृतस्नानाः कृतप्रायश्चित्त-कौतुकमङ्गलाः । चक्रिणः सर्वसैन्येन, ते कुमाराः प्रतस्थिरे ॥७३॥ स्त्रीरत्नवर्ज रत्नानि, सर्वाण्यपि महीपतिः। प्रजिघाय सुतैः सार्धमात्मैव हि सुतत्वभाक् ॥ ७४॥ केचिद् गजवरारूढा, दिक्पालाकारधारिणः । अश्वानधिष्ठिताः केचिदतिरेवन्तमूर्तयः ॥ ७५॥ अध्यासीना रथान् केचिदादित्याद्या इव ग्रहाः । किरीटधारिणः सर्वेऽप्यधीशा धुसदामिव ॥ ७६ ॥ वक्षःस्थललुलद्धाराः, ससरित्का इवाऽद्रयः । देवता इव भूप्राप्ता, विविधायुधपाणयः ।। ७७॥ छत्रलाञ्छितमूर्धानो, दुमाङ्का व्यन्तरा इव । आत्मरक्षैः परिवृता, वेलाधारैरिवाऽब्धयः॥ ७८॥ अविहस्तोदस्तहस्तैः, स्तूयमानाच मागधैः । वसुन्धरां दारयन्तस्तुरङ्गमखुरैः खरैः ॥ ७९ ॥ तूर्यप्रणादैर्बधिरीकुर्वाणाः सर्वतो दिशः । अन्धीकुर्वन्त उत्क्षिप्तै रजोभिश्च भूरिभिः ॥ ८॥ उद्यानेषु विचित्रेषूद्यानानामिव देवताः । गिरिप्रस्थेषु च गिरिकुमारा इव हारिणः ।। ८१॥ सरित्पुत्रा इव सरित्पुलिनेषु च चारुषु। स्वच्छन्दं रममाणास्ते, बभ्रमुर्भरतावनौ ॥८२॥ अष्टभिः कुलकम् ।। ग्रामा-ऽऽकर-पुर-द्रोणमुख-खेटादिषु व्यधुः। जिनाचा विचरन्तस्ते, माला विद्याधरा इव ॥ ८३॥ भुञ्जाना बहुधा भोगान् , ददाना बहुधा धनम् । सुहृजनान् प्रीणयन्तो, विनिघ्नन्तोऽसुहृजनान् ।। ८४ ॥ दर्शयन्तः पथि चलल्लक्षपातनकौशलम् । भृशमन्यापतच्छस्त्रग्रहणस्य च नैपुणम् ॥ ८५॥ शस्त्राशस्त्रिकथाश्चित्रास्तास्ता नर्मकथा अपि । यानाधिरूढैः कुर्वाणाः, सवयोभिः समं नृपः॥८६॥ अप्यालोकनमात्रेण, क्षुत्तृषाहरणौषधम् । तेऽन्यदाऽष्टापदं प्रापुरास्पदं पुण्यसम्पदाम् ॥ ८७॥ प्राहिणोत् । २ सूर्यपुत्राधिकरूपाः । ३ अव्याकुलोद्धकरैः । ४ कठोरैः । ५ मनोहराः । ६ शत्रून् । ७ हास्यकथाः । Jain Education a l For Private & Personal Lise Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते द्वितीय पर्व पञ्चमः सर्गः ॥२५६॥ अजितसगरयोश्ररितम् । महासरोभिः पीयूषनिधानमिव नाकिनाम् । उपात्तनीलसंव्यानमिव सान्द्रार्द्रपादपैः ।। ८८॥ महापक्षधरमिव, पयोदैः पारिपार्श्विकैः । लम्बमानपताकाङ्कमिव निझरवारिभिः॥ ८९ ॥ विद्याधरविलासोको, वैताढ्यमिव नूतनम् । गायन्तमिव मुदितमयूरादिकलस्वनैः॥९॥ चैत्यं सशालभञ्जीकमिव खेचर्यधिष्ठितम् । किरीटमिव मेदिन्या, रत्नोपलविनिर्मितम् ॥ ९१॥ नन्दीश्वरद्वीपमिव, चैत्यवन्दनकाम्यया । अभीयमानं सततं, चारणश्रमणादिभिः ॥९२॥ - तं दृष्ट्वा नित्यपर्वाणं, पर्वतं स्फाटिकोपलम् । ते पप्रच्छुः स्वसचिवान् , सुबुद्धिप्रभृतीनिति ॥ ९३॥ वैमानिकानां स्वर्गस्थक्रीडाद्रिभ्य इवैककः । अवतीर्णो वसुमतीमयं को नाम पर्वतः ॥ ९४॥ केन चाऽभ्रंलिहमिह, विदधे चैत्यमद्भुतम् । इदं हिमवदद्रिस्थशाश्वतायतनोपमम् ? ॥९५ ॥ ___ अथ ते मत्रिणोऽप्यूचुः, पुराऽभूदृषभः प्रभुः । युष्मद्वंशस्याऽऽदिकरस्तीर्थस्याऽप्यत्र भारते ॥९६॥ तत्सूनुर्नवनवतेतूणामग्रजोऽभवत । भरतो नाम षट्खण्डभरतक्षेत्रशासिता ॥ ९७ ॥ क्रीडागिरिरयं तस्य, चक्रिणोऽष्टापदाभिधः । अनेकाश्चर्यसदनं, सुमेरुरिव वज्रिणः ॥ ९८॥ साधूनां दशसाहरुया, सहेह च महीधरे । भगवानृषभस्वामी, जगाम पदमव्ययम् ॥ ९९॥ ऋषभखामिनिर्वाणानन्तरं भरतेश्वरः। चैत्यं सिंहनिषद्याख्यं, चक्रे रत्नोपलैरिह ॥१०॥ ऋषभखामिनो बिम्बमहतां भाविनामपि । स त्रयोविंशते रत्नग्रावभिर्दोषवर्जितैः ॥१०१॥ स्वस्वप्रमाणसंस्थानवर्णलाञ्छनभाञ्जि तु । बिम्बानि भक्त्या परया, व्यधत्तेह यथाविधि ॥१०२॥ युग्मम् ॥ १ उत्तरीयवस्वम्। २ अभिगम्यमानम् । ३ नित्योत्सवम् । सगरपुत्रैः अष्टापदगिरेदर्शनम् ॥२५६॥ Jan Education For Private & Personal use only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PROGR सगरपुत्रैरष्टापदे जिनार्चनम् AISUUSAS49 चारणश्रमणैस्तानि, बिम्बानि प्रत्यतिष्ठिपत् । बाहुबल्यादिवन्धूनां, स्तूपान् मूर्तीश्च सोऽकृत ॥ १०३ ॥ स्थितोत्र वृषभखामी, तीर्थकृच्चक्रि-केशवान् । प्रतिकेशव-रामांश्च, भाविनस्तमजिज्ञपत् ॥ १०४॥ सोपानभूतानि पदान्यष्टाऽमुं परितो व्यधात् । भरतो येन तेनाध्यमष्टापद उदीर्यते ॥१०५॥ असावस्मत्पूर्वजानामिति प्रादुर्भवन्मुदः। तं तेऽथाऽऽरुरुहुः शैलं, कुमाराः सपरिच्छदाः॥१०६॥ तत्र सिंहनिषद्यायां, चैत्ये प्रविविशुश्च ते । दूरादालोकमात्रेऽपि, नेमुश्चाऽऽदिजिनेश्वरम् ॥१०७॥ अजितस्वामिबिम्बं च, बिम्बान्यन्याहतामपि । तुल्यया श्रद्धया नेमुर्गर्भश्राद्धा हि ते खलु ॥१०८॥ अथ गन्धोदकैः शुद्धर्मत्राकृष्टैरिव क्षणात् । कुमाराः पयामासुबिम्बानि श्रीमदर्हताम् ॥ १०९॥ केऽप्यद्भिर्बिभराश्चक्रुः, कलसान् केचिदार्पयन् । केचिच्च लोठयामासुः, प्रतीषुः केपि रेचितान् ॥११॥ केपि स्नात्रविधि पेठुर्जगृहुः केऽपि चामरान् । सौवर्णधूपदहनान्युपाददत चाऽपरे ॥ १११॥ चिक्षिपु पदहनेष्वपरे धृपमुत्तमम् । केपि शङ्खादितूर्याणि, वादयामासुरुच्चकैः ॥११२॥ स्नानगन्धोदकैस्तैश्च, पतद्भिस्तत्र वेगतः। अष्टापदगिरिज॑ज्ञे, तदा द्विगुणनिर्झरः ॥ ११३ ॥ पक्षमलैः कोमलै रूक्षैर्देवदूष्योपमैः पटैः । तेऽमार्जन् रत्नबिम्बानि, तानि वैकटिका इव ॥ ११४ ॥ गोशीर्षचन्दनरसैश्चक्रुस्तेषां विलेपनम् । तेऽतिसैरन्ध्रयः स्वैरं, निर्भरं भक्तिशालिनः ॥ ११५ ॥ अर्चयामासुरर्चास्ता, विचित्रैः पुष्पदामभिः । रत्नालङ्करणैर्दिव्यैर्वखैरपि मनोहरैः ॥ ११६ ॥ पुरतः स्वामिबिम्बानामिन्दुरूपविडम्बिनः । अखण्डैस्तण्डुलः पट्टेष्वालिखंस्तेऽष्टमङ्गलीम् ॥११७॥ १जगृहुः। २ रिक्कान् । ३ मणिकारा इव । Jain Education a l Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते द्वितीय पर्व पञ्चमः सर्गः अजितसगरयोश्चरितम् । ॥२५७॥ आरात्रिकमथो चक्रुर्दिव्यकर्पूरवर्तिभिः । तेऽर्चित्वोत्तारयामासुर्दिवाकरसहोदरम् ॥ ११८ ॥ शक्रस्तवेन वन्दित्वा, रचिताञ्जलयोऽथ ते । जिनेन्द्रानृषभखामिप्रभृतीनिति तुष्टुवुः ॥११९॥ अपारघोरसंसारपारावारतरीसमाः!| निर्वाणकारणीभूता, भगवन्तः! पुनीत नः ॥ १२० ॥ स्याद्वादवादप्रासादप्रतिष्ठासूत्रधारताम् । नय-प्रमाणैर्बिभ्रद्भयो, युष्मभ्यमनिशं नमः ॥ १२१ ॥ आयोजनं गामिनीभिर्वाणीसारणिभिर्भशम् । अशेषजगदुद्यानाप्यायकेभ्यो नमोऽस्तु वः ॥ १२२॥ युष्मदर्शनतोऽस्माभिरपि सामान्यजीवितैः । अवाप्तमापञ्चमारजीवितव्यफलं परम् ॥ १२३ ॥ कल्याणकैर्गर्भ-जन्म-प्रव्रज्या-ज्ञान-मुक्तिभिः । नारकाणामपि सुखप्रदेभ्यो वो नमो नमः ॥ १२४॥ मेघानामिव वायूनामिव चन्द्रमसामिव । अर्काणामिव भवतां, सांधारण्यं श्रियेऽस्तु नः ॥ १२५ ॥ अष्टापदगिरावत्र, धन्यास्ते पक्षिणोऽपि हि । निरन्तरायाः पश्यन्ति, भवतो ये दिने दिने ॥ १२६ ॥ जीवितं चरितार्थ नः, कृतार्थो विभवश्च नः। युष्मदालोकना-ऽर्चाभिश्चिररात्राय सम्प्रति ॥ १२७॥ इति स्तुत्वा नमस्कृत्य, भूयोऽपि श्रीमदर्हतः। प्रासादानिर्ययुस्तस्मान्मुदिताः सगरात्मजाः ॥ १२८॥ ववन्दिरे ते भरतभ्रातृस्तूपांश्च पावनान् । किश्चिद् ध्यात्वा ततो जहुरुवाचाऽवरजानिति ॥ १२९॥ अष्टापदसमं स्थानं, मन्ये क्वापि न विद्यते । कारयामो वयमत्र, चैत्यमेतदिवाऽपरम् ॥ १३०॥ मुक्तोऽपि भरतक्षेत्रं, भुते भरतचत्र्यहो! । गिरी भरतसारेऽत्र, चैत्यव्याजादवस्थितः॥१३१॥ एतदेव कृतं चैत्यमसाभिश्चेद् विधीयते । भाविभिलप्यमानस्य, चैत्यस्याऽमुष्य रक्षणम् ॥ १३२ ॥ १ प्रीणयद्भयः। २ साम्यभावः । ३ निर्विघ्नाः। ४ चिरम् । ५ लघुभ्रातून् । ॥२५॥ Jain Education in For Private & Personal use only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ REONE सगरपुत्र रष्टापदगिरेः परिखाविधानम् MOCHILAS ROSSAURORA SX प्रवृत्ते दुःषमाकाले, भविष्यन्ति नरा यतः । अर्थलुब्धा हीनसचाः, कृत्याकृत्याविचारकाः ॥ १३३ ॥ प्रत्यग्रधर्मस्थानस्य, करणादधिकं ततः। चिरन्तनानां हि धर्मस्थानानां परिरक्षणम् ॥ १३४ ॥ आमित्युक्ते कनीयोभिर्दण्डरत्नमुपाददे । ततो जहुः सहस्रांशुरिव तेजोभिरुल्बणैः ॥ १३५ ॥ अष्टापदं पुरमिव, परितः परिखाकृते । स मां खनितुमारेभे, दण्डरत्नेन सानुजः॥१३६ ॥ सहस्रयोजनां चोले, परिखां सगरात्मजाः। चख्नुस्तेऽथ तया नागसद्मानि च बभञ्जिरे ॥ १३७॥ नागलोकोऽखिल उपद्रूयमाणेषु सबसु । चुक्षोभ यादसां चक्रं, मध्यमान इवाम्बुधौ ॥ १३८ । परचक्र इवाऽऽयाते, प्रदीपन इवोद्यते । महावात इवोद्भूते, नागास्त्रेसुरितस्ततः ॥ १३९ ॥ आकुलं नागलोकं चाऽऽलोकयामास तं तथा । क्रुधा ज्वलज्ज्वलनवनागराड् ज्वलनप्रभः ॥१४॥ दारितां चाऽवनी प्रेक्ष्य, किमेतदिति सम्भ्रमात् । ततो निर्गत्य सगरकुमारानाजगाम सः॥१४१॥ उद्दामभ्रकुटीभीम, उत्तरङ्ग इवाऽर्णवः । प्रकोपस्फुरदधर, उदर्चिरिव पावकः ॥ १४२ ॥ तप्तायस्तोमरश्रेणीरिव ताम्रा दृशः क्षिपन् । स्फारयन नासिकारन्ध्रे, वज्राग्निधमनीनिभे ॥१४३॥ कृतान्त इव सङ्घद्धो, दुरीक्षः प्रलयार्कवत् । ज्वलनप्रभनागेन्द्र, इत्यूचे सगरात्मजान् ॥ १४४ ॥ आः! किमेतदुपक्रान्तमहो! विक्रान्तमानिभिः। दुर्मदैर्दण्डरत्नाप्स्या, दुर्गाप्या शबरैरिव १ ॥ १४५॥ शाश्वतानामप्यधुना, भवनाधिपवेश्मनाम् । अकार्युपद्रवः कोऽयमप्रेक्षापूर्वकारिभिः। ॥ १४६ ॥ अजितखामिनो भ्रातुष्पुत्रैरपि किमीदृशम् । भवद्भिर्विदधे कर्म, पिशाचैरिव दारुणम् ? ॥१४७ ॥ १ परित इत्यर्थः । २ जलजन्तूनाम् । ३ अग्निवत् । ४ अविचारितकारिभिः । Jain Education Ind r al For Private & Personal use only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते द्वितीयं पर्व पश्चमः सर्गः अजितसगरयोश्चरितम् । ॥२५८॥ SACARRORISSAGAR अथोचे जहुना नागराजेदं युक्तमभ्यधाः । अमुना वेश्मभङ्गेनामदुपज्ञेन पीडितः॥१४८ ॥ वेश्मनां युष्मदीयानां, भङ्गोऽस्त्विति मनीषया । वसुन्धरा न खातेयमस्माभिर्दण्डपाणिभिः॥१४९॥ किन्त्वष्टापदतीर्थस्याऽमुष्य रक्षणहेतवे । परिखारूपतोऽस्माभिरियं खाता वसुन्धरा ॥ १५॥ अत्र ह्यसद्वंशकन्दश्चक्रे भरतचक्रभृत् । चैत्यं रत्नमयं रत्नप्रतिमाश्चार्हतां शुभाः॥१५१॥ भविष्यत्कालदोषेण, लोकेभ्यस्तदुपद्रवम् । शङ्कमानैः प्रयत्नोऽयमस्माभिर्विहितः खलु ॥ १५२॥ भङ्गो युष्मद्वेश्मनां तु, दूरत्वान्न हि शङ्कितः। दण्डशक्तिरमोघेयं, हन्त ! तत्राऽपराध्यति ॥ १५३ ॥ अविमृश्यविधायित्वेनार्हद्भक्त्या च यत् कृतम् । तत् सहस्वाऽतः परं तु, करिष्यामोन हीदृशम् ॥१५४॥ एवं जहुकुमारेणाऽनुनीतो नागराडपि । शशाम सामवागम्भः, कोपाग्नेः शमनं सताम् ॥ १५५॥ मा स कुटुं पुन!यमीदृगित्यभिधाय सः । नागलोकं ययौ नागराजः सिंहो गुहामिव ॥ १५६ ॥ नागराजे गते जहाजहे सोदरानिति । परिखा विहिता तावदष्टापदगिरेरियम् ॥ १५७॥ किन्तु पातालगम्भीराऽप्यम्भोरिक्ता न भात्यसौ । बुद्धिशून्या देहभाजो महत्यप्याकृतिर्यथा ॥ १५८॥ किञ्च सम्भाव्यतेऽमुष्या, रजोभिरपि पूरणम् । स्थलीभवन्त्येव गर्ता, अपि कालेन गच्छता ॥ १५९॥ पूरणीया ततोऽवश्यमियं नीरेण भूरिणा । उत्तरङ्गां विना गङ्गां, तच्च कर्तुं न पार्यते ॥१६०॥ साधु साध्विति सोदयाहतो जहुरग्रहीत् । अमोघं दण्डरत्नं तद्, यमदण्डमिवाऽपरम् ॥१६१॥ दण्डरत्नेन तेनाऽथ, गङ्गातटमदारयत् । जहुर्वजीव वज्रेण, महाशिखरिणस्तटीम् ॥ १६२॥ अस्मस्कृतेन । २ सामवाक्यमेव जलम् । ३ जलशून्या । सगरपुत्ररष्टापदगिरेः परिखाविधानम् ॥२५८॥ Jain Education in For Private & Personal use only www.janelibrary.org. Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दण्डदारणमार्गेण, चचालाऽथ सरिद्वरा । नीयते यत्र तत्राऽम्भो, गच्छत्यूजुपुमानिव ॥ १६३॥ उत्क्षिप्तशैलशिखरेवाऽभ्रंलिहमहोर्मिभिः । दृढास्फालिततूर्येव, तटास्फालननिखनैः ॥ १६४ ॥ द्विगुणं दण्डभेदं च, कुर्वाणा वाम्बुरंहसा । अष्टापदाद्रिपरिखां, गङ्गा प्राप समुद्रवत ॥ १६५॥ ॥युग्मम् ॥ योजनसहस्रदनी, पातालमिव भीषणाम् । सा प्रवृत्ता पूरयितुं, परिखां परितोपि ताम् ॥ १६६॥ अष्टापदाद्रिपरिखापूरणार्थमकृष्यत । जहुना यत् ततो गङ्गा, ततः प्रभृति जाह्नवी ॥ १६७॥ परिखां पूरयित्वा च, भूरिभिर्विवरैर्जलम् । धारायवैरिवाऽविक्षनागानां भवनेष्वथ ॥ १६८॥ पयोभिः पूर्यमाणेषु, बिलवत् फणिवेश्मसु । फूत्कुर्वन्तः प्रतिदिशं, फणिनस्त्रेसुराकुलाः॥१६९॥ सगरामजानां नागलोकस्य सङ्कोभ, दृष्ट्रा भूयोऽपि सोहिराद् । अकुप्यद् विकटाकार, आरास्पृष्ट इव द्विपः॥१७०॥ठा नागराजेन अवोचच्च सगरजाः, पितृवैभवदुर्मदाः। न सामयोग्यास्ते किन्तु, दण्डारे रासभा इव ॥ १७१॥ |भसीकरणम् एकोऽपराधो भवनभ्रंशरूपो व्यपात । मयाऽकारि न शिक्षा यत्, तैस्तन्मन्तूयितं पुनः॥ १७२॥ आरक्ष इव दस्यूनां, तेषां शिक्षा करोम्यहो ! । अहमित्युद्भटं जल्पन्ननल्पाटोपभीषणः ॥ १७३ ॥ अकाल इव कालाग्निरुद्धान्तो दीप्तिदारुणः। जगद् दग्धुमना वाधैरोवाग्निरिव निर्गतः॥ १७४॥ वज्रानल इवोज्वालः, स निर्गत्य रसातलात् । तत्राऽऽजगाम वेगेन, समं नागकुमारकैः ॥ १७५ ॥ ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ १ योजनसहरप्रमाणाम् । २ शस्त्रविशेषः। ३ अपराद्धम् । ४ बढवाग्निः । Jan Education in For Private & Personal use only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ईक्षाञ्चक्रे च तान् मङ्गु, दृष्ट्या दृष्टिविषाधिपः । भसराशीवभूवुस्ते, वह्निना तृणपूलवत् ॥ १७६ ॥ जज्ञे हाहारवस्तत्र, रोदाकुक्षिम्भरिमहान । लोके स्वादनुकम्पाय, सागसामपि निग्रहः ॥ १७७॥ . पष्टिंसहस्रान् सगरात्मजानां, स तान कथाशेषतया विधाय।। रसातलं नागपतिः सनागो, ययौ विवस्वानिव वासरान्ते ॥ १७८॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये द्वितीये पर्वणि सगरपुत्रनिधनो नाम पञ्चमः सर्गः ॥ द्वितीय पर्व पश्चमः सर्ग: अजित सगरयो श्वरितम्। ॥२५९॥ ॥२५९॥ - Jain Education Intern For Private & Personal use only Ani Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः। सगरपुत्रमरणे तत्सैन्यानां विलापः चक्रिसैन्येऽथ सैन्यानामाक्रन्द उदभून्महान् । महाजलाशय इव, रिक्तीभवति यादसाम् ॥१॥ केऽप्यावादितकिम्पाका, इव पीतविपा इव । सर्पदष्टा इवोन्मृगः, पेतुर्वसुमतीतले ॥२॥ केचिदास्फालयामासुः, स्वशिरो नालिकेरवत् । केचिदाजनिरे वक्षः, कृतागस्कमिवाऽसकृत् ।। ३ ॥ पादान् प्रसार्य केऽप्यस्थुः, कृत्यमूढाः पुरन्ध्रिवत् । भृगूण्यारुरुहुझम्पां, कपिवत् केपि दित्सवः ॥४॥ कूष्माण्डदारमुदराण्येके स्वानि दिदीर्पवः । चकृपुः क्षुरिका कोशाद्, यमजिह्वासहोदराम् ॥५॥ आत्मानं तरुशाखायामुद्धन्द्धमनसोऽपरे । बबन्धुरुत्तरीयाणि, लीलादोलां यथा पुरा ॥६॥ शिरसोऽत्रोटयन केऽपि, केशान क्षेत्रात कुशानिव । केऽप्यङ्गलग्नं नेपथ्यं, चिक्षिपुः स्वेदबिन्दुवत् ॥७॥ हस्तन्यस्तकपोलाः केऽप्यस्थुश्चिन्तापरायणाः । प्रदत्तोत्तम्भनस्तम्भजर्जराकारकुड्यवत् ॥ ८॥ असंवहन्तः केचिच्च, परिधानांशुकान्यपि । विशंस्थुलाङ्गं व्यलुठन्नुन्मत्ता इव भूतले ॥९॥ विलापोऽन्तःपुरस्त्रीणां, कुररीणामिवाऽम्बरे । हृदयाकम्पजनकः, पृथक् पृथगभूदिति ॥१०॥ प्राणेशान् गृह्णताऽस्माकं, प्राणानत्रैव मुञ्चता । किमर्धवैशंसमिदं, रे दैवाऽऽचरितं त्वया ? ॥११॥ प्रसीद विवरं देहि, स्फुटित्वा देवि काश्यपि! । अभ्रादपि पतितानां, शरणं धरणी खलु ॥ १२॥ | १ कृतापराधम् । २ छिन्नटङ्कानि अत्युच्चानि गिरिशिखराणि । ३ दातुमिच्छवः । ४ शिथिलाङ्गं यथा स्यात्तथा। * पुरे स्त्री सङ्घ २ सङ्घ ३ संता० ॥ ५ अर्धमरणम् । ६ हे पृथ्वि । सगरपुत्राणां मरणे तदन्त:पुरीणां परिदेवनम् त्रिपति Jain Education intuitell For Private & Personal use only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि- अद्य चन्दनगोधानामिवाऽसाकमुपयेहो! । विद्युद्दण्डमकाण्डेऽपि, दैव! पातय निर्दयम् ॥१३॥ शलाका- प्राणाः! शिवा वः पन्थानः, सन्तु यात यथेप्सितम् । विमुञ्चताऽमच्छरीरमवक्रयकुटीमिव ॥ १४॥ | पुरुषचरिते समायाहि महातन्द्रे , सर्वदुःखापनोदिनि! । मन्दाकिनि! त्वमुत्प्लुत्य, जलमृत्युं प्रयच्छ वा ॥ १५॥ अस्यां गिरितलाटव्यां, प्रादुर्भव दवानल! । अनुयामः पतिगति, तव साहाय्यकाद् यथा ॥१६॥ ॥२६॥ हा केशपाश! मुञ्चाऽद्य, सुमनोदामसौहृदम् । युवाभ्यां दीयतां नेत्रे', कजलाय जलाञ्जलिः ॥ १७॥ पत्रलेखनकण्डूति, मा कृपाथां कपोलको! । अलक्तकव्यतिकरश्रद्धामधर! मा धेर ॥ १८॥ गीताकर्णनवत् कौँ !, त्यजतं रनकर्णिकाम् । हे कण्ठ ! कण्ठिकोत्कण्ठां, मा कास्त्विमतः परम् ॥१९॥ वक्षोजावद्य वां हारो, नीहारोऽम्भोरुहामिव । सद्यो हृदय! भूयास्त्वं, पक्कैारुकवद् द्विधा ॥२०॥ बाह! कङ्कण-केयरैर्भारखि कृतं च वाम् । नितम्ब ! रसनां मुश्च, प्रातश्चन्द्र इव प्रभाम् ॥ २१ ॥ अनाप्तैरिव पर्याप्तं, हे पादौ! पादभूषणैः । अलमङ्गाऽङ्गरागैस्तैः, कपिकच्छूमयैरिव ॥ २२॥ एवमन्तःपुरस्त्रीणां, रुदितैः करुणवरैः । वनान्यपि प्रतिरवै, रुरुदुः सह बन्धुवत् ॥ २३ ॥ ___ सेनाधिपति-सामन्त-मण्डलेशादयोऽपि हि । शोक-ही-क्रोध-शङ्कादिविचित्रं प्रालपन्निति ॥२४॥ हा स्वामिपुत्राः! क गताः?, न हि संविद्महे वयम् । ब्रूताऽनुयामोऽद्य यथा, स्वाभिशासनतत्पराः॥२५॥ किं तिरोधानविद्येह, भवतां काऽप्युपस्थिता? । सा तु खेदाय भृत्यानां, प्रयोक्तुं न हि युज्यते ॥ २६ ॥ . भाटकगृहीतां कुटीमिव । २ पुष्पमालामैत्रीम् । ३ सम्बन्धः। * धरः संता० सङ्घ ३॥ ४ हिमम् । ५ पक्कसचिर्भटकवत् । ६ हे शरीर ।। द्वितीयं पर्व षष्ठ: सर्गः अजितसगरयोचरितम् । MORRORISGREC USUARISSISSES सगरपुत्रमरणे तत्सामन्तादीनां शोच नम् १२६०॥ ROCK Jain Education a l For Private & Personal use only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SCENESCEREMEDIES युष्मान् नष्टान् विनष्टान् वा, हित्वा गतवतां मुखम् । कथं द्रक्ष्यति नः खामी, ऋषिहत्याकृतामिव ? ॥२७॥ युष्मान् विना गतान् नोऽद्य, लोकोऽप्युपहसिष्यति । हृदय ! स्फुट रे! सद्यः, पयःसिक्तामकुम्भवत्॥२८॥ तिष्ठ तिष्ठाहिखेट! त्वं, छलेन श्वेव नः पतीन् । व्यग्रानष्टापदत्राणे, दग्ध्वाध्यासीः क्व रेऽधुना ॥२९॥ खगः खड्गो धन्व धन्व, शक्तिः शक्तिर्गदा गदा । युद्धाय सजीभव रे :, कियन्नंष्ट्वा गमिष्यसि ? ॥३०॥ अमी तावदिह त्यक्त्वा, ययुनः स्वामिमूनवः । हहा! तत्र गतानद्य, त्यक्ष्यति वाम्यपि द्रुतम् ॥ ३१ ॥ अगतानपि नस्तत्र, जीवतोऽत्रैव तिष्ठतः । श्रुत्वा लजिष्यते स्वामी, यदि वा निग्रहीष्यति ॥ ३२ ॥ ___ एवं रुदित्वा विविधं, भूयः सम्भृय ते मिथः । सहजं धैर्यमालम्ब्य, मन्त्रयामासुरित्यथ ॥ ३३॥ पूर्वोदितविधानेभ्यः, परोक्तविधिवद् विधिः। सर्वेभ्यो बलवांस्तस्मान्न कोऽपि बलवत्तरः॥३४॥ तत्राऽशक्यप्रतीकारे, मुधा प्रतिचिकीर्षितम् । व्योम्नः प्रतिजिंघांसेव, जिघृक्षेव नभखतः॥३५॥ एभिः प्रलापैस्तदलं, हस्त्यश्वाद्यखिलं प्रभोः । इदानीमर्पयामः खं, वयं न्यासधरा इव ॥ ३६॥ उचितं रुचितं वापि, यत्किञ्चन ततः परम् । विदधातु तदस्मासु, स्वामी किं नो विचिन्तया ? ॥३७॥ ___ एवमालोच्य ते सर्वे, सर्वमन्तःपुरादिकम् । आदाय दीनवदनाः, प्रत्ययोध्यं प्रतस्थिरे ॥ ३८॥ मन्द मन्दमथोत्साहहीना म्लानाननेक्षणाः । अयोध्यासन्निधिभुवं, प्रापुः सुप्तोत्थिता इव ॥ ३९ ॥ विषण्णास्तत्र च स्थित्वा, नीता वध्यशिलामिव । उपविश्य महीपीठेऽन्योऽन्यमेवं बभाषिरे ॥४०॥ १ अस्मान् । २ अपक्वघटवत् । ३ पूर्वविधिभ्यः परो विधिर्बलवानिति व्याकरणशास्त्रे न्यायः । ४ दैवम् । ५ प्रतिहन्तुमिच्छा ।। ६ ग्रहीतुमिच्छा। ७ धनम् । सगरपुत्रान्त:पुरीप्रभृतीनामयोध्या प्रति प्रस्था नम् Jain Education Internet For Private & Personal use only |, Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिपष्टि - शलाका पुरुषचरिते ॥२६१॥ Jain Education Int भक्ता बहुज्ञा दोष्मन्तो, दृष्टसाराः पुराऽपि च । इत्यादिष्टा वयं राज्ञा, सत्कृत्य तनयैः सह ॥ ४१ ॥ विना कुमारानभ्येत्य, स्वामिनोऽग्रे वयं कथम् । वदनं धारयिष्यामो नासिकारहिता इव ? ॥ ४२ ॥ कथं वा कथयिष्यामः, पुत्रवृत्तान्तमीदृशम् । अकाण्डाशनिसम्पातसदृशं वसुधापतेः १ ॥ ४३ ॥ अतः परमहो ! तत्राऽस्माकं गन्तुं न युज्यते । युज्यते किन्तु मरणं, शरणं सर्वदुःखिनाम् ॥ ४४ ॥ सम्भावनायाः प्रभुणा, कृताया भ्रंशभाजिनः । पुंसोऽशरीरिकस्येव, जीवितव्येन किं ननु ? ।। ४५ ।। किञ्च पुत्रक्षयं श्रुत्वा दुःश्रवं चक्रवर्त्यपि । चेद् विपद्येत तदपि, मृत्युरग्रेसरो हि नः ॥ ४६ ॥ मन्त्रयित्वेति ते सर्वे, मरणे कृतनिश्चयाः । यावत् तस्थुस्तावदागादेकः काषायभृद्विजः ॥ ४७ ॥ ब्राह्मणग्रामणीः सोऽथ, प्रोत्क्षिप्तकरपङ्कजः । जीवयंस्तानुवाचैवं, गिरा जीवातुकल्पया ॥ ४८ ॥ भोः कृत्यमूढाः ! किं यूयमेवं स्थास्वस्थचेतसः ? । उपर्यापतिते व्याधे, पतित्वा शशका इव ॥ ४९ ॥ यदि पष्टिसहस्रा वः, स्वामिपुत्रा विपेदिरे । युगपद् युग्मिवत् तत्र, विषादेन कृतं ननु ॥ ५० ॥ सहजाता अपि क्वाऽपि, विपद्यन्ते पृथक् पृथक् । पृथग्जाता अपि क्वाऽपि, विपद्यन्ते सहैव हि ॥ ५१ ॥ वहवोऽपि विपद्यन्ते, विपद्यन्तेऽल्पका अपि । सर्वेषामपि जीवानां, यन्मृत्युः पारिपार्श्विकः ॥ ५२ ॥ न हि केनापि कस्यापि मृत्युः शक्यो निषेधितुम् । अपि यत्त्रशतं कृत्वा, स्वभाव इव देहिनाम् ॥ ५३ ॥ निषेधितुं शक्यते चेत्, से निषिद्धः कथं न हि । वज्रभृचक्रवर्त्त्याद्यैः, स्वस्य वा स्वजनस्य वा ? ॥ ५४ ॥ मुष्टिना शक्यते धर्तुमपि वज्रं पतद् दिवः । सेतुनाऽवस्खलयितुमप्युद्धान्तः पयोनिधिः ।। ५५ ।। १ सञ्जीवनौषधतुल्यया । २ मृत्युः । ३ रोद्धुम् । द्वितीयं पर्व षष्ठः सर्गः अजितसगरयो - चरितम् । मुमृर्पूणां सगरपुत्रान्त:पुरीप्रभृतीनां अपरिचितेन द्विजेन संस्थापनम् ॥२६१॥ . Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Int निर्वापयितुमुद्दामो, युगान्तज्वलनोऽपि वा । कल्पान्तोत्पातजातो वा, मन्दीकर्तुं समीरणः ॥ ५६ ॥ उत्तम्भनेनाऽद्रिरपि, समुत्तम्भयितुं पतन् । न तूपायशतेनाऽपि शक्यो मृत्युर्निषेधितुम् ॥ ५७ ॥ ते नः सम्पश्यमानानां, विपन्नाः स्वामिसूनवः । इत्येवं मास्म खिद्यध्वं धीरीभवत सम्प्रति ॥ ५८ ॥ युष्माकं स्वामिनमपि, मज्जन्तं शोकसागरे । हस्तेनेव धरिष्यामि, प्रबोधवचसाऽञ्जसा ॥ ५९ ॥ एवमाश्वास्य तान् सर्वान्, मृतं किञ्चित् पथि स्थितम् । विप्रः सोऽनाथमादाय, विनीतां नगरीं ययौ ॥६०॥ सगरस्य नरेन्द्रस्य, स गत्वा सदनाङ्गणे । ऊर्द्धाभूयोर्द्धदोर्दण्डः, पूच्चकारोच्चकैरिति ॥ ६१ ॥ चक्रवर्तिन् ! न्यायवर्तिन्नखण्ड भुजविक्रम ! । अत्याहितमब्रह्मण्य मत्रह्मण्य महो ! इदम् ॥ ६२ ॥ स्वर्गे पुरन्दरेणेव, क्षेत्रे भरतनामनि । यत् त्वया रक्षितेऽप्यस्मिन् मुषितो मुषितोऽस्म्यहम् ॥ ६३ ॥ शब्दमश्रुतपूर्वं तं श्रुत्वा सगरचक्रयपि । सङ्क्रान्ततद्दुःख इव, जगाद द्वारपालकम् ॥ ६४ ॥ केनैष मुषितः ? कोऽयं ?, कुतो वाऽयं समागतः । सर्वं विज्ञायतामेतत्, स्वयं वाऽत्र प्रवेश्यताम् ॥ ६५ ॥ द्वारपालोऽथ पप्रच्छ विप्रं क्षिप्रमुपेत्य तम् । अनाकर्णितकं कुर्वन्, पूच्चकार तथैव सः ॥ ६६ ॥ व्याजहार प्रतीहारः, पुनरेवमहो द्विज ! । किं दुःखबधिरोऽसि त्वं ?, निसर्गवधिरोऽसि वा १ ॥ ६७ ॥ अजितखामिनो भ्राता, स्वयमेप महीपतिः । दीना नाथपरित्राता, शरणं शरणार्थिनाम् ॥ ६८ ॥ सादरः सोदरमिव, त्वां पृच्छति विराविंणम् । मुषितः केन ? कश्चाऽसि ?, कुतस्त्योऽसीति शंस नः ॥ ६९ ॥ यदि वा स्वयमागत्य, स्वकीयं दुःखकारणम् । वैद्यायेव रुगुत्थानं, निवेदय महीभुजे ॥ ७० ॥ १ जीवितापहार्यनर्थसम्पातः । २ पूत्कारिणम् । ३ रोगोत्पत्तिम् । ww. Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते ॥२६२॥ Jain Education In इत्युक्तः प्रतिहारेण, स द्विजः साश्रुलोचनः । नीहारकणिकाकीर्णसरोरुह इव हृदः ॥ ७१ ॥ प्रम्लानवदनेन्दुश्च, निशीथ इव हैमनः । अच्छभल्ल इवातुच्छप्रविकीर्णशिरोरुहः ॥ ७२ ॥ जरत्प्लवङ्गम इव, परिक्षामकपोलकः । मन्दमन्दपदन्यासं, प्राविशच्चक्रिणः सैदः ॥ ७३ ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ स्वयं कृपालुना सोऽथ, चक्रिणैवमपृच्छयत । कच्चित् ते काञ्चनं किञ्चिज्जहे कुत्राऽपि केनचित् १ ॥७४॥ किंवा रत्नानि केनाऽपि हृतानि वसनानि वा १ । किं वाऽपालापि केनाऽपि, न्यासो विश्वस्तघातिना । ॥ ७५ ॥ ग्रामारक्षादिना किं वा, केनाऽप्यसि कदर्थितः १ । भाण्डसर्वस्वहरणात्, पीडितः शौल्किकेन वा १ ।। ७६ ।। दायादेनाऽथ केनाऽपि, प्रापितोऽसि पराभवम् ? । उपदुद्राव कोऽपि त्वां जायाविद्रवणेन वा ॥ ७७ ॥ बलवानथवा वैरी, त्वामास्कन्दति कश्चन ? । आधिर्वा बाधते कोऽपि त्वां ? व्याधिरथवोत्कटः १ ॥७८॥ द्विजातिजातिसुलभं, दारिद्र्यं त्वां दुनोति वा ? । अन्यद्वा दुःखद् यत् ते, तदाख्याहि महाद्विज ! ॥ ७९ ॥ सद्यो नट इवालीकं, मुञ्चन्नश्रान्तमथु सः । ब्राह्मणो व्याजहारैवं, राजानं रचिताञ्जलिः ॥ ८० ॥ द्यौरिवामरराजेन, न्याय - विक्रमराजिना । त्वया राजन्वती राजन् ', षट्खण्ड भरतावनिः ॥ ८१ ॥ assच्छिन् कस्यचित् कोऽपि, स्वर्ण- रत्नादि किञ्चन । आढ्याः स्वगृहवद् ग्रामान्तरालेऽपि हि शेरते ॥ ८२ ॥ न्यासं नापह्नुते कोsपि, निजं कुलमिवोत्तमम् । स्वपुत्रमिव रक्षन्ति, ग्रामारक्षादयः प्रजाम् ॥ ८३ ॥ अर्थे लभ्येऽतिरिक्तेऽपि, शुल्कं भाण्डानुमानतः । गृह्णन्ति शौल्किका दण्डमिव मन्तुप्रमाणतः ॥ ८४ ॥ १ हेमन्ततौं रात्रिरिव । २ यथा विशीर्णकेशः भल्लूको भवति तादृशः । ३ सभाम् । ४ अपहृतः । ५ विश्वासघातिना । ६ शुल्काध्यक्षेण । ७ जायाया अपहारेण । ८ नापहरति । ९ यथापराधम् । द्वितीयं पर्व षष्ठः सर्गः अजित सगरयो - चरितम् । अपरिचितेन द्विजेन स्वपुत्रमरणमिषेण सग रस्य प्रतिबोधनम् ॥२६२॥ . Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दायमादाय दायादा, विवदन्ते पुनर्न हि । अवाप्तोत्तमसिद्धान्ताः, शिष्या इव गुरुं प्रति ॥ ८५॥ भगिनीवद् दुहितृवत, स्नुषावन्मातृवत् तथा । मन्यते परकीयाः स्त्रीयायनिष्ठोऽखिलो जनः ॥८६॥ नास्ति यत्याश्रम इव, त्वद्राज्ये वैरवागपि । सन्तोषशालिनि जने, नाऽऽधिः साऽम्भसि तापवत ॥८७॥ भुवि सर्वोषधीमय्यां, न व्याधिः प्रावृषीव तृट् । त्वयि कल्पद्रुम इव, दारिद्यं च न कस्यचित् ॥ ८८॥ अस्ति दुःखाकर लोके, न किञ्चिदपि कस्यचित । किन्तूपनतमस्त्येतन्ममैव हि तपखिनः ॥ ८९॥ अवन्तिाम देशोऽस्ति, खर्गदेश्यो महानिह । नगरोद्यान-नद्याद्यैरनवद्यैर्मनोहरः॥९०॥ महासर:-कूप-वापी-विचित्रारामबन्धुरः। तत्राऽश्वभद्रो नामाऽस्ति, ग्रामस्तिलकवद् भुवः ॥ ९१॥ तत्र ग्रामेऽस्मि वास्तव्यो, वेदाध्ययनतत्परः । अग्निहोत्ररतो नित्यं, शुद्धब्रह्मकुलोद्भवः ॥ ९२ ॥ पत्न्याः प्राणप्रियं पुत्रमर्पयित्वाऽहमन्यदा । विशेषविद्याध्ययनहेतोामान्तरं गतः॥ ९३॥ पठतस्तत्र चाऽन्येधुरुदभृदरतिर्मम । अनिमित्तं महदेतदित्यक्षुभ्यमहं ततः ॥ ९४ ॥ भीतस्तेनानिमित्तेन, स्खं ग्रामं पुनरागमम् । अहं पूर्वाश्रितां जात्यतुरङ्ग इव मन्दुंराम् ॥ ९५॥ दरादहमपश्यं च, श्रीविमुक्तं निजं गृहम् । किमेतदिति चित्ते च, चिरं यावदचिन्तयम् ॥ ९६ ॥ अमन्दं स्पन्दितं तावद् , दक्षिणेतरचक्षुषा । शुष्कवृक्षे चटित्वोच्चै, रटितं करटेन च ॥ ९७॥ इत्यादिभिर्दनिमित्तैर्विद्धो हृदि शरैरिव । विमनाः प्राविशमहं, चश्चापुरुषवद् गृहम् ।। ९८॥ मामापतन्तं सम्प्रेक्ष्य, ब्राह्मणी विलुलत्कचों । सद्यो हा पुत्र ! हा पुत्रेत्याक्रन्दन्त्यपतद् भुवि ॥९९ ॥ . भागम् । २ प्राप्तम् । ३ दुःखम् । ४ स्वर्गसदृशः । ५ अपशकुनम् । ६ अश्वशालाम् । ७ वामनेत्रेण । ८ काकेन । ९ विकीर्ण केशा। Jain Education in For Private & Personal use only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरिते ॥२६३॥ विपन्नो मे पुत्र, इति निश्चित्य चेतसा । अहमप्यपतं सद्यो, गतप्राण इवाऽवनौ ॥ १०० ॥ मूर्च्छाविरामे भूयोऽपि प्रलपन् करुणस्वरम् । अपश्यं गृहमध्येऽहं सर्पदष्टमिमं सुतम् ॥ १०१ ॥ भोजनाद्यप्यकृत्वाऽस्थां, यावज्जाग्रदहं निशि । कुलदेवतया तावदिदमादेशि मे पुनः ॥ १०२ ॥ भोः ! किमेवं समुद्विग्नोऽस्यमुना पुत्रमृत्युना ? । सम्पादयामि ते पुत्रं, यद्यादेशं करोषि मे ॥ १०३ ॥ देव्याः प्रमाणमादेश, इत्यवोचमहं ततः । पुत्रार्थे शोकविधुरैः, किं वा न प्रतिपद्यते ॥ १०४ ॥ कुलदेवतयाऽथोक्तं, विपन्नो यत्र कोऽपि न । ततोऽग्निं मङ्गलगृहात् कुतोऽप्यानय सत्वरम् ॥ १०५ ॥ ततस्तनयलोभेन, प्रत्यहं प्रतिमन्दिरम् । तत् पृच्छन् हस्यमानोऽहं भ्रान्तोऽर्भक इवाभ्रमम् ॥ १०६ ॥ पृच्छयमानो जनः सर्वोऽप्याचष्टे स्म गृहे गृहे । सङ्ख्यातीतान् मृतान् वेश्म, नाऽमृतं किञ्चिदप्यभूत् ॥ १०७॥ तदप्राप्या च भग्नाशः, पैरासुरिव नष्टधीः । व्यजिज्ञपमहं दीनस्तत् सर्वं कुलदेवताम् ॥ १०८ ॥ आदिशद् देवताऽप्येवं न मङ्गलगृहं यदि । अमङ्गलं कथमहं तव रक्षितुमीश्वरी ।। १०९ ।। तया च देवतावाचा, तोत्रेणेव प्रवर्तितः । प्रतिग्रामं प्रतिपुरं भ्रमन्नहमिहाऽऽगमम् ॥ ११० ॥ अपि धात्र्याः समस्तायास्त्राता त्वमसि विश्रुतः । न कोऽपि प्रतिमल्लोऽस्ति दोष्मदग्रेसरस्य ते ॥ १११ ॥ वैताढ्यगिरिदुर्गस्थश्रेणिद्वयगतास्तव । विद्याधरा अपि दधत्याज्ञां शिरसि माल्यवत् ॥ ११२ ॥ देवा अपि तवाऽऽदेशं, सदा कुर्वन्ति भृत्यवत् । वाञ्छितार्थं प्रयच्छन्ति, निधयश्च तवाऽनिशम् ॥ ११३ ॥ ततस्त्वां शरणं प्राप्तो, दीनेत्राणैकसत्रिणम् । तदग्निं मङ्गलगृहात् कुतोऽप्यानय मत्कृते ॥ ११४ ॥ १ जीवयामि । * ऽथोचे, विप ढं० ॥ २ मृतः । ३ गतप्राणः । ४ गवादिताडनदण्डः । ५ दीनरक्षणैकदीक्षितम् । द्वितीयं पर्व षष्ठः सर्गः अजित सगरयो श्ररितम् । अपरिचितेन द्विजेन स्वपुत्रमरणमिषेण सग रस्य प्रतिबोधनम् ॥२६३॥ w. Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विपन्नमपि मे पुत्रं, सा यथा कुलदेवता । प्रत्यानयति येनाऽस्मि, दुःखितः पुत्रमृत्युना ॥ ११५॥ भवस्वरूपं नृपतिर्जानन्नपि कृपावशात् । तदुःखदुःखितः किश्चिचिन्तयित्वैवमब्रवीत् ॥ ११६ ॥ एतस्यामवनौ तावद्, गृहेषु सकलेवपि । अस्माकं गृहमुत्कृष्ट, सुमेरुः पर्वतेष्विव ॥ ११७॥ आसीदस्मिन्नसामान्यस्त्रिजगन्मान्यशासनः । प्रथमस्तीर्थनाथानां, प्रथमः पृथिवीभुजाम् ॥ ११८॥ लक्षयोजनमुत्सेधे, दण्डीकृत्याऽमराचलम् । दोर्दण्डेन समुत्क्षिप्य, च्छत्रीकर्तुं क्षमः क्षमाम् ॥ ११९॥ चतुःपष्टीन्द्रमुकुटोत्तेजिताङ्गिनखावलिः । भगवानृषभस्वामी, विपन्नः सोऽपि कालतः ॥१२० ॥ . ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ।। तस्य च प्रथमः सूनुः, प्रथमश्चक्रवर्तिनाम् । सुरा-ऽसुरैरपि सदा, शिरसोद्वाह्यशासनः ॥ १२१ ॥ भरतो नाम सौधर्मपुरुहूतासनार्धभाव । कालेन गच्छता सोऽपि, समाप्तिं प्रापदायुषः॥१२२॥ युग्मम् ॥ तस्य चाऽवरजो धुर्यो, वर्यदोर्वीर्यशालिनाम् । अम्भोधीनामिवाऽम्भोधिः, स्वयम्भूरमणाभिधः ॥१२३॥ कण्डूयद्भिः सैरिभेभ-शरभाद्यैरकम्पितः । वज्रदण्ड इव न्यस्तो, वत्सरं प्रतिमाधरः ॥ १२४ ॥ महाबाहुर्बाहुबलि हुदन्तेयविक्रमः । नाऽधिकं किश्चिदप्यस्थात् , सम्पूर्णे पुरुषायुषे ॥ १२५ ॥ ॥त्रिभिर्विशेषकम् ॥ उग्रेण तेजसाऽऽदित्यो, नाम्नाऽऽदित्ययशा इति । समभूदोजसाऽनूनः, सूनुर्भरतचक्रिणः ॥ १२६ ॥ आदित्ययशसः सूनुरासीनाम्ना महायशाः। दिगन्तसङ्गीतयशाः, सर्वदोष्मच्छिरोमणिः॥ १२७॥ १ महिषगजाष्टापदप्रभृतिभिः। २ इन्द्रसमपराक्रमः । Jan Education For Private & Personal use only . Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका द्वितीयं पर्व पुरुषचरिते ॥२६४॥ सर्गः अजितसगरयोचरितम्। तस्य चाऽतिबलो नाम, मनुः समुदपद्यत । आखण्डल इवाऽखण्डशासनोऽवनिशासनः ॥ १२८ ॥ वभूव तस्य तनयो, बलभद्रोऽभिधानतः । जगन्मद्रङ्करः स्थाम्ना, धाम्ना दीधितिमानिव ॥ १२९ ॥ बलवीर्यो महावीर्यः, शौर्य-धैर्यभृदग्रणीः । ग्रामणीनरनाथानामभवत् तस्य चाऽऽत्मजः ॥ १३०॥ शोभितः कीर्ति-वीर्याभ्यां, कीर्तिवीर्यश्च विश्रुतः । उदभूदङ्गभूस्तस्माद् , दीपो दीपादिवोज्वलः॥१३॥ दन्तिभिर्गन्धदन्तीव, वज्रदण्ड इवाऽऽयुधैः । परैरवार्यवीर्योऽभूजलवीर्यश्च तत्सुतः ॥ १३२ ॥ अखण्डदण्डशक्तिश्च, दण्डपाणिरिवाऽपरः । अभूदुद्दण्डदोर्दण्डो, दण्डवीर्यस्तदात्मजः॥१३३॥ अपाच्यभरतार्धस्य, शासितारो महौजसः । इन्द्रोपनीतभगवन्महामुकुटधारिणः॥ १३४॥ सुरा-ऽसुरैरप्यजय्यास्तेऽपि लोकोत्तरौजसः । सर्वेऽपि कालधर्मेण, कार्लधर्ममुपाययुः ॥१३५॥ युग्मम् ॥ ततः प्रभृति चाऽन्येऽपि, सङ्ख्यातीता महीभुजः । महाभुजा व्यपद्यन्त, कालो हि दुरतिक्रमः ॥१३६॥ सर्वङ्कपः पिशुनवत, सर्वभक्षी हुताशवत् । सर्वभेदी सलिलवत् , कृतान्तस्तदहो द्विज! ॥१३७॥ मदीयेऽपि गृहे कालान्नाऽवशिष्टोऽस्ति पूर्वजः । का वार्ताऽन्यगृहेष्वस्ति ?, तन्मङ्गलगृहं कुतः ? ॥१३८॥ स्वत्पुत्रश्चेन्नियेतैकस्तदेवमुचितं तव । सर्वसाधारण मृत्यो, किं नाम द्विज! शोचसि? ॥१३९॥ अर्भके स्थविरे वाऽथ, दरिद्रे चक्रवर्तिनि । समं वर्तत इत्येष, कृतान्तः समवर्त्य हो! ॥ १४०॥ संसारस्य स्वभावोऽयं, न स्थिरः कश्चिदत्र यत् । तरङ्गवत् तरङ्गिण्यां, शरदभ्रवदम्बरे ॥ १४१ ॥ किश्चाऽसौ मे पिता माता, भ्राता पुत्रः वसा स्नुषा । इत्यादिरपि सम्बन्धो, न भवे पारमार्थिकः॥१४२॥ । १ जगन्माङ्गल्यकारकः। २ सूर्य इव । ३ अलौकिकपराक्रमवन्तः । ४ मृयुम् । ५ नद्याम् । अपरिचितेन द्विजेन स्वपुत्रमरणमिषेण सगरस्य प्रतिबोधनम् ॥२६॥ Jain Education Inter For Private & Personal use only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केपि केऽपि कुतोऽप्येत्य, मिलन्त्येकत्र वेश्मनि । यतः शरीरिणः सर्वे, ग्रामकुट्यामिवाऽध्वगाः॥१४३॥ पृथक पृथक पथेनैव, स्वकर्मपरिणामतः । तेषु गच्छत्सु को नाम, सुधीः शोचेन्मनागपि ? ॥ १४४ ॥ माम शोकं कथास्तेन, मोहचिह्नं द्विजोत्तम! । धेहि धैर्य महासत्त्व !, विवेके खं निधेहि च ॥१४५॥ ___ अथावोचद् द्विजन्माऽपि,राजन् ! जानामि जन्मिनाम् । भवस्वरूपं किन्त्वद्य,व्यमार्ष पुत्रशोकतः॥१४६॥ तावत सर्वोऽपि जानाति, तावत् सर्वोऽपि धैर्यभाक् । यावदिष्टवियोगं नाऽनुभवत्यात्मना भवी ॥१४७॥ सदाऽर्हदादेशसुधापाननिधीतचेतसः। विरलास्त्वादृशाः स्वामिन् !, धैर्यवन्तो विवेकिनः ॥ १४८ ॥ विवेकिन ! भवता मुह्यन् , बोधितः साधु साध्वहम् । उपस्कार्यों विवेकोऽयमात्मनोऽपि कृते त्वया॥१४९॥ नश्यन्नयं रक्षणीयो, व्यसने समुपस्थिते । यतो विधुरैवेलाय, ध्रियते ध्रुवमायुधम् ॥ १५० ॥ अयं च कालो रङ्केच, समश्चक्रधरेऽपि च । प्राणान् पुत्रादि वाऽऽच्छिन्दन , बिभेति न कुतोऽपि हि ॥१५१॥ हन्त ! पुत्रादि यस्याल्पमल्पं तस्य विपद्यते । भूयिष्ठं यस्य तत् तस्य, भूयिष्ठं हि विपद्यते ॥१५२ ॥ द्वयोरपि तयोः पीडा, तुल्यैव हि भवत्यहो। अल्पा-ऽनल्पग्रहाराभ्यां, कुन्थु-कुञ्जरयोरिव ॥ १५३॥ नाशेनैकस्य पुत्रस्य, न शोचिष्याम्यतः परम् । मद्वत् त्वमपि मा शोचीः, सर्वपुत्रक्षयेऽपि हि ॥ १५४ ॥ पष्टिसहस्रसङ्ख्यास्ते, दोर्विक्रमविराजिनः । राजन् ! विपन्नास्तनया, युगपत् कालयोगतः ॥ १५५ ॥ ___ अत्रान्तरे च सामन्ता-ऽमात्य-सेनाधिपादयः । अपरेऽपि कुमाराणां, जना आसन्नवर्तिनः ॥१५६ ॥ उत्तरीयच्छन्नमुखाः, शालीना इव लज्जया । विवर्णदेहाः खेदेन, दवदग्धा इव द्रुमाः ॥१५७॥ धर्मशालायाम् । २ विवेकः। ३ दुःखवेलायै । Jain Education Internet For Private & Personal use only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय पर्व त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते सर्गः ॥२६५॥ अजितसगरयोश्चरितम्। RRC-RECORDCRELESEDGEOCESSOCIEDO अत्यन्तशून्यमनसः, पिशाच-किन्नरा इव । उदश्रुलोचना दीना, मुषिताः कृपणा इव ॥ १५८ ॥ प्रस्खलच्चरणन्यासा, दष्टा इव भुजङ्गमैः । आस्थानं युगपद् राज्ञोऽविशन् सङ्केतिता इव ॥१५९ ॥ राजानं ते नमस्कृत्य, यथास्थानमुपाविशन् । विविक्षव इव क्षोणी, ते च तस्थुरधोमुखाः॥१६०॥ तां विप्रवाचमाकर्ण्य, दृष्ट्वा तांश्च तथाविधान् । कुमारवर्जमायाताननिपादिद्विपानिव ॥ १६१॥ लिखितो नृल्लिखितो नु, सुप्तो नूत्तम्भितो नु वा । शुन्यो निष्पन्दनयनो, द्रागभूदवनीपतिः॥१६२॥ ॥ युग्मम् ॥ आप्तमूर्छमधैर्येण, धैर्येण च तथास्थितम् । पुनर्बोधयितुं विप्रः, प्रोवाच पृथिवीपतिम् ॥ १६३ ॥ त्वमसि मापते ! विश्वमोहनिद्राविवस्वतः। ऋषभस्वामिनो वंश्यो, भ्राता चास्यजितप्रभोः॥१६४॥ इत्थं पृथग्जन इव, भवन् मोहवशंवदः । तयोः कलङ्कमाधत्सेऽधुना किं धरणीधव! ? ॥ १६५॥ राजाऽपि दध्यौ विप्रोऽयं, स्वपुत्रान्तापदेशतः । मत्पुत्रक्षयनाट्यस्य, जगौ प्रस्तावनामिमाम् ॥१६६॥ व्यक्तं च शंसत्यधुना, कुमाराणामसौ क्षयम् । कुमारवर्ज चाऽऽयाताः, प्रधानपुरुषा अमी ॥ १६७॥ कुतः सम्भाव्यते तेषां, क्षयश्च मनसापि हि । भुवि सञ्चरतां स्वैरं, बने केसरिणामिव ? ॥ १६८॥ महारत्नपरीवारा, दुर्वाराः स्वौजसाऽपि हि । केन शक्या निहन्तुं ते, हन्तास्खलितशक्तयः? ॥१६९॥ चिन्तयित्वेति किमिदमिति पृष्टाः क्षमाभुजा । ज्वलनप्रभवृत्तान्तं, शशंसुः सचिवादयः ॥ १७०॥ १ सभाम् । २ प्रवेष्टुमिच्छवः। ३ हस्तिपकरहितगजानिय । * यथा सङ्घ २॥ ४ स्वस्थम् । ५ साधारणजनः । ६ ऋषभाजितस्वामिनोः। ७ स्वपुत्रमरणमिषात् । अपरिचितेन द्विजेन खपुत्रमरणमिषेण सगरस्य प्रतिबोधनम् ॥२६५॥ JainEducation For Private & Personal use only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि, ४६ Jain Educa ताडितः कुलिशेनेव, तेनोदन्तेन भूपतिः । पपात मूच्छितः पृथ्व्यां पृथिवीमपि कम्पयन् ॥ १७१ ॥ मातरश्च कुमाराणां निपेतुर्मूर्च्छया क्षितौ । पितुर्मातुश्च तुल्यं हि दुःखं सुतवियोगजम् ॥ १७२ ॥ राजवेश्मनि लोकानामाक्रन्दोऽथ महानभूत् । समुद्रतटगर्तान्तर्गतानां यादसामिव ॥ १७३ ॥ यादयोऽपि ते स्वामिपुत्रव्योपत्तिसाक्षिणम् । आत्मानमतिनिन्दन्तो, रुरुदुः करुणवरम् ।। १७४ ॥ तादृशीं खामिनोऽवस्थां तां वीक्षितुमिवाऽक्षमाः । अञ्जलिच्छन्नवदनाः, पूच्चकुर्वेत्रपाणयः ॥ १७५ ॥ प्राणप्रियाण्ययस्त्राणि त्यजन्तश्चाऽऽत्मरक्षकाः । प्रलपन्तोऽलुठन् भूमौ वातभना इव द्रुमाः ॥ १७६ ॥ स्वकञ्चुकान् कञ्चुकिनः, स्फाटयन्तोऽरटन् भृशम् । दवानलान्तः पतिता इव तित्तिरिपक्षिणः ॥ १७७ ॥ हृदयं कुयन्तः खं चिरात् प्राप्तमिव द्विपम् । चेव्यश्वेटाश्च चक्रन्दुर्हताः स्म इति भाषिणः ॥ १७८ ॥ तालवृन्तानिलेनाऽम्बुसेकेन च महीपतिः । राज्ञ्यश्च संज्ञामासेदुर्दुःखशल्य प्रतोदनीम् ॥ १७९ ॥ मलिनीभूतवासस्का नेत्रासजलकज्जलैः । छाद्यमानकपोला-ऽक्ष्यो, लुलितालकवल्लिभिः ॥ १८० ॥ उरःस्थलकराघातप्रत्रुटद्धारयष्टयः । निर्भरं भूमिलुठनस्फुटत्कङ्कणमौक्तिकाः ॥ १८१ ॥ धूमं शोकानलस्येवोज्झन्त्यो निःश्वासमुच्चकैः । शुष्यत्कण्ठा धरदला, राजपत्योरुदन्नथ ॥ १८२ ॥ ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ धैर्यं लज्जां विवेकं च, विहायैकपदेऽपि हि । राज्ञीवच्छोकविधुरो, विललापेति भूपतिः ॥ १८३ ॥ हे कुमाराः ! क्व यूयं स्थ १, निवर्तध्वं विहारतः । राज्यायाऽवसरो वोऽद्य, व्रताय सगरस्य तु ॥ १८४ ॥ १ वृत्तान्तेन । २ मरणम् । नेत्राश्रुजल° सङ्घ २ ॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥२६॥ कथं न कोऽपि ब्रूते वः १, सत्यमुक्तं द्विजन्मना । दस्युनेव च्छलझेन, दैवेन मुषितोऽसि ही ॥१८५॥5॥ द्वितीयं पर्व अरे रे दैव! कुत्राऽसि ?, कुत्राऽसि ज्वलनप्रभ! । अक्षत्रमिदमाचर्य, क्वाऽयासी गपांशन! ॥१८॥ सेनापते ! व तेऽगच्छद्दण्डदोर्दण्डचण्डिमा। क्षेमङ्करत्वमगमत् , क्व पुरोहितरन! ते॥१८७॥ सर्ग: गलितं वर्धके ! किंते, दुर्गनिर्माणकौशलम् । गृहिन् ! सञ्जीवनौषध्यः, किं ते कुत्रापि विस्मृताः॥१८८॥ अजितगजरत्न: किमाप्तस्त्वं, तदा गजनिमीलिकाम् ? । अश्वरत्न! समुत्पन्नं, शूलं किं भवतस्तदा ॥१८९॥ सगरयो चरितम् । चक्र-दण्डा-ऽसयो! यूयं, किंतदानीं तिरोहिताः? अभूतां मणि-काकिण्यौ!, निष्प्रभौ किं दिनेन्दुवत् १९० आतोद्यपुटवद् भिन्ने, किं युवां छत्र-चर्मणी!? | नवापि निधयो यूयं, ग्रस्ताः किमनया भुवा? ॥१९॥ युष्मद्विश्वासतोऽशकं, रममाणाः कुमारकाः । सर्वैरपि न यत् त्रातास्तस्मात् पन्नगपांसनात् ॥ १९२ ॥ करोम्येवं विनष्टे किमिदानीं ज्वलनप्रभम् ? । सगोत्रमपि चेद्धन्मि, न हि जीवन्ति मे सुताः॥१९३॥ विलापः ऋषभस्वामिनो वंशे, नैवं कोऽप्यासदन्मृतिम् । त्रपाकरमिमं मृत्यु, हा वत्साः! कथमामत ?॥१९४॥ पूर्व मदीयाः सर्वेऽपि, पुरुषायुषजीविनः । दीक्षामाददिरे वर्गमपवर्ग च लेभिरे ॥ १९५ ॥ खेच्छाविहारश्रद्धाऽपि, भवतां न ह्यपूर्यत । अरण्यानीसमुत्पन्नभूरुहामिव दोहदः॥ १९६ ॥ उदियाय च पूर्णेन्दुर्दैवाद् ग्रस्तश्च राहुणा । फलेग्रहिश्च सञ्जज्ञे, तरुर्भग्नश्च कुम्भिना ॥ १९७॥ ॥२६६॥ आगता च तरी तीरं, भग्ना च तटभूभृता । उन्नतश्च नवाम्भोदो, विकीर्णश्च नभस्वता ॥ १९८॥ १ चौरेणेव । २ खेदे । ३ नागाधम । ४ गजवद् नेग्रनिमीलिकाम् । ५ महदरण्यमरण्यानी। ६ फलवान् । ७ गजेन । ८ नौः । सगरस्थ RRARA Jan Education For Private & Personal use only & Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SRUS निष्पन्नं च व्रीहिवणं, दग्धं च दववहिना । धर्मा-ऽर्थ-कामयोग्याश्च, जाता यूयं हताश्च हा!॥१९९ ॥ ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ प्राप्याऽपि मद्गृहं वत्सा, अकृतार्था गता हहा! । आढ्यस्य कृपणस्येव, वेश्मोपेत्य वनीपकाः ॥२०॥ तदद्य किं मे चक्राये, रत्ननिधिभिरप्यलम् । युष्मान् विना विरहिणो, ज्योत्स्नोद्यानादिकैरिव ॥२०१॥ पटखण्डभरतक्षेत्रराज्येन यदि वाऽसुर्भिः । असुभ्योऽपि प्रियैः पुत्रैर्विनाभूतस्य किं मम ॥ २०२ ॥ एवं विलापिनमथो, भूनाथं श्रावकद्विजः । स बोधयितुमित्यूचे, सुधामधुरया गिरा ॥ २०३॥ धात्र्याः परित्राणमिव, प्रबोधोऽपि तवाऽन्वये । मुख्याधिकारसम्प्राप्तो, मुधाऽन्यैर्देव! बोध्यसे ।।२०४॥ जगन्मोहार्यमा यस्य, साक्षाद् भ्राताजितप्रभुः। अन्येन बोध्यमानस्य, तस्य लज्जा न किं तव ॥२०५॥ असावसारः संसारो, ज्ञाप्यतेऽन्यस्य ते पुनः । जन्म प्रभृति सर्वज्ञसेवकस्य किमुच्यते ॥ २०६॥ पितरो मातरो जायास्तनयाः सुहृदोऽपि च । स्वप्नदृष्टोपमं राजन्, संसारे सर्वमप्यदः ॥२०७॥ यत प्रातस्तन्न मध्याह्ने, यन्मध्याह्ने न तनिशि । निरीक्ष्यते भवेऽस्मिन् ही!, पदार्थानामनित्यता ॥२०८॥ तत्त्ववित् स्वयमेवासि, स्खं धैर्ये स्थापय स्वयम् । रविणा द्योत्यते विश्वं, नाऽपरो द्योतको रवेः ॥२०९॥ लवणोद इवाऽम्भोधिर्मणिभिलवणेन च । पक्षमध्यतमिस्रेवाऽऽलोकेन तिमिरेण च ॥ २१०॥ राकानिशाकर इव, ज्योत्स्नया लाञ्छनेन च । हिमाद्रिरिव दिव्याभिरोषधीभिर्हिमेन च ॥ २११॥ तद् विप्रवचनं शृण्वन् , पुत्रान्तं च मुहुः सरन् । बोधेन च विमोहेन, चानशे पृथिवीपतिः॥२१२ ॥ ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ १ याचकाः। २ प्राणैः। ३ जगतां मोहनाशने सूर्यसमः। ४ पूर्णिमाचन्द्रः । अपरिचितेन द्विजेन सगरस्थाश्वासनम् Jain Education a l For Private & Personal use only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते द्वितीयं पर्व षष्ठः सर्गः अजितसगरयोचरितम् । ॥२६७॥ यथा नैसर्गिकं धैर्य, महत तस्य महीपतेः। मोहोऽप्यागन्तुको जज्ञे, पुत्रक्षयभवस्तथा ॥ २१३ ॥ एककोश इव खड्गावेकस्तम्भ इव द्विपौ । प्रबोध-मोहौ युगपत् , तदा राज्ञि बभूवतुः॥ २१४ ॥ अथ बोधयितुं भूपं, सुबुद्धिर्नाम बुद्धिमान् । वाचा पीयूषसध्रीच्येत्युवाच सचिवाग्रणीः ॥ २१५॥ अम्भोधयोऽपि मर्यादा, लङ्घयेयुः कदाचन । आसादयेयुः कम्पं च, कदाचन कुलाचलाः॥ २१६॥ अवाप्नुयात् तरलतां, कदाचिदपि मेदिनी । अपि जर्जरतां वज्रमश्नुवीत कदाचन ॥ २१७ ॥ त्वादृशास्तु महात्मानो, व्यसनेषु महत्स्वपि । उपस्थितेषु वैधुर्य, न भजन्ते मनागपि ॥ २१८॥ ॥त्रिभिर्विशेषकम् ।। क्षणाद् दृष्टं क्षणान्नष्टं, कुटुम्बाद्यखिलं भवे । विवेकिन इति ज्ञात्वा, न मुह्यन्ति यथा शृणु ॥ २१९ ॥ जम्बूद्वीप इह द्वीपे, क्षेत्रे भरतनामनि । कसिंश्चिन्नगरे कोऽपि, पुराऽभूत् पृथिवीपतिः ।। २२०॥ जिनधर्मसरोहंसः, सदाचारपथाध्वगः । प्रजामयुरीजलदो, मर्यादापालनाम्बुधिः ॥ २२१॥ सर्वव्यसनकक्षाग्निर्दयावयेकपादपः । कीर्तिकल्लोलिनीशैलः, शीलरत्नैकरोहणः ॥ २२२ ॥ स एकस्मिन् दिने स्वस्थामास्थान्यां सुखमास्थितः । यथाक्षणं विज्ञपयाम्बभूवे वेत्रपाणिना ॥ २२३ ॥ पुष्पदामकरो द्वारि, कलाविदिव कोऽपि ना । विज्ञीप्सुः किश्चिद्यैव, देवपादान् दिदृक्षते ॥ २२४ ॥ पण्डितः किं कविः किंवा, गन्धर्वः किं नटोऽथ किम् । छान्दसो वा नीतिविद्वाऽस्त्रविद् वाऽथेन्द्रजालिकः॥ इति न ज्ञायते ज्ञातं, त्वाकृत्या गुणवानिति । यत्राऽऽकृतिस्तत्र गुणा, इत्यर्भा अप्यधीयते ॥ २२६ ॥ १ अमृतसमानया। २ सर्वव्यसनतृणवह्निः । २ सभायाम् । सगरप्रतिबोधाय सुद्धिमयुक्तं तानिकोदाहरणम् ॥२६७॥ Jan Education in . Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GEOGRAXA आदिदेश विशामीशोऽप्येनमानय सत्वरम् । यथा विज्ञपयत्येष, यथेच्छ स्वमभीप्सितम् ॥ २२७॥ नृपादेशादनुज्ञातो, वेत्रिणा स तदा पुमान् । बुधोऽर्कमण्डलमिव, नृपास्थानीमथाऽविशत् ॥ २२८ ॥ रिक्तहस्तो न कुर्वीत, स्वामिदर्शनमित्यसौ । भृभुजे सुमनोदाम, मालाकार इवाऽऽर्पयत् ॥ २२९॥ वेत्रिणा दर्शिते स्थाने, ततोऽसौ रचिताञ्जलिः। निषसादाऽऽसनायुक्तैर्दत्ते तदुचितासने ॥ २३०॥ किञ्चिदुन्नमितैकभ्रूः, स्मितस्तवकिताधरः । सप्रसादमभाषिष्ट,तमेवं पृथिवीपतिः॥२३१॥ विप्र-क्षत्रिय-विट्-शूद्रवर्णेभ्यः कतमोऽसि भो ? । अम्बष्ठ-मागधादिभ्यो, मिश्रेभ्यो वाऽसि कश्चन १२३२ तत्र कि श्रोत्रियोऽसि त्वमसि पौराणिकोऽथवा ? । मार्तो वा ? मौहूर्तो वाऽसि ?, त्रिविद्याविदुरोऽसि वा?॥ चापाचार्योऽसि यदि वा ?,चर्मा-ऽसिचतुरोऽसि वा । किंवा प्रासे कृताभ्यासः?,शल्ये वा प्राप्तकौशलः १२३४ | यद्वा गदायुधज्ञोऽसि ?, यदि वा दण्डपण्डितः । प्रकृष्टशक्तिः शक्तौ वा?, मुसले कुशलोसिवा ? ॥२३५॥ निरर्गलो लाङ्गले वा, चक्रे वा प्राप्तविक्रमः? । कृपाण्यां निपुणो वाऽसि ?, बाहुयुद्धेऽथ वा पटुः१॥२३६॥ यद्वाऽश्वहृदयज्ञोऽसि?, गजशिक्षाक्षमोऽसि वा? किं व्यूहरचनाचार्यः?, किं वाऽसि व्यूहभेदकः॥२३७|| किं वा स्थादिकर्ताऽसि ?, रथादिप्राजकोऽसि वा?। रजत-स्वर्ण-शुल्वादिधातूनां घटकोऽसि वा॥२३८॥ चैत्य-प्रासाद-हादिनिर्माणनिपुणोऽसि वा? । विचित्रयन्त्र-दुर्गादिरचनाचतुरोऽसि वा ॥ २३९ ॥ सांयात्रिककुमारः किं ?, सार्थवाहसुतोऽथवा? । किं वा सौवर्णिकोऽसि त्वमसि वैकेटिकोऽथवा ॥२४॥ शून्यहस्तः। २ आसनाधिकारिभिः। * विद्यविदु ढं०॥ ३ ऋग्-यजुः-सामवेदेषु निपुणः। ४ फलका-ऽसिविद्याप्रवीणः । ५ कुन्तविद्यायाम् । ६ सारथिः । ७ ताम्रम्। ८ पोतवणिपुत्रः । ९ मणिकारः। Jain Education Inter For Private & Personal use only es Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते ॥२६८॥ Jain Education Intern किं वा वीणाप्रवीणोऽसि ?, किं वेणुनिपुणोऽसि वा ? । पटुः पटहवाद्ये वा १, मर्दले वाऽसि दुर्मदः १ ॥ २४१ ॥ यद्वा वकारोऽसि ?, किं शिक्षागाय नोऽसि वा ? । रङ्गाचार्योऽथवाऽसि त्वं १, किं नाटकनटोऽसि वा १ ॥ अथ वैतालिकोऽसि त्वं ?, नग्नाचार्योऽथवाऽसि किम् ? । संशप्तकोऽसि यदि वा ?, चारणो यदि वाऽप्यसि १ ॥ लिपिज्ञलेखको वा किमसि ? चित्रकरोऽथवा ? । अथ पुस्तकरो वा त्वमन्यो वा कोऽपि शिल्प्यसि ? ॥ २४४ ॥ नदी-नद नदीनाथतरणे वा कृतश्रमः ? । मायेन्द्रजाल - कुहक प्रयोगचतुरोऽसि वा ? ।। २४५ ।। एवं वसुमतीनाथेनाऽनुयुक्तः स सादरम् । भूयोऽपि हि नमस्कृत्य, सप्रश्रयमदोऽवदत् ॥ २४६ ॥ पाथसामिव पाथोधिरादित्यस्तेजसामिव । सर्वेषां पात्रभूतानां त्वमाधारो धराधव ! ॥ २४७ ॥ वेदादिशास्त्रविज्ञेषु, सँहाधीतीव तादृशः । धनुर्वेदादिविद्वत्सु, तदाचार्य इवाऽधिकः ॥ २४८ ॥ प्रत्यक्षो विश्वकर्मेव, विश्वस्मिन् शिल्पकर्मणि । सरस्वतीव पुंरूपा, गीतादिककलासु च ॥ २४९ ॥ रत्नादिव्यवहारेषु, पितेव व्यवहारिणाम् । बन्धादीनामुपाध्याय, इव वाग्मितयाऽस्मि च ।। २५० ॥ नद्यादिवारितरणं, कलालेशः कियान् मम ? । इन्द्रजालप्रयोगार्थं, किन्त्वस्मि त्वामुपागतः ।। २५१ ॥ अहं हि सद्य उद्यानवीथिकां दर्शयामि ते । मध्वादीनां परावर्तमृतूनां कर्तुमीश्वरः ॥ २५२ ॥ गन्धर्ववर्गसङ्गीतं, व्योमन्याविष्करोमि च । क्षणाददृइयो दृश्यो वा निमेषान्तर्भवाम्यहम् ॥ २५३ ॥ भक्षयाम्यहमङ्गारान् खादिरानपि सक्तुवत् । चर्वयामि मुकवत्, तप्तायस्तोमरानपि ॥ २५४ ॥ १ मुखेन गायकः । २ स्तुतिपाठकः । ३ युद्धादनिवर्त्तनप्रतिज्ञाकारी । ४ मृन्मयरूपघटकः । ५ सहाध्यायी । ६ सर्वस्मिन् । ७ पूगफलवत् । ८ अस्त्रविशेषान् । द्वितीयं पर्व षष्ठः सर्गः अजित सगरयो - श्चरितम् । सगरप्रतिबो धाय सुबुद्धिमयुक्तं तात्रिकोदाहरणम् ॥२६८ ॥ . Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम्भश्चर-स्थलचर-खचराणां परेच्छया । भवामि रूपान्तरभृदेकधाऽनेकधाऽप्यहम् ॥ २५५ ॥ पदार्थमिष्टमाकृष्य, दरादप्यानयामि च । सद्यो वर्णान्तराधानं, पदार्थानां करोमि च ॥ २५६॥ आश्चर्यभूतान्यन्यानि, सद्यो दर्शयितुं क्षमः । कलाभ्यासप्रयास मे, तद् दृष्ट्वा सफलीकुरु ॥ २५७॥ एवमुच्चैः प्रतिज्ञाय, गर्जित्वेव बलाहकम् । तस्थिवांसं पुमांसं तं, व्याजहारेति भूपतिः॥२५८॥ आखोराकर्षणकृते, मलात खात इवाऽचलः । मत्स्यादिग्रहणायेव, शोषितं विपुलं सरः॥२५९॥ सहकारोद्यानमिव, च्छिन्नमिन्धनहेतवे । चन्द्रकान्तोपल इव, निर्दग्धश्चूर्णमुष्टये ॥ २६० ॥ पाटितं व्रणपट्टाय, देवदूष्यमिवांऽशुकम् । उत्कीलितं देवकुलं, कीलिकार्थमिवोच्चकैः ॥ २६१॥ शुद्धस्फटिकसङ्काशः, परमार्थार्जनोचितः । अहो ! त्वयाऽपविद्यायै, कियदात्मा कदर्थितः ॥ २६२॥ ॥चतुर्भिः कलापकम् ॥ तवाऽपविद्यामीक्षामवलोकयतामपि । धीभ्रंशो जायते प्राप्तसन्निपातरजामिव ॥ २६३॥ याचकोऽसि गृहाणार्थमेवमेव यथेप्सितम् । आशाभङ्गो न कस्यापि, क्रियते मत्कुले यतः॥२६४ ॥ एवं स राज्ञाभिहितः, परुपं पुरुषस्ततः । सदा पुरुषमानीति, गूढरोषमभाषत ॥ २६५॥ अन्धोऽस्मि बधिरोवामि, पङ्गुरस्म्यस्मि वा कुणिः । क्लीबो वाऽसि दयापात्रमपरः कश्चिदमि वा ॥२६६॥ अदर्शयित्वा स्वगुणमकृत्वा च चमत्कृतिम् । त्यागं ते त्यागकल्पद्रोरपि गृह्णाम्यहं कथम् ? ॥ २६७ ॥ खस्त्यस्तु तुभ्यं तुभ्यं च, नमस्कारो ममेषकः । अयमन्यत्र यास्यामीत्यभिधाय स उत्थितः ॥ २६८ ॥ २ मेघम् । २ पापविद्याकृते । ३ हस्तरहितः। ४ दानम् । Jain Education Internal For Private & Personal use only Miww.jainelibrary.org Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय पर्व षष्ठः त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥२६९॥ सर्गः अजितसगरयोश्चरितम् । भूभुजा खस्य कार्पण्यदोषारोपणभीरुणा । पुरुषैर्धार्यमाणोऽपि, निर्ययौ पुरुषोऽथ सः ॥ २६९ ॥ स्वामिनाथं दीयमानमसौ नाऽऽदत्त कोपतः । दातैवाऽसीति राज्ञो हीरपजहे स्वपूरुषैः ॥ २७ ॥ _ विप्रवेषमुपादाय, स एव पुरुषोऽन्यदा । उपायनकरस्तस्थौ, द्वारि तस्यैव भूपतेः ॥ २७१॥ तथैव राज्ञे विज्ञप्तः, स द्वाःस्थेन तथास्थितः । धर्मोऽसौ प्रतिहाराणां, द्वारागतनिवेदनम् ॥ २७२ ।। आदेशाद् भूपतेस्तस्य, सभायां तत्र वेत्रभृत् । आयुक्तपुरुषैराशु, तं पुमांसमवीविशत् ॥ २७३ ॥ स स्थित्वा भूपतेरग्रे, समुन्नमितपाणिकः । आर्यवेदोदितान् मत्रानपठत् सपदक्रमम् ॥ २७४ ॥ मन्त्रपाठावसाने च, वेत्रिसन्दर्शितासने । निषसाद प्रसादादृशा राज्ञा निरीक्षितः ॥ २७५॥ कस्त्वं? किमागतोऽसीति, पृष्टश्च पृथिवीभुजा । कृताञ्जलिरुवाचैवमग्रणीः सोऽग्रंजन्मनाम् ॥ २७६ ॥ ज्ञानानामिव मूर्तानां, सद्गुरूणामुपासनात् । अवाप्तसम्यगाम्नायो, राजन् ! नैमित्तिकोऽस्म्यहम् ॥२७७॥ अष्टाधिकरणीग्रन्थान् , फलग्रन्थानथाऽखिलान् । जातकं गणितग्रन्थान् , जानामि निजनामवत् ॥ २७८॥ सन्तं भूतं भविष्यन्तमर्थ सर्व नरेश्वर! । तपःसिद्धो मुनिरिवाऽव्याहतं कथयाम्यहम् ॥ २७९ ॥ __अन्वयुक्त ततो राजा, यदस्मिन् समये द्विज!। यद्भावि तत् कथय भो', ज्ञानस्य प्रत्ययः फलम्॥२८॥ द्विजोऽपि कथयामास, वासरे सप्तमेऽर्णवः। जगदेकार्णवीकृत्य, प्रलयं प्रापयिष्यति ॥ २८१॥ तद्वाचा विस्मय-क्षोभौ, बिभ्राणो युगपन्नृपः । नैमित्तिकानामन्येषामीक्षाञ्चके मुखान्यथ ॥ २८२॥ राज्ञा भ्रूसंज्ञया पृष्टा, रुष्टा दुर्घटया तया । द्विजवाचा सोपहासमूचुनैमित्तिकास्तु ते ॥ २८३ ॥ ऊर्ध्वबाहुः। २ ब्राह्मणानाम् । ३ अस्खलितम् । सगरप्रतिबोधाय सुबुद्धिमयुक्तं तानि. कोदाहरणम् ॥२६९॥ - JainEducation in For Private & Personal use only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असावभिनवः कोऽपि, जज्ञे ज्योतिपिको यदि।ज्योति शास्त्राण्यपि स्वामिन् !, जज्ञिरे नूतनानि किम्?॥२८४ एप येषां प्रमाणेन, विश्वमेकार्णवं जगत् । करिष्यत्यर्णव इति, ब्रूते श्रवणदुःश्रवम् ॥ २८५ ॥ बभूवुर्ग्रह-नक्षत्र-तारा अपि हि किं नवाः? । येषां वक्रातिचारादिप्रमाणादेष वक्त्यदः॥२८६ ॥ सर्वज्ञशिष्यगणभृद्रथितद्वादशाङ्गतः । ज्योतिःशास्त्राणि यानीह, नैवं तदनुमानतः ॥ २८७॥ अमी तच्छास्त्रसंवादभाजो येऽर्कादयो ग्रहाः। तेषामप्यनुमानेन, मन्महे नेदृशं वयम् ॥ २८८ ॥ जम्बूद्वीपपरिक्षेपी, यश्चाऽयं लवणार्णवः । सोऽपि त्वमिव मर्यादां, जातुचिन्न हि लवते ॥२८९॥ आकाशाद् भूमिमध्याद् वा, कश्चिदुत्पद्य नूतनः । करिष्यत्यर्णवो विश्वमिदमेकार्णवं यदि ॥२९० ॥ । अयं साहसिकः किं वा, पिशाचाधिष्ठितोऽथवा। मत्तो वा यदि वोन्मत्तो, वातूलो वा निसर्गतः ॥२९॥ अकालं चाऽऽगमेऽधीती, किमपस्मारवानथ ? । यदीदृशमसम्बद्धमभिधत्ते निरर्गलः ॥२९२ ॥ युग्मम् ॥ स्थिरः सुमेरुवत् स्वामी, भूवत् सर्वसहश्च यत । दृष्टैः प्रकटमीक्षं, स्वच्छन्दैस्तदुदीयते ॥ २९३ ॥ सामान्यस्यापि पुरतो, नेदृशं वक्तुमीश्यते । कोप-प्रसादशक्तस्य, किं पुनः खामिनः पुरः ॥ २९४ ॥ वचसो दुर्वचस्याऽस्य, वक्ता धीरः किमेष वा। धीरः किमथवा श्रोता, यः श्रुत्वापि न कुप्यति ॥२९५॥ ईदृक्षमपि चेत् स्वामी, श्रद्धत्ते श्रद्दधातु तत । विना विप्रतिपत्तिं च, प्रत्येतव्यमदोपि हि ॥ २९६ ॥ पर्वता उत्पतन्त्युच्चैराकाशे कुसुमानि च । वैश्वानरः शीतरुचिर्वन्ध्यायाश्च स्तनन्धयः॥ २९७ ॥ चक्रीवतो विषाणं च, दृषदस्तरणं जले । अवेदना नारकाच, नो चेदस्याऽपि वाक् तथा॥२९८॥ युग्मम् ॥ १ कुशलः। २ अग्निः । ३ पुत्रः। ४ गर्दभस्य । CLOUCASUSASCALUCSK Jain Education a l For Private & Personal use only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते सर्गः ॥२७०॥ अजितसगरयोचरितम्। SORROLOGERMUSAL ततो युक्तमयुक्तं च, विदन्नपि महीपतिः। तस्य नैमित्तिकस्याभिमुखमैक्षिष्ट कौतुकात ॥ २९९ ॥ ___अथ नैमित्तिकः सोऽपि, सोपहासगिरा तया । नुन्नः प्रवयणेनेव, सावष्टम्भमदोऽवदत् ॥ ३०॥ राजन् ! सभायां भवतः, किं नर्मसचिवा अमी? । वासन्तिकाः किमथवा ?, किमथ ग्रामपण्डिताः॥३०॥ सभ्याः सभाया भवतोऽप्येवंप्रायाः प्रभो! यदि । निराश्रया सती हन्त !, तदा दग्धा विदग्धता ॥३०२॥ तव विश्वविदग्धस्य, मुग्धैरेभिः समं कथम् । गोष्ठी हा! मृगराजस्य, मृगधू रिवोचिता? ॥ ३०३॥ समं कुलक्रमेणैव, समायाता अमी यदि । स्त्रीवत् पोषणमात्रं तदर्हन्त्यल्पधियोपि हि ॥३०४॥ न सभायामासयितुं, सभ्यत्वेनोचिता अमी । स्वर्ण-माणिक्यघटिते, किरीटे काचखण्डवत् ॥ ३०५॥ रहस्यं न हि जानन्ति, शास्त्रवाचां मनागपि । गर्विताः पाठमात्रेण, किन्त्वमी शुकवत् सदा ॥ ३०६॥ वाच उत्फुल्लगल्लानां, पल्लवग्राहिणामिमाः । ये जानन्ति रहस्यार्थ, परिभाव्य वदन्ति ते ॥ ३०७॥ उष्ट्रपृष्ठसमारूढः, कुतुपः सार्थवाहिनः । देशाद् देशान्तरं याति, पन्थानं किमु वेत्ति सः? ॥ ३०८॥ तुम्बैः कक्षाविनिक्षिप्तैर्निम्नगायां सरस्यथ । तरत्यतारकोऽप्यम्भस्तरीतुं किं नु वेत्ति सः ॥ ३०९ ॥ गुरुवागनुवादेन, शास्त्राण्येतेऽप्यधीयते । रहस्यभूतमर्थं तु, न जानन्ति मनागपि ॥ ३१०॥ अश्रद्धेयं मम ज्ञानममीषां यदि दुर्धियाम् । मज्ज्ञानप्रत्ययाघार्टः, किं दूरे सप्तवासरी? ॥ ३११॥ जगदेकार्णवीकृत्य, पर्यस्तैर्निजवारिभिः । सत्यापयति मद्वाचं, भगवांश्चेन्महार्णवः ॥३१२ ॥ तदमी पारिषद्यास्ते, ज्योतिर्ग्रन्थार्थवेदिनः । उत्पतिष्णून पक्षिवत किं, दर्शयिष्यन्ति पर्वतान् ? ॥३१३॥ १ प्रतोदेन प्रेरितः । २ विदूषकाः । ३ शृगालैः । ४ पदलवग्राहिणाम् । ५ चर्मपात्रम् । * न ज्ञान सं ॥ ६ सीमा । सगरप्रतिबो| धाय सुबुद्धिमन्युक्तं तान्त्रि| कोदाहरणम् ॥२७॥ Jain Education Inter For Private & Personal use only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रुमवद् दर्शयिष्यन्ति,खे पुष्पाण्यग्निमम्बुवत् । किं नु स्प्रक्ष्यन्ति वन्ध्या या,लप्स्यन्ते धेनुवत् सुतम्॥३१४॥ विषाणिनं महिषवत् , किमानेष्यन्ति रासभम् ? । तरीवत् तारयिष्यन्ति, किं पाषाणान् जलाशये?॥३१५॥ अवेदनान् नारकांच, भाषमाणा इमे जडाः । किमन्यथा करिष्यन्ति, ग्रन्थान् सर्वज्ञभाषितान् ?॥३१६॥ ॥ पञ्चभिः कुलकम् ॥ धृतस्त्वत्पुरुषैरत्राऽवस्थास्ये सप्त वासरान् । न खल्वेवमष्टम्भं, कुर्वन्त्यनृतभाषिणः ॥ ३१७ ॥ सत्यं न चेन्मम वचः, सप्तमेऽह्नि भवेन्नृप । निग्राहणीयः श्वपचैरहं तस्करवत् तदा ॥ ३१८ ॥ राजाऽपि खानुवाचैवं, ब्राह्मणस्याऽस्य गीरियम् । अनिष्टा दुर्घटा वा संवादिन्यपि च यद्यपि ॥३१९॥ तथाऽपि सप्ताहोरात्रान् , मनः सन्देग्धि हन्त ! नः। भविष्यति तदन्तेऽस्य, सत्या-ऽसत्यविवेचनम् ॥३२०॥ ॥ युग्मम् ॥ इत्युक्त्वा न्यासमिव तं, नृपतिः स्वाङ्गरक्षिणाम् । द्विजं समर्पयामास, पर्षदं विससर्ज च ॥३२१॥ महत् कुतूहलमहो', द्रष्टव्यं सप्तमे दिने । उन्मत्तभाषी विप्रोऽयं, तदहो! निहनिष्यते ॥ ३२२ ॥ ही! स्याद् युगान्तः को ह्येवमन्यथा मृत्यवे वदेत् ? । एवं तदानीमभवद , विचित्रा नागरोक्तयः॥३२३॥ ॥ युग्मम् ॥ आश्चर्य दर्शयिष्यामि, सम्प्राप्तेऽहनि सप्तमे । इत्युत्सुको द्विजः कष्टं, पड़ दिनान्यत्यवाहयत् ॥ ३२४ ॥ राजाऽपि संशयच्छेदोत्कण्ठितो गणयन् मुहुः । कथञ्चिदतिचक्राम, पण्मासानिव षड् दिनान् ॥ ३२५ ॥ अस्थिरताम् । २ चाण्डालैः। Jan Education For Private & Personal use only | Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥२७१॥ चन्द्रशालास्थितो राजा, सप्तमेऽहन्युवाच तम् । पूर्णोऽवधिस्त्वदीयस्य, वचसो जीवितस्य च ॥ ३२६ ॥ द्वितीय पर्व प्रलयाय त्वयाऽऽख्यातः, समुद्धान्तो महार्णवः। स दरे तावदद्यापि, जललेशोऽपि नेक्ष्यते ॥३२७॥ सर्वप्रलयशंसित्वात् , तव सर्वोऽपि वैर्यहो!। अनृतायां प्रतिज्ञायां, निग्रहाय यतिष्यते ॥ ३२८॥ सर्ग: भवता जन्तुमात्रेण, निगृहीतेन किं मम । इदानीमपि गच्छ त्वमुन्मत्तेन त्वयोदितम् ॥ ३२९ ॥ अजितवराको मुच्यतामेप, मेषवद् यात्वसौ सुखम् । इत्यात्मरक्षकानुच्चैरादिदेश विशाम्पतिः ॥ ३३०॥ सगरयोविप्रोऽपि प्रत्युवाचैवं, मितविच्छरिताधरः। युक्तं प्राणिषु कारुण्यं, सर्वेष्वपि महात्मनाम् ॥ ३३१॥ श्चरितम्। किन्तु नाऽद्यापि करुणापात्रमस्मि महीपते। न यावदनृतीस्थान्मे, प्रतिज्ञा सा तदोदिता ।। ३३२ ॥ अनृतायां प्रतिज्ञायां, मद्धस्य त्वमीशिषे । वधार्ह मां तदा मुञ्चन् , कृपावानुच्यसे नृप!॥ ३३३॥ मुक्तोऽपि नाऽहं यास्यामि, स्थास्यामि धृतवत् पुनः । स्तोकमेवान्तरं विद्धि, प्रतिज्ञापूरणे मम ॥ ३३४ ॥ सगरप्रतिबोक्षणमात्र प्रतीक्षवाऽत्रैव प्रेक्षख च क्षणात । उदस्तोदन्वदल्लोलान , यमस्येवाऽग्रसेनिकान् ।। ३३५॥ धाय सुबुद्धि मज्युक्तं तानि. नैमित्तिकसदस्यान खान , कुरुष्व क्षणसाक्षिणः । भविष्यामः क्षणादृर्द्ध, नाऽहं न त्वं न चापि ते ॥३३६॥दाकोदाहरणम् अभिधायेति तूष्णीकस्तस्थौ नैमित्तिकोऽथ सः। अव्यक्तः शुश्रुवे चोचैर्मृत्युगर्जिरिव ध्वनिः॥ ३३७॥ आकस्मिकं महाध्वानं, तमातङ्कविधायिनम् । आकर्ण्य तस्थुरुत्कर्णाः, सर्वे वनमृगा इव ॥ ३३८ ॥ ॥२७॥ किश्चिदुन्नमितग्रीवः, किञ्चिदुच्छ्स्य चाऽऽसनात । किञ्चिद् वक्रोष्टिंकां कुर्वनित्यूचे स पुनर्द्विजः॥३३९॥ ध्वनिराकण्येतां राजन् !, रोदसी पूरयन्त्रयम् । भम्भाध्वनिस्तवेवाम्भोनिधेः प्रस्थानसूचकः ॥ ३४०॥ १ हास्य व्याप्ताधरः । २ महाकल्लोलान् । ३ पीडाकरम् । ४ मन्दहास्यम् । Jain Education a l For Private & Personal use only का Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिपटि ४७ Jain Education Inter यस्य वारिलवेनाऽपि, गृहीतेन घनाघनाः । लावयन्ति महीं सर्वां, पुष्करावर्तकादयः ॥ ३४१ ॥ स मर्यादां समुल्लङ्घ्य, स्वयं प्रचलितोऽधुना । अम्भोधिः ठावयन्नुर्वीमवार्यः प्रेक्ष्यतामयम् ॥ ३४२ ॥ बिभर्ति गर्तान् मनाति, वृक्षान् स्थगयति स्थलीः । गिरीनप्यन्तरयति, दुर्वारो हन्त ! वारिधिः ॥ ३४३ ॥ वायोर्वेश्मप्रवेशादि, ज्वलनस्य पुनर्जलम् । प्रतीकारोऽस्ति जलधेश्वलितस्य पुनर्न हि ॥ ३४४ ॥ इति ब्रुवाणं ब्रह्माणं, पश्यतस्तं महीपतेः । मृगतृष्णाम्बुवद् दूराद्, विष्वगाविरभूञ्जलम् ॥ ३४५ ॥ सौप्तिकेनेव विश्वस्तं विश्वं संहृतमन्धिना । हा हेत्याक्रोशिनो दीनाः सर्वे ददृशुरुन्मुखाः || ३४६ ॥ अथ राज्ञः पुरोभूय, सोऽङ्गुल्या दर्शयन् द्विजः । प्लाव्यमानं लाव्यमानं, शशंसेति नृशंसवत् ॥ ३४७ ॥ निरीक्षन्ताममी भो भोः !, सर्वे प्रत्यन्तपर्वताः । पिधीयन्ते पयोराशेः, पयोभिस्तिमिरैरिव ॥ ३४८ ॥ मन्ये प्रोन्मूलितान्यद्भिः, सर्वाण्यपि वनानि तु । दृश्यन्ते यत् तरन्तोऽमी, तरवो नक्रचक्रवत् ॥ ३४९ ॥ अत्युग्रमाकर - पुरादिकम् । इदमम्भोनिधेरम्भो, धिगहो । भवितव्यता ॥ ३५० ॥ पुरीपरिसरोद्यानान्यपीदानीं निरर्गलैः । पिहितान्यम्बुधेस्तोयैः, पिशुनैरिव सद्गुणाः ॥ ३५१ ॥ प्राकारवलयेऽमुष्मिन्नालवाल इवाऽधुना । धुनीपतेर्ध्व नन्नी रमास्फलत्युच्चकैर्नृप ! ।। ३५२ ।। अयमुल्लङ्ग्यते वप्रः, क्षिप्रं प्रसृमराम्भसा । रभसादश्ववारेणाऽश्व इवाऽतितरखिना ॥ ३५३ ॥ पश्यैतत् पूर्यते सर्व सप्रासादं समन्दिरम् । अम्भोधेरेवमम्भोभिः प्रचण्डैः कुण्डवत् पुरम् ॥ ३५४ ॥ वेश्मद्वारे तवेदानीमश्वसैन्यमिवोल्ललत् । शब्दायमानमुद्दामं, देवाऽऽपतति वार्यदः ॥ ३५५ ।। १ रात्रियुद्धेन । २ वारिभिः । ३ समुद्रस्य । ४ अतिवेगवता । . Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय पर्व 'त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते ॥२७२॥ सगे अजितसगरयो चरितम् । मनस पत्तनस्याऽस्याऽवशेषः पृथिवीपते ।। अन्तरीप इवाऽयं ते, प्रासादः प्रेक्ष्यतेऽधुना ॥ ३५६ ॥ अध्यारोहति सोपानवीथीषु च पयोऽस्खलत् । तव प्रसाददुर्मत्तमिव सेवक-राजकम् ॥ ३५७॥ पूरिता प्रथमा भूमिद्वितीयाऽप्यद्य पूर्यते । तामापूर्य तृतीयापि, पूर्यते भूमिरम्भसा ॥ ३५८॥ चतुर्थी पञ्चमी षष्ठी, चापि भूः पश्यतोऽपि हि । अहो! क्षणार्धमात्रेण, पूरिता वार्धिवारिभिः ॥३५९॥ विषवेगैरिवाऽम्भोभिराक्रान्तस्याऽस्य समनः । शिरोगृहं शिर इव, शरीरस्याऽवशिष्यते ॥ ३६०॥ उपस्थितो युगान्तोऽयमुक्तपूर्वीदमस्म्यहम् । व ते सदस्यास्ते राजन्!, ये मां हैसितपूर्विणः १॥३६१॥ ततश्च विश्वसंहारशोकाद् राजापि सत्वरम् । झम्पादानार्थमुत्थायाऽवनात् परिकरं दृढम् ॥ ३६२॥ प्लवङ्गम इवोत्पत्य, ददौ झम्पां महीपतिः । स्खं च सिंहासनासीनं, तं चाऽपश्यत् तथास्थितम् ॥३६३॥ ययौ च क्वचिदप्यम्भस्तदम्भोधेः क्षणादपि । तस्थौ च विस्मयस्मेरलोचनः स महीपतिः॥३६४॥ अभग्नाभुग्नवृक्षा-द्रि-प्राकार-भवनादिकम् । ईक्षाश्चके तथावस्थं, विश्वं विश्वम्भरापतिः॥ ३६५॥ मायानैमित्तिकः सोऽपि, कट्यामाबध्य मर्दलम् । आस्फालयन् वपाणिभ्यां, पपाठेति ससम्मदः॥३६६॥ इन्द्रजालप्रयोगादौ, नमामि चरणाम्बुजे । इन्द्रजालकलास्रष्टुर्वज्रिणः शम्बरस्य च ॥ ३६७ ॥ निजसिंहासनासीनस्ततः स पृथिवीपतिः। किमेतदिति साश्चर्यो, द्विजन्मानमभाषत ॥ ३६८॥ अवदद् ब्राह्मणोऽप्येवं, निःशेषाणां कलाविदाम् । गुणप्रकाशी राजेति, पुराऽसि त्वामुपस्थितः॥३६९॥ इन्द्रजालं मतिभ्रंशकारीति न्यकृतस्त्वया । प्रदीयमानमप्यर्थमनादाय गतोऽस्म्यहम् ॥ ३७॥ द्वीप इव । २ पूर्व हसितवन्तः । ३ अभुम्ना अनताः। ४ देवविशेषः । ५ तिरस्कृतः। सगरप्रतिबोधाय सुबुद्धिमज्युक्तं तानि. | कोदाहरणम् ॥२७२॥ Jain Education inte For Private & Personal use only , Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Internacial अर्थे भूयस्यपि प्राप्ते, गुणार्जनभवः श्रमः । न याति गुणिनां किन्तु, गुणज्ञानेन गच्छति ॥ ३७१ ॥ अद्य नैमित्तिकीभूय, च्छलेनाऽप्यमुना मया । इन्द्रजालकलाभ्यासं, ज्ञापितोऽसि प्रसीद मे ॥ ३७२ ॥ सदस्या न्यक्कृतास्ते यच्चिरं यत् त्वं च मोहितः । राजन् ! सहस्व तत् सर्वं नाऽपराधोऽस्ति तत्त्वतः ॥ ३७३ ॥ इत्युदित्वा स्थिते तस्मिन् पार्थिवः परमार्थवित् । निजगादेति पीयूषस्यन्दसोदरया गिरा ॥ ३७४ ॥ राजानं राजसभ्यांश्च, न्यक्कार्षमिति चेतसि । मास्म भैषीरहो ! विप्रोपकारी परमोऽसि मे ।। ३७५ ॥ इन्द्रजालमिदं ह्यद्य, दर्शयित्वा त्वया द्विज ! । तत्तुल्यमेतं संसारमसारं ज्ञापितोऽस्म्यहम् ॥ ३७६ ॥ दृष्टनष्टमिदं यद्वत्, त्वयाऽऽविर्भावितं जलम् । तद्वत् पदार्थाः सर्वेऽपि, संसारेऽद्यापि का रतिः १ ॥ ३७७॥ चिरमित्यादिसंसारदोषान् व्याहृत्य भूपतिः । कृतार्थीकृत्य तं विप्रं प्रव्रज्यामाददे स्वयम् ॥ ३७८ ॥ तदिन्द्रजालरूपोऽयं, भवोऽस्माभिरनूद्यते । प्रभो ! वेत्सि स्वयं हि त्वं, सर्वज्ञकुलचन्द्रमाः ॥ ३७९ ॥ वाचस्पतिमतिर्वाचा, शोकॅशल्य विशल्यया । इत्युवाच द्वितीयोऽपि, मन्त्री नृपतिपुङ्गवम् ॥ ३८० ॥ इहैव भरतक्षेत्रे, कस्मिन्नपि पुरे पुरा । बभूव नृपतिः कोऽपि, विवेकादिगुणाकरः ॥ ३८१ ॥ तमास्थानस्थमन्येद्युः, पार्थिवं कोऽपि पूरुषः । मायाप्रयोगनिष्णं खं, ज्ञापयामास वेत्रिणा ॥ ३८२ ॥ प्रवेशं नृपतिस्तस्य, नौनुजज्ञे विशुद्धधीः । न मायिनामृजूनां चाऽजैर्य शाश्वतवैरिवत् ॥ ३८३ ॥ प्रतिषेधविलक्षः सन्, स नीत्वाऽहानि कानिचित् । चक्रे रूपपरावर्त, कामरूप इवामरः ॥ ३८४ ॥ स तमेवान्यदा भूपमुपतस्थे विहायसा । कृपाणपाणिः फैलकी, वरनारीसमन्वितः ॥ ३८५ ॥ ३ अमृतरससमानया । २ शोक एव शल्यं तदर्थं विशल्यौषधितुल्यया । ३ नानुमेने । ४ मैत्री । ५ फलकधरः । 1 सगरप्रतिबोधाय द्वितीयमध्युक्तमपरमिन्द्रजालिकोदाहरणम् . Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयं पर्व त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते ॥२७३॥ सर्गः अजितसगरयोचरितम् । असि कस्त्वमियं का च?, हेतुना केन चाऽऽगमः। इति राज्ञा स्वयं पृष्टः, स पुमानब्रवीदिति ॥३८६॥ अहं विद्याधरो विद्याधरी चेयं मम प्रिया। विद्याधरेण केनापि, जातवैरोमि भूपते!॥ ३८७ ॥ इयं हि पूर्व तेन स्त्रीलम्पटेन दुरात्मना । सुधा विधुन्तुदेनेवाऽपहृता च्छलकर्मणा ॥ ३८८ ॥ प्रत्याहार्षमहं तस्मादिमां प्राणप्रियां प्रियाम् । नारीपरिभवं राजन्!, सहन्ते पशवोऽपि न ॥३८९॥ चरितार्थी प्रचण्डौ ते, दोर्दण्डौ क्षितिधारणात । अर्थिनां दौस्थ्यघातेन, सम्पच्च सफला तव ॥ ३९० ॥ भीतानामभयदानात् , कृतार्थो विक्रमश्च ते । विदुषां संशयच्छेदादमोघा शास्त्रवैदुषी ॥ ३९१॥ विश्वस्य कण्टकोद्धारात् , फलवच्छत्रकौशलम् । अन्येऽप्यन्योपकारेण, कृतार्थास्ते पृथग्गुणाः॥ ३९२ ॥ परस्त्रीसोदरत्वं च, तवेदं विश्वविश्रुतम् । अस्तु मय्युपकारेण, विशिष्टफलवन्नृप ! ।। ३९३ ॥ प्रियया पार्श्ववर्तिन्या, सन्दानित इवाऽनया । नाऽलम्भविष्णुर्योद्धं हि, परैश्छलपरैरहम् ॥ ३९४ ॥ नाऽहं हस्तिबलं याचे, याचे वाजिबलं न वा । न वा रथवलं याचे, याचे पत्तिबलं न वा ॥ ३९५ ॥ आत्मसाहायिके त्वत्तः, किन्तु याचे नराधिप । एतस्या न्यासवत् त्राणं, परनारीसहोदर!॥ ३९६ ॥ स्वयं स्त्रीलम्पटः कोऽपि, परित्राणसहोऽपि सन् । कोऽप्यस्त्रीलम्पटः खेन, परित्राणासहः परम् ॥३९७॥ त्वमस्त्रीलम्पटनाणसहवासि महीपते । तेन दूरादुपेत्यापि, त्वमसि प्रार्थितो मया ॥ ३९८॥ अयं मत्प्रेयसीरूपो, न्यासश्चेत् स्वीकृतस्त्वया । ज्ञायतां हत एवारिः, स मया बलवानपि ॥ ३९९ ।। अथोल्लसत्सितज्योत्स्नापवित्रमुखचन्द्रमाः। उदारचरितः पृथ्वीपतिरेवमवोचत ॥ ४००॥ १ राहुणा । २ बद्ध इव । ३ शत्रुभिः। * आत्मा साहा संता० सङ्घ ३ ॥ | सगरप्रतियोधाय द्वितीय मयुक्तमपर| मिन्द्रजालिकोदाहरणम् | ॥२७॥ Jain Education For Private & Personal use only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SANSAR कल्पद्रुरिव पत्राणि, रत्नाकर इबोदकम् । कामधेनुरिव क्षीरं, रोहणादिरिखोपलम् ॥ ४०१॥ अन्नमात्रमिव श्रीदश्छायामात्रमिवाऽम्बुदः । दूरादुपेत्य भवता, कियदसीदमर्थितः ॥४०२॥ युग्मम् ॥ तमेव दर्शय निजं, रिपुं येन निहन्म्यहम् । निर्विशङ्कं ततो भोगान् , भुङ्ग मन विचक्षण! ॥४०३॥ नृपवागमृताप्लावपूर्णश्रवणकोटरः । मुदितः पुरुषः सोऽपि, जगादेति महीपतिम् ॥४०४॥ रजतं जातरूपं च, समस्ता रत्नजातयः । पितरो मातरः पुत्राः, सर्व चाऽन्यद् गृहादिकम् ॥ ४०५॥ विश्वासेनाऽल्पकेनापि, न्यासेऽर्पयितुमीश्यते । विश्वासेनापि महता, न पुनः प्रेयसी क्वचित् ॥ ४०६॥ राजन्नीदृशविश्वासस्थानं त्वमसि नाऽपरः । चन्दनास्पदमेको हि, मलयः सानुमानिह ॥ ४०७॥ बिभ्राणेन त्वया न्यासे, मदीयां प्रेयसीमिमाम् । त्वयैव निहतो मन्ये, द्विषन्तप! स मे द्विषन् ॥४०८॥ भार्यान्यासे त्वयोपात्ते, त्वद्विश्वाससमाहितः। विश्वस्तभार्यान् द्विषतः, करिष्याम्यधुना ननु ।। ४०९॥ क्षोणीनाथ ! तवाऽत्रैव, तिष्ठतो नचिरादहम् । केसरीव समुत्पत्य, दर्शयिष्यामि विक्रमम् ॥ ४१०॥ अनुमन्यस्व गच्छामि, खच्छन्दं पक्षिराडिव । एषोऽहमन्तरिक्षण, क्षणादस्खलितस्यैदः॥४१॥ राजाऽप्यूचे व्रज खैरं, विद्याधर महाभट! । तिष्ठत्वेषा तु ते भार्या, मद्धानि पितृधामवत् ॥ ४१२॥ अथोत्पपात स पुमान् , विहायोवद् विहायसा । निस्त्रिंशदण्ड-फलके, पक्षाविव विजृम्भयन् ॥ ४१३॥ तद्भार्या तु वदुहितप्रतिपत्तिपुरःसरम् । राज्ञा सम्भाषिता तस्थौ, तत्रैव स्वस्थमानसा ।। ४१४ ॥ तत्रैव तिष्ठन् नृपतिर्जायमानां नभस्तले । क्ष्वेडामाकर्णयामास, स्तनितं वार्मुचामिव ॥ ४१५॥ सद्यः। २ गरुड इव । ३ वेगः। ४ पक्षिवत् । ५ मेघानामिव । Jain Education t ral For Private & Personal use only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते HOGESCEG4964 ॥२७४॥ सर्ग: अजितसगरयोश्चरितम् । विचित्रखड्ग-फलकप्रहारध्वनितान्यपि । तडत्तडितिविस्फूर्जत्तडित्ताडानिवाऽशृणोत् ॥ ४१६ ॥ सोऽसि सोऽसि नासि नासि, तिष्ठ तिष्ठ व्रज व्रज । एष त्वां हन्मि हन्मीति, व्योम्नि शुश्रुविरे गिरः॥४१७॥ नृपतिः पर्षदासीनः, पार्षद्यैः सह विसितः । उपरागेक्षण इव, तस्थौ सुचिरमुन्मुखः॥४१८॥ इत्थं सम्पश्यमानस्य, भूपतेः पुरतो भुवि । भुजदण्डः पपातैको, रत्नकङ्कणभूषणः ॥ ४१९ ॥ उपलक्षयितुं तं च, बाहुदण्डं दिवश्युतम् । विद्याधरी पुरोभूय, साऽपश्यञ्च जगाद च ॥ ४२०॥ गण्डयोरुपधानत्वं, कर्णयोरवतंसताम् । कण्ठे च निष्कतां योऽगात् , सोऽयं मत्प्रेयसो भुजः॥४२१॥ एवं वदन्त्यां पश्यन्त्यामेव तस्यां मृगीशि । भुवि पादः पपातैको, दोष्णः प्रीत्येव तस्य तु ॥४२२॥ सपादकटकं पादमुपलक्ष्य तमप्यथ । उदश्रुवदना पद्मवदना साऽवदत पुनः॥ ४२३ ॥ चिरमभ्यक्त उन्मृष्टः, क्षालितोऽथ विलेपितः । स्वहस्तेन मया यो हि, स पादो मत्पतेरयम् ॥ ४२४॥ एवं तस्या बुवाणायाः, पुरो गीर्वाणवर्त्मनः । वातोद्भूतद्रुशाखेव, द्वितीयोऽपि भुजोऽपतत् ॥ ४२५॥ तमप्यालोक्य दोर्दण्डं, रत्नकेयूर-कङ्कणम् । सोवाच स्पन्दमानाक्षी, धारायत्रवधूरिव ॥ ४२६ ॥ सोऽयं सीमन्तरचनाचतुरः केशकङ्कतः । विचित्रपत्रलतिकालीलालिपिकरः करः॥ ४२७ ॥ तस्यास्तत्रैव तिष्ठन्त्या, एवाग्रे गगनाङ्गणात् । पपातानिर्द्वितीयोऽपि, सापि भूयोऽब्रवीदिदम् ॥ ४२८॥ स एष मत्पतेः पादो, मत्कराम्भोजलालितः । अनारतं मदुत्सङ्गशय्यादुर्ललितो हहा॥४२९॥ अथ तत्रैव तत्कालं, मुण्ड-रुण्डौ निपेततुः । हृदयेन समं तस्याः, कम्पयन्तौ महीतलम् ॥ ४३०॥ १ उपरागे ग्रहणे ईक्षणे नेत्रे यस्य सः । २ हृदयाभूषणम् । ३ करस्य । ४ आकाशात् । ५ केशप्रसाधनसाधनम् । शीर्षकबन्धौ । सगरप्रतिबोधाय द्वितीयमयुक्तमपरमिन्द्रजालिकोदाहरणम् SUSACHUSUS ॥२७४॥ Jain Education ine ral For Private & Personal use only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ सा विललापैवं, बलिना च्छलिना द्विषा । हा! हतो मत्पतिरसौ, हा! हतामि तपस्विनी ॥४३१॥ एतत् तदेव वदनं, मत्पतेः पद्मसोदरम् । यन्मया परया प्रीत्या, कुण्डलाभ्यामभूष्यत ॥ ४३२ ॥ तदेतत् तस्य हृदयं, विपुलं हन्त ! मत्पतेः । अन्तर्बहिश्च यद् वासस्थानमेकं ममैव हि ॥ ४३३॥ हा! नाथाऽहमनाथाऽस्मि, त्वां विना नन्दनाद् वनात् । पुष्पाण्यानीय को नाम, ममोत्तंसीकरिष्यति? ४३४|| एकासनसमासीना, विचरन्ती नभोऽङ्गणे । यथासुखं केन समं, वादयिष्यामि वैल्लकीम् ? ॥ ४३५॥ वल्लकीमिव को वा मामुत्सङ्गे धारयिष्यति । शेय्याविशंस्थुलान् को वा, स्थापयिष्यति मेऽलकान् ? ॥४३६॥ कोपिष्यामि मुहुः कस्मै, प्रौढप्रणयलीलया? । मत्पादधातोऽस्तु मुदे, कस्याऽशोकतरोरिव ॥ ४३७ ॥ हा प्रिय! स्तबकीभूतकौमुदीभिरिवाऽद्य मे । गोशीर्षचन्दनरसैः, कोऽङ्गरागं करिष्यति ? ॥ ४३८॥ कपोलपाल्योीवायां, ललाटे कुचकुम्भयोः । कोऽद्य मे पत्ररचनां, सैरन्ध्रीवै विधास्यति ॥ ४३९ ॥ अप्यलीकव्यलीकेन, मानमौनधरां च माम् । आलापयिष्यत्यथ कः, क्रीडाराजशुकीमिव ? ॥४४०॥ प्रिये! प्रिये! देवि! देवीत्यादिचाटुगिरा मुहः । को वा कृतकसुप्तां मां, खयमुद्बोधयिष्यति॥४४१॥ विलम्बेनाऽद्य पर्याप्तममुनाऽऽत्मविडम्बिना । महापथमहापान्थं, नाथ ! त्वामनुयाम्यहम् ॥ ४४२॥ प्राणनाथपथे गन्तुकामा कामं कृताञ्जलिः। सा पावकं यानमिव, ययाचे वसुधाधवात् ॥ ४४३ ॥ तामभाषिष्ट भूपोऽपि, वत्से! स्वच्छाशये! त्वया । पत्युः सम्यगविज्ञाय, कथां किमिदमुच्यते ॥४४४॥ रक्षो-विद्याधरादीनां, मायाऽपि भवतीदृशी । तन्मुहूर्त प्रतीक्षस्व, स्वाधीनं ह्यात्मसाधनम् ॥ ४४५॥ १ वीणाम् । २ शय्यायां विप्रकीर्णान् । ३ निपुणा दासीव । ४ अलीकसुप्ताम् । ५ मृत्युमार्गपथिकम् । Jain Education Interna! For Private & Personal use only Ho, Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते द्वितीय पर्व षष्ठः सर्गः अजित| सगरयोचरितम् । ॥२७५॥ RECARRASSES सा भूयो भूपतिं स्माऽऽह, साक्षादेष पतिर्मम । प्रधने निधनं नीतः, पतितश्चेह दृश्यते ॥ ४४६ ॥ सन्ध्या सहोदयं याति, सहाऽस्तं च विवखंता । जीवन्ति च म्रियन्ते च, समं पत्या पतिव्रताः॥४४७॥ पितुरम्लानवंशस्य, स्वस्य पत्युरपीदृशः । कुले कलङ्क किमहं, जीवन्त्यारोपयाम्यतः ॥ ४४८॥ धर्मपुत्रीं च मां पश्यन् , विना पतिमवस्थिताम् । न किं लजिष्यसे तात', कुलस्त्रीधर्मकोविद! १॥४४९॥ विनेन्दुमिव कौमुद्या, विनाऽब्दमिव विद्युतः । विना नाथमवस्थानं, युक्तं नाऽतः परं मम ॥ ४५०॥ आयुक्तानादिशैधांसि, समानायय मत्कृते । समं पतिशरीरेण, वह्नौ वेक्ष्यामि वारिवत् ॥ ४५१॥ तया साग्रहमित्युक्तः, क्ष्मापतिः करुणापरः । शोकगद्गदया वाचा, पुनरेवमुवाच ताम् ॥ ४५२॥ तिष्ठ तिष्ठ कियत्कालं, न मर्तव्यं पतङ्गवत् । विमृश्य हि विधातव्यमल्पीयोऽपि प्रयोजनम् ॥ ४५३ ॥ कुपिता भामिनी साऽथ, भूनाथमिदमभ्यधात् । अतः परं धारयन् मां, ज्ञातं तातो न खल्वसि ॥४५४॥ परस्त्रीसोदर इति, नाम यत् प्रथितं तव । तद् विश्वविश्वासकृते, न पुनः परमार्थतः ॥ ४५५॥ तत् सत्यं यदि तातोऽसि, सत्वं स्वदुहितुस्ततः । पश्याऽनुयान्त्या भर्तारं, कृष्णवत्मैकवर्मना॥४५६॥ राजाऽपि व्याजहारैवं, वत्से ! कुरु समीहितम् । नातः परं निरोद्धामि, पवित्रय सतीव्रतम् ॥ ४५७ ॥ ततः प्रमुदिता राजादेशादुपनते रथे । भर्तुरङ्गानि सत्कृत्याऽऽरोपयामास सा स्वयम् ॥ ४५८॥ अङ्गे कृताङ्गरागा सा, संवीतविशदांशुका । सपुष्पकुन्तला पत्युः, पार्श्वमध्यास्त पूर्ववत् ॥ ४५९ ॥ १ युद्धे । २ सूर्येण । ३ पध्येकवचनमिदम्। सेवकान् । ५ नृपः। ६ अग्निमार्गेण । ७ परिहितस्वच्छवस्त्रा। | सगरप्रतियोधाय द्वितीयमयुक्तमपरमिन्द्रजालि| कोदाहरणम् | ॥२७५॥ JainEducation Internatell For Private & Personal use only T w w.jainelibrary.org Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्वीयमाना न्यग्ग्रीवं, सशोकेन महीभुजा । साश्चर्यैर्वीक्ष्यमाणा च, पौरैः सा सरितं ययौ ॥ ४६०॥ आजहुश्चन्दनैधांसि, तत्राऽऽयुक्ताः क्षणादपि । चितां च रचयाञ्चकुस्तल्पं पितृपतेरिव ॥ ४६१ ॥ पित्रेव पृथिवीशेन, तेन सम्पूरितं वसु । याचकेभ्यो यथाकामं, ददौ कल्पलतेव सा ॥ ४६२ ॥ पयःपूर्णाञ्जलिपुटा, तत्र त्रिः साऽऽ शुक्षणिम् । चक्रे प्रदक्षिणं जातदक्षिणावर्त्तरोचिषम् ॥ ४६३ ।। सतीसत्यापनां कृत्वा, पत्युरङ्गैः सहैव तैः । वासागार इव खैरं, चितान्तः प्रविवेश सा ॥ ४६४ ॥ प्राज्याभिराज्यधाराभिराहुतोऽथ हुताशनः । जज्वालाऽभ्यधिकं ज्वालाजालपल्लविताम्बरः॥ ४६५॥ तानि विद्याधराङ्गानि, सा चैधांसि च तत्क्षणम् । अभवद् भस्मसात् सर्व, जलं लवणसादिव ॥ ४६६ ॥ तत्र तस्या निवापादि, कृत्वा शोकसमाकुलः । आजगाम निजं धाम, ततः स जगतीपतिः ॥ ४६७॥ यावत् सशोकः परिषद्यासाश्चक्रे महीपतिः। आययौ स पुमांस्तावन्नमस्तः फलका-ऽसिभृत् ॥ ४६८॥ भृभुजा पारिषद्यैश्च, वीक्ष्यमाणः सविस्मयम् । मायाविद्याधरः सोऽथ, पुरोभूयेदमब्रवीत् ॥ ४६९॥ दिष्ट्या प्रवर्द्धसे देव!, परस्त्री-धननिःस्पृह! । दुरोदर इव द्वन्द्वे, यथाऽजैषं तथा शृणु ॥ ४७०॥ तदा ह्यहमितः स्थानाच्छरण्य! शरणे तव । विमुच्य दारान् निर्भार, इवोदपतमम्बरे ॥ ४७१ ॥ समापतन्तं साटोपं, तमपश्यं नभस्तले । दुष्टविद्याधरमहं, रुष्टो बंभ्ररिवोरगम् ॥ ४७२ ॥ ऋषभाविव गर्जन्तावूर्जितं दुर्जयावुभौ । अहं च स च युद्धार्थमाह्वास्वहि परस्परम् ॥ ४७३ ॥ नम्रकन्धरं यथा स्यात् तथा । २ शय्याम् । ३ यमस्य । ४ अग्निम् । ५ सतीत्वसत्यतां समर्थ्य । ६ घृतधाराभिः । ७ लवणाधीनम् । ८ गते । ९ नकुलः । Jain Education in lral For Private & Personal use only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयं पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते सर्गः ॥२७६॥ अजितसगरयोचरितम्। दिष्ट्या दृष्टोऽसि दोस्त, प्रहर प्रहरादितः। कौतुकं पूरयाम्यद्य, खदोष्णोर्युसदामपि ॥ ४७४ ॥ नो वा शस्त्रं परित्यज्याऽऽदाय दन्तैर्दशाङ्गुलीः । भक्ष्यं रङ्क इवाऽशङ्को, व्रज जीवितकाम्यया ॥४७५॥ साक्षेपमिति जल्पन्तौ, द्वावप्यावां परस्परम् । चर्मा-ऽसिपक्षौ धुन्वन्तौ, मिलितौ कुकुटाविव ॥ ४७६ ॥ ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ चारीप्रचारचतुरौ, रङ्गाचार्याविवाम्बरे । प्रहारान् वञ्चयमानौ, व्यचराव चिरं नृप! ॥ ४७७॥ आवाभ्यां खड्गशृङ्गेण, प्रहरयां मुहुर्मुहुः । खङ्गिम्यामिव विहिते, अभिसर्पा-ऽपसर्पणे ॥ ४७८॥ क्षणेनापि मया तस्य, दोर्दण्डो दक्षिणेतरः । निकृत्य पातितो राजन्, प्रवर्धक इवेह ते ॥ ४७९ ॥ युष्मदानन्दहेतोश्च, कदलीस्तम्भलीलया । मया निकृत्य तस्यैकश्चरणः पातितो भुवि ॥ ४८० ॥ दक्षिणोऽपि भुजस्तस्य, नलिनीनाललीलया। विलूय क्षितिपृष्ठेऽस्मिन् , क्षिप्तः क्षितिपते! मया ॥४८१॥ ततो द्वितीयस्तस्यानिरशिपस्य प्रकाण्डवत् । खड्गदण्डेन निष्कृत्य, तवाग्रे परिपातितः॥४८२ ॥ ततो रुण्डश्च मुण्डश्च, पृथक् कृत्वेह पातितः । तमित्यकार्ष षट्खण्डं, रिपुं भरतवर्षवत् ॥ ४८३ ॥ कलत्रं त्रायमाणेन, न्यासीभूतमपत्यवत् । त्वयैव सोरिनिहतो, हेतुमात्रमहं त्विह ।। ४८४ ॥ त्वत्साहाय्यं विना सोरिन हन्तुं शक्यते मया । नाऽलं दग्धुं कक्षमग्निर्विना वायुं ज्वलन्नपि ।। ४८५ ॥ इयत्कालमहं स्त्री वाऽथवाऽभूवं नपुंसकः । पुंस्त्वं मेऽद्य त्वया दत्तं, द्विषन्निग्रहहेतुना ॥ ४८६ ॥ ममाऽसि माता तातो वा, गुरुवों देवताऽथवा । एवंविधोपकारी हि, नाऽन्यो भवितुमर्हति ॥ ४८७ ॥ १ गण्डकाभ्याम् । २ अभिगमनं दूरगमनं च। ३ वृक्षस्य । सगरप्रतिबोधाय द्वितीयमयुक्तमपर| मिन्द्रजालिकोदाहरणम् ॥२७६॥ Jain Education Intel For Private & Personal use only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रद्योतनो द्योतयते, विश्वं प्रीणाति चोडेपः। काले वर्षति पर्जन्यः, प्रसूते भृमिरोषधीः॥४८८॥ मर्यादां लङ्घते नाब्धिर्मेदिनी चाऽवतिष्ठते । परोपकारनिष्ठानां, प्रभावेण भवादृशाम् ॥ ४८९ ॥ न्यासीकृतं कलत्रं मे, तत् सम्प्रति समर्पय । महीनाथ! गमिष्यामि, स्वां क्रीडाभूमिकामहम् ॥४९॥ वैताड्य-जगतीजालकटकादिषु सप्रियः । विहरिष्ये निराशङ्कस्त्वत्प्रसादाद्धतद्विषन् । ४९१ ॥ ___ आक्रान्तो युगपल्लज्जा-चिन्ता-निर्वेद-विस्मयैः । एवं वसुमतीनाथः, पुरुषं तमभाषत ॥ ४९२ ॥ न्यासीकृत्य कलत्रं खं, तदानीं त्वयि जग्मुषि । अम्बरे शुश्रुवेऽस्माभिः, क्ष्वेडा-सि-फलकध्वनिः॥४९३॥ बाहु-पाद-शिरोऽरुण्डं चाऽपतन्नभसः क्रमात् । मत्पतेरिदमित्युच्चैस्त्वत्पत्त्यकथयच्च नः॥ ४९४॥ पत्युरङ्गैः समं वह्नौ, प्रवेक्ष्यामीति भाषिणीम् । अवारयाम सुचिरं, पुत्रीप्रेम्णा तव प्रियाम् ॥ ४९५॥ वह्निप्रवेशादस्माभिवार्यमाणा तु ते प्रिया । अस्मान् सम्भावयामासाऽन्यथैवेतरलोकवत् ॥ ४९६ ॥ तूष्णीकेषु ततोऽस्मासु, सा साहसवती नदीम् । गत्वा लोकसमक्षं तैः, सहाऽङ्गैः प्राविशच्चिताम् ॥ ४९७॥ अधुनैव निवापादि, तस्याः कृत्वाऽहमागमम् । तस्याः शोके न्यपीदं च, त्वं चाऽगाः किमिदं ननु॥४९८॥ तान्यङ्गानि न किं ते वा ?, स वा त्वं नेति संशयः। अज्ञानमुद्रितमुखाः, किमिह ब्रूमहे वयम् ॥४९९॥ ___ व्याजहार कृतव्याजकोपः सोऽपि पुमानिति । परस्त्रीसोदरो मिथ्या, जनश्रुत्या श्रुतोऽसि हा॥५०॥ तेन नाम्ना वयं भ्रान्ताः, प्रियान्यासमकृष्महि । अयोवत् पुष्करैतिस्त्वं वृत्तैरीदृशैरसि ॥ ५०१॥ १ सूर्यः। २ चन्द्रः। * सङ्घ ३ विनाऽन्यत्र-रुण्डश्चाऽप सङ्घ सङ्घ २ संतारुण्डाश्चाऽप ढं०॥ त्पित्त्यकथयत् ततः सङ्घ । पत्नी नः शशंस च ८० ॥ ३ विहितकपटक्रोधः । ४ लोहवत् । Jain Education Intern For Private & Personal use only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते द्वितीय पर्व षष्ठः सर्गः अजित. सगरयोचरितम्। ॥२७७॥ दुराचारस्य यत् कृत्यं, तस्य मविपतोऽभवत । तच्चक्रे भवता राजन, द्वयोर्हन्त ! किमन्तरम् ॥५०२॥ नारीवलुब्धंमन्यश्चेदपवादा बिभेपि वा । तदर्पय प्रियां तां मे, न हि निह्नोतुमर्हसि ॥ ५०३ ॥ अलुब्धपूर्वा लुभ्यन्ति, यद्येवं त्वादृशा अपि । ततः कृष्णोरग इव, कोऽस्तु विश्वासभाजनम् ? ॥५०४॥ भूयो बभापे भूपालस्तवाङ्गान्युपलक्ष्य सा । त्वत्प्रेयस्यविशद् वह्निमत्र तावन्न संशयः ॥ ५०५॥ अत्राऽर्थे साक्षिणः सर्वे, पौरा जानपदा अपि । जगच्चक्षरयं व्योम्नि, भगवांश्च दिवाकरः ॥ ५०६॥ लोकपालाश्च चत्वारो, ग्रह-नक्षत्र-तारकाः । इयं च भगवत्युर्वी, धर्मश्च त्रिजगत्पिता ॥ ५०७॥ तन्न भाषितुमीदृक्षं, रूक्षाक्षरमिहार्हसि । अमीषां मध्यतः कश्चित, प्रमाणीकुरु साक्षिणम् ॥ ५०८॥ अलीकरोपपरुषं, पुरुषः सोऽवदत् पुनः। न हि प्रमाणे प्रत्यक्षे, प्रमाणान्तरकल्पना ॥ ५०९।। तव पश्चादियं का नु, स्थिताऽस्ति ? प्रेक्ष्यतां ननु । कक्षाप्रक्षिप्तलोत्रस्य, कोशपानमिदं नृप! ॥५१०॥ ततश्च वलितग्रीवो, यावत् पश्चाद्ददौ दृशम् । ईक्षाञ्चके नृपस्तावत् , तत्प्रियां तां निषेदुषीम् ॥ ५११॥ पारदारिकदोषेण, दृषितोऽसीति शङ्कया । ग्लानिं प्रपेदे नृपतिम्लानिं तापेन पुष्पवत् ॥ ५१२ ।। नृपं ग्लानिं प्रपेदानं, निर्दोष दोषशङ्कया। बद्धाञ्जलिः कथयितुं, प्रारेमे स पुमानिति ॥ ५१३॥ कचित् स्मरसि भूनाथ :, चिरेणाभ्यस्य यन्मया । मायाप्रयोगचातुर्य, त्वं दर्शयितुमर्थितः ॥५१४॥ देवेन मेघवद् विश्वसाधारण्यजुषाऽप्यहम् । भाग्यदोषादपूर्णेच्छो, द्वारादपि निवारितः॥ ५१५॥ ततो रूपं परावर्त्य, कृत्वा कपटनाटकम् । मयेदं दर्शितं देव!, कृतार्थोऽस्मि प्रसीद मे ॥ ५१६ ॥ कृत्रिमकोपकटोरम् । २ लोप्त्रम् सोयधनम् । सगरप्रतिबो|धाय द्वितीय मड्युक्तमपरमिन्द्रजालिकोदाहरणम् ॥२७७॥ Jain Education inte For Private & Personal use only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि. ४८ यथा तथा वा महतां, दर्शनीयो निजो गुणः । गुणार्जनभवः क्लेशः, प्रणश्यत्यन्यथा कथम् ? ॥ ५१७ ॥ तदद्याऽस्मि गतक्लेशो, वजिष्यामि समादिश । सर्वत्राऽपि महार्थोऽस्मि, त्वदग्रे गुणदर्शनात् ॥ ५९८ ॥ कृतार्थीकृत्य भूयिष्ठैरर्थैस्तमवनीपतिः । विससर्ज ततः किञ्चिच्चिन्तयित्वेदमब्रवीत् ॥ ५१९ ॥ यादृग् मायाप्रयोगोऽस्य, संसारोऽप्येष तादृशः । दृष्टनष्टं वस्तु सर्वमस्मिन् बुद्धुद्वद् यतः ॥५२० ॥ चिन्तयित्वा नैकधैवं, विरक्तो भववासतः । उत्सृज्य राज्यं प्रव्रज्यां स जग्राह ततो नृपः ॥ ५२१ ॥ मायाप्रयोगसदृशे, संसारेऽस्मिंस्ततः प्रभो ! । मा शोकविवशो भ्रस्त्वं यतस्व स्वार्थसिद्धये ॥ ५२२ ॥ चक्रिणो भवनिर्वेदः, पदे शोकस्य तावतः । महाप्राण इव महाप्राणस्थानेऽभवत् ततः ।। ५२३ ॥ उदाजहार सगरो, गिरं तत्त्वगरीयसीम् । युष्माभिरभ्यधायीदं, साधु साधु विवेकिनः । ॥ ५२४ ॥ जीवन्ति च म्रियन्ते च, जन्तवः स्वस्वकर्मणा । बालो युवा वा वृद्धो वेत्यप्रमाणं वयः खलु ।। ५२५ ॥ सङ्गमा बान्धवादीनां स्वमसब्रह्मचारिणः । लक्ष्मीर्निसर्गतो दन्तिकर्णताल चलाचला ॥ ५२६ ॥ यौवनश्रीरपि गिरिनदीपूरसहोदरा । जीवितं च कुशाग्रस्थजलबिन्दुविडम्बकम् ।। ५२७ ॥ नया यौवनं याति, वारीव मरुभूमिगम् । न यावदायाति जरा, राक्षसीवायुरन्तकृत् ॥ ५२८ ॥ भवतीन्द्रियवैकल्यं, न यावत् सन्निपातवत् । वेश्येवोपात्तसर्वस्वा, यावच्छ्रीर्न विरज्यति ।। ५२९ ॥ छलयित्वा तावदमून्यखिलान्यपि हि स्वयम् । प्रव्रज्योपायलभ्याय, स्वार्थाय प्रयतामहे ।। ५३० ।। काचखण्डेन स मणि, कृष्णकाकेन केकिनम् । मृणालमालया हारं, कदन्नेन च पायसम् ।। ५३१ ।। 1 मूल्यवान् । २ स्वप्नसदृशाः । ३ चञ्चला । ४ उपात्तं गृहीतं सर्वस्वं यया सा । ५ मयूरम् । Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय पर्व 'त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते ૨૭૮ । एवमानायखेत्युच्चैःपूत्कारकारिणी प्रणामाः सम्भूय, गामार! | ५३६ । सर्ग: कालसेयेन च क्षीरं, रासभेन च वाजिनम् । क्रीणाति योजयेन्मोक्षमसारेणेह वर्मणा ॥५३२॥ युग्मम् ॥ एवमाभाषमाणस्य, तदा सगरचक्रिणः। द्वार्याययुर्विषयिणोऽष्टापदाभ्यर्णवासिनः ॥ ५३३ ॥ असांस्त्रायख त्रायवेत्युच्चैःपूत्कारकारिणः। आजूहवत् तान् सगरचक्रभृद् वेत्रपाणिना ॥ ५३४॥ हंहो! किमिदमित्युच्चैर्भाषिताश्चक्रवर्तिना । कृतप्रणामाः सम्भृय, ग्रामीणास्ते व्यजिज्ञपन् ॥ ५३५ ॥ अष्टापदाद्रिपरिखापूरणाय सरिद्वरा । या कृष्टा दण्डरत्नेन, कुमारैस्तैनरेश्वर! ॥ ५३६ ॥ पातालमिव दुष्पूरां, पूरयित्वा क्षणेन ताम् । साऽतिक्रामत्युभे कूले, कुलटेव कुलद्वयम् ॥ ५३७॥ अष्टापदाभ्यर्णवर्ति, ग्रामा-ऽऽकर-पुरादिकम् । आप्लावयितुमारब्धा, पर्यस्त इव सागरः ॥५३८ ॥ अधुनापि युगान्तोऽयमस्माकं समुपस्थितः । तदादिश वयं कुत्र, तिष्ठामो निरुपद्रवाः? ॥ ५३९ ॥ ततश्च सगरश्चक्री, निजं पौत्रं भगीरथम् । वात्सल्यसारया वाचा, समाहूयेदमादिशत् ॥५४॥ पूरयित्वाऽष्टापदाद्रिपरिखां तां सरिद्वरा । उन्मत्तेव भ्रमन्त्यस्ति, सा ग्रामादिषु सम्प्रति ॥५४१॥ तां दण्डेन समाकृष्य, क्षिप पूर्वपयोनिधौ । अदर्शितपथं याति, पयो बन्धवदुत्पथे॥५४२॥ बाहुवीर्यमसामान्यमैश्वयं भुवनोत्तरम् । अत्युल्वणं हस्तिवलमश्वीयं विश्वविश्रुतम् ॥ ५४३॥ पादातमतिविक्रान्तं, महद् रथवलं तथा । अत्युत्कटः प्रतापश्च, निःसीमं शस्त्रकौशलम् ॥ ५४४ ॥ दैवतानामायुधानां, सम्पत्तिश्चेत्यमृन्यलम् । दर्प यथा द्विषां प्रन्ति, जनयन्त्यात्मनस्तथा ॥ ५४५॥ ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ तक्रेण । २ शरीरेण । ३ जनपदवासिनो जनाः। ४ अश्वसैन्यम् । ५पदातिसैन्यम् । अजितसगरयोचरितम् । SURESS गङ्गाप्रवाहस्खलनाय भगीरथस्य गमनम् ॥२७८॥ Jain Education into Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्रणीः सर्वदोषाणामापदामेकमास्पदम् । सम्पदामपहर्तेकः, कर्ता दुर्यशसामपि ॥ ५४६ ॥ अपि वंशस्य संहर्ता, हर्ता निखिलशर्मणाम् । प्रहर्ता परलोकस्य, दर्पो वैरी शरीरजः ॥ ५४७॥ युग्मम् ॥ तद् दर्पः परिहर्तव्यः, सर्पवत् सत्पथस्थितैः । सामान्यैरपि पुरुषैर्मत्पौत्रेण विशेषतः ॥ ५४८॥ यथापात्रं विनीतेन, भवितव्यं ततस्त्वया । गुणप्रकर्षा विनयादशक्तस्यापि जायते ॥ ५४९॥ शक्तस्य पुंसो विनयः, सुवर्णस्येव सौरभम् । निष्कलङ्कवपुष्टेव, पार्वणस्य हिमयुतेः ॥ ५५०॥ सुराणामसुराणां च, नागादीनामपि त्वया । उपचारो यथाक्षेत्रं, कार्यः कार्ये सुखेऽपि हि ॥ ५५१॥ उपचारार्हणीयेषु, नोपचारो हि दोषकृत् । अपचारस्तु दोषाय, पित्तात्मन इवाऽऽतपः ॥ ५५२ ॥ ऋषभखामिपुत्रेण, भरतेनापि चक्रिणा । वशंवदा देव-दैत्या, उपचारेण चक्रिरे ॥ ५५३ ॥ शक्तेनापि सता तेनोपचारो देवतादिषु । दर्शितो यस्तथा कार्यः, स कुलाचार इत्यपि ॥ ५५४ ॥ तथेति तिपेदे स, महाभागो भगीरथः। निसर्गेण विनीतस्य, शिक्षा सद्भित्तिचित्रवत् ॥ ५५५ ॥ अर्पयित्वा दण्डरत्नं, खं प्रतापमिवोर्जितम् । चुम्बित्वा मूर्ध्नि सगरो, विससर्ज भगीरथम् ॥ ५५६ ॥ चक्रिणश्चरणाम्भोजे, प्रणम्याऽथ भगीरथः । सदण्डरनो निरगात् , सविद्युदिव वारिदः॥५५७॥ महता चक्रिसैन्येन, वृतो जानपदैश्च तैः। रेजे भगीरथः शक्र, इवानीकप्रकीर्णकैः ॥ ५५८ ॥ आससाद क्रमेणाऽथाऽष्टापदाद्रिं भगीरथः मन्दाकिन्या वलयितं, त्रिकूटाद्रिमिवाब्धिना ॥५५९॥ उद्दिश्य तत्र तं नागकुमारं ज्वलनप्रभम् । तपोऽष्टमं स विदधे, विधिवेदी भगीरथः॥५६०॥ निष्कलकशरीरता इव । २ पित्तप्रकृतेर्जनस्य । ३ अङ्गीचके । Jan Education inte For Private & Personal use only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयं पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥२७९॥ सगे: अजितसगरयोचरितम् । CARS अष्टमे च परिणमत्युपतस्थे भगीरथम् । पतिर्नागकुमाराणां, प्रसन्नो ज्वलनप्रभः॥ ५६१ ॥ गन्धैधूपैश्च माल्यैश्च, तेनोपचरितो भृशम् । स्वामी नागकुमाराणां, किं करोमीत्यभाषत ।। ५६२ ॥ अथो भगीरथोऽप्यम्भोधरध्वानगभीरगी। उवाच विनयेनापि, सप्रभो ज्वलनप्रभम् ॥ ५६३ ॥ अष्टापदाद्रिपरिखामापूर्येयं सरिद्वरा । निरर्गलं प्रसरति, पनगीव बुभुक्षिता ॥ ५६४ ॥ क्षेत्राण्येषा हि खनति, प्रोन्मूलयति पादपान् । सदृशीकुरुते सर्वान् , स्थपुटानवटानपि ॥ ५६५ ॥ प्रभ्रंशयति वप्रांश्च, प्रासादान दलयत्यलम् । प्रपातयति हाणि, निगृह्णाति गृहाणि च ॥ ५६६ ॥ तां पिशाचीमिवोन्मत्तां, देशविध्वंसकारिणीम् । दण्डेनाऽऽकृष्य पूर्वाधौ, क्षिपामि त्वदनुज्ञया ॥५६७॥ ततः प्रसन्नो ज्वलनप्रभनागस्तमभ्यधात् । निजं समीहितं कुर्या, निर्विघ्नं भवतोऽस्त्विति ॥५६८॥ येऽमुष्मिन् भरतक्षेत्रे, नागास्ते मम शासने । मदनुज्ञाप्रवृत्तः सन्, मा भैपीस्तदुपद्रवात् ॥ ५६९ ॥ अभिधायेति नागेन्द्रः, प्रविवेश रसातलम् । विदधेऽष्टमभक्तान्ते, पारणं च भगीरथः॥ ५७०॥ वैरिणीमिव भिन्नक्ष्मां, स्वच्छन्दां खैरिणीमिव । मन्दाकिनीमथ क्रष्टुं, दण्डरत्नं स आददे ॥ ५७१ ॥ मालामङ्कटकेनेव, दण्डेनाऽऽकर्षति स ताम् । निनदन्ती नदीं चण्डभुजदण्डो भगीरथः॥ ५७२ ॥ कुरूणां मध्यभागेन, नगरं हस्तिनापुरम् । दक्षिणेन पश्चिमेन, पुनः कोशलनीवृतः॥ ५७३ ॥ उत्तरेण प्रयागं च, कासीनां दक्षिणेन च । विन्ध्यान्तर्दक्षिणेनाङ्गान् , मगधानुत्तरेण च ॥५७॥ पूजितः । २ स्थपुटान उच्चप्रदेशान् । ३ अवटान् निम्नप्रदेशान् । ४ मालाकारप्रतिबद्धमणिकरूपाकोटकवत् । गङ्गाप्रवाह स्खलनाय भगीरथस्य गमनम् M २७९॥ Jain Education Salle For Private & Personal use only , Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वात्येव तृण्याः कर्षन्ती, वर्तनीवर्तिनी दीः । भगीरथेन पूर्वाम्भोनिधिं गङ्गाऽवतारिता ॥ ५७५ ॥ ततः प्रभृति तत् तीर्थ, गङ्गासागर इत्यभूत् । कृष्टा भगीरथेनेति, गङ्गा भागीरथीति च ॥५७६॥ यत्र यत्र बभखाहिमवनानि वजन्त्यसौ । भगीरथस्तत्र तत्र, नागेभ्यः प्रददौ बलिम् ॥ ५७७॥ तेषां सगरपुत्राणां, शरीरास्थीनि तानि च । तेन गङ्गाप्रवाहेण, निन्यिरे पूर्वसागरम् ॥ ५७८॥ दध्यौ भगीरथश्चैवं, साधु जातमिदं ह्यहो! । मत्पिणां यदस्थीनि, गङ्गयेयुः पयोनिधिम् ॥ ५७९॥ गृध्रादिचचू-चरणविलनान्यन्यथा पुनः । पतेयुरशुचिस्थानेष्वनिलोडूतपुष्पवत् ॥ ५८०॥ एवं विचिन्तयन् प्रीतैर्जलापातापदुज्झितैः । लोकैलॊकम्पृणोऽसीति, प्रशशंसे चिरं हि सः॥५८१ ।। तदा पिणामस्थीनि, तेन क्षिप्तानि यजले । क्षिपत्यद्यापि तल्लोकः, सोऽध्वा यो महदाश्रितः॥५८२॥ ततः स्थानानिववृते, रथारूढो भगीरथः । रथप्रचारेण भुवं, रोसयन् कांस्यतालवत् ।। ५८३ ।। स आगच्छन्नथ पथि, कल्पद्रुममिव स्थितम् । ददशैंकं भगवन्तं, केवलज्ञानिनं मुनिम् ॥ ५८४॥ उदयाद्रेरिवाऽऽदित्यो, गरुत्मानम्बरादिव । सानन्दः स्यन्दनवरात्, तरसादवततार सः॥ ५८५॥ आलोकमात्रे तं नत्वा, भक्त्या केवलिनं मुनिम् । स त्रिः प्रदक्षिणीचक्रे, भक्तिदक्षोऽतिदक्षिणः ॥५८६॥ तं प्रणम्य पुरः स्थित्वा, पप्रच्छैवं भगीरथः । ममाऽम्रियन्त पितरो, युगपत् केन कर्मणा ॥५८७॥ त्रिकालवेदी भगवान्, करुणारससागरः । एवं गदितुमारेमे, मधुरोद्गारया गिरा ॥ ५८८ ॥ श्रावकैर्विपुलश्रीकैः, श्रीदश्रीसंश्रितैरिव । पूर्णः सङ्घश्वचालैकस्तीर्थयात्राकृते पुरा ॥ ५८९ ॥ तृणसमूहान् । २ मार्गान्तर्वर्त्तमानाः । ३ नागभवनानि । ४ जलस्य आपातस्तेन या आपत् तदुसितैः । ५ रासक्रीडां कारयन् । ६ कुधेरलक्ष्म्यानितैरिव । Jain Education in For Private & Personal use only . Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरिते ॥२८० ॥ Jain Education Inter प्रत्यन्तग्राममेकं तु, सङ्घः सायमवाप सः । निशायां चाऽध्युवा सोपकुम्भकारनिकेतनम् ॥ ५९० ॥ सङ्घ समृद्धं तं दृष्ट्वा, हृष्टो ग्रामजनोऽखिलः । तलुण्ठनार्थमुत्तस्थे, दण्ड- कोदण्ड- खङ्गभृत् ।। ५९१ ।। प्रबोध्य वचनैचाडुगर्भैरमृतसोदरैः । संशुकः कुम्भकारस्तं, ग्रामलोकं न्यवारयत् ॥ ५९२ ॥ कुम्भकारस्य तस्योपरोधाद् ग्रामजनोऽखिलः । भूतः पात्रमिव प्राप्तं तं सङ्घममुचत् तदा ॥ ५९३ ॥ 'अन्येद्युरेकवास्तव्यदस्युदोषान्महीभुजा । सबाल-वृद्धः स ग्रामो, दाहितः परराष्ट्रवत् ।। ५९४ ।। मित्रेणाऽऽमन्त्रितः कुम्भकारो ग्रामान्तरं गतः । दाहात् तेनावशिष्टोऽभूत्, सर्वत्र कुशलं सताम् ॥ ५९५ ।। ततः स कालयोगेन, कालधर्ममुपागतः । वणिग् विराटदेशेऽभूद्, द्वितीय इव यक्षराट् ॥ ५९६ ॥ स तु ग्रामजनो मृत्वा विराटविषयेऽपि हि । जनो जानपदो जज्ञे, तुल्या भ्रूस्तुल्यकर्मणाम् ॥ ५९७ ॥ मृत्वा च कुम्भकुजीवस्तत्राऽभूत् पृथिवीपतिः । ततोऽपि मृत्वा कालेन, देवोऽभूत् परमर्द्धिकः ॥ ५९८ ॥ च्युत्वा च देवसदनाञ्जातोऽसि त्वं भगीरथः । ते च ग्राम्या भवं भ्रान्त्वा, जहुप्रभृतयोऽभवन् ।। ५९९॥ मनस्कृतेन सङ्घोपद्रवरूपेण कर्मणा । युगपद् भस्मसादासन, निमित्तं ज्वलनप्रभः ॥ ६०० ॥ तन्निवारणरूपेण, त्वं पुनः शुभकर्मणा । तस्मिन्निव भवेऽत्राऽपि न दग्धोऽसि महाशय ! ।। ६०१ ॥ केवलज्ञानिनस्तस्मादाकयेत्थं भगीरथः । परं संसारनिर्वेदं, विवेकोदधिरादधे ॥ ६०२ ॥ गण्डोपरि स्फोट इव, दुःखं दुःखोपरि प्रभोः । मा भूत् पितामहस्येति, न प्रात्राजीत् तदैव सः ||६०३ || केवलज्ञानिनः पादान्, वन्दित्वाऽथ भगीरथः । रथमारुह्य भूयोऽपि, साकेतनगरं ययौ । ६०४ ॥ १ दयासहितः । २ कुबेरः । द्वितीयं पर्व षष्ठः सर्गः अजित सगरयो - चरितम् । जह्वप्रभृतीनां सगरपुत्राणां भगीरथस्य च पूर्वभवाः ॥२८० ॥ . Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ESCREENSESSAGESAEE आज्ञां कृत्वाऽभ्युपेतं तं, प्रणमन्तं पितामहः । मुहुः शिरसि जघौ च, पृष्ठेऽस्पाक्षीच पाणिना ॥६०५||* भगीरथमथोवाच, सगरः स्नेहगौरवात् । बालोऽप्यसि वयो-बुद्धिस्थविराणां त्वमग्रणीः॥६०६॥ 15 चालोऽस्मीति स मा वादी, राज्यभारं गृहाण नः । तारमो येन निर्भाराः, सन्तः संसारसागरम् ॥६०७॥ भवः खयम्भूरमणाधिवद् यद्यपि दुस्तरः । तीर्णस्तथापि मत्पूर्वैरिति श्रद्धा ममाऽप्यभृत् ॥६०८॥ वत्स ! तेषामप्यपत्य, राज्यभार उपाददे । ततस्तद्दर्शितः पन्थाः, पाल्यतां ध्रियतां मही ॥ ६०९॥ नत्वा भगीरथोऽप्येवमभाषत पितामहम् । युक्तमादित्सते तातः, प्रव्रज्यां भवतारणीम् ॥६१०॥ खामिन् ! व्रतायाऽयमपि, जनः किन्तूत्सुकायते । राज्यदानप्रसादेनाऽप्रसादं मा कृथास्ततः ॥ ६११ ॥ चक्रवर्त्यप्युवाचैवं, युक्तमस्सत्कुले व्रतम् । ततोऽपि किन्त्वभ्यधिकं, गुर्वाज्ञापालनव्रतम् ॥ ६१२ ॥ गृह्णीयाः समये मद्वत् , परिव्रज्यां महाशय ! । स्वापत्ये कवचहरे, निदधीथाश्च मेदिनीम् ॥ ६१३ ॥ श्रुत्वा भगीरथोऽप्येवं, गुर्वाज्ञाभङ्गकातरः । भवभीरुश्च मौन्यस्थाद्, दोलायितमनाचिरम् ॥ ६१४ ॥ ततः सिंहासने स्वस्मिन्नुपवेश्य भगीरथम् । राज्येऽभ्यषिश्चत् सगरस्तदैव परया मुदा ॥ ६१५॥ तदानीं चक्रिणोऽभ्येत्य, शीघ्रमुद्यानपालकाः । शशंसुः समवसृतं, बाह्योद्यानेऽऽजितप्रभुम् ॥६१६॥ पौत्रराज्याभिषेकेणाऽजितखाम्यागमेन च । तदानीं चक्रिणो जज्ञे, हर्षोत्कर्षो यथोत्तरम् ॥ ६१७ ॥ तत्रस्थोऽपि स उत्थाय, नमश्चके जगत्पतिम् । पुरःस्थमिव च शक्रस्तवेनोचैरवन्दत ॥६१८ ।। तेषामुद्यानपालानां, खाम्यागमनशंसिनाम् । ददौ चक्री हिरण्यस्य, कोटीरर्धत्रयोदश॥ ६१९॥ .. अस्पृशत् । २ संसारः। ३ ग्रहीतुमिच्छति । Jain Education Intel For Private & Personal use only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरि ॥२८१ ॥ Jain Education Inte समं भगीरथेनाऽथ, सामन्तादिभिरावृतः । ययौ समवसरणं, सगरो गुरुसम्भ्रमः ॥ ६२० ॥ उत्तरद्वारमार्गेण, तत्र च प्रविवेश सः । प्रविष्टमानी हर्षेण, सिद्धिक्षेत्र इवोच्चकैः ॥ ६२१ ॥ तत्र प्रदक्षिणीच, त्रिश्चक्री धर्मचणिम् । नमस्कृत्य पुरोभूय, स्तोतुं चेति प्रचक्रमे ।। ६२२ ॥ मप्रॆसत्तेस्त्वत्प्रसादस्त्वत्प्रसादादियं पुनः । इत्यन्योऽन्याश्रयं भिन्द्धि, प्रसीद भगवन् ! मयि ॥ ६२३ || निरीक्षितुं रूपलक्ष्मी, सहस्राक्षोऽपि न क्षमः । स्वामिन्! सहस्रजिह्वोऽपि शक्तो वक्तुं न ते गुणान् ॥ ६२४ ॥ संशयान् नाथ ! हरसेऽनुत्तरखर्गिणामपि । अतः परोऽपि किं कोऽपि, गुणः स्तुत्योऽस्ति वस्तुतः १ ॥ इदं विरुद्धं श्रद्धत्तां, कथमश्रद्दधानकः १ । आनन्दसुखश (स) क्तिच, विरक्तिश्च समं त्वयि ।। ६२६ ॥ नाथेयं घट्यमानाऽपि दुर्घटा घटतां कथम् १ । उपेक्षा सर्वसत्त्वेषु, परमा चोपकारिता ।। ६२७ ॥ द्वयं विरुद्धं भगवंस्तव नाऽन्यस्य कस्यचित् । निर्ग्रन्थता परा या च, या चोच्चैश्चक्रवर्तिता ।। ६२८ ॥ नारका अपि मोदन्ते, यस्य कल्याणपर्वसु । पवित्रं तस्य चारित्रं, को वा वर्णयितुं क्षमः १ ।। ६२९ ॥ शमोऽद्भुतोऽद्भुतं रूपं, सर्वात्मसु कृपाऽद्भुता । सर्वाद्भुतनिधीशाय तुभ्यं भगवते नमः ॥ ६३० ॥ इति स्तुत्वा जगन्नार्थं, यथास्थानं निषद्य च । सुधानिस्यन्दसधीचीं, सोऽश्रौषीद् धर्मदेशनाम् ॥ ६३१॥ देशनान्ते च सगरो, नमस्कृत्य पुनः प्रभुम् । रचिताञ्जलिरित्यूचे, गद्गदाक्षरया गिरा ।। ६३२ ।। न खो न च परः कोऽपि, तीर्थेश ! तव यद्यपि । तथाप्यज्ञानतो नाथ !, मया पर्यनुयुज्यसे ॥ ६३३ ॥ विश्वमप्युत्तारयसि, भवाम्भोधेर्दुरुत्तरात् । नाथ ! तत्र निमञ्जन्तं कथं मां त्वमुपेक्षसे १ ।। ६३४ ।। १ महाहर्षः । २ आत्मानं प्रविष्टं मन्यते । ३ अजितस्वामिनम् । ४ मम प्रसन्नतायाः । ५ मम प्रसन्नता । ६ इन्द्रोऽपि । द्वितीयं पर्व षष्ठः सर्गः अजित सगरयो - श्वरितम् । समरख प्रव्रज्या ॥२८१ ॥ . Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SASRSSRCESSARSHA संसारगर्तपतनादनेकक्लेशसङ्कलात् । रक्ष रक्ष जगन्नाथ !, दीक्षां देहि प्रसीद मे ॥ ६३५ ।। संसारसुखमूढेन, मयाऽऽयुरियदात्मनः । निष्फलं क्षपितं स्वामिन् !, बालेनेवाऽविवेकिना ॥ ६३६ ॥ विज्ञाप्यैवं तस्थिवांसं, सगरं रचिताञ्जलिम् । भगवानप्यनुजज्ञे, दीक्षाग्रहणकर्मणि ॥ ६३७ ॥ अथोत्थाय नमस्कृत्य, भगवन्तं भगीरथः । एवमभ्यर्थयाश्चक्रेऽभ्यर्थनाकल्पभूरुहम् ॥ ६३८॥ दीक्षां दास्यन्ति तातस्य, स्वामिपादाः परं क्षणम् । प्रतीक्षणीयं कुर्वेऽहं, यावन्निष्क्रमणोत्सवम् ॥ ६३९ ॥ काऽप्यपेक्षा मुमुक्षूणां, न यद्यप्युत्सवादिषु । तथापि मेऽनुरोधेन, तातोऽप्येवं करिष्यति ॥ ६४०॥ ततस्तदनुरोधेन, सगरोऽत्युत्सुकोऽपि सन् । जगाम नगरी भूयः, प्रणिपत्य जगद्गुरुम् ।। ६४१ ॥ सिंहासननिषण्णस्य, सगरस्य भगीरथः । दीक्षाभिषेकमकरोत, पुरुहूत इवार्हतः॥ ६४२॥ उन्मृष्टो गन्धकाषाय्या, लिप्तो गोशीर्षचन्दनैः । मङ्गल्ये पर्यधत्ताऽथ, सगरो दिव्यवाससी ॥ ६४३॥ ततो देवोपनीतानि, दिव्यालङ्करणानि च । अलञ्चके शरीरेण, गुणालङ्करणोऽपि सः॥ ६४४ ।। यथाकाममथार्थिभ्यः, प्रदाय सगरो वसु । शिविकामारुरोहोच्चैर्विशदच्छत्र-चामरः ॥ ६४५॥ प्रत्यापर्ण प्रतिगृहं, प्रतिरथ्यं च नागरैः । नगर्या विदधे मश्च-पताका-तोरणादिकम् ॥ ६४६ ॥ स्थाने स्थाने नागरैश्च, जनैर्जानपदैरपि । पूर्णपात्रादिना हर्षात , प्रकृतानेकमङ्गलः॥६४७ ॥ पुनः पुनः प्रेक्ष्यमाणः, स्तूयमानः पुनः पुनः । पुनः पुनः पूज्यमानोऽन्वीयमानः पुनः पुनः ॥६४८॥ 1 एतावदायुष्यम् । २ अनुशा ददौ । ३ प्रार्थनापूरणे कल्पवृक्षसदृशम् । ४ आग्रहेण । Jain Education Intern For Private & Personal use only , Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते ॥२८२॥ सर्ग: अजितसगरयोचरितम्। बिनीतामध्यतश्चक्री, धुमध्येनेव चन्द्रमाः । भृशायमानोऽपि जनोपरोधाच्छनकैर्ययौ ॥ ६४९ ॥ . .. ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ भगीरथेन सामन्तैरमात्यैः सपरिच्छदैः । खेचरैश्चाऽन्वीयमानः, सगरोज्गाजिनान्तिकम् ॥ ६५० ॥ तत्र प्रदक्षिणीकृत्य, भगवन्तं प्रणम्य च । भगीरथोपनीतं स, यतिवेषमुपाददे ॥ ६५१ ॥ समक्षं सर्वसङ्घस्य, स्वामिवाचनयोचकैः । पठन् सामायिकं दीक्षां, चतुर्यामां स आददे ॥ ६५२ ॥ कुमारैः सह ये जग्मुर्नुप-सामन्त-मत्रिणः । सगरेण समं तेऽपि, भवोद्विग्नाः प्रवव्रजुः ॥ ६५३ ॥ चक्रे चक्रिमुनेस्तस्य, मनःकुमुदकौमुदीम् । अनुशिष्टिमयीं धर्मदेशनां धर्मसारथिः ॥ ६५४॥ पूर्णायामथ पौरुष्यां, देशनां विससर्ज ताम् । देवच्छन्दमलञ्चक्रे, ततश्चोत्थाय तीर्थकृत् ॥ ६५५ । । खाम्यभिपीठमध्यास्य, चक्रे गणधराग्रणीः । स्वामिप्रभावात् खामीव, देशनां संशयच्छिदम् ॥ ६५६ ॥ द्वितीयस्यां च पौरुष्यां, पूर्णायां सोऽपि देशनाम् । संवत्रे स्तनितमिव, प्रवृष्टः प्रावृडम्बुदः॥ ६५७॥ ततः स्थानादथाऽन्यत्र, विहाँ प्राचलत् प्रभुः । देवा भगीरथाद्याश्च, स्थानं निजनिजं ययुः ॥६५८ ॥ विहरन् स्वामिना साधं, सगरोऽपि महामुनिः। अध्यष्ट द्वादशाङ्गानि, मातृकामिव लीलया ॥६५९॥ स पश्च समितीस्तिस्रो, गुप्तीश्चारित्रमातृकाः । सम्यगाराधयामास, प्रमादरहितः सदा ॥ ६६०॥ स नित्यं भगवत्पादशुश्रूषोद्भूतया मुदा । परीषहभवं क्लेशं, न विवेद मनागपि ।। ६६१ ।। त्रैलोक्यचक्रिणो भ्राता, चत्र्यसि वयमित्यपि । नाऽहेश्चक्रे किन्तु चक्रे, विनयं संयतेषु सः॥६६२॥ गगनमध्येन । २ अजितप्रभुः। ३ द्वादशाक्षरीवर्णानिव । ४ मुनिषु। ५न अहकार चकार ।" सगरस्थ प्रव्रज्या केवलज्ञानं च ॥२८२॥ Jan Education in For Private & Personal use only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितस्वा. मिसगरयो निर्वाणम् SARSANSARAKAS पश्चादुपात्तदीक्षोऽपि, तपसाऽध्ययनेन च । चिरप्रव्रजितेभ्योऽपि, राजर्षिः सोऽत्यरिच्यत ॥ ६६३ ॥ घातिकर्मक्षयात् तस्य, केवलज्ञानमुज्वलम् । उदभूद् दुर्दिनच्छेदात् , प्रताप इव भाखतः ॥ ६६४ ॥ , आरभ्य केवलोत्पत्तेरुव्या विहरतः सतः। अजितखामिनः पश्चनवतिर्गणभृद्वराः॥ ६६५॥ लक्षं मुनीनां साध्वीनां, पुनस्त्रिंशत्सहस्रयुक् । लक्षत्रयं पूर्वभृतां, सप्तत्रिंशच्छतानि तु ॥ ६६६॥.. | मनःपर्ययिसहस्राः, सहसाधचतुःशताः । द्वादशाऽवधिभाजां तु, चतुर्णवतिशत्यथ ॥ ६६७॥ उत्पन्न केवलानां तु, द्वाविंशतिसहस्यभृत् । द्वादश वादलब्धीनां, सहस्राः सचतुःशताः॥६६८॥ वैक्रियलब्धिसहस्रा, विंशतिः सचतुःशताः । ऊना द्वाभ्यां सहस्राभ्यां, श्रावकाणां त्रिलक्ष्यथ ॥ ६६९॥ पञ्चचत्वारिंशत्सङ्ख्यैः, सहस्रैरधिकानि तु । श्राविकाणां पञ्चलक्षाण्यजायन्त जगद्गुरोः ॥ ६७० ॥ एकाङ्गोने पूर्वलक्षे, दीक्षाकल्याणकाद् गते । निर्वाणसमयं ज्ञात्वा, सम्मेताद्रिं विभुर्ययौ ॥ ६७१ ॥ लोकाग्रस्येव सोपानं, सम्मेतमधिरूढवान् । द्वासप्ततिपूर्वलक्षसङ्ख्यायुरजितप्रभुः ॥ ६७२ ॥ श्रमणानां, सहस्रेण, समं तत्र जगद्गुरुः । पादपोपगमं नामाऽनशनं प्रत्यपद्यत ॥ ६७३ ॥ - तदा युगपदिन्द्राणामासनानि चकम्पिरे । अनिलान्दोलितोद्यानवृक्षशाखा इवाऽभितः ॥ ६७४ ॥ प्रयुक्तावधयस्ते तु, निर्वाणसमयं प्रभोः । विदाञ्चक्रुरुपेयुश्च, सम्मेतगिरिमूर्धनि ॥ ६७५ ॥ तत्र प्रदक्षिणीचक्रुः, सामरास्ते जगद्गुरुम् । शुश्रूषमाणास्तस्थुश्च, पादान्तेऽन्तिषदो यथा ॥ ६७६ ॥ पादपोपगमस्याऽथ, मासे पूर्णे जगद्गुरुः । चैत्रस्य शुक्लपञ्चम्यां, चन्द्रे मृगशिरस्थिते ॥ ६७७॥ , एकपूर्वाङ्गोने इत्यर्थः । २ शिघ्याः। Jain Education Interne For Private & Personal use only Thow.jainelibrary.org Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते सर्गः अजित. ॥२८३॥ सगरयो श्वरितम् । पर्यवस्था काययोगे, बादरेऽवस्थितोऽरुणत । बादरौ चिस-चाग्योगी, रथस्थ इव वाजिनौ ॥ ६७८ ॥ सूक्ष्मेण काययोगेन, काययोगं च वादरम। ततो रुरोध भगवान , दीपेन ध्वान्तपूरवत् ॥ ६७९ ॥ काययाग स्थितः सूक्ष्म, योगों वाक्चित्तयोरपि । सूक्ष्मौ रुरोध भेजे च, ध्यानं सूक्ष्मक्रियं ततः॥६८०॥ शुक्लध्याने चतुर्थ च, शैलेशीकरणं प्रमुः। पश्चलघ्वक्षरोचारमात्रकालं समाश्रयत् ॥ ६८१॥ क्षीणावशिष्टको च, सिद्धानन्तचतुष्टयः । परमात्मा प्रभः प्राप, लोकाग्रमृजुना पथा ॥ ६८२॥ अष्टादश पूर्वलक्षी, कौमारेऽगाजगत्पतेः । पूर्वलक्षास्थिपञ्चाशद, राज्ये पूर्वाङ्गसंयुताः॥ ६८३ ॥ व्रते छद्मस्थभावेऽगाद्, द्वादशाब्धथ केवले । पूर्वलक्षं द्वादशाब्द्या, पूर्वाङ्गेण च वर्जितम् ॥ ६८४॥ . ततश्चर्षभनिर्वाणानिर्वाणमजितप्रभोः । पञ्चाशत्कोटिलक्षेषु, सागराणां गतेष्वभूत् ॥ ६८५॥ सहस्रं मुनयस्तेऽपि, पादपोपगमस्थिताः। उत्पन्न केवला रुद्धयोगास्तद्वद् ययुः शिवम् ॥ ६८६ ॥.. | तत्र कृत्वा समुद्धातं, सगरोऽपि महामुनिः । स्वामिप्राप्तं पदं प्रापाऽनुपदीव क्षणादपि ॥ ६८७॥ तदा च स्वामिनिवाणपर्वणा समजायत । अदृष्टशर्मणां शर्म, नारकाणामपि क्षणम् ॥ ६८८॥ अथाऽङ्गं स्वामिनः शक्रो, दिव्यैरनपयजलैः । गोशीर्षचन्दनरसैः, सशोको विलिलेप च ।। ६८९॥ खाम्यङ्गं वाँसयामास, वाससा हंसलक्ष्मणा । भषयामास च हरिविचित्रैर्दिव्यभूपणैः ॥ ६९०॥ मुनीनामपरेषां तु, शरीरेषु दिवौकसः । सानाऽङ्गराग-नेपथ्या-ऽऽच्छादनानि वितेनिरे ॥ ६९१॥ १ अनुगामीव। २ सुखम्। आच्छादयामास । SCARICATURALISTOGRAAG अजितप्रभु निर्वाणमहोत्सवः ॥२८॥ Jain Education Internat For Private & Personal use only li Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरोग्य दिव्यशिविकां, स्वामिदेहं पुरन्दरः। गोशीर्षचन्दनमयीमानपीदुचितां चिताम् ॥ ६९२ ॥ आरोग्य शिबिकामन्यमुन्यङ्गान्यपरे पुनः । गोशीर्षकाष्ठरचितां, चितां निन्युर्दिवौकसः ॥ ६९३॥ चितान्तश्चक्रिरे देवा, अग्निमग्निकुमारकाः। झगित्यज्वालयंस्ते च, देवा वायुकुमारकाः ॥ ६९४ ॥ शक्रादेशेन कर्पूर-कस्तूरी रशोऽमराः। सर्पिष्कुम्भांश्च शतशश्चितान्तः परिचिक्षिपुः॥६९५॥ विमुच्याऽस्थीनि दग्धेषु, स्वामिनोऽन्येषु धातुषु । व्यध्यापयश्चितावति, देवा मेघकुमारकाः ॥६९६॥ शक्रेशानौ स्वामिदंष्ट्र, दक्षिण-दक्षिणेतरे । ऊर्द्धस्थे चमर-बली, त्वगृह्णीतामधःस्थिते ॥ ६९७ ॥ अपरानपरे विन्द्रा, दशनान् जगृहुः प्रभोः। विभज्य भक्तितस्त्वन्ये, कीकसानि दिवौकसः॥ ६९८॥ यत किश्चिदन्यदपि तत्र विधेयमासीत्, सर्व विधाय विधिवद् विबुधाधिपास्तत् । नन्दीश्वरं समधिगम्य च शाश्वतार्हदष्टाह्निकां विदधिरे महतोत्सवेन ॥ ६९९ ॥ जग्मुस्ततो निजनिजं सदनं सुरेन्द्रा, मध्येसुधर्ममथ माणवकाभिधेषु । स्तम्भेषु वज्रमयवृत्तसमुद्कान्तर्विन्यस्य ताश्च दधिरे जिननाथदंष्ट्राः ॥७००॥ . ताः पूजयन्ति सततं वरगन्धधूपैर्माल्यैश्च शाश्वतजिनप्रतिमावदिन्द्राः। अव्याहतं तदनुभाववशेन तेषां, सञ्जायते विजयमङ्गलमद्वितीयम् ॥ ७०१॥ सगरनृपचरित्रेणान्तरस्थेन कामं, सर इव रसपूर्ण पद्मखण्डेन हृद्यम् । चरितमजितनाथस्यैहिकामुष्मिकाणि, प्रवितरतु सुखानि श्रोतृसामाजिकानाम् ॥ ७०२॥ १ घृतकुम्भान्। २ त्वचादिषु । ३ निरवापयन् । ४ अस्थीनि । ५ करणीयम् । ६ वज्रनिर्मितवृत्ताकारमञ्जूषायाम् । त्रिषष्टि, ४९ Jain Education Internal For Private & Personal use only | . Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये द्वितीये पर्वणि अजितखामि-सगरदीक्षा-निर्वाणवर्णनो नाम षष्ठः सर्गः ॥ समाप्तं चेदमजितखामि-सगरचक्रवर्तिप्रतिवद्धं द्वितीयं पर्वेति ॥ For Private & Personal use only . Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intern ॥ अर्हम् ॥ ॥ नमः श्रीधर्मकथानुयोगव्याख्यातृभ्यः स्थविरेभ्यः ॥ न्यायाम्भोनिधि-जैनाचार्य -श्रीविजयानन्दसूरिवरपट्टालङ्कार-श्रीविजयवल्लभसूरिभ्यो नमः ॥ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविनिर्मितं त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका तृतीयं पर्व प्रथमः श्रीसम्भवजिनादिशीतलजिनपर्यन्तजिनाष्टकचरितप्रतिबद्धं तृ ती यं पर्व। प्रथमः सर्गः। श्रीसम्भवजिनचरित्रम् । सर्गः पुरुषचरिते महाकाव्ये ॥२८५॥ सम्भवजिनचरितम् । सम्भवजिनदापूर्वभवचरितम् त्रैलोक्यप्रभवे पुण्यसम्भवाय भवच्छिदे । श्रीसम्भवजिनेन्द्राय मनोभवभिदे नमः॥१॥ धात्रीपवित्रीकरणं लैवित्रं कर्मवीरुधाम । चरित्रमथ वक्ष्यामि श्रीसम्भवजिनेशितुः॥२॥ धातकीखण्डद्वीपस्य क्षेत्र ऐरावताभिधे । पुरी क्षेमपुरी नामा क्षेमधामाऽस्ति विश्रुता ॥३॥ तस्यामासीत समायात इवोव्यां मेघवाहनः । महीपतिविपुलधीर्नाम्ना विपुलवाहनः॥४॥ आरामिक इवाऽऽराममविराममसौ प्रजाः । विधिवत् पालयामास च्छिन्दन् शल्यानि सर्वतः ॥५॥ प्रीणयन्ती जनपदान् परितः पथिकानिव । नीतिकल्लोलिनी तस्य प्रससार निरन्तरम् ॥६॥ अपराधं परस्येव स्वस्यापि न्यायतत्परः । असह्यशासनधरः स न सेहे मनागपि ॥ ७॥ उपायं प्रायुत तुर्य दोषमानेन दोषिषु । सोऽगदं गदमानेनाऽऽतुरेष्विव चिकित्सकः॥८॥ मदनविनाशकाय । २ पृथ्वी । ३ छेदकम् । ४ कर्मलतानाम् । * °मकरी ना संवृ०॥ ५ प्रसिद्धा। ६ इन्द्रः। ७ दुःखानि । 1८ नदी। ९ उग्राज्ञाकारकः। १० तुर्य उपायो दण्डः। ११ अपराधानुसारेण । १२ यथा वैद्यः रोगिषु रोगानुसारेण औषधं प्रयुके। ॥२८५॥ Jain Education Inte l For Private & Personal use only . Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणानुरूपमकरोदर्चनां गुणिनामसौ । विवेकिनां विवेकस्य फलं ह्यौचित्यवर्तनम् ॥९॥ मदस्थानानि तस्याऽऽसन् न मदायाऽन्यलोकवत् । नदीवन्न नदीभर्तुरुत्सेकाय धनागमः ॥१०॥ तस्य चित्ते चैत्य इव सर्वज्ञो देवता सदा । वाचि जैनागम इव सर्वज्ञगुणशंसनम् ॥११॥ देवाय तीर्थनाथाय गुरवे च सुसाधते । स शिरोऽनमयत पृथव्यां सर्वोऽप्यन्यस्तमानमत् ॥ १२॥ अनार्त-रौद्रध्यानेन खाध्यायेन जिनार्चया । उपाददे स परमं मनो-वाग्-वपुषां फलम् ॥ १३ ॥ तस्मिन् श्रावकधर्मोऽभूत् स द्वादशविधोऽपि हि । अनारतमपि स्यान् नीलीराग इवांशुके ॥ १४ ॥ राजचके जागंरूको यथा द्वादशधा स्थिते । तथा श्रावकधर्मेऽपि स बभूव महामनाः ॥१५॥ धर्मप्ररोहबीजानि द्रविणानि यथोचितम् । सप्तक्षेत्र्यां पवित्रात्मा निरन्तरमुवाप सः॥१६॥ दीना-ऽनाथैकशरणादेककारुणिकात् ततः । न रिक्तो निर्ययावर्थी समुद्रादिव वारिदः ॥ १७ ॥ याचकेषु ववर्षाऽथं स पर्जन्य इवोदकम् । केवलं निरहङ्कारो न जगर्ज मनागपि ॥१८॥ कण्टकोच्छेदपरशौ त्यागकल्पमहीरहे । नाभवद् दुःस्थितः कोऽपि तस्मिन् शासति मेदिनीम् ॥ १९॥ तसिन्नपि महीनाथे कदाचिदथ भीषणम् । महादुर्भिक्षमभवद् दुर्लङ्घा भवितव्यता ॥ २० ॥ • * 'वर्तिनाम् संवृ०॥ गर्वाय वृद्धये च । २ प्रशंसा । ३ आर्त-रौद्राख्याशुभध्यानयुगलवर्जितेन धर्म-शुक्लध्यानसहितेनेत्यर्थः । ४ सूत्रार्थतदुभयवाचना-प्रच्छनादिरूपेण । ५ लेभे। ६ अत्यन्तं स्थिरः । ७ वस्ने । ८ जागरणशीलः । ९ धर्माकुरस्य बीजानि हेतव इत्यर्थः । १० द्रव्याणि । ११जिनचैत्यं जिनप्रतिमा पुस्तकं साधुःसाध्वी श्रावकः श्राविका चेति सप्तक्षेत्री। १२ शून्यहस्तः। १३ अर्थीयाचकः । १४ मेघः । १५ भएपमपि । १६ दानकल्पवृक्षे । १७ दुष्कालः । Jain Education In IXIL For Private & Personal use only . Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरिते महाकाव्ये ॥२८६॥ Jain Education In अन्धकारीकृतदिशामम्भोदानामभावतः । वर्षाकालः समजनि, रौद्रो ग्रीष्म इवाऽपरः ॥ २१ ॥ शोषयन्तोऽशेषतोयान्यंहिंपोन्मूलनोन्मदाः । कल्पान्तानिलसोदर्या नैर्ऋता वायवो ववुः ॥ २२ ॥ मेघा बभ्रुवुर्नभसि काकोदरसहोदराः । कांस्यतालसमान श्रीरदृश्यत दिवाकरः ॥ २३ ॥ धान्याभावादजायन्त पौरजानपदा जनाः । तापसा इव वृक्षत्वक् कन्द-मूल-फलाशिनः ॥ २४ ॥ कथञ्चिदपि लब्धेन ग्रासेन महताऽपि हि । न तृप्यन्ति स्म सञ्जार्तभस्मका इव मानवाः ।। २५ ।। भिक्षूया लज्जमानः सन् भिक्षाग्रहणहेतवे । बभूव लोकः प्रायेण मायातापसवेषभृत् ॥ २६ ॥ पितरो मातरः पुत्रा मिथस्त्यक्त्वाऽर्शनायया । अन्यतश्चाऽन्यतश्चाऽयुर्दिक्सम्मोहवशादिव ॥ २७ ॥ अपि सम्पश्यमानस्य क्रन्दतोऽतिबुभुक्षया । लब्धं कथञ्चिदन्नादि पुत्रस्य न ददौ पिता ॥ २८ ॥ विक्रीणीते स्म चणकप्रसृत्या निजबालकम् । माता भ्रमन्ती रथ्यासु शूर्पादि श्वपची यथा ॥ २९ ॥ प्रातरीश्र्श्वरहर्म्याणां पतितानङ्गणे कणान् । वरौकाश्चिक्यिरे रङ्का गृहपारापता इव ॥ ३० ॥ अपि कान्दविकादीनामापणेषु मुहुर्मुहुः । लब्ध्वा च्छलं श्वान इव भोज्यमाचिच्छिदुर्जनाः ॥ ३१ ॥ अप्यहः सकलं भ्रान्त्वा कथञ्चिदहरत्यये । ग्रासमात्रमपि प्राप्य सुदिनं मेनिरे नराः ॥ ३२ ॥ रङ्गैः कैरङ्कसङ्काशैर्लुठितैरतिभीषणैः । श्मशानादत्यरिच्यन्त पुरराजपथा अपि ॥ ३३ ॥ १ वृक्षोन्मूलनोन्मत्ताः । २ काकोदरसर्पसमानाः श्वेता इत्यर्थः । ३ कांस्यपृष्ठसमानकान्तिः पीत इत्यर्थः । ४ नगरवासिनो देशवासिनश्च । ५ कवलेन । ६ जातभस्मकाभिधानरोगा इव । * भिक्षाया संवृ० ॥ ७ कृत्रिमतापसवेषधरः । ८ बुभुक्षया । ९ जग्मुः । १० चणकार्द्धाञ्जलिना । ११ चाण्डाली । १२ धनाढ्यगृहाणाम् । १३ दीनाः । १४ हहेषु । १५ दिनान्ते । १६ अस्थिपञ्जरसदृशैः । तृतीयं पर्व प्रथमः सर्गः सम्भवजिन चरितम् । सम्भवजिनपूर्वभवचरितम् दुर्भिक्ष: ||२८६॥ w. Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ROOSSOS रेलरोलैरविरलैः प्रसरद्भिः पदे पदे । अयन्त सतां कर्णाः क्षिप्ताभिरिव सूचिभिः ॥ ३४॥ कल्पान्तकल्पे दुष्काले तसिन् सङ्घ चतुर्विधम् । क्षीयमाणं नृपः प्रेक्ष्य, दध्याविति महामनाः॥३५॥ इयं खलु धरित्री मे त्रातव्या सकलाऽपि हि । किं करोमि परं? पापः कालोऽयं नाऽस्त्रगोचरः ॥३६॥ तथाप्यवश्यं त्रातव्यः सङ्घोऽयमखिलोपि हि । पात्रोपकारे प्रथम महतां यदुपंक्रमः ॥ ३७॥ चिन्तयित्वैवमुवीशः सूदानिति समादिशत् । सङ्घभुक्तावशेष भो! भोक्ष्येऽहं खल्वतः परम् ॥ ३८॥ मत्कृते कृतमन्नादि दातव्यं वतिनामतः । श्रावका भोजयितव्याः पृथक् सिद्धौदनेनं तु ॥३९॥ तथेति प्रतिपद्याऽऽज्ञां राज्ञस्ते सूदपुङ्गवाः । तथैव विदधुर्नित्यं स्वयं चैक्षिष्ट पार्थिवः॥४०॥ नासिकापेयसौरभ्याः कलमाः कमला इव । स्थूला माषकणेभ्योऽपि मुद्गा रससमुंद्गकाः॥४१॥ घृतोदस्य पयांसीव प्रचुराणि घृतानि च । सुधाया इव मित्राणि चित्राणि व्यञ्जनानि च ॥४२॥ मण्डकाः खण्डसम्मिश्रा मोदकाच प्रमोदकाः । खाद्यानि स्वादहृयानि मण्डिकाः खण्डमण्डिताः॥४३॥ सुकुमारा मर्मराली वैटकाचाऽतिपेशलाः । तीमनं च मनोहार' पिच्छिलानि दधीनि च ॥४४॥ प्रकृष्टरुदितकोलाहलैः, 'रडारोल' इति भाषायाम् । २ कल्पान्तसदृशे । अस्त्रघात्यः । ४ गुणवदुपकारे । ५ प्रारम्भः। ६ राजा। ७ पाचकान्। ८ मुनीनाम् । * न च संवृ०॥ ९ पुं-नपुंसकोऽयं शब्दः । १. समुद्गका सम्पुटः 'डबो' इति भाषायां प्रसिद्धः। ११ तन्नान्नः समुद्रस्य । १२ शाकानि । १३ भक्ष्यविशेषा भाषायां "मांडा"1१४ भक्ष्यविशेषा भाषायां "खाजा"। १५ मर्मरशब्दवन्तः। १६ 'वडा' इति भाषायां प्रसिद्धिः। १७ कथिका 'कढी' इति भाषायाम्। * पिच्छला संवृ० मो०॥ १८ चिक्कणानि । CLOCROSS Jain Education in For Private & Personal use only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते तृतीयं पर्व प्रथमः सर्गः सम्भवजिनचरितम् । महाकाव्ये ॥२८७॥ दुग्धानि क्वार्थसिद्धानि मार्जित क्षुत्प्रमार्जनी । राजभोजनवत तंत्राऽभवन् श्रावकभोजने ॥४५॥ पञ्चभिः कुलकम् ।। एपणीय-कल्पनीय-प्रासुकानि पुनः स्वयम् । महामुनीनां स ददौ महाराजो महामनाः ॥४६॥ दुर्भिक्षकालं सकलमेवं स वसुधाधवः । ददौ सकलसङ्घाय भोजनादि यथाविधि ॥४७॥ वैयावृत्यं समाधिं च सर्वसङ्घस्य कुर्वता । अर्जितं तीर्थकृन्नाम कर्म तेन महीभुजा ॥४८॥ ___ निषण्णश्चन्द्रशालान्तरपरेयुः स उद्युतम् । नभस्यपश्यदम्भोदमातपत्रमिवाऽवनेः॥४९॥ नीलीरक्तांशुकमयः स व्योम्न इव कञ्चकः । तडिल्लतामण्डनभृत् समन्ताद् व्यानशे दिशः॥५०॥ अत्रान्तरे समुत्तस्थावामूलान्दोलितद्रुमः । पातालकुम्भसर्वस्खमिवोचण्डः समीरणः ॥५१॥ वातेन तेन महता स महानपि वारिदः । अर्कतूलमिवोद्धय दिशोदिशमनीयत ॥ ५२ ॥ आविर्भूतं क्षणान्मेधं विनष्टं च क्षणादपि । तं प्रेक्ष्य स क्षमानाथः सुधीरेवमचिन्तयत् ॥ ५३॥ असौ सम्पश्यमानानां दृष्टनष्टो यथाऽम्बुदः । ज्ञातं तथाऽन्यदपि हि संसारे सर्वमीदृशम् ॥ ५४॥ तथाहि खेच्छया जल्पन् गायन नृत्यन् हसनथ । दीव्यन् विचित्रान् द्रविणार्जनोपायान् विचिन्तयन् ॥ गच्छंस्तिष्ठन् शयानो वाधिरूढो वाहनेपि वा । कुप्यन् वा विलसन् वापि, गृहे वा बहिरेव वा ॥५६॥ * °थशुद्धा संवृ० संल. मो० ॥ १ रसाला 'श्रीखंड' इति भाषायां प्रसिद्धिः । । तत्र जाता श्राव सक० मो० ॥ + त्रिभिर्विशेषकम् सङ्घ मो० ॥ २ निर्दोष साधुयोग्यमचित्तं च । ३ प्रासादतलं 'अगासी' इति लोके ख्यातम् । ४ ऊर्वम् । ५ छत्रम् । ६ प्रचण्डः। ७ वायुः। ESARGAHARANASALA सम्भवजिनपूर्वभवचरितम् ॥२८७॥ Jain Education Intern For Private & Personal use only Twww.ininelibrary.org Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education In ++++ कालादिष्टेन सद्योऽपि दन्दश॑केन दश्यते । विद्युद्दण्डेन चण्डेन विनिपत्य निपात्यते ॥ ५७ ॥ मतङ्गजेन मत्तेन पिष्यते वा रदादिभिः । जीर्णवप्रादिभित्त्या वा विनिपत्य पिधीयते ॥ ५८ ॥ व्याघ्रेण भक्ष्यते वाऽपि बुभुक्षाक्षामकुक्षिणा । दोषेण वैक्रियेणाऽथ दुश्चिकित्सेन गृह्यते ॥ ५९ ॥ अकस्मादुन्मैदेनाऽथ पात्यते तुरगादिना । वैरि-चौरादिना वाऽपि हन्यते क्षुरिकादिना ॥ ६० ॥ दद्यते वा प्रदीप्तेन प्रदीपनकवह्निना । कृष्यते वा महावृष्टिसरित्पूरादिरंहसा ॥ ६१ ॥ बलवद्वातदोषेण सर्वाङ्गं भज्यतेऽथवा । आश्लिष्यते श्लेष्मणा वा शान्ताशेषतनूष्मणा ॥ ६२ ॥ यदि वा पित्तदोषेण प्रबलेन विलुप्यते । सद्यस्कसन्निपातेन यदि वा परिभूयते ॥ ६३ ॥ लूतया भक्ष्यते वाऽथ प्राप्यते राजयक्ष्मणा । विसूचिकोपद्रवेण यदि वाऽपि कदर्थ्यते ॥ ६४ ॥ आसाद्यते दुरन्तेनाऽर्बुदख्येन व्रणेन वा । मोह्यते वा प्रवाहेण ग्रहण्या गृह्यतेऽथवा ॥ ६५ ॥ रुध्यते वाऽपि विद्र्ध्या कौसेन क्लिश्यतेऽथवा । श्वासेन पूर्यते वाऽपि शूलेनोन्मूल्यतेऽथवा ॥ ६६ ॥ सदा सन्निहितैर्दोषैरित्यादिभिरनेकशः । दूतैरिव कृतान्तस्य जन्तुः पञ्चत्वमाप्यते ॥ ६७ ॥ ॥ त्रयोदशभिः कुलकम् ॥ तथापि शाश्वतम्मन्यः पशुवन्मन्दधीर्जनः । प्रवर्त्तते न ग्रहीतुं जीवितव्यतरोः फलम् ॥ ६८ ॥ हा ! दुःस्थिता भ्रातरो मे बाला मेऽद्यापि सूनवः । अनूढा कन्यका चेयं पाठ्यश्चायं कुमारकः ॥ ६९ ॥ १ सर्पेण । २ दन्तादिभिः । * क्वापि संवृ० संल० ॥ ३ मत्तेन । ४ एते रोगविशेषाः । ५ मृत्युः । सङ्घ० प्रतावेवेदं दृश्यते ॥ ६ अविवाहिता । संसार विरागता . Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये SACRORSCAL तृतीयं पर्व प्रथम: सर्गः सम्भवजिन चरितम्। ॥२८८॥ नवोढैव हि भार्येयं वृद्धौ च पितराविमौ । दुःस्थितौ श्वशुरौ चैतौ विधवा भगिनी त्वियम् ॥ ७० ॥ इत्यजस्रं जनं पाल्यं विचिन्तयति मुग्धधीः । हृदि बद्धशिलाकल्पं न तु वेत्ति भवार्णवे ॥७१॥ न तृप्तोऽद्यापि दयितावपुराश्लेषशर्मणः। न धातः पयसश्चापि माल्येच्छा न ह्यपूर्यत ॥७२॥ न चाऽपूरि मनोहारिपदार्थेक्षामनोरथः । वीणा-वेण्वादिगीतानां न प्रीतोऽसि मनागपि ॥ ७३॥ अद्यापि च कुटुम्बाय भाण्डागारं न पूरितम् । नवीकृतं समुद्धृत्य जीर्णमेतन मन्दिरम् ॥ ७४॥ गमितेषु परां शिक्षा नाऽऽरूढोऽस्म्येषु वाजिषु । नोक्षाणो वाहिताश्चाऽमी सुस्पैदाः स्यन्दनोत्तमैः॥७५॥ करोतीत्यन्तकालेऽपि पश्चात्तापं जडो जनः। धर्मश्चके मया नेति ना शेते मनागपि ॥ ७६ ॥ ॥पञ्चभिः कुलकम् ॥ इतः सदोद्यतो मृत्युरितो नानापमृत्यवः । व्याधयोऽवस्थिताश्चेत इतो बहब आधेयः॥७७॥ राग-द्वेषादयश्चेतो द्विषन्तो नित्यमुद्यताः । इतः कषायाः प्रबलाः खला इव विपत्प्रदाः ॥ ७८॥ न किञ्चन सुखायेह संसारे मरुदेशवत् । सुखवासेन तिष्ठामीत्याः! प्राणी न विरज्यति ॥ ७९ ॥ सुखाभासविमूढस्य प्रसुप्तस्येव सौप्तिकम् । कालपाशः पतत्याशु सद्यः प्राणापहारकृत् ॥८॥ तदमुष्य शरीरस्य नश्वरस्य यथा तथा । फलं हि धर्माचरणं सिद्धान्नस्येव भोजनम् ॥ ८१॥ नश्वरेण शरीरेणाविनश्वरपदार्जनम् । अहो! सुकरमप्येतद् विमूढ़ः क्रियते न हि ॥ ८२॥ वपुषा तदनेनाऽद्य केतुं निर्वाणसम्पदम् । भृशमेषोऽहमुत्थास्ये निधास्ये राज्यमात्मजे ॥ ८३॥ १ सततम् । २ वृषभाः । ३ वेगवन्तः । ४ नानुतप्यते । ५ मानसिक्यः पीडाः । ६ रात्रियुद्धम् । ७ मोक्षपदोपार्जनम् । For Private & Personal use only सम्भवजिनसापूर्वभवचरितम् EGALORDAR ॥२८८॥ Jain Education a l . Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CHOREOGROCCALCALCCASSECRECTEDGE इति निश्चित्य रभसादाजूहवदिलापतिः। द्वारपालेन विमलकीत कीर्तिप्रियं सुतम् ॥ ८४॥ प्रकृष्टदैवतस्येव भक्त्या परमया पितुः। पादो नत्वा कुमारः स बद्धाञ्जलिरदोऽवदत् ॥ ८५॥ महताऽपि निदेशेन प्रसीदाऽनुगृहाण माम् । पुत्रभाण्डमसौ बाल इति शङ्कां च मा कृथाः॥८६॥ प्रत्यर्थिनः पार्थिवस्य कस्याऽऽच्छिन्देऽद्य मेदिनीम् ? । सपर्वतं पर्वतीयं नृपं कं साधयामि चैं? ॥ ८७ ॥ सजलं जलदुर्गस्थमन्तयामि रिपुं च कम्? । यो वः शल्यायतेऽन्योऽपि तमप्याशूत्खनाम्यहम् ॥८८॥ बालोऽपि तव पुत्रोऽस्मि, क्षमो दुःसाधसाधने । तातस्यैव प्रभावोऽयं न भटम्मन्यताऽत्र मे ॥ ८९॥ राजाऽपि व्याजहारैवं प्रत्यर्थी पार्थिवो न मे । पर्वतीयो न वा कोऽपि व्यतिक्रामति मद्वचः ॥९॥ न च द्वीपाधिपः कोऽपि ममाज्ञां व्यतिलङ्घते । यत्साधनाय वत्स! त्वां प्रहिणोमि महाभुजः॥९१॥ एकः शल्यायते किन्तु भंववासो ममाऽनिशम् । तदुद्धर कुलोत्तंस! धराभारं धुरन्धर! ।। ९२ ॥ मयेव गृह्यतामेतत् त्वया राज्यं क्रमागतम् । आत्तदीक्षो यथाऽभीक्ष्णं भववासं त्यजाम्यहम् ॥ ९३ ॥ । अलङ्घनीयां गुर्वाज्ञां स्वसन्धों चाऽधुना कृताम् । संस्मरन् वत्स! भक्त्यापि नाऽन्यथा कर्तुमर्हसि ॥९४॥ दध्याविति कुमारोऽपि तातेनाऽऽज्ञां प्रयच्छता। मत्सन्धां स्मारयता चहा कृतोऽस्मि निरुत्तरः॥९५॥ इत्यादि चिन्तयन् राजपुत्रो राज्ञा स्वपाणिना । आदाय राज्ये निदधे साभिषेकमहोत्सवम् ॥ ९६॥ राजाऽपि कृतदीक्षाभिषेको विमलकीर्तिना । शिबिकाधिरूढश्चाऽगात् सूरिं नाम्ना खयम्प्रभम् ॥९७॥ १ राजा। २ शत्रोः। ३ गिरिवासिनम् । *वा संवृ० संल० सङ्घ० ॥ ४ नाशयामि । ५ शल्यवदाचरति । ६ उवाच । हा उल्लचते । ८ गृहवास इत्यर्थः । ९ गृहीतदीक्षः। १० प्रतिज्ञाम् । Jan Education Inter For Private & Personal use only T ww.jainelibrary.org Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते महाकाव्ये ॥२८९ ॥ Jain Education Intern तस्य चाssचार्यवर्यस्य समीपे स नृपाग्रणीः । प्रात्राजीत् सर्वसावद्य प्रत्याख्यानपुरःसरम् ॥ ९८ ॥ साम्राज्यवत् परिव्रज्यामन्तरङ्गद्विपञ्जयात् । स संयमरथारूढो विधिवत् पर्यपालयत् ॥ ९९ ॥ विंशतेः स्थानकानां च स्थानकैरपरैरपि । स पुपोष निजं कर्म तीर्थकुन्नामनामकम् ॥ १०० ॥ उपसर्गैरनुद्विग्नो मोदमानः परीषहैः । स आयुः क्षपयामास स्वयाममिव यामिकः ॥ १०१ ॥ विहितानशनो मृत्वा कल्पं स प्रापदानतम् । निर्वाणफलदायिन्या दीक्षायाः स्तोकमीदृशम् ॥ १०२ ॥ इंतच जम्बूद्वीपेऽपग्भरतार्थस्य भूषणम् | श्रावस्तीत्यस्ति विस्तीर्णा नगरी श्रीगरीयसी ॥ १०३ ॥ भूव तस्यामिक्ष्वाकु कुलक्षीरोदचन्द्रमाः । जितारिरित्यरिजयाद् यथार्थाख्यः क्षमापतिः ॥ १०४ ॥ मृगेव मृगेन्द्रस्य पक्षीन्द्रस्येव पक्षिषु । न समो नाऽधिको वाऽपि तस्याऽभूत् कोऽपि राजसु ॥ १०५ ॥ स रेजे राजभी राजा पत्तीकृत्य प्रवेशितैः । ग्रहैरिव ग्रहपतिमण्डलान्तः प्रवेशिभिः ।। १०६ ।। नार्म्यं किञ्चिदप्यूचे नाऽचचार च तादृशम् । नाऽचिन्तयच्च तादृक्षं स धर्म इव मूर्त्तिमान् ॥ १०७ ॥ विनेतरि दुराचारानर्थिभ्योऽर्थांश्च दातरि । अधार्मिको दुःस्थितो वा तस्मिन् राज्ञि न कोऽप्यभूत् ॥ १०८ ॥ सोऽत्रपाणिः कृपालु शक्तिमांश्च क्षमापरः । विद्वांश्च गतमात्सर्यो युवा चाऽऽसीजितेन्द्रियः ॥ १०९ ॥ भूव महिषी तस्यानुरूपा रूपसम्पदा । सेनानीर्गुणसैन्यानां सेनादेवीति नामतः ॥ ११० ॥ अबाधमान इतरान् पुरुषार्थान् यथाक्षणम् । अरंस्त स तया देव्या रोहिण्येव हिमद्युतिः ॥ १११ ॥ इतश्च नवमे कल्पे खमायुः पर्यपूरयत् । जीवस्तदानीं विपुलवाहनस्य महीपतेः ॥ ११२ ॥ 'लभूताया दी° संवृ० मो० ॥ १ दक्षिणभरतार्धस्य । २ चन्द्रः । ३ धर्मादनपेतं धर्म्यम् न तथा । ४ चन्द्रः । * तृतीयं पर्व प्रथमः सर्गः सम्भव जिनचरितम् । सम्भवजिनस्य गर्भावतरणम् ॥२८९ ॥ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दश स्वमान फाल्गुनस्य सिताष्टम्यां चन्द्रे मृगशिरस्थिते । आनतात् स परिच्युत्य सेनाकुक्षाववातरत ॥ ११३॥ क्षणं सुखं तदा जज्ञे नारकप्राणिनामपि । लोकत्रयेऽपि चोयोतो विद्युद्योतसोदरः ॥११४ ॥ शयानया रात्रिशेषे प्रविशन्तो मुखाम्बुजे । सेनादेव्या ददृशिरे महाखमाश्चतुर्दश ॥ ११५॥ गजन गजपतिौरः शरन्मेष इवोच्चकैः । वृषः स्फटिकशैलस्य गण्डशैल इवाऽमलः॥ ११६॥ केसरी केसरभरेणातिकुङ्कमकेसरः । क्रियमाणाभिषेका च करिभ्यां कमलालया ॥ ११७॥ पञ्चवर्णप्रसूनस्रक सन्ध्याभ्रच्छवितस्करा । राजतो दर्पण इव सम्पूर्णो रजनीकरः॥ ११८॥ विसूत्रितान्धकारं च चण्डदीधितिमण्डलम् । प्रक्वणत्किङ्किणीजालपताकश्च महाध्वजः॥११९ ॥ तापनीयः पयस्कुम्भः पयोजपिहिताननः । विकासिभिः सयमानमिव पबैर्महासरः॥ १२०॥ उद्वीचिहस्तकैर्नृत्यन्निव क्षीरमहोदधिः । अदृष्टप्रतिमानं च विमानं रत्ननिर्मितम् ॥ १२१॥ रत्नपुञ्जो मणिगणः पातालफणिनामिव । विभावसुश्च निधूमः प्रत्यूषतपनोपमः ॥ १२२ ॥ देवी प्रबुद्धा तान् खमान् नृपायाख्यन्नृपोऽपि च । व्याख्यात् त्रैलोक्यवन्यस्ते नूनं सूनुभविष्यति॥१२३॥ इन्द्राश्चासनकम्पेन विज्ञायोपेत्य तत्र च । सेनादेवीं नमस्कृत्य स्वमार्थ व्याचचक्षिरे ॥१२४ ॥ एतस्यामवसर्पिण्यां तृतीयस्तीर्थनायकः । भविष्यति जगत्स्वामी तव स्वामिनि! नन्दनः॥१२५॥ तेन स्वमविचारेण स्तनितेनेव केकिनी । मुदिता तं निशाशेष देव्यनैषीत् प्रजाग्रती ॥१२६ ॥ गिरेब्युतः स्थूलोपलः। २ लक्ष्मीः। ३ पुष्पमाला। ४ सन्ध्यासमयाभ्रकान्तिलुण्टाका । ५ चन्द्रः। ६ कृतान्धकारम् । सर्यमण्डलम्। ८सौवर्णः । * °नीयप संवृ• संल०॥९अग्निः। १०प्रातःकालीनसूर्यसमानः । ११तमानि कालविशेषे । १२मयूरी। RANGRECORRORCRACCASI- त्रिषष्टि. ५० Jain Education Intel For Private & Personal use only INI Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये द्वितीय पर्व | प्रथम सगर सम्भवजिनचरितम्। ॥२९॥ ततो नवसु मासेषु निवारवाम्भोदलक्षणम् । गर्भ विभानुभावादत्यरियत ॥ १३०॥ वज्र वज्राकरोीव कृशानुमिव चारणिः । महासारं पवित्रं च गर्भ देवी बमार तम् ॥ १२७॥ देव्याः स उदरे गर्भो निगूढं ववृधे ततः । गङ्गाया इव पानीये तैपनीयपयोरुहम् ॥ १२८॥ तदाऽभूतां दृशौ देव्याः सविकाशे विशेषतः । सरस्सा हि सरोजानि विशिष्यन्ते शरत्क्षणे ॥ १२९॥ लावण्यमङ्गे कुचयोः पीनत्वं मन्दता गतौ । देव्याः प्रतिदिनं गर्भानुभावादत्यरिर्यंत ॥ १३०॥ फाल्गुनस्य सिताष्टम्यां द्यौरिवाम्भोदलक्षणम् । गर्भ तं बिभ्रती साऽभृजगतोऽपि मुदे तदा ॥१३१॥ ततो नवसु मासेषु दिनेष्वर्धाष्टमेषु च । मार्गशुक्लचतुर्दश्यां चन्द्रे मृगशिरस्थिते ॥१३२॥ जरायु-रक्तप्रभृतिवर्जितं वाजिलाञ्छनम् । प्राचीवाऽक वर्णवर्ण सुखं सा सुषुवे सुतम् ॥ १३३॥ ध्वान्तध्वंसकृदुझ्योतस्त्रैलोक्येऽपि तदा क्षणम् । क्षणं च सौख्यं सञ्जज्ञे नारकप्राणिनामपि ॥ १३४॥ ग्रहाः खोचं ययुः स्थानं प्रसेदुः सकला दिशः । ववौ वायुः सुखं लोकश्चिक्रीड निखिलस्तदा ॥१३५॥ गन्धाम्बुवृष्टिरभवद् दिवि दध्वान दुन्दुभिः । रजोऽपनिन्ये पवनो मही चोच्छासमासदत् ॥१३६ ॥ अथाऽधोलोकतो भोगङ्कराद्या दिवमारिकाः । अष्टैयुः स्वामिसदनमर्हजन्मविदोऽवधेः ॥ १३७ ॥ तास्त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य जिनं तज्जननीमथ । नत्वा खं ज्ञापयामासुर्मा भैषीर्वादपूर्वकम् ॥ १३८॥ दिश्यैशान्यां स्थिताः कृत्वा समुद्धातं च वैक्रियम् । जहः संवर्तवातेनाऽऽयोजनं कण्टकादि च ॥१३९॥ भगवन्तं ततो नत्वा तदासने निषद्य च । गायन्त्यस्तद्गुणांस्तस्थुर्गोत्रस्त्रिय इवोच्चकैः ॥१४॥ हीरकखनिः । २ गुप्तं यथा स्यात् तथा । ३ रक्तकमलम् । ४ ववृधे। * समसं० विनाऽन्यत्र-माघस्य सितसप्तम्यां संवृ० संल. मो०॥1°लान्छितम् संवृ०॥ ५ अन्धकारनाशकः प्रकाशः । ६ कथनपूर्वकम् । . योजनपर्यन्तम् । | सम्भवजिन जन्म दिकुमारीकृतो महोत्सव GLOSSA KUSHUSHUSHA ।।२९०॥ Jain Education For Private & Personal use only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथोर्द्धलोकतो मेघङ्कराद्या दिक्कुमारिकाः । अष्टैयुस्तद्वदानेमुः स्वामिनं स्वामिमातरम् ॥ १४१॥ विकृत्याऽभ्राणि तद्वेश्मपार्श्वतो योजनावधि । रजांसि शमयामासुस्ता गन्धोदकवृष्टिभिः॥१४२॥ जानुदनीं पञ्चवर्णपुष्पवृष्टिं विधाय ताः । नत्वा जिनं जिनगुणान् गायन्त्योऽस्थुर्यथोचितम् ॥१४३॥ दिक्कुमार्यः प्राग्रुचकादष्ट नन्दोत्तरादयः । एत्य नत्वा तथैवाऽस्थुर्गायन्त्यो धृतदर्पणाः॥१४४ ॥ दिकुमार्योऽपाग्रुचकात् समहारादयोऽष्ट च । एत्य नत्वा दक्षिणेऽस्थुः सभृङ्गाराग्रपाणयः॥१४५॥ प्रत्यग्रुचकतोऽष्टैयुर्दिक्कुमार्य इलादयः। नत्वाऽस्थुर्व्यजनभृतो गायन्त्यः पश्चिमेन तु ॥१४६॥ अष्टोदग्रुचकादेयुर्देव्यश्चाऽलम्बुसादयः। नत्वा चोत्तरतस्तस्थुर्गायन्त्यो धृतचामराः॥१४७॥ एयुश्चतस्रश्चित्राद्या विदिग्रुचकतोऽप्यथ । नत्वा विदिक्षु तस्थुश्च गायन्त्यो दीपपाणयः॥१४८॥ एयुश्चतस्रो रूपाद्या देव्यो रुचकमध्यतः । चतुरङ्गलवर्ज ता नालं निचकृतः प्रभोः॥१४९॥ ताः कृत्वा विदरं भूमौ न्यधुर्नालं निधानवत् । वढ रत्नैश्च सम्पूर्य दुर्वया पीठिका व्यधुः ॥१५॥ प्रत्यग्वज प्रतिदिशं जिनजन्मगृहस्य ताः। विचक्रुः कदलिगृहं चतुःशालसमन्वितम् ॥१५१॥ पाणिभ्यां जिनमादाय जिनाम्बां दत्तवाहवः । अपारम्भाचतुःशाले नीत्वा सिंहासने व्यधुः ॥१५२ ॥ उभावभ्यज्य तैलेन लक्षपाकेण तास्ततः । सुगन्धिनोद्वर्तनेनोद्वर्तयामासुराशुं च ॥ १५३॥ नीत्वोभौ प्राक्चतुःशाले न्यस्य सिंहासने च ताः । गन्धोदकैरनपयन् देवदृष्येण चाऽमृजन् ॥१५४॥ गोशीर्षेण व्यलिम्पंश्च देवदूष्यांशुकान्यथ । भूषणानि च दिव्यानि ता द्वाभ्यां पर्यधापयन् ॥ १५५॥ १ जानुप्रमाणाम् । २ तालवृन्तधराः। ३ चिच्छिदुः । ४ गतम् । ५ स्थापयामासुः । ६ दक्षिणकदलिगृहे । शीघ्रम् । Jan Education interna For Private & Personal use only MHew.jainelibrary.org. Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते तृतीयं पर्व प्रथमः सर्गः सम्भवजिनचरितम् । महाकाव्ये ॥२९॥ उदगम्भाचतुःशाले जिनं तज्जननीं च ताः । नीत्वोपवेशयामासू रत्नसिंहासनोपरि ॥१५६ ॥ अथाऽभियोग्यैरानाय्य भूरि गोशीर्षचन्दनम् । समिन्धीकृत्य जुहुवुर्वतावरणिनिर्मिते ॥ १५७॥ स्वामिनः खामिमातुश्च रक्षापोट्टैलिकामथ । तदहिभसना कृत्वा बबन्धुस्ता यथाविधि ॥ १५८॥ पर्वतायुभवेत्युच्चैरुचारितगिरोऽथ ताः। कर्णाभ्यणे भगवतो ग्रावगोलावताडयन् ।। १५९ ॥ शय्याजुपं सूतिगृहेऽर्हन्तं तन्मातरं च ताः । कृत्वाऽवतस्थिरे तारं गायन्त्यो मङ्गलान्यथ ॥१६॥ खामिपादाम्बुजाभ्यणे यियासूनीव सर्वतः । तदा च पुरुहूतानामासनानि चकम्पिरे ॥ १६१ ॥ जिनजन्मावधेत्विोत्थाय शक्रोऽपंपादुकः । दत्त्वा पदानि सप्ताऽष्टान्यवन्दत जिनेश्वरम् ॥ १६२॥ घण्टानिर्घोषसेनानीघोषणामिलितैः सुरैः । परिवत्रे सुरेन्द्रोऽथ जिनजन्मोत्सवोत्सुकैः॥ १६३ ॥ आरुह्य पालकं शक्रः सामरः सपरिच्छेदः । मध्येनन्दीश्वरं गत्वा खामिवेश्माऽऽययौ ततः॥१६४॥ स प्रदक्षिणयामास स्वामिवेश्म विमानगः । मुक्त्वा विमानं चैशान्यां ततो हरिरवातरत् ॥ १६५॥ अथ तत् स्वामिनो वेश्म प्रविवेश पुरन्दरः। तमालोकनमात्रेऽपि प्रणनाम च भक्तितः॥१६६॥ स त्रिः प्रदक्षिणीचके भगवन्तं समातरम् । पञ्चाङ्गस्पृष्टभूपीठो भूयोऽपि प्रणनाम च ॥१६७॥ अपस्खापनिकां दत्त्वा देव्याः पार्थे निधाय च । प्रतिच्छन्दं विभोः शक्रः पञ्चमूर्तिरभृत् स्वयम् ॥१६८॥ तत्र चैको दधौ नाथं शक्रश्छत्रमथाऽपरः । चामरे द्वावथैकोऽगाद् वज्रमुल्लालयन् पुरः ॥ १६९ ॥ उत्तरदिकस्थिते कदलीगृहे । २ सेवकदेवैः । ३ ज्वालयित्वा । ४ भाषायां 'रक्षापोटली'५ पाषाणगोलको । ६ उच्चैःस्वरम् । ७ इन्द्राणाम् । ८ पादुकारहितः। ९ एतनामकं विमानम् । १० देवैः सहितः। ११ सपरिवारः । १२ जानुयुगं करयुगं उत्तमाझं | चेति पञ्चाङ्गम् । १३ प्रतिबिम्बम् । चतुष्षष्टीन्द्रविहितः सम्भवजिनजन्मोरसवः ॥२९॥ Jain Education Intel For Private & Personal use only | . Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुष्पष्टिः इन्द्राः RECENCESCREENSECONDSex सुरैजयजयारावकारिभिः परिवारितः । गृहीत्वा स्वामिनं शक्रः क्षणान्मेरुशिरो ययौ ॥१७॥ अतिपाण्डुकम्बलायां शिलायां तत्र वासवः । सिंहासने निषसाद कृत्वोत्सङ्गे जगद्गुरुम् ॥ १७१ ॥ तदैवाऽऽसनकम्पेनाऽवधिज्ञानमनाहतम् । प्रयुज्य तत्क्षणादेवाऽच्युतेन्द्रः प्राणतोऽपि च ॥ १७२॥ सहस्रारो महाशुक्रो लान्तको ब्रह्मवासवः। माहेन्द्रःसनत्कुमार ईशानश्चमैरो बलिः॥१७३॥ धरणो भूतानन्दश्च हरिहरिसहस्तथा । वेणुदेवो वेणुदारी चाऽग्निशिखोऽग्निमाणवः ॥ १७४॥४ वेलम्बःप्रभानश्च सुघोषाभिध एव च । महाघोषो जलंकान्ताभिधानोऽथ जलप्रभः॥१७५॥ अथ पूर्णीऽवशिष्टश्चामितोऽथामितवाहनः। तथा काल-महाकालौ सुरूप-प्रतिरूपंकौ ॥१७६॥ पूर्णभद्रस्तथा माणिभद्रो भीमाभिधोऽपि च । महाभीमः किन्नरश्च तथा किम्पुरुषाभिधः ॥१७७॥ सत्पुरुषाभिधानश्च महापुरुष एव च । अतिकाय-महाकायावपि गीतरतिस्तथा ॥ १७८ ॥ तथा गीतयशोनामा सन्निहितः समानकः।तथा धातृ-विधातारावृषिश्च ऋषिपालकः॥१७९॥ ईश्वरो महेश्वरश्च सुवैत्सक-विशालकौ । हास-हासरती श्वेतो महाश्वेतस्तथैव च ॥१८॥ पर्वक-पवकपती सूर्याचन्द्रमसावपि । इन्द्रास्त्रिषष्टिरेतेऽपि सर्वा सपरिच्छदाः॥१८१॥ जिनजन्माभिषेकाय मेरुपर्वतमूर्धनि । त्वरमाणाः समाजग्मुः प्रतिवेश्मस्थिता इव ॥ १८२ ॥ ॥एकादशभिः कुलकम् ॥ अच्युतेन्द्राज्ञया कुम्भांत्रिदशा आभियोगिकाः । हैमान रूप्यमयान् रात्नान् हेमरूप्यमयानपि ॥१८३॥ १ अप्रतिहतम् । * सहाऽऽज संवृ० संल. मो० ॥ २ भाषायां 'पडोश । सङ्घ पुस्तकं विनाऽन्यन्न नास्ति ॥ nal Jain Educati o For Private & Personal use only . Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये तृतीय पर्व प्रथमः सर्गः सम्भवजिन|चरितम् । ॥२९२॥ हेमरत्नमयांश्चैव रूप्यरत्नमयानपि । हेमरूप्यरत्नान् भौमान् सहस्रं साष्टकं पृथक् ॥ १८४ ॥ भृङ्गारान् दर्पणांचापि सुप्रतिष्ठान करण्डकान् । स्थालानि पात्रीश्चङ्गेरीविचकुस्तावतीरपि ॥ १८५॥ क्षीरोदादिसमुद्रेभ्योऽन्यतीर्थेभ्योऽपि वारि ते । मलां पद्मादि चाऽऽनिन्युः शतमैन्युमनोमुदे ॥१८६॥ हिमाद्रेरोषधीभद्रशालादेस्तुवरानपि । गन्धद्रव्यमन्यदपि तत्राऽऽनिन्युर्दिवौकसः ॥ १८७ ॥ गन्धद्रव्याणि सर्वाणि क्षिप्रं प्रक्षिप्य तानि ते । ततः सुरभयामासुस्तीर्थवारीणि भक्तितः॥१८८॥ अच्युतः पारिजातादिकुसुमाञ्जलिपूर्वकम् । स्वामिनं स्पयामास तैः कुम्भैरमरार्पितैः॥ १८९॥ चारुवाद्य-गीत-नृत्तप्रवृत्तमुदितामरम् । अजनि स्वामिनः स्नात्रमच्युतेन्द्रविनिर्मितम् ॥ १९० ॥ दिव्याङ्गराग-पूजादि भक्त्या जिनपतेर्व्यधात् । स आरणाऽच्युतपतिर्ववन्दे च यथाविधि ॥ १९१॥ इन्द्रा द्वाषष्टिरन्येऽपि शक्रवं तथा व्यधुः । जगत्पवित्रीकरणं स्नात्रं त्रिभुवनेशितुः॥ १९२॥ भूत्वाऽथ पञ्चधेशान एकोऽङ्के नाथमग्रहीत् । अन्यश्छत्रं चामरे द्वावन्योऽग्रेऽस्थाच शक्रवत् ॥१९३॥ शक्रः प्रभोश्चतसृषु दिसूक्ष्णः स्फाटिकानथ । उत्तुङ्गशृङ्गाश्चतुरो भक्त्येकचतुरोऽकरोत् ॥ १९४ ॥ तेषां शृङ्गेभ्य उत्पेतुरिधारा मनोरमाः। मृले भिन्नाः प्रान्ते मिश्राः पेतुश्च स्वामिमूर्धनि ॥१९५॥ अकरोदित्थमन्येन्द्रकृतस्नानविलक्षणम् । स्नात्रं सौधर्मकल्पेन्द्रो जिनेन्द्रस्यातिभक्तितः॥ १९६ ॥ उक्ष्णस्तानुपसंहृत्य चर्चा-ऽर्चादि जगद्गुरोः । चक्रे शक्रः सप्रमोदं प्रणम्यैवमथाऽस्तवीत ॥ १९७ ॥ १ मृण्मयान् । २ लघुपात्राणि । ३ पुष्पपात्राणि, भाषायाम् 'चङ्गेरी'। मृत्तिकाम् । * स्ना-प मो०॥५ इन्द्रः । ६ देवाः । 1. अच्युतेन्द्रः। वर्जास्तथा संवृ०॥ ८ बलिवन् । ९ भत्त्यामेक एव चतुरः । १० चर्चा विलेपनम् , अर्चा पूजनम्। ॥२९२॥ Jain Education in For Private & Personal use only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SECRESSGE नमो भगवते तुभ्यं विश्वनाथाय तायिने । तृतीयतीर्थनाथाय सनाथाय महर्द्धिभिः॥१९८॥ ज्ञानस्त्रिभिश्चतुर्भिश्चातिशयैः सहजन्मभिः । जगद्विलक्षणोऽस्पष्टसहस्रस्फुटलक्षणः ॥ १९९॥ सदैव हि प्रमत्तानां प्रमादच्छेदकारणम् । इदं त्वजन्मकल्याणं कल्याणायाऽद्य मादृशाम् ॥२०॥ सकलापि श्लाघनीया यामिनीयं जगत्पते! । अकलङ्कतनुर्यस्यामुदगास्त्वं सुधाकरः ॥२०१॥ अमर्त्यलोकवन्मर्त्यलोकोऽप्यस्त्वधुना प्रभो।। देवैस्त्वद्वन्दनाहेतोरेहिरेाहिरापरैः॥ २०२॥ देव! त्वद्दर्शनसुधास्वादसन्तुष्टचेतसाम् । पर्याप्तं जीणेसुधयाऽतः परेण सुधान्धसाम् ॥ २०३ ॥ भगवन! भरतक्षेत्रसरोवरसरोरुह! । भृयान्मधुव्रतस्येव त्वयि मे परमो लयः॥२०४॥ मानवा अपि ते धन्या ये त्वां पश्यन्ति नित्यशः । त्वद्दर्शनोत्सवोऽधीश! स्वाराज्यादतिरिच्यते ॥२०५॥ ___ स्तुत्वैवं पञ्चधा भूत्वेशानात् खामिनमाददे । मूत्यैकया पराभिश्च प्राग्वत् कर्माणि सोऽकरोत् ॥२०६॥ सेनादेव्याः क्षणात पार्श्वे वस्त्रा-ऽलङ्कारभूषितम् । मुमोच प्रभुमुल्लोचेऽबध्नाच्छ्रीदामगण्डकम् ॥२०७॥ कुण्डले च दुकूले च प्रभोरुच्छीर्षकेऽमुचत् । तामपखापनीमहत्प्रतिविम्बं च सोऽहरत् ॥ २०८॥ अथाऽऽभियोगिकान् देवान् दिवस्पतिरघोषयत् । कल्पवासिषु देवेषु भवनाधिपतिष्वपि ॥२०९॥ व्यन्तरेषु ज्योतिष्केषु प्रभोर्देव्याश्च योऽशुभम् । चिन्तयिष्यति तन्मूर्धा सप्तधैव स्फुटिष्यति ॥२१०॥युग्मम् सोऽथ सङ्कमयामासाङ्गुष्ठे भर्तुः सुधारसम् । अर्हन्तोऽस्तन्यपा यमात् क्षुधि स्वाङ्गुष्ठपायिनः॥ २११॥ रक्षणकā । २ युक्ताय । ३ स्वर्गलोकवत् । 'रे आगच्छ रे गच्छ' इत्यादिभाषणतत्परैः । ५ देवानाम् । * °धुकरस्ये संवृ०॥ ६ भ्रमरस्येव । ७ स्वर्गसाम्रा ज्यात् । ८ अन्याभिः मूर्तिभिः । ९विताने। १० पुष्पदामगुच्छकम् । "उपधाने, भाषायाम् 'ओशीकुं'। १२ इन्द्रः । १३ तन्मस्तकम् । १४ न मातुः स्तन्यपायिनः । Jan Education inte For Private & Personal use only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयं पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये ॥२९३॥ सर्वाणि धात्रीकर्माणि सदा कारयितुं विभोः। समादिदेशाऽप्सरसः पञ्च धात्री सुरेश्वरः ॥ २१२॥ । एवमासूत्र्य सूत्रामा नत्वार्हन्तं ततो ययौ । मेरुतः पुनरन्येन्द्राः द्वीपं नन्दीश्वराभिधम् ।। २१३॥ प्रथमः शाश्वताहत्प्रतिमानां तत्र चाऽष्टाह्निकोत्सवम । कृत्वा निजनिजस्थानं ययुः सर्वे सुरा-ऽसुराः॥ २१४।। सर्गः प्रातर्जितारिणा राज्ञा पुत्रभूयमुपेयुषः । अर्हतो जगदहस्य चक्रे जन्मोत्सवो महान् ॥ २१५॥ दिसम्भवजिनगृहे गृहे पथि पथि विपणौ विपणावपि । पुर्या तत्रोत्सवो जज्ञे सर्वस्यां राजवेश्मवत् ।। २१६ ॥ चरितम् । यद्गर्भस्थेऽत्र सम्भृतं धान्यं शं चाऽभवत्ततः। सम्भवः शम्भवश्चेति पिता नाम विभोर्व्यधात् ॥२१७॥ मुहुर्मुहुरुदैक्षिबालरूपं जगत्पतिम् । सुधामग्नमिवाऽऽत्मानं मन्यमानो महीपतिः ॥ २१८ ॥ भूपतिधोरयामासोत्सङ्गे हृदि शिरस्यपि । प्रकृष्टमिव माणिक्यं प्रभुं तत्स्पर्शलालसः ॥ २१९ ॥ धात्र्यः शक्रकृताः पञ्च ताः प्रेपञ्चितभक्तयः । कदापि देहच्छायावत् पार्श्व न मुमुचुः प्रभोः॥२२०॥ स धात्रीं खेदयामासाङ्कादुत्तीर्य परिभ्रमन् । अपेतसाधसः सिंहीमिव सिंहकिशोरकः ॥ २२१ ॥ रत्नाईमभूमिसान्ते चन्द्रे स ज्ञानवानपि । करं चिक्षेप लोकस्य दर्शयन् बालचापलम् ॥ २२२ ॥ आगतैः सवयोर्भूय मर्त्यरूपधरैः सुरैः । सहाऽक्रीडत् प्रभुः कोऽन्यस्तत्क्रीडायामपि क्षमः ॥ २२३ ॥ क्रीडया धावतो भर्तुर्वलद्धीवा दिवौकसः । प्रतिकारी इवेभस्य धावन्ति स्म पुरः पुरः ॥ २२४ ॥ ॥२९३॥ लीलया पातितेष्वेषु रक्ष रक्षेति वादिषु । तदापि विदधे स्वामी परिणामोचितां कृपाम् ॥ २२५॥ __ *णि कर्माणि सदा तदा कार०° संवृ. ॥ १ इन्द्रः। २ पुत्ररूपता प्राप्तस्य । ३ सुखम् । ४ दृष्टवान् । ५ विस्तारित| भक्तयः । ६ अपगतभयः । ७ रनोपलनिबद्धभूमिप्रतिबिम्बिते। ८ मित्राणि भूत्वा। ९ भटः । प्रकृष्टमिव माणिक्यना महापतिः ॥२१८ कृताः पञ्च ताः COLOROADCASTU Jan Education in For Private & Personal use only A wew.jainelibrary.org. Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं विचित्रक्रीडाभिश्चित्रः क्रीडनकैश्च सः। शैशवं व्यतिचक्राम प्रदोषमिव चन्द्रमाः ॥ २२६ ॥ ___ चतुर्धन्वशतोत्तुङ्गः स्वर्णवर्णो जगद्गुरुः । बभासे कौतुकान्मेरुरिव पुंस्त्वमुपागतः ॥२२७ ।। छत्रवृत्तोन्नतोष्णीषः स्निग्ध-श्यामलकुन्तलः। अष्टमीन्दुललाटश्रीः कर्णविश्रान्तलोचनः ॥ २२८॥ स्कन्धावलम्बिश्रवणो वृषस्कन्धो महाभुजः । विशालभुजमध्यश्च सिंहोदरकृशोदरः ॥ २२९ ॥ करीन्द्रकरकल्पोरुरेणीजङ्घोऽल्पगुल्फकैः । कूर्मपृष्ठोन्नत-समतलांहिः सरलाङ्गुलिः ॥ २३०॥ असम्पृक्तोद्गतश्याम-मृदुल-स्निग्धरोमकः । पामोदिमुखश्वासः सदा मालिन्यवर्जितः ॥ २३१ ॥ एवं निसर्गसर्वाङ्गसुभगोऽपि जगत्पतिः। पार्वणः शरदेवेन्दुयॊवनेनाधिकं बभौ ॥ २३२॥ पितृभ्यामुत्सवातृप्त्याऽपरेधुः प्रार्थितः प्रभुः । परिणेतुं नृपकन्याः सुरकन्यासहोदराः ॥ २३३ ॥ जानन् भोगफलं कर्म पित्रोराज्ञां च पालयन् । कन्यानामुपैयमनं सोऽनुमेने महामनाः ॥ २३४॥ राज्ञा जितारिणा साक्षाच्छक्रेण च समेयुषा । हाहा-हूहूप्रभृतिषु गायत्सु मधुरस्वरम् ॥ २३५ ।। गन्धर्वेषु मृदङ्गादि गम्भीरं वादयत्सु च । रम्भा-तिलोत्तमाद्यासु नृत्यन्तीष्वप्सरम्सु च ॥ २३६ ॥ धवेलानुद्द्वणन्तीषु कुलनारीषु चोच्चकैः । कारितः सम्भवस्वामी कन्योद्वाहमहोत्सवम् ।। २३७ ॥ ॥ त्रिमिर्विशेषकम् ।। नन्दनोद्यानकल्पासु कदाप्युद्यानवीथिषु । रत्नाद्रिशृङ्गतुल्येषु क्रीडाद्रिषु कदापि च ॥ २३८॥ ५ उन्नतमस्तकशिखः । २ दीर्घलोचन इत्यर्थः। ३ अल्पौ गुल्फी घुटिके यस्य । ४ स्वभावसर्वाङ्ग-1 ५ पूर्णिमा चन्द्रो यथा शरहतुना तथा । *तृभ्यां परया प्रीत्याऽपरे संवृ०॥ ६ समाना इत्यर्थः । ७ विवाहम् । ८ समागतेन । ९ भाषायां 'धोळ' । १० गायन्तीषु । ११ उद्यानराजिषु । Jain Education Inter For Private & Personal use only Lolli Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये तृतीय पर्व प्रथमः सर्गः सम्भवजिन |चरितम्। ॥२९४॥ सुधाकुण्डसदृक्षासु कदाचित् केलिवापिषु । कदाचिचित्रशालासु द्युविमानसनामिषु ॥ २३९ ॥ वैदग्ध्यरमणीयाभी रमणीभिः सहस्रशः। रेमे श्रीसम्भवस्वामी करिणीभिरिव द्विपः॥२४॥ ॥त्रिभिर्विशेषकम् ॥ भुञ्जानो विविधान् भोगान् कौमारे परमेश्वरः । गमयामास पूर्वाणां लक्षाणि दश पश्च च ॥२४१॥ राजाऽथ भवनिर्विण्णः सम्भवस्वामिनं तदा । उपरुध्य न्यधात् राज्येऽङ्गुलीये वररसवत् ॥ २४२॥ सद्गुरोः पादपद्मान्ते जितारिनृपतिः स्वयम् । उपादाय परिव्रज्यां निजमर्थमसाधयत् ॥ २४३ ॥ तातोपरोधादादाय राज्यं प्राज्यपराक्रमः । ररक्ष सम्भवखामी पृथिवीं पुष्पदामवत् ॥ २४४॥ निरीतयो निरोतङ्काः पुरुषायुषजीविताः । सम्भवस्वामिनो राज्ये प्रभावादभवन् प्रजाः॥२४५॥ न कस्याप्युपरि स्वामी ध्रुवमप्यध्यरोपयत् । चापारोपणवा या अवकाशोऽपि कीदृशः ॥२४६॥ भोग्यं कर्म क्षिपन् राज्ये सर्वाङ्गचतुष्टयम् । चतुश्चत्वारिंशत्पूर्वलक्षी खाम्यत्यवाहयत् ॥ २४७॥ __ज्ञानत्रयपरीतात्मा स्वयम्बुद्धो जगत्प्रभुः । तदा च चिन्तयामास संसारस्थितिमीरशीम् ॥ २४८॥ संसारे विषयास्वादसुखं सविषभोज्यवत् । आपातमात्रमधुरं परिणामे त्वनर्थदम् ॥ २४९॥ अस्मिन्नसारे संसारे कथश्चिद्धि शरीरिभिः। अवाप्यते मानुषत्वमुपरे खादुवारिवत ॥ २५०॥ . देवविमानसदृशासु। २ चातुर्यम् रमणीया-1 ३ पदपंचाशत्सहस्राधिकसप्ततिलक्षकोटिवर्षात्मकः कालविशेषः पूर्वम् । ४ मुद्रिकायाम् । ५ अङ्गीकृत्य । ६ पितुराग्रहात् । ७ अतिग्रौढपराक्रमवान् । ८ अतिवृष्टि-अनावृष्टि प्रमुख-ईतिरहिताः।९रोगरहिताः। १. चतुरशीतिलक्षवर्षपरिमितं पूर्वाङ्गम् । ११ युक्तारमा । १२ भारम्भ एव मधुरम् । १३ क्षारभूमौ । M॥२९४॥ Jain Education in For Private & Personal use only I Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्भवजिनवार्षिकदानं दीक्षा च मानुषत्वमवाप्यापि मृढविषयसेवया । मुधा निर्गम्यते पादशौचेनेव सुधारसः॥२५१॥ इति चिन्तयतो भर्तुरेयुलॊकान्तिकामराः । नत्वा व्यज्ञपयंश्चैव स्वामिस्तीर्थ प्रवर्त्तय ॥ २५२ ॥ गतेषु तेषु देवेषु दीक्षादानोत्सवोत्सुकः । सांवत्सरिकमारेमे दानं दातुं जगत्पतिः॥२५३ ॥ देवाश्च जृम्भकाः शक्रादिष्टवैश्रवणेरिताः । क्षीणस्वामीनि निर्नष्टसेतून्यद्रिगतानि च ॥ २५४ ॥ श्मशानस्थानवर्तीनि निगूढानि गृहान्तरे । चिरभ्रष्टानि नष्टानि स्वर्णादीनि धनान्यथ ॥ २५५॥ आनीय पुयां श्रावस्त्यां चत्वरेषु त्रिकेषु च । अन्येष्वपि प्रदेशेषु राशींश्चक्रुगिरीन्द्रवत् ॥ २५६ ॥ यो येनार्थी स तद् द्रव्यं खैरमर्थयतामिति । आयुक्तैर्घोषणामुच्चैः श्रावस्त्यां खाम्यकारयत् ॥२५७॥ स्वामी कोटिं साष्टलक्षां हाटकस्याऽन्वहं ददौ । अर्थिनस्तावतोऽर्थस्य भवन्ति ददतोऽर्हतः॥२५८॥ कोटीशतत्रयं स्वर्णस्याऽष्टाशीतिश्च कोटयः। लक्षाशीतिश्च ददिरे स्वामिना वत्सरेण तु ॥ २५९ ॥ सांवत्सरिकदानान्ते वासवाश्चलितासनाः । सान्तःपुरपरीवाराः खामिवेश्म समाययुः ॥२६॥ ततः प्रदक्षिणीकृत्य स्वामिवेश्म विमानतः । अवतेरुश्चास्पृशन्तः पृथिवीं चतुरङ्गुलम् ॥ २६१॥ द्युसनाथा जगन्नाथमथो विनयशालिनः । सर्वे प्रदक्षिणीचक्रुर्नमश्चक्रुश्च भक्तितः॥ २६२॥ जन्माभिषेकवद् भर्तुरभिषेकमथाऽच्युतः । आभियोग्या१तैस्तीर्थाम्भस्कुम्भैर्विधिवद् व्यधात् ॥ २६३ ॥ क्रमेण तद्वदन्येऽपि विदधुर्विबुधाधिपाः । दीक्षाकल्याणकस्नानं भक्तिकल्या जगत्पतेः॥२६४॥ सुरा-ऽसुरेन्द्रवद् भक्त्या नरेन्द्रा अपि तत्क्षणम् । सम्भवस्वामिनश्चक्रुः पवित्रैः स्त्रात्रमम्बुभिः॥२६५॥ १ वार्षिकम् । २ चतुष्पथेषु । ३ मार्गत्रयसंयोगेषु । ४ सेवकजनैः । ५ सुवर्णस्य । व इन्द्राः। नीतैः। ८ भक्तिचतुराः। Jain Education internet Xnow.jainelibrary.org. Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते RRC-ROCESGRESCOOL महाकाव्ये ॥२९५॥ वपुर्देवाधिदेवस्य देवदृष्यैर्दिवौकसः । ममृजुः स्नानतोयार्द्रमादर्शमिव काञ्चनम् ॥ २६६ ॥ तृतीयं पर्व गोशीर्षचन्दनेनाऽथ नाथं विलिलिपुः सुराः। दिव्यानि च दुकूलानि भक्तितः पर्यधापयन् ॥ २६७॥ प्रथमः किरीटं मूर्ध्नि सर्वस्खमिव वज्राकरावनेः । कुण्डले कर्णयोरभ्रमुक्तामणिमये इव ॥ २६८॥ सर्गः कण्ठे हारं नीहाराद्रिभ्रश्यद्गङ्गार्नुहारकम् । केयर-कणान बाह्वोः सूर्यज्योतिर्मयानिव ॥ २६९॥ सम्भवजिनकुण्डलीभूतनालाभान् कटकान् पादपद्मयोः। एवं निदधिरे देवा भूषणानि जगद्विभोः ॥ २७०॥ चरितम् । ॥त्रिभिर्विशेषकम् ॥ सिद्धार्था नामतः सांहिपीठसिंहासनां ततः। शिबिकां रचयाश्चक्रुभुजः स्वामिनः कृते ॥ २७१॥ 12 अच्युतेन्द्रोऽप्याभियोग्यैः शिबिकां तां व्यकारयत । वैमानिकविमानानामधिदेवीमिवोच्चकैः ॥२७२॥ स्वयंकृतां तां शिबिकां नरेन्द्रशिबिकान्तरे । श्रीचन्दनेगरुमिवाऽच्युतेन्द्रोऽन्तरभावयत् ॥ २७३ ॥ अथाऽऽरुरोह भगवान् दत्तहस्तो विडोजेसा । शिविकायां तत्र सिंहासनं हंस इवाऽम्बुजम् ॥ २७४ ॥ आदौ तामुंदधुर्मर्त्या रथ्या इव महारथम् । अनन्तरं दिविषदो घनवाता इवावनिम् ॥ २७५ ॥ ध्वनत्सु तूर्यवर्येषु समन्ताद् वारिदेष्विव । गन्धर्वेषु च कुर्वत्सु गीति कर्णसुधोपमाम् ।। २७६ ॥ चित्राङ्गहार्रकरणं नृत्यन्तीष्वप्सरःसु च । पठत्सु बन्दिवृन्देषु ब्रह्मसु ब्रह्मगेषु च ॥ २७७॥ ॥२९५॥ मुकुटम् । २ हिमगिरिपतद्गङ्गामनुकुर्वन्तम् । * "नुकार संवृ०॥ ३ सूर्यकान्तमणिमयानिव । ४ पादपीठेन सहितं | सिंहासनं यस्यां ताम् । ६ इन्द्रेण । + मुद्दधु सङ्घ संल० ॥ ७ अश्वाः। ८ एतन्नामानो वायवः । ९ चित्राभिनयाङ्गमोटनयुक्तं यथा स्यात् तथा। G IRLCOLORD Jain Education Internal For Private & Personal use only dow.jainelibrary.org Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशंसन्तीषु माङ्गल्यं कुलवृद्धासु चोच्चकैः । धवलांश्च कुलस्त्रीषु गायन्तीषु मनोरमम् ॥ २७८ ॥ अग्रे पृष्ठे पार्श्वयोश्चाश्ववद् वल्गत्सु नाकिषु । दृश्यमानः स्मेरनेत्रैर्दयमानोऽङ्गुलीदलैः ॥ २७९॥ स्थाने स्थाने नागराणां प्रतीच्छन् मङ्गलानि च । पीयूषवृष्टिभिरिव दृम्भिरानन्दयन् जगत् ॥ २८॥ दोधूयमानचमरो धृतच्छत्रश्च नाकिभिः । श्रावस्तीमध्यतः स्वामी सहस्राम्रवणं ययौ ॥ २८१॥ ॥षभिः कुलकम् ॥ तस्साच शिबिकारत्नात् पादपादिव बर्हिणः । दीक्षां हारमिवाऽऽदित्सुरुत्ततार जगद्गुरुः ॥ २८२॥ मुमोच तत्र भगवान् माल्या-ऽलङ्करणादिकम् । इन्द्रन्यस्तं देवदृष्यं स्कन्धदेशे दधार च ॥ २८३ ॥ मार्गशीर्षस्य रोकायां चन्द्रे मृगशिरःस्थिते । अह्नश्च पश्चिमे भागे कृतषष्ठतपास्ततः ॥ २८४॥ पञ्चभिमुष्टिभिर्मों लीलयैव जगत्पतिः। उत्पाटयामास केशान् क्लेशान् पूर्वार्जितानिव ॥२८५॥ युग्मम् ॥ शक्रस्तान् स्वामिनः केशान् स्वकीयवर्सनाश्चले । शेषामिव प्रतीयेप क्षीरोदे चाक्षिपत् क्षणात् ॥२८६॥ सुरा-ऽसुर-नृणामाशु तुमुलं मुष्टिसंज्ञया । निषिषेध द्वाःस्थ इव क्षीरोदादेत्य वासवः ।। २८७ ॥ सावा योगमखिलं प्रत्याख्यामीत्युदीरयन् । देवादिपर्षत्प्रत्यक्षं चारित्रं शिश्रिये प्रभुः ॥ २८८ ॥ मनःपर्ययमुत्पेदे ज्ञानं तुर्य प्रभोरथ । ज्ञानस्य केवलस्येव सत्यङ्कार उपस्थितः ॥ २८९ ।। एकान्तदुःखदग्धानां प्रक्षिप्तानामिवानले । अपि नारकजन्तूनां तदा मुखमभूत् क्षणम् ।। २९०॥ १ देवेषु । २ विकसितचक्षुभिः। ३ अतिशयेन वीज्यमाने चामरे यस्य । ४ बहिणशब्दस्य प्रथमैकवचनम् ॥ ५ पूर्णिमायाम् । वस्त्रप्रान्तभागे। ७ कोलाहलम् । ८ हिंसा-असत्यप्रभृतिदोषरूपं सपापं व्यापारम् । ९ चतुर्थम् । त्रिषष्टि. ५१६ Jain Education in For Private & Personal use only I w Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते महाकाव्ये ॥२९६॥ Jain Education In उत्सृज्य तृणवद् राज्यं सहस्रं पृथिवीभुजः । सह त्रैलोक्यनाथेन दीक्षामाददिरे स्वयम् ॥ २९९ ॥ अथ शको नमस्कृत्य भगवन्तं कृताञ्जलिः । स्तोतुमेवं समारेभे भक्तिनिर्भरया गिरा ॥ २९२ ॥ चतुर्ज्ञानधर! चतुर्यामधर्मप्रदर्शक ! । चतुर्गतिप्राणिगणप्रीतिदायिन् ! जय प्रभो ! ॥ २९३ ॥ धन्यास्तात्रिजगन्नाथ ! भरतक्षेत्रभूमयः । तीर्थेश ! जङ्गमं तीर्थं यासु त्वं विहरिष्यसे ॥ २९४ ॥ अस्मिन् वससि संसारे संसारेण न लिप्यसे । पेङ्कजं पङ्कजमपि याति पलितां न हि ।। २९५ ।। तवाऽसिधारासोदर्यं जयतीदं महाव्रतम् । कर्मपाशच्छेदनाय प्रभविष्णु जगत्प्रभो ! ॥ २९६ ॥ निर्ममोऽपि कृपालुस्त्वं निर्ग्रन्थोऽपि महर्द्धिकः । तेजस्व्यपि सदा सौम्यो धीरोऽपि भवकातरः ||२९७॥ नितान्तं पूजनीयः स नाकिनां मानवोऽपि सन् । विहरन् कार्यसे येन पारणं विश्वतारण ! ॥ २९८ ॥ महोपकारजनकं स्वामिन्नविरतस्य मे । औषधं व्याधितस्येव भवद्दर्शनमीदृशम् ॥ २९९ ॥ त्रिजगन्नाथ ! नाथामि त्वयि भूयान्मनो मम । अनुस्यूतमिवोत्कीर्णमिव श्लिष्टमिवाऽनिशम् ॥ ३०० ॥ इति स्तुत्वा प्रभुं शक्रोऽन्येऽपीन्द्रा अच्युतादयः । स्थानं निजनिजं जग्मुः स्मरन्तः प्रभुसन्निधिम् ||३०१ || द्वितीयस्मिन् दिने पुर्यां तस्यामेव जगत्पतिः । राज्ञः सुरेन्द्रदत्तस्य गृहेऽगात् पारणेच्छया ॥ ३०२ ॥ सोऽभ्युत्थाय जगन्नाथं नमस्कृत्य च भक्तितः । परमान्नमुपादाय गृह्यतामित्यभाषत ॥ ३०३ ॥ १ चतुर्व्रतात्मकधर्मप्रदर्शक ! | २ कमलम् । ३ पङ्के जातमपि । ४ मलिनताम् । ५ सदृशम् । ६ समर्थम् । ७ परिग्रहरहितः । ८ संसार भीरुः । ९ देवानाम् । * रणम् सङ्घ० ॥ १० व्रतप्रत्याख्यानरहितस्य । ११ याचे । १२ प्रोतम् । १३ खचितम् । तृतीयं पर्व प्रथमः सर्गः सम्भवजिनचरितम् । ॥२९६॥ ww Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्भवजिनपारणम् , पत्र दिव्यानि, पीठं, केवलज्ञानं च एषणीयं कल्पनीयं प्रासुकं पायसं च तत । पाणिपात्रेण विश्वैकपात्रं प्रभुरुपाददे ॥३०४ ॥ कल्याणकारणं दातुः प्राणमात्रकधारणम् । चकार पारणं तेन स्वादाऽगर्द्धमनाः प्रभुः॥३०५॥ तदाऽभूद् दुन्दुभे दो दिग्गजस्येव गर्जितम् । वसुधाराऽपतद् दिव्या दिवः शीर्णेव कण्ठिका ॥३०६॥ नन्दनस्येव सर्वस्वं पुष्पवृष्टिः पपात खांत् । गन्धाम्बुवृष्टिरभवद् दिग्दन्तिमदसोदरा ॥ ३०७॥ एकरश्मिधृतानीव चेलान्युचिक्षिपुः सुराः। अहो! दानं महादानं सुदानं चेति गीरभृत् ॥ ३०८॥ भगवान् पारयामास यत्र तत्र तदैव हि । सुरेन्द्रदत्तो विदधे पीठं स्वर्ण-मणीमयम् ॥३०९॥ त्रिसन्ध्यं पूजयामास तत् पीठं स्वामिपादवत् । सुरेन्द्रदत्तोऽसम्पूज्य बुभुजे जातुचिन्न हि ॥३१॥ ___ स्थानात् ततश्च भगवान् ग्रामे द्रोणमुंखे पुरे । आकरे कर्पटे खेटे, मैडम्बे पत्तने वने ॥ ३११॥ नवे नवेऽनवस्थानो विविधाभिग्रहोय॑तः । द्वाविंशतिमनुद्विग्नः सहमानः परीषहान् ॥३१२॥ त्रिगुप्तिः पञ्चसमितिमौनभाग निर्भयः स्थिरः । एकाग्रहग विजहार वत्सराणि चतुर्दश ॥३१३॥ तदानीं च सहस्राम्रवणे सालतरोस्तले । द्वितीयशुक्लध्यानस्थस्तस्थौ प्रतिमया प्रभुः ॥ ३१४ ॥ ध्यानान्तरे तिष्ठतश्च धातिकर्मचतुष्टयम् । सम्भवस्वामिनोऽत्रुट्यच्छाखिनः शुष्कपत्रवत् ॥ ३१५॥ अचित्तम् । २ क्षीरानम् । ३ रसलोलुपतारहितचित्तः। ४ आकाशात् । ५ एकरज्जुबद्धानीव । ६ वस्त्राणि । ७ जलपथ-स्थलपथोपेतम् । ८ लोहाघुत्पत्तिस्थानम् । ९ कुनगरम् । १० धूलीप्राकारम्, अथवा “खेटः पुरार्धविस्तरः" अभिधान चिन्ता काण्ड ४ श्लो० ३०११ सर्वतो दूरवर्ति सनिवेशान्तरम् । १२ विविधदेशागतपण्यस्थानम् । तच्च द्विधा-जलपत्तनं स्थलपत्तनं च । अथवा "रतभूमिः" इति व्याख्याप्रज्ञप्तिवृत्तौ श्रीअभयदेवसूरयः । १२ नित्यविहरणशीलः । * °द्यमः संवृ० मो० ॥ Jain Education in For Private & Personal use only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये ॥२९७॥ तृतीयं पर्व प्रथमः सर्गः सम्भवजिन चरितम् । समवसरणरचना ततश्च कार्तिके मासि पक्षे च धवलेतरे । पञ्चम्यां च तिथौ शीतरश्मौ मृगशिरःस्थिते ॥ ३१६॥ स्वामिनः कृतषष्ठस्योत्पेदे केवलमुज्ज्वलम् । सद्-भावि-भूतवस्तूनां दर्शनप्रतिभूरिव ॥ ३१७ ॥ परमाधार्मिककृत-क्षेत्रजा-ऽन्योऽन्यजन्मनः । दुःखस्यान्तात् क्षणं सौख्यं तदा निरयिणामभूत् ॥३१८ ॥ सुरा-ऽसुरेन्द्राः सर्वेऽपि तदानीं चलितासनाः । केवलज्ञानमहिम कर्तुं तत्र समाययुः ॥ ३१९ ॥ __ततः समवसरणकृते क्ष्मामेकयोजनाम् । ममृजुर्वायुकुमाराः सिषिचुश्च पयोमुचः॥३२॥ बबन्धुर्व्यन्तरास्तां च स्वर्ण-रत्ना-ऽश्मभिः शुभैः । पञ्चवर्णानि पुष्पाणि विकिरन्ति स्म तत्र च ॥३२१॥ श्वेतच्छत्र-ध्वज-स्तम्भ-मकरास्यादिभूषितान् । प्रत्याशं चतुरस्तत्र तोरणांस्ते विचक्रिरे ॥ ३२२ ॥ रत्नपीठं विकृत्यान्तः परितस्तं विचक्रिरे । रौप्यं वनं भवनेशाः सौवर्णकपिशीर्षकम् ॥ ३२३ ॥ ज्योतिष्का मध्यम वर्ग सरत्नकपिशीर्षकम् । तोपनीयं विदधिरे भूवधूवलयोपमम् ॥ ३२४ ॥ अथ रत्नमयं वर्ग माणिक्यकपिशीर्षकम् । तत्रोपरितनं चक्रुर्विमानपतयोऽमराः॥३२५॥ बभूव प्रतिवनं च गोपुराणां चतुष्टयम् । द्वितीयवप्रे चैशान्यां देवच्छन्दं व्यधुः सुराः ॥३२६ ॥ ऊर्द्धवप्रान्तरावन्या मध्ये चैत्यतरं व्यधुः । साष्टधन्वशतकोशद्वयोचं व्यन्तरास्ततः ॥ ३२७॥ तस्याऽधो मणिभिर्बद्धे पीठे ते च्छन्दकं व्यधुः । तन्मध्ये प्राक् सांहिपीठं रत्नसिंहासनं ततः ॥३२८॥ छन्दकोपरि चक्रुश्च ते च्छत्रत्रितयं शुभम् । दधाते पार्श्वयोयक्षौ चामरे चेन्दुपाण्डुरे ॥ ३२९॥ १ कृष्ये । २ चन्द्रे । ३ केवलज्ञानम् । ४ साक्षिभूतः । ५ नारकाणाम् । ६ महिमानम् । ७ समवसरणार्थम् । ८ पृथ्वीम् ।। |९ स्तनितकुमारा इत्यर्थः । १० प्रतिदिशम् । ११ भवनपतिदेवाः । १२ सुवर्णमयम् । |॥२९७॥ Jain Education Intel® For Private & Personal use only . Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 CROCURROREOGROGROCEROSG चक्रे समवसृत्यग्रे धर्मचक्रं च भासुरं । व्यन्तरधर्मचक्रित्वसूचकं परमेशितुः ॥ ३३०॥ सुरैः सञ्चार्यमाणेषु सौवर्णेष्वम्बुजन्मसु । नवस्वारोपयन् पादौ सुरकोटीभिरावृतः॥ ३३१ ॥ प्रातः समवसरणं पूर्वद्वारा विशद् विभुः । त्रिः प्रदक्षिणयामास तत्र तं चैत्यपादपम् ॥३३२॥ नमस्तीर्थायेति जल्पंश्छन्दकान्तनिवेशितम् । सिंहासनमथाऽध्यास्त प्रामुखः परमेश्वरः ॥३३३ ॥ प्रभावात् स्वामिनः स्वामिप्रतिबिम्बानि चक्रिरे । रत्नसिंहासनस्थानि व्यन्तरा अन्यदिक्ष्वपि ॥ ३३४॥ शिरसः पश्चिमे भागेऽभवद् भामण्डलं प्रभोः । इन्द्रध्वजः पुरस्ताच्च दुन्दुभिश्चाऽध्वनद् दिवि ॥ ३३५॥ प्रविश्य प्रारद्वारार्हन्तं नत्वाऽऽग्नेय्यामुपाविशन् । साधवोऽथ वैमानिक्यः साध्व्यश्चोा वितष्ठिरे ॥३३६॥ अपारद्वारा प्रविश्याऽहत्पादान् नत्वा च नैर्ऋते । अतिष्ठन् भवनपति-ज्योतिष्क-व्यन्तरस्त्रियः ॥ ३३७ ।। प्रत्यरद्वारेण प्रविश्याऽर्हन्तं नत्वा मरुद्दिशि । तस्थुः क्रमाद् भवनेश-ज्योतिष्क-व्यन्तराः सुराः ॥३३८ ।। उदग्द्वारा प्रविश्याऽथ जिनं नत्वा क्रमेण तु । वैमानिका नरा नार्य ऐशान्यामवतस्थिरे ॥ ३३९ ॥ आद्यवग्रेऽवास्थितेवं श्रीमान् सङ्घश्चतुर्विधः । वप्रे द्वितीये तिर्यश्चस्तृतीये वाहनानि तु ॥ ३४० ॥ अथ शक्रो नमस्कृत्य स्वामिनं रचिताञ्जलिः । इति प्रचक्रमे स्तोतुं वाचा भक्तिसनाथया॥ ३४१॥ अनाहूतसहायस्त्वं त्वमकारणवत्सलः । अनभ्यर्थितसाधुस्त्वं त्वमसम्बन्धिबाधवः ॥३४२ ॥ अनक्तस्निग्धमनसममृजोज्वलवाक्पथम् । अधौतामलशीलं त्वां शरण्यं शरणं श्रये ॥ ३४३ ॥ १ सुवर्णमयेषु कमलेषु। २ पूर्वद्वारेण । * श्चोईमवस्थिताः संल. सङ्घ ॥ ३ दक्षिणद्वारेण । ४ वायव्यां दिशि । लाचि सङ्घ मो० ॥ ५ भक्तियुक्तया। °म्बन्धबा संबृ०॥ ६ अभ्यङ्गरहितमपि । ७ मार्जनरहितमपि । SISSEASESORASIL Jain Education intellial For Private & Personal use only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयं पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये | प्रथम: | सर्गः सम्भवजिन चरितम्। | अनित्यभावनागर्भिता सम्भवजिनदेशना ॥२९८॥ अचण्डवीरव्रतिना शमिना समवर्तिना। त्वया काममकुट्यन्त कुटिलाः कर्मकण्टकाः ॥ ३४४॥ अभवाय महेशायाऽगदाय नरकच्छिदे । अराजसाय ब्रह्मणे कसैचिद् भवते नमः॥ ३४५॥ अनुक्षितफलोदग्रादनिपीतगरीयसः । असङ्कल्पितकल्पद्रोस्त्वत्तः फलमवाप्नुयाम् ॥ ३४६ ॥ असङ्गस्य जिनेशस्य निर्ममस्य कृपात्मनः। मध्यस्थस्य जगत्रातुरनस्तेऽस्मि किङ्करः ॥ ३४७॥ अगोपिते रत्ननिधाववृते कल्पपादपे । अचिन्त्यचिन्तारत्ने च त्वय्यात्माऽयं मयार्पितः॥ ३४८ ॥ फलानुध्यानवन्ध्योऽहं फलमात्रतनुर्भवान् । प्रसीद यत्कृत्यविधौ किङ्कर्तव्यजडे मयि ॥ ३४९॥ स्तुत्वैवं विरते शके विश्वस्योपचिकीर्षया । भगवान् सम्भवस्वामी विदधे देशनामिमाम् ॥३५०॥ अनित्यं सर्वमप्यस्मिन् संसारे वस्तु वस्तुतः । मुधा सुखलवेनापि तत्र मूर्छा शरीरिणाम् ॥ ३५१॥ खतोऽन्यतश्च सर्वाभ्यो दिग्भ्यश्चाऽऽगच्छदापर्दः। कृतान्तदन्तयत्रस्थाः कष्टं जीवन्ति जन्तवः॥३५२॥ वज्रसारेषु देहेषु यद्यास्कन्दत्यनित्यता । रम्भागर्भसगर्भेषु का कथा तर्हि देहिनाम् ? ॥ ३५३॥ असारेषु शरीरेषु स्थेमानं यश्चिकीर्षति । जीर्ण-शीर्णलालोत्थे चश्चापुंसि करोतु सः॥ ३५४ ॥ न मन्त्र-तत्र-भैषज्यकरणानि शरीरिणाम् । त्राणाय मरणव्याघ्रमुखकोटरवासिनाम् ॥ ३५५ ॥ प्रवर्द्धमानं पुरुषं प्रथमं ग्रसते जरा । ततः कृतान्तस्त्वरते धिगहो! जन्म देहिनाम् ॥ ३५६ ॥ १ संसारवर्जिताय । २ रजोगुणरहिताय । ३ जलसेकवर्जितोऽपि फलैः सम्भृतः तस्मात् ॥ ४ पत्राद्यगलनाद् गुरुतमः तस्मात् ॥ ५त्रिशूलादिचिह्वरहितः। ६ आगच्छन्त्यः आपदः येषां ते आगच्छदापदो जन्तवः ॥ ७ रम्भा कदली, । सगर्भः समानः॥ ८पलाल: | बुसम्, 'भूसु' इति प्रसिद्धम् ॥ ९ चम्चा तृणमयः पुरुषः, स च क्षेत्रे धान्यादिरक्षणार्थ लोकः स्थाप्यते। 'चाडियो' इति प्रसिद्धम् ॥ २९८॥ Jain Education inte For Private & Personal use only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intern I यद्यात्मानं विजानीयात् कृतान्ते वशवर्तिनम् । को ग्रासमपि गृह्णीयात् ? पापकर्मसु का कथा १ ॥ ३५७ ॥ समुत्पद्य समुत्पद्य विपद्यन्तेऽप्सु बुद्बुदाः । यथा तथा क्षणेनैव शरीराणि शरीरिणाम् ॥ ३५८ ॥ आढ्यं निःस्वं नृपं रङ्कं ज्ञं मूर्ख सज्जनं खलम् । अविशेषेण संहर्तुं समेवर्ती प्रवर्तते ॥ ३५९ ॥ न गुणेष्वस्य दाक्षिण्यं द्वेषो दोषेषु वाऽस्ति न । दावाग्निवदरण्यांनीं विलुम्पत्यन्तको जनम् ॥ ३६० ॥ इदं तु मास्म शङ्कध्वं कुशास्त्रैरपि मोहिताः । कुतोऽप्युपायतः कायो निरपायो भवेदिति ॥ ३६१ ॥ ये मेरुदण्डसात् कर्तुं पृथ्वीं वा छत्रसात् क्षमाः । तेऽपि त्रातुं खमन्यं वा न मृत्योः प्रभविष्णवः ॥ ३६२ ॥ आ कीटादा च देवेन्द्रात् प्रभावन्तकशासने । अनुन्मत्तो न भाषेत कथञ्चित् कालवश्चंनाम् ॥ ३६३ ॥ पूर्वेषां चेत् क्वचित कविजीवन् दृश्येत कैश्चन । न्यायपथातीतमपि स्यात् तदा कालवञ्चनम् ॥ ३६४ ॥ अनित्यं यौवनमपि प्रतियन्तु मनीषिणः । बल-रूपापहारिण्या जरसा जॅर्जरीभवत् ॥ ३६५ ॥ कामिनीभि काम्यन्ते कामलीलया । निकामकृतधूत्कारं त्यज्यन्ते तेऽपि वार्द्धके ॥ ३६६ ॥ यदर्जितं बहुशैरभुक्त्वा यच्च पालितम् । तद् याति क्षणमात्रेण निधनं धनिनां धनम् ॥ ३६७ ॥ उपमानपदं किं स्यात् फेन- बुद्बुद - विद्युती? । धनस्य नश्यतोऽवश्यं पश्यतामपि तद्वताम् ॥ ३६८ ॥ समागमाः सापगमाः सुहृद्भिर्बन्धुभिर्जनैः । स्वस्य वाऽन्यस्य वा नाशे विकृतेऽपकृतेऽपि वा ॥ ३६९ ॥ १ बुद्बुदाः जलस्फोटाः, परपोटा इति प्रसिद्धम् ॥ २ समवर्त्ती - समं सर्वैः सह वर्त्तते इत्येवं शील: समवर्त्ती यमः यमराज इति यावत् || ३ विशालम् अरण्यम् अरण्यानी ॥ ञ्चनम् संबृ० मो० ॥ ४ जर्जरीभवत् वर्त्तमानकृदन्तम् । न जर्जरम् अजर्जरम्, अजर्जरं जर्जरं भवति इति जर्जरीभवत् ॥ ५ वृद्धस्य भावः वार्द्धकं वृद्धत्वमिति ॥ द्युताम् सं० सङ्घ० ॥ . Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिपष्टि शलाका पुरुषचरिते महाकाव्ये ॥२९९॥ Jain Education Intern `ध्यायन्ननित्यतां नित्यं मृतं पुत्रं न शोचति । नित्यताग्रहमूढस्तु कुंड्यभङ्गेऽपि रोदिति ॥ ३७० ॥ शरीर-यौवन-धन-बान्धवादि न केवलम् । अनित्यं किन्तु भुवनमप्येतत् सचराचरम् ।। ३७१ ॥ इत्यनित्यं विदन् सर्वं शरीरी निष्परिग्रहः । नित्याय नित्यसौख्याय पदार्थ प्रयतेत तत् ॥ ३७२ ॥ श्रुत्वा तां देशनां भर्तुः पादपद्मान्तिके ततः । नरा नार्यश्च बहवो दीक्षामाददिरे तदा || ३७३ || तदा चारुप्रभृतीनां गणभृन्नामकर्मणाम् । स्वाम्युद्दिदेश त्रिपदीं स्थित्युत्पाद व्ययात्मिकाम् ॥ ३७४ ॥ द्वयं शतं गणधरास्ते त्रिपद्यनुसारतः । असूत्रयन् द्वादशाङ्गीं सचतुर्दशपूर्विकाम् ॥ ३७५ ॥ उत्थायाऽऽदाय शक्रोपनीतं चूर्ण क्षिपन् प्रभुः । अनुयोग- गणानुज्ञे तेषां द्रव्यादिभिर्ददौ || ३७६ || वासान् सुरादयस्तेषु ध्वनदुन्दुभि चिक्षिपुः । स्वामिवाचं प्रतीच्छन्तस्तस्थुर्गणभृतश्च ते ।। ३७७ ॥ दिव्यसिंहासनं भूयोऽप्यध्यास्य प्राङ्मुखः प्रभुः । अनुशिष्टिमयीं तेषां विदधे धर्मदेशनाम् || ३७८ ॥ पूर्णायामथ पौरुष्यां व्यस्राक्षीद् देशनां विभुः । शाल्याढकवली राजभवनादाजगाम च ॥ ३७९ ॥ क्षिप्तस्य तस्य खाद् भ्रश्यदधं देवैश्युतस्य तु । नृपैरथं जनैरधं विभज्य जगृहे मुदा ॥ ३८० ॥ अथोत्थायोत्तरद्वारा विनिर्गत्य जगद्गुरुः । देवच्छन्दे विशश्रामाऽश्रान्तोऽपि स्थितिरीदृशी ।। ३८१ ॥ स्वाम्यङ्घ्रिपीठमध्यास्य चारुर्गणधराग्रणीः । स्वामिप्रभावाद् विदधे देशनां संशयच्छिदम् ॥ ३८२ ।। द्वितीयस्यां स पौरुष्यां पूर्णायां देशनाविधेः । व्यरंसीत् कालवेलायामागमाध्ययनादिव ।। ३८३ ॥ १ कुड्यं भित्तिः ॥ २ अनुयोगः शास्त्रवाचना ॥ * खो विभुः सङ्घ० ॥ ढके ब° संवृ० ॥ † 'राद् वि० सं० ॥ ३ व्यरंसीद् विरराम ॥ तृतीयं पर्व प्रथमः सर्गः सम्भवजिनचरितम् । ॥२९९ ॥ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education ततश्च स्वामिनं नत्वा सुरासुर - नृपादयः । खं खं स्थानं ययुः सर्वे मुदा वीतोत्सवा इव ॥ ३८४ ॥ तीर्थे तत्र समुत्पन्नस्त्रिमुखो नाम यक्षराट् । त्रिनेत्रस्त्रिमुखः श्यामः पड्बाहुर्बर्हिवाहनः ।। ३८५ ।। दक्षिणैर्नकुलधर - गदाभृद भयप्रदैः । युतो वामैर्भुजैर्मातुलि-नागा- क्षत्रिभिः ॥ ३८६ ॥ तीर्थे तत्रैव चोत्पन्ना दुरितारिरभिख्यया । चतुर्भुजा गौरवर्णा मेषवाहनगांमिनी ॥ ३८७ ॥ दक्षिणाभ्यां भुजाभ्यां तु वरदेनाऽक्षसूत्रिणा । वामाभ्यां शोभमाना तु फणिनाऽभयदेन च ॥ ३८८ ॥ त्रिमुखो दुरितारिव ततः शासनदेवते । सन्निधाने सदा भर्तुरभूतामात्मरक्षवत् ॥ ३८९ ॥ ततः स्थानात् प्रभुरपि साधुभिः परिवारितः । चतुस्त्रिंशदतिशयान्वितो व्यहरदन्यतः ॥ ३९० ॥ विभर्विहरतोऽभूवन् द्वे लक्षे त्रतिनामथ । व्रतिनीनां तु पट्त्रिंशत् सहस्राणि त्रिलक्ष्यपि ॥ ३९९ ॥ सर्वपूर्वभृतां साध शतानामेकविंशतिः । शतानि च षण्णवतिरवधिज्ञानशालिनाम् ।। ३९२ ॥ तुज्ञानिनां द्वादश सहस्राः सार्धकं शतम् । सहस्राणि पञ्चदश केवलज्ञानिनां पुनः ॥ ३९३ ॥ वैयिलब्धिसहस्राविंशतिर्द्विशतोनिता । द्वादशैव सहस्राणि वादलब्धिमतां पुनः ।। ३९४ ॥ सहस्रैः सप्तभिन्ना श्रावकाणां त्रिलक्ष्यथ । श्राविकाणां च पलक्षी सपट्त्रिंशत्सहस्रिका ।। ३९५ ॥ आरभ्य केवलात् पूर्वलक्षं व्यहरत प्रभुः । चतुर्दशाब्द्या च चतुःपूर्वाङ्गया च विवर्जितम् ।। ३९६ ॥ ज्ञात्वाssत्मनो मोक्षकालं सर्वज्ञो भगवानथ । सम्मेतशैलशिखरं जगाम सपरिच्छदः || ३९७ ॥ समं मुनिसहस्रेण तत्र च प्रत्यपद्यत । पादपोपगमं नामानशनं सम्भवप्रभुः ॥ ३९८ ॥ * ङ्गना-गाना-ऽक्ष संल० मो० सङ्घ० ० ॥ १ तुर्यं चतुर्थ मनःपर्यायज्ञानम् ॥ त्रिमुखो यक्षः दुरितारिश्र यक्षिणी सम्भवजिनपरिवारादिकम् Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरिते महाकाव्ये ॥३००॥ Jain Education In 1 सुरासुराणामधिपास्तदानीं सपरिच्छदाः । तत्रैत्य भक्तितस्तस्थुः सेवमाना जगत्प्रभुम् ॥ ३९९ ॥ मासान्ते सम्भवस्वामी सर्वयोगनिरोधिनीम् । शैलेशीं शैलनिष्कम्पः प्रपेदे ध्यानमन्तिमम् ॥ ४०० ॥ चैत्रस्य सितपञ्चम्यां विधौ मृगशिरः स्थिते । सिद्धानन्तचतुष्कोऽगाव्याबाधं पदं प्रभुः ॥ ४०१ ॥ सहस्रं मुनयस्तेऽपि स्वामिनोंऽशा इवामलाः । तेनैव विधिना प्रापुस्तदेव परमं पदम् ॥ ४०२ ॥ पूर्वलक्षाः कुमारत्वे ययुः पञ्चदश प्रभोः । चतुश्चत्वारिंशद् राज्ये सपूर्वाङ्गचतुष्टयाः ॥ ४०३ ॥ प्रव्रज्यायां पूर्वलक्षं चतुष्पूर्वाङ्गवर्जितम् । इत्यायुः पूर्वलक्षाणि षष्टिः श्रीसम्भवप्रभोः ॥ ४०४ ॥ अजितस्वामिनिर्वाणात् कोटिलक्षेषु त्रिंशति । सागराणां गतेष्वासीन्निर्वाणं सम्भवप्रभोः ॥ ४०५ ॥ तत्राऽथ सम्भवजिनाधिपतेः शरीरसंस्कारमन्यदपि कर्म यथावदिन्द्राः । चक्रुर्विभज्य जगृहुथ यथार्हमेते, दंष्ट्रा रदान् दिविषदः पुनरस्थिजातम् ।। ४०६ ॥ स्वं स्वं स्थानं जग्मुरिन्द्राः सुराश्च, स्वाम्यस्थीनि स्थापयामासुरुच्चैः । अर्चाहेतोर्माणवस्तम्भमूर्ध्नि, तीर्थेशानामर्चनीयं न किं वा ॥ ४०७ ॥ ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये तृतीये पर्वणि श्रीसम्भवस्वामिचरितवर्णनो नाम प्रथमः सर्गः ॥ तृतीयं पर्व प्रथमः सर्गः सम्भवजिनचरितम् । ॥३००॥ . Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Inter द्वितीयः सर्गः । श्रीअभिनन्दनजिनचरितम् । गुणडुनन्दनं श्रीमत्संवरोवींशनन्दनम् । जगदानन्दनं वन्दे जिनेन्द्रमभिनन्दनम् ॥ १ ॥ तस्य प्रभोर्भव्यजैन मोहनिद्रादिवार्मुखम् । तत्त्वज्ञानसुधाकुम्भं वक्ष्ये चरितमुज्वलम् ॥ २ ॥ अस्यैव जम्बूद्वीपस्य प्राग्विदेहेषु सुन्दरी । अस्ति श्रीमङ्गलकुलं विजयो मङ्गलावती ॥ ३ ॥ तस्यामस्ति समस्तानां रत्नानामाकरोऽब्धिवत् । वसुन्धराशिरोरत्नं पूरेनं रत्नसञ्चया ॥ ४ ॥ तस्यामासीन्महाराजो राजराज इव श्रिया । महाबलो नाम बलान्महाबल इवाऽपरः ॥ ५ ॥ उत्साह-मन्त्र-प्रभुताशक्तिभिः स व्यभासत । गङ्गा-सिन्धु-रोहितांशानदीभिर्हिमवानिव ॥ ६ ॥ स उपायैश्चतुर्भिश्च द्विषद्वर्गविजित्वरैः । चकासामास दशनैरिव निर्जरकुञ्जरः ॥ ७ ॥ देवमर्हन्तमेवैकं साधुमेव गुरुं पुनः । धर्मं जिनोपज्ञमेवाऽऽतिष्ठते स्म स धीनिधिः ॥ ८ ॥ दान- शील- तपो - भावभेदाद् धर्मे चतुर्विधे । सोऽरंस्ते महतां यस्मात् पुण्यं पुण्यानुबन्धकम् ॥ ९ ॥ स विवेकी भवोद्विग्नः सर्वत्रानित्यतां विदन् । नाऽतुष्यच्छ्रावकधर्मे देशमात्रविरामिणि ॥ १० ॥ ततो विमलसूरीणां पादान्ते दान्तपुङ्गवः । सोऽग्रहीत् सर्वविरतिं त्रतोच्चारणपूर्वकम् ॥ ११ ॥ * 'जन्तुमो संवृ० ॥ १ दिवामुखं प्रातः कालः ॥ २ पूर्षु-नगरेषु रत्नं पूरनम् ॥ + नः । अकर्तृकं जगदिवाति संवृ● मो० ॥ ३ आतिष्ठते प्रतिजानीते, तदेव सत्यमिति प्रतिज्ञां करोति ॥ ४ अरंस्त रतिं चकार ॥ अभिनन्दन जिनपूर्वभव चरितम् । . Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिपष्टि शलाका पुरुष चरिते महाकाव्ये | ॥ ३०१ ॥ Jain Education Intern दुर्जनैर्निन्द्यमानः सन् हृदये मुमुदे चिरम् । साधुभिः पूज्यमानस्तु प्रत्युत त्रयंते स्म सः ॥ १२ ॥ न मनागप्युद्विविजे क्लिश्यमानोऽपि पापिभिः । महद्भिः पूज्यमानोऽपि स नोत्सेकमशिश्रियत् ॥ १३ ॥ उद्यानादिषु रम्येषु नाsरज्येद् विहरन्नसौ । सिंहव्याघ्रादिघोरेषु नाऽरण्येषु व्यरज्यत ॥ १४ ॥ हेमन्ते हिमगहनाः क्षपयामास स क्षपाः । बहिः प्रतिभैया तिष्ठन्नालानमिव निश्चलः ॥ १५ ॥ ग्रीष्मे सूर्योमभीमेऽपि कृतोत्सर्गः स आतपे । नाऽम्लायद् दिद्युते किन्तु वह्निशौचमिवांऽशुकम् ॥ १६ ॥ प्रावृषि क्ष्मारुहतले तस्थौ प्रतिमया च सः । मतङ्गज इव ध्याननिष्पन्दनयनद्वयः ॥ १७ ॥ तपांस्येकावली-रत्नावलीप्रभृतिकानि सः । सर्वाण्यनेकशोऽकार्षीदतृप्तोऽर्थार्जनं यथा ॥ १८ ॥ विंशतेः स्थानकानां च मध्यात् कतिपयैरपि । स्थानकैरर्जयामास तीर्थकुन्नामकर्म सः ॥ १९ ॥ चिरं व्रतं पालयित्वा प्रपन्नानशनः स तु । मृत्वा विमाने विजये महर्द्धिरभवत् सुरः ॥ २० ॥ इतच जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य भरताभिधे । क्षेत्रेऽस्त्ययोध्येति पुरी पुरन्दरपुरीसमा ॥ २१ ॥ प्रतिवेश्म मणिस्तम्भ सङ्क्रान्तो रजनीकरः । तत्र स्थावरशृङ्गारादर्शलक्ष्मीं प्रपद्यते ॥ २२ ॥ १ त्रपते लज्जते ॥ २ उत्सेकं गर्वम् ॥ ३ अरज्यद् रागं चकार ॥ ४ व्यरज्यत विरागं चकार ॥ ५ प्रतिमया विशिष्टध्यानधारणरूपया क्रियया ॥ ६ आलानं हस्तिबन्धनस्तम्भः ॥ ७ कृतोत्सर्गः कृतकायोत्सर्गः ध्यानप्रवृत्तये कृतनिश्चलकायः ॥ * ° पे । धाम्ना यद् सबृ० ॥ ९ वह्निशौचम् अनितापेन पवित्रम् । यथा अंशुकं वस्त्रं वह्निजन्यउष्णोदकेन अधिकं द्योतते स्म तथा अयमपि ध्यानस्थितः महाबल श्रमणः ग्रीष्मतापेन न म्लायति स्म किन्तु द्योतते स्म ॥ १० एकावली -रत्नावली शब्दौ तपो विशेषवाचकौ । अनयोश्च वृत्तान्तं तपोरत्नमहोदधिनामक ग्रन्थतो बोध्यम् ॥ ११ स्थावरः स्थिरः । तत्र मणिस्तम्भसङ्क्रान्तः चन्द्रः स्थिरदर्पण इव जातः इति भावः ॥ तृतीयं पर्व द्वितीयः सर्गः अभिनन्दन जिनचरितम् । ॥३०१ ॥ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनन्दनजिनजन्म नगरी पितरौ च तत्र क्रीडामपरीभिराकृष्याऽऽकृष्य लम्बितैः । हारैः कल्पद्रुमायन्ते गृहाणामङ्गणदुमाः ॥ २३॥ चन्द्रकान्ताश्मनिःस्यन्दैस्तत्रोच्चैश्चैत्यपतयः । उदारनिर्झरोद्गारगिरिलीलां वितन्वते ॥ २४ ॥ चैत्याग्रे रत्नबद्धोर्व्यस्तत्र सङ्क्रान्ततारकाः। विभान्ति देवतामुक्तकुसुमाञ्जलिविभ्रमाः॥२५॥ तत्र खेलायमानाढ्यललना गृहदीर्घिकाः । निर्यदप्सरसो लक्ष्मी हरन्ति क्षीरनीरधेः॥ २६ ॥ तत्र चाऽऽकण्ठमनानां गौराङ्गीणां मुखैः क्षणम् । कनकाम्भोजमालिन्यो राजन्ते गृहदीर्घिकाः ॥ २७॥ उद्यानविपुलैस्तत्र श्यामायन्ते बहिर्भुवः । अधित्यका भुव इव गिरेरिधरैनवैः॥ २८॥ वप्रो वर्लयितस्तत्र महादीर्घिकया भृशम् । धुसद्दीर्घिकयेवाऽष्टापदशैलो विराजते ॥ २९ ॥ तत्राऽनुवेश्म दातारो दिवि कल्पद्रुमा इव । सर्वदा सुलभा एव दुर्लभाः पुनरर्थिनः॥३०॥ बभूव तस्यामिक्ष्वाकुकुलक्षीरोदचन्द्रमाः । नृपतिः संवरो नाम सर्वारिश्रीखयंवरः॥३१॥ तस्याऽऽज्ञासाधिताशेषभूतलस्मैकभूभुजः। द्रविणं कृपणस्येव न कोशानिर्ययावसिः ॥ ३२ ॥ महाभुजेन तेनोग्रप्रतापप्रभविष्णुना। एकच्छत्रा मही चक्रे द्यौरिवैकनिशाकरा ॥ ३३ ॥ स दृढं वसुधां दधे दिग्यात्रायायिनोऽन्यथा । अस्स सेनाभरेणैषा विशीर्यंत सहस्रशः ॥ ३४ ॥ विभ्रमः शोभा सौन्दर्यम् । २ निर्यत्यः निस्सरन्त्यः अप्सरसः यस्मात् स निर्यदप्सराः तस्मात् । क्षीरनीरधिविशेषणमिदम् ॥ * रसो (सः) क्रीडां ह° संवृ०॥३ अधित्यकाः पर्वतस्य ऊर्द्धभूमयः॥ ४ वलयितः वर्तुलीभूतः ॥ ५ गुसदीर्घिका देववापी॥ ६ सर्वारीणां श्रियं स्वयं परानपेक्षया वृणोतीति सर्वारिश्रीस्वयंवरः ॥ ७ कोशः खनावरणम् , 'म्यान' इति प्रसिद्धम् , निधिश्च इति यर्थः । ८ दिग्यात्रा विजययात्रा ॥ त्रिषष्टि, ५२ JainEducation inal MAIL Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये तृतीयं पर्व द्वितीय सर्गः अभिनन्दन जिनचरितम् । ॥३०२॥ दासीरिव समाकृष्य समाकृष्य दिगन्ततः। श्रियो निगडयामास स गुणैश्चपला अपि ॥ ३५॥ स राज्ञामाहृतैर्दण्डै!त्सेकं जातु शिश्रिये । सरिदम्भोभिरम्भोधिः किं माद्यति मनागपि ? ॥३६॥ प्रसन्नचेताः सततमगृध्नुः सोऽप्रमद्वरः । ईश्वरे च दरिद्रे च समो मुनिरिवाभवत् ॥ ३७॥ प्रजाः शशास धर्माय न पुनः सोऽर्थकाम्यया । द्विषोऽशिषत् प्रजात्राणकृते द्वेषधिया न तु ॥ ३८॥ एकतः सर्वकृत्यानि धर्मकृत्यमथैकतः । युगपद् धारयामास स तुलायामिवाऽऽत्मनि ॥३९॥ सिद्धार्था नाम शुद्धान्तमण्डनं शुद्धवंशजा । सधर्मचारिणी तस्य बभूव गुणहारिणी ॥ ४०॥ विलासमन्दया गत्या भृशं मधुरया गिरा । चकासामास सा राजहंसीव मधुराकृतिः ॥४१॥ तस्यां च पुण्यलावण्यनिम्नगायां मनोरमम् । वक्रनेत्रं पाणिपादं पद्मखण्डमिवाऽशुभत् ॥ ४२ ॥ इन्द्रनीलमयीवान्तर्विलोचनर्कुशेशयम् । मुक्तामयीव दन्तेषु वैद्रुमीवौष्ठपत्रयोः ।। ४३॥ नखेषु शोणाश्ममयीवाङ्गे स्वर्णमयीव च । बभासे चारुसर्वाङ्गमपि रत्नमयीव सा ॥४४॥ युग्मम् ॥ नगरीणां विनीतेव विद्यानामिव रोहिणी । मन्दाकिनीव सरितां सा सतीनामभूद धुरि ॥४५॥ नाऽकुप्यत् प्रणयेनापि सा पत्ये यत् कुलस्त्रियः। पतिव्रतात्वे व्रतवदंतीचारस्य भीरवः॥४६॥ तस्यामात्मानुरूपायां प्रेयस्यां प्रेम भूपतेः । अजायताऽविसंवादि नीलीरागसहोदरम् ॥४७॥ निगडयामास बन्धनबद्धां चकार ॥ २ अप्रमद्वरः अल्पविषयकषायः ॥ ३ शुद्धान्तः अन्तःपुरम्, राजराज्ञीनिवासस्थानम् , 'रणवास' इति प्रसिद्धम् ॥ ४ कुशे जले शेते इति व्युत्पत्त्या कुशेशयं कमलम् ॥ ५ विदुमनिर्मिता वैदुमी। विद्रुमः 'परवाळां' इति प्रसिद्धम् ॥ रोहिणीनानी विद्याधिष्ठात्री देवता ॥ ७ मन्दाकिनी गला ॥ *दतिचा मुपिते । ॥३०२॥ Jain Education ! For Private & Personal use only . Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अबाधितौ मदस्थानः सर्वैर्धर्माविबाधया । दम्पती बुभुजाते तो तत् तद् वैषयिकं सुखम् ॥४८॥ इतो विमाने विजये त्रयस्त्रिंशतमर्णवान् । जीवो महाबलस्याऽऽयुः सुखमनोऽत्यवाहयत् ॥४९॥ वैशाखसितचतुर्थ्यामभीचिस्थे निशाकरे । ततश्युत्वा स सिद्धार्थादेवीकुक्षाववातरत ॥५०॥ ज्ञानत्रयधरे तत्राऽवतीर्णे त्रिजगत्यपि । उसोतोऽभूत् सुखं चाऽऽसीभारकप्राणिनामपि ॥५१॥ सुखसुप्ता तु सा देवी निशायाः प्रहरेऽन्तिमे । मुखे प्रविशतोऽद्राक्षीन्महावमांश्चतुर्दश ॥५२॥ ___ श्वेतवर्णश्चतुर्दन्तः करी कुन्दद्युतिवृषः । व्यात्तवको हरिर्लक्ष्मीरभिषेकमनोरमा ॥५३॥ पञ्चवर्णा च पुष्पस्रक पूर्णश्च रजनीकरः । द्योतमानश्च मार्तण्डः किङ्किणीमालितो ध्वजः॥५४॥ पूर्णकुम्भश्च सौवर्णः पप्रच्छन्नं महासरः । उत्तरङ्गः सरिन्नाथो विमानं च मनोरमम् ॥ ५५॥ रुचिरो रत्नपुञ्जश्च निधूमश्च विभावसुः । प्रबुद्धा स्वामिनी खमानेतान् राजे शशंस च ॥५६॥ एभिः स्वमैस्तव देवि! भावी त्रिजगदीश्वरः । नूनं सूनुरिति स्वमान् पार्थिवोऽपि व्यचारयत् ॥ ५७॥ इन्द्रा अपि समेत्यैवं खमार्थ व्याचचक्षिरे । चतुर्थस्तीर्थनाथस्ते देवि! सूनुभविष्यति ॥५८॥ तं देव्यपि निशाशेष जाग्रेत्येवाऽत्यवाहयत् । निद्रा दरं ययौ तस्या हर्षेणेवाऽपहर्तिता ॥ ५९॥ सिद्धार्थास्वामिनीकुक्षौ गर्भः सोऽथ दिने दिने । पत्रकोशे बीजकोश इव गूढमवर्धत ॥६॥ चतुर्दश स्वमाः अभिनन्दनजिनजन्मजन्मोत्सव Jan Education International For Private & Personal use only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये ॥३०३॥ । ततो नवसु मासेषु दिनेष्वर्धाष्टमेषु च । माघशुक्ल द्वितीयायामभीचिस्थे क्षपाकरे ॥ ६२॥ तृतीयं पर्व सिद्धार्था स्वामिनी सूनुमनूनं तेजसा रवेः। सुखेन सुषुवे स्वर्णवणं प्लवगलाञ्छनम् ॥ ६३ ॥ द्वितीय: लोकत्रयेऽपि युगपदुयोतोऽभूत् तदा क्षणम् । क्षणं च सौख्यमुत्पेदे नारकप्राणिनामपि ॥६४॥ सर्गः षट्पञ्चाशद् दिक्कुमार्यः स्वस्वस्थानादुपेत्य ताः । देव्याः सूनोश्च विदधुः सूतिकर्म यथोचितम् ॥६५॥15अभिनन्दनविज्ञायाऽऽसनकम्पेन शक्रोऽर्हजन्म तत् तदा । आययौ पालकारूढः खामिवेश्माऽमरैः सह ।। ६६ ।। द जिनशको विमानादुत्तीर्य प्राविशत् खामिवेश्म तत् । तत्र च स्वामिनं खामिजननी च नमोऽकरोत् ॥६७॥ चरितम् । दत्त्वाऽपखापनी देव्याः पार्श्वे सौधर्मवासवः । निधायार्हत्प्रतिच्छन्दं पञ्चरूपोऽभवत् खयम् ॥६८॥ एकः शक्रः प्रभु दधेऽन्यश्छत्रं द्वौ च चामरे । कुलिशं नर्तयन्नन्यो नृत्यन्निव ययौ पुरः ॥ ६९॥ प्राप मेरावतिपाण्डुकम्बलां स क्षणाच्छिलाम् । तत्सिंहासनमध्यास्त शक्रोऽङ्कारोपितप्रभुः ॥७॥ तत्राऽच्युतादयोऽपीन्द्रास्त्रिषष्टिः सपरिच्छदाः । समेत्याऽस्नपयन् नाथमम्भस्कुम्भैर्यथाविधि ॥ ७१॥ पञ्चमूर्तीभूयेशानोऽप्यङ्के स्वामिनमादधे । एकश्छत्रं चामरे द्वौ शूलमन्यः पुरःसरः ॥ ७२ ॥ विचके स्फाटिकानुक्ष्णश्चतुरो दिक्चतुष्टये । तच्छृङ्गोत्थैर्जलैः शक्रोऽस्नपयत् परमेश्वरम् ॥७३॥ प्रभुं विलिप्य सम्पूज्य वस्त्रालङ्करणादिना । उत्तार्याऽऽरात्रिकं चेत्थं शक्रः प्राञ्जलिरस्तवीत् ॥ ७४ ।। ____ स्वामिश्चतुर्थतीर्थेश! चतुर्थारनभोरवे! । चतुर्थपुरुषार्थश्रीप्रकाशक! जय प्रभो॥ ७५ ॥ चिरान्नाथेन भवता सनाथमधुना जगत् । विवेकचौरैर्मोहाद्यैर्नैवोपद्रोष्यते क्वचित् ॥ ७६॥ ॥३०३॥ .. पञ्चरूपाणि कृत्वा । २ उक्ष्णः बलीवर्दान् । * चिरं ना संवृ०॥ Jain Education Int For Private & Personal use only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । पादपीठलुठन्मूर्ध्नि मयि पादरजस्तव चिरं निविर्शतां पुण्यपरमाणुकणोपमम् ।। ७७॥ मद्दशौ त्वन्मुखासक्ते हर्षवाष्पजलोमिभिः । अप्रेक्ष्यप्रेक्षणोद्भूतं क्षणात् क्षालयतां मलम् ।। ७८ ॥ त्वत्पुरो लुठनैर्भूयान्मद्भालस्य तपस्विनः । कृतासेव्यप्रणामस्य प्रायश्चित्तं किंणावलिः ॥ ७९ ॥ ... मम त्वदर्शनोद्भूताश्चिरं रोमाञ्चकण्टकाः । नुदन्तां चिरकालोत्थामसद्दर्शनवासनाम् ॥ ८॥ त्वद्वक्रान्तिज्योत्स्नासु निपीतासु सुधाविव । मदीयैौचनाम्भोजैः प्राप्यतां निर्निमेषता ।। ८१॥ त्वदास्यलासिनी नेत्रे त्वदुपास्तिकरौ करौ । त्वद्गुणश्रोतृणी श्रोत्रे भूयास्तां सर्वदा मम ॥ ८२॥ कुण्ठाऽपि यदि सोत्कण्ठा त्वद्गुणग्रहणं प्रति । ममैषा भारती तर्हि स्वस्त्येतस्यै किमन्यया? ॥ ८३ ॥ तव प्रेष्योऽसि दासोऽस्मि सेवकोऽस्म्यसि किङ्करः । ओमिति प्रतिपद्यख नाथ! नातः परं ब्रुवे ॥८४॥ - स्तुत्वैवं पञ्चधाभूयेशानादादाय च प्रभुम् । प्राग्वच्छत्रादिभृच्छकः स्वामिवेश्म क्षणाद् ययौ ॥८५॥ तत्रापेखापनीमहत्प्रतिबिम्बं च सोऽहरत् । देव्याः पार्श्वे च निदधे तया स्थित्या जगत्पतिम् ॥ ८६॥ खामिहात् ततः शक्रो मेरुतोऽन्ये तु वासवाः । पथा यथाऽऽगतेनैव खं स्वं लोकं ययुः क्षणात् ॥ ८७॥ __ राज्ञाऽपि विदधे प्रातः सूनुजन्मोत्सवो महान् । हर्षस्यैकातपत्रत्वजनकः सकले जने ॥८८॥ कुलं राज्यं पुरी चात्राऽभ्यनन्दद् गर्भगे हि तत् । अभिनन्दन इत्यस्य पितरौ नाम चक्रतुः॥८९॥ _*निवसतां संवृ०॥ , अप्रेक्ष्यप्रेक्षणम्-अदर्शनीयदर्शनम् । २ "रूढवणपदं किणः" । ३ उपास्ति:-उपासना, करौकरौि । कर्णो । ५ अपस्वापनी नाम विशेषरूपा निद्रा, यया जनः प्रत्यक्षमपि न किमपि जानाति, मूर्छित इव भास्ते ।। स्वं स्थानं य° सङ्घ०॥ Jain Education Intern For Private & Personal use only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयं पर्व | द्वितीयः | सर्ग: अभिनन्दन। जिनचरितम् त्रिषष्टि शक्रसङ्कमितसुधा खसादङ्गष्ठकात् पिबन् । पाल्यमानो धुधात्रीभिः क्रमेण वधे प्रभुः॥९॥ शलाका सुरा-ऽसुरकुमारैश्च चित्रक्रीडनपाणिभिः। विचित्रक्रीडया क्रीडन् बाल्यं खाम्यत्यवाहयत् ॥ ९१ ॥ पुरुषचरिते उद्यानपादप इव वसन्तमिव यौवनम् । सर्वाङ्गशोभाजनकं प्राप स्वाम्यभिनन्दनः॥ ९२॥ महाकाव्ये सार्धधन्वत्रिशत्युच्चो जानुलम्बिभुजो बभौ । सदोलाद्रुरिवाऽऽबद्धदोलायष्टिद्वयः श्रियः॥ ९३ ॥ भालगण्डस्थलेनार्धचन्द्रशोभाभिभाविना । मुखेन च बभौ खामी पूर्णेन्दुश्रीविडम्बिना ॥ ९४ ॥ ॥३०४॥ वर्णशैलशिलोरस्कः पीनस्कन्धः कृशोदरः । एणीजङ्घो जगन्नाथः कूर्मोन्नतपदोऽशुभत् ॥ ९५॥ विषयेषु निरीहोऽपि भोग्यं कर्म निजं विदन् । पितृभ्यां प्रार्थितो राजपुत्रीः प्रभुरुपार्यंत ॥ ९६॥ क्रीडोद्यान-सरो-वापी-शिलादिषु यदृच्छया । स रामाभिः समं रेमे ताराभिरिव चन्द्रमाः ॥९७॥ इत्थं च जन्मतः स्वामी सौख्यमग्नोऽहमिन्द्रवत् । पूर्वलक्षद्वादशकं गमयामास सार्धकम् ॥ ९८॥ अनुनीय न्यधाद् राज्येऽभिनन्दनविभुं ततः । वयं तु संवरनृपः प्रव्रज्याराज्यमाददे ॥ ९९ ॥ शशास लीलया स्वामी ग्राममेकमिवावनिम् । त्रिजगत्राणशौण्डस्य तस्यो:शासनं कियत् ॥१०॥ सार्धाः षट्त्रिंशतं पूर्वलक्षा अष्टाङ्गसंयुताः । निनाय राज्यं कुर्वाणो जगन्नाथोऽभिनन्दनः ॥१.१॥ अथेयेथे प्रभुर्दीक्षां ते च लोकान्तिकामराः । सचिवा इव भावज्ञा एत्य व्यज्ञपयमिति ॥१०२॥ चित्राणि विविधानि कीडनानि रमणकानि पाणी करे येषां तैः सह । रमणकं रमणसाधनम्, भाषायो 'रमकई ।। १२ दोलासहितो वृक्षः सदोलादुः । दोला हिन्दोलनकः, भाषायां 'हिंडोळो-हिंचको' । ३ निरीह-आशातृष्णारहितः। ईहा नाम लोभः गृद्धिः आसक्तिः । ४ उपायत विवाहं चकार । ५ इयेष भभिकार्ष चकार । ॥३०४॥ Jain Education in D For Private & Personal use only | Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Inte अलं संसारवासेन नाथ ! तीर्थं प्रवर्तय । संसारसिन्धुं येनाऽन्येऽप्युत्तरन्ति दुरुत्तरम् ॥ १०३ ॥ लोकान्तिकेषु देवेषु विज्ञपथ्य गतेष्विति । प्रारेभे वार्षिकं दानं निर्निदानं जगत्पतिः ॥ १०४ ॥ स्वामिनो ददतो द्रव्यमानीयाऽऽनीय जृम्भकाः । शक्रादिष्टकुबेरेण प्रेरिताः पर्यपूरयन् ॥ १०५ ॥ सांवत्सरिकदानान्ते चतुःषष्ट्याऽपि वासवैः । दीक्षाभिषेको विदधे विधिवञ्जगदीशितुः ॥ १०६ ॥ कृताङ्गराग औमुक्तदिव्यांशुकविभूषणः । आरोहच्छिविकां नाथोऽर्थसिद्धां खार्थसिद्धये ॥ १०७ ॥ आदावुत्क्षिप्तया मर्त्यैरमर्त्यैस्तदनन्तरम् । तया शिबिकया नाथः सहस्राम्रवणं ययौ ॥ १०८ ॥ तत्र चोत्तीर्य तत्याज भगवान् भूषणादिकम् । तदं संदेशे निदधे देवद्वेष्यं च वासवः ॥ १०९ ॥ माघस्य शुक्लद्वादश्यामभीचौ पश्चिमेऽहनि । कृतषष्ठः प्रभुः केशानुर्द्दधे पञ्चमुष्टिना ॥ ११० ॥ शक्रः प्रतीष्यं चिकुरानुत्तरीयाञ्चलेन तान् । क्षणेन गत्वा क्षीरोदेऽक्षिपद् भूयोऽपि चाऽऽगमत् ॥ १११ ॥ सुरासुर-नृणां शक्रस्तुमुलं निषिषेध च । प्रतिपेदे च चारित्रं खामी सामायिकं पठन् ॥ ११२ ॥ मन:पर्ययसंज्ञं चतुर्यं ज्ञानमभूद् विभोः । नारकाणामपि सुखं तदा क्षणमजायत ॥ ११३ ॥ त्यक्त्वाऽङ्गमलवद् राज्यं सहस्रं पृथिवीभुजः । जगृहुः स्वामिना सार्धं प्रव्रज्यां मोहशांतनीम् ॥ ११४ ॥ १ निर्निदानम् आशंसारहितम् । निदानं नाम आकाङ्क्षा आसक्तिः । २ मुक्तं नाम शरीरे यथास्थानं योजितम् । आ समन्ताद् मुक्तं शरीरे धारितं परिहितम् । ३ उत्क्षिप्ता धृता, भाषायां 'धरेली - वहन करेली'। ४ तद्+अंस=तदंस, अंसो नाम स्कन्धः बाहुमूलम् । ५ वृष्यं वस्त्रम् । ६ उभे उत्पाटयामास । ७ प्रतीष्य प्रतिगृह्ण । ८ चिकुराः केशाः । ९ तुयं चतुर्थं मनः पर्यावज्ञानम् । १० मोहशावनीं मोहनीयकर्मनाशनीम् । वार्षिकदान अभिनन्दनजिनदीक्षा च . Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरिते महाकाव्ये ॥३०५ ॥ Jain Education प्रभुं नत्वा ततः शक्रोऽन्येऽपीन्द्राः सपरिच्छदाः । स्थानं निजनिजं जग्मुः प्रावृषि प्रोषिता इव ॥ ११५ ॥ द्वितीयेऽन्ययोध्यायामिन्द्रदत्तस्य भूभुजः । सदने विद्धे स्वामी परमानेन पारणम् ॥ ११६ ॥ वसुधारा पुष्पवृष्टिवृष्टिर्गन्धोदकस्य च । खे दुन्दुभिध्वनिलोत्क्षेपश्च विदधेऽमरैः ॥ ११७ ॥ अहो! दानमहो ! दानं सुदानमिति चोच्चकैः । जुघुषे हर्ष विवशैः सुरा--सुर-नरैस्तदा ॥ ११८ ॥ ततोsन्यत्र ययौ स्वामी स्थाने च स्वामिपादयोः । रत्नपीठं व्यधादिन्द्रदत्तोऽचितुमनाः सदा ॥ ११९ ॥ छद्मस्थो व्यहरत् स्वामी सहमान: परीषहान् । अष्टादश समा यावद् विविधाभिग्रहोद्यतः ॥ १२० ॥ विहरन्नन्यदा नाथः सहस्राम्रवणं ययौ । कृतषष्ठः प्रियालस्याऽधोऽस्थात् प्रतिमया ततः ॥ १२१ ॥ - द्वितीयशुक्लध्यानान्ते घातिकर्मक्षये सति । पौषशुक्लचतुर्दश्यामभीचिस्थे निशाकरे ।। १२२ ॥ अमलं केवलज्ञानमाविरासीजगत्पतेः । नारकाणामपि बाधानिषेधनमहौषधम् ॥ १२३ ॥ चतुःषष्टिरथैत्येन्द्रा विधिवद् विदधुः प्रभोः । उच्चैः समवसरणं देशे योजनमात्र के ।। १२४ ॥ देवैः सञ्चार्यमाणेषु स्वर्णाब्जेषु क्रमौ दधत् । स्वामी समवसरणं प्रागुद्वारा प्राविशत् ततः ॥ १२५ ॥ स धनुर्द्विशतीकं तु गव्यूतद्वयमुच्छ्रितम् । तत्र प्रदक्षिणीचक्रे चैत्यवृक्षं जिनेश्वरः ॥ १२६ ॥ नमस्तीर्थायेति वदन् देवच्छन्दस्य मध्यतः । सिंहासनमलञ्चक्रे प्राङ्मुखः परमेश्वरः ॥ १२७ ॥ १ प्रोषिताः प्रवासिनः । २ चेलं वस्त्रम्, उत्क्षेपः ऊर्ध्वतः क्षेपणम् । * दानं महादानं सं० ॥ ३ जुघुषे उच्चैः घोषणा विहिता । + 'चलं ज्ञा' संवृ० ॥ ४. आवि: प्रकटम् आसीद् बभूव । ५ अथ अनन्तरम् एत्य भागत्य । ६ प्राग्द्वारा पूर्वदिशास्थितेन द्वारेण । तृतीयं पर्व द्वितीयः सर्गः अभिनन्दनजिन चरितम् । अभिनन्दन जिन केवल ज्ञानम् ॥३०५ ॥ w.. Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Inte ततश्चतुर्विधः सङ्घः ससुरा - सुर- मानुषः । सम्प्रविश्य यथाद्वारं यथास्थानमुपाविशत् ॥ १२८ ॥ भगवन्तं नमस्कृत्य शक्रो विरचिताञ्जलिः । रोमाञ्चितवपुः स्वामिस्तवनं प्रास्तवीदिति ॥ १२९ ॥ मनो-चचः-कायचेष्टाः कष्टाः संहृत्य सर्वथा । श्लथत्वेनैव भवता मनःशल्यं वियोजितम् ॥ १३० ॥ संयतानि न चाऽक्षाणि नैवोच्छृङ्खलितानि च । इति सम्यक्प्रतिपदा त्वयेन्द्रियजयः कृतः ॥ १३१ ॥ योगस्याष्टाङ्गता नूनं प्रपञ्चः कथमन्यथा । आबालभावतोऽप्येष तव सात्म्यमुपेयिवान् १ ॥ १३२ ॥ विषयेषु विरागस्ते चिरं सहचरेष्वपि । योगे सात्म्यमदृष्टेऽपि स्वामिन्निदमलौकिकम् ॥ १३३ ॥ तथा परे न रज्यन्त उपकारपरे परे । यथाऽपकारिणि भवानहो ! सर्वमलौकिकम् ॥ १३४ ॥ हिंसका अप्युपकृता आश्रिता अप्युपेक्षिताः । इदं चित्रं चरित्रं ते के वा पर्यनुयुञ्जताम् १ ॥ १३५ ॥ तथा समाधौ परमे त्वयाऽऽत्मा विनिवेशितः । सुखी दुःख्यस्मि नास्मीति यथा न प्रतिपन्नवान् ॥ १३६ ॥ ध्याता ध्यानं तथा ध्येयं त्रयमेकात्मतां गतम् । इति ते योगमाहात्म्यं कथं श्रद्धीयतां परैः १ ॥ १३७॥ स्तुत्वैवं विरतेश स्वामी गम्भीरया गिरा । आयोजनविसर्पिण्या प्रारेभे देशनामिति ॥ १३८ ॥ संसारोऽयं विपत्खानिरस्मिन् निपततः सतः । पिता माता सुहृद् बन्धुरन्योऽपि शरणं नहि ।। १३९ ।। इन्द्रोपेन्द्रादयोऽप्यत्र यन्मृत्योर्यान्ति गोचरम् । अहो ! तदन्तकातङ्के कः शरण्यः शरीरिणाम् १ ॥ १४० ॥ पितुर्मातुः स्वसुर्भ्रातुस्तनयानां च पश्यताम् । अत्राणो नीयते जन्तुः कर्मभिर्यमसद्मनि ॥ १४१ ॥ शोचन्ति खजनानन्तं नीयमानान् स्वकर्मभिः । नेष्यमाणं तु शोचन्ति नाऽऽत्मानं मूढबुद्धयः ॥ १४२ ॥ पर्यनुयुञ्जताम् आचरितुं शक्नुयुः । २ विसर्पिणी प्रसरणशीला । ३ त्राणरहितः अशरणः निराधारः । अशरण भावनागर्भा जिनदेशना Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि तृतीयं पर्व द्वितीया शलाकापुरुषचरिते । सर्गः महाकाव्ये अभिनन्दन जिन ॥३०६॥ | चरितम्। ISROGRESSINGERSECRETC संसारे दुःखदावाग्निज्वलज्ज्वालाकरालिते । वने मृगार्भकस्सेव शरणं नास्ति देहिनः॥१४३ ॥ अष्टाङ्गेनाऽऽयुर्वेदेन जीवातुभिरथागंदैः । मृत्युञ्जयादिभिर्मत्रैखाणं नैवाऽस्ति मृत्युतः ॥१४४॥ खड्गपञ्जरमध्यस्थश्चतुरङ्गचमूवृतः । रङ्कवत् कृष्यते राजा हठेन यमकिकरैः॥१४५॥ यथा मृत्युप्रतीकारं पशवो नैव जानते । विपश्चितोऽपि हि तथा धिक् प्रतीकारमृढताम् ॥ १४६ ॥ येऽसिमात्रोपकरणाः कुर्वते मामकण्टकाम् । यमधूभङ्गभीतास्तेऽप्यास्ये निदधतेऽजलीः॥१४७॥ मुनीनामप्यपापानामसिधारोपमैव्रतैः । न शक्यते कृतान्तस्य प्रतिकतुं कदाचन ॥१४८॥ अशरण्यमहो! विश्वमराजकमनायकम् । यदेतदप्रतीकारं ग्रस्यते यमरक्षसा ॥ १४९॥ योऽपि धर्मप्रतीकारो न सोऽपि मरणं प्रति । शुभां गतिं ददानस्तु प्रतिकर्तेति कीर्त्यते ॥१५॥ प्रव्रज्यालक्षणोपायमादायाक्षय॑शर्मणे । चतुर्थपुरुषार्थाय यतितव्यमहो! ततः॥१५१॥ तया देशनया प्रायो नरा नार्यः प्रवव्रजुः। गणेशा वज्रनाभाद्याः षोडशाग्रमभृच्छतम् ॥१५२॥ अनुयोग-गणानुशे तेषां दत्त्वा यथाविधि । अनुशिष्टिमयीं धर्मदेशनां विदधे प्रभुः॥१५३ ॥ जन्म-व्यय-ध्रौव्यमयीं खाम्येभ्यस्त्रिपदी जगौ । जग्रन्थु‘दशाङ्गी ते तत्रिपद्यनुसारतः॥१५४ ॥ देशनां पूर्णपौरुष्यां व्यसृजत् खाम्यथो बलिम् । राजानीतं क्षिप्वाऽगृहन् देवाभूपा जनाः क्रमात् ।। १५५॥ जीवातुः जीवनौषधम् जीवनोपायः । २ अगदो नाम औषधम् । गदो रोगः, तनाशकारी अगदः । *"स्ति देहिनः संल०॥ ३ विपश्चितो विद्वांसः । ४ प्रतीकारः प्रत्युपायः दुःखहेतुनिराकरणम् । ५ भसिधारोपमं महातीक्ष्णं दुष्करम् । ६ कक्षज्यं नाम सेतुं नाशयितुम् अशक्यम् , यन्त्र कदापि क्षीणं कर्तुं शक्यते । ७ स्वामी एभ्यः गणधरेभ्यः । ॥३०६॥ Jain Education into meww.jainelibrary.org Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education अथोत्तस्थौ जगन्नाथो मध्यवप्रमुपेत्य च । ईशानदिक्स्थिते देवच्छन्दके समुपाविशत् ।। १५६ ।। स्वाम्यङ्घ्रिपीठस्थो वज्रनाभो गणधरो व्यधात् । लोकैः केवलिवज्ज्ञातो देशनां श्रुतकेवली ॥ १५७ ॥ पूर्णद्वितीयपौरुष्यां व्यसृजत् सोऽपि देशनाम् । नत्वाऽर्हन्तं ययुः स्वं स्वं स्थानं सर्वे सुरादयः ॥ १५८ ॥ तीर्थे यक्षेश्वरस्तत्र श्यामो द्विरदवाहनः । दोर्दण्डौ दक्षिणौ विभ्रन्मातुलिङ्गाऽक्षसूत्रिणौ ॥ १५९ ॥ वामौ च धारयन् बाहू नकुला -ऽङ्कुशधारिणौ । सदा सन्निहिता भर्तुरभूच्छासनदेवता ॥ १६० ॥ युग्मम् ॥ कालिका च तथोत्पन्ना श्यामवर्णाऽम्बुजासना । दक्षिणौ धारयन्ती तु भुजौ वरद - पाशिनौ ।। १६१ ॥ नागा-ऽङ्कुशधरौ बाहू दधाना दक्षिणेतरौ । पारिपार्श्विक्यभून्नित्यं भर्तुः शासनदेवता ॥ १६२ ॥ युग्मम् ॥ ततः स्वाम्यप्यतिशयैश्चतुस्त्रिंशद्भिरन्वितः । व्यहरद् बोधयन् जन्तून् ग्रामा-ssकर- पुरादिषु ॥ १६३॥ साधुत्रिलक्षी साध्वीषलक्षी त्रिंशत्सहस्रयुक् । शतानि चाऽष्टनवतिरवधिज्ञानशालिनाम् ॥ १६४ ॥ सहस्रं पूर्विणां सार्धं मनःपर्ययिणां पुनः । एकादश सहस्राणि सपञ्चाशच्च षट्शती ॥ १६५ ॥ चतुर्दश सहस्राणि केवलज्ञानधारिणाम् । सहस्रा वैक्रियलब्धिमतामेकोनविंशतिः ॥ १६६ ॥ एकादश सहस्राणि वादलब्धिमतां पुनः । लक्षद्वयं श्रावकाणामष्टाशीतिसहस्रयुक् ।। १६७ ।। श्राविकाणां पञ्चलक्षी सप्तविंशिसहस्रयुक् । अजायन्त जगद्भर्तुरुर्व्यां विहरतः सतः ।। १६८ ।। ''दिस्थितो दे' संवृ० ॥ १ पारिपार्श्विकी पार्श्वस्था समीपवासिनी । * यक्ष-पक्षिण्यौ अभिनन्दनजिन परिवारादिकम् w. Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयं पर्व द्वितीयः त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये सर्ग: अभिनन्दन जिनचरितम् । ॥३०७॥ अष्टाङ्ग्याऽष्टादशाब्द्योने पूर्वलक्षेऽथ केवलात् । ज्ञात्वा निर्वाणकालं स्वं सम्मेताद्रिं ययौ विभुः॥१६९॥ समं मुनिसहस्रेण प्रपन्नानशनः प्रभुः। मासं तस्थौ सुरैः सेन्ट्रैः सेव्यमानो नृपैरपि ॥ १७०॥ शैलेशीध्यानमास्थाय भवोपग्राहिकर्मभित् । सिद्धानन्तचतुष्कः सन् भगवानभिनन्दनः॥१७१ ॥ वैशाखस्य सिताष्टम्यां पुष्यस्थे रजनीकरे । समं मुनिसहस्रेणाऽपुनरावृत्त्यगात् पदम् ॥ १७२ ।। युग्मम् ॥ कौमारे पूर्वाणां लक्षाःसहार्धा द्वादशागमन । लक्षाणि सार्धषट्त्रिंशद् राज्येऽष्टाङ्गयुतानि च ॥ १७३॥ अष्टाङ्गोनं पूर्वलक्षं प्रव्रज्यायामिति प्रभोः । पञ्चाशत्पूर्वलक्षाणि यावदायुरजायत ॥ १७४॥ सम्भवस्वामिनिर्वाणादभिनन्दननिर्वृतिः । समुद्रकोटिलक्षेषु व्यतीतेषु दशस्वभूत् ॥ १७५ ॥ शक्रश्चक्रेऽङ्गसंस्कारं स्वामिनो तिनामपि । दंष्ट्रा-रदा-ऽस्थि जगृहः पूजनाय सुरा-ऽसुराः॥१७६ ॥ कुर्वन्तोऽथाऽष्टासिका शाश्वतार्हद्विम्बानां तेऽभ्येत्य नन्दीश्वरान्तः खं खं लोकं सामरा जग्मुरिन्द्रास्ते च स्वां स्वां राजधानी नरेन्द्राः ॥ १७७॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये तृतीये पर्वणि अभिनन्दनस्वामिचरितवर्णनो नाम द्वितीयः सर्गः॥ ॥३०७॥ *लक्षे च के संवृ०॥ यतः पुनरागमनं न जायते तद् अपुनरावृत्ति । अपुनरावृत्तिपदं-मोक्षः। २ समुद्रकोटिलक्षेषु ४ सागरोपमकोटिलक्षेषु । समुद्रः-सागरोपमं कालविशेषः । । °रदादि ज° खंता॥ Jain Education Intel For Private & Personal use only | Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः। सुमतिस्वामिचरितम् । नमः सुमतिनाथाय प्रकृष्टज्ञानहेतवे । अपारसंसारमहासागरोत्तारसेतवे ॥१॥ तत्प्रसादात् तचरित्रं यथावत् कीर्तयिष्यते । भव्यसंसारिकल्याणतरुकुल्याम्बुसन्निभम् ॥२॥ अत्रैव जम्बूद्वीपेऽस्ति प्राग्विदेहविशेषकः । ऋद्ध्या पुष्कलया राजन् विजयः पुष्कलावती ॥३॥ विचित्रचैत्य-हादिध्वजदन्तुरिताम्बरम् । तत्र शङ्खपुरं नाम पुरमस्त्यतिसुन्दरम् ॥ ४॥ विजयी तत्र विजयसेन इत्यभवन्नृपः । शोभामात्रमभूत् सेना यस्य दोर्वीयशालिनः ॥५॥ सकलान्तःपुरस्त्रैणभूषणं तस्य चाऽभवत् । प्रिया सुदर्शना नामेन्दुलेखेव सुदर्शना ॥६॥ रममाणस्तया साध रत्येव कुसुमायुधः । निनाय कालं विजयसेनः प्रथितवैभवः॥ ७॥ ययावन्येधुरुधानमुद्यते क्वचिदुत्सवे । सर्वा सपरीवारो जनः सर्वोऽपि नागरः॥८॥ वपुष्मतीव राज्यश्रीश्छत्र-चामरलाञ्छिता । आरुह्य हस्तिनी तत्राऽगाद् देव्यपि सुदर्शना ॥९॥ अपश्यत् तत्र चाऽनय॑भूषणश्रीभिरष्टभिः । दिक्कन्याभिरिवोपेतां वधृभिः कामपि स्त्रियम् ॥ १०॥ उपास्यमानां तां ताभिरप्सरोभिः शचीमिव । दृष्ट्वा सुदर्शना देवी भृशं चित्ते विसिष्मिये ॥११॥ १ कुल्या नाम नदी, अथवा कुल्या जलवाहिनी सारणी । भाषायां 'नीक धोरियो' इति । २ पुष्कलया अतिप्रभूतया । ३ राजन् शोभमानः। ४ दोर्-भुजाद्वयम् । निपुत्रताया दुःखम् त्रिषष्टि, ५३ Jain Education in . Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयं पर्व तृतीयः त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये सर्गः सुमतिखामि-. चरितम् । ॥३०८॥ इयं का? पारिपाश्विक्यः काश्चैतस्या अमूरिति । ज्ञातुं सुदर्शना देवी सौविदल्लं समादिशत् ॥ १२॥ तत् पृष्ट्वा सौविदल्लोऽपि समेत्यैवं व्यजिज्ञपत् । श्रेष्ठिनो नन्दिषेणस्य प्रेयसीयं सुलक्षणा॥१३॥ सुलक्षणाया द्वौ पुत्रौ प्रत्येकं च तयोरिमाः । वध्वश्चतस्रो दासीवच्छश्रूशुश्रूषणोद्यताः॥१४॥ श्रुत्वा सुदर्शना तच्च चेतस्येवमचिन्तयत् । इयं हि श्रेष्ठिनी श्रेष्ठा या पुत्रमुखमीक्षते ॥ १५॥ यस्याश्चैताः स्नुषीभृय रूपवत्यः कुलस्त्रियः । नागकन्या इवाऽष्टापि सेवां कुर्वन्ति सर्वदा॥१६॥ न सूनुन स्नुषा यस्या धिग् धिग् मां तामपुण्यकाम् । पत्युहृदयभृताया अपि मे जीवितं वृथा ॥१७॥ इतस्ततः क्षिपन् पाणी समन्ताद् धूलिधूसरः । अङ्के क्रीडति धन्यानां पुत्रो वृक्षे प्लवङ्गवत् ॥ १८॥ असञ्जातफला वय इवाऽतोया इवाऽऽपगाः । निन्दनीयाः शोचनीया योषितस्तनयं विना ॥ १९ ॥ किमन्यैरुत्सवैस्तासां? न यासां स्युर्महोत्सवाः । सूनुजन्म-नाम-चूला-विवाहकरणादयः॥२०॥ विचिन्त्येवं म्लानमुँखी पद्मिनीव हिमादिता । ययौ सुदर्शना देवी सखेदा सदनं निजम् ॥ २१॥ अपि प्रियसखीस्तत्र विसृज्य शयनीयके । निःसहा मुक्तनिःश्वासा व्याधितेव पपात सा ॥ २२ ॥ नाऽभुक्त न बभाषे च प्रतिकर्म च नाऽकरोत् । तस्थौ किन्तु मनःशून्या रत्नेपाश्चालिकेव सा ॥ २३ ॥ तां तथावस्थितां ज्ञात्वा परिवारमुखान्नृपः। उपेत्यैवमभाषिष्ट प्रेमपेशलया गिरा ॥२४॥ स्वाधीने मय्यपि सदा किमपूर्ण समीहितम् ? । देवि! ताम्यसि येनैवं हंसीव पतिता मरौ ॥२५॥ १ सौविदलम् अन्तःपुररक्षकं कर्मकरम् । २ स्नुषा पुत्रवधूः । * °मुखा प° संवृ०॥ ३ हिमादिता शीतपीडिता । ४ व्याधिता व्याधिपीडिता । ५ रननिर्मिता पुत्तलिका इव । ६ मरुदेशे जलरहिते शुक्के । ॥३०८॥ Jain Education a l For Private & Personal use only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education In 1% - किमाधिर्बाधते कोsपि ? व्याधिर्वा कोऽपि नूतनः १ । किं कोऽप्याज्ञां लचे ? किं दुःखमं दृष्टवत्यसि १ ॥ २६ ॥ बाह्याभ्यन्तरं वाऽपि दुर्निमित्तमथाऽभवत् ? । खेदस्य कारणं ब्रूहि रहस्यं न हि ते मयि ॥ २७ ॥ सुदर्शनाऽपि निःश्वस्येत्यवदद् गद्गदाक्षरम् । त्वत्प्रसादात् तवेवाऽऽज्ञां न मे कश्चिदखण्डयत् ॥ २८ ॥ नाssध-व्याधी न दुःख - दुर्निमित्ते न चाऽपरम् । तादृक् किमपि बाधायै किन्त्वेकं नाथ ! बाधते ।। २९ ।। वृथैव राज्यसम्पत्तिर्वृथा वैषयिकं सुखम् । वृथैव चाssवयोः प्रीतिरदृष्टसुतवक्रयोः ॥ ३० ॥ श्रद्दधाति श्रियः पश्यन् दरिद्रः श्रीमतां यथा । पुत्रान् पुत्रवतां पश्यन्त्यहमप्येवमस्मि हा ! ॥ ३१ ॥ एकतः सर्वसौख्यानि पुत्राप्तिसुखमन्यतः । मनस्तुलातोलनतो द्वितीयमतिरिच्यते ॥ ३२ ॥ वरं मृगादयोऽरण्ये ये पुत्रपरिवारिताः । अस्माकं पुत्रहीनानां धिक् तेभ्योऽप्यल्पभाग्यताम् ॥ ३३ ॥ अथोचे पृथिवीशोऽपि देवि ! धीरा भवाऽचिरात् । मनोरथं पूरयिष्ये देवताराधनेन ते ॥ ३४ ॥ विक्रमेण न यत् साध्यं यद् बुद्धीनामगोचरः । यन्मत्राणामविषयस्तत्राणां यच्च दूरतः ।। ३५ ।। अन्येषामप्युपायानां यदगम्यं तदप्यलम् । साधयन्ति नृणामर्थं प्रसन्ना देवि ! देवताः ॥ ३६ ॥ तद् विद्धि सिद्धमेवाऽर्थममुं मानिनि ! किं शुचा ? । कुलदेव्याः पुरः स्थास्याम्येष प्रायेण सूनवे || ३७ ॥ राज्ञीं राजैवमाश्वास्य जगाम निजधामतः । कृतशौचः शुचिवेषः कुलदेव्या निकेतनम् ॥ ३८ ॥ अर्चित्वा देवतां तत्र भूपतिर्दृढनिश्चयः । आपुत्रलाभं त्यक्तान्न - पानवृत्तिरुपाविशत् ॥ ३९ ॥ उपवासे ततः षष्ठे प्रत्यक्षीभूय देवता । प्रसन्ना व्याजहारैवं वरं वृणु महीपते ! ॥ ४० ॥ * लङ्घते किं सं० ॥ + ° चरम् संहृ० ॥ चतुर्दश स्वप्नाः अभिनन्दन जिन अन्मजन्मोत्सव w. Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CREC तृतीयं पर्व तृतीयः त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये सर्गः सुमतिस्वामिचरितम् । ॥३०९॥ राजा विजयसेनोऽपि देवीं नत्वैवमत्रवीत् । समस्तपुरुषोत्कृष्टं पुत्रं देहि प्रसीद मे ॥४१॥ च्युत्वा दिवः सुरवरस्तव सूनुभविष्यति । एवं वरमदाद् देवी तत्क्षणाच्च तिरोदधे ॥४२॥ आख्यद् राजाऽपि तं देव्या देव्या दत्तं वरं वरम् । स्तनितेन बलाकेव मुमुदे तेन देव्यपि ॥४३॥ देव्याः सुदर्शनायास्तु स्नाताया अपरेऽहनि । दिवो महद्धिको देवश्युत्वा कुक्षाववातरत ॥४४॥ तदा च ददृशे देव्या सुप्तया प्रविशन् मुखे । एकः केसरिकिशोरः कुङ्कुमारुणकेसरः॥४५॥ उत्थाय शयनीयाच सत्वरं भीतभीतया । तया निजगदे राज्ञे स्वास्ये सिंहप्रवेशनम् ॥४६॥ राजाऽप्यूचे विक्रमी ते भावी सिंह इवाऽऽत्मजः । स्वमेनाऽनेनैतदुक्तं देवीवरतरोः फलम् ॥४७॥ तेन खमविचारेण राज्ञी भृशममोदत । जजागार च तं रात्रिशेषं शुभकथापरा ॥४८॥ देव्याः कुक्षाववर्धिष्ट गर्भः सोऽपि दिने दिने । मध्येसरिद्वरावारि सौवर्णमिव वारिजम् ॥ ४९॥ अन्यदा दोहदान् देवी समुत्पन्नान् महीभुजे । शशंसेत्यभयं दित्साम्यहं निःशेषदेहिनाम् ॥५०॥ अारिमाधोषयितुमिच्छामि च पुरादिषु । अष्टाहिकाश्चिकीर्षामि निखिलायतनेषु च ॥५१॥ __ राजाऽप्यूचे देवि! देवीवर-स्वमार्थयोरयम् । साधु सत्यापको गर्भप्रभावाद् दोहदस्तव ॥ ५२ ॥ महेच्छस्य हि गर्भस्य वशादिच्छेयमीदृशी । प्रतिमायाः प्रभावोऽधिष्ठातृदेवोचितः खलु ॥ ५३॥ स्तनितं मेघगर्जितम् । * मुदिता तेन सङ्घ० ॥ २ स्नाता नाम रजस्वलाधर्म प्राप्य तदनन्तरं स्नाता। + अपरेद्यविक |संबृ०॥ ३ सरिद्वरा उत्तमनदी, सरिद्वरावारिणः मध्ये इति मध्येसरिद्वरावारि, अव्ययीभावसमासः। ४ अमारिम् अभयम् , अद्य सर्वत्र सर्वे भयरहिता भवन्तु इतिरूपाम् । ५ सत्यापकः सत्यकारकः गर्भमभावसंवादकः । ॥३०९॥ Jain Education Inter For Private & Personal use only M Mw.jainelibrary.org Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SECONDONESCOROUSLUGUST इत्युक्त्वा भृपतिः सद्यो भीतानामभयं ददौ । घोषयामास चाऽमारिं डिण्डिमास्फालपूर्वकम् ॥ ५४॥ अष्टप्रकारपूजाभिर्दिव्यैः सङ्गीतकैरपि । अष्टाहिकोत्सवानुच्चैः प्रतिचैत्यं चकार च ॥ ५५॥ __ हृष्टा तैर्दोहदैः पूर्णैः पूर्णेन्दुविशदानना । फलं वल्लीव समये पुत्ररत्नमसूत सा ॥५६॥ यथाकाममथाऽर्थिभ्यश्चिन्तामणिरिवाऽर्थितम् । ददावाघोषणापूर्व नरेश्वरशिरोमणिः॥ ५७ ॥ राज्ञा महोत्सवश्चके हृदयाब्धिनिशाकरः । नागरैरपि तदनु स्वतोऽपि स्वजनैरिव ॥ ५८॥ राज्ञीखमानुसारेण कुमारस्य महीभुजा । विदधे पुरुषसिंह इति नाम मनोरमम् ॥ ५९॥ लाल्यमानः स धात्रीभिः कुमारो ववृधे क्रमात् । मातुः पितुः प्रजानां च सममेव मनोरथैः ॥६॥ कला जग्राह सकलाः स इन्दुरिव पार्वणः । प्रापच्च यौवनं लीलावनं मकरलक्ष्मणः ॥ ६१ ॥ आत्मानुरूपा रूपेण कलाभिश्च कुलेन च । उपायताऽऽयेतभुजः सोऽष्टौ कन्याः क्षमाभुजाम् ॥ ६२॥ सुखं वैषयिक ताभिरप्सरोभिरिवामरः । यथाक्षणं रममाणोऽन्वभूद् विजयसेनभूः ॥६३ ॥ ऋतुः साक्षादिव मधुः साक्षान्मधुसखोऽथवा। सोऽगात् क्रीडितुमन्येद्युः क्रीडोद्यानं यदृच्छया॥६४॥ तत्रापश्यच्च समवसृतं विनयनन्दनम् । नाम सूरि जितानङ्गं रूपेण च शमेन च ।। ६५॥ तं तस्य पश्यतः पीतामृतस्येव विलोचने । हृदयं चापराण्यङ्गान्यपि च व्यकसन्निव ॥६६॥ १ असूत जनयामास । २ मनोरथसमकालमेव, यथा मनोरथा वर्धमानाः तथा पुत्रोऽपि वर्धमानः। ३ मकरलक्ष्मा कामदेवः।। 'उपायत' इति क्रियापदम् । ५ आयतभुजः दीर्घभुजः । ६ मधुः वसन्तसमयः । ७ मधुः सखा यस्य स मधुसखः कामदेवः।। 1८ विकसितानि जातानि। SAMACARROADCASCOCACACROCC Jain Education into For Private & Personal use only w w.jainelibrary.org Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते महाकाव्ये तृतीयं पर्व तृतीयः सर्गः सुमतिखामिचरितम् ॥३१०॥ सोऽथेति दध्यौ वेश्यान्ते सतीत्वस्येव पालनम् । तस्कराणां सन्निधाने निधानस्येव गोपनम् ॥ ६७॥ मार्जारयुनामभ्यणे पीयूषस्येव रक्षणम् । शाकिन्याः प्रातिवेश्मिक्ये खस्येव क्षेमकारिता ॥६८॥ रूपस्याप्रतिरूपस्य वयसो मध्यमस्य च । उन्मादहेतावुदयेऽमुष्याहो! व्रतधारणम् ॥ ६९॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ हिमं सह्येत हेमन्ते ग्रीष्मे च तपनातपः । झञ्झावातोऽपि वर्षासु न पुनयौवने मरः ॥ ७० ॥ तदद्य दिष्ट्या दृष्टोऽयं पुण्यैः पुण्यानुबन्धिभिः। प्रीतिदायी गुरुरिव मातेव च पितेव च ॥ ७१॥ कुमारश्चिन्तयित्वैवमुपसृत्य च सत्वरम् । ववन्दे हृदयानन्दं मुनि विनयनन्दनम् ॥ ७२ ॥ कल्याणकन्दलोद्भेदमेघवृष्टिसमानया । मुनिरानन्दयामास धर्मलाभाशिषाऽथ तम् ॥ ७३ ॥ भूयः कुमारस्तं नत्वा मुनिमेवमभाषत । चित्रीयसे व्रतधरो नवयौवनवानपि ॥ ७४ ॥ विषयाणां विमुखोऽसि वयस्यत्रापि यत् ततः । विद्मस्तेषां दुर्विपाकं किम्पाकानामिव ध्रुवम् ।। ७५ ॥ सारमत्र हि संसारे किश्च मन्ये न किञ्चन । इत्थं तत्परिहारायोतिष्ठन्ते यद् भवादृशाः॥ ७६ ॥ संसारतरणोपायं तन्ममापि समादिश । मां नय त्वं खेन पथा सार्थवाह इवाध्वगम् ॥ ७७॥ क्रीडार्थमागतेनेह त्वं प्राप्तोऽसि महामुने! । कर्करान्वेषकेणेव माणिक्यं पर्वतावनौ ।। ७८॥ एवमुक्तः कुमारेण मारारिः स महामुनिः । आबभाषे नवाम्भोदघोषगम्भीरया गिरा ॥ ७९ ॥ यौवनैश्वर्य-रूपादिमदस्थानानि शान्तये । मात्रिकस्येव भूतानि पदातित्वाय साधनात् ॥ ८॥ नवप्रसूतगवीक्षीरं पीयूषम् , धारोष्णं पयः अमृतम् , अतः पीयूषं दुग्धम् । २ आश्चर्य करोषि । ३ चेष्टन्ते, प्रयतन्ते इत्यर्थः । * साधु ते संबृ० । साधने सङ्घ० ॥ ॥३१०॥ Jain Education Intel For Private & Personal use only Inm Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशधा यतिधर्मः GROSSSCORES ACROSSBOS संसारसिन्धुतरणे यानपात्रमनर्गलम् । भगवद्भिः समाम्नातो यतिधर्मोऽयमुच्चकैः ।। ८१॥ संयमः सूनृतं शौचं ब्रह्माकिञ्चनता तपः । शान्तिार्दवमृजुता मुक्तिश्च दशधेति सः।। ८२ ॥ प्राणातिपातव्यावृत्तिरूपः संयम ईरितः । मृपावादपरीहारस्वरूपं सूनृतं पुनः ॥ ८३ ॥ शौचं संयमसंशुद्धिरदत्तादानवर्जनात् । उपस्थसंयमो ब्रह्म नवगुप्तिसमन्वितम् ॥ ८४ ॥ निर्ममत्वं शरीरादावप्यकिञ्चनता मता । तपस्तु द्विविधं वाह्यमान्तरं चेति तद् यथा ॥ ८५ ॥ अनशनमौनोदय वृत्तेः संक्षेपणं तथा । रसत्यागस्तनुक्लेशो लीनतेति बहिस्तपः॥८६॥ प्रायश्चित्तं वैयावृत्यं स्वाध्यायो विनयोऽपि च । व्युत्सर्गोऽथ शुभध्यानं पोढेत्याभ्यन्तरं तपः॥ ८७॥ शान्तिः शक्तावशक्ती वा सहनं क्रोधनिग्रहात् । मददोषपरीहारो मार्दवं माननिर्जयात ॥ ८८॥ मायाजयादार्जवं वामनः-कायैरवक्रता । मुक्तिश्च तृष्णाविच्छेदो बाह्या-ऽऽभ्यन्तरवस्तुषु ॥ ८९ ॥ इत्थं दशविधो धर्मः संसारोत्तारणक्षमः। जगत्यवाप्यते पुण्यैश्चिन्तामणिरिवानघः॥९॥ श्रुत्वा पुरुषसिंहोऽपि सप्रश्रयमदोऽवदत् । रोरस्येव निधानं मे धर्मोऽयं साधु दर्शितः॥९१॥ किन्त्वसौ गृहवासस्थैरनुष्ठातुं न शक्यते । गृहवासो हि संसारतरोर्दोहदमुत्तमम् ॥ ९२ ॥ प्रव्रज्यां धर्मराजस्य राजधानी प्रयच्छ मे । भगवन् ! भवदुर्गामवासादुद्विग्नवानहम् ।। ९३ ॥ अथोचे भगवानेवं सूरिविनयनन्दनः। मनोरथोऽपि ते साधुः साधकः पुण्यसम्पदाम् ॥ ९४ ॥ १ उदरस्य ऊनता-भोजनसमये एकट्यादिभिः कवलैः उदरं ऊनं रक्षणीयम् । २ लीनता अङ्गोपाङ्गानां अचञ्चलता । ३ व्युत्सर्गः | आत्मशुद्धिप्राप्तये देहादिकं सहायकरूपं आत्मसाधनहेतुं मत्वाऽपि देहादिपरभावं प्रति उपेक्षावृत्तिः। ४ रोरः रक्तः, भाषा 'रांक' । Jain Education Intel Aluww.jainelibrary.org Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये तृतीयं पर्व तृतीयः सर्ग: सुमतिखामिचरितम् । ॥३१॥ महासत्व! महाबुद्धे! विवेकिन् ! दृढनिश्चय! । योग्योऽसि व्रतभारस्य दास्यामस्त्वत्समीहितम् ॥ ९५॥ आपृच्छस्व परं गत्वा पितरौ पुत्रवत्सलौ । यतस्तावेव जगति गुरू प्रथमतो नृणाम् ॥ ९६ ॥ ततः स गत्वा पितरौ प्रणम्य च कृताञ्जलिः । मां व्रतायानुमन्येथामेवमुच्चैव्यजिज्ञपत् ॥ ९७॥ इत्युचतुश्च तौ युक्ता प्रव्रज्या वत्स! किन्त्विह । उद्घोढव्यः पञ्चमहाव्रतभारोऽतिदुर्वहः ॥ ९८॥ निर्ममत्वं स्वदेहेऽपि विरती रात्रिभोजनात् । द्विचत्वारिंशता दोषमुक्तः पिण्डश्च भोजने ॥ ९९ ॥ नित्योयुक्तो निर्ममश्चाकिञ्चनो गुणतत्परः । धारयेत् समितीः पञ्च तिस्रो गुप्तीश्च सर्वदा ॥१०॥ मासादिकाश्च प्रतिमा विधातव्या यथाविधि । अभिग्रहा द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावानुगा अपि ॥१०१॥ यावजीवितमस्नानं भूशय्या केशलुञ्चनम् । शरीरस्याप्रतिकर्म वासो गुरुकुले सदा ॥ १०२॥ परीषहोपसर्गाणां सहनं सानुमोदनम् । अष्टादशानां शीलाङ्गसहस्राणां च धारणम् ।। १०३ ॥ प्रव्रज्यायामुपात्तायां सुकुमार कुमारक!। तदेते लोहचणकाचर्वणीया निरन्तरम् ॥ १०४॥ बाहुभ्यां तरणीयोऽयमपारो मकराकरः। निशातखड्गधारासु कार्य चक्रमणं क्रमैः ॥ १०५॥ पातव्या ज्वलनज्वाला मेरुस्तोल्यस्तुलाधृतः । उत्पूरा च प्रतिश्रोतस्तरणीया सरिद्वरा ।।१०६॥ एकाकिना च जेतव्यं बलवद्विद्विपद्धलम् । विधातव्यो भ्रमच्चके राधावेधश्च खल्वहो। ॥ १०७ ॥ ॥देशभिः कुलकम् ॥ । वहनीयः । २ भिक्षाचर्यायाः द्विचत्वारिंशद् दोषाः, तद्यथा-आधाकर्मिकम् , औद्देशिकम् इत्यादि । ३ असंस्कारः।। ४ संयमसाधनायां बाधकरूपाः द्वाविंशतिः परीषहाः क्षुधापिपासादयः। * चक्ररा संवृ०॥ चतुर्भिः कलापकम् संवृ० मो०॥ प्रवज्याचा दुष्करत्वम् ॥३११॥ Jain Education In DL For Private & Personal use only . Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चातुर्गतिकभववासर्ज महत् सत्त्वं महद् धैर्य महती धीर्महद् बलम् । प्रव्रज्याया उपात्ताया यदाऽऽ जन्मापि पालनम् ॥१०८॥ तदाकर्ण्य कुमारोऽपि ससौष्ठवमभाषत । पूज्यपादा एवमेतत् प्रव्रज्येयं यदीदृशी ॥ १०९॥ किन्तु विज्ञपयाम्येकमंशः शततमोऽपि किम् । भववाससमुत्थानां कष्टानामिह दृश्यते ॥११॥ तथाहि दूरे तिष्ठन्तु साक्षान्नरकवेदनाः । वचनैर्दुर्वचा एव दुःश्रवाः श्रवणैरपि ।। १११ ॥ इहापि दृश्यते लोके तिरश्चामकृतागसाम् । नितान्तं बन्धन-च्छेद-तर्जनाधतिदुःसहम् ॥११२ ॥ कुष्ठादिव्याधिजा बाधा गुप्तिवासोऽङ्गकर्तनम् । त्वचनं ज्वालनं शीर्षच्छेदादि च नृणामपि ॥११३॥ विप्रयोगः प्रियजनैः शत्रुतश्च पराभवः । च्यवनज्ञानजं दुःखं दुःसहं नाकिनामपि ॥ ११४ ॥ तेनैवमुक्ती पितरौ साधु साध्विति वादिनौ । मुदितावनुमेनाते व्रतादानाय तं ततः ॥११५ ॥ सप्रमोदं ततः पित्रा कृतनिष्क्रमणोत्सवः । दीक्षार्थी तं मुनि सोऽगात् फलार्थीव वनस्पतिम् ॥ ११६ ॥ आददे मुनिपादान्ते सामायिकमुदीरयन् । प्रवज्यां पुरुषसिंहो भवाब्धितरणे तरीम् ॥ ११७॥ प्रमादपरिहारेण रक्षेच्छुः सर्वदेहिनाम् । स दृढं पालयामास प्रव्रज्यां राज्यवन्नृपः॥ ११८ ।। विंशतिस्थानकानां च स्थानः कतिपयैरपि । अर्जयामास विशदं तीर्थकृन्नामकर्म सः॥ ११९ ॥ चिरं विहृत्य कालं च कृत्वाऽनशनकर्मणा । विमाने वैजयन्ते स महर्द्धिरमरोऽभवत् ॥ १२० ॥ इतश्च जम्बूद्वीपेऽस्मिन् क्षेत्रे भरतनामनि । विनीतेत्यस्ति नगरी गरीयासम्पदास्पदम् ॥ १२१ ॥ १ आ जन्म जीवितपर्यन्तम् ॥ २ निष्कमणं प्रवज्या । ३ नावम् । ४ उत्तमसम्पदा स्थानम् । -CRAMMARCLEARCLICA Jain Education a l For Private & Personal use only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका पुरुक्चरिते महाकाव्ये तृतीयं पर्व तृतीयः सर्ग: सुमतिखामिचरितम् । ॥३१२॥ राजते राजतैस्तत्र प्राकारः कपिशीर्षकैः। सर्वद्वीपान्तरानीतेन्दुबिम्बरचितैरिव ॥१२२॥ नानारत्ननिधानं सा रूप्यवप्रेण राजति । रक्षार्थ कुण्डलीभूतशेषेणेव निषेविता ॥ १२३ ॥ सौधेषु रत्नवलभीसङ्क्रान्तस्तत्र चन्द्रमाः । लिह्यते गृहमार्जारैर्दधिपिण्डधिया मुहुः॥१२४ ॥ अर्हन् देवो गुरुः साधुरिति क्रीडाशुका अपि । पठन्ति तस्यां शृण्वन्तस्तदेव हि गृहे गृहे ॥ १२५॥ प्रतिवासगृहं तत्र दह्यमानागरूद्भवाः । धूमलेखा वितन्वन्ति तमालवनमम्बरे ॥ १२६॥ तत्रोद्यानेष्वरघदृशीकरासारमालिषु । शीतभीत्येव नो जातु प्रविशन्त्यर्करश्मयः॥ १२७॥ इक्ष्वाकुवंशतिलकस्तस्यामासीन्महीपतिः । मेघो नाम महामेघ इव विश्वाभिनन्दकः ॥ १२८॥ सदैवोदच्यमानापि कृतार्थीकर्तुमार्थिनः । सिराँवारीव ववृधे तस्य श्रीरतिशायिनी ॥ १२९ ॥ देवतामिव तं नेमुःपञ्चाङ्गस्पृष्टभूतलाः । वस्त्रा-ऽलङ्कार-रत्नाद्यैरानच॑श्च महीभुजः॥ १३०॥ प्रतापः प्रसरंस्तस्य माध्यन्दिन इवार्यमा । द्विषां सङ्कोचयामास देहच्छायामिव श्रियम् ।। १३१॥ शुद्ध्या महत्या शक्त्या च प्रभावेण च भूयसा । चतुष्षष्टेः स इन्द्राणां पञ्चषष्टितमोऽन्वभात् ॥ १३२॥ तस्याऽऽसीन्मङ्गला नाम मङ्गलानां निकेतनम् । सच्छीलकेतना पत्नी कुललक्ष्मीरिवाङ्गिनी ॥१३३॥ पत्युः सा हृदयेऽवात्सीत् तस्याश्च हृदये पतिः । बहिरङ्गस्तयोरासीद् वासो वासगृहादिषु ॥१३४ ॥ उद्यानादिप्रदेशेऽपि सश्चरन्ती गृहेऽपि वा । अधिकं देवतातोऽपि भत्तारं ध्यायति म सा ॥ १३५॥ ॥ शोभते । २ अरघट्टो नाम कूपाद् जलनिस्सारणसाधनम् । ३ उदश्यमाना वारंवार व्याप्रियमाणा, भाषायां 'उलेचाती'। | सिरा 'सेर' इति भाषायाम् । ५ दिदीपे। ६ देवादपि । सुमतिस्वामि जन्मपुरी -पितरौ च ॥३१२॥ CARE Jain Education Inte ? For Private & Personal use only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुमतिजिनमात्रा पुत्रवि|त्तार्थ विवद. स्योः मातृविमात्रोः विवादभअनम् रूप-लावण्य-सौभाग्यदासीकृतसुराङ्गना । दासीचके मुखेनेन्दुमपि सा वरलोचना ॥ १३६ ॥ विशदे रूप-लावण्ये तस्याश्चातिशयान्विते । परस्परमभूष्येतामङ्गुलीय-मणी इव ॥ १३७ ॥ पौलोम्येव महेन्द्रस्य नरेन्द्रस्य तया समम् । उपभुञ्जानस्य भोगानभवत् प्रीतिरक्षया ॥ १३८ ॥ ___ इतः पुरुषसिंहस्य वैजयन्तविमानगः । जीवः वायुस्त्रयस्त्रिंशदब्धिसङ्ख्यमपूरयत् ॥ १३९ ॥ श्रावणस्याथ शुक्लायां द्वितीयायां मघागते । मृगाङ्के मङ्गलादेव्याः कुक्षाववततार सः॥१४॥ ईक्षाश्चके तदानी च तीर्थजन्ममूचकान् । गजादीन् मङ्गलादेवी महास्वमांश्चतुर्दश ॥ १४१॥ भुवनत्रितयाधारभृतं गर्भ दधार तम् । निगूढं मङ्गला देवी निधानमिव मेदिनी ॥१४२॥ ___ इतश्च कश्चिदप्याढ्यस्ततः पुर्या वणिज्यया । सग्भार्याद्वययुतो दूरदेशान्तरं ययौ ॥१४३ ॥ तस्य मार्गस्थितस्यैवैकस्यां समभवत् सुतः । उभाभ्यां च सपत्नीभ्यां निर्विशेषमवयत ॥ १४४॥ अर्जयित्वा धनं देशान्तराद् व्यावृत्तवानथ । वर्त्मन्येव विपेदे स दैवस्य विषमा गतिः॥१४५॥ तस्य द्वे अपि ते भार्ये उंदश्रुवदने शुचा । विरचय्याग्निसंस्कारं चक्राते औलदेहिकम् ।। १४६ ॥ ततः पुत्रश्च वित्तं च मदीये इति भाषिणी । पुत्रमात्रा सहान्या तु मायिन्यकलहायत ॥१४७॥ क्षेममेकाऽपरा योगमिच्छन्त्यौ पुत्र-वित्तयोः । अयोध्यामीयतुः शीघ्रं सूनोर्मातृ-विमातरौ ॥१४८॥ तत्र च स्वा-ऽन्यकुलयोर्धर्माधिकरणेऽपि च । डुढौकाते उभे छिन्नो न तद्वादो मनागपि ॥ १४९॥ भूषितौ । २ इन्द्राणी । ३ अक्षया प्रीतिः । * 'मानतः संबृ०॥1 °णस्य च शु° संवृ०॥ ४ रष्टवती। ५ गुप्तं यथा स्यात् तथा । ६ अश्रुपूर्णमुखे, द्विवचनमेतत् । ७ मृतस्य मरणतिथौ दीयमानं पिण्डोदकादि । ८ कलहं चकार । ९ न्यायमन्दिरे।। Jain Education , II Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये तृतीयं पर्व तृतीयः सर्ग: सुमतिस्वामिचरितम् । ॥३१३॥ PROGRACCROCOMCASCARDAMOROO ततस्ते उपतस्थाते विवदन्त्यौ नरेश्वरम् । उपवेश्य सभां राज्ञा पृष्टे ते वादकारणम् ॥ १५० ॥ ऊचे विमाता वादोऽयमाख्यातः सकले पुरे । किन्त्वेनं नाच्छिदत् कोऽपि कः परव्यसनेर्तिमान् ॥१५१॥ सुखिनं परसौख्येन परदुःखेन दुःखिनम् । पृथिव्यां धर्मराजं त्वामिदानीमस्म्युपस्थिता ॥ १५२॥ ममौरसोऽयं तनयः सदृग मे वर्द्धितो मया । वित्तं ममैतद् यस्या हि पुत्रस्तस्या धनादिकम् ॥ १५३॥ पुत्रमाताऽप्युवाचैवं पुत्रोऽसौ मे धनं च मे । सपत्नी मेऽनपत्याऽसौ लोभेन कलहायते ॥ १५४ ॥ प्राक पुत्रं पालयन्त्येषा न निषिद्धा मयाऽऽर्जवात । पादान्ते शायिता स्नेहादुच्छीर्षग्राहिणी ह्यसौ ॥१५५॥ तत्तिष्ठस्व निर्णतुं विवादस्त्वयि तिष्ठते । राज्ञा दृष्टः कुदृष्टो वा निर्णयो ह्यपुनर्भवः ॥ १५६ ॥ उभाभ्यामिति विज्ञप्तो जगाद जगतीपतिः। द्वे अप्येते सुसदृश्यावेकवृंन्तच्युते इव ॥ १५७॥ अन्योऽन्यं वैसदृश्ये हि यस्याः सादृश्यभाग भवेत । तस्याः पुत्रोऽनुमीयेत द्वयोः सदृश एप नु॥१५८॥ न वक्तुमपि जानाति बाल्यादेषोऽपि दारकः । असौ माता विमाताऽसाविति ज्ञाने तु का कथा ? ॥१५९॥ दुनिर्णयोऽद्य चकितस्येत्थं निगदतोऽपि हि। जज्ञे राज्ञोऽथ मध्याह्नो नित्यकृत्यान्तरोचितः ॥१६॥ पारिपद्यैरथेत्यूचे मासैः पद्भिरपि प्रभो। विवादोऽभेदि नामाभिर्वज्रग्रन्थिरिवाऽनयोः ॥१६१॥ इदानीं नित्यकृत्यानां क्षणो वो माऽतिवर्तताम् । क्षणान्तरे विवादोऽयं विचार्यः स्वामिना पुनः॥१६२॥ एवमस्त्विति राजाऽपि निगद्य व्यसृजत् सभाम् । कृत्वाऽनन्तरकृत्यानि चान्तरन्तःपुरं ययौ ॥ १६३ ॥ १ न्यायलिप्सया समागते । * सुखितं संवृ० ॥ दुःखितम् संवृ० ॥ २ रक्षन्ती। ३ यस्या मया पादान्ते स्थानं दत्त सा मम उच्छीर्ष ग्रहीतुमुद्यता । ५ चेष्टस्व । भ्यामपि वि संबृ०॥ ५ वृन्तं भाषायां 'बीट' । ६ असमानतायाम् । ७ मा गच्छतु । ८ अन्तःपुरमध्ये। ॥३१३॥ Jain Education Internet For Private & Personal use only XMw.jainelibrary.org Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञप्तो मङ्गलादेव्या तत्र चैवं महीपतिः। स्वामिन् ! मध्याह्नकृत्यानामति लाऽभवत् कुतः ॥ १६४॥ तयोविवादवृत्तान्तो राज्य राज्ञाऽप्यकथ्यत । गर्भप्रभावात् सुमती राज्यप्येवमभापत ॥ १६५॥ स्त्रीणां विवादो निर्णेतुं स्त्रीभिरेव हि युज्यते । तत् करिष्याम्यहं देव ! विवादच्छेदनं तयोः॥१६६ ॥ राज्ञा सविस्मयं देव्या सममागत्य पर्षदि । आनायिते ततस्ते तु पृष्टे पूर्ववदूचतुः ।। १६७ ॥ राज्ञी भाषामुत्तरं च विचार्यैवमवोचत । ज्ञानत्रयधरस्तीर्थकरोऽस्त्येष ममोदरे ॥ १६८ ॥ स प्रसूतो जगन्नाथोऽमुष्याशोकतरोस्तले । निर्णयं दास्यते तस्मात् प्रतीक्षेथामुभे अपि ॥१६९॥ ओमित्यूचे विमाता तु माता त्वेवमवोचत । अहमागमयिष्ये न महादेवि ! मनागपि ॥ १७० ॥ सर्वज्ञमाता भवती करोत्वद्यैव निर्णयम् । सपत्नीसात् करिष्यामि नेयत्कालं स्वमात्मजम् ॥ १७१॥ ततश्च मङ्गलादेवी निर्णीयैवमभाषत । कालक्षेपासहत्वेन नूनमस्या अयं सुतः॥ १७२ ॥ विदधात्युभयाधीने परपुत्र-धने यतः । तेनेह कालहरणं विमाता सहते खलु ॥ १७३ ।। आत्मपुत्रमुभर्यसात क्रियमाणं तितिक्षितम् । अक्षमा कालहरणं सहते जननी कथम् ॥ १७४ ॥ भद्रे ! न कालहरणं सहसे यन्मनागपि । तज्ज्ञातं तव पुत्रोऽयं गृहाण खगृहं व्रज ॥ १७५ ॥ एतस्यास्तनयो नायं पालितो लालितोऽपि हि । कोकिलायाः खल्वपत्यं काक्या पुष्टोपिकोकिलः॥१७६॥ योग्यसमयातिक्रमणम् । २ 'सुमतिः' इति भगवन्मातुःसुमङ्गलाया विशेषणम् । स्त्रीणामेव संल. मो०॥ भाषा त्रिषष्टि ५४ापूर्वपक्षः, उत्तरम् उत्तरपक्षः। ४ प्रतीक्षा करिये। ५ सपत्नीवशे करिष्यामि । ६ उभयाधीनम् । RECORLSCRECR Jain Education in For Private & Personal use only MIT Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये तृतीयं पर्व तृतीया सर्गः ॥३१४॥ गर्भप्रभावाद् देव्यैवं विहिते तत्र निर्णये । विसिष्मिये स्मेरनेत्रा परिषत् सा चतुर्विधा ॥ १७७॥ तदा ते जग्मतुर्वेश्म सूनोर्मातृ-विमातरौ । हृष्ट-म्लाने कमलिनी-कुमुदिन्याविवोषसि ॥ १७८॥ बाधामजनयन् देव्या लघूकरणवानिव । क्रमेण ववृधे गर्भः शुक्लपक्ष इवोडुपः ॥ १७९॥ ततो नवसु मासेषु दिनेष्वर्धाष्टमेषु च । वैशाखविशदाष्टम्यां मघास्थे च निशाकरे ॥१८॥ सुमतिसुवर्णवण क्रौञ्चाई मृगाङ्कमिव पूर्वदिक् । मङ्गलास्वामिनी सूनुरत्नं प्रसुषुवे सुखम् ॥ १८१॥ स्वामित्रैलोक्ये क्षणमुद्दयोतो नारकाणां क्षणं सुखम् । तदानीमभवच्छकादीनां चाऽऽसनकम्पनम् ॥ १८२ ॥ चरितम् । दिक्कुमार्यस्तत्र चक्रुः सूतिकर्म यथोचितम् । शक्रश्च मङ्गलातल्पात् सुमेरावनयत् प्रभुम् ॥ १८३ ॥ शक्रावर्तिनं नाथमिन्द्रास्तत्राऽच्युतादयः । त्रिषष्टिः स्नपयामासुस्तीर्थाम्भोभिर्यथाक्रमम् ॥ १८४ ॥ सुमतिजिनईशानाङ्के निवेश्येशं शक्रोऽप्यस्नपयजलैः । विकृतस्फाटिकचतुर्वृषशृङ्गविनिर्गतैः ॥ १८५॥ व जन्मादिकम् विलिप्य पूजयित्वा च वस्त्रा-ऽलङ्करणैः प्रभुम् । आरात्रिकं च प्रोत्तार्य शक्रो भक्त्यैवमस्तवीत् ॥१८६ ॥ देव! त्वजन्मकल्याणेनापि कल्याणभाग मही । किं पुनः पादकमलैर्यत्र त्वं विहरिष्यसे ॥१८७॥ त्वद्दर्शनसुखप्राप्त्या कृतकृत्या दृशोऽधुना । कृतार्थाः पाणयश्चैते भगवन् ! पूजितोऽसि यैः॥ १८८॥ जिननाथ ! तव स्नात्र-चर्चा-ऽर्चादिमहोत्सवः । मन्मनोरथचैत्यस्य चिरात् कलशतां ययौ ॥ १८९॥ जगन्नाथ ! प्रशंसामि संसारमपि सम्प्रति । यत्र त्वदर्शनं देव ! मुक्तेरेकं निबन्धनम् ॥१९॥ 15॥३१४॥ १ क्षत्रियपरिषद् गृहपतिपरिषद् ब्राह्मणपरिषद् ऋषिपरिषद् इत्येवं चतुर्विधा परिषत् सभा । राजप्रश्नीयोपाङ्गे पृ. ३२१ | कण्डिका १८४ (गूर्जर.)। २ प्रातःकाले । ३ चातुर्यवानिव । *शुभम् संवृ०॥ Jain Education For Private & Personal use only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊर्मयोऽपि हि गण्यन्ते खयम्भूरमणोदधेः। तवातिशयपात्रस्य न पुनर्मादृशैर्गुणाः ॥ १९१॥ धमैकमण्डपस्तम्भ ! जगदुद्द्योतभास्कर ! । कृपावल्लीमहावृक्ष ! रक्ष विश्वं जगत्पते ॥ १९२॥ निवृतेः संवृतद्वारसमुद्धाटनकुञ्चिका । धन्यैः शरीरिभिर्देव! श्रोष्यते तव देशना ॥ १९३॥ मन्मनस्युवलादर्शसन्निभे भुवनेश्वर ! । त्वन्मूर्तिनित्यसङ्क्रान्ता भूयान्नितिकारणम् ॥ १९४ ॥ __इति स्तुत्वा हरि थमादायोत्प्लुत्य च क्षणात् । मङ्गलावामिनीपार्श्वे मुक्त्वा च खाश्रयं ययौ ॥१९५॥ जनन्यास्तत्र गर्भस्थे यदभृच्छोभना मतिः । स्वामिनो नाम सुमतिरित्यकापति पिता ततः॥१९६॥ धात्रीभिरिन्द्रादिष्टाभिाल्यमानो जगत्पतिः । शैशवं व्यतिचक्राम प्रतिपेदे च यौवनम् ॥ १९७॥ धनुःशतत्रयोत्तुङ्गः पीनस्कन्धो बभौ विभुः। आजानुलम्बिदोशाखः कल्पशाखीव जङ्गमः ॥१९८॥ खामिनः खच्छलावण्यकल्लोलिन्यां निरन्तरम् । ललनानां लुलन्ति स्म दृशः शफरिका इव ॥ १९९॥ भोग्यं कर्म निजं जानन् पित्रोरप्युपरोधतः । राज्ञां कन्याश्चारुरूपाः पर्यणेषीदथ प्रभुः ।। २००॥ जन्मतः पूर्वलक्षेषु गतेषु दशसु प्रभुः । भूभुजाऽप्यर्थितोऽत्यर्थ राज्यभारमुपाददे ॥ २०१॥ एकोनत्रिंशतं पूर्वलक्षाः सद्वादशाङ्गिकाः । राज्येऽनैषीत् सुखं स्वामी वैजयन्त इव स्थितः ॥२०२॥ खयम्बुद्धो बोधितश्च ततो लोकान्तिकामरैः । दीक्षेच्छुार्षिकं दानमदत्त सुमतिः प्रभुः॥२०३॥ अन्ते वार्षिकदानस्य वासवैश्चलितासनैः । दीक्षाभिषेको विदधे स्वामिनः पार्थिवैरपि ॥ २०४ ॥ अथाऽभयकरां नामाध्यारुह्य शिविकां विभुः। सुरा-ऽसुर-नृपोपेतः सहस्राम्रवणं ययौ ॥२०५॥ दोःशाखः भुजशाखः। २ द्वादशपूर्वाङ्गसहिताः । चतुरशीतिलक्षवषमित पूर्वाङ्गम्। ३ विजयन्तनामकविमाने स्थितो देव इव । FACASSAMROSA CONCATEG सुमतिजिन दीक्षा Jain Education Internal For Private & Personal use only T w .jainelibrary.org. Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये तृतीयं पर्व तृतीयः सर्गः सुमति खामि ॥३१५॥ चरितम् । वैशाखसितनवम्यां पूर्वाह्ने स मघासु भे । प्रात्राजीनित्यभक्तेन सहस्रेण नृपैः सह ॥ २०६॥ उत्पेदे स्वामिनो ज्ञानं मनःपर्ययसंज्ञकम् । अनुजन्मेव दीक्षायाः प्रियमित्रमिवाथवा ॥ २०७॥ दिने द्वितीये विजयपुरे पद्मस्य भूपतेः । सदने विदधे स्वामी परमानेन पारणम् ।। २०८॥ वसुधारादीनि पश्चाद्भुतदिव्यानि चक्रिरे । तत्र देवा रत्नपीठं त्वायै पद्मपार्थिवः ॥२०९॥ विविधाभिग्रहधरः सहमानः परीषहान् । वर्षाणि विंशतिं स्वामी विजहार ततो महीम् ॥ २१० ॥ ग्रामा-ऽऽकरप्रभृतिषु विहरन् प्रभुरन्यदा । सहस्राम्रवणं दीक्षाग्रहणस्थानमाययौ ॥२११॥ प्रियङ्गुमूले ध्यानस्थस्यापूर्वकरणात् प्रभोः । क्षपकश्रेण्यारूढस्य घातिकर्माणि तुत्रुटुः ॥ २१२ ॥ चैत्रस्य शुक्लैकादश्यां मघास्थे च निशाकरे । स्वामिनः कृतषष्ठस्योत्पेदे केवलमुज्वलम् ॥ २१३ ॥ तज्ज्ञात्वाऽऽसनकम्पेनाऽऽगत्येन्द्राः ससुरा-ऽसुराः । चक्रुः समवसरणं खामिनो देशनाकृते ॥ २१४ ॥ तत्र प्रविश्य प्रारद्वारा प्रेदक्षिण्यकृत प्रभुः । धनुःषोडशशत्यग्रक्रोशोचं चैत्यपादपम् ॥ २१५ ॥ तीर्थाय नम इत्युक्त्वाऽध्यास्त सिंहासनं प्रभुः । प्रा खो दिक्षु चान्यासु तद्रूपाणि व्यधुः सुराः ॥२१६॥ सङ्घोऽप्यस्थाद् यथास्थानं ससुरा-ऽसुर-मानुषः । नमस्कृत्य जगन्नाथं वज्रभृच्चैवमस्तवीत् ॥ २१७॥ गायन्निवालिविरुतैर्नृत्यन्निव चलैदलैः । त्वद्गुणैरिव रक्तोऽसौ मोदतेऽशोकपादपः ॥ २१८ ॥ * तपञ्चम्यां संवृ० मो० ॥१ लघुभ्राता इव । २ आकराः खनीप्रदेशाः । ३ यत्र तपसि षड्वेला भोजनं न क्रियते । षड्वेलाः भाषायां 'छ टंक' इति । एका वेला तपसः पूर्वम्, चतस्रो वेलाः तपोदिवसद्वये, एका च पारणकदिवसे, इति एवं तपसो नाम 'षष्ठः' इति |सार्थकम् । ४ पूर्वदिशास्थितेन द्वारा । ५ प्रदक्षिणां चकार । ६ अलयः भ्रमरास्तेषां विरुतैः गुञ्जनः । सुमतिजिनकेवलज्ञानम् |॥३१५॥ Jan Education inte 4 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Inte आयोजनं सुमनसोऽधस्तान्निक्षिप्तबन्धनाः । जानुदेशीः सुमनसो देशनोव्य किरन्ति ते ॥ २१९ ॥ मालव- कैशिकी मुख्यग्राम- रागपवित्रितः । तव दिव्यो ध्वनिः पीतो हर्षोद्रीवैर्मृगैरपि ॥ २२० ॥ तवेन्दुधामधवला चकास्ति चमरावली । हंसालिखि वामपरिचर्यापरायणा ।। २२१ ॥ मृगेन्द्रासनमारूढे त्वयि तन्वति देशनाम् । श्रोतुं मृगाः समायान्ति मृगेन्द्रमिव सेवितुम् ॥ २२२ ॥ चयैः परिवृतो ज्योत्स्नाभिरिव चन्द्रमाः । चकोराणामिव दृशां ददासि परमां मुदम् ।। २२३ ।। दुन्दुभिर्विश्वविश्वेश ! पुरो व्योम्नि प्रतिध्वनन् । जगत्याप्तेषु ते प्राज्यं साम्राज्यमित्र शंसति ॥ २२४ ॥ तवोर्द्धमूर्द्ध पुण्यर्द्धिक्रम सब्रह्मचारिणी । छत्रत्रयी त्रिभुवनप्रभुत्वप्रौढिशंसिनी ।। २२५ ॥ एतां चमत्कारकरीं प्रातिहार्यश्रियं तव । चित्रीयन्ते न के दृष्ट्वा नाथ ! मिथ्यादृशोऽपि हि ॥ २२६ ॥ स्तुत्वैवं विरते शक्रे भगवान् सुमतिप्रभुः । सर्वभाषानुगामिन्या प्रारेभे देशनां गिरा ॥ २२७ ॥ कृत्याकृत्यपरिज्ञानयोग्यतामभ्युपेयुषा । इह स्वकार्यमूढेन न स्थातव्यं शरीरिणा ॥ २२८ ॥ पुत्र- मित्र- कलत्रादेः शरीरस्यापि सत्क्रिया । परकार्यमिदं सर्वं न स्वकार्यं मनागपि ॥ २२९ ॥ एक उत्पद्यते जन्तुरेक एव विपद्यते । कर्माण्यनुभवत्येकः प्रचितानि भवान्तरे ॥ २३० ॥ अन्यैस्तेनार्जितं वित्तं भूयः सम्भूय भुज्यते । स त्वेको नरककोडे क्लिश्यते निजकर्मभिः ॥ २३१ ॥ दुःखदावाग्निभीष्मेऽस्मिन् विर्तते भवकानने । म्भ्रमीत्येक एवासौ जन्तुः कर्मवशीकृतः ॥ २३२ ॥ १ देवाः । २ जानुप्रमाणाः । ३ कुसुमानि । ४ सिंहासनम् । ५ भासां चयैः भामण्डलेनेत्यर्थः । ६ नेत्राणाम् । ७ म्रियते । ८ सञ्चितानि । ९ विस्तीर्णे १० पुनः पुनः भृशं च भ्रमति । 1 अष्टप्रातिहार्य. गार्भता स्तुतिः एकत्व भावना गर्भिता सुमतिजिनदेशना ww.. Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये तृतीयं पर्व तृतीयः सर्गः सुमतिखामिचरितम् ॥३१६॥ USANSARGESSASSAS इह जीवस्य मा भूवन् सहाया बान्धवादयः । शरीरं तु सहायश्चेत् सुख-दुःखानुभूतिदम् ॥ २३३॥ नाऽऽयाति पूर्वभवतो न याति च भवान्तरम् । ततः कायः सहायः स्यात् सम्फेटमिलितः कथम् ? ॥२३४॥ धर्मा-ऽधर्मों समासन्नौ सहायाविति चेन्मतिः। नैषा सत्या न मोक्षेऽस्ति धर्मा-ऽधर्मसहायता ॥ २३५॥ तस्मादेको बम्भ्रमीति भवे कुर्वन् शुभा-ऽशुभे । जन्तुर्वेदयते चैतदनुरूपे शुभा-ऽशुभे ॥२६॥ एक एव समादत्ते मोक्षश्रियमनुत्तराम् । सर्वसम्बन्धिविरहाद् द्वितीयस्य न सम्भवः ॥ २३७॥ यद् दुःखं भवसम्बन्धि यत् सुखं मोक्षसम्भवम् । एक एवोपभुने तन्न सहायोऽस्ति कश्चन ॥२३८॥ यथा चैकस्तरन् सिन्धुं पारं व्रजति तत्क्षणात् । न तु हृत्पाणि-पादादिसंयोजितपरिग्रहः ॥ २३९ ।। तथैव धन-देहादिपरिग्रह पराङ्मुखः । स्वस्थ एको भवाम्भोधेः पारमासादयत्यसौ ॥ २४०॥ तत् सांसारिकसम्बन्धं विहायैकाकिना सता । यतितव्यं हि मोक्षाय शाश्वतानन्दशर्मणे ॥ २४१॥ तां प्रभोर्देशनां श्रुत्वा प्रबुद्धा बहवस्तदा । नरा नार्यश्च निःसङ्गीभूयोपाददिरे व्रतम् ॥ २४२॥ चमराद्या गणभृतोऽभूवन् शतमनुत्तमाः । ते भतुत्रिपदीं प्राप्य द्वादशाङ्गीमसूत्रयन् ॥ २४३॥ पूर्णायामादिपौरुष्यां व्यसृजद् देशनां विभुः । चक्रे खाम्यजिपीठस्थो देशनां गणभृद्वरः ॥ २४४॥ द्वितीयपौरुषीप्रान्ते व्यसृजत् सोऽपि देशनाम् । नत्वाऽर्हन्तं ततो जग्मुः स्वं खमिन्द्रादयः पदम् ।।२४५॥ तत्तीर्थे तुम्बुरुर्नाम श्वेताङ्गस्तार्यवाहनः । दक्षिणौ वरद-शक्तिधरौ बाहू समुद्वहन् ॥ २४६॥ * सहाय्यस्तु सुख संवृ० । सहास्त्वे तत् सुख मो०॥ विनशनस्वरूपेण मिलित इत्यर्थः । २ परिग्रहः शरीरम् । ३ तायः गरुडः। सुमतिजिनशासनदेव देव्यो ॥३१६॥ Jain Education in For Private & Personal use only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुमतिजिनपरिवार वामौ बाहू गदाधार-पाशयुक्तौ च धारयन् । सदा सन्निहितो भर्तुरभूच्छासनदेवता ॥ २४७॥ युग्मम् ॥ तथोत्पन्ना महाकाली स्वर्णरुक् पद्मवाहना । दधाना दक्षिणी बाहुदण्डौ वरद-नाशिनौ ॥ २४८॥ मातुलिङ्गा-ऽङ्कशधरौ परौ बाहू च बिभ्रती । भर्तुः शासनदेव्यासीत् सदा सनिधिवर्तिनी ॥२४९॥ __वचनातिशयैः पञ्चत्रिंशता शोभितः प्रभुः । बोधयन् भव्यभविनो विजहार वसुन्धराम् ॥ २५० ॥ साधूनां त्रीणि लक्षाणि सहस्राणि च विंशतिः । साध्वीनां पञ्चलक्षी च सहत्रिंशत्सहस्रिका ॥२५१॥ चतुर्दशपूर्विणां द्वे सहस्रे सचतुःशते । एकादश सहस्राणि त्ववधिज्ञानशालिनाम् ॥ २५२ ॥ मनोज्ञानिनामयुतं सपश्चाशचतुःशती । त्रयोदश सहस्राणि केवलज्ञानिनां पुनः॥२५३॥ वैक्रियलब्धिसहस्राण्यष्टादश चतुःशती । अयुतं वादलब्धीनां सपञ्चाशचतुःशती ॥ २५४॥ श्रावकाणामुभे लक्षे सैकाशीतिसहस्रके । श्राविकाणां पञ्चलक्षी सहस्राणि च षोडश ॥ २५५॥ चतुस्त्रिंशदतिशयान्वितस्य सुमतिप्रभोः। उव्यां विहरमाणस्य बभूवेति परिच्छदः ।। २५६ ॥ पूर्वलक्षं द्वादशाङ्ग्या विंशत्यब्द्या च वर्जितम् । आरभ्य केवलोत्पत्तेर्व्यहरत् सुमतिः प्रभुः॥२५७॥ खं मोक्षकालं ज्ञात्वाऽथ सम्मेताद्रिं ययौ विभुः । समं मुनिसहस्रेण तस्थावनशनेन च ॥ २५८ ॥ मासान्ते क्षतभवोपग्राहिकर्मा जगत्पतिः । सम्प्राप्तानन्तचतुष्कः शैलेशीध्यानमास्थितः ॥ २५९॥ चैत्रस्य सितनवम्यां पुनर्वसुगते विधौ । समं तैर्मुनिभिः स्वामी प्रपेदे पदमव्ययम् ॥२६॥ युग्मम् ॥ * °सन्निहिता भ° संवृ०॥ सुवर्णकान्तिः । रौवामबा' संवृ० सङ्घ ॥२ भव्यजीवान् । ३ परिवारः। न्ते क्षित मा संवृ० मो०॥४ क्षतं क्षीणम् । ५ पुनवसुनक्षत्रम् । सुमतिजिननिर्वाणम् JainEducation idolral For Private & Personal use only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरिते महाकाव्ये ॥३१७॥ Jain Education Inter कौमारेऽयुः पूर्वलक्षा दश राज्ये पुनः प्रभोः । पूर्वलक्षैकोनत्रिंशद् द्वादशाङ्गसमन्विता ॥ २६९ ॥ पूर्वलक्षं द्वादशाङ्गन्यूनं व्रतधरस्य तु । चत्वारिंशत्पूर्वलक्षा इत्यायुः सुमतिप्रभोः ॥ २६२ ॥ अभिनन्दननिर्वाणात् सुमतिखामिनिर्वृतिः । कोटिलक्षेषु नवसु सागराणां गतेष्वभूत् ।। २६३ ।। भर्तुः सहस्रयतिनां च तदा शरीरसंस्कारमग्निजनितं विधिवद् विधाय । निर्वाणपर्वमहिमानमकार्षुरिन्द्रा नन्दीश्वरान्तरगमंच पुनः स्वलोकम् || २६४ ॥ ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते महाकाव्ये तृतीयपर्वणि सुमतिखामिचरितवर्णनो नाम तृतीयः सर्गः ॥ तृतीयं पर्व तृतीयः सर्गः सुमति स्वामिचरितम् । ॥३१७॥ . Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मप्रभजिनपूवैभवचरितम् चतुर्थः सर्गः। श्रीपद्मप्रभस्वामिचरित्रम् । वन्दामहे पद्मवर्ण पद्मप्रभजिनेश्वरम् । लीलानिवासं पद्मायाः पद्मराशिमिव स्थितम् ॥ १॥ पद्मप्रभजिनेन्द्रस्य चरितं दुरितापहम् । तत्प्रभावादसामान्याद् वक्ष्यामि क्षामधीरपि ॥२॥ धातकीखण्डद्वीपस्य प्राग्विदेहैकमण्डने । वत्साभिधाने विजये सुसीमेत्यस्ति पूर्वरा ॥३॥ तत्राऽपराजितो नाम द्विषद्भिरपराजितः । जितेन्द्रियः समभवद् भूपो धर्म इवाङ्गवान् ॥४॥ तस्य न्यायः सुहृदभूद् धर्मों बन्धुगुणा धनम् । सुहृद्रन्धु-धनान्यासन् बहिरङ्गानि केवलम् ॥५॥ तस्याऽऽर्जवं च शीलं च सत्वं चेत्यर्जिता गुणाः । मिथो भूषणतां जग्मुः पादपस्येव पल्लवाः ॥ ६॥ अकोपनोऽरीनशिर्षदनासक्तोऽन्वभूत सुखम् । अलुब्धश्च श्रियं दध्रे स विवेकिशिरोमणिः ॥७॥ अहेत्प्रवचनसुधां पिबन् देव इवान्यदा । स एवं चिन्तयामास तत्वनिष्ठेन चेतसा ॥८॥ सम्पदो यौवनं रूपं शरीरं हरिणीदृशः । पुत्र-मित्राणि हाणि दुस्त्यजानि शरीरिणाम् ॥९॥ जीवनप्यदशां प्राप्तः कालधर्म गतोऽपि वा । एभिस्तु त्यज्यते जन्तुर्विनष्टाण्डमिवाण्डजैः॥१०॥ एकपादेन फालाभं स्नेहं तेष्वेकपक्षकम । कुर्वाणो भ्रश्यति स्वार्थाद धिगहो! मन्दधीर्जनः॥११॥ लक्ष्म्याः । २ पापनाशकम् । ३क्षामा क्षीणा । ४ वरा पू: नगरी। * सत्यं चे° सङ्घ ॥ ५ अशिषत् शासयाजकार । GI अदशां दुर्दशाम् । ७ पक्षिभिः। ८ फालः उत्प्लवनम् , भाषायाम् 'फाळ' । Jain Education Inter ! For Private & Personal use only (all Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते तृतीयं पर्व तृतीयः सर्ग: सुमति महाकाव्ये ॥३१८॥ स्वामिचरितम् । त्यजन्त्येते न यावन्मां पुण्यपाकक्षयादिह । तावत् पौरुषमालम्ब्य त्यजाम्येतानसंशयम् ॥ १२ ॥ एवं विचिन्त्य सुचिरं विवेकमणिरोहणः । धाराधिरूढवैराग्यो राज्यं पुत्राय दत्तवान् ॥१३॥ पिहिताश्रवसूरीणां पादपद्मान्तमेत्य सः । उपाददे परिव्रज्यां मोक्षत्रज्यामहारथीम् ॥ १४॥ त्रिगुप्तिः पञ्चसमितिर्निर्ममो निष्परिग्रहः । निशितं खगधारावचिरं सोऽपालयद् व्रतम् ॥१५॥ स विंशतिस्थानकेभ्यः स्थानः कतिपयैरपि । आर्जयत् तीर्थकृन्नाम कर्म निर्मलमानसः ॥ १६ ॥ शुभध्यानपरः स्वायुः क्षपयित्वा महामनाः । ग्रैवेयकेऽऽभून्नवमे महर्द्धिरमरोऽथ सः॥ १७ ॥ __ इतश्च जम्बूद्वीपान्तर्वर्षेऽत्र भरताभिधे । कौशाम्बीत्यस्ति नगरी वत्सदेशस्य मण्डनम् ॥ १८॥ तत्रोच्चतरचैत्याग्रसिंहाभ्यणे परिभ्रमन् । त्रस्यैताङ्ककुरङ्गेण यातीन्दुनिष्कलङ्कताम् ॥ १९॥ तंत्रावासगृहेषूच्चैधूपधूमा वितन्वते । युग्म॑यूनां रतभ्रष्टांशुकानामंशुकश्रियम् ॥२०॥ स्वस्तिकन्यस्तमुक्तासु तत्र प्रतिगृहं शुकाः। चश्वाघातं वितन्वन्ति दाडिमीबीजशङ्कया ॥ २१ ॥ श्रीमान् सर्वो जनस्तत्र नान्यस्खं कोऽपि लुण्टति । उद्यानकुसुमामोदस्योल्लुण्टाकः परं मरुत् ॥ २२ ॥ आसीत् तत्र धरो राजा धरायास्तापनोदैनात् । धारणाच्चाप्यधरयन् धाराधर-धराधरान् ।। २३ ॥ मणिरोहणः मणिपर्वतः । २ प्रवर्तमाना धारा यथा उत्तरोत्तरं वर्धते तथा धाराम् अधिरूढम् वैराग्यं यस्य । ३ व्रज्या-मार्गः। ४ उपार्जयामास । * ताङ्गकु संवृ०॥ ५ अङ्कस्थहरिणेन, अङ्को नाम लाञ्छनम् उत्सङ्गो वा। तत्र वा संवृ० सङ्घ० ॥ |६ दम्पतीनाम् । रतं रतिक्रीडा, अंशुकं वस्त्रम् । ७ नोदनं दूरीकरणम् । धरणा संवृ० सङ्घ ॥ ८ धारणं च यथास्थान | व्यवस्थापनम् । ९ धाराधरो मेघः, धराधरः पर्वतः । पद्मप्रभजिन जन्मपुरी पितरो च २१॥ Jain Education in For Private & Personal use only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Internat न भूपाः खण्डयामासुस्तस्याऽऽज्ञां क्षितिमण्डले । पुष्पस्रजमिवाखण्डां दधुः शिरसि किन्तु ते ॥ २४ ॥ कोण्डोदण्डदोर्दण्डोऽप्येष नो दण्डचण्डताम् । अदर्शयत् किन्तु सौम्यस्तस्थौ भद्र इव द्विपः ।। २५ ।। यशो-नुरागैर्युगपद् विस्तीर्णैः ककुभोऽभितः । अचर्चयच्चिरं सोऽर्धश्रीखण्ड घुसृणैरिव ॥ २६ ॥ तस्मिन् महीपतौ लक्ष्मीदेव्या लीलानिकेतने । गुणराशिरभूद् वास्तुदेवतेव सहोत्थितः ॥ २७ ॥ सतीनां सीमभूताऽभूत् सुसीमा नाम तस्य तु । सधर्मचारिणी देवकन्यासब्रह्मचारिणी ॥ २८ ॥ पाणि-पादाऽधरेणाविःपल्लवा पुष्पिता रैदैः । दोर्भ्यां सशाखा शुशुभे कल्पद्रुमलतेव सा ।। २९ ।। नीर्रङ्गीच्छन्नवदना पश्यन्ती भुवमेव हि । ईर्यासमितिलीनेव मॅन्थरं सञ्चचार सा ॥ ३० ॥ तस्याः शरीरं कान्त्येव हिया शीलमभ्रष्यत । आर्जवेन मन इव वचनं सूनृतेन च ॥ ३१ ॥ वदन्ती साऽतिविशदैर्दन्तांशुभिरशोभत । रजनीरमणज्योत्स्नाप्लेवैरिव विभावरी ॥ ३२ ॥ इतो ग्रैवेयके जीवः सोऽपराजित भूपतेः । एकाग्रत्रिंशदम्भोधिमितमायुरपूरयत् ॥ ३३ ॥ माघस्य षष्ठ्यां कृष्णायां चित्रास्थे रजनीकरे । च्युत्वा सुसीमास्वामिन्याः कुक्षाववततार च ॥ ३४ ॥ तदा मुखे प्रविशतस्तीर्थक्रुज्जन्मसूचकान् । चतुर्दश महास्वनान् सुसीमा देव्युदैक्षत ॥ ३५ ॥ वर्धमाने क्रमाद् गर्भे पद्मशय्यासु दोहदः । अभूद् देव्या देवताभिः पर्यपूर्यत तत्क्षणात् ॥ ३६ ॥ १] ककुप् दिशा । २ श्रीखण्डम् चन्दनम्, घुसृणम् केसरम् । ३ वास्तुदेवता गृहदेवता । ४ आविः प्रकटितम् । ५ रदाः दन्ताः । ६ नीरङ्गी शिरोऽवगुण्ठनम्, भाषायाम् 'लाज घुमटो' । 'नीरङ्गी' शब्दो देश्यमाकृतरूपः । ७ मन्दं मन्दम् । ८ अंशवः किरणाः । ९ लवः पूरम्। * एकोनत्रिं संवृ० ॥ पद्मप्रभजिन जन्म उत्सवश्च . Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ C त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये तृतीयं पर्व तृतीयः सर्गः सुमतिखामि ॥३१९॥ चरितम् ततो नवसु मासेषु दिनेष्वर्धाष्टमेषु च । कार्तिककृष्णद्वादश्यां चन्द्रे चित्रागते सति ॥ ३७॥ सद्यो वक्रा-तिचाराभ्यां ग्रहेषच्चगतेषु च । पद्मवर्ण पद्मचिह्न सा देवी सुषुवे सुतम् ॥ ३८॥ पटपञ्चाशद् दिकुमार्यः सूतिकमैत्य चक्रिरे । अथाऽऽगत्य प्रभुं शक्रोऽनैपीत् वर्णाद्रिमूर्धनि ॥ ३९॥ शक्रोत्सङ्गस्थितं नाथमिन्द्रास्तत्राऽच्युतादयः। क्रमेणास्नपयन् सर्वेऽनुज्येष्ठं सोदरा इव ॥४०॥ ईशानाङ्कस्थितं नाथं शक्रोऽपि हि यथाविधि । नपयामास पूजादि कृत्वा चेत्यभितुष्टुवे ॥४१॥ __असिन्नपारे संसारमरौ सञ्चारिणां चिरात् । त्वदर्शनमभूद् देव ! देहभाजां सुधाप्रेपा ॥४२॥ रूपेणाप्रतिरूपं त्वामश्रान्तं पश्यतां सताम् । कृतार्थेयं समभवद् देवानां निर्निमेषता ॥४३॥ नित्यान्धकारे प्रद्योतः सुखं निरॅयिणामपि । अभृत् ते तीर्थनाथत्वरूपकस्याऽऽमुखं ह्यदः ॥४४॥ पुण्यैः संसारिणां देव! कृपासारणिवारिणा । सिक्त्वा नयसि वृद्धिं त्वं चिराद् धर्ममहीरुहम् ॥४५॥ जगत्रितयनाथत्वं ज्ञानत्रितयधारिता । इदमाजन्म सिद्धं ते शीतलत्वमिवाम्भसाम् ॥ ४६॥ पद्मवर्ण ! पद्मचिह्न ! पद्मगन्धिमुखानिल ! । पद्मानन ! पद्माद्वैत ! पद्मासम ! जय प्रभो! ॥४७॥ अपारो दुस्तरश्चायं सदा संसारसागरः । जानुदनोऽधुना नाथ ! त्वत्प्रसादाद् भविष्यति ॥ ४८॥ न कल्पान्तरसाम्राज्यं नानुत्तरनिवासिताम् । वाञ्छामि किन्तु शुश्रूषां भवतः पादपद्मयोः॥४९॥ 'चित्रा' नाम नक्षत्रम् । २ कर्म एत्य-कमैत्य । एत्य आगम्य । ३ स्वर्गादिः मेरुः । ४ स्तुतिं चकार । ५ प्रपा सर्वसाधारणो जलपानमण्उपः, भाषायाम् 'परब'। ६ श्रमरहितम् यथा स्यात् तथा । ७ निरयो नरकः। ८ आमुखं प्रथमः प्रारम्भः तीर्थनाथस्वरूपनाटकस्य प्रारम्भिकं फलम् । *वाम्भसःसंवृ० सङ्घ०॥९ अद्वैतेन पद्मरूपाभेदेन सर्वत्र पद्ममयत्वात् । MORELALCASEASOOTRAM ॥३१९ ॥ Jain Education Internal For Private & Personal use only X w.jainelibrary.org Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुत्वैवं नाथमादाय शक्रो द्रुतमुपेत्य च । सुसीमास्वामिनीपार्थे मुमोच द्यां जगाम च ॥५०॥ पद्मशय्यादोहदोऽस्मिन् यन्मातुर्गर्भगेऽभवत् । पद्माभश्चेत्यमुं पद्मप्रभ इत्याह्वयत् पिता ॥५१॥ लाल्यमानो धुधात्रीभिः क्रीडन् सुरकुमारकैः । क्रमेण ववृधे स्वामी द्वितीयं चाऽऽसदद् वयः॥५२॥ सार्धधन्वद्विशत्युच्चः पृथूरस्को बभौ प्रभुः । पद्मरागशिलालुप्तक्रीडाशैल इव श्रियः॥ ५३॥ तित्यक्षुरपि संसारं खामी लोकानुवर्तनात । माता-पित्रनुरोधाच चक्रे दारपरिग्रहम् ॥ ५४॥ जन्मतः पूर्वलक्षेषु गतेष्वर्धाष्टमेष्वथ । उपरोधात् पितुः स्वामी राज्यभारमुपाददे ॥ ५५॥ राज्यं च पालयन् साधो पूर्वलक्षकविंशतिम । तथा पोडश पूर्वाङ्गाण्यत्यकामजगत्पतिः ॥ ५६ ॥ भवपारं जिगमिषुः स्वामी लोकान्तिकामरैः । दीक्षायै प्रेरितो गत्यै पथिकः शकुनैरिव ॥ ५७॥ ददौ च वार्षिकं दानं ददतश्च प्रभोर्वसु । कुबेरप्रेरिताः सन्तो जृम्भकाः पर्यपूरयन् ।। ५८॥ अथेन्द्र-भूपैर्विहिताभिषेकः शिविकां प्रभुः। आरुह्य निर्वृतिकरां सहस्राम्रवणं ययौ ॥ ५९॥ चित्रायां कार्तिक कृष्णत्रयोदश्यां च पष्ठकृत । समं राजसहस्रेणापराहे प्राबजत् प्रभुः ॥६॥ द्वितीयदिवसे स्वामी पुरे ब्रह्मस्थलेऽकरोत । पारणं परमान्नेन सोमदेवनृपौकसि ॥ ६१॥ अमरा विदधुस्तत्र पञ्चदिव्याभूतान्यथ । स तु चक्रे नृपो रत्नपीठं यत्र स्थितो विभुः ॥६२॥ १ स्वर्गम्। २ द्वितीयं वयः यौवनम् , आस दत् प्राप। * चाभवद् संवृ० मो०॥ ३ पृथु विशालम् , उरः वक्षः।। ॥ त्यक्तुम् इच्छुः। * कातिव संवृ०॥ मेषु च संवृ० सङ्घ०॥ ५ आग्रहात् । ज्यं प्रपालयन् सार्धपू संबृ०॥ 1|| सङ्घ० ॥ ६ तन्नामकाः कुबेराज्ञावशवर्तिनो देवविशेषाः । त्रिषष्टि. ५५ पद्मप्रभजिनल प्रवज्या STEOS Jain Education Intere For Private & Personal use only , Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते महाकाव्ये ॥३२०॥ Jain Education Inter विजहार च षण्मासांश्छद्मस्थः परमेश्वरः । आगाद् भूयः सहस्रास्रवणं दीक्षैकसाक्षिकम् ॥ ६३ ॥ षष्ठेन प्रतिमास्थस्य विभोर्वटतरोस्तले । प्रणेशैर्घातिकर्माणि वातोद्धूताभ्रजालवत् ॥ ६४ ॥ ततश्चैत्रस्य कायां चन्द्रे चित्रामुपेयुषि । अम्लानं केवलज्ञानमभूत् पद्मप्रभप्रभोः ।। ६५ ।। सुरा - सुरेन्द्राः समवसरणं तत्र चक्रिरे । प्राग्द्वारा प्रविवेशाथ तत्र त्रिभुवनेश्वरः ॥ ६६ ॥ सार्धक्रोशोन्नतं चैत्यपादपं परमेश्वरः । तत्र प्रदक्षिणीचक्रे तमिव त्रिदिवेश्वरः ॥ ६७॥ 'तीर्थाय नम' इत्येवमुच्चैरुच्चारितस्तुतिः । रत्नसिंहासने पूर्वाभिमुखो न्यषदत् प्रभुः ॥ ६८ ॥ प्रभो प्रतिविम्वानि दिवन्याखपि नाकिनः । तत्प्रभावेण तद्रूपनिर्विशेषणि चक्रिरे ॥ ६९ ॥ तत्र चास्थाद् यथास्थानं श्रीमान् सङ्घश्चतुर्विधः । स्वामिन्युत्कण्ठयोत्कण्ठः केकिज इवाम्बुदे ॥ ७० ॥ अथ सौधर्मकल्पेन्द्रः प्रणम्य परमेश्वरम् । यथार्थसारया वाचा तुष्टाव स्पष्टभक्तितः ॥ ७१ ॥ निमन् परपचमृमुपसर्गान् प्रतिक्षिपन् । प्राप्तोऽसि शमसौहित्यं महतां काऽपि वैदुषी ॥ ७२ ॥ अरक्तो भुक्तवान् मुक्तिमद्विष्टो हतवान् द्विषः । अहो ! महात्मनां कोऽपि महिमा लोकदुर्लभः ॥ ७३ ॥ सर्वथा निर्जिगीषेण भीतभीतेन चागेसः । त्वया जगत्रयं जिग्ये महतां काऽपि चातुरी ॥ ७४ ॥ दत्तं न किञ्चित् कस्मैचिन्नाऽऽत्तं किञ्चित् कुतश्चन । प्रभुत्वं ते तथाप्येतत् कला काऽपि विपश्चिताम् ॥ ७५ ॥ यद्देहस्यापि दानेन सुकृतं नार्जितं परैः । उदासीनस्य तन्नाथ ! पादपीठे तवालुठत् ।। ७६ ।। १ भूयः पुनः । २ नाशं प्रापुः । ३ उद्भूतं विनाशितम् । ४ पूर्णिमायाम् । ५ देवाः नाकवासिनः, कम् सुखम्, अकम् असुखम् दुःखम् नास्ति अकं यत्र असौ नाकः खर्गः । ६ निर्विशेषम् समानम् । ७ स्तुतिं चकार । ८ जिगीषा विजयेच्छा । ९ आगः पापम् । तृतीयं पर्व 'चतुर्थः सर्गः पद्मप्रभ स्वामि चरितम् । ॥ ३२० ॥ . Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मप्रभजिनदेशना रागादिषु नृशंसेन सर्वात्मसु कृपालुना । भीम-कान्तगुणेनोच्चैः साम्राज्यं साधितं त्वया ॥ ७७॥ सर्वे सर्वात्मनाऽन्येषु दोषास्त्वयि पुनर्गुणाः । स्तुतिस्तवेयं चेन्मिथ्या तत् प्रमाणं सभासदः॥७८॥ महीयसामपि महान् महनीयो महात्मनाम् । अहो ! मे स्तुवतः स्वामी स्तुतेर्गोचरमागमत् ।। ७५॥ भूयो भूयो भवत्पाददर्शनं मे भवत्विति । आशंसामि जगन्नाथ ! निर्वाणमपि नापरम् ॥ ८॥ एवं स्तुत्वा स्थिते शके प्रारेभे धर्मदेशनाम् । पश्चत्रिंशदतिशयान्वितया भगवान् गिरा ।। ८१॥ पारावार इवापारः संसारो घोर एष भोः ! । प्राणिनश्चतुरशीतियोनिलक्षेषु पातयन् ॥ ८२ ॥ श्रोत्रियः श्वपचः स्वामी पत्तिब्रह्मा कृमिश्च सः। संसारनाट्ये नटवत् संसारी हन्त ! चेष्टते ॥ ८३॥ न याति कतमां योनि ? कतमां वा न मुञ्चति? । संसारी कर्मसम्बन्धादवक्रयकुटीमिव ।। ८४ ॥ समस्तलोकाकाशेऽपि नानारूपैः स्वकर्मतः । वालाग्रमपि तन्नास्ति यन्न स्पृष्टं शरीरिभिः ।। ८५॥ संसारिणश्चतुर्भेदाः वंभ्रि-तिर्यङ्-नरा-ऽमराः । प्रायेण दुःखबहुलाः कर्मसम्बन्धबाधिताः ॥८६॥ ___ आयेषु त्रिषु नरकेषूष्णं शीतं परेषु च । चतुर्थे शीतमुष्णं च दुःखं क्षेत्रोद्भवं त्विदम् ।। ८७॥ नरकेघृष्णशीतेषु चेत् पतेल्लोहपर्वतः । विलीयेत विशीर्यंत तदा भुवमनाप्नुवन् ॥ ८८ ॥ उदीरितमहादुःखा अन्योऽन्येनासुरैश्च ते । इति त्रिविधदुःखार्ता वसन्ति नरकावनौ ॥ ८९॥ कुरो नृशंसः । * °सारोऽप्येष एव भोः! संबृ० मो० ॥ योन्यावर्तेषु संबृ० मो० ॥ २ श्रात्रियोऽपि वेदज्ञब्राह्मणोऽपि चण्डालो भवति । एवं स्वामी अपि पत्तिः भाषायाम् 'पगी' भवति । ३ भाटकेन प्राप्तां कुटीम्, भाटकम् भाषायाम् 'भाई। ४ श्वभ्रम् नरकम् , श्वश्री नरकवासी। नरकगतिक्लेशस्वरूप Jan Education Inter For Private & Personal use only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयं पर्व चतुर्थः त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये सर्गः पद्मप्रभखामिचरितम् । ॥३२॥ समुत्पन्ना घटीयन्त्रेष्वधार्मिकसुरैबलात् । आकृष्यन्ते लघुद्वारा यथा सीसशलाकिका ॥ ९॥ गृहीत्वा पाणि-पादादौ वज्रकण्टकसङ्कटे । आस्फाल्यन्ते शिलापृष्ठे वासांसि रजकैरिव ॥ ९१॥ दारुदारं विदार्यन्ते दारुणैः कचैः क्वचित । तिलपेषं च पिष्यन्ते चित्रयः क्वचित् पुनः॥ ९२॥ पिपासार्ताः पुनस्तप्तत्रपु-सीसकवाहिनीम् । नदी वैतरणी नामावतार्यन्ते वराककाः ॥ ९३ ।। छायाभिकाशिणः क्षिप्रमसिपत्रवनं गताः। पंचशस्त्रैः पतद्भिस्ते छिद्यन्ते तिलशोऽसकृत् ॥ ९४॥ संश्लेष्यन्ते च शाल्मल्यो वज्रकण्टकसङ्कटाः । तप्तायापुत्रिकाः क्वापि स्मारितान्यवधूरतम् ॥९५॥ संस्मार्य मांसलोलत्वमाश्यन्ते मांसमङ्गजम् । प्रख्याप्य मधुलौल्यं च पाय्यन्ते तापितं त्रपु॥९६॥ भ्राष्ट्र-कण्डू-महाशूल-कुम्भीपाकादिवेदनाः। अश्रान्तमनुभाव्यन्ते भृज्यन्ते च भटित्रवत् ॥ ९७ ।। छिन्न-भिन्नशरीराणां भूयो मिलितवर्मणाम् । नेत्राद्यङ्गानि कृष्यन्ते बक-कङ्कादिपक्षिभिः ॥९८॥ एवं महादुःखहताः सुखांशेनापि वर्जिताः । गमयन्ति बहुं कालम् आ त्रयस्त्रिंशसागरम् ।। ९९ ॥ तिर्यग्गतिमपि प्राप्ताः सम्प्राप्यकेन्द्रियादिताम् । तत्रापि पृथिवीकायरूपतां समुपागताः ॥१०॥ . बहूनि लघूनि छिद्राणि यस्मिन् तेन लघुच्छिद्रेण साधनेन, भाषायाम् 'जतरडो' इति सुवर्णकारप्रसिद्धम् उपकरणम् । २ शलाकिका भाषायाम्-'सळी' । ३ काष्ठविदारणवत् । ४ क्रकचं करपत्रम, भाषायाम् 'करवत' । ५ तिलपेषणवत् । *पुनस्तत्र त्रसंवृ०॥ ६ पत्ररूपशस्त्रैः । ७ असकृद् वारंवारम् । ८ अयःपुत्रिकाः लोहपुत्तलिकाः । ९ क्रियाविशेषणम्, परस्त्रीरमण | स्मारयित्वा इति भावः । १० खाद्यन्ते । ११ भ्राष्ट्रम् 'भट्टि' इति भाषायाम्। १२ कण्ड भ्राष्ट्रसमानम् । १३ 'भ्रस्जीत् पाके' इत्यस्य, 18 |पच्यन्ते इत्यर्थः। १४भटित्रम् भाषायाम् -'भडथु' इति। १५वर्म शरीरम् । °नि क्लिश्यन्ते संवृ०मो०॥७६कृष्यन्ते आकृष्यन्ते। ॥३२१॥ Jain Education i n For Private & Personal use only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिर्यग्गतिदुःखस्वरूपम् - RECOMMEGAME हलादिशस्त्रैः पाठ्यन्ते मृद्यन्तेऽश्व-गजादिभिः। वारिप्रवाहैः प्लाव्यन्ते दह्यन्ते च दवाग्निना ॥१०१॥ व्यथ्यन्ते लवणा-ऽचाम्ल-मूत्रादिसलिलैरपि । लवणक्षारतां प्राप्ताः क्वथ्यन्ते चोष्णवारिणा ॥१०२॥ पच्यन्ते कुम्भकाराद्यैः कृत्वा कुम्भेष्टकादिसात् । चीयन्ते भित्तिमध्ये च नीत्वा कर्दमरूपताम् ॥१०३॥ केचिच्छाणैनिघृष्यन्ते विपच्य क्षारमृत्पुटैः । टङ्काण्डकैर्विदार्यन्ते पाठ्यन्तेऽद्रिसरित्प्लवैः ॥१०४॥ अकायतां पुनः प्राप्तास्ताप्यन्ते तपनांशुभिः । घनीक्रियन्ते तुहिनैः संशोष्यन्ते च पांसुभिः ॥१०५॥ क्षारेतररसाश्लेषाद् विपद्यन्ते परस्परम् । स्थाल्यन्तस्था विपच्यन्ते पीयन्ते च पिपासितैः ॥ १०६॥ तेजाकायत्वमाप्ताश्च विध्याप्यन्ते जलादिभिः । पनादिभिः प्रकुट्यन्ते ज्वाल्यन्ते चेन्धनादिभिः॥१०७॥ वायुकायत्वमप्याप्ता हन्यन्ते व्यजनादिभिः । शीतोष्णादिद्रव्ययोगाद् विपद्यन्ते क्षणे क्षणे ॥१०८॥ प्राचीनाद्यास्तु सर्वेऽपि विराध्यन्ते परस्परम । मुखादिवातैर्वाध्यन्ते पीयन्ते चोरगादिभिः ॥१०९॥ वनस्पतित्वं दशधा प्राप्ताः कन्दादिभेदतः। छिद्यन्ते वाऽथ भिद्यन्ते पच्यते वाऽग्नियोगतः ॥११॥ संशोष्यन्ते निपिष्यन्ते प्लुष्यन्तेऽन्योन्यघर्षणैः । क्षारादिभिश्च दह्यन्ते सन्धीयन्ते च भोक्तृभिः ॥१११॥ सर्वावस्थासु खाद्यन्ते भज्यन्ते च प्रभञ्जनैः । क्रियन्ते भस्मसाद् दावैरुन्मूल्यन्ते सरित्प्लवैः ॥११२॥ सर्वेऽपि वनस्पतयः सर्वेषां भोज्यतां गताः । सर्वैः शस्त्रैः सर्वदाऽनुभवन्ति क्लेशसन्ततिम् ॥ ११३ ॥ द्वीन्द्रियत्वे च ताप्यन्ते पीयन्ते पूतरादयः । चूर्ण्यन्ते कृमयः पादैर्भक्ष्यन्ते चटकादिभिः ॥ ११४ ॥ १ आचाम्लम् अम्लम् , भाषायाम् 'खाटुं'। रघट्टीक्रियन्ते हिमैः। ३ घन इति भाषायाम् 'घण' । ४ तालवृन्तादिव्यजनैः, हाव्यजनम् भाषायाम् 'वीजणो'। For Private & Personal use only , Jain Education Intere का Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Eesti T तृतीयं पर्व चतुर्थः त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये ॥३२२॥ सर्ग: पद्मप्रभस्वामिचरितम् O SOS शङ्खादयो निखन्यन्ते निष्कृष्यन्ते जलौकसः । गण्डूपदाद्याः पात्यन्ते जठरादौषधादिभिः ॥ ११५॥ त्रीन्द्रियत्वेऽपि सम्प्राप्ते षट्पदी-मत्कुणादयः। विमृद्यन्ते शरीरेण ताप्यन्ते चोष्णवारिणा ॥११६॥ पिपीलिकास्तु तुद्यन्ते पादैः सम्मार्जनेन च । अदृश्यमानाः कुन्थ्वाद्या मैथ्यन्ते चाऽऽसनादिभिः॥११७॥ चतुरिन्द्रियताभाजः सरंघा भ्रमरादयः । मधुमक्षैर्विराध्यन्ते यष्टि-लोष्टादिताडनैः ।। ११८॥ ताड्यन्ते तालवृन्ताद्यैाग दंश-मशकादयः । ग्रस्यन्ते गृहगोधाद्यैर्मक्षिका-मर्कटादयः ॥११९॥ पञ्चेन्द्रिया जलचराः खाद्यन्तेऽन्योन्यमुत्सुकाः। धीवरैः परिगृह्यन्ते गिल्यन्ते च बकादिभिः॥१२०॥ उत्कील्यन्ते त्वचयद्भिः प्राप्यन्ते च भटित्रताम् । भोक्तुकामैर्विपच्यन्ते निगाल्यन्ते वसार्थिभिः॥१२१॥ स्थलचारिषु चोत्पन्ना अबला बलवत्तरैः । मृगाद्याः सिंहप्रमुखैार्यन्ते मांसकातिभिः ॥ १२२ ॥ मृगयासक्तचित्तैस्तु क्रीडया मांसकाम्यया । नरैस्तत्तदुपायेन हन्यन्तेऽनपराधिनः ॥ १२३॥ क्षुधा-पिपासा-शीतोष्णा-ऽतिभारारोपणादिना । कशा-ऽङ्कुश-प्रतोदैश्च वेदनां प्रसहन्त्यमी ॥ १२४॥ खेचरास्तित्तिर-शुक-कपोत-चटकादयः । श्येन-सिश्चान-गृध्राद्यैर्ग्रस्यन्ते मांसगृभुभिः ॥ १२५॥ मांसलुब्धेः शाकुनिकै नोपायप्रपञ्चतः । सङ्गृह्य प्रतिहन्यन्ते नानारूपैविडम्बनैः ॥ १२६ ॥ जला-ऽग्नि-शस्त्रादिभवं तिरश्चां सर्वतोभयम् । कियद् वा वर्ण्यते स्वखकर्मबन्धनिबन्धनम् ॥ १२७॥ मनुष्यत्वेऽनार्यदेशे समुत्पन्नाः शरीरिणः । तत् तत् पापं प्रकुर्वन्ति यद् वक्तुमपि न क्षमम् ।। १२८॥ १ षट्पदी यूका, भाषायाम् 'जू'। * मर्य(र्यन्ते संबृ० मो० ॥ २ सरघा मधुमक्षिका, भाषायाम् 'मधमाख' । ३ मर्कट ऊर्णनाभः, भाषायाम् करोळीयो। ४ पक्षिघातकाः शाकुनिकाः। 1 रूपविड संवृ०॥ ॥३२२॥ ASSURES ROSAS Jan Education inter For Private & Personal use only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्यगति खरूपम् उत्पन्ना आर्यदेशेऽपि चाण्डाल-श्वपचादयः । तत् तत् पापं प्रकुर्वन्ति दुःखान्यनुभवन्ति च ॥ १२९॥ आर्यदेशे समुद्भता अप्यनार्यविचेष्टिताः । दुःख-दारिद्य-दौर्भाग्यनिर्दग्धा दुःखमासते ॥ १३०॥ परसम्पत्प्रकर्षणापकर्षेण वसम्पदाम् । परप्रेष्यतया दग्धा दुःखं जीवन्ति मानवाः ॥१३१ ॥ रुग-जरा-मरणग्रस्ता नीचकर्मकदर्थिताः । तां तां दुःखदशां दीनाः प्रपद्यन्ते दयास्पदम् ॥ १३२॥ जरा रुजा मृतिर्दास्यं न तथा दुःखकारणम् । गर्भे वासो यथा घोरनरकावाससन्निभः ।। १३३॥ सूचीभिरग्निवर्णाभिभिन्नस्य प्रतिरोम यत् । दुःखं नरस्याष्टगुणं तद् भवेद् गर्भवासिनः ॥१३४ ॥ योनियत्राद् विनिष्क्रामन् यद् दुःखं लभते भवी । गर्भवासभवाद् दुःखात् तदनन्तगुणं खलु ॥ १३५॥ बाल्ये मत्र-पुरीषेण यौवने रतचेष्टितैः । वार्धके श्वास-कासाथैर्जनो जातु न लञ्जते ॥ १३६॥ पुरीषसूकरः पूर्वं ततो मदनगर्दभः । जराजरद्वः पश्चात् कदापि न पुमान् पुमान् ॥१३७॥ स्वाच्छैशवे मातृमुखस्तारुण्ये तरुणीमुखः । वृद्धभावे सुतमुखो मूर्यो नान्तर्मुखः क्वचित् ॥ १३८ ॥ सेवा-कर्षण-वाणिज्य-पाशुपाल्यादिकर्मभिः । क्षपयत्यफलं जन्म धनाशाविह्वलो जनः ॥१३९॥ क्वचिचौर्य क्वचिद् द्यूतं क्वचिन्नीचर्भुजङ्गता । मनुष्याणामहो ! भूयो भवभ्रमनिबन्धनम् ॥ १४॥ सुखित्वे कामललितैर्दुःखित्वे दैन्य-रोदनैः । नयन्ति जन्म मोहान्धा न पुनधर्मकर्मभिः ॥ १४१ ॥ दुःखपूर्वकम् आसते तिष्ठन्ति । २ परदासतया। ३ मातृमुखः । मातृपरतन्नः । ४ तरुणीपरवशः । ५ सुतपराधीनः। ६ भुजङ्गो गणिकापतिः। * भ्रमिनि संवृ०॥ Jain Education Inte l For Private & Personal use only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये तृतीयं पर्व चतुर्थी सर्गः पनप्रभखामिचरितम् । देवगतिक्लेशवर्णनम् ॥३२३॥ SALASSSSSSS अनन्तकर्मप्रचयक्षयक्षममिदं क्षणात् । मानुषत्वमपि प्राप्ताः पापाः पापानि कुर्वते ॥ १४२ ॥ ज्ञान-दर्शन-चारित्ररत्नत्रितयभाजने । मनुजत्वे पापकर्म स्वर्णभाण्डे सुरोपमम् ॥ १४३॥ संसारसागरगतैः शैमिलायुगयोगवत् । लब्धं कथश्चिन्मानुष्यं हा ! रत्नमिव हार्यते ॥ १४४ ॥ लब्धे मानुष्यके वर्ग-मोक्षप्राप्तिनिवन्धने । हा! नरकास्युपायेषु कर्मसूत्तिष्ठते जनः ॥१४५॥ आशास्यते यत् प्रयत्नादनुत्तरसुरैरपि । तत् सम्प्राप्तं मनुष्यत्वं पापैः पापेषु योज्यते ॥१४६॥ परोक्षं नरके दुःखं प्रत्यक्षं नरजन्मनि । तत्प्रपञ्चः प्रपञ्चेन किमर्थमुपवर्ण्यते ॥ १४७॥ शोका-ऽमर्ष-विषादेा-दैन्यादिहतबुद्धिषु । अमरेष्वपि दुःखस्य साम्राज्यमनुवर्तते ॥१४८॥ दृष्ट्वा परस्य महतीं श्रियं प्राग्जन्मजीवितम् । अर्जितस्वल्पसुकृतं शोचन्ति सुचिरं सुराः ॥ १४९॥ चिराद् वा बलिनाऽन्येन प्रतिकतु तमक्षमाः। तीक्ष्णेनामर्षशल्येन दोद्यन्ते निरन्तरम् ॥ १५०॥ न कृतं सुकृतं किञ्चिदाभियोग्यं ततो हि नः। दृष्टोत्तरोत्तरश्रीका विषीदन्तीति नाकिनः ॥१५१॥ दृष्ट्वाऽन्येषां विमान-स्त्री-रत्नोपवनसम्पदम् । यावजीवं विपच्यन्ते ज्वलदानलोर्मिभिः ॥१५२॥ हा प्राणेश ! प्रभो ! देव ! प्रसीदेति सगद्गदम् । परैर्मूषितसर्वस्वा भाषन्ते दीनवृत्तयः॥१५३॥ . मद्यसदृशम् । २ शमिला भाषायां समोल', यत्र छिद्रे योनधारणाय रज्जुः निक्षिप्यते। युगं च भाषायां 'धोसरूं' । शमिलायुग| योगश्चेत्थम्-यथा समुद्रे एकतः शमिला क्षिप्ता, अन्यत: युगम् क्षिप्तम् । तौ द्वौ प्रवाहेण वाह्यमानौ पुनः कदा सम्बन्धयुक्तौ भविष्यतः | अर्थात् युगच्छिद्रे शमिला कदा कथं प्रविशेत् ? इति न ज्ञायते । यथा च तयोर्द्वयोः सम्बन्धो दुःशकः एवमेव मनुजभवः सुदुर्लभः । का उद्यमशीलो भवति । ४ विस्तारेण । ५ पुनः पुनः भृशं वा ठूनाः क्षीणाः भवन्ति । ६ किङ्करदेवत्वम् । ७ मूषित-चोरित । ॥३२३॥ Jain Education Intern For Private & Personal use only IDl Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HORORSCORCHESHDOL प्राप्तेऽपि पुण्यतः स्वर्गे काम-क्रोध-भयातुराः। न स्वस्थतामश्नुते सुराः कान्दर्पिकादयः ॥१५४॥ अथ च्यवनचिह्नानि दृष्ट्वा दृष्ट्वा विमृश्य च । विलीयन्तेऽथ जल्पन्ति व निलीयामहे वयम् ? ॥१५५ ॥ तथाहि-अम्लाना अपि हि मालाः सुरद्रुमसमुद्भवाः। म्लानीभवन्ति देवानां वदनाम्भोरुहैः समम् ॥१५६॥ हृदयेन समं विश्वग्विश्लिष्यत्सन्धिबन्धनाः । महाबलैरप्यकम्प्याः कम्पन्ते कल्पपादपाः ॥ १५७ ॥ आकालप्रतिपन्नाभ्यां प्रियाभ्यां च सहैव हि । श्री-हीभ्यां परिमुच्यन्ते कृतागस इवामराः ॥१५८ ॥ अम्बरश्रीरपमला मलिनीभवति क्षणात् । अप्यकसाद् विसृमरैरघौधैर्मलिनधनैः॥१५९ ॥ अदीना अपि दैन्येन विनिद्रा अपि निद्रया । आश्रीयन्ते मृत्युकाले पक्षाभ्यामिव कीटिकाः॥१६॥ विषयेष्वतिरज्यन्ते न्यायधर्मविवाधया । अपथ्यान्यपि यत्नेन स्पृहयन्ति मुमूर्षवः ॥१६१॥ नीरुजामपि भज्यन्ते सर्वाङ्गोपाङ्गसन्धयः । भाविदुर्गतिपातोत्थवेदनाविवशा इव ॥ १६२ ॥ पदार्थग्रहणेऽकसाद् भवन्त्यपटुदृष्टयः । परेषां सम्पदुत्कर्षमिव प्रेक्षितुमक्षमाः॥ १६३ ॥ गर्भावासनिवासोत्थदुःखागमभयादिव । प्रकम्पतरलैरङ्गैर्भापयन्ति परानपि ॥ १६४ ॥ निश्चितच्यवनाश्चिकैर्लभन्ते न रति क्वचित । विमाने नन्दने वाप्यामङ्गारालिङ्गिता इव ॥ १६५॥ हा प्रियाः! हा विमानानि ! हा वाप्यो! हा सरद्रमाः!। क्व द्रष्टव्याः पुनयूयं हतदैववियोजिताः॥१६६॥ १ प्रामुवन्ति । कान्दर्पिकाः अधमदेवाः । २ समन्तात् । ३ वस्त्रम् । * °रप्यम° संवृ० ॥ ४ विसमरं प्रसरणशीलम् । ५ निहारहिताः । ६ न्यायो नीतिमार्गः । ७ मरणाभिलाषिणः। रोगरहितानाम् अपि । ९ पदार्थप्रत्यक्षीकरणे अपट्टदृष्टयः मन्ददृष्टयः । १० भयं जनयन्ति । ११ अङ्गारर्दग्धा इव । लाभापयन्तिमाः ॥१६३ कचित Jain Education in For Private & Personal Lise Only . Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये तृतीयं पर्व चतुर्थः सर्गः पद्मप्रभस्वामिचरितम् । ॥३२४॥ अहो ! मितं सुधावृष्टिरहो! बिम्बाधरः सुधा । अहो! वाणी सुधावर्षिण्यहो! कान्ता सुधामयी ॥१६७॥ हा रत्नघटिता स्तम्भाः! हा श्रीमन्मणिकुट्टिमाः!। हा वेदिका रत्नमय्यः कस्य यास्यथ संश्रयम् ॥१६८॥ हा ! रत्नसोपानचिताः कमलोत्पलमालिताः । भविष्यन्त्युपभोगाय कस्येमाः पूर्णवापयः १ ॥१६९॥ हे पारिजात! मन्दार! सन्तान! हरिचन्दन । कल्पद्रुम ! विमोक्तव्यः किं भवद्भिरयं जनः ॥१७॥ हहा ! स्त्रीगर्भनरके वस्तव्यमवशस्य मे । हहाऽशुचिरसास्वादः कर्तव्यो मयका मुहुः ॥१७१॥ हहा हा ! जठराङ्गारशकटीपाकसम्भवम् । मया दुःखं विषोढव्यं बद्धेन निजकर्मणा ॥१७२ ॥ रतेरिव निधानानि व तास्ताः सुरयोषितः । क्वाऽशुचिस्यन्दबीभत्सा भोक्तव्या नरयोषितः ॥ १७३ ॥ एवं खोकवस्तूनि स्मारं स्मारं दिवौकसः। विलपन्तः क्षणस्यान्तर्विध्यायन्ति प्रदीपवत् ॥ १७४॥ ॥नवभिः कुलकम् ॥ असारमित्थं संसारं चिन्तयित्वा विमुक्तये । प्रयतेत परिव्रज्योपायेन शुभधीर्जनः ॥ १७५॥ भर्तुस्तया देशनया प्रतिबुद्धाः सहस्रशः। केचिदाददिरे दीक्षां सम्यक्त्वमपरे पुनः ॥ १७६॥ सुव्रताद्या गणभृतोऽभूवन् सप्तोत्तरं शतम् । जग्रन्थुद्वादशाङ्गी ते प्रपद्य त्रिपदी प्रभोः॥१७७ ॥ देशनाविरते नाथे सुव्रतो देशनां व्यधात् । शिष्या गुरूणां कूपानामाहावा इव तक्रियाः॥१७८॥ विरते देशनातोऽसिन्नपि सर्वे सुरादयः । प्रणिपत्य जगन्नाथं स्थानं निजनिजं ययुः॥१७९ ॥ . कुट्टिमम् भूमितलम् । २ आश्रयम् । ३ मालिताः शोभिताः । ४ अङ्गारशकटी भाषायाम्-'सगडी'। ५ आहावाः कूपसमीपवर्तिनः गर्ताः। ॥३२४॥ Jain Education Interco For Private & Personal use only . Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्तीर्थजन्मा कुसुमो नीलाङ्गो मृगवाहनः । सफलं चाभयदं च विभ्राणो दक्षिणौ करो ॥१८॥ पभप्रभविभ्रत् पाणी नकुला-ऽक्षसूत्रिणौ दक्षिणेतरौ । सदा सनिधिवासीद् भर्तुः शासनदेवता ।। १८१ ॥ | जिनशासन युग्मम् ॥ देवदेच्या तथोत्पन्नाऽच्युता नाम श्यामाङ्गी नरवाहना। बिभ्राणा दक्षिणी बाहुदण्डौ वरद-पाशिनौ ॥ १८२॥ वामौ च कार्मुकधरा-ऽभयदौ बिभ्रती भुजौ। पद्मप्रभजिनेन्द्रस्याभवच्छासनदेवता ।। १८३॥ अमुक्तसन्निधिस्ताभ्यां विश्वानुग्रहकाम्यया। विजहार जगत्स्वामी ग्रामा-ऽऽकर-पुरादिषु॥१८४॥युग्मम्।। साधूनां त्रीणि लक्षाणि सहस्रास्त्रिंशदेव च । साध्वीनां च चतुर्लक्षी सहस्राणि च विंशतिः॥१८५॥ चतुर्दशपूर्वभृतां द्वे सहस्रे शतत्रयम् । अवधिज्ञानवतां च सहस्राणि पुनर्दश ॥ १८६॥ पद्मप्रभनिनमनःपर्ययिणां त्रीणि शतान्ययुतमेव च । सहस्राणि द्वादश तु केवलज्ञानशालिनाम् ॥ १८७॥ परिवार: वैक्रियलब्धिसहस्राः पोडशाष्टोत्तरं शतम् । बादलब्धिधराणां तु सहस्रा नव षट्शती ॥१८८॥ श्रावकाणामुमे लक्षे षट्सप्ततिसहस्यपि । श्राविकाणां पुनः पञ्च लक्षाः पञ्च सहस्यपि ॥ १८९ ।। परिवारेऽभवद् भर्तुः केवलज्ञानकालतः । षण्मास्या पोडशाङ्योनं पूर्वलक्षं विहारिणः ॥ १९॥ पचप्रभविनमोक्षकालमथाऽऽसन्नं विदित्वा परमेश्वरः । सम्मेतादि जगामाथानशनं मासिकं व्यधात् ॥१९॥ दानिर्वाणम् मार्गशीर्षे च कृष्णकादश्यां चित्रास्थिते विधौ । क्षीणशेषचतुष्कर्मा सिद्धानन्तचतुष्टयः ॥ १९२ ॥ मुनीनामनशनिनां शतैख्यौः सहाष्टभिः। ध्यानाच्चतुर्थाच्चतुर्थ पुमर्थमममत् प्रभुः॥१९३॥ युग्मम् ।। * ° पूर्वधरा द्वे संघृ० मो० ॥ षोडशाङ्गया उनम् । २ पुरुषार्थम् । मौत्तरं शतम् विकाणां पुन: पान पूर्वलक्षं Jain Education Inter L For Private & Personal use only GILw.jainelibrary.org. Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते महाकाव्ये ॥ ३२५ ॥ Jain Education Inter अष्टमाः पूर्वलक्षाः कौमारे षोडशाङ्गयुक् । पूर्वलक्षाणां साधैकविंशती राज्यपालने ॥ १९४ ॥ अङ्गैः षोडशभिर्न्यनं पूर्वलक्षं पुनर्वते । इति त्रिंशत्पूर्वलक्षाण्यायुः पद्मप्रभप्रभोः ॥ १९५ ॥ सुमतिस्वामि निर्वाणान्मोक्षः पद्मप्रभप्रभोः । गतायामब्धिकोटीनां सहस्रनवतावभूत् ॥ १९६ ॥ इन्द्रा चतुःषष्टिरुपेत्य तत्र प्रभोर्मुनीनामपि भक्तिभाजः । शरीरसंस्कारमकार्षुरुच्चैर्निर्वाणकल्याणमहोत्सवं च ॥ १९७ ॥ ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये तृतीये पर्वणि श्रीपद्मप्रभखामिचरितवर्णनो नाम चतुर्थः सर्गः ॥ तृतीयं पर्व चतुर्थः सर्गः पद्मप्रभ स्वामि चरितम् ।। ३२५ ।। . Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *** पञ्चमः सर्गः। श्रीसुपार्श्वनाथचरित्रम् । 000000000 - - श्रीसुपार्श्वजिनेन्द्रस्य पान्तु वो देशनागिरः । उद्वेलकेवलज्ञानसमुद्रस्येव वीचयः ॥१॥ चरितं श्रीसुपार्श्वस्य वक्ष्येऽहं सप्तमार्हतः । कुबोधध्वान्तसुदिनमशेषाणां शरीरिणाम् ॥२॥ धातकीखण्डद्वीपस्य प्राग्विदेहविशेषके । विजये रमणीयेऽस्ति नाना क्षेमपुरी पुरी ॥३॥ तत्राऽऽसीजगदानन्दी नन्दिषणो नरेश्वरः। दिनेश्वर इव श्रीमांस्तेजसामेकमास्पदम् ॥४॥ अशेषराज्यव्यापारे जागरूकस्य सर्वदा । तस्य प्रधान्यभूद् धर्मो दोर्दण्ड इव दक्षिणः ॥५॥ निघतः कण्टकीभूतान् जनतासुखहेतवे । तस्य कोपोपि धर्माय किं पुनः प्रस्तुताः क्रिया:? ॥६॥ अहो! आश्चर्यमनिशं स्मृतिगोचरतां गतः। श्रीवीतरागो भगवांस्तस्य हृच्छयतां ययौ ॥७॥ आत्तानामतिहरणे स शरण्यः सदाऽभवत् । स्मरातुरपरस्त्रीणां न कदापि कथञ्चन ॥८॥ कालेन गच्छता सोऽभूद् भवोद्विग्नो महामनाः। गत्वाऽरिदमनाचार्यान्तिके दीक्षामुपाददे ॥९॥ स व्रतं पालयंस्तीक्ष्णं स्थानकैः कैश्चिदप्यथ । तीर्थकुन्नामकर्मोपार्जयामास महामुनिः ॥१०॥ ततो विधायानशनं समये स महामतिः। मृत्वा ग्रैवेयके षष्ठे महर्द्धिरमरोऽभवत् ॥११॥ प्रधान्यभूत्-प्रधानो बभूव । * कामरूपताम् संवृ० टिप्पणी ॥ २ अर्ति-पीडा । ३ संसाराद् उद्विग्नः ।। 1 °हामुनिः। मृ मो०॥ सुपार्श्वजिनपूर्वजन्मसम्बन्धः ISSSSSS*** पालयंस्तीहभद भवोदिमो महान् । सरातुरपरस्त्रीणां गवांस्तस्य हच्छयता या त्रिषष्टि, ५६ Jain Education Inter For Private & Personal use only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयं पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये पञ्चमा सर्ग: सुपार्श्वनाथचरितम्। ॥३२६॥ इतश्च जम्बूद्वीपस्यामुष्य क्षेत्रेऽत्र भारते । पुरी वाराणसीत्यस्ति काशिदेशस्य मण्डनम् ॥१२॥x रत्नभित्तिषु गेहेषु तस्यामुद्दयोतशालिषु । अष्टप्रकारपूजायां दीपो देवाग्रतो यदि ॥१३॥ चैत्येषु तस्यामुद्दण्डरैदण्डोपरि चन्द्रमाः। धर्मस्सैकातपत्रस्याऽऽतपत्रश्रियमश्नुते ॥ १४ ॥ विद्याधर्यो रममाणास्तद्वा-ऽट्टालकोपरि । जगतीजालकटकान् विस्मृत्य सुखमासते ॥१५॥ वासागारेषु कूजन्ति तस्यां पारापता निशि । रतिभर्तुः प्रबोधार्थमिव मङ्गलपाठकाः ॥१६॥ सतां प्रतिष्ठाकल्पद्रुः प्रतिष्ठाभाक् सुरेन्द्रवत् । प्रतिष्ठो नाम तत्राऽऽसीन्यायनिष्ठो महीपतिः ॥ १७॥ मेरोरिव महत्त्वेनाप्रतिरूपस्य सर्वदा । तस्यैव पादच्छायायामतिष्ठदखिलं जगत् ॥१८॥ श्वेतातपत्रैर्मायूरातपत्रैश्च निरन्तरैः । द्यौर्बलाकाघनाङ्केच तसिन् दिग्विजयिन्यभूत् ।। १९ ॥ सोऽभूत् प्रत्यर्थिनां युद्धे न कदापि पराङ्मुखः । अर्थिनामिव निःसीमपुरुषव्रतभूषणः ॥२०॥ आजन्मानन्यसाहाय्यो लीलयैव महाभुजः । स सदा धारयामास लीलाकमलवन्महीम् ।। २१ ॥ तस्य पृथ्वीपतेः पृथ्वी नाम पृथ्वीव जङ्गमा । सधर्मचारिण्यभवत् स्थैर्यादिगुणभाजनम् ।। २२॥ तस्याः शीलं च रूपं च नित्यं भूषणतां ययौ । भूषणानि तु बाह्यानि भूष्यतां प्रतिपेदिरे ॥ २३॥ निसर्गनैर्मल्यजुषो गुणास्तस्यामनेकशः । उत्पेदिरे ताम्रपर्णीनद्यां मुक्ताकणा इव ॥ २४ ॥ लावण्यसलिलं वक्र-नेत्र-पाण्यक्षिपङ्कजम् । तद्रूपमाभाच्छ्रीदेव्याः पद्मद इवापरः॥ २५॥ --सुवर्णम् । २ वमो दुर्गः, अट्टालकः भाषायाम् 'अटारी'। ३ अव्यक्तं शब्दायन्ते । * पत्रमाय संवृ०॥ ४ रिपूणाम् । + तभीष संवृ० मो०॥ ५ भूमिरिव । ॥३२६॥ Jain Education inte For Private & Personal use only | Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुपार्श्वजिनजन्मादि तीर्थकृजननीत्वेन भावि दासीत्वमस्तु तत् । रूपेणापि जितास्तस्या दास्योऽभूवन् सुराङ्गनाः॥ २६ ॥ __ इतश्च नन्दिषेणस्य जीवो ग्रैवेयके स्थितः । षष्ठेऽपूरयदायुः स्वमष्टाविंशतिसागरम् ॥ २७ ॥ च्युत्वा भाद्रपदे कृष्णाष्टम्यां राधागते विधौ । स जीवो नन्दिषेणस्य पृथव्याः कुक्षाववातरत् ॥२८॥ सुखसुप्ता निशाशेषे पृथ्वीदेवी तदैक्षत । तीर्थजन्मपिशुनान् महास्वमांश्चतुर्दश ।। २९॥ सुप्तमेकफणे पञ्चफणे नवफणेऽपि च । नागतल्पे ददर्श खं देवी गर्ने प्रवर्धिनी ॥ ३०॥ ज्येष्ठस्य शुद्धद्वादश्यां विशाखास्थे निशाकरे । स्वर्णवर्ण स्वस्तिकाएं सुतं सा सुषुवे सुखम् ॥ ३१ ॥ जिनजन्मावधिज्ञानाज्ज्ञात्वा तत्रत्य सत्वरम् । षट्पञ्चाशद् दिकुमार्यः सूतिकर्माणि चक्रिरे ॥ ३२॥ तथैवाऽऽगत्य शक्रोऽपि समादाय जगत्पतिम् । मेरुमूर्धन्यतिपाण्डुकम्बलामगमच्छिलाम् ॥ ३३ ॥ बालधार इवोत्सङ्गे निधाय परमेश्वरम् । रत्नसिंहासने तत्र निषसाद पुरन्दरः ॥ ३४ ॥ तीर्थनाथं तीर्थतोयस्त्रिषष्टिरथ वासवाः । क्रमेणास्नपयन्नब्धिवेला इव तटाचलम् ॥ ३५ ॥ ईशानाङ्के निवेश्येशं शक्रोऽप्यस्नपयजलैः । स्फाटिकोक्षविषाणोत्थैर्धारायत्रोत्थितैरिव ।। ३६ ॥ विलिप्य पूजयित्वा च वस्त्रालङ्करणादिना । जगत्पतिमिति स्तोतुं सौधर्मेन्द्रः प्रचक्रमे ॥ ३७॥ अविज्ञेयस्वरूपे त्वय्यर्थवादाग्रहो मम । आदित्यमण्डलादाने फालदानं कपेरिख ।। ३८ ॥ तथापि त्वत्प्रभावेण स्तोष्ये त्वां परमेश्वर ! । स्यन्दन्ते चन्द्रकान्ता हि चन्द्रकान्तिप्रभावतः ॥ ३९ ॥ १ विशाखानक्षत्रगते चन्द्रे । २ अगमत्-जगाम । ३ स्फाटिकोक्षविषाणोरथैः-स्फाटिकबलीवर्दशृङ्गनिर्गतैः ॥ ४ कूर्दनम् , भाषायाम्-'फाल भरवी, कूदको मारवो' । Jain Education Inter M For Private & Personal use only Tiww.jainelibrary.org Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते महाकाव्ये ॥३२७॥ Jain Education Internal दत्से समस्त कल्याणैर्यत् सुखं श्रभ्रिणामपि । तिर्यग नरा-मराणां तत् कथं नासि सुखप्रदः ९ ॥ ४० ॥ अप्युयोतो जगत्रय्यामस्मिन् जन्मोत्सवे तव । उदेष्यत्केवलज्ञानतरणेररुणायते ॥ ४१ ॥ त्वत्प्रसादस्य सम्पैर्कादिवैताः ककुभोऽखिलाः । प्रसादं कलयामासुरधुना परमेश्वर ! ॥ ४२ ॥ अमी च वान्ति सुखदाः पवनाः पावैनाकृते ! । सुखदे त्वयि नाथे हि जगतां कः प्रतीपकृत् १ ॥ ४३ ॥ धिग् नः प्रमादिनो धन्यान्यासनान्यपि तानि नः । देव ! त्वजन्मकल्याणं चलित्वाऽज्ञापि यैः क्षणात् ॥४४॥ निदानं देव ! बध्नामि निषिद्धमपि सम्प्रति । त्वद्दर्शनफलं मेऽस्तु त्वयि भक्तिर्निरन्तरा ॥ ४५ ॥ स्तुत्वैवं प्रमादाय शक्रः सत्वरमेत्य च । मुमोचालक्षितं पृथ्वीदेव्याः पार्श्वे यथास्थिति ॥ ४६ ॥ प्राणिनः प्रीणयन् कारामोक्षणादिभिरद्भुतैः । महोत्सवं नृपोऽकार्षीदानन्दफलपादपम् ॥ ४७ ॥ गर्भस्थेऽस्मिन् सुपार्श्वाभूञ्जननी यत् ततः प्रभोः । सुपार्श्व इत्यभिधानं प्रतिष्ठः प्रत्यतिष्ठिपत् ||४८ ||| शक्रसङ्क्रमिताङ्गुष्ठेसुधापो ववृधे प्रभुः । सुधान्धसामपि वन्द्या अर्हन्तोऽस्तन्यपा यतः ॥ ४९ ॥ उत्तीर्योत्तीर्य चोत्सङ्गाच्चापलाच्छैशवोचितात् । वञ्चवश्चं मुहुर्धात्रीश्चिक्रीडेतस्ततः प्रभुः ॥ ५० ॥ पणपूर्व क्रीडतश्च मर्त्यरूपान् सुरान् प्रभुः । जिगाय लीलया शक्ताः क्रीडायामपि केऽर्हताम् १ ॥ ५१ ॥ शैशवं व्यतिचक्राम क्रमेण परमेश्वरः । क्रीडन् विचित्रक्रीडाभित्रियामामिव कामुकः ॥ ५२ ॥ १ नारकाणाम् । २ अरुणोदय इव । ३ कृपायाः सम्बन्धात् । ४ प्रसन्नताम्-निर्मलताम्। * पवनाकृते संवृ० । पवित्रीकरणार्थम् इति संबृ० टिप्पणी ॥ ५ पवित्राकृतियुक्त ! ६ द्वितीयाबहुवचनम् । ७ कारा- कारागृहम् । ८ स्थापयामास । ९ यः अङ्गुष्ठे शक्रसंक्रमितां सुधां पिबति । १० सुधाभक्षका देवाः । ११ अर्हन्तो न मातरं धयन्ते अतः अस्तन्यपाः । १२ त्रियामा - रात्रिः । तृतीयं पर्व पश्चमः सर्गः सुपार्श्वनाथचरितम् । ॥३२७॥ . Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAGARLASSANSACCESS धनुःशतद्वयोत्तुङ्गः सर्वलक्षणलक्षितः । प्रपेदे यौवनं स्वामी भूषणं रूपसम्पदः ॥ ५३॥ दाक्षिण्येन प्रभुः पित्रोनृपपुत्रीरुपायत । अपि त्रिलोकनाथानां मान्यं हि पितृशासनम् ॥ ५४॥ भोग्यं कर्म क्षपयितुं रमणीभिः समं विभुः। अरस्त भगवन्तो हि कर्मच्छेदाय तत्पराः॥५५॥ ततो गतेषु कौमारे पूर्वलक्षेषु पञ्चसु । अभ्यर्थ्याऽऽरोपितं पित्रा प्रभु भारमुद्दधे ॥ ५६ ॥ विंशत्यङ्गैः समधिकाः पूर्वलक्षाश्चतुर्दश । व्यतीयाय जगन्नाथः पृथिवीं परिपालयन् ॥ ५७॥ उपलक्ष्येव संसारविरक्तं स्वामिनो मनः । उपखाम्याययुर्ब्रह्मलोकाल्लोकान्तिकामराः॥५८॥ न बोध्यसे खयम्बुद्धः खभत्या स्मार्यसे पुनः। तीर्थं प्रवर्तय स्वामिनित्युक्त्वा ते दिवं ययुः॥ ५९॥ पास सुपार्श्वस्खाम्यपि ततो दीक्षादानोत्सवोत्सुकः । दानचिन्तामणिर्दानं ददौ संवत्सरावधि ॥६॥ सांवत्सरिकदानान्ते वासवैश्चलितासनैः । दीक्षाभिषेको विदधे सुपार्श्वखामिनस्ततः॥ ६१॥ अथो मनोहरा नाम नानारत्नमनोहराम् । अध्यारुरोह शिबिकां शिवगामी जगत्पतिः॥ ६२॥ अन्वीयमानो भगवान् सुरा-ऽसुर-नरेश्वरैः । सहस्राम्रवणं नाम जगामोपवनोत्तमम् ।। ६३ ॥ त्रिजगद्भूषणं स्वामी तत्रौज्झद् भूषणादिकम् । शक्रन्यस्तं देवदृष्यं स्कन्धदेशे दधार च ॥ ६४ ॥ ज्येष्ठशुद्धत्रयोदश्यां रोधायां पश्चिमेऽहनि । समं नृपसहस्रेण षष्ठेन प्रावजत् प्रभुः॥६५॥ १ विवाहं चकार । २ धारयाञ्चकार । ३ विंशत्यङ्गैः-विंशतिपूर्वाङ्गैरित्यर्थः । ४ व्यतीतानि । ५ स्वामिनः समीपम् उपस्वामि । ६ तीर्थङ्करा हि दीक्षाग्रहणात् पूर्व संवत्सरपर्यन्तं भूरि भूरि दानं कुर्वन्ति अत उक्तं दीक्षादानोत्सवोत्सुकः। - सिद्धिगतिं गन्ता। ८ औज्झत् मुमोच । ९ विशाखानामके नक्षत्रे । ४ सुपार्श्वजिनस दीक्षा केवळ४ा ज्ञानं च Jain Education in For Private & Personal use only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते तृतीयं पर्व पञ्चमः सर्गः सुपार्श्वनाथचरितम् महाकाव्ये ॥३२८॥ मनःपर्ययमुत्पेदे तुर्य ज्ञानं जगत्पतेः । नारकाणामपि तदा सुखं क्षणमजायत ॥ ६६ ॥ पाटलीखण्डनगरे महेन्द्रनृपसद्मनि । द्वितीयेऽहि प्रभुश्चके परमानेन पारणम् ॥ ६७ ।। विदधुर्वसुधारादि देवाश्चाद्भुतपश्चकम् । रत्नपीठं महेन्द्रस्तु यत्र तस्थौ जगत्पतिः ॥ ६८॥ जयन् परीषहचमृता गिरिरिवाभवत् । निराकासः शरीरेऽपि समः स्वर्ण-तृणादिषु ॥ ६९॥ एकाकी मौननिरतो नित्यमेकान्तदत्तदृक् । विविधाभिग्रहरतोऽनासीनो निर्भयः स्थिरः॥७० ।। विविधाः प्रतिमाः कुर्वश्छद्मस्थो ध्यानमास्थितः । नव मासान् जगन्नाथो विजहार वसुन्धराम् ॥ ७१ ॥ ॥त्रिभिर्विशेषकम् ॥ विहरंश्चाऽऽययौ भूयः सहस्राम्रवणं प्रभुः । शिरीषमूले षष्ठेन तत्रास्थात् प्रतिमाधरः ॥ ७२ ॥ द्वितीय शुक्लध्यानान्ते वर्तमानो जगद्गुरुः । संसारस्येव मर्माणि घातिकर्माण्यघातयत् ॥७३॥ फाल्गुनस्य कृष्णषष्ठ्यां विशाखास्थे निशाकरे । केवलज्ञानमुत्पेदे सुपार्श्वखामिनस्तदा ॥ ७४ ॥ सुरा-ऽसुरेन्द्राः सद्योऽपि समागत्य नियुक्तवत् । चक्रुः समवसरणं खामिनो देशनाकृते ॥ ७५ ॥ पूर्वद्वारेण तत्राथ मोक्षद्वारं जगद्गुरुः । प्रविवेश यथार्हस्तु द्वारैः सुर-नरादयः ॥ ७६ ॥ चतुर्धन्वशताकक्रोशोचं चैत्यपादपम् । तत्र प्रदक्षिणीचक्रे प्रभुर्भूकल्पपादपः ॥ ७७ ॥ 'तीर्थाय नम' इत्युक्त्वा तत्र सिंहासनोत्तमे । उपाविशजगन्नाथोऽतिशयरुपशोभितः॥ ७८ ॥ पृथ्वीदेव्या तदा खमे दृष्टं तादृग्महोरगम् । शक्रो विचक्रे भगवन्मूर्ध्नि च्छत्रमिवापरम् ॥ ७९ ॥ अनुपविशन्-जय तिष्ठन्नेव इत्यर्थः। २ नियुक्तः आज्ञानुसारी दास इव । ३ समक्सरणमित्यर्थः । ॥३२८॥ Jain Education in For Private & Personal use only , Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदादि चाभूत समवसरणेष्वपरेष्वपि । नाग एकफणः पश्चफणो नवफणोऽथवा ॥८॥ खामिनः प्रतिरूपाणि देवा दिक्ष्वपरास्वपि । विकुर्वन्ति स ताशि तत्प्रभावेण भूयसा ॥ ८१ ॥ सङ्घोऽपि भगवांस्तत्र यथास्थानमवास्थित । न स्थानव्यत्ययो जातु सामान्यस्यापि पर्षदि ॥८२॥ अथ सौधर्मकल्पेन्द्रः प्रणम्य परमेश्वरम् । विरचय्याञ्जलिं मूर्ध्नि स्तोतुमेवं प्रचक्रमे ॥ ८३॥ निःशेषभुवनकोशपद्मकोशविवस्वते । तुभ्यं नमो भगवते श्रीमते सप्तमार्हते ॥ ८४ ॥ गतं दुःखेन विश्वस्याऽऽविर्भूतं च मुदा प्रभो।। विश्वं तीर्थपरावृत्त्या परावृत्तमिवाधुना ॥ ८५॥ धर्मचकिंस्तव वचोरत्नदण्डेन भास्खता । निर्वाणवैतादयगिरेरमद्योद्घटिष्यते ॥८६॥ उन्नतस्येव मेघस्य भगवन् ! दर्शनं तव । विश्वस्य जीवलोकस्य सन्तापच्छेदनान्मुदे ॥ ८७॥ अनन्तज्ञान भगवन् ! देशनावचनं तव । दरिद्रैर्द्रविणमिव चिरादस्माभिराप्स्यते ॥ ८८॥ कृतार्था दर्शनेनापि तवाद्य वचनेन तु । विशेषतो भविष्यामो मुक्तिद्वारप्रकाशिना ॥ ८९ ॥ अनन्तदर्शन-ज्ञान-चीर्या-ऽऽनन्दमयात्मने । सर्वातिशयपात्राय तुभ्यं योगात्मने नमः ॥९॥ इन्द्रादिपदवीप्राप्तिः कियदेतज्जगत्पते ! । तव शुश्रूषया यस्मात् त्वादृशैरपि भूयते ॥ ९१॥ इति स्तुत्वा धुसन्नाथे तूष्णीकत्वमुपेयुषि । प्रारेमे भगवानेवं सर्वज्ञो धर्मदेशनाम् ॥ ९२ ।। आत्मनः सर्वमप्येतदन्यत् तदिह तत्कृते । कृत्वा कर्म भवाब्धौ खं पातयत्यबुधो जनः ॥ ९३ ॥ यत्रान्यत्वं शरीरस्य वैसदृश्याच्छरीरिणः । धन-बन्धु-सहायानां तत्रान्यत्वं न दुर्वचम् ॥ ९४ ॥ १ उपविवेश। २ हर्षेण, हर्षः प्रकटो भूत इत्यर्थः। ३ हे धर्मचक्रवर्तिन् ! । सुपार्श्वजिनदेशना Jain Education Internal For Private & Personal use only Cl Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते महाकाव्ये ॥३२९ ॥ Jain Education Inter यो देह-धन-बन्धुभ्यो भिन्नमात्मानमीक्षते । क्व शोकशङ्कुना तस्य हन्ताऽऽतङ्कः प्रतन्यते १ ।। ९५ ।। इान्यत्वं भवेद् भेदः स वैलक्षण्यलक्षणः । आत्म- देहादिभावानां साक्षादेव प्रतीयते ॥ ९६ ॥ देहाद्या इन्द्रियग्राह्या आत्मानुभवगोचरः । तदेतेषामनन्यत्वं कथं नामोपपद्यते १ ।। ९७ ।। आत्म- देहादिभावानां यद्यन्यत्वं स्फुटं ननु । ततो देहप्रहारादौ कथमात्मा प्रपीड्यते १ ॥ ९८ ॥ सत्यं येषां शरीरादौ भेदबुद्धिर्न विद्यते । तेषां देहप्रहारादीवात्मपीडोपजायते ।। ९९ ।। ये तु देहात्मनोर्भेदं सम्यगेव प्रपेदिरे । तेषां देहप्रहारादावपि नाऽऽत्मा प्रपीड्यते ॥ १०० ॥ 'भेदं विद्वान् न पीडयेत पितृदुःखेऽप्युपस्थिते । आत्मीयत्वाभिमानेन भृत्यदुःखेऽपि मुझति ॥ १०१ ॥ अस्वत्वेन गृहीतः सन् पुत्रोऽपि पर एव हि । स्वकीयत्वेन भृत्योऽपि स्वपुत्रादतिरिच्यते ॥ १०२ ॥ सम्बन्धानात्मनो जन्तुर्यावतः कुरुते प्रियान् । तावन्तो हृदये तस्य जायन्ते शोकशङ्कवः ॥ १०३ ॥ सर्वमन्यदिदं तस्माजानीयात् पटुधीर्जनः । कस्यापि हि विनाशात् तन्न मुह्येत् तच्चवर्त्मनि ॥ १०४ ॥ अस्यन् ममत्वमृल्लेपं तुम्बीफलमिवाचिरात् । भवं तरति शुद्धात्मा परिव्रज्याधरो नरः ।। १०५ ।। एवं च देशनां श्रुत्वाऽबुध्यन्त बहवो जनाः । प्रव्रज्यां जगृहु: केऽपि श्रावकत्वमथापरे ।। १०६ ॥ विदर्भाद्या गणभृतः पञ्चनवतिरभूवन् । ते चक्रुर्द्वादशाङ्गीं च खामिवागनुसारतः ॥ १०७ ॥ स्वामिनो देशनान्ते च विदर्भी गणभृद्वरः । स्वाम्यङ्गिपीठाध्यासीनो विदधे धर्मदेशनाम् ॥ १०८ ॥ १ 'आत्मा अनुभवगोचरः' इति पदविभागः । * दावपि पी सङ्घ ॥ २ भेदस्य ज्ञाता । ३ अनिजत्वेन । 'जानन्नन्यत्र धी सङ्घ ॥ ४ ममत्वरूपं मृत्तिकालेपम् अस्यन्- दूरीकुर्वन् । ५ स्वामिवचनानुसारेण । तृतीयं पर्व पञ्चमः सर्गः सुपार्श्वनाथचरितम् । ॥३२९॥ . Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Inte विदर्भेऽपि गणधरे देशनाविरते सति । नमस्कृत्य प्रभुं जग्मुः स्वं स्वं स्थानं सुरादयः ॥ १०९ ॥ तत्तीर्थजन्मा मातङ्गो नीलाङ्गो गजवाहनः । बिल्वर्धरं पाशधरं विभ्राणो दक्षिणौ करौ ॥ ११० ॥ दधद् वामौ च दोर्दण्डौ नकुला-ऽङ्कुशधारिणौ । सुपार्श्वखामिनः पार्श्वेऽभवच्छासनदेवता ॥ १११ ॥ तथोत्पन्ना शान्तादेवी स्वर्णरुग् गजवाहना । वरदं साक्षसूत्रं च विभ्राणा दक्षिणौ भुजौ ॥ ११२ ॥ सला-भदौ बाहू दधाना दक्षिणेतरौ । भर्तुः शासनदेव्यासीत् सदा सन्निधिवर्तिनी ॥ ११३ ॥ विजहार ततोऽन्यत्र स्वामी ग्राम- पुरादिषु । बोधयन् भव्यभविनः पङ्कजानीव भास्करः ॥ ११४ ॥ साधुत्रिलक्षी साध्वीनां सहत्रिंशत्सहस्रिका । चतुर्लक्षी पूर्विणां तु सहस्रौ त्रिंशदन्वितौ ॥ ११५ ॥ सहस्राणि नव पुनरवधिज्ञानधारिणाम् । सार्वैकनवतिशती मन:पर्ययशालिनाम् ॥ ११६ ॥ एकादश सहस्राणि केवलज्ञानिनां पुनः । वैक्रियलब्धिसहस्राः पञ्चदश त्रिशत्यपि ॥ ११७ ॥ अष्टौ च वादलब्धीनां सहस्राः सचतुःशताः । द्वे लक्षे सप्तपञ्चाशत् सहस्राः श्रावकाः पुनः ।। ११८ ॥ श्राविकाणां पश्ञ्चलक्षी सहस्रैः सप्तभिर्वियुक् । परिवारेऽभवद् भर्तुः पृथ्वीं विहरतः सतः ॥ ११९ ॥ आ केवलान्भवमास्या विंशत्यया च वर्जिते । पूर्वलक्षे गते स्वामी गत्वा सम्मेतपर्वतम् ॥ १२० ॥ जगत्स्वामी समं तत्र मुनीनां पञ्चभिः शतैः । तपः प्रपेदेऽनशनं सेव्यमानः सुरासुरैः ॥ १२१ ॥ युग्मम् ॥ मासान्ते फाल्गुने कृष्णसप्तम्यां मूलगे विधौ । समं तैर्मुनिभिः खामी जगाम पदमव्ययम् ॥ १२२ ॥ १ करयोः विशेषणम् । २ सुवर्णकान्तिः । ३ अक्षसूत्रेण सहितम् । ४ भव्याः योग्याः, भविनः प्राणिनः । ५] वियुक् रहिता । ६ चन्द्रे मूलनक्षत्रं गते । सुपार्श्वजिनयक्षयक्षिण्यौ सुपार्श्वजिनपरिवार: . Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये तृतीयं पर्व पञ्चमः सर्गः पञ्च लक्षाणि कौमारे पृथिवीपालने पुनः । युक्ता विंशतिपूर्वाङ्या पूर्वलक्षाश्चतुर्दश ॥ १२३ ॥ न्यूनं विंशतिपूर्वाझ्या पूर्वलक्षं पुनव्रते । इत्यायुः श्रीसुपार्श्वस्य पूर्वलक्षाणि विंशतिः ॥ १२४ ॥ श्रीपद्मप्रभनिर्वाणात् सुपार्श्वखामिनिर्वृतिः । गतेष्वर्णवकोटीनां सहस्रेषु नववभूत् ॥ १२५ ॥ अच्युतप्रभृतयोऽथ सुरेन्द्राः स्वामिनो मुनिजनस्य च तस्य । अग्निसंस्करणपूर्वमकुर्वन् मोक्षपर्वमहिमानमखर्वम् ॥ १२६ ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये तृतीये पर्वणि श्रीसुपार्श्वस्वामिचरितवर्णनो नाम पञ्चमः सर्गः ॥ सुपार्श्वनाथचरितम् । ॥३३०॥ BOSASAASAARIFA ॥३३॥ Jain Education Inter For Private & Personal use only Tww.jainelibrary.org. Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः। श्रीचन्द्रप्रभजिनचरित्रम् । चन्द्रप्रभजिनपूर्वभवसम्बन्धी वन्दे ध्वस्तमहामोहध्वान्तामानन्ददायिनीम् । चन्द्रप्रभामिव गिरं चन्द्रप्रभजिनप्रभोः ॥१॥ चरितं कीर्तयिष्यामि चन्द्रप्रभजिनेशितुः । भव्यानां भविनां मोहहिमान्यर्कातपोपमम् ॥२॥ धातकीखण्डद्वीपस्य प्राग्विदेहस्य मण्डने । विजये मङ्गलावत्यामस्ति पू रत्नसञ्चया ॥३॥ पद्मो राजाऽभवत् तस्यां पद्मायाः पद्मवद् गृहम् । भोगावत्यां भोगिराज इवोर्जितपराक्रमः॥४॥ सेव्यमानोऽपि गन्धर्वैर्दिव्यसङ्गीतकारिभिः । अत्यैप्सरोभिर्वारस्त्रीजनैश्च परिवारितः॥५॥ दिव्याङ्गरागनेपथ्यदुकूलैश्च मनोरमैः । विभूष्यमाणसर्वाङ्गश्रीविशेषोऽपि सर्वदा ॥६॥ भूमिपालैः पाल्यमानशासनोऽपि दिवानिशम् । नित्यमक्षीणकोशोऽपि सदा सुस्थप्रजोऽपि हि ॥७॥ सर्वथा दुःखलेशस्याप्यनास्पंदतया स्थितः । संसारवासवैराग्यं स भेजे तत्त्वविद्वरः ॥८॥ चतुर्भिः कलापकम् । भवस्य च्छेदनायाथ गिरेरिव पविं हरिः । अग्रहीत् स परिव्रज्यां युगन्धरगुरोः पुरः॥९॥ १ ध्वान्तम् तमः। २ महद् हिमम् हिमानी। ३ रत्नसञ्चया नाम पू:-नगरी। * सर्वास्वपि प्रतिषु पद्मो नामाऽभवत् इति पाठो वर्त्तते॥ ४ भोगावती नाम शेषनागनगरी। ५ अप्सरसम् अतिक्रान्ताभिः-अप्सरसोऽपि अधिकसुन्दराभिः ६ अङ्गरागः| अङ्गविलेपनम् । ७ दुःखलेशेन रहितोऽपि इत्यर्थः। Jain Education Inter | . Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयं पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये सगे: चन्द्रप्रभजिनचरितम् ॥३३१॥ विविधाभिग्रहो दान्तो विहितेन्द्रियनिग्रहः । स्वविग्रहेऽप्यनाकाङ्क्षश्चिरं सोऽपालयद् व्रतम् ॥१०॥ महारत्नं महामूल्यैरिव स्थानस्तु कैरपि । देरर्जमर्जयामास तीर्थकृन्नाम कर्म सः॥११॥ कालेन क्षपयित्वाऽऽयुव्रतद्रोः प्रथमं फलम् । विमानं वैजयन्ताख्यं स जगाम महातपाः ॥१२॥ इतश्च जम्बूद्वीपेऽस्मिन् क्षेत्रे च भरताभिधे । पुरी चन्द्राननेत्यस्ति क्षितेराननसन्निभा ॥१३॥ तस्थामनेकरत्नाढ्या विभात्यापणवीथिका । उद्रेचिताम्भोविभवं भाण्डमम्भोनिधेरिव ॥१४॥ नानाकाराण्यगाराणि नानावर्णानि तत्र च । अदभ्राणीव सन्ध्याभ्राण्यवतीर्णानि भृतले ॥१५॥ तदुद्यानेषु दृश्यन्ते चारणाः प्रतिमास्थिताः । आशिरः-पादनिष्कम्पाः पुरूंपा इव पर्वताः ॥१६॥ तस्यां च वासागारेषु रानेषु प्रतिबिम्बितैः । खैरे केयमन्येति कुप्यन्ति प्रेयसि स्त्रियः॥१७॥ तस्यामासीन्महासेनः सेनाच्छन्नमहीतलः। महीपतिः पतिरपामिवाधृष्यशिरोमणिः ॥१८॥ तद्विक्रमस्य समभूद् भक्तो भृत्य इवानिशम् । प्रतापस्तत्क्रियां कुर्वन्नुर्वी विजयलक्षणम् ॥ १९॥ अलवयशासने तसिन् शासत्यवनिमण्डलम् । अभूदाजन्मविरतः परस्वहरणे जनः॥२०॥ अलब्धमध्योऽब्धिरिव शशीवातिमनोरमः। कल्पद्रुरिव दातेन्द्र इवाधीशश्च सोऽभवत् ॥ २१॥ स्वशरीरे । २ दुखेन अर्जितुं शक्यम्-दुर्लभम् । ३ व्रतवृक्षस्य । ४ यस्य अम्भोविभवः दूरीकृतः ततश्च प्रकटीभूतम् भाण्डम् इत्यर्थः। उद्रेचितं-भाषायाम् 'उलेचेलं'। अथवा यथा मुक्तासु अम्भोविभव:-भाषायाम् पाणी अधिकं भवति तथा यत्र भाण्डे उद्रेचितः-उद्विक्तः अधिकः अम्भोविभवः। ५ अदभ्रम्-अधिकम् । ६ पुरुषरूपाः। ७ रनमयेषु वासगृहेषु। ८ स्वैरिणी इव | का इयमन्या? इति । ९ प्रेयसि-प्रिये पत्यौ। १.शासति-शासनं कुर्वति । ११ दाता इन्द्रः इति पदविभागः। ॥३३१॥ Jain Education InteD L For Private & Personal use only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपाटपृथुले तस्योःस्थलेऽनन्यमानसा । हंसीव गङ्गापुलिने रमा रेमे निरन्तरम् ॥ २२ ॥ तस्याऽऽसील्लक्ष्मणा नाम पत्नी सम्पूर्णलक्षणा । मुखलक्ष्म्याऽतिहारिण्या विजेत्री शशलक्ष्मणः ॥२३॥ लावण्यपूरमसमं सर्वाङ्गीणं दधत्यपि । पीयूषमेव साऽवर्षद् दृशापि च गिराऽपि च ॥ २४॥ सा स्थलाम्भोरुहाणीव विकचानि पदे पदे । पादाभ्यां रोपयामास विचरन्त्यतिमन्थरम् ॥ २५॥ तस्या भ्रुवोश्च गत्यां च कौटिल्यं न तु चेतसि । मध्यप्रदेशे तुच्छत्वं न पुनर्मतिसम्पदि ॥ २६ ॥ तस्या गुणचमूं सर्वामपि सर्वातिशायिनीम् । अलञ्चकार सेनानीरिव शीलगुणो महान् ॥ २७॥ ___ इतश्च वैजयन्तस्थः स जीवः पद्मभूपतेः । त्रयस्त्रिंशत्पयोराशिसङ्ख्यमायुरपूरयत् ॥ २८॥ च्युत्वा च लक्ष्मणादेव्याः कुक्षाववततार सः । चैत्रस्य कृष्णपश्चम्यामनुराधागते विधौ ॥ २९ ॥ तदानी लक्ष्मणादेवी तीर्थकृजन्मसूचकान् । चतुर्दश महाखानान् सुखसुप्ता निरक्षत ॥ ३०॥ तं गर्भ रत्नगर्भेव रत्नसर्वस्वमुज्ज्वलम् । सुखेन धारयामास लक्ष्मणादेव्यलक्षितम् ॥ ३१ ॥ पौषस्य कृष्णद्वादश्यामनुराधास्थिते विधौ । चन्द्राक्षं चन्द्रवर्णं च सुतरत्नमसूत सा ॥३२॥ तदा चाऽऽसनकम्पेन ज्ञात्वा जन्माष्टमार्हतः । सूतिकाकर्म चक्रुः षट्पञ्चाशद्दिकुमारिकाः॥३३॥ जन्मस्नात्रोत्सवचिकीरथ सौधर्मवासवः । अनैपीन्मेकशिरसि स्वामिनं सुमनोवृतः॥३४॥ अतिपाण्डुकम्बलायां शिलायां परमेश्वरम् । विधायाङ्के निषसाद रत्नसिंहासने हरिः ॥३५॥ अथाऽच्युतप्रभृतयस्त्रिषष्टिरपि वासवाः । स्वामिनं स्नपयामासुरानुपूर्योल्लसन्मुदः॥३६॥ १ कपाटवत् पृथुले-विस्तीर्णे । २ चन्दं या विजयते इति भावः । ३ विचरन्ती-चलन्ती। ४ देवैः परिवृतः। चन्द्रप्रभजिनजन्म त्रिषष्टि. ५७ - Jain Education Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयं पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये सर्गः चन्द्रप्रम खामिचरितम् । ॥३३२॥ ईशानेन्द्राङ्कपर्यङ्के निवेश्य स्वामिनं ततः । शक्रोऽपि स्त्रपयामास वृषशृङ्गोत्थितै लैः ॥ ३७॥ दिव्याङ्गरागनेपथ्यवस्त्रैरभ्यर्च्य भक्तितः। भगवन्तमिति स्तोतुमारेमे पाकशासनः ॥ ३८ ॥ वामनन्तगुणं स्तोतुं प्रवृत्तोऽस्मि हसास्पदम् । आधारबुद्ध्या गगनस्योत्पाद इव टिट्टिभः ॥३९॥ व्यापिप्रज्ञस्त्वत्प्रभावात् क्षमोमिनु तव स्तवे । दिशोऽश्नुतेऽभ्रलेशोऽपि पौरस्त्यानिलसङ्गमात् ॥ ४०॥ भविनां दृष्टमात्रो वा ध्यातमात्रोऽपि वा प्रभो ! । कर्मपाशच्छेदनायापूर्व शस्त्रं किमप्यसि ॥४१॥ शुभानां कर्मणामद्य जगत्यभ्युदयः खलु । पङ्कजानामिवाऽऽदित्ये त्वयि विश्वतमश्छिदि ॥४२॥ निजं फलमदत्त्वाऽपि गलिष्यत्यशुभं मम । शेफालिकापुष्पमिव निशाकरकराहतम् ॥ ४३॥ प्रव्रज्याधारि रूपं ते दरे विश्वाभयप्रदम् । माऽनयाऽपि भगवन् ! दुःखं हरसि जन्मिनाम् ॥४४॥ कर्माणि भवमूलानि च्छेत्तुमत्राऽऽगमः प्रभो! । द्रुमानिवोन्मूलयितुं वने मत्तमतङ्गजः॥४५॥ अलङ्कारो यथा मुक्ताहारा दिहृदयस्य मे । बहिरेष तथाऽन्तस्त्वं भूयात्रिभुवनेश्वर ! ॥ ४६॥ स्तुत्वेति प्रभुमीशानादादाय च पुरन्दरः। नीत्वा च लक्ष्मणादेवीपार्श्वेऽमुश्चद् यथास्थिति ॥४७॥ महीपतिर्महासेनोऽप्यथाकार्षीन्महोत्सवम् । अन्यत्राप्युत्सवायैव जातोऽर्हन् किं पुनर्गृहे ? ॥४८॥ गर्भस्थेऽस्मिन् मातुरासीच्चन्द्रपानाय दोहदः । चन्द्राभश्चैष इत्याहच्चन्द्रप्रभममुं पिता ॥४९॥ हास्यास्पदं यथा स्यात् तथा । २ उत्-ऊवं पादा यस्य स उत्पादः । टिटिभो भाषायाम् 'टिटोडी' स्वकीयान् पादान् | | गगनस्य आधाररूपान् संबुध्य ऊर्ध्वमेव धारयति इति लोकवादः। ३ कराः किरणाः । * °दि हृदसंबृ०॥+महसे सङ०॥। ४ 'चन्द्रप्रभ' इति नाम चकार । ॥३३२॥ Jain Education Intel For Private & Personal use only , Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योत्स्नागौरप्रभापूरपरिवेषमनोरमम् । वैजयन्तस्थितस्येव रूपं भर्तुः शिशोर्बभौ ॥५०॥ लतानामिव धात्रीणामाकर्षन् पाणिपल्लवान् । दिने दिने कलभवद् ववृधे परमेश्वरः ॥५१॥ अप्राप्तं देवभावेऽपि खेच्छाप्राप्तमिव प्रभुः । बालत्वमन्वभूज्ज्ञानत्रयभागपि मुग्धवत् ॥५२॥ नानाविधाभिः क्रीडाभिर्ललझे शैशवं विभुः । कथाभिरतिरम्याभिः पन्थानं पथिको यथा ॥ ५३॥ शिशुत्वसरितः पारं स्त्रीवशीकारकार्मणम् । प्रपेदे यौवनं खामी सार्धधन्वशतोबतिः॥ ५४॥ विद॑न् भोगफलं कर्माऽऽदेशं पित्रोश्च पालयन् । जगत्पतिरुपायंस्ताऽनुरूपा राजकन्यकाः॥५५॥ पूर्वलक्षद्वये साधं जन्मतोऽतिगते सति । पितृभ्यामर्थितोऽत्यर्थ चतुर्विंशाङ्गसंयुताः॥५६॥ पूर्वलक्षास्तु पट सार्धा अनैपीत पालयन्महीम् । अनध्यायमिवाध्यायरतो दीक्षोत्सुकः प्रभुः॥५७॥ युग्मम् ।। ___ आयुक्तैरिव मौहत्तैरथ लौकान्तिकामरैः । अज्ञापि दीक्षासमयं स्वयं जाननपि प्रभुः॥५८॥ आढ्यो विवजिपुरिव प्रवित्रजिषुरुच्चकैः । दानं प्रदातुमारेभे स्वामी संवत्सरावधि ॥ ५९॥ संवत्सरान्ते चलितासनैरेत्य सुरेश्वरैः । दीक्षाभिषेको विदधे स्वामिनः किङ्करैरिव ॥ ६ ॥ ततो मनोरमां नाम शिबिकां श्रीमनोरमाम् । स्वाम्यारुरोह नृ-सुरा-सुरेन्द्रपरिवारितः॥ ६१ ॥ __ स्तूयमानो गीयमानः प्रेक्ष्यमाणो जनैर्मुदा । सहस्राम्रवणं नामोपवनं भगवानगात् ॥ २ ॥ कलभो हस्तिशिशुः । * विदन भोगफलम् इत्यादिकः अयं श्लोकः संवृ० मो० नास्ति ॥ २ कर्म विदन् पित्रोश्च आदेश पालयन् इति भावः। ३ पाणिग्रहणं चकार । अनाध्या° संवृ०॥ ४ अनध्यायः अवकाश दिवसः। ५ अध्यायरतः अभ्यासतत्परः। ६ मौहूतैः मुहूर्तवेदिभिः, आयुक्तैः आयोजितैः। ७ ज्ञापितः। सुरासुरैः संवृ०॥ चन्द्रप्रभजिनस्य प्रवज्यादि Jain Education Inter For Private & Personal use only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि तृतीयं पर्व षष्ठः शलाका सर्ग: पुरुषचरिते महाकाव्ये चन्द्रप्रभ खामिचरितम् । ॥३३३॥ शिविकातः समुत्तीर्य रत्नालङ्करणादिकम् । अपि रत्नत्रयं प्रेप्सुस्तत्याज परमेश्वरः ॥६३॥ पौषकृष्णत्रयोदश्यां भे च मैत्रेऽपरेऽहनि । समं नृपसहस्रेण षष्ठेन प्राव्रजत् प्रभुः॥६४॥ मर्यक्षेत्रस्थितप्राणिमनोद्रव्यप्रकाशकम् । मनःपर्ययमुत्पेदे तुर्य ज्ञानं ततः प्रभोः ॥६५॥ पद्मखण्डपुरे राज्ञः सोमदत्तस्य सद्मनि । पारणं परमान्नेन द्वितीयेऽह्नि प्रभुळधात् ॥६६॥ दिव्यं च वसुधारादिपञ्चकं विर्दधेऽमरैः । रत्नपीठं तेन राज्ञा त्वहत्पादाङ्कितावनौ ॥ ६७॥ हिमान्याऽप्यपराभूतः पराभूतार्कतेजसा । अकम्पितः समीरैश्च कृतावश्यायदुर्दिनैः ॥ ६८॥ हैमनेन निशीथेन हिमीकृतसरोम्भसा । अखण्ड्यमानप्रतिमः प्रतिमान विवर्जितः ॥ ६९॥ अरण्ये व्याघ्र-सिंहादिदुःश्वापदभयानके । पुरे च श्राद्धबहुले "निर्विशेषगति-स्थितिः॥७॥ एकाकी निर्ममो मौनी निर्ग्रन्थो ध्यानतत्परः। त्रीन् मासान् विजहारोवी छद्मस्थः परमेश्वरः॥ ७१॥ ॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥ विहरन् भगवान् भूयः सहस्राम्रवणं ययौ । तस्थौ प्रतिमया तत्र पुन्नागस्य तरोस्तले ॥ ७२ ॥ द्वितीयशुक्लध्यानान्ते तस्थुषोऽथ जगत्पतेः । प्रणेशु_तिकर्माणि हिमवच्छिशिरात्य॑ये ॥ ७३ ॥ फाल्गुनासितसप्तम्यामनुराधागते विधौ । स्वामिनः कृतषष्ठस्योत्पेदे केवलमुज्वलम् ॥ ७४॥ १ अनुराधानक्षत्रे । * °मं मुनिस संबृ०॥ २ विदधे-अमरैः वर्षणं चक्रे, राजा च रत्नपीठं चकार । ३ प्रतिमाः तपोविशेषरूपाः अभिग्रहाः। ४ प्रतिमानम्-उपमानं सादृश्यमिति यावत् । ५ भयस्थाने भक्तस्थाने च यः समानचित्तः इति यस्य गतिः स्थितिश्च निर्विशेषा-एकरूपा। ६ अत्ययः-अतिक्रमणम् । ॥३३३॥ Jain Education in For Private & Personal use only . Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SEARCESSORE सुरा-सुरेन्द्राः सद्योऽपि क्षेत्रे योजनमात्रके। चक्रुः समवसरणं देशनार्थ जगद्गुरोः॥ ७५॥ सुरैः सश्चार्यमाणानि स्वर्णाजानि नव क्रमात् । क्रमन्यासैः पुनानस्तत् प्रारद्वारा प्राविशत् प्रभुः ॥७६ ॥ तत्र चाष्टादशधनुःशतोचं चैत्यपादपम् । प्रभुः प्रदक्षिणीचक्रे पालयन्नहिती स्थितिम् ॥ ७७॥ तीर्थाय नम इत्युच्चैर्वाचमुच्चारयन् प्रभुः । रत्नसिंहासने तत्र न्यषदत पूर्वदिङ्मुखः॥ ७८ ॥ प्रविश्य च यथाद्वारं यथास्थानमवास्थित । चतुर्विधोऽपि श्रीसङ्घः ससुरा-ऽसुर-मानुषः ॥७९॥ पञ्चाङ्गस्पृष्टभूपृष्ठः प्रणम्य परमेश्वरम् । जम्मारिभक्तिरभसादारेमे स्तोतुमित्यथ ॥ ८॥ सुरा-ऽसुर-नरमूर्ध्नि धार्यमाणमिदं प्रभो!। शासनं ते विजयते त्रिलोकीचक्रवर्तिनः ॥ ८१॥ ज्ञानत्रयधरः पूर्व मनापर्ययभृत् ततः । केवली चाधुना दिष्ट्या दृष्टस्त्वमधिकाधिकम् ॥ ८२॥ तव ज्ञानमिदं नाथ ! केवलाभिधमुज्वलम् । विश्वोपकारकजीयाच्छाया मार्गतरोरिव ।। ८३ ॥ तावदेवान्धकाराणि न यावद् दिवसेश्वरः । मदान्धास्तावदेवेभा यावत्पश्चाननो न हि ॥ ८४ ॥ तावदेव हि दारिद्यं न यावत् कल्पपादपः । तावदेव पयोदौस्थ्यं न यावद् वार्षुकोऽम्बुदः॥८५॥ तावदेव हि सन्तापो न यावत् पूर्णचन्द्रमाः । कुबोधास्तावदेवेह न यावत् त्वं निरीक्ष्यसे ॥ ८६ ॥ दृश्यसे नित्यमपि यैः सेव्यसे च शरीरिभिः । ताननुमोदयामीश! सर्वदाऽपि |मद्वरः ॥८७ ॥ इदानीं त्वत्प्रसादेन त्वदर्शनफलं मम । सम्यक्त्वमुत्तममिदं भूयादाजन्म निश्चलम् ॥ ८८॥ क्रमाः-चरणाः, न्यासः-स्थापनम् । २ पूर्व दिशास्थितद्वारेण । ३ अर्हत्ताम्-अहंद्रावमिति । ४ जम्भारिः-इन्द्रः, रभसो वेगः। ५ वर्षणशीलः वार्षुकः। ६ मिथ्याज्ञानानि । ७ अविरतिमान्-व्रतप्रत्याख्यानत्यागादिधर्मरहितः प्रमद्वरः। ANGRECENGALAX SCUESS Jain Education Int ! For Private & Personal use only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CA तृतीयं पर्व षष्ठः त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये सगे: चन्द्रप्रभ स्वामिचरितम् ॥३३४॥ इति स्तुत्वा सुनांशीरे स्थिते सति जगद्गुरुः । प्रारेभे देशनामेवं गिरा स्तनितधीरया ॥ ८९॥ अनन्तक्लेशकल्लोलनिलयो भवसागरः । तिर्यगूर्द्धमधो जन्तून् क्षिपत्येष प्रतिक्षणम् ॥ ९०॥ एक निबन्धनं तस्य क्रियते प्राणिभी रतिः। अशुचौ कृमिभिरिव यदत्रापि शरीरके ॥ ९१ ॥ रसा-ऽसृग-मांस-मेदो-ऽस्थि-मज-शुक्रा-ऽत्र-वर्चसाम् । अशुचीनां पदं कायः शुचित्वं तस्य तत् कुतः॥९२॥5 नवस्रोतःस्रवद्विरसनिःस्यन्दपिच्छिले । देहेऽपि शौचसङ्कल्पो महामोहविजृम्भितम् ॥ ९३ ॥ शुक्र-शोणितसम्भूतो मलनिःस्यन्दवर्द्धितः । गर्भ जरायुसञ्छन्नः शुचिः कायः कथं भवेत् १॥९४ ॥ मातृर्जग्धान्न-पानोत्थरसनाडीक्रमागतम् । पायं पायं विवृद्धः सन् शौचं मन्येत कस्तनोः ॥ ९५॥ दोषधातुमलाकीण कृमि गण्डूपदास्पदम् । रोगभोगिगणैर्जग्धं शरीरं को वदेच्छुचि ॥९६॥ सुस्वादन्यन्न-पानानि क्षीरेक्षुविकृती अपि । भुक्तानि यत्र विष्ठायै तच्छरीरं कथं शुचि?॥९७ ॥ विलेपनार्थमासक्तः सुगन्धिर्यक्षकर्दमः । मलीभवति यत्राऽऽशु क शौचं तत्र वर्मणि ॥९८॥ जग्धा सुगन्धि ताम्बूलं सुप्तो निश्युत्थितः प्रगे । जुगुप्सते वक्रगन्धं यत्र तत् किं वपुः शुचि॥९९॥ १ इन्द्रे । २ स्तनितं मेघगर्जितम् । ३ 'प्राणिभिः रतिः' इति पदविभागः । रतिः आसक्तिः। ४ असूग् रुधिरम् । अत्राणिभाषायाम्-'आंतरडां'। ५ विस्त्रम्-लोहितम् भाषायाम्-लोही। * महन्मो संवृ० सङ्घ० ॥ मलिनस्यन्द सङ्घ० ॥ ६ जग्धं भक्षितम् । ७ पायं पायम्-पीत्वा पीत्वा । स्तनौ सङ्घ०॥ ८ क्षीरविकृतिः इक्षुविकृतिश्च । एते द्वे विकृती अन्यासामपि घृतशर्करादिविकृतीनामुपलक्षणम् । ९ शरीरे। १० भक्षयित्वा। ११ प्रातःकाले । SAHRAICHURROSSOS चन्द्रप्रभजिनस्य देशना REERAL ॥३३४॥ Jain Education in For Private & Personal use only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वतःसुगन्धयो गन्ध-धूप-पुष्प-स्रगादयः। यत्सङ्गाद् यान्ति दौर्गन्ध्यं सोऽपि कायः शुचीयते ? ॥१०॥ अभ्यक्तोऽपि विलिप्तोऽपि धौतोऽपि घटकोटिभिः। न याति शुचितां कायः शुण्डाघेट इवाऽशुचिः॥१०॥ मृजला-ऽनल-वातां स्नानैः शौचं वदन्ति ये । गतानुगतिकैस्तैस्तु विहितं तुषकण्डनम् ॥१०२॥ तदनेन शरीरेण कार्य मोक्षफलं तपः । क्षाराब्धे रत्नवद् धीमानसारात् सारमुद्धरेत् ॥ १०३॥ धर्मदेशनया भर्तुरनया च शरीरिणः । बहवः प्रत्यबुध्यन्त प्रावश्च सहस्रशः॥ १०४॥ भर्तस्त्रिनवतिर्दत्तादयो गणभृतोऽभवन् । उत्पादादित्रिपद्या ते द्वादशाङ्गीमसूत्रयन् ॥ १०५॥ देशनान्ते प्रभोः पादपीठस्थो गणभृदूरः । विदधे देशनां दत्तो दत्तबोधः शरीरिणाम् ॥१०६ ॥ तस्यापि देशनाप्रान्ते खं खं स्थानं सुरादयः । जग्मुर्नागरयुवानो वीतसङ्गीतका इव ॥ १०७ ॥ तत्तीर्थभृर्हरिद् यक्षो विजयो हंसवाहनः । दधानो दक्षिणे चक्रं भुजे वामे तु मुद्गरम् ॥ १०८॥ मरालयाना पीताङ्गी भृकुटी नाम देव्यपि । दधती दक्षिणी वाहू खङ्ग-मुद्गरधारिणौ ॥ १०९॥ वामौ फलक-परशुलाञ्छितौ बिभ्रती भुजौ । तदा भगवतोऽभूतामुभे शासनदेवते ॥ ११०॥ ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ अमुक्तसन्निधिस्ताभ्यां सर्वातिशयभाजनम् । व्योमेव चन्द्रो व्यहरत पृथ्वीं चन्द्रप्रभप्रभुः॥१११॥ सार्धा द्विलक्षी साधूनां साध्वीलक्षत्रयी पुनः । सहस्राशीतिसहिता द्वे सहस्रे तु पूर्विणाम् ॥११२॥ | शुचिः इव दृश्यते । २ तैलेन अभ्यक्तः । ३ मद्यघटः। ४ अंशवः किरणाः तैः सूर्यस्नानम् । ५ तुषकण्डनम्-भाषायाम् | 'फोफां खांडवा'। ६ क्षारात् समुद्रात् । ७ समाप्तसंगीतश्रवणाः। ८ हंसवाहना। *प्रभःप्र संवृ०॥ सार्धद्वि संबृ०॥ चन्द्रप्रभजिन यक्षयक्षिण्यौ चन्द्रप्रभपरिवारः Jain Education Intel For Private & Personal use only , Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते महाकाव्ये ॥३३५ ॥ Jain Education Intern शताशीतिः सावधीनां मनः पर्ययिणां तथा । तथा दश सहस्राणि केवलज्ञानधारिणाम् ॥ ११३ ॥ जातवैक्रियलब्धीनां सहस्राणि चतुर्दश । वादलब्धिमतां सप्तसहस्री षट् शतानि च ॥ ११४ ॥ साधे लक्षे श्रावकाणां श्राविकालक्षपञ्चकम् । सहसैर्नवभिर्न्यनं परिवारोऽभवत् प्रभोः ॥ ११५ ॥ पूर्वलक्षं त्रिमासोनं * चतुर्विंशाङ्गवर्जितम् । विहृत्य केवले स्वामी ययौ सम्मेतपर्वतम् ॥ ११६ ॥ समं मुनिसहस्रेण प्रपेदेऽनशनं प्रभुः । सुरासुरैः सेव्यमानो मासं चास्थात् तथास्थितः ॥ ११७ ॥ सर्वयोगनिरोधेन निष्कम्पं ध्यानमास्थितः । तत्क्षणं क्षीणभवोपग्राहिकर्मचतुष्टयः ॥ ११८ ॥ नस्य कृष्णसप्तम्यां श्रवणस्थे निशाकरे । समं तैर्मुनिभिः स्वामी जगाम परमं पदम् ॥ ११९ ॥ कौमारे पूर्वलक्षे द्वे सार्धे राज्यस्थितौ पुनः । पूर्वलक्षाः षट् च सार्थाश्चतुर्विंशाङ्गसंयुताः ॥ १२० ॥ चतुर्विंशत्यङ्गहीनं पूर्वलक्षं पुनर्वते । इत्यायुः पूर्वलक्षाणि दश चन्द्रप्रभप्रभोः ॥ १२१ ॥ सुपार्श्वखामि निर्वार्णाच्छ्रीचन्द्रप्रभनिर्वृतिः । शतेष्वर्णवकोटीनां व्यतीतेषु नवस्वभूत् ॥ १२२ ॥ इति मोक्षमुपेयुषः प्रभोर्व्रतिनां चैव शरीरसंस्क्रियाम् । विधिवद् विदधुः सुरेश्वराः, पुनरेव त्रिदिवं प्रपेदिरे ॥ १२३ ॥ ॥ इत्याचार्य श्री हेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते महाकाव्ये तृतीये पर्वणि चन्द्रप्रभवामिचरितवर्णनो नाम षष्ठः सर्गः ॥ * नं केवलात् प्रभृति प्रभुः । विहृत्य मोक्षकालज्ञो ययौ संवृ० सङ्घ० ॥ १ योगाः व्यापाराः सर्वक्रियानिरोधेन । २ नभस्यः- भाद्रपदमासः । + णाश्चन्द्रप्रभस्य निर्वृतिः संवृ० ॥ ६°रसत्क्रिया सं० ॥ तृतीयं पर्व षष्ठः सर्गः चन्द्रप्रभस्वामि चरितम् । ॥३३५॥ . Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education In सप्तमः सर्गः । श्रीसुविधिनाथचरित्रम् | वन्दे श्रीपुष्पदन्तस्य पुष्पदामेव निर्मलम् । जगत्रयशिरोवाह्यं शासनं पापनाशनम् ॥ १ ॥ नवमस्यार्हतस्तस्यानवमं चरितं प्रभोः । तत्प्रभावात् प्रभविष्णुधिषणः कीर्तयाम्यदः ॥ २ ॥ पुष्करवरद्वीपार्धे प्राग्विदेहेषु पुष्कले । विजये पुष्कलावत्यामस्ति पूः पुण्डरीकिणी ॥ ३ ॥ तस्यां पुर्यामभूनाम्ना महापद्मो महीपतिः । महाहिमाद्रौ गम्भीरो महापद्म इव हृदः ॥ ४ ॥ आजन्म स्वीकृतस्तस्य शैशवे यौवनेऽपि च । धर्मो वपुः श्रिया सार्धमवर्धत यथोत्तरम् ॥ ५ ॥ स विरत्या विहीनेन मुहूर्तेनाप्यदूयत । धनेन वृद्धिहीनेन वृद्ध्याजीव इवान्वहम् ॥ ६ ॥ धर्मकृत्यानि कुर्वाणो राज्यकृत्यानि सोऽकरोत् । वारिपाणमिवाध्वन्यस्तरन्नध्वतरङ्गिणीम् ॥ ७ ॥ सम्यक् श्रावकधर्मं स निजं कुलमिवामलम् । सुचिरं पालयामास प्रमादरहितः सुधीः ॥ ८ ॥ प्रायः सन्तोषनिष्ठोऽपि न धर्मे सन्तुतोष सः । स्तोकधर्मानपि परान् मेने चाभ्यधिकान् स्वतः ॥ ९॥ दिव्यास्त्रमिव युत्पारे भवपारयियासया । परिव्रज्यां स जग्राह जगन्नन्दगुरोः पुरः ॥ १० ॥ निर्व्यूढः श्रावकधर्मे दृढं सोऽपालयद् व्रतम् । कृतसंलेखन इवानशनं मारणान्तिकम् ॥ ११ ॥ १ अवमम् अधमम्, अनवमम् उत्तमम् । २ वृद्धया जीवः भाषायाम् 'व्याजखाऊ' । ३ जलपानम् अध्वन्यः प्रवासी । ४ अन्यान् जनान् अल्पधर्मयुक्तान् अपि स्वतः अधिकान् उत्तमान् अमन्यत । ५ हनुमनाः । ६ संलेखना जीविताव सानप्राये समये क्रियमाणः संस्तारकः, मारणान्तिकम् मरणसामीप्यम् तत्र क्रियमाणं तपः । * मर° संवृ० मो० ॥ सुविधिजिनपूर्वभव सम्बन्धः Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये ॥३३६॥ एकावलीप्रभृतिभिः स तपोभिः सुदुस्तपैः । अर्हद्भक्त्यादिभिश्वोच्चैस्तीर्थनाम निर्ममे ॥१२॥ तृतीयं पर्व एवंविधैरनुष्ठानैर्निजायुरतिवाह्य सः । विमाने वैजयन्ताख्ये महर्द्धिरमरोऽभवत् ॥१३॥ सप्तमः इतश्च जम्बूद्वीपे सिन् भरतार्धे तु दक्षिणे । काकन्दीत्यस्ति नगरी श्रीविशेषगरीयसी ॥१४॥ सर्गः भान्ति तत्रौकसां मुक्तावैचूलाः पुष्पधन्वनः । मनखिनीवशीकारजपमाल इवाऽमलाः ॥१५॥ सुविधिः तत्राऽऽयत सङ्गीतगीतमुच्चैश्चतुर्विधम् । प्रपद्यते खेचरीणां गतेः स्तम्भनमन्त्रताम् ॥१६॥ खामिउद्दण्डपुण्डरीकाढ्या विशदापा जलाशयाः । व्यक्तोडुशरदभ्रां द्यामनुकुर्वन्ति तत्र च ॥१७॥ चरितम् । दूरादप्यभिगम्यन्ते नीयन्ते पाद्यपात्रताम् । प्रीण्यन्ते चोचितैरथै स्तस्यां गुरुवदर्थिनः ॥१८॥ सुग्रीवो नाम समभृद् ग्रैवेयंकमिवावनेः । अवेयकामर इव श्रिया तत्र महीपतिः॥१९॥ तस्याऽऽज्ञा नगरा-ऽरण्य-सागरेषु गिरिष्वपि । सिद्धमत्रायुधमिव न कापि प्रत्यहँन्यत ॥ २० ॥ १ एकावलीनामकहारवत् यन्त्र तपसि उपवासादिभिः सूक्ष्मता स्थूलता अतिस्थूलता क्रियते तद् 'एकावली'तपः । एवं रखा| वली-मुक्तावल्यादीनि तपांसि बोध्यानि । २ अतिवाद्य समाप्य समाप्तं कृत्वा । ३ अवचूला ध्वजसंलमा अधोमुखा गुच्छाः, | गृहाणां ध्वजे संबद्धाः मुक्कामयाः अधोमुखा मुक्तागुच्छा इति भावः । ४ आयतने-गृहे गायक-गायिकादिभिः संगीतं यद् गीतम् |गानम् । चतुर्विधता च गानस्य-नर्तनं १ अभिनयः २ वादनं ३ मालापादिभिः गानं च इति । ५ऊवों दण्डः यस्य तद् उद्दण्डंदा । तादृशं पुण्डरीकम्-कमलम् तैः आब्या:-पूर्णाः। ६ विशदाः आपः येषु तादृशाः जलाशयाः। ७ यत्र शरदि आकाशे उडूनि तारकाणि व्यक्तानि । जलाशयाः गगनरूपार, पुण्डरीकाणि च तारकरूपाणि। ८ यत्र दातारः याचकानां सम्मुखं गच्छन्ति । || गैवेयकम्-ग्रीवायाः आभरणम् । १० न क्वापि स्खलिता। Jain Education inte For Private & Personal use only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्माद।रिव प्रादुर्भूता नीतितरङ्गिणी । उत्कल्लोलयशोवारिः प्रासरत् सागरावधि ॥ २१ ॥ यशोराशिपयोराशिस्तस्योवीशशिरोमणेः । विस्तृताः कीर्तिसरितो जग्रसे सर्वभूभृताम् ॥ २२॥ विरामः सर्वदोषाणामभिरामाऽमलैर्गुणैः । सर्वरामाशिरोरत्नं तस्य रामेति पल्यभूत् ॥ २३ ॥ निसर्गमानोशंकभूदृशामानन्ददायिनी । गगने चन्द्रलेखेव सैकैवाभून्महीतले ॥ २४ ॥ पक्षद्वयेन शुद्धेन राजन्ती मधुरखरी । सा पत्युर्मानसे राजहंसीवोवास सर्वदा ॥२५॥ रतिर्न रतिमन्वाप न प्रीतिः प्रीतिमाययौ । रूपेणाप्रतिरूपेण भृशं तस्याः पराजिता ॥२६॥ सुग्रीवनृपतेस्तस्याश्चान्योऽन्यमनुरूपयोः । क्रीडतोरगमत् कालो रोहिणी-शशिनोरिव ॥२७॥ ___ इतश्च वैजयन्तस्थो महापद्मस्य भूपतेः । जीवोऽपूरयदायुः खं त्रयस्त्रिंशतमर्णवान् ॥ २८॥ फाल्गुनासितनवम्यां मेलस्थे रजनीकरे । च्युत्वा ततस्तस्य जीवो रामाकुक्षाववातरत् ॥ २९॥ ददर्श च तदा देवी महाखमांश्चतुर्दश । गजादीस्तीर्थकृञ्जन्मसूचकान् विर्शतो मुखे ॥३०॥ जगदाधारहेतुं तं देवी गर्भ धार सा । क्रीडन्तं मत्तकलभं निम्नगेव हिमाद्रिजा॥३१॥ अथ मार्गशीर्षकृष्णपञ्चम्यां मूलँगे विधौ । श्वेतवर्ण मकराएं सुतरत्नमसूत सा ॥ ३२॥ षट्पञ्चाशद् दिक्कुमार्यस्ततो भोगङ्करादयः । स्वामिनः स्वामिमातुश्च सूतिकर्माणि चक्रिरे ॥ ३३ ॥ ___रामाः स्त्रियः। * मनो संवृ० मो० ॥ २ मानोज्ञकम्-सौन्दर्यम् । ३ मातृ-पितृपक्षद्वयन, हंसीपक्षे पक्षं भाषायाम् | 'पांख' इति । + "रा। खप संवृ०॥ ४ रतिः प्रीतिश्च कामस्य भायें। ५मूलनक्षत्रस्थे। ६ विशत:-प्रवेशं कुर्वतः । ७ चन्द्रे मूल नक्षत्रं गते। ८ मकरः चिह्नं यस्य । सुविधि जिनजन्मादि Jan Education in For Private & Personal use only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिपष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये तृतीयं पर्व सप्तमः सर्गः सुविधिखामिचरितम् । ॥३३७॥ सौधर्मकल्पाधिपतिराभियोग्य इवामरः। आदाय स्वामिनं भक्त्या मेरुशैलशिरो ययौ ॥३४॥ तचलाया दक्षिणतोऽतिपाण्डुकम्बलास्थिते । सिंहासन उपाविक्षच्छक्रोऽङ्कारोपितप्रभुः॥ ३५॥ अच्युती भक्तितस्तत्राच्युताद्यास्त्रिदशेश्वराः । त्रिषष्टिः स्त्रपयामासुः खामिनं तीर्थवारिभिः॥३६॥ अथेशमैशानपतेः सौधर्मेशः समार्पयत । रक्ष्यवस्तु स्वयामान्ते यामिकस्येव यामिकः ॥ ३७॥ अथ स्वामिनमीशानोत्सङ्गासीनं दिवस्पतिः । स्नपयामास वृषभशृङ्गोत्थैर्गन्धवारिभिः ॥३८॥ अङ्गरागैर्नवैश्चर्चामा चाऽऽभरणादिभिः। आरात्रिकं च कृत्वेति प्रभुं तुष्टाव वासवः ॥ ३९॥ धर्महर्म्यदृढस्तम्भ! सम्यग्ज्ञानसुधाद!। जगदानन्दजीमूत ! जय त्रिभुवनेश्वर ! ॥४०॥ जगदीश ! तव ब्रूमः किं नामातिशयान्तरम् । यन्माहात्म्यगुणक्रीती त्रिलोकी याति दासताम् ॥४१॥ खगराज्येऽपि न भ्राजे तथा दास्ये यथा तव । भात्यद्रौ न तथा रत्नमप्यनिकटके यथा ॥ ४२ ॥ शिवं यियासुरायासीर्वैजयन्ताच्छिवान्तिकात । मार्गभ्रान्तस्य लोकस्य मार्ग दर्शयितुं ध्रुवम् ॥ ४३॥ भरतक्षेत्रगेहस्य चिरात् त्वमसि दैवतम् । निःशवं तत्र धर्मोऽद्य गृहस्थ इव नन्दतु ॥४४॥ विश्वनाथ! त्वदीयस्य रूपस्यास्यातिशायिनः। अवतारणतां यातु सर्वोऽयं दिविषद्गणः॥४५॥ ज्योत्स्नायिते प्रभापूरे लीयमानानि सस्पृहम् । दिष्ट्या त्वयि चकोरन्ति लोचनानि चिरात प्रभो॥४६॥ द्वितीयान्तम् । * ता(त)भक्तयस्त मो० संल. सङ्घ ॥ २ रक्षणीयं वस्तु । यामः प्रहरः। यामिकः प्राहरिकः, भाषायाम् 'पहेरावाळो। ३ जीमूतो मेघः। ४ क्रीती भाषायाम् 'खरीदेली'। ५ शोभा प्रामोमि । ६ सिद्धशिकानामकं स्थानं | शिवम् , तस्य अन्तिकात् समीपात् । । "पस्याप्यति सङ्घ० ॥ ७ ज्योत्स्नासमाने। ८ चकोरवत् आचरन्ति । . ॥३३७॥ Jain Education in For Private & Personal use only . Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वासागारे सभायां वा तिष्ठतश्चलतोऽपि मे । त्वन्नाममत्रस्मरणमस्तु सर्वार्थसिद्धिदम् ॥४७॥ जिनेश्वरमिति स्तुत्वा गृहीत्वा च सुरेश्वरः । नीत्वा च रामास्वामिन्याः पार्श्वे न्यास यथास्थिति ४८| कुशला सर्वविधिषु गर्भस्थेसिन जनन्यभूत् । पुष्पदोहदतो दन्तोद्गमोऽस्य समभूदिति ॥४९॥ सुविधिः पुष्पदन्तश्चेत्यभिधानद्वयं विभोः। महोत्सवेन चक्राते पितरौ दिवसे शुभे॥५०॥ युग्मम् ॥ जन्मतः प्रभृति स्वामी दर्शयन्नन्तरं महत् । क्रमेण ववृधे मेषसङ्क्रान्तेरिव वासरः ॥५१॥ अवाप च जगन्नाथो यौवनं रूपपावनम् । धनुःशतोच्चः श्वेताङ्गः क्षीरोद इव मूर्त्तिमान् ॥५२॥ खामी भवविरक्तोऽपि भृशं पित्रनुरोधतः । उपयेमे राजकन्याः श्रियो विजयिनीः श्रिया ॥ ५३॥ गतायां पूर्वपञ्चाशत्सहरुयां जन्मतः प्रभुः । अलुब्धः पितृदाक्षिण्याद् राज्यभारमुपाददे ॥५४॥ साष्टाविंशतिपूर्वाङ्गं कालं तावन्तमेव हि । साम्राज्यं पालयामास विधिवत् सुविधिप्रभुः॥५५॥ ___ इयेष च व्रतं स्वामी ते च लौकान्तिकामराः । तत्कृते प्रेरयामासुश्चाटुकारा इव प्रभुम् ॥ ५६ ॥ गतकामो यथाकामं चिन्तामणिरिवार्थिनाम् । ददौ दानं जगन्नाथस्ततः संवत्सरवाधि ॥ ५७॥ पर्यन्ते तस्य दानस्य जन्मकाल इवामरैः । विधिवद् विदधे दीक्षाभिषेकः परमेशितुः॥५८॥ ततः सूरप्रभा नामाध्यारुह्य शिबिकां प्रभुः। वृतः सुरा-ऽसुर-नरैः सहस्राम्रवणं ययो॥ ५९॥ मार्गकृष्णषष्ठयां मूलेऽपराह्ने षष्ठपूर्वकम् । समं राज्ञां सहस्रेण प्रव्रज्यामाददे प्रभुः॥६०॥ द्वितीयेऽह्नि श्वेतपुरे पुरे पुष्पनृपौकसि । चकार परमानेन पारणं परमेश्वरः॥६१॥ * पि वा । त्वन्नाममन्त्रस्मरणं मेऽस्तु स संवृ॥ स्थापयामास । २ मेषसंक्रान्तेः आरभ्य। ३ इच्छां चकार । सुविधिजिनदीक्षादि त्रिवष्टि, ५८ Jain Education inte For Private & Personal use only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते महाकाव्ये ॥३३८॥ Jain Education Inte विदधुर्वसुधारादिपञ्चकं च दिवौकसः । रत्नपीठं स्वामिपादस्थाने पुष्पन्नृपः पुनः ॥ ६२ ॥ एकाङ्गी निर्ममोsसङ्गः सहमानः परीषहान् । छद्मस्थो विजहाराथ चतुर्मासीं जगत्पतिः ॥ ६३ ॥ आजगाम प्रभुर्भूयः सहस्राम्रवणं वनम् । मोलुरतरुमूले चावतस्थे प्रतिमाधरः ॥ ६४ ॥ आरूढक्षपकश्रेणेरपूर्वकरणक्रमात् । ऊर्जशुक्ल तृतीयायां मूलेऽभूत् केवलं प्रभोः ॥ ६५ ॥ ततः समवसरणं व्यधीयत सुरासुरैः । पूर्वद्वारेण तत्राथ प्रविवेश जगद्गुरुः ॥ ६६ ॥ तत्र द्वादशकोदण्डशतोच्चं चैत्यपादपम् । प्रभुः प्रदक्षिणीचक्रे सर्वातिशयशोभितः ॥ ६७ ॥ 'तीर्थाय नमः' इत्युक्त्वाऽध्यास्त सिंहासनं प्रभुः । प्राङ्मुखो दिक्षु चान्यासु तद्रूपाणि व्यधुः सुराः ।। ६८ ।। यथास्थानमथान्येऽपि निषेदुरमरादयः । प्रणम्याथ प्रभुं शक्रः स्तोतुमेवं प्रचक्रमे ॥ ६९ ॥ वीतरागोऽसि चेद् रागः पाणिपादे कथं तव १ । कौटिल्यं चेत् त्वया मुक्तं किं केशाः कुटिलास्तव १ ॥ ७० ॥ प्रजानां यदि गोपस्त्वं दण्डहस्तोऽसि किं न हि १ । निःसङ्गो यदि वाऽसि त्वं तत्किं त्रैलोक्यनाथता ? ७१ यदि त्वं निर्ममस्तत् किं सर्वत्र करुणापरः १ । त्यक्तालङ्करणश्चेत् त्वं तत् किं रत्नत्रयप्रियः १ ।। ७२ । विश्वस्याप्यनुकूलश्चेत् तत् किं मिथ्यादृशां द्विषन् ? । स्वभावसरलश्चेत् त्वं छद्मस्थोऽस्थाः कथं पुरा ? ॥ ७३ ॥ दयावान् यदि वाऽसि त्वं न्यग्रहीर्मन्मथं कथम् ? । यदि च त्वं गतभयो भवाद् मीतोऽसि तत् कथम् १ ॥७४॥ यद्युपेक्षापरोऽसि त्वं तत् किं विश्वोपकारकः ? । अँदीप्तो यदि वाऽसि त्वं दीसभामण्डलः कथम् ? ॥७५॥ पुरः संवृ० ॥ ३ अदीसः अक्रोधः । १ मालूरः बिल्ववृक्षः । * तलमू° सं० ॥ २ ऊर्जः कार्तिकः । ४ दीप्तम् - सुशोभितम् । तृतीयं पर्व सप्तमः सर्गः सुविधि स्वामि चरितम् । ॥ ३३८ ॥ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टकर्मोत्तरप्रकृत्याश्रवस्वरूपज्ञापिका सुविधिस्वामिदेशना यदि शान्तस्वभावस्त्वं तत् कुतस्तप्वांश्चिरम् ? । अरोषणोऽसि यदि च रुषितः कर्मणां कथम् ? ॥७६॥ अविज्ञेयस्वरूपाय महयोऽपि महीयसे । सिद्धानन्तचतुष्काय तुभ्यं भगवते नमः ॥ ७७ ॥ विरचय्य स्तुतिमिति तूष्णीके सति वासवे । भगवान् सुविधिखामी विदधे देशनामिति ॥ ७८॥ अनन्तदुःखसम्भारनिधानं खल्वयं भवः । प्रभवश्वाऽऽस्रवस्तस्य विषस्येव महोरगः ॥७९॥ मनो-चाकायकर्माणि योगाः कर्म शुभा-ऽशुभम् । यदाश्रवन्ति जन्तूनामाश्रवास्तेन कीर्तिताः ॥८॥ मैत्र्यादिवासितं चेतः कर्म सूते शुभात्मकम् । कषाय-विषयाक्रान्तं वितनोत्यशुभं पुनः॥ ८१॥ शुभार्जनाय निर्मिथ्यं श्रुतज्ञानाश्रितं वचः। विपरीतं पुनर्जेयमशुभार्जनहेतवे ॥८२॥ शरीरेण सुगुप्तेन शरीरी चिनुते शुभम् । सततारम्भिणा जन्तुघातकेनाशुभं पुनः॥८३ ॥ कषाया विषया योगाः प्रमादा-विरती तथा । मिथ्यात्वमार्त्त-रौद्रे चेत्यशुभं प्रति हेतवः ॥ ८४ ॥ यः कर्मपुद्गलादानहेतुः प्रोक्तः स आश्रवः । कर्माणि चाष्टधा ज्ञानावरणीयादिभेदतः ॥ ८५॥ ज्ञान-दर्शनयोस्तद्वत् तद्धेतूनां च ये किल । विन-निहव-पैशुन्या-ऽऽशातना-घात-मत्सराः॥८६॥ ते ज्ञान-दर्शनावारकर्महेतव आस्रवाः । देवपूजा गुरूपास्तिः पात्रदानं दया क्षमा ॥ ८७ ॥ ___ सरागसंयमो देशसंयमोऽकामनिर्जरा । शौचं बालतपश्चेति सद्वेद्यस्य स्युराश्रवाः॥ ८८॥ तपः कृतवान् । २ रोपयुक्तः। ३ महते। प्रभवः उत्पत्तिस्थानम् । ५ मिथ्यारहितम्-सत्यम् । * श्लोकोऽयं संवृ० नास्ति ॥ ६ ज्ञानहेतुषु ज्ञाने च विघ्नः, निहवः-अपलापः, पैशुन्यम्, आशातना, घातः, मत्सरः इत्येते ज्ञानावरणहेतवः । ठा आवारकम्-आवरणरूपम् । Jain Education a MI l For Private & Personal use only Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरिते महाकाव्ये ॥३३९॥ Jain Education In दुःख-शोक-वधास्तापा - Sऽक्रन्दने परिदेवनम् । स्वान्योभयस्थाः स्युरसद्वेद्यस्यामी इहाऽऽश्रवाः ॥ ८९ ॥ वीतरागे श्रुते स धर्मे सर्वसुरेषु च । अवर्णवादिता तीव्रमिध्यात्वपरिणामिता ॥ ९० ॥ सर्वज्ञ-सिद्धि-देवापह्नवो धार्मिकदूषणम् । उन्मार्गदेशना ऽनर्थाग्रहोऽसंयत पूजनम् ॥ ९१ ॥ असमीक्षितकारित्वं गुर्वादिष्ववमानना । इत्यादयो दृष्टिमोहस्याऽऽश्रवाः परिकीर्तिताः ।। ९२ ।। कषायोदयतस्तत्र परिणामो य आत्मनः । चारित्रमोहनीयस्य स आश्रव उदीरितः ॥ ९३ ॥ उत्प्रासनं सकन्दर्पोपहासो हासशीलता । बहुप्रलापो दैन्योक्तिर्हासस्यामी स्युराश्रवाः ॥ ९४ ॥ देशादिदर्शनौत्सुक्यं चित्रे रमण-खेलने । परचितावर्जनं चेत्याश्रवाः कीर्त्तिता रतेः ॥ ९५ ॥ असूया पापशीलत्वं परेषां रतिनाशनम् । अकुशलप्रोत्साहनं चाऽरतेराश्रवा अमी ॥ ९६ ॥ स्वयं भयपरीणामः परेषामथ भोपनम् । त्रासनं निर्दयत्वं च भयं प्रत्याश्रवा अमी ॥ ९७ ॥ परशोकाविष्करणं स्वशोकोत्पाद- शोचने । रोदनादिप्रसक्तिश्च शोकस्यैते स्युराश्रवाः ॥ ९८ ॥ चतुर्वर्णस्य सङ्घस्य परिवाद - जुगुप्सने । सदाचारजुगुप्सा च जुगुप्सायाः स्युराश्रवाः ॥ ९९ ॥ ईर्ष्या-विषयगा च मृषावादोऽतिवक्रता । परदाररतासक्तिः स्त्रीवेदस्याऽऽश्रवा इमे ॥ स्वदारमात्र सन्तोषोनीर्ष्या मन्दकषायता । अवक्राचारशीलत्वं पुंवेदस्याऽऽश्रवा इति ॥ स्त्री-पुंसानङ्गसेवोग्राः कषायास्तीत्रकामता । पाखण्डस्त्रीव्रतभ्रंशः षण्ढवेदाश्रवा अमी ॥ १०२ ॥ १ सर्वज्ञस्य सिद्धेः देवानां च अपह्नवः-अपलापः । २ अधिकं हसनम् । ३ देशः प्रदेश :- भङ्गोपाङ्गानि इति । आकर्षणम् । ५ भयदर्शनम् । ६ परिवादः - निन्दा जुगुप्सा-घृणा । १०० ॥ १०१ ॥ ४ परवित्तस्य तृतीयं पर्व सप्तमः सर्गः सुविधि स्वामि चरितम् । | ॥३३९॥ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OSLO साधूनां गर्हणा धर्मोन्मुखानां विघ्नकारिता । मधु-मांसाविरतानामविरत्यभिवर्णनम् ॥१०३॥ . विरताविरतानां चान्तरायकरणं मुहुः । अचारित्रगुणाख्यानं तथा चारित्रदूषणम् ॥ १०४ ॥ कषाय-नोकषायाणामन्यस्थानामुदीरणम् । चारित्रमोहनीयस्य सामान्येनाऽऽश्रवा अमी ॥१०५॥ पञ्चेन्द्रियप्राणिवधो बह्वारम्भ-परिग्रहौ । निरनुग्रहता मांसभोजनं स्थिरवैरता ॥ १०६ ॥ रौद्रध्यानं मिथ्यात्वा-ऽनन्तानुबन्धिकषायते । कृष्ण-नील-कपोताश्च लेश्या अनृतभाषणम् ॥ १०७ ॥ परद्रव्यापहरणं मुहुर्मैथुनसेवनम् । अवशेन्द्रियता चेति नरकायुष आश्रवाः॥ १०८॥ उन्मार्गदेशना मार्गप्रणाशो गूढचित्तता । आर्तध्यानं सशल्यत्वं मायाऽऽरम्भ-परिग्रहौ ॥१०९॥ शीलवते सातिचारे नील-कापोतलेश्यता । अप्रत्याख्यानकषायास्तिर्यगायुष आश्रवाः॥११०॥ अल्पो परिग्रहा-ऽऽरम्भौ सहजे मार्दवा-ऽऽर्जवे । कापोत-पीतलेश्यत्वं धर्मध्यानानुरागिता ॥ १११ ॥ प्रत्याख्यानकषायत्वं परिणामश्च मध्यमः । संविभागविधायित्वं देवता-गुरुपूजनम् ।। ११२ ॥ पूर्वालाप-प्रियालापौ सुखप्रज्ञापनीयता । लोकयात्रासु माध्यस्थ्यं मानुषायुष आश्रवाः ॥ ११३ ॥ सरागसंयमो देशसंयमोऽकामनिर्जरा । कल्याणमित्रसम्पर्को धर्मश्रवणशीलता ॥ ११४ ॥ पात्रे दानं तपः श्रद्धा रत्नत्रयाविराधना । मृत्युकाले परीणामो लेश्ययोः पद्म-पीतयोः ॥ ११५ ॥ बालतपो-ऽग्नि-तोयादिसाधनोल्लम्बनानि च । अव्यक्तसामायिकता देवस्याऽऽयुष आश्रवाः॥११६॥ उन्मुखाः तत्पराः। २ अन्यचित्तस्थितानाम्। ३ धर्ममार्गस्य नाशः। * °ख्यानाः क संवृ०॥ ४ विवेकरहितं तपः-अज्ञानतपः । S40 S405AXOSTOSOS406 Jain Education in OH For Private & Personal use only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ROSMISS तृतीयं पर्व सप्तमः सर्गः सुविधिस्वामिचरितम् * * त्रिषष्टि- मनोवाकायवक्रत्वं परेषां विप्रतारणम् । मायाप्रयोगो मिथ्यात्वं पैशुन्यं चलचित्तता ॥ ११७ ॥ शलाका- सुवर्णादिप्रतिच्छन्दकरणं कूटसाक्षिता । वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शाद्यन्यथापादनानि च ॥ ११८॥ पुरुषचरिते अङ्गोपाङ्गच्यावनानि यत्र-पञ्जरकर्म च । कूटमान-तुला-कर्मा-ऽन्यनिन्दा-ऽऽत्मप्रशंसनम् ॥ ११९॥ महाकाव्ये हिंसा-ऽनृत-स्तेया-ऽब्रह्म-महारम्भ-परिग्रहाः। परुषा-ऽसभ्यवचनं शुचिवेषादिना मदः ॥ १२०॥ मौखर्या-ऽऽक्रोशौ सौभाग्योपघातः कार्मणक्रिया । परकौतूहलोत्पादः परहास-विडम्बने ॥ १२१॥ ॥३४॥ वेश्यादीनामलङ्कारदानं दावाग्निदीपनम् । देवादिव्याजाद् गन्धादिचौर्य तीव्रकषायता ॥ १२२ ॥ चैत्य-प्रतिश्रया-ऽऽराम-प्रतिमानां विनाशनम् । अङ्गारादिक्रिया चैवाशुभस्य नाम्न आश्रवाः ॥ १२३॥ एत एवान्यथारूपास्तथा संसारभीरुता । प्रमादहानं सद्भावार्पणं क्षान्त्यादयोऽपि च ॥१२४ ॥ दर्शने धार्मिकाणां च सम्भ्रंमः खागतक्रिया । आश्रवाः शुभनाम्नोऽथ तीर्थकृन्नाम्न आश्रवाः॥१२५॥ भक्तिरर्हत्सु सिद्धेषु गुरुषु स्थविरेषु च । बहुश्रुतेषु गच्छे च श्रुतज्ञाने तपखिषु ॥१२६॥ आवश्यके व्रत-शीलेष्वप्रमादो विनीतता । ज्ञानाभ्यासस्तपस्त्यागौ मुहुर्ष्यानं प्रभावना ॥१२७॥ सङ्घ समाधिजननं वैयावृत्यं च साधुषु । अपूर्वज्ञानग्रहणं विशुद्धिर्दर्शनस्य च ॥ १२८॥ आद्यन्ततीर्थनाथाभ्यामेते विंशतिराश्रवाः ।एको द्वौ वा त्रयः सर्वे वाऽन्यैः स्पृष्टा जिनेश्वरैः ॥ १२९॥ १ कृत्रिमसुवर्णादि कृत्वा सत्यसुवर्णादित्वेन प्रकटनम् । २ अन्यपदार्थानां वर्णादिपरावर्तनं कृत्वा मूलपदार्थरूपतया व्यवहारः, मा यथा कृत्रिमं घृतम्-'वेजिटेबल घी'। ३ देवादिनिमित्तम्। ४ प्रतिश्रयः-उपाश्रयः दानशाला वा। ५ सम्भ्रमः-आदरः। सा अवश्यकर्तब्यरूपप्रतिक्रमणादिकम् । ७ सेवा । * ॥३४॥ *** Jain Education in For Private & Personal use only TI Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Inte परस्य निन्दा - ऽवज्ञोपहासाः सद्गुणलोपनम् । सदसद्दोषकथनमात्मनस्तु प्रशंसनम् ॥ १३० ॥ सदसद्गुणशंसा च सदोषाच्छादनं तथा । जात्यादिभिर्मदश्चेति नीचैर्गोत्राश्रवा अमी ॥ १३१ ॥ चैत्राश्रवविपर्यासो विगतगर्वता । वाक्काय-चित्तैर्विनय उच्चैर्गोत्राश्रवा अमी ॥ १३२ ॥ दाने लाभे च वीर्ये च तथा भोगोपभोगयोः । सव्याजा-ऽव्याजविनोऽन्तरायकर्मण आश्रवाः ।। १३३ ॥ तदित्याश्रवजन्माऽयमपारो भवसागरः । प्रव्रज्यायानपात्रेण तरणीयो मनीषिणा ॥ १३४ ॥ कुमुदानीन्दुभासेवाबुध्यन्त बहवस्तदा । धर्मदेशनया भर्तुः प्राव्रजंश्च सहस्रशः ॥ १३५ ॥ अष्टाशीतिर्वराहाद्या आसन् गणभृतः प्रभोः । देशनान्ते च विदधे वराहो धर्मदेशनाम् ॥ १३६ ॥ गणभृदेशनान्तेऽयुः स्वं स्वं स्थानं सुरासुराः । नन्दीश्वरस्य मध्येन कुर्वन्तोऽष्टाहिकोत्सवम् ॥ १३७ ॥ तत्तीर्थजन्मा त्वजितः श्वेताङ्गः कूर्मवाहनः । बिभ्राणो दक्षिणौ बाहू मातुलिङ्गाऽक्षसूत्रिणौ ॥ १३८ ॥ वाम नकुल- कुन्तधारिणौ धारयन् भुजौ । नित्यमासन्नवर्त्त्यासीद् भर्तुः शासनदेवता ॥ १३९ ॥ तथोत्पन्ना सुताराख्या गौराङ्गी वृषवाहना । वरदं साक्षसूत्रं च विभ्राणा दक्षिणौ भुजौ ॥ १४० ॥ कलशा-कुशिनौ बाहू दधाना दक्षिणेतरौ । पारिपार्श्विक्यभून्नित्यं भर्तुः शासनदेवता ॥ १४१ ॥ ताभ्यामधिष्ठितायैर्णः कृपारसमहार्णवः । विजहार जगन्नाथो जगतीं बोधयन् जनान् ॥ १४२ ॥ साधुद्विलक्षी साध्वीनां लक्षं विंशसहस्रयुक् । अवधिज्ञानिनामष्टौ सहस्राः सचतुःशताः ॥ १४३ ॥ सहस्रं पूर्विणां सार्धं मनःपर्ययिणां पुनः । पञ्चसप्ततिशत्येषा केवलज्ञानिनामपि ॥ १४४ ॥ 1 १ तदिति तेन पूर्वोक्तेन प्रकारेण । * सुरेश्वराः संवृ० ॥ + च सं० ॥ २ अभ्यर्णम् - सामीप्यम् । सुविधिजिन शासन देव देण्यौ सुविधिजिमपरिवारः . Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये तृतीयं पर्व सप्तमः सर्गः सुविधि खामिचरितम् । ॥३४॥ जातवैक्रियलब्धीनां सहस्राणि त्रयोदश । सञ्जातवादलब्धीनां सहस्राणि षडेव हि ॥१४५ ॥ सैकोनत्रिंशत्सहस्रा श्रावकाणां द्विलक्ष्यथ । श्राविकाणां चतुर्लक्षी द्वासप्ततिसहस्रयुक् ॥१४६ ॥ ऊनमष्टाविंशत्यङ्ग्या चतुर्मास्या च केवलात । पूर्वलक्षं विहरतः परिवारोऽभवत् प्रभोः ॥१४७॥ ॥पञ्चभिः कुलकम् ॥ सम्मेताद्रिं ततो गत्वा ऋषीणां दशभिः शतैः । प्रपेदेऽनशनं खामी मासं चास्थात्तथास्थितः ॥१४८॥ नभैस्यकृष्णनवम्यां मूले मे तैः सहर्षिभिः। शैलेशीध्यानलीनः सन् स्वाम्यगादव्ययं पदम् ॥ १४९॥ कौमारे पूर्वलक्षार्धमथ राज्यस्य पालने । युक्तमष्टाविंशत्याङ्गैः पूर्वलक्षार्धमेव हि ॥ १५० ॥ अष्टाविंशत्यङ्गहीनं पूर्वलक्षं पुनर्जते । इत्यायुः पूर्वलक्षे द्वे सुविधिखामिनोऽभवत् ॥ १५१ ॥ श्रीचन्द्रप्रभनिर्वाणात् सुविधिस्वामिनितिः । सागरोपमकोटीनां गतायां नवतावभूत् ॥ १५२॥ विधिवदमरनाथाः कायसंस्कारपूर्व, मुनिदशशतयुक्तस्याहतोऽष्टाधिकस्य । शिवगतिमहिमानं चक्रिरे निःसमानं, तदनु सपरिवाराः खं खमीयुर्विमानम् ॥ १५३ ॥ सुविधिखामिनिर्वाणाद् गते काले कियत्यपि । हुण्डावसर्पिणीदोषात् साधूच्छित्तिरजायत ॥१५४॥ स्थविरश्रावकान् धर्ममथापृच्छन्नतद्विदः। पन्थानं पथसम्मूढाः पथिकान् पथिका इव ॥१५५॥ किञ्चित् कथयतां तेषां धर्ममात्मानुसारतः । अर्थपूजां विदधिरे ते जनाः श्रावकोचिताम् ॥ १५६ ॥ | येषां वादलब्धिः-प्रतिवाद्यवश्यविजयरूपा । २ ध्यानस्थः । ३ नभस्य:-भाद्रपदमासः । * साधूनाम् उच्छेदः । ५ये धर्म न विदन्ति ते। *अथ पू० सं० मो०॥ ६ धनेन पूजाम् । सुविधिजिन| निर्वाणम् अष्टजिनान्तरे | तीर्थोच्छेदन ॥३४॥ Jain Education Intermडा For male & Personal use only PLw.jainelibrary.org Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूजया जागर्दास्ते शास्त्राण्यासूत्र्य तत्क्षणम् । महाफलानि दानानि विविधान्याचचक्षिरे ॥१५७ ॥ कन्यादानं महीदानं प्रदानमयसामपि । तिलदानं च कासदानं दानं गवामपि ॥१५८॥ स्वर्णदानं रौप्यदान प्रदानं सबनामपि । अश्वदानं गजदानं शय्यादानमथापरम् ॥ १५९॥ दानं महाफलं सर्वमत्रामुत्र च निश्चितम् । एवं व्याचख्युराचार्याभूय ते गृघ्नवोऽवहम् ॥१६॥ दानस्य चोचितं पात्रमात्मानं व्याचचक्षिरे । अपात्रं चापरं सर्वमखर्वेहादुराशयाः ॥ १६१॥ अप्येवं वञ्चकास्तेऽयुर्लोकानां गुरुतां तदा । निक्षदेशे क्रियते घेरण्डस्यापि वेदिका ॥ १६२॥ जज्ञे तीर्थीच्छेद एवं समन्तात , क्षेत्रेऽस्मिन्नाऽऽशीतलस्वामितीर्थम् । एकच्छत्रं विप्रखेटैस्तदानी, चक्रे राज्यं निश्युलूकैरिवोच्चैः॥१६३ ॥ मिथ्यात्वमाऽऽशान्तिजिनेश मित्थमन्येष्वभूत षट्सु जिनान्तरेषु । तीर्थप्रणाशादभवच्च तेषु, मिथ्यादृशामस्खलितः प्रचारः॥ १६४ ॥ ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये तृतीये पर्वणि सुविधिखामिचरितवर्णनो नाम सप्तमः सर्गः। गर्ध:-आसक्तिः। २ अयः-लोहः । एतच्च अन्यधातूनाम् उपलक्षणम् । * सर्व सुखार्थहा संवृ०॥ ३ अखर्वम्अत्यधिकम् । ४ वेदिका-चतुष्कोणम् आसनम्, भाषायाम् 'बाजोठ' इति । ५ शीतलस्वामितीर्थम् अवधि कृत्वा तत आरभ्य । |६ शान्तिजिनतीर्थपर्यन्तम् । JainEducation a l For Private & Personal use only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका अष्टमः सर्गः। श्रीशीतलनाथचरित्रम्। तृतीयं पर्व अष्टम: सर्गः पुरुषचरिते महाकाव्ये शीतलस्वामिचरितम् । ॥३४२॥ श्रीशीतलजिनेन्द्रस्य पादाः शीतरुचेरिव । बोधयन्तः कुवलयं सन्तु वः शिवतातयः॥१॥ इदं जगत्रयश्रोत्रशीतलीकारकारणम् । शीतलस्य भगवतश्चरितं कीर्तयिष्यते ॥२॥ पुष्करवरद्वीपार्धे प्राग्विदेहविभूषणे । विजये वत्ससंज्ञेऽस्ति सुसीमा नाम पूर्वरा ॥३॥ तस्यां पद्मोत्तराख्योऽभन्नपः सर्वनृपोत्तरः । अनुत्तरविमानिभ्य इवैकः कश्चिदागतः॥४॥ अलक्ष्यशासने सर्वप्राणिनां करुणापरे । सोदराविव तत्राऽऽस्तां वीर-शान्ताभिधौ रसौ ॥५॥ उपायैर्वर्धयस्तैस्तैः सोऽनपायैरनेकशः । नित्यं धर्म जजागार भाण्डागार इवेश्वरः॥६॥ अद्य श्वो वा भृशममुं त्यजामीति स चिन्तयन् । संसारवासे विदेशस्थायीवास्थादनास्थया ॥७॥ __अन्यदा राज्यमुत्सृज्य प्राज्यमप्यश्मखण्डवत् । स्रस्ताघसूरिपादान्ते स प्रव्रज्यामुपाददे ॥८॥ व्रतानि निरतीचाराण्याचरनार्जयत् सुधीः । स तीर्थकृन्नामकर्म स्थानकैरागमोदितैः॥९॥ विविधाभिग्रहस्तीत्रैस्तपोभिर्विविधैरपि । जन्मातिवाह्य सकलं सोऽभवत् प्राणतेश्वरः॥१०॥ .कुमुदम् पृथ्वीवलयं च । २ शिवविस्तारकारिणः। ३ अनपाय:-निर्दोषः । ४ भाण्डागार:-भंडार इति भाषा । ५ परदेशहवासी इव। ६ भागमे हि तीर्थकरनामहेवनि विंशतिः निमित्तानि प्रसिद्धानि। .प्राणतस्वर्गस्पेन्द्रः। शीतलजिनपूर्वभवसम्बन्धः ॥३४२॥ For Private & Personal use only . Jain Education Internationa III Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतश्च जम्बूद्वीपेऽसिन् क्षेत्रे चात्रैव भारते । श्रीभद्रं भद्रिलपुरं नामास्ति प्रवरं पुरम् ॥११॥ परिखावलयेनोच्चैः प्राकारस्तत्र काश्चनः । जम्बूद्वीपजगत्यब्धिवलयेनेव शोभते ।। १२॥ सायमार्पणवीथीषु प्रदीप्ता दीपधोरणी । तत्र संलक्ष्यते स्वर्णकण्ठिकेव पुरश्रियः ॥ १३ ॥ ऋद्ध्या महत्या भुजङ्ग-वृन्दारकविलासभूः । भोगावत्यमरावत्योरिव सारेण तत् कृतम् ॥१४॥ तसिंश्च सत्रशालासु महेभ्यर्भोजनार्थिनः । भोज्यन्ते विविधैर्भोज्यैरुत्सवे खजना इव ॥१५॥ तस्मिन् दृढरथो नाम नामितारातिमण्डलः । अभूद् भूमण्डलं व्याप्य स्थितोऽब्धिरिव भूपतिः ॥१६॥ स महर्षिगणेनापि वर्ण्यमानैर्निरन्तरम् । अधिकाधिकमव्रीयद् गुणैरप्यगुणैरिव ॥ १७॥ प्रत्यार्थिभ्यो बलादात्तामर्थिभ्यः स श्रियं ददौ । अदत्तादानदोषस्य प्रायश्चित्तमिवाऽऽचरन् ॥ १८ ॥ तस्याग्रतो भूपतयः कृतभूलुठना मुहुः । सर्वाङ्गालिङ्गितभुवो भूपतित्वं चिराद् ययुः॥१९॥ ज्ञानोपदेशलेशोऽपि तस्मिन् गुरुजनैः कृतः। वितस्तार महाप्राज्ञे सलिले तैलबिन्दुवत् ॥२०॥ मन्दाकिनीव सरितां सतीनामग्रतःसरा । तस्याभूद् हृदयानन्दा पत्नी नन्देति नामतः ॥२१॥ मन्दमन्दपदन्यासैविचरन्त्या मनोरमम् । गतौ शिष्या इवैतस्या राजहंस्योऽपि लक्षिताः॥२२॥ सुगन्धिमुखनिःश्वासं यद् यत् किश्चिदुवाच सा । प्रपेदे वचनं तत् तद् भ्रमराकृष्टिमत्रताम् ॥ २३ ॥ रूपवत्या अभूत् तस्याः स्वस्मिन्नेवोपमानता । विहायसो महत्त्वे हि नोपमानं भवेत् परम् ॥ २४ ॥ . आपणः हः । २ धोरणी श्रेणिः । ३ दानशालासु। ४ लजां प्राप । ५ सर्वाङ्गः भुवं संस्पृश्य नमस्कृत्य ययुः । Jain Education Inter For Private & Personal use only Kol Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिपष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये तृतीयं पर्व अष्टमः सर्ग: शीतलस्वामिचरितम् । स्यूते च खगुणैः स्वान्ते दृढं दृढरथस्य सा । अभृद् दृढरथोऽप्यस्या उत्कीर्ण इव चेतसि ॥२५॥ इतश्च प्राणते कल्पे पद्मोत्तरमहीपतेः । जीवः स्वायुरपूरिष्ट विंशति सागरोपमान् ॥२६॥ च्युत्वा राधे कृष्णषष्ठयां पूर्वाषाढास्थिते विधौ । पद्मोत्तरनृपजीवो नन्दाकुक्षाववातरत् ॥ २७॥ नन्दावामिन्यपि तदा सुखसुप्ता व्यलोकयत् । चतुर्दश महाखमांस्तीर्थजन्मसूचकान् ॥ २८॥ माघस्य कृष्णद्वादश्यां पूर्वाषाढागते विधौ । श्रीवत्साईं स्वर्णवर्ण श्रीनन्दाऽसूत नन्दनम् ॥ २९ ॥ अष्टाधोलोकवास्तव्या ऊर्द्धलोकजुषोऽष्ट च । अष्टाऽष्टौ रुचकदिशां चतस्रो विदिशां पुनः॥३०॥ रुचकद्वीपमध्यस्थाश्चतस्रश्चलितासनाः । षट्पञ्चाशद् दिक्कुमार्यः सूतिकर्मेत्य चक्रिरे ॥३१॥ शक्रोऽप्युपेत्य तत्राऽऽशु गृहीत्वा स्वामिनं स्वयम् । सुमेरुपर्वतशिरस्युपेयाय वृतोऽमरैः ॥ ३२॥ अतिपाण्डुकम्बलायां रत्नसिंहासनोपरि । अङ्काधिरोपितपतिर्दिवस्पतिरूपाविशत् ॥ ३३॥ हदिनीनाथ-इदिनी-ददादिभ्यः समाहृतः। अभ्यषिश्चन् जलै थमथेन्द्रा अच्युतादयः॥ ३४॥ ईशानाङ्के प्रभुं न्यस्य शक्रोऽप्यस्नपयत् ततः। विकृतस्फाटिकवृषविषाणाग्रोद्गतैर्जलैः॥३५॥ दिव्याङ्गरागैश्चर्चित्वार्चित्वा चाऽऽभरणादिभिः। जगत्पतिमिति स्तोतुं समारेमे दिवस्पतिः॥३६॥ जयेक्ष्वाकुकुलक्षीररत्नाकरनिशाकर । जगन्मोहमहानिद्राविद्रावणदिवाकर । ॥३७॥ स्वामालोकयितुं त्वां च स्तोतुं त्वामचितुं तथा । आशंसाम्यात्मनोऽनन्ता दृशो जिह्वा भुजा अपि ॥३८॥ १ उत्कीर्णः-'कोरेलो' भाषा । २ वैशाखे । ३ सूतिकर्म एत्य-आगत्य । ४ दिवस्पतिः-इन्द्रः। ५ हदिनीनाथ:-समुद्रः, हदिनी-नदी। विद्रावणम्-नाशनम् । ७ 'अनन्ताः' इत्यादीनि चत्वारि पदानि द्वितीयान्तानि । शीसजिनजन्मादि ॥३४३।। Jan Education in For Private & Personal use only Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिन् दशमतीर्थेश ! तव पादारविन्दयोः । न्यस्तान्यमूनि पुष्पाणि सम्पन्नं तु फलं मयि ॥ ३९॥ अमन्दं दददानन्दं दुःखतापार्दितात्मनाम् । मर्त्यलोकेऽवातरस्त्वं जीमूत इव नूतनः ॥४०॥ वसन्तसमयेनेव दर्शनेन तव प्रभो! । स्युरद्य नूतनश्रीकाः प्राणिनः पादपा इव ॥४१॥ त्वदर्शनपवित्राणि यानि तानि दिनानि मे । दिनानि शेषाणि पुनः कृष्णपक्षतमखिनी ॥ ४२ ॥ स्यूतानीवाऽऽत्मना नित्यं कुकर्माणि शरीरिणाम् । त्वयाऽद्य विघटन्तां द्रागयस्कान्तेन लोहवत् ॥४३॥ अत्र वा दिवि वा तिष्ठस्तिष्ठन्नन्यत्र वा क्वचित् । त्वद्वाहनमहं भूयां त्वामेव हृदये वहन् ॥ ४४ ॥ ___एवं दशममहन्तं स्तुत्वा दशशेतेक्षणः । आदायाऽऽनीय चामुश्चन्नन्दापार्श्वे यथास्थिति ॥ ४५ ॥ चक्रे दृढरथेनापि कारामोक्षादिनोत्सवः । जगतोऽपि हि मोक्षाय तादृशां जन्म पावनम् ॥ ४६॥ राज्ञः सन्तप्तमप्यङ्गं नन्दास्पर्शन शीत्यभूत । गर्भस्थेऽस्मिन्निति तस्य नाम शीतल इत्यभूत् ॥४७॥ द्युसत्कुमारकैलाधारीन्द्ररिव सेवितः । ववृधेऽम्भोधिवेलावद् जगन्नाथो दिने दिने ॥४८॥ शैशवं व्यत्यलविष्ट क्रमेण परमेश्वरः । शैशवाद यौवनं चाऽऽप ग्रामात् पुरमिवाऽध्वगः॥४९॥ प्रभुर्नवतिधन्वोच्चो रराजाऽऽजानुबाहुकः । पार्श्वतो लम्बमानोरुवल्लीक इव पादपः॥५०॥ विषयेषु निरीहोऽपि पितृभ्यां प्रार्थितः प्रभुः। चकार पाणिग्रहणं पिण्डादानमिव द्विपः ॥५१॥ अथ पूर्वसहस्राणां गतायां पञ्चविंशतौ । जग्राह पितृदाक्षिण्याद् राज्यं श्रीशीतलप्रभुः॥५२॥ १जीमूता-मेघः। २ शेषाणि दिनानि अमावास्या रूपाणि इति भावः। ३ स्यूतम्-सम्बद्धम्। त्वद्वाहनम्-स्वद्भक्तिधारक इति । ५ दशशतेक्षणः-सहस्रनयनः, इन्द्र इत्यर्थः। ६ कारामोक्षादिना-बन्दिजनमोक्षादिना उत्सवः । त्रिषष्टि. ५९ Jain Education Inted For Private & Personal use only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये तृतीयं पर्व अष्टमः सर्गः शीतलस्वामि| चरितम् । ॥३४४॥ पश्चाशत्पूर्वसहस्रीमपूर्वभुजविक्रमः । पूर्वक्रमागतं राज्यं शशास विधिवत् प्रभुः॥५३॥ अथ संसारसंवासाद् व्यरज्यत प्रभोर्मनः। आसनानि प्रचेलुश्च लौकान्तिकदिवौकसाम् ॥५४॥ अबुध्यन्ताऽवधिज्ञानादेवं ते त्रिदिवौकसः। जम्बूद्वीपाभिधे द्वीपे भरतार्धे च दक्षिणे ॥ ५५॥ दशमो भगवानहन् व्रतेच्छवर्तते ततः । तं वयं प्रेरयामोऽद्य सदाकृत्यमिदं हि नः॥५६॥ युग्मम् ॥ विमृश्यैषं ब्रह्मलोकात् सुराः सारखतादयः । एत्य विज्ञपयामासुरिति स्वामिनमानताः॥ ५७ ॥ अरण्यस्रोतसीवासिंस्तीर्थाभावेन दुस्तरे । संसारे विश्वकृपया तीर्थ नाथ ! प्रवर्तय ॥ ५८॥ इत्युदित्वा ययुर्ब्रह्मलोकं लौकान्तिकामराः । शीतलस्वाम्यपि ददौ दानं संवत्सरावधि ॥ ५९॥ अन्ते च तस्य दानस्य सुरेन्द्रश्चलितासनैः । दीक्षाकल्याणकस्नानं विदधे शीतलप्रभोः॥६॥ कृताङ्गरागो भगवानामुक्तांशुकभूषणः । त्रिजगद्भूषणं नाथो दत्तबाहुर्बिडौजसा ॥६१॥ अन्यैरपि धृतच्छत्र-चामरादिः सुरेश्वरैः । अध्यारुरोह शिविकारत्नं चन्द्रप्रभाभिधम् ॥ ६२॥ युग्मम् ॥ सुरा-ऽसुरसहस्राणां सहस्रैः परिवारितः। सहस्राम्रवणं नाम खपुरोपवनं ययौ ॥ ६३ ॥ ततस्तितीर्घः संसारं भारवद् भूषणादिकम् । उज्झाञ्चकार झगिति प्रभुः शिवगतिप्रियः ॥ ६४॥ शक्रन्यस्तं देवदृष्यांशुकमसँस्थले दधत् । पञ्चभिर्मुष्टिभिः केशानुच्चखान जगत्पतिः ॥६५॥ * °च्छुर्यतते सङ्घ० ॥ १ अरण्यस्रोतः-अरण्यस्थितः जलाशयः। २ तीर्थम्-उत्तरणस्थानम्, भाषायाम् 'घाट' इति ।। ३ भामुक्तम्-परिहितम् । ४ अंसः-स्कन्धः । शीतलाजिनप्रवज्यादि ॥३४४॥ Jain Education in For Private & Personal use only . Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Internati क्षीरोदे न्यस्य तान् केशान् शक्रे पुनरुपेयुषि । निषिद्धतुमुले बद्धाञ्जलौ द्वाःस्थ इव स्थिते ॥ ६६ ॥ सुरा - सुर-नरेन्द्राणां प्रत्यक्षमपरेऽहनि । माघस्य कृष्णद्वादश्यां पूर्वाषाढास्थिते विधौ ॥ ६७ ॥ समं नृपसहस्रेण कृतपष्ठतपाः प्रभुः । सावद्ययोगविरतिप्रतिज्ञां प्रत्यपद्यत ॥ ६८ ॥ ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ तुर्यं ज्ञानं प्रभोर्जज्ञे मनःपर्ययसकम् । कृत्वा प्रणामं च ययुः स्वं स्वं स्थानं सुरादयः ॥ ६९ ॥ द्वितीयेऽह्नि रिष्टपुरे पुनर्वसुन्नृपौकसि । पारणं परमान्नेन विदधे शीतलप्रभुः ॥ ७० ॥ चक्रे च वसुधारादिपञ्चकं विबुधैस्ततः । स्वर्णपीठं पुनस्तत्र पुनर्वसुन्नृपो व्यधात् ॥ ७१ ॥ विविधाभिग्रहधरः सहमानः परीषहान् । छद्मस्थतया त्रीन् मासान् व्यहार्षीच्छीतलप्रभुः ॥ ७२ ॥ सहस्राम्रवणं भूयोऽप्याजगाम जगद्गुरुः । तत्र प्रतिमया तस्थावधस्तात् प्लक्षशाखिनः ॥ ७३ ॥ भटो प्रमिवाऽऽरुह्य शुक्लध्यानं द्वितीयकम् । जघान घातिकर्माणि रिपूनिव जगद्गुरुः ॥ ७४ ॥ पौषकृष्णचतुर्दश्यां पूर्वाषाढागते विधौ । केवलज्ञानमुत्पेदे शीतलखामिनस्ततः ॥ ७५ ॥ वप्रैस्त्रिभिश्चतुद्वारे रान-सौवर्ण- राजतैः । ततः समवसरणं चक्रुर्देवा-सुरेश्वराः ॥ ७६ ॥ तत्र प्रविश्य प्राग्द्वारा प्रदक्षिण्यकरोत् प्रभुः । चैत्यवृक्षमशीत्यग्रदशधन्वशतोन्नतम् ॥ ७७ ॥ 'नमस्तीर्थायेति वदन् पूर्वसिंहासने प्रभुः । न्यषदद् दिक्षु चान्यासु तद्रूपाण्यमरा व्यधुः ॥ ७८ ॥ तत्र तस्थुर्यथास्थानमथान्येऽप्यमरादयः । स्वामिवाचं प्रतीच्छन्तः स्तनितं बर्हिणा इव ॥ ७९ ॥ १ वप्रः - दुर्गः । * तैः । समवसरणं चक्रुर्देवास्ततः सुराऽसुराः सं० ॥ २ बर्हिणाः - मयूराः । . Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयं पर्व अष्टम: सर्गः शीतल खामिचरितम् । त्रिषष्टि- स्वामिनं शीतलमथ शिरःसंस्पृष्टभूतलः । नमस्कृत्याञ्जलिधर इति वज्रधरोऽस्तवीत् ॥८॥ शलाका त्वत्पादपङ्कजनखद्युतिजालजलप्लवैः । स्नायं स्नायं पुनन्ति खं धन्यास्त्रिभुवनेश्वर !॥८१॥ पुरुषचरिते भास्करेणेव गगनं हंसेनेव महासरः । पार्थिवेनेव नगरं शोभते भारतं त्वया ॥ ८२ ॥ महाकाव्ये आलोकस्तिमिरेणेव सूर्यास्तेन्दूदयान्तरे । मिथ्यात्वेन पराभूतो धर्मस्तीर्थद्वयान्तरे ॥ ८३॥ जगदन्धमिदं जज्ञे निर्विवेकविलोचनम् । अपथेषु प्रववृते दिङ्मूढमिव सर्वतः॥८४॥ ॥३४५॥ अधर्मो धर्मबुद्ध्या चाऽदेवता देवताधिया । गुरुबुद्ध्या चाऽगुरवो भ्रान्तैर्जगृहिरे जनैः॥८५॥ नरकावटैपाताय जगत्यसिनुपस्थिते । निसर्गकरुणाम्भोधिस्तत्पुण्यैस्त्वमवातरः ॥८६॥ मिथ्यात्वाशीविषो लोके प्रभविष्णुरसौ चिरम् । तावदेव न यावत् ते प्रसरेद् वचनामृतम् ॥ ८७ ॥ तन्मिथ्यात्वापसारेण सम्यक्त्वं जगतोऽधुना। भावि प्रभो! केवलं ते घातिकर्मक्षयादिव ॥ ८८॥ __ इत्थं स्तुत्वा स्थिते शके भगवान् शीतलप्रभुः। गिरा सुधामधुरया विदधे देशनामिति ॥ ८९॥ संसारे क्षणिकं सर्व नानादुःखनिबन्धनम् । मोक्षाय यतितव्यं तद् भवेन्मोक्षस्तु संवरात् ॥९॥ सर्वेषामाश्रवाणां तु निरोधः संवरः स्मृतः । स पुनर्भिद्यते द्वेधा द्रव्य-भावविभेदतः ॥ ९१॥ यः कर्मपुद्गलाऽऽदानच्छेदः स द्रव्यसंवरः । भवहेतुक्रियात्यागः स पुनर्भावसंवरः ॥ ९२॥ येन येन छुपायेन रुध्यते यो य आश्रवः। तस्य तस्य निरोधाय स स योज्यो मनीषिभिः ॥ ९३॥ प्लवः-जलपूरम् । २ सायं नायम्-अधिकं स्नात्वा । ३ सूर्यास्तस्य चन्द्रोदयस्य च अन्तरे। ४ अवटः-कूपः ।। CT५ आशीविषः-दंष्ट्राविषः सर्पः । आश्रव-संवर. स्वरूपगी शीतलजिनदेशना ॥३४५॥ Jan Education inte For Private & Personal use only Soww.jainelibrary.org Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षमया मृदुभावेन ऋजुत्वेनाप्यनीहया । क्रोधं मान तथा मायां लोभं रुन्ध्याद् यथाक्रमम् ॥ ९४॥ असंयमकृतोत्सेकान् विषयान् विषसन्निभान् । निराकुर्यादखण्डेन संयमेन महामतिः ॥ ९५॥ तिसभिर्गुप्तिभिर्योगान् प्रमादं चाप्रमादतः। सावद्ययोगहानेन विरतिं चापि साधयेत् ॥९६॥ सद्दर्शनेन मिथ्यात्वं शुभस्थैर्येण चेतसः । विजयेताऽऽर्त्त-रौद्रे च संवरार्थं कृतोद्यमः ॥ ९७॥ यथा चतुष्पथस्थस्य बहुद्वारस्य वेश्मनः । अनावृतेषु द्वारेषु रजः प्रविशति ध्रुवम् ॥ ९८॥ प्रविष्टं स्नेहयोगाच तन्मयत्वेन बध्यते । न विशेन च बध्येत द्वारेषु स्थगितेषु तु ॥ ९९ ॥ यथा वा सरसि क्वापि सर्वैद्वारविशेजलम् । तेषु तु प्रतिरुद्धेषु प्रविशेन्न मनागपि ॥१०॥ यथा वा यानपात्रस्य मध्ये रन्धैर्विशेजलम् । कृते रन्ध्रपिधाने तु न स्तोकमपि तद् विशेत् ॥ १०१॥ योगादिष्वाश्रवद्वारेष्वेवं रुद्धेषु सर्वतः । कर्मद्रव्यप्रवेशो न जीवे संवरशालिनि ॥ १०२॥ संवरादाश्रवद्वारनिरोधः संवरः पुनः । क्षान्त्यादिभेदाद् बहुधा तथैव प्रतिपादितः॥ १०३॥ गुणस्थानेषु यो यः स्यात् संवरः स स उच्यते । मिथ्यात्वानुदयात् परस्थेषु मिथ्यात्वसंवरः॥१०४॥ तथा देशविरत्यादौ स्थादविरतिसंवरः । अप्रमत्तसंयतादौ प्रमादसंवरो मतः॥१०५॥ प्रशान्त-क्षीणमोहादौ भवेत् कषायसंवरः । अयोग्याख्यकेवलिनि सम्पूर्णो योगसंवरः ॥१०६॥ संवृतः संवरेणैवं भवस्यान्तं व्रजेत् सुधीः । निश्छिद्रयानपात्रेण सांयात्रिक इवाम्बुधेः ॥१०७ ॥ प्रभोस्तया देशनया प्रबुद्धा बहवो जनाः। प्रव्रज्यां जगृहुः केपि केऽपि श्रावकतां पुनः॥१०८॥ १ उत्सेकः-उत्सेचनम्-पोषणम् । २ निराकुर्यात्-इति अध्याहार्यम् । ३ विजयेत-पराजिते कुर्यात् । Jain Education in For Private & Personal use only . Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये तृतीयं पर्व अष्टम: सगे ॥३४६॥ शीतलस्वामिचरितम् । CAUSAHARSASSESARK आनन्दाद्या एकाशीतिः प्रभोर्गणभृतोऽभवन् । देशनान्ते प्रभोश्चक्रेऽथाऽऽनन्दो धर्मदेशनाम् ॥१०९॥ आनन्ददेशनान्ते च नमस्कृत्य जगद्गुरुम् । स्थानं निजनिजं जग्मुः सुरा-ऽसुर-नरेश्वराः ॥११॥ तत्तीर्थभूर्ब्रह्मनामा यक्षस्यक्षश्चतुर्मुखः । पद्मासनः श्वेतवर्णश्चतुर्भिर्दक्षिणैर्भुजैः॥१११ ॥ मातुलिङ्ग-मुद्गरभृत्-सपाशा-ऽभयदायिभिः । वामैस्तु नकुल-गदा-ऽङ्कुशा-ऽक्षसूत्रधारिभिः ॥११२॥ तथोत्पन्ना त्वशोकेति मुद्गवर्णाऽदवाहना। बिभ्राणा दक्षिणी बाहुदण्डौ वरद-पाशिनौ ॥११३॥ फला-ऽङ्कशधरौ बाहू वहन्ती दक्षिणेतरौ । उभे अभूतां दशमार्हतः शासनदेवते ॥११४ ॥ उपास्यमानस्ताभ्यां च विजहे शीतलप्रभुः। ततः पूर्वसहस्रांस्त्रिमासोनां पञ्चविंशतिम् ॥ ११५॥ लक्षं मुनीनां साध्वीनां लक्षमेकं पडुत्तरम् । चतुर्दशपूर्वभृतां चतुर्दश शतानि च ॥ ११६॥ अवधिज्ञानधराणां द्वासप्ततिशती पुनः । सार्धाः सप्त सहस्रास्तु मनःपर्ययधारिणाम् ॥ ११७॥ शतानि सप्ततिरथ केवलज्ञानधारिणाम् । जातवैक्रियलब्धीनां सहस्रा द्वादशैव तु ॥ ११८॥ शतानि चाष्टपञ्चाशद् वादलब्धिमतां पुनः । श्रावकाणामुमे लक्षे नवाशीतिसहरुयपि ॥ ११९ ॥ श्राविकाणां चतुर्लक्ष्यष्टपञ्चाशत्सहस्रयुकू । इति जज्ञे परीवारः प्रभोर्विहरतः सतः॥ १२०॥ __ मोक्षकालेऽथ सम्प्राप्ते सम्मेताद्रिं ययौ प्रभुः । प्रपेदेऽनशनं तत्र सहस्रेणार्षिभिः सह ॥ १२१॥ मासान्ते वैशाखकृष्णद्वितीयायां निशाकरे । पूर्वाषाढागते स्वामी मोक्षेऽगात् तैः सहर्षिभिः ॥ १२२॥ कुमारभावे पूर्वाणां सहस्राः पञ्चविंशतिः । पञ्चाशत् पूर्वसहस्राः पृथिवीपरिपालने ॥ १२३ ॥ १ व्यक्षः -त्रिनेत्रः। * oर्णाब्जवा संवृ०॥ पाशाङ्कुशधरौ बाहू बिभ्रती द° संवृ० । SHOHRUHUSHUSHUSHAROOG शीतलजिनस यक्षयक्षिण्यौ परिवारादिच ॥३४६॥ Jain Education in For Private & Personal use only Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CAREERICASARALA प्रव्रज्यापालने पूर्वसहस्राः पञ्चविंशतिः। एवमायुः पूर्वलक्षमभृच्छ्रीशीतलप्रभोः॥१२४॥ सुविधिस्वामिनिर्वाणानिर्वाणं शीतलप्रभोः । सागरोपमकोटीषु व्यतीतासु नवखभूत् ॥ १२५॥ श्रीशीतलस्य मुनिभिः सह तैर्विमुक्तिमासेदुषो दिविषदां पतयो यथावत् । निर्वाणयानमहिमानमुदारशोभं चक्रुर्ययुर्निजनिजं पुनरेव लोकम् ॥ १२६ ॥ ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये तृतीये पर्वणि श्रीशीतलखामिचरितवर्णनो नामाष्टमः सर्गः ॥ ॥समाप्तं च तृतीयं पर्व ॥ श्रीसम्भवप्रभृतितीर्थकृतां तृतीयेऽष्टानां चरित्रमिह पर्ववरेऽष्टसर्गे । ध्येयं पदस्थमिव वारिरुहेऽष्टपत्रेऽनुध्यायतो भवति सिद्धिरवश्यमेव ॥१॥ ॥ ग्रन्थाग्रम्-१८०४ ॥ . पदस्थम्-शब्दरूपम्-जपरूपमिति । Jain Education Inter For Private & Personal use only allow.jainelibrary.org Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RRE समाप्तमिदं श्रीसम्भवजिनादिशीतलजिनपर्यन्ताष्टजिनचरितप्रतिबद्धं तृतीयं पर्व ॥ 5252 . Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ C A ॥ अहम् ॥ ॥ नमः श्रीधर्मकथानुयोगव्याख्यातृभ्यः स्थविरेभ्यः ॥ ॥ न्यायाम्भोनिधि जैनाचार्य-श्रीविजयानन्दमूरिवरपट्टालङ्कार-श्रीविजयवल्लभरिभ्यो नमः ॥ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविनिर्मित SSEROSOS त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् । Jain Education in %* For Private & Personal use only Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये ॥३४८॥ ORGANG चतुर्थ पर्व प्रथमः सर्गः श्रेयांसजिनचरितम् । EOSTOGOSTOCHOREOGRA**** श्रीश्रेयांसजिनादिद्वाविंशतिशलाकापुरुषचरितप्रतिबद्धं च तु थे पवें। प्रथमः सर्गः। श्रीश्रेयांसजिनादिचरितम् । eteccccco श्रीश्रेयांसप्रभोः पादाः श्रेयो विश्राणयन्तु वः । निःश्रेयसपथालोकदीपायितनखांशवः ॥१॥ श्रीश्रेयांसजिनेन्द्रस्य पवित्रितजगत्रयम् । लैवित्रं कर्मवल्लीनां चरित्रमिदमुच्यते ॥२॥ पुष्करवरद्वीपार्धे प्राग्विदेहेषु सुन्दरे । विजये कच्छसझेऽस्ति नाम्ना क्षेमेति पूर्वरा ॥३॥ महीभृन्मौलिमुकुटघृष्टाङ्ग्रिनलिनद्वयः । राजा नलिनगुल्मोऽभृद् गुणैरमलिनः सदा ॥४॥ स स्वामी मत्रिणो मन्त्रबलाकृष्टरिपुश्रियः । सुरराष्ट्रोपमं राष्ट्र सर्वारिष्टविवर्जितम् ॥ ५॥ दुर्गाणि जितवैतादयविद्याधरपुराणि तु । कोशांश्च श्रीदसर्वस्वाधरीकारपरायणान् ॥६॥ बलं हस्त्यश्व-पादात-रथच्छादितभूतलम् । असुहृदृदयक्षेत्रकर्षकान् सुहृदोऽपि च ॥७॥ राज्यस्य विकलाङ्गत्वं मा भूदिति धिया व्यधात् । जगदेकमहाबाहुबाहुँदन्तेयविक्रमः॥८॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥ वपु-यौवन-लक्ष्मीणां साराणामप्यसारताम् । सोऽमन्यत महाप्राज्ञो विवेकामलमानसः॥९॥ विश्राणयन्तु-यच्छन्तु । २ दीपायिताः-दीपसमानाः। ३ लवित्रम्-छेदकम् । ४ बाहुदन्तेयः-इन्द्रः। | श्रेयांसजिन पूर्वभवसम्बन्धः ACARRORSA ॥३४८॥ Jain Education in For Private & Personal use only . Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुभोजनेनाहरिव निशामिव कुशय्यया । कियन्तमपि सोऽनैषीत् कालं राज्येन शुद्धधीः॥१०॥ राज्यं रुजमिवोत्सृज्य तत्त्वतौषधिमानसः । वज्रदत्तर्षिणा दत्तां दीक्षामादत्त धर्मधीः॥११॥ तप्यमानस्तपस्तीनं सहमानः परीपहान् । कमेव क्रशयन्नङ्गं विजहार स निर्ममः॥१२॥ अर्हद्भक्त्यादिभिस्तैस्तैः स्थानैः प्रवचनोदितैः । उपार्जयामास दृढं तीर्थकृन्नामकर्म सः॥ १३ ॥ महातपाः शुभध्यानश्चतुःशरणतत्परः । काले प्राप्तावसानः स महाशुक्रदिवं ययौ ॥१४॥ ततश्च जम्बूद्वीपेऽस्मिन् भरतक्षेत्रभूषणम् । रत्ननूपुरवद् भूमेरैस्ति सिंहपुरं पुरम् ॥१५॥ सान्ततारका रत्नवलेभ्यस्तत्र वेश्मनाम् । श्रियं सदन्तशारस्य शारपट्टस्य विभ्रति ॥१६॥ तद्वप्रमेखलासूच्चैर्विश्रान्ता भान्ति वारिदाः । चक्षुरक्षाकृते दत्ताः कजेलस्थासका इव ॥ १७॥ वरिष्ठवनिताचारमओमञ्जीरशिञ्जितैः । वितन्यते श्रियो देव्या नित्यं सङ्गीतकोत्सवः॥१८॥ रत्नावकरवाहीनि स्रोतांस्यपि तदोकसाम् । यान्ति रत्नाकरस्रोतस्तुलां वर्षति वारिदे ॥ १९ ॥ आढ्यम्भविष्णुर्यशसा प्रभविष्णुर्भुजौजसा । विष्णुराज इति क्षमापस्तत्राभूद् विष्णुविक्रमः ॥२०॥ तत्रेन्द्रियजयो नाम गुणो बीजमिवावनौ । सस्यराशिमिवाऽसूत गुणराशिं समुज्वलम् ॥ २१ ॥ प्रंणते च विपक्षे च तुष्टा रुष्टाश्च तदृशः । ययुः स्वयंवरसक्त्वं श्रियोऽपि च भियोऽपि च ॥ २२॥ १ अर्हत्-सिद्ध-साधु-धर्मरूपं शरणचतुष्कम् । * मे रत्नं सिं संवृ०॥ २ वलभी वंशपञ्जरादिमयं गृहाच्छादनम् । ३ दन्तशार:-दन्तमयः शारः, भाषायाम्-'दांतनो पासो'। ४ शारपट्टः-पाशकपट्टः । ५ कजलस्थासका कज्जलतिलकम् । ६ चार:-गतिः । मजीरम्-नूपुरम् । शिक्षितम्-भूषणध्वनिः। ७ अवकरा-उत्करः। ८ नम्र शनी च । Jain Education Intern For Private & Personal use only Alum.jainelibrary.org. Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थ पर्व प्रथम सर्गः ॥३४९॥ श्रेयांसजिनचरितम् । दानधर्म इवौचित्यात् सूनृतेनेव भारती । अवदातेन यशसा शुशुभे तस्य विक्रमः ॥२३॥ गुणानां शौर्य-गाम्भीर्य-धैर्यादीनां स भूयसाम् । नित्यं क्रीडनसङ्गीतनिकेतनमिवाभवत् ॥२४॥ जिष्णोरिव शची रूपभ्राजिष्णुर्विष्णुरित्यभूत् । द्वितीयेव मही स्थैर्यात् पत्नी तस्य महीपतेः ॥२५॥ शिरीषसुकुमारस्य सा निजाङ्गस्य भूषणम् । निशातं खड्गधारावत् सतीव्रतमधारयत् ॥ २६ ॥ यथाऽभृदप्रतिच्छन्दो विक्रमेण स भूपतिः। तथा साऽप्यप्रतिच्छन्दा रूपलावण्यसम्पदा ॥२७॥ अलैंसा सा गतावेव न पुनर्धर्मकर्मणि । मध्यप्रदेश एवाभूत् तुच्छो न पुनराशये ॥ २८ ॥ तस्या राज्ञोऽपि च मिथोऽनुस्यूतमनसोरिव । अक्षया प्रीतिरभवदविघ्नं रममाणयोः॥२९॥ इतश्च शुक्रे नलिनगुल्मस्य पृथिवीपतेः । जीवः प्रकृष्टसङ्ख्यं स निजमायुरपूरयत् ॥३०॥ ज्येष्ठस्य षष्ठ्यां कृष्णायां श्रवणस्थे निशाकरे । च्युत्वा ततस्तस्य जीवो विष्णुकुक्षाववातरत् ॥ ३१ ॥ नारकाणामपि सुखमुयोतश्च जगत्रये । जज्ञे तदा क्षणं स्याद्धि कल्याणेष्वहतामिदम् ॥३२॥ सक्षिप्त इव वैताढ्यः श्वेतवर्णी महागजः। समत्स्यः शरदम्भोद इवोच्छृङ्गः सितो वृषः॥३३॥ उत्पुच्छो विधृतच्छत्र इव केसरिपुङ्गवः । साभिषेका महालक्ष्मीर्मूय॑न्तरमिवाऽऽत्मनः ॥ ३४ ॥ सुगन्धि सुमनोदाम मूर्तमिव यशः स्वकम् । सुधाकुण्डमिव ज्योत्स्नाप्लुतः पर्वनिशाकरः ॥ ३५ ॥ मार्तण्डमण्डलं दीप्रं दिवः सीमन्तरत्नवत् । ध्वजश्चलपताकश्च सशाख इव पादपः ॥३६॥ १ जिष्णुः इन्द्रः । २ तीक्षणम् । ३ अप्रतिच्छन्दः-अनुपमानः । । अलसा-मन्थरा आलस्ययुक्ता च । ५ तुच्छा-कृशा क्षुद्रा च । श्रवणनक्षत्रस्थिते । ७ ऊर्ध्वपुच्छः । ८ पूर्णिमाचन्द्रः। ९ स्वर्गस्य सीमन्तरववत्, भाषायाम्-'सीमन्त' इति 'सेंधो'। श्रेयांसजिनगर्भावतारः ॥३४९॥ Jain Education Inter For Private & Personal use only Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेयांसजिनजन्मादि पूर्णकुम्भो गरीयांश्च निधानं श्रेयसामिव । महापद्म पद्मसरः पद्महद इवापरः ॥ ३७॥ आरुरुक्षुरिव दिवमुत्कल्लोलो महार्णवः । अनुजं पालकस्येव विमानवरमायतम् ॥ ३८॥ रत्नपुञश्च सर्वस्वमिव रत्नाकरोद्धृतम् । निर्धूमश्चानलो भौममण्डलस्यानुहारकः॥३९॥ एते तदा विष्णुदेव्या महास्वमाश्चतुर्दश । मुखे विशन्तोऽदृश्यन्त तीर्थजन्मसूचकाः ॥४०॥ __तपस्यकृष्णद्वादश्यां श्रवणे खङ्गिलाञ्छनम् । स्वर्णवर्ण विष्णुदेवी सुखेन सुषुवे सुतम् ॥४१॥ अथाधोलोकवास्तव्या अष्टौ भोगङ्करादयः । दिकुमार्यः समाजग्मुर्विज्ञायाऽऽसनकम्पतः॥४२॥ तीर्थकुन्मातरं नत्वा 'मा भैषीर्वादपूर्वकम् । आत्मानं ज्ञापयित्वा च कृत्वा संवर्तकानिलम् ॥४३॥ परितः सूतिकागारमायोजनमथासृजन् । खामिमातुरदरे ता गायन्त्यश्चायतस्थिरे ॥४४॥ युग्मम् ॥ नन्दनोद्यानकूटस्था ऊर्ध्वलोकजुपोऽष्ट च । एत्य मेघङ्कराद्या दिक्कन्या देवीं प्रणम्य च ॥४५॥ खं ज्ञापयित्वा कृत्वा च दुर्दिनं गन्धवारिभिः । सिषिचुः क्ष्मां सूतिवेश्मपरितो योजनावधिम् ॥ ४६ ॥ विदधुः पुष्पवृष्टिं चाधाक्षुधूपं च सुन्दरम् । गायन्त्योऽर्हद्गुणांस्तस्थुर्विष्णुदेव्या अदूरतः ॥४७॥ ॥त्रिभिर्विशेषकम् ॥ रुचकस्य च पौरस्त्या देव्यो नन्दोत्तरादयः। अपाच्याः समाहाराद्याः प्रतीचीनास्त्विलादयः॥४८॥ अलम्बुसाद्यास्तूदीच्या अष्ट प्रत्येकमेत्य ताः । नत्वाऽर्हन्तं तदम्बां च ज्ञापयित्वा स्वमुच्चकैः ॥ ४९ ॥ १ अनुजः-लघुभ्राता। २ भौमः-मङ्गलः । अनुहारक:-अनुसारी। ३ तपस्य:-फाल्गुनः। ४ खड्गी-नाण्डकः, भाषायाम् 'गेंडो' इति । ५ आयोजनम्-योजनपर्यन्तम् । ६ दुर्दिनम्-मेघजं तमः, भाषायाम् 'वादळां' इति । ७ अधाक्षुः-ज्वाळयामासुः । त्रिषष्टि. ६० Jan Education in For Private&Personal Use Only . Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थं पर्व प्रथमः त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये सगे: श्रेयांसजिनचरितम् । ॥३५ ॥ धृत्वा दर्पण-भृङ्गार-व्यजन-श्वेतचामरान् । पूर्वादिदिक्क्रमेणास्थुर्गायन्त्यः स्वामिनो गुणान् ॥५०॥ ॥त्रिभिर्विशेषकम् ॥ चतत्र एत्य चित्राद्या रुचकस्य विदिग्भवाः । तद्वन्नत्वा विदिश्वस्थुर्गायन्त्यो दीपपाणयः॥५१॥ चतस्रो रुचकान्तस्था रूपाद्या दिकुमारिकाः । अर्हन्तमर्हदम्बा च नत्वा खंज्ञप्तिपूर्वकम् ॥ ५२॥ चतुरङ्गुलकोत्कर्ष स्वामिनालमखण्डयन् । खनित्वा विदरं तत्र निचख्नुस्तच तत्क्षणात् ॥ ५३॥ ॥ युग्मम् ॥ विदेर वज्ररत्नस्तदाऽऽपूर्योपरि तस्य च । बबन्धुर्निबिडं पीठं दुर्वया द्रागपूर्वया ॥५४॥ सूतिकावेश्मनस्तस्य चक्रुस्तिसृषु दिक्षु ताः । सिंहासनचतुःशालवन्ति रम्भागृहाणि च ॥५५॥ हस्तेऽर्हन्तं गृहीत्वाऽर्हन्मातरं च भुजे तथा । अपारम्भागृहचतुःशालसिंहासने न्यधुः ॥५६॥ शतपाकादिभिस्तैलैरुभावभ्यज्ये तत्र ताः। गन्धद्रव्यैः सूक्ष्मपिष्टैः सुस्पर्शमुदवर्तयन् ॥ ५७॥ प्राच्यरम्भागृहचतुःशालसिंहासने ततः। तौ न्यस्याऽस्लपयन् गन्ध-पुष्प-शुद्धोदकैश्च ताः॥५८ ॥ ततस्ताः परिधाप्योभौ वस्त्रा-ऽलङ्करणादिकम् । उदगम्भागृहचतुःशालसिंहासने न्यधुः॥ ५९॥ गोशीर्षचन्दनं दग्ध्वा सद्योऽरणिकृतानिना । तद्भसना बबन्धुस्ता रक्षाग्रन्थि द्वयोरपि ॥६॥ १ दीपहस्ताः। २ स्वपरिचयदानपूर्वकम् । ३ गतः, भाषायाम् 'खाडो' । दूर्वा भाषायाम् 'धरो' इति । ४ चतुःशालम्गृहप्रकारः, "चोसाल" इति भाषायाम् । ५ अभ्यज्य-विलिप्य । ६ न्यस्य-स्थापयित्वा। परिधाप्य-परिधान कारयित्वा । PIC उदग्-उत्तरम् । ९ अरणिकाष्ठघर्षणेन अग्निर्जायत इति प्रसिद्धम्। शीतलाजिनप्रव्रज्यादि ॥३५॥ Jan Education For Private Person Use Only Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्वतायुर्भवेत्याशीःपूर्वकं खामिकर्णयोः । ताः समास्फालयामान रनपाषाणगोलकौ ॥ ६१ ॥ अहंदर्हजनन्यौ तास्ततः सूतिगृहेऽनयन् । तयोरनतिरेऽस्थुर्गायन्त्यो मङ्गलान्यथ ॥ ६२॥ अथ शक्रः समागत्य स्वामिनः सूतिकागृहम् । पालकेन विमानेन प्रदक्षिण्यकृत द्रुतम् ॥६३॥ ऐशान्यां पालकं मुक्त्वा सूतिवेश्म प्रविश्य सः । अर्हन्तमर्हदम्बां च नमश्चक्रे पुरन्दरः ॥ ६४ ॥ दत्वाऽवस्वापिनी देव्याः पार्श्वर्हत्प्रतिरूपकम् । विन्यस्साथ विचके स पञ्च रूपाण्यथाऽऽत्मनः ॥६५॥ एकेन प्रभुमुद्धृत्य च्छत्रमन्येन चामरे । अन्याभ्यां वज्रं चान्येन पुरोरूपेण सोऽचलत् ॥६६॥ क्षणान्मेरावतिपाण्डुकम्बलामासदच्छिलाम् । शक्रः सिंहासने तत्राऽऽसाञ्चक्रेऽङ्कस्थितप्रभुः ॥६७॥ अथाऽच्युतप्रभृतयः कल्पेन्द्रा नव ते तथा । इन्द्रा भवनपतयो विंशतिश्चमरादयः॥ ६८॥ द्वात्रिंशद् व्यन्तराधीशाः कालप्रभृतयोपि च । सूर्या-चन्द्रमसाविन्द्रौ ज्योतिष्काणामुभौ पुनः॥६९॥ इति त्रिषष्टिस्तत्रेयुर्जन्मस्त्रात्रकृते प्रभोः। विचक्रुः पूर्णकुम्भादीन्द्राज्ञयाऽथाऽऽभियोगिकाः ॥७॥ अथाऽच्युतप्रभृतयः सर्वेऽपीन्द्रा यथाक्रमम् । स्वामिनः स्वपनं चक्रुः पवित्रैस्तीर्थवारिभिः ॥ ७१॥ अथेशानपतेरङ्के शको न्यस्य जगत्पतिम् । विचके दिक्कतुष्केपि चतुरः स्फाटिकान् वृषान् ॥ ७२ ॥ तेषां शृङ्गोद्गतैरन्ते मिलित्वा विनिपातिभिः । स्वामिनं स्त्रपयामास शक्रः शुचिभिरम्बुभिः॥७३॥ संहृत्य स्फाटिकानुक्ष्णः कृत्वा चर्चादिकं प्रभोः । उत्तार्याऽऽरात्रिकं चेति स्तोतुं शक्रः प्रचक्रमे ॥७४॥ * त्वाऽपस्वा संवृ०॥ १ प्रतिरूपकम्-प्रतिबिम्बम्-प्रतिमाम् । २ पूर्गकुम्भादि इन्द्राज्ञया इति सन्धिविश्लेषः । मि संवृ०॥ ३ पतद्भिः। ४ स्फटिकमयान् वृषभान् । । Jain Education Intonas For Private & Personal use only | Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थ पर्व प्रथम: सर्ग: श्रेयांसजिनचरितम् । ॥३५१॥ सर्वकल्याणकश्रेष्ठं जन्मकल्याणकं तव । विश्राणयतु कल्याणं कल्याणीभक्तिके मयि ॥ ७५॥ स्नपयाम्यथ चर्चामि ? किमर्चामि ? स्तवीमि किम् ? । त्वामितीश ! न तृप्तिमें त्वदाराधनकर्मणि ॥७६॥ वृषः कुतीर्थिकव्याघ्रत्रासितस्त्वयि रक्षके । अमुष्मिन् भरतक्षेत्रे खैरं चरतु सम्प्रति ॥ ७७॥ अद्य खयमधिष्ठाय हृदयायतनं मम । दिष्ट्या देवाधिदेव ! त्वं सनाथीकुरुषेतराम् ॥ ७८॥ न तथा भूषणं नाथ ! ममैभिर्मुकुटादिभिः। यथा शिरोऽग्रलुठितैस्त्वत्पादनखरश्मिभिः ॥७९॥ न तथा त्रिजगन्नाथ ! स्तूयमानस्य मागधैः । मम प्रमोदो भवति त्वद्गुणान् स्तुवतो यथा ॥८॥ रत्नसिंहासनस्थस्य न हि मध्येसभं तथा । उच्चैस्त्वं त्वत्पुरो भूमिनिषण्णस्य यथा मम ॥ ८१॥ खाराज्यसम्भवामेतां न कासामि स्वतत्रताम् । परतत्रश्चिरं भृयां नाथेन भवता प्रभो!॥८२॥ इति स्तुत्वा गृहीत्वेशं गत्वार्हन्मातुरन्तिके। संहत्याऽर्हत्प्रतिच्छन्दा-ऽवस्वापिन्यो न्यधाद्धरिः ॥८३॥ खामिसूतिगृहाच्छको मेरुशैलादथापरे । इन्द्रा जग्मुर्यथास्थानं विसृष्टा इव सेवकाः ॥८४॥ महान्तमुत्सवं चक्रे विष्णुराजोऽप्यथ प्रगे। तदा प्रमोदो मेदिन्यामेकच्छत्र इवाभवत् ॥ ८५॥ जिनस्य मातापितरावुत्सवेन महीयसा । अभिधां श्रेयसि दिने श्रेयांस इति चक्रतुः॥८६॥ धात्रीभिः शक्रादिष्टाभिर्लाल्यमानोऽथ पञ्चभिः । पिबन् शंकाऽऽहितसुधं स्वाङ्गुष्ठं स्वाम्यवर्धत ॥ ८७॥ ज्ञानत्रयधरोऽपीशो मौग्ध्यं बाल्योचितं दधौ । चण्डांशुरपि न प्रातश्चण्डतामवलम्बते ।। ८८॥ १ मङ्गलमयभक्तियुते । २ वृषो धर्मः बलीवर्दश्च। ३ उच्चस्त्वम्-उच्चस्थानस्थितत्वम्। ४ स्वर्गराज्यम् । ५ भवेयम् ।। ६ संहृत्य-अपहृत्य । ७ सर्वत्र समानः-एकरूपः। ८ यत्र इन्द्रेण सुधा स्थापिता। ९ सूर्यः । ॥३५॥ Jain Education Intern Notww.jainelibrary.org. Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेयांसचिनप्रव्रज्या RASEARCESSONSESEARSA सुरा-ऽसुर-नृकुमारैः क्रीडन् कालेन शैशवात् । आरोहद् यौवनं स्वामी स्यन्दनादिव कुञ्जरम् ॥ ८९॥ अशीतिधनुरुत्तुङ्गः स्वामी पित्रुपरोधतः । पर्यणेषीद राजकन्या भववैराग्यभागपि ॥ ९०॥ जन्मतो वर्षलक्षाणां गतायामेकविंशतौ । पितुः प्रार्थनया नाथः पृथ्वीभारमुपाददे ॥११॥ द्विचत्वारिंशतं वर्षलक्षाणि क्षोणिमण्डलम् । ररक्षाऽक्षीणमहिमा श्रेयांसः श्रेयसां निधिः ॥ ९२ ॥ खामी भवविरक्तोऽथ दीक्षामादित्सुरुत्सुकः। प्रैर्यतोपेत्य शकुनैरिव लौकान्तिकामरैः ॥ ९३ ॥ शक्रादेशात् कुबेरेण प्रेरितैर्जुम्भकामरैः । अर्थेन पूर्यमाणेन स्वाम्यदाद् दानमाब्दिकम् ॥ ९४ ॥ वत्सरान्ते समेत्येन्द्रर्जिनेन्द्रस्य व्यधीयत । दीक्षाभिषेक कर्मारिविजयायेव सत्वरम् ॥ ९५॥ दिव्याङ्गरागलिप्ताङ्गो रत्नभूषणभूषितः। मङ्गल्यदिव्यवसनो मूर्तिस्थमिव मङ्गलम् ।।९६ ॥ विनीतेनेव भृत्येन दत्तबाइबिडोजसा । अपरेन्द्रैरपि च्छत्र-चामरादिधरैर्वृतः ॥ ९७॥ आरुह्य रत्नैर्विमलां शिबिकां विमलप्रभाम्।समावृतः सुर-नरैः सहस्राम्रवणं ययौ॥९८॥त्रिभिर्विशेषकम्।। शिविकातः समुत्तीर्य तत्रौज्झद् भूषणादिकम । देवदृष्यं देवराजन्यस्तं स्कन्धे दधार च ॥ ९९ ॥ फाल्गुनस्य त्रयोदश्यां कृष्णायां श्रवणे प्रभुः । षष्ठेनोदेखनत् केशान् पूर्वाह्ने पञ्चमुष्टिना ॥१०॥ केशान् शक्रः समादाय खोत्तरीयाश्चलेन तान् । चिक्षेप च क्षीरनिधौ समीरण इव क्षणात् ॥१.१॥ निषिद्धे वज्रिणा मुष्टिसंज्ञया तुमुले ततः। प्रभुश्चारित्रमारोहद् विश्वाभयविभावनम् ॥ १०२॥ १ विवाहं चकार। २ प्रैर्यत+उपेत्य। ३ वार्षिकम् । तत्याज । ५ उत्पाटयामास । ६ पवनः। ७ सर्वेषाम् अभयकारकम् , जगतो वा अभयकारकम् । SRIGANGANGANAG A R Jain Education et e ral For Private & Personal use only . Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते महाकाव्ये ३५२॥ चतुर्य पर्व प्रथमः सर्गः श्रेयासजिनचरितम् । विश्वनाथेन सह च सहस्रमवनीभुजः। राज्यं तृणवदुत्सृज्य समुपाददिरे व्रतम् ॥ १०३॥ शाश्वतार्हत्प्रतिमानां कुर्वन्तोऽष्टाह्निकोत्सवम् । सुरा-ऽसुराधिपतयः खं खं स्थानं ततो ययुः॥१०४॥ द्वितीयेऽहनि सिद्धार्थपुरे नन्दनृपौकसि । पारणं परमान्नेन चकार परमेश्वरः ॥ १०५॥ अमरेवंसुधारादिपञ्चकं विदधे ततः। रत्नपीठं स्वामिपादस्थाने नन्दनृपेण तु ॥१०६॥ ततः स्थानादथ स्वामी ग्रामा-ऽऽकर-पुरादिषु । अप्रतिबद्धो विहाँ प्रावर्तत समीरवत् ॥ १०७॥ __ इतश्च पुण्डरीकिण्यां प्राग्विदेहशिरोमणौ । पुर्यभूत् सुबलो राजा स महीं चिरमन्वशात् ॥१०८॥ पार्श्वे मुनिवृषभर्षेः प्रव्रज्य समये च सः। तपस्तत्वा च मृत्वा च विमानेऽनुत्तरे ययौ ॥१०९॥ इतः पुरे राजगृहे विश्वनन्दिमहीपतेः । पन्यां प्रियङ्गौ विशाखनन्दी नाम सुतोऽभवत् ॥११॥ विश्वनन्दिनरेन्द्रस्यावरजो युवराडभृत् । विशाखभूतिर्मतिमान् वीर्यवान् विनयी नयी ॥ १११॥ विशाखभूतेर्भार्यायां धारिण्यां तनयोऽभवत् । मरीचिजीवः सुकृतैरनन्तरभवार्जितैः ॥ ११२॥ विश्वभूतिरिति नाम पितरौ तस्य चक्रतुः । धात्रीजनाल्यमानो व्यवर्धिष्ट क्रमाच्च सः॥ ११३ ॥ कलाकलापं सोऽध्यैष्ट प्रपेदे सकलान् गुणान् । अङ्गस्य मूर्त्तनेपथ्यं क्रमात् प्राय च यौवनम् ॥ ११४ ॥ सान्तःपुर: स चिक्रीडोद्याने पुष्पकरण्डके । मनोज्ञतरुभूयिष्ठे भूमिष्ठ इव नन्दने ॥ ११५॥ १ समीर:-पवनः। २ पुरि+अभूत्। *इतवाऽऽसीद राजगृहे विश्वनन्दीति भूपतिः। विशाखनन्दी तत्पत्यां | प्रियङ्गो तनयोऽभवत् ॥ संवृ०॥ ३ लघुबन्धुः युवराड् अभूत् । ४ भरतपुत्रस्य मरीचे वः । तस्य कथा प्रथमपर्वणि वर्णिता। ५ आकारयुक्तं नेपथ्यम् । त्रिपृष्ठवासुदेव-अचकबलदेवादीनां चरितम् ॥३५२॥ Jan Education in For Private & Personal use only Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAGARAAR विशाखनन्दी क्रीडेच्छुस्तत्र राजसुतोऽप्यभृत् । तत्तूद्यानं न जात्वासीद् रहितं विश्वभूतिना ॥११६॥ विशाखनन्दिजननीदास्यः पुष्पार्थमागताः । तत्रापश्यन् विश्वभूतिं क्रीडन्तं सप्रियाजनम् ॥११७॥ सेाः प्रियङ्गुदेवीं ताः समुपेत्येदमूचिरे । यौवराजिर्विश्वभूतिरेव राजेह नापरः ॥११८ ॥ सान्तःपुरोऽपि हि सदोद्याने पुष्पकरण्डके । स क्रीडति बहिस्ते तु सुतस्तिष्ठति वारितः ॥ ११९ ॥ तच्छुत्वा कुपिता देवी प्राविशत् कोपवेश्मनि । किमेतदिति सा सद्यो राज्ञा पृष्टाब्रवीदिदम् ॥ १२०॥ राजेव रमते विश्वभूतिः पुष्पकरण्डके । त्वयि सत्यपि मे सूनुर्बहिस्तिष्ठति रङ्कवत् ॥१२१॥ राजाऽप्यूचे व्यवस्थेयं कुलेऽस्माकं हि मानिनि ! । क्रीडत्येकसिन कुमारे द्वितीयः प्रविशेन हि ॥१२२॥ इत्याख्यातेऽपि भूपेन सा नाऽबुद्ध मनखिनी । उपायज्ञस्ततो राजा यात्राभेरीमवादयत् ॥ १२३ ॥ आज्ञा पुरुषसिंहाख्यः सामन्तो न करोति नः । इति तस्मै प्रस्थिताः स्म इत्युक्तिं च नृपोऽकरोत ॥१२४॥ तच्छ्रुत्वा सम्भ्रमाद् विश्वभूतिरेत्याऽब्रवीदिदम् । मयि सत्यपि किं तातः स्वयं युद्धाय यास्यति ॥१२५॥ इत्याद्युक्त्वा सनिबन्धं निवार्य पृथिवीपतिम् । विश्वभूतिबलयुतस्तत्सामन्तभुवं ययौ ॥ १२६ ॥ श्रुत्वा कुमारमायान्तं स सामन्तः ससम्भ्रमम् । अभ्येत्य भृत्यवद् भक्त्या निनाय निजवेश्मनि ॥१२७॥ वामिन् ! किं करवाणीति वदन्नग्रे कृताञ्जलिः । हस्त्यश्वाद्युपंदादानाद् विश्वभूतिमरञ्जयत् ॥१२८॥ विरुद्धादर्शनाद् विश्वभूतिर्निववृते ततः। पथा यथागतेनैव को हि कुप्येदनांगसे १ ॥१२९॥ इतश्च विशाखनन्दी राज्ञोद्याने प्रवेशितः । देशं भ्रान्त्वा विश्वभूतिरप्यागात् तत्र पूर्ववत् ॥१३०॥ १ युवराजपुत्रः। २ उपदा-उपायनम् । ३ निरपराधाय । Jain Education Internal For Private & Personal use only Plaw.jainelibrary.org. Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ पर्व प्रथमा त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये सर्गर श्रेयांसजिनचरितम् । ॥३५३॥ विशाखनन्दी मध्येऽस्तीत्युदित्वा वेत्रपाणिना । वारितः स तथैवाऽस्थान्मर्यादा-स्थामवारिधिः ॥१३१॥ दध्यौ चैवं विश्वभूतिस्तदाऽहममुतो वनात । वनद्विप इवाऽऽकृष्टश्छद्मना ही! करोमि किम् ॥१३॥ एवं कुमारः कुपितः कपित्थं फलमालिनम् । मुष्टिना ताडयामास दन्तेनेव मतङ्गजः॥१३३ ॥ कपित्थैः पातितैश्छन्नां परितस्तदधोभुवम् । प्रदर्शयन् विश्वभूतिस्तमूचे वेत्रधारिणम् ॥ १३४ ॥ इत्थङ्कारं पातयामि सर्वेषां वः शिरांस्यपि । यदि ज्यायसि मे ताते भक्तिर्न ह्यन्तरा भवेत् ॥ १३५ ॥ यदर्थ वचनोपाय एवं हन्त ! प्रवर्तते । तदलं मम तैोंगीपणैर्भोगिंभोगवत् ॥ १३६ ॥ एवमुक्त्वा विश्वभूतिर्विभूतिं तृणवजहौ । सम्भूतमुनिपादान्ते गत्वा च व्रतमाददे ॥ १३७ ॥ तच्च श्रुत्वा विश्वनन्दी सान्तःपुरपरिच्छदः। सहितो युवराजेन स्वयं तत्र समाययौ ॥ १३८॥ सूरिपादान् नमस्कृत्य विश्वभूतिमुपेत्य च । विश्वनन्दी निरानन्दः सगद्गदमदोऽवदत् ॥ १३९ ॥ अस्मानापृच्छथ सर्व त्वमकार्वत्स! सर्वदा । सहसा कृतवानेतत् किमस्मद्भाग्यसनयात् ॥१४॥ त्वय्याशा राज्यधरणे ताताऽस्माकं सदैव हि । अकाण्डे किमेभाजीस्तां त्वं त्राता व्यसनेषु नः॥१४१॥ मुश्चाऽद्यापि व्रतं वत्स ! भुङ्ग भोगान् यदृच्छया । रमख खैरमुद्याने प्राग्वत् पुष्पकरण्डके॥१४२॥ विश्वभूतिरथावोचदलं मे भोगसम्पदा । सुखं वैषयिकमिदं वस्तुतो दुःखमेव हि ॥ १४३ ॥ १ वेत्रपाणिः-द्वारपालः। २ मर्यादायाः स्थानः-पराक्रमस्य च समुद्रः। ३ फलशोभितं कपित्थवृक्षम् , भाषायाम् 'कमित्य' इति 'कोहुँ'। भोगी-सर्पः भोगः-फणा। ५ भनां चकार । ६ विलासं कुरु । ॥३५३॥ Jain Education in W w w .jainelibrary.org. Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाशन्ति भवकारायां खजनस्नेहतन्तवः । जन्तवस्तैर्हि मुह्यन्ति लालाभिरिव मर्कटाः ॥१४४॥ किश्चिन्नातः परं वाच्यश्चरिष्यामि तपः परम् । परलोके सह याति सहायीभूय तत् खलु ॥१४५॥ इति तेनोदिते राजा सानुतापो ययौ गृहम् । विश्वभूतिर्मुनिरपि व्यहाद् गुरुणा सह ॥ १४६ ॥ षष्ठा-ऽष्टमादिनिरतो गुरुशुश्रूषणोद्यतः । क्रमात् सोऽधीतसूत्रार्थो भूयांसं कालमत्यगात् ॥ १४७॥ गुरोरनुज्ञयैकाकिविहारप्रतिमाधरः। स विहर्तुं प्रववृते ग्रामा-ऽऽकर-पुरादिषु ॥ १४८॥ विविधाभिग्रहपरो विहरनेकदा च सः । विश्वभूतिर्महासाधुर्जगाम मथुरां पुरीम् ।। १४९॥ पैतृष्वस्रयीमुद्वोढुं मथुराराजकन्यकाम् । विशाखनन्दी तत्राऽऽगात् तदा च सपरिच्छदः॥१५०॥8 विश्वभूतिश्च मासान्तपारणाय परिभ्रमन् । विशाखनन्दिशिबिरं निकपा समुपाययौ ॥१५१॥ विशाखनन्दिने यान्तं पुरुषास्तमदर्शयन् । विश्वभूतिकुमारोऽसाविति व्याहारिणो मुहुः ॥१५२॥ विशाखनन्दिनो रोषः सद्यस्तदर्शनादभत । गवैकया च पर्यस्तो विश्वभूतिस्तदाऽपतत् ॥ १५३॥ विशाखनन्दी हसित्वा विश्वभूतिमदोऽवदत । कपित्थपातनं स्थाम तत् क्वेदानीमहो! गतम् ॥१५॥ विशाखनन्दिनं दृष्ट्वा विश्वभूतिरैमर्षणः । गृहीत्वा शृङ्गयोस्तां गां भ्रमयामास पूलवत् ॥ १५५ ॥ | ततो निवृत्तो दध्यौ च विश्वभूतिरिदं हृदि । मय्यद्यापि सरोषोऽयं निःसङ्गेऽपि हि दुर्मनाः॥१५६॥ १ बन्धनरूपा भवन्ति । २ लाला भाषायाम् 'लाळ' इति । 'मर्कट' इति भाषायाम् करोळियो। ३ पितृष्वसुः पुत्रीम् । पितृवसा भाषायाम् 'फई' इति । ४ समीपम् । ५पर्यस्तः-आघातं प्रापितः । ६ स्थाम-पराक्रमः। ७ अमर्षणः असहनशीलः। ८ पूल: भाषायाम् 'पूळो' इति । Jan Education inte ( 6 . Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते महाकाव्ये ॥३५४॥ Jain Education Inte अनेन तपसोग्रेण मृत्यवेऽस्य भवान्तरे । भूयासं भूरिवीर्योऽहं निदानं चेति सोऽकरोत् ॥ १५७ ॥ सम्पूर्णकोटिवर्षायुरनालोच्य च तन्मृतः । महाशुक्रे विश्वभूतिरुत्कृष्टायुः सुरोऽभवत् ।। १५८ ।। इतश्च पोतनपुरं पुरमस्त्युच्च गोपुरम् । अपाग्भरतवर्षार्धभुवो मकुटसन्निभम् ॥ १५९ ॥ अभूत् पुरे तत्र रिपुप्रतिशत्रुर्महीपतिः । शोभमानो गुणैस्तैस्तैर हर्पतिरिवांशुभिः ॥ १६० ॥ षाड्गुण्येन स षट्खण्ड्या भरतक्षेत्रवद् बभौ । उपायैरपि चतुर्भिर्दन्तैरिव सुरद्विपः ॥ १६१ ॥ स सिंह इव शौर्येण स्तम्बेरंम इवौजसा । कन्दर्प इव रूपेण धिया गुरुरिवाऽभवत् ॥ १६२ ॥ अवनीसाधनविधावतिप्रकटपाटवौ । मिथो धी- विक्रमौ तस्य व्यभ्रूष्येतां भुजाविव ॥ १६३ ॥ भद्रेति नाम्ना महिषी भद्राणां भद्रमास्पदम् । बभूव भूपतेस्तस्य भूरिवाऽऽतशरीरिका ॥ १६४ ॥ पतिभक्त्या केवचिता यार्मिंकीव ररक्ष सा । अनारतं जागरूका शीलं रत्ननिधानवत् ।। १६५ ।। अक्ष्णोः सुधावँर्तिरिव राज्यलक्ष्मीरिवाङ्गिनी । मूर्त्ता कुलव्यवस्थेव चकासामास साऽनिशम् ॥ १६६ ॥ च्युत्वा सुबलजीवोऽपि स विमानादनुत्तरात् । अन्यदा तु महादेव्यास्तस्याः कुक्षाववातरत् ।। १६७ ॥ ददर्श सुखसुप्ता च यामिन्याः पश्चिमे क्षणे । चतुरः सा महाखमान् सूचकान् बलजन्मनः ।। १६८ ॥ तदैव परमानन्दजनिताभिभवादिव । दूरं गतायां निद्रायां राज्ञी राज्ञे व्यजिज्ञपत् ॥ १६९ ॥ १ गोपुरम् - द्वारम् । २ स्तम्बेरमः हस्ती । ३ गुरुः- वाचस्पतिः । ४ आतशरीरिका-पट्टराज्ञीशरीरधारिणी भूः पृथिवी ५ कवचयुक्ता । ६ यामिकी- भाषायाम् 'पहरेदार' । ७ सुधाया वर्तिः इव । वर्तिः भाषायाम् 'वाट - दीवेट' । ८ परमानन्देन जनितात् पराजयाद् इव निद्रा दूरं गता । इव । चतुर्थ पर्व प्रथमः सर्गः श्रेयांस जिन चरितम् । ॥३५४॥ . Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दन्तावलश्चतर्दन्तः स्फटिकाद्रिनिभो मया । दृष्टो विशन् खवक्रान्तरेभ्रान्तरिव चन्द्रमाः॥१७॥ शरदभ्रमिवाऽऽवर्त्य निर्मितो निर्मलद्युतिः । ककुमानुच्चककुदोऽथ गर्जन्नृजुवालधिः ॥ १७१॥ निशाकरः कराङ्करैर्दरदूरं प्रसारिभिः । कर्णावतंसरचनां चिन्वन्निव दिशामथ ॥ १७२॥ ततश्च पौरुन्निद्रैमञ्जगुञ्जन्मधुव्रतैः । पूर्ण सरः शतमुखीभूय गायदिवोचकैः ॥ १७३ ॥ स्वामिन्नमीषां स्खमानां फलं किमिति शंस मे । प्रष्टुमर्हो न सामान्यजनो हि खममुत्तमम् ॥ १७४ ॥ राजाऽपि व्याजहाराथ देवि ! देव इव श्रिया । लोकोत्तरबलो भावी बलभद्रस्तवाऽऽत्मजः ॥ १७५ ॥ श्वेतरश्मिमिव प्राची श्वेतवर्ण महाभुजम् । अशीतिधनुरुत्तुङ्ग कालेनाऽसूत सा सुतम् ॥ १७६ ॥ पुत्ररत्ने समुत्पन्ने स तत्र पृथिवीपतिः । चक्ररत्ने चक्रवर्तीवोत्सवं व्यधितोच्चकैः ॥ १७७ ॥ शुमेऽहनि शुभ चन्द्रे विच्छेदेन महीयसा । चकाराऽचल इत्याख्यां तस्य सूनोमहीपतिः॥ १७८॥ दिने दिने वपुश्छायां वितन्वन्नधिकाधिकाम् । अवर्धत स धात्रीभिः सारणीभिरिवाङ्किपः ॥ १७९ ॥ ___ अचलस्य तु जातस्य गते काले कियत्यपि । भद्रा देवी दधौ गर्भ प्रसूनमिव केतकी ॥१८॥ सर्वलक्षणसम्पूर्णा पूर्णे काले नृपप्रिया । असूत सा दुहितरं जाह्नवीव सरोजिनीम् ॥ १८१॥ तस्या मृगाङ्कवाया मृगावकचक्षुषः । मृगावतीति विदधे नामधेयं महीभुजा ॥ १८२ ॥ दन्तावल:-हस्ती। २ अभ्रान्तर्-अभ्रमध्ये चन्द्र इव । ३ ककुद्मान्-बलीवर्दः । उच्चककुदः-महास्कन्धः। ४ वालधिः| पुच्छम् । ५ उन्निद्रम्-विकसितम्। ६ शतमुखैः संयुक्तं भूत्वा । ७ अर्हः योग्यः। ८ लोकोत्तरबल:-अलौकिकबलः। ९ विच्छर्द:-वैभवः। १. छाया-कान्तिः। ११ प्रसूनम्-कुसुमम् । १२ शावक:-शिशुः। Jain Education inte For Private & Personal use only Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरिते महाकाव्ये ।। ३५५ ।। Jain Education Internat अङ्काद सञ्चरन्ती तापसानां मृगीव सा । वृद्धिमासादयामास निष्प्रत्यूहं मृगेक्षणा ॥ १८३ ॥ तया कटिस्थया धात्र्यो विचरन्त्यो गृहाङ्गणे । गृहस्थूणा इव रत्नशालभञ्ज्यश्चकाशिरे ॥ १८४ ॥ बाल्यं क्रमेण लङ्घित्वा प्रपेदे साथ यौवनम् । स्मरोजीवनजीवातु वपुर्लक्ष्मीविशेषकम् ॥ १८५ ॥ तस्या वक्रं दन्तपैत्रमिवेन्दो भ्रूलताच्छलात् । नेत्रे च कृष्णधवले सभृङ्गे इव कैरवे ।। १८६ ॥ कण्ठश्च लटभो नालमित्र वक्रसरोरुहः । पश्चेषोरिव तूणीरौ पाणी च सरलाङ्गुली ॥ १८७ ॥ वपुर्लावण्यसरितश्चक्रवाकाविव स्तनौ । मध्यं कृशतरं भूरि स्तनभारश्रमादिव ॥ १८८ ॥ क्रीडावापी स्मरस्येव नाभिर्गाम्भीर्यशालिनी । तटी रत्नाचलस्येव श्रोणिभित्तिर्गरीयसी ॥ १८९ ॥ ऊरू च कदलीस्तम्भविभ्रमौ क्रमवर्तुलौं । पादौ सरलजङ्घाकावुन्नालेंनलिने इव ॥ १९० ॥ एवं विभक्तावयवा नव्यया यौवनश्रिया । अपि विद्याधरस्त्रीणामधिदेवीव साऽशुभत् ॥ १९९ ॥ यौवनश्री वर्धिष्ट मृगावत्या यथा यथा । भद्राया ववृधे चिन्ता तद्वरार्थे तथा तथा ॥। १९२ ॥ चिन्ता ममेव राज्ञोऽपि वरार्थेऽस्यां भवत्विति । तां प्रास्थापयदन्येद्युर्भद्रादेवी तदन्तिके ॥ १९३ ॥ स्मरेषु जातवैधुर्यात् तां पुत्रीत्यविदन्निव । विचिन्तयामास रिपुप्रतिशत्रुरिदं हृदि ॥ १९४ ॥ अहो ! किमपि सौन्दर्य जैत्रमस्त्रं मनोभुवः । जगत्रयस्त्रैणजयलीला दुर्ललितं तनोः ॥ १९५ ॥ १ निष्प्रत्यूहम् - निर्विघ्नम् । २ स्थूणा स्तम्भः । शालिभञ्जी - पुत्तलिका । ३ जीवातुः - जीवनौषधम् । ४ विशेषकम् - तिलकम् । ५ इन्दो: दन्तपत्रम्, भाषायाम् दांतियो । ६ भ्रमरसहिते । ७ लटभः सुन्दरः । ८ नालम् कमलदण्ड इव । ९ 'पाणी' प्रथमाद्विवचनम् । १० श्रोणिः -कटिः । ११ क्रमेण गोलाकारौ । १२ उन्नाल नलिने ऊर्ध्वनायुक्ते कमले । नालम् - कमलदण्डः । १३ विजयकारि । १४ स्त्रैणम् - स्त्रीसमूहः । * जये युवत्या ललि' संबृ० । 'जये अस्या दुर्ल० सं० ॥ चतुर्थ पर्व प्रथमः सर्गः श्रेयांस जिन चरितम् । ।। ३५५ ।। ww.jainelibrary.org Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुलभं भूमिसाम्राज्यं स्वर्गसाम्राज्यमप्यहो! । इयं तु दुर्लभा मन्ये बाला हृदयवल्लभा ॥१९६ ॥ सुरा-ऽसुर-नरेन्द्राणां पुण्येभ्योऽप्यतिशायिभिः । उपस्थितेयं मे पुण्यैर्जन्मान्तरशतार्जितैः ॥ १९७॥ एवं विचिन्त्य नृपतिः प्रियालापपुरःसरम् । अङ्कमारोपयामास तां सद्यः प्राणवल्लभाम् ॥ १९८॥ अनुरागे स आरोप्य स्पर्शा-ऽऽलिङ्गन-चुम्बनैः। तां जरत्कनुकिवरैरन्तःपुरमनाययत् ।। १९९ ॥ पौरलोकान् समाहूय सह प्रकृतिभिस्ततः । लोकापवादरक्षार्थमपृच्छत् पृथिवीपतिः ॥२०॥ मदीयभूमौ ग्रामेषु पुरेष्वन्यत्र वा क्वचित् । यत् समुत्पद्यते रत्नं तत् कस्येति निवेद्यताम् ॥ २०१॥ लोकोऽप्यूचे भवद्भूमौ यद् रत्नं जायते क्वचित । तस्य स्वामी भवानेव नान्यो भवितुमर्हति ॥ २०२॥ इति तं निर्णयं स त्रिर्गृहीत्वा पृथिवीपतिः। तेषां द्राग् दर्शयामास निजकन्यां मृगावतीम् ॥ २०३ ॥ इत्युवाच च तान् भूयः कन्यारत्नमिदं हि मे । इदानीं परिणेष्यामि स्वयं युष्मदनुज्ञया ॥२०४॥ इत्युक्ते लञ्जिताः पौरा ययुर्निजनिजं गृहम् । गान्धर्वेण विवाहेन पर्यणैषीच्च तां नृपः ॥२०५॥ खसुतायाः पतिरभूत् तेन तस्य महीपतेः । नाम प्रजापतिरिति पप्रथे पृथिवीतले ॥ २०६॥ नवं कुलकलङ्क तं हसनीयं जनेखिले । महालजाकरं पत्युः श्रुत्वा भद्राऽत्यलज्जत ॥ २०७॥ सहाऽचलेन पुत्रेण साऽचालीद् दक्षिणापथे । श्रेयान् स देशो नो यत्र श्रूयन्ते दुर्जनोक्तयः ॥२०८॥ मातुः कृते दक्षिणस्यां विश्वकर्मेव नूतनः । माहेश्वरीति नगरीमस्थापयदथाऽचलः॥२०९ ॥ तां च श्रीद इवाऽयोध्यामाहृत्याऽऽहृत्य सर्वतः । हिरण्यैः पूरयामास बलदेवोऽचलाभिधः ॥ २१०॥ १ जरत्कञ्चुकिनः-वृद्धकञ्जुकिनः; कञ्चुकी-अन्तःपुररक्षकः । २ प्रकृतिः प्रधानमण्डलम् । ३ अयोध्यानगरीम् । त्रिषष्टि. ६१ Jain Education Inter For Private & Personal use only Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्व पर्व प्रथमः त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये ॥३५६॥ सगे: श्रेयांसजिनचरितम् । कुलीनैः सचिवैरात्मरक्षैर्दासजनैर्वृताम् । मूर्त्तामिव पुरीदेवीं मातरं तत्र सोऽमुचत् ॥ २११ ॥ भद्रापि स्त्रीशिरोरत्नं शीलालङ्करणा सती । देवपूजादिषट्कर्मरता तस्यामवास्थित ॥ २१२ ॥ भक्तिमान् बलदेवोऽपि तत् पोतनपुरं ययौ । यादृशस्तादृशो वाऽपि पूजनीयः पिता सताम् ॥२१३॥ शुश्रूषमाणः पितरं पूर्ववत् तत्र चाऽचलः । तस्थौ न पूज्यचरितं चर्चयन्ति मनीषिणः॥ २१४॥ राजाऽपि स्थापयामास तामग्रमहिपीपदे । मृगावती मुंगदृशं मृगलक्ष्मेव रोहिणीम् ।। २१५॥ कियत्यपि गते काले महाशुक्रात् परिच्युतः। विश्वभूतिमुने वस्तस्याः कुक्षाववातरत् ॥ २१६॥ यामिन्याः पश्चिमे यामे सूचका विष्णुजन्मनः । देव्या ददृशिरे स्वमाः सप्तैते सुखसुप्तया ॥ २१७ ॥ तत्राऽऽदी केसरियुवा कुकमारुणकेसरः । इन्दुलेखानिभनखश्चमरोपमबालधिः ॥२१८॥ कुञ्जराभ्यां पूर्णकुम्भहस्ताभ्यां क्षीरवारिभिः । क्रियमाणाभिषेका च पद्मा पद्मासनस्थिता ॥ २१९ ॥ ध्वंसमानो महाध्वान्तं दोषाऽपि जनयन्त्रहः । उदण्डतेजःप्रसरस्त्विषामधिपतिस्ततः ॥ २२०॥ स्वच्छ-स्वादुपयःपूर्णः पुण्डरीकार्चिताननः । सौवर्णघण्टिकः पुष्पमाली कुम्भस्ततोऽपि च ॥ २२१॥ नानाजलचराकीर्णो रत्नसम्भारभासुरः । गगनोदश्चिकल्लोलस्ततः कल्लोलिनीपतिः ॥ २२२ ॥ पञ्चवर्णमणिज्योतिःप्रसरेगेगनाङ्गणे । विपश्चितेन्द्रचापश्री रत्नानां सश्चयस्ततः॥ २२३॥ धूर्मध्वजच निधूमो ज्वालापल्लविताम्बरः। दृशोः सुखंकरालोकः सप्तमश्चेति सप्तं ते ॥ २२४ ॥ १ आकारधारिणी नगरीदेवीमिव । * मृगनेत्रां मृ संकृ॥ २ मृगलक्ष्मा-चन्द्रः। ३ दोषा-रात्रिः। ४ स्विद-कान्ति:, तदधिपतिः सूर्यः। ५ घण्टिका-भाषायाम् 'घंटडी'। ६ उदबी-ऊर्ध्वगामी। विपञ्चितम्-विस्तीर्णम् । ८ धूमध्वजा-अग्निः । ९अम्बरम्-गगनम्। सुखाक संवृ०॥ सप्तके संवृ.॥ ॥३५६॥ Jain Education in Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PROGREADCCCCCESCORRY उद्बुद्धया तयाऽऽख्यातान् स्वमान् व्याख्यन्महीपतिः। अर्धचक्री तव सूनुनूनं देवि! भविष्यति ॥२२५॥ राज्ञा सद्यः समाहूय पृष्टा नैमित्तिका अपि । स्वमांस्तथैव व्याचख्युर्विसंवादो न धीमताम् ॥ २२६ ॥ पूर्णे काले च सा देवी सर्वलक्षणलक्षितम् । अशीतिधनुरुत्तुङ्गं कृष्णाङ्गं सुषुवे सुतम् ॥ २२७ ॥ प्रससाद ककुपचक्रमुल्ललास वसुन्धरा । जहर्ष च जनः सर्वस्तस्येव नृपतेर्मनः॥२२८॥ कारागारात् पुरा बद्धान् गोपो गा इव वाटकात् । हृष्टो रिपूनपि रिपुप्रतिशत्रुरथामुचत् ॥ २२९ ॥ यथाकामं ददौ सोऽर्थानर्थिभ्यः कामधेनुवत् । कतुं स्थानमिवैष्यन्त्या अर्धचक्रधरश्रियः॥२३०॥ तथाऽभूदुत्सवः प्राज्यो जने तस्मिन् निरन्तरः । यथा सपुत्रजन्मेव सोद्वाह इव सोऽभवत् ॥ २३१ ॥ मङ्गल्यपाणयो नार्यो ननृतू राजवेश्मनि । मिथः सङ्घर्षतो ग्रामागमाश्लेषपराः पुरः ॥ २३२॥ स्थाने स्थाने तोरणानि सङ्गीतानि पदे पदे । अजायन्त पुरे तस्मिन्नभितो राजवेश्मवत ॥ २३३ ॥ दृष्ट्वा वंशत्रयं पृष्ठे त्रिपृष्ठ इति भूपतिः। नाम तस्याकरोत सूनोरुत्सवेन महीयसा ॥ २३४ ॥ लाल्यमानः स धात्रीभी रम्यमाणोऽचलेन च । वासुदेव स्त्रिपृष्ठाख्यो व्यवर्धत शनैः शनैः ॥ २३५॥ स बालो बलभद्रेण प्रवणत्पादघेरिः । अग्रेसरेण चिक्रीड प्रतिकारेण हस्तिवत ॥ २३६ ॥ लीलयैव महाप्राज्ञः स उपाध्यायसाक्षिकम् । प्रतिविम्बमिवाऽऽदर्शो जग्राह सकलाः कलाः ॥ २३७ ॥ ककुपचक्रम्-दिशामण्डलम् । * °चक्रं प्रापोच्छासं वसु संबृ० ॥ २ वाटकः-भाषायाम् 'वाडो'। ३ पुत्रजन्मसहित इव, विवाहसहित इव । उदाहः विवाह । ४ पृष्ठम्-भाषायाम् 'पीठ' 'वांसो' । अयं समनः श्लोकः 'यदवोचाम' इत्युल्लिख्य अक्षरशः समुदतः आचार्य हेमचन्द्रेण अभिधानचिन्तामणिकोशस्वोपज्ञटीकायाम् कां०३ श्लो० ३५९ पृ. २७९ । ५ घरि:| भाषायाम् 'घुघरी'। ६ आदर्श:-भाषायाम् 'अरिसो'-दर्पण । Jain Education inte For Private & Personal use only ___ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थ पर्व प्रथमः सर्गः प्राडयाऽपि प्रचलतान्नोऽपि नृदन्ति श्रेयांस जिन ॥३५७॥ । वेल्मीकन्ति से चरितम् । क्रमेण कवचहरो दृढोरस्को महाभुजः । बभूव बलभद्रस्य सवया इव सोऽनुजः ॥ २३८ ॥ असञ्जातान्तरौ नित्यं क्रीडन्तौ भ्रातरावुभौ । बभ्राजाते मूर्तिमन्तौ पक्षाविव सिता-सितौ ॥ २३९॥ नील-पीताम्बरधरौ तौ ताल-गरुडध्वजौ । अशोभेतां स्वर्णशैला-ऽञ्जनाद्री इव जङ्गमौ ॥ २४०॥ क्रीडयाऽपि प्रचलतोस्तयोरचल-कृष्णयोः। पादन्यासर्वज्रपातैरिवाऽकम्पत मेदिनी ॥ २४१॥ तयोरारूढयोः प्रौढदन्तिनोऽपि नृदन्तिनोः । कुम्भस्थले करतलाऽऽस्फाललीलां न सेहिरे ॥ २४२ ॥ ताभ्यां पर्यस्यमानानि क्रीडया दोभिरुर्जितैः । वैल्मीकन्ति म शृङ्गाणि महाशिखरिणामपि ॥ २४३॥ दैत्यादिभ्योऽपि निर्भीकावितरेभ्यस्तु का कथा? । तौ कुमारावजायेतां शरण्यं शरणार्थिनाम् ॥ २४४॥ विनाऽचलं न त्रिपृष्ठो न त्रिपृष्ठं विनाऽचलः । एकात्मानौ द्विशरीराविव तौ सह चेरतुः ॥ २४५॥ __ इतश्चाऽऽसीत् पुरे रत्नपुरे नीलाञ्जनाप्रमः । प्रतिविष्णुरश्वग्रीवो मयूरग्रीवनन्दनः ॥ २४६ ॥ सोऽशीतिधनुरुत्तुङ्गो नवनीधरच्छविः । चतुरशीत्यब्दलक्षप्रमितायुर्महाभुजः ॥ २४७॥ तस्य दोर्दण्डयोः कण्डूर्नाऽशाम्यद् वैरिकुट्टनैः । सिंहस्येव महाँकुम्भिकुम्भस्थलविपाटनैः ॥ २४८॥ महौजाः स महाबाहुर्महाहवंकुतूहली । पिप्रिये न तथा ननैयुध्यमानैर्यथाऽरिभिः॥ २४९॥ नित्यं नेत्रारविन्दानामश्रुवृष्टिं प्रवर्तयन् । तत्प्रतापोऽरिनारीपु वारुणास्त्रमिवाऽभवत् ।। २५० ॥ कवचहर:-कवचहरणसमर्थः । २ शोभितौ स्तः। ३ प्रौढगजाः । दन्ती-गजः, नररूपदन्तिनोः। ४ परिक्षिप्यमाणानि । Cli५ वल्मीकसदृशानि भवन्ति । वल्मीकम्-भाषायाम् 'बांबी-राफडो' इति । ६ प्रसूः-पुत्रः। नीरधरो मेघः। छविः कान्तिः । MIC कुम्भी-गजः। ९ आहवः-समराङ्गणम् । १० पिप्रिये-प्रसन्नता प्राप्तः । ॥३५७॥ Jain Education Intern For Private & Personal use only . Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्य चाऽऽक्रान्तदिक्ककं करे चक्रमलक्ष्यत । उत्पातभूतो द्विषतां द्वितीय इव भास्करः ॥२५१ ॥ हृदयस्थो विदित्वाऽस्मान् विरुद्धान् मा वधीदिति । नाभक्ति मनसाऽप्यस्य विदधुर्वसुधाधिपाः ॥ २५२॥ योगिनः परमात्मानमिव तं हृदयान्निजात् । न जातूत्तारयामासुः सर्वेऽपि पृथिवीभुजः ॥ २५३ ॥ स आघाटशिलास्तम्भीभूतवैताढ्यपर्वतम् । त्रिखण्डं भरतक्षेत्रमात्मसाँदकृतौजसा ॥ २५४ ॥ द्वे च विद्याधरश्रेण्यौ वैताढ्याद्रेर्भुजाविव । विद्यौजोभ्यां पराजिग्ये स विद्याधरपुङ्गवः ॥२५५॥ मागधेश-प्रभासेश-वरदामाधिपैरसौ । प्राभृतैरर्चयाश्चक्रे सुरैरपि नृपैरिव ॥ २५६ ॥ राज्ञां मुकुटबद्धानां सहस्राः षोडशाऽनिशम् । तच्छासनं मुकुटवद् धारयामासुरूर्जितम् ॥ २५७ ॥ एकातपत्रं साम्राज्यं भुञ्जानः स महाभुजः । अतिवाहितवान् कालं पृथ्व्यामिन्द्र इव स्थितः ॥ २५८ ॥ खच्छन्दं क्रीडतोऽन्येधुरश्वग्रीवस्य भूपतेः। अरिष्टाभ्रमिवाऽऽकाशेऽकाण्डे चिन्तेति हृद्यभूत् ॥२५९ ॥ ___ अपागभरतवर्षार्धे ये केपि वसुधाभुजः। मद्भजस्थाम्नि तेऽमजन्नम्भोधौ भूधरा इव ॥ २६० ॥ पृथिव्यामेकमल्लस्य तस्यापि वधको मम । मृगेष्विव मृगेन्द्रस्य को राजसु भविष्यति ? ॥ २६१॥ दुर्ज्ञानमेतदथवा ज्ञास्यामीति विमृश्य सः। अश्वबिन्दु निमित्तझं द्वाःस्थेनाऽऽजूहवत् क्षणात् ॥ २६२॥ राज्ञा खवचनं पृष्टः स तु नैमित्तिकोऽवदत् । शान्तं पापं प्रतिहतममङ्गलमिदं वचः॥ २६३ ॥ १ अभक्तिः अनादरः । २ आघाटः सीमा। ३ आत्मसात्-अधीनम्-अकृत ओजसा-इति विभागः। ४ ओजः शूरता। ५ पराजयं प्राप । ६ उपद्रवजनकम् अभ्रम् । ७ अनवसरे । ८ स्थाम शीर्यम्। ९ अमजन्-बुडिताः। * मृगेष्वपि मृ संवृ०॥ Jain Education in . Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये ॥३५८॥ सर्गः -SCRECRUICAUSEOCEROTECRECORDS तवाशेषजगजिष्णोरन्तकोऽप्यन्तको न हि । वराकः कोऽपरो नाम मनुष्येषु भविष्यति ॥ २६४ ॥ हयग्रीवोऽप्युवाचैवमर्थवादं विहाय भोः!। यथार्थ ब्रूहि मा भैपीनह्याप्ताश्चाटुभाषिणः ॥२६५॥ प्रथम: राज्ञैवं साग्रहं पृष्टः सोऽथ नैमित्तिकाग्रणी । लग्नादिकं विचार्येति व्याजहार स्फुटाक्षरम् ॥ २६६॥ धर्षयिष्यति यो दूतं चण्डवेगाभिधं तव । पश्चिमान्तस्थसिंहस्य यश्च हन्ता तवापि सः॥ २६७॥ श्रेयांसप्रवासी स्तनितेनेव म्लानो वाचा तया नृपः । कृत्वा कृत्रिमपूजां तं व्यसृजद् वैरिदुतवत् ॥ २६८॥ जिनराजा केसरियूनाऽथ देशे तेनोद्वंसीकृते । शालीनारोपयत् सिंहवधकज्ञानहेतवे ॥२६९ ॥ चरितम् । रक्षार्थ शालिवापानी स क्रमात् पृथिवीपतीन् । षोडशसहस्रसङ्ख्यान् निदिदेश विशांपतिः ॥ २७० ॥ गत्वा क्रमात् ते सन्नद्धा नृपाः पश्चाननात् ततः। तान् शालिक्षेत्रिणोरक्षन् गोभ्यःक्षेत्राणि गोपवत् ॥२७१॥ ___ सावहित्थमथाऽऽस्थानीमास्थाय पृथिवीपतिः। इत्यूचेऽमात्य-सेनानी-सामन्तादीन सभासदः ॥२७२॥ अधुना नृप-सेनानीप्रभृतीनां महाभुजः । कुमारः कश्चिदप्यस्ति किमसामान्यविक्रमः ॥ २७३ ॥ तेऽप्यूचुर्देव! तेजस्वी सति कस्तिग्मतेजसि ? | प्रभञ्जने क ओजस्वी ? रंहस्वी को गरुत्मति ? ॥ २७४॥ को गौरवी मेरुगिरौ ? गम्भीरः कश्च सागरे । विक्रमाक्रान्तविक्रान्ते त्वयि को नाम विक्रमी ? ॥२७५॥४॥ ॥युग्मम् ॥ . १ अन्तकः-यमः, अन्तकः-विनाशकारी। * राति सा संवृ०॥ यो हन्ता स तवापि हि संबृ०॥ २ उद्वसम्निर्जनम्, भाषायाम् 'उजड' इति । °नां क्रमेण पृथिवीपतीन् । स षोडश सहस्राणि निदि संवृ०॥ ३ पञ्चाननः | ॥३५८॥ |सिंहः। ४ अवहित्था आकारगोपनम्। ५तिग्मतेजाः सूर्यः । प्रभञ्जनः वायुः । रहस्खी वेगवान् । गरुत्मान् गरुडः। खी जवी को वा गरु° संवृ०॥ Jan Education in Lal. Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजाऽप्युवाच चाटुक्तिरियं भोः! न तु वास्तवम् । बलिनो यद् बलिभ्योऽपि बहुरत्ना हि भूरियम् ॥२७६॥ ततश्च तेषु कोऽप्येकः सचिवश्चारुलोचनः । वाचस्पतिरिवोवाच वाचा स्फुटयथार्थया ॥ २७७ ॥ प्रजापतिनृपस्य स्तः कुमारावमरोपमौ । मर्त्यवीरान् मन्यमानौ तृणाय सकलानपि ॥ २७८ ॥ सभां विसृज्य राजाऽथ विससर्ज प्रजापतेः । अन्तिके चण्डवेगं तं दूतमर्थेन केनचित् ॥ २७९ ॥ रथिभिः सादिभिः सारैः संसार कतिभिर्दिनैः। दूतः स पोतनपुरं स्वामितेज इवाङ्गवत् ॥ २८०॥ तत्र प्रजापतिनृपः सर्वालङ्कारभूषितः । सहाञ्चल-त्रिपृष्ठाभ्यां सामन्तैरप्यनेकशः ॥२८१ ॥ सेनापति-महामात्य-पुरोधःप्रमुखैरपि । वृतः प्रधानपुरुषैर्यादोभिरिव पार्शभृत् ॥ २८२ ॥ विचित्रचौरीकरणा-ऽङ्गहारोद्वत्तनर्तकम् । ध्वनन्मृदङ्गनिर्घोषघोषितव्योमकन्दरम् ॥ २८३ ॥ सुव्यक्तगीतोद्वारेण सञ्जीवापितवेणुकम् । विपश्चितग्राम-रागविपञ्चीरचितश्रुति ॥ २८४ ॥ तालानुसारैः प्रक्रान्तगीतसङ्गीतकं तदा । निःशङ्कं कारयन्नासीन्महर्द्धिक इवामरः ।। २८५॥ ॥पञ्चभिः कुलकम् ॥ अनिषिद्धगतिःस्थैर्वियुद्दण्ड इवोच्चकैः । तत्राऽऽस्थाने प्रविवेश चण्डवेगो झटित्यपि ॥ २८६॥ अकस्मादागतं दृष्ट्वा ससामन्तः प्रजापतिः । स्वामिवत् खामिदूतं तमभ्युदस्थात् ससम्भ्रमम् ।। २८७ ॥ वीरान् तृणतुल्यान् मन्यमानौ । २ सादिनः अश्ववाराः। ३ ससार-जगाम। ४ जलदेवरूपः वरुणः। ५ चारी४ करणं गत्या अभिनयः । अङ्गहारः शारीरिकः अभिनयः । उद्वृत्तम् प्लुतं गमनम्। ६ सञ्जीवापित०-चेतनावत्कृतः। ७ विपञ्चितः विस्तीर्णः। ८ विपञ्ची-वीणा। Jain Education Interne For Private & Personal use only all Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ पर्व प्रथमः त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये ॥३५९॥ सर्गः श्रेयांस जिनचरितम् । महत्या प्रतिपत्त्या तमुपावेशयदासने । स्वामिनो वाचिकं सर्वमपृच्छच्च स भूपतिः ॥ २८८ ॥ सङ्गीतकस्य सञ्जज्ञे भङ्गोऽकाण्डे तदागमात । आगमाध्ययनस्येव विद्युदालोकमात्रतः ॥ २८९॥ गृहं निजनिजं जग्मुः सर्वे सङ्गीतकारिणः । स्वामिनि व्यग्रचित्ते हि नावकाशः कलावताम् ॥ २९॥ तं रङ्गभङ्गकर्तारं दृष्ट्वा भृशममर्षणः । पार्श्वस्थं पुरुषं कश्चित् त्रिपृष्ठः पृष्टवानिति ॥ २९१॥ अये ! कोऽसमयज्ञोऽयं पशुः पुरुषरूपभृत् । अज्ञापितस्वाऽऽगमनः प्राविशत् तातपर्षदि ? ॥२९२ ॥ अभ्युत्तस्थौ कथं दृष्ट्वा तात एनं ससम्भ्रमः । निषिद्धश्च कथं नैष प्रविशन् वेत्रपाणिना? ॥ २९३ ॥ अथेत्थं कथयामास त्रिपृष्ठाय स पूरुषः। दुतो राजाधिराजस्य हयग्रीवस्य नन्वयम् ॥ २९४ ॥ त्रिखण्डे भरते ह्यसिन् राजानस्तस्य किङ्कराः । ततस्तस्येव दूतस्याप्यभ्युत्तस्थौ पिता तव ॥ २९५ ॥ द्वाःस्थेनापि निषिद्धस्तन्नायमौचित्यवेदिना। नेश्वाऽप्यास्कन्द्यते यस्मात् स्वामिनः किं पुनः पुमान् ? ॥२९॥ अस्मिन् प्रसादिते राजा हयग्रीवः प्रसीदति । तत्प्रसादेन राज्यानि राज्ञां नन्दन्ति सम्प्रति ॥ २९७ ॥ ___ खेलीकृतेऽवज्ञयाऽसिन् हयग्रीवः खलीभवेत् । दृतदृष्ट्यनुसारेण प्रवर्तन्ते हि भूभुजः ॥२९८॥ खलीभूते स्वामिनि हि कृतान्त इव दुःसहे । नेष्यते जीवितमपि नृपै राज्ये तु का कथा ? ॥ २९९ ॥ अभाषिष्ट त्रिपृष्ठोऽपि न जात्या कोऽपि कस्यचित् । स्वामी वा सेवको वापि शक्त्यधीनमिदं खलु ॥३०॥ १ वाचिकम्-संदेशः। २ आगमः आगमनम् । ३ सति विधुदालोके आगमस्वाध्यायनिषेधः शास्त्रे श्रूयते, स च 'असज्झाय' | नाम्ना जैनपरम्परायां प्रसिद्धः। ४ वेत्रपाणि:-द्वारपालः। ५ यस्मात् स्वामिनः-स्वामिसम्बन्धी श्वा-सारमेयः-कुक्कुरः अपि न | आस्कन्द्यते, पुमान् तु कथम् आस्कन्दनीयः । स्कन्दनम्-रोधनम् । ६ अपमानिते। ॥३५९॥ Jain Education in For Private & Personal use only . Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वामात्रेण न तं तावत् पर्यस्यामोऽधुना वयम् । स्वप्रशंसेवाऽन्यनिन्दा सतां लजाकरी खलु ॥ ३०१॥ तातन्यक्कारकारं तमुत्तानशयमोजसा । छिन्नग्रीवं हयग्रीवं करिष्ये समये न्वहम् ॥ ३०२ ॥ प्राप्तकालमिदं तावत् तातेनैष विसृज्यते । यदा तदा निवेद्यं मे करोम्यस्योचितं यथा ॥ ३०३॥ सोऽनुमेने पुमान् राजविरुद्धमपि तद्वचः । राजवद् राजपुत्रोऽपि मान्यो राजानुजीविनाम् ॥ ३०४॥ निजाधिकारिणमिव समुद्दिश्य प्रजापतिम् । राजप्रयोजनान्यूचे चण्डवेगोपि कानिचित् ॥ ३०५॥ तथेति प्रतिपद्यार्थमावर्ण्य प्राभृतादिना । प्रजापतिनरेन्द्रेण चण्डवेगो व्यसृज्यत ॥ ३०६॥ स प्रीतः सपरीवारः प्रतस्थे स्वपरीं प्रति । जगाम पोतनपुरा बहिः स्यन्दनमास्थितः॥३०७॥ ज्ञात्वा त्रिपृष्ठस्तं यान्तं पुरोभृय सहाऽचलः । दवाऽनल इवाध्वन्यं सानिलो रुरुधेतराम् ॥ ३०८॥ त्रिपृष्ठ इत्यभाषिष्ट धृष्ट ! पापिष्ठ ! दुष्ट ! रे! । दूतमात्रत्वमप्याप्य राजवद् वर्तसे पशो! ॥ ३०९ ॥ सङ्गीतरङ्गभङ्गं त्वं मूर्खाऽकार्यथा तथा । अमुमपुः पशुरपि कोऽन्यः कुर्यात् सचेतनः ॥३१॥ गृहे गृहस्थमात्रस्याप्यायातो भूपतिः स्वयम् । ज्ञापयित्वा प्रविशति नीतिरेषा मनीषिणाम् ॥ ३११॥ त्वं भुवं स्फोटयित्वेवाऽज्ञातोऽकाण्डे समागमः । तातेनर्जुखभावेन सत्कृतश्चासि तन्मुधा ।। ३१२ ॥ दुर्विनीतो यया शक्त्या तां प्रकाशय सम्प्रति । इदं ते दुर्नयतरोः फलं द्राग् दर्शयाम्यहम् ॥ ३१३ ॥ आक्षिपामः। २ ताततिरस्कारकारिणम् । ३ राजभृत्यानाम्। ४ निजाधीनकर्मकरमिव । ५ संतोष्य । ६ पवन-1 सहितः दवानल इव अध्वन्यम्-पथिकम् । ७ भूतकाल-अद्यतन-द्वितीयपुरुष-एकवचनम् । ८ 'तातेन ऋजुस्वभावेन' इति विभागः । Jain Education indinal For Private & Personal use only Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये प्रथमः सर्गः श्रेयांसजिनचरितम् । ॥३६०॥ SAMASSACROSAROKAR इत्युक्त्वा मुष्टिमुद्यम्य त्रिपृष्ठः प्रपिनष्टि तम् । तावत् तावत् पुरःस्थायेत्यूचे मुशलपाणिना ॥ ३१४॥ अलमत्र प्रहारेण कुमार! नरकीटके । न चपेटा भृगालेषु क्रोशत्स्वपि मृगद्विषः ॥ ३१५॥ दूत इत्येष नो वध्यः प्रतीपान्याचरनपि । ब्राह्मण्येन द्विजन्मेव विरूपमपि हि ब्रुवन् ॥ ३१६ ॥ तदत्र संहर रुषं पुरुषे परुषेऽपि हि । दन्तिनां दन्तघातस्य स्थानं नैरण्डपादपः ॥ ३१७॥ इत्युक्तो बलभद्रेण त्रिपृष्ठो मुष्टिमुद्यताम् । करपाशं करीवाऽऽशु संहृत्येत्यादिशद् भटान् ॥ ३१८॥ जीवितव्यं विमुच्यैकं रङ्गभङ्गविधायिनः । अस्याऽपहरताऽशेषमपरं दूतपाप्मनः ॥ ३१९ ॥ तमाज्ञया कुमारस्य यष्टिभिमुष्टिभिर्भटाः । अताडयन् सारमेयं प्रविष्टमिव वेश्मनि ॥ ३२०॥ अपजहुरशेषं तत् तस्यालङ्करणादिकम् । प्रापितस्य वधस्थानं वध्यस्याऽऽरक्षका इव ॥ ३२१॥ प्रहारान् वश्चयमानः प्राणत्राणकृते चिरम् । क्रीडाकार इवेभस्य सोऽलुठत् पृथिवीतले ॥ ३२२ ॥ परितस्तत्परीवारो मुक्त्वा प्रहरणादिकम् । जीवंग्राहं पलायिष्ट भक्ष्यं सन्त्यज्य काकवत् ।। ३२३ ॥ कुट्टयित्वा रासभवश्चित्वा कलविङ्कवत् । विनी विटवत् तं तु कुमारावीयतुर्ग्रहम् ।। ३२४ ॥ विदाञ्चकार तत् सर्व जनश्रुत्या प्रजापतिः । एवं विचिन्तयामास सशल्य इव चेतसि ॥ ३२५॥ अहो! मम कुमाराभ्यां युक्तं नाऽऽचरितं ह्यदः। कस्याग्रे कथयाम्येतत् खेनाश्वेनेव पातितः ॥३२६॥ * ' स्थित्वेत्यचे संवृ०॥ मुशलपाणिः-बलदेवः। २ चपेटा-भाषायाम् 'लापोट-अडबोत' इति । ३ मृगद्विट्सिंहः। ४ ब्राह्मणत्वेन । ५ 'न+एरण्डपादपः' इति विभागः। ६सारमेयः-कुकरः। ७जीवनाई पलायिष्ट-'जीव लईने ६ भाग्यो' इति भाषायाम् । ८ कलविङ्काः-भाषायाम् 'चकलो'। ९ वाचा अपमानं कृत्वा । ॥३६०॥ Jain Education Inter For Private & Personal use only . Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न धर्षितश्चण्डवेगोऽश्वग्रीवः किन्तु धर्षितः। दूता हि प्रतिरूपाणि प्रभूणां सश्चरन्त्यमी ॥ ३२७॥ न यावद् यात्यसौ तावदनुनेयः प्रयत्नतः । यत उत्तिष्ठति शिंखी निर्वाप्यस्तत एव हि ॥ ३२८ ॥ एवं विचिन्त्य पुरुषैः प्रधानस्तं महीपतिः । आनाययदनुनीय वचोभिः प्रेमपेशलैः ॥ ३२९ ।। चकार सविशेषां च प्रतिपत्तिं कृताञ्जलिः । कुमारकृतकालुष्यप्रक्षालनजलप्लतिम् ॥ ३३०॥ चतुर्गुणं महामूल्यं तस्य च प्राभृतं ददौ । प्रकोपशान्तये शीतोपचारमिव दन्तिनः ॥ ३३१॥ ऊचे च राजा यद् वेत्सि यौवनेऽभिनवे सति । कुमारका दुर्ललिताः सामान्यश्रीमतामपि ॥ ३३२॥ विशेषतो मम खामिप्रसादोद्भूतसम्पदा । निरंगलौ कुमारौ तार्वेदान्तौ वृषभाविव ॥ ३३३ ॥ बह्वेताभ्यामपराद्धं त्वयि यद्यपि मानद ! । दुःस्वममिव विमार्य तथाप्येतत् त्वया सखे ! ॥ ३३४ ॥ आवयोरक्षता प्रीतिः सदा सोदरयोरिव । त्याज्या नैकपदे साऽद्य मन्मनोवृत्तिकोविद ! ॥ ३३५॥ कुमारयोर्दुर्ललितमिदं च भवताऽनघ! । नाश्वग्रीवाय विज्ञाप्यं निकषोऽयं क्षमावताम् ।। ३३६ ॥ इति सामसुधावृष्ट्या शान्तकोपहुताशनः । चण्डवेगोऽप्युवाचैवं गिरा स्नेहादचण्डया ॥ ३३७ ॥ त्वया सह चिरात् प्रेम्णा कोपोऽपि न मया कृतः। राजन् ! क्षन्तव्यमिह किं ? त्वत्पुत्रौ न ममापरौ॥३३८॥ डिम्भानां दुर्नये दण्डो ह्युपालम्भः प्रकीर्तितः। निवेदनं राजकुले नेति लोकेऽपि हि स्थितिः॥३३९ ॥ राज्ञे विज्ञपयिष्यामि नेदक्षं त्वत्कुमारयोः । कवलः शक्यते क्षेप्तुं नाक्रष्टुं हस्तिनो मुखात् ॥ ३४०॥ १ शिखी-अग्निः । निर्वाप्यः-शमनीयः। २ प्रतिपत्तिः-आदरः। ३ निरर्गल:-स्वच्छन्दः। ४ तौ+अदान्तौ' इति । *पुरास का०॥ ५ अनघः-निर्दोषः। ६ निकषः परीक्षा। ७डिम्भा:-बालाः। Jain Education in For Private & Personal use only Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिपष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थ पर्व प्रथमः सर्गः श्रेयांसजिनचरितम्। ॥३६१॥ विस्रब्धीभव तद् राजन् ! गच्छामि विसृजाऽद्य माम् । मनागपि न कालुष्यं विद्यते मम चेतसि ॥३४१॥ इत्युक्तवन्तं तं दृतं परिरभ्य खबन्धुवत । विरचय्याञ्जलिं राजा विससर्ज प्रजापतिः॥३४२॥ ___ अश्वग्रीवान्तिकं दूतः स ययौ कतिभिर्दिनैः । तद्धर्षणकथा त्वग्रे वर्धापकपुमानिव ॥ ३४३॥ तदा हि चण्डवेगस्य त्रस्तः सर्वपरिच्छदः । त्रिपृष्टोद॑न्तमखिलं शशंसाऽऽगत्य भूपतेः॥ ३४४॥ दूतोऽद्राक्षीद् हयग्रीवमुद्रीवं रक्तलोचनम् । जगत्कवलनोयुक्तमिव वैवस्वतं स्थितम् ।। ३४५॥ मन्ये मद्धर्षणोदन्तो राज्ञो व्यज्ञपि केनचित् । दूतोऽपि निश्चिकायैवमिङ्गि-तज्ञा हि सेवकाः ॥ ३४६ ॥ राज्ञा पृष्टः स आचख्यौ वृत्तान्तमभितोऽपि तम् । उग्राणां स्वामिनां ह्यग्रे कोऽन्यथा वक्तुमीश्वरः? ॥३४७॥ स्मरन् स्वप्रतिपन्नं च दूत एवं व्यजिज्ञपत । भक्तोऽहमिव ते देव ! स्वयं राजा प्रजापतिः॥ ३४८॥ यच्चके तत् कुमाराभ्यां सा बालसुलभाज्ञता । खिद्यते त्वधिकं तेन कर्मणा स कुमारयोः॥ ३४९ ॥ अतिशेषे यथा शक्त्या त्वमशेषेषु राजसु । तथाऽतिशेते भक्त्या च प्रजापतिनृपस्त्वयि ॥ ३५०॥ कुमारदोषेणाऽऽत्मानं स गर्हति चिरं नृपः । त्वच्छासनमुपादत्ताऽदत्त चेदमुपायनम् ।। ३५१ ॥ इत्युक्त्वाऽवस्थिते दूते हयग्रीवो व्यचिन्तयत् । दृष्टैकप्रत्यया जज्ञे तस्य नैमित्तिकस्य वाक् ॥ ३५२ ॥ प्रत्ययश्चेद् द्वितीयोऽपि स सिंहवधलक्षणः । भविष्यति तदा मन्ये शङ्कास्थानमुपस्थितम् ॥ ३५३॥ विस्रब्धः विश्वासयुक्तः। २ तदपमानकथा । ३ वर्धापकः-भाषायाम् 'वधामणी देनारो मनुष्य' । ४ उदन्त:वृत्तान्तः। ५ वैवस्वतः-यमः। ६ निश्चिकाय-निश्चयं चकार । इङ्गितम्-मनोवृत्तिः। ७ स्वप्रतिज्ञामित्यर्थः। ८ अतिशयवान् असि । अतिशेते-अतिशययुक्तः वर्तते । SARAMERCCTRESS |॥३६१॥ Jan Education in . Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि. ६२ Jain Education Intern विमृश्यैवं तदा दूतान्तरेणाथ प्रजापतिम् । त्रायस्व शालिक्षेत्राणि सिंहादिति समादिशत् ।। ३५४ ॥ प्रजापतिः समाहूय कुमारावित्यभाषत । फलितं वां दुर्ललितमकाण्डे सिंहरक्षया ॥ ३५५ ॥ आज्ञा चेत् खण्ड्यतेऽकाण्डे हयग्रीवोऽन्तकायते । तदाज्ञा खण्ड्यते नो चेत् तदा सिंहोऽन्तकायते ॥ ३५६ ॥ असावुभयथाऽस्माकमपमृत्युरुपस्थितः । तथापि सिंहरक्षार्थं वत्सौं ! गच्छामि सम्प्रति ॥ ३५७ ॥ कुमारावूचतुर्ज्ञातमश्वग्रीवस्य पौरुषम् । ज्ञातो भयङ्कर इति स येन पशुना पशुः ॥ ३५८ ॥ तिष्ठ तात ! वजिष्यावो हनिष्यावोऽचिरेण तम् । सिंहं नृसिंह ! का तत्र स्वयं यात्रा तव प्रभो ! ।। ३५९ ॥ सविषादं जगादैवं प्रजापतिनृपोऽप्यथ । क्षीरकण्ठावनभिज्ञौ कृत्याकृत्येषु कर्मसु ॥ ३६० ॥ एकं तावद् कृतं कर्म तिष्ठद्भ्यां गोचरेऽपि मे । व्यालेभदुर्ललिताभ्यां भो ! भवद्भ्यां कुमारकौ ! ।। ३६१ ॥ तस्यापि कर्मणः सद्यः फलमेतदुपस्थितम् । दूरस्थौ यत् करिष्येथे तत्फलं किं भविष्यति ? ।। ३६२ । अथ त्रिपृष्ठः प्रत्यूचे केयं सिंहविभीषिका । दर्श्यते तेन बालेन बालानामिव भूभुजाम् १ || ३६३ ॥ कृत्वा तात ! प्रसाद नौ तिष्ठत्वत्रैव सम्प्रति । गत्वा सिंहं हनिष्यावः सहाऽश्वग्रीववाञ्छितैः ॥ ३६४ ॥ इत्थं कथमपि क्ष्मापं तौ प्रतीक्ष्य प्रजग्मतुः । सारस्वल्पपरीवारौ तां सिंहाध्युषितां भुवम् ।। ३६५ ॥ सिंहेन निहतानेकभटास्थीनि गिरेरधः । कुमारौ तद्यशोराशिमिव मूर्त्तमपश्यताम् ॥ ३६६ ॥ तुङ्गवृक्षाधिरूढांस्तौ शालिक्षेत्रकृषीवलान् । पप्रच्छतुरिति क्ष्मापैः सिंहोऽयं रक्षितः कथम् ॥ ३६७ ॥ १ दुखेष्टितम् । ३ क्षीरकण्ठः- बालः । २ अन्तकः- यमः तत्सदृशः । आज्ञाखण्डने हयग्रीवः यमसदृशः । आज्ञापालने कृते सिंहः यमसदृशः । ४ ब्यालेभः - उन्मत्तगजः । ५ सिंहभयम् । ६ आवाभ्याम् - आवयोरुपरि । . Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरिते महाकाव्ये ॥३६२॥ Jain Education In आचख्युः क्षेत्रिणोऽप्येवं हे वीराविह भूभुजः । सन्नद्धैः कुञ्जरवरैस्तुरङ्गैः स्यन्दनैर्भटैः ॥ ३६८ ॥ विरचय्य महाव्यूहं सिंहस्याकार्षुरन्तरे । संवरं स्रोतस इव दीर्घिकामिव दन्तिनः ॥ ३६९ ॥ हन्यमानैदीर्यमाणैः सैनिकैस्तैर्महाभुजः । सिंहादस्माद् ररक्षुर्नः प्राप्तजीवितसंशयाः ॥ ३७० ॥ ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ इति तेषां वचः श्रुत्वा स्मित्वा चाञ्चल - केशवौ । सैन्यं निधाय तत्रैवाऽयातां सिंहगुहामभिं ॥ ३७१ ॥ तयोश्च रथनिर्घोषान्मेघनिर्घोषसोदरात् । बन्दिघोषादिव नृपः सिंहः सद्यो व्यबुद्ध सः ॥ ३७२ ॥ किञ्चिदुन्मीलयन् नेत्रे कृतान्तस्येव दीपिके । तस्येव चामरं धुन्वन्नुदारां केसरच्छटाम् ।। ३७३ ।। रसातलद्वारमिव जृम्भया स्फाटयन् मुखम् । किश्चिदाकुञ्चितग्रीवः प्रेक्षाञ्चक्रे स केसरी || ३७४ ॥ युग्मम् ॥ रथमात्रपरीवारौ तौ नरौ वीक्ष्य केवलौ । अवज्ञया प्रसुष्वाप सोऽथ कृत्रिमनिद्रया ॥ ३७५ ॥ सर्वाभिसारिभिर्भूपैर्दचा हस्त्यादिभिर्बलिम् । शालिक्षेत्राणि रक्षद्भिर्गर्वमारोपितो ह्यसौ ॥ ३७६ ॥ आमेत्युक्तोऽचलेनाथ पुरोऽभ्येत्य च किञ्चन । मल्लो मल्लमिवाऽऽह्वास्त नृसिंहः सिंहपुङ्गवम् ॥ ३७७ ॥ विष्णोस्त मूर्जितं शब्दमाकण्र्योत्कर्णिताऽऽननः । विसिष्मिये सोऽपि सिंहो वीरः कोऽपीति चिन्तयन् ॥ ३७८ ॥ कर्णौ शिरसि सुस्तब्धौ स्थलस्थाविव कीलकौ । अतीव पिङ्गले नेत्रे दीप्ते इव विभीषिके ॥ ३७९ ॥ अस्त्रागारं यमस्येव वक्रं दंष्ट्रारदाकुलम् । वक्राद् बहिः स्थितां जिह्वां पातालादिव तक्षकम् ॥ ३८० ॥ मुद्रिते । १ अभि-संमुखम् । २ त्रिपृष्ठः । ३ उत्कर्णितम् ऊर्ध्वकर्णम् । ४ दंष्ट्रा - दाढा । रदा दन्ताः । आकुलम् - व्याप्तम् - परिपूर्णम् । आननम् - मुखम् । * त्वा च बलके + पिङ्गे नयने दी संबृ० ॥ चतुर्थ पर्व प्रथमः सर्गः श्रेयांस जिन चरितम् । ॥ ३६२ ॥ . Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A -NCRECOGNOSAUGARCASSASSA यमौकस्तोरणमिव मुखस्योपरि दंष्टिकाम । अन्तर्वलन्महाकोपानलस्येव शिखाः सटोः॥ ३८१॥ नखांश्च प्राणिनां प्राणाकर्षणाङ्कटकानिव । लुलन्तं पुच्छदण्डं च बुभुक्षितमिवोरगम् ॥ ३८२ ॥ विद॑द् व्यात्ताननः पश्चाननो बृत्कारेदारुणः । साक्षादिव रसो रोद्रो निजंगाम गुहागृहात् ॥ ३८३॥ ॥पञ्चभिः कुलकम् ॥ अतुच्छपुच्छदण्डेन प्रचण्डेन स केसरी । भूतलं ताडयामास वज्रणेन्द्र इवाचलम् ॥ ३८४ ॥ पुच्छाच्छोटननादेन तेन नेशुः समन्ततः । सत्त्वानि तूर्यनादेन यांदांसीवान्तरम्बुधेः ॥ ३८५॥ आर्य ! तिष्ठ मयि सति योद्धं तेऽवसरो न हि । इति त्रिपृष्ठस्तत्रैवाऽवातिष्ठिपदथाञ्चलम् ।। ३८६ ॥ पदातिना रथस्थस्य युध्यमानस्य मेऽमुना । क्षत्रधर्मोचितं नैतदिति विष्णुर्जही रथम् ॥ ३८७ ॥ अत्रिणो मे निरस्त्रेण युद्धमित्यपि नोचितम् । इत्यस्त्राण्यपि तत्याज वीरव्रतधनो हरिः ॥ ३८८॥ एह्येहि भो! समिकण्डूं हरे! तव हराम्यहम् । इति त्रिपृष्ठोऽभाषिष्ट स्थामतोऽतिपुरन्दरः ॥ ३८९ ॥ तदेव वचनं सोऽपि कोपाटोपसमुत्कटः । अद्रिप्रतिरवव्याजाद् व्याजहारेव केसरी ॥ ३९०॥ स केसरियुवा चेत्थं चिन्तयामास चेतसि । अहो ! अमुष्य बालस्य भृशं रभसकारिता ॥ ३९१ ॥ विना सैन्यं यदायातः स्यन्दनाद् यदयातरत् । यच्च तत्याज शस्त्राणि यन्मामाह्वास्त चोच्चकैः ॥ ३९२ ॥ यमगृहतोरणम् । २ 'सटाः'-भाषायाम् 'सिंहकेशवाळी-याळ' इति । ३ 'अंकुटक' इति भाषायाम् 'अंकोडो' नामकम् आकर्षणसाधनम्। ४ पूर्वोक्तानि नेत्रादि-पुच्छान्तानि बिभ्रत्-धारयन् । ५गर्जनाभयङ्करः। ६ यादांसि-हिंस्राणि जकचराणि । अन्तर्-मध्ये, अम्बुधेः-समुद्रस्य । ७ युद्धरूपां कण्डूम्। ८ अद्रिप्रतिध्वनिमिषेण । ARSACARRIGANGANAGAR . Jain Education Intern Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थ पर्व प्रथमः सर्गः श्रेयांसजिनचरितम्। ॥३६३॥ उच्चपेटः प्रति सर्प मण्डूक इव दुर्मतिः। धृष्टतायाः फलमसौ प्रामोत्विति विमृश्य सः॥३९३॥ खे खेचरस्थरस्तकेसरिभ्रमदः क्षणम् । तत उत्पुच्छयमानो ददौ फालां स केसरी ॥ ३९४ ॥ तस्य चापततोऽप्योष्ठौ पाणिभ्यां स पृथक् पृथक् । संदंशाभ्यां दन्दशकस्येव जग्राह केशवः ॥ ३९५॥ एकेनौष्ठेन चाकर्षन्नेकतोऽन्येन चान्यतः। चटच्चटिति तं विष्णुः पटपाटमपाटयत ॥ ३९६ ॥ अत्रान्तरे जनैः सभ्यैरिव वैतालिकैरिव । रोद कुक्षिम्भरि रिश्चक्रे जयजयारवः ॥ ३९७ ॥ कौतुकान्मिलिता व्योग्नि विद्याधर-सुरा-ऽसुराः । मलयानिलवत् तत्र पुष्पवृष्टिं वितेनिरे ॥ ३९८॥ ते च सिंहशरीरस्य दले क्षिप्ते क्षणात् क्षितौ । परिपुस्फुरतुः कामममर्षामुक्तचेतने ॥ ३९९ ॥ महता सोऽपमानेन परतत्रशरीरकः । द्विधाभूतोऽपि हि हरिः स्फुरन्नेवमचिन्तयत् ॥ ४०॥ अहो ! प्रौढेरपि नृपैः सन्नद्धसुभटावृतैः । सास्त्रैरपि न सोढोऽसि योऽहं पविरिवापतन् ॥ ४०१॥ बालेनैकाकिनाऽनस्त्रेणामुना मृदुपाणिना । हा! हतोऽसीति खेदो मे न पुनर्वधमात्रतः ॥४०२॥ एवं च चिन्तया तस्य वेल्लंतो दन्दशूकवत् । ज्ञात्वाऽभिप्रायमित्यूचे मधुरं विष्णुसारथिः॥४०३॥ लीलानिर्भिन्नमत्तेभाऽपराभूत! चमूशतैः । मृगराज! किमेवं त्वमभिमानेन ताम्यसि॥४०४॥ अयं खलु भटप्रष्ठस्त्रिपृष्ठो नाम भारते । प्रथमः शाङ्गिणां बालो वयसा न तु तेजसा ॥ ४०५॥ , प्रसारितपाणिः । अत्र 'पाणि' शब्देन 'चपेटा-पंजो' इति भाषायाम् । २ पुच्छं ऊर्ध्व वर्तुलाकारेण प्रसारयन् । ३ भाषायाम्-'संदंश' इति 'सांडसो' इति नाम्ना प्रसिद्धं सर्पग्रहणसाधनम् । ४ वस्त्रच्छेदवत् । ५ आकाशभूम्यन्तरालपूरकः । ६ खण्डद्वयम् । ७ कम्पमानस्य । ८प्रष्ट:-अग्रणीः। ९शाह-वासुदेवः। ॥३६३॥ Jain Education Indice For Private & Personal use only , Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education In नरेषु सिंहः खल्वेष पशुषु त्वं तु तत् तव । हतस्यानेन का व्रीडा श्लाघा प्रत्युत तद्रणे ॥ ४०६ ॥ तस्येति वचसा शान्तः सुधावृष्ट्येव केसरी । मृत्वा बद्धायुरुत्पेदे नारको नरकावनौ ॥ ४०७ ॥ हयग्रीवाज्ञया तत्र तद्वृत्तं ज्ञातुमेयुषाम् । विद्याधराणां तच्चर्मार्पियन्नूचेऽचलानुजः ॥ ४०८ ॥ तस्य घोटiकण्ठस्य चकितस्य पशोरपि । अस्य सिंहस्य चर्मेदमर्प्यतां वधसूचकम् ॥ ४०९ ॥ वाच्यश्च वाचिकमिदं स्वादुभोजनलम्पटः । निश्चिन्तो भव विश्रब्धं भुञ्जीथाः शालिभोजनम् ॥ ४१० ॥ तथेति प्रत्यपद्यन्त ते विद्याधरदारकाः । बलभद्र त्रिपृष्ठौ तु जग्मतुर्नगरं निजम् ॥ ४११ ॥ प्रणेतुः पितुः पादौ तत्र तौ भ्रातरावुभौ । बलस्तु कथयामास तमुदन्तमशेषतः ॥ ४१२ ॥ पुनर्जाताविव सुतौ मेने राजा प्रजापतिः । तेन सूनृतसन्धेन सूनुना चात्यमोदुत ॥ ४१३ ॥ तेच विद्याधरा वाजिग्रीवस्य तमशेषतः । त्रिष्पृष्ठोदन्तमाचख्युर्वज्रपातसहोदरेंम् ॥ ४१४ ॥ इतr वैतान्यगिरौ दक्षिणश्रेणिभूषणम् । नगरं रथनूपुरचक्र वालाssख्यमस्ति तत् ॥ ४१५ ॥ तत्र च ज्वलनजटी तेजसा ज्वलनोपमः । आसीदसामान्यऋद्धिर्विद्याधरनरेश्वरः ॥ ४१६ ॥ बभूव तस्य महिषी प्रीतेः परममास्पदम् । नाम्नैव वायुवेगेति हंसीव वलसा गतौ ॥ ४१७ ॥ तस्यां राइयां तस्य राज्ञः सूनुः समुदपद्यत । स्वमेर्कालोकनादर्ककीर्तिरित्यभिधानतः ॥ ४९८ ॥ प्रभाताssशेन्दुलेखाविलोकनात् । स्वयम्प्रभेत्यभिधया क्रमेण तनयाऽप्यभूत् ।। ४१९ ॥ १ 'घोटककण्ठ' इति हयग्रीवस्य पर्यायवाचकं नाम । * °काः । त्रिपृष्ठ-बलभद्रौ तु सं० ॥ २ उदन्तः- वृत्तान्तः । ३ संधा-प्रतिज्ञा । ४ सहोदरम् - तुल्यम् । सीवत् त्व० [सं० [सं० ॥ ५ सहजप्रभा० । w. Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका चतुर्थ पर्व प्रथमः सर्गः पुरुषचरिते महाकाव्ये श्रेयांसजिनचरितम् । ॥३६४॥ BOGORGEOUS सम्प्राप्तयौवनं यौवराज्ये राजा महाभुजम् । अर्ककीति विनिदधे कीर्तिगङ्गाहिमाचलम् ॥४२०॥ खयम्प्रभाऽपि सम्प्राप क्रमयोगेन यौवनम् । वनस्थलीव सुभगङ्करणी मधुसम्पदम् ॥ ४२१॥ मुखचन्द्रमसा रेजे राका मूर्तिमतीव सा । केशपाशतमिस्रणाऽमावास्येव च देहिनी ॥ ४२२ ॥ तस्याः कर्णान्तगे नेत्रे कर्णोत्तंसाम्बुजे इव । कर्णौ च प्रसरन्त्योदृक्सरस्योः संवैराविव ॥ ४२३ ॥ पाणि-पादा-ऽधरदलै रक्तैर्वल्लीव पल्लवैः । साऽभात् कुचाभ्यां चोच्चाभ्यां क्रीडौद्रिभ्यामिव श्रियः ॥४२४॥ आवर्त इव लावण्यसरितो नाभिराबभौ । अन्तरद्वीपसदृशी तस्याः श्रोणीच विस्तृता ॥ ४२५॥ तस्याः सर्वाङ्गसौभाग्यनिधेः प्रतिनिधिर्न हि । सुरस्त्रीष्वसुरस्त्रीषु विद्याधरवधूष्वपि ॥ ४२६ ॥ अथाभिनन्दन-जगन्नन्दनौ चारणौ मुनी । विहायसा विहरन्तौ पुरे तत्र समेयतुः॥ ४२७ ॥ ऋध्या महत्या श्रीदेवीम्रर्त्यन्तरमिवेयुपी । खयम्प्रभापि तो गत्वा ववन्दे मुनिपुङ्गवौ ॥४२८॥ तद्देशनां समाकर्ण्य कर्णामृतरसायनम् । सम्यक्त्वं प्रतिपेदे सा नीलीरागमिव स्थिरम् ॥ ४२९ ॥ सम्यक् श्रावकधर्म सा प्रत्यौषीत् तदन्तिके । प्रमाद्यन्ति शुभात्मानो न हि ज्ञात्वा मनागपि ॥४३०॥ ततोऽन्यतो जग्मतुस्तौ विहाँ मुनिपुङ्गवौ । साऽप्यन्यदा पर्वदिने प्रत्यपद्यत पौषधम् ॥ ४३१ ॥ पारणेच्छुर्द्वितीयेति कृत्वाऽर्चादि जिनेशितुः । समानीय च तच्छेषामर्पयामास सा पितुः॥ ४३२॥ स विद्याधरभूपालः सद्यः प्रमदमेदुरः । शीर्षेऽध्यारोपयच्छेषामुत्सङ्गे च स्वयम्प्रभाम् ॥ ४३३ ।। _*त्ति न्यधाद राज्ये कीर्ति संवृ०॥ सौभाग्यकारिणी वसन्तशोभाम् । २ रोधको इव । ३ क्रीडापर्वताभ्याम् । ४ सौभाग्येन समानः। ५ नील्या इव स्थिररागम् ; नीली-'गळी' इति भाषायाम् । ६ अर्चाविशेषाम्-म्रानजलम् । ॥३६४॥ Jain Education Seal For Private & Personal use only Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Interna af द्यौवनां राजा वरान्वेषणकर्मणि । चिन्ताप्रपन्नः समभूद् ऋणमनः पुमानिव ॥ ४३४ ॥ विसृज्य सप्रसादं तां वरं तदुचितं नृपः । सुश्रुतादीन् समाहूय परिपप्रच्छ मन्त्रिणः ।। ४३५ ।। trissa सुश्रुतोsवादीदस्ति रत्नपुरे पुरे । राजा नीलाञ्जनादेवी मयूरग्रीवयोः सुतः ।। ४३६ ॥ साधिताने कविद्यत्रिखण्ड भरतेश्वरः । विद्याधरेन्द्रोऽश्वग्रीवाभिधानः प्रवरो वरः || ४३७ ॥ मन्त्री बहुश्रुतोऽप्यूचे समतिक्रान्तयौवनः । स्वयम्प्रभायाः स्वामिन्या न योग्यः खल्वयं वरः || ४३८ ॥ तिष्ठन्ति चोत्तरश्रेण्यां बहवो बाहुशालिनः । रूप-यौवन - लावण्यवन्तो विद्याधरोत्तमाः ॥ ४३९ ॥ तेषां च मध्यादेकस्य कस्याप्येषा मृगेक्षणा । विचार्य दीयतां देवानुरूपं योगमिच्छता ॥ ४४० ॥ trissaभाषे सुमतिर्नाम मन्त्री महीपतिम् । युक्तमुक्तमनेनेदमायुक्तेन तव प्रभो ! ॥ ४४१ ॥ अत्राद्रावुत्तरश्रेणिहारनायकतां गता । प्रभङ्करा नाम नगैर्यनेकाद्भुततैकभूः ॥ ४४२ ॥ ओजो दधन् मघवनं तत्र मेघवनाभिधः । प्रातर्मेघ इवामोघेंः समस्ति पृथिवीपतिः ॥ ४४३ ॥ सधर्मचारिणी तस्य नामतो मेघमालिनी । मालतीपुष्पमालेव शीलसौरभंसालिनी ॥ ४४४ ॥ अस्ति विद्युत्प्रभो नाम नामिताशेषभूपतिः । कन्दर्प इव रूपेणाप्रतिरूपेण तत्सुतः ॥ ४४५ ।। तयोरस्ति च दुहिता ज्योतिर्मालेति नामतः । देवकन्येव निःसीमरूपलावण्य सम्पदा ॥ ४४६ ॥ विद्युत्प्रभ कुमारस्योचिता देवी स्वयम्प्रभा । विद्युद् वारिधरस्येव द्युतिद्योतितदिखा ॥ ४४७ ॥ १ उद्यौवना-विकसमान यौवना । * 'गर्यस्त्यनैकाद्भुतै सं० ॥ २] अनेकार्य करपदार्थस्थानम् । ३ इन्द्रसम्बन्धि । ४ अमोघः - सफलः । + "भशालि° मु० ॥ Www.jainelibrary.org. Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका चतुर्थ पर्व प्रथम सर्गः पुरुषचरिते महाकाव्ये श्रेयांस जिन ॥३६५॥ चरितम् । अर्ककीर्तिकुमारस्य ज्योतिर्मालोचिता पुनः । कन्याविनिमयेनाऽस्तु द्वयोरपि महोत्सवः ॥४४८॥ श्रुतसागरनामोऽथ व्याजहारेति भूपतिम । कन्येयं रत्नभूता ते केन श्रीरिव नार्थ्यते ॥४४९॥ विद्याधरकुमाराणां सर्वेषामेतदर्थिनाम । निर्विशेषत्वजनको युज्यतेऽस्याः स्वयम्बरः ॥ ४५०॥ कस्मैचिदन्यथैकस्मै ददतः कन्यकां तव । भावी विद्याधरैः सार्ध विरोधस्तेन किं मुधा? ॥ ४५१॥ सर्वेषां मत्रिणां मन्त्रं श्रुत्वैवं तान विसज्य च । सम्भिन्नश्रोतसं नामाऽपृच्छन्नैमित्तिकं पुनः॥४५२॥ अश्वग्रीवस्य वाऽन्यस्य विद्याधरवरस्य वा निजकन्यां प्रयच्छामि यद्वाऽस्त्वस्याः स्वयम्वरः ॥४५३॥ स नैमित्तिक इत्यूचे साधुभ्योऽश्रौषमित्यहम् । यत्पृष्टो भरतेनाऽऽख्यद् भगवानृषभध्वजः॥४५४॥ त्रयोविंशतिरहन्तोऽवसर्पिण्यां हि मत्समाः। एकादश भविष्यन्ति राजानस्त्वत्समाः पुनः ॥ ४५५॥ बला नव वासुदेवा नवार्थभरतेश्वराः। नव प्रत्यर्थिनस्तेषां तेऽप्यर्धभरतेश्वराः॥४५६ ॥ तत्र हत्वा हयग्रीवं त्रिपृष्ठो भोक्ष्यते हेरिः। सविद्याधरनगरां त्रिखण्डां भरतावनिम् ॥ ४५७ ॥ सर्वविद्याधरैश्वर्य तुभ्यमेष प्रदास्यति । कन्येयं दीयतामसै पृथिव्यां नेदृशोऽपरः॥ ४५८॥ हृष्टो नैमित्तिकं राजा सत्कृत्य विससर्ज तम् । दूतं तदर्थे मारीचिं प्रैषीच्चोपप्रजापति ॥ ४५९ ॥ सोऽथ विद्याधरो गत्वा प्रजापतिमहीपतिम् । नत्वा खं ज्ञापयित्वा च विनयेनेत्यभाषत ॥ ४६०॥ अस्ति ज्वलनजटिनो विद्याधरमहीपतेः । कन्या स्वयम्प्रभा नाम लैलामाऽशेषयोषिताम् ॥४६१॥ अनुरूपवरार्थेऽस्याश्चिरं चिन्तापरायणः । अरोचकी कविरिव तस्थावग्निजटी नृपः॥ ४६२ ॥ * °माऽपि व्या संबृ०॥ १न याच्यते । २ वासुदेवः । ३ सर्वस्त्रीणां परमप्रकृष्टा। ४ रुचिरहितः। तस्थौ चह्निजटी मु०॥ ॥३६५॥ Jain Education interes For Private & Personal use only 18 ww.jainelibrary.org Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत्रिभिर्मत्रयमाणोऽप्युपलेभेन कञ्चन । अनुरूपं वरं राजाऽपृच्छन्नैमित्तिकं ततः ॥ ४६३ ॥ नैमित्तिकेन सम्भिन्नश्रोतसाऽऽख्यायि यत सुता। अनुरूपा त्रिपृष्ठाय प्राजापत्याय दीयताम्॥४६४॥ प्रथमो वासुदेवोऽयं भोक्ष्यते चार्धभारतम् । श्रेणिद्वयाधिपत्यं वः प्रसन्नश्च प्रदास्यति ॥४६५॥ एवं नैमित्तिकगिरा प्रीतो मां प्राहिणोत् प्रभुः । तामादातुं त्रिपृष्ठाथै स्वामिस्तदनुमन्यताम् ॥ ४६६ ॥ प्रीतः प्रजापतिनृपस्तथेति प्रतिपद्य ताम् । विससर्ज यथौचित्यदानपूर्वमखर्वधीः ॥ ४६७॥ ___ अश्वग्रीवाशङ्कया च नृपो ज्वलनजट्यपि । तामुद्वाहयितुं कन्यां प्रजापतिपुरं ययौ ॥ ४६८ ।। सविद्याधरसामन्तः सामात्य-बल-वाहनः। तस्थौ तन्नगरोपान्ते मर्यादायामिवार्णवः ॥ ४६९ ॥ सप्रधानपरीवारः प्रजापतिरथ खयम् । तस्याभिमुखमागच्छत सर्वस्याभ्यागतो गुरुः ॥ ४७० ॥ द्वयोरपि महासैन्ये मिलिते प्रीतियोगतः । चकासामासतुर्गङ्गा-यमुनाश्रोतसी इव ॥ ४७१ ॥ उभावपि गजारूढी सामान्यप्रतिपत्तितः । अन्योऽन्यं पैरिरेभाते सामानिकसुराविव ॥ ४७२॥ तयोर्द्वयोः क्षितिभुजोः सूर्याचन्द्रमसोरिव । द्राक् सङ्गमेन दिवसः स पर्वदिवसोऽभवत् ॥ ४७३ ॥ आर्पयच्चावासभुवं विद्याधरमहीभुजे । मैनाकायेव पाथोधिः प्रजापतिमहीपतिः॥४७४ ॥ तत्र विद्याधरा विद्याबलाद् व्यरचयन् पुरम् । विचित्रहर्म्यरुचिरं द्वितीयमिव पोतनम् ॥ ४७५ ॥ पुरस्य तस्य मूर्धन्ये प्रासादे दिव्यतोरणे । उवास ज्वलनजटी मेराविव दिवाकरः ॥४७६ ॥ सामन्ता-ऽमात्य-सेनानीप्रमुखा अपरेऽपि हि । ऊषुर्यथाहं हयेषु विमानेष्विव नाकिनः ॥ ४७७ ॥ * त्यं च प्रसन्नस्ते प्रमु०॥ महाबुद्धिः । २ महान् । ३ आलिङ्गितौ। ४ मैनाको नाम पर्वतः । ५ निवासं चक्रुः || Jain Education I al For Private & Personal use only Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये ॥३६६॥ Jain Education Inte विद्याधरेन्द्रमापृच्छ्थ प्रजापतिनृपोऽपि हि । जगाम स्वाश्रयं वेलानिवृत्त इव वारिधिः ॥ ४७८ ॥ भोज्याङ्गराग- नेपथ्यप्रभृति प्राभृतं ततः । विद्याधरनरेन्द्राय प्रेजिघाय प्रजापतिः ॥ ४७९ ॥ विवाहार्थमकार्येतामुभाभ्यां रत्नशालिनौ । मण्डपौ चमर-बल्योः सभे इव शुभाकृती ॥ ४८० ॥ द्वयोरपि गृहेऽभूवन् धवलामङ्गलानि च । जरत्कुलस्त्रीरचितशिक्षाचार्यकलीलया ॥ ४८१ ॥ चान्दनेनाङ्गरागेण भ्राजमानः सुगन्धिना । नीलरत्नप्रतिमेव करीन्द्रमधिरूढवान् ॥ ४८२ ॥ तोऽनुवरीभूय सवयोभिर्नृपात्मजैः । ययौ त्रिपृष्ठो ज्वलनजटिवेश्म खवेश्मतः ॥ ४८३ ॥ वेश्माग्रे तोरणस्याधस्तस्थावथ बलानुजः । पौरस्त्य इव मार्तण्डः प्रतीच्छन्नर्धमण्डलम् ॥ ४८४ ॥ मङ्गलानि कुलस्त्रीषु गायन्तीषु ततो हरिः । भग्नानिसम्पुट : सानुवरो मातृगृहं ययौ ।। ४८५ ॥ सदशश्वेतवसनां नयनानन्दनां हरिः । शशिप्रभामिव मूत्त तत्रापश्यत् स्वयम्प्रभाम् ॥ ४८६ ॥ उभाथाssसाञ्चक्राते एकस्मिन्नासने शुभे । स्वयम्प्रभा त्रिपृष्ठश्व चित्राचन्द्रमसाविव ॥ ४८७ ॥ झलवाद्यनादेन लग्ने संसूचिते तयोः । योजयामास हस्ताब्जे पुरोधाः सम्पुटाविव ॥ ४८८ ॥ हक्का मेलकस्ताभ्यामुभाभ्यां च व्यधीयत । नवोद्गमप्रेमतरोः सेचनोदकसन्निभः ॥ ४८९ ॥ स्वयम्प्रभा त्रिपृष्टश्च तथैव मिलितौ ततः । उपेयतुर्वेदिमध्यं वल्ली - विटपिनाविव ।। ४९० ॥ समिद्भिः पिप्पलादीनामन्तेर्वेदि द्विजातयः । ज्वलनं ज्वालयामासुर्हविर । हुतिपूर्वकम् ॥ ४९९ ॥ 1 १ प्रेषयामास । २ 'कृ' धातोः प्रेरणायां ह्यस्तनी अन्य पुरुषद्विवचनम् । ३ 'धवला' भाषायाम्- 'घोळ' इति प्रसिद्धम् । ४ शिक्षकगुरुलीलया वृद्ध स्त्रीभिः निर्मितानि । * आइतो सङ्घ ॥ ५] अनुवरः, भाषायाम् 'अणवर' इति । ६ भाषायाम् 'मायरु' इति प्रसिद्धम् । ७ उपविष्टौ । ८ यज्ञहविर्द्वन्यैः । । पिप्पला सं० ॥ ९ वेदिमध्ये । चतुर्थ पर्व प्रथमः सर्गः श्रेयांस जिनचरितम् । ॥३६६॥ . Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Interna प्रदक्षिणचक्रतुस्तौ प्रदक्षिणशिखोद्गमम् । वेदिवहिं वेदमन्त्राध्यापकेषु द्विजन्मसु ॥ ४९२ ॥ इत्थं स्वयम्प्रभां देवीं परिणीय बलानुजः । तया सहाऽऽरुह्य वशीं प्रतस्थे स्वगृहं प्रति ।। ४९३ ॥ उलूलुध्वनिना तूर्यनादेन च महीयसा । उत्कर्णिताऽर्यमहरिर्जगाम स्वगृहं हरिः ॥ ४९४ ॥ तदाऽज्ञासीद्वयग्रीवस्तद्वृत्तं चरचक्षुषा । अग्रेऽपि सिंहकथया क्रुद्ध क्रोध चाधिकम् ।। ४९५ ।। एवं च दध्यौ ज्वलनजटिना मयि सत्यपि । स्त्रीरत्नं दीयतेऽन्यस्मै रत्नं रत्नाकरे हि यत् ॥ ४९६ ॥ तस्या दातुरुपादातुस्तस्य चान्ते व्रजत्वसौ । तां कन्यां याचितुं दूतो दूतो हि प्रथमो नये ॥ ४९७ ॥ एवं विमृश्य मनसाऽनुशिष्य च रहः स्वयम् । व्यसृजन्नूतनं दूतं स पोतनपुरे पुरे ॥ ४९८ ॥ स दूतः सत्वरं गत्वा समीरणकुमारवत् । वेश्म ज्वलनजटिनः प्रविवेशेत्युवाच च । ४९९ ॥ दक्षिण भरतक्ष्मार्थं लोकार्धमिव वज्रिणः । प्रशासितुर्हयग्रीवस्याऽऽज्ञया त्वां वदाम्यदः ॥ ५०० ॥ तव स्वयम्प्रभा नाम कन्यारत्नं गृहेऽस्ति भोः ! । तां गत्वा स्वामिने देहि रत्नं नान्यस्य भारते ॥ ५०१ ॥ स्वामी वः सकुटुम्बानामश्वग्रीवः सुताऽपि तत् । तस्याऽस्तु दीयते हन्त । किं शिरो नयने विना १ ॥ ५०२ ॥ अश्वग्रीवं पुराऽऽराद्धं पुत्र्यदानात् प्रकोपयन् । किं हारयसि फूत्कृत्य त्वमहो ! धमीतकाञ्चनम् १ ||५०३ ॥ इत्युक्तस्तेन दूतेनोवाच ज्वलनजस्यपि । दत्ता कन्या त्रिष्टष्ठाय कन्यादानं सकृत् खलु ॥ ५०४ ॥ अन्यस्यापि प्रदत्तस्य वस्तुनः स्वामिता न हि । किं पुनः कुलकन्याया विचारयतु स स्वयम् ।। ५०५ ।। ऊर्ध्वकर्णाः अर्थग्णः सूर्यस्य हरयः - अश्वाः येन सः, एतद् हरेः विशेषणम् । ६ अमितापितसुवर्णम् । १ हस्तिनीम् । २ उलूलुः - मङ्गलध्वनिः । ४ वायुकुमारवत् । ५ भाषायाम्- 'फूंक मारीने' । ३ . Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थ पर्व प्रथमः सर्गः श्रेयांसजिनचरितम्। ॥३६७॥ इत्युक्तः सोऽग्निजटिना दूतोऽन्तःकलुषः खलु । उपत्रिपृष्ठमगमन्निसृष्टार्थो हि स प्रभोः ॥५०६॥ त्रिपृष्ठं चेत्यभाषिष्ट समादिशति मद्गिरा क्ष्मामण्डलाऽऽखण्डलस्त्वामश्वग्रीवो जगजयी ॥५०७॥ अस्मदर्हा कन्यकेयमज्ञानादाददे त्वया । विमुग्धपथिकेनेव राजोद्यानतरोः फलम् ॥ ५०८ ॥ ईशोऽहं वः सबन्धूनां रक्षिताः स्थ चिरं मया । तत् कन्यां मुश्च भृत्यानां प्रमाणं खामिशासनम् ॥५०९॥ विकटभ्रकुटीभङ्गभीमभालस्थलस्ततः । रक्तेक्षण-कपोलश्रीस्त्रिपृष्ठः प्रत्युवाच तम् ॥ ५१०॥ स एवं जगति न्याय प्रवर्तयति ते प्रभुः। अग्रेगरिव लोकानामहो! तस्य कुलीनता ॥ ५११॥ तेन स्वविषये मन्ये विध्वस्ताः कुलयोषितः । मार्जारयनः पुरतः किं दुग्धमवशिष्यते ॥ ५१२॥ अस्मासु स्वामिता तस्य कुतो हन्ताऽमुना पथा? । अन्यत्रापि स्वामिताऽस्य गैत्वर्येवाचिरादपि ॥५१३ ॥ स शालिभोजनस्येव तृप्तवान् जीवितस्य चेत् । खयम्प्रभामुपादातुं तदत्राऽऽगच्छतु स्वयम् ॥ ५१४॥ दूतत्वेन न वध्योऽसि गच्छ मा तिष्ठ सम्प्रति । तमेव हि हनिष्यामो हयग्रीवमिहाऽऽगतम् ॥ ५१५॥ इत्युक्तो विष्णुना दूतः प्रतोदेनेव ताडितः। गत्वा शीघ्रं सर्वमाख्यदश्वग्रीवाय भूभुजे ॥ ५१६॥ तदाकर्ण्य हयग्रीवो लोहितायितलोचनः । प्रस्फुरदंष्ट्रिकाकेशो दशनैरधरं दशन् ॥ ५१७ ॥ वेपमानवपुर्णीमभ्रकुटीविकटार्लिंकः । विद्याधरवरानेवं सावज्ञा-कोपमादिशत् ॥ ५१८ ॥ युग्मम् ॥ १ त्रिपृष्ठसमीपम् । २ उभयपक्षयोः अभिप्रायं संवुध्य स्वप्रतिभया प्रतिवक्ति संदिष्टः संश्च कार्याणि करोति सः निसृष्टार्थः । ३ 'यूयम्' इति शेषः। ४ अनेगू:-अग्रणीः। ५ गमनशीला-नाशशीला। ६ भाषायाम् 'परोणो' नामकं वृषभादिताडनसाधनम् । ७ भाषायाम्-'दाढीना केशो'। ८ अलिकम्-कपालम् । ॥३६७। Jan Education inte For Private & Personal use only Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CONOCRATESCREEN GESCHOSSEISUSTAIGOS अहो! दैवेन दुर्बुद्धिर्दत्ताऽऽग्निजटिनः खलु । कृकैलास इवाऽर्कस्य यः स्यादभिमुखो मम ॥ ५१९ ॥ आभिजात्यमहो! तस्य कीदृशं ? यो विहाय माम् । स्वसुतापतिपुत्रेणाऽऽत्मकन्यां पर्यणाययत् ॥५२०॥ मूर्यो मुमूर्षुरेकः स तावज्वलनजव्यहो! । प्रजापतिद्धितीयोऽन्यः सापत्नभगिनीसुतः ॥ ५२१॥ अपरश्च पितुःशाल स्वज्ञातेयेन नित्रपाः। मां प्रत्यारम्भमिच्छन्ति शृगाला इव जागैरम् ॥५२२॥॥युग्मम्॥ विद्रावयत तान् गत्वा पवनास्तोयदानिव । शार्दूला इव हरिणान् हरयः कुञ्जरानिव ॥ ५२३ ॥ ___ अथ विद्याधराः सर्वे रणकण्डूलबाहवः । तया खाम्याज्ञयाऽहृष्यंस्तृषिता इव वारिणा ॥ ५२४ ॥ पृथक् पृथग् युत्प्रतिज्ञां कुर्वाणा भुजशालिनः। स्फोटयन्त इव दिवं भुजास्फोटोद्भवै रवैः ॥ ५२५॥ उक्त्वा मित्रेष्विवामित्रेष्वपि सङ्क्रामकौतुकात । मम प्राग मा परो जैषीदित्यन्योऽन्यमतित्वराः॥५२६॥ कशाभिस्ताडयन्तोऽश्वान् प्रेरयन्तो यतैर्गजान । प्राजन्तः प्राजनैधुर्यान् निघ्नन्तो यष्टिभिर्मयान् ॥५२७॥ नर्तयन्तो निशातासीन् स्फारयन्तः स्फुरान् मुहुः । सजायन्तश्च तूणीरान् वादयन्तो धनुर्गुणान् ॥५२८॥ भ्रामयन्तो मुद्रांश्च चालयन्तो महागदाः । स्फाटयन्तस्त्रिशल्यांश्च दधानाः परिघानपि ॥ ५२९॥ केपि खेन समापेतुर्भुवा केऽपि च कौतुकात् । प्रापुश्च पोतनपुरमश्वग्रीवस्य ते भटाः॥५३०॥ ॥षभिः कुलकम् ॥ १ कृकलास:-'काकीडो' इति भाषायाम् । २ प्रत्यारम्भः-संग्रामः। ३ जागर:-सिंहः। ४ सिंहाः। ५कण्डलम्-'खंज| वाळवाळु'-'चळवाळु' इति भाषायाम् । ६ युद्धप्रतिज्ञाम् । यता:-अङ्कुशाः। ८प्राजना:-'परोणा' इति भाषायाम् । |९ बलीवर्दान् । १० उडान् । ११ स्फुराः 'डाल' इति भाषायाम् । * "खिशल्लीश्च सं० का० । महागुदाः । समाजायन्तश्च तूणीरान पेतुर्भुवा A- त्रिषष्टि. ६३ JainEducation inale For Private & Personal use only Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थ पर्व प्रथमः सर्गः श्रेयांसजिनचरितम् । १३६८॥ तेषां कलकलं श्रुत्वा दूरतोऽपि प्रजापतौ । किमेतदिति संभ्रान्तेऽवादीजवलनजव्यदः ॥ ५३१ ॥ अमी खलु हयग्रीवेणाऽऽदिष्टाः सुभटा इह । आयान्त्यायान्तु यूयं तु प्रेक्षध्वं मम कौतुकम् ॥५३२॥ मा त्रिपृष्ठो माञ्चलो वा संप्रहार्भान्ममाऽग्रतः । इत्युत्सुकः परिकरं बढोत्तस्थौ रणाय सः ॥५३३॥ प्रजहुर्युगपत्तसिन्नश्वग्रीवभटाः क्रुधा । स्वपक्षे हि विपक्षस्थे स्वादमझे विशेषतः ॥५३४ ॥ निरास तेषां शस्त्राणि शस्त्रज्वलनजव्यपि । अपवादैरिवोत्सर्गान् सोऽपवादवहिष्कृतः॥५३५॥ उपदुद्राव तान् सर्वान् निशातशरवृष्टिभिः । स्तेम्बेरमानिवोत्पातमेघः करकवृष्टिभिः ॥ ५३६ ।। विद्याबलाद् दोर्बलाच्च तेषां दर्प चिरोद्भवम् । जहार ज्वलनजटी वॉर्तिकः फणिनामिव ॥ ५३७ ॥ इत्यभाषत तानग्निजटी द्राग् यात यात रे!। निर्नाथान् वः समायातान् वराकान् को हनिष्यति ॥५३८॥ मध्येकृत्य हयग्रीवं नाथमायात पर्वते । रथावर्ते वयमपि समेष्यामोऽचिरादपि ॥ ५३९ ॥ तेनैवमुक्ताः सावज्ञं हयग्रीवभटा द्रुतम् । काकनाशं प्रणेशुस्ते प्राणानादाय भीरवः ॥५४०॥ मषीलिप्तैरिवामन्दमन्दाक्षमलिनैर्मुखैः । तेऽपि गत्वा तदाचख्युर्मयूरग्रीवसूनवे ॥५४१॥ हुताशन इवाऽऽहुत्या त_चोभिरदीप्यत । सद्यो नीलाञ्जनासूनुरक्षय्यभुजविक्रमः ॥ ५४२ ॥ कोपाऽरुणकरालाऽक्षः स रक्ष इव भीषणः । सामन्ताऽऽमात्यसेनानीप्रभृतीनेवमादिशत् ।। ५४३ ॥ ॥३६८॥ सर्पवशकारी गारुटिकः । ५ यथा काका नश्यन्ति दूरीचकार। २ गजान् । ३ करका:-करा' इति भाषायाम्। तथा। ६ मन्दाक्षम्-लज्जा । * तद्वाचाभिः का। राक्षसः। Jain Education in For Private & Personal use only Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वे सर्वाभिसारेण भोः समागच्छत द्रुतम् । चलत्विदानी नः सैन्यमुढेल इव सागरः ॥ ५४४॥ सत्रिपृष्ठाऽचलं साग्निजटिनं तं प्रजापतिम् । संहराम्येष समरे द्राग् धूमो मशकानिव ॥ ५४५॥ इत्युक्तवन्तं सामर्षमश्वकन्धरमुद्धरम् । धीगुणग्रामधामोचे सचिवग्रामणीरिदम् ॥ ५४६ ॥ त्रिखण्डं भरतं खामी लीलयवाऽजयत् पुरा । कीत्यै लक्ष्म्यै च तैजन्ये धुरिजातोऽसि दोम॑ताम् ॥५४७॥ इदानीमेकसामन्तविजयायोद्यतः स्वयम् । कां कीर्तिमथ कां लक्ष्मीमर्जयिष्यति नः प्रभुः ॥५४८॥ न्यूनस्य विजयेऽपि स्यानोत्कर्षः कोऽपि दोष्मताम् । का श्लाघों हरिणवधे हरेः करिविदारिणः ॥५४९॥ न्यूनेन विजये दैवात् सर्वोऽप्येकपेदे व्रजेत् । पूर्वाऽर्जितो यशोराशिर्विचित्रा हि रणे गतिः॥ ५५०॥ सिंहवध-चण्डसिंहधर्षणप्रत्ययादपि । सत्यनैमित्तिकगिरा तत्र शङ्काऽऽस्पदं महत् ॥ ५५१॥ पाहुण्यादासनगुणो धर्तुमत्रोचितः प्रभोः। महागजोऽपि ह्यज्ञात्वा धावन् पङ्के निमजति ॥ ५५२॥ सोऽर्भस्तु रभसाकारी कचिच्छरभवद् द्रुतम् । उत्पत्य भङ्ख्यते सेत्स्यत्यासीनस्यापि ते हितम् ॥५५३॥ तितिक्षितुमथेदृक्षं न क्षमोऽसि क्षमापते ! | आदिश्यतां तर्हि सैन्यं त्वत्सैन्यं हि सहेत का? ॥ ५५४॥ तथ्यां पथ्यां च तद्वाचमवामन्यत भूपतिः । मन्यावन्तर्मधुनीव चेतनास्तु कुतो नृणाम् ? ॥ ५५५॥ कातरोऽसीति संचिवं तं निर्भर्त्य सरोषणः । क्षणेन वादयामासाऽऽयुक्तैः प्रस्थानदुन्दुभिम् ॥ ५५६ ॥ १ सर्वतः अभिमुखतया सर्वसामग्र्या वा। २ ऊर्ध्ववेलायुक्तः-'वेला' भाषायाम् 'वेळ'-'भरती' इति । ३ जन्यम्युद्धम् । ४ बाहुबलवताम् । * °घा हारि सं०। ५ एकपदे-शीघ्रम् । 1 °का पदम्-सं० का। ६ बालकः त्रिपृष्ठः । ७ अपमानितां चकार। ८ 'मन्यौ अन्तर्मधुनि-इति विभागः । अन्तर्मधुनि मदिरायां पीतायाम्। वं निर्भय॑ रोमहर्षणः सं० । Jain Education inte For Private & Personal use only . Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये | चतुर्थ पर्व प्रथमः सर्गः श्रेयांसजिनचरितम् । ॥३६९॥ तेन दन्दुभिशब्देन सद्यः सर्वेऽपि सैनिकाः। एयुः सर्वाभिसारेण दूरात् पार्थस्थिता इव ॥ ५५७॥ स्नानागारं हयग्रीवो गत्वा भृङ्गारवारिभिः । गङ्गातरङ्गैरुत्तुङ्गैः सस्त्री हंस इवाऽमलैः ॥ ५५८ ॥ उन्मृष्टाङ्गो दुकूलेन दिव्यधूपैश्च धूपितः । शुभ्रीकृताङ्गो गोशीर्षचन्दनैनन्दनाऽऽहतैः॥ ५५९॥ संवीतसदशश्वेतवस्त्रो बद्धासिधेनुकः । पुरोधःकृततिलकः स राजतिलकस्ततः ॥५६०॥ वैतालिकैः स्तूयमानो विशदच्छत्रचामरः । मदसिक्तावनितलमारुरोह महागजम् ॥ ५६१॥ ॥ त्रिमिर्विशेषकम् ।। दुर्वारर्वारणैरवै रथैश्च परिवारितः । प्रचचाल हयग्रीवश्चलयनचलानपि ॥ ५६२ ॥ गच्छतस्तस्य सहसोद्भूतचण्डोनिलेन तु । छत्रस्याऽऽन्दोल्यमानस्य दण्डोऽभज्यत वृक्षवत् ॥ ५६३ ॥ अनोकहात् पुष्पमिव तारकेव नभस्तलात् । हयग्रीवशिरसस्तत् पपाताऽऽतपवारणम् ॥ ५६४ ॥ मदस्तदानीं करिणस्तस्य चाशुष्यदञ्जसा । सरसी ज्येष्ठमासीव शरदीव च कर्दमः॥ ५६५ ॥ मोमुत्र्यते स्म तत्कालं कालभीत इव द्विपः । ररास विरसं चापि नोद्धुरं च शिरो दधौ ॥५६६ ॥ रजोवृष्टिरसृग्वृष्टिर्दिवा नक्षत्रवीक्षणम् । उल्कापातस्तडित्पात इत्युत्पाताश्च जज्ञिरे ॥ ५६७॥ दीनस्वरं प्ररुदितं सारमेयेरुदाननैः। आविर्भूतं च शशकैचिल्लीभिर्धान्तमम्बरे ॥ ५६८॥ भृङ्गार:-सुवर्णपात्रम् । *कृताङ्गरागो गो सं० का० । २ नन्दनवनादानीतः। ३ असिधेनुका-छुरिका।। Fil: अचला-पर्वताः। ५ चण्डानिलेन-प्रचण्डपवनेन । ६ वृक्षात् । ७ उन्नतम् । ८ असग्-रुधिरम् । ९ अर्वमुखेः श्वानः MI.चिल्ली 'समळी' इति भाषायाम् । 'चिल' इति हिन्दीभाषायाम् । ESATARISHAHARASHTRA ॥३६९॥ Jain Education Internal For Private & Personal use only .. Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SARKAR काकोलैश्चक्रिरे रोला गृधैरुपरि जृम्भितम् । स्थितं ध्वजे कपोतेनेत्यासशकुनान्यपि ॥ ५६९ ॥ नाश्वग्रीवो दुनिमित्ताऽशकुनान्यप्यजीगणत् । यमपाशैरिवाऽऽकृष्टः किं तु प्रायादनर्गलः॥५७०॥ विद्याधरैर्गतोत्साहैपैरप्यरणोत्सुकैः । आकृष्टैर्विष्टिभिरिव स्वाधीनैरप्यवेष्टयत ॥ ५७१ ॥ संपूर्णसैन्यः कतिभिः प्रयाणैराससाद सः। परिष्कृतरथावर्त तं रथावर्तपर्वतम् ॥ ५७२ ॥ उपत्यकायां तस्याद्रेर्विजयादयगिरेरिव । विद्याधरबलान्यूपुरश्वग्रीवस्य शासनात् ॥ ५७३ ॥ इतश्च पोतनपुरे स विद्याधरपुङ्गवः । उवाच ज्वलनजटी बलभद्रबलानुजौ ॥ ५७४॥ नैसर्गिक्यापि कः शक्त्या प्रतिमल्लो न कश्चन । प्रेमभीरुर्वदामीदं प्रेमास्थानेऽपि भीप्रदम् ।। ५७५ ॥ स विद्यादुर्मदो दोष्मानूंष्मलोऽनेकयुञ्जयी । हयग्रीवः खलूद्ग्रीवः शङ्कनीयो न कस्य हि ॥५७६ ॥ विद्या विना हयग्रीवादन्यूनं युवयोरपि । तथापि तं युवां हन्तुं समर्थों परमर्थये ॥ ५७७॥ युवाभ्यामत्र कर्तव्यो विद्यासिद्ध्यै श्रमो मनाक् । यथा विद्याकृतं मायायुद्धं तस्य वृथा भवेत् ॥ ५७८॥ तथेति प्रतिपेदानौ शुचिवस्त्रौ समाहितौ । विद्याः सोऽन्वशिषत् प्रीतमना ज्वलनजव्यथ ॥ ५७९ ॥ मन्त्रबीजाक्षराण्यन्तः स्मरन्तौ भ्रातरावुभौ । अत्यवाहयतां सप्तरात्रमेकाग्रमानसौ ॥ ५८०॥ सप्तमे दिवसे जातकम्पे फणिपतौ सति । ध्यानाऽऽरूढौ बलोपेन्द्रौ विद्याः समुपतेस्थिरे ॥ ५८१॥ काकोला:-वनकाकाः। २ रोला-'रडारोळ' इति भाषायाम् । ३ आसन्+अशकुनानि-अपशकुनानि । ४ उद्धृतः । ५ विष्टि:-नरके हठात् क्षेपः। ६ परिष्कृतः रथावतः रथभ्रमणमार्गः यत्र तम् । ७ उपत्यका-तलहट्टी। ८ नैसर्गिकीसहजा। ९प्रचण्डः। १० 'अनेकयुध्जयी' इति विभागः। * सिद्धौ-सं०। ११ स्वीकृतवन्तौ। १२ समागताः। Jain Education Intel For Private & Personal use only 6 Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ पर्व प्रथमः त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये सर्गः LOS SOCIAIS श्रेयांसजिनचरितम् । ॥३७॥ गारुडी रोहिणी चैव भुवनक्षोभणी तथा । कृपाणस्तम्भनी स्थामशुम्भनी व्योमचारिणी ॥ ५८२ ॥ तमिस्रकारिणी सिंहवासिनी वैरिमोहिनी । वेगाऽभिगामिनी दिव्यकामिनी रन्ध्रवासिनी ॥ ५८३ ॥ कृशानुवर्षिणी नागवासिनी वारिशोषिणी । धरित्रीदारिणी चक्रमारणी बन्धमोचनी ॥ ५८४ ॥ विमुक्तकुन्तला नानारूपिणी लोहशृङ्खला । कालराक्षसिका छन्नदशदिक् तीक्ष्णशूलिनी ॥ ५८५ ॥ चन्द्रमौलिश्च विजयमङ्गला ऋक्षमालिनी । सिद्धताडनिका पिङ्गनेत्रा वचनपेशला ॥ ५८६ ॥ ध्वनिताहिफणा घोरघोषिणी भीरुभीषिणी । विद्या इत्यादयःप्रोचुंर्वशे सो युवयोरिति ॥ ५८७ ॥ पारयामासतुानं सिद्धविद्यावुभावपि । पुण्याऽऽकृष्टं खयं सर्व किं किं न स्यान्महात्मनाम् ॥५८८॥ अथ त्रिपृष्ठः सज्येष्ठः श्रेष्ठेऽति विपुलैबेलैः । प्रजापतिज्वलनजट्यादिभिः प्रास्थितोच्चकैः॥५८९॥ तङ्गैस्तुरङ्गै रङ्गद्भिर्वेगिभिर्गरुडैरिव । जयश्रीवेश्मभिर्वैर्यास्कन्दनैः स्यन्दनैरपि ॥ ५९०॥ मदोडुरैः कुञ्जरैरप्यतिनिर्जरकुञ्जरैः । शार्दूलैरिव चोत्फालगामिभिर्वरपत्तिभिः ॥५९१ ॥ नभश्चरै चरैश्च द्यां मां च छादयन् भृशम् । शकुनैरनुकूलैः प्रेर्यमाणः खजनैरिव ॥ ५९२ ॥ तूर्यनादैदिशो भिन्दन हेर्पा-हितबृंहितः । सैन्यप्राग्भारभारेण कम्पयंश्च वसुन्धराम् ॥ ५९३ ॥ * सिंहवाहिनी-सं० । + °त्रीदारणी नागबन्धनी बन्ध-सं०। °चुर्वशाः स्मो-सं। १ प्रास्थितप्रस्थानं कृतवान् । २ आस्कन्दनम्-पराभवः। ३ देवहस्तितोऽपि अधिकशोभायुतैः। हेषा-अश्वशब्द:-हणहणाट' इति भाषायाम् । बृंहितम्-गजगर्जनम् । ॥३७०॥ GHOST Jain Education a l For Private & Personal use only Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OBERHOGISCRISOGROGORO हरिः खदेशसीमान्ते शिलास्तम्भमिवोच्चकैः । भूक्षोदकरथावतॊ रथावर्ताद्रिमासदत् ॥ ५९४ ॥ ॥चतुर्भिः कलापकम् ॥ रणतूर्याण्यवाद्यन्त सैन्ययोरुभयोरपि । दिवौकस इवाहातुं युद्धसभ्या भवन्त्विति ॥ ५९५ ॥ .रणसोत्कण्ठयोरुच्चैस्त्रिपृष्ठ-हयकण्ठयोः। समापन्नान्यनीकानि देव-दैत्येन्द्रयोरिव ॥ ५९६ ॥ तेषां संनह्यतामुच्चैः सैन्यानां तुमुलो दिशः । तुरङ्गमचमूक्षुण्णक्षोणिरेणुरिवारुणत् ॥ ५९७ ॥ सैन्यकेतुस्थितैः सिंहः शरभैीपिभिर्गजैः । प्लवङ्श्च रराज द्यौररण्यानीव भीषणा ॥ ५९८॥ बन्धवो नारदस्व कलिकेलिकुतूहलाः । संशप्तकाश्च संचेरुर्भटोत्साहनकर्मठाः ॥ ५९९ ॥ अथोपचक्रमेऽनीकमग्रानीकैद्धयोरपि । द्यां कुर्वद्भिः शरश्रेण्या प्रोत्पतत्पतगामिव ॥६००॥ अग्रानीकैस्तयोयुद्धे शस्त्राग्निरुदभून्महान् । दवाग्निरिव शाखाग्रैः संघर्षेऽरण्यवृक्षयोः॥ ६०१॥ शस्त्राशस्त्रि प्रवृत्तानां भटानाममितौजसाम् । संफेटोऽभूद् रणमुखे जलधौ यादसामिव ॥ ६०२ ॥ अश्वग्रीवस्याग्रसैन्यं त्रिपृष्ठस्याग्रसेनया । चक्रे परामुखं वार्द्धिवेलयेव नदीजलम् ॥ ६०३ ॥ अग्रसैन्यस्य भङ्गेनाङ्गुल्यग्रस्येव तत्क्षणात् । विद्याधरवरा वाजिग्रीवगृह्याः प्रचुक्रुधुः ॥६०४॥ तेऽभवन्नाहवोत्ताला वेतालाश्चण्डबाहवः । पिशाचा यमसाचिव्यलब्धमुद्रा इवोच्चकैः ॥ ६०५ ॥ १ स्वर्गवासिनः। * समनहन्तानीकानि-सं० का । २ षष्ठीबहुवचनम् । ३ अवरोधको जातः । ४ द्वीपिन:-चित्रकाः 'दीपडा'-'चित्ता' इति भाषायाम् । ५ दीर्घमरण्यमरण्यानी। युद्धाद् अनिवर्तकाः। यत्र पक्षिण उद्ययन्ते वादशाऽऽका| राम् । - गृह्याः-संबन्धिनः। ९ आहवः युद्धम् , तन्त्र उत्ताला उत्कटाः। Jain Education internTTI For Private & Personal use only I Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते चतुर्थ पर्व प्रथम: सर्गः श्रेयांसजिनचरितम् । महाकाव्ये ॥३७१॥ विकटोत्कटदन्तानि पृथुवक्षस्तटानि च । श्यामभीमानि रक्षांसि शृङ्गाणीवाञ्जनागिरेः॥६०६ ॥ लाङ्गललाङ्गलाऽऽपातस्फाटितक्षोणिमण्डलाः। मण्डलाग्रक्रियाकारिनखाः केसरिणोऽपि च ॥ ६०७ ॥ शुण्डादण्डैस्तृणपूललीलोल्लालितदन्तिनः । उत्पादकाश्च शरमा उच्छृङ्गा इव पर्वताः ॥ ६०८॥ पुच्छराच्छोटयन्तःक्ष्मां मोटयन्तो रदैमान । सिंहस्तम्बरमाकारकरालाश्च वरालकाः॥६०९॥ अन्येऽपि दीपि-शार्दूल-वृषेदंश-वृकादयः। व्यादाः श्वापदास्तिर्यग्भूता इव निशाचराः॥ ६१०॥ ॥षभिः कुलकम् ॥ कुर्वन्तो भीषणान् नादानाह्वयन्त इवान्तकम । वरूथिनी त्रिपृष्ठस्य ते वेगादुपदुद्रुवुः ॥ ६११ ॥ ___ अथ म्लानमुखाः सर्वे भग्नोत्साहाः क्षणादपि । एवं विचिन्तयामासुःप्राजापत्यस्य सैनिकाः॥६१२॥ मार्गभ्रान्ता वयमिह परेतनगरे किमु । राक्षसानां किमावासे विन्ध्यस्थल्यां किमागताः॥६१३॥ भृतान्येतानि सवानि क्रूराण्यवंगलाऽज्ञया । संग्रहर्तुं सहाऽस्माभिः खस्थानेभ्यः किमाययुः॥६१४॥ मन्ये कन्यानिमित्तो नः प्रलयोऽयमुपस्थितः । स्थितं नः पौरुषेणाऽद्य त्रिपृष्ठश्चेत् स्वयं जयी ॥६१५ ॥ एवं चिन्ताप्रपन्नेषु तेषु व्यापंन्नबुद्धिषु । पराङ्मुखीभवत्तूंचे त्रिपृष्ठं वहिजट्यदः॥६१६ ॥ विद्याधराणां मायेयं न किञ्चित पारमार्थिकम । वेश्यहं सर्पघर्ष हि सो जानाति नाऽपरः॥ ६१७॥ १ लाङ्गलम्-पुच्छम् , तद्रूपं लाङ्गलम्-हलम् , तस्य आपातः। २ मण्डलानम्-असिः-तरवारिः। ३ उपादाः। ४ मोट. यन्तः-भाषायाम् 'मरडी नाखता'। ५ वृषदंश:-बिलाढः । * °पदाः खैरं तिर्यग्गता निशा-सं०। ६ सेनाम् । ७ प्रेतनगरे। ८ अश्वगल:-अश्वग्रीवः। ९ नष्टबुद्धिषु । १० 'परामुखीभवस्सु+ऊचे' इति विभागः । ॥३७१॥ Jain Education Inte For Private & Personal use only Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %*%*%*ARR CARRORAGARAA अशक्तिः खयमाख्याता स्वस्यैभिर्मन्दबुद्धिभिः। शक्तः क एवं कुरुते बालस्व विभीषिकाम् ॥ ६१८॥ तदुत्तिष्ठ महावीर! समारोह महारथम् । उत्तुङ्गादवरोहन्तु मानशैलाच विद्विषः ॥ ६१९ ॥ त्वयि च स्यन्दनारूढे देवेऽपि च दिवाकरे । समुंद्यतकरे कस्य तेजो जृम्भिष्यते ननु ॥ ६२० ॥ इत्युक्ते वहिजटिना सैन्यमाश्वासयन् निजम् । त्रिपृष्ठो रथिनां प्रष्ठोऽध्यारुरोह महारथम् ॥ ६२१॥ रथं सांग्रा मिकं रामोऽप्यारुरोह महानुजः । न मुञ्चत्यन्यदाऽप्येकं सोऽनुजं किं पुनयुधि ॥ ६२२ ॥ विद्याधराश्च ज्वलनजटिप्रभृतयो रथान् । समारुरुहुरत्युच्चैः सिंहा इव गिरिस्थलीम् ॥ ६२३ ॥ पुण्याकृष्टास्ततो देवास्त्रिपृष्ठाय समापयन् । शाई नाम धनुर्दिव्यं गदां कौमोदकीमपि ॥ ६२४ ॥ पाश्चजन्याभिधं शङ्ख कौस्तुभं नामतो मणिम् । खड्गं च नन्दकं नाम वनमालेति दाम च ।। ६२५॥ ददुश्च बलभद्राय हलं संवर्तकाभिधम् । सौनन्दं नाम मुसलं चन्द्रिकानामिकां गदाम् ॥ ६२६ ॥ तांश्च दृष्ट्वा परे वीराः सर्वे सर्वात्मनाधिकम् । संभूय समयुध्यन्त युध्यन्तकसुता इव ।। ६२७॥ शङ्खरत्नं पाश्चजन्यं जन्यनाटकनान्दिकाम् । त्रिपृष्ठो वादयामास रवाऽऽपूरितदिसुखम् ॥ ६२८॥ संवर्तपुष्करावर्तगर्जितेनेव तस्य तु । क्षुभ्यन्ति स प्रणादेन हयर्कन्धरसैनिकाः ॥ ६२९ ॥ केषाश्चित् पेतुरस्त्राणि पत्राणीव महीरुहाम् । सापसारा इवाऽन्ये तु स्वयं पेतुर्महीतले ॥६३०॥ १ सज्जीकृतहस्ते । २ वृद्धि प्राप्स्यति । ३ श्रेष्ठः । * °त पितृवैराः सुता-सं०। ४ 'युधि+अन्तकसुता' इति पदविभागः। अन्तकः यमः। ५ संवर्तपुष्करावर्तः-प्रलयकालिकस्तवामा मेघः। ६ हयकन्धरः-अश्वग्रीवः। ७ अपस्मारो नाम | विशेषप्रकारको वातव्याधिः, यत्र देहकम्पपूर्वकं मूछो आगच्छति । A RA Jain Education l For Private & Personal use only . Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते महाकाव्ये ॥३७२॥ Jain Education Inte भीरवः फेरव इव प्रशुः केऽपि च द्रुतम् । नेत्रे पिधाय लीवा च केऽप्यस्थुः शशका इव ॥ ६३१ ॥ उलूकवत् प्रविविशुः कन्दरामुत केचन । केचिदाराटिषुः शङ्खा इव वारिबहिष्कृताः ।। ६३२ ॥ अभूतपूर्वमम्भोधिसंशोषणमिवात्मनः । सैन्यभङ्गं समाकर्ण्य हयग्रीवोऽब्रवीन्नजान् ॥ ६३३ ॥ करे ! विद्याधरा ! याथ त्रस्ताः शङ्खध्वनेरपि । वृषभध्वनितस्येव मृगप्रभृतयो वने ॥ ६३४ ॥ को दृष्टो विक्रमस्तस्य त्रिष्टष्ठस्याऽचलस्य वा । यत्रस्ताः पशुवद् यूयं चञ्चापुरुषदर्शनात् ॥ ६३५ ॥ नानारणजयोद्भूतं युष्माभिर्धारितं यशः । श्रीच्छिदेऽञ्जनलेशोऽपि धौतस्य श्वेतवाससः ।। ६३६ ॥ व्यावर्तध्वमिदं वो हि दैवात् स्खलितमागतम् । नभश्वराणां भवतां केऽपरे भूमिचारिणः १ ॥ ६३७ ॥ युध्यध्वं माऽथवा यूयं सभ्यीभवत केवलम् । अहं खलु हयग्रीवः साहाय्यार्थी रणे न हि ॥ ६३८ ॥ इत्युक्ता हयकण्ठेन नमत्कण्ठास्त्रपावशात् । विद्याधरा ववलिरे* शैलस्खलितसिन्धुवत् ॥ ६३९ ॥ रथस्थो व्योमयानेन क्रूर ग्रह इवापरः । द्विषो ग्रसितुमव्यग्रो हयग्रीवोऽप्यथाचलत् ॥ ६४० ॥ ववर्ष बाणैः पाषाणैः शल्यैरस्त्रैरथापरैः । अधित्रिपृष्ठसैन्यं सोऽवमेघ इव नूतनः ॥ ६४१ ॥ १ फेरुः शृगालः । २ दृष्टिपथातीता भूत्वा 'संताई जईने' 'छुपाई जईने' इति भाषायाम् । ३ राटिं चक्रुःभाषायाम्- 'राडोपाडी' । ४ जलनिर्गताः । ५ अत्र हेत्वर्थद्योतक पञ्चम्यर्थेऽपि षष्ठी 'वृषभगर्जनात्' इत्यर्थः । ६ चनापुरुषो नाम पक्षिभयजननाय कृषिक्षेत्रे ऊर्ध्वकृतः तृणमयो वस्त्रमयो वा पुरुषाकृतिविशेषः- भाषायाम् 'चाडिया' इति प्रतीतिः । ७ कज्जललवोऽपि भाषायाम् 'कालो बाघ' । * रे वेलाऽवलितसिन्धु- सं० । ८ त्रिपृष्ठसैन्यस्य अधिउपरि-इत्यर्थः । चतुर्थ पर्व प्रथमः सर्गः श्रेयांस जिन चरितम् । ॥३७२ ॥ w Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GROGRAMMASSOS अखवृष्ट्या तयाऽक्लाम्यत त्रैपृष्ठमखिलं बलम् । धीरा अपि हि किं कुर्यु चरा व्योमचारिषु ॥ ६४२ ॥ राम-त्रिपृष्ठ-ज्वलनजटिनः स्यन्दनस्थिताः । उत्पेतुर्नभसा सद्यः समं विद्याधरैर्निजैः ॥ ६४३ ॥ नभस्युभयतो विद्याधरा युयुधिरेऽधिकम् । विद्याशक्तिं दर्शयन्तो गुरुष्विव परस्परम् ॥ ६४४ ॥ भृचरा भूचरैः साधं सैन्ययोरुभयोरपि । क्रुध्यन्तः समयुध्यन्त गजा इव गजैर्वने ॥ ६४५॥ विद्याधराणामन्योऽन्यं शखैः प्रहरतां भृशम् । अदृष्टपूर्वाऽमृग्वृष्टिरुत्पातकदिवाऽभवत् ॥ ६४६॥ अन्योऽन्याऽऽघातशब्देन शब्दायितनभस्तलम् । दण्डसंगीतवत् कैश्चिद् दण्डादण्डि प्रचक्रमे ॥ ६४७ ॥ खड्गदण्डैः सदोर्दण्डचण्डिमानश्च केचन । डिण्डिमानिव कोणेन विपक्षान् पर्यताडयन् ॥ ६४८॥ मिलन्तः केचिदन्योऽन्यमन्यजन्यजयाऽसहाः। स्फारानास्फोटयामासुः स्फुरकान कांस्यतालवत् ॥६४९॥ शक्तीः प्रचिक्षिपुः केपि सीमन्तितनभस्तलाः । तडत्तडिति कुर्वाणास्तमितस्तोयदा इव ॥ ६५०॥ शल्यैः प्रववृषुः केचिदुरगैरिव दारुणैः । पत्रिभिः प्रस्फुरत्फ्त्रैः पत्रिरोजैरिवाऽपरे ॥ ६५१॥ बले द्वयोरुत्पतितः पतितैश्चैवमायुधैः । नानायुधमयीव द्यौधरित्रीवाऽभवत् तदा ॥ ६५२ ॥ सद्यश्छित्वा करोपात्तैः केपि प्रत्यर्थिमौलिभिः । अलक्ष्यन्त रणक्षेत्रे क्षेत्रपाला इवोद्भटाः ॥ ६५३ ॥ हेरम्बा इव नागास्सैरश्वास्यैः किन्नरा इव । सद्यः कबन्धोपरिष्टात् पतितः केपि रेजिरे ॥ ६५४ ॥ * या क्लान्तं त्रै-सं० । दण्डसंगीतम्-भाषायाम् 'दांडिया रास' इति । २ कोणः-वीणावादनकाष्ठम् । ३ स्फुरका:-फलकाः भाषायाम् 'ढाल' इति । ४ पत्रम्-बाणाप्रम्, पक्षं च। ५पत्रिराजःपारुडः । बलैद्धयो° सं०। ६ गणपतयः। ७ कबन्धः-क्रियायुक्तं मस्तकरहितं शरीरम्-भाषायाम् 'धड' इति । शक्तीः प्रविक्षिपुर कापजन्यजयाऽसहाः । स्फारानासन विपक्षान् पर्यताडयन् ॥ Jain Education Internal For Private & Personal use only T w w.jainelibrary.org Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थ पर्व प्रथमः सर्गः श्रेयांसजिनचरितम्। ॥३७३॥ सद्यश्छिन्नैः परिकरे पतित्वाऽवस्थितैः क्षणम् । नाम्यास्यानीव भूतानि स्वशीः केपि चाऽऽवभुः॥६५५॥ कबन्धास्ताण्डवं चक्रुः केषाश्चिदपि दोष्मताम् । सुरीस्वयंवरोद्भूतसम्मदेनेव भूयसा ॥ ६५६ ॥ शिरांस्यमुञ्चन् हुकारान् केषाञ्चित् पतितान्यपि । कबन्धारोहणे मन्त्रानुदृणन्तीव सादरम् ॥ ६५७ ॥ एवं प्रवृत्ते समरे कल्पान्त इव दारुणे । प्रत्यश्वकन्धररथं त्रिपृष्ठः प्रेरयेद् रथम् ॥ ६५८॥ रामोऽपि प्रेरयन् रॅथ्यान् रथिनामग्रणीरथ । ययौ स्नेहगुणाऽऽकृष्टस्त्रिपृष्ठरथसन्निधिम् ॥ ६५९॥ हयग्रीवोऽपि संपश्यन्नारक्ताभ्यामतिऋधा । प्रसारिताभ्यां नेत्राभ्यां तो पिपासन्निवाब्रवीत् ॥६६०॥ प्रधर्षितश्चण्डसिंहो युवयोः कतरेण रे!। कतरः पश्चिमान्तस्थसिंहघातेन दुर्मदः॥६६१॥ कतरः स्ववधायैव विषकन्यामिवोच्चकैः। कन्यां ज्वलनजटिनः पर्यणेषीत् खयम्प्रभाम् ॥ ६६२॥ कतरः स्वामिनमपि मूढधीर्मन्यते न माम । कतरो दत्तफालो मैय्यादित्य इव वानरः ॥ ६६३ ॥ कुतो हेतोरियत्कालं सैन्यक्षय उपेक्षितः । कस्येदानीमवष्टम्भाद् युवां मां समुपस्थितौ ॥६६४॥ प्रतिब्रूतमरे बालौ! युध्येथां च मया सह । क्रमेण युगपद्वापि सिंहेन कलभाविव ॥ ६६५॥ __अथाऽचलकनिष्ठस्तमभाषिष्ट कृतस्मितः । अहमेष त्रिपृष्ठोऽसि कर्ता त्वतधर्षणम् ॥ ६६६ ॥ पश्चिमान्तहरिं हन्ता परिणेता स्वयम्प्रभाम् । अॅमन्ता खामिनं त्वां च चिरं चं त्वामुपेक्षिता ॥६६७॥ । नाभौ आस्यं मुखं येषां तानि। २ 'देवीस्वयंवर' इत्यर्थः। ३ अश्वकन्धरः-हयग्रीवः । * रयद् हुतम्सं०। ४ रथ्यान्-रथयुक्त-घोटकान्। निधिः का०। ५ मयि-मद्रूपे आदित्ये। युवा प्रतिवचनं वदतम् । • अवगमयिता। च त्वमुपेक्षितः-सं०। ॥३७३॥ Jain Education Intel For Private & Personal use only , Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि. ६४ Jain Education Inte बलो नामाग्रजोऽयं मे बलेन बलसूदनः । प्रतिमल्लो न यस्यास्ति त्रैलोक्ये कीदृशो भवान् ॥ ६६८ ॥ अलं सैन्यक्षयेणेति तवाप्यभिमतं यदि । गृहाणास्त्रं महाबाहो ! ममैवासि रणातिथिः ॥ ६६९ ॥ अस्त्वावयोर्द्वन्द्वयुद्धं पूर्यतां भुजकौतुकम् । सभ्यीभूयावतिष्ठन्तु सैनिका उभयोरपि ॥ ६७० ॥ तथेति प्रतिपेदानौ हयग्रीव बलानुजौ । वारयामासतुः सैन्यान्याहवाद् वेत्रपाणिभिः ॥ ६७१ ॥ न्यस्यैकं । लेस्तके हस्तमपरं त्वेटनीतटे । चक्रेऽधिज्यं हयग्रीवो यमभ्रूभीषणं धनुः ॥ ६७२ ॥ रणश्रीकेलि संगीततत्रीमिव धनुर्गुणम् । पाणिना वादयामास मयूरग्रीवनन्दनः ॥ ६७३ ॥ शॉर्ङ्गमारोपयामास शार्ङ्गपाणिरपि क्षणात् । द्विषां विनाशपिशुनं निशामत्स्यमिवोद्गतम् ॥ ६७४ ॥ वज्रनिर्घोषवद् घोरं मृत्यो चाहानमत्रकम् । द्विषां बलहरं विष्णुर्धन्वघोषमकारयत् ।। ६७५ ।। बाणधेर्वाणमाकृष्य करण्डादिव पन्नगम् । चापे संधाय चाकर्ण चकर्ष हयकन्धरः ॥ ६७६ ॥ कटाक्षमिव कालस्य कल्पान्तानेः शिखामिव । भाभिर्ज्वलन्तं तं बाणमुल्बणं प्रमुमोच सः ॥ ६७७ ॥ तमापतन्तं वाणेन सद्यो मुक्तेन केशवः । चिच्छेदा जलताच्छेद मविच्छेदपराक्रमः ।। ६७८ ॥ प्रथमेनेव बाणेन लाघवादपरेण तु । हयग्रीवस्य धन्वाऽपि निचकर्त्ताचलानुजः ॥ ६७९ ॥ भूयो भूयो हयग्रीवो धनुर्यद् यदुपाददे । तत् तत् त्रिपृष्ठचिच्छेद तन्मनोरथवच्छरैः ॥ ६८० ॥ * भूयेऽव-सं० का० ॥ + कं हस्तके - सं० ॥ १ लस्तकम् - धनुर्मध्यम् । २ अटनी - धनुषः अग्रम् । ३ शृङ्गनिर्मितं धनुः शार्ङ्गम् । + °धनुर्घोष सं० ॥ \ 'छेदेक्षुल-सं० का० ॥ ५ निचकर्त चिच्छेद । ४ भा-प्रभा । . Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ पर्व त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते महाकाव्ये प्रथमः सर्ग: श्रेयांसजिनचरितम् । ॥३७४॥ RECIRCHANA पत्रिणाच्छिददेकेन ध्वजं प्रतिहरेहरिः । दूरं पर्यास चान्येन रथमेरण्डखण्डवत् ॥ ६८१ ॥ कुपितोऽथ हयग्रीवः समारुह्य रथान्तरम् । दूरादागाच्छरैवर्षन् धारासारैरिवाम्बुदः॥ ६८२॥ न रथः सारथिर्नापि न त्रिपृष्ठो न चापरम् । अदृश्यत हयग्रीवशरदुर्दिनडम्बरे ॥ ६८३ ॥ निरास शरवृष्टिं तां त्रिपृष्ठः शरवृष्टिभिः । रश्मिच्छटाभिर्भगवानन्धकारमिवार्यमा ॥ ६८४ ॥ ___अथ क्रुद्धो हयग्रीवः सोदरामिव विद्युतः । वयस्यां कुलिशस्येव मारेरिव च मातरम् ॥ ६८५॥ जिहामिवाहिराजस्य शक्ति शक्तिमतां वरः । समुच्चिक्षेप शैलेयीं शैलसारो महाभुजः॥ ६८६ ॥ कणघेरिकाश्रेणि कीनाशस्येव नर्तकीम् । राधाचक्रमिव स्तम्भेऽभ्रमयत् ता स मूर्धनि ॥ ६८७॥ विमानिभिर्दत्तमार्गा विमानभ्रंशभीरुभिः । अधित्रिपृष्ठं तामाशु सर्वस्थाम्ना मुमोच सः॥६८८॥ दण्डं द्वितीयं दोर्दण्डं तृतीयं समवर्तिनः। त्रिपृष्ठोऽप्याददे दोष्णा रथात् कौमोदकी गदाम् ॥ ६८९॥ तया जघान तां शक्तिमापतन्तीं बलानुजः। हस्तीव हस्तदण्डेन क्रीडाकारकमॅस्त्रिकाम् ॥ ६९०॥ स्फुलिङ्गैरुल्बणैः सोल्काशतपातं वितन्वती । क्षणेन कणशो भूत्वा पपात भुवि लोष्टवत् ॥ ६९१॥ दन्तमैरावणस्येवोद्धृतमेकं भयानकम् । पंरिषं परिघेनाथ मुमोच हयकन्धरः॥ ६९२ ।। समापतन्तं तमपि गदयाऽखण्डयद्धरिः । महोरगमिव त्रोटिकोट्या पत्ररथेश्वरः ॥ ६९३ ॥ क्षिप्तवान् । २ 'रथम् एरण्डखण्डवत्' इति पदविमागः । ३ घरिका-भाषायाम् 'घुघरीओ' । ४ समवर्तीद्रा यमः। ५ भस्त्रिका-धमनी अन्न क्रीडनकरूपा लघुधमनी ज्ञेया। * °घं तं प्रत्यमोघं मु°-सं०॥ ६त्रोटिकोवि:-चच अग्रभागः। गहडः। BARRARA ॥३७४॥ JainEducation Dinal For Private & Personal use only . Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ROSCOSOGGLE वज्राकरशिलासारं दंष्ट्रां पितृपतेरिव । स्वसारं तक्षकस्येव हयग्रीवोऽमुचत् गदाम् ॥ ६९४ ॥ अभाशीदन्तरिक्षेपि मङ्घ तामप्यधोक्षजः । वालुकामोदकमिव कौमोदक्या महाभुजः ॥ ६९५॥ एवं भग्नेषु शस्त्रेषु विलक्षो वाजिकन्धरः। विधुरे बन्धुवद् वीरः पन्नगास्त्रमथासरत् ॥ ६९६ ॥ चापे संधाय नागास्त्रं मुमोचोदभवन्नथ । अनेकशः प्रस्फुटतो वल्मीकादिव पन्नगाः॥ ६९७॥ धावन्तः स्फारफुत्कारा भूमौ नभसि चाहयः। पातालकल्पं विदधुस्तिर्यग्लोकं क्षणादपि ॥ ६९८ ॥ प्रलम्बा दारुणाः कृष्णाः स्फुरन्तस्ते महाऽहयः। सद्यः सहस्रधोद्भूतकेतुशङ्कां वितेनिरे ॥ ६९९॥ मृत्योरिवार्वेसपैस्तैः सः सर्पद्भिरम्बरे । अपासर्पन दूरदूरं चकिताः खेचरस्त्रियः॥ ७००॥. जज्ञे त्रिपृष्ठसैन्यानामप्याशङ्का महीयसी । स्वामिप्रभावाज्ञत्वेन भक्त्या च भवेतीदृशम् ॥ ७०१॥ गारुडास्त्रमथो धन्वन्यारोप्य गरुडध्वजः । मुमोच मोचादलवत् तस्य शस्त्रस्य पन्नगान् ॥ ७०२॥ प्रादुरासन् गरुत्मन्तो विदधानाः प्रसारिभिः। स्वर्णच्छत्रशताकीर्णामिव द्यां पक्षडम्बरैः ॥७०३॥ युग्मम् । तेषां च पक्षसूत्कारादपि नेशुः समन्ततः । महाऽहयस्तमांसीव सहस्रकिरणोद्गमात् ॥ ७०४॥ वीक्षापन्नः पन्नगास्त्रमपि वीक्ष्य निरर्थकम् । प्रदध्यावस्त्रमानेयं दुर्धरं हयकन्धरः॥७०५॥ आग्नेयवाणं धनुषि संघाय व्यसृजच्च सः । ज्वालाभिरभिंतन्वानमुल्काशतमयीं दिवम् ॥ ७०६॥ मग्नं प्रदीपन इव त्रिपृष्ठस्याखिलं बलम् । 'और्वभीताब्धियादोवत् तदाकुलमजायत ॥ ७०७॥ • °सारां दं-सं० का. पितृपतिः-यमः । २ भज्यमानात् । ३ केतुशङ्का-ध्वजशङ्का । ४ अवसर्पः-चरः । ५ 'भवति| ईदृशम्' इति विमागः। ६ मोचा-कदली। ७ पक्षसूत्कार:-पक्षध्वनिः । - विस्मितः । ९ विस्तारयन्तम् । १० औवः-वडवानलः । G 46*** Jain Education Inter . Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थ पर्व प्रथम: सर श्रेयांसजिनचरितम् । ॥३७५॥ जहपुर्जहसुइँमुरुत्पेतुर्ननृतुर्जगुः । तालाश्च ददुरुत्ताला हयग्रीवस्य सैनिकाः ॥ ७०८॥ ततो धनुषि संधाय वारुणास्त्रमवारणम् । क्रोधारुणेक्षणस्तूर्णममुश्चदचलानुजः ॥७०९॥ उन्नेमुर्जलदाः सद्यो हरेरिव मनोरथाः। हयग्रीवाननमिव श्यामयन्तो नभस्तलम् ॥ ७१०॥ ववृपः प्रावृषीवाब्दा धारासारैर्निरन्तरैः । दवाग्निमिव शस्त्राग्निं शमयन्तः समन्ततः ॥ ७११ ॥ एवं तृणवदस्त्राणि प्रेक्ष्य भन्नानि शाहिणा । प्रतिविष्णुरमोघं खं चक्रं सस्मार मारिकृत ॥ ७१२॥ ज्वालाशतैदीप्यमानमरान्तरशतैरिव । समाकृष्य समानीतं मार्तण्डर्यन्दनादिव ॥ ७१३ ॥ प्रसह्यापहृतमेकमन्तकस्येव कुण्डलम् । परितः कुण्डलीभूय तक्षकाहिमिव स्थितम् ॥ ७१४ ॥ प्रक्वणत्किङ्किणीजालं त्रासयत् खेचरानपि । स्मृतमात्रोपस्थितं तत् स जग्राहेत्युवाच च ॥ ७१५॥ क्षीरकण्ठोऽस्यरे! बाल! भ्रूणहत्येव ते वधात् । इदानीमप्यपेहि त्वं हैणीयेऽद्याप्यहं त्वयि ॥७१६॥ न परिस्खल्यते क्वापि कुण्ठीभवति न क्वचित् । पविः पविधरस्येव चक्रमस्त्रमिदं हि मे ॥ ७१७॥ मुक्तं चेन्मुच्यसे प्राणैर्विकल्पो न हि कश्चन । क्षेत्राभिमानं मा धेहि विधेहि मम शासनम् ॥ ७१८ ॥ बालोऽसि तन्मया क्षान्तं पूर्वदुर्ललितं तव । बालत्वचापलेनैव याहि जीव ! यदृच्छया ॥ ७१९॥ मित्वोवाच त्रिपृष्ठोऽपि वृद्धोऽसि हयकन्धर ! । कोऽन्यथा प्रलपेदेवमुन्मत्त इव दुर्वचः ॥ ७२०॥ . वारयितुमशक्यम् । २ श्याम कुर्वन्तः । ३ प्रावृषि-मेघसमये । ४ स्यन्दना-रथः । ५ क्षीरकण्ठो बालः । ६ भ्रूणम्-गर्भः। ७ लज्जां प्रामोमि। ८ इन्द्रस्य। ९क्षत्रियस्वाभिमानम् । * °लोडसीति म-सं० ॥ +ो हि हय-का.॥ ॥३७५॥ Jain Education Interna l For Private & Personal use only Cow w.jainelibrary.org. Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालोऽपि केसरी नेभान् महतोऽपि पलायते । महतोऽपि हि किं सत् तायवालोऽपसर्पति ?॥७२१॥ बालोऽपि सन्ध्यारक्षोभ्यः किं क्षुभ्यति दिवाकरः । बालोऽपि किमहं त्वत्तोऽपसमि रणाङ्गणे ॥७२२॥ शस्त्राणां प्राक् प्रयुक्तानां दृष्टं तावद् बलं त्वया । विमुच्यास्यापि वीक्षख किमवीक्ष्यैव गर्जसि ॥७२३ ॥ __ इत्याकर्ण्य हयग्रीवो व्योमाब्धेरौर्ववह्निवत् । शिरसि भैंमयामास तच्चक्रमतिभीषणम् ॥ ७२४ ॥ भ्रमयित्वा चिरतरं सर्वस्थाम्ना मुमोच सः । चक्रं तच्च्यवमानार्कमण्डलभ्रान्तिदं क्षणम् ।। ७२५ ॥ वक्षःस्थले शैलशिलाविशालकठिने हरेः । चपेटयैव तच्चक्रं पपात न तु धारया ॥ ७२६ ॥ आहतस्तस्य चक्रस्य तुम्बाग्रेण दृढीयसा । पपात मूञ्छितो विष्णुः कुलिशेने ताडितः ॥ ७२७॥ तस्थौ तत्रैव तच्चक्रं प्रतिजाग्रदिवाम्बरे । हाहारवः समुत्तस्थौ विष्णुसैन्येऽखिलेऽपि हि ॥७२८॥ प्रतिपक्षप्रहारेण भ्रातरं प्रेक्ष्य मुछितम् । मुमूर्छ नो हतोऽप्याशु बलभद्रः प्रियानुजः ॥ ७२९ ॥ सिंहनादं हयग्रीवश्चके सिंह इवोच्चकैः । तत्सैन्यैर्जयशंसीव चक्रे किलकिलारवः ।। ७३० ॥ लब्धसंज्ञः क्षणाद् रामः श्रुत्वा तं चोर्जितं ध्वनिम् । अस्थाने कस्य हर्षोऽयमिति पप्रच्छ सैनिकान् ॥७३१॥ तेऽप्यूचुर्देव! हृष्टानां कुमारस्यापदाधुना । हयग्रीवस्य सैन्यानामिदं गर्जितमूर्जितम् ॥ ७३२॥ ऊचे रामोऽपि मद्वन्धोरपि व्यापत्तिरस्ति किम् । रथे शेते क्षणमसौ रणश्रान्तो ममानुजः॥ ७३३ ॥ मद्वन्धोापदमिमां व्यलीका खमनीषया । तर्कयित्वा प्रहृष्टानामेष हर्ष हराम्यहम् ॥ ७३४ ॥ 'न इभान्' इति विभागः। २ तायंबाल-गरुडः। ३ संध्याराक्षसेभ्यः। * °सि भ्रामया -सं०॥ तिदॐाक्षिणम्-सं० ॥ व पर्वतः-सं०॥ ४ आपदा-तृतीयान्तम् । पि मे ब-सं०॥ ण भ्रातरं प्रेक्ष्य पाम्बरे । हाहारवः समता विष्णुः कुलिशेनेवा ndhal For Private & Personal use only Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थ पर्व प्रथम: सर्गः श्रेयांसजिनचरितम् । ॥३७६॥ SMSAREEMALSSSSSSSS अरे ! तिष्ठ हयग्रीव ! सरथं सपरिच्छदम् । गदया चूर्णयाम्यद्य सद्यो मशकमुष्टिवत् ॥ ७३५ ॥ इत्युत्पाव्य गदां शृङ्गं रथावर्तगिरेरिव । दधाव यावत् तावच त्रिपृष्ठ: प्रत्यबुध्यत ।। ७३६ ॥ आर्य ! भवतः कोऽयमायासो मयि सत्यपि । इति ब्रुवन् सुप्त इव समुत्तस्थौ जनार्दनः ॥ ७३७॥ त्रिपृष्टमुत्थितं दृष्ट्वा ग्रामादिव समागतम् । दोर्दण्डाभ्यामायताभ्यामालिलिङ्गाथ लागली ॥ ७३८॥ खेशप्रबोधपिशुनो हृदि शल्यायितो द्विषाम् । हर्षकोलाहलश्चके हृषीकेशस्य सैनिकैः ॥ ७३९ ॥ प्रायश्चित्तमिवादित्सु प्रहारकृतपाप्मनः । ईक्षाञ्चके समीपस्थं तच चक्रमधोक्षजः ॥ ७४०॥ तेजोभीमं तदादाय दायादमिव भाखतः । बलभद्रकनिष्ठोऽपि ससौष्ठवमदोऽवदत् ॥ ७४१॥ ऊर्जितं गर्जितं तादृक् कृत्वा यन्मुमुचे मयि । दृष्टं त्वयोजश्चक्रयामुष्याद्राविव दन्तिनः ॥ ७४२॥ गच्छ गच्छाऽधुनाऽपि त्वं स्थविरं पापवृत्तिकम् । मार्जारमिव को नाम त्वां हनिष्यति दुर्मते ! ॥७४३॥ इति श्रुत्वा हयग्रीवो दशनैरधरं दशन् । प्रकोपात् कम्पमानाङ्गः सभ्रूमङ्गोऽब्रवीदिति ॥ ७४४ ॥ अमुना लोहखण्डेन मत्तः प्राप्तेन रे शिशो! । किं नु मत्तस्तरोः स्रस्तफलेनाऽऽप्तेन पङ्गुवत् ॥ ७४५॥ मुश्च मुश्च त्वमप्येतत् सारं पश्य ममापि च । चक्रमापतदप्येतद् दलयिष्यामि मुष्टिना ॥ ७४६ ॥ ततः प्रकुपितश्चक्रं भ्रमयित्वा नभस्तले । मुमोच हयकण्ठाय वैकुण्ठोऽकुण्ठशक्तिकः ॥ ७४७॥ १ लाङ्गली-बलरामः । २ स्वस्वामिप्रबोधसूचकः, प्रबोधः-मूर्छारहितः । ३ प्रहारजन्यपापस्य । ४ अधोक्षजः-वासुदेव:त्रिपृष्ठः। ५ यदमचो म-का० 'यद्+अमुच:-'ममुचः' इति अद्यतनभूतकाले द्वितीय पुरुषैकवचनम् । ६'अमुष्य+अद्री' इति विभागः। नीचैः पतितेन फलेन प्राप्तेन । ८ बलम्। ९ वैकुण्ठा-वासुदेवः त्रिपृष्ठः । । ॥