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अभयरत्नसार
सम्पादक
पण्डित काशीनाथजी जैन
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श्री वीतरागाय नमः |
अभयरत्नसार
सम्पादक
-
परम पूजनीय पूज्यपाद, प्रातःस्मरणीय, वृहद् (वड़) गच्छीय, श्रीपूज्य जैनाचार्य श्रीचन्द्रसिं हसूरिजी के शिष्य - रक्ष
पण्डित काशीनाथजी जैन
प्रकाशक
दानमल शंकरदान नाहटा बीकानेर ( मारवाड़ )
femm
प्रथमावृत्ति २००० ] बीर सं० १६५४ [ मूल्य अमूल्य
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आरम्भके साढ़े तेरह फार्म कलकत्ता २०१, हरीसन रोडके नरसिंह प्रेसमें पं० काशीनाथजी जैनके द्वारा छापे गये, बाकीका सम्पूर्ण ग्रंथ चितपुर रोडके श्री लक्ष्मीप्रिंटिंग वसमें बाबू नरसिंहदास अग्रवाल द्वारा छापा गया ।
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प्रकाशकीय-निवेदन।
साधर्मिक बन्धुओंसे सप्रेम निवेदन है, कि प्रस्तुत पुस्तकके सम्बन्धमें हमारी यह अभिलाशा थी कि, इसका मूल्य न रखकर बिना मूल्य ही प्रचार करवाया जाय । तदनुसार इस पुस्तकके पूर्व-वक्तव्यमें तथा बीकानेर महावीर-मण्डलकी नियमावलोमें विज्ञापन देकर समस्त जैन बन्धुओंको भेंट देनेका उल्लेख कर दिया था। परन्तु बादमें कई सज्जनोंके यह कहनेपर कि "सब किसीको मुफ्त दे देनेसे कईयोंके पास दो-दो-तीन-तीन प्रतिय चली जायगी और कई भाईयोंही वंचित रह जायेंगे । तथा:मुफ्तकी पुस्तक जानकर कई भाई उसका ठीक तरह उपयोग भी न कर सकेंगे। अतः इसका लागत दाम रख दीजिये या उससे कम करके थोड़ा दाम रख दीजिये; पर दाम जरूर रखिये।" यह समझ कर हमने अब यह निश्चय किया है, कि यति साधु-साध्वी तथा लायब्ररी-पुस्तकालयको भेट दी जाय
और साधर्मिक भाई-बहनोंसे लागत मूल्यसे भी कम दाम लेकर दी जाय। ___ प्रस्तुत पुस्तककी २००० प्रतियोंपर छपाई, शोधाई, बधाई
और कागज़ आदिका सारा व्यय २५००) हुआ है। तदनुसार प्रति पुस्तकका मूल्य १सवा रुपैया पड़ता है। परन्तु हर एक साधर्मिक भाई लाभ लेसके इस खयालसे पूरे दाम न रखकर केवल ) बारह आने ही रखे हैं। और इन पुस्तकोंके जो दाम आयेंगे उन दामोंमें फिर कोई नयी पुस्तक प्रकाशित करवा कर आप लोगोंकी सेवामें उपस्थित करेंगे। आशा है, प्रेमी जनोंको हमारी यह व्यवस्था प्रिय प्रतीत होगी।
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(२) इस पुस्तकके प्रकाशन करवानेके सम्बन्धमें शासन रक्षक, गांभिर्यादि गुण-विभूषित, शास्त्र-विशारत, व्याख्यान वाचस्पति, पूज्यपाद, प्रातः स्मरणीय, जंगम-युगप्रधान भट्टारक जैनाचार्य श्री १००८ श्रीजिनचारीत्रसूरीश्वरजीने हमे सदुपदेश देकर इसको एक हजार प्रतियोंके छपवानेका निश्चय करवाया था। परन्तु कुछ समयके बाद शासन-मण्डन सकल शास्त्र-सम्पन्न, चारित्र-चूड़ामणि परमपूज्य जैनाचार्य श्री १००८ श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजको विशेष प्रेरणा होनेपर दो हजार प्रतियोंके छपवानेका निश्चय हुआ। और तदनुसार हमने दो ही हजार प्रतिये छपवाकर प्रकाशित करवायो हैं। ___ इस पुस्तकके छपवाकर प्रकाशित करवानेका सारा श्रेय उक्त दोनों गुरुवर्योंको ही हैं। क्योंकि उन्हींकी परम कृपा और विशेष प्रेरणासे यह पुस्तक आप लोगोंकी सेवामें रखी गयो है । आशा है, इसे सप्रेम अपनाकर उक्त दोनों गुरुवर्योंके सदुपदेशको तथा हमारे परिश्रमको सफल करेंगे। यदि इस पुस्तकका हाथों-हाथ प्रचार हो गया तो थोड़ेही समयमें दूसरी कोई नयो पुस्तक तैयार करवाकर आप सजनोंकी सेवामें रखेंगे। यही हमारा अन्तिम निवेदन है ।
प्रस्तुत पुस्तकका नामकरण हमारे स्वर्गोंय पुत्र श्रीयुत अभयराजके स्मरणार्थ उसीके नामपर इसका नाम "अभयरत्नसार" रखा गया है। अस्तु।
निवेदक-- शंकरदान नाहटा।
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LES
KARANSISMRENDER
* पूर्व-वक्तव्य MEROTHERELES
प्रिय पाठक वृन्द!
वर्तमान समयमें प्रस्तुत पुस्तकके विषयानुसार अनेकों छोटी-मोटी पुस्तके प्रकाशित हो चुकी हैं। एवं समय-समय पर नवीन पुस्तके भी प्रकाशित होती रहती हैं; पर उनमें कुछ-न कुछ त्रुटि अवश्य ही रह जाती है। अतएव पुन: उसी विषय पर अन्यान्य पुस्तकोंके प्रकाशन करनेकी जिज्ञासा हो पड़ती है। पहले इस पुस्तककी शैलीके अनुसार "रत्नसागर" और "रत्नसमुश्चय" नामक बड़ी बड़ी पुस्तके कलकत्ता निवासी उपाध्याय जयचन्दजी तथा बीकानेर निवासी उपाध्यायजी रामलालजी गणीकी ओरसे प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनका प्रवार मारवाड़ दक्षिण, बराड़, बङ्गाल आदि प्रदेशोंमें खूब अच्छा रहा। आज भी उन पुस्तकोंकी मांग हो रही है, पर प्रकाशकोंके पास न रहनेसे अलभ्य हो गयी हैं।
प्रस्तुत पुस्तकके प्रकाशक महोदय बाबू शंकरदानजी नाहटाकी कई दिनोंले यही मनोभावना थी कि वर्तमान समयमें इस तरहकी पुस्तकके अभावके कारण साधर्मिक भाइयोंको बड़ी अडचण पड़ रही है। अतः कुछ शैली बदल कर इस तरहकी
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[ ४ ]
एक नयी पुस्तक संपादन करायी जाये; पर ठीक संयोग न मिलनेके कारण विलम्ब होता गया। इधर गत वर्ष में आपके सुयोग्य पुत्ररत्न बाबू भैरूं दानजी तथा सुभयराजजीने हमसे समागम कर प्रस्तुत पुस्तक के सम्पादन कर देनेकी बात कहीं। उस समय हमारा स्वास्थ्य ठीक नहीं था, एवं कार्यभार अधिक रहनेसे अवकाश भी बहुत कम था; किन्तु दोनों सज्जनोंके आग्रह तथा हमारे प्रिय मित्र बाबू अमोचन्दजो गोलेछाके विशेष अनुरोध करने पर इस पुस्तकके सम्पादनका कार्य हमें ही अङ्गीकार करना पड़ा ।
प्रस्तुत ग्रन्थको लेते समय हमारा यह अनुमान था कि सातआठ मासमें सम्पूर्ण ग्रन्थ तैयार हो जायगा । तदनुसार उक्त दोनों सजनों को उतने समयमें पूरा कर देनेका निश्चय-समय दिया; पर होनहार कुछ और ही था । किसी तरह समयानुसार पन्द्रह फार्म तक तो कार्यक्रम ठीक रहा । अनन्तर नाना प्रकार के विघ्न पड़ते गये । हमारा स्वास्थ्य भी खराब हो गया । एवं कुछ ऐसे ही आवश्यक कार्य आ पड़े जिसमें हमें बम्बई, अहमदाबाद आदि बार-बार आना-जाना पड़ा। इससे और भी देरी पर देरी होती गयी । अस्तु !
प्रारम्भमें प्रस्तुत पुस्तकका विषयानुक्रम और ढंग से रखनेका विचार था, इसलिये उस क्रमके अनुसार आरम्भ क्रम रखा गया; किन्तु उस क्रमसे पुस्तकके बहुत बढ़ जानेकी सम्भावना हो गयो । अतः दह क्रम न रखकर दूसरा क्रम कर दिया गया । यद्यपि क्रम परिवत्तन के कारण पुस्तकका ढङ्ग अवश्य ही बदल गया; पर फिर भी हमने हर एक विषयको विभक्त करके अलग
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[ ५ ] अलग कर दिया है, जिससे पाठकोंके समझनेमें अड़वण न होगी। शुरूमें श्रावकोंके पांचों प्रतिक्रमण अनन्तर साधु-प्रतिक्रमण, चैत्यबन्दन, स्तुति, स्तवन, सज्झाय, रास, लावणी, छन्द, पूजायें सूतक विचार, भक्ष्याभक्ष्य विचार, तपस्याओंके स्तवन और उनकी विधिये आदि प्रायः सभी उपयोगी और आवश्यक चीजें उधृत कर दी गयी हैं। भक्ष्याभक्ष्यके सम्बन्धमें खूब विवेचन देकर समझा दिया गया है। बाईस अभक्ष्य और बत्तीस अनन्तकाय किसे कहते हैं ?, किस ऋतुमें कौनसे पदार्थ भक्ष्य और अभक्ष्य है ?, श्रावकोंके लिये कौन कौनसे पदार्थ भक्ष्य माने गये हैं ?, सचित्ताचित्त किसे कहते हैं ?, श्राविकाओंको कैसा व्यवहार करना चाहिये । इत्यादि बात सुविस्तृत रूपसे ठोक तरह समझा दी गयी हैं | हिन्दीके पाठकोंको ज्ञान कराने के लिये यह पहलाही साधन है। आशा है, पाठकगण प्रस्तुत पुस्तकको प्रेम-पूर्वक उपयोगमें ले कर हमारा और प्रकाशक महोदयका परिश्रम सफल करेगे।
आरम्भमें प्रकाशक महोदयका यह विचार था कि प्रस्तुत ग्रन्थका लागत मूल्य रख कर प्रचार करावाया जाये। और उसके जितने दाम आवे उनमें और और पुस्तकें प्रकाशित कर. वायी जाय ; पर आपका यह विचार अन्त तक स्थिर नहीं रहा। शेषमें अन्तिम निर्णय यही रहा कि बिना दाम ही प्रचार कराया जाय। तदनुसार शानभण्डार, पुस्तकालय, पाठशाला, साधु, लध्वी, श्रावक और श्राविकाओंको उपहार स्वरूर देनेका निश्चय किया है। अतएव हर एक साधर्मोक बन्धुओंको चाहिये कि
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[ ६ ] इस पुस्तकको मंगवा कर अवश्य पढ़े। ऐसा आवश्यक और उपयोगी ग्रन्थ भंट मिलना असम्भव है।
पाठकोंसे हमारा अन्तिम यह निवेदन है, कि प्रस्तुत पुस्तकके सम्पादन और मुद्रण कार्यमें अनेक दोष छूट गये हैं। किसी किसी स्थल पर अक्षम्य दोष भी रह गये हैं। जिनके रह जानेसे हमें अत्यन्त दुःख हैं। ऐसा होनेका कारण हमारे स्वास्थ्य की अस्वस्थता एवं समयको शीघ्रता है । आशा है, पाठक गण हमारी इन कठिनाइयोंकी ओर खयाल करते हुए हमें क्षमान्वित करेंगे। शुभमस्तु । कलकत्ता
आपका२०१, हरिसन रोड़,
काशीनाथ जैन। ता. ३०.७-१९२७
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ध्यानसे पढ़िये।
इस पुस्तककी या और किसी विषयके पुस्तककी आशातनाअवज्ञा नहीं करनी चाहिये। क्योंकि ज्ञानकी अवज्ञा करनेसे मानावरणीय कर्मों का बन्ध होता है। पूजनकी पुस्तकोंमें भी लिखा है, कि “आगमनी आशातना नवी करीये" अर्थात् शास्त्रकी अवहेलना नहीं करनी चाहिये। प्रत्युत उक्त वाक्यको बार-बार मनन करते हुए ज्ञानकी आशातनाका भयकर जिस तरह बन सके ज्ञानका अधिक आदर और विनय-पूर्वक बहुमान करना चाहिये। पुस्तकको पासमें रखकर खान-पान न करना, अशुद्ध हाथोंसे या पेशाब कर लेने के बाद बिना-हाथ धोये पुस्तकको नहीं छूना चाहिये। ज्ञानको पासमें रखकर शयन नहीं करना चाहिये। यूक लगी हुई अंगुलीसे स्पर्श नहीं करना चाहिये। पुस्तकके समक्ष पाऊँपर पाऊं लगाकर नहीं बैठना चाहिये। पुस्तकको जमीन पर नहीं रखना चाहिये। मैली जगह पर या अकाल समयमें नहीं पढ़ना चाहिये। पाऊं अथवा चरवले पर पुस्तक रखकर पठन करना ठोक नहीं। क्योंकि नाभीके नीचेका अवयव अपवित्र होता है। और चरवलेसे भूमि-मार्जन किया जाता है, इसलिये पुस्तकको संपुट-प्लॉपड़े पर रखकर तथा मुखके आगे मुहपत्ती या वस्त्र देकर अध्ययन करना कहा है। ___ "मुंहके आगे मुंहात्ती रखनेकी प्रथा दिन-प्रतिदिन कम होती जारही है, यह बहुत ही दोषास्पद है । मुंहपत्तोके न रहनेसे
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L
८ ।
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श्वास, थँक आदिसे ज्ञानकी अत्यन्त आशासना होती है, इसलिये हर एक पाठकको चाहिये कि बिना मुखपर मुहपत्ती या वस्त्र रखे किसी पुस्तकको न पढ़े । एक समय गौतम स्वामीने शासन नायक वीर प्रभुसे यह प्रश्न किया कि, इन्द्र सावद्य भाषा बोलते हैं या निरवद्य ? इसपर भगवान्ने कहा कि मुखके आगे वस्त्र आदि रखकर बोलनेसे निरवद्य भाषा होती है । अन्यथा वह सावद्य समझनी चाहिये । अतएव अष्ट प्रवचन माताके रक्षक यति-मुनियों को भी आलस्य त्यागकर मुँहपत्ती ( जोकि आजकल नाम - मात्र हो गयी है) के सदुपयोग रखनेका ख़याल रखना अत्यन्त आवश्यक है । इससे समीपवर्ती श्रावक-श्राविकाओंको भी मुंहपत्ती के सम्बन्ध में सदुपयोग रखनेका पूरा उपदेश मिलता है ।"
मार्ग में चलते समय ज्ञानको नाभीके ऊपर और मस्तक के नीचे रखना चाहिये। जिस तरह राजा, सेठ साहूकार के आनेके समय उनका बहुमान किया जाता है । उसी तरह ज्ञानका भी चन्दन, पूजन करके बहुमान करना चाहिये । यदि ज्ञानावरणीय कर्मीका शीघ्र ही क्षय करना हो तो आपके द्वारा ज्ञानकी किसी तरह आशातना न हो वैसा निरन्तर शुद्ध उपयोग रखनेका प्रयत्न कीजिये । ज्ञाना वरणीय कर्मों के नाश होनेसे लोकालोक प्रकाशक उत्तम केवल ज्ञानकी प्राप्ति होती है ।
निवेदक
सम्पादक ।
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*************************** * धर्मप्रेमी स्वर्गीय बाबू अभयराजजी *
नाहटाका संक्षिप्त परिचय । ***************************
आपका जन्मस्थान बोकानेर था। आपने ओसवाल जातिके नाहटा वंशमें चैत्र वदी ६ सं० १६५५ वि० में जन्म लिया था। आपके पिताका नाम श्रीमान सेठ शंकरदानजी है। आपके पूर्वज बीकानेर राज्यान्तर्गत डांडूसर ग्रामके रहनेवाले थे। पीछेसे व्यापारिक सम्बन्धके कारण बीकानेर शहरमें रहने लगे। श्रीमान् सेठ शंकरदानजी नाहटा व्यापारके कार्यों में बड़े दक्ष हैं। अपने बाहुबलसे इन्होंने अच्छो सम्पत्ति अर्जन की है और इस समय कलकत्ता आदि कई नगरोंमें आपकी दुकानें चल रही हैं। शोकके साथ लिखना पड़ता है, कि आपका एक अत्यन्त होनहार पुत्र अकालहीमें आपको शोक-सागरमें डुबाकर चल बसा, जिसका संक्षिप्त जीवन परिचय नीचे दिया जाता है।
आप ( श्रीयुत अभयराजजी) के माता पिता, चार सहोदर भ्राता और कुटुम्बी इस समय बीकानेर में हैं। आपकी स्त्रीका देहावसान आपकी मृत्युके तीन वर्ष पश्चात हो गया। आपके केवल एक पुत्रीको छोड़कर अन्य कोई सन्तान नहीं है।
आपने बचपनमें मारजा ( वाणिका अध्यापक ) के यहाँ छोटी पाठशालामें वाणिज्य-विद्या पढ़ना आरम्भ किया। कुछ
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[१०]
बड़े होनेपर आपने स्थानीय श्रीजैन पाठशाला में प्रवेश कर दशम कक्षातक अङ्गरेजी, संस्कृत तथा हिन्दोकी शिक्षा प्राप्त की थी। आपका हिन्दी भाषासे विशेष प्रेम था ।
।
आपमें धर्मका अङ्कुर बचपनहीसे था। इस अङ्कुरने युवावस्थामें आपकी वृत्तिको जैन जातिमें घुसी हुई कुरीतियों को दूर करनेकी ओर झुकाया । आप सदा अब इस बातकी चिन्तामें रहने लगे कि समाजकी इन कुरीतियोंको कैसे दूर किया जाये । बहुत कुछ सोचने विचारनेके पश्चात् आपने अपने मनमें यह निश्चय किया कि अविद्या अन्धकारको नष्ट किये बिना कोई मा सामाजिक सुधार करना दुष्कर ही नहीं बल्कि असम्भव है अस्तु अब सब ओर से अपने मनको हटाकर आपने विद्या प्रचारहीमें अपनी शक्तिको लगाना प्रारम्भ किया ।
1
सर्व प्रथम आपने स्थानीय श्रीजैन पाठशाला हो को, जिसमें आप पहले बचपन में विद्याध्ययन कर चुके थे. सुधारना अपना परम कर्त्तव्य समझा। पहले आप इसके उपमन्त्री पदपर रह कर कार्य करने लगे । आपके उत्साह और कार्यको देखकर और लोगों का भी ध्यान इस ओर आकर्षित हुआ, जिसका फल यह हुआ कि जैन समाजके कुछ उत्साही पुरुषोंने यथासाध्य तन, मन, धनसे आपको इस कार्य में सहायता प्रदान की। थोड़े शब्दों में कह देना पर्याप्त होगा कि जोवन पर्यन्त आपने इस पाठशालाकी सेवा की और जो कुछ उन्नति इस पाठशाला की हुई वह आपही परिश्रमका फल है। सबसे बड़ी बात जो आपने की वह शिक्षण प्रणालीका सुधार था । जिससे बालकोंके हृदय में स्वजाति
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[ ९९ ]
स्वधर्म तथा स्वदेशके प्रति श्रद्धा और प्रेमभाव उत्पन्न हो और जैन जातिका भविष्य अवनतिके अन्धकारसे निकल कर उन्नतिके प्रभाकरसे उज्ज्वल हो और कुछ अंशोंमें आपकी आशा फलवती भी हुई।
आपको विद्याध्ययन के समय सभा सोसाइटियोंसे अधिक प्रेम था । और इसीसे श्रीजैन पाठशाला के अन्तर्गत ही आपने " शिक्षाप्रचारक जैन पुस्तकालय" की स्थापना की थी । इसका मुख्योद्देश्य जैन समाजमें शिक्षा प्रचार करना तथा व्याख्यानादि द्वारा समाज-सुधार करना था । यही संस्था अब इस समय श्रीजैन महावीर मण्डलके नामसे प्रसिद्ध है जो स्वजातिकी असीम सेवा कर रही है। आज दिन यहाँ जैन समाज में वेश्या नृत्य तथा अन्यान्य कुरीतियोंका उन्मूलन होना आपहीके सद् परिश्रमका फल हैं ।
आपने बीकानेरहीमें नहीं प्रत्युत कलकत्ता शहर में भी जैन श्वेताम्बर मित्र मण्डलका भी बहुत कुछ सुधार किया । इसमें इन्होंने एक पाठशाला की नितान्त आवश्यकता बतला कर स्थापना करवायी और आप इसके अवैतनिक उपमन्त्री पद पर रहकर यथाशक्ति सेवा की। आज तक यह पाठशाला अपना काम सुबारु रूपसे कर रही है।
आप तीर्थयात्रा के बड़े प्रेमी थे । और इतनी ही अवस्था में सिद्धाचल, गिरनार, आबू समेत शिखर पाचापुरी तथा चम्पापुरी आदिकी यात्राएं कर डाली थीं।
दुर्भाग्यवश पिछले दिनों में आप श्वास रोग से पीड़ित हो गये
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। [१२]
थे । चिकित्सा करनेमें कोई कोर कसर न रखी गयी। बीकानेर, कलकत्ता, भवाली और जयपुर आदि स्थानोंमें सयाने वैद्यों और डाकरोंका इलाज हुआ । अन्तमें आप जयपुरमें वैद्यराज लच्छोरामजीके पास रह कर इलाज करने लगे । इनके इलाजसे कुछ लाभ भी हुआ । इन्हीं दिनोंमें इन्दौर में वैद्य सम्मेलन हुआ | आप सभा, सम्मेलन आदिके विशेष प्रेमी थे । अतः ऐसी अवस्थामें भी आप उक्त वैद्यजीके साथ इन्दौर - वैद्य सम्मेलन में सम्मिलित हुए। वहाँ जाने पर आपका स्वास्थ्य कुछ अधिक ख़राब हो गया और आप वहाँसे लच्छीरामजीके चेलेके साथ जयपुर लौट आये । अति खेद है कि इनका दुःख बढ़ता हो गया और वहीं शिवजी रामजी के बागमें वैसाख वदी ७ सम्बत् १६७७ वि० को २२ वर्षकी अवस्था में आपका शरीरान्त हुआ ।
आप इस समय संसार में नहीं हैं; परन्तु आपका कार्य सदा आपका सुचरित्र कहकर भविष्य में होनेवाले नवयुवकोंको सत्पथ दिखला रहा है । आप यदि कुछ दिन और जीवित रहते तो न जाने और कौन-कौन से कार्य करके जाति और देशको लाभ पहुंचाते । इतनी ही थोड़ी अवस्थामें आपने ऐसे-ऐसे काम कर दिखाये जिनको श्रवण कर यहाँ की जैन जातिमें कई सज्जन आश्चर्यचकित हो जाते हैं । सभा इत्यादि सङ्गठित करना, व्याख्यान देना दिलाना आदि कार्य आपने ही बीकानेरकी जैन समाजमें अच्छी तरहसे जारी किया । जैन जातिको ऐसे वीर युवकका अभिमान होना चाहिये और सदा इस वीरका कृतज्ञ होना चाहिये ।
निवेदक-संपादक.
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************* विषयानुक्रमणिका
नाम
नमस्कार सूत्र
स्थापनाचार्यजीकी तेरह पडिलेहणा
खमासमण सूत्र
सुगुरुको सुखशाता पृच्छा अब्भुट्टियो ( गुरुक्षामणा ) सूत्र मुहपत्ति पड़िलेद्दणके पच्चीस बोल
अंग की पड़िलेहणके २५ बोल
सामायिक सूत्र
इरियावहिय सूत्र
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तस्स उत्तरी सूत्र
अन्नत्य ऊपसिएणं सूत्र
लोगस्स सूत्र
जयउ सामिय सूत्र
जं किंवि सूत्र
नमुत्थुणं सूत्र जावंति चेइआई सूत्र
जावंत केविसाहु सूत्र
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पृष्ठ
१.
१
२
२
३
४
६.
८
உ
१०
१०.
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[ १४ ]
परमेष्ठी नमस्कार उपसग्ग हरं स्तोत्र जयवीयराय सूत्र आचार्य आदिको बन्दन । सव्वस्सबि सूत्र इच्छामी टइड' सूत्र अरिहंत चेहयाणं सूत्र पुक्खर-घर-दीवड्ढे सूत्र सिद्धाणं-बुद्वाणं सूत्र घेयाबच्चगराणं सूत्र सुगुरु वन्दन सूत्र देवसि आलो सूत्र आलोयण अठारह पापस्थानक वंदित्त -श्रावक-प्रतिक्रमण आयरिअउवज्झाए सूत्र सकलतीर्थ नमस्कार परसमय तिमिरतरणिं संसारदावानल स्तुति भयवं दसण्णभदो जयतिहुअण स्तोत्र जय महायस
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चउ-क्कसाथ सूत्र
अर्हन्तो भगवन्त
लघु- शान्तिस्तव
भुवनदेवताकी: स्तुति
नाम
श्रुतदेवताकी स्तुति क्षेत्र देवताकी स्तुति नमोऽस्तु वर्द्धमानाय
श्रीस्तम्भन पार्श्वनाथ चैत्यवन्दन
सिरि-थंभणय-ठिय-पास सामिणो
वर-कनक सूत्र वृहद् अतिचार
कमलदल-स्तुति भुवनदेवता-स्तुति
"
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[१५]
क्षेत्र देवता स्तुति
नमुक्कार सहिय पच्चक्खाण
"
एगलठाण पश्चक्खाण
आयंबिल पश्चक्खाण
निव्विगइय पश्चक्खाण
पोरसी-साढ़ पोरिसी पच्चक्षाण
पुरिमड्ढ अवढ पचक्खाण
एकासण-बिआसण पश्चक्खाण
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पृष्ठ
३३
ટ
३६
४०
४१
४१
४२
४२
४५
४५.
४५
६७
६०
9 V
ફ્રૂટ
६८
६६
६८
६८
०
७०
૭
७६
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[ १६ ] नाम वउविहाहार उवास पञ्चक्खाण तिविहाहार उपवास पश्चक्खाण दत्ती-पच्चखाण दिवसचरिम-चउविहाहार पञ्चक्खाण दिवस-चरिम दुविहाहार पश्चक्खाण पाणहार पच्चक्खाण भवचरिम-पच्चक्खाण देसावगासिय-पच्चवखाण पञ्चक्खाण-आगार-संख्या अजित-शान्ति-स्तवन लघु-अजित-शान्ति स्तवन नमिऊण गणधर देव स्तुति गुरुपारतन्त्र्य सिग्धमव हरउ मक्तामर स्तोत्र वृहद् शान्ति जिनपञ्जर-स्तोत्र मृषीमण्डल-स्तोत्र गौड़ीपार्श्व-जिन-वृद्धस्तवन श्रोगौतम स्वामीजीका रास
११६ १२३ १३०
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१५४
१५५
१६६
[ १७ ] नाम
पृष्ठ वृद्धनत्रकार कल्याणमन्दिर स्तोत्र लघुजिन सहश्रनाम स्तोत्र
१६४ साधु प्रतिक्रमणसूत्र पक्खीसूत्र
१७७ देववन्दन तथा प्रातःकाल और सायंकालके
प्रतिक्रमणमें कहनेकी स्तुतियें द्वितीयाकी स्तुति पञ्चमी स्तुति अष्टमी स्तुति मौन एकादशी स्तुति चौदशकी स्तुति पार्श्वनाथजीकी स्तुति आयंबिलकी स्तुति
२१५ पर्युषणकी स्तुति नेमिनाथजीकी स्तुति
२१८ दीपमालिकाकी स्तुति
२१६ वीस विहरमानकी स्तुति
२२० पाव जिनकी स्तुति आदिनाथजीकी स्तुति
२२१
०.
४ or M
२१४
२१७
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ت
ا
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ت
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[ १८ ] नाम आदिनाथजीकी स्तुति अजितनाथजीकी स्तुति महावीरस्वामीकी स्तुति लध्वी स्त्री छन्दसि वीर स्तुति वीर जिन स्तुति चतुर्विंशति जिन स्तुति श्रीशत्रु ञ्जयकी स्तुति नेमीनाथजीकी स्तुति शीतलनाथजीकी स्तुति समवसरण विचार गर्भित स्तुति चैत्री पूर्णिमाकी स्तुति नवपदजीकी स्तुति वीस स्थानककी स्तुति
ت
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ه
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२३१
سه بر
ی
له
नवपदजीकी स्तुति शत्रुञ्जयजी स्तुति शान्तिनाथजीकी स्तुति श्री सिमंधर जिनकी स्तुति ज्ञान पञ्चमीकी स्तुति मौन एकादशीकी स्तुति श्री रोहिणी तपकी स्तुति
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२४२
नाम चतुर्दशीकी स्तुति बीजकी स्तुति पञ्चमीकी स्तुति ग्यारसकी स्तुति महावीरस्वामीकी स्तुति
२४५
२४६
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२४६ २४८
२५०
सिमधरजीकी स्तुति समेतशिखरजीकी स्तुति जिनस्तुति आदिनाथजीकी स्तुति शान्तिनाथजीकी स्तुति नेमिनाथजीकी स्तुति पार्श्वनाथजीकी स्तुति महावीर प्रभुकी स्तुति सरस्वती स्तुति जिनेश्वर स्तुति दयाकी स्तुति
चत्यवन्दन । सिद्धाचलजीका चैत्यवन्दन स्तभनपार्श्वनाथका चैत्यवन्दन नवपदजीका चैत्यवन्दन
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[ २० ] नाम सीमन्धरजीका चैत्यवन्दन सिद्धाचलजीका चैत्यवन्दन
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सिद्धाचलजीका चैत्यवन्दन
स्तवन। पञ्चतीर्थीका स्तवन
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२७३
२७५
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लघुपंचमी स्तवन पाश्च प्रभुका स्तवन विमलनाथजीका स्तवन मौन एकादशीका स्तवन शान्तिनाथजीका स्तवन चौरासी अशातनाका स्तवन चौवीस तीर्थंकरके देह प्रमाणका स्तवन चौवीस तोर्थंकरके आयुष्य प्रमाणका स्तवन तिरसठ शलाका पुरुषोंका स्तवन सिद्धगिरिका स्तवन सिद्धाचलजीका स्तवन ऋषभदेवजीका स्तवन महावीरस्वामीका स्तवन चौवीस दण्डकका स्तवन
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नाम इरियावहि मिच्छामि दुक्कड़ संख्या स्तवन पाँच लमवायका स्तवन चउदह गुणठाणाका स्तवन नवतत्व भाषा गर्भित स्तवन दण्डक भाषा गर्भित स्तवन जीव विचार भाषा गर्भित स्तवन समवसरण विचार गभित स्तवन ऋषभदेवजीका स्तवन पाच नाथजीका बड़ा स्तवन अजित शान्ति स्तवन मुहपत्ति पडिलेहणका स्तवन आलोयणा स्तवन नन्दीश्वर द्वीपका स्तवन वीस विहरमानका स्तवन आबूजीका स्तवन शाश्वता चत्य नमस्कार स्तवन शीतलजिन-चैत्य प्रतिष्ठा-स्तवन धर्मनाथजीका स्तवन राणपुराका स्तवन आदि जिन स्तवन
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[ २२ ] नाम अजितनाथ स्वामीका स्तवन आलोयणा वृद्ध स्तवन ऋषभदेव स्वामीका स्तवन अजितनाथजीका स्तवन संभवनाथजीका स्तवन अभिनन्दन स्वामीका स्तवन सुमतिनाथ स्वामीका स्तवन शीतलनाथजीका स्तवन कुन्थुनाथजीका स्तवन प्रतिक्रमणमें कहने योग्य छोटे स्तवन निर्वाण कल्याणक स्तवन तीर्थमालाका स्तवन महावीर स्वामीके पारणाका स्तवन मांगलिक स्तोत्र नवकार महात्म्य शंखेश्वर पार्श्वनाथ स्तवन
रास। गौतमस्वामीका छोटा राल शत्रुञ्जयका रास सम्मेतशिखरका रास मुनिमालाका रास
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४२२ ४२३
४३८ ४५८ ४७५ ४८५
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[ २३ ] नाम छन्नु जिनस्तवन मांगलिक सरणां
सज्झाय-संग्रह। उपदेशमाला पोसह सज्झाय राई संथारा पोसह सज्झाय निन्दावारक सज्झाय सती सीताकी सज्झाय अनाथी मुनिकों सज्झाय प्रतिक्रमणकी सज्झाय ढढण ऋषिकी सज्झाय धन्न ऋषिकी सहाय कर्मकी सज्झाय सातव्यसनकी सज्झाय वैराग्यकी सहाय बाहुबलीजीकी सज्झाय अरणिक मुनिकी सज्झाय इला पुत्रकी सज्झाय मेघकुमारकी सज्झाय गजसुकुमालकी सज्झाय प्रसन्नचन: राजाकी सज्झाय जोवोत्पत्तिकी सज्झाय
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[ २४ ।
पूजा-संग्रह। नाम स्नात्र पूजा शान्तिजिन कलश अष्टप्रकारी पूजा नवपद पूजा
विधि-संग्रह। प्रभात कालोन सामायिक विधि रात्रि प्रतिक्रमण विधि सामायिक पारनेकी विधि संध्याकालीन सामायिक विधि देवसिक प्रतिक्रमण विधि पाक्षिक-चातुर्मासिक-सांवत्सरिक-प्रतिक्रमण विधि प्रातःकालकी पडिलेहण विधि संध्या पडिलेहण विधि रात्रि संथारा विधि पच्चक्खाणा पारनेकी विधि देववन्दनकी विधि पोसह लेनेकी विधि पोसह कृत्यको विधि पोसह करनेकी विधि देशावगासिक लेने और पारने की विधि
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[ २५ ]
तपस्या-स्तवन और विधिये ।
नाम
पखवासा तपका स्तवन पखवासा तपकी विधि
दशपञ्च्चक्खाण तपका स्तवन
दश पच्चक्खाण तपकी विधि
वीसस्थानक तपका स्तवन वीश स्थानक तप की विधि
रोहिणी तपका स्तवन रोहिणी तपकी विधि
छम्मासी तपका स्तवन
छम्मासी तपकी विधि
बारह मासी तपका स्तवन बारह मासी तपकी विधि
अट्ठाईस लब्धी तपका स्तवन
अट्ठाईस लब्धी तपकी विधि
चतुर्दश पूर्व-तप स्तवन
उदह पूरब तपकी विधि
तिलक तपस्याका स्तवन
तिलक तपस्याकी विधि
सोलिये तपका स्तवन
सोलिये तपकी विधि
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नाम भक्ष्याभक्ष्य विचार बाईस अभक्ष्य किसे कहते हैं ? अभक्ष्य पदार्थ चलित रसके सम्बन्धमें अन्य सूचनाए बत्तीत अनन्तकायोंके नाम अनन्तकायके सम्बन्धमें जानने योग्य बातें विशेष सूचनाए वर्जित वनस्पतियाँ दर्शन विरुद्ध तथा लोक विरुद्ध वर्जित वनस्पतियाँ चौमासेमें वर्जनीय वनस्पतियाँ व्यवहारमें आनेवाली वनस्पतियाँ जानने योग्य विषय च दोवा-चन्द्रवा सात प्रकारके छनने सूतक विचार
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৩৪৪ ७३५
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१ श्रीकेवलज्ञानीजो
३ श्रीसागरजी
५ श्रीविमलदेवजी
७ श्रीश्रीधरजी
2. श्रीदामोदरजी ११ श्रीस्वामीजी
१३ श्री सुमतिनाथजो
[ २७ ] अतीत, वर्तमान और अनागत चोविसीके तीर्थङ्करोंकी नामावली |
अतीत चोविसी
१५ श्रीअस्तागजी १७ श्रीअनिलनाथजी
१८ श्रीकृतार्थ जी
२१ श्रीशुद्धमतीजी
२३ श्रीस्यन्दनजी
१ श्री ऋषभदेवजी
३ श्रीसंभवनाथजी
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५ श्री सुमतिनाथजी
७ श्रीसुपार्श्वनाथजी 2 श्री सुविधिनाथजी
११ श्रीश्रेयांसनाथजी
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वर्तमान चोविसी
२ श्रीनिर्वाणीजी ॥
४ श्रीमहायसजी
६ श्रीसर्व्वानुभूतिजी
८ श्रीदत्तस्वामीजी
१० श्री सुतेजनाथजी
१२ श्रीमुनिसुव्रतजी
१४ श्रीशिवगनिजी
१६ श्रीनमीश्वरजी
१८ श्रीयशोधरजी
२० श्री जिनेश्वरजी
२२ श्रीशिवकरजी
२४ श्रीसंप्रति स्वामीजी
२ श्री अजितनाथजी
४ श्रीअभिनन्दनजी
६ श्रीपद्मप्रभूजी
८ श्रीचंद्रप्रभूजी
१० श्री शीतलनाथजी
१२ श्रीवासुपूज्यस्वामीजी
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१३ श्रीविमलनाथजी १५ श्रीधर्मनाथजी १७ श्रीकुंथुनाथजी १८ श्रीमल्लिनाथजी २१ श्रीनमिनाथजी २३ श्रीपार्श्वनाथजी
१ श्रीपद्मनाभजी ३ श्रीसुपार्श्वजी ५ श्रीसर्वानुभूतिजी ७ श्रीउदयप्रभुजी ८ श्रीपोट्टिलप्रभूजो ११ श्रीसुव्रतनाथजी १३ श्रीनिष्कषायदेवजी १५ श्रीनिर्ममनाथजी १७ श्रीसमाधिनाथजी १६ श्रीयशोधरजी २१ श्रीमलिलप्रभूजी २३ श्रीअनन्तप्रभूजी
[ २८ ]
१४ श्रीअनन्तनाथजी १६ श्रीशांतिनाथजी १८ श्रीअरनाथजी २० श्रीमुनिसुव्रतस्वामीजी २२ श्रीनेमनाथजी
२४ श्रीमहावीरस्वामीजी अनागत चोविसी
२ श्रीसूरदेवजी ४ श्रीस्वयंप्रभुजी ६ श्रीदेवश्रुतजी ८ श्रीपेढालजी १० श्रीशतकीर्तिदेवजी १२ श्रीअममनाथजी १४ श्रीनिष्पुलाकदेवजी १६ श्रीचित्रगुप्तनाथजी १८ श्रीसंवरनाथजी २० श्रीविजयनाथजी २२ श्रीदेवप्रभूजी . २४ श्रीभद्रकरजी
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॥ नमो वीतरागाय ॥
श्रीवृहत्खरतरगच्छीयपंच-प्रतिक्रमण-सूत्र।
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१-नमस्कार सूत्र। णमो अरिहंताणं । णमो सिद्धाणं। णमो आयरियाणं । णमो उवज्झायाणं । णमो लोए सव्व-साहूणं । एसो पंच-णमुकारो, सव-पावप्पणासणो । मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं ॥१॥ २-स्थापनाचार्यजीकी तेरह पडिलेहणा ॥
शुद्ध स्वरूप धारू (१) ज्ञान (२) दर्शन (३) चारित्र ( ४ ) सहित सदहणा-शुद्धि (५) प्ररूपणा-शुद्धि ( ६ ) दर्शन-शुद्धि (७) सहित पाँच आचार पालू (८) पलायूँ (६) अनुमोदूं
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अभय रत्नसार। (१०) मनो-गुप्ति ( ११ ) वचन-गुप्ति ( १२) काय-गुप्ति आदरूँ ( १३)।
३-खमासमण सूत्र । इच्छामि खमासमणो ! वंदिउं जावणिजाए निसीहिआए, मत्थएण वंदामि।
४-सुगुरुको सुख-शाता-पृच्छा। इच्छकारी सुहराई सुह-देवसि सुख-तप शरीर निराबाध सुख-संजम-यात्रा निर्वहते हो जी। स्वामिन् ! शाता है ? आहार पानीका लाभ देना जी। ५-अब्भुट्टिओ (गुरु-क्षामणा ) सूत्र ।।
इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! अब्भुडिओ हं अभिंतर-देवसिनं खामेउं । इच्छं, खामेमि देवसिअं।
जं किंचि अपत्तिअं पर-पत्ति, भत्ते-पाणे विणए, वेआवच्चे, आलावे, संलावे, उच्चासणे, समासणे, अन्तर-भासाए, उवरि-भासाए, जं
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मुहपत्ती पडिलेह के २५ बोल ।
३
किंचि मज्झ विषय परिहीणं सुहुमं वा बायरं वा तुभे जाणह, अहं न जाणामि, तस्स मिच्छामि दुक्कडं |
६ - मुहपत्ती पडिलेहरणके २५ बोल |
१ सूत्र अर्थ सच्चा सदहूँ, २ सम्यक्त्व - मोहनीय, ३ मिथ्यात्व - मोहनीय, ४ मिश्र-मोहनीय परिहरु | ५ काम - राग, ६ स्नेह - राग, ७ दृष्टि-राग परिहरूँ ।
+९ ज्ञान-विराधना, २, दर्शन - विराधना ३ चारित्र - विराधना परिहरू । ४ मनो- गुप्ति ५ वचन- गुप्ति, ६ काय गुप्ति आदरूँ । ७ मनोदण्ड, ८ वचन - दण्ड, ६ काय - दण्ड परिहरु । + १ सुगुरु, २ सुदेव, ३ सुधर्म आदरूँ ;
* ये सात बोल मुहपत्ती खोलते समय कहने चाहिएँ । + ये नव बोल दाहिने हाथ के पडिलेहण के समय कहने चाहिए इन नव बोलोंका चिन्तन बांये हाथ के पडिलेहण के समय करना चाहिए ।
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अभय रत्नसार। ४ कुगुरु, ५ कुदेव, ६ कुधर्म परिहरूँ। ७ ज्ञान, ८ दर्शन, ६ चारित्र आदरूँ।
७-अंगकी पडिलेहणके २५ बोल 9
कृष्ण लेश्या १, नील लेश्या २, कापोत लेश्या ३ परिहरूँ ( मस्तक)। ऋद्धि-गारव १, रस-गारव २, साता-गारव ३, परिहरूँ (मुख)। माया-शल्य १, निदान-शल्य २, मिथ्यादर्शनशल्य ३ परिहरूँ ( हृदय )। क्रोध १, मान २, परिहरू (दहिना कन्धा ) । माया १, लोभ २ परिहरूँ (बायाँ कन्धा )। हास्य १, रति २, अरति ३ परिहरूँ (बायाँ हाथ )। भय १, शोक २, दुगंछा ३ परिहरू (दाहिना हाथ ) पृथ्वीकाय १, अप्काय २, तेऊकाय ३ परिहरू (बायाँ पैर )। वायुकाय १, वनस्पतिकाय २, त्रसकाय ३ परिहरूँ ( दाहिना पैर )।
* ये बोल कहते समय जिस स्थानका नाम कोसमें लिखा है, उस स्थानपर मुहपत्ति (मुखस्त्रिका) रखते जाना चाहिये।
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सामायिक सूत्र।
८-सामायिक सत्र। करेमि भंते ! सामाइयं । सावज्ज जोगं पञ्चक्खामि । जावनियमं पज्जुवासामि, दुविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि । तस्स भंते ! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥
E-इरियावहियं सत्र । इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! इरियावहियं पडिकमामि । इच्छं। इच्छामि पडिकमिउं इरियावहियाए विराहणाए। गमणागमणे, पाणक्कमणे, बीयक्कमणे, हरियकमणे, ओसा. उत्तिंग-पणग-दग-मट्टी-मकडासंताणा-संकमणे जे मे जीवा विराहिया-एगिदिया, बेइंदिया; तेइंदिया, चउरिंदिया; पंचिंदिया, अभिहया, वत्तिया, लेसिया, संघाइया, संघट्टिया, परियाविया, किलामिया, उद्दविया; ठाणाओ ठाणं संकामिया; जीवियाओ ववरोविया तस्स मिच्छामि दुकडं ।
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अभय रत्नसार। १०–तस्स उत्तरी सूत्र । तस्स उत्तरी-करणेणं, पायच्छित्त-करणेणं, विसोही-करणेणं, विसल्ली-करणेणं, पावाणं कम्माणं निग्घायणटाए ठामि काउस्सग्गं ।
११-अन्नत्थ ऊससिएणं सूत्र।
अन्नत्थ ऊससिएणं, नीससिएणं, खासिएणं, छीएणं, जंभाइएणं, उड्डुएणं, वायनिस. म्गेणं, भमलीए, पित्त-मुच्छाए, सुहुमेहिं अंग. संचालेहि, तुहुनेहि खेल-संचालेहिं, सुहुमेहिं दिदि-संचालेहिं एवमाइएहिं आगारेहिं अभग्गी अविराहिलो हुज्ज मे काउस्सग्गो । जाव अरिहताणं भगवंताणं णमुकारेणं न पारेमि ताव कायं ठाणेणं मोणेणं भाणेणं अप्पाणं वोसिरामि॥
_१२-लोगस्स सूत्र। लोगस्स उज्जोअगरे, धम्मतित्थयरे जिणे। अरिहंते कित्तइस्सं, चउवीसंपि केवली ॥ १ ॥ उसभमजिअं च वंदे, संभवमभिणंदणं च
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जयउ सामिय सूत्र। ७ सुमइंच। पउमप्पहं सुपासं, जिणं च चंदप्पहं वंदे॥२॥ सुविहिं च पुप्फदंतं, सीअलसिज्जंसवासुपुज्ज च। विमलमणंतं च जिणं, धम्म संतिं च वंदामि ॥ ३॥ कुंथं अरंच मल्लिं, वंदे मुणिसुव्वयं नमिजिणं च ।वंदामि रिटुनेमिं, पासं तह वद्धमाणं च ॥ ४ ॥ एवं मएअभिथुआ, विहुयरयमला पहीणजरमरणा। चउवीसंपि जिणवरा, तित्थयरा मे पसीयंतु ॥ ५ ॥ कित्तियवंदियमहिया, जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा। आरुग्गबोहिलाभं, समाहिवरमुत्तमं दिंतु ॥६॥ चंदेसु निम्मलयरा, आइच्चेसु अहियं पयासयरा। सागरवरगंभीरा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु॥७॥
१३-जयउ सामिय सूत्र । जयउ सामिय जयउ सामिय रिसह सत्तुंजि, उज्जिंत पहु नेमिजिण, जयउ वीर सच्चउरिमंडण, भरुअच्छहिं मुणिसुब्वय, मुहरि
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अभय रत्नसार। पास । दुहदुरिअखंडण अवर विदेहिं तित्थयरा, चिहु दिसि विदिसि जिं के वि तीआणागयसंपइअ वंदं जिण सम्वेवि ॥ १॥ कम्मभूमिहिं कम्मभूमिहिं पढमसंघयणि उक्कोसय सत्तरिसय जिण वराण विहरंत लगभइ; नवकोडिहिं केवलीण, कोडिसहस्त नव साहु छगम्भइ। संपइ जिणवर वीस, मुणि बिहूं कोडिहिं वरनाण, समणह कोडिसहस्सदुध थुणिज्जइ निच्च विहाणि ॥२॥ सत्ताणवइ सहस्सा, लक्खा छप्पन्न अट्रकोडीओ। चउसय छायासीया, तिअलोए चेइए वंदे ॥३॥ वन्दे नवकोडिसयं, पणवीसं कोडि लक्ख तेवन्ना। अट्ठावीस सहस्सा, चउसय अट्टासिया पडिमा ॥ ४ ॥
१४-जं किंचि सूत्र। जं किंचि नाम तित्थं, सग्गे पायालि माणुसे लोए। जाई जिण-बिंबाई, ताई सव्वाइं वंदामि।१।
* पाठान्तर 'संपइ'।
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नमुत्थु सूत्र । १५ – नमुत्थुरां सूत्र नमुत्थुणं अरिहंताणं भगवंताणं, आइगराणं तित्थयराणं सयं-संबुद्धाणं, पुरिसुत्तमाणं, पुरिस - सीहाणं पुरिस वर पुंडरीमा पुरिस-वरगंधहत्थीणं, लोगुत्तमाणं लोग नहाणं लोग-हियाणं लोग पईवाणं लोग पज्जोअगराणं, अभयदयाणं चक्खु दयाणं मग्ग- दयाणं सरण- दयाणं बोहि- दयाणं, धम्म- दयाणं धम्म- देसयाणं धम्मनायगाणं धम्म - सारहीणं धम्म-वर- चाउरंतचकवडी, अप्पsिहय-वर नाण- दंसणधराणं विग्रह छउमाणं, जिणाणं जावयाणं, तिन्नाणं तारयाणं, बुद्धाणं बोहयाणं, मुत्ताणं मोत्रगाणं, सव्वन्नूगं सव्वदरिसीणं सिवमयलमरुममरणंत मक्खयमव्वाबाहमपुरावित्ति सिद्धिगइ - नामधेयं ठाणं संपत्ताणं । नमो जिणां जिन भयाणं । जे अईआ सिद्धा, जे अ
* पाठान्तर 'तित्थगराणं' ।
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अभय रत्नसार। भविस्संतिणागए काले। संपइ अ वट्टमाणा, सव्वे तिविहेण वंदामि ॥१॥
१६–जावंति चेइआई सूत्र। जावंति चेइआई, उड्डे अ अहे अ तिरिअ-लोए अ। सव्वाइं ताइं वंदे, इह संतो तत्थ संताई ॥१॥
१७–जावंत केवि साहू सूत्र ।
जावंत केवि साहू, भरहेरवय महाविदेहे अ। सव्वेसिं तेसिं पणओ, तिविहेण तिदंडविरयाणं ॥१॥
१८-परमेष्ठि नमस्कार । नमोऽर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यः ॥
१६-उवसग्गहरं स्तोत्र । . उवसम्ग-हरं पासं, पासं वंदामि कम-घणमुक्कं। विसहर-विस-निन्नासं, मंगल-कल्लाण
आवासं ॥१॥ विसहर फुलिंग-मंतं, कंठे धारेइ जो सया मणुओ। तस्स गह-रोग-मारी-दुट्ठ
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जयवीयराय सूत्र । ११ जराजंति उवसामं ॥२॥ चिट्टउ दूरे मंतो, तुज्झ पणामो वि बहुफलो होइ । नर-तिरिएसु वि जीवा, पावंति न दुक्खदोगच्चं ॥३॥ तुह सम्मत्ते लढे, चिंतामणि कप्पपायवब्भहिए। पावंति अविग्घेणं, जीवा अयरा मरं ठाणं ॥४॥ इअ संथुप्रो महायस! भत्तिब्भर-निब्भरेण हिअएण। ता देव ! दिज बोहिं, भवे भवे पास-जिणचंद ॥
___२०-जयवीयराय सूत्र।
जय वीयराय! जगगुरु!, होउ ममं तुह पभावो भयवं ! । भव-निव्वेओ मग्गा-णुसारिया इट्टफल-सिद्धी ॥ १॥ लोग-विरुद्ध-च्चाओ, गुरु-जण-पूआ परत्थकरणं च । सुह-गुरु-जोगो तव्वयण-सेवणा आभवमखण्डा ॥२॥
२१-आचार्य आदिको वन्दन ।
आचार्यजी मिश्र, उपाध्यायजी मिश्र, जङ्गम युगप्रधान भट्टारक (वर्तमान श्रीपूज्य-आचार्यजीका
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अभय रत्नसार। नाम लेकर) मिश्र, सर्व साधु मिश्र ।
___२२-सव्वस्सवि सूत्र।
सव्वस्सवि देवसिभ दुच्चिंतिम दुब्भासिअ दुञ्चिढि इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! तस्स मिच्छामि दुकडं।
२३-इच्छामि ठाइडं सूत्र । ॥ इच्छामि ® ठाइडं काउस्सगं जो मे देवसिओ अइयारो कओ, काइओ वाइरो माणसिओ उस्सुत्तो उम्मग्गो अकप्पो अकरणिज्जो दुज्झाओ दुविचिंतिओ अणायारोअणि च्छिअव्वो असावग-पाउग्गो नाणे दंसणे चरित्ता चरित्ते सुए सामाइए; तिण्हं गुत्तीणं चउण्हं कसायाणं पंचराहमणुब्बयाणं तिण्हं गुणव्वयाणं चउण्हं सिक्खावयाणं बारसवि. हस्स सावगधम्मस्स जं खंडिअंजं विराहिलं तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ॥
* पाठान्तर 'ठामि।
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Re
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अरिहंतचेइयाणं सूत्र। १३ २४-अरिहंतचेइयाणं सूत्र । अरिहन्तचेइयाणं करेमि काउस्सग्गं वंदणवत्तियाए, पूअण-वत्तियाए, सक्कार-वत्तियाए सम्माणवत्तियाए, बोहि लाभ-वत्तियाए, निरुवसग्गवत्तियाए ॥ सद्धाए, मेहाए, धिईए, धारणाए, अणुप्पेहाए, वड्ढमाणीए ठामि काउस्सग्गं ।
२५-पुक्खर-वर-दीवड्ढे सूत्र । पुक्खर-वर-दीवड्ढे,धायइ-संडे अ जंबुदीवे अ। भरहेरवय-विदेहे धम्माइगरे नम सामि ॥१॥ तम-तिमिर-पडल-विद्धंसणस्स सुर-गण-नरिंद-महियस्स। सीमाधरस्स वंदे, पप्फोडिअ-मोह-जालस्स ॥२॥ जाई-जरामरण-सोग-पणासणस्स। कल्लाण-पुक्खल विसाल-सुहावहस्स ॥ को देव-दाणव-नरिंद-गणचियस्स ।धम्मस्स सारमुवलब्भ करे पमायं ॥३॥ सिद्ध भो! पयो णमो जिणमए नंदी
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अभय रत्नसार।
सया संजमे। देवनागसुवन्नकिन्नरगणस्सब्भूअभावच्चिए ॥ लोगो जत्थ पइट्ठिओ जगमिणं तेलुक्कमच्चासुरं । धम्मो वड्ढउ सासो विजयो धम्मुत्तरं वड्ढउ ॥ ४॥
सुअस्स भगवओ करेमि काउस्सग्गं वंदणवत्तियाए॥
___ २६-सिद्धाणं बुद्धाणं सत्र । सिद्धाणं बुद्धाणं, पारगयाणपरंपरगयाणं। लोअग्गमुवगयाणं, नमो सेया सव्वसिद्धाणं ॥१॥ जो देवाणवि देवो, जं देवा पंजली नमसंति । तं देवदेव-महिअं, सिरसा वंदे महावीरं ॥ २॥ इक्कोवि नमुक्कारो, जिणवरवसहस्स वद्धमाणस्स। संसारसागराओ, तारेइ नरं व नारिं वा ॥३॥ उज्जिंतसेलसिहरे, दिक्खा नाणं निसीहि आ जस्स । तं धम्मचकवट्टि, अरिट्ठनेमिं नमसामि ॥४॥ चत्तारि अट्ट दस दो, य वंदिया जिणवरा चउव्वीसं । परमट्टनि
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वेयावच्चगराणं सूत्र। १५ ट्टिअट्ठा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ॥ ५॥
२७–वेयावच्चगराणं सूत्र । - वेयावच्च-गराणं संति गराणं सम्मदिट्रिस. माहिगराणं करेमि काउस्सग्गं । अन्नत्थ० ॥
___२८-सुगुरु वन्दन सूत्र। इच्छामि खमासमणो ! वंदिउं जावणिजाए निसीहिआए । अणुजाणह मे मिउग्गहं। निसीहि अहोकायं कायसंफासं। खमणिज्जो भे किलामो। अप्प-किलंताणं बहुसुभेण भे दिवसो वइक्कतो? जत्ता भे ? जवणिज्जं च भे? खामेमि खमासमणो! देवसिअं वइक्कम । सावस्सिाए पडिकमामि । खमासमणाणं देवसिआए असायणाए तित्तीसन्नयराए जं
* दुवारा पढ़ते समय 'आवस्सिाए' पद नहीं कहना। रात्रिक प्रतिक्रमण में 'राइवइक्कता', चातुर्मासिक प्रतिक्रमण में 'घउमासो वइक्कता', पाक्षिक प्रतिक्रमण में 'पक्खो वइक्कतों, सांवत्सरिक प्रतिकमण में 'संवच्छरो वइक्कतों', ऐसा पाठ पढ़ना ।
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अभय रत्नसार। किंचि मिच्छाए मण-दुक्कड़ाए वय-दुक्कडाए काय-दुक्कडाए कोहाए माणाए मायाए लोभाए सव्व-कालियाए सव्वमिच्छोक्याराए सव्वधम्माइक्मणाए आसायणाए जो मे अइयारो को तस्स खमासमणो ! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि।
__ २६-देवसिमं आलोउं सूत्र ।
इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! देवसिअं आलोउं। इच्छ। आलोएमि जो मे० ।
३०-आलोयण । आजके चार प्रहरके दिनमें मैंने जिन जीवोंकी विराधना की होय। सात लाख पृथ्वीकाय, सात लाख अपकाय, सात लाख तेउकाव, सात लाख वाउकाय, दस लाख प्रत्येक-वनस्पतिकाय,चौदह लाख साधारण वनस्पतिकाय, दो लाख दो इन्द्रिय वाले, दो लाख तीन इन्द्रिय वाले, दो लाख चार इन्द्रिय वाले, चार
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अठारह पापस्थानक आलोउं । १७
लाख देवता, चार लाख नारक, चार लाख तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय, चौदह लाख मनुष्य । कुल चौरासी लाख जीवयोनियोंमेंसे किसी जीवका मैंने हनन किया, कराया या करते हुएका अनुमोदन किया वह सब मन, वचन, काया करके मिच्छामि दुक्कडं ॥३०॥
३१ – अठारह पापस्थानक आलोउं । पहला प्राणातिपात, दूसरा मृषावाद, तीसरा अदत्तादान, चौथा मैथुन, पाँचवाँ परिग्रह, छठा क्रोध, सातवाँ मान, आठवाँ माया, नवत्राँ लोभ, दशवाँ राग, ग्यारहवाँ द्वेष, बारहवाँ कलह. तेरहवाँ अभ्याख्यान, चौदहवाँ पैशुन्य, पन्द्रहवाँ रति - बरति, सोलहवाँ पर परिवाद, सत्रहवाँ माया- मृषावाद, अठारहवाँ मिथ्यात्व - शल्य; इन पापस्थानों में से किसीका मैंने सेवन किया, कराया या करते हुएका अनुमोदन किया, वह सब मिच्छामि दुक्कडं ।
३
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अभय रत्नसार । ज्ञान, दर्शन, चारित्र, पाटी, पोथी, ठवणी, कवली, नवकरवाली, देव-गुरु-धर्मकी आशातना की हो; पन्नरह कर्मादानोंकी आसेवना की हो; राज-कथा, देश-कथा, स्त्री-कथा, भक्तकथा की हो; और जो कोई पर निंदादि पाप किया हो, कराया हो, करते हुएका अनुमोदन किया हो, सो सब मन, वचन, काया करके, रात्रि-अतिचार आलोयण करके, पडिक्कमणमें आलोउं, तस्स मिच्छामि दुक्कडं ॥३१॥ ३२-वंदित्तु-श्रावकका प्रतिक्रमण सूत्र।
बंदित्तु सव्वसिद्धे, धम्मायरिए अ सब साहू अ। इच्छामि पडिक्कमिडं, सावगधम्माइआरस्स ॥ १॥ जो मे वयाइआरो,नाणे तह दसणे चरित्ते अ। सुहुमो अ बायरो वा, तं निंदे तं च गरिहामि ॥२॥ दुविहे परिग्गहम्मि, सावज्जे बहुविहे अ आरंभे । कारावणे अकरणे, पडिक्कमे देसि सव्वं ॥३॥ जं बद्धमिदिएहिं,
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बंदित्तु-श्रावकका प्रतिक्रमण सूत्र। १६ चउहिं कसाएहिं अप्पसत्थेहि। रागेण व दोसेण व, तं निंदे तं च गरिहामि ॥४॥ आगमणे नि गमणे, ठाणे चंकमणे [य] आणाभोगे । अभिओगे अनिओगे, पडिक्कमे देसिनं सव्वं ॥५॥ संका कंख विगिच्छा, पसंस तह संथवो कुलिंगीसु ।सम्मत्तस्सइआरे, पडिक्कमे देसिअं सव्वं ॥६॥ छक्कायसमारंभे, पयणे अ पयावणे अजे दोसा । अत्तट्टा य परट्टा,उभयट्टा चेव तं निदे ।। पंचग्रहमणुव्वयाणं, गुणव्वयाणं च तिराहमइआरे। सिक्खाणं च चउराह, पडिकमे देसिअं सव्वं ॥८॥ पढमे अणुव्वयम्मि, थूलगपाणाइवायविरईओ । आयरिश्रमप्पसत्थे, इत्थ पमायप्पसंगणं ॥६॥ वहबंध छविच्छेए, अइभारे भतपाणवुच्छेए। पढमवयस्सइआरे, पडिकमे देसि सव्वं ॥१०॥ बीए अणुव्वयम्मि, परि थूलगअलियवयणविरईओ। आयरिश्रमप्पसत्थे, इत्थ पमायप्पसंगेणं ॥११॥ सहसा-रहस्स
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२०
अभय रत्नसार ।
। बीयवयस्ससव्वं ॥ १२ ॥
दारे, मोसु एसे अ कूडलेहे इमारे, पडिक्कमे देसि तइए अणुव्वयम्मि, थूलगपरदव्वहरण विरईओ | आयरिश्रमप्पसत्थे, इत्थ पमायप्पसणं ॥ १३॥ तेनाहड़प्पओगे, तप्पडिरूवे विरुद्धगमणे अ । कूड तुलकूडमाणे, पडिक्कमे देसि सव्वं ॥ १४॥ चउत्थे अगुव्वयम्मि, निच्चं परदारगमणविर ईओ | आयरिअमप्पसत्थे, इत्थ पमायप्पसंगेणं ॥ १५ ॥ परिग्गहित्रा इत्तर, अांगवीवाहतिव्वअणुरागे । चउत्थवयस्सइआरे, पडिक्कमे देसि सव्वं ॥१६॥ इत्तो अव्वए पंचम म्म यरिमप्पसत्थम्मि । परिमाणपरिच्छे, ए इत्थ पमायप्पसँगेणं ॥ १७ ॥ धरण - धन्नखित्त वत्थू - रूप्प - सुवन्ने कुविअपरिमाणे दुपए चउप्पयम्मिय, पडिक्कमे देसि सव्वं ॥१८॥ गमणस्स उ परिमाणे, दिसासु उडूढं आहे अ तिरियं च । वुड्ढि सइअंतरद्धा, पढमम्मि
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वंदित्तु-श्रावकका प्रतिक्रमण सूत्र। २१ गुणव्वए निंदे ॥१६॥ मज्जम्मि अ मंसम्मि अ, पुप्फे अ फले अगंधमल्ले । उवभोगपरी. भोगे, बीयम्मि गुणव्वए निंदे ॥२०॥ सच्चित्ते पडिबद्धे, अपोलि दुप्पोलिभं च आहारे। तुच्छोसभिक्खणया, पडिकमे देसिअं सव्वं॥२१॥ इंगालीवणसाडी,-भाडीफोडी सुवज्जए कम्म। वाणिज्जं चेव य दं,-तलक्खरसकेसविसविसयं ॥२२॥ एवं खु जंतपिल्लण,कम्मं निल्लंछणं च दवदाणं। सरदहतलाय. सोस, असईपोसं च वज्जिज्जा ॥२३॥ सत्थग्गि. मुसलजंतग-तणकट्ठ मंतमूलभेसज्जे । दिन्ने दवाविए वा, पडिकमे देसिनं सव्वं ॥२४॥ न्हाणुवट्टणवन्नग–विलेवणे सदरूवरसगंधे । वत्थासण आभरणे, पडिकमे देसिअं सव्वं ॥२५॥ कंदप्पे कुक्कुइए, मोहरिअहिगरणभोगाइरित्ते। दंडम्मि अणटाए, तइयम्मि गुणवए निंदे ॥२६॥ तिविहे दुप्पणिहाणे,
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२२
अभय रत्नसार। अणवटाणे तहा सइविहणे। सामाइय वितह कए, पढमे सिक्खावए निंदे ॥२७॥ आणवरों पेसवणे, सई रूवे अ पुग्गलक्खेवे। देसावगासिम्मि, बीए सिक्खावए निंदे ॥२८॥ संथा. रुच्चारविही-पमाय तह चेव भोयणाभोए। पोसहविहि विवरीए, तइए सिक्खावए निंदे॥२६॥ सञ्चित्ते निक्खिवणे पिहिणे ववएसम. च्छरे चेव। कालाइक्कमदाणे, चउत्थे सिक्खावए निंदे ॥३०॥ सुहिएसु अ दुहिएसु अ, जा मे अस्संजएसु अणुकंपा। रागेण व दोसेण व, तं निंदे तं च गरिहामि ॥३१॥ साहूसु संविभागो, न को तवचरणकरणजुत्तेसु। संते फासुअदाणे, तं निन्दे तं च गरिहामि ॥३१॥ इहलोए परलोए, जीवित्र मरणे अ आसंसपओगे। पंचविहो अइयारो, मा मझ हुज्ज मरणंते ॥३३॥ काएण काइअस्स, पडिकमे वाइअस्स वायाए । मणसा माणसि
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वंदित्त-श्रावकका प्रतिक्रमण सूत्र। २३ अस्स, सव्वस्स वयाइआरस्स ॥३४॥ वंदणवयसिक्खागा, रवेसु सन्नाकसायदंडेसु । गुत्तीसु अ समिईसु अ, जो अइआरो अ तं निंदे ॥३५॥ सम्मदिट्ठो जीवो, जइवि हु पावं समायरइ किंचि। अप्पो सि होइ बंधो, जेण न निद्धधसं कुणइ ॥३६॥ तं पुि हु सपडिक्कमणं, सप्परिआवं सउत्तरगुणं च । खिष्पं उक्सामेई, वाहि व्व सुसिक्खिओ विज्जो ॥३७॥ जहाविसं कुट्टगयं, मंतमूलविसारया । विज्जा हणंति मतेहिं, तो तं हवइ निविसं ॥३८॥ एवं अट्टविहं कम्म, रागदोससमज्जिअं। आलोअंतो अ निंदंतो, खिप्पं हणइ सुसावो ३६॥ कयपावोवि मणुस्सो, आलोइअ निंदिअ य गुरुसगासे होइ अइरेगलहुओ, ओहरिभरु व्व भारवहो ॥४०॥ आवस्सएण एएण, सावो जइवि बहुरओ होइ। दुक्खाणमंतकिरिअं, काही अचिरेणकालेण ॥४१॥ आलोअणा बहुविहा, नय संभरिआ पडि
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अभय रत्नसार । कमणकाले मूलगुणउत्तरगुणे तं निंदे तं च गरिहामि ॥४२॥ तस्स धम्मस्स केवलिपन्नत्तस्स-.. अध्भुट्रिोमि आरा-हणाए विरोमि विराहणाए। तिविहेण पडिकतो, वंदामि जिणे चउव्वीसं ॥४३॥ जावंति चेइआइं, उड्ढे अ अहे अ तिरिअलोए अ। सम्वाइँ ता. वंदे, इह संतो तत्थ सताइँ ॥४४॥ जावत के वि साहू, भरहेरवयमहाविदेहे अ। सव्वेसिं तेसिं पणओ, तिविहेण तिदंडविरयाणं ॥४५॥ चिरसंचियपावपणासणीइ, भवसयसहस्समहणीए। चउवीसजिणविणिग्गयकहाइ वोलंतु मे दिअहा ॥४६॥ मम मंगलमरिहंता, सिद्धा साहू सुअं च धम्मो अ। सम्मदिट्टी देवा, दितु समाहिच बोहिं च ॥४७॥ पडिसिद्धा. णं करणे, किच्चाणमकरणे पडिक्कमणं । अस. दहणे अ तहा, विवरीयपरूवणाए अ॥४८॥ खामेमि सब्वजीवे, सव्वे जीवा खमंतु मे।
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आयरिअउवज्झाए सूत्र |
२५
मित्तो मे सव्वभूएस, वेरं मज्झं न केाई ॥४६॥ एवमहं आलोइ, निंदिय गरहिअ दुर्गछिउं सम्मं । तिविहेण पडिकतो, वंदामि जिणें चउव्वीसं ॥५०॥
३३ – आयरिअउवज्झाए सूत्र । आयरिउवज्झाए, सीसे साहम्मिए कुल - गणे । जे मे केइ कसाया, सव्वे तिविहेण खामि ||१|| सस्स समण संघस्स, भगवओो अंजलिं करिअसीसे । सव्वं खमावइत्ता, खमामि सव्वस्स अहयंपि ॥ २॥ सव्वरस जीवरासिस्स भाव धम्मनिहित्र नियचित्तो । सव्वं खमावइत्ता, खमामि सव्वस्स अपि ॥३॥ ३४ - सकलतीर्थ नमस्कार ।
सद्भक्त्या देवलोके रविशशिभवने व्यन्तराणां निकाये, नक्षत्राणां निवासे ग्रहगणपटले तारकाणां विमाने । पाताले पन्नगेन्द्र स्फुट - मणिकिरणै र्ध्वस्तसान्द्रान्धकारे, श्रीमतीर्थङ्क
४
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२६ अभय रत्नसार । राणां प्रतिदिवसमहं तत्र चैत्यानि वन्दे ॥१॥ वैताढ्य मेरुशृङ्गे रुचकगिरिवरे कुण्डले हस्ति दन्ते, वक्वारे कूटनन्दीश्वरकनकगिरौ नैषधे नीलवन्ते। चैत्रे शैले विचित्रे यमकगिरिवरे चक्रवाले हिमाद्रौ, श्रीमत्ती० ॥२॥ श्रीशैले विन्ध्यशृङ्गे विमलगिरिवरे ह्यर्बुदे पावके वा, सम्मेते तारके वा कुलगिरिशिखरेऽष्टापदे वर्ण शैले। सह्याद्री वैजयन्ते विमलगिरिवरे गुजरे रोहणाद्रौ, श्रीमत्ती० ॥३॥ आघाटे मेदपाटे क्षितितटमुकुटे चित्रकूटे त्रिकूटे, लाटे नाटे च घाटे विटपिघनतटे हेमकूटे विराटे। कर्णाटे हेमकूटे विकटतरकटे चक्रकूटे च भोटे, श्रीम ती० ॥४॥श्रीमाले मालवे वा मलयिनि निषधे मेखले पिच्छले वा, नेपाले नाहले वा कुवलयतिलके सिंहले केरले वा। डाहाले कोशले वा विगलितसलिले जङ्गले वा ढमाले, श्रीमती. ॥ ५॥ अङ्गे बङ्गे कलिङ्ग सुगतजनपदे सत्य
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सकलतीर्थ नमस्कार |
यागे तिलङ्ग, गौडे चौडे मुरण्डे वरतरद्रविडे उद्रियाणे च पौण्डू । आर्द्रा मा पुलिन्द्र द्रविडकवलये कान्यकुजे सुराष्ट्र, श्रीमती ० ॥६॥ चन्द्रायां चन्द्रमुख्यां गजपुरमथुरापत्तने चोज्जयिन्यां, कोशाम्ब्यां कोशलायां कनकपुर वरे देवगिर्या च कारयाम् । नासिक्ये राजगेहे दशपुरनगरे भद्दिले ताम्रलिप्त्यां, श्रीमती० ॥७॥ स्वर्गेऽन्तरिक्षे गरि शिखर हृदे स्वर्णदीनी रतीरे, शैला नागलोके जलनिधिपुलिने भूरुहाणां निकुञ्ज । ग्रामेऽरण्ये वने वा स्थलजल विषमे दुर्गमध्ये त्रिसन्ध्यं, श्रीमती० ॥ ८ ॥ श्रीमन्मेरौ कुलाद्वौ रुचकनगवरे शाल्मलौ जम्बु वृक्षे, चौज्जन्ये चैत्यनन्दे रतिकररुचके कौण्डले मानुषाङ्क । इतूकारे जिनाद्रौ च दधिमुखगिरौ व्यन्तरे स्वर्गलोके, ज्योतिर्लोके भवन्ति त्रिभुवनवलये यानि चैत्यालयानि ॥६॥ इत्थं श्रीजैन चैत्यस्तवनमनुदिनं ये पठन्ति प्रवीणाः, प्रोद्यत्क
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२८
अभय रत्नसार ।
ल्याण हेतु कलिमलहरणं भक्तिभाजस्त्रिसन्ध्यम् । तेषां श्रीतीर्थयात्राफलमतुलमलं जायते मान वानां, कार्याणां सिद्धिरुच्चैः प्रमुदितमनसां चित्तमानन्दकारी ॥ १० ॥
३५ - परसमयतिमिरतरणिं ।
परसमय तिमिरतरणिं, भवसागरवारितर वरतरणिम् । रागपरागसमीरं वन्दे देवं महावीरम् ॥ १ ॥ निरुद्धसंसारविहारकारिदुरंतभावारिगणा निकामम् । निरंतरं केव लिसत्तमा वो, भयावहं मोहभरं हरन्तु ॥ २॥ संदेहकारिकुनयागमरूडगूढ — संमोहपङ्कहरणामलवारिपुरम् । संसारसागरसमुत्तरणोरुनावं, वीरागमं परमसिद्धिकरं नमामि ||३|| परिमलभरलोभालीढलोलालिमाला - वरकमलनिवासे हारनीहारहासे । अविरलभवकारागारविच्छित्तिकारं, कुरु कमलकरे मे मङ्गलं देवि सारम् | ४ |
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संसारदावानल स्तुति। २६ ३६-संसारदावानल स्तुति । संसारदावानलदाहनीरं, संमोहधूलीहरणे समीरं। मायारसादारणसारसीरं, नमामि वीरं गिरिसारधीरं ।। भावावनामसुरदानवमानवेन-चूलाविलोलकमलावलिमालितानि। संपू. रिताभिनतलोकसमीहितानि, कामं नमामि जिनराजपदानि तानि॥२॥ बोधागाधं सुपदपदवीनीरपूराभिरामं, जोवाहिंसाऽविरललहरीसं. गमागाहदेहं । चूलावेलं गुरुगममणीसंकुलं दूरपारं, सारं वीरागमजलनिधि सादरं साधु सेवे ॥३॥ अमूलालोलधूलीबहुलपरिमलालीढलोला. लिमाला-झङ्कारारावसारामलदलकमलागारभूमि निवासे! छाया-संभारसारे! वरकमलकरे ! तारहाराभिरामे !, वाणीसंदोहदेहे ! भवविरहवरं देहि मे देवि ! सारम् ॥ ४ ॥
__ ३७–भयवं दसराणभदो। भयवं दसएणभदो, सुदंसणो थूलभद
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अभय रत्नसार । वइरो य । सफलीकयगिहचाया, साहू एवंविहा हुति ॥ १॥ साहूण वंदणेणं, नासइ. पावं असंकिया भावा। फासुअदाणे निज्जर, अभिग्गहो नाणमाईणं ॥२॥ छउमत्थो मूढमणो, कित्तियमित्तंपि संभरइ जीवो। जं च न संभरामि अहं, मिच्छा मि दुकडं तस्स ॥३॥ जं जं मणेण चिंतिय-मसुहं वायाइ भासियं किंचि। असुहं कारण कयं, मिच्छा मि दुकडं तस्स ॥४॥ सामाइयपोसहसं-ठियस्स जीवस्स जाइ जो कालो। सो सफलो बोद्धव्यो, सेसो संसारफलहेऊ ॥५॥ मैंने सामायिक विधिसे किया, विधिसे पूर्ण किया, विधिमें किसी प्रकारकी अविधि हुई हो तो मिच्छामि दुक्कडं । दस मनके, दस वचनके, बारह कायाके इन बत्तीस दोषोंमें से कोई दोष लगा हो तो वह मन, वचन, काया करके मिच्छामि दुकडं ॥
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जयतिहुअण स्तोत्र। ३१
३८-जयतिहुश्रण स्तोत्र। जय तिहुअण-वर-कप्परुक्ख, जय जिण धन्नंतरि । जय तिहुअण-कल्लाण-कोस, दुरिअकरि-केसरि ॥ तिहुअणजण-अविलंधिप्राण, भुवण-त्तय-सामित्र। कुणसु सुहाइं जिणेस पास, थंभणयपुर-ट्टिअ ॥१॥ तइ समरंत लहंति झत्ति, वर-पुत्त-कलत्तइ । धण्ण-सुवरणहिरण्ण-पुराण, जण भुंजइ रज्जइ ॥ पिक्खइ मुक्ख असंख-सुक्ख, तुह पास पसाइण । इस तिहुअण वर-कप्प-रुक्ख, सुक्खइ कुण मह जिण ॥ २॥ जर-जज्जर परिजुण्ण-कएण, नटुट्ठ सुकुट्टिण । चक्खु-क्खीण खएण खुण्ण, नर सलिय सूलिण।। तुह जिण सरण-रसायणेण, लहु हु ति पुणगणव। जय-धन्नंतरि पास महवि, तुह रोग-हरो भव ॥ ३॥ विज्जा-जोइस-मंत तंत-सिद्धीउ अपयत्तिण। भुवणऽन्भुन अट्टविह सिद्धि,
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३२
अभय रत्नसार ।
सिझहि तुह नामिण ॥ तुह नामिण अपवितो वि जण होइ पवित्तउ । तं तिहुअरणकल्लाण-कोस, तुह पास निरुत्तउ ॥ ४ ॥ खुदपउत्तइ मंत-तंत-जंताइ विसुत्तइ । चर-थिरगरल- गहुग्ग-खग्ग- रिउ वग्गवि गंजइ ॥ दुत्थियसत्थ अणत्थ- घत्थ, नित्थारइ दय करि । दुरियइ हरउ स पास देउ, दुरिय-करि केसरि ॥ ५ ॥ तुह आणा थंभेइ भीम- दप्पुदधुर- सुर-वर रक्खसजक्ख फणिंद-विंद चोरानल - जलहर ॥ जलथल- चारि-रउद- खुद्द - पसु - जोइणि जोइय | इय तिहुप्रक्लिंघित्राण, जय पास सुसामिय ॥ ६ ॥ पत्थिय- अत्थ अणत्थ-तत्थ, भत्ति-भरनिब्भर | रोमंचंचिय - चारु कार्य किन्नर - नर-सुर वर ॥ जसु सेवहि कम-कमल-जुयल, पक्खालिय- कलि-मलु । सो भुवण- त्तय सामि पास, मह मदउ रिङ-बलु ॥ ७ ॥ जय जोइय-मणकमल- भसल, भय — पंजर कुंजर | तिहुअण
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जयतिहुअण स्तोत्र । ३३ जण-आणंद-चंद, भुवण त्तय-दिणयर ॥ जय मइ-मेइणि-वारिवाह, जय-जंतु-पियामह । थंभणय-ट्ठिय पासनाह, नाहत्तण कुण मह ॥८॥ बहुविह-वन्नु अवन्नु सुन्न, वन्निउ छप्पन्निहि। मुक्ख-धम्म-कामत्थ-काम, नर निय-निय-सत्थि हि ॥ जं झायहि बहु दरिसणस्थ, बहु-नामपसिद्धउ। सो जोइय-मण-कमल-भसल, सुहु पास पवद्धउ ॥ ॥ भय-विन्भल रणझणिरदसण, थरहरिय-सरीरय। तरलिय-नयण विसन्न सुन्न, गग्गर-गिर करुणय ॥ तइ सहसत्ति सरंत हुति, नर नासिय-गुरु-दर । मह विझव सज्झसइ पास, भय-पंजर-कंजर ॥१०॥ पई पासि वियसंत-नित्त-पत्तंत-पवित्तियबाहपवाह-पवूढ-रूढ-दुह-दाह सुपुलइय ॥ मन्नइ मन्नु सउन्नु पुन्नु, अप्पाणं सुर-नर। इय तिहुअण-आणंद-चन्द, जय पास-जिणेसर ॥११॥ तुह कल्लाण-महेसु घंट-टंकारय-पिल्लिय ।
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अभय रत्नसार। वल्लिर-मल्ल महल्ल-भत्ति, सुर-वर गंजुल्लिय॥ हल्लुप्फलिय पवत्तयंति, भुवणेवि महूसव । इय तिहुण-आणंद-चंद, जय पास सुहुन्भव ॥१२॥ निम्मल-केवल-किरण-नियर-विहुरिय-तम-पहयर। दंसिय-सयल-पयस्थ-सत्थ, वित्थरियपहा-भर ॥ कलि-कलुसिय-जण-घूय लोय. लोयणह अगोयर। तिमिरइ निरु हर पासनाह भुषण-त्तय-दिणयर ॥ १३ ॥ तुह-समरण-जल. वरिस-सित्त, माणव-मइ-मेइणि। अवरावरसुहमत्थ-बोह-कंदल-दल-रेहिणि॥जायइ फलभर-भरिय हरिय-दुह-दाह अणोवम। इय मइ-मेइणि-वारिवाह, दिस पास मई मम ॥१४॥ कय-अविकल-कल्लाण-वल्लि, उल्लूरिय-दुहवणु। दाविय-सग्गपवग्ग-मग्ग, दुग्गइ-गमवारण ॥ जय-जन्तुह जणएण तुलल, जंजणिय हियाबहु । रम्मु धम्मु सो जयउ पासु, जयजन्तु-पियामहु ॥ १५ ॥ भुवणारगण-निवास
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जयतिहुण स्तोत्र |
३५.
दरिय-पर- दरिसण देवय- जोइणि-पूयरण- खित्त
वाल- खुद्दा - सुर-पसु-वय ॥ तुह- उत्तट्ट सुन सुठु, अविठुलु चिट्ठहि । इय तिहुअण-वरणसीह पास, पाचाई पणासहि ॥ १६ ॥ फणि-फणफार-फुरन्त- रयण-कर- रंजिय- नह-यल-फलिणीकंदल-दल तमाल-नीलुप्पल सामल । कमठासुर-उवसग्ग वग्ग-संसग्ग- अगंजिय । जय पच्चक्ख- जिस पास थंभणयपुर - ट्ठिय ॥ १७ ॥ मह मणु तरलु पमाण नेय, वायात्रि विसंठुलु । नेय तर रवि अविय सहावु, अलस-विहलंघलु ॥ तुह माहप्पु पमाणु देव, कारुण्ण- पवितउ । इय मइ मा अवहीर पास, पालिहि विलवंत ॥ १८ ॥ किं किं कप्पिउ नय कलुगु, किं किं व न जंपिउ । किं व न चिह्नित किट्टू देव, दी यमवलंबिउ ॥ कासु न किय निष्फल्ल ललिल, अम्हेहि दुहत्तिहि । तहवि न पत्तउ ताणु किंपि पड़ पहु परिचतिहि ॥ १६ ॥ तुहु
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३६
अभय रत्नसार । सामिउ तुहु मायबप्पु, तुह मित्त पियंकरु । तुहु गइ तुहु मइ तुहुजि ताणु, तुहु गुरु खेमंकरु ॥ हउ दुहभरभारिउ वराउ, राउ निब्भगह । लीणउ तुह कम-कमल-सरणु, जिण पालहि चंगहा ॥२०॥ पइ किवि कय नीरोय लोय, किवि पाविय सुहसय। किवि मइमंत महंत केवि, किवि साहिय-सिव-पय। किवि गंजिय-रिउ-वग्ग केवि, जस-धवलिय-भू-यल मइ अवहीरहि केण पास, सरणागय-वच्छल।२१। पच्चुवयार-निरीह नाह, निफ्फन्न पओयण । तुह जिण पास परोवयार-करणिक परायण ॥ सत्तु-मित्त-सम-चित्त-वित्ति, नय-निंदय-सममण। मा अवहीरय अजुग्गउवि, मई पास निरंजण ॥२२॥ हउ बहुविह-दुह-तत्त-गत्तु तुह दुह-नासण-परु। हउ सुयणह करुणिक-ठाण, तुहु निरु करुणाकरु ॥ हर जिण पास असामि सालु, तुहु तिहुअण-सामिय। जं अवहीरहि
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जयतिहुश्रण स्तोत्र। ३७ महं झखंत, इय पास न सोहिय ॥ २३ ॥ जुग्गाऽजुग्ग-विभाग नाह, न हु जोयहि तुहसम। भुवणुवयार-सहाव-भाव-करुणा-रससत्तम ॥ सम विसमई किं घण नियइ, भुवि दाह समंतउ। इय दुहि-बंधव पास-नाह, मइ पाल थुणंतउ ॥२४॥ नय दोणह दाणयं मुयवि, अन्नुवि किवि जुग्गय। जं जोइवि उवयार करहि, उवयार समुज्जय ॥ दीणह दीण निहीणु जेण, तइ नाहिण चत्तउ । तो जुग्गउ अहमेव पास, पालहि मइं चंगउ ॥ २५ ॥ अह अन्नुवि जुग्गय-विसेसु किवि मन्नहि दीणह । जं पासिवि उवयारु करइ, तुहु नाह समग्गह ।। सुच्चिय किल कल्लाणु जेण, जिण तुम्ह पसीयह । किं अन्निण तं चेव देव, मा मइ अवहीरह ॥ २६ ॥ तुह पत्थण न हु होइ विहलु, जिण जाणउ किं पुण । हउ दुक्खिय निरु सत्तचत्त, दुक्कहु उस्सुय-मण ॥ तं मन्नउ निमिसेण
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३८
अभय रत्नसार ।
एउ, एउ वि जइ लब्भइ। सच्चं जं भुक्खिय. वसेण, किं उंबरु पच्चइ ॥२७॥ तिहुअण-सामित्र पासनाह मइ अप्पु पयासिउ। किज्जउ जं निय-रूव-सरिसुन मुणउ बह जंपिउ ॥ अण्णण जिण जग्गि तुह समोवि, दक्खिन्न-दयासउ। जइ अवगन्नसि तुह जि अहह, कह होस हयासउ ॥ २८ ॥ जइ तुह रूविण किणवि पेय. पाइण वेलवियउ। तुविजाणउ जिण पास तुम्हि, हडं अंगीकरउ॥ इय मह इच्छिउ जं न होइ, सा तुह ओहावणु। रक्खंतह निय. कित्ति णेय, जुज्जइ अवहीरण ॥ २६ ॥ एह महारिय जत्त देव, इहु न्हवण-महूसउ। जं अणणिय-गुण-गहण तुम्ह, मुणि-जण-अणिसिद्धउ ॥ एम पसीअसु पासनाह, थंभणयपुरट्ठिय । इय मुणिवरु सिरि-अभयदेउ, विन्नवइ अणिंदिय ॥ ३०॥
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जय महायस।
३६
३६-जय महायस। जय महायस जय महायस जय महाभाग जय चिंतिय-सुह-फलय, जय समत्थ-परमत्थजाणय जय जय गुरु-गरिम गुरु। जय दुहत्तसत्ताण ताणय थंभणय-द्विय पासजिण, भवियह भीम-भवुत्थु भय अवणिं-ताणंतगुण, तुज्झ तिसंझ नमोत्थु ॥ १॥
४०–श्रुतदेवताकी स्तुति । सुवर्ण-शालिनी देयाद, द्वादशाङ्गी जिनो. द्भवा। श्रुतदेवी सदा मह्य-मशेष-श्रुत. संपदम् ॥ १॥
४१-क्षेत्र-देवताको स्तुति । यासां क्षेत्र-गताः सन्ति, साधवः श्रावकादयः। जिनाज्ञां साधयन्तस्ता रक्षन्तु क्षेत्रदेवताः ॥१॥
४२-नमोऽस्तु वर्धमानाय। इच्छामो अणुस९ि, णमो खमासमणाणं ।
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अभय रत्नसार।
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नमोऽस्तु वधमानाय, स्पर्धमानाय कर्मणा । तजयावाप्तमोक्षाय, परोक्षाय कुतीर्थिनाम् ॥१॥ येषां विकचारविन्दराज्या, ज्यायः क्रमकमला. वलिं दधत्या सदृशैरतिसङ्गतं प्रशस्य, कथितं सन्तु शिवाय ते जिनेन्द्राः कषायतापादितजन्तुनिवति, करोति यो जैनमुखाम्बुदोद्गतः। स शुक्रमासोद्भववृष्टिसन्निभो, दधातु तुष्टिं मयि विस्तरो गिराम् ॥ २॥ श्वसित-सुरभि-गन्धालीढ-भृङ्गी-कुरङ्ग मुखशशिनमजस्त्र, बिभ्रति या विभर्ति। विकच-कमलमुच्चैः साऽस्त्वचिन्त्य-प्रभावा, सकलसुख-विधात्री, प्राणभाजां श्रुताङ्गी ॥४॥ ४३–श्रीस्तम्भनपार्श्वनाथ चैत्यवन्दन।
श्रीसेढी-तटिनी-तटे-पुर-वरे, श्रीस्तम्भने खगिरी, श्रीपूज्याभयदेव-सूरि-विबुधाधीशैः समारोपितः। संसिक्तः स्तुतिभिजलैः शिवफलैः, स्फूर्जत्फणा-पल्लवः पाश्वः कल्पतरुः स मे प्रथय
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चउकसाय सूत्र। तां, नित्यं मनो-वाञ्छितम् ॥ १॥ आधिव्याधि हरो देवो, जीरावल्ली शिरोमणिः। पार्श्वनाथो जगन्नाथो, नत-नाथो नृणां श्रिये ॥२॥ ४४-सिरि-थंभणय ठिय-पास-सामिणो।
सिरि-थंभणय-ठिय पास-सामिणो सेसतित्थ-सामीणं तित्थ-समुन्नइ-कारण-सुरासुराणं च सव्वेसिं ॥१॥ एसिमहं सरणत्थं, काउस्सग्गं करेमि सत्तीए। भत्तोए गुण-सुट्टियस्स संघस्स समुन्नइ-निमित्तं ॥२॥
४५-चउ-कसाय सूत्र । चउ-कसाय-पडिमल्लल्लूरण, दुजय-मयण-बाण-मुसुमूरण। सरस-पिअंगु-वण्णु गयगामिउ, जयउ पासु भुवण-त्तय सामिउ॥१॥ जसु तणु-कंति-कडप्प-सिणिद्धउ, सोहइ फणि मणिकिरणालिद्धउ । नं नव-जलहर-तडिल्लयलंछिउ, सो जिणु पासु पयच्छउ वंछिउ ॥२॥
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४२
अभय रत्नसार ।
४६ - अर्हन्तो भगवन्त । तो भगवन्त इन्द्रमहिताः सिद्धाश्च सिद्धि-स्थिता, आचार्या जिन - शासन्नोन्नतिकराः पूज्या उपाध्यायकाः । श्री सिद्धान्त -सुपाठका मुनिवरा रत्नत्रयाराधकाः, पञ्च ते परमेष्ठिनः प्रतिदिनं कुर्वन्तु वो मङ्गलम् ॥ १ ॥ ४७ - लघु - शान्ति स्तव ।
शान्तिं शान्ति - निशान्तं शान्तंशान्ताऽशिवं नमस्कृत्य । स्तोतुः शान्ति - निमित्तं मन्त्र - पदः शान्तये स्तौमि ॥ १ ॥ ओमिति निश्चत वचसे, नमो नमो भगवतेऽर्हते पूजाम् । शान्ति-जिनाय जयवते, यशस्विने स्वामिने दमिनाम् ॥ २ ॥ सकलातिशेषक-महा-सम्पत्ति - समन्विताय शस्याय । त्रैलोक्य पूजिताय च नमो नमः शान्ति देवाय ॥३॥ सर्वामर - सुसमूह - स्वामिकसंपूजिताय निजिताय । भुवन-जन- पालनो द्यत - तमाय सततं नमस्तस्मै ॥ ४ ॥ सर्व
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लघु-शान्ति स्तव। ४३ दुरितौघ-नाशन-कराय सर्वा-ऽशिव-प्रशम नाय । दुष्ट ग्रह भूत पिशाच-शाकिनीनां प्रम थनाय ॥५॥ यस्येति नाम मन्त्र-प्रधान वाक्योपयोग-कृत-तोषा। विजया कुरुते जनहित-मिति च नुता नमत तं शान्तिम् ॥६॥ भवतु नमस्ते भगवति !, विजये! सुजये ! परापरैरजिते!। अपराजिते ! जगत्यां जयतीति जयावहे भवति ! ॥७॥ सर्वस्यापि च संघस्य, भद्र-कल्याण-मंगल-प्रददे। साधूनां च सदा शिव-सुतुष्टि-पुष्टि-प्रदे-जीयाः ॥८॥ भव्यानां कृत-सिद्धे !, निर्वति-निर्वाण-जननि! सत्त्वा नाम् । अभय-प्रदान-निरते !, नमोऽस्तु-स्वस्तिप्रदे ! तुभ्यम् ॥ ६ ॥ भक्तानां जन्तूनां, शुभावहे नित्यमुद्यते ! देवि !। सम्यग्दृष्टीनां धृति-रति. मति-बुद्धि-प्रदानाय ॥१०॥ जिन-शासन-निर तानां, शांति-नतानां च जगति जनतानाम् । श्रीसम्पत्-कीर्ति-यशो-वर्द्धनि ! जय देवि !
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४४
अभय रत्नसार । विजयस्व ॥ ११ ॥ सलिलानल-विश्-विषधर, दुष्ट-ग्रह-राज-रोग-रण-भयतः राक्षस-रिपु-गणमारि-चौरेति-श्वापदादिभ्यः ॥१२॥ अथ रक्ष रक्ष सुशिवं, कुरु कुरु शांति च कुरु कुरु सदेति। तुष्टिं कुरु कुरु पुष्टि, कुरु कुरु स्वस्ति च कुरु कुरु त्वम् ॥ १३॥ भगवति ! गुणवति ! शिवशान्ति–तुष्टि-पुष्टि-स्वस्तीह कुरु कुरु जनानाम् । ओमिति नमो नमो हाँ ह्रीं ह्रहः यः नः हौं फुट फुट् स्वाहा ॥ १४ ॥ एवं यन्नामाक्षर-पुर स्सरं संस्तु ता जया देवी। कुरुते शान्तिं नमतां, नमो नमः शान्तये तस्मै ॥ १५ ॥ इति पूर्वसूरि-दर्शित-मन्त्र-पद-विदर्भितः स्तवः शान्तः। सलिलादि-भय-विनाशी, शान्त्यादि करश्च भक्तिमताम् ॥ १६ ॥ यश्च नं पठति सदा, शृणोति भावयति वा यथायोगम् । स हि शान्ति-पदं यायात्, सूरिः श्रीमानदेवश्च ॥१७॥ उपसर्गाः क्षयं यान्ति, छिद्यन्ते विघ्नवल्लयः।
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लघु-शान्ति स्तव। ४५ मनः प्रसन्नतामेति, पज्यमाने जिनेश्वरे ॥१८॥ सर्व-मङ्गल-माङ्गल्यं, सर्व-कल्याण-कारणम् । प्रधानं सर्व-धर्माणां, जैनंजयति शासनम्॥१६॥
४८-भुवनदेवताकी स्तुति । चतुर्वर्णाय संघाय, देवी भुवन-वासिनी। निहत्य दुरितान्येषा, करोतु सुखमक्षयम् ॥१॥
४६-वर-कनक सूत्र । ओवर-कणय-संख-विददुम-~मरगय-घणसंनिहं विगय-मोहं । सत्तरि-सयं जिणाणं, सव्वामर- पूइयं वन्दे ॥१॥ स्वाहा ॥ ओं भवरणवइवाणमंतर-जोइस-वासी विमाण-वासी य । जे केवि दु-देवा, ते सव्वे उवसमंतु मे ॥२॥ स्वाहा ॥
॥ वृहद-अतिचार ॥ ॥ नाणम्मि दंसम्मि य, चरणम्मि तवे य तह य विरियम्मि। आयरणं आयारो, इस एसो पंचहा भणिो ॥ १॥ ज्ञानाचार १,
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४६ अभय रत्नसार । दर्शनाचार २, चारित्राचार ३, तपाचार ४, वीर्याचार ५, एवं पांचविधि आचारमांहि जिको अतिचार पक्ष-दिवसमांहि. सूक्ष्म बादर, जाणतां अणजाणतां, हुओ होय, ते सहू मन, वचन, कायाई करी मिच्छामि दुक्कडं ॥
॥अथ ज्ञानाचारना आठ अतिचार,काले विणए बहु-माणे, उवहाणे तह य निन्हवणे । वंजण-अत्थ-तदुभए. अटविहो नाणमायारो ॥१॥ ज्ञान काल-वेलामांहि पढ़िउं गुणिउं नहीं, अकाले पदिउं, विनय-हीन बह-मान हीन उपधान-हीन श्रीउपाध्याय कने नही पदिउं, अथवा अनेरा कने पढिउं, अनेरो गुरु कह्यो। व्यंजन, अर्थ, तदुभय कूडो पढ्यो । देव-वांदणे, पडिकमणे, सिज्झाय करतां, पढतां गुणतां कूडो अक्षर काने-मात्रे-अधिको-ओछो आगल-पाछल भण्यो। सूत्र-अर्थ कूडा भण्या, भणीने विसारयो। तपोधन तणे धर्मे काजो अणऊधरे,
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वृहद अतिचार। दांडी अणपडिलेही, वसतो अणसोधी; असिज्झाई अणोझा-काल-वेलामांहि दशवैकालिकप्रमुख सिद्धान्त भण्यो गुण्यो। योग कह्यांपखे भण्यो। ज्ञानोपगरण पाटी, पोथी, ठवणी, कवली, नवकरवाली, सांपडा, सांपडी, वही, दस्तरी, ओलीया, कागल-प्रमुख प्रतें आशातना हुई, पग लागो, थूक लागो, ओसीसे मूक्यो, कने छतां आहार-नोहार कीधो, ज्ञानद्रव्य भक्षण-उपेक्षण कीधो, प्रज्ञापराधे विणाश्यो, विणसतो उवेख्यो, छती शक्ते सारसंभाल न कोधी। ज्ञानवंत प्रतें मच्छर वह्यो, अवज्ञा-आशातना कीधी, कोई प्रतें भणतां गुणतां प्रद्वष-मत्सर अंतराय-अपघात कीधो। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः-पर्यवज्ञान, केवलज्ञान, ए पांच ज्ञान तणी असदहणा कीधी । कोई तोतलो बोबडो हस्यो, वितक्यों । आपणा जाणपणा तणो गवे चिंतव्यो। अष्ट
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४८
अभय रत्नसार ।
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विधि ज्ञानाचार विषइओ जिको अतिचार पक्षदिवसमांहे सूक्ष्म बादर, जाणतां अजाणतां, हुवो होय, ते सहु मन, वचन, कायाई करी मि• ॥ दर्शनाचारना आठ अतिचार, – निस्संकिय निक्कंखित्र, निव्वितिमिच्छा अमूढ-दिट्ठी अ । उव-बूह थिरीकरणे, वच्छल्ल पभाव ॥१॥ देव-गुरु-धर्म-तणे विषे निःशंकपणो न कोधो, तथा एकांत निश्चय धरयो नहीं । 'सघलाइ मत भला छे' एहवी श्रद्धा कीधी । धर्मसंबंधिया फलतणे विषे निःसन्देह बुद्धि धरी नही । चारित्रिया साधु-साधवी तणां मल-मलिन गात्र देखो दुगंछा उपजावी । मिथ्यात्वीतणी पूजाप्रभावना देखी मूढदृष्टिपणो कीधो । संघमांहे गुणवंततणो अनुपवहणा, अस्थिरीकरण, अवात्सल्य, प्रीति अभक्ति चिंतवी, संघ मांहे थिरिकरण वात्सल्य, शक्ति छते प्रभावना न कीधी । देवद्रव्य विनासिउं, विणसंतु उवेखिउं,
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बृहद्-अतिचार । ४६ छती शक्ते सार-संभाल न कोधी । साधर्मिकश कलह-कर्म कीधु। जिन-भवन-तणी चोरासी आशातनो कोधो। गुरु प्रतें तेत्रीस आशातना कीधी। अधौत वस्त्रं देव पूजा कीधी। तिहुँ ठाम पाखें देव-पूजा-वास-कूपी-कलशतणो ठबको लागो । मुख-तणी बाफ लागी । ठवणारिय हाथ थको पडिओ, पडिलेहवो वीसारयो। नवकरवालोने पग लागो । दर्शनाचार विषइओ जिको अतिचार० ॥३॥
चारित्राचारना आठ अतिचार;
पणि-हाण-जोग-जुत्तो,पंचहिं समिई हिं तिहिं गुत्तीहिं। एस चरित्तायारो,अविहो होइ नायव्यो ॥१॥इरिया-समिति १,भासा-समिति २,एषणासमिति ३, आयाण-भंडमत्त-निक्खेवणा-समिति ४, उच्चार-पास-वणखेल-जल्ल-संघाण-पारिठाचणियासमिती ५, मनो-गुप्ति १, वचन-गुप्ति २, काय-गुप्ति ३, ए पंच समिती तीन गुप्ति,
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५०
अभय रत्नसार ।
रूडी परें पाली नहीं । साधुतों धर्मे सदैव श्रावकतणे पोसह-पडिकमणे लीधे अष्टविध चारित्राचार - विषई जिको अतिचार० ॥
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विशेषतः श्रावकतणें धर्मे श्री सम्यक्त्व-मूल बारह व्रत | श्री सम्यक्त्व-तणा पांच प्रति चार; - संका कंख विगिच्छा, पसंस तह संथवो कुलिंगोसु । संका; - श्री अरिहंत तणां बल, अतिशय ज्ञान, लक्ष्मी, गांभीर्यादिक गुण, शाश्वती प्रतिमा, चारित्रियानां चारित्र, जिनवचन - तो संदेह कोधो । आकांक्षा; - ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर, क्षेत्रपाल, गोगो, गोत्रदेवता । ग्रह - पूजा विणाइग, हनुमंत इत्येवमादिक ग्राम, गोत्र, देश, नगर, जूजू देव देहराना प्रभाव देखी रोगें, आतंक इहलोक - परलोकार्थे पूज्या, मान्या । बोद्ध, सांख्यादिक संन्यासी, भरडा, लिंगिया, योगी, दरवेश अनेराई दर्श नियानो कष्ट, मंत्र चमत्कार देखी परमार्थ
भगत,
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वृहद-अतिचार। ५१ जाण्या विण भूल्या, अनुमोद्या, कुशास्त्र सिल्पों सांभल्यां। शराध, संवत्सरी, होली, बलेव, माही पनिम, अजा पडिव, प्रेतबीज, गोरत्रीज, विणायग-चोथ, नाग-पांचम, झुलणा-छठा, शील-सातम-ध्रो-आठम, नउली-नवम अहवदसम, व्रत-इग्यारस, वत्स-बारस, धन-तेरस, अनंत-चौदश, आदित्य-वार, उत्तरायण, नवोदक, जाग-भोग-उतारणा-कीधा। पिंपले पाणी घाल्यां, घलाव्यां। घर, बाहिर, कूई, तालाव, नदी, समुद्र, कुंडमें पुण्य हेतु स्नान कीधां, दान दीधां। ग्रहण, शनिश्चर. माहमास, नवरात्रि नाहिया, अजाणतां थाप्यां। अनेराई व्रत व्रतोला कीधां, कराव्यां। विचि किच्छा;-धर्म संबंधिया फल तणो संदेह कीधो। जिण, अरिहंत, धर्मना आगर, विश्वो पकार-सागर-मोक्ष-मार्ग दातार, देवाधिदेवबुद्ध शुद्ध भावें न पूज्या, न मान्या। महा
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५२
अभय रत्नसार ।
त्माना भात पाणी-तणी दुगंछा कीधी । कुचा रित्रिया देखी चारित्रिया उपरें अभाव हुआ | मिथ्यात्वी - तणी प्रभावना देखी प्रशंसा कीधी । प्रीति मांडी, दाक्षिण्य लगें तेनो धर्म मान्यो । श्री समकित विषे अनेरो जिको अतिचार पक्षदिवस मांहि सूक्ष्म- बादर, जाणतां अजाणतां, हुआ होय, ते सहू मन, वचन, कायाई करी मिच्छामि० ।
पहिले प्राणातिपात विरमण व्रतें पांच प्रति चार | वह बंध. छ विच्छेए, अइभारे भत्त-पाणबुच्छेए ॥ द्विपद- चउपद प्रतें रीश वशें गाढो घाउ प्रहार घाल्यो, गाढ बंधने बांध्यां, घणे भारे पीड्या, निलञ्छन कर्म कीधां, चारा-पाणीतणी वेला सार-संभार न कीधी । लहिणे-देणे किणही प्रतें लंघाव्यं, तेणें भूखे आपण जिम्या । अणगल पाणी वावर रूडे गलणे गल्यु नही । अणगल पाणी झील्यां, लूगडां धोयां ।
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वृहद-अतिचार । इंधण अणसोध्यु जाल्यु। ते माँहि साप, कानखजूरा, सुलहला, मांकड, जूआ, गोगिंडा, साहतां मूआ, दूखव्यां, रूडे थानक न मूक्या। कीडी, मकोडी, उदेही, घीवेली, कातरा चडेली, पतंगियां, देडकां, अलसिया, ईली, कूति, डांस, मसा, बगतरा, माखी प्रमुख जे कोई जीव विणठा, चापिया, दूहव्या। माला हलावतां पंखी, काग, चिडकलानां इंडा फूटां। अनेरा एकेंद्रियादिक जिके जीव विणठा, चाप्या, दूहव्या। हालता चालतां अनेरुं कांइ काम काज करतां, विध्वंसपणु कीधु, जीव-रक्षा रूडे न कीधी। संखारो सूकव्यो। सल्या धान तावडे दीधां, दलाव्यां, भरडाव्यां। खाटला तावडे झाटक्या, मूक्या, मूकाव्या। जीवाकुल भूमि लीपावी। वाशी गार राखी, रखावी। दलणे, खांडणे, लीपणे रूडी जयणा न कीधी। आठम चउदशना नियम भांग्या। धूणी करावी।
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५४
अभय रत्नसार ।
पहला प्राणातिपात व्रत - विषइओ अनेरो० ॥ १ ॥
बीजे स्थल - मृषावाद - विरमण व्रतें पांच अतिचार | सहसा - रहस्स-दारे, मोसुवएसे य कूड लेहे य ॥ सहसात्कार; - किuहिक प्र प्रयुक्तो आल दीधो, किणहिक प्रतें एकांते वात करतां देखी 'तुम्हें तो राज- विरुद्ध चिंत वोछो' इत्यादिक कयुं । स्वदार-मंत्र-भेद की । अनेराई किणहीनो मंत्र आलोचमर्म प्रकाश्यो । किणहीनें कूडी बुद्धि दीधी । कूडो लेख लिख्यो । कूडी साख भरी । थापण - मोसो कीधो । कन्या - ढोर- गाय-भूमि -संबंधिया लेहणें देह व्यवसाय - वाद - वढावढ करतां मोटकु झूठ बोल्युं । हाथ-पग -भणी गाल दीधी । करडका मोड्या | अधम्मं वचन बोल्यां । बीजे मृषावाद व्रत- विषइओ० ॥२॥
त्रीजे अदत्तादान - विरमण व्रतना पांच अतिचार । तेनाहडप्पओगे । घर, बाहिर, क्षेत्र,
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vvvvvrrrrrrovvvvvv
वृहद्-अतिचार। खले पराई वस्तु अणमोकलावी लीधी, दीधी, वावरी। चोरीनी वस्तु मोल लोधी। चोर, धाडी प्रतें संबल दीधं, संकेत का। विरुद्ध राज्यातिक्रम कीधो । नवा पुराणा, सरस विरस सजीव निर्जीव वस्तु तणा भेल संभेल कोधा। खोटे तोले मान माप वहोरयां। दाण-चोरी कीधी । लाटे लांच लीधी। माता, पिता, पुत्र, कलत्र, परिवार वंची जूदी गांठ कीधी। किण हीने लेखे पलेखे भूलव्यु। पडी वस्तु ओलवी लीधी। प्रोजे अदत्तादान-व्रत विषइओ०॥३॥ ___चोथे स्वदार-संतोष मैथुन व्रतें पांच अतिचार ॥ अपरिग्गहिया इत्तर, अणंग-वीवाहतिव्व-अणुरागे॥ अपरिगृहीतागमन, इत्वरपरिगृहिता-गमन, विधवा, वेश्या, स्त्री, कुलाङ्गना, स्वदार शोक तणे विष दृष्टिविपर्यास कीधो, सराग वचन बोल्यां, आठम चउदश अनेराई पव्वे तिथि तणा नियम भांग्या। घरघरणां
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५६
अभय रत्नसार ।
कीधां, कराव्यां, अनुमोदीयां । कुविकल्प चिंतव्या । अनंग क्रीडा कीधी । पराया विवाह जोड्या । काम भोग तणे विषे तीत्राभिलाष कीधो । कुस्वप्न लाधां । नट विट पुरुषशु हांसुं कीभुं । चौथे मैथुन-व्रत वि० ॥ ४ ॥
पांच मे परिग्रह - परिमाण व्रतें पांच अतिचार | धरण धन्न खित्त वत्थू । धन, धान्य, क्षेत्र, वस्तु, रूप्य, सुवर्ण, कुप्य, द्विपद, चतुष्पद ए नवविध परिग्रह तथा नियम उपरांत वृद्धि देखी मूर्च्छा लगे संक्षेप न कीधो । माता, पिता, पुत्र, कलत्रादि तणे लेखें कीधो । परिग्रह परिमाण लेई पढ्यो नही, पढ़ी विसारियो । नियम विसारियो । पांचमे परिग्रह परिमाण व्रत विषइओ० ॥ ५ ॥
1
छट्टो दिग्-विरमण तें पांच अतिचार ॥ गमणस्स य परिमाणे ॥ ऊर्ध्वदिसि, अधोदिसि, तिर्यगदिसि जायवा आयवा तणो नियम जे
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वृहद अतिचार |
५७
कोई जाणे भांगो। एक गमा संकोडो बिजो गमा वधारी । विस्मृत लगे अधिक भूमि गया | पाठवणी आधी मोकलो ॥ घट्ट दिग्वते वि० ॥ ६ ॥
सात में भोगोपभोग - परिमाण त्रत ॥ जेहना भोजन श्री पांच प्रतिचार अने करमहू ती पन्नरे, एवं वोश अतिचार ॥ सच्चित्ते पडिबद्धे, अपोल दुप्पोलयं च आहारे । सच्चित तणे नियम लोधे अधिक सच्चित्त लीधुं, तथा सच्चित मली वस्तु, अपक्वाहार, दुष्पकवाहार, तुच्छोषधि तणु भक्षण कीधुं । होला, उंबी- पहुँक, । काकडी, भडथां कीधां । सुल्यां धान प्रमुख भक्षण कीधां । सच्चित्तदव्त्र - विगई – पायह तंबोल - वत्थ- कुसुमेसु । वाहण-सयण- विलेवरबंभ - दिसि रहाण-भत्तेसु ॥ १॥ ए चवदे नियम दिन प्रते संभारचा संक्षप्या नहिं, लेई नियम भांग्या | बावीस अभक्ष, बत्तीस अनंतकाय
८
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५८
अभय रत्नसार। मांहि दु, मूला, गाजर, पीडाल, सूरण, सेलरां, काची आंबली, गोल्हां खाधां । चोमासा-प्रमुख-मांहे वासी कठोलनी रोटी खाधी। त्रिहुं दिवस- दही लीधुं । मधू, महुडां, माखण, माटी, वेंगण, पीलू, पीच, पपोटा, पींपो, विष, हिम, करहा, घोलवडां, अणजाण्यां फल, टींबरुं, अथाj, आमणबोर, काचुमीटु, तिल, खसखस, काचां कोठिंबडां खाधां । रात्रि-भोजन कोधु। लगभगतो वेलाये व्यालू कीधु। दिवस उग्या विण शिराव्या। तथा पन्नरे कर्मादान-इंगालि-कम्मे, वण-कम्मे, साडी-कम्मे, भाडी-कम्मे, फोडी-कम्मे, दंतवाणिज्ये, लाक्षा-वाणिज्ये, रस-वाणिज्ये, केशवाणिज्ये, विष-वाणिज्ये, जंतपीलण-कम्मे, नीलं छण-कम्मे, दवग्गि-दावणया, सरदह-तलावसोसणया, असई-पोसणया, ए-पांचकर्म, पांच वाणिज्य, पांच सामान्य, महारंभ लीहाला
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वृहद्-अतिचार। ५४ कराव्या। इंटवाह, नीवाह पचाव्या। धाणी, चणा, पक्वान्न करी वेच्या। वासी माखण तपाव्यां । अंगीठा कीधा, कराव्या । तिलादिक संचीया, फागुण मास उपरान्त राख्या। कूकडा, सूडा प्रमुख पोष्या, अनेरुं जे काई बहु सावद्य कठोर कर्मादिक समाचरयुं ॥ सातमा भोगोपभोग-व्रत-विषइओ० ॥७॥ ___ आठमा अनर्थ-दंड-विरमण-व्रतना पांच अतिचार ॥ कंदप्पे कुक्कु इए ॥ कंदर्प लगे विटनी परे हास्य, कुतूहल, मुखादि-अंग-कुचेष्टा कीधी। मूरखपणा लगे कुणहीने असंबद्ध वाक्य बोल्या । खांडा, कटारी, कुसी, कुहाडा, रथ, ऊखल, मूसल, अगन, घरटी आदिक सज करी मेल्या, माग्यां आप्यां, कणक वस्तु ढोर लेवराव्यां, अनेरो काइ पापोपदेश दोधो। अंघोल, नाण, दांतण, पग-धोअण पाणी तेल अधिक आण्यां हीडोले हींच्या। राज-कथा
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६०
अभय रत्नसार ।
देश- कथा भक्त - कथा स्त्री - कथा पराई वात कधी । आर्त्त रौद्र ध्यान ध्यायां । कर्कश वचन बोल्या । करडका मोड्या । संभेडा लाया । भेसा, सांड, कूकडा, मिंढा, श्वानादि भूतां कलह करतां जोयां । खाधी लगे अदेखाई चिंतवी । माटी, मीठु, करण, कपासिया काज विणचांप्या तेह ऊपर बयठा । आाली वनस्पति खुदी । छास पाणी घीरस तेल गुल आम्ल वेतस बेरजादिक तणां भाजन उघाडां मूक्यां, ते मांहि कीडी, कंथुआ, मांखी, उंदर, गिरोली प्रमुख जीव विणठा । सूडा प्रमुख जीव क्रीडा
ते बांधी राख्या । घणी निद्रा कीधी । रागद्वेष लगे एकने ऋद्धि-परिवार वांछी, एकने मृत्यु- हाणि विमासी । आठमा अनर्थ-दंड
व्रत वि० ॥
नवमा सामायिक व्रतें पांच अतिचार ॥ तिविहे दुप्पणिहाणे । सामायिक लोधे मन
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वृहद-अतिचार। ६१ आहट दोहट चिंतव्यु। वचन सावध बोल्यु। काय अणपडिलेह्य। हलाव्यु। छती वेलाई सामायिक न लीधु। सामायिक लई उघाडे मुखे बोल्या, उंघ आवी कीधी। वीज दीवा तणी उजाही लागी। कण, कपासीया, माटी, मीठं, नील-फूल, हरि-कायना संघट्ट हुआ। पुरुष तिर्यंचना संघट्ट हुआ। तथा स्त्री तियंची आभडी। मुहपत्तीयों संघट्टी। सामायिक अण्ण पूरिउं पारिउं, पारउं विसारिउं। नवमे सामा यिक-व्रत-विषइओ० ॥६॥
दशमे देशावकाशिक व्रते पांच अतिचार;आणवणे पेसवणे० ॥ आणवणप्पओगे पेसवणप्पोगे सदाणुवाइ रूवाणवाइ बहिया पुग्गल-परखेवे ॥ नियमित भूमिकामांहि बाहिर थकी कांई अणाव्यु। आप कन्हाथी बाहिर मोकल्यु। साद करी, रूप देखाडी, कांकरी नाखी आपणपणु छतुं जणाव्यु॥ दशमे
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६२ अभय रत्नसार । देशावकाशिक-व्रत-विषइओ. ॥१०॥ ___इग्यारमे पोषधोपवास व्रते पांच अतिचार;संथारुच्चार-विही पमाय तह चेव भोअण्णाभोए । पोसह लीधे संथारा तणी भूमि बाहिरला थंडिला दिवसें शोध्यां पडिलेह्यां नहीं। मातरं अणपडिलेडं वावरिउं, अणपुंजी भूमिकाइ परठविउं, परठवतां चिंतवण न कीधो, 'अणुजा णह जस्सुग्गहो' न कह्यो, परठव्या पूठे वार त्रण वोसिरामि वोसिरामि न का । पोसह सालामांहि पइसतां नीसरतां निस्सिही आव स्सही कहेवी विसारो। पृथ्वीकाय, अप्काय, तेऊकाय,वाउकाय, वनस्पतिकाय,सकाय,तणा संघट्ट परिताप उपद्रव हुआ। संथारा पोरसि तणो विधि भणवो वोसारिओ। पोरसीमांहि उध्या। अविधि संथारं पाथरयु। काल वेलाये पडिकमण न कीधु। पारणादिक तणी चिन्ता निपजावी। कालवेला देव वांदवा वीसारिया।
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वृहद्-अतिचार। ६३ पोसह असूरो लीयो, सवारो पारीयो। पर्व तिथि आवी पोसह लीधो नही ॥ इग्यारमे पोषधोपवास व्रत-विषइओ०॥ ११ ॥
बारमे अतिथि-संविभाग-व्रते पांच अति चारः-सचित्ते निक्खिवणे ॥ सच्चित्त वस्तु हेठे उपरि थके महात्मा प्रतें असूझतु दान दीधु। अदेवा तणी बुद्धे सझतु फेडी असूझतु की । देवा तणी बुद्धे असूझतु फेडी सूझतु की।
आपणु फेडी परायु कोधु। विहरवा वेला टली गया। पछे असुर करी महातमा तेड्या। मच्छरलगे दान दीधु। गुणवंत आवे भगति न साचवी । छती शक्ति साधर्मिक-वात्सल्य न कीधु । अनेराई धर्मक्षेत्र सीदाता छती शक्त उद्धरया नहीं ॥ बारमें अतिथि-संविभाग-व्रतविषइयो० ॥ १२॥
संलेहणा तणा पांच अतिचार। इहलोए परलोए ॥ इहलोगासंसप्पओगे परलोगासंसप्प
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६४
अभय रत्नसार ।
ओगे जीविद्यासंसओगे, मरणासंसप्पओगे, कामभोगासंयोगे । इहलोक - मनुष्य भवे मान, महत्व, लोक तशी सेवा, ठकुराई, बलदेववासुदेव चक्रवत्ति-पद वांछयां । परलोके इंद्रअहमिंद्र देवाधिदेव पदवी वांछी । सुख आव्ये जीववा तणी वांछा कीधो । दुःख आव्ये मरवा तणी वांछा कीधी । काम भोग-तणी इच्छा कधी ॥ संलेहणा - व्रत - वि० ॥
तपाचार बारभेदें ॥ छ अभ्यन्तर, छ बाहिर । अणसमूणोयरिया० । असण कहीये उपवास, ते पर्व्वतिथि छतो शक्त कीधुं नही । ऊणोदरी ते पांच सात कवल ऊरणा रह्या नही । द्रव्य-संक्षेप विगय प्रमुख परिमाण की नही । आसनादिक काय. किलेशन कीधो । संलीगता - अंगोपांग संकोच्या नहीं | नवकारसी, पोरसी, गंठसो, मूठसी, साड्ढपोरसि, पुरिमड्ढ, एकासगो, बेआसणो, नीवी, आंबिल
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वृहद-अतिचार। ६५ प्रमुख पञ्चक्खाण पारवां वीसारयां, बेसतां नवकार भएयो नहो, ऊठतां दिवस-चरिमंन कीध नीवी, आंबिल, उपवासादिक तप करी काचु पाणी पीधु, वमन थयु॥ बाह्य-तप-त्रत-विषइओ०॥ ___ अभ्यंतर तप पायच्छित्तं विणो । गुरुकने मन सुद्धे आलोयणा लीधी नहीं। गुरु-दत्त प्रायच्छित्त तप लेखा शुद्ध पहुचाड्य नहीं। देव-गुरु-संघ-साहम्मी प्रते विनय साचव्यो नहीं। वाचना, प्रच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा, धर्मकथा लक्षण पंच विधि सिज्झाय कीधी नहीं। धर्मध्यान शुक्लध्यान ध्यायु नही । कर्मक्षय निमित्त लोगस्स दस वीसनो काउ. स्सग्ग न कीधो ॥ अभ्यन्तर तप विषइओ॥
वीर्याचारना तोन अतिचार ॥ अणिगू. हियबलविरिओ, परिकमइ जो जहुत्तठाणोसु ॥ जुजइ अ जहाथाम, नायब्वो वीरियायारो॥१॥
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६६
अभय रत्नसार ।
पढवे, गुणवे, विनय, वेयावच्च, देवपूजा, सामा यिक, दान, शील, तप, भावना प्रमुख धर्म कृत्य तणो विषे मन, वचन, काय तणुं छतु बल वीर्य गोपव्यु । रूडा पञ्चाङ्ग खमासमण न दीघां । वेठां पडिकमणुं कीधुं ॥ वीर्याचारव्रत-विषइओ० ॥ नागाइ इ वय, सम संलेहण पण पनर कम्मे । बारस तव विरि तिगं, चउ वीसं सय अईयारा ॥१॥ पडिसिद्धाणं करणे ॥ जिन - प्रतिषिद्ध बावीस अभक्ष्य, बत्तीस अनं तकाय, बहु-बीजभक्षण, महाआरंभ, महापरि ग्रहादिक कीधां । नित्यकृत्य, देवपूजा, सामा यिकादिक तथा तीर्थयात्रादिक न कोधां । जीवाजीवादि विचार सदहिया नहीं, आपणी कुमति लगें उत्सूत्र - प्ररूपणा कीधी । प्राणा तिपात १, मृषावाद २, अदत्तादान ३, मैथुन ४, परिग्रह ५, क्रोध ६, मान ७, माया ८, लोभ
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कमलदल - स्तुति ।
६, राग १० द्वेष ११, कलह १२, अभ्याख्यान १३, परपरिवाद १४, पैशून्य १५, अरतिरति १६, मायामृषावाद १७, मिथ्यात्वशल्य १८, ए अढारह पापस्थानकमाँहि जे कोइ कोधो करा व्यो अनुमोद्यो एवंप्रकारे श्रावक - धर्मे श्रीस म्यक्त्व मूल बारह व्रत चोवीसा सो अतिचार मांहि जिको कोई अतिचार पक्षदिवसमांहि सूक्ष्म बादर जाणतां अजाणतां हुवो होय सहू मन वचन कायायें करी मिच्छा मि दुक्कडं ॥
६७
५१ - कमलदल - स्तुति । कमल-दल- विपुल - नयना, कमल-मुखी कम ल-गर्भ सम गौरी | कमले स्थिता भगवती ददातु श्रुत-देवता सौख्यम् ॥१॥
५२ - भुवन देवता-स्तुति । भुवणदेवयार करेमि काउस्सगं | अन्नत्थ ज्ञानादिगुणयुतानां, स्वाध्यायध्यानसंयमरतानाम् ।
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अभय रत्नसार। विदधातु भुवनदेवी, शिवं सदा सर्वसाधूनाम् ।।
५३-क्षेत्रदेवता-स्तुति । खित्तदेवयाए करेमि काउस्सग्गं। अन्नत्थ । यस्याः क्षेत्रं समाश्रित्य, साधुभिः साध्यते किया। सा क्षेत्रदेवता नित्यं,भूयान्नः सुखदायिनी ॥१॥
५४-पच्चक्खाण-सूत्र । * नमुक्कारसहिअ-पञ्चखाण ।
(१) उग्गए सूरे नमुक्कार-सहिअं मुट्ठि-सहिअं पञ्चक्खाइ चउविहं पि आहारं-असणं, पाणं, खाइमं, साइमं; अण्णत्थणाभोगेणं सहसागारेणं महत्तरागारेणं सव- समाहि-वत्तिआगारेणं; विगईओ पञ्चक्खाइ अण्णस्थणाभोगेणं सह सागारेणं लेवालेवेणं गिहत्थसंसिटुणं उक्खित्त विवेगेणं पडुच्च मविखएणं पारिट्रावणियागारेणं महत्तरागारेणं; देसावगासियं भोग-परिभोगं पच्चक्खाइ अण्णत्थणाभोगेणं सहसागारेणं
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महत्तरागारें बोसिरइ ||
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६६
सव्व समाहि वत्तिच्चागारेणं
पञ्च्चक्खाण- सूत्र |
( २ ) उग्गए सरे नमुक्कारसहियं पच्चखाइ चउ व्विपि प्रहारं असणं, पाणं, खाइमं साइमं त्था भोगेणं सहसागारेण वोसिरइ ॥१॥
२ - पोरसी - साड्ढपोरिसी-पचक्खाण ।
पोरिसिं साडूढपोरिसिं मुट्ठिसहि पच्चक्खाइ । उग्गए सूरे चउव्विपि आहारंअसणं, पाणं, खाइमं साइमं; अण्णत्थणाभो गेणं - सहसागारे पच्छरण-कालेणं दिसामो हेणं साहु-वयणं सव्व- समाहि वत्तियागारे i; विगई पचखाइ इत्यादि ।
३ पुरिमड्ढ - अवद-पचक्खाण |
सूरे उग्गए, पुरिमड्ढ़ अवढं, मुट्ठिसहि पंच्चत्रखाइ; चउव्विपि आहारं असणं, पाणं, खाइमं साइमं, अण्णत्थणाभोगेणं, सहसा -
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अभय रत्नसार । गारेणं, पच्छण्णकालेणं दिसा-मोहेणं साहुवयणेणं; महत्तरागारेणं सव्व-समाहि-वत्तियागारेणं; विगईओ पच्च।
४- एकासण-बिपासण-पचक्खाण । पोरिसिं साड्ढपोरिप्तिं वा पच्चक्खाइ, उग्गए सूरे, चउविहंपि आहारं-असणं, पाणं, खाइम, साइमं; अण्णत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, पच्छण्णकालेणं, दिसा-मोहेणं साहु-वयणेणं, सव्व-समाहिवत्तियागारेणं; एकासणं बिआसणं वा पञ्चक्खाइ, दुविहं तिविहंपि आहारं असणं, खाइमं, साइमं, अण्ण• सह. सागारिआगारेणं, आउंटण-पसारेणं, गुरुअब्भुटाणेणं, पारि० मह० सव्व० देसावगासिय० इत्यादि ॥ ४॥
५-एगल ठाण-पचक्खाण । पोरिसिं साड्ढपोरिसिं वा पच्चक्खाइ. उग्गए सूरे, चउबिपि आहारं-असणं,
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पञ्चक्खाण-सूत्र। पाणं, खाइम, साइमं अरण० सह० पच्छण्ण दिसा० साहु० सव्व० एकासणं एगट्टाणं पच्चक्खा इ, दुविहं, तिविहं, चउविहंपि आहारं असणं, खाइम, साइमं, अण्ण• सह० सागा० गुरु० पारि० मह० सव्व० देसाव० इत्यादि पूर्ववत् ।५।
-आयंबिल -पञ्चक्खाण । पारिसिं साड्ढपोरिसिं वा पञ्चक्खाइ, उग्गए सूरे, चउविहंपि आहारं-असणं, पाणं, खाइमं, साइमं, अण्णत्थ० सह० पच्छ• दिसा. साहु. सव्व० आयंबिलं पञ्चक्खाइ, अण्णत्थ. सह० लेवालेवेणं, गिहत्थ-संसिरणं, उक्खित्त-विवेगेणं, पारिट्टा० मह०, सव्व. एकासणं पञ्चक्खाइ, तिविहंपि आहारं असणं, खाइम, साइमं; अण्ण. सह. सागा० आउंटण गुरु० पारि• मह० सव्व० वोसिरइ ॥६॥
७-निविगइय-पचक्खाण । पोरिसं साडूढ-पोरिसिं बा पच्चरखाइ,
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७२
अभय रत्नसार ।
उग्गए सूरे, चउव्विपि आहारं असणं, पाणं, खाइमं, साइमं, अण्णत्थ० सह० पच्छ० दिसा० साहु • सव्व० निव्विगइयं पञ्चकखाइ, अण्णत्थ० सह० लेवा • गिहत्थ• उक्खित्त० पडुच्च० पारिडा० मह० सव्व० एकासणं पच्चक्खाइ, तिविहं पि आहार - असणं, खाइमं, साइमं, अण्णत्थ० सह० सागा० आउंटण० गुरु० पारिट्ठा० मह० सव्व देसाव० इत्यादि पूर्ववत् ॥ ७ ॥
८ --- चउनिहाहार- उपवास-पचक्खाण ।
सूरे उग्गए, अब्भत्तङ्कं पच्चक्खाइ । चउ व्विपि आहारं असणं, पाणं, खाइमं, साइमं; अण्णत्थ० सह० मह० सव्व० वोसिरइ ॥८॥
६- तिविहाहार- उपवास-पच्चक्खाण ।
सूरे उग्गए, अब्भत्तङ्कं पच्चक्खाइ | तिविहंपि आहारं असणं, खाइमं साइमं, अण्णत्थ० सह० पाणहार पोरिसिं, साडूढपोरिसिं, पुरिमडढं, अवढं वा पच्चक्खाइ अण्णत्थ० सह०
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पच्चक्खाण-सूत्र। पच्छण्ण. दिसा० साहु० सव्व• देसावगासियं इत्यादि पूर्ववत् ॥६॥
१०--दत्ती-पच्चक्खाण । पोरिसिं, साड्ढपोरिसिं, पुरिमड्डं, अवड्ढं वा पच्चक्खाइ, उग्गए सूरे, चउविहंपि आहारंअसणं, पाणं, खाइमं साइमं, अणत्थ० सह० पच्छ० दिसा० साहु सब्ब० एकासणं एगट्टाणं दत्तियं पच्चक्खामि, तिविहं चउविहंपि आहारं असणं, पाणं, खाइम, साइमं; अण्णत्थ. सह० सागा० गुरु• मह• सम्ब० विगइओ पच्चक्खाइ इत्यादि पूर्ववत्, देसावगासियं इत्यादि पूर्ववत् ॥१०॥
११---दिवसच रिम-च उबिहाहार-पच्चक्खाण । दिवस-चरिमं पच्चक्खाइ, चउन्विहंपि आहार--असणं, पाणं, खाइम, साइमं, अण्णस्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्व-समाहि वत्तियागारेणं वोसिरइ ॥ ११ ॥
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अभय रत्नसार।
१२-दिवसचरिम-दुविहाहार-पच्चक्खाण । दिवसचरिमं पच्चक्खाइ, दुविहंपि आहार असणं, खाइमं; अणत्थ० सह० महः सव्व. वोसिरइ ॥ १२॥
१३-पाणहार-पच्चखाण पाणहार दिवसचरिमं पच्चक्खाइ, अन्नस्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्व-समाहिवत्तियागारेणं वोसिरइ ॥१३॥
१४-भवचरिम-पच्चखाण भवचरिमं पच्चक्खाइ, तिविहं चउव्विहंपि आहारं असणं, पाणं, खाइम, साइमं,अराणत्या सह० मह० सध० वोसिरह ॥ १४ ॥
१५-देसावगासिय-पच्चक्खाण अहंणं भंते ! तुम्हाणं समीवे देसावगा. सियं पच्चक्खामि दवओ, खित्तो, कालो, भावो। दव्वओ णं देसावगासियं, खित्तो णं इत्थ वा अण्णत्थ वा, कालो णं जाव
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पञ्चक्खाण. सूत्र |
७५
धारणा, भावओ गं जात्र गहेां न गहेज्जामि, छले न छलेज्जामि, अरण केवि रोगायंकेण वा एस मे परिणामो न परिवडइ ताव अभिग्गहो, अण्णत्थणा भोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्व- सेमाहि-वत्तियागारेणं वोसिरइ ॥ १५ ॥
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५५ - पच्चक्खाण आगार संख्या ।
दो चेव मुकारे, आगारा छच्च हुति पोरिसिए । सत्तेव य पुरिमड्ढे, एगासणयम्मि अव ॥ १ ॥ सत्तेगट्टाणस्स उ, अद्वेव य अंबिलम्मि आगारा। पंचेव अभत्तट्ट े छप्पाणे चरिम चत्तारि ॥ २ ॥ पंच चउरो अभिग्गहे, निवीए अनव य आगारा । अप्पावरणे पंचउ, हवंति सेसेसु चत्तारि ॥ ३ ॥
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AVAALAN
अभय रत्नसार । HARKKKKKKAKKKAKER
अथ सप्त स्मरणानि र ************** ___ ५६-अजित-शान्ति-स्तवन ।
अजिअं जिअ-सव्व-भयं,संतिं च पसंतसव्व-गय-पावं। जयगुरु संति-गुण-करे, दो वि जिणवरे पणिवयामि ॥ १ ॥ (गाहा ) ववगय-मंगुल- भावे, ते हं विउल तव-निम्मलसहावे । निरुवम-मह-प्पभावे, थोसामि सुदिट्टसम्भावे ॥२॥ (गाहा ) सव्व-दुक्ख-प्पसंती. णं, सब-पाव-प्पसंतिणं । सया अजिअ-संतीणं, नमो अजिअ. संतिणं ॥३॥ (सिलोगो) अजिअ-जिण ! सुह-पवत्तणं, तव पुरिसुत्तम ! नाम-कित्तणं। तह य धिइ-मइ-घवत्तणं, तव य जिणुत्तम ! संति ! कित्तणं ॥४॥ (मागहिआ) किरिया-विहि-संचिअ-कम्म-किलेस-विमुक्खयरं, अजिअं निचिनं च गुणेहिं महा-मुणि
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अजित शान्ति स्तवन ।
७७
संति- महा
सिद्धि-गयं । अस्ति य मुणिणो वि संतिकरं सययं मम निव्वुइकारणयं च नमसरणयं ॥ ५ ॥ ( आलिंगणयं ) पुरिसा जइ दुक्ख-वारणं, जइ य विमग्गह सुक्ख कारणं । अजिनं संतिं च भावप्रो, अभयकरे सरणं पवज्जहा || ६ || ( मागहिया ) अरइ-रइ तिमिर- विरहि मुवरय-जर-मरणं, सुरअसुर-गरुल-भुयग- वइ - पयय- पणिवइयं । अजि
सुनय-नय-निउणमभयकरं,
महमवि अ सरणमुवसरि भुवि दिविज-महि सययमुमे ॥ ७ ॥ [ संगयंयं ] तं च जिरणुत्तममुत्तम- नित्तम - सत्तधरं, अज्जव मइत्र- खंतिविमुत्ति-समाहि-निहिं । संतिकरं पणमामि दमुत्तम-तित्थयरं, संति मुणी मम संति- समाहिघरं दिसउ ॥ ८ ॥ [ सोवारणयं ] सावत्थि पुव्वपत्थिवं च वर- हत्थि-मत्थय-पसप्थ-वित्थिन्नसंथियं, थिर- सरिच्छ वच्छं मयगल- लीलाय
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अभय रत्नसार। माण-वरगंध-हत्थि-पत्थाण-पत्थियं संथवारिहं । हत्थि-हत्थ-बाहं धंत-कणग-रुअग-निरुवहयपिंजरं पवर-लक्खणो-वचिय-सोम-चारु-रूवं, सुइ-सुह-मणाभिराम-परम-रमणिज्ज-वर-देवदं. दुहि-निनाय-महुरयर-सुह-गिरं ॥ ६॥ [ वेड्ढओ] अजियं जिआरि-गणं, जिअ-सव्व-भयं भवोह-रिउ। पणमामि अहं पयो पावं पसमेउ मे भयवं ॥ १०॥ (रासालुद्धओ) कुरु-जणवय-हस्थिणाउर-नरीसरो पढमं तो महा-चकहि-भोए मह-प्पभाओ जो बावत्तरिपुरवर-सहस्त-वर-नगर-निगम-जणवय-वई बत्तीसा-राय-वर-सहस्साणुयाय मग्गो। चउदसवर-रयण-नव-महा-निहि-चउ-सट्ठि-सहस्स-पवर-जुवईण सुंदर-वई चुलसीहय गय-रह सयसहस्स-सामी छन्नवइ-गाम-कोडि-सामी-आसी जो भारहम्मि भयवं ॥ ११॥ (वेड्ढओ) तं संतिं संतिकरं संतियणं सव्व-भया। संति
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अजित-शान्ति-स्तवन । ७६ थुणामि जिणं संतिं वेहेउ मे ॥ १२ ॥ [ रासोनंदियं ] इक्खाग विदेह-नरीसर नर-वसहा मुणि-वसहा नव-सारय-ससि-सकलाणण विगय-तमा विहअ-रया। अजिउत्तम तेअ-गुणेहिं महा-मुणि-अमिअ-बला विउल-कुला पणमामि ते भव-भय-मूरण जग-सरणा मम सरणं ॥१३॥ (चित्तलेहा ) देव-दाणविंद-चंद-सूर-वंद हट्टतुद-जिटू-परम-लट्र-रूव धंत-रुप्प-पट्ट-सेयसद्ध-निद्ध-धवल-दंतपं-ति संति सत्ति-कित्तिमुत्ति-जुत्ति-गुत्ति पवर, दित्त तेअ-वंद धेश सब-लोअ-भाविअ-प्पभाव णे . पइस मे समाहिं ॥ १४ ॥ (नारायओ) विमल-ससिकलाइरेअ-सोमं, वितिमिर-सूर-कराइरेअ-तेअं। तिअस-वइ गणाइरेअ-रूवं, धरणिधर-प्पवराइरेअ-सारं ॥ १५ ॥ (कुसुमलया ) सत्ते य सया अजियं, सारीरे अ बले अजिअं । तव-संजमे य अजिअं, एस थुणामि जिणमजिअं ॥ १६ ॥
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अभय रत्नसार । (भुअगपरिरंगिअं)॥ सोम-गुणेहिं पावइ न तं नव-सरय-ससी, तेअ-गुणेहिं पावइ न तं नव-सरय-रवी। रूव-गुणेहिं पावइ न तं तिअस-गण-वई, सार-गुहिं पावइ न तं धरणिधर-वई ॥ १७ ॥ ( खिज्जिअयं ) ॥ तित्थ-वरपवत्तयं तम-रय-रहिअं, धीर-जण-थुअच्चिअं चुअकलि-कलुसं । सति-सुह-प्पवत्तयं ति-गरणपयो, संतिमहं महामुणिं सरणमुवणमे ॥१८॥ ( ललिअं)॥ विणोणय-सिरि-रइअंजलिरिसि-गण-संथुधे थिमिश्र, विबुहाहिव-धणवइनरवइ-थुअ-महिअच्चियं बहुसो। अइरु-ग्गयसरय-दिवायर-समहिअ-सप्पभं तवसा, गयणंगण-विअरण-समुइय-चारण वंदिअं सिरसा ॥ १६॥ (किसलयमाला )॥ असुर-गरुलपरिवन्दिअं, किन्नरोरग-णमंसिअं । देव-कोडिसय-संथुअं, समण-संघ-परिवंदिरं ॥ २० ॥ (सुमुहं ) ॥ अभयं अणहं, अरयं अरुयं ।
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अजित शान्ति-स्तवन ।
८१
हुलिश्रं ।
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अजि अजिअं, पयओ पण मे ॥ २१ ॥ (विज्जुविलसि ) ॥ आगया वर विमाण-दिव्व-कणग-रह-तुरय-पहकर - सएहिं ससंभमोअरण-खुभित्र लुलिय-चल- कुण्डलं - गय - तिरोड-सोहन्त-मउलि-माला ॥२२॥ ( वेढओ ) ॥ जं सुर-संघा सासुर संघा वेर - विउत्ता भत्ति-सुजुत्ता, आयर-भूसिन - संभम-पिंडिअ - सुटु- सुविहिय- सव्व-बलोघा । उत्तम-कंचणरयण- परुविप्र भासुर- भूसण-भासुरिअंगा, गायसमोणय-भत्ति वसागय-पंजलि - पेसिअ - सीसपणामा ||२३|| ( रयणमाला) || वंदिऊरण थोऊण तो जिणं, तिगुणमेव य पुणो पयाहिणं । पण मिऊणय जिणं सुरासुरा, पमुइया स-भवाई तो गया ॥ २४ ॥ ( खित्तयं ) ॥ तं महामुणि - महंपि पंजली, राग-दोष-भय- मोह-वज्जि । देव-दाणव- नरिंद-वंदित्र, संति-मुतम महातवं नमे ॥ २५ ॥ ( खित्तयं ) ॥ अंब
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अभय रत्नसार। रंतर-वियारणियाहिं, ललिअ-हंस-बहू-गामिणिआहिं। पीण-सोणि-थण-सालिणिआहिं, सकल-कमल-दल-जोअणिआहि ॥ २६ ॥ (दीवयं)॥ पीण-निरंतर-थण-भर-विणमित्र-गायलयाहिं,मणि-कञ्चण-पलि-ढिल-मेहल-सोहिअसोणि-तडाहिं। वर-खिंखिणि-नेउर-सतिलयवलय-विभूसणियाहिं, रइकर-चउर-मणोहरसुन्दर-दंसणियाहिं ॥ २७ ॥॥ [ चित्तखरा ] देव-सुन्दरीहिं पाय-वन्दिाहिं, वन्दिा य जस्स ते सुविकमा कमा, अप्पणो निडालएहि मंडणोड्डण-पगारएहि केहि केहि वि अवंगतिलय-पत्त-लेह-नामएहिं चिल्लएहि संगयंगयाहि, भत्ति-सन्निविट्ठ-वंदणागयाहि हुन्ति ते वंदिआ पुणो पुणो ॥ २८ ॥ (नारायओ) ॥ तमहं जिणचंद, अजिअं जिअ-मोह। धुअ-सव्व-किलेसं, पयओ पणमामि ॥ २६ ॥ ( नंदिअयं ) ॥ थुअ-वंदिअस्सा रिसि-गण-देव
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अजित - शान्ति-स्तवन । ८३
गणेहि, तो देव-वहूहि पत्र पण मिस्सा | जस्स जगुत्तम - सासरण अस्सा, भत्ति वसागयपिंडिअआहिं । देव-वरच्छरसा - बद्दुआहि', सुरवर - रइ-गुण- पंडिअहिं ॥ ३० ॥ ( भासुरयं ) वंस -सह- तंति-ताल-मेलिए, तिउक्खराभिरामसद मीस कए अ, सुइ- समाणणे अ सुद्धसज्ज - गी - पाय जाल - घंटियाहि, वलय- मेहलाकलाव - नेउराभिराम-सद मीसए कए अ देवनहि हि, हाव-भाव - विभम-प्पगार एहि, नचिऊण अंग-हारएहि वन्दित्राय जस्स ते सुविकमा कमा, तय तिलोय - सव्व-सत्त-सन्तिकारय, पसंत - सव्व - पाव - दोसमेस ह नमामि संतिमुत्तमं जिणं ॥ ३१ ॥ ( नारायओ ) ॥ छत - चामर - पडाग - जू - जब मंडिया, भय वरमगर - तुरग - सिरिचच्छ-सुलंछरणा । दीवसमुद्द मंदर - दिसागय-सोहिमा, सत्थिय-वसह सीहरह- चक्क - वरं किया ||३२|| ( ललिअ ) सहाव
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८४
अभय रत्नसार। लट्ठा सम-प्पइट्ठा, अदोस-दुट्ठागुणेहि जिट्ठा। पसाय-सिट्टा तवेण पुट्ठा, सिरीहि इट्ठा रिसीहि जुट्टा ॥३३॥ (वाणवासिआ)॥ते तवेण धुअसव्व-पावया, सब्ब-लोअ-हिअ-मूल-पावया। संथुआ अजिय-सन्ति-पायया, हुंतु मे सिवसुहाण दायया ॥ ३४ ॥ (अपरान्तिका ) ॥ एवं-तव-बल-विउलं, थुओं मए अजिअ-संति. जिण-जुअलं । ववगय कम्म-रय मलं, गई गय सासय विउलं ॥ ३५ ॥ (गाहा) ॥ तं बहु-गुण-प्पसायं,मुक्ख-सुहेण परमेण अविसायं। नासेउ मे विसाय, कुणउ अ परिसावि अ पसाय ॥३६॥ ( गाहा )॥ तं मोएउ अ नंदि, पावेउ अ नंदिसेणमभिनंदि । परिसावित्र सुहनंदि, मम य दिसउ संजमे नंदिं ॥ ३७ ॥ ( गाहा)॥ पश्खिअ चाउम्मासे, संवच्छरिए अ अवस्स-भणिअव्यो। सोअब्बो सव्वेहिं उवसग्ग-निवारणो एसो॥ ३८ ॥ जो पढइ जो
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लघु-अजित-शान्ति-स्तवन। ८५ अनिसुणइ, उभप्रो-कालंपि अजिय-सन्तिथय। न हु हुन्ति तस्स रोगा, पुवुष्पन्ना विनासन्ति ॥३६ ॥ जइ इच्छह परम-पयं,
अहवा कित्तिं सुवित्थडं भुवणे। ता तेलुकु द्ध. रणे, जिण-वयणे आयरं कुणह ॥ ४०॥ इति श्रीवृहदजितशान्तिस्तवनं प्रथम स्मरणम्।।
॥ अथ द्वितीयं लधु-अजितशान्तिस्मरणम् ॥ __ उल्लासि-कम-नक्ख-निग्गय-पहा-दण्ड-च्छलेणंगिणं, वंदारूण दिसंतइव्व पयर्ड निव्वाणमग्गावलिं । कुन्दिन्दुज्जल-दन्त-कन्ति-मिसओ नीहन्त-नाणंकुरु करे दावि दुइज्जसोलस-जिणे थोसामि खेमङ्करे ॥१॥ चरम-जलहि-नीरं जो मि णिज्जञ्जलीहिं, खय-समय-समीरं जो जिणिज्जा गईए। सयल-नयलं वा लंचए जो पएहिं, अजियमहव सन्तिं सो समत्थो थुणेउं ॥२॥ तहवि हु बहु-माणूल्लास-भत्ति-भरेण, गुण-कणमिव कित्तेहामि चिन्तामणि ब्व ।
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८६
अभय रत्नसार । अलमहव अचिन्ताणन्त-सामथो सिं फलिहइ लहु सव्वं वंछिअंणिच्छिअं मे ॥३॥ सयलजय हिआणं नाम-मित्तेण जाणं, विहडइ लहू दुट्ठानिट-दोघट्ट-थटुं। नमिर-सुर-किरोडुग्घिट्ठ-पायारविन्दे, सययमजिअ-सन्ती ते जिणन्देभिवन्दे ॥४॥ पसरइ वर कित्ती वड्ढए देहदित्तो, विलसइ भुवि मित्तो जायए सुप्पवित्ती। फुरइ परम-तित्ती होइ संसार-छित्ती, जिणजुअ-पय-भत्ती हीअ-चिंतोरु-सत्ती ॥५॥ ललिअ-पय-पायारं भूरि-दिव्वंग-हारं, फुड-घण-रसभावोदार-सिंगार-सारं। अणिमिस-रमणिज्ज डंसण-च्छेअ-भीया, इव पुण मणिबंधाकासनहोवयारं ॥६॥ थुणह अजिअ-संती ते कयासेस-संती, कणय-रय-पसंगा छज्जए जाणि मुत्ती। सरभस-परिरंभारंभि-निव्वाण-लच्छी, घण-थण-घुसिणिक्कुप्पंक पिंगीकयव्व ॥७॥ बहुविह-नय-भंगं वत्थु णिच्च अणिञ्च, सदस
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८७
लघु- अजित - शान्ति-स्तवन । दभिलप्पालप्पमेगं अगं । इय कुनय - विरुद्धं सुप्पसिद्धं च जेसिं, वयणमवयणिज्जं ते जिणें संभरामि ॥ ॥ सरइ तिय- लोए ताव मोहंधयारं, भमइ जयमसरणं ताव मिच्छत्त छरणं । फुरइ फुड फलं तात गाणंसु- पूरो, पयडमजिअ - संति-कारण- सूरो न जाव ॥६॥ अरि करि हरि - तिराहु एह बु- चोराहि वाही,
रुद्द खुद्दोवसग्गा |
समर - डमर - मारी पलयमजि-संती - कित्तणे त्ति जंती, निविडतर - तमोहा भक्खरालुंखि अव्व ॥ १० ॥ निचित्र दुरि दारु दित्त झाणग्गिजाला - परियमित्र गोरं, चिंतित्र जाए रूवं । कण्य-निहस रेहा - कंति-चोर करिजा, चिरथिरमिहलच्छि गाढ - संथंभि - अव्व ॥ ११॥ अडवि - निवडियाणं पत्थिवत्ता सिप्राणं, जलहिलहरि-हीरंतारण गुत्ति-ट्टियागां । जलि - जलण जाला - लिंगिणं च कारणं, जणयइ लहु संतिं संतिनाहाआिण ॥ १२ ॥ हरि - करि - परिकिरणं
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८८
अभय रत्नसार।
पक-पाइक-पुन्न, सयल पुहवि-रज छड्डिाणसज । तणमिव पडिलग्गं जे जिणा मुत्तिमग्गं, चरणमणुपवन्ना हुतु ते मे पसन्ना ॥१३॥ छण-ससि-वयणाहिं फुल्ल-नित्तुप्पलाहि, थण-भरनमिरीहिं मुट्ठि-गिज्झोदरीहिं । ललिअ-भुअलयाहिं पीण-सोणि-स्थणाहिं, सम-सुर-रमणीहिं दिया जेसि पाया ॥ १४ ॥ अरिसकिडिभकुटु-गंठि-कासाइसारा, खय-जर-वण-लूआसास-सोसोदराणि । नह-मुह-दसणच्छी-कुच्छिकन्नाइ-रोगे, मह-जिण-जुअ-पाया सुप्पसाया हरंतु ॥ १५॥ इअ गुरु-दुह-तासे पक्खिए चाउमासे, जिणवर-दुग-थुत्त वच्छरे वा पवित्तं । पढह सुणह सिज्झाएह भाएह चित्ते, कुणह मुणह विघ जेण घाएह सिग्घ॥ १६ ॥ इय विजयाऽजिअसत्तु पुत्त ! सिरि-अजिअ-जिणेसर!, तह अइरा-विस-सेण-तणय ! पंचमचक्कोसर ! । तित्थंकर ! सोलसम! संति !
