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अभय रत्नसार ।
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ज्यो मन थिर लाय जी ॥ १२ ॥ जय० ॥ खरतर गच्छपति महिमाधारी, कीरत जग विख्यात जी ॥ जय श्रीजिनसौभाग्य सूरीश्वर, अमृत वचन सुगात जी ॥ १३ ॥ जय० ॥ तासु पसायें रास रच्यो ए, अमृत समुद्रने सीस जी ॥ बालचंद्र निज मति अनुसार, सोधो विबुध जगोस जी ॥ १४ ॥ जय० ॥ संवत उगणीसै सितडोत्तर, सुदि वैशाख सुढाल जी ॥ रास अजीमगंजमांहे कीनो, भणतां मंगल माल जी ॥ १५ ॥ जय० ॥ इति श्रीसिखर गिरी - रास संपूर्णम् ॥ मुनि-मालका
पहली ढाल ॥
ऋषभ प्रमुख जिन पाययुग प्रणमं, सिवसुख दायक मनह उल्लास ॥ पुंडरीक श्रीगौतम आदिक, गणधर गुरु मन कमल विकास ॥ १ ॥ प्रह सम सुधा साधु नम नित, भावै श्रमण सुगुरु भगवंत ॥ नाम ग्रहण करी पाप पखालूं, पर
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