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अभय-रत्नसार।
६५३ शुभ भावथी, धरे ताहरो ध्यान रे। ते नर उत्तम फल लहै, कवि लहै उत्तम ग्यान रे ॥ त्रि० ॥६॥ काल अनादि संसारमे, जन्म मरणतणा दुःख रे। ते लहे धर्म पाया विना, तप विना किम हुवै सुख रे॥त्रि॥१०॥ हिव लह्यो नरभव पुण्यथी, वलि लह्यो श्रोजिन धर्म रे। तत्त्वनी रुचि थइ हे मुझे, हिव मिथ्योमनतणो भर्म रे॥वि०॥११॥ भव-भव एक जिनराजनो, सरण होज्यो सुखकार रे। कुगुरु कुदेव कुधर्मनो, में कियो हिवै परिहार रे॥त्रि०॥१२॥ दर्शन ज्ञान चारित्र ए, मोक्षमारग सुविशाल रे। भव-भव जे मुझ संपजे, तो फलै मंगलमाल रे॥ त्रि० ॥१३॥ श्रीजिनशासन तप कह्यो, ते तप सुरतरू कंद रे। धन-धन जे नर आदरै, कोट ते करमनो फंद रे॥त्रि०॥ १४॥ कलश ॥ इम नाभिनंदन जगत वंदन सकल जन आनंदनो, में थुग्यो धन दिन आजनो मुझ मात मरुदेवी नंदनो। संवत सुनेत्राकास निधि शशिनयर श्रीवालूचरै,श्रीजिनसौभाग्य सुरिन्दके सुपसाय विजय विमल घरै ॥ १५ ॥ इति ॥
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