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अभय रत्नसार ।
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हि सुइ सव्वं ॥ ५ ॥ जं आणवेइ राया, हियत्रो पयइउ तं सिरेण इच्छंति ॥ इय गुरुजण मुह भणियं, कयंजलिउडेहिं सोयव्वं ॥ ६ ॥ जह सुरगणाण इंदो, गहगण तारागणारण जह चंदो । जहय पयाण नरिंदों, गणस्स वि गुरु तहाणंदो ॥ ॥ ७ ॥ बालुत्ति महीपालो, न पया परिहवइ एस गुरु उवमा ॥ जंवा पुरो काउं, विहरंति मुणी तहा सोवि ॥ ८ ॥ पडिवो तेहस्सि, जुगप्पहागागमो महुरवको ॥ गंभीरो धिइमंतो, उवएसपरो य आयरिश्र ॥ ६ ॥ परिस्सावी सोमा, संगहसीलो अभिग्गहमई य ॥ अविकच्छणो अचवलो, पसं तहियत्र गुरु होई ॥ १० ॥ कइयात्रि जिरणवरिंदा, पत्ता अयरामरं पहं दाउं ॥
रिएहिं पवयणं, धारिजइ, संपयं सयलं ॥११॥ गम्म भगवई, रायसुयज्जा सहस्स वंदेहिं ॥ तहवि न करेइ मारणं, परियच्छइ तं तहा नूणं १२ || दि दिक्खियरस दमग, स्स अभिमुहा
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