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नमिऊणनामकं स्मरणम् ८९ जिण-वल्लह संथुअ !, कुरु मंगलमवहरसु दुरियम-खिलंपि थुणंतह ॥ १७॥ इति श्रीलघु-अजितशान्तिस्तवनं द्वितीयं
स्मरणम्॥ २॥
॥ अथ नमिऊणनामकं तृतीयं स्मरणम् ॥
नमिऊण पणय-सुर-गण,-चूडामणि-किरणरंजिअं मुणिणो। चलण-जुअलं महाभय, पणासणं संथवं वुच्छं ॥ १॥ सडिय-कर-चरण नह-मुह,-निबुड्ड-नासा विवन्नलायण्णा। कुट्ठमहा-रोगानल,-फुलिंग-निदड्ढ-सव्वंगा ॥२॥ ते तुह चलणा-राहण,-सलिलंजलि-सेवुड्डिअ-च्छाया। वण-दव-दड्ढा गिरि-पाययव्वपत्ता पुणो लच्छिं ॥३॥ दुव्वाय-खुभियजलनिहि, उन्भड-कल्लोल-भीसणारावे । संभंतभय-विसंठुल,-निजामय-मुक्क-वावारे॥४॥अवि. दलियजाणवत्ता, खणेण पावंति इच्छिदं
१२
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अभय रत्नसार।
कूलं । पास-जिण-चलणजुअलं, निच्चं चित्र जे नमंति नरा ॥ ५ ॥ खर-पवणुद्धय-वणदव,जालावलि-मिलिय-सयल-दुम-गहणे । डझतमुद्धमिय-बहु,-भीसण-रव-भीसणम्मि वणे॥६॥ जग-गुरुणो कम-जुअलं, निव्वाविय-सयल-तिहुअणाभोअं। जे संभरंति मणुआ, न कुणइ जलयो भयं तेसिं ॥ ७॥ विलसंत-भोग-भीसण,-फुरिआरुण-नयण-तरल-जोहालं । उग्गभुअंगं नव-जलय,-सच्छदं भीसणायारं ॥८॥ मन्नति कीडसरिसं, दूर-परिच्छूढ-विसम-विस. वेगा। तुह नामक्खर-फुड-सिद्ध, मंत गुरुमा नरा लोए ॥६॥ अडवीसु भिल्ल-तकर,-पुलिदसद्दूल-सद भोमासु । भय-विहुर-बुन्न-कायर,उल्लरिअ-पहिअ-सस्थासु ॥१०॥ अविलुत्तविहव. सारा, तुह नाह ! पणाम-मत्त-बाबारा । ववगयविग्घा सिग्छ, पत्ता हिय-इच्छियं ठाणं ॥ ११॥ पजलिआनल-नयणं, दूर विभारिय-मुहं महा.
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नमिऊनामकं - स्मरणम् ।
६१
कायं । नह - कुलिस घायविचलित्र, - गइंदकुंभ - त्थलाभो ॥१२॥ पण्य-ससंभ्रमपत्थिव;नह-मणि - माणिक्क पडिमस्स । तुह वयणपहरगाधरा, सोहं कुर्द्धपि न गति ॥ १३ ॥ ससि धवलदंत- मुसलं, दीह- करुल्लाल - वड्ढि उच्छाहं । महु-पिंगनयण-जुअलं, ससेलिल - नव-जलहरारात्रं ॥ १४ ॥ भीमं महा - गइंदं, अच्चासन्नंपि ते नवि गति । जे तुम्ह चलणजालं मुणिवइ ! तुंगं समल्लीणा ॥ १५ ॥ समरम्मि तिखखग्गा, भिग्घाय पविद्ध- उद्ध्य-कबंधे | कुंत - विणिभिन्न करि- कलह-मुक्क सिक्कारपरम्भि ॥ १६ ॥ निज्जिय-दप्पुद्धररिउ, - नरिंद निहा भडा जसं धवलं । पार्वति पावपतमिण ! पास-जिए ! तुह प्रभावेण ॥ १७॥ रोग-जलजला - विसहर-चोरारि-मईद-गय-रणभयाई | पास जिरानाम - संकित्तणेण पसमंति सव्वाई ॥ १८ ॥ एवं महाभयहरं, पास - जिणिं
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६२
अभय रत्नसार ।
दस्त संथवमुआरं । भविय जगाणं दयरं, कल्ला-परंपर- निहाणं ॥ १६ ॥ राय-भय- जक्खरक्श्वस, — कुसुमिण - दुस्सउ - रिक्ख- पीडा । संमासु दोसु पंथे, उवसग्गे तह ये रयणीसु ॥ २० ॥ जो पढइ जो अनिसुराइ, ताणं कइयो य माणतुंगस्स । पासो पवां पसमेउ, सयल - भुवणच्चित्र - चलणो ॥ २१ ॥ इति श्री पार्श्वजिनस्तवनं तृतीयं स्मरणम् ॥
अथ गणधरदेव स्तुतिरूपं चतुर्थ स्मरणम् ॥ तं जयउ जए तित्थं, जमित्थ तित्थाहिवेण वीरेण । सम्मं पवत्तियं भव्व सत्त-संताणसुह - जयं ॥१॥ नासियसयल - किलेसा, निहयकुलेसा पसत्थ- सुह-लेसा । सिरिवद्धमाणतित्थस्स मङ्गलं दिन्तु ते अरिहा ||२|| निद्दडूढ-कम्म- बीच, बीओ परमेट्ठियो गुण-समिद्धा | सिद्धा ति - जयपसिद्धा, हणन्तु दुत्थाणि तित्थ
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गणधरदेव-स्तुतिरूपं चतुर्थ स्मरणम् ६३ स्स ॥३॥ आयारमायरंता पंच-पयारं सया पयासन्ता। आयरिआ तह तित्थं. निहयकुतित्थं पयासन्तु ॥४॥ सम्म-सुअ-वायगा वायगा य सिवाय-वायगा वाए। पवयण-पडणीय-कए वणिंतु सव्वस्स सङ्घस्त ॥५॥ निव्वाणसाहणज्जुय-साहूणं जणिय-सव्वसाहज्जा। तित्थप्पभावगा ते हवंतु परमेट्टिणो जइणो ॥ ६ ॥ जेणाणगयं णाणं निव्वाण-फलं च चरणमवि हवइ। तित्थस्स दंसणं तं मंगुलमवणेउ सिद्धियरं ॥७॥ निच्छउमो सुअधम्मो, समग्गभब्वंगि-बग्ग-कय-सम्मो। गुण-सुटिअस्स संघस्स मंगलं सम्ममिह दिसउ ॥८॥ रम्मो चरित्तधम्मो, संपाविप्र-भव्व-सत्त-सिव-सम्मो। नीसेस-किलेसहरो, हवउ सया सयल-संघस्त ॥॥ गुण-गण-गुरुणो गुरुगो, सिव-सह-मडगो कुणंतु तित्थरस । सिरि-वद्धमाण-पहुपरडिअस्स कुसलं समग्गस्स ॥१०॥ जिय-पडिवक्खा
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६४
अभय रत्नसार ।
जक्खा, गोमुह-मायङ्ग-गयमुह-पमुक्खा । सिरिबम्भसन्तिसहिया, कय-नय-रक्खा सिवं दिंतु ॥ ११ ॥ अंबा पडिहडिम्बा सिद्धा सिद्धाइया पत्रयणस्स । चक्केसरि वइरुडा, सन्ति-सुरा दिसउ सुक्खाणि ॥१२ | सोलस विज्जा - देवीउ, दिन्तु सङ्घस्स मङ्गलं विउलं । अच्छुत्ता-सहिआओ, विस्सुम सुयदेवयाइ समं ॥ १३॥ जिसासण कय रक्खा जक्खा चउवीस- सासणसुरावि । सुहभावा संतावं, तित्थस्स सया पणासन्तु ॥ १४ ॥ जिण पवयणम्मि निरया, विरया कुपहाउ सव्वा सव्वे । वेयावच्चकरावि अतित्थरस हवन्तु सन्तिकरा ||१५|| जिस समय - सिद्धसुमग्ग- वहिय भव्वाण जणिय-साहज्जा । गीयरई गीजसो, सपरिवारो सिवं दिसउ || १६|| गिह-गुत्त- खित्त-जल-थल -वण-पत्रयवासी देवदेवीओ | जिण सासरण - द्विआणं, दुहाणि सव्वाणि निहतु ॥ १७॥ दस-दिसिपाला स
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गणधरदेव - स्तुतिरूपं चतुर्थ स्मरणम् ६५ वित्तपालया नव ग्गहा स-नक्खत्ता । जोइणिराहु-ग्गह- काल-पास कुलिश्रद्ध-पहरेहिं ॥ १८ ॥ सहकाल - कंटएहिं सविट्टि वच्छेहिं कालवेलाहिं । सवें सव्वत्थ सुहं दिसन्तु सव्वस्स सङ्घस्स ॥१६॥ भवणवई वाणमन्तर, जोइस-वेमा-शिप्रा य जे देवा । धरणिन्द - सक्क-सहित्रा, दलन्तु दुरियाई तित्यस्स ॥ २० ॥ चक्क जस्स जलं तं, गच्छइ पुरओ पणा - सिय-तमोहं । तंतित्थस्स भगवओ, नमो नमो वद्धमाणस्स ॥ २१ ॥ सो जयउ जियो वीरो, जस्सज वि सासणं जए जयइ । सिद्धि-पह - सासणं कुपह- नासणं सव्वभय-महणं ॥ २२ ॥ सिरि-उसभसेरा - पहा, हय-भय-निवहा दिसन्तु तित्थस्स । सव्व-जिगाण गणहारिणोऽहं वञ्चियं सव्वं ॥ २३ ॥ सिरि- - वद्धमाण- तित्याहिवेण तित्थं समप्पियं जस्स । सम्मं सुहम्म- सामी, दिसउ सुहंस यलसंघस्स ॥ २४ ॥ पयईए भदिया जे, भद्दाणि
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अभय रत्तसार।
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दिसन्तुसयल-संघस्स। इयर-सुरा वि हु सम्म जिण-गणहर-कहिय-कारिस्स ॥ २५ ॥ इय जो पढइ तिसंझ, दुस्सझ तस्स नस्थि किंपि जए । जिणदत्ताणाए ठिओ, सनिट्टिअट्टो सुही होई ॥२६॥ इति श्रीगणधरदेवस्तुतिनामकं चतर्थ स्मरणम् ।
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॥ अथ गुरुपारतन्त्र्यनामकं पञ्चमं स्मरणम् ॥
मय-रहियं गुण-गण-रयण, सायरं सायर पणमिऊण। सुगुरु-जण-पारतंतं, उवहिव्व थुणामि तं चेव ॥१॥ निम्महिय-मोह-जोहा, निहय-विरोहा पणद-संदेहा। पणयंगि-वग्गदाविप्र-सुह-संदोहा सगुण-गेहा ॥२॥ पत्तसुजइत्त-सोहा,समत्त-पर-तित्थ जणिय-संखोहा । पडिभग्ग-मोह-जोहा, दसिय-सुमहत्थ-सत्योहा ॥३॥ परिहरिअ-सत्थ-वाहा, हय-दुह-दाहा सिवंब-तरु-साहा । संपाविअ-सुह-लाहा, खोरो
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गुरुपारतंत्र्यनामकं पञ्चमं स्मरणम् ६७ हणुव्व अग्गाहा ॥४॥ सुगुण-जण-जणियचुजा सज्जो निरवज्ज-गहिय-पवज्जा। सिवसुह-साहण-सज्जा, भव-गिरि-गुरु चूरणे वज्जा ॥ ५॥ अज्ज-सुहम्म-पमुहा, गुण-गण-निवहा सुरिंद-विहिअ-महा । ताण तिसंझनाम, नामं न पणासइ जियाणं ॥६॥ पडिवज्जिअ-जिणदेवो, देवायरिओ दुरंत-भवहारी। सिरिनेमिचन्द-सूरी उज्जोअण-सूरिणो सुगुरु ॥७॥ सिरि-वद्धमाण-सूरी, पयडीकय-सूरि-मंत-माहप्पो। पडिहय-कसाय-पसरो, सरय-ससंकुब्व सुह-जणओ ॥८॥ सुह-सील-चोर-चप्परणपच्चलो निच्चलो जिण-मयस्मि । जुगपवर-सुद्धसिद्धन्त जाण-ओ पणय- सुगुणजणो ॥६॥ पुरो दुल्लह-महिव,-लहस्स अणहिल्लवाडए पयडं । मुक्कावि आ रिऊणं, सीहेणव दव्बलिंगि गया ॥ १०॥ दसमच्छेरय-निसि-विप्फुरन्तसच्छन्द-मूरि-मय-तिमिरं। सूरेणव सूरि
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१८
अभय रत्नसार। जिणे,-सरेण हय-महिअ-दोसेणं ॥ ११ ॥ सुकइत्त-पत्त-कित्ती, पयडिअ-गुत्ती पसन्त-सुह-मुत्ती पहय-परबाइ-दित्ती, जिणचंद-जईसरो मंती ॥ १२॥ पयडिअ-नवंग-सुत्तत्थ, रयणुक्कोसो पणासिअ-पोसो। भव-भीय-भविष जणमण,-कय-संतोषो विगय-दोसो ॥ १३ ॥ जुगपवरागम-सार,-परूवणा-करण-वन्धुरो धणिअं। सिरि-अभयदेव-सूरी, मुणि-पवरो परमपसम-धरो॥१४॥ कय-सावय-संतोसो, हरिब सारंग-भग्ग-संदेहो। गय-समय-दप्प-दलणो, आसाइअ-पवर-कव्व-रसो॥ १५ ॥ भीम-भवकाणणम्मि अ, दंसिअ गुरु वयण-रयण-संदोहो। नीसेस-सत्त-गुरुओ, सूरी जिणवल्लहो जयइ ॥ १६॥ उपरिटिअ-सच्चरणो, चउरणप्रोग-प्पहाण-सच्चरणो । असम-मयराय महणो, उड्ढ-मुहो सहइ जस्स करो॥ १७॥ दंसिपनिम्मल-निच्चल, दन्त-गणोगणिअ-सावोत्थ
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गुरुपारतन्त्र्यनामकं पञ्चमं स्मरणम् । ६8 भो । गुरु-गिरि-गरुओ सरहुव्व, सूरी जिणवल्लहो होत्था ॥ १८ ॥ जुग-पवरागम-पीउसपाण पीणिय-मणा कया भव्वा । जेण जिणवल्लहेणं, गुरुणा तं सव्वहा वंदे ॥ १६ ॥ विष्फुरिय-पवर-पवयण,-सिरोमणी बूढ-दुव्वह-खमो य। जो सेसाणं सेसुव्व, सहइ सत्ताण ताणकरो ॥ २०॥ सच्चरिआण-महीणं, सुगुरुणं पारतन्तमुबहइ । जयइ जिणदत्त-सूरी, सिरिनिलो पणय-मुणि-तिलओ ॥ २१ ॥ इति श्रीगुरुपारतन्त्र्यनामकं पञ्चमं स्मरणम् ।
॥ अथ षष्ठं स्मरणम् ॥ सिग्घमवहरउ विग्धं,जिण-वीराणाणुगामिसंघस्स । सिरि-पास-जिणो थंभण-पुर-डिओ निट्टिानिट्ठो ॥ १॥ गोयम-सुहम्म-पमुहा, गणवइणो विहिअ-भव्व-सत्त-सुहा । सिरि-वद्धमाण-जिण-तित्थ-सुत्थयं ते कुणन्तु सया ॥२॥
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अभय रत्नसार। सक्काइणो सुरा जे, जिण-वेयावच्च-कारिणो संति । अवह-रिय-विग्घ-संघा, हवन्तु ते संघसन्तिकरा ॥३॥ सिरि-थंभण य-ट्टिय-पाससामि-पय-पउम-पणय-पाणीण। निदलिय-दु. रिय-विंदो, धरणिदो हरउ दुरियाई ॥४॥ गोमुह-पमुक्ख जक्खा, पडिहय-पडिवक्ख-पक्खलक्खा ते। कय-सगुण-संघरक्खा, हवन्तु संपत्त-सिव-सुक्खा ॥ ५ ॥ अप्पडिचक्का-पमुहा, जिण-सासण-देवया वि जिण पणया। सिद्धा. इया-समेया, हवन्तु संघस्स विग्घहरा ॥ ६ ॥ सकाएसा सच्चउर-पुरट्रिओ वद्धमाण-जिणभत्तो। सिरि-बम्भ-सन्ति-जवखो, रक्खर संघ पयत्तेण ॥७॥ खित्त-गिह-गुत्त-सन्ताण-देस-देवाहिदेवया ताओ । निव्वुइ-पुर-पहिआणं, भव्वाण कुणंतु सुक्खाणि ॥ ८॥ चक्क सरि-चक्कधरा, विहिपहरिउच्छिण्ण-कन्धरा धणियं । लिव-सरणलग्ग-संघस्स, सम्यहा हरउ विग्घाणि ॥८॥
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षष्ठं स्मरणम् १०१ तित्थवइ-बद्धमाणो, जिणेसरो सङ्गो सुसंघेण । जिणचन्दोऽभयदेवो, रक्खउ जिणवल्लहपहू मं॥ १०॥ सो जयउ वद्धमाणो, जिणेसरो दिणेसरो ब्व हय-तिमिरो। जिणचंदा-ऽभयदेवा, पहुणो जिणवल्लहा जे अ॥ ११ ॥ गुरु-जिणवल्लह-पाए,-ऽभयदेव-पहुत्त-दायगे वंदे । जिणचन्द-जिणेसर-वद्धमाण-तिस्थस्स बुढि-कए ॥ १२ ॥ जिणदत्ताणं सम्मं, मन्नन्ति कुणन्ति जे य कारंति। मणसा वयसा वउसा, जयंतु साहम्मिा ते वि ॥१३॥ जिणदत्तगणे नाणाइणो सया जे धरन्ति धारन्ति । दंसिअ-सिअवाय-पए, नमामि साहम्मिा ते वि ॥ १४ ॥
इति षष्ठं स्मरणम् ॥६॥ ॥ अथ उवसग्गहरनाम सप्तमं स्मरणम् ॥
उवसग्गहरं पासं, पासवंदालि कम्म-घणमुकं । विसहर विस-निन्नासं, मंगल-कल्लाणभावासं ॥१॥ विसहर-फुलिंग-मंतं, कंटे धारेइ
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१०२
अभय रत्नसार ।
जो सया मणुओ। तस्स गह-रोग-मारी, दुद्ध जरा जंति उवसामं ॥२॥ चिट्ठउ दूरे मंतो,तुज्झ पणामो वि बहु-फलो होइ। नर-तिरिएसु वि जीवा, पावंति न दुक्ख-दोगच्चं ॥३॥ तुह सम्मत्ते लद्धे, चिन्तामणि-कप्प-पायवन्भहिए। पावंति अविग्घेणं, जीवा अयरामरं ठाणं ॥४॥ इअ संथुओ महायस!, भत्ति-ब्भर-निब्भरेण हिएण। ता देव ! दिन बोहिं, भवे, भवे पास ! जिण-चंद !॥ ५ ॥ इति श्रीपाश्वजिनस्तवनं सप्तमं स्मरणम् ॥७॥
समाप्तानि सप्त स्मरणानि ।
अथ श्रीभक्तामर-स्तोत्रम् । भक्तामर-प्रणत-मौलि-मणि-प्रभाणा,--मुदद्योतकं दलित-पाप-तमो-वितानम्। सम्यक प्रणम्य जिन ! पाद-युगं युगादा,-वालम्बनं भवजले पततां जनानाम् ॥ १॥ यः संस्तुतः सकल
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श्रीभक्तामर-स्तोत्रम्। १०३ वाङमय-तत्व-बोधा, दुद्भूत-बुद्धि-पटुभिः सुरलोक-नाथैः। स्तोत्रैजगत्रितय-चित्तहरैरुदारैः, स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ॥२॥ युग्मम् ॥ बुद्ध्या विनापि विबुधार्चित-पादपीठ ! स्तोतु समुद्यत-मतिविगत-त्रपोऽहम् । बालं विहाय जल-संस्थितमिन्दु-बिम्ब,-मन्यः क इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम् ? ॥ ३॥ वक्त गुणान् गुण-समुद्र ! शशाङ्क कान्तान्, कस्ते क्षमः सुरगुरु-प्रतिमोऽपि बुद्ध्या ?। कल्पान्त-कालपवनोद्धत-नक्र-चक्र, को वा तरीतमलमम्बुनिधि भुजाभ्याम ? ॥ ४ ॥ सोऽहं तथापि तव भक्तिवशान्मुनीश !, कतुंस्तवं विगत-शक्तिरपि प्रवृत्तः। प्रोत्यात्म-वीर्य्यमविचार्य मृगो मृगेन्द्र, नाभ्येति किं निज-शिशोः परिपालनार्थम् ? ॥५॥ अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहास-धाम, त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम्। यत् कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति, तच्चारु-चूत-कलिका-निक
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१०४ अभय रत्तसार। रैक-हेतु ॥६॥ त्वत्संस्तवेन भव-संतति-संनिवद्धं, पापंक्षणात क्षयमुपैति शरीरभाजाम् । आक्रान्तलोकमलि-नीलमशेषमाशु, सूर्या शु-भिन्नमिव शार्वरमन्ध-कारम् ॥७॥ मत्वेति नाथ ! तव संस्तवनं मयेद,-मारभ्यते तनु-धियापि तव प्रभावात् । चेतो हरिष्यति सतां नलिनी-दलेष, मुक्ताफल-यु तिमुपैति ननूद-बिन्दु ॥ ८ ॥ आस्तां तव .स्तवनमस्त-दोष, वत्संकथापि जगतां दुरितानि हन्ति । दूरे सहस्र-किरणः कुरुते प्रभव, पद्माकरेषु जलजानि विकाशभाजि ॥६॥ नात्यद्भुतं भुवन-भूषण ! भूतनाथ !, भूतैर्गुणैभुवि भवन्तमभिष्टुवन्तः। तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किंवा, भूत्याश्रितं य इह नात्म-प्तमं करोति ? ॥१०॥ दृष्ट्वा भवन्तमनिमेष-विलोकनीयं, नान्यत्र तोषमुपयाति जनस्य चक्षुः। पोत्वा पयः शशि-कर-युति दुग्धसिन्धोः, नारं जलं जलनिधेरशितुं क इच्छेत् ? ॥११॥ यैः
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भक्तामर स्तोत्रम्। १०५ शान्तराग-चिभिःपरमाणुभिस्त्वं, निर्मापितस्त्रिभुवनैक-ललाम-भूत ! तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां, यत्ते समानमपरं न हि रूप-मस्ति ॥ १२ ॥ वक्त्र व ते सुर-नरोरग-नेत्र- हारि, निःशेष-निर्जित-जगत्रितयोपमानम्। बिम्ब कलङ्कमलिनं क्व निशाकरस्य, यद् वासरे भवति पाण्डु पलाश-कल्पम् ॥ १३ ॥ सम्पूर्ण-मण्डलशशाङ्क-कलाकलाप,-शुभ्रा गुणास्त्रिभुवनं तव लङ्घयन्ति । ये संश्रितास्त्रि-जगदीश्वर-नाथमेकं, कस्तान निवारयति संचरतो यथेष्टम् ? ॥ १४ ॥ चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशाङ्गनाभिर्नीतं मनागपि मनो न विकारमार्गम्। कल्पान्त-कालमरुता चलिताचलेन, किं मन्दरादि-शिखरं चलितं कदाचित् ? ॥१५॥ निधूमवत्ति रपवर्जिततैलपूरः, कृत्स्न जगत्त्रयमिदं प्रकटीकरोषि । गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां, दीपोऽ परस्त्वमसि नाथ ! जगत्प्रकाशः ॥ १६ ॥ नास्तं
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अभय रत्नसार।
कदाचिदुपयासि न राहुगम्यः, स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्जगन्ति। नाम्भोधरोदर-निरुद्धमहा-प्रभावः, सूर्यातिशायि-महिमाऽसि मुनीन्द्र लोके ॥ १७॥ नित्योदयं दलित-मोह-महा. न्धकार, गम्यं न राहु-बदनस्य न वारिदानाम् । विभ्राजते तव मुखाजमनल्प कान्ति, विद्योतयज्जगदपूर्व-शशाङ्क-बिम्बम् ॥ १८ ॥ कि शर्वरीषु शशिनाऽह्नि विवस्वता वा, युष्मन्मुखेन्दुदलितेषुतमस्सुनाथ ? । निष्पन्न-शालि-वन-शालिनि जीव-लोके, कार्य कियज्जलधरैजल-भारनम्र ? ॥ १६ ॥ ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं, नैवं तथा हरिहरादिषु नायकेषु । तेजः स्फु रन्मणिषु याति यथा महत्त्वं, नैवं तु काच-शकले किरणाकुलेऽपि ॥ २० ॥ मन्ये वरं हरि-हरादय एव दृष्टा, दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति। किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्यः, कश्चिन्मना हरति नाथ ! भवान्तरेऽपि ॥२१॥
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भक्तामर स्तोत्रम् १०७ स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्, नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता। सर्वा दिशो दधति भानि सहस-रश्मिं, प्राच्येव दिग् जनयति स्फुरदंशु-जालम् ॥२२॥ त्वामामनन्ति मुनयः परमं पुमांस,-मादित्य-वर्णममलं तमसः परस्तात् । त्वामेव सम्यगुपलभ्य जयन्ति मृत्यु, नान्यः शिवः शिव-पदस्य मुनीन्द्र : पन्थाः ॥२३॥ त्वामव्ययं विभुमचिन्त्यमसंख्यमाद्य, ब्रह्माणमीश्वरमनन्तमनगकेतुम् । योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेकं, ज्ञान-खरूपममलं प्रवदन्तिसन्तः ॥ २४ ॥ बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चित-बुद्धि-बोधात्, त्वं शंकरोऽसि भुवनत्रय-शंकरत्वात् । धाताऽसि धीर ! शिव-मार्ग-विधेविधानाद, व्यक्त त्वमेव भगवन् ! पुरुषोत्तमोऽसि ॥ २५ ॥ तुभ्यं नमस्त्रिभवनातिहराय नाथ, तुभ्यं नमः क्षितितलामल-भूषणाय । तुभ्यंनमस्त्रिजगतः परमेश्वराय, तुभ्यं नमो जिन! भवोदधि-शोषणाय ॥२६॥
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१०८
अभय रत्नसार। को विस्मयोत्र यदि नाम गुणौरशेष, रत्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश ! । दोष -रुपात्तविविधाश्रय-जात-गर्वे, स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिद-पीक्षितोऽसि ॥ २७॥ उच्च रशोक-तरुसंश्रितमुन्मयूख,-माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम् । स्पष्टोल्लसत्किरणमस्त-तमो-वितानं, बिम्बं वेरिव पयोधर-पाव-वति ॥२८॥ सिंहासने मणि-मयूख-शिखा-विचित्रे, विभ्राजते तव वपुः कनकावदातम् । बिम्बं विपद्विलसदंशुलता-वितानं, तुङ्गो-दयाद्रि-शिरसीव सहसरश्मेः ॥ २६ ॥ कुन्दावदात-चलचामर-चारु-शोभ, विभ्राजते तव वपुः कलधौत-कान्तम् । उद्यच्छशाङ्क-शुचि-निर्भर-वारिधार--मुच्च स्तटं सुरगिरेरिव शातकौम्भम् ॥३०॥ छत्र त्रयं तव विभाति शशाङ्ककान्त, मुच्चः स्थितं स्थगित-भानुकर-प्रतापम्। मुक्ताफल-प्रकर-जाल-वि-वृद्धशोभ, प्रख्यापयत् त्रिजगतः परमेश्वरत्वम् ॥३१॥
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भक्तामर स्तोत्रम्। १०६ उन्निद्र-हेम-नव-पङ्कज-पुञ्ज-कान्ति, पर्यु-ल्लस. नख-मय ख-शिखाभिरामौ। पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र ! धत्तः, पद्मानि तत्र विबुधाः परिकल्पयन्ति ॥ ३२ ॥ इत्थं यथा तव विभूतिरभूजिनेन्द्र !, धर्मोपदेशन-विधौ न तथा परस्य । यादृक् प्रभा दिनकृतः प्रहतान्धकारा, ताहक कुतो ग्रह-गणस्य विकासिनोऽपि ॥३३॥ श्च्योतन्मदाविल-विलोल-कपोल-मूल,-मत्त-भ्रमद. भ्रमर-नाद-विवृद्ध-कोपम् । ऐरावतामिभमुद्ध. तमापतन्तं, दृष्ट्वा भयं भवति नो भवदा-श्रितानाम् ॥३४॥ भिन्न भ-कुम्भ-गलदुज्ज्वल-शोणिताक्त,-मुक्ताफल-प्रकर भूषित-भुमि-भागः । बद्ध-क्रमः क्रम-गतं हरिणाधिपोऽपि, नाक्रामति क्रम-युगाचल-संश्रितं ते ॥३५॥ कल्पान्त-काल-पवनोद्धत-वहि-कल्पं, दावानलं ज्व. लित-मुज्ज्वलमुत्स्फुलिङ्गम्। विश्वं जिघत्सुमिव संमुखमापतन्तं, त्वन्नाम-कीर्तन-जलं शमयत्य
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अभय रत्नसार।
शेषम् ॥ ३६ ॥ रक्तक्षणं समद-कोकिल-कण्ठनीलं, क्रोधोद्धतं फणिनमुत्फणमापतन्तम् । आक्रामति क्रम-युगेन निरस्त-शङ्क, स्त्वन्नामनाग-दमनी हृदि यस्य पुसः ॥३७॥ वल्गतुरङ्ग-गज-गर्जित-भीम-नाद,-माजो बलं बलवतामपि भूपतीनाम्। उद्यदिवाकर-मयूख-शिखापविद्धं, त्वत्कीत नात् तम इवाशु भिदामुपैति ॥ ३८ ॥ कुन्तान-भिन्न-गज-शोणित-वारिवाह, वेगावतार-तरणातुरयोध-भीमे। युद्धे जयं विजित-दुर्जय-जेय-पक्षा,-स्त्वत्पादपङ्कज-वनायि -पो लभन्ते ॥३६ ॥ अम्भोनिधौ क्षुभितभी. षण-नक्र-चक्र,—पाठीन-पोठ-भयदोल्बण-वाडवाग्नौ। रगत्तरङ्ग-शिखर-स्थित-यानपात्रा,स्त्रासं विहाय भवतः स्मरणाद् व्रजन्ति ॥ ४०॥ उद्भूत -भीषण-जलोदर-भार-भुग्नाः, शोच्यां दशामुपगताश्च्युत-जीविताशाः । त्वत्पादपङ्कजरजोऽमृत-दिग्ध-देहा, मां भवन्ति मकरध्वज
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भक्तामर स्तोत्रम् |
१११
तुल्य-रूपाः ॥ ४१ ॥ पाद-कण्ठमुरु- श्रृङ्खलवेष्टिताङ्गा, गाढं बृहन्निगड-कोटि- निघृष्टजङ्घाः । त्वन्नाममन्त्रमनिशं मनुजाः स्मरन्तः, सद्यः स्वयं विगत-बन्ध भया भवन्ति ॥ ४३ ॥ मत्त-द्विपेन्द्रमृगराज- दवानलाहि, संग्राम - वारिधि - महोदरबन्धनोत्थम् । तस्याशु नाशमुपयाति भयं भियेव, यस्तावकं स्तवमिमं मतिमानधीते ॥ ४३ ॥ स्तोत्रखजं तत्र जिनेन्द्र ! गुणैर्निबद्धां भक्त्या मया रुचिर-वर्ण-विचित्र-पुष्पाम् । धत्ते जनो य इह कण्ठगतामजस्त्र ं तं मानतुङ्गमवशा समुपैति लक्ष्मीः ॥ ४४ ॥
"
॥ इति श्री भक्तामर स्तोत्र ं सम्पूर्णम् ॥ ॥ अथ वृद्धशान्तिः ॥
भो भो भव्याः ! शृणुत वचनं प्रस्तुतं सर्व्वमेतत्, ये यात्रायां त्रिभुवनगुरोरा हंताभक्तिभाजः । तेषां शान्तिर्भवतु भवतामहदादिप्रभावा, दारोग्य श्री धृति-मतिकरी क्लश-वि
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अभय रत्नसार । ध्वंस-हेतुः॥१॥ भो भो भव्यलोका इह हि भरतैरावत-विदेह-सम्भवानां. समस्त-तीथेकतां जन्मन्यासन-प्रकम्पानन्तर-मवधिना विज्ञाय सौधर्माधिपतिः सुघोषा-घण्टा-चालना-नन्तरं सकल-सुरासुरेन्द्र : सह समागत्य सविनयमहद्भट्रारकं गृहीत्वा गत्वा कनकाद्रिशृङ्ग विहितजन्माभिषेकः शान्ति-मुदघोषयति, ततोऽहं कृता-नुकारमिति कृत्वा, ‘महाजनो येन गतः स पन्थाः' इति भव्य-जनैः सह समागत्य, स्नात्र. पीठे स्नात्र विधाय शान्तिमुद्घोषयामि। तत्पूजायात्रा-स्नानादि-महोत्सवानन्तरम् , इति कृत्वा कणं दत्वा निशम्यतां स्वाहा ॥ ॐ पुण्याहं २, प्रीयन्तां २, भगवन्तोऽर्हन्तः सर्वज्ञाः, सर्वदर्शिनः। त्रैलोक्य-नाथाः, त्रैलोक्य-महिताः, त्रैलोक्य-पूज्याः, त्रैलोक्येश्वराः, त्रैलोक्योद्योतकराः ॥ ॐ श्रीकेवलज्ञानि १, निर्वाणि २, सागर ३, महायशः ४, विमल ५, सर्वानुभू -
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वृद्धशान्तिः। ति ६, श्रीधर ७,दत्त, दामोदर ६, सुतेजः १०, खामि ११ मुनिसुव्रत १२ सुमति १३ शिवगति, १४, अस्ताग १५, नमीश्वर १६, अनिल १७, यशोधर १८, कृतार्घ १६ जिनेश्वर २० शुद्धमति २१ शिवकर २२ स्यन्दन २३ संप्रति २४ एते अतीत-चतुर्विशति-तीर्थकराः॥ ___ॐ श्रीकृषभ १, अजित २, सम्भव ३, अभिनन्दन ४ सुमति ५, पद्मप्रभ ६, सुपार्श्व ७, चन्द्रप्रभ ८, सुविधि ६, शीतल १०, श्रेयांस ११, वासुपूज्य १२, विमल १३, अनन्त १४, धर्म १५, शान्ति. १६, कुन्थु, १७ अर १८, मल्लि १६, मुनिसुव्रत २० नमि २१, नेमि २२, पार्श्व २६, वर्द्धमान २४ एते वर्तमान-जिनाः ॥ . ॐ श्रीपद्मनाभ १,शूरदेव २, सुपाखें ३, स्वयंप्रभ ४, सर्वानुभूति ५, देवश्रुत ६, उदय ७ पेढाल ८, पोटिल ६, शतकीर्ति ११ सुत्रत ११, अमम १२, निष्कषाय १३, निष्पुलाक १४,
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११४ अभय रत्नसार। निर्मम १५, चित्रगुप्त १६ समाधि १७, संवर १८ यशोधर १६; विजय २०, मल्लि २१, देव २२, अनन्तवीर्य्य २३, भद्रकर २४, एते भावि-तीर्थकराः जिनाः शान्ताः शान्तिकरा भवन्तु । ॐ मुनयो मुनि-प्रवरा रिपु-विजय-दुर्भिक्ष-कान्तारेषु दुर्ग-मार्गेषु रक्षन्तु वो नित्यम् ॥ ॐ श्री नाभि १, जितशत्रु २, जितारि ३, संवर ४, मेघ ५, धर ६, प्रतिष्ठ ७, महसेन ८, सुग्रीव ६, दृढ़रथ १०, विष्णु ११, वासुपूज्य १२, कृतवर्म १३, सिंहसेन १४, भानु १५, विश्वसेन १६, सूर १७, सुदर्शन १८, कुम्भ १६, सुमित्र २०, विजय २१, समुद्रविजय २२, अश्वसेन २३, सिद्धार्थ २४, इति वर्तमानचतुर्विंशति-जिन-जनकाः॥ ___ ॐ श्री मरुदेवी १, विजया, २ सेना ३, सिद्धार्था ४, सुमंगला ५, सुसीमा ६ पृथिवीमाता ७, लक्ष्मणा ८, रामा ६, नन्दा १०, विष्णु ११, जया १२, श्यामा १३ सुयशा १४, सुव्रता १५,
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RAJA
वृद्धशान्तिः। ११५ अचिरा १६, श्री ७, देवी १८, प्रभावती १६ पद्मा २०, वप्रा २१, शिवा २२, वामा २३, त्रिशला २४, इति वर्तमान-जिन, जनन्यः॥ ___ॐ श्रीगोमुख १, महायक्ष २, त्रिमुख ३, यक्षनायक ४, तुम्बुरु ५, कुसुम ६, मातङ्ग ७, विजय ८, अजित ६, ब्रह्मा १०, यक्षराज ११, कुमार १२, षण्मुख १३पाताल १४, किन्नर १५, गरुड १६, गन्धर्व १७, यनराज १८, कुबेर १६, वरुण २०, भृकुटि २१ गोमेध २२, पाव २३, ब्रह्माशान्ति २४, इति वर्तमान-जिन-यक्षाः ॥
ॐ चक्रेश्वरी १ अजितबला २ दुरितारि ३ काली ४ महाकाली ५ श्यामा ६, शान्ता ७ भृकुटि ८ सुतारका ६ अशोका १० मानवी ११ चण्डा १२ विदिता १३ अङ्क शा १४ कन्दर्पा १५ निर्वाणी १६ बला १७ धारिणी १८ धरणप्रिया १६, नरदत्ता २०, गान्धारी २१, अम्बिका २२, पद्मावती २३ सिद्धायिका २४ इति वर्तमान--
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अभय रत्नसार । चतुर्विंशति-तीर्थकर-शासनदेव्यः । __ॐ ह्रीं श्रीं धृति-कीर्ति कान्ति-बुद्धिलक्ष्मी-मेधा-विद्या-साधन-प्रवेश निवेशनेषु सुगृहीत-नामानो जयन्ति ते जिनेन्द्राः। ॐ रोहिणी १ प्रज्ञप्ति २ वजशृङ्खला ३ वज्राङ्कुशा ४ चक्रेश्वरी ५ पुरुषदत्ता ६ काली ७ महाकाली ८ गौरी ६ गान्धारी १० सर्वास्त्रमहाज्वाला ११ मानवो १२ वैरोठ्या १३ अच्छता १४ मानसी १५ महामानसी १६ एताः षोडश विद्या-देव्यो रक्षन्तु मे स्वाहा ॥ ॐ आचार्योपाध्याय-प्रभृतिचातुर्वर्ण्य स्य श्रीश्रमण-सङ्घस्य शान्तिर्भवतु। ॐ ग्रहाश्चन्द्र-सूर्याऽङ्गरक-बुध-बृहस्पति-शुकशनैश्चर-राहु-केतु-सहिताः सलोकपालाः सोमयम-वरुण-कुवेर-वासवादित्य-स्कन्द-विनायका ये चान्येऽपि ग्राम-नगर-क्षेत्रदेवतादयस्ते सर्वे प्रीयन्तां २ अक्षीण-कोश-कोष्ठागारा नरपतयश्च भवन्तु स्वाहा ॥ ॐ पुत्रमित्र-मातृ-कलत्र-सुहृत्
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वद्धशान्तिः ।
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संबन्धि-बन्धु-वर्ग सहिता नित्यं चामोद-प्रमोदकारिणो भवन्तु । अस्मिंश्च भूमण्डले आयतन-निवासिनां साधु-साध्वी श्रावक श्राविकाणां रोगोपसर्ग-व्याधि दुःख- दौर्मनस्योपशमनाय शान्तिर्भवतु ॥ ॐ तुष्टि पुष्टि ऋद्धि-वृद्धिमङ्गल्योत्सवा भवन्तु । सदा प्रादुभूतानि दुरितानि पापानि शाम्यन्तु शत्रवः पराङमुखा भवन्तु स्वाहा | श्रीमते शान्तिनाथाय नमः शान्तिविधायिने । त्रैलोक्य-स्यामराधीश, - मुकुटाम्यर्चितां ॥ १ ॥ शान्तिः शान्तिकरः श्रीमान्, शान्तिं दिशतु मे गुरुः । शान्तिरेव सदा तेषां येषां शान्तिगृहे गृहे ॥ २ ॥ ॐ उन्मृष्टरिष्ट-दुष्ट-ग्रह- गति दुःस्वप्न- दुर्निमित्तादि । संपादित-हित-संपद, नाम - ग्रहणं जयति शान्तेः ॥ ३ ॥ श्रीसंघ - पौर-जन- पद, राजाधिप-राजसंनिवे-शानाम् । गोष्ठिक - पुरमुख्याणां व्याहरणैर्व्याहरेच्छान्तिम् ॥ ४ ॥ श्रीश्रमण संघस्य
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११८ अभय रत्नसार । शान्तिभवतु, श्रीपौर-लोकस्य शान्तिभवतु, श्रीजनपदानां शान्तिर्भवतु, श्रीराजाधिपानां शान्तिर्भवतु, श्रीराज-संनिवेशानां शान्तिर्भवतु,श्रीगोष्ठिकानां शान्तिर्भवतु। ॐ स्वाहा २ ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथाय स्वाहा । एषा शान्तिः प्रतिष्ठा. यात्रा स्नात्रावसानेषुशान्तिकलशं गृहीत्वा कुङ्कम. चन्दन-कर्पूरागुरु-धूप-वाप्त-कुसुमाञ्जलि-समेतः स्नात्रपीठे श्रीसंघसमेतः शुचिः शुचिवपुः पुष्पवस्त्र-चन्दनाभरणालंकृतः, चन्दनतिलकं विधाय कण्टे कृत्वा शान्तिमुद्घोषयित्वा शान्ति-पानीयं मस्तके दातव्यमिति । नृत्यन्ति नत्यं मणि-पुष्पवर्ष, सृजन्ति गायन्ति च मङ्गलानि । स्तोत्राणि गोत्राणि पठन्ति मन्त्रान्, कल्याणभाजो हि जिनाभिष के ॥१॥ अहं तित्थयर-माया, सिवादेवी तुम्ह-नयर-निवासिनी अम्ह सिवं तुम्ह सिवं, असुहोवसमं सिवं भवतु स्वाहा ॥ २॥ शिवमस्तु सर्व-जगतः, पर हित- निरता भवन्तु
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जिनपञ्जर-स्तोत्रम्। ११६ भ त-गणाः। दोषाः प्रयान्तु नाश, सर्वत्र सुखीभवतु लोकः ॥२॥ उपसर्गाः क्षयं यान्ति, छिद्यन्ते विघ्नवल्लयः । मनः प्रसन्नतामेति पूज्यमाने जिनेश्वरे ॥३॥
इति वृद्धशान्तिः समाप्ता॥
अथ जिनपञ्जर-स्तोत्रम् । ॥ॐ ह्रीँ श्री अहं अर्हद्भ्यो नमोनमः । ॐ ह्रीँ श्री अहं सिद्धेभ्यो नमोनमः। ॐ ह्रौं श्री अहं आचार्येभ्यो नमोनमः। ॐ ह्रो श्री अहं उपाध्यायेभ्यो नमोनमः। ॐ ह्रौं श्री अहं श्रीगौतमस्वामिप्रमुखसर्वसाधुभ्यो नमोनमः ॥१॥ एष पञ्च-नमस्कारः, सर्व-पापक्षयंकरः। मङ्गलानां च सर्वेषां प्रथमं भवति मङ्गलम् ॥ २ ॥ ॐ ह्रीँ श्री जये विजये, अहं परमात्मने नमः। कमलप्रभ-सूरीन्द्रो, भाषते जिनपरञ्जरम् ॥ ३॥ एकभक्तोपवासेन, त्रिकालं
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१२० अभय रत्नसार । यः पठेदिदम्। मनोऽभिलषितं सर्व, फलं स लभते ध्रुवम् ॥ ४॥भूशय्याब्रह्मचर्येण, क्रोधलोभ विवर्जितः । देवता पवित्रात्मा, षण्मासैलभते फलम् ॥ ५ ॥ अर्हन्तं स्थापये मूर्ध्नि, सिद्ध चक्षुर्ललाटके। आचार्य श्रोत्रयोमध्ये, उपाध्यायं तु घ्राणके ॥ ६॥ साधुवन्दं मुखस्याग्रे, मनः शुद्ध विधाय च । सूर्य-चन्द्र-निरोधेन, सुधीः सर्वार्थ सिद्धये ॥७॥ दक्षिणे मदन-द्वेषी, वाम-पार्वे स्थितो जिनः। अङ्गसंधिषु सर्वज्ञः, परमेष्ठी शिवङ्करः ॥८॥ पूर्वाशां श्रीजिनो रक्षे,-दाग्ने यी विजितेन्द्रियः । दक्षिणाशां परं ब्रह्म, नैऋतीं च त्रिकालवित् ।।। पश्चिमाशां जगन्नाथो, वायवीं परमेश्वरः। उत्तरां तीर्थकृत् सर्वामीशानी च निरञ्जनः ॥१०॥ पातालं भगवानहन्नाकाशं पुरषोत्तमः। रोहिणी प्रमुखा देव्यो, रक्षन्तु सकलं कुलम् ॥ ११ ॥ ऋषभो मस्तकं रक्षे-दजितोऽपि विलोचने।
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जिनपञ्जर-स्तोत्रम्। १२१ संभवः कर्ण-युगलं, नासिकां चाभिनन्दनः ॥१२॥
ओष्ठौ श्रीसुमती रक्षेद, दन्तान् पद्मप्रभो विभुः । जिवां सुपार्श्वदेवोऽयं, तालु चन्द्रप्रभो विभुः ॥ १३ ॥ कण्ठं श्रीसुविधी रक्षेद, हृदयं च श्रीशीतलः । श्रेयांसो बाहु-युगलं, वासुपूज्यः कर-द्वयम् ॥ १४ ॥ अंगुलीविमलो रक्षेद, अनन्तोसौ स्तनावपि । सुधर्मोऽप्युदरास्थीनि, श्रीशान्ति भि-मण्डलम् ॥ १५ ॥ श्रीकुन्थुगु ह्यक रने,-दरो रोम-कदी तटम् । मल्लिरूरू पृष्ठवंशं, जङ्घ च मुनिसुव्रतः॥ १६ ॥ पादाङ गुलीनमी रक्षेत्,श्रीनेमिश्चरणद्वयम् । श्रीपाश्वनाथः सर्वाङ्ग, वर्धमानश्चिदात्मकम् ॥१७॥ पृथिवीजल-तेजस्क,-वाय्वाकाशमयं जगत् । रक्षेदशेष-पापेभ्यो, वीतरागो निरञ्जनः ॥ १८॥ राजद्वारे श्मशाने वा, संग्रामे शत्रु-संकटे । व्याघ-चौराग्नि-सर्पादि-भूत-प्रेत-भयाश्रिते ।१६। अकाल-मरण-प्राप्ने, दारिद्रयापत्समाश्रिते।
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१२२ __ अभय रत्नसार। अपुत्रत्वे महादोषे, मूर्खते रोग-पीड़िते ॥२०॥ डाकिनो-शाकिनी-ग्रस्ते, महा-ग्रह-गणादिते । नयु तारेऽध्व-वैषम्ये, व्यसने चापदि स्मरेत् ॥२१॥ प्रातरेव समुत्थाय, यः स्मरेज्जिनपजरम् । तस्य किञ्चद्भयं नास्ति, लभते सुख सम्पदम् ॥ २२ ॥ जिनपञ्जरनामेदं, यः स्मरत्यनुवासरम् । कमलप्रभराजेन्द्र,-श्रियं स लभते नरः ॥ २३ ॥ प्रातः समुत्थाय पठेत् कृतज्ञो, यः स्तोत्रमेतज्जिनपजराख्यम् । आसादयेत्स कमलप्रभाख्य, लक्ष्मी मनो-वाञ्छित-पूरणाय ॥ २४ ॥ श्रीरुद्रपल्लीय-वरेण्य-गच्छे, देवप्रभाचार्य-पदाब्जहंसः । वादीन्द्र-चूडामणिरेष जैनो, जोयाद गुरुः श्रीकमल-प्रभाख्यः ॥ २५ ॥
॥ इति श्रीजिनपञ्जर-स्तोत्रं संपूर्णम् ॥
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ऋषिमण्डल-स्तोत्रम्। १२३ __ अथ श्रीऋषिमण्डल-स्तोत्रम् ।
आद्यन्ताक्षर-संलक्ष्य,-मदरं व्याप्य यत् स्थितम्। अग्नि-ज्वाला-समं नाद-बिन्द-रेखासमन्वितम् ॥ १॥ अग्नि-ज्वाला-समाक्रान्तं, मनो-मल-विशोधकम् । देदीप्यमानं हृत्पद्म, तत्पदं नौमि निर्मलम् ॥२॥ अर्हमित्यक्षरं ब्रह्मवाचकं परमेष्ठिनः। सिद्धचक्रस्य सद्बीजं, सर्वतः प्रणिदध्महे ॥ ३ ॥ ॐ नमोऽहंदभ्य ईशेभ्य ॐ सिद्धेभ्यो नमोनमः । ॐ नमः सर्वसूरिभ्य उपाध्यायेभ्य ॐ नमः॥ ४ ॥ॐ नमः सर्वसाधुभ्य ॐ ज्ञानेभ्यो नमोनमः । ॐ नमस्तत्त्वदृष्टिभ्यश्चारित्रभ्यस्तु ॐ नमः ॥ ५ ॥ श्रेयसेस्तु श्रियेस्त्वेतदर्हदाद्यष्टकं शुभम् । स्थानेष्वष्टसु विन्यस्तं, पृथग्बीजसमन्वितम् ॥६॥ आद्य पदं शिखां रक्षेत्, परं रक्षेत्तु मस्तकम् । तृतीयं रक्षेन्ने बेटे , तुर्य रक्षेच्च नासिकाम् ॥७॥ पञ्चमं तु मुखं रक्षेत्, षष्ठं रक्षेच्च घरिटकाम्।
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१२४
अभय रत्नसार।
नाभ्यन्तं सप्तमं रचेद, रक्षेत् पादान्तमष्टमम् ॥८॥ पूर्वप्रणवतः सान्तः, सरेफो द्वयब्धिपञ्चषान्। सप्ताष्टदशसूर्याङ्कान्, श्रितो बिन्दुस्वरान् पृथक् ॥६॥ पूज्यनामाक्षरा आद्याः, पञ्चातो ज्ञानदर्शन-चारित्रेभ्यो नमो मध्ये, ही सान्तसमलंकृतः ॥१०॥ॐ हाँ हौँ । ह। है। ह्र । है । ह्रौँ । ह्रः। असिआउसाज्ञान-दर्शनचारित्रेभ्यो नमः। जम्बवृक्षधरो द्वीपः, क्षारोदधि समावृतः। अहंदाद्यष्टकैरष्टकाष्ठाधिष्ठरलं कृतः॥११॥ तन्मध्यसंगतो मेरुः, कूटलक्षरलंकृतः। उच्च रुच्च स्तरस्तार, स्तारामण्ड. लमण्डितः ॥१२॥ तस्योपरि सकारान्तं, बीजमध्यास्य सर्वगम्। नमामि बिम्बमाईन्त्यं, ललाटस्थं निरञ्जनम् ॥१३॥ अक्षयं निर्मलं शान्तं, बहुलं जाब्य-तोज्झितम्। निरीहं निरहङ्कार, सारं सारतरं घनम्॥१४॥ अनुद्धतं शुभं स्फीतं, सात्विकं राजसं मतम्। तामसं चिरसंबुद्धं, तै
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ऋषिमण्डल स्तोत्रम् |
१२५
जसं शर्वरीसमम् ॥१५॥ साकारं च निरोकार, सरसं विरसं परम् । परापरं परातीतं, परंपरपरापरम् ॥१६॥ एक वर्णं द्विवच, त्रिव तुर्यवकम् । पञ्चवर्ण महावर्ण, सपरं च परापरं १७ सकलं निष्कलं तुष्ट, निर्वृतं भ्रान्तिवर्जितम् । निरञ्जनं निराकारं, निर्लेपं वीतसंश्रयम् ॥ १८ ॥ ईश्वरंब्रह्म-संबुद्ध, बुद्धं सिद्ध ं मतं गुरु । ज्योतीरूपं महादेवं, लोकालोक - प्रकाशकम् ॥ १६॥
दाख्यस्तु वर्णान्तः, सरेको बिन्दुमण्डितः । तुर्य - स्वर - समायुक्तो, बहुधा नाद - मालितः ॥ २० ॥ अस्मिन् बीजे स्थिताः सर्वे, वृषभाद्या जिनोत्तमाः । वर्णे निजैनिजैयु क्ता, ध्यातव्यास्तत्र संगताः ॥२१॥ नादश्चन्द्र-समाकारो, बिन्दुर्नील-समप्रभः । कलारुण समासान्तः, स्वर्णाभः सर्वतो - मुखः ॥ २२ ॥ शिरः संलीन ईकारो, विनीलो वर्णतः स्मृतः । वर्णानुसार-संलीनं, तीर्थकिन्मण्डलंस्तुमः ॥ २३ ॥ चन्द्रप्रभ-पुष्पदन्तौ नाद
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१२६
अभय रत्नसार ।
स्थिति समाश्रितौ | बिन्दुमध्यगतौ नेमि, सुतौनिसत्तमौ ॥ २४ ॥ पद्मप्रभ वासुपूज्यौ, कलापदमधिष्ठितौ । शिर-ई-स्थिति-संलीनौ, पाखं मल्ली- जिनेश्वरौ ॥ २५ ॥ शेषास्तीर्थकृतः सर्वे, हरस्थाने नियोजिताः । माया बीजाक्षरप्राप्ता – श्चतुर्विंशतिरहंताम् ॥ २६ ॥ गत-रागद्वेष- मोहाः, सर्व - पाप - विवर्जिताः । सर्वदाः सर्वकालेषु, ते भवन्तु जिनोत्तमाः ॥२७॥ देवदेवस्य यच्चक्रं तस्य चक्रस्य या विभा । तयाच्छादितसर्वाङ्ग, मा मां हिनस्तु डाकिनी ॥ २८ ॥ देव देवस्य० मा मां निस्तु राकिनी ॥ २६ ॥ देवदे० मामां हिनस्तु लाकिनी ॥ ३० ॥ देवदे० मा मां निस्तु काकिनी ॥ ३१ ॥ देवदे० मा मां हिनस्तु शाकिनी ॥ ३२ ॥ देवदे० मा मां हिनस्तु हाकिनी ||३३|| देवदे० मा मां हिनस्तु याकिनी ||३४|| देवदे० मा मां हिंसन्तु पन्नगाः ||३५|| देवदे० मा मां हिंसन्तु हस्तिनः || ३६ || देवदे०
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ऋषिमण्डल - स्तोत्रम् ।
१२७
मा मां हिंसन्तु राक्षसाः ॥ ३७ ॥ देवदे० मा मां हिंसन्तु वह्नयः ॥ ३८ ॥ देवदे० मा मां हिंसन्तु सिंहकाः॥ ३६ ॥ देवदे० मा मां हिंसन्तु दुर्जनाः ॥४०॥ देवदे० मा मां हिंसन्तु भूमिपाः ॥ ४१ ॥ श्रीगौतमस्य या मुद्रा, तस्य या भुवि लब्धयः । ताभिरभ्युयत- ज्योतिरहं सर्व-निधीश्वरः || ४२|| पाताल - वासिनो देवा, देवा भूपीठवासिनः । स्वर्वासिनोऽपि ये देवाः सर्वे रक्षन्तु मामितः ॥ ४३ ॥ येऽवधिलब्धयो ये तु परमावधि - लब्धयः । ते सर्वे मुनयो देवा, मां संरक्षन्तु सर्वदा ॥ ४४ ॥ दुर्जना भूत- वेतालाः पिशाचा मुद्गलास्तथा । ते सर्वेऽप्युपशाम्यन्तु, देवदेव - प्रभावतः ॥४५॥ ॐ ह्रीँ श्रीश्च धृतिर्लक्ष्मी, गौरी चण्डी सरस्वतो | जयाम्बा विजया नित्याक्लिन्ना जिता मद-द्रवा ॥ ४६ ॥ कामाङ्गा कामबाणा च, सानन्दा नन्दमालिनी । माया मायाविनी रौद्री कला काली कलिप्रिया ॥ ४७॥ एताः सर्वा महा
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अभय-रत्नसार। देव्यो, वत्तन्ते या जगत्त्रये । मह्यं सर्वाः प्रयच्छ न्तु, कान्तिं कोर्ति धृति मतिम् ॥४८॥ दिव्यो गोष्यः सुदुः-प्राप्यः, श्रोऋषिमण्डलस्तवः । भासितस्तीर्थनाथेन, जगत्ताणकृतेऽनघः ॥४६॥ रणे राजकुले वहौ, जले दुर्गे गजे हरौ। श्मशाने विपिने घोरे, स्मृतो रक्षति मानवम् ॥५०॥ राज्य-भ्रष्टा निजं राज्यं, पदभ्रष्टा निजं पदम् । लक्ष्मो-भ्रष्टा निजां लदमों, प्राप्नुवन्ति न सं. शयः ॥५१॥ भार्यार्थी लभते भायां, पुत्रार्थी लभते सुतम् । वित्तार्थी लभते वित्तं, नरः स्म. रण-मात्रतः ॥ ५२ ॥ स्वर्ण रूप्ये पटे कांस्ये, लिखित्वा यस्तु पूजयेत् । तस्यैवाष्टमहासिद्धिगृहे, वसति शाश्वती ॥५३॥ भूर्जपत्र लिखिस्वेदं, गलके मूर्ध्नि वा भुजे। धारितं सर्वदा दिव्यं, सव-भीति-विनाशकम् ॥५४॥ भूतैः प्रेतग्र हैर्यक्षः, पिशाचैमुद्गलैनलैः। वात-पित्तकफोद्र कैः-मुच्यते नात्र संशयः ॥५५॥ भूर्भुवः
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१७
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श्रीऋषिमण्डल - स्तोत्रम् |
१२६
स्वस्त्रयीपीठ - वत्तिन शाश्वता जिनाः । तैः स्तुतैवन्दितैदृष्टैर्यत् फलं तत्फलं श्रुतौ ॥५६॥ एतद् गोप्यं महास्तोत्र, न देयं यस्य कस्यचित् । मिथ्यात्ववासिने दत्त, बाल - हत्या पदे पदे । ५७ आचाम्लादि तपः कृत्वा, पूजयित्वा जिनावलीम् । अष्टसाहस्रिको जापः, कार्यस्तत्सिद्धिहेतवे ॥ ५८ ॥ शतमष्टोत्तरं प्रातर्ये पठन्ति दिने दिने । तेषां न व्याधयो देहे, प्रभवन्ति न चापदः ॥५६॥ अष्टमासावधिं यावत्, प्रातः प्रातस्तु यः पठेत् । स्तोत्रमेतद् महातेजो, जिनबिम्बं स पश्यति ॥ ६० ॥ दृष्टे सत्यर्हतो विम्बे, भवे सप्तम के ध्रुवम् । पदं प्राप्नोति शुद्धात्मा, परमानन्दनन्दितः ॥ ६१ ॥ विश्ववन्द्यो भवेद् ध्याता, कल्यागानि च सोऽश्नुते । गत्वा स्थानं परं सोऽपि, भूयस्तु न निवर्त्तते ॥ ६२॥ इदं स्तोत्र महास्तोत्र, स्तुतीनामुत्तमं परम् । पठनात्स्मरणाजापाल्लभ्यते पदमुत्तमम् ॥ ६३॥ ( इति श्रीऋषिम
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१३०
अभय रत्नसार ।
एडलस्तोत्र' क्षेपकश्लोकान्निराकृत्य मूलमन्त्रकल्पानुसारेण लिखितं गणिभिः श्रीचमाकल्यागोपाध्यायैः, तदेवात्रास्माभिर्मुद्रितम् )
॥ अथ श्रीगौडी पाश्र्वजिन - वृद्धस्तत्रनम् ॥ ॥ ( दूहा ) वाणी ब्रह्मावादिनी, जागै जग विख्यात । पास तणां गुण गावतां मुज मुख वसज्यो मात ॥ १ ॥ नारंगे अहलपुरे, अहमदाबाद, पास । गौडीनो धणी जागतो, सहुनी पूरे आस ॥ २ ॥ सुभ बेला सुभ दिन घड़ी, मुहुरत एक मंडाण । प्रतिमा ते इह पासनी, थई प्रतिष्ठा जाण ॥ ३ ॥ ( ढाल) गुण हि विशाला मंगलीक माला, वामानो सुत साचोजी । धरण करण कंचण मणि माणक दे, गौडीनो धणी जाचौजी (०) || ४ || हिलपुर पाटण
मांहे प्रतिमा, तुरक त घर हुतीजी । अश्वनी भूमि अश्वनी पीडा, अश्वनी वालि विगूती जी (ग० ) ॥५॥ जागंतो जब जेहने कहिये, सुहणो
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श्रीगौडीपार्श्वजिन-वृद्धस्तवनं। १३१ तुरक. आपै जी। पास जिनेसर केरी प्रतिमा, सेवक तुझो संताप जी (गु.) ॥६॥ प्रह ऊठीने परगट करज, मेघा गोठीने देजे जी । अधिक म लेजे ओछो म लेजे, टक्का पांचसै लेजे जी ( गु०) ॥७॥ नहिं आपिस तो मारीस मुरडीस, मोर बंध बंधास्ये जी। पुत्र कलत्र धन
ह्य हाथी तुझ, लाछि घणी घर जास्यै जी ( गु० ) ॥८॥ मारग पहिलो तुझनें मिलस्य, सारथवाह जे गोठी जी। निलक्ट टीलो चोखा चेढ्या, वस्तु वहै तसु पोठी जी ( गु० ) ॥६॥ (दृहा )॥ मनसु बोहनो तुरकडो, माने वचन प्रमाण । बीबी ने सुहणा तणो, संभलावै सहिनाण ॥ १०॥ बीबी बोले तुरकने, बडा देव है कोय । अवस ताव परगट करो, नहीतर मारै सोय ॥११॥ पाछली रात परोडीयै, पहली बांधै पाज । सुहणा माहे सेठने, संभलावै जक्ष-राज ॥ १२ ॥ ( ढाल ) एम कही जक्ष आयो राते,
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१३२
अभय - रत्नसार ।
गुण
सारथवाहने सुहौं जी | पास तणी प्रतिमा तु लेजे, लेतो सिर मत धूणे जी ( एम० ) ॥ १३ ॥ पांच टक्का तेहने पे, अधिको म पिस वारू जी । जतन करी पहुंचाडे थानिक, प्रतिमा संभाजी ( एम० ) ॥१४॥ तुझने होसी बहु फल दायक भाई गोठीने सुणजे जी । पूजीस प्रणमीश तेहना पाया, प्रह उठीने थुणजे जी ( ए० ) ॥ १५ ॥ सुहणो देईने सुर चाल्यो, आपणे थांनक पहुतो जी । पाटण मांहें सारथवाहु, हीडै तुरकने जोतो जी (ए०) ॥ १६ ॥ तुरकै जातां दीठो गोठी, चोखा तिलक लिलाडे जी । संकेत पहुतो साचो जाणि, बौलावै बहु लाडै जी ( ए० ) ॥१७॥ मुझ घरि प्रतिमा तुनें पुं, पास जिणेसर केरी जी । पांचसै टक्का जो मुझ आप, मोल न मांगु फेरी जी ( ए० ) ॥ १८ ॥ नागो देई प्रतिमा लेई, थानक पहुं तो रंगै जी । केसर चन्दन मृगमद
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श्रीगौडोपाश्चेजिन वृद्धस्तवनं ।
१३३
घोली, विधसुं पूजा रंगे जी ( ए० ) ॥ १६ ॥ गादी रूडी रुनी कीधी, ते मांहि प्रतिमा राखे जी । अनुक्रम आव्या परिकर माहें, श्रीसंघने सुर साख जी ( ए० ) ॥ २० ॥ उच्छव दिन २ अधिक थाये, सत्तर भेद सनात्रो जो । ठाम २ ना दरसण करवा, आवै लोक प्रभातो जी ( ए० ) ॥ २१ ॥ ( दूहा ) ॥ इक दिन देखे - धसुं, परिकर पुरनो भङ्ग । जतन करूँ प्रतिमा तणो, तीरथ अलै अभग ॥ २२ ॥ सुणो आप सेठने, थल अटवी उज्जाड । महिमा थास्यै अति घणी, प्रतिमा तिहां पहुंचाड ॥ २३ ॥ कुशल खेम तिहां, तुमनें मुझने जाणि । संका छोड़ो काम करि, करतो मकरि संकाणि ॥ २४॥ ( डाल ) ॥ पास मनोरथ पूरा करें, वाहण एक वृषभ जोतरै । परिकरथी परियाणों करें, एक थल चढ़ि बीजो उतरे ॥ २५॥ बारै कोस आव्या जेतले, प्रतिमा नवि चाले तेतलें । गोठी मनह
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१३४ अभय रत्नसार । विमासण थई, पास भुवन मंडावं सही ॥२६॥ आ अटवी किम करूँ प्रयाण, कटको कोइ न दीसै पाहाण । देवल पास जिनेसर तणो, मंडावं किम गर/ विणो ॥ २७ ॥ जल विन श्री. संघ रहस्यै किहां, सिलावटो किम आवे इहां । चिन्तातुर थयो निद्रा लहै, यक्षराज आवीने कहैं ॥ २८ ॥ गुंहली ऊपर नाणो जिहां, गरथ घणो जाणीजे तिहां । स्वस्तिक सोपारीने ठाणि, पाहण तणी उल्लटस्य खाणि ॥ २६ ॥ श्रीफल सजल तिहां किल जूओ, अमृत जलनी सरसी कूओ। खारा कुवा तणो इह सैनाण, भूमि पड्यो ॐ नीलो छाण ॥ ३०॥ सिलावटो सीरोही वसै कोड पराभवियो किसमिसे। तिहां थको तुं इहां आणजे, सत्य वचन माहरो मानगे॥३१॥ गोठीनो मन थिर थापियो, सिलावटने सुहणो दियो। रोग गमीने पूरू आस, पास तणो मंडे आवास ॥ ३२ ॥ सुपन मांहे.
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श्रीगोडीपार्श्वजिन-वृद्धस्तवनं। १३५ मान्यो ते वैण, हेम वरण देखाड्यो नैंण । गोठी मनह मनोरथ हुआ, सिलावटने गया तेडवा ॥ ३३ ॥ सिलावटो आवै सूरमो, जिमें खीर खाँड घृत चामो। घडै घाट करैं कोरणी, लगन भले पाया रोपणी ॥३४॥ थंभ २ कीधी पूतली, नाटक कौतुक करती रली। रङ्ग मंडप रलियामणों रसै, जोतां मानवनो मन बसै ॥ ३५ ॥ नोपायो पूरो प्रासाद, स्वर्ग समो मांडे आवास । दिवप्त विचारी इंडो घड्यो ततखिण देवल ऊपर चढ्यो ॥३६॥ शुभ लगन शुभ वेला वास, पव्वासण बेटा श्रीपास । महिमा मोटी मेरु समान, एकल मिल वगडे रहैवान ॥३७ ॥ वात पुराणी मैं सांभली, तवन मांहि सूधी सांकली। गोठी तणा गोतरिया अछ, यात्रा करीने परने पछे ॥ ३८ ॥ (दोहा)॥ विघन विडारन यक्ष जगि, तेहनो अकल सरूप । प्रीत करे श्रीसङ्घने, देखाडै निज रूप
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अभय रत्नसार।
॥ ३६॥ गरुओ गौडी पास जिन, आपे अरथ भंडार । सांनिध करै श्री सङ्घने, आसा पूरणहार ॥४०॥ नील पलाणे नील हय, नीलो थई असवार । मारग चूका मानवी, वाट दिखावण हार ॥४१॥ ( ढाल ) वरण अढार तणो लहै भोग, विघन निवारे टाले रोग। पवित्र थई समरै जे जाप, टाल सगला पाप संताप ॥४२॥ निरधननो घरि धन नो सुत, आप अपुत्रीयाने पुत्र । कायरने सूरापण धरै, पार उतारै लच्छी धरै ॥ ४३ ॥ दोभागीने दे सोभाग; पग विहूणाने आपै पग। ठाम नहीं तेहने ये ठाम, मनवंछित पूरे अभिराम ॥ ४४ ॥ निराधार ने ये आधार, भवसायर उतारे पार । आरतियानी भारत भंग, धरै ध्यान ते लहै सुरंग ॥ ४५ ॥ समस्यां सहाय दीये यक्ष राज, तेहना मोटा अछे दिवाज । बुद्धि हीण ने बुद्धि प्रकाश, गाने वचन विलास ॥ ४६॥ दुखियाने सुख
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श्रीगौडीपार्श्वजिन-वृद्धस्तवनं। १३७ नो दातार, भय भंजण रंजण अवतार। बंधन तूटे वेणी तणा, श्री पार्श्व नाम अक्षर स्मरणा ॥ १७ ॥ (दूहा ) श्री पाश्वनाम अक्षर जपे, विश्वानर विकराल । हस्त जूथ दूरे टलै, दुद्धर सिह सियाल ॥ ४८ ॥ चोर तणा भय चूकवे, विष अमृत उडकार । विष धरनो विष ऊतरे, संग्रामें जय जय कार ॥ ४६॥ रोग सोग दा. लिद्र दुख, दोहग दूर पलाय । परमेसर श्री पासनो, महिमा मन्त्र जपाय ॥ ५० ॥ (कडखानी चाल ) उंजितु २ उंज उपसम धरी, ॐ ह्रीँ श्रीँ श्री पार्श्व अक्षर जपते। भूत ने प्रेत झोटिंग व्यन्तर सुरा, उपसमे वार इकबीस गुणंते (उं)॥५१॥ दुद्धरा रोग सोगा जरा जंतने, ताव एकान्तरा दुत्तपते । गर्भबन्धन वणं सर्प विच्छू विषं, चालिका बालमेवा झखंत ( उं० ) ॥ ५२ ॥ साइणी डाइणी रोहिणी रंकणो, फोटका मोटका दोष हुते । दाढ उंदर- .
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१३८
अभय रत्तसारः ।
तणी कोल नोला तणी, खान सीयाल विकराल दंते ॥ ५३ ॥ ( उं० ) धरणेंद्र पद्मावती समर सोभावती, वाटाघाट अटवी अटतै । लखमी लोढुं मिलें सुजस वेला उलै, सयल आस्या फलै मन हसंते ( उं० ) ॥ ५४ ॥ अष्ट महाभय हरें कानपीड़ा टलै, ऊतर सूल सीसग भणते । वदत वर प्रीतसुं प्रीतिविमल प्रभू, श्री पास जिण नाम अभिराम मन्तै ( उंजितु ) ॥ ५५ ॥ इति श्रीगोडी पार्श्वनाथजी वृद्ध स्तवनं समाप्तम्
॥ श्री गौतम स्वामिजी का रास ॥
|| वीर जिणेसर चरण कमल, कमला कय वासो; पणमिवि पभणिसु सामोसाल, गोयम गुरु रासो । मण तणु वयण एकंत करिवि, निसुरहु भो भविया, जिम निवसे तुम देह गेह गुण गण गहगहिया ॥ १ ॥ जंबूदीव सिरि
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श्री गौतम स्वामिजी का रास ।
१३६
भरह खित्त, खोणी तल मंडण; मगह देस सेणिय नरेश, रिऊ दल बल खंडण | धरणवर गुव्वर गाम नाम, जिहां गुण गण सज्जा; विप्प बसे वसुभूइ तत्थ, तसु पुहवी भज्जा ॥ २ ॥ ताण पुत सिरि इन्दभूइ, भूवलय पसिद्धो; चाउदह विज्जा विविहरूव, नारी रस लुद्धो । विनय विवेक विचार सार, गुण गणह मनोहरः सात हाथ सुप्रमाण देह, रूवहि रंभावर ॥ ३ ॥ नयण वयण कर चरण जरणवि, पंकज जल पाडिय; तेजहिं तारा चन्द सूरि, आकास भमाडिय । रुवहि मयण अनंग करवि, मेल्यो निरधाडिय, धीरम मेरु गंभीर सिंधु, चंगम चय चाडिय || ४ || पेक्खवि निरुवम रूव जास, जाण जंपे किंचियः एकाकी किल भोत इत्थ, गुण मेल्या सिंजिय । हवा निच्चय पुव्व जम्म, जिरणवर इण अंचिय; रंभा पउमा गउरी गङ्ग, तिहां विधि वंचिय ॥ ५॥ नय बुध नय गुरु कविण
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अभय रत्नसार।
कोय, जसु आगल रहियो; पंच सयां गुण पात्र छात्र, हीडे परवरियो। करय निरंतर यज्ञ करम, मिथ्यामति मोहिय; अणचल होसे चरम नाण, दंसह विसोहिय ॥६॥ वस्तु ॥ जंबूदोव जंबूदीव भरह वासंमि, खोणीतल मंडण, मगह देस सेणिय नरेसर, वर गुव्वर गाम तिहां, विप्प वसे वसुभूइ सुन्दर, तसुपुहवि भजा, सयल गुण गण रूव निहाण, ताण पुत्त विजानिलो, गोयम अतिहि सुजान ॥७॥ भास ॥ चरम जिणेसर केवलनाणी, चोविह संघ पइट्टा जाणी। पावापुर सामी संपत्तो, चउविह देव निकायहिं जुत्तो।। देवहि समवसरण तिहां कीजें, जिण दीटे मिथ्यामत छीजे। त्रिभुवन गुरु सिंहासन बेठा, ततखिण मोह दिगंत पइट्ठा ॥ ६॥ क्रोध मान माया मद पूरा, जाये नाठा जिम दिन चोरा। देव दुंदुभि आगासे वाजी, धरम नरेसर आव्यो गाजी ॥ १० ॥ कुसुम वृष्टि अरचे तिहां देवा,
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श्री गौतम स्वामिजी का रास ।
१४१
चउसठ इंद्रज मागे सेवा । चामर छत्र सिरोवरि सोहे, रूवहि जिनवरजग सहु मोहे ॥ ११ ॥ उपसम रसभर वर वरसंता; जोजन वाणि वखाण करता । जाणिव वर्द्धमान जिण पाया, सुर नर किन्नर आवइ राया ||१२|| कंत समोहिय जलहलकंता, गयण विमाणहि रणरणकंता । safa इन्दभूइ मन चिंते, सुर वे अम यज्ञ हुर्वते ॥ १३ ॥ तीर तरंडक जिम ते वहिता. समवसरण पुहता गहगहिता । तो अभिमाने गोयमजंपे, इस अवसर कोपें त कंपे ॥ १४ ॥ मूढा लोक अजाण्युं बोले, सुर जाणंता इम कांइ डोले । मो आगल कोइ जाण भणीजें, मेरु अवर किम उपमा दीजें ॥ १५ ॥ वस्तु ॥ वीर जिणवर वीर जिणवर नाण संपन्न पावापुर सुरमहिय, पत्त नाह संसारतारण, तिहिं देवइ निम्महिय, समवसरण बहु सुवख कारण, जिबर जग उज्जोय करें, तेजहि कर दिनकार
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१४२ अभय रत्नसार । सिंहासण सामी ठव्यो, हुओ तो जय जयकार ॥ १६ ॥ भास ॥ तो चढियो घणमाण गजे, इन्दभूइ भूयदेव तो, हुकारो कर संचरिय, कव. णसु जिणवरदेव तो। जोजन भूमि समोसरण, पेक्खवि प्रथमार भ तो, दह दिस देखे विबुध वधू, आवंती सुररभ तो ॥ १७ ॥ मणिमय तोरण दंभ ध्वज, कोसीसे नवघाट तो, वइर विवर्जित जंतुगण, प्रातीहारिज आठ तो । सुर नर किन्नर असुरवर, इंद्र इंद्राणी राय तो, चित्त चमकिय चिंतवए, सेवंताँ प्रभु पाय तो ॥ १८ ॥ सहसकिरण सामी वीरजिण, पेखिन रूप विसाल तो; एह असंभव संभव ए, साचो ए इंद्रजाल तो। तो बोलावइ त्रिजग गुरु, इंद्रभूइ नामेण तो; श्रीमुख संसय सामी सबे, फेडे वेद पएण तो॥१६॥ मान मेल मद ठेल करे, भगतिहिं नाम्यो सीस तो, पंच सयांसुव्रत लियो ए, गोयम पहिलो सीस तो। बंधव संजम सु.
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श्री गौतम खामिजी का रास। १४३ णिवि करे, अगनिभूइ आवेय तो; नाम लेई आभास करे, ते पण प्रतिबोधेय तो ॥२०॥ इण अनुक्रम गणहर रयण, थाप्या वीर इग्यार तो, तो उपदेशे भुवन गुरु, संयमशुं व्रत बार तो। बिहु उपवासें पारणो ए, आपणपे विहरंत तो; गोयन संयम जग सयल, जय जयकारं करंत तो॥ २१॥ वस्तु ॥ इंद्रभूइ इंद्रभूइ चढियो बहुमान, हुंकारो करि कंपतो, समवसरण पहुतो तुरतो; जे संसा सामि सवे, चरमनाह फेडे फरंत तो; बोधिबीज संजाय मने, गोयम भवहि विरत्त, दिक्खा लेई सिक्खा सही, गणहर पय संपत्त ॥ २२ ॥ भास ॥ आज हुओ सुविहाण, आज पचेलिमों पुण्य भरो, दीठा गोयम सामि, जो निय नयणे अमिय सरो। समवसरण मझार, जे जे संसय ऊपजेए, ते ते पर उपगार कारण पूछे मुनि पवरो॥ २३ ॥ जीहां २ दीजें दीख, तीहां केवल ऊपजे ए; आप कने अण
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१४४ अभय रत्नसार। हत, गोयम दीजें दान इम। गुरु ऊपर गुरु भक्ति, सामी गोयम ऊपनिय; एणिछल केवल नाण,, रागज राखे रंग भरे ॥ २४ ॥ जो अष्टापद सेल, वंदे चढ चउवीस जिण, आतम लब्धि क्सेण, चरम सरीरी सो ज मुनि । इय देसणा निसुणेह, गोयम गणहर संचरिय, तापस पन्नर सएण, तो मुनि दोठो आवतो ए ॥ २५ ॥ तप सोसिय निय अंग-अम्हां संगति न उपजे ए, किम चढसे दृढ़ काय, गज जिम दीसे गाजतो ए। गिरुओ ए अभिमान, तापस जो मन चिंतवे ए, तो मुनि चढियो वेग, अलंबवि दिनकर किरण ॥ २६ ॥ कंचण मणि निप्फन्न, दंडकलस धजवड सहिय, पेखवि परमाणन्द, जिणहर भरतेसर महिय। निय निय काय प्रमाण, चिहु दिसि संठिय जिणह बिंब, पणमवि मन उल्लास, गोयम गणहर तिहां वसिय ॥ २७ ॥ वयर-सामोनो जीव, तिर्यक
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श्री गौतम स्वामिजी का रास ।
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जृंभक देव तिहां प्रतिबोध्यो पुडरीक, कंडरिक अध्ययन भरणी । वलता गोयम सामि, सवि तापस प्रतिबोध करे, लेई आपण साथ, चाले जिम जूथाधिपति ॥ २८ ॥ खीर खांड घृत आण, अमिय वठ अंगूठ ठवे, गोयम एकण पात्र, करावे पारणो सवे | पंच सयां शुभ भाव, उज्जल भरियो खीर मिसे, साचा गुरु संयोग, कबल ते केवल रूप हुआ ॥ २६ ॥ पञ्च सयाँ जिगनाह, समवसरण प्रकारत्रय, पेखवि केवल नाण, उप्पन्नो उज्जोय करे । जाणे जणवि पीयूष, गाजंती घन मेघ जिम, जिनवाणी निसुणेवि, नाणी हुआ पंचसया ॥ ३० ॥ वस्तु ॥ इण अनुक्रम इस अनुक्रम नाग पन्नरेसे, उप्पन्न परिवरिय, हरिदुरिय जिगनाह वंदइ, जाणेवि जगगुरु वयण, तिहि नारा अप्पाण निंदइ । चरम जिनेसर इम भरणे, गोयम म करिस खेव, छह जाय आपण सही, होस्यां तुल्ला बेव ॥ ३१ ॥
भास ॥
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१४६ अभय रत्नसार। समियो ए वीर जिणन्द, पनमचन्द जिम उल्लसिय, विहरियो ए भरहवासम्मि, वरस बहुत्तर संवसिय। ठवतो ए कणय पउमेण, पाय कमल संधैं सहिय, आवियो ए नयणानंद, नयर पावापुर सुरमहिय ॥ ३२ ॥ पेसियो ए गोयम सामि, देवसमा प्रतिबोध करे; आपणो ए तिसला देवि, नंदन पुहतो परमपए। वलतो ए देव आकाश, पेखवि जाण्यो जिण समो ए, तो मुनि ए मन विखवाद, नाद भेद जिम ऊपनो ए॥ ३३ ॥ इण समे ए सामिय देखि, आप कनासु टालियो ए, जाणतो ए तिहुअण नाह, लोक विवहार न पालियो ए। अतिभलों ए कीधलो सामि, जाण्यो केवल मागसे ए, चिन्तव्यो ए बालक जेम, अहवा केडे लागसे ए॥ ३४ ॥ हूँ किम ए वीर जिणंद, भगतिहि भोलेभोलव्यो ए, आपणो ए उचलो नेह, नाह न संपे साचव्यो ए। साचो ए वीतराग, नेह न
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श्री गौतम स्वामिजी का गस। १४७ हेजेलालियो ए तिणसमे ए, गोयमचित्त, राग वैरागे वालियो ए ॥३५॥ आवतो ए जो उल्लट्ट, रहितो रागे साहियो ए, केवल ए नाण उप्पन्न, गोयम सहिज ऊमाहियो ए। तिहुअण ए जय जयकार, केवल महिमा सुर करे ए, गणधरु ए करय बखाण, भविया भव जिम निस्तरे ए ॥३६ ॥ वस्तु॥ पढम गणहर पढम गणहर बरस पच्चास, गिहवासें संवसिय, तीस बरस संजम विभूसिय, सिरि केवल नाण पुण, बार बरस तिहुअण नमंसिय, राजगृही नयरो ठव्यो बाणबइ बरसाउ, सामी गोयम गुणनिलो, होसे सिवपुर ठाउ ॥ ३७॥ भास ॥ जिम सहकारे कोयल टहुके, जिम कुसुमावन परिमल महके, जिम चन्दन सोगंध निधि । जिम गंगाजल लहिस्या लहके, जिम कणयाचल तेजे झलके, तिम गोयम सोभाग निधि ॥ ३८॥ जिम मान सरोवर निवसे हंसा, जिम सुरतरू
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अभय रत्नसार । वर कसाय वतंसा, जिम महुयर राजीव वने,। जिम रयणायर रयणें विलसे, जिम अंबर तारागण विकसे, तिम गोयम गुरु केवल घनें ॥३६॥ पूनम निसि जिम ससियर सोहे, सुर तरु महिमा जिम जग मोहे, पूरव दिस जिम सहसकरो। पञ्चानने जिम गिरिवर राजे, नरवई घरजिम मयगल गाजे, तिम जिन सासन मुनि पवरो ॥ ४०॥ जिम गुरु तरुवर सोहे साखा, जिम उत्तम मुख मधुरी भाषा, जिम वन केतकि महमहे ए। जिम भूमीपति भुयवल चमके, जिम जिन मन्दिर घण्टा रणके, गोयम लब्धे गहगह्यो ए ॥४१॥ चिन्तामणि कर चढीयो आज, सुर तरु सारे वंछिय काज, कामकुम्भ सहु वशि हुआ ए। कामगवी पूरे मन कामी, अष्ट महासिद्धि आवे धामी, सामी गोयम अणसरि ए॥४२॥ पणवक्खर पहिलो पभणीजें, माया वीजो श्रवण सुणीजे, श्रीमिति
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श्री गौतम स्वामिजी का रास । ९४६
सोभा संभवाए । देवां धुर अरहिंत नमोजे, विनय पहु उवकाय थुणीजे, इण मन्त्रे गोयम नामो ए ॥ ४३ ॥ पर घर वसतां काय करीजे, देस देशांतर काय भमीजे, कवण काज प्रयास करो । प्रह ऊठी गोयम समरोजे, काज समग्गल ततखिण सीजे, नव निधि विलसे तिहां परे ए ॥ ४४ ॥ चवदय सये बारोत्तर वरसे गोयम गाहर केवल दिवसे, कियो कवित्त उपगार परो । आदिहिं मंगल ए पभणीजे, परव महोच्छव पहिलो दीजे, रिद्धि वृद्धि कल्याण करो ॥४५॥ धन माता जिए उयरे धरियो, धन्य पिता जिण कुल अवतरियो, धन्य सुगुरु जिण दीखियो ए । विनयवंत विद्या भण्डार, तसु गुण पुहवी न लब्भइ पार, वड जिम साखा विस्तरो ए । गोयम सामी रास भणजे, चउविह संघ रलिया
* यह श्री विनयप्रम उपाध्या जी श्री जिन कुशल सूरिजी के जिनका स्वर्गवास विसं० १३८६ में हुआ था, शिष्य थे ।
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१५०
अभय रत्नसार ।
यत कीजें, रिद्धि वृद्धि कल्याण करो ॥ ४६ ॥ कुंकुम चंदन छडा दिवरावो, माणक मोतीना चौक पुरावो, रयण सिंहासरण बेसो ए| तिहां बेसी गुरु देसना देसी, भविक जीवना काज सरेसी, नित नित मङ्गल उदय करो ॥ ४७ ॥ इति श्री गौतमखामि रास सम्पूर्ण ।
॥ अथ वृद्धनवकार ॥
॥ किं कप्पत्तरुरे प्रयाण चिंतउ मणभिंतरिं, किं चिंतामणि कामधेनु आराहो बहुपरि ॥ चित्तावेली काज किसे देसांतर लंघउ, रयणरासिकारण किसे सायर उल्लंघउ ॥ चवदे पूरब सार युग लद्धउ ए नवकार, सयल काज महियल सरे दुत्तर तरे संसार ॥ १ ॥ केवलि भासिय रीत जिके नवकार धारा है, भोगवि सुक्ख अांत अंत परम प्पयसा है ॥ इण भारणे सुर रिद्धि पुत्त सुह विलसे बहु परि, इस झाणे देव
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वृद्धनवकार ।
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लोक इंदपद पामे सुंदरि ॥ एह मंत्र सासतो जपे अचिंत चिंतामणि एह, समरण पाप सबे टले रिद्धि सिद्धि नियगेह ॥ २ ॥ निय सिर ऊपर काण मज्झ चिंतवै कमल नर, कंचणमय अठदल सहित तिहां मांहे कनकवर ॥ तिहां बेठा अरिहंतदेव पउमासण फिटकमणि, सेयवत्थ पहरेवि पढम पय चिंते नियमणि ॥ निव्यारय चउ गइ गमण पामिय सासय सुक्ख, अरिहंत झाणे तुम लहो जिम अजरामर सुक्ख ॥ ३ ॥ पनर भेय तिहां सिद्ध बीय पद जे
राहे, राते विद्रुमतो वन्ननिय सोहग साहे ॥ राती धोती पहर जपै सिद्धहिं पुत्रे दिसि, सयल लोय तिह नरहि होइ ततखिगसेवसि ॥ मूलमंत्र वशीकरण अवर सहू जगधंद, मणमूली श्रोषध करे बुद्धि होणजाचंध ॥ ४ ॥ दक्षिण दिसि पंखडी जपे नमो आयरियाणं, सोवनवनह सीस सहित उवए सहिनाणं || रिद्ध सिद्ध
॥
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१५२
अभय-रत्नसार ।
कारणे लाभ ऊपर जे ध्यावे, पहरे पीलावत्थ तेह मन वंछिय पावै ॥ इण झाणे नव निधि हुवेए रोग कदे नवि होय, गज रथ हय वर पालखो चामर छत्त सिर जोय ॥ ५॥ नीलवन्न उवझाय सीस पाढंता पच्छिम, आराहिज्जे अंग पुव्व धारंत मणोरम ॥ पच्छिम दिस पंखडीय कमल ऊपर सुहझाण, जोवो परमानंद तासु गय देवविमाण ॥ गुरु लघु जे रक्खे विदुर तिहां नर बहु फल होइ, मन सूधे विण जे जपे तिहां फल सिद्ध न होई ॥ ६ ॥ सव्वै साधु उत्तर विभाग सामला वइठा, जिण धर्म लोय पयासयंत चारित्र गुण जिठा ॥ मण वयण काएहिं जपे जे एके झाणे, पंचवन्न तिहां नाण झाण गुण एह पमाणे ॥ अनंत चोवीसी जग हुइए होसी अवर अनंत, आदि कोइ जाणे नही इण नवकारह मंत ॥ ७॥ एसो पंच नमुकारो पद दिसिम गणेहिं, सव्व पावप्पणासणो पद जप
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वृद्धनवकार ।
१५३
नेरेहिं ॥ वायव दिसि झाएह मंगलागं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं ईसाग पएसिं ॥ चिह्न दिसि चिह्न विदिसे मिलिय अट दल कमल ठवेइ, जो गुरु लघु जाणी जपै सो घण पाव खवेइ ॥ ८ ॥ इण प्रभाव धरणिंद हुआ पायालह सामी, समलीकुप्रर उपन्न भिल्ल सुर लोयह गामी ॥ संबल कंबल वे बलद पहुता देवा कप्पे, सूली दीधो चोर देव थयो नवकारहि जप्पे | शिवकुमार मन वंधिय करे जोगी लियो मसाण, सोनापुरसो सोधलो इस नवकार प्रमाण ॥ ६ ॥ छींके बैठो चोर एक आकासे गामी, अहि फिट्टि हुई फूल माल नवकारह नामी || वारू श्राचारंत बाल जल नदी प्रवाहे, बोध्यों कंटही उयर मंत्र जपियो मनमांहे ॥ चिंत्या काज सबै सरे इरत परत विमास, पालित सूरितणी परे विद्या सिद्ध आकास ॥१०॥ चौर धाड संकट टले राजा वसि होवे, तित्थंकर
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૪
अभय रत्नसार ।
सो होइ लाख गुण विधिसु जोवे ॥ साइग
डाइण भूत प्रेत वेत्ताल न पोहवे, आधि व्याधि ग्रहणी पीडते किमहि न होवे ॥ कुठ जलोदर रोग सबे नासै एणही मंत, मयासुदरितणी परे नव पय झारण करत ॥ ११ ॥ एक जीह इण मंत्रणा गुण किता बखाणु, नाहीण छऊमच्छ एह गुण पार न जाणूं ॥ जिम सत्तुंजय तित्थराउ महिमा उदयवंती, सयल मंत्र धुरि एह मंत्र राजा जयवंतो ॥ तिथ्यकर गणहर परिणय चवदह पूरब सार, इस गुण अंत न को कहे गुण गिरुवो नवकार ॥ १२ ॥ अड संपय नव पय सहित इसठ लहु अक्खर, गुरु - क्खर सत्तैव इह जाणो परमक्खर || गुरु जि वल्लह सूरि भणे सिव सुक्खह, कारण, नरय तिरय गय रोग सोग बहु दुक्ख निवारण || जल थल महियल वनगहण समरण हुवै इक चित्त, पंच परमेष्टि मंत्रह तणी सेवा देज्यो
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वृद्धनवकार। नित्त ॥ १३ ॥ इति पंच परमेष्टि महिमा गर्भित वृद्ध नवकार मंत्र सम्पूर्णम् ॥
॥ अथ श्री कल्याणमन्दिर स्तोत्रम् ॥
कल्याणमन्दिरमुदारमवद्यभेदि, भीताभयप्रदमनिन्दितमङि घ्रपद्मम् । संसारसागरनिमज्जदशेषजन्तु-पोतायमानमभिनभ्य जिनेश्वरस्य ॥ १॥ यस्य स्वयं सुरगुरुर्गरिमाम्बुराशेः, स्तोत्रं सविस्तृतमतिन विभुर्वितीर्थेश्वरस्य कमठस्मयधूमकेतो-स्तस्याह-मेष किल संस्तवनं करिष्ये ॥ २॥ युग्मम् ॥ सामान्यतोऽपि तव वर्णयितु स्वरूप-मस्मादृशाः कथमधीश ! भवन्त्यधीशाः ? । धृष्टोऽपि कौशिकशिशुर्यदि वा दिवाधो, रूपं प्ररूपति किं किल घर्मरश्मेः ? ॥३॥ मोहक्षयादनुभवन्नपि नाथ ! मत्यों, नून गुणान् गणयितुन तव क्षमेत। कल्पान्तवा. न्तपयसः प्रकटोऽपि यस्मा-न्मोयेत केन जलधेर्ननु रत्नराशिः ? ॥ ४ ॥ अभ्युद्यतोऽस्मि तव
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अभय रत्नसार ।
नाथ ! जडाशयोऽपि कर्त्तु ं स्तवं लसदसंख्यग्गाकरस्य । बालोऽपि किं न निजबाहुयुगं वितत्य, विस्तीर्णतां कथयति स्वधियाऽम्बुराशेः ? ॥ ५ ॥ ये योगिनामपि न यान्ति गुणास्तवेश !, वक्तु ं कथं भवति तेषु ममावकाशः ? । जाता तदेवमसमीक्षितकारितेयं, जल्पन्ति वा निजगिरा ननु पक्षिणोऽपि ॥ ६ ॥ आस्तामचिन्त्य - महिमा जिन ! संस्तवस्ते, नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति । तीव्रातपोपहतपान्थजनान्निदाघे, प्रीणाति पद्मसरसः सरसोऽनिलोऽपि ॥७॥ हृद्वर्त्तिनित्वयि विभो ! शिथिलोभवन्ति, जन्तोः चणेन निविडा अपि कर्मबन्धाः । सद्यो भुजङ्गममया इव मध्यभाग — मभ्यागते वनशिखण्डिनि चन्दनस्य ॥ ८ ॥ मुच्यन्त एव मनुजाः सहसा
जिनेन्द्र !, रौद्ररुपद्रवशतैस्त्वयि वीचितेऽपि । गोस्वामिनि स्फुरिततेजसि दृष्टमात्र, चौरेंरिवाशु पशवः प्रपलायमानैः ॥ ६ ॥ त्वं तारको
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श्री कल्याणमन्दिर स्तोत्रम्
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जिन ! कथं भविनां ? त एव त्वामुद्रहन्ति हृदयेन यदुत्तरन्तः । यद्वा दृतिस्तरति यज्जलमेष नून - मन्तर्गतस्य मरुतः स किलानुभावः ॥१०॥ यस्मिन् हरप्रभृतयोऽपि हतप्रभावाः, सोऽपि त्वया रतिपतिः चपितः क्षणेन । विध्यापिता हुतभुजः पयसाऽथ येन, पीतं न किं तदपि दुर्द्धरवाडवेन ? ॥ ११ ॥ स्वामिन्ननल्प गरिमाणमपि प्रपन्ना- स्त्वां जन्तवः कथमहो हृदये दधानाः । जन्मोदधिं लघु तरन्त्यतिलाघवेन ?, चिन्त्यो न हन्त महतां यदि वा प्रभावः ॥ १२ ॥ क्रोधस्त्वया यदि विभो । प्रथमं निरस्तो, ध्वस्तास्तदा बत कथं किल कर्मचौरा : ? । प्लोष - त्यमुत्र यदि वा शिशिराऽपि लोके, नीलद्र, माणि विपिनानि न किं हिमानी ? ॥ १३ ॥ त्वां योगिनो जिन । सदा परमात्मरूप मन्वेषयन्ति ! हृदयाम्बुजकोशदेशे । पूतस्य निर्मलस्चेर्यदिवा किमन्य- दक्षस्य संभवि पदं ननु कर्णिकायाः ?
