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स्तवन-संग्रह। गुण गावै, ऋद्धि अचिंती ते नर पावै ॥ ३ ॥ जा नरकू प्रभु शांति सुहाई, ता नरकू कुछ आरति नाही ॥ जो कछु वंछ सोही पूरै, दालिद्र दोष मिथ्यामत चूरे ॥ ४ ॥ अलख निरंजन ज्योति प्रकासी, घट घट के भीतर प्रभु वासी ॥ स्वामि सरूप कह्या नवि जावै, कहितां मो मन अचरज थावै ॥ ५ ॥ ढार दिया सबही हथियारा, जीता मोहतणा दल सारा ॥ नारि तजी शिवसु रंग राचे, राज तज्या पिण साहिब साचै ॥६॥ महा बलवंत कहीजै देवा, कायर कुथु न एक हणेवा ऋद्धि सह प्रमु पास लहीजै, भिक्षा हारी नाम कहीजै ॥७॥ निंदक पूजक हे सम भायक, पिण सेवगक सदा सुख दायक ॥ तजी परिग्रह भए जग नायक, नाम अतीत सबै विध लायक ॥८॥ शत्रु-मित्र सम चित्त गिणीज, नांम देव अरिहंत भणीजै ॥ सयल जीव हितवंत कहीजै, सेवक जांण महा पद दीजै ॥६॥ सायर जैसा होय
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