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अभय रत्नसार । ३१६ लहे रे, निज पद सिंह निहाल ॥ तिम प्रभु भक्त भवि लहे रे, आतम शक्ति संभाल ॥ अ० ता० ॥४॥ कारण पद कर्तापणे रे, करि आरोप अभेद ॥ निज पद अर्थी प्रभुथकी रे, करै अनेक उमेद ॥ अ०॥ ता० ॥ ५॥ अहवा परमातम प्रभु रे, परमानंद सरूप ॥ स्याद्वाद सत्तारसो रे, अमल अखंड अनप ॥ अ० ।। ता० ॥ ६॥ आरो पित सुख भ्रम टल्यो रे, भास्यो अव्याबाध ॥ समस्यो अभिलाखीपणो रे, कर्ता साधन साध्य ॥ अ० ॥ ता० ॥७॥ ग्राहकता स्वामित्वता रे, व्यापक भोक्ता भाव ॥ कारणता कारज दसारे, सकल ग्रह्य निज भाव ॥ अ० ॥ ता०॥८॥ श्रद्धा भासन रमणता रे, दानादिक परिणाम ॥ सकल थमा सत्तारसी रे, जिनवर दरसन पामि ॥अ०॥ ता० ॥६॥ तिणें निर्यामक माहणो रे, वैद्य गोप आधार ॥ देवचंद्र सुख सागरू रे, भावधरम दातार ॥ अ० ॥ त० ॥ १० ॥
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