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अभय रत्नसार ।
॥ १४ ॥ ध्याना ज्जिनेश । भवतो भविनः चणेन, ! देहं विहाय परमात्मदशां व्रजन्ति । तोत्रानलादुपलभावमपास्य लोके, चामीकरत्वमचिरादिव धातुभेदाः ॥ १५ ॥ अन्तः सदैव जिन ! यस्य विभाव्यसे त्वं भव्यैः कथं तदपि नाशय से शरीरम् ? । एतत्स्वरूपमथ मध्यविवर्त्तिनो हि. यद्विग्रहं प्रशमयन्ति महानुभावाः ॥ १६ ॥ आत्मा मनीषिभिरयं त्वदभेदबुध्या, ध्यातो जिनेन्द्र ! भवतीय भवत्प्रभावः । पानीयमप्यमृतमित्यनुचिन्त्यमानं, किं नाम नो विषविकारमपाकरोति ? ॥१७॥ त्वामेव वीततमसं परवादिनोऽपि, नूनं विभो ! हरिहरादिधिया प्रपन्नाः । किं का'चकामलिभिरीश ! सितोऽपि शङ्खो, नो गृहते ? विविधवर्णविपर्ययेण ॥ १८ ॥ धर्मोपदेशसमये सविधानुभावा दास्तां जनो भवति ते तरुरप्यशोकः । अभ्युते दिनपतौ समहीरुहोऽपि, किं वा विबोधमुपयाति न जीवलोकः ? ॥ १६ ॥
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श्री कल्याणमन्दिर स्तोत्रम् १५६ चित्रं विभो । कथमवाङ मुखवृन्तमेव, विष्वक पतत्यविरला सुरपुष्पवृष्टिः ? । त्वद्गोचरे सुमनसां यदि वा मुनीश !, गच्छन्ति नूनमध एव हि बन्धनानि ॥ २० ॥ स्थाने गभीरहृदयोदधिसंभवायाः, पीयूषतां तव गिरः समुदीरयन्ति । पीत्वा यतः परमसंमदसङ्घभाजो, भव्या ब्रजन्ति तरसाऽप्यजरामरत्वम् ॥ २१ ॥ स्वामिन् ! सुदूरमवनम्य समुत्पतन्तो, मन्ये वदन्ति शुचयः सुरचामरौघाः । येऽस्मै नतिं विदधते मुनिपुङ्गवाय, ते नूनमूर्ध्वगतयः खलु शुद्धभावाः ॥२२॥ श्यामं गभीरंगरमुज्ज्वलहेमरत्न---सिंहासनस्थमिह भव्यशिखण्डिनस्त्वाम् । आलोकयन्ति रभसेन नदन्तमुच्चै–श्चामीकराद्रिसिरसीव नवांबुवाहम् ॥ २३ ॥ उद्गच्छता तव शितिद्य - तिमण्डलेन, लुप्तच्छदच्छविरशोकतरुबभूव । सानिध्यतोऽपि यदि वा तव वीतराग !, नीरागतां व्रजति को न सचेतनोऽपि ? ॥ २४ ॥ भो
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अभय रत्नसार। भोः प्रमादमवधूय भजध्वमेन-मागत्य निर्वतिपुरी प्रति सार्थवाहम् । एतनिवेदयति देव ! जगत्त्रयाय, मन्ये नदन्नभिनभः सुरदुंदुभिस्ते ॥ २५ ॥ उद्योतितेषु भवता भुवनेषु नाथ !, तारान्वितो विधुरयं विहताधिकारः। मुक्ताकलापकलितोच्छ्वसितातपत्र-व्याजात्रिधा धृततनु वमभ्युपेतः ॥ २६ ॥ स्वेन प्रपूरितजगत्त्रयपिण्डितेन, कान्तिप्रतापयशसामिव सञ्चयेन । माणिक्यहेमरजतप्रविनिर्मितेन, सालत्रयेण भ. गवन्नभितोविभासि ॥२७॥ दिव्य सजो जिन ! नमन्त्रिदशाधिपाना-मुत्सृज्य रत्नरचितानपि मौलिबन्धान् । पादौ श्रयन्ति भवतो यदि वा परत्र, त्वत्संगमे सुमनसो न रमन्त एव ॥२८॥ त्वं नाथ ! जन्मजलधेर्विपराङ मुखोऽपि, यत्तारयस्यसुमतो निजपृष्ठलग्नान् । युक्तं हि पार्थिवनिपस्य सतस्तवैव, चित्रं विभो! यदसि कर्मविपाकशून्यः ॥ २६ ॥ विश्वेश्वरोऽपि जन
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श्री कल्याणमन्दिर स्तोत्रम् १६१ पालक ! दुर्गतस्त्वं, किंवाऽक्षरप्रकृतिरप्यलिपिस्त्वमीश !। अज्ञानवत्यपि सदैव कथञ्चिदेव, ज्ञानं त्वयि स्फुरति विश्वविकाशहेतुः ॥ ३०॥ प्राम्भारसंभतनभांसि रजांसि रोषा-दुत्थापितानि कमठेन शठेन यानि। छायाऽपि तस्तव न नाथ ! हता हताशो, यस्तस्त्वमीभिरयमेव परं दुरात्मा ॥ ३१॥ यद्गजदूर्जितघनौघमदभ्रभीमं, भ्रश्यत्तडिन्मुसलमांसलघोरधारम् । दैत्येन मुक्तमथ दुस्तरवारि दध्र, ते नैव तस्य जिन ! दुस्तरवारिकृत्यम् ॥ ३२ ॥ ध्वस्तोवकेशविकृताकृतिमर्त्य मुण्ड–प्रालम्बभृद्भयदवक्रविनियंदग्निः । प्रेतवजः प्रति भवन्तमपोरितो यः, सोऽस्याभवत्प्रतिभवं भवदुःखहेतुः ॥ ३३ ॥ धन्यास्त एव भुवनाधिप ! ये त्रिसन्ध्य-मारा. धयन्ति विधिवद्विधुतान्यकृत्याः। भक्त्योल्लसत्पुलकपक्षमलदेहदेशाः, पादद्वयं तव विभो ! भुवि जन्मभाजः॥ ३४॥ अस्मिन्नपारभववारिनिधौ
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अभय रत्नसार। मुनीश !, मन्ये न मे श्रवणगोचरतां गतोऽसि ।
आकर्णिते तु तव गोत्रपवित्रमन्त्रे, किं वा विपद्विषधरो सविधं समेति ? ॥ ३५ ॥ जन्मान्तरेऽपि तव पाद युगं न देव !, मन्ये मया महितमीहितदानदक्षम्। तेनेह जन्मनि मुनीश ! पराभवानां, जातो निकेतनमहं मथिताशयानाम् ॥ ३६ ॥ नूनं न मोहतिमिरावतलोचनेन, पूर्व विभो ! सकदपि प्रविलोकितोऽसि । मर्माविधो विधुरयन्ति हि मामनाः, प्रोद्यत्प्रबन्धगतयः कथमन्यथैते ? ॥ ३७॥ आकणितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि, नूनं न चेतसि मया विधतोऽसि भक्त्या। जातोऽस्मि तेन जनबान्धव ! दुःखपात्रं, यस्मारिकयाः प्रतिफलन्ति न भावशून्याः ॥ ३८ ॥ त्वं नाथ ! दुःखिजनवत्सल हे शरण्य, कारुण्यपुण्यवसते वशिनां वरेण्य, भक्त्या नते मयि महेश ! दयां विधाय, दुःखाकरोद लनतत्परतां विधेहि ॥३६॥ निःसङ्ख्य
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श्री कल्याणमन्दिर-स्तोत्रम् १६३ सारशरणं शरणं शरण्य–मासाद्य सादितरिपुप्रथितावदातम् । त्वत्पादपङ्कजमपि प्रणिधानवन्ध्यो, वध्योऽस्मि चेद भुवनपावन ! हा हतोऽस्मि ॥४०॥ देवेन्द्रवन्ध ! विदिताखिलवस्तुसार !, संसारतारक विभो ! भुवनाधिनाथ । त्रायख देव ! करुणाहद मां पुनीहि, सीदन्तमद्य भयदव्यसनाम्बुराशेः ॥ ४१ ॥ यद्यस्ति नाथ ! भवदङ घिसरोरुहाणां, भक्त फलं किमपि संततिसंचितायाः। तन्मे त्वदेकशरणस्य शरण्य भूयाः, स्वामी त्वमेव भुवनेऽत्र भवान्तरेऽपि ॥ ४२ ॥ इत्थं समाहितधियो विधिवज्जिनेन्द्र !, सान्द्रोल्लसत्पुलककञ्चुकिताङ्गभागाः । त्व बिम्बनिर्मलमुखाम्बजबद्धलक्षा, ये संस्तवं तव विभो! रचयन्ति भव्याः ॥४३॥जननयनकु. मुदचन्द्रप्रभास्वराः स्वर्गसंपदोभुक्त्वा । ते विगलितमलनिचया,अचिरान्मोक्षं प्रपद्यन्तो४४ायुग्मम् ॥ इति श्रीकल्याणमन्दिर-स्तोत्रं संपूर्णम् ॥
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१६४ अभय रत्नसार।
लघुजिनसहस्त्रनाम स्तोत्रम्। नमस्त्रिलोकनाथाय, सर्वज्ञाय महात्मने ॥ वः तस्यैव नामानि, माक्षसौख्याभिलाषया ॥१॥ निर्मलः साश्वतोशुद्धः, निर्विकल्पो निरामयः । निःशरीरी निरातंकः, सिद्धसूक्ष्मो निरंजनः॥२॥निष्कलं को निरालंबो, निर्मोही निर्मलोत्तमः । निर्भयो निरहंकारो, निर्विकारोथ निष्क्रियः॥३॥ निर्दोषो निरुजः शान्तः, निर्भेद्यो निर्ममः शिवः । निस्तरंगो निराकारो, निष्कमो निष्कलप्रभुः॥४॥ निर्वादो निरुपमज्ञान, निरागो निरघो जिनः। निःशब्द प्रतिमश्लष्ठ, उत्कृष्टो ज्ञन-गोचरः ॥५॥ निःसंगात् प्राप्तकैवल्यो, नैष्टकः शब्दवर्जितः। अनिंद्यो महपूतात्मा, जगत् शिखरशेखरः॥६॥ निःशब्दो गुणसंपन्नाः, पाप-ताप-प्रणाशनः। सोपि योगात् शुभ प्राप्तः, कर्मयोतिवलावहः ॥७॥ अजरो अमरः सिद्ध, अर्चितः अक्षयो विभुः। अमुर्तः
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लघुजिनसहस्त्रनाम स्तोत्रम्। १६५ अच्युतो ब्रह्म, विष्णरीशः प्रजापतिः ॥८॥ अनिंद्यो विश्वनाथश्च, अजो अनुपमो भवः। अप्रमेयो जगन्नाथः, बोधरूपो जिनात्मकः ॥६॥ अव्ययसकलाराध्यो, निष्पन्नो ज्ञान लोचनः । अछेद्यो निर्मलो नित्यः, सर्वशल्यविवजितः॥१०॥ अजेयसर्वतोभद्रः, निष्कषायो भवांतकः । विश्वनाथः स्वयंबुद्धः, वीतरागो जिनेश्वरः॥११॥ अंतको सहजानंद, अवाङ मानस गोचरः। असाध्यशुद्धचैतन्यः, कर्मणोकर्मवर्जितः ॥१२॥ अनंत विमलज्ञानी, स्पृहीश्च निष्प्रकाशकः । कार्जितो महात्मानः, लोकत्रयशिरोमणिः ॥ १३ अव्याबाधो वरः शंभु, विश्ववेदो पितामहः । सर्वभूतहितो देव। सर्वलोकशरण्यकः ॥१४॥ आनन्दरूपचैतन्यो, भगवांत्रिजगदुरुः । अनंतानंतधीशक्तिः, सत्यव्यक्तव्ययात्मकः ॥ १५ ॥ अष्टकर्मविनिमुक्तः, सप्तधातुविवर्जितः । गौरवादित्रयादूरः सर्वज्ञानादि संयुतः
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१६६
अभय रत्नसार ।
॥ १६ ॥ अभयाः प्राप्त कैवल्यः, निर्माणो निरपेचकः । निष्कलं केवलज्ञानी, मुक्तिसौख्यप्र दायकः ॥ १७ ॥ अनामयो महाराध्यो, वरदो ज्ञानपावकः । सर्वेशः सतसुखावासः, जिनेंद्रो मुनिसंस्तुतः ॥ १८ ॥ अन्यूनपरम ज्ञानी, विश्वतत्व प्रकाशकः प्रबुद्धो भगवान्नाथः, प्रस्तुतः पुण्य कारकः ॥ १६ ॥ शंकरः सुगतो रौद्रः, सर्वज्ञो मदनांतकः । ईश्वरो भुवनाधीशः, सच्चित्तः पुरुषोत्तमः ॥२०॥ सदोजातमहात्मानं, विसुक्को मुक्तिवल्लभः । योगींद्रो नादिसंसिद्धः, निरीहो ज्ञानगोचरः ||२१|| सदाशिवां चतुर्वक्रः, सत्सौख्य स्त्रिपुरांतकः । त्रिनेत्रः त्रिजगत्पूज्यः, कल्याणकोष्टमूर्त्तिकः ॥२२॥ सर्व साधुजनैर्वन्द्यः, सर्वपापविवर्जितः । सर्वदेवाधिकोदेवः सर्वभूतहितंकरः ॥ २३ ॥ स्वयंवियो महात्मानं, प्रसिद्धः पापनाशनः । तनुमात्रचिदानंद, चंतन्यश्च त्यवैभवः ॥ २४ ॥ सकलातिशयो देव ।
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लघुजिनसहस्त्रनाम स्तोत्रम्। १६७ मुक्तिस्थो महतामहः। मुक्तिकार्याय संतुष्टो, निरागः परमेश्वरः ॥ २५ ॥ महादेवो महावीरो, महामोहविनाशकः। महाभावो महादर्शः, म हामुक्तिप्रदायकः ॥२६॥ महाज्ञानी महायोगी। महातपो महात्मकः। महद्धि को महावीर्यो, महांतिकपदस्थितः ॥ २७ ॥ महा पूज्यो महाबंद्यो, महाविघ्नविनाशकः । महासौख्यो महापुंसो। महामहिम अच्युतः ॥ २८ ॥ मुक्तामुक्तिजसं बोधः, एकानेकविनिश्चलः। सर्वबंधविनिर्मुक्तो, सर्वलोकप्रधानकः ॥ २६ ॥ महाशूरो महाधीरो, महादुःखविनाशकः । महामुक्तिप्रदो धीरो, महाहृयो महागुरुः ॥३०॥ निर्मार मारो विद्धंसो, निष्कामो विषयाच्युतः। भगवंतामहाप्रांतो, शान्तिकल्याणकारकः ॥३१॥ परमात्मा परंज्योतिः, परमेष्ठी परमेश्वरः ॥ परमात्मा परानंद, परंपरमात्मकः ॥ ३२॥ प्रस्तुतानंतविज्ञानी, सख्यानिर्वाणसंयुतः । ना
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१६८ अभय रत्तसार। कृति नानरो वर्णी, व्योमरूपो जितात्मकः ॥३३॥ व्यक्ताव्यक्त जसंबोधः, संसारछेदकारणः । निरवद्यो महाराध्यः, कर्मजित् धर्मनायकः ॥ ३४ ॥ बोधसत्सु जगद्वयो, विश्वात्मा नरकांतकः । स्वयंभूपापहृत्पूज्यः, पुनीतो विभवः स्तुतः ॥ ३५ ॥ वर्णातीतो महातीतः, रूपातीतो निरंजनः । अनंतज्ञानसंपर्णो, देवदेवेश नायकः ॥ ३६ ॥ वरेण्यो भवविध्वंसी, योगिनां ज्ञानगोचरः ॥ जन्ममृत्युजरातीतः, सर्वविघ्नहरो हरः ॥ ३७॥ विश्वदृक् भव्यसंबंद्यः, पवित्रो गुणसागरः । प्रसन्नः परमाराध्यः, लोकालोकप्रकाशकः॥३८॥रत्नगर्भो जगत्स्वामी, इंद्रवंद्यः सुरार्चितः, निष्प्रपंचो निरातङ्कोः । निःशेषक्त शनाशकः ॥ ३६॥ लोकेशो लोक संसेव्यो, लोकालोकविलोकनः । लोकोत्तमो त्रिलोकेशो, लोकाग्रे शिखरस्थितः ॥ ४०॥ नामाष्टकसहस्राणि, ये पठंति पुनः पुनः ।
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साधू प्रतिक्रमणसूत्र | १६६ ते निर्वाणपदं यान्ति, मुच्यते नात्र संशयः
विरचितं
॥ ४१ ॥ इति श्रीभद्रबाहु स्वामिना लघुजिन सहस्रानामकं स्तोत्रं संपूर्ण ॥ ॥ अथ साधु प्रतिक्रमणसूत्र ॥ चत्तारिमंगलं अरिहंता मंगलं सिद्धामंगलं साहूमंगलं केवलिपण्णत्तो धम्मोमंगलं चत्तारिलोगुत्तमा अरिहंतालोगुत्तमा सिद्धालोगुत्तमा साहू लोगुत्तमा केवलिपण्णत्तो धम्मोलोगुत्तमो चत्तारि सरणं पवज्जामि अरिहंतेसरणं पवज्जामि सिद्ध सरणं पवज्जामि साहूसरणं पवज्जामि केवलिपण्णत्त धम्मं सरणं पवज्जामि इच्छामि पडिकमिउं । पगाम सिज्जार । निगामसिज्जाए । संथाराउवहरणाए । परियट्टाए । आउंटण पसारणाए । छप्पइय संघट्टणाए । कुइए । ककराईए । छोए । जंभाइए | आमोसे। ससरक्खामोसे । आउलमाउलाए । सोअरणवत्तियाए । इच्छीविपरियासिए ।
दिट्ठीविप्परियासियाए ।
२२
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अभय रत्तसार । मणविपरिआसियाए। पाणभोअणविप्परिआसिआए। जो मे देवसिओ अइयारो को। तस्समिच्छामि दुक्कडं। पडिकमामि । गोअरचरिआए। भिक्खायरिआए। उग्घाड कवाड उग्घाडणाए। साणावच्छादारा संघटणाए। मंडीपाडिआए। बलिपाहुडिआए । ठवणापाहुडिआए। संकिए सहस्सागारे। अणेसणाए। पाणसणाए। आणभोयणाए। पाणभोयणाए। बीअभायणाए। हरियभोयणाए। पच्छाकम्मियाए । पुरेकम्मिाए। अदिट्टहडाए। दगसंसट्टहडाए । रयसंसट्टहडाए। पारिसाडणिआए । पारिठावणिआए। ओहासणभिक्खाए। जंउग्गमेणं
ओप्पायणेसणाए। अपरिसुद्धं पडिग्गहिअं । परिभुत्तं वा। जं न परिठविअं तस्स मिच्छामिदुक्कडं । पडिकमामि चाउकालं सज्झायस्स अकरणयाए । उभोकालं भंडोवगरणस्स अप्पडिलेहणाए दुप्पडिलेहणाए। अप्पमज्जणाए
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साधू प्रतिक्रमणसूत्र। १७१ दुप्पमज्जणाए । अइक्कमे । वइक्कमे। अइयारे। अणायारे।जो मे देवसिओ अइआरोको तस्स मिच्छामि दुकडं । पडिकमामि एगविहे असंजमे ॥ १॥ पडिकमामि दोहिं बंधणेहिं । रागबंधणेणं दोसबंधणेणं । पडिकमामि ॥ २ ॥ तिहिं दंडेहिं । मणदंडणं । वयदंडेणं। कायदंडेणं । पडिकमामि तिहिं गुत्तोहिं मणगुत्तोए। वयगुत्तीए कायगुत्तीए। पडिकमामि तिहिं सल्लेहि। मायासल्लेणं। नीयाणासल्लेणं । मिच्छादसणसल्लेणं। पडिकमामि। तिहिं गारवेहिं । इदढोग ग्वेणं । रसगारवेणं । सायागारवेणं । पडिकमामि । तिहिं विराहणाहिं । नाणविराहणाए । दंसणविराहणाए । चरित्तविराहणाए। पडिकगामि । चउहिं कसाएहि । कोहकसाएणं । माणकसाएणं । मायाकलाएणं। लोभकसाएणं । पडिकमामि । चउहिं सपणाहिं। आहार सणणाए। भय सणणाए।मेहुणसणाए।
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१७२
अभय रत्नसार। परिग्गहसण्णाए। पडिकमामि। चउहिं विकहाहिं। इच्छिकहाए। भत्तकहाए । देसकहाए। रायकहाए । पडिकमामि । चउहिं झाणेहिं । अणं झाणेणं। सद्दणं झाणेणं। धम्मेणंझाणेणं । सुक्कणं झाणेणं। पडिकमामि । पंचहि किरियाहि । काइयाए अहिगरणियाए। पाउसियाए । पारतावणिआए। पाणडावायकिरियाए। पडिक्कमामि। पंचहिं कामगुणेहिं । सदणं । स्वेणं। रसेणं। गंधेणं । फासेणं । पडिकमामि । पंचहिं महत्वएहिं ! पाणाइवायाओ वेरमणं । मुसावायाओ वेरमणं। आदि. न्नादाणाअोवेरमणं । मेहुणाओवेरमणं। परिग्गहाओ वेरमणं । पडिकमामि । पंचहिं समिइहिं । इरिआसमिइए । भासासमिइए। एसणासमिइए। आयाणभंडमत्तनिखेवणा समिइए। उच्चारपासवण खेलजल्लसिंघाणपारिट्टावणियासमिइए। पडिकमामि। छहिं जीवनिकाएहि ।
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साधू प्रतिक्रमण सूत्र। १७३ पुढविकाएणं । आउकाएणं । तेउकाएणं । वाउ. कारणं । वणस्सइकाएणं । तस्तकाएणं । पडि. कमामि । छहिं लेसाहिं । किण्हलेसाए । नोलले. साए। काउलेसाए। तेउलेसाए। पउमलेसाए । सुक्कलेसाए । पडिकमामि । सत्तहि भयटाणेहि । अहिौं मयटाणेहि। नवहिं बभचेरगुत्तीहि। दसविहे समणधम्मे । एगारसहि उखासगपडिमाहि । वारसहिं भिक्खुपडिमाहि। तेरसहि किरियाठाणेहि। चउद्दसहि भूअगामेहि पन्नरसहि परमाहम्मिएहि। सोलसहि गाहासोलसएहि सत्तरसविहे असंजमे । अट्ठारसविहे अबंभे। एगुणवीसाए नायझयणेहिं। वी. साए असमाहिठाणेहि । इकवीसाए सबलेहि। बावीसाए परीसहेहि । तेवीसाए सुअगडझयणेहि। चउवीसाए अरिहतेहि। पणवीसाए भावणाहि। छनोसाए दसाकप्पनवहाराणं उद्दसणकालेहिं । सत्तावीसाए अणगारगु
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१७४
अभय रत्नसार। णेहि । अट्ठावीसाए आयारपकप्पेहि । एगुणतोसाए पावसुअपसंगेहि। तीसाए मोहणीअ. टाणेहि। इगतीसाए सिद्धाइगुणहि। बत्तीसाए जोगसंगहेहि तित्तीसाए आसायणाएहिं । अरिहताणं आसयणाए। सिद्धाणं आसायणाए। आरिणं आसायणाए। उवज्झायाणंआसायणाए। साहूणं आ०। साहूणोणं आ० । सावयाणं आसायणाए। सावियाणं आ० । देवाणआसायणाये। देवोणं आ०। इहलोगस्स आ०। परलोगस्त आ०। केवलिपरणत्तस्सधम्मस्स आ०। सदेवमणुासुरस्सलोगस्स आ० । सव्वपाणभूअजीवसत्ताणंआ० । कालस्स आ० । सुअस्स आ०। सुअदेवयाए आसा० । वायणारिअस्म आ० । जंवाइद्धं बच्चामेलिअं होणरक्खरं । अच्चक्खरं । पयहोणं । विणयहीणं। घोहीणं। जोगहीणं। सुट, दिन्न, दुटु पडिल्छि। अकाले को सज्झाओ
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साधू प्रतिक्रमणसूत्र। १७५ कालेन को सभाओ। असज्झाए सज्झाइयं। सज्झाइए न सज्झाइयं। तस्स मिच्छामि दुकडं। रणमो चउवीसाए तित्थयराणं उसभाइमहावीर. पज्जवसाणाणं इणमेव निग्गंथं पावयणं । सच्च। अणनरं। केवलियं । पडिपुन्नं । नेपाउअं । संसुद्ध। सल्लगत्तणं । सिद्धिमग्गं । मु. त्तिमग्गं। निज्जाणमग्गं। निव्वाणमग्गं । अवितहमविसंधि। सव्वदुक्खपहीणमगं। इ. च्छंठियाजीवा। सिझति । बुज्झति । मुच्चति । परिनिव्वायंति। सव्वदुक्खाणमंतंकरंति । तंधम्म सदहामि । पत्तियामि । रोएमि । फासेमि। पालेमि। अणुपालेमि। तं धम्म सद्दहतो। पत्तिअंतो।रोअंतो। फासंतो। पालंतो। अणुपालंतो। तस्स धम्मस्स केवलिपण्णत्तस्स ।अभुट्टिोमि। आराहणाए । विरोमि विराहणाए। असंजमं। परिवागामि। संजमं उवसंपज्जामि। प्रबंभ परित्राणामि । बंभंउवसंपज्जामि । अकप्पं परि
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१७६ अभय रत्नसार । आणामि । कप्पं उवसंपज्जामि । अन्नाणं परिआणामि । नाणं उवसंपज्जामि। अकिरिअं परिआणामि । किरिअं उवसंपज्जामि। मिच्छत्त परिणामि । सम्मत्तं उवसंपज्जामि । अबोहिं परिणामि। बोहिं उपसंपज्जामि । अमगं परित्राणामि । मग्गं उवसंपज्जामि । जं संभरामि। जं च न संभरामि । जं पडिकमामि । जं च न पडिकमामि । तस्स सव्वस्स देवसि. अस्स अइयारस्स पडिक्कमामि । समणोहं । संजय विरय पडिहय पञ्चक्खाय पावकम्मे अनियाणो दिद्विसंपन्नो। मायामोसविवन्जिओ। अ. ड्डाइज्जेसु। दीवसमुद्द सु । पन्नरससुकम्मभूमीसु।। जावंतिकेविसाहु । रयहरणगुच्छ पडिग्गहधारा ॥ पंचमहव्वयधारा, । अट्ठार सहस्स सीलंगधारा ॥ अक्खयायार चरित्ता । ते सव्वे सिरसा मणसा मत्थएण वंदामि । खामेमि सव्वजीवे,सवे जीवा खमंतुमे ॥ मित्ति मे सव्व भूएसु, वरं मझ
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१७७
३
पख्खीसूत्र। न केणई ॥१॥ एवमहं अलोइय, नंदिन गरहिय दुगंच्छियंसम्मं ॥ निविहेण पडिक्कतो, बंदामि जिणेच उव्वीसं ॥२॥ इति श्री साधू प्रतिक्रमसत्रं समाप्त॥
॥ अथ पख्खी मूत्र ॥ तित्थंकरे अ तित्थे, अतित्थसिद्धय तित्थसिद्ध अ। सिद्ध यजिअरिसी, महरिसि नाणं च वदामि ॥१॥ जे अ इमं गुण रयणसायर, मविराहिऊण तिगिणीसंसारा । ते मंगलं करित्ता, अहमविआराहणाभिमुहो ॥ २॥ मम मंगलमरिहंता, सिद्धा साहू सुग्रं च धम्मोअ। खंती गुत्ती मुत्ती, अज्जवया मदवं चेव ॥३॥ लोगंमि संजया जं करंति, परम रिसि देसियमुभारं ॥ अहमवि उवढिओ तं, महव्वय उच्चारणं काउं।४। सेकिंतं महव्वय उच्चारणा। महव्वय उच्चारणा पंचविहा पण्णत्ता ॥ राई भोअण वेरमणकट्ठा । तंजहा । सव्वाओ पाणोइवायाओ वेरमणं ॥१॥
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अभय रत्नसार।
सबाओ मूसावायाओ वेरमणं ॥२॥ सवारो अदिन्नादाणाओ वेरमणं ॥३॥ सव्वाओ मेछ णाओ वेरमणं ॥४॥ सव्वाअो परिग्गहारो वेरमणं ॥५॥ सव्वाओ राइभोषणाओ वेरमण॥६॥ __ तत्थ खलु पढमे भते महव्वए पाणाइवायाओवेरमणं सव्वं भते पाणाइवायं पञ्चक्खामि से सुहम वा बायरं वा तसं वा थावरं वा नेवसयं पाणे अइवाएज्जा । नेवन्नेहि पाणे अइवायाविज्जा, पाणे अइवायतेवि । अन्नेनसमणुज्जाणामि जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करतंपि अन्नं न समणुजाणामि तस्स भते पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि से पाणाइवाए चउबिहे पन्नते तंजहा दबओ खित्तो कालो भावओ। दव्यमओणं पा. णाइवाए छसुजीवनिकाएसु । खित्तोणं पाणाइवाए सव्वलोए कालोणं पाणाइवाए दियात्रा
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पख्खी सूत्र। १७६ राओवा। भावओणं पाणाइवाए रागेण वा दोसेण वा । जंपिय मये इमस्स धम्मस्स केवलि पएणत्तस्स अहिंसा लख्खणस्स सच्चाहिटियस्स विणयमूलस्स खतीपहाणस्स अहिरणसोवणियस्स उवसमप्पभवस्स नव वंभचेर गुत्तस्स अप्पयमाणस्स भिक्वावित्तियस्स कुख्वीसंबलस्स निरग्गिसरणस्स संपख्खालिअस चत्तदोसस्स गुणगाहियस्त निधियारस्स निधित्तीलख्खणस्स पचमहब्वयजुत्तम्स असं निहिसंचयस्स अविसवाइयस्स संसारपारगामियस्स निव्वाण गमण पज्जवसाणफलस्स पुब्धि अन्नाणयाए असवणयाए अयोहिआए अरणभिगमेणं अभिगमेण वा पमाएण रागदोस पडिबद्धआए बालयाए मोहयाए मंदयाए किड्डयाऐ तिगारवगरुपाए चउक्कसाओवगएणं पंचिंदिओवप्तरेणं पडिपुन्नभारियाए सायासोक्ख मणुपालयंतेणं इहं वा भवे अन्नसुवा भवग्गह
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अभय रत्तसार। णेसु पाणाइवाओ कोवा कारिओवा कीरंतोवा परेहि समणुन्नाओतं निंदामि गरिहामि तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं अइयं निदामि पड़पन्नं सवरेमि सव्वं प्रणागयंपच्चक्खामि सब्वं पाणाइवायं जावज्जीवाए अणिस्सिओहिं नेव सयंपाणे अइवाइज्जा नेवन्नेहिं पाणे अइवायावि ज्जा पाणे अइवायतेवि अन्नेनसमणुजाणिज्जा तंजहा अरिहंतसख्खियं सिद्धसख्खियं साहुसक्वियं देवसखियं अप्पसक्खियं एवं भवइ भिक्खूबा भिक्खूणीवा संजयविरय पडिहय पञ्चक्खाय पावकम्के दियावा राअोवा एगोवा परिसागोवा सुत्तेवा जागरमाणेवा एस खलु पाणाइवायस्सवेरमणे हिए सुहे खमेनिस्सेसिए आणगामिए पार गामिए सव्वसिं पाणाणं सव्वेसिं भूयाणं सव्वेसिं जीवाणं सव्वेसं सत्ताणं अदुक्खणयाए असोणयाए अजूरणयाए अतिप्पणयाए अपीडणयाए अपरियावणियाए अणुडवणयाए महत्थे महा
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पख्खीसूत्र। १८१ गुणे महाणुभावे महापुरिसाणु चिन्ने परमरिसिदेसिए पसत्त्थे तंदुक्खक्खयाए कम्मक्खयाए मोहकावयाए बोहिलाभाए संसारुत्तारणाए त्तिक्कटु उवसंपज्जित्तोणं विहरामि चढम भते महव्वए उवदिओमि सव्वारे पाणाइवायाओवेरमण ॥१॥ अहावरेदोच्च भने महव्वए मुसावायाओवरमण सब्वं भते मुसावायं पञ्चवखामि से कोहावा लोहावा भयावा हासावा नेवसय मुसंवइजा नेवन्नेहि मुसंवायाविजा मुसंवयतेवि अन्नेनसमणुजाणामि जावज्जीवाए तिविहतिविहेण मणेण वायाए कारण न करेमि न कारवेमि करतंपि अन्ननसमणुजाणामि तस्स भंते पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । से मुसाबाए चउव्विहे पन्नत्त तंजहा दवा खित्तो कालो भावओ दबोण मुसावाए सव्वदब्वेसु खित्तओ मुसावाए लोएवा अलोगवा
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१८२ अभय रत्नसार। कालोणं मुसावाए दियावाराओवा भावोण मुसावाए रागेणवा दोसेणवा जम्मए इमस्स धम्मस्स केलिपण्णत्तस्स अहिंसालक्खणस्स सच्चाहिट्टियरस विणयमूलस्त खंतीप्पहाणस्स अहिरगणसोन्नियस्स उवसमप्पभवस्स नवबंभ चेर गुत्तस्स अप्पयमाणस्स भिख्खावित्तियस्स कु. ख्खीसंबलस्स निरगिसरणस्त संपख्वालियरस चत्तदोसस्स गुणगाहिअस्स निग्विारस्स निधि तिलख्खणरस पंचमहन्वयजुत्तस्त असंनिहिसंचियस्स अविसावइयस्स संसारपारगामियस्स निव्वाणगमणपज्जवसाणफलस्स पुट्विंअन्ना णयाए असवणयाएं अबोहियाए अभिगमेणं अभिगमेणवा पमाएण रागदोसपडियद्धयाए बालयाएमोहयाए मंदयाए किड्डयाए तिगारवगरु याऐ चउक्कसाओवगएणं पंचेंदियवसण पडि पुण्णभारियाए सायासुख्खमणुपालय तेण इह वा भवे अन्नेसुवा भवग्गहणेसु मुसाबाओ भासि
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पख्खीसूत्र। १८३ ओवा भ.साविआवा भासिज्जंतो वा परेहि समणुन्नाओ त निंदामि गरिहामि तिविह तिविहेणं मणेण वायाएकाएणं अइयं निदामि पड्डिपन्नं संवरेमि अणागय पच्चस्कामि सव्वं मुसावायं जावज्जोवार अणिस्तिओह नेवस. यं मुसंवइज्जा नेवन्नेहि मुसंवायाविज्जा मुसंवायतेवि अन्ने न समणुजाणिज्जा तंजहा आरिहंत ख्वियं सिद्धसख्वियं साहूसख्खिय देवसखियं अप्पसखिय एवं हवइ भिख्ववा भिख्खूणीवा संजय विरय पडिहय पञ्चख्खाय पावकम्मे दियोवा राअोवा एगोवा परिसागोवा सुत्तेचा जागरमाणेवा एस खलु मुसावायस्सवेरमणे हिएसुहे खमे निम्सेसिए आणुगामिए पारगामिए सव्वेसिं पाणाणं सवे. सिं भूयाणं सव्वेसिं जोवाणं सम्वेसि सत्ताणं अदुख्खणयाए असोयणयाए अजूरणयाए अ. तिप्पणयाए अपीडणयाए अपरियावणयाएं
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१८४
अभय रत्नसार ।
गुद्दवणयाए महत्थे महागुणे महाणुभावे महापुरिसाचिन्न परमरिसिदे सियपसथे तं दुख्खखयाए कम्मख्खयाए मोहख्खयाए बोहिलाभाए संसारुत्तारणाए कि उवसंपजित्ताणं विहरामि दोच्च भंते महत्वए उवद्विओमि सव्वा मुसावाया ओवेरमणं ॥ ५॥ महावरे तच्च भंत महत्वए अदिन्नादाणा ओवेरमणं स भंते दिन्नादारणं पच्चख्खामि से गामेवा नगरेवा रन्नेव पंवा बहुवा अगुंवा थूलंवा चित्तमंत्तंवा अचित्तमंत्तंवा नेवसयं अदिन्नं गिरिहज्जा नेवन्नेहिं दन्नं गिरहाविज्जा अदिन्नं गिरहतेवि अन्नेनसमगुजाणामि जावज्जीवाए तिविहं तिविहेां मरणेणं वायाए काएगां न करेमि न कारवेम करतंपि अन्नंनसम गुजाणामि जावज्जीवाए तस्स भंते पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि से अदिन्नादाणे चउविहे पन्नते तंजहा दव्व खित्तयो कालओ
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पख्खीसूत्र |
भावप्रवणं अदिन्नादाणे गहणद्धारणिज्जेसु दव्त्रेसु खित्तणं अदिन्नादाणे गामेवा नगरेवा रन्नेवा कालप्रणं अदिन्नादाणे दियावा वा भावणं अदिन्नादा रागेणवा दोसेवा जंमए इमस्स धम्मस्स केवलिपण्णत्तस्स अहिंसा लख्खस्स सच्चा हिट्टियस्स विण्यमूलस्स खंतिप्पहारणस्स अहिरण्णसुवरणयस्य उवसमप्पभवस्स नवबंभचेर गुत्तस्स - प्पयमाणस्स भिख्खावित्तियस्स कुरुखो संबलस्स निरग्गिसरणस्स संपखालियस्स चत्तदोसस्स गुणगाहियस्स निव्त्रियारस्स निव्वित्तोलख्खणस्स पंचमहव्त्रयजुत्तस्स असंनिहिसंचियस्स - विसंवाइयरस संसारपारगामियस्स निव्वाणगमणपज्जवसाण फलस्त पुर्विचन्नाणयाए असवया बोहियाए अभिगमेणं अभिगमेणवा पमाएणं रागदोसपडिबद्धयाए बालयाए मोहयाए मंदयाए किड्डयाए तिगारवगरुयाए चउक्कसानव
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१८५
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१८६
अभय रत्नसार ।
गणं पंचेंदिवसट्टणं पडिपुन्नभारियाए सायासुखखमणु पालयंतेां इवाभवेन्नेसुवा भवग्ग हसु दिन्नादाणं गहियंवा गाहात्रियंवा घिप्पंतंवा परेहिं समगुन्नाओ तं निन्दामि गरिहामि तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं
इयं निंदामि पडुप्पन्नंसंवरेमि अणायं पचस्कामि सव्वं अदिन्नादाणं जावज्जीवाए अ गिरिसहं नेत्रयं अदिन्नं गिरिहज्जा नेवनेहिं दन्नं गिरहा विज्जा दिन्हं गिरहंतेवि अन्नेनसमणुजाणिज्जा तंजहा अरिहंतसख्खियं सिद्धसख्खियं साहूस खिखयं देवसख्खियं अप्पसख्खियं एवं हवइ भिखूवा भिख्खूणीवा संजय विरय पडियपच्चख्खाय पात्रकम्मे दियावा राज्ओवा एगओवा परिसागओवा सुत्तेवा जागरमाणेवा एस खलु दिन्ना दागस्स वेरमणे हिए सुहे खमे निस्सेसिए आगामिए पारगामिए सब्वेसिं पारणाणं सव्वेसिं भूयाखं सव्वेसिं जीवाणं स
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पख्खी सूत्र |
१८७
व्वेसिं सत्ताणं अदुख्खणयाए असोयणयाए जूरणयाए, अतिप्रणयाए अपीडाए अपरियावगियाए अरणुद्दवण्याए महत्थे महागुणे महाणुभावे महापुरिसारणुचिन्ने परमरिसिदेसिए पत्थे तं दुख्खखयाए कम्मख्खयाए मोहख्खयाए बोहिलाभाए संसारुत्तारणाए त्तिकट्टु, उवसंपज्जित्ताणं विहरामि तच्च भंते महत्वए मिसव्वाओ अदिन्नादारणाओ देरमणं ॥ ३ ॥ अहावरे चउत्थे भंते भव्वए मेहुणाओ देरमणं सव्वं भंते मेहुणं पञ्चख्खामि से दिव्यंवा माणुसंवा तिरिख्खजोणियंवा नेवसयं मेहुणंसेविज्जा नेवनेहिं मेहुणं सेवाविज्जा मेहुणंसेवतेवि अन्नेनसमज्जाणामि जावज्जीवाए तिविह तिविहे मरणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करंतंपि अन्नं न समरणजाणामि तस्स भंते पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि से मेहुणे चव्विहे पन्नत्ते तंजहा दव्वत्र खि
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१८८
अभय रत्नसार ।
तओ कालओ भाव व्त्रणं मेहुणे रूवेसुवा रूवेसहगएसुवा खित्तत्रोणं मेहुणे उढलोएवा अहोलोएवा तिरियलोएवा कालओणं मेहुणे दियावा राम्रोवा भावणं मेहूणे रागेणवा दोसेणवा जंमए इमस्स धम्मस्स केवलिपगणत्तस्स अहिंसालख्खणस्स सच्चा हिट्टियस्स वियमूलस्स खंतिप्पहाणस्स अहिरण्णसोवरिणयस्स उवसमप्पभवस्स नवबंभचेरगुत्तस्स अप्पयमाणस्स भिक्खावित्तियस्स कुक्खी संबलस्स निरग्गिसरणस्स संपखालियरस चत्तदोसस्स गुणगाहियस्स निव्वियारस्स निव्वत्तीलख्खरणस्स पंचमहव्वयजु तस्स असंनिहिसंचियस्स विसंवा इयस्ससंसारपारगामियस्स निव्वाणगमणपज्जवसाणफलस्स पुव्विंन्नाणयाए असवण्याए अबोहियाए अभिगमेणं अभिगमेणवा पमाएणं रागदोसपडिबद्धयाए बालयाए मोहयाए मंदयाए किड्डयाए तिगारवगरुयाए चउकसानोवगएणं
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पख्खीसूत्र।
१८६ पंचेदिओवसट्टणं पडिपुण्णभारियाए सायासोख्ख मणुपालयंतेणं इहवाभवे अन्नेसुवा भवग्गहणेसु मेहुणंसेवियंवा सेवावियंवा सेविज्जंतोवा परेहि समणुन्नाओ तं निंदामि गरिहामि तिविहं तिविहणं मणेणं वायाए काएणं अइयं निंदामि पडप्पन्नंसंवरेमि अणागयं पञ्चक्खामि सव्वं मेहुणं जावजीवाए अणिस्सिोहं नेवसयंमेहु णंसेविज्जा नेवन्नेहि मेहुणंसेवाविज्जा मेहुणंसेवंतेवि अन्नं न समणुजाणामि तंजहा अरिहंतसक्खियं सिद्धसक्खियं साहुसक्खियं देवसक्खियं अप्पसक्खियं एवं हवइ भिक्खूवा भिक्खूणीवा संजय विरय पडिहय पञ्चख्खाय पावकम्मे दियावा राओवा एगओवा परिसागोवा सुत्त वा जागरमाणेवा एसखलु मेहुणस्सवेरमणे हिए सुहे खमे निस्सेसिए आणुगामिए पारगामिए सब्वेसिंपाणाणं सव्वेसिंभूयाणं सवेसिंजीवाणं सबेसिं सत्ताणं अदुक्खणयाए असोयणयाए अजूरण
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अभय रत्नसार।
याए अतिप्पणयाए अपीडणयाए अपरियावणि. याए अणुद्दवणयाए महत्थे महागुणे महाणभावे महापुरिसाणुचिन्ने परमरिसिदेसिए पसत्थे तंदुक्खख्खयाए कम्मश्खयाए मुख्खयाए बोहिलाभाए संसारुत्तारणाए तिकट्ट उवसंपजित्ताणं विहरामि चउत्थे भंते महब्बए उवट्टिओमि सब्बाओ मेहुणाओ वेरमणं ॥४॥ अहावरेपंचमे भंते महब्बए परिग्गहाओ वेरमणं सब्वं भंते परिग्गहं पञ्चक्खामि से अप्पंवा बहुवा अणुंवा थूलंवा चित्तमंतंवा अचित्तमंतंवा नेवसयं परिग्गहं परिगिरिहज्जा नेवन्नेहिंपरिग्गहं परिगि
हाविज्जा परिग्गरंपरिगिण्हतेवि अन्नेनसमणुजाणामि जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करतंपि अन्नं न समजाणामि तस्स भंते पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । से परिग्गहे चउविहे पण्णत्ते तंजहा दब्बो खित्तो
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पख्वीसूत्र। कालो भावो दवओणं परिग्गहे सचित्ताचित्तमोसेसु दब्बेसु खित्तओणं परिग्गहे गामेसुवा नगरेसुवा रन्नेसुवा कालोणं परिग्गहे दियावा राओवा भावोणं परिग्गहे अपग्घेवा महग्घेवा रागणवा दोसेणवा जंमए इमस्स धम्मस्स केवलिपण्णत्तस अहिंसालक्खणस्स सञ्चाहिट्टियस्स विणयमूलस्स खंतिपहाणस्स अहिरण्णसोवरिणयरस उवसमप्पभवस्स नवबंभचेरगुत्तस्स अप्पयमाणस्स भिक्खावित्तियस्स कुक्खोसंबलस्स निरग्गिसरणस्स संपखालियस्स चत्तदोसस्स गुणगाहियस्स निब्बियारस्स निवित्तीलक्खणस्त पंचमहब्वयजुत्तस्स अविसंवाइयस्स संसारपारगामियस्स निब्वाण गमण पज्जवसाणफलस्स पुब्बिंअन्नाणयाए असवणयाए अबोहियाए अणभिगमेणं अभिगमेणवा पमाएण रागदोस पडिबद्धयाए बालयाए मोहयाए मंदयाए किड्डयाए तिगारवगरुयाए चउक्कसाओव
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१६२
अभय रत्नसार ।
गएण पंचेदियवसट्टणं पडिपुन्नभारियाए सायासोखमणु, पालयं ते इहं वा भवे अन्नेसु वा भवग्गणेषु परिग्गहो गहियोवा गाहाविओोवा घिप्पंतोवापरेहिं समन्नाओ तं निंदामि गरिहामि तिविह तिविहेणं मणेणं वायाए काएं अइयं निंदामि पडुप्पन्न संवरेमि अणागयं पच्चस्कामि सव्वं परिग्गहं जावज्जीवाए अणि स्सिओहं नेवसयं परिगिरिहज्जा नेवन्नेहिंपरिग्गहंपरिगिरहाविज्जा परिग्गपरिरिहंतेवि अन्नेनसमणुजाणामि तंजहा अरिहंत सक्खियं सिद्धसक्खियं साहुस खियं देवस खियं अप्पसख्खियं एवंहवइभिख्खूवा भिक्खूणीवा संजय विश्यपडिय पच्चक्वाय पावमम्मे दियावा राम्रोवा एगोवा परिसागओवा सुत्त वा जागरमाणेवा एसखलु मेहु
सवेरमणे हिए सुए खमे निस्सेसिए - गामिए पारगामिए सव्वेसिं पारणाणं सव्वेसिंभूयाणं सव्वेसिंजीवाणं सव्वेसिंसत्ताणं दुक्ख
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पख्खीसूत्र |
१६३
याए असोयणयाए अरण्याए प्रतिप्पणयाए अपीडयाए अपरियावणियाए अगुद्दवणयाए महत्थे महागुणे महाणुभावे महापुरिसा - चिन्ने परमरिसिदेसियपसत्थे तं दुक्खक्खयाए कम्मक्खयाए बोहिलाभाए संसारुत्तारण्यए त्तिकट्ट, उवसंपजिताणं विहरामि पंचमे भंते महत्वए उवट्टियमि सव्वानपरिग्गहाओवेरमणं ॥५॥ हावरे भंते महत्वए राइभोयणाओवेरमणं सव्वं भंते राईभोयां पच्चक्खामि से अ सरणंवा पावा खाइमंवा साइमंवा नेवसयंराईजिज्जा नेवन्नेहिंराइभुंजाविज्जा राइंभुंजते वि अन्नेनसमरजाणामि जावज्जीवाए तिविहं तिविणं मरणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करंतंपि अन्नं न समगुजाणामि तस्स भंते पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि से राई भोयणे चउब्विहेपण्णत्ते तंजहा दब्बओ वित्तओ कालओ भावणं राईभोयणे
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१६४
अभय रत्नसार ।
असणेवा पाणेवा खाइमेवा साइमेवा खित्तणं राईभोय समयखित्त कालणं राई भोयणे दियावा रत्ति वा भावणं राई भोयणे तित्तवा कडुवा कसावा वलेवा महुरेवा लवणेवा रागेणवा दोसेणवा जंमए इमस्स धम्मस्स केवलिपण्णत्तस्स अहिंसालक्खणस्स सच्चाहिहिट्टियस्स विणयमूलस्स खंतिप्पहारणस्स अहिरण सोवरिणयस्स उवसमप्पभवस्स नव बंभचेरगुत्तस्स अप्पयमाणस्स भिक्खावित्तियस्स कु. क्खी संबलस्स निरग्गिसरणस्स संपक्खालियरस चत्तदोसस्स गुणगाहियस्स निब्वियारस्स निवित्तीलक्खणस्स पंचमहब्वयजुत्तस्स असंनिहिसंचिरस अविसंवाइयरस संसारपारगामियस्स निब्बाणगमणपज्जवसाणफलस्स पुब्विं अन्नाणयाए असवणयाए अबोहियाये अभिगमेणं अभिगमेणवा पमाएणं रागदोसपडिद्धयाए वालयाए मोहयाए मंदयाए किड्डयाए तिगा
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१६५
पख्खी सूत्र। रखगरुयाए चउकसाओवगएणं पंचेंदियवसणं पडिपुन्नभारियाए सायासोक्खमणुपालयंतेणं इहंवा भवे अन्नसुवा भवग्गहणेसु राईभोयणं भुतंवा भुजावियंवा भुजंतंवा परेहिंसमणुन्नाओ तं निंदामि गरिहामि तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं अइयंनिंदामि पडुपन्नंसंवरेमि अण्णागयं पच्चक्खामि सव्वं राइ भोयणं जावजीवाए अणिस्सिओहं नेवसयं राईभुजिज्जा नेवन्नेहिंराई भुजाविज्जा राई भुजंतेवि अन्नं न समणुजाणामि तंजहा अरिहंतसक्खियं सिद्ध. सक्खियं साहुसक्खियं देवसक्खियं अप्पसक्खियं एवं हवइ भिख्खूवा भिख्वुणीवा संजयविरय पडिय पञ्चक्खायपावकम्मे दियावा रा
ओवा एगओवा परिसागओवा सुत्त वा जागरमाणेवा एसखलुराईभोयणस्सवेरमणे हिएसुए. खमेनिस्सेसिए आणुगामिए पारगामिए सव्वेसिंपाणाणं सबेसिंभूयाणं सव्वेसिंजीवाणं
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१६६
अभय रत्नसार ।
सव्वेसिंसत्ताणं दुक्खणयाए असोयण्याए अजूरणयाए अतिप्पण्या अपीडण्याए अपरियावणिया अणुद्दवण्याए महत्थे महागुणे महाणुभावे महापुरिसाणु चिन्ने परम रिसिदेसिए पसत्थे तंदुख्खख्खयाए कम्मख्खयाए मोहक्खयाए बोहिलाभाए संसारुत्तारण्याए तिकट्ट, उवसंपज्जिताणं विहरामि उठे भंते महत्वए उवट्टियोमि सव्वाओ राईभोया वेरमणं ॥ ६ ॥ इच्चेइयाई पंचमहन्वयाई राई भोयावेरमणछट्ठाइ अत्तहियाई उवसंपज्जित्ताणं विहरामि । अप्पसत्थायजेजोगा परिणामायदारुया पारणाइवायरसवेरमणे एसवुत्त इमे ॥ १ ॥ तिब्वरागायजाभासा तिव्वदोसातहेवय मुसावायस्सवेरमणे एसवुत्त अइक्कमे ॥ २ ॥ उग्गाहंजाइत्ता अविदिन्ने उग्गहे अदिन्नादाण सवेरमणे सवुत्त इमे ॥ ३ ॥ सारूवारसागंधा फासारखं पविचारणे मेहुणरसवेरमणे एसवृत्त
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पख्खीसूत्र |
१६७
इमे ॥ ४ ॥ इच्छापुच्छायगेहीय कंखालोभेश्रदारुणे परिग्गहस्स वेरमणे सवुत्त इक्कमे ॥ ५ ॥ दंसणनाणचरित अविराहित्ताठिओोसमणधम्मे पढमंवयमगुरख्खे विरयामोपागाइवाया ॥ ६ ॥ दंसणनारणचरितं विराहिताठि समणधम्मे बीयंवयमगुरखे विरियामोअलियवयणा ॥ ७ ॥ दंसणनाणचरित्त श्रविराहित्ताठिओसमणधम्मे तइयंवयमगुरखखे विरियामोअदिन्नादाणा ॥ ८ ॥ दंसणनाणचरित विराहित्ताठिओसमणधम्मे चउत्थंवयमगुरख्खे विरयामोमेहुणा ॥ ६ ॥ दंसणनाणचरित विराहित्ताठिओसमराधम्मे पंचमंवयमपुरख्खे विरियामोपरिग्गहा ॥ १० ॥ दंसणनाणचरितं विराहित्ताठिओोसमणधम्मे छट्टु वयमपुरखे विश्यामोराईभोयणा | ११ | आलिय विहारसमित्रो जुत्तागुत्तोठियोसमरणधम्मे पढमंवयमणुरखखे विरियामोपागाइवाया | १२|
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१६८
अभय रत्नसार। आलियविहारसमिओ जुत्तोगुत्तोठिमोसमणधम्मे बीयंवयमणरख्खे विरियामोअलियवयणओ ॥ १३ ॥ आलियविहारसमिओजुत्तोगुत्तोठिओसमणधम्मे तईयंवयमणुरख्खे विरियामोअदि. न्नादाणाओ ॥ १४ ॥ आलियविहारसमिओ जुत्तोगुत्तोठिओसमणधम्मे चउस्थंवयमणुरख्खे विरियामोमेहुणाओ॥ १५ ॥ आलियविहारसमित्रो जुत्तोगुत्तोठिोसमणधम्मे पंचमंवयम. णुरख्खे विरयामो परिग्गहाओ ॥ १६ ॥ आलि. यविहारसमिओ जुत्तोगुत्तोठिोसमणधम्मे छ8वयमणुरख्खे विरयामोराईभोयणाओ।१७॥ आलियविहारसमिओ जुत्तोगुत्तोठिोसमण. धम्मे तिविहेणपडिक तो रक्खामिमहव्वएपंच ॥ १८ ॥ सावजजोगमेगं मिच्छत्तं एगमेवमनाणं परिवज्जंतोगुत्तो रक्खामिमहव्वएपंच ॥१६॥ अण्णवज्जजोगमेगं सम्मत्तंएगमेवनाणंतु उवसंपन्नोजुत्तो रक्खामिमहब्वएपंच ॥ २० ॥
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पख्खीसूत्र
१६६ दोचेवरागदोसे दुरिणयझाणाई अट्टरुहाई परिवज्जत्तोगुत्तो रक्खामिमहव्वएपंच ॥ २१॥ दुविहचरित्तंधम्म दुन्नियझाणाई धम्मसुकाई उवसंपन्नोजुत्तो रख्खामिमहव्वएपंच ॥ २२ ॥ किराहानीलाकाउ तिन्नियलेसाऊअप्पसस्थाओ परिवज्जतोयुत्तो रख्खामिमहव्वएपंच ॥ २३ ॥ तेउपम्हासुका तिन्नियलेसाओसुप्पसस्थाओ उवसंपन्नोजुत्तो रख्खामिमहव्वएपंच ॥२४॥ मणसामणसञ्चविउ वायासचणकरणसच्चण तिविहेणविसच्चवित्रो रक्खामिमहव्वएपंच ॥२५॥ चत्तारियदुहसिज्जा चउरोसन्नातहाकसायाय परिवज्जंतोगुत्तो रख्खामिमहब्बएपंच ॥ २६ ॥ चत्तारियसुहसिज्जा चउविहंसंवरंसमाहिंच उवसंपन्नोजुत्तो रख्खामिमहब्बएपंच ॥ २७॥ पंचेश्यकामगुणे पंचेवयअण्हवेमहादोसे परिव. ज्जंतोगुत्तो रख्खामिमहव्वएपंच ॥ २८ ॥ पंचेदियसंवरणं तहेवपंचविहमेवसज्जायं उवसंपन्नो
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२००
अभय रत्नसार। जत्तो रक्खामिमहब्बएपंच ॥ २६ ॥ छज्जीवनिकायवहिं छप्पियभासाओ अप्पसत्थानो परिव
जंतोगुत्तो रख्खामिमहब्बएपंच ॥ ३०॥ छविहमभिंतरियं वज्जंपियविहंतवोकम्म उवसंपन्नोजुत्तो रक्खामिमहव्वएपंच ॥ ३१॥ सत्तभयाणाई सत्तविहंचवनाणविभिंगा परिवज्जंतोगुत्तो रख्खामिमहव्वएपंच ॥ ३२ ॥ पिंडेसणपारणेसण उग्गह सत्ति कया महज्झयणा उवसंपन्नोजुत्तो रक्खामिमहव्वऐपंच ॥ ३३॥ अट्रमयहाणाई अट्टयकम्माइतेसिंबंधिंच परिवज्जंतो गुत्तो रक्खामिमहव्वएपंच ॥ ३४ ॥ अट्रयपवयणमाया दिट्टाअट्टविहनिटिअठहिं उवसंपन्नोजत्तो रक्खामिमहत्वएपंच ॥ ३५ ॥ नवपावनियाणाई संसारस्थायनवविहाजीवा परिवजंतोगुत्तो रक्खामिमहब्बएपंच ॥ ३६॥ नवबंभचेरगुत्तो दुनवविहंबंभचेरपडिसुद्ध उवसंपन्नोजुत्तो रक्खामिमहब्बएपंच ॥ ३७॥ उवघायंचदस
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पक्खी-सूत्र |
विहं असंवतहय संकिलेसंच परिवज्जतोगुरा रक्खामिमहन्वपंच ॥ ३८ ॥ चित्तसमाहिट्टाणा दसचेवदसाउसमरणधम्मंच उवसंपन्नोजुत्तो रक्खामिमहत्वपंच ॥ ३६ ॥ श्रसायणंचसव्वं तिगुणं एकारसंविवज्जंतो परिवज्जतोगुत्तो रक्खामिमहत्वपंच ॥ ४० ॥ एवंतिदंडविरो तिगरणसुद्धोतिसल्ल सिल्लो तिविहेण पडिक्कंतो रखखामिमहत्वपंच ॥ ४१ ॥ इच्च यंमहव्त्रयउ - चारणं थिरत्त सल्लद्धरणं धिइबलंववसानो साहणट्टोपावनिवारणं निकायणा भावविसोही पडागाहरणं निजूहणा राहणा गुणाणं संवरजोगो पसच्यमाणो वउत्तया जुत्तया नाणे परमट्ठो उत्तमट्टो एसखलु तित्थं करेहिं रइरागदोस महगोहिं देसिओ पवयणस्ससारो छज्जीवनिकाय संजम उवइसिउं तिल्लुक्क सकयंठाणं अन्भुगया नमो ते सिद्धबुद्ध मुत्तनीरय निस्संग माणसूरण गुणरयण सायर मरणंत मप्पमेय
२६
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अभय-रत्नसार ।
नमस्ते महय महावीरवमाणस्स नमोत्थुतेअरह नमोत्थुते भगवत्र तिकट्ट, इच्चसा खलुमहव्वय उच्चारणाकया इच्छामोसुत्तकित्तणं काउं नमोतेसिंखमासमणाणं जेहिं इमं वाइयं छविमावस्सयं भगवंतं तंजहा सामाइयां चउवीसत्थओ वंदणय पडिक्कमणं काउसग्गो पच्चक्खाणं सव्वेहिं विषय मि छविहे आवस्सए भगवंते ससुत्ते सप्रत्थे सम्गंथे सन्निजुत्तीए ससंगहणीए जेगुणावा भावात्रा अरहंतेहि भगवंतेहिं पन्नतावा परुवियात्रा भावे सदहामो पत्तियामो रोएमो फालेमा पालेमो अणुपालेमो तेभात्रे सद्दहं तेहिं पत्तियंतेहिं रोयंतेहिं फासंतेहिं पालंतेहिं अणुपालं तेहिं अंतोपख्खस्स
तोच उमासीए अंतोसंवच्छरस्स जंवाइयं पडिढयं परियट्ठियं पुच्छियं अपेहियं अणुपालियं तंदुक्खख्खयाए कम्मख्खयाए मोहखयाए वोहिलाभाए संसारुत्तारणाए तिकट्ट, उवसंपजि
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पक्खी-सूत्र |
२०३
ताणं विहरामि तोपख्खस्स जंनवाइयं नपढि - यं नपरियट्टियं नपुच्छियं नापेहियं नापालियं संतेबले संतेवीरिए संतेपुरिसकारपरिक्कमे तस्सालोएमोपडिकमामा निंदामां गरिहामो विउद्यमो विसोहेमो अकरण्याए अभुट्टो मो हारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्झामो तस्समिच्छामिदुक्कडं नमोते सिंखमासमणाणं जेहिंइ मंवाइयं अंगबाहिरियं उक्कालियं भगवंतं तंजहा दसवेलियं कप्पिया कप्पियंचुल्लकप्पसुयं महाकप्पसुयं उववाइयं रायप्पसेणीयं जीवाभिगमो पन्नवणा महापन्नवणा नंदी योगदाराई देविदथुआ तंदुलवेलियं चंदाविज्भयं पमायप्पमायं वीयरागसुयं विहारको चरणविसोही आउरपच्चक्खाणं महापच्चखाणं सव्वेहिं पिए
मि अंगवाहिरिए उक्कालिए भगवंते ससुत्ते सत्ये सग्गंथे सन्निजुत्तीए ससंगहणीए जेगुणावा भावावा अरिहंतेहिं भगवंतेहिं पन्नत्ता
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अभय-रत्नसार ।
वा परुवियाया तेभावे सदहामो पत्तियामो रोएमो फासेमो पालेमो अणुपालेमो तेभावेसदहंतेहिं पत्तियंतेहिं रोयंतेहिं फासंतेहिं अणुपालं - तेणं अंतोपख्खस्स जंवाइयं पढियं परिट्टियं पुच्छिय अपेहिय अणुपा लिय तंदुख्खखखयाए कम्मख्खयाए मोहक्खयाए बोहिला भाए संसारुत्तारणाए तिकट्टु उवसंपजित्ताविहरामि
तोपख्खस्स जंनवाइयां नपढिय नपरियहिय न पुच्छिय' नापेहियं नापा लिय संतेवले संतेवीरिए संतेपुरिसक्का रपरिकमे तरस बालोएमो पडिक्कमामी निंदामी गरिहामी वउहमोविसोहेमो करणयाए प्रभुट्टोमो आहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्झामो तस्समिच्छामिदुक्कडं नमोतेसिं खमासमणाणं जेहिंहमंत्राइयं गबाहिरिय उकालिय भगवंतं तंजहा उत्तरयणाई दसाओ कप्पोववहारो इसिभासियाई महानिसीहं जंबुद्दीवपन्नत्ती सूरपन्नत्ती
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पक्खी-सूत्र |
चंदपन्नत्ती दीवसागरपन्नत्तो खुड्डियाविमाणपरिभत्ती महल्लियात्रिमाणपविभत्ती अंगचूलिया वंगचूलिया विवाहचूलिया अरुणोववाए वरुगोववाए गरुलोववाए वेसमणोववाए वेलंधरोववाए देविंदोववाए उट्टा सुए समुट्ठाण सुए नागपरियावलियाओ निरयावलियाओ कप्पियाओ कप्पवासियाओ पुफियाओ पुप्फचुलियाओ वहीदसाओ आसोविसभावणाओ दिटीविभावरणाओ चारणसुमिरणभावणाओ महासुमिरणभावणाओ ते अग्गिनिसग्गाणं सव्वेपिएयमि अंगबाहिरए उककालिए भगवंते ससुत्ते सप्रत्थे सग्गंथे सन्निजुत्तोए ससंगहगीए जे गुणावा भावावा अरिहंतेहिं भगवंतेहिं पन्नत्तावा परुवियावा तेभावे सदहामो पत्तियामो रोएमो फासेमो पालेमो अणुपालेमो ते भावे सहतेहिं पत्तिय तेहिं रोय तेहि फासंतेहिं पालंतेहिं अणुपालंतेहिं अंतोपख्खस्स जंत्रा
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२०६
अभय-रत्नसार ।
इयं पढय परियहिय पुच्छि अणुपेहिय अणुपालय तंदुख्खखयाए कम्मक्खयाए मोहरखयाए बोहिलाभाए संसारुत्तारणाए तिकट्ट उवसंपज्जित्ताणं विहरामि अंतोपखखस्स जंनवाइय' नपढ्य नपरियट्टिय नपुच्छि नापेहिय नागपालियां संतेबले संतेवीरिए संतेपुरिसकारपरिकमे तस्स आलोयमो पडिकमामो निंदामो गरिहामो विउमो विसोहेमो कर
याए अब्भु मो अहारिहंतवोकम्मं पायच्छितंपडिवज्झामो तस्स मिच्छामि दुक्कडं नमोतेसिंखमासमणाणं जेहिंइमंवाइयं दुवाल संगंगणिपिडंगं भगवंतं तंजहा आयारो सूयगडो ठाणो समवाओ विवाहपन्नत्ती नायाधम्मकहाओ उवासगदसाओ अंतगडदसा अणुत्तरोववाइमदसाओ पहा बागरणं विवागस्य दिट्टिवाओ सुदिट्टिसुहाओ सव्वेहिं पिएय मि दुवाल - संगे गरिपिडगे भगवंते ससुत्त सत्थे सग्गंथे
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पक्खी-सूत्र |
२०७
सन्निजुत्तीए ससंगहणीए जेगुणावा भावावा अरिहंतेहिं भगवंतेहिं पन्नत्तावा परुवियावा तेभावे सहामो पत्तियामो रोएमो फासेमो पालेमो पालेमो तेभावे सदहंतेहिं पत्तिय तेहिं रोय तेहिं फासंतेहिं पालतेहिं अणुपाल तेहिं
तोपखस्स जंवाइय' पढिय परियट्टियाँ पुच्छिय अणुहिय अणुपालिय तं दुख्खख्खयाए कम्मख्खयाए मोहख्खयाए बोहिलाभाए संसारुत्तारणाए तिकट्ट, उवसंपजित्ताणं विहरामितोपखस्स जंनवाइय नपढिय नपरियटिटय नपुच्छिय नाणुपेहिय नागपालिय संतेबले संतेत्री रिए संतेपुरिसकारपरिक्कमे तस्सआलोयमो पडिकमामो निंदामो गरिहामो विउमो विसोमो अकरणयाए अभुट्टे मो - हारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जामो तस्समिच्छामिदुक्कडं जेहिंइमं वाइय' दुवाल संगं गणिपिडगं भगवंतं
नमोतेसिंखमासमणा
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२०८
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अभय-रत्नसार ।
सम्मकाएग फासंति पालति पूरंति तीरंति किटंति सम्मंत्रणाए आराहंति अहंचनाराहेमि तस्समिच्छामिदुक्कडं ॥ सुय देवया भगवइ, नाणावरणीय कम्म संघायं ॥ तेसिंखवेउसययं, जेसिंसुयसायरेभत्ती १ इति पाचिकसूत्रं समाप्तं
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देववन्दन तथा प्रातःकाल और सायंकालके प्रतिक्रमणमें कहनेकी स्तुतियें । ॥ द्वितीया की स्तुति ॥
महीमंडणं पुन्नसोवनदेहं, जणाणंदणं केव. लनाणगेहं । महानंद लच्छी बहु बुद्धिरायं, सुसेवामि सीमंधरं तित्थरायं ॥ १॥ पुरा तारगा जेह जीवाण जाया, भवस्संति ते सव्ध भ व्वाण ताया। तहा संपयंजे जिणा वहमाणा,सुहं दिंतु ते मे तिलोयप्पहाणा ॥२॥ दुरुत्तार संसार कुब्वारपोयं, कलंकावली पंक पक्खाल तोयं । मणोवंछियच्छे सुमंदारकप्पं,जिणंदागमं वंदिमो सुमहप्पं ॥३॥ विकोसे जिणंदाणणं भोजलीणा, कलारूवलावण्ण सोहग्ग पीणा। वहं तस्स
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२१०
अभय - रत्नसार
चित्तं णिच्चं पिणं, सिरी भारई देहि में सुद्धा ||४|| इति श्रीसीमंधरजीको स्तुतिः ॥ ॥ पंचमी की स्तुति ॥
पंचानंतकसुप्रपंच परमानंद प्रदानक्षमं, पंचानुत्तरसीम दिव्यपदवी वश्याय मन्त्रोत्तमम् । येन प्रोज्ज्वल पंचमीवरतपो व्याहारि तत्कारिणां, श्रीपंचानन लांछनः सतनुतां श्रीवर्द्धमानः श्रियम् ॥ १ ॥ ये पंचाश्रवरोधसाधनपराः पंचप्रमादीहराः, पंचाणुत्रतपंच सुव्रत विधिप्रज्ञापनासादराः । कृत्वा पंचऋषीक निर्जयमथो प्राप्ता गतिं पंचमी, तेऽमी संतु सुपंचमीत्रतभृतां तीर्थंकराः शंकराः ॥२॥ पंचाचारधुरीणपंचम गणाधीशेन संसूत्रितं, पंचज्ञानविचारसारकलितं पंचषु पंचवदम् । दीपाभं गुरुपंचमार तिमिरेष्वेकादशी रोहिणी, पंचम्यादिफलप्रकाशनपटुं ध्यायामि जैनागमम् ॥ ३ ॥ पंचानां परमेष्ठिनां स्थिरतया श्रीपंचमेरुश्रियां, भक्तानां भविनां गृहेषु बहुशो या
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स्तुति-संग्रह। २११ पंचदिव्यं व्यधात् । प्रहवो पंचजने मनोमतकृतौ स्वारत्न पञ्चालिका, पंचम्यादितपोवतां भवतु सा सिद्धायिका नायिका ॥४॥इति पंचमीस्तुतिः
॥ अष्टमी की स्तुति ॥
चउवीसे जिनवर प्रणमं हु नितमेव, आठम दिन करिये चन्द्रप्रभुनीसेव। मूरति मन मोहे जाणे पूनिम चंद, दीठां दुःख जाये, पामे परमानंद ॥ १॥ मिलि चोसठ इन्द्र पूजे प्रभु जीन पाय, इन्द्राणी-अपछरा कर जोड़ी गुण गाय। नन्दीश्वर द्वीपें मिलि सुरवरनी कोड । अठाई महोच्छव, करता होडा होड ॥२॥ शेजा शिखरें जाणी लाभ अपार, चउमासे रहिया गणधर मुनि परिवार । भवियणने तारे देई धरम उपदेश । दूध-साकरथी पण वाणी अधिक विशेष ॥ ३॥ पोसो-पडिक्कमणं करिये व्रत-पच्चक्खाण, आठम तप करतां
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२१२
अभय-रत्नसार।
आठ करमनी हाण। आठ मङ्गल थाय दिनदिन कोडि कल्याण ॥ जिनसुखसरि कहे इम जीवत जनम प्रमाण ॥ इति अष्टमी स्तुति॥
मौन एकादशी की स्तुति।
अरस्य प्रवज्या नमिजिनपतेर्ज्ञानमतुलम् तथा मल्लेर्जन्म ब्रतमपलं केवलमलम् । वलबैंकादश्यां सहसि लसदुद्दाममहसि, क्षिो कल्याणानां क्षपति विपदः पंचकमदः ॥१॥ सुपद्रश्रेण्यागमनगमन मिवलयं, सदा स्वर्गत्यवाहमहमिकया यत्र सलयं। जिनानामप्यायुः क्षणमतिसुखं नारकसदः, क्षिती० ॥ २ ॥ जिना एवं यानि प्रणिजगदुरात्मीयसमये, फलं यत्कर्तणामिति च विदितं शुद्धसमये। अनिष्टारिष्टानां क्षितिरनुभवेयुबहुमु दः, चि० ॥३॥ सुराः सेंद्राः सर्वे सकलजिनचन्द्रप्रमुदिता, स्तथा च ज्योतिष्काखिलभवननाथाः समुदिताः ।
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स्तुति संग्रह |
२१३
६
तपो यत्कर्त्तणां विदधति सुखं विस्मितहृदः, चितौ ० ॥ ४ ॥ इति मौन एकादशी स्तुति ॥ ॥ चौदश की स्तुति ॥
प्रथम तीर्थकर आदिजिनेश्वर जाकी कीजे सेव, गच्छ चोरासी जेहने थाप्या जाकी करणी एह । तेहने पाखी चउदस कीजे बीजे अंग कहाय, पाखी सूत्र प्रथम तुम देखो जिम जिम संशय जाय ॥ १ ॥ चउत्री से जिन पूजा कीजे मानो जिनकी आण, कल्पसूत्रनी पाखी चौदस जोवो चतुर सुजान । इण पर ठाम ठाम तुम देखो चौदस पाखी होय, भूला कोई भमो तुम प्राणी सांचो जिनधर्म जोय ॥२॥ चवदसरे दिन पाखी कीजे सूत्र केरी साख, भविक जीव इक आराधो टीका चूर्णी भाष्य । आवश्यक सूत्र इण पर बोले चउदसरे दिन पाखी, चउद- पुरवधर इनपर बोले ते निश्चय मन
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२१४
अभय - रत्नसार ।
राखी ॥ ३ ॥ श्रुतदेवी इक मन आराधो मन वांछित फल होय, जे जे आज्ञासूधी पाले ज्यानां विघन हरेय । सेवक इणपर करे बीनती सूधो समकित पाय, खरतर गच्छ मंडण कुमति विहंडण माणिक्यसूरि गुरुराय ॥ ४ ॥
॥ पार्श्वनाथजीकी स्तुति ॥
हरिगीत च्छंद ।
॥ द्रे कि धपमप धुधुमि धोंधों सकिधर धप धोरवं, दोंदों किं दों दों दाडिदि दाडिदिकि द्रमकिद्रण रण, द्रौणवं । झझि
किरण रणरण, निजकि निजजन, रञ्जनम्, सुरशैल शिखरे भवतु सुखदं पार्श्वजिनपतिमज्जनम् ॥ १ ॥ कटरोंगिनि थोंगिनि किटति गिगडदां धुधुकि घुटनट पाटवम्, गुणगुणण गुणगण रणकि गण गुणगण, गौरवम् । झझि कि
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स्तुति संग्रह |
२१५
झझझरण रण रण, निजकि निजजन, सज्जना, कलयन्ति कमला, कलितकलमल मुकल मीश महेजिनाः ॥ २ ॥ ठकि ट्रॅकि ट्रेंद्र ठर्हिक ठहिक ठहिक ठहिपट्टा ताड्यते, तललोंकि लोंलों, ऋषि षिनि, षि षिनि वाद्यते । उ उ कि उ उ, थुंगि थुंगिनि, धोंगिधोंगिनि कलरवे । जिनमतमनंतं महिम तनुतां नमति सुरनर मुत्तमम् ॥ ३ ॥ पुंदांकि षंदां पुपुदि षंढां षुषुदि दोंदों अम्बरे । चाचपट चचपट रuकि गोंडण डें डें, डंम्बरे || तिहां सरगमपधुनि निधपमगरस सस ससस सुर सेवता, जिननाट्यरङ्ग कुशल - मुनि शं दिशतु शासन देवता ॥ ४ ॥ ॥ बिलकी स्तुति ॥
|| निरुपम सुखदायक जगनायक लायक शिवगति गामी जी, करुणासागर निजगुण
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२१६
अभय - रत्नसार ।
अगर शुभ समता रस धामी जी । श्रीसिद्धचक्र शिरोमणि जिनवर घ्यावे जे मन रङ्ग े जी, ते मानव श्रीपालतणी परें पामे सुख सुर सङ्ग े जी ॥ १ ॥ अरिहन्त सिद्ध आचारिज पाठक, साधु महा गुणवन्ता जी ॥ दरिसण नाण चरण तप उत्तम, नवपद जग जयवन्ता जी ॥ एहनुं ध्यान धरन्तां लहियें, अविचल पद अविनाशी जी, ते सघला जिननायक नमियें, जिणें ए नीति प्रकाशी जो ॥ २ ॥ श्रसूमास मनोहर तिम वलि, चैत्रक मास जगीरों जी ॥ उजवाली सातमथी करियें, नव आंबिल नव दिवसें जी ॥ तेर सहस वलि गुणिये गुणणं, नवपद केरो सारो जी ॥ इण परि निर्मल तप आदरियें, आगम साख उदारो जी ॥ ३ ॥ त्रिमल कमलदल लोयण सुन्दर, श्रीचक्केसरि देवी जी ॥ नवपद सेवक भविजन केi, विघ्न हरो सुर सेवी जी ॥ श्रीखरतर गच्छ नायक सद्गुरु, श्रीजिन भक्ति
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अभय रत्नसार २१७ मुनिंदा जी ॥ तासु पसायें इणपरिपभणे, श्री जिनलाभ सूरिंदा जी ॥४॥
पर्युषण की स्तुति ॥ ॥ वलि वलि हुं ध्या गाऊँ जिनवर वीर, जिनपर्व पजुसण दाख्यां धरमनीशीर ॥ आषाढ चौमासे हूँती दिन पंचास, संवच्छरी पडिकमj करिये त्रण उपवास ॥ १॥ चउवीशे जिनवर पूजा सत्तर प्रकार, करिये भले भावें भरिये पुण्य भंडार ॥ वलि चैत्य प्रवाडे फिरतां लाभ अनंत, इम परव पजूसण सहुमें महिमावंत ॥२॥ पुस्तक पूजावी नव वांचनायें वंचाय, श्रीकल्प सूत्र जिहां सुणतां पाप पुलाय॥ प्रतिदिन परभा वना धूप अगर उक्खेव, इम भवियण प्राणी परव पजसण सेव ॥३॥ वलि साहम्मीवच्छल करिये वारंवार, केइ भावना भावे केइ तपसी शीलधार॥ अडदीह पजूसण एम सेवत आणंद, सुयदेवी सांनिध कहे जिनलाभ सूरिंद ॥ ४ ॥
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२१८ स्तुति-संग्रह
॥श्रीनेमिनाथजी की स्तुति ॥ ॥सुर असुर वंदिय पाय पंकज मयणमल्लअक्षोभितं, धन सघनश्याम शरीर सुन्दर शंख लंछन शोभितं ॥ शिवादेवि नंदन त्रिजग वंदन भविक कमल दिनेश्वरं, गिरनार गिरिवर शिखर वंदू नेमिनाथ जिनेश्वरम् ॥ १ ॥ अष्टापदें श्री
आदिजिनवर वीरजिन पावापुरे, वासुपूज्य चंपा पुरिय सीधा नेम रेवय गिरिवरे ॥ समेतशिखरें वीस जिनवर मुगति पहुता मुनिवरू, चउवीस जिनवर तेह वंदू सयल संघे सुखकरू ॥ २॥ इग्यार अंग उपांग बारे दश पयन्ना जाणिये, छ छेद ग्रंथ प्रसत्त्थ अत्त्था चार मूल वखाणिये ॥ अनुयोग द्वार उदार नंदीसूत्र जिन मत गाइयें, एह वृत्ति चूर्णी भाष्य पेंतालीश आगम ध्याइये ॥३॥दुहं दिसें बालक दोय जेहने सदा भवियण सुखकरू, दुख हरें अंबा लुब सुन्दर दुरिय दोहग अपहरू ॥ गिरनार मंडण नेमि जिनवर
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अभय रत्नसार
२१६
चरणपंकज सेवियें, श्रीसंघ सहुने सदा मंगल
करो अंबा देवियें ॥ ४ ॥
॥ दीपमालिका की स्तुति ॥
॥ पापायां पुरि चारुषष्टतपसा पर्यंकपर्यासनः, दमापालप्रभुहस्तपालविपुलश्रीशुकशालामनु ॥ गोसे कार्त्तिकदर्शनागकरणे तूर्यारकांते शुभे, स्वातौ यः शिवमाप पापरहितं संस्तौमि वीरप्र भुम् ॥ १ ॥ यद्गर्भागमनोद्भव व्रतवरज्ञानाक्षरा तिक्षणे, संभूयाशु सुपर्वसंततिरहो चक्रे महस्तत् चणात् ॥ श्रीमन्नाभिभवादिवीरचरमास्ते श्री जिनाधीश्वराः संघायानघचेतसे विदधतां श्रेयां स्यने नांसि च ॥ २ ॥ अर्थात्पवमिदं जगाद जिनपः श्रीवर्द्धमानाभिध, स्तत्पश्चाद्गणनायका विरचयांचॠस्तरां सूत्रतः ॥ श्रीमत्तीर्थसमथनैक समये सम्यग्दृशां भूस्पृशां भूयाद्भावुककारक प्रवचनं चेतश्चमत्कारि यत् ॥ ३ ॥ श्रीतीर्थाधिप तोर्थभावपरा सिद्धायिका देवता, चंचच्चक्रधरा
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२२०
स्तुति - संग्रह
सुरासुरनता पायादपायादसौ ॥ अन् श्रीजिन चंद्रगिस्सुमतिनो भव्यात्मनः प्राणिनो, या चक्रेऽ वम कष्टहस्तिनिधने शार्दूलविक्रीडितम् ॥ ४ ॥ ॥ वीस विहरमान की स्तुति ॥
पंचविदेहविषे विहरंता । वीस जिनेसर जग जयवंता ॥ चरणकमल तसु नामू सीस । ग्रहनिस समरू ते जगदीस ॥ १ ॥ पंच मेरुपा से झलकता | सोहे वीस महा गजदंता ॥ तिण ऊपर छे जिनहर वीस । ते जिनवर प्रणमूं निसदोस ॥ २ ॥ गणहर कहिय दुवालस अंग । थांनक वीस भया तिहां चंग ॥ तिण ऊपर जे आणे रंग । ते नर पामे सुक्ख अभंग ॥ ३॥ जिनशासनदेवी चउवीस | पूरे मुझ मनतणी जगीस ॥ संघतरणा जे विघन निवारे । तिहुण जन मन वंछिय सारे ॥ ४ ॥ ॥ पार्श्वजिनकी स्तुति ॥ समदमोत्तमवस्तुमहापणं, सकलकेवलनि
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अभय रत्नसार
२२१
र्मलसद्गुणं । नगरजेसलमेरविभूषणं, भजति पार्श्वजिनं तदूषणं ॥ १ ॥ सुरनरेश्वरनम्रपदांबजाः, स्मरमहीरुहभंगमतंगजाः । सकलतीर्थकराः सुखकारका, इह जयंतु जगज्जनतारकाः ॥ २ ॥ श्रयति यः सुकृती जिनशासनं, विपुल - मंगल केलिविभासनं । प्रबलपुण्यरमोदयधारिका, फलति तस्य मनोरथ मालिका ॥ ३ ॥ विकटसंकटकोटिविनाशिनी, जिनमताश्रितसोख्यविकाशिनी । नरनरेश्वरकिन्नरसेविता, जयतु सा जिनशासनदेवता ॥ ४ ॥
॥ आदिनाथजी की स्तुति ॥ वरमुत्तियहारसुतारगणं, वरचित्तकलत्तसुपत्तणं । पंकय छप्पयदेवगणं, सिरिब्भुय वंदू आदिजिणं ॥ १ ॥ तियलोयनमंसियपायजुप्रा, घणमोहमही रुहमत्तगया । परिपालिअ - निच्चलजीवदया मम हुंति जिनागमसुक्खसया ॥ २ ॥ परणयंगिमहातमरोरहरं, कल्लाण
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२२२
स्तुति-संग्रह पयोरुहवुढिढकरं । सुहमगकुमगपयासकरं, पणमामि जिनागममन्हिकरं॥३॥ सिरइन्दसमुज्जलगायलया, सुहझाणविणम्मियएगलया। असुरिंदसुरेंदसुरप्पणया, मम वाणि सुहाणि कुणे
सुसया ॥४॥
॥आदिजिन की स्तुति ॥ प्रणमू परम पुरुषपरमेसर, परमातमपद धारीजी । प्रथम जिनेसर प्रथम नरेसर, प्रथम परम उपगारी जी ॥ योगीसर जिन राज जगत गुरु, सहजानंद स्वरूपोजी। ऋषभजिनेसर लोकदिनेसर, आतमसंपद भूपोजी॥१॥ पांच भरत वलि पांचे एरवत, पंच विदेह मझारोजी । काल अतीत अनंता जिनवर, पाम्या सिव पद सारोजी। वलिय अनागत काल अनंता, थास्ये इणही प्रकारोजी। संप्रति काले वीस विदेहे, वंदु बहु सुखकारोजी ॥२॥अरथे श्रीजिनराज वखाण्या, गूथ्यां श्रीगणधारोजी। अंग दुवालस अतिसे
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अभय रत्नसार
२२३
उत्तम, अरथ विविध विस्तारोजी ॥ गुण परजय नय भंग प्रमाणे, जिहां षट्द्रव्य विचारोजी । ते आगम मन श्रुद्ध आराध्यां तूटे कर्मविकारोजी ॥ ३ ॥ सुन्दर रूप अनूपम सोहे, श्री चक्क सरिदे वीजी । श्रीजिनशासन सानिध करणी द्यो, वंछित नित सेवीजी ॥ कल्याण कारण जेहनी सेवा, संघ सकल सुख कंदाजी | श्रीजिनचंद मुदि पसाये, कहे जिनहर्ष सुरिंदाजी ॥ ४ इति ॥ ॥ अजितनाथजी की स्तुति ॥
विश्वनायक लायक जितशत्रु, विजया नंद | पयजुग नित प्रणमे देव अने देविंद ॥ भवलहरी गहरी सब मन धरी अमंद | श्रीसूरतसहिरे वंदो अजितजिनंद ॥ १ ॥ आठ प्रातोहारज अतिशय बलि चोती । दिलरंजन देसन तेहना गुणपेंतीस अगणित ऋद्धिधारी आचारीमां ईस । एह गुणना धारक वंदु जिन चोवीस ॥ २ ॥ सुज्ञ अरथ नोपम जिन भाषित सिद्धांत । स्याद्वाद नया
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२२४
स्तुति-संग्रह
दिक हेतुयुक्ति नवि भ्रांत ॥ पापकरदमपाणी सदगतिनी सहनाणी । सुखिये नित भविका आगमकेरी वाणी ॥ ३ ॥ शासननी साची देवी सानिधकारी | दुःखकष्टनिवारण सेवीजे सुखकारी ॥ साचे मन समरे ते सुख लाभ अपारी । जिनलाभ पयंपे होज्यो जय-जय कारी ॥ ४॥
॥ श्रीमहावीर स्वामी की स्तुति ॥ यदहिनमतादेव, देहिनः संति सुस्थिताः । तस्मै नमोस्तु वीराय ॥ सर्वविघ्नविघातिने ॥ १ ॥ सुरपतिनतचरणयुगान् । नाभेयजिनादि जिनपति । नौमि यद्वचनपालनपरा जलांजलिंददतु दुःखे भ्यः ॥ २ ॥ वदंति वृन्दारुगणाग्रतो जिनाः, सदर्थतो यद्रचयंति सूत्रतः । गणाधिपास्तीर्थसमर्थ नक्षणे, तदगिनामस्तुमतंनुमुक्तये ॥ ३ ॥ शक्रः सुरासुरवरैस्सहदेवताभिः, सर्वज्ञशासनसुखायसमुद्यताभिः श्रीवर्द्धमानजिनदत्त मतप्रवृत्तान् । भव्यान् जनान्नयतु नित्यममङ्गलेभ्यः ॥ ४॥
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अभय रत्नसार
२२५ ॥ लध्वी स्त्रोछंदसि वीर स्तुतिः॥ वीरं देवं नित्यं वंदे १
जैनाः पादा युष्मान पांतु २ जैनं वाक्यं भूयादभूत्यै ३ सिद्धा देवी दद्यात्सौख्यम् ॥ ४॥
श्रीवीरजिन स्तुति। मूरति मनमोहन कंचन कोमल काय, सिद्धारथ नंदन त्रिसलादेवी सुमाय ॥ मृगनायक लंछन सात हाथ तनु मांन, दिन-दिन सुखदायक स्वामि श्रीवर्द्धमान ॥१॥ सुर नरवर किन्नर वंदित पद अरविंद, कामित भरपूरण अभिनव सुरतरुकंद ॥ भवियणने तारे प्रवहणसम निसदीस, चोवीसे जिनवर प्रणमु विसवा वीस ॥ अरथे करि आगम भाख्या श्रीभगवंत, गणधर ते गूथ्या गुणनिधि ज्ञान अनंत ॥ सुरगुरु पिण महिमा कह न सके एकांत,समरूं सुखदायक मन सुध सूत्र-सिद्धांत ॥३॥ सिद्धायिका देवी वारे
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२२६ स्तुति-संग्रह विघन विशेष, सहू संकटे चूरे पूरे आस अशेष ॥ अनिसि कर जोडी सेवे सुरनर इंद, जंपे गुणगण इम श्रीजिन लाभ सूरिंद ॥४॥
॥ श्रीचतुर्विंशति जिनानां पंचकल्याणक स्तुतिः ॥ नाभयं संभवं तं, अजियसुवियं, नंदणं सुव्वयव्वा ॥ सुप्पासं पउमनाहं, सुविघशसिपहुं, सीयलं वासुपूज्यं ॥श्रेयांसं धर्मशातिं, विमलअरिजिनं, मल्लिकुं, अणंतं, नेमिं पासं च वीरं, नमिमविनमिसौ, पंच कल्याण एसु ॥ १॥ गन्भे हाणेसु जम्मे, वय गहणखणे, केवले लोयकाले, पत्त्थाणिव्वाणठाणे, पगवण समए, संथुआ भावसारं ॥ देवेहिं, भवणवणसए, विंतरे किन्नरोहिं, तं मझ दिंतु मोक्खं, सयलजिनवरा, पंच कल्याण एसु ॥२॥ हेऊ तित्थंकराणं, जमिहअणवमं, भावतित्थंकरतं । सव्वन्नूणं च पासा, अहमविनियमा, जायए सव्वकालं ॥ अन्नुन्नप्पत्तिएहिं, नियममहणं, बीयअंकूररूवं । अव्वाबाहं जिणाणं
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अभय रत्तसार
२२७
जयउ पवयणं, पंच कल्याण एसु ॥३॥ गोरीगंधा रोकाली, नरवरमहिषी, हंससंगोरिहव्वा। सब्वछा माणमंबा, वरकमलकरा, रोहिणीबत्तअंबा ॥ पन्नत्ती बत्तपउमा, धणइसरणई, खित्तगेहाइवासा । संर्ति संघे कुणंतु, गहगणसईया, पंच कल्याण एसु ॥४॥ इति श्रीचतुर्विंशतिजिनानां पंचकल्याणक स्तुतिः ॥
॥श्रीशत्रुजयको स्तुति ॥ सेव॒जामंडण आदिदेव । ह अहनिस समरू तास सेव ॥ रायणतल पगलां प्रभूतणा । पूजि सफल फल सोहामणा ॥ १॥ तेवीस तीर्थ कर समवसरया। विमलाचल ऊपर गुण भरया ॥ गिरि कडणे आया नेमनाथ । ते जिनवर मेलो मुगतिसाथ ॥२॥ सोहम सांमी उपदिस्या। जंबुगणधरने मन वस्या ॥ पुडरगिरि महिमा जे मांह । ते आगम समरू मनउच्छाह ॥ ३॥ चक्केसरि गोमुख कवडयक्ष । मन वंछित पूरण कल्पवृक्ष ।
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२२८ स्तुति-संग्रह सिद्धक्षेत्रसिहरे सहदेवता। भणे नंदिसूरि तुम पाय सेवता ॥४॥ इति श्रीशजय स्तुति ॥
॥नेमिनाथजीकी स्तुति॥ ॥ गिरनार सिखरपर नेमनाथ सुपहाण । दीक्षा वर केवल ज्ञान अने निरवांण ॥ जसु तीन कल्याणक सुखकर सुरतरुकंद। तसु भवियण प्रणमो पाययुगलअरविंद ॥ २ ॥ अठावय चंपा पावापुर शुभ ठाण आइम बारम जिण चउवीसम जिणभाण ॥ अजितादिक वीसे पुहता सिवपुर वास। समेतशिखरपर प्रणमु अधिक उल्हास ॥ २॥ जिनवर मुख हूंती सुणि त्रिपदी ततकाल । गणधारक गूथ्या द्वादश अंग विशाल ॥ नयभंग पदारथ सत्त २ नव तत्त । भवि यणने तारे सायर जिम बोहित्थ ॥३॥ चक्केसरि अंबा पउमादेवी प्रत्यक्ष । श्रीसंघ मनोरथ पूरे वासुरवृक्ष ॥ ध्यावे सुख पावे श्रीजिनलाभ सूरीश। जिनवर सुप्रसादे आस फले सुजगीस ॥४॥
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अभय रत्नसार
॥ श्री शितलनाथजी की स्तुति ॥ ॥ सुख समकितदायक कामित सुरतरुकंद | दृढरथ नृप राणी नंदाकेरो नंद ॥ भद्दिलपुर स्वामी फेडे भवना कंद । चित चोखे नमिये श्री शीतल जिनचंद ॥ १ ॥ अतीत अनागत हुआ होस् अनंत । संप्रति काले जे क्षेत्र विदेह विचरंत || त्रिहु भवणे ठवरणा सासय असासय हुंत । ते सगला त्रिकरण प्रणमुं श्री अरिहंत ॥ २ ॥ कालिक उत्कालिक अंग अनंग पविघ । नयभंग निक्षेपा स्याद्वाद मितसिद्ध ॥ भविजन उपगारी भारी जिन उपदेश । श्रुत श्रवणे सुरगतां नासे कोडि कलेश ॥ ३ ॥ ब्रह्मजच असोका सासन सुरि सुविचार | संघ सानिधकारी निरमल समकित धार ॥ चिंता दुख चूरे पूरे मनह जगीस । ध्यान तेनो धरिये कहे जिनलाभसूरिश ॥ ४ ॥ ॥ समवसरण विचारगर्भित स्तुति ॥ || मिल चौविह सुरवर विरचे त्रिगडो सार
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२२६
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२३०
स्तुति-संग्रह
अढी गाउ उंचो पिहुलो जोया पार ॥ विच कनकसिंहासन पदमासन सुखकार । श्रीतीरथनायक बैसे चोमुखधार ॥ १ ॥ तीन छत्र सिरोवर चामर ढोले इंद | देवदु दुभि वाजे भांजे कुमति फंद ॥ भामंडल पूठे ऊलके जांग दिनंद | तिहुण जन भवि मन मोहे सयल जिनंद ||२|| द्रव्यभाव सुठवरणा नाम निक्षेपा च्यार । जिए गणहर भाख्या सूत्र सिद्धांत मकार ॥ जिनवरनी पडिमा जिन सरखी सुखकार । शुभ भावे वंदो पूजो जग जयकार ॥ ३ ॥ दुख हरणी मंगल करणी जिनवर वाणी । भवच्छेद कृपाणी मीठो अमिय समाणी ॥ मन शुद्धे आणी प्रतिबूको भवि प्राणी | सुयदेवि पसायें पामे जयति सुनारणी ॥ ४ ॥ इति ॥
॥ श्री चैत्री पूणिमाकी स्तुति ॥ ॥ सेागिरि नमिये ऋषभदेव पुंडरीक । शुभ तपनी महिमा सुरण गुरुमुख निरभीक | शुद्ध
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अभय रत्नसार
२३१
मन उपवासे विधिसुं चैत्य बंदनीक । करिये जिन आगल टाली वचन अलीक ॥१॥ शक्रस्तवनादिक प्रथम तिलक दस वीस । अक्षत गिरणतीसे चढता तिम चालीस ॥ पंचासनी पूजा भाषइ इम जगदीस । तेहिज नित प्रणमुळे स्वामी जिन चोवीस ||२|| सुदि पक्षनी पूनम चैत्र मास शुभ वार | विधिसेती लहिये आगम साख विचार ॥ इम सोले वरसलग धरिये ज्ञान उदार । करतां नर नारी पामे भवनो पार ॥ ३ ॥ सोवन तन चरणे नयने तिम अरविंद । चक्केसरीदेवी सेविय नर सुरद ॥ कामित सुखदायक पूरय मन आणंद | जंपे गणनायक श्रीजिनलाभसूरिंद ॥ ४ ॥
|| नवपदजी की स्तुति ॥
॥ समहं सुखदायक मन सुध वीर जिनंद । जिण नवपद महिमा भाषी ज्ञान दिखंद | आसु मधु उज्जल सातमथी नवदीस । नव आंबिल
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२३२ स्तुति-संग्रह करिये मन धरि अधिक जगीस ॥ १ ॥ अरिहंत वलि सिद्ध आचारज उवझाय। मुनि दरसण तिम वलि नाण चरण तब थाय ॥ प्रतिपदनो गुणनो गुणिये दोय हजार। सहु जिननी पुजा कीजे अष्ट प्रकार ॥२॥ बारस अडबत्तीस पण वीस सग वीस सार । सडसठ इकावन सीतर पच्चास प्रकार ॥ इण संख्या काउसग परदक्षा परिणाम। आगम भाषित विधि इम कीजे अभिराम ॥३॥ चक्केसरिदेवी तिम विमलेसर जक्ष । श्रीपालतणीपर पूरे वंछित सक्ख ॥ इण विधि आराधो सिद्धचक्र भविप्राणी। जिनहर्ष बढ़े नित श्रीजिनचंदनी वाणी ॥४॥ इति ॥
॥वीस स्थानककी स्तुति ॥ ॥शिवसुख दाता जगत विख्याता पूरण अभिनव कामीजी । ज्ञानादिक गुण चेतनरूपी चिदानंदघन धामिजी ॥ थानक वीसे आगम भणिया वीतराग गुण भुक्ताजी। जे नर अंतर
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अभय रत्नसार ।
२३३
आतम ध्यावे शिवरमणी वर युक्ताजी ॥ १ ॥ अरिहंत सिद्ध प्रवचन सूरि थिवर पाठक मुनि सारोजी । ज्ञानी दरसन विनय चारित्र ब्रह्मचारज क्रियधारोजी ॥ तपसी गणधर जिण चारित्रो नाग श्रुत तित्थ भूपोजी । ए पद निज भविभावे सेवे तेहिज ब्रह्म सरूपोजी ॥ २ ॥ दोय सहस गुणनो प्रत्येकें च्यार सया उपवासोजी । द्रव्यभावसें विधि परकासे तीर्थंकर पद खासोजी ॥ तीजे भव वर वीस थांनकनी सेव करे भव्य प्राणी जी । समकित बीजे जे निज आतम आरोपे चित्त आणीजी ॥ ३ ॥ सुरतरु सम तप फल हे मोटो श्रीसुरदेवि सहाईजी । खरतर गच्छ जिन आज्ञाधारी पाटोघर वरदाईजी ॥ जिन सौभाग्यसूरिंद पसायें हंस सूरिंद गुण गावेजी । संघ सकल सानिधकारी मन वंछित फल पावेजी |४| ॥ वीस स्थानक की स्तुति ॥ अरिहंत सिद्ध पवयं आचास्न थिवसम ।
२६
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स्तुति-संग्रह। उवझाय साहू नाण दंसण विनय पहाण ॥ चारित्त ब्रह्म किरिया तपि गोयम जिनभाण । संयम नाणी श्रुत संघ सेवो बीसे ठाण ॥१॥ उत्कृष्ट जिनवर एकसो सित्तर धीर । बलि काल जघन्ये जिनवर वीस गंभीर ॥ जिन थाय अनंत अतीत अनागत काल । ए वीसे थानक आराधी गुणमाल ।। २॥ आवश्यक बे वेला जिनवंदन त्रिण काल । थानकपद गिणवो सहस दोय सुकमाल ॥ काउसग गुण स्तवना पूजा प्रभावना सार । इम शासन वच्छल करतां भवनो पार ॥३॥ समरीजे अहनिशि गुणरागी सुर साथ । जरक जरकरणी सुरपती वेयावच्च कर नाथ ॥थानकतप विधस जे सेवे मन रंग । देवचंद्र आणाये सानिध करे तसु चंग॥४॥
॥नवपदजी की स्तुति ।। अनुपम गुण आगर सुरक सागर वंदित सुरनर वृन्दाजी ।। नवपदमाहे मुख्य वखाण्या
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अभय रत्नसार। २३५ ऋषभादिक जिनचंदाजी । भाव धरी ने जे भवि वंदे वेदे कम निकंदाजी। नृप श्रीपालतणीपर ध्यावो पावो सुरक अमंदाजी ॥१॥ अरिहंत सिद्ध सूरि उवझाया सकल मुनि सुखकारीजी। दंसण-नाण-चरण-तप नवपद धारे चित संसा रीजी। नवमें भव भवि सिवपद पावे प्रवचन वाणी साखीजी। वीरजिनंदे ज्ञानानंदे गौतम
आगे भाखीजी ॥२॥द्वादस आठ छत्तीसे गुण वलि पणवीस सगवीस सारोजी। सडसठ इका वन वलि जैती सितर पच्चास प्रकारोजी ॥ आसू चैत्रक मास धवल पख सातम थी नव दिहसेंजी। तेरसहस नव पदनो गुणनो नव आंबिल नव विहसेंजी॥३॥ विमलयन चक्केसरीदेवी रिधसध वंछित दाताजी । उली नव-विधि युक्ते सेवे ते पामे सुखशाताजी। खरतर गच्छजिन आज्ञाकारी पाटोधरपद मुक्ताजी। जिन सौभाग्य सूरिद पसाये हंससूरिद गुण उक्ताजी ॥४॥
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२३६
स्तुति संग्रह |
॥ शत्रुजय की स्तुति ॥ विमलाचल मंडन जिनवर आदिजिणंद | निरमम निरमोही केवलज्ञान दिद । जे पूर्व निवाणू वा घरी आनंद । सेजागिरिसिखरे समवसस्था सुखकंद ॥ १ ॥ इण चउवीसीमां ऋषभादिक जिनराय । वलि काल अतीते अनंत चोवीसी थाय ॥ ते सवि इस गिरवर आावी फरसी जाय । इम भावी काले आवस्य सवि मुनिराय ॥ २ ॥ श्रीऋऋषभना गणधर पुंडरीक गुणवंत । द्वादस अंग रचना कीधी जेण महंत ॥ सब आगम मांहे से महिम महंत । भाखी जिन गणधर से वो करि थिर चित्त ॥ ३ ॥ चक्केसरि गोमुह कवड पमुह सुर सार । जसु सेवा कारण थापे इन्द्र उदार ॥ देवचंद्रगणि भाखे भविजनने आधार | सब तीरथमांहे सिद्धाचल सिरदार ॥४॥ ॥ श्रीशांतिनाथजी की स्तुति ॥ शांति जिनेसर जग अलवेसर अचिरा उदर
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२३७
अभय रत्नसार। अवतरियाजी। विश्वसेन नप नंदन जगगुरु हथ णापुर सुख करियाजी ॥ ईतउपद्रव मारि विकारी शांति करी संचरियाजी। जे भवि मंगल कारण ध्यावे ते हुय गुण-गण दरियाजी ॥ १॥ वर्तमान जिन सब सुखकारण अतीत अनागत वंदोजी। बारे चक्री नव नारायण नव प्रतिचक्री आनंदोजी॥ रामादिक जे पुरष सलाका वंदत पाप निकदोजी । द्रव्य निक्षेपे जिनसम जाणो काटे भव भय छंदोजी ॥ २॥ अंग उपांगे जिनवर प्रतिमा श्रीजिन सरखी भाखीजी। द्रव्य भाव बिहुं भेदे पूजा महानिशीथे साखीजी ॥ विषय निवृत्ती सत् आरंभे विनय तपी ते जाणोजी । शुभयोगे नहि आरंभकारी भगवइ अंग प्रमाणोजी ॥३॥ थापना सत्ये देवी निर्वाणी श्रीसंघने सुखकारीजी। कारणथी सब कारज सोद्धे जिनवर आज्ञा धारीजी। श्रीजिनकीत्ति सूरीश्वर गच्छपति पाठक श्रीऋद्धिसारीजो। समकितधारी देव सहाई सुखसंपत्त दातारीजी ॥४॥
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स्तुति-संग्रह। ॥ श्रीसीमधरजिन की स्तुति ॥ ॥ मन सुद्ध वंदो भावे भवियण श्रीसीमंधर रायाजी। पांचसे धनुष प्रमाण विराजित कंचनवरणी कायाजी। श्रेयांस नरपति सत्यकि नंदन वृषभलंछन सुखदायाजी। विजय भली पुखलावइ विचरे सेवे सुरनर पायाजी ॥ १॥ काल अतीत जे जिनवर हुआ होस्य वलिय अनंताजी। संप्रति काले पंच विदेहे वरते वीस विख्याताजी॥ अतिशयवंत अनंत जिनेसर जगबंधव जगत्राताजी। ध्यायक ध्येय स्वरूप जे ध्यावे पावे शिवसुख साताजी ॥२॥ मोह मिथ्यात तिमिर भव नासन अभिनव सूर समाणीजी । भवोदधि तरणी मोच निसरणी नय निक्षेप पहाणीजी। ए जिनवाणी अमिय समाणी आराधो भविप्राणीजी ॥ ३॥ शासनदेवी सुरनर सेवी श्रीपंचा गुली माईजी । विघन विडारण संपत्तिकारण सेवकजन सुखदाईजी ॥ त्रिभुवनमोहनी अंतर
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अभय रत्नसार ।
२३६
जामनी जग जस ज्योति सवाईजी । सांनिधकारी संघने होयज्यो श्रीजिनहर्ष सहाईजी ॥४॥ ॥ श्रीज्ञानपंचमी की स्तुति ॥
॥ पंच अनंत महंत गुणाकर पंचम गति दातार । उत्तम पंचम तपविधि वायक ज्ञायक भाव अपार | श्रीपंचानन लांछन लांछित वंछित दान सुदन | श्रीवर्द्धमान जिनंदसु वंदो ध्यावो भविजन पक्ष ॥ १ ॥ पूरण पंच महाश्रव रोधक बोधक भव्य उदार । पंच अनुव्रत पंच महाव्रत विधि विस्तारक सार । जे पंचेंद्रिय दम सिव पहुता ते सगला जिनराय । पांचम तप धर भविया उपर सुथिर करी सुपसाय ॥ २ ॥ पंचाचार धुरंधर जुगवर पंचम गणधर जाण । पंच ज्ञान विचार विराजित भाजत मद पंच वाण । पंचम काल तिमरभरमांहे दीपकसम सोभंत । पांचम तपफल मूल प्रकासक ध्यावो जिनसिद्धंत ॥ ३ ॥ पंच परम पुरुषोत्तम सेवाकारक जे नरनार ।
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२४०
___ स्तुति-संग्रह। निरमल पांचम तपना धारक तेहभणी सुविचार। श्रीसिद्धायिकादेवी अहनिशि आपो सुक्ख अमंद। श्रीजिनलाभ सुरिद पसाये कहे. जिनचंद मुणिंद ॥ ४॥
॥ श्रीमौन एकादशी की स्तति ॥
अरनाथ जिनेश्वर दीक्षा नमिजिन ज्ञान । श्रीमल्लि जनम व्रत केवलज्ञान प्रधान । इग्यारस मिगसर सुदि उत्तम अवधार। ए पंचकल्याणक समरीजे जयकार ॥ १॥ इग्यारे अनुपम एक अधिक गुण धार। इग्यारे बारे प्रतिमा देसक धार । इग्यारे दुगुणा दोय अधिक जिनराय । मन सूधे सेव्यां सब संकट मिट जाय । २ ॥ जिहां वरस इग्यारे की व्रत उपवास । वलि गुणनो गुणिय विधिसेती सुविलास। जिन आगमवाणी जाणी जगत प्रधान । इक चित्त आराधों साधो सिद्ध विधान ॥३॥ सुर असुर भुवण वरण सम्यग दरसणवंत । जिनचंद्र
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अभय रत्नसार ।
२४१
सुसेवक वैयावच्च करंत ॥ श्रीसंघ सकलमें आराधक बहु जाण । जिनशासन देवी देव करो
कल्याण ॥ ४ ॥
॥ श्रीरोहिणीतप की स्तुति ॥ जयकारी जिनवर वासुपूज्य अरिहंत । रोहिणी तपनो फल भाख्यो श्रीभगवंत । नर-नारी भावे आराधो तप एह । सुख संपत लीला लक्ष्मी पामे तेह ॥ १ ॥ ऋषभादिक जिनवर रोहिणी तप सुविचार | जिनमुख परकासे बेठी परखदा बार । रोहिणी दिन कीजे रोहिणीनो उपवास । मन वंछित लीला सुन्दर भोग-विलास ॥ २ ॥ आगम में एहनो बोल्यो लाभ अनंत । विधसु परमारथ साधे सुधो संत । दुख-दोहग तेहनो नासि जाय सब दूर | बलि दिन - दिन अंगे वाधे अधिक नूर || ३ || महिमा जग मोटो रोहिणी तप - फल जाण । सौभाग्य सदा जे पामे चतुर सुजाण । नित घर-घर महोच्छव नित नवला
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२४२
स्तुति - संग्रह |
सिणगार | जिनशासनदेवी लब्धिरुची जयकार
॥ ४ ॥ इति ॥
L
॥ चतुर्दशी की स्तुतिः ॥
अविरल कमल गवल मुक्ता फल कुवलय कनक भासूरं । परिमल बहुल कमलदल कोमल पदतललुलितनरेश्वरं । त्रिभुवन भवन सुदीप्रदीपक मणिकलीका विमल केवलं । नवनव युगलजलधि परमित जिनवरनिकरं नामाम्यहं ॥१॥ व्यंतर नगर रुचिक वैमानिक कुल गिरि कुडसकुडले | तारक मेरुजलधि नंदीसर गिरि गजदंतसुमंडले || वक्षस्कार भवन वन जोत्तर कुरुवैताढ्य कुंजिगा । त्रिजगति जयति विदितशाश्वतजिनन तिततिरिहमोपारगा ॥ २॥ श्रुत रत्नेक जलधि मधु मधु मधुरिम रसभर गुरु सरोवरं । परमततिमिर किरणहरणोध्दुर दिन कर किरण सहोदरं ॥ गमनयहेतुभङ्गगंभीरिमगणधरदेव गोष्पदं । जिनवर वचन मवनिमवतात् सुचिदि
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अभय रत्नसार।
२४३ शतु नतेषु संपदं ॥३॥ श्रीमद्वीर चरम तीर्थाधिप मुख कमलाधि वासिनी । पार्वण चंद्र विशद वद नोजवल राज मराल गामिनी ॥ प्रदिशतु सकल देव-देवी-गण परिकलिता सतामियं बिच कलधवल कुवलयकल मूर्तिः श्रुतदेवी श्रुतोच्ययं ॥४॥
॥बीजकी स्तुति॥ मनसुध वंदो भावभवियण श्रोसीमंधर रायाजी । पांचसे धनुष प्रमाण विराजित कंचनवरणी कायाजी॥ श्रेयांस नरपति सत्यकी नंदन वृषभ लंछन सुखदायाजी। विजय भली पुखलाइव विचरे सेवे सुरनर पायाजी॥ १॥ काल अतित जे जिनवर हवा होस्ये जेह अनंता जी। संप्रतिकाले पंचविदेहे वरतेवीस विख्याताजी॥ अतिशयवंत अनंत गुणाकर जग बंधब जगत्राता जी। ध्यायक ध्येय स्वरूप जे ध्यावे पावे शिव सुख सताजी ॥२॥ अरथे श्रीअरिहंत प्रकाशी सूत्रे गणधर आणीजी । मोहमिथ्यात्व तिमिर
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२४४
स्तुति संग्रह |
भरनाशन अभिनव सूर समाणीजी ॥ भवोदधि तरणी मोक्ष नीसरणो नयनिक्षेप सोहाणीजी । ए जिनवाणी अमिय समाणी आराधो भविप्राणी जी || ३ || शासनदेवी सुरनर सेवी श्रीपंचांगुली माईजी । विघन विडारणी सपत्तिकारणी सेवक जन सुखदाईजी || त्रिभुवनमोहनी अंतरजामनी जगजस ज्योतिसवाईजी । सानिधकारी संघने होयज्यो श्रीजिनहर्ष सुहाईजी ॥ ४ ॥
॥ पञ्चमीकी स्तुति ॥
पंच अनंत महंत गुणाकर पंचमि गति दातार | उत्तम पंचमि तप विधि दायक ज्ञायक भाव अपार ॥ श्रीपंचानन लांछन लांछित बांछित दानसुदक्ष | श्रीवर्द्धमान जिणंदसु वंदो आणंदो भविपक्ष || १ || पूरण पंचमहाश्रव रोधक बोधक भव्य उदार ॥ पंच अणुव्रत पंच महाव्रत विधि विस्तारक सार ॥ जे पंचेंद्रिय दमि शिव पुहता ते सगला जिनराय । पंचमी तप धर भवियण ऊपर
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अभय रत्नसार ।
२४५
सुथिर करो सुपसाय ॥२॥ पंचाचार धुरंधर युगबर पंचम गणधर बाण | पंचज्ञान विचार विराजित भाजित मद पंच वारण || पंचम काल तिमिरभरमांहे दीपक सम सोभंत । पंचम तप फल मूल प्रकाशक ध्यावो जिनसिद्धांत || ३ || पंच परम पुरुषोत्तम सेवा कारक जे नर-नार । वलि निरमल पंचमी तप धारक तेहभरणी सुविचार ॥ श्रीसिद्धायिका देवी हनिस आपो सुख अमंद । श्रीजिनलाभ सुरिंद पसाये कहे जिनचंद मुणिंद ४ ॥ ग्यारसकी स्तुति ॥
अरनाथ जिनेसर दीक्षा नमीजिन ज्ञान । श्रीमल्लिजन्म व्रत केवलज्ञान प्रधान ॥ इग्यारस मिगसर सुदि उत्तम अवधार। ए पंच कल्याणक समरीज जयकार || १ || इग्यारे अनुपम एक अधिक गुणधार | इग्यारे बारे प्रतिमा देशक धार । इग्यारे दुगणा दोय अधिक जिनराय । मन सुध सेव्यां सब संकट मिटजाय ॥ २ ॥ जियांवरस
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२४६
स्तुति-संग्रह। इग्यारे कीजे व्रत उपवास । वलि गुणनो गुणिये विधिसेती सुविलास ॥ जिन आगम वाणी जाणी जगत प्रधान । एक चित्त आराधो साधो सिद्ध विधान ॥३॥ सुर असुर भुवणवण सम्यगदरसन वंत ॥ जिनचंद्र सुसेवक वैयांवच्च करंत ॥ श्री संघ सकलमें आराधक बहुजाण । जिन शासन देवी देव करो कल्याण ॥४॥ . ॥श्री महावीर स्वामीकी स्तुति ॥ महावीर जिनेश्वर प्रणमुवारंवार । सर्वज्ञ निरंजन करुणारस भंडार ॥ जगनाथ दिवाकर सुखकर हितकर जान । जो भविजन सेवे पावे केवलज्ञान ॥ १॥ तीर्थंकर शंकर सकल विश्व आधार । अगणित गुण वरिया आतम ज्ञान उदार ॥ शिवपद जग उत्तम आनन्द अनुभव सार। पदपंकज सेवा सुख सम्पत्ति दातार ॥२॥ श्रुतज्ञान. जगतमें करता बहु उपकार ।
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अभय रत्नसार।
२४७
शिरताज वखाण्या अनुयोगद्वार मझार ॥ अमृत रस पीवो जिन आगम सुखकन्द । जो नित प्रति ध्यावे पावे परमानन्द ॥३॥ जिन आरणा मीठी प्रेम घरी चित लाय। निजगुरु प्रसादे दुःख दुर्गति मिट जाय ॥
आनन्द मनरंगे भवसागर तिरजाय । श्रुतदेवी सानिध निज करणी हुलसाय ॥४॥
॥वर्धमानजिन स्तुति ॥ मूरति मन मोहन कंचन कोमल काय । खिद्धारथ नन्दन त्रिशलादेवी सुमाय॥ मृगनायक लंछन सातहाथ तनुमान । दिनदिन सुख दायक स्वामी श्रीवर्द्धमान ॥ १ ॥ सुर नरवर किन्नर वंदित पद अरविंद । कामित भर पूरण अभिनव सुरतरु कंद॥ भवियणने तारे प्रवहण सम निशि दीस। चौवीशे जिनवर प्रणमं विसवा वीस ॥२॥ अरथे करिआगम भाख्या श्रीभगवंत । गणधरते गूंथ्या गुणनिधि ज्ञान अनंत ॥ सुरगुरु पण महिमा
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२४८ स्तुति-संग्रह। कहि न सके एकंत । समलं सुखसायर मनशुद्ध सूत्र-सिद्धांत ॥३॥ सिद्धायिका देवी वारे विघन विशेष । सहु संकट चूरे पूरे आश अशेष ॥ अह निश कर जोड़ी सेवे सुर नर इंद। जपे गुणगण इम श्रीजिनलाभ सूरिदं ॥४॥
॥श्रीसीमंधरजी की स्तुति ॥ ___ वंदू जिनवर विहरमाण, सीमंधर सामी ॥ केवल कमला कांत दांत, करुणारस धामी ॥ १॥ कांचनगिरि सम देह, कांति वृष लांछन पाय ॥ चौरासी लख. पूर्व आय, सेवे सुरराय ॥२॥ पूर्व विदेह विराजता ए, पुंडरीकनी भांण ॥ प्रभु यो दरसन संपदा, कारण पद कल्याण ॥ ३॥
॥समेतशिखरजीकी स्तुति ॥ पूरव दीसे दीपतो। गिरवो गिरवर नित्त । तीरथ सिखर समेतको ॥ चाहूंदरसण चित्त ॥१॥ प्रथम चरम बारम प्रभ । बावीसम विण वीस ॥ अण्णसण कर इण गिरवरे । शिव पुहता सु ज
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अभय रत्नसार। २४६ गीस ॥ २॥ सुणिये इणपर सूत्रमें। जिनवर गणधर वांण ॥ भविजन भेटो भगतसुं। तीरथ करण कल्याण ॥३॥
॥जिनस्तुति ॥ दर्शनाद रितध्वंसी, वंदनादिच्छितप्रदः ॥ पूजनात्पूरकः श्रीणां, जिनःसाक्षात्सुरद्रुमः॥
.. ॥श्रीआदिनाथजी की स्तुति ॥
सुवर्णवणं गजराजगामिनं, प्रलंबबाहुं सुविशाल लोचनम् ॥ नरामरेंद्रः स्तुतपादपंकजं, नमामि भक्त्या ऋषभं जिनोत्तमम् ॥३॥
॥शांतिनाथजी की स्तुति ॥ सालम जिनवर शांतिनाथ, सेवो शिरत नामी ॥ कंचन वरण शरीर कांति, अतिशय अभिरामी ॥ अचिरा अंगज विश्वसेन, नरपति कुलचंद॥ मृगलंछन धर पद कमल, सेवे सुर-तर वृन्द ॥ जुगमां अमृत जे हवी ए, जास अखंडित आण ॥ एक मनें आराधतां, लहिये कोडि कल्याण ॥४॥
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२५० स्तुति-संग्रह।
॥श्रोनेमिनाथजी की स्तुति ॥ प्रह सम प्रण, नेमिनाथ, जिनवर जयवंत ॥ यादवकुल अवतंस हंस, उत्तम गुणवंत ॥ समु. द्रविजय शिवा देवी जास, मति सहित उदार ॥ सुन्दर श्याम शरीर ज्योति, सोहे सुखकार ॥गढ गिरनारें जिण लह्य ए, अमृत पद अभिराम ॥ तास क्षमा कल्याण मुनि, निशिदिन नमत कल्याण ॥ ५॥
॥श्रीपार्श्वनाथजी की स्तुति ।। पुरसादाणी पास नाह, नमियें मन रंग ॥ नील वरण अश्वसेन नंद, निरमल निःशंक ॥ कामित पूरण कलप साख, वामासुत सार ॥ श्री गौडीपुर स्वामि नाम, जपियें निरधार ॥ त्रिभुबन पति त्रेवीशमो ए, अमृत सम जसु वाण ॥ ध्यान धरतां एह नु, प्रगटे परम कल्याण ॥ ६॥
.. ॥ श्रीमहावीर प्रभुकी स्तुति.॥ वर अगदाधार सार, शिव संपत्ति कारण ॥
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अभय रत्तसार।
२५१
जन्म जरा मरणादि रूप, भव-ताप निवारण ॥ श्री सिद्धारथ तात-मात, त्रिशला तनुजात ॥ सोवन वरण शरीर वीर, त्रिभुवन विख्यात ॥ अमतरूपें राजतो ए, चोवीशमो जिनराय ॥ क्षमाप्रमुख कल्याणमुनि, आपोकरि सुपसाय॥७॥
॥ सरस्वती की स्तुति॥ अवामा वामादे सकलमुभयः कालघटना। द्विधा भूतं रूपं भगवदभिधेयं भवतिय ॥ तदंतमंत्रं मे स्मरहरमयं सेंदुममलं निराकारं शस्वजप नरपते सिव्यतु सते॥ १ ॥ अविरलशब्दघनोघा। प्रक्षालितसकलभूतलकलंकाः ॥ .मुनिभिरुषासिक्तचरक्षा । सरस्वती हरतु मे दुरितं ॥ २॥
॥ दर्शनं देवदेवस्य, दर्शनं पापनाशनं । दर्शनं स्वगसोपानं, दर्शनं मोक्षसाधनम् ॥ १॥ दर्शनेन जिनेंद्राणां, साधूनां वंदनेन च । न तिष्ठति चिरं पापं, छिद्रहस्ते यथोदकं ॥ २ ॥ अद्य प्रचालित गात्रं, नेत्रे च सफलो कृते। मुक्तोंहं सर्वपापे
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२५२
स्तुति -संग्रह |
भ्यो, जिनेंद्र ! तव दर्शनात् ॥ ३ ॥
हत्था जेह सुलक्षणा, जे जिनवर पूजंत ॥ जे जिनवर पूज्या नहीं, ते परघर काम करंत १ वाडी चंपो मोगरो, सोवन कूपलियांह ॥ पास जिनेसर पूजसां, पांचू प्रांगलियांह ॥ १ ॥ जीवड़ा जिनवर पूजिये, पूजाना फल होय ॥ राजा नमे परजा नमे, आंण न लोपे कोय ॥ ३ ॥ फूला करे बागमें, बैठा श्रीजिनराज ॥ ज्यू तारामें चंद्रमा, त्यू सो महाराज ||४|| जगमें तीरथ दो वड़ा, सेत्रुंजो गिरनार ॥ उण गिरि ऋषभ समो सस्था, उण गिरि नेमकुमार ॥ ५॥ मोहनी मूरत पासकी, मो मन रही लोभाय ॥ ज्यू महदीके पातमें, लाली लखी न जाय ॥ ६ ॥ राजमती गिरवर चढ़ी, वंदन नेमकुमार ॥ स्वामी अजहु न वावडे, मो मन प्राण आधार ॥ ७ ॥ धन ते सांइ पंखियां, बसे जो गढ़ गिरनार ॥ चूच भरे फल फूलसु, चाढ़े नेमकुमार ॥ ८ ॥ श्रीकेशरि
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अभय रत्तसार ।
२५३
यानाथकू, नमन करू चित चाय ॥ ऋद्धि-बुद्धि मोहे दीजिये, दिन-दिन अधिक सवाय ॥६॥ श्रीकेसरियानाथके, केसर हंदा कीच ॥ मरुदेवाके लाडले, वसे पहांडां बीच ॥ १० ॥ इस रागको नाम कल्याण हे प्रभुजीको नाम कल्या रण ॥ सकल सभा कल्याण है, जब प्रगटी राग कल्याण ॥११॥ सोरठ राग सुहामणो, मुखां न मेली जाय ॥ ज्यूं-ज्यूं रात गलंतडी, त्यूं-त्यूं मीठी थाय ॥ १२ धंदो कर धन जोडियो, लाखां उपर कोड़ || मरती वेला मानवी, लियो कंदोरो तोड़ ॥ १३ ॥
॥
दया गुणांरी वेलड़ी, दया गुणांरी खांण ॥ अनंत जीव मुगते गया, दयात परिमाण ॥१॥ दया मुगति-तरु वेलडी, रोपी आद जिनंद ॥ श्रावक कुल मंडन भई, सींची सर्व जिनंद ॥२
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चैत्यवन्दन-संग्रह |
98
॥ सिद्धाचलजी का चैत्यवंदन ॥
सिद्धो विज्जाइ चक्की नमि विनमी । मुणी पुंडरी मुनिंदो ॥ वाली पज्जुन्न संबो भरहसग मुणी सेलगो पंथगोय ॥ रामो कोडी पंच द्रविड नरवई नारदो पंडुपुत्ता। मुत्ता एवं अणे विमलगिरिमहं तित्थमेयं नमामि ॥ १ ॥
॥ श्रीस्तभन पार्श्वनाथजी का चैत्यवंदन ॥ श्रीसेटी तट मेरु धाम, थंभरणपुर ठांम ॥ सुरतरु सम सिरि पास सांम, राजे अभिराम १ विबुधेसर सिरि अभय देव संठवियाणं दिय थुइ जलसिरिय नील वर्ण, फण पल्लव मंडिय २ सुर नर सुह कुसुमावलीए, शिवफल दायक
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अभय रत्तसार।
जाण ॥ आराहओ जदि एग मण, पावो पद कल्याण ॥३॥
॥ नवपदजी का चैत्यवंदन ॥ श्रीअरिहंत उदार कांति अति सुन्दर रूप, सेवो सिद्ध अनंत संत आतम गुण भूप ॥ आचारज उवझाय साध समतारस धाम, जिन भाषित सिद्धांत शुद्ध अनुभव अभिराम ॥१॥ बोध-बीज गुण संपदा ए, नाण-चरण तव शुद्ध ॥ ध्यावो परमानंद पद, ए नवपद अविरुद्ध ॥२॥ इह परभव आणंद जगमांहि प्रसिद्धो, चिंतामणि सम जास जोग बहु पुन्ये लद्धो॥ तिहुअण सार अपार एह महिमा मन धारो, परहर पर जंजाल जाल नित एह संभारो ॥३॥ सिद्ध चक्र पद सेवतां ए, सहजानंद स्वरूप ॥ अमृतमय कल्याण-निधि प्रगटे चेतन भूप ॥ ४॥
॥ सीमंधरजिन-चैत्यवंदन ॥ सीमंधर परमातमा, शिवसुखना दाता ॥
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चैत्यवन्दन-संग्रह। पुक्खलवइ विजये जयो, सर्व जीवना त्राता ॥१॥ पूर्व विदेह पंडरी गिणी, नयरी ए सोहे ॥ श्रीश्रे यांस राजा तिहां, भविअणना मन मोहे ॥२॥ चउद सुपन निर्मल लही, सत्यकी राणी मात ॥ कुथु-अरजिन अंतरे, श्रीसीमंधर जात ॥३॥ अनुक्रमे प्रभु जनमीया, बली यौवन पावे ॥ मात-पिता हरखे करी, रुकमिणी परणावे ॥४॥ भोगवी सुख संसारनां, संजम मन लावे ॥ मुनिसुव्रत नमि अंतरे, दीक्षा प्रभु पावे ॥ ५ ॥घाती कर्मनो क्षय करी, पाम्या केवलनाण ॥ ऋषभ लंछने शोभता, सर्व भावना जाण ॥६॥ चोरासीजस गणधरा, मुनिवर एकसो कोड॥त्रण भुवनमां जोअतां, नहिं कोइ एहनी जोड़ ॥७॥ दश लाख कह्या केवली, प्रभुजीनो परिवार ॥ एकसमय त्रण कालना, जाणे सर्व विचार ॥८॥ उदय पेढाल जिनांतरेए, थाशे जिनवर सिद्ध ॥ जसविजय गुरु प्रणमतां, शुभ वंछित फल लीध ॥६॥
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अभय रत्तसार।
२५७ सीमंधरजिन-द्वितीय चैत्यवंदन ॥ श्रीसीमंधर जगधणी, आ भरते आवो ॥ करुणावंत करुणा करी, अमने वंदावो ॥१॥ सकल भक्त तुमे धणीए, जो होवे अम नाथ ॥ भवोभव हु छुताहरो, नहीं मेलुहवे साथ २ सयल संग छंडी करीए, चारित्र लेइश॥ पाय तमारा सेवीने, शिवरमणी वरिशु॥३॥ एअलजो मुजने घणो ए, पूरो सीमंधर देव ॥ इहां थकी हुवीनवं, अवधारो मुझ सेव ॥ ४॥
श्रीसिद्धाचलजी का चैत्यवंदन ॥ विमलकेवलज्ञानकमला, कलित त्रिभुवन हितकरं ॥ सुरराजसंस्तुतचरणपंकज, नमो आदि जिनेश्वरं ॥ १॥ विमलगिरिवरशृङ्गमंडण, प्रवरगुणगणभूधरं ॥ सुरअसुर किन्नर कोडि सेवित ॥ नमो० ॥ २॥ करती नाटक किन्नरी गण, गाय जिन गुण मनहरं ॥ निर्जरावली नमे अहनिश ॥ नमो० ॥ ३॥ पुंडरीक गणपति सिद्धि साधी,
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२५८
चैत्यवन्दन-संग्रह। कोडि पण मुनि मनहरं ॥ श्री विमल गिरिवर शृङ्ग सिद्धा ॥ नमो०॥४॥निज साध्य साधन सुर मुनिवर, कोडिनंत ए गिरिवरं ॥ मुक्ति रमणी वर्या रंगे ॥ नमो० ॥५॥ पातालनरसुरलोक मांही, विमलगिरिपरतो परं ॥ नहि अधिक तीरथ तीर्थपति कहे ॥ नमो० ॥ ६॥ इम विमल गिरिवरशिखर मंडण, दुःख विहंडण ध्याईये ॥ निजशुद्ध सत्ता साधनार्थं, परम ज्योति निपाइये ॥७॥ जित मोह कोह विछोह निद्रा, परमपदस्थित जयकरं ॥ गिरिराज सेवाकरण तत्पर, पद्मविजय सुहितकरं ॥८॥
॥सिद्धाचलजी का दूसरा चैत्यवंदन ॥
श्रीशत्रुजय सिद्धक्षेत्र दीठे दुर्गति वारे॥ भाव धरीने जे चढे, तेने भवपार उतारे ॥१॥ अनंत सिद्धनो एह ठाम, सकल तीरथनो राय ॥ पूर्व नवाण रिखवदेव, ज्यां ठविआ प्रभुपाय ॥२ सूरजकुंड सोहामणो, कवडजक्ष अभिराम ॥
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अभय रत्नसार ।
२५६
नाभिराया कुलमंडी, जिनवर करुं प्रणाम ॥ ३ ॥ सीद्धाचल जीका चैत्यवंदन ॥
परमेसर परमातमा, पावन परसि ॥ जय जगगुरु देवाधिदेव, नय में दिट्ठ ॥ १ ॥ अचल अकल अविकारसार, करुणारस सिंधु ॥ जगती जन आधार एक, निःकारण बंधु ॥ २॥ गुण अनंत प्रभु ताहरा, किमही कह्या न जाय ॥ राम प्रभु जिनध्यानथी, चिदानंद सुख थाय | ६ |
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स्तवन-संग्रह
|| पञ्चतिर्थी का स्तवन ॥
सुगुण सनेही साजण श्रीसीमंधरस्वाम, अरज सुणो एक जगगुरु मुझ आशाविशराम ॥ पूरव विदेहे विजय भली पुष्कलावई नाम, जिहां विचरे जिनवर जी धन ते नयरी गाम ॥ १ ॥ धन ते लोक सुणे जे जोजन गामिनी वाण, धन ते महियल चरण धरे जिहां जिनवर भाग ॥ धन ते भविजन जे रहे प्रभु ताहरे परसंग, वदन कमल निरखी नित्य माणे उत्सव अंग ॥ २ ॥ सुगुरु मुखें प्रभु सुजस तुम्हीणो सांभल कान, मिलवाने उलसे मन माहरु धरु एक ध्यान ॥ भगति जुगति करवानी छे मुझ सघली जोड,
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अभय रत्नसार।
२६.१ पण प्रभु लग पहुंचीजें तेह नही पग दोड़ ॥३॥
आडा डूंगर अति घणा विच वहे नदिया पूर, किम मुझथी अवराये प्रभुजी एटली दूर ॥ आंखडली उलझो करे जोयवा मुख जिनराज, पांख डली पाई नही ते विन किम सरे काज ॥४॥ वाटली वहतो कोई न मिले. सेंगू साथ, कागलियो लिख आपूजिम तेहने हाथ ॥ जाणुं शशहर साथें कहुं संदेशा जेह, पण अलगो थई ऊपरि वाडे निकले तेह ॥ ५ ॥ जो कोई रीतें प्रभुजी तुमथी एथ अवाय, तो इण भरतना वासी भविजन पावन थाय ॥ साहिबनी तो सुन जर सघले सरखी होय, पण पोतानी प्राप्ति सारू फल प्रति जोय.॥ ६॥ अलगो छ पण माइरे तुम शुसाची प्रीत, गुण गुणवंतना आवे हियडे खिण-खिण चित्त ॥ हुछू सेवक तुछे माहरो आतमराम, नहिंय विसारू जीवं ज्यां लगि ताहरु नाम ॥ ७॥ साचे दिलथी मुझशुधरजो
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२६२
स्तवन-संग्रह।
धरम सनेह, करुणाकर प्रभु करजो मोपरि महिर अछेह ॥ दूसम काल तणो दुःख टालो दीन दयाल, पालो बिरुद संभालो निज सेवकशुकृ. पाल॥ ८॥ आशविलुद्धा अलग थकी पण करे
अरदास, पण महोटानी महिर छतां नवि थाय निराश ॥ केई वसे प्रभु पासे केई वसेछे दूर, राज महिरनी रीतें सकलने जाणे हजुर ॥६॥ शिव सुखदायक नायक लायक स्वामि सुरंग, ध्यायक ध्येय स्वरूप लहे निज आत्म उमंग ॥ सहिजे एक पलक जो थाये प्रभु तुझ संग, लाभ उदय जिन चंद्र लहे नित प्रेम अभंग ॥ १०॥
॥ पंचतीर्थीका दूसरा स्तवन । सफल संसार अवतार ए हु गुणुं, सामि सीमंधरा तुह्म भगते भए॒ ॥ भेटवा पायकमल भाव हियडे घणो, करिय सुपसाय जे. वीनवू ते सुणो ॥१॥ तुह्मशु कूड अरिहंत शु राखियें, जिस्यो अछे तिस्यो कर जोडि करि भांखियें ॥
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२६३
अभय रत्नसार। अति सबल मुझ हिये, मोह माया. घणी, एक मन भगति किम करू त्रिभुवन धणी ॥ २ ॥ जीव आरति करे नव नवी परिगडे, रीश चटको चढ़ लोभ वयरी नडे॥ नयण रस वयण रस काम रस रसीयो, तेम अरिहंत तूं हीयडे नवि वसीयो॥३॥ दिवसने राति हियड़े अनेरो धरू, मूढ मन रीझवा वलिय माया करू॥ तूंहि अरिहंत जाणे जिस्यो आचरू, तेम कर जेम संसार सागर तरू॥ ४॥ कम्मवसि सुख ने दुःख जे हुं सहुं, मन तणी वात अरिहंत कि णने कहूं ॥ करि दया करि मया देव करुणा परा, दुःख हरि सुक्ख करि सामि सीमंधरा ॥५॥ जाण संयोग आगम वयण पण सुणु, धर्म न कराय प्रभु पाप पोतें घणु ॥ एक अरिहंत तूं देव बीजो नहि, एह आधार जग जाणजो अह्म सही ॥६॥ धरण करणय माय पिय पुत्त परियण सहू, हस्यो बोल्यो रम्यो रंग रातो बहू ॥ जयो
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स्तवन-संग्रह। जयो जगगुरु जीव जीवन धरा, तुह्म समोवड नहिं अवर वाल्हेसरा ॥७॥ अमिय सम वाणि जाण सदा सांभलु, बारवर परषदामांहि आवी मिलु॥ चित्त जाणु सदा सामि पाय उलगु, किम करु ठाम पुंडरगिरि वेगलु॥८॥ भोलिड़ा भगति तूचित्त हारे किस्ये, पुण्य संयोग प्रभु दृष्टिगोचर हुस्ये ॥ जेहने नामे मन वयण तन उल्लसे, दूरथी दूकडा जेम हियड़े वसे ॥ ६ ॥ भल भलो एणि संसार सहू ए अछे, सामि सीमंधरा ते सहू तुम पछे ॥ ध्यान करतां सुपनमांहि आवो मिले, देखिये नयण तो चित्त आरति टले ॥१०॥ साम- सोहामणा नाम मन गहगहे तेहशु नेह जे वात तुह्म जी कहे ॥ तुह्म पद भेटवा अति छणो टलवल, पंख जो होय तो सहिय आवी मिलं ॥११॥ मेरुगिरि लेखणी आभ कागल करूं, क्षीरसागर तणां दूध खड़िया भरु ॥ तुम मिलवा तणां सामि संदेशड़ा, इन्द्र
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अभय रत्नसार। .. २६५ पण लखिय न शके अछे एवड़ा॥ १२॥ आपणे रंग भरि वात मुख जेटली, उपजे सामि न कहाय मुख तेटली ॥ सुणो सीमंधरा राजराजेसरा लाड़ने कोड़ प्रभु पूर सवि माहरा ॥१३॥ पुत्व भवि मोह वश नेह हुवे जेहने, समरिये एणि संसार नित तेहने। मेहने मोर जिम कमल भमरो रमे, तेम अरिहंत तूचित्त मोरे गमे ॥ १४॥ खलं अरिहंतनु ध्यान हियड़े वस्यु, बापडु पाप हिव रहिय करशे किस्यु। ठाम जिम गरुडवर पंखि आवे वही, ततखिण सर्पनी जाति न शके रही ॥ १५ ॥ पापमें कज्ज सावज्ज सह परिहरी सामि सीमंधरा तुम्ह पय अणुसरी ॥ शुद्ध चारित्र कहिये प्रभु पालशु, दुःख भंडार संसारमय टालशु॥ १६ ॥ तुम्ह हुँ दास हुँतुम्ह सेवक सही, एह में वात अरिहंत आगल कही ॥ एवड़ी मारी भगति जाणी करी, आपजो बापजी सार केवल सही ॥ १७ ॥ कलस ॥ एम ऋद्धि-बृद्धि,
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२६६ स्तवन-संग्रह। समृद्धि कारण, दुरित वारण, सुख करो ॥ उवझाय वर श्री, भक्तिलाभे, थुण्यो श्री, सीमंधरो॥ जय जयो जगगुरु, जीव जीवन, करी सामि, मया घणी ॥ कर जोड़ि वलि वलि, वीनवू प्रभु पूर आशा मन तणी ॥ १८॥
॥पंचमी वृद्ध स्तवन ॥ प्रणमुश्रीगुरु पाय, निर्मल ज्ञान उपाय॥ पांचमि तप भणुए, जन्म सफल गिणु ए ॥१ चउवीसमो जिनचंद, केवल ज्ञान दिणंद ॥ त्रिगडे गहगह्यो ए, भवियणने कह्यो ए ॥२॥ ज्ञान वडू संसार, ज्ञान मुगति दातार ॥ ज्ञान दोवो कह्यो ए, साचो सर्दह्यो ए ॥३॥ नयन लोचन सुविलास, लोकालोक प्रकाश ॥ ज्ञान विना पशु ए, नर जाणे किश्यु ए ॥४॥ अधिक आराधक जाण, भगवती सूत्र प्रमाण ॥ ज्ञानी सर्वतु ए, किरिया देशतु ए॥ ज्ञानी श्वासोछुवास, करम करे जे नास ॥ नारकीने सही ए,
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अभय रत्नसार ।
२६७ कोड़ वरस कहीं ए ॥ ६ ॥ ज्ञान तणो अधिकार, बोल्या सूत्र मझार ॥ किरिया छे सही ए, पण पाछे कही ए॥७॥ किरिया सहित जो ज्ञान हवे तो अति परधान ॥ सोनो ने सूरो ए, शंख दूधैं भरयो ए॥८॥ महानिशीथ मझार, पांचमि अक्षर सार ॥ भगवंत भांखीयो ए, गणधर साखियो ए ॥६॥
॥ दूसरी ढाल कालहरा की देशी॥ पांचर्चाम तप विधि सांभलो, जिम पामो भवपारो रे॥श्रीअरिहंत इम उपदिशे, भवियणने हितकारो रे॥ पां०॥ १॥ मिगसर माह फागुण भला, जेठ आषाढ़ वैशाखो रे ॥ इण षट मासे लीजिये, शुभदिन सदगुरु साखो रे॥पां० ॥२॥ देव जुहारी देहरे, गीतारथ गुरु वंदी रे ॥ पोथी पूजो ग्याननी, सगति हुवे तो नंदी रे॥पॉ०॥३॥ बे कर जोडी भावशु, गुरु मुख करो उपवासो रे॥ पांचमि पडिकमणो करो, पढो पंडित गुरु पासो
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२६८
स्तवन-संग्रह। रे॥पां० ॥ ४॥ जिण दिन पांचमि तप करो, तिण दिन आरंभ टालो रे॥ पांचमि स्तवन थुई कहो, ब्रह्मचरिज पिण पालोरे॥ पां०॥५॥ पांच मास लघुपंचमी, जावजीव उत्कृष्टी रे ॥ पांच वरस पांच मासनी, पांचमि करो शुभ दृष्टि रे ॥ पा०॥६॥
॥तीसरी ढाल उल्लाला की देशो ॥ हिव भवियण रे पांचमी उजमणो सुणो, घर सारू रे वारू धन खरचो घणो ॥ ए अवसर रे आवंतां वलि दोहिलो, पुण्य जोगें रे धन पामंतां सोहिलो ॥ उल्लालो॥ सोहिलो वलिय धन पामतां पण धर्मकाज किहां वली, पांचमी दिन गुरु पास आवी कीजीयें काउस्सग्ग रली ॥ त्रण ज्ञान-दरिसण चरण टीकी देइ पुस्तक पूजिये, थापना पहिली पूज केसर सुगुरु सेवा किजिये ॥ १॥ ढाल ॥ सिद्धांतनी रे पांच प्रति वीटांगणां, पांच पूठां रे मखमल सूत्र प्रमुख
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अभय रत्तसार।
२६४
तणां ॥ पांच डोरा रे लेखण पांच मजीसणा, वासकंपा रे कांबी वारू वतरणां ॥ उल्लालो॥ वतरणां वारू वलीह कमली पांच झिलमिल अति भली, स्थापनाचारिज पांच ठवणी मुहपत्ती पड - पाटली॥ पटसूत्र पोटी पंच कोथल पंच नवकर वालियां, इण परें श्रावक करे पांचम उजमणं उजवालियां ॥२॥ ढाल ॥ वलि देहरे रे रात्र महोत्सव कीजियें, घर सारू रे दान वलो तिहां दीजियें ॥ प्रतिमानी रे आगल ढोवणं ढोइये, पूजानां रे जे जे उपगरण जोइयें ॥ उल्लालो॥ जोइयें उपगरण देवपूजा काज कलशभृगार ए, आरति मङ्गलथाल दीवो धूपधाणुं सार ए ॥ धनसार केशर अगर सुखड अंगलूहणं दीस ए, पंच-पंच सघली वस्तु ढोवो सगतिशं पचवीश ए ॥३॥ ढाल ॥ पांचमिना रे सहाम्मी सर्व जिमाडिये, रात्रि जोगे रे गीत रसाल गवाडीये ॥ इण करणी रे करतां ज्ञान आराधिये, ज्ञान दरिसणरे
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२७०
स्तवन-संग्रह। उत्तम मारग साधिये ॥ उल्लालो ॥ साधियें मारग एह करणी ज्ञान लहिये निरमलो, सुरलोकमें नर लोक मांहे ज्ञानवंत ते आगलो॥ अनुक्रमे केवल ज्ञान पामी सासतां सुख जे लहे, जे करे पांचमी तप अखंडित वीर जिणवर इम कहे ॥४॥ कलश। एमपंचमी तप फल प्ररूपक, वर्द्धमान जिणेसरो॥ में थुण्यो श्री अरिहंत भगवंत, अतुल वल अलवेसरो ॥ जयवंत श्री जिन चन्द सूरिज, सकलचन्द नमंसियो॥ वाचनाचारिज समय सुन्दर, भगति भाव, प्रशंसियो ॥५॥ इति श्रीपंचमी वृद्धस्तवन संपूर्णम् ॥
॥पार्श्वजिन अथवा लघुपञ्चमी का स्तवन ॥ ___ पंचमि तप तुमें करो रे प्राणी, निर्मल पामो ज्ञान रे॥ पहिलं ज्ञानने पर्छ किरिया, नहिं कोइ ज्ञान समान रे ॥ ५० ॥१॥ नंदिसूत्रमें ज्ञान वखाण्यु, ज्ञानना पंच प्रकार रे॥ मति श्रुत-अवधि अने मनःपर्यव-केवल ज्ञान श्रीकार रे ॥ ५० ॥२॥
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अभय रत्नसार।
२७१ मति अठावीश श्रुत चवदे वीश, अवधि छ असंख्य प्रकार रे॥ दोय भेद मनःपर्यव दाख्यं केवल एक प्रकार रे ॥ ५० ॥३॥ चंद-सूरज ग्रह-नक्षत्र तारा, तेशं तेज आकाश रे॥ केवलज्ञान समु नहिं कोई, लोकालोक प्रकाश रे ॥ ५० ॥४॥ पार्श्वनाथ प्रसाद करीने, महारी पूरो उमेद रे॥ समयसुदर कहे हुं पण पामु, ज्ञाननो पंचमो भेद रे॥५०॥५॥
पाश्व प्रभुका स्तवन ।। ॥ अमल कमल जिम धवल विराजे, गाजे गोडी पास ॥ सेवा सारे जेहनी सुर-नर मन धरिय उल्लास ॥ १॥ सोभागी साहिब मेरा वे, अरिहा सुग्यानी पास जिणंदा वे ॥ ए आंकणी सुंदर सूरति मूरति सोहे, मो मन अधिक सुहाय ॥ पलक पलकों पेखतां मानुनव नविय छविय देखाय ॥२॥ सोभा०॥ अ०॥ भव-दुःख भंजन जन-मनरंजन, खंजन नयनशु रंग ॥
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२७२
स्तवन-संग्रह। श्रवण सुणी गुण ताहरा-माहरां, विकस्यां अंगो अंग ॥३॥ सो० ॥ अ० ॥ दूरथकी हु आयो वहिने, देव लह्यो दीदार ॥ प्रारथियां पहिडे नहिं साहिबा, एह उत्तम आचार ॥ ४ ॥ सो० ॥ अ० प्रभु मुखचंद विलोकित हरषित, नाचत नयन चकोर ॥ कमल हसे रवि देखिने जिम, जलधर आगम मोर ॥ ५॥ सो० ॥ १०॥ किसके हरि हर किसके ब्रह्मा, किसके दिलमें राम ॥ मेरे मनमें तु वसे साहिब, शिवसुखनोही ठाम ॥ सो० ॥ अ०॥ ६॥ माता वामा धन्य पिता जसु श्रीअश्वसेन नरेस ॥ जनमपुरी वणारसी, धनधन काशीनो देश ॥ सो० ॥ अ०॥७॥ संवत सतरेश बावीशें, वदी वैशाख वखाण ॥ आठम दिन भले भावशु, मारी जात्र चढी परिणाम ॥ सो० ॥ अ० ॥८॥ सानिध्यकारी विघ्ननिवारी पर उपगारी पास ॥ श्रीजिनचंद जूहारता, मोरी सफल फली सहु आश ॥ सो० ॥ अ० ॥ ६ ॥
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अभय रत्नसार ।
॥ विमलनाथजी का स्तवन ॥ ॥ घर अंगण सुरतरु फल्यो जी, कवण कनक फल खाय ॥ गयवर बांध्यो बारणें जी, खर किम वेदाय ॥ १ ॥ विमल जिन महारी तुम्हशु प्रीति, सुर सकलंकितशु मिल्याजी, हियडुं ह्रींसे केम ॥वि० ॥ २ ॥ मन गमता मेवा लही जी, कुण खड खावा जाय ॥ आदर साहिबनो लही जी, कुण ल्ये शंक मनाय ॥ वि० ३ रत्न छते कुण काचनें जी, अलवे पसारे हाथ ॥ कुरण सुरतरुथी ऊठिनें जी, बावल घाले बाथ ॥ वि० ॥ ४ ॥ देव अवर जो हु करू जी, तो प्रभु तुमची आण ॥ श्रीजिनराज भवो भवें जी, तुंहिज देव प्रमाण || वि० ॥ ५ ॥ ॥
२७३
॥ मौन - एकादशीका स्तवन ॥
॥ समवसरण बेठा भगवंत, धरम प्रकाशे श्री अरिहंत ॥ बारे परषदा बैटी जुड़ी, मागशिर शुदि इग्यारश बड़ी ॥ १ ॥ मल्लिनाथना तीन
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२७४
स्तवन- संग्रह |
कल्याण, जनम दीक्षा ने केवलज्ञान ॥ अर दीक्षा लीधी रुवड़ी | मा० ॥ २ ॥ नमिने ऊपनुं केवलज्ञान, पांच कल्याणक अति परधान | ए तिथिनी महिमा एवडी || मा० ॥ ३ ॥ पांच भरत ऐरवत इमहीज, पांच कल्याणिक हुवे तिम हीज, पंचासनी संख्या परगड़ी ॥ मा० ॥ ४ ॥ अतीत अनागत गणतां एम, दोंढशें कल्याणक थाये तेम ॥ कुरण तिथ के ए तिथि जेवड़ी | मा० ॥ ५ ॥ अनंत चोवीशी इण परें गियो, लाभ अ नंत उपवासा तणो ॥ ए तिथि सहु तिथि शिर राखड़ी | मा० ॥ ६ ॥ मौनपणें रह्या श्रोमल्लिनाथ, एक दिवस संयम व्रत साथ || मौन तणी परी व्रत इम पड़ी ॥ मा० ॥ ७ ॥ अठ पुहरी पोसो लीजियें, चोविहार विधिशु कीजियें ॥ पण परमाद न कीजें घडी ॥ मा० ॥८॥ वरस इग्यार कीजें उपवास, जावजीव पण अधिक उल्हास ॥ ए तिथि मोक्ष तणी पावड़ी ॥ मा० ॥ ॥ ऊज -
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अभय रत्नसार।
२७५
मणं कीजें श्रीकार, ज्ञाननां उपगरण इग्यार इग्यार ॥ करो काउसग्ग गुरु पाये पड़ी ॥ मा० १० देहरे स्नात्र करीजें वली, पोथी पूजीजे मन रली ॥ मुगतिपुरी कीजें टूकड़ी ॥ मा० ॥ ११ ॥ मौन इग्यारस महोटु पर्व, आराध्यां सुख लहिये सर्व ॥ व्रत पञ्चक्खाण करो आखड़ी ॥ मा० ॥ १२ ॥ जेसल शोल इक्याशी समे, की स्तव न सहू मन गमे ॥ समयसुदर कहे करो द्याहड़ी मा०॥ १३ ॥
॥श्रीशांतिनाथजी का स्तवन ॥
श्रीसारद मात नमू सिरनामी, हुं गाउं त्रिभुवनके स्वामी ॥ संतहि संत जपै सब कोई, जां घर शांति सदा सुख होई ॥१॥ शांति जपी ने कोजै कांमा, सोई काम हुवै अभिरामा ॥ शांति जपी परदेश सिधावै, ते कुशले कमला ले आवे॥२॥ गर्भथकी प्रभु मारि निवारी, शांतहि नाम दियो महतारी ॥ जे नर शांति तणा
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२७६
स्तवन-संग्रह। गुण गावै, ऋद्धि अचिंती ते नर पावै ॥ ३ ॥ जा नरकू प्रभु शांति सुहाई, ता नरकू कुछ आरति नाही ॥ जो कछु वंछ सोही पूरै, दालिद्र दोष मिथ्यामत चूरे ॥ ४ ॥ अलख निरंजन ज्योति प्रकासी, घट घट के भीतर प्रभु वासी ॥ स्वामि सरूप कह्या नवि जावै, कहितां मो मन अचरज थावै ॥ ५ ॥ ढार दिया सबही हथियारा, जीता मोहतणा दल सारा ॥ नारि तजी शिवसु रंग राचे, राज तज्या पिण साहिब साचै ॥६॥ महा बलवंत कहीजै देवा, कायर कुथु न एक हणेवा ऋद्धि सह प्रमु पास लहीजै, भिक्षा हारी नाम कहीजै ॥७॥ निंदक पूजक हे सम भायक, पिण सेवगक सदा सुख दायक ॥ तजी परिग्रह भए जग नायक, नाम अतीत सबै विध लायक ॥८॥ शत्रु-मित्र सम चित्त गिणीज, नांम देव अरिहंत भणीजै ॥ सयल जीव हितवंत कहीजै, सेवक जांण महा पद दीजै ॥६॥ सायर जैसा होय
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अभय रत्नसार । २७७ गंभीरा, दूषण नहि इक मांहि सरीरा॥ मेरु अचल जिन अंतरजामी ॥ पिण न रहै प्रभु एकण ठांमी ॥ १० ॥ लोक कहे प्रभुजी सब देखै, पिण सुपनो कबहु नवि पेखे ॥ रीस विना बावीस परी सह, सैन्या जोती ते जगदीसह ॥ ११॥ मान बिना जग आंण मनावै, माया बिना सबसुमन लावै ॥ लोभ विना गुणरास ग्रहीजै, भिक्षु भये त्रिगडो सेवीजै ॥ १२॥ निग्रंथपणे सिर छत्र धरावै, नाम जती पिण चमर दुलाव ॥ अभय दान दाता सुखकारण, आगै चक्र चलै अरि दा रण ॥ १३ ॥ श्रोजिनराज दयाल भणीजै, कर्म सबीको मूल खणीजै ॥ चौविह संघ जे तीरथ थापै, लक्ष घणी देखी नवि आपै ॥ १४ ॥ विनय वंत भगवंत कहावै,ना किसही कं सीस नमावै॥ अकिंचनको बिरूद धरावै, पिण सोवन पंकज पगधावै ॥ १५ ॥ तजि आरंभ निज आतम घ्यावै, शिवरमणीकू साथ चलावै ॥ राग नही
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२७८
स्तवन-संग्रह। सेवग पिड़ तारे, द्वषनहो निगुणा संग वारै ॥१६॥ तेरी महिमा अदभुत कहिये, तेरे गुणाको पार न लहिये ॥तु प्रभु समरथ साहिब मोरा, हुँ मन मोहन सेवक तोरा ॥ १७ ॥ तूं त्रिलोकतणो प्रतिपाला, मे हु अनाथ तू दीन दयाला ॥ तुं शरणागत राखण धीरा, तुप्रभु तारक छै वड़वीरा ॥ १०॥ तुम जेसें वड़भागज पायो, तो मेरो कारज चड्यो सवायो॥ कर जोडी प्रभु वीनबुतोसु, करो कृपा जिनवरजी मोसु ॥२० जनमण मरण निवारो तारो, भवसायरथी पार उतारो ॥ श्रीहथणापुर मंडण सोहे, तिहां जिन शांति सदा मन मोहे ॥ २१ ॥ पद्मसूरि गुरुराज पसाय, श्रीगुणसागरके मन भायै ॥ जे नर-नारी इक चित गावै, मन वांछित फल निश्च पावै २१
इति श्रीशांतिनाथ-स्तवनं ॥
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अभय रत्नसार।
२७६ ॥ चौरासी आशातनाओंका स्तवन ॥ ॥ ढाल ॥ विलसै ऋद्धि समृद्धि मिलि ॥ देशी ॥
जय जय जिण पास जगत्र धणी, सोभा ताहरी संसार सुणी ॥आयो हुँ पिण धर आस घणी, करवा सेवा तुम चरण तणी ॥१॥ धन धन जे न पडे जंजाल, उपयोगसं वैसे जिन आले ॥ आशातना चउरासी टाले, साश्वता सुख तेहिज संभालै ॥ २ ॥ जे नाखै श्लेषम जिनहरमें, कलह करै गाली जूये रमै ॥ धनुषादि कला सीखण ढूकै, कुरलो तंबोल भखे थूकै ॥३॥ सुरेवाय वडी लघुनीत तणी, संज्ञा कंगुलिया दोष सुणी ॥ नख केस समारण रुधिर क्रिया, चांदीनी नाखै चांमडियां ॥ ४ ॥ दातण ने वमन पिये कावो, खावे धांणी फूली खावो॥ सूवे वेसामण विसरावै, अज गज पशु ने दामण दावै ॥ ५॥ सिर नासा कान दशन आखै, नख गाल वपुषना मल नखै॥ मिलणो लेखो करे मंत्रणो, विह चन अपणो कर
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२८०
स्तवन-संग्रह। धन धरणो ॥६॥ वैसे पग ऊपर पग चढियां, थापै छाणा छडै ढुंढणियां ॥ सूकवै कप्पड पप्पड वडियां, नासीय छिपै नप भय पडियां ॥७॥ शोके रोवै विकथा ज कहै, इहां संख्या वैतालीस लहै। हथियार घडेने पश्रु बांधै, तापै नांणो परखै रांधै ॥८॥ भांजी निस्सही जिनगृह पेसे, धरै छत्र ने मंडपमें वेसै ॥ पहिरै वस्त्र अनें पनही, चामर वींझे मन ठांम नही ॥६॥ तनु तैल सचित्त फल फूल लियै, भूषण तज आप कुरूप थियै ॥ दरस
थी सिर अंजली न धरै, इगसाडै उत्तरासंग न करै ॥ ११ ॥ छोगो सिरपंच मोड जोडै, दडिये रमने वेसे होडै ॥ सयणासुं जुहार करे मुजरो, करे भंड चेष्टा कहै वचन बुरौ ॥ १०॥ धरे धरणो झगडे उल्लंठी, सिर गंथै बांधे पालंठी ॥ पसारे पग पहरे चावडियां, पग झटक दिरावै दुखड़ियां ॥ १२॥ करदम लूहै मैथुन मडै, जू आवलि अँठ तिहां छंडै॥ उघाड़े गुढ करै वयदा,
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अभय रत्नसार ।
२८१
काढे व्यापार ती कयदा ॥ १३ ॥ जिनहर पर - नालनो नीर धरै, अंघोले पीवा ठाम भरै ॥ दूषण ज़िनभवनमें ए दाख्या, देववंदनभाष्यमें जे भाख्या ॥ १४ ॥ सुज्ञानी श्रावक सगति छतां, आशातन टाले वारसतां, परमाद वसै कोई था, आलोयां पाप सहू जाये ॥ १५॥ तंबोल ने भोजन पांन जू, मल मूत्र शयन स्त्री भोग हुआ ॥ भूषण पनही ए जघन्य दसे, वरज्या जिनमंदिर मांहि वसै ॥ १६ ॥ द्रव्यत ने भावत दोय पूजा, एहनाहिज भेद का दूजा ॥ सेवा प्रभुनी मन शुद्ध करै, वंति सुख लीला तेह वरै ॥ १७ ॥ कलश ॥ इम भव्य प्रांणी भाव प्रांणी, विवेकी शुभ वातना | जिनबिंब अरचे परी वरजै, चोरासी आशातना ॥ ते गोत्र तीर्थंकर अरने, नमें जेहने केवली || उवाय श्री घमसींह बंदे, जैन शासन ते वली ॥ १८ ॥
રા
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स्तवन-संग्रह।
॥ चौवीस तीर्थंकरोंके देह-प्रमाणका स्तवन ॥
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प्रणमुं ऋषभ जिनेसर पाय, धनुष पांचसै उंची काय ॥ बीजो अजित जिन मुझ मन वसै, मांन धनुष साढाच्यारसै ॥१॥ तीजो संभव सुख दातार, उंची काय घनुष सो च्यार ॥ अभिनंदन जिनसु मन लीन, देह धनुष सो साढातीन ॥ २॥ पंचम सुमतिनाथ भगवान, धनुष तीनसो देही मांन ॥ पदम प्रभू पूरै मन आस, देह धनुष दोयसे पच्चास ॥ ३॥ सामि सुपारस सत्तम होय, देह प्रमाण धनुष सो दोय। चंद्राप्रभु जिन मुज मन वसै, देह प्रमाण धनुष दोढसै ॥ ४ ॥ सुविधनाथ नमिये सुविवेक, उंच प्रमाण धनुष सो एक ॥ शीतलनाथ नमें जग सवे, देह प्रमाण धनुष जसु निवै ॥ ५॥ श्री श्रेयांस नमूं उल्लासी, उंच प्रमाण धनुष तनु असी। वासपूज्य बारम जिन चंद, मान धनुष
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अभय रत्नसार ।
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सित्तर सुख कंद || ६ || विमल विमल गुणकर गंभीर, साठ धनुष जसु मान सरीर । अनंत ज्ञान अनंत प्रकाश, देह प्रमांण धनुष पच्चास ॥७ ॥ पनरम धरमनाथ जगदीस, मांन धनुष जस पैंतालीस ॥ शांति करण शोलम जिन शांति, देह धनुष चालीस सोभंति ॥ ८ ॥ सतरम कुंथु जगदाधार, मांन धनुष पेंत्रीस उदार ॥ अर अठारम दीनदयाल, त्रीस धनुष तन अति सुविशाल ॥ ६॥ मल्लिनाथ जिन उगणीसमो, मांन पच्चीस धनुष पय नमो ॥ वीसम मुनिसुव्रत अरिहंत, वीस धनु तनु मांन कहंत ॥ १० ॥ इकवीसम नमिजिनरा जान, धनुष पनरे तसु रूप निधान । बावीसम श्रीनेमजिनंद, दस धन दोपै जांग दिद ॥ ११ ॥ तेवीसम श्री पारसनाथ, नील वरण सोहे नव हाथ ॥ चोवीसमा जिनवर श्री वीर, सात हाथ जगनाथ सरीर ||१२|| इस परि ए जिनवर चोवीस, प्रण में प्रह शम धरिय जगी
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स्तवन-संग्रह। स ॥ तां घर ऋद्धि सिद्धि उछ रंग, रंग विनय प्रणमें मुनि रंग ॥१३॥ ॥ चौवीस तीर्थंकरोंके आयुष्य-प्रमाणका स्तवन ॥
ऋषभदेव प्रणमुजिनराय, लाख चौरासी पूरब आय ॥ बीजो अजित जसु सूत्रै साख, आउ बहुत्तर पूरब लाख ॥ १॥ तीर्थकर संभव तीसरो, आउ लाख पूरव साठरो अभिनन्दन पूरे मन आस, आउ लाख पूरव पच्चास ॥२॥ सुमतिनाथ पंचम जगदीस, आउ लाख पूरब चालीस ॥ श्री पदमप्रभूनी ए थितजांण, लाख तीस पूरब परिमाण ॥३॥ श्री सुपाश्व लोख पूरब वीस, दस लख पूरव चंदप्रभु ईस ॥ सुविधिनाथ लख पूरव दोय, इक लख पूरव शीतल थित होय ॥ ४ ॥ आयु वरस चोरासी लाख,श्री श्रेयांस तणी श्रुत साख । लाख बहुत्तर वरसांतणो, वासुपूज्य परमायुष गिणों ॥५॥ विमल आयु लख
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अभय रत्तसार।
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साठ वरीस, वरस अनंत तणो लख तीस॥ लाख वरस दस धरम दिणंद, लाख वरस श्री शांतिजिणंद ॥६॥ वरस सहस थिति पच्याणवै,
श्री कंथुनाथ तणी संभवै ॥ सहस चोरासी अर जिनतणी, मल्लि सहस पचावन भणी ॥७॥ वरस संपूरण त्रीस हजार, मनिसुव्रत परमाउ उदार। वीस सहस नमिजिन थित भणी, वरस सहस नेमीसरतणी।। पास वरस एक सो सुखकंद, वरस बहुत्तर वीरजिणंद ॥ ऋषभतणा तेरे अवतार, सात चंद्र शंतीसर बार ॥ ६ ॥ सुव्रत भव नव नव नेमीस, पाश्व वीर दस सत्तावीस ॥ त्रिहुं २ भव सतरे जगदीस, सगला भव एकसोअड़तीस ॥ १० ॥ सिद्ध लही सहुने धन धन्न, गणधर चवदेस बावन्न ॥ सहुनें मुनि लख अठावीस, सहस ऊपरै अडतालीस ॥ ११॥ लाख चमाल छ याल हजार, षडधिक सहु साधवी सो च्यार ॥ श्रावक लाख पचावन धुरै, अड़तालीस सहस
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स्तवन-संग्रह। ऊपरै ॥ १२ ॥ एक कोडि श्रावका सुजगीस, लाख पांच सहस अड़तीस ॥ ए संघ चतुर्विध सहु जिनतणो, रंग विनय प्रणमें हित घणो ॥ १३ ॥
॥ तिरसठ शलाका-पुरुषों का स्तवन ॥ ॥ ढाल १ ॥ धरम महारथ सारथ सारं एदेशी ॥
सदगुरु चरण कमल मन धारं, त्रेसठ उत्तम नर अधिकारं पभणसु श्रुत अनुसारं ॥ जेहने नाम लियै निसतारं, आपण सफल हुवै अवतारं पामीजै भव पारं ॥१॥ ऋषभ अजित संभव अभिनंदन, सुमति पदमप्रभु नयनानंदन, सत्तम तेम सुपास ॥ चंद्रप्रभूने सुविध शीतल जिन श्रेयांस, वासुपूज्य जिन सुरमणि, विमल गुणेकर वास ॥ २ ॥ अनंत धर्म श्री शांति जिनेसर, कुं.
