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अभय रत्नसार।
कूलं । पास-जिण-चलणजुअलं, निच्चं चित्र जे नमंति नरा ॥ ५ ॥ खर-पवणुद्धय-वणदव,जालावलि-मिलिय-सयल-दुम-गहणे । डझतमुद्धमिय-बहु,-भीसण-रव-भीसणम्मि वणे॥६॥ जग-गुरुणो कम-जुअलं, निव्वाविय-सयल-तिहुअणाभोअं। जे संभरंति मणुआ, न कुणइ जलयो भयं तेसिं ॥ ७॥ विलसंत-भोग-भीसण,-फुरिआरुण-नयण-तरल-जोहालं । उग्गभुअंगं नव-जलय,-सच्छदं भीसणायारं ॥८॥ मन्नति कीडसरिसं, दूर-परिच्छूढ-विसम-विस. वेगा। तुह नामक्खर-फुड-सिद्ध, मंत गुरुमा नरा लोए ॥६॥ अडवीसु भिल्ल-तकर,-पुलिदसद्दूल-सद भोमासु । भय-विहुर-बुन्न-कायर,उल्लरिअ-पहिअ-सस्थासु ॥१०॥ अविलुत्तविहव. सारा, तुह नाह ! पणाम-मत्त-बाबारा । ववगयविग्घा सिग्छ, पत्ता हिय-इच्छियं ठाणं ॥ ११॥ पजलिआनल-नयणं, दूर विभारिय-मुहं महा.
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