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५५.६
सज्झाय-संग्रह। रे रे निसुणों सुर लोय देव । विषयानल तापित तनु समेव ॥ तसु शांति करण जलधर समान । मिथ्या विष चूरण गरुड़वान ॥ ते देव सकल तारण समस्थ । प्रगट्यो तसु प्रणमी हुई सनत्थ ॥ इम जम्पी शक्रस्तव करेवि । तव देव देवि हरखै सुवि ॥ गावें तब रम्भा गीत गान। सुर लोक हवो मंगल निधान ॥ नर खेत्रे प्रारज वंश ठाम । जिनराज वधै सुर हर्ष धाम ॥ पिता माता घरे उच्छव अलेख । जिन शासन मंगल अति विशेष ॥ सुरपति देवादिक हर्ष संग। संयम अरथी जनने उमंग। शुभ वेला लगने तीर्थ नाथ । जनम्यां इन्द्रादिक हर्ष साथ ॥ सुख पाम्यां त्रिभुवन सर्व जीव। वधाई वधाई थई अतीव ॥ ( यह कहकर फूल और चांवलोंसे वधाना और बादमें:-चैत्यवंदन करके और धूप देना चाहिये)
॥ श्रीशांति जिननो कलश कहिमुं-ए देशी । त्रोटक॥श्रीतीर्थ पतिनो कलश मज्जन गाइये
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