थुनाथ अर मल्लि सुहंकर, मुनिसुव्रत नमि नेम॥ पार्श्व वीर ए जिन चोवीस ॥ जग वच्छल जगगुरु जगदीस, प्रणमीजै धर प्रेम ॥३॥
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अभय रत्नसार ।
॥ ढाल दूसरी ॥ प्रथम सुपन गज निरख्यो एदेशी ॥ प्रथम भरत नरइद, बीजो सगर सुरिंद, मघवा तीजो उदार, चोथो सनतकुमार ॥ ४॥ पांचमो शांति चक्कीस छठा कुंथु गणीस ॥ सातमो अरि नरनाथ, आठमो संभूमि सनाथ ॥ ५ ॥ नवमो पदम नरेस, हरिषेण दसमो कहेस इग्यारम जयनांम, बारस ब्रह्मदत्त नांम ॥ ६ ॥ एह चक्कीसर बार, क्षेत्र भरत सिणगार ॥ मघवा सनतकुमार, पोहता सरग मझार ॥ ७ ॥ सभूम अने ब्रह्मदत्त, सत्तम नयर निरत्त । आठ थया सिवगामी, ते प्रणमुळे सिरनांमी ॥ ८ ॥
|| ढाल तीसरी ॥ मुनिवर आर्य सुहस्ति ॥ एदेशी || पहिलो त्रिपृष्टि जांण, द्विपृष्ट दूसरो, तीजो स्वयंप्रभु जाणिये ए ॥ पुरुषोत्तम ए चोथो, पंचम परगडो, पुरुषसिंह परमाणिये ए ॥ ६ ॥ छठो पुरुष पुंडरीक, दत्त तिम सातमो, लक्ष्मण नांमे आठमो ए ॥ नवमो कृष्ण नरेस, ए नव केसवा,
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स्तवन-संग्रह।
प्रह ऊठी ए पिण नमूए ॥ १०॥ तिहां पहिलो वासुदेव, नारकी सातमी, अगला पांच छठी गया ए॥ सातमो पंचमी नैर, चोथी आठमो, नवमो तीजी नारीया ए ॥ ११ ॥ अचल विजय ने भद्र, सुप्रभु सुदर्शन, आनंद नंदन शुभ मती ए॥ रामचंद्र बलभद्र, बलदेव ए नव, आठथया तिहां सिव गती ए ॥ १२॥ बलभद्र ब्रह्म देवलोक, काल उसप्पणी, जास्यै सिव कृष्ण सासने ए॥ अथवा विपुलाक नाम, तीर्थकर होस्ये, चवदमो इम बहुश्रुत भणे ए ॥ १३॥ ॥ ढाल ४ ॥ कुमरपणे प्रमु रहतां काल सुखै गमेए ॥ ए. देशी ॥
अस्वग्रीव ने तारक मेरुकवलि मधु तिसाए, निशंभ वलय प्रहलाद, रावण जरासिंधु जिसा ए॥ ए नव प्रतिवासुदेव नरक गति गामिया ए, ते पिण भावि जिनेस केई प्रणमुं मुदा ए ॥१४॥
॥ढाल ५ ॥ सफल संसारनी ॥ ए देशी ॥ शाति ने कुंथु अरि एह भव एकही, चक्रधर
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अभय रत्नसार। २६ तीर्थकर दोय पदवी लही। वीर वासुदेव अरिहंत भव जूता, देह तिणसाठ पिण जीव गुणसठ थया॥ १५॥ वासुदेव वलीय बलदेव केरा पिता, एकहिज थाय नव एण लेखै छता ॥ तीन चक्रधर तणा मिलिय बारै टल्या, एम वेसठना तात इकावन मिल्या ॥१६॥ तीन चक्रवत्ततणी टाल दीजे इस, गाय सहुनी थई साठ लेखे इस॥ एह नररयणनो व्यांन नित जे धरे, तेह सुरपद लही मोक्ष पदवी वरै ॥ १७ ॥
॥ कलश ॥ इम थुण्या तीर्थंकर चक्रीसर वासुदेव बलदेव ए, प्रतिवासुदेव सुसेव जेहनी करै सुरनर सेव ए ॥त्रेसठ शलाका पुरुष उत्तम जगत जयवंतो सदा, प्रह शमे तेहना चरण पंकज नमे मुनि वसतो मुदा ॥ १८ ॥
॥सिद्धगिरी का स्तवन ॥ श्र विमलाचल सिर तिलो, आदीसर अरी
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२६०
स्तवन-संग्रह। हंत ॥जुगला धर्म निवारणो, भय भंजण भंगवंत ॥श्री० ॥१॥ मुझ मन ऊलट अति घणो, सो दिन सफल गिणेस ॥ स्वामी श्री रिसहेसरू, जब नयणे निरखेस ॥श्री ॥२॥ जंगम तिरथ विहरता, साधु तणे परिवार ॥ आदि जिनंद समोसरया, पूरब निन्ना' वार ॥ श्री० ॥ ३ ॥ अचिरा विजयानंदने, जगबंधव जगतात ॥ इण गिर चउमासे रह्या थिवर कहे ए वात ॥ श्री०॥ ४॥ पांमे शिव सुख शास्वता, गणधर श्री पुंडरगिरि तिण कारणें, भगति करो निरभीक । श्री। ॥५॥ नमि ने विनमि सहोदरू, विद्याधर बलवंत ॥ सेनुंजा शिखर समोसस्या, जे गरुआ गुण वंत ॥ श्री०॥६॥थावच्चा मुनिवर सुक, सहस २ परिवार ॥ पंथग वयणे जागियो, सो सेलग अणगार ॥श्री० ॥७॥ पांडव पांच महाबली, सुणि जादव निरवाण ॥ ते सीधा सिद्धाचले, सुर नर करै वखाण ॥ श्री० ॥८॥ इम सीधा
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अभय रत्नसार। २६१ इण डूंगरै, मुनिवर कोडाकोड़॥ पाय चढंता सांभरे, ते प्रणमं करजोड़ि ॥श्री० ॥६॥ जे वाघण प्रतिबूझवी, ते दरवाजे जोय ॥ गोमुख यक्ष कवड मिली, सानिधकारी होय ॥श्री० १०॥ जे विधसुं यात्रा करे, सुर नर सेवक तास ॥ राजसमुद्र गुण गावतां, अविचल लील विलास श्री० ॥ ११॥ ॥श्री सिद्धाचलजी का स्तवन॥
॥ देशी गरवानी ।। श्री सिद्धाचल मंडण स्वामी रे, जग जीवन अंतरजांमी रे, एतो प्रणमं हूं सिरनामी, यात्रीड़ा जात्रा निनाण करिये रे ॥१॥ श्रीऋषभ जिनेसर राया रे, जिहां पूरव निनाणं आया रे, प्रभु समवसस्या सुख दाय ॥ या० ॥२॥ चेत्री पूनम दिन वखाणो रे, पांच कोडिसुं पंडरीक जांणो रे, जे पांम्या पद निरवाण ॥ या० ॥३॥ नमि विनमि राजा सुख संत रे, बे-बे कोडिसं साध
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स्तवन-संग्रह। संघाते रे, एतो पोहता पद लोकांत ॥ या० ॥४॥ काती पूनम कर्मने तोड़ी रे, जिहां सीधा मुनि दस कोडी रे, ते वंदो बे कर जोडी ॥ या० ॥५॥ इम भरतेसरने पाटे रे, असंख्यात साधु थिर थाटे रे, पांम्या मुगति तणी ए वोट ॥ जा० ॥ ६॥ दोय सहस मुनी परवारे रे, थावच्चा सुत सुखकारे रे, सय पंच सेलग अणगार ॥ या० ॥७॥ देवकी सुत सुजगीसे रे, सीधा बहु यादववंसे रे, ते नमो रे नमो मन हींसे ॥ या० ॥८॥ पाचे पांडव इण गिर आया रे, सीधा नव नारद ऋषिराया रे, वली संब प्रज्जुन कहाय ॥ या० ॥६॥ ए तीरथ महिमावंते रे, जिहां सीधा साधु अनंते रे, इम भाष्यो श्रीभगवंत ॥ या० ॥१०॥ उज्जल गिर सम नही कोइ रे, तीरथ सगला मे जोइ रे, जे फरस्यां पावन होइ ॥ या० ॥ ११ ॥ एकाहारी ने सचित्त पहारी रे, पदचारी ने भूमि संथारी रे, शुद्ध समकित ने ब्रह्मचारी ॥ या० ॥ १२॥ इम
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अभय रत्नसार ।
२६३
छह री जे नर पाले रे, बहुं दांन सुपात्रे आले रे, ते जनम मरण भय टाले ॥ या० ॥ १३ ॥ धन २ ते नर ने नारी रे, भेटे विमलाचल इक तारी रे, जइये तेहतणी वलिहारी ॥ या० ॥ १४ ॥ श्रीजिनचंद्र सूरि सुपसाये रे, जिनहर्ष हिये हुलसाये रे, इम विमलाचल गुण गाये ॥ या० ॥ १५ ॥ ॥ श्रीऋषभदेवजी का स्तवन । ऋषभ जिनेसर दिनकर साहिब, बीनतड़ी अवधारो रे ॥ जगना तारू ॥ मुझ तारो जी कृपानिध स्वांमी, जग जसवाद प्रगट छै ताहरो, अविचल सुखदातारो रे ॥ ज० ॥ १ ॥ मु० ॥ निज गुण भोक्ता पर गुण लोप्ता, आतम शक्ति जगायो रे ॥ ज० ॥ अविनासी अविचल अविकारी, वासी जिनराया रे ॥ ज० ॥२॥ मु० ॥ इत्यादिक गुण श्रवणे निसुणी, हुं तुम चरणे आयो रे ॥ ज० ॥ तुम रीझावरण हेते ततखिण, नाटक खेल मचायो रे ॥ ज० ॥ ३ ॥ ० ॥ काल अनंत रह्यो
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स्तवन -संग्रह |
एकेंद्री, तरु साधारण पांमी रे ॥ ज० ॥ वरस संख्याता वलि विकलेंद्री, वेष धरया दुख धामी रे ॥ ज० ॥ ४ ॥ मु० ॥ सुर-नर तिरि वली नरकतणी गति, पंचेंद्रीपणो धात्यो रे ॥ ज० ॥ चोवीसे दंडक मांहि भमियो, अब तो हूँ पिण हायो रे ॥ ज० ॥ ५ ॥ मु० ॥ भव नाटक नित करतो नव नव, तुझ आगल नाच्यो रे ॥ ज० समरथ साहिब सुरतरु सरिखो, निरखी तुझने याच्यो रे ॥ ज० ॥ ६ ॥ मु० ॥ जो मुझ नाटक देखी भया, तो मन वंछित दीजे रे ॥ ज० ॥ जो नवि रीभया तो मुख भाखो, वलि नाटक नवि कीजे रे ॥ ज० ॥ ७ ॥ मु० ॥ लालच धरि हू सेवा सारू, तुं दुखडा नवि कापे रे ॥ ज० ॥ दाता सेती सूँ म भलेरो, वहिलो उत्तर आपे रे ज० ॥८॥ मु० तुझ सरिखा साहिब पिण माहरो. जो नवि कारज सारो रे ॥ ज० ॥ तो मुझ कर - मतणी गति अवली, दोस न कोई तुमारो रे ॥
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अभय रत्नसार । ज०॥ मु०॥ दीनदयाल दया कर दीजै, सुध समकित सह नाणी रे॥ ज० ॥ सुगुण सेवकना वंछित पूरो, तेहिजगुणमणि खाणी रे ज० ॥१० ।मु०॥ वर्ष अठारै गुणतालोस, ज्येष्ठ सुदी सोमवारो रे ॥ ज०॥ लालचंद प्रतिपद दिन भेट्या, बीकानेर मझारो रे ॥ ज० ११ ॥ मु० ॥
॥ महावीरस्वामी को स्तवन । ॥ वीर सुणो मोरी वीनती, करजोड़ी हुँ कहुं मननी वात ॥ बालकनी पर वीनवं, मोरा स्वामी हो, तूं त्रिभुवन तात ॥ वी० ॥१॥ तुम दरशण विन हूं भम्यो, भव माहे हो स्वामी समुद्र मझार ॥ दुक्ख अनंता में सह्मा, ते कहितां हो किम आवे पार ॥ वी० ॥२॥ पर उपगारी तूं प्रभू, दुख भंजे हो जग दीनदयाल ॥ तिण तोर चरणे हूँ आवियो, सामी मुझने हो निज नयण निहाल ॥ वो० ॥३॥ अपराधी पिण ऊधस्या, तें कीधी हो करुणा मोरा स्वांम ॥ हुँतो
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स्तवन- संग्रह |
परम भक्त ताहरो, तिए तारो हो नहीं ढीलनो काम ॥ वी० ॥४॥ सूलपारण प्रतिबूझव्या, जिण कीधा हो तुमने उपसर्ग । डंक दियो चंडकोसिये, तें दीधो हो त आठमो सर्ग ॥ वी० ॥ ५ ॥ गोशालो गुणहीन घणो, जिण बोल्या हो तोस
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वरणवाद ॥ ते बलतो तें राखीयो, सीतललेस्या हो मूंकी सुप्रसाद ॥ वी० ॥ ६ ॥ ए कुरण छै इंद्रजालियो, इम कहतो हो आयो तुम तीर ॥ ते गोतमनें तें कियो, पोतानो हो प्रभुतानो वजी र ॥ वी० ॥ ७ ॥ वचन उथाप्या ताहरा, ते झगड्या हो तुझ साथ जमाल ॥ तेहनें पिए पनरे भवे, शिवगामी हो तें कीधो कृपाल ॥ वी० ॥ ॥ ८ ॥ एमत्तो रिष जे रम्यो, जल मांहे हो बांधी माटीनी पाल ॥ तिरती मंकी काछली ॥ तें तास्त्रो हो तेहनें ततकाल ॥ वी० ॥ ॥ मेघकुमर ऋषि दूहव्यो, चित चूको हो चारितथी अपार || एकावतारी तेहने, तें कीधो हो करुणा भंडार ॥
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अभय रत्नसार ।
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वी० ॥ १० ॥ बार वरस वेस्या घरे रह्यो, मूंकी हो संजमनो भार ॥ नंदिषेण पिण ऊधस्यो, सुर पदवी हो दीधी अति सोर ॥ वी० ॥ ११ ॥ पंच . महाव्रत परिहरी, ग्रहवासे हो वस्यो वरस चोवीस ॥ ते पण आद्र कुमारनें, तें ताख्यो हो तोरी एह जगीस ॥ वी० ॥ १२ ॥ राय श्रेणर्क रांणी चेलणा, रूप देखी हो चित चित चूका जेह ॥ समवसरण साधु-साधवी, तें कीधा हो आराधिक तेह ॥ वी० ॥ १३ ॥ विरत नही नही आखडी, नही पोसो हो नही आदर दीख ॥ ते पिण श्रणिकरायनें, तें कीधो हो सामी आप सरीख ॥ वी० ॥ ॥ १४ ॥ इम अनेक तें ऊधस्था, कहु तोरा हो केता अवदात ॥ सार करो हिव माहरी, मनमांहे हो मोरडी वात ॥ वी० ॥ १५॥ सूधो संजम नहि पलै, नहो तेहवो मुझ दरसण ज्ञान ॥ पिण आधार है एतलो, इक तोरो हो धरु निश्चलध्यान वी० ॥ १६ ॥ मेह महितल वरसतो, नवि जोवे
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स्तवन- संग्रह |
हो सम विखमी ठांम ॥ गिरुवा सहजे गुण करे, स्वामी सारो हो मोरा वंछित कांम ॥ वी० ॥१७॥ तुम नांमे सुख संपदा, तुम नांमे हो दुख जाये दूर ॥ तुम नांमे वंछित फलै, तुम नांमे हो मुझ आनंदपूर ॥ वो० ॥ १८ ॥ कलश ॥ इम नगर जेसलमेरु मंडन, तीर्थंकर चोवीसमो ॥ शासनाधोश्वर सिंह लंछन, सेवतां सुरतरु समो ॥ जिनचंद त्रिसलामात नंदन, सकलचंद कला निलो, वाचनाचारज समयसुंदर ॥ संथुण्यो त्रिभुवन मिलो ॥ १६ ॥
॥ चौबीस दंडक का स्तवन ॥
॥ ढाल १ || आदर जीव क्षमा गुण आदर || ए देशी || ॥ पूर मनोरथ पात्र जिनेसर, एह करू अर दास जी ॥ तारण तरण विरुद तुझ सांभलि,
यो हूं घर आस जी पू० ॥ १ ॥ इण संसार समुद्र था, भमियो भवजल मांहिजी ॥ गिल गिचिया जिम आयो गिडतो, साहिब हाथे साहि
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अभय रत्नसार।
२६४ जी ॥ पू० ॥ २॥ तू ज्ञानी तो पिण तुझ आगे, वीतक किहिये वात जी ॥ चोवोसे दंडक हूँ भमियो । वरणं तेह विख्यात जी ॥ पू० ॥३॥ साते नरक तणो इक दंडक, असुरादिक दस जाण जी ॥ पांच थावरने तीन विकलेन्द्री॥ उगणीस गिणती आंण जी॥ पू०॥ ४॥ पंचेंद्री तिर्यश्चने मानव, एह थया इकवीस जी॥ व्यंतर ज्योतषी ने वैमाणिक, इम दंडक चोवीस जी ॥ पू० ॥ ५॥ पंचेंद्री तिथंच अने नर, पर्याप्ता जे होय जी, ए चोविह देवामें ऊपजै, इम देवां गति दोय जी॥ पू० ॥ ६ ॥ असंख्यात आऊखै नर तिरि, निहचै देवज थाय जी॥ निज आंऊबै सम के ओछै, पिण अधिक नवि जाय जी॥पू० ॥७॥ भवनपतीके व्यंतर तांई, समूच्छिम तियंच जी ॥ सगर आठमां तांइ पोहचै, गरभज सुकृत संच जी ॥ पू० ॥८॥ आउ संख्यातै जे गरभज, नर तिरजंच विवेक जी ॥ बादर पृथको
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स्तवन- संग्रह |
नें वलि पाणी, वनस्पती प्रत्येक जी ॥ पू० ॥ ६ ॥ पर्याप्ता इण पांचे ठामे, आवि ऊपजै देव जी ॥ इण पांचा माहे पिण आगे अधिकांई कहुं हेव जी ॥ ५० ॥ १० ॥ तीजा सरगथको मांडी सुर, एकेंद्रो नवि थाय जी ॥ ऋठमथी ऊपरला संगला, मांनवमांहे जाय जी ॥ ५० ॥ ११ ॥
|| ढाल || २ || आज निहेजोरे दीसें नाहलो ॥ ए देशी || नरकतणी गति गति इण परै, जीव भ संसार ॥ दोय गति नें दोय आगत आंणिये, वलिय विशेष विचार ॥ न० ॥ १२ ॥ संख्याते आयु परजापता, पंचेंद्री तिरयंच ॥ तिमहीज मनुष्य एहिज बे नरकमें, जायै पाप प्रपंच ॥ न० प्रथम नरक लग जाय असन्नियो, गोह नकुल तिम बीय ॥ गृद्ध प्रमुख पंखी त्रीजी लगे, सींह प्रमुख चोथीय ॥ न० ॥ १४ ॥ पंचमी नरकै सोमा सापणी, छठीं लग स्त्री जाय ॥ सातमियें मारास के माइलो ऊपजै गरभज आय ॥ न०
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अभय रत्नसार ।
३०१
॥ १५ ॥ नरकथकी वे बहुं दंडकै, निरयंचके नर थाय || ते पिरण गरभज ने परयापता ॥ संख्याती जसु श्राय ॥ न० ॥ १६ ॥ नारकियां ने नरकथी नीसरा, जे फल प्रापति होय ॥ उत्कृष्टे भांगे करते कहू, पण निश्चै नहीं कोय ॥ न० ॥ १७ ॥ प्रथम नरकथी चवि चक्रवर्त्ति हुवै, बीजो हरि बलदेव || तीजी लग तीर्थंकर पद लहै || चोथी केवल एव ॥ न० ॥ १८ ॥ पंचम नरकन सरबविरति लहै, छठी देसविरत्त ॥ सा तमो नरकनो समकितहीज लहै, न हुवै अधिक निमत्त ॥ न० ॥ १६ ॥
|| दाल || ३ || करमपरीक्षा करण कुमर चल्यो रे ॥ ए देशी ॥ मानव गति विन मुगति हुवै नही रे, एहनो 'इम अधिकार ॥ आउ संख्याते नर सहु दंडके रे, आवी लहै अवतार ॥ मा० ॥ २० ॥ तेउ वाऊ दंडक बे तजी रे, बीजा जे बावीस ॥ तिहांथी आया थायै मानवी रे, सुख, दुख कम सरीस ॥
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३०२
स्तवन- संग्रह |
मा० ॥ २१ ॥ नर तिरजंच असंखो उखै रे, सातमी नरकना तेम ॥ तिहांथी मरिनें मनुष्य हुवे नही रे अरिहंत भाख्यो एम ॥ मा० ॥ २२ ॥ वासुदेव बलदेव तथा वली रे, चक्रवर्त ने अरिहंत ॥ सरग नरगना आया ए हुवै रे, नर तिरथी न हुवंत ॥ मा० ॥ २३ ॥ चोविह देव थकी चवि ऊपजै रे, चक्रवर्ति बलदेव ॥ वासुदेव तीर्थंकर ए हुवै रे, वैमानिकथी वेव ॥ मा० ॥ २४ ॥
॥ दाल ॥ ४ ॥ नाभि अने मरुदेवा || ए देशी ॥ हिव तिरयंच तणी गति गति कहिये - शेष, जीवभमें इस पर भव मांहे करम विशेष ॥ आउ संख्यातो जे नर तियंच विचार, ते सगला तिरयंचा मांहे लहे अवतार || २५ || जिस तिरयंचा मांहे वे नारक देव, ते कह्या पहली ति कारण न कहू हेव ॥ पंचेंद्री तियंच संख्यातै आऊखै जेह, ते मरी चिहुंगतिमां जावे इहां नही संदेह ॥ २६ ॥ थावर पांच तीने विकलेंद्री आठ
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अभय रत्नसार ।
३०३
कहावे, तिहांथी आउ संख्याता नर तिरयंचमें आवे || विकल चवील है सरबविरति पिण मुगति न पावैं, उ वाउथी आयो तेहने समकित नावै ॥ २७ ॥ नारक वरजीनें सगला ही जीव संसार, पृथवी आउ वनस्पतीमांहि लहै अवतार ॥ ए ती नें इहांथी चवि वे दसे ठाने, थावर विकल तिरी नरमांहै उतपत पामै ॥ २८ ॥ पृथवींकाय आद देई दस दंडके एह, तेउ वाऊ मांहे आवी ऊपजै तेह || मनुष्य विना नव मांहे तेउ वाउ बे जावे, विकलेन्द्र ते दसमांहि जावै पृठाही आवे ॥ २६ ॥ एम अनादितणो मिथ्यात्वी जीव एकंत, वनस्पती माहे तिहा रहियो काल अनंत ॥ पुढवी पाणी अनि अनैं चोथो वलि वाय, का, लचक्र असंख्याता तांइ जीव रहाय ॥ ३० ॥ बेइन्द्री इन्द्री ने चोरिंद्री मझारै, संख्याता वर सां लगे भमियो करम प्रकारे ॥ सात आठ भव लगि ताँ नर तिरयंचमें रहियो, हिव मांनवभव
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३०४
स्तवन- संग्रह |
लहिनें साधुनें वेषमें रहियो ॥ ३१ ॥ राग द्वेष छूटे नही किम हुवे छूटकबार, पिरण है माहरै मनसुध ताहरो एक आधार || तारण तरण में त्रिकरण सुद्धे अरिहंत लाधो, हिव संसार घणो भमिवोतो पुदगल आधो ॥ ३२ ॥ तूं मन विं त पूरण आपद चूरण सांमी, ताहरी सेव लही तो में नवनिध सिद्ध पांमी ॥ अवर न कांइ इच्छू इण भव तू हिज देव, सूधै मन इक होज्यो भव भव ताहारी सेव ॥ ३३ ॥
॥ कलश ॥
इम सकल सुखकर नगर जैसलमेर महिमा दिन दिनें ॥ संवत सतर उगणतीसै, दिवस दीवाली त ॥ गुणविमल चंद समान वाचक, विजय हरष सुसीस ए ॥ श्री पासना गुण एम गावै, धरमसी सुजगीज ॥ ३४ ॥
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अभय रत्नसार ।
३०५
॥ इरियावही मिच्छामिदुक्कड संख्या-स्तवन ॥ || प्रभु प्रणमूं रे पास जिनेसर थम्भणो ॥ ए देशी ॥ पद पंकज रे प्रणमो वीर जिनंदना, त्रिकरए शुद्ध रे करि मुनिवर पय वंदरणा ॥ एमते रे पड़िकमी जिम इरियावहीं, श्री वीरनी रे वाणी तहत कर सरदही ॥ उल्लालो ॥ सरदही वांणी मन सुहाणी, चित्त आणी ते वली ॥ मिच्छामि दुक्कड़ तणी संख्या, कहिस जिम कहे केवली ॥ भू दग जल तिम वाउ, वरणसइ विगल पर इंद्री तरणी ॥ करतां विराहण करम बंध्या, दुर ते करिवा भरणी ॥१॥ चाल ॥ पुडवि दगरे वाउ तेउ वरणस्सइ, पण थावर रे बादर सुहम दसे थई ॥ प्रत्येकजरे व सइ इग्यारह थया, बावोसे रे पज्जत्तग अपजत्तया ॥ उल्लालो | पजत अपज्जत्तग वखा राया, विगल तिय छह भाल ए ॥ जल-थल - खेचर भुयंग दुइ, पण इंद्रिय तिरि अडयाल ए ॥ तस्मादि साते नरक पुडवी, नारकी तिहां सात जे ॥
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स्तवन-संग्रह। ते चबद भेदे करी जाणो, पजत्तय अपजत्त जे ॥२॥ चाल ॥ पनहर विध रे सुरगण परमा हम्मिया, किलविषिया रे त्रिविध करम ते निम्मिया ॥ जंभिय दस रे नव लोकांतिक जांणिय, सो लह विधरे व्यंतर देव वखाणियै॥ उल्लालो॥ वखाणियै दस विध भुवनपतिना, तार रवि सशि रिसिगहा ॥ चर थिर दसै विध जोइसी सुर, वखाण्या जिनवर जिहां ॥ बारह विमाणह पण अनुत्तर, नवग्रीवेके नव भण्या ॥ पज्जत्त अपजत्तग अठाणं, अधिक सत संख्या गिण्यां॥
॥ ढाल ॥ २ ॥ मेघ आगम सही ए ॥ देशी ॥ पंचभरत वलि ऐरवत पंच पंच विदेहवर भूमिका ए॥ खेत्र ए पनरह करम भूमि जाणीयै असि कसि मसिही आजीविकाए ॥ हेमवत खेत्र वलि तिम हरिवर्ष रम्यक ऐरण्यवत सहीए मेरूपिणा पाखती चारि २ खेत्र दस कुरु अकरम भूमीकहीए ॥ ४॥ हिमगिर सिहरीय दाढ ची
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अभय रखसार ।
३०७ यांरि लवण समुद्रमांहि बिस्तरी ए ॥ सात २ अं तर दोय पासै दीप छप्पन्न अन्तर धरीए ॥ दोइस भेद दुइ आगला जांणी मणय पज्जत अप ज्जतयाए ॥ एक सौ एक समुर्छिम भेद तीनसै तीन मणआ थयाए ॥ ५॥
|| ढाल ॥ ३ ॥ हिव जनम्या जगगुरु ए ॥ देशी ॥ पणस्य सठिविध जीवसहूंछे एह अभिहय आदिक दस गुणित करीजै तेह ॥ पणसहस छसै वलि त्रीस अधिकते जाणि ॥ ते रागै दोसै दुगुण करी वखाण ॥ ६॥ हुइ सहस इग्यारह दुइसय साठि प्रमाण ॥ ए प्रवचनवाणी जाणी हितउर आण ॥ मनवच काया करि त्रिगुणाकरि त्रिअंक ॥ तेतीस सहस सत सातअसी निःशंक ॥७॥ वलि करण करावण अनुमति त्रिगुण किद्ध ॥ इकलक्ख सहसइग तिसय चालीस प्रसिद्ध ॥ अतीत अनागत वर्तमान वलिकाल जे थइयविराधना तिणि त्रिगुण संभाल ॥ ८॥ तीन
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३०८.
स्तवन- संग्रह |
लाख सहस प्यार बेसे अधिक ते थाय ॥ अरिहंत प्रमुख छह साखै छगुण भाय ॥ इम लाख अठारह वलि सहस चउवीस ॥ इकसो वीसोत्तर हुइ. संख्या निसदीस ॥६॥
॥ ढाल ४ थी || चोपड़नी ॥ ए देशी ॥ || इस परिमिच्छामि दुक्कडंदेई भविक तस्या भवजल निधिकेई ॥ तरे अछे वलि आगलि तरिसी ॥ निरमल केवल लखमी वरिसी ॥ १० ॥ इरियावही धरम गंगाजल | न्हाण करै आतम करि निरमल ॥ सें मुखभाषै वीर जिणेसर ॥ सू
करि गूथै ते श्रुतधर ॥ ११ ॥ इस पडिकमी मुनिवर इमत्तो ॥ वीरसोस केवल पदपत्तो ॥ त्रिकरण सुध तसु पय प्रणमी जै ॥ मानव जनम सफल इम कीजे ॥ १२ ॥
॥ कलश ॥
॥ इम वीरजिरावर ग्यान दियर सयललोय सुहंकरो ॥ तियलोय सामि सिद्धगामी
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अभय रत्नसार। ३०६ सुद्ध धरम धुरंधरो ॥ उवझाय लक्ष्मी किति सोस जैनवाणी मन धरी ॥ गणि लच्छिवल्लभ तवन करि इम संथुण्यो भावै करी ॥ १३ ॥
॥पांच समवाय का स्तवन । ॥ दोहा ॥ सिद्धारथ सुत वंदीए, जगदीपक जिनराज ॥ वस्तुतत्व सवि जाणीए, जस आगमथी ओज ॥ १॥ स्याद्वादथी संपजे, सकल वस्तु विख्यात ॥ सप्त भंग रचना विना, बंधन वेसे वात ॥ २॥ वाद वदे नय जूजुआ, आप आपणे ठाम ॥ पूरण वस्तु विचारतां, कोइ न आवे काम ॥३॥ अंध पुरुष एह गज, ग्रहो अवयव अनेक ॥ दृष्टिवंत लहे पूर्णगज, अवयव मिली अनेक ॥४॥ संगति सकल नयें करी, जुगति योग शुद्ध वाद ॥ धन्य जिनशासन जग जयो, जिहां नहीं किशो विरोध ॥ ५॥
॥ ढाल ॥ १ ॥ राग आशावरी ॥ श्रीजिनशासन जग जयकारी स्याद्वाद शुद्ध
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स्तवन-संग्रह। रुप रे ॥ नय एकांत मिथ्यात्व निवारण, अकल अभंग अनप रे ॥६॥श्री०॥ कोइ कहे ए कालतणे वस, सकल जगत गत होय रे ॥ कालै ऊपजै विणसे काले, अवर न कारण कोइ रे ॥७ श्री० ॥ कालै गर्भ धरै जग वनिता ॥ कालै जनमे पूत रे ॥ कालै बोलै काले चाले, काले झाले घरसूत रे ॥८॥ कालै दूधथकी दही थायै, कालै फल परपाक रे ॥ विविध पदारथ काल उपावे, अंत करे बेवाक रे॥ ६ ॥ श्री० ॥ जिन चउवीसै बार चक्कवै, वासुदेव बलवंत रे ॥ कालै कविलत कोइ न दोस, जसु करता सुर सेव रे ॥१० ॥ श्री० ॥ उत्सर्पिणी अवसर्पिणी आरा, छै छ जूजूये भांते रे, षट् ऋतु काल विशेष विचारो॥ भिन्न २ दिन रात रे ॥ ११ ॥श्री० ॥ काले बाल बिलास मनोहर, यौवन काला केश रे ॥बुढ्ढपणे हुय वलि वली दुर्बल, सकत नही लबलेस रे ॥ १२॥ श्री० ॥
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अभय रत्नसार।
३११
॥ ढाल ॥ २ री ॥ गिरुला गुण श्रीवीरजी ।। ए देशी ।।
तब स्वभाववादी वदै जी, काल किसु कर रंक ॥ वस्तु स्वभावे नीपजे जी, विणसै तिमज निस्संक ॥ १३ ॥ सुविवेक विचारी जुओ २ वस्तु स्वभाव ॥ ए आंकणी ॥ छते योग योवनवती जी, वांझणि न जण बाल ॥ मूछ नही महिला मुखै जी, करतल ऊगै न वाल ॥ १४॥ सु० ॥ विण स्वभाव नवि संपजै जी, किमह पदारथ कोय ॥ अंब न लागै नींबई जी, वाग वसंते जोय ॥ १५॥ सु०॥ मोरपंछ कुण चीतरे जी, कुण करै संध्यारंग ॥ अंग विविध सब जीवना जो, सुंदर नयण कुरंग ॥ १६ ॥ सु०॥ काटा बोर वंबूलना जी, कुणे अणियाला कीध ॥ रूप रंग गुण जूजूआ जीतस फल फल प्रसिद्ध ॥ १७॥ सु०॥ विसहर मस्तकै नित वसे जी, मणि हरै विस ततकाल, परबत थिर चल वायरी जो, ऊरध अगननी झाल ॥ १८॥ सु०॥ मच्छ
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३१२ स्तवन-संग्रह। तुंब जलमां तिरै जो, बूडै काग पाहाण ॥ पंख जाति गयणे फिरे जो ॥ इण परै सहिज विनाण ॥ १६ ॥ सु०॥ वाय सुंडथी उपशमें जी, हरडे करै विरेच ॥ सोझै नही कण कांगडो जो ॥ सकल स्वभाव अनेक ॥ २०॥ सु० ॥ देस विशेष काठनो जी, भुंयमां थायै पाखाण ॥ संख अस्थि नो नीपजे जी, क्षेत्र स्वभाव प्रमाण ॥ २१॥ सु० रवि तातो शसी सीयलो जी, भव्यादिक बहु भाव ॥ छए द्रव्य आपायणा जी, न तजै कोइ सुभाव ॥ २२ ॥ सु०॥ ।। ढाल ॥ ३ ॥ कपूर हुवै अति उजलो रे ॥ ए देशी॥
काल किसं करै बापडो रे, वस्तु स्वभाव अकज्ज ॥ जो न होय भवितव्यता जी, तो किम सीजै कज्जा रे ॥ २३ ॥ प्रांणी म करो मन जंजाल, ए तो भावी भाव निहाल रे॥ प्रा०॥ ए आ करणी ॥ जलधि तरै जंगल फिरै जो, कोडि यतन करै कोय ॥ अणभावी होये नही जी, भावी होय
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.
..M.Phiva
अभय रत्तसार। ३१३ ते होय रे ॥ २४ ॥ प्रा०॥ आंच मोर वसंतमां जी, डाले केइ लाख ॥ खस्या केइ खांखटी जी, केइ आंबा केइ साख रे ॥ प्रा०॥ २५ ॥ वाउल जिम भव तव्यता जी, जिण जिण दिसे उजाय, परवस मन मानसतणो जी, तृण जिम पूठे धाय रे॥ प्रा० ॥ २६ ॥ नियत वसै पिण चितव्यं जी,
आवी मिले ततकाल ॥ वरसां सोनु चितव्यो जी नियत कर विसराल रे ॥ प्रा० ॥ २७ ॥ आठमो चक्री सुभूमिते जी, समुद्र पडयो विकराल ॥ ब्रह्मदत्त चक्री तणांजी, नयण हरै गोवाल रे॥ प्रा० ॥ २८ ॥ कोकूहा कोयल करै जी, किम रा. खीस रे प्रांण ॥ आहेड़ी सर ताकियो जी, ऊपर भमें सीचाण रे ॥ प्रा० ॥ २६ ॥ आहेडी नागे डस्यो जो, बांण लग्यो सींचाण ॥ कोकहो ऊडी गयो जी, कोउ नियत परमाण रे॥ प्रा०॥ ३०॥ शस्त्र हण्या संग्राममां जी, रात पड्या जीवंत ॥ मंदिरमाहे मानवी जी, राख्याहो न रहंत रे॥ प्रा० ॥ ३१ ॥
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३१४
स्तवन-संग्रह।
॥ ढाल ४ थी ॥ मारुर्ण मनोहरणी ॥ ए देशी ।।
काल स्वभाव नियत मति रूड़ी, करम करे ते थाय ॥ करमें नरय तिरिय नर सुर गति, जीव भवंतरै जाय ॥ ३२ ॥ चैतन चेतज्यो रे, करम न छुटै कोय ॥ ए आंकणी ॥ करमें राम वस्या वन वास, सीता पामी आल ॥ कर्म लंकापति रावण न राज्य थयों विसराल ॥ ३३ ॥ चे॥ कम कोड़ी कमें कुंजर ॥ कमें नर गुणवंत ॥ कमें रोग सोग दुख पीड़ित, जमन जायै विलसंत ॥ ३४॥ चे॥ कर्मे वरस लगे रिसहेसर, उदक न पामे अन्न ॥ कर्मे जिननें जोउ निमार, खीला रोप्या कन्न ॥३५॥ चे॥ कमें एक सखपाले बैसे, सेवक सैव पाय ॥ एक य गय चढ्या चतुरनर, एक आगल ऊजाय ॥ ३६॥ चे ॥ उद्यम मांनी अंधतणी पर, जग हीडै हाहूतो ।। कर्मवली ते लहै सकल फल, सुखभर सेजै सूतो ॥३७॥ चे०॥ अंदर एके कीधो उद्यम ॥ क. रंडीयो करकोले ॥ मांहे घणा दिवसनो भूखो,
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अभय रत्नसार । ३१५ नाग रह्यो डमडोले ॥३८॥०॥ विवर करी मूषक तसु मुखमां, दीये आपणं देह ॥ मार्ग लही वन नाग पधास्या, कर्म मर्म जोवो एह ॥ चे०॥ ॥ ढाल ५ मी ॥ तो चढियो धन मान गजै ॥ ए देशी ॥
हिव उद्यमवादी भणे ए, ए च्यारै असमच्छ तो ॥ सकल पदारथ साधवा ए, उद्यम एक समरत्त्थ तो ॥ ४० ॥ उद्यम करतां मानवी ए, स्यं नवि सीझै काज तो ॥ रामें रयणायर तणीं ए, लीधो लंका राज तो ॥ ४१॥ करम नियत ते अणुसरै ए, जेहमां सत्व न होय तो॥ देवल वाघ मुख पंखिया ए, पिउ पैसंता जोय तो॥४२॥ विन उद्यम कीम निकले ए, तिल मांहेथी तेल तो ॥ उद्यमथी उंची चढे ए, जोवो एकेंद्रिय वेल तो ॥ ४३ ॥ उद्यम करतां इक समें ए, जेह न सीम काज तो॥ ते फिर उद्यमथी हुवे ए, जो नवि आवे वाज तो॥४४॥ उद्यम करि ऊस्यां विना ए, नवि रंधायै अन्न तो॥ आवी न पडै
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३१६
स्तवन- संग्रह |
कोलियो ए, मुखमां क्षेपे जतन्न तो ॥ ४५ ॥ कम पूत उद्यम पिता ए, उद्यम कोधा कर्म तो ॥ उद्यमथी दूरे टलै ए, जोउ कर्म्मनो मर्म्म तो ॥ ४६ ॥ दृढप्रहार हत्या करी ए, कीधा पाप - रंभ तो ॥ उद्यमथो खट मासमां ए, आप थया अरिहंत तो ॥ ४७ ॥ टीपै २ सरवर भरै ए, कांकरे २ पाल तो ॥ गिर जेहवा गढ़ नीपजे ए. उद्यम सकल निहाल तो ॥ ४८ ॥ उद्यमथी जलबिंदुउ ए, करे पाहाणमां ठाम तो ॥ उद्यमथो विद्या भणे ए, उद्यम जोडे दांम तो ॥ ४६ ॥
॥ ढाल ।। ६ ।। ए छिडी किहां राखी || ए देशी ॥ ए पांचेही वाद करंतां, श्रीजिन चरणे आवै ॥ अमिय रसै जिन वयण सुखीनें, आणंद अंग न मावै रे ॥ ५० ॥ प्राणी समकित मति मन आणो ॥ नय एकांत म ताणो रे ॥ प्रा० ॥ ते मिथ्या मति जांगो रे ॥ प्रा० ॥ ए आंकणी ॥ ए पांचे समवाय मिल्यां विन, कोई काज न सी ॥
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अभय रत्नसार। ३१७ अंगुल जोगै कवल तणी पर, जे बूझ रे ॥प्रा०॥ ५१ ॥ आग्रह आणो कोइ एकने, एहमां दियै बड़ाई ॥ पिण सेना मिल सकल रणंगण, जीते सुभट लड़ाई रे॥ प्रा० ॥५२॥ तंतु स्वभावे पट उपजावै, काल क्रमें वणाई ॥ भवितव्यता होय ते नोपजे, नही तो विघन घणाई रे ॥प्रा०॥५३॥ तंतुवाय उद्यम भोक्तादिक, भाग्य सबल सहकारी ॥ ए पांचे मिल सकल पदारथ, उत्तपत जोवो विचारी रे ॥ प्रा० ५४ ॥ नियत वसे हलु कम थईने, निगोदथकी नीकलियो ॥ पुण्ये मनुज भवादिक पांमी, सदगुरुने जइ मिलियो रे ॥०॥ ५५ ॥ भवथितनो परपाक थयो तब, पंडित वीर्य उल्लसियो॥ भव्य स्वभावै शिवगति गांमी, शिवपुर जइनें वसियो रे ॥प्रा०॥ ५६ ॥ वद्धमान जिन इण पर वीनवै, शासन नायक गावो ॥ संघ सकल सुखदाई छेहथी, स्याद्वाद रस पावो रे ॥प्रा०॥ ५७॥
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३१८
যন
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स्तवन- संग्रह |
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॥ कलश ॥
इम धर्म नायक मुगति दायक, वीर जिनवर संधुरयो ॥ सय सतर संवत वह्नि लोचन, वर्ष हर्ष धरी घणो ॥ श्रीविजय देव सुरिंद पटधर, विजयप्रभ मुणिंद ए ॥ कीर्तिविजय वाचक सीस इा पर, विनय कहे आनंद ए ॥ ५८ ॥ || चउदह गुणठारणों का स्तवन ॥
॥ भणपुर श्रीपास जिणंदो || ए देशी ||
सुमति जिणंद सुमति दातार, वंदू मन सुध वारंवार, आणी भाव अपार ॥ चवदै गुण थानक सुविचार, कहिस्युं सूत्र अरथ मन धार, पांमे जिम भव पार ॥ १ ॥ प्रथम मिथ्यात को गुणठाणो, बीजो सास्वादन मन प्रणो, तीजो मिश्र वखाणं ॥ चोथो अविरत नांम कहाणो, देशविरति पंचम परमांगो, छट्टो प्रमत्त पिछाण ॥ २ ॥ अप्रमत्त सत्तम सलहीजे, अष्टम अपुरव करण कहीजै, अनित्ति नांम नवम्म ॥ सुखम
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अभय रत्नसार। २१६ लोभ दसम सुविचार, उपशांत मोह नाम इग्यार, खीणमोह बारम्म ॥३॥ तेरम सयोगी गणधांम, चवदम थयो अजोगी नाम, वरणप्रथम विचार कुगुरु कुदेव कुधर्म वखाणे, ए लक्षण मिथ्या गुणठाणे, तेहना पंच प्रकार ॥ ४॥
॥ ढाल ॥ २ ॥ सफल संप्सारनी ॥ ए देशी ॥ ॥जेह एकांतनय पक्ष थापी रहै. प्रथम एकांत मिथ्यामता ते कहै ॥ जैन शिव देव गुरु सहु नमै सारखा, तृतीय ते विनय मिथ्यामती पारिखा ॥ सूत्र नवि सरदहै रहै विकलप घणे, संसयी नाम मिथ्यात चाथो भणे ॥ ६॥ समझ नही काय निज धंद रातो रहै, एह अज्ञान मिथ्यात पंचम कहै। एह अनादि अनंत अभव्यनें, करिय अनादि थिति अंतसुभव्यने ॥ ७॥ जेम नर खीर घृत खंड जिमने वमें, सरस रस पाय वलि स्वाद केहवो गमें ॥ चौथ पंचम छठे ठाण चढ़ने पड़े, किणहि कषाय वस आय पहलै अडै ॥ ८॥ रहै
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३२०
स्तवन-संग्रह। विच एक समयादि षट आवली, सहीय सासादने थित इसी सांभली ॥ हिव इहां मिश्र गुणठाण तीजो कहै, जेह उत्कृष्ट अंतरमहुरत लहै ॥६॥
॥ ढाल ॥ ३ चे कर जोडी तांम ॥ ए देशी ॥
॥ पहिला च्यार काय, सम कर समकिती, कैती सादि मिथ्यामती ए । ए बेहिज लहे मिश्र, सत्य असत्य जिहां, सर दहणा बेऊ छती ए॥ १०॥ मिश्र गुणालय मांहि, मरण लहै नही,
आउ बंधनपड़े नवो ए॥कै तो लहै मिथ्यातकै समकित लहै, मति रसखी गति परभव ए ॥११॥ च्यार अप्रत्याख्यान, उदय करी लहै, मति विन किहां समकितपणो ए ॥ ले अविरत गुणठाण, तेत्रीस सागर, साधिक थिति एहनी भणी ए॥ १२ ॥ दया उपशम संवेग, निरवेद आसता, समकित गुण पांचै धरै ए॥ सहु जिन वचन प्रमाण, जिन शासन तणी, अधिक २ उन्नत करै ए ॥ १३ ॥ कोईक समकित पाय, पुदगल
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अभय रत्नसार ।
३२१
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अरधतां, उत्कृष्टा भवमें रहै ए ॥ केइएक भेदी गंठि, अंतरमहुरते चढ़ते गुण शिवपद लहै ए ॥ १४ ॥ च्यार कपाय प्रथम्म, त्रिण वलि माहनी, मिथ्या मिश्र सम्यक्तनी ए ॥ साते प्रकृति जास, परही उपशमें, ते उपशम समकित धरणी ए ॥ १५॥ जिस साते तय कीध, ते नर नायकी, तिपहिज भव शिव अनुसरे ए ॥ आगलि बांध्यो आऊ, ari fati थकी, तीजै चोथे भव तिरै ए ॥१६॥
|| ढाल || ४ || इस पुर कंबल कोइ न लेसी ॥ ए देशी ॥ पंचम देसविरति गणठाण, प्रगटै चोकड़ी प्रत्याख्यान ॥ जेण तजेवा वीस अभक्त, पांम्यो श्रावको प्रत्यक्ष ॥ १७ ॥ गुण इकवीस तिके पिधारे, साचा वारै व्रत संभारे ॥ पूजादिक पट कारज सार्धं, इग्यारे प्रतिमा आराधे ॥ १८ ॥ आर्त्त रौद्र ध्यान है मंद, आयो मध्य धरम आणंद | आठ वरस ऊणी पुव्वकोड़, पंचम गुणठाणे थित जोड़ ॥ १६ ॥ हिव आगे साते
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३२२ स्तवन-संग्रह। गुणयान, इक २ अंतरमहुरत मांन ॥पंच प्रमाद वसै जिण ठाम, तेण प्रमत्त छठो गुणधांम ॥२०॥ थिवरकलप जिनकलप आचार, साधै षट् आवश्यक सार ॥ उद्यत चोथा च्यार कषाय, तेण प्रमत्त गुणठांण कहाय ॥ २१॥ रूधो राखै चित्त समाध, धरम ध्यान एकांत आराधै ॥ जिहां प्रमाद क्रिया विध नासै, अपरमत्त सत्तम गुण भासै ॥ २२॥ ॥ ढाल ॥ ५ नदी यमुनाके तीर उडै दोय पंख्यिा ॥ए देशी ।।
पहिले अंसे अष्टम गणठाणातणे, आरंभे दोय श्रेण संख्येपै ते गणे॥ उपशम श्रेणि चढे जे नर हुवै उपशमी, क्षपकश्रेणि क्षायक प्रकृति दस क्षय गमी ॥ २३ ॥ तिहां चढ़ता परिणाम अपूरख गुण लहै, अष्टम नाम अपूरव करण तिणें कहै । सुकल ध्यांननो पहिलो पायो आदरै, निर मल मन परिणाम अडिम ध्याने धरै ॥ २४ ॥ हिव अनिवृत्त करण नवमो गुण जांणियै, जिहां
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अभय रत्नसार। ३२३ भाव थिररूप निवृत्ति न जांणियै ॥ क्रोध मांन ने माया संजलणा हणे, उदै नही जिहां वेद अवेदपणो तिणें ॥ २५ ॥ जिहां रहै सुखम लोभ कांद्रक शिव अभिलखै, ते सूखम संपराय दसम पंडित अखे ॥ संत मोह इण नांम इग्यारम गुण कहै, मोह प्रकृति जिण ठांम सहू उपशम लहै ॥ २६ ॥ श्रेणि चढयो जो काल करै किणही पर, तो थायै अहमिंद्र अवर गति नादरै ॥ च्यार वार समश्रेणि करै संसारमें, एक भवे दोय श्रेण अधिक न हुवे किमें ॥ २७॥ चढि इग्यारम सीम समीप पहिले पड़े, मोह उदय उत्कृष्ट अरध पुदगल रडै ॥ आपकश्रेणि इग्यारम गुणठाणो नही, दशमथकी बारम्म चढे ध्यांने रही ॥२८॥ ॥ ढाल ।। ६ ॥ एक दिन कोइ मागध आयो पुरंदर पास ॥ ए देशी ॥ ___खीणमोह नामे गुणठाणो बारस जाण, मोह खपायो नेडो आयो केवलज्ञान ॥ प्रगटपणे जिहां चरित अमल यथा आख्यात, हिव आगे
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३२४ स्तवन-संग्रह। तेरम गुमाथांन तणी कहै वात ॥ २६ ॥ घातीय चोकडी क्षय गई रहोय अघातीय एम, प्रकृति पिच्यासी जेहने जना कप्पड जेम॥दरसण ज्ञान वीरज सुख चारित पंच अनंत, केवलज्ञान प्रगट थयो विचरै श्रीभगवंत ॥ ३० ॥ देखे लोक अलोकनी छानी परगट वात, महिमावंत अढारै दोषण रहित विख्यात । आठ वरसे ऊणी कही इक पूरवकोडि, उत्कृष्ट तेरम गुणठाणे ए थिति जोड़ि ॥ ३१ ॥ कर सेलेसी करण निरूध्या मन वच काय, तेण अयोगी अंत समय सहु प्रकृति खपाय ॥ पांचे लघु अक्षर ऊचरता जेहनो मान, पंचम गति पांमें सिवपद चउदम गुणथान ॥३२॥ त्रीजे बारमें तेरमें मांहे न मरै कोय, पहिलो बीजो चोथो परभव साथे होय ॥ नारक देवनी गति माहे लाभ पहिला च्यार, धुरला पांच तिरी माहे मण ए सर्व विचार ॥ ३३ ॥
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अभय रत्नसार ।
३२५
॥ कलश ॥
इम नगर वाहड मे मंडण, सुमति जिन सुपसाउलै ॥ गुणठास चवद विचार वरण्यो, भेद आगमने भलै ॥ संवत सतरे से छत्तीस, श्रावण वदि एकादशी | वाचक विजय श्री हरप सानिध, कह मुनि इम धमसी ॥ ३४ ॥
|| नव तत्र भाषा - गर्भित स्तवन ॥
दूहा हा ॥ नमस्कार अरिहंतने सिद्ध सुरि उवझाय ॥ साधु सकल प्रणमी करी, प्रणमी श्रीगुरुपाय ॥ १ ॥ करस्युं हूं नव तत्वनी, गाथा भासा रूप || मंद बुद्धि गुरु सानिधै, कहिस्युं सुगम सरूप ॥ २ ॥
॥ ढाल १ ॥ सूरती महीनानी ॥ ए देशी || जीव अजीवें पुण्य पाप तिम आश्रव सोय, संवर निज्जर बंध मोक्ष ए नव तत होय ॥ चवद २ बायाल बयासी वलि बायाल, सत्तावन बारे चौ नव क्रम भेदनी माल ॥ १ ॥ इग दुति
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३२६
स्तवन- संग्रह |
चौवह विह छविह जीव कहाय, चेतन त्रस थावर वेदै गई करणे काय ॥ एगेंदी सुखम बा - दर ए दोय जिय ठाण, सन्नि सन्नी परिणदी बीति चोरिंद्री आण ॥ २ ॥ ए सग पज्झत्ता - पजता चवदै होय, अनुक्रम जीव ठाण ए सूत्र प्ररूपा सोय ॥ नाग दंसण चारित वीरज तप तिम उपयोग, ए षड लक्षण लक्षित जीव द्रव्य इह लोग ॥ ३ ॥ इग आहार सरीर इंदिय पजत्ती तीन, सासोसास भाषा मन षड ए अनुक्रम लीन ॥ च्यार एगेंदी पंच पजती विगलें जोय ॥ पंच सन्नि सन्नितें पड पज्झत्ती होय ॥ ४ ॥ इन्द्रिय पांच उसास आऊ बल ए दस प्रारण, च्यार छ सात आठ एगिंदी विगलें जाण,
सन्नि सन्नि पंचेंद्री नें नव दस क्रम थाय, प्रा साथी जेवि प्रयोग जिय मरण कहाय ॥ ५ ॥ धम्माधम्म आगास तीनंना त्रिण २ भेद, काल दसम इग आगास पुग्गल च्यार विच्छेद ॥ खंधा
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अभय रत्नसार।
३२७
देस पएस परमाणू चवद अजीव, धम्माधम्म पु ग्गल नभ काल ए पांच न जीव ॥६॥ चलण सहाई धम्में थिर संठाण अधम्म, अवगाह पूरण गलणे नभ पुग्गल धम्म ॥ समयावलिय महत्त दोह पख मास में साल पल्योपम सागर उसप्पणी सप्पणी काल ॥ ७॥ षड इग दो सग सग सग षड़ इग अंक गिणाय, एग मुहुत्तें आवलि संख्या सूत्र कहाय ॥ तीन सात वलि सात तीन ऊसासें माण, केवलनाणो भणियो एह महत्त प्रमाण ॥ ८ ॥ साता उच्च गोय मण सुर हुग पंचिंदि जाय, पांच शरीर आदि प्रति सरीर उवंग कहाय ॥ आदि संघेण संठाण चौवणे अगुरु लहु होय, परघ उसास तेम वलिआ तप ने उज्जोय ॥६॥ सुभखगइ निम्माणत सादि दशु नीमाल, सुर नर तिरि आऊ तित्थंकर पुण्य वयाल ॥ त स बादर पज्जत पतेय थिरं सुभ सोय ॥ सुभग सुसर आइज जसैं स दसको होय ॥१०॥
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३२८ स्तवन-संग्रह। नाणंतराय दस कनव बीजा नीचअसाय, मित्थ थावर दशनादग त्रिक पचवीस कसाय ॥ तिरियंच दुग एकेंद्री बि ति चोरिंद्री तेय, कूखगई उपधा अपसत्तथ वण्ण चौ भेयं ॥११॥ पढम संघयण विना संघेणा तेम संठाण, एम बयासी प्रकृति पाप ततनी ए जाण ॥ थावर सुहम अपज्ज साहा रण अथिरै गेय, असुभ दुभग दू सरणा इज्ज अजस दस लेय ॥ १२॥ पण चौ पण तिय इंदी कसाय अव्वय तिम जोग बायालीस सेष पच्चीस क्रिया संजोग ॥ काइय अहिगरणीया पावसिया परिताप, प्राणातिपात आरंभकी परिगहियानो तोप ॥ १३॥ माया प्रत्यय मिच्छादेसण वत्ती तेम, अपञ्चखाणकी दिठ पुठ पाडुच्चिय जेम ॥ सामंतो पनवणिय ने सस्थि सहत्थै जेह, आज्ञापनको वेयारण अणभोगा तेह ॥ १४ ॥ अणव कंख पञ्चयना उवउगी समुदाय, प्रेम द्वष इरियावही किरिया ए कहिवाय ॥ सुसति गुपति परि
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अभय रत्नसार। ३२६ सहज इ धम्म भावण चारित्त, पणतिग बावीस दस बारै पण संवर तत्त ॥ १५ ॥ इरिया भाषा एषणा सुमतीना भेद होय, आदान भंड उच्चार निस्केवण पांचे ज़ोय ॥ मनगुत्ती वयगुत्ती कायगुत्तो त्रिण जांण, हिव आगे बावोस परिसह कहूं हित आण ॥ १६ ॥ भूख पिपासा सीत उसन डांसा निरवत्थ, अरति जोषा चरिआ नैषिद्या सिज्जा सत्त ॥ अकोसवहजायण अलाभ रोग त्रिण भास, मल सकार यन्ना अन्नाण समत्त समास ॥ १७ ॥ खंति मद्दव अज्झव मुत्ती तव संजम सम्म, सत्यं शौच अकिंचन बंभचेरज इ धम्म ॥ पढम अनित्य असरण संसार एग अनत्त, अशुचि आश्रव संवर निझर भवि भावो नित्त ॥ १८ ॥ लोक सुभाव बोध दुरलभ इग्यारम गाम, धरम साधक अरिहंत ए बारै भावना भाव ॥ सापायक छेदोपस्थापन बीजो सोय, परिहार विशुद्ध सूखम संपराय चउत्थो जोय १६
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स्तवन-संग्रह।
तिम अहक्खाय चरित्त सरब जिय लोग प्रसिद्ध, जेह सुविधि आचरण के जिय पांम्या सिद्ध ॥ बारें विध निज र तत्व बंधना च्यार प्रकार, प्रकृति ठिई अनुभाग प्रदेश भेदें निरधार ॥ २०॥ अणसण उणोदर वृत्ति संखप रसनो त्याग, का य कलेस सल्लीनता बाहिर तप षड़ भाग ॥ पाय च्छित विनय वेयावच्च तेम सिज्झाय, ध्यान काउसग अभ्यंतर तप षड़ विध थाय ॥ २१॥प्र. कृति सुभाव काल अवधारण थित निरवंच, अनु भागै रस तेम प्रसेदे दलनो संच ॥ पट प्रतिहार धार तरवार मद्य वलि तेम, निगड चित्र कर कंभकार भंडारी जेम ॥२२॥ अनुक्रम आठ नामना भाष्या जे जे भाव; तिम ज्ञानावरणादिक अड़ना एह सभाव ॥ इम संसेपे विवरण कोना आधे तत, प्रस्तावै पांम्यो वरण वस्युं हिव मोख तत्त ॥ २३ ॥ संत पदै परूपण द्रव्य ने क्षेत्र प्रमाण, फरसन काल पांचमो छठो अंतर जाण ॥
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अभय रत्नसार।
भाग सातमो भाव आठ तिम अलप बहुत्त ।। ए नव भेदें भावन कस्युं नवमो तत्त ॥ २४ ॥ मोक्ष एक पदवी छै जे पदे अविनाभाव, व्योम कुसुम तिम ससिक शृंग जिम नहीय अभाव ॥ एहवो जे पद मोक्ष तेहनो मग्गण द्वार, विवरण कर वरणवस्युं सुणज्यो सुहुम विचार ॥ २५ ॥ संमत्तै क्षायक सन्नी असन्नी येसन्नी, अणहारी आहारी अणहारी ऊपन्न द्रव्य प्रमाणे सिद्ध जीव ॥ द्रव्य होय अनंत, लोग असंखम भाग एग सिद्ध होय अणंत ॥ २६ ॥ फरसन क्षेत्रथी अधिक काल इग सिद्ध प्रतीत, सादि अनंती थित जिन आगमथी सुविदीत ॥ प्रतिपातां भावै नहि सिद्धां अंतर जोय, सरव जीवथी भाग अनंतम सह सिद्ध होय ॥ २७ ॥ दंशण नाण जेहने बे ते क्षायक भाव, जीवत जेहने वलि परणामकं भाव समाव ॥ सहुथी थोड़ा वेद नपुसकथी जे सिद्ध, तेहथी थीनर अनुक्रम संख
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३३२
स्तवन- संग्रह |
गुणा सुप्रसिद्ध ॥ २८ ॥ जे जाणे जीवादिक नव तत्त तस सम्मत्तं, अरणजागंताने हुय जे सरधा नेरत ॥ सरव जिनेसर मुखथी भाष्या वयण ज हत्थ, ए बुद्धी जेहने मन संमत निञ्चल तत्थ ॥ २६ ॥ अंतरमहुरत एग मात्र फरस्यो सम्मत, अर्द्ध पुग्गल परियह नियम संसार निमित्त ॥ उसप्पणिय अते इग पुग्गल परियह, अनंत अतीत अनागत तद्गुण वयण प्रगट्ट ॥ ३० ॥ इम नव तत्त भेद पड़िभेदै विवरण कींध, श्रावक आग्रह कीन सहाय पूरण रस पीघ ॥ कोटिक गण सुभ सदन प्रकास नदी उपमांन, श्रीजिनलाभचंद कुल पूनमचंद समान ॥ ३१ ॥ अज्ञानादक करिवर सिंहे वयरी साख, रत्नराजमुनि ते वड़ साखानी पड़िसाख ॥ ग्यानसार ते पड़िसाखानी सूखम डाल, एनव पद नव रयणे बिनाणें गंथी माल ॥ ३२ ॥ संवच्छर निश्चय नय विगई प्रवचन माय, परम सिद्धि पद वाम गतें
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अभय रत्नसार । ३३३ ए अंक गिणाय ॥ माघ किसन ससि वार मेरू तिथ परन कीध, च्यार कथा तजि तत्वकथा भज नर फल लीध ॥३३॥ इति नवतत्व भाषा-गर्भित स्तवनम् ॥
॥ दंडक भाषा-गर्भित स्तवन । दोहा ॥ ऋषभादिक चोवीस नमि, तेहनो सूत्र विचार ॥ दंडक रचनायें तवं, संखेपे निरधार ॥ १॥ नरक सात दंडक प्रथम, असुरा नाग सुवन्न ॥ विज्जु अगन दीवो दही, दिसि पवणे थणियन्न ॥ २॥ पुढवी आउ तेउ वलि, वाउ वणस्सइ काय ॥ बी ति चौरिंदी गब्भधर, तिरि नर तिहां मिलाय ॥ ३॥ व्यंतर जोइस वेमाणि या, ए दंडक चोवीस । एहना द्वार कहू हिव, गणनाये ते वीस ॥ ४॥
- ॥ ढाल ॥ १ ॥ वीर निणेसरनी ।। ए देशी ॥
सरीर उगाहण संघयणेसणा संठांण, कोहा ई लेसिदिय दो समुग्धाय प्रमाण ॥ दिट्ठी दसण
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३३४
स्तवन- संग्रह |
नाण जोग तिम वलि उपयोग, उपपात वलि चवण ठिई पज्जत्ति प्रयोग ॥ १ ॥ केदिसिनो आ हार सन्नि गई आगयवेय, दार गाहा दुगनो ए अरथ को संक्षेव ॥ हिव तेवीस दारनो रहिस समय अनुसार, अलप रुची हुं तेहथी कहिसुं अलप विचार ॥ २॥
॥ ढाल ॥ २ री ॥ देशी सूरती महीनानी ॥ ए देशी ॥ चौ गव्भय तिरि वाऊ कायें च्यार सरीर. मनुष्य से पांच दंडक इगवीस रह्या ति सरीर ॥ थावर व्यारनें जघन्य उक्कोसे देह प्रमाण, भाग असंख्यात इग अंगुलनो परिमाण ॥ १ ॥ सरवनो जघन्य स्वभावक अंगुल भाग संख्यात, उक्कोसे पण धनु सागरने विज्ञात ॥ सुरनो सात हाथ गव्भय तिरि वणस्य काय, जोयण
सहस साधक इक सहस अनुक्रम थाय ॥ २ ॥ नर तेइ दि तिगाउ बेइदी जोयण बार, एग जो यण चउरेंद्री देह उंचे आकार ॥ आरंभ कालै
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अभय रत्नसार। ३३५ वैक्रिय देहनो ए परिमाण, भाग एक इग आंगुलनो संख्यातम जाण ॥ ३॥ सुर नरनें साधिक इक लाख जोयण इक लाख, नवस जोयण तिरयंचने ए सूत्र साख ॥ साभावकथा दुगणो नारक वैक्रिय काय, एक महरत नारय नर तिरि च्यार कहाय ॥ ४ ॥ सुरने पक्ष एक उकोसविउव्वण काल, विगल संघयणी थावर सुर नारकनी माल !! गब्भय तिर तिरने षड़ विगलने छेवठ एक, सरव जीवनें च्यार दसेसण्णाये लेष ॥ ५ ॥ नर तिरने षड़ सुरने समचौरंस संठाण, हुंडग इग नारग विगलेंद्री सूत्र प्रमाण, नाणाविह धय सूई मरूरनो चंद्र आकार, वणसइ वाऊ तेऊभू वुदवुद अप्पाकार ॥ ६॥ सहूने च्यार कसाय गब्भय षड़ नर तिरि दोय वेमाणिय नागर तेउ वाउ विगल त्रिक होय | जोयसि तेऊ लेसा सेस रह्याने च्यार, दार इंद्रियनो सुगम तेहनो स्युं विसतार ॥ ७॥ समुदघात सग नरने पण
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३३६ स्तवन-संग्रह। गन्भय तिरि देव, नरग वायुनें च्यार सेसने तीनं भेव ॥ दिट्टी दोय विगलमें थावरने मिथ्यात, सेसने तीन दिट्ठी जिम प्रवचनमें विक्षात ॥८॥ थावर वितिनें एक अचक्ख दसण होय, चौरिद्री ते चक्षु अचक्खु दसण होय ॥ मनुजने च्यार सेस दडगमें दसण तीन, नाण अनाण तीन सुर तिर नारगनें लीन ॥ ६ ॥ थावर दोय अनारण विगल दो नाण अनाण, गन्भय मण ने तीन अनाणनें पांचू नाण ॥ सुर नारग एकादस तिरनें तेरै जोग, मनुजने परै च्यार विगलने जोग प्रयोग ॥ १० ॥ वाऊकायनें पांच तीन थावर संयोग, मनुजने बार नगर तिरदेवनें नव उपयोग ॥ विगल दुगै पण षड़ चौरिंद्री थावर तीन, उववाय इग चवण दार दोनं समकीत ॥ ११॥ एग समै संख्यात असंख्या चवण पपात, गव्भय विकलेंद्री नायर सुरनी ख्यात ॥ मणा अथावर वणस्सइ
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अभय रत्नसार। ३३७ संख संख अणंत, मणुज असन्नी असंख चवंत तेम उपजंत ॥ १२ ॥ बावीस सात दीन दस व रस सहस उकिठ, वसणई च्यारने तीन दिवसे तेऊने जिठ ॥ नर तिर तीन पल्य सुर नागर अयर तेतोस, व्यंतर पल्य अधिक लख वरष पल्य जोइस ॥ १३ ॥ असुरादिक दसने इक सागर अधिको आय, देसें ऊरणा दोय पल्यनो नवेय निकाय ॥ विगलने वार वरस गुणचास दिवस छम्मास ॥ अंतमुहुत्तजहन्ने पुढवाई दस रास ॥ १४ ॥ भुवनपती नारग ब्यंतर दस वरस हजार, पल्य तेना अडंस वेमाणिय जोइस धार, सुर नर तिरि नारगनें षट थावरने च्यार ॥ विग लने पंच पज्जत्ती.ए अधरम दार ॥ १५॥ सरब जीवने होय छए दिवसनो ओहार । होय न हो य पंचादिक दिस ए सब मझार, दीह कालकी चौविह सुर नागर तिरयंच ॥ विगलने हेउ पणसा सन्नि रहित थिर पंच ॥ १६॥ गब्भय म
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३३८. स्तवन-संग्रह। णजने दीह कालकी सन्ना होय, केइक आचारज कहे दिठिवाय थी दोय ॥ निच्चय पज्जत्ता पंचिंदि तिरि नर जेह, चौविह देवां माहे आवी ऊपजै तेह ॥ १७॥ संखाउपज्जत पंचेंदी तिरि नर तेम, पज्जत्ता भू दग पत्तेय वणस्सई जेम ॥ ए सबरमें निश्चै सुरनी आगयि हुंति, पज्जत संख गब्भय तिरि नर सब नरके जंत ॥ १८ ॥ नरक उद वरत्या नर तिर उपजै न हुवे सेस, भू अप्प वणस्सइमें नरग विण उपजै असेस ।। पुढवाई दस पयमें भू आऊ वणजंति, पुढवाई दस पयमें तेउ वाऊ उवजंत ॥ १६ ॥ तेउ वाऊ नो गमण पुढवी पद नवमें हुत, पुढवाई दस पदमें विगल जावंत आवंत ॥ सहुमें तिर गति
आगति मणुआ सहुमें जाय, तेउ वाऊथी मरीने जीव मनुज नवि थाय ॥ २० ॥ श्रीपुरसै चाविह सुर तिरि नर तीन वेद, थावर विगल नारकने एक नपुंसक भेद ॥ पजता मण बादर अगन
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अभय रत्नसार ।
३३६
माणिक तेम भवण नरग व्यंतर जोइस चौपगा तिरि, एम ॥ २१ ॥ बेइन्द्री तेइन्द्री पृथवीने अपकाय, वायु वणस्सइ अधिक अनुक्रम करि कहिबाय ॥ हे जिन ए सहु भावमें पांम्या वार अनंत, तेहन अनुक्रम गितां किमही न आवै अंत ॥ २२ ॥ नर सुर विन सहु दंडगमें ते गति संयोग, लाधो नहीं तुह दंसण कीनो कम्म प्रयोग ॥ सुरमें पिण दंसण लहि विरतन पांमी मूल, ते सुर जात सहावे देसविरत प्रतिकूल ॥ २३ ॥ आरजदेश आरजकुल शुद्ध सुगुरु उपदेश, तेहथी तुह दरसणनो किंचित पांम्यो लेस ॥ धारक तारक कारक वारक दंशण देव, आतम गुण सं सार समत्त कम्म सयमेव ॥ २४ ॥ खरतर गच्छ भट्टारक श्रीजिनलाभ सुरिंद, रत्नराजमुनि सीस तेना पद अरविंद ॥ रज मकरंदे लीनो ग्यानसार तसु सीस, तेण तव्या तेवीस दार दंडग चोवीस ॥ २५ ॥ संवत ससि रस वारण तेम
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स्तवन-संग्रह।
चंद निरधार, पोस मास पख उज्जल सातमने सोमवार ॥ श्रावक आग्रहथी ए कीनो अलप विचार, अट्ठम चौमासो कर जैपुर नगर मझार ॥ २६ ॥ इति श्री चौवीस-दंडक स्तवनम् ॥
॥जीवविचार भाषा-गर्भित स्तवन ॥ .
॥ दुहा ॥ भुवन प्रदीपक वीर नमि, किंचित् जीव सरूप ॥ कहस्युं पूर्वाचार्य जिम, बालबोध गुरुरूप ॥ १॥
॥ ढाल १ ली ॥ देशी सुरती महीनानी ॥ ए देशी ॥ .
एक मुगति बीजा संसारी जीवः दुः भेद, सत्ता भिनै सिद्ध अनंत रूप अभेद ॥ संसारी थावर इग तिम त्रस दोय प्रकार, भु अप बाउ तेउ वणस्सइ थावर धार ॥१॥ फिटक रयण मणि विद्रुम हिंगुल वलि हरियाल, मनसिल पारो सुवरण आदि धातुनी माल ॥ सेढी वन्नी अरणेटो पालेको पाषाण ॥ भोडल तूरी उस भूमि पाहण जे खाण ॥ २ ॥ सुरमो लूण जात ए पुढवी काय
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अभय रत्नसार। ३४१ विछेद ॥भूमि आकास उस हिम करग आऊना भेद, हरित घास ऊपर जे जलकण धू अर तेम ॥ होय घणो दधि अप्पकाय पिण पाहण जेम ॥३॥ अंगारा झाला भोभर तिम उलकापात, असणि कणग विद्यु तादिक अगनि जीव विक्षात उभामग उक्वलिका मंडल वलि मुख वात, सुद्ध गंज तिम घण तण वाऊ भेदें क्षात ॥४॥ साधारण पत्तेय वरणस्सई जीव दु भेय, एग सरीर अनंत जीव साधारण नेय ॥ कंदा अंकुर कुंपल फूलण वलि जंबाल, भूफोड़ा अद्दत्तिय सरवे जे फल वाल ॥ ५ ॥ गाजर मोथ वाथलो थेग पालंको साग, गुपत सिरा सांधा गांछो भांजे सम भाग॥ काटी डाल भूमिमें रोप्यां पल्लव थाय, जाल पान इत्यादिक साधारण वणकाय ॥ ६॥ एग सरी रे. एक जीव ज ते प्रत्येक, फल छाल फल मूल काठ बीजै जिय एक ॥ वण पत्तेय विना जे पांचे पुढवीकाय, सयल लोगमें व्यापक
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स्तवन-संग्रह।
अंतमु हुत्तै आय ॥ ७॥ सूखमथी ते नियमा दिठी निजर न होय, लोका लोक प्रकास थकी वलि अलप न कोय ॥ कवडी संख गंडोला लहिगा लटनी जात, चंदन काअलसी मेहर जोका विक्षात ॥ ८॥ माय बाहाक्रम पौरादिक बेइन्द्री होय, गोमो मांकिण जूश्रा कीडा कीडी दोय ॥ दीपक ईली घीवेली गोगीडा जात, चरम जूका गादहिया गोवर कृम उतपात ॥६॥ धनकीडा जिम चोरकोड़ा गोवालो तेह, ईली कंथुक इन्द्रगोप तेइंद्री एह ॥ वीछू ढंकरण भमरा भमरी इन्द्री च्यार, तीड़ा माखी डांस मच्छर कंसारी धार ॥ १०॥ कवडडोला मांकड़िय पतंग इत्यादिक भेद, नारक तिरि मणु देव पंचेंद्री च्यार विच्छेद ॥ धम्मा वंसा सेला अंज रिठा क्षात, मघा माघवई नारग ए नामे सात ॥ ११॥ जल चारो थलचारी नभचारी तिरयंच, मच्छ कच्छ सुसमार मगर गाहा जल अंच ॥ चौपय उरपरी
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अभय रत्नसार। ३४३ भुजपरी साप भु चारी लेय, तिविहा गाय साप तिम नकुल अनुक्रम देय ॥ १२॥ खेचर चरम रोम पंखी चमचेड़ कपोत, मनुजलोकथी बाहिर समुग विगय पंख होत ॥ सरबे जल थल खेचर समुब्छम गम्भय दोय, कम्म अकम्म भूमि अं तर दीवा मण जोय ॥ १३ ॥ असुरादिक दस होय वाण व्यंतरिया अद्ध, जोइस पंच वेमाणिय दुविहासु तें दिध ॥ पनरे भेदे सिद्ध कह्या ए जीव प्रकार, तनु मानादिक हिव एहनो कहिसुं अधिकार ॥ १४ ॥ देह आउखो एक सरीरे थितनो मांन, प्रांण जेहने जेता तिम वलि योन प्र माण अंगुल भाग असंख सह एगिंदी काय, जोयण सहस साधिक पत्तय वणस्सई काय १५ बो ति चउरेंद्री अनुक्रम उकिठदेह ऊंचास, बारै जोयण तीन गाउ इग जोयण भास ।। सत्तमना नेरइया धण सय पंच प्रमाण, तेहथी अरध २ ऊणा अनुक्रम रयणाण ॥ १६ ॥ जोयण सहस
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स्तवन -संग्रह |
गब्भधर मच्छ उरगनो देह, गाउ धणु पुहत्त भूचारी पंखी जेह खेचर नव घरण उरंग भुयंग जोयण नव होय, नव गाऊ परिमाण समुच्छम चौपय सोय ॥ १७ ॥ खड़ गाउ ऊंचास चउप्प य गब्भय मांण, तीन कोस उक्कोस मनुजनो काय प्रमांण ॥ भुवन व्यंतर जोइस बेमाणिय ईसागंत, सात हाथ उक्कोसे ऊंचपणे तण हुंत ॥ १८ ॥ सनतकुमार माहेंद्र षड़ ब्रह्म लांतक पांच शुक्र सहस्रारे उक्कोस च्यार कर वांच ॥ आणत प्राणत आरत अच्युत हाथें तीन, नवग्रैवेयक दोय पंचाण तरइग लीन ॥ १६ ॥ बावीस सात तीन दस वरस सहस्सें आय भू आऊबाऊ व
ती दिन ऊकाय ॥ बार वरस गुणचास दिवस तिम वलि छम्मास, अनुक्रम बेइद्री तेइ द्री चौरिंद्री रास ॥ २० ॥ सुर नागर तेतीस अयर उक्कोसें चाय, चोपय तिरिय मनुजनों तीन पल्योपम थाय ॥ जलचर उरपर भुजपर उक्कासे
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अभय रत्नसार ।
३४५
पुव्वकोडि, पंखीने इग भाग असंख्य पल्यनो
जोड़ ॥ २९ ॥ सरब सूखम साधारण समुच्छम मणुं जह, जहन्न उक्कोसें अंतमुहुत्त नियम थिति तेह, इम उगाहरण आख्यो संखे अधिकार, जे बलि इत्थ विसेस २ सूत्र धार ॥ २२ ॥ असंख्य उसपिणी सह एगिंद्री आपणी काय, उपजै aa अनंत साधारण वरणस्सई काय ॥ संख्याता संच्छर विगल आपणी देह, सात आठ भव पंचेद्री तिरि मा जेह || २३ || नारकथी उद वरती जीव नरक नवि जाय, देव चवीने ते वलि देवपण नवि थाय ॥ इन्द्रीय सासोसास आउ बल ए. दस प्रारण, च्यार छ सात आठ इग दुति चौरिद्रोय जाण ॥ २४ ॥ सन्नि सन्नि पंचंद्री दस नव अनुक्रम जोय, प्राणथकी जेवि प्रयोग जिय मरणें होय ॥ भीम सायर संसार अपार अनंती वार, भमियो जीव धरम विन जोण - सोने च्यार ॥ २५ ॥ सग सग संग सग दस
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स्तवन -संग्रह |
चबदे दो दो दो लाख, च्यार च्यार तिम च्यार चवद लख सूत्रे साख ॥ भू आप तेउ वाऊ वरण पत्तेय साधारण, बिति चौपण तिरि नारग सुर नर अनुक्रम धार ॥ २६ ॥ काय न आय न पारण न जोगी कुल नही जात, सादि अनंत भंग जिन आगम थित विज्ञात ॥ रोग न सोग न भोग जोग नही नारी लिंग, नहीय नपुंसक पुरसतणा नही अंग- उपांग ॥ २७ ॥ नाग दरस चारित वीरज ए च्यार अनंत, सिद्ध थया तेहथी सिद्धातै सिद्ध कहंत ॥ इम ए जीवविचार गाथाथी माषारूप श्रावक, आग्रहथी में कीनो सुगम सुगम सरूप ॥ २८ ॥ खरतर गच्छ भट्टारक श्रीजिनलाभ सूरीस, रत्नराज गणि ग्यानसार मुनि सीस जगीस ॥ संवत ससि रस वारण ससिहर धर सिरधार, माघ चोथ दिन कानो जैपुर नगर मभार ॥ २६ ॥ इति श्री जीवविचार-स्तवन संपूर्णम् ॥
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अभय रत्नसार।
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॥ समवसरण-विचार-गर्भित स्तवन ।
॥हा॥ श्रीजिनशासन सेहरो, जगगुरु पास जिणंद ॥ प्रणमी जेहना पाय कमल, आवी चो सठ इंद ॥ १॥ तीर्थंकर आवे तिहां, त्रिगडो करै तइयार ॥ समकित करणी साचवै, एह कहू अधिकार ॥ २ ॥ करै प्रशंसा समकिती, मिथ्यात्वो होवे मूक ॥ सूर्य देख हरखे सह, जिम अंधारे घूक ॥ ३॥ ॥ ढाल ॥ १॥ वीर वखाणी राणी चेलणा ॥ ए देशी॥
आप अरिहंत भलै आविया जी, गावै अपछरह गंधर्व ॥ समवसरण रचै सुरवराजी, संखेपे ते क सर्वे ॥ 2 ॥ श्रा०॥ भुवनपति वीस इंद्र मिल्याजी, सोलह व्यंतर सार ॥ जोइस दु दस वेमाणिय जुड्या जी, चौसठ इन्द्र सुविचार ॥५॥ आ०॥ पवन सुर पंज परमारजै जी, भूमि योजन सम भाउ ॥ मेघकुमर रचै मेघने जी, करिय सुगंध छिड़काव ॥ ६ ॥०॥ अ
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स्तवन-संग्रह |
गर कपूर सुभ धूपणा जी, करय श्री अगनकुमार वारण व्यंतर हिव वेगसू जी, रचय मणि पीठका सार ॥ ७ ॥ ० ॥ पुहप पंच वरण उरध मुखै जो, वरषए जारण प्रमाण ॥ भवणवइ देव त्रिगडो भलो जी, करय ते सुखउ सुजांण ॥ ० ॥८॥ रचय गढ़ प्रथम रूपातणोजी, सोवन कांगरे सार | रवि-ससि श्यण कोसीसकोजी, कनकनो वोच प्रकार ॥ ० ॥ ६ ॥ रतनगढ रतनने कांगरे जी, रचय वैमाणि सुरराज ॥ भलो त्रीजो गढ भीतरे जी, जिहां विराजै जिनराज ॥ श्र० भींत उंची धणुं पांचसे जी, सवातीस विसतार ॥ धनुषसे तेर गढ प्रांतरी जी, प्रौल पचास धरण च्यार ॥ ० ॥ ११ ॥ दस पंच २ त्रिहुं गढ तो जी, पावडी वीस हजार ॥ थाक श्रम नहि चढतां थकां जी, एक कर उच्च विस्तार ॥ आ० ॥ १२ ॥ पंच धण सहस पृथ्वी थकी जी, उच्च रहे त्रिगढ़ आकास | तेह तल सह यथा
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अभय रत्नसार ।
३४६
स्थित वसै जी, नगर आराम आवास ॥ श्र० ॥ १३ ॥ तोरण चिह्न २ दिस तिहां जी, नीलमणि मोर निरमाण || दुसय धणु मध्य मणि पीठका जी, उच्च जिण देह परिमाण ॥ ० ॥ १४॥ च्यार आसण तिहां चिहुं दिसे जी, मोतीयें काक- कमाल ॥ सम विच कृण ईसारण में जी, देवच्छंदो सुविशाल ॥ ० ॥ १५ ॥ देवदुदुभि नाद उपदि जी, जिन गुण गावसी तेह || ब्रह्म जिम आइ सिर ऊपरे जी, गाजसी तेह गुण गेह ॥ १६ ॥ ० ॥
|| ढाल २ || सफल संसारनी ए देशी || पुत्र दिसि असणे आय वेसे पहू, सुर कृत चौमुख रूप देखै सह ॥ दीप असोक तस वारगुण देहथी, देखि हरखे सहू मोर जिम मेहथी ॥ १७ ॥ मोतियां जालि त्रिण छत्र सुविशाल ए, रूप चिहुं २ दिसैँ चामर ढाल ए ॥ योजनगावांग श्रीजिनतणां, भगवंत उपदिसै बार
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स्तवन- संग्रह |
परषद भणी ॥ १८ ॥ प्रदक्षिणारूपथी अगनिकुण करी. गणधर साधची तिम वेमाणिय सुरी ज्योतषी भुवानी विंतरी स्त्रीप, नैऋतकूण जिनवांण उभी सुणे | त्रिहंतरणा पति वायवकुंण में जाण ए, सुर वैमारणीय नर नारि ईसाग ए । बारह परखदा मद मच्छर छोड ए, भूख त्रिस विसरै सु कर जोड ए ॥ ॥ १६ ॥ पूठ भामंडल तेज प्रकास ए जोयण सहस ध्वज उं च आकास ए, झलहलै तेज ध्रुव चक्र गगने सही, महक सहु वारणे धूपधारणा सही ॥ २० ॥ वावहिल सहु धरिय पहिले गढे, होय पगचार नर नार उंचा चढे ॥ जिनतरणी वाणि सुणि जीव तिरयंच ए, वैर तजि बीय गढ रहे सुख संच ए ॥ २१ ॥ पुन्यवंत पुरुष ते परषद बारमें सुनें जिनवाणि धन गणिय अवतार में | चौविह देव जिनदेव सेवा रचें, मणिमयी मांहिलो प्रौल माहे बसै ॥ २२ चिहुँ दिसि वाटली वावि
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अभय रत्नसार ।
३५१
चौजाणियै विदिसि चौ कूण दोय २ वखौरिखये ॥ आठ जिहां वावि जल अमृत जेम ए, स्नान पाने वपु निरमल हेम ए ॥ २३ ॥ जय विजय जयंत अपराजिया, मध्य कंचण गर्दै प्रोल वसंतिया || तुंबरु पुरुष खडग अचिमाल ए, रजतगढ प्रौलना एह रखवाल ए ॥ २४ ॥ पहिलो त्रिगडो नहुयपुर जिण ग्राम ए, देव महर्द्धिक रचै तिरा ठांम ए ॥ करण वारवार नही कारण कोय ए, आठ प्रातीहारज ते सही होय ए ॥ २५ जिरण समवसरणनी ऋद्धि दीठी जिये, तेह धन धन्न अवतार पायो तिये || पास अरदास सुणी वंचित पूज्यो, हि मुझ ताहरो शुद्ध दरसन हुज्या ॥ २६ ॥
॥ कलश ॥
इम समवसरण ऋद्धि वर सहू जिनवर सारखी ॥ सरदहे ते लहे शुद्ध समकित परम जिनधर्म पारखो || प्रकरण सिद्धांत गुरु परंपरा
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३५२
स्तवन- संग्रह |
सुणी सह अधिकार ए, संस्तव्यो पासजिनंद पाठक धर्म वर्द्धन धार ए ॥ २७ ॥ इति समवसरण विचार - गर्भित स्तवनं सम्पूर्णम् ॥
॥ श्री ऋषभदेवजीका स्तवन ॥ || ढाल || पटोरी पायै पधारो || ए देशी ॥ ॥ सुगा २ सैजगिर स्वामी, जग जीवण अंतरजामी, हूं तो अरज करू सिरनांमी ॥ कृसानिध विनतो अवधारो, भवसागर पार उतारो, निज सेवक वांन वधारो ॥ कृ० ॥ १ ॥ प्रभू मूरति मोहनगारी, निरख्यां हरषे नर नारी, जाउ वारी हुं बार हजारी ॥ ० ॥ २ ॥ हिव किसिय वि मासरण कीजै, मुझ ऊपर महिर धरीजै, दिल रंजन दरसण दीजै ॥ कृ० ॥ ३ ॥ आज सयल मनोरथ फलिया, भव २ ना पातिक टलिया, प्रभु जी मुझसे मुख मिलिया ॥ कृ० ॥ ४ ॥ समस्या संकट टल जावै, नव नव नित मंगल थावै. मुतम पुन्य भरावै ॥ कृ० ॥ ५ ॥ करजोडी
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अभय रत्नसार । ३५३ वीनती कीजै, केसर चंदन चरचीज, दिन धन २ तेह गिणाजै ॥ कृ०॥ ६ ॥ प्रभु दरस सरस लहि तोरो, अति हरषित हुवो चित मोरो, जिम दीठा चंद चकोरो ॥ कृ०॥७॥ परतिख प्रभु पंचम आर, वीस माहा भय संकट वारै, सहु सेवक काज सुधारै ॥ कू० ॥ ८॥ सेवो स्वामि सदा सुखदाई, कमला न रहै घर कांई, वाधै संपत शाभ सवाई॥ कृ०॥६॥ नाभिराय कुलं वर चन्दा, भव जन मन नयण आनंदा, उलग सुर असुर सुरिंदा ॥ कृ० ॥ १० ॥ जयकारीऋषभ जिनंदा, प्रह सम धर परम आणंदा, बंदे श्रीजिन भक्ति सूरिंदा ॥ कु० ॥ ११ ॥ ॥ पार्श्वनाथजी का बड़ा स्तवन ॥
॥ ढाल १ ॥ पास जिनेसर जग तिलो ए, गवडीपुर मंड ण गुण निलो ए, तवन करिस प्रभु ताहरो ए, मन वंछित पूरो माहरो ए ॥ १॥ नयरी नाम
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३५४ स्तवन-संग्रह। वणारसीए, सुरनयरी जिण ऋद्धे हसी ए ॥ तेण पूरी छै दीपतो ए, अश्वसेन राजा रिपु जीपतो ए॥ २॥ वामा तसु घर नार ए तसु गुणहि न लब्भ पार ए॥ तास उयर अवतार ए, तसु अतिशय रूप उदार ए॥३॥ चवद सुपन तिण निसि लह्या ए, अनुक्रम करि ते सह मन ग्रह्या ए, पूछे भूपतिनें कह्या ए, करजोड़ि कह्या ते जिम लह्या ए॥४॥
॥ढाल ॥ १ ॥ प्रथम सुपन गज निरख्यो, मायतणो मन हरख्यो। बीजै वृषभ ऊदार, धरणी जिण धस्यो भार ॥ ५ ॥ तीजै सिंह प्रधान, जसु बल कोय न मांन ॥ चउथै देखी श्रीदेवी, कमल बस सुर सेवी ॥६॥ पांचमैं पुष्फनी माला, पंच वरण सुविशाला ॥ छठे दीठो ए चंद, ग्रहगण केरो ए इंद ॥ ७॥ सातमें सूरज सार, दूर कियो अंघ कार ॥ आठमें धज लहकंती, वरण विचित्र सो
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अभय रत्नसार ।
३५५
हती ॥ ८ ॥ नवमें पूरण कुंभ, भरियो निरमल अंभ ॥ देखि सरोवर दसमें, मनह थयो अति विसमें ॥ ६ ॥ समुद्र इग्यारमें ठांमें, खीरजलधि इ नामें ॥ बारम देव विमान, वाजित्र धन गीत गान ॥ १० ॥ तेरम रतननी रासि, दह दिसी ज्योति प्रकासो ॥ सुपन चवदमें ए दोठो, पाति क धूमनीठो ॥ ११ ॥ सुपन का सुविचार, हरख्यो भूप ऊदार ॥ पुत्ररतन होस्यै ताहरै, थास्यै उदय हमारे ॥ ११ ॥
॥ दूहा ॥
चवद सुपन श्रवणे सुखो, हरख कियो सुविचार | सुंदर सुत तुमें जनमस्यो, कुलदीपक आधार ॥ १३ ॥ वामा प्रीतम वचन सुरण, प्रवी मंदिर झत्ति | देव सुगुरु कोरति करै, जनम कियो सुकयत्थ ॥ १४ ॥ इण अनुक्रम ऊगो दिवस, कीधा सुपन विचार ॥ ते घर पहुता आपणै, दीघां दान अपार ॥ १५ ॥
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३५६
स्तवन-संग्रह।
॥ ढाल ३ ॥ हिव जनम्या जगगुरु जगत्र थयो जयकार, खिण इक नार कियें पायो सुक्ख अपार ॥ दिसिकुमरी मिलकर सूत्रकरम निसि कीध, कर थांनक पोहती वंछित तेहनो सिद्ध ॥१६॥ तिणहीज निसि चौसठ इन्द्र मिली तिहां आवै, लेइ निज भक्त सुरगिरि स्नात्र करावे ॥ करी जनम महोच्छव जननी पास ठाव, तिहांथी सुर सब मिल द्वीप नंदीश्वर जावै ॥१७॥ इम रयण विहाणी ऊगो दिवस ऊदार, घर २ गाई जैकीजै मंगलाचार ॥ इग्यारमें दिवसे मिली सहू परिवार, तसु नाम दियोश्रो उत्तम पासकुमार॥१८॥ प्रभु वाधै दिन २ कला करी जिम चंद, बिहु ज्ञान विराजित रूप जिसा देविंद ॥ गुणकला विचक्षण विद्यातणो निधांन, जोवनवय आयो परणायो राजान ॥ १६ ॥
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अभय रत्नसार। ३५७
। ढाल ४ ॥ कुमरपदै प्रभु रहतां काल सुखै गमै ए, आयो मन वैराग संजम लेवा समै ए॥ तब लोकांतिक देव जणावै अवसरू ए, देइ संवच्छरी दान याचक जन सुखकरू ए॥ २०॥ स्वामी संजम लेय इन्द्रादिक सब मिल्या ए, देस विदेस विहार करी कर्म निरदल्या ए, पांमीय केवलज्ञान सुर महिमा करी ए, थापीय चौविह संघ मुगति रमणी वरी ए ॥ २१॥
॥ ढाल ५॥ इम श्री गौडीपासतणा गुण जे नर गावे, ते नर नारी इह परलोग सुवंछित पावै ॥ संघ करी संघपति जिके गवडीपुर जाव, चोर धाड संकट टले विधन बुराइ न आवै ॥ २२॥ धरणराय पउमावइ जास वहे सिर आंण, आंमल वरण सुसोभित नव कर काय प्रमाण ॥ कल्पवृक्ष चिंतामणि कामगवी सम तोल, श्री गुणशेखर सीस समयरंग इण पर बोले ॥ २३ ॥
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३५८
स्तवन-संग्रह।
॥अजित शांतिजिन-स्तवन ॥ मंगल कमला कंद ए, सुख सागर पूनम चंद ए॥ जगगुरु अजित जिणंद ए, शांतीसर नयणानंद ए ॥ १॥ बिहु जिनवर प्रणमेव ए, बिहुँ गुण गाइस संखेव ए ॥ पुण्यभंडार भरेसु ए, मानव भव सफल करेसु ए ॥ २॥ कोडहि लाख पचास ए, सागर जिनशासन भास ए, रिसह जिनेसर वंस ए, उवझाय सरोवर हंस ए ॥३॥ इण अवसर तिहां राजियो ए, राजा जितशत्रु तिहां गाजियो ए॥ विजया तसु घरनार ए, बिहु रमयति पासा सार ए॥ ४ ॥ कूखहि जिन अवतार ए, तिण राय मनाव्यो हार ए ॥ उयर वस्यो दस मास ए, प्रभू पूरो जननी आस ए॥ ५ ॥ बिहूजण मन अंणंदिया ए, सुत नाम अजिय जिण तो दियो ए॥ तिहुअण सयल उच्छाह ए, क्रम २ बाधे जगनाह ए॥६॥ हंस धवल सारिस तणी ए, गति सुललित निज गति निरजणी ए॥
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अभय रत्नसार।
३५६ मलपति चालै गैल ए, जाणे नयण अमीरस रेल ए॥७॥ अवर न समो संसार ए, बलि ज्ञान विवेक विचार ए ॥ गुण देखो गज गह गह्यो ए, लंछन मिसि पग लागी रह्यो ए॥८॥ जोवन वय जब आवियो ए, तब वर रमणी परणावियो ए ॥ पीय साधै सब काज ए, प्रभु पालै पुहवी राज ए ॥ ६ ॥ हिव हथणापुर ठाम ए, विश्वसेन नरेश्वर नाम ए, राणी अचिरा देव ए, मनहर सुख माणे वेव ए ॥ १०॥ चवदह सुपर्ने परवस्यो ए, अचिरा उयरे सुत अवतस्यो ए॥ मानव देव वखाणियो ए, चक्कीसर जिणवर जांणियो ए॥११॥ देस नयर हुय संत ए, तिण नाम दियो श्रीशांत ए॥ जिन गुण कुल जाणै कही ए, त्रिभुवणे तसु उपम नहो ए ॥ १२॥ नयण सलूणो हिरण लोए, वन सिंहे बीहै एकलो ए॥ नयण समाधि निरोध ए, इण नयणे नारि विरोध ए ॥१३॥ गीतहि राग सु रंग ए, पिण पभणे लोक
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३६०
स्तवन-संग्रह |
कुरंग ए ॥ तो उलग्यां ससि संक ए ॥ तिण पांम्यो नाम कलंक ए || १४|| इस पर मृग अति खलभल्यो ए, भय भंजण सांमि सांभल्यो ए ॥
दियो मन आपणो ए, पाय सेवे मिस लंछन तणो ए ।। १५ ।। लीला पति पर घणी ए, नव नविय कुमर रायां तरणी ए ॥ बल छल वै या जोगवे ए, पीय राज भली पर भोगवे ए ॥ १६ ॥ कुमर तों मंडल समें ए, पंचास सहस वरसां गमे ए ॥ तो तेजै दियर जिसो ए, ऊपन्नो चक्करयण तिसो ए ॥ १७ ॥ साधी भरह छखंड ए, वरतावी आण अखंड ए ॥ चवद रयण नव निहि सही ए, वसु सोल सहस जक्ख ही ए ॥ १८ ॥ सहस बहुत्तर पुर वरा ए, बत्तीस मौडबद्ध नरवरा ए ॥ पायक गांमँ कोड ए, छिन्न वे नमें वे कर जोड ए ॥ १६ ॥ हय गय रहवर जुजुवा ए, लख चौरासी मंदिर हुआ ए ॥ लाख त्रि वाजित्र घमघमें ए, बत्तीस सहस नाटिक रमें
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अभय रत्नसार । ३६१ ए॥२०॥ रूप जिसी सुरसंदरीए, लक्षण लावण्य लीला भरी ए॥ जंगम सोहग देहरी ए, एसी चौसठ सहस अतऊरी ए॥२१॥ अवरज ऋद्धि प्रकार ए, मणि कंचण रयण भंडार ए॥ ते कहिवा कुण जांण ए, वपुवपुरे पुण्य प्रमाण ए ॥ २२ ॥ इम चकीसर पंचमो ए, चोथो दूसम सूसम समो ए ॥ वरस सहस पचवीस ए, सब पूरी मनह जगीस ए ॥२३॥ इण पइ बिहु तीर्थकराए, चिर पालिय राज विविह पराए ॥ जाणी अवसर ए सार ए, बिहु लोधो संजम भार ए ॥ २४ ॥ बिहुखम दम धीरज धरी ए, बिहु मोह मयण मद परिहरी ए॥ विहुजिन झाण समाण ए, बिह पांम्या केवलनाण ए ॥ २५ ॥ बिहु देवहि काडहिमहि ए, बिहु चौतीस अतिसय सहि ए ॥ समवसरण बिहु ठाण ए, बिहु योजनबाण वखाण ए ॥ २६ ॥ नाचे रणकत नेऊरी ए, बिहु आगलि इन्द्र अंतेउरी ए॥
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३६२
स्तवन- संग्रह |
टिगमिग चोवे जग सहू ए, रंगहि गुण गावै सुरबहू ए ॥ २७ ॥ बिहु सिर छत्र चमर विमल, बिहु पग तल नव सोवन कमल || बिहु जिनत विहार ए, नवि रोग न सोग न मारि ए ॥ ॥ २८ ॥ बिहु उवयार भुवन भरी ए, बिहु सिद्ध रमणसुं परवरी ए, बिहु भंजी भव फंद ए., बिहु उदयो परमाणंद ए ॥ २६ ॥ इम बीजो ने सोलमो ए, जांणे चिंतामण सुर तरु समो ए ॥ थुणि अति संझ विहारण ए, तिहां इह परभव नवि हां ए ॥ ३० ॥ बिहु उच्छव मंगल करण, बिहु संघ सयल दुरिय हरण || बिहु वर कमल नयण वयण, बिहु श्रीजिनराज भुवण रयण ॥ ३१ ॥ इम भगते भोलिमतणी ए, श्री जिय शांति जिण थुय भणि ए|| सरण बिहु जि पाय ए ॥ श्रीमेरुनंदन उवाय ए ॥ ३३ ॥
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अभय रत्नसार। ॥ मुहपत्ती पडिलेहण का स्तवन । ॥ढाल ॥ १ ॥ कपूर हुवै अति उजलो रे ॥ए देशी ॥
वरधमान जिनवरतणा जी, चरण नमं चित लाय ॥ ज्ञान क्रिया जिण उपदिसि जी, सव सुख तणो उपाय ॥ भविक जनधर श्रीजिन उपदेस, छूटे कर्म कलेस ॥भ०॥ ए आंकणी॥ पडिलेहण मुहपत्ती तणी जी, भाखी छै पचवीस ॥ तिहां ए भाव विचारिये जी, इम भाखै जगदोस भ० ॥ २॥ प्रथम बे पास विलोकिये जी, सूत्र अरथनी दृष्टी ॥ ए पडिलेहण दृष्टिनी जी, करै धर्मनी पुष्टि ॥ भ० ॥३॥ समकित मिथ्या मिश्रनी जी, मोहनी तीननो त्याग ॥ काम-राग स्नेहरागनें जो, तज वलि तिम दृष्टिराग ॥ ४ ॥ भ० ॥ सीष वधू टक गुरुथकी जी, वाम हाथ करनाउ ॥ नव अखोड़ा आदरो जी, नव पखोडा गमाउ ॥ ५ ॥ भ० ॥ देवतत्व गुरुतत्वसू जी, धमतत्व ग्रह सार ॥ कुगुरु कुदेव कुधर्मनो जी,
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३६४
स्तवन -संग्रह |
तीनतणो परिहार ॥ ६ ॥ भ० ॥ ग्यान दरसण चारित्रना जी, संग्रह तीन आचार ॥ तजो विराधन तीन एजी, एह अरथ अवधार ॥ भ० ॥७॥ मन वच कायानी सदाजी, गुपति गृहीजे शुद्ध ॥ परिहरिये वलि जांणनें जी, तीनें दंड विशुद्ध ॥ भ० ॥ ८ ॥ पड़िलेहण पचवीस ए जी, मुंहपत्ती नी सार || हिव पड़िलेहा अंगनी जी, ते पिण चतुर विचार ॥ भ० ॥ ६ ॥ हास्य अरति रति धोयनें जी, शुद्ध करो वांम वाह ॥ तजभय शोक दुगंछना जी, दक्षिण पण करै साह ॥ १० ॥ भ० धुरली लेस्या तीन ए जी, ते सिरथी करि दूर ॥ रिद्ध रस साता गारवोजी, करि मुखथी चकचूर ॥ ११ ॥ भ० ॥ काढ सल्य तीन उरथकी जी, माया नियाण मिथ्यात ॥ च्यार कषाय वेव गलथी जी, क्रोधादिक करी घात ॥ १२ ॥ भ० ॥ तज षटकाय विराधना जी, चरण चिन्हे शुद्ध होय ॥ ए पड़िलेहण अंगनी जी, पचवीसे तू जोय १३
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अभय रत्नसार।
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भ० ॥ इम पडिलेहण जे करै जी, धर मन ज्ञान विवेक ॥ सकल करम दूरै करै जी, पामै सुक्ख अनेक ॥ १४ ॥ भ० ॥ कलस ॥ इम वीर जिनवरतणा मुखथी, अरथ गणधर सांभली ॥ कहै सूत्रवाणी मन सुहाणी, सुणो भवियण मन रली । उवझाय वर श्रीलच्छिकीरत, मुखथकी ए संग्रही। मंहपतो पडिलेहण तणो विध, लच्छिकीरत गणि कही ॥ इति श्रीमुहपत्ती पडिलेहण स्तवनम् ॥
॥ आलोयण-स्तवन ॥ ॥ ढाल । सफल संसारनी ॥ ए देशी ॥ ए धन शासन वीर जिनवरतणौ, जास परसाद उपगार थायै घणौ ॥ सूत्र सिद्धांत गुरुमुखथकी सांभली, लहिय समकित अनें विरति लहिये वलो ॥१॥ धर्मनो ध्यान धर तप जप खप करे, जिणथकी जीव संसार-सागर तिरै ॥ दोष लागा जिके गुरुमुख आलोइय, जीव निमल हुवै वस्त्र जिम धोइयै ॥२॥ दोष लागे तिके
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३६६
स्तवन- संग्रह |
ते
धारणा,
चार प्रकारना, धुरथकी नांमनें अरथ किाही कारण वसै पाप जे कीजिये, प्रथम ते नांम संकप कहीजिये ॥ ३ ॥ कीजीये जेह कंद
प्रमुख करी, दोष तेवीय परमाद संज्ञा धरी ॥ कूदतां गर्वतां होय हिंसा जिहां, दर्प इण नांम करि दोष तीजो तिहां ॥ ४ ॥ विरासतां जीव जीवनेगिनर करे जिको, चोथौ आकुट्टिया दोष ऊपजै तिको ॥ अनुक्रमें च्यार ए अधिक एक एकथी, दोष धर प्रायच्छित्त लेह विवेकथी ॥५॥ || ढाल २ ॥ अन्य दिवस कोई मागध आयो पुरंदर पास || पाटी पोथी कवली नवकरवाली जोय, ग्यानना उपगरणतणी आसातन कीधी होय ॥ जघ न्यथी पुरमढ्ढ एकासगो आंबिल उपवास, अनुक्रम एह आलोय सुगुरु बताई तास ॥ ६ ॥ ए जो खंडित थायै अथवा किहांई गमाय ॥ तो वलि नवा कराया दोष सहू मिट जाय ॥ थापना अणपड़िलेह्यां पुरिमढनो तप धार, गिरतां एका
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अभय रत्नसार।
३६७
सणनें गणता चोथ विचार ॥७॥दर्शनना अति चार तिहां पुरमढ्ढ जघन्य, एकासण आंबिल अठम चिहुं भेद मन्न ॥ आशातन गुरु देवनी साहमीसं अप्रीति ॥ जघन्य एकासणनी आलोयण चढती रीत ॥ ८॥ अनंतकाय आरंभ विणास्यां चोथ प्रसिद्ध, बी ति चउरेंद्री त्रसायां ए. कासणथी वृद्ध ॥ बहु बि ति चौरैद्रिय हण्या बि ति चउ उपवास, संकल्पादि चिहुं विधि दुगुणा दुगुण प्रकास ॥ ६ ॥ उद्देही कुलियावडा कीड़ी नगरा भंग, बहुत जलोयां मुक्या दस उपवास प्रसंग ॥ वमन विरेचन कृमि पातन आंबिल इक एक, जीवाँणी ढोलंता दोय उपवास विवेक ॥१०॥ संकल्पादिक एक पचेंद्रो उपद्रव होय, दोइ त्रिण आठ दसै उपवासै आलोयण जोइ, बहु पंचेंद्री उपद्रव छठ अठमें दस वीस ॥ चिहुं प्रकारै च ढती आलोयण सुणले सीस ॥ ११॥ पंचेंद्रीने लकड़ी प्रमुखै कीध प्रहार, एकासण आंबिल उ
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३६८
स्तवन- संग्रह |
पवास ने छठ विचार ॥ साध समझें लोक समझें राज समच, कुड़ा आल दियां दुइ चौथरु छठ प्रत्यक्ष ॥ १२ ॥ उपवास दस दंडायां तेम मरा यां वीस, इक लख असी सहस नवकार गुणो तजि रीस ॥ पख चौमास वरस लग इक त्रिण दस उपवास, अधिको क्रोध करे तो आलोयण नहि तास ॥ १३ ॥ सूआवड़ना दोष कियां गुरु ऊपर रोस, जीव विराधन कीधां बहु असतीने पोस || करीय दुवालस बार हजार गुणो नवकार, मिच्छादुक्कड़ दे आलोवो वारोवार ॥ १४ ॥
|| ढाल || ३ || बे कर जोडी तांम ॥ ए चाल ॥ ॥ वि कीधा पञ्चखाण, विण दीघां वांदखां, पड़िकमणा विध पांतरे ए ॥ अोझा नें सिाय, तिहा विधै भण्या, इक २ आंबिल चरै ए ॥ १५ ॥ गंठसीनें एकत्र, निवी आंबि ल, भांगे आलोयण इमें ए ॥ एक पांच पट आ ठ, नवकरवालीय ॥ गुण नवकार अनुक्रमे ए ॥
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अभय रत्नसार ।
३६६
१६ ॥ उपवास भंग उपवास, आंबिल ऊपरां, अधिक दंड वखायेि ए ॥ पांचम आठम आदि, भंग कियां वली, फिर ग्रही पातिक हारणीयै ए ॥ १७ ॥ ऊखल मूसल आग, चूलै घरटियै, दीधै म तप करै ए ॥ मांगी सूई दीध, कातरणी छूरी आंबिल चढता आदरै ए ॥ १८ ॥ जीव करावे युद्ध, रात्री भोजन, जल तिरणो खेल जू ए ॥ पापतणा उपदेश, परद्रोह चीं तव्या, उपवास एक २ जूजू ए ॥ १६ ॥ पनरे करमदान, नियम करो भंग, मद्य मांस माखण भण्या ए ॥ आलोयण उपवास, संकप्पादिक, चिहुं भेदे चढतां लिख्या ए ॥ २० ॥ बोल्या मिरखावाद, दत्तां दांन त्युं, जघन्य एकासरण जाणीये ए ॥ अति उत्कृष्टी एण, जांण आलोयण, उपवास दस २ आणि ए ॥ २१ ॥
|| ढाल || ४ || सुगण सनेही मेरे लाल || ए चाल || ॥ चौथे व्रत भागे अतीचार, जघन्य छठ
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३७०
स्तवन- संग्रह |
आलोय धार ॥ मध्ये दस उपवास विचार, उत्कृष्टा गुण लख नवकार ॥ २२ ॥ परिग्रह विर मरण दोष प्रसंग, तीन गुणव्रतमांहे भंग ॥ च्यार शिक्षा व्रतने अतिचारे, आंबिल त्रिण प्रत्येके धारे ॥ २३ ॥ शीलतरणी नववाड़ि कहाय, तिहां जो लागो दोष जाय ॥ त्रियनें फरस हुआ अविवेके, एक आंबिल कीजे प्रत्येके ॥ २४ ॥ साधु अने श्रावक पोसीध, एकेंद्री सच्चित्त संघट्ट े कीध ॥ वीसर भोले सच्चित्त जल पीध, दंड एकासग
बिल दोध ॥ २५ ॥ विण धायां विण लूह्यां पात्र, एकास तिम पुरिमढ्ढ मात्रै ॥ गइ मुहपती बिल सारो, तिम उघै अठम अवधारो ॥ २६ ॥ च्यार आगार छींड़ो राखै, व्रत पञ्च्चखांण करें पट साखै ॥ दोषे मिच्छामिदुक्कड़ दाखै, प्रालोयण लेतां अभिलाखै ॥ २७ ॥ आलोयणनो अति विस्तार, पूरोहिता नावे पार ॥ तोपिण संक्षेप तंत सार ॥ निरमल मन करतां विस्तार
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अभय रत्नसार।
॥ २८ ॥ इम श्रीवीर जिनेसर स्वांमो, जसु आगम वचने विधि पांमी ॥ जोतकल्प ठाणांगे आ दि, वली परंपर गुरु सुप्रसाद ॥ २६ ॥
॥ कलश ॥ ॥ इम जेह धरमी चित्त विरमी, पाप सव आलोयनें ॥ ए कांत पूछ गुरु वतावै, शक्ति वय तसु जोयनें ॥ विध एह करसी तेह तिरसी, धरमवंततणे धुरै॥ ए तवन श्रीधमसिंह कीधो, चौपने फल वधी पुरै ॥ ३०॥
॥ नंदीश्वर द्वीपका स्तवन ॥ नंदीसर वावन जिनालय, शास्वता चोमुख सोहेरे ॥ ऋषभानन चंदानन वारिषेण, वर्द्धमांन मनमोहे रे ।। नं० ॥ १॥ आठमो द्वीप नंदीसर अदभुत, वलयाकार विराजैरे ॥ तेहने मध्य चिहुं दिस शाभित, अंजन गिरिवर छाजै रे ॥ नं०॥२॥ जोयण सहस चोरासी ऊंचा, ऊंच पणे अभिरामा रे ॥ मूलै प्रथुल सहस दस जोय
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३७२
स्तवन- संग्रह |
, उवरी सहस कर विसाला रे ॥ नं० ॥ ३ ॥ ॥ ते ऊपर प्रासाद प्रभूना, अति उत्तंग उदारा रे ॥ साधू जंघा विद्याचारण, वांदे विविध प्रकारा रे ॥ नं० ॥ ४ ॥ चैत्यै ए इकसो चोवीस, बिंब संख्या सब दाखी रे || ध्यावो सेवो भविजन भगते, सुध ओ गम कर साखी रे ॥ नं० । ५ ॥ उंचपणै सहु जोयण बहुत्तर, सो जोया आयामा रे || पिहुल पणे पचासे जोयणना, प्रभू प्रासाद सुठामा रे ॥ नं० ॥६॥ धनुष पांच आयत प्रभुनी, विविध रतनमई काया रे || जिन कल्याणक उच्छव कर वा, सुरपति भक्त आया रे ॥ नं० ॥ ७ ॥ अंजन अंजनगिरि चहुं उवरै, चोमुख च्यार विसाला रे वाव २ विच इकर पर्वत, राजत रंग रसाला रे ॥ नं० ॥ ८ ॥ चोसठ सहस जायण उत्तंगै, दस सहस सत पिहुला रे ॥ चिह्न दिसि सोल सहस दधिमुखगिरि, तिहां प्रासाद सुविमला रे ॥ नं० ।। ६ वा २ नें अंतर विदसें, रतिकर परवत रू
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अभय रत्नसार। ३७३ डारे ॥ दोय २ संख्या जगदीसै कह्या नही ए कडा रे ॥ नं० ॥ १० ॥ जोयण सहस मांन दस ऊंचा, दस २ सहस विस्तारारे ॥ झल्लरि सम संठाण जगत गुरु, निश्चय ए निरधाख्या रे॥नं० ॥ ११ ॥ तेह ऊपर प्रासाद सतोरण, अंजनगिरि परमाणे रे॥ जिनपडिमानी संख्या तेहिज, श्रीजिनराज वखाणे रे ॥ नं० १२॥ इम प्रासाद प्रभूना बावन, नंदीसर वर दीपे रे॥ द्रव्य भाव विधि पूजा करतां, मोह महा भड़ जापै रे॥ नं० ॥ १३॥ प्रवचन सार उद्धार प्रकरणे, जीवाभिगमें जाणो रे ॥ इम अधिकार छै नथ अनेकै, इहां संका मत आणो रे ॥ नं० ॥ १४॥ जिम सुरपति विरचै तिहां पूजा, ते अनुभव इहाल्यावोरे ॥ ध्यावो जिम पावो परमातम, जैनचंद्र गुण गावो रे॥नं० ॥ १५ ॥ इति नंदीश्वर स्तवनम् ॥
॥ अढाइ द्वीपै वीस विहरमाण-स्तवन ॥ ॥ वंदु मनसुध विहरमाण जिणेसर वीस,
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३७४
स्तवन- संग्रह |
द्वीप में विचरै जयवंता जगदीस ॥ केवलग्यानने धारै तारै कर उपगार, किरण २ ठामे कुरण २ जिन कहस्यं सुविचार ॥ १ ॥ पैंतालीस लक्ष योजन मानुषक्षेत्र प्रमाण, वलयाकारे आधे पुष्कर सीमा जाण ॥ दोय समुद्र सोह द्वीप ढाई सार, ति में पनरै करमाभूमीनो कहूं अधि कार ॥ २ ॥ पहिलो जंबूद्वीप समै विच थाल आकार, लांबी पिहुलो इक लख जोयणनें विसतार ॥ मोटो तेहने मध्य सुदरसन नांमें मेर, तिथी दिसि विदसानी गिणती च्यारे फेर ॥३ मेरुथकी दक्ष दिसि एह भरत सुभ क्षेत्र, पांचसे छव्वीस जोयण छ कला तेहनो क्षेत्र ॥ उत्तरखंडमें एहवो एखत क्षेत्र कहाय ॥ इण चिहु करमांमूमी छए आरा फिरता जाय ॥ ४ ॥ तेत्रीस सहस छसे चोरासी जोयण जाण, च्यार कला ए महाविदेह विखंभ वखाण ॥ बावीससै तेरे जोयग एक विजय पहुलाण, एहवी बत्तीस विजय
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अभय रत्नसार। ३७५ विराजै जेहने ठाण ॥ ५ ॥ मेरु विचै कर पूरब पश्चिम दोय विभाग, सोले २ विजय तिहां विचरै श्रीवीतराग ॥ सासते चोथे आरे तारै श्रीअरिहंत, एहवे महाविदेह करमभूमि त्रीजी तंत ॥ ६॥ पूरव विदेह विजय पुष्कलावती आठमी ठांम, पंडरीकणी नगरी तिहां श्रीसोमंधरस्वामि॥ वप्रविजय पचवीसमी विजयापुरनो नाम, पच्छिम विदेह बीजो युगमंधिर कीजै प्रणाम ॥ ७॥तिमहिज नवमी वच्छविजय वलि पूरव विदेह, नयर सुसीमा त्रीजो बाहु नमं धरि नेह ॥ नलिनावर्त चोवोसमी पच्छिम विदेह वखाण, वीतशोका नगरी तिहां चोथो सुबाहु सुजाण ॥८॥ ए च्यारेइ जिणवर जंबूद्वीप मझार, महाविदेह सुदरसण मेरुतणे परकार ॥ एहवो जंबूद्वीप महा गढ जेम गिरिंद, खाई रूपै दोय लख जोयण लवण समंद ॥६॥
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३७६
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स्तवन- संग्रह |
|| ढाल २ || दिवाली दिन आवियो || ए चाल | दीपै बीजो द्वीप ए, धन २ धातकी खंड ॥ पिहुलो चिहु' लख जोयणे, मंडल रूपे मंड ॥१० ॥ दी० ॥ दोय भरत दोय एरवत, दोय वलि महाविदेह ॥ करमभूमि पट छै जिहां, उाहिज नांमें एह ॥ ११ ॥ दी० ॥ पूरब पश्चिम धातकी, खंड गिणीजै दोय, विजयमेरु पूरब दिसै, पच्छिम अचलमेरु जोय ॥ १२ ॥ दी० ॥ इक २ मेरुने अंतरे, करमभूमि तीन २ ॥ निज २ मेरुथी मांडिने, लेलो चिह्न दिसि लीन ॥ १३ ॥ दी० श्री सुजात जिन पांचमो, छठो स्वयंप्रभु ईस ॥ ऋष भानन जिन सातमो, समरीजै निस दीस ॥१४॥ दो० ॥ अनंतवीरज जिन आठमो, ए च्यारे जि नराय ॥ पूरब धातकी खंडमें, महाविदेह रहाय ॥ दी० ॥ १५ ॥ पहिली बिहु जिननी परे, विजयनगर दिसी ठाण, ॥ तिहिज नांमे अनुक्रमें, विजयमेरु अहिनां ॥ दी० ॥ १६ ॥ नवमो सुर
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अभय रत्नसार। प्रभु नम, दसमो देव विसाल ॥ इम वज्रधर इग्यारमो, त्रिकरण नम त्रिकाल ॥ दी० ॥१७ बारमो चंद्रानन जिन, पच्छिम धातकी मांहि ॥ विचरै च्यारु जिणवरा, अचलमेरु उच्छाहि ॥ दी० ॥ १८ ॥ एहवो धातकी खंड ए, परदक्षणा परकार ॥ अठ लख जोयण वीटीयो, समुद्र कालोदधि सार ॥ १६ ॥ दी० ॥ ॥ ढाल ॥ ३ जी॥ पहिली प्रतिमा एकण मासनी ॥ ए चाल ॥ ___ कालोदधिने पैलै पार ए, वीट्यो चूडी जेम विचाल ए ॥ सोलह लख जोयण विसतार ए, दीप पूवरवर अति सुखकार ए ॥ उलालो• सुखकार पुष्करद्वीप त्रीजो, तेहनें आधै पगै ॥ विच पड्यो परवत मानुष्योत्तर, मनुष्यक्षेत्र तिहा लगै तिण आधिकर अठ लाख योजन, अरध पुष्कर एम ए॥.तिहां करमभूमी छ ए कहीजे, धातकी खंड जेम ए॥ २०॥ ढाल ॥ आधै पुष्करने पूरब दिसे, मंदिर नांमे मेरु तिहां वसै ॥ पच्छिम वि.
