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अभय रत्नसार। संचित पाप परा सब मेटियै॥ मन धर भाव अनंत चरण युग सेवतां, अणहूंते एक कोड़ि चतुर विध देवता ॥ १ ॥ ध्यान धरूप्रभू दूरथको में ताहरो,जल जिम लीनो मीन सदा मन माहरो॥ भव २ तुमहीज देव चरण हूं सिर धरु, भवसायरथी तार अरज आहोज करूं ॥२॥ भूख त्रिषा तप सीत आतप ए ना सहै, तप जप संजम भार तणी नवी निरवहै । पिण जिनवरजीना नांमतणी आसत घणी, एहिज छै आधार जगत गुरु अम्ह भणो ॥ ३॥ तुम्ह दरिसण विण स्वांम भवोदधि हूं फिस्यो, सहीया दुक्ख अनेक न कारज को सस्यो ॥ मिलिया हिव प्रभु मुझ सदा सुख दीजिये, चौ गइ संकट चुर जगत जस लीजिये ॥ ४ ॥ यादवपति श्रीकृष्णतणी आरति हरी, सैन्या कोध सचेत जरा दूरे करी ॥ परचा पूरण पास रयण जिम दीपतो, जयवंतो जिणचंद सयल रिपु जीपती ॥ ५ ॥
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