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अभय रत्नसार । ३१७ पंचाचार कुशम परधान रे ॥ ५॥ स०॥ भावपूजाने पावत आतमां जो, पूजो परमेसर पूण्य पवित्र रे॥ कारण जोगें कारज नीपजै जी, क्षमा विजय जिन आगम रीत रे ॥६॥ स०
॥ श्रीआदीश्वर जिन-स्तवन ॥
आदि जिनेसर अरज सुणीजै, मोहन महिर धरीजै रे॥ दिलरंजन प्रभु दरसण दीजै, म्हारो मनडो रीझ रे॥ आ० ॥ १॥प्रभु दरसन लहिवो जग दुरलभ, विन दरसन नहीं किरिया रे ॥ जे दरसण विन किरिया पाले, ते नवि कहियै त रिया रे ॥ प्रा० ॥२॥ नय एकांते दरसन थापै, पिंड भर ते पापे रे॥ आप आपणा मति आला, ते भूला भव थापे रे॥ आ० ॥३॥ शुद्ध दरसन स्याद्वादने संगे, जे ग्रहे आत्म उमंगे रे॥ आनन्दघन उपजै तसु अंग, सिद्धरमणने रंगे रे॥ प्रा० ॥ ४ ॥ भव कोडाकोडीमें भमतां, तुझ दर सन नहीं पायो रे॥ सुकृत संयोगे ताहरे सनमुख,
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