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३२२ स्तवन-संग्रह। आलस आणे जीवाधरम पखै धंदे पड्यो जी,नरकै करसी रीव ॥ कृ० ॥ १५ ॥ अणहंता गुणको कहे जी, ता हरखं निसदीस ॥ को हितसीख भली दिये जी, तो मन आणं रीस ॥कृ० ॥१६॥ वादभणी विद्या भणी जी, पररंजण उपदेश ॥ मन संवेग धस्यो नही जी, किम संसार तरेस ॥ कृ० ॥ १७॥ सूत्र सिद्धांत वखाणतां जी, सुणता करम विपाक ॥ खिण इक मनमांहे ऊपजै जी, मुझ मरकट वैराग ॥ कृ० ॥१८॥ त्रिविध २ कर उच्चरू जी, भगवंत तुम्ह हजार ॥ वार २ भांजू वली जी, छूटकबारो दूर ॥ कृ० ॥ १६ ॥ आप काज सुख राचतां जी, कीधा आरंभ कोड़ ॥ ज यणा न करी जीवनी जी, देवदया पर छोड़ ॥ कृ० ॥ २० ॥ वचन दोषव्यापक कह्या जी, दाख्याँ अनरथ दंड ॥ कूड़ कपट बहु केवली जी, व्रत कीधा सत खंड ॥ कृ० ॥ २१॥ अणदीधो लोजे तृणो जी, तोही अदत्तादान ॥ ते दूषण
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