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अभय रत्नसार।
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शोले तप करो रे लाल, पुरण व्रत ए थाय॥भ०॥ देव गुरु पूजा करै रे लाल, मन वंछित फल थाय ॥ भ० ॥ नर सुर रिद्धि पिण भोगवे रे लाल, निश्चै मुगति जाय ॥ भ० वी० ॥८॥ इति ॥
सोलह तपस्याकी विधि। __ क्रोध, मान, माया, और लोभ इन चारों कषायोंके अनन्तानु बन्धी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी, और संचलन इनके द्वारा चार-चार भेद होने पर चार कषायोंके क्रमशः सोलह मेद पड़ते हैं। इनको निवारण करनेके लिये तपस्वीको यह तपस्या करते समय सोलह दिनकी तपश्चर्या करनी पड़ती है, वह इस तरह कि, पहले दिन एकासण, दुसरे दिन निवि, तीसरे दिन आयंबिल और चौथे दिन उपवास, इस तरह अनकमसे चार बार व्रत करके सोलह दिन की तपस्या पूरी करे। तपश्चर्याके दिन सोलह तपका स्तवन पढ़े, या श्रवण करे । समचि तपश्चर्या पूर्ण कर लेने पर यथा-शक्ति उद्यापनउजमणा करे।
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