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अभय रत्नसार ।
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भ्यन्तर भेद जी ॥ आतम सत्ता एकत्वता, पर परणति उछदे जी ॥ १ ॥ उल्लालो ॥ उछेद कर्म अनादि संतति जेह सिद्धपणो वरे, शुभ योग संग आहार टाली भाव अक्रियता करें | अंतरमुहूरत तत्व साधै सर्व संवरता करो, निज आत्मसत्ता प्रगट भावै करो तपगुण आदरी ॥ ८२ ॥
ढाल ॥ इम नवपद गुणमंडलं, चउ निचप प्रमाणे जी ॥ सात नयें जो आदरें, सम्यगज्ञानें जाणे जो ॥ उल्लालो || निरधारसेतो गुणे गुणन करइ बहुमान ए, जसु करण ईहा तत्व रमणें थायै निरमल घ्यांन ए ॥ इम शुद्धसत्ता भलो चेतन सकल सिद्धि अनुसरे, अक्षय अनंत महंत चिदघन परम आनंदता वरै ॥ ८३ ॥
कलश ॥ इम सयल सुखकर गुणपुरंदर सिद्धचक्रपदावली, सर्विलद्धिविज्जा सिद्धि मंदिर भविक पूजो मन रली ॥ उवझाय वर श्रीराजसागर ज्ञानधर्मसु राजता, गुरु दीपचंद सुचरण सेवक देवचंद्र सुशोभता ॥ ८४ ॥
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