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३५४ स्तवन-संग्रह। वणारसीए, सुरनयरी जिण ऋद्धे हसी ए ॥ तेण पूरी छै दीपतो ए, अश्वसेन राजा रिपु जीपतो ए॥ २॥ वामा तसु घर नार ए तसु गुणहि न लब्भ पार ए॥ तास उयर अवतार ए, तसु अतिशय रूप उदार ए॥३॥ चवद सुपन तिण निसि लह्या ए, अनुक्रम करि ते सह मन ग्रह्या ए, पूछे भूपतिनें कह्या ए, करजोड़ि कह्या ते जिम लह्या ए॥४॥
॥ढाल ॥ १ ॥ प्रथम सुपन गज निरख्यो, मायतणो मन हरख्यो। बीजै वृषभ ऊदार, धरणी जिण धस्यो भार ॥ ५ ॥ तीजै सिंह प्रधान, जसु बल कोय न मांन ॥ चउथै देखी श्रीदेवी, कमल बस सुर सेवी ॥६॥ पांचमैं पुष्फनी माला, पंच वरण सुविशाला ॥ छठे दीठो ए चंद, ग्रहगण केरो ए इंद ॥ ७॥ सातमें सूरज सार, दूर कियो अंघ कार ॥ आठमें धज लहकंती, वरण विचित्र सो
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