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अभय-रत्नसार ।
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ल आहार करे नही, गरभै सुविचार ॥ उ० ॥ ३१ ॥ मास बीजे किए जीवने, थाये ज्ञान विभंग ॥ अथवा अवधि कहीजिये, तिए ज्ञान प्रसंग ॥ उ० ॥ ३२ ॥ कटक करे वैक्रियपणें कुकी नर के जाय ॥ को जिनवचन सुखी करी, मरी सुर पिरथाय ॥ उ० ॥ ३३ ॥ ॐ मुख गोडा हिये, सहितो बहु पीड ॥ दृष्टि आगलि बेहुं हाथसुं, रहे मुट्ठीभींच ॥ ३० ॥ ३४ ॥ नर विग वस्त्र जलादिक, ऊपजै प्रधांन ॥ अथवा विद्दु नारी मिल्यां, कह्यो गरभविधान ॥ उ० ॥ ३५ ॥ कोइ उत्तम चिंतवै, देखी दुखावास ॥ पुन्य करी तिम नोकलं, नाऊ गरभ वास ॥ उ० ॥ ३६ ॥ ऊंठ कोडि चांपे सुई, कोई समकाल || तिथी गरभै
ठ गुणौ, सहे वेदन बाल ॥ उ० ॥ ३७ ॥ माता दूखी दूखीयो, सुखणी सुख थाय ॥ माता सूती ते सुर्वे, परवस दिन जाय ॥ उ० ॥ ३८ ॥ गरभ थकी दुख लख गुणो, जांमें जिण वार ॥ जन्म थयां दुख वीसरे, धिग्२ मोह विकार ॥ उ० ॥
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