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अभय रत्नसार ।
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जिन धर्म २ सहू कहै जी, थाप अपणी जो वात ॥ समाचारी जुइ जुइ जो, शंसय पड्यां मिथ्यात ॥ कृ०॥८॥ जाण अजांणपणे करी जी, बोल्या उत्सूत्र बोल || रतने काग उडावता जी, हारथो जनम निटोल ॥ कृ० ॥ ६ ॥ भगवंत भाष्यो ते किहा जी, किहां मुझ करणी एह ॥ गज पाखर खर किम सहे जी, सबल विमासण तेह ॥ कृ० ॥ १० आप परूपं आकरो जी, जांणे लोक तहंत ॥ पिरण न करू' परमादियो जी, मासाहस दृष्टांत ॥ कृ० ॥ ११ ॥ काल अनंते में लह्या जी, तीन रतन श्रीकार || पिण परमादे पाड़िया जी, किहां जड़ करू ं पुकार ॥ कृ० ॥ १२ ॥ जाणं उत्कृष्टी करू जी, उद्यत करू अविहार ॥ धीरज जीव धरै नहीं जी, पोते बहु संसार ॥ कृ० ॥ १३ ॥ सहज पड्यो मुझ आकरो जी, न गमें भूंड़ी वात ॥ परनिंद्या करता थकांजी, जायै दिननें रात ॥ कृ० ॥ १४ ॥ किरिया करतां दोहिली जी,
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