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NANhrrnra
३७८ स्तवन-संग्रह। ज्जुमाली मेर ए, इहां किण इतरो नांमे फेर ए ॥ उ• ॥ फेर ए इतरो इहां नामे, अवर ठामेको नही ॥ एक २ मेरे तीन तीने, करमभूमि तिहां कही ॥ इम भरत एरवत माहाविदेहे, नांम सरखो हेतए॥तिणहीज नांमे विजय सगली, सासताधर्म खेत ए॥ २१॥ ढाल ॥ धातकी खंडै तिम पुष्कर सही, इहां क्षेत्रानी रचना विध कही बार २ कहतां ए विसतार ए, पहिला पर लेज्यो सुविचार ए॥3॥ सुविचार ए वाकी तेह सगलो, नगर तिमहिज मन गमें ॥ पूरवे पच्छिम जेहनी ते, तेह तिमहीज अ नुक्रमें ॥ श्रीचंद्रबाहु भुजंग ईसर नेम च्यार तीथंकरा, पूरवे पुष्कर अरध माहे, सरब जीव सुखं करा ॥ २२ ॥ ढाल ॥ वैरसेन वंदू जिन सतरमो, श्रीमहाभद्र अठारम नित नमो॥ देवजता उगणीसम देव ए, जसो रिद्ध वीसम जिण देव ए ॥ उ० ॥ जिण च्यार पुष्कर अरध माहे, कह्या पच्छिम भाग ए, तिहां मेरु विद्यु नमालि चिहुं
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अभय रत्नसार।
३७६ दिसि, विचरता वीतराग ए॥ चौरासी पूरब लाख वरसां, आउ इक २ जिण तणो ॥ पांचसै धनुष सरीर सोहे ॥ सोवन वरण सुहामणो २३ ढाल ॥ काल जघन्ये ए जिण वीस ए॥ हिव उत्कृष्ट भेद कहीस ए ॥ एकसो सत्तर तिहां जि नवर कहै, पांचे भरते जिम पांचे लहै ॥ उ० ॥ जिण लहै पांच तेम पांच, एरवत मिल दस हुवा इक २ विदेहे बत्तीस विजया, तिहां पिण छै जूजूआ ॥ एकसो सत्तर एम जिनवर, कोड़ि नव सय केवली, नब सहस कोड़ी अवर मुनिवर, वं. दियै नित ते वली ॥ २४ ॥ ढाल ॥ इहां भरते एरवतें आज ए, पंचम आरै नही जिनराज ए॥ धन २ पांचे महाविदेह ए, विचरे वीस जिन गुणगेह ए ॥ उ० ॥ गुणगेह दोष अढार वरजित अतिसयां चोतीस ए ॥ चौशठि इंद नरिंद सेवित, नमूं ते निसदीस ए॥ तिहां आजे तारण तरण विचरै, केवली दोय कोड़ ए॥दोय सहस
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३८० स्तवन-संग्रह। कोड़ी सुसाधु बोजा, नमुंबे कर जोड़ ए ॥ २५ कलश ॥ इम अढो द्वीपे पनर करमा भूमी क्षेत्र प्रमाण ए, सिद्धांत प्रकरण तेह भाख्या वीस वि हरमांण ए॥श्रीनगर जेसलमेर संवत सतर गुण तीसै समै, सुखविजय हरख जिनंद सानिध नेह धरि ध्रमसा नमें ॥ २६ ॥ इति अढी द्वीप-स्तवन संपूर्णम् ॥१ जंबूद्वीप २ धातकी खंड ३ आधापुकरद्वीप एवं २॥ द्वीपमें ५ भरत ५ एरवत ५ म हाविदेह १५ कर्मभूमीमें विचरता साश्वता २० विहरमानको मेरा नमस्कार हो ।
॥आबूजी तीर्थ का स्तवन ॥ जात्रीड़ाभाई आबूजीनी जात्रा करज्यो, जात्रा भणी ऊमहेन्यो,तुम्हे नरभव लाहो लीज्यो रे॥ जात्रो० ॥ पंच तीरथी मांहे छाजे, आबू मारूडै देस विराजे रे॥ जा स्वरगथी वादे लागो, उंचो अंबरियै जइ लागो रे ॥ जा० ॥ १॥ एतो देवानो वास कहावै, निरखंता त्रिपति न थावे रे
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अभय रत्नसार। ३८१ जा० ॥ एतो डुंगरियानो राजा, एहनी छै बारह पाजा रे ॥ जा० ॥ २॥ छह ऋतु वास वणायो, एतो चंपला अंबला छायो रे ॥ जा ॥ सरवर झरणा झाझा, जिहां तिहां वनवेल्या आमा रे॥ जा ॥३॥ भार अढारे वणराई, एतो इहांहिज निजरे आइ रे ॥ जा० ॥ दहदिसि परिमल आवै फूलड़ानो रंग सुहावै रे॥ जा० ॥ ४ ॥ ऊपर भूमि विसाला, देवल दीठा रलियाला रे॥ जा० विमलमंत्री वरदाई, चक सरि देवी सहाई रे ॥ जा०॥५॥ पोरवाड वंस वदीतो, जिण दलपति साहि जी तो रे ॥ जा०॥ देवल तेण करायो, पाहण आरास मंडायो रे ॥ जा० ॥६। झीणी २ कोरणी झस्यो, दल माखण जेम उकेयो रे जा० ॥ नवी २ भांति वणाई, जिहां तिहां कोरेणिया झिणाई रे॥ जा० ॥७॥ उत्तरे पाहण जेतो, जोखीजे पाहण तेतो रे॥ जा०॥ आदि जिनेसर सांमी, प्रतिमा थापी हितकारी रे ॥
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३८२ स्तवन-संग्रह। जा० ॥८॥ उगणिस कोड सोनइया, द्रव्य लागत करि जस लीया रे जा० ॥ करजोडीने आगे, मंत्री जिनवर पाय लागै, रे॥ जा० ॥ ६॥ पुछे चढिया हाथी, मंडाणा पति साह साथी रे ॥जा० इण देवल समवड़ कोई, भूमंडल मांहि न होई रे जा० ॥१०॥ वलि तिण वंस विगताला, वस्तुपाल अनै तेजपाला रे ॥ जा० ॥ देव नमी ऋद्धि पाई, इहां तियां पिण सफल कराई रे॥ जा०॥ ११॥ ते हवो जिणहर पास, वार कोडनी लागति भासै रे ॥ जा० ॥ देराणी जेठाणी, आलानी अजब कहाणी रे ॥ जा० १२॥ इहां देवल सोह वधारी, नेमनाथजी बाल ब्रह्मचारी रे ॥जा०॥कस वट पाहण करी, मूरत सुरमा रंग हेरी रे ॥ जा० ॥ १३ ॥ देवल वाडो दीठो, ते तो लागै नयणे मीठोरे ॥ जा० ॥ तिहां केइ देव ल पास, लोक जोवे घणो तमासै रे॥जा० १४॥ त्रिण गाउ आगल जाइय, देवल देखी सुख ल
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अभय रत्नसार ।
३८३
०
हिये रे ॥ जा० ॥ चोमुख प्रतिमा च्यारो, आदिनाथ देव जुहारो रे ॥ जा० ॥ १५॥ सोवनमें साते धातो, गिमिंग रही दिनने रातो रे ॥ जा० ॥ मग चवदेसें चम्मालौ, जिस बिंबनो भाव निहालो रे ॥ जा० ॥ १६ ॥ श्रीमाली भोम सोभागी, जिणवरथी जसु लय लागी रे ॥ जा ० ॥ एहनी करणी वाहवाहो, इहां लीधो लखमी लाहो रे ॥ जा ॥१७॥ इडुंगरिये आवी, जिण जात्र करै मन भावी रे ॥ जा० ॥ जिहां तिहां पूज रचावै, नाटकिया नाच करावे रे ॥ जा० ॥ १८ ॥ रातीजोगो दियरावो, जिनवरना जस गुण गावो रे ॥ जा० साहमी वच्छल कीज्यो, जातड़लोनो जसलीजो रे ॥ जा• ॥ १६ ॥ थी आवी चाली, वातां केइ अचरज वाली रे ॥ जा० ॥ सुखिये छै जे कोई, अहि नांगे जोज्यो तेई रे ॥ जा० ॥ २० ॥ ए तीरथथी गुण गावै, जात्रानो फल ते पावे रे जा० ॥ ए तीरथ समतोल, कुण आवै रूपचंद बोले रे ॥ जा० ॥ २१ ॥ इति आबूजी स्तवनम् ॥
॥
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३८४
स्तवन -संग्रह |
॥ सकल शास्वता चैत्य - नमस्कार - स्तवन ॥ ॥ ऋषभानन वर्द्धमान, चंद्रानन जिन, वारिण नांमे जियो ए ॥ १ ॥ तेह तणा प्रासाद, त्रिभुवन सासता, प्रणमुं बिंब सोहामा ए ॥ २ चेइहर सग कोडि, लाख बहुत्तर, चेंड्य प्रतिमा सो असी ए ॥ ३ ॥ तेरेसे निव्यासी कोडि, साठ लाख सुन्दर, भुवनपती मांहि मन वसी ए ॥ ४ ॥ बारे देवलोक प्रासाद, चौरासी लाख, सहस छिन्नू नें सात से ए ॥ ५ ॥
॥ ढाल ॥ २ ॥ आव्यो तिहां नरहर || ए चाल || हि नवग्रीवे पंचानुत्तर सार, चेईहर त्रण सय वीसा सुविचार || प्रत्येके प्रतिमा बीसासो तिहां जाण, अडत्रीस सहस सत साठ छे गुण खाण ॥ ६ ॥ नंदीसर बावन कुंडल रुचक बखाण चउ २ चेईहर साठ सबे त्रिहुं ठां ॥ इकसो चोवीस गुण प्रतिमा चिहु नाम, च्यारसे चालिसा सात सहस प्रणमाम ॥ ७ ॥ नंदोसर विदिस
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अभय रत्नसार ।
३८५
सोलस कुल गिरि तीस, मेरू वन अस्सी दस
कुरु गजदंते वीस ॥ मानुषोत्तर परवत च्यार २ सो अति सुन्दर वक्ष सकार
इखकार,
मकार ॥ ८ ॥
॥ हाल ३ ॥
॥ दिग्गजगिरि चालीस, असी द्रह सुजगीस कंचन गिर वरु ए, एक सहस धरु ए ॥ ६ ॥ वृत दीरघ वैताढ्य, वीस सत रसो आढ्य ॥ सतर महानदी ए, पंच चूला सदी ए ॥ १० ॥ जंबू प्रमुख दस रुक्ख, इग्यारैसै सत्तर सुक्क ॥ कुंड सय असीए, बीसजमगवसी ए ॥ ११ ॥
त्रासय
॥ ढाल ४ ॥
॥ त्रिण सहस सो एक निवारणं रे, जिनवर प्रासाद वखारण, वीस सोए अंक गुणियै रे, तीर्थंकर प्रतिमा थुणियै ॥ १२ ॥ त्रिण लाख सहस वलियासी रे, प्रतिमा आठसोने असी ॥ सरवालै सब मेलीजै रे, जिनवर प्रासाद नमीजै ॥ १३ ॥ आठ कोडि सत्तावन लक्खारे, दोयसै
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३८६ स्तवन-संग्रह। निव्यासी कयरुक्खा ॥ हिव प्रतिमा ग्यान कहीजे रे, जिनवरनी आण वहीजै ॥ १४ ॥ पनरेसै बेता लीस कोडी रे, अड़वन लख अधिके जोड़ी ॥ छत्तीस सहस अधिक कहीयै रे, प्रतिमा सगली सरदहियै ॥ १५ ॥
॥ढाल ५ ॥ जोइस वितर प्रतिमा सासती, असंख्यात वलि जेहोजी॥पायकमल तेहना नित प्रणमियै, सोवन वरण सुदेहो जो ॥१॥ विनय करी जिन प्रतिमा वंदिय, सुन्दर सकल सरूपो जी, पूजै प्रतिमा चोविह देवता, वलिय विद्याधर भपो जी ॥२॥ वि० ॥ जिनप्रतिमा बोली जिन सारखी, हित सुख मोच निदानो जी । भवियणने भवसायर तारवा, प्रवहण जेम प्रधानो जी॥३॥ वि० ॥ जीवाभिगम प्रमुख मांहि भाखीयो, ए सहू अरथ विचारो जी ॥ सांभलतां भणतां सुख संपदा, हियडै हरख अपारो जो ॥ ४ ॥ वि०॥
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अभय रत्तसार ।
३८७
॥ कलश ॥ इम शासता प्रासाद प्रतिमा संथुण्या जिनवर तणा, चिहु नाम जिनचंद तणा त्रिभुवन सकलचन्द सुहावणा ॥ वाचनाचारिज समयसुन्दर गुण भणें अभिराम ए, त्रिह काल त्रिकरण सुद्ध होयज्यो सदा मुझ परणाम ए॥५॥ ॥ सूरत शहर शीतल जिन-चैत्यप्रतिष्ठा स्तवन॥ ___ भविजन पूजो रे शीतल जिनपती रे, नयना नन्दन चन्द ॥ प्रभूजी विराजै रे सूरत बिन्दरै रे, नंदादेवीना नंद ॥ १॥ भ०॥ जगहितकारी रे जिनजी अवतस्या रे, श्रीदृढरथ नृप गेह ॥ श्री वच्छ सोहे रे लांछन सूदरू रे ॥ कनक वर्ण प्रभु देह ॥ २॥ भ० ॥ विषह निवारी रे संजम संग्रह्यो रे, ला, केवलनाण ॥ सघन घनाघन जिम धर्म वरसता रे, विचरया त्रिभुवन भाण॥ भ० ३ वदनी प्रमुख जे शेष रह्या हता रे, च्यार अघाती कम ॥ दूर निवारया रे अनुक्रम तेहने रे, पाम्यूं
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३८८
स्तवन- संग्रह |
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शिवपद शर्म ॥ ४ ॥ भ० ॥ संप्रति कालै रे श्री जिनराजनो रे, पूजीजे प्रतिबिंब ॥ प्रतिदिन लहियै रे प्रभु सुप्रसादथी रे, मन वांछित अविलंब ॥ ५ ॥ भ० ॥ श्रीजिनवरनो विंब विलोकतां रे. दुष्कृत दूर पुलाय ॥ इन्द्रिय निग्रह सुग्रह संप रे, समकित पण दृढ थाय ॥ ६ ॥ भ० ॥ श्रीसदगुरुना मुखथी सांभल्या रे, एहवा वचन विलास ॥ ते बहुमाने रे निज चित्त में धरया रे, नेमी सुत भाईदास ॥७ भ०॥ चैत्य कराव्यं रे सुंदर सोभतो रे, मनधर अधिक उलास ॥ शीतल प्रभुनो रे बिंब भरावियो रे, सहसफरणा वलि पास ॥ ८॥ भ० ॥ वरस अठारह सत्तावीसमें रै, माधव मास मकार ॥ उज्जल द्वादशी दिवसे आवियों रे, बिंब अनेक उदार ॥ ६ ॥ भ० ॥ एकसो इक्यासी सहु मेले थया रे, बिंबादिक सुविचार ॥ कीध प्रती
ते दिन तेही रे, विधि पूर्वक मन धार ॥१० ॥ भ० ॥ श्रीजिनलाभ सूरीश्वर दीपता रे, श्री
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अभय रत्तसार।
३८६
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खरतर गच्छ भाण ॥ तास पसायमें शीतल जिन थुण्या रे, विबुध क्षमा कल्याण ॥ ११॥ भ० ॥
॥श्रीधरमनाथ स्वामी का स्तवन ॥ हारे हूं तो भरवा गइथी तट जमुनाके तीर जो॥ ए चाल ॥
हारे मारे धरम जिनंदसं लागी पूरण प्रोत जो, जीवड़लो ललचाणो जिनजीनी उलगे रे लो॥ हारे मुने थास्यै कोइयक समें प्रभु सुप्रसन्न जो, वातडली तव थास्यै महारी सबि वगेरे लो॥१॥ हारे कोइ दुर्जननो भंभेस्यो माहरो नाथ जो, उलवस्यै नही क्यारे कीधी चाकरी रे लो॥ हारे मारे स्वामी सरिखो कुण छै दुनियां मांह जो, जइये रे जिम तेहने घर आस्या करी रे लो॥ २ ॥ हारे मारे जस सेव्यांथी स्वारथनी नही सिद्ध जो, ठाली रे सी करवी तेहथी गोठ डी रे लो ॥ हारे कांइ झुठं खाई ते मिठाईने माटे जो, क्यांही रे परमारथनी नही प्रीतड़ी रे लो ॥३॥ हारे प्रभु अंतरजांमी जीवत प्राणाधार
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३६० स्तवन-संग्रह । जो,वाण्यो रे नवि जायो कलियुग वायरो रे लो, हारे मोरा लायक नायक भगत वच्छल भगवंत जो, वारू रे गुण केरा साहिब सायरू रे लो॥४ हारे प्रभु लागी मुझने ताहरी माया जोर जो, अलगा रे रह्यांथी होइ उभोगलो रे लो॥ हारे कुण जाणे अंतर गतिनी विण माहाराज जो, हेजे रे हसी बोलो छंडी आमलो रे लो॥ ५॥ हारे तारे मुखने मटके अटक्यूं माहरो मन्न जो, आंखडली अणियाली कामणगारी!रे लो॥ हारे मारे नहणा लंपट जोवे खिण २ तुझ जो, राती रे प्रभु रागे न रहे वारीयां रे लो॥६॥ हारे प्रभु अलगा ते पिण जाणज्यो करीने हजर जो, ताहरी रै बलिहारी हूं जाउं वारणे रे लो॥ हारे कवि रूप विबुधनो मोहन करै अरदास जो, गिरुत्रा थइ मन आंणो ऊलट अति घणो रे लो॥
॥राणपुराका स्तवन । राणपुरै रलियामणो रे लाल, श्रीआदीसर
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अभय रत्नसार। ३६१ देव, मन माह्य रे ॥ उत्तंग तोरण देहरु रे लाल निरखीजै नित्य मेव ॥म ॥ रा०॥ १॥ चोवीस मंडप चिहुं दिसे रे लाल, चौमुख प्रतिमा च्यार ॥ म० ॥ त्रिभुवन दीपक देहरो रे ला०, समवड नही संसार ॥ म० ॥२॥ रा०॥ देहरी चोरासी दीपती रे लाल, मांडयो अष्टापद मेर॥ म० ॥ भलें जुहारया भोयरा रे लोल, सूतां ऊठ सवेर ॥ म० ॥३॥रा० देस जाणीतू देहरू रे लाल, मोटो देस मेवाड ॥ म०॥ लक्ख नवाणं लगाविया रे लाल, घन धन्नो पोरवाड ॥ म०॥ ४॥रा. खरतर वसई खंतसू रे लाल, निर खंता सुख थान ॥ म० ॥ पांच प्रासाद बीजा वली रे लाल, जोतां पातिक जाय ॥ म०॥५॥ रा०॥ आज कृतारथ हुं थयो रे लाल, आज थयो आणंद ॥ म०॥ यात्रा करी जिनवरतणी रे लाल, दूर गयं दुख दंद॥म०॥६॥रा०॥ संवत सोल छियंतरे रे लाल, मिगसिर मास म
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स्तवन-संग्रह। झार ॥ म०॥ राणपुरै यात्रा करी रे लाल, समयसुन्दर सुखकार । म ॥७॥
॥ दर्शनद्वार-श्रीआदिजिन-स्तवन ॥
समकित द्वार गुंभारै पैसतां जी, पाप पडल गयां दूर रे ॥ मोहन मारूदेवीनो लाड़लो जी, दीठो मीठो आनन्द पूर रे॥ स. ॥ १॥ आयू वरजित साते कमनी जी, सागर कोडाकोड़ी हीण रे ॥ स्थिती पढम करणें करी जीवन जी, बीरज अपूरबनो घर लोध रे ॥ २॥ स० ॥ भुंगल भांगी आदि कषायनी जी, मिथ्यात मोहन सांकल साथ रे ॥ बार ऊघाड़ा सम संबेगना जी अनुभव भवनें बेठो नाथ रे ॥ ३॥ स० ॥ तोरण बांधू जीवदया तणं जी, साथियो पूरो सरघा रूप रे ॥ धुपघटी प्रमुगुण अनुमोदना जी, द्विगुज मंगल आठ अनूप रे॥ ४॥ स०॥ संवर पाणी अंग पखालने जी, केशर चंदन उत्तम ध्यान रे ॥ आतम गुण रुचि मृगमद महमहे जी,
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अभय रत्नसार । ३१७ पंचाचार कुशम परधान रे ॥ ५॥ स०॥ भावपूजाने पावत आतमां जो, पूजो परमेसर पूण्य पवित्र रे॥ कारण जोगें कारज नीपजै जी, क्षमा विजय जिन आगम रीत रे ॥६॥ स०
॥ श्रीआदीश्वर जिन-स्तवन ॥
आदि जिनेसर अरज सुणीजै, मोहन महिर धरीजै रे॥ दिलरंजन प्रभु दरसण दीजै, म्हारो मनडो रीझ रे॥ आ० ॥ १॥प्रभु दरसन लहिवो जग दुरलभ, विन दरसन नहीं किरिया रे ॥ जे दरसण विन किरिया पाले, ते नवि कहियै त रिया रे ॥ प्रा० ॥२॥ नय एकांते दरसन थापै, पिंड भर ते पापे रे॥ आप आपणा मति आला, ते भूला भव थापे रे॥ आ० ॥३॥ शुद्ध दरसन स्याद्वादने संगे, जे ग्रहे आत्म उमंगे रे॥ आनन्दघन उपजै तसु अंग, सिद्धरमणने रंगे रे॥ प्रा० ॥ ४ ॥ भव कोडाकोडीमें भमतां, तुझ दर सन नहीं पायो रे॥ सुकृत संयोगे ताहरे सनमुख,
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३१८
स्तवन-संग्रह |
आज भले हुं आयो रे ॥ ० ॥ ५ ॥ ताहरी म हिर लहिरनो लटकौ, जो जगगुरु हूं पाउं रे || सहजे एक पल में अदभुत, आतम गुण उपजा उरे ॥ ० ॥ ६ ॥ मरुदेवानन्दन जग वंदन, स्वामी दरसण दीजै रे || लाभउदय जिनचंद लहीने, सगला कारज सीर्फे रे ॥ ० ॥ ७॥ ॥ श्री अजितनाथजी का स्तवन ॥
॥ अनंत जीन आपज्यारे || एचाल || ज्ञानादिक गुण संपदा रे, तुझ अनंत अपार, ते सांभलतां ऊपनी रें, रुचि तिण पार उतार ॥ अजित जिन तारज्यो रे । तारज्यो दीनदयाल, अ० ॥ ता० ॥ १ ॥ ए प्रकरणी ॥ जे जे कारण जेहनो रे, सामग्री संयोग || मिलतां काय नीपजे रे, कर्त्ता तनय प्रयोग ॥ ० ॥ ० ॥ २ ॥ का र्य सिद्धि कर्त्ता वसु रे, लहि कारण संयोग ॥ निज पदकारक प्रभु मिल्यारे, होय निमित्तम भोग ॥ ० ॥ ता० ३ ॥ अज कुलगत केरीस
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अभय रत्नसार । ३१६ लहे रे, निज पद सिंह निहाल ॥ तिम प्रभु भक्त भवि लहे रे, आतम शक्ति संभाल ॥ अ० ता० ॥४॥ कारण पद कर्तापणे रे, करि आरोप अभेद ॥ निज पद अर्थी प्रभुथकी रे, करै अनेक उमेद ॥ अ०॥ ता० ॥ ५॥ अहवा परमातम प्रभु रे, परमानंद सरूप ॥ स्याद्वाद सत्तारसो रे, अमल अखंड अनप ॥ अ० ।। ता० ॥ ६॥ आरो पित सुख भ्रम टल्यो रे, भास्यो अव्याबाध ॥ समस्यो अभिलाखीपणो रे, कर्ता साधन साध्य ॥ अ० ॥ ता० ॥७॥ ग्राहकता स्वामित्वता रे, व्यापक भोक्ता भाव ॥ कारणता कारज दसारे, सकल ग्रह्य निज भाव ॥ अ० ॥ ता०॥८॥ श्रद्धा भासन रमणता रे, दानादिक परिणाम ॥ सकल थमा सत्तारसी रे, जिनवर दरसन पामि ॥अ०॥ ता० ॥६॥ तिणें निर्यामक माहणो रे, वैद्य गोप आधार ॥ देवचंद्र सुख सागरू रे, भावधरम दातार ॥ अ० ॥ त० ॥ १० ॥
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३२०
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स्तवन- संग्रह |
॥ आलोयण - वृद्धं स्तवन ॥ ॥ बे कर जोड़ी वीनं जी, सुणि स्वामी सुविदीत ॥ कूड़ कपट मूंकी करी जी, बात कहूं आप वीत ॥ १ ॥ कृपानाथ मुझ विनती अवधार, ए प्रकरणी ॥ तू समरथ त्रिभुवन धरणी जी, मुझने दुत्तर तार ॥ कृ० ॥ २ ॥ भवसागर भमतां थकां जी, दीठां दुख अनंत ॥ भागसंयोगे भेटियो जी, भय भंजण भगवंत ॥ कृ० ॥ ३ ॥ जे दुःख भांज आपणाजी, तेहने कहिये दुक्ख ॥ परदुख भंज
तूं सुण्यो जी, सेवगने द्यो सुक्ख ॥ कृ ॥ ४ ॥ आलोयण लीधां पखै जी, जीव रुले संसार ॥ रूपी लक्ष्मणा महासती जी, एह सुरायो अधिकार ॥ कृ० ॥ ५ ॥ दूषमकाले दोहिलो जी, सूधो गुरु संयोग || परमारथ पीछे नहीं जी, गडरप्रवा ही लोक ॥ कृ० ॥ ६ ॥ तिए तुझ आगल आपरखा जी. पाप आलोउं आज ॥ माय बाप आगल बोलतां जी, बालक केहो लाज ॥ कृ० ॥ ७ ॥
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अभय रत्नसार ।
३२१
जिन धर्म २ सहू कहै जी, थाप अपणी जो वात ॥ समाचारी जुइ जुइ जो, शंसय पड्यां मिथ्यात ॥ कृ०॥८॥ जाण अजांणपणे करी जी, बोल्या उत्सूत्र बोल || रतने काग उडावता जी, हारथो जनम निटोल ॥ कृ० ॥ ६ ॥ भगवंत भाष्यो ते किहा जी, किहां मुझ करणी एह ॥ गज पाखर खर किम सहे जी, सबल विमासण तेह ॥ कृ० ॥ १० आप परूपं आकरो जी, जांणे लोक तहंत ॥ पिरण न करू' परमादियो जी, मासाहस दृष्टांत ॥ कृ० ॥ ११ ॥ काल अनंते में लह्या जी, तीन रतन श्रीकार || पिण परमादे पाड़िया जी, किहां जड़ करू ं पुकार ॥ कृ० ॥ १२ ॥ जाणं उत्कृष्टी करू जी, उद्यत करू अविहार ॥ धीरज जीव धरै नहीं जी, पोते बहु संसार ॥ कृ० ॥ १३ ॥ सहज पड्यो मुझ आकरो जी, न गमें भूंड़ी वात ॥ परनिंद्या करता थकांजी, जायै दिननें रात ॥ कृ० ॥ १४ ॥ किरिया करतां दोहिली जी,
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३२२ स्तवन-संग्रह। आलस आणे जीवाधरम पखै धंदे पड्यो जी,नरकै करसी रीव ॥ कृ० ॥ १५ ॥ अणहंता गुणको कहे जी, ता हरखं निसदीस ॥ को हितसीख भली दिये जी, तो मन आणं रीस ॥कृ० ॥१६॥ वादभणी विद्या भणी जी, पररंजण उपदेश ॥ मन संवेग धस्यो नही जी, किम संसार तरेस ॥ कृ० ॥ १७॥ सूत्र सिद्धांत वखाणतां जी, सुणता करम विपाक ॥ खिण इक मनमांहे ऊपजै जी, मुझ मरकट वैराग ॥ कृ० ॥१८॥ त्रिविध २ कर उच्चरू जी, भगवंत तुम्ह हजार ॥ वार २ भांजू वली जी, छूटकबारो दूर ॥ कृ० ॥ १६ ॥ आप काज सुख राचतां जी, कीधा आरंभ कोड़ ॥ ज यणा न करी जीवनी जी, देवदया पर छोड़ ॥ कृ० ॥ २० ॥ वचन दोषव्यापक कह्या जी, दाख्याँ अनरथ दंड ॥ कूड़ कपट बहु केवली जी, व्रत कीधा सत खंड ॥ कृ० ॥ २१॥ अणदीधो लोजे तृणो जी, तोही अदत्तादान ॥ ते दूषण
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अभय रत्नसार ।
३२३
लागा घणा जी, गितां नावे ज्ञान ॥ कृ० ॥ २२॥ चंचल जीव रहे नही जी, राचै रमणी रूप ॥ काम विटंबन सी कहूं जी, ते तूं जाणे सरूप ॥ क्रू० || २३ || माया ममतामें पड्यो जी, कीधो अधिक लोभ ॥ परिग्रह मेल्यो कारमो जी, न चढी संजम सोभ ॥ कृ० ॥ २४ ॥ लाग्या मुझनें लालचें जो, रात्रोभोजन दोष ॥ में मन मूक्यो मारुरो जी, न धरयो धरम संतोष ॥ कृ० ॥२५॥ इा भव परभव दूहव्या जी, जीव चोरासी लाख ॥ ते मुझ मिच्छामिदुक्कडं जी, भगवंत तोरी साख ॥ क्रु० ॥ २६ ॥ करमादान पनरे कह्या जी, प्रगट अठारे जी पाप ॥ जे में कीधा ते सहजी, बगस २ माइ बाप ॥ कृ० ॥ २७ ॥ मुझ आधार छै एतला जी, सरदहरणा है शुद्ध ॥ जिनधर्म मीठो जगत में जी, जिम साकरने दूध ॥ कृ० ॥ २८ ॥ ऋषभदेव तूं राजियो जी, सैजागिर सिणगार ॥ पाप आलोयां आपणा जी, कर प्रभु मोरी सार ॥
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३२४ स्तवन-संग्रह। कृ०॥ २६ ॥ मर्म एह जिनधमनो जी, पाप आलोयां जाय ॥ मनसुं मिच्छामिदुक्कडं जी, देतां दूर पुलाय ॥ कृ० ॥ ३० ॥ तूं गति तूं मति तूं धणी जी, तूं साहिब तूं देव ॥ आण धरु सिर ताहरीजी, भव २ ताहरी सेव ॥ कु० ॥ ३१ ॥ ॥ कलश ॥ इम चढिय सेत्रंजा चरण भेट्या नाभिनंदन जिन तणा, करजोड़ि आदिजिनंद आगे पाप आलायां आपणां ॥ श्रीपूज्य जिनचंदसूरि सद्गुरु प्रथम शिष्य सुजस घणे, गणि सकलचंद सुशिष्य वाचक समथसुन्दर गणि भणें ॥ ३२ ॥
आनधनजी कृत स्तवन
॥ श्री ऋषभदेव स्वामीका स्तवन ॥ ॥ करम परीक्षा करण कुमर चल्यो रे ॥ ए चाल ||
ऋषभ जिनेसर प्रीतम माहरो रे, उर न चा हरे कंत ॥ राज्यो साहिब संग न पहिरे रे, भांगे सादि अनंत ॥ ३० ॥१॥प्रीत सगाइरे जगमां
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अभय रत्नसार ।
३.२५
सहु करे रे, प्रीत सगाई न कोय ॥ प्रीत सगाई रे निरुपाधिक कही रे, सोपाधिक धन खोय ॥ ऋ० ॥ २ ॥ कोइ कंत कारण काष्ट भक्षण करे रे, मिलसुं कंतने धाय ॥ ए मेलो नवि कहिये संभवे रे. मेलो ठाम न ठांय ॥ ऋ० ॥ ३ ॥ कोइ पति रंजन प्रति घणो तप तपै रे, पति रंजन तन ताप ॥ ए पति रंजन में नवि चित धरयु रे, रंजन धातु मिलाप ॥ ऋ० ॥ ४ ॥ कोइ कहे लीलारे अलख लख तीरे, लख पूरै मन आस ॥ दोष रहितने लीला नवि घटे रे, लीला दोष विलास ॥ ऋ० ॥ ५ ॥ चित्त प्रसन्ने रे पूजन फल कोरे, पूज अखंडित एह ॥ कपट रहित थई आतम अरपणारे, आनंदघन पद रेह ॥ ऋ० ॥६॥ ॥ श्री अजितनाथ स्वामीका स्तवन ॥ मारुं मन मोहयुं रे श्री विमलाचले रे | ए चाल || पंथडो निहालं रे बीजा जिनतणोरे, अजि त २ गुण धाम ॥ जे तें जीत्यारे तेणे हुं जीतियो
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३२६
स्तवन-संग्रह।
A.A.
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रे, पुरुष किस्युं मुझ नाम ॥ ५० ॥ १॥ चरम नयण करी मारग जोवतोरे, भूलो सयल संसार। जेणें नयणे करो मारग जोइये रे, नयण ते दिव्य विचार ॥ पं० ॥ २ ॥ पुरुष परंपर अनुभव जोवतां रे, अंधोअंध पुलाय ॥ वस्तु विचारे रे जो आ गमे करी रे, तो चरण धरण नही ठाय ॥ ५० ॥ ३॥ तर्क विचारे रे वाद परंपरा रे, पार न पहुंचे कोय ॥ अभिमते वस्तु वस्तुगते कहे रे, ते विरला जग जोय ॥ ५० ॥ ४॥ वस्तु विचारे रे दिव्य नयणतणे रे, विरह पड्यो निरधार॥ तरतम जोगे रे तरतम वासना रे, वासित बोध आधार ॥ पं० ॥ ५॥ काल लबधि लही पंथ निहालसं रे, ए आस्या अविलंब ॥ ए जग जीवे रे जिनजी जां. णज्यो रे, आनंदघन मत अंब ॥५०॥६॥
॥ श्री संभवनाथजी का स्तवन ॥ ॥ रातड़ी रमिने किहांथी आविया रे ॥ ए चाल | ॥ संभव देव ते धुर सेवो सबै रे, लहि प्रभू
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MANNIVERY
अभय रत्नसार। ३२७ भेद ॥ सेवन सेवन कारण पहली भूमिका रे, अ भय अद्वष अरवेद ॥ सं० ॥ १ ॥ भय चंचलता हो जे परिणामनी रे, द्वेष अरोचक भाव ॥ खेद प्रवृत्ति हो करतां थाकिये रे, दोष अबोधि लखाव ॥ सं० ॥२॥ चरमावर्त्त हो चरम करण तथा र, भव परिणति परिपाक ॥ दोष टले वली दृष्टी खुले भलो रे, प्रापति प्रवचन वाक ॥ सं० ॥ ३ ॥ परिचय पातिक घातक साधसं रे, अकुशल अप चय चेत ॥ ग्रन्थ अध्यातम श्रवण-मनन करी रे, परिशोलन नय हेत ॥ सं०॥ ४ ॥ कारण जोगे हो कारज नीपजे रे, एमां कोइ न वाद ॥ पण कारण विण कारज साधिये रे, ए जिनमत उनमाद ॥ सं०॥ ५ ॥ मुग्ध सुगम करी सेवन आदरे रे, सेवन आगम अनूप ॥ देजो कदाचित सेवक याचना रे, आनंदघन रसरूप ॥ सं०॥६॥
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३२८
स्तवन-संग्रह।
॥श्रीअभिनंदन स्वामी का स्तवन ॥
॥ आज नहेज़्यो रे दीसे नाहलो ॥ ए चाल ॥ ॥ अभिनंदन जिन दरशन तरसियै, दरसण दुर्लभ देव ॥ मत २ भेदे रे जो जइ पूछिये ॥ सहु थापै अहमेव ॥ अभि० ॥ १॥ सामान्ये करी दरिसण दोहलं, निरणय सकल विशेष ॥ मदमें घेख्यो रे अंधो किम करे, रवि-शशि रूप विलेख ॥ अ०॥२॥ हेतु विवादे हो चित्त धरि जोइये, अति दुरगम नय वाद ॥ आगम वादे हो गुरुगम को नही, ए सबलो विखवाद ॥१०॥३ घाती डूंगर आड़ा अतिघणा, तुझ दरिसण जगनाथ ॥ धीठाइ करी मारग संचरू, सेंगु न कोई साथ ॥ अ०॥४॥ दरिसण २ रटतो जो फिरू, तो रणरोझ समान ॥ जेहने पीपासा हो अमृत पाननी, किम भाजै विष पान ॥ अ० ॥५॥ तरस न आवे हो मरण-जीवन तणो, सीझेजो दरसण आज ॥ दरिसण दुलभ सुलभ कृपाथकी, आनंदघन माहाराज ॥ अ०॥६॥
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अभय रत्नसार।
३२६ ॥ श्रीसुमतीनाथ स्वामी का स्तवन ॥
- ॥ गग वसंत तथा केदारा॥ ॥ समति चरण पंकज प्रातम अरपणा. दरपण जिम अविकार सुग्यानी ॥ मति तरपण बहु सम्मत जांणिये, परि सरपण सुविचार ॥ सुग्यानी सु० ॥१॥ त्रिविध सकल तनु धर गत आत मा, बहिरातम धुरि भेद ॥ सु० ॥ बीजो अंतर आतम तीसरो, परमातम अविच्छ द ॥ सु० सु० ॥२॥ आतम बुद्धे हो कायादिक ग्रह्यो, बहिरातम अघ रूप ॥ सुग्यानी ॥ कायादिकनो हो सा खीधर रह्यो, अंतर आतम रूप ॥ सुग्यानी ॥ सु० ॥३॥ ज्ञानानंदे हो पूरण पावनो, वरजित सकल उपाधि सुम्यानी ॥ अतिंद्रिय गुण गण मणि आगरू, इय परमातम साध सुग्यानी ॥ सुम० ॥ ४॥ बहिरातम तज अंतरातमा, रूप सुग्या नी थइ थिर भाव ॥ परमातमन हो आतम भाववं, आतम अरपण दाव सुग्यानी ॥ सुम०॥५
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स्तवन-संग्रह। आतम अरपण वस्तु विचारतां, मरम टलै मति दोय ॥ सु०॥ परम पदारथ संपति संपजै, आनंदधन रस पोष ॥ सु० सुम०॥ ६॥
॥श्रीशीतलनाथजी का स्तवन ॥ ॥ गुणह विसाला मंगलीक माला ॥ ए चाल ॥ ॥ शीतल जिनपति ललित त्रिभंगी, विविध भंगी मन मोहे रे ।। करुणा कोमलता तीक्षणता, उदासीनता सोहे रे ॥शी० ॥१॥ सर्व जंतु हितकरणी करुणा, कर्म विदारण तीनणा रे ॥ हाना दाना रहित परणामी, उदासीनता विक्षणा रे॥ शी० ॥ २॥ परदुःख छेदन इच्छा करुणा, तीक्षण परदुख रीझे रे॥ उदासीनता उभय विलक्षण, एक ठांमे केम सीझे रे ॥ शी० ॥३॥ अभयदान ते मल क्षय करुणा, तीक्षणता गुण भावे रे। प्रेरण विण कृत उदासीनता, इम विरोध मति नावे रे ॥ शी० ॥४॥ शक्ति व्यक्ति त्रिभुवन प्रभुता, निग्रन्थता संयोगे रे॥ योगी भोगी वक्ता
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अभय रत्नसार ।
३३१
मौनी, अनुपयोगी उपयोगे रे ॥ शी० ॥ ५ ॥ इत्यादिक बहु भंग त्रिभंगी, चमत्कार चित्त देती रे ॥ अचरजकारी चित्र विचित्रा, आनंदघन पद लेती रे ॥ शी० ॥ ६ ॥
॥ श्रीकुंथुनाथ स्वामी का स्तवन ॥ ॥ राग गुर्जरी ॥
॥ मनडो किमही न बाजे हो, कुंथु जिन म० ॥ जिम २ जतन करीनें राखुं तिम २ अलगो भाजे हो | कुंथुजिन म० ॥ १ ॥ रजनी वासर वसती ऊजड़, गया पायालें जाय ॥ सांप खायने मुख थोथुं, ए खारणा न्याय हो । कुंथु जिन म० ॥ २ ॥ मुगतितरणा अभिलाषी तपिया, ज्ञाननें ध्यान अभ्यासें ॥ वयरीडुं कांइ एवं चिंते, नाखे अवले पासे हो | कुं० म० ॥ ३ ॥ आगम आगम धरनें हाथे, नावे किरण विध आंकू ॥ किहां करणे जो हठ करी हटकूं, तो व्यालतणी पर वांकू हो | कुं० ॥ म० ॥ ४ ॥ जो
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३३२
स्तवन- संग्रह |
ठग कहूं तो ठग तो न देखूं, साहूकार पिण नांही ॥ सर्वमांह ने सहुथी अलगूं, ए रिज मनमांही हो ॥ कुं० म० ॥ ५ ॥ जे जे कहूं ते कान न धारे, आप मते रहे कालो | सुरनर पंडित जन समझावै, समझे न माहारो सालो हो ॥ कुं० म० ॥ ६ ॥ में जाएयु ए लिंग नपुंसक, सकल मरदने ठेले ॥ बीजो बातें समरथ छै नर, एहने कोई न ले हो ॥ कुं० ॥ म० ॥ ७ ॥ मन साध्यं ति सगलूं साध्यं, एह वात नही खोटी ॥ एम कहे साध्यं ते नवि मानं, ए कहि वात छे मोटी हो ॥ कुं० ॥ म० ॥ ८ ॥ मनहुं दुराराध्य तें वस आणं, ते आगमथी मतिं ॥ आनंदघन प्रभु माहरो आणो, तो साचूं कर जाणुं हो | कुं० ॥ म० ॥६॥
॥ प्रतिक्रमण में कहने योग्य पार्श्वनाथजीके छोटे स्तवन ||
|| पहला पढ़ ||
॥ श्रीसंखेसर पास जिनेसर भेटिये, भवना
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४०६
अभय रत्नसार। संचित पाप परा सब मेटियै॥ मन धर भाव अनंत चरण युग सेवतां, अणहूंते एक कोड़ि चतुर विध देवता ॥ १ ॥ ध्यान धरूप्रभू दूरथको में ताहरो,जल जिम लीनो मीन सदा मन माहरो॥ भव २ तुमहीज देव चरण हूं सिर धरु, भवसायरथी तार अरज आहोज करूं ॥२॥ भूख त्रिषा तप सीत आतप ए ना सहै, तप जप संजम भार तणी नवी निरवहै । पिण जिनवरजीना नांमतणी आसत घणी, एहिज छै आधार जगत गुरु अम्ह भणो ॥ ३॥ तुम्ह दरिसण विण स्वांम भवोदधि हूं फिस्यो, सहीया दुक्ख अनेक न कारज को सस्यो ॥ मिलिया हिव प्रभु मुझ सदा सुख दीजिये, चौ गइ संकट चुर जगत जस लीजिये ॥ ४ ॥ यादवपति श्रीकृष्णतणी आरति हरी, सैन्या कोध सचेत जरा दूरे करी ॥ परचा पूरण पास रयण जिम दीपतो, जयवंतो जिणचंद सयल रिपु जीपती ॥ ५ ॥
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४१० स्तवन-संग्रह। ..... . ॥ दूसरा पद ॥
मनमोहन महाराज, तीन भुवन सिरताज ॥ आछेलाल, नगर ब्रहानपुर राजीया जी॥१॥ पास जिनंद प्रधान, निरमल सुगुण निधान ॥ आछेलाल, वामासुत वडभागीयाजी ॥ २ ॥ सेवकनी संभाल, करिय खरी ततकाल ॥ आछेलाल, संकट सहु प्रभु परिहया जी ।। ३ ॥ चिंता करी चकचूर, प्रगट्यो आनंद पूर ॥ आछेलाल, वाट विषमता पिण टली जी ॥ ४ ॥प्रभुजीने परसाद वीता सहु विखवाद ॥ आछेलाल, मन वंछित मुझ सहु फल्या जी ॥ ५ ॥ ध्यान समाधिनी थाप, मिलिया छो प्रभु आप ॥ आछेलाल, देज्यो दरिसण वलि सदा जी ॥ ६॥ अमृतधर्म सुजाण, शिष्य क्षमाकल्याण ॥आछेलाल, वाचक इम वीनती करै जी ॥७॥
॥तीसरा पद ॥ ___ जयकारी जिनराज, पुरिसादाणी रे॥ वामा
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अभय रत्नसार ।
४११
सुत वरदाय, निरमल नांणी रे ॥ १ ॥ पांच कमल प्रभु अंग, निरुपम निरख्या रे || तीन कमल मुझ संग आतम हरख्यारे ॥ २ ॥ वंदन महोदय देख, चंद लजा रे ॥ गगन भने निसदीस, इम मन आंणुं रे ॥ ३ ॥ सुरमणि ज्युं सुखकार, नयण विराजै रे ॥ हृदयकमल सुविलास, थाल ज्युं छाजै रे ॥ ४ ॥ प्रभु कर चरण विलोक, पंकज हास्योरे ॥ ततखिण निज संवास, जलमें धास्त्रो रे ॥ ५ ॥ इम सरवंग उदार, श्रीजिनराया रे ॥ साचै पुण्य संयोग, साहिब पाया रे ॥ ६ ॥ प्रभुगुण अनुभव नीर, सांग सुरंगे रे ॥ टाल्यो पातिक पंक, आतम संगेरे ॥ ७ ॥ वरस अढार चोतीस, वदि वैसाखे रे ॥ मनुहर पांचम दीस, सहु संघ साखै रे ॥ नगर महेवा मांहि, पास जुहास्या रे ॥ श्रीजिनचन्द मुणिंद, वांछित सा
खारे ॥ ६ ॥
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४१२
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स्तवन- संग्रह |
॥ चौथा पद ॥
वालेसर मुझ वीनती गोडीचा, अलवेसर अवधार हो गोडीचाराय ॥ प्रगट थई पातालथी गोडोचा, सेवक जिन साधार हो गो० ॥ वा ० ॥ १ ॥ आँख थई ऊतावली, गो० ॥ दरसण देखण का ज हो ॥ गो० ॥ पांणीनखमे पातली, गो० ॥ द्यो दरसण महाराज हो || गो० ॥ वा० ॥ २ ॥ तूं साहिब सुपनंतरे, गो० ॥ मिलियो छै निक मेव हो || गो० ॥ तोषिण आया ऊमही, गो० । संप्रति करवा सेव हो, गो० ॥ वा० ॥ ३ ॥ जो पातानो त्रेवडो, गो० ॥ सगलो भाति सदीव हो, गो० ॥ उंची नीची वातमें, गो० ॥ थे मति घालो जीव हो || गा० || वा० ॥ ४ ॥ देव घण ही देवल, गो० ॥ दीठां ते न सुहाय हो । गो० इक दीठां मन ऊलसे, गो० ॥ इक दोठां उल्हाय हो ॥ गो० ॥ वा० ॥ ५ ॥ काले वा माहरे, गो० ॥ कीधी खरी सभीड हो । गां० ॥ दरसण
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अभय रत्नसार । ४१३ देवानी नकी, गो० ॥ पाणीवलि पिण ढील हो। गो० ॥ वा०॥६॥ तें कीधी तिम तूं करै, गो० राखी चिहुं मांहे लाज हो ॥ गो० ॥ वलि अवसर संभारज्यो, गो० ॥ इम जपै जिनराज हो॥ गो० ॥ वा० ॥७॥
॥पांचवां पद ॥ अरज सुणीजै अंतरजामी, पास जिनेसर स्वामी रे ॥ अश्वसेन वामाजीके नंदन, त्रिभुवन जन विसरामी रे ॥ अ०॥१॥ गुण गिरवा गोडीचा स्वामी, नाथ निरंजन नामी रे ॥ अ०॥ भव अटवी वन घन विच भमतां, पुण्ये सेवा पामी रे ॥ १०॥२॥ दीनदयाल दया कर दीजै, अनुभव गुण अभिरामी रे ॥ अ० ॥ चरण कमल सेवा चित चाहत, सुगण सदा हितकामो रे ॥ अ०॥॥
॥छठा पद ॥ प्यारी पासकी, देखी सूरत मो मन भाय ॥
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४१४ स्तवन-संग्रह। प्या० ॥ अश्वसेन वामाजीके नंदन, देख्यां विल हरखाय ॥ प्या० ॥१॥ तीन लोकमें महिमा जाकी, सुर नर मुनि गुण गाय ॥ प्या० ॥ नील वरण मनमोहन निरख्यो, नाथ गोडीचा राय॥ प्या०॥२॥ सुगण सेवगकी येही अरज हे, भवदुख ताप मिटाय ॥ प्या०॥३॥
॥ सातवां पद ॥ ॥ श्रीचिंतामण पासजी,अजब सुरंग अनूप॥ सवाइ प्रभूजी, थांरी सांवली सूरत म्हानु प्यारी लागे राज ॥ वामाजी नंदन वांदवा, चितड़ामें लागी छै चंप ॥ सवाइ प्रभूजी ॥ १॥ अणियाली प्रभू आंखडी, वदन सरोज विकास ॥ स० ॥ थां० ॥ नयण सलूणे जी निरखतां, ऊपज अधि क उल्हास ॥ स० ॥ थां०॥२॥ अंगज नृप अ. श्वसेननो, करुणा निधि करतार ॥ स. थां ।। पुण्य संयोगे जी पांमीयो, दिल रंजन दीदार ॥ स० थां० ॥३॥ तो दिन सफलो जांणिय, सो
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अभय रनसार।
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य घड़ी सुप्रमाण ॥ स०॥ भगतवच्छल भल भे टिय, जिनवर चतुरसुजाण ॥ स० ॥ थां०॥४॥ जालम जेसलगढ जयो, श्रीचिंतामणि पास ॥ स०॥ जगपति श्रीजिनचंद्रनी, अविचल पूरो जी आस ॥ स० ॥ थां०॥५॥
॥आठवां पद ॥ ॥ जीवन मारा तेवीसमा जिनराय रे, जिनवरजी ॥ तुम विन देख्यां एक घडी न रहाय, म्हारा जिनवरजी ॥ १॥ तुमे अमारा हीयडलाना हार रे, जि० ॥ अमे तुमारा दास छियै निर धार ॥ म्हारा जि० ॥ लागी तुमसं लगन हमारी जोर रे, जि०॥ चंद चकोरा जलधरने जिम मोर॥ म्हारा जि० ॥२॥ नयण तुमारा कामणगारा जोर रे, जि०॥ चितड़ो लीधो जिम तिम करि ने चोर ॥ म्हारा जि० ॥ अरज हमारी मानो मोटा देव रे, जि० ॥ आपो भव २ चरणकमलनी सेव म्हारा जि ॥३॥ आस धरीने आवे जे तुह्म
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स्तवन-संग्रह। पास रे, जि० ॥ नवि मंकीजे स्वामी तेह निरोस म्हारा जि० ॥ मोटानी तो मोटी थायै बुद्धि रे, जि० ॥ इम जांणिने करज्यो माहरी शुद्ध ॥ म्हारा जि० ॥४॥ राखज्यो मुझ ऊपर निविड सनेह रे, जि. ॥ अवगुण जांणी छिटक न देज्यो छेह ॥ म्हारा जि० ॥ खरतर गच्छपति श्रीजिनलाभ सूरिंद रे, जि०॥ तासु पसायें पभणे अनोपमचंद ॥ म्हारा जि० ॥ ५ ॥
॥ नवां पद ॥ सुगण सनेही प्रभुजी अरज सुणीज्यो, अरज सुणीने मोसु महिर धरीज्यो राज ॥ सु०॥ तुं छै प्रभूजी म्हारो अंतरजामी, पूरब पून्यै थारी सेवा में पांमी राज॥ साहिब में तो तुझने जाण्यो छै साचो, कदिय न दिलमांहे आणुं हुं काचो राज ॥ सु० ॥ १ ॥ साचे तो दिलसुराज करीय सगाई, सुगण प्रभुजीस्युं वधज्यो प्रीत सवाई राज ॥ सु०॥ दरसण प्रभुजी ताहरो दिलमांहे
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अभय रत्नसार। वसियो, रात दिवस थारा गुणनो छू रसियो राज ॥ सु०॥२॥ खिजमतगारो प्रभुजी चाकर छू खासो, कदिय न मेरों प्रभुजी पलभर पासो राज ॥ सु० ॥ मोटानी महरे राज मोटा कहोज, लाहो लाखीणो प्रभुजी संगे लहीजै राज ॥ सु० ॥ ३ ॥ पिंजर तो फिरसी राज केइ परदेसे, राज सदाइ मारा दिलमांहे रहसी राज ॥ सु०॥ रंगै हूं चोल मजीठ रंगाणा, नहिय विसरस्युप्रभुजी दरसण टाणो राज ॥ सु० ॥ ४॥ लुलि २ हूं तुम पाये जी लागं, मोज महिर तुम पासे हूं मांगू राज ॥ सु० ॥ श्रीजिनचंद्र सदा साधारो, तारक प्रभुजी थे भवजल तारो राज ॥ सु० ॥५॥
॥ दसवां पद ॥ ॥ मोरा पास जिनराज, सूरत थारी लागे प्यारी॥ दीठा आवे दाय, मो० ॥ जिम २ सूरत देखियै प्रभु, तिम २ वाधे प्रीत ॥ तन मन मारा उलसै काइ, रूडी प्रोतनी रीत ॥मो० ॥ १॥
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४१८
स्तवन- संग्रह |
नया कमलदल पांखडी प्रभु, मुखड़ो पूनमचन्द ॥ दीपशीखासी नासिका काइ, दीठा परमानंद ॥ मो० ॥ २ ॥ कांने कुंडल गिमिंगे प्रभु, कंठे नवसर हार ॥ चंपकली सोहे भली कांइ, मुखर्डे ज्योत अपार ॥ मो० ॥ ३ ॥ तू है जगनो वाल हो प्रभु, थारे सेवग कोड || म्हारे तंहिज साहि वो कांइ, वंदू बेकर जोड, ॥ मो० ॥ ४ ॥ आज मनोरथ सब फल्या, में दीठा श्रीजिनराज ॥ सदानंद पाठक तरणा कांइ, सीधां सगलां काज ॥ मो० ॥ ५ ॥
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॥ ग्यारहवां पद ॥
जिनजी महिर करोने राज, दरसण वहिलो दीजै ॥ दीजै २ जी महाराज, कारज सगला सी ॥ ए करणी ॥ मुझ मन भमरतणी पर मोह्यो, छोड़ायो नवि छूटै ॥ प्रेम राग बंधारणो पूरण, ते तो कदेय न खूटै ॥ जि० ॥ १ ॥ अलगथकां पिण हूं प्रभु तुमने, नहिय विसारु दिल
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अभय रत्नसार। ४१६ सं॥ रात दिवस एहवी मन वरते, जाणं जइ मिलुं तुमसुं ॥ जि० ॥२॥ पूरव पुण्यथकी में पायो, ए अवसर आजूणो ॥ मिलियो तूं प्रभु पास चिन्तामण, साहिब सहज सलूणो ॥ जि० ॥३॥ थारे तो सेवग छै बहुला, मो सरिखा लख ग्याने, माहरे तो इण जगमे जोतां, थारे नही कोइ टाणे ॥ जि० ॥ ४ ॥ आस हिये इक ताहरी राखू, बीजो मुख नही भाखू ॥ अमृत जेम लही गुणरस, खारो जल किम चाखू ॥ जि० ॥ ५ मोहन ए मुद्रानी महिमा, कहतां पार न आवे ॥ सायर लहर मालाने गिणतां, कहो कुण मति उ पजावै ॥जि०॥६॥ भगतपणे किंचित गुण भाखू,हूं म्हारी मति सारू ॥ निरुपमा अनुपम तुझ गुण लायक, त्रिभुवन जीवन सारू ॥ जि०॥७॥ वरस अढार वली इकताले, मिगसर पख उजवाले ॥ इग्यारस दिन अधिक सनेहे, यात्रा करी सुविशाले ॥ जि० ॥८॥ जेसलगिरि श्रीसंघ
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४२० स्तवन-संग्रह। जुगतसं, मेलो तिहां मंडायो ॥ लाभ उदय जिनचन्दने प्रभुजी,वांध्यो प्रेम सवायो । जि० ॥६॥
॥ बारहवां पद ॥ ॥ तूं मेरे मनमें प्रभु तूं मेरे दिलमें, ध्यान धरू पल २ में ॥ पास जिनेसर अंतरजामी, सेवा करू छिन २ में ॥ तूं० ॥१॥ काहूको मन तरुणीसें राच्यो, काहूको चित्त धनमें ॥ मेरो मन प्रभु तुमहीसे राच्यो, ज्यु चातक चित्त घनमें । तूं०॥ २ ॥ जोगीसर तेरी गति जाणे, अलख निरंजन छिनमें ॥ कनककीरत सुखसागर तूही, साहिब तीन भुवनमें ॥ तं० ॥३॥
॥ निर्वाण-कल्याणक-स्तवन ॥ ॥ मारगदेशक मोक्षनो रे, केवल ज्ञान निधान ॥ भाव दयासागर प्रभु रे, पर उपगारी प्रधानो रे ॥ १॥ वीर प्रभु सिद्ध थया, संघ सकल आधारो रे ॥ हिव इण भरतमां, कुण करशे उपगारो रे ॥ वीर० ॥ २ ॥ नाथ विहूणं सैन्य ज्यं
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अभय रत्नसार।
४२१ रे, वीर विहूणो रे संघ ॥ साधे कुण आधारथी रे, परमानंद अभंगो रे॥ वोर० ॥३॥ मात विहणां बाल ज्यु रे. अरहां परहा अथड़ाय ॥ वोर विहूणा जीवड़ा रे, आकुल व्याकुल थायो रे॥ वोर० ॥ ४ ॥ संशय छेदक वीरनो रे, विरह ते केम खमाय ॥ जे दीठे सुख ऊपजे रे, ते विण किम रहिवायो रे ॥ वीर० ॥ ५ ॥ निर्यामक भव समुद्रनो रे, भव अटवी सत्त्थवाह ॥ ते परमेसरविण मिल्यारे, किम वाधे उत्साहो रे ॥वीर०॥६॥ वोर थकां पण श्रुत तणो रे, हुंतो परम आधार ॥ हमणां श्रुत आधार छे रे, ए जिन आगम सारो रे॥वीर० ॥ ७ ॥ इण काले सवि जोबने रे, आ गमथी आनंद ॥ध्यावो सेवा भविजना रे, जिन पडिमा सुखकंदो रे ॥ वार०॥८॥गणधर आचारिज मुनि रे, सहुने इण परसिद्ध ॥ भव भव आगम संगथा रे,देवचंद्र पद लीधा रे॥वीर०॥६॥
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स्तवन- संग्रह |
॥ श्रीतीर्थ मालाका स्तवन ॥
॥ शत्रुंजय ऋषभ समोसस्था, भला गुण भय्या रे ॥ सिद्धा साधु अनंत, तीरथ ते नमुं रे ॥ तीन कल्याणक तिहां थयां, मुगतें गया रे नेमीसर गिरनार ॥ ती० ॥ १ ॥ अष्टापद एक दे हरो, गिरिसेहरो रे ॥ भरतें भराव्यां बिंब ॥ ती०
चौमुख अति भलो, त्रिभुवन तिलो रे ॥ विमल वइस वस्तुपाल ॥ ती० ॥ २ ॥ समेतशिखर सोहामणो, रलियामरणो रे || सिद्धा तीर्थंकर वीश ॥ ती० ॥ नयरी चंपा निरखीयें, हैये हरखीयें रे ॥ सिद्धा श्रीवासुपूज्य ॥ ती० ॥ ३ ॥ पूर्व दिशें पावापुरी, ऋद्धे भरी रे ॥ मुक्ति गया महावीर ॥ ती० ॥ जेसलमेर जुहारीयें, दुःख वारीयें रे ॥ अरिहंत बंब अनेक || ती० ॥ ४ ॥ बिकाने रज वंदीयें, चिर नंदीयें रे ॥ अरिहंत देहरां आठ ॥ ती० ॥ सोरिसरो संखेसरो, पंचासरो रे फलोधी थंभण पास ॥ ती० ॥ ५ ॥ अंतरिक अं
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अभय रत्नसार । ४२३ जावरो, अमीझरो रे ॥ जीरावलो जगनाथ ॥ तो० ॥ त्रैलोक्य दीपक देहरो, जात्रा करो रे॥ राणपुरे रिसहेस ॥ ती० ॥६॥श्रीनाडुलाई जादवो, गोडी स्तवो रे ॥ श्रीवरकाणो पास ॥ ती. नंदीश्वरनां देहरां, बावन भलां रे ॥ रुचक कुंडल चारू चार ॥ ती० ॥७॥ शाश्वती अशाश्वती, प्रतिमा छती रे ॥ स्वर्ग मृत्यु पाताल ॥ ती० ॥ तीरथ जात्रा फल तिहां, होजो मुझ इहां रे ।। समयसुन्दर कहे एम ॥ ती० ॥८॥
॥ महावीर स्वामीके पारणाको स्तवन ।
॥ दूहा ॥ श्रीअरिहंत अनंत गुण, अतिशय पूरण गात्र ॥ मुनि जे ज्ञानी संजमी, कहिये उ. त्तम पात्र ॥ १॥पात्रतणी अनुमोदना, करतो जीरणसेठ ॥ श्रावक अच्युत गति लहे, नवग्रे. वेका हेठ ॥२॥ दस चउमासा वीरजी, विचरत संजम वास ॥ विशालापुर आविया, इग्यारमी च उमास ॥ ३॥ ढाल ॥ चोमासी इग्यारमी जी,
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४२४
स्तवन- संग्रह |
विचरत साहसधीर ॥ विशालापुर बाहरे जी, व्या श्रीमहावीर ॥ १ ॥ जगतगुरु त्रिशलानंदन जो, भले में भेट्या श्रीजिनराय ॥ सखीरी चोक पूरावो आय, मेरे भाग्य अनोपम माय ॥ ज० ॥ २ ॥ बलदेवनो के देहरो जी, तिहां प्रभु काउसग्ग लीध ॥ पच्चक्खाण चोमासनो जी, स्वामीए तप कोध ॥ ज० ॥ ३ ॥ जीरणसेठ तिहां वसे जी, पाले श्रावकधमं ॥ आकारे तिण ओलख्या जी ॥ जाणे श्रीजिन मर्म ॥ ज० ॥ ४ ॥ आज उपवासोया जी, स्वामी श्रीवर्द्धमांन काले सही प्रभु जीमस्ये जो, से हाथे देस्युं दान ॥ ज० ॥ ५ ॥ सदा सेठ इम चिंतवे जो, होसी सफल मुझ आस ॥ पक्ष मास गिरणतां थकां जीपूरी थइ चोमास ॥ ज० ॥ ६ ॥ सामग्री आहारनी जो, जोरण कोधो तइयार ॥ प्रभुनो मारग देखता जी, बेठो घरने बार ॥ ज० ॥ ७ ॥ घर आवे पाहुणो जो निहुत्यो एक वार ॥ प्रभुजी
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अभय रत्नसारू ।
४२५
कां न पधारसी जी, में निहुत्या वारंवार ॥ ज० ॥ ८। पीछे करस्युं पारणो जी, हूं प्रभूने पंडिलाभ ॥ होय मनोरथ एहवो जो, तोय विन वरसे आभ ज० ॥६॥ अवसर ऊठ्या गोचरी जी, श्रीसिद्धारथपुत || विशालापुर आवतां जी, पूरणधरे पहुत्त ॥ ज० ॥ १० ॥ मिथ्यात्वी जाणे नही जी, जंगम तीरथ एह || चेड़ी प्रते इम कहे जी, कांइक भिना देह ॥ ज० ॥ ११ ॥ चाटू भरने बाकला जी, प्रभूने आंणी दीध ॥ नीरागी तेही लिया जी, तिहां प्रभू पारणो कीध ॥ ज० ॥१२॥ देव बजावेदुदुभि जी, जय बोले कर जोडि || हेम वृष्टि हुइ तिहां जी, साढीबारे कोडि ॥ ज० ॥ १३ ॥ कहो सेठ तुमे स्युं दियो जी, कियो पारणो वीरलोकां प्रते इम कहे जी, में वहिराइ क्षीर ॥ ज० ॥ १४ ॥ राजादिक सहू ए कहे जी, धन २ पूरण सेठ | ऊँची करणी तें करी जी, अवर सहू तुझ हेठ ॥ ज० ॥ १५ ॥ जीरणसेठ सुखे तबे जी,
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स्तवन-संग्रह। वाजित दुंदुभि-नाद॥अन्यत्र कियो प्रभु पारणो जी, मनमें थयो विषवाद ॥ ज०॥१६॥ हूं जगमें अभागियो जी, मेरे न आया सांम ॥ कल्पवृत किम पांमीये जी, मारूमंडल ठाम ॥ज०॥ १७॥ जेता मनोरथ में किया जी, तेता रह्या मनमांहि ॥॥ निरधन जिम २ चिंतवे जी, तिम २ निरफल थाय ॥ ज० ॥ १८॥ स्वामी तिहां कियो पारणो जी, कियो अन्यत्र विहार ॥ आया पास संतानिया जी, तिहां मुनि केवलधार ॥ज०॥ १६ विशालापुर राजियो जी, लोकास्युं आणंद ॥राय प्रश्न पूछे इस्यो जी, सुगुरु चरण अरविंद ॥ ज० ॥ २० ॥ मेरे नगरमें को अछे जी, जीव पुण्य जसवंत ॥ कहे केवली आज तो जी, जीरणसेठ महंत ॥ ज० ॥ २१ ॥ राय कहे किण कारणे जी, जीरणसेठ महंत ॥ दांन दियो जिन वीरने जी, पूरणसेठ महंत ॥ ज० ॥ २२॥ राय प्रने कहे केवली जी, पूरण दीनो दान ॥ हेमवृष्टि फल
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अभय रत्तसार ।
४२७
तेहने जी, अवर न कोई प्रमाण ॥ ज० ॥ २३ ॥ देवलोक तिरा बारमें जी, जीरण घाल्यो बंध ॥ विना दान दियां लह्यो जी, उत्तम फल संबंध ॥ ज० ॥ २४ ॥ घडी एक सुर दुन्दुभि जी, जो न सुरांतो कान || लहितो जीरण तो सही जी, केवल अविचल ठांम ॥ ज० ॥ २५ ॥ राजा जीररणने दियो जी, अधिक मान सनमान ॥ मुतनगरमें थापियो जी, जोवो पुण्य प्रमाण ॥ ज० ॥ २६ ॥ दान दियो सुपात्रने जी, ते निष्फल नवि जोय ॥ पात्रदान अनुमोदना जी, जीरण जिम फल थाय ॥ ज० ॥ २७ ॥ इम जांगी अनुमोदना जी, दान सुपात्र रसाल ॥ दान देवे सुपात्रने जी, तेहने नमे मुनि माल ॥ ज० ॥ २८ ॥
॥ श्रीगौड़ी पार्श्व जिन - वृद्ध स्तवन ॥
॥ दूहा ॥ वाणी ब्रह्मा वादिनी, जागे जग वि ख्यात || पास तणां गुण गावतां, मुझ मुख वस-ज्यो मात ॥ १ ॥ नारंगे राहिलपुरे अहमदावादे
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४२८
स्तवन -संग्रह |
पास ॥ गोडीनो धरणी जागतो, सहूनी पूरे आस ॥२॥ शुभ वेला शुभ दिन घड़ी, महुरत एक मंडाण ॥ प्रतिमा ते इह पासनी, थई प्रतिष्ठा जांण ॥ ३ ॥
॥ ढाल १ ॥ गुहि विशाला मंगलीक माला वामानो सुत साचो जी ॥ धरण करण कंचरण मणि माणक दे, गोडीनो धरणी जाचो जी ॥ गुरु ॥ ४॥
हिलपुर पाटण मांहे प्रतिमा, तुरकतणे घर हूंती जी ॥ अश्वनी भूमि अश्वनी पीड़ा, अश्वनी वालि विगूती जी ॥ गु० ॥ ५ ॥ जागंतो जन जेहने कहिये, सुहणोतुरकने पे जी || पास जिनेसर केरी प्रतिमा, सेवग तुझ संतापे जी ॥ ६ ॥ गु० ग्रह ऊठीने परगट करजे, मेघा गोठीने देजे जी ॥ अधिकम लेजे उछो मले जे, टक्का पांचसे लेजे जी ॥ ७ ॥ गु० ॥ नहि आपिस तो मारीस मुरडिस, मोर बंध बंधास्ये जी ॥ पुत्र कलत्र धन हय गय हाथी तुज, लच्छीघणी घर जास्थे जी ॥ ८ ॥ गु० मारग पहिलो तुमने मिलस्ये, सारथवाह जे
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अभय रत्नसार ।
४२६
गोठी जी ॥ निलवट टीलो चोखा चोट्या, वस्तु वहे तसु पोठी जी ॥ ६ ॥
॥ दूहा ॥ मनसुं बिहतो तुरकडो, माने वचन प्रमाण || बीबीने सुहणा तणो, संभलावे सहिनाग १० बीबी बोले तुरकने, वडा देव हे कोय ॥ अवस ताव परगट करो, नहितर मारे सोय ११ पाछली रात परोडिये, पहली बांधे पाज || सुहणा मांहे सेठने, संभलावे यन-राज ॥ १२ ॥
|| ढाल || एम कही यक्ष आयो राते, सारथवाहने सुहणे जी ॥ पास तणी प्रतिमा तं लेजे, लेतो सिर मत धूणे जी ॥ ए० || १३ || पांच टक्का तेहने पे, अधिको म आपिस वारू जी ॥ जतन करी पहुंचाडे थांनक, प्रतिमा गुण संभारे जी ॥ ० ॥ १४ ॥ तुझने होसी बहु फलदायक, भाइ गोठी सुजे जी ॥ पूजे प्रणमे तेहना पाया, प्रह ऊठीने थुणजे जी ॥ ए० ॥ १५ ॥ सुहणो देइने सुर चाल्यो, आपणे थांनक पहुंतो जी ॥
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४३०.
स्तवन -संग्रह ।
पाटणमांहे सारथवाह, होंडे तुरकने जोतो जी ॥ ए० ॥ १६ ॥ तुरके जातो दीठो गोठी, चोखा तिलक लिलाडे जी ॥ संकेत पहुतो साचो जाणी, बोलावे बहु लाडे जी ॥ ए० ॥ १७ ॥ मुझ घर प्रतिमा तुझने आपूं, श्रीपास जिनेसर केरी जी ॥ पांचसे टक्का जो मुझ आपे, तो मोल न मांगू फेरी जी ॥ ए० ॥ १८ ॥ नाणो देइ प्रतिमा लेइ, थानक पहुतो रंगे जी, केशर चंदन मृगमद घोली, विधसुं पूजा रंगे जी ॥ ए० १६ ॥ गादी रूडी रूनी कीधी, ते मांहि प्रतिमा राखे जी ॥ अनुक्रम आव्या परिकर मांहे, श्रीसंघने सुर साखे जी ॥ ए० ॥ २० ॥ उच्छव दिन २ अधिका थाये. सत्तर भेद सनात्रो जी ॥ ठांम २ ना दरसण करवा, वे लोक प्रभातो जी ॥ ए० ॥ २१ ॥
दूहा ॥ इक दिन देखे अवधि, परिकर पुरनो भंग ॥ जतन करू प्रतिमा तो, तीरथ छे अभंग ॥ २२ ॥ सुहणो आपे सेठने, थल अट
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अभय रत्नसार ।
४३१
वी ऊजाड़ || महिमा थास्ये अति घणी, प्रतिमा तिहां पहुंचाड़ ॥ २३ ॥ कुशल क्षेम तिहां अछे, तुमने मुझने जांण, संका छोड़ी काम कर, करतो मकरी संकांणि ॥ २४ ॥
ढाल || पास मनोरथ पूरा करे, वाहण एक वृशभ जोतरे ॥ परिकरथी परियाणो करे, एक थल चढ़ि बीजो उबारे ॥ २५॥ वारे कोस आ व्यां जेतले, प्रतिमा नवि चाले तेतले ॥ गोठी मनह विमासा थइ, पास भवन मंडावं सही ॥ २६ ॥ अटवी किम करू प्रयाण, कटको कोइ न दीसे पाहाण || देवल पास जिनेसर तणो, मंडावं किम घरथे विणो ॥ २७ ॥ जल विन श्रीसंघ रहस्ये किहां, सिलावटो किम आवे इहां ॥ चिंतातुर थयो निद्रा लहे, यक्षराज आवी इम कहे ॥ २८ ॥ गली ऊपर नाणो जिहां, गरथ घणो जाणीजे तिहां ॥ स्वस्तिक सोपारीने ठाणी, पाहण ती उलटस्ये खांणी ॥ २६ ॥
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४३२ स्तवन-संग्रह। श्रीफल सजल तिहां किल जुओ, अमृत जल निसरिस्ये कूओं॥ खाराकूआ तणो इह सैनांण, भूमि पड्यो छे नीलो छाण ॥ ३०॥ सिलावटो सीरोही वसे, कोढ पराभवियो किसमिसे ॥ तिहांथकी तूं इहां आणजे, सत्य वचन माहरो मानजे ॥३१ गोठीनो मन थिर थापियो, शिलाबटने सुहणो दियो॥ रोग गमीने पूरूँ आस, पास तणो मंडे आवास ॥ ३२ ॥ सुपनमांहि मांन्यो ते वेण, हेम वरण देखाड्यो नेण ॥ गोठी मनह मनोरथ हुआ, सिलावटने गया तेड़वा ॥ ३३ ॥ सिलावटो आवे सूरमो, जीमे खीर खाँड घृत चूरमो॥ घड़े घाट करे कोरणी, लगन भले पाया रोपणी ॥३४॥ थंभ २ कीधी पूतली, नाटक कौतुक करती रली ॥ रंग-मंडप रलियामणो रचे, जोतां मानवनो मन वसे ॥३५॥ नीपायो पूरो प्रासाद, स्वर्ग समो मंडे आवास ॥ दिवस विचारी इंडो घड्यो, ततखिण देवल ऊपर चढ्यो ॥ ३६॥
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अभय रत्तसार।
शुभ लगन शुभ वेला वास, पव्वासण बेठा श्री पास ॥ महिमा मोटो मेरु समान, एकलमिल वगडे रहे वान ॥३७ ॥ वात पुराणी में सांभली, तवनमांहि सूधी सांकली। गोठीतणा गोतरिया अछे, यात्रा करीने परणे पछे॥ ३८॥
॥ दूहा ॥ विघन विडारण जक्ष जगि, तेहनो अकल सरूप ॥ प्रीत करे श्रीसंघने, देखाड़े निज रूप ॥ ३६॥ गिरओ गौड़ीपास जिन, आपे अरथ भंडार ॥ सानिध करे श्रीसंघने, आस्सा पूरणहार ॥४०॥ नील पलाणे नील हय, नीलो थइ असवार ॥ मारग चूका मानवी, वाट दिखावणहार ॥४१॥
॥ढाल ४॥ वरण अढार तणो लहे भोग, विघन निवारे टाले रोग ॥ पवित्र थइ समरे जे जाप, टाले सघला पाप संताप ॥ ४२ ॥ निरधनने घर धननो सूत, आप अपुत्रियाने पूत ॥ कायरने सूरापणो धरे, पार उतारे लच्छी वरे ४३
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४३४
स्तवन-संग्रह। दोभागीने दे सोभाग, पग विहणाने आपे पाय ॥ ठाम नही तेहने द्य ठांम, मन वंछित पूरे अभिराम ॥ ४४ ॥ निरधाराने घे आधार, भवसायर उतारे पार॥आरतियानी आरत भंग, धरे ध्यान ते लहे सुरंग ॥ ४५ ॥ समस्यां सहाय दिये जक्षराज, तेहना मोटा अछे दिवाज ॥ बुद्विहीनने बुद्धि प्रकाश, गंगाने द्य वचन विलास ॥४६॥ दुखियाने सुखनो दातार, भय भंजण रंजण अवतार ॥ बंधन तूटे बेडीतणा, श्री पश्व नाम अक्षर स्मरणतां ॥४७॥
॥ दूहा ॥ श्रीपाशा नाम अक्षर जपे, विश्वानर विकराल ॥ हस्तियुद्ध दूरे टले, दुद्धर सीह सियाल ॥ ४८ ॥ चौरतणा भय चूकवे, विष अमृत उडकार ॥ विषधरना विष उतरे, संग्रामे जय-जयकार ॥ ४६॥ रोग-शोग दालिद्र दुख, दोहग दूर पूलाय ॥ परमेसर श्रीपासनो, महिमा मंत्र जपाय॥ ५० ॥
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अभय रत्तसार ।
॥ ढाल ५ ॥ चाल कडखा की ॥
ॐ जततू २ ॐ ज उपशम धरी, ॐ ह्रीं श्रीं श्रीपार अक्षर जपते ॥ भूतने प्रेत झोटिंग व्यंतर सुरा, उपशमे वार इकवीस गुणंते ॥ ५१ ॥ ॐ० ॥ दुद्धरा रोग शोग जरा जंतरा, ताव एकंतरा दुत्तते ॥ गर्भबंधन व्रणं सर्प विछू विषं, चालिका बाल मेवाझवंते ॥ ५२ ॥ ॐ ० ॥ साइणी डाइणी रोहणी रंकणी, फोटका मोटका दोष हुते ॥ दाढ ऊंदरतणी कोल नोलां तणी, श्वान सियाल विकराल दंते ॥ ५३ ॥ ॐ ० ॥ धरणेंद्र पद्मावती समर सोभावती, वाट आघाट अटवी अते ॥ लखमी लोंदो मिले सुजस वेला वले ॥ सयल स्याफले मन हसंते ॥ ५४ ॥ ॐ० ॥ अष्ट महाभय हरे कानपीड़ा टले ॥ ऊतरे शूल सीसग भरते ॥ वदत वर प्रीतसुं प्रीतविमल प्रभु, श्रीपास जिण नाम अभिराम मंते ॥ ५५ ॥
४३५
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४३६ स्तवन-संग्रह।
॥ मंगलीक-स्तोत्र ॥ धम्मो मंगल मुकिठं, अहिंसा संजमो तवो। देवा वित्तं नम संति, जस्स धम्मे सयामणो ॥१॥ जहा दुम्मस्स पुप्फेसु, भमरो आवइ रसं । नय पुप्फ किलामेइ, सोइ पीणेइ अप्पयं ॥२॥ एवमेए समणा मुत्ता, जे लोए संति साहुणो। विहंगमाइ पुप्फेसु, दाणभत्ते सणेरया ॥३॥ वयं च वि त्तिं लब्भामो। नहि कोइ उव हम्मइ। अहागडे सुरीयंति, पुप्फेसु भमरोजहा ॥४॥ महुकार समा बुद्धा, जे भवंति अणिस्सिया। नाणापिंडरयादिता, तेण वुच्चति साहुणो तिव्वेमि ॥ ५॥ सर्व मंगल मांगल्यं, सर्व कल्याण कारणं । प्रधानं सव्वधर्माणां, जैनं जयति शासनम् ॥ १॥ मंगलं भगवान्वीरो, मंगलं गौतमः प्रभु।मंगलं स्थूलिभद्राद्या, जनोधर्मोस्तु मंगलम्
॥ नवकार महात्म्य ॥ (छंद) ॥ सुखकारण भवियण समरो नित नवकार,
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अभय - रत्नसार ।
४३७
॥
जिनशासन आगम चवदे पूरव सार ॥ इण मंत्रनी महिमा कहितां न लहुं पार, सुरतरु जिम चिंतित वंछितफल दातार ॥ १ ॥ सुर दानव मानव सेव करे कर जोड़, भूयमंडल विचरे तारे भवियण कोडि || सुरछंदे विलसे अतिशय जास अनंत, पहिले पद नमिये अरि गंजन अरिहंत ॥२॥ जे पनरे भेदे सिद्ध थया भगवंत, पंचमि गति पुहता अष्ट कर्म करि अंत ॥ कल कल सरूपी पंचानंतक जेह ॥ सिद्धना पाय प्रणमुं बीजे पद वलि एह ॥ ३ ॥ गच्छमार धुरंधर सुंदर शशिहर शोम, कर शारणवारण गुण छत्तीसे थोम ॥ श्रुत जांग शिरोमण सागर जेम गंभीर, तीजे पद नमिये आचारज गुण धीर ॥ ४ ॥ श्रुतधर गुण आगम सूत्र भरणाचे सार, तप विध संयोगे भाखे रथ विचार ॥ मुनिवर गुणयुत्ता ते कहिये उवझाय, चोथे पद नमिये अहनिश तेहना पाय ॥ ५ ॥ पंचाश्रव टाले पाले पंचाचार, तपसी गुण
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४३
स्तवन-संग्रह। धारी वारो विषय विकार॥ त्रस थावर पीहर लोकमांहि ते साध, त्रिविधे ते प्रणमं परमारथ जिण लाध ॥ ६॥ अरि हरि करि साइण डाइण भूत वेताल,सब पाप पणासे विलसे मंगलमाल ॥ इण समस्यां संकट दूर टले ततकाल, जंपेजिण गुण इम सुरवर सीस रसाल ॥७॥ ॥ श्रीसंखेश्वरा पार्श्वनाथ-स्तवनं ॥ (छद)
॥ सेवो पास संखेसरो मन शुद्धे, नमूं नाथ निश्चे करी एक बुधे ॥ देवी देवता अन्यने शु नमो छो, अहो भव्य लोको भुला कां भमो छो॥ १॥ त्रैलोक्यना नाथने सुं तजो छो, पड्या पाश मे भूतड़ांने भजो छो ॥ सुराधेनु छंडी अजाने अजोछो, महापंथ मंकी कुपंथे ब्रजोछो॥२॥ तजे कोण चिंतामणी काच माटे, ग्रहे कोण रशभने हस्ति साटे॥ सुरद्रुम ऊपाड़ने आक वावे, महामूढ ते आकुला अंत पावे ॥३॥ किहां कांक रोने ज किहां मेरु शृग, किहां केशरीने किहांते
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अभय-रत्नसार ।
४३६
कुरंग || कहां विश्वनाथं किहां अन्य देवा, करो एक चित्ते प्रभु पार्श्व सेवा ॥ ४ ॥ पूजो देव प्रभावती प्राणनाथं, सह जीवने करे सह सनाथं ॥ महातत्व जाणी सदा जेह ध्यावे, तेहना दुक्ख दालिद्र दूरे गमावे ॥ ५ ॥ पांमी मानुषीने वृथा क्यु गमो छो, कुशीले करी देहने कां दमो छो, नहि मुक्ति वासं विना वितरागं ॥ भजो भगवंतं तजो दृष्टिरागं ॥ ६ ॥ उदय रत्न भाखे महा हेत आणी दयाभाव कीजे मोहि दास जांणी ॥ मोरे आज मोतोअडे मेह छूठा, प्रभु पास संखेसरो आप तुटा ॥ ७ ॥
गौतम स्वामीका छोटा रास ।
॥ वीर जिनेसर केरो शीश, गोतम नांम जपो निश दीश ॥ जो कीजे गौतमनो ध्यांन, से घर विलशे नवे निधान ॥ १ ॥ गौतम नांमे गिरवर चढे, मन वंछित लीला संपजे ॥ मौतम नांमे नावे रोग, गौतम नांमे सर्व संजोग ॥ २॥ जे वैरी
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४४०
स्तवन- संग्रह |
विरुया वंकड़ा तस नामे नावे ढुंकडा ॥ भूत प्रेत नवी मंडे प्राण. ते गौतमना करूं वखाण ॥३॥ गौतमनां निरमल काय, गौतम नांमे वाधे आय ॥ गौतम जिनशासन सिणगार, गौतम नांमे जय२ कार || ४ || शाल दाल सदा घृत घोल, मनवंछित कप्पड तंबोल ॥ घरे सुघरणी निरमल चित्त, गौतम नांमे पूत्र विनीत ॥ ५ ॥ गौतम उदयो अविचल भांण, गौतम नाम जपो जगजाण ॥ मोटा मंदिर मेरु समान, गौतम नांमे सफल विहाय ॥ ६ ॥ घर मयगल घोड़ानी जोड़, वारू विलसे वंछित कोड़ि || महियल मांने मोटा राय, जो पूजे गौतमना पाय ॥ ७ ॥ गोतम प्रणम्यां पातिक टले, उत्तम सरसी संगत मिले ॥ गौतम नां निर्मल ज्ञान, गौतम नांमे वाधे वान ॥८॥ पुण्यवंत अवधारो सह, गुरु गौतमना गुण छ बह ॥ कहे लावण्य समय कर जोड़ि, गौतम पूज संपत को कोड़ि ॥६॥
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अभय रत्नसार। ४४१ ॥ सोलह सतीओं का छंद ॥ आदिनाथ आदि देइ जिनवर वांदी, सफल मनोरथ कीजिये ए॥ प्रभात ऊठी मंगलीक काजे, सोले सती नाम लीजिये ए॥१॥बालकुमारी जग हितकारो, ब्राह्मी भरतनी बहिनड़ी ए॥घट २ व्यापक अक्षररूपे, सोल सती माहि जे वड़ी ए ॥ २॥ वाहुबल भगनी सतिय शिरोमणि, सुंदरी नामे ऋषभ सुता ए ॥ अंग स्वरूपी त्रिभु वनमांहे, जेह अनोपम गुणयुताए ॥३॥चंदनबाला बालपणेथी, शीलवती शद्ध श्राविका ए॥ उड़दना बाकला वीर प्रति लाभ्या, केवल लहि व्रत भाविका ए॥ ४॥ उग्रसेन धूआ घारणी, नंदन राज्यमती नेम वल्लभा ए॥ योवन वेशें कामने जीती, संजम लेइ देव दुल्लभा ए॥ ५ ॥ पंच भरतारी पांडव नारी, द्रुपदा नाम वखाणिये ए॥ एकसो आठे चीर पुराणा, शोल महिमा तसं जाणिये ए॥६ । दशरथ नपनी नारि निरोपम,
४२
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४४२
स्तवन-संग्रह |
कौशल्या कुलचंद्रिका ए ॥ शीयल सलखी राम जनीता, पुण्यती प्रणालिका ए ॥ ७ ॥ कौशां बिक ठांमे शतानिक नांमे, राज्य करे रंग राजियो ए ॥ तस घर घरणी मृगावती नामे सुरभुवने जश गाजियो ए ॥ ८ ॥ सुलसा साची शील न काची, राची नही विषयारसें ए ॥ मुखड़ो जोतां पाप पुलाये, नाम लेतां मन उल्लसे ए ॥ ६ ॥ राम रघुवंशी जेहनी कामण, जनक सुता सीता सती ए ॥ जग सहू जांगे धीज करंता, अनल शीतल थयो शीलथी ए ॥ १० ॥ काचे तांतरण चालणी बांधी, कूवाथकी जल काढियो ए ॥ कलंक उतारवा सतिय सुभद्रा, चंपा बार उघाड़ियो ॥ ११ ॥ सुरनर वंदित शील अकंपित, शिवा शिवपद गांमनी ए ॥ जेहने नामे निरमल थइये, बलिहारी तसु नामनी ए ॥ १२॥ हस्तिनागपुर पांडवरायनी, कुंता नामे कामनी ए ॥ पांडव माता दशे दशारनी, बहिन पतिव्रता पढ़
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अभय रत्नसार ।
४४३
मनी ए ॥ १३ ॥ शीलवती नामें शीलवत धारिणी, त्रिविधे तेहने वंदीये ए ॥ नाम जपतां पांतिक जाए, दरसन दुरित निकंदि ए ॥१४॥ निषधानगरी नल नरपतनी, दवदंती तसु गेहनी ए ॥ संकट पड़ियां शीलज राख्यो, त्रिभुवन कीर्त्ति जेहनी ए ॥१५॥ अनंग अजीता जगजन जीता, पुष्पचूला ने प्रभावती ए ॥ विश्व विख्याता कामित दाता, सो
मी सती पद्मावती ए ॥ १६ ॥ वीरे दाखी शास्त्र छे साखी, उदयरत्न भाषे मुदा ए ॥ प्रह ऊठीने जे नर भणसे, ते लहिस्ये सुख-संपदा ए ॥ १७ ॥ ॥ श्रावक - करणी की सझाय ॥
॥ चोपाइ ॥ श्रावक तूं ऊठे परभात, चार घड़ी ले पाछली रात ॥ मनमां समरे श्री नवकार, जेम पामे भव सायर पार ॥ १ ॥ कवण देव कवण गुरुधर्म, कवण मारुं छे कुलकर्म ॥ कवण अमा छ व्यवसाय, एवं चिंतवजे मन मांय ॥ २ ॥ सामायिक लेजे मन शुद्ध, धर्मनी हैंडे धरजे
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४४४
स्तवन-संग्रह। बुध ॥ पडिक्कमणं करे रयणी तणं, पातक आलोई
आपणुं ॥३॥ कायाशक्त करे पञ्चक्खाण, सूधि पाले जिननी आण । भणजे गणजे स्तवन सझाय, जिणहुतो निस्तारो थाय ॥ ४॥ चितारे नित्य चउदे नीम, पाले दया जीवतां सीम॥ देहरे जाई जुहारे देव, द्रव्यभावथी करजे सेव ॥ ५ ॥पोषालें गुरु वंदन जाय, सुणो वखाण सदा चित्त लाय ॥ निर्दूषण सूजतो आहार, साधुने देजे सुविचार ॥ ६ । स्वामीवत्सल करजे घणां, सगपण महोटा साहम्मीतणां । दुःखीया हीणा दीना देखि, करजे तास दया सुविशेष ॥७॥ घर अनुसारे देजे दान, महोटाशुम करे अभिमान ॥ गुरुने मुखे लेजे आखड़ी, धर्म न मूकोश एके घड़ी ॥८॥ वारु शद्ध करे व्यापार, ओछा अधिकानो परिहार ॥ म भरिश केनी कूडी साख, कूडा जनशं कथन म भांख ॥ ६ ॥ अनंतकाय कहिये बत्रीश, अभक्ष्य बाविशे विश्वा वीस ॥ ते भक्षण
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अभय रत्नसार । ४४५ नवि कीजें किमे, काचां कवला फल मत जिम।१०॥ रात्रिभोजनना बहु दोष, जाणीने करजे संतोष,॥ साजी साबू लोहने गुलो, मधु धावडी मत वेचो बली ॥ ११ ॥ वली म करावे रंगण पास, दूषण घणां कह्यां छ तास ॥ पाणी गलजे बेबे वार, अणगल पीतां दोष अपार ॥ १२ ॥ जीवाणोनां करजे यत्न, पातक छडो करजे पुण्य ॥ छाणां इंधण चूले जोय, वावरजे जिम पाप न होय।१३। घृतनी परें वावरजे नीर, अणगल नीर म धोइश चोर ॥ ब्रह्मवत सूधं पालजे. अतिचार सघला टालजे ॥ १४ ॥ कह्यां पन्नरे कर्मादान, पापतणी परहरजे खाण ॥ किशं म लेजे अनरथ दंड, मिथ्या मेल म भरजे पिंड ॥ १५ ॥ समकित शुद्ध हेडे राखजे, बोल विचारिने भांखजे ॥ पांच तिथि म करो आरंभ, पालो शीयल' तजो मन दंभ ॥ १६ ॥ तेल तक घृत दूधने दहि, ऊघाड़ां मत मेलो सही ॥ उत्तम ठामें खरचो
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४४६
स्तवन- संग्रह |
वित्त, पर उपगार करो शुभवित्त ॥ १७ ॥ दिवस चरिम करजे चौविहार, चारे आहार तरणी परिहार । दिवस तणां लोए पाप, जिम भांजे सघला संताप ॥ १८ ॥ संध्यायें आवश्यक साचवे, जिनवर चरण शरण भव भवें ॥ चारे शरण करी दृढ होय, सागारी असण ले सोय ॥ १६ ॥ करे मनोरथ मन एहवा, तीरथ शत्रुंजे जायवा ॥ समेतशिखर आबू गिरनार, भेटीश हुं धन धन अवतार ॥२०॥ श्रावकनी करणी छे एह, एहथी था भवन ह ॥ आठे कर्म पड़े पातलां, पाप तरणा छुटे आमला ॥ २१ ॥ वारु लहियें अमर विमान, अनुक्रमें पामे शिवपुर धाम ॥ कहे जिनहर्ष घर ससनेह, करणी दुःखहरणी के एह ॥ २२॥
॥ गौतम स्वामीका बड़ा रास ॥
|| वीर जिणेसर चरण कमल कमलाकय वासो, पणमवि पभणिसुं सामी साल गोयम गुरुरासो ॥ मणतण वयणे एकंद करवि निसु
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अभय रत्नसार।
४४७
णहु भा भविया, जिम निवसे तुम देह गेह गुण गण गह गहिया ॥१॥ जंबुदीव सिरि भरहखित्त खोणी तल मंडण. मगहदेस सेणिय नरेस रिउदल बलखंडण ॥ धणवर गुठवर गाम नाम जिहां गुणगणसजा, विप्प वसे वसुभूइ तत्थ तसु पुहवी भजा ॥ २ ॥ ताणपुत्त सिरहंद भूय भूवलयपसिद्धो, चवदह विज्जा विवहरूब नारी रस लुद्धो॥ विनय विवेक विचार सार गुण गणह मनोहर, सात हाथ सुप्रमाण देह रूवहि रंभा वर ॥ ३॥ नयणवयण कर चरण जणवि पंकज्जलपाड़िय, तेजहिं तारा चंद सूरि आकास भमाड़िय ॥ रूवहि मयण अनंग करवि मेल्यो निरधाडिय, धीरम मेरु गंभीर सिंधु चंगम चयचाडिय ॥ ४॥ पेखवि निरुवम रूव जास जण जपे किंचिय, एकाकी किल भीत्त इत्तथ गुण मेल्या संचिय॥ अहवा निच्चयपुव जम्म जिणवर इण अंचिय रंभा पउमा
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४४८
स्तवन- संग्रह |
गवर गंग रतिहां विधि वचिय ॥ ५ ॥ नय बुध नय सरकविण कोय जसु आागल रहियो, पंच सयां गुण पात्र छात्र होंडे परवरियो ॥ करय निरंतर यज्ञ करम मिथ्यामति मोहिय, अरा चल होसे चरमनाण, दंसह विसोहिय ॥ ६॥ वस्तु ॥ जंबूदीव जंबूदीव भरह वासम्मी खोणी तल मंडण, मगह देस सेणिय नरेसर, वरगुव्वर गाम तिहां, विप्प वसे वसुभृद्द, सुंदर तसु पुहवि भज्जा सयल गुण गण रूव निहाण, ताण पुत्त विज्जा निलो. गोयम अतिही सुजाण ॥ ७ ॥ भास ॥ चरम जिनेसर केवलनाणी, चौविहसंघ पट्टा जाणी || पावापुरसामी संपत्तो, चउविह देव निकायहिं जुत्तो ॥ ८ ॥ देवहि समवसरण तिहां किजें, जिस दीठे मिथ्यामत छीजे ॥ त्रिभुवनगुरु सिंहासन बेठा, ततखिण मोह दिगंत पइड्डा ॥ ६ ॥ क्रोध मान माया मदपूरा, जाये नाठा जिम दिनचोरा ॥ देव दुन्दुभि आगासें
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अभय रत्नसार। ४४६ वाजी, धरम नरेसर आव्यो गाजी॥१०॥ कुसुमवृष्टि अरचे तिहां देवा, चउसठ इन्द्रज मांगे सेवा ॥ चामर छत्र सिरोवरि सोहे, रूवहि जिनवर जग महु मोहे ॥ ११॥ उपसम रसभर वरवरसंता, जोजनवाणि वखाण करता ॥ जाणवि वर्द्धमान जिण पाया, सुर नर किन्नर आवइ राया ॥ १२ ॥ कंत समोहियजलहलकंता, गयण विमाणहि रणरणकंता ॥ पेखवि इन्द्रभूइ मन चिंते, सुर आवे अमयज्ञ हुवंते ॥ १३ ॥ तीरतरं डक जिम ते वहिता, समवसरण पुहता गहगहिता ॥ तो अभिमाने गोयम जंप, इण अवसर कोपें तणु कंपे ॥ १४ ॥ मूढा कोक अजाण्यु बोले, सुर जाणंता इम कांइ डोले ॥ मो आगल कोइ जाण भणीजें, मेरु अवर किम उपमा दीजें ॥ १५ ॥ वस्तु ॥ वीर जिणवर विर जिणवर ना ण संपन्न पावापुर सुरमहिय, पत्तनाह संसारता रण ॥ तिहिं देवइ निम्महिय, समवसरण बहू
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४५०
स्तवन-संग्रह। सुक्ख कारण ॥ जिणवर जग उज्जोय करे, तेजहि कर दिन कार सिंहासण सामी ठव्यो,हो तो जयजयकार ॥ १६ ॥ भास ॥ तो चढियो घणमाण गजे, इन्दभूय भूयदेव तो॥ हुंकारो करसंचरिय, कवणसु जिणवर देव तो ॥ जोजन भूमि समोसरण, पेखवि प्रथमारंभ ॥ तो दहदिसि देखे विबुधवधू, आवंती सुररंभ तो ॥१७॥ मणिमय तोरणदंड ध्वज, कोसीसे नवघाट तो॥ वयर विवर्जित जंगुगण, प्रातीहारिज आठ तो ॥ सुर नर किन्नर असुरवर, इन्द्र इन्द्राणी राय तो॥ चित्त चमकिय चिन्तव ए, सेवंतां प्रभु पाय तो ॥ १८ ॥ सहस किरण सामी वीरजिण, पेखिन रूप विसाल तो ॥ एह असंभव संभव ए, साचो ए इन्द्र जाल ता॥ता बाला वइ त्रिजग गुरु.इन्द्रभइ नामेण तो ।। श्रीमुख संसा सामि सवे, फेड़े वेद पएण तो ॥ १६ ॥ मान मेल मद ठेल करे, भगतहिं नाम्यो सीस तो॥ पंच सयांसं व्रत
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अभय रत्तसार ।
४५१
लियो ए, गोयम पहिलो सोस तो ॥ बंधव संजम सुवि करे, अनि भूइ आवेय तो ॥ नाम लेइ आभास करे, ते पण प्रतिबोधेय तो ॥ २०॥ इ अनुक्रम गणहररयण, थाप्या वोर इग्यार तो ॥ तो उपदेसे भुवन गुरु, संयमं व्रत बार तो || बिहुं उपवासें पारणो ए, आपण विरहंत तो, गोयम संयम जग सयल, जय जय कार करंत तो ॥ २१ ॥ वस्तु ॥ इन्द्रभूइ इंद्रभूइ चढि - यो बहुमान हुंकारो करि कंपतो, समवसरण पहु तो तुरंतो ॥ जे संसा सामि सवे, चरमनाह फेड़े फुरंततो || बोधबीज सज्जायमनें, गोयम भवहि विरत || दिक्ख लेई सिक्खा सही, गणहरपयसंपत्त ॥ २२ ॥ भास ॥ आज हुआ सुविहाण, आज पचेलिमां पुण्य भरो ॥ दीठा गोमय सामि, जो नियनय अमिय झरो । समवसरण मकार, जेजे संसा ऊपजे ए ॥ ते ते पर उपगार, कारण पूछे मुनि पवरो ॥ २३ ॥ जीहां दीजें
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४५२
स्तवन-संग्रह। दोख, तिहां केवल उपजे ए॥ आप कनें अण्णहुंत, गोयम दीजें दान इम ॥ गुरु ऊपर गुरु भक्ति, सामी गोयम ऊपनिय ॥'अणचल केवल नाण, रागज राखे रंग भरे ॥ २४ ॥ जो अष्टापद सेल, वंदे चढ चउवीस जिण ॥ आतम लब्धि वसेण, चरम सरीरी सोज मुनि ॥ इय देस णा निसुणेह, गोयम गणहर संचयि ॥ तापस परसएण, जो मुनि दीठो आवतो ए॥ २५ ॥ तपसो सियनिय अंग, अह्मां सगति न ऊपजे ए ॥ किम चढसे दृढ काय, गज जिम दीसे गा जतो ए ॥ गिरो ए अभिमान, तापस जो मन चिन्तवे ए ॥ तो मनि चढियो वेग, आलंबवि दिनकर किरण ॥ २६ ॥ कंचण मणि निप्पन्न, दंड कलस ध्वज वड सहिय ॥ पेखवि परमाणंद, जिणहर भरतेसर महिय ॥ निय निय काय प्रमाण, चिहुं दिसि संठिय जिणह बिंब ॥ पणमवि मन उल्लास, गोयम गणहर तिहां वसिय ॥२७॥
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अभय रत्नसार। ४५३ वयर सामिनो जीव, तीर्थकजभक देव तिहां ॥ प्रति बोध्या पुंडरीक, कंडरीक अध्ययन भणी ॥ वलतां गोयम सामि, सवि तापस प्रतिबोध करे॥ लेई आपण साथ, चाले जिम जथा धिपति ॥ २८ ॥ खीर खांड घृत आण, अमोय बेठ अंगूठ ठवे ॥ गोयम एकण पात्र, करावे पारणो सवे ॥ पंचसयां शुभ भाव, उज्जल भरियो खीर मिसे । साचा गुरुसंयोग, कवल ते केवल रूप हुआ ॥ २६ ॥ थंचसयां जिणनाह, सम वसरण प्राकारत्रय ॥ पेखवि केवल नाण, उपनो उज्जोय करे ॥ जाणे जवि पीयूष, गाजंती. घन मेघ जिम ॥ जिनवाणी निसुणेवि, नाशी हुआ पंचसया ॥ ३०॥ वस्तु ॥ इण अनुक्रम इण अनुक्रम नाण पन्नरेसें, उपन्न परिवरिय, हरिदुरिय जिणनाहवंदइ,जाणेवी जग गुरु वयण, तिहिं नाण अप्पाण निंदइ, चरमजिनेसर इम भणे, गोयम म करिस खेव, छेह जाय आ
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४५४ स्तवन-संग्रह। पण सही, होस्यां तुल्ला बेव ॥ ३१॥ भास ॥ सामियो ए वीर जिणंद, पूनमचंद जिम उल्लसिय ॥ विहरियो ए भरहवासंमि, वरस बहुत्तर संवसिय ॥ ठव तो ए कणय पउमेण, पायकमल संघ सहिय ॥ आवियो ए नयनानन्द, नयर पावापुर सुरमहिय ॥३२॥ पेखियो ए गोयमसामि, देवसमा प्रतिबोध करे ॥ आपणो ए त्रिशलादेवि, नंदन पुहतो पर मपए ॥ वलतो ए देव आकाश, पेखवि जाण्यो जिण समे ए॥ तो मुनि ए मनविखवाद, नादभेद जिम ऊपनो ए॥३३॥ इण समे ए सामिय देखि, आपकनासं टालियो ए॥ जाण तो ए तिहु अण नाह, लोक विवहार न पालियो ए ॥ अतिभलो ए कीधलो सामि, जाण्यो केवल मांगसे ए ॥ चिंतव्यो ए बालक जेम, अहवा केड़ें लागसे ए ॥ ३४ ॥ हूं किम ए वीर जिणंद, भगतहिं भोलें भोलव्यो ए ॥ आपणो ए उँचलो नेह, नाह न
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४५५
अभय रत्नसार। संपे साचव्यो ए ॥ साचो ए ए वीतराग, नेह न हेजें टालियो ए ॥ तिणसमे ए गोयम चित्त, राग वैरागें वालियो ए॥ ३५ ॥ आवतो ए जो उल्लह, रहितो रागें साहियो ए॥ केवल ए नाण उप्पन्न, गोयम सहिज उमाहियो ए॥ तिहुअण ए जयजयकार, केवल महिमा सुर करे ए॥ गणधरु ए करय वखाण, भविया भव जिम निस्तरे ए॥३६॥ वस्तु॥पढम गणहर पढ़म गणहर वरस पञ्चास, गिहवासें संवसिय तीसवरससंजम विभूसिय, सिरि केवलनाणपुण, बार वरस तिहुअण्ण नमंसिय, राजगृही नयरी ठव्यो, वाणवइ वरसाउ, सामी गोयम गुणनिलो, होसे सिवपुर ठाउ ॥ ३७॥ भास ॥ जिम सहकारें कोयल टहुके, जिम कुसुमावन परिमल महके, जिम चंदन सौगंधनिधि ॥ जिम गंगाजल लहियां लहके, जिम कणयाचल तेजें झलके, तिम गोयम सोभागनिधि ॥ ३८ ॥ जिम मानसरोवर निवसे हंसा,
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४५६.
स्तवन- संग्रह । -
जिम सुरतरुवइ करणयवतंसा, जिम महुयर राजीववनें || जिम रयणायर रयणं विलसे, जिम अंबर तारागण विकसे, तिम गोयम गुरु केल घने ॥ ३६ ॥ पूनमनिसि जिम ससियर सोहे, सुरतरु महिमा जिम जगमांहे, पूरव दिसि जिम सहसकरो || पंचानन जिम गिरिवर राजे, नर वइ घर जिम मेगल गाजे, तिम जिनशासन मुनि पवरो ॥ ४० ॥ जिम गुरु तरुवर सोहे साखा, जिम उत्तम मुख मधुरी भाषा, जिम वन के कि महमहे ए ॥ जिम भूमीपती भुयबल चमके, जिम जिनमंदिर घंटा रणके, गोयमलबधें गहगह्यो ए ॥ ४१ ॥ चिंतामणि कर चढीयो आज, सुरतरु सारे वंधिय काज, कामकुंभ सहु वशि हुआ ए ॥ काम गवी पूरे मन कामी, अष्टमहासिद्धि आवे धामी, सामी गोयम अणसरी ए ॥ ॥ ४२ ॥ प्रणव अक्षर पहिलो पभणी जें, माया बीजो श्रवण सुखी जें ॥ श्रीमिति साभा संभवो
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अभय-रत्नसार।
४५७ ए ॥ देवां धुर अरिहंत नमीजें, विनय पहू उवझाय थुणीजें, इण मंत्रे गोयम नमो ए ॥४३॥ परघर वसतां काय करीजे, देस देसांतर काय भमी जें, कवण काज आयास करो ॥ प्रह ऊठी गोयम समरीजें, काज समग्गल ततखिण सीझे, नवनिधि विलसे तिहां घरे ए॥४४॥ चवदयसय बारोत्तर वरसे, गोयम गणहर केवल दिवसें, कीयो कवित उपगारपरो ॥ आदहिं मंगल ए पभणीजें, परव महोच्छव पहिलो दीजें, रिद्धि-वृद्धि कल्याण करो ॥ ४५ ॥ धन माता जिण उयरे धरियो, धन्य पिता जिण कुल अवतरियो, धन्य सुगुरु जिण दीक्खियो ए ॥ विनयवंत विद्या भंडार, तसु गुण पुहवी न लब्भइ पार, बड जिम साखा विस्तरो ए॥ गोयमखामोनो रास भणीजें, चउविह संघ रलियायत कीजं, रिद्धि-वृद्धि कल्याण करो ॥ ४६ ॥ कुंकुम चन्दन छडो दिवरावो, माणक मोतीना चोक
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४५८
स्तवन-संग्रह। पूरावो, रयण सिंहासण बेसणो ए ॥ तिहां बेठो गुरू देशना देशी, भविक जीवना काज सरेसी, नित नित मंगल उदय करो ॥४७॥ इति श्रीगौतम स्वामीका रास संपूर्ण ॥
राग प्रभाती जे करे, प्रह ऊगमते सूर ॥ भूख्यां भोजन संपजे, कुरला करे कपूर ॥१॥ अंगूठे अमृत वसे, लब्धि तणा भंडार ॥ जे गुरु गौतम समरिये, मनबंछित दातार ॥ ३॥ पुडरीक गोयम पमुहा, गणधर गुण संपन्न ॥ प्रह ऊठोनें प्रणमता, चवदेसे बावन्न ॥३॥ खंतिखमंगुणकलियं, सुविणियं सव्वलद्धि संपण्णं ॥ वीरस्स पढम सीसं, गोयम सामी नमसामी ॥४॥ सर्वारिष्टप्रणाशाय, सर्वामिष्टार्थदायिने ॥ सर्वलब्धिनिधानाय, गौतमस्वामिने नमः ॥ ५ ॥ ॥ इति पदम् ॥
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४५६
अभय रत्नसार। श्री शJञ्जय का रास।
दूहा ॥ श्रीरिसहेसर पाय नमी, आणी मन आनंद ॥ रास भणू रलियामणो, सेव॒जानो सुखकंद ॥ १ ॥ संवत च्यार सतोतरे, हुआ धनेश्वर सूर ॥ तिण सेत्रुञ्जा माहातम कियो, शिला दैत्य हजूर ॥२॥ वीर जिणंद समवसस्या, सेत्रुञ्जा ऊपर जेम ॥ इंद्रादिक आगल कह्यो, सेत्रुझा महातम एम ॥ ३ ॥ सेव॒जा तीरथ सारिखो, नही छे तीरथ कोय ॥ स्वर्ग मृत्यु पातालमें, तीरथ सगला जाय ॥ ४ ॥ नांमे नव निध संपजे, दीठा दुरित पुलाय ॥ भेटता भव भय टले, सेवंता सुख थाय ॥५॥ जंब नामे द्वीप ए, दक्षिण भरत. मझार ॥ सोरठ देस सुहामणो, तिहां छे तीरथ सार.॥ ६॥
___ पहली ढाल-राग रामगिरी। ॥ सेव॒जोने. श्रीपुण्डरीक, सिद्धक्षेत्र कहूं
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४६० श्रीशत्रुजयका रास। तहतीकः॥ विमलाचलने करू प्रणाम, ए सेत्रंजैना इकवीस नाम ॥१॥ सुरगिरिने महागिरि पुण्यरास, श्रीपदपर्वत इंद्रप्रकाश ॥ महातीरथ पूरवे सुखकाम ॥ ए० ॥ २ ॥ सासतो पर्वतने दृढशक्ति, मुक्तिनिलो तिण कीजे भक्ति ॥ पुष्पदन्त महापद्म सुठांम ॥ ए. ॥३॥ पृथ्वी पीठ सुभद्र कैलाश, पातालमूल अकर्मक तास ॥ सर्व काम कीजे गुणग्रांम॥ए०॥४॥श्रीशनंजयना इकवीस नांम, जपेज वेठा अपने ठाम ॥ शत्रुजय जात्रानो फल ते लहे, महावीर भगवन्त इम कहे ॥ ए. ॥ ५
॥ दूहा ॥ सेव॒ञ्जो पहिले अरे, असी जोयण परिमाण ॥ पिहलो मूल उंचपण, छब्बीस जोयण जांण ॥ १॥ सत्तर जोयण जाणवो, बीजे अरे विसाल ॥ वीस जोयण उचो कह्यो, मुझ वन्दना त्रिकाल ॥ २॥ साठ जोयण तीजे अरे, पिठुलो तीरथराय ॥ सोल जोयण उचो
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अभय रत्तसार।
सही, ध्यान धरूं चित लाय ॥३॥ पचास जोयण पिहुलपण, चोथे अरे मझार, उंचो दस जोयण अचल, नित प्रणमें नर नार ॥४॥बार जोयण पंचम आरे, मूलतणे विसतार ॥ दो जोयण उंचो अछे, सेत्रो तीरथ सार ॥ ५ ॥ सात हाथ छठे आरे,पिहुलो परवत एह ॥ उंचो होस्ये सो धनुष, सासतो तीरथ एह ॥६॥
दूसरी ढाल । केवलनाणी प्रमुख तीर्थकर, अनन्त सीधा इण ठाम रे ॥ अनन्त वली सिझस्ये इण ठामे, तिण करूनित परणाम रे ॥१॥ शत्रु ञ्जय साधू अनन्ता सीधा, सीझसी वलिय अनन्त रे ॥ जिण शत्रुञ्जय तीरथ नही भेट्यो,ते गरभावास कहन्तरे ॥ से० ॥२॥ फागुण सुदि आठमने दिवसे, ऋषभदेव सुखकार रे॥ रायणरूख समोसस्या स्वामी, पूर्व निनाणू वार रे ॥से० ॥ ३॥ भरतपुत्र चैत्री पुनम दिन, इण सेत्रंज
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४६२ श्रीशत्रुजयका रास । गिरि आय रे ॥ पांच कोडीसु पुंडरीक सीधा, तिण पुंडरीक कहाय रे ॥ से० ॥ ४ ॥ नमि विनमी राजा विद्याधर, बेबे कोडो संघात रे॥ फागुण सुद दशमी दिन सीधा, तिण प्रणमु परभात रे॥ से०॥५॥ चैत्रमास वदि चौदसने दिन, नमीपुत्री चउसट्टि रे॥ अणसण कर शत्रुजयगिर ऊपर, ए सहु सीधा एकट्टि रे ॥ से० ॥६॥ पोतरा प्रथम तीर्थंकर केरा, द्रावड ने वारिखिल्ल रे॥ कातो सुदि पूनम दिन सोधा, दश कोडी मुनिसुनिसल्ल रे॥ से० ॥७॥पांचे पांडव इण गिर सीधा, नव नारद ऋषिराय रे ।। संव प्रज्जन्न गया इहां मुगते, आठू कर्म खपाय रे ॥ से० ॥८॥नेम विना तेविस तिथेकर. समवसस्या गिरिशृङ्गरे ॥ अजित शान्ति तीर्थंकर बहू, रह्या चोमासे सुरङ्ग रे ॥ से० ॥ ६॥ सहस साधु परिवार संघाते, थावच्चासुत साथ रे ॥ पांचसें साधुसुसेलग मुनिवर, शत्रुजय शिवसुख लाध
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अभय रत्तसार ।
४६३ रे॥ से० ॥ १०॥ असंख्याता मुनि शत्रं जय सीधा, भरतेसरने पाट रे ॥राम अने भरतादिक सीधा, मुक्तितणी ए वाट रे ॥ से०॥ ११ ॥ जालि मयालीने उवयाली, प्रमुख साधुनी कोडि रे ॥ साधु अनंता शत्रुजय सीधा, प्रणमुबे कर जोडि रे ॥ से० ॥ १२ ॥
तीसरी ढाल-चौपाइकी। ॥ शत्रुजयना कहुं सोल उद्धार, ते सुणज्यो सहुको सुविचार ॥ सुणतां आणंद अङ्ग न माय, जनमरना पातिक जाय ॥१॥ ऋषभदेव अयोध्यापुरी, समवसख्या स्वामी हित करी॥ भरत गयो वन्दणने काज, ये उपदेश दियो जिनराज ॥२॥ जगमांहे मोटा अरिहन्त देव, चोसठ इंद्र करे जसु सेव ॥ तेहथो मोटो संघ कहाय, जेहने प्रणमें जिनवरराय ॥३॥ तेहथी मोटो संघवी कह्यो, भरत सुणीने मन गहगह्यो । भरत कहे ते किम पांमिये, प्रभु कहे शत्रुजय जात्रा
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४६४
श्रीशत्रुंजयका रास ।
किये ॥ ४ ॥ भरत कहे संघवीपद मुझ, थे आपो हूं अंगज तुझ ॥ इन्द्र आण्या अक्षतवास, प्रभु आप संघवीपद तास ॥ ५ ॥ इन्द्र तिरण बेला ततकाल, भरत सुभद्रा बिहु ने माल ॥ पहिरावी घर संप्रे डीया, सकल सोनाना रथ आपिया ॥ ६ ॥ रिषभदेवनी प्रतिमा वली, रत्नतरणी दीधी मन रली || भरते गणधर घर तेडिया, शांतिक पौष्टिक सहु तिहां किया ॥ ७ ॥ कोत्री मूकी सहु देस, भरत डायो संघ सेस ॥ आयो संघ अयोध्यापुरी, प्रथमथकी रथजात्रा करी ॥ ८ ॥ संघ भक्ति कीधी प्रतिघणी, संघ चलायो शत्रुंजय भणी ॥ गणधर बाहूबल केवली, मुनिवर कोड साथै लिया वली ॥ ६ ॥ चक्रवर्त्तिनी सघली ऋद्धि, भरते साथ लीधी सिद्ध ॥ हय गय रथ पायक परिवार, ते तो कहतां नावे पार ॥ १० ॥ भरतेत्तर संघवी कहवाय, मारग चैत्य ऊधरतो जाय ॥ संघ आयो सेजा पास, सहुनी पूगी
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अभय-रत्नसार।
४६५ मननी आस ॥ ११॥ नयणे निरख्यो सेत्रंजाराय, मणि माणिक मोत्यांसुवधाय॥ तिण ठांमे रहो महोछव कियो, भरते आणंदपुर वासियो ॥१२॥ संघ शत्रंजय ऊपर चढ्यो, फरसंता पातिक झड़ पड्यो ॥ केवलग्यानी पगला तिहाँ,प्रणम्यां रायणरूख छे जिहां ॥ १३॥ केवलज्ञानी स्नात्र निमित्त, ईशानेंद्र आणी सुपवित्त ॥ नदी सेजे सोहामणी, भरतें दीठी कौतुक भणी ॥ १४ ॥ गणधरदेव तणे उपदेश,इंद्र वलि दीधो आदेश। श्रीआदिनाथतणो देहरो, भरत करार्या गुरिसेहरो ॥१५॥ सोनानो प्रसाद उत्तंग, रतनतणी प्रतिमा मनरंग ॥ भरते श्री आदिसरतणी, प्रतिमा थापी सोहामणी ॥ १६॥ मरुदेवानी प्रतिमा वली, माही पूनम थापी रली॥ ब्राम्ही सुन्दरि प्रमुख प्रसाद, भरते थाप्या नवला नाद ॥१७॥इम अनेक प्रतिमा प्रसाद, भरते कराया गुरु सुप्रसाद ॥ भरततणो पहिलो उद्धार, सगलोही जाणे संसार ॥ १८ ॥
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४६६ श्रोशत्रुजयका रास।
चौथी ढाल-राग सिंधूडो आशावरी ।। __ भरततणे पाट आठमें, दंडवीरज थयो रायो जी॥ भरततणी पर संघ कियो, से–जा संघवी कहायो जी॥१॥शत्रं जय उद्धार सांभलो, सोल मोटा श्रीकारो जी ॥ असंख्यात बीजा वली, तेन कहुं अधिकारो जी॥ से० ॥ २॥ चैत्य करायो रूपातणो, सोनानो बिंब सारो जी ॥ मूलगो बिब भंडारीयो, पछिमदिसि तिण बारो जी॥ से० ॥३॥ शत्रुजयनी जात्रा करी, सफल कियो अवतारो जी॥ दंडवीरज राजातणो, ए बीजो उद्धारो जी ॥ से०॥४॥सो सागरोपम व्यतिक्रम्या, दंडवीरज थी जीवाडोजो। इशानेन्द्र करावियो, ए तीजो उद्धारो जी ॥ से० ॥ ५ ॥ चोथा देवलोकनो धणी, माहेंद्र नाम उदारो जी॥ तिण सेव॒जानो करावियो, ए चोथो उद्धारो जी ॥से०॥६॥ पांचमा देवलोकनो धणी, ब्रह्मद्र समकितधारो जी॥ तिण सेत्रुजानो करावियो,
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अभय रत्नसार। ४६७ ए पांचमो उद्धारो जी ॥ से०॥७॥ भुवनपती इंद्रनो कियो, ए छठो उद्धारो जी॥ चक्रवर्ति सगरतणो कियो, ए सातमो उद्धारो जी ॥ से०॥ ८॥ अभिनंदन पासे सुण्यो, शत्रुजयनो अधिकारोजी ॥ व्यंतरइद्र करावियो, ए आठमो उद्धारोजी ॥ से० ॥६॥ चंद्रप्रभु स्वामीनो पोतरो, चंदशेखर नाम मल्हारो जी॥ चंद्रयशरोय करावियो, ए नवमो उद्धारोजी ॥से०॥१०॥ शांतिनोथनी सुणो देशना, शांतिनाथसुत सुविचारो जी ॥चक्रधरराय करावियो, ए दशमो उद्धारो जी ॥से० ॥११॥ दशरथसुत जगदीपतो, मुनिसुव्रतस्वामी वारो जी॥ श्रीरामचंद्र करावियो, ए इग्यारमो उद्धारो जी।। से० ॥ १२ ॥ पांडव कहे अमे पापिया, किम छूटा मोरी मायो जी॥ कहे कुती शत्रु जयतणी, जात्रा कियां पाप जायो जी ॥ से० १३॥ पांच पाण्डव संघ करी, शत्रुजय भेट्यो अपारो जी, काष्ठ चैत्य बिंब लेपना, ए
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४६८ श्रीशत्रुजयका रास। बारमो उद्धारोजो ॥ से०॥१४॥ मम्माणो पाखाणनो, प्रतिमा सुन्दर सरूपो जी॥ श्रोशत्रुजयनो संघ करी, थापी सकल सरूपोजी॥ से० ॥१५ ॥ अटोतर सो वरसां गया, विक्रम नपथी जिवारो जी ॥ पोरवाड जावड करावियो, ए तेरतेरमो उद्धारो जी ॥ १६ ॥ से०॥ संवत बार तिडोतरे, श्रीमाली सुविचारो जी, वाहडदे मु. हते करावियो, ए चवदमो उद्धारोजी ॥ १७ ॥ से०॥ संवत तेरे इकोतरे, देसलहर अधिकारो जी ॥ समरेसाह करावियो, ए पनरमो उद्धारो जी॥ १८ ॥ से०॥ संवत पनर सत्यासिये, वैसाख वदि शभ वारो जी ॥ करमे दोसी करावियो, ए सोलमो उद्धारो जी ॥ १६ ॥से० ॥ संप्रति काले सोलमो, ए वरते छे उद्धारो जी॥ नित नित कीजे वन्दना, पांमीजे भवपारो जी॥ २०॥से०॥
॥हा॥ वलि शत्रुजय महातम कहूं, सांभलो
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अभय रत्नसार ।
४६६
जिम छे तेम ॥ सूरि धनेसर इम कहे, महावीर को एम ॥ १ ॥ जेहवो तेहवो दर्शनी, सेत्रु जे पूजनीक || भगवन्तनो भेष मांनतो, लाभ हुवे तहतीक ॥ २ ॥ श्रीसे जा ऊपरे, चैत्य करावे जह ॥ दल परमांण समो लहे, पल्योपम सुख तेह ॥ ३ ॥ से 'जा ऊपर देहरो, नवो नीपावे कोय | जोर्णोद्धार करावतां, आठ गुणो फल होय ॥ ४ ॥ सिर ऊपर गागर धरी, स्नात्र करावे नार ॥ चक्रवर्त्तिनी स्त्री थई, शिवसुख पामे सार ॥ ५ ॥ काती पूनम क्षेत्र, 'जे, चढिने करे उपवास ॥ नारकी मो सागर समो, करे करमनो नास ॥ ६ ॥ काती परब मोटो को, जिहां सीधा दश कोड़ि || ब्रह्म स्त्री वालक हत्या, पापथी नाखे छोड़ ॥ ७ ॥ सहस लाख श्रावक भरणी, भो जन पूण्य विशेष ॥ शत्रुंजय साधु पड़िलाभतां, अधिक तेही देख ॥ ८ ॥
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४७० श्रीशत्रुजयका रास ।
पांचमी ढाल । शत्रुजय गयां पाप टिये, लीजे आलोयण एमो जी, तप जप कीजे तिहारही, तीर्थंकर कह्यो तेमो जी॥ से० ॥ १॥ जिण सोनानी चोरी करी, ए आलोयण तासो जी ।। चैत्रीदिन सत्र जा चढी, एक करे उपवासो जी ॥ से० ॥२॥ वस्तुतणी चोरी करी, ए आलोयण तासो जी॥ चैत्रीदिन सेत्र जा चढी, एक करे उपवासो जी ॥३॥ से०॥ कांसी पीतल तांबा रजतनी, चोरी कीधी जेणे जी ॥ सात दिवस पुरिमढ़ढ़ करे, तो छूटे गिरि एणो जी ॥ ४॥ से०॥ मोती प्रवाला मुगिया, जिण चोरथा नर नारी जी ॥ आंबिल कर पूजा करे, त्रिण टङ्क शुद्ध आचारो जी ॥ ५॥ से०॥धान पाणी रस चो रिया, ते भेटे सिद्धक्षेत्रो जी ॥ सेतुजा तलहटी साधुने, पडिलाभे सुध चित्तो जी ॥ से०॥६॥ वस्त्राभरण जिणे हरया, ते छटे इण मेलो जी॥
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अभय रत्नसार। आदिनाथनी पूजा करे, प्रह ऊठी बहू वेलो जी ॥ से० ॥७॥ देव गुरुनो धन जे हरे, ते शुद्ध थाये एमो जी ॥ अधिको द्रव्य खरचे तिहां, पात्र पोषे जह प्रेमो जी॥से ॥८॥गाय भैस घोड़ा मही, गज ग्रह चारणहारो जी॥ये ते वस्तु तीरथे, अरिहन्त ध्यान प्रकारो जी ॥ से०॥ ॥ पुस्तक देहरा पारका, तिहां लिखे अपणो नामो जी ।। छूट छम्मासी तप कियां, सामायक तिण ठामो जी॥ से० ॥ १० ॥ कुवारी परिव्राजका, सधव अधव गुरुनारो जी ॥ व्रत भांज तेहने कयो, छम्मासी तप सोरो जी॥ ११॥ से०॥ गो विष स्त्री बालक ऋषि, एइनो घातक जेहो जी॥ प्रतिमा आगे आलोवतां, छूट तप कर तेहो जी॥ १२॥ से०॥
छट्ठी ढाल । संप्रति काले सोलमो ए, ए वरते छ उद्धार ॥ शत्रु जय यात्रा करू ए, सफल करू
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४७२
श्रीशत्रु' जयका रास ।
अवतार ॥१॥ से० छह री पालतां चालिये ए सेत्र 'जा केरी वाट ॥ से० ॥ पालीताणे पोहचिये ए, सङ्घ मिल्या बहु थाट ॥ से० ॥ २ ॥ ललित सरोवर पेखिये ए, बलि सत्तानी वावि ॥ तिहां विसरांमो लीजिये ए, वड़ने चोंतरे आवि ॥ ३॥ से। पालीताणे पाजड़ी ए, चढिये ऊठ परभात ॥ से 'जानदिय सोहामणी ए, दूरथको देखन्त ॥ से० ॥ ४ ॥ चढिये विङ्गलाजने हडे ए, कलिकुड़ नमिये पास || बारीमांहे पैसीये ए, आणी अङ्ग उल्लास ॥ से० ॥ ५ ॥ मरुदेवी क मनोहरू ए, गज चढी मरुदेवी माय || शान्तिनाथ जि सोलमो ए, प्रणमीजे तसु पाय ॥ से० ॥ ६॥ वंस पोरवाडे परगड़ो ए, सोमजी साह मलार ॥ रूपजी संघवी करावियो ए, चौमुख मूल उद्धार ॥ से० ॥ ७ ॥ चोमुख प्रतिमा चरचिये ए, भमतीमांहे भला बिंब ॥ पांचे पांडव पूजिये ए, अदभुत आदि प्रलंब ॥ ८ ॥ से० ॥ खरतरवसही
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अभय रत्नसार। ४७३ खंतसं ए, बिंब जुहारु अनेक ॥ नेमनाथ चवरी नमं ए, टालं अलग उदेग ॥ से० ॥ ६ ॥ धरम दुवारमांहिं नीसरू ए, कुगति करू अतिदूर ॥ भाउ आदिनाथ देहरे ए, करम करू चकचर ॥ से० ॥ १० ॥ मूलनायक प्रणमं मुदा ए, आदिनाथ भगवंत ॥ देव जुहार देहरे ए, भमतीमांहे भमंत ॥ से० ॥ ११॥ शत्रुजय ऊपर कीजिये ए, पांचे ठाम स्नात्र ॥ कलश अठोतर सो करिये, निरमल नीरसु गात्र ॥ से०॥ १२ ॥ प्रथम आदीसर आगले ए, पुंडरीक गणधार ॥ रायण तल पगला नमूए, चोमुख प्रतिमा च्यार ॥१३ से० ॥रायण तल पगला नमू ए, चोमुख प्रतिमा च्यार ॥ बीजी भूमि बिंबावली ए, पुडरीक गणधार ॥ १४ ॥ से० ॥ सूरजकुंड निहालिये ए, अति भली उलकाझोल ॥ चेलणतलाइ सिद्ध शिला ए, अंग फरसु उल्लाल ॥ १५ ॥ से० ॥ आदिपुर पाज उतरू ए, सिद्धवडलू वि
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४७४
श्रीशत्रुंजयका रास ।
सराम ॥ चैत्यप्रवाड़ी इस पर करी ए, सीधा
छित कांम ॥ ० ॥ १६ ॥ जात्रा करो से - जातणी ए, सफल कियो अवतार ॥ कुसल क्षेम वियो ए, संघ सहू परवार ॥ से० ॥ १७ ॥ शत्रुंजय रास सोहामणो ए, सांभलज्यो सहू कोय ॥ घर बेठां भरणे भावसुं ए, तसु यात्रा फल होय ॥ से० ॥ १८ ॥ संवत सोल बयासिये ए, श्रावण वदि सुखकार ॥ रास रच्यो से जाणो ए, नगर नागोर मकार ॥ से० ॥ १६ ॥ गिरुवो गच्छ खरतर तणो ए, श्रीजिनचंद सूरीस, प्रथम शिष्य श्रीपूजना ए, सकलचंद सुजगीस ॥ से० ॥ २० ॥ ताससीस जग जांगिये ए, समयसुंदर उवकाय ॥ रास रच्यो तिण रूवडो ए, सुणतां आणंद थाय ॥ से० ॥ २१ ॥ इति श्रीशत्रु जयरास संपूर्णम ॥
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अभय-रत्नसार ।
सम्मेद शिखरजीका रास |
दुहा || वादी वीस जिनेसरू, रचस्युं रास रसाल । तीरथ शिखरसमेतनी, महिमा बड़ी विशाल ॥ १ ॥ मोटो तीरथ महियले, प्रगट्यो शिखरसमेत । कोड़ाकोड़ी मुनिवरू, सिद्ध गए इह खेत ॥ २ ॥ तीरथ शिखरसमेत ए, फरस्या पाप पुलाय । भविजन भेटो भावसु, ज्यु सुख संपद थाय || ३ || महिमा शिखरसमेतनी, कहि नसके कवि कोय । गुण अनंत भगवंतना, तिम ए तीरथ होय ॥ ४ ॥
पहली ढाल चोपाई की।
४७५
गिरवर शिखर समो नहि कोय, एहनी महिमा सब जग होय । वीस जिनेसर मुगते गया, मुनिजन ध्यान धरीने रह्या ॥ १ ॥ प्रथम अयोध्यानगरी भली, तिहां जितशत्रु नरेसर वली | विजयाराणीने सुत जांण, अजितकुमर
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४७६ सम्मेत शिखरजीका रास। सहु गुणनी खाण ॥ २॥ जसु इन्द्रादिक सेवा करे, इन्द्राणी अति उच्छव धरे । तीर्थकरनी पदवी लही, अंतर अरि जिण साध्या सही ॥३॥ अनुक्रम इम भोगवतां भोग, पुन्य प्रसाद मिल्यो सहु जोग । अवसर दे संवत्सरी दान, संजम लीनो आप सुजाण ॥ ४ ॥ कम खपावी पांम्यो, ज्ञान, केवलदर्शन लह्यो प्रधान । विचरे पुहवीमंडलमांहि, भव्यजीव प्रतिबोधन ताहि ॥ ५ ॥ सिंहसेनादिक गणधर भया, पंचाणवे संख्या सहु थया । एक लाख मुनिवर परिवस्था, श्रावक श्रावकणी सहु कस्या ॥ ६ ॥ तीन लास्त्र वलि तीस हजार, साधवियां जाणो सुविचार ॥ श्रावक सहस अहाण सही, दोय लाव संख्या गहगही ॥७॥ पांच लाख पंतालीस हजार, श्रावकणी संख्या सुविचार । बहुत्तर लाख पूरबनो प्राय, कंचनवरण सरीर सुहाय ॥८॥ साढीच्यारसे धनुष सरीर, मान लह्यो प्रभु गुण गंभीर ।
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अभय रत्नसार ।
४७७
गज लांछन प्रभुजीने जांण, अमृत सम जसु मीठी वाण ॥६॥ अनुक्रम प्रभुजी शिखरसमेत, गिरवर पर आव्या निज हेत । सहस मुनिवरने परिवार, मासखमण अणस कर सार ॥ १० ॥ चैत्री सुदि पूनमने दिने, मुक्ति गये प्रभु तीरथ इणे इो । भूचर खेचर किन्नर सुरी, इन्द्रादिक सहु उच्छव करी ॥ ११ ॥ थाप्यो तीरथ मोटोमही, अठाइ महोच्छव कियो सही । ए तोरथनी जात्रा करे, ते भवियण अक्षयसुख वरे ॥ १२ ॥
दूहा || श्रीसंभव जिनराज जी, गए इहां निर्वाण | शिखरसमेत सुहामणो, प्रगट्यो तीरथ जां ॥ १ ॥
दूसरी ढाल - सुगण सनेही साजन श्रीसीमंधर स्वाम-ए देशी । सावत्थीनगरी भरी धन संपद बहु थोक, जैतारि नृप राज करै सुखिया सब लोक । सेनाराणी मीठी वाणी गुणनी खाण, जेहने श्री संभव जनम्या सकल सुजाण ॥ १ ॥ कंचनवरण
सुत
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४७८
सम्मेत शिखरजीका रास ।
सरीर मनोहर प्रभुनो जांण, लंछन अश्वतणो सोहे प्रभुनो परधान । साठ लाख पूरबनो प्रभुनो आयु प्रमाण, धनुष च्यारसे उच्च पणै प्रभु देह वखा ॥ २ ॥ एकसो दोय संख्याये प्रभुने गणधर होय, दोय लाख मुनि जेहनें गुणवरता जग जोय । तीन लाख श्रमणी वली ऊपर सइस छत्तीस, भूमंडल विचरे प्रभु श्रीसंभव जगदीस ||३|| तीन लाख वलि सहस त्रयाणं श्राचकलोक, पट लख सहस छत्तीस श्रावकरणी संख्या थोक | त्रिमुखयक्ष अरु दुरितादेवी सानिधकार, विचरता प्रभु सकल संघमें जय २ कार ॥ ४ ॥ सहस भ्रमण परिवारे प्रभुजी सिखरसमेत, एक मास संलेखण कीनी निजपद हेत । इण गिरि ऊपर पायो प्रभुजी पद निरखांण, तीरथ महिमा महियल मोटी थइय सुजांण ॥५॥ दुहा || अभिनंदन जिन वंदिये, पायो पद निरवांण । शिखरसमेत सोहामणो. भेटो तथ सुजाण ॥ १ ॥
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अभय-रत्नसार।
४१६
तीसरी ढाल-सहस श्रमणमुं सुक संजमधरो-ए देशी ।
नगरी अयोध्या सुरपुरि सम भली, संबर राजा सोहे मन रली । सिद्धार्था राणी प्रभु तसु नंद ए, अभिनंदन जिन प्रगट्या चंद ए॥ उल्लालो ॥ चंद ए सोवन वरण सोहे, धनुष साढी तीनसे ॥ सुदर शरीर प्रमाण द्युतिकरी, कपि लंछन ते नित वसे। पूर्व लाख पचास आयु, ग
धर एकसो सोल ए॥ तीन लाख मुनि छ लाख आर्या सहस त्रिसत् सोल ए. ॥ १॥ चाल । सहस अव्यासी दो लख श्राद्धनी, संख्या चौलख सत्तावीसनी ॥श्रावकण्यांरी संख्या जाण ए. नायकयक्ष कलिका ठाण ए॥ उल्लालो ॥ ठाण ए शिखरसमेत ऊपर मास एक संलेषणा, इक सहस साधू परवस्या प्रभु मुक्ति पहुंचे पेषणा ॥ इमही अयोध्या मेघ नरवर देवो मात सुमंगला, श्रीसुमति जिनवर भए नंदन सदा होत सुमंगला ॥ २॥चाल ॥ सोवन वर्ण धनुष
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४८०
सम्मेत शिखरजीका रास ।
तसु तीनसे, लंछन क्रोंच साह्रै सुभगे हसे ॥ पृर लाख पच्यासी उ ए, इकसौ गणधर गुण गण भाउ ए ॥ उल्लालो । भाउ ए मुनि त्रिण लाख सोहे सहस वोस प्रमांण ए, पण लक्ष तीस हजार साध्वी श्रावक दोय लक्ष जाण ए ॥ संख्या इक्यासी सहस ऊपर श्रावका इम आणिये. पण लाख सोले सहस तुम्बरु महाकाली मानिये ॥ श्रीशिखर ऊपर सात संख्या सहस साधु सुरंग ए, कर मासकी संलेपणा प्रभु मुक्ति पुहता चंग ए ॥ ३ ॥ चाल ॥ इम कोसंबीनगरी तात ए, धरनृप तात सुसीमा मात ए, पदम प्रभु तसु अंगज नाथ ए, लंछन कमलतणो सुभ हाथ ए ॥ उल्लालो | हाथ ए धनुष प्रमाण पूरा अढाई स तनु कहौ, तीन लाख पूरब थित कहावे एकसा गणधर लहो || लख तीन तोस हजार साधू वास सहम लख च्यार ए साधवी दोय लख सहस छिहतर श्रावक संख्या सार ए ॥ ४ ॥ चाल ॥
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अभय रत्नसार।
४८१ पाँच लाख वलि पाँच हजार ए, श्रावकयांरी संख्या सार ए॥ कुसम देव श्यामादेवी कहो, लालवरण तन प्रभु सोहै सही ॥ उल्लालो ॥ सोहए शिखरसमेत ऊपर, आठसे त्रिण मुनिवरा ॥ कर मास संलेखन प्रभुनी, सेव करहै सुरवरा ॥ श्रीपदम प्रभुजी मुक्ति पहुता, गिर शिखर महिमा भई, ॥ तसु चरण पंकज वालवं दे हृदय आनंद गहगही ॥ ५ ॥
॥ दुहा ॥ श्रीसुपास जिनंदना, पद पंकज आराम॥ भविजन भ्रमरसु सेवतां, पामे वंछित कांम ॥१॥
चौथी ढाल-श्रीसीमंधर साहिबा-ए देशी । नगर वणारसी सोभता, राजा तात प्रतिष्ट लालरे । देवी पृथवी मात जी, स्वस्तिक लंछन सिष्ट लालरे ॥ १॥ श्रीसुपार्श्व जिनंद जी, वीस पूरब लख आयु लालरे ॥ धनुष दोयसै देहनो, कंचनवरण सुहाय लालरे ॥ २॥ श्री० ॥ पचा
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४८२ सम्मेत शिखरजीका रास। णवे गणधर कह्या, साधू त्रिण लाख होय लालरे ॥ च्यार लाख तीस ऊपरे, सहस साधवियां जोय लालरे ॥३॥ श्री० ॥ सहस सतावन लक्षनी, श्रावक संख्या थाय लालरे॥ च्यार लाख वली त्रणवै, सहस श्रावकणी भाय लालरे ॥४॥श्री० मातंगयक्ष शांतासुरी, पांचसे मुनि परवर लालरे॥ करि अणसण मुगते गया, नाम लियां निस्तार लालरे ॥५॥ नगर चंद्रपुर इण परे, राजा तात महेस लालरे ॥ देवी माता लक्ष्मणा, सत चंद्राप्रभु वेस लालरे ॥६॥श्रीचंद्राप्रभु वंदिये, चंद्रवरण तनु जेह लालरे ॥ लंछन चंद्रतणो भलो, धनुष दोढसे देह लालरे ॥ ७॥ श्रीचं०॥ भविककमल प्रतिबोधतां, सेवे सुर नर यक्ष लालरे ॥ दस लाख पूरब आउखो, तेणवे गणधर दक्ष लालर ॥ श्रीचं० ॥८॥ दाय लाख सहस पचाणवे, मुनि श्रमणी तीन लक्ष लालरे ।। असी सहस संख्या कही, श्रावक वलि दोय लक्ष लालरे
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अभय रत्तसार।
४८३
॥ ६॥ श्री० ॥ लाख पचास ऊपर वली, श्राविका चउ लक्ष धार लालरे ॥ सहस इकाणवै ऊपरै, प्रभुजोना परिवार लालरे ॥१०॥ श्रीचं०॥ विजयदेव भृकुटोसुरी, सहस साधु परिवार लालरे ॥ संलेखन इक मासनी, पुहता मुक्ति मझार लालरे ॥ ११॥ श्री०॥
॥ दुहा ॥ जय श्रीसुविधि जिनेसरु, जगपति दीनदयाल ॥ समेतशिखर मृगते गया, भविजनके प्रतिपाल ॥१॥
पांचमी ढाल-श्रीविमलाचल सिरतिलो-ए देशी ।
नयर काकंदी नरपति, एम पिता सुग्रीव ॥ देवो रामा माता सुत, भए सुविध सुभ जीव ।। १॥ रजतवरण सम तनु सत, धनुष एक परिमांण ॥ दोय लाख पूरब कह्यो, प्रभुनो आयु सुजांण ॥ २ ॥ अव्यासी संख्या भए, गणधर परम प्रधान ॥ लख दोमुनि विंशति सहस, इक लख श्रमणी जाण ॥ ३॥ दोय लक्ष श्रावक कह्या,
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४८४ सम्मेत शिखरजीका रास। अरु गुणतीस हजार ॥ एकत्तर चौ लख सहस, श्रावकणी सुविचार ॥ ४॥ सुरी सुतारा सुर अजित,श्रीसंघ सानिधकार॥ सहस साधु परिवारसं, आए सिखर सुचार ॥ ५ ॥ मास संलेखण कर प्रभु, मुक्ति गए इह ठोर ॥ तीरथ महिमा महियलै, प्रगटी च्यारुं ओर ॥६॥ इमहिज शितलनाथनो, हिव सुणज्यो अधिकार ॥ भदिलपुर दृढग्थ पिता, मात नंदा सुखकार ॥७ लंछन सुभ श्रीवच्छनो, श्रीशीतल जिनचंद ॥ कंचनवरण नेउ धनुष, मान सरीर अमंद॥८॥ एक लाख पूरब कह्यो, प्रभुनो आयुप्रमाण ॥इक्यासी गणधर कह्या, मुनि इक लाख सुजाण ॥६॥ एक लाख चालीस सहस,श्रमणी संख्या ओर ॥ सहस तयांसी दोय लख, श्रावक संख्या जोर ॥ १०॥ सहस अठावन लक्ष चौ, श्रावकणी सुविचार ॥ देवी अशोका ब्रह्म यक्ष, सहु संघ सानि धकार ॥ ११॥ सिखरसमेत सहस्र एक, साधूने
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अभय रत्नसार।
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परिवार ॥ मुक्तिगए प्रभु मासकी, संलेखन कर सार ।। १२॥
छट्टी ढाल-धन-धन संप्रति साचो राजा-ए देशी। सिंहपुरी नगरी तिहां राजा, विष्णु नरेसर तात जी, कंचनवरण श्रेयांस प्रभूजी, उपज्या विपण सुमातजी ॥ १॥ नमारे नमो श्रीत्रिभुवन राजा, खडग लंछन प्रभु पाय जी ॥ धनुष असी देहमांन चौरासी, लाख वरसनो आयु जा ॥२॥ न०॥ गणधर बहुत्तर सहस चौरासी, मुनि श्रमणी तान लक्ष जी॥ तीन सहस वलि सहस गुण्यासी, श्रावक पुण दो लक्ख जी ॥ ३ ॥न०॥ अड़तालीस सहस बलि चौ लख, श्राविका जाणो सारजी ॥ जक्ष अमर सूरी मानवी जाणा, श्रीसंघ सानिधकार जी ॥ ४ ॥ न०॥ सहस मुनीसरनै परिवार, प्रभुजी सिखरसमेतजी॥ मास संलेखण कर प्रभु पोहता, मुक्तिमहल सुख हत जी ॥ न० ॥ ५॥ हिव कंपिलपुर तात भूप
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४८६
सम्मेत शिखरजीका रास ।
ति, श्रीकृतवर्म सुमात जी ॥ स्यामादेवी अंगज ऊपना, विमलनाथ जगतात जी ॥ न० ॥ ६ ॥ सूकर लंछन सोवनकाया, साठ धनुष देहीमांनजी || साठ लाख वच्छरनो आयु, शिष्य सतावन जान जी ॥ न० ॥७॥ साठ सहस मुनि अडसय इक लख, श्रमणी श्रावक जांण जी ॥ आठ सहस दोय लक्ष श्राविका, चौ लक्ष संख्या श्रागजीन ॥ ८ ॥ षण्मुख सुरवर विदिता देवी, प्रभुजी शिखरसमेत जी ॥ षट हजार साधू परिवारे, मुक्ति गए सुख हेत जी ॥ न०॥ ६ ॥ नगरी नाम अयोध्या नरवर, सिंहसेन जग सार जी ॥ सुजसा मात ति सुत जायो, प्रभुजी अनंतकुमार जी ॥ न० ॥ १०॥ लंछन श्येन सोवन सम काया, धनुष पच्चास प्रमांण जी ॥ तीस लाख बच्छरनो आयु, गणधर पचवीस आण जी ॥ न० ॥ ११ छोसठ सहस मुनीवर सोहे, बासठ श्रमणी हजार जी ॥ छ हज्जार लाख दोय श्रावक,
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अभय रत्नसार ।
४८७
श्रावणी इम धार जी ॥ न० ॥ १२ ॥ व्यार लाख वलि चवद हजार ए, अंकुसा देवी होय जी || पाताल यक्ष श्रीसंघके सानिध कारी, नित प्रति जाय जी ॥ न० ॥ १३ ॥ आठसे मुनिवरनै परिवारे, शिखरसमेत प्रधान जी ॥ मास संलेखन कर गिरि ऊपर, पुहता पद निरवांण जी
न० ॥ १४ ॥
॥ दूहा ॥ ऐसे धर्म जिसरु, पुहता पढ़ निर्वाण ॥ सिखरसमेत गिरिंद पर, नमो २
जगभांण ॥ १ ॥
सातमी ढाल - जगतगुरु त्रिशलानंदन जी - ए देशी ॥ रत्नपुरी नगरी धणी जी, भानुराय सुजाण ॥ राणी सुव्रत मातने जी, धर्मनाथ गुणखाण ॥१॥ जगतपति धर्म जिनेसर सार, धनुष पैतालीस तनु कह्यो जी ॥ वज्र लंछन सुखकार ॥ ज० चोतीस गणधर मुनि कह्या जो, चौसठ सहस प्रमाँण ॥ श्रमणी बासठ सहसस्यूं जी, श्रदोय
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४८८ सम्मेत शिखरजीका रास । लक्ष मान ॥३॥ ज० ॥ च्यार सहसवलि ऊपरां जी, चौ लख एक हजार ॥ श्रावकणी संख्या कही जी, दस लक्ष आयु विचार ॥४॥ ज०॥ किन्नर सुर यत्ना सुरी जी, एक सहस परिवार । समेसिखर मुगते गया जी, वांदू वार हजार ॥ ५॥ ज० हथणापुर विश्वसेनना जी, अचिरा मात उदार ॥ शांति जिनेसर जनमिया जी, त्रिभुवन जयरकार ॥ जगतपति शांतिजिनेसर सार ॥६॥ मृग लांछन सोवन समोजी,देहो धनुष चालीस॥ आयु वरष इक लाखनो जी, छत्तीस गणधर सीस ॥ ज० ॥ ७ ॥ बासठ सहस मूनि छसै जी, इगसठ श्रमणी हजार ॥ दोय लाख श्रावक कह्या जी, ऊपर नेऊ हजार ॥ ८॥ सहस त्रयाणं श्राविका जी, तीन लाख परिवार ॥ गरुडयक्ष देवीसुरी जी, श्रीसंघ सानिधकार ॥ ज०॥ ६ ॥ नवस मुनि परवार स्यु जी, आया सिखरमेत ॥ मासखमण कर मुगतिमें जी, पुहता निजपद
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अभय रत्तसार। .४८६ हेत ॥ज० ॥ १०॥ असें हथणापुर भलो जी, राजा सूर सुतात ॥ कुंथुनाथ जिन जनमियां जी, कंचन तनु श्रीमात ॥ जगतपति कुथु जिनेसर सार ॥ ११ ॥ छाग लंछन पेंतीसनो जी, धनुष देहनो मांन ॥ सहस पंच्याणव वरस नो जी, आयु प्रभुनो जान ॥ १२॥ ज० पेंतीस गणधर दीपताजी, साठ सहस मुनि जान ॥छसै साठ सहस वली जी,श्रमणी संख्या मान॥ज०॥ १३॥ सहस गुणियासी लक्षनी जी, श्रावक संख्या होय ॥ सहस इक्यासी तीन लाखनी जी, श्राविका संख्या जोय ॥ ज०॥ १४ ॥ सातसे साधू परवस्या जी, देवी बला गंधर्व ॥ कुंथुनाथ मुगते गया जो, मास संलेखण सर्व ॥ज०॥१५॥ .. ॥ दुहा ॥ श्रीअरिनाथ जिनंदनो, कहिस्यु अब अधिकार ॥ श्रोता सुणज्यो प्रेम धर, थास्यै लाभ अपार ॥१॥
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HAAN..
