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४६४ सम्मेत शिखरजीका रास। चालीस हजार जी ॥ तीन लाख श्रावकणी संख्या, पाश्वयक्ष सुर सार जी ॥ ६ ॥ जय० ॥ वीस जिनेसर मुगते पुहता, महिमा थइय अपार जी ॥ तिण ए तीरथ प्रगट्यो जगमें, मुक्तितणो दातार जी ॥७॥ जय० ॥छह री पाले जे नर भावै, भेटे सिखर गिरिंद जी ॥ ते नर मनवंछित फल पावे, ए सुर तरुनो कंद जी ॥८॥ जय० ॥ बहु विध संघतणी करै भक्ति, संघपति नांम धराय जी ॥ सफल करे संपद निज पांमी, जहनो सुजस सवाय जी ॥ ६ ॥ जय० ॥ परभव सुरनर संपद पामे, जात्रा करे गहगाट जी॥ साधर्मी वच्छल मुनिक्ति,पूजा उच्छव थाट जी॥ १०॥ जय० ॥ टूक २ पर चरण प्रभूना, पूजो भविजन भाव जी॥ ध्यान धरो जिनवरनो मनमें, आनंद अधिक उच्छाव जी॥११॥ जय०॥ रास रच्यो श्रीसिखर गिरीनो, सुणतां नवनिध थाय जी ॥ तिण ए भविजन भाव धरीने, सुण
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