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अभय रत्नसार । २७७ गंभीरा, दूषण नहि इक मांहि सरीरा॥ मेरु अचल जिन अंतरजामी ॥ पिण न रहै प्रभु एकण ठांमी ॥ १० ॥ लोक कहे प्रभुजी सब देखै, पिण सुपनो कबहु नवि पेखे ॥ रीस विना बावीस परी सह, सैन्या जोती ते जगदीसह ॥ ११॥ मान बिना जग आंण मनावै, माया बिना सबसुमन लावै ॥ लोभ विना गुणरास ग्रहीजै, भिक्षु भये त्रिगडो सेवीजै ॥ १२॥ निग्रंथपणे सिर छत्र धरावै, नाम जती पिण चमर दुलाव ॥ अभय दान दाता सुखकारण, आगै चक्र चलै अरि दा रण ॥ १३ ॥ श्रोजिनराज दयाल भणीजै, कर्म सबीको मूल खणीजै ॥ चौविह संघ जे तीरथ थापै, लक्ष घणी देखी नवि आपै ॥ १४ ॥ विनय वंत भगवंत कहावै,ना किसही कं सीस नमावै॥ अकिंचनको बिरूद धरावै, पिण सोवन पंकज पगधावै ॥ १५ ॥ तजि आरंभ निज आतम घ्यावै, शिवरमणीकू साथ चलावै ॥ राग नही
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