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विधि-संग्रह।
Mrunrvvyuru
॥ अथ सोलिये तपका स्तवन ।। __वीर जिनेसर भाषियो रे लाल, सहु व्रतमें सिरताज,भवि प्राणी रे॥ कषायगंजन तप आदरो रे लाल, इणथी पातिक जाय ॥भ० ॥वी१॥ कोड वरष तप आदरे रे लाल, क्रोध गमावै फल तास ॥ भ० ॥ मान करे जे प्राणियार, लाल ते जगमें न सुहाय ॥भ० वी० ॥२॥ व्रतमें माया आदरी रे लाल, स्त्रीपणो पायो मल्लिनाथ ॥ भ०॥ रूप परावत कीया घणा रे लाल, आषाढभूति गणिका साथ ॥ भ० वी० ॥३॥ च्यार कषाय छे मूलगा रेलाल, उत्तम सोले भेद ॥भ०॥ इम भव-भव भमतो थको रे लाल, जीव पामे बह खेद ॥ भं० वी०॥ ४॥ एकासण व्रत जे करे रे लाल, लाख वरस दुख हाण ॥ भ० ॥ नीवी व्रत दूजो कह्यो रे लाल, ए धारो जिनवर वाण ॥ भ० वी० ॥५॥ आंबिलनो फल बहु कटोरे लाल, उपजै लबधि अपार ॥ भ० ॥ उपवास करता भावसुं रे लाल, पामे भवनो पार ॥ भ० वी० ॥६॥ इम दिन
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