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अभय रत्नसार। जांणिये, जिनवचन विचार ॥ १३॥ उ०॥ हिव सामान्यपणे इहां, आयोगरभावास ॥ सात दिना उपरि रहे, नर गत नव मास ॥ उ० ॥ १४ ॥ आठ वरस तिर्यंच रहे, उत्कृष्ट काल । गरभावासै भोगव्या, इम बहु जंजाल ॥ उ०॥ १५ ॥ कार्मण काये कर लियो, पहिलो ओहार ॥ शुक्र अने शोणिततणो, नही झठ लिगार ॥ उ० ॥ १६ ॥ परजापत पूरी नही, तिहां विसवावीस ॥ तिण आहारै तं थयो, उदारिक मीस ॥ उ०॥ १७ ॥ पवन अछै उदरै तिको, उपजायै अंग॥ अगनि करै थिर तेहने, जल सरस सुरङ्ग ॥ १८
उ०॥ कठन पणे पृथवी रच, अवगाह अकास॥ पांचभूत सरीरमें, इम करै प्रकास ॥ १६ ॥उ०॥ बारै महुरत तां पछै, विलसै नर नारि ॥ गरभतणी उतपति तिहां, नहीं अवर प्रकार ॥ २० ॥ उ०॥ कलल हृवै दिन सातमें,अरबुद दिन सात॥ अरबुदथी पेसी वधै, घन मांस कहात ॥ २१॥ उ०॥ मांसतणी बोटी हुबै, अडतालिस टांक ॥
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