४६० सम्मेत शिखरजीका रास।
आठमी ढाल-देसी विछियानी । हारे लाला श्रीजिनकुशल सूरीसरू-ए देशी ॥ हारे लाला श्रीअरिनाथ जिनेसरू, तिहां नगरी अयोध्या चंदरे लाला ॥ तात सुदर्शन मातजी, नंदादेवीना नंदरे लाला ॥१॥ श्रीअ०॥ लंछन नंद्यावत्तनो, तीस धनुष देहीनो मांन रे लाला ॥ कंचन वरण सुहामणो, आयु सहस चौरासी प्रमाण रे लाला ॥२॥श्री अ०॥ इक लाख श्रावक ऊपरे, वलि संख्या अधको जांणरे लाला ॥ सहस बहुत्तर तीन लक्ष श्राविका संख्या जांणरे लाला ॥ श्रोअ०॥३॥ देव देवी सानिध करे, इक सहस मुनि परवार रे लाला ॥ मुक्ति गए इण गिर प्रभु, कर मास संलेखण सार रे लाला ॥श्रीअ०॥४॥ मिथिला नगर प्रभावती, मात पिता श्री कुंभ राय रे लाला ॥ लंछन कलस पचीसनो, वपु धनुष सोवन सम कायरे लाला ॥ श्रीमल्लिनाथ जिनेसरू ॥ ५॥ सहस
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अभय-रत्नसार। ४६१ पचावन बर्षनी,थित गणधर अट्ठावीसरे लाला ॥ भविक कमल प्रति बोधता, जगनायक श्रीजगदीस रे लाला ॥ ६॥ श्री म० ॥ चालीस सहस मूनीसरू, श्रमणी पचावन सहस रे लाला ॥ सहस त्रयासी लक्षनी, श्रावकनी संख्या सार रे लाला ॥ ७॥श्री म०॥ श्राविका सित्तर सहसनी, लक्ष तीन संख्या सुविचार रे लाला ॥ सहसमुनि परवारस्यु,गये मुक्ति संलेखण धार रे लाला ॥श्रीम०॥८॥ राजग्रही राजा पिता, सुग्रीव पदमावती मात रे लाला ॥ श्याम वरण तनु शोभता, जे कपिल लंछन विख्यात रे लाला॥ श्रीमुनिसुव्रत स्वामीजी ॥ ६ ॥ धनुष वीस देहीतणो, आयु वच्छर तीस हजार रे लाला ॥ अष्टादश गणधर थया, तीस सहस मुनिसर सार रे लाला ॥ श्रीमु०॥ १० ॥ श्रमणी सहस पचवीसनी, संख्या बहुतर हजार रे लाला ॥ इक लक्ष ऊपरि श्राविका, तीन लक्ष पचास हजार रे
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४६२ सम्मेत शिखरजीका रास। लाला ॥श्रीमु०॥ ११॥ वरुणयक्ष देवी भली, नरदत्ता सानिधकार रे लाला ॥ सहस मुनि परवारसे, गए मुक्ति महल सुख सार रे लाला ॥ श्रीमु० ॥ १२॥ विजय पिता विप्रा मातजी, सोवन सम श्रीनमिनाथ रे लाला ॥ नीलकमल लंछन कह्यो, वपु धनुष पनर आयु साथ रे लाला ॥ श्रीनमिनाथ जिनेसरू ॥ १३ ॥ दस हजार बरसतणो, गणधर सित्तर परिमाण रे लाला ॥ वीस इकतालीस सहस क्रम, साधु साधवी संख्या जाण रे लाला ॥श्रीन० ॥१४॥ इक लख सित्तर सहसनी, तीन लच सहस वलि होय रे लाला ॥ श्रावक संख्या श्राविका, अनुक्रम करि संख्या जोय रे लाला ॥ श्रीन ॥ १५॥ विचरंता भूमंडले, आया सिखर समेत मझार रे लाला ॥ भकुटी यक्ष गंधारी सुरी, इक सहस मुनि परवार रे लाला ॥ श्रीन० ॥ १६ ॥
॥ दहा ॥ परमेसर श्रीपासनी, महिमा जगत
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अभय रत्नसार। ४६३ विख्यात ॥ शिखर शिरोमणि सहस फण, जग जीवन जगतात ॥१॥ नवमी दाल----अादर जीव क्षमागुण आदर-ए देशी ॥
जय २ परम पुरुष पुरुषोत्तम, पारस पारसनाथ जी ॥ सांवरिया साहिब जगनायक, नाम अनेक विख्यात जी ॥ १॥ जय २ सिखर समेत शिरोमणि, श्रीसाँवरिया पास जी ॥ ध्यावे सेवे जे नर तेहनी, पूरे वंछित आस जी ॥२॥ज०॥ काशी देस वणारसी नगरी, श्रीअश्वसेन नरिंद जी, वामा माता जग विख्याता, तेहना सुत सुखकंद जी ॥३॥ जय० ॥ पन्नग लंछन नील वरण छवि, देहि शुभ नव हाथ जो॥ आयू इकसो वरस प्रमाणे, गणधर दस प्रभु साथ जी ॥४॥ जय० ॥ सोल सहस मुनिवर अरु श्रमणी, कही अडतीस हजार जी॥ भूमंडल विचरे भवि जनकू, बोध बीज दातार जी॥५॥ जय० ॥ चोसठ सहस लाख इक श्रावक, गुण
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४६४ सम्मेत शिखरजीका रास। चालीस हजार जी ॥ तीन लाख श्रावकणी संख्या, पाश्वयक्ष सुर सार जी ॥ ६ ॥ जय० ॥ वीस जिनेसर मुगते पुहता, महिमा थइय अपार जी ॥ तिण ए तीरथ प्रगट्यो जगमें, मुक्तितणो दातार जी ॥७॥ जय० ॥छह री पाले जे नर भावै, भेटे सिखर गिरिंद जी ॥ ते नर मनवंछित फल पावे, ए सुर तरुनो कंद जी ॥८॥ जय० ॥ बहु विध संघतणी करै भक्ति, संघपति नांम धराय जी ॥ सफल करे संपद निज पांमी, जहनो सुजस सवाय जी ॥ ६ ॥ जय० ॥ परभव सुरनर संपद पामे, जात्रा करे गहगाट जी॥ साधर्मी वच्छल मुनिक्ति,पूजा उच्छव थाट जी॥ १०॥ जय० ॥ टूक २ पर चरण प्रभूना, पूजो भविजन भाव जी॥ ध्यान धरो जिनवरनो मनमें, आनंद अधिक उच्छाव जी॥११॥ जय०॥ रास रच्यो श्रीसिखर गिरीनो, सुणतां नवनिध थाय जी ॥ तिण ए भविजन भाव धरीने, सुण
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अभय रत्नसार ।
४६५
ज्यो मन थिर लाय जी ॥ १२ ॥ जय० ॥ खरतर गच्छपति महिमाधारी, कीरत जग विख्यात जी ॥ जय श्रीजिनसौभाग्य सूरीश्वर, अमृत वचन सुगात जी ॥ १३ ॥ जय० ॥ तासु पसायें रास रच्यो ए, अमृत समुद्रने सीस जी ॥ बालचंद्र निज मति अनुसार, सोधो विबुध जगोस जी ॥ १४ ॥ जय० ॥ संवत उगणीसै सितडोत्तर, सुदि वैशाख सुढाल जी ॥ रास अजीमगंजमांहे कीनो, भणतां मंगल माल जी ॥ १५ ॥ जय० ॥ इति श्रीसिखर गिरी - रास संपूर्णम् ॥ मुनि-मालका
पहली ढाल ॥
ऋषभ प्रमुख जिन पाययुग प्रणमं, सिवसुख दायक मनह उल्लास ॥ पुंडरीक श्रीगौतम आदिक, गणधर गुरु मन कमल विकास ॥ १ ॥ प्रह सम सुधा साधु नम नित, भावै श्रमण सुगुरु भगवंत ॥ नाम ग्रहण करी पाप पखालूं, पर
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४६६
मुनि मालका ।
मानंद सुमति विकसंत ॥ २ ॥ प्र० भरत महामुनि प्रथम चक्कीसर, बाहूबल उपशम भंडार ॥ सूरयसादिक आठ मुनिसर, पांम्यो विमलाचल भवपार ॥ ३ ॥ प्र० ॥ ऋषभवंस जे अनुक्रम हुवा, मुनिवर कोडी लाख असंख ॥ श्रीशत्रुंजय शिवपुर सीधा, कलमल कालक मूंकी कख ॥ ४ ॥ प्र० ॥ सगर प्रमुख निरुपम नव चक्रवर्त्ति, साधु महाबल संजम सींह ॥ अचलादिक बलदेव अष्टमुनि, राम ऋषीसर नवम अबीह ॥५॥ प्र० श्रीप्रतिबुद्ध प्रमुख छ वसुन्दर श्रीमल्लिनाथ पूरबभव मित्र ॥ पहुंता परम ऋषीसर शिवपुर, पाली श्रीजिन या पवित्र ॥ ६ ॥ प्र० ॥ वंदु विष्णुकुमार लबधि निधि, खंदक सूरीना सीस सब पंच ॥ कार्त्तिकसेठ सुसाधु कीर्त्तिधर, श्रमरण सुकोसल व्रत निरखंच ॥ ७ ॥ प्र० श्रीयदुवंस अक्षोभ सुसागर, प्रमुख आठ अणगार प्रधान ॥ श्रीरहनेमि नेमजिन बंधव, निरमल गुणगण र
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अभय रत्नसार। ४६७ यण निधान ॥ ८॥श्री० ॥ जालि मयालिने उवयाली, पुरससेण वारिसेन प्रजुन्न ॥ संब अने अनिरुद्ध ऋषीसर, सत्यनेमि दृढनेमि सुधन्य ॥ ६॥ प्र०॥ कुमर अनीकजसादिक षट मुनि, गुणगिरुवो श्रीगजसुकमाल ॥ ढंढण ऋषि श्रीथावच्चासुत, सहस साधु संज तसु कृपाल ॥१०॥
दूसरी ढाल-राग धन्याश्री ॥ सहस श्रमणसुसुक संजमधरो, पंचसयांसु सेलग मुनिवरो। सिद्ध थया श्रीपुडरगिरिवरो, करुणाकर प्रणम्यां संपदकरो ॥ उल्लालो ॥ संपद करो समदम रिषीसर साधु सारण सोह ए, अंतर प्रकासे तिमिर नासे, भविकजन मन मोह ए॥ प्रत्येकबुद्ध प्रबुध्ध नारद मुनि प्रमुख पेंताल ए, दमदंत महाऋषि कुजवारे साधु नमुनिहु काल ए॥११॥चाल॥रंग रिषभदत्त रतनत्रय मुणी, समरु देवानंदा साहुणी ॥ पांचे पांडव प्रणम् मुनिपति, केसपएसी बोधक जिनमती॥उल्लालो।
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४६८
मुनि मालका ।
जिनमती बालक पुत्र मेहल थिवर आणंद रक्खियो, अणगार कासव धर्म भाख्यो सोधि सिवपुर सक्खि यो || कालासवेसी पुत्र आतम अरथ साधक उपसमइ, श्रीपुंडरीक महामुनीसर प्रणमिये शुभ संयमी ॥१२॥ चाल ॥ वंदु बलकलचीरो कंवली, श्री यमत्तो मुनिवर मन रली ॥ श्रीकरकंडू दुमह नमि निग्गया, निजर देसे नरवर श्रीजु ॥ उल्लालो ॥ श्रीजुवा ए वृषभादिता थया वड़ वइरागिया, संजम सिरि भज मोहनिद्रा तजिय जोगे जागिया || प्रत्येकबुद्धा च्यार सिद्धा सिद्ध थया एका समें, सुप्रसन्नचंद मुनिंद निरमम प्रेम प्रण ं प्रह समे ॥ १३ ॥ चाल ॥ खतै चुल्लकुमारसु ध्याइये, लोहच्चा मुनि चरणे लय लाइये ॥ काल उदाई प्रमुख महामुखी, संजम शुद्ध जयंती साहूणी ॥ उल्लालो ॥ साहूणी जाणी जगवखाणी, परमपद सुख पांमिया ॥ श्रीश्रमरणभद्र सुभद्र सुन्दर अचल आतमरामिया ॥
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४६६
अभय रत्नसार। श्रीसुप्रतिष्ठय तीस सुत्रत, साधु सुव्रत सेहरो॥ चारित्र रिष गुणवंत गोभद्र गरुओगरिमा सागरो १४॥ चाल ॥ सिरि सिवराय ऋषीसर वंदिये, दसारण भद्र नमु दुख छंदिये ॥ अर्जुनमाली सुख संजमधरो, सुदृढप्रहारी सिवरमणी वरो॥ उल्लालो ॥ सिवरमणी वरो श्रीकूरगडू क्षमावंत प्रसिद्धर, कोडिन्न दिन्न अनै सेवाली पनर सतक तिडोत्तरा ॥ गोतम प्रबोधत सिद्ध पुहता नमु चरण करणाधरा ॥ १५ ॥ चाल ॥ गिरुआ श्री गुणसागर गाईये, प्रथवीचंद्र प्रणम्यां सुख पाइयै ॥ खंदकुमार सदा अभिनंदिये, नमिह भरह मित्र मन आणंदिये ॥ उल्लालो ॥ आणंदिये मेतार्य मुनिवर भगत्तसुसमरी करी,रुषी इलापुत्र चिलापुत्र मृगापुत्र हीय धरी ॥ श्रीइन्द्र नाम नग्रंथ निर्मम धर्मऋचि धर्मागिरो॥ तेतलीपुत्र सुबुद्धि बोध तसु जितशत्रु मुनीसरो॥ १६ ॥ चाल ॥ उदय २ कर जगि २ जसतणो, श्रमण
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५०० मुनि मालका। सुदंसण सील सुहामणो॥श्रीअन्नयसत आईकुमार ए, चित्त चतुर नर चित्त चमकार ए॥ उल्लालो ॥ चमकार सार सुजात ऋषिवर देवसांनिध जस घणी, गंगेय गिरुवो गुणे गाजै सुजिन पालत हित धणी ॥ श्रीधर्मघोष सुसीस धर्मरुचि, साधु श्रीजिनदेव ए ॥ श्रीकपिल ऋषि हरिकेशव बल मुनि, नित नमु निरलेव ए॥१७ चाल ॥ जति जयघोष विजयघोष जुओ,सेवं श्रुतधर श्रीदेवलसुत्रो॥श्रीइखुकार नृपति कमला. वती, रांणी भृगुसुप्रोहित सुभमती ॥उल्लाला॥ सुभमती जेहनी जसाभार्या पुत्र दोय वखाणिये, ए छहूं लेइ चारु चारित्र मुगति पहुता जाणिये॥ क्षत्रिय मुनिसर साधु संजम धर्मरुचि महाव्रती, निर्गन्थनाथ अनाथ वंदू समुद्रपाल सुसंयती॥ १८ ॥ चाल ॥ कुम्मापुत्र नमु केवल कल्पो, विधसूशीतल सिवकमला मिल्यौ । धन धन धन्यो सूरगिरी धीर ए, वीरप्रशंस्यो तप गुण
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अभय-रत्नसार ।
५०१
वीर ए ॥ उ० ॥ श्रीवोर दीक्षित श्री सुबाहुभद्र नंदकुमार ए, आदिक दसे रिष चरिय जेहना सुख विपाक उदार ए ॥ श्रीचंडरुद्र सुसीस खंदग क्षमानिधि कहिये इस काले, कुरुदत्त सुत तीसग सरोरुह रिष नम्यां आस्था फले ॥ १६ ॥ चाल ॥ अंग प्रमुख रिष च्यारे आदरी, विधिसु संजम सिद्धिवधू वरी ॥ अभयकुमार मुनि भयंकरो, हल्ल विल्ल आतम हितकरो | उल्लालो॥ हितकरो दयाधर मेघ मुनिवर नंदिषेण आराधियै, सुनक्षत्र नै सर्वानुभूति समर सिवसुख साधिये ॥ श्रीसिंह साधू अने उदायन चरम राजरुषीसरो, श्रीसालभद्र सुधन्न मुनिवर समरंता
मंगलकरो ॥ २० ॥
तीसरी ढाल - राग धन्यासरी ॥
वडवेरागी वर नमु, युगवर जंबूसांमि ॥ प्रभव सिय्यंभव परगड़ो, सुजस जसोभद्र स्वांमि ॥ महामुनिसर नित नमु जी, नामे घर नव
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५०२ मुनि मालका। निध्ध वाधै रिद्ध समुद्ध ॥ महा० ॥ २२ ॥ जग संभूति विजय जयो, भद्रबाहु कृतभद्र, जग जोगीसर जागतो, मुनिवर श्रीथूलभद्र ॥ २३॥ म० भद्रबाहु स्वोमीतणा, च्यार शिष्य मुनिराय ॥ सीत परीषह जिणसह्या, सास्या२ आतम काज॥ म०॥ २४॥ अज्जमहागिरि जांणिये, अज्जसुहत्तिथ विशाल ॥ संप्रति नप पडिबोहियो, श्रीअयवंतोसुकमाल ॥ म० २५ ॥ आरिजसांमियसंसियो, अज्जसुभद्र मुनीस ॥अज्जमंगु महिमा निलो, सोहगिरी समुनीस ॥ म० ॥ २६ ॥ धनगिरि थिवर महामुनी, श्रीवयरस्वामी मुनिराय ॥ अरहदिण्ण मुनि अपहस्यो, भद्रगुपति निरमाय॥ म०॥२७॥ वयरसेन विद्यावरू, श्रीरक्षत गुरु दक्ष ॥ पुस मित्र गुण गहगह्यो, प्रभु दुरबलका पक्ष ॥ म०॥ २८॥ विंझ साधु सुविधइ भयो, श्रीठंडिल सुविहट्ट ॥ सूत्रअरथ रतने भयो, क्षमाश्रमण देवतु ॥ म० ॥ २६ ॥ पंचम काल म
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अभय रत्नसार। ५०३ हामुनी, श्रीदुपसै सूर दयाल ॥ शुद्ध क्रिया खरतर सही, जिन आज्ञा प्रतिपाल ॥ म० ॥३०॥ इम पनर कर्मभूमी जिके, हुआ होस्यै अणंत ॥ वर्तमान श्रीसाधुजी ॥ रत्नत्रइ गुणवंत ॥ म० ॥ ३१॥ ब्राह्मी सुन्दरि रायने, साहुणी चंदनबाल ॥ आदिक सीलवतो सती, त्रिकरण शुद्ध त्रिकाल ॥ म० ३२ ॥ संवत सोल छत्तीस ए, श्रीविमलनाथ सुरसाल ॥ दिक्षा कल्याणक दिने, गंथी श्रीमुनिमाल ॥ म० ३३॥ रिणी पुरै रलियामणो, श्रीशीतल जिनचंद ॥ सूरि विजय राजै सदा, संघ सकल आणंद ॥म० ॥३४॥श्रीमतिभद्र सुगुरुतणे, सुपसाये सुखकार ॥ चारित्र सिंघ वखाणिय, सदा २ जयकार ॥ म० ॥३५॥ मनहर श्रीमुनिमालका, गुणगण परिमल पूर ॥ कंठ ठवे उत्तम जिके, पामे सूख भरपूर ॥ म०॥ ३६
फिल समान ॥ अष्ट महासिद्ध घरे फले, सदा २ कल्याण ॥म०॥३७॥
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५०४ छिन्नुं जिन-स्तवन।
छिन्तुं जिन-स्तवन । ॥दोहा॥ वरतमांन चौवीसी बंदू, मन सूधै नित मेव री माई ॥ रुषभ अजित संभव अभिनंदन, सुमति पदम प्रभु सेव री माई ॥ व०॥१॥ श्रीसुपार्श्व चंद्र प्रभु प्रणम, सुविध शीतल श्रेयांस री माई ॥ वासुपूज्य विमल अनंत धरम जिन, शांति कुथ परसंस री माई ॥ व० ॥२॥ अरिजिन मल्लि अने मुनिसुव्रत, नमि नेमी पास जिनन्द री माई ॥ चोवीसमा श्रीवार जिनेसर, प्रणमं परमानंद री माई ॥३०॥३॥
दूसरी ढाल-प्रह सम सूधा साधु नमु नित-ए. देशी ।
नित २ अतीत चोवीसो नमिय, जेहना नाम प्रगट ए जाण ।। केवलज्ञानी ते निरवाणी, सागर महाजस विमल वखाण ॥४॥ नि०॥ सर्वानुभूति श्रीधरदत्त जिनवर, दामोदर सुतजाश्रीस्वामि ॥ मुनिसुव्रत सुमति शिवगति जिन, श्रोअस्ताग नेमीसर नाम ॥ ५ ॥ नि०॥ अनिल
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अभय रत्नसार। ५०५. यशोधर तेम कतारथ, श्री जिनेसर सुद्धमति सुजगीस, सिवकर स्यंदन संप्रति नांमे, वंदीजे जिनवर चोवीस ॥ ६॥ नि० ॥
तीसरी ढाल-सफल संसारनी-ए देशी ॥
जे भविस्संतिअणागए काल ए, तेह चौविस प्रणमीस त्रिहुं काल ए। प्रथम माहाराज श्रेणिकतणो जीव ए, श्रीपद्मनाभ प्रणमीस सदीव ए ॥ १॥ वीरनो पितरियो नाम सुपास ए, हुसीजिन बीय सुरदेव सुप्रकाश ए । श्रेणिक सुत उदाइ नरिंद ए, तीसरो तेह सुपास जिणंद ए॥ २॥ शिष्य श्रोवीरनो पोलो साध ए, चोथो स्वयंप्रभू नाम आराधि ए। दृढायुष जीव सिद्धांतमें जाणिय, पंचम सर्वानुभूति प्रमाणिये ॥३॥ कीर्त इण नाम इक जीव कहीजिये, देवश्रुत ते छठो स्वामि सलहीजिये। संख श्रावक हुस्यै उदय जिन सातमो,आनंदनो जीव पेढाल जिनआठमा
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५०६ छिन्नुं जिन-स्तवन । ॥४॥सुनंदनो जीव ते नवम पोहल जिणं, सतक श्रावक शतकीर्ति दसमो भणं। देवकी जाव मुनिसुव्रत इग्यारमो, सत्यकी जीव ते अमम जिन बारमो ॥५॥ वासुदेव जीव निकषाय जिन तेरमो, बलदेवजीव निपुलाक चवदम नमो। पनरमो निरमम देव सुलसा कही, रोहणीजीव चित्रगुप्त सोलम सही ॥६॥ समाध जिन सतरमो श्राविका रेवती, अढारमो शदालजीव संवर जिनपती। दीपायनजीव यशोधर उगणीसमो, कृष्णकोइजीवते विजय जिन वीसमो ॥७॥ मल्लि इकवीसमो जीव नारदतणो, देव बावीसमो अंबउ श्रावक भणु। तेवीसमो अमरजोव अनंत वीरज नमो, स्वातबुधजीव ते भद्र चोवीसमो॥८॥ एह आगामि चोवीस जिन जांणिया, प्रवचनसारोद्धारथी आंणिया। केइ परसिद्ध ने केइअप्रसिद्धकह्या, शास्त्र अनुसारथी साच कर सरदह्या ॥६॥
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अभय-रत्तसार ।
चौथी ढाल - आज निहेजो रे दीसे नाहलो - ए देशी ॥ विरहमान जिन वीसे वंदिये, महाविदेह विख्यात ॥ सीमंधर युगमंदिर श्रीसुबाहु सुजात ॥ वि०६ ॥ स्वयंप्रभु ऋषभानन अनंतवीरजी, सूरप्रभु तेम विशाल ॥ वज्रधर चंद्राननचंद्रबाहुजी, भुजंग ईश्वर नेमिभाल ॥ वि० ॥ ७ ॥ वैरसेन महाभद्र नमुं वली, देवयशा यशोरिद्ध अढीद्वीपमे विचरे आज ए, नाम लियां नवनिद्ध ॥ वि० ॥ ८
५०७
पांचमी ढाल -रे जीव जिन धर्म कीजिये --ए देशी ॥ च्यार तीर्थंकर सासता, इहिज अभिधान || झषभानन चंद्रानन, वारिषेण वर्द्धमांन ॥ च्यां० ॥ ६ ॥ ठ कोडो छप्पन्न लाख ए, सत्तारण हजार ॥ चउसे छयासी देहरां, त्रिह लोक मझार ॥ च्यार० ॥ १० ॥ नवसे पणवीस कोड़िया, बिंब त्रेपन लाख ॥ सहस अठावीस व्यारसे, अट्यासी भाख ॥ च्यार० ॥ ११ ॥ विभूजिंणवर नांम ए, समस्यासुखदाय ॥ प्रणम्यां पाप मिटेपरा, समकित शुद्ध थाय ॥ च्यार० ॥ १२ ॥
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५०८ मांगलिक सरणां।
कलश॥ इम त्रिण चोवीसी वीस विरहमांण चऊ जिणवर सासता, संथुण्या सतरैसै बयाले अधिक आणी आसता॥ जिन रतनचिंतामणीतणी पर प्रबल वंछित पूर ए, प्रहसमै त्रिकरण शद्ध प्रणमें सदा जिनचंद्र सूर ए ॥ १३ ॥ इति श्री छिन्नं जिन-स्तवनं संपूर्णम् ॥
॥मांगलिक सरणां॥ प्रह ऊठीने समरिजें हो ॥ भवियण मंगलिक सरणो चार ॥ आपदा टाले संपदा हो ॥ भ० दोलतनो दातार ॥ हियडे राखिजें हो ॥ भ० ॥ १॥ अरिहंत सिद्ध साधा तणी हो॥भ० ॥ केवलि भांख्यो धर्म ॥ ए चारू जपतां थको हो । भ० ॥ टूटे आळं कर्म ॥ हि ॥ २॥ एचारं सु. खकारि हो ॥भ० ॥ एचारू मङ्गलिक ॥ एचारू उत्तम कह्यां हो ॥भ०॥ ए चारं तहतीकहो ॥हि० गेले घाटे चालतांहो ॥ भ० ॥ समरु वारं वार ॥ गामें नगरें चालता हो ॥ भ०॥ विघननिवारण
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अभय रत्नसार ।
५०६
हार || हि० || ४ || डाकरण साकरण भूतड़ा हो ॥ भ० ॥ सिंह चिताने सूर ॥ वैरी दुसमन चोरटाहो भ० ॥ रहे सदाइ दूर ॥ हि० ॥ ५ ॥ सुख शांता वरते घणी हो || || जे घ्यावे नरनार ॥ परभव जातां जीवने हो ॥ भ० ॥ सरगांको आधार ॥ हि० ॥६॥ राखो सरणाकी आसता हो ॥ भ० ॥ नेड़ो नहिं आवे रोग | वरते आनंद सुख सही हो ॥ भ० ॥ वालो तो संयोग ॥ हि० ॥ ७ ॥ निशिदिन याकुं ध्यावतां हो ॥ भ० ॥ जीव तणो उद्धार | कमी नहिं काइ वस्तुनी हो ॥ भ० ॥ याहि जगमें सार | हि० ॥ ८ ॥ मनचिंता मनोरथ फले हो ॥ भ० ॥ वरते कोड कल्याण ॥ शुद्धमनें करी समरता हो ॥ भ० ॥ निश्चय पद निर्वाण | हिο|| ६ ॥ ए सरणाने ध्यावतां हो ॥४०॥ नाम तणो आधार ॥ ए सरणाकी कीरति कही हो ॥ भ० ॥ ध्यावो मनह मकार ॥ हि० ॥ ॥ १० ॥ संवत् ढारे बावने हो ॥ भ० ॥ पालि सहेर सुखकार ॥
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५१० सज्झाय-संग्रह। चोथमल्ल इम वीनवे हो ॥ भ० ॥ सुणजो बाल गोपाल ॥ हि० ॥११॥इति श्रीमांगलिक सरणां ॥
र
सज्झाय-संग्रह ।
॥ उपदेशमाला पोसह सिज्झाय ॥ जग चूड़ामणिभूओ, उसभो वीरो तिलोय सिरि तिलो ॥ एगो लोगाइच्चो, एगो चक्खु तिहुअणस्स ॥१॥ संवच्छरमुसभ जिणो, छम्मासे वद्ध माण जिणचंदो॥ इइ विहरिया निरसणा, जए जए अोवमाणेणं ॥२॥जइता तिलोयनाहो. विसहई वहुचाई असरिसजणस्स ॥ इय जोयंतकराइं, एस खमा सब्दसाहणं ॥३॥ न चइ. जइ चालेउ, महइ महावद्धमाण जिणचंदो ॥ उवसग्ग सहस्सेहिं वि, मेरु जहा वायगं जाहिं ॥४॥ भदो विणीय विणो, पढम गणहरो समत्त सुयनाणी ॥ जाणतो वि तमत्त्थं, विम्हिय
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अभय रत्नसार ।
५११
हि सुइ सव्वं ॥ ५ ॥ जं आणवेइ राया, हियत्रो पयइउ तं सिरेण इच्छंति ॥ इय गुरुजण मुह भणियं, कयंजलिउडेहिं सोयव्वं ॥ ६ ॥ जह सुरगणाण इंदो, गहगण तारागणारण जह चंदो । जहय पयाण नरिंदों, गणस्स वि गुरु तहाणंदो ॥ ॥ ७ ॥ बालुत्ति महीपालो, न पया परिहवइ एस गुरु उवमा ॥ जंवा पुरो काउं, विहरंति मुणी तहा सोवि ॥ ८ ॥ पडिवो तेहस्सि, जुगप्पहागागमो महुरवको ॥ गंभीरो धिइमंतो, उवएसपरो य आयरिश्र ॥ ६ ॥ परिस्सावी सोमा, संगहसीलो अभिग्गहमई य ॥ अविकच्छणो अचवलो, पसं तहियत्र गुरु होई ॥ १० ॥ कइयात्रि जिरणवरिंदा, पत्ता अयरामरं पहं दाउं ॥
रिएहिं पवयणं, धारिजइ, संपयं सयलं ॥११॥ गम्म भगवई, रायसुयज्जा सहस्स वंदेहिं ॥ तहवि न करेइ मारणं, परियच्छइ तं तहा नूणं १२ || दि दिक्खियरस दमग, स्स अभिमुहा
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५१२
सज्झाय-संग्रह ।
अजचंदणा अजा ॥ नेच्छइ आसणगहणं, सो विणओ सव्व अजाणं ॥१३॥ वरसमय दिक्वियाए,अजाए अजदिविकओसाहू । अभिगमण वंदण नम, सणेण विणएणसो पुजो॥१४॥ धम्मो पुरिसप्पभवो, पुरिस वर देसिओ परिसजिट्टो । लोएवि पहू पुरिसो, किंपुण लोगुत्तमे धम्मे ॥१५॥ संवाहणस्सरण्णो, तइया वाणारसीइ नयरीए ॥ कन्ना सहस्समहियं, आसी किररूववंतीणं ॥१६॥ तह विय सारायसिरो, उल्लत्ती न ताइया ताहिं। उयरदिएण इक, ण ताइया अंगवीरेण ॥१७॥ महिलाणसु बहुयाण वि, मजाओ इह समत्त घरसारो ॥ सायपुरिसेहिं विजइ, जणेवि पुरिसो जहिं नत्थी ॥१८॥ किं परजण बहुजाणा, वणाहिं वरमप्प सक्खियं सुकयं ॥ इह भरहचकवट्टी, पसन्नचंदोय दिघंता ॥१६॥ वेसो विट्ठ अप्पमाणो, असंजम पएसु वट्टमाणस्स ॥ किं परियत्तियवेसं, विसं न मारेइ खजतं ॥२०॥ धम्म रक्खइ वेसो,
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अभय रत्नसार। ५१३ संकइ वेसेण दिक्खिोमि अहं ॥ उम्मग्गेण पड़तं, रक्खइ राया जणवउ य ॥ २१ ॥ अप्पा जाणइ अप्पा, जहट्रिओ अप्पसक्खिो धम्मो ॥ अप्पा करेइ तं नह, जह अप्पसुहावहं होई ॥२२॥ जंजौं समयं जोवा, आविस्सइ जेण जेण भावण ॥ सो तंमि तंमि समए, सुहासुहं बंधए कम्मं ॥ ॥२३॥ धम्मो मएण हुँतो, तो नवि सोउन्ह वायविज्झदिना ॥ संवच्छरमणसीओ, बाहुबली तह किलिस्संता ॥ २४ ॥ नियगमइ विगप्पिय चिं, तिएण सच्छंदबुद्धिचरिएण॥ कत्तोपारत्तियं,कीरइ गुरु अणुवएसेणं ॥२५॥ अद्धो निगेवयारी, अविणीओ गब्धिा निरवणामो॥ साहुजणस्स गरहिआ, जणेवि वयणिज्जयं लहइ ॥२६॥ थोवण वि सप्पुरिसा, सणंकुमारूवक ई बुझति ॥ देहे खणपरिहाणी, जकिर देवेहिंसे कहियं ॥ २७ ॥ जइता लवसत्तम सुर,विमाण वासीवि परिवडंति सुरा ॥ चिंतिज तं सेसं, संसारे सोसयं कयरं॥
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सज्झाय संग्रह |
॥ २८ ॥ कहतं भन्नइ सुक्खं, सुचिरेण वि जस्स दुक्खमल्लिहियए ॥ जं च मरणा वसाणे, भव संसाराणबंधिं च ॥ २६ ॥ उवस सहस्सेहिं, बोहिज्जतो नबुझई कोई ॥ जह बंभदत्तराया, उदाइनिव मारो चेव ॥३०॥ गयकन्न चंचलाए, अपरिचत्ताइ रायलच्छीए ॥ जीवासक्कम्म कलिमल भरिय मरातो पति अहे ||३१|| वोत्तूवि जीवाणं, सदुक्करा इंति पावचरियाई ॥ भयवंजा सा सासा, पच्चाएसो हु इण मोते ||३२|| पडिवजिऊण दोसे, नियए सम्भंच पायवडियाए । तो किर मिगाचईए, उष्पन्न केवलं नाणं ॥३३॥ ॥ राईसंथारा- पोसह लज्झाय ॥ निस्सिही निस्सिही नमो खमासमणाणं, गोयमाईणं, महामुखी ॥ नवकार ३, करेमि - मंते ३, कहना, अणुजाह जिट्ठिना, अजायह परमगुरु, गुणगणरयणं हिं मंडिअसरीरा ॥ बहु पडिपुन्ना पोरिसि, राई संथारए ठामि ॥ १ ॥
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अभय रत्तसार।
५१५
अणुजाणह संथारं, बाहुवहाणेण वामपासेणं ॥ कुक्कुड पाय पसारण, अन्तरं तु पमजए भूमि ॥ ॥२॥ संकोइय संमासं, उवट्टतेय काय पडिलेहा ॥ दवाई उवओगं, ऊसासनिरुम्भणालोयं ॥ ३॥ जइ मे हुज पमाओ, इमस्स देहस्सिमाइ रयणीए ॥ आहार मुवहि देहं, सव्वं तिविहेण वोरिरियं ॥ ४ ॥ आसव कसाय बन्धण, कलहा भक्खाण परपरीवाओ, इरइ रई पेसुन्नं, माया मोसं च मिच्छत्तं ॥५॥ वोसिरिसु इमाइंमु,क्खमग संसग्ग विग्घ भूआई ॥ डग्गइनिबधणाइं, अट्ठारस पावट्ठणाई ॥६॥ एगो हं नत्त्थिमे कोइ, नाहमन्नस्स कस्सवि ॥ एवं अदीण मणसो, अप्पाण मणुसासए॥७॥ एगो मे सासो अप्पा, नाणदंसणसंजुओ ॥ सेसा मे बाहिरा भावा, सब्बे संजोगलक्खणा ॥ ८॥ संजोग मूला जीवेगण, पत्ता हुक्खपरंपरा ॥ तम्हा संजोग संबन्धं, सव्वं तिविहेण वोसिरे ॥ ६ ॥ अरिहंतो मह
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५१६ सज्झाय-संग्रह। देवो, जावजीवं सुसाहुणो गुरुणो ॥ जिणपन्नत्तं तत्तं, इयसम्मत्तं मए गहियं ॥ १० ॥ चत्तारि मंगलं, अरिहंता मङ्गलं सिद्धा मङ्गलं, साहू मङ्गलं, केवलि पन्नतो धम्मो मङ्गलं, चत्तारि लोगुत्तभा, अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा,केवलि पन्नत्तो धम्मो लोगुत्तमो, चत्तारि सरणं पवजामि, अरिहंते सरणं पवजामि, सिद्ध सरणं पवजामि, साहसरणं पवजामि, केवलि पन्नत्तं धम्म सरणं पवज्जामि ॥ अरिहंता मङ्गलं मझ, अरिहंता मज्झ देवया ॥ अरिहंता कत्तिअत्ताणं, वोसिरामित्ति पावगं ॥१॥ सिद्धाय मङ्गलं मझ सिद्धाय मझ देवया॥ सिद्धाय कत्तिअत्ताणं, वोसिरामित्ति पावगं । ॥२॥ आयरिया मङ्गलं मझ, आयरिया मझ देवया ॥आयरिया कित्तिअत्ताणं, वोसिरामित्ति पावगं ॥३॥ उवज्झाया मङ्गलं मझ, उवज्झाया मझ देवया। उक्झायां कित्तिअत्ताणं, वोसि
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अभय-रत्नसार।
५१७ रामित्ति पावगं॥४॥ साहणो मङ्गलं मज्झ, साहूणो मज्झ देवया। साहूणो कित्तिअत्ताणं, वोसिरामित्ति पावगं ॥ ५॥ पुढवि दग अगणि मारुय, इविक्के सत्त जोणि लक्खाओ ॥ वणपत्तेय अणंते, दस चउदस जोणि लक्खाउ ॥ १॥ विगलिंदिएसु दो दो, चउरो चउरो य नारय सुरेसु ॥ तिरिएसु हुंति चउरो, चउदस लक्खा यमणएसु ।। २॥ खामेमि सब जीवे, सव्वे जीवाखमंतु मे ॥ मित्ती मे सव्वभूएसु, वेरं मझ न केणइ ॥३॥ एवमहं आलोइअ, निंदिन गरहिअ दुगंछिअं सम्मं ॥ तिविहेण पडिक्कतो, वन्दामि जिणे चउव्वीसं ॥ ४ ॥ खमिश्र खमाविअ मइ खमिश्र, सव्वह जीव निकाय ॥ सिद्धहसाख आलोयणह, मज्झह वेर न भाय ॥ ५ ॥ सव्वे जीवा कम्मवसु, चउदह राज भमंतु ॥ ते मइ सव्व खमाविया, मज्झवि लेह खमंतु ॥६॥
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५१८ सज्झाय-संग्रह।
निन्दावारक-सज्झाय।। निंदा म करजो कोइनो पारकी रे, निंदानां बोल्यां महा पाप रे ॥ वयर विरोध वाधे घणोरे, निंदा करतां न गणे माय बाप रे ॥ निं० ॥ १ दूर वलंती कां देखो तुझे रे, पगमां बलती देखो सहु कोय रे ॥ परना मेलमा धोयां लूगडांरेकहो केम ऊजला होयरे॥नि० ॥ २॥ आप सं. भालो सहुको आपणो रे, निंदानी मूको परी टे. व रे॥ थोडे घणे अवगुणे सहु भस्यां रे, केहनां नलीयां चूए केहनां नेव रे ॥ निं० ॥३॥ निदा करे ते थाये नारकी रे, तप जप कीधू सहु जाय रे ॥ निंदा करो तो करजो आपणी रे, जेमछुटकबारो थाय रे ॥ नि ॥४॥ गुण ग्रहजो सहुको तणो रे, जेहमां देखो एक विचार रे॥ कृ. ष्णपरे सुख पामशो रे समयसुंदर कहे सुखकार रे ॥ निं० ॥५॥
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अभय-रत्नसार।
५१६
सती सीताकी सज्झाय। जल जलती मिलती घणी रे, झाली झाल अपार रे ॥ सुजाण सोता ॥ जाणे केसू फूलियां रे लाल, राता खैर अङ्गार रे ॥ सु० ॥ १॥धीज कर सीतासती रे लाल, ॥ शील तणे परि माण रे॥सु० ॥ लक्ष्मण राम खुशी थया रे लाल-निरख राणा राण रे ॥ सु०॥ २ ॥ स्नान करी निरमल जलें रे लाल, पावक पासें आय रे ॥सु० ऊभी जाणे सुरांगना रे लाल, अनुपम रूप दिखाय र ॥ सु०॥३॥ नर नारी मिलियां घणां र लाल, ऊभाकरे हाय हाय रे ॥ सु०॥ भस्म हशी इण आगमें रे लाल, राम करे अन्याय रे॥ सु०॥ ४ ॥ राघव बिन वांछयो हुवे रे लाल,सुपनेहो नहिं काय रे ॥सु०॥ तो मुझ अगन प्रजालजो रे लाल, नहिं तो पाणी होय रे ॥ सु० ॥ ५॥ इम कहि पेठी आगमें रे लाल, तुरत अगन थयो नीर रे ॥ सु०॥ जाणे द्रह जलशं भस्यो
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५२०
सज्झाय-संग्रह। रे लाल, झोले धरम सुधीर रे ॥ सु० ॥ ६ ॥ दे. व कुसुम वरषा करे र लाल, एह सती सिरदार रे॥ सु०॥ सीता धीजें ऊतोरी रे लाल, साखभरे संसार रे ॥ सु०॥७॥ रलियायत सहुको थयां रे लाल, सघले थया उछरंग रे॥सु०॥ लक्ष्मण राम खुशी थयारे लाल, सीता शीला सुरंग रे॥ सु० ॥८॥ जगमाहे जस जेहनो रे लाल, अविचल शील कहाय रे॥सु०॥ कहे जिन हर्षसती तणा रे लाल, नित प्रणमीले पाय रे सु०॥६॥
___ अनाथी मुनिकी सज्झाय ।
श्रेणीकरयवाडो चढयो, पेखियो मुनि ए कंत॥ वर रूपकाते मोहियो, राय पूछे रे कहो विरतंत ॥१॥श्रेणिकराय हुरे अनाथी निग्रंथ ॥ तिणमें लोधोरे साधुजोनोपंथ ॥श्रे०॥ ए आंकणी॥ इण कोसंबी नगरी वसे,मुझपिता परि गल धन्न । परवार परें परवस्योहु तेहनो रे पुत्र रतन्न॥ श्रे०२॥ इक दिवस मुझ वेदना,ऊपनी तेन ख्मा
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अभय रत्नसार ।
५२१
य ॥ मात पिता सह जरी रह्या, तोही पण रे समाधि न थाय ॥ श्रे० ॥ ३ ॥ गोरडी गुण मन ओरडी अबला नार ॥ कारड़ी पीडा में सही, नहिं कीधी रे मोर डी सार ॥ भे० ॥ ४ ॥ बहराजवैद्य बुलाइया, कीला कोड़ीउपाय || बावनाचंदन लेईया, पण तोही रे दाह नवि जाय ॥
० ||५|| वेदना जो मुझ उपशमे, तो लेउं संजमभार ॥ इम चिंतवतां वेदन गई, व्रत लोधोहर अपार ॥ ० ॥ ६ ॥ जगमांहे को केहनो नहिं, तेभणी हं रे अनाथ ॥ वीतरागनो धरम म्हारो, कोई नहीं रे मुगतिनो साथ ॥ ० ॥ ७ ॥ कर जोड़ी राजा गुण स्तवे, धन धन तुं अनगार ॥ श्रेणिक समकित तिहां लहे, वांदी पहुंचे रे सरग मकार ॥ ० ॥ ८ ॥ मुनिवर अनाथी गावतां, कर्मनी तूटे कोड़ी ॥ गणि समयसुंदर तेहना, पाय बांदे रे बे कर जोड़ी ॥ ० ॥ ६ ॥ इति ॥
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પૂ૨૨ सज्झाय-संग्रह।
प्रति क्रमणको सज्झाय । __ कर पडिकमणो भावसं, दोय घड़ो शुभ जांण लालरे॥ परभव जातां जीवनें, संबल साचं जाण ॥ लालरे ॥ १॥ कर पडिकमणो भावसं ॥ ए आंकणो ॥ श्रीमुख वीर समुच्चरे, श्रेणिकराय प्रतिबोध ॥ ला०॥ लाख खंडी सो. ना तणी, दीये दिन प्रति दान ॥ ला० ॥ २॥ कर० ॥ लाख वरस लग ते वली,एम दीये द्रव्य अपार ॥ ला०॥ इक सामायिकनी तुला, नाव तेह लगार ॥ला० ॥३॥ कर०॥ सामायिक चउविसत्त्थो,भलं वंदन दोय दोय वार लालरो॥ व्रतसंभारो रे आपणां, ते भव कर्म निवार ॥ लालरे ॥४॥ कर०॥ कर काउसग्ग शुभध्यान थी. पञ्चक्खाण सूधं विचार ॥ लालरे ॥ दोय सज्झा. ये ते वली, टालो टालो अतिचार ॥ लालरे ॥ ५॥ कर० ॥ सामायिक परसादथी,लहीयें अमर विमान ॥ लालरे॥ धरमसिंह मुनिवर कहे,मुगति तणं ए निदान ॥ लालरे॥६॥
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अभय-रत्नसार ।
ढंढण ऋषीकी सज्झाय ।
|| ढंढर ऋषिजीने वन्दना हूं वारी, उत्कृष्टो अणगार, रेहूवारी लाल, अभिग्रह लीधो एहवो, हुं• ॥ लेस्युं शुद्ध आहाररे ॥ हुं० ॥ १ ॥ ढं० ॥ नितप्रति ऊठे गोचरी हुं० ॥ न मिले शुद्ध आहाररे || हुंवा ० मूल न लै अणसूझतो हुं० ॥ पञ्जर कीधो गातरे हुं० ॥ २ ॥ ढं० ॥ हरि पर्छ श्रीनेमने हैं०, मुनिवर सहस अढार रे ॥ हुंवा० ॥ उत्कृष्टो कुण एहमें हुं० ॥ मुझनें कहो विचार रे || हुंवा० ॥ ३ ॥ ढं० || ढंढा अधिको दाखियो हुं० ॥ श्रीमुख नेमजिणंढ रे हुंवा० ॥ कृष्ण ऊमाह्या वांदावा हुं० ॥ धन जादव कुलचन्द्र रे हूंवा० ॥ ४ ॥ ढं० ॥ गलियारे मुनिवर मिल्या हुं०, वांद्या कृष्ण नरेस रे हंवा० ॥ कि
५२३
ही मिथ्यात्वी देखने हुँ०, आण्योभाव विसेसरे हुं० ॥ ५ ॥ ० ॥ मुझ घर आवो साधजी हं०, ल्यो मोदक छै शद्धरे हूं० ॥ मुनिवर विह
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५२४ सज्झाय-संग्रह। रीने पांगुख्या १०, आया प्रभुजीने पास रे हं० ॥६॥ ढं० ॥ मुझ लबधै मोदक मिल्या हूँ, कहोने तुम्हे किरपाल रे हु०॥ लबध नही वच्छ ताहारी हूं०, श्रीपति लबधि निधान रे हूं० ॥७॥ । ढं०॥ एलेवा जुगतो नही हु, चाल्या परठन काज रे हूं० ॥ इंट निवा हे जायने हु० चुरे करम समाज रे हु ॥८॥ ढं० ॥ आणी चढती भावना हु, ॥ पांम्यो केवल नाण रे हु॥ ढंढण ऋषि मुगते गया हु, ॥ कहे जिनहर्ष सुजाण रे हु०॥६॥ इति ॥
॥धन्नाषीको सज्झाय ॥ श्रीजिनवाणी रेधन्ना,अमिय समाणी मोरा नन्दन, मन. तो मांनी रे नन्दनताह रै॥१॥ तं अतहि वैरागी रे धन्ना, धरमनो रागी मोरा नन्दन, महारो तो मनडो रे किम परचावसु ॥२॥ दस दसी दीसे रे धन्ना, तो बिन सनी मोरा नन्दन, अनुमति देतां रे जीभ वहे नही
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अभय रत्नसार। ५२५ ॥ ३ ॥ बत्तीस नारी हो धन्ना, अतहि पियारी मो० ॥ वाणी तो बोले रे मधुर सुहामणी ॥४॥ बालक तो कामणी रे धन्ना, वय पिण तरुणी मो० ॥ गजगति चाले रे चाल सुहावणो ॥५॥ ए घर मन्दिर हो धन्ना, ए सुख सज्या, मो० ॥ कोड बत्तीसे धननो तूं धणी ॥६॥ ए धन मांणो रे धन्ना, वय पिण जाणो, मो० ॥ भोगवि लेज्यो रे भोग सुहामणो ॥७॥ व्रत अति दोहिलो रे धन्ना, नहिय सुहेलो, मो० ॥ सुगम नही छे रे साध कहावणो ॥ ८॥ घर २ भिक्षा हो धन्ना, गुरु तणी शिक्षा, मो० ॥ कहाणी रे रहणी नही छे सारखी ॥६॥ इक वारे सुणीये हो धन्ना, आगम भणीये मो० ॥ जिनवर जाणो हो दुकर जोगछै॥ १०॥ वनवासै रहणा हो धन्ना, परीसह सहणा, मो०॥ कोमल केसा रे लोच करावणो ॥ ११॥ साचो तें भाख्यो हे अम्मा, झूठ न दाख्यो मोरी अम्मा ॥ दुकर मारग जननी
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सज्झाय-संग्रह। दाखियो ॥१२॥ सुख अभिलाषी हे अम्मा, झूठ न आखी मोरी अम्मा ॥ कायर मारग जननी दाखियो ॥१३॥ ए जग स्वारथी हे अम्मा, नही परमारथि मोरी अम्मा, वीर वखाण्यो परखदा सहु सुण्यो ॥१४॥ में इम जाण्यो हेअम्मा, वीर वखाण्यो मोरी अम्मा, ए धन जोवन आयु थिर नही॥१५॥ अनुमति दीजे हे अम्मा,ढील न किजै मोरी अम्मा, जो खिण जावे सु फिर आवे नही ॥ १६ ॥ अनुमति आपी हो अम्मा, जीव सुख पायो मोरी अम्मा, संजम लीधो रे मनमां गहगही ॥१७॥ छ8 २ पारणे हे अम्मा, विगय निवारण मोरी अम्मा, वीर वखाण्यो सुरनर
आगलै ॥ १८ ॥ सुख संजम पाले हे अम्मा, दूषण टाले मोरी अम्मा, अंग इग्यारे अरथ रू. डा भणे ॥१६॥ संजम पाल्यो हे अम्मा,नव पखवाडे मोरी अम्मा, मास संथारे सरवारथसिद्ध लह्यो ॥२०॥ इति धन्नाऋषि-सज्झाय संपूर्णम् ॥
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अभय रत्नसार।
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॥कमकी सज्झाय॥ देव दानव तीर्थंकर गणधर, हरि हर नरवर सघला ॥ करम तणे वस सुख दुख पाया, सबल हुआ महा निबला रे प्राणी,कर्म समो नहि कोई ॥१॥ आदीसरजीने करम अटाख्या, वरस दिवस रह्या भूखा ॥ वीरने बारे वरस दुख दीधा, ऊपना ब्राह्मणी कूखैरे प्राणी ॥क०॥२॥ साठ सहस सुत माख्या एकण दिन, जोध जुवान नर जैसा ॥ सगर हुओ महा पूत्रनो दुखियो, कर्मतरणा फल एसा रे॥ प्रा०॥ क० ॥३॥ बत्रीस सहस देसांरो साहिब, चक्री सनतकुमार ॥ सोले रोग सरीरमे ऊपना, कर्मे कीयो तनु छार रे॥प्रा०॥४॥ कर्म हवाल किया हरचंदने, वेची सुतारा रांणी ॥ बारे वरस लग माथे आण्यो, नीचत घर पाणी, रे॥ प्रा०॥क०॥५॥ दधिवाहन राजारी बेटी, चावी चंदनवाला ॥ चौपद ज्यं चहुटामें वेची, करमतणा ए चाला रे ॥प्रा०॥ क० ॥६॥
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પૂરક समाय-संग्रह । संभूम नाम आठमोचक्री,कम्में सायर नाख्यो॥ सोले सहस जक्ष उभा देखे, पिण किणही नहि राख्यो रे ॥ प्रा०॥ क०॥७॥ ब्रह्मदत्त नामे बारमो चक्री, कम्मे कीधो आधो ॥ इम जाणीने अहो भविप्रोणी, कर्म कोइ मत बांधो रे॥प्रा० क०॥८॥छपन्न कोड जादवरो साहिब, कृष्ण महाबल जांणी ॥ अटवी मांहि मंत्रो एकलडो, बिल २ करतो पाणी रे ॥ प्रा० ॥क०॥ ६॥ पांडव पांच महा झूझारा,हारी द्रोपदा नारी ॥ बारे बरस लग बन रडवडिया, भमिया जेम भिख्यारी रे॥प्रा० ॥ क० ॥१०॥ बीस भुजा दस मस्तक हंता, लखमान रावणमारयो ॥ एकलडै जग सहु नर जीत्या, ते पिण कर्मसं हास्यो रे ॥प्रा०॥ क०॥ ११॥ लखमण राम महा बलबंता, अरु सतवंती सीता ॥ कम्म प्रमाणे सुख दुख पांम्या, वीतक बहु तस वीता रे ॥प्रा०॥ क०॥ १२॥ समकितधारो श्रेणिक राजा, बेटे
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अभय-रत्नसार।
५२४
बांध्यो मुसकै॥ धरमी नरने कम धकाया ॥ करमसं जोर न किसका रे ॥प्रा०॥ क० ॥ १३ ॥ सतिय शिरोमणी द्रौपदि कहिये, जिन सम अवर न कोई ॥ पांच पुरुषनी हुइ ते नारी,पूरब कम्म कमाई रे॥प्रा०॥क- ॥ १४॥ आभानगरीनो जे स्वामी, साचो राजा चंद॥ मांइ कीधो पंखी कूकडो, कम्र्मे नाख्यो ते फंद रे ॥ प्रा०॥क ॥ १५ ॥ ईसर देव ने पारवती नारी, करता पुरुष कहावै ॥ अहनिस महिल मसांणमे वासो, भिक्षा भोजन खावे रे ॥प्रा०॥ क० ॥ १६ ॥ सहस किरण सूरज परतापी, रात दिवस रहे अटतो, सोल कला ससीधर जग चावो, दिन २ जाये घटतो रे प्रा०॥क० ॥ १७ ॥ इम अनेक खंड्या नर करमें, भांज्या ते पिण साजा ॥ ऋद्धि हरष कर जोडीने विनवै, नमो २ कर्म महाराजा रे॥प्रा० ॥क०॥१८॥
॥ इति कम्म सज्झाय समाप्तम् ।।
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५३० सभाय-संग्रह ।
॥ सात व्यसनोंकी सज्झाय॥ सात विसनना रे संग मतां करो, सुण तेहनो सुविचार विवेकी ॥ सात नरकना रे भाई सातेई, आपै दुक्ख अपार विवेकी ॥ सा० ॥१॥ प्रथम जूवाने रे विसन पडयांथकां, पाडव पांच प्रसिद्ध विवेको ॥ नलराजा पिण इण विसने पड्यो, खोइ सह राजरिद्ध वि० ॥सा०॥२॥ दूसरे मांस भक्षण अवगुण घणा,करै पर जीव संहार विवेकी महासतकनी नारी रेवती,नरक गइ निरधार विवेकी वि० ॥सा०॥३॥तीजे मदिरा पांन विसन तजी, चित धरी वलि चाह वि०॥ द्वीपायण रिषि दहव्यो जादवे, द्वारकानो थयो दाह वि० ॥ सा० ॥ ४॥ चोथे विसने वेस्याघर वसै, लोकमें न रहे लाज वि०॥ कयवन्नादिकनोगयो कायदो, कुविसने रे काज वि०॥सा०॥५ पाप आहेडे कुविसन साचवै, प्राणी हणिये प्रहार वि०॥ मारी मृगली श्रेणिक नृप, गयो पहली
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अभय रत्नसार।
५३१
नरक मझार वि. ॥ सा०॥ ६॥ छठे चोरीने विसने करी, जीव लहे दुक्ख जोर वि०॥ मुंजदेव राजायें मारियो, चावो हुंडक चोर वि० ॥ सा० ॥७॥ परस्त्रीय संगत कुविसन सातमें, हाणि कुजस बहु होय वि० ॥ राणो रावण सीता अपहरी, नास लंकानो रे जोय वि० ॥ सा० ॥८॥ इम जांणीने भव्य तुमे आदरो, सीख सुगुरुनी रे सार वि० ॥ इण भव परभव आणंद अतिघणा,कहे धरमसी सुखकारवि०॥सा ॥६॥
॥वैराग्यकी सज्झाय ॥ भूलो मनभमरा कांइ भमै, भमियो दिवस ने रात ॥मायारो लोभी प्रांणियो, भमियो परमल जोत ॥१॥ भू०॥ कंभ काचो काया कारमी, जेहना करो रे जतन्न ॥ विणसतां वार लागे नही, निरमल राखो रे मन्न ॥ २ ॥ भू०॥ केहना छोरू केहना वालरू, केहना माय नै बाप॥
ओ जीव जासी एकलो,सोथे पुण्यनें पाप ॥३॥ भू०॥ आस्या तो डूंगर जेवड़ी, मरवो पगला रे
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५३२
सज्झाय-संग्रह। हेठ ॥ धन संची संच कांइ करो, करवो देवनी वेठ॥ ४॥ भू० ॥ लखपति छत्रपती सब गए, गए लाखो के लाख ॥ गरब करी गोखै बैठता, भए जल बल राख ॥ ५ ॥सू०॥ भवसायरजल दुख भरयो, तिरवो छ रे जेह ॥ बीचमें बीह सबलो अछ, करमें वाय ने मेह ॥ ६ ॥ भू० ॥ उलट नही मोरग चालवो, जोयवो पहिले रे पार ॥ आगल नही हटवांणियो, संबल लेज्यो रे लार ॥७॥ भू मूरख कहे धन माहरो, धन केहनो हतो न थाय ॥ वस्त्र विना जाय पोढवो, लखपति लाकड़ माय ॥८॥ भू०॥मह मंद कहै वस्त वोरीय, जे कुछ आवे रे साथ ॥ आपणो लाभ उवारिय, लेखो साहिब हाथ ॥ भू० ॥६॥
॥बाहूबलजीकी सज्झाय ॥ राजतणा अति लोभिया, भरत बाहूबल झझे रे॥ मूठ उपाड़ी मारिवा, बाहूबल प्रतिबझे रे॥१॥ वीरा म्हारा गजथको ऊतरो, ब्राह्मी
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अभय रत्नसार। ५३३ सुन्दरी भासै रे ॥ ऋषभ जिनेसर मोकली, बाहूबलने पासै रे ॥ वी० ॥ गज चढयां केवल न होइ रे । वी० २॥ लोच करी चारित्र लियो, वलि आयो अभिमांनो रे॥ लघु बांधव वादू नहीं, काउसग्ग रह्यो शुभ ध्यानो रे ॥३॥ वी०॥ वरस दिवस काउसग्ग रह्यो, वेलड़ियां वीटाणो रे ॥ पंखी माला मांडिया, सीत ताप सूकाणो रे॥ वी० ॥ ४॥ साधवी वचन सुण्या इसा, चमक्यो चित्त मझारो रे ॥ हय गय रथमें परिहरया, पिण नवि मंक्यो अहंकारो रे ॥ वी० ॥ ५॥ वैरागे मन वालियो.मुक्यो निज अभिमांना रे ॥ पांव उपाड़ी वांदिवा, ऊपनो केवलज्ञानो रे ॥ वी०॥६॥ पहुंतो केवली परखदा, बाढ बल ऋषिराया रे ॥ अजर अमर पदवी लही, समयसंदर वंदे पाया रे ॥ ७॥ वी० ॥ इति ॥
॥ अरणिक मुनिकी सज्झाय ॥ अरणिक मुनिवर चाल्या गोचरी, तड़के दाझे
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५३४ सज्झाय-संग्रह । सीसो जी॥ पाय उवराणा रे वेल परजले, तन सुकमाल मुनीसो जी ॥ अर० ॥ १॥ मुख कमलाणो रे मालती फल ज्यं, ऊभो गोखने हेठो जी ॥ खरै दुपहरै रे दीठो एकलो, मोही माननी मोठो जी ॥ २॥ अ०॥ वयण रंगीले रे नयणे वेधियो, ऋषि थंभ्यो तिण वारो जो ॥ दासीने कहे जाय ऊतावली,ओ रिषि तेडी आंणो जी॥ ३॥ अ० पावन कीजे ऋषि घर आंगणो, वहिरो मोदक सारो जी ॥ नवजोवन रस काया कांड दहो, सफल करो अवतारो जी॥ ४ ॥ अ०॥ चंद्रावदनी रे चारित चूकव्यो, सुख विलसै दिन रातो जी ॥ इक दिन गोखै रमतो सोगठे, तब दीठो निज मातो जी ॥५॥ अ०॥ अरणिक २ करती माय फिरे, गलियै २ मझारो जी॥ कहि किण दीठो रे माहरो अरणलो, पूछ लोक हजारोजी ॥ ६ ॥ अ०॥ उतर तिहाथी रे जननीरे पाय नमे, मनमें लाज्यो तिवारी जी॥ धिग २
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अभय-रत्तसार।
५३५
पापी रे माहरा जीवने, एहमें अकारज धारयो जी ॥७॥०॥ अगन धुखंती रे सिल्ला उपरै,अरणिक अणसण कीधो जो॥ समयसुंदर कहे धन ते मुनिवरू,मन वंछित फल सीधो जी ॥८॥०॥
॥इलापुत्रकी सज्झाय ॥ नांम इलापुत्र जांणिय, धनदत्तसेठनो पूत ॥ नटवी देखी र मोहियो, जे राखे घरसूत ॥१॥ करम न छूटे रे प्राणिया,पूरब नेह विकार ॥ निज कुल छंडी रे नट थयो, नाणी सरम लिगोर ॥ क०॥२॥ इक पुर आओ रे नाचवा, उचो वंस विवेक ॥ तिहां राय जोवा रे आवियो, मिलिया लोक अनेक ॥ क० ॥३॥ दोय पग पहरी रे पावड़ी, वंस चढयो गजगेल ॥ निरधारा ऊपर नाचतो, खेले नवनवा खल ॥क०॥४॥ ढोल बजावे रे नाटकी, गावे किन्नर साद ॥ पायतल घुघर घनघन,गाजे अंबर नाद ॥क० ॥५॥ तिहां राय चिंतेरे राजियौ, लुबधो नटवी रे साथ ॥
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५३६ सज्झाय-संग्रह। जो पड़े नटवो रे नाचतो, तो नटवी मुझ हाथ ॥ क० ॥६॥ दांन न आपै रे भूपती, नट जाणे नृप वात ॥ हूं धन वंछु रे रायनो, राय वंछै मुझ घात ॥ क०॥७॥ तिहांथी मुनिवर पेखियो,धन२ साधु नीराग ॥ धिग २ विषया रे जीवड़ा, मन आण्यो वैराग ॥०॥८॥ संबरभावै रे केवली,ततखिण कर्म खपाय ॥ केवलि महिमा रे सुर करै, समयसुन्दर गुण गाय ॥क०॥६॥
॥ मेघकुमार मुनिकी सज्झाय ॥ वीरजिनंद समोसरया जी, वैदे मेघकुमार ॥ सुण देशन वैरागीयो जो, ए संसार असार रे मायड़ी ॥ अनुमति द्यो मुझ आज ॥ संयम वि. षम अपार रे॥ मा० ॥१०॥१॥वछ तू केणे भोलव्यौ रे, श्रेणिक तात नरेस ॥ कांइ ऊणौ किण दुहव्यो रे, हूं नवि द्यु आदेश रे जाया ॥ संयम विष० ॥ किम निरबाहिस भार रे जाया॥ इन० ॥२॥ आदि निगोदे हूं रुल्यो जी, स
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अभय रत्नसार ।
५३७
हिया दुक्ख प्रांत ॥ सासोश्वासें भव पूरिया जी, तेह न जांगू अंत हे ॥ मा० ॥ ० ॥ ३ ॥ हिवा तूं बालक जी, जोवन भयो रे कुमार ॥ आठ रमणि परणावियो रे, भोगवि सुक्ख अपार रे जाया ॥ ह्र नवि० ॥ ४ ॥ जनम मरण निरयातणो जी, दुक्ख न सहणौ जाय || वीरजिणंद वखाणियो जो, ते मैं सुणियो कांन हे मायड़ी ॥ अ० ॥ ५ ॥ वछ कांछलीये जीमणो जी, अरस विरस आहार | भुइ पाला नित ह्रींडगा जी, जाणसि तुझ कुमार रे जाया ॥ हूँ नवी० ॥ ६॥ भमतां जीव अनंत भम्यो जी,धम दुहेलो होय ॥ जरा व्यापे जोवन खिसे जी, तब किम करणो होय रे मायड़ी ॥ अ० ॥ ७ ॥ मृगनयणी आठे रमे जी, तोड़े नवसर हार || जोवनभर छोरू नहो जी, कांइ मूको निरधार कुमरजी ॥ हूँ न० ॥८॥ हंसतूलिका सेजड़ी जी, रूप रमणि रस भोग ॥ अतहि सुंहाली देहड़ी जी, किम हुय संजम जोगरे जाया ॥ हूँ न० ॥ ६ ॥ स्वारथनो सहू ए
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५३८
सज्झाय-संग्रह |
सगो जी, अरथ पखे सहु कोय ॥ विषय विषम महुरा कह्या जी, किम भोगविये सोय हे मायड़ी ॥ ० ॥ १० ॥ खमि २ माउ पसाय करी जी, में दीधुं तुझ दुक्ख || दियो आदेस जिम हु सुखी जी, वीर चरणें ल्युं दीक्ख हे ॥ मा० ॥ अ० ॥ ११ ॥ तन फाटे लोग झरे जी, दुख न सहगा जाइ ॥ वच्छ सुखी हुवो तिम करो जी, में दोधो आदेश रे जाया ॥ संयम वि० ॥ १२ ॥ मणि मांणक मोती तज्या जी, तोड्यो नवसर हार ॥ मृगनयणी आठ रड़े जी, हिव अह्म कवण आधार नरेसर | संयम० ॥ १३ ॥ कुमर भ सुकुली थिया जी, बहु दुख ए संसार ॥ नेह तुमारो जांगियो जी, जो ल्यो संयम भार रे नारी ॥ संय०॥१४॥ रथ सिविका तब सभी करी जी, कंवर धारणी माइ ॥ श्रेणिकराय उच्छव करें जी, चारित्र ल्यो रिषिराय रे जाया ॥ सं० ॥ १५॥ इम जांगी वैरागियौ जी, वरजै जे नर नारि ॥ कर जोड़ो पूनो भजी, ते तरस्यै संसार हे माय ॥ ० ॥ १६॥
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अभय-रत्नसार।
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॥ गजसुकमालको सज्झाय ॥ संवेगरसमे झीलता, मनसुं करे आलोच ॥ देखीने दोहग टलै, तासु साध्यो रे में करि लोच ॥ १॥ यादवराय धन २ गजसुकमाल, तेहने करू रे प्रणाम त्रिकाल ॥ या० ॥ ए आंकणी ॥ प्रभूपास संयम आदस्यौ, तेहनो ए परिणाम ॥ मन वचन काया वसि करी, जो हूं पामं रे केवलज्ञान ॥२॥ या० ॥ मुनि मुगति जायवा अलजयो, पड़खै न दिन दस वीस ॥ साहसीक इम उच्चरतो, पिण दिन जावे रे तो छेह दीस ॥ या० ॥३॥ समसाण जाय काउसग्ग रह्यौ, तिण सांझि प्रभुने पूछ । मुनिवर अवर इम चिंतवै, एह. साची रै छै मह मंछ ॥ या०॥४॥ मुझ सुता विन अवगुण तजी, सौमिल अगनि प्रजाल ॥ सिगड़ी रचि सिर ऊपरै, चिहुं दिसि बांधी रे माटीनी पाल ॥ या० ॥ ५ ॥ वेदनो जिम अधिक वधै. तिम वधै मन परिणाम ॥ चवदमें गुणठाणे चढ्यो, मुनिवर पांमी रे केवलज्ञान ॥
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५४० ___ सज्झाय-संग्रह। या०॥ ६॥ देवकी जांमणने थई, ते रयण वरस हजार ॥ वांदवा आवी प्रह समें, पिण नवि देखे रे प्रांणआधार ॥ या०॥७॥ पूछतां प्रभु मांडी करी, रातिनी वीतग वात॥ हरि देखी हियड्रो फटसी, तेणें कीधो रे ऋषिजीनो घात ॥ या०॥ ८॥ उपसम सुधारस सेवतां, पांमियो अविचलराज ॥ मनरंग साधु महंतना, गुण गावे रे श्रीजिनराज॥ या०॥६॥
॥ प्रसन्नचंद राजाको सज्झाय ॥
राज ठंडी रलियामणो रे, जांणी अथिर संसार ॥ वैरागै मन वालियो, कांइ लीधो संजम भार ॥ प्रसन्नचंद प्रणमं तुमारा पाय, तुमे मोटा मुनिराय ॥प्र०॥ १॥ वनमांहे काउसग्ग रह्यो रे, पग ऊपर पग ठाय ॥ बांह बेउं ऊंची करी, सूरज सांमी द्रष्टी लगाय ॥२॥प्र०॥ श्रेणिक वंदन नीसस्थो रे, वीरजीने वंदन जाय ॥ देइ तीन प्रदक्षिणा, त्रिविध २ खमाय ॥ प्र०॥३॥ दुरमुख दूत वचन सुणी रे,कोप चढ्यो ततकाल ।
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अभय रत्तसार ।
५४१
मनसुं संग्राम मांडियो, जीव पड्यो जंजाल ॥ प्र० ॥ ४ ॥ श्रेणिके प्रश्न पूछियो रे, एहनी सी गति थाय ॥ भगवंत कहे हिवणां मरे तो, सातमी नरके जाय ॥ प्र० ॥ ५ ॥ खिण इक अंते पूछियो रे, सरवारथसिद्धि विमान ॥ वाजी देवनी दुंदुभी, मुनि पांम्या केवलज्ञान ॥ प्र० ॥ ६ ॥ प्रसन्नचंद मुनि मुगते गया रे, श्रीमहावीरना शिष्य || रिद्धहरष कहे धन्य ते, जिण दीठा रे
परतन ॥ प्र० ॥ ७ ॥
॥ जीवोत्पत्तिकी सज्झाय ॥
उतपत जोय जीव आपणी, मनमांहि विमास ॥ गरभा वासे जीवड़ो, वसियो नव मास ॥ उ० ॥ १ ॥ नारीतणे नाभी तले, जिन वचने जोय ॥ फूल तणी जिम नालिका, तिम नाड़ी छै दोय ॥ उ० ॥ २ ॥ तसु तल योनि कहीजिये, वर फूल समान ॥ आंवतणी मांजर जिसो, तिहां मांस प्रधान ॥ उ० ||३|| रुधिर वे तिण मांसथी, ऋतुकाल सदीव ॥ रुधिर शुक्र योगे करी,
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५४२ सज्झाय-संग्रह। तिहां ऊपजे जोव ॥ ४॥३०॥ जे अपान पवने करो, वासित दुरगंध ॥ तिण थानक तू ऊपनो, हिव हुओ अंधमंध ॥ उ०॥५॥ नाड़ी वांसतणी भरियै, घणी रूघाल ॥ ताती लोह सलाकतें, जाले ततकाल ॥ उ० ॥ ६॥ तिम महिलानी जो निमें, छै नव लख जीव ॥ पुरुष प्रसंगे ते सहू, मरि जाय सदीव ॥ ७॥ ऊपजै नर नारी मिल्यां, पांचेंद्री जेह ॥ तेहतणी संख्या नही, तजो कारज एह ॥ उ०॥८॥ नव लख जीव टिके तिहां, उत्कृष्टी वार ॥ जीव जघन्यपणे टिके, एक दोय त्रिण च्यार ॥ उ०॥६॥ जीव जघन्य तिहां रहे, महुरत परिमाण ॥ बार वरसनी थिति तिहां, उत्कृष्टी जाण ॥ १०॥ उ० ॥ तिहां गरभे कोइ जीवड़ो, जपै जग दीस ॥ फिर नर आवंतो रहै, संवत्सर चोवीस ॥ ११॥ उ०॥ महिला वरस पिचावने, कहिये नीरबीज ॥ पिचहत्तर वरसां पछ, थायै पुरुष अबीज ॥ १२॥ उ० ॥ जीमणी कूखै नर वसै, तिम वांमे नारि ॥ बोच नपंसक
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अभय रत्नसार। जांणिये, जिनवचन विचार ॥ १३॥ उ०॥ हिव सामान्यपणे इहां, आयोगरभावास ॥ सात दिना उपरि रहे, नर गत नव मास ॥ उ० ॥ १४ ॥ आठ वरस तिर्यंच रहे, उत्कृष्ट काल । गरभावासै भोगव्या, इम बहु जंजाल ॥ उ०॥ १५ ॥ कार्मण काये कर लियो, पहिलो ओहार ॥ शुक्र अने शोणिततणो, नही झठ लिगार ॥ उ० ॥ १६ ॥ परजापत पूरी नही, तिहां विसवावीस ॥ तिण आहारै तं थयो, उदारिक मीस ॥ उ०॥ १७ ॥ पवन अछै उदरै तिको, उपजायै अंग॥ अगनि करै थिर तेहने, जल सरस सुरङ्ग ॥ १८
उ०॥ कठन पणे पृथवी रच, अवगाह अकास॥ पांचभूत सरीरमें, इम करै प्रकास ॥ १६ ॥उ०॥ बारै महुरत तां पछै, विलसै नर नारि ॥ गरभतणी उतपति तिहां, नहीं अवर प्रकार ॥ २० ॥ उ०॥ कलल हृवै दिन सातमें,अरबुद दिन सात॥ अरबुदथी पेसी वधै, घन मांस कहात ॥ २१॥ उ०॥ मांसतणी बोटी हुबै, अडतालिस टांक ॥
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५४४
सज्झाय-संग्रह। प्रथम मास जिनवर कहे, मनधरो निसंक ॥२२॥ उ०॥ सथिर मास बीजे हवै. हिव तिज मास॥ करमतण वसि ऊपजे, माता मन आस ॥ २३ ॥ उ०॥ चोथै मासै मातना, प्रणमै सहु अंग ॥ हाथ अने पग पांचमें, तिम सुतको संग ॥ २४॥ उ०॥ पित्त रुधिर छठे पडै, सातमें इण संच ॥ नव धमणी नस सातसै, पेसी सय पंच ॥२५॥ उ०॥ रोम राय पिण सातमें, साढीतीन कोडि ॥ ऊपजे उणे केतले, इम आगम जोडि ॥ २६ ॥ उ०॥ आठमें मासें नीपनो, इम सकल सरीर ॥ उधै सिर वेदन सहे, जपै जिन वीर ॥२७॥उ०॥ शोणित शुक्र सलेषमा, लघु ने वडनीत ॥ वात पित्त कफ गरभथो, थायै नर नीत ॥ २८॥ उ०॥ मात तणी संटि लगै, बालकनो नाल ॥ रस
आहार करे तिहां, आवे ततकाल ॥ उ० ॥ २६ ॥ जननी ल्ये आहार ते, जाय नाडोनाड ॥ रोम इंद्री नख चख वधे, तिम मीजी ने हाथ॥ उ०॥ ३० ॥ सबहू अंगे ऊलस, सरवंग आहार ॥ कव
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अभय-रत्नसार ।
५४५
ल आहार करे नही, गरभै सुविचार ॥ उ० ॥ ३१ ॥ मास बीजे किए जीवने, थाये ज्ञान विभंग ॥ अथवा अवधि कहीजिये, तिए ज्ञान प्रसंग ॥ उ० ॥ ३२ ॥ कटक करे वैक्रियपणें कुकी नर के जाय ॥ को जिनवचन सुखी करी, मरी सुर पिरथाय ॥ उ० ॥ ३३ ॥ ॐ मुख गोडा हिये, सहितो बहु पीड ॥ दृष्टि आगलि बेहुं हाथसुं, रहे मुट्ठीभींच ॥ ३० ॥ ३४ ॥ नर विग वस्त्र जलादिक, ऊपजै प्रधांन ॥ अथवा विद्दु नारी मिल्यां, कह्यो गरभविधान ॥ उ० ॥ ३५ ॥ कोइ उत्तम चिंतवै, देखी दुखावास ॥ पुन्य करी तिम नोकलं, नाऊ गरभ वास ॥ उ० ॥ ३६ ॥ ऊंठ कोडि चांपे सुई, कोई समकाल || तिथी गरभै
ठ गुणौ, सहे वेदन बाल ॥ उ० ॥ ३७ ॥ माता दूखी दूखीयो, सुखणी सुख थाय ॥ माता सूती ते सुर्वे, परवस दिन जाय ॥ उ० ॥ ३८ ॥ गरभ थकी दुख लख गुणो, जांमें जिण वार ॥ जन्म थयां दुख वीसरे, धिग्२ मोह विकार ॥ उ० ॥
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५४६
सज्झाय-संग्रह |
३६ ॥ ऊपज्यो अशुचिप जिहां, मल मूत्र कले स ॥ पिंड अशुचि कर पूरियो, किहां शुचि लव लेस ॥ उ० ४० ॥ तुरत रुदन करतो थको, जांमें जिण वार ॥ मात पयोधर मुख ठवै, पीये दूध तिवार । उ० ॥ ४१ ॥ दिन२ दीसे दीपतो, करै रंग अपार ॥ लाड कोड माता पिता, पूरै सुविचार ॥ उ० ॥ ४२ ॥ श्रोत्र इग्यारे नारिनें, नव नरने जांग || रात दिवस वहिता रहै, चैतो चतुर सुजाण ४३ ॥ उ० ॥ सात धातु साते त्वचा, छै सातसै नाडि || नवसे नाडी पिंडमें, तिम तीनसे हाड ॥ ४४ ॥ उ० ॥ संधि एकसो साठ है, सतोत्तर सो सम || तीन दोष पेसी पांचसै, ढांकी है चरम ॥ उ० ॥ ४५ ॥ रुधिर सेर दस देहमें, पेसाब सरीष ॥ ॥ सेर पांच चरबी तिहां, दोय सेर पुरीष ॥ उ० ४६ ॥ पित्त टांक चोसठ अछे, वीरज बत्तीस ॥ टांक बत्तीस सलेखमां, जाणै जगदीस ॥ ४७ उ० ॥ इण परिमाणथको यदा, उछो अधिको था य ॥ व्यापै रोग सरीरमें, नवि वाजे काय ॥ ४८ ॥
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अभय-रत्नसार ।
५४७
उ० ॥ पोख्यो पहिले दाहके, इम वधियो अंग ॥ खान पान भूषण भलां, करे नवनवा अंग ॥ ४६ उ०|| हिव बीजें दसके भग्यो, विद्या विविध प्रकार ॥ तीजे दसके तेहने, जाग्यो कांम विकार ॥ ५० ॥ उ० ॥ जिण थांनक तूं ऊपनो, तिणमें मन जाय ॥ चोथे इसके धनतणो, करे कोड उपाय ॥ ५१ ॥ ०॥ पहुंतो दसके पांचमें, मनमें ससनेह || बेटा बेटी पोतरा, परणावे तेह् ॥ ५२ उ० ॥ छ दसके प्राणियो, बले परवस थाय ॥ जरा आइ जोवन गयो, तृष्णा तोही न जाय ॥ ५३ ॥०॥ श्रवै दसकै सातमें, हिव प्राणी तेह || बल भागो बूढो थयो, नारी न धरे सनेह ॥ ५४ ||०|| आठमें दसके डोसलो, खुलिया सहु दांत ॥ कर कंपावै सिरधुरौं, करे फोगट वात ॥ ५५ ॥ उ० ॥ नवमें दसके प्रांणियो, तन सूकत जाय ॥ सांभले वचन बहुत्र तणो दिन झुरता जाय ॥ ५६ ॥ उ० ॥ खाटपड्यो खूंखूं करे, सहू गाली देह || हाल हुकुम हाले नही, दीयो परि
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५४८
सज्झाय-संग्रह |
जन छेह ॥ ५७ ॥ उ० ॥ ख गले वे पुड मिले, पडे मुंडे लाल || बेटा बेटी ने वह, न करे सार संभाल ॥ ५८ ॥ उ० ॥ दस दृष्टाते दोहिलो लह्यो नरभव सार ॥ श्रीजिन धरम समाचरो, पांमोजिम भव पार ॥ ५६ ॥ उ० ॥ चरणपणे जे तप तपे, पाले निरमल शील । ते संसार तरी करी, लहे अविचल लील ॥ ६० ॥ उ० ॥ कोडि रतन कवडी सटै, कांइ गमे रे गिवार ॥ धरम पखै पि जीवनें, नहि कोइ आधार ॥ ६१ ॥ उ० ॥ काया माया कारमी, कारमो परिवार ॥ तन धन जोवन कारमो, साचो धरम संभार ॥ ६२ ॥ उ० ॥ चवदै राज प्रमांण ए, छे लोक महंत ॥ जनम मरण कर फरसियो, ते बार अणंत ॥ ६३ ॥उ०|| आप सवारथिया सहु, नही केहनो कोय ॥ विण स्वारथ अण पहुंचते, सुत पि वैरी होय ॥ ६४ ॥ उ० ॥ जरां न आवे जां लगे, जां लग सबल सरीर, धरम करो जीव तां लगे, होय साहसधीर ॥ ६५ ॥ उ० ॥ आरज
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अभय रत्नसार । ५४६ देस लह्या हिवै, लाधो गुरु संयोग ।। अंगथकी आलस तजो, करो सुकृत संयोग ॥६६॥ ऊ० ॥ श्रीनमि रायतणी परै, चेतो चितमांहि ॥ स्वारथना सहको सगा, कोइ किणरो नांहि ॥६७ाउ०॥ भोग संयोग तजी सहू, थया जे अणगार ॥ धन२ तसु माता पिता, धन२ अवतार ।। ६८॥ उ०॥ सुरतरु सुरमणि सारखो,सेवो जिनधरम । जिणथी सुख संपति वधे, कीजै तेहिज कर्म ॥ ६६ ॥ उ० ॥ तंदुलबेयाली अछ, एहनो अधिकार ॥ तिणथी ऊद्धरनैं कह्यो, नही झूठ लिगार ॥७॥ उ०॥ कलस ॥ इह जैनधर्म विचार सांभलि लिये संजमभार ए, परिशिह केरा सदा पालै नेम निरतिचार ए॥ संसारना सुख सकल भोगवि ते लहे भव पार ए, श्रीजिनहर्ष सुसीस रंगैइम कहै श्रीसार ए ॥ ७० ॥ उ ॥ इति ॥
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५५०
पूजा-संग्रह।
॥ स्नान पूजा
॥ पांखडी गाथा ॥ चौतीसैं अतिशय जुओ। वचनातिशय सं. जुत्त । सो परमेसर देखि भवि, सिंघोसण संपत्त ॥१॥ ___ ढाल ॥ सिंहासन बैठा जगभाण, देखी भवियण गुणमणि खाण । जे दीठे तुझ निम्मल झाण, लहिये परम महोदय ठाण ॥ १॥ कुसुमांजलिमेलो आदि जिणन्दा ॥ तोराचरण कमल चोवीस, पूजोरे चोवीस,सोभागी चोवोस, वैरागी चोवीस जिणन्दा ॥ कुसुमांजलि मेलो
आदि जिणन्दा। (कुसुमांजलि हाथमें लेकर यह पढ़ते हुए चरणोंमें टीकी लगाना चाहिये )
गाथा ॥ जो निजगुण पज्जव रम्यो, तसु अनुभव ए गत्त । सुह पुग्गल आरोपतां । ज्योति सुरंग निरत्त ॥२॥
ढाल ॥ जो निज आतम गुण आनंदी,
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अभय रत्नसार ।
५५१
पुग्गल संग जेह अफंदी | जे परमेश्वर निज पद लीन, पूजो प्रणमो भव्य अदीन ॥ १॥ कुसुमांजलि मेलो शांति जिणंदा ॥ तोरा चरण कमल चोवीस, पूजोरे चोवीस, सोभागी चोवीस, वैरागी चोवीस, जिणंदा ॥ कुसुमांजलि मेलो श्रीशांति जिणंदा ॥ ( यह पढ़कर घुटनों पर टीकी लगाना चाहिये ) ॥ २ ॥
गाथा || निम्मल नाण पयासकर, निम्मल गुण संपन्न । निम्मल धम्म उवएस कर, सो
परमप्पा धन्न ॥ ३ ॥
ढाल || लोकालोक प्रकाशक नाणी, भवि जन तारण जेहनी वाणी । परमानंद तणो नीसाणो, तसु भगतें मुझ मति ठहराणी ॥१॥ कुसुमांजलि मेलो नेमि जिणंदा || तोरा चरण कमल चोवीस, पूजोरे चोवीस, सोभागी चोवीस, वैरागी चोवीस जिणंदा ॥ कुसुमांजलि मेलो श्री नेमि जिदा ॥ ( यह पढ़कर दोनों हाथोंको टीकी लगाना चाहिये ) ॥ ३ ॥
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५५२
पूजा - संग्रह |
गाथा ॥ जे सिद्धा सिजन्ति जे सिजित । जसु प्रलंबन ठविय मन, सो
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सन्ति
सेवो अरिहंत ॥ ४ ॥
ढाल || शिव सुख कारण जेह त्रिकालें, सम परिणामें जगत निहालें । उत्तम साधन मार्ग दिखालें, इन्द्रादिक सु चरण पखालें ॥१॥ कुसुमांजलि मेलो पावं जिणंदा, तोरा चरण कमल चोवीस, पूजोरे चोवीस, सोभागी चोवीस, वैरागी चोवीस जिणंदा ॥ कुसुमांजलि मेला श्री पार्श्व जिन्दा ॥ ( यह पढ़कर दोनों कंधों पर टीकी लगाना चाहिये ) ॥ ४ ॥
गाथा | सम्मदिट्ठो देसजय, साहु साहुणी सार | अचारिज उवाय मुग्णि, जो निम्मल
आधार ॥ ५ ॥
ढाल ॥ चौविह संघे जे मन धास्रो, मोक्षतो कारण निरधास्यो । विविह कुसुम वरजात गहेवो, तसु चरणे प्रणमन्त ठवेवी ॥ १ ॥ कुसुमांजलि मेलो श्रीवीर जिणंदा, तोरा चरण कमल
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अभय रत्नसार
५५३
चोवीस, पूजोरे चोवीस, सोभागी चोवीस, वैरा
गी चोवीस जिणंदा ॥ कुसुमांजलि मेलो श्री वीर जिणंदा ॥ ( यह पढ़कर मस्तक पर तिलक करना चाहिये ) ॥ ५ ॥ ॥ इति पांखडी गाथा ॥
वस्तु ॥ सयल जिनवर सयल जिनवर नमिय मन रंग । कल्लाणक विह संथविय । करिय सुजम्म सुपवित्त सुन्दर । सय इक सत्तरि तित्थंकर । इक sa स विहरंत महियल । चवण समैं इकवीस जिए । जन्म समैं एकवीस । भत्तिय भावें प्रजिया । करो संघ सुजगीस ॥ १ ॥
;
इक दिन भव तीजे समकित गुण रम्या । जिन भक्तिप्रमुख गुण परिणम्या || तजि इन्द्रिय सुख संसना | करि थानक वीसनी सेवना ॥ अतिराग प्रशस्त प्रभावता । मन भावना एहवी भावता ॥ सवि जीव करू शासन रसी । इसी भाव दया मन उल्लसी ॥ लहि परिणाम एहवं
ક
राहुलरावती - ए देशी ॥
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५५४
पूजा-संग्रह। भलं । निपजावी जिनपद निरमलं ॥ आऊ बंध विचै इक भव करी। श्रद्धा संवेगथी थिर धरी, तिहाथी चविय लहैं नर भव उदोर । भरतें जिम ऐवतेज सार। महा विदेह विजय प्रधान । मझ खडै अवतरे जिन निधान । ___ ढाल ॥ पुण्ये सुपना ए देखें। मनमें हर्ष विशेषे॥ गजवर उज्जल सुन्दर । निर्मल वृषभ मनोहर । निर्भय कसरी सिंह । लखमी अतिह अवीह ॥ अनुपम फलनी माला । निर्मल शशि सुकमाल ॥ तेज तरण अति दोपै। इन्द्र ध्वजा जग जीपै ॥ पूरण कलस पंडूर । पदम सरोवर पूर ॥ इग्यारमे रयणायर। देखे माताजी गुण सायर ॥ बारमें भुवन विमान । तेरमें रत्न निधान ॥ अग्नि शिखा निरधूम । देखें माताजी अनुपम ॥ हरखी रायने भासें। राजा अर्थ प्रकाशें । जगपति जिनवर सुखकर। होस्ये पुत्र मनोहर ॥ इन्द्रादिक जसु नमस्यें । सकल मनोरथ फलस्यें॥
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अभय-रत्नसार ।
५५५
वस्तु॥ पुण्य उदय पुण्य उदय ऊपना जिण नाह । माता तव रयणी समैं देखि सुपन हरषंत जागिय । सुपन कही निज कंतने सुपन अरथ सांभलो सोभागिय। त्रिभुवन तिलक महा गुणी । होस्ये पुत्र निधान ॥ इन्द्रादिक जसु पय नमो। करस्य सिद्ध विधान ॥
॥ ढाल-चंद्रा उल्लालानी ॥ सोहम पति आसन कंपियो। देई अवः मन आणं दियो ॥ मुझ आतम निर्मल करण काज । भव जल तारण प्रगट्यो जिहाज ॥ भव अटवि पारग सत्थवाह । केवल नाणाइय गुण अगाह ॥ शिव साधन गुण अंकुर जेह। कारण उलटयो आषाढ मेहः ॥ हरखै विकसै तब रोमराय । बलयादिकमां निजतनु न माय ॥ सिंहोसनथी ऊठो सुरिंद। प्रणमन्तो जिण आनंद कन्द ॥ सग अड़पय पमुहा आवि तत्थ । करि अञ्जलि प्रणमिय मत्थ सत्थ। मुख भाखें ऐ खिण आज सार । तियलोय पहु दीठो उदार ॥
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५५.६
सज्झाय-संग्रह। रे रे निसुणों सुर लोय देव । विषयानल तापित तनु समेव ॥ तसु शांति करण जलधर समान । मिथ्या विष चूरण गरुड़वान ॥ ते देव सकल तारण समस्थ । प्रगट्यो तसु प्रणमी हुई सनत्थ ॥ इम जम्पी शक्रस्तव करेवि । तव देव देवि हरखै सुवि ॥ गावें तब रम्भा गीत गान। सुर लोक हवो मंगल निधान ॥ नर खेत्रे प्रारज वंश ठाम । जिनराज वधै सुर हर्ष धाम ॥ पिता माता घरे उच्छव अलेख । जिन शासन मंगल अति विशेष ॥ सुरपति देवादिक हर्ष संग। संयम अरथी जनने उमंग। शुभ वेला लगने तीर्थ नाथ । जनम्यां इन्द्रादिक हर्ष साथ ॥ सुख पाम्यां त्रिभुवन सर्व जीव। वधाई वधाई थई अतीव ॥ ( यह कहकर फूल और चांवलोंसे वधाना और बादमें:-चैत्यवंदन करके और धूप देना चाहिये)
॥ श्रीशांति जिननो कलश कहिमुं-ए देशी । त्रोटक॥श्रीतीर्थ पतिनो कलश मज्जन गाइये
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५५७
अभय रत्नसार। सुखकार। नर खेत्तमंडन दुह विहण्डन भविक मन आधार ॥ तिहां राव राणां हर्ष उच्छव थयो जग जय कार । दिसि कुमरि अवधि विशेष जाणी लह्यो हर्ष अपार ॥ निय अमर अमरी संग कुमरी गावती गुण छंद । जिन जननि पासें आवि पोहती गहगहती आणंद ॥ हे माय तें जिनराज जायो शचि वधायो रम्म। अम जम्म निम्मल करण कारण करिस सुइय कम्म ।। तिहां भूमि शोधन दीप दर्पण वाय विजण धार। तिहां करिय कदली गेह जिनवर जननी मजन कार ॥ वर राखड़ी जिन पाणि बांधी दिये इम आसीस। जुग कोड़ कोड़ी चिरंजीवो धर्म दायक ईश ॥ _____ ढाल इकविसानी॥ जग नायकजी, त्रिभुवन जन हित कार ए । परमातमजी, चिदानन्द घन सार ए ॥ जिन रयणीजी, दश दिस उज्जलता धरै। शुभ लगनेजो, ज्योतिष चक्रते संचर ॥ जिन जनम्याजी, जिन अवसर माता धरै । तिण अवसरजी, इंद्रासन पिण थरहरै॥
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५५८
पूजा-संग्रह। त्रोटक ॥ थरहरे आसन इन्द्र चिंतें कवण अवसर ए बण्यो। जिन जन्म उच्छव काल जाणी अतिही आनन्द ऊपन्यो॥ निज सिद्ध सम्पति हेतु जिनवर जाणि भगते ऊमह्यो। विकसंत वदन प्रमोद वधतै देव नायक गहगह्यो॥
ढाल ॥ तब सुरपतिजी, घंटा नाद करावए। सुर लोकजी, घोषणा एह दिरावए ॥ नर क्षेत्रेजी, जिनवर जन्म हुवो अछ। तसु भगतैंजी, सुरपति मंदर गिर गछै॥ __ त्रोटक ॥ गछै मंदर शिखर ऊपर भवन जीवन जिन तणों। जिन जन्म उच्छव करण कारण आवज्यो सवि सर गणों ॥ तुम शुद्ध समकित थास्यें निर्मल देवाधिदेव निहालतां।आपणा पातिक सर्व जास्य नाथ चरण पखालतां ॥ __ ढाल ॥ इम सांभलिजी, सुरवर कोड़ो बहु मिली। जिन वंदनजी, मंदर गिर साहमी चली। सोहम पतिजी, जिन जननो घर आविया । जिन माताजी, वंदी स्वामि वधाविया ।
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अभय-रत्नसार । ५५६ त्रोटक ॥वधाविया जिनवर हर्ष बहुलै धन्य हूं कृत पुण्य ए। त्रैलोक्य नायक देव दौठो मुझ समो कुण अन्य ए ॥ हे जगत जननी पुत्र तुमचो मेरु मजन वर करी। उच्छंग तुमचै बलिय थापिस आतमां पुन्ये भरी॥
ढाल ॥ सर नायकजी, जिन निज कर कमलैं ठब्या। पांचरूपेजी, अतिशय महिमायें स्तव्या । नाटक विध जी, तव बत्तीस आगल बहै। सुर कोड़ी जी, जिन दरशनणे ऊमहै।
त्रोटक ॥ सुर कोड़ कोड़ी नाचती वलि नाथ शुचि गुण गावती। अपछरा कोड़ी हाथ जोड़ी हाव भाव दिखावती ॥ जय जयो तूं जिनराज जग गुरु एम दे आसोस ए । अम त्राण शरण
आधार जीवन एक तूं जगदीश ए॥ ___ढाल ॥ सुर गिरवरजी, पांडुक वनमें चिहुं दिसैं । गिरि शिल पर जी, सिंहासन सासय वसे॥ तिहां आणीजो, शक्रे जिन खोले ग्रह्या । चउसटें जी, तिहां सुरपति आवी रह्या ॥
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५६०
पूजा-संग्रह। ____ त्रोटक ॥ आविया सुरपति सर्व भगते कलश श्रेणि बणावए । सिद्धार्थ पमुहा तीर्थ औषधि सब वस्त अणावए । अच्च्यपति तिहां हकम कीनो देव कोड़ा कोडिनें। जिन मजनारथे नीर लाओ सबै सुर कर जोडिनें ॥ ( जलका कलश लेकर खड़े रहैं और पढ़ें)
॥ शांतिने कारण इन्द्र कलशा भरै ए देशी ॥ ढाल ॥ आत्म साधन रसी देवकोड़ी हसी। उल्लसीने धसीखीर सागरदिशी॥पउमदह आदि दह गंग पमुहा नई। तीर्थ जल अमल लेवा भणी ते गई ॥ जाति अड़ कलश करि सहस अठोत्तरा । छत्र चामर सिंहासणे शुभतरा ॥ उपगरण पुप्फ चंगेरि पमुहा सवें । आगमें भासिया तेम आणि ठवें ॥ तीर्थ जल भरिय करि कलश करि देवता । गावता भावता धर्म उन्नति रता ॥ तिरिय नर अमरने हर्ष उपजावता । धन्य श्रम शक्ति शुचि भक्ति इम भावता ॥ समकितै बीज निज आत्म आरोपता । कलश पाणी मिसै
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अभय-रत्नसार । ५६१ भक्ति जल सींचता ॥ मेरु सिहरोवरे सर्व आव्या वही । शक उच्छङ्ग जिन देखि मन गहगही ॥ ___गाथा ॥ हंहो देवा अण्णाइ कालो । अदिट्टपुव्वो तिलोय तारण। तिलोय बन्धु मिच्छत मोह विद्धंसणो। प्राणाइतिहाविणासणो। देवाहिदेवो दिव्यो हियकामेहिं ॥ ___ ढाल ॥ एम पभणंत वण भुवन जोईसरा । देव वेमाणिया भत्ति धम्मायरा ॥ केवि कप्पटिया केवि मित्ताणगा। केवि वर रमण वयणेण अइ उच्छगा॥ वस्तु॥ तत्थ अच्युय तत्थ अच्युय इन्द्र आदेश। कर जोड़ी सब देवगण लेइ कलश आदेश पामिय । अद्भुत रूप सरूप जुय कवण एह पुच्छंत सामिय । इंद्र कहे जग तारणो पारग अम्ह परमेस । दायक नायक धर्मनिधि करिये तसु भिषेक॥ (इस समय जलकी थोडीसी धारा देना) तीर्थ कमलवर उदक भरीने पुष्कर सागर आवै-ए देशी ।। ढाल ॥ पूर्ण कुलश शुचि उदकनी धारा,
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५६२
सज्झाय-संग्रह |
जिनवर अंग नाम । तम निर्मल भाव करंतां, वधतें शुभ परिणामें ॥ अच्युतादिक सूरपति मज्जन, लोकपाल लोकांत । सामानिक इन्द्राणी पमुहा, इम अभिषेक करंत ॥ पू० ॥
गाथा | तब इशारण सुरिंदो, सक्कं पभणेइ करिस सुपसाउ । तुम के महनाहो, खिणमित्तं अम्ह अप्पेह ॥ ता सक्किन्दो पभणइ, साहम्मि वच्छलम्मि बहुलाहो । आरणा एवं तेणं, गिरहइ होउ कत्था भो ॥ ( यह कहकर सभी कलशों के जल से भगवानको स्नान कराना चाहिये )
ढाल || सोहम सुरपति वृषभ रूप करि न्हवण करे प्रभु । करिय विलेपन पुष्पमाल ठवि वर आभरण अभंग ॥ सो० १ ॥ तव सुर वर बहु जय जय रख कर निश्चै धरि आन्द | मोच मारग सारथ पति पाम्यों भांजस्युं हि भव बन्द || सो० ॥ २ ॥ कोड़ बत्तीस सोवन्न उवारी वाजंतै वरनाद । सुरपति संघ अमर श्री प्रभुन जननीनें सुप्रसाद | आणी थापी एम पयंपे म्ह
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अभय रत्नसार । ५६३ निस्तरिया आज । पुत्र तुमारो धणिय हमारो तारण तरण जिहाज ॥सो. ३॥ मात जतन करि राखज्यो एहनें तुम सुत हम आधार । सुरपति भक्ति सहित नन्दीश्वर करे जिन भक्ति उदार ॥ सो० ॥ ४॥ निय निय कप्प गया सहु निर्जर कहता प्रभु गुण सार । दोक्षा केवल ज्ञान कल्याणक इच्छा चित्त मझार ॥सो० ५॥ खरतर गछ जिण आणा रंगी राज सागर उवभाय । ज्ञान धर्म दीपचंद सुपाठक सुगुर तणे सुपसाय ॥ देवचंद निज भक्त गायो जन्म महो च्छव छंद । बोध बीज अंकुरो उलस्यो संघ सकल आणंद ॥ सो०॥६॥ इति ॥
राग वेलावल ॥इम पूजा भगतें करो, आतम हित काज । तजिय विभव निज भावना, रमतां शिव राज ॥ इमः ॥१॥ काल अनंते जे हुआ, होस्ये जेह। जिणंद संपई श्रीमंधर प्रभु, केवल नाण दिणंद ॥ इमः॥२॥ जन्म महोच्छव इण परै, श्रावक रुचिवंत । विरचै जिन प्रतिमा तणों,
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५६४
पूजा - संग्रह |
अनुमोदन खंत ॥ इम० ३॥ देवचंद जिन पूजना,
करतां भव पार । जिन पड़िमा जिन सारखी, कही सूत्र मकार ॥ इम० ॥ इति पदम् ।
॥ इति स्नात्त पूजा ॥
अष्टकारी पूजा ।
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जल पूजा ।
दुहा || गंगा मागध क्षीरनिधि, औषध मिश्रित सार । कुसुमे वासित शुचि जलें, करो जिन स्नात्र उदार ॥ १ ॥ ढाल || मणि कनकादिक अविध करि भरि कलस सफार । शुभ रुचि जे जिनवर नमें तसु नहीं दुरित प्रचार ॥ मेरु शिखर जिम सुरवर जिनवर न्हवण अमान । करता वरता निज गुण समकित वृद्धि नधान ॥ २ ॥ ( छन्द ) हर्ष भरि अपसरावृन्द आवै । स्नात्र करि एम आसीस भावै । जिहां लगे सुरागरी जंबुदीवो । अमतणा नाथ जीवो
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अभय रत्नसार। ५६५ तुम जीवो॥३॥ श्लोक ॥ विमलकेवलभासनभास्कर, जगति जंतुमहोदयकारणं । जिनवरं बहुमानजलौघतः, शुचिमनः स्नपयामि विशुद्धये ॥१॥ओं ह्रीं परमपरमात्मने अनंतानंतज्ञानशक्तये जन्मजरामृत्युनिवारणाय श्रीमज्जिनेन्द्राय जलं यजामहे स्वाहा ॥ १॥ इति जल पूजा ॥ यह कहकर जलसे न्हवण कराना ॥
चंदन पूजा । दुहा ॥ बावना चन्दन कुम कुमा। मृगमद ने धनसार ॥ जिन तनु लेपै तसु टले । माह सन्ताप विकार ॥ १॥ ढाल ॥ सकल संताप निवारण तारण सह भविचित्त। परम अनोहा अरिहा तनु चरचो भविनित्त ॥ निज रूपें उपयोगी धारो जिन गुणगेह। भाव चंदन सुह भावथी टाले दुरित अछेह ॥ २॥ चाल ॥ जिन तनु चरचतां सकल नाकी। कहै कुग्रह ऊष्णता आज थाकी ॥ सफल अनिमेषता आजम्हाँकी। भव्यता अम्ह तणी आज पाको ॥३॥ श्लोक ॥
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५६६
पूजा-संग्रह। सकलमोहतमिश्रविनाशनं. परमशीलभावयुतं जिनं। विनयकुंकुमचंदनदर्शनैः, सहजतत्वविकाशकृतेचये ॥ १॥ ओं ह्रीं परमपरमात्मने अनन्तानन्तज्ञानशक्तये जन्मजरामृत्युनिवारणाय श्रीमज्जिनेद्राय चंदनं यजामहे स्वाहा २॥ इति चंदन पूजा यह कहकर केशर और चंदन चढ़ाना चाहिये।
नवअंगि भाव पूजा । दुहा ॥ पर उपगारी चरणयुग, अनंत शक्ति स्वयमेव । यातें प्रथम पूजिये, आतम अनुभव सेव ( चरणोंमें टीकी ) ॥ १॥ जानु पूजा दूसरी, समाधि भूमिका जान। आतम साधन ज्ञान ले, शुद्ध दशा पहिचान ॥ ( गोडोंको टीकी)॥२॥ कर पूजा जिन राजका, दिये सम्वच्छरी दान । ते कर मुझ मस्तक ठवं, पहुंच पद निर्वाण ॥ (हार्थोंमें टीकी)॥३॥ भुजबल शक्ति जानके, पूजा करं चित लाय। रागादिमल हटायके, आतम गुण दरशाय ॥
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अभय रत्नसार। ५६७ ( कंधोंमें टीकी ) ॥४॥ सिर पूजा जिनराजकी, लोक शिरोमणि भाव। चउगति गमन मिटायके, पंचम गति सम भाव ॥ ( मस्तकमें टीको ) ५॥ लिलवट पूजा सार है, तिलक विधि विश्राम। वदन कमल वाणीसुने, पहुंच निज गुण धाम ॥ ( ललाटमें टीकी)॥६॥ कंठ पूजा है सातमी, वचनातिशय वृद । सप्त भेद पंयचिश श्रुत, अनुभव रस नो कंद ॥ ( कंठमें टीकी ) ॥७॥ हृदय कमलनी पू. जना, सदा बसो चितमाह । गुण विवेक जागे सदा, ज्ञान कला घट छाय (हृदयमें टीकी) ॥८॥ नाभी मंडल पूजके, षोड़श दलको भाव । मन मधुकर मोही रह्यो, आनंद घन हरषाय (नाभीमें टीकी)॥६॥ इति ॥
पुनः॥ दुहा ॥ जल भरि संपुटमां, युगलिक नर पूजंत। ऋषभ चरण अंगूठवे,दायक भवजल अंत ॥ १॥ जानु बले काउसग रह्या, विचस्या देश विदेश । खड़ा २ केवल लह्या, पूजा जानु
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५६८
पूजा-संग्रह |
नरेश ॥ २ ॥ लोकांतिक वचने करी, वरस्या वरसी दान । करकडे प्रभु पूजना, पूजो भवि बहुमान ॥ ३ ॥ मान गयं दो अंशथी, देखी वीर अनंत। पूजा बलें भवजल तस्था, पूजो खंध महंत ॥ ४ ॥ रत्नत्रय गुण ऊजली, सकल सुशुण विश्राम । नाभी कमलनी पूजना, करता अविचल धाम ॥ ५ ॥ हृदय कमल उपशम बलें, बाल्यो राग द्वेष । हेम दहै वनखंडने, हृदय तिलोक संतोष ॥ ६ ॥ सोल पहर देई देशना, कंठ विवर वरतल । मधुर धुनी सुर नर सुने, तिम गले तिलक अमूल ॥ ७ ॥ तीर्थंकर पद पुन्य थी, त्रिभुवन जिन सेवंत । त्रिभुवन तिलक समा प्रभु, भाल तिलक जयवंत ॥ ८ ॥ सिद्ध शिला गुण ऊजली; लोकांतिक भगवंत । वसिया ति कारण वहीं, शिर शिखा पूजंत ॥ ६ ॥ उपदेशक नवतत्वना, तिम नव अंग जिणंद पूजो बहु विध भाव थी. कहेसहु वीर मुनिद । ॥ १० ॥ इति ॥
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अभय-रलसार।
५६६
marmarrrrrrrrrr.
