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स्तवन-संग्रह। रुप रे ॥ नय एकांत मिथ्यात्व निवारण, अकल अभंग अनप रे ॥६॥श्री०॥ कोइ कहे ए कालतणे वस, सकल जगत गत होय रे ॥ कालै ऊपजै विणसे काले, अवर न कारण कोइ रे ॥७ श्री० ॥ कालै गर्भ धरै जग वनिता ॥ कालै जनमे पूत रे ॥ कालै बोलै काले चाले, काले झाले घरसूत रे ॥८॥ कालै दूधथकी दही थायै, कालै फल परपाक रे ॥ विविध पदारथ काल उपावे, अंत करे बेवाक रे॥ ६ ॥ श्री० ॥ जिन चउवीसै बार चक्कवै, वासुदेव बलवंत रे ॥ कालै कविलत कोइ न दोस, जसु करता सुर सेव रे ॥१० ॥ श्री० ॥ उत्सर्पिणी अवसर्पिणी आरा, छै छ जूजूये भांते रे, षट् ऋतु काल विशेष विचारो॥ भिन्न २ दिन रात रे ॥ ११ ॥श्री० ॥ काले बाल बिलास मनोहर, यौवन काला केश रे ॥बुढ्ढपणे हुय वलि वली दुर्बल, सकत नही लबलेस रे ॥ १२॥ श्री० ॥
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