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अभय रत्नसार।
.३४७
॥ समवसरण-विचार-गर्भित स्तवन ।
॥हा॥ श्रीजिनशासन सेहरो, जगगुरु पास जिणंद ॥ प्रणमी जेहना पाय कमल, आवी चो सठ इंद ॥ १॥ तीर्थंकर आवे तिहां, त्रिगडो करै तइयार ॥ समकित करणी साचवै, एह कहू अधिकार ॥ २ ॥ करै प्रशंसा समकिती, मिथ्यात्वो होवे मूक ॥ सूर्य देख हरखे सह, जिम अंधारे घूक ॥ ३॥ ॥ ढाल ॥ १॥ वीर वखाणी राणी चेलणा ॥ ए देशी॥
आप अरिहंत भलै आविया जी, गावै अपछरह गंधर्व ॥ समवसरण रचै सुरवराजी, संखेपे ते क सर्वे ॥ 2 ॥ श्रा०॥ भुवनपति वीस इंद्र मिल्याजी, सोलह व्यंतर सार ॥ जोइस दु दस वेमाणिय जुड्या जी, चौसठ इन्द्र सुविचार ॥५॥ आ०॥ पवन सुर पंज परमारजै जी, भूमि योजन सम भाउ ॥ मेघकुमर रचै मेघने जी, करिय सुगंध छिड़काव ॥ ६ ॥०॥ अ
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