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अभय रत्नसार। २३५ ऋषभादिक जिनचंदाजी । भाव धरी ने जे भवि वंदे वेदे कम निकंदाजी। नृप श्रीपालतणीपर ध्यावो पावो सुरक अमंदाजी ॥१॥ अरिहंत सिद्ध सूरि उवझाया सकल मुनि सुखकारीजी। दंसण-नाण-चरण-तप नवपद धारे चित संसा रीजी। नवमें भव भवि सिवपद पावे प्रवचन वाणी साखीजी। वीरजिनंदे ज्ञानानंदे गौतम
आगे भाखीजी ॥२॥द्वादस आठ छत्तीसे गुण वलि पणवीस सगवीस सारोजी। सडसठ इका वन वलि जैती सितर पच्चास प्रकारोजी ॥ आसू चैत्रक मास धवल पख सातम थी नव दिहसेंजी। तेरसहस नव पदनो गुणनो नव आंबिल नव विहसेंजी॥३॥ विमलयन चक्केसरीदेवी रिधसध वंछित दाताजी । उली नव-विधि युक्ते सेवे ते पामे सुखशाताजी। खरतर गच्छजिन आज्ञाकारी पाटोधरपद मुक्ताजी। जिन सौभाग्य सूरिद पसाये हंससूरिद गुण उक्ताजी ॥४॥
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