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अभय-रत्नसार।
५१७ रामित्ति पावगं॥४॥ साहणो मङ्गलं मज्झ, साहूणो मज्झ देवया। साहूणो कित्तिअत्ताणं, वोसिरामित्ति पावगं ॥ ५॥ पुढवि दग अगणि मारुय, इविक्के सत्त जोणि लक्खाओ ॥ वणपत्तेय अणंते, दस चउदस जोणि लक्खाउ ॥ १॥ विगलिंदिएसु दो दो, चउरो चउरो य नारय सुरेसु ॥ तिरिएसु हुंति चउरो, चउदस लक्खा यमणएसु ।। २॥ खामेमि सब जीवे, सव्वे जीवाखमंतु मे ॥ मित्ती मे सव्वभूएसु, वेरं मझ न केणइ ॥३॥ एवमहं आलोइअ, निंदिन गरहिअ दुगंछिअं सम्मं ॥ तिविहेण पडिक्कतो, वन्दामि जिणे चउव्वीसं ॥ ४ ॥ खमिश्र खमाविअ मइ खमिश्र, सव्वह जीव निकाय ॥ सिद्धहसाख आलोयणह, मज्झह वेर न भाय ॥ ५ ॥ सव्वे जीवा कम्मवसु, चउदह राज भमंतु ॥ ते मइ सव्व खमाविया, मज्झवि लेह खमंतु ॥६॥
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