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अभय रत्नसार ।
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काढे व्यापार ती कयदा ॥ १३ ॥ जिनहर पर - नालनो नीर धरै, अंघोले पीवा ठाम भरै ॥ दूषण ज़िनभवनमें ए दाख्या, देववंदनभाष्यमें जे भाख्या ॥ १४ ॥ सुज्ञानी श्रावक सगति छतां, आशातन टाले वारसतां, परमाद वसै कोई था, आलोयां पाप सहू जाये ॥ १५॥ तंबोल ने भोजन पांन जू, मल मूत्र शयन स्त्री भोग हुआ ॥ भूषण पनही ए जघन्य दसे, वरज्या जिनमंदिर मांहि वसै ॥ १६ ॥ द्रव्यत ने भावत दोय पूजा, एहनाहिज भेद का दूजा ॥ सेवा प्रभुनी मन शुद्ध करै, वंति सुख लीला तेह वरै ॥ १७ ॥ कलश ॥ इम भव्य प्रांणी भाव प्रांणी, विवेकी शुभ वातना | जिनबिंब अरचे परी वरजै, चोरासी आशातना ॥ ते गोत्र तीर्थंकर अरने, नमें जेहने केवली || उवाय श्री घमसींह बंदे, जैन शासन ते वली ॥ १८ ॥
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