३७६॥ Jain Education a l For Private & Personal use only Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तच्च कर्ताऽश्वकण्ठस्य कण्ठं कदलिकाण्डवत् । निजेनैव हि चक्रेण हन्यन्ते प्रतिचक्रिणः॥ ७४८॥ मुदितैः खेचरैः पुष्पवृष्टिः शिरसि शाङ्गिणः। निदधे विदधे चोचैर्मुदा जयजयारवः ॥ ७४९॥ हयग्रीवस्य सैन्येऽपि सदैन्ये रुदितध्वनिः । समुत्तस्थौ प्रतिरवै रोदसी अपि रोदयन् ॥ ७५० ॥ हयग्रीवाङ्गसंस्कारमग्निना खजना व्यधुः । निवापमिव कुर्वन्तः पतद्भिर्नयनाश्रुभिः ॥७५१ ॥ विपद्य च हयग्रीवः सप्तम्यां नरकावनौ । नारकोऽभूत् त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमजीवितः ॥ ७५२ ॥ अत्रान्तरे नभस्युच्चैरूचेऽमरवरैरिति । भो भो नृपतयः! सर्वे सर्वतो मानमुसँत ॥ ७५३ ॥ विमुञ्चत हयग्रीवपक्षपातं चिरादृतम् । त्रिपृष्ठं शरणं श्रेष्ठमुपाँध्वं किन्तु भक्तितः॥ ७५४ ॥ प्रथमो वासुदेवोऽयमुदपद्यत खल्विह । त्रिखण्डभरतक्षेत्रावनेर्भर्ता महाभुजः॥ ७५५॥ इति दिव्यां गिरं श्रुत्वा हयग्रीवस्य भूभुजः। सर्वेऽप्युपेत्य शिरसा प्रणेमुरचलानुजम् ॥७५६ ॥ रचिताञ्जलयश्चैवमूचुरमाभिरत्र यत् । अज्ञानात् परतत्रत्वाच्चापराद्धं सहख तत् ।। ७५७॥ अतः परं वयं नाथ! त्वदीयाः किङ्करा इव । करिष्यामस्तवैवाज्ञां तदा ज्ञापय नः प्रभो॥७५८॥ प्रत्युवाच त्रिपृष्ठोऽपि नापराधोऽस्ति कोऽपि वः। क्षत्रियाणां क्रमो ह्येष युद्धं खाम्याज्ञया खलु ॥७५९॥ विमुञ्चत प्रतिभयमयं खाम्यसि वोऽधुना । मदीयीभूय वर्तध्वं स्वस्वराज्येष्वतः परम् ॥ ७६०॥ . एवमाश्वास्य तान् राज्ञस्त्रिपृष्ठः सपरिच्छदः। जगाम पोतनपुरं पुरन्दर इवापरः॥ ७६१॥ अश्वग्रीवस्य । २ आकाशम् पृथ्वीं च । ३ मृतमुद्दिश्य दीयमानो जलाञ्जलिः निवापः। ४ उज्झत-मुखत । *रणश्रेष्ठ -सं० । विनेोक्ता-का। Jain Education inte For Private & Personal use only Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ पर्व प्रथम: त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये सर्गः श्रेयांस जिन ॥३७७॥ चरितम् । trutturatorer पुनश्च पोतनपुराद् दिग्जयाय जनार्दनः । साग्रजो निर्ययौ रनैश्चक्राद्यैः सप्तभिर्वृतः ॥ ७६२॥ जिगाय मागधं पूर्व पूर्वाशामुखमण्डनम् । दक्षिणाशाशिरोदाम वरदामानमप्यथ ॥ ७६३॥ पश्चिमाशाकृतोद्भासं प्रभासं च सुरोत्तमम् । विद्याधरेन्द्रानुभयवैताढ्यश्रेणिगानपि ॥ ७६४ ॥ युग्मम् ॥ श्रेणिद्वयाधिपत्यं चादत्ताग्निजटिने हरिः। फलन्ति हि महात्मानः सेविताः कल्पवृक्षवत् ॥७६५॥ दक्षिणं भरतस्याध साधयित्वैवमुच्चकैः। दिग्यात्राया न्यवर्तिष्ट त्रिपृष्ठः स्वपुरोन्मुखः॥ ७६६ ॥ चक्रधरस्वार्द्धऋद्ध्यार्धनाभाद् दोर्बलेन च । प्रयाणैः कतिभिः प्राप मगधान् माधवस्ततः ॥ ७६७ ॥ ददर्श कोटिपुरुषोत्पाव्यां तत्र महाशिलाम । इलाया इव तिलकमिलेशतिलकोऽथ सः॥ ७६८॥ वामेन भुजदण्डेन लीलया तां शिलां हरिः। छत्रायमाणामुद्दधे मूर्भ ऊर्ध्व नभस्तले ॥ ७६९ ॥ नृपैलॊकैश्च तद्वाहुस्थामालोकनविसितैः । त्रिपृष्ठस्तुष्टुवे सुष्ट सौष्ठवैर्मागधैरिव ॥ ७७०॥ तां विमुच्य यथास्थानं प्रस्थितः कतिभिर्दिनैः । नगरं पोतनपुरं श्रियो धाम जगाम सः॥ ७७१ ॥ मौक्तिकस्वस्तिकाकीर्ण सतारकमिवाम्बरम । सेन्द्रचापशतमिव तोरणश्रेणिशोभितम् ॥ ७७२ ॥ आवृष्टवारिदमिव वारिसिक्तमहीतलम् । उद्विमानमिवोत्तुङ्गैर्मश्चै रुचिरभाजनैः ॥ ७७३ ॥ (१) चक्रम्, (२) वनमाला, (३) नन्दकनामा असिः, (१) कौस्तुभमणिः, (५) पाञ्चजन्यः शहः, () कौमोदकी गदा, (७) शाझं धनुः-इत्येवं सप्त रखानि । २ 'अर्ध+ऋया' अन्न "लुति हस्वो वा" [१.२.२.] इत्यनेन ह्रस्वस्वे सन्धेरभावः। ३ 'तिलकम् हलेशतिलकः' इति विभागः। ४ छत्रसमानाम् । *धामाऽऽजगाम-का। ॥३७७॥ Jain Education For Private & Personal use only Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SARGARSAGARMACANCIENCE प्रत्योकः प्रकृतोद्वाहमिव मङ्गलगीतिभिः। पिण्डीभूतजीवलोकमिव संमर्दसंपदा ॥ ७७४ ॥ प्रविवेश द्विपारूढः संपन्नः प्रौढसंपदा । श्रीपतिः पोतनपुरं पुरं नवमिव श्रियः॥ ७७५ ॥ ॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥ प्रजापतिज्वलनजव्यचलोऽन्येऽपि भूभुजः। त्रिपृष्ठस्यार्धचक्रित्वाभिषेकं विदधुस्ततः ॥ ७७६ ॥ इतश्च छबस्थतया द्वौ मासौ विहरन विभुः। श्रेयांसो भगवान् प्राप सहस्राम्रवणं वनम् ॥ ७७७॥ तत्राशोकतरोमूले स्वामिनः प्रतिमाजुषः। द्वितीयशुक्लध्यानान्ते वर्तमानस्य निश्चले ॥ ७७८ ॥ ज्ञान-टेष्ट्यावरणीये मोहनीयान्तरायके । प्रणेशु_तिकर्माणि तापे मदनपिण्डवत् ॥ ७७९ ॥ युग्मम् ॥ माघकृष्णपश्चदश्यां श्रवणस्थे निशाकरे । षष्ठेन तपसा भर्तुरुदपद्यत केवलम् ।। ७८०॥ देवैः समवसरणे रचिते तत्र देशनाम् । एकादशो जिनपतिर्विदधेऽतिशयान्वितः ॥ ७८१ ॥ तया देशनया भर्तुः प्रबुद्धा भूरिजन्तवः । विरतिं सर्वतः केपि जगृहुर्देशतोऽपरे ॥ ७८२ ॥ गोशुभाद्या गणभृतः षट्सप्ततिरथाभवन् । खामिनस्त्रिपदीं श्रुत्वा द्वादशाङ्गीमसूत्रयन् ॥ ७८३ ॥ तत्तीर्थभूरीश्वराख्यो यक्षरुयक्षो वलक्षरुक् । वृषयानो मातुलिङ्गगदिदक्षिणदोईयः ॥ ७८४ ॥ नकुलाक्षसूत्रयुक्तदक्षिणेतरवाहुकः । श्रेयांसवामिनो जज्ञे तदा शासनदेवता ॥ ७८५ ॥ तथैव मानवी देवी गौराङ्गी सिंहवाहना । वरदं मुद्गरिणं च दधती दक्षिणौ करौ ॥ ७८६ ॥ प्रतिओका-प्रतिगृहम् । २ संमदा-हर्षः। * 'दः प्ररूढ प्रौढसंमदः-सं० का। ज्ञानावरणीयम् , दर्शनावरणीयं च । | 'मदन' इति भाषायाम् 'मीण' । माघे कृ-सं०। ५ देशतः विरतिम्-श्रावकधर्मम् । ६ श्वेतकान्तिः। 1 °गदाद-सं०। श्रेयांसजिनस्य | केवलज्ञानम् Jain Education Ins ! For Private & Personal use only . Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये प्रथम: %64646464% सर्गः श्रेयांस ॥३७८॥ चरितम् । वामौ च विभ्रती पाणी कुलिशाङ्कुशधारिणौ । पारिपार्धिक्यभूद् भर्तुस्तदा शासनदेवता ॥ ७८७॥ ताभ्याममुक्तसानिध्यो विहरन् परमेश्वरः । अन्येयुः पोतनपुरं पुरप्रवरमाययौ ॥ ७८८॥..... -तत्र च स्वामिसमवसरणायकयोजनाम् । मरुत्कुमारा ममृजुर्मेघाश्च सिषिचुः क्षितिम् ॥ ७८९ ॥ स्वर्णरत्नोपलैस्तां च बबन्धुर्व्यन्तरामराः । जानुदैनीः सुमनसः पञ्चवर्णाश्च चिक्षिपुः ॥ ७९०॥ तोरणानि प्रतिदिशं भ्रूभङ्गानिव तदिशाम् । ते चक्रुस्तद्भवो मध्ये मणिपीठं च पावनम् ॥ ७९१ ॥ तत्राधो राजतं वप्रं सस्वर्णकपिशीर्षकम् । शीर्षासमिव क्षोणेर्विदधुर्भवनाधिपाः ॥ ७९२॥ सरत्नकपिशीर्ष च तापनीयमथापरम् । खज्योतिषेव ज्योतिष्काःप्राकारं विदधुः सुराः॥ ७९३ ॥ माणिक्यकपिशीर्ष च दिव्यरत्नशिलामयम् । विमानपतयो वर्ग तार्तीयीकं विचक्रिरे ॥ ७९४ ॥ सतोरणा चतुर्धारी प्रतिवप्रमजायत । देवच्छन्द ऐशान्यां मध्यवप्रस्य मध्यतः ॥ ७९५॥ मध्यप्राकारगर्भोव्या विचक्रे व्यन्तरामरैः । षष्ठयुत्तरनवधनुःशतोच्चश्चैत्यपादपः ॥ ७९६॥.... तस्याधो मणिपीठोव्यां विदधुश्छन्दकं च ते । रत्नसिंहासनं साडिपीठं प्राच्यां तदन्तरे ॥ ७९७॥ तत्रान्यदपि यत् कृत्यं तचक्रुर्व्यन्तरामराः । भक्तिमन्तोऽप्रमादेनायुक्तेभ्योऽप्यतिशेरते ॥ ७९८ ॥ श्रेयांसोऽथ प्रभुयॊमस्थितैश्छत्रैस्विभिर्व्यभात् । वीज्यमानश्चामराभ्यां यक्षाभ्यां पार्श्वयोर्द्वयोः॥७९९॥ १ कुलिशम्-वज्रम् । * कलशाङ्कश-सं० का० ॥ तुः सदा-सं० ॥ २ शुद्धां चक्रुः । ३ जानुप्रमाणाः। ४ शीर्षशेखरकम् । ५ तपनीयम्-सुवर्णम् , तेन निर्मितम् । ६ स्वतेजसा । क ईशा-सं० ॥ स्याधिम सं०॥ "भिर्विभान् मु.॥ श्रेयांसजिनस्य समवसरणम्। 2COSTOSAS SAMOCHOCHOHARASUSHOTOS ॥३७८॥ Jain Education inte For Private & Personal use only | . Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SASSASSASARSAAROSESAX इन्द्रध्वजेन च पुरोगामिना परिशोभितः । स्वयं ध्वनदुन्दुभिना बन्दिनेवोक्तमङ्गलः ॥ ८००॥ भामण्डलेन भ्राजिष्णुः सूर्येणेवोदयाचलः । सुरासुरनरैः कोटिसंख्यातः परिवारितः ॥ ८०१॥ देवैः संचार्यमाणेषु क्रमेण च पुरः पुरः। नवसु स्वर्णपद्धेषु विन्यस्यन् पादपङ्कजे ॥८०२॥ अधिष्ठितः पुरोदेशं धर्मचक्रेण भास्वता । ततः समवसरणं पूर्वद्वाराऽविशद् विभुः॥ ८०३ ॥ तत्र स्वागतिकमिव रणत षट्चरणारवैः । त्रिः प्रदक्षिणयामास चैत्यवृक्षं जगद्गुरुः ॥८०४॥ वदन् 'नमस्तीर्थाय' इति छन्दकाम्भोजकर्णिकम् । सिंहासनमलञ्चके पूर्वाशाभिमुखः प्रभुः॥ ८०५॥ रत्नसिंहासनासीनान्यपरास्वपि दिवथ । स्वामिनः प्रतिबिम्बानि विचक्रुर्व्यन्तरामराः॥८०६ ॥ प्रविश्य पूर्वद्वारेण निपेदुः साधवः क्रमात् । वैमानिकस्त्रियः साध्व्यश्चो; एवावतस्थिरे ॥ ८०७ ॥ प्रविश्यापाच्यद्वारेण नत्वाऽर्हन्तं च नैऋते । अतिष्ठन् भवनपतिज्योतिष्कव्यन्तरस्त्रियः॥८०८ ॥ प्रविश्य पश्चिमद्वारार्हन्तं नत्वाऽवतस्थिरे । भवनाधिपतिज्योतिय॑न्तराश्च मरुद्दिशि ॥ ८०९ ॥ प्रविश्य चोत्तरद्वारा भगवन्तं प्रणम्य च । क्रमेण तस्थुरैशान्यां वैमानिकनरस्त्रियः॥ ८१०॥ इत्थं तृतीये वप्रेऽस्थाच्छ्रीमान् संघश्चतुर्विधः । तिर्यश्चो मध्यमे वप्रेऽधस्तने वाहनानि तु ॥ ८११॥ तदा च राजपुरुषास्त्रिपृष्ठायाधचक्रिणे । स्वामिनं समवसृतं संमदादाचचक्षिरे ॥ ८१२ ॥ सद्यः सिंहासनं हित्वा पादुके परिमुच्य च । स्वामिदिकसन्मुखं स्थित्वा ववन्दे खामिनं हरिः॥८१३ ॥ स्थित्वा सिंहासने रूप्यकोटीरर्धत्रयोदश । वाम्यागमनशंसिभ्यः प्रददावचलानुजः॥८१४ ॥ *ख्यानैः सं०॥ दक्षिणद्वारेण । २ वायच्यकोणे। हर्षात् । Jain Education Internal For Private & Personal use only jainelibrary.org Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका चतुर्थ पर्व प्रथमः सर्गः पुरुषचरिते महाकाव्ये श्रेयांस जिन ॥३७९॥ ऋद्ध्या महत्या सहितो बलभद्रेण शाङ्गभृत् । ययौ समवसरणं शरणं सर्वदेहिनाम् ॥ ८१५॥ तत्प्रविश्योत्तरद्वारा नत्वार्हन्तं यथाविधि । सोऽनुशक्रं निषसाद समं मुसलपाणिना ॥ ८१६॥ प्रणम्य स्वामिनं भूयो भक्तिभावितया गिरा । इन्द्रोपेन्द्रबलाः स्तोतुमेवमारेभिरे ततः ॥८१७॥ अमन्दानन्दनिःस्यन्ददायिने परमेश्वर! । मोक्षकारणभूताय मोक्षायैव नमोऽस्तु ते ॥८१८॥ तव दर्शनमात्रेऽपि कर्माण्यन्यानि विस्मरन् । आत्मारामी भवेद् देही किं पुनः श्रुतदेशनः ॥ ८१९ ॥ क्षीरोदः किमुदीर्णोऽसि कल्पवृक्षः किमुद्गतः। वर्षकाब्दोऽवतीर्णो वा स्वामिन् ! संसारजन्मिनाम् ॥८२०॥ पीड्यमानस्य विश्वस्थासद्हैः क्रूरकर्मभिः । एकादशो जिनेन्द्रस्त्वं त्राता ज्योतिष्मतां पतिः॥८२१।। त्वयेक्ष्वाकुकुलं नाथ ! निसर्गेणापि निर्मलम् । निर्मलीक्रियतेऽत्यन्तं स्फटिकाश्मेव वारिणा ॥ ८२२॥ जगत्रयस्य निःशेषसंतापहरणात प्रभो!। पादमूलं तवाशेषच्छायाभ्योऽप्यतिरिच्यते ॥ ८२३ ॥ त्वत्पादपद्मयोभृङ्गीभूय संप्राप्तसंमदः । नाहं भुक्त्यै न वा मुक्त्यै स्पृहयालुर्जिनेश्वर ! ॥ ८२४ ॥ भवे भवे भवदीयौ चरणौ शरणं मम । अभ्यर्थये जगन्नाथ ! त्वत्सेवा किं न साधयेत् ॥ ८२५॥ इति स्तुत्वा विरतेषु वासवोपेन्द्रसीरिषु । श्रेयांसः श्रेयसां हेतुं प्रारेमे देशनामिति ।। ८२६ ॥ असावपारः संसारः स्वयम्भरमणाब्धिवत् । कर्मोर्मिभिर्धाम्यतेऽसिस्तिर्यगूलमधो जनः॥८२७॥ धर्माम्भांस्यनिलेनेव भेषजेन रसा इव । कर्माण्यष्टापि जीर्यन्ति ध्रुवं निर्जरयैव हि ॥ ८२८ ॥ संसारबीजभूतानां कर्मणां जरणादिह । निर्जरा सा स्मृता द्वेधा सकामा कामवर्जिता ॥ ८२९ ॥ १ वर्षणशीलः वर्षकः । * धन्वनि । मु.॥ इत्यर्थये का० सं०। २ सीरी-बलदेवः । चरितम्। श्रेयांसजिनस्य देवताकृतस्तुतिः HORROR श्रेयांसजिनस्य देशना ॥३७९॥ Jain Education Inter For Private & Personal use only Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | निर्जरास्वरूपगर्भा श्रेयांस| जिनदेशना। ज्ञेया सकामा यमिनामकामा त्वन्यदेहिनाम् । कर्मणां फैलवत् पाको यद् उपायात् स्वतोऽपि च ॥८३०॥ सदोषमपि दीप्तेन सुवर्ण वह्निना यथा । तपोग्निना तप्यमानस्तथा जीवो विशुध्यति ॥ ८३१ ॥ अनशनमौनोदैर्य वृत्तेः संक्षेपणं तथा । रसत्यागस्तनुक्लेशो लीनतेति बहिस्तपः ॥ ८३२ ॥ प्रायश्चित्तं वैयावृत्यं खाध्यायो विनयोऽपि च । व्युत्सर्गोऽथ शुभध्यानं पोढेत्याभ्यन्तरं तपः॥ ८३३ ॥ दीप्यमाने तपोवती बाह्ये चाभ्यन्तरेऽपि च । यमी जरति कर्माणि दुर्जराण्यपि तत्क्षणात् ॥ ८३४ ॥ यथा हि पिहितद्वारमुपायैः सर्वतः सरः । नवैनवेर्जलापूरैः पूर्यते नैव सर्वथा ॥ ८३५॥ तथैवाश्रवरोधेन कर्मद्रव्यैर्नेवैर्नवैः । अयं न पूर्यते जीवः संवरेण समावृतः॥८३६ ॥ यथैव सरसस्तोयं संशुष्यति पुराचितम् । दिवाकरकरालांशुपातसंतापितं मुहुः ॥ ८३७॥ तथैव पूर्वसंबद्धं सर्व कर्म शरीरिणाम् । तपसा ताप्यमानं सत् क्षयमायाति तत्क्षणात् ।। ८३८ ।। निर्जराकरणे बाह्याच्छ्रेष्ठमाभ्यन्तरं तपः। तेत्राप्येकातपत्रत्वं ध्यानस्य मुनयो जगुः॥८३९ ।। चिरार्जितानि भूयांसि प्रबलान्यपि तत्क्षणात । कर्माणि निर्जरन्त्येव योगिनो ध्यानशालिनः ॥ ८४०॥ यथैवोपचितो दोषः शोषमायाति लडनात । तथैव तपसा कर्म क्षीयते पूर्वसंचितम् ॥ ८४१ ॥ यथा वा मेघसंघाताः प्रचण्डपवनैहताः। इतस्ततो विशीर्यन्ते कर्माणि तपसा तथा ॥ ८४२॥ व्रतवताम्-व्रतयुक्तानां निर्जरा ज्ञानपूर्विका अन्येषां तु अज्ञानपूर्विका। २ यथा फलं स्वयं पक्कं भवति, उपायादपि पर्क [क्रियते, एवं कर्मणां विपाकोऽपि बोध्यः । ३ औनोदर्यम्-ऊनोदरताम्-बुभुक्षाऽपेक्षया स्वल्पं भोजनम् । व्रतयुक्तः । ५तत्रापिकामाभ्यन्तरे तपसि ध्यानस्य श्रेष्ठत्वम् इति भावः। ६ वर्धितः शरीरदोषः । त्रिषष्टि. ६५ Jain Education Intel TAM For Private & Personal use only Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थ पर्व प्रथमः सर्गः श्रेयांसजिनचरितम् । ॥३८०॥ प्रतिक्षणं प्रभवन्त्यावपि संवरनिर्जरे । प्रकृष्येते यदा मोक्षं प्रसुवाते तदा ध्रुवम् ॥८४३॥ निर्जरां निर्जरों कुर्वस्तपोभिर्द्विविधैरपि । सर्वकर्मविनिर्मोक्षं मोक्षमामोति शुद्धधीः ॥ ८४४ ॥ एवं देशनया भर्तुर्बहवः प्राव्रजन् जनाः । सम्यक्त्वं प्रतिपेदाते बलभद्र-हरी पुनः ॥ ८४५॥ पूर्णायामादिपौरुष्यां व्यसृजद् देशनां विभुः। त्रिपृष्ठपुम्भिश्चानिन्ये चतुःप्रेस्थमितो बलिः ॥८४६॥ खाम्यग्रे तत्र चोक्षिप्तः सोऽग्राह्यधं सुरैः पतन् । शेषस्य पतितस्याधं राज्ञाऽन्यदितरैर्जनैः ॥ ८४७॥ निर्गत्य चोत्तरद्वारा मध्यवपनिवेशिते । देवच्छन्दे रत्नमये निषसाद ततः प्रभुः ॥ ८४८॥ षट्सप्ततिगणधरग्रामणी!शुभस्ततः । स्वाम्यजिपीठाध्यासीनो विदधे धर्मदेशनाम् ॥ ८४९॥ सोऽपि द्वितीयपौरुष्यां व्यसृजद् धर्मदेशनाम् । खं खं स्थानं ययुः सर्वेऽपीन्द्रोपेन्द्रबलादयः॥८५०॥ ततः स्थानात् प्रभुरपि प्रभाकर इवापरः । ज्ञानालोकं वितन्वानो विजहार महीतलम् ॥ ८५१॥ साधूनां चतुरशीतिसहस्राणि महात्मनाम् । लक्षमेकं च साध्वीनां सहस्रत्रयसंयुतम् ।। ८५२ ॥ चतुर्दशपूर्वभृतां त्रयोदश शतानि तु । षट्सहस्यवधिमतां मनःपर्ययिणामपि ॥ ८५३॥ सार्धानि पट्सहस्राणि केवलज्ञानशालिनाम् । जातवैक्रियलब्धीनामेकादशसहस्यथ ॥८५४ ॥ पञ्चैव च सहस्राणि वादलब्धिमतां पुनः । लक्षद्वयं श्रावकाणां सहस्रा नवसप्ततिः॥ ८५५ ॥ अष्टाचत्वारिंशता च सहस्ररधिकानि तु । चत्वारि लक्षाणि तथा श्राविकाणां शुभात्मनाम् ॥ ८५६ ॥ १ कर्मनिर्जरणरूपाम्, निर्जरणम्-ध्वंसः। * °भिर्विवि० सं०॥ °िक्षं प्राप्नो सं०॥ २ "प्रस्थ:-'एक शेर' इति ख्यातस्य"-अमरकोशटीका-कां. २ श्लो० ८५। ३'अग्राहि+अर्धम्' इति विभागः। ४ भालोकम्-तेजः । श्रेयांसजिनस्य | परिवारादि। ॥३८ ॥ JainEducation idolral For Private & Personal use only Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेयांसजिनस्य निर्वाणम् । आकेवलाद द्विमासोनवर्षलक्षकविंशतिम् । महीं विहरतो जज्ञे परिवारः प्रभोरयम् ॥८५७ ॥ मोक्षकालं विदित्वौं खं प्रभुः संमेतमेत्य च । समं मुनिसहस्रेणानशनं प्रत्यपद्यत ॥८५८॥ मासमेकं तथा स्थित्वा शैलेशीध्यानमास्थितः । नभाकृष्णतृतीयायां धनिष्ठास्थे निशाकरे ॥८५९ ॥ अनन्तदर्शनज्ञानवीर्यानन्दमयात्मकः । समं तैर्मुनिभिः प्राप भगवान् परमं पदम् ॥ ८६०॥ कौमारे स्वामिनो वर्षलक्षणामेकविंशतिः। द्विचत्वारिंशदब्दानां लक्षाण्यवनिपालने ॥ ८६१ ॥ प्रव्रज्यापालने वर्षलक्षाणामेकविंशतिः । इत्यायुश्चतुरशीतिवर्षलक्षाण्यजायत ॥ ८६२॥ पइविंशतिसहस्रायवर्षपदपष्टिलक्षकैः। अब्धिशतेन चोनाया अब्धिकोटेर्व्यतिक्रमे ॥ ८६३ ॥ श्रीमच्छीतलनाथस्य मोक्षकालादनन्तरम् । श्रेयांसवामिनो जज्ञे निर्वाणगमनोत्सवः॥८६४॥ युग्मम्॥ चक्रे निर्वाणकल्याणं संगीर्वाणैः पुरन्दरैः । महतामन्तकालोऽपि पर्वणे न पुनः शुंचे ॥ ८६५॥ द्वात्रिंशतान्तःपुरस्त्रीसहस्रैर्विलसन् सुखम् । त्रिपृष्ठोऽपि ततः स्वायुः कियदप्यत्यवाहयत् ॥ ८६६ ॥ स्वयम्प्रभायां जज्ञाते शाङ्गपाणेरुभौ सुतौ । ज्येष्ठः श्रीविजयो नाम कनिष्ठो विजयायः॥८६७॥ रतिसागरमग्नस्य त्रिपृष्ठस्यान्यदान्तिके । आजग्मुर्गायनाः केऽपि सौवर्यादतिकिन्नराः ॥ ८६८॥ गायन्तस्तेऽतिमधुररागवैविध्यवन्धुरम् । हृषीकेशस्य हृदयं जहुः सर्वकलानिधेः॥ ८६९ ॥ सदा त्रिपृष्ठः पार्श्वस्थांश्चके गीतगुणेन तान् । रज्यन्त्यन्येऽपि गीतेन किं पुनस्तद्विदग्रणी ॥८७०॥ __* त्वाऽथ प्रसं०॥ नमः-श्रावणो मासः। पिडत्रिंश सं० ॥ २ गीर्वाण:-देवः । ३ उत्सवाय । ४ शोकाय।। ५ गानोपजीविनः । ६ सुस्वरत्वेन किन्नरेभ्योऽपि अतिसुन्दरगानशीलाः । धुरं रा० सं० का०॥ ७ संगीतविदा श्रेष्ठः। Jain Education Interior For Private & Personal use only o, Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ पर्व प्रथमः सर्गः श्रेयांस चरितम् । अन्यदा तु विभावयां विष्णोस्तल्पे निषेदुषः। तैस्तारं गातुमारेभे गन्धर्वैरिव वज्रिणः॥ ८७१॥ त्रिषष्टि तद्गीताक्षिप्तहृदयः करीवाथ जनार्दनः । एकं वारस्थितं शय्यापालमेवं समादिशत् ॥ ८७२ ॥ शलाका निद्रायमाणेष्वस्मासु गायतो गायनानमून् । विसृजेस्त्वं वृथाऽऽयासः स्वामिन्यनवधायके ॥ ८७३॥ पुरुषचरिते तथेति प्रतिपेदे स शय्यापालः प्रभोर्वचः । शाह्मिणोऽपि क्षणानिद्रा मुंद्रयामास लोचने ॥ ८७४ ॥ महाकाव्ये शय्यापालोऽपि तान् गीतलोभाद् विसृजति स न । विषयाक्षिप्तमनसा गॅलेद्धि खामिशासनम् ॥८७५॥ ॥३८॥ यामिन्याः पश्चिमे यामे प्रबुद्धोऽधोक्षजस्ततः। तथैव गायतोऽश्रौषीत तानक्षीणकलस्वरान् ॥ ८७६ ॥ किं विसृष्टास्त्वया नामी स्पष्टकष्टास्तपखिनः । इति पृष्टस्त्रिपृष्ठेन शय्यापालोऽब्रवीदिदम् ॥ ८७७ ॥ ॥ अमीषामेव गीतेन व्याक्षिप्तहृदयः प्रभो! । व्यस्राक्षं गायनान्नैतान् व्यस्मा स्वामिशासनम् ॥ ८७८॥ ततः प्रकुपितः सद्यः कृत्वा चाकारसंवरम् । प्रातरके इव प्राची सभामध्यास्त केशवः॥ ८७९ ॥ तत्र स्मृत्वा निशावृत्तं शय्यापालं प्रदर्य तम् । आरक्षपुरुषानेवं समादिक्षदधोक्षजः॥ ८८० ॥ अमुष्य प्रियगीतस्य कर्णयोः क्षिप्यतां ध्रुवम् । तप्तं पु च तानं च दोषः कर्णकृतो ह्ययम् ॥ ८८१॥ शय्यापालं तमेकान्ते तेऽपि नीत्वा तथा व्यधुः । दुर्लक्ष्यं शासनं ह्युग्रशासनानां महीभुजाम् ॥ ८८२॥ शय्यापालोऽपि पञ्चत्वं प्राप वेदनया तया । दुर्विपाकं वेदनीयकर्माऽबध्नाच्च शाभृित् ॥ ८८३ ॥ नित्यं विषयसंसक्तो राज्यमूर्छापरायणः । स्वदोर्बलावलेपेन टेणाय गणयञ्जगत् ।। ८८४॥ शय्यायाम् । २ वार:-परिपाटिः, 'वारो' इति भाषायाम् । ३ असावधाने। ५ मिमील, 'मींच्या' इति भाषायाम् । ४५ गलेत्-विस्मरेत् । ६ विष्णुः। ७ आकारगोपनम् । ८ सभायाम् उपविष्टः, “अधेः शी" [२.२.२०] इति द्वितीया । MI* °तां द्रुतम् सं०॥ ९ 'तृणाय' इत्यत्र "मन्यस्थानावादि०" [२.२.६५.] इति सूत्राच्चतुर्थी। ॥३८॥ For Private & Personal use only N Jain Education Inter i. Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणातिपाते निःशको महारम्भपरिग्रहः । क्रूरेणाध्यवसायेन शीर्णसम्यक्त्वभूषणः ॥ ८८५॥ नारकायुर्निबध्याब्दलक्षाशीतिं चतुर्युताम् । अतीत्यायुस्त्रिपृष्ठोऽगात् सप्तमी नरकावनिम् ॥ ८८६॥ तत्रावासे प्रतिष्ठाने पञ्चधन्वशतोन्नतः । त्रयस्त्रिंशत्सागरायुः सोऽपश्यत् कर्मणां फलम् ॥ ८८७॥ त्रिपृष्ठस्याब्दसाहस्राः कौमारे पञ्चविंशतिः । तावन्तो मण्डलीकत्वेऽब्दसाहस्रं च दिग्जये ।।८८८ ॥ त्र्यशीतिवर्षलक्ष्येकोनपश्चाशत्सहस्रयुक् । राज्ये चेति चतुरशीत्यब्दलक्षायुपो मितिः ॥ ८८९ ॥ अथाचलोऽपि शोकेन भ्रातृपञ्चत्वजन्मना । पराबभूवे सद्यः वर्भानुना भानुमानिव ॥ ८९० ॥ विवेक्यप्यविवेकीव भ्रातृस्नेहवशादथ । करुणखरमित्युच्चैर्विललाप हलायुधः ॥ ८९१ ॥ उत्तिष्ठ बन्धो ! निर्बन्धः कोऽयं शयनकर्मणि । अदृष्टपूर्वमालस्यं किं नृसिंहस्य तेऽधुना ॥ ८९२ ॥ द्वारि भूपतयः सर्वे त्वत्पादान द्रष्टमुत्सुकाः । अदर्शनानाप्रसादस्तेषु युक्तस्तपस्विषु ।। ८९३ ॥ क्रीडयापि न ते मौनमियद् बान्धव ! युज्यते । भृज्यते हृदयं त्वद्वाक्सुधासारं विना मम ॥ ८९४ ॥ महोत्साहस्य सततं गुरुभक्तस्य वत्स! ते । निद्रा च मदवज्ञा च न संभवति सर्वथा ॥ ८९५ ॥ हा! हतोऽस्म्युग्रविधिना किमापतितमस्य मे । इति क्रन्दन महीपृष्ठे मुशेली मूञ्छितोऽपतत् ॥ ८९६॥ लब्धसंज्ञः क्षणेनापि समुत्थाय च लागली । हा! भ्राततरित्युच्चैः क्रन्दन्नथेऽग्रहीद्धरिम् ॥ ८९७ ॥ वृद्धैः प्रबोधितः सोऽथ धैर्यमालम्ब्य च क्षणम । अनुजस्याङ्गसंस्कारादिकं कर्म समापयत् ॥ ८९८॥ कृतोर्ध्वदेहिको भ्रातुः सरणेन मुहुर्मुहुः । मुमोच लोचनैर्वारि श्रावणाम्भोदवद् बलः ॥ ८९९ ॥ १ वर्षलक्षी+एकोन इति विभागः। २ स्वर्भानुः-राहुः। ३ आग्रहः। ४ भृज्यते-पच्यते-दह्यते । ५ बलदेवः। JainEducationa l For Private & Personal use only Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थं पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये प्रथमः सर्गः ॥३८२॥ श्रेयांसजिनचरितम्। महाटव्यामिवोद्याने श्मशान इव वेश्मनि । गृहस्रोतःविव क्रीडासरःस्रोतस्विनीष्वपि ॥ ९००॥ अपि बन्धुसमाजेषु वैरिवृन्देष्विवानिशम् । न रतिं बलभद्रोज्गादल्पवारिणि मत्स्यवत् ॥९०१॥ युग्मम् ॥ श्रेयांसवामिपादानां स्मरन् श्रेयस्करी गिरम् । संसारासारतां ध्यायन् विषयेभ्यः परामुखः ॥९०२॥ वजनानापरोधात स्थित्वाहानि च कानिचित । ययौ बलो धर्मघोषाचार्यपादान्तमन्यदा॥९०३।। युग्मम्॥ शुश्राव देशनां तस्मादर्हद्वागनुवादिनीम् । विशेषाद् भवनिर्वेदैमाससाद तयां बलः॥९०४॥ सद्यो जग्राह दीक्षां च तत्पादान्ते स शुद्धधीः । अनुष्ठाने प्रवर्तन्ते ज्ञात्वा खलु महाशयाः ॥९०५॥ स सम्यक् पालयन् मूलगुणोत्तरगुणान् गुणी । सर्वत्र समतां विभ्रत् सहमानः परीषहान् ॥ ९०६ ॥ वायुरिवाप्रतिबद्धो भुजङ्गम इवैकदृक् । कश्चित् कालं विजहार ग्रामा-ऽऽकर-पुरादिषु ॥९०७॥ युग्मम् ॥ अथाब्दलक्षाण्यतिवाह्य पश्चाशीति निसर्गामलचित्तवृत्तिः। कर्माणि सर्वाण्यपि घातयित्वा प्रापाचलः सिद्धिपदे निवासम् ॥९०८॥ ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थे पर्वणि श्रीश्रेयांसजिनत्रिपृष्ठाचलाश्वग्रीवचरितवर्णनो नाम प्रथमः सर्गः संपूर्णः॥ ॥३८२॥ * °व सुखं क्रीडास्रोत° सं०॥ आमहात् । २ वैराग्यम् । तयाचलः सं० ॥ * "र्णः। ६००० सं० का०॥ Jain Education Intel le For Private & Personal use only Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः। श्रीवासुपूज्यचरितम् । + नमः श्रीवासुपूज्याय विश्वपूज्याय तायिने । इन्द्रोपेन्द्रकिरीटाघृष्टाडिनखपतये ॥१॥ अर्हन्तमिव रूपस्थध्यानस्थो विश्वपावनम् । वक्ष्यामि तस्य चरितं चन्द्रादप्यतिनिर्मलम् ॥२॥ पुष्करवरद्वीपार्धे प्राग्विदेहविभूषणे । विजये' मङ्गलावत्यामस्ति पू रत्नरश्चया ॥३॥ तस्यां पद्मोत्तरो नाम विश्वपद्मोत्तरः सदा । बभूव राजा रजनीराजराजेव वल्लभः॥४॥ अधारयन् मनसि स जैनं शासनमुज्वलम् । तदीयमिव राजानो नित्यं शिरसि भक्तितः॥५॥ . तस्य लक्ष्मीश्च कीर्तिश्च गुणानामेकवेश्मनः । युग्मजाते इव भृशं ववृधाते सहैव हि ॥६॥ पृथ्वी समुद्रसंव्यानां पृथ्वीपतिशिरोमणिः । परिखामेखलामेकपुरीमिव शशास सः ॥७॥ चपलाचपला लक्ष्मीर्वयोवद् गत्वरं वपुः । पद्मदलानोदबिंदुवच्च पुण्यं विनश्वरम् ॥८॥ विश्लेषिणो बन्धवोऽपि मार्गसंपृक्तपान्थवत् । इत्यजस्रं भावयन् स भववैराग्यमासदत् ॥ ९॥ युग्मम् ॥ वज्रनाभगुरोः पादमूले गत्वा महामनाः । अन्येधुराददे दीक्षां मुक्तिश्रीप्राप्तिदूतिकाम् ॥१०॥ * अमृष्टांहि सं० का०॥ ये पुष्कलाव सं०॥ समग्रलक्ष्म्या उत्तमः। नीजानिवज्जनवल्लभः सं० का०॥ समुद्रवस्त्राम् । इणिः । सो परिखामेक सं०॥ ३ चपला-विधुत्, चपला-चका। वियोगिनः । Jain Education Inter For Private & Personal use only Al Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ पर्व द्वितीय सर्गः त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये ॥३८३॥ श्रीवासु चरितम् । अर्हद्भक्त्यादिभिस्तस्तैः स्थानकैः कैश्चिदुज्वलैः । सुधीरुपार्जयामास तीर्थकृनाम कर्म सः॥११॥ खड्गधारातिनिशितं पालयित्वा चिरं व्रतम् । विपद्याभूत सुरः कल्पे प्राणताख्ये महर्द्धिकः॥१२॥ ___ इतश्च जम्बूद्वीपस्य भरतार्धेऽत्र दक्षिणे। पुर्यस्ति नाम्ना चम्पेति चम्पकोत्तंसवद् भुवः॥१३॥ तत्र चैत्येषु रत्नाश्मभित्तिषु प्रतिविम्बितः। वैक्रियाणीव रूपाणि धारयन् लक्ष्यते जनः ॥१४॥ चन्द्राश्मबद्धैः सोपाननिशि निःस्यन्दिवारिभिः। तत्र स्वयञ्जलौः क्रीडादीर्घिकाः प्रतिमन्दिरम् ॥ १५॥ सद्धपधूमवल्लीभिर्वासागाराणि तत्र च । पातालभवनानीवोरगीभिर्भान्त्यनेकशः ॥१६॥ क्रीडत्पुरवधूकानि तत्र क्रीडासरांसि च । निर्यदप्सरसः क्षीरोदधेर्दधति विभ्रमम् ॥१७॥ लीलया षइजबहला गायन्त्यः षड्जकैशिकीम् । भवन्ति केकिकेकानां तत्र संवादिकाः स्त्रियः ॥१८॥ ताम्बूलीबीटकभृतो भान्ति तत्रेभ्यवेश्मसु । नार्योऽध्यापयितुं हस्तन्यस्तक्रीडाशुका इव ॥ १९॥ तत्रासीद् वासव इवौजसा वसुरिव त्विषा । वसुपूज्य इतीक्ष्वाकुवंश्यो वसुमतीपतिः ॥२०॥ स कुर्वन् गर्जितमिव याचकाहाँनडिण्डिमैः । पृथिवीं प्रीणयामास धनैर्वाभिरिवाम्बुदः ॥२१॥ विचेरुः क्रीडया पृथव्यां तस्यानीकान्यनेकशः। न पुनर्दिजयकृते प्रतापाक्रान्तविद्विषः ॥२२॥ दुष्टानां शासके तस्मिन्नाज्ञासारे महीभुजि । दस्युनाम नामकाण्डेष्वदृश्यत जनेषु न ॥ २३॥ १ स्थानबद्धार्हगोत्रकः । २ चम्पकशेखरकवत् । * लक्षितो ज° सं०॥ ३ सहजसिद्धजलाः। हलां गा का० सं०॥ ४ मयूरध्वनीनाम् । संवाहिकाः सं०॥५ 'बीटक' इति भाषायाम्-'बीडूं'। ६ क्रीडाथै पालिताः शुकाः हस्ते स्थापिता याभिः । ७ वसुः-सूर्यः। ८ याचकानाम् भामन्त्रणाय वाद्यमानः डिण्डिमैः। ९ दस्योः नामानि केवलं कोशे एव । ॥३८३॥ Jain Education Inter For Private & Personal use only Sithaw.jainelibrary.org Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवित्रं धारयामास हृदि सर्वज्ञशासनम् । श्रीवत्समिव शश्वत् स वत्सलो धर्मशालिषु ॥२४॥ खान्ववायसरोहंसी रतिरूपविजित्वरी । जया नाम महादेवी तस्यासीत् प्रीतिभाजनम् ॥२५॥ सा जाह्नवीव गम्भीरा वक्रमन्थरगामिनी । पूर्वाम्भोधिमिवास्तापं वसुपूज्यमनोविशत् ॥ २६ ॥ सद्भक्या परमात्मेव शुद्धस्फटिकनिर्मले । वसुपूज्यनृपोऽप्यस्याः सदा चेतस्यवर्तत ॥ २७॥ रूपेण लवणिम्ना च गुणैस्तैश्चानुरूपयोः । तयोविलसतोः कालः कोऽप्यद्वैतसुखो ययौ ॥२८॥ इतः कल्पे प्राणताख्ये पद्मोत्तरमहीपतेः। जीवः स्वमायुरुत्कृष्टं सुखमनोऽत्यवाहयत् ॥ २९॥ ज्येष्ठस्य शुद्धनवम्यां चन्द्रे शतभिषग्गते । स च्युत्वा प्राणताजीवो जयाकुक्षाववातरत् ॥ ३०॥ ईक्षाञ्चके तदानीं च तीर्थजन्मसूचकान् । सुखसुप्ता जयादेवी महास्वमांश्चतुर्दश ॥ ३१॥ मृगाङ्कमभ्रलेखेवाद्रिगुहेव मृगाधिपम् । तं गर्भ धारयामास जया खामिन्यनुत्तमम् ॥ ३२॥ फाल्गुनश्याम तेष्टातिथौ भेऽपि च वारुणे । रक्तवर्ण महिपाई साऽसूत समये सुतम् ॥ ३३ ॥ संजातासनकम्पाः षट्पञ्चाशद्दिकुमारिकाः। स्वामिनः स्वामिमातुश्च सूतिकमैत्य चक्रिरे ॥३४॥ शक्रोऽपि पालकारूढस्तत्रैत्य सपरिच्छदः । स्वामिवत् स्वामिभवनं प्रदक्षिण्यकरोद् द्रुतम् ॥ ३५ ॥ तत् प्रविश्य जयादेव्या दत्त्वाऽपस्वापनी हरिः । पार्श्वेऽर्हत्प्रतिविम्बं च न्यस्याभूत् पञ्चमूर्तिकः ॥ ३६ ॥ मूत्यैकयाऽग्रहीन्नाथमातपत्रमथान्यया । द्वाभ्यां तु चमरे वगैनन्यया तु पुरो ययौ ॥ ३७॥ *धर्मशीलि मु०॥ 1 स्याभूत सं०॥१वक्रम्, मन्धरम्-मन्द मन्दम् । २ अस्ताघम्-भाषायाम् 'अथाग' इति । देवी देवी व सं०॥ ३"भूतेष्टा तु चतुर्दशी"-अभिधानचिन्ता. कां. २ श्लो०६५। ४ वल्गन् धेगेन गच्छन् । वासुपूज्यजिनजन्मोत्सव वर्णनम् । Jain Education inte For Private & Personal use only , Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थ पर्व द्वितीयः सर्गः श्रीवासुपूज्यचरितम् । ॥३८४॥ सुमेरावमराधीशोऽतिपाण्डुकम्बलां शिलाम् । गत्वा सिंहासन उपाविक्षदङ्काहितप्रभुः॥३८॥ अथाच्युतप्रभृतयस्त्रिषष्टिरपि वासवाः । स्वामिनं स्नपयामासुः कुम्भैस्तीर्थपयोभृतैः॥ ३९॥ ईशानकल्पाधिपतेरके जिनपतिं ततः । शक्रो निवेशयामास खकीय इव चेतसि ॥४०॥ जिनेन्द्रस्य चतसृषु ककुप्सु स्फाटिकान् वृषान् । चतुरो भक्तिचतुरो विचकार पुरन्दरः॥४१॥ तद्विषाणोत्थितैस्तोयैः स्नपयामास स प्रभुम् । अन्येन्द्रनपनविधिवैलक्षण्यविचक्षणः॥४२॥ उक्ष्णस्तानुपसंहृत्य स्वामिनोऽङ्गं प्रमृज्य च । विलिम्पति स्म गोशीर्षचन्दनेन दिवस्पतिः ॥४३॥ दिव्यैर्विभूपणैर्वस्त्रैरभ्यर्च्य कुसुमैरपि । रचिताऽऽरात्रिको नाथमस्तवीदिति वासवः ॥४४॥ चक्रिणां नैव चक्रेण गदया नार्धचक्रिणाम् । न चेशानस्य शूलेन न वज्रेण ममापि वा ॥४५॥ न चास्त्रैरपरेन्द्राणां यानि भेद्यानि जातुचित् । तानि कर्माणि भिद्यन्ते दर्शनेनापि नाथ ! ते ॥ ४६॥ नैव क्षीरोदवेलाभिर्न प्रभाभिः क्षपापतेः। नैव वारिधरासारैर्न च गोशीर्षचन्दनैः ॥४७॥ न वा निरन्तर रम्भारामैः शाम्यन्ति ये खलु । सर्वे ते दुःखसंतापाः शीर्यन्ते दर्शनेन ते ॥४८॥ न ये नानाविधैः क्वाथैश्चर्णैश्च विविधैर्न ये । न च प्राज्यैः प्रलेपर्ये न च ये शस्त्रकर्मभिः॥४९॥ न च मत्रप्रयोगैर्ये छिद्यन्ते जातु देहिनाम् । आमयास्ते प्रलीयन्ते दर्शनेनापि ते प्रभो॥५०॥ खलूक्त्वा यदि वाऽनल्पमल्पमेतद् ब्रवीम्यहम् । यत्किश्चिदप्यसाध्यं तत् साध्यते दर्शनेन ते ॥५१॥ त्वदर्शनस्यास्य फलमिच्छाम्येतजगत्पते। भूयो भूयः संप्रतीव भवदर्शनमस्तु मे ॥५२॥ * तेषां शृङ्गोत्थितैस्तोयैः सं०। १ काथा:-भाषायाम् ‘काढा-ऊकाळा' इति । SHOHRUHHOLOGISTROS ॥३८४॥ Jain Education Intel For Private & Personal use only | Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intern एवं जिनपतिं स्तुत्वा गृहीत्वा च दिवस्पतिः । गत्वा पार्श्वे जयादेव्या मुमोच प्रणनाम च ॥ ५३ ॥ हृत्वाऽपखापन देव्यास्तच्चार्हत्प्रतिरूपकम् । ततो द्यां प्रययौ शक्रो मेरुतोऽन्ये तु वासवाः ॥ ५४ ॥ उत्सवं वसुपूज्योऽपि चक्रे सूर्य इवोदयम् । चेतांसि कमलानीव जगतोऽपि विकासयन् ।। ५५ ।। वसुपूज्य- जयादेव्यौ वासुपूज्य इति स्वयम् । यथार्थं नाम चक्राते शुभेऽहनि जगत्पतेः ॥ ५६ ॥ शक्रसंक्रमिताङ्गुष्ठसुधया स्वाम्यवर्धत । धात्र्योऽन्यकर्मभिर्धात्र्योऽर्हतां न स्तन्यदा यतः ५७ ॥ पञ्चभिर्वासवादिष्टधात्रीभिः परमेश्वरः । छायावत् संहयात्रीभिर्लाल्यमानो व्यवर्धत ॥ ५८ ॥ रत्नस्वर्णमयैर्दिव्यैः कदाचिदपि गेन्दुकैः । शङ्कुलाभिर्वज्ररत्नसंकुलाभिः कदाचन ॥ ५९ ॥ कदाचिच्च भ्रमरकै भ्रमिभिर्भ्रमरैरिव । कदाऽप्यामलकी वृक्षारोहणैः सर्पणं मिथः ॥ ६० ॥ कदाचिद् वेगयाने नान्तर्धानेन कदाचन । कदाचित् फालदानेन कदाऽप्युत्पतनेन च ॥ ६१ ॥ कदाचिद् वारितरणैः सिंहनादैः कदाचन । कदाचिन्मुष्टियुद्धेन निर्युद्धेन कदाचन ॥ ६२ ॥ आगतैः सवयोभूय देवासुरकुमारकैः । बाल्योचितं प्रभुः क्रीडन् व्यत्यलङ्घिष्ट शैशवम् ॥ ६३ ॥ पञ्चभिः कुलकम् ॥ प्रपेदे यौवनं प्रभुः ॥ ६४ ॥ स सप्ततिधनुस्तुङ्गः सर्वलक्षणलक्षितः । मृगीदृशां संर्वननं १ धाग्यो मातरः । * दानतः सं० । २ सहनिवासाभिः । 'सांकल' इति भवेत् । ५ भ्रमरका :- 'भमरडा' इति भाषायाम् । ७ अन्तर्धानम् - भाषायाम् 'संताई जतुं' - 'संताकूकडी' नामनी रमत । ३ गेन्दुकाः -- भाषायाम् 'गेंद - दडा' इति । ४ शकुलाः ६ पण:- प्रतिज्ञावाक्यम्, 'होड-शरत' इति भाषायाम् । ८ बाहुयुद्धेन । ९ वशीकरणम् । ww.jainelibrary.org Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थ पर्व द्वितीयः सर्गः श्रीवासु पूज्य ॥३८५॥ चरितम् । वसुपूज्य-जयादेव्यौ वात्सल्यादपरेऽहनि । इत्युचाते वासुपूज्यं भवसौख्यपराशुखम् ॥ ६५॥ जातेनापि त्वयाऽस्माकं जगतश्च मनोरथाः। पूर्णास्तथाऽपि वक्ष्यामः कस्तृप्येदमृतस्य हि ॥६६॥ मध्यदेशे वत्सदेशे गौडेषु मगधेषु च । कोसलेषु तोसलेषु तथा प्राग्ज्योतिषेष्वपि ॥ ६७॥ नेपालेषु विदेहेषु कलिङ्गेधूत्कलेषु च । पुण्ड्रेषु ताम्रलिप्तेषु मूलेषु मलयेष्वपि ॥ ६८॥ मुद्गरेषु मल्लवर्तेषु च ब्रह्मोत्तरेषु च । अपरेष्वपि देशेषु पूर्वाशाभूषणेष्वपि ॥ ६९ ॥ डाहलेषु दशाणेषु विदर्भेष्वश्मकेषु च । कुन्तलेषु महाराष्ट्रध्वन्धेषु मुरलेषु च ॥ ७० ॥ ऋथ-कैशिक-सूर्यार-केरल-द्रमिलेषु च । पाण्ड्य-दण्डक-चौडेषु नाशिक्य-कौङ्कणेषु च ॥ ७१ ॥ कौवेर-वानवासेषु कोल्लाद्रौ सिंहलेषु च । अपरेष्वपि देशेषु दक्षिणाशाविवर्तिषु ॥ ७२ ॥ अपरेष्वपि राष्ट्रेषु सुराष्ट्र-त्रिवणेषु च । दशेरकेष्वर्बुदेषु कच्छेबावर्तकेषु च ॥ ७३ ॥ तथा ब्राह्मणवाहेषु यवनेष्वथ सिन्धुषु । अपरेष्वपि राष्ट्रेषु पश्चिमामध्यवर्तिषु ॥ ७४ ॥ शक-केकय-वोक्काण-हूण-वानायुजेषु च । पञ्चालेषु कुलूतेषु तथा कश्मीरकेष्वपि ॥ ७५ ॥ कम्बोजेषु वाल्हीकेषु जाङ्गलेषु कुरुष्वथ । कौबेरीवर्तिषु तथा मण्डलेष्वपरेष्वपि ॥ ७६ ॥ याम्याईभरतक्षेत्रसीमसेतुनिभे गिरौ । वैताट्येऽप्युभयश्रेण्यो नाजनपदेषु च ॥ ७७॥ कुलीनाः कृतिनः शूरा महाकोशा यशखिनः । चतुरङ्गबलोपेताः प्रजापालनविश्रुताः॥ ७८ ॥ * "षु सास सं०॥ 1 °षु सुह्येषु सं० ॥ शिक्ये कोङ्क सं०॥ "कावेर सं० ॥ देवसमेषु लाटेषु सुराष्ट्र-द्रविणेषु च सं० ॥ * वानर्तकेषु सं०॥ नायजे सं०॥ क्षेत्रे सी सं०॥ ॥३८५॥ Jain Education in For Private & Personal use only . Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ STOSSSSSSSSSS निष्कलङ्काः सत्यसंधा नित्यं धर्मऽनुरागिणः । नरेन्द्राः खेचरेन्द्राश्च ये केचिदिह तेऽधुना ॥ ७९ ॥ तुभ्यं दातुं निजाः कन्या महाप्राभृतपाणिभिः। अश्रान्तं प्रेषितैः प्रार्थयन्ते कुमार! नः॥८॥ ॥ चतुर्दशभिः कुलकम् ॥ तेषामस्माकमप्युच्चैः पूर्यतां तन्मनोरथः । तव तत्कन्यकानां च विवाहोत्सवदर्शनात् ॥ ८१॥ गृह्यतां राज्यमप्येतत् कुलक्रमसमागतम् । वार्द्धकेऽस्माकमुचितं व्रतादानमतः परम् ॥ ८२ ॥ वासुपूज्यकुमारोऽपि व्याजहारेति ससितम् । भवतां युक्तमेवैतत् पुत्रप्रेमोचितं वचः ॥८३॥ परं संसारकान्तारे भ्रामंभ्राममसावहम् । सार्थवाहबलीवर्द इव खिन्नोऽसि संप्रति ॥ ८४॥ कुत्र कुत्र न वा देशे कुत्र कुत्र पुरे न वा । कुत्र कुत्र न वा ग्रामे कुत्र कुत्राकरे न वा ॥८५॥ कुत्र कुत्र न वाऽटव्यां कुत्र कुत्र गिरौ न वा । कुत्र कुत्र न वा नद्यां कुत्र कुत्र नदे न वा ॥८६॥ कुत्र कुत्र न वा द्वीपे कुत्र कुत्रार्णवे न वा । नानारूपपरावतैरनन्तकालमभ्रमम् ॥ ८७॥ एप छेत्स्यामि संसारं नानायोनिभ्रमास्पदम् । अलं कन्योद्वाहराज्यैः संसारतरुदोहदैः ॥८॥ प्रव्रज्या-केवलज्ञान-निर्वाणगमनैरपि । जन्मनैवोत्सवो भावी तातस्य जगतोऽपि च ॥ ८९॥ वसुपूज्यनृपोऽप्येवमभ्यधात् सास्रलोचनः । भवन्तं हन्त ! जानामि संसारतरणोत्सुकम् ॥९॥ इदं जन्म पारमिव भवाम्भोधेस्त्वमासदः । ज्ञातं तैस्तैर्महावस्तीर्थजन्मसूचकैः ॥ ९१ ॥ असंशयं त्वया तीर्ण एवैष भवसागरः । दीक्षा-केवल-निर्वाणोत्सवाश्च खलु भाविनः॥९२॥ * °मार ! ते । सं० ॥ °नन्तं का-सं० ॥ मनैर्मम । सं०॥ त्रिषष्टि.६६॥ Jain Education Inte For Private & Personal use only Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते महाकाव्ये ||३८६ ॥ Jain Education Int अवान्तरोत्सवमिमं किं तु वाञ्छामि तावकम् । अप्यस्मत्पूर्वपुरुषैर्मुमुक्षुभिरनुष्ठितम् ॥ ९३ ॥ तथा ही क्ष्वाकुवंशादिर्भगवानृषभध्वजः । सुमङ्गलां सुनन्दां चोपयेमे पितृशासनात् ॥ ९४ ॥ पितुरेवाज्ञया राज्यं ससर्जापालयच्च सः । भोगांश्च भुक्त्वा समये प्रव्रज्यां समुपाददे ॥ ९५ ॥ पश्चादण्यात्तया मोक्षं दीक्षया प्राप स प्रभुः । मोक्षो ग्राम इवासन्नः सुप्रापस्त्वादृशां खलु ॥ ९६ ॥ अन्येऽप्यजितनाथाद्याः श्रेयांसान्ताः पितुर्गिरा । उदुहु॑रुहुँश्च महीं ततो मोक्षमसाधयन् ॥ ९७ ॥ भवानपि करोत्वेवं पूर्वाननुकरोतु च। विवाह - राज्यवहन-दीक्षा - निर्वाणसाधनैः ॥ ९८ ॥ वासुपूज्य कुमारोऽपि सर्वेश्रयमभाषत । तात ! ज्ञाताऽस्मि पूर्वेषां सर्वेषां चरितान्यहम् ॥ ९९ ॥ किं त्वत्र संसारपथे न हि केनापि कस्यचित् । स्वकुलेऽन्यकुले वाऽपि कर्मसादृश्यमीक्ष्यते ॥ १०० ॥ सावशेषाणि कर्माणि तेषां भोगफलानि हि । तत् तानि चिच्छिदुर्भोगैस्ते ज्ञानत्रयधारिणः ॥ १०१ ॥ भोगफलं कर्म किञ्चिदप्यवशिष्यते । मोक्षप्रत्यूहभूतं तन्नैवमादेष्टुमर्हथ ॥ १०२ ॥ लिमिः पार्श्व इति भाविनोऽपि त्रयो जिनाः । अकृतोद्वाहसाम्राज्याः प्रत्रजिष्यन्ति मुक्तये ॥ १०३ ॥ श्रीवीरश्वरमश्वार्हन्नीपद्धोग्येन कर्मणा । कृतोद्वाहोऽकृतराज्यः प्रवजिष्यति 'सेत्स्यति ।। १०४ ।। ततश्च कर्मवैचित्र्यात् पन्था नैकोऽर्हतामपि । विचार्येत्यनुजानीथ मा भूत प्रेमकातराः ॥ १०५ ॥ एवं प्रबोध्य पितरौ वर्षलक्षेषु जन्मतः । गतेष्वष्टादशस्खीशो जज्ञे दीक्षार्थमुत्सुकः ॥ १०६ ॥ ज्ञात्वा चासनकम्पेन स्वामिदीक्षाक्षणं क्षणात् । ब्रह्मलोकादुपाजग्मुस्तत्र लौकान्तिकामराः ॥ १०७ ॥ १ तव इदम् । २ परिणीताः । ३ ऊढाः ष्टता इत्यर्थः । ४ सस्नेहम् । ५ उद्वाह:- विवाहः । ६सिद्धो भविष्यति । चतुर्थ पर्व द्वितीयः सर्गः श्रीवासु पूज्य चरितम् । ॥ ३८६ ॥ . Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लालनलालसैः। विलास खर्णाम्भोरुहोलापताम् ॥११॥ वालवृन्तधरैः कै PUISIES GESCHOSS GROSS ते त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य प्रणम्य च जगद्गुरुम् । इति विज्ञपयामासुः स्वामिन् ! तीर्थ प्रवर्तय ॥१०८॥ एवं विज्ञप्य यातेषु तेषु कल्पं निजं पुनः । अदत्त वार्षिकं दानमवदानपरः प्रभुः ॥१०९॥ तदानान्तेऽभ्येत्य दीक्षाभिषेकोत्सवमीशितुः । इन्द्राश्चक्रुः प्रावृडन्त इन्द्रोत्सवमिव पंजाः ॥११॥ ततश्च पृथिवीं नाम सुरा-ऽसुर-नरैः कृताम् । समारुरोह शिविकां सिंहासनविभूषिताम् ॥ १११॥ तत्राङिपीठन्यस्ताजिमणिसिंहासनस्थितः । राजहंस इव स्वर्णाम्भोरुहोत्सङ्गमास्थितः॥११२॥ कैश्चिदग्रस्थितैः खखशस्त्रोल्लोलनलालसैः । दिव्यच्छत्रकरैः कैश्चित कैश्चिच्चामरधारिभिः॥११३ ॥ तालवृन्तधरैः कैश्चित् कैश्चिचामरधारिभिः । पुष्पदामधरैः कैश्चिद् वासवैः परिवारितः॥११४ ॥ अमरैरसुरैर्मत्यैः सेव्यमानो जगत्पतिः। विहारगृहमित्युच्चैर्ययावथ वनोत्तमम् ॥ ११५॥ ॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥ चूताङ्कुराखादहृष्टैः परपुष्टैः कलखनैः । प्रस्तूयमानस्तवन इव भक्तिप्रकर्षतः ॥ ११६ ॥ अनिलान्दोलनस्रस्तकुसुमस्तबकच्छलात् । प्रदीयमानाघ इव प्रेत्यग्राशोकपादपैः ॥ ११७ ॥ उच्छलच्चम्पकाशोकमकरन्दापदेर्शतः । पादार्चाय ढोक्यमानपाद्योदक इवामरैः॥ ११८॥ अमन्दलवलीपुष्पमधुपानोन्मदिष्णुभिः । रोलम्बललनावृन्दैः कृतोलूलुंरिवोच्चकैः ॥ ११९ ॥ *°ल्यं जिनः पु सं०॥ १ अवदानम्-पराक्रमः। 1 प्रभोः सं० ॥ २ उत्सङ्ग:-क्रोडः। ३ उल्लालनम्-भाषायाम्'उलालq "श्चित स्तवनकारिभिः। सं०॥ ४ कोकिलैः। ५ प्रत्यग्रः नवीनः । ६ अपदेशत:-मिषतः। पादाचान्त्यै ढी सं०॥ ७ रोलम्बो भ्रमरः । कृतोल्लास इवो-सं०॥ ८ उलूलुः मङ्गलध्वनिः । Jain Education Internation For Private & Personal use only . Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थ पर्व द्वितीय: सर्गः श्रीवासु ॥३८७॥ चरितम् । उत्फुल्लसुमनोभूरिभाराऽऽनमितमूर्धभिः। कर्णिकारैरुपक्रान्तनमस्कार इवाधिकम् ॥ १२० ॥ पुष्पाभरणरम्याभिलौलपल्लवपाणिभिः । वासन्तीभिः प्रमोदेनारब्धनृत्य इवाग्रतः॥१२१॥ शोभाविशेष जनयल्लता-पादप-वीरुधाम् । प्रविवेश तदुद्यानं स्वामी मधुरिवापरः ॥ १२२॥ ॥सप्तभिः कुलकम् ॥ शिविकातस्तदोत्तीर्य स्वामी स्रग्भूषणादिकम् । मुमोच फाल्गुने मासि पत्राणीव महीरुहः ॥ १२३॥ इन्द्रन्यस्तं देवदृष्यं स्कन्धदेशे समुद्वहन् । चतुर्थेन पञ्चमुष्टिकेशोत्पाटनपूर्वकम् ॥ १२४॥ फाल्गुनस्यामावास्यायां वारुणे मेऽपरेऽहनि । राज्ञां पभिः शतैः साधे प्रावाजीत् परमेश्वरः॥१२५॥ युग्मम् ।। सुरासुरनराधीशा नमस्कृत्य जगद्गुरुम् । स्थानं निजनिजं जग्मुर्दानान्ते याचका इव ॥ १२६ ॥ महापुरे द्वितीयेऽह्नि सुनन्दनृपसबनि । चकार परमानेन पारणं परमेश्वरः॥ १२७॥ देवैश्च विदधे दिव्यवसुधारादिपञ्चकम् । रत्नपीठं सुनन्देन चाजिस्थाने जगद्गुरोः॥१२८॥ ततः स्थानादथान्येषु ग्रामा-ऽऽकर-पुरादिषु । प्रावर्तिष्ट विहाराय समीरण इव प्रभुः ॥ १२९॥ ___ इतश्च नगरे पृथ्वीपुरे नृपशिरोमणिः । नाम्ना पवनवेगोऽभूद् भुवं सोऽन्वैशिषचिरम् ॥ १३०॥ पार्श्वे श्रवणसिंहर्षेरादाय समये व्रतम् । दुस्तपं स तपस्तवा विपद्यागादनुत्तरे ॥१३१ ।। इतश्च जम्बूद्वीपेऽस्मिन् भरतार्धेऽत्र दक्षिणे । पुरं विन्ध्यपुरं नामास्त्यवन्ध्यं सर्वसंपदाम् ॥१३२॥ तत्र नाम्ना विन्ध्यशक्तिर्विन्ध्याद्रिरिव सारतः । आसीनृपतिशार्दूल: शत्रुतूलमहानिलः ॥ १३३ ॥ ... वसन्तः। २ शशास । ३ सारो बलम् । ४ तूलम्-भाषायाम्-'रू' इति । ॥३८७॥ Jain Education into For Private & Personal use only Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथः संसृजतोस्तस्य कोदण्डभुजदण्डयोः । प्रचुक्षुभुभूमिभुजो ग्रहयोः क्रूरयोरिव ॥ १३४ ॥ नितान्ताऽऽरक्तया क्रूरभ्रकुटीभङ्गभीमया। गिलन्निव स दृष्ट्याऽपि नश्यद्भिर्ददृशेऽरिभिः ॥ १३५॥ . शिश्रिये सोऽरिभिरपि निजजीवितकाम्यया। तेऽदुश्च दण्डे सर्वखं प्राणान् रक्षेद् धनैरपि ॥ १३६ ॥ एकदा सर्वसामन्तामात्यायैः परिवारितः । स आस्थान्यामुपाविक्षत् सुधर्मायामिवाद्रिभित् ॥ १३७॥ आजगाम चरश्चैको वेत्रिणा च प्रवेशितः । नमस्कृत्योपविश्याग्रे व्यजिज्ञपदिदं शनैः ॥ १३८॥ जानासि देव! यदिह भरतार्धेऽस्ति दक्षिणे । लक्ष्मीनिधानं साकेतमिति नाना महापुरम् ॥ १३९ ॥ आर्षभेरिव सेनानीः प्रभूतबलसंपदा । पर्वतो नाम तत्रास्ति महाबाहुर्महीपतिः ॥१४॥ खरूपेणोर्वशी-रम्भापराभवनिबन्धनम् । धनं रतिपतेस्तस्य वेश्याऽस्ति गुणमञ्जरी ॥ १४१॥ तस्या वदननिर्माणावशिष्टैः परमाणुभिः । विदधे वेधसा मन्ये पूर्णिमारजनीकरः ॥१४२॥ किमस्मदधिकं हन्त ! लावण्यं क्वापि शुश्रुवे । इति प्रष्टुमिव दृशौ तस्याः कर्णावुपेयतुः॥१४३ ॥ तस्या वक्षसि वक्षोजौ तथा वैशाल्यशालिनौ । यथा तयोरुपमानं तावेव हि न चापरम् ॥ १४४॥ मध्यं चातिकृशं तस्याः सहवासोत्थसौहृदात । समर्पितपरीणाहमिवोचैः स्तनकुम्भयोः ॥१४५॥ पाणी पादौ च रेजाते तस्या रोजीवकोमलौ । कैङ्केल्लिपल्लवायासकारिणौ रागसंपदा ॥ १४६ ॥ सा गीते कलकण्ठीव नृत्ते स्वयमिवोर्वशी। वीणावाद्ये च मधुरे तुम्वुरोरिव सोदरा ॥ १४७॥ १ सभायाम् । २ इन्द्रः। ३ ऋषभपुत्रस्य भरतस्य सेनानीः इव । ४ परीणाहो विस्तारः। ५ राजीवम्-कमलम् । * ककिल्लिप सं०॥ कङ्केलि:-अशोकतरुः। ६ तुम्बुरुः गानकलानिपुणतमो गायकजातिविशेषः। Jain Education a l For Private & Personal use only Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये ॥३८॥ चतुर्थ पर्व द्वितीय: सर्ग: श्रीवासु पूज्य चरितम् । OGROGOROUGHOSHARRIS Hoteles नारीषु रत्नभृता सा देवस्यैव हि युज्यते । युवयोरुचितो योगः स्वर्णमण्योरिवास्तु तत् ॥१४८॥ भोज्येनालवणेनेव मुखेनेवापचक्षुषा । अचन्द्रया रजन्येव किं ते राज्येन तां विना ॥ १४९॥ इत्याकर्ण्य वचो राजा याचितुं गुणमञ्जरीम् । उपपर्वतकं प्रैपीन्मत्रिणं दूतकर्मणा ॥ १५०॥ जङ्घालैर्वाहनैव्योम तरद्भिरिव रंहसा । गत्वा स साकेतपुरं नृपं पर्वतमभ्यधात् ॥ १५१॥ नान्यस्त्वत्तो विन्ध्यशक्तिस्तस्मात् त्वमपि नापरः। द्वयोरभेद एवेह वार्धिकल्लोलजालवत् ॥ १५२॥ द्वयोरप्येक एवात्मा विभिन्ने वपुषी परम् । त्वदीयं यत् तदीयं तत् तदीयमपि तावकम् ॥ १५३ ॥ तव , स्तूयते वेश्या नामतो गुणमञ्जरी । स्वान्तिकं विन्ध्यशक्तिस्तामानाययति कौतुकात् ॥१५४॥ सा स्वबन्धोः स्वतुल्यस्य याचमानस्य दीयताम् । दाने साधारणस्त्रीणां ग्रहणे च न गर्हणा ॥ १५५ ॥ इत्युक्तो मत्रिणा तेन यष्टिस्पृष्ट इवोरगः । कोपकम्प्राधरदलोऽवदत पर्वतकोऽप्यदः ॥ १५६ ।। उच्यते स कथं बन्धुर्विन्ध्यशक्तिर्दुराशयः। प्राणेभ्योऽपि प्रियां यो मे याचते गुणमञ्जरीम् ॥१५७॥ मुहूर्तमपि न स्थातुं विना यामलमस्म्यहम् । तां तेनादित्सुना प्राणा अप्युपादित्सिता मम ॥ १५८॥ दासीमपि न दास्यामि किं पुनर्गुणमञ्जरीम् । अस्तु मित्रममित्रो वा विन्ध्यशक्तिः स्वशक्तितः॥१५९॥ उत्तिष्ठ गच्छ वं तस्मै गत्वाऽऽख्याहि यथातथम् । राज्ञां भवन्ति दूता हि यथावस्थितवादिनः॥१६०॥ उत्थाय सोऽपि सचिवः सोचिविक्षिप्तलोचनः। आरुह्य वाहनान्यागाद् विन्ध्यशक्तेरथान्तिकम् ॥१६॥ पर्वतनृपसमीपम् । २ द्रुतगतिभिः । *च श्रूयते सं०॥ ३ आदित्सुः-प्रहीतुमिच्छुः । ४ उपादित्सिताः प्रहीतुमिच्छाविषयीकृताः। ५ साचिः-तिर्यक्-बक्रम् । ॥३८८॥ Jain Education For Private & Personal use only Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RECASSESSASSES पर्वतकव्यतिकरं तं व्याचख्यावशेषतः । हुताहुतिरिवार्चिष्मान् क्रुधा जज्वाल तत्प्रभुः॥१६२॥ मैत्री चिरभवां लुप्या मर्यादामिव सागरः। विन्ध्यशक्तिश्चचालाडेभिपर्वतं गर्वपर्वतः॥१६३॥ पर्वतोऽप्याजगामाभिमुखं स्वबलवाहनः। शूराणां ह्यभिगमनं सुहृदीवासुहृद्यपि ॥ १६४॥ द्वयोरप्यग्रसैन्यानां युद्धं प्रववृते ततः । चिराद् दोर्दण्डकण्डूतिरुजाऽपनयनौषधम् ॥ १६५॥ अभ्यसर्पन्नवासर्पन सैन्ययोरुभयोरपि । भटाः परस्परं वेदियोधिनो द्विरदा इव ॥ १६६ ॥ कुन्तप्रोतोऽपि 'हकुर्वन् कश्चिदस्खलितं भटः । तन्तुप्रोतो मणिरिव संचचाराभिवैरिणम् ॥ १६७॥ धनुर्धरवरोन्मुक्तनिरन्तरशरैरभूत् । अभिलूनशरवणारण्यभूरिख युद्धभूः ॥१६८॥ पतद्भिः परिधैः शल्यैर्गदाभिर्मुद्गरैरपि । सपैरिव परप्राणहरैानशिरे दिशः॥ १६९ ॥ इतः क्षणं क्षणमितः सैन्ययोरुभयोरपि । जयः समोऽभवज्योत्स्नाप्रसरः पंक्षयोरिव ॥ १७ ॥ अथ सर्वाभिसारेण धनुरास्फालयन् स्वयम् । रथारूढः पर्वतकः समरायोदतिष्ठतें ॥ १७१ ॥ युगपद्घाणवर्षेण परसैन्यं तिरोदधे । अन्तरिक्षमिवानीकप्रोत्खातावनिपांसुभिः ॥१७२ ॥ केसरीवेभयूथेषु परसैन्येषु स क्षणात् । महान्तं प्रलयं चक्रे कृतान्तस्येव भोजनम् ॥ १७३ ॥ हुता आहुतिः यस्मिन् । २ पर्वतसंमुखम् । * 'खं सब सं० । ३ कण्डूतिरुजा-भाषायाम् 'चळखंजवाल' । ४ वेदिः परिष्कृता भूमिः तस्यां योधिनः। ५ सर्वतः छिन्नम्-अभिलूनम् । ६ शुक्ल-कृष्णपक्षयोः। ७ समराय युद्धाय, उदतिष्ठत-उत्थितः-सज्जो जातः। ८ अनीकेन सैन्येन प्रोत्खाताभिः 'ऊखेडेली-ऊडाडेली' भवनिधूलिभिः। ९ 'केसरी इव इभइति विभागः। Jain Education in DI IRI For Private & Personal use only Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ पर्व त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये ॥३८९॥ ततोऽपररथारूढावाटतभावपि । विन्ध्यशक्ति-पर्वतका निर्णय द्विजिह्वमिव निर्विषम् अरुध्यमानप्रसरो विन्ध्या क्रुद्धः खसैन्यभन "कबलानि सः । मङ्गु प्रभञ्जनो वृक्षानिवाभावीन्महाबलः॥ १७४॥ द्वितीय न सेहे पर्वतानीकैविध्य शक्तिर्महाभुजः । परान् संहर्तुमुत्तस्थे कालरात्रेरिवानुजः ॥ १७५ ॥ सगे: सोऽथ विद्रुतसैन्यं तं स्थितः समापतन् । कुरङ्गैरिव शार्दूलः सुपर्णः पन्नगेरिव ॥ १७६॥ |श्रीवासुनाराँचैस्तद्धलैरर्धचन्द्रैर्यमरत पर्वतकं पुरः । रणायाऽऽह्वास्त कोदण्डदोर्दण्डबलगर्वितः॥ १७७॥ पूज्यरथं रथ्यान् सारथिं च रवि रख । भूभुजौ युयुधाते तावन्योऽन्ययुद्धकाशिणौ ॥ १७८॥ चरितम् । ना तावथो मिथः । ममन्थतुः परिभवाऽऽपमित्यकधराविव ॥ १७९ ॥ सर्वशक्त्या विन्ध्यशक्तिावपि । विन्ध्यशक्ति-पर्वतको कल्पान्ते पर्वताविव ॥ १८॥ महेभेनेव कलभोऽभिभूतो उपः पर्वतकं नृपम् । चक्रे निरस्त्रं निवीय द्विजिह्वमिव निर्विषम् ॥ १८१॥ अथाऽग्रहीद् विन्ध्यशक्ति पन्ध्यशक्तिना । पलायिष्ट पर्वतकः पश्चादनवलोकयन् ॥ १८२ ॥ आपूर्ण इव पाथोदो निवृत्त पश्यां तां गुणमञ्जरीम् । हस्त्यावन्यच सर्वस्वं तस्य श्रीर्यस्य विक्रमः॥१८३॥ फोलाच्युत इव द्वीपी पाल रणसागरात । कृतकृत्यो विन्ध्यशक्तिर्ययौ विन्ध्यपुरं ततः॥१८४॥ पराभूत्या तया हीणो नृपः पादिव वानरः। रणभन्नः पर्वतकः कष्टं तस्थौ तदादि सः॥१८५॥ || पर्वतकोऽपि हि । संभवाचार्यपादान्ते परिव्रज्यामुपाददे ॥१८६ ॥ ॥३८९॥ १ शत्रून् । २ गरुडः। * [बदले)-आनीतं धनादि। ४ अभि चैस्तोमरैर-सं०॥ व्यवधकाति-सं०॥ ३ आपमित्यकम् विनिमयेन-(बदलेप्रभृति। लज्जितः। परतु:-अभिजग्मतुः। ५ फालो-भाषायाम्-'फाल भरवी'। ६मालम्बः शाखा। ततः। Jain Education in For Private & Personal use only Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स तपो दस्तयं तेपे निदानं चाकरोदिति । विन्ध्यशक्तेर्वधायाह भैयासमपरे भवे ॥ १८७॥ तुषैरिव स माणिक्यं विक्रीयेत्थं महत् तपः। कृत्वान्तेऽनशनं मृत्वा चाभवत् प्राणते सुरः ॥ १८८॥ विन्ध्यशक्तिर्भवे भ्रान्त्वा चिरमेकत्र जन्मनि । जिनलिङ्गमुपादाय मृत्वा कल्पामरोऽभवत् ॥ १८९॥ च्युत्वा च विजयपुरे पत्यां श्रीधरभूपतेः। श्रीमत्यामजनि श्रीमाँस्तारको नाम दारकः ॥१९॥ स सप्ततिधनुस्तुङ्गः कजलश्यामलाकृतिः। द्विसप्तत्यब्दलक्षायुर्वभूवामितदोर्बलः ॥ १९१ ॥ सोऽन्ते पितुः प्राप चक्रं भरतार्धमसाधयत् । भवन्ति ह्यर्धभरतस्वामिनः प्रतिविष्णवः ॥ १९२ ॥ इतश्च द्वारका नाम सुराष्ट्रमुखमण्डनम् । पश्चिमाम्भोधिकल्लोलधौतवप्रतलाऽस्ति पूः ॥ १९३ ॥ अजिह्मविक्रमस्तस्यां विश्वामनिवारणः । जिष्णोः सब्रह्मचारीव ब्रह्मेत्यासीन्महीपतिः॥१९४ ॥ अन्तःपुरप्रधाने च तस्याभूतामुमे प्रिये । सुभद्रोमे गङ्गा-सिन्धू लवणाम्भोनिधेरिव ॥ १९५॥ प्रेयसीभ्यां समं ताभ्यां चिरं वैषयिकं सुखम् । ब्रह्माऽन्वभृत् सुष्ट रति-प्रीतिभ्यामिव मन्मथः ॥१९६।। इतश्च पवनवेगजीवोऽनुत्तरतश्युतः । महादेव्याः सुभद्राया उदरे समवातरत् ॥ १९७॥ सुखसुप्ता तदानीं च सुभद्रा देव्युदैवत । हलभृजन्मशंसित्री महाखमचतुष्टयीम् ॥ १९८॥ पुण्डरीकमिव गङ्गा प्राचीव तुहिनॆद्युतिम् । समयेऽसूत सा सूनुं स्फटिकोपलनिर्मलम् ॥ १९९॥ कारामोक्षादिना यच्छञ्जगतोऽपि परां मुदम् । सूनोविजय इत्याख्यामकार्षीद् ब्रह्मभूपतिः ॥२०॥ विभिन्नकर्मायुक्ताभिर्धात्रीभिः सोऽथ पञ्चभिः । लाल्यमानो ययौ वृद्धि सहैव स्ववपुःश्रिया ॥२०१॥ १ भवेयम् इत्यर्थः। २ 'तुष' इति-भाषायाम्-'ढुंसां-फोफां'। ३ विश्व-आक्रमण-निवारकः । ४ तुहिनधुतिः-चन्द्रः । ५ कारा-कारागृहम्, 'केद' इति भाषायाम् । Jain Education Manal For Private & Personal use only . Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये ARRORSA चतुर्थ पर्व द्वितीयः सर्गः ॥४९ ॥ श्रीवासुपूज्यचरितम् । चलत्काञ्चनंताडको लोलरत्नललन्तिकः। हेमासिधेनुरुचिरसौवर्णकटिसूत्रकः॥ २०२॥ पादबद्धरणरणत्नघर्घरमालिकः । काकँपक्षधरः क्रीडन् स कस्य न ददौ मुदम् ॥ २०३ ॥ युग्मम् ।। प्रच्युत्य प्राणतात् सोऽपि जीवः पर्वतभूपतेः । सरस्यां हंसवदुमादेव्याः कुक्षाववातरत् ॥ २०४॥ सुप्ता सप्त महाखमान् शाङ्गंभृजन्मसूचकान् । मुखे प्रविशतोऽद्राक्षीदुमादेवी तदैव हि ॥ २०५॥ ततो नवसु मासेषु दिनेष्वर्धाष्टमेषु च । पूर्णाम्भोदमिव प्रावृट् सा श्याम सुषुवे सुतम् ॥ २०६॥ ब्रह्माऽथ परमब्रह्मनिमग्न इव संमदात् । अर्थिनः प्रीणयश्चक्रे सूनोर्जन्ममहोत्सवम् ॥२०७॥ शुमेषु ग्रह-नक्षत्र-तिथि-वारेषु सोत्सवम् । सूनोपृिष्ठ इत्याख्यां यथार्थामकरोन्नृपः ॥२०८॥ अङ्गणोद्भतककेल्लिमिव तापसयोषितः । पञ्चभिः कर्मभिः पञ्च धान्यस्तं पर्यलालयन् ॥२०९॥ धावन्तमुल्ललन्तं वा धान्यस्तं खैरचारिणम् । परिप्लवं पारदवन्नादातुं पाणिनाऽशकन् ॥ २१०॥ पितुर्मातुायसश्च भ्रातुः सह मुदाऽन्वहम् । दर्शयन्नन्तरं खस्य द्वितीयो ववृधे हरिः॥२११॥ कट्यां हृदि च पृष्ठे च स्कन्धदेशे च तं मुहुः । विजयो धारयामास धात्री षष्ठीव सौहृदात् ॥ २१२ ॥ अवतस्थौ ययौ शिश्ये न्यपीदद् बुभुजे पपौ। द्विपृष्टोऽप्यनुविजयं स्नेहकार्मणयत्रितः ॥ २१३ ॥ निमित्तीकृत्य चाचार्यमलङ्ग्यात् पितृशासनात् । काले कला जगृहतुर्लीलया सीरि-शाङ्गिणौ ॥ २१४ ॥ अलब्धमध्यौ धवलश्यामलौ तौ सहोदरौ । क्षीरोद-लवणाम्भोधी इवाऽभातां वपुर्भृतौ ॥ २१५॥ १ ताडका-कुण्डलम् । २ ललन्तिका-कण्ठभूषा लम्बमाना। ३ असिधेनुः-छुरिका । * रणझण सं० ॥ ४ बालाना शिखा काकपक्षः। ५ शाईभृत्-वासुदेवः। ६ चञ्चलम् । ७ द्विपृष्ठभ्राता तन्नामा बलदेवः। । तस्थे य सं० ॥ ८ निद्रां चकार । C RACROCARROCRACC ॥३९ ॥ Jain Education a l For Private & Personal use only . NP Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीलपीताम्बरधरौ तौ ताल-गरुडध्वजौ । मेनाते तारकस्याज्ञां बालावपि च न क्वचित् ॥ २१६ ॥ आज्ञातिक्रमदोर्याधृष्यत्वादिकमेतयोः । दृष्ट्वा गत्वा तारकाय स्पशा स्पष्टमदोऽवदत् ॥ २१७॥ देव द्वारवतीभर्तुस्तनयावतिदुर्मदौ । आज्ञा तव न मन्येते वाय्वग्नी इव तौ युतौ ॥ २१८ ॥ कौशलं सर्वशस्त्रेषु विद्यानामपि सिद्धयः । उदपद्यन्त दोर्दण्डस्थामालङ्करणं तयोः॥ २१९ ।। न चैतौ प्रतिभासेते देव ! त्वां प्रति शोभनौ । अतः परं यदुचितं तदाचर चरोऽस्म्यहम् ॥ २२०॥ तारकः कोपतरल प्रस्फुरन्नेत्रतारकः । आदिक्षदिति सेनान्यमसामान्यपराक्रमम् ॥ २२१ ॥ सर्वात्मनापि सन्जित्वा पुरस्ताद् भट! वादय । प्रयाणभम्भामद्यैव सामन्ताहानदृतिकाम् ॥ २२२॥ निहन्तव्यः सपुत्रोऽपि जिलंधीब्रह्मभूपतिः । संजायते व्याधिरिव द्विषन् विषमुपेक्षितः ॥ २२३ ॥ अथैवं सचिवोऽवोचत् सम्यग्देवावधारय । अद्य यावत् स सामन्तः पत्तिा ब्रह्मभूपतिः ॥ २२४ ॥ विना मिषमकाण्डेऽपि यात्रा तं प्रति नोचिता । एवं ह्यन्यप्रकृतीनामपि शङ्काऽऽस्पदं भवेत् ॥ २२५ ॥ साशङ्के न हि विश्वासो विश्वासेन विना पुनः। मंत्रादेशादिकं नैव तद्विना स्वामितापि का? ॥२२६॥ कश्चिदुद्भाव्यतां तस्यापराधो व्यपदेशतः । सुलभः स हि दृप्तस्य तस्य पुत्रद्वयौजसः ॥ २२७॥ प्राणेभ्यो वल्लभीभृतान् करिणस्तुरगांश्च सः। याच्योऽन्यानि च रत्नानि प्रेष्य संदेशहारकम् ।। २२८॥ दूतः। * नान्यं महासेप-सं ॥°स्तादथ वा सं०॥ २ जिझम्-वक्रम् । त्तिो व्र सं०॥ ३निमित्तम् । ४ प्रकृतयः प्रधानादिराजमण्डलम् प्रजाश्च । ५ आशङ्कायुक्ते । ६ मन्त्रा-माणा आदेशः भाज्ञा । ७ निमित्ततः । ८ दूतम् । Jain Education Inter For Private & Personal use only Ni Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये MSC48C ॥३९१॥ चरितम् । न चेत् प्रदास्यते तद् वः स वध्योऽनेन मन्तुना । नापवादो भवेल्लोके सापराधं निगृह्णताम् ॥ २२९॥ चतुर्थ पर्व याचितं दास्यते वाऽथ तदान्वेष्यं छलान्तरम् । सर्वोऽपि सापराधो हि छलमन्विष्यते यदा ॥ २३०॥ 18 द्वितीय साधु साध्वित्यमात्यं तमभिधाय तदैव हि । ब्रह्मणे प्राहिणोद् दूतं रेहः संदिश्य तारकः ॥ २३१॥ सर्गः आशु गत्वा द्वारवत्यां ब्रह्माणं सदसि स्थितम् । विजयेन द्विपृष्ठेन चान्वितं स उपास्थित ॥२३२॥ श्रीवासुप्रतिपच्या महत्या तमुपवेश्य स भूपतिः । चिरं सप्रेम चालप्य पप्रच्छाऽऽगमकारणम् ।। २३३॥ पूज्यसोऽप्यूचे द्वारकानाथ ! त्वां संप्रत्यादिशत्यदः । स्वामी नस्तारको वैरिबाहुदापहारकः ॥ २३४॥ राज्ये त्वदीये ये केपि प्रवराः करिणो हयाः। यानि चान्यानि रत्नानि प्रेष्यन्तां तानि नः कृते ॥२३५॥ दक्षिणे भरतार्धे हि वस्तु यत किश्चित्तमम् । भरतार्धाधीश्वरस्य तन्ममैवापरस्य न ॥ २३६॥ इत्युक्त्या कुपितः सद्यो मृगेन्द्र इव हक्कया। अभाषिष्ट द्विपृष्ठस्तं जिघत्सुरिव चक्षुषा ।। २३७॥ ज्यायान् वंश्यो न सोऽस्माकं त्राता दाता न चापि सः। राज्यं निजं शासतां नः कथं स्वामी बभूव सः॥ अथो मृगयतेऽमत्तो हस्त्यश्वादि भुजौजसा । भुजौजसा वयं तर्हि तेतोऽपि मृगयामहे ॥ २३९ ॥ गच्छ दूताधुनवामान् विद्धि तत्र समागतान् । हस्त्यश्वादि ग्रहीतुं त्वत्स्वामिनः शिरसा समम् ॥२४०॥ इत्युत्कटकटुं वाचं द्विपृष्ठस्य निशम्य सः। रुषितस्त्वरितं गत्वा तारकाय न्यवेदयत् ॥ २४१॥ इभगन्धेन गन्धेभ इव विष्णुगिरा तया । श्रुतया तारकः क्रुद्धो यात्राभम्भामवादयत् ।। २४२॥ १ मन्तुः-अपराधः । २ एकान्ते। * °स्त युयुत्सु सं०॥ ३ जिघत्सुः-खादितुमिच्छुः । ४ अमत्पार्धात् । ५ तत:तव स्वामितः। ६ याचामहे। गन्धप्रधानेन हस्तिना। ८ यात्राभम्भा-युद्धमेरिः। . Jain Education Intero l! For Private & Personal use only . Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्यः सैन्यानि सेनान्यः सामन्ता मत्रिणोऽपि च । राजानो बद्धमुकुटाः सुभटाश्च महारथाः ॥ २४३॥ वीर्यकण्डूलदोर्दण्डाश्चिराय समरार्थिनः । सनाभयोऽन्तकस्येव राजानमुपतस्थिरे ॥२४४॥ महीकम्प-तडित्पात-कोकरोलादिभिभृशम् । सूच्यमानाशुभोदर्कोऽप्यचालीत् तारकस्ततः॥२४५॥ स प्रयाणैरविच्छिन्नैः क्रोधाध्मातोऽर्धचक्रभृत् । अर्धमार्गमलजिष्ट द्रापिष्टमपि हि द्रुतम् ॥ २४६ ॥ सब्रह्म-विजयाऽनीकस्तत्र तस्याग्रतोऽपि हि । द्विपृष्ठोऽप्याहवोत्कण्ठी कण्ठीरव इवाऽऽययौ ॥२४७॥ अङ्गोच्छासासकृत् त्रुट्यत्सर्वसन्नाहजालिकाः । द्वयोः संवर्मयामासुः सैनिकाः कथमप्यथ ॥ २४८॥ तयोरभूत संप्रहारो महासंहारकारणम् । मृत्योरभ्यवहाराय महानसगृहोपमः ॥२४९॥ निपेतुरुभयत्रापि लक्षशश्छत्रमौलयः । न संख्याऽप्यन्ययोद्धणां पतितानामबुध्यत ॥२५॥ पुण्डरीकवती छत्रैः पूरिता रक्तवारिभिः। रणभूरभवत् क्रीडाँवापी पितृपतेरिव ॥ २५१॥ जैत्रं रथमथारुह्य द्विपृष्ठः पर्यपूरयत् । पाञ्चजन्यं जन्यजयाह्वानमत्रोपमध्वनिम् ॥ २५२ ॥ सिंहनादादिव मृगा हंसा इव घनखनात् । पाञ्चजन्यध्वनेस्तारात् त्रेसुस्तारकसैनिकाः॥२५३ ॥ त्रस्तान् स्वसैनिकान् दृष्ट्वा हेपयित्वा निवर्त्य च । द्विपृष्ठं स्वयमभ्याट रथमारुह्य तारकः॥ २५४ ॥ विजयेनान्वीयमानो लाङ्गलाऽयोनधारिणा । शार्ङ्गमारोपयच्छाङ्गी सुत्रामेवर्जुरोहितम् ॥२५५ ॥ सबान्धवाः । २ काकरोलः 'काका' इति काकध्वनिः-भाषायाम्-'कागारोल' इति । ३ उदर्कः भविष्यन् परिणामः। दीर्घतमम् । ५ आहवः युदम् । ६ कण्ठीरवः सिंहः । संवर्मयामासुः-सन्नाहं चक्रुः । ८ अभ्यवहारो भोजनम् । ९महानसम्-रसवती स्थानम् । १० यमस्य । ११ जन्यम्-युद्धम् । १२ तारम्-उपम्। १३ लजित्वा। १४ लागल-अयोप्रधारिणा, भयोन:-अहरणविशेषः । त्रिषष्टि.६७४ १५ सुत्रामा इव ऋजुरोहितम् इति पदविभागः । सुत्रामा-इन्द्रः 'ऋजुरोहितम्' धनुविशेषः। **PROMOSSASSISTESS Jain Education Intel For Private & Personal use only . Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थ पर्व द्वितीयः सर्गः श्रीवासु ॥३९२॥ चरितम् । अधिज्यधन्वा तदनु तारकोऽपीषुधेरिषुम् । आकृष्य संदधे मृत्योरूर्जितामिव तर्जनीम् ॥ २५६॥ मुमोच तारकोऽपीपुं हरिश्चिच्छेद चेषुणा । मोक्ष-च्छेदावितीपूणामभूतामसकृत तयोः॥२५७॥ ! गदा-मुद्र-दण्डादीन्यायुधान्यपराण्यपि । तारको यानि चिक्षेप प्रत्येस्त्रैस्तान्यहैन् हरिः॥२५८॥ तारकोऽथाग्रहीच्चक्रं क्रूरनकं रणोदधेः। द्विपृष्ठं चेत्यभाषिष्ट कोप-मितचलाधरः ॥ २५९॥ दुर्विनीतो यद्यपि त्वं त्वां न हन्मि तथापि हि । चिरसेवकपुत्रोऽसि बालोऽसीत्यनुकम्पया ॥२६॥ विजयावरजोऽप्यूचे सितस्तबकिताधरः । अनुकम्पां शार्ङ्गपाणौ मयि कुर्वन् न लज्जसे ? ॥२६१॥ 'यद्यपि त्वं विपक्षोऽसि तथाऽप्यसि तितिक्षितः । जरसाऽऽसन्नमृत्योस्ते कः कर्ता मृतमारणम् ॥ २६२॥ अस्य चक्रस्य यद्याशा तदेतदपि मुञ्च भोः! । अकृतार्थीकृतेऽत्रापि गच्छेमुक्तस्तथाऽप्यसि ॥ २६३॥ इति द्विपृष्ठवचसा तिलाग्निरिव वारिणा । प्रदीप्तस्तारकश्चक्रं भ्रमयामास मूर्धनि ॥२६४॥ नमसि भ्रमयित्वा तद् द्विपृष्टाय मुमोच सः । जाज्वल्यमानं कल्पान्तविद्युत्वानिव विद्युतम् ॥ २६५॥ तत् तु तुम्बाग्रघातेन पपात हृदये हरेः । रूपान्तरपरावृत्तकौस्तुभश्रीविडम्बकम् ॥ २६६ ॥ क्षणं तेन प्रहारेण मृच्छितः पतितो रथे । वीज्यते स विजयेनाचलव्यजनपाणिना ॥ २६७ ॥ लब्धसंज्ञः क्षणाच्छाी रिपोश्चक्रं समीपगम् । जाँतभेदमिवामात्यं तदादायाब्रवीदिदैम ॥२६८॥ चक्रं तवास्त्रसर्वस्खं दृष्टा तच्छक्तिरीदृशी। जीवग्राहं याहि जीवन् नरो भद्राणि पश्यति ॥ २६९ ॥ 'इषुधेः इषुम्' इति विभागः । २ प्रति-अस्त्रैः। ३ अहन् जघान । ४ अवरजः कनीयान् । ५ प्रलयमेघ इव । ६ जातः भेदः द्विधाभावः छेदो वा यत्र। * °दिति । सं०॥ + जीवेहम्-सं०॥ ॥३९२॥ Jain Education IntM For Private & Personal use only , Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यूचे तारकोऽप्येवं चक्रमेतन्मयोज्झितम् । 'लेष्टुं श्वेव परिक्षिप्तं गृहीत्वा किं भषस्यहो! ॥२७॥ मुश्च मुश्च त्वमप्येतद् गृहीत्वाऽप्येष मुष्टिना। यदि वा चूर्णयिष्यामि ताडयित्वाऽऽमलोष्टवत् ॥२७१॥ भ्रमयित्वाऽथ तच्छाी भ्राम्यदर्कभ्रमप्रदम् । खेचरांस्वासयच्चक्रं मुमोच प्रतिविष्णवे ॥ २७२॥ तारकस्य शिरस्तेन नलिनीनाललीलया । चिच्छेद पुनरांपेते शाङ्गिणः करकोटरे ॥ २७३ ॥ द्विपृष्टस्योपरिष्टाच्च पुष्पवृष्टिः पपात खात् । तारकस्योपरि त्वन्तःपुरस्त्रीवर्गदृग्जलम् ॥ २७४ ॥ नृपास्तारकगृह्यास्तु वृत्तिमाश्रित्य वैतसीम् । अंत्रायन्त द्विपृष्ठात् खं शक्तेष्वौपयिकं ह्यदः ॥ २७५ ॥ यात्रारम्भेण तेनैव भरता स दक्षिणम् । अशेष साधयामास साधीयःसाधनावृतः॥ २७६ ॥ स मागध-वरदाम-प्रभासाधिपतीनपि । लीलयैवाजयद् देवानेकसामन्तमात्रवत् ॥ २७७॥ दिग्यात्राया निवृत्तोऽथ माधवो मागधान् ययौ । तत्र कोटिनरोत्पाट्यां ददर्श च महाशिलाम् ॥२७८॥ वैरिवामः स वामेन दोष्णा तामुदपाटयत् । आललाटं कमलिनी करीन्द्र इव लीलया ॥ २७९ ॥ तां निधाय यथास्थानमग्रणीः सर्वदोष्मताम् । प्रपेदे द्वारकां विष्णुर्दिनैः कतिपयैरपि ॥२८॥ सिंहासनेऽध्यासितस्य ब्रह्मणा विजयेन च । विष्णोश्चक्रेऽर्धचक्रित्वाभिषेकोऽथाखिलैर्नृपः ॥ २८१ ॥ इतश्च मासं छद्मस्थो विहृत्य त्रिजगत्पतिः । दीक्षोद्यानं वासुपूज्यो विहारगृहमागमत् ॥ २८२॥ पाटलाया अधो भतुघोतिकमाणि तुत्रुटुः । द्वितीयशुक्लध्यानान्ते तमांसीव निशात्यये ॥ २८३॥ - लेष्टुः-भाषायाम्'-ढेफु-ढेला' इति । २ 'भषसि-अहो' इति विभागः। *"लोष्टुव सं०॥ ३ त्रासयत्-त्रासं कुर्वत् । रापश्च शा सं०॥ ४भापते आपतितम् । ५ तारकपक्षीयाः। ६ वेतसवृत्तिः-नम्रता। अथायन्त द्विपृष्ठान्तं खं सं०॥ ७ शत्रुप्रतिकूलः। TERASHUSHOLOCAUSTOCHASTIGHOST Jain Education Intex For Private & Personal use only I . Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थ पर्व द्वितीय: सर्ग: श्रीवासु ॥३९३॥ चरितम् । ष्टिताभ्यों भगवा लाक्षणेतरौ । भर्तुः शासद शक्तिधारिणौ दधती २०७॥ माघशुक्ल द्वितीयायां चन्द्रे शतभिषग्जुषि । केवलज्ञानमुत्पेदे चतुर्थेन जिनेशितुः ॥ २८४॥ खामी दिव्ये च समवसरणे देशनां व्यधात् । सूक्ष्मादीनां गणभृतां षष्टिं षडधिकां तथा ॥२८५॥ तत्तीर्थभूः कुमाराख्यो यक्षो हंसरथः सितः । मातुलिङ्ग-शरधरौ धारयन् दक्षिणौ करौ ॥ २८६॥ वामौ च नकुलधनुर्धारिणौ धारयन् भुजौ । वासुपूज्यजिनेन्द्रस्याभवच्छासनदेवता ॥ २८७॥ . । तथोत्पन्ना श्यामवर्णा चन्द्रा नामाश्ववाहना । दक्षिणौ वरद-शक्तिधारिणौ दधती भुजौ ॥ २८८॥ पाणी पुष्प-गदायुक्तौ विभ्रती दक्षिणेतरौ । भर्तुः शासनदेव्यासीत् सदा सन्निधिवर्तिनी ॥ २८९ ॥ ताभ्यामधिष्ठिताभ्यो भगवान् विहरन् भुवम् । द्वारकायाः परिसरभुवमन्येधुराययौ ॥२९॥ शक्राद्यैस्तत्र समवसरणं निर्ममेऽमरैः । चत्वारिंशद धनुरष्टशतोच्चाऽशोकपादपम् ।। २९१ ॥ तत्र प्रदक्षिणीकृत्याशोकं तीर्थानति वदन । सिंहासने निषसाद प्रामुखः परमेश्वरः ॥ २९२॥ प्रभोश्च प्रतिरूपाणि देवा दिक्ष्वपरावपि । विचक्रुस्त्रीणि तादृक्षाण्येवोच्चैस्तत्प्रभावतः॥ २९३ ॥ न्यषीदच्च यथास्थानं श्रीमान् संघश्चतुर्विधः । मध्यवप्रे तु तिर्यञ्चोऽधोवप्रे वाहनानि तु ॥ २९४ ॥ तदा च राजपुरुषा द्रुतमभ्येत्य शाणेि । खामिनं समवसृतमाचख्युः फुल्लचक्षुषः ॥२९५ ॥ सार्धा द्वादश रूप्यस्य कोटीस्तेभ्यो ददौ हरिः। ययौ समवसरणं विजयेनान्वितस्ततः ॥ २९६ ॥ तत्र प्रदक्षिणीकृत्य प्रणम्य च जगद्गुरुम् । आसाश्चक्रेऽनुशक्रं स समं लाङ्गलेपाणिना ॥ २९७ ॥ १ शतभिषग्नक्षत्रयुते । २ उपवासेन । ३ अभ्यर्णम्-समीपम् । ४ 'नमो तित्थस्स' इत्येवंरूपेण तीर्थप्रणामम् । ५ हलधरेण । श्रीवासुपूज्यजिनस्य समवसरणम् थास्थानं श्रीमान् समभ्येत्य शाङ्गिण हरिः । ययौ समास सम लालपा खामिनं समवस्तवजयेनान्वितस्ततः । ॥३९३॥ Jain Education Internet For Private & Personal use only Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ESSASAREERSARO श्रीवासुपूज्यजिनस्य देववाकृतस्तुतिः। भूयो नत्वा जगन्नाथं गिरा भक्तिसनाथया । स्तोतुमारेभिरे शक्र-द्विपृष्ठ-विजयास्ततः॥ २९८॥ नितान्तभीषणमितः प्रसृतं मोहदुर्दिनम् । प्रतिक्षणमितश्चाशा वेला इव नवा नवाः ॥ २९९ ॥ महायाद इवेतश्च दुवोरो मकरध्वजः । इतश्च विषयाः पापाः प्रौढा दुष्पवना इव ॥ ३००॥ इतः कषायाः क्रोधाद्या महावर्ता इवोल्बणाः । राग-द्वेषादयश्चेतो नगदन्ता इवोत्कटाः॥३०१॥ महोर्मय इवेतश्च नानादुःखपरम्पराः । इतवार्त-रौद्रध्यानमौर्वानल इवोच्चकैः ॥३०२॥ इतश्च ममता वेत्रवेल्लीव स्खलनाऽऽस्पदम् । इतश्च व्याधयोऽनल्पा नस्तोमा इवोद्धताः॥ ३०३ ।। अस्मिन्नपारे संसारे पारावारेऽतिदारुणे । पतितानुद्धर चिरात प्राणिनः परमेश्वर!॥३०४॥ परेषामुपकाराय केवलज्ञानदर्शने । तवेमे त्रिजगन्नाथ ! तरोः पुष्प-फले इव ॥ ३०५॥ कृतार्थमद्य मे जन्म कृतार्थो विभवोऽद्य मे । कर्तुं लेभे मयाऽयं यत् त्वत्सपर्यामहोत्सवः ॥३०६ ॥ स्तुत्वेति तूष्णीं प्राप्तेषु सुरेन्द्रोपेन्द्र-सीरिषु । श्रीवासुपूज्यो भगवानारेमे देशनामिति ॥ ३०७॥ ____ संसारसागरेऽमुष्मिन् शमिलायुगयोगवत् । कथञ्चित् प्राप्य मानुष्यं भाव्यं धर्मपरैनरैः ॥ ३०८॥ खाख्यातः खलु धर्मोऽयं सर्वैरपि जिनोत्तमैः । यं समालम्बमानो हि न मजेद् भवसागरे ॥३०९॥ संयमः सूनृतं शौचं ब्रह्माकिश्चनता तपः । शान्तिार्दवमृजुता मुक्तिश्च दशधा स तु ॥३१॥ धर्मप्रभावतः कल्पद्रुमाद्या ददतीप्सितम् । गोचरेऽपि न ते यत् स्युरधर्माधिष्ठितात्मनाम् ॥ ३११॥ १ और्वानलः वडवानलः । २ भाषायाम्-'नेतरनी वेल'। ३ नकः हिंस्रः जलचरविशेषः । ४ सपयों-पूजा । ५ भाषायाम्'समेल' या बलीवर्दयोक्त्रयोजने उपयुज्यते। सु-सुष्टप्रकारेण, आण्यात:-कथितः-स्वाख्यातः । श्रीवासुपूज्यजिनस्य धर्मदेशना। R ESS Jain Education a l For Private & Personal use only Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ पर्व द्वितीयः सर्गः श्रीवासु त्रिषष्टि-18 अपारे व्यसनाम्भोधौ पतन्तं पाति देहिनम् । सदा संविधवत्येकबन्धुर्धर्मोऽतिवत्सलः॥३१२॥ शलाका- आप्लावयति नाम्भोधिराश्वासयति चाम्बुदः। यन्महीं स प्रभावोऽयं ध्रुवं धर्मस्य केवलम् ॥३१३॥ पुरुषचरिते न ज्वलत्यनलस्तिर्यग् यदुवं वाति नानिलः । अचिन्त्यमहिमा तत्र धर्म एव निबन्धनम् ॥ ३१४ ॥ महाकाव्ये निरालम्बा निराधारा विश्वाधारा वसुन्धरा । यच्चावतिष्ठते तत्र धर्मादन्यन्न कारणम् ॥ ३१५॥ सूर्या-चन्द्रमसावेतौ विश्वोपकृतिहेतवे । उदयेते जगत्यस्मिन् नूनं धर्मस्य शासनात् ॥३१६॥ ॥३९४॥ अबन्धूनामसौ बन्धुरसखीनामसौ सखा । अनाथानामसौ नाथो धर्मो विश्वकवत्सलः ॥३१७ ॥ . धर्मो नरक-पातालपातादवति देहिनः । धर्मो निरुपमं यच्छत्यपि सर्वज्ञवैभवम् ॥ ३१८॥ अयं दशविधो धर्मो मिथ्याग्भिन वीक्षितः। योऽपि कश्चित् क्वचित प्रोचे सोऽपि वाङ्मात्रनर्तनम् ॥३१९॥ तत्वार्थो वाचि सर्वेषां केषाञ्चन मनस्यपि । क्रियायामपि नर्नति नित्यं जिनमतस्पृशाम् ॥ ३२०॥ वेदशास्त्रपराधीनबुद्धयः सूत्रकण्ठकाः। न लेशमपि जानन्ति धर्मरत्नस्य तत्त्वतः ॥ ३२१ ॥ गोमेध-नरमेधा-ऽश्वमेधाद्यध्वरकारिणाम् । याज्ञिकानां कुतो धर्मः प्राणिघातविधायिनाम् ॥ ३२२॥ अश्रद्धेयमसद्भूतं परस्परविरोधि च । वस्तु प्रलपतां धर्मः कः पुराणविधायिनाम् ? ॥ ३२३॥ असद्भूतव्यवस्थाभिः परद्रव्यं जिघृक्षताम् । मृत्-पानीयादिभिः शौचं सार्तादीनां कुतो ननु ?॥३२४ ॥ सविधम्-समीपम् । * एतत्पद्यानन्तरं सं० प्रती पद्यमेतदधिकं विद्यते-"रक्षोयक्षोरगव्याघ्रव्यालानलगरादयः। नापकर्तुमलं तेभ्यो यैर्धर्मः शरणं श्रितः" ॥ २ कण्ठे सूत्रम्-यज्ञोपवीतरूपं धरन्ति ते-द्विजाः। ३ अध्वरः यज्ञः। द स्मृतिम्-मनुस्मृति-प्रभृति-स्मृतिशास्त्रम्-अनुसरन्ति ते मार्ताः । चरितम् । OSSERIALUS** ॥३९॥ Jain Education Intel For Private & Personal use only Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋतुकालव्यतिक्रान्तौ भ्रूणहत्याविधायिनाम् । ब्राह्मणानां कुतो धर्मो ब्रह्मचर्यापलापिनाम् ? ॥ ३२५॥ अदित्सतोऽपि सर्वस्वं यजमानाजिघृक्षताम् । अर्थार्थे त्यजतां प्राणान् क्वाकिञ्चन्यं द्विजन्मनाम् ?॥३२६॥ स्वल्पेष्वप्यपराधेषु क्षणाच्छापं प्रयच्छताम् । लौकिकानामृषीणां न क्षमालेशोऽपि दृश्यते ॥ ३२७ ॥ जात्यादिमददुर्वृत्तपरिनर्तितचेतसाम् । क मार्दवं द्विजातीनां चतुराश्रमवर्तिनाम् ? ॥ ३२८॥ दम्भसंरम्भगर्भाणां बकवृत्तिजुषां बहिः । भवेदार्जवलेशोऽपि पाखण्डव्रतिनां कथम् ॥ ३२९॥ गृहिणी-गृह-पुत्रादिपरिग्रहवतां सदा । द्विजन्मनां कथं मुक्तिर्लोभैककुलवेश्मनाम् ॥ ३३०॥ अरक्त-द्विष्ट-मूढानां केवलज्ञानशालिनाम् । अनवद्या तत इयं धर्मस्वाख्या ततोऽर्हताम् ॥ ३३१॥ रागाद् द्वेषात् तथा मोहाद् भवेद् वितथवादिता । तदभावे कथं नामाहतां वितथवादिता ॥ ३३२॥ ये तु रागादिभिर्दोषैः कलुपीकृतचेतसः। न तेषां सूनृता वाचः प्रसरन्ति कदाचन ॥ ३३३ ॥ तथा हि याग-होमादिकाणीष्टानि कुर्वताम् । वापी-कूप-तडागादीन्यपि पूर्वान्यनेकशः॥३३४॥ पशूपघाततः खर्गिलोकसौख्यं विमार्गताम् । द्विजेभ्यो भोजनैर्दत्तैः पितृप्तिं चिकीर्षताम् ॥ ३३५॥ घृतयोन्यादिकरणैः प्रायश्चित्तविधायिनाम् । पञ्चखापत्सु नारीणां पुनरुद्वाहकारिणाम् ॥ ३३६ ॥ अपत्यासंभवे स्त्रीषु क्षेत्रजापत्यवादिनाम् । सदोषाणामपि स्त्रीणां रज॑सा शुद्धिवादिनाम् ॥ ३३७॥ श्रेयोबुद्ध्याध्वरहतच्छागशिश्नोपजीविनाम् । सौत्रामण्यां सप्ततन्तौ सीधुपानविधायिनाम् ॥३३८ ॥ __ *भकर्तृणाम् सं०॥ १'शोधयताम्' षष्ठी-बहुवचनम्-1 २ अपुत्रत्वे सति । ३ स्वभार्यायाम् कुलजेन अन्येन वा पुरुषेण पुत्रोत्पादनं वदन्ति तेषाम् । ४ ऋतुकाले मागतेच रजसा। ५ 'सौत्रामणि'-'सप्सतन्तु' एतौ विशेषयज्ञो। Jain Education Inte 1 For Private & Personal use only Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थ पर्व द्वितीय सर्गः श्रीवासु ॥३९५॥ चरितम् । गूथाशिनीनां च गवां स्पर्शतः पूतमानिनाम् । जलादिस्नानमात्रेण पापशुद्ध्यभिधायिनाम् ॥ ३३९॥ वटा-ऽश्वत्था-ऽऽमलक्यादिद्रुमपूजाविधायिनाम् । वहौ हुतेन हव्येन देवप्रीणनमानिनाम् ॥ ३४॥ भुवि गोदोहकरणाद् रिष्टशान्तिकमानिनाम् । योषिद्विडम्बनाप्रायव्रतधर्मोपदेशिनाम् ।। ३४१॥ जटापटल-भसाङ्गराग-कौपीनधारिणाम् । अर्क-धत्तूर-मालूरैर्देवपूजाविधायिनाम् ॥ ३४२ ॥ कुर्वतां गीतनृत्यादि पुतौ वादयतां मुहुः। मुहुर्वदननादेनाऽऽतोद्यनादविनोदिनाम् ॥ ३४३॥ असभ्यभाषापूर्व च मुनीन् देवान् जनान् नताम् । विधाय व्रतभङ्गं च दासीदासत्वमिच्छताम् ।।३४४॥ अनन्तकायकन्दादि-फल-मूल-दलाशिनाम् । कलत्र-पुत्रयुक्तानां वनवासजुषामपि ॥ ३४५॥ भक्ष्याभक्ष्ये पेयापेये गम्यागम्ये समात्मनाम् । योगिनाम्ना प्रसिद्धानां कोलाचार्यान्तवासिनाम् ॥३४६॥ अन्येषामपि जैनेन्द्रशासनास्पृष्टचेतसाम् । क्व धर्मः क्व फलं तस्य तस्य स्वाख्यातता कथम् ॥ ३४७॥ जैनेन्द्रस्यापि धर्मस्य यदत्रामुत्र वा फलम् । आनुषङ्गिकमेवेदं मुख्यं मोक्ष प्रचक्ष्यते ॥ ३४८॥ सस्यहेतौ कृषौ यत् पलालाद्यानुषङ्गिकम् । अपवर्गफले धर्मे तद्वत् सांसारिकं फलम् ॥ ३४९ ॥ एवं तां देशनां श्रुत्वा भूयांसःप्राब्रजञ्जनाः। प्राप द्विपृष्ठः सम्यक्त्वं श्रावकत्वं च लागली ॥३५०॥ पूर्णायामादिपौरुष्यां व्यसृजद् देशनां प्रभुः। द्वितीयां पौरुषी यावत् सूक्ष्मो गणधरो व्यधात् ॥३५१॥ ततः स्थानादथान्यत्र विजहार जगद्गुरुः । स्थानं निजनिजं जग्मुरिन्द्रोपेन्द्रबलादयः ॥ ३५२ ॥ द्वासप्ततिः सहस्राणि श्रमणानां महात्मनाम् । साध्वीनां लक्षमेकं तु संयमश्रीजुषां खलु ॥ ३५३ ॥ १ गूथम्-मलम्-विष्टा । २ पुतम्-नितम्बस्य विशेषभावः। * विधायिनाम् सं०॥ ३ अन्तवासिनः शिष्यछ। NAGAGALA%AA%AAS श्रीवासुपूज्य| जिनस्य परिवारादि। ॥३९५॥ Jain Education in For Private & Personal use only . Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशपूर्वभृतां सहस्रं द्वे शते तथा । अवधिज्ञानिनां पञ्च सहस्राः सचतु:शताः॥३५४॥ मनःपर्यययुक्तानामेकषष्टिः शतानि तु । षष्टिः शतानि विमलकेवलज्ञानशालिनाम् ॥ ३५५ ॥ जाता वैक्रियलब्धीनां सहस्राणि दशैव हि । वादलब्धिमतां सप्तचत्वारिंशच्छतानि तु ॥ ३५६ ।। श्रावकाणामुमे लक्षे सहस्रा दश पञ्च च । श्राविकाणां चतुर्लक्षी सपत्रिंशत्सहस्रिका ॥ ३५७ ।। चतुःपञ्चाशतं वर्षलक्षाणां मासवर्जितम् । आकेवलाद् विहरतः परिवारः प्रभोरभूत् ॥३५८॥ ज्ञात्वा च मोक्षमासन्नं ययौ चम्पां जगत्पतिः। प्रपेदेऽनशनं तत्र पइभिर्मुनिशतैः समम् ॥ ३५९।। मासान्ते चाषाढशुक्लचतुर्दश्यां निशाकरे । उत्तरभद्रपदास्थे सशिष्योऽगाच्छिवं विभुः॥३६॥ अष्टादशान्दलक्षाणि कुमारत्वे व्रते पुनः । चतुःपञ्चाशदित्यायुर्लक्षा द्वासप्ततिः प्रभोः॥३६१ ॥ श्रेयांसप्रभुनिवर्वाणाद् वासुपूज्यस्य निर्वृतिः। सागरेषु चतुःपश्चाशत्यतीतेष्वजायत ॥ ३६२ ॥ गीर्वाणेन्द्राः सगीर्वाणा निर्वाणमहिमोत्सवम् । स्वामिनः स्वामिशिष्याणामप्यकार्युर्यथाविधि ॥ ३६३ ॥ द्विपृष्ठवासुदेवोऽपि महारम्भपरिग्रहः । मृगारिरिव निःशङ्को देववच्च प्रमद्वरः॥३६४ ॥ भोगान् यथेच्छं भुञ्जामः पालयित्वायुरात्मनः। विपद्य षष्ठीमगमन्नरकोवीं तम प्रभाम् ॥ ३६५॥ ॥युग्मम् ॥ द्विपृष्ठस्य कौमारेऽब्दलक्षं पादोनवर्जितम् । तदेव मण्डलीकत्वे दिग्जयेऽब्दशतं तथा ॥ ३६६॥ राज्ये सप्तत्यब्दलक्षी तथा नवशताधिका । वत्सरैकोनपञ्चाशत्सहस्रीत्यायुरूर्जितम् ॥ ३६७ ॥ १ सदेवाः। श्रीवासुपूज्यजिनस्य निर्वा णम्। Jain Education 1281 For Private & Personal use only . Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये बलभद्रोऽपि पादोनकोटिहायनजीवितः । तस्थौ कथञ्चिदेकाकी खभ्रातृस्नेहमोहितः ॥ ३६८ ॥ श्रीवासुपूज्यवचनसरणेन बन्धुमृत्या च गाढतरमेव भवाद् विरक्तः। आत्तव्रतो विजयसूरिपब्जिमूले काले विपद्य च शिवं विजयो जगाम ॥ ३६९ ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थे पर्वणि श्रीवासुपूज्य-द्विपृष्ठ-विजय-तारकचरितवर्णनो नाम द्वितीयः सर्गः। चतुर्थ पर्व द्वितीयः सर्गः श्रीवासु ॥३९६॥ चरितम्। AUHIGH HE HASOLOSLALISA AG GHOSHUSHUSAASAASAASLASOSLASHISH ॥३९६॥ Jain Education Interier For Private & Personal use only . Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः। श्रीविमलनाथचरित्रम् । MUSIROHOREOGRESEARCH ॐ नमो विमलनाथाय निष्कर्मविमलात्मने । धर्मखाख्याततागङ्गाप्रभवैकहिमाद्रये ॥१॥ त्रयोदशाहतस्तस्य चरित्रमिदमुच्यते । जगत्पवित्रीकरणं तीर्थोदकमिवामलम् ॥२॥ धातकीखण्डद्वीपे प्राग्विदेहे विजये पुनः। भरताख्ये पुरीरत्नं नामतोऽस्ति महापुरी ॥३॥ तत्र पद्मागृहं पद्मसेनो नाम महीपतिः । अपां पतिरिवाँधृष्योऽभिगम्यश्चाभवद् गुणैः ॥४॥ खशासनमिवावन्यां स चित्ते जैनशासनम् । अखण्डप्रसरं चक्रे धुर्यो बलिविवेकिनाम् ॥ ५॥ दुर्वेश्मनीव संसारे सोऽमुष्मिन् निवसन्नपि । सदैव धारयामास वैराग्यमधिकाधिकम् ॥६॥ स एवं भवनिर्विण्णः सर्वगुप्ताभिधं गुरुम् । ययौ महीरुहवरं मार्गखिन्न इवाध्वगः ॥७॥ दीक्षां जग्राह तत्पाधै सम्यक् तां प्रत्यपालयत् । रोरो धनमिव प्राप्तमैनात्मज इवात्मजम् ॥ ८॥ अर्हद्भक्त्यादिभिः स्थानैर्यथाविधिनिषेवितैः । ऊर्जितैरर्जयामास तीर्थकृन्नाम कर्म सः॥९॥ चिरं तीनं तपस्तस्वा पूरयित्वाऽऽयुरात्मनः। मृत्वा कल्पे सहस्रारे महर्द्धिः सोऽमरोऽभवत् ॥१०॥ १ स्वाख्यातता-सुप्रसिद्धिः। २ कक्ष्मीस्थानम् । ३ अष्यः-अनभिभवनीयः। ४ अभिगम्यः-आश्रयणीयः। ५ निर्विण्णःखिनः । ६ दरिद्रः। ७ अपुत्रः। .. Jain Education Inter For Private & Personal use only , Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थ पर्व तृतीया सर्गः श्रीविमलनाथजिनचरितम् । ॥३९७॥ इतश्च जम्बूद्वीपेऽसिन् भरतक्षेत्रभूषणम् । पुरं काम्पील्यमित्यस्ति दिवः खण्डमिव च्युतम् ॥११॥ तत्र चैत्यानि चन्द्राश्मपुत्रिकाक्षरदम्बुभिः । कलयन्ति निशीथिन्यां यत्रधारागृहश्रियम् ॥ १२ ॥ हैमाः कुम्भाः प्रभासन्ते तत्र गेहोर्ध्वभूमिषु । स्वर्णाजान्याहितानीव निवासाय सदा श्रियः॥१३॥ विचित्रहर्म्यप्रासादराजीकं तदराजत । विधातुरालेख्यमिव सृजतो दिविषत्पुरीम् ॥१४॥ देवेनाप्यभिभूतानां शरणार्थमुपेयुषाम् । बज्रवर्मेव तत्राभूत् कृतवर्मेति भूपतिः॥१५॥ गङ्गाजलं तद्यशश्च स्पर्धयेव परस्परम् । परितः प्रीणयत् पृथ्वीं प्रपेदे निधिमम्भसाम् ॥ १६ ॥ नाभूत् परामुखो जातु याचकेष्विव सोऽरिषु । पराङ्मुखः परस्त्रीषु परनिन्दाखिवाभवत् ॥ १७॥ महीविवस्वतस्तस्य समरे पेरिपन्थिनः। न सोढुमशकंस्तेजोऽन्धकारादिव निर्गताः ॥१८॥ पादच्छाया सदा तस्य महावटतरोरिव । कुब्जीभूय प्रणामेन सिषेवे वसुधाधवैः ॥ १९ ॥ बभूव तस्य श्यामेति श्यामेव तुहिनधुतेः। सधर्मचारिणी सर्वशुद्धान्तमुखमण्डनम् ॥२०॥ कुलश्रीरिव सा मृर्ता सतीव्रतमिवाङ्गवत् । रूप-लावण्यलक्ष्मीणां प्रत्यक्षेवाधिदेवता ॥२१॥ मन्दं मन्दं मरालीव देवी संचरति स सा । नित्यमेव पतिध्यानव्याकुलेनेव चेतसा ॥ २२ ॥ बभूव सा भूचरीषु स्त्रीष्वसाधारणा तथा । यथार्हति स तत्सख्यं देवी श्रीरथवा शची ॥ २३ ॥ यत्र यत्र स्वामिनी सा चचार पृथिवीतले । तत्र तत्रान्वगाल्लक्ष्मीयोमिकीव दिवानिशम् ॥ २४ ॥ इतः कल्पे सहस्रारे पद्मसेनमहीपतेः । स जीवः पूरयामास स्वमायुः परमस्थिति ॥२५॥ पुत्रिका-पुत्तलिका । २ रात्रौ । ३ स्वर्गम् । ४ वज्रमयकवचः। ५ शत्रवः। ६ प्रतिहारी। . उस्कृष्टस्थितिकम् । ॥३९७॥ Jain Education in For Private & Personal use only . Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलनाथजिनजन्म शुद्धद्वादश्यां राधस्योत्तरभद्रपदासु मे । सोऽथ च्युत्वा ततः श्यामादेवीकुक्षाववातरत् ॥ २६॥ मुखे प्रविशतस्तीर्थकरजन्माभिसूचकान् । श्यामादेवी महास्वमांश्चतुर्दश ददर्श सा ॥ २७ ॥ पूर्णे काले माघशुक्लतृतीयायां निशाकरे । उत्तरभद्रपदास्थे वोच्चस्थेषु ग्रहेषु च ॥ २८॥ सुतं सूकरलक्ष्माणं तैपनीयोपमद्युतिम् । ज्ञानत्रयधरं श्यामास्वामिनी सुपुवे सुखम् ॥ २९ ॥ स्वामिनः स्वामिमातुश्च सूतिकमैत्य सर्वतः। षट्पञ्चाशद्दिकुमार्यश्चेटिका इव चक्रिरे ॥३०॥ एत्य शक्रो मेरुशैले नीत्वाऽङ्के न्यस्य च प्रभुम् । अतिपाण्डुकम्बलास्थे सिंहासन उपाविशत् ॥३१॥ त्रयोदशं जिनेन्द्रं तं सुरेन्द्रा अच्युतादयः। त्रिषष्टिः पयामासुः क्रमशस्तीर्थवारिभिः ॥ ३२ ॥ ईशानाङ्के निवेश्येशं शक्रोऽप्यस्नपयजलैः । वृषशृङ्गोत्थिलैक शैलशृङ्गोत्थैरिव निझरैः ॥ ३३ ॥ स्वामिनं देवदृष्येण वाससा वासवः स्वयम् । आर्द्र स्नानीयपानीयैर्माणिक्यवदमार्जयत् ॥ ३४ ॥ गोशीर्षचन्दनैः श्यामानन्दनं नन्दनाहृतैः । स व्यलिम्पद् वपुर्लग्नदेवदूष्यभ्रमप्रदैः ॥ ३५॥ विचित्रैर्दामभिर्दिव्यैर्वस्त्रालङ्करणैरपि । अर्चित्वाऽऽरात्रिकं कृत्वा प्रभुं शक्रोऽस्तवीदिति ॥३६ ।। मोहेन तिमिरेणेव पस्तिोऽपि प्रसारिणा । नितान्तकोपनैनक्तश्चरैरिव जटाधरैः ॥ ३७॥ बुद्धिसर्वखहरणैश्चार्वाकैस्तस्करैरिव । अत्यन्तमायानिपुणेोमायुभिरिव द्विजैः ॥३८॥ भ्रमद्भिर्मण्डलीभूय कौलाचायवृकैरिव । उलूकैरिव पाखण्डैवल्गद्भिरपरैरपि ॥ ३९ ॥ त्रिषष्टि. ६८४ १ तपनीयम्-सुवर्णम् । लास्थसिं० सं०॥ जयरत्नस्तम्भमिवामृजत् । सं०॥ २ लग्नम्-प्रतम् 'लागेलु' इति भाषायाम्। ३ शूगालैः। LASSROORSAGARCAESAROS Jain Education a l For Private & Personal use only Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरिते महाकाव्ये ॥ ३९८ ॥ Jain Education सिद्धेनेव विवेकाक्षं मिथ्यात्वेन विलुम्पता । सद्भूतानां पदार्थानामविज्ञानेन सर्वतः ॥ ४० ॥ अभूचरमयं कालो यामिन्येव जगत्पते ! । प्रभातं त्वधुना जज्ञे त्वया नाथेन भाखता ॥ ४१ ॥ त्वत्पादपद्यामासाद्य लङ्घितालङ्घिता खलु । निम्नैरपि हि संसारनिम्नगा निम्नगा जनैः ॥ ४२ ॥ भवच्छासननिःश्रेणिमधिरुह्या चिरादपि । मन्येऽध्यासितमेवोच्चैर्लोकाग्रं भव्यजन्तुभिः ॥ ४३ ॥ अस्माकमप्यनाथानां चिरान्नाथोऽस्युपस्थितः । निदाघातपतप्तानां पान्थानामिव वारिदः ॥ ४४ ॥ इत्थं त्रयोदशं तीर्थकरं स्तुत्वा पुरन्दरः । गत्वा यथागतं श्यामास्वामिनीपार्श्वतोऽमुचत् ॥ ४५ ॥ • शक्रः स्वामिगृहान्मेरोस्त्वन्येन्द्राः स्वं स्वमास्पदम् । प्रययुः कृतकल्याणयात्राः सांयात्रिका इव ॥ ४६ ॥ नरेन्द्रः कृतवर्माऽपि शर्मवान् विश्वशर्मदम् । ऋद्ध्या महत्या विदधे सूनोर्जन्ममहोत्सवम् ॥ ४७ ॥ गर्भस्थे जननी तस्मिन् विमला यदजायत । ततो विमल इत्याख्यां तस्य चक्रे पिता स्वयम् ॥ ४८ ॥ धात्रीभूय सुरस्त्रीभिर्लाल्यमानो जगत्पतिः । सुरैश्च संवयोभूय रम्यमाणो व्यवर्ध ॥ ४९ ॥ पष्टिधन्वोन्नतः स्वामी क्रमेण प्राप यौवनम् । अष्टोत्तरसहस्रेण लक्षणानां च लक्षितः ॥ ५० ॥ सु पित्रोरुपरोधेन भववैराग्यभागपि । राज्ञां पुत्रीरुपायंस्त भोग्यकर्मरुगौषधीः ॥ ५१ ॥ कौमारे पञ्चदशाब्दलक्षी मुल्लस्य मेदिनीम् । अशात् पितृगिरा मान्या पित्राज्ञा ह्यर्हतामपि ॥ ५२ ॥ गतेषु वर्षलक्षेषु त्रिंशत्यवनिपालने । भवाब्धेस्तैरणे तरीं दीक्षावेलामचिन्तयत् ॥ ५३ ॥ १ पद्या व । २ समुद्रयायिनः, नौवणिजः । ३ समानवयोयुता भूत्वा । ४ भोग्यं कर्मैव रुग्- तस्मिन् औषध५ शासनं चकार । * रणत सं० का० ॥ रूपाः । चतुर्थ पर्व तृतीयः सर्गः श्रीविमलनाथजिन चरितम् । ॥ ३९८ ॥ . Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ **%*GUAGES सारस्वतप्रभृतयोऽभ्येत्य लोकान्तिकामराः । तीर्थ प्रवर्तय स्वामिन्नित्यूचुश्च जगद्गुरुम् ॥ ५४ ॥ ददौ च वार्षिकं दानं द्रविणैर्जुम्भकाहृतैः । याचकेभ्यो यथायानं कल्पद्रुम इवावनौ ॥ ५५॥ . दानान्ते विदधुर्दीक्षाभिषेकं विमलप्रभोः । विमलैर्निजमनोवत् सुमनःपतयोऽम्युभिः ॥५६॥ आमुक्तदिव्यालङ्कारवस्त्रो दिव्यविलेपनः । शिविकां देवदत्ताख्यामारुरोह ततः प्रभुः॥ ५७॥ सुरासुरनराधीशैः परितोऽपि समावृतः । तया शिबिकया स्वामी सहस्राम्रवणं ययौ ॥ ५८॥ उद्यानपालबालाभिस्तदा शिशिरभीरुभिः । वेश्मग्रीत्या सेव्यमानलताकुञ्जपरम्परम् ॥ ५९॥ भविष्यदद्भतश्रीकर्माकन्दबकुलादिभिः । सह्यमानहिमानीकं तपस्यद्भिरिव द्रुमैः॥६०॥ प्रत्यग्रैः कूपपानीयैश्छायाभिर्वटभूरुहाम् । रिरंसुपौरद्वन्द्वानी निषिद्धशिशिरव्यथम ॥६१॥ शीतार्तप्लवगैः पुञ्जीकृतगुञ्जाफलेक्षणात् । नागरस्त्रीविरचितमितज्योत्स्नातरङ्गितम् ॥ ६२॥ कृतमितमिव स्मेरलवलीकुन्दकोरकैः । प्रविवेश तदुद्यानं भगवान् विमलप्रभुः॥ ६३ ॥ ॥पञ्चभिः कुलकम् ॥ शिबिकातः समुत्तीर्य त्यक्त्वा चाभरणादिकम् । स्कन्धे च वासवन्यस्तं देवदृष्यांशुकं दधत् ॥ ६४॥ माघस्य शुक्लचतुया जन्मऋक्षे परेऽहनि । समं नृपसहस्रेण षष्ठेन पावजत् प्रभुः ॥६५॥ युग्मम् ॥ द्वितीयेऽति धान्यकटपुरे जयनृपौकसि । पारणं परमानेन चकार विमलप्रभुः ॥६६॥ जृम्भका-त्रियग्जम्भकाऽऽख्या देव विशेषाः। *"पि परावृ संवृ० का.॥ २ सामाना हिमसंहतिः यस्मिन् तत् । |1 °नां प्रशान्तशि° संवृ०॥ ३ प्लवगाः-वानराः। रेनृपजयोक मु०॥ ४ क्षीरेण । विमलनाथजिनप्रवज्यादि * * * ** JainEducation a l For Private & Personal use only . Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका चतुर्थ पर्व तृतीयः पुरुषचरिते महाकाव्ये सर्ग: श्रीविमलनाथजिनचरितम् । ॥३९९॥ विदधे विवुधैस्तत्र वसुधारादिपञ्चकम् । रत्नपीठं स्वामिपादस्थाने जयनृपेण तु ॥ ६७॥ ततः स्थानादथान्यत्र ग्रामाकरपुरादिषु । प्रावर्तत विहाराय छद्मस्थः परमेश्वरः ॥ ६८॥ __इतश्च जम्बूद्वीपेऽसिन् विदेहेष्वपरेषु च । नन्दिसुमित्र आनन्दकर्या पुर्यामभून्नृपः ॥ ६९॥ चक्षुष्मानपि चक्षुष्मान् विवेकेन बभूव सः। ससहायश्च खङ्गेन महासैनिकवानपि ॥ ७० ॥ जन्मतोऽपि भवोद्विग्नो जानानः सर्वमस्थिरम् । दधार पैतृकं राज्यमपि पालयितुं क्रमम् ॥ ७१॥ मनसा प्रागपि त्यक्तं त्यक्त्वा राज्यमथान्यदा । प्रव्रज्यां सुव्रताचार्यपादान्ते स उपाददे ॥ ७२ ॥ विविधाभिग्रहधरश्चरित्वा दुश्चरं तपः। कृत्वा चानशनं मृत्वाऽनुत्तरे समभूत् सुरः॥ ७३ ॥ ___ अत्रैव जम्बूद्वीपे च पुर्या भरतभूषणे । श्रावस्त्यां धनमित्राख्यो बभूव पृथिवीपतिः ॥७४॥ धनमित्रनरेन्द्रस्य स्नेहादतिथितां गतः । पुर्या तत्रैव चावात्सीद् बलिर्नाम महीपतिः ॥ ७५ ॥ धनमित्रोऽन्यदा रेमेऽक्षयूँतं बलिना समम् । अक्षीणबुद्धिविभवो गमेन च चरेण च ॥ ७६ ॥ पत्तीनामिव सारीणां वध-बन्धपरौ मिथः । विपश्चयामासतुस्तौ द्यूतं रणमिवोत्कटम् ॥ ७७ ॥ सर्वात्मना जेतुकामौ तावन्योऽन्यं नरेश्वरौ । स्वं पणीचक्रतू राज्यं द्यूतान्धानां कुतो मतिः ॥ ७८॥ अथ हारितवान् राज्यं धनमित्रनृपो निजम् । रोरपुत्र इवाश्रीक एकाङ्गश्चाभवत् क्षणात् ॥ ७९ ॥ अवस्तुभूय स भ्राम्यन् कश्मलो जीर्णकर्पटः । भूताविष्ट इव प्राप सर्वत्राप्यवमाननाम् ॥ ८॥ * द्यूतैर्वलि संबृ०॥ -२ गम-चरौ द्यूतक्रीडा कलाभेदौ। ३ द्यूतक्रीडोपयुक्तं वस्तु सारीति कथ्यते । ४ मलिनः । ५ कर्पट:-कपडु' इति भाषायाम् । ॥३९९॥ Jain Education interiod For Private & Personal use only . Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education In सोऽटन्नितस्ततोऽन्येद्युर्ददर्शर्षि सुदर्शनम् । पपौ च देशनां तस्माद् यूपं रोगीव लङ्घितः ॥ ८१ ॥ प्रतिबुद्धः परिव्रज्यां जग्राह च तदन्तिके । चिरं च पालयामास पमानं तमविस्मरन् ॥ ८२ ॥ फलेन तपसोऽमुष्य वधाय बलिभूपतेः । भवान्तरेऽहं भूयासं निदानमपि स व्यधात् ॥ ८३ ॥ इत्थं कृतनिदानः सन् मृत्वाऽनशनकर्मणा । उदपाद्यच्युते कल्पे प्रकृष्टायुःस्थितिः सुरः ॥ ८४ ॥ यति लिङ्गमुपादाय बलिः कालेन गच्छता । विपद्य समभूत् कल्पे महर्द्धिरमरोत्तमः ॥ ८५ ॥ च्युत्वा च भरतक्षेत्रे स नन्दनपुरेऽभवत् । देव्यां सुन्दर्यां समरकेसरिक्ष्मापतेः सुतः ॥ ८६ ॥ स्निग्धाञ्जनद्युतिवपुः षष्टिधन्वोन्नताकृतिः । षष्टिवत्सरलक्षायुरभादद्भुतविक्रमः ॥ ८७ ॥ वैताढ्यं प्रतापढ्यो भरतार्धमसाधयत् । अभूच्च प्रतिविष्णुः स मेरकाख्योऽर्धचक्रभृत् ॥ ८८ ॥ वौजस्वी तेजस्वीव रवेः पुरः । न कोऽपि तस्य पुरतः प्रतिमल्लोऽभवन्नृपः ॥ ८९ ॥ दैवस्येव न तस्याज्ञां व्यत्यलङ्घिष्ट कश्चन । रक्षाशिखाबन्धमिव सूर्ध्ना सर्वेऽप्यधुः पुनः ॥ ९० ॥ इतश्च भरतक्षेत्रे द्वारकायामभूत् पुरि । समुद्र इव गम्भीरो रुद्रो नाम महीपतिः ॥ ९१ ॥ श्री - पृथिव्याविव साक्षात् सुप्रभा पृथिवीति च । तस्याभूतामुभे कान्ते कान्ते रूप- गुणश्रिया ॥ ९२ ॥ जीवो नन्दसुमित्रस्य सोऽनुत्तरविमानतः । प्रच्युत्य सुप्रभादेव्या उदरे समवातरत् ॥ ९३ ॥ चतुरोऽथ महाखमान् हलभृजन्मसूचकान् । सुखसुप्ता निशाशेषे सुप्रभादेव्युदैक्षत ॥ ९४ ॥ ततो नवसु मासेषु दिनेष्वर्धाष्टमेषु च । सुप्रभा सुषुवे सूनुमनूनं शशितो रुचा ॥ ९५ ॥ १ अवमानात् । २ रसम् । * "मपि स्म° मु० ॥ ३ 'नियाणुं' भाषायाम् । Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ पर्व तृतीयः त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये सर्गः श्रीविमलनाथजिनचरितम् । रिति तस्यापि नामङ्गपतिमासुरम् । जय सुखसमा निशाशेषऽपरसीव सरोरुहम् ॥१ ॥४०॥ भद्र इत्यभिधां तस्य विदधे रुद्रभूपतिः । कुलभद्रश्रिया साधं व्यवर्धिष्ट क्रमेण सः ॥९६ ॥ धनमित्रस्य जीवोऽपि प्रच्युत्याच्युतकल्पतः । उत्पेदे पृथिवीकुक्षी सरसीव सरोरुहम् ॥ ९७॥ सापि सप्त महाखमान् शाङ्गभृजन्मसूचकान् । सुखसुप्ता निशाशेषेऽपश्यत प्रविशतो मुखे ॥ ९८॥ संपूर्णे समये साऽपि श्यामागमतिभासुरम् । असूत सूनुं वैडूर्य वैडूरगिरिभूरिव ॥ ९९ ॥ खयम्भूरिति तस्यापि नामधेयं प्रमोदभाक् । विदधे रुद्रभूपाल उत्सवेन महीयसा ॥१०॥ नित्यमेव हि धात्रीभिः पाल्यमानः स पञ्चभिः । व्यवर्धिष्ट समितिभिर्मुनेरिव तपोऽनघम् ॥१०१॥ भद्र-स्वयम्भुवौ प्रीत्या संगच्छेते स्म सर्वदा । प्रवाहाविव तौ गाङ्ग-यामुनौ श्वेतमेचकौ ॥१०२॥ सेहिरे न तयोः पादघातान् राजकुमारकाः। तत्पादपरिघातेन भ्रश्यन्ति स्माद्रयोऽपि यत् ॥१०३॥ नील-पीतांशुकभृतौ तौ ताल-गरुडध्वजौ । चलन्तौ क्रीडयाऽप्युवी पर्यचालयतामिमाम ॥१०४॥ अभ्यासः सर्वशस्त्रेषु सर्वशास्त्रेषु चाभवत् । दोर्वीर्य-बुद्ध्योस्तारुण्यमिव लक्ष्मीविशेषकृत ॥१०५॥ पुरीपरिसरेऽन्येधुः क्रीडन्तौ तावपश्यताम् । हस्त्यश्वकोशबहुलं सारखं शिविरं स्थितम् ॥ १०६॥ इदं प्रैष्यत केनेहासुहृदा सुहृदाऽथवा । इति लागलिना पृष्टः प्रोवाच सचिवात्मजः ॥१०७॥ भूभुजा शशिसौम्येन मेरकायार्धचक्रिणे। प्रेषितं प्राभृतमिदं दण्डे जीवितकाम्यया ॥१०८॥ तच्छुत्वा कुपितः शाङ्गपाणिरेवमवोचत । किं नः संपश्यमानानां दण्डस्तमै भविष्यति ॥१०९ ॥ वैराको मेरकः कोऽयं यः किलामासु सत्स्वपि । पार्थिवान् दण्डयत्येवं द्रष्टव्यं तस्य पौरुषम् ॥ ११०॥ *र्य विडू संवृ०॥ . समितयः-ईर्यादयः पञ्च । २ मेचकः-कृष्णः। ३ वराक:-'रांक' 'बीचारो' इति भाषायाम् । ॥४०॥ Jain Education a l For Private & Personal use only Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Inter १११ ॥ ११२ ॥ ११३ ॥ गृह्यतां सर्वमप्येतदाच्छिद्य स्वयमोजसा । करमुत्क्षिप्य तानेत्रं स्वकीयानादिशद् भटान् ॥ गदामुद्गरदण्डाद्यैः शशिसौम्यस्य सैनिकान् । तद्भटास्ताडयामासुः फलितानिव पादपान् ॥ अतर्कितद्रोहिभिस्तैः प्रसुप्ता इव सौप्तिकैः । हन्यमानाः प्रणेशुस्ते प्राणानादाय काकवत् ॥ हस्त्यश्वाद्याददे पश्चात् तत्सर्वं शार्ङ्गपाणिना । क्षत्रियाणां गुणो ह्येष परश्रीहरणं हठात् ॥ ११४ ॥ ताभ्यामपहृतं द्रव्यं मेरकायार्धचक्रिणे । शशंसुः शशिसौम्यस्य नराः पूत्कारकारिणः ।। ११५ ।। तदाकर्ण्य परिक्रुद्धो निर्मर्याद इवान्तकः । मेरकोऽधिसभं भीमभ्रकुटीकोऽब्रवीदिति ॥ ११६ ॥ पादाहतिः खरेणेव पिण्डमत्तेन दन्तिनः । कुटुम्बिकसधर्मिण्या हालिकेनेव कुट्टनम् ॥ ११७ ॥ चपेटाघटनमित्र मण्डूकेन फणाभृतः । स्वमृत्यवे कृतमिदमनात्मज्ञेन रौद्रिणा ॥ ११८ ॥ पैक्षोद्रमः पीलिकानामिव पर्यन्तकारणम् । विपरीता मतिः पुंसां भवेद् दैवे पराङ्मुखे ॥ ११९ ॥ सपितृभ्रातरं नव्यभ्रातृव्यकमुपस्थितम् । हनिष्याम्येष तं दस्युमिव प्राभृतहारिणम् ॥ १२० ।। अथैकः सचिवोऽवोचद् बाल्यात् ताभ्यामिदं कृतम् । रुद्रेण भूभुजा दीर्घं सेवितोऽसीति मा कुपः ॥ १२१ ॥ मन्ये न संमतं राज्ञो रुद्रस्यैतद् भविष्यति । आरिराधयिषैवास्ति तस्य त्वां स्वामिनं प्रति ॥ १२२ ॥ स्वामिनः प्रथमे कोपे नद्याः पूरे च कः पतेत् । एवमाशङ्कया नूनं रुद्रभूपो विलम्बते ॥ १२३ ॥ देव ! प्रसीदादिश मां तदभीतिं प्रयच्छे च । आनेष्यामि प्राभृतं तत् सविशेषमहं ततः ॥ १२४ ॥ वामकैः । * शिसौम्यीया न° सं० ॥ ३ हालिक:- हलभृत् 'खेडूत' इति भाषायाम् । ४ पिपीलिकानां पक्षोत्पत्तिर्भरण संसूचिका - इति भावार्थः । ५ आराधयितुमिच्छा । च्छत । आ' का'; 'च्छ वा । आ° सं० ॥ १ अपहृत्य । . Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये सर्ग: ॥४०॥ KASARAN आमित्युक्तो मेरकेण स द्रुतं द्वारकां ययौ । भद्र-स्वयम्भूसहितं रुद्रं चैवमभाषत ॥ १२५॥ चतुर्थ पर्व किमेतत् तव पुत्राभ्यामज्ञानान्नृपते! कृतम् । हन्यते न खलु श्वाऽपि स्वामिनो मुखलज्जया ॥१२६ ॥ तृतीयः एवमप्यर्यतां सर्व न ते दोषो भविष्यति । छादयिष्यत्यात्मजयोर्दोषमज्ञानतैव हि ॥ १२७॥ अथ खयम्भूरित्यूचे स्वामिभक्त्या भवानिदम् । तातं प्रत्यार्यभावेन चार्यधीर्वक्ति साधु तत् ॥१२८॥ीमित धीरीभूय निरीक्षध्वं तस्याच्छिन्नमिदं कियत् । आच्छेत्स्यामो महीं सर्वां वीरभोग्या हि भूरियम् ॥१२९॥ नाथजिनआर्यस्य बलभद्रस्य दोष्णोर्मम च को बलम् । सहिष्यते कृतान्तस्य कुपितस्येव संगरे ॥ १३०॥ चरितम् । एक तमेव हत्वाऽहं भोक्ष्येऽर्धभरतं खयम् । किमन्यैः कुट्टितै पैहुभिः कीटकैरिव ॥ १३१॥ तेनापि दोर्बलेनात्तं भरतार्ध न पैतृकम् । तन्न्यायेन ममाप्यस्तु बलिनो बलिनामपि ॥ १३२॥ इत्युक्त्या विसितो भीतो हीतश्च सचिवोऽथ सः । गत्वा द्रुतं मेरकाय समाचख्यौ यथातथम् ॥१३३॥ मत्तेभ इव संक्रुद्धस्तस्य दुःश्रवया गिरा । कम्पयन् क्ष्मां सैन्यभारैः प्रतस्थे मेरकस्ततः ॥१३४ ॥ इतः स्वयम्भू रुद्रेण भद्रेण च समन्वितः । प्रतस्थे द्वारकापुर्याः कन्दरादिव केसरी ॥१३५॥ जनयन्तौ जनक्षोभं भैरवी रौद्र-मेरको । राहु-सौरी इवैकत्र क्रमेणाथ समेयतुः ॥ १३६ ॥ अभूच्छत्रप्रहाराग्निकरालितदिगन्तरः । तत्सैन्ययोः संप्रहार: प्रहाण इव दारुणः ॥ १३७ ॥ खयम्भूः पूरयामास पाञ्चजन्यमथ स्वयम् । अशेषद् द्विषदुच्चाटमत्रोपममहाखनम् ॥ १३८॥ ॥४०१॥ पाञ्चजन्यध्वनेस्तस्मात् त्रेसुरकसैनिकाः। न हि केसरिबूत्कारं श्रुत्वा तिष्ठन्ति वारणाः ॥१३९ ॥ १ सौरि:-शनिः। २ प्रलयकाल इव; 'हार संबृ० का०॥ ३ गजाः । Jain Education Inter For Private & Personal use only M uww.jainelibrary.org. Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SEARCOAGGARALA सैन्यान् संस्थापयामास ताम्रचूडानिव स्वयम् । मेरको रथमारुह्य डुढौकेऽभिस्वयम्भुवम् ॥१४॥ किं मुधा सैन्यसंहारेणेति व्याहारिणौ मिथः । आस्फालयामासतुस्तौ धनुरेकधनुर्धरौ ॥ १४१ ॥ उद्वाहमण्डपमिव विदधानी जयश्रियः । मार्तण्डच्छादिभिर्वाणजालावयवर्षताम् ॥ १४२॥ बाणवृष्ट्या बाणवृष्टिं तौ निराचक्रतुर्मिथः । विषं विषेणेव हुताशनेनेव हुताशनम् ॥ १४३ ॥ सहस्रशः शरकरैः प्रसरहिंविराजिनौ । अर्काविवोद्गतौ द्वौ तौ ददृशाते भयङ्करौ ॥१४४॥ पाणिर्गतागतं कुर्वनिषङ्गधनुरन्तरे । अलक्ष्योऽलक्ष्यत तयोरूमिकातेजसैव हि ॥१४५ ॥ पाणिस्तदैव तूणीरे तदैव हि धनुर्गुणे । पतन् द्वैरूप्यभृदिवाभात् तयोर्लघुहस्तयोः॥१४६ ॥ बाणैरजय्यं ज्ञात्वारिं मेरकोऽखैर्गदादिभिः । ववर्ष कल्पान्तमरुच्छैलशृङ्गैरिवोद्धतैः ॥ १४७॥ तानि खयम्भूः प्रत्यस्त्रैर्भस्मसादकरोद् द्रुतम् । दृग्ज्वालाभिः करालाभिश्चक्षुर्विष इवोरगः ॥१४८॥ रणपार जिगमिषुश्चक्रं सस्मार मेरकः । व्याधस्य सिञ्चान इव पाणौ तस्यापतच्च तत् ॥ १४९॥ उदीरयामास ततो मेरकोऽपि स्वयम्भुवम् । क्रीडया युध्यमानेन मयैवासि भटीकृतः ॥ १५०॥ एष छेत्स्यामि ते शीर्ष गच्छ गच्छाधुनाऽप्यरे। काकानां तस्कराणां च नश्यतां का ननु त्रपा॥१५१॥ खयम्भूरप्युवाचैवं क्रीडायुद्धं यदीदृशम् । प्रेक्ष्यं तत् कोपयुद्धं ते तदर्थ ह्यहमागमम् ॥ १५२ ॥ आच्छिन्दन्तो द्विषां लक्ष्मी वीराश्चेत् तस्करास्तदा । प्रथमस्तस्करोऽसि त्वं प्रदत्ता तव केन सा ॥१५३॥ १ कुक्कटान् । २ वादिनौ । धनुर्व( )रध संबृ०॥ द्भिश्चिराजनैः । अका०; जितौ । अ° संवृ० ॥३ इषङ्गः'भाथु' इति भाषायाम् । ४ ऊर्मिका-अङ्गुली । ५ 'सींचाणो' इति भाषायाम् । ६ भटो योधः। अपहरन्तः । ८ लक्ष्मीः। Jain Education a l For Private & Personal use only Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका चतुर्थ पर्व तृतीयः पुरुषचरिते महाकाव्ये ॥ सर्ग: श्रीविमलनाथजिनचरितम्। ॥४०२॥ SAGARLASSRAEBAREERSAX मुक्त्वाऽपि चक्रं नष्टव्यं यत् त्वयाऽद्यापि नश्यताम् । काकानां तस्कराणां च नश्यतां का ननु त्रपा? ॥१५४॥ मुश्च मुश्चाथवा चक्रं बलमस्यापि दृश्यताम् । अपि ते म्रियमाणस्य नानुतापो यथा भवेत् ॥१५५॥ इत्युक्तो मेरकश्चक्रं व्योग्नि भौममिवापरम् । ज्वालाजालकरालं तद् भ्रमयित्वाऽमुचद् द्विषि ॥१५६॥ शाङ्गपाणेरुरःपीठं तेनाजघ्ने चपेटया । कांसतालं कांस्यतालेनेव प्रास्फलता दृढम् ॥ १५७॥ चक्रतुम्बाग्रघातेन खयम्भूस्तेन मूच्छितः। पपात खन्दनोत्सङ्गे क्षीबवत् तरलेक्षणः ॥ १५८ ।। दधार च तमुत्सङ्गे मुशली प्रियवान्धवः । वत्साश्वसिह्याश्वसिहीत्युच्चरन् साश्रुलोचनः॥१५९॥ तैरेवाश्रुजलैर्धातुः सिक्तो वक्षसि शाङ्गभृत् । लब्धसंज्ञः समुत्तस्थौ तिष्ठ तिष्ठेत्यरिं वदन् । १६० ॥ उत्थायादाय तचक्रं कालचक्रमिव द्विषाम् । हरिमरकमित्यूचे दृष्टः मेरेक्षणैनिजैः ॥ १६१ ॥ इदं सर्वास्त्रसर्वखं जीवितव्यमिदं च ते । तद्गतं पश्यतोऽप्यद्य शिरोरत्नमहेरिव ॥ १६२॥ कस्य तिष्ठस्यवष्टम्भाद् गच्छ गच्छाधुना ननु । हन्ति खयम्भून परान् समरादपगच्छतः ॥ १६३ ॥ मेरकोऽप्यनवीन्मुश्च पश्यौजोऽस्य स्वमप्यहो! नाभूत् पस्युः कलत्रं या सास्यादुपपतेः कथम् ? ॥१६४॥ इत्युक्तः शाङ्गभृच्चक्र भ्रमयित्वा मुमोच तत् । लीलया मौलिकमलं मेरकस्य चकर्त च ॥१६५॥ खयम्भुवश्वोपरिष्टात पुष्पवृष्टिर्दिवोऽपतत् । तथैव पृथिवीपृष्ठे कबन्धो मेरकस्य च ॥१६६ ॥ नृपैश्च मेरकायत्तैः स्वयम्भूः शिश्रिये क्षणात् । न्ययात्रा हि सैवाभूत् परमन्यतरो वरः ॥१६७ ॥ मङ्गलग्रहम् । २ 'खडताला' इति भाषायाम् । ३ स्यन्दनो रथः। ४ क्षीबो मत्तः। ५ वत्स! आश्वसिहि आश्वसिहि इति उच्चरन्-इति विभागः। ६भालम्बनात् । जारस्य । ६ 'धड' इति भाषायाम् । ९ जन्यम्-युद्धम् ।। ॥४०२॥ Jan Education inte For Private & Personal use only Coll Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | विमलनाथजिनस्य कैवल्यं समवसरणं च SANSARASASURAL ततश्च साधयामास भरतार्ध सदक्षिणम् । दधद् दक्षिणपाणिस्थं चक्रं दिक्चक्रजित्वरम् ॥ १६८॥ दिग्यात्राया न्यवर्तिष्ट स्वयम्भूर्भूर्जयश्रियः । भरतार्धश्रिया स्वैरं रममाणो नवोढया ॥ १६९ ॥ गच्छन् मार्गे शार्ङ्गपाणिर्मगधेषु ददर्श च । शिलां कोटिनरोत्पाव्यां कपालपुटवद् भुवः ॥१७० ॥ वामेनोत्पाटयामास बाहुना तामधोक्षजः । लीलयाऽपि वसुमतीमधिभूः फणिनामिव ॥ १७१ ॥ शिलां तां न्यस्य तत्रैव दोष्मतां चित्रमादधत् । ययौ दिनैः कतिपयैः पुरीं द्वारवती हरिः॥१७२ ॥ तत्र रुद्रेण भद्रेण पार्थिवैरपरैरपि । स्वयम्भुवोऽर्धचक्रित्वाभिषेकोऽकारि सोत्सवैः ॥ १७३ ॥ ___इतच वर्षद्वितयं छमस्थो विमलप्रभुः। विहृत्य दीक्षोपवनं सहस्राम्रवणं ययौ ॥ १७४ ॥ तत्र जम्बूतले भर्तुरपूर्वकरणक्रमात् । क्षपकश्रेण्यारूढस्य घातिकर्माणि तुत्रुटुः ॥ १७५ ॥ षष्ठयां सितायां पौषस्योत्तरभद्रपदासु मे । उदभूत् केवलज्ञानं पष्ठेन तपसा प्रभोः ॥ १७६ ॥ दिव्ये समवसरणे विदधे देशनां विभुः । गणेशाः सप्तपश्चाशचाभूवन् मन्दरादयः ॥ १७७ ।। तत्तीर्थेऽभूत् षण्मुखाख्यो यक्षः शिक्षिरथः सितः। दक्षिणैः फलचकेषुखड्गपाशाक्षसूत्रिभिः॥१७८॥ वामैः सनकुलचक्रकोदण्डफलकांशुकैः । अभीदेन च दोर्दण्डैर्भर्तुः शासनदेवता ॥१७९ ॥ तथोत्पन्ना विदिताख्या हरितालसमद्युतिः । पद्मारूढा बाणपाशधरदक्षिणपाणिका ॥१८॥ कोदण्डनागसंयुक्तदक्षिणेतरवाहुका । श्रीमद्विमलनाथस्य जज्ञे शासनदेवता ॥ १८१॥ ताभ्याममुक्तसांनिध्यस्ततः स्थानाजगद्गुरुः । विहरन्नन्यदा द्वारवत्याः परिसरं ययौ ॥ १८२ ॥ १ स्थान जयलक्ष्म्याः । २ इन्द्रः। ३ स्वामी। *श्च मासद्वि का०॥ मयूरवाहनः। ५ अभयदून । Jain Education in क For Private & Personal use only . Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये SAMROCK *** चतुर्थ पर्व तृतीयः सर्गः |श्रीविमलनाथजिनचरितम्। ॥४०३॥ ARNOSS064646 शक्राद्यैस्तत्र समवसरणं विदधेऽमरैः । विंशत्यग्रधनुःसप्तशतोच्चाशोकपादपम् ॥ १८३॥ । तत्र प्रविश्य प्रागद्वारा भगवांश्चैत्यपादपम् । त्रिः प्रदक्षिणयामास पालयन्नाहतीं स्थितिम् ॥ १८४॥ 'तीर्थाय नमः'इत्युक्त्वा पूर्वाशाभिमुखं ततः । सिंहासनमलञ्चले धर्मचक्री त्रयोदशः ॥१८५॥ यथाद्वारं प्रविविशुर्यथास्थानं स्थितिं व्यधुः । साधवोऽथार्यिका देवा देव्यो नार्यो नरा अपि ॥१८६॥ तदा च द्वारकां गत्वा त्वरितं राजपूरुषाः । स्वामिनं समवसृतं शशंसुः शाङ्गपाणये ॥ १८७॥ खाम्यागमनशंसिभ्यः खयम्भूः पारितोषिके । सार्धा द्वादश रूप्यस्य कोटीः प्रमुदितो ददौ ॥ १८८॥ स्वयम्भूः सह भद्रेण भद्राणामेककारणम् । शीघ्रं समवसरणं जगाम प्रविवेश च ॥ १८९॥ तत्र प्रदक्षिणीकृत्य नत्वा च परमेश्वरम् । अनुशकं सभद्रोऽपि स्वयम्भूः समुपाविशत् ॥ १९॥ नत्वा जिनेन्द्रं भूयोऽपि रचिताञ्जलिसंपुटाः । एवमारेभिरे स्तोतुं वज्रभृच्छामृद्धलाः ॥ १९१ ॥ देव! त्वदर्शनेनाद्य दुःखं सांसारिकं ययौं । शरीरिणां भुवः पङ्क इव वार्षिकवारिणा ॥ १९२ ॥ पुण्योऽयं दिवसः स्वामिस्त्वदर्शननिवन्धनम् । यत्रामलीभविष्यामो दुःकर्ममलिना वयम् ॥ १९३ ॥ अङ्गावयवराजत्वं प्रत्यपद्यन्त नो दृशः । यास्त्वदर्शनमासाद्य सद्योऽधुः शुद्धिमात्मनः ॥ १९४ ॥ पूतास्त्वत्पादसंपर्काद् भरतक्षेत्रभूमयः। अपि ताः पापनाशाय किं पुनस्तव दर्शनम् ॥ १९५॥ मिथ्यादृशामुलूकानामिव त्वदर्शनं प्रभो! । केवलालोकमार्तण्डतिरोभावनिवन्धनम् ।। १९६ ॥ त्वद्दर्शनसुधापानसमुच्छसितवर्मणाम् । अद्य देव! त्रुटिष्यन्ति कर्मबन्धाः शरीरिणाम् ॥ १९७ ॥ * ण्योदयं दिन वा संवृ.॥ १ वर्म-वपुः । USASHOSHIARIAUS ॥४०३॥ Jan Education in For Private & Personal use only Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | श्रीविमक जिनस धर्मदेशना। ROSSAROSTEOSASTOCHASER विवेकदर्पणोन्मार्टिसमुत्पादनकर्मठाः । कल्याणतरुबीजाभाः पान्तु त्वत्पादपांसवः ॥१९८॥ स्वामिन् ! पीयूषगण्डूष इव ते देशनावचः। संसारमरुमनानामस्तु नः स्वास्थ्यहेतवे ॥ १९९॥ स्तुत्वेति सत्सु तूष्णीकेष्विन्द्रोपेन्द्रबलेषु तु । विमलां विमलखामी प्रारेमे धर्मदेशनाम् ॥२०॥ अकामनिर्जरारूपात पुण्याजन्तोः प्रजायते । स्थावरत्वात् त्रसत्वं वा तिर्यक्त्वं वा कथश्चन ॥२०१॥ मानुष्यमार्यदेशश्च जातिः सर्वाक्षपाटवम् । आयुश्च प्राप्यते तत्र कथञ्चित् कर्मलाघवात् ॥ २०२॥ प्राप्तेषु पुण्यतः श्रद्धा-कथक-श्रवणेष्वपि । तत्त्वनिश्चयरूपं तद् बोधिरत्नं सुदुर्लभम् ॥ २०३॥ राज्यं वा चक्रभृत्वं वा शक्रत्वं वा न दुर्लभम् । यथा जिनप्रवचने बोधिरत्यन्तदुर्लभा । २०४॥ सर्वे भावाः सर्वजीवैः प्राप्तपूर्वा अनन्तशः । बोधिर्न जातुचित् प्राप्ता भवभ्रमणदर्शनात् ॥ २०५॥ पुद्गलानां परावर्तेष्वनन्तेषु गतेष्विह । उपाधै पुद्गलावर्ते शेषे सर्वशरीरिणाम् ॥ २०६॥ सर्वेषां कर्मणां शेषेऽन्तःकोटीकोट्यवस्थितौ । ग्रन्थिभेदात् कश्चिदेव लभते बोधिमुत्तमाम् ॥ २०७॥ यथाप्रवृत्तिकरणादन्ये तु ग्रन्थिसीमनि । प्राप्ता अप्यवसीदन्ति भ्रमन्ति च पुनर्भवम् ॥ २०८॥ कुशास्त्रश्रवणं सङ्गो मिथ्याग्भिः कुवासना । प्रमादशीलता चेति स्युर्बोधिरिपन्थिनः ॥ २०९॥ चारित्रस्यापि संप्राप्तिर्दुर्लभा यद्यपीरिता । तथापि बोधिप्राप्तौ सा सफला निष्फलाऽन्यथा ॥ २१०॥ अभव्या अपि चारित्रं प्राप्य अवेयकावधि । उत्पद्यन्ते विना बोधि प्राप्नुवन्ति न निवृतिम् ॥ २११॥ असंप्राप्ते बोधिरने चक्रवर्त्यपि रकवत । संप्राप्तबोधिरत्नस्तु रङ्कोऽपि स्यात् ततोऽधिकः ॥ २१२॥ गण्डूषः-'गुंटडो' इति भाषायाम् । २ सर्वेन्द्रियपटुता। परिपन्थी-शत्रुः। मोक्षम् । त्रिषष्टि. ६९ Jain Education in For Private & Personal use only , Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुथ पर्व तृतीयः विवष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये सर्गः श्रीविमलनाथजिनचरितम् । ॥४०४॥ संप्राप्तबोधयो जीवा न रज्यन्ते भवे क्वचित् । निर्ममत्वा भजन्त्येकं मुक्तिमार्गमनर्गलाः ॥ २१३॥ श्रुत्वैवं देशनां भर्तुः प्रायेण प्राब्रजञ्जनाः। मेजे स्वयम्भूः सम्यक्त्वं श्रावकत्वं च सीरभृत् ॥ २१४॥ पूर्णायामादिपौरुष्यां व्यस्राक्षीद् देशनां प्रभुः। ततस्तथैव तां चक्रे मन्दरो गणभृद्वरः ॥ २१५॥ पूर्णद्वितीयपौरुष्यां देशनां सोऽप्यपारयत् । खं खं स्थानं ययुश्चेन्द्रोपेन्द्र-भद्रादयोऽपि हि ॥ २१६ ॥ ततः स्थानात् पुर-ग्रामा-ऽऽकर-द्रोणमुखादिषु । व्यहरद् विमलखामी लोकानुग्रहकाम्यया ॥ २१७ ॥ अष्टषष्टिः सहस्राणि श्रमणानां महात्मनाम् । आर्यिकाणां लक्षमेकं शतैरष्टभिरन्वितम् ॥ २१८ ।। चतुर्दशपूर्वभृतामेकादश शतानि तु । अवधिज्ञानिनामष्टचत्वारिंशच्छतानि तु ॥ २१९ ॥ शतानि पञ्चपञ्चाशन्मनःपर्ययधारिणाम् । तावन्त्येव तु शतानि केवलज्ञानिनामपि ॥ २२० । जातवैक्रियलब्धीनां शतानि नवतिः पुनः। संजातवादलब्धीनां त्रिसहस्री द्विशत्यपि ॥ २२१॥ श्रावकाणामुमे लक्षे सहस्राष्टकसंयुते । श्राविकाणां चतुर्लक्षी चतुस्त्रिंशत्सहस्रयुक् ॥ २२२ ॥ द्विवर्षोनां पञ्चदशाब्दलक्षीं केवलात् परम् । महीं विहरमाणस्य परिवारोऽभवत् प्रभोः ॥ २२३ ॥ ॥षइभिः कुलकम् ॥ ज्ञात्वा निर्वाणमासन्न संमेताद्रिं ययुः प्रभुः । षभिः साधुसहस्रैश्च सहानशनमाददे ॥ २२४॥ मासं स्थित्वा शुचिकृष्णसप्तम्यां पौष्णगे विधौ । मुनिभिस्तैः समं खामी जगाम पदमव्ययम् ॥२२५॥ * "प्यां विससर्ज दे संवृ० टि०॥ 1°नि च । का० ॥ * द्विमासोनां संवृ०॥ युः विभुः । का० ॥ शुचिः आषाढः। श्रीविमलजिनस्व परिवारादि। श्राविकाणां चालव्धीनां त्रिसामाननामपि ॥ २२ ॥४०४॥ Jain Education in For Private & Personal use only + . Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intern निर्वाणमहिमा भर्तुः संयतानां च सर्वतः । उपेत्य विदधे तत्र पुरुहूतादिभिः सुरैः ॥ २२६ ॥ कौमारे पञ्चदशाब्दलक्षास्त्रिंशदिलाऽवने । व्रते पञ्चदशेत्यायुः प्रभोः षष्ट्यब्दलक्ष्यभूत् ॥ २२७ ॥ श्रीवासुपूज्य निर्वाणाद् विमलखामिनिर्वृतिः । सागराणां त्रिंशति तु व्यतीतायामजायत ।। २२८ ॥ स्वयम्भूरपि चैश्वर्यमदेन प्रभविष्णुना । परिलुप्तविवेकः सन् क्रूरकर्माकरोन्न किम् ॥ २२९ ॥ षष्टिं वत्सरलक्षाणि संपूर्यायुर्निजं हरिः । तैस्तैः खकर्मभिः षष्ठीं जगाम नरकावनीम् ॥ २३० ॥ स्वयम्भुवः कुमारत्वे द्वादशाब्दसहस्यभूत् । सैव मण्डलिकत्वे च नवत्यब्दी तु दिग्जये ॥ २३१ ॥ राज्ये त्वेकोनषष्ट्यब्दलक्षाण्यथ सहस्रकाः । पञ्चसप्ततिरधिका दशाग्रैर्नवभिः शतैः ॥ २३२ ॥ भद्रोऽपि सोदरविपत्तिशुचा विरक्त आचव्रतोऽथ मुनिचन्द्रमुनेः समीपे । षष्टिं च पश्च च निजायुषि वर्षलक्षान् नीत्वा विपद्य च पदं परमं प्रपेदे ॥ २३३ ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थे पर्वणि श्रीविमलनाथ - खयम्भू-भद्र-मेरकचरितवर्णनो नाम तृतीयः सर्गः ॥ ३ ॥ १ पृथ्वीपालने । श्रीविमलजिनस्य निर्वाणम् । . Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थः सर्गः। श्रीअनन्तनाथचरितम् । 5 चतुर्थ पर्व चतुर्थः सर्गः श्रीअनन्तनाथजिनचरितम् । ॥४०५|| पायादनन्तस्वामी वः सिद्धानन्तचतुष्टयः । इहापि देहिनां मोक्ष इवानन्तसुखप्रदः॥१॥ श्रीमतोऽनन्तनाथस्य चरित्रमिदमुच्यते । यानपात्रमिवापारसंसाराम्भोधितारणे ॥२॥ धातकीखण्डद्वीपे प्राग्विदेहे विजये पुनः । ऐरावताख्येऽरिष्टेति नगर्यस्ति गरीयसी ॥३॥ राजा पद्मरथो नाम तस्यामासीन्महारथः। द्विषद्रथिरथव्यहँस्खलनैकमहागिरिः॥४॥ स जित्वापि द्विषोऽशेषान् साधयित्वाखिलामिलाम् । न तृणायाप्यमंस्तैनां मोक्षश्रीसाधनोत्सुकः॥५॥ विहारलीलामुद्याने जलक्रीडां च वापीषु । गन्धर्वाणां च मधुरसंगीतकविलोकनम् ॥ ६॥ वारणाऽश्वादियानानां गतिवैचित्र्यदर्शनम् । वसन्तकौमुदीप्रायक्रीडोत्सवनिरीक्षणम् ॥ ७॥ नाटकप्रभृतिदशरूपकाभिनयोत्सवम् । खर्विमानप्रतिमानवासौकोवसनं तथा ॥८॥ विचित्रवस्त्रनेपथ्याङ्गरागाकल्पकल्पनम् । न रागात् सोऽन्वभूव किन्तु लोकयात्रानुवर्तनात् ॥९॥ ॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥ *हतुलनै संवृ०॥ १ प्रतिमानम्-प्रतिबिम्बम्-सादृश्यम् । २ ओक:-हर्म्यम्-गृहम् । ३ माकल्पकरुपनम्-भूषणपरिधानम्। ४ लोकवृत्त्यनुसरणात् । ॥४०५॥ Jain Education Internet For Private & Personal use only Pl Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कश्चिदप्यतिवाद्येवं कालं सोऽथ विवेकवान् । चित्तरक्षगुरोः पादमूले दीक्षामुपाददे ॥१०॥ अर्हद्भक्त्यादिभिः स्थानैस्तीर्थकृनाम कर्म सः । बद्धा मृत्वा प्राणतस्य पुष्पोत्तरे सुरोऽभवत् ॥११॥ ___ इतश्च जम्बूद्वीपेऽसिन् भरतार्धेत्र दक्षिणे । इक्ष्वाकुवंशगिरिभूरयोध्येत्यस्ति पूर्वरा ॥ १२॥ विमलखच्छपयसा परिखावलयेन सा । विराजते रतस्रस्तवेणीव वरवर्णिनी ॥१३॥ सुनिष्क्रमप्रवेशानि सत्संधीन्यर्थवन्ति च । सुभूमिकानि वेश्मानि नाटकानीव तत्र च ॥१४॥ तस्यां गृहोर्श्वभूमीषु काश्चन्यो भान्ति जालिकाः । प्रत्येकं गृहलक्ष्मीभिरांबद्धा मुकुटा इव ॥१५॥ तत्र चैत्येष्वर्हदचोंपुष्पगन्धवहोऽनिलः । तापनाशाय लोकानां भवत्यमृतनस्थवत् ॥ १६ ॥ तस्थामासीत् सिंह इव विक्रमेणातिशायिना । अग्रेसरो नृसिंहानां सिंहसेनो महीपतिः॥१७॥ उपचारं प्रयच्छन्तः स्वस्य कल्याणकाम्यया । तस्याधिदैवतस्येव भक्या भूमिभुजोऽभवन् ॥१८॥ अग्रणीगुणिनां तैस्तैः सोऽवदातैर्निजैर्गुणैः । जगदापीणयामास करैरिव निशाकरः ॥ १९ ॥ काममर्थ च धर्म च स दधौ स्वस्खमात्रया । सेवाऽऽगतान् राजपुत्रानिवौचित्यविचक्षणः ॥२०॥ सधर्मचारिणी तस्याभवद् धर्मस्य वासभूः । सुयशा नाम यशसा खशीलेनैव शालिनी ॥२१॥ * किञ्चि संवृ० का०॥ १ इक्ष्वाकुवंश एव गिरिस्तस्य भूः स्थानम् अथवा इक्ष्वाकुवंशस्य गिरिभूः गका पवित्रत्वात् । २ रतिप्रसङ्गे विशीर्णवेणीव । + स्तवनेव मु.॥ ३ उत्तमरमणी। सुष्टु गमनागमनद्वाराणि । ५ सुष्टुपर्वाणि, अन्यत्र नाटकस्वाङ्गविशेषः सन्धिः। ६साधनवन्ति। 'रायुक्ता, मु. 'रामुक्ता का०॥ इन्धहरोऽनि मु.॥. नस्यम्घ्राणम् । ८ उपायनम् । 'न्त आत्मक° मु०॥ ९मात्रा-औचित्यम् । Jain Education . Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये । चतुर्थः सर्गः श्रीअनन्तनाथजिनचरितम्। ॥४०६॥ EUROSAISISSAGES अम्बा-जनक-श्वशुरान्ववायानां बभूव सा । मन्दाकिनीव जगतां त्रयाणामेकपावनी ॥२२॥ वक्रस्येन्दुः प्रतिनिधिदृशोरनुजमम्बुजम् । कण्ठस्य कम्बुरालेख्यं दोष्णोविसलता सखी ॥२३॥ कुम्भः सनाभिः स्तनयो मेविरमात्मभृः । प्रतिबिम्बं नितम्बस्य कूलिनीपुलिनावनिः॥२४॥ उर्वोरवरजा रम्भा पादयोः पद्ममन्तिषद् । तस्याः सर्वाङ्गरम्यायाः किं किं न ह्यतिशाय्यभूत् ॥ २५॥ ॥त्रिभिर्विशेषकम् ॥ इतश्च प्राणते कल्पे जीवः पद्मरथस्य सः। प्रकृष्टस्थितिकं वायुः सुखमनोऽत्यवाहयत् ॥ २६॥ श्रावणासितसप्तम्यां रेवतीस्थे निशाकरे । ततश्श्युत्वा सुयशसो देव्याः कुक्षाववातरत् ॥ २७ ॥ ददर्श च महास्वमान् कुञ्जरादींश्चतुर्दश । सुखसुप्ता निशाशेषे देव्यर्हजन्मसूचकान् ॥ २८॥ राधकृष्णत्रयोदश्यां पौष्णे भे श्येनलाञ्छनम् । सुवर्णवर्ण सुयशाः स्वामिनी सुषुवे सुतम् ॥ २९॥ अथ ऊर्ध्वं रुचकेभ्योऽभ्येत्य सद्योऽप्यथाहतः । षट्पञ्चाशद्दिकुमार्यः सूतिकर्माणि चक्रिरे ॥३०॥ सौधर्मकल्पाधिपतिस्तत्रोपेत्य प्रणम्य च । प्रभुमादाय विर्यता मेरुशैलशिरो ययौ ॥३१॥ अतिपाण्डुकम्बलायां शिलायां तत्र वासवः । सिंहासन उपाविक्षदुत्सङ्गारोपितप्रभुः ॥ ३२ ॥ इन्द्रास्त्रिषष्टिरभ्येत्याच्युतप्रभृतयस्ततः । क्रमेणास्नपयन् नाथमाहृतैस्तीर्थवारिभिः॥ ३३॥ ईशानाधिपतेरङ्के महासारं न्यधात् प्रभुम् । शकस्तद्भारवहनश्रमेणेव गरीयसा ॥ ३४॥ १ अन्ववायः-वंशः । २ शङ्खस्तस्याः कण्ठस्य चित्रमासीत् । ३ बिसलता कमलनाललता बाहोः सखीभूता आसीत् । ४ गुहा नामेः पुत्ररूपाऽभूत् । ५ नद्याः सिकतावनिः । ६ पनं पादयोरन्तिषद् शिष्यः। राधा-वैशाखः। ८ आकाशमार्गेण । श्रीअनन्तजिनजन्म । ॥४०६॥ Jain Education in a l For Private & Personal use only , 17 Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HIROCHAKAMSUPROGRACK विकृतस्फाटिकमहाचतुर्वृषविषाणजैः । वारिभिः स्नपयामास वासवः परमेश्वरम् ॥ ३५॥ वाससा देवदृष्येण प्रमृज्येशं विलिप्य च । अर्चित्वाऽऽरात्रिकं कृत्वा सौधर्मेन्द्रोऽस्तवीदिति ॥ ३६॥ तवाग्रे भूमिलुठनैर्ये हि भूरेणुनाञ्चिताः । गोशीर्षचन्दनेनाङ्गरागस्तेषां न दुर्लभः ॥ ३७॥ भक्त्यैकमपि यैः पुष्पं त्वन्मूर्धन्यधिरोप्यते । ते छत्राशून्यशिरसः संचरन्ति निरन्तरम् ॥ ३८॥ अङ्गरागस्तवाङ्गे यैरेकदापि विधीयते । देवदष्यांशुकधरास्ते भवन्ति न संशयः ॥ ३९ ॥ निधीयते भवत्कण्ठे पुष्पदामैकदापि यैः । लुठन्ति तेषां कण्ठेषु दोलताः सुरयोषिताम् ॥ ४०॥ ये वर्णयन्त्येकदापि त्वद्गुणानतिनिर्मलान् । ते गीयन्ते सुरस्त्रीभिरपि लोकातिशायिनः ॥४१॥ ये चारुचारीचतुरं भक्त्या वल्गन्ति ते पुरः । ऐरावणकरिस्कन्धासनं तेषां न दुर्लभम् ॥ ४२ ॥ ध्यायन्ति परमात्मानं ये त्वां देव! दिवानिशम् । त्वादृशीभूय ते लोके ध्येयतां यान्ति सर्वदा ॥४३॥ स्नात्राङ्गरागनेपथ्याकल्पप्रभृतिकल्पने । अधित्वन्मेऽधिकारोऽस्तु सदाऽपि त्वत्प्रसादतः॥४४॥ इति स्तुत्वा जिनपतिं गृहीत्वा च दिवस्पतिः । गत्वा च सुयशोदेव्याः पार्श्वेऽमुञ्चद् यथास्थिति ॥४५॥ नन्दीश्वरे शाश्वताहत्प्रतिमाऽष्टाहिकोत्सवम् । कृत्वा शक्रोऽपरेऽपीन्द्राः खं स्वं स्थानं पुनर्ययुः॥४६॥ ___ गर्भस्थेऽसिञ्जितं पित्राऽनन्तं परवलं यतः । ततश्च चक्रेऽनन्तजिदित्याख्या परमेशितुः॥४७॥ योगी ध्यानामृतमिव निजाङ्गुष्ठात् सुधां पिबन् । अस्तन्यपोऽप्यवर्धिष्ट क्रमेण परमेश्वरः॥४८॥ १ विषाणम्-शृङ्गम् । * °सवा दे का० ॥ २ छत्रयुक्तमस्तकाः। ३ चाहा चारी नृत्ये गमनप्रकारस्तया चतुरं यथा स्यात् तथा । ४ नृत्यन्ति । ५ त्वयि । ६ शत्रुसैन्यम् । Jain Education Intel For Private & Personal use only Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थ पर्व चतुर्थः सर्गः ॥४०७॥ श्रीअनन्तनाथजिनचरितम् । शैशवं व्यतिचक्राम क्रमादिन्दुरिव प्रभुः । पञ्चाशद्धनुरुत्तुङ्गः प्रतिपेदे च यौवनम् ॥ ४९ ॥ निश्चिन्वानो हेयबुद्ध्या मार्गस्थित इवाश्रयम् । पित्राज्ञयाऽनन्तनाथश्चक्रे दारपरिग्रहम् ॥५०॥ अर्धाष्टमेषु लक्षेषु गतेषु शरदामथ । स्वामी पित्रनुरोधेन राज्यभारमुपाददे ॥५१॥ वर्षलक्षाः पञ्चदश पालयित्वा वसुन्धराम् । दधार चिन्तां मनसि दीक्षायै सिंहसेनभूः ॥५२॥ ब्रह्मलोकात् सुरा लौकान्तिकाः सारस्वतादयः। तीर्थ प्रवर्तय स्वामिन्नित्यूचुः परमेश्वरम् ॥५३॥ जृम्भकैजृम्भभिच्छिष्टकुबेरप्रेरितैः सुरैः। पूर्यमाणेन वित्तेन वर्षदानं ददौ विभुः॥५४॥ तस्य दानस्य पर्यन्ते भवपर्यन्तकामिनः । दीक्षाभिषेकं विदधुः सुरा-ऽसुर-नृपाः प्रभोः॥५५॥ आमुक्तचित्रनेपथ्यवस्वमाल्यो जगत्पतिः। ततः सागरदत्ताख्यामारोहच्छिबिकां वराम् ॥ ५६ ।। शक्रादिभिर्धतच्छत्रचामरव्यजनः प्रभुः । तया शिविकयोद्यानं सहस्राम्रवणं ययौ ॥ ५७॥ दोलौऽऽन्दोलनसंसक्तनागरस्त्रीजनैर्मुहुः। तदानीं गच्छदागच्छत्खेचरीभिरिवाकुलम् ॥ ५८॥ प्रत्यग्रपल्लवातानविठुलभृङ्गकुन्तलैः । अशोकैर्मधुना मत्तैरिव घूर्णद्भिरोचितम् ॥ ५९ ॥ क्रीडाश्रान्तपुरस्त्रीणां श्रमसर्वस्वहारिभिः । चूतैरुत्पल्लवै रम्यं तालवृन्तधरैरिव ॥ ६॥ कर्णिकारैः कर्णिकाभिरिवोद्यन्माधवश्रियः । रुचिरं काश्चनारैश्च काञ्चनैस्तिलकैरिव ॥ ६१॥ निश्चयं कुर्वाणः स्यागबुद्ध्या । २ जृम्भभूच्छिष्टः जृम्भभृद् इन्द्रस्तेन शिष्टः आज्ञप्तः । ३ दोला-'हिंडोळो' इति भाषायाम् । ४ विलुलन्तो व्याप्ता ये भ्रमरास्ते एव कुन्तलास्तैः। ५ व्याप्तम् । ६ कर्णिकारैः, काञ्चनारैः-तबामकपुष्पविशेषैः । ॥४०७॥ Jain Education Internet For Private & Personal use only A maw.jainelibrary.org. Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअनन्तजिनप्रवज्यादि। उदीर्णखागतमिव वनं तदैवकोकिलम् । प्रविवेश जगन्नाथो जगन्मन इवोन्मनाः ॥ ६२ ॥ ॥पञ्चभि: कुलकम् ॥ ततः सागरदत्तातो दत्तहस्तो विडोजसा । उत्तीर्योज्झाञ्चकारालङ्कारप्रभृतिकं प्रभुः॥६३॥ राधकृष्णचतुर्दश्यां रेवत्यामपरेऽहनि । षष्ठेन प्रात्रजत स्वामी सहस्रेण समं नृपैः ॥ ६४॥ वन्दित्वा स्वामिनमथ पुरुहूतादयोऽखिलाः । खं स्वं स्थानं ययुः सद्यः कृतकार्या इवामराः॥६५॥ ___ द्वितीयेऽसि वर्धमानपुरे विजयवेश्मनि । पारणं परमान्नेन चकारार्हश्चतुर्दशः॥६६॥ तत्र चक्रे सुधान्धोभिर्वसुधारादि पञ्चकम् । रत्नपीठं तु विजयेनाविन्यासपदे प्रभोः॥६७ ॥ ततः स्थानादपर्छमा छमस्थः परमेश्वरः । प्रावर्तिष्ट विहाराय सहमानः परीषहान् ॥ ६८॥ इतश्च जम्बूद्वीपेऽस्मिन् प्राग्विदेहेषु सुन्दरी । पुरी नन्दपुरीत्यस्ति परमानन्दजन्मभूः ॥ ६९ ॥ नृपो महाबलस्तत्र दत्तशोकोऽरियोषिताम् । अभूदशोकशाखीव स्वकुलोद्यानभूषणम् ॥ ७॥ संसारवासवैराग्यं स दधार महामनाः । विदग्नागर इव ग्रामवासविरक्तताम् ॥ ७१॥ स वृषभर्षिपादानमूले गत्वोदमूलयत् । पञ्चभिर्मुष्टिभिः केशांश्चरित्रं प्रत्यपादि च ॥७२॥ उद्यानमिव चारित्रं पालयित्वा महाफलम् । स विपद्य समुत्पेदे सहस्रारेऽमरो वरः ॥७३॥ इतोऽस्य जम्बूद्वीपस्य क्षेत्रे भरतनामनि । कौशाम्बीत्यस्ति नगरी पुरन्दरपुरोपमा ॥७४॥ कोकिलाभिरवकीर्णम् । २ उत्सुकः। ३ इन्द्रेण । ४ उपवासद्वयेन । ५ देवैः । ६ निष्कपट:-ऋजुस्वभाव इत्यर्थः । 18| यथा चतुरनागरिकः ग्रामीणतायाः विरज्यते तथैवोदारचेताः प्रभुः संसारोद्विमः संजातः । ASUSTAIGIASILOR Jain Education a l For Private & Personal use only . les Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरिते महाकाव्ये ॥४०८ ॥ Jain Education Inte समुद्रदत्त इत्यासीद् दत्तमुद्रोऽरितेजसाम् । समुद्र इव गम्भीरस्तस्यां वसुमतीपतिः ॥ ७५ ॥ पत्नी तस्याभवन्नन्दा नयनानन्दचन्द्रिका । रूपेण रूपाहङ्कारहरणी सुरयोषिताम् ॥ ७६ ॥ नृपस्य तस्य मलयपवमानो मधोरिव । मित्रं मलयभूनाथोऽभ्याययौ चण्डशासनः ॥ ७७ ॥ समुद्रदत्तस्तं प्रीत्या महत्या निजसद्मनि । सादरः सोदरमिवाभोजयत् सपरिच्छदम् ॥ ७८ ॥ मृगाक्षीं तत्र सोऽद्राक्षीन्नन्दामानन्दिनीं दृशोः । पत्नीं समुद्रदत्तस्य समुद्रस्येव जाह्नवीम् ॥ ७९ ॥ स्तब्धाङ्गः कीलित इव स्मरास्त्रैरतिदुःसहैः । जातवेदो विप्रलम्भानलधर्मादिवोल्वणात् ॥ ८० ॥ सर्वाङ्गमङ्कुरितमेव पुलकेन च । भिन्नखरो ग्रहग्रस्त इव तस्या वपुर्गुणैः ॥ ८१ ॥ प्रकम्पमान सर्वाङ्गस्तदा श्लेष इवोत्सुकः । शुचेव वैवर्ण्यधरस्तेद संप्राप्तिजन्मया ॥ ८२ ॥ वाष्पेण लुप्तनयनः कामान्ध्यमिव धारयन् । तदप्राप्त्या मृत्युमिवानेतुं प्रलयमाश्रयन् ॥ ८३ ॥ नन्दामालोक्य तत्कालं सर्वाङ्गोपाङ्गसुन्दरीम् । कां कामवस्थां न प्राप मान्मथीं चण्डशासनः ॥ ८४ ॥ ॥ पञ्चभिः कुलकम् । समुद्रदत्तदत्तौर्कस्युवासाथ निशास्खपि । लेभे न निद्रां कामार्तो रोगार्त इव सोऽस्तधीः ॥ ८५ ॥ *ग्थो (थः) प्रययौ सं० ॥ १ आगतः । २ विप्रलम्भो वियोगः, स एवानलोऽग्निस्तेन धर्मः उष्णस्तस्मात् । ३ अङ्कुरित:पुलकितः । ४ भूताविष्टः । ५ तस्या नन्दाया अलाभाजातेन शोकेन पाण्डुतां दधदिव । ६ तस्यां नन्दायामेव लयं तन्मयतां धारयन् कामार्त्तस्य प्रकृतिकृपणत्वाद् नन्दामन्तरेण सर्वमपि नष्टुमिच्छन् इत्यर्थः । ७ कामसंबन्धिनीम् । ८ ओको गृहम् । उवास 'वस्' धातोः परोक्षायामन्यपुरुषैकवचनम् । चतुर्थ पर्व चतुर्थः सर्गः श्रीअनन्त नाथजिन चरितम् । ||४०८ ॥ . Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तांस्ताननुदिनं नन्दाप्राप्युपायान् विचिन्तयन् । कश्चित् कालं व्यतीयाय मित्रच्याजेन स द्विषन् ॥८६॥ समुद्रदत्ते विश्वस्ते स नन्दामपरेऽहनि । हृत्वा जगाम शकुनिरिव रत्नावली द्रुतम् ॥ ८७ ॥ रक्षसेव हृतां तेन बलिना छलिना च ताम् । प्रत्याहाँ सोऽसमर्थो वैराग्यं परमं ययौ ॥ ८८॥ हृदयस्थेन शल्येनेवापमानेन तेन सः । दूयमानोऽग्रहीद् दीक्षां श्रेयांसमुनिसंनिधौ ॥ ८९॥ अत्युग्रं स तपस्तेपे तपसोऽस्य फलेन तु । नन्दाहर्तुर्वधाय स्यां निदानमिति चाकरोत ॥ ९० ॥ अमुना स निदानेन मितीकृत्य तपःफलम् । विपद्य कालयोगेन सहस्रारेऽभवत् सुरः॥९१॥ मृत्वा कालक्रमाच्चण्डशासनोऽपि महीपतिः। भवाब्यावर्तभृतासु बभ्रामानेकयोनिषु ॥ ९२॥ स चात्र भरते पृथ्वीपुरे विलासभूपतेः । गुणवत्यां कलत्रेऽभून्मधुरित्याख्यया सुतः॥ ९३ ॥ स त्रिंशद्वर्षलक्षायुस्तापिच्छकुसुमच्छविः । पञ्चाशद्धनुरुत्तुङ्गो जङ्गमोऽद्रिरिवावभौ ॥ ९४ ॥ शुशुमे स महाबाहुर्द्विशुण्ड इव दिग्गजः । पृथुलोरस्तटश्रीकः सानुमानिव जङ्गमः ॥ ९५ ।। लीलयाऽपि महास्थाम्नस्तस्य चमतो मही । भारासहा ननामेव तृणपूर्ण इवावटः॥९६॥ शस्त्राशस्त्रिकथां श्रुत्वा पूर्वेषां पृथिवीभुजाम् । स शुशोच वदोर्वीय प्रतिमल्लमवाप्नुवन् ॥ ९७ ॥ निजंगाम। * “पराह संवृ०॥ २ यथानिमित्तमुद्दिश्य तथासंकल्पकरणम् , भाषायाम् 'नियाणु'। ३ अमितं तपसः Kफलम् , परं तन्मितं परिमाणयुक्तं लघु कृत्वा । ४ आवतः परिवर्तनम् । ५ तापिच्छः-तापिन्छ: “तापिन्छस्तु तमालः स्यात्" [[अभि०चि० का० ४ श्लो. २१२]। ६ पर्वतः। ७ महाबलवतः। ८ गर्ता । Jain Education in For Private & Personal use only Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थ पर्व चतुर्थः सर्गः ॥४०९॥ |श्रीअनन्तनाथजिनचरितम् । जित्वा भरतवर्षाधं त्रिखण्डं ग्रामलीलया । स एवमसमस्थामा नामेन्दो खमलीलिखत् ॥ ९८॥ चक्राक्रान्तद्विपक्रः शक्रतुल्यश्च विक्रमातं । अभूत प्रत्यर्धचक्री स चतुर्थः पुरुषायमा ॥९९॥ अभूदुत्कटदो कूटकुट्टितारिभटोद्भटः । वैरिश्रीभोगलटभः कैटभः सोदरोऽस्य तु ॥१०॥ __ तदा च द्वारकापुर्या सोमसूर्यसमो गुणैः । सोम इत्याख्यया ख्यातो बभूव पृथिवीपतिः ॥१०॥ तस्याभूतामुमे पन्यो तत्रैका स्निग्धदर्शना । सुदर्शनाऽन्या तु सीता शीतद्युतिसमानना ॥१०२॥ इतश्च स सहस्रारान्महाबलवरः सुरः । च्युत्वा सुदर्शनादेव्या उदरे समांतरत् ॥ १०३ ॥ तदा सुदर्शनादेवी सीरभृजन्मसूचकान् । चतुरो यामिनीशेषे महाखमानुदैवत ॥ १०४ ॥ ततो मासेषु नवसु दिनेष्वर्धाष्टमेषु च । देवी सुदर्शनाऽसूत सुतं सितरुचिप्रभम् ॥ १०५॥ कृतार्थयन्नार्थिवर्गानुत्सवेन महीयसा । तस्य सुप्रभ इत्याख्यां विदधे सोमभूपतिः॥१०६॥ सहस्राराद् दिवश्युत्वा पूर्णायुः सोऽपि कालतः। जीवः समुद्रदत्तस्य सीताकुक्षाववातरत् ॥ १०७ ॥ तदा साऽपि महाखमाञ्च्छाङ्गभृजन्मसूचकान् । सप्त सुप्ता निशाशेषेद्राक्षीत् प्रविशतो मुखे ॥१०८॥ संपूर्ण समये सापि नीलरत्नामलत्विषम् । तनयं जनयामास सर्वलक्षणलक्षितम् ॥१०९॥ शाङ्गपाणेश्चतुर्थस्य तस्याथ दिवसे शुभे । पुरुषोत्तम इत्याख्यां यथार्थामकरोत् पिता ॥११॥ नीलपीताम्बरौ तालतायकेतू महाभुजौ । तावभातां सहचरौ प्रीत्या युग्मभवाविव ॥१११॥ चन्द्रे खं नामालिखत् अर्थात् तस्य चन्द्रलोकपर्यन्ता कीर्तिः प्रासरत् । २ चक्रम्-समूहः। * 'चक्रश संवृ०॥ It'त् । समभूदर्ध संवृ० ॥ ३ अर्यमा-सूर्यः । ४ लटभः-रम्यः; 'लडह' इति देश्यशब्दात् संस्कृतम् । वासरत् । का०॥ ॥४०९॥ Jain Education Internet For Private & Personal use only Jww.jainelibrary.org. Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CAM-RECROSON निमित्तीकृत्य चाचार्य सर्वा जगृहतुः कलाः । पूर्वजन्मप्रभावोऽयं तादृशां हि महात्मनाम् ॥ ११२॥ क्रीडाघातमपि तयो सहन्तापरे भटाः । स्पृशनपि गजो हन्ति जिघ्रनपि च पन्नगः॥११३ ॥ लीलावनमिव श्रीणां तौ क्रमेणाङ्गपावनम् । यौवनं च प्रपेदाते बलेन पवनोपमौ ॥ ११४॥ ज्यायसो लाङ्गलादीनि शादीनि कनीयसः । जैत्राणि ददिरे देवै रत्नानि नररत्नयोः॥ ११५॥ __महाबलौ बल-हरी तौ दृष्ट्वा कलिकौतुकी। प्रतिविष्णोर्मधोर्धाम जगामोत्पत्य नारदः ॥ ११६॥ तं दत्ता? नमस्कृत्य कृत्यज्ञोऽभिदधे मधुः। महामुने ! स्वागतं ते दिष्ट्या दृष्टिपथेऽसि नः ॥ ११७॥ मदीयाः किङ्कराः सर्वे भरतार्धेऽत्र भृभुजः। ते मागधवरदामप्रभासेशाश्च नाकिनः॥१९८॥ तदत्र वस्तुना येन येन देशेन वा तव । योऽर्थस्तं ब्रूहि निःशक्षं यथा यच्छामि नारद!॥ ११९॥ नारदोऽप्यब्रवीदेवं क्रीडयाऽहमिहागमम् । न मेऽर्थोऽर्थेन केनापि न वा देशेन केनचित् ॥ १२०॥ __ भरतार्धेश ! इति तु त्वं मुधैव विकत्थ्यसे । बन्द्यर्थवादः सर्वोऽपि किं यथार्थी भवेत् क्वचित् ॥ १२१॥ अर्थलोभादर्थिजनैः स्तूयमानेन धीमता । लजितव्यं प्रत्युतापि प्रत्येतव्यं न जातुचित् ॥ १२२ ॥ बलिभ्योऽपि बलितमा महङ्ग्योऽपि महत्तमाः। दृश्यन्ते ह्यत्र जगति बहुरत्ना वसुन्धरा ॥ १२३ ॥ मधुरन्तर्भवत्कोपोऽन्तःशिखीव शमीतरुः । सद्यो दष्टाधररदो नारदं प्रत्यभाषत ।। १२४ ॥ भरतार्धेत्र गङ्गातः का नाम महती नदी । वैताख्यात को महानद्रिः कश्च मत्तो बलाधिकः? ॥१२५।। ___* °डायात मु.॥ क्रीडारूपमाघातमपि । १ अर्घः पूजाविधिः। कथ्यसे। संवृ. का०॥ २ बन्दिजनैर्गीयमानोऽर्थवादः स्तुतिपाठः। ३ भम्तमध्ये शिखी वहिर्यस्य सः। त्रिषष्टि. ७० Jain Education In n For Private & Personal use only Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थ पर्व चतुर्थः सर्गः सुप्रभ मालिनी श्रीअनन्तनाथजिनचरितम् । ॥४१०॥ मन्यसे यं बलीयांसं तमाख्याहि यथा क्षणात् । शरमः कैलभस्येव तस्यौजो दर्शयामि ते* ॥ १२६ ॥ किं मत्तेन प्रमत्तेनाप्यवज्ञातोऽसि केनचित् । स्तुतिव्याजेन यस्याद्य विधित्ससि वधं द्विज!॥ १२७ ॥ अथोचे नारदोऽप्येवं नाहं मत्तप्रमत्तयोः । गच्छामि पावं तन्मे स्यात् तदवज्ञा कथं ननु ! ॥ १२८ ॥ भरतार्धेश्वरोऽस्मीति निजायामद्य पर्षदि । यदवादीर्मास्म वादी यस्तद्धि हसाय ते ॥ १२९ ॥ द्वारकायां तु सोमस्य सुप्रभः पुरुषोत्तमः। तनयौ किं त्वया राजन्! जनश्रुत्यापि न श्रुतौ ॥१३०॥ महाबलौ महाबाहू अन्योऽन्यं प्रीतिशालिनौ । मूर्तिमन्तौ पवमान-ज्वलनाविव दुःसहौ ॥१३१॥ शक्रेशानाविव दिवोऽवतीर्णी कौतुकादिह । दोष्णकेनाप्युद्धरेतां तौ सवार्धिधरां धराम् ॥ १३२ ॥ भरतेऽधिष्ठिते ताभ्यां सिंहेनेव महावने । अज्ञानाद् गर्जसि कथं मदान्ध इव सिन्धुरः॥ १३३॥ कोपारुणेक्षणद्वन्द्वो द्वन्द्वेच्छुरिव तत्क्षणात् । दशनैर्दशनान् घर्षन्मधुराजोऽभ्यधादिदम् ॥ १३४ ॥ यदात्थ तदमिथ्या चेत् स्वैरं तत् क्रीडितुं यमः । मया निमश्यतेऽद्यैष रणं द्रष्टुं भवानिव ॥ १३५ ॥ निःसोमं निःसुप्रभं च तथा निःपुरुषोत्तमम् । करोमि द्वारकाराज्यं पश्य युप्रतिभूरिव ॥ १३६ ।। इत्युक्त्वा नारदमुनि विसृज्य प्राहिणोदथ । अनुशिष्य रहो दूतं सोमसोमसुतान् प्रति ॥ १३७ ॥ गत्वाऽऽशु सोमं ससुतं सौजस्कः सोऽभ्यभाषत । ओजायन्तेऽनोजसोऽपि दूताः स्वाम्योजसा खलु ॥१३८॥ नाप्युदरमदान्धर ॥४१॥ १ गजपोतस्य । * °मि च । संवृ०॥ २ विधातुं कर्तुमिच्छसि। ३ हास्याय भवति । ४ समुद्र-गिरिसहितां महीम् । 1५ गजः। ६ युद्धेच्छुः । ७ युद्धसाक्षी। JainEducation a l For Private & Personal use only Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Interna सानां दर्पहरणो विनीतानां च वत्सलः । प्रचण्डदोर्बलजयी क्षत्रव्रतमहाधनः ॥ १३९ ॥ दासे रैरिव याम्यार्ध भरत क्षेत्रवर्तिभिः । राजहंसैः कुलोद्भूतैः सेव्यमानपदाम्बुजः ॥ १४० ॥ वैताख्यदक्षिणश्रेणिविद्याधरनृपैरपि । दत्तदण्डः प्रचण्डाज्ञ आखण्डल इवापरः ॥ १४१ ॥ भरतार्थोद्यानमधुरर्धचक्रधरो मधुः । त्वां शासितुं प्राहिणोन्मां श्रूयतां तदिदं नृप । ॥ १४२ ॥ ॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥ त्वां कामं भक्तिकारीति पुरा संविद्महे वयम् । पुत्रौजसाऽद्यान्यथाभूरिति संशृण्महे जनात् ॥ १४३ ॥ तद् यदि त्वं स एवासि न कश्चित् ते विपर्ययः । स्वामिने प्रेष्यतां दण्डो मर्यादीकृत्य कुञ्चिकाम् ॥१४४॥ भर्तुः प्रसादाद् भूयोऽपि तव सर्वं भविष्यति । आदत्ते ह्यम्बु यद् भानुः पुनरुज्झति भूरि तत् ॥ १४५ ॥ तस्याप्रसादात् सदपि सर्वस्वं तव यास्यति । श्रियः स्वामिनि रुष्टे हि न तिष्ठन्ति भयादिव ॥ १४६ ॥ दूरे वा सम्पदः सन्तु यत् स्वामिनि विरोधिते । कलत्र-पुत्र- मित्रादि जीवितं च कुतस्तव ॥ १४७ ॥ कृत्वा स्वामिन आदेशं देशं शाधि यथास्थिति । गिरस्ताः सन्तु मोघास्त्वत्पिशुनानां शुनामिव ॥ १४८ ॥ अथोद्यद्रोषपरुषं बभाषे पुरुषोत्तमः । दूतत्वेन न वध्योऽसि तेनेदं केंद्रदावदः ॥ १४९ ॥ किमुन्मत्तोऽथवा मत्तः प्रमत्तोऽथ पिशाचधीः । ईदृग्भाषी त्वं त्वदीश ईदृग्भाषयिता च सः ॥ १५० ॥ * तप्त" का० ॥ १ दासीपुत्रैरिव । २ इन्द्रः । स्वादत्र प्रथमा । ५ पूर्ववद् भक्तिकारी । ६ वैपरीत्यम् । यावत् । ९ कुत्सितमत्यन्तं वदतीति कदावदः । ३ भरतार्धमेवोद्यानं तस्मिन् मधुर्वसन्तसदृशः । ४ इतिनाऽभिहित७ उद्घाटन-साधनम्, 'कुंची' भाषायाम् । ८ व्यर्थाः, असत्याः इति . Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतर्थ पर्व | चतुर्थः सर्गः श्रीअनन्तनाथजिनचरितम् । ॥४११॥ यथा क्रीडासु बालानां खेच्छया कोऽपि बालकः। नृपायते तथा मूढः सोऽपि स्वामीयते स्वयम् ॥१५१॥ प्रतिपन्नः कदाऽस्माभिः स्वामित्वेन स दुर्मदः । इष्टं वचःप्रमाणं चेदिन्द्रीभवति किं न सः ॥ १५२॥ प्राज्यराज्यबलेनाद्य सोझो मयि समागतः। 'तिमिस्तटे वेलयेव मरिष्यति न संशयः॥१५३॥ गच्छानय रणाय स्खं स्वामिनं दण्डकामिनम् । तस्य प्राणैः सहादास्ये दासीमिव हठाच्छ्रियम् ॥ १५४॥ स एवमुक्तः पुरुषोत्तमेन रुषितो ययौ । सर्वच मधवेऽशंसद् दुःशंसमपि तद्वचः॥१५५॥ शाङ्गिणो वाचिकेनोच्चैः श्रुतमात्रेण तेन च । स्तनितेनेव शरभः 'संरम्भं विदधे मधुः ॥ १५६ ॥ सोऽवादयत् क्षणाद् यात्रामेरी भैरवभाऋतिम् । श्रूयमाणां खेचरीभिः पिधाय श्रवसी भिया ॥ १५७॥ राजभिर्बद्धमुकुटैर्महावीर्यैर्महाभटैः। सेनानीभिरमात्यैश्च सामन्तैरपरैरपि ॥ १५८॥ सैनिकै रणशौण्डीरैः खस्य मूर्त्यन्तरिवं । समावृतः स प्रतस्थे मायारूप इवामरः ॥ १५९ ॥ युग्मम् ॥ नाजीगणद् दुर्निमित्ताशकुनानि स दोर्मदी । कालपाशैरिवाकृष्टो देशसीमां द्रुतं ययौ ॥१६॥ पारापतपणीवागात् तत्कालं तत्र शायपि । सोम-सुप्रभसेनानीसेनाभिः परिवारितः॥१६१॥ आशूपविश्य करभान् रभसादुभयोरपि । वर्माण्याददिरे सैन्यैर्धनूंष्यास्फालितानि च ॥ १६२ ।। उड्डीनमुच्चकैः काण्डमकाण्डे प्रलयप्रदम् । रक्षःकुलमिव व्योमन्यपानसमुत्सुकम् ॥ १६३ ।। १ मत्स्यः । * पुरुषः परुषं रु° संवृ०॥ २ संदेशेन । ३ कलभः । ४ कोपम् । भाकृतिम् मु०॥ ५ भयङ्कर|भाकारध्वनिस् । ६ कौँ। • युद्धकुशलः। °व । पराव० संवृ.॥ ८ पारापस:-कपोता, 'पारेवु' भाषायाम् । १°पवेश्य संवृ० का.. वारम् । १. बधिरपानोपनम् । ॥४११॥ Jain Education Interne T w w.jainelibrary.org. Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SANSANSARACHCRA प्रेर्यमाणा महामात्रैरपसृत्याभिसृत्य च । चतुर्दन्तेन युद्धेनायुध्यन्त वरदन्तिनः ॥ १६४ ॥ एकस्मिन मोचके कुन्तमन्यस्मिन् मुद्गरं पुनः। पाणी कृपाणं बिभ्राणाः सादिनोऽस्वरयन् हयान् ॥१६५॥ निर्घोषणातिघोरेण जगद्वाधिर्यदायिनः । भिबसिन्धुतटानीव मिमिलुः स्यन्दना मिथः॥१६६ ॥ आस्फालयन्तः फलकान्यास्फैलन्तः परस्परम् । अस्यसि विदधुर्वीराः पत्तयो बाहुशालिनः॥१६७॥ अभञ्जि मधुसैन्येन विष्णुसैन्यं क्षणादपि । दुमखण्डं प्रचण्डेनौत्पातिकेनेव वायुना ॥१६८॥ रथिना बलभद्रेणान्वीयमानो रथी हरिः । अपूरयत् पाश्चजन्यमजन्यमिव विद्विषाम् ॥ १६९॥ पाञ्चजन्यस्य नादेन तत्कालं मधुसैनिकाः। सुः केऽपि मुमूर्छः केऽप्यपतन केऽपि भूतले ॥१७॥ इत्थं विधुरमालोक्य सैन्यं मधुरपि स्वयम् । धनुरास्फालयन् स्फारमाह्वास्त पुरुषोत्तमम् ॥ १७१ ॥ अधिज्यीकृत्य तरसा शाङ्गंशाप्यवादयत । रोदसी वादयदिव गरीयस्था प्रतिश्रुता ॥ १७२ ॥ कर्षकर्ष निषङ्गात् ताविषून मुमुचतुः शितान् । अन्योऽन्यं मृत्यवे सानिव वार्तिकवादिनौ ॥ १७३ ।। जयलक्ष्म्या इव प्राणान् बाणान् पाणैरुभावपि । व्यवच्छेदकलाच्छेको चिच्छेदाते परस्परम् ॥ १७४॥ एवमत्रान्तरैरखान्तराण्यपि मिथस्तयोः । रजकर्तमकृत्यन्त रणो ह्येवं समौजसाम् ॥ १७५ ॥ अन्योऽन्यसाम्यकुपितो दिदर्शयिषुरन्सरम । चक्रं सस्मारच मधुस्तत्पाणी तत पपात च ॥ १७६ ॥ जिघांसुरप्यभिदधे मधुर्विस्फुरिताधरः। भो! याहि याहि किं वाल्या व्याघ्रीदन्तान् दिदृक्षसि ॥१७७॥ हस्तिपकः 'महावत' भाषायाम् । २ मवचाराः। *भ्यास्फाल संवृ० ॥ ३ असिभिरसिभिर्गृहीत्वा प्रवृत्तमिदं युद्धम् । ५ उत्पातसंबन्धिना । ५ उत्पातमिव। प्रसिध्वनिना। या कहा। विषवैचवादिनी । ९लेकी-सलो। JainEducation a l For Private & Personal use only Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थः सर्गः श्रीअनन्तनाथजिनचरितम्। (४१२॥ को नाम मे बलोत्कर्षस्त्वयि बाले निबर्हिते । किं रम्भोन्मूलने स्थामवर्णनं वरदन्तिनः ॥ १७८॥ एषोऽपि सुभटम्मन्यस्तव ज्यायान् ममाग्रतः । लघीयान् कुञ्जर इव महानपि गिरेः पुरः ॥ १७९॥ व्याजहार प्रतिहरिं हरिरप्युल्लसस्मितः । तमांसि हन्ति प्रौढानि बालोऽपि हि दिवाकरः ॥१८०॥ अग्निः स्फुलिङ्गमात्रोऽपि कक्षं दहति सर्वतः । तेजः प्रमाणं वीराणां तेजसां कीदृशं वयः॥१८१॥ ॥युग्मम् ॥ तदलं ते विलम्बेन मुश्च चक्रमशङ्कितः । व्यालोऽपि गैरलं मुक्त्वा शाम्येन पुनरन्यथा ॥ १८२ ॥ अङ्गुल्यामूर्मिकीकृत्य सलीलं मधुरप्यथ । भ्रमयामास तच्चक्रमेलातमिव बालकः ॥ १८३॥ मुमोच च मधुश्चक्रं तत् पपाताथ शाङ्गिणः । वक्षस्तुम्बाग्रघातेन चुम्बदुल्बणतेजसा ॥ १८४ ॥ विष्णुस्तेन प्रहारेण मृञ्छितः स्यन्दनेऽपतत् । उत्प्लत्य बलभद्रेण स्वोत्सङ्गे च न्यधीयत ॥ १८५ ॥ भ्रात्रङ्गसंगादमृतस्नपनादिव केशवः । अवाप्तसंज्ञस्तच्चक्रं मधोः प्राणानिवाददे ॥ १८६ ॥ अथ शार्ङ्गधरोऽप्येवमूचे मद्वत् त्वमत्र भोः।मा स स्था गच्छ गच्छाशु स्पर्धा सिंहेन का शुनः॥१८७।। मधुरप्यभ्यधत्तैवं मुश्च चक्रं त्वमप्यहो! । गर्जन् शरन्मेघ इव किमात्मानं विकत्थसे ॥ १८८॥ एवमुक्तवतस्तस्य चक्र मुक्त्वा जनार्दनः । अपातयच्छिरो भूमौ फलं तालतरोरिव ॥ १८९ ॥ पुष्पवर्षेः सुरैः शाङ्गी साधु साध्विति तुष्टुवे । हा नाथ ! नाथ! वासीति निजैस्तु शुशुचे मधुः॥१९०॥ जन्ने केशवसेनान्या कैटभोऽपि महाभटः । शिश्रिये चापरैः सद्यः श्रीपतिर्मधुपार्थिवेः ॥ १९१ ॥ १ नाशिते । २ रम्भा-कदली । ३ तृणम् । ४ विषम् । ५ उल्काम् । * उत्पत्य संबृ०॥ ६ प्रगल्भसे । ॥४१२॥ Jain Education in For Private & Personal use only Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअनन्तनाथजिनस्य केवलज्ञानं समवसरणं च। समागधवरदामप्रभासाधीश्वरं ततः । अपाग्भरतवर्षाधं साधयामास शार्ङ्गभृत् ॥ १९२॥ शिलां कोटिनरोत्पाट्यां मगधेष्वथ माधवः। उत्पाव्य लीलयाऽऽनन्दी पिधानमिव सोऽमुचत् ॥१९३॥ समुद्रेणापि दत्तार्य इवोत्कल्लोलपाणिना । अथाययौ द्वारवतीं वपुरी पुरुषोत्तमः ॥ १९४ ॥ तत्र सोमेन रामेण पार्थिवैरपरैरपि । विष्णोश्चक्रेऽर्धचक्रित्वाभिषेकः परया मुदा ॥ १९५॥ इतस्त्रिवर्षी छमस्थो विहृत्याऽनन्तजिज्जिनः । समाययावुपवनं सहस्राम्रवणाभिधम् ॥ १९६॥ तत्राशोकतले भर्तुानान्तरविवर्तिनः । संसारस्येव मर्माणि घातिकर्माणि तुत्रुटुः ॥ १९७॥ राधकृष्णचतुर्दश्यां रेवतीस्थे निशाकरे । षष्ठेन तपसा भर्तुरुदपद्यत केवलम् ।। १९८॥ चक्रे च दिव्ये समवसरणे देशनां प्रभुः । पञ्चाशतं गणधरान् यशःप्रभृतिकानपि ॥ १९९ ॥ तत्तीर्थभृश्च पातालख्यास्यो मकरवाहनः । रक्तो दोभिः पद्मखड्गपाशिभिर्दक्षिणैत्रिभिः ॥२०॥ वामैनकुलफलकाक्षसूत्रसहितैः पुनः । श्रीमतोऽनन्तनाथस्य जज्ञे शासनदेवता ॥ २०१॥ तथोत्पन्नाङ्कशा नाम गौराङ्गी पद्मवाहना । दोर्दण्डाभ्यां दक्षिणाभ्यां खङ्गं पाशं च बिभ्रती ॥२०२॥ दक्षिणेतरबाहुभ्यां दधती फलककाङ्कुशौ । अनन्तस्वामिनो जज्ञे तथा शासनदेवता ।। २०३ ॥ ताभ्यामुपासिताभ्यों भगवान् विहरन् भुवि । प्रापत् पुरी द्वारवती मोक्षद्वारा|गूः प्रभुः ॥२०४॥ शक्रायैस्तत्र समवसरणं विदधेऽमरैः । षट्कार्मुकशतोत्तुङ्गचैत्यपादपभूषितम् ॥ २०५॥ तत्र द्वारेण पूर्वेण प्रविश्यानन्तजिज्जिनः । त्रिः प्रदक्षिणयामास तमुच्चैश्चैत्यपादपम् ।। २०६॥ १ आच्छादनम् । * इति त्रिव संबृ०॥२ त्रिमुखः। ३ अग्रगू-भग्रेसरः । Jain Education Intern i For Private & Personal use only All Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका चतुर्थ पर्व चतुर्थः सर्गः पुरुषचरिते महाकाव्ये श्रीअनन्तनाथजिनचरितम् । ॥४१३॥ कृत्वा तीर्थनमस्कारं पूर्वसिंहासने प्रभुः। प्राशुखो न्यषदत् तस्थौ श्रीसंघश्च यथास्थिति ॥ २०७॥ वामिनः प्रतिरूपाणि त्रीणि दिक्षु तिसृष्वपि । रत्नसिंहासनस्थानि विचकुर्व्यन्तरामराः ॥ २०८॥ तथा च समवसृतं तीर्थनाथं चतुर्दशम् । गत्वा शशंसुः पुरुषोत्तमायायुक्तपूरुषाः ॥२०९॥ सार्धा द्वादश रूप्यस्य कोटीस्तेभ्यः प्रदाय च । ययौ समवसरणं बलभद्रयुतो हरिः॥२१॥ तत्र प्रदक्षिणीकृत्य तीर्थनाथं प्रणम्य च । अनुशक्रमुपाविक्षत साग्रजः पुरुषोत्तमः ॥२११॥ भूयो नत्वा जिनेन्द्रं ते देवेन्द्रोपेन्द्रसीरिणः । भक्तिगद्गदया वाचा स्तोतुमारेभिरे ततः ॥ २१२ ॥ देहभाजां मनोविसं विषयैस्तस्करैरिव । तावदुल्लयते यावनं त्वमेषामधीश्वरः ॥ २१३ ॥ प्रसपत्कोपतिमिरं दृशोऽन्धकरणं नृणाम् । दूरादपसरत्येव स्वदर्शनसुधाञ्जनात् ॥ २१४ ॥ मानेन भूतेनेवात्तास्तावदज्ञाः शरीरिणः । यावद् भवद्वचो मत्र इव तेर्न हि शुश्रुवे ॥२१५॥ त्वत्प्रसादात् त्रुटन्मायोनिगडानां शरीरिणाम् । संप्राप्तार्जवयानानां मुक्तिर्न हि दैवीयसी ॥ २१६॥ यथा यथा देहभाजो निरीहास्त्वामुपासते । चित्रं तथा तथा तेषामस्युत्कृष्टफलप्रदः॥ २१७॥ संसारसरितो राग-द्वेषौ द्वे श्रोतेसी इव । तवीप इव माध्यस्थ्ये स्थीयते तव शासनात् ॥ २१८॥ देहिनां निर्वृतिद्वारप्रवेशोत्सुकचेतसाम् । मोहान्धकारदीपत्वं त्वं धारयसि नापरः ॥ २१९॥ ___* °खो निषसादाथ श्री संवृ०॥ स्थिते । का०॥ आयुक्तः-सचिवः । त्वं तेषा संवृ० का चक्षु|पस्तिमिरमिव क्रोधान्धङ्करणो नृ' संबृ०॥२ निगड:-बन्धः, 'बेडी' भाषायाम् । ३ भतिदूरे। 'तेषाम्+मसि+उत्कृष्ट| फलप्रदः' इति विभागे स्वमिति शेषः। ५ प्रवाही। ॥४१३॥ Jain Education Internet For Private & Personal use only D o O Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअनन्तनाथजिनस्य धर्मदेशना। विषयः कषायरागद्वेषमोहैरनिर्जिताः। भूपास स्वत्प्रसादेन प्रसीद परमेश्वर।॥ २२० ॥ स्तुत्वैवं कृतमौनेषु शकमध्वरिसीरिषु । अनन्तनाथो भगवान् विदधे देशनामिति ॥ २२१ ॥ अतत्त्वविदुरो जन्तुरमार्गज्ञ इवाध्वगः । असिन् संसारकान्तारे बम्भ्रमीति दुरुत्तरे ॥ २२२ ॥ जीवाजीवावाश्रवश्व संवरो निर्जरा तथा । बन्धो मोक्षश्चेति सप्त तत्त्वान्याहुर्मनीषिणः ॥ २२३ ॥ तत्र जीवा द्विधा ज्ञेया मुक्तसंसारिभेदतः। अनादिनिधनाः सर्वे ज्ञान-दर्शनलक्षणाः ॥ २२४ ॥ मुक्ता एकस्वभावाः स्युर्जन्मादिक्लेशवर्जिताः । अनन्तदर्शनज्ञानवीर्यानन्दमयाश्च ते ॥ २२५॥ संसारिणो द्विधा जीवाः स्थावर-त्रसभेदतः। द्वितयेऽपि द्विधा पर्याप्ता-ऽपर्याप्तविशेषतः ॥ २२६॥ पर्याप्तयस्तु षडिमाः पर्याप्तत्वनिवन्धनम् । आहारो वपुरक्षाणि प्राणो भाषा मनोऽपि च ॥ २२७॥ स्युरेकाक्ष-विकलाक्ष-पश्चाक्षाणां शरीरिणाम् । चतस्रः पश्च षट् चापि पर्याप्तयो यथाक्रमम् ॥ २२८ ।। एकाक्षाः स्थावरा भूम्यप्तेजोवायुमहीरुहः । तेषां तु पूर्वे चत्वारः स्युः सूक्ष्मा बादरा अपि ॥ २२९ ॥ प्रत्येकाः साधारणाश्च द्विप्रकारा महीरुहः। तेऽत्रं पूर्वे बादराः स्युरुत्तरे सूक्ष्म-बादराः ॥२३०॥ त्रसा द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियत्वेन चतुर्विधाः । तत्र पश्चेन्द्रिया द्वेधा संज्ञिनोऽसंज्ञिनोऽपि च ॥ २३१ ॥ शिक्षोपदेशालापान ये जानते तेऽत्र संजिनः । संप्रवृत्तमनःप्राणास्तेभ्योऽन्ये स्युरसंझिनः ॥ २३२॥ स्पर्शनं रसनं घ्राणं चक्षुः श्रोत्रमितीन्द्रियम । तस्य स्पर्शो रसो गन्धो रूपं शब्दश्च गोचरः ॥ २३३॥ । अतस्वज्ञः। २ स्थावराः असावेति । ३ इन्द्रियाणि । ४ एकेन्द्रियाणां चतस्रः, विकलेन्द्रियाणां पत्र, पञ्चेन्द्रियाणां षद पर्यासयः शमशः। 'हा तत्र तुसंवृ० का०॥५प्रत्येका बादरा एव । साधारणाः। . प्रवृत्तिमम्तो मना-प्राणापाते। विक्षः। Jain Education in For Private & Personal use only . Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थ पर्व चतुर्थः सर्गः श्रीअनन्तनाथजिनचरितम् । ॥४१४॥ द्वीन्द्रियाः कृमयः शङ्खा गण्डूपदा जलौकसः । कपर्दाः शुक्तिकाद्याश्च विविधाः कृमयो मताः ॥२३४॥ यूका-मत्कुण-मत्कोट-लिक्षाद्यास्त्रीन्द्रिया मताः। पतङ्ग-मक्षिका-भृङ्ग-दंशाद्याश्चतुरिन्द्रियाः ॥ २३५॥ तिर्यग्योनिभवाः शेषा जल-स्थल-खचारिणः । नारका मानवा देवाः सर्वे पश्चेन्द्रिया मताः॥ २३६ ॥ मनो-भाषा-कायबलत्रयमिन्द्रियपश्चकम् । आयुरुच्छासनिःश्वासमिति प्राणा दश स्मृताः ॥ २३७॥ सर्वजीवेषु देहायुरुच्छासा इन्द्रियाणि च । विकलासंज्ञिनां भाषा पूर्णानां संज्ञिनां मनः ॥ २३८ ॥ उपपाद(त)भवा देव-नारका गर्भजाः पुनः । जरायुःपोताण्डभवाः शेषाः संमृर्छनोद्भवाः ॥ २३९ ॥ संमूर्छिनो नारकाच जीवाः पापा नपुंसकाः । देवाः स्त्री-पुंसवेदाः स्युर्वेदत्रयजुषः परे ॥ २४०॥ सर्वे जीवा व्यवहार्यव्यवहारितया द्विधा । सूक्ष्मनिगोदा एवान्त्यास्तेभ्योऽन्ये व्यवहारिणः॥२४१॥ सचित्तः संवृतः शीतस्तदैन्यो मिश्रितोऽपि वा । विभेदैरान्तभिन्नो नवधा योनिरङ्गिनाम् ॥ २४२ ॥ प्रत्येकं सप्त लक्षाश्च पृथ्वी-वार्यग्नि-वायुषु । प्रत्येकानन्तकायेषु क्रमाद् दश चतुर्दश ॥ २४३ ॥ भूम्यन्तर्गतजन्तुविशेषाः, 'गंडोळा' भाषायाम् । २ युका-मत्कुण-मरकोट-लिशाद्याः-भाषायाम्-'जू', 'मांकड', 'बगइ', 'लीख' । ३ यथा द्वीन्द्रियाणां कायाऽऽयुरुच्छ्वासाः स्पर्शन-रसनेन्द्रियद्वयं भाषा चेति षद प्राणास्तथैव त्रीन्द्रियाणां चतुरिन्द्रिया| णामसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां च क्रमात् स्वस्वेन्द्रियवृझ्या सप्लाष्टौ नव च प्राणाः संज्ञिनां तु मनःसहिता दशेति तात्पर्यम् । ४ ये जीवा | जरायुःपोताण्डभवास्ते गर्भजाः कथ्यन्ते । ५ गर्भजाः प्राणिनः। ६ ये सूक्ष्मनिगोदास्तेऽव्यवहारिणः । ७ सचित्तादन्योऽचित्ता, | संवृतविवृतादन्यो विवृतः, शीतादन्य उष्णः। ८ सचित्ताचित्तः, संवृतविवृतः शीतोष्ण इत्यर्थः। *क्षाणि पृ संबृ०॥ ९ प्रत्येकवनस्पतिकायेषु दशलक्षा, अनन्तकायेषु-साधारणवनस्पतिकायेषु चतुर्दशलक्षाः। ॥४१४॥ Jan Education in For Private & Personal use only Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AMROSALESCALCU षट् पुनर्विकलाक्षेषु मनुष्येषु चतुर्दश । स्युश्चतस्रश्चतस्रश्च श्वनि-तिर्यक्-सुरेषु तु ॥२४४॥ एवं लक्षाणि योनीनामशीतिश्चतुरुत्तरी । केवलज्ञानदृष्टानि सर्वेषामपि जन्मिनाम् ॥ २४५॥ एकाक्षा बादराः सूक्ष्माः पञ्चाक्षाः संझ्यसंज्ञिनः । स्युद्धि-त्रि-चतुरक्षाश्च पर्याप्ता इतरेऽपि च ॥ २४६॥ एतानि जीवस्थानानि मयोक्तानि चतुर्दश । मार्गणा अपि तावत्यो ज्ञेयास्ता नामतो यथा ॥ २४७॥ गतीन्द्रिय-काय-योग-वेद-ज्ञान-कुँधादयः । संयमा-ऽऽहार-दृग्-लेश्या-भव्य-सम्यक्त्व-संज्ञिनः॥२४८॥ मिथ्यादृष्टिः सास्वादन-सम्यगमिथ्यादृशावपि । अविरतसम्यग्दृष्टिविरताविरतोऽपि च ॥ २४९॥ प्रमत्तश्चाप्रमत्तश्च निबृत्तिबादरस्ततः । अनिवृत्तिवादरश्चाथ सूक्ष्मसंपरायकः ॥ २५०॥ ततः प्रशान्तमोहश्च क्षीणमोहश्च योगवान् । अयोगवानिति गुणस्थानानि स्युश्चतुर्दश ॥ २५१ ॥ मिथ्यादृष्टिर्भवेन्मिथ्यादर्शनस्योदये सति । गुणस्थानत्वमेतस्य भद्रकत्वाद्यपेक्षया ॥ २५२ ॥ मिथ्यात्वस्यानुदयेऽनन्तानुबन्ध्युदये सति । सास्वादनसम्यग्दृष्टिः स्यादुत्कर्षात् पडावलीः ॥ २५३ ॥ सम्यक्त्वमिथ्यात्वयोगान्मुहूर्त मिश्रदर्शनः । अविरतसम्यग्दृष्टिरप्रत्याख्यानकोदये ॥ २५४ ॥ RRER १ नारक-तिर्यक्-देवेषु । * रा । सर्वज्ञ पक्षमुक्तानि स० संबृ० ॥ २ बादरेकेन्द्रियाः सूक्ष्मैकेन्द्रियाः, संज्ञिपोन्द्रियाः, | असंज्ञिपञ्चेन्द्रियाः, द्वीन्द्रियाः, त्रीन्द्रियाः, चतुरिन्द्रियाश्चेति सप्त पर्याप्तास्तथैवापर्याप्ताश्चेति चतुर्दश जीवस्थानानि । "नि जिनोक्ता संबृ०।३ चतुर्दश। दादयः संवृ० का० ॥ ४ क्रोधादयः कषायाः। ५ सम्यगमिथ्याग् इत्यस्य मिश्रगुणस्थानमित्यपि नामान्तरम्। ६ देशविरतिगुणस्थानम् । . अपूर्वकरणगुणस्थानमित्यप्यस्य नामान्तरम् । ८ उपशान्तमोहः इति नाम्ना प्रसिद्धिः। ९ सयोगिकेवली। Jan Education inte For Prate & Personal use only . Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ पर्व त्रिषष्टिशलाका चतुर्थः पुरुषचरिते महाकाव्ये सर्गः श्रीअनन्तनाथजिनचरितम्। ॥४१५॥ विरताविरतस्तु स्यात् प्रत्याख्यानोदये सति । प्रमत्तसंयतः प्राप्तसंयमो यः प्रमाद्यति ॥ २५५॥ सोऽप्रमत्तसंयतो यः संयमी न प्रमाद्यति । उभावपि परावृत्त्या स्यातामान्तर्मुहूर्तिको ॥ २५६ ॥ कर्मणां स्थितिघातादीनपूर्वान् कुरुते यतः। तस्मादपूर्वकरणः क्षपकः शमकश्च सः॥ २५७॥ यद्वादरकपायाणां प्रविष्टानामिमं मिथः । परिणामा निवर्तन्ते निवृत्तिवादरोऽपि सः॥ २५८॥ परिणामा निवर्तन्ते मिथो यत्र न यत्नतः । अनिवृत्तिबादरः स्यात् क्षपकः शमकश्च सः ॥२५९ ॥ लोभाभिधः संपरायः सूक्ष्मकिड्डीकृतो यतः । स सूक्ष्मसंपरायः स्यात् क्षपकः शमकोऽपि च ॥२६॥ अथोपशान्तमोहः स्यान्मोहस्योमशमे सति । मोहस्य तु क्षये जाते क्षीणमोहं प्रचक्षते ॥२६१॥ सयोगिकेवली घातिक्षयादुत्पन्न केवलः। योगानां च क्षये जाते स एवायोगिकेवली इति॥२६२॥ जीवतत्त्वम्॥ अजीवाः स्युर्धर्माधर्मविहाय कालपुद्धलाः। जीवेन सह पश्चापि द्रव्याण्येते निवेदिताः॥ २६३ ॥ तत्र कालं विना सर्वे प्रदेशप्रचयात्मकाः। विना जीवमचिद्रूपा अकारश्च ते मताः ॥ २६४॥ कालं विनाऽस्तिकायाः स्युरमृर्ताः पुद्गलं विना । उत्पाद-विगम-ध्रौव्यात्मानः सर्वेऽपि ते पुनः॥२६५॥ पुद्गलाः स्युः स्पर्श-रस-गन्ध वर्णस्वरूपिणः । तेऽणुस्कन्धतया द्वेधा तत्राबद्धाः किलाणवः ॥ २६६ ॥ क्षपकश्श्रेणिकः। २ उपशम श्रेणिकः । ३ इममपूर्वकरणं प्रविष्टानां साधूनां यद्यस्माद् बादरकषावाणां क्रोधादीनां परिणामा | निवर्तन्तेऽतः स निवृत्तिबावरोऽपि कम्यते। • संवृ. का. भादर्शयोनास्वेतत् पदयम् ॥ ४ विहाफ-आकाशासिकाया। ५प्रदेशसमूहरूपाः। ॥४१५॥ Jain Education Intel For Private & Personal use only . Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बद्धाः स्कन्धा गन्ध-शब्द-सौम्य-स्थौल्याकृतिस्पृशः अन्धकारा-ऽऽतपोद्योतभेदच्छायात्मका अपि॥२६॥ कर्म-काय-मनो-भाषा-चेष्टितोच्छासदायिनः । सुखदुःख-जीवितव्य-मृत्युपग्रहकारिणः ॥२६८॥ प्रत्येकमेकद्रव्याणि धर्माधर्मो नमोऽपि च । अमूर्तानि निष्क्रियाणि स्थिराण्यपि च सर्वदा ॥ २६९॥ एकजीवपरिमाणसंख्यातीतप्रदेशको । लोकाकाशमभिव्याप्य धर्माधर्मों व्यवस्थितौ ॥ २७०॥ स्वयं गन्तुं प्रवृत्तेषु जीवाजीवेषु सर्वतः । सहकारी भवेद् धर्मः पानीयमिव यादसाम् ॥ २७१॥ जीवानां पुद्गलानां च प्रपन्नानां खयं स्थितिम् । अधर्मः सहकार्यप यथा छायाऽध्वयायिनाम् ॥२७२॥ सर्वगं खप्रतिष्ठं स्यादाकाशमवकाशदम । लोकालोको स्थितं व्याप्य तदनन्तप्रदेशभाक् ॥ २७३ ॥ लोकाकाशप्रदेशस्था भिन्नाः कालाणवस्तु ये । भावानां परिवर्ताय मुख्यकालः स उच्यते ॥ २७४ ॥ ज्योतिःशास्त्रे यस्य मानमुच्यते समयादिकम् । स व्यावहारिकः कालः कालवेदिभिरामतः ॥ २७५ ॥ नवजीर्णादिरूपेण यदमी भवनोदरे । पदार्थाः परिवर्तन्ते तत् कालस्यैव चेष्टितम् ॥ २७६ ॥ वर्तमाना अतीतत्वं भाविनो वर्तमानताम् । पदार्थाः प्रतिपद्यन्ते कालक्रीडाविडम्बिताः॥ २७७॥ इति अजीवतत्त्वम् ॥ मनो-वचन-कायानां यत् स्यात् कर्म स आश्रवः । शुभः शुभस्य हेतुः स्वादशुभस्त्वशुभस्य सः॥२७८।। इति आश्रवतत्त्वम् । झानावरणीयादि कर्म। * देशिकी। संवृ०॥ याधिया संव०॥ संवृ० का. आदर्शयोः 'इति' पदं नास्ति । च । संवृ०॥1 संवृ० का. आदर्शयोः 'इति आश्रवतत्सम्' इत्यस्य स्थाने 'आश्रवः' इति पदम् ॥ त्रिषष्टि.१४ स्य Jain Education Inter i For Private & Personal use only l Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये REKHA चतुर्थ पर्व चतुर्थः । सर्गः श्रीअनन्तनाथजिनचरितम् । ॥४१६॥ सर्वेषामाश्रवाणां यो रोधहेतुः स संवरः। कर्मणां भवहेतूनां औरणादिह निर्जरा ॥ २७९ ॥ इति संवर-निर्जरे तत्वे ॥ सकषायतया जीवः कर्मयोग्यांस्तु पुद्गलान् । यदादत्ते स बन्धः स्याजीवास्वातव्यकारणम् ॥ २८॥ प्रकृति-स्थित्यनुभाव-प्रदेशा विधयोऽस्य तु । प्रकृतिस्तु खभावः स्याज्ज्ञानावृत्त्यादिरष्टधा ।। २८१ ॥ ज्ञान-दृष्ट्यावृती वेद्य मोहनीयायुषी अपि । नाम-गोत्रान्तरायाश्च मूलप्रकृतयो मताः ॥ २८२ ॥ निष्कर्षोत्कर्षतः कालनियमः कर्मणां स्थितिः । अनुभावो विपाकः स्यात् प्रदेशोंऽशप्रकल्पनम् ॥२८३॥ मिथ्यादृष्टिरविरतिप्रमादौ च क्रुधादयः । योगेन सह पञ्चैते विज्ञेया बन्धहेतवः ॥ २८४॥ इंति बन्धतत्त्वम् । अभावे बन्धहेतूनां घातिकर्मक्षयोद्भवे । केवले सति मोक्षः स्थाच्छेषाणां कर्मणां क्षये ॥ २८५॥ सुरा-ऽसुर-नरेन्द्राणां यत् सुखं भुवनत्रये । स स्यादनन्तभागोऽपि न मोक्षसुखसंपदः॥ २८६ ॥ इति मोक्षतत्त्वम् ॥ एवं तत्त्वानि जाननो जनो जगति जातुचित् । न निमज्जति संसारे वारिधाविव तारकः ॥ २८७ ।। एवं देशनया भर्तुः प्राज्याः पर्यव्रजञ्जनाः । भेजे हरिस्तु सम्यक्त्वं श्रावकत्वं च सुप्रभः॥२८८ ॥ व्यरंसीदादिपौरुष्यां देशेनातो जगत्पतिः । यशास्तत्पादपीठस्थो गणभृद् देशनां व्यधात् ॥ २८९ ॥ १क्षयात् । * संवृ० का. आदर्शयोः इति 'संवर-निर्जरे तत्त्वे' इत्यस्य स्थाने 'संवरनिर्जरे' इति पदम् ॥ २ अस्य बन्धस्य चत्वारः प्रकारा:-प्रकृतिः, स्थितिः, अनुभावः, प्रदेशश्चेति । ३ ज्ञानावरणादिः । ४ ज्ञानावरणम् , दर्शनावरणं च । ५ जघन्यतः उत्कृष्टतश्च कर्मणां कालनियमः सा स्थितिः। निकर्ष मु०॥ ६ कर्मणां विपाकोऽनुभावः । क्रुिदादयः संवृ० का संवृ० का० आद. |शयोः 'इति' पदं नास्ति ॥णां जये। मु०॥ संबृ० का आदर्शयोः पदद्वयं नास्ति ॥ ७ बहवः। * नान्ते ज०संबृ० का०॥ SEOSESSO RISUASA SCRESS ॥४१६॥ Jain Education in For Private & Personal use only Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Inte तत्राप्यवरपौरुष्यां देशनाविरते सति । नत्वा प्रभुं ययुः स्वौकः शक्रोपेन्द्रबलादयः ॥ २९० ॥ ततः स्थानात् प्रभुरपि ग्रामा-ssकर- पुरादिषु । प्रबोधयन् भव्यजन्तून् विजहार वसुन्धराम् ॥ २९९ ॥ षष्टिः षट् च सहस्राणि श्रमणानां महात्मनाम् । तथा चतुर्दशपूर्वभृतां नव शतानि च ।। २९२ ॥ चतुःसहस्री त्रिशती चावधिज्ञानशालिनाम् । मनःपर्ययिणां पञ्च चत्वारिंशच्छतानि च ॥ २९३ ॥ तथा पञ्च सहस्राणि केवलज्ञानधारिणाम् । जातवैक्रियलब्धीनां सहस्राण्यष्टयोगिनाम् ॥ २९४ ॥ त्रिसहस्री शते द्वे च वादलब्धिमतां पुनः । आर्यिकाणां सहस्राणि द्वाषष्टिवतपाप्मनाम् ॥ २९५ ॥ श्रावकाणां पुनर्लक्षद्वयं षष्टिः शतानि च । श्राविकाणां चतुर्लक्षी चतुर्दशसहरुयपि ।। २९६ ॥ त्र्यन्दोनान्यन्दलक्षाणि सप्त सार्धानि केवलात् । महीं विहरमाणस्य परिवारोऽभवत् प्रभोः ।। २९७ ॥ स्वं मोक्षकालं ज्ञात्वा तु समेताद्रिमगात् प्रभुः । साधुसप्तसहरुया च सहानशनमाददे ।। २९८ ॥ मासान्ते चैत्रविशदपञ्चम्यां पौष्णगे विधौ । समं तैर्मुनिभिर्मोक्षं प्रपेदेऽनन्तजित् प्रभुः ॥ २९९ ॥ स्वामिनः स्वामिशिष्याणां तेषां चाभ्येत्य वासवाः । सामराचक्रिरे तत्र निर्वाणमहिमोत्सवम् ॥ ३०० ॥ कौमारे सप्त लक्षाणि सार्धानि शरदामथ । पृथिवीपालने वर्षलक्षाणि दश पञ्च च ।। ३०१ ।। अष्टावक्षाः प्रव्रज्यापरिपालने । इति त्रिंशद्वर्षलक्षाण्यनन्तजित आयुषि ॥ ३०२ ॥ विमलखामि निर्वाणादनन्तस्वामिनिर्वृतिः । व्यतिक्रान्तेषु नवसु वारिराशिष्वजायत ॥ ३०३ ॥ नां शताशीतिर्महात्मनाम् । सं० का० ॥ २ नष्टपापानाम् । ३ विशद: १ स्वस्वस्थानम् । * 'पर्याय' सं० ॥ शुक्लः । ४ सार्धसप्तलक्षाः । ५ सागरोपमेषु । श्री अनन्तनाथ जनस्य परिवारादि । श्री अनन्तजिनस्य निर्वाणम् । Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये *** चतुर्थ पर्व चतुर्थः सर्गः श्रीअनन्तनाथजिनचरितम् । ** स त्रिंशद्वर्पलक्षायुर्विष्णुरत्युग्रकर्मभिः । तमःप्रभाख्यामगमत षष्ठी नरकमेदिनीम् ॥ ३०४॥ कौमारेऽब्दसप्तशती मण्डलित्वे त्रयोदश । वर्षशतान्यथाशीतिर्वर्षाणि ककुभां जये ॥ ३०५॥ राज्येऽब्दानामथैकोनत्रिंशल्लक्षी सहस्रकाः। नवतिः सप्त च नवशती विंशतिरस्य तु ॥ ३०६ ॥ संप्रभः पञ्चपञ्चाशदर्पलक्षायुरुच्चकैः । स्वभ्रातुरवसानेन दुःखितोऽस्थाच्चिरं भुवि ॥ ३०७॥ सोऽप्यथानुजविपत्तिविरक्त्याऽऽत्तव्रतो मुनिमृगाङ्कुशपार्श्वे । प्राप्य केवलमनन्तचतुष्की स्थानमापदपुनर्भवरूपम् ॥ ३०८ ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थे पर्वणि श्रीअनन्तखामि-पुरुषोत्तम-सुप्रभ-मधुचरितवर्णनो नाम चतुर्थः सर्गः संपूर्णः। ॥४१७॥ ****** AAAAAAACRORSCARRI * * ॥४१७॥ * * * सुप्रभश्चाथ पञ्चा संबृ०॥ मोक्षरूपं स्थान प्राप्तः। 1°धुवर्णनो मु०॥ संबृ० का० आदर्शयोः नास्त्येतत् पदम् ॥ Jain Education * For Private & Personal use only . Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः। श्रीधर्मनाथचरित्रम् । धर्मगङ्गाहिमवतः कुतीर्थध्वान्तभास्वतः । श्रीमतो धर्मनाथस्य चरणौ शरणं |ये ॥१॥ तस्यैव तीर्थनाथस्य चरित्रमिदमुच्यते । संसारसिन्धुतरणे सेतुबन्धवदायतम् ॥ २॥ धातकीखण्डद्वीपे प्राग्विदेहे भरताभिधे । विजये भद्रिलपुरं नाम्नाऽस्ति विपुलं पुरम् ॥३॥ तसिन् दृढरथो नाम महीपरिवृढोऽभवत् । दोभ्यां दृढाभ्यां भ्राजिष्णुर्दन्ताभ्यामिव कुञ्जरः॥४॥ तेजांसि जनसे राज्ञां ज्योतिषामिव भास्करः । तद्दण्डानां भाजनं च सोऽम्भोधिः सरितामिव ॥५॥ स महत्यपि साम्राज्ये नोत्सेकं जातुचिद् दधौ । विवेकी लतरलां जानन्द्रीमपि श्रियम् ॥ ६॥ तत्तद्वैषयिक सौख्यमाप्नुवन्नपि सोऽकरोत् । आगन्तुरिव संसारवासे नास्थां मनागपि ॥ ७ ॥ भोगेषूद्यतवैराग्यः खशरीरेऽपि निःस्पृहः । स राज्यं प्राज्यमप्यौज्झच्छरीरमललीलया ॥८॥ संसारिकमहादुःखरोगैकभिषजस्ततः । ययौ स राजा विमलवाहनस्यान्तिकं गुरोः ॥९॥ तस्मादुपाददे रुच्या वेतनेनेव दुर्लभम् । चारित्ररत्नममलं स नृरत्नशिरोमणिः ॥१०॥ योगस्य मातरमिव समतामेव धारयन् । परीषहान सहमानः स तेपे दुस्तर्प तपः॥ ११ ॥ आचान्तः श्रुतगण्डूपैः पुण्यैस्तीर्थोदकैरिव । अपावयत् स आत्मानं विषयम्लेच्छदूषितम् ॥ १२ ॥ १ कुतीर्थमिव ध्वान्तं तस्मिन् सूर्यसदृशस्य । *णं श्रिये ।मु०॥ धमिवाय संवृ०॥ २ विस्तृतम् । ३ महीपालः राजा इत्यर्थः। ४ तेषां राज्ञां दण्डानाम् । ५ गर्वम् । ६ तुलवच्चञ्चकाम् । ७ अतिथिवत्। ८ मूल्येन । ९पीतः, श्रुताण्येव गण्डूषाचलुकास्तः । जन्तुरिव संसायोज्झच्छरीर गुरोः॥ मामुवन्नति निःस्पृहः स राजा सि नरनाक दुस्तपं त वैराग्या संगकभिपजस्ततम् । चारित्ररत्न महमानः Jain Education Inter For Private & Personal use only , Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थ पर्व पश्वमा सर्गः श्रीधर्मनाथजिनचरितम् ४१८॥ अर्हद्भक्तिप्रभृतीनि स्थानकानि परामृशन् । सुधीरुपार्जयामास तीर्थनाम कर्म सः॥१३॥ काले च कृत्वाऽनशनं स विपद्य समाहितः । विमाने वैजयन्ताख्ये महर्द्धिरमरोऽभवत् ॥ १४॥ ___ इतश्च जम्बूद्वीपेऽसिन्नमिन् वर्षे च भारते । अस्ति रत्नपुरं नाम तत्तद्रत्नाकरः पुरम् ॥ १५ ॥ पार्श्वयो रेनसोपानरश्मिजालैमिथो युतैः । सेतुबद्धा इवाभान्ति तत्रोपवनदीर्घिकाः॥१६॥ सार्हच्चैत्यानि हैमानि सादर्शानि पदे पदे । तत्राख्यान्ति गृहाण्येव त्रिपुमर्थी सदोद्यताम् ॥ १७॥ तस्मिन् मरकतैर्बद्धा शोभते मार्गभूनिशि । प्रतिविम्बितनक्षत्रा मुक्तास्वस्तिकभागिव ॥१८॥ तत्रौकोनागदन्तानां कण्ठेष्विभ्यवधूजनैः । हाराः प्रलम्बिता यान्ति कण्ठाभरणरूपताम् ॥ १९॥ शीतमुद्यानवापीभिर्घम हर्म्यमहानसेः । वर्षों गजमदैर्बिभ्रत् तत्कालत्रयभागिव ॥२०॥ तत्रासीन्नपतिर्भानुर्भानुमानिव तेजसा । वैरिकक्षबृहद्भानुर्भानुचैरमलैर्गुणैः ॥ २१ ॥ परिमातुमलम्भृष्णुर्मा भूदपि बृहस्पतिः । तांस्तांस्तरङ्गिणीनाथतरङ्गानिव तद्गुणान् ॥ २२॥ एकेन तेनात्तकरा नापश्यदपरं पतिम् । भूरियं कुलजातेव ललना शीलशालिनी ।। २३॥ श्रियं स्वभावचपलां संयम्य सुदृढेगुणः । खदोःस्तम्भे स्थिरीचक्रे स वारणवधूमिव ॥ २४ ॥ प्रौढप्रतापो मार्तण्ड इव प्रत्यर्थिभूभुजाम् । संजहार स तेजांसि प्रदीपानामिवाभितः॥ २५॥ विजेतुकामो नृपतीनध्यारोपयति स्म सः । न भूलतामप्यलिँके किं पुनः कार्मुके गुणम् ॥ २६ ॥ समाधिमान् । २ रत्नमयपशिनां किरणबद्धसेतुका इव वाप्यः शोभन्ते इत्यर्थः। * °दोदिताम् । संबृ० का०॥ ३ नागदन्ताः दन्तकाः 'खुंटी' इति भाषायाम् । ४ वैरिण एव कक्षास्तेभ्यः बृहद्भानुरग्निरिव, भान् शोभमानः। ५ आत्तो गृहीतो हस्तोऽन्यत्र षष्टांशभागो यस्याः सा। ६ हस्तिनीपझे रजुभिः । ७ भाले । ॥४१८॥ Jain Education in For Private & Personal use only Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Interna अभवत् तस्य पादाब्जोपासनेऽतिमधुव्रता । कलत्रं सुव्रता नाम लोकोत्तरसतीव्रता ॥ २७ ॥ कोकिलाभिः कलालापो हंसीभिर्गतिचातुरी । मृगीभिर्दृष्टिविक्षेपः शिक्षितानि ततो ध्रुवम् ॥ २८ ॥ लज्जा सहचरी तस्याः शीललक्ष्मीः साधिका । कौलीन्यं कैश्चुकिवरः सहजोऽयं परिच्छदः ॥ २९ ॥ पतिभक्तिरलङ्कारस्तस्याः समुचितोऽभवत् । अलङ्कार्यमलङ्कारजातं हारादि चापरम् || ३० ॥ तदा च वैजयन्तस्थ जीवो दृढरथस्य सः । प्रकृष्टसुखनिर्मनो निजमायुरपूरयत् ॥ ३१ ॥ च्युत्वा ततो राधशुक्कसप्तम्यां पुष्यगे विधौ । सुव्रतास्वामिनीकुक्षौ स जीवः समवातरत् ॥ ३२ ॥ गजप्रभृतिकांस्तीर्थकरजन्मा भिसूचकान् । चतुर्दशमहाखमांस्तदाऽदर्शच्च सुव्रता ॥ ३३ ॥ माघशुक्ल तृतीयायां पुष्ये भे वज्रलाञ्छनम् । स्वर्णवर्णं सुव्रतादेव्यस्त समये सुतम् ॥ ३४ ॥ दिक्कुमार्यः षट्पञ्चाशदेत्य भोगङ्करादयः । स्वामिनः स्वामिमातुश्च सूतिकर्माणि चक्रिरे ॥ ३५ ॥ तत्कालं पालकारूढः सौधर्मेन्द्र उपेत्य च । आदाय स्वामिनं निन्ये मेरुपर्वतमूर्धनि ॥ ३६ ॥ अपि पाण्डुकम्बलायां रत्नसिंहासने हरिः । आसाञ्चक्रे स्वाङ्कसिंहासनारोपिततीर्थकृत् ॥ ३७ ॥ अथाच्युतप्रभृतिभिस्त्रिपट्या वासवैः प्रभोः । विधिवद् विदधे स्त्रात्रं पवित्रैस्तीर्थवारिभिः ॥ ३८ ॥ ईशानाङ्के निवेश्येशं पयामास वज्रभृत् । विलिप्य पूजयित्वा च स्तोतुं चेत्युपचक्रमे ।। ३९ ।। नमस्तुभ्यं पञ्चदशायार्हते परमेश्वर ! । परमध्ये यरूपाय परमध्यायिनेऽपि च ॥ ४० ॥ १] मधुव्रतं भ्रमरमतिक्रान्ता भ्रमरीसदृशीत्यर्थः । २ अलङ्कारपरिधापिनी दासी । 'कृष्टं सु० मु० ॥ + निर्मग्नो सं० का० ॥ वासरत् । का० ॥ $ र्थङ्कर का० ॥ ३ श्रेष्टः कक्षुकी - अन्तःपुराध्यक्षः । श्रीधर्मनाथ जिनजन्म । . Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थ पर्व पञ्चमः सर्गः श्रीधर्मनाथजिनचरितम् । ॥४१९॥ देवेभ्यो दानवेभ्योऽपि मान् मन्ये गरीयसः। त्रैलोक्यवन्द्यो यत्र त्वमुदभृस्तीर्थनायकः ॥४१॥ अपाग्भरतवर्षेऽस्मिन् ममाद्यैवास्तु मर्त्यता । मोक्षसाधनसाधीयस्त्वच्छिष्यत्वजिघृक्षया ॥४२॥ नारकेभ्यो नाकसदां को भेदः सुखिनामपि । भवेद् येषां प्रमत्तानां न भवत्पाददर्शनम् ॥४३॥ विजृम्भितं तावदेव चूकैरिव कुतीर्थिकैः । न यावत् त्रिजगन्नाथ ! रवेरिव तवोदयः॥४४॥ तव वर्षाम्बुदस्येव धर्मदेर्शनवारिणा । भरतार्धं सर इवाशेष पूरिष्यतेऽचिरात् ॥४५॥ अनन्तान् देहिनो मुक्ति प्रापयन् परमेश्वर! । अरिदेशमिवोर्वीशस्त्वं कर्ता भवमुद्सम् ॥ ४६॥ त्वत्पादपद्मलीनेन षट्पदेनेव चेतसा । भगवन् ! कल्पवासेऽपि प्रयान्तु मम वासराः ॥४७॥ __स्तुत्वेति स्वामिनं शक्रो गृहीत्वेशानवासवात् । नीत्वा च सुव्रतादेव्याः पार्थेऽमुञ्चद् यथास्थिति ॥४८॥ गर्भस्थेऽस्मिन् धर्मविधौ यन्मातुर्दोहदोऽभवत् । तेनास्य धर्म इत्याख्यामकार्षीद् भानुभूपतिः॥४९॥ अत्यगाच्छशवं स्वामी क्रीडन् सुरकुमारकैः । प्रापच यौवनं पश्चचत्वारिंशद्धनूनतः॥५०॥ चिरेप्सितं पूरयितुं पित्रोः कौतूहलं प्रभुः । भोग्यकर्माणि भोक्तुं च चक्रे दारपरिग्रहम् ॥५१॥ वर्षलक्षद्वये साधे जन्मतोऽतिगते सति । पर्यग्रहीद राज्यभार स्वामी पित्रनुरोधतः॥५२॥ पञ्चलक्षाणि वर्षाणां शशास वसुधां विभुः। प्राप्तकालां तदा दीक्षां चिन्तयामास च स्वयम् ॥ ५३॥ तीर्थं प्रवर्तय स्वामिन्निति लौकान्तिकैः प्रभुः । विज्ञप्तो वार्षिकं दानं दीक्षाऽनाद्या मुखं ददौ ॥ ५४॥ मोक्षसाधने साधीयः श्रेष्ठं तव शिष्यत्वं तद् ग्रहीतुमिच्छया। २ देवानाम् । * °शनावा मु०॥ ३ शत्रुदेशं यथा राजा निर्जनं करोति तथैवायमपि संसारमुसं नाशं करिष्यतीत्यर्थः। ॥४१९॥ Jain Education Inter For Private & Personal use only R w w.jainelibrary.org Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिषिक्तोऽमरैर्नागदत्ताख्यां शिबिकां विभुः। अधिरुह्य ययौ रम्यमुद्यानं वप्रकाञ्चनम् ॥ ५५॥ प्रियङ्गमञ्जरीपुञ्जमत्तगुञ्जदलिव्रजम् । पुनागोत्ससंदर्भव्याकुलोद्यानपालिकम् ॥ ५६ ॥ पौराङ्गनामृज्यमानखमुखं रोधरेणुभिः । शोभितं पुष्पितैः कुन्दैः सरायुधगृहैरिव ॥ ५७॥ लैवलीपुष्पलवनव्यग्रारामिकदारकम् । मुचुकुन्दमरन्दोदबिन्दुसार्द्रितभूतलम् ॥ ५८॥ बद्धोवींक मरकतैरिवोन्मेरुचकं ततः । प्रविवेश तदुद्यानं शिशिरश्रीमयं प्रभुः ॥ ५९॥ ॥चतुर्भिः कलापकः॥ माघशुक्लत्रयोदश्यां पुष्ये मे चापरेऽहनि । समं राजसहस्रेण षष्ठेन प्राव्रजत् प्रभुः ॥६॥ द्वितीयेहि सौर्मनसे धर्मसिंहनपौकसि । चकार परमानेन पारणं परमेश्वरः ॥६१॥ दिव्यं समभवत् तत्र वसुधारादिपञ्चकम् । धर्मसिंहो व्यधाद् रत्नपीठं स्वामिपदावनौ ॥ ६२॥ निरपेक्षः शरीरेऽपि समीरण इवास्खलन् । ततः स्थानात् प्रववृते मां विहर्तुं जगद्गुरुः ॥ ६३ ॥ इतश्च जम्बूद्वीपेऽस्मिन् विदेहेष्वपरेषु च । राजा पुरुषवृषभोऽशोकायामभवत् पुरि ॥ ६४ ॥ सदा विरक्तः संसारात् तात्त्विकः सात्त्विकश्च सः। पर्यव्राजीत पादमूले प्रजापालमहामुनेः॥६५॥ दुस्तपं स तपस्तप्वा प्राप्ते काले विपद्य च । अष्टादशसमुद्रायुः सहस्रारे सुरोऽभवत् ॥६६॥ १ प्रियङ्गुलतायाः मञ्जरीणां पुझे मत्तोऽत एवं गुञ्जन्नलिव्रजो भ्रमरसमूहो यसिंस्तत्। २ पुनागपुष्पाणामलकारमथने | व्याकुला उद्यानपालखियो यस्तित् । ३ लवलीपुष्पाणां लबने छेदने व्याकुला उद्यानपालवाला यसिंस्तत् । ४ मुचुकुन्दपुष्पाणां मकरन्दस्य जलबिन्दुभिरा भूतलं यस्य तत् । ५ उत्फुल्ला मरुचकवृक्षा यसिंस्तत् । ६ तनानि नगरे। * °सारे ता संवृ०॥ ७ तत्ववेत्ता। Jan Education in R w w .jainelibrary.org. Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ पर्व पञ्चमः त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये ॥४२०॥ सर्गः श्रीधर्मनाथजिनचरितम् । गतेषु तस्य देवस्यायुषः षोडशवार्धिषु । इहैव पोतनपुरे राजा विकट इत्यभूत ॥ ६७॥ कुञ्जरः कुञ्जरेणेव विजिग्ये स्वभुजौजसा । रणाङ्गणे राजसिंहाभिधानेन स भूभुजा ॥ ६८॥ पराजयेन तेनाथ हिया राज्यं वसूनवे । दत्वा गत्वा चातिभूतेः पादान्ते व्रतमाददे ॥ ६९॥ तपः स तीव्र तेपे च निदानमिति चाकरोत् । भवान्तरे राजसिंहोच्छेदाय स्यामहं ध्रुवम् ॥ ७० ॥ इत्थं कृतनिदानः सन् कालयोगाद् विपद्य सः। कल्पे द्वितीय उत्पेदे द्वयर्णवायुः सुरोत्तमः॥ ७१॥ राजसिंहनृपः सोऽपि चिरं भ्रान्त्वा भवार्णवम् । भरतान्तहरिपुरे निशुम्भोऽभून्महीपतिः॥७२॥ स कृष्णवर्णः पञ्चाग्र चत्वारिंशद्धनूनतः । दशवत्सरलक्षायुर्भुव्यभूदुग्रशासनः ॥७३॥ अपाग्भरतवर्षाधं साधयित्वैकलीलया । प्रतिविष्णुः सोऽर्धचक्री पश्चमः समजायत ॥ ७४ ॥ _इतश्चात्रैव भरते नगरेऽश्वपुराभिधे । शिवो नामाभवद् राजा शिवानामेकमास्पदम् ॥ ७५॥ तस्याभृतामुमे पत्न्यौ नामतो विजयाम्मके । नितान्तं वल्लभे मूर्तिमत्यौ कीर्तिश्रियाविव ॥ ७६ ॥ पुरुषवृषभजीवः सहस्रारादथ च्युतः। चतुःखमाख्यातबलजन्माऽऽगाद् विजयोदरे ॥ ७७॥ पूणे काले च विजयास्वामिनी सुषुवे सुतम् । अवदातं वपुष्मन्तमिव पत्युर्यशश्चयम् ॥ ७८ ॥ उत्सवेन गरिष्ठेन शिवोऽथ दिवसे शुभे । सुदर्शनत्वात् तस्याख्यां सुदर्शन इति व्यधात् ॥ ७९ ॥ इतो विकटजीवोऽपीशानकल्पात् परिच्युतः । सप्तस्वमाख्यातविष्णुजन्मागादम्मकोदरे ॥८॥ द्विसागरोपमायुः । २ कल्याणानाम् । ३ चतुर्भिः स्वप्नैराख्यातं बलभद्स्य जन्म येन सः । *णे च काले वि संवृ०॥ ४ निर्मकम् । महता। ५ सुष्टु दर्शनं यस्य तस्य भावरुत्त्वं तस्मात् । वोऽपि द्वितीयात् कल्पतभ्युतः मु०॥ ॥४२०॥ Jain Education in For Private & Personal use only Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असूत समये साऽपि तनयं पूर्णलक्षणम् । इन्द्रनीलमणिनीलं नीलोत्पलमिवापगा ॥८१ ॥ एष सिंहः पुरुषेषु पौरुषेणातिशायिना । ततोऽस्य पुरुषसिंह इत्याख्यामकरोन्नृपः॥ ८२ ॥ धात्रीजनाल्यमानौ क्रीडन्तौ तौ परस्परम् । नीलपीताम्बरौ तालतााको वृद्धिमीयतुः ॥ ८३ ॥ तौ साक्षिणमुपाध्यायं कृत्वा जगृहतुः कलाः । सावधानौ स्वनिखातसंनिधाननिधानवत् ॥ ८४॥ अभूतां कवचहरौ भ्रातरौ तौ क्रमेण च । प्रतिमल्लाविव द्यावापृथिव्योश्च व्यराजताम् ॥ ८५॥ परस्परं स्नेहलौ तावश्विनाविव सोदरौ । अत्यन्तभक्तौ च पितुर्व्यवर्तेतां पदातिवत ॥८६॥ अन्यदा कस्यचिद् दर्पभाजः पर्यन्तभूपतेः । साधनाय शिवः प्रैपीद् दिव्यास्त्रमिव सीरिणम् ॥ ८७॥ स्नेहात पुरुषसिंहोऽपि तं प्रयाणानि कानिचित् । अन्वगात् प्रेमबन्धो हि वैज्रलेपानुहारकः ॥ ८८॥ कथञ्चिद बलभद्रेण प्रत्यादिष्टोऽनुयानतः। तत्रैवास्थाद्धरिः कष्टं यूथभ्रष्ट इव द्विपः ॥८९॥ विनोदैर्विविधैस्तत्र दुःखं भ्रातृवियोगजम् । स यावत् क्षपयंस्तस्थौ तावदागात् पितुः पुमान् ॥ ९०॥ तेनार्पितं पितुर्लेखं मूर्धन्याधत्त माधवः । शीघ्रमागच्छ वत्सेति तत्रैक्षिष्टाक्षराण्यपि ॥ ९१ ॥ स संभ्रान्तस्तमित्यूचे कचित् कुशलमम्बयोः । कुशलं तातपादानां शीघ्राह्वानं च किं मम ? ॥ ९२ ॥ पुरुषोऽप्यनवीदेवमङ्गे दाहज्वरो महान् । उत्पन्नोऽस्तीति देवस्त्वां समाह्वयति सत्वरम् ॥ ९३॥ पितुर्दाहज्वरोदन्ताघ्रातात् सप्तच्छदादिव । विधुरः प्रास्थित हरिर्दुःखं नातः परं सताम् ॥ ९४ ॥ नदी। * न्तौ च प संवृ०॥1ो ताववर्धताम् । संवृ०॥ २ यथा स्वेन निखातं समीपस्थं निधानं गृह्णाति तद्वत् । ३ वज्रलेपसदृशः। ४ निषिद्धः। ५ मात्रोः। Jain Education Interna l For Private & Personal use only A w w.jainelibrary.org Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - त्रिपष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये सर्गः - ॥४२१॥ PROCCCESCORRECOR प्रपेदे च द्वितीयेऽह्नि नगरी खां जनार्दनः । तादृग्दुःखं हि जात्यानां दवाग्नीयेत वर्त्मनि ॥९५॥ चतुर्थ पर्व योज्यमानः खण्ड्यमानैः क्वथ्यमानैरनेकशः । वर्त्यमानैश्च विविधैरौपधैर्व्यग्रकिङ्करम् ।। ९६ ॥ पञ्चमः रसवीर्यविपाक रौपधानां बलाबलम् । विचारयद्भिश्चतुरैवैद्यवयरधिष्ठितम् ॥ ९७॥ आत्मरक्ष रक्ष्यमाणतुमुलं करसंज्ञया । द्वाःस्थैर्धसंज्ञया दूरे स्थाप्यमानं भिषग्जनम् ॥ ९८॥ श्रीधर्मज्वरातेनाश्रितं पित्रा प्रविश्य सदनं हरिः। आहरन्निव तदुःखमभृत् तदुःखदुःखितः ।। ९९ ॥ नाथजिन॥ चतुर्भिः कलापकम् ।। चरितम्। प्राणमच पितुः पादौ पाणिभ्यां संस्पृशन् हरिः। बाप्पायमाणैर्नयनः स्नपयन्निव भक्तितः ॥१०॥ शिवः सुतकरस्पर्शाद् बाढमाश्वसिति स्म च । इष्टस्य दर्शनेनापि शं स्यात् स्पर्शन किं पुनः१ ॥१०१॥13 भूयो भूयोऽपि शिवराट् संस्पृशन् पाणिना सुतम् । रोमाञ्चमधिकं दधे शैत्यमासादयन्निव ॥ १०२॥ शिवराजोऽप्युवाचैवं कथं क्षामतरोदरः । शुष्काघरदलश्च त्वमुर्पदावमिव द्रुमः॥१०३॥ ___अथ विष्णोः पुमानूचे देव ! देवस्य दारुणाम् । श्रुत्वा दशामिमां सद्यस्त्वां द्रष्टुमचलद्धरिः॥१०॥ द्वाभ्यां दिनाभ्यां चात्रागादभुञ्जानोऽपिवन पयः। त्वत्पादान संस्मरन् भक्त्या स्मृतविन्ध्य इव द्विपः॥१०५ आकर्ण्य तच द्विगुणं दुःखभागादिशच्छिवः । गण्डे पिटकवच्चक्रे किमनर्थान्तरं त्वया?॥१०६ ॥ ॥४२१ ॥ 1 कुलीनानाम् । * "मानमि का० । 'मानान्तिपज्जनम् । संवृ०॥ का. आदर्श नास्ति पदद्वयम् । २ सुखम् । | ३ अतिशयेन कृशमुदरं यस्य सः। ४ दावानलसमीपे। भागदि संवृ०॥ ५ स्फोटकस्योपरि स्फोटकवत् । पिक इव | चक्रे संवृ०॥ Jain Education Intel Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि ७२ Jain Education Intern गत्वा सपरिवारोऽपि भोजनावसरं कुरु । सर्वार्थसाधकः कायश्चलत्येष हि भोजनात् ॥ १०७ ॥ एवं पित्रा समादिष्टो भूयो भूयोऽपि साग्रहम् । सदुःखो बुभुजे किश्चिद् विष्णुः समददन्तिवत् ॥ १०८ ॥ श्रीखण्डमप्यनादायावसानश्वान्यवाससी । नाटयन्नतिदुःखेनावतप्ते नकुलस्थितम् ॥ १०९ ॥ भुक्तमात्रो निजावासात् पादचारी जनार्दनः । पितुर्जगाम सदनं दीनाशेषपरिच्छदः ॥ ११० ॥ युग्मम् ॥ तत्र च प्रविशन् विष्णुर्जननीद्वाःस्थयैकया । अग्रेभूत्वा सकरुणं व्यज्ञपीदमुदश्रिया ॥ १११ ॥ कुमार ! परित्रायस्व परित्रायस्व नन्वसौ । जीवत्यपि महाराजे देवीदं दुर्व्यवस्यति ॥ ११२ ॥ तदाकर्ण्य वचो विष्णुः संभ्रान्तो मातुरालयम् । जगाम वीक्षाञ्चक्रे च मातरं ब्रुवतीमिति ॥ ११३ ॥ पतिप्रसादादुद्भूता ये प्राज्या रत्नराशयः । अनन्तं काञ्चनं यच्च ये वा रजतसंचयाः ॥ ११४ ॥ मुक्तामया वज्रमया जात्यरत्नमयाश्च ये । संमिश्रा ये च नेपथ्यसमुद्रदायाः सहस्रशः ।। ११५ ॥ यच्चान्यत् कोशसर्वस्वं सप्तक्षेत्र्यां तदर्प्यताम् । महापथप्रस्थितानां पाथेयं हीदमादिमम् ॥ ११६ ॥ पत्युर्विपेत्तौ वैधव्यसहाऽस्मि न मनागपि । अहं तदग्रे यास्यामीत्यनलः सज्यतां द्रुतम् ॥ ११७ ॥ इति ब्रुवाणां जननीं जननीं दुःखसंपदः । उपेत्य नत्वा च हरिर्व्याहरद् गद्गदाक्षरम् ॥ ११८ ॥ मातर्मातस्त्वमपि मां मन्दभाग्यं किमुज्झसि । अहो ! विरुद्धं मे दैवं देव्यैवं यत् प्रचक्रमे ॥ ११९ ॥ अम्मादेव्यप्युवाचैवं तज्ज्ञैः सम्यक् परीक्षितः । त्वत्तातस्योपस्थितोऽयं रोगः प्राणहरो हरे ! ॥ १२० ॥ * दृणुः सगद्गदं वदन् । सं० ॥ १ मदसहितो गजो यथा सदुःखं स्वरूपं भुङ्क्ते तद्वत् । २ चन्दनम् । ३ अवतसे स्थाने नकुलदश्रया । संवृ० का० ॥ ४ अयोग्यं व्यवस्यतीत्यर्थः । ५ मरणे । ६ जनयित्रीम् । 'क्षरः । संबृ० का० । ७ वैद्येरित्यर्थः । स्थितिवत् । Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका चतुर्थ पर्व पुरुषचरिते महाकाव्ये पञ्चमः | सर्गः श्रीधर्मनाथजिनचरितम् । ॥४२२॥ नालं क्षणमपि श्रोतुं विधवेत्यक्षराण्यहम् । कौसुम्भधारिणी यासाम्यग्रतस्त्वरिपतस्ततः ॥ १२१ ॥ कृतार्थ मेऽभवजन्म पत्या शिवमहीभुजा । पुत्र! त्वया च पुत्रेण पञ्चमेनार्धचक्रिणा ॥ १२२॥ पत्युर्विपत्तौ यास्यन्ति मत्प्राणाः खयमेव हि । त्यक्ष्यामि तान् प्रविश्यानौ मा भन्मे हीनसत्त्वता॥१२३॥ तत्क्षत्रियकुलाचारमाचरन्त्या ममाधुना । मा स भूरन्तरायस्त्वं वत्स! वात्सल्यतोऽपि हि ॥ १२४॥ समं सुदर्शनेन त्वं पुत्र! नन्द ममाशिषा । पत्युरो प्रयाम्येषा कृष्णवत्मैकवर्त्मना ॥ १२५ ॥ अन्तिमां प्रार्थनां तेऽद्य कुमारैनां करोम्यहम् । निषेधकं विधेरैस्य त्वया वाच्यं न किश्चन ॥ १२६ ॥ एवमुक्त्वा तु सा स्वामिविपच्छ्रवणकातरा । परलोकपुरद्वारं प्रवेष्टुमनलं ययौ ॥ १२७ ॥ दुःखानुबन्धिभिर्दुःखैः श्लथाङ्गो वीवधैरिव । समेऽपि प्रस्खलत्पादः पितुः पाश्वं ययौ हरिः॥१२८ ।।। स्मरन् खां मातरं पश्यंस्तथा पितरमातुरम् । प्रतीकारासहो विष्णुः क्लीवमान्यपतद् भुवि ॥ १२९॥ | राजा दाहज्वरार्तोपि बभाषे धैर्यमाश्रयन् । किमेतद् वत्स ! कातयं स्वकुलानुचितं तव ॥ १३०॥ इयं हि त्वद्भजाधारा वत्स! देवी वसुंधरा । अधैर्यानिपतनस्यां कथं नाम न लजसे ॥१३१॥ त्वय्युच्चैः पुरुषसिंह इत्याख्याकारिणो मम । अज्ञानकारितां मा दास्त्वमेवं धैर्यमुत्सृजन् ।। १३२ ॥ एवं शाङ्गिणमाश्वास्य शिवराजः शिवाशयः । कालधर्म ययौ सायं कः कालं जेतुमीश्वरः ॥ १३३ ॥ श्रुत्वा च मूञ्छितो विष्णुः पपात धरणीतले । महादुमो वात्ययेव वातेनेव च वातकी ॥ १३४॥ * मदाशि। मु०॥ १ कृष्णवर्मा वह्निः। २ मरणस्य । ३ भारैः । ४ समप्रदेशेऽपि । ५ रोगपीडितम् । ६ रोगोपायासमर्थः । ७ भीरुत्वम् ।।लं यातु मु०॥ ८ झञ्झावातेनेव । ९ वातरोगी पुमान् । ॥४२२॥ Jain Education in For Private & Personal use only Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ सिक्तः पयस्कुम्भैलब्धसंज्ञो जनार्दनः । हा तात! तात! तातेति क्रन्दन्नुत्तिष्ठति स्म च ॥१३५॥ न किं संतप्यते तेऽङ्गं गुणः कस्यौषधस्य वा । प्रत्ययः कस्य वैद्यस्य सुखनिद्राऽथवाऽद्य किम् ॥१३६॥ ब्रूहि तात! प्रसादं मे कृत्वेति स्नेहमोहितः। प्रललाप क्षणं विष्णुर्विललाप च तत्क्षणम् ॥ १३७ ॥ शाङ्गभृद् धैर्यमादाय गोत्रवृद्धैः प्रबोधितः । अग्नौ पित्रङ्गसंस्कारं चकारागुरुचन्दनैः ॥ १३८॥ विधाय च निवापादि खपर्षदि निषद्य च । बलाय प्राहिणोल्लेखं पितृव्यापत्तिसूचकम् ॥ १३९ ॥ तं प्रान्तभूपतिं दृप्तं साधयित्वा बलोऽपि हि । दुःखार्तस्तेन लेखेन त्वरमाणः समाययौ ॥१४॥ अन्योऽन्यकण्ठलग्नौ तौ मुक्तकण्ठप्ररोदिनौ । बलदेव-वासुदेवौ रोदयामासतुः सभाम् ॥ १४१ ॥ बोध्यमानावाप्तजनैः कथश्चिद् धैर्यमापतुः। जहतुश्च पितुः स्नेहं मन्दं मन्दमुभावपि ॥ १४२॥ तिष्ठन्तौ विचरन्तौ च जल्पन्तौ मौनसंस्थितौ । दृशोरिवाग्रे पितरं तो ध्येयवदपश्यताम् ॥ १४३ ॥ तावेवं यावदासाते पितृशोकसमाकुलौ । तावदागात् तत्र दूतो निशुम्भस्यार्धचक्रिणः ॥१४४ ॥ द्वाःस्थेन कथितः पूर्व प्रविश्य च तदाज्ञया । बलदेव-वासुदेवौ स नत्वैवमभाषत ॥ १४५॥ श्रुत्वा लोकाच्छिवराजं धर्मराजपथस्थितम् । दधार शोकमस्तोकं निशुम्भः सुप्रभुः स वः ॥१४६॥ युष्मत्पितुः स्मरन् भक्तिं स कृतज्ञशिरोमणिः। युष्मत्पार्थे प्राहिणोन्मामुपदिश्येति वाचिकम् ॥१४७॥ अद्यापि हि युवां बालो द्विषां परिभवास्पदम् । पदं च युवयोः पित्र्यं महदेतन्मयार्पितम् ।। १४८॥ कुमारौ मामुपेत्येह तिष्ठतं निरुपद्रवौ । नदीमध्यस्थितानां हि किं करोति दवानलः ॥१४९॥ ' * दुःखितस्ते मु०॥ । उच्चैःस्वरम् । मौनिनावपि । ह' का० ॥ २ यमराजमार्गस्थितं मृतमित्यर्थः । ३ संदेशम् ।। Jain Education Intel For Private & Personal use only Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थ पर्व पश्चमः सर्गः श्रीधर्मनाथजिन ॥४२३॥ चारतम् । लघीयांसौ गरीयांसौ विधातव्यौ मया युवाम् । चिरं कृताया वां पित्रा भक्तरानृण्यमिच्छता ॥१५॥ इत्युक्तयोस्तयोः क्रोधोऽभृच्छोकश्च न्यवर्तत । रसान्तरेण हि रसो बाध्यते बलवानपि ॥ १५१ ॥ ध्रुवमुन्नमयन्नेकां किश्चित् साचीकृतालिकः । अथावभाषे पुरुषसिंहः सिंह इव क्रुधा ॥ १५२ ॥ इक्ष्वाकुकुलचन्द्रस्य तस्य विश्वोपकारिणः । अस्मत्पितुरस्तमये कस्कोऽभून्न शुचां पदम् ॥ १५३ ॥ राजानोऽन्येऽपि शुशुचुनिशुम्भोऽपि शुशोच यत् । तेन पैशून्यमस्य स्याद् दद्याच्चेन्नेति वाचिकम् ॥ १५४॥ बालकस्यापि सिंहस्य को हि देशं प्रयच्छति । प्रवर्धयति तं को वा कुतस्तस्य पराभवः ॥ १५५॥ इदानीमावयोरेवं स जल्पन किं न लज्जते । आप्तत्वव्याजतोऽस्माकं न्यकारी स द्विषन् खलु ॥ १५६॥ सोऽस्तु मित्रममित्रो वोदासीनो वा तव प्रभुःनिरपेक्षा वयं तस्य दोरपेक्षैव दोष्मताम् ॥ १५७॥ दूतोऽप्यूचे पितृतुल्यममित्रीकुर्वतोऽद्य तम् । सुव्यक्तं बालकत्वं ते 'शैवे! शिवमनिच्छतः॥१५८॥ | त्वमद्याप्यनभिज्ञोऽसि राजनीतेः कुमारक ! । उत्पादयस्परि तत् तं कुक्षिमामृज्य शूलवत् ॥ १५९ ॥ त्वदुक्तं स्वामिने नैतद् वक्ष्ये तत् कुरु मद्वचः। त्वत्प्रसादात् क्षेममस्तु चिरं ते सह बन्धुना ॥१६॥ अन्यथा तु द्विषन् भावी स एव न चिरात् तव । तस्मिन् रुष्टे कूतान्ते च जीवितस्यापि संशयः॥१६१॥ एवं तदुक्त्याऽभ्यधिकमुद्यत्क्रोधोऽभ्यधाद्धरिः । त्वमेव दूत! दूतोऽसि निरपेक्षा खजीविते ॥ १६२ ॥ ____ *कोपोऽभू संवृ० का०॥ १ वक्रीकृतभालः। स्तिसम संवृ०॥ २ यदि स ईदृशं वाचिकं न दद्यात् तस्य | शुचो ज्ञापकं स्यात् तत्तु नास्तीति भावः। ति । तं प्रवर्धयते को हि कु° । संवृ०॥ ३ तिरस्कर्ता। ४ भुजापेक्षा । ५ हे| शिवपुत्र! °क! | तेनोत्पादयसेऽरिं तं संवृ०॥ मद्वचनानुसरणरूपात् स्वरप्रसादादित्यर्थः । ७ यमरूपे। ॥४२३॥ Jain Education Inter ! For Private & Personal use only Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूतानां वाक्प्रपञ्चैकच्छेकानां त्वादृशां गिरा । निर्विषः फेटयेवाहिः स मेषयति पार्थिवान् ।। १६३॥ गच्छ माऽसद्वचो गोप्यं शंस खस्वामिनेऽखिलम् । शत्रुर्भावीति सोऽमाभिर्वध्यकोटौ कृतोऽस्त्यलम्॥१६४॥ एवमुक्तः ससंरम्भमुत्थाय रभसेन सः । दूतो गत्वा निशुम्भाय सर्वमाख्यद् यथातथम् ॥ १६५॥ तदाकर्ण्य वचः क्रुद्धो निशुम्भोरिनिशुम्भनः । सेनाभिश्छादयनुवर्वी प्रतस्थेऽश्वपुरं प्रति ॥१६६॥ निशुम्भं प्रस्थितं श्रुत्वा विष्णुनाऽप्यरिजिष्णुना । सद्यः सर्वाभिसारेण प्रतस्थे साग्रजन्मना ॥१६७॥ निशुम्भ-पुरुषसिंहौ मिथः प्रमथनोचती । संगच्छेते स्मार्धमार्गे मत्ताविव वनद्विपौ ॥ १६८॥ युध्यन्ते स द्वयोः सैन्याः क्षोभयन्तोऽपि रोदसी । क्ष्वेडा-कार्मुकटङ्कार-करास्फालनशब्दितैः॥ १६९ ॥ अजनिष्ट क्षणेनापि क्षयकाल इव क्षयः । अक्षौहिण्योरुभयोरप्यात्मरक्षानपेक्षयोः ॥ १७० ॥ अन्वीयमानो हलिना पवनेनेव पावकः । पाञ्चजन्यमपूरिष्ट शार्ङ्गधन्वा रथस्थितः॥ १७१ ॥ महता तन्निनादेन परसैन्यानि सर्वतः । पतत्कुलिशनि?षेणेव घोरेण चुक्षुभुः॥१७२ ॥ तिष्ठ तिष्ठ मॅटम्मन्येत्युच्चकैराक्षिपन्नथ । रथी प्रतिहरिर्यो सुपतस्थे हरिं प्रति ॥ १७३ ॥ आस्फालयामासतुस्तौ हरि-प्रतिहरी धनुः । कोपानमनिजनिजभ्रकुटीमङ्गभीषणम् ॥ १७४॥ अवर्षतामुभौ बाणैर्धारासारैरिवाम्बुदौ । सिंहनादेस्त्रासयन्तौ मृगीरिव नभश्वरीः॥१७५ ॥ कश्चतुः। २ फणया। *सहि मेषयते नपान् । संवृ०॥ ३ वध्यगणनायाम् । “वेडा सिंहशब्दः । CI५ अशिः। कुलिशं वनम् । . आरमान भटं मन्यमानः । विद्याधरीः। Jain Education in d er INE For Private & Personal use only . Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थ पर्व पञ्चमः सर्गः श्रीधर्मनाथजिनचरितम् ॥४२४॥ निरन्तरं निपतितैर्विशिखप्रकरैस्तयोः । बभार रणभूर्वेत्रच्छन्नवारिधिविभ्रमम् ॥ १७६ ॥ करमुक्तैर्यत्रमुक्तमुक्तामुक्तैरथापरैः। आयुधैर्युयुधाते तो युद्धाम्भोधितिमिङ्गिलौ ॥ १७७॥ ज्वलज्वालालिजिह्वालं करालं तीक्ष्णधारया । वजीव वजं ससार निशुम्भश्चक्रमुच्चकैः ॥ १७८॥ स्मृतमात्रोपस्थितं तदङ्गल्या भ्रमयन् दिवि । साँवष्टम्भोऽभ्यधत्वं निशुम्भः क्षोभणं वचः ॥ १७९॥ अनुकम्प्योऽसि बालोऽसि का लजा तेऽपसर्पतः। तद्गच्छ मां वा सेवख किं ते वाजपिन मत्रवत् ॥१८॥ चक्रेणानेन मुक्तेन दारयामि गिरीनपि । तवाभिनवकूष्माण्डकोमलस्य तु का कथा ॥ १८१॥ ऊचे पुरुषसिंहोऽथ तवेत्युर्जितगर्जितः। ओजश्चक्रस्य च प्रेक्ष्यमन्यास्त्रैः किं कृतं त्वया ॥१८२॥ शैक्रधन्वेव मेघेन त्वया चक्रमिदं धृतम् । किं मे करिष्यते मूढ! मुश्च पश्याम्यमोघताम् ॥ १८३॥ एवं पुरुषसिंहेन भाषितः परुषाक्षरम् । सर्वोजसाऽमुचच्चक्रं निशुम्भो निशुशुम्भिषुः॥१८४॥ हरेरुरसि तुम्बाग्रभागेनास्फाल्य तद्रयात् । मोघीबभूव विन्ध्याद्रेस्तट्यामिव महागजः ॥ १८५॥ मूर्च्छया पुण्डरीकाक्षो मुकुलाक्षोऽपतत् ततः। मुंशलास्त्रेण सिषिचे चाथ गोशीर्षचन्दनः ॥ १८६ ॥ उत्थाय लब्धसंज्ञस्तच्चक्रमादाय पाणिना। मा तिष्ठ गच्छ गच्छेति निशुम्भं प्रत्यभाषत ॥ १८७ ॥ मुंश्च मुश्चेति वदतो निशुम्भस्य शिरस्ततः । चकर्त तेन चक्रेणार्धचक्री सोऽथ पञ्चमः॥१८८॥ बाणसमूहै।। २ युद्धमेव समुद्रस्तमिस्तिमिङ्गिलौ मत्स्यविशेषौ। ३ सगर्वः। ४ श्वाऽपि तव विचारदाता किं नास्ति ।। * 'गर्वितम् । ओ० संवृ.॥ ५ इन्द्रचापः। ६ हन्तुमिच्छुः। विफलीवभूव। ८ मुशलमत्रं यस्य तेन बलदेवेन। AGARAACAGRA ॥४२४॥ Jain Education in For Private & Personal use only Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Int पुष्पवृष्टिरेर्मूर्ध्नि मूर्धन्यस्य तैरखिनाम् । पपात गगनात् सद्यो जयश्रीहाससन्निभा ॥ १८९ ॥ तयैव यात्रा विष्णुर्भरतार्घमसाघयत् । सहस्रधा हि फलति व्यवसायो महात्मनाम् ॥ १९० ॥ दिग्यात्राया निवृत्तोऽथ मगधेष्वागतो हरिः । दोष्णोदधे कोटिशिलां मृत्पात्रमिव लीलया । १९१ ॥ मेदिनीं छादयन्नश्वर्य याच श्वपुरं हरिः । विवेशितः पुरस्त्रीभिः कल्पितार्थः पदे पदे ॥ ९९२ ॥ तत्र लाङ्गलिनाsन्यैश्च राजभिर्भक्तिराजिभिः । अर्धचक्रधरत्वाभिषेकोऽक्रियत शार्ङ्गिणः ।। १९३ ॥ इतश्च भगवान् धर्मश्छद्मस्थो वत्सरद्वयम् । विहृत्याभ्यागमद् दीक्षोपवनं वप्रकाञ्चनम् ।। १९४ ॥ दधिपर्णतले तत्र ध्यानान्तरेंजुषः प्रभोः । पुष्ये मे पौषराकायां षष्ठेनाजनि केवलम् ।। ९९५ ।। दिव्ये समवसरणे देशनां विदधे विभुः । अरिष्टादीन् गणभृतस्त्रिचत्वारिंशतं तथा ।। १९६ ॥ तत्तीर्थभूः किंनराख्यख्यास्यः कूर्मरथोऽरुणः । दक्षिणैस्तु मातुलिजिंगदाभृदभयप्रदैः ॥ १९७ ॥ arted नकुलपद्माक्षमालामालिभिर्भुजैः । भ्राजिष्णुर्धर्मनाथस्य जज्ञे शासनदेवता ॥ १९८ ॥ तथोत्पन्ना च कन्दर्पा गौराङ्गी मत्स्यवाहना । उत्पलाङ्कुशधारिभ्यां दक्षिणाभ्यां विराजिता ॥ १९९ ॥ दोभ्यां तदितराभ्यां च पद्मिनाऽभयदेन च । प्रभोः शासनदेव्यासीत् सदा सन्निधिवर्तिनी ॥ २०० ॥ सेव्यमानः सदा ताभ्यां विहरन्नवनीमिमाम् । अपरेद्युरुपागच्छत् पुरमश्वपुरं प्रभुः ॥ २०१ ॥ सद्यः समवसरणं चक्रे शक्रादिभिः सुरैः । चत्वारिंशत्पश्ञ्चधन्वशतोच्चाशोकपादपम् ॥ २०२ ॥ १ बलवताम् । २ मृत्तिकापात्रम् । * रमुपेयुषः । पु० [सं० ॥ ३ त्रिमुखः । ख्याक्षः कू सं० ॥ °लिङ्गग" संवृ० ॥ श्रीधर्मनाथजिनस्य कैवल्यं सम वसरणं च । Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थ पर्व पश्चमः सर्गः श्रीधर्मनाथजिनचरितम् । ॥४२५॥ तत्र प्रविश्य कृत्वा च चैत्यवृक्षप्रदक्षिणाम् । नत्वा च तीर्थमध्यास्त पूर्वसिंहासनं प्रभुः ॥ २०३॥ रत्नसिंहासनस्थानि प्रतिबिम्बान्यथ प्रभोः। ताशि व्यन्तराश्चक्रुस्तिसृष्वन्यासु दिक्ष्वपि ॥ २०४॥ यथास्थानं प्रविश्यास्थात् संघोऽपि स्वामिपर्षदि । तिर्यश्चो मध्यवप्रेऽस्थुस्तृतीये वाहनानि तु ॥ २०५॥ उपेत्य शीघ्रं पुरुषसिंहायायुक्तपूरुषाः । स्वामिनं समवसृतमाख्यनुत्फुल्लचक्षुषः ॥ २०६॥ तेभ्यो द्वादश रूप्यस्य कोटीः सार्धा वितीर्य सः। आगात् समवसरणं सुदर्शनसमन्वितः ॥ २०७॥ प्रभुं प्रदक्षिणीकृत्य नमस्कृत्य च भक्तितः। साग्रजोऽनुसहस्राक्षमुपाविक्षदधोक्षजः ॥ २०८॥ भूयोऽपि खामिनं नत्वा शक्रशाङ्गिसुदर्शनाः । स्वामिभक्तावसंतुष्टा इति तुष्टुवुरुन्मुदः ।। २०९॥ विजयख जैगच्चक्षुश्चकोरान्दचन्द्रमः। मिथ्यात्वध्वान्तमार्तण्ड! धर्मनाथ! जगत्पते ॥ २१ ॥ चिरं व्यहाश्छिद्मस्थो गैतछया तथाऽप्यसि । अनन्तदर्शनोऽपि त्वं दर्शनान्तरबाधकः ॥ २११॥ त्वद्देशनापयःपूरैः परितः प्लावितात्मनाम् । असाय कर्ममालिन्यमपयाति शरीरिणाम् ॥ २१२॥ तथा न मेघच्छायासु तरुच्छायासु नापि वा । यथा शाम्यति संतापः पादमूले तव प्रभो! ॥ २१३ ॥ इह त्वदर्शनालोकनिस्यन्दवपुषः प्रभो।। पाञ्चालिकावदुत्कीर्णा इव भान्ति शरीरिणः ॥ २१४ ॥ पृथग्विरुद्धमप्येतदेकत्र मिलितं चिरात् । त्वत्प्रभावाजगद्वन्धो ! बन्धूभृतं जगत्रयम् ॥ २१५ ॥ त्रिखण्डभरतक्षेत्रमूलायतनदैवत!। अनन्यशरणानसांस्त्रायस्ख परमेश्वर। ॥ २१६ ॥ १सेवकाः। २ विष्णुः। ३ सहर्षाः । . जगतां चक्षुरेव चकोरस्तस्यानन्दे चन्द्रसमः। ५ गतं छल कपटं बस्य सः। शीघ्रम् ।. . . ॥४२५॥ Jain Education Intel For Private & Personal use only Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education भूयो भूयो जगन्नाथ ! त्वामदः प्रार्थयामहे । त्वत्पादपङ्कजद्वन्द्वेऽस्मन्मनो भ्रमरायताम् ॥ २१७ ॥ एवं स्तुत्वा विरतेषु शक्र - केशव -सीरिषु । विदधे भगवान् धर्मखाम्येवं धर्मदेशनाम् ॥ २९८ ॥ चतुर्वर्गेऽग्रणीर्मोक्षो योगस्तस्य च कारणम् । ज्ञान - श्रद्धान- चारित्ररूपं रत्नत्रयं च सः ॥ २१९ ॥ तत्वानुगा मतिर्ज्ञानं सम्यक् श्रद्धा तु दर्शनम् । सर्वसावद्ययोगानां त्यागश्चारित्रमिष्यते ।। २२० ।। आत्मैव दर्शन -ज्ञान- चारित्राण्यथवा यतेः । येत् तदात्मक एवैष शरीरमधितिष्ठति ।। २२१ ॥ आत्मानमात्मना वेति मोहत्यागाद् य आत्मनि । तदेव तस्य चारित्रं तज्ज्ञानं तच्च दर्शनम् ॥ २२२ ॥ आत्माऽज्ञानभवं दुःखमात्मज्ञानेन हन्यते । तपसाऽप्यात्मविज्ञानहीनैश्छेत्तुं न शक्यते ॥ २२३ ॥ अयमात्मैव चिद्रूपः शरीरी कर्मयोगतः । ध्यानाग्निदग्धकर्मा तु सिद्धात्मा स्यान्निरञ्जनः ॥ २२४ ॥ अयमात्मैव संसारः कषायेन्द्रियनिर्जितः । तमेव तद्विजेतारं मोक्षमाहुर्मनीषिणः ।। २२५ ।। स्युः कषायाः क्रोध-मान-माया-लोभाः शरीरिणाम् । चतुर्विधास्ते प्रत्येकं भेदैः संज्वलनादिभिः ॥२२६॥ पक्षं संज्वलनः प्रत्याख्यानो मासचतुष्टयम् । अप्रत्याख्यानको वर्ष जैन्मानन्तानुबन्धकः ।। २२७ ॥ वीतराग-यति-श्राद्ध-सम्यग्दृष्टित्वघातकाः । ते देवत्व-मनुष्यत्व- तिर्यक्त्व- नरकप्रदाः ॥ २२८ ॥ तत्रोपतापकः क्रोधः क्रोधो वैरस्य कारणम् । दुर्गतेर्वर्तनी' क्रोधः क्रोधः शमसुखार्गला ॥ २२९ ॥ १ मोक्षस्य । २ योगः । * ज्ञानं तत्त्वावबोधः स्यात् स० सं० ॥ ३ यत् यस्मात् कारणात् दर्शन- ज्ञान चारित्रास्मक एवैष आत्मा ॥ ४ आत्मनोऽज्ञानभवम् । ५ कथायेन्द्रियजेतारं तमात्मानमेव मोक्षमाहुः । ६ जम्मपर्यन्तम् । ७ संज्वलनो वीतरागश्वघातकः प्रत्याख्यानश्च यतित्वघातक इत्याद्यनुक्रमेण । ८ संज्वलनो देवत्वप्रद इत्यादि । ९ मार्गः । श्रीधर्मनाथजिनस्य धर्मदेशना । Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते महाकाव्ये ॥४२६ ॥ Jain Education In उत्पद्यमानः प्रथमं दहत्येव स्वमाश्रयम् । क्रोधः केशानुवत् पश्चादन्यं दहति वा न वा ॥ २३० ॥ अर्जितं पूर्वकोव्या यद्वर्षैरष्टभिरूनया । तपस्तत्तत्क्षणादेव दहति क्रोधपावकः ॥ २३९ ॥ शमरूपं पयः प्राज्य पुण्यसंभारसंचितम् । अमर्षविषसंपर्कादसेव्यं तत्क्षणाद् भवेत् ॥ २३२ ॥ चारित्रचित्ररचनां विचित्रगुणधारिणीम् । समुत्सर्पन् क्रोघधूमो न्यामलीकुरुतेतमाम् ॥ २३३ ॥ यो वैराग्यशमीपत्र पुटैः शमरसोऽर्जितः । शाकपत्रपुटा भेन क्रोधेनोत्सृज्यते स किम् ॥ २३४ ॥ प्रवर्धमानः क्रोधोऽयं किमकार्यं करोति न । भाविनी द्वारका द्वैपायनक्रोधानले समित् ॥ २३५ ॥ क्रुध्यतः कार्यसिद्धिर्यान सा क्रोधनिबन्धना । जन्मान्तर रार्जितोर्जस्वि कर्मणः खलु तत् फलम् ॥ २३६ ॥ स्वस्थ लोकद्वयोच्छियै नाशाय स्व- परार्थयोः । धिगहो ! दधति क्रोधं शरीरेषु शरीरिणः ।। २३७ ॥ क्रोधान्धाः पश्य निम्नन्ति पितरं मातरं गुरुम् । सुहृदं सोदरं दारानात्मानमपि निर्घुणाः ॥ २३८ ॥ क्रोधवस्तदह्नाय शमनाय शुभात्मभिः । श्रयणीया क्षमैकैव संयमारामसारणिः ॥ २३९ ॥ अपकारिजने कोपो निरोद्धुं शक्यते कथम् । शक्यते सच्च माहात्म्याद् यद्वा भावनयाऽनया ॥ २४० ॥ अङ्गीकृत्यात्मनः पापं यो मां बाधितुमिच्छति । स्वकर्मनिहता यामै कः कुप्येद् बालिशोऽपि सन् ॥ २४९ ॥ प्रकुप्याम्यपकारिभ्य इति वेदाशयस्तव । तत् किं न कुप्यसि स्वस्य कर्मणे दुःखहेतवे ॥ २४२ ॥ १ अनिवत् । २ अमर्षः क्रोधः स एव विषं तस्य संबन्धात् । ३ अतिशयेन मलिनीकुरुते । ५ निबन्धनं कारणम् । ६ निर्दयाः । ७ संयम एवारामस्तस्य सारणिः कुल्या ८ स्वेनैव कर्मणा निहताय ४ काष्ठरूपा भविष्यति । । ९ मूर्खोऽपि । चतुर्थ पर्व पञ्चमः सर्गः श्रीधर्मनाथजिनचरितम् । ॥४२६॥ . Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RRCACA उपेक्ष्य लोष्टक्षेसारं लोष्टं दशति मण्डल: । मृगारिः शरमुत्प्रेक्ष्य शरक्षेप्तारमृच्छति ॥ २४३॥ . यैः परः प्रेरितः क्रूरैर्मह्यं कुप्यति कर्मभिः । तान्युपेक्ष्य परे क्रुध्यन् किं श्रये भैषणश्रियम् ।। २४४॥ भावी ह्यहन्महावीरः क्षान्त्यै म्लेच्छेषु यास्यति । अयत्नेनागतां क्षान्ति वोढुं किमिव नेच्छसि ॥२४५॥ त्रैलोक्यप्रलयत्राणक्षमाश्चेदाश्रिताः क्षमाम् । कदलीतुल्यसत्त्वस्य क्षमा तव न किं ामा ॥ २४६॥ तथा किं नाकृथाः पुण्यं यथा कोऽपि न बाधते । स्वप्रमादमिदानीं तु शोचन्नङ्गीकुरु क्षमाम् ॥ २४७॥ क्रोधान्धस्य मुनेश्चण्डचण्डालस्य च नान्तरम् । तसात् क्रोधं परित्यज्य भजोज्वलधियां पदम् ॥ २४८॥ महर्षिः क्रोधसंयुक्तः निःक्रोधः कूरगड्डकः । ऋषि मुक्त्वा देवताभिः स्तोष्यते कूरगडकः ॥ २४९॥ अरुन्तुदैर्वचःशस्वैस्तुद्यमानो विचिन्तयेत् । चेत् तथ्यमेतत् का कोपोऽथ मिथ्योन्मत्तभाषितम् ॥ २५०॥ वधायोपस्थितेऽन्यस्मिन् हसेद् विसितमानसः । वधे मत्कर्मसंसाध्ये वृथा नृत्यति बालिशः॥ २५१॥ निहन्तमद्यते ध्यायेदायुषः क्षय एष नः । तदसौ निर्भयः पापात् करोति मृतमारणम् ॥ २५२॥ सर्वपुरुषार्थ चौरे कोपः कोपे न चेत् तव । धिक् त्वां स्वल्पापराधेऽपि परे कोपपरायणम् ॥ २५३ ॥ सर्वेन्द्रियग्लानिकरं प्रसर्पन्तं ततः सुधीः । क्षमया जीङ्गुलिकया जयेत् कोपमहोरगम् ॥ २५४॥ विनयश्रुतशीलानां त्रिवर्गस्य च घातकः । विवेकलोचनं लुम्पन्मानोऽन्धंकरणो नृणाम् ॥२५५॥ जाति-लाभ-कुलेश्वर्य-बल-रूप-तपः-श्रुतैः । कुर्वन् मदं पुनस्तानि हीनानि लभते जनः ।। २५६ ॥ श्वानः । २ शत्रुः । ३ भषणः श्वानः । * नेच्छति ॥ मु० ॥ ४ समर्था । ५ मर्मच्छिन्दिः। ६ सर्पापहारिण्या विद्यया । भवान्तरे इत्यर्थः । Jain Education a l For Private & Personal use only RE Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ पर्व पञ्चमः त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये सर्गः श्रीधर्मनाथजिनचरितम्। ॥४२७॥ जातिभेदान्नैकविधानुत्तमाधममध्यमान् । दृष्ट्वा को नाम कुर्वीत जातु जातिमदं सुधीः ॥ २५७ ॥ उत्तमा जातिमामोति हीनामामोति कर्मतः । तत्राशाश्वतिकी जाति को नामासाद्य माद्यतु ॥ २५८ ॥ अन्तरायक्षयादेव लाभो भवति नान्यथा । ततश्च वस्तुतत्त्वज्ञो नो लाभमदमुद्हेत् ॥ २५९ ॥ परप्रसादशक्त्यादिभवे लाभे महत्यपि । न लाभमदमृच्छन्ति महात्मानः कथञ्चन ॥२६॥ अकुलीनानपि प्रेक्ष्य प्रज्ञाश्रीशीलशालिनः । न कर्तव्यः कुलमदो महाकुलभवैरपि ॥ २६१॥ किं कुलेन कुशीलस्य सुशीलस्यापि तेन किम् । एवं विदन् कुलमदं विदध्यान्न विचक्षणः ॥ २६२ ॥ श्रुत्वा त्रिभुवनैश्वर्यसंपदं वैज्रधारिणः । पुर-ग्राम-धनादीनामैश्वर्ये कीदृशो मदः ॥ २६३॥ गुणोज्वलादपि भ्रश्येद् दोषवन्तमपि श्रयेत् । कुशीलस्त्रीवदैश्वर्यं न मदाय विवेकिनाम् ॥ २६४ ॥ महाबलोऽपि रोगाधरबलः क्रियते क्षणात । इत्यनित्यबले पुंसां युक्तो बलमदो न हि ॥ २६५॥ बलवन्तोऽपि जैरसि मृत्यौ कर्मफलान्तरे । अबलाश्चेत् ततो हन्त ! तेषां बलमदो मुधा ॥ २६६ ॥ सप्तधातुमये देहे चयापचयधर्मणः। जरा-रुजादिभावस्य को रूपस्य मदं वहेत् ॥ २६७॥ सनत्कुमारस्य रूपं भावि श्रुत्वा च तत्क्षयम् । को वा सकर्णः स्वमेऽपि कुर्याद् रूपमदं किल । ॥२६॥ नाभेयस्य तपोनिष्ठां श्रुत्वा वीरजिनस्य च । को नाम स्वल्पतपसि स्वकीये मदमाश्रयेत् ? ॥ २६९॥ येनैव तपसा त्रुध्येत् तरसा कर्मसंचयः। तेनैव मददिग्धेन वर्धते कर्मसंचयः॥२७॥ * जातिलाभमदं सु० संवृ०॥ भनित्याम् । २ परस्य राजादेः प्रसादः शक्तिः प्रभुत्वादिस्तदादेरूपये। कुलेन । | इन्द्रस्य । ५नश्येत् । ६ कुछटाखीवत् । ७ वृद्धत्वे। ८ आदिनाथस्य ऋषभस्य । ९शीघ्रम्। १० मदलिप्लेन । XXXX ॥४२७॥ Jain Education Intan For Private & Personal use only Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि ७३ Jain Education I स्वबुद्ध्या रचितान्यन्यैः शास्त्राण्याघ्राय लीलया । सर्वज्ञोऽस्मीति मदवान् खकीयाङ्गानि खादति ॥ २७९ ॥ श्रीमद्गुणधरेन्द्राणां श्रुत्वा निर्माणधारणम् । कः श्रयेत श्रुतमदं सकर्णहृदयो जनः ॥ २७२ ॥ उत्सर्पयन् दोषशाखां गुणमूलान्यधो नयन् । उन्मूलनीयो मानदुस्तन्मार्दवसरित्प्लवैः ॥ २७३ ॥ मार्दवं नाम मृदुता तच्चौद्धत्यनिषेधनम् । मानस्य पुनरौद्धत्यं स्वरूपमनुपाधिकम् ॥ २७४ ॥ अन्तः स्पृशेद् यत्र यत्रौद्धत्यं जात्यादि गोचरम् । तत्र तस्य प्रतीकारहेतोर्मार्दवमाश्रयेत् ।। २७५ ।। सर्वत्र मार्दवं कुर्यात् पूज्येषु तु विशेषतः । येन पापाद् विमुच्येत पूज्यपूजाव्यतिक्रमात् ॥ २७६ ॥ मानाद् बाहुबलिर्बद्धो लताभिरिव पाप्मभिः । मार्दवात् तत्क्षणं मुक्तः सद्यः संप्राप केवलम् ॥ २७७ ॥ चक्रवर्ती त्यक्तसंगो वैरिणामपि वेश्मसु । भिक्षायै यात्यहो ! मानच्छेदाय मृदुमार्दवम् ॥ २७८ ॥ चक्रवर्त्यपि तत्कालदीक्षितो रङ्कसाधवे । नमस्यति त्यक्तमानचिरं च वैरिवस्यति ॥ २७९ ॥ एवं च मानविषयं ज्ञात्वा दोषमशेषतः । अश्रान्तमाश्रयेद् धीमांस्तन्निरासाय मार्दवम् ॥ २८० ॥ अनृतस्य जननी परशुः शीलशाखिनः । जन्मभूमिरविद्यानां माया दुर्गतिकारणम् ॥ २८९ ॥ कौटिल्यपटवः पापा मायया बकवृत्तयः । भुवनं वञ्चयमाना वञ्चयन्ते स्वमेव हि ॥ २८२ ॥ १ अन्यैराचार्यैः स्वबुद्ध्या लीलामात्रेण रचितानि शास्त्राण्याघ्राय किञ्चिज्ज्ञात्वेत्यर्थः । * रणे । कः संवृ० ॥ २ विस्तारयन् । ३ अमृदु कठिनं च तम्मार्दवं चेत्यमृदुमार्दवम् । ४ नमस्यति नमः करोति पूजयतीत्यर्थः । ५ वरिवस्यति वरिषः करोति सेवते इत्यर्थः । अत्र 'नमस्' ' वरिवस्' इत्यतः "नमोषरिवश्चित्र ङ्गोऽर्चासे वाऽऽश्वयें" [३.४.३१ ] इति सूत्राद् अर्थायाम्, सेवायाम् च यथाक्रमेण क्यन् प्रत्ययाद् नमस्यति, दरिवस्यति इति सिद्ध्यतः । ६ निरन्तरम् । ७ असत्यस्य । . Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका चतुर्थ पर्व पञ्चमः पुरुषचरिते सर्गः महाकाव्ये श्रीधर्मनाथजिनचरितम् । ॥४२८॥ कूटपाडण्ययोगेन च्छलाद् विश्वस्तघातनात् । अर्थलोभाच्च राजानो वश्चयन्तेऽखिलं जगत् ॥ २८३ ॥ तिलकैर्मुद्रया मन्त्रैः क्षामतादर्शनेन च । अन्तःशून्या बहिःसारा वञ्चयन्ति द्विजा जनम् ॥ २८४ ॥ कूटाः कूटतुलामानार्डऽशुक्रियासातियोगतः। वश्चयन्ते जनं मुग्धं मायाभाजो वणिग्जनाः ॥ २८५॥ जटा-मौञ्जी-शिखा-भस-वल्कलाग्यादिधारणैः । मुग्धं श्राद्धं गेर्धयन्ते पाखण्डा हृदि नास्तिकाः॥२८६॥ अरक्ताभिर्भाव-हाव-लीला-गतिविलोकनैः। कामिनो रञ्जयन्तीभिर्वेश्याभिर्वश्चयते जगत् ॥२८७॥ प्रतार्य कूटैः शपथैः कृत्वा कूटकपर्दिकाम् । धनवन्तः प्रतार्यन्ते द्रोदरपरायणः ॥ २८८ ॥ दम्पती पितरः पुत्राः सोदाः सुहृदो निजाः। ईशा भृत्यास्तथाऽन्येऽपि माययाऽन्योऽन्यवञ्चकाः॥२८९॥ अर्थलुब्धा गतघृणा बन्दिकारमलिम्लुचाः । अहर्निशं जागरूकाश्छलयन्ति प्रमादिनम् ॥ २९० ॥ कारवश्चान्त्यजाश्चैव स्वकर्मफलजीविनः। माययाऽलीकशपथैः कुर्वते साधुवश्चनम् ।। २९१॥ व्यन्तरादिकुयोनिस्था दृष्ट्वा प्रायः प्रमादिनः। क्रूराश्छलैबहुविधै धन्ते मानवान् पशून् ।। २९२ ॥ मत्स्यादयो जलचराश्छलात् स्वापत्यभक्षकाः । बध्यन्ते धीवरैस्तेऽपि माययाऽऽनायपाणिभिः ॥२९३॥ नानोपायैZगयुभिर्वश्चनप्रवणैर्जडाः । निबध्यन्ते विनाश्यन्ते प्राणिनः स्थलचारिणः ॥२९४ ॥ ॥४२८॥ असत्यपाहुण्यस्य सन्ध्यादेः प्रयोगेण । २ दीनताप्रदर्शनेन । * °यन्तेऽखिलं ज° संवृ०॥ ३ आशुक्रिया-सत्वरक्रिया । ४मौली-मुनस्य तृणविशेषस्य कटिमेखका। ५ लोभयन्ति । ६ असत्यनाणकम् । दुरोदरः-यूतम् । ८ मङ्गलपाठकरूपेण चौराः। ९ कर्मकराः । १० आनायो जालं पाणी हस्ते येषां तैः। ११ व्याधः। For Private & Personal use only Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नभश्चरा भूरिभेदा वराका लावकादयः । बध्यन्ते माययाऽत्युप्रैः स्वल्पकग्रासगृनुभिः॥ २९५॥ तदेवं सर्वलोकेऽपि परवञ्चकतापराः । स्वस्वधर्म सद्गतिं च नाशयन्ति स्ववञ्चकाः ॥ २९६ ॥ तिर्यग्जातेः परं बीजमपवर्गपुरागला । विश्वासद्रुमदावाग्निर्माया हेया मनीषिभिः ॥ २९७॥ मल्लिनाथः पूर्वभवे कृत्वा मायां तनीयसीम् । मायाशल्यमनुस्खाय स्त्रीभावमुपयास्यति ॥ २९८ ॥ तदाजेवमहौषध्या जगदानन्दहेतुना । जयेज्जगद्रोहकरी मायां विषधरीमिव ।। २९९॥ आर्जवं सरलः पन्था मुक्तिपुर्याः प्रकीर्तितः । आचार्यविस्तरः शेषतपस्त्यागादिलक्षणः ॥३०॥ भवेयुरार्जवजुषो लोकेऽपि प्रीतिकारणम् । कुटिलादुद्विज॑न्ते हि जन्तवः पन्नगादिव ॥ ३०१॥ अजिह्मचित्तवृत्तीनां भववासस्पृशामपि । अकृत्रिमं मुक्तिसुखं वसंवेद्यं महात्मनाम् ॥ ३०२॥ कौटिल्यशङ्कुना क्लिष्टमनसां वञ्चकात्मनाम् । परव्यांपादनिष्ठानां खमेऽपि स्यात् कथं सुखम् ॥ ३०३॥ समग्रविद्यावैदुष्येऽधिगतासु कलासु च । धन्यानामुपजायेत बालकानामिवार्जवम् ॥ ३०४ ॥ अज्ञानामपि बालानामार्जवं प्रीतिहेतवे । किं पुनः संर्वशास्त्रार्थपरिनिष्ठितचेतसाम् ॥ ३०५॥ खाभाविकी हि ऋजुता कृत्रिमा कुटिलात्मता । ततः स्वाभाविकं धर्म हित्वा कः कृत्रिमं श्रयेत् ॥३०६॥ छल-पैशुन्य-चक्रोक्ति-वञ्चनाप्रवणे जने । धन्याः केचिनिर्विकाराः सुवर्णप्रतिमा इव ॥ ३०७ ॥ कावकः पक्षिविशेषः । २ गृपः-लोलुपः। * "यन्तः स्व संवृ०॥ ३ सर्पिणीम् । ४ वस्यन्ति । ५ मजिझः सरलः । ६ संसारे स्थितानामपीत्यर्थः। ७ स्वयं ज्ञयेम् । ८ व्यापादः-नाशः। *तु कुतः सु. का.॥ ९ सर्वशास्त्राणामथे परिनिष्ठितं लमं मनो येषां तेषाम् । Jain Education Inn Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये पञ्चमः सर्गः श्रीधर्मनाथजिनचरितम् । ॥४२९॥ अपि Qताब्धिपारीणाः सर्वे गणभृदुत्तमाः । अहो ! शैक्षाश्चाश्रौषुरार्जवादहतां गिरः॥ ३०८॥ अशेषमपि दुःकर्म ऋज्वालोचनया क्षिपेत् । कुटिलालोचनां कुर्वनल्पीयोऽपि विवर्धते ॥ ३०९॥ काये वचसि चित्ते च समन्तात् कुटिलात्मनाम् । न मोक्षः किन्तु मोक्षः स्यात् सर्वत्राकुटिलात्मनाम् ॥३१०॥ इत्युग्रं कर्म कौटिल्यं कुटिलानां विभावयन । आश्रयेदृजुतामेकां सुधीनिर्वृतिकाम्यया ॥ ३११ ॥ आकरः सर्वदोषाणां गुणग्रसनराक्षसः । कन्दो व्यसनवल्लीनां लोभः सर्वार्थबाधकः ॥ ३१२ ॥ धनहीनः शतमेकं सहस्रं शतवानपि । सहस्राधिपतिर्लक्ष कोटिं लक्षेश्वरोऽपि च ॥ ३१३ ॥ कोटीश्वरो नरेन्द्रत्वं नरेन्द्रश्चक्रवर्तिताम् । चक्रवर्ती च देवत्वं देवोऽपीन्द्रत्वमिच्छति ॥ ३१४॥ इन्द्रत्वेऽपि हि संप्राप्ते यदिच्छा न निवर्तते । मले लघीयांस्तल्लोभः सराव इव वर्धते ॥ ३१५॥ हिंसेव सर्वपापानां मिथ्यात्वमिव कर्मणाम् । राजयक्ष्मेव रोगाणां लोभः सर्वागसां गुरुः ॥ ३१६ ॥ अहो! लोभस्य साम्राज्यमेकच्छवं महीतले । तरवोऽपि निधिं प्राप्य पादैः प्रच्छादयन्ति यत् ॥३१७॥ अपि द्रविणलोभेन ते द्वित्रिचतुरिन्द्रियाः । स्वकीयान्यधितिष्ठन्ति प्रानिधानानि मूर्छया ॥ ३१८॥ भुजङ्गगृहगोधाः स्युमुख्याः पञ्चेन्द्रिया अपि । धनलोभेन लीयन्ते निधानस्थानभूमिषु ॥ ३१९ ॥ पिशाच-मुद्गल-प्रेत-भृत-यक्षादयो धनम् । स्वकीयं परकीयं वाऽप्यधितिष्ठन्ति लोभतः॥३२०॥ SEARCRACC ॥४२९॥ १ श्रुतसमुद्रस्य पारगामिनः । २ शिष्याः। * 'वर्धयेत् ॥ संबृ. का.॥ ३ सर्वपापानाम् । ४ मूलैः । ५ मुद्गलाः-व्यन्तरविशेषाः। Jain Education in For Private & Personal use only Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूषणोद्यानवाप्यादौ मूच्छितास्त्रिदशा अपि । च्युत्वा तत्रैव जायन्ते पृथ्वीकायादियोनिषु ॥ ३२१॥ प्राप्योपशान्तमोहत्वं क्रोधादिविजये सति । लोभांशमात्रदोषेण पतन्ति यतयोऽपि हि ॥३२२॥ एकामिषाभिलाषेण सारमेया इव द्रुतम् । सोदर्या अपि युध्यन्ते धनलेशजिघृक्षया ॥ ३२३ ॥ लोभाद् ग्रामादिसीमानमुद्दिश्य गतसौहृदाः । ग्राम्या नियुक्ता राजानो वैरायन्ते परस्परम् ॥३२४॥ हास-शोक-द्वेष-हर्षानसतोऽप्यात्मनि स्फुटम् । स्वामिनोऽग्रे लोभवन्तो नाटयन्ति नटा इव ॥ ३२५॥ आरभ्यते पूरयितुं लोभगतॊ यथा यथा । तथा तथा महच्चित्रं मुहुरेष विवर्धते ॥ ३२६ ॥ अपि नामैष पूर्यंत पयोभिः पयसां पतिः। न तु त्रैलोक्यराज्येऽपि प्राप्ते लोभः प्रपूर्यते ॥ ३२७॥ अनन्ता भोजनाच्छादविषयद्रव्यसंचयाः। भुक्तास्तथापि लोभस्य नांशोऽपि परिपूर्यते ॥ ३२८॥ लोभैस्त्यक्तो यदि तदा तपोभिरफलैरलम् । लोभस्त्यक्तो न चेत् तर्हि तपोभिरफलैरलम् ॥ ३२९॥ मृदित्वा शास्त्रसर्वस्वं तदेतदवधार्यताम् । लोभस्यैकस्य हानाय प्रयतेत महामतिः॥ ३३०॥ लोभसागरमुढेलमतिवेल महामतिः। संतोषसेतुबन्धेन प्रसरन्तं निवारयेत् ॥ ३३१॥ आमिषम्-मांसम् , भक्ष्यं वा। २ अधिकारिणः। ३ आच्छादा-वस्त्राणि । ४ लोभरहितस्य पुरुषस्य तपःसदृशं फलं। | भवत्यत एव तपांसि निष्फलानि, लोभसहितस्य च तपस्सु तप्तेष्वपि फलं न भवतीति तपांसि निष्फलानीति भावः। ५ नाथाय । ६ वेलां मर्यादामतिक्रान्तस्तम् । Jain Education seal For Private & Personal use only Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थ पर्व पञ्चमः सर्गः श्रीधर्मनाथजिनचरितम् ॥४३०॥ यथा नृणां चक्रवर्ती सुराणां पाकशासनः। तथा गुणानां सर्वेषां संतोषः प्रवरो गुणः ॥ ३३२ ॥ संतोषयुक्तस्य यतेरसंतुष्टस्य चक्रिणः । तुलया संमितो मन्ये प्रकर्षः सुख-दुःखयोः ॥ ३३३॥ खाधीनं राज्यमुत्सृज्य संतोषामृततृष्णया । निःसंगत्वं प्रपद्यन्ते तत्क्षणाच्चक्रवर्तिनः ॥ ३३४ ॥ निवृत्तायां धनेच्छायां पार्श्वस्था एव संपदः । अङ्गुल्या पिहिते कर्णे शब्दाद्वैतं हि जृम्भते ॥ ३३५॥ संतोषसिद्धौ संसिद्धाः प्रतिवेस्तुविरक्तयः । अक्ष्णोः पिधाने पिहितं ननु विश्वं चराचरम् ॥ ३३६॥ किमिन्द्रियाणां दमनैः किं कायपरिपीडनैः । ननु संतोषमात्रेण मुक्तिश्रीर्मुखमीक्षते ॥ ३३७॥ जीवन्तोऽपि विमुक्तास्ते ये मुक्तिसुखशालिनः । किं वा विमुक्तेः शिरसि शृङ्गे किमपि वर्तते ॥ ३३८॥ किं रागद्वेषसंकीर्ण किंवा विषयसंभवम् । येन संतोषजं सौख्यं हीयेत शिवशर्मणः ॥ ३३९॥ परप्रत्यायनासारैः किं वा शास्त्रसुभाषितैः । मीलिताक्षा विमृशन्तु संतोषावादजं सुखम् ॥ ३४०॥ चेत् कारणानुकारीणि कार्याणि प्रतिपद्यसे । संतोषानन्दजन्मा तन्मोक्षानन्दः प्रतीयताम् ॥ ३४१॥ यच्च तीव्र तपःकर्म कर्मनिर्मूलनं जगुः । सर्वं तदपि संतोषरहितं विफलं विदुः॥ ३४२॥ कृषि-सेवा-पाशुपाल्य-वाणिज्यैः किं सुखार्थिनाम् । ननु संतोषपानात् किं नात्मा निर्वृतिमाप्यते ॥३४३॥ । यतेः सुखस्य प्रकर्षश्चक्रिणश्च दुःखस्येत्यर्थः। २ प्रतिवस्तुषु वैराग्यवन्तः। ३ येन सुखेन मोक्षसुखस्य सौख्यं हीयेत । * °वकर्मणः ॥ का.॥ प्रत्यायनम्-साधनं विवरणं पाणिग्रहणं वा । |॥४३०॥ Jain Education in For Private & Personal use only Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीधर्मनाथजिनस्य परिवारः। यत संतोषवतां सौख्यं तृणसंस्तरशायिनाम् । न तत् संतोषवन्ध्यानां तुलिकाशायिनामपि ॥३४४॥ असंतुष्टास्तुणायते धनिनोऽपीशिनां पुरः । ईशिनोऽपि तृणायन्ते संतुष्टानां पुरः स्थिताः ॥ ३४५॥ आयासमात्रं नश्वर्य चक्रिशक्रादिसंपदः । अनायासं च नित्यं च सुखं संतोषसंभवम् ।। ३४६॥ इति लोभं निराकर्तुं सर्वदोषनिकेतनम् । अद्वैतसौख्यसदनं सुधीः संतोषमाश्रयेत् ॥ ३४७॥ एवं जितकषायः सन्नत्रापि शिवसौख्यभाक् । परत्रावश्यमाप्नोति शिवं पुनरनश्वरम् ॥ ३४८॥ श्रुत्वैवं देशनां भर्तुः प्राज्याः पर्यव्रजञ्जनाः । सम्यक्त्वं तु हरिभेजे श्रावकत्वं तु सीरभृत् ॥ ३४९॥ पूर्णायामादिपौरुष्यां व्यसृजद् देशनां प्रभुः । चक्रेऽरिष्टः स्वामिपादपीठस्थो गणभृत् ततः ॥३५०॥ अन्ते द्वितीयपोरुष्यां व्यस्राक्षीत् सोऽपि देशनाम् । नत्वाऽर्हन्तं ततो जग्मुः शक्र-विष्णु-बलादयः॥३५१॥ ततः स्थानादथान्यत्र सर्वातिशयशोभितः । भगवान् धर्मनाथोऽपि विजहार महीतलम् ॥ ३५२ ॥ चतुःषष्टिः सहस्राणि श्रमणानां महात्मनाम् । आर्यिकानां तु द्वापष्टिः सहस्राः सचतुःशताः ॥ ३५३ ।। तथा चतुर्दशपूर्वभृतां नवशतानि तु । अवधिज्ञानभाजां तु त्रिसहस्री सषट्शती ॥ ३५४ ॥ मनःपर्ययिणां पश्चचत्वारिंशच्छतानि तु । तथा शतानि तान्येव केवलज्ञानशालिनाम् ।। ३५५॥ जातवैक्रियलब्धीनां मुनीनां शतसप्ततिः। द्वे सहस्रे शतान्यष्टौ वादलब्धिमतां पुनः॥ ३५६ ॥ लक्षद्वयी श्रावकाणां चत्वारिंशत्सहस्रयुक् । श्राविकाणां चतुर्लक्षी त्रयोदशसहस्रयुक् ॥ ३५७॥ वर्षलक्षद्वयं साधं वर्षद्वितयवर्जितम् । आकेवलाद् विहरतः परिवारोऽभवत् प्रभोः ॥३५८॥ . १ तृणमिव आचरन्ति । २ बहवः। ३ विससर्ज। . पष्टि: सहामान्यत्र सार सोऽपि JlainEducation internet For Private & Personal use only Surww.jainelibrary.org Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थ पर्व पञ्चमः सर्गः श्रीधर्मनाथजिनचरितम् । ॥४३१॥ ज्ञात्वा तु मोक्षसमयं खामी संमेतमेत्य च । समं मुनिशतेनाष्टयुतेनानशनं व्यधात् ॥ ३५९ ॥ मासान्ते ज्येष्ठविशदपञ्चम्यां पुष्यगे विधौ । समं तैर्मुनिभिः स्वामी प्रपेदे पदमव्ययम् ॥ ३६०॥ श्रीधर्मखामिनस्तेषां श्रमणानां च तत्क्षणम् । चक्रुर्निर्वाणमहिमोत्सवं शक्रादयः सुराः॥३६१ ॥ अनन्तस्वामिनिर्वाणाद् धर्मनाथस्य निर्वृतिः। अजायत व्यतिक्रान्ते सागराणां चतुष्टये ॥ ३६२ ॥ कौमारेऽब्दलक्षे सार्धे राज्ये पश्चाब्दलक्ष्यभृत् । सार्धा व्रते व्यब्दलक्षीत्यब्दलक्षा दश प्रभोः ॥३६३॥ तैस्तैः पुरुषसिंहोऽपि सिंहवद्धिंस्रकर्मभिः । पूर्णायुः कालतोऽगच्छत् षष्ठी नरकमेदिनीम् ॥ ३६४॥ कौमारेऽस्य व्यब्दशती मण्डलित्वे शतानि तु । सार्धानि द्वादशाब्दानां सप्तत्यब्दी तु दिग्जये ॥३६५॥ राज्ये तु नवलक्ष्यष्टानवतिश्च सहस्रकाः । शतानि त्रीण्यशीतिश्चेत्यब्दलक्षा दशायुषि ॥ ३६६ ॥ ततो बल: सप्तदशाब्दलक्षायुर्विनाऽनुजम् । कथञ्चिजीवितं दधे भ्रातृस्नेहवशंवदः॥३६७ ॥ द्राक् सुदर्शनभृतोऽन्तदर्शनादाशोकविवशः सुदर्शनः । किर्तिसाधुनिकटेऽग्रहीद् व्रतं पूरितायुरपुनर्भवं ययौ ॥ ३६८ ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थे पर्वणि श्रीधर्मनाथ-पुरुषसिंह-सुदर्शन-निशुम्भचरितवर्णनो नाम पञ्चमः सर्गः। श्रीधर्मनाथप्रभोः निर्वाणम् । ॥४३१॥ प्राक् सु. का. ॥ . सुदर्शननामकं चक्रं बिभर्ति तस्य __ * "क्ष्यथ सा संबृ०॥ + ते द्विलक्षी चेत्य संवृ.॥ मर्द्धचक्रिणोऽवसानविलोकनात् । Jain Education Interna l For Private & Personal use only Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Internat षष्ठः सर्गः । श्रीमघवचक्रवर्तिचरितम् । भरतेऽत्रैव नगरे महीमण्डलनामनि । वासुपूज्यस्य तीर्थेऽभून्नाम्नाऽमरपतिर्नृपः ॥ १ ॥ अनाथानामेकनाथः पृथिवीनाथपुङ्गवः । सुसाधुरिव चारित्रे स न्यायेऽवेहितोऽभवत् ॥ २ ॥ अप्यसौ पुष्पवृन्तेन नाजघान जनं क्वचित् । केवलं पालयामास यत्तेन नवपुष्पवत् ॥ ३ ॥ कामार्थी पादकण्टकवद् धर्म तु किरीटवत् । अधरोत्तरभावेन स दधार विवेकवान् ॥ ४ ॥ अर्हन् देवो गुरुः साधुर्धर्मश्च करुणेति सः । मन्त्राक्षरमिवाध्यायदनुत्तरसुखप्रदम् ॥ ५ ॥ राज्यं जमिवान्येद्युरुत्सृज्य स महायशाः । परिव्रज्यामुपादत्त दत्तविश्वाभयः सुधीः ॥ ६ ॥ स समितिप्राप्तजयो गुतिरक्षणतत्परः । विधिवत् पालयामास प्रव्रज्यां राज्यवच्चिरम् ॥ ७ ॥ अनवद्यैर्मूलगुणैः स उत्तरगुणैरपि । अधिकं शुशुभे दिव्यरत्नालङ्करणैरिव ॥ ८॥ चिरं व्रतं पालयित्वा कालधर्ममुपेत्य सः । ग्रैवेयके मध्य मेऽभूदहमिन्द्रः सुरोत्तमः ॥ ९ ॥ इतश्च जम्बूद्वीपेऽस्मिन् क्षेत्रे भरतनामनि । श्रावस्तीत्यस्ति नगरी नगरीणां गरीयसी ॥ १० ॥ गुणरत्नैरसंख्यातैः समुद्र ईव मूर्तिमान् । समुद्रविजयस्तत्र विजयी समभून्नृपः ॥ ११ ॥ * 'ना नर° सं० ॥ का० ॥ १ पुङ्गवः-श्रेष्ठः । २ अप्रमत्तः । ३ कामार्थों पादकण्टकाद् हेयौ, धर्मे तु किरीटवन्मुकुटवदुरादेयमित्यर्थः । ४ कामार्थावधरभावेन धर्मं चोत्तरभावेनेत्यर्थः । ५ व्याधिवत् 'हाशयः । प° मु० ॥ ww.jainelibrary.org. Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थ पर्व षष्ठः सगेः ॥४३२॥ श्रीमघव|चक्रवर्तिचरितम्। आनन्ददायकत्वेन भयदत्वेन चानिशम् । मित्राणामप्यमित्राणां हृदयानोत्ततार सः॥ १२ ॥ दोष्मतस्तस्य संग्रामेष्वात्मैवाजनि संमुखः । आकृष्टामलनिस्त्रिंशदर्पणप्रतिबिम्बितः॥१३॥ प्रसह्य स्खवशीचक्रे सर्वा दिश इतीव सः। यशोऽलङ्करणं तासामावर्जनकृते ददौ ॥ १४ ॥ महीं गामिव गोपालः स जुगोप यथाविधि । अबाधया च समये करं दुग्धमिवाददे ॥१५॥ पुण्यलावण्यभद्राङ्गी भद्राणामेकमास्पदम् । सधर्मचारिणी तस्याभवद् भद्रेति नामतः ॥१६॥ धर्माविबाधया तस्य सुखं वैषयिकं तया । सहानुभवतः कालो व्यतीयाय कियानपि ॥ १७ ॥ __ इतश्च ग्रैवेयकस्थो जीवोऽमरपतेः स तु । पूरयित्वा प्रकृष्टायुर्भद्राकुक्षाववातरत् ॥१८॥ सुखसुप्ता तदा भद्रा महास्वमाँश्चतुर्दश । खास्से प्रविशतोऽद्राक्षीचक्रभृजन्मसूचकान् ॥ १९ ॥ काले चासूत सा सूनुमनूनं पुण्यलक्षणः । सुवर्णवर्ण सार्धद्विचत्वारिंशद्धनूनतम् ॥ २०॥ पृथिव्यां मघवेवायं नूनं भावीति सान्वयाम् । चक्रेऽस्य मघवेत्याख्यां समुद्रविजयो नृपः ॥२१॥ समुद्रवसनां सोऽनुसमुद्रविजयं जयी । अलम्भूष्णुरलञ्चक्रे धामन्वर्कमिवोडपः ॥ २२ ॥ तस्यैकदास्त्रशालायां तेजःप्रसरभासुरम् । समुत्पेदे चक्ररत्नमिरम्मद इवाम्बुदे ॥ २३ ॥ १ मित्राणामानन्ददरवेन। २ शत्रूणां भयदत्वेन । ३ आकृष्टो योऽमलो निस्त्रिंशः खड्गः स एव दर्पणस्तस्मिन् प्रतिबिम्बितः -स राजा युद्धेषु स्वमेव पश्यति शत्रोरभावादित्यर्थः। दिशो मा मा त्यजन्त्विति हेतोः ददावित्यर्थः। * °सामव मु.॥ DILIt 'वो नर संवृ. का. ॥ ५सार्थकाम् । न्वयम् । च° संवृ. का.॥ समुद्रो वसनं वस्रं यस्यास्तां पृथ्वीमित्यर्थः । ७ समुद्र विजयस्य पश्चात् । ८ यथा सूर्योदनु चन्द्रः आकाशं भूषयति तथा । ९ मेघवाहिः तडिदिति यावत् । ॥४३२॥ Jain Education Inter For Private & Personal use only Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथास्थानमथान्यानि पुरोधःप्रभृतीन्यपि । तस्य रत्नानि सर्वाणि जज्ञिरे क्रमयोगतः ॥ २४ ॥ चक्रमार्गानुगः सोऽथ प्रस्थितो दिग्जिगीषया । ययौ मागधतीर्थेशं प्राक्समुद्रविभूषणम् ॥ २५॥ तस्य नामाङ्कबाणेन दूतेनेव समेयुषा । एत्य मागधतीर्थेशः सेवामेव समाश्रयत् ॥ २६ ॥ सोऽपाच्यां वरदामानं पश्चिमायां पुनर्दिशि । प्रभासाधिपतिं देवं विजिग्ये मागधेशवत ॥ २७॥ गत्वा च दक्षिणं रोधः सिन्धुदेवीमसाधयत् । ततो गच्छन्नाससाद चक्री वैताढ्यपर्वतम् ॥ २८॥ चक्रवात्मसाच्चक्रे वैताब्याद्रिकुमारकम् । तेदुपायनमादायानुतमिस्रं जगाम च ॥ २९ ॥ . स तमिस्रागुहाद्वारे द्वारपालमिव स्थितम् । विधिवत् साधयामास कृतमालाभिधं सुरम् ॥ ३०॥ तस्यादेशाच्चमूनाथः सिन्धुमुत्तीर्य चर्मणा । प्रत्यग्निष्कुटमाक्रामत् तस्याः पुनरुपाययौ ॥ ३१ ॥ सेनान्या दण्डरत्नेन कपाटोद्घाटने कृते । ससैन्यः प्राविशच्चक्री गजरत्नेन तां गुहाम् ।। ३२॥ अन्तर्विरचितालोकः काकिणीकृतमण्डलैः । कुम्भिदक्षिणकुम्भस्थमणिभाप्रसरेण च ॥ ३३ ॥ उत्तीर्य वेकिकृतपद्यया चान्तरस्थिते । नद्यामुन्मग्ननिमग्रजले अत्यन्तदुस्तरे ॥ ३४ ॥ खयं विश्लिष्टकपाटेनोत्तरद्वारवर्त्मना । तस्या गुहाया निरगात सह चम्बा स चक्रभृत् ॥ ३५॥ आपातनामकाँस्तत्र किरातानतिदुर्जयान् । मघवेवासुरभटान् विधिवन्मघवाऽजयत् ॥ ३६॥ सिन्धोश्च निष्कुटी प्रत्यगजयत् तच्चमूपतिः । खयं त्वसाधयद् गत्वा हिमाचलकुमारकम् ॥ ३७॥ आगत्तेन । २ तत्प्राभृतम् । ३ चर्मरत्नेन । ४ हस्तिनो दक्षिणकुम्भस्थले स्थितस्य मणेः कान्तिप्रसरेण । ५ वर्धकिरखेन कृता या पद्या सेतुबन्धस्तया। "घवा वाऽसु संवृ०॥ नटं प्राज्यमज संबृ०॥ Jan Education Inter For Private & Personal use only 2l Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये सगे श्रीमघवचक्रवर्तिचरितम्। ॥४३३॥ मघवा चक्रवर्तीति कूटे ऋषभनामनि । आदाय काकिणीरत्नं लिलेख निजनाम सः॥ ३८॥ ततो निवृत्तो मघवा गङ्गायाः पूर्वनिष्कुटम् । सेनान्या साधयामास गङ्गादेवीं स्वयं पुनः॥ ३९॥ वैताढ्यपर्वतश्रेणिद्वयविद्याधरानपि । स तृतीयश्चक्रधरः साधयामास लीलया ॥४०॥ खण्डप्रपाताद् द्वारस्थं नाट्यमालमथापरम् । यथाविध्यात्मसाचके चक्रभृद् विधिकोविदः॥४१॥ खण्डप्रपातया सेनान्युद्घाटितकपाटया । वैताढ्यान्निरगाच्चक्री पोतोऽर्णवजलादिव ॥ ४२ ॥ नवापि निधयस्तत्र गङ्गामुखनिवासिनः । बभूवुर्वशगास्तस्य नैसर्पप्रमुखाः सुखम् ॥४३॥ सेनान्या साधयामास गाङ्गं पश्चिमनिष्कुटम् । इत्थं स च वशीचक्रे षट्खण्डमपि भारतम् ॥४४॥ संपूर्णचक्रिसामय्या भ्राजिष्णुर्मघवा ततः। श्रावस्तीनगरीमागान्मघवेवामरावतीम् ॥ ४५ ॥ तत्र देवैनुदेवैश्च मघोनोऽनूनसंपदः । चक्रवर्तित्वाभिषेको विधीयत यथाविधि ॥ ४६॥ अभिषिक्तोऽपि चक्रित्वे सेवमानोऽपि सन्ततम् । द्वात्रिंशता मुकुटिनां सहस्रैर्मेदिनीभुजाम् ॥ ४७॥ श्रीयमाणः पोडशभिः सहनै सदामपि । निधिभिनवभिरपि परिपूर्णेप्सितोऽपि हि ॥४८॥ चतुःषष्ट्या सहस्रश्च शुद्धान्तहरिणीशास् । नेयनेन्दीवरस्रग्भिरय॑मानोऽप्यनारतम् ॥ ४९॥ अन्येष्वपि प्रमादस्य स्थानेषु सुलभेषु सः । पित्र्ये श्रावकधर्मे तु न जात्वासीत् प्रमद्वरः ॥५०॥ नानाविधानि चैत्यानि विमानानीव नाकिनाम् । जिनविम्बसनाथानि स्वर्णरत्नैर्व्यधत्त सः॥५१॥ * °स गङ्गायाः पूर्वनिमु.॥ १ मुकुटधारिणां राज्ञाम् । २ आश्रीयमाणः। ३ पूर्यमाणे । ४ अन्तःपुरस्त्रीणाम् । ५ नयनान्येव कमलानि तेषां मालाभिः। ६ सदा। -पितुरागते परम्परयेत्यर्थः । ॥४३३॥ Jain Education inte For Private & Personal use only . Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथैकः स पतिः पृथ्व्यास्तथा तस्याप्यजायत । अर्हन् देवः सुसाधुश्च गुरुर्धर्मो दयामयः ।। ५२॥ सदा स चैत्यपूजासु तत्पूजाविव राजकम् । नोज्झाञ्चकार नियमं नित्यं नियमितेन्द्रियः॥५३॥ अविरतश्रावकत्वेनातिवाह्यायुरात्मनः । सोऽन्तकाले परिव्रज्यामुपादत्त यथाविधि ॥ ५४॥ कौमारेऽब्दसहस्राणि पश्चविंशतिरस्य तु । मण्डलित्वेऽपि तावन्ति दशव तु दिशां जये ॥५५॥ चक्रित्वे तु व्यब्दलक्षी सहस्रा नवतिस्तथा । व्रतकाले च पश्चाशत्सहस्राः शरदां पुनः॥५६॥ पश्चाब्दलक्षीमतिवाह्य जन्मतः पञ्चामलात्मा परमेष्ठिनः सरन् । पश्चत्वमाप्येन्द्रसमानवैभवः सनत्कुमारेऽजनि सोऽमराग्रणीः॥५७॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थे पर्वणि मघवचक्रवर्तिचरितवर्णनो नाम षष्ठः सर्गः। * पृथव्यां त° का.॥ र नीतिं च नित्यं संवृ.॥ तिस्तस्य मु.॥निर्मलारमा पञ्चपरमेष्ठिनः सरबिस्यर्थः । त्रिषष्टि. ७४ Jain Education Intern For Private & Personal use only . Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुथ पर्व त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये सप्तमः सर्गः। श्रीसनत्कुमारचक्रिचरितम् ॥ सप्तमः सर्गः श्रीसनत्कुमारचक्रि| चरितम् । ॥४३४॥ अस्तीह काञ्चनपुरं दधानं काञ्चनश्रियम् । भोगावत्यमरपुरीलङ्कादिभ्योऽतिशायिनीम् ॥१॥ तत्रासीद् विक्रमयशा नाम प्रवरविक्रमः। रिपुस्त्रैणाश्रुनीरेद्धप्रतापेरम्मदो नृपः॥२॥ तस्य पञ्चशतान्यासन्नन्तःपुरमृगीदृशाम् । यूथभर्तुर्द्विपस्येव करिण्यः प्रेमलालसाः॥३॥ तदा चासीत् पुरे तस्मिन् सार्थवाहो महर्द्धिकः । नागदत्तोऽभिधानेन निधानमिव संपदाम् ॥ ४॥ सौभाग्यलावण्यवती रूपातिशयशालिनी। विष्णोः श्रीरिव विष्णुश्रीर्नाम्ना तस्य गृहिण्यभूत् ॥५॥ अन्योऽन्यं नीलिकारागप्रेमाणौ तौ विजहतुः। अव्याहतपरक्रीडासरसौ सारसाविव ॥६॥ काकतालीयन्यायेन कथमप्येकदा तु सा । दृक्पथं विक्रमयशोवसुधाभतुराययौ ॥७॥ तां प्रेक्ष्य विक्रमयशा दस्युनेव मनोभुवा । लुण्ख्यमानविवेकस्वश्चेतस्येवमचिन्तयत् ॥८॥ अहो ! विलोचने अस्या मृग्या इव मनोरमे । बन्धुरः केशपाशश्च कलाप इव केकिनः ॥९॥ १ रिपुस्त्रीसमूहस्याचुनीरेण इदो दीप्तः प्रताप एव इरम्मदो मेघानियस्य सः। *णाननी मु०॥ द्धिप्रवाहेर' का०, प्रतपेर काद्वि०॥ दशः। य० संवृ०॥"मभाजनम मु०॥ भ्योऽभ्यनी मु०॥ गममा Gा संबृ०॥२ निर्वाधकामक्रीडायां रससहितौ । ३ लुण्ठ्यमानं विवेक एवं स्वं धनं यस्य सः। 1 विलोकने मु०॥, नेत्रे।४ सुन्दरः। ॥४३४॥ Jain Education Inter For Private & Personal use only T ww.jainelibrary.org Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education पक्कविम्बं द्विधाभूतमिवोष्ठौ कोमलारुणौ । पीनोन्नतौ कुचावेतौ स्मरक्रीडाचलाविव ॥ १० ॥ प्रेत्य इव चलते भुजे सरलकोमले । मध्यं नितान्तं क्षामं च मुष्टिग्राह्यं पेवेरिव ॥ ११ ॥ शेवलालीव रोमावल्यावर्त इव नाभ्यपि । नितम्बः पुलिनमिव लावण्यसरितस्त्वसौ ॥ १२ ॥ रम्भास्तम्भाविवोरू च पादौ च कमले इव । किमन्यत् सर्वमप्यस्या मनो हरति कस्य न १ ॥ १३ ॥ जराविक्लवचित्तत्वादनौचित्येन वेधसा । निवेशिता क्वाप्यपात्रे शक्रस्तम्भः श्मशानवत् ॥ १४ ॥ एतामपहरिष्यामि क्षेप्स्याम्यन्तःपुरे निजे । अनौचित्यनिवेशित्वदोषः स्रष्टुः प्रयातु च ॥ १५ ॥ एवं मनसि निश्चित्य कन्दर्पविधुरोऽथ ताम् । जग्राह विक्रमयशा यशो म्लानीचकार च ॥ १६ ॥ अन्तरन्तःपुरं क्षित्वा रमयामास तां सदा । विचित्रस्मरलीलाभिरेकतानः स भूपतिः ॥ १७ ॥ आविष्ट इव भूतेन धत्तूरमिव लीढवान् । अपस्मारमिव प्राप्तो मदिरामिव पीतवान् ॥ १८ ॥ आघात इव सर्पेण सन्निपातमिवाप्तवान् । विधुरस्तद्वियोगेन सार्थवाहो बभूव सः ॥ १९ ॥ युग्मम् ॥ तया सह वियुक्तस्य सार्थवाहस्य तस्य च । संयुक्तस्य च नृपतेः कालोऽगाद् दुःखसौख्यकृत् ॥ २० ॥ विष्णुश्रिया रममाणे नृपे तस्मिन्निरन्तरम् । ईर्ष्यया कार्मणं चक्रुः क्रुद्धाः शुद्धान्तयोषितः ॥ २१ ॥ कार्मणेन च सा तेन क्षीयमाणा क्षणे क्षणे । मूलर्वम्येव लतिका जीवितेन व्यमुच्यत ॥ २२ ॥ नृपोऽपि मृत्युना तस्या जीवन्मृत इव स्थितः । प्रलापी च विलापी च नागदत्त इवाभवत् ॥ २३ ॥ ३ वलीनः । * कुचा चैतौ संवृ. का. ॥ १ नूतने । + 'तान्तक्षा' मु० ॥ ४ सार्थवाहस्य दुःखकृत्, नृपतेश्च सुखकृदित्यर्थः । ५ शुद्धान्तः - अन्तःपुरम् । २ वज्रस्य । शेवाला' का. ॥ ६ वमिः वमनम् । . Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ पर्व | सप्तमः पुरुषचरिते महाकाव्ये त्रिषष्टि नादत्त चानले क्षेप्नु विष्णुश्रियं मृतामपि । प्रिया ममैषा प्रणयतूष्णीकेत्यनिशं वदन ॥२४॥ शलाका मत्रिणो मन्त्रयित्वाऽथ वञ्चयित्वा च भूपतिम् । अरण्ये चिक्षिपुर्नीत्वा तद्विष्णुश्रीकलेवरम् ॥२५॥ त्वमासीरधुनैवेह किं प्रिये ! न निरीक्ष्यसे । तिरोधानक्रीडयाऽलं वियोगस्य वयस्यया ॥२६॥ नर्मणाऽपि वियोगाग्निर्माविद् युज्यते न हि । मदा तव किं नातिरावां ह्येकात्मकौ सदा ॥२७॥ एकाकिनी किमगच्छ क्रीडासरिति कौतुकात् । क्रीडाद्रिमथवारोहः क्रीडोद्यानमथाभ्यगाः॥२८॥ ॥४३५॥ मां विना क्रीडसि कथमायाम्येष इति ब्रुवन् । तेषु तेषु प्रदेशेषु बभ्रामोन्मत्तवन्नृपः ॥२९॥ राज्ञश्च त्यक्तपानानवृत्तेर्गतवति व्यहे । मरणाशङ्किनोऽमात्यास्तस्या वपुरदर्शयन् ।। ३०॥ अच्छभल्लवदंत्यन्तविसंस्थुलशिरोरुहम् । शशवच्छशरे वन्या कङ्कराकष्टलोचनम् ॥३१॥ चर्वितोरसिजद्वन्द्वं गृधैः पिर्शितगृभूमिः । समाकृष्टात्रभारं च शिवाभिरेशिवाकृति ॥ ३२॥ छादितं मक्षिकावृन्दैर्मधुमण्डकजालवत् । पिपीलिकाभिश्चाश्लिष्टं पातभग्राण्डजाण्डवत् ॥ ३३ ॥ पूतिगन्धि तदालोक्य सद्यो विष्णुश्रियो वपुः । विरक्तो विक्रमयशाश्चिन्तयामासिवानिति ॥३४॥ ॥चतुर्भिः कलापकम् ॥ अहो! असारे संसारे सारं वस्तु न किश्चन । सारबुद्ध्या धिगेतस्यां मोहिताः स्मः कियच्चिरम् ॥ ३५॥ * "तुं तद्विष्णुश्रीकलेवरं मु०॥ १ बियोगस्य मित्ररूपया तिरोधानक्रीडयाऽलमित्यन्वयार्थः। योगं वरिवस्यया का०॥ २ अतिविस्तीर्णानि शिरोरुहाणि केशा यस्मिंस्तद् वपुः । ३ चर्वितस्तनयुग्मम् । ४ मांसकोलुपैः। ५ अशुभाकारम् । ४६ यथा पतनेन भग्नं स्फुटितमण्डजस्याण्डं पिपीलिकाभिराश्लिष्यते तथा। ण्डभाण्ड मु.॥ सर्गः श्रीसनत्कुमारचक्रिचरितम् । AAAAAAAA ॥४३५॥ Jain Education For male & Personal Use Only Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहायैरेव हि गुणैर्हरिद्रारागसन्निभैः । अहो ! हियन्ते नारीभिर्न कश्चित् परमार्थवित् ॥ ३६ ॥ यकृच्छकृन्मल श्लेष्ममजास्थिपरिपूरिताः। स्नायुस्यूता बही रम्याः स्त्रियश्चर्मप्रसेविकाः ॥३७॥ बहिरन्तर्विपर्यासः स्त्रीशरीरस्य चेद् भवेत् । तस्यैव कामुकः कुर्याद् गृध्रगोमायुगोपनम् ॥ ३८॥ स्त्रीशस्त्रेणापि चेत् कामो जगदेतजिगीषति । तुच्छपिच्छमयं शस्त्रं किं नादत्ते स मृढधीः१॥ ३९॥ संकल्पयोनिनाऽनेन हहा विश्वं विडम्बितम् । तदुत्खनामि संकल्पं मलमस्यैव सर्वतः॥४०॥ एवं विचिन्त्य संसारविरक्तः स महामनाः। सुव्रताचार्यपादान्ते गत्वा दीक्षामुपाददे ॥४१॥ चतुर्थषष्ठमासादितपोभिर्देहनिस्पृहः । आत्मानं शोषयामास करैर्जलमिवार्यमा ॥ ४२ ॥ दुस्तपं स तपस्तत्वा कालयोगाद् विपद्य च । सनत्कुमारकल्पेऽभूत् प्रकृष्टायुः सुरोत्तमः॥४३॥ ततोऽप्यायुःक्षये च्युत्वा पुरे रत्नपुराभिधे । अजायत श्रेष्ठिसुतो जिनधर्मोऽभिधानतः॥४४॥ आबाल्यादपि श्रावकधर्म द्वादशधापि हि । मर्यादामर्णव इव सदैव परिपालयन् ॥ ४५ ॥ आराधयस्तीर्थकरान् पूजयाऽष्टप्रकारया । एषणीयादिदानेन साश्च प्रतिलाभयन् ॥ ४६॥ असाधारणवात्सल्यात् साधर्मिकजनानपि । प्रीणयन् बन्धुवद् दानः कश्चित् कालमलङ्घयत् ॥४७॥ ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ पार्श्वस्थो मांसपिण्डो यकृत् । २ चर्मणा परिवृताः। ३ बहिर्यत् चर्म दृश्यते तदन्तर्भवेदन्तयन्मांसरुधिरादि चास्ति तद् बहिर्भवेदिति विपर्यासः। कामदेवेन। *'ना येन मु०॥ + संकल्पम् मु.॥ ५ सूर्यः। मारेक° मु०॥ ६°त्सल्यः सामु.॥ For Private & Personal use only . Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ पर्व सप्तमः त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते| महाकाव्ये सर्गः श्रीसनत्कु|मारचकिचरितम् ॥४३६॥ गरणकवासरे। राजा । स च भागवतोऽश्रमासादितयोरतः ॥५. इतश्च नागदत्तोऽपि प्रियाविरहदुःखितः। आध्यानान्मृतोऽभ्राम्यत् तिर्यग्योनिषु जन्तुषु ॥४८॥ भवं भ्रान्त्वा चिरं सोऽथ पुरे सिंहपुराभिषे। अग्निशर्माभिधानेन द्विजन्मतनयोऽभवत् ॥ ४९॥ कालेन च त्रिदण्डित्वं स आदाय समाययौ। परं तरं तीब्रद्विमासादितपोरतः॥५०॥ तत्र चासीत् पुरे राजा नामतो हरिवाहनः। स च मागवतोऽश्रौषीत् परिव्राजं तमागतम् ॥ ५१॥ राज्ञा निमत्रितस्तेन स पारणकवासरे। रोजौकस्सागतं देवाजिनधर्म ददर्श च ॥५२॥ ततःप्राग्जन्मवैरेण ऋषी रोषारुणेक्षणः । बभाषे योजितकरं नरेन्द्रं हरिवाहनम् ॥ ५३॥ पृष्ठेऽस्य श्रेष्ठिनो न्यस्यात्युष्णपायसभाजनम् । चेद् भोजयसि मां राजस्तदा भुञ्जेऽन्यथा न हि ॥ ५४॥ पृष्ठेऽन्यपुंसो विन्यस्य स्थालं त्वां भोजयाम्यहम् । इत्युक्तो भृभुजा भूयः स ऋद्धो मुनिरब्रवीत् ॥ ५५॥ अस्यैव पृष्ठे विन्यस्य स्थालमत्युष्णपायसम् । भुञ्जेऽहं भूभुजां नाथाकृतार्थों यामि वा ध्रुवम् ॥५६॥ राजा भागवतत्वेन प्रत्यपद्यत तद्वचः । जिनशासनबाह्यानां विवेकः कीदृशो नृणाम् ॥ ५७॥ राजाज्ञया दत्तपृष्ठो भुञ्जानस्य द्विजन्मनः । स्थालतापं सोऽधिसेहे दवानलमिव द्विपः॥ ५८॥ कर्मणः प्राक्तनस्यैव मदीयस्य फलं ह्यदः । संख्याऽनेन त्रुटत्वेतदिति चाचिन्तयचिरम् ॥ ५९॥ भुक्ते तस्मिन् समुच्चख्ने सासग्मांसवसारसान् । पृष्ठात् पायसपात्री सा सपङ्केव चिंतेष्टिका ॥ ६॥ गत्वौको लोकमाहूय स्वकीयं सर्वमप्यथ । अक्षमयजिनधर्मो जिनधर्मविचक्षणः ॥ ६१॥ * ध्यानम् का०॥ वैष्णवः। २राजगृहे। यति मांमु०॥ ३ स्वीचकार। अनेन मित्रेण कर्मच्छेदकरूपेण । रसा पृ संवृ०॥ तेष्टका मु०॥ ५ गृहम् । ॥४३६॥ Jain Education Inter For Private & Personal use only 18 Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्माय चैत्यपूजां च साधुपार्श्वमुपेत्य च । जिनधर्मः परिव्रज्यामुपादत्त यथाविधि ॥ ६२॥ निर्गत्य नगराच्छैलशृङ्गं समधिरुह्य च । संन्यस्य पक्षं पूर्वसां कायोत्सर्ग व्यधत्त सः॥ ६३ ॥ अपरास्वपि दिक्ष्वेवं कायोत्सर्ग स निर्ममे । त्रोटिभिस्खोव्यमानोऽपि गृध्रकङ्कादिभिः खगैः॥६४॥ सहमानो व्यथामेवं नमस्कारपरायणः। विपद्य कल्पे सौधर्मे स इन्द्रः समजायत ॥६५॥ मृत्वा त्रिदण्डिकः सोऽपि ह्याभियोगेन कर्मणा । शक्रस्य वाहनमभूदरावण इति द्विपः॥६६॥ सोऽपि पूर्णैरावणायुश्युत्वा जीवस्त्रिदण्डिनः । भवे भ्रान्त्वाऽसिताक्षाख्यो बभूव किल यक्षराट् ॥६७॥ ___ इतश्च जम्बूद्वीपेऽस्मिन् क्षेत्रे भरतनामनि । कुरुजाङ्गलदेशेऽभूनगरं हस्तिनापुरम् ॥ ६८॥ तत्राश्वसेनोऽश्वसेनाच्छादितावनिमण्डलः । मण्डेलाग्रजितारातिमण्डलोऽभून्महीपतिः॥ ६९॥ तसिंश्च गुणरत्नानां रोहणाचलसनिमे । दुग्धे जलकृमिरिव न दोषकणिकाऽप्यभूत ॥ ७० ॥ अस्याहं तृणवदिति सौभाग्यस्याभिकाङ्क्षया । असिधाराव्रतं कर्तुमिव श्रीस्तदसौ स्थिता ॥ ७१ ॥ आगतेष्वार्थषु दधौ स हर्षमतिशायिनम् । व्यपीदच्च बँदित्सानुमानेन स्तोकयाचिषु ॥७२॥ अभूत् तस्य महादेवी सहदेवीति नामतः । कापि देवीव रूपेण महीतलमुपागता ॥ ७३ ॥ चिरं शक्रश्रियं भुक्त्वा कल्पात् पूर्णायुरादिमात् । स जीवो जिनधर्मस्य तस्याः कुक्षाववातरत् ॥७४॥ १ अनशनं कृत्वा। २ पार्श्वभागम् । ३ चञ्चभिः। ४ पञ्चपरमेष्ठिनमस्कारगणनापरायणः। सोऽथ पू' का०॥ शेऽस्ति न का०॥ ५ मण्डलाग्रेण खङ्गेन जितं शत्रुमण्डलं येन सः। °णाद्रौ कदाचन दु संबृ०॥ ६ तस्य खङ्गे । ७ दातुमिच्छाया अनुमानेनाल्पार्थिषु । Jain Education Intern For Private & Personal use only (oll. Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थ पर्व सप्तमः सर्गः श्रीसनत्कुमारचक्रिचरितम् । ॥४३७॥ मुखे प्रविशतः स्वस्मिन् सहदेव्यपि तत्क्षणम् । कुञ्जरादीन् महास्वमाँश्चतुर्दश ददर्श सा ।। ७५।। समयेऽसूत सा सूनुं सर्वलक्षणलक्षितम् । अद्वैतरूपविभवं जात्यजाम्बूनदद्युतिम् ॥ ७६ ॥ महीयसाऽथोत्सवेन जगदानन्ददायिना । सनत्कुमार इत्याख्यां चके तस्य महीपतिः॥ ७७॥ कनकच्छेदगौराङ्गो बालो बाल इवोडुपः। प्रीणन् नेत्राणि लोकानां स क्रमेण व्यवर्धत ॥ ७८ ॥ अङ्कादके नरेन्द्राणां संचरन् स व्यराजत । अरविन्दादरविन्दे सितच्छद इवोच्चकैः ॥ ७९ ॥ रूपेणाप्रतिरूपेण स बालोऽपि मृगीदृशाम् । जहार दृष्टमात्रोऽपि नेत्राणि च मनांसि च ॥८॥ साङ्गानि शब्दशास्त्राणि समस्तज्ञानमातृकाः । पपौ गुरुमुखोद्गीर्णान्येष गण्डूषलीलया ॥८१॥ राज्यश्रीभुवनस्तम्भान् स्वदोःस्तम्भानिवापरान् । स आददे शस्त्रशास्त्राण्यर्थशास्त्राणि चाभितः॥ ८२॥ अन्या अपि कलाः सर्वाः कलयामास लीलया। क्रमेण वर्धमानः स कलानिधिरिवामलः ॥ ८३॥ स साधैंकचत्वारिंशद्धनुरुन्नतविग्रहः। मर्त्यलोकादिव दिवं शैशवात् प्राप यौवनम् ॥ ८४ ॥ तस्याभूत् परमं मित्रं कालिन्दीसूरनन्दनः। महेन्द्रसिंह इत्याख्या ख्यातः प्रख्यातविक्रमः॥ ८५॥ प्राप्ते वसन्ते सोऽन्येयुः कालिन्दीसूनुना समम् । मकरन्दाख्यमुद्यानं कौतुकात् क्रीडितुं ययौ ॥८६॥ क्रीडाभिस्तत्र चित्राभिश्चिक्रीड सुहृदा समम् । सनत्कुमारो गीर्वाणकुमार इव नन्दने ॥ ८७॥ ॥४३७॥ | जाम्बूनदम् स्वर्णम् । २ चन्द्रः। ३ हंसः। ४ गुरुमुखान्निर्गतानि । * मुद्रितादर्श 'महेन्द्रसूरः' इति नामोपन्यस्तम्, परं प्रस्तुतवर्णने सर्वत्र 'महेन्द्रसिंह' इति उपलभ्यते, तेनानापि तदेवास्माभियंस्तम् । ५ देवकुमारः। Jain Education Intel For Private & Personal use only . Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदा च राज्ञोऽश्वपतिः प्राहिणोत् प्रा ते हयान् । धारापश्चकचतुरान् सर्वलक्षणलक्षितान् ॥ ८८॥ नाम्ना जलधिकल्लोलं कल्लोलमिव चञ्चलम् । एकं सनत्कुमारस्याप्यर्पयामास वाजिनम् ॥ ८९॥ त्यक्त्वा क्रीडां कुमारस्तमारुरोह तुरङ्गमम् । हस्त्यश्वे राजपुत्राणां कौतुकं सर्वतोऽधिकम् ॥९॥ कशामुत्क्षिप्य चैकेन वैल्गां चैकेन पाणिना । आसनास्पृष्टपर्याण ऊरूभ्यां प्रेरयच्च तम् ॥ ९१॥ पर्यधाविष्ट वेगेन पादैः क्ष्मामस्पृशनिव । गच्छन् बहुतरं व्योग्नि सोऽश्वान् द्रष्टुं रवेरिव ॥ ९२॥ वल्गया चषे सोऽश्वः कुमारेण यथा यथा । तथा तथा विपरीतशिक्षोऽधिकमधावत ॥ ९३ ॥ सादिनां राजपुत्राणां धावतामपि मध्यतः। निर्ययौ स क्षणादश्वोऽश्वमूर्तिरिव राक्षसः॥९४ ॥ पश्यतामपि भूपानामुंडूनामिव चन्द्रमाः। स आरूढकुमारोऽश्वोऽभूददृश्यः क्षणादपि ।। ९५॥ अश्वेन सूनुमाकृष्टं नदीपूरेण पोतवत् । प्रत्यानेतुमन्वचालीदश्वसेनोऽश्वसेनया ॥९६ ॥ यात्यसौ यात्यसावश्वः पदान्येतानि तस्य हि । फेनलालास्तस्य चेमा यावदाख्यदिदं जनः ॥ ९७॥ तावद् वात्योदभूच्चण्डा पूर्णब्रह्माण्डभस्त्रिका । अकालिकी कालरात्रिरिवान्धंकरणी दृशाम् ॥९८॥ ॥ युग्मम् ॥ * °पतेः प्रा मु० ॥+ भृतान् ह मु० ॥ १ धारा-अश्वस्य गतिविशेषः । २ मश्वस्य ताडनी कशा 'चाबुक' इति भाषायाम् । ३ वल्गा-'लगाम' इति भाषायाम् । ४ आसनेनोपवेशनेनास्पृष्टं पर्याणं येन सः ।। Kा शत्रपि ग का॥ ५ विपरीता शिक्षा यस्य सः। ६ अश्ववाराणाम् । . नक्षत्राणाम् । वायुसमूहो वाया । ISलिका का मु०॥ Jan Education For Private & Personal use only wrarww.iainelibrary.org Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थ पर्व सप्तमः सर्ग: श्रीसनत्कुमारचक्रिचरितम् । ॥४३८॥ अपटीभिरिवौकांसि दिशोऽच्छाद्यन्त रेणुभिः। स्तम्भितानीव सैन्यानि नोद्धंतु पादमयलम् ॥ ९९॥ पदफेनानि चिह्वानि गच्छतस्तस्य वाजिनः । अशेषाण्यपि भग्नानि पांसुकल्लोलमालया ॥१०॥ न निम्नं नोन्नतं नापि स्थपुटं न द्रुमाद्यपि । अलक्षि पाताल इव प्रविष्टोऽभूजनोऽखिलः॥१०१॥ मुढोपायाः सैनिकास्ते पर्याकुल्यभवनथ । अब्धावम्भःपूर्यमाणयानाः सांयात्रिका इव ॥१०२॥ नत्वा महेन्द्रसिंहोऽश्वसेनमेवं व्यजिज्ञपत् । देव! दैवस्य घटना दुर्घटी पश्य खल्वियम् ॥१.३॥ अन्यथा हि कुमारः क दूरदेशो हयः क्व च । तत्र चाज्ञातशीले क्व कुमारस्थाधिरोहणम् ॥ १०४॥ कुमारस्यापहरणं तेन दुर्वाजिना क च । क वा वात्येयमुद्दण्डरजश्छादितदृक्पथा ॥१०५॥ पर्यन्तसामन्तमिव दैवं जित्वा तथापि हि । आनेष्याम्यहमन्विष्य स्वमित्रं स्वामिसन्निभम् ।। १०६॥ कन्दरेषु गिरीन्द्राणां तुङ्गेषु शिखरेषु च । निरन्तरस्तरुस्तोमदुर्गमाखटवीषु च ॥ १०७॥ रोधोरन्ध्रषु पातालकल्पेषु सरितामपि । निर्जलेष्वपि देशेषु विषमेष्वपरेष्वपि ॥१०८॥ ममाल्पपरिवारस्य क्वचिदेकाकिनोऽपि वा । ईषत्करं चरस्येव कुमारान्वेषणं प्रभो॥१०९॥ देवस्यामितसैन्यस्यासम्मातो यत्र कुत्रचित् । तन्नाह इखरथ्यायां प्रवेश इव दन्तिनः॥११०॥ भूयो भूयोऽप्येवमुक्त्वा पादलग्नेन तेन तु । निवर्तितोऽश्वसेनस्तु दुःखितो नगरं ययौ ॥ १११ ॥ यथा गृहाणि अपटीभिः यमनिकाभिश्छायन्ते तथा। २ स्थापयितुम् । ३ समप्रदेशम् । *ष्टो निखिलो जनः । संवृ०॥ +टान्यस्य ख मु॥ ४ अज्ञातं शीलं यस्य तस्मिनश्वे । मारेणाधिरोहणम् संवृ० का.॥ईकवा क का.॥ ५ रोधसा तीराणां रन्धेषु। °षयेष्व का.॥ ६ दूतस्य । * सम्मतो संवृ.॥ नः स्खं दुः° मु०॥ ॥४३८॥ Jain Education Inte For Private & Personal use only Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मितसारपरीवारो दुर्वार इव वारणः । महेन्द्रसिंहः सहसा प्रविवेश महाटवीम् ॥ ११२ ॥ पाषाणैः खद्भिविषाणोत्क्षिप्तर्विषमपद्धतिम् । धर्माप्रविशत्क्रोडपकिलीकृतपल्वलाम् ॥ ११३ ॥ प्रौढभल्लूकहिकाभिः प्रतिशब्दितगहराम् । गहरासीनशालकृतवृत्कारदारुणाम् ॥ ११४ ॥ उत्फालचित्रककुलव्याकुलैणकुलाकुलाम् । गलितश्वापदैर्बाढवाहसैर्वेष्टितद्रुमाम् ॥ ११५॥ चमुरुचराक्रान्तमार्गच्छायावनीरुहाम् । सिंहीसखीपयःपायिसिंहरुद्धाध्वनिम्नगाम् ॥ ११६॥ मत्तकुञ्जरभनाध्वशाखिशाखातिदुर्गमाम् । सनत्कुमारमन्वेष्टुं स विष्वक् तामगाहत ॥ ११७॥ ॥पञ्चभिः कुलकम् ।। विकटां कण्टकितरुश्वापदैरवटैः स्थलैः। महाटवीं तामटतस्तस्य सैन्यं व्यशीर्यत ॥ ११८॥ खिन्नखिनैर्मुच्यमानो मत्रिमित्रादिकैरपि । त्यक्तसंगो मुनिरिव स एकाकी क्रमादभूत ॥ ११९ ॥ भूयो महानिकुञ्जेषु गिरीणां कन्दरेष्वपि । पल्लीपतिरिवैकोऽपि स बभ्राम धनुर्धरः॥ १२०॥ हिते वननागानां सिंहगुञ्जारवेष्वपि । सोऽधावत् सनत्कुमारवीरध्वनितशङ्कया ॥ १२१ ॥ खमित्रं तत्र चापश्यन्नुच्छलन्निर्झरध्वनौ । तदायिन्यतोऽधावत् प्रेम्णो हि गतिरीदृशी ॥ १२२॥ खली गण्डकः । * तिःप्र संवृ०॥ २ क्रोडः सूकरः। ३ भल्लूक:-ऋक्षः। ४ एणकूलं मृगकूलम् । + ढिं वा का० ॥ ५ वाहसः अजगरैः । ६ चमूरः हरिणभेदः । ७ सिंही सखीव सहचर इव तेन सह पयः पिबद्भिः सिंहै रुद्धा मार्गसरितो यस्यां ताम् ॥ 1 °सखप संबृ० का.॥ ८ गतः। ९ तन्मित्रमाशङ्कत इति तदाशती। ६ शङ्कयान्य' का०॥ Jan Education Inter For Private & Personal use only Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ पर्व | सप्तमः त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये सर्गः श्रीसनत्कुमारचक्रिचरितम्। ॥४३९॥ नदीकरिहरीनूचे मद्वन्धोर्ध्वनिरेष यत् । स वः पार्श्वे ततो लभ्यं सर्व ह्येकांशदर्शनात् ।। १२३ ॥ सर्वत्राप्रेक्ष्य सहृदमुच्चैरारुह्य शाखिनः । दिशो न्यरूपयद् भृयो मार्गभ्रान्त इवाध्वगः ॥ १२४ ॥ बद्धशोक इवाशोकेष्वाकुलो बकुलेष्वपि । असहः संहकारद्रुष्वमल्लो मल्लिकास्वपि ॥ १२५ ॥ न्यक्कारी कर्णिकारेषु पाटलः पाटलास्वपि । दूरस्थः सिन्दुवारेषु सोत्कम्पश्चम्पकेष्वपि ॥ १२६ ॥ पराशुखश्च मलयानिलेष्वपि खलेष्विव । स्फुटत्कर्णः कोकिलानां पञ्चमोच्चारितेष्वपि ॥१२७॥ अशान्ततापः पीयूपरश्मेरपि हि रश्मिषु । स वसन्तमतीयाय रोरपुत्र इवैककः ॥ १२८ ॥ ॥चतुर्मिः कलापकम् ॥ कुकूलैरिव विस्तीर्णैः पादपद्मनखम्पचैः । भृज्यमानोऽकांशुतप्त रजोभिः पदे पदे ॥ १२९ ॥ सद्यो निर्वाणदावाग्निभमदुःसंचरेऽध्वनि । पादतापमजानानोऽग्निस्तम्भमिव सूत्रयन् ॥ १३०॥ उष्णवात्याभिरनलज्वालाभिरिव भूरिभिः । वपुस्तापमगणयन् करी गिरिचरो यथा ॥ १३१ ॥ काथान् रोगीव सरितां पकिलान्यूष्मलानि च। पिबन् पयांसि स ग्रीष्मं भ्राम्यन्नेकोऽत्यवाहयत् ॥१३२॥ ॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥ रक्षोभिरिव जीमूतैरुद्यद्विद्युन्मुखाग्निभिः । अक्षोभ्यमाणहृदयो विश्वविक्षोभणैरपि ॥ १३३ ॥ अखण्डप्रसरैर्धारासारैः र्शितशरैरिव । विध्यमानोऽपि संनद्ध इवामुघन मनागपि ॥ १३४ ॥ १ यत्रैकांपादर्शनं तत्र सर्व भवेदिति न्यायात् । *त्र प्रेका०॥ २ भानवृक्षेषु। तिरस्कर्ता। दीनपुत्रः। ५ तुपानलैः। नोह्यग्नि संवृ. ॥ ६ वाचूनां समूहो वाल्या। ष्मणानि का.॥ . मेधैः। तीक्ष्णबाणः। ९ वर्मितः। ॥४३९॥ Jain Education in For Private & Personal use only . Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Private & Personal use only www.janelibrary.org Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरिते महाकाव्ये ॥४४०॥ Jain Education कर्णमर्माविद्भिरिव मर्मरैरतिदुःश्रवैः । प्रबुद्धोत्कर्णपश्चास्य वृत्कारेष्वप्यकम्पितः ।। १४५ ॥ प्रत्यग्रपल्लवावादमात्रेणैवोदरम्भरिः । शिशिरं गमयामास शिशिरो मित्रपीडया ॥ १४६ ॥ ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ एवं सनत्कुमारस्यान्वेषणायाटतोऽटवीम् । एको महेन्द्रसिंहस्य जगाम परिवत्सरः ॥ १४७ ॥ तस्यामटव्यामन्येद्युर्गत्वा कियदवस्थितः । दिशो विलोकयामास नैमित्तिक इवोन्मुखः ॥ १४८ ॥ ततः कारण्डवक्रौञ्श्चहंससारस पक्षिणाम् | क्षणादाकर्णयामास कोलाहलमनाकुलः ॥ १४९ ॥ मरुता पङ्कजामोद वाहिनाश्वासितश्च सः । सरः किश्चिदिहास्तीति निश्विकायानुमानतः ।। १५० ।। आनन्दवाप्पतोयेन निश्चिन्वन् मित्रसंगमम् । सरोवरस्याभिमुखं स ययौ राजहंसवत् ॥ १५१ ॥ गच्छन्नग्रे व शुश्राव गीतं गान्धारबन्धुरम् । मधुरं वेणुनादं च वीणाक्काणं च हरिणम् ॥ १५२ ॥ विचित्रवस्त्रनेपथ्यर मणीमध्यवर्तिनम् । मित्रं सनत्कुमारं स ददर्श प्रियदर्शनम् ॥ १५३ ॥ प्रियसुहृत् किं मे माया कस्यापि कापि वा । इन्द्रजालमिदं किं वा हृदयान्निर्गतोऽथ मे ॥ १५४ ॥ इति सोऽचिन्तयद् यावत् तावत् कर्णरसायनम् । वैतालिकेन केनापि पठ्यमानमदो शृणोत् ।। १५५ ॥ कुरुवंशस रोहंसाश्व सेनाब्धिनिशाकर ! । सनत्कुमार ! सौभाग्यमनोभव ! चिरं जय ॥ १५६ ॥ जय विद्याधरवधूदोलता लिङ्गनडुम ! | आढ्यम्भविष्णो ! वैताढ्य श्रेणिद्वयजयश्रिया ॥ १५७ ॥ एवं समाकर्ण्य सनत्कुमारस्य स दृक्पथम् । जगाम ग्रीष्मसंतप्तो जलाशयमिव द्विपः ॥ १५८ ॥ * 'रवदु° संदृ० ॥ १ पञ्चास्यः सिंहः । २ तप्तः । + 'शोऽवलो' का. ॥ ३ मनोहरम् । चतुथ पर्व सप्तमः सर्गः श्रीसनत्कु मारचक्रि चरितम् । ॥४४० ॥ Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षाश्रुधारया तुल्यं स पतन् पादपद्मयोः । अभ्युत्थायोद्धृत्य सनत्कुमारेणाभिषखजे ॥१५९॥ उभौ हर्षाश्रु वर्षन्तौ वार्षिकाविव वारिदौ । सविसयाँवप्रतय॑परस्परसमागमात् ॥१६॥ साश्चर्यैर्वीक्ष्यमाणौ तौ विद्याधरकुमारकैः । महाासनयोरासाश्चक्राते रोमहर्षिणौ ॥ १६१॥ अनन्यदृष्टिमनसौ तावभूतां परस्परम् । योगिनाविव रूपस्थध्यानमुद्रापरायणौ ॥ १६२॥ सनत्कुमारकुमारयोगाद् दिव्यौषधादिव । तदा महेन्द्रसिंहस्य श्रमो' रोग इवात्रुटत् ॥ १६३ ॥ सनत्कुमारो हर्षाथु प्रमृज्याथ खचक्षुषोः । महेन्द्रसिंहमित्यूचे ससुधोद्गारया गिरा ॥ १६४ ॥ कथमत्र समायासीरेकाक्यासीः कथं नु वा । मामज्ञासीः कथं वाऽत्र कथं वा कालमक्षिपः ॥ १६५॥ मद्वियोगे पितृपादाः कथं प्राणानधारयन् । कथं पितृभ्यामेकाकी प्रेषितोऽसीह दुर्गमे १ ॥१६६ ॥ इति पृष्टः कुमारेण बाष्पगद्गदवागथ । महेन्द्रसिंहः प्राग्वृत्तमाचचक्षे यथातथम् ॥१६७॥ ततः सनत्कुमारस्तं विद्याधरवधूजनैः । चतुरैः कारयामास मजनं भोजनादि च ॥ १६८॥ महेन्द्रसिंहस्तदनु विसयमेरलोचनः। सनत्कुमारमित्यचे विनयाद रचिताञ्जलिः॥१६९॥ तदा तेन तुरङ्गेणापहृतः कियती भुवम् । तदादि मद्वियोगे च प्राप्तं किमथवा त्वया ॥ १७ ॥ इयमृद्धिः कुतो वा ते प्रसीदाख्यातुमर्हसि । रहस्यभूतमेतत् ते गोपनीयं न चेन्मयि ॥ १७१॥ सनत्कुमार इत्युक्तश्चिन्तयामास चेतसि । आत्मकल्पे वयस्येऽस्मिन् गोपनीयं न किञ्चन ॥ १७२ ॥ १ समम् । २ उत्थाप्य। ३ तर्कितुमशक्यः परस्परसमागमस्तस्मात् । * गौ ॥ संव.॥ मो वेग संवृ. ॥ ४ आगतः। ५ खानम् । ६ विस्मयेन प्रफुल्लनेत्रः। • तप्रभृति । ८ स्वसदृशे । Jain Education Internal Allww.jainelibrary.org Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थ पर्व सप्तमः सर्गः श्रीसनत्कुमारचक्रिचरितम् । ॥४४॥ परैरप्युच्यमानेन स्ववृत्तेन संताऽपि हि । महापुमांसो लजन्ते तत् खवृत्तं कथं बुवे? ॥१७३॥ भवत्वेवं तावदिति विनिश्चित्याश्वसेनमः । इत्यादिदेश दयितां वामपार्श्वे निषेदुषीम् ॥ १७४ ॥ प्रिये बकुलमतिके! विद्यया वेद्यवेदिनि! । असै महेन्द्रसिंहाय तथ्यां कथय मत्कथाम् ॥ १७५ ॥ मुकुलीकुरुते नेत्राम्भोजे निद्रा तु मेऽधुना । इत्युदित्वा रतिगृहं सुषुप्सुः प्रविवेश सः॥ १७६ ॥ ततो बकुलमतिरप्यवोचत् तत्र वासरे। सखा ते वाजिना जहे युष्माकं पश्यतामपि ॥ १७७ ॥ प्रवेशितश्च महतीमटवीमतिदारुणाम् । रहाक्रीडास्थानमिव देवस्य समवर्तिनः ॥१७८ ॥ गच्छन्नहि द्वितीयेऽपि सोऽश्वः पचमधारया। मध्याहे क्षुत्पिपासातः कृष्ट्वा जिह्वामवास्थितः॥१७९॥ तस्माच्छासापूर्णकण्ठात् स्तब्धपादात तुरङ्गमात् । आर्यपुत्रोऽप्यवातारीत् प्रेपित्सोः कुट्टिमादिव ॥१८॥ छोटयित्वा तदुदंरबन्धिनं पट्टमायतम् । सोऽश्चादुत्तारयामास पर्याणकविके स्वयम् ॥ १८१॥ तुरङ्गमः स घूर्णित्वा पपात धरणीतले । सद्यश्च मुमुचे प्राणैः सहपातभयादिव ॥ १८२ ॥ पिपासयाऽथार्यपुत्रः पयोऽन्वेष्टुमितस्ततः । तस्यामटव्यां बभ्राम नापश्यच्च मराविव ।। १८३ ।। सुकुमारतयाऽङ्गस्य दूरायांतश्रमेण च । दवदाहादटव्याश्च व्याकुलोऽभूत् सखा तव ॥ १८४ ॥ गत्वाऽदूरात् सप्तपर्णतरुमूले द्रुतं ततः । उपाविक्षन्मुकुलितेक्षणः क्षोण्यां पपात च ॥ १८५ ॥ सत्येनापि । * रे कुमारो वा का.॥ २ अश्वेन । ३ यमराजस्य। • गतिविशेषेण । ५ प्रपतितुमिच्छोः । दरं बन्धनं का.॥ ६ पर्याणं अश्वपृष्ठाच्छादनम् , कविका वलगानुगता 'चोकहा' इति स्याता। यानध संवृ० का.॥ 5°व्यामाकु संवृ.॥ ॥४४॥ Jain Education in For Private & Personal use only . Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदा चामुं पुण्यवशाद् यक्षस्तद्वनदैवतम् । जलैः सिषेच सर्वाङ्गं शिशिरैरमृतोपमैः ॥ १८६ ॥ उत्थाय लब्धसंज्ञोऽसौ तदत्तं तत्पयः पपौ । कस्त्वं कुतो वा वारीदमित्यपृच्छच्च तं शनैः ॥ १८७॥ यक्षोऽहमिह वास्तव्यो मानसात् त्वत्कृते पयः । इदं मया समानीतमित्याचख्यौ स यक्षराट् ॥ १८८॥ आर्यपुत्रोऽवदद् भूयः संतापोऽङ्गे महानयम् । न विना मानससरोमजनादपयास्यति ॥ १८९ ।। तवेच्छां पूरयाम्येष इत्युक्त्वा यक्षपुङ्गवः। कदलीसंपुटे क्षिप्वाऽमुं मानससरोजयत् ॥ १९॥ तत्र च स्वपयामासार्यपुत्रं स यथाविधि । गजराज गंजायुक्त इव शीतामलै लैः ॥ १९१ ॥ सर्वाङ्गीणं सुखस्पर्शेरपनिन्ये श्रमो जलैः । आर्यपुत्रस्य निपुणैः संवाहकजनैरिव ॥ १९२ ॥ तत्रासिताक्षो यक्षः प्राग्जन्मारिः सुहृदस्तव । हननाय समागच्छत् कृतान्त इव नूतनः ॥ १९३॥ अरे रे तिष्ठ सिंहेन क्षुधितेनेव कुञ्जरः । चिरादसि मया दृष्टः कियद्रं गमिष्यसि ॥१९४ ॥ इत्यूर्जितं स तर्जित्वा समुन्मूल्यैकमनीम् । आर्यपुत्राय सोनार्यः प्राक्षिपद् यष्टिलीलया ॥ १९५॥ समापतन्तं हस्तेन निहत्यापातयद् द्रुमम् । 'तं ते सखा प्रतिकारभस्त्रामिव मतङ्गजः ॥ १९६॥ ततो बहलधूलीमिरन्धकारमयं जगत् । अकालोत्पन्नकल्पान्तमिव यक्षश्वकार सः॥१९७॥ सं विचक्रे पिशाचाँश्च धूमधूम्रकलेंवरान् । सोदरानन्धकारस्य दारुणाकारधारिणः ॥ १९८॥ ज्वालाजालकरालास्यास्ते चित्या इव जङ्गमाः । अट्टहासं विमुश्चन्तः पतत्पविरवोपमम् ॥ १९९ ॥ १ तन्नानः सरोवरात् । * त्वा तं मा संवृ. का. . + मास कुमारं स य संबृ. ॥ २ हस्तिपकः। ३ तिरस्कृत्य । ४ वृक्षम्। तं कुमारप्र संवृ.॥ ५ गजग्रहणोपायभूतां भवाम् कोहधमनीम्, 'भट्ठी" इति भाषायाम् । अग्नयः । Jain Education in Urbel For Private & Personal use only Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ पर्व सप्तमः सर्ग: श्रीसनत्कुमारचक्रि चरितम् त्रिषष्टि पिङ्गकेशाः पिङ्गनेत्राः संदवा इव पर्वताः। लम्बजिह्वाः कोटरान्तःस्थिताहय इव दुमाः॥२०॥ शलाका तीक्ष्णवका महादंष्ट्रा दधानाः कत्रिका इव । अधावन्ताध्यार्यपुत्रमधिमध्विव मक्षिकाः ॥२०१॥ पुरुषचरिते ॥त्रिभिर्विशेषकम् ॥ महाकाव्ये भ्राम्यतो विकृताकारान् रङ्गादाविव नर्तकान् । आर्यपुत्रोऽपि तान् पश्यन् न विभाय मनागपि ॥२०२॥ ॥४४२॥ पिशाचेभ्योऽप्यचकितमार्यपुत्रं तरखिनम् । अकालकालपाशाभैर्नागपाशैर्बबन्ध सः॥२०३॥ आर्यपुत्रस्तु तान् सर्वास्त्रोटयामास लीलया । हस्तोत्क्षेपेण हस्तीवाविहस्तो वल्लिमण्डपम् ॥ २०४॥ अमुं यक्षो विलक्षोऽथ करघातैरताडयत् । महागिरिप्रस्थमिव लाङ्गलाच्छोटनहरिः॥२०५॥ आजघानार्यपुत्रस्तं वज्रसारेण मुष्टिना । महामात्र इव क्रुद्धो लोहगोलेन दन्तिनम् ॥ २०६॥ अयोवलयितेनाथ मुद्रेण गरीयसा । आर्यपुत्रं न्यहन् यक्षस्तडितेवाद्रिमम्बुदः ॥२०७॥ चन्दनद्रुममुन्मूल्य तेन वर्धिष्णुराहतः । यक्षः पपात भुव्यर्द्धशोषं शुष्क इव द्रुमः॥२०८॥ यक्षोऽपि शैलमुरिक्षप्य लीलया गण्डशैलवत् । आर्यपुत्रस्योपरिष्टाच्चिक्षेपामर्षणः क्षणात् ॥ २०९॥ तेन शैलप्रहारेण जज्ञे निश्चेतनः क्षणम् । सायं नदीहूद इव मीलितेक्षणपङ्कजः ॥ २१०॥ लब्धसंज्ञो विध्यादि महावायुरिवाम्बुदम् । आर्यपुत्रः प्रववृते बाहुभ्यां योद्धमुच्चकैः ॥२११॥ १ दवानलसहिताः । * "न्ताधिकुमारमधि संवृ. ॥ २ बलिनम्। ३ अमन्दः। 1 °ण्डलम् ॥ संवृ. का.॥ Cltतंच य° संबृ. ॥ ४ विषण्णः। हरघातयत मु.॥ 'त् । उपरिष्टात् कुमारस्य चिक्षे संबृ.॥ ॥४४२॥ Jain Education Intel For Private & Personal use only Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दण्डेन दण्डभृदिव दोर्दण्डेन निहत्य तम् । चक्रे सखा ते कणशः सोऽमरत्वात् तुं नामृत ॥ २१२॥ ततो विरसमारट्य मुमूर्षन्निव सूकरः । असिताक्षः पलायिष्ट वायवीयेन रंहसा ॥२१३ ॥ रणकौतुकवीक्षिण्यः सुरविद्याधराङ्गनाः । त्वन्मित्रे ववृषुः पुष्पाण्यतुश्रिय इव खयम् ॥ २१४ ॥ अपराहे ततोऽचालीन्मानसाद् धीरमानसः। आर्यपुत्रो ययौ बाह्यां भुवं मत्त इव द्विपः ।। २१५॥ नन्दनात् तत्र चायाता असौ खेचरकन्यकाः । ईक्षाञ्चके रूपवतीः सैरजीवातुसन्निभाः॥२१६ ॥ संखा ते ताभिरप्यैक्षि हावभावमनोहरम् । स्वयंवरस्रज इव क्षिपतीभिर्दशोऽलसाः॥ २१७ ॥ आविश्चिकीर्षः सद्भावमार्यपुत्र उपेत्य ताः । सुधामधुरया वाचा प्रोवाचार्यो वचखिनाम् ॥ २१८॥ यूयं महात्मनः कस्य पुत्र्यः कुलविभूषणम् । युष्माभिर्भूषितं चेदमरण्यं केन हेतुना ॥ २१९॥ ता अप्य चमहाभाग! विद्याधरमहीपतेः । श्रीमतो भानुवेगस्य वयमष्टापि कन्यकाः॥ २२०॥ इतश्चानतिरेऽस्ति तातस्य नगरी वरा । तामलङ्कुरु विश्रान्त्या राजहंस इवाजिनीम् ॥ २२१ ॥ इत्युक्तः श्रयात ताभिः सखा ते तत्पुरीमगात् । सान्ध्यं विधि कर्तुमिवाम्भोधौ भानुर्ममजच ॥२२२॥ वरचिन्ताशल्यभृतो विशल्य करणौषधिः । ताभिः सखा ते स्वपितुरन्तिकेऽनायि सोविदः ॥ २२३ ॥ । दण्डधारी वरुणो वा यमः। * के कुमारः क संवृ. ॥ तु नोऽमृत ॥ का.॥ २ वायुसरशेन । नाः। कुमारे व संवृ. ॥वाल्यां भु° मु.॥"ता सविद्याधरकन्य संबृ. ॥ ३ कामदेवजीवन तुल्याः । * कुमारस्तामि संवृ.॥ ४ कमलिनीम् । ५ विनयात्। 'भि कुमारस्तत्पु संवृ.॥ + भिः कुमार ख° संवृ.॥ ६ अन्तःपुरचारिभिः नपुंसकनरः। EXCAKACIRCRAKACANCE Jan Education in For Private & Personal use only Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरिते महाकाव्ये ॥४४३॥ Jain Education Internatio अभ्युत्थानं भानुवेगः कृत्वैवं तमभाषत । दिष्ट्या नः सदनं पुण्यं पुण्यराशिर्यदागमः ॥ २२४ ॥ आकृत्याऽपि ज्ञायसे त्वं महावश्यो महाभुजः । इन्दोः क्षीरार्णवाञ्जन्म मूर्त्त्याऽपि ह्यनुमीयते ॥ २२५ ॥ यत् कन्यानां त्वमुचितो वरोऽसीति मयाऽर्ध्यसे । इमाः परिणयाष्टापि रत्नं स्वर्णे हि योज्यते ॥ २२६ ॥ एवमभ्यर्थितस्तेन तदैव विधिपूर्वकम् । ता दिश्रिय इवाष्टापि पर्यणैषीत् सखा तव ॥ २२७ ॥ ताभिः समं रतिगृहे सुप्तोऽसौ बद्धकङ्कणः । निद्रासुखं चान्वभवद् रत्नपर्यङ्कमास्थितः ॥ २२८ ॥ निद्रापराजितं चैतमसिताक्षः क्षणादपि । उत्क्षिप्यान्यत्र चिक्षेप बलिभ्योऽपि छलं बलिः ।। २२९ ॥ पश्यन् सखा ते निद्रान्ते खं भूमिष्ठं सकङ्कणम् । एकाकिन मरण्यान्तर्दध्यौ किमिदमित्यथ ॥ २३० ॥ असावटन्नटव्यन्तरेकाकी पूर्ववत् पुनः । अभ्रंलिहं ददशकं प्रासादं सप्तभूमिकम् ।। २३१ ॥ कस्यापि मायिनोऽदोऽपि मायाविलसितं किमु । इत्यामृशन्नार्य पुत्रस्तं प्रासादं समासदत् ॥ २३२ ॥ कस्याश्चिद् योषितस्तत्र कुररीकरुणखरम् । अश्रौषीद् रुदितं व्यक्तं वनान्तमपि रोदयत् ॥ २३३ ॥ आर्यपुत्रो दयावीरः प्रासादे तत्र सप्तमीम् । आरोहद् भूमिकां र्धिष्ण्य विमानभ्रान्तिदायिनीम् ।। २३४ ॥ सनत्कुमार कौरव्य ! मम जन्मान्तरेऽपि हि । भर्ता भूयास्त्वमेवेति भूयो भूयोऽभिशंसिनीम् ॥ २३५ ॥ अश्रुपूर्णक्षणां दीनां कन्यामेकामधोमुखीम् । रूपलावण्यपुण्याङ्गीं सखा ते तत्र चैक्षत ॥ २३६ ॥ * कृत्वेत्यमुम° मु.॥ न् कुमारो नि संबृ. ॥ टव्य' सं. ॥ १ आकाशगामिनम् । २ विचारयन् । * कुमारोऽपि द° सं. ॥ ४ धिष्ण्यं नक्षत्रं तारा वा । ध्यौ चित्ते किम (मि ) त्यथ ॥ सं. ॥ ६ स पर्यटन३ कुररीवत् करुणः स्वरो यस्मिन् । "दितमसौ व मु० ॥ योऽपि शंसिनीम् ॥ सु. ॥ ङ्गीं कुमारस्तत्र संबृ. ॥ चतुर्थ पर्व सप्तमः सर्गः श्रीसनत्कुमारचक्रि चरितम् । ॥४४३॥ w.jainelibrary.org. Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खनामश्रवणात् केयं ममेत्याशङ्कितोऽथ सः। पुरोभूयेत्यभाषिष्ट प्रत्यक्षेवेष्टदेवता ॥ २३७ ॥ भद्रे! सनत्कुमारः काकासि त्वं किमिहागता किंवा ते व्यसनं येन तं स्मरन्तीति रोदिपि ॥ २३८॥ इत्युक्ता तेन सा बाला बलादाह्लादमीयुषी । पीयूषमित्र वर्षन्ती गिरा मधुरयावदत् ॥ २३९ ॥ साकेतपुरनाथस्य सुराष्ट्रस्य महीपतेः। देव्याश्च चन्द्रयशसः सुनन्दा नाम पुथ्यहम् ॥ २४॥ कुरुवंशनभोभानोरश्वसेनस्य भूपतेः । सूनुः सनत्कुमारस्तु रूपन्यकृतमन्मथः ॥ २४१॥ स मनोरथमात्रेण भर्ता मम महाभुजः । तसै पितृभ्यां दत्ताऽस्मि यस्माद्दकपूर्वकम् ।। २४२ ॥ ततोऽकृतविवाहां मामेको विद्याधरात्मजः । स्वकुट्टिमादिहानैषीत् परस्वमिव तस्करः ।। २४३॥ इमं विकृत्य प्रासादं मामत्रैव विमुच्य च । कापि विद्याधरः सोऽगान जाने किं भविष्यति ? ॥२४४॥ अवोचदार्यपुत्रोऽपि मा भैषीः कातरेक्षणे । सनत्कुमारः सोऽस्म्येष कौरव्यो यं सरस्थलम् ॥ २४५ ॥ प्रत्यभाषिष्ट साऽप्येवं चिराद् दृष्टिपथेऽद्य मे । देव! देवेन सुखममिव दिल्यासि दर्शितः ॥ २४६ ॥ एवं तयोरालपतोरागात् क्रोधारुणेक्षणः । विद्याधरो वज्रवेगाभिधानोऽशनिवेगसूः ॥ २४७॥ उत्पाट्योल्लालयामास स विद्याधरदारकः । आर्यपुत्रं समुत्पातिखेचरभ्रमदायिनम् ।। २४८॥ हा नाथ नाथ! दैवेन निहताऽसीति भाषिणी । मूर्च्छया सा महीपृष्ठे शीर्णपर्णमिवापतत् ।। २४९ ॥ क्रुद्धः सन्नार्यपुत्रोऽपि मुट्या मशकमुष्टिवत् । वज्रौजसा वज्रवेगमवधीत् तं दुराशयम् ॥ २५०॥ अक्षताङ्गस्तदभ्यर्णमार्यपुत्र: समाययौ । नेत्रनीलोत्पलानन्दं जनयंश्चन्द्रमा इव ॥ २५१॥ १ संकल्पपूर्वकम् । २ परधनम् । * उवाच राजपु संवृ.॥ ३ अधीरेक्षणे। ४ अतिशयेन । Jain Education intelle For Private & Personal use only , Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ पर्व त्रिषष्टिशलाका सप्तमः पुरुषचरिते महाकाव्ये सर्ग: श्रीसनत्कुमारचक्रिचरितम् । ॥४४४॥ समाश्वास्य च तां सद्यः पर्यणैषीन्मनीष्यसौ । नैमित्तिकवरैः सा हि स्त्रीरत्नमिति सूचिता ॥ २५२॥ आगात् तत्र क्षणेनापि वज्रवेगस्य सोदरा । कन्या सन्ध्यावली नामाकुप्यद् भ्रातृवधाच सा ॥ २५३ ॥ 'भर्ता ते भ्रातृवधको भावीति' ज्ञानिनां वचः। स्मृत्वाऽशाम्यत् क्षणेनापि खलोभः कस्य नोपरि ॥२५४॥ जयश्रीः सा द्वितीयेव स्वयंवरपरायणा । आर्यपुत्रं नाथमिच्छन्त्युपतस्थे कुमारिका ॥ २५५ ॥ अनुज्ञातस्त्वत्सखाऽथानन्दभाजा सुनन्दया । गान्धर्वेण विवाहेन तामुपायंस्त रागिणीम् ॥ २५६॥ एत्य विद्याधरौ द्वौ च तदानीमाश्वसेनये । महारथं सँसन्नाहमुपनीयेत्यवोचताम् ॥ २५७ ॥ स्वया हतं वज्रवेगं गरुडेनेव पन्नगम् । विज्ञायाशनिवेगस्तत्पिता विद्याधरेश्वरः ॥ २५८ ॥ विद्याधरबलच्छन्नदिको दिक्करिविक्रमः । त्वां योधयितुमेत्येष रोषक्षाराम्बुसागरः ॥२५९॥ पितृभ्यां चन्द्रवेगेन भानुवेगेन चेरितौ । आवां श्वशुर्यों भवतः साहाय्यार्थे समागतौ ॥२६॥ तत्प्रेषितं रथं चामुमारोहेन्द्ररथोपमम् । अमुं चामुश्च सन्नाहं विजयख द्विषां बलम् ॥ २६१ ॥ चन्द्रवेग-भानुवेगौ वाहनैर्वायुवेगिभिः । साहाय्यायागतौ विद्धि निजे मूर्ती इवापरे॥ २६२॥ तौ तदानीमपि महावाहिनीको समेयतुः। चन्द्रवेग-भानुवेगावब्धी पूर्वापराविव ॥ २६३॥ तदा चाशनिवेगस्यागच्छतः सैन्यसञ्चयैः। उत्तस्थे तुमुलो व्योम्नि पुष्करावर्गकैरिव ॥ २६४॥ तदानीमार्यपुत्राय सन्ध्यावलिरदत्त सा । विद्यां प्रज्ञप्तिका नाम भर्तृगृह्या हि योषितः ॥ २६५॥ बुद्धिमान् । २ भगिनी। * °णा । अथार्यपुत्रं नाथीयन्त्यु' संवृ. ॥ +तः कुमारोऽथा संवृ. ॥ ३ भश्वसेनस्य पुत्राय। ४ कवचसहितम् । ५ परिभेहि। त्तस्थौ तु मु.॥ ॥४४४॥ Jain Education into For Private & Personal use only Kot Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्यपुत्रोऽपि सन्नह्य समारुह्य च तं रथम् । रणायोत्कण्ठितस्तस्थौ क्षत्रिया हि रणप्रियाः॥२६६॥ चन्द्रवेग-भानुवेगादयो विद्याधरा अमुंम् । खसैन्यैर्वबिरे वैरियशोविधुविधुन्तुदाः॥२६७॥ गृहीत गृहीत हत हतेति च विभाषिणः। आगमन्नतिवेगेनाशनिवेगस्य सैनिकाः ॥ २६८ ॥ उभयोरप्ययुध्यन्त सैन्या दैन्यविनाकृताः। ताम्रचूडा इवोत्पत्योत्पत्यामर्षात् प्रहारिणः ॥ २६९॥ तेषां वेडारवादन्यन्न किश्चिच्छुश्रुवे तदा । तदायुधेभ्यो दीप्तेभ्यो नान्यत् किश्चित् त्वदृश्यत ।। २७०॥ अपासर्पनुपासर्पन प्रहारानसकृद् ददुः । प्रतीषुश्च रणविदः सुभटाः कुञ्जरा इव ॥ २७१ ॥ युद्धा चिरेण भग्नेषु सैनिकेषु द्वयोरपि । समुत्तस्थेऽशनिवेगो रथेनानिलवेगिना ॥ २७२ ॥ भो भोः! क्व वज्रवेगारिर्यमागारनवातिथिः । इत्याक्षिपन् परानुच्चैः साधिज्यं विदधे धनुः ॥२७३ ॥ एषोऽहं वज्रवेगारिर्यमागारनवातिथिः । इति ब्रुवन्नार्यपुत्रोऽप्यातिज्यं धनुर्व्यधात् ॥ २७४ ॥ ततः प्रववृते युद्धं द्वयोरपि महौजसोः। शराशरि तिरो तदिवाकरकरोत्करम् ॥ २७५ ।। द्वावप्यार्यपुत्र विद्याधरेशो मारतत्परौ । युद्धा गदाधरप्यस्वैरसंजातपराजयौ ॥ २७६ ॥ सार्पगारुत्मतानेयवारुणास्त्रैस्तु दारुणैः । दिव्यैरवैरयुध्येतामन्योऽन्यं बाध्यबाधकैः॥२७७॥ युग्मम् ॥3 विद्याधरपतेश्चापमास्फाल्योन्मुश्चतः शरम् । आर्यपुत्रः सायकेन जीवीं जीवमिवाच्छिदत् ॥ २७८॥ ___* अपि । तं से संबृ. ॥ वैरिणां यश एव चन्द्रस्तस्मिन् राहुसरशाः। २ दीनतारहिताः। ३ कर्कुटाः । ४ गर्जनाशब्दात् । ५ प्रतिजग्मुः। 'तिथे। मु.॥ ६ भातता विस्तीर्णा ज्या यस्मिन् । . तिरोभूतः सूर्यकिरणसमूहो यस्मिन् तत् । ८ धनुर्गुणम् । . For Private & Personal use only Jain Education Intelli-44 K Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरिते | महाकाव्ये ॥। ४४५ ।। Jain Education Internat मण्डलाग्रमथाकृष्याश निवेगस्य धावतः । यशोऽर्धमिव दोरधं निचकर्त्ताश्वसेनभूः ॥ २७९ ॥ भग्नैकदन्तो दन्तीव दंष्ट्रीवास्तैकदंष्ट्रिकः । छिन्नैकभुजदण्डोऽपि सोऽतिक्रोधादधावत ॥ २८० ॥ प्रहर्तुं धावतस्तस्य दर्शनैर्दशतोऽधरम् । विद्यार्पितेन चक्रेण शिरश्चिच्छेद मत्पतिः ॥ २८१ ॥ ततश्वाश निवेगस्य राज्यलक्ष्मीः समन्ततः । मम भर्तरि संधाता विक्रान्तो हि श्रियां पदम् ॥ २८२ ॥ चन्द्रवेगप्रभृतिभिः समं विद्याधरेश्वरैः । गिरिं जगाम वैताढ्यमाश्व से निरशङ्कितः ॥ २८३ ॥ विद्याधर महाराज्याभिषेकोऽमुष्य तत्र च । विद्याधरेन्द्रैर्विदधे प्रपेदानैः पदातिताम् ॥ २८४ ॥ शाश्वतार्हत्प्रतिमानां तत्रैषोऽप्रतिमर्द्धिकः । नन्दीश्वरे शक्र इव विदधेऽष्टाहिकोत्सवम् ॥ २८५ ॥ अथार्यपुत्रमन्येद्युर्विद्याधरशिरोमणिः । चन्द्रवेगो मम पिता सप्रश्रयमदोऽवदत् ॥ २८६ ॥ कोऽप्येकदा मया पूर्वमपूर्वमहिमा मुनिः । ज्ञानरत्नाकरो दृष्टः स पृष्टः शिष्टवानिति ॥ २८७ ॥ तवेदं बकुलमतिप्रमुखं कन्यकाशतम् । चक्री चतुर्थोऽत्र सनत्कुमारः परिणेष्यति ॥ २८८ ॥ कथं गम्यः कथं प्रार्थ्यः कन्या दातुमभूः स तु । इति चिन्ताजुषो मे त्वं भाग्यैरिह समागमः ॥ २८९ ॥ तत् प्रसीद शतं कन्या अमूः परिणय प्रभो ! । याचा मोघा महताममोघं च ऋषेर्वचः ।। २९० ॥ प्रार्थितो मम पित्रैवर्थिचिन्तामणिस्तदा । पर्यणैषीत् तव सुहृच्छतं कन्या मदादिकाः ॥ २९९ ॥ १ नष्टैकदंष्ट्रः । २ दन्तैः । १३ संधास्यति । सोऽप्र संबृ. ॥ + मा मतिः । ज्ञा' संबृ. ॥ यावत् । याचकेषु चिन्तामणिसमानः । ४ विक्रमी । ६ कथितवान् । * वेकस्तत्र तस्य च संबृ. ॥ ५ प्राप्तेः । तत्र तदेवं व संबृ. ॥ ७ चिन्तासेविनः चिन्तातुरस्येति चतुर्थ पर्व सप्तमः सर्गः श्रीसनत्कुमारचक्रिचरितम् । ।। ४४५ ।। Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदाचिच्चारुसंगीतैः कदाचिद् वरनाटकैः । कदाप्याख्यानकवरैः कदाप्यालेख्यवीक्षणः ॥ २९२ ॥ कदाचिद् दिव्यवापीषु जलक्रीडामहोत्सवैः । कदाप्युद्यानवीथीषु पुष्पोच्चयनकेलिमिः॥ २९३ ॥ कदाचिदन्याभिरपि क्रीडन् क्रीडाभिरेष ते । विद्याधरैः परिवृतोऽनैषीत् कालं सुखं सखा ॥ २९४ ॥ ॥त्रिभिर्विशेषकम् ॥ क्रीडानिमित्तमधुना विहागात तव वान्धवः । मिलितस्त्वं च दलितो दुर्दैवस्य मनोरथः ॥ २९५॥ इत्युक्तवत्यां बकुलमत्यां रतिनिकेतनात् । सनत्कुमारो निरगादादिव मतङ्गजः ॥ २९६ ॥ समं महेन्द्रसिंहेन विद्याधरंसमावृतः। वैतादयाद्रि ततः सोऽगात् सुमेरुमिव वासवः ॥ २९७ ॥ स कालं गमयन्नृद्धथा महत्या परिहितः । महेन्द्रसिंहेनान्येधुर्व्यज्ञपीदं यथोचितम् ॥ २९८॥ तव ऋद्ध्याऽनया खामिन् ! मनो मे मोदतेतमाम् । पितरौ त्वद्वियोगातौं सारं सारं च सीदतः ॥२९९ ॥ असौ सनत्कुमारोऽसौ महेन्द्र इति तन्मयम् । पितरौ पश्यतो विश्वं मन्ये तनयवत्सलौ ॥ ३०॥ तत् प्रसीदाभिगच्छामो नगरं हस्तिनापुरम् । आनन्दय पिजनं शशाङ्क इव सागरम् ॥ ३०१॥ तेनेत्यभिहितः सख्या सोत्कण्ठः सोऽपि तत्क्षणात । विद्याधराधिपशतैश्चमृयुक्तः समावृतः॥३०२॥ विमानभासुरैः कुर्वन् नानाऽऽदित्यमिवाम्बरम । विद्याधरैः कैश्चिदपि विधृतातपवारणः॥३०३॥ उद्भूतचामरः कैश्चित् कैश्चिदप्यूढपादुकः । कैश्विद् गृहीतव्यजन आत्तवेत्रश्च कैश्चन ॥ ३०४ ॥ * '.' 'का.' इत्येतयोरादर्शयो स्ति पदद्वयमेतत् ॥ + रपरावृ संवृ.॥ + दावग' मु. ॥ ६ कै. परावृ संवृ. ॥ त्रिषष्टि, ७६ JainEducation intev al For Private & Personal use only Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिपष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थ पर्व सप्तमः सर्गः श्रीसनत्कुमारचकिचरितम् । ॥४४६॥ ध्रियमाणस्थगिकोऽन्यैः कथ्यमानपथोऽपरैः । दर्यमानविनोदोऽन्यैस्स्तूयमानगुणोऽपरैः ॥ ३०५ ॥ कैरपि द्विरदारूढेरश्वारूढैश्च कैश्चन । कैश्चिच्च स्यन्दनारूढैः खे कैश्चित पादचारिभिः ॥ ३०६॥... सकलत्रः समित्रश्वामित्रशैलमहाशनिः । सनत्कुमारः संप्राप नगरं हस्तिनापुरम् ॥ ३०७॥ ॥पइभिः कुलकम् ॥ पितरौ तत्र दुःखातौं पौराँश्च निजदर्शनात् । स समानन्दयद् ग्रीष्मतापार्तानिव वारिदः ॥ ३०८॥ सनत्कुमारं वे राज्येऽश्वसेननृपतिन्यंधात् । महेन्द्रसिंह तत्सेनाधिपत्ये प्रीतमानसः ॥ ३०९॥ श्रीधर्मतीर्थकृत्तीथे स्थविराणामथान्तिके । परिव्रज्या समादाय राजा स्वार्थमसाधयत् ॥ ३१०॥ राज्यं सनत्कुमारस्य परिपालयतः सतः। महारतान्यजायन्त चक्रादीनि चतुर्दश ॥ ३११॥ ततः स साधयामास चक्रमार्गानुगः स्वयम् । षट्खण्डं भरतक्षेत्रं नैसर्पाद्यान् निधीनपि ॥ ३१२ ॥ देशभिर्वर्षसहस्रैः साधयित्वा स भारतम् । प्राविशद रनभूतेन हस्तिना हस्तिनापुरम् ।। ३१३॥ प्रविशन्तं महात्मानमवधिज्ञानतोऽथ तम् । वीक्षाश्चक्रे सहस्राक्षः साक्षात् स्वमिव सौहृदात् ॥३१४॥ सौधर्मेन्द्रः पूर्वजन्मन्यसौ मे तेन बान्धवः । इति स्नेहवशाच्छकः कुबेरमिदमादिशत् ॥ ३१५ ॥ अयं चिरश्चक्री कुरुवंशाब्धिचन्द्रमाः । राज्ञोऽश्वसेनस सुतो महात्मा बन्धुवन्मम ॥ ३१६॥ सनत्कुमारः पखण्डं साधयित्वाऽद्य भारतम् । खपुरं प्रविशत्येषोऽभिषेकोऽस्य विधीयताम् ॥ ३१७ ॥ स्थगी ताम्बूलकरकः । * नास्त्येतत् पदद्वयं 'संवृ. का.'त्येतयोरादर्शयोः कृत्वा वर्षसहस्रणकातपत्रं सभा संवृ. का.॥ प्रावि संवृ. ॥ २ भूतपूर्वः शाकः शकचरः। “भूतपूर्वे चरद" इति सूत्रसंसिद्धः। ६°क्रवर मु.॥ DONLOADCAMELOCACADERLOCALOR ॥४४६॥ Jain Education Inte For Private & Personal use only , Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हारं च शशिमालां चातपत्रं चामरे अपि । मुकुटं कुण्डलयुगं देवदृष्यद्वयीमपि ॥३१८॥ सिंहासनं पादुके च पादपीठं च भासुरम् । सद्यः सनत्कुमारार्थ कुबेरस्यार्पयद्धरिः॥ ३१९॥ तिलोत्तमोर्वशीमेनारम्भानुम्बुरुनारदान् । अन्यानपीन्द्रस्तदभिषेकायाशु समादिशत् ॥ ३२०॥ ततः कुबेरस्तैः सार्धमेत्य नागपुरे वरे । आख्यत् सनत्कुमाराय तमादेश दिवस्पतेः ॥ ३२१॥ सनत्कुमारानुज्ञातो विचकारैकयोजनम् । माणिक्यपीठं धनदो रोहणारेस्तटीमिव ।। ३२२ ॥ तवं मण्डपं दिव्यं मणिपीठं च मध्यतः । सिंहासनं तदुपरि विदधे धनदः क्षणात् ॥ ३२३ ॥ क्षीरोदात् त्रिदशैरम्भोऽथानायि धनदाज्ञया । गन्धमाल्यादि चानध्यं सर्वैरपि च पार्थिवैः॥३२४॥ सनत्कुमारं विज्ञप्य तत्र सिंहासनोत्तमे । कुबेर आसयामास शक्रप्राभृतमार्पयत् ॥ ३२५॥ तस्थौ सनत्कुमारस्य सामन्तादिः परिच्छदः । सामानिकादिको वज्रपाणेरिव यथोचितम् ॥ ३२६ ॥ तस्याथ चक्रवर्तित्वाभिषेकं पुण्यवारिभिः। राज्याभिषेकं श्रीनाभिसूनोरिख सुरा व्यधुः ॥ ३२७॥ मङ्गल्यं गीतमारेमे तुम्बुरुप्रमुखैरथ । पटहादीनि वाद्यानि त्रिदशैस्ताडितानि च ॥ ३२८॥ रम्भोर्वशीप्रभृतिभिर्नर्तकीभिरनृत्यत । विचित्राण्यभ्यनीयन्त गन्धर्वैर्नाटकानि च ॥ ३२९॥ सनत्कुमारं त्रिदशा अभिषिच्यैवमुच्चकैः । वस्त्राङ्गरागनेपथ्यमाल्यैर्दिव्यैरयोजत् ॥ ३३०॥ गजरनं गन्धवरमध्यारोह्य न्यवीविशत । सनत्कुमारं मुदितः कुबेरो हस्तिनापुरे ॥ ३३१ ॥ -- ___.* हारां च संवृ.॥ हस्तिनापुरे। रे पुरे । मु०॥ आख्यात् मु.॥२ इन्द्रस्य। 'दि वान' संब.॥ विज्ञाप्य संवृ० का.॥ * प्याञ्चके श संवृ० का.॥ ३ श्रीमादीश्वरस्य । Jain Education inte ! For Private & Personal use only | Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थ पर्व सप्तमः सर्ग: श्रीसनत्कुमारचक्रि ॥४४७॥ चरितम्। खपुरीव धनापूर्ण नगर हस्तिनापुरम् । कृत्वा कुबेरोऽथ ययौ विसृष्टश्चक्रवर्तिना ॥ ३३२॥ राजभिर्बद्धमुकुटैः सामन्तैरपरैरपि । तस्याभिषेको विदघे खसंपद्वल्लिसारणिः ॥ ३३३ ।। अभिषेकोत्सवात् तस्याभूत पुरं हस्तिनापुरम् । द्वादशाब्दी दण्डशुल्कभटवेशादिवर्जितम् ।। ३३४ ॥ स चक्री पालयामास पितेव विधिवत् प्रजाः। महाऋद्धिः शक्र इव करादिभिरपीडयन् ॥ ३३५॥ न समोऽस्य प्रतापेन यथा कश्चिदजायत । यथैवाप्रतिरूपेण रूपेणापि जगत्रये ॥ ३३६ ॥ तदानी च सुधर्मायां रत्नसिंहासनस्थितः । शक्रः सौदामनीं नाम नाटकं नाटयनभूत् ।। ३३७॥ अनवद्येन रूपेण सर्वरूपाभिभाविना । विसापयन् दिविषदस्तत्पर्षदि निषेर्दुषः॥३३८॥ देहप्रभाभिस्तिरयस्तेजांस्यखिलनाकिनाम् । ऐशानकल्पादभ्यागात् संगमस्तत्र चामरः ॥ ३३९ ॥ . ॥युग्मम् ।। गतेऽथ तस्मिन् पप्रच्छुः शक्रमेवं दिवौकसः । अस्य लोकोत्तरं तेजो रूपं चानुपमं कथम् ॥ ३४०॥ शक्रोऽप्यशंसदेतेन प्राग्जन्मनि कृतं तपः । आचामाम्लवर्धमानं तेनेमे रूपतेजसी ॥ ३४१॥ किमन्योऽपीदृशः कोऽपि विद्यतेऽत्र जगत्रये । इति भूयोऽमरैः पृष्टः सौधर्मेन्द्रोऽब्रवीदिदम् ।। ३४२॥ राज्ञः सनत्कुमारस कुरुवंशशिरोमणेः। यद्रूपं न तदन्यत्र देवेषु मनुजेषू च ॥ ३४३ ॥ इति प्रशंसां रूपस्याश्रद्दधानावुभौ सुरौ । विजयो वैजयन्तश्च पृथिव्यामवतेरतुः ॥ ३४४ ॥ सर्वरूपतिरस्कारिणा । २ निषण्णान्। ३ भाच्छादयन् । * °नाम्। ईशा का.॥ नास्त्येतत् पर्व 'संवृ० 'का.' इत्यादर्शयोः॥ °षु वा ॥ का.॥ ॥४४७॥ JainEducation a l For Private & Personal use only Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रमालोक्य विस्मयमेरमानाती। न्यायवर्ती चक्रवर्ती दावाशाम्यङ्गमदहन ॥ ३४६ ॥ ततस्तौ विप्ररूपेण रूपान्वेषणहेतवे । प्रासादद्वारि नृपतेस्तस्थतुःस्थसनिधौ ॥ ३४५॥ आसीत सनत्कुमारोऽपि तदा प्रारब्धमजनः । मुक्तनि:शेषनेपथ्यः सर्वाङ्गाम्यङ्गमद्वहन ॥ ३४६॥ .. द्वारस्यौ द्वारपालेन द्विजाती तो निवेदितौ । न्यायवर्ती चक्रवर्ती तदानीमप्यवीविशद ॥ ३४७॥ सनत्कुमारमालोक्य विसयमेरमानसौ । धूनयामासतुर्मोलिं चिन्तयामासतुश्च तौ ॥३४८॥. ललाटपट्टः पर्यस्ताष्टमीरैजनिजानिकः । नेत्रे कर्णान्तविश्रान्ते जितनीलोत्पलत्विषी ॥३४९॥ दन्तच्छदौ पराभूतपक्वबिम्बफलच्छवी । निरस्तशुक्तिको कौँ कण्ठोऽयं पाश्चजन्यजित् ॥३५०॥ करिराजकराकारतिरस्कारकरी भुजौ । वर्णशैलशिलालक्ष्मीविलुण्टाकमुरस्थलम् ॥ ३५१॥ मध्यभागो मृगारातिकिशोरोदरसोदरः । किमन्यदस्य सर्वाङ्गलक्ष्मीर्वाचा न गोचरा ॥ ३५२ ॥ अहो! कोऽप्यस्य लावण्यसरित्पूरो निरर्गलः । येनाभ्यङ्गंन जानीमो ज्योत्स्नयोडेप्रमामिव ॥ ३५३॥ यथेन्द्रो वर्णयामास तथेदं भाति नान्यथा । मिथ्या न खलु भाषन्ते महात्मानः कदाचन ॥ ३५४॥ किंनिमित्तमिहायातौ भवन्तौ द्विजसत्तमौ? । इत्थं सनत्कुमारेण पृष्टौ तावेवमूचतुः॥ ३५५॥ ... लोकोत्तरचमत्कारकारकं सचराचरे । भुवने भवतो रूपं नरशाल! गीयते ॥ ३५६ ॥ दरतोऽपि तदाकर्ण्य तरङ्गितकुतूहलौ । विलोकयितुमायातावावामनिवासव! ॥ ३५७॥ वर्यमानं यथा लोके शुश्रुवेऽस्माभिरद्भतम् । रूपं नृप! ततोऽप्येतत् सविशेष निरीक्ष्यते ॥ ३५८॥ प्रारम्भ मजन खान येन । २ द्विजौ। रजनिजानिबन्द्रः। * 'बिम्बीफ' का.॥ ४ विलुण्टाकऔरः । ५वारकप्रभाम् । जलशोभनम् संवृ०॥ ६ भवनिपतेः। Jain Education in For Private & Personal Lise Only . Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते महाकाव्ये ||४४८ || Jain Education In ऊचे सनत्कुमारोऽपि स्मितविच्छुरिताधरः । इयं हि कियती कान्तिरङ्गेऽभ्यङ्गतरङ्गिते १ ।। ३५९ ॥ इतो भूत्वा प्रतीक्षेथां क्षणमात्रं द्विजोत्तमौ ! । यावन्निर्वर्त्यतेऽस्माभिरेष मजनकक्षणः ॥ ३६० ॥ विचित्ररचनाकल्यं भूरिभूषणभूषितम् । रूपं पुनर्निरीक्षेथां सरलमिव काञ्चनम् ॥ ३६१ ॥ aasaनिपतिः स्नात्वा कल्पिताकल्पभूषणः । साडम्बरः संदोऽध्यास्ताम्बररत्नमिवाम्बरम् ॥ ३६२ ।। अनुज्ञाती ततो विप्रौ पुरोभूय महीपतेः । निदेध्यतुश्च तद्रूपं विषण्णौ दध्यतुश्च तौ ॥ ३६३ ॥ क तद्रूपं क सा कान्तिः क्व तल्लावण्यमप्यमात् । क्षणेनाप्यस्य मर्त्यानां क्षणिकं सर्वमेव हि ॥ ३६४ ॥ नृपः प्रोवाच तौ कस्माद् दृष्ट्वा मां मुदितौ पुरा १ । कस्मादकस्मादधुना विषादमलिनाननौ ९ ॥ ३६५ ।। ततस्तावूचतुरिदं सुधामधुरया गिरा । महाभाग ! सुरावावां सौधर्मस्वर्गवासिनी ॥ ३६६ ॥ मध्येसुरसभं शक्रचक्रे त्वद्रूपवर्णनम् । अश्रद्दधानी तद् द्रष्टुं मर्त्यमूर्त्त्याऽऽगताविह ॥ ३६७ ॥ शक्रेण वर्णितं या वाद्यगेव पुरेक्षितम् । रूपं नृप । तवेदानीमन्यादृशमजायत ।। ३६८ ॥ अधुना व्याधिभिरयं कान्तिसर्वस्वतस्करैः । देहः समन्तादाक्रान्तो निःश्वासैरिव दर्पणः ॥ ३६९ ॥ यथार्थमभिधायेति द्राक् तिरोहितयोस्तयोः । विच्छायं खं नृपोऽपश्यद्धिमग्रस्तमिव द्रुमम् ॥ ३७० ॥ सोऽचिन्तयच्च धिगिदं सदा गर्दैपदं वपुः । मुधैव मुग्धाः कुर्वन्ति तन्मूच्छा तुच्छबुद्धयः || ३७१ || शरीरमन्तरुत्पन्नैर्व्याधिभिर्विविधैरिदम् । दीर्यते दारुणैर्दारु दारुकीटगणैरिव ॥ ३७२ ॥ १ विचित्ररचनया सज्जीभूतम् । २ कम्पितानि नेपथ्यानि च भूषणानि च यस्य । ३ सभाम् । ४ सूर्यः । ५ अबडोकमाचक्रतुः । ६ चिन्तयामासतुः । ७ रोगस्थानम् । ८ काटकीटसमूहैः । चतुर्थ पर्व सप्तमः सर्गः श्रीसनत्कु मारचक्रि चरितम् । ॥४४८ ॥ . Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहिः कथश्चिद यद्येतत् प्ररोच्येत तथापि हि । नयग्रोधं फलमिव मध्ये कृमिकुलाकुलम् ॥ ३७३॥ रुजा लुम्पति कायस्य तत्कालं रूपसंपदम् । महासरोवरस्येव वारि सेवालवल्लरी ॥ ३७४ ।।... शरीरं श्रथते नाऽऽशा रूपं याति न पापधीः । जरा स्फुरति न ज्ञानं धिक् खरूपं शरीरिणाम् ॥ ३७५ ॥ रूपं लवणिमा कान्तिः शरीरं द्रविणान्यपि । संसारे तरलं सर्व कुशाग्रजलबिन्दुवत् ॥ ३७६ ॥ अद्यश्वीनविनाशस्य शरीरस्य शरीरिणाम् । सकामनिर्जरासारं तप एव महत्फलम् ।। ३७७॥ इति संजातवैराग्यभावनः पृथिवीपतिः। प्रव्रज्यां खयमादित्सुः सुतं राज्ये न्यवीविशन ॥ ३७८॥ गत्वोद्याने सविनयं विनयन्धरसूरितः । सर्वसावद्यविरतिप्रधानं सोऽग्रहीत तपः॥ ३७९॥ महाव्रतधरस्यास्य दधानस्योत्तरान् गुणान् । ग्रामाद् ग्रामं विहरतः समतैकाग्रचेतसः ॥ ३८॥ गाढानुरागबन्धेन सर्व प्रकृतिमण्डलम् । पृष्ठतोऽगात् करिकुलं महायूथपतेरिव ॥ ३८१ ॥ युग्मम् ॥ निःकषायमुदासीनं निर्ममं निष्परिग्रहम् । तं पर्युपास्य षण्मासान् कथश्चित् तत्यवर्तत ॥ ३८२॥ कृतषष्ठः पारणाय प्रविष्टो गोचरेऽन्यदा । लेमे चीनककूरं स साजातक्रमभुक्त च ॥ ३८३॥ भूयोऽपि षष्ठभक्तान्ते तथैव कृतपारणात् । व्याधयोऽस्य ववृधिरे संपूर्णादिव दोहदात् ।। ३८४ ।। कच्छूशोषज्वरश्वासारुचिकुक्ष्यक्षिवेदनाः । सप्ताधिसेहे पुण्यात्मा सप्त वर्षशतानि सः॥ ३८५ ॥ दुःसहान् सहमानस्य तस्याशेषपरीषहान् । उपेयनिरपेक्षस्य समपद्यन्त लब्धयः॥ ३८६॥ १ अभिप्रेतं भवेत् । * ग्रोधफ संवृ०॥ २ अद्य वा श्वो वा अयश्वीनः । ३ समतकानं चेतो यस्य तस्य । नास्त्ये।। तत् पदं 'का.' आदर्श । चरं मुनिःले संवृ० का॥ ४ अजायास्तकेण सहितम् । ६ उपाय मु०॥ उपेयम् फलम् । Jain Education Internet For Private & Personal use only , Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थ पर्व ससमा सर्गः श्रीसनत्कुमारचक्रिचरितम् । ॥४४९॥ कफविघुइजल्लमलविष्टामांस्तथा परम् । सर्वमप्यौषधिरिति नामतः सप्त लब्धयः॥३८७ ॥ अत्रान्तरे सुरपतिः समुद्दिश्य दिवौकसः । हृदि जातचमत्कारश्चकारेत्यस्य वर्णनम् ॥ ३८८।। चक्रवर्तिश्रियं त्यक्त्वा प्रज्वलत्तृणपूलवत् । अहो! सनत्कुमारोऽयं तप्यते दुस्तपं तपः॥ ३८९॥ तपोमाहात्म्यलब्धासु सर्वास्खपि हि लब्धिषु । शरीरनिरपेक्षोऽयं स्वरोगान्न चिकित्सति ॥ ३९॥ अश्रद्दधानौ तद्वाक्यं वैद्यरूपधरौ सुरौ । विजयो वैजयन्तश्च तत्समीपमुपेयतुः॥ ३९१ ॥ ऊचतुश्च महाभाग! किं रोगैः परिताम्यसि । वैद्यावावां चिकित्सावो विश्वं खैरेव मेषजैः॥३९२॥ यदि त्वमनुजानासि रोगग्रस्तशरीरकः । तदहाय निगृहीवो रोगानुपंचितांस्तव ॥ ३९३ ॥ ततः सनत्कुमारोऽपि प्रत्यूचे भोश्चिकित्सकौ । द्विविधा देहिनां रोगा द्रव्यतो भावतोऽपि च ॥ ३९४ ॥ क्रोध-मान-माया-लोभा भावरोगाः शरीरिणाम् । जन्मान्तरसहस्रानुगामिनोऽत्यन्तदुःखदाः॥३९५॥ ताँश्चिकित्सितुमीशी चेद् युवां तर्हि चिकित्सतम् । अथो चिकित्संथो द्रव्यरोगाँस्तद् बत: पश्यतम् ॥३९६॥ ततोऽङ्गुलिं गलत्पामां शीणां स्वफविनुषा । लिवा शुल्वं रसेनेव द्राक् सुवर्णीचकार सः॥३९७॥ ततस्तामङ्गुली स्वर्णशलाकामिव भाखतीम् । आलोक्य पादयोस्तस्य पेततुःप्रोचतुश्च तौ ॥ ३९८॥ निरूपयिष त्वद्रूपं यौ त्वामायातपूर्विणौ । तावेव त्रिदशावावां संप्रत्यपि समागतौ ॥ ३९९ ॥ सिद्धलब्धिरपि व्याधिबाधां सोढा तपस्यति । सनत्कुमारो भगवानितीन्द्रस्त्वामवर्णयत ॥४०॥ : *बामासीस्त संवृ०॥ + नाम् का०॥ माज्ञापयसि । २ वृद्धान्। 'नोऽनन्त का०॥ ३ समयों। [स्सयो द्र.सं.॥ वश्लेष्मविन्दुना। ५ वानम् । निरुरूपयिषू रूपं संव.का.॥ ॥४४९॥ Jain Education Inter For Private & Personal use only T w w.jainelibrary.org Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवाभ्यां तदिहागत्य प्रत्यक्षेण परीक्षितम् । इत्युदित्वा च नत्वा च त्रिदशौ तौ तिरोहितौ ॥४०१॥ कौमारे वर्षलक्षाधं मण्डलित्वे तदेव हि । दशवर्षसहस्राणि ककुभामुपसाधने ॥४०२॥ चक्रित्वे नवतिवर्षसहस्राणि व्रते पुनः । वर्षलक्षमिति व्यब्दलक्षायुस्तुर्यचक्रिणः॥४०३॥ ज्ञातेऽवसानसमयेऽनशनं प्रपद्य लक्षत्रयेण शरदां परिपूरितायुः । सुध्यानपश्चपरमेष्ठिसनत्कुमारः कल्पे सुरः समजनिष्ट सनत्कुमारे ॥४०४॥ पश्चाहन्तः सीरिणः पञ्च पञ्चोपेन्द्राः पञ्चैतड्विश्चक्रिणौ द्वौ। यत्रोक्ता द्वाविंशतिः सूत्ररत्नाम्भोधेस्तुर्य पर्व तद् वः श्रियेऽस्तु ॥ ४०५॥ सूत्रात् किश्चिदुदीरितं कथाभ्यः किश्चिद् योगपटाच्च किश्चिदत्र । तेषु स्याद् यदि किश्चनापि मिथ्या मिथ्यादुष्कृतमस्तु तत्र सन्तः। ॥ ४०६ ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये चतुर्थे पर्वणि सनत्कुमारचरितवर्णनो नाम सप्तमः सर्गः संपूर्णः। ॥ समाप्तं चेदं चतुर्थ पर्व ॥ १ दिशा जये। २ बलभद्राः। ३ वासुदेवाः। प्रतिवासुदेवाः । Jain Education For Private & Personal use only Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VO 4 समाप्तमिदं श्रीश्रेयांसजिनादिधर्मनाथजिनपर्यन्तपञ्चजिनचरितप्रतिबद्धं चतुर्थ पर्व॥ ) NO KARTERSTION R SA For Private & Personal use only