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५०८ मांगलिक सरणां।
कलश॥ इम त्रिण चोवीसी वीस विरहमांण चऊ जिणवर सासता, संथुण्या सतरैसै बयाले अधिक आणी आसता॥ जिन रतनचिंतामणीतणी पर प्रबल वंछित पूर ए, प्रहसमै त्रिकरण शद्ध प्रणमें सदा जिनचंद्र सूर ए ॥ १३ ॥ इति श्री छिन्नं जिन-स्तवनं संपूर्णम् ॥
॥मांगलिक सरणां॥ प्रह ऊठीने समरिजें हो ॥ भवियण मंगलिक सरणो चार ॥ आपदा टाले संपदा हो ॥ भ० दोलतनो दातार ॥ हियडे राखिजें हो ॥ भ० ॥ १॥ अरिहंत सिद्ध साधा तणी हो॥भ० ॥ केवलि भांख्यो धर्म ॥ ए चारू जपतां थको हो । भ० ॥ टूटे आळं कर्म ॥ हि ॥ २॥ एचारं सु. खकारि हो ॥भ० ॥ एचारू मङ्गलिक ॥ एचारू उत्तम कह्यां हो ॥भ०॥ ए चारं तहतीकहो ॥हि० गेले घाटे चालतांहो ॥ भ० ॥ समरु वारं वार ॥ गामें नगरें चालता हो ॥ भ०॥ विघननिवारण
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