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अभय रत्नसार ।
यत कीजें, रिद्धि वृद्धि कल्याण करो ॥ ४६ ॥ कुंकुम चंदन छडा दिवरावो, माणक मोतीना चौक पुरावो, रयण सिंहासरण बेसो ए| तिहां बेसी गुरु देसना देसी, भविक जीवना काज सरेसी, नित नित मङ्गल उदय करो ॥ ४७ ॥ इति श्री गौतमखामि रास सम्पूर्ण ।
॥ अथ वृद्धनवकार ॥
॥ किं कप्पत्तरुरे प्रयाण चिंतउ मणभिंतरिं, किं चिंतामणि कामधेनु आराहो बहुपरि ॥ चित्तावेली काज किसे देसांतर लंघउ, रयणरासिकारण किसे सायर उल्लंघउ ॥ चवदे पूरब सार युग लद्धउ ए नवकार, सयल काज महियल सरे दुत्तर तरे संसार ॥ १ ॥ केवलि भासिय रीत जिके नवकार धारा है, भोगवि सुक्ख अांत अंत परम प्पयसा है ॥ इण भारणे सुर रिद्धि पुत्त सुह विलसे बहु परि, इस झाणे देव
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