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अभय रत्नसार। ३०६ सुद्ध धरम धुरंधरो ॥ उवझाय लक्ष्मी किति सोस जैनवाणी मन धरी ॥ गणि लच्छिवल्लभ तवन करि इम संथुण्यो भावै करी ॥ १३ ॥
॥पांच समवाय का स्तवन । ॥ दोहा ॥ सिद्धारथ सुत वंदीए, जगदीपक जिनराज ॥ वस्तुतत्व सवि जाणीए, जस आगमथी ओज ॥ १॥ स्याद्वादथी संपजे, सकल वस्तु विख्यात ॥ सप्त भंग रचना विना, बंधन वेसे वात ॥ २॥ वाद वदे नय जूजुआ, आप आपणे ठाम ॥ पूरण वस्तु विचारतां, कोइ न आवे काम ॥३॥ अंध पुरुष एह गज, ग्रहो अवयव अनेक ॥ दृष्टिवंत लहे पूर्णगज, अवयव मिली अनेक ॥४॥ संगति सकल नयें करी, जुगति योग शुद्ध वाद ॥ धन्य जिनशासन जग जयो, जिहां नहीं किशो विरोध ॥ ५॥
॥ ढाल ॥ १ ॥ राग आशावरी ॥ श्रीजिनशासन जग जयकारी स्याद्वाद शुद्ध
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