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अभय रत्नसार।
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॥ ढाल ॥ २ री ॥ गिरुला गुण श्रीवीरजी ।। ए देशी ।।
तब स्वभाववादी वदै जी, काल किसु कर रंक ॥ वस्तु स्वभावे नीपजे जी, विणसै तिमज निस्संक ॥ १३ ॥ सुविवेक विचारी जुओ २ वस्तु स्वभाव ॥ ए आंकणी ॥ छते योग योवनवती जी, वांझणि न जण बाल ॥ मूछ नही महिला मुखै जी, करतल ऊगै न वाल ॥ १४॥ सु० ॥ विण स्वभाव नवि संपजै जी, किमह पदारथ कोय ॥ अंब न लागै नींबई जी, वाग वसंते जोय ॥ १५॥ सु०॥ मोरपंछ कुण चीतरे जी, कुण करै संध्यारंग ॥ अंग विविध सब जीवना जो, सुंदर नयण कुरंग ॥ १६ ॥ सु०॥ काटा बोर वंबूलना जी, कुणे अणियाला कीध ॥ रूप रंग गुण जूजूआ जीतस फल फल प्रसिद्ध ॥ १७॥ सु०॥ विसहर मस्तकै नित वसे जी, मणि हरै विस ततकाल, परबत थिर चल वायरी जो, ऊरध अगननी झाल ॥ १८॥ सु०॥ मच्छ
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