अथ पुष्प पूजा ॥ दोहा ॥शतपत्री वर मोगरा, चम्पक जाइ गुलाब । केतकी दमणो बोलसिरि, पूजो जिन भरि छाब ॥१॥ ढाल ॥ अमल अखण्डित विकसित सुभ सुमनी घन जाति, लाखीनो टोडर ठवो आंगी रचो बहुभांति । गुण कुसुमें निज आतम मण्डित करवा भव्य, गुणरागी जड़त्यागी पुष्प चढ़ावो नव्य ॥२॥चाल ॥ जगधणी प्रजतां विविध फूलै, सुरवरा ते गिणे क्षण अमूले। खन्ति धर मानवा जिनपद पूज, तसुतणा पाप संताप धूजै ॥ ३ श्लोकः॥ विकचनिर्मलशुद्धमनोरमैः विशदचेतनभावसमुदभवैः । सुपरिणामप्रसूनघनैर्नवैः, परमतत्वमयं हि यजाम्यहं ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं परमपरमात्मने पुष्पं यजामहे स्वाहा ॥३ इति पुष्पपूजा ॥ पुष्प चढ़ावे ॥
अथ धूप पूजा ॥ ॥३॥ कृष्णागर मृगमद तगर, अम्बर तुरक लोबान । मेल सुगन्ध घनसार घन, करो
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५७०
पूजा-संग्रह। जिननें धूपदान ॥१॥ ढाल ॥ धूपघटी जिम महमहै, तिन दहँ पातिक वृन्द। आर्ति अनादिनी जावै, पावै मन आनन्द । जे जन पूज धुप, भवकू फिर तेह । नावै पावै धुवघर आवै सुक्ख अछेह ॥ २ ॥ चाल ॥ जिनघरे वासतां धूप पूरै, मिच्छत दुर्गन्धता जाई दूरै । धूप जिम सहज उद्धंगत स्वभावे, कारिका उच्चगति भाव पावै ॥३॥ श्लोकः ॥ सकलकर्ममहे धनदाहनं, विमलसंवरभावसुधूपनं । अशुभपुदगलसंगविवर्जितं, जिनपतेः पुरतोस्तु सुहर्षितः ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं परमपरमात्मने। धूपं यजामहे स्वाहा ॥४॥ इति धूप पूजा ॥ धूप अगरबत्ती खेवै ॥
अथ दीप पूजा॥ 'दोहा॥ मणिमय रजत ताम्रना, पात्र करी घृत पूर । बत्ती सूत्र कसंबनी, करो प्रदीप सनर ॥ १॥ ढाल ॥ मंगल दीप वधावो गावो जिन गुणगीत, दो पथकी जिम आलिका मालिका मंगलनीत । दीपतणी शुभज्योती द्योती जिन
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अभय रत्नसार ।
५७१
मुखचन्द, निरखी हरखो भविजन जिम लहोपूर्णानन्द ॥ २ ॥ चाल ॥ जिन गृहे दीप माला प्रकास, तेहथी तिमर अज्ञान नासैं । निजघटै ज्ञानज्योती विकास, तेहथी जगतणा भाव भासें ॥ ३ ॥ श्लोक ॥ भविकनिर्म्मलबोधविकाशकं, जिनगृहे शुभदीपकदीपनं । सुगुणरागविशुद्धसमन्वितं दधतु भावविकाशकृते जनाः ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं परमपरमात्मने । दीपं यजामहे स्वाहा ॥ ५ इति दीप पूजा || मंगलदीप चढ़ावै ।
०
अथ अक्षत पूजा ॥
दोहा ॥ अक्षत २ पूरसु, जे जिन आगे सार । स्वतिक रचतां विस्तरै, निजगुण भर बिस्तार ॥ १ ॥ ढाल ॥ उज्जल अमल अखण्डित मण्डित अक्षत चंग, पुञ्जत्रय करो स्वस्तिक - स्तिक भावै रंग । निज सत्तानं सन्मुख उनमुख भावे जेह, ज्ञानादिक गुणठावै भावे स्वस्तिक एह ॥ २ ॥ चाल ॥ स्वस्तिक पूरतां जिनप आगे, स्वस्ति श्रीभद्र कल्याण जागे । जन्म जरा मर
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५७२
पूजा - संग्रह ।
खादि अशुभ भागे, नियत शिव सर्व रहै तासु आगे ॥ ३ ॥ श्लोकः ॥ सकलमंगलकेलिनिकेतनं, परममंगलभावमयंजिनं । श्रयति भव्यजना इति दर्शयन, दधतु नाथपुरोक्षतस्वस्तिकं ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं परमपरमात्मने० । चतं यजामहे स्वाहा ॥ ६ ॥ इति अक्षत पूजा ॥ अखण्ड चावल चढ़ावै ॥
अथ नैवेद्य पूजा ||
दोहा ॥ सरस सुचि पकवान बहु, शालि दालि घृतपूर | धरो नैवेद्य जिन आगले, क्षुधा दोष तसु दूर ॥ १ ॥ ढाल ॥ लपनश्री वर घेवर मधुतर मोतीचूर, सींहकेसरिया सेविया दालिया मोदकपूर । साकर द्राख सीङोड़ा भक्ति व्यञ्जन घृतसद्य, करो नैवेद्य जिन आगले जिम मिलै सुख अनवद्य ॥ २ ॥ चाल ॥ ढोवतां भोज्य पर भाव त्यागे, भविजना निज गुण भोज्य मांगे। म्हण म्हणो सरूप भोज्य, आपज्यो तातजी जगत पूज्य ॥ ३ ॥ श्लोकः ॥ सकलपुदुगलसंग विवज्र्ज्जनं, सहजचेतनभावविलासकं ।
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अभय रत्नसार।
५७३ सरस भोजननव्यनिवेदनात् , परमनिवृतिभागमहं स्पृहे ॥१॥ ॐ ह्रीं परमपरमात्मने । नैवेद्य यजामहे स्वाहा ॥ ७ ॥ इति नैवेद्य पूजा ॥ मिठाई पकवान चढ़ावे ॥
अथ फल पूजा ॥ दोहा ॥ पक्व बीजोरू जिन करै, ठवतां शिवपद देइ। सरस मधर रस फल गिणे, इह जिन भेट करेइ ॥ १॥ ढाल ॥ श्रीफल कदली सुरंग नारंगी आंबा सार, अंजीर वंजीर दाडिम करणा षटुबीज सफार । मधुर सुस्वादिक उत्तम लोक आनन्दित जेह, वर्णं गन्धादिक रमणीक बहुफल ढोवै तेह ॥२॥ चाल ॥ फलभर पूजतां जगत स्वामा, मनु जगति ते लहै सफल पामी। सकल मनुध्येय गतिभेद रंग, ध्यावतां फल समाप्ति प्रसंग॥३॥ श्लोक ॥ कटुककर्मविपाकविनाशनं, सरसपक्वफलबजढौकनं। वहति मोक्षफलस्य प्रभोः पुरः, कुरुत सिद्धिफलाय महाजनाः॥१॥ ॐ ह्रीं परमपरमात्मने । फलं यजामहे स्वाहा
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५७४
पूजा-संग्रह। ॥८॥ श्रीफल सुपारी नोला फल प्रमुख चढ़ावे॥ इति फल पूजा ॥
अथ अर्ध पूजा ॥ __दोहा ॥ इम अडविधि जिन पूजना, विरचै जे थिर चित्त । मानवभव सफलो करै, वाधे समकित वित्त ॥ १॥ ढाल ॥ अगणित गुणमणि आगर नागर वन्दित पाय, श्रुतधारी उपगारी श्री ज्ञानसागर उवझाय। तासु चरणकज सेवक मधुकर पय लयलीन, श्रीजिन पूजा गाई जिनवाणी रसपीन ॥ २॥ चाल ॥ सम्बत गुणयुत अचल इन्दु, हर्ष भरो गाइयो श्रीजिनेंदु। तासु फल सुकृत थी सकल प्राणी, लहै ज्ञान उद्योत धन शिव निसाणी ॥३॥ श्लोकः ॥ इति जिनवरवन्दं भक्तितः पूजयन्ति, सकल गु. णनिधानं देवचन्द्र स्तुवन्ति । प्रतिदिवसमनन्तं तत्वमुदभासयन्ति, परमसहजरूपं मोक्षसौख्यं श्रयन्ति ॥ १॥ॐ ह्रीं परमपरमात्मने । अर्घ यजामहे स्वाहा ॥ चार कोणें धार दीजे। इति अर्घ पूजा ॥
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अभय-रनुसार. ।
अथ वस्त्र पूजा ॥
शको यथा जिनपतेः सुरशैलचूलाः, सिंहासनोपरि मितस्नपनावसाने । दध्यक्षतैः कुसुमचन्दनगन्धधपैः, कृत्वाच नन्तु विदधाति सुवस्त्रपूजां ॥ १ ॥ तद्वत् श्रावकवर्ग एष विधिनालङ्कारवस्त्रादिकं पूजां तीर्थकृतां करोति सततं शकत्यातिभक्तथादृतः । नीरागस्य निरञ्जनस्य विजितारातेस्त्रिला कीपतेः, स्वस्यान्यस्य जनस्य निवृतिकृते क्लेशनयाकांक्षया ॥ ॐ ह्रीं परमपरमात्मने० । वस्त्रं यजामहे स्वाहा | वस्त्र चढ़ावे ॥ इति वस्त्रपूजा ॥
५७५
अथ नमक उतारण पूजा ।
अह पड़िभग्गापसर, पयाहिणं मुणिवयं क रिऊणं । पड़इ सलूणत्तण लज्जियंच, लूांहू - वहन्ति ॥ १ ॥ पिकविणं मुह जिण वरह दीहर नयण सलूण । न्हावइ गुरु मच्छह भरिय, जलण पइस्सइ लूण ॥ २ ॥ ला उतारिह जिगवरह, तिन्नि पयाहिणि देव । तड़ तड़ शब्द
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५७६
पूजा-संग्रह |
करन्तिये, विजा विज्जजले || ३ || जं जेा विजव थुई, जलेण तं तहइ सस्स | जिनरूवा मच्छरेणावि, फुट्टइ लूणं तड़ तड़स्स ॥ ४ ॥ यह कहकर लूण अग्निशरण करे पीछे लूण पाणी लेई, मुखें गाथा कहे ॥ गाथा ॥ सव्ववि मुरणवइ जलविजल, तन्तह भमणइ पास । अहवि कयन्तस्स निम्मलउ, निरगुण बुद्धि पसाय ॥ ५ ॥ जल विरण जलाहि पास, भरवि कयज्जल भावहि पास । तिन्नि पयाहिणि दिन्निय पास, जिम जिय छूटै भव दुहपास ॥ ६ ॥ जल निम्मल कर कमलेहि लेविणं, सुरवर भावहि मुविई सेवं । भाई जिरणवर तुहपइ सरणं, भय तुइ लभइ सिद्धि गमणं ॥ ७ ॥ यह कह कर लूण उतारी जल शरण करे ॥ इति नमक उतारण पूजा ||
अथ पुष्पमाला पहरावण पूजा ॥
उन्नय पयय भत्तस्स, नियठाणे सठिय कुतस्स | जिण पासै भमिय जणस्स, पिच्छ
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अभय-रत्नसार।
तुह हुयवहे पड़णं ॥ १॥ सव्वो जिणप्पभावो, सरिसा सरिसेसु जेण रच्चन्ती। सव्वन्नण अपासे, जड़स्स भमण न सङ्कमणं ॥ २॥ अञ्चन्त दुःकरं पिह, हुयवह निवड़ेन जड़ेन कयं । आणा सव्वन्नणं, न कया सुकयत्थ मूलमिणं ॥३॥ यह कहकर माला पहनावे ॥
अथ छूटी फूल पूजा उवणेव मंगलेवो, जिणाण मुह लालि संवलिया। तित्थपवत्तम समई, तियसे विमुक्का कुसुमबुट्ठी ॥ १॥ यह कहकर प्रभुके सम्मुख फूल उछाले ॥
प्रभातकी आरती॥ जय जय ओरती शान्ति तुमारी, तोरा चरण कमलकी मैं जाउं बलिहारो ॥ टेर ॥ विश्वसेन अचिराजोके नन्दा, शांतिनाथ मुख पू. निम चंदा ॥ जय० ॥१॥ चालिस धनुष सोवनमय काया, मृग लांछन प्रभु चरण सुहाया ॥ जय० ॥ २॥ चक्रवर्ति प्रभु पंचम सोहै, सो
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५७८ · पूजा-संग्रह। लम जिनवर जग सह मोहै॥ जय० ॥३॥ मंगल आरती भोरे कीज, जनम २ को लाहो लीज ॥ जय० ॥ ४॥ कर जोड़ी सेवक गुण गावै, सो नर नारी अमर पद पावै ॥ जय० ॥ ॥ ५॥ इति ॥
अथ नवपद-पूजा ।
अथ प्रथम अरिहंतपद-पूजा ॥ ॥ दूहा ॥ परम मंत्र प्रणमी करी, तास धरी उर ध्यान ॥ अरिहंतपद पूजा करो, निज २ शक्ति प्रमाण ॥१॥ काव्य। उप्पन्न सन्नाण महोमयाणं, सप्पाडि हेरा सणसंठियाणे ॥ सहसणाणंदिय सज्जणाणं, नमो२ होउ सयाजिणाणं ॥ १॥ नमोनंत संत प्रमोद प्रदानं, प्रधानाय भव्यात्मने भास्वताय ॥ थया जेहना ध्यानथी सौख्यभाजा, सदा सिद्धचक्राय श्रीपालराजा ॥ २॥ कस्या कर्म दुर्मममें चकचूर जेणे, भला भव्य नवपद ध्यानेन तेणें ॥ करी पूजना
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अभय रत्नसार ।
५७६
भव्य भावे त्रिकाले, सदा वासिया आतमा तेण कालें ॥ ३ ॥ जिके तीर्थंकर कर्म उदये करीने, दिये देशना भव्यने हित धरीनें ॥ सदा आठ म हापाडिहारे समेता, सुरेशें नरेशें स्तव्या ब्रह्मपूता ||४|| करा घातिया कम च्यारे अलग्गा, भवोप ग्रही च्यार छे जे विलग्गा ॥ जगत्पंचकल्याणके सुख पांमें, नमो तेह तीर्थंकरा मोक्षकामें ॥ ५ ॥
ढाल || तीरथपति अरिहा नमुं, धरम धुरंधर धीरो जी || देसना अमृत वरसता, निज वीरज वड वीरो जी ॥ ती० ॥ उल्लालो ! वर अखय निर्मल ज्ञान भासन सर्व भाव प्रकासता, निज शुद्ध श्रद्धा आत्म भावे चरण थिरता वासता ॥ जिन नांमकर्म प्रभाव अतिशय प्रातिहारज शोभता, जगजंतु करुणावंत भगवंत भविकजने थोभता ॥ ६ ॥
ढाल || श्रीसीमंधर साहिब आगे ॥ ए-देशी ॥ तीजे भव वर थानक तप करी, जिन बांध्युं जिन नाम ॥ चउसठइद्र पूजित जे जिन,
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५८० पूजा-संग्रह। कीजे तास प्रणाम रे भविका सिद्धचक्र पद वंदो रे ॥ भ०॥ जिम चिरकाले नंदो रे॥ भ०॥ उपशमरसनो कंदो रे ॥ भ०॥ रत्नत्रयीनो दो रे ॥ भ० ॥ सेवै सुननर इदो रे॥ भ० सि० ॥७॥ ए आंकणी ॥ जेहने होय कल्याणक दिवसे, नरके पिण उजवालं ॥ सकल अधिक गुण अतिशयधारी, ते जिन नमि अध टालं रे ॥ भ० सि०॥८॥ जे तिहुं नाण सम्मग्ग ऊपन्ना, भोग करम खिण जांणी॥ लेइदीक्षा शिक्षा दिये जगने, ते नमिय जिन नाणी रे ॥भ० सि०६॥ महागोप महामाहण कहिये, निर्यामिक सत्थवाह ॥ उपमा एहवी जेहने छाजै, ते जिन नमिये उच्छाह रे ॥ भ० सि०॥ १०॥ आठ प्रातीहारज जसु छाजै, पेंत्रीस गुणयुत वाणी॥ जे प्रतिबोध करे जगजनने, ते जिन नमिय उच्छाह रे ॥ भ० सि० ११ ॥
ढाल ॥ अरिहतपद ध्यातो थको, दवह गुण पर्याय रे ॥ भेद छेद करी आतमा, हरिहंत
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अभय रत्नसार । ५८१ रूपी थायैरे ॥ १२ ॥ वीर जिणेसर उपदिसै, सांभलज्यो चित लाई रे॥ आतमध्यांने आतमा, ऋद्धि मिले सब आई रे॥ वी० १३॥ ॐ ह्रीं श्रीं परमात्मने, अनंतानंत ज्ञान शक्तये ॥ जन्म जग मृत्यु निवारणाय, श्रीमत्सिद्धचक्राय अष्टद्रव्यं यजामहे स्वाहा ॥ इति प्रथम अरिहंतपद पूजा॥
॥ अथ द्वितीय श्रीसिद्धपद-पूजा ।। ॥ दहा ॥ दूजी पूजा सिद्धकी, कीजे दिल खुसियाल ॥ अशुभ करम रै टलै, फलै मनोरथ माल ॥ १॥ काव्य ॥ सिद्धाण माणंद रमाल याणं, नमोर णंत चउक्कयाणं ॥ सम्मग्ग कम्म स्कयकारगाणं, जन्मजरा दुख्क निवारगाणं ॥ १४ ॥ करी आठ कर्म खय पार पांम्या, जरा जन्म मरणादि भय जेण वाम्या ॥ निवारणाय जे आत्मरूपें प्रसिद्धा, थया पार पांमी सदा सि
बुद्धा ॥ १५ ॥ त्रिभागोनदेहावगाहात्मदेसा, रह्याज्ञानमयजातिवर्णादिलेसा ॥ सदानंतसौ
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पूजा-संग्रह। ख्याश्रिताज्योतिरूपा, अनाबाधअपुनर्भवादस्वरूपा ॥ १६ ॥ चाल ॥ सकल कर्ममल क्षय करी, पूरण शुद्ध स्वरूपो जी ॥ अव्याबाध प्रभुतामई, आतम संपत भूपो जी ॥ उल्लालो ॥ जे भूप आ तम सहज संपति, शक्ति ब्यक्तिपणे करी॥स्वद्रव्यक्षेत्र स्वकालभावै, गुण अनंता आदरी ॥ स्वस्वभाव गुणपर्याय परणति, सिद्धसाधन परभणी, मुनिराज मानसरहंस समवड, नमो सिद्ध महा गुणी ॥ १७॥
ढाल ॥ समयपएसंतर अणफरसी चरम तिभाग विसेस ॥ अवगाहन लही जे शिव पुहता, सिद्ध नमो ते असेस रे ॥ १८ ॥ भ०॥ पूरब प्रयोगने गति परणामे, बंधन च्छेद असंग॥ समय एक ऊरधगति जेहनी, तेसिद्ध प्रणमो रंग रे ॥ भ० १६ सि० ॥ निरमल सिद्धशिलाने ऊपर जोयण एक लोकंत ॥ सादि अनंत तिहां थिति जेहनि, ते सिद्ध प्रणमो संत रे ॥ २० भ० सि०॥ जाणे पिण न सके कही पुर गुण, प्राकृत तिम
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अभय रत्नसार । ५८३ गुण जास ॥ अोपमा विण नाणी भवमांहे, ते सिद्ध दिओ उल्लास रे ॥ भ०॥ २० ॥ सि०॥ ज्योतिसं ज्योति मिली जस अनुपम, विरमी सकल उपाधि ॥ आतमराम रमापति समरो, ते सिद्ध सहज समाधि रे ॥ भ० ॥ २१ ॥ सि० ॥ ___ढाल॥रूपातीत स्वभावजे, केवलदसणनाणी रे॥ तेध्याता निज आतमा,होय सिद्ध गुण वाणी रे॥ वो० ॥ ॐ ॥ ह्रीं० इति श्रीसिद्धपद-पूजा ।।
___ अर्थ तृतीय आचार्य पद-पूजा !
॥हा॥ हिव आचारज पदतणी, पूजा करो विशेष ॥ मोहतिमिर दूरै हरै, सूझै भाव असेष ॥ १॥ काव्य ॥ सूरीणदूरोकयकुग्गहाणं, नमोर सीरिसमप्पहाणं ॥ सद्द सणा दाणसमायराणं, अखंडछत्तीसगुणायराणं ॥ नमूं सूरिराजा सदा तत्वभाजा, जिनेंद्रागमें प्रौढ साम्राज्यभाजा॥षट वर्गवर्गित गुण शोभमाना, पंचाचारने पालवे सावधाना ॥ २॥ भविप्राणिनें देशना देशकाले, सदाअप्रमत्ता यथा सूत्र आलै ॥ जिके शासना
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पूजा-संग्रह |
धार दिग्दतकल्पा, जगत्ते चिरंजीवज्यो शुद्ध
जल्पा ॥ ३ ॥
ढाल ॥ आचारज मुनिपति गणी, गुणछत्तीसेधामो जी ॥ चिदानंद रसस्वादता, परभावे निक्कामो जी ॥ उल्लालो || निक्काम निरमल शुद्ध चिदघन, साध्य निज निरधारथी । वरज्ञान दरसन चरण बीरज, साधना व्यापारथी | भवि जोवबोधक तत्वशोधक, सयलगुण संपत्तिधरा ॥ संवर समाधी गत ऊपाधी, दुविधत पगुण आद
रा ।। २५ ।।
ढाल || पांच आचार जे सुधा पाले, मारग भाखे साचौ ॥ ते आचारज नमिये तेहसुं, प्रेम करीने याचो रे ॥ भ० ॥ २६ ॥ सि० ॥ वर छत्तीसगुण करि शोभे, युगप्रधान जगबोहै ॥ जगमोहे न रहे खिण कोहे, सूरि नमूं ते जोहे रे भ० ॥२७॥ सि०॥ नित अप्रमत्त धरम उब एसे. नहि विकथा न कषाय || जेहने ते आचारज नमिये, अकलूस अमल माय रे ॥ भ० ॥ २८ ॥
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अभय-रत्नसार।
५८५ सि०॥ जे दिये सारण वारण चोयण, पडिचोयण वलि जनने ॥ पटधारी गच्छथंभ आचारज, ते मान्या मुनि मनने रे॥ भ० ॥ २६ ॥ सि०॥ अमिये जिन सूरज केवल,वंदी जे जगदीवो॥ भुवन पदारथ प्रगटनपटुते, आचारज चिरंजीवो रे॥भ० ॥ ३० ॥ सि०॥ ढाल ॥ ध्याता आचारज भला, महामंत्र शुभ ध्यानी रे ॥ पंचप्रस्थाने आतमा, आचारज हुय प्राणी रे ॥ वी० ॐ ह्रीं आचार्यापदे अष्ट द्रव्यं यजामहे स्वाहा ॥३॥
॥ अथ चौथी उपाध्यायपद-पूजा । ॥ दृहा ॥ गुण अनेक जग जहना, संदर शोभित गात्र ॥ उवझायापद अरचिय, अनुभव रसनो पोत्र ॥ १॥ काव्य ॥ सुतत्थ वित्थारणतप्पराणं, नमो२ वायगकंजराणं ॥ गणस्ससंधारणसायराणं, सव्वप्पणावज्जियमच्छराणं ॥१॥ नही सूरि पिण सूरिगुणने सुहाया, नवाचका त्यक्त मदमोहमाया ॥ वलि द्वादशांगादि सूत्रार्थ दानें, जिके सावधानें निरुद्धाभिधानें ॥ २॥ धरै
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पूजा-संग्रह। पंचनेवर्गवर्गितगुणौघा, प्रवादिद्विपोच्छ दनेतुल्य सिंघा ॥ गुणीगच्छसंधारणेस्थंभ पूता, उपाध्यायनेवंदियेचित्प्रभूता ॥३॥
ढाल ॥ खंतिजुमा मुत्तीजुश्रा, अज्जव मद्दवजुत्ताजी। सच्चसोयंअकिंचणा, तवसंयमगुणरत्ताजी ॥ उल्लालो ॥ जे रम्या ब्रह्मसुगुप्तगुप्ता, सुमति सुमता शुभधरा ॥ स्याद्वादवादई तत्वसाधक, आत्मपरविभंजनकरा ॥ भवभीरुसाधन धीरशासन, वहनधोरीमुनिवरा ॥ सिद्धांतवायनदांनसमरथ, नमोपाटकपदधरा ॥ ३३ ॥ ___ ढाल ॥ द्वादशअंगसिज्झाय करे जे, पारगधारग तास ॥ सूत्र अर्थ विस्तार रसिक ते. नमो उवझाय उल्लास रे ॥ भ०॥३४॥ सि०॥ अर्थसूत्रने दांनविभागे, आचारज उवज्झाय॥ भवत्रिणहै जे लहै शिवसंपद, नमियै ते सुपसायरे॥भ० ॥ ३५ ॥ सि०॥ मुरखशिष्यनीपायेजे प्रभु, पाहणने पल्लव आणे ॥ते उवझाय सकलजन पूजित, सूत्रअर्थ सविजाणे रे ॥भ० ॥३६॥
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अभय-रत्नसार ।
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सि.॥ राजकुमर सरिखा गणचिंतक, आचारजपद योग, ते उवझाय सदा ते नमतां, नावै भवभय सोग रे॥भ०॥३७॥ सि०॥ बावनाचंदनरस समवयौ, अहितताप सवि टालै ॥ ते उवज्झाय नमिजे जे वलि, जिनशासन उजवाले रे ॥ भ०॥ ३८ ॥ सि०॥ ____ ढाल ॥ तप सिज्झायै रत सदा, द्वादश अंगनो ध्याता रे ॥ उपाध्याय ते आतमा, जगबंधव जगत्राता रे ॥ वी० ॥ ३६॥ ॐ ह्रीं श्रीपाठकपदे अष्ट द्रव्यं यजामहेस्वाहा ॥ इति चतुर्थ उपाध्यायपद पूजा ॥
अथ पाँचवीं साधूपद-पूजा ॥ दूहा ॥ मोक्षमारग साधनभणी, सावधान थया जेह ॥ ते मुनिवरपद वंदता, निरमल थाये देह ॥ १॥ काव्य ॥ साहूण संसाहियसंजमाणं, नमोरशुद्धदयादमाणं ॥ तिगुत्तगुत्ताणसमाहियाणं, मुणीणमाणंदपयट्टिमार्ण ॥ करेसेवनासूरिवायगगणीनी, करू वर्णना तेहनीसीमुणीनी ॥
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पूजा - संग्रह | समेतासदापंचसमेतेत्रिगुप्ता, त्रिगुप्त नहीकाम भोगेषुलिप्ता ॥ ४१ ॥ वलीबाह्य अभ्यंतरेय थटाली, हुई मुक्तिनेयोगचारित्रपाली ॥ शुभष्टांगयोगैरमैचित्तवाली, नमुं साधुने तेह निज पाप टाली ॥ ४२ ॥
ढाल || सकल विषयविष वारिनें, निक्कामी निस्संगी जी ॥ भवदव ताप समावता, आतम साधन रंगीजी || स०|| जे रम्या शुद्ध स्वरूप रमणें देह निर्मम निर्मदा, काउसग्गमुद्रा धोर सन ध्यान अभ्यासी सदा ॥ तप तेज दीपै कर्म जीपै नैव की परभणी ॥ मुनिराज करुणा सिंधु त्रिभुवन प्रणमो हितभणी ॥ ४३ ॥
ढाल || जिम तरुफूलै भमरो बेसे, पीड़ा तसु न उपाय || लेई रस आतम संतोष, तिम मुनि गोवरी जाय रे ॥ भ० ॥ ४४ ॥ पांचइन्द्रीनें जे नित जीपे, षटुकाया बन्धु प्रतिपाल || संजम संतर प्रकार राधे, वंद्र दीनदयाल रे ॥ भ० ४५ ॥ सि० ॥ अढारसहस सीलंगना धोरी, अ
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अभय रत्नसार।
५८६ चल आचार चरित्र ॥मुनिमहंत जयणायुत वंदी, कीजै जनम पवित्र रे॥ भ०॥सि०॥४६॥ नव विध ब्रह्मगुप्त जे पाले, बारे विध तपसूरा ॥ एहवा मुनि नमियै जो प्रगटै, पूरव पुन्य अंकूरा रे॥भ० ॥४७॥ सि॥ सोनातणी पर परीक्षा दीसै, दिन २ चढतै वान ॥ संजम खप करता मुनि नमियै, देशकाल अनुमानै रे ॥ भ०४८ ॥ ___ ढाल ॥ अप्रमत्त जे नित रहै, नवि हरषै नवि सोचै रे ॥ साधु सुधा ते आतमा, स्युं मुहै स्युं लोचै रे॥ वी० ॥ ४६॥ ॐ ह्रीं साधुपंदे अष्ट द्रव्यं यजामहे स्वाहा ॥
अथ छट्ठी दर्शनपद-पूजा ॥ _दूहा ॥ जिनवर भाषित शुद्ध नय, तत्वतणी परतीत ॥ ते सम्यग्दर्शन सदा, आदरियै शुभ रोत ॥ १॥ काव्य ॥ जिणु त्ततत्तेरुइलकणस्स, नमो २ निम्मलदंसणस्स ॥ मिच्छत्तनासाइसमुग्गमस्स, मूलस्ससधम्ममहादुमस्स ॥ विपर्यासहोवासनारूपमिथ्या, टले जे अनादीअछैजे
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पूजा-संग्रह। कुपथ्या ॥ जिनोक्त हुई सहजयीशुद्धध्यान, कहियैदर्शनंतेहपरमंनिधानं ॥ ५० ॥ विनाजेहथीज्ञान मज्ञानरूपं, चरित्रविचित्रं भवारण्यकूपं ॥प्रकृतिसातनेउपसमैक्षयतेहहोवे, तिहांआपरूपैसदाभापजोवै ॥५१॥ . __ ढाल ॥ सम्यग् दरसण गुण नमो, तत्व प्रतीत सरूपीजी॥ जसु निरधार स्वभाव छै, चेतन गण जे अरूपी जी॥ चाल ॥ जे अनप श्रद्धा धर्म प्रगटै सयल पर ईहा टलै, निजशुद्ध सत्ता भाव प्रगटै अनुभव करुणा उछलै ॥ बहु मांन परणितवस्तु तत्वे अहव सुखकारण पणे, निज साध्य दृष्टै सरब करणी तत्वता संपति गिणे ॥ ५२॥
॥ ढाल ॥ शुद्धदेव गुरु. धर्म परीक्षा, सद्द. हणा परिणाम ॥ जेह पामीजै तेह नमीजै, सम्यगदर्शन नाम रे ॥ भ० ५३ सि ॥मल उपशम क्षय उपशम जेहथी, जे होइ त्रिविध अभंग। सम्यगदर्शन तेह नमीजै, जिनधरमै दृढ रंग रे
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अभय रत्नसार ।
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॥ भ० ५४ सि० ॥ पांच वार उपशम लहीजै, चयउपसमीय असंख | एक वार चायक ते म्यक, दर्शन नमी असंख रे ॥ भ० ॥ ५५ सि० ॥ जे विण नांण प्रमाण न होवे, चारित्र तरु नवि फलियो | सुख निरवांण न जेविण लहिये, समकित दरशन बलियो रे ॥ भ० ५६ सि० ॥ सडसठ बोले ज े अलंकरियो, ज्ञांन चारित्रं मूल ॥ समकितदर्शन ते नित प्रणम्, शिवपंथनं अनुकूल रे ॥ भ० ५७ सि० ॥
॥ ढाल | समसंवेगादिक गुण, क्षयउशम ज े आवे रे ॥ दर्शन ते हिज आतमा, स्युं होय नाम धरावे रे | वी० ५८ ॥ ॐ ह्रीं प० दर्शन पदे प्रष्ट द्रव्यं यजामहे स्वाहा ॥ ६ ॥
॥ अथ सातवीं ज्ञानपद- पूजा ॥
दूहा ॥ सप्तम पद श्रीज्ञाननो, सिद्धचक्र तपमाह ॥ आराधिजै शुभ मनें, दिनर अधिक उच्छाह ॥१॥ काव्य ॥ अन्नाण सम्मोहतमोहरस्स, नमो२ नाण दिवायरस्स ॥ पंचप्पयारस्सु
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पूजा-संग्रह। वगारगस्स, सत्ताणसव्वत्थपयासगस्स ॥ हाइजेहथीज्ञानशुद्धप्रबोधै,यथावर्णनासैविचित्राविबोधै॥ तिणेजाणीयेवस्तुषद्रव्यभावा, नहोवैविकत्त्थानिजेच्छास्वभावा ॥ ५६ ॥ होई पंचमत्यादि सुग्यानभेदै, गुरुपासथीयोग्यतातेहवेदइंद॥ वली ज्ञ यहेयाउपादेयरूपे, लहैचित्त मांजेम ध्याने प्रदीपै ॥ ६॥
ढाल ॥ भव्य नमो गुण ज्ञानने, स्वपरप्रकाशक भावै जी ॥ पर्याय धरम अनंतता, भेदा भेद स्वभावै जी ॥ चाल ॥ जे मोक्ष परणति सकल ज्ञायक बोधवास विलासता, मति आदि पंच प्रकार निरमल सिद्धसाधन लंछना ॥ स्याव्दादसंगी तत्वरंगी प्रथम भेद अभेदता, सवि कल्पने अविकल्प वस्तु सकल संशय छेदता ॥६॥
॥ढाल॥ भक्ष अभक्ष न जे विण लहिये, पेय अपय विचार ॥ कृत्य अकृत्य न जे विन लहिये, ज्ञांनते सकल आधार रे ॥ भ०॥ ६२ सि०॥ प्रथम ज्ञान में पीछे अहिंसा, श्रीसिद्धातै भाख्यं ॥
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अभय रत्तसार ।
५६३ ज्ञानने वंदा ज्ञान म निंदो, ज्ञानीये शिवसुख चाख्यं रे ॥ भ० ६३ ॥सि०॥ सकल क्रियान मूल ते श्रद्धा, तेहनूं मूल जे कहिये ॥ तेह ज्ञान नितर वंदीजे, ते विन कहो किम रहिये रे ॥ भ० ॥६४ सि०॥ पांच ज्ञानमांहे जेह सदागम, स्वपरप्रकाशक तेह ॥ दीपकपर त्रिभुवन उपगारी, वलि जिम रवि शशि मेह रे॥भ०॥६५ सि०॥ लोक ऊरध अधतिर्यग ज्योतिष, वैमानीकने सिद्ध ॥ लोक अलोक प्रगट सब जेहथी, ते ज्ञाने मुझ शुद्धी रे॥ भ०॥६६॥ सि०॥
ढाल ॥ ज्ञानावरणी जे कर्म छ, क्षय उपशम तसु थाये रे ॥ तो होइ एहिज आतमा, ज्ञान अबोधता जाय रे ॥ वी० ॥६७ ॥ ॐ ह्रीं प. ज्ञानपदे अष्ट द्रव्यं यजामहे स्वाहा ॥ इति॥
॥ अथ आठवीं चारित्रपद-पूजा ॥ ॥ दूहा ॥ अष्टम पद चारित्रनो, पूजो धरी ऊमेद ॥ पूजत अनुभवरस मिले, पातिक होय उछेद ॥१॥ काव्यं ॥आराहिया खंडिअ सकि
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५६४
पूजा-संग्रह |
यस्स, नमो२ संजमवीरिअस्स ॥ सब्भावणसंग
निव्वाणदाणाइ समुज्जयस्स ॥
विवहिस्स, वलिज्ञानफलतेधरिये सुरंगे, निरासंसताद्वाररोधे प्रसंग ॥ भवांभोधिसंतारणेयानतुल्यं, धरु तेहचारित्रप्राप्तमूल्यं ॥ ६८ ॥ होईंजासमहिमाथकोरंकराजा, वलिद्वादशांगी भरणी होइताजा ॥ वलि - पापरूपोपनिप्पापथायै, थई सिद्धते कर्मनेंपार
जायै ॥ ६६ ॥
॥ चाल ॥ चारित्रगुण वलि२ नमो, तत्वरमजसु मूलो जी ॥ पररमणीयपणो टलै, सकल सिद्धि अनुकूलो जी ॥ उल्लालो || प्रतिकूल आश्रव त्याग संजम तत्व थिरता दममयी, शुचिपरम खंति मुनींद संपद पंच संवर उपचयी ॥ सामायिकादिक भेद धरमैं यथाख्यातै पूर्णता, अकषाय अकुलस अमल उज्वल काम कसमल चूर्णता ॥ ७० ॥
|| ढाल || देशविरत ने सर्वविरत जे, ग्रही यतिने अभिराम ॥ ते चारित्र जगत जयवंतो,
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अभय-रत्नसार ।
५६५
की तास प्रणाम रे ॥ भ० ॥ ७१ ॥ ॥ सि० ॥ तृण पर जे षट्खंड सुख छौंडी, चक्रवर्त पिण वरित्र, ते चारित्र अखय सुखकारण, ते में मनमांहि धरिओ रे ॥ भ० ॥ ७२ ॥ सि० ॥ हूवा रंक पणे जे आदर, पूजत इंद-नरिंद ॥ अशरण शरण चरण ते वारू, वरित्रो ज्ञान आनंद रे ॥ भ० ॥ ७३ सि० ॥ बार मास पर्यायै तेहनें, अनुत्तर सुख अतिक्रमिये ॥ शुक्कर अभिजात्य तो ऊपर, तं चारित्रने नमिये रे ॥ भ० ७४ सि० ॥ चय ते आठ करमनो संचय, रिक्त करे जं तह ॥ चारित्र नांम निरुक्त भाख्युं, त े बंदू गुणगेह रे ॥ भ० ॥ ७५ सि० ॥
॥ ढाल || जांणि चारित्र तो आतमा, निजस्वभावमांहि रमतो रे । लेस्या शुद्ध अलंकस्यो, मोहवने नवि भमतो रे ॥ वी० ७६ ॥ ॐ ह्रीं प० चारित्रपदे अष्ट द्रव्यं यजामहे स्वाहाः ॥
॥ अथ नववीं तपपद-पूजा ॥
॥ दूहा ॥ करमकाष्ट प्रति जालवा, परतिख
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५६६.
पूजा - संग्रह |
अगनि समांन ॥ त े नपपद पूजो सदा, निर्मल धरिये ध्यान ॥१॥ काव्यं ॥ कम्मद, सोन्मूलनकुंज रस्स, नमो२ तिव्वतवोवरस्स ॥ अगलद्धीणनीबंधास्स, दुसज्झत्थाय साहणस्स ॥ ७७ इयनवपयसीद्धी लद्धि, वीज्जासमीद्धं पयमीय सरवग्गंह्रीतिरेहसमग्गं ॥ दिसिवइसुरसारं खोणिपीढावयारं, तिजयविजयचक्क' सिद्धचक्क नमा
॥ ७८ ॥ त्रिकालिकपणें कर्मकषाय टाले, निकाचितपणें बाधिया तेह बालै ॥ कह्यो तेह तप बाह्य अभ्यंतर दुभेदे, क्षमायुक्ति निर्हेत दुर्ध्यान छेदे ॥ ७६ ॥ होइ जास महिमाथको लब्धि सिद्धि, अवांछपणे कर्म आवरण शुद्धि ॥ तपो तेह तप जे महानंद हेतें, होइ सिद्ध सीमंतनी जिम संकेते ॥ ८० ॥ इम नव पद ध्यावै परम आनंद पावै, नवभव शिव जावै देव नर भवज पावै ॥ ज्ञानविमल गुण गावै सिद्धचक्र प्रभावै, सवि दुरित समावै विश्व जयकार पावै ॥ ८१ ॥ ढाल || इच्छारोधन तप नमो, बाह्य अ
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अभय रत्नसार ।
५६७
भ्यन्तर भेद जी ॥ आतम सत्ता एकत्वता, पर परणति उछदे जी ॥ १ ॥ उल्लालो ॥ उछेद कर्म अनादि संतति जेह सिद्धपणो वरे, शुभ योग संग आहार टाली भाव अक्रियता करें | अंतरमुहूरत तत्व साधै सर्व संवरता करो, निज आत्मसत्ता प्रगट भावै करो तपगुण आदरी ॥ ८२ ॥
ढाल ॥ इम नवपद गुणमंडलं, चउ निचप प्रमाणे जी ॥ सात नयें जो आदरें, सम्यगज्ञानें जाणे जो ॥ उल्लालो || निरधारसेतो गुणे गुणन करइ बहुमान ए, जसु करण ईहा तत्व रमणें थायै निरमल घ्यांन ए ॥ इम शुद्धसत्ता भलो चेतन सकल सिद्धि अनुसरे, अक्षय अनंत महंत चिदघन परम आनंदता वरै ॥ ८३ ॥
कलश ॥ इम सयल सुखकर गुणपुरंदर सिद्धचक्रपदावली, सर्विलद्धिविज्जा सिद्धि मंदिर भविक पूजो मन रली ॥ उवझाय वर श्रीराजसागर ज्ञानधर्मसु राजता, गुरु दीपचंद सुचरण सेवक देवचंद्र सुशोभता ॥ ८४ ॥
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पूजा-संग्रह |
ढाल ॥ जाणंता त्रिहु ज्ञाने संयुत, ते भवमुगति जिनंद ॥ जह आदरे कर्मखपेवा, ते तप सुरतरु कंद रे ॥ भ० ॥ ८५ ॥ सि० ॥ करम निकाचित पिरण चय जाये, क्षमासहित ज े करतां, ते तप नमियै तेह दीपावै, जिनशासन उजमंता रे ॥ भ० ॥ ८६॥ सि० ॥ आमोसहीपमुहा बहु लद्धि, होवे जास प्रभावै ॥ अष्ट महासिद्ध नवनिध प्रगट, नमिये ते तप भावे रे ॥ भ० ॥ सि० ॥ ८७ ॥ फल शिव सुख मोटुं सुरनरवर, संपति ज हनूं फूल ॥ तं तप सुरतरु सरिखो वंदू, शममकरंद अमूल रे ॥ भ० ॥ ८८ ॥ सि० ॥ सर्व्व मंगल मांहि पहलो मंगल- वर्णवियो जो ग्रंथै ॥ तं तपपद त्रिकरण नित नमियै, वरसहाय शिवपंथ रे ॥ भ० ॥ ८६ ॥ सि० ॥ इम नवपद थुणतो तिहांलीनो, हुआ तनमय श्रीपाल | सुजस विलासै चोथेखंडे, एह इग्यारमी ढाल रे ॥ अ० ॥ ६० ॥ सि० ॥
ढाल ॥ इछारोधन संवरी परणित समता योगे
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अभय रत्नसार।
५६६ रे॥तप ते एहिज आतमा, वरते निजगुण भोगे रे॥ वी० ॥ ६१ ॥ आगमनो आगमतणो, भाव ते जांणो साचो रे॥आतमभावै थिर हूओ, परभावै मतराचो रे ॥ वी०॥ १२ ॥ अष्ट सकल समृद्धिने, घटमांहे ऋद्धि दाखी रे॥ तिम नवपद ऋद्धि जाणज्यो, आतमराम छ साखी रे ॥वी. ६३॥ योग असंख्य छ जिन कह्या, नवपद मुख्य त जांणो रे॥ एहत] अविलंबिने, आतम ध्यांन प्रमाणो रे ॥ वी० ॥१४॥ ___ ढाल ॥ बारमी ए हवी, चोथै खंडे पूरी रे॥ वाणी वाचक जसतणी, कोइय न रही अधूरी रे॥ वी० ६५ ॥ ॐ ह्रीं प० तपपदे अष्ट द्रव्यं यजामहे ॥ इति नवपद-पूजा समाप्त ॥
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विधि-संग्रह।
विधि-संग्रह। प्रभातकालीन सामायिक की विधि । दो घड़ी रात बाकी रहे तब पौषधशाला आदि एकान्त स्थनमें जा कर अगले दिन पडिलेहन किये हुए शुद्ध वस्त्र पहिन कर गुरु न हो तो तीन नमुक्कार गिन कर स्थापनाचार्य स्थापे। बाद खमासण देकर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवान्' क यिक मुहपत्ति पडिलेहुं ?' कहे। गुरुके 'पडिलेहेह' कहनेके बाद 'इच्छ” कह कर खमासमण देकर मुहपत्तिका पडिलेहन करे। फिर खड़े रह कर खमासमण देकर 'इच्छा' कह कर 'सामायिक संदिसाहुं ? कहे। गुरु 'संदिसावेह' कहे तब 'इच्छं कह कर फिर खमासमण देकर 'इच्छा' कह कर 'सामायिक ठाउ?" कहे। गुरुके 'ठाएह' कहनेके बाद 'इच्छं' कह कर खमासमण देकर आधा अङ्ग नवाँ कर तीन नमुक्कार गिनकर कहे कि 'इच्छाकारि भगवन् पसायकरी सामायिक दण्ड उच्चरावो जी'। तब गुरुके 'उच्चरावेमो' कहने के बाद 'करोमि भंते समाइयं' इत्यादि सामायिक सूत्र तीन वार गुरुवचन-अनुभाषण-पूर्वक पढ़े। पीछे खमासमण देकर 'इच्छा' कहकर 'इरियावहियं पडिक्कमामि ?' कहे। गुरु 'पडिक्कमह' कहे तब इच्छं' कहकर 'इच्छामि पडिक्कमिउं इरियावहियाए' इत्यादि इरियावहिय करके एक लोगस्सका काउस्सग कर तथा 'नमो अरिहंताणं' कहकर उसको पार कर प्रगट लोगस्स कहे। फिर खमासमण-पूर्वक
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अभय रत्नसार ।
६०१
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'इच्छा०' कहकर 'बेसणे संदिसाहुं ?" कहे। गुरु 'संदिसावेह' कहे तब फिर 'इच्छं' तथा खमासमण पूर्वक 'इच्छा०' कह कर 'बेसणे ठाउँ ?' कहे । और गुरु 'ठाएह' कहे तब 'इच्छ' 'कहकर खमासमण-पूर्वक 'इच्छा' कह कर 'सज्झाय संदिसाहु ?" कहे । गुरुके 'संदिसावेह' कहनेके बाद 'इच्छ' तथा खमासमण - पूर्वक 'इच्छा०' कह कर 'सज्काय करु' ?' कहे और गुरुके 'करेह' कहे बाद 'इच्छं' कहकर खमासमण पूर्वक खड़े ही खड़े आठ नमुक्कार गिने ।
अगर सर्दी हो तो कपड़ा लेनेके लिये पूर्वोक्त रीतिसे खमासमण-पूर्वक 'इच्छा० " कह कर 'पगुरण संदिसाहु ?' तथा 'पंगुरण पडिग्गाहुँ ?' क्रमशः कहे और गुरु 'संदिसावेह' तथा 'पडि
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ग्गाद्देह' कहे तब 'इच्छं' कह कर वस्त्र लेवे । सामायिक तथा पौषधमें कोई वैसा ही व्रती श्रावक वन्दन करे तो 'वंदामो' कहे और अव्रती श्रावक वन्दन करे तो 'सज्झाय करह' कहे ।
रात्रि - प्रतिक्रमण की विधि ।
पहले सामायिक लेकर फिर खमासमणपूर्वक 'इच्छा' 'इच्छा०' कह कर कह कर 'चैत्यवद करूँ ? कहने के बाद गुरु जब 'करेह' कहे तब 'इच्छं' कह कर 'जयउ सामि जयउ सामि', का 'जय वीयराय' * तक चैत्य-वन्द करे, फिर
*खरतरगच्छ में 'जय वीराय ०' की सिर्फ दो गाथाएं अर्थात्
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६०२
पूजा-संग्रह |
खमासमण - पूर्वक 'इच्छा ० ' कह करके 'कुसुमिदुसुमिणराइयपायच्छित्तविसोहणत्थं काउस्सग्गं करूँ ?' कहे और गुरु जब 'करेह' कहे तब 'इच्छं' कह कर 'कुसुमिरणराइयपायच्छित्तविसोहरणत्थं करेमि काउस्सग्गं' तथा 'अन्नत्थ ऊससिएणं' इत्यादि कह कर चार लोगस्सका 'चंदेसु निम्मलयरा' तक काउसग्ग करके 'नमो अरिहंताणं' पूर्वक प्रगट लोगस्स पढ़ े ।
रात्रिमें मूलगुणसम्बन्धी कोई बड़ा दोष लगा हो तो 'सागरवरगम्भीरा' तक काउस्सग्ग करे । प्रतिक्रमणका समय न हुआ हो तो सज्झाय ध्यान करे । उसका समय होते ही एक-एक खमासमण-पूर्वक "आचाय-मिश्र, उपाध्याय मिश्र" जगम युगप्रधान वर्तमान भट्टारकका नाम और 'सर्वसाधु' कह कर सबको अलग अलग वन्दन करे । पीछे 'इच्छकारि
"सेवणाआभवमखण्डा" तक बोलनेकी परम्परा है, अधिक बोलनेकी नहीं । यह परम्परा बहुत प्रचीन है ।
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अभय-रत्नसार । ६०३ समस्त श्रावकोंको वंद' कह कर घुटने टेक कर सिर नवाँ कर दोनों हाथोंसे मुंहके आगे मुहपत्ति रख कर 'सव्वस्स वि राइय०, पढ़े, परन्तु 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन्, इच्छं' इतना न कहे। पीछे 'शक्रस्तव' पढ़ कर खड़े होकर 'करेमि भंते सामाइयं०, कह कर 'इच्छामि ठामि काउस्सग्गं जोमे राइयो' तथा 'तस्स उत्तरी, अन्नत्थ' कह कर एक लोगस्सका काउस्सग्ग करके उसको प्रारकर प्रगट लोगस्स कह कर 'सव्वलोए अरिहंत चेइयाणं वंदण' कह कर फिर एक लोगस्स का काउस्सग्ग कर तथा उसे पार कर 'पुक्खरवदीवड्ढे सूत्र पढ़ कर 'सुअस्स भगवओ' कह कर 'आजूणा चउपहरी रात्रिसम्बन्धी' इत्यादि आलोयणाका काउस्सग्गमें चिन्तन करे; अथवा आठ नमुक्कारका चिन्तन करे । बाद काउसग्ग पार कर 'सिद्धाणं बुद्धाणं' पढ़ कर प्रमाजनपूर्वक बैठ कर मुहपत्ति पडिलेहण करे और दो वन्दना देवे । पीछे 'इच्छा' कह कर 'राइयं आलोउँ?'
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। पूजा-संग्रह । कहे । गुरुके आलोएह' कहने पर 'इच्छ” कह कर 'जोमे राइयो०' सूत्र पढ़ कर प्रथम काउस्सग्गमें चिन्तन किये हुए 'प्राजूणा' इत्यादि रात्रिअति चारोंको गुरुके सामने प्रगट करे और पीछे 'सव्वस्स वि राइय' कह कर 'इच्छा' कह कर रात्रि अतिचारका प्रायश्चित्त माँगे। गुरुके 'पडिक्कमह' कहनेके बाद 'इच्छं' कहकर 'तस्स मिच्छामि दुकड़' कहे। बाद प्रमाजनपूर्वक आसनके ऊपर दाहिने जोनको ऊँचा कर तथा बाँये जानको नीचा करके बैठ जाय और 'भगवन् सूत्र भण?' कहे। गुरुके 'भणह' कहने के बाद 'इच्छं कह कर तीन-तीन या एक-एक वार नमुकार तथा 'करेमि भन्ते' पढ़े । बाद 'इच्छामि पडिकमिउ जोमें राइओ' सूत्र तथा 'वंदित्तु' सूत्र पढ़े। बाद दो वन्दना देकर 'इच्छा' कह कर 'अब्भुट्टिप्रोमि अभिंतर राइयं खामेउँ ?' कहे ।बाद गुरुके 'खामेह' कहनेके बाद 'इच्छं' कह कर प्रमार्जनपूर्वक घुटने टेक कर दो
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अभय रत्तसार। ६०५ बाहू पडिलेहन कर बाँये हाथले मुखके आगे मुहपत्ति रख कर दाहिना हाथ गुरुके सामने रखे, अनन्तर शरीर नवाँ कर 'जंकिंचि अपत्तियं कहे। बाद जब गुरु 'मिच्छा मि दुक्कड़ें' कहे तब फिरसे दो वन्दना देवे । और 'आयरिय उवज्झाए' इत्यादि तीन गाथाएँ कह कर 'करेमि भन्ते, इच्छामि ठामि, तस्स उत्तरी, अन्नत्थ' कह कर काउस्सग्ग करे। उसमें वीर-कृत षाडमासी तप का चिन्तन किंवा छह लोगस्स या चौबीस नमुक्कारका चिन्तन करे । और जो पच्चक्वाण करना हो तो मनमें उसका निश्चय करके काउस्सग्ग पारे तथा प्रगट लोगस्स पढ़े। फिर उकडू आसनसे बैठ कर मुहपत्ति पडिलेहन कर दो वन्दना देकर सकल तीर्थोंको नाम पूर्वक नमस्कार करे और 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् पसायकरी पच्चक्खाण कराना जी' कह कर गुरुमुखसे या स्थापनाचार्यके सामने अथवा वृद्ध साधर्मिकके मुखसे प्रथम निश्चयके अनुसार
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विधि-संग्रह। पच्चक्खाण करले। बाद 'इच्छामो अणुसर्टि' कह कर बैठ जाय । और गुरुके एक स्तुति पढ़ जाने पर मस्तक पर अञ्जली रख कर 'नमो खमासमणाणं, नमोऽहत्' पढ़े। बाद 'संसारदावानल' या 'नमोऽस्तु वर्धमानाय' या परसमयतिमिरतरणिं' की तीन स्तुतियाँ पढ़ कर ‘शकस्तव' पढ़े। फिर खड़े होकर 'अरिहंत चेइयाणं कह कर एक नमुक्कारका काउस्सग्ग करे। और उसको 'नमोऽहत्' पूर्वक पार कर एक स्तुति पढ़ । बाद 'लोगस्स, सव्वलोए' पढ़ कर एक नमुक्कारका काउस्सग्ग करके तथा पारके दूसरी स्तुति पढ़े । पीछे 'पुक्खरवरदिवो, सुअस्स भगवओ' पढ़ कर एक नमुक्कारका काउस्सग्ग पारके तीसरी स्तुति कहे। तदनन्तर सिद्धाणं बुद्धाणं, वेयावच्चगराणं' बोल कर एक नमुक्कारका काउस्सग्ग पारके 'नमोऽर्हत्'-पूर्वक चौथी स्तुति पढ़े। फिर 'शकस्तव' पढ़कर तीन खमासमण पूर्वक आचार्य उपाध्याय तथा सर्व साधुओंको वन्दन करे। ...
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अभय रत्नसार। ६०७ यहाँ तक रात्रि-प्रतिक्रमण पूरा हो जाता है। और विशेष स्थिरता हो तो उत्तर दिशाकी तरफ मुख करके सीमन्धर स्वामीका 'कम्मभूमीहिं कम्मभूमीहि,से लेकर 'जय वीयरायय' तक संपूर्ण चैत्य-वन्दन तथा 'अरिहंत चेइयाणं०' कहे और एक नमुक्कारका काउस्सग्ग करके तथा उसको पारके सीमन्धर स्वामीकी एक स्तुति पढ़े । ___अगर इससे भी अधिक स्थिरता हो तो सिद्धाचलजोका चैत्यवन्दन करके प्रतिलेखन करे। यही क्रिया अगर संपक्ष में करनी हो तो दृष्टि-प्रतिलेखन करे और अगर विस्तारसे करनी हो तो खमासमण-पूर्वक 'इच्छा०' कहे और मुहपत्ति-पडिलेहन, अंब-पडिलेहन, स्थापनाचार्यपडिलेहन, उपधि-पडिलेहन तथा पौषधशालाका प्रमार्जन करके कूड़े-कचरेको विधिपूर्वक एकान्त में रख दे और पीछे 'इरियावहियं' पढ़े।
___ सामायिक पारने की विधि। खमासण-पूर्वक मुहपत्ति पडिलेहन करके
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के
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६०८
पूजा-संग्रह |
फिर खमासमण कहे। बाद 'इच्छा' कह कर "समायिक पारु' ? कहे। गुरुके 'पुणो वि कायव्वो' कहने के बाद 'यथाशक्ति' कह कर खमासमणपूर्वक 'इच्छा' कह कर 'समायिक पारेमि?' कहे, जब गुरु 'आयारो न मोत्तव्वो' कहे तब 'तहत्त' कह कर आधा अंग नवाँ कर खड़े ही खड़े तीन नमुक्कार पढ़े और पीछे घुटने टेक कर तथा सिर नवाँ कर 'भयवं दसन्नभद्दो' इत्यादि पाँच गाथाएँ पढ़ तथा 'सामायिक विधिसे लिया' इत्यादि कहे।
संध्याकालीन सामायिक की विधि | दिनके अन्तिम प्रहर में पौषधशाला आदि किसी एकान्त स्थानमें जाकर उस स्थानका तथा वस्त्रका पडिलेहन करे । अगर देरी होगई हो तो दृष्टि - पडिलेहन कर लेवे । फिर गुरु या स्थापनाचार्य के सामने बैठ कर भूमिका प्रमार्जन करके बाई ओर आसन रख कर खमासमण-पूर्वक 'इच्छा ०' कह कर 'सामायिक मुहर्षात्त पडिले हुँ ?'
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अभयरेतसार ।
६०६
'कहे। गुरुके 'पडिले हेह' कहने पर 'इच्छं' कहकर मुह पत्ति पढ़िलेहे। फिर एमासमण पूर्वक 'इच्छा' कह कर 'सामायिक संदिसाहु, सामायिक ठाउं, इच्छं, इच्छकारि भगवन् पसायकरि दंड उच्चरावो जी, कहे। बाद तीन वार नमुक्कार, तीन वार 'करेमि भन्ते' 'सामाइयं' तथा 'इरियावहियं इत्यादि काउस्सग्ग तथा प्रगट लोगस्स तक सब विधि प्रभातके सामायिककी तरह करे । बाद नीचे बैठ कर मुहपत्तिका पडिलेहन कर दो वन्दना देकर गारा पूर्वक 'इच्छकारि भगवन् पसायकरि पच्च्चखाण कराना जो कहे। फिर गुरुके मुखसे या स्वयं किसी बड़ के मुखसे दिवस चरिमंका पच्चक्खाण करे ।
अगर तिविहाहार उपवास किया हो तो वन्दना न देकर सिर्फ मुहपत्ति पडिलेहन करके पच्चक्खाण कर लेवे और अगर चउव्विहाहार उपवास हो तो मुहपत्ति पडिलेहन भी न करे । बादको एक-एक खमासमण - पूर्वक 'इच्छा' कह
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पूजा-संग्रह। कर 'सज्झाय संदिसाहु?, सज्झाय करु?, तथा 'इच्छ- यह सब पूर्व की तरह क्रमशः कहे और खड़े हो कर मासमण-पूर्वक आठ नमुक्कार गिने। फिर एक-एक खमासमण-पूर्वक 'इच्छा' कह कर वेसणे संदिसाहुँ?, बेसणे ठाउँ?' तथा 'इच्छं', यह सब क्रमशः पूर्वकी तरह कहे।
इसके बाद यदि वस्त्रको जरूरत होतो उसके लिये भी एक एक खमासमण पूर्वक 'इछा. कह कर ‘पंगुरण संदिसा९, पंगुरण पडिग्गाहु ? तथा 'इच्छं' यह सब पूर्वकी तरह कहकर वस्त्र ग्रहण कर ले और शुभ ध्यान में समय बितावे
देवसिक-प्रतिक्रमण की वीधि । पहले यथाविधि सामायिक लेवे बाद 'तीन खमासमणपूर्वक इछाकारेण संदिसह भगवन् वन्दन करूँ? कहे । गुरूके 'करेह' कहने पर चैत्य इछं कह कर 'जय तिहुअण' 'जय महायस' कह कर ‘शक्रस्तव' कहे। और 'अरिहत चे इयाणं इत्यादि सब पाठ पूर्वोक्त रीति से पढ़ कर काउ
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अभय रत्नसार। स्सग्ग आदि करके चार थइ का देव वन्दन करे। इस के पश्चात् एक एक खमासमण देकर श्राचार्य आदि को वन्दन करके 'इच्छकारि समस्त श्रवकोंको वंदू" कहे। फिर घुटने टेक कर सिर नवाँ कर 'सव्वस्स वि देवसिय' इत्यादि कहे। फिर खड़े हो कर 'करेमि भन्ते, इच्छामि ठामि काउसग्गं जो मे देवसिओ०, तस्स उत्तरी, अन्नत्थ कहकर काउस्सग्ग करे। इस में 'आजणा चौपहर दिवस में इत्यादि पाठ का चिन्तन करे। फिर काउस्सग्ग पारके प्रगट लोगस्स पढ़ कर प्रमाजनपूर्वक बैठ कर मुहपत्ति का पडिलेहन करके दो वन्दना दे। फिर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् दवसियं आलोएमि? कहे। गुरु जब 'आ-. लोएह' कहे तब 'इछ" कह कर 'आलोएमि जो मे दवसियो०' आज णा चौपहर दिवससम्बन्धी० सात लाख, अठारह पापस्थान' कह कर ‘सब्वस्स वि देवसिय, इच्छाकारेण संदिसह भगवन्' तक कहे। जब गुरु
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६१२ पूजा-संग्रह। 'पडिक्कमह' कहे तब 'इच्छ, मिच्छा मि दुकडे' कहे। फिर प्रमार्जनपूर्वक बैट कर 'भगवन् सूत्र भण?' कहे । गुरु के 'भणह' कहने पर 'इच्छं' कह कर तीन-तीन या एक-एक वार नमुकार तथा 'करेमि भंते' पढ़ । फिर 'इच्छामि पडिकमिउं जो मे देवसियो' कह कर 'बंदितु' सूत्र पढ़े । फिर दो वन्दना देकर 'अब्भुट्टि
ओमि अभिन्तर देवसियं खामे, इच्छं, जं किंचि अपत्तियं' कह कर फिर दो वन्दना देवे
और 'पायरिय उवज्झाए' कह कर 'करेमि भंते इच्छामि ठामि, तस्स उत्तरी' आदि कह कर दो लोगस्स अथवा आठ नमुक्कारका काउस्सग्ग करके प्रगट लोगस्सपढ़े। फिर सव्वलोए' कह कर एक लोगस्सका काउस्सग्ग करे और उसको पार कर 'पुक्खरबरदी०' सुअस्स भगवओ०' कह कर फिर एक लोगस्स का काउस्सग्ग करे। तत्पश्चात् 'सिद्धाणं बुद्धाणं, सुअदेवयाए.' कह कर एक नमुक्कार का काउस्सग्ग कर तथा श्रुतदेवता की
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अभय रत्नसार ।
६१३
स्तुति पढ़ कर 'खित्तदेवयाए करेमि ० ' कह कर एक नमुक्कार का काउस्सग्ग करके क्षेत्र देवता की स्तुति पढ़े | बाद खड़े हो कर एक नमुक्कार गिने और प्रमाजनपूर्वक बैठ कर मुहपत्ति पडिलेहन कर दो वन्दना देकर 'इच्छामो अण सट्ठि" कह कर बैठ जाय । फिर जब गुरु एक स्तुति पढ़ ले तब मस्तक पर अञ्जली रख कर 'नमोखमासमणाणं, नमोऽर्हत्सिद्धा०' कहे । बाद श्रावक 'नमोस्तुवर्धमानाय ० ' की तीन स्तुतियाँ और श्राविका 'संसारदावानल०' की तीन स्तुतियाँ पढ़े । फिह 'नमुत्थणं' कह कर खमासमरण पृवक 'इच्छा०' कह कर 'स्तवन भएँ ?' कहे | बाद गुरु के 'भगह' कहने पर आसन पर बैठ कर 'नमोऽर्हसिद्धा ० " पूर्वक बड़ा स्तवन बोले। पीछे एक-एक खमासमण दे कर अचार्य, उपाध्याय तथा सर्व साधु को वन्दन करे | फिर खमासमण पूर्वक इच्छा ०' कह कर 'देवसियपायच्छित्तविसुद्धिनिमित्तं काउस्सग्ग करूँ ?
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पूजा-संग्रह। कहे। फिर गुरु के 'करेह' कहने के बाद 'इच्छे कह कर 'देवसिअपायच्छित्तविसुद्धनिमित्वं करेमि काउस्सगं, अन्नत्थः' कह कर चार लोगस्स का काउस्सग्ग करके प्रगट लोगस्स पढ़े। फिर खमासमण-पूर्वक 'इच्छा' कह कर ‘खुद्दोवद्दवउड्डावणनिमित्तं काउस्सग्ग करेमि, अन्नस्थ०' कह कर चार लोग का काउस्सग्ग करके प्रगट लोगस्स पढ़े। फिर खमासमण-पर्वक स्तम्भन पार्श्वनाथ का 'जय वीयराय' तक चैत-वन्दन करके सिरिथंभणयट्टियपाससामिणो' इत्यादि दो गाथाएँ पढ़ कर खड़े हो कर वन्दन तथा 'अन्नथ' कह कर चार लोगस्स का काउस्सग्ग करके प्रगट लोगस्स पढ़े । . इस तरह दादा जिनदत्त सूरि तथा दादा जिनकुशल सूरि का अलग-अलग काउस्सग्ग करके प्रगट लोगस्स पढ़े । इस के बाद लघुशान्ति पढ़े । अगर लघु शान्ति न आतीहो तो सोलह नमुकार का काउस्सग्ग करके तीन खमा
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अभय-रत्नसार।
समण-पूर्वक 'चउक्कसाय.' का 'जय वीयराय.' तक चेत्य-वन्दन करे। फिर 'सर्वमंगल.' कह कर पूर्वोक्त रीतिसे सामायिक करे।
पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक-प्रतिक्रमणकी वीधि * । ___ 'वदित्तु' सूत्र पर्यंत तो दैवसिक-प्रतिक्रमण की विधिकरे। बाद खमासमण दे कर 'देवसिय पडिक्कंता, इच्छाकारेण संदिसह भगवन् पक्खि य मुहपत्ति पडिलेहुँ ?' कहे। बाद गुरु के 'पडिलेहेह' कहने पर 'इच्छ कह कर खमासमण पूर्वक मुहपत्ति पहिलेहन करे और दा वन्दना दे। बाद जब गुरू कहे कि 'पुगणवन्तो 'देव सिय की जगह 'पक्खिय, 'चउमासिय या 'सं वच्छरिय पढ़ना, छींक की जयणा करना, मधुर स्वर से प्रतिक्रमण करना, खाँसना हा तो विवर शुद्ध खाँसना और मण्डल में सावधान रहना,
देवसिक-प्रतिक्रमणमें जहाँ-जहाँ 'देवसियं' बोला जाता है, वहाँ-वहाँ पाक्षिक-प्रतिक्रमणमें 'पक्खिय' चातुर्मासिकमें 'चउमासिय' और सांवत्सरिकमें 'संवच्छरिय' बोलना चाहिये।
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६१६
पूजा - संग्रह |
तब तहत कहे । पीछे खड़ े हो कर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् संबुद्धा खामणेां अब्भुमिमि अभितर पक्खियं खामेउ ? कह । गुरु के 'खामेह' कहने पर 'इच्छ', खामेमि पक्खि यं' कहे और घुटने टेक कर यथाविधि पाक्षिक प्रतिक्रमणमें 'पनरसरहं दिवसागणं' 'पनर सरहं राई जं किंचि०' चातुर्मासिक-प्रतिक्रमणमें 'चउराहं मासा अठराहं पक्खाणं वीसोत्तरसयं राईदियाणं जं किंचि० और सांवत्सरिक प्रतिक्रमणमें 'दुवाल सरहं मासाणं चउवीसरहं पक्खाणं तिन्निसयसट्ठि राइंद्रियाणं जं किंचि ० ' कहे । गुरु जब 'मिच्छामि दुक्कडं दे, तब अगर दो साधु उचरते होंतो पाक्षिकमें तीन, चातुर्मासिकमें पाँच और सांवत्सरिक में सात साधुओं को खमावे । बाद खड़ े हो कर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् पक्खियं आलोउँ ? कह । गुरुके 'आलोह' कह १. ने पर 'इच्छ', आलोएमि जोमे पक्खिन अइयारो को० पढ़ और बड़ा अतिचार बोले ।
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अभय रत्नसार ।
६१७
पीछे 'सव्वस विपक्खिय'को 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् तक कह । गुरु जब पाक्षिक, चातुर्मासिक या सांवत्सरिक में अनुक्रमसे 'चउत्थे, छट्टा, अमेण पडिक मह' कहे, तब 'इच्छ', मिच्छामि दुक्कड' कहे। बाद दो वन्दना दे। पीछे इच्छाकारेण संदिसह भगवन् देवसियं आलोइय पडिक्कंता पत्तेय खामणेणं, अभुट्टियम अभितर पक्खियं खामेउँ ? कहे । गुरु के 'खामेह कहने के बाद 'इच्छ', खामेमि पक्खियं जं किं चि०' पाठ पढ़ े और दो वन्दना दे । पोछे 'भगवन् देवसियं आलोइय पडिक्कंता पक्खियं पडिक्कमावेह' कहे। गुरु जब 'सम्म पक्कि मेह' कहे, तब 'इच्छ', करेमि भरते सामाइयं, इच्छामि ठामि काउस्सग्गं, जो मे पक्खियो, तस्स उत्तरी, अन्नथ' कह कर काउस्सग्ग करे और 'पक्खि सूत्र' सुने ।
गुरुसे अलग प्रतिक्रमण किया जाता हो तो एक आवक खमासमण पूर्वक 'सूत्र भएँ
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६१८
पूजा-संग्रह |
कह कर "इच्छा" कहे और अर्थ चिन्तन पूर्वक मधुर स्वरसे तीन नमुक्कार पूर्वक ' वंदितु सूत्र' पढ़ और बाकी सब श्रावक 'करेमि भते, इच्छामि ठामि, तस्स उत्तरी, अन्नत्थ' पूर्वक काउस्सग्ग करके उसको सुने' । 'वंदित्तु' सूत्र पूर्ण हो जाने के बाद 'नमो अरिहंताण" कहकर काउस्सग्ग पारे और खड़ े हो खड़े तीन नमुक्कार गिन कर बैठ जाय । बाद तीन नमुक्कार, तीन 'करेमि भंते पढ़ कर 'इच्छामि ठामि पडिक्कमिउं जो मे पक्खियो०' कहके 'वंदितु सूत्र' पढ़े | बाद खमासमण पूर्वक इच्छाकारेण संदिसह भगवन् 'मूलगुण- उत्तरगुणविशुद्धि- निमित्तं काउस्सग्ग' करू ?' कहे । गुरु जब 'करेह कहे, तब 'इच्छ" करेमि भंते, इच्छामि ठामि तस्स उत्तरी, अन्नत्थ कह कर पाक्षिकमें बारह, चातुर्मासिकमें बीस और सांवत्सरिकमें चालीस लोगस्सका काउस्सग्ग करे । फिर नमु
कार- पूर्वक काउस्सग्ग पारके लोगस्स पढ़ े और बैठ जाय । पीछे मुहपत्ति पडिलेहन करके
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अभय-रत्नसार ।
६१६
दो वन्दना दे और 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् समाप्ति खामणेणं अभुमि अभि तर पक्खियं खाउँ ? कहे। गुरु जब 'खामेह' कहे तब 'इच्छं' खामेमि पखियं जं किंचि कहे । बाद 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् पक खिय खामा खामु ?' कह और गुरु जब 'पुराणवतो' तथा चार खमासमण - पूर्वक तीन नमुक कार गिन कर 'पक खिय- समाप्ति खामणा खामेह' कह, तब एक खमासमरण - पूर्वक तीन नमुक्कार पढ़ े, इसतरह चार बार करे । गुरु के 'नित्थारगपारगा होह' कहने के बाद 'इच्छ', इच्छामो
सं"ि कह े । इसके बाद गुरु जब कहे कि 'पुराणवतो पक्खियके निमित्त एक उपवास, दो आयंबिल, तीन निवि, चार एकासना, दो हजार सज्झाय करी एक उपवासकी पेठ पूरना और 'पक्खिय' के स्थान में 'देवसिय, कहना,
* चउमासियमें इससे दूना अर्थात् दो उपवास, चार आयंबिल छह निवि, आठ एकासन्न और चार हजार सज्झाय । सबच्छरिय में
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६२०
पूजा-संग्रह। तब जिन्होंने तप कर लिया हा वे 'पइट्टिय' कहें
और जिन्होंने तप न किया हो वे 'तहत्ति' कहें । पीछे दो वन्दना दे कर 'अब्भुट्टिओमि अभिंतर देवसियं खाम ?' पढ़ । बाद दो वन्दना देकर 'आयरिय उवज्झाए' पढ़े। ___ इसके आगे सब विधि दैवसिक-प्रतिक्रमण की तरह है। सिर्फ इतना विशेष है कि पाक्षिक आदि प्रतिक्रमणमें श्रुतदेवतो, क्षेत्रदेवताके आरधनके निमित्त अलग अलग तीन बार काउस्सग्ग करे और प्रत्येक काउस्सग्गको पार कर अनुक्रमसे 'कमलदल०, ज्ञानादिगुणयुतानां. और यस्याः क्षेत्रं.' स्तुतियाँ पढ़े। इसके अनन्तर बड़ास्तवन 'अजितशान्ति' और छोटा स्तवन उवसग्गहरं०' पढ़े । तथा प्रतिक्रमण पूर्ण होनेके बाद गुरुसे आज्ञा ले कर 'नमोऽहत्' पढ़े। फिर एक श्रावक बड़ी 'शान्ति' उससे तिगुना अर्थात् तीन उपवास, छह आयंबिल, नौ निवि, बारह एकासना और छह हजार सज्झाया ऐसा कहते हैं ।
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अभय रत्तसार। ६२१ पढ़ और बाकोके सब सुनें। जिन्होंने रात्रिपौषध न किया हो, वे पौषध और सामायिक पार करके 'शान्ति' सुनें। तपस्या-स्तवन और विधिये ।
॥ पखवासा-तपका स्तवन ॥ सीमंधर करजो मया-ए देशी ॥ जंबुद्वीप सोहामणो, दक्षिणभरत उदार । राजग्रही नगरी भली, अलिकापुर अवतार ॥१॥ श्रीमुनिसुव्रत स्वामिजी, समरंता सुख थाय।मनवंछित फल पामियै, दोहग दूर पुलाय॥ श्री० २ ॥राज करै तिहां राजियो, सुमित्र नरेसर नाम । पटराणी पद्मावती, शीलगुणें अभिराम ॥ श्री० ३॥ श्रावण उज्वल पूनमें, श्रीजिनवर हरिवंश ।माताकुक्षि सरोवर, अवतरियो राय हंस ॥श्री० ४॥ जेठ पढम पक्ष अटुमी, जायो श्रीजिनराज । जन्ममहोच्छव सुर करे, त्रिभुवन हरख न माय॥ श्री० ५ ॥ शामल वरण सोहामणो, निरूपम रूप निधान । जिनवर लंछन काछबो, वीस धनुष
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६२२
पूजा-संग्रह। तनु मान ॥ श्री० ६ ॥ परणी नार प्रभावती, भोग पुरंदर साम । राजलीला सुख भोगवै, पूरै वंछित काम ॥श्री० ७॥ तब लोकांतिक देवता, आवि जपै जयकार । प्रभु फागुण वदि बारसै, लीधो संजम भार ॥श्री० ८॥शुभ फागुण बदि बारसै, मनधर निरमल ध्यान। च्यार करम प्रभु चूरिया, पाम्यो केवलज्ञान ॥श्री० ६॥
ढाल २॥ सुख कारण भवियण-ए देशी॥ ततखिण तिहां मिलिया चलिया सुरनर कोडि, प्रभुना पदपंकज प्रणमैं बे कर जोडि ॥ बे कर जोडि मच्छर छोडी समवसरण विरतंत, माणक हेम रूपमय त्रिगडो छत्रत्रय झलकंत ॥ सिंहासण बैठा तिहां स्वामी चोविह धर्म प्रकास, बारै परखदा बैठी आगलि सुणै मन उल्हासै ॥ १०॥ तपने अधिकारै पखवासो तप सार, पडवाथी कीजै पनरह तिथी ऊदार ॥ पनरह तिथी कीजै गुरु मुख लीजै जिस दिन हुवै उपशम, श्रीमु. निसुव्रत नाम जपीजै वांदी देव उल्लास ॥ तप
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अभय-रत्तसार। ६२३ ऊजमणे रजत पालणो सोवन पूतली चंग, मोदक थाल देहरै मूंकी जिनवर स्नात्र सुरंग ॥ ११ ॥ तप करियै निरंतर अहुरव दर्शनी जेम, मनवंछित केरा सुख पामीजै तेम ॥ पुत्र मित्र परिवार परं अति वल्लभ भरतार, जस कीरत सोभाग वडाई महियल महिमा जाण ॥ परभव मुगति फल लहिये, ए तपने प्रमाण ॥ १२॥ थिर थापी चतुर्विध संघतणो अधिकार, भरुवछ प्रमुख नगरादिक करिया विहार ॥ विहार करी प्रतिबोधे खंदक पंच सयां परिवार, कार्तिकसेठ जितशत्रु तुरंगम सुव्रत नाम कुमार ॥ तीस सहस वरस आऊखो पालै जग दया सार, श्रीस. म्मेतशिखर परमेसर पुहता मुगति मझार ॥१३॥ इम पंच कल्याणक थुणिया त्रिभुवन ताय, मुनिसुव्रतस्वामी वीसमोजिनवर राय ॥ वीसमो जि. नवर राय जगतगुरु भयभजण भगवंत, निराकार निरंजन निरूपम अजरामर अरिहंत ॥ श्रीजिनचन्द विनय शिरोमणि सकलचन्द गणि सीस,
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विधि-संग्रह। वाचक समयसुंदर इम पभणे पूरो मनह जगीस ॥ १४॥
पखवासा-तपकी विधि । पहले शुभ दिन गुरुके पास जा करके शुक्ल प्रतिपदासे पूणिमा तक निरन्तर १५ पनरह उपवास करे । यदि शक्ति न होतो पहले शुक्लपक्षकी एकम और दूसरे शुक्लपक्षको दूजका उपवास करे, इस तरह अनुक्रमसे पनरह शुक्लपक्षमें तपस्या पूर्ण करे और श्रीमुनिसुव्रत स्वामीका भावगर्भित स्तवन पढ । यदि गुरुका संयोग होतो गुरूके पास जाकर श्रवण करे। "श्रीमुनिसुव्रतस्वामो सर्वज्ञायनमः” इस पदको २००० बार गुणना करे। इसके बाद तपग्रहण विधि तथा देववंदनादिककी विधिके अनुसार विवेकी पुरुष सारी तपस्याकी विधि पूर्ण करे। संयुक्त विधि करनेसे उत्तम फलको प्राप्ती होती है।
दश पच्चस्काण-तपका स्तवन । ॥ दहा ॥ सिद्धारथ नंदन नम, महावीर
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अभय रत्नसार । ६२५ भगवंत । त्रिगडै बैठा जिनवरू, परषद बार मिलंत ॥ १॥ गणधर गौतम तिणसमे,पूछ श्री जिनराय। दश पञ्चरखाण किसा कह्या, कोयां कवण फल थाय ॥२॥
ढाल १ ॥ सीमंधर करज्यो—ए देशी ! श्रोजिनवर इम उपदिस, सांभल गोमय ताम । दस पञ्चक्खाण कियां थकां, लहिये अविचल ठाम ॥ श्री० ३॥ नवकारसी बीजी पोरसी २, साढपोरसी-पुरिमड्ढ ४ । एकासण-नीवी कही ६, एकलठाण देवढि ॥ श्री०४॥ दात ८ आंबिल : उपवास १० ही, एहिज दस पच्चक्खाण । एहना फल सुण गोयमा, जूजवा करू वखाण ॥ श्री० ५॥ रतनप्रभा १ सकरप्रभा २, वालुक तीजी जाण । पंकप्रभा ४ तिम धूमप्रभा ५ तमप्रभा ६ तमतम ७ ठाम ॥ श्री० ६ ॥ नरक सात कही ए सही, करम कठिन करजोर। जीव करम वस ते सही, ऊपजै तिणहीज ठोर ॥ श्री० ७॥ छेदन भेदन ताडना,
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६२६
पूजा - संग्रह |
1
भूख तृषा वलि त्रास | रोम २ पीडा करै, परमाह म्मी तास ॥ श्री० ८ || रात दिवस क्षेत्रदेवता, तिल भर नहीं जिहां सुख ॥ किया करम जे भोगवे, पामे जीव बहु दुःख ॥ श्री० ६ ॥ इक दिनरी नवकारसी, जे करै भाव विशुद्ध । सो वरस नरकनो आउखो, दूर करै ज्ञानबुद्धि ॥ श्री ॥ १० ॥ नित्य करें नवकारसी, ते नर नरक न जाय । न रहै पाप वलि पावला, निरमल होवे जी काय ॥ श्री० ११ ॥
ढाल २ ॥ श्रीविमलाचल सिर तिलो―ए चाल । सुण गौतम पोरसी कियां, महा मोटो फल होय । भावसुं जे पोरसी करै, दुरगति छ सोय ॥ सु० १२ ॥ नरक मांहि जे नारकी, वरसें एक हजार । करम खपावै नरकमें, करता बहुत पुकार ॥ सु० १३ ॥ एक दिवसनी पोरसी, जीव करै इकतार । करम हों सहस एकना, निचैसुं गणधार ॥ सु० १४॥ दुरगति मांहे नारकी, दस हजार प्रमाण । नरक
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अभय रत्नसार। ६२७ आयु खिण एकमें, साढपोरसो करै हाण ॥ सु० १५ ॥ पुरिमड्ढ करै नित जीव जे, नरके ते नवि जाय । लाख वरस करमनें दहै, पुरिमड्ढ करम खपाय ॥सु० १६॥ लाख वरस दस नारकी, पामें दुःख अनंत । इतरा करम एकासणें, दूर करै मन खंत ॥ सु. १७॥ एक कोडि वरसां लगै, करम खपावै जीव । नीवीय करतां भावसं, दुरगति हणे सदीव ॥ सु. १८॥ दस कोडि जीव नरकमें, जितरो करै करम दूर । तीतरो एकलठाणही, करै सही चकचूर ॥ सु० १६ ॥ दात करता प्राणियो, सो कोडी परिमाण। इतरा वरस दुरगति तणा, छदै चतुरसुजाण ॥ सु० २० ॥ आंबिलनो फल बहु कह्यो, कोडो एक हजार । करम खपाव इण परै, भाव बिल अधिकार ॥ सु० २१॥ कोडि सहस दस वरसही, सहे दुःख नरक मझार। उपवास करै इक भावसं. तो पामे मुगति मझार ॥सु०॥२२॥॥
ढाल ३॥ केकइ वर लाधो-ए देशी॥ लाख कोडि वरसां लगे, नरके करता रीव रे ।
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६२८
पूजा-संग्रह। गौतम गणधारी अट्ठम तप करतां थकां, सही नरक निवारे जीव रे ॥ गो० २३ ॥ नरके वरस कोडि लाखही, जीव लहै तिहां दुस्करे । ते दुःख अट्ठम तपहुंती, दूर करी पामे सुख रे ॥ गो० २४ च्छेदन भेदन नारकी, कोडाकोडि वरसोइ रे। कुगति कुमतिने परिहरो, दसमें एतो फल होइ रे॥ गो० २५ ॥ नित फासू जल पीवतां, कोडा कोडि वरसनो पाप रे। दूर करै खिण एकमें, निश्चै होय निः पाप रे ॥ गो० २६ ॥ वलिय विशेषे फल कह्यो, पांचम करै उपवास रे॥ पामे ग्यान पांचे भला, करता त्रिभवन परकास रे॥ गो० २७॥ चवदस तप विधिसं करै, चवदह पूरख होय धार रे। इम अनेक फल तपतणा, कहतां वलि नावै पार रे॥गो ० २८॥ मन वचने काया करी, तप करें जे नर नार रे ॥ इग्यारे वरस एकादशी, करतां लहै भव पार रे ॥ गो० २६ आठम तप आराधतां, जीव न फिरै संसार रे॥ अनंत भवना पापथा, छुटै, जीव निरधार रे॥
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अभय - रत्नसार ।
६२६
गो ३०॥ तपहुंती पापी तस्था, निसतरियो अरजुनमाल रे । तपहुंती दिन एकमें, शिव पाम्यो गजसुकमाल रे || गो० ३१ ॥ तपना फल सूत्रे कह्या, पच्चक्खाणतणा दस भेद रे । अवर भेद पिण घणा करतां छदे त्रय वेद रे || गो० ३२ ॥
॥
,
( कलशः) ॥ पच्चक्खाण दस विध फल प्ररुप्या महावीर जिणदेव ए, जे करै भविण तप अखंडित तासु सुर पय सेव ए। संवत निधि गुण अश्व शशि वलि पोस सुदि दशमी दिने, पदमरंग वाचक शीस गणिवर रामचन्द्र तपविधि भरणे ॥ ३३ ॥ इति दस पच्चक्खाण वृद्ध स्तवनम् ॥
दश पच्चक्खाण तप विधि |
महावीर स्वामी के उपदेशासार शास्त्र कारोंने जिसतरह अन्यान्य तपस्याओंके करनेका फल समझाया है, उसी तरह दश पच्चक्खाण तपके महात्म्यका फलभी बतलाया है । अतएव धर्मानुरागी श्रावक और श्राविकाओंके लिये यह तप करनाभी लाभदायक है । जो सज्जन “दश पच्च
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पूजा-संग्रह।
क्खाण" का तप करना चाहें, वे पहले दिन नवकारसी, दुसरे दिन पोरसी, इस तरह क्रमशः स्तवन में बतलाये अनुसार दस दिन तक दसों पञ्चक्खाण करें । साथही स्तवनको भी पढ़ें या श्रवण करें । और दस दिन पूरे हो जानेपर अपनी शक्तिके अनुसार उजमणा करवावें। इस तपस्या करने वालेको दुर्गतिका नाश होकर उत्तम गतीकी प्राप्ती होती है। महान ऐश्वर्य शाली और भाग्यवान होता है।
वीश स्थानक-त्पका स्तवन । श्रो सिद्धाचल भेटिय-ए देशी ॥ वीस थानक तप सेविय, धर कर शुभ परिणाम लाल रे। तीजै भव सेव्यो थको, बांधे तीर्थंकर नाम लाल रे ॥वी० १॥ तप रचना अधिकी कही, ज्ञाताअंग मझार लालरे। सुणजो भवि तुमे भावसु, चित्तसें करिय उच्चार लाल रे ॥वी० २॥ सुविहित गुरु पासे ग्रहै, वीस थानक तप एह लाल रे। निरदूषण शुभ महुरते, उचरीजै सस
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अभय रनसार।
नेह लाल रे॥वो० ३॥ अरिहंत १ सिद्ध २ प्रव. चन नमं ३, सूरि ४ थिवर ५ उवझाय ६ लाल रे। साधु ७ नाण ८ दसण अरु, विनय १० नमं उलसाय लाल रे॥ वी०४॥ चारित्र ११ बंभ १२ क्रियापदे १३, तप १४ गोयम १५ जिण १६ इस लाल रे। चारित्र १७ ज्ञानने १८ श्रुत भणी २६, नम तीथे २० पद वीश लाल रे॥ वी० ५॥ वीस दिवसमें ए कहो, पद गुणनो कर मेव लाल रे । अथवा दिन विसा लगे, वीसे पद गुण मेव लाल रे॥वी०६॥ एक ओली षट मास में, पूरी जो नवि होय लाल रे। केर नवी करणी पड़े, पिछली निष्फल जोय लाल रे॥ वी० ७॥ छठ अट्टम उपवाससं, अथवा देखी शक्ति लाल रे। पोसह कर आराधिय, देव वांद निज भक्ति लाल रे ॥ वो०८॥ संपूरणपद सेवतां, पोसहनो नहि जोग लाल रे। तोही सात पदै सही, पोसह करियै संजोग लाल रे ॥वी०६॥ सूरी थिवर पाठक पदै, साधु चारित्र सुजाण
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६३२ पूजा-संग्रह। लालरे। गौतम तीर्थपदे सही, सात थानक मन मान लाल रे ॥ वी० १०॥ पद २ दिठ करै सदा, दोय २ जाप हजार लालरे। पडिकमणो दोय टंकही, करिये पूजा सार लाल रे। शक्ति मुजब तप कीजिय, एक अोली करो वीस लालरे। वीसावीसी च्यारसै, तप संख्या कही एम लाल रे॥ वी० १२॥ जिस दिन जो पद तप करै, तिसके गुण चित्त धार लाल रे । काउसग्गने पर दक्षणा, मुख भणिये नवकार लाल रे ५ वी० १३॥ जिस पदकी स्तवना सुणै, कीजै जिनपद भक्ति लाल रे। पूजन शुभ मन साचवै, दिन २ बढ़ती शक्ति लाल रे ॥ वी० १४ ॥ मृतक जनम ऋतु कालमें, कवि धारयो उपवास लाल रे। सो लेखे नहि लेखवो, निकेवल तप जास लाल रे ॥ वी० १५ ॥ सावज त्यागपणो करै, शोक न धारे चित्त लाल रे । शील आभषण आदरै, मुखसं बाले सत्य लाल रे॥ वी० १६ ॥ जेठ आसाढ़ वैशाखमें, मिगसर फागुण माहे लाल रे । ए षट्
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अभय-रलसार।
६३३
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मासे मांहिने, व्रत ग्रहिये वड़भाग लाल रे ॥ वी० १७॥ तप पूरण हुवां थकां, उजमणो निरधार लाल रे । कीजै शक्ति विचारीने, उच्छव विविध प्रकार लाल रेवी०१८॥ वीस-वीस गिणती तणा, पुस्तक पूठा आदि लाल रे। ग्यानतणी पूजा करै, मुंकीजै हठवाद लाल रे ॥वी० १६ ॥ फलवधी नगरनी श्राविका, कीधी विध चित लाय लालरे । जनम सफल करवा भणी, ओहिज मोक्ष उपाय लाल रे ॥ वी० २०॥ __कलश ॥ इम वीर जिनवरतणी आज्ञा धार चित्त मझार ए, सह देख आगमतणी रचना रची तप विध सार ए॥ वसुनंद सिद्धि चंद्र वरसै चैत्र मास सुहंकरू, मुनि केशरी शशि गच्छ खरतर भणो स्तवना मनहरू ॥ २१ ॥ इति ॥
वीस स्थानक-तप की विधि। यह तपस्या आराधन करनेके पहले शुभ दिन और शुभ मुहूर्तके समय नन्दी स्थापन करके सुविहित गुरुके पास विधि-पूर्वक. वीस स्थानक
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विधि-संग्रह। तपकी ओली उच्चरे । एक ओली दो माससे छह मास पर्यंत पूरी करे । यदि छह मासको अवधिमें एक ओली पूरी न कर पाये तो वह ओलो फिरसे करनी पड़ती है; यानि तपस्वीने जो व्रत-पच्चक्वाण कर लिये हैं, वह उस ओलीको संख्यामें नहीं लिये जाते; अर्थात् ओलीको तपस्या फिरसे आरंभ करनी पड़ती है। ___एक ओलीके वीस पद होते हैं, उन वीसों पदोंकी क्रमशः अराधना करनी पड़ती है। इस लिये जो तपस्वी शक्ति-सम्पन्न होता है, वह तो वीस दिनमें वीसों पदोंकी अराधना कर डालता है। और जो शक्ति-सम्पन्न नहीं होता है, वह वोस दिनमें केवल एक पदकी अराधना करता है, इस तरह क्रमशः बीस-वीस दिनमें एक-एक पदकी अराधना करके वीसों ओलीकी तपस्या पूरी करता है।
शास्त्रकारका कथन है, कि पदाराधन करने के दिन यदि शक्ति होतो अट्टम व्रत करके तपा
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अभय रत्नसार । राधन आरंभ करे । क्रमशः वीस अट्टम-व्रत कर लेनेपर एक ओली पूरी होती है। इस तरह ४०० चार सौ अट्टम व्रत हो जानेसे वीस ओलीकी
आराधना पूरी हो जायगी। यदि तपस्वीमें अट्रम व्रतसे आराधन करनेकी शक्ति न होतो छ?-वत करके आरंभ करे । छटसे होनेकी शक्ति न हो तो उपवास द्वारा करे। उपवाससे भी करनेकी शक्ति न हो तो आयंबिल या एकासण द्वारा ही तपाराधन करना आरंभ करे। उस समय शक्ति हो तो अष्टप्रहरी पौषध करे, यदि अष्टप्रहरी पौषध करनेकी शक्ति न हो तो देवसिक-पौषध करे। जहां तक हो सके समस्त पदोंकी अराधना पौषध-पूर्वक करे । यदि सभी पदाराधनमें पौषध न कर सके तो आचार्य, उपाध्याय, थिवर, साधु, चारित्र, गौतम और तीर्थ इन सात पदोंके अराधनके समय अवश्य हो पौषधव्रत करे । फिर भी पौषध करनेकी शक्ति न हो तो देशावगासी-व्रत करे। इसके करनेकी भी शक्ति न हो तो यथा
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६३६ विधि-संग्रह। शक्ति जो व्रत हो सके वही करे, और सावध व्यापारका त्याग करे।
तपस्वीको यहाँपर इस बातका खयाल रखना चाहिये कि जन्म-मरणादिकके सूतकके समयकी तपस्यायें ओलीकी संख्यामें नहीं ली जातीं, इसलिये किसी तरहके सुतकके समय कोई तपस्या को हो तो उसे ओलीकी संख्यामें न लेवे, स्त्रियोंके लिये ऋतु कालकी तपस्या भी वर्जनीय है, अतः स्त्रियोंको इस बातका खयाल जरूर रखना चाहिये। ____ तपस्या करते समय ऊपर कहे अनुसार पौषध आदि कोई भी धार्मिक क्रिया करनेका कहा है; पर उनमेंसे कोई भी क्रिया न हो सके तो तपस्याके दिन दो बार प्रतिक्रमण करे,
और तीन बार देव-वन्दन क्रिया करे । समस्त तपस्यायें करते समय ब्रम्हचर्यका सेवन रखे। जमीन पर सोवे। तपस्याराधन करके किसी तरहका सावध व्यापार न करे। असत्य-झट न
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अभय रत्नसार। ६३७ बोले । सारा दिन तपस्याकी गुणावलोके वर्णनमें व्यतीत कर । पारण करनेके दिन देव-दर्शनपूजन करके यति-मुनिको अहार दे कर बाद पारण कर। ___ अन्तमें किसी तरहको धार्मिक क्रिया न कर सके तो देव-पूजन, अंग-रचना करवा कर मन्दिरमें गाना-बजाना करे । और शुभ भावना भावे । तपस्याके पदके अनुसार गुण-भेद संख्या-प्रमापासे काउसम्ग करे । तपस्याके गुणोंको स्मरण कर उतने ही खमासमण दे कर वन्दना करे। बाद तपस्याके गुणोंकी उदात्त स्वरसे स्तवना करें, और प्रसन्न-चित्त रहे। ___वीस स्थानक-गुणना और काउसग्ग प्रमाण ।
(१) “मो अरिहंताणं” इस पदकी २० वीस माला गिन कर १२ बारह लोगस्सका काउसग्ग करे। (२) “णमो सिद्धाणं” इस पदकी वीस माला गिन कर १५ पनरह लोगस्सका काउसग्ग करे। (३) "णमो पवय
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विधि-संग्रह। णस्स" इस पदकी वीस माला गिन कर ७ सात लोगस्सका काउसग्ग करे। (४) "णमो आयरियाणं” इस पदकी वीस माला गिन कर ३६ छत्तीस लोगस्सका काउसग्ग करे। (५) "णमो थेराणं" इस पदकी वीस माला गिन कर १५ पनरह लोगस्सका काउसग्ग करे। (६) "णमो उवज्झायाणं" इस पदकी वीस माला गिनकर २५ पच्चीस लोगस्सका काउसग्ग करे। (७) "णमो लोए सच साहूणं'' इस पदकी वीस माला गिनकर २७ सत्ताईस लोगस्सका काउसम्ग करे। (८) "णमो नाणस्स' इस पदको वीस माला गिनकर ५ पाँच लोगस्सका काउसग्ग करे। ( 6 ) “णमो दंसणस्स” इस पदकी वीस माला गिन कर १७ सतरह लोगस्सका काउसग्ग करे, (१०) “णमो विणयसंपण्णाणं” इस पदकी वीस माला गिनकर १० दस लोगस्सका काउसग्ग करे। (११) “णमो चारित्तस” इस पदकी
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अभय-रत्नसार।
६३६ वीस माला गिनकर ६ छह लोगस्सका काउसग्ग करे। (१२) “णमो बंभवय धारीणं" इस पदको वीस माला गिनकर ६ नौ लोगस्सका काउसग्ग करे, (१३) “मो किरिआणं" इस पदको वोस माला गिनकर २५ पच्चीस लोगस्लका काउसग्ग करे । (१४) “णमो तबस्सीणं" इस पदकी वीस माला गिनकर १५ पनरह लोगस्सका काउसम्ग करे, (१५) "गामो गोयमस्स” इस पदकी वीस माला गिनकर १७ सतरह लोगस्सका काउसग्ग करे । (१६) "णमो जिणाणं” इस पदको वोस माला गिनकर १० दस लोगस्सका काउसग्ग करे। (१७) "णमो चरणस्स” इस पदको वीस माला गिनकर १२ बारह लोगस्सका काउसग्ग करे । (१८) “णमो नाणस्स” इस पदकी वीस माला गिनकर ५ पाँच लोगस्सका काउसम्ग करे। (१६) "गामो सुभ नोणस्स" इस पदकी वीस माला गिनकर १० दस लोगस्सका काउसग्ग करे।
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विधि-संग्रह।
(२०.) “णमोतित्त्थस्स” इस पदकी वीस माला गिनकर ५ पाँच लोगस्सका काउसग्ग करे। ___ इस प्रकार गुणना गिन कर विधि-पूर्वक वीसों
ओलीये सम्पूण करे। यदि शक्ति-सम्पन्न हो तो वीसों ओलोयोंका उत्सव धूम-धाम पूर्वक करे। यदि समस्त ओलोयोंका न कर सके तो जिन शासनकी उन्नतिके लिये एक अोलीका उत्सव तो अवश्य ही धूम-धामके साथ करे । इस जगह संक्षिप्त रूपसे यह विधि लिखि गयी है, इस लिये गुरुका संयोग हो तोवीसों पदोंकी सुविस्तृत विधि गुरु मुखसे समझ कर करे । यदि गुरुका संयोग न हो तो विवेकी पुरुष इसी विधिके अनुसार समझ कर अोलीकी अराधना करे। तपस्या करते समय वीस स्थानकका स्तवन जो इस विधिके ऊपर दिया है, उसे पढ़ या किसोसे श्रवण करे। अनन्तर मन्दिरमें वीस स्थानककी पूजा पढ़ावे । अपनी शक्तिके अनुसार वीस-वीस ज्ञानोपकरण बनवावे। देव-पदका देवमें, ज्ञान-पदका ज्ञानमें
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अभय रत्नसार।
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और गुरु-पदका गुरुमें खर्च करे । तपस्या पूर्ण हो जाने पर समस्त तीर्थों की यात्रा कर आये। यदि उतनी शक्ति न हो तो एक-दो तीथों की यात्रा तो अवश्यही करे । इस प्रकार विधि-पूक्क जो भव्यात्मा वीस स्थानक तप ओलीकी अराधना करेगा, वह जिननाम कर्मोंको उपार्जन कर तीसरे. भवमें अक्षय-सुखको लाभ करेगा ।
॥ रोहिणी-तप का स्तवन ।। शासन देवत सामणी ए मुझ सानिध कोजै, भुलो अक्षर भगति भणी समझाई दीजै॥ मोटो तप रोहण तणो ए जिणरा गुण गाउँ, जिम सुख सोहग संपदा ए वंछित फल पाउं॥ १॥ दक्षिण भरते अंगदेस छै चंपानयरी, मघवा राजा राज्य करै तिण जीता वयरी ॥ पाटतणी राणी रूवडी ए लखमी इण नाम, आठ पूत्र . * हमने यह विधि रत्न समुच्चय नामक ग्रन्थके आधार पर लिखि है । इसे दो-तीन भाषाको पुस्तकोंसे भी मिलाया; पर सभीमें एकसी भाषा और एकसा ही क्रम देखा गया, इसलिये हम इसे सुविस्तृत रूपसे नहीं लिख सके।
सम्पादक।
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विधि-संग्रह। जाया जिणे ए मनमें सुख पामे ॥ २॥ रोहिणी नामे कन्यका ए सबकं सुखकारी, आठों पत्रां ऊपरां ए तिण लागै प्यारी ॥ वाध चंद्रतणी कला ए जिम पख ऊजवाले, तिम ते कुमरीधाय माय पांच प्रतिपालै ॥३॥ कुमरी रूपे रूवडी ए घर अंगण बैठी, दोठी राजा खेलती ए तिण चिन्ता पैठो ॥ तीन भुवन विच एहवी ए नही दूजी नारी, रंभा पउमा गवर गंग इण आगल हारी॥४॥ पुरुष न दीस कोइ इसो जिगने परगाउं, आंख्या आगल साल वध तिण चयन न पाउ॥ देश-देश ना राजवी ए ततखिण तेडाया, सबल सजाई साथ करी नरपति पिण आया। ५॥ वीतशोक राजातणो ए छै कुमर सोभागी, कन्याकेरी आंखडो ए तिणसेती लागी॥ ऊभा देखै सकल लोक चढिया केइ पाला, चित्रसेनरे कंठ ठवी कुमरी वरमाला ॥६॥ देव अनै दे. वांगना ए जप जैजैकार, रलियायत थयो देखने ए सारो संसार ॥ कर जोडो कहै लोक वखत
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अभय रत्तसार ।
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कन्यारो जाडो, वीतशोकनो कुमर थयो सिर
भलो ए
ऊपर लाडो ॥ ७ ॥ इम विवाह थयो दीया दान अपार, घर आया परणी करी ए हरख्यो परिवार ॥ वीतशोक निज पूत्र भणी अपणो पाट दीधो, आपण संजम दरी ए
जगमें जस लीधो ॥ ८ ॥
ढाल - प्रभु प्रणमु' रे पास जिणेसर थंभणो-ए देशी ॥ तिरा नगरी रे चित्रशेन राजा थयो, सुख मांही रे केतलो काल वही गयो । इस अवसर रे आठ पुत्र हूवा भला, चढते पख रे चन्द्र जिसी चढती कला ॥ (उल्लालो) चढती कला हिव राय बैठो पास बैठी रोहणी, सातमी भूमी तसेती करै क्रीडा अतिघणी ॥ आठमो बालक गोद ऊपर रंगसं राणी लियो, पूत्रने प्रीतम आंख गल देखतां हरखे हियो ॥ ६ ॥ ( चाल ) इक कामण रे गोख चढी द्रष्ट पडी, शिर पीटे रे दीन स्वरे रोवे खडी ॥ बूढापण रे मन गमतो बालक मुत्र, हु एकज
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विधि-संग्रह। रे तिण अधिकेरो दुख हुओ ॥ ( उल्लालो) दुख हुवो देखी रोहिणी हिव कहै इम प्रीतम भणी, ए नार नाचे अने कूदै कहो किम मोटा धणी ॥ एहवो नाटक आज तांई में कदे देख्यो नही, मुझने तमासो अने हासो देखतां आवै सही॥ १०॥ (चाल ) इण वचनै रे रीसाणो राजा कहै, तं पोपण रे परतणी पीडा नवि लहै ॥ एदुखणी रे पूत्र मुअ तड पड करै, जब वीतेरे वेदना जाणीजै तरै, ॥ ( उल्लालो ) जाणे तरै तं वात दुखनी गरबगहली कामिनी, इम कही राजा हाथ झाल्यो तेहना बालकभणी ॥ सातमा भंयथी तलै नाख्यो तिसै हाहारव थयो, रोहणी हसती कहै प्रीतम पुत्र नीचे किम गयो॥ ११॥ (चाल) हिव राजा रे पुत्रतणे शोकै करी, थयो मुरछित रे रोवै अति आंख्या भरी ॥ पडतो सुत रे सासणदेवत झालियो, कंचनमय रे सिंहासण बैसारियो ॥ ( उल्लालो) बैसारियो कर जोड आगे करै नाटक देवता, गोदे खिलावै केइ हसावै
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अभय - रत्नसार ।
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पायपंकज सेवता ॥ ऊपनो भूपतने अचंभो देख ए कारण किसो, जो कोइ ग्यानी गुरु पधारे पुछियै सांसो इसो ॥ १३ ॥ ( चाल ) चिन्तवतां रे चारतिया आया जिसे, राजा पिण रे पुहतो वंदने तिसे ॥ सुख देशना रे पूछे प्रश्न सोहामणो, कहो स्वामी रे पूरवभव बालकतणो ॥ (उल्लालो ) बालकतणो भव भूप पूछे कहै इण पर केवलि, रोहणी राणीनो भवांतर अने राजा नो वली || श्रीगुरु पासे पाछलै भव रोहणी तप आदस्यो, तपत सगते साधुभगते तुम्म भवसायर तो ॥ १३ ॥ ( चाल ) कहै राजा रे रोहरिणतप कम कीजिये, विधि भाखो रे जिम तुम पासे लीजीये ॥ तब मुनिवर रे विधि रोहणीरा तपतरणी, इम जंपेरे चित्रसेन राजाभरणी ॥ (उल्लालो) राजाभरणी विधि एह जंपै चन्द्र रोहतप श्रावियै, उपवास कोर्जे लोभ लीजै भली भावना भावियै ॥ बारमा जिनवरतणी प्रतिमा पूजिये मनरंगसुं, इम सात वरसा लगे कीजै तजी आलस अंगसुं ॥ १४॥
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विधि-संग्रह। ढाल-वीर सुणो मोरी वीनती-ए देशी ॥
तप करियै रोहणितणो, वलि करिये हो ऊज़मणो एम ॥ तप करतां पातिक टलै, तिण कीजे हो तपसेती प्रेम ॥ त० १५ ॥ देव जुहारी देहरे, तिण आगे हो कीजै वृक्ष अशोक ॥ गुणनो बारम जिनतणो, भला नेवज हो धरिय सह थोक ॥ त० ॥ १६ ॥ केशर चन्दन चरचिय, कीजैआगे हो आठे मंगलीक ॥ विधसु पुस्तक पूजिय, ते पामे हो शिवपुर तहतीक ॥त. १७॥ सेवा कीजै साधुनी, वलि दीजे हो मुह माग्या दान ॥ संतोषीजै साहमी, मनरंगे हो कर२ पकवान ॥ त० १८॥पाटी पोथी पूंछना, मिस लेखण हो झिलमिल सुजगीस, नवकरवाली वोटणा, गुरु आगे हो धरो सत्ताईस ॥ त० १६॥ चोथो व्रत पिण तिण दिने, इम पाले हो मन आण विवेक ॥ इण विध रोहणि आदरै, ते पामे हो आनंद अनेक ॥ त० २०॥
ढाल-धरम करो जिनवर तणो-ए देशी॥
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अभय रत्नसार ।
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इम महिमा रोहणतणी, श्रीग्यानी गुरु परकासे रे ॥ चित्रसेन ने रोहणी, वासुपूज्य तीर्थकर पासे रे ॥ इ० २१|| इस परि रोहण आदरी, ऊपर ऊजमणो कीधो रे ॥ चित्रसेनने रोहणी, मन सूध संजम लीधो रे ॥ इ० २२ ॥ आठ पुत्र आदरी, दिख्या बारम जिन आगे रे ॥ वलि नानाविध तप तर्फे, धरमतणी मति जागे रे || ३०२३॥ करि असण आराधना, लहि केवल शिवपद पाया रे || जिन वाणी आणी हिय, प्रभु चरणां चित लाया रे || इ० २४ ॥ मनमोहन महिमा नीलो, में तवियो शिवपुरगामी रे ॥ मन मान्या साहिबतरणी, वि पुन्य सेवा पामी रे ॥ इ० २५ ( कलश ) ॥ इम गगन दुग मुनि चन्द्र वरसे ( १७२० ) चोथ श्रावण सुदि भली ॥ में कही रोहतगी महिमा सुगुरु मुख जिम सांभली ॥ वासुपूज्य अमने थया सुप्रशन चित्तनी चिन्ता टली, श्रीसार जिनगुण गावतां हिव सकल मन आस्या फली ॥२८॥ इति रोहणी तप स्तवनम् ॥
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विधि - संग्रह | रोहिणी - तपकी विधि ।
जिस तपस्वीको रोहिणी तपकी तपस्या करनेकी इच्छा हो वह पहले शुभ दिन और शुभ समय देख कर गुरुके पास जा कर वन्दना व्यवहार कर के विनय-पूर्वक रोहिणी तप ग्रहण करे | बाद जिस दिन रोहिणी नक्षत्र हो, उस दिन उपवास करके बारहवें वासुपूज्य स्वामीकी पूजा-अर्चना करे । अष्ट मंगलिककी रचना कर अष्ट द्रव्य चढ़ावे | देव वन्दनादिक धार्मिक क्रियाये करके गुरुके मुख से धर्मोपदेश श्रवण करे। यदि गुरुका संयोग न हो तो इस विधिके पहले जो रोहिणीतपका स्तवन दिया गया है, उसे शान्ति पूर्वक पढ़, या किसी साधर्मिक भाई से श्रवण करे । और "श्री वासुपूज्य स्वामी सर्वज्ञाय नमः” इस पदको २००० दो हजार बार गिने; यानि इस पदकी वीस मालायें गिने । इस तरह विधि - पूर्वक सात वर्ष पर्यन्त रोहिणी तपकी आराधना कर लेने से तपस्वीकी मनोकामना पूर्ण हो जाती
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अभय रत्तसार।
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है, यदि तपस्वोको पुत्र पानेकी इच्छा हो तो वह भी इस तपके आराधनसे पूरी हो जाती है और उसके सुख-सौभाग्यकी वृद्धि होती है।
छम्मासी-तप का स्तवन । गौतमस्वामो रे बुध दो निरमली, आपो करिय पसाय। महावीरस्वामी जे जे तप किया, तेहनो कहिसं विचार ॥ बलि-वली वांदु वोरजी सुहामणा ॥१॥ भावठ भंजण सेव्यां सुख करै, गातां नव निधि थाय । बारे वरसां वीरजी तप कियो, दूर करै सहु पाप ॥२०॥२॥बे कर जोड़ी एह वीनव, श्रीजिनशासन राय। नाम लियां थी नव निधि संपजै, दरिशण दुरित पुलाय ॥ व०॥३॥ नव चौमासा जिनजीरा जाणिय, एक कियो छम्मास। पांचे उणा छ वली ज.णि यै, बारकेकोजोमाश ॥३०॥४॥ बहुत्तर माशखमण जग जोपता, छ दो माली रे जाण । तीन अढ़ाई दो दो कीया, दो दोढ माशी वखाण.॥३०॥५॥ भद्र महाभद्र शिवगति जाणिये, उत्तम एहना
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६५० विधि-संग्रह। प्रकार । वीचमें पारणो स्वामी नहि कियो, नहि कियो चोथो आहार ॥ व०॥६॥ तिहुं उपवासे प्रतिमा बारमी, कोधा बारे जी माश। दोयसें वेला जिनजीरा जाणिय, इण गुण तीस विलास॥ व०॥७॥ तीनसे पारणा जिनजीरा जाणिय, तीन गुणतीस पचास। एहमें स्वामी केवल पामिया, पाम्या मुगति आवास ॥ व०॥८॥ कलश ॥ इम वीर जिनवर सयल सुखकर अतहि दुक्कर तप करी, संयमसु पाली कर्म टाली स्वामी शिव रमणी वरी। सेवक पभणें वीर जिनवर चरण वंदित तुमतणा, संसार कूप पडंत राखो आपो खामी सुख घणा ॥७॥ इति छम्मासी तप स्तवनम् ॥
छहमासी-तपकी विधिः । जिस तरह शासन-नायक भगवान महावीर स्वामाने छह मासो तपकी उत्कृष्ट तपस्या की थी, उस तरह तो इस समय होना कठिन है, कारण वैसा बल-पराक्रम इस समय नहीं रहा। तथापि १८० एक सौ अस्सी उपवासोंके
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अभय रत्नसार।
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करने पर जघन्य छह मासी-तपका फल प्राप्त होता है,अतः तपस्वीको चाहिये कि समयानुसार १८० उपवास करके यह तपस्या पूर्ण करे । तपस्याके दिन देव-वन्दनादिक धार्मिक क्रियायें करे।
और जो इस विधिके पहले छह मासो तपका स्तवन दिया है, उसे मनन-पूर्वक पढ़े। यदि स्वयं न पढ़ सकता हो तो दूसरे किसीसे श्रवण करे। साथहो तपस्याके दिन "श्री महावीर स्वामी नाथाय नमः” इस पदको २००० दो हजार वार गिने, यानि इस पदकी २० वोस माला गिने । तपस्या पूर्ण कर लेने के बाद जहां पर महावीर स्वामोका तीर्थ हो--पावापुरी, क्षत्रियकुण्ड आदि जा कर यात्रा कर आये। शक्तिके अनुसार छोटाबड़ा उजमणा भी करे। इस तपस्याके फलसे लघुकर्मी होकर अक्षय-सुख संपत्तिको लाभ करता है।
बारहमाती-ता का स्तवन । दान उल्लटधरी दीजीयै–ए देशी॥ त्रिभुवन नायक तूं धणी, आदि जिनेसर देव रे।
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६५२
विधि - संग्रह |
॥
चौसठ इंद्र करें सदा, तुझ पदपंकज सेव रे त्रिभु० ॥ १॥ प्रथम भूपाल प्रभु तूं थयो, इत्रसरपणी काल रे । तुझ सम अवर न को प्रभु, तूं प्रभु दीनदयाल रे ॥ त्रि० ॥२॥ प्रथम तीर्थंकर तूं सही, केवलज्ञान दिणंद रे । धर्म प्रज्ञापक प्रथम तू, तही है प्रथम जिनंद रे ॥ त्रि० ||३|| अंतर अरि जे आतमतणा, काल अनादि थिति जेह रे । ते तप शक्तियें तें हराया, आत्म वीरज गुण गेह रे ॥ त्रि ० ॥ ४ ॥ ताहरी शक्ति कुण कह सकै, जेहनो अंत न पार रे । द्वादश मासनो तप कर्यो, तेह अपानक सार रे ॥ त्रि० ॥ ५ ॥ एह उत्कृष्ट तप वरणव्यो, अ. गम में जिनराज रे । ते कखं प्रति चाकरु, तप विना किम सरे काज रे ॥ त्रि० ॥६॥ तीनसै साठ उपवास ते, ते इण पंचम काल रे । अवसर आदरे कम बिना, ते पण भवि सुवि शाल रे ॥ त्रि ० ॥ ७॥ ए तप गुरुनु आदरै, शास्त्र तर अनुसार रे । पडिकमणादिक भावयो, शुद्ध क्रिया मन धार रे ॥ त्रि० ॥८॥ चित्त समाधि
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अभय-रत्नसार।
६५३ शुभ भावथी, धरे ताहरो ध्यान रे। ते नर उत्तम फल लहै, कवि लहै उत्तम ग्यान रे ॥ त्रि० ॥६॥ काल अनादि संसारमे, जन्म मरणतणा दुःख रे। ते लहे धर्म पाया विना, तप विना किम हुवै सुख रे॥त्रि॥१०॥ हिव लह्यो नरभव पुण्यथी, वलि लह्यो श्रोजिन धर्म रे। तत्त्वनी रुचि थइ हे मुझे, हिव मिथ्योमनतणो भर्म रे॥वि०॥११॥ भव-भव एक जिनराजनो, सरण होज्यो सुखकार रे। कुगुरु कुदेव कुधर्मनो, में कियो हिवै परिहार रे॥त्रि०॥१२॥ दर्शन ज्ञान चारित्र ए, मोक्षमारग सुविशाल रे। भव-भव जे मुझ संपजे, तो फलै मंगलमाल रे॥ त्रि० ॥१३॥ श्रीजिनशासन तप कह्यो, ते तप सुरतरू कंद रे। धन-धन जे नर आदरै, कोट ते करमनो फंद रे॥त्रि०॥ १४॥ कलश ॥ इम नाभिनंदन जगत वंदन सकल जन आनंदनो, में थुग्यो धन दिन आजनो मुझ मात मरुदेवी नंदनो। संवत सुनेत्राकास निधि शशिनयर श्रीवालूचरै,श्रीजिनसौभाग्य सुरिन्दके सुपसाय विजय विमल घरै ॥ १५ ॥ इति ॥
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विधि-संग्रह |
बारहमासी तपकी विधि ।
आदि तीर्थंकर श्री ऋषभदेव स्वामीने बारह मासी व्रतकी उत्कृष्ट तपस्या की थी, इसलिये तपस्या करनेवालेको चाहिये कि बारह मासी तपस्या भी जरूर करे । तपस्या करने वालेको इस व्रतके ३६० तीन सौ साठ उपवास करने पड़ते हैं। वह क्रमशः अपनी इच्छा के अनुसार करे। तपस्याके दिन उपवासादि व्रत करके धार्मिक क्रियायें करे, और बारह मासी तपका स्तवन जो इस विधिके पूर्व में दिया है, उसे श्रद्धा-पूर्वक पढ़ या किसी से श्रवण करे । साथ ही तपस्या के दिन "श्री ऋषभ देव स्वामी नाथाय नमः” इस पद को २००० दो हजार बार गिने, अर्थात् २० वीस माला गिने । तपस्या पूरी कर लेने पर यथाशक्ति उजमा करे | बाद सिद्धक्षेत्र या केसरियाजी तीर्थकी यात्रा कर आये । इस तपस्याके महाम्यसे तपस्वी किसी तरहके कष्ट नहीं पाता, और वह अपना सारा जीवन आनन्दकी लहरोंमें
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अभय रत्तसार ।
६५५
अवगाहन करता हुआ व्यतीत करता है । इस तपश्चर्या के प्रभावसे रोग, शोक, भय आदि कोई भी दुख नहीं आने पाते। इसलिये तपस्या करने वालेको यह तपस्या अवश्य ही करनी चाहिये । || अठाईस लब्धि तपका स्तवन ॥
दुहा ॥ प्रणमु' प्रथम जिनेसरू, श्रुद्ध मने सुखकार । बधि अट्ठावीस जिन कही, आगमने अधिकार ॥ १ ॥ प्रश्नव्याकरणें प्रगट, भगवतीसूत्र मकार | पन्नवणा आवश्यके, वारू लबधि विचार ॥ २ ॥ आंबिल तप कर ऊपजै, लवधां अट्ठावीस । ए हिव परगट अरथसुं, सांभलज्यो सुजगीस ॥ ३॥
ढाल ॥ १ ॥ सफल संसारनी- एदेशी ॥ अनुक्रमें एह अधिकार गाथातणे, लबधिना नाम परिणाम सरिषा भणे । रोग सहुजाय जसु अंग फरस्यां सही, प्रथम ते लबधि
नाम आमोसही ||४|| जासु मल मूत्र औषध समा जागिये, बीय वप्पोसही लबधि दखाणियै ।
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विधि-संग्रह। श्लेष्म औषध सारिखो जेहनो, तोजो खेल्लोसही नाम छै तेहनो॥५॥ देहना मैलथी कोढ दूरे हुवे, चोथी जल्लोसही नाम तेहनो ठौ । केश नख रोम सह अंग फरस्यां सही, रहै नही रोग सब्बोसही ते कही ॥ ६॥ एक इंद्रिय करी पांच इंद्रियतणा, भेद जाणे तिका नाम संभिगणना। वस्तु रूपी सहू जाणियै जिण करो, सातमी लबधि ते अवधिग्याने करी ॥७॥ ___ ढाल ॥२॥ आव्यो तिहां नरहर-ए एचाल॥ हिव आंगुल अढिय ऊणो मानुषक्षेत्र, संज्ञा पंचेंद्रि तिहां जे वसय विचित्र । तसु मननो चिन्तित जाणे थुल प्रकार, तेऋजमति नामे अट्टम लबधि विचार ॥ ८॥ संपूरण मानुषक्षेत्र संज्ञा वंत, पंचेंद्रिय जे छ तसु मन वातां तंत । सूखम परजायें जाणे सहू परिणाम, ए नवमी कहिये विपुलमती शुभ नाम ॥ ६ ॥ जिण लबधि प्रभावें ऊडी जाय आकाश, ते जंघाविज्जाचारण लबधि प्रकाश । जसु वचन सरापै खिणमें
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खेरु थाय, ए लवधि इग्यारमी आसीविश कहिवाय ॥ १० ॥ सहु सुखम चादर देखे लोकालोक, ते केवल लबधी बारमय सहू थोक | गणधर पद लहिये तेरम लवधि प्रमाण, चवदम लबधे करी चव पूरब जाण ॥ ११ ॥ तीथंकर पदवी पामे पनरमी लबधि, सोलम सुखदाई चक्रवत्ति पद रिद्ध । बलदेवतणो पद लहिय सतरमी सार, अढारमी आखा वासुदेव विस्तार ॥ १२ ॥ मिसरी वृत चीरें मेल्याजेह सवाद, एहवी लहै वाणी उगणीशम परसाद । भणियो नवि भूलै सूत्र अरथ सुविचार, ते कुष्ट कबुद्धी वोसम लबधि विचार ॥ १३ ॥ एके पद भणियां वै पद लख कोड, इकवीसमी लबधी पयाण सारणी जोड । एके अरथे करी ऊपजै अरथ अनेक, बावीसम कहिये बीजबुद्धि सुविवेक ॥ १४ ॥
ढाल ॥ ३ ॥ कपुर हुवै अति ऊजलो रे - ए चाल || सोलह देशतणी सही रे, दाहक सगति
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विधि-संग्रह। वखाण । तेह लवधि तेवीसमो रे, तेजोलेश्या जाण, चतुर नर सुणज्यो ए सुविचार, आगमने अधिकार ॥ च० ॥ वारू लवधि विचार ॥ च०॥ एत्रांकणी ॥ १५ ॥ चवद पूरवधर मुनिवरू रे, उपजता सन्देह। रूप नवो रचि मोकले रे, लबध आहारक एह॥च० ॥१६॥ तेजोलेश्या अगननी रे, उपशमवा जलधार । मोटी लबधि पचवीसमी रे, शीतोलेश्या सार ॥ च०॥ १७॥ जेण सगतिसं विकुरवै रे, विविध प्रकार रूप । सदगुरु कहै छावोसमी रे, वैक्रिय लबधि अनूप ॥ च० ॥१८॥ एकण पात्रे आदमी रे, जीमाडै केइ लाख। तेह अक्खीणमहानसी रे, सत्तावीसमी साख ॥ २० ॥ १६ ॥ चूरै सेन चकीसनी रे, संघादिकने काम । तेह पुलाक लबधी कही रे, अट्रावीशमी नाम ॥ च० ॥२०॥ तेज शीत लेश्या बिहुँ रे, तेम पुलाक विचार । भगवतीसूत्रमें भाषियो रे, ए त्रिहुनो अधिकार ॥ च० ॥२१॥ पन्नवणा अहारनोरे, कलपसूत्र गण
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अभय-रत्तसार।
६५६
धार। तान २ इक २ मिली रे, वारू आठ विचार ॥ च० ॥ २२ ॥ प्रश्नव्याकरणे सही रे, बाकी लवधां वीश ! सांभलतां सुख ऊपजै रे, दोलत हुवै निशदीस ॥ च० ॥२३॥ ॥ कलश ॥ संवत सत्तरैसे छवीसे मेरुतेरस दिन भलै, श्रीनगरसुखकर लूणकरणसर आदिजिन सुपसाउलै । वाचनाचारज सुगुरु सानिध विजय हरख विलासए, श्रीधर्मवर्द्धन स्तवन भणतां प्रगट ज्ञान प्रकास ए॥२४॥ इति २८ लब्धि स्तवनम् ॥
____ अट्ठाईस लब्धि-तप की विधि । जिस तपस्वोको यह तपस्या करनी हो वह पहले उत्तम दिन और समय देख कर गुरुके समीप जाये । बाद अनुनय-विनय पूर्वक गुरुसे तपस्या उच्चरे।इस तपस्याके २८ अट्ठाइस उपवास करने पड़ते हैं, वह समयानुसार क्रमशः करे। जिस दिन जिस लब्धिका उपवास हो, उसके नामको गुणना-माला गिने । अगर शक्ति हो तो देववन्दनादिक धार्मिक क्रियायें करे। और तपस्या
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६६०
विधि-संग्रह |
पूरा कर लेनेपर शक्तिके अनुसार उद्यापन- उजमला भी करे । इस तपस्या के प्रभाव से बुद्धि निर्भय हो कर निरन्तर अनन्द रहता है ।
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॥ अथ चतुर्दश पूर्व-तन स्तवन ॥
ढाल || बे कर जोडी ताम-ए देशी ॥ जिनवर श्री वद्धमान, चरम तीर्थंकर, प्रह ऊठी प्रणमं मुदा । श्रुतधर श्रीगणधार, सूरि शिरोमणी, नमतां नव निधि संपदा ए ॥ १ ॥ चवदे पूरब नाम, सूत्र जूजूवा, वीरजिनंदे भाषिया ए । ते हिव सुगुरु पसाय, वरणविपुं इहां, आगम में जिम उपदिस्या ए ॥ २ ॥ पहिला पूर्वउत्पाद १, दूजो ग्रायणी २, वीर्यवाद ३ तीजा नमूं ए ॥ अस्ति नास्तिप्रवाद ४, सत्ता जाणियै, नारग रयण पंचम ५ गिगुं ए ॥ ३ ॥ छट्टो सत्यप्रवाद ६, सत्तम आतम ७, कर्मप्रवाद अम गिो ए ८ ॥ प्रत्याख्यानप्रवाद ६, नामे नवम, विद्याप्र
इग्यारम नाम
वाद दशमो को ए १० ॥ ४ ॥ कल्याण ११, प्राणायु बारमो १२, क्रिया विशाल
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अभय रत्नसार ।
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दूजो पू
२ ॥
पद
तेरम भो ए ॥ १३ ॥ बिंदुसार १४ इण नाम, चवदे ए कला, शास्त्र थकी में संग्रह्मा, ए ॥५॥ ढाल २ ॥ श्रीविमलाचल शिर तिलो ए देशी ॥ उत्पाद पूर्व सोहामरो कोटी पद परिमाण । पट भाव प्रगट छै ते जिहां, त्रिपदी भाव विना ॥ १ ॥ सर्व द्रव्य पर्यायतो, जीव विशेष प्रमाण । अग्रायणी, छिन्नु लख पद जाण ॥ लख सत्तर जेहनी, संख्या परगट एह । वीर्य प्रबलता जीवनी, भाषी तीजै तेह ॥ ३ ॥ चोथे पर्चे जे कह्यो, अस्ति नास्ति प्रवाद । पद संख्या साठ लाखनो, सप्तभंगी स्याद्वाद ॥ ४ ॥ ग्यान प्रवाद पद पंचमो, सूत्र आयो जोड । मत्यादिक परण भेदसुं, पद संख्या इक कोडि ॥ ५ ॥ सत्यत्रत्राद छडा कहूं, भापुं सत्य स्वरूप । संख्या पद इक कोडनो, भाषा आगम अनूप ॥ ६ ॥ नित्यानित्यपणो इहां, आतम द्रव्य स्वभाव । छवीस पद कोड जेना, सूत्र आगपा
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विधि-संग्रह। भाव ॥ ७॥ कर्म प्रवादतणो हिवै, प्रगटपणे अधिकार । लाख असी पद जेहना, कोडी इग निरधार ॥ ८॥ नवमो पूर्व कहु हिवै, नामे प्रत्याखान । लाख चोरासी जेहना, पद संख्या चित्तान ॥६॥ अतिशय गुण संयुत भणी, साधन साध्य निदान । विद्या अनुपम सातसै, कोडो वरस लख जान ॥ १०॥ कल्याण नाम इग्यारमो, छठवीस कोड प्रमाण । ज्योतिषशास्त्र विचारणा, चोविह देव कल्याण ॥ ११ ॥ प्राणायु पद बारमो, छप्पन लख इग कोडि। प्राण निरोधन जे क्रिया, शास्त्र आण्यो जोड ॥१२॥ क्षायिकादिक जे क्रिया, छन्द क्रिया सुविशाल । पदसंख्या नव कोडनो, तेरमो क्रिया विशाल ॥ १३ ॥ लोकसारबिंदु चबदमो, नामे अरथ निहाल । पद संख्या इग कोडनी, लाख पचवीस संभाल ॥ १४ ॥ लोकप्रत्यय देखण भणी, संख्या गज परिमाण । सोले सहस अरु तीनसै, और तयासी जाण ॥ १५ ॥ पूरब संख्या
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अभय-रत्नसार।
६६३ ए कही, गुणमालाथी देख। आगे बुधजन सोधज्यो, बाकी देश विशेष ॥ १६॥ ____ ढाल ॥३॥वीर जिनेसर उपदिसै-ए चाल ॥ सूत्र गुथे गणधरा, अरथै अरिहंत भाखै रे। ते श्रुतज्ञान नमं सदा, पाप तिमिर जिम नासरे ॥१॥ वाणी रे जिणंदनी, सुणज्यो चित्त हित आणी रे। तत्र रमणता अनुसर, सम्पूरण गुण खाणो रे। वा० २ ॥ विषय कषाय तजी करी, ग्यान भगत उर धारी रे। विधि संयुत जिनमन्दिरै, प्रभु मुख पाश जुहारी रे ॥ वा० ३॥ तप जप संजम आदरी, श्री श्रुतज्ञान निधानो रे। सदगुरु चरण नमो करी, संवरजोग प्रधानो रे ॥ वा०४॥ अक्षत लेइ ऊजला, गुंहली सुन्दर कीज रे । नाण दंसण चारित्रनी, ढिगली तीन धरीज रे॥वा० ५॥ चवद पर्व व्रत इण पर, सुगुरु सजोगे लेई रे। विधिसु पस्तक पूजिय, चित्त अति आदर देई रे॥ वा०॥६॥ इम तप संपूरण थयां, ऊजमणो हिव कीजै रे।
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विधि-संग्रह। घर सारू धन खरचने, नरभव लाहो लिजे रे ॥ वा०॥७॥ पूठा परत विटांगणा, पूरब नाम प्रमाणो रे । नवकरवाली कोथली, लेखण ठवणी जाणो रे ॥ वा०॥८॥ देहरै देव जुहारने, आरती मंगल कीजै रे। स्नात्रपूजा बलि साचवी, तत्व सुधारस पीज रे ॥ वा० ॥६॥ इण पर तप आराधतां, दुरगति कारण छेदै रे । चवदह रज्ज शिरोमणी, जीव अक्षयगति वेदे रे ॥वा. ॥१०॥ तप आराधन विधि भणी, आगम वचने जोइ रे। भवियण पिण तुमे आदरो, ज्यु भव-भ्रमण न होई रे । वा०॥ ११ ॥ कलश इम सयल सुखकर गच्छ खरतर तपै रवि जिम क्रांत ए, सौभाग्यसूरि मुणिद इण पर कह्यो पूर्व वृतंत ए । सम्बत अठार वरस हिन्न नयर श्रीवालूचरै, ए स्तवन भण श्रवण सणतां सयल मनवंछित फलै ॥ १२ ॥ इति चतुईश-पूर्व-तप स्तवनं सम्पूर्णम् ॥
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अभय रत्नसार।
६६५
चउदह पूरब-तपकी विधि । तपस्वोको यदि यह तपस्या करनी हो तो वह पहले उत्तम दिन देखकर गुरुसे उक्त तपस्या ग्रहण करे। इस तपस्यामें चउदह उपवास करने पड़ते हैं, वह समयानुसार क्रमशः करे। जिस दिन जिस पूर्वकी तपस्या हो, उस दिन उसी पूक्के नामकी वीस माला गिने । स्तवनमें १४ पूर्व के नाम और उनको विधि दो गयी है, उसके अनुसार विवेकी पुरुष गुरुसे समझ कर सारी क्रिया करे। इस तपस्याके स्तवनको भाव-पूर्वक श्रवण करे या स्वयं पढ़े। यह तपस्या करनेसे ज्ञानावरणीय आदि कर्मोका क्षयोपशम हो कर उत्तम ज्ञान और लक्ष्मीकी वृद्धि होती है।
॥ अथ तिलक तपस्याका स्तवन ।। दुहा ॥ शासन देवी शारदा, वाणी सुधारस वेल । बालक हित भणी बगसियै, सुबुद्धि सुरंगी रेल ॥१॥ नवम अंग जिन पूजतां, मन लहि शुभ परिणाम ॥ तप तिलके फल पामिये, दवदंती गुणधाम ॥२॥
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६६६
विधि-संग्रह।
॥ ढाल ॥ वीर जिोसर उपदिसै-ए देशी ॥ कमला जिम कुंडणपुरै, भुजबल नरपतिभोमोरे। पदमनी पदम सुवासना, श्वेतगज स्वप्ने नीमो रे॥पदम०१॥परतख्य फल ए पुन्यना, प्रसवी सुता पूरै माशै रे। दवदंती नाम दीपतो, गुणमणि बुद्धि प्रकाशै रे ॥ पद० २॥ चौसठकला विच. क्षणा, रूप गुणें करी रंभा रे ॥ देव गुरु धर्म दीपावती, व्रत्तधारी दृढ ६भा रे। प०३ ॥प्रतिमा प्रजैशांतिनी, देवे दोधी त्रिकालो रे ॥मात पिता प्रमोदसु, स्वयंवर वरमालो रे॥५०४॥ उवझायाधिप श्रीनिषधनो, नल लिखियो निला. रे॥ आनन्दसु पंथ आवतां, पूरव पून्य उघा.. रेप. ५॥ मझम रयणी तम भरो, मधरवकंत इहां वनमें रे ॥ मणि भाले तेज दिन मणी, जाग्रत देसी अहो मनमें रे॥५०॥६॥ ग्यानधारी गुरु कोइ मिले, पूछियै एह प्रसन्नो रे ॥ कर्म बलै मुनि आविया, परीसह जीत मदन्नो रे॥१०॥७॥ पंच जीत पंच पालता, टालता दुस्सह सबलारे॥
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अभय रत्नसार।
६६७
संजम शुद्ध संभालतां, उद्यम शिवसुख कमला रे॥१०॥८॥ दोहा ॥ मणि तेजें मुनि तरु ठवे, रथ थकी स्त्री भरतार ॥ देवै तीन प्रदक्षणा, विधिसुं चरण जुहार ॥६॥ देशना सुण पावन थया, ज्ञान सुधारस पाय ॥ को तप परभव तिलक है, कहि यै श्रीमुनिराय ॥ १०॥
॥ढाल २॥भरत भावसुं ए-ए देशी।मधुर स्वरै मुनिवर कहे ए, नाणी गुरु सुपसाय, दीपक सह लोकना ए॥ कम शुभाशुभ परभवै ए, इह भव फल निपजाय, करम गति वंकडो ए ॥११॥
ओहिनाण भव प्रागनोए, नृप सुणे निरमल भाव, समकित साहोयो ए॥ धर्मवतीको नपवधू ए, जाएयो हे तत्व प्रस्ताव, साची जिन वाचना ए ॥१२॥ चोथ प्रमुख नृप चंपस ए, किरिया शुद्ध करी एह, भलै चित भावसुं ए॥ नवांग पूजे तिलकसुं ए, चा जिन चोवीस, रयण कचंण जढ्या ए॥१३॥ तिलक २ से पामियो ए, समकित एह सत्तीस, जनम सफलो गिण ए॥ भगवन तप विधि
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६६८
विधि-संग्रह। भाखियै ए, नल कहै बोध वरीस, पीहर षटकायना ए॥१४॥ आदिनाथ अरिहंतना ए, षट् उपवास कहीस, त्री चौवीहारस्यु ए॥ चोथ दोय जिन वीरना ए, अजितादिक बावीस, आणा गुरु शिर वही ए॥ १५ ॥ पोषध त्रीस तीने थया ए, पूजन तिलक चढ़ाय, तारक जगदीसने ए ॥ उद्यापन संघ भक्तिसुं ए, जन्म सफल नर राय, सूधै मन साधिय ए॥१६॥ सुण वाणी समकित ग्रहै ए, पय प्रणमी गुरु वीर, चित्त ऊमाहीयो ए॥ इण पर जे भवि आदरै ए, थायै चरम शरीर, मूल सुख शासतो ए॥ १७ ॥ ( कलश ) श्रीशांति दाता त्रि जगत्राता भविक ध्याता सुखकरा, इम सतीय साध्यो तप आराध्यो सुजस वाध्यो शिवघरां ॥ आगमे आखै सूरीय साखै सुगुरु भाषै सुण थया, शुद्ध ध्यावै भविक भावै विजय विमल जिनवर कथा ॥ १८ ॥ इति तिलक तपस्या स्तवनम् ॥
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अभय रत्तसार। ६६६
तिलक-तपस्याकी विधि । उत्तम दिन देखकर तपस्वी गुरुके पास जाये और उनसे विनय-पूर्वक तिलक तपस्या ग्रहण करे। इस तपस्याके करने वालेको कुल ३० तीस उपवास करने पड़ते हैं, वह इस क्रमसे करे। पहले ऋषभदेव भगवानके छह उपवास करे, इन छहों उपवासोंके करते समय "श्रीऋषभदेवस्वामी सर्वज्ञायनमः” इस पदका २००० बार चिन्तवन करे; अर्थात् इस पदकी २० माला गिने। जन यह छह उपवास हो लें, तब महावीर भगवानके दो उपवास करे। इन दो उपवासके समय "श्री महावीरस्वामी सर्वज्ञायनमः" इस पदकी वीस माला गिने, और धर्म-ध्यानमें समय व्यतीत करे। इन दो उपवासोंके हो जाने पर बाईस तीर्थकरोंके क्रमशः बाईस उपवास करे। जिस दिन जिस तीर्थंकरका उपवास हो, उसीके पदकी वीस माला गिने । बाकीकी सारी विधि स्तवनके अनुसार गुरुसे समझ कर करे। तपस्या करते समय आरंभ-समारंभके कार्य नहीं करे।
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६७०
विधि-संग्रह।
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॥ अथ सोलिये तपका स्तवन ।। __वीर जिनेसर भाषियो रे लाल, सहु व्रतमें सिरताज,भवि प्राणी रे॥ कषायगंजन तप आदरो रे लाल, इणथी पातिक जाय ॥भ० ॥वी१॥ कोड वरष तप आदरे रे लाल, क्रोध गमावै फल तास ॥ भ० ॥ मान करे जे प्राणियार, लाल ते जगमें न सुहाय ॥भ० वी० ॥२॥ व्रतमें माया आदरी रे लाल, स्त्रीपणो पायो मल्लिनाथ ॥ भ०॥ रूप परावत कीया घणा रे लाल, आषाढभूति गणिका साथ ॥ भ० वी० ॥३॥ च्यार कषाय छे मूलगा रेलाल, उत्तम सोले भेद ॥भ०॥ इम भव-भव भमतो थको रे लाल, जीव पामे बह खेद ॥ भं० वी०॥ ४॥ एकासण व्रत जे करे रे लाल, लाख वरस दुख हाण ॥ भ० ॥ नीवी व्रत दूजो कह्यो रे लाल, ए धारो जिनवर वाण ॥ भ० वी० ॥५॥ आंबिलनो फल बहु कटोरे लाल, उपजै लबधि अपार ॥ भ० ॥ उपवास करता भावसुं रे लाल, पामे भवनो पार ॥ भ० वी० ॥६॥ इम दिन
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अभय रत्नसार।
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शोले तप करो रे लाल, पुरण व्रत ए थाय॥भ०॥ देव गुरु पूजा करै रे लाल, मन वंछित फल थाय ॥ भ० ॥ नर सुर रिद्धि पिण भोगवे रे लाल, निश्चै मुगति जाय ॥ भ० वी० ॥८॥ इति ॥
सोलह तपस्याकी विधि। __ क्रोध, मान, माया, और लोभ इन चारों कषायोंके अनन्तानु बन्धी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी, और संचलन इनके द्वारा चार-चार भेद होने पर चार कषायोंके क्रमशः सोलह मेद पड़ते हैं। इनको निवारण करनेके लिये तपस्वीको यह तपस्या करते समय सोलह दिनकी तपश्चर्या करनी पड़ती है, वह इस तरह कि, पहले दिन एकासण, दुसरे दिन निवि, तीसरे दिन आयंबिल और चौथे दिन उपवास, इस तरह अनकमसे चार बार व्रत करके सोलह दिन की तपस्या पूरी करे। तपश्चर्याके दिन सोलह तपका स्तवन पढ़े, या श्रवण करे । समचि तपश्चर्या पूर्ण कर लेने पर यथा-शक्ति उद्यापनउजमणा करे।
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६७२
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विधि - संग्रह |
प्रातःकालकी पडिलेहण विधि | पहले खमासमण देकर "इरिया वहिय" पढ़े, बाद खमासमण-पूर्वक "इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! पडिलेहण संदिसा हूं" इच्छ, कह कर फिर खमासमण - पूर्वक " इच्छाकारेण संदिह भगवन ! पडिलेहण करू ?" इच्छं, कह कर ?' मुहपत्ति पडिलेहण करे | बाद खमासमण देकर इच्छाकारेण • “अंग पडिलेहरा संदिसाहु" इच्छं, फिर खमासमण-पूर्वक इच्छाकारेण० अंगपडिलेहन करू ? इच्छं" कहकर आसन, चरवला, कंदोरा, धोती आदि उपकरणोंकी पडिलेहण करे । पीछे खमासमण पूर्वक " इच्छकार भगवन् ! पसायकरी पडिलेह पडलेहावोजी ? इच्छं, कह कर शुद्ध स्वरूपके पाठ - पूर्वक स्थापनाचार्यजीकी पडिले करे, बाद स्थापनाचार्यजीको उच्च स्थान पर रखें । खमासमण-पूर्वक इच्छाकारेण० उपधि मुहपत्ति पहिले हुं?" इच्छ ं, कहकर मुहपत्ति पडिलेहरण करे । इसके बाद खमासमण-पूर्वक
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अभय रत्नसार। ६७३ इच्छाकारेण० ओहि पडिलेहण संहिसा हूँ? इच्छ, कहकर खमासमण-पूर्वक इच्छाकारेण.
