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अभय रत्नसार २१७ मुनिंदा जी ॥ तासु पसायें इणपरिपभणे, श्री जिनलाभ सूरिंदा जी ॥४॥
पर्युषण की स्तुति ॥ ॥ वलि वलि हुं ध्या गाऊँ जिनवर वीर, जिनपर्व पजुसण दाख्यां धरमनीशीर ॥ आषाढ चौमासे हूँती दिन पंचास, संवच्छरी पडिकमj करिये त्रण उपवास ॥ १॥ चउवीशे जिनवर पूजा सत्तर प्रकार, करिये भले भावें भरिये पुण्य भंडार ॥ वलि चैत्य प्रवाडे फिरतां लाभ अनंत, इम परव पजूसण सहुमें महिमावंत ॥२॥ पुस्तक पूजावी नव वांचनायें वंचाय, श्रीकल्प सूत्र जिहां सुणतां पाप पुलाय॥ प्रतिदिन परभा वना धूप अगर उक्खेव, इम भवियण प्राणी परव पजसण सेव ॥३॥ वलि साहम्मीवच्छल करिये वारंवार, केइ भावना भावे केइ तपसी शीलधार॥ अडदीह पजूसण एम सेवत आणंद, सुयदेवी सांनिध कहे जिनलाभ सूरिंद ॥ ४ ॥
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