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३१२ स्तवन-संग्रह। तुंब जलमां तिरै जो, बूडै काग पाहाण ॥ पंख जाति गयणे फिरे जो ॥ इण परै सहिज विनाण ॥ १६ ॥ सु०॥ वाय सुंडथी उपशमें जी, हरडे करै विरेच ॥ सोझै नही कण कांगडो जो ॥ सकल स्वभाव अनेक ॥ २०॥ सु० ॥ देस विशेष काठनो जी, भुंयमां थायै पाखाण ॥ संख अस्थि नो नीपजे जी, क्षेत्र स्वभाव प्रमाण ॥ २१॥ सु० रवि तातो शसी सीयलो जी, भव्यादिक बहु भाव ॥ छए द्रव्य आपायणा जी, न तजै कोइ सुभाव ॥ २२ ॥ सु०॥ ।। ढाल ॥ ३ ॥ कपूर हुवै अति उजलो रे ॥ ए देशी॥
काल किसं करै बापडो रे, वस्तु स्वभाव अकज्ज ॥ जो न होय भवितव्यता जी, तो किम सीजै कज्जा रे ॥ २३ ॥ प्रांणी म करो मन जंजाल, ए तो भावी भाव निहाल रे॥ प्रा०॥ ए आ करणी ॥ जलधि तरै जंगल फिरै जो, कोडि यतन करै कोय ॥ अणभावी होये नही जी, भावी होय
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