ओहि पडिलेहण करू?" इच्छ', कहकर बाद कम्बल, वस्त्र आदिकी पडिलेहण करे। इसके बाद पौषधशालाको प्रमार्जन करके कड़े-कचरेको जयणासे एकान्त स्थानमें रखदे। बाद “इरिया बहिय" पढ़े। इसके बाद खमासमण-पूर्वक इच्छाकारेण० सज्झाय संदिसाहुं ? इच्छ, कहकर खमा० इच्छा० सज्झाय करूं ? इच्छ, कहकर नवकार सहित पोसहकी सज्झाय करे, और उपदेश मालाका श्रवण करे।
__संध्या पडिलेहण विधि । पहले खमासमण देकर इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! बहुपुड़ि पुन्ना पोरिसी इच्छ, कहकर खमासमण देवे, बाद “इरिया बहिय” पढ़े। वाद खमासमण-पूर्वक इच्छाकारेण पडिलेहण करूं? इच्छ, कहकर, बाद फिर खमासमण देकर इच्छाकारेण० पौषधशाला प्रमार्जन
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६७४
विधि-संग्रह।
करू ? इच्छ, कहकर मुहपत्ति पडिलेहण करे। बाद खमासमण-पूर्वक इच्छाकारेण अंग पडिलेहण संहिसा हूं ? इच्छ', कहकर फिर खमासमण देकर इच्छाकारेण. अंग पडिलेहण करूं? इच्छ, कहकर आसन, चरवला, कदोरा, धोती आदि उपकरणोंकी पडिलेहण करे। बादमें पौषधशालाका प्रमार्जन कर कड़े-कचरेको यथाविधि रखे। फिर खमासमण देकर "इरिया वहिय” पढ़े। पीछे खमासमण-पूर्वक “इच्छकार भगवन् ! पसायकरी पडिलेहण पडिलेहवावोजी? इच्छं, कहकर शुद्ध स्वरूपके पाठ पूर्वक स्थापनाचार्यजोको पडिलेहण करे। बाद स्थापनाचार्यजी को ऊंची जगहपर रखे । पीछे खमासमण देकर इच्छाकारेण उपधि मुहपत्ति पडिले हुं ? इच्छं, कहकर मुहपत्ति पडिलेहण करे। बाद खमासमण-पूर्वक “इच्छाकारेण सज्झाय संदिसाहुं ? इच्छं, कहकर खमासमण-पूर्वक “इच्छाकारण सज्झाय करू? इच्छं, कहकर एक नमुक्कार
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अभय रत्नसार। ६७५ बोलकर पोसहकी सज्झाय करे । वाद फिर एक नमुक्कार पढ़े । इसके बाद दो वान्दना देकर पच्चक्खाण लेवे (जिसने उपवास किया हो वह वान्दना न देवे) बाद खमासमण-पूर्वक इच्छाकारेण. उपधि थंडिला पडिलेहण संदिसा हूं ? इच्छ', कह कर फिर खमासमण-पूर्वक इच्छाकारेण उपधि थिंडिला पडिलेहण करू? इच्छ, कहकर फिर खमासमण-पूर्वक इच्छाकरेण० बेसणे संदिसा हुँ ? इच्छं, कहकर फिर खमासमण-पूर्वक इच्छाकारण बेसणे ठाऊ?, इच्छ, कहकर कम्बल वस्त्रादिकी पडिलेहण करे। जिसने उपवास किया हो वह इस समय केवल कन्दोरा और धोतिकी पडिलेहणा करे।
रात्री संथारा विधि। खमासमण-पूर्वक इच्छाकारेण० बहुपुडि पन्ना पोरिसी ?" इच्छ, कहकर खमासमण देवे और “इरिया वहिय” पढ़। इसके बाद खमासमण-पूर्वक इच्छाकारेण० राईसंथारा
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विधि-संग्रह।
मुहपत्ति पडिहले हु? इच्छं, कहकर मुहपत्ति पडिलेहण करे। बाद खमासमण-पूर्वक इच्छाकारेण० राईसंथारा संदिसा हूं ? इच्छ', कहकर खमासमण-पूर्वक इच्छाकारेण राईसंथारा ठाऊं? इच्छ, कह कर फिर खमासमण-पूर्वक इच्छाकारेण चैत्यवन्दन करू?" इच्छ,कहकर चउकसाय, नमुत्थुणं यावत् जयवीयराय चैत्यवन्दन करे। बाद "निस्सही ३ णमोखमासमणाणं गोयमाइणं महामुणिणं” तीन नवकार, तीन करेभी भन्ते कह कर अणुजाणह चिट्रिज्जा आदि राई संथाराकी गाथायें कहे और अन्तमें सात नमु. कारका स्मरण करे।
॥ पच्चक्खाण पारनेकी विधि ॥ खमोसमण देकर इरियावहिय पढ़े ॥ पीछे खमा० इच्छा० पञ्चक्खाण पारवा मुहपत्ति पडिलेहुँ ? इच्छ, कहकर मुहपत्ति पडिलेहण करे ॥ पीछ खमा० इच्छा० पञ्चक्खाणपारु ? यथाशक्ति खमा० इच्छा० पञ्चक्खाण पारेमि ? तहत्ती। कह
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अभय रत्नसार।
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कर मुट्ठी बन्द कर एक नवकार गिने। बाद जो पञ्चक्खाण किया हो उस पच्चक्खाणका नाम ले कर पञ्चक्खाण पारनेका पाठ बोलकर एक नवकार गिने, पीछे खमासमण देकर इच्छा० चैत्यवंदन करूं? इच्छं, कहकर जयउसामि० यावत् जयवीयराय० पर्यंत चैत्यवंदन करे।
॥देववंदनकी विधि ॥ खमा० इच्छा. चैत्यवंदन करू? इच्छं, कह कर चैत्यवंदन णमुत्थणं कहे । बाद खमासमण देकर इरियावहिय पढ़े। पीछे खमा० इच्छा० चैत्यबन्दन करूं? इच्छ, कहकर चैत्यवंदन करे। बाद जंकिंचि णमुत्थुणं कहकर चार थुईसे देव वांदे। पीर्छ णमुत्थुणं यावत् जयवीयराय पर्यंत कहे; फिर णमुथुणंका पाठ पढ़े।
॥पोसह लेनेकी विधि ॥ पोसहके उपगरण लेकर उपाश्रयमें जाये। बाद सामायिककी विधिके अनुसार स्थापनाचार्यकी स्थापना करके विधिपूर्वक गुरुवंदन करे। बाद
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६७८ विधि-संग्रह। खमासमण देकर इरियावहिय पढ़े। पीछे खमा० इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! पोसह मुहपत्ति पडिले हुँ ? इच्छ, कहकर मुहपत्ति पडिलेहण करे। पीछे खमा० इछा० पोसह संदिरताऊ? इच्छं, खमा० इच्छा० पोसह ठाऊं ? इच्छ', कहकर खड़े हो, हाथ जोड़कर तोन नवकार गिने । बाद इच्छकार भगवन् । पसाय करी पोसह दंडक उच्चरावोजी! (यदि आठ प्रहरका पोसह लेना हो तो "अहोरत्तं" कहे, दिनका लेना हो तो "दिवसं"कहे,और रात्रिकालेना होतो"रत्तं"कहे) बाद जो बड़ा आदमी हो वह करेमिभंते पोसहं० इत्यादि पोसहका पञ्चक्खाण तीनवार उच्चरावेयदि कोई बड़ा न हो तो आप तीनवार उचर लेवे॥ वाद रुमा० इच्छा० सामायिक मुहपति पडिलेहवू ? इच्छ, कहकर मुहपत्ति पडिलेहण करे॥ पीछे, रूमा० इन्छा० सामायिक संदिस्साहु ? इच्छं, इत्यादिक सामायिककी विधि के अनुसार पोसहकी विधि जानना। परंतु इरियावहिय न
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अभय रत्नसार। ६७४ पढ़े। पांगरणाके आदेशके वाद खमा० इच्छा० बहुवेलं संदिस्साउं? इच्छ, खमा० इच्छा. बहुवेलं करूं? इच्छं, पोसह लिये बाद राई प्रतिकृमण करे तो प्रतिकूमणमे चार थुइसे देवांदे, बाद णमुत्थूणं कहकर बहु वेलका आदेश लेवे। पीछे आचार्यमिश्र इयादि कहे।
पोसहकृत्यकी विधि ॥ पहले पोसह लेनेके बाद पडिलेहणके समय प्रभात पडिलेहणकी विधिसे पडिलेहण करे। पीछे गुर्वादिक विद्यमान हो तो विधिपूर्वक चंदना करे। बाद पचक्खाण करके बहुवेलका आदेश लेवे, पीछे देवदर्शन करनेको मंदिरमें जावे, (जिसने पोसह किया हो वह यदि देवदर्शन न करे तो दो या पांच उपवासके प्रायश्चित्तका भागी होता है ) अनन्तर विधिसहित चैत्यवंदन करके पचक्खाण करे। उपाश्रय और मंदिरसे निकलते समय तीनवार आवस्सही कहे। और प्रवेश करते समय तीनवार निस्सीही कहे॥
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६८० विधि-संग्रह। लघुनीति और बड़ी नीति परठनी हो तो पहिले "अणुजाणह जस्स गो” कहे, पीछ से तीनवार 'वोसिरे' कहे। मंदिरमें जाकर उपाश्रयमें आवे और लघुनीति बडिनीति करके पीछे उपाश्रयमें आवे। निद्रा या प्रमाद आगया हो तो इत्यादि कार्योंमें इरियावहिय पढ़े। मंदिरसे उपाश्रयमें
आकर गुरुका संयोग होतो व्याख्यान सुने। पीछे पौनो प्रहर दिन चढ़े बाद उग्घाडा पोरसी भणावे यथाः-खमा०इच्छा० उग्घाडापारसी ? इच्छ,कह कर खमा०इरियावहिय पढ़े। पोछे ख्मा इच्छा० उग्घाडा पोरसी मुहपत्ति पडिलेहुँ ? इच्छ, कहकर मुहपत्तिपडिलेहण करे॥पीछे कालवेलामें मंदिरमें अथवा उपाश्रयमें विधिके अनुसार पंचशक्रस्तवसे देववंदन करे। पीछे जल आदि पीनेकी इच्छा हो तोपचक्खाण पारनेकी विधि के अनुसार पचवखाण पारके जल आदिक परिभोग करे। पीछे चौथे पहरमें संध्यापडिलेहणकी विधिके अनुसार पडिलेहण करे। रात्रिका पोसह लेनेवालाभी पोसहकी
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अभय रत्नसार ।
६८१
विधिके मुताबिक पोसह लेकर पडिलेहण करे ॥ रात्रि पोसवाला प्रतिक्रमण के आदिमें इरियावहिय पढ़कर चौवीस थंडिलां पडिलेहरण करे। प्रतिक्रमणमें सात लाख पापस्थानककी जगह ठाणेकमणे चंक्रमणे इत्यादि पोसह अतिचार पढ़ ॥ जिसने दिनका पोसह न लिया हो और रात्रिका लिया हो तो वह सात लाख आदि बोले । प्रतिक्रमण करनेके बाद सज्झायका ध्यान करे । प्रहर रात्रि जानेपर संथारा पोरसी विधिके अनुसार पढ़ कर विधि शयन करे। पीछली रात्रिको ऊठकर नवकार मंत्र गिने | बाद इरियावहिय पढ़ कर खमासमण - पूर्वक कुसुमिण दुसुमिरणका काउरसग्ग करे । ( पोसहवाला कुसुमिण दुसुमिरणका काउस्सग्ग पहले करे पीछे चैत्यवंदन करे) सात लाखको जगह संथारा उवण इत्यादि पोसह अतिचार बोले | बाद प्रभात - पडिले की विधि के अनुसार पडिलेहण करे । तदनन्तर गुर्वादिकको वन्दन करे बाद पोसह पाले ।
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६८२
विधि - संग्रह |
पोसहमें राइमुहपत्ति पडिलेहणकी विधि | गुरुमहाराजके सामने खमासमण देकर इरियावहिय पढ़े | बाद खमा० इच्छा० राइमुहपत्ति पड़िलेहुं ? इच्छ, कहकर मुहपत्ति पडिलेहण करे । पीछे दो वांदणा दे कर इछा० राइयं आलोउं ? इछ, लोएमि जोमेराइओ कहकर विधि-पूर्वक गुरु वंदन करे | बाद पंचक्खाण लेकर बहुवेलका आदेश लेवे ।
पोसह पारनेकी विधि ।
खमासमण देकर इरियावहिय पढे । बाद खमासमण-पूर्वक मुहपत्ति पडिलेहण करे । पीछे खमा० इच्छा० पोसह पारु ? यथाशक्ति, खमा० इछा० पोसह पामि ? तहत्ति कहकर जीमना हाथ नीचे रखकर तीन नवकार गिने, पीछे खमा० देकर मुहपत्ति पडिलेहा करे। पीछे खमा० इछा ० सामायिक पारु ? यथाशक्ति, खमा० इछा० सामायिक पारेमि ? तहत्ति कह कर जीमना हाथ नीचे रख तीन नवकार गिन कर
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अभय-रत्नसार। ६८३ भयवं दसगण भद्दो का पाठ पढ़े। पीछे दाहिना हाथ स्थापनाचार्यजीके सामने सीधा रख कर तीन नवकार गिने, (पोसह और सामायिक पारनेका पाठ एक ही बार कहा जाता है) यानी दोनोंके पारनेका पाठ एक ही है।
देसावगासिक लेने और पारनेकी विधि । देसावगासिक लेनेकी विधि पोसह लेनेकी विधिके अनुसार समझना, परंतु पोसह लेनेके
आदेशमें देसावगासिकका आदेश लेना। जैसेदेसावगासिक मुहपत्ति पडिलेहुं ? देसावगासिक संदिस्सा? ठाऊं ? देसावगासिक दंडक उच्चरा वोजी ? करेमिभंते पोसहके एचक्खाणके बदले अहन्न भंते ? तुह्माणं समीवे देसावगासियं पञ्चक्वामि इत्यादि देसावगासिकका पञ्चक्खाण तीन बार उचरे। बहुवेलका आदेश न लवे, देसावगासिक जघन्यसे दो सामायिकका ओर उत्कृष्टसे १५ सामायिकका होता है।
देसावगासिक पारनेकी विधि पोसह पारनेकी
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६८४
विधि-संग्रह। विधिको तरह समजना जैसे—देसावगासिक पारु ? पारेमि ? इत्यादि सामाइय पोसह संहि. यस्सकी जगह सामाइय देसावगासियं संदियस्स इत्यादि पाठ कहना।
-**80भक्ष्याभक्ष्य-विकार ।
प्राचीनकालके समय श्रावक लोग भक्ष्याभक्ष्यके सम्बन्धमें बड़ा ही उपयोग रखा करते थे, प्रायः उस समयके श्रावकोंको अभक्ष्य चीज़ोंका त्याग ही रहता था, वे लोग अभक्ष्य सेवन करना महा याप और नरकका मार्ग समझते थे। यदि कोई न समझ कर या ग़लतीसे किसी अभक्ष्य पदार्थका सेवन कर लेता तो वह उसे बड़ाभारी दुःष्कर्म किया समझ कर अत्यन्त पश्चाताप करता और उसके लिये गुरुके पास जा कर यथाविधि आलोयणा-प्रायश्चित ले लेता था।
वर्तमान समयके श्रावक-श्राविकाओंमें इस
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अभय रत्नसार ।
६८५
विषयकी पूरी शिथिलता पड़ गयी है। कई श्रावक भाई तो भक्ष्याभक्ष्य किसे कहते हैं, वह भी ठीक तरह नहीं समझते । कई भाई यदि इस विषय में थोड़ासा कुछ जानते हैं; किन्तु इन्द्रियोंकी लोलुपताके कारण भक्ष्याभक्ष्य को न सोच कर उसे सेवन करते ही रहते हैं । कई सज्जन खूब पढ़े-लिखे हैं, अंग्रेजी बी० ए० और एम० ए० पास किये रहते हैं, उनको इस विषयका ज्ञान भी ठीक रहता हैं; किन्तु फिर भी वे लोग रसनेन्द्रियकी लालसा में पड़ कर अभक्ष्य पदार्थों का सेवन आनन्द - पूर्वक करते ही रहते हैं, यदि उनसे इस विषय में कुछ कहा जाय तो यही उत्तर मिलेगा कि "आलू, बैगन न खानेसे थोड़े ही धर्म या मोक्ष प्राप्त होता है ?" इसी तरह और भो अनेक प्रकारके कुतर्क करने लगते हैं । उस समय यदि उन्हें शास्त्र - प्रमाण देकर ठीक तरह समझाया जाय तो उसे भी वे लोग अङ्गिकार करने को तैयार नहीं होते। और जब अपना पक्ष
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६८६ भक्ष्याभक्ष्य विचार। कमजार देखते हैं, तब इस विषयको हँसीदिल्लगीमें ले आते हैं। - य्यारे पाठक और पाठिकाओं शास्त्रकारोंने भक्षयाभक्ष्यके सम्बन्धमें जो अमूल्य उपदेश दिया है, वह वास्तवमें हम लोगोंके लिये बड़ा ही उपकार का काम किया है। यदि हम लोग भक्ष्य और अभक्ष्य पदार्थोंको शास्त्रके अनुसार समझ कर काममें लिया करें तो हमारे लिये बड़ा ही लाभदायो है। शास्त्रकारोंने अभक्ष्य पदार्थों का त्याग किया है, वह वास्तवमें सोच-समझ कर ही किया है। इस नियमके पालनसे सिवा लाभके किसी तरहकी हानि नहीं।
अभक्ष्य पदार्थोके खानेसे अनेक स्त्री-पुरुष रोग-ग्रस्त और कमजोर हो गये हैं। ऐसे अनेक दृष्टान्त पढ़ने और सुनने में आते हैं, कि अज्ञात फलके खानेसे कई स्त्री-पुरुषोंने अपने प्राणोंसे हाथ धोये हैं, कईयोंके हाथ-पाऊँ गल गये हैं। कई अभक्ष्य पदार्थ ऐसे भी हैं, जिनके खानेसे
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अभय रत्तसार।
६८७
उस समय तो परम आनन्द मालूम होता है। परन्तु कालान्तरमें उन्हींके कारण असाध्य रोग हो जाया करते हैं, जिनसे मनुष्य अल्प अवस्थामें ही संसारसे चल बसता है। अतएव मनुष्य मात्रको अभक्ष्य चीज़ोंका त्याग करना परमावश्यक है।
अब आप धार्मिक भावोंसे भी इस विषयका विचार कोजिये, जिससे आपको इसके त्यागका सच्चा महत्व और भी मालूम हो जायगा। जितने अभचय फल और कन्दमूल हैं, उन सभीमें दृश्य और अदृश्य रूपसे अनेक सूक्ष्मजीव रहते हैं। जब वह फल और कन्दमूल सेवन किये जायेंगे तो उन बिचारे जीवोंकी क्या दशा होगी यह आप स्वयं समझ लें। प्रत्येक प्राणीका कर्तव्य है, कि वह एक दूसरेकी आत्माको जहाँ तक बन पड़े बचानेका यत्न करे। छोटे-बड़े सभी जीवोंमें एकसी आत्मा है। उसमें छोटी-बड़ीका किसी तरह भेद नहीं। जितनी बड़ी आत्मा
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६८८ भक्ष्याभक्ष्य विचार ।
आपमें है, उतनी ही उन सूक्ष्म जीवोंमें है। अतएव आपका पूर्ण कर्तव्य है, कि जिस पदार्थके खानेसे जीवहानि होती हो, या किसी जोवको कष्ट होता हो तो उस पदार्थको सर्वथा न खाना चाहिये । यदि कोई आपका दूसरा भाई खाता हो तो उसे भी खानेको निषेध करना आपका परम कत्तव्य है।
श्रावकको उत्सर्ग मार्गसे प्रासुक अहार लेना कहा है; पर यदि शक्ति न हो तो सचित्त पदार्थ का त्याग करे, यदि वह भी न बन पड़े तो बाईस अभक्षय और बत्तीस अनन्त कार्यका त्याग करना तो परम आवश्यक है। अतएव यहाँ पर हम अपने प्रेमी पाठकोंके लाभके लिये कौन-कौन से अभक्षय पदार्थ हैं। वह संक्षिप्त रूपसे समझा देते हैं । आशा है, पाठक गण इसे पढ़ समझकर यदि थोडासा भी लाभ उठायेंगे तो हम अपने परिश्रमको सफल समझेंगे ।
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अभय रत्नसार। ६८९ बाईस अभक्ष्य किसे कहते हैं ? पाँच तरहके उम्बर फल ५, चार महा विगइ ४, हिम १०, विष ११, करहा
ओले १२, सब तरहकी मिट्टी १३, रात्राभोजन १४, बहुबोज१५, अनन्तकाय १६, बोल आचार १७, घोलबड़ा १८, बेंगन, जिनके नाम अज्ञात हों ऐसे फल-फूल १६, तुच्छ फल २०, चलित रस २२, इन बाईस चीजोंको अभक्षय पदार्थ कहते हैं। अतएव श्रावकश्राविकाओंको इनका त्याग जरूर करना चाहिये।
अभक्ष्य पदार्थ । १ बड़के फल, २ पारस-पीपली (फालसा) या पीपलके फल, ३ प्लक्ष (पीपलकी ही जातिका वृक्ष है) ४ गूलर और ५ कचूमर या कालम्बर, इन वृक्षोंके फलमें बहुतसे छोटे-छोटे जीव होते हैं, जिनकी गिनती नहीं हो सकती। इस
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६६० भक्ष्याभक्ष्य विचार । लिये ये सब अभक्ष्य हैं। दुष्काल पड़नेपर अन्न न मिले, तोभी विवेकी पुरुष इन्हें न खावे।
६, मधू ७ मदिरा ८ मांस , मक्खन, इन चारों वस्तुओंका जैसा रंग होता है, उसी रंगके असंख्य जीव इनमें निरन्तर उत्पन्न होते रहते हैं। इस लिये ये भी अभक्षय हैं-ये चार 'महाविगइ' कहलाते हैं।
मधु।-मधुमक्खियाँ या भौंरे अपने भोजनके लिये जो मधु या शहद जमा करते हैं, उन्हें ही नीच जातिके लोग धुआँ दिखा कर या मारकर, चुरा लाते हैं। बेचारे असंख्य जीव मारे जाते हैं। तिस पर मधुमें भी बहुतसे जीव पैदा होते रहते हैं, इसलिये जिह्वाके स्वादके लिये तो क्या कहना, औषधके लिये भी इसे नहीं खाना चाहिये । इसे खानेसे नरक-गति प्राप्त होती है। मदिरा ।--इसका तो सर्वथा त्यागही करना उचित है। अंग्रेजी दवाओंमें ज़रूर स्पिरिट (दारू) पड़ती है, इसलिये उन्हें भी नहीं खाना चाहिये।
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अभय रत्नसार।
अंग्रेजी दवाओंमें जो चूर्ण आदि होते हैं, उनमें भी बहुतसे अभक्ष्य पदार्थ मिले होते हैं । अतएव इनसे परहेज़ ही रखना उचित है। माम ।---मछलो, बकरा, हरिन, भेड़ा, चिड़िया आदि जीवोंको मारकर जो मांस प्राप्त होता है, वह महा अशुद्ध तथा अभक्ष्य है। सभी धर्मग्रन्थोंमें मांस खानेको निन्दा की गयी है, तो भी लाग मोटे-ताज़ होनेके लोभसे या जिह्वाके स्वादके लिये दूसरोंके प्राण ले लेते हैं । यह महा अधर्म और पाप-कर्म है।
मांसके अन्दर प्रत्येक रग-रेशमें अनेक त्रस जीव उत्पन्न होते हैं-उसे आगसे उबालने पर भी उसमें जीव उत्पन्न होते रहते हैं। इसी लिये धर्मात्माओंने मांस, अण्डे या मछलियोंका खाना बुरा बतलाया है। ___आजकल कुछ पापियोंने घीमें चर्बी मिलाना शुरू किया है। यह महा पाप है। इसी प्रकार विलायती बिसकुट आदि खाना भी बुरा है--
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६६२ भक्ष्याभक्ष्य विचार । इन्हें तो छना भो नहीं चाहिये। कितनी ही अंगोजी दवाएँ-जैसे, काडलीवर आयल (मछलीका तेल), और मुम्बई आदि कई औषधिये, चरवी वगैरहसे तैयार की जाती हैं। इनका सेवन करने वाले घोर नरकमें जानेका रास्ता तैयार करते हैं। जन्म, जरा, मरण, आधि, व्याधि
और उपाधिके दुःखसे छूटना हो, तो मनुष्य कभी इन चीजोंको न खाये।। मक्खन । छाँछमें से मक्खन निकालते ही तुरत उसमें जीव उत्पन्न होने लगते हैं, इसीलिये श्री अरिहन्त भगवान्ने इसका खाना मना किया है। प्रभुकी आज्ञाका अवश्यही पालन करना चाहिये।
ओस।-१० बर्फ, और ओले,—इन तीनोंमें भी बड़ादोष है । अपकाय (हर एक सचित्त पानी) को प्रत्येक बूंदमें असंख्य जीव होते हैं यदि ___ * मुबई नामक औषधी-पशु और मनुष्योंके कलेजेसे रक्त निकाल कर बनायी जाती है । इसलिये वह प्रत्यक्ष रूपसे अभक्ष्य है। इस औषधीके स्थान पर यदि शीलाजित काममें लाया जाय तो बड़ा ही लाभदायक है।
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अभय रत्नसार ।
६६३
उनका आकार सरसों बराबर भी हो जाय, तो उनकी गिनती इतनी अधिक होती है, कि फिर तो वे सारे जम्बूद्वीपमें भी न समा सकें । परन्तु चूंकि पानीके बिना प्राणीका जोना ही कठिन है, इसलिये अवश्यक्ता अनुसार खर्च करना पड़ता
| परन्तु उसीका जमा हुआ रूप जो बर्फ है, उसमें तो और भी बहुतसे जीव इकट्ठे होकर मर जाते हैं, इसलिये थोड़ी देरके स्वाद के लिये ऐसी चोज कभी न पीना । बहुत गरमी मालूम पड़े तो चन्दनका लेप करे या बादाम तथा चन्दनक शरबत पिये ।
कुदरती बर्फ या ओलेका पानी भी नहीं पीना चाहिये ; क्योंकि उस पानीमें असंख्य जीव होते हैं । यह तीर्थंकर महाराजका ही किया हुआ निषेध है। आइसक्रीम, आइस वाटर, इस सोडा, कुलफी आदि बर्फ की बनी चीजों का भी त्याग करना चाहिये ।
११ विष - भाँग, अफीम, बच्छनाग, हर
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६६४ भक्ष्याभक्ष्य विचार । ताल, संखिया, धतूरा आदि जहरीली और नशीला चीजे अभक्षय हैं; क्योंकि इनके खानेसे पेटके कीड़े मर जाते हैं, शरीर शिथिल हो जाता है और आदमी बेसुध सा हो जाता है। इस लिये शौक या बल प्राप्तिके लिये इन्हें नहीं खाना चाहिये-दवाके लिये खा सकते हैं। नशोंका व्यसन बड़ा ही बुरा होता है। इससे इस लोकमें भी बुराई होती है और परभवमें भी। अकसर स्त्रियाँ बच्चोंको नींद आनेके लिये थोड़ी सी अफ़ीम खिला दिया करती हैं ; पर इससे बच्चोंको कुछ फायदा नहीं पहुंचता, उलटी हानि होती है। साथ ही कहीं भूलसे उसने पुड़िया उठाकर खाली, तो जान जानेका डर होता है। इस लिये इसका ध्यान रखना चाहिये, कि स्त्रियाँ इस कामको न करें।
१२, ओले-आकाशसे जो वर्षाके पानीके साथ ओले गिरते हैं, वे भो बर्फ की तरह अभक्ष्य हैं।
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अभय रत्नसार ।
६६५
१३- भूमिकाय ( पृथ्वीकाय ) सब तरहकी मिट्टी, खड़िया, खार, नमक, आदि अभक्ष्य हैं; क्योंकि इनमें असंख्य जीव होते हैं। इनके बदले बहुत सी ऐसी चीजें काममें लायी जा सकती हैं. जो अचेतन हैं । खार या भूतड़ा नहाने धोने के काममें लाते हैं, वे उसके बदले में सोड़ा, आँवला, कंकोल, साबुन आदि काममें ला सकते हैं।
मिट्टी खाने से पेटके असंख्य जीव मर जाते हैं और पाण्डु, आमवात, पित्त और पथरी रोग होते हैं । यदि भूल से खाने-पीने की चीजों में धूल या कंकड़ी आ जाय, तो उसका दोष नहीं लगता, तथापि उपयोग रखना जरूरी है ।
कच्चा सचित्त नमक श्रावकको त्याग करना चाहिये । अचित्तका व्यवहार करना चाहिये । दाल और शाकमें डाल देनेसे नमक सचित्तसे अचित्त हो जाता है, परन्तु मसाले या औषधिमें अचित्त नमकका व्यवहार किया जा सकता है ।
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६६६ भल्याभक्ष्य विचार । .. १४–रात्रिभोजन-रातको भोजन करना इस भव आर परभव. दोनोंहीके लिये दुःखका कारण है। रातको खानेबाले उल्ल काग, गोध, बिच्छू, चहा, बिल्ली, सांप चिमगादड़ आदिकी योनिमें उत्पन्न होते हैं, बड़े दुःख पाते हैं और धर्मकी तो उन्हें प्राप्ति ही नहीं होती ! स्वयं रातको भोजन करनेसे बाल-बच्चे भी बहो चाल चलने लगते हैं। रातको खानेसे भोजनके साथ जीव-जन्तु ओंके मिल जानेका भी बड़ा डर रहता है। उत्तम पशु-पक्षी भी रातको नहीं खाते । दिनको भी अन्धेरे या छोटे बरतनमें खाना मना है। दिनका बना हुआ भोजन रातको और रातका बना हुओ दिनको खाना भी दोषयुक्त है, सूर्योदयके दो घड़ी बाद तथा सूर्यास्तके दो घड़ी पहले खाना चाहिये । इसके पहले या पीछे खाना मना है। रातको पानी पीना रुधिरपान तथा भोजन करना मांस-भोजन करनेके समान है। प्यारके मारे बच्चोंको रातमें खिलाना मना है।
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अभय-रत्तसार ।
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१५ - बहुबीज - जिन फलोंमें बीज-बीजमें अन्तर न हो, अर्थात् एकसे दूसरा सटा हुआ इस प्रकार बीज हों, उनको बहुबीज जानना । इनके प्रत्येक बीजमें जोव होते हैं, इसलिये इनका व्यवहार नहीं करना । अनार अभक्ष्य नहीं है ।
१६ - आचार बहुतसी चीजों के बनते हैं, पर कोई-कोई तो तीन दिनमें ही अभक्ष्य हो जाते हैं । आचार अधिक तेल में डुबोये जानेसे चित हैं; क्योंकि ऐसा होने से उनके बिगड़ने का डर नहीं और तबतक वे भक्ष्य बने रहते हैं । आचारके बर्त्तन बड़ी सफाईसे और खूब अच्छी तर हसे मुंह बन्द करके रखे जाने चाहियें । जहाँतक हो सके, आचार जल्दी खाके ख़तम कर देने चाहियें। वर्षों तक पड़े रहने देना ठीक नहीं ।
१७ - द्विदल ऐसे पदार्थ जिनकी दो फाँक दाल हो सकती हो, जिनको पेरनेसे तेल नहीं निकले और जिनके रोपनेसे फल नहीं होता, इन
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६९८ .
भक्ष्याभक्ष्य विचार ।
सबको द्विदल कहते हैं,--जैसे, चना, मूग, अरहर, उड़द, बजरा, मका, कुलथी, मटर, ग्वार, मसूर आदि। इनकी दाल, पकौड़ी, भाजी चाहे कुछ बनाकर खाइये। इसके साथ अगर दूध, दही या मठेका संयोग होता है, तो तुरत ही दो इन्द्रियोंवाले जीव उत्पन्न होते हैं। छाछ, दूध या दहीको खूब गरम करके अथवा गरम करनेके बाद ठंडे पानीमें मिलाकर किसी विदल पदार्थके साथ मिलानेसे दोष नहीं होता। मेथी ग्वार या अन्य बिना तेजवाले पदार्थो के पत्तोंका साग, मटर, चना, ग्वारकी फली, मगकी फली मटरकी फली, हरे चनेके पत्तोंके साग, सुखौंते या आचार अथवा दालमोठ, बुदिया, गांठिया आदि तले हुए पदार्थों के साथ तथा उड़द, मूग, आदिके पापड़ या बड़ेके साथ या मेथी पड़े हुए अचारमें कचा गोरस (दूध, दही या मठा) नहीं डालना चाहिये। दही-बड़ा अगर उबाले हुए गोरसका हो तो उसो दिन, खाना,
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अभय रत्नसार। नहीं तो अभक्ष्य है। राई तथा सरसों द्विदल नहीं है, क्योंकि उनमें तेल होता है। सिखरनके साथ भी द्विदलका स्पर्श नहीं करना चाहिये। स्पर्शदोष टालनेके लिये दाख, केला खजर वगैरहका रायता भी गोरस गरम करके बनाना चाहिये । यदि गेहूँ या बाजरेकी रोटीके साथ कचा गोरस खानेको इच्छा हो तो द्विदलवाले वर्त्तन, हाथ, मुह आदिधोकर ही विदलपदार्थ भोजन करने चाहिये। कहनेका तात्पर्य यह कि किसी प्रकार द्विदल-पदार्थके साथ कच्चं दध-दही छांछकी छाछत नहीं होनी चाहिये। गोरस खूब गरम कर लेनेपर उसके साथ द्विदलके संयोगसे कोई दोष नहीं होता। इसलिये कढ़ी, बड़े या रायता बनाते समय गोरसको खब गरम कर लेना चाहिये।
१८ बैगन-सब तरहके बैगन खाना छोड़ देना चाहिये; क्योंकि इसमें बहुत बीज होते हैंइसके मुंहपर सूक्ष्म त्रस-जोव (कीड़े) होते
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७०० भक्ष्याभक्ष्य विचार । हैं। यह काम और निद्राको बढ़ानेवाली चीज़ है। इससे पित्तवाले रोग होते हैं । इसे खाना एकदम मना है। इसका तो आचार वगैरह कभी बनना ही नहीं चाहिये । रोग और पापके इस आगारको तो तिलाञ्जलि ही दे देनी चाहिये।
१६ अनजाने फल-जिस फलका नाम नहीं मालम हो, जिसे कोई न खाता हो. उसका फल या फल कभी नहीं खाना चाहिये। उसके गुण-दोषका जब पता ही नहीं, तब कौन जाने वह जहर ही हो ? इसलिये उसका सदव त्याग ही करना उचित है।
२० तुच्छफल-जो असार पदार्थ तृप्तिकारक नहीं हो, जैसे खट्टे जामुन, पीलू, पीच. गुण्डी, आमकी केरियों, आदि तुच्छ फल हैं। चना, मटर, ग्वार, बाजरा, शमी आदि केवल तथा अन्य फलोंको जो अत्यन्त कोमल होते हैं। तुच्छ ही जानना, क्योंकि कोमल अवस्थामें
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अभय-रत्नसार।
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वनस्पतियां अनन्तकाय होती हैं। इसलिये उनका कोमल अवस्थामें भक्षण करनेसे अनन्तकाय-व्रतका भङ्ग होता है। ऐसी चीजें कितनी भी खा जाओ, तो भी जी नहीं भरता। साथ ही जो ऐसे तुच्छ फल बहुत खाता है, उ. सके बहुत रोग भी होते हैं। इसलिये इन सब तुच्छ फलोंका त्याग ही करना चाहिये। ___२१ चलित रस—सड़ा हुआ अन्न, बासी रोटी या पूरी, भात, दाल, साग, खिचड़ी, हलआ, लपसी, भुजिया, बर्फी, पेड़ा, ढोकला, (दाल, और चांवलके चूर्णका बना हुआ) आदि खानेकी चीजें एक रात बीत जानेपर बासी-हो जाती हैं-यही नहीं, सूर्यके अस्त होते ही उनके स्वाद, गन्ध, रस और स्पर्शमें परिवर्तन हो जाता है और वह "चलित रस” हो जानेसे अभक्ष्य पदार्थ हो जाते हैं। यदि बरसातके दिनोंमें बड़ी उत्तमरीतिसे मिठाई बनायी गई हो, तो उत्तम तो यही है कि उसे पन्द्रह दिनों
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७०२
भक्ष्याभक्ष्य विचार |
तक काममें लाये, मध्यम यह है, कि २० दिन तक काममें लाये और लाचारी दर्जे एक महीने तक उसे खा सकते हैं । यदि बनाने में ही कच्ची रह जाये, तो उस दिनकी बनी हुई उसी दिन अभदय हो जाती है । शास्त्रमें जितना समय दिया हुआ है, उसके बाद पदार्थ के च लित-रस हो जानेसे उसमें असंख्य दो इन्द्रि - योंवाले जीव उपन्न हो जाते हैं । इसलिये श्रावकों को चाहिये कि, बासी चीजें कभी न खायें। भोजनकी थालीमं जठा भी नहीं छोड़ना चाहिये | बल्कि खानेके बाद थाली धोकर पी लेना चाहिये । यदि खाने से बच्चा हुआ अन्न किसी जानवरको दे दिया जाये, तो और भी अच्छा है । दिनकी बनी चीजें सूर्यास्त के पहले खा लेनी चाहिये । रातकी बनी चीजें सवेरे खाना उचित नहीं । सवेरे सूर्यकी किरणें निकलनेके बाद चूल्हा जलाना और सूर्यास्त होते ही उसे बुझा देना चाहिये । अर्थात
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रातको कभी चूल्हा नहीं जलाना चाहिये।
चलित रसके सम्बन्धमें अन्य सूचनाएं । १ आटा-बिना छलनीमें चाला हुआ आटा पीसने के बाद कुछ दिनोंतक मित्र ( यानी कुछ सचित्त और कुछ अचित्त) रहता है-इसके बाद वह अचित्त हो जाता है। सावन-भादोंमें विना चाला हुआ आटा पांच दिनोंतक मिश्र रहता है। आश्विन-कातिकमें चार दिन, मगसर-पूसमें ; ३ दीन ; माघ-फगुनमें पांचपहर ; चैत्र-बैसाखमें चार पहर ; जेठ असाढ़में तीन पहर । इसके बाद वह अचित्त हा जाता है। और जिस दिन आटा पोसा गया हो, उसी दिन चाल लिया गया हो तो सभी ऋतुओंमें उसी दिन अचित्त हो जाता है और दा घड़ी बाद मुनि महाराज भी उसे खा सकते हैं। अचित्त हो गये हुए आटेमें भी वर्ण, गन्ध, रसका परिबर्तन हो गया हो तो वह अभक्ष्य हो जाता है। अगर उसमें कीड़े पड़ गये हो, तो उसे चाल कर
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७०४
भक्ष्याभक्ष्य विचार |
भी नहीं खाना चाहिये । चौमासेके दिनोंमें आटा हर रोज दोनों वक्त चालना चाहिये और जाड़े गरमीमें एक वक्त । कारण नहीं चालनेसे उसमें जाली पड़ जाती है और वह अभक्ष्य हो जाता है । आटेको हरदम इस्तेमाल करने के पहले चाल लेना चाहिये। गेहूं और चनेके आटेसे बाजरेका आटा बहुत जल्द बिगड़ता है । इस लिये उस पर ज्यादा ख़याल रखना चाहिये । व्यापारी पुराना अन्न बेचा करते हैं। इस लिये पिसवाने के पहले अनाजको अच्छी तरह देख लेना चाहिये । नहीं तो कितनेही छोटे-छोटे जीवोंके भी पिस जानेका डर रहता है। चौमासेमें तो ख़ास करके हर एक चीज़ में कीड़े पड़ जानेका डर रहता है। इसलिये नाजको बराबर देखते रहना चाहिये, इन सब बातोंकी तरफ़ स्त्रियोंको पूरा ख़याल देनेकी जरूरत है । इसमें उनकी बुद्धिमानी है । पहलेतो बड़े-बड़े घरोंकी स्त्रियां भी जीवदयाकी खातिर अपने घर के काम लायक आटा आपही
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अभय-रत्नसार ।
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पीलिया करती था; पर आजकलके ज़माने में तो इसमें अपनो हलकाई समझी जाती है ।
२ जलेबी - जिस तरिकेसे जलेबी बनायी जाती है, वह बहुतही ख़राब है। उससे बहुतसे जीवोंकी उप्तत्ति होनेका भय रहता है । मेदेको कई दिन रखे बिना और उसमें कुछ खटाई डाले विना जलेबी फूलती नहीं है । इसलिये इसे तो कभी खाना ही नहीं चाहिये। बाजारकी तो
और भी ख़राब होती है ।
३ हलवा --- हलवा यदि जिस दिन बने उसी दिन खाया जाये, तो भक्ष्य है । नहीं तो अभक्ष्य है | बासि तो खाना ही नहीं चाहिये ।
४ इमरती - यह जलेबी की सी होती है । पर इसमें बासी या खट्टी मैदानी काममें नहीं आती, अतएव जिस दिनकी बनी हो उस दिन खाने में कोई हर्ज नहीं है। दूसरे दिन अभक्ष्य हो जाती है ।
५. मावा (खोया) – दूधका मावा जिस
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७०६ भक्ष्याभक्ष्य विचार । दिनका बना हो उसो दिन भक्ष्य है । रातको अभक्ष्य हो जाता है। अगर वह धीमें भून लिया जाये तो रात-भर रह सकता है । उससे पेड़ा, बर्फी, गुलाबजामुन आदि मिठाई उसी दिन बनानी और सिर्फ ५ दिन तक खानी चाहिये । उसके बाद उसका रंग और स्वाद बिगड़ जाता है। कितने ही हलवाई मावेके साथ रतालू आदि कन्द मिला देते हैं। इस बातका ध्यान रखना चाहिये।
६ मुरब्बा-आमका मुरब्बा जाड़ा, गरमी और बरसात के दिनोंमें जब तक उसका रंग, गन्ध, रस और स्पर्श नहीं बदले तबतक खाने योग्य है। जैसाकि आचारके प्रकरणमें लिखा है। अगर वैसीही समाई और सावधानीके साथ उसे रखा जाये तो ठोक है। मुरब्बेकी चाशनी अगर नरम हो. तो बिगड़ जाती है। पन्द्रह बीस दिनमें ही उसके मुरब्बमें खराबी आ जाती है। इस लिये ऐसी चीजें बड़ी सावधानीसे बनानी चाहिये।
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अभय-रत्नसार ।
चौमासेमें तो इन चीजोंकी और भी देख-भाल करने की जरूरत है। मुरब्बेकी चाशनी नरम हो, तो थोड़े दिनमें मुरब्बा बिगड़ जाता है। नरम चासनीके मुरब्बेमें पन्द्रह-बीस दिन में ही काईसी जमने लगती है। भुना उठने लगता है। मुरब्बे या आचारका बर्तन खुला रखने से भी खराब होने का डर रहता है । इसके विपरीत मिठाई या गाँठिया वगैरह बन्द रहने से ही खराब हो जाते हैं। चौमासेमें तो हवा लगने से भी चीजें विगड़ने लगती हैं। इसलिये जो चीज जिस तरीके से रखने योग्य हो, वैसेहो रखनी चाहिये ।
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७ सेव, बड़ी, पापड़ आदि चीजें जाड़े-गर मीमें सूर्योदय होनेपर ही बनानी और सूर्यके अस्त होने के पहले ही सुखा लेनी चाहिये । नहीं तो वे बासी हो जाती हैं। चौमासेमें तो ऐसी चीजें बनाकर रखना हीं ठीक नहीं, क्योंकि उनमें पीले रंग काईसी जम जाती और अनेक त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं। चौमासेमें बने हुए
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७०८ भक्ष्याभक्ष्य विचार । पापड़ प्रतिदिन फेरफार कर देखते रहना चाहिये। भरसक तो इस ऋतुमें इन्हें काममें नहीं लानाही अच्छा है। ऐसी चीजें बनी रखी हो, तो आषाढ़ सुदी १५ के पहले ही खाडालना चाहिये और फिर कार्तिक सुदी १५ के बाद बनाना चाहिये। बाजारकी बनी हुई ये चीजें तो खानी ही नहीं चाहिये। श्राद्ध-विधिमे लिखा है, कि चौमासेमे सेव, बड़ी और पापड़ नहीं खाना चाहिये। ____८, दूधपाक—बसौंधी, खीर, सिखरन. दूध मलाई आदि चीजें दूसरे दिन बासी हो जाती हैं। इसलिये अभक्ष्य हो जाती हैं। रातको भी ये चीजें अभक्ष्य होती हैं। दही या दहीकी मलाईके विषयमें भी यही समझना चाहिये। ____६, आम-आद्रा-नक्षत्रके बाद आमका रस चलित होने लगता है, इसलिये आम अभक्ष्य हो जाता है । सड़े हुए, उतरे हुए, बदबूदार आम एक दम अभक्ष्य हैं। चूसकर खानेकी अपेक्षा रस निचोड़कर खाना ठीक है। यह रस भी
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अभय-रत्नसार।
७०६ ज्यादा देरतक नहीं रखना चाहिये। यदि चारछःया आठ घड़ीबाद खाना हो, तो ठंडे पानीके बर्तनमें रसवाला बर्तन रख देना चाहिये और ऐसी जगह रखना चाहिये, जहाँ गरमो न लगे। आदा-नक्षत्रके बाद तो आमका खाना छोड़ ही देना चाहिये। ___ १०, पापड़ -सेकें हुए पापड़ दसरे दिन बासि हो जाते हैं। घी या तेलके तले हुए पापड़ दूसरे दिन खासकते हैं।
११, चटनी-धनिये और पुदीनेकी चटनीमें सेके हुए चने या गाँठिया आदि डाल कर जो चटपटेदार चटनी बनायी जाती है। वह जिस दिन बने उसी दिन भक्ष्य है । दूसरे दिन नहीं। नीबू, करौंदी, धनीया, पुदीना आदि चीजोंकी चटनीमें यदि किसी तरहका अनाज न पड़े तो भक्ष्य है। भरसक तो चटनी रोज ही ताजो बना कर खानी चाहिये।
१२, मसाला-ओटे या मेथीके साथ बनाया
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७१० भक्ष्याभत्य विचार । हुआ मसाला दूसरेही दिन अभक्ष्य हो जाता है।
१३, पकवान-पकवान या मिठाइका जब तक रुप रस या गन्ध नहीं बिगड़े तबतक भक्ष्य रहते हैं । बरसातके दिनोंमें उत्तम रीतिसे बनायी हुइ मिठाइ पन्द्रह दिन गरमीमें २० दिन तथा जाड़ेमें एक महीने तक भक्ष्य रहती है । हलवाईकी दूकानकी मिठाईका समय यह नहीं हो सकता; क्योंकि इसका कोई ठीक नहीं रहता कि उसने कब मिठाई बनायी। अगर वर्ण, गन्ध, रसमें फर्क पड़ जाये तो इस समयके पहले हो अभक्ष्य हो जाती है। दूकानकी मिठाईमें बहुतेरे दोष हैं । इसलिये जहाँतक होसके घरपरही बनवानी चाहिये । बरसातमें तो भूलकर भी हलवाई की दूकानकी मिठाई नहीं खानी चाहिये।
१४, बेसनकी चीजें सेव, गॉठिया, बंदिया दालमोठ आदि बेसनकी चोजोंका समय मिठाई. के हो समान जानना । भुजिया, कचौरी, पूरी, मालपुआ आद नरम चीजें तो दूसरे ही दिन बासी हो जाती हैं । इसलिये अभक्ष्य हैं।
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अभय - रत्नसार ।
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१५, चूरमे का लड्डु - यदि तला हुआ न हो तो दूसरे दिन बासी हो जाता है, नहीं; तो दूसरे तीसरे दिन भी खा सकते हैं । बहुत से लोग चूरमे के लड्डु या अन्य मिठाइयोंमें तिल डालते हैं । तिल अभय है इसलिये उसका त्याग करना चाहिये ।
१६, रसोई - गरमीके दिनों में सबेरेकी रसोई, ( दाल, भात, आदि ) शामको स्वाद हीन (चलित - रस) हो जाती है, इसलिये अभक्षय है । रोटी-पूरी भी बड़ी हिफ़ाज़त से रखना चाहिये ।
१७, भात - रांधे हुए भातपर यदि दही या छाँछु छीटे डाले जाये तो वह आठ पहर तक भचय रहता है; पर सवेरेका पकाया हुआ भात इसी तरह दहीके छींटे डाल कर रखा गया हो, तो सिर्फ उसी दिन तक भय रहता हैसूर्यास्त के बाद वह काम लायक नहीं रहता । १८, दही- सवेरेका जमाया हुआ दही
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७१२ भक्ष्याभच्य विचार । सोलह पहर तक काम लायक रहता है। इसके बाद अभनय हो जाता है। साँझका जमाया हुआ दही १२ पहर बाद अभक्षय हो जाता है। इसका हिसाब यों लगाना चाहिये, कि रविवारको दिनमें दस बजे दही जमाया जाये तो उस समयसे नहीं, बल्कि सूर्योदयसे ही समयकी गिनती होगी। वह दही मंगल वारके सूर्योदय के पहले-पहल खालेना चाहिये । इसके बाद उत दहीके छांछका सोलह पहर समय गिना जायेगा। दूधका यदि रंग वगैरह न पलट गया हो, तो वह चार पहर तक पीने योग्य होता है। दोपहर या संध्याके बाद दुहा हुआ दूध हो, तो उसमें रातके बारह बजेके पहले-पहल जोरन (मेलन ) डाल देना चाहिये।
बाजारका दही नहीं खाना चाहिये; क्योंकि बाजारके वर्तन-बासनका कोई ठिकाना नहीं रहता--कभी-कभी तो उसमें मरे हुए कीड़े भी मिलते हैं । काँजीका काल भी १६, पहरका
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अभय-रत्तसार ।
है। इस प्रकार दूध, दही, छाँछु मटू का जोसमय कहा गया है। उसके पहले भी यदि उनका रुप, रस, गन्ध बिगड़ जाये तो उन्हें अभक्षय जानना चाहिये।
१६, दूध -- दूध चार पहर तक भक्ष्य रहता है; पर साँझका दुहा हुआ दूध आधी रातके पहले ही इस्तेमालमें आजाना चाहिये। कभी-कभी गरमीके दिनोंमें कड़ी गरमीमें, बड़ी देर तक बिना गरम किये छोड़ देनेसे बिगड़ जाता है; पर उसे दही समझ कर काममें नहीं लाना चाहिये; क्यों कि उस दूधका वर्णादिक पलट जानेसे वह अभक्ष्य हो जाता है। आजकल बहुत से दूध बेचनेवाले रातको दूध खूब गरम करके उसमेसे मलाई निकाल लेते हैं । और उसमें अरारोट मिलाकर सवेरे ताजा दूध कहकर उसी को बेचदेते हैं । इसका पूरा ख़याल रखना ।
बिगड़े हुए या बासी दूधका दही, खीर, बसौंधी,मलाई, खोआ आदि नहीं खाना चाहि
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७१४
भक्ष्याभच्य विचार |
ये । जहाँतक हो सके, तुरतका दुहा हुआ दूध झटपट गरम कर लेना चाहिये, नहीं तो उसके बिगड़ने का डर रहता है । बिना छाने दूध नहीं पीना चाहिये | जैनशास्त्रोंमें इन ७ चीजोंका छान लेना बहुत जरुरी बताया गया है ।
(१) मीठा पानी (२) खारा पानी (३) गरमपानी (४) दूध (५) घी (६) तेल और (७) आटा ।
दुध बेचने वाले अकसर दूधमें पानी मिला देते हैं । उन्हें इसका विचार नहीं रहता, कि उस पानी में कीड़े हैं या बाल हैं या वह पानी छना हुआ है या नहीं |
गाय, भैंस, बकरी और भेंड़का दूध तो ग्रहण करने योग्य है और किसी जानवरका नहीं । जो दूध जल्द बिगड़ जाता है, वह रोग उत्पन्न करता है ।
२०, घी -- घीका रुप, रस, गन्ध, स्पर्श बिगड़ जाय, तो वह अभय हो जाता है । बहुत दिनका रखा हुआ घी भी बिगड़ जाता है।
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अभय-रत्नसार। ७१५ आज कल बहुतसे बेईमान घीके व्यापारी चर्बी, रतालू आदि मिला कर घी बेचते हैं। इधर कई दिनोंसे तो “वनस्पति-घृत"के नामसे एक प्रकारका विलायती घी बिकने लगा है । यह सब अभक्ष्य हैं। इसकी ओर सबको ध्यान देना चाहिये। घी बनानेवाले यदि मक्खनसे घी निकाल कर तुरत आग पर रख गरम कर लिया करें तो ठीक हैं' नहीं तो अक्सर देखा जाता है, कि वे दो-चार या पाँच-सात दिनका इकट्ठा हुआ मक्खन लेकर घी बनाते हैं। जिनके घरमें गाय भैंस हो, उन्हें तो अपने घर घी तैयार करनेकी चेष्टा करनी चाहिये।
२१-बलि-हालकी व्यायी हुई गाय-भैंसके तुरत दुहे हुए दूधको बलि बनती है। व्यायी हुई गायका दूध १० दिन, भैंसका १५ दिन, बकरीका ८ दिन तक ग्रहण करने योग्य नहीं है। ___२२-खट्टी पकौड़ी—जो चाँवल, उरद या चनेकी दालकी दहीमें पकौड़ी बनायी जाती
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७१६ भक्ष्याभक्ष्य विचार । है। वह रातको बनायी हुई अभक्ष्य होती है। सूर्योदयके बाद बनानी और सूर्यास्तके पहले ही खालेनी चाहिये । रोटी, पूरी, दाल, कढ़ी, भुजिया, पकौड़ी या बिना दही छिड़का हुआ भात आदि चीज़ बासी होने पर बिलकुल खराब हो जाती हैं। इनके खानेसे अनेक जीवोंके विनाशका भय रहता है, शरीरमें बहुतसे रोग पैदा होते हैं, प्रभुकी आज्ञाका भी उल्लंघन होता है । इसलिये हमको हरएक चाज़ तुरतकी ताजीही खानी चाहिये । बहुतसी जगह यह रिवाज है, कि शीतलाष्टमीके दिन चल्हा नहीं जलाते और रातकी बनी हुई चीज़ दूसरे दिन सवेरे और शामको खाते हैं । यह बिलकुल मिथ्यात्व है। इसे छोड़ देना चाहिये। _२३ दही-बड़े-अगर गरम दहीमें बनाये हों, तो उसी दिन भक्ष्य हैं। कच्चे दहीके बड़े अभक्ष्य हैं।
२४, खाखरा-गुजरात आदि प्रान्तोंमें
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अभय-रत्तसार ।
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गेहूका खाखरा बना कर सुखा कर रख लिया पाँच-सात या अधिक
जाता है और लोग उसे दिनतक खाते रहते हैं । अक्सर लोग उसी वरतनमें ऊपरसे भी खाखरा बना बना कर रखते जाते हैं । ऐसा करना उचित नहीं जिस बर्तन में रखते हैं, उसे तो हरदम साफ़ ही रखना चाहिये नहीं तो उसमें कितने ही त्रस जोवोंके पैदा हो जानेका डर रहता है ।
"
२५ - - पापड़की लोई, बड़ा, मीठी पूरीउरद, मूंग आदिके बड़े या मीठी पूरी, मुलायम रोटी सवेरेकी बनी हुई हो, तो चार पहर तक खाने योग्य रहती है ।
२६ जुगलीराव - ज्वार या मक्काके आदेको aai iध कर जो 'राब' बनायो जाती है उस जुगली राबका समय १२ पहरका है । इसके उपरान्त वह अभक्ष्य हो जाती है। अन्न कम और छाँछ ज्यादा हो तो जुगली राब और छाँछ कम तथा अन्न ज्यादा हो तो 'घाट' कहलाती है । इसका समय ८ पहर है ।
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७१८
भक्ष्याभक्ष्य विचार |
२७ रायता - केला, दाख, खजूर, छुहारे आदिका रायता बनाते हैं । इसका समय १६ पहरका कहा गया है । यदि इसे विदलके साथ खाना हो, तो खूब गरम करके दही डालना चाहिये। सेव, गाँठियाँ, बंदिया आदि डाल कर रायता बनाना हो तो पहले दही गरम करके तब इन बिदल पदार्थोंको मिलाना चाहिये । यह रायता शाम तक खाने योग्य है ।
२८ भूना हुआ अन्न चावल, चना, मटर, मक्का आदिको भून कर चबेना बनात हैं । इसका काल - प्रमाण भुंजिया, पूरी, चूरमे के लड्ड आदिके समान है । इसे चौमासेमें १५ दिन, जाड़े में १ महीना और गरमीमें २० दिन जानना । २६ ढुंढरिया - यह काठियावाड़ में बनती है । ज्वार - बजरे में पानी डालते और कूटते हैं । इसके बाद उसे सुखाकर भूसी अलग कर देते हैं । उसका समय वर्षा में १५ दिन, जामें १ महीना और गरमीमें २० दिन ।
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अभय-रत्नसार।
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३२ बत्तीस अनन्तकाय । सभा अनन्तकाय अभक्ष्य हैं; क्योंकि एक सुईकी नोक बरा. बर जगहमें कन्द-मूलोंको कलीमें अनन्त जीव रहते हैं । अतएव श्रावकोंको उचित है कि अनन्तकायसे परहेज़ करें । एक जिह्वाके स्वादके लिये अनन्त जीवोंकी हानि करना बहुत ही बुरा है। अनन्तकायका सर्वथा त्याग करनेसे अनन्त जीवोंको अभयदान देनेका फल मिलता है। क्या अभक्ष्य-भक्षण किये बिना हमारा निर्वाह नहीं हो सकता? क्या और वनस्पतियोंका अकाल पड़ गया है ? जो लोग प्राण जाये, तो जायें, पर अभक्ष्य पदार्थ नहीं खाते, वे धन्य हैं जो अपने बुरे कर्मोंके वशमें पड़ कर जानबूझ कर आँखें बन्द किये हुए, परभवका लेश-मात्र भी भय न मान कर अदरक, मूली और गाजर आदि चीज़ खाते हैं, उन पापियोंकी न जाने क्या गति होगी ? मनुष्यत्वके साथ जैनधर्मका पालन कर अपना यह भव सफल करो और अन्तमें शिवसुखके भागो बनो । हे भव्य-पुरुषों ! भगवान दीर्थाङ्कर महाराजने जो २२ अभक्ष्य पदार्थ बतलाये हैं, उनका शोघ्रतासे त्याग कर, श्रावक नामको सार्थक कर, सच्चे जैन बनो।
बत्तीस अनन्तकायोंके नाम। भूमिके मध्यमें जो कन्द उत्पन्न होते हैं, वे सब तरहके कन्द । २-कच्ची हल्दी। ३-कच्ची अदरक । ४-सूरन । ५-लहसुन । -कच्च । ७-सतावर । ८--बिदारीकन्द । E-घीकुआर । १०-थुहरीकन्द । ११ --गिलोय । १२-प्याज़ ।
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७२०
भक्ष्याभक्ष्य विचार ।
१३-करैला । १४-लोना साग । १५-गाजर । १६ लोढ़ीपद्मका कन्द। १७-- गिरिकर्णी-( यह काठियावाड़में अंचारके काममें आती है, कच्छ देशमें इसकी पैदाइश बहुतायतसे है)। १८ -किसलय (कोमलपत ) सभी प्रकारके वृक्षके हरे और नये पत्ते तथा वनस्पतियोंके उगनेके समयका अंकुर अनन्तकाय जानना चाहिये। यदि जरुरत हो, तो मोटे पत्ते लेने चाहिये। १६-खीरसुआकन्द ( कसेरू.)२०-थेगकन्द । २१-मोथा। २२-लोन-वृक्षकी छाल । २३-खिलोड़ कन्द । २४-अमृतवेली।
२५–मूली ( देशी विदेशी)-मूलीके पांचों अङ्ग अभक्ष्य है (१) मूलीका कन्द (२) डाल (३) फूल (४) फल (५) बीज ये पाँचों ही अभक्ष्य हैं। इनमें बहुतसे त्रस-जीव उत्पन्न होते हैं।
२६-भुईफोड़--यह बरसातके दिनों में छत्रके आकारमें उत्पन्न होता है।
२७-बथुएका साग।
२८-बरुहा—जिसमें विदल धान्यकी तरह अङ्कर निकल आया हो । रातको जो दाल पानीमें छोड़ी गयी हो और उसमें अङ्कर निकल आये हो, वह अभक्ष्य है। जो अन्न पानीमें फुलाया जाये वह सवेरे ही फुलाना चाहिये और थोड़े ही देर पानीमें रखना चाहिये । मतलब यह कि अङ्कर नहीं फुटना चाहिये । अगर अन्नको उबाला जाये, तो अङ्कर निकलनेका भय नहीं रहता ।
२८-पालकका साग। ३०-सुअरवल्ली (जंगली लता ) ३१--कोमल इमली, जिसमें बीज न हों, वर्जित है । ३२-आलू कन्द तथा रतालू, पिण्डालू, शकरकन्द, धोषात
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अभय-रत्नसार।
७२१
की, करे, करीर आदि वनस्पतीयोंके अङ्कर अनन्तकाय कहे जाते है । टिंडेका कोमल फल, वरुण-वृक्ष, बड़ा नीम आदिको भी अनन्तकाय जानना ( अङ्करावस्थामें )।
इस प्रकार अनन्तकायके ३२ नाम गिनाये गये हैं। प्रसिद्ध तो इतने ही हैं, विशेष नाम तो अनेक हैं। किसी वनस्पतिके पांचों अङ्ग, किसीकी, जड़, किसीका पत्ता, फूल, छाल, या काठि अनन्त काय होता है । किसीका एक, किसीके दो, किसीके तीन, किसीके चार और किसीके पांचों अङ्ग अनन्तकाय होते हैं। जिस वनस्पतिके पत्ते, फल आदिकी नस या सन्धि मालूम न पड़े, गांठ गुप्त हो, तुरत टजाये, तोड़ते ही पिचक जाये, पत्ता मोटे दलका और चिकना हो, जिसके फल और पत्ते बड़े कोमल हों उसको अनन्तकाय जानना। यह सब लक्षण एक ही में हों, यह सम्भव नहीं हैं। कोईका साग भी अनन्तकाय कहा गया है। अनन्तकायके सम्बन्धमें जानने योग्य बातें।
१-कितने ही धूर्त दूकानदार दूध, खोये और घीमें रतालू या शकरकन्द पीस कर मिला देते हैं । इसके बारेमें पूरा ध्यान रखना चाहिये।
२---गीली अदरक या कच्ची हल्दीके स्थानमें सोंठ या सूखी हुई हलदी खानेके काममें लानी चाहिये । इनके सिवा और किसी अनन्तकायका सुखौंता भी काममें नहीं लाना चाहिये। इनका अचार भी वर्जनीय हैं । गाजरका सुखौंता या अँचार तथा घीकुवार, कच्ची हल्दी, अदरक, गिरोकर्णी आदिका आचार सर्वथा अभक्ष्य है।
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७२२
भक्ष्याभक्ष्य विचार ।
३ दुकानदार अपने यहाँ लहसुन, प्याज़ वगैरह अशुद्ध चीज़ भी रखते हैं । बाजारकी चटनीमें तो प्रायः लहसुन मिला होता है। साथही वे बासी चीजें भी गरम करके ताजीके समान बेंचते हैं। अतएव बाजारू चीजोंके खाने में कई तरह के दोष हैं । जिस कढ़ाई या तेलमें लहसुन प्याज तले गये हैं, उसमें फिर कोई चीज़ नहीं तली जानी चाहिये । कितने ही लोग दालमें अदरक छोड़ते हैं कितने ही लहसुन-प्याज़से बघारते हैं, कभी कभी लोग दाल या कढ़ीमें हरी इमलो डाल देते हैं । इनकी ओर विशेष ध्यान देना चाहिये छुआ-छूतका भी विचार रखना उचित है। अनजानकी बात दूसरी है, पर जान बूझ कर दोष करना ठीक नहीं है ।
४ मेथी पालक वगैरहके सागोंमें भुआ और लोनीका साग जो अनन्तकाय है, मिले तो उसे निकाल देना चाहिये। अनजाने की बात और है ।
एक और ग्रन्थमें ये नीचे लिखे बाईस पदार्थ अभक्ष्य बतलाये गये हैं
(१) गूलर (२) प्लक्ष (३) काकोदुम्बरी (४) बड़ (५) पीपल (इस किस्मके पांच फल ); (६) मांस, (७) मदिरा, (८) मक्खन
और मधु (ये चारों महा विकृत या महाविगई कहे जाते हैं।) (E) अनजाने फल (१०) अनजाने फूल (११) हिम (बर्फ) (१२) विष (१३) ओले (१४) सच्चित्तभिटी (१५) रात्रि-भोजन (१६) दही-बड़े आदि जो कच्चे दही-दूधमें नाजकी बनी चीजे डाल कर बनाये जायें (१७) बैगन (१८) पोश्ता (१८) सिंघाड़ (यद्यपि अनन्तकाय नहीं है तथापि काम बृद्धि करता है, इस लिये वर्जित है) (२०) छोटे बैगन और (२१) कायंवानी। २२ खस खसके दाड़े।
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अभय-रत्नसार ।
७२३
पहले कहे हुए २२ अभक्ष्योंके साथ इस ग्रन्थोंमें ११, १८, २०, २१ और २२ नम्बर वाले अभक्ष्य विशेष है, इनका भी त्याग करना चाहिये ।
अभक्ष्य अनन्तकाय दूसरेके घर, अचित्त किया हुआ हो; तो भी नहीं खाना चाहिये ; क्योंकि एक तो दोष लगे और दूसरे व्यसन पड़ जाये । सोंठ तथा हल्दी नाम तथा स्वादका पेर होने से अभक्ष्य नहीं रह जाते । इन अभक्ष्योंमें भाँग, अफ़ीम आदिकी जिन्हें लत लगी हुई है, उनको चाहिये, कि उसकी नाप-तौल ठीक रखे। रात्रि भोजनके बारेमें चौबिहार तिविहार या दुविहारका नियम ले लीजिये, कि एक महीनेमें इतना करेंगे। यदि रोगके कारण दवाके तौर पर कोई अभक्ष्य पदार्थ खाना पड़े तो उसका नाम, समय और वजन भलीभाँति समझ लेना चाहिये । यदि कभी कोई चीज़ अनजानते में खा ली जाये, तो उससे व्रतका भङ्ग नहीं होता ।
श्रावकोंको अन्य मतोंके मानने वालों या जाति बिरादरी वालोंके यहाँ जीमने जाना पड़ े, तो बहुत समझ-बुझ कर जीमना चाहिये; क्योंकि उनके यहाँ २२ अभक्ष्य और ३२ अनन्तकाय मेंसे कुछका दोष तो अवश्य ही लग जानेका डर रहता है । इसीसे जहाँ तक बन पड़े, बहुत कम आदमियोंसे जान-पहचान रखे, वहीं तक अच्छा है। ख़ास कर द्वादशव्रतधारी तथा विरति व्रतवालोंको तो ऐसी जगहों में जाकर जीमना ही नहीं चाहिये ।
उधर जो बाईस अभक्ष्योंका वर्णन किया गया है, उसको
भलीभाँति समझने की चेष्टा करनी चाहिये । स्वयं भगवान् ने उनके
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७२४
भक्ष्याभक्ष्य विचार ।
भोजनका निषेध किया है, इसलिये उनकी आज्ञाका अवश्य ही पालन करना चाहिये । हमलोग पूजाके समय सबसे पहले माथेमें जो तिलक लगाते हैं, उसका आशय यही है, कि हम प्रतिज्ञा करते हैं, कि हे भगवन् ! हम आपकी आज्ञाएँ अपने शिर पर चढ़ाते हैं। इसलिये नित्य ही भगवानकी आज्ञाका पालन करना तथा इस प्रतिज्ञाके चिह्न-स्वरूप तिलक लगाना चाहिये।
इन अभक्ष्य पदार्थों का वर्जन करके हम असंख्य जीवोंको अभयदान देनेका पुण्य प्राप्त कर सकते हैं। शास्त्रोंमें लिखा है, कि एक जीवको अभय देना सुवर्णके सुमेरुपर्वतका दान करनेके बराबर है। फिर जो असंख्य जीवोंको अभयदान करते हैं, उनके पुण्यका क्या ठिकाना है ? इसलिये हे चतुर और सुज्ञ बन्धुओ! आप लोग भगवानके वचनोंका आदर कीजिये ; क्योंकि यही मोक्षका द्वार है । जो यह कहते हैं, कि खाना, पीना, मौज करना ही जीवनका मूल-मन्त्र है, वे पापी और मूर्ख हैं। जो लोग शरीरको दुःखोंकी आँचसे तपाकर महाफलकी प्राप्ति करनेमें लग जाते हैं, वेही शीघ्र मोक्षके अधिकारी होते हैं ।
विशेष सूचनाएँ । बाईस अभक्ष्योंके सिवा और भी कितनी ही चीज अभक्ष्य है। हम नीचे उनका हाल और कब कौन चीज़ भक्ष्य या अभक्ष्य है, उसका वर्णन लिखते हैं।
१-फागुन सुदी १५ से कातिक सुदी १५ तक दोनों तरहके खजूर, दोनों तरहके तिल, पोस्ता, खारेक, काजू वगेरह मेवे तथा सब तरहकी पत्तोंकी भाजी अभक्ष्य है। फागुनका चौमासा
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अभय-रत्नसार।
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लगनेके पहले ही तिलका तेल पेरवाकर रख लेना चाहिये ; क्यों कि तिलमें बहुतसे उस जीवोंकी उत्पत्ति होती है, इसलिये ८ महीने पहलेसे ही तेल भर कर रख लेना चाहिये। तिल-शकरी, तिलके लड्डु, और रेवड़ियाँ नहीं खानी चाहिये । पोस्ता बहुबीज है, इसलिये इसका खाना सर्वथा वर्जित है । जिस चीजमें पोस्ताके दाने पड़े हों, वह सब तरहसे श्रावकोंके लिये अभक्ष्य है। अकसर लोक चूरमेके लड्डू घुघुरो आदि मिठाइयोंमें पोस्ताके दाने डालते हैं, इस बातका पूरा-पूरा ख़याल रखना चाहिये।
होलीके दिनसे ऋतु बदलने लगती है, इसलिये अनेक चीजोंमें अस जीव उत्पन्न होते हैं । इसलिये इस समय भक्ष्याभक्ष्यका पूरा विचार रखना चाहिये ।
काजू, अंगुर और सूखे अजीर आदिमें जीव पड़नेका सम्भव रहता है । अतएव ये अभक्ष्य हैं। ये चीजे जाड़े के दिन में ही खानेकीहै, अतः ८ महीनेतक (कातिक सुदी १५ नक) इनका व्यवहार न कर, उसके बाद करना चाहिये। ___ जो शाग-भाजी या पत्ते आदि तरकारो या आचारके लिये रखे जाते हैं, वे आठ महीने बाद अभक्ष्य हो जाते हैं, क्योंकि नव महीनेमें उनमें त्रस जीव उत्पन्न होने लगते हैं। ___ जो लोग आठ महीने भाजी या पत्ते नहीं खाते, वे पानके पत्ते भी नहीं खा सकते और कढ़ीमें मीठे नीबूका रस भी नहीं डाल सकते, यह बात ध्यानमें रखनी चाहिये।
२-असाढ़ चौमासेसे कातिक चौमासे तक सूखे मेवे, जैसे, बदाम, पिस्ता, चिरौंजी, किशमिश, दाख, अखरोट, कुकणी केला,
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७२६
भक्ष्याभक्ष्य विचार ।
जरदालू, अंजीर, मूंगफली, सूखे नारियलकी गिरी, सुखी रायण, कच्ची खांड, सूखे अँगुर आदि अभक्ष्य हैं । कारण उनमें तद्वर्ण जीव होते हैं, कुन्धू आदि त्रस जीव पड़ जाते हैं और भुआ या काई जम जाती है । ताज़े तोड़े हुए बदाम, पिस्ता, पानीवाला नारियल उसी दिन काममें ला सकते हैं। जो बदाम या पिस्ते की मींगी बाज़ार में बिकती है, वह नहीं खानी चाहिये। एक दिनका फोड़ा हुआ नारियल, जिसका पानी निकाल लिया गया है, दूसरे दिन तक खा सकते हैं अगर उसका रंग बदल नहीं गया हो । कितने ही सूखे मेवे फागुन में भी अभक्ष्य माने जाते हैं। बात भी ठीक मालूम होती है : क्योंकि प्रायः देखा जाता है, कि चैत-बैसाख के दिनों में काली दाखमें कीड़े पड़ जाते है । इसी प्रकार ज़रदालू, अंजीर वगैरह पदार्थों में भी जीवोत्पत्ति हो जाती हैं, जिससे वे अभक्ष्य समझने चाहिये । बहुतसे व्यापारी गत वर्षकी दाख, अजीर, बदाम, पोस्ता, चिरौंजी आदि मेवे बेंचते हैं। ख़रीदते समय इनके विषय में पूरी सम्हाल रखनी चाहिये । जहाँ तक हो सके, ताजे माल ही ख़रीदने चाहियें। नहीं तो जाने-पहचाने हुए व्यापारीके यहाँसे हो मंगवाना चाहिये। नौकर चाकरोंके हाथसे मंगवाने में तो अकसर धोखा ही होता है ।
३ - चौमासे ( असाढ़ सुदी १५ से कार्तिक सुदी १५ तक सूखे हुए सागका * सुखोंता तो सर्वथा त्याग ही करना चाहिये ।
* श्राज कलके समयमें प्रायः सब तरहके सागोंको सुखोंता बनानेकी जो प्रथा हो रही है, वह सर्वथा त्याग करने योग्य है । यह कोई शास्त्रीय विधान
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अभय-रत्नसार।
७२७
कारण, उसमें बस जीव पैदा हो जाते हैं। गरमीमें भी सुखौंता बड़ी हिफ़ाजतसे रखना चाहिये, नहीं तो कीड़े पड़ जाते हैं। चौमासेमें तो इसका खास कर त्याग करना चाहिये।
४-चबेना-चावल, गेहू बाजरा, ज्वार, मका, चना आदिका भुना हुआ चबेना कभी नहीं खाना ; क्योंकि इस प्रकार भुने हुए अन्नमें बहुतसे जीवोंके विनाशका भय रहता है।
५-किसी भी वनस्पतिका भर्त्ता बनाकर नहीं खाना चाहिये
६-पान-इसके खानेसे बहुतसे त्रस जीवोंके नाशका भय है। इसलिये पान नहीं खाना । ब्रह्मचारियोंके लिये तो यह और भी बुरा है । जिनको पान खानेकी आदत लग गयी है, उनको भी कमी करनी चाहिये। ___७-चक्कीका आटा-अजकल बड़े-बड़े शहरोंमें विदेशी चक्कीका आटा बिकता और बाहर भी चालान होता है। कितने दिन बाद भी यह आटा बिकता रहता है, अतएव इसमें बहुतसे जीव पैदा हो जाते हैं । अतएव इसका व्यवहार नहीं करना चाहिये । जिस घरमें इस आटेकी चीजें बनी हों, वहाँ खाने नहीं जाना चाहिये । इस आटे या मेदेकी बनी मिठाई, पुरो, कचौरी, नानखताहो बिलकुट, आदिका त्याग करना ही उचित है। नहीं है। केवल लोगोंने अपने पारामके लिये ही यह प्रथा जारी कर रखी है। मारवाड़ बीकानेरकी ओरके श्रावकों ने तो जमो कंदके सुखोंतेको भी खानेकी प्रथा चला रखो है । यह तो और भी खराब है। हमारे खयालसे तो किसी सागका सुखोंता बनाना ही नहीं चाहिये। इसमें अनेक तरहके दोष हैं ।।।
संपादक
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७२८
भक्ष्याभक्ष्य विचार |
८ -मीठा काजू -हलवाई जो मीठा काजू बनाता है, उसको बिना देखे माल बना डालता है, इसलिये उसमें त्रस - जीव होनेकी शङ्का रहती है । इसलिये उसे नहीं खाना चाहिये । यदि खाने की इच्छा हो तो घर में बना लो और काजुका छिलका अलग करके भलीभाँति देख लो कि कोई जीव तो नहीं हैं ।
1-विलायती दूध - विलायतसे डिब्बों में भरे हुए नेसल्स मिल्क,' 'मिल्कमेड मिल्क' आदि दस-बारह तरहके बनावटी दूध आते हैं, जो मुसाफिरीमें दूधके बदले चायमें डाले जा सकते हैं; परन्तु ये सब तथा शीशेमें बन्द करके आनेवाले आचार, मुरब्बे, गुलकन्द और विलायत विस्कुट आदि वस्तुएं अभक्ष्य हैं। इसलिये इन सबका त्याग कर देना चाहिये । आजकल हमारे देशमें इतना रोग-शोक इन्हीं सब अभक्ष्य पदार्थों के खानेसे बढ़ गया है ।
१० - सोडा, लेमोनेट, जिञ्जर, राजबेरी, पिक-मी-अप, बिलकास, एलटौनिक, कोल्ड ड्रिङ्क, कोल्ड क्रीम, जिजरेल - लाइम, लीथियो, मरीक, चेरी सीडर, चैम्पियन सीडर, क्विनाइन, टौनिक, क्रीम सोडा आदि कितनी ही चीज़ बोतलमें बन्द करके आती हैं । इनका व्यवहार करना ठीक नहीं है । इसका कारण यह है कि इन बोतलोंको मुसलमान, पारसी, आदि सभी मुहमें लगाते हैं - फिर उन्हें अपने मुंहसे लगाना धर्म भ्रष्ट होना नहीं तो और क्या है ? फिर ये न जाने कितने दिनोंकी भरी भरायी दूकानोंमें धरी रहती हैं । आजलकके अंग्रेजी पढ़ े जैन युवकोंको इस भ्रष्टकारी आदत से बचना चाहिये ।
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अभय-रत्वसार ।
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११-बीड़ी, हुक्का, चिलम, चुङ्गी, सिगरेट, तम्बाकू, गाँजा, चरल, माजू न, अफ़ोम, कुसुम्बी, भांग आदि नशेकी चीजें काममें लाना बुरा है. । जीवहिंसा, अनर्थका कारण तथा पेसेकी फ़िजूल खर्चीके सिवा इससे और कोई फायदा नहीं है। जिसे नशेकी लत लग जाती है, उसे तो जिस दिन नशा नहीं मिले, उस दिन जान जानेकी नौबत आ जाती है। अन्त में क्षयरोग हो जाता है और किसी-किसीकी तो नशेकी ही हालतमें जान चली जती है । इससे अग्नि, वायु तथा अन्य त्रस जीवोंकी हिंसा होती है, इसलिये इन सब व्यसनोंको छोड़ देना चाहिये।
१२-विलायती दवाएं भी अभक्ष्य है। उचित तो यह है कि आवमी रोगका कारण ही पैदा न होने दे। यदि आत्मा बलवान हो, तो क्या नहीं कर सकती ? यह स्वर्ग प्राप्त कर सकती है, सिद्धिसौध ( मोक्ष-पद ) को भी प्राप्त कर सकती है। कितने ही लोग तो बड़े शौकसे विलायती दवाएं पिया करते हैं, यह बहुत बुरी आदत है। प्रत्यक्ष अनाचार है।
१३-गुड़में जीवकी उत्पत्ति होती है। कितने ही बेईमान ब्यापारी नफे के लिये गुड़में चनेका बेशन, वारा या मिट्टी मिला देते हैं। इस लिये खब परीक्षा करके गुड़ लेना और खाना चाहिये।
१४-विदेशी खाँड़ बहुत ही अशुद्ध पदार्थासे साफ़ की जाती है, इस लिये उसका व्यवहार करनेसे धर्म भ्रष्ट होता है और रोग भी होता है । इसीसे लोग काशी आदिकी चीनी काममें लाने लगे
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७३०
भक्ष्याभक्ष्य विचार ।
हैं, पर इसमें भी बेईमानी चल गयी है। परदेशी चीनी स्वदेशी कहकर बेंची जाती है । इसलिये जानो हुई जगहसे ही चीनी लेनी चाहिये, जहाँ इस तरहकी मिलावट नहीं की जाती हो । इसी प्रकार विदेशी नमक, विदेशी केशर भी इस्तेमाल नहीं करनी चाहिये।
१५-खडी दाल-किसी तरहकी दालका अनाज विना दोनों दाल अलग किये नहीं खानी चाहिये।
१६-दिल्लीका हिन्दु-बिस्कुट-दिल्ली, पूना, बड़ौदा आदि स्थानोंमें जो बिस्कुट तैयार होते हैं, उन्हें हमारे कितने ही भाई काममें लाते हैं, परन्तु पहले तो उनके बनाने में विलायती मैदा काममें लायी जाती है और दूसरे दो-दो तीन-तीन दिन तक पानी में फूलती रहती है, इसके बाद उसके बिस्कुट बनाये जाते हैं। इससे असंख्य संमूच्छिम और द्वीरन्द्रियादिक जीवोंकी उत्पत्ति होती है और उनकी हिंसा होती है । कहीं-कहीं तो बिस्कुट तैयार करनेमें चरबी भी काममें लायी जाती है, इसलिये विस्कुट सर्वथा त्याग देने योग्य है। नानखाखताईमें भी विलायती मैदा काममें लायी जाती है, इससे वह भी त्याग देना चाहिये।
१७-टूथ-पाउडर और टूथ ब्रश (दांतका मंजन और कूची) बिलायतसे जो दन्तमंजन आता है, उसे काममें लाना ठीक नहीं न मालूम उसमें कौनसा भक्ष्याभक्ष्य पदार्थ पड़ा होता है। यदि मञ्जन ही लगाना हो तो बदामके छोकलेको जला कर उसकी बकनीके साथ कपूर, घरास, खड़िया, हरड़, बहेड़ा, आंवला, अनारकी छाल, गेरू, कत्था, मोचरस, हीराकसीस, छोटी हरे,
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अभय-रत्तसार।
अनारके सूखे हुए फूल, माजूफल, कवाबचीनो आदि गुणकारी वस्तुओंको मिलाकर दाँतका बढ़िया मजन तैयार किया जा सकता है। इसके अलावा जानवरोंकी हड्डीके बने हुए ब्रूश भी काममें लाना उचित नहीं हैं।
१८-होटल-होटल, विश्रामगृह, भोजनालय, ब्राह्मणोकाबासा आदि नामोंसे कितने ही होटल नगरों में खुले हुए हैं। जिससे पूछो वही कहेगा, कि शुद्ध ब्राह्मणोंके हाथ की शुद्ध वस्तुएँ वहीं उसीके पास मिलती है, पर न तो उन सभीकी जात-पाँतका कुछ ठीक रहता है, न वहाँ अच्छी चीजें मिल सकती हैं। इस. लिये इन होटलोंमें खाना बहुत ही बुरा हैं। आजकल कुछ लोगोंकी मति तो ऐसी भ्रष्ट हो गयी है, कि छुताछूत, भक्ष्क्ष्याभक्ष्यका बिलकुल विचार ही छोड़ बैठे हैं और मुसलमानों तथा किस्तानोंके होटलसे मक्खन और पावरोटी माँग कर खाते हैं। न मालूम ये किस नरकमें जा कर पड़ेगें।
१६-पानी-आजकल जहाँ-तहाँ रास्तेमें और रेल-स्टेशनों पर नले लगी है जिनसे पानी लेकर मुसाफिर अपनी प्यास बुझाते हैं, पर यह बहुत बुरी बात है। बिना छना हुआ पानी शराबके बराबर कहा गया है। पीनेका पानी तो जरूर ही छान लेना चाहिये । वर्तन कभी जुंठे नहीं रहने देना चाहिये । पानीके बर्तन में जुठे लोटे आदि नहीं डालना चाहिये। जो बिना ढक कर नहीं रखा गया हो, उसे पीनेमें बड़ा दोष है। थोडी सी ला परवाहीमे असंख्य जीवोंका नाश हो जाता है। इसलिये पानीके विषयमें प्रत्येक भाई-बहनको पूरी सावधानी रखनी चाहिये।
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७३२
भक्ष्याभक्ष्य विचार ।
वर्जित वनस्पतियाँ |
जिन वनस्पतियोंके खानेसे तृप्ति नहीं होती और साथ ही बहुत हिंसा होनेका भय रहता है, उनके नाम ये हैं
और वर्जित होनेका कारण
नाम
ईख – कितना भी खाइये, तृप्ति नहीं होती। रस चूस कर सीठी फेक देते हैं, उससे बहुत संमूर्च्छिम जीव उत्पन्न होते हैं और मिठाईके मारे चींटी आदि त्रस जीव भी उसके ऊपर टूट पड़ते हैं, जो जानवर या आदमी के पैरों तले पड़ कर मर जाते हैं ।
कुम्हड़ा, पेठा, जामुन | इन सबमें भी संमूच्छिंम जीवोंकी उत्पत्ति करौंदा, बेर, गुन्दी और हिंसा का भय रहता है इसलिये त्याग देना ही ठीक है
1
अञ्जीर - इसमें बहुत बीज होते हैं, अतएव त्यागने योग्य है । शहतूत, फालसे, कितना भी खा जाओ तृप्ति नहीं होती, इसीलिये वर्जित है ।
सिंघाड़ा -- कामवर्द्धक हैं, अतः त्याज्य है । तोड़ते वक्त. बहुत जीव मरते हैं ।
वालोल- ताजा मिलना मुश्किल है, और थोड़ी देर रखनेसे भी उसमें त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं ।
दर्शन - विरुद्ध तथा लोक विरुद्ध वर्जित वनस्पतियाँ ।
नाम और कारण ।
चिंचड़ी-लम्बी सौंपके आकार की होती है। अशुद्ध परिणामी है, अतः वर्जित है ।
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अभय-रत्नसार। ७३३ कटहल-फनस-दर्शन-विरुद्ध (मांसपेशी-सी मालूम पड़ती
है) होनेके कारण वर्जित है। कद्द, ---मोटाफल होनेके कारण लोग नहीं खाते। पेठा-लोग इसे कभी-कभी पशुकी कल्पना कर देवीके
सामने बलि चढ़ाते हैं। (औषधके लिये हर्ज नहीं है) कड़वी तुम्बी-कहीं जहरी निकली तो जान ही ले लेती है। कंटोला, । इनमें कीड़े पड़ जाते हैं, किसीमें जीव बहुत करेला, | होते हैं, तो किसीमें बीज। इसलिये इनका टिण्डा, त्याग ही उचित है। टमेटा, कंकोड़ा, महुआ- इसीके फलसे शराब चुलायी जाती है, इसलिये
वर्जित है। बहुतसे त्रस जीवोंकी हिंसासे बचना हो, तो नीचे लिखी वनस्पतियोंका और भी त्याग करना उचित है,
श्रीफल ( बेल )-का फल या मुरब्बा अथवा बाँसका आचार वर्जित है, स्त्रियोंके लिये तो खास कर मना है। इनसे रोग भी उत्पन्न होते हैं।
फागुन सुदी १५ से कातिक सुदी १५ तक जिनकी भानी या पत्तोंका साग जीव हिंसाके कारण खाना मना है उनके नाम__ मेथीका साग, ताँदड़ी, धनिया, पुदीना, भिंडी, केला, नागरबेल, अरबी, कन्दा, सूरन, नीमके हरे पत्त, पोईका साग, इलाय
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७३४ भक्ष्याभक्ष्य विचार। चीके पत्ते, चाय, गुलाबके फूल, तुलसीके पत्ते, अजवाइनके पसे आदि ८ महीनेतक वर्जित है। गोभी और करमकल्ले (पनागोमी) में भी बहुतसे त्रस जीव उत्पन्न होते हैं, जो मालूम नहीं पड़ते। जाड़े के दिनोंमें इन्हें अच्छी तरह देख भाल और झाड़-पोल कर काममें लाना चाहिये । सब तरहकी तरकारी बहुत सावधानीसे खानी चाहिये। आर्द्रा-नक्षत्रसे ही त्यागने योग्य वनस्पतियाँआम-आम स्वादिष्ट फल है, इसलिये बहुतसे लोग
आर्द्रा नक्षत्रके बाद भी खाते हैं ; पर यह भग. वान्की आज्ञाका उल्लंघन करना है, इससे असंख्य जीवोंका नाश होता है, जिससे अन्तमें दुर्गति होती है। इससे आर्द्रा नक्षत्रसे
ही इसका खाना छोड़ देना चाहिये। चौमासेमें वर्जनीय वनस्पतियाँ। भिण्डी, ) यों तो अन्य ऋतुओंमें भी त्रस जीव उत्पन्न कंटोला, | होते हैं ; पर चौमासेमें तो खास कर बहुत पैदा करैला, | होते हैं । करेला वगैरह तो ऊपरसे जरा भी
तुरैया, सड़े नहीं माल म पड़ते ; पर उनके अन्दर कीड़े होते हैं। कहीं भूलसे जीवहिंसा न हो जाये, इसीलिये चौमासेमें वजनीय है। यदि कोई साग या भाजी खानेकी आवश्यकता ही पड़े, तो उसे भलीभांति देखकर, वनारना खाना चाहिये।
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अभय-रत्नसार। ७३५ व्यवहारमें आनेवाली बनस्पतियाँ । शाकके काममें--
फलके तौर पर १ ककड़ी
तरबूजा २ करेला
मीठे नीबू ३ कंटोला
पपीता ४ निनुआ
अननास ५ ग्वारकी फली
नासपाती ६ गूदा
अमिया ७ हरे चने
जमरुद ८ हरेज्वार
कोठ ६ चौराई १० टमेटा
अनार ११ टिएडा
आँवला १२ डाला
नारङ्गी १३ डोडी
नरियल १४ खरबूजा
पीनस १५ तरोई
अंगुर १६ थूहर
बिजौरा १७ दातोन ( बबूल, बारेडी आदि) १८ दूधिया १८ परवल २० पत्तका साग
केला
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७३६
भदयाभक्ष्य. विचार ।
२१ फलसी २२ भिण्डी २३ हरी मिर्च २४ मरवा २५ मोगरा २६ खट्टे नीबू २७ मटर २८ आलकुल
ऊपर जिन वनस्पतियोंके नाम लिखे है, इनमें भी जिनका त्याग करते बने, करना चाहिये । जो वनस्पति बारहों महीने मिलती हो, उसका उपयोग करना, जैसे-केला। इसके सिवा प्रत्येक हरी साग-सब्जी अमुक समय तक खानी, फिर नहीं; इसका ध्यान रखना चाहिये । जैसे कार्तिक महीनेमें अमुक-अमुक चीजे खानी चाहिये, परन्तु यदि उनका बारह महीनेका आश्रय ले रखे, तो विरतिपनका फल मिलता है। क्योंकि आम जाड़ेके बाद चैतसे आर्द्रा नक्षत्र तक खाना चाहिये, फिर नहीं । इस प्रकार नियम कर लेनेसे बड़ा लाभ होता है। नियम लेनेके बाद प्रति वर्ष कुछ चीज़ोंका सर्वथा त्याग करना होगा। ऐसा करनेसे त्याग और अभयदानकी भावना प्रबल होती है । जबतक नियम नहीं किया जाता, तबतक कोई फल नहीं मिलता। श्रावकोंको तो चाहिये कि छओं “अट्ठाईयोंमें" * तो वनस्पतियोंका एकदम त्याग करदें।
ॐ चैत्र और आश्विनकी दो अट्ठाई शाश्वती हैं । वह चैत सुदी ७ से १५
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अभय-रत्नसार ।
७३७
कमसे कम पाँच पर्वी तिथियोंमें- जैसे शुक्ल पंचमी, दोनों अष्टमी, दोनों चतुर्दशी और अन्य उत्तम पर्वोकी तिथियोंमें तथा दोनों दूज, दोनों अष्टमी, दोनों चतुर्दशी, अमावास्या और पूर्णिमा तथा मध्यम रुपसे आठ या दश पर्वतिथियोंमें अवश्य ही हरियाली यानी साग-सब्जीका त्याग करना चाहिये। कितने ही लोगों इन तिथियों में पके केलों का उपयोग करते हैं, वह अचित्त है । उसके सिवा और कोई वनस्पति इन दिनोंमें काममें नहीं लानी चाहिये ।
सामान्य रीति से कहा गया है, कि अनजाने फल, बिना भलीभाँति देखे-भाले हुए साग या पत्ते, सुपारी आदि सम्पूर्ण फल बाजा, रके चूरन, चटनी, मलिन घी और बिना परीक्षा किये हुए अन्य पदार्थोंके खानेसे मांस भक्षणका दोष लगता है। चौमासेमें तो जिस दिनकी तोड़ी हुई हो, उसी दिन सुपारी खाये फिर नहीं इसी तरह इलायची भो देखकर ही खानी चाहिये। चौमासेमें पीपरामूल, सोंठ आदि भी नहीं खाना चाहिये । दवाके लिये व्यव हार करना हो तो भली भाँति देख लेना चाहिये ।
तथा आसोज सुदी ७ से १५ तक, होती है। तीन चौमासेकी तीन अहाईपहली कार्तिक सुदी ७ से १५ तक दूसरी फाल्गुन सुदी ७ से १५ तक और तीसरी असाढ़ दी ७ से १५ तक जाननी चाहिये । पर्युपया पर्वकी अठ्ठाई श्रावण बदी १२ से भादों सुदी ४ तक होती है। इस प्रकार छः अट्ठाईयाँ बतयी गयी हैं। इन दिनोंमें सचित्त पदार्थों एवं वनस्पतियोंका त्याग, ब्रह्मचय मारी, तप, जिनपूजा, गुरुवन्दन, व्याख्यान - श्रवण, समायिक, पौषध, अति-संविभाग आदि नियमों का अवश्य ही पालन करना चाहिये ।
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७३८
भक्ष्याभक्ष्य विचार।
जानने योग्य विषय। अब जिन लोगोंने सचित्त पदार्थोंका सर्वथा त्याग कर रखा है, उन्हें यह बतलाया जाता है कि कौन-कौन चीजें सचित्त हैं
और वे कैस अचित्त बनायी जा सकती हैं तथा उनका व्यवहार कितने समय तक किया जाना चाहिये।
१ गेहू, बाजरा आदि नाज सवित्त है ; पर कुछ काल बाद अचित्त हो जाते हैं। उसका वर्णन श्राद्धविधि आदि अन्योंमें देखना चाहिये । मेथी भी अनाज है, यह याद रखना चाहिये। इन अनाजोंका आटा पीसने पर वह कैसे अवित्त होता है, यह हम पहले ही लिख चुके हैं। जबतक वे सचित्त रहते हैं, तबतक उनको काममें नहीं लाना चाहिये । चने आदिकी दाल अचित्त है; इसलिये उसका आटा (बेसन ) भी अचित्त है।
२ ताज ज्वार या चनेका चबेना मिश्र (अर्थात् सचित्त और अचित्त ) है, अतएव नहीं व्यवहार करना ।
३ सभी अभक्ष्य वस्तुएं सचित्त हैं, अतएव उनका त्याग करना अत्यन्त आवश्यक है।
४ सिंके हुए चने तथा और अनाज बालूमें भूने हुए हों तो बराबर अचित्त बनते हैं । अन्यथा कामके लायक नहीं होते ।।
५ धनिया, जीरा अजवाइन आदि कूट-पीस कर या आँच दिखानेसे अचित्त हो जाते हैं और तब व्यवहार में लाये जा सकते हैं, यों नहीं। दही, छाँछ आदिमें पड़ा हुआ सचित्त जीरा प्रासुक नहीं होता।
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अभय - रत्नसार ।
७३६
६ वरियाली भी सचित्त कही जाती है; क्योंकि जो चीज़ें बोनेसे पैदा होती हैं, वह सवित्त हैं 1 अतएव सुखी वरियाली भी यदि सेकी हुई हो तभो काममें ला सकते हैं ।
७ नमक भी सवित है, परन्तु भूमिकायमें लिखे अनुसार अवित्त होनेपर व्यवहारमें ला सकते हैं ।
८ लाल सेंधानमक सचित्त है-सफेद सैंधव अवित्त है । ६ खड़िया भी सचित्त है । यह खाने के काममें तो नहीं आती पर मंजन बनानेके काममें आती है। इसे पहले कहे अनु सार अचित्त बनाकर व्यवहार करना चाहिये । कैम्फर चाँक आदि जो चीजें आती हैं, उनका व्यवहार नहीं करना चाहिये, क्योंकि मालूम नहीं, वे किस प्रकार बनायी जाती हैं ।
१० " वलित रस" शीर्षक के नीचे जिन चीजोंकी सूची दी हुई है, वे सब सचित्त हैं और इसीलिये अभक्ष्य हैं ।
११ उबाल देने पर पानी अचित्त हो जाता है। जहाँ जीव पड़ने का डर हो, वहाँ पानी कपड़ेसे ढककर रखना चाहिये । चौमासेमें । गरम किया हुआ पानी भी सिर्फ ३ पहर तक काम में ला सकते हैं। बादमें सचिन्त हो जाता है ।
१२ तरह- तरहके शरबत, सोडा गुलाबजल, केवड़ाजल, आदि कभी व्यवहारमें नहीं लाना चाहिये ।
१३ अंग्रेजी दवाएँ जो अर्ककी तरह हों, कभी नहीं लेनी । अगर लाचारी लेना ही पड़े तो प्रायश्चित्त भी करना चाहिये । बर्फ आदि एकदम अभक्ष्य है ।
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७४० भक्ष्याभक्ष्य विचार ।
१५ बबूल आदिके हरे दाँतौन सचित्त हैं।
१६ ताम्बूल, नीमपत्ते, तुलसी, इलायची आदिके पसे सचित्त होनेके कारण व्यवहारमें नहीं लाने चाहिये। परन्तु नीमके पत्ते कढ़ीमें डाले जायें या नागर बेलका पत्ताधी आदिमें गरम करके डाला गया हो, तो वह चीज अचित्त और व्यवहारमें लाने योग्य हो जाती है।
१७ नोम और आमकी मोजरे, तथा गुलाब आदिके फूल सचित्त ह, इसलिये व्यवहार नहीं करना चाहिये। गुलाबके फूल मिठाइयोंपर छिड़कते हैं, वह अवित्त होनेपर व्यवहार करना कहा है।
१८ धनिये या पुदीनेकी चटनीमें वनस्पति और नमक दोनों ही सचित्त हैं; पर पीस देनेसे वे दोनों दो घड़ी बाद अचित्त हो जाते हैं, इस लिये २ घड़ीके बाद खाना चाहिये।
१८ पिसे हुए मसाले, जिनमें नमक मिला हो या आँचार भी दो घड़ी बाद खाये जा सकते हैं, परन्तु ग्वार आदिके अंचारके अचित्त होने में देर लगती है, क्योंकि उनके अन्दर बीज होते हैं, इसलिये उनपर नमकके शस्त्रका शीघ्र प्रभाव नहीं पड़ता।
२० अनार और अमरुद भी सचित्त हैं, ये दो घड़ी बाद अचित्त नहीं होते, इसलिये इनका सर्वथा त्याग करना चाहिये।
सर्वथा त्यागके २ भेद हैं-एक सर्वथा-सचित्त त्याग और दूसरा सर्वथावस्तु-त्याग जिन्होंने सचित्तका सर्वथा त्याग किया है, वे तो उसे भाग मादिके द्वारा प्रचित्त कर व्यवहारमें ला सकते हैं; पर जिन्होने अमोर और अमेरुद्ध
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अभय-रत्नसार।
सवित्त तो कभी व्यवहारमें नलाये। हाँ, यदि अग्निके द्वारा अविस कर लिया जाये, तो व्यवहार कर सकते हैं। अमरुदको आग दिखानेसे भी उसका बीज कठोर ही रहता है, इससे मिश्रताका दोष लगता है। ... २१ ईख और शहतूत सचित्त हैं । इसलिये सर्वथा त्याग करना चाहिये, ईखका रस निकालनेके दो घड़ी बाद अचित्त हो जाता हैं ।
२२ सीताफलको तो सवित्त त्यागियोंको अवश्यही त्याग देना चाहिये; क्योंकि वह तो कभी अचित्त होही नहीं सकता कारण, उसमें से बीज अलग नहीं हो सकते, इसी प्रकार जाम्बु, रयण, बोर, हरेबदाम या अंगुर आदि बिना वीज निकाले नहीं खाना चाहिये। .. २३बीजवाले केले भी सवित्त हैं, इन्हें भी नहीं खाना चाहिये। पके हुए केले छिलका उतार लेनेसेही अचित्त हो जाते हैं। ___ २४ पके हुए ककड़े या खरबूजेके कुल बीज निकाल कर दो घण्टेके बाद खाना चाहिये।
२५ ककड़ीके बीज अलग नहीं किये जासकत्लो, इसलिये सचित्त नहीं खाना, पर तरकारी आदिमें अचित्त है। इसलिये खाना चाहिये। . २६ आमका रस निकाल, गुठली फैकनेके वाद दो घड़ीके अनन्तर खाना चाहिये। मादि वस्तुओं का ही त्याग किया है, उन्हें तो सचित्त या अचित्त कोई नहीं खाना चाहिये।
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७४२ भक्ष्याभक्ष्य विचार ।
२७ नारियलका पानी या गरीसे बीज निकाल देनेके दो घड़ी बाद व्यवहारमें लाना चाहिये।
२८ पकी इमली, खजूर या पिनखजरके भीतरका बीज निकाल कर दो घड़ी बाद काममें लाना चाहिये।
२८ सुपारी पूरी तोडकर * और बदाम तथा अखरोट बीज निकालनेके दो घड़ी बाद खाना चाहिये। कितनी ही चीजे. तुरत अचित्त हो जाती है; पर अपनेको इसका ठीक ज्ञान नहीं, इसलिये दो घड़ी बाद ही उपयोग करना चाहिये।
३० पिस्ते या जायफलका छोकला उतार लेने पर अचित्त है
३१ काला मुनक्का या लाल मुनका जिसमें बीज हो, उसे बीज निकाल कर दो घड़ी बाद खाना ।
३२ जरदालूके भीतरकी गुठली निकाल कर दो घड़ी बाद खाना चाहिये। यदि उसके भीतरके बदाम हो,तो उसे मी तोड़कर दो घड़ी बाद खा सकते हैं।
३३ पेड़ परसे तुरतका उतारा हुआ गोंद दो घडी बाद अचित्त हो जाता है।
३४ सूखे अंजीरके बीज तो निकाले नहीं जा सकते। अतः अंजीरका सर्वथा त्याग करना चाहिये।
३६ सचित, त्यागीको उचित है, कि यदि अवित्त पानीके करनेका अवसर न मिले, तो पानीमें थोड़ी-सी शकर या राख डाल देनेसे वह पानी दो घड़ी बाद अचित्त हो जाता है।
ऊपर देखी हुई सचित-सम्बन्धी सूचनाओंकी और सचित्त
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अभय-रत्तसार ।
७४३
त्यागियों को ख़ास कर ध्यान देना चाहिये । इसोके अनुसार और गुरुके बतलाये अनुसार बर्त्तना चाहिये । श्रीजिनेश्वर भगवानने जिन बाईस अमक्ष्यों का निषेध किया है; उन्हें और अन्य अनाचरणीय पदार्थो का भी त्याग करना चाहिये । वनस्पतियोंमें तो जरूर ही नियम रखना चाहिये। नियम प्रतिज्ञा करनेसे विरतिपना आता है और इस विरतिका बड़ा भारी फल होता है। कहा है, कि "ज्ञानस्य फलं विरतिः” – ज्ञानका फल विरति है । यदि विरति न हुई तो ज्ञान किस कामका ? लम्बी-चौड़ी बात तो सभी कर सकते हैं, परन्तु आचरण करना ही कठिन व्यापार हैं। मनमोदक नहीं भूख बुझातीं । अबिरतिसे निगोदिया आदि जीवोंकी तरह घने कर्म-बन्ध होते हैं । (देश-किरति या सर्व विरति ) को अङ्गीकार करते हैं, उनकी प्रशंसा ऐसे देवता भी करते हैं, जो विरति नहीं कर सकते | अविरतिसे बड़े दुःख उटाने पड़ते हैं और नारकी वगैरह भवोंमें पड़ना होता है । इसलिये विरतिका अङ्गीकार करना चाहिये। नियममें थोड़ा कष्ट, परन्तु बड़ा लाभ होता है । इसका परिणाम सुखका हेतु है। बहुत नियम न पार लगे, तो तीर्थङ्कर महाराजने जिन वस्तुओंका निषेध किया है, उनका भक्षण नहीं करना चाहिये ।
·
अव वह नियम ( प्रतिशा - व्रत ) क्योंकर अङ्गीकार करना तथा पालना चाहिये ? व्रतका अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार - इस प्रकार ४ दोष लगते हैं। जैसे—किसीने चौविहार ( चार आहारका त्याग ) किया है, और उसे पानोकी
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७४४
भक्ष्याभक्ष्य विचार |
आये; पर पिये नहीं
इच्छा हुई तो उस इच्छा मात्र से अतिश्रम हुआ; जिस स्थान पर हो वहांसे पानी पीनेके स्थानपर जाये, तो व्यतिक्रम-दोष लगता है; वर्तमानमें पानी लेकर मुहके पास ले तो अतिचार-दोष लगता है, और जब पानी पी डाले तब अनाचार हो जायेगा । इसलिये व्रत पालनेवालोंको तो चाहिये, कि ऐसी चेष्टा करे । जिसमें अतिक्रमका भी दोष न लगे। इस नाशवान शरीर के मोहमें पड़कर उभयलोकमें सुख देनेवाले व्रतको तो प्राणोंसे भी बढ़कर समझना चाहिये । आगमें कूद पड़ना अच्छा पर व्रतका भङ्ग करना अच्छा नहीं होता |
चंदोवा |
प्रत्येक श्रावक के घर नीचे लिखे १० स्थानोंमें काँदोवे या छप्पर जरूर बांधने चाहिये
(१) चूल्हेपर ( २ ) पानीके पन्डरें पर ( ३ ) भोजनके स्थानों में (४) चक्कीकी जगह ( ५ ) खाने-पीने की चीज पर (६) दूध-दहीके ऊपर (७) सोनेके बिछोनेके ऊपर ( ८ ) स्नान करनेकी जगह ( ६ ) समायिक आदि धर्म- क्रिया के स्थान में ( पौषधशाला में ) और मन्दिरमें ।
सात प्रकारके छनने रखना चाहिये ।
( १ ) पानीका छनना । (२) घीका छनना । (३) तेलका छनना । ( ४ ) दूधका छनना । (५) छाँछका छनना । ( ६ ) गरम किये हुए अचित्त पानीका छनना । ( ७ ) आंटा चालनेका या छाननेकी चलनी ।
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अभय-रत्नसार ।
७४५
इनके द्वारा हम बहुतसे जीवोंको हिंसासे बच सकते हैं। जनशासनका यही उपदेश है, कि वही पुरुष धन्य है, महान है पुण्यवान् है, तेजवान है, सुखी है, भाग्यशाली है, जोकि जीवदया का भली भाँति पालन करता है।
अब संक्षेपमें यह समझ लीजिये कि कैसे बर्तनमें और किस प्रकार भोजन करना चाहिये।
जो दोष रात्रि भोजनमें है, वही अंधेरेमें भोजन करने में भी है। ठीक वैसा ही दोष छोटे मुहवाले लोटे आदिमें पानी पीने में भी है, जिसके भीतर नजर न पहुच सके। ___ काँसा या कलईवाले ताम्बे पीतलके बर्तन काममें लाने चाहिये। टोनपर कलई किये हुए बर्तन तो कभी किसी जैन या हिन्दूको व्यवहारमें नहीं लाना चाहिये। लोहे या टीनके बर्तन त्याज्य हैं। केले आदिके पत्तपर भी भोजन नहीं करना चाहिये। दिनको भी यदि धियाला हो तो नहीं खाना चाहिये । उजेलेमें स्वच्छ वर्त्तनमें, भक्ष्याभक्ष्यका विचार करते हुए स्थिरचित्त हो बिना बोलेचाले भोजन करना चाहिये । खाते-खाते बाते करनेसे ज्ञानावरणीय कर्मबन्ध होता है । दूसरी ओर ध्यान चले जानेसे भोजनमें मक्खो आदि त्रस जीव पड़ जानेका भय रहता है। अगर कहीं ग्रासके साथ में हमें मक्खो चली गयी तो के हो जाती है। अगर बोलनेकी जरूरत ही पड़ जाये तो पानीसे मुंह शुद्ध करके बोलना चाहिये । सदा देख-भाल कर अच्छा और परिमित भोजन करना चाहिये। दो तीन आदमी एक साथ नहीं खाना चाहिये।
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७४६ भक्ष्याभक्ष्य विचार । भोजन करते समय दूसरी धोती पहननी चाहिये। और हाथ पैर धो कर खाने बैठना चाहिये। जो प्रभुको नित्य पूजा करनेवाले हैं, उन्हें तो बराबर राखसे हाथ शुद्ध कर लेना चाहिये। मिट्टी सचित्त है, इस लिये राख ही काममें लानी चाहिये । खुली जगहमें जिसके ऊपर छाननी न हो, भोजन नहीं करना चाहिये । घी, गुड़, दूध, दही, मठा, दाल तरकारी और पानीके वर्तन क्षण भर भी खुले नहीं छोड़ने चाहिये। श्रावकको उचित है, कि थोड़ी भूख रहते ही खाना खतम कर दे; यानी जितना चाहिये, उससे कम ही भोजन करे अथवा जितनी भूख हो, उतना ही खाना चाहिये। थालीमें जू ठन नहीं छोड़नी चाहिये। भरसक तो खा-पी कर थाली धो कर पी लेनी चाहिये। थाली धो कर पीनेसे आयंबीलका फल होता है। मुनिमहाराजको शुद्धता पूर्वक आहार करानेके बाद आप इसी प्रकाइ शुद्धताके साथ नित्य आहार करनेसे अमृतके समान फल मिलता है, नहीं तो अवश्य ही विषके समान फल होता है।
जुठा बर्तन देर तक नहीं पड़े रहने देना, उसे तुरत आप धो लेना या नौकरसे धुलवा लेना चाहिये । अन्यथा, उसमें बहुतसे जीवोंकी उत्पत्ति हो सकती है।
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स्त्रियोंके ध्यान देने योग्य बातें। जैसे राज्यमें मन्त्री प्रधान होता है, वैसे ही घरमें स्त्रीकी प्रधानता होती है। इसलिये उनको इस अभक्ष्य-अनन्तकायका
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अभय-रत्नसार ।
७४७
वर्णन भली भाँति पढ़ कर व्यवहारमें लाना चाहिये । यदि वे नीचे लिखी बातोंकी ओर ध्यान दें तो अपना पराया सबका कल्याण कर सकती हैं ।
१ - सूर्योदयके पहले कभी चूल्हा नहीं जलाना । पहले सारा घर झाड़-बुहार करके तब कोई काम शुरू करना चाहिये ।
२ - प्रति दिन सवेरे घर-द्वारकी सफाई और वर्तनोंकी मंजाई धुलाई होनी चाहिये । लकड़ी आदि भी ख़ास करके बरसात में, देख लेनी चाहिये। क्योंकि अकसर उसमें जीव पड़ जाते हैं, जो बिना देखे जल जा सकते हैं।
३- रसोई करके वर्तन बासन तथा घी, मसाला, तेल, दूध, दही, रोटी, पूरी, पानी आदिके वर्त्तन खले नहीं रखने चाहिये । उच्छिष्ट पदार्थको तो तुरंत हटा देना चायिये, नहीं तो उसमें बहुतसे संमूच्छिम जीव पड़ जाते हैं।
नमक और मसाले भरसक शीशे के बर्तनों में रखने चाहिये । बरसात में मिर्च में तो वैसे ही जीव पड़ जाते हैं और कहीं भूल से बिना देखे - भाले खानेकी चीज़में वह मिर्च डाल दी, तो जीवहत्याका पाप अलग लगे । शाक या दालमें डालनेके पहले मसाला, वाय दूधमें डालने के पहले चीनी, दाल, शाक, रोटी के साथ काममें लाने के पहले घी भली भाँति देख लेना चाहिये ।
५ - शाम को सूर्यास्त के पहले ही चूल्हा ठंडा कर देना चाहिये । बासी चोजें तो न कभी खुद खानी, न बच्चोंको खिलानी । इससे धार्मिक ही नहीं शारीरिक लाभ भी है ।
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७४८ भक्ष्याभक्ष्य-विचार।
६.-यदि तुम्हारे पास धन है तो उसे पूर्व पुण्योंका उदय समझो और जो काम नौकरों द्वारा करवाना हो, उसे ठीक समझ बूझ कर करवाना चाहिये । कारण आप जैसे जयणा पूर्वक काम करेंगे, वैसे वह नहीं कर सकेगा। जैसे आप साग न बनावें, तो नौकर सागके साथ साथ न जाने कितने जीवोंको मार डालेगा। पानीमें भी गोलभाल कर सकता है। अतएव जो काम अपनेसे न हो सके, उसोके लिये नौकरोंको पुकारे यही हमारे लिये उचित है।
७-चार 'महाविगई'का अवश्य ही त्याग करना। बरफ, मलाईकी बरफ आदिका व्यवहार नहीं करना । वच्चोंको अफीम न खिलाना । कच्ची मिट्टो या नमक न खाना । आलस्य छोड़ कर नमकको अचित्त बना लेना। रातको भोजन नहीं करना । तिलों और पोस्त के दानोंका त्याग करना ; जहाँ तक हो सके चटनी, आँचार वगैरहका चटोरपन छोड़ना और दूसरोंसे भी छुड़वाना; विदल वस्तुओं का ख़ास ख़याल रखना तुम्हारा हो काम है। यदि पुरुष विरतिवान न हों, तो तुम उनको वैसा बना सकती हो। बैंगन बगैरहका भुर्ता बना कर नहीं खाना खिलाना। झड़बेरी या खट्टे जामुन न खाना। गाली, निन्दा आदि बुरी बाते न करना धर्मके कामोंमें लगी रहना । जिन चीजोंका रस बिगड़ गया हो, या जो बासी हो गयी हो, उन्हें कभी काममें न लाना। आटा, मुरब्बा, आँवार, सेव, बड़ी, पापड़ आदिके विषय में जो कुछ पहले लिखा गया है, उस पर पूरा ध्यान देना । अनन्तकाय
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अभय-रत्नसार ।
७४६
का त्याग करना। कच्ची हल्दी, अदरख, लसुन वगैरह बीमार पड़ने पर भी न खाओ। फागुनकी चोमासा शरू होनेके पहले ही आठ महोने के लिये साफ़ बनिमें तेल भरवा रखो। असाढ़से शुरू होनेवाले चौमासेमें खांड़, काजू, बदाम, पिस्ता, दाख आदि. को काममें लाना बन्द कर दो। सूखे आँचार आदि असाढ़के चौमासके पहले ही खा कर ख़तम कर दो। हरे बाँस, बेल, केर नागर वेलके पान और मैदेसे परहेज करो। आटा या सोजी बाजारसे नहीं मंगवाओ। घरमें पीस लेने में मिहनत तो पड़ेगी; पर अनेक जीवोंका आशीर्वाद मिलेगा। पानीको बहुत ख़र्च न किया करो और बिना छाने काममें न लाओ।
८-पर्वके दिनोंमें दलना-मलना, :पीसना, तोड़ना, धोना. मांजना, सिर गूथना, मठा निकालना, गोबरके कण्डे पाथना आदि मना है । छहों अट्ठाइयोंके दिन भी ये सब काम करना मना है। ___-मिथ्यात्व-लौकिक पर्व—आसाढ़ की पूनो, रक्षाबन्धन, नवरात्र, होली, संक्रान्त, गणेशचौथ, नागपञ्चमी, राँधन छठ, शीतलासप्तमी ( जिसमें बासी चीजें खायी जाती हैं ) गोपाष्टमी, नोलीनवमी, अहवादशमी, भोम-एकादशी, धनतेरस, अनन्तचौदस सोमप्रदोष, सोमवती अमावस, बुधाष्टमी, दसहरा, मुहर्रम, बकरीद आदि पर्व मिथ्यात्वके हेतु और अनर्थकारी हैं, अतएव इन्हें त्याग देना।
१०-रोने-कूटनेको चाल, दसे, ग्यारहवें, बारहवे, तेरहवेका सतक मानना, गृहप्रवेश, अधरणी ( पहले पहल गर्भ रहनेका
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७५० भक्ष्याभक्ष्य. विचार । उत्सव मनाना ), श्राद्ध, बाल-विवाह आदि रिवाज छोड़ देने योग्य है।
प्यारी बहिनो ! इन बातों पर अवश्य हो ध्यान देना। इससे आपका बहुत उपकार होगा।
चौदह स्थानोंमें उत्पन्न होनेवाले संमुर्छिम जीवोंकी हिंसा, जो मनुष्यकी असावधानीसे हो जाती है। इसके विषयमें पूरा ध्यान रखना चाहिये।
१-जो लोग छोटे छोटे गांवोंमें रहते हैं, जिनके गाँवके पास नदी, तालाव, जंगल, खेत वगैरह हों, उन्हें चाहिये कि पायखानेके अन्दर न जा कर दिशा-फरागतके लिये बाहर मैदानमें चले जाया करें । स्वास्थ्यकी दृष्टि से भी यही उचित है और धार्मिक दृष्टिसे भी, क्योंकि बन्द पायखानों में बहुतसे संमूर्छिम मनुष्य पञ्चेन्द्रिय जीवोंकी उत्पत्ति और नाश हुआ करते हैं। अगर पायखाने में रोगी जाते हों, तो उनका रोग औरोंको भी हो जा सकता है । इसीलिये मैदानमें जाना चाहिए । यहाँ भी यह देख लेना चाहिए कि कोई कीड़े मकोड़े तो नहीं है। गीली जमीन भी बचा देनी चाहिये।
२-पेशाब भी ऐसी जगहमें करना चाहियो, जहाँ जल्द सूख जाये। किसीके पेशाब किये हुए स्थान पर पेशाब नहीं करना चाहिये । मोरी, पनाले वगैरहमें पेशाव करनेसे भी संमूच्छिन मनुष्य पंचेन्द्रिय जीवों तथा कीड़े आदि त्रस-जोवोंकी
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७५१ उत्पत्ति होती और विनाश होता है । इसलिये भरसक पायखानापेशाव तो ऐसी ही जगह करना, जहाँ वह झट सूख जाय ।
३-मुहसे धूक-खखारके करने, नाक छिनकते, के करते, कानका मेल या पीब निकालने में अथवा शरीरके किसी हिस्सेसे खून, या पीब निकाल कर फेकनेमें यह खयाल रखना चाहिये, कि वह ऐसी जगह गिरे जहाँ झट सूख जाये। दिन हो तो सूर्य की धूप जिस स्थान पर पड़े, वहीं फेंकना और उसके ऊपर राख तो हर हालतमें डाल देना प्रत्येक विवेको धर्मात्मा पुरुषको इस विषयमें पूरा ध्यान रखना चाहिय । ऐसा नहीं करनेसे अनेक संमूर्छिम पंचेन्द्रिय जीव पैदा हो कर मरते है।
४-स्नान करनेके पहले तेल लगा लेना उचित है। बंधे हुए पानीमें न नहा कर बहते हुए पानीके सोतेमें नहाना चाहिये। भरसक तो श्रावकोंको नदी, तालाब, कुण्डल आदिमें कभी नहानही नहीं चाहिये, क्योंकि इससे अनेक जीवोंको हिंसा होती है। पानीका परिमाण भी नहीं रहता कभी कभी तो भयंकर जल जीवोंसे प्राण जानेका भी भय रहता है । श्रावकको तो बिना छाने हुए पानीसे कभी नहीं नहाना चाहिये।
इस बातका सदैव स्मरण रखना चाहिये, कि पाखाना पेशाब जिन मन्दिरसे कमसे कम सौ हाथ दूर पर करना चाहिये। मन्दिर के अहातमें नाल छिनवना, थक फेकना उचित नहीं है । __५-शास्त्रोंमें कहा है, कि भोजनकी थालीमें जूठन नहीं छोड़नी चाहिये। कारण उसमें कुछ ही देर बाद असंख्य समूच्छिम
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भक्ष्याभक्ष्य विचार ।
जीवोंकी उत्पत्ति हो जाती है । इसलिये भोजनकी थाली तो धो पोंछ कर पी जानी चाहिये। अकसर जीमन आदिमें लोग बहुतसी जूठन छोड़ देते हैं, श्रावकों को चाहिये कि न इतनी चीजें परोसें, न इतनी लें कि जूठन रह जाये ।
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६- ऐसाही पानी के भी विषय में भी समझना चाहिये । पानीके बर्तनोंसे पानी काढ़ने का लोटा अलग रखना चाहिए । जूँठा बर्तन उसमें नहीं डुबोना चाहिए। गुजरात काठियावाड़ में तो यह बुराई बहुत है । सब भाई-बहनोंको इस दोष से बचनेकीजरूरत है । सुतक विचार ।
लड़के का जन्म हो तो १० दिन तक सूतक रहता है, इसी तरह लड़कीका हो तो १२ दिन । यदि लड़का या लड़की जन्म ले कर मरणको प्राप्त हो जाय तो केवल एक दिनका सूतक लगता है । जिस स्त्रीके बच्चा होता है, उसे एक मास तक सूतक पालन करना पड़ता है। कोई स्त्री या पुरुष विदेशमें मर जाय तो उसके लिये एकदिन सूतक रखना चाहिये । यदि अपने घर में नौकरनीको लड़का या लड़की हो तो तीन दिन तक सूतक लगता है। किसी स्त्रोको गर्भ रह कर गिर जाय तो जितने महीनेका गर्भ हो उतने दिन तक सूतक रखना पड़ता है ।
जिनके घर में जन्म-मरणका सूतक हो वह १२ दिन तक देवपूजन न कर सकें। मृतक के सतकमें घरके जिन आदमियोंने शवको उठाया हो वह १० दिन तक देव- पूजन न करें । और और बाहर के आदमी ३ दिन तक पूजन न करें ।
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अभय-रत्नसार।
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जिन्होंने मृतकके शवको स्पर्ण किया हो, वह चौवीस प्रहर प्रतिक्रमण न करें। जिनको नित्यके नियम हो वह समताभाव रख, संबर पनेमें रहें। किन्तु मुखसे नवकार मन्त्रका भी उच्चारण न करे। स्थापनाचार्यजीको छुए नहीं। और जो मृतकको न छुआ हो वह आठ प्रहर प्रतिक्रमण न करे।
रजस्वला स्त्री चार दिन पर्यन्त घरकी किसी चीज़से स्पर्ष न करे । चार दिन प्रति क्रमण न करे। पाँच दिन पूजन न करे । यदि रोगादिके कारण स्त्राको रक्त बहता मालूम हो तो उसके लिये विशेष दोष नहीं । स्नानादि करके शुद्ध-पवित्र हो कर पांच दिन बाद पुस्तकादिके स्पर्ष करे। प्रभु दर्शन करे। अग्रपूजा करे, परन्तु अंग-पूजा न करे । रजस्वला स्त्री यदि तपस्या करे तो वह फलवती होती है। जिस घरमें जन्म-मरणका सूतक हो, वहाँ पर मुनिराज १२ दिन अहार-पानी न लेवें। सूतक वालेके घरका पानी या अग्नो-पूजनके काममें नहीं आ सकता।
गाय, भेस, घोड़ी, सांड, आदि घरमें विआवे तो १ दिनका सूतक लगता है। यदि मरण हो जाय तो जब तक शव न उठाया जाय तब तक सूतक रहता है।
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पढ़िये!
अवश्य पढ़िये। हिन्दी जैन-साहित्यका अनमोल सचित्र ग्रन्थ-रत्न ।
आदिनाथ-चरित्र । हिन्दी जैन साहित्यमें आदिनाथ-चरित्रके समान अपूर्व द्रन्थरत्न अब तक कहीं नहीं छपा। इसमें आदिनाथ भगवानके तेरह भावोंका सम्पूर्ण चरित्र बहुत ही सरल, सरस सुन्दर और सुमधुर भाषामें उपन्यासके ढङ्गपर लिखा गया है। जो प्रत्येक नर-नारी और बालक-बालिकाओंके पढ़ने, सुनने, और समझने योग्य है। यह ग्रन्थ ऐसी सुरम्य शैलि पर लिखा गया है, कि एकबार पढ़ना आरम्भ करनेके बाद फिर विना पूरा पढ़े छोड़ने की इच्छा ही नहीं होता। उत्तमोत्तम भावपूर्ण सतरह चित्र लगाकर इस ग्रन्थ-रत्नकी शोभा सौगुनी बढ़ा दी गयी है। जिन्हें देखने पर श्री आदिनाथ भगवानका समय बायस्कोपकी तरह आँखोंके सामने घूमने लगता है। इतना होने पर भी इस अनुपम, सर्वाङ्ग-सुन्दर बहु-मूल्य ग्रन्थ-रत्नकी कीमत सुनहरी रेशमो जिल्दका केवल ५) रखा गया है। हम अपने समस्त जैन भाईयोंसे अनुरोध करते हैं, कि वे हमारा कामोंमें किफायत करके भी इस अलभ्य ग्रन्थ रत्नको मङ्गाकर जरूर पड़ें।
मिलनेका पत्ता-- पण्डित काशीनाथ जैन । २०१ हरिसन रोड (तोनतल्ला ) कलकत्ता ।
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देखिये !
अवश्य देखिये !! हिन्दी-साहित्यका सर्वाङ्ग-सुन्दर सचित्र ग्रन्थ-रत्न
शान्तिनाथ-चरित्र । यह ग्रन्थ-रत्न हिन्दी जैन-साहित्यका परम रमणीय सर्वोत्तम श्रृङ्गार है। इसमें शान्तिनाथ-स्वामीके सोलह भावोंका सारा चारित्र बड़ी ही सुन्दर, हृदय ग्राही और मनोरञ्जक भाषामें उपन्यासके ढङ्गपर लिखा गया हैं' जो स्त्री-पुरुष, बूढ़े-बच्चे सभीके पढ़ने, सुनने ओर मनन करने योग्य है। सारे संसारके साहित्यका खोज डालिये, पर ऐसा सरल और अनुपम ग्रन्थरत्न आपको किसी भी भाषामें नहीं मिलेगा। इसमें परम मनोहर, नयनाभिराम और चित्ताकर्षक रङ्ग-विरंगे दर्जनों चित्र दिये गये हैं। जिन्हें मात्र देखने पर ही “शान्तिनाथ भगवानका" सारा चरित्र बायस्कोपकी भाँति आँखोंके समक्ष दिख आता है। यदि आज भारतमें छापा खाना न होता तो केवल इसके एक चित्रका ही मूल्य एक अशर्फी होता । इतना होने पर भी इस परम सुन्दर सर्वाङ्ग-पूर्ण बहुमूल्य ग्रन्थ-रत्नका मूल्य केवल ५) मात्र रखा गया है । हजार कामों में किफायत करके इस ग्रन्थ रत्नको अवश्य मंगवाइये।
पुस्तक मिलनेका पतापण्डित काशीनाथ जैन २०१ हरिसन रोड ( तीनतल्ला ) कलकत्ता।
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शीघ्रता कीजिये ! आज हो आर्डर दीजिये !!
कपोल कल्पि उपन्यास और खराब किस्से कहानियाँ न पढ़ कर हमारे नोचे लिखे हुए उत्तमोत्तम महापुरुषोंके सुन्दर और हृदयग्राही चरित्र पढ़िये । इन चरित्रोंको पढ़ कर आपकी आत्मा प्रफुल्लित हो उठेगी। और आपकी नसोंमें आत्म गौरवके मारे गर्म खून दौड़ने लगेगा | इसलिये हजार कार्योंमें किफायत कर आज ही इन सर्वाङ्ग- सुन्दर पुस्तकों को मंगवा कर अपने हृदयका श्रृगार बनाइये |
आदिनाथ चरित्र
शान्तिनाथ - चरित्र
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चन्दनबाला
सुदर्शन सेठ
राजा प्रियंकर
५) | पर्युषण पव महात्म्य
कलावती
५)
अध्यात्म अनुभव योगप्रकाश ३॥ ) सुरसुन्दरी
स्याद्वादनुभव रत्नाकर
१) अञ्जना सुन्दरी
द्रव्यानुभवरत्नाकर
शुकराज कुमार
रतिसार कुमार
नल-दमयन्ती
हरिबल मच्छी
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१)
सती सीता
चंपक हेठ
कयवना सेठ
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१) जय-विजय
( 1 )
रत्नसार कुमार
112) अरणिक मुनि
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मिलने का पता - पण्डित काशीनाथ जैन
२०१ हरिसन रोड, ( तोनतल्ला ) कलकत्ता ।
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विजय सेठ - विजया सेठानी ॥)
इलायची कुमार
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस पुस्तकके मिलनेके पते(१) शंकरदान सुभयराज 5. प्रारमनी ष्ट्रीट कलकता। (1) दानमल शंकरलाल नाहटा नहटोंकी जोका ( ड़) For Private